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यह कहें कि अनियम होगा, सो समझ में नहीं पाता कि अनियम कैसे होगा? वैसा करने अर्थात् धर्म जिज्ञासा के पूर्व ब्रह्म जिज्ञासा करने से, कोई पाप होता हो, ऐसा कोई अति प्रमाण तो है नहीं। यदि पाप संभव भी हो तो, अथ शब्द से वह उल्लेख्य नहीं है, क्योंकि-जैसे अध्ययन के बाद, स्वतः ही ब्रह्म सम्बन्धी अधिक आकांक्षा होती है, वैसे ही धर्म के बाद भी होगी ही, उसे कहने की आवश्यकता नहीं है [इसलिए अथ शब्द धर्म के प्रानन्तर्य अर्थ में प्रयुक्त नहीं है] ।
न च वैराग्यशमदमादिः पूर्व सिद्धिः, तेषामेवाभावात् । न च यदैव संभवस्तदैव तत्कर्तव्यमिति वाच्यम्, तदसंभवापत्तेः तथाहि, ब्रह्मणः परमपुरुषार्थ त्वे ज्ञाते तज्ज्ञानस्यैव साधनत्वेश्वगते तच्छेषत्वे च यागादीनामवगते तदर्थ कर्म करणे चित्त शुद्धौ सत्यां वैराग्यादि, इदं च वेदांतविचार व्यतिरेवेण न भवतीत्यन्योन्याश्रयः । निर्धारिते तु वेदांते विचारो व्यर्थ एव। .
वैराग्य शम दम प्रादि संपन्न व्यक्ति को ही वेदांत विचार का अधिकार है, ऐसा आनंतर्य अर्थ करना भी असंगत है। विना वेदांत विचार के वैराग्य शम दम आदि हो ही नहीं सकते, सांसारिक भोगों में लोगों की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है, नित्य अनित्य के विचारे बिना,शम दम आदि संभव होंगे भी कैसे ? वेदांत विचार के विना ही, याग आदि से चित्त शुद्धि हो जाने से शम दम आदि हो जावेंगे, यह नहीं कह सकते । वेदांत वाक्यों से ब्रह्मज्ञान की मोक्षसाधकता, यागादि की ब्रह्मज्ञान शेषता के ज्ञात होने पर, ब्रह्मज्ञानोत्पति के लिए नित्य अग्निहोत्र आदि के करने से चित्त शुद्ध होने पर ही वैराग्य आदि होते हैं । वैराग्य आदि ब्रह्मज्ञान के आश्रित हैं, ब्रह्मज्ञान वेदांत विचार के अधीन है। वेदांत विचार को यदि वैराग्य आदि पर आश्रित मानेंगे तो अन्योन्याश्रय दोष हो जायगा। वेदांत विचार के फलस्वरूप होने वाले शम दम आदि यदि पहले ही संभव हों तो वेदांत विचार की आवश्यकता ही क्या है।
: न च साक्षात्कारः तत्फलम , तस्य शब्द शेषत्वेन तत्कल्पनायां प्रमाणाभावात् । दशमस्त्वमसीत्यादौ प्रत्यक्ष सामग्या बलवत्वाद् देहादेः प्रत्यक्षत्वात् स्वदेहमपि पश्यन, दशमोऽहमिति मन्यते । न तथा प्रकृते, मनननिदिध्यासनविधीनामानर्थक्य प्रसंगात् । . . . .