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भवति तादृशे तस्मिन् संपन्ने तज्ज्ञानमपि तथा, एवमेवोत्तरत्रापि । तथा चाकाशादिरूपमाधिभौतिकस्वरूपमुक्त वाऽध्यात्मिक तत् पुरुषरूपं वदंती पक्षिरूपमाह । यतः तेनैव रूपेणाधिभौतिके रूपे आध्यात्मिकस्य पुरुषस्य प्रवेशः । तदुक्तं वाजसनेयिशाखायाम् "पुरश्चक्रे द्विपदः पुरश्चक्रे चतुष्पदः पुरः स पक्षी भूत्वा पुरुष प्राविशद्" इति । वस्तुतरतु पुरुष एव, परंतु पुरः संबंधी सन् पक्षी भूत्वा पुरः शरीराण्याविशदित्यर्थः। प्राकृतीषु विविधासु पूर्वप्राकृतस्यकविधस्य प्रवेशोऽनुचितो यद्यपि, तथापि स्वप्रवेश विना न किंचिद् भावीति गतिप्रतिबंधकमुल्लंध्यालौकिकया गत्या प्रविशामीति ज्ञापनाय पक्षिभवनम् । सं हि तादृशः, प्रत एवं द्विपदश्चतुष्पद इति ।
तथा वे अन्नमय आदि रूपों से क्षुद्र फल प्रदान करते हैं, हीन अधिवारियों को साकांक्षा उतने से ही निवृत्त हो जाती है, जैसे अधिकार से अनमय स्वरूप का ज्ञान होता है, उसी प्रकार उसमें सिद्धि प्राप्त हो जाने पर उसको ज्ञान भी हो जाता है । यही प्राणमय आदि की प्रक्रिया है । तथा परमात्मा के आकाश आदि आधिभौतिक स्वरूप को बतलाकर उसके आध्यात्मिक पुरुष रूप को पक्षिरूप से बतलाया गया है, पक्षी के आधिभौतिक रूप में ही आध्यात्मिक पुरुष का रूप निहित है । वाजसनेयी शाखा में उसका रूप बतलाते हुए कहते हैं-"उसने दो पद किये, चार पद किये, फिर वह पक्षी होकर उसमें पुरुष रूप से प्रविष्ट हुमा।" इत्यादि, वस्तुतः तो वह पुरुष ही है किंतु शरीर संबंधी होने से पक्षी कहलाया । विविध प्राकृत शरीरों में एक अखण्ड अप्राकृत वस्तु का प्रवेश यद्यपि अनुचित है, तथापि स्वयं प्रवेश के बिना कुछ भी होना संभव नहीं इसलिए गति-प्रतिबंधन का उल्लंघन कर अलौकिक गति से प्रवेश करता हूँ, इस बात को बतलाने के लिए वह पक्षी रूप से प्रकट हुआ। वह वैसा ही हो जाता है यही भाव 'द्विपदश्चतुष्पदः" इत्यादि में निहित है।
आधिदैविक एक एवेति यः पूर्वस्येति सर्वत्रोक्तम्, नन्वानंदमयेऽप्येवमुक्त - यमपि परमकाष्ठापन्नरूपः, किन्तु पूर्वोक्त भ्योऽतिशयितधर्मवान् विभूतिरूप एव । नच शिरादीनामानंदरूपत्वेनैवोक्त रयं परमात्मैवेति वाच्यम् । अन्नमये यथाऽवयवानां तद्रूपत्व तथानंदमयेऽपि तेषां तद्रूपत्वादन्यथा तस्यैष एव शारीरात्मेति न वदेत् । शरीरं हि पूर्वोक्त, तत्संबंधी हि शारीरः तद्• भिन्नः प्रतीयते तथा च परब्रह्मत्वं · स्वान्यात्मवत्त्वं च सर्वश्रुतिविरुद्ध म् ।