________________
२६
विद्याओं की तरह वेदांग रूप से गणना भी नहीं है । वेदांत का तात्पर्य वेद भी नहीं हो सकता, क्योंकि उनमें यज्ञ का प्रतिपादन नहीं है तथा उनमें मंत्र और ब्राह्मण का भी प्रभाव है । ऊसर भूमि की तरह, वेदांतों की वेदों में गणना होती आ रही है, पर उनसे लाभ क्या है ? ऐसा पूर्वमीमांसकों का कथन है।
___ मैवम्, अस्ति तावद् वेदत्वम्, अध्ययनादिम्यः स्मरणाच्च, प्रमाणं च सवोऽपि वेदः स्वार्थे, स च न यज्ञश्चेद् ब्रह्म भवतु, न चैतावता अवेदत्वम्, अतिप्रसंगात् । शक्यते अग्निहोत्रादीनामन्यतरदनन्तर्भाव्यतया वक्त म् । तस्माद् ब्रह्मापि प्रतिपादयंतो वेदांताः वंदत्वं न व्यभिचरन्तीति । मंत्रब्राह्मणरूप वं चोत्पश्यामः ऋगेव मंत्रः, ब्रह्मप्रतिपादकम् ब्राह्मणम्, तच्छेषाः सृष्ट्यादि प्रतिपादकाः। यद्यपि न विधीयते, तथापि तादृशमेव ज्ञानं फलायेति युक्तमुत्पश्यामः, पूर्व वैलक्षण्यन्तु भूषणाय । काण्डद्वयस्यान्योन्योपकारित्वाय साधारण ग्रहणम् । “यदेव विद्यया करोति" इत्यादिना पूर्व शेषत्वं सर्वस्य । “तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिति" इत्यादिना सर्वस्योत्तरशेषत्वम् । कर्मब्रह्मणोः क्रियाज्ञानयोर्धमपरत्वेनैक्यात् कर्तृ वाक्येषु सर्वत्र न विरोधः । तस्माच्छास्त्रयोनित्वं सिद्धम् ।
उपनिषदों में वेदत्व है, वेदों की तरह इनकी भी क्रमागत स्वाध्याय और अध्ययन की परम्परा है, इनके स्वर सहित पाठ, शूद्र श्रवण-अनध्याय आदि नियम भी हैं। पूर्व कांड की तरह इन्हें भी स्मृत माना गया है, कृत नहीं ("स्वयंभूरेष भगवन् ! वेदो गीतस्त्वया पुरा.। शिवाद्या ऋषि पर्यन्ताः स्मारोऽस्य न कारकाः।" इत्यादि पौराणिक वचन स्मृत ही बतलाता है)। इसका प्रमाण यह है कि जो वेद का अलौकिक अर्थ है वह दोनों भागों में प्रतिभासित है । वह अलौकिक अर्थ यज्ञ नहीं है अपितु ब्रह्म ही है । केवल यज्ञातिरिक्त ब्रह्म प्रतिपादन मात्र से उपनिषदें अवैदिक हैं, यदि ऐसा मानेंगे तबो यज्ञातिरिक्त वेद का संपूर्ण विषय अवैदिक सिद्ध हो जावेगा जो कि अतिशयोक्ति होगी । फिर तो यह भी कहा जा सकता है कि अग्निहोत्र प्रादि विधान के अन्तर्वर्ती अर्थवाद आदि सभी अवैदिक हैं। इसलिए 'वेदांतों का वेदत्व. दूषित नहीं हैं । जैसा पूर्व काण्ड में मंत्र और ब्राह्मण का रूप है वैसा ही उत्तरकाश में भी है । "ऋचः सामानि यजूं षि सा हि श्रीरमृता सताम् । इत्यादि में मन्त्रों की तीन श्रेणियां बतलाई गई हैं तथा "ऋना यत्रार्थवशेन