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अथवा "तदेषाऽभ्युक्ता" इति वाक्येन पूर्ववाक्योक्त ब्रह्मनिरूपिंकेयमगित्युच्यते, तत्र साधनफले निरूपिते इति ऋच्यपि ते एव निरूप्येते । तथाहि, श्रानंदमयस्य फलात्मकत्वेन साधनशेषभूते ब्रह्मरिण तमनुक्त वा, यो वेदेत्यंतयर्चा ब्रह्मविदिन्येतावतो वाक्यस्य विवरणं क्रियते । एतेन फलाप्ती स्वरूपयोग्यतासंपत्तिरुक्ता । तत उक्तरीत्या भगवद्वरणेन भक्तिलाभे गुहायामाविर्भूतं यत् परमं व्योम, तस्मिन्निहितः पुरुषोत्तम एवेति । तं निहितमिति तृतीयार्थे द्वितीया । तथा च तत्र निहितेन ब्रह्मणेत्यग्ने पूर्ववत् । अथ परमफलत्वानिरवध्यानन्दात्मकत्वमंतरंगेम्योऽप्यन्तरंगत्वं स्वस्मिन् जापयितुं सर्वस्य सर्वरूपत्वेन सर्वाधिदैविकरूपत्वमपि ज्ञापयितुमाधिभौतिकादि रूपेणाविर्भवितुं भगवानाकाशादिरूपेणाविर्भूतोऽत एव भवन आकाशस्यैव कत्तुं त्वमुच्यते ।
"तदेषाऽभ्युक्ती'' इत्यादि से पूर्व की, ब्रह्मनिरूपिका यह ऋचा है, साधन फल के निरूपण के अनुरूप ही ऋचा का भी निरूपण है । आनंद का फलात्मक रूप में साध्य स्वरूप ब्रह्म में विनियोग न करके “यो वेदेति" ऋचा "ब्रह्मविदा वाक्य का ही विवरण प्रस्तुत करती है । इस प्रकार फलावाप्ति में स्वरुपयोम्यता संपत्ति का निरूपण है। भगवत्प्राप्ति के लिए भक्तिलाभ प्रविष्यक है । हृदय की गुहा में प्राविभूत दिव्य आकाश में निहित पुरुषोत्तम ही साध्य ब्रह्म हैं । "तं निहितम्" पद में तृतीयार्थे द्वितीया है। वहां निहित होने से ब्रह्म का ही बोध होता है। आगे के वाक्यांश का अर्थ पूर्ववत् ही समझना चाहिए । परमफल होने से अखंड प्रानंदात्मक, अंतरंगों से भी अंतरंग वह वस्तु अपने में ही पूर्ण है, वह सबका स्वरूप है अतः वह आधिदैविक रूप भी है तथा आधिभौतिकादि रूपों से आविर्भूत होने के लिए वही आकाश आदि रूपों में आविर्भूत हुए, इसीलिए दिव्य प्रकाश का कर्तृत्व दिखलाया गया है।
अग्रेऽन्नमयादीनि चत्वारि रूपाणि पूर्व निरूपितानि उत्तरोत्तरमतरंगभूतानि, अनरसमयशरीरभूतात् प्राणमयस्तस्मान्मनोमयस्तमाद् विज्ञानमयः । कश्चित्त्वेतानि रूपाणि विकारात्मकत्वात् प्राकृतान्येवतेभ्योऽप्यन्तरंगो विमुक्ताविद्यो जीव एवानंदमय उच्यत इत्याह । स प्रतिवक्तव्यः ।
वाक्य के अग्रिम वर्णन में प्राकाशादि चारों को पूर्वनिरूपित वस्तु से उत्तरोत्तर अंतरंग बतलाया गया है । अन्नमय शरीर से प्राणमय, उससे