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पदेन चैतज्ज्ञापयति । ब्रह्मज्ञानं पुरुषार्थसाधनस्वादिष्टम्, तदिच्छापूरणाय विचार प्रारभ्यत इति । यस्मात् कर्मादिभ्यो ज्ञानमेव पुरुषार्थ साधनमित्यतः तज्ज्ञानाय विचारोऽधिक्रियत इति ।
.जिज्ञासा शब्द का अर्थ "जानने की इच्छा" नहीं किया जा सकता। ज्ञानेच्छा मात्र से भ्रम निवृत्त नहीं होता । जिज्ञासा पद विचारार्थक है जैसा कि-"जिज्ञासितुमिच्छेत्" (जिज्ञासा की इच्छा) इत्यादि प्राचीन (शाबरमाभ्य) लोगों की उक्ति से निश्चित होता है । यदि सूत्रकार को जिज्ञासा पद से विचार अर्थ हीनाह्य था तो असंदिग्ध विचार शब्द को छोड़कर श्लिष्ट पद का क्यों प्रयोग किया ? उत्तर देते हैं कि सूत्रकार जिज्ञासा पद से यह ज्ञापन करते हैं कि-परम पुरुषार्थ का साधन ब्रह्मज्ञान ही इष्ट है, मोक्ष की इच्छा पूर्ण करने के लिए उसका विचार प्रारम्भ होता है।
अतः शब्दार्थ:-अथ शब्द का निरूपण करके अब "अतः" का निरूपण करते हैं
अधिकारी तु वणिक एव, न हि वेद विचारस्य वेदाधिकार्यतिरिक्तः शक्यते कल्पयितुम् । न हि मंदमतेर्वेदो नायातीति त्रैवणिके मतिमत्त्वमधिकारि विशेषणं कल्प्यते । अंधपंग्वादीनामिव कर्मणि गृहाद्यासाक्तस्य मननाद्यसंभवात् साक्षात्कारो न भविष्यति ।
वेदार्थ विचार में तीन वर्ण के लोग ही अधिकारी हैं, वेदार्थ विचार में अधिकारी के अतिरिक्त किसी अन्य की कल्पना भी नहीं कर सकते । ऐसा नहीं है कि मंदमति को वेद नहीं पाता इसलिए ही तीन वर्ण वालों को अधिकारी कहा गया हो, अपितु अंधे-लंगड़े की तरह असक्त, गृह कार्य में प्रत्यासक्त व्यक्ति मनन नहीं कर सकता अतः उसे साक्षात्कार नहीं हो सकता, इस प्राधार पर यूद्र के अनधिकार की बात कही गयी है।। " न च धर्मन्यायेन गतार्थत्वमस्य अप्रतिज्ञानादनुपलब्धेश्च । न च जगत्कारणं परमात्मा वा प्रकृतिर्वा परमाणवो वेति संदेहे किंचिदधिकरणमस्ति । स्यादेतत्, प्रथातो धर्म जिज्ञासेति धर्म विचारं प्रतिज्ञाय नोदककाक्यार्थस्य धर्मत्वमुक्त्वा प्रामाण्यपुरःसरं सर्वे संदेहा निवारिताः, तत्र ब्रह्मज्ञानस्यापि धर्मत्वम् । प्रात्मेत्येवोपासीत, अात्मानं श्लोकमुपासीत, तद्