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निर्दोष पूर्णगुण विग्रहता का विवेचन आगे (“अन्तस्तद्धर्मोपदेशात्' इत्यादि में ) करेंगे।
ननु पुरुषार्थार्थानि शास्त्राणि, इदं च शास्त्र मोक्षरूप पुरुषार्थ साधकम्, मोक्षश्चाविद्यानिवृत्ति इति युक्तम्, अविद्या चाज्ञानं ज्ञानेनैव नश्यति, ततो ज्ञानोपयोगित्वेन व्याख्यातव्ये वेदांतेऽध्यारोपापवाद व्यतिरेकेण व्याख्यानम् प्रयुक्तम्, अतो यथाकथंचिद् व्याख्यानेऽपि पुरुषार्थसिद्धनं कोऽपि दोष इति चेत्, न, पुरुषार्थस्य शास्त्रार्थस्य वा स्वरूपं शास्त्रक समधिगम्यं न स्वबुद्धिपरिकल्पितम्, अंतः स्वबुद्धया शास्त्रार्थ परिकल्प्य तत्र वेदं योजयंतो महासाहसिकाः सद्भिरुपेक्ष्याः। पुरुषार्थः पुनर्यथा वेदांतेष्ववगतः "ब्रह्म वेद ब्रह्मव भवति, ब्रह्मविदाप्नोति परम् न स पुनरावतं ते, ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनंतरम्, अनावृत्तिः शब्दादनावृत्तिः शब्दात्" इत्येवमादिभिः श्रुति स्मृतिन्यायब्रह्म प्राप्तिरेव पुरुषार्थत्वम्, ब्रह्म च पुनर्न जीवस्यात्ममात्रम्, अज्ञानवद्वा “एकस्यैव ममांशस्य जीवस्यैव महामते । बंधोऽस्याविद्ययाऽनादिविद्यया च तथेतरः" इति भगवता जीवस्यैवाविद्यावत्व प्रतिपादनात् ।
यदि कहें कि-शास्त्रों का प्रयोजन केवल पुरुषार्थ विवेचन करना ही है, उत्तरमीमांसा भी मोक्ष रूप पुरुषार्थ की व्याख्या में प्रवृत्त है, अविद्या की निवृत्ति ही मोक्ष है, अज्ञान ही अविद्या है, जो कि ज्ञान से नष्ट होता है । अध्यारोपापवाद ही ज्ञानवर्द्धन के लिए उपयुक्त मार्ग हैं, जिस किसी प्रकार से शास्त्र की व्याख्या करके, पुरुषार्थ सिद्धि रूप तात्पर्य निकालने में कोई दोष नहीं है, इत्यादि । उक्त कथन असंगत है, पुरुषार्थ या शास्त्रार्थ का स्वरूप शास्त्रों से ही निश्चित होता है, अपनी बुद्धि से उसकी कल्पना नहीं की जा सकती, अपनी बुद्धि से शास्त्रार्थ की परिकल्पना करके उसे वेदार्थ सिद्ध करने वाले महासाहसिक शास्त्र-चिन्तकों से उपेक्ष्य हैं। वेदांतों में पुरुषार्थ का स्वरूप इस प्रकार कहा गया है -"ब्रह्म का ज्ञाता ब्रह्म ही होता है, ब्रह्म को प्राप्त कर पुनः नहीं लौटता । मुझे तत्व रूप से जानकर इस जगत में पुनः नहीं लौटता" इत्यादि श्रति स्मृति के अनुसार ब्रह्म प्राप्ति को ही पुरुषार्थ कहा गया है। "हे महामते, मेरे अंश जीव का एक बंधन है अनादि अविद्या तथा दूसरा बंधन है विद्या" इत्यादि में भगवान द्वारा कही गयी जीव की अविद्याबद्धता से निश्चित होता है कि ब्रह्म जीव नहीं है।
तस्मान् न्यायोपबृहित सर्ववेदांतप्रतिपादित सर्वधर्मवद् ब्रह्म, तस्य श्रवण, मनन निदिध्यासनरन्तरंमैः शमदमादिभिश्च बहिरंगरतिशुद्ध चित्त स्वयमे