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म नमो नमो निम्मलदसणस्स म णम पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरुभ्यो नमः
हभाग
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि
19
आगम - ५ 'भगवती' मूलं एवं वृत्ति: [२]
आजामा
व्यायाम
मूल संशोधक :- पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब
अभिनव-संकलनकर्ता :- आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि
' पूज्य शासनप्रभावक आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से
' 'वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था' पालिताणा
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ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता
श्री आगम मंदिर
- पालिताणा
SHOREO
Sin
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नमो नमो निम्मलदसणस्स
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि
मूल संशोधक
अभिनव-संकलनकर्ता
M
KA
पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज
- आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी
[M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि]
SantonymAISE
प्रत-प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका
मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 982559885519825306275
~3~
Page #4
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3113TH
HIGHE
आगम राजम आगम
आगम अजम आज्या
MINING
TIMITA
आगम आजम आगम
GRIVET BYTOTH
भागम भ
mons' Inniel
आजम आगम
श्री
जय राज
TINTA
आजम आजम आजम खा
3140
Hilore Hone
आजम आजम आजम
आजम
HIDIZ
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CELCORE
There's one
आगम
वाचना शताब्दी वर्ष
~4~
Het
SUSTA आगम CHICHT
शाम आगम म
आलम
अभिम
SIGHT आगम
आजम
आम
PATTE आगम
रामस आगम
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Andy Money Hon hever mone
आजम
आजम आज आजम
STOTE
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[भाग-९] श्री भगवती-अंगसूत्रम्- भाग-२
नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः
"भगवती" मूलं एवं वृत्ति: [भाग-2] (अपरनाम- "व्याख्याप्रज्ञप्ति") शतक-७ से ११
मूलं एवं अभयदेवसूरि रचित वृत्तिः ]
[आद्य संपादक: - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर-सूरीश्वरजी म. सा. ]
(किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com. M.Ed., Ph.D..श्रुतमहर्षि)
28/07/2017, शुक्रवार, २०७३ श्रावण शुक्ल ५
'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग-९
श्री आगमोद्धारक-वाचना-शताब्दी वर्ष-निमित्त 'आगम-वृत्ति-मुद्रण-प्रोजेक्ट'
~5~
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सामाचारी-संरक्षक, ज्ञानधनी, आगम-संशोधक, तीव्र-मेधावी, समाधिमृत्यु-प्राप्त, बहुमुखीप्रतिभाधारक पज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसरीश्वरजी महाराज साहेब
• जिन्होने शुद्ध-श्रद्धा, सम्यक्-श्रुत आराधना, यथाख्यातचारित्र के प्रति गति और अंत समय देह-ममत्व के त्याग के द्वारा कायोत्सर्ग नामक | अभ्यंतर-तप कि मिशाल कायम कि है ऐसे बहुश्रुत आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराज का परिचय कराना मेरे लिए नामुमकिन है, फ़िर भी गुरुभक्ति | : बुद्धि से श्रद्धांजली स्वरुप एक मामुली सी झलक पैस करने का यह प्रयास मात्र है।
.चारित्र-ग्रहण के बाद अल्प कालमे जो अपने गुरुदेव की छत्रछाया से दूर हो गये, तो भी गुरुदेव के स्वर्ग-गमन को सिर्फ कर्मो का प्रभाव मानकर | | अपने संयम के लक्ष्य प्रति स्थिर रहते हुए अकेले ज्ञान-मार्ग कि साधना के पथ पर चले | पढाई के लिए ही कितने महिनो तक रोज एकासणा तप के साथ : • बारह किल्लोमिटर पैदल विहार भी किया | लेकिन अपने मंझिल पे डटे रहे, और परिणाम स्वरुप संस्कृत एवं प्राकृत भाषा का, प्राचीन लिपिओ का, व्याकरण-न्याय-साहित्य आदि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया | जैन आगमशास्त्रो के समुद्र को भी पार कर गए।
.एक अकेला आदमी भी क्या नहीं कर शकता? इस प्रश्न का उत्तर हमें इस महापुरुष के जीवन और कवन से मिल गया, जब वे चल पड़े | देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के स्थापित पथ पर. बिना किसी सहाय लिए हुए सिर्फ अकेले ही "जैन-आगम-शास्त्रो" को दीर्घजीवी बनाने के लिए अनेक हस्तप्रतो से | : शुद्ध-पाठ तैयार किये | दो वैकल्पिक आगम, कल्पसूत्र और नियुक्तिओ को जोड़कर ४५ आगम-शास्त्रो को संशोधित कर के संपादित किया | फिर | पालीताणामें आगम मंदिर बनवाकर आरस-पत्थर के ऊपर ये सभी आगम-साहित्य को कंडारा, सूरतमें तामपत्र पर भी अंकित करवाए और “आगम मंजूषा" नाम से मुद्रण भी करवा के बड़ी बड़ी पेटीमें रखवा के गाँव गाँव भेज दिए | वर्तमानकालमे सर्व प्रथमबार ऐसा कार्य हुआ |
.सिर्फ मूल आगम के कार्य से ही उन के कदम रुके नही थे, उन्होंने आगमो की वृत्ति, चूर्णि, नियुक्ति, अव चूरी, संस्कृत-छाया आदि का भी | संशोधन-सम्पादन किया | उपयोगी विषयो के लिए उन्होंने एक लाख श्लोक प्रमाण संस्कृत-प्राकृत नए ग्रंथो की रचना भी की | कितने ही ग्रंथो की : प्रस्तावना भी लिखी | ये सम्यक्-श्रुत मुद्रित करवाने के लिए आगमोदय समिति, देवचंद लालभाई इत्यादि विभिन्न संस्था की स्थापना भी की।
.ज्ञानमार्ग के अलावा सम्मेतशिखर, अंतरीक्षजी, केशरियाजी आदि तीर्थरक्षा कर के सम्यक-दर्शन-आराधना का परिचय भी दिया | राजाओं को - प्रतिबोध कर के और वाचनाओ द्वारा अपनी प्रवचन-प्रभावकता भी उजागर करवाई | बालदिक्षा, देवद्रव्य-संरक्षण, तिथि-प्रश्न इत्यादि विषयोमे सत्य-पक्षमें । अंत तक दृढ़ रहे | जैनशासन के लिए जब जरुरत पड़ी तब अदालती कारवाईओ का सामना भी बड़ी निडरता से किया था ।
• सागरानंदजी के नाम से मशहूर हो चुके पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजीने अपने परिवार स्वरुप ७०० साधू-साध्वीजी भी शासन को भेट किये | ....ये थे हमारे गुरुदेव “सागरजी"...
___......मुनि दीपरत्नसागर... |
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संयमैकलक्षी, उपधान-तप-प्रेरक, चारित्र-मार्ग-रागी, प्रवचन-पटु, सुपरिवार-युक्त पूज्य गच्छाधिपतिआचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब
___.. परमपूज्य आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी के पाट-परंपरामे हुए तिसरे गच्छाधिपति थे पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी, जो एक पून्यवान् । | आत्मा थे, दीक्षा ग्रहण के बाद अल्पकालमे ही एक शिष्य के गुरु बन गये | फ़िर क्या ! शिष्यो कि संख्या बढती चली, बढ़ते हुए पुन्य के साथ-साथ वे
आखिर 'गच्छाधिपति' पद पे आरूढ़ हो गए | इस महात्मा का पुन्य सिर्फ शिष्यों तक सिमित नही था, वे जहा कहीं भी 'उपधान-तप' की प्रेरणा करते थे, तुरंत ही वहां 'उपधान' हो जाते थे | प्रवचनपटुता एवं पर्षदापुन्य के कारण उन के उपदेश-प्राप्त बहोत आत्माओने संयम-मार्ग का स्वीकार किया | खुद भी | संयमैकलक्षी होने के कारण चारित्रमार्ग के रागी तो थे ही, साथसाथ ज्ञानमार्ग का स्पर्श भी उन का निरंतर रहेता था | आप कभी भी दुपहर को चले जाइए, : वे खुद अकेले या शिष्य-परिवार के साथ कोई भी ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापनमें रत दिखाई देंगे | | ... ये तो हमने उनके जीवन के दो-तीन पहेल दिखाए | एक और भी अनुसरणीय बात उन के जीवनमें देखने को मिली थी- 'आराधना-प्रेम'. कैसी : भी शारीरिक स्थिति हो, मगर उन्होंने दोनों शाश्वती ओलीजी, [पोष)दशमी, शुक्ल पंचमी, त्रिकाल देववंदन, पर्व या पर्वतिथि के देववंदन आदि आराधना कभी | नहीं छोड़ी | आखरी सालोमें जब उन को एहसास हो गया की अब 'अंतिम-आराधना' का अवसर नजदीक है, तब उन के मुहमें एक ही रटण बारबार चाल हो : गया- "अरिहंतनुं शरण, सिद्धनु शरण, साधुन शरण, केवली भगवंते भाखेला धर्मनु शरण " इसी चार शरणो के रटण के साथ ही वे समाधि-मृत्यु-रूप सम्यक् । निद्रा को प्राप्त हए थे | ऐसे महान सरिवर को भावबरी वंदना |
+ मुनि दीपरत्नसागर... ... श्री वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था, पालिताणा ... | पूज्यपाद आनंदसागर-सूरीश्वरजी की बौद्धिक-प्रतिभा का मूर्तिमंत स्वरुप ऐसी इस संस्था की स्थापना विक्रम-संवत १९९९ मे महा-वद ५ को हुइ। पूज्य : आचार्य हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से जिन की तरफ़ से इस सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि के लिए संपूर्ण द्रव्य-सहाय की प्राप्ति हुइ ।
शिल्प-स्थापत्य, शिलोत्कीर्ण आगम और समवसरण स्थित नयनरम्य ४५ चौमुख जिन-प्रतिमाजी से सुशोभित ऐसा ये 'आगममंदिर' है, जो शत्रुजयगिरिराज कि तलेटीमे स्थित है । वर्तमान २४ जिनवर, २० विहरमान जिनवर और १ शाश्वत मिलाकर ४५ चौमुखजी यहा बिराजमान है। जहां ४० समवसरण ।
की रचना मेरु पर्वत के तिनो काण्ड के वर्णो के अनुसार चार अलग-अलग रंगो के आरस-पत्थर से बना है, देवो दवारा रचित समवसरण के शास्त्र वर्णन| अनुसार आगम-मंदिर कि समवसरण का स्थापत्य है । ऐसी अनेक विशेषता से युक्त ये आगममंदिर है।
*** मुनि दीपरत्नसागर....
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'सागर-समुदाय-एकता-संरक्षक, तीर्थ-उद्धार-कार्य-प्रवृत्त, गुणानुरागी' इस “सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग १ से ४० के संपूर्ण अनुदान के प्रेरणादाता पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी महाराज साहेब
पुज्यपाद स्व. गच्छाधिपति देवेन्द्रसागर-सूरीश्वरजी के विनयी शिष्य एवं दो गच्छाधिपतिओ के मुख्य सहायक के रुपमे 'सागर समुदाय' के सुचारु : संचालक पूज्य हर्षसागरसूरिजी, जिन की प्रेरणा से ये "सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि" के मुद्रण के लिए संपूर्ण व्यराशि प्राप्त हुई , उनका अत्यल्प परिचय यहां | करेंगे| समुदाय-एकता के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हए ये महात्मा समुदाय के साधु-साध्वीजी की आवश्यकताओकी पूर्ती के लिए भी प्रवृत्त रहेते है, प्राचीन- 1 : अर्वाचीन तीर्थों के जीर्णोद्धार एवं विकाश के लिए भी उत्साहित रहेते है, ज्ञान-क्षेत्र अछता न रहे इसीलिए अनुमोदना, अनुदान एवं समय मिलने पर शास्त्रवांचनमें भी रूचि रखते है | समुदाय के जरूरतमंद साध्वीजी भगवंतो के आवास का विषय हो या साध्वीजी के विहारमें मजदूर का वेतन चुकाना हो, ऐसे छोटेछोटे कार्यो के प्रति भी उन का लक्ष्य रहेता है | दर्शन-शुद्धि के लिए जब उन्होंने समग्र भारतवर्ष के १०० साल तक के पुराने जिनालयो में १८ अभिषेक की • प्रेरणा की, उस वक्त लगभग सभी अभिषेक-सामग्री की द्रव्य-द्धि का खयाल रखते हुए अपनी मेधावी बुद्धि का परिचय दिया था, साथमे अनुकंपा भाव से पुजारी या विधि करानेवाले को यत्किंचित् बहुमान प्रगट करते हुए कुछ धन-राशि प्रदान करवाई। ऐसे बहुगुण-संपन्न महात्मा पूज्य आचार्यश्री हर्षसागर-सूरिजी को हम भावभरी वंदना करते हुए इस श्रुतकार्य का प्रारंभ करने जा रहे है |
*** मुनि दीपरत्नसागर
__ [कात्रेज]पूना, शंखेश्वर, कपडवंज, प्रभासपाटण आदि स्थानोमे आगममंदिर के प्रेरक, कर्मग्रंथ अभ्यास, निस्पृह महात्मा पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्य श्री दौलतसागर-सूरीश्वरजी महाराज साहेब
(एव) अजातशत्रु, स्वाध्याय-रसिक, प्रशांतमूर्ती और अपने गुरु के प्रीतिपात्र परम पूज्य आचार्य श्री नंदीवर्धनसागर-सूरिजी महाराज साहेब इस पवित्र श्रुत-कार्यमे दोनो सूरिवरो का स्मरण करते हुए कोटि कोटि वंदना के साथ
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-..
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“भगवती’- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
___ शतक [-], वर्ग [-], अंतर्-शतक -], उद्देशक [-], मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] “भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
सुत्रांक [-]
MARWARYAAVARNAATARNANARWARIANNANNARYANAANANARia
॥ अहम् ॥ श्रीमत्सुधर्मस्वामिगणभृत्प्ररूपितं श्रीमद्गौतमगणधारिवाचनानुगतं श्रीमचन्द्रकुला
लङ्कारश्रीमदभयदेवसूरिसूत्रितविवरणयुतं
श्रीमद्भगवतीसूत्रम् । (प्रथमो विभागः) प्रकाशयित्री-श्रीमत्सुरतबन्दरवास्तव्यश्रेष्ठिवर्यमूलचन्द्रात्मजसुपुत्रोत्तमचन्द्राभयचन्द्रविहितपूर्ण
द्रव्यसाहाय्येन शाह वेणीचन्द्र सुरचन्द्रद्वारा श्रीआगमोदयसमितिः
दीप
GNNAINNIENamare
SARKANNNAWAINANAp
अनुक्रम
मुद्रित मोहमय्यां निर्णयसागरमुद्रणयन्त्रे रा. रा. रामचन्द्र येसू शेडगेवारा वीरसंवत् . २४४४ विक्रमसंवत्, १९७४
काइष्ट. १९१८ प्रतयः १००० पग्यं ३-४-.
सपाईनं रूप्यकत्रयं DUUUUUUUUUUUUNNMNMMMNUNUMUMANNS
FarPuranaLPINEEDOM
भगवती-[अगासूत्रस्य मूल "टाइटल पेज"
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....
२७१
मूलाका: ८६८ + ११४ भगवती (अग)सत्रस्य विषयानुक्रम
दीप-अनुक्रमा: १०८७ | मलांक:: | विषय:
पृष्ठांक: मूलांक: विषय: पृष्ठांक: मूलांक:
पृष्ठांक: | शतक -१ ... ......शतकं - ३
......शतक -५ ००१ | उद्देशक: ०१ चलन १७० | उद्देशक: ०२ चमरोत्पात
२६४ | उद्देशक: ०९ राजगृह ०२६ | उद्देशक: ०२ दुःख १४८ | उद्देशक: ०३ क्रिया
| उद्देशक: १० चन्द्रमा ०३४ | उद्देशक: ०३ कांक्षाप्रदोष १८४ | उद्देशक: ०४ यान
शतकं-६ ०४६ | उद्देशक: ०४ कर्मप्रकृति १८९ | उद्देशक: ०५ स्त्री
२७२ | उद्देशक: ०१ वेदना ०५२ | उद्देशक: ०५ पृथ्वी १९१ | उद्देशक: ०६ नगर
२७७ उद्देशक: ०२ आहार ०६९ | उद्देशक: ०६ यावंत १९३ | उद्देशक: ०७ लोकपाल
રા૦૮ | उद्देशक: ०३ महा-आश्रव ०७९ | उद्देशक: ०७ नैरयिक २०१ | उद्देशक: ०८ देवाधिपति
२८६ उद्देशक: ०४ सप्रदेशक ०८५ | उद्देशक: ०८ बाल २०५ | उद्देशक: ०९ इन्द्रिय
२९१ | उद्देशक: ०५ तमस्काय ०९४ | उद्देशक: ०९ गुरुत्व २०६ | उद्देशक: १० परिषद
३०० | उद्देशक: ०६ भव्य १०२ उद्देशक:१० चलत
| शतकं -४
३०२ | उद्देशक: ०७ शाली शतक - २ २०७ | उद्देशका: १-४ लोकपाल-विमान
३१३ उद्देशक: ०८ पृथ्वी १०५ | उद्देशक: ०१ स्कंदक २१० | उद्देशका: ५-८लोकपालराजधानी
३१७ | उद्देशक: ०९ कर्म ११८ | उद्देशक: ०२ समुदघात २११ | उद्देशक: ०९ नैरयिक
३२० | उद्देशक: १० अन्ययूथिक ११९ | उद्देशक: ०३ पृथ्वी २१२ | उद्देशक: १० लेश्या
शतकं - ७.... १२२ | उद्देशक: ०४ इन्द्रिय ... शतक - ५.....
३२७ | उद्देशक: ०१ आहार
०१५ १२३ | उद्देशक: ०५ अन्यतीर्थिक २१५ | उद्देशक: ०१ रवि
३३९ | उद्देशक: ०२ विरति
030 | उद्देशक: ०६ भाषा २२० | उद्देशक: ०२ वाय
३४५ | उद्देशक: ०३ स्थावर
०४० १३९ | उद्देशक: ०७ देव २२३ | उद्देशक: ०३ जालग्रंथिका
३५१ उद्देशक: ०४ जीव
०४६ १४० | उद्देशक: ०८ चमरचंचा २२५ | उद्देशक: ०४ शब्द
३५३ उद्देशक: ०५ पक्षी
०४८ १४१ | उद्देशक: ०९ समयक्षेत्र २४१ | उद्देशक: ०५ छद्मस्थ
३५५ | उद्देशक: ०६ आयु
०४९ १४२ | उद्देशक: १० अस्तिकाय २४४ | उद्देशक: ०६ आय
३६१ | उद्देशक: ०७ अनगार
०६० शतकं- ३..... २५३ | उद्देशक: ०७ पुदगल
३६५ | उद्देशक: ०८ छद्मस्थ
०६६ उद्देशक: ०१ चमरविकुर्वणा २६२ | उद्देशक: ०८ निर्ग्रन्थीपुत्र
३७१ | उद्देशक: ०९ असंवृत पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-०५] अंग सूत्र-[०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
१५१
०७१
~10~
Page #11
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________________
मूलाङ्का: ८६८ + ११४
मूलांक:
विषय:
...
