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२ अधिकरण
': किंच तत्र किलक्षणं किंप्रमाणकमिति जिज्ञासायामाह सूत्रकारः -
... वह ब्रह्म कैसा है ?. उसके अस्तित्व में क्या प्रमाण है ? इस जिज्ञासा पर सूत्रकार कहते हैं
जन्माद्यस्य यतः शास्त्रयोनित्वात् ।१।१।२॥
ननु कथमत्र संदेहो यावता "सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म" इत्याह श्रुतिरेव । विरुद्ध चैतत्, स्वरूपलक्षण कथने कार्यलक्षणस्य वक्तुमशक्यत्वात्, विवादाध्यासितत्वाच्च । न हि ब्रह्मणो जगत् कर्तृत्वं सर्वसम्मतम्, न चागमोदितमिति वेदमात्रस्य ब्रह्मप्रमाणकत्वं वक्त शक्यते । किं च व्यर्थश्वैवं विचारः, लक्षणप्रमाणाभ्यां हि वस्तुज्ञानं भवति, तच्च स्वरूपलक्षणेनैव भवतीति किमनेन, तस्मादयुक्तमुत्पश्याम इति ।
• ब्रह्म स्वरूप के सम्बन्ध में संदेह किया जाय यह समझ में नहीं पाता, श्रुति स्पष्ट रूप से उसके स्वरूप का विवेचन करती है कि "ब्रह्म सत्य, ज्ञान और अनन्त स्वरूप है ।" सूत्रकार यदि ब्रह्म को जगत्कर्ता के रूप में प्रस्तुत करते हैं तो वह विरुद्ध सा लगता है, क्योंकि विना स्वरूप बतलाये उसके कार्य को बतला, भी कैसे सकते हैं । स्वरूप लक्षण ही कार्य का उपजीव्य होता है (अर्थात् सामर्थ्यानुसार ही कार्यक्षमता का निर्धारण हो सकता है), पर कार्य का लक्षण विवादास्पद है अतः संशय का निराकरण संभव नहीं है । ब्रह्म की जंगत्कर्तृता सर्व सम्मत नहीं है (कपिल आदि उन्हें नहीं मानते) इसलिए सृष्टि के आधार पर ब्रह्म का स्वरूप निर्धारण नहीं किया जा सकता, और न परमात्मा द्वारा कहा गया है, इसलिए संपूर्ण वेद प्रामाणिक है यही कहा जा सकता है [वेद में ही प्रजापति के कर्तृत्व का भी उल्लेख है, इसलिए कार्य के लक्षण के आधार पर ब्रह्म पर विचार करना व्यर्थ है। लक्षण और प्रमाण दोनों से ही वस्तु का ज्ञान होता है, केवल कार्य के लक्षण से ही क्या होगा स्वरूप लक्षरम से ही संशय की निवृत्ति हो सकती हैं। हमें तो "जन्माधस्य यतः" सूत्र ही प्रयुक्त प्रतीत होता है