________________
आकाशः संभूत" इति कार्यनिरूपणम् । अतः प्रकरणादेव संदिग्ध निर्णये किमिति सूत्रारंभः । जन्मादिलक्षण सूत्रेण चायमर्थो निर्णीतः, अन्यथा ब्रह्म शब्देऽपि संदेहः स्यात्, महाभूत वेदादिवाचकत्वात्, तस्मात् प्रकरणादेव परिज्ञानं भविष्यति इति चेत् । उच्यते, असंदिग्धे प्रकरणे तथैव निर्णयः, इह पुनः प्रकरणमपि संदिग्धं अतो विचारः । प्रवान्तर विद्यायां पर्यवसित प्रकरणबदस्यापि प्रकरणस्य भूताकाश एव पर्यवसानम् इति लोकभाष्यन्यायेनाकाशो भौतिक एव इति पूर्वपक्षः, तत्राह--
"इस लोक की गति कौन है ? उसने कहा अाकाश, ये सारे भूत इस आकाश से ही उत्पन्न होते हैं, और इस आकाश में ही समा जाते हैं। वह आकाश दीखने वाले प्राकाश से भी विशाल है।"
इस प्रसंग में संशय होता है कि यह भूताकाश का वर्णन है या ब्रह्म का ? संशय की आवश्यकता भी क्या है, ब्रह्म प्रकरण में तो आकाश शब्द व्योम नाम से ब्रह्म के लिए ही प्रयुक्त किया गया है, कार्य के निरूपण के प्रसंग में महाभूत के रूप में इसका उल्लेख है। जैसे कि-"आकाश आनंद नहीं है ।" "परमव्योम में ही सब कुछ प्रतिष्ठित है" इत्यादि । “मात्मा से प्राकामा हुआ" ऐसा कार्य रूप से उसका निरूपण है। अतः प्रकरण से ही जब संशय की निवृत्ति हो जावे तो सूत्र बनाने की क्या आवश्यकता है ? जन्मादि लक्षण सून से इसका निर्णय किया जा चुका है, यदि न किया गया होता तो ब्रह्म शब्द पर भी संदेह किया जाता। महाभूत रूप से वेदादि में इसका स्पष्ट उल्लेख है, इस प्रकार प्रकरण से ही इसका स्पष्ट परिज्ञान हो जाता है।
इस पर पूर्व पक्ष वाले कहते हैं कि-प्रसंदिग्धं प्रकरण में ही वैसा निर्णय होता है, यहाँ तो प्रकरण संदिग्ध है इसलिए विचार किया जाता है। जैसे कि-सभी प्रकरणों की विद्याओं का एक प्रकरण की विद्या में पर्यवसान होता है, इसी प्रकार इस प्रकरण का भी भूताकाश में ही पर्यवसान है, लोक में प्रायः आकाश भौतिक प्रकाश रूप से ही परिज्ञात होता है। इस पर कहते हैं