3G:
३८१
३८९
३९७
४००
४०१
४०५
४१०
४१२
४२२
४३०
४३८
४४०
४४४
४४५
४५१
४६०
४७१
...
४७३
४७७
... शतकं ७
-
उद्देशक: १० अन्यतीर्थिक
20
शतकं ८
-
उद्देशक: ०१ पुद्गल उद्देशक : ०२ आशीविष
उद्देशक: ०३ वृक्ष
उद्देशक: ०४ क्रिया
उद्देशक : ०५ आजीविक
उद्देशक: ०६ प्रासूकआहार
उद्देशक: ०७ अदत्तादान उद्देशक: ०८ प्रत्यनिक
उद्देशक: ०९ प्रयोगबन्ध
उद्देशकः १० आराधना
शतकं ९
-
उद्देशक: ०१ जम्बू उद्देशक: ०२ ज्योतिष्क
पृष्ठांक:
०८८
०९७
०९७
१२१
१६९
१७४
१७५
१८७
५६३
१९९
५६७
२०५
५६८
२२९
५६९
२७५
५८४
२९१
५८५
२९१
५८९
२९४
५९३
२९७
५९४
३०१
५९५
३१९
...
उद्देशक: ३३ कुण्डग्राम
३५३
५९६
उद्देशक: ३४ पुरुषघातक
४२१
६००
शतकं १०.....
४२६
६०३
उद्देशक: ०१ दिशा
४२६
६०७
उद्देशक: ०३ पृथ्वी उद्देशक: ०४ पुद्गल
उद्देशक: ०२ संवृतअनगार
४३१
६१२
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०५] अंग सूत्र [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
उद्देशका: ०३ ३० अंतर्दविप
उद्देशक: ३१ असोच्चा
उद्देशक: ३२ गांगेय
भगवती (अङ्ग) सूत्रस्य विषयानुक्रम
मूलांक:
विषय: १०
...
४८२
४८७
४८८
४९०
४९३
४९४
४९९
५००
५०१
५०२
५०३
५०४
५०५
५०६
५१०
५१४
५२५
..... शतकं
उद्देशक : ०३ आत्मऋद्धि
उद्देशक: ०४ श्यामहस्ती
५२९
५३४
५३७
५३८
| उद्देशक: ०५ देव
उद्देशक: ०६ सभा
उद्देशका: ०७-३४ अंतर्दुद्वीप
शतकं ११
उद्देशक: ०१ उत्पल
-
उद्देशक: ०२ शालूक
उद्देशक : ०३ पलाश
उद्देशक: ०४ कम्भिक
उद्देशक: ०५ नालिक
उद्देशक: ०६ पद्म
उद्देशक: ०७ कर्णिक
उद्देशक: ०८ नलिन
उद्देशक : ०९ शिवराजर्षि
उद्देशक: १० लोक
उद्देशक: ११ काल
उद्देशक: १२ आलभिका
शतकं - १२......
उद्देशक: ०१ शंख
उद्देशक : ०२ जयंति
पृष्ठांक: मूलांक:
...
५४२
५४६
५५०
५५२
५५४
५६०
~11~
४३८
४४३
४४६
४५४
४५६
४५८
४५८
४६८
४६८
४६८
४६८
४६९
४६९
४६९
४७०
४८४
५०६
५११
दीप- अनुक्रमाः १०८७ विषय:
..... शतकं १२ उद्देशक: ०५ अतिपात
उद्देशक: ०६ राहू
उद्देशक: ०७ लोक
-
उद्देशक: ०८ नाग
उद्देशक : ०९ देव
उद्देशक: १० आत्मा
शतकं १३
उद्देशक: ०१ पृथ्वी
उद्देशक: ०२ देव
उद्देशक: ०३ नरक
उद्देशक: ०४ पृथ्वी
उद्देशक: ०५ आहार
उद्देशक: ०६ उपपात
उद्देशक: ०७ भाषा
उद्देशक: ०८ कर्मप्रकृति
उद्देशक: ०९ अनगारवैक्रिय
उद्देशक: १० समुद्घात
शतकं १४......
-
उद्देशक: ०१ चरम
उद्देशक: ०२ उन्माद
उद्देशक: ०३ शरीर
| उद्देशक: ०४ पुद्गल उद्देशक: ०५ अग्नि
पृष्ठांक
Page #12
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________________
पष्ठाक
मुलाक:
मूलाइका: ८६८ + ११४ भगवती (अङ्ग)सूत्रस्य विषयानुक्रम
दीप-अनुक्रमा: १०८७ मलाक:: विषय: मूलांक: _ विषयः
पृष्ठांक:
विषय:
पृष्ठांक: .....शतकं - १४ ... .....शतकं - १७
.....शतकं - १९ ६१५ | उद्देशक: ०६ आहार ७०६ | उद्देशक: ०४ क्रिया
७७० | उद्देशक: ०८ निर्वत्ति ६१८ | उद्देशक: ०७ संश्लिष्ट
७०८
| उद्देशका: ६-११ पृथ्व्यादिकाय |
७७४ | उद्देशक: ०९ करण ६२४ | उद्देशक: ०८ अंतर ७१५ | उद्देशक: १२ एकेन्द्रिय
७७५ | उद्देशक: १० व्यंतर ६३१ | उद्देशक: ०९ अनगार
७१६ | उद्देशका:१३-१७ नागादिकुमार ।
| शतक - २० ६३६ | उद्देशक: १० केवली
| शतकं - १८
७७९ | उद्देशक: ०१ बेईन्द्रिय शतकं - १५ ७२१ उद्देशक: ०१ प्रथम
७८१ | उद्देशक: ०२ आकाश ६३७ | --गोशालक ७२७ उद्देशक: ०२ विशाखा
७८३ उद्देशक: ०३ प्राणवध शतकं - १६ ७२८ उद्देशक: ०३ मार्कदीपुत्र
७८५ | उद्देशक: ०४ उपचय ६६० | उद्देशक: ०१ अधिकरण ७३३ उद्देशक: ०४ प्राणातिपात
७८६ उद्देशक: ०५ परमाण ६६६ | उद्देशक: ०२ जरा ७३६ उद्देशक: ०५ असुरकमार
७८९ | उद्देशक: ०६ अंतर ६७० | उद्देशक: ०३ कर्म ७४० उद्देशक: ०६ गडवर्णादि
७९२ | उद्देशक: ०७ बन्ध ६७२ | उद्देशक: ०४ जावंतिय ७४२ | उद्देशक: ०७ केवली
७९३ | उद्देशक: ०८ भूमि ६७३ | उद्देशक: ०५ गंगदत्त ७४९ | उद्देशक: ०८ अनगारक्रिया
८०१ | उद्देशक: ०९ चारण उद्देशक: ०६ स्वप्न ७५० | उद्देशक: ०९ भव्यद्रव्य
८०३ | उद्देशक: १० आय उद्देशक: ०७ उपयोग ७५३ उद्देशक: १० सोमिल
| शतक - २१ ६८३ | | उद्देशक: ०८ लोक
| शतकं - १९.....
८०६ वर्ग:१ शाली-आदि उद्देशक: ०९ बलिन्द्र ७५८ | उद्देशक: ०१ लेश्या
८१५ वर्गा:२-८ मूलअलसी, वंश, ६८८ | उद्देशक: १० अवधि
| उद्देशक: ०२ गर्भ
इक्ष,सेडिय, अमरुह, तुलसी ६८९ उद्देशक: ११-१४ दविपादि. ७६१ उद्देशक: ०३ पृथ्वी
शतकं - २२ शतक - १७..... ७६५ | उद्देशक: ०४ महाश्रव
८२२ वर्गा:१-६ताड़,निम्ब,अगस्ति ६९३ | उद्देशक: ०१ कुंजर ७६६ उद्देशक: ०५ चरम
| वेंगन, सिरियक,पुष्पकलिका ६९९ | उद्देशक: ०२ संयत ७६८ | उद्देशक: ०६ दवीप
| शतकं - २३ ७०३ | उद्देशक: ०३ शैलेशी ७६९ | उद्देशक: ०७ भवन
८२९ वर्गा:१-४आलू,लोही,आय,पाठा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[०५], अंग सूत्र-[०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
६७७
६८२
६८७
१७६०
...
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९९५
१९४६
८५७
१६८८
१९४६
मूलाका: ८६८ + ११४ मूलांक:: विषय:
पृष्ठांक | शतक - २४
१६१३ ८३५ | उद्देशक: ०१ नैरयिक
१६१३ ८४३ | उद्देशक: ०२ परिमाण
१६३९ ८४४ | उद्देशक: ०३-११नागादिकुमारा | १६४५ ८४६ | उद्देशक: १२-१६ पृथ्व्यादि १६४९ ८५३ | उद्देशक: १७-२० बेईन्द्रियादि १६७०
उद्देशक: २१-२४ मनुष्यादि शतक - २५
१७०७ उद्देशका: १-१२ लेश्या, द्रव्य, | १७०७ संस्थान, युग्म,पर्यव, निर्गन्थ संयत, ओघ, भव्य, अभव्य, सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि शतक - २६
| १८६० । । ९७५ उद्देशका: १-११ जीव, लेश्या, १८६०
पखिय, दृष्टि, अज्ञान, ज्ञान, संज्ञा,वेद,कषाय,उपयोग,योग शतक - २७
१८७९ ९९१ | उद्देशका: १-११ जीव आदि-- | १८७९
___जाव २६ शतक
भगवती (अङ्ग)सूत्रस्य विषयानुक्रम मूलांक: | विषय: पृष्ठांक: | शतक - २८
१८८० ९९२ | उद्देशका: १-११ जीव आदि- | १८८०
जाव २६ शतक शतकं - २९
१८८३ | उद्देशका: १-११ जीव आदि-- १८८३
जाव २६ शतक | शतक -३०
१८८७ ९९८ ।
उद्देशका: १-११ समवसरण, १८८७
लेश्या आदि शतक - ३१
१८९९ १००३ | उद्देशका: १-२८ युग्म, नरक, । १८९९
उपपात आदि विषयका: | शतकं - ३२
१९०५ | उद्देशका: १-२८ नारक्स्य -- १९०५ | उद्वर्तन, उपपात, लेश्यादि | शतकं - ३३
१९०६ १०१८ | एकेन्द्रिय शतकानि-१२ १९०६ शतक - ३४
१९१२ १०३३ | एकेन्द्रिय शतकानि-१२ १९१२ ।
दीप-अनुक्रमा: १०८७ | मूलांक: विषय:
पृष्ठांक: शतकं - ३५
१९३२ १०४४ | एकेन्द्रिय शतकानि-१२ शतक - ३६
१९४४ | बेन्द्रिय शतकानि-१२ ।
| शतक - ३७ १०६१ | त्रिन्द्रिय शतक
शतक - ३८ १०६२ चतुरिन्द्रिय शतक शतकं - ३९
१९४६ १०६३ असंज्ञीपंचेन्द्रिय शतकानि शतकं -४०
१९४७ १०६४ संजीपंचेन्द्रिय शतकानि शतकं - ४१
१९५४ १०६८ से | उद्देशका: १-१९६ राशियुग्म, ---१०७९ व्योजराशि, वापरयुग्मराशि
कल्योजराशि इत्यादि
१०१६
उद्दशकाः ।
१९६१
| १०८० से | उपसंहार गाथा ----१०८६ | परिसमाप्तः
---१९६५
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०५], अंग सूत्र-[०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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[भगवती- मूलं एवं वृत्ति:] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “(श्रीमद) भगवतीसूत्र" के नामसे सन १९१८ (विक्रम संवत १९७४) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब |
इसी प्रत को फिर से दुसरे पूज्यश्रीओने अपने-अपने नामसे भी छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, अपना एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. जिसमे किसीने पूज्यपाद सागरानंदसूरिजी के नाम को आगे रखा, और अपनी वफादारी दिखाई, तो किसीने स्वयं को ही इस पुरे कार्य का कर्ता बता दिया और श्रीमद्सागरानंदसूरिजी तथा प्रकाशक का नाम ही मिटा दिया |
हमारा ये प्रयास क्यों? + आगम की सेवा करनेके हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर शतक-वर्ग-उद्देशक-मूलसूत्र- आदि के नंबर लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा शतक, उद्देशक आदि चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढ़ते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस [-] दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची है।
हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक शतक, वर्ग एवं उद्देशक लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते शतक या विषय तक आसानी से पहुँच शकता है | अनेक पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जिसमे उस पृष्ठ पर चल रहे खास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है |
शासनप्रभावक पूज्य आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी म.सा. की प्रेरणासे और श्री वर्धमान जैन आगममंदिर, पालिताणा की संपूर्ण द्रव्य सहाय से ये 'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' भाग-९ का मुद्रण हुआ है, हम उन के प्रति हमारा आभार व्यक्त करते है |
......मुनि दीपरत्नसागर.
