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चतुर्थ में साधन और फल पर विचार किया गया है। प्रथम अध्याय में जिन स्वरूप वाक्यों पर विचार किया गया है, वे वाक्य संदिग्ध और असंदिग्ध दो प्रकार के हैं । निःसंदिग्व वाक्यों के निर्णय का प्रश्न ही नहीं उठता, संदिग्ध वाक्य चार प्रकार के हैं--कार्य प्रतिपादक, अन्तर्यामि-प्रतिपादक, उपास्य प्रतिपादक और प्रकीर्ण । प्रथम अध्याय के प्रथम पाद में कार्य वाक्यों का निर्णय किया गया है। सच्चिदानन्द रूप से कारण का प्रतिपादन करने वाले तथा आकाश-वायु और तेजोवाचक शब्द से कारण का निर्देश करने वाले वे वाक्य उक्त छः प्रकार के हैं । वे वाक्य अन्यत्र, अन्य वाचक होते हुए भी उपनिषदों में भगवद् वाचक ही हैं ।
४ अधिकरण
तत्र लक्षणविचार एव सद्रूपाणां वाचकता निीता, चिद्रूपस्य ज्ञानप्रधानस्य निर्णयार्थमीक्षत्यधिकरणमारभ्यते सप्तभिः सूत्रः । सप्तद्वारत्वाद् ज्ञानस्य । तत्रैवं संदेहः, ब्रह्मणः स्वप्रकाशत्वेन सर्वप्रमाणाविषयत्वात् “यतो वाचो निवर्तन्त" इति श्रुतेश्च विचारः कर्तुं न शक्यते, स्वप्रकाशत्व विरोधात्, श्रुतिविरोधाच्च, पाहो स्वित् विरोधपरिहारेण शक्यते इति, किं तावत् प्राप्तम् ? न शक्यत इति, कुतः ? "ज्ञापनार्थ प्रमाणानि संनिकर्षादिमागतः । सर्वथाऽविषयेऽवाच्येऽव्यवहार्ये कुतः प्रमा ॥"
ऐहिकामुष्मिक व्यवहारयोग्ये हिं पुरुषप्रवृत्तिः, प्रवृत्यर्थं हिं प्रमाणानि, ब्रह्म पुनः सर्वव्यवहारातीतमिति । नन्वेतदपि वेदादेवावगम्यते इति चेत्, तहि बाधितार्थप्रतिपादकत्वान्न वेदान्ता विचारयितव्या इति प्राप्ते, उच्यते
अब तक लक्षण पर विचार किया गया, जिसमें सद्रूपों की वाचकता का निर्णय है । अब ज्ञानप्रधान चिद् रूप के निर्णय के लिए सात सूत्रों से ईक्षत्यधिकरण प्रारंभ करते हैं । ज्ञान के आँख, नाक, कान, जिह्वा, त्वक्, मन
और जीव ये सात द्वार हैं, इसीलिए सात सूत्रों में यह अधिकरण पूरा किया गया है । यहाँ यह संदेह होता है कि ब्रह्म तो स्व-प्रकाश है अतः वह सभी प्रकार के प्रमाणों से अज्ञात है । "यतो वाचो निवर्तन्ते" इत्यादि श्रुति भी ऐसा ही कहती है, इसलिए उस पर विचार करना शक्य नहीं प्रतीत होता, स्वप्रकाशता और अति दोनों ही शक्यता पर संदेह व्यक्त करती हैं। क्या उक्त . विरोध का परिहार सम्भव है ? विचारने पर तो ऐसा लगता है कि सम्भव नहीं है, क्योंकि "ब्रह्म को सन्निकर्ष आदि सहकारी उपायों से