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प्राप्त करता है", ऐसा अर्थ तो नितांत असंगत है, इसमें तो साधन साध्य भाव विच्छिन्न हो जाता है।
: अतः पर विशेषतस्तदविवक्ष्यमाणानुभवैकगम्यं तत्स्वरूपं नान्यमानगम्यमिति ज्ञापयितुमन्य मुखेनाह। तदेषाभ्युक्त ति । अन्यथा सर्वार्थतत्त्वप्रतिपादिका श्रुतिरेवं कथं वदेत् । तदित्यव्ययम् तथा च तत् पूर्वोक्त ब्रह्मविदः परप्राप्तिलक्षणमर्थं विशदतया प्रतिपाद्यत्वेनाभिमुखीकृत्योपगृह्य ऋगेषा विदितपरब्रह्मक रुक्ता, पूर्ववाक्योक्तार्थस्य वैशद्यमनया क्रियत इत्यर्थः संपद्यते । तामेवाह-"सत्यं ज्ञानमनंतं ब्रह्म यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन्, सोऽश्नुते सर्वान् कामान् सह ब्रह्मणा विपश्चित।।" सोपपत्तिकमानंदात्मकत्वमग्ने निरूपणीय मित्यधुना तदनिरूप्य सच्चिदंशौ देशकालापरिच्छिन्नत्वं चोक्तवती ।
तत् शब्द से अभिप्रेत, उस तत् का स्वरूप अनुभव मात्र. गम्य होता है । तत् शब्द एव अर्थ में प्रयुक्त है, सर्वार्थ तत्त्व की प्रतिपादिका श्रुति ऐसा ही कहती है । तत् अव्यय है "तत्" शब्द से, पूर्वकथित "ब्रह्मविद्" शब्द से, परमप्राप्ति रूप लाक्षणिक अर्थ का विशद रूप से प्रतिपादन करके यह ऋक्श्रुति प्रसिद्ध "परब्रह्म" अर्थ ही प्रस्तुत कर रही है, अर्थात् पूर्ववाक्य के अर्थ का विशदीकरण कर रही है । वही श्रुति आगे कहती है कि "वह ब्रह्म सत्यज्ञानअनंतस्वरूप है, जो अपने हृदय की दहराकाश गुहा में उसे देखता है, वह महात्मा ब्रह्म के साहचर्य से समस्त कामनाओं को प्राप्त करता है ।" यही श्रुति आगे चलकर फलनिरूपण में, आनंदात्मकता का सतर्क निरूपण करती है, साधन निरूपण में वैसा सतर्क निरूपण न करके "सत्यं ज्ञानम्" पदों से सत् चित् अंशों को देश काल से अपरिच्छिन्न बतलाती हैं।
अथवा, अक्षरब्रह्मण्यानंदात्मकत्वे सत्यपि तस्य परिच्छिन्नत्वान्न परमफलत्वमत आनंदेऽपरिच्छिन्नत्वमेव परमफलतावच्छेदकमिति तद्धर्मपुरःसरं परमानंद एवानंतशब्देनोच्यतेऽत्र । “सत्यं विज्ञानमानंदं ब्रह्म सच्चिदानन्द विग्रहम्" इत्यादि श्रुतिषु त्रयाणामप्येक प्रक्रमपठितत्वाद् द्वितीयोक्ती तनियतसहचरितत्वेनाऽनुक्तोऽप्यानंदः प्राप्स्यत एवेत्याशयेन वाऽनंदः स्फुटतया नोक्तः । अथ वेदनपदार्थमाह यो वेदेत्यादिना । अत्रेदमाकूतम् “नीयमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन । यमेष वृणुते तेन लभ्यः तस्यैष प्रात्मा बृणुते तनुं स्वाम् ।" इति श्रुत्या वरणेतेरसाधनाप्राप्यत्वमुच्यते ।