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [२६०] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
॥ अथ सप्तमशतकम् ॥
प्रत सूत्रांक [२६०]
गाथा
व्याख्यातं जीवाद्यर्थप्रतिपादनपरं षष्ठं शतम् , अथ जीवाद्यर्थप्रतिपादनपरमेव सप्तमशतं व्याख्यायते, तत्र चादावेहै वोद्देशकार्थसङ्ग्रहगाथा
आहार १विरति २ थावर ३ जीवा ४ पक्खी य५ आज ६ अणगारे ७।
छउमस्थ ८ असंवुड ९ अन्नउत्थि १० दस सत्तमंमि सए ॥१॥ 'आहार' त्यादि, तन्त्र 'आहार'त्ति आहारकानाहारकवक्तव्यतार्थः प्रथमः १ 'विरईत्ति प्रत्याख्यानार्थो द्वितीयः २८ 'थावर'त्ति वनस्पतिवक्तव्यतार्थस्तृतीयः ३ 'जीव'त्ति संसारिजीवप्रज्ञापनार्थश्चतुर्थः ४ 'पक्खी यत्ति खचरजीवयोनि| वक्तव्यतार्थः पञ्चमः ५'आउ'त्ति आयुष्कवक्तव्यतार्थः षष्ठः 'अणगारत्ति अनगारवकव्यतार्थः सप्तमः ७ 'छउमत्थति छद्मस्थमनुष्यवक्तव्यतार्थोऽष्टमः ८ 'असंवुड'त्ति असंवृतानगारवक्तव्यताओं नवमः ९ 'अन्नउस्थिय'त्ति कालोदायिप्रभृतिपरतीथिंकवक्तव्यतार्थो दशमः १० इति ॥
तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव एवं वदासी-जीवे गं भंते ! के समयमणाहारए भवइ ?, गोयमा ! पढमे | समए सिय आहारए सिय अणाहारए वितिए समए सिय आहारए सिय अणाहारए ततिए समए सिय आहारए सिय अणाहारए चउत्थे समए नियमा आहारए, एवं दंडओ, जीवा य एगिदिया य चउत्थे समए
दीप
Cccc
अनुक्रम [३२७
३२८]
अथ सप्तम-शतकं आरब्ध:
अत्र सप्तम शतके प्रथम-उद्देशक: आरभ्यते
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [२६०] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२६०]
शतक उद्देशः १ अनाहाराल्पाहारसम यः सू२६०
गाथा
व्याख्या-|| सेसा ततिए समए ॥ जीवे गं भंते ! 'के समयं सवप्पाहारए भवति ?, गोषमा! पढमसबयो-
प्रज्ञप्तिः ववन्नए वा चरमसमए भवत्थे वा एस्थ णं जीवे णं सबप्पाहारए भवइ, दंडओ भाणियहो जाव येमाअभयदेवी
रणियाणं ॥ (सूत्रं २६०)॥ या वृत्तिः१४
__के समयं अणाहारए'त्ति परभवं गच्छन् कस्मिन् समयेऽनाहारको भवति ! इति प्रश्नः, उत्तरं तु यदा जीव ऋजु- ॥२८॥ गयोत्पादस्थानं गच्छति तदा परभवायुषः प्रथम एव समये आहारको भवति, यदा तु विग्रहगत्या गच्छति तदा प्रथम
& समये वक्रेऽनाहारको भवति, उत्पत्तिस्थानानवाप्तौ तदाहारणीयपुद्गलानामभावाद्, अत आह-'पढमे समए सिय आहा
रए सिय अणाहारए'त्ति, सथा यदैकेन बकेण द्वाभ्यां समयाभ्यामुत्पद्यते तदा प्रथमेऽनाहारको द्वितीये त्वाारकः, यदा तु वक्रदयेन त्रिभिः समयैरुत्पद्यते तदा प्रथमे द्वितीये चानाहारक इत्यत आह-बीयसमये सिय आहारए सिय अणाहारए'त्ति, तथा यदा वक्रदयेन त्रिभिः समयैरुत्पद्यते तदाऽऽद्ययोरनाहारकस्तृतीये त्वाहारकः, यदा तु वक्रत्रयेण चतुर्भिः समयैरुत्पद्यते तदाद्ये समयत्रयेऽनाहारकश्चतुर्थे तु नियमादाहारक इतिकृत्या 'तइए समए सिय' इत्यायुक्त, वक्रत्रयं चेत्थं भवति-नाझ्या बहिर्विदिग्व्यवस्थितस्य सतो यस्याधोलोकादू लोके उत्पादो नाड्या बहिरेव दिशि भवति सोऽवश्यमेकेन समयेन विश्रेणितः समश्रेणी प्रतिपद्यते द्वितीयेन नाडी प्रविशति तृतीयेनो लोकं गच्छति चतुर्थेन लोकनाडीतो निर्गत्योत्पत्तिस्थाने उत्पद्यते, इह चाये समयत्रये वक्रत्रयमवगन्तव्यं, समश्रेण्यैव गमनात्, अन्ये | वाहुः-चक्रचतुष्टयमपि संभवति, यदा हि विदिशो विदिश्येवोत्पद्यते तत्र समयत्रयं प्राग्वत् चतुर्थे समये तु नाडीतो निर्गत्य |
दीप
अनुक्रम [३२७
२८७॥
३२८]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [२६०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२६०]
गाथा
समश्रेणि प्रतिपद्यते पञ्चमेन तूत्पत्तिस्थान प्रामोति, तत्र चाद्ये समयचतुष्टये वऋचतुष्टयं स्यात् , तत्र चानाहारक इति, & इदं च सूत्रे न दर्शितं, प्रायेणेत्थमनुत्पत्तेरिति । एवं दंडओत्ति अमुनाऽभिलापेच चतुर्विंशतिदण्डको वाच्यः, तत्र च
जीवपदे एकेन्द्रियपदेषु च पूर्वोक्तभावनयैव चतुर्थे समये नियमादाहारक इति वाच्यं, शेषेषु तृतीयसमये नियमादा४ हारक इति, तत्र यो नारकादित्रसस्त्रसेष्वेवोत्पद्यते तस्य नाल्या बहिस्तादागमनं गमनं च नास्तीति तृतीयसमये निय& मादाहारकरवं, तथाहि-यो मत्स्यादिभरतस्य पूर्वभागादैरवतपश्चिमभागस्याधो नरकेषूत्पद्यते स एकेन समयेन भरतस्य
पूर्वभागात्पश्चिमं भागं याति द्वितीयेन तु तत ऐरवतपश्चिम भागं ततस्तृतीयेन नरकमिति, अत्र चाद्ययोरनाहारकस्तृतीये त्याहारकः, एतदेव दर्शयति-'जीवा एगिदिया य चउत्थे समये सेसा तइयसमए'त्ति ॥ 'कं समयं सबप्पा-115 हारए'त्ति कस्मिन् समये सर्वाल्पः-सर्वथा स्तोको न यस्मादन्यः स्तोकतरोऽस्ति स आहारो यस्य स सर्वाल्पाहारः स एव | सर्वाल्पाहारका, पढमसमयोववन्नए'त्ति प्रथमसमय उत्पन्नस्य प्रथमो वा समयो यत्र तत् प्रथमसमयं तदुत्पन्न-उत्पत्तिर्यस्य स तथा, उत्पत्तेः प्रथमसमय इत्यर्थः, तदाहारग्रहणहेतोः शरीरस्याल्पत्वात्सर्वाल्पाहारता भवतीति, 'चरमसमयभवत्ये वति चरमसमये भवस्य-जीवितस्य तिष्ठति यः स तथा, आयुषश्चरमसमय इत्यर्थः, तदानी प्रदेशानां संहतत्वेनाल्पेषु शरीरावयवेषु स्थितत्वात्सर्वाल्पाहारतेति ॥ अनाहारकत्वं च जीवानां विशेषतो लोकसंस्थानवशाद्भवतीति लोकप्ररूपणसूत्रम्
किंसंठिए मंसे ! लोए पन्नसे?, गोयमा ! सुपइट्टगसंठिएलोए पन्नत्ते, हेहा विच्छिन्ने जाव उपि उहुंमुईजागागारसंहिए, लेसि च णं सासयंसि लोगंसि हेहा विच्छिन्नंसि जाब उपि उलुसुइंगागारसंठियंसि उप्पन्न
दीप
अनुक्रम [३२७
३२८]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [२६१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२६१]
दीप अनुक्रम [३२९]
व्याख्या-नाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली जीवेवि जाणइ पासह अजीवेवि जाणइ पासद तओ पच्छा सिज्झतिशतके प्रज्ञप्ति जाव अंतं करेह ॥ (सूत्रं २६१)॥
उद्देशः१ अभयदेवी-IR 'सुपइगसंठिए'त्ति सुप्रतिष्ठकं शरयन्त्रक तह उपरिस्थापितकलशादिक ग्राह्य, तथाविधेनैव लोकसादृश्योपपत्ते-11
लोकसंस्था
नं सामायितारिति, एतस्यैव भावनार्थमाह-हेहा विच्छिन्ने इत्यादि,यावत्करणात् 'मज्झे संखिसेउपि विसाले अहे पलियंकसंठाण
के क्रिया प्र॥२८८॥
संठिए मझे वरवयरविग्गहिए'त्ति दृश्य, व्याख्या चास्य प्राग्वदिति ॥ अनन्तरं लोकस्वरूपमुक्त, तत्र च यत्केवली | | करोति तद्दर्शयन्नाह-तंसी'त्यादि । 'अंतं करेइ'त्ति, अत्र क्रियोक्ता, अथ तद्विशेषमेव श्रमणोपासकस्य दर्शयन्नाह- धेऽप्यक्रिया
समणोवासगस्स णं भंते सामाइयकडस्स समणोवासए अच्छमाणस्स तस्स णं भंते ! किं ईरियावहिया | सू२६१किरिया कज्जइ संपराइया किरिया कजह?, गोयमा ! समणोवासयस्स णं सामाइयकडस्स समणोवासए २१२-२६३ अच्छमाणस्स आया अहिगरणीभवह आयाहिगरणवत्तियं च णं तस्स नो ईरियावहिया किरिया कज्जइ | संपराइया किरिया कज्जह से तेणद्वेणं जाव संपराइया । (सूत्रं २६२) समणोवासगस्स णं भंते ! पुवामेव तसपाणसमारंभे पञ्चक्खाए भवति पुढविसमारंभे अपञ्चक्खाए भवद से य पुढा िखणमाणेऽणयरं तसं पाणं विहिंसेजा से णं भंते ! तं वयं अतिचरति , णो तिणढे समढे, नो खलु से तस्स अतिवायाए आउ- ॥२८८॥ इति । समणोवासयरस णं भंते ! पुवामेव वणस्सइसमारंभे पञ्चक्खाए से य पुनर्वि खणमाणे अन्नयरस्स रु-1 क्खस्स मूलं छिदेज्जा से णं भंते ! तं वयं अतिचरति !, णो तिणद्वे समढे, नो खलु तस्स अइवायाए आउ-1
RDCRECAS
Hrwasaram.org
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[२६२
२६४]
दीप
अनुक्रम
[ ३३०
-३३२]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति:]
शतक [७], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [१], मूलं [ २६२-२६४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
हति । (सूत्र) २६३ । समणोवासए णं भंते! तहारूवं समणंवा माहणं वा फासुएस णिज्ञेणं असणपाणखाइमसाइ| मेणं पडिला मेमाणे किं लभइ ?, गोयमा ! समणोवासए णं तहारूवं समणं वा जाब पडिला भेमाणे तहारुवस्स समणस्स वा माह्णस्स वा समाहिं उप्पाएति, समाहिकारएणं तमेव समाहिं पहिलभइ । समणोवासए णं भंते! तहारूवं समणं वा जाव पडिला मेमाणे किं चयति ?, गोधमा ! जीवियं चयति दुच्चयं चयति दुक्करं करेति दुल्लहं लहइ बोहिं बुज्झइ तओ पच्छा सिज्झति जाव अंतं करेति (सूत्रं २६४)
''त्यादि, 'माइयकडस्स 'ति कृतसामायिकस्य, तथा 'श्रमणोपाश्रये' साधुवसत्तावासीनस्य तिष्ठतः 'तस्स णन्ति यो यथार्थस्तस्य श्रमणोपासकस्यैवेति, किलाकृतसामायिकस्य तथा साध्याश्रयेऽनवतिष्ठमानस्य भवति साम्परायिकी क्रिया, विशेषणद्वययोगे पुनरैर्यापथिकी युक्ता निरुद्धकपायत्वादित्याशङ्का अतोऽयं प्रश्नः, उत्तरं तु 'आपाहिकरणीभवति'त्ति आत्मा-जीवः अधिकरणानि हलशकटादीनि कपायाश्रयभूतानि यस्य सन्ति सोऽधिकरणी, ततश्च 'आयाहिकरणवत्तियं च णं' ति आत्मनोऽधिकरणानि आत्माधिकरणानि तान्येव प्रत्ययः कारणं यत्र क्रियाकरणे तदा| स्माधिकरणप्रत्ययं साम्परायिकी क्रिया क्रियत इति योगः ॥ श्रमणोपासकाधिकारादेव 'समणोवासगे त्यादि प्रकरणम्, | तत्र च 'तसपाणसमारंभ'त्ति त्रसवधः 'नो खलु से तस्स अतिवायाए आउट' त्ति न खलु असौ 'तस्य' त्रसमाणस्य 'अतिपाताय'वधाय 'आवर्त्तते' प्रवर्तते इति न सङ्कल्पवधोऽसौ, सङ्कल्पवधादेव च निवृत्तोऽसौ, न चैष तस्य संपन्न इति नासावतिचरति व्रतं, 'किं चयइति किं ददातीत्यर्थः 'जीविधं चयइ'त्ति जीवितमित्र ददाति, अन्नादि द्रव्यं यच्छन्
For Penal Use On
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आगम
[०५]
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सूत्रांक
[२६२
२६४]
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[ ३३०
-३३२]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति:]
शतक [७], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [१], मूलं [ २६२-२६४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
जीवितस्यैव त्यागं करोतीत्यर्थः, जीवितस्यैवान्नादिद्रव्यस्य दुस्त्यजत्वात्, एतदेवाह - 'दुच्चयं चयह'त्ति दुस्त्यजमेतत्, त्यागस्य दुष्करत्वात्, एतदेवाह- दुष्करं करोतीति, अथवा किं त्यजति किं विरयति १, उच्यते, जीवितमिव जीवित कर्म्मणो दीर्घा स्थिति 'दुच्चर्य'ति दुष्ट कर्म्मद्रव्यसश्चयं 'दुक्कर'ति दुष्करमपूर्वकरणतो ग्रन्थिभेदं, ततश्च 'दुल्लभं लभ'त्ति अनिवृत्तिकरणं लभते, ततश्च 'बोहिं बुज्झर'त्ति 'बोधिं' सम्यग्दर्शनं 'बुध्यते' अनुभवति, इह च श्रमणोपासकः साधू २८९४पासनामात्रकारी ग्राह्यः, तदपेक्षयैवास्थ सूत्रार्थस्य घटमानत्वात्, 'तओ पच्छति तदनन्तरं सिद्ध्यतीत्यादि प्राग्वत् | अन्यत्राप्युक्तं दानविशेषस्य बोधिगुणत्वं यदाह - "अंणुकंपऽकामणिज्जरवालतये दाणविणए" त्यादि, तद्यथा-""केई तेणेव भवेण निघुया सवकम्मओ मुक्का । केई तइयभवेणं सिज्झिस्संति जिणसगासे ॥ १ ॥ " ति ॥ अनन्तरमकर्म्मत्वमुकमतोऽकर्म्मसूत्रम् —
व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १
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अत्थि णं भंते! अकम्मस्स गती पन्चायति ?, हंता अस्थि ॥ कहन्नं भंते! अकम्मस्स गती पन्नायति ?, गोयमा ! निस्संगयाए निरंगणयाए गतिपरिणामेणं बंधणच्छेयणयाए निरंघणयाए पुढपओगेणं अकम्मस्स गती पन्नत्ता ॥ कहन्नं भंते ! निस्संगयाए निरंगणयाए गहपरिणामेणं बंधणछेयणयाए निरंघणयाए पुवप्पओगेणं अकम्मस्स गती पन्नायति १, से जहानामए केइ पुरिसे सुकं तु निच्छिडुं निरुवहति १ अनुकम्पाकामनिर्जराबालतपोदानविनय ( विभङ्गैः ) । २ केचिचेनैव भवेन सर्वकर्मतो मुक्ता निर्वृताः केचित्तृतीयभवेन जिनसकाशे सेत्स्यन्ति ॥ १ ॥
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७ शतके उद्देशः १ सामायिके क्रियादानफलंसू२६३
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||२८९ ॥
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [२६५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२६५]
आणुपुचीए परिकम्मेमाणे २ दम्भेहि य कुसेहि य वेदेइ २ अट्ठहिं मट्टियालेवेहिं लिंपड २ उण्हे दलयति भूति २ सुकं समाणं अत्याहमतारमपोरसियंसि उदगंसि पक्खिवेजा, से नूर्ण गोयमा ! से तुये। तेसिं अट्ठण्डं महियालेवेणं गुरुयत्ताए भारियत्साए गुरुसंभारियत्ताए सलिलतलमतिवहत्ता अहे धर, |णितलपइहाणे भवइ, हंता भवइ, अहे णं से तुंबे अट्ठण्हं मट्टियालेवेणं परिवखएणं धरणितलमतिहै वइत्ता उपि सलिलतलपट्ठाणे भवइ, हंता भवइ, एवं खलु गोयमा ! निस्संगयाए निरंगणयाए गइपरि
गामेणं अकम्मरस गई पन्नायति । कहनं भंते ! बंधण छेदणयाए अकम्मस्स गई पन्नसा', गोयमा ! से जहा४ नामए-कलसिंवलियाइ वा मुग्गसिबलियाइ वा माससिंवलियाइ वा सिंपलिसिंबलियाइ वा एरंडर्मिजिदयाइ वा उण्हे दिनासुका समाणी फुडित्ता णं एगंतमंत गच्छह, एवं खलु गोयमा 10 कहनं भंते ! निरं-13
धणयाए अकम्मस्स गती, गोयमा 1 से जहानामए-धूमस्स इंधणविप्पमुकस्स उडे वीससाए निवाघाएणं,
गती पवत्तति, एवं खलु गोयमा! 1कहनं भंते ! पुचप्पओगेणं अकम्मरस गती पन्नता, गोयमा! से लहानामए-कंडस्स कोदंडविप्पमुकस्स लक्खाभिमुही निवाधाएणं गती पवत्तइ, एवं खलुगोयमा !नीसंगया
ए निरंगणयाए जाव पुषप्पओगेणं अकम्मस्स गती पण्णता ॥ (सूत्रं २६५)॥ 'गई पण्णायइ'त्ति गतिःप्रज्ञायते अभ्युपगम्यते इतियावत् निस्संगयाए'त्ति'निःसङ्गतया'कर्मामलापगमेन निरंगणयापत्ति नीरागतया मोहापगमेनगतिपरिणामेण ति गतिस्वभावतयाऽलाबुद्रव्यस्येवबंधणच्छेयणयाए'त्ति कर्मबन्धनछेद
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दीप अनुक्रम [३३३]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [२६५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२६५]
दीप अनुक्रम [३३३]
व्याख्या- नेन एरण्डफलस्येव 'निरन्धणताए'त्ति कर्मेन्धनविमोचनेन धूमस्येव 'पुवपओगेण ति सकर्मतायां गतिपरिणामव-६७शतके प्रज्ञप्तिः त्वेन बाणस्येवेति ॥ एतदेव विवृण्वनाह- 'कहन्न' मित्यादि, 'निरुवयं ति वाताद्यनुपहतं 'दन्भेहि यत्ति द|ः स- उद्देशः १ अभयदेवी- मूलैः 'कुसेहि य'त्ति कुशैः-दभैरेव छिन्नमूलैः 'भूई भूईन्ति भूयो भूयः 'अत्याहे त्यादि, इह मकारी प्राकृतप्रभवावतः अकर्मगतिः या वृत्तिःशा अस्ताघेऽत एवातारेऽत एव 'अपौरुषेये' अपुरुषप्रमाणे 'कलसिंबलियाइवा' कलायाभिधानधान्यफलिका 'सिंब-1 सू२६५ ॥२९॥
लि'त्ति वृक्षविशेषः 'एरंडर्मिजिया' एरण्डफलम् 'एगंतमंतं गच्छइ'त्ति एक इत्येवमन्तो-निश्चयो यत्रासावेकान्त एकदुखी स्पृष्ट जा इत्यर्थः अतस्तमन्तं भूभागं गच्छति, इह पबीजस्य गमनेऽपि [यत्] कलायसिंचलिकादेरिति यदुक्तं तत्तयोरभेदोपचारादिति. स.
सू२६६ 'उहृवीससाए'त्ति ऊर्दू 'विनसया' स्वभावेन 'निवाघाएण'ति कटाद्याच्छादनाभावात् ॥अकर्मणो वक्तव्यतोका, अथा-| कर्मविपर्ययभूतस्य कर्मणो वक्तव्यतामाह
दुक्खी भंते ! दुक्खेणं फुडे अदुक्खी दुफखेणं फुडे, गोयमा ! दुक्खी दुक्खेणं फुडे नो अदुरूखी दुक्खेणं फुडे । दुक्खीणं भंते ! नेरतिए दुक्खेण फुडे अदुक्खी नेरतिए दुक्खेणं फुडे ?, गोयमा ! दुक्खी नेर
इए दुक्खेणं फुडे नो अदुक्खी नेरतिए दुक्खेणं फुडे, एवं दंडओ जाव वेमाणियाणं, एवं पंच दंडगा नेयवा-दुमक्खी दुक्खेणं फुडे १ दुक्खी दुक्खं परियापद २ दुक्खी दुक्खं उदी रेह ३ दुक्खी दुक्खं वेदेति ४ दुक्खी दुखं निजरेति ॥ (सूत्र २६६ ) ॥
॥२९॥ RT 'दुक्खी भंते ! दुक्खेण फुडे 'त्ति दुःखनिमित्तत्वात् दुःख-कर्म तद्वान् जीवो दुःखी भदन्त ! दुःखेन-दुःखहेतु-1
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [२६६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२६६]
त्वात् कर्मणा-स्पृष्टो बद्धः 'नो अदुक्खी'त्यादि, 'नो' नैव अदुःखी-अकर्मा दुःखेन स्पृष्टः, सिद्धस्यापि तत्प्रसङ्गादिति, ला एवं पंच दंडका यत्ति एवम्' इत्यनन्तरोक्ताभिलापेन पञ्च दण्डका नेतव्याः, तत्र दुःखी दुःखेन स्पृष्ट इत्येक उक्त
एष १, 'दुक्खी दुक्खं परियाई ति द्वितीयः,तत्र 'दुःखी' कर्मवान् 'दुःख' कर्म पर्याददाति सामस्त्येनोपादत्ते, निधत्तादि करोतीत्यर्थः २, 'उदीरेइ'त्ति तृतीयः ३, 'वेएइ'त्ति चतुर्थः ४,'निजरेइ'त्ति पञ्चमः ५, उदीरणवेदननिर्जरणानि तु व्याख्या| तानि प्रागिति ॥ कर्मबन्धाधिकारात्कर्मबन्धचिन्तान्वितमनगारसूत्र, अनगाराधिकाराच्च तत्पानकभोजनसूत्राणि| अणगारस्स णं भंते ! अणाउ गच्छमाणस्स वा चिट्ठमाणस्स वा निसिपमाणस्स (वा) तुयहमाणस्स वा अणाउत्तं वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं गेण्हमाणस्स चा निक्खिवमाणस्स वा तस्स णं भंते । किं ईरियावहिया किरिया कजह ? संपराच्या किरिया कज्जा ?, गोनो ईरियावहिया किरिया कज्जति संपराया किरिया कजति ।से केणद्वेणं.१, गोयमा ! जस्स णं कोहमाणमायालोभा वोच्छिन्ना भवंति तस्स गं । ईरियावहिया किरिया कजइनो संपराइया किरिया कजइ, जस्स णं कोहमाणमायालोमा अवोच्छिन्ना भवंति
तस्स णं संपरायकिरिया कजइनो ईरियावहिया, अहासुतं रीयमाणस्स ईरियावहिया किरिया कज्जा उ-४ & स्त्रीयमाणस्स संपराइया किरिया कज्जइ, से गं उस्मुत्तमेव रियति, से तेणड्डेणं. सूत्रं २६७) अह भंते !
