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जानने का कोई भी उपाय सम्भब नहीं है, ब्रह्म तो सर्वथा मन का प्रविषय, अवाच्य और अव्यवहार्य है।
पुरुष की प्रवृत्ति प्रायः ऐहिक और आमुष्मिक व्यवहार के योग्य ही होती है । प्रवृत्ति के लिए ही प्रमाणों की आवश्यकता होती है, ब्रह्म तो सभी प्रकार के व्यवहारों से प्रतीत है । यदि कहें कि इस पर भी वह वेदों से ज्ञात है, तो फिर “यतो वाचो निवर्तन्ते" आदि बाधित अर्थ प्रतिपादक वेदांत वाक्यों पर विचार करना व्यर्थ है, इस पर सूत्र प्रस्तुत करते हैं - ईक्षते शब्दम् ।१।१।४॥
न विद्यते शब्दो यत्रेत्यशब्दं, सर्ववेदांताद्यप्रतिपाद्य ब्रह्म न भवति, कुतः, ईक्षतेः । “सदेव सोम्येदमन प्रासीदेकमेवाद्वितीयम्" इत्युपक्रम्य "तदक्षत बहुस्यां प्रजायेयेति तत्ते जोऽसृजत्" तथाऽन्यत्र "प्रारमा वा इदमेक एवाग्र आसीत् नान्यत् किंचन मिषत् . स ऐक्षत लोकान्नुसृजा, स ईक्षांचक्रे, स प्राणमसृजत" इत्येवमादिषु सृष्टिवाक्येषु ब्रह्मण ईक्षा प्रतीयते ।
जहाँ शब्द की उपस्थिति सम्भव न हो, उसे अंशब्द कहते हैं अर्थात् जो शब्दातीत हो । परन्तु समस्त वेदांतों का प्रतिपाद्य ब्रह्म अशब्द कैसे हो सकता है ? वेदांतों में ईश्वर के ईक्षण का स्पष्ट उल्लेख है। "हे सोम्य ! सृष्टि के पूर्व एक अद्वितीय सत् ही था" ऐसा ही उपक्रम करके "उसने सोचा एक से अनेक हो जाऊँ अतः उसने तेज की सृष्टि की", दूसरी जगह और भी, जैसे"सृष्टि के पूर्व एक मात्र यह आत्मा ही था, अन्य कुछ भी नहीं, उसने अपनी इच्छानुसार लोकों का सृजन किया, उसने इन लोकों की सृष्टि की, उसने विचार किया, उसने प्राणों की सृष्टि की इत्यादि सृष्टि वाक्यों से ब्रह्म की ईक्षा की सुस्पष्ट प्रतीति होती है।
किमतो यद्येवम् ? एवमेतत् स्यात्, सर्वव्यवहार प्रमाणातीतोऽपि ईक्षाचक्र लोकसृष्टि द्वारा व्यवहार्यो भविष्यामीति, अतो यथा यथा कृतवांस्तथा तथा स्वयमेवोक्तवान् पूर्वरूपं फलरूपं च सृष्टस्वांशपुरुषार्थत्वाय, ततश्च प्रमाणबलेनांविषयः स्वेच्छया विषयश्चेत्युक्तम् । ननु सर्वप्रमाणाविषयत्वे दूषिते केवल वेदविषयत्वं कथं सिद्धान्तीक्रियते ? उच्यते-चक्ष रादीनां प्रामाण्यमन्यमुखनिरीक्षकत्वेन, न स्वतः, भ्रमानुल्पत्ति प्रसंगात्, सत्त्व सहितानामेव चक्षुरादीनां प्रामाण्यात्, प्रतो निरपेक्षा एव भगवन्निश्वासरूपवेदा एक प्रमा