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है," इत्यादि । अर्थात् प्रापंचिक धर्म रहित पूर्वोक्त जगतकर्ता ब्रह्म में निष्ठावान् साधक मुक्त हो जाता है । यदि जगतकर्ता को गौण मानेंगे, तो उसकी निष्ठा करने वाला संसार ही प्राप्त करेगा मोक्ष नहीं । हेयत्वावचनाच्च ।१।११७॥
इतोऽपि निर्गुण एव जगत्कर्ता, वेदांतेसु सर्वत्र साधनोपदेशे पुत्रादिवज्जगत्कर्ता हेयत्वेन नोपदिश्यते । यदि सगुणः स्यात् प्राकृतगुण परिहारायं मुमुक्षुभिर्जगत्कर्ता नोपास्यः स्यात् पुत्रादिवत् । अत ईक्षत्यादयो न सगुणधर्माः। सूत्रत्रयस्य ईक्षतिहेतुसाधकत्वाच्चकारः। एवं सूत्र चतुष्टयेन ईक्षतिहेतुना जगत्कर्तुत्वोपपत्त्या सृष्टि वाक्यानां ब्रह्मपरत्वमुपपादितम् ।
इसलिए भी निर्गुण ब्रह्म ही जगत कर्ता है क्योंकि वेदांतों में जहाँ साधनों का उपदेश है वहां जगत्कर्ता को पुत्र प्रादि की तरह हेय रूप से नहीं दिखलाया गया है । यदि जगतकर्ता सगुण है, तो प्राकृत गुणों से मुक्त होने के लिए वह मुमुक्षुओं का उपास्य नहीं हो सकता, जैसे कि पुत्र प्रादि । इससे स्पष्ट है कि ईक्षण प्रादि सगुण के धर्म नहीं हैं ।
सूत्रकार ने इस अधिकरण के तीन सूत्र ईक्षण धर्म के हेतु साधक रूप से प्रस्तुत किये तथा चार सूत्र ईक्षण के हेतु जगतकत्र्तृत्व की दृष्टि से प्रस्तुत किये हैं, जिनमें औपनिषद सृष्टि वाक्यों की ब्रह्मपरकता का उपपादन किया गया है।
अतः परं स्वतंत्र हेतूनाह-स्वाप्यया, गतिसामान्यात्, श्रुतत्वाच्चेति सूत्रत्रयेण । ननु किमर्थं हेत्वन्तराणि साधकत्वे एकेनापि तत्सिद्धेः, असाधकत्वे शतेनाप्यसिद्धेरिति चेत्, मैवम्, रूपभेदार्थ हेत्वंतराणि, नानाविधानभोजनतृप्तिवत् । तद् यथा प्रात्मशब्दात्, तनिष्ठस्य मोक्षोपदेशात्, हेयत्वावचनाच्चै ति निर्गुणस्य स्वरूपपरतया कार्यपरतया च, कार्यस्य पुनः विधिनिषेध भेदाद् द्विरूपतेति, एवमुत्तरत्रापि प्रपंचयिष्यते । तत्र सृष्टिवाक्यांनामीक्षति हेतुना भगवत्परत्वमुक्तम्, इदानी प्रलयवाक्यानामाह
इसके बाद स्वाप्ययात्, गलिसामान्यात् और श्रुतत्वाच्च-इन तीन सूत्रों से जगतकत्र्तृत्व के स्वतन्त्र हेतु बतलाते हैं। यदि कहें कि किसी. एक ही से कार्य चल सकता है, अनेक हेतु बतलाने से क्या होता है ? असाधक. रूप से चाहे सैकड़ों हेतु प्रस्तुत करते रहें उसका क्या महत्व है ? यह तर्क प्रसंगत हैं,