सइंगालस्स सधूमस्स संजोपणादोसहस्स पाणभोयणस्स के अढे पण्णत्ते, गोयमा! जे णं निग्गंथे वा नि-1 ग्गंधी चा फासुएसणिज्ज असणपाण ४ पडिगादित्ता मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोचवने आहारं आहारेति एस
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-२६९]
दीप
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[३३५
-३३७]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति:]
शतक [७], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [१], मूलं [ २६७ - २६९]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवी या वृत्तिः १
॥२९१॥
| णं गोधमा ! सगाले पाणभोयणे, जे णं निग्गंधे वा निग्गंधी वा फासुएसणिज्वं असणपाण ४ पडिगाहिता महया २ अप्पसियकोहकिलामं करेमाणे आहारमाहारेइ एस णं गोयमा ! सधूमे पाणभोपणे, जेणं निगांधे वा २ जान पडिग्गहेत्ता गुणुप्पायणहेउ अन्नदद्वेण सद्धिं संजोएता आहारमाहारेह एस णं गोयमा । संजोयणादोसदुट्टे पाणभोषणे, एस णं गोधमा ! सगालस्स सधूमस्स संजोयणादोसदुहस्स पाणभोयणस्स अट्ठे पन्नन्ते । अह भंते ! वीतिंगालस्स बीयधूमस्स संजोयणादोसविष्यमुक्कस्स पाणभोपणस्स के अट्ठे पत्ते १, गोयमा ! जे णं णिग्गंथो वा जाव पडिगाहेत्ता अमुच्छिए जाब आहारेति एस णं गोयमा ! वीतिंगाले पा णभोयणे, जेणं निग्गंथे निग्गंधी वा २ जाव पडिगाहेत्ता णो महया अप्पत्तियं जाव आहारेश, एस णं गोवमा ! वीयधूमे पाणभोपणे, जेणं निग्गंधे निग्गंधी वा २ जाव पडिगार्हन्ता जहालद्धं तहा आहारमाहारेह एस णं गोयमा ! संजोयणादोसविप्पमुक्के पाणभोयणे, एस णंगोयमा ! वीतिंगालस्स वीयधूमस्स संजोयणादोसविप्पमुकस्स पाणभोयणस्स अट्ठे पन्नत्ते (सूत्रं २६८) अह भंते! खेत्तातिवंतस्स कालातिक्तस्स मग्गातिकंतस्स पमाणा| तिकंतस्स पाणभोयणस्स के अहे पन्नत्ते ?, गो० जे णं निग्गंथे वा निग्गंधी वा फासुएसणिज्जंणं असणं४ अणुग्गए सूरिए पडिग्गाहित्ता उग्गए सूरिए आहारमाहारेति एस णं गोयमा ! खित्तातिकंते पाणभोयणे, जेणं निग्गंथो वा २ जाव साइमं पढमाए पोरिसीए परिग्गाहेता पच्छिमं पोरिसिं उवायणावेत्ता आहारं आहारेह एस णं गोयमा ! कालातिकंते पाणभोयणे, जे गं निग्गंथो वा २ जाव साइमं पढिगाहित्ता परं अद्धजोयण
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७ शतके उद्देशः १ सकषायस्य
सांपरावि की साङ्गारा
देरर्थः क्षेत्रा |तिक्रान्तादे रर्थः सू२६७ | २६८-२६९
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[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति:]
शतक [७], वर्ग [-], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [१], मूलं [ २६७ - २६९]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
| मेराए बीइकमावता आहारमाहारेह एस णं गोयमा ! भग्गातिकंते पाणभोषणे, जेणं निग्गंधो वा निग्गंधी वा फासुएसणिज्वं जाव साइमं पडिगाहित्ता परं बत्तीसाए कुकुडिअंडगपमाणमेत्ताणं कवलाणं आहारमा हारेइ एस णं गोयमा ! पमाणाइते पाणभोयणे, अट्ठकुक्कुडिअंड गप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाहारेमाणे अ| प्याहारे दुवालसकुक्कुडिअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाहारेमाणे अवहोमोयरिया सोलसककुडिअंडगप्प| माणमेते कवले आहारमाहारेमाणे दुभागप्पत्ते चबीसं कुकुडिअंडगप्पमाणे जाव आहारमाहारेमाणे ओमोदरिए बत्तीसं कुकुडिअंडगमेत्ते कवले आहारमाहारेमाणे पमाणप्पत्ते, एत्तो एक्केणवि गासेणं कणगं आहारमाहारेमाणे समणे निग्गंधे नो पकामरसभोई इति वत्तवं सिया, एस णं गोयमा ! खेतातिकंतस्स कालातिकं| तस्स मग्गातिकंतस्स पमाणातिकंतस्स पाणभोयणस्स अट्ठे पन्नत्ते ॥ ( सूत्रं २६९ ) ॥
तत्र च 'वोच्छिन्ने 'ति अनुदिताः, 'सईंगालस्स'त्ति चारित्रेन्धनमङ्गारमिव यः करोति भोजनविषयरागाग्निः सोऽङ्गार एवोच्यते तेन सह यद्वर्त्तते पानकादि तत् साङ्गारं तस्य 'सधूमस्स'त्ति चारित्रेन्धनधूमहेतुत्वात् धूमो-द्वेषस्तेन सह यत्पानकादि तत् सधूमं तस्य 'संजोषणा दोसदुहस्स' त्ति संयोजना- द्रव्यस्य गुणविशेषार्थे द्रव्यान्तरेण योजनं सैव दोषस्तेन दुष्टं यत्तत्तथा तस्य 'जे 'ति विभक्तिपरिणामाच माहारमाहारयतीति सम्बन्धः 'मुच्छिए' त्ति मोहवान् दोषानभिज्ञत्वात् 'गिद्धे'ति तद्विशेषाकाङ्क्षावान् 'गहिए'ति तद्गतस्नेहतन्तुभिः संदर्भितः 'अज्झोववन्ने' त्ति तदेकाग्रतां गतः 'आहार माहारेइ'त्ति भोजनं करोति' एस णं'ति 'एषः ' आहारः साङ्गारं पानभोजनं, 'महया अप्पत्तियं' ति महदप्रीतिकम्
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[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [२६७-२६९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२६७
व्या- प्रज्ञप्तिः अभयदेवी- या वृत्तिः१
॥२९२॥
-२६९]
अप्रेम 'कोहकिलाम'ति क्रोधाक्लम:- शरीरायासः क्रोधक्कमोऽतस्तं, 'गुणुप्पायणहेजति रसविशेषोत्पादनायेत्यर्थः ॥७शतके बीइंगालस्स'सि वीतो गतोऽङ्गारो-रागो यस्मात्तद्वीताङ्गारं, 'खेसाइकंतस्स'त्ति क्षेत्र-सूर्यसम्बन्धि तापक्षेत्रं दिनमि- उद्देशः १ त्यर्थः तदतिक्रान्तं यत्तत् क्षेत्रातिक्रान्तं तस्य, 'कालाइकंतस्स'त्ति कालं-दिवसस्य प्रहरत्रयलक्षणमतिकान्तं कालाति- सकषायस्य कान्तं तस्य, 'मग्गाइकंतस्स'त्ति अर्द्धयोजनमतिक्रान्तस्य 'पमाणाइकंतस्स'त्ति द्वात्रिंशत्कवललक्षणमतिकान्तस्य, 'उ
सांपरायिवाइणावित्त'त्ति उपादापय्य-प्रापय्येत्यर्थः परं 'अजोयणमेराए'त्ति अर्द्धयोजनलक्षणमर्यादायाः परत इत्यर्थः 'ची
की साङ्गारा तिकमावेत्त'त्ति व्यतिक्रमय्य-नीत्वेत्यर्थः, 'कुकुडिअंडगपमाणमेत्तार्ण'ति कुकुय्यण्डकस्य यत् प्रमाण-मानं तत् परि-
देरर्थः क्षेत्रा
तादे | माण-मानं येषां ते तथा, अथवा कुकुटीव-कुटीरमिव जीवस्याश्रयत्वात् कुटी-शरीरं कुत्सिता अशुचिप्रायत्वात् कुटी रसू२६७
कुकुटी तस्या अण्डकमिवाण्डक-उदरपूरकत्वादाहारः कुकुव्यण्डकं तस्य प्रमाणतो मात्रा-द्वात्रिंशत्तमांशरूपा येषां ते २६८-२६९ | कुक्कुब्यण्डकप्रमाणमात्रा अतस्तेषामयमभिप्रायः यावान् यस्य पुरुषस्याहारस्तस्याहारस्य द्वात्रिंशत्तमो भागस्तत् पुरुषापेक्षया कवला, इदमेव कवलमानमाश्रित्य प्रसिद्धकवलचतुःषष्यादिमानाहारस्थापि पुरुषस्य द्वात्रिंशता कवलैः प्रमाणप्राप्ततोपपन्ना स्यात्, न हि स्वभोजनस्यार्द्ध भुक्तवतःप्रमाणप्राप्तत्वमुपपद्यते, प्रथमव्याख्यानं तु प्रायिकपक्षापेक्षयाऽवगन्तव्यमिति।। 'अप्पाहारे'त्ति अल्पाहारः साधुर्भवतीति गम्यम् , अथवाऽष्टौ कुकुट्यण्डकप्रमाणमात्रान् कबलानाहारम् 'आहारयति ॥ कुर्वति साधी 'अल्पाहारः स्तोकाहारः, चतुर्थाशरूपत्वात्तस्य, एवमुत्तरत्रापि आहारेमाणे' इत्येतत्पदं प्रथमैकवचनान्तं ससम्येकवचनान्तं वा व्याख्येयम् । 'अवडोमोयरिय'त्ति अवमस्य-ऊन स्योदरस्य करणमवमोदरिका, अपकृष्ट-किश्चिदू
॥२९॥
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[२६७
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[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः]
शतक [७], वर्ग [-], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [१], मूलं [ २६७ - २६९]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
नमर्द्ध यस्यां साऽपार्द्धा द्वात्रिंशत्कवलापेक्षया द्वादशानामपार्द्धरूपत्वात् अपार्द्धा चासाववमोदरिका चेति समासः सा भवतीत्येवं सप्तम्यन्तव्याख्यानं नेयं, प्रथमान्तव्याख्यानं तु धर्म्मधर्मिणोरभेदादपार्द्धावमौदरिकः साधुर्भवतीत्येवं नेतव्यं, 'दुभागप्पत्ते'त्ति द्विभागः- अर्द्ध तत्प्राप्तो द्विभागप्राप्त आहारो भवतीति गम्यं, द्विभागो वा प्राप्तोऽनेनेति द्विभागप्राप्तः साधुर्भवतीति गम्यम्, 'ओमोयरियत्ति अवमोदरिका भवति धर्म्मधर्मिणोरभेदाद्वाऽवमोदरिकः साधुर्भवतीति गम्यं, 'पकामरसभोई' त्ति प्रकामं अत्यर्थं रसानां मधुरादिभेदानां भोगी-भोक्ता प्रकामरसभोगीति ॥
अह भंते! सत्यातीयस्स सत्यपरिणामियस्स एसियस्स वेसियरस समुदाणियरस पाणभोपणस्स के अट्ठे पन्नत्ते ?, गोयमा ! जे णं निगंधे वा निग्गंधी वा निक्खित्तसत्यमुसले ववग यमाला वन्नगविलेवणे ववगयचुयचयचत्तदेहं जीवविप्पजढं अकयमकारियम संकप्पियमणाहूयमकीय कडमणुद्धिं नवकोडीपरिसुद्धं दसदोसविप्यमुकं उग्गमुप्पायणे सणासुपरिसुद्धं वीतिंगालं बीतधूमं संजोयणादोसविप्यमुकं असुरसुरं अचवचवं अदुयमविलंबियं अपरिसाडीं अक्खोवंजणवणाणुलेवणभूयं संयमजायामायावत्तियं संजमभारवहणट्टयाए | बिलमिव पन्नगभूषणं अप्पाणेणं आहारमाहारेति एस णं गोयमा ! सत्यातीयस्स सत्यपरिणामियरस जाव पाणभोयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते । सेवं भंते । सेवं भंते! त्ति ॥ (सूत्रं २७०) || सत्तमसंए पढमो उद्देसो समत्तो ७-१॥ 'सत्यातीतस्स' ति शस्त्राद्-अभ्यादेरतीतं उत्तीर्ण शस्त्रातीतम्, एवंभूतं च तथाविधपृथुकादिवदपरिणतमपि स्यादत आह- 'सत्थपरिणामियस्स'त्ति वर्णादीनामन्यथाकरणेना चित्तीकृतस्येत्यर्थः, अनेन प्रासुकत्वमुक्तम्, 'एसियस्स'त्ति
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[२७०]
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[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः]
शतक [७], वर्ग [-], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [१], मूलं [ २७०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्या- | एषणीयस्य गवेषणाविशुद्ध्या वा गवेषितस्य 'वेसियस्स'त्ति विशेषेण विविधैर्वा प्रकारैरेषितं व्येषितं ग्रहणैषणायासंपणाप्रज्ञप्तिः | विशोधितं तस्य, अथवा वशे-मुनिनेपथ्यं स हेतुलाभे यस्य तद्वैषिकम् आकारमात्रदर्शनादवाप्तं न त्वावर्जनया, अनेन अभयदेवी- पुनरुत्पादनादोषापोहमाह, 'सामुदाणियस्स'त्ति ततस्ततो भिक्षारूपस्य, किंभूतो निर्ग्रन्थः ? इत्याह-'निक्खिससत्थमुसया वृत्तिः १ २ ले 'त्ति त्यक्तखगादिशस्त्रमुशल: 'ववगयमालावन्नगविलेवणे 'ति व्यपगतपुष्पमालाचन्दनानुलेपनः, स्वरूपविशेषणे
॥२९३॥
चेमे न तु व्यवच्छेदार्थे, निर्ग्रन्थानामेवंरूपत्वादेवेति, 'ववगयचुयच इयश्चत्तदेहं 'ति व्यपगताः स्वयं पृथग्भूता भोग्यवस्तुसंभवा आगन्तुका वा कृम्यादयः च्युता मृताः स्वत एव परतो वाऽभ्यवहार्यच स्त्वात्मकाः पृथिवीकायिकादयः 'च इयत्ति त्याजिता - भोज्यद्रव्यात् पृथकारिता दायकेन 'चत्त'त्ति स्वयमेव दायकेन त्यक्ता - भक्ष्यद्रव्यात्पृथकृता 'देहा' अभेदविवक्षया देहिनो यस्मात् स तथा तमाहारं, वृद्धव्याख्या तु व्यपगतः - ओघतश्चेतनापर्यायादपेतः च्युतः- जीववक्रियातो भ्रष्टः च्यावितः स्वत एवायुष्कक्षयेण भ्रंशितः त्यक्तदेहः - परित्यकजीवसंसर्गजनिताहारप्रभवोपचयः, तत एषां| कर्म्मधारयोऽतस्तं किमुक्तं भवति ? इत्याह- 'जीवविप्पज ढं 'ति प्रासुकमित्यर्थः 'अकयमकारियमसंकप्पियमणाहूयमकीयगडमणुद्दिद्धं' अकृतं साध्वर्थमनिर्वर्तितं दायकेन, एवमकारितं दायकेनैव, अनेन विशेषणद्वयेनानाधाकर्मिकउपात्तः 'असङ्कल्पितं ' स्वार्थी संस्कुर्वता साध्वर्थतया न सङ्कल्पितम् अनेनाप्यनाधाकस्मिक एव गृहीतः, स्वार्थमारव्धस्य साध्वर्थ निष्ठां गतस्याप्याधाकस्मिकत्वात् न च विद्यते आहूतं आह्वानमामन्त्रणं नित्यं मद्गृहे पोषमात्रमन्नं प्राह्यमित्येवंरूपं कर्मकरायाकारणं वा साध्यर्थ स्थानान्तरादन्नाद्यानयनाय यत्र सोडनाहूतः - अनित्यपिण्डोऽनभ्याहृतो वेत्य
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७ शतके उद्देशः १ शस्त्रातीतादेरर्थः
सू २७०
॥२९३॥
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [२७०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२७०]
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र्थः, स्पर्धा वाऽऽहतं तनिषेधादनाहूतो, दायकेनास्पर्द्धया दीयमानमित्यर्थः, अनेन भाषतोऽपरिणताभिधानएषणादो पनि||3 षेध उक्तोऽतस्तम् 'अक्रीतकृतं क्रयेण साधुदेयं न कृतम्, अनुद्दिष्टम्-अनौदेशिकं, 'नवकोडीपरिसुद्धं'ति इह कोटयो विभागास्ताश्चेमाः-बीजादिकं जीवं न हन्ति न घातयति नन्तं नानुमन्यते ३, एवं न पचति ३ न क्रीणाति २P इत्येवरूपाः, 'दसदोस विप्पमुकंति दोषा:-शङ्कितम्रक्षितादयः 'उग्गमुपायणेसणासुपरिसुद्ध'ति उद्गमश्च-आधाक-1 मादिः षोडशविधः उत्पादना च-धात्रीदूत्यादिका पोडशविधैव उद्गमोत्पादने एतद्विषया या एषणा-पिण्डविशुद्धिस्तया सुष्ठ परिशुद्धो यः स उद्गमोत्पादनषणासुपरिशुद्धोऽतस्तम्, अनेन चोक्तानुक्तसङ्ग्रहः कृतः, वीताङ्गारादीनि क्रियाविशेष-I णान्यपि भवन्ति, प्रायोऽनेन च ग्रासैषणाविशुद्धिरुक्ता, 'असुरसुति अनुकरणशब्दोऽयम् , एवमचवचवमित्यपि, 'अ-18|| दुर्य'ति अशीघ्रम् 'अविलंबियंति नातिमन्थरं 'अपरिसार्डि'ति अनवयवोज्झनम् 'अक्खोवंजणवणाणुलेवणभूयं ति| का अक्षोपाञ्जनं च-शकटधूम्रक्षणं व्रणानुलेपनं च-क्षतस्यौषधेन विलेपनं अक्षोपाञ्जनवणानुलेपने ते इव विवक्षितार्थसिद्धिर-17
शनादिनिरभिष्वङ्गतासाधाचः सोऽक्षोपाञ्जनत्रणानुलेपनभूतोऽतस्तै, क्रियाविशेषणं था, 'संजमजायामायावत्तियं| ति संयमयात्रा-संयमानुपालनं सैव मात्रा-आलम्बनसमूहांशः संयमयात्रामात्रा तदर्थ वृत्तिः-प्रवृत्तिर्यबाहारे स संयमया-|
