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अभिधावृत्ति से प्रतिपाच अर्थ को ही मांत्रवणिक कहते हैं, जिस विषय का प्रतिपादन ग्रन्थ में किया जायगा, उसका ही मुख्य रूप से ज्ञान होगा, जहां जो उद्दिष्ट विषय होगा, वहाँ वही मुख्य रूप से ज्ञातव्य होगा, बाकी सब उपपाद्य और संदिग्ध होगा। "ब्रह्मणा विपश्चिता" पद में सर्वज्ञ ब्रह्म संदिग्ध है, क्योंकि उसकी फलता वाक्य में उपपादित नहीं है। फल के रूप में तो सब जगह आनंद की ही स्तुति की गई है । अभ्यास का तात्पर्य हम स्तुति ही करते हैं । शिर पक्ष आदि तो, पुरुष स्वरूप की स्तुति के लिए ही प्रस्तुत किये गए हैं, मनुष्य के अंतर की कल्पना ही बाहर पारोपित और तदाकार होती है। इस प्रसंग में जीव ही मुख्य है, कत्तृत्व रूप से उसी का व्यपदेश है, वस्तुतः वह हंस रूप है । शास्त्र परपुरुष का वर्णन करते हैं, इसलिए जीव पर पुरुष के शरीर में तदाकार होकर समस्त फल प्राप्त करता है, इसलिए पुरुष का हंसरूप से वर्णन किया गया है।
पंचस्वपि शारीर श्रात्मा जीव एक एव । तत्रान्नमये निःसंदिग्धत्वात्, तस्यैष एव प्रात्मेति नोच्यते । द्वितीयादिषु प्रथमोक्तमेवातिदिश्यते तत्रान्नमये हस्तेन प्रदर्शयन्निव निःसंदिग्धं व्याख्यातम्, तदंतरो हि प्राण अंतरव्यवहार कारणम्, बलभोजन विसर्गादिषूपयोगात् । तस्य संचार आकाशे परिनिष्ठितः पृथिव्याम् । एवं लौकिक व्यवहाराथं वाह्याभ्यंतर भेदेन द्वयम् । तदनु वैदिक व्यवहारः । स च मनोमयः पुरुषः। आदेशः कर्म चोदना, ब्राह्मणानि सशेषाणि, धर्वाङ्गिरसे ब्रह्म कर्मत्वात् प्रतिष्ठा, तदनुनानाविधयागादिसाबनवतः फलं विज्ञानमयः । तत्र श्रद्धा आपः । तृतीयाध्याये स्वयमर्थो विस्तरेण वक्ष्यते, यथोक्त कर्तृत्वात् क्रममुक्ति ।
पांचों शरीरों का शारीर प्रात्मा जीव, केवल एक है, अन्नमय में तो वह निश्चित ही है, इसलिए वहाँ यह नहीं कहा गया कि "तस्यैष एव आत्मा।" प्रासमय आदि में, अन्नमय में कहे के समान ही अतिदेश किया गया है। अनमय में तो स्पष्ट प्रसंशयित अंगुलि निर्देश किया गया है। बाद में प्रकासन्तर से प्राण का निर्देश किया गया है, क्योंकि बल भोजन विसर्ग आदि में उसका प्रयोग होता हैं । उसका संचार आकाश और पृथ्वी में परिनिष्ठित है, इस तरह वह लोकिक व्यवहार में बाह्य और अभ्यंतर भेद से दो प्रकार का है । *मनोमय रूप से उसका वेद में व्यवहार होता है। यह कर्म का प्रेरक मादेश है, अथर्ववेदीय आंगिरस सूक्त में इसकी ब्राह्मकर्म के रूप में स्थापना