________________
१४
(अर्थात् सूत्रकार ने अनिष्ट अर्थ में रचना नहीं की है अपितु भाष्यकारों ने अनिष्टार्थ कल्पना की है), पूर्वमीमांसा के सूत्र निर्दोष हैं । विचारकों ने जो सूत्र से विपरीत कल्पना की है, स्वभाव भेद ही उसका कारण है । पूर्वमीमांसा आवश्यक भी है, फलाकॉक्षा रहित उपासकों के लिए भी याग आदि का ज्ञान आवश्यक है, क्यों कि-याग आदि चित्त शुद्धि के साधन हैं । आश्रमों के अनुसार याग आदि में कायिक आदि प्रकार भेद हैं । ब्रह्मचर्य में वाचिक यज्ञ का विधान है, तो गृही और वानप्रस्थी में कायिक तथा संन्यास में मानस यज्ञ विहित है [वाचिक ब्रह्मयज्ञ, कायिक-अग्निहोत्र, मानस-चिंतन] इस प्रकार जब एक (धर्म विचार) से ही सब कुछ संभव है तो, दूसरे (ब्रह्म विचार) की क्या आवश्यकता है ?
उच्यते-उपासनाया धर्मत्वेऽपि न ब्रह्मणो धर्मत्वम्, ज्ञान रूपत्वात्, धर्मस्य च क्रिया रूपत्वात् । न चार्थवादानां धर्म इव ब्रह्मण्युपयोगः कर्तु शक्यः । उत्पत्तिप्रकारफलभेदानामभावात् । प्रकृते तु माहात्म्यज्ञानार्थ तदुपयोगः । तस्य च ज्ञानोपयोगो यथा तथा वक्ष्यते चतुर्थे, उपासना. दर्शनादिपदानां मनोव्यापारत्वमेव, विचारस्यापि तथा ज्ञानोपयोगित्वं, तथा वक्ष्यते। सिद्धान्त. [जो यह कहा कि-"आत्मेत्येवोपासीत" इत्यादि नोदन वाक्यों के श्रवण से ही ब्रह्म ज्ञान का धर्मत्व सिद्ध है, फिर पृथक् रूप से उसकी जिज्ञासा की क्या आवश्यकता है ? इसका उत्तर देते हैं] जैसे-"ज्योतिष्टोमेन यजेत" इत्यादि में ज्योतिष्टोम देवता के उद्देश्य से द्रव्यत्याग.त्मक भावना रूप से धर्मत्व है, वैसा "प्रात्मेत्येवोपासीत" इत्यादि में केवल क्रियामात्र से धर्मत्व नहीं है, क्यों कि-उपासना मानस क्रिया साध्य है, इसलिए धर्म रूप होते हुए भी, निष्क्रिय ब्रह्म की साधिका होने से उसमें धर्मत्व नहीं है । ब्रह्म केवल ज्ञान रूप ही तो है, धर्म क्रिया रूप होता है [अर्थात् "सत्यं ज्ञानमनंतं ब्रह्म" में ब्रह्म को चिन्मात्र कहा गया है तथा "चोदना लक्षणोर्थो धर्मः" में धर्म को क्रिया, रूप' कहा गया है] । “वायु क्षेपिष्ठ" इत्यादि अर्थवाद वाक्यों की "वायध्यं श्वेतमालभेत्" इत्यादि विषय में धर्म रूप उपयोगिता है। सृष्टि आदि अर्थवाद वाक्यों की "प्रात्मेत्येवोपासीत". इत्यादि. विषय में वैसी उपयोगिता नहीं है । क्यों कि उसमें उत्पत्ति, प्रकार, फल मादि के भेद का