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विचार ही उपयोगी होता तो विद्याओं में एकमात्र व्याकरण को ही वेदांग कहा जाता।
स्वातंत्र्ये च पुराणादेरिव मीमांसाया अपि प्रकारभेदेन प्रतिपादकत्वं स्यात् । “तं त्वौपनिषदं पुरुष पृच्छामि" इति तु तेषां निषेधः अन्यथा ज्ञानं नोपनिषदुक्तं फलं समर्पयति । तस्मानारम्भरणीय एव ब्रह्मविचारः । अनेन धर्म विचारोऽप्याक्षिप्त एव । न ह्येतन्निराकर्तुः सोऽयमतिभार इति पूर्वपक्षः। - यदि सभी विद्याओं की स्वतंत्र रूप से अंगता मान लें तो, पुराण आदि की तरह मीमांसा की भी प्रकारान्तर से प्रतिपादकता स्वीकारनी होगी। "तं त्वौपनिषदं पुरुषं पृच्छामि" इस श्रुति में तो उनका निषेध प्रतीत होता है । विद्या रहित ज्ञान औपनिषद फल की प्राप्ति नहीं करा सकता, इसलिए ब्रह्मविचार आरंभरणीय नहीं है । इस विचार से, धर्म सम्बन्धी विचार भी आक्षिप्त हो जाता है । यह मत निराकृत नहीं हो सकता क्योंकि बड़ा प्रबल है-ऐसा पूर्व पक्ष है।
सिद्धान्तः- "संदेहवारक शास्त्रं बुद्धि दोषात् तदुद्भवः । विरुद्ध शास्त्र संभेदात् अंगश्चाशक्य निश्चयः ॥ तस्मात् सूत्रानुसारेण कर्त्तव्यः सर्व निर्णयः । अन्यथा भ्रश्यते स्वार्थाम् मध्यमश्च तथादिमः ॥"
परंपरा पाठवदर्थ स्यापि गुरुमुखादेव श्रवणेऽपि मन्दमध्यमयोः संदेहो भवेत् । समान धर्म दर्शनात्, पदादि पाठवत् । तत्र यथा लक्षणानामुपयोग एवमेव मीमांसाया अपि । तदुक्तम्-"असंदिग्धेऽपि वेदार्थे स्थूणाखननवन्मतः । मीमांसा निर्णयः प्राज्ञे दुर्बुद्धस्तु ततो द्वयमिति ॥" .
"संदेह निवारक शास्त्र यदि बुद्धि दोष से संदिग्ध प्रतीत हो तथा विरुद्ध शास्त्र के संभेद या व्याकरणादि अंगों से उसका निराकरण संभव न हो तो, ब्रह्मसूत्र के अनुसार उसका निर्णय करना चाहिए, अन्यथा तात्पर्य से भ्रष्ट हो जाने का भय रहता है।"
. परंपरागत पाठ की तरह.अर्थ का भी गुरुमुख से श्रवण करने के बाद मंदबुद्धि वालों को संदेह हो जाता है, क्योंकि परस्पर विरुद्ध प्रर्थ की समान