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. ४६ अभ्यस्यते पुनः पुनः कीयंत इत्यभ्यासः, तस्मात् । अभ्यासभ्य भेदकत्वं पूर्वतंत्रसिद्धम् । यथा पूर्वतंत्रे शब्दान्तराभ्याससंख्यागुणप्रक्रियानामधेयानां षण्णां कर्मभेदकत्वमेवमेवानंदमयस्याप्यभ्यासात् पूर्ववैलक्षण्यम् । अतोऽतुल्यत्वाद् ब्रह्मत्वम् । एवमभ्यासः श्रूयते "को ह्यवान्यात् कः प्राण्याद् यदेष आकाश आनंदो न स्यात्", एष हि एवानंदयति इत्यर्थतोऽभ्यासः स्तुत्या ।
आनंदमय परमात्मा है, अन्नमय आदि की तरह कोई अन्य पदार्थ नहीं है। भृग प्रपाठक में उसका अभ्यास किया गया है । पुनः पुनः जिसका उल्लेख किया जाय उसे अभ्यास कहते हैं । अभ्यास के भेदों के उदाहरण पूर्व मीमांसा में बहुत मिलते हैं (जैसे-"तनूनपातं यजति, समिधो यजति, इडो यजति, बहिर्यजति, स्वाहाकार यजति" इत्यादि) । जैसे कि पुर्वमीमांसा में भिन्न भिन्न कर्मभेदों को एक ही शब्द के पुनरुल्लेख से दिखलाया गया है, वैसे ही आनंदमय के अभ्यास से उसकी अन्य पूर्व तत्वों से विलक्षणता दिखलाई गई है । अर्थात् सब की, असमान होते हुए भी, ब्रह्मरूपता है । "को ह्यवान्यात्" इत्यादि में स्तुति रूप से प्रानंदमय का ही अभ्यास प्रतिभासित होता है।
मयडर्थत्वप्रकृतिस्तु तुल्या, पुनर्वचनेनाभ्यासेन प्रवाहाद् भेदे साधिते ब्रह्मत्वम्, न तु द्वयापत्तिः, उत्तरस्य साधकत्वात्, तस्मादानंदमयं ब्रह्मव ।
मयट् प्रत्यय प्रायः जिस शब्द के साथ प्रयुक्त होता है, उसकी प्रकृति के अनुरूप अर्थ प्रकाश करता है, पुनः पुनः प्रवाह रूप से आनंद शब्द के उल्लेख से तथा “तस्य प्रियमेव शिरः, मोदः दक्षिणपक्षः, प्रमोद उत्तरपक्षः' इत्यादि विभिन्न ब्रह्मत्वसाधक शब्दों से प्रानंदमय शब्द का ब्रह्मत्व निश्चित होता है। "प्रियमेव" इत्यादि से ब्रह्म में द्वैत भाव नहीं आता, प्रियता आदि तो आनंदमय के विशेषण मात्र हैं । इससे सिद्ध होता है कि ब्रह्म ही आनंदमय है।
अथवा “स नंव रेमे, तस्मादेकाकी न रमते, स द्वितीयमच्छत्, स हैतावानास" इत्यादिश्रुतिभिः “एष उ एवेति" श्रुतेश्च तानि तानि साधनानि कारयित्वा तानि तोनि फलानि ददत् भगवान् स क्रोडार्थमेव :जगद्र पेणाविभूव क्रीस्तीति वैद्रिकनिर्मीयते, एतदेवं काण्डद्वयेऽपि प्रतिपाद्यते । अन्यथा