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प्रानन्दमय स्वरूप का ही वर्णन किया गया है । इस स्थिति में निष्कपट प्रीति ही मुख्य होती है, इसमें प्रिय के अतिरिक्त किसी अन्य का स्थान नहीं रहता, यही प्रिय की प्रधानता बतलाने का तात्पर्य है। प्रिय के ईक्षण आदि से जो आनन्दात्मक विविध रसझाव संदोह की उत्पत्ति होती है उसे ही दक्षिण पक्ष कहा गया है। तथा स्पर्श आदि से जो विलक्षण प्रकृष्ट आनन्द संदोह की उत्पत्ति होती है उसे उत्तर पक्ष कहा गया है। पक्षि के दोनों पक्षों में अनेक पखने होते हैं, प्रिय पक्षी के वे सब विविध भाव रूप पखने हैं। स्थायिभाव एक होता है, इसलिए उसे पक्षी के प्रात्मा के रूप से वर्णन किया गया है, उसी से विभाव आदि विविध भावों की उत्पत्ति होती है, इस भाव को, पक्षी के दो पक्षों और पखनों में दिखलाया गया है । परम प्राप्ति के साधनी भूत ब्रह्मज्ञानदशा में भी आनन्दानुभूति होती है, किन्तु भगक्द् भजनानन्द प्राप्ति के अनन्तर, पूर्वानुभूत वह आनन्द अति तुच्छ सा प्रतीत होता है, इष्ट प्राप्ति के लिए सुलभ साधन न होने से स्वरूपतः भी वह, भजनानन्द से हीन ही सिद्ध होता है। इसलिए उसे पीठ के भाग से भी दूर नीचे ब्रह्म के पुच्छ रूप से बतलाया गया है। पुरुषोत्तम का अधिष्ठान (स्थिति) उस में ही है इसलिए उसे प्रतिष्ठा रूप भी कहा गया है । अक्षर से उत्तम होते हुए भी वह अप्रधान है क्योंकि उससे भक्त काम पूरण की सम्भावना नहीं है अपितु विपरीत भावना की ही सम्भावना है। यही भाव ''असन्नेव भवति" में दिखलाया गया है। ज्ञानानन्द रूप स्वानुभूति के अभाव में भी, गुरु के उपदेश और उनकी कृपा आदि से जो ब्रह्म के अस्तित्व का ज्ञान होता है, उसका निरूपण "अस्तिब्रह्मतिचेत्' इत्यादि में किया गया है । ब्रह्म के अस्तित्व न मानने पर तो ब्रह्म के असत् होने की चर्चा की गई है, पर अस्तित्व मानने से ही वह सत् है, ऐसा नहीं कहा गयाअपितु "संतं एनं विदुः" इत्यादि कहकर तात्विक रूप से अस्तित्व की बात कही गयी है, इससे स्पष्ट होता है कि-पुरुषोत्तमानंदानुभव में निमग्न जीव ही परमात्मा के स्वरूप को जानता है । स्वानुभूति न होने पर केवल गुरु के उपदेश कृपा आदि से भक्त को भी स्वरूप ज्ञान हो जाता है, वही पूर्णतः आस्तिक है; केवल ज्ञानाभिमानी को न तो अस्तित्व का ज्ञान होता है न स्वरूप का ही । उसे तो ब्रह्म की सत्ता में भी संशय बना रहता है। चतुर विचारक संत तो ब्रजेश श्याम सुन्दर में ही 'आनन्दमयतानन्द संदोह स्वरूप की अवधारणा करते हैं। .. .
नन्वानन्दमयस्य न ब्रह्मता वक्तुं शक्यां मयटो लोके विकाराधिकार विहितत्वादित्याशंक्य स्वयमेव परिहरति । '