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करता है।" सभी विकृत अानन्दों का कारण प्रानन्दमय ही है, जैसे किविकृत जगत का कारण सच्चित् रूप अविकृत ब्रह्म है वैसे ही आनन्दमय भी कारण है । यदि ऐसा प्रर्थ नहीं मानेंगे तो "रसं ह्य वायं" इत्यादि वाक्य ही व्यर्थ हो जावेंगे। इससे सिद्ध होता है कि प्रानन्दमय शब्द विकारार्थक नहीं है । सूत्रस्थ चकार समुच्चय. बोधक है जिसका अर्थ होता है कि दो सूत्रों में एक ही अर्थ का प्रतिपादन किया गया है ।
ननु किमिति निर्वन्धने सूत्रत्रयेणैवं वर्ण्यते ? अन्नमयादिवदुपासनापरत्वेनापि श्रुत्युपपत्तेः। पक्ष पुच्छादित्वेन मोदप्रमोदादीनामुक्तत्वाच्च, तस्माद् ब्रह्मत्वेन साधितमप्यावश्यकोपपत्यभावान्नब्रह्म-परत्वमिति प्राप्तेऽभिधीयते ।
तीन सूत्रों को बनाकर अर्थ गढ़ने से होता क्या है ? तथा अन्नमय आदि की तरह उपासना परक बतलाने में वैदिक प्रतिपादन से भी क्या होता है ? पक्ष पुच्छ इत्यादि के रूप में मोद-प्रमोद आदि के कथन से उसे ब्रह्म स्वरूप बतलाने की चेष्टा करने पर भी, कोई वैदिक मन्त्र के बिना प्रानन्दमय को ब्रह्म परक नहीं माना जा सकता | इस संशय पर सूत्र प्रस्तुत करते हैं
मान्त्रवर्णिकमेव च गम्यते ।१।१।१४॥
"सत्य ज्ञानमनन्तं ब्रह्म" "यो वेद निहितं गुहायां परमेव्योमन्" "सोऽश्नुते सर्वान् कामान् सह ब्रह्मणाविपश्चिता" इति मंत्रः । मंत्रण अभियावृत्या प्रतिपपाद्य मांत्रवरिणकम् । तदुपपादन ग्रन्थे तदेव मुख्यतया ज्ञायते, यत्र तदुदिष्टं तदेव मुख्यतया ज्ञातव्यम्, उपपादनीयं च संदिग्धं तत्र ब्रह्मणा विपश्चितेति संदिग्धं सर्वज्ञ ब्रह्म । तस्य हि फलत्वं वाक्येनोपपाद्यते, फलंतु सवः स्तुत प्रानंदः, अभ्यासात् स्तुतत्वमित्यवोचाम् शिरः पाण्यादिकंतु स्तुत्यर्थमेव पुरुषविधत्वाय, लोके हि अंतभृतं बहिर्वेष्टितंच तदाकारं भवति । जीवोऽत्र मुख्यः, कर्तृत्वेन व्यपदेशात् स च वस्तुतो हंस रूपः । पुरुषाधिकारकं हि.शास्त्रम् । तेन पुरुष शरीरे तदाकारः सर्वफलं प्राप्नोति, अतः पुरुष हंसरूपेणानुवर्णयति ।
____ "सत्यंज्ञान-यो वेदनिहितं गुहायां सोऽश्नुते सर्वान् कामान्" इत्यादि मंत्र स्पष्ट रूप से, आनंदमय के ब्रह्मत्व का प्रतिपादन करते हैं । मंत्र की