बामात्रावृत्तिकोऽतस्तं संयमयात्रामानावृत्तिकं वा यथा भवति संयमयात्रामात्रा प्रत्ययो यत्र स तथाऽतस्तं संयमयात्रामासत्राप्रत्ययं वा यथा भवति, एतदेव वाक्यान्तरेणाह- 'संयमभारवहणट्टयाए'त्ति संयम एव भारस्तस्य वहन-पालन ॐ स एवार्थः संयमभारवहनार्थ स्तद्भावस्तत्ता तस्यै, 'बिलमिव पन्नगभूएणं अप्पाणण'ति बिले इव-रन्ध्र इव 'पन्नगभूतेन'
दीप अनुक्रम [३३८]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [२७०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
व्याख्या प्रज्ञप्तिः अभयदेवीयावृत्तिः१
प्रत सूत्रांक [२७०]
॥२९४॥
दीप अनुक्रम [३३८]
सर्पकल्पेन आत्मना करणभूतेनाहारमुक्तविशेषणम् 'आहारयति' शरीरकोष्ठ के प्रक्षिपति, यथा किल बिले सर्प आ- शतके त्मानं प्रवेशयति पानसंस्पृशन एवं साधुर्वदनकन्दरपाङनसंस्पृशन्नाहारेण तदसञ्चारणतो जठरविले आहारं प्रवेशय- उद्देशः १ तीति, एसणं'ति 'एषः अनन्तरोतविशेषण आहारः शस्त्रातीतादिविशेषणस्य पानभोजनस्य अर्थः-अभिधेयः प्राप्त इति प्रत्याख्या ॥सप्तमशते प्रथमोद्देशकः।।७-१॥
४ नं जीवादि
* ज्ञानेसू२७१ प्रथमोद्देशके प्रत्याख्यानिनो वक्तव्यतोक्ता द्वितीये तु प्रत्याख्यानं निरूपयन्नाह-- से नूर्ण भंते ! सबपाणेहिं सबहिं सब्वजीवहिं सव्वसत्तेहिं पचक्खायमिति बद्माणस्स सुपञ्च-16 क्खायं भवति दुपञ्चक्खायं भवति ?, गोयमा ! सबपाणेहिं जाव सब्वसत्तेहिं पञ्चक्खायमिति वदमा
णस्स सिय सुपचक्खायं भवति सिय दुपच्चक्खायं भवति, से केणढणं भंते ! एवं वुचइ सम्बपाणेहिं ||जाव सिय दुपचक्खायं भवति !, गोयमा | जस्स णं सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं पञ्चक्खायमिति बदमा
णस्स णो एवं अभिसमन्नागयं भवति इमे जीवा इमे अजीवा इमे तसा इमे थावरा तस्स णं सव्वपाणेहिं जाव सब्वसत्तेहिं पञ्चक्खायमिति वदमाणस्स नो सुपचक्खायं भवति दुपचक्खायं भवति, एवं खल्लु से दु-15
॥२९४॥ पञ्चक्खाई सब्वपाणेहिं जाव सबसत्तेहिं पच्चक्खायंमिति वदमाणो नो सचं भासं भासह मोसं भासं भास-I8 इ, एवं खलु से मुसाबाई सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं निविहं तिविहेणं असंजयविरयपडिहयपच्चक्खायपाचकम्मे सकिरिए असंखुडे एगंतवंडे एगंतवाले यावि भवति, जस्स णं सवपाणेहि जाच सब्वसत्तेहिं पच
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अत्र सप्तम-शतके प्रथम-उद्देशक: समाप्त: अथ सप्तम-शतके द्वितीय-उद्देशक: आरम्भ:
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[२७१]
दीप अनुक्रम [३३९]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः]
शतक [७], वर्ग [-] अंतर् शतक [-] उद्देशक [२], मूलं [ २७१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
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क्वायमिति वदमाणस्स एवं अभिसमन्नागयं भवइ-इमे जीवा इमे अजीवा इमे तसा इमे थावरा, तस्स णं सहपाणेहिं जाव सङ्घसत्तेहिं पञ्चक्खायमिति वदमाणस्स सुपचक्खायं भवति नो दूपच्चक्वायं भवति, एवं | खलु से सुपञ्चकखाई सङ्घपाणेहिं जान सङ्घसत्तेहिं पथक्खायमिति वयमाणे सर्व भासं भासह नो मोसं भासं भासइ, एवं खलु से सच्चवादी सहपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं तिविहं तिविहेणं संजयविरय पडियपचक्खा यपावकम्मे अकिरिए संबुडे एगंतपंडिएयावि भवति, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ जाव सिप दुपचक्लायं भवति । (सूत्रं २७१ )
'से नूण' मित्यादि, 'सिय सुपचक्खायं सिय दुपद्यक्खाय' इति प्रतिपाद्य यत्प्रथमं दुष्प्रत्याख्यानत्ववर्णनं कृतं तद्यथासश्वन्यायत्यागेन यथाऽऽसन्नतान्याय मङ्गीकृत्येति द्रष्टव्यं, 'नो एवं अभिसमन्नागयं भवति त्ति 'नो' नैव 'एवम्' इति वक्ष्यमाणप्रकारमभिसमन्वागतं - अवगतं स्यात्, 'नो सुपचक्वायं भवति'त्ति ज्ञानाभावेन यथावदपरिपाउनात् सुप्रत्याख्यानत्वाभावः, 'सङ्घपाणेहिं'ति सर्वप्राणेषु ४ 'तिविह' ति त्रिविधं कृतकारितानुमतिभेदभिन्नं योगमाश्रित्य 'तिविहेणं' ति त्रिविधेन मनोवाक्काय लक्षणेन करणेन 'असंजयविरपपडियपचक्खायपावकस्मेत्ति संयतो-वधादिपरिहारे प्रयतः विरतो- बधादेर्निवृत्तः प्रतिहतानि - अतीतकालसम्बन्धीनि निन्दातः प्रत्याख्यातानि चानागतप्रत्याख्यानेन पापानि कर्माणि येन स तथा ततः संयतादिपदानां कर्म्मधारयस्ततस्तन्निषेधाद् असंयतविरतप्रतिहतप्रत्याख्या तपापकर्मा, अत एव 'सकिरिए त्ति कायिक्यादिक्रियायुक्तः सकर्म्मबन्धनो वाडत एव 'असंबुडे'ति असंवृताश्रवद्वारः, अत
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [२७१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२७१]
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दीप अनुक्रम [३३९]
व्याख्या- एव 'एगंतदंडे'त्ति एकान्तेन-सर्वथैव परान् दण्डयतीत्येकान्तदण्डः, अत एव 'एकान्तवाला' सर्वथा वालिशोऽज्ञ इत्व- शतके प्रशप्तिः ||४ार्थः । प्रत्याख्यानाधिकारादेव त दानाह
& उद्देशः २ अभयदेवीकतिविहे गं भंते ! पच्चक्खाणे पन्नत्ते?, गोयमा ! दुविहे पच्चक्खाणे पन्नते, तंजहा-मूलगुणपञ्चक्रवाणे य
जीवादिज्ञा या वृत्तिः
तासुप्रत्याउत्सरगुणपञ्चक्खाणे य । मूलगुणपञ्चक्खाणे णं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते ?, गोयमा ! दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-सच्च
ख्यान:मू॥२९५॥ मूलगुणपचक्खाणे य देसमूलगुणपचक्खाणे य, सबमूलगुणपञ्चक्खाणे णं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते, गोयमा लीत्तर
&ा पंचविहे पन्नत्ते, तंजहा-सबाओ पाणाइवायाओ बेरमणं जाच सवाओ परिग्गहाओ बेरमणं । देसमूलगुण-दासू २७१
पञ्चक्खाणे णं भंते ! कइविहे पन्नते ?, गोयमा ! पंचविहे पन्नत्ते, तंजहा-थूलाओ पाणाइवायाओ वेरमणं l ४|जाव थूलाओ परिगहाओ रमणं । उत्तरगुणपञ्चक्खाणे णं भंते ! कतिविहे पन्नते?, गोयमा! दुविहे || &ापनसे, तंजहा-सव्वुत्तरगुणपचक्खाणे य देसुत्तरगुणपञ्चक्खाणे य, सम्वुत्तरगुणपचक्खाणे णं भंते ! कतिविहे ||
पन्नते ?, गोयमा! दसविहे पन्नत्ते, तंजहा-अणागय १ मतं २ कोडीसहियं ३ नियंटियं ४ चेवासागार ५ || मणागारं परिमाणकर्ड ७ निरवसेसं ८॥१॥ साकेयं ९चेच अद्धाए १० पचक्खाणं भवे दसहा ।।
॥२९५।। &|| देसुत्तरगुणपच्चक्खाणे भंते ! कहचिहे पन्नत्ते?, गोयमा! सत्तविहे पन्नते. तंजहा-दिसिवयं १ उपभोगप-10 कारीभोगपरिमाणं २ अन्नत्थदंडरमणं ३ सामाइयं ४ देसावगासियं ५ पोसहोववासो ६ अतिहिसंविभागो७|
अपछिममारणंतियसले हणाझुसणाराहणता (सूत्रं २७२)
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [२७२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२७२]
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गाथा
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'कतिविहे ण'मित्यादि, मूलगुणपञ्चक्खाणे य'त्ति चारित्रकल्पवृक्षस्य मूलकल्पा गुणा:-प्राणातिपातविरमणादयो मूलगुणास्तद्रूपं प्रत्याख्यान-निवृत्तिर्मूलगुणविषय वा प्रत्याख्यान-अभ्युपगमो मूलगुणप्रत्याख्यानम् 'उत्तरगुणपञ्चक्खाणे यत्ति मूलगुणापेक्षयोत्तरभूता गुणा वृक्षस्य शाखा इवोत्तरगुणास्तेषु प्रत्याख्यानमुत्तरगुणप्रत्याख्यान, 'सबमूलगुणे'त्यादि, सर्वथा मूलगुणप्रत्याख्यानं सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानं देशतो मूलगुणप्रत्याख्यान देशमूलगुणप्रत्याख्यानं, तत्र सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानं सर्वविरताना, देशमूलगुणप्रत्याख्यानं तु देशविरतानाम् ॥ 'अणागय'गाहा, अनागतकरणादनागतं, पर्युषणादावाचार्यादिवयातृत्त्यकरणेनान्तरायसद्भावादारत एव तत्तपःकरणमित्यर्थः, आह च-"हो ही पज्जोसवणा मम य तया अंतराइयं होज्जा । गुरुवेयावच्चेण १ तवस्सि २ गेलपणयाए वा ३ ॥१॥ सो दाइ तवोकम्म परिवजइ त अणागए काले। एयं पञ्चक्खाणं अणागय होइ नायर्ष ॥२॥" इति, एवमतिकान्तकरणादतिक्रान्त, भावना तु प्राग्वत्, उक्त च-"पंजोसवणाइ त जो खलु न करेइ कारणजाए । गुरुवेयावच्चेणं १ तवस्सि २ गेलग्णयाए वा ३॥१॥ सो दाइ तवोकम्म पडिवजाइ तं अइपिछए काले। एयं पच्चक्खाणं अतिकतं होइ नाय ॥२॥"ति, कोटीसहितमिति-मीलितप्रत्याख्यानद्वयकोटि
१ भविष्यति पर्युषणा मम च तदाऽन्तरायो भविष्यति । गुरुवैवावृत्येन तपखिदै० ग्लानतया वा ॥ १ ॥ तदिदानीं तपःकर्म प्रतिपये | तदनागते काले । एतत् मत्याख्यानं अनागतं भवति ज्ञातव्यं ॥२॥ २ पर्युषणायां तपो य एव न अकार्ष कारणजाते । गुरुवैयावृत्येन | | तपस्विवै० लानतया वा ॥१॥ तदिदानी तपःकर्म प्रतिपये तदतिकान्ते काले । एतत् प्रत्याख्यानमतिकान्तं भवति ज्ञातव्यं ॥२॥
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अनुक्रम [३४०-३४२]
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प्रत्याखानस्य मूल-उत्तरगुणरूप भेदा:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [२७२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२७२]
गाथा
व्याख्या-1 चतुर्थादि कृत्वाऽनन्तरमेव चतुर्थादेः करणमित्यर्थः, अवाचिच-"पवणओ उ दिवसो पञ्चक्खाणस्स निहवणओ य । जहियं ।।
७शतके प्रज्ञप्तिः | समेंति दोन्नि उत भन्नइ कोडिसहियं तु ॥२॥" 'नियंटितं चेव नितरां यन्त्रितं नियन्त्रितं,प्रतिज्ञातदिनादौ ग्लानत्वाद्य-II उद्देशः२ अभयदेवी- तरायभावेऽपि नियमाकर्त्तव्यमिति हृदयं, यदाह- "मासे मासे य तवो अमुगो अमुगे दिणंमि एवइओ। हरेण गिला-18 मूलोत्तरभेयावृत्तिःला पोण व कायबो जाव ऊसासो॥१॥ एवं पच्चक्खाणं नियंटियं धीरपुरिसपन्नत्तं । जे गेण्हंतऽणगारा अणिस्सियप्पा अप- दाःसू२७२ ॥२९॥
डिबद्धा ॥२॥" 'साकार'मिति आक्रियन्त इत्याकाराः-प्रत्याख्यानापवादहेतवो महत्तराकारादयः सहाकारवर्तत इति
साकारम् , अविद्यमानाकारमनाकार-यद्विशिष्टप्रयोजनसम्भवाभावे कान्तारदुर्भिक्षादौ महत्तराद्याकारमनुच्चारयनिर्विदधीयते तदनाकारमिति भावः, केवलमनाकारेऽप्यनाभोगसहसाकारावुच्चारयितच्यावेव, काष्ठाकुल्यादेमुखे प्रक्षेपणतो भो ।
|मा भूदिति, अतोऽनाभोगसहसाकारापेक्षया सर्वदा साकारमेवेति, 'परिमाणकृत'मिति दयादिभिः कृतपरिमाणम् , ४ अभाणि च- "देत्तीहि व कवलेहि व घरेहि भिक्खाहिं अब दबेहिं । जो भत्तपरिचायं करेति परिमाणकडमेयं ॥१॥" |'निरवशेष' समप्राशनादिविषयं, भणितं च-"संघ असणं सर्व च पाणगं सबखजपेजविहिं । परिहरइ सबभाषेणेयं भ
१ प्रस्थापकस्तु दिवसः प्रत्याख्यानस्य निष्ठापकश्च । यत्र समेतो द्वौ तु तद्भण्यते कोटीसहितमेव ॥ ३ ॥२ मासे मासे च तपोऽमुकजाममुष्मिन् दिने इयत् । हटेन लानेन वा कर्तव्यं यावदुलासः ॥१॥ एतत् प्रत्याख्यानं नियन्त्रितं धीरपुरुषप्रज्ञप्तं । यद् गृहत्यनगारा ||8| ॥२९॥ लि अनिश्रितारमानोडपतिबद्धाः ॥२॥ ३ दत्तिभिध कवलैर्वा गृमिक्षाभिरथवा द्रव्यः । यो भक्तपरित्यागं करोति परिमाणकतमेतत् ॥१॥
सर्वमशनं सबै पानक सवै खाद्यपेयविधि । परिहरति सर्वभावेनैतत् मणितं निरवशेष ॥१॥
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अनुक्रम [३४०-३४२]
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[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [२७२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२७२]
गाथा
णियं निरवसेसं ॥१॥" 'साएयं चेव'त्ति केतः-चिहं सह केतेन वर्तते सकेतं, दीर्घता च प्राकृतत्वात् , सकेतयुक्तत्वाद्वा । सङ्केतम्-अङ्गुष्ठसहितादि, यदाह-"अंगुइमुद्विगंठीघरसेऊसासथिबुगजोइक्खे । भणियं सकेयमेयं धीरेहिं अणंतणाणीहिंद
॥१॥" "अद्धाए'त्ति अद्धा-कालस्तस्याः प्रत्याख्यानं-पौरुष्यादिकालस्य नियमनम् , आह च-"अद्धापञ्चक्खाणं जं तं Bाकालप्पमाणछेएणं । पुरिमट्ठपोरुसीहि मुहुत्तमासद्धमासेहिं ॥१॥" 'उवभोगपरिभोगपरिमाणं'ति उपभोगः-सकृद्रोगः,
स चाशनपानानुलेपनादीनां, परिभोगस्तु पुनः पुनर्भोगः, स चाशनशयनवस नवनितादीनाम् , 'अपच्छिममारणंतिय-C संलेहणाझुसणाराहणय'त्ति पश्चिमवामङ्गलपरिहारार्थमपश्चिमा मरणं-प्राणत्यागलक्षणम्, इह यधपि प्रतिक्षणमावीची-1 मरणमस्ति तथापि न तद्गृह्यते, किं तर्हि , विवक्षितसर्वायुष्कक्षयलक्षणं इति, मरणमेवान्तो मरणान्तस्तत्र भवा मारणास्तिकी संलिख्यते-कृशीक्रियतेऽनया शरीरकपायादीति संलेखना-तपोविशेष लक्षणा ततः कर्मधारयादू अपश्चिममारणान्तिकसंलेखना तस्या जोषणं-सेवन तस्याराधनम्-अखण्डकालकरणं तदावः अपश्चिममारणान्तिकसंलेखनाजोषणाराधनता, इह च सप्त दिग्नतादयो देशोत्तरगुणा एव, संलेखना तु भजनया, तथाहि-सा देशोत्तरगुणवतो देशोत्तरगुणः, आवस्यके तथाऽभिधानात्, इतरस्य तु सर्वोत्तरगुणः साकारानाकारादिप्रत्याख्यानरूपत्वादिति संलेखनामविगणय्य
१ भगुप्ठमुष्टिमन्थिगृहस्वेदोच्छासस्तिबुकज्योतिप्काः । भणित संकेतमेतत् धीरैरनन्तज्ञानिभिः ॥ १ ॥२ तत् अद्धाप्रत्याख्यान ॥ यत् कालपमाणच्छेदेन । पूर्वार्धपौरुषीभ्यां मुहर्तमासार्धमासैः ॥१॥
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अनुक्रम [ ३४०
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[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः]
शतक [७], वर्ग [-], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [२], मूलं [२७२]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवी या वृत्तिः १ +
॥२९७॥
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सप्त देशोसरगुणा इत्युक्तम्, अस्याश्चैतेषु पाठो देशोत्तरगुणधारिणाऽपीयमन्ते विधातव्येत्यस्यार्थस्य ख्यापनार्थ इति ।। अथोक्तभेदेन प्रत्याख्यानेन तद्विपर्ययेण च जीवादिपदानि विशेषयन्नाह-
