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पाद व्यवस्था" इत्यादि पूर्व मीमांसा के नियमानुसार मन्त्रों की अर्थवाचक पदानुसार पादव्यवस्था होती है, छंदानुसार नहीं, इस नियम से उपनिषदों के सारे ही वाक्य ऋक् मन्त्र हैं । उपनिषद् के मन्त्र प्रायः ब्रह्म प्रतिपादक हैं, इसलिए ब्राह्मण हैं । बाकी सृष्टि के प्रतिपादक हैं [ऋचां मूर्धानं यजुषामुत्तमांगम्" इस श्रुति से वेदांतों की मूर्धन्यता सिद्ध होती है] यद्यपि "स्वर्गकामो यजेत" इत्यादि विधियों की तरह, ब्रह्म ज्ञान को विधि नहीं कहा गय है, फिर भी "ब्रह्मविदांप्नोति परम्" इत्यादि फल प्राप्ति सम्बन्धी वाक्यों से ब्रह्म ज्ञान की अपेक्षा ज्ञात होती है । ब्रह्म ज्ञान दो प्रकार का होता है, स्वरूप ज्ञान और लीला विशिष्ट ज्ञान । “सत्यं ज्ञानमनन्तम्" इत्यादि से स्वरूप ज्ञान कराकर "तस्माद् वा" इत्यादि से सर्ग लीला का निरूपण किया गया है । इस प्रकार दोनों प्रकार के ज्ञान को पर-प्राप्ति का साधक बतलाया गया है । उसके निरूपक सृष्टि प्रादि के प्रतिपादक वाक्य, ज्ञानशेष भाव के द्योतक हैं। इसलिए वे अत्यन्त उपयुक्त हैं। पूर्व काण्ड की नश्वर स्वर्गादि साधनता से उत्तर काण्ड की अक्षय ब्रह्म प्राप्ति रूप साधकता विलक्षण है जो कि भूषण है । “यदेव विद्यया करोति" इत्यादि श्रति बतलाती है कि पूर्वकाण्ड उत्तरकाण्ड से उपकृत है तथा “तमेतं वेदानुवचनेन" श्रति उत्तरकाण्ड को पूर्व कांड से उपकृत बतलाती है । इसी परस्पर उपकृत भाव को दिखलाने के लिए ही "शास्त्रयोनित्वात्" में सामान्य शास्त्र पद का प्रयोग किया गया है [अन्यथा "वेदांत योनित्वात्" कहते] । कर्म और ब्रह्म का क्रिया और ज्ञान रूप धर्मपरक ऐक्य है इसीलिए कर्तृत्व बोधक वाक्यों में विरोध नहीं है। इसी से ब्रह्म की शास्त्र योनिता सिद्ध होती है [पूर्वकांड में प्रतिपाद्य जो यज्ञात्मक “यज्ञो वै विष्णुः" ब्राह्म धर्म हैं उनमें परमात्मा की क्रिया रूपता है तथा उत्तरकांड में ब्रह्मात्मक "विज्ञानमानंदं ब्रह्म" ब्राह्म धर्म हैं, उनमें परमात्मा की ज्ञान रूपता है, इस प्रकार क्रिया और ज्ञान रूपों में कर्म और ब्रह्म के धर्मी होने से ऐक्यं है, इसलिए कर्मनिष्ठ कर्तृत्व वाक्यों में विरोध नहीं है, अर्थात् पूर्वोत्तर कांडगत कत्तु व ब्रह्म में ही पर्यवसित है, अग्निहोत्र में जो कर्तृत्व है वह भी ब्रह्मनिष्ठ ही है] ।
::. केचिदत्र जन्मादि सूत्रं लक्षण वादनुमान वर्णयन्ति । अन्ये पुनः अत्यनुवादकमाहुः, सर्वज्ञत्वाय 'श्र त्यानुसार्यनुमानं च ब्रह्मरिण प्रमाण मिति । तत्तु "तं त्वौपनिषदं पुरुषं पृच्छामि” इति केवलोपनिषद् वेद्यत्वाद् उपेक्ष्यम्,