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सृष्ट्यादि की सामर्थ्य भी नहीं है । ब्रह्म के कर्तृत्व के विषय में श्रुति और कल्पसूत्र दोनों एकमत हैं । परब्रह्म में परस्पर विरोधी भावों का होना सुसंगत है, क्योंकि वह समस्त ऐश्वयों से युक्त है । वेदी से ही परमात्मा का कर्तृत्व ज्ञात होता है, वेद परम सत्यवादी हैं, अक्षर मात्र भी अन्यथा नहीं कहते, यदि उन्हें प्राप्त नहीं मानेंगे तो वे सर्वत्र अविश्वसनीय हो जावेंगे । ब्रह्म का कर्तृत्व स्वीकारने में कोई विरोध नहीं है, सत्य ज्ञान आदि की तरह कर्तृत्व धर्म भी उसमें संभव है । यदि ब्रह्म को सर्वथा धर्म रहित मानेंगे तो सामानाधिकरण्य का विरोध होगा । सत्य ज्ञान आदि की धर्म रूप से ही उपपत्ति हो सकती है । देह आदि को आत्मा मानने वाले संसारी जीव को जगत का कर्ता नहीं. मान सकते । प्रापंचिक कर्तृत्व में तो मूढतावश जीव को कर्तृत्व का अभिमान हो भी सकता है, पर अलौकिक सृष्टि में वह भी नहीं । इसी श्राशय से सूत्रकार ने सूत्र में "अस्य" पद का प्रयोग किया है, "अस्य" पद सृष्टि के पूर्ववर्ती जागतिक प्रपंच का वाचक है । अनेक भूत भौतिक देव तिर्यक मनुष्य आदि तथा अद्भुत रचना वाले अनेकानेक लोकयुक्त ब्रह्माण्ड कोटिरूप प्रपंचमय जगत की रचना का मन से संकल्प करना भी कठिन है, अनायास उसकी उत्पत्ति स्थिति और विनाश इत्यादि लौकिक नहीं हो सकते [यदि शंका करें कि ब्रह्म को तो अस्थूल अणु कहा गया है अतः उसे स्थूल प्रापंचिक जगत का कर्ता कैसे कहा जा सकता है ? सो प्रतीत होने वाले प्रापंचिक जगत के स्थूल रूप का ही निषेध किया गया है, श्रति प्रमाणित तत्त्व का निषेध नही है । लौकिक सत्यत्व आदि का ही निषेध किया गया है अलौकिक का नहीं । यदि अलौकिक सत्यत्व आदि का निषेध मान लेंगे तो ब्रह्म का ज्ञान होना ही असंभव हो जायगा। ऐसा नहीं है कि लोक में सत्यता नहीं है है तो व्यवहार मात्र के लिए ही है । कहना चाहिए कि कारणगत ब्रह्म को सत्यता ही इस कार्य रूप जगत में भासित हो रही है । इसलिए क्या कारण है कि ब्रह्म का कर्तृत्व न स्वीकारा जाय । स्मृति ने भी स्वीकारा है कि "कर्ता और कारयिता श्री हरि ही हैं।" __ न चारोपन्यायेन वक्तं शक्यम्, तथा सत्यन्यस्य स्यात्, तत्र न प्रकृतेः, अग्रे स्वयमेव निषिध्यमानत्वात्, न जीवानाम्, स्वातंत्र्यात्, न चान्येषामुभयनिषेधादेव, तस्मादः ब्रह्मगतमेव कत्तुं त्वम् । एवं भोक्तृत्वमपि । न वा काचिच्छ तिः कर्तु लं निषेधति । विरोधभानात् कल्प्या तु लौकिकपरा, फलवाक्येप्यत्र नानां गुणोपसंहारः कर्त्तव्यः ।