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नहिं कामवज्जीवकतक व्यापनक्रियाकर्मत्वं ब्रह्मरिण संभवत्यतिमहत्वात् । व्यापनं चात्र स्वाधीनीकरणमेव वाच्यम्, नहि कामानां तथात्वं स्वतः पुरुषार्थरूपम् भोगशेषत्वात् तेषाम्, पूर्वोक्तपरप्राप्ति व्याकृतिरूपत्वाच्चास्य तथार्थोऽनुपपन्नः। तेन अश भोजन इति धातोरेवायं प्रयोगोऽर्थस्या लौकिकत्वज्ञापनायालौकिकः प्रयोगः कृतः । व्यत्ययो बहुलमिति सूत्रण छंदसि तद्विधानात् श्नाप्रत्यय-परस्मैपदयोयंत्ययेन श्नुप्रत्ययात्मनेपदे जाते इति भोगार्थक एवायं धातुः । एवमेव न तदश्नोति कंचन न तदश्नोति कश्चनेत्यत्र प्रत्ययमात्रव्यत्ययेन प्रयोगोऽश धातोरेवेति ज्ञयम्, अन्यथा सर्वव्यापकस्य ब्रह्मणस्तनिषेधोऽनुपपन्नः स्यात् ।
यद्यपि "अश् भोजने" धातु का अश्नाति रूप तथा "प्रशूङ व्याप्तो" धातु का अश्नुते रूप, विकरण भेद और पदभेद से होता है, परंतु "अश्नुते" पद "प्रश" धातु का ही रूप प्रतीत होता है; उक्त प्रयोग में अशन क्रिया में ब्रह्म के साथ सहभाव दिखलाया गया है। "अश्नुते' का यदि व्याप्ति अर्थ 'मानेंगे तो, ब्रह्म के साथ भौतिक कामनाओं को प्राप्त करता है अथवा ब्रह्म के साथ वह भौतिक जीव कामनाओं को प्राप्त करता हैं, ये दोनों अर्थ नहीं हो सकते । जीवगत व्यापन क्रिया का कर्म ब्रह्म में संभव नहीं है, क्योंकि ब्रह्म अति महान् है, उक्त प्रसंग में जो व्यापकता कही गई है वह स्वाधीनता की वाचक है, स्वतः पुरुषार्थ रूप भौतिक कामनाओं की वाचक नहीं है। यदि भौतिक कामनाओं की वाचक मानगे तो उन कामनाओं का फल भोग्य होगा, जिससे परमप्राप्ति की बात विकृत हो जायगी तथा ब्रह्म के साथ समस्त कामनाओं के भोगने की बात भी निरस्त हो जायगी। "प्रश्" धातु का यह प्रयोग, अर्थ · की अलौकिकता का ज्ञापक अलौकिक प्रयोग है। "व्यत्ययो बहुलम्" इस सूत्र से छंद में श्ना प्रत्यय और परस्मैपद से विपरीत,नु प्रत्यय तथा आत्मनेपद का भोगार्थक प्रयोग है । उमे कोई भोग नहीं सकता, वह किसी का भोग नहीं करता इन दोनों वाक्यों में केवल प्रत्यय मात्र के परिवर्तन से अश् धातु का प्रयोग किया गया है। यदि ऐसा अर्थ नहीं मानेंगे तो 'सर्वव्यापक ब्रह्म का प्रापंचिक जगत से जो विलगाव है, वह नहीं हो सकेगा।
तनुः - सकामोऽत्रोपासकस्तदुपास्यं च सरणं ब्रह्म द्वयोरपि कामोपभोम्श्रवणात् । “यत्र हि द्वैतमिव भवति तदितर इतरं पश्यति" इत्युपक्रम्य