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निर्गुणपरब्रह्म वाचकत्वेनैव सिद्धः । तस्यैव जगत्कर्तृत्वं श्रुतिराह । ननु चोक्तमन्यतरबाघो युक्त इति, न युक्तः, स्वातंत्र्याभावेन सगुणस्य कर्तृत्वायोगात्, वेदाश्च प्रमाणभूताः, ततः सर्वभवनसामर्थ्यमेव श्रुतिबललभ्यमंगीकर्तव्यम् । किं च अस्ति भाति प्रियत्वादि धर्मवत् ब्रह्मगतकतृ त्वं लोके प्रतीयते, कार्यत्वात्, तस्मादात्मशब्द प्रयोगाद् गुणातीतमेव कत्तुं ।
प्राकृत सत्त्व गुण संबद्ध, ईक्षण प्रादि वाला परमात्मा गौण है, ऐसा नहीं कह सकते। कर्ता का प्रायः प्रात्मा शब्द से उल्लेख किया गया है: "आत्मा वा इदमेक" इत्यादि उपक्रम करके "स ऐक्षत" तक कर्ता का वर्णन है । आत्मा शब्द समस्त वेदांत वाक्यों में निर्गुण परब्रह्म का ही वाचक है, उसे ही जगत्स्रष्टा भी कहा गया है । इसलिये उक्त संशय असंगत है । गौण ब्रह्म में स्वतंत्रता का नितान्त अभाव है, उसमें कर्तृत्व की अर्हता नहीं है। वेद के मत से सब कुछ करने में समर्थ परब्रह्म ही जगत कर्ता हो सकता है, ऐसा ही हमें भी मानना चाहिये । अस्ति, भाति, प्रियत्व आदि धर्म की तरह ब्रह्म का कत्तु त्व भी लोक में कार्य रूप से प्राभासित होता है । आत्मा शब्द से प्रयुक्त गुणातीत ही कर्ता है, ऐसा श्रौत सिद्धान्त है ।
.. नन्वात्मशब्दोऽपि लोकवद् गौणोऽस्तु, लोके हि केनचित् पृष्टो विष्णुमित्र प्राह यज्ञदत्तो ममात्मेति, प्रत्र गौणत्वमुपचार इत्येवं प्राप्तेऽभिधीयते___ आत्मा शब्द भी लौकिक प्रात्मा शब्द की तरह गौण है । जैसे कि लोक में किसी के पूछने पर विष्णु मित्र कहता है कि यज्ञदत्त मेरा आत्मा है, ऐसे ही स्रष्टा के लिये प्रयुक्त आत्मा शब्द गौण है, इस पर सूत्रकार कहते हैंतन्निष्ठस्य मोक्षोपदेशात् ।१।११६॥
एवं हि श्रूयते- "असद् वा इदमन आसीत्, ततो वै सदजायत तदात्मानं स्वयमकुरुत'' इत्युपक्रम्य “यदा हि एवंष एतस्मिन्नदृश्येऽनात्म्येऽनिरुक्त ऽनिलयनेऽभय प्रतिष्ठां विंदते, अथ स अभयंगतो भवति" इति । प्रापंचिकधर्मरहिते ब्रह्मणि एतस्मिन् पूर्वोक्त जगत्कर्तरि परिनिष्ठितो मुक्तो भवतीत्यर्थः । तत्र यदि जगत्कर्ता गौणः स्यात् तन्निष्ठस्य संसार एव स्यान्न मोक्षः । .
ऐसी श्रुति है-"जो पहले असत् था उसी से सत् हुआ, उसने स्वयं अपने को सत् किया" ऐसा उपक्रम करके "जब साधक इस अदृश्य, अकथ्य, ..अविकार, अभय, अनात्म्य परमात्मा में निष्ठ होता है तभी मुक्त हो जाती