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की गई है । मनोमय के बाद, अनेक प्रकार के यज्ञों के फल विज्ञानमय का उल्लेख है । वहाँ जलरूप श्रद्धा की स्थापना है । तृतीय अध्याय में इसका विस्तृत विश्लेषण किया जायगा। उक्त प्रकार के कर्मों से क्रम मुक्ति का विवेचन किया गया है।
ऋतसत्यो प्रमीयमाणानुष्ठीयमानौ धौ योगश्च मुख्यत्वादात्मा । तादृ । अधोभागो महर्लोकः, ताहशस्य ततोऽर्वाक संसृत्यभावात् । ततोऽपि ब्रह्मविद
आनंदमयः फलम् । तस्य स्वरूपस्यैकत्वाद् धर्मभेदेन शिरःपाण्यादि निरूप्यते । तस्य मुख्यतया प्रीतिविषयत्वं धर्मस्तच्छिरः । मोद प्रमोदावपरिनिष्ठितपरिनिष्ठितावानंदातिशयो, आनंदस्तु स्वरूपं, साधन-रूपत्वात् । ब्रह्मपुच्छमिति श्लोको तु सच्चिदंशबोधको केवलानंदत्व परिहाराय । अपरौ तुश्लोको माहात्म्यज्ञापनाय । वाग्गोचारागोचरभेदेन, अवान्तरानन्दास्तु सर्वे तस्मान्न्यूनतया तदुत्कर्षत्वबोधनाय, तस्मात् सर्वत्र प्रपाठके मांत्रवणिकमेव प्रतीयते । अतो मुख्योपपत्त विद्यमानत्वेनानंदमयः परमात्मैव । चकारो मध्ये प्रयुक्तो विधिमुखविचारेणाधिकरण संपूर्णत्व बोधकः ।
ऋत (प्रिय भाषण) और सत्य से तुलित (तोले गए) अनुष्ठीयमान धर्म और योग ही प्रात्मा के स्वाभाविक धर्म हैं, उसके नीचे महर्लोक की गणना है, इस क्रम से प्राप्त देह की सृष्टि के प्रभाव हो जाने पर भी, ब्रह्मवेत्ता को आनंदमय फल की प्राप्ति होती है। प्रानंदमय का एक ही स्वरूप है, धर्म भेद से ही उसकी शिरपक्ष आदि विभिन्नताओं का वर्णन किया गया है । उसका मुख्यतः प्रीतिविषयक धर्म उसका शिर ही है। मोद और प्रमोद, ससीम और निस्सीम आनंदातिशय के प्रतीक हैं। साधनरूप होने से, प्रानंद ही उनका स्वरूप है । ब्रह्म उसका पुच्छ स्थानीय है । केवलानंदत्व के परिहार के लिए, सच्चिदंश बोधक दो श्लोक हैं । दो श्लोक महात्म्य ज्ञान के बोधक हैं जो कि वाणी से गोचर और अगोचर भेद के ज्ञापक हैं । बाकी सब श्लोक
आनंदमय से न्यून अवान्तर आनंद के बोधक हैं जो कि उसके उत्कर्ष का ज्ञापन करते हैं । इस प्रकार संपूर्ण प्रपाठक मांत्रवणिक है। प्रपाठक में मुख्य उपपत्ति के रूप में विद्यमान होने से सिद्ध होता है कि प्रानंदमय, परमात्मा ही है । सूत्रस्थ चकार का प्रयोग, विधि के विचार से अधिकरण की संपूर्णता का बोधक है।