जीवाणं भंते! र्कि मूलगुणपचक्खाणी उत्तरगुणपञ्चक्खाणी अपचक्खाणी?, मोयमा ! जीवा मूलगुणपञ्चक्वाणीवि उत्तरगुणपञ्चक्खाणीचि अपञ्चक्खाणीचि । नेरइया णं भंते! किं मूलणगुणपञ्चक्खाणी० पुच्छा?, गोयमा ! नेरइया नो मूलगुणपचक्खाणी नो उत्तरगुणपञ्चखाणी अपचक्खाणी, एवं जाब चरिंदिया, पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा य जहा जीवा, वाणमंतरजोइसिययेमाणिया जहा नेरइया ॥ एएसि णं भंते ! मूलगुणपचक्खाणी उत्तरगुणपथक्खाणी अपञ्चक्खाणी य कपरे २ हिंतो जाव विसेसाहिया वा १, गोपमा ! सवत्थोवा जीवा मूलगुणपचक्खाणी उत्तरगुणपचक्खाणी असंखेजगुणा अपचक्खाणी अनंतगुणा । एएसि णं भंते! पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! सवत्थोवा जीवा पंचेंदियतिरिक्खजोणिया मूलगुणपचक्खाणी उत्तरगुणपचक्खाणी असंखेज्जगुणा अपचक्खाणी असंखिजगुणा। एएसि णं भंते ! मणुस्साणं मूलगुणपचक्खाणीणं० पुच्छा, गोयमा ! सवत्थोवा मणुस्सा मूलगुणपचक्खाणी उत्तर गुणपचक्खाणी संखेज्जगुणा अपञ्चक्खाणी असंखेनगुणा। जीवा णं भंते! किं सबमूलगुणपञ्चक्खाणी देसमूलगुणपञ्चक्खाणी अपञ्चकखाणी ?, गोपमा ! जीवा सबभूलगुणपचक्खाणी देसमूलगुणपचक्खाणी अपञ्चकखाणीवि। नेरइयाणं पुच्छा, गोयमा ! | नेरइया नो सबमूलगुणपचक्खाणी नो देस मूलगुणपञ्चक्खाणी अपचक्खाणी, एवं जाव बडरिंदिया। पंचिंदि
प्रत्याख्यान-विषयक; अल्प-बहुत्वं
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शतके
उद्देशः २ मूलोत्तर भेदिषु दण्डका अल्पबहुत्वचित्ताच
सू २७३
॥२९७॥
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [२७३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२७३]
यतिरिक्खपुच्छा, गोयमा! पंचिंदियतिरिक्ख० नो सबमूलगुणपञ्चक्खाणी देसमूलगुणपञ्चक्खाणी अपचक्खाणीचि, मणुस्सा जहा जीवा, वाणमंतरजोइसवेमाणिया जहा नेरइया । एएसिणं भंते! जीवाणं सबमूलगुण
पञ्चक्खाणीणं देसमूलगुणपञ्चक्खाणीणं अपञ्चक्खाणीण य कयरेशहितो जाव विसेसाहिया वा ?, गोय-3 Mमा। सबथोवा जीवा सम्वमूलगुणपच्चक्खाणी देसमूलगुणपरक्खाणी असंखेज्जगुणा अपञ्चक्खाणी अणंत
गुणा । एवं अप्पाबहुगाणि तिन्निवि जहा पढमिल्लए दंडए, नवरं सबत्योवा पंचिंदियतिरिक्खजोणिया देसमूलगुणपञ्चक्खाणी अपञ्चक्खाणी असंखेजगुणा । जीवा णं भंते ! किं सबुत्तरगुणपञ्चक्खाणी देसुत्तरगुण-18 | पञ्चक्रवाणी अपचक्खाणी, गोयमा ! जीवा सन्चुत्तरगुणपचक्रवाणीवि तिन्निवि, पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा य एवं चेव, सेसा अपञ्चक्खाणी जाच वेमाणिया। एएसिणं भंते ! जीवाणं सव्वुत्तरगुणपञ्चक्खाणी अप्पायहुगाणि तिन्निधि जहा पदमे दंडए जाव मणूसाणं । जीवा गं भंते । किं संजया असंजया संजयासंजया?, गोयमा ! जीवा संजयावि असंजयावि संजयासंजयावि तिन्निवि, एवं जहेव पन्नवणाए तहेव भाणियचं, जाव बेमाणिया, अप्पाबहुगं तहेव तिण्हवि भाणियत्वं ॥ जीवा णं भंते । किं पञ्चरखाणी अपचक्खाणी. | पञ्चक्स्वाणापचक्खाणी?, गोयमा जीवा पचक्खाणीवि एवं तिन्निवि, एवंमणुस्साणवितिनिधि, पंचिंदियतिरिक्खजोणिया आइल्लविरहिया सेसा सधे अपचक्वाणी जाब बेमाणिया। एएसिणं भंते ! जीवाणं पञ्चवखाणीणं जाच विसेसाहिया चा?, गोयमा ! सबथोबा जीवा पञ्चक्खाणी पचक्खाणापञ्चक्खाणी असंखे
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दीप अनुक्रम [३४३]
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प्रत्याख्यान-विषयक; अल्प-बहुत्वं
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [२७३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
मूलोत्तरभे
प्रत सूत्रांक [२७३]
सू२७३
दीप अनुक्रम [३४३]
व्याख्या- जगुणा अपचक्खाणी अणंतगुणा, पंचेंदियतिरिक्खजोणिया सबथोवा पञ्चक्खाणापचक्खाणी अपञ्चक्खाणी प्रज्ञप्तिः
असंखेजगुणा, मणुस्सा सवत्थोवा पचक्खाणी पञ्चक्खाणापच्चक्खाणी संखेजगुणा अपचक्खाणी असं-|| || उद्देशा२ अभयदेवी
ब खेजगुणा ॥ (सूत्रं २७३) या वृत्तिः १४
। 'जीवा ण'मित्यादि, 'पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा य जहा जीव'त्ति मूलगुणप्रत्याख्यानिन उत्तरगुणप्र| त्याख्यानिनोऽप्रत्याख्यानिनश्च, नवरं पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो देशत एच मूलगुणप्रत्याख्यानिनः, सर्वविरतेस्तेषामभावात् , इह
अल्पबहुत्व ॥२९८॥ |चोक गाथया-"तिरियाणं चारित निवारियं अह य तो पुणो तेसिं । सुबइ बहुयाणं चिय महत्यारोवणं समए ॥१॥"ISI
चित्ताच परिहारोऽपि गाथयैव-"महत्यसम्भावेऽविय चरणपरिणामसंभवो तेसिं । न बहुगुणाणंपि जहा केवलसंभूइपरिणामो ४॥२॥"त्ति ॥ अथ मूलगुणप्रत्याख्यानादिमतामेवाल्पत्वादि चिन्तयति-एएसि णमित्यादि, 'सवत्थोवा जीवा मूल-६
गुणपञ्चक्खाणी ति देशतः सर्वतो वा ये मूलगुणवन्तस्ते स्तोकाः, देशसर्वाभ्यामुत्तरगुणवतामसहयगुणत्वात् , इह च सर्वेविरतेषु ये उत्तरगुणवन्तस्तेऽवश्यं मूलगुणवन्तः, मूलगुणवन्तस्तु स्यादुत्तरगुणवन्तः स्यात्तद्विकलाः, य एव च तद्वि
कलास्त एवेह मूलगुणवन्तो ग्राह्याः, ते चेतरेभ्यः स्तोका एव, बहुतरयतीनां दशविधप्रत्याख्यानयुक्तत्वात्, तेऽपि च है| मूलगुणेभ्यः सञ्जयातगुणा एव नासबातगुणाः, सर्वयतीनामपि सङ्ग्यातत्वात् , देशविरतेषु पुनर्मूलगुणवङ्गयो भिन्ना
॥२९८॥ १-तिरश्यां चारित्रं निवारितमथ च तत्पुनस्तेषां समये बहूनां महानतारोपणं श्रूयत एव ॥१॥२-तेषां महामतसद्भावेऽपि चरणपरिणामो न यथा बहुगुणानामपि केबलसंभूतिपरिणामः ॥२॥
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [२७३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२७३]
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दीप अनुक्रम [३४३]
अध्युत्तरगुणिनो लभ्यन्ते, ते च मधुमासादिविचित्राभिग्रहवशादहुतरा भवन्तीतिकृत्या देशविरतोत्तरगुणवतोऽधिकत्योत्तरगुणवतां मूलगुणवन योऽसवातगुणत्वं भवति, अत एवाह-'उत्तरगुणपञ्चक्खाणी असंखेजगुणपत्ति, 'अपञ्चक्खाणी अणतगुण'त्ति मनुष्यपञ्चेन्द्रियतियश एव प्रत्याख्यानिनोऽन्ये वप्रत्याख्यानिन एव, वनस्पतिप्रभृतिकत्वाचे-18 पामनन्तगुणवमिति । मनुष्यसूत्रे 'अपचक्खाणी असंखेजगुणे'ति यदुक्तं तत्समूच्छिममनुष्यग्रहणेनापसेयमितरेषां सङ्ख्यातत्वादिति । 'एवं अप्पाबहुगाणि तिमिवि जहा पढमिल्लए दंडए'त्ति तत्रैकं जीवानामिदमेव, द्वितीयं पश्चेन्द्रियति४ रखा, तृतीयं तु मनुष्याणाम्, एतानि च यथा निर्विशेषणगुणादिप्रतिबद्धे दण्डके उक्तानि एवमिह त्रीण्यपि वाच्यानि, विशेषमाह-'नवर मित्यादि, 'पंचेंदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा य एवं वत्ति यथा जीवाः सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानादय उक्ता एवं पवेन्द्रियतिर्यञ्चो मनुष्याश्च वाच्याः, इह च पश्चेन्द्रियतिर्यश्चोऽपि सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्या निनो भवन्तीत्यवसेयं, देशविरतानां देशतः सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानस्वाभिमतत्वादिति ॥ मूलगुणप्रत्याख्यानिप्रभृतयश्च संयतादयो भवन्तीति संयतादिसूत्रम्-'तिन्निवित्ति जीवास्त्रिविधा अपीत्यर्थः, 'एवं जहेवे'त्यादि, 'एवम्' अनेनाभिलापेन यथैव प्रज्ञपानायां तथैव सूत्रमिदमध्येयं, तचैवम्-'नेरझ्या णं भैते । किं संजया असंजया संजयासंजया ?, गोयमा! नो संजया असंजया नो संजयासंजयेत्यादि । 'अप्पा'इत्यादि, अल्पबहुत्वं संयतादीनां तथैव यथा प्रज्ञापनापामुक्तं 'तिण्हवित्ति जीवानां पवेन्द्रियतिरश्चां मनुष्याणां च, तत्र सर्वस्तोकाः संयता जीवाः, संयतासंयता असङ्ग्वेयगुणाः, असंयतास्त्वनतगुणाः, पश्चेन्द्रियतिर्यञ्चस्तु सर्वस्तोकाः संयतासंयता: असंयता असोयगुणाः, मनुष्यास्तु सर्वस्तोकाः संयताः संय-12
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प्रत्याख्यान-विषयक; अल्प-बहुत्वं
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [२७३,२७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[२७३,
व्याख्या- तासंयता सोयगुणाः असंयता असंजयगुणा इति ॥ संयतादयश्च प्रत्याख्यान्यादिवे सति भवन्तीति प्रत्याख्यान्यादि- ७ शतके
प्रज्ञप्तिः ४ सूत्रम्-ननु षष्ठशते चतुर्थोद्देशके प्रत्याख्यान्यादयः प्ररूपिता इति किं पुनस्तत्प्ररूपणेन !, सत्यमेतत् किन्वल्पबहुत्वचि- उद्देशः२ अभयदेवान्तारहितास्तत्र प्ररूपिता इह तु तद्युक्ताः सम्बन्धान्तरद्वारायाताश्चेति ॥ जीवाधिकारात्तच्छाश्वतत्वसूत्राणि-तत्र च जीवस्य शाया वृत्तिः
जीवा णं भंते ! किं सासया असासया, गोयमा ! जीवा सिय सासया सिय असासया । से केणटेणं शाश्वताशाश्व॥२९॥ भंते! एवं बुच्चइ-जीवा सिय सासया सिय असासया ?, गोयमा !, दवट्ठयाए सासया भावयाए असा-|
तते सु२७४ M सया, से तेणटेणं गोयमा! एवं बुचइ-जाव सिय असासया । नेरइया णं भंते ! किं सासया असासया ,
एवं जहा जीवा तहा नेरइयावि, एवं जाव वेमाणिया जाव सिय सासया सिय असासया । सेवं भंते। सेवं भंते ! ॥ (सूत्र २७४)॥ सत्समस्स विडओ उद्देसो समत्तो ॥७-२॥ 'दषट्टयाए'त्ति जीवद्रव्यत्वेनेत्यर्थः 'भावट्ठयाए'त्ति नारकादिपर्यायत्वेनेत्यर्थः ।। सप्तमाते द्वितीयोद्देशकः ॥७-२।
२७४]
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दीप अनुक्रम [३४३, ३४४]
| ॥२९
॥
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जीवाधिकारप्रतिबद्ध एव तृतीयोद्देशकस्तस्सूत्रम्वणस्सइकाइया णं भंते ! किंकालं सबप्पाहारगा वा सवमहाहारगा वा भवंति ?, गोयमा! पाउसवरि|| सारत्तेसुणं एत्थ णं वणस्सइकाइया सचमहाहारगा भवंति तदाणतरं च णं सरए तयाणंतरं च णं हेमंते तदा-IN अणंतरं च णं वसंते तदाणंतरं च णं गिम्हे गिम्हा गं वणस्सइकाइया सबप्पाहारगा भवंति; जहणं भंते ! गि
अत्र सप्तम-शतके द्वितीय-उद्देशकः समाप्त: अथ सप्तम-शतके तृतीय-उद्देशक: आरम्भ:
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[२७५,
२७७]
दीप
अनुक्रम
[ ३४५,
३४७]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति:]
शतक [७], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [३], मूलं [ २७५-२७७]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
म्हासु वणस्सइकाइया सवप्पाहारगा भवति, कम्हा णं भंते । गिम्हासु बहवे वणस्सइकाइया पत्तिया पुष्फिया फलिया हरियगरेरिजमाणा सिरीए अई अईव उवसोभमाणा उवसोभेमाणा चिर्द्धति ?, गोयमा ! गिम्हा| सु णं बहवे उसिणजोणिया जीवा य पोग्गला य वणस्सइकाइयत्ताए वक्कमंति विउकमंति चयंति उबवज्रंति, | एवं खलु गोयमा ! गिम्हासु बहवे वणस्सइकाइया पतिया पुष्क्रिया जाब चिति । (सू २७५) से नूणं भंते ! मूला मूलजीवफुडा कंदा कंदजीवफुडा जाव बीया बीयजीवकुडा ?, हंता गोयमा ! मूला मूलजीवकुडा | जाव बीया बीयजीवफुडा । जति णं भंते! मूला मूलजीवफुडा जाव बीया बीयजीवफुडा कम्हा णं भंते ! | वणस्सइकाइया आहारैति कम्हा परिणार्मेति ?, गोयमा ! मूला मूलजीवफुडा पुढविजीवपडिबद्धा तम्हा आहारैति तम्हा परिणामेति कंदा कंदजीवकुडा मूलजीवपडिबद्धा तम्हा आहारेइ तम्हा परिणामेह, एवं जाव | बीया बीयजीवफुडा फलजीवपडिबद्धा तम्हा आहारेड़ तम्हा परिणामेइ ॥ (सूत्रं २७६) अह भंते ! आलुए मूलए सिंगबेरे हिरिली सिरिलि सिस्सिरिली किडिया छिरिया छीरिविरालिया कण्हकंदे वज्जकंदे सूरणकंदे खेलूडे | अदए भद्दमुत्था पिंडहलिहा लोही णीहू श्रीह थिरुगा मुग्गकन्नी अस्सकन्नी सीहंडी मुंसुंडी जे यावन्ने तहप्पगारा सबै ते अनंतजीवा विविह सत्ता ?, हंता गोयमा ! आलुए मूलए जाव अनंतजीवा विविहसत्ता ॥ ( सूत्रं २७७ ) 'वणरसइकाइया णं भंते !' इत्यादि, 'किंकाल'ति कस्मिन् काले 'पाउसे'त्यादि प्रावृडादौ बहुत्वाज्जलस्नेहस्य महाहारतोक्ता, प्रावृट् श्रावणादिर्वर्षारात्रोऽश्वयुजादिः 'सरदे'ति शरत मार्गशीर्षादिस्तत्र चाल्पाहारा भवन्तीति ज्ञेयं,
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [२७५-२७७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रज्ञप्तिः
।
प्रत सूत्रांक [२७५, २७७]
व्याख्या-5 ग्रीष्मे सर्वाल्पाहारतोक्ताऽत एव च शेषेष्वप्यल्पाहारता क्रमेण द्रष्टव्येति, 'हरितगरेरिजमाणे ति हरितकाच ते ७ शतके
नीलका रेरिजमानाश्च-देदीप्यमाना हरितकरेरिज्यमानाः 'सिरिए'त्ति वनलक्ष्म्या 'उसिणजोणियत्ति उष्णमेव योनि- उद्देशः ३ अभयदेवी-||
येषां ते उष्णयोनिकाः, 'मूला मूलजीवफुड'त्ति मूलानि-मूलजीवैः स्पृष्टानि व्याप्तानीत्यर्थः, यावत्करणात् 'खंधा ख-कालाश्चिता यावृत्तिः१|| धजीचफुडा एवं तया साला पवाला पत्ता पुप्फा फल'त्ति दृश्यम् ॥ 'जइ णमित्यादि, यदि भदन्त ! मूलादीन्येवं मूला-18
वनस्याल्पा
द्याशरतामू॥३०॥ दिजीवः स्पृष्टानि तदा 'कम्हत्ति 'कस्मात् केन हेतुना कथमित्यर्थः वनस्पतय आहारयन्ति !, आहारस्य भूमिगतत्वात् ८
| लादीनांपमूलादिजीवानां च मूलादिव्यात्यैवावस्थितत्वात् केषाश्चिञ्च परस्परव्यवधानेन भूमेदूंरवर्तित्वादिति, अत्रोत्तरं, मूलानि |
रिणामः अ8 मूलजीवस्पृष्टानि केवलं पृथिवीजीवप्रतिबद्धानि 'तम्ह'त्ति 'तस्मात् तत्प्रतिबन्धाद्धेतोः पृथिवीरसं मूलजीवा आहार- नन्तकाया
