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विषयता रूप से अभिप्रेत है, इसीलिए उन्होंने सामान्यतः "शब्द" का निर्देश किया है । इतिहास पुराणादि भी शुद्धान्तःकरण से दृष्ट रहस्य हैं, अतएव वेदसमर्थित हैं, वे भी वेद के ही समान सृष्टि आदि के प्रतिपादक हैं, वेदांत भी साक्षात् ब्रह्म के प्रतिपादक हैं।
स्यादेतत्, कर्तृत्वमकर्तृत्वं च वेदे प्रतीयते ब्रह्मणः “यतो वा इमानि भूतानि जायंते, स प्रात्मानं स्वयमकुरुत, निष्कलं निष्क्रिय शान्तं निरवद्यम् निरंजनम्, असंगो हि अयं पुरुषः" इत्येवमादिषु वाक्येषु । तत्र द्वधा निर्णयः संभवति । सर्वभवन समर्थत्वाद् विरुद्धसर्वधर्माश्रयत्वेन, अन्यतरबाधाद् वा । अलौकिकापेक्षया लौकिकस्य जघन्यत्वात् कत्तुं त्वादेर्लोकसिद्धत्वात् कर्तृत्वबाध एव युक्तः । ईक्षत्यादिकं तु प्रकृतिगुण संबंधादपि ब्रह्मणो युज्यते । तस्मादलोकिकसर्व भवन समर्थत्वादिकल्पनापेक्षया लौकिक एवान्यतरबाधो युक्तः, ततश्च सत्यस्वरूपादन्यदेवैतदिति स्वयमेवाशंक्य परिहरति सूत्रकारः
“यतो वा इमानि, स आत्मानं स्वयमकुरुत, निष्कलं निष्क्रिय शान्तम्, असंगो ह्ययं पुरुषः” इत्यादि वैदिक वाक्यों में ब्रह्म के कर्तृत्व
और अकर्तृत्व दोनों का आभास होता है, इसलिये दो प्रकार का विचार किया जा सकता है । परस्पर विरुद्ध धर्मों के प्राश्रय ब्रह्म को समस्त विश्व का उत्पादक बतलाया गया है, यह असंगत बात है । अलौकिक पदार्थों की अपेक्षा लौकिक पदार्थों की हेयता प्रत्यक्ष है । यदि हम शुद्ध ब्रह्म को लोक का कर्ता मानते हैं तो वह दूषित हो जायगा, इसलिये · उसे कर्त्ता न मानना ही उचित है । ईक्षण इत्यादि तो प्राकृत गुणों के सम्बन्ध से भी घटित हो सकते हैं, इसलिए जगत्स्रष्टा को अलौकिक स्रष्टा कहने की अपेक्षा लौकिक स्रष्टा स्वीकारना ही उपयुक्त है, शुद्ध ब्रह्म को कर्त्ता मानने में उक्त बाधा है । यही कहना उपयुक्त होगा कि सत्य स्वरूप शुद्ध ब्रह्म से भिन्न कार्यरूप गौण ब्रह्म ही जगत का स्रष्टा है, ईक्षण प्रादि उसी के स्वभाव हैं, उक्त संशय को स्वयं ही प्रस्तुत कर सूत्रकार उसका परिहार करते हैंगोणश्चेन्नात्मशब्दात् ।१।१॥५॥ - ". 'ईक्षत्यादि गुणयुक्तः परमात्मा मौणःः प्रकृतिमुखत्वसम्बन्धमानः इति चेन तथात्वं वक्तुं शक्यते, कुतः ? प्रात्मशब्दात् , अात्मा वा इदमेक एवाय आसीत्" इत्युपक्रम्य सं ऐक्षतेत्युक्तम् । प्रात्म शब्देः पुनः सर्वेषु वेदान्तेषु