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दात्, नहि वेदो निष्प्रचंरूप कथनमुक्त्वा स्वोक्तं जगत्कत्त ं त्वं निषेधति । तस्मादध्यारोपापवाद परत्वेन व्याख्यातृभिर्वेदांतास्तिलापः कृता इति मन्यामहे, सर्ववाक्यार्थबाधात् । यथा निर्दोष पूर्णगुण विग्रहता भवति तथोपरिष्टाद्
वक्ष्यामः ।
सृष्टि को यदि ब्रह्म के अतिरिक्त किसी अन्य की कृति मानेंगे तो विषमता निर्दयता दोष घटित होगा [ ब्रह्म की सृष्टि में इन दोनों की संभावना ही नहीं है, क्योंकि वे अपनी सृष्टि में स्वयं ही तो क्रीडा कर रहे हैं । ब्रह्म की समवायिता न मानने पर जगद्रूपता संभव न होगी, इसलिए समवायिकारणता की सिद्धि के लिए समन्वयसूत्र की रचना की गयी तथा द्वितीय श्रध्याय के प्रथम पाद में "वैषम्यनैघृण्य" सूत्र में उक्त तथ्य का समाधान किया गया ] | यदि कहो कि जीव की कर्माधीशता मान लेने से उक्त दोष घटित न होंगे, सो होना संभव नहीं है । क्योंकि जीव में स्वतः सामर्थ्य नहीं है । जीव की कर्माधीशता मानने से तो परमात्मा का कर्तुत्व ही नष्ट हो जायगा और उस जगतकर्त्ता का सारा माहात्म्य ही समाप्त हो जायगा ।
यदि कहें कि शुद्ध परब्रह्म में कर्तृत्व आदि हैं ही नहीं, अतः प्रपंच जगत भी कोई वस्तु नहीं है, वह तो रज्जु में सर्व भ्रम की भ्रांति की तरह एक कल्पना ही है, अतः असत् पदार्थ में वैषम्यनं वृंण्य की बात भी प्रसंगत है । सर्व समाप्नोषि ततोऽसि सर्व इत्यादि स्मृति भी है (अर्थात् उक्त स्मृति में ब्रह्म की व्यापकता कही गई है, समवायिता नहीं ) इत्यादि । उक्त कथन असंगत है, ऐसा मानना तो पाखंड है, शास्त्र का ऐसा अर्थ करने से तो असुरों (चार्वाकों में गणना होगी, जैसा कि उक्त स्मृति का ही कथन है
अप्रतिष्ठ (जिसकी ईश्वर
"वे नास्तिक इस जगत को अनीश्वर, असत्य, में स्थिति न हो ), स्त्री पुरुष रूप कारण जन्य, कामहेतुक ही मानते हैं ।" उक्त मान्यता से तो शास्त्र भी प्रनर्थक हो जाते हैं तथा ब्रह्म और जगत में विभिन्नता मानने से "सर्व समाप्नोषि" वाक्य भी प्रसंगत हो जाता है । वेद, ब्रह्म के निष्प्रपंच रूप को बतलाकर ब्रह्म के जगत्कर्तृत्व का निषेध नहीं करता । जो लोग वेद की अध्यारोपापवाद परक व्याख्या करते हैं वे वेदांतों के रहस्यार्थं से अनभिज्ञ हैं, ऐसी हमारी मान्यता है । उन लोगों के मतानुसार "सर्व खल्विदं ब्रह्म ऐतदात्म्यमिदं सर्वम्, स श्रात्मानं स्वयमकुरुत" इत्यादि वाक्यों के अर्थ में बाबा उपस्थित होती है । ह की
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