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उच्यते-“संदेहवारक शास्त्रं वेद प्रामाण्यवादिनाम् । क्रियाशक्तिज्ञानशक्ती संदिह्यते परस्थिते ॥" न हि श्रुति व्याख्यातुं प्रवृत्तः सूत्रकारः, किन्तु संदेहं वारयितुम् । तत्र “सत्यं ज्ञानमनन्त ", "नित्य शुद्धमुक्त स्वभावम्" इति श्रुत्या कर्तृत्वादि प्रापंचिक धर्मराहित्यं प्रतीयते । “यतो वा इमानि भूतानि जायते, येन-जातानि जीवंति, यत् प्रयन्त्वभिसंविशंति" इति कर्तृत्वम् च ।
उक्त तर्क पर कथन यह है कि "वेद को ही एकमात्र प्रमाण मानने वालों के लिए ही यह शास्त्र संदेह निवारक है, परब्रह्म में स्थित क्रियाशक्ति
और ज्ञानशक्ति में ही लोगों को संशय होता है [अर्थात् उपनिषद् प्रतिपाद्य ब्रह्म सम्बन्धी सर्वज्ञता और जगत् कर्तृत्व पर ही सशय होता है], सूत्रकार श्रुति की व्याख्या करने के लिए तत्पर नहीं हैं, वे तो संदेह निवृत्ति के लिए प्रस्तुत हैं । वेद में-"सत्यं ज्ञातमनन्तम्" तथा "नित्य. शुद्ध :मुक्तस्वभावम्" इत्यादि से कर्तृता आदि प्रापंचिक धर्म राहित्य का विवेचन किया गया है । “यतो वा इमानि" इत्यादि से कत्तृत्व भी ज्ञात होता है।
तत्र संदेहः, किं ब्रह्म कत्त' आहोस्वित् अकर्तृ ? किं तावत् प्राप्तम्, अकर्तृ', कथम् ? "ब्रह्मविदाप्नोति परम्" इति प्रधानवाक्यम्, फलसंबंधात् । ऋचापि विवृतम् “सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म", "यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन्", "सोऽश्नुते सर्वान् कामान् सह ब्रह्मणा विपश्चिता" इति । फलार्थं च ब्रह्म ज्ञानम्, फलं च फलवाक्योक्त धर्मज्ञानादेव नान्यथा, कर्तृत्वं च परविवरणतयोक्तम् । परं किमित्युक्त यः सर्वान्तर आनन्द इति । कथं सर्वान्तरमित्याकांक्षायाम् परिचर्यार्थ भूतभौतिक सृष्टिमुक्त्वा गौणनन्तर्य परिहृतम् । गौणोपासना फलं च प्रधान शेषतयोक्तम् । तत्रान्यगत कर्तृत्वारोपानुवादोऽपि संभवति । ततश्च "भृगु वारुणिः” इत्युपाख्यानेऽपि परिचायकत्वाद् गौणकर्तृत्वमेवानू द्यते, फलाश्रवणादिति पूर्व पक्षः । .
अब संशय होता है कि ब्रह्म कर्ता है या नहीं ? कहते हैं कि नहीं। "ब्रह्मविदाप्नोति परम्" यह फल सम्बन्धी वाक्य है, ऋचा भी ऐसा ही विवरण प्रस्तुत करती है-"ब्रह्म सत्य ज्ञान अनन्त है, जो अपनी हृदगुहा में निहित उसे जानता है, वह उसके साथ समस्त कामनाओं का उपभोग करता है" इत्यादि । ब्रह्म प्राप्ति रूपी फल के लिए ही ब्रह्म ज्ञान होता है, फल वाक्योक्त धर्मज्ञान से ही फल को जान पाते हैं, 'जानने का कोई और