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ब्रह्मण उच्यते । पुरुषोत्तमाधिष्ठानत्वात् प्रतिष्ठा रूपत्वं च । एवं सत्यक्षरादप्युत्तमत्वेऽप्यप्रधानीभूय भक्तकामपूरणकर्त्तत्वे असंभावना विपरीत भावना च संभवति । तदभावायासन्नेव स भवतीत्याद्य ुक्तम् । स्वानुभवाभावेऽ गुरूपदेश | दिनापि तदस्तित्वमात्रमपि यो जानाति तं ब्रह्मविदः संतं सत्त्वधर्म विशिष्टं वर्त्तमानं च विदुरित्यग्रेऽवददस्ति ब्रह्म ेति चेदित्यादिना । ब्रह्मासत्वज्ञानेऽसन् भवतीत्युक्त्वा तदस्तित्वज्ञाने सन् भवतीत्यनुक्त्वा, संतमेनं विदुरिति तत्त्वेनान्यज्ञानं यदुक्तं, तेनांक्तपुरुषोत्तमानन्दानुभववंतं ज्ञानक्रिया विशिष्टं जीवं वर्त्तमानं विदुः । ग्रननुभवे केवलं गुरूपदेशादिना तादृग् ब्रह्मास्तित्वज्ञाने स्वरूपतः संत तं विदुर्न तु ज्ञानादिमंतम् । तदसत्त्वज्ञाने वलीकतुल्यमिति श्रतितात्पर्यमिति ज्ञायते ।
एवं बिचारचातुर्य वद्भिः सद्भिर्व्रजाधिपे । आनन्दमयतानन्दसंदोहायावधार्यते ॥
प्रानन्दमय का स्वरूप सुस्पष्ट रूप से बतलाना शक्य नहीं है, ऐसा "यः पूर्वस्य" में बतलाया गया है । शरीर प्रवेश प्रयोजनक पक्षिरूपता का पांच रूपों में सामान्य रूप से विवेचन किया गया है, तदनुरूप श्रानन्दमय की व्याख्या की गई है । जैसे स्पर्शमरिण ( पारस ) के सम्पर्क से रजत आदि सुवर्ण रूप में परिवर्तित हो जाते हैं, उसी प्रकार परतत्त्व के प्रवेश करने पर उसके श्राश्रय भी तदात्मक हो जाते हैं । " ब्रह्मविदाप्नोत परम्" वाक्य से ब्रह्मवेत्ता के लिए सामा य रूप से परप्राप्ति का उल्लेख करके "सत्यं ज्ञानमनंतं ब्रह्म" ऋचा में उसका तात्पर्य कहा गया है । वहाँ यह दिखलाया गया है कि सर्वात्मभाव वाला भक्त भगवान के साथ तत्स्वरूपात्मक कामनाओं को भोगता है । "ब्रह्मविद" इत्यादि व्याख्यान यही अर्थ प्रकाश करता है । भक्त सदा ही, विशेष रूप से विरहावस्था में, अन्नप्राण आदि रूप उस परमात्मा की ही, प्रिय स्वरूप स्फूर्ति से आप्लावित रहता है, इस तत्त्व के निरूपण के लिए ही, परतत्त्व के अन्नमयादि रूपों का वर्णन किया गया है । इससे जीव की परमप्रियता सिद्ध होती है । भगवदाविर्भाव होने पर भी, पूर्वभाव के प्रतितीव्र होने से ज्ञान आदि समस्त का तिरोधान हो जाने से जीव को रसानुभूति नहीं हो पाती, स्वयं वह परमात्मा ही तदनुभवात्मक हो जाता है, यही परमात्मा की विज्ञानमयता का रहस्य है । उस अनुभव का विषय जब प्रत्यक्ष हो जाता है तो उसे ही श्रानन्दमय कहते हैं, ऐसे