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कि मैं कुछ नहीं करता, वे देखते, सुनते, स्पर्श करते, सू ंघते, खाते, सोते, चलते, श्वास लेते, बोलते, लेते, देते, उठते बैठते हुए इन्द्रियों के विषयों का उपयोग करते हुए भी सभी कमों को ब्रह्माश्रित मानकर, अनासक्त होकर प्राचरण करते हैं, इसलिए वे पाप से उसी प्रकार श्रासक्त नहीं होते, जैसे कि संसक्त नहीं होता ।" ब्रह्मवेत्ताओं के कृत कर्म शुभफलदायी धर्म विचारकों के लिए भी ब्रह्म जिज्ञास्य ही है । अतएव कर्म मीमांसा की गतार्थता और अनुपयोगिता नहीं कही
कमल पत्र जल
होते हैं, इसलिए ब्रह्म जिज्ञासा में जा सकती ।
ननु फलप्रप्सुरधिकारी, फलं च विचारस्य शाब्दं ज्ञानं तस्य मननादि द्वाराऽनुभवः तस्य चानर्थं निवृत्ति पूर्वक परमानंदावाप्तिः । तथा च विरक्तोऽनर्थं जिहासुः परप्र ेप्सुश्चाधिकारी कस्मान्न भवति । " शब्द ब्रह्मरिण निष्णातो न निष्णायात् परे यदि । श्रमस्तस्य फलं मन्ये ह्यधेनुमिव रक्षतः ।। " इति भगवद् वचनात् केवलस्य निन्दा श्रवणादिति चेत्, न, फलकामनाया अनुपयोगात् । श्रन्येनैव तत् समर्पणात् । नित्यत्वादप्यर्थं ज्ञानस्य न फलसुरधिकारी । निन्दार्थवादस्तु मननादि विधिशेष इति मन्तव्यम् ।
जो फलाकांक्षी वेदांत शास्त्र के अधिकारी हैं, उन्हें विचार के फलस्वरूप शाब्द ज्ञान होता है, मनन आदि से उस ज्ञान की अपरोक्ष अनुभूति होती है, अतएव अनर्थ की निवृत्ति होकर परमानन्द पुरुषोत्तम की प्राप्ति हो जाती है, तो भला अर्थ को त्यागने वाले विरक्त हैं जो कि - परब्रह्म को प्राप्त करने को प्राकुल रहते हैं, वे अधिकारी क्यों न होंगे ? " शब्द ब्रह्म में निष्णात व्यक्ति यदि परतत्त्व में निष्णात नहीं होता तो उसका प्रयास श्रममात्र ही है, जैसे कि -- दूध न देने वाली गौ की सेवा फलरहित, श्रममात्र ही होती है" इस भगवदीय वचन में केवल निन्दा ही नहीं की गई है अपितु फल कामना को अनुपयोगी बतलाया गया है । अनन्य भाव से परमात्म प्राप्ति की कामना वाले ब्रह्मवेता को ही अधिकारी बतलाया गया है । अर्थज्ञान की नित्यता होने से, फलाकांक्षी व्यक्ति अधिकारी नहीं हो सकता [अर्थात् संध्यावंदन आदि की तरह उपासना करणीय है, उसके न करने से प्रत्यवाय होगा, 'इसलिए फलाकांक्षा हो या न हो वह तो कर्त्तव्य है ही] । निन्दार्थवाद को तो मन आदि निर्विशेष की तरह मानना चाहिए ।