यन्तीति, कन्दाः कन्दजीवस्पृष्टाः केवलं मूलजीवप्रतिवद्धाः 'तस्मात्' तत्प्रतिबन्धात् मूलजीवोपात्तं पृथिवीरसमाहार- श्व सू२७५ यन्तीत्येवं स्कन्धादिध्वपि वाच्यम् ॥'आलुए'इत्यादि, एते चानन्तकायभेदा लोकरूढिगम्याः, 'तहप्पगार'त्ति तथा- २७६-२७७ प्रकाराः' आलुकादिसदृशाः 'अणंतजीच'त्ति अनन्ता जीवा येषु ते तथा 'विविहसत्त'त्ति विविधा-बहुप्रकारा वर्णा-|| |दिभेदात् सत्या येषामनन्तकायिकवनस्पतिभेदानां ते तथा, अथवैकस्वरूपैरपि जीवैरेषामनन्त जीविता स्थादित्याशङ्कायामाह-विविधा-विचित्रकर्मतयाऽनेकविधाः सत्त्वा येषु ते तवा, 'विविहसत्त (चित्ताविहि)त्ति क्वचिद् दृश्यते तत्र |
॥३०॥ हा विचित्रा विधयो-भेदा येषां ते तथा ते सत्त्वा येषु ते तथा ॥ जीवाधिकारादेवेदमाह
सिय भंते ! कण्हलेसे नेरइए अप्पकम्मतराए नीललेसे नेरइए महाकम्मतराए ?, हता सिया, से केणद्वेणं ||२||
दीप
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [२७८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२७८]
दीप अनुक्रम [३४८]
एवं चुचइ-कण्हलेसे नेरइप अप्पकम्मतराए नीललेसे नेरइए महाकम्मतराए, गोयमा! ठिति पहुच, से तेण?णं गोयमा । जाब महाकम्मतराए । सिय भंते ! नीललेसे नेरइए अप्पकम्मतराए काउलेसे नेरइए महाकम्मतराए, हंता सिया, से केण्डेणं भंते । एवं चुचति-नीललेसे अप्पकम्मतराए काउलेसे नेरइए महाकम्मतराए ?, गोयमा । ठितिं पडुच, से तेण?णं गोयमा ! जाव महाकम्मतराए । एवं असुरकुमारेवि, नवरं | तेउलेसा अन्भहिया एवं जाव वेमाणिया, जस्स जइ लेसाओ तस्स तत्तिया भाणियबाओ, जोइसियस्स न भन्नइ, जाव सिप भंते । पम्हलेसे वेमाणिए अप्पकम्मतराए सुक्कलेसे वेमाणिए महाकम्मतराए ?, हंता |सिया, से केणतुणं० सेसं जहा नेरइयरस जाव महाकम्मतराए ॥ (सूत्र २७८)॥ | 'सिय भंते ! कण्हलेसे नेरइए'इत्यादि, 'ठिति पटु'त्ति, अत्रेयं भावना-सप्तमपृथिवीनारकः कृष्णलेश्यस्तस्य
च स्वस्थिती बहुक्षपितायां तच्छेपे वर्तमाने पञ्चमपृथिव्यां सप्तदशसागरोपमस्थितिारको नीललेश्यः समुत्पन्नः, तमपेक्ष्य Xस कृष्णलेश्योऽस्पकर्मा व्यपदिश्यते, एवमुत्तरसूत्राण्यपि भावनीयानि । 'जोइसिपस्स न भन्नइ'त्ति एकस्या एव तेजो-1 Bालेश्यायास्तस्य सद्भावात् संयोगो नास्तीति । सलेश्या जीवाश्च घेदनावन्तो भवन्तीति वेदनासूत्राणि| से नूर्ण भंते ! जा वेदणा सा निजरा जा निजरा सा वेदणा !, गोपमा ! णो तिणढे समढे, से केणटेणं भंते ! एवं बुचड़ जा वेयणा न सा निजरा जा निजरा नसा चेयणा?, गोयमा कम्म वेदणा णोकम्म निजरा, से तेण?णं गोयमा ! जाव न सा चेदणा । नेरइयाणं भंते ! जा वेदणा सा निजरा जा निजरा सा वेयणा',
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[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः]
शतक [७], वर्ग [-], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [३], मूलं [ २७९ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५]
व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयंदेवी
या वृत्तिः १
॥१०१॥
गोयमा ! णो तिणट्टे समट्टे, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुवइ नेरइयाणं जा वेयणा न सा निखारा जा निजरा न सा वेयणा १, गोयमा ! मेरइयाणं कम्म वेदणा णोकम्म निजरा, से तेणद्वेणं गोयमा ! जाव न सा बेपणा, एवं जाव बेमाणियाणं । से नूणं भंते ! जं वेदसु तं निज्जरिंसु जं निज्जरिंसु तं वेदसु ?, णो तिणडे समठ्ठे, से केणणं भंते ! एवं बुचइ जं वेदेंसु नो तं निजरें जं निज्जरेंसु नो तं वेदसु ?, गोयमा ! कम्मं वेदेंसुनोकम्मं निजरिंसु, से तेणद्वेणं गोयमा ! जाव नो तं वेदेंसु, नेरइया णं भंते । जं वेदसु तं निज्जरिंसु । एवं नेरइयावि एवं जाव बेमाणिया । से नूणं भंते ! जं वेदेति तं निजरेंति जं निज्जरिंति तं वेदति ?, गोयमा ! णो तिणट्टे समहे, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुचड़ जाव नो तं वेदति १, गोयमा ! कम्मं वेति नोकम्मं निजरेंति, तेणद्वेणं गोयमा ! जाव नो तं वेदेति, एवं नेरइयावि जाव वैमाणिया । से नूणं भंते ! जं वेदिस्संति तं निज़रिस्संति जं निज़रिस्संति तं वेदिस्संति ?, गोयमा ! णो तिणट्ठे समहे, से केणट्टेणं जाव णो तं वेदेस्संति ?, गोयमा ! कम्मं वेदिस्संति नोकम्मं निज्जरिस्संति, से तेणद्वेणं जाव नो तं निज्जरिस्संति, एवं नेर| इयावि जाय बेमाणिया । से णूर्ण भंते । जे वेदणासमए से निजरासमए जे निजरासमए से वेदणासमए ?, नो तिणट्ठे समट्ठे, से केणद्वेणं भंते ! एवं वृच्चइ जे वेयणासमए न से निजरासमए जे निरासमए न से वेदणासमए ?, गोयमा । जं समयं वेदेति नो तं समयं निजरेंति जं समयं निजरेंति नो तं समयं वेदेति, अम्मि समए वेदेति अन्नम्मि समय निज्जरेंति अन्ने से वेदणासमए अने से निज्वरासमए, से तेणद्वेर्ण जाव
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"भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
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७ शतके उद्देशः ३ लेश्याकर्म सू २७८ वेदनानिर्जरे सू २७९
॥३०१ ॥
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[२७९]
दीप
अनुक्रम [३४९]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः]
शतक [७], वर्ग [-], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [३], मूलं [ २७९ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
न से वेदणासमए न से निखरासमए । मेरइयाणं भंते! जे वेदणासमए से निजरासमए जे मिजरासमए से वेदणासमए ?, गोयमा ! णो तिणट्ठे समहे, से केणद्वेणं मंते । एवं पुचह नेरइयाणं जे बेदणासमए न से मिज्जरासमए जे निज्जरासमए न से वेदणासमए १, गोयमा ! नेरया णं जं समयं वेदेति णो तं समयं निज्जरेंति जं समयं निज्जरंति नो तं समयं वेदेति अनमि समए वेदेति अन्नम्मि समए निजति अने से वेदणासमए अने से निजरासमए, से सेणद्वेणं जाव न से वेदणासमए एवं जाव बेमाणिया ॥ ( सू २७९ ) ॥
'कम्म वेयण'ति उदयं प्राप्तं कर्म्म वेदना धर्मधम्मिणोरभेदविवक्षणात्, 'नोकम्मं निजरे ति कम्र्म्माभावो निर्जरा तस्था एवंस्वरूपत्वादिति 'नोकम्मं निज्जरेंस'ति वेदितरसं कर्म नोकर्म तन्निर्जरितवन्तः, कर्म्मभूतस्य कर्म्मणो निर्जरणासम्भवादिति ॥ पूर्वकृतकर्म्मणश्च वेदना तद्वत्ता च कथञ्चिच्छाश्वतत्वे सति युज्यत इति तच्छाश्वतत्वसूत्राणि, तत्र च
नेरइया णं भंते । किं सासया असासया ?, गोयमा ! सिय सासया सिय असासया, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुवइ नेरइया सिय सासया सिय असासया ?, गोयमा ! अवोच्छित्तिणयद्वयाए सासया वोच्छित्तिणयह याए असासया, से तेणद्वेणं जाब सिय सासया सिथ असासया, एवं जाव बेमाणिया जाब सिय असासया सेवं भंते! सेवं भंते त्ति ॥ ( सूत्रं २८० ) ॥ ७३ ॥
'अवोच्छित्तिणपट्ट्याए 'त्ति अव्यवच्छिसिप्रधानो नयोऽव्यवच्छित्तिनयस्तस्यार्थी - द्रव्यमव्यवच्छित्तिनयार्थस्वज्जावस्त
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आगम [०५]]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३,४], मूलं [२८०,२८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[२८०, २८१]
दीप अनुक्रम [३५०, ३५१]
सत्ता तयाऽब्यवच्छित्तिनयार्थतया-द्रव्यमाश्रित्य शाश्वता इत्यर्थः, 'वोच्छित्तिणयद्वयाए'त्ति व्यवच्छित्तिप्रधानो यो नय-||७ शुतके प्रज्ञप्तिः स्तस्य योऽर्थः-पर्यायलक्षणस्तस्य यो भावः सा व्यवच्छित्तिनयार्थता तया २-पर्यायानाश्रित्य अशाश्वता नारका इति ॥ उद्देशो३-४ अभयदेवी-|सप्तमशते तृतीयोदेशकः ॥ ७-३॥
शाश्वततरयावृत्तिःला
| तेसू २८० तृतीयोद्देशके संसारिणः शाश्वतादिस्वरूपतो निरूपिताश्चतुर्थोद्देशके तु तानेव भेदतो निरूपयन्नाह
जीवभेदा॥३०२॥ II रायगिहे नगरे जाव एवं वदासी-कतिविहाणं भंते! संसारसमावनगा जीवा पन्नत्ता, गोयमा! छबिहा||दि सू२८१
संसारसमावन्नगा जीवा पन्नता, तंजहा-पुढविकाइया एवं जहा जीवाभिगमे जाव सम्मत्तकिरियं वा || मिच्छत्तकिरियं वा ।। सेवं भंते सेवं भंतेत्ति। जीवा छबिह पुढवी जीवाण ठिती भवहिती काए। निल्लेवण ||४|| लि अणगारे किरिया सम्मत्तमिच्छता ॥१॥ (सूत्रं २८१)॥७-४॥
_ 'कतिविहा ण'मित्यादि, 'एवं जहा जीवाभिगमे त्ति एवं च तत्रैतत्सूत्रम्-'पुढविकाइया जाव तसकाइया, से कि सतं पुढविकाइया ?, पुढविकाइया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-सुहुमपुढविकाइया बायरपुदविकाइया' इत्यादि, अन्तः पुनरस्य&ाएगे जीवे एगेणं समएणं एक किरियं पकरेइ, तंजहा-सम्मत्तकिरियं वा मिच्छत्तकिरियं वा' अत एवोक्तं 'जाव सम्मत्ते
त्यादि, वाचनान्तरे विदं रश्यते-"जीवा छविह पुढवी जीवाण ठिती भवहिती काए । निलेवण अणगारे किरिया सम्म-] D ॥३०॥ त्त मिच्छत्ता ॥१॥" इति, तत्र च पडूविधा जीवा दर्शिता एव, 'पुढवित्ति षडूविधा बादरपृथ्वी श्लक्ष्णा १ शुद्धा २वालुका ३ मनःशिला ४ शर्करा ५ खरपृथिवी ६ भेदात् , तथैषामेव पृथिवीभेदजीवानां स्थितिरन्तमुंहत्तोदिका यथा
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अत्र सप्तम-शतके तृतीय-उद्देशक: समाप्त: अथ सप्तम-शतके चतुर्थ-उद्देशक: आरम्भ:
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[२८१]
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गाथा
दीप
अनुक्रम
[३५१
-३५२]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति: ] शतक [७], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [४], मूलं [ २८१]
+ गाथा
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
'खहरे 'त्यादि, 'जोणीसंग' त्ति योनिः उत्पत्तिहेतुर्जीवस्य तया सङ्ग्रहः अनेकेषामेकशब्दाभिलाप्यत्वं योनिसङ्ग्रहः, 'अंडय'त्ति अण्डाज्जायन्ते अण्डजाः-हंसादयः, 'पोयय'त्ति पोतवद् वस्त्रवज्जरायुवर्जिततया शुद्धदेहा योनिविशेषाज्जाताः पोतादिव वा-बोहित्थाज्जाताः पोता इव वा वस्त्रसंमार्जिता इव जाताः पोतजाः - वल्गुल्यादयः 'संमुच्छिम' त्ति संमूर्च्छनयोनिविशेषधर्मेण निर्वृत्ताः संमूच्छिमाः- हिकादयः । 'एवं जहा जीवाभिगमे त्ति एवं च तत्रैतत्सूत्रम् -'अंडया तिविहा पन्नत्ता, तंजहा- इत्थी पुरिसा नपुंसया, एवं पोययावि, तत्थ णं जे ते संमुच्छिमा ते सवे नपुंसगा' इत्यादि, एतदन्तसूत्रं स्वेवम्- 'अस्थि णं भंते । विमाणांई विजयाई जयंताई वैजयंताई अपराजियाई ?, हंता अस्थि, ते णं भंते ! विमाणा केमहालया पन्नता ? गोयमा ! जावइयं च णं सूरिए उदेइ जावइयं च णं सूरिए अत्थ मेइ यावताऽन्तरेणेत्यर्थः एवंरुवाई नव वासंतराई अत्थेगइयस्स देवरस एगे विक्कमे सिया से णं देवे ताए उक्किठाए तुरियाए जाब दिखाए देवगईए वीईवयमाणे २ जाव एगाहं वा दुयाई वा उक्को सेणं छम्मासे वीईवएज्ज'त्ति, शेषं तु लिखितमेवास्ते, तदेव च पर्यन्तसूत्रतया यावत्करणेन | दर्शितमिति । वाचनान्तरे त्विदं दृश्यते-जोणिसंगहलेसा दिही णाणे य जोग उनओगे । उववायठिइसमुग्धाय चवणजाईकुलविहीओ ॥ १ ॥ तत्र योनिग्रहो दर्शित एव, लेश्यादीनि त्वर्थतो ददर्यन्ते एषां लेश्याः पडू दृष्टयस्तिस्रःज्ञानानि त्रीणि आद्यानि भजनया अज्ञानानि तु त्रीणि भजनयैव योगास्त्रयः उपयोगी द्वौ उपपातः सामान्यतश्चतसृभ्योऽपि गतिभ्यः स्थितिरन्तर्मुहूर्त्तादिका पल्योपमासयेयभागपर्यवसाना समुद्घाताः केवल्याहारकवर्जाः पश्च तथा च्युत्वा ते गतिचतुष्टयेऽपि यान्ति तथैषां जातौ द्वादश कुलको टी लक्षा भवन्तीति ( जीवा० सू० ९६-९७-९८-९९ ) ॥ सष्ठमशते पञ्चम उद्देशकः संपूर्णः ७-५ ॥
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[२८१,
२८२]
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गाथा
दीप
अनुक्रम
[३५१
-३५४]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः ]
शतक [७], वर्ग [-], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [ ४,५], मूलं [ २८१, २८२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५]
व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवी या वृत्तिः १
॥३०३॥
योगं द्वाविंशतिवर्षसहस्रान्ता वाच्या, तथा नारकादिषु भवस्थितिर्वाच्या, सा च सामान्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तादिका त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमान्ता, तथा कायस्थितिर्वाच्या, सा च जीवस्य जीवकाये सर्वाद्धमित्येवमादिका, तथा निर्लेपना वाच्या, सा चैवं प्रत्युत्पन्नपृथिवी कायिकाः समयापहारेण जघन्य पदेऽसङ्ख्याभिरुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिरपद्रियन्ते, एवमुत्कृष्टपदेऽपि, किन्तु जघन्यपदादुत्कृष्टपदम सोयगुणमित्यादि । 'अणगारे 'ति अनगारवक्तव्यता वाच्या, सा चेयम् - अविशुद्धले श्योऽनगारोऽसमवह तेनात्मनाऽविशुद्धलेश्यं देवं देवीमनगारं जानाति ?, नायमर्थ (समर्थः) इत्यादि । 'किरिया सम्मत्तमिच्छत्ते ति एवं दृश्यः - अन्ययूथिका एवमाख्यान्ति-एको जीव एकेन समयेन द्वे क्रिये प्रकरोति सम्यक्त्वक्रियां मिथ्यात्वक्रियां चेति, मिथ्या चैतद्विरोधादिति ( जीवा० सू० १००-१०१-१०२ - १०३ - १०४ ) ॥ सप्तमशते चतुर्थीदेशकः ॥ ७४ ॥
चतुर्थे संसारिणो भेदत उक्ताः, पञ्चमे तु तद्विशेषाणामेव योनिसङ्ग्रहं भेदत आह
रायगिहे जाव एवं बदासी - खयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते! कतिविहे णं जोणीसंग हे पण्णत्ते 2, गोयमा ! तिविहे जोणीसंगहे पण्णत्ते, तंजहा- अंडया पोयया संमुच्छिमा, एवं जहा जीवाभिगमे जाव नो चेव णं ते विमाणे वीतीवएज्जा । एवंमहालयाणं गोयमा ! ते विमाणा पन्नत्ता | 'जोणी संगह ऐसा विट्ठी नाणे य जोग उचओगे । उववायठितिसमुग्धायचवणजातीकुलविहीओ ॥ १ ॥ सेवं भंते । खेवं भंते । ति ( सूत्रं २८२ ) ।। ७-५ ॥
