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होने पर ही वैदिक अर्थ की प्रतीति हो सकती है, अपनी बुद्धि से काल्पनिक अथों का संयोजन वेद में शक्य नहीं है। वेदांतों में जैसा ब्रह्म का स्वरूप कहा गया है, वैसा ही मानना चाहिए, अणुमात्र भी अन्यथा कल्पना करना दोषावह होगा। "जो अन्य प्रकार के आत्म स्वरूप की, अन्य ही प्रकार से कल्पना करते हैं, वे आत्मघाती चोर कौन सा जघन्य पाप नहीं करते' इस श्रति से ज्ञात होता है, "आत्म तत्त्व तर्क से ज्ञय नहीं है" यह श्रति भी उक्त मत की पुष्टि करती है, और न आत्मतत्त्व विरुद्ध वाक्यों के श्रवण से उसका निर्धारणात्मक विचार ही हो सकताहै, क्योंकि-दोनों ही वाक्य वैदिक होने से प्रामाणिक हैं, अतः एक का निर्धारण करना शक्य नहीं है । अचिन्त्य अनंत शक्तिमान् सब कुछ करने में समर्थ ब्रह्म में किसी प्रकार का विरोध भी नहीं है।
अतएवोपनिषत्सु तत्तदुपाख्याने बोधाभावे औपाधिक बोत्रे च तपस एवोपदेशः । न च तपः शब्देन विचारः, तस्य पूर्वानाधिक्यात् तप एव, न चोपाख्यानानां मिथ्यात्वम् । तथासति सर्वत्रैव मिथ्यात्वं भवेद् विशेषाभावात् । न हि अप्रामाणिकोक्त विधौ वा उपाख्याने वा ब्रह्मस्वरूपे वा कस्यचिदपि विश्वासो यथा लोके । तस्माद् वेदे अक्षरमात्रस्याप्यसत्यार्थ ज्ञानस्याभावाद् वैदिकानां न संदेहोऽपि । किं पुनर्विरुद्धार्थ, कल्पना । विद्यासु च तदश्र तेः, यदि वेदार्थज्ञाने विचारस्योपयोगः स्यात् अंगत्वेन व्याकरणस्येव विद्यासु श्रवणं स्यात् ।
इस लिए उपनिषदों में, वैदिक उपाख्यानों के समझ में न आने और भ्रामक अर्थ की प्रतीति होने के कारण तप पर बल दिया गया है । तप शब्द के विचार से अर्थज्ञान नहीं हो सकता, अन्य शब्दों के विचार से तप शब्द के विचार में कोई विशेषता तो है नहीं, अतः तप का तात्पर्य तपश्चर्या ही समझना चाहिए । वैदिक उपाख्यानों को मिथ्या भी नहीं कह सकते, यदि उन्हें मिथ्या मानेंगे तो सारे वेद ही मिथ्या हो जावेंगे, वेदों में कोई सामान्य विशेष का तो भेद है नहीं और न वैदिक विधि, उपाख्यान और ब्रह्मस्वरूप सम्बन्धी अप्रामाणिक कथन में किसी को विश्वास ही हो सकता है, जैसा कि प्रायः लौकिक चर्चा में हो जाता है । वेद का एक अक्षर भी असत्य नहीं है, उसमें सारे ही अर्थ सत्य हैं, अर्थ ज्ञान न होने से ही संदेह होता है। वैदिकों को किसी भी स्थिति में वैदिक विषयों पर संदेह नहीं होता। फिर वे विरुद्धार्थ कल्पना तो कर ही कैसे सकते हैं । यदि वेदार्थ ज्ञान में एकमाल