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शरीर धारण करता है वैसी इन्द्रियों को भी धारण करता है, और फिर केवल रक्तवर्णं मात्र की उपमा देने में कोई सभ्यता भी नहीं है । जब प्रायः जड़ कदली कमल इत्यादि की उपमा उसके स्वरूप के लिए दी जाती है उसे कोई सभ्यता नहीं कहता, जंगम तो जड़ से उत्कृष्ट ही है उसकी उम्मा में क्या असभ्यता है ? और फिर सारे उपमान परमात्मा के ही रू तो कहे गये हैं । इसलिए आदित्य पुरुष ब्रह्म का ही रूप है। इस पर सूत्रकार कहते हैं
"अन्तस्तद्धर्मोपदेशात् " -- श्नन्तर्दृ यमानः परमात्मैव, कुतः ? तद् धर्मोपदेशात् तस्य ब्रह्मणो धर्मा उदितादि धर्मा उपदिश्यते । " स एष सर्वेभ्यः पाप्मभ्य उदित" इति । प्रयमाशयः ब्रह्म कारणं, जगत् कार्यम् इति स्थितम् तत्र कार्य - धर्मा यथा कारणे न गच्छति तथा कारणासाधारण धर्मा अपि कार्य" । तत्रापहतपाप्मत्वादयः कारणधर्मास्ति यत्र भवंति तद् ब्रह्मत्येवावगंतव्यम्, बलिष्ठत्वाद् कारणधर्मस्य । नामतुल्यतामात्रमुभयेषामपि धर्माणाम् ते श्रुत्येक समधिगम्याः । ब्रह्मरिण लोके प्रमाणान्तरमपि प्रवर्त्तते । अतः सर्वसादयो ब्रह्मनिष्ठा एव धर्माः, स्थूलत्वादयस्तु ये ब्रह्मणि निषिध्यते स्थूलादि वाक्येषु ते कार्य - धर्माः । अणोरणीयानित्यादिषु कारणधर्मा एव । त एकोऽप्यसाधारणो धर्मो विद्यमानः शिष्टान् संदिग्धानपि ब्रह्म-धर्मानेव गमयति । इममेव श्रुत्यभिप्रायमङ्गीकृत्य सर्वत्र ब्रह्म वाक्य निर्णयमाह सूत्रकारः । तथा च श्रुतिव्यतिरिक्तस्थले तथैवावगंतव्यम् | अनन्तमित्यनंतमूर्त्तिता च ब्रह्मणा प्रतिज्ञाता अन्यथा गुहायां निहितमिति विरुद्ध्येत तस्मात् साकारं तादृशमेव ब्रह्म ।
आदित्य मंडल में दृश्यमान श्राकृति परमात्मा की ही है, क्योंकि उस प्राकृति के जिन गुणों का वर्णन किया गया है, वे सब परमात्मा के लिए ही प्रायः बतलाये जाते हैं, " स एष सर्वभ्य" इत्यादि में जो निष्पापता आदि कहे गये हैं बेब ब्रह्म के लिए ही प्रयुक्त होते हैं । तात्पर्य यह है कि ब्रह्म कारण हैं, जगत उसका कार्य है, कार्य 'मुरण जैसे कारण में नहीं जा सकते, वैसे ही कारण गत असाधारण गुण कार्य में भी नहीं आ सकते । निष्पापता आदि कारण धर्मं जहाँ भी दृष्टिगत हों उसे ब्रह्म ही समझता चाहिए | क्योंकि वे विशिष्ट कारण गुरण हैं । कहीं कहीं दोनों प्रकार की नाम समता श्रुतियों में मिल जाती है, ब्रह्म में और लोक में विभिन्न रूपों से