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होते हुए भी आदित्य से भिन्न है, जिसे आदित्य नहीं जानता, आदित्य ही जिसका शरीर है, जो अन्तर्यामीरूप से आदित्य का संयमन करता है, वही . अमृत तेरा अन्तर्यामी आत्मा है।" इस श्रुति में आधिदैविक को सूर्यमंडलाभिमानी किसी अन्य से भिन्न बतलाया गया है। यद्यपि इस श्रुति में वैसे आकार का उल्लेख नहीं है, पर हिरण्मय आदि स्वरूप का वर्णन करने वाली श्रुति भी सूर्य संबंधी ही है, इसलिए तत्संबंधी श्रुतियों में साकार ब्रह्म का ही वर्णन मानना चाहिए । अन्तर्यामी ब्राह्मण में चार बातें बतलाई गई हैं, एक तो परमात्मा सब में स्थित है, पर उन वस्तुओं के धर्मों से संबद्ध नहीं है । दूसरे, वे सभी वस्तुएँ उसकी तरह मुक्त नहीं हैं, इसलिए वह परमात्मा
नहीं करता। तीसरे, अपनी लीला की सिद्धि के लिए उन वस्तुओं के रूप में अपने को व्यक्त करता है। चौथे, उनकी रक्षा के लिए उनका संयमन करता है। सूत्र में चकार का प्रयोग परमात्मा के धर्मो का वाचक है । सभी से विलक्षण होने से वह परमात्मा भिन्न ही है, उन वस्तुओं का अभिमानी नहीं है। यही विभिन्नता प्रतिपादक, सूत्रस्थ अन्य पद का तात्पर्य है। सूर्य मंडलस्थ प्राकृति का ब्रह्मत्व सिद्ध हो जाने पर, उसे ज्ञान मार्ग में प्रयोग करें या उपासना मार्ग में, हमारे मत में कोई अन्तर नहीं पाता। कारण में कार्यधर्मों का आरोप करना तो अनुचित है ही, परंतु कारण धर्मों का कार्य में आरोप करना उपासना है, ऐसी भावना से कार्य जगत का परमात्मा से अभेद भाव होता है, जिससे मनुष्य को वास्तविक ब्रह्मानंद की अनुभूति हो जाती है, मुक्ति के लिए यही व्यवस्था सभी जगह की गई है।
७ अधिकरण
आकाशस्तल्लिङ्गात् ।।१।२१॥
"अस्य लोकस्य का गतिः ? आकाश इति होवाच । सर्वाणि हवा इमानि भूतानि प्राकाशादेव समुत्पद्यते, आकाशं प्रत्यस्तंयंति, आकाशो हि एवम्यो ज्यायानाकाशः परायणम्" इति ।
तत्र संशयः, भूताकाशो, ब्रह्म वेति । ननु कथमत्र संदेहः अाकाशव्योमशब्दा ब्रह्मण्येव प्रयुज्यन्ते ब्रह्म प्रकरणे, कार्यनिरूपणे तु महाभूतवचनः । यथा "आकाश प्रानंदो न स्यात्, परमे व्योमन् प्रतिष्ठिता" इत्यादि । “आत्मन