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भवेत् किन्तु ब्रह्मणः पुच्छत्वमिति पूर्वन्यायेनेदं पुच्छं प्रतिष्ठा इतिवत् । तत्र safaarat ब्रह्मणा शक्यः ।
यदि कहो कि - ब्रह्म को पुच्छ बतलाना घृणास्पद है, तो "एको ब्रह्मरण आनंदः " इस वाक्य में भी, षष्ठी संबंधी भेद के निर्देश होने से, ब्रह्म की परंपुरुषार्थता स्वीकृत न होगी । उपक्रम आदि संबंधी समस्त विरोधों का परिहार प्रथम ही कर चुके हैं । फिर उसे बार-बार उठाना ही व्यर्थ है । यद्यपि अधिकरण, परोक्षवाद रूप से तत्त्व का अन्यथा रूप से वर्णन करता है इसलिए "ब्रह्म पुच्छ" पर विचार करना अपेक्षित है । इसमें पुच्छ की ब्रह्मता का प्रतिपादन नहीं है, जिससे कि जुगुप्सा का द्योतन हो अपितु, ब्रह्म को 'पुच्छ स्थानीय श्राकार स्थल बतलाया गया है, यह तो रूपक मात्र है । उक्त श्रुति का बाध तो ब्रह्मा द्वारा भी संभव नहीं है ।
मौख्यं चैतत् प्रानंदमयस्यैव ब्रह्मत्वे न कोऽपि दोषः स्यात् । श्रानंदयस्य ब्रह्मत्वं परिकल्प्य तत्पुच्छत्वेन ब्रह्म वेद-बोधितमिति ज्ञात्वा तत्समाधानार्थं यतमानो महामूढ इति विषय फलयोः किं मुख्य मित्यप्यनुसंधेयम् । पुच्छवोक्तिस्तु पूर्व भावित्वाय, प्रतएव ज्ञान विषयत्वं प्रतिष्ठा च श्रानंदमयो ब्रह्मण्येव प्रतिष्ठित इति । अत्रावयवावयविभावो भाक्त इति तु युक्तम्, प्राणमयादीनां तथात्वात् । अंतः स्थितस्य वाह्यानुरोधेन तथात्वमिति सर्वं सुस्थम् ।
यह भी कहना मूर्खता है कि, आनंदमय को ही एक मात्र ब्रह्म मान लिया जाय तो कोई हर्ज नहीं है [अर्थात् अन्नमयादि को ब्रह्म न माना जाय ] । पहिले तो आनंदमय के अब्रह्मत्व की कल्पना की, बाद में, उसके पुच्छ में ब्रह्म ज्ञान का भाव निहित है, केवल इस आधार पर आनंदमय के ब्रह्मत्व की स्थापना का प्रयास करना महामूढ़ता है, केवल आनंदमय के ब्रह्मत्व मानने पर तुम्हें यह पता लगाना कठिन होगा कि विषय और फल में मुख्य कौन है ? पुच्छत्व की उक्ति तो पूर्व भावना की द्योतक है, अर्थात् ब्रह्म प्राप्ति के पूर्व ब्रह्म ज्ञान की द्योतिका है, ज्ञानविषयत्व प्रतिष्ठा उसी में है, जोकि गी
नंद में ही अंगरूप से प्रतिष्ठित है । यहाँ अवयव अवयवी भाव को काल्पनिक ही मानना चाहिए, ( सत्य मानने में तो द्वैतभाव हो जायगा ) । प्राणमय आदि का भी प्रानंदमय से श्रवयव अवयवी भाव ही है [शंका-यदि taraarat को काल्पनिक मानेंगे तो हंस स्वरूप भी काल्पनिक ही सिद्ध