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"साधनं च फलं चैव सर्वस्याह श्र ुतिः स्फुटम् । न प्रवर्त्तयितुं शक्ता तथा चेन्नरको न हि ॥ प्रवर्त्तकस्तु सर्वत्र सर्वात्मा हरिरेव हि । यज्ञ एव हि पूर्वत्र बोध्यते स्वर्गसिद्धये ॥ सिद्ध एव हि सर्वत्र वेदार्थो वेदवादिनाम् । मंत्राणां कर्मणां चैव दर्शन श्रवरणाच्छ तौ । कृतिश्च सिद्धतुल्यत्वं वेदः स्वार्थे च सम्मतः ॥ "
" प्रजापतिरकामयत प्रजायेयेति", " स एतदग्निहोत्रं मिथुनमपश्यत्", " प्रजापतिर्यज्ञान् श्रसृजताग्निहोत्रं चाग्निष्टोमं च पौर्णमासीं चोक्थ्यं चामावस्यां चातिरात्रं च तानुदमिमीत यावदग्निहोत्रमासीत् तावानग्निष्टोमः " इत्यादि ।
कुछ लोग शास्त्रयोनित्व रूप पूर्वपक्ष के निराकरण के लिए " तत्तु समन्वयात् " सूत्र की योजना करते हैं । उक्त पूर्वपक्ष और सिद्धान्त दोनों ही असंगत हैं अतएव उपेक्ष्य हैं । जैसा कि प्राचार्य जैमिनि " श्रथातो धर्मजिज्ञासा" सूत्र से धर्म की व्याख्या करते हुए धर्म के प्रतिपादक समस्त पूर्वकाण्ड का समन्वय वेदवाक्यों से करते हैं तथा अवान्तर वेदवाक्यों की "व्याख्या भी उसी प्रकार की करते हैं । परन्तु समस्त वेद में धर्म ही जिज्ञास्य नहीं है । स्वयं जैमिनि के गुरु भगवान् व्यासदेव ही "ब्रह्म जिज्ञासा" करने की कहते हैं । धर्म और ब्रह्म की जिज्ञासायें केवल संदेह निवारण के लिए ही तो हैं, अलौकिक अर्थ के साधन के लिए तो की नहीं गई हैं । यदि इन दोनों hat attent साधकता मानेंगे तो वेदों की अन्याधीनता हो जावेगी जिससे
प्रामाणिक हो जावेंगे । जिज्ञासा का तात्पर्य यदि केवल विचारार्थंक ही होता तो "वेद जिज्ञासा" यही कहा जाता ; " धर्म जिज्ञासा - ब्रह्म जिज्ञासा" नहीं । वास्तविकता तो यह है कि "साधन और फल आदि समस्त विधियों का श्रुति में स्पष्ट वर्णन है, श्रुति केवल उन विधियों का बोध मात्र कराती है, प्रवर्तन नहीं । यदि प्रवर्तन कराना श्रुति को संभव होता तो वह सबके लिए इष्ट साधन ही करती, अनिष्ट नहीं, अतएव किसी को नरक प्राप्ति न होती । सर्वान्तर्यामी हरि ही सर्वत्र प्रवर्तक कहे गए हैं । स्वर्ग सिद्धि के लिए पूर्व कांड में जो यज्ञविधि का उल्लेख है, वह भी हरि रूप ही है; (यज्ञो वै विष्णुः ) ; वेदेकनिष्ठ महात्माओं का सर्वत्र ऐसा ही सिद्ध वेदार्थ है । "वैदिक उपाख्यानों, ऋषियों के मन्त्रों तथा वैदिक कर्मों में सर्वत्र ऐसा ही अर्थ देखा सुना जाता है । यज्ञ आदि कृतियाँ भगवान के समान ही हैं, ऐसा वेद वाक्यों के लक्ष्यार्थं से प्रमाणित होता है । “प्रजापतिरकामयत" इत्यादि वेद वाक्यों में उक्त तथ्य का स्पष्टीकरण किया गया है।"