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अत्र सप्तम शतके चतुर्थ उद्देशकः समाप्तः
अथ सप्तम शतके पंचम उद्देशक: आरम्भः एवं समाप्तः
"भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
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७ शतके उद्देशः ५ योनिसंग्रहा दिःसू २८२
॥२०३॥
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[२८३,
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दीप
अनुक्रम
[३५५
-३५८]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः]
शतक [७], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [६], मूलं [ २८३ - २८६]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
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अनन्तरं योनिग्रहादिरर्थ उक्तः, स चायुष्मतां भवतीत्यायुष्कादिनिरूपणार्थः षष्ठः-
रायगिहे जाव एवं वदासी-जीवे णं भंते! जे भविए नेरइएस उववज्जित्तए से णं भंते! किं इहगए नेरइया उयं पकरेति उवबजमाणे नेरइयाज्यं पकरेड़ उबवन्ने नेरइयाजयं पकरेइ २, गोयमा ! इहगए नरश्यायं पकरेह नो उबवजमाणे नेरइयाउयं पकरेह नो उबवन्ने नेरइयाजयं पकरेइ, एवं असुरकुमारेसुवि एवं जाव बेमाणि एस जीवे णं भंते । जे भविए नेरइएस उववजित्तए से णं भंते । किं इहगए ने रइयाउयं पडिसंवेदेति उबवजमाणे नेरइयाउयं पडिसंवेदेति उवबन्ने नेरइयाउयं पडिसंवेदेति ?, गोयमा ! णेरइए णो इहगए मेरइपाउयं परिसंवेदेह उबवलमाणे नेरइयाउयं परिसंवेदेह उचचनेवि नेरइयाज्यं पडिसंवेदेति एवं जाव बेमाणिएसु । जीवे णं भंते! जे भविए नेरइएस उववज्जिन्त्तए से णं भंते! किं इहगए महावेदणे उबवजमाणे महावेदणे उबवन्ने महावेदणे ?, गोयमा । इहगए सिय महावेयणे सिय अप्पवेदणे उववज्रमाणे सिय महावेदणे सिय अप्पवेदणे अहे णं उबवने भवति तओ पच्छा एतदुक्खं वेयणं बेयति आहथ सायं जीवे णं भंते! जे भविए | असुरकुमारेसु उववज्जित्तए पुच्छा, गोयमा ! इहगए सिय महावेदणे सिय अप्पवेदणे उबवज्रमाणे सिय महावेदणे सिय अप्पवेदणे अहे णं उववन्ने भव तओ पच्छा एगतसायं वेयणं वेदेति आहच असायं, एवं जाव थणियकुमारेसु । जीवे णं भंते जे भविए पुढविकाएसु उववजित्तर पुच्छा, गोयमा ! इहगए सिय महाबेयणे सिय अप्पवेयणे, एवं उबवजमाणेवि, अहे णं उवबन्ने भवति तओ पच्छा बेमायाए बेषणं वेयति एवं
अथ सप्तम शतके षष्ठं उद्देशक: आरम्भः
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [२८३-२८६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
व्याख्या-
प्रत सूत्रांक
प्रज्ञप्तिः
अभयदेवीयावृत्तिः१
(२८३, २८६]
यनिवर्तन
॥३०॥
दीप अनुक्रम [३५५-३५८]
जाव मणुस्सेसु, वाणमंतरजोइसियवेमाणिएसु जहा असुरकुमारेसु । ( सूत्रं २८३) जीवा ण भंते ! किं|| | ७ शतके आभोगनिवत्तियाउया अणाभोगनिवत्तियाउया ?, गोयमा! नो आभोगनिवत्तियाज्या अणाभोगनिव-|| उद्देशः६ त्तियाउया, एवं नेरइयावि, एवं जाच वेमाणिया (सूत्र २८४) । अत्थि भंते ! जीवा णं ककसवेयणिज्जा
आयुरल्पवेकम्मा कति ?, [गोयमा ! ] हंता अस्थि, कहन्नं भंते ! जीवा णं ककसबेयणिज्जा कम्मा कजंति, गोयमा दनादि आपाणाइवाएणं जाव मिच्छादसणसल्लेणं, एवं खलु गोयमा ! जीवाणं ककसवेयणिज्जा कम्मा कजंति । अस्थि: ण भंते ! नेरइयाणं ककसवेयणिज्जा कम्मा कति, [एवं चेव एवं जाव वेमाणियाणं । अस्थि णं भंते ! जीवा|2||
कर्कशेतरवे
सातासाणं अककसवेयणिज्जा कम्मा कजंति , हन्ता अत्थि, कहनं भंते! अककसवेयणिज्जा कम्मा कजंति', गोयमा २८३. पाणाइवायवेरमणेणं जाव परिग्गहवेरमणेणं कोहविवेगेणं जाव मिच्छादसणसल्लविवेगेणं, एवं खलु गोयमा।| २८६ जीवाणं अकक्कसवेयणिज्जा कम्मा कजंति। अस्थिभंते !नेरइए (याणं)अककसवेवणिज्जा कम्मा कजंति?,गोयमा! णो तिणद्वे समढे, एवं जाव वेमाणिया, नवरं मणुस्साणं जहाजीवाणं । (सूत्र २८५)। अस्थि णं भंते जीवाणं सायावेयणिज्जा कम्मा कज्जंति ?, हंता अस्थि, कहन्नं भंते ! जीवाणं सातावेयणिज्जा कम्मा कजंति?, गोयमा! पाणाणुकंपाए भूयाणुकंपाए जीवाणुकंपाए सत्ताणुकंपाए बहूणं पाणाणं जाव सत्ताणं अदुक्खणयाए असो- ॥३०४॥ यणयाए अजूरणयाए अतिप्पणयाए अपिट्टणयाए अपरियावणयाए एवं खलु गोयमा ! जीवाणं सायावेय|णिज्जा कम्मा कजंति, एवं नेरइयाणवि, एवं जाव वेमाणियाणं। अस्थि णं भंते ! जीवाणं अस्सायवेयणिज्जा कम्मा
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [२८३-२८६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२८३, २८६]
CCCC
दीप अनुक्रम [३५५-३५८]
कजंति !, हंता अस्थि । कहनं भंते ! जीवाणं अस्सायावेयणिज्जा कम्मा कति ?, गोयमा! परदुक्खणयाए | परसोयणयाए परजूरणयाए परतिप्पणयाए परपिट्टणयाए परपरियावणयाए बहूणं पाणाणंजाव सत्ताणं दुक्ख
णयाए सोयणयाए जाव परियावणयाए एवं खलु गोयमा! जीवाणं अस्सायावेयणिज्जा कम्मा कजंति, एवं 8 है। नेरइयाणवि, एवं जाव वेमाणियाणं (सूत्रं २८६)॥ DIL तत्र च 'एगंतदुक्खं वेयणति सर्वथा दुःखरूपां वेदनीयकर्मानुभूतिम् 'आहच्च साय'ति कदाचित्सुखरूपां नरकपालादीनामसंयोगकाले, 'एगंतसायं ति भवप्रत्ययात् 'आहच असाय'ति प्रहारायुपनिपातात्, 'कक्कसवेयणिज्जा कम्मति कर्कशैः-ौद्रदुःखैर्वेद्यते यानि तानि कर्कशवेदनीयानि स्कन्दकाचार्यसाधूनामिवेति 'अकफसवेयणिज्जेति अकशेन-सुखेन वेद्यन्ते यानि तान्यकर्कशवेदनीयानि भरतादीनामिव, 'पाणाइवायवेरमणेणं'ति संयमेनेत्यर्थः ॥ नारकादीनां तु संयमाभावात्तदभावोऽवसेयः, 'अदुक्खणयाए'त्ति दुःखस्य करणं दुःखनं तदविद्यमानं यस्यासावदुःखनस्तद्भावस्तत्ता तया अदुःखनतया अदुःखकरणेनेत्यर्थः, एतदेव प्रपश्यते-असोयणयाए'त्ति दैन्यानुत्पादनेन 'अजूरणयाए'त्ति शरीरापचयकारिशोकानुत्पादनेन 'अतिप्पणयाए'त्ति अश्रुलालादिक्षरणकारणशोकानुत्पादनेन 'अपिट्टणयाए'त्ति यष्ट्यादिताडनपरिहारेण 'अपरियावणयाए'त्ति शरीरपरितापानुस्पादनेन ॥ दुःखप्रस्तावादिदमाह
जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए दूसमदूसमाए समाए उत्तमकहपत्ताए भरहस्स वासस्स केरिसए आगारभावपडोयारे भविस्सति ?, गोयमा ! कालो भविस्सइ हाहाभूए भंभाभूए कोला
दुषम-सुषम: आरकस्य वर्णनं
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [२८७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२८७]]
दीप अनुक्रम [३५९]
व्याख्या- हलम्भूए समयाणुभावेण य णं खरफरुसधूलिमइला दुबिसहा चाउला भयंकरा वाया संवट्टगा य वाइंति, इह शतके प्रज्ञप्तिःअभिक्खं धूमाईति य दिसा समंता रस्सलारेणुकलुसतमपडलनिरालोगा समथलुक्खयाए यणं अहियं चंदा|
उद्देशः ७ अभयदेवी- सीयं मोच्छति अहियं मरिया तवइस्संति अदुत्तरं च णं अभिक्खणं बहवे अरसमेहा विरसमेहा सारमेहा खट्टमेहा
दुष्पमदुष्पया वृत्तिः
|मारका सू अग्गिमेहा विजुमेहा विसमेहा असणिमेहा अप्पणिज्जोदगा वाहिरोगवेदणोदीरणापरिणामसलिला अमणुन्न
२८७ ॥३०५॥
पाणियगा चंडानिलपहयतिक्खधारानिवायपउर वासंवासिर्हिति।जेणं भारहे वासे गामागरनगरखेडकब्बडम-5 डंपदोणमुह पट्टणासमागयंजणवयं चउप्पयगवेलगए खहयरे य पक्खिसंघे गामारन्नपयारनिरए तसे य पाणे बहुप्पगारे रुक्खगुच्छगुम्मलयवल्लितणपब्वगहरितोसहिपचालंकुरमादीए यतणवणस्सइकाइए विद्धंसेहिति पचयगिरिडोंगरउच्छलभट्टिमादीए वेयहगिरिवज्जे विरावेहिंति सलिलबिलगदुग्गविसमं निण्णुन्नयाई च गंगासिंधुवजाई समीकरेहिति॥ तीसे णं भंते समाए भरहवासस्स भूमीए केरिसए आगारभावपडोयारे भविस्सति, गोयमा! भूमी भविस्सति इंगालम्भूया मुम्मुरभूपा छारियभूया तत्तकबेल्लपभूया तत्तसमजोतिभूया धूलिबहुला रेणुबहुला पंकबगुला पणगबहुला चलणिबहुला यहूणं धरणिगोयराणं सत्ताणं दोनिकमा य भविस्सति ॥ (सूत्रं२८७)
॥३०५॥ 'जंबुद्दीवे ण'मित्यादि, 'उत्तमकट्टपत्ताए'त्ति परमकाष्ठाप्राप्तायाम् , उत्तमावस्थायां गतायामित्यर्थः, परमकष्टप्राघायां वा, आगारभावपडोयारे'त्ति आकारभावस्य-आकृतिलक्षणपर्यायस्य प्रत्यवतारः-अवतरणम् आकारभावप्रत्यवतारः 'हाहाभूए'त्ति हाहाइत्येतस्य शब्दस्य दुःखार्तलोकेन करणं हाहोच्यते तद्भूतः-प्राप्तो यः कालः स हाहाभूतः "भंभाभूए'त्ति
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[०५]
प्रत
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दीप
अनुक्रम [३५९]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः]
शतक [७], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [६], मूलं [ २८७]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
भां भां इत्यस्य शब्दस्य दुःखार्त्तगवादिभिः करणं भंभोच्यते तद्भूतो यः स भाभूतः, भम्भा वा भेरी सा चान्तः शून्या ततो भम्भेव यः कालो जनक्षयाच्छून्यः स भम्भाभूत उच्यते, 'कोलाहलभूए'ति कोलाहल इहार्त्तशकुनि समूहध्वनिस्तं भूतः - प्राप्तः कोलाहलभूतः 'समयाणुभावेण य णं'ति कालविशेषसामर्थ्येन च णमित्यलङ्कारे 'खरफ रुसधूलि महल' चि खरपरुषाः - अत्यन्तकठोरा धूल्या च मलिना ये वातास्ते तथा 'दुद्दिसह त्ति दुःसहा 'वाउल'त्ति व्याकुला असमञ्जसा इत्यर्थः 'संवय'त्ति तृणकाष्ठादीनां संवर्त्तकाः 'इह'त्ति अस्मिन् काले 'अभिक्ख'ति अभीक्ष्णं 'धूमार्हिति य दिसं ति धूमायिष्यन्ते - धूममुद्व मिष्यन्ति दिशः पुनः किंभूतास्ताः १ इत्याह- 'समता रउस्सल' त्ति समन्तात् सर्वतो रजस्वला - रजोयुक्ता अत एव 'रेणुकलुसतमपटलनिरालोगा' रेणुना-धूल्या कलुषा-मलिना रेणुकलुषाः तमः पटलेनअन्धकारवृन्देन निरालोकाः- निरस्तप्रकाशा निरस्तदृष्टिप्रसरा वा तमःपटलनिरालोकाः, ततः कर्मधारयः, 'समयलुक्खयाए ' कालरूक्षतया चेत्यर्थः 'अहियन्ति अधिकम् 'अहितं वा' अपथ्यं 'मोच्छंति'त्ति 'मोक्ष्यन्ति त्रक्ष्यन्ति 'अदुत्तरं च'ति अथापरं च 'अरसेमहत्ति अरसा - अमनोज्ञा मनोज्ञरसबर्जितजला ये मेघास्ते तथा 'विरसमेह' ति विरुद्धरसा मेघाः, एतदेवाभिव्यज्यते 'खार मेह'त्ति सर्जादिक्षारसमानरसजलोपेतमेघाः 'खत्तमेह'त्ति करीषसमानरसजलोपेतमेघाः, 'खट्टमेह'त्ति कचिदृश्यते तत्राम्लजला इत्यर्थः 'अग्गिमेह'त्ति अग्निवद्दाहकारिजला इत्यर्थः 'विज्जुमेह' चि | विद्युत्प्रधाना एवं जलवर्जिता इत्यर्थः विद्युन्निपातयन्तो वा विद्युन्निपातकार्यकारिजलनिपातवन्तो वा 'विसमेह'त्ति जन मरणेहतुजला इत्यर्थः 'असणिमेह'त्ति करकादिनिपातवन्तः पर्वतादिदारणसमर्थजलत्वेन वा वज्रमेघाः 'अप्पव
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[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [२८७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२८७]
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व्याख्या- णिज्जोदग'त्ति अपातव्यजलाः 'अजवणिज्जोदए'त्ति क्वचिद् दृश्यते तत्रायापनीयं-न यापनाप्रयोजनमुदकं येषां शतके प्रज्ञप्तिः ।
ते अयापनीयोदकाः 'वाहिरोगवेदणोदीरणापरिणामसलिल'चि व्याधयः-स्थिराः कुष्ठादयो रोगाः-सद्योधा- उद्देशः७ अभयदेवी-||तिनः शूलादयस्तजन्याया बेदनाया योदीरणा सैव परिणामो यस्य सलिलस्य तत्तथा तदेवंविधं सलिलं येषां ते||||दुषमदुष्पयावृत्ति तथाऽत एवामनोज्ञापनीयकाः 'चंडानिलपहयतिक्खधारानिवायपउति चण्डानिलेन प्रहतानां तीक्ष्णानां
मारकासू ॥३०॥ HIवेगवतीनां धाराणां यो निपातः स प्रचुरो यत्र वर्षे स तथाऽतस्तं 'जेणं'ति येन वर्षेण करणभूतेन पूर्वोक्तवि-
II ||शेषणा मेघा विध्वंसयिष्यन्तीति सम्बन्धः 'जणवयंति मनुष्यलोकं 'चउप्पयगवेलए'त्ति इह चतुष्पदशब्देन महिण्या४ दयो गृह्यन्ते गोशब्देन गावः एलकशब्देन तु उरधाः 'खहयरे'त्ति खचरांश्च, कान् ? इत्याह-पक्खिसंघेत्ति पक्षि
सहातान् , तथा 'गामारण्णपयारनिरए'त्ति ग्रामारण्ययोर्यः प्रचारस्तत्र निरता येते तथा तान्, कान् । इत्याह'तसे पाणे पहुप्पयारे'त्ति द्वीन्द्रियादीनित्यर्थः, 'रुक्खे'त्यादि, तत्र वृक्षाः-चूतादयः गुच्छा:--वृन्ताकीप्रभृतयः गुल्मानवमालिकाप्रभृतयः लता-अशोकलतादयः वढ्यो-वालुकीप्रभृतयः तृणानि-वीरणादीनि पर्वगा-इक्षुप्रभृतयः हरितानिदूर्वादीनि औषध्यः-शाल्यादयः प्रवाला:-पल्लवाङ्कराः अङ्कुराः-शाल्यादिवीजसूचयः ततो वृक्षादीनां द्वन्द्वस्ततस्ते आदि-15
ID॥३०६॥ र्येषां ते तथा तश्चि, आदिशब्दात् कदल्यादिवलयानि पद्मादयश्च जलजविशेषा ग्राह्या, कानेवंविधान् ? इत्याह-तण|| वणस्सइकाइए'त्ति बादरवनस्पतीनित्यर्थः 'पन्चए'त्यादि, यद्यपि पर्वतादयोऽन्यत्रैकार्थतया रूढास्तथापीह विशेषो दृश्यः || तथाहि-पर्वतननात्-उत्सवविस्तारणात्पर्वता:-क्रीडापर्वता उज्जयन्तवैभारादयः गृणन्ति-शब्दायन्ते जननिवासभूतत्वे
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[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [२८७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२८७]
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नेति गिरयः-गोपालगिरिचित्रकूटप्रभृतयः, ढुङ्गानां-शिलावृन्दानां चौरवृन्दानां चास्तित्वात् डुङ्गारा:-शिलोच्चय-| मात्ररूपाः 'उच्छ(ध)ल'त्ति उत्-उन्नतानि स्थलानि धूल्युच्छ्यरूपाण्युच्छ (त्थ)लानि, क्वचिदुच्छब्दो न दृश्यते, भट्टित्ति |पांश्वादिवर्जिता भूमयस्तत एषां द्वन्द्वस्त तस्ते आदिर्येषां ते तथा तान्, आदिशब्दात् प्रासादशिखरादिपरिग्रहः 'विरावेहिति'त्ति विद्रावयिष्यन्ति, 'सलिले'त्यादि सलिलबिलानि च-भूमिनिझरा गश्चि-श्वभ्राणि दुर्गाणि च-खातवलयप्राकारादिदुर्गमाