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वाविभूतस्य स्वप्रकाशस्य सायुज्यं परम पुरुषार्थः । तस्मात् सर्वे वेदांताः स्वार्थे एव युक्तार्था इति न्यायवक्तव्यत्वाद् ब्रह्मणः समवायित्वाय समन्वयसूत्रं वक्तव्यम् ।
उक्त विवेचन से ज्ञात होता है कि समस्त वेदांतों का तत्वार्थ समस्त धर्मों का स्वरूप ब्रह्म है, उस सर्वधर्मक ब्रह्म के श्रवण मनन निदिध्यासन रूप अंतरंग तथा शमदमादि बहिरंग साधनों से प्रतिशुद्ध चित्त में स्वयमेव परमात्मा के प्रीविर्भूत प्रकाश का सायुज्य होना ही परम पुरुषार्थ है। सभी वेदांत स्वार्थ में ही युक्ति युक्त हैं, इस नियम के अनुसार मानना पड़ेगा कि ब्रह्म के समवायी कारण को बतलाने के लिए ही समन्वयसूत्र बनाया गया है।
एवं ब्रह्मजिज्ञासायां प्रतिज्ञाय किंलक्षणं ब्रह्म त्याकांक्षायां जन्मादिसूत्रद्वयेन वेदप्रमाणकं जगत्कर्तृ समवायि चेत्युक्तम्, एवं त्रिसूत्र्या जिज्ञासालक्षण विचारकर्तव्यता सिद्धा।
तत्र ब्रह्मणि चतुर्धा विचारः-स्वरूपसाधनफलप्रतिपादकानि सर्ववेदांत वाक्यानि त्रिविधानि, मतान्तर निराकरणं च । तत्र स्वरूपे विचारिते मतान्तर निरासव्यतिरेकेण साधनफलयोरनुपयोगात्, अतः प्रथमं स्वरूप निर्णयः, तदमु मतान्तर सिरासः, तदनु साधनानि फलं चेति । तत्र प्रथमेऽध्याये स्वरूप वाक्यानिविचार्यन्ते, तानि द्विविधानि, संदिग्धानि निःसंदिग्धानि च, तंत्र निःसंदिग्धानां निर्णयो न वक्तव्यः । संदिग्धानि पुनश्चतुर्विधानि, कार्यप्रतिपादकान्यन्तर्यामिप्रतिपादकान्युपास्यरूप प्रतिपादकानि प्रकीर्णकानि चेति । तत्र प्रथमपादे कार्यवाक्यानां निर्णय उच्यते । सच्चिदानंद रूपेणाकाशवायुतेजोवाचकवाक्यानि षड्विधान्यपि निीयन्ते, अन्यत्रान्यवाचकान्यपि वेदतेिषु भगवद्वाचकानीति । . .
.. . : प्रथम सूत्र में ब्रह्मजिज्ञासा की गई, वह ब्रह्म कैसा है ? ऐसी आकांक्षा होने पर जन्मादि दो सूत्रों से, वेदों से प्रमाणित ब्रह्म की समवायिता सिद्ध की गई, इस प्रकार तीन सूत्रों से जिज्ञासा और लक्षण पर विचार किया गया ।
- इस संपूर्ण उत्तर मीमांसा शास्त्र में 'ब्रह्म के विषय में चार प्रकार से विचार किया गया है-स्वरूप, साधन और फल के प्रतिपादक वेदांतों तथा अन्य मतों का निराकरण । स्वरूप संबंधी विचार' में मतान्तरों के निराकरण के व्यतिरेक से साधन और फल को अनुपयोगी बतलाकर सर्वप्रथम स्वरूप का निर्णय किया गया है। द्वित्तीय अध्याय में मतान्तर निसि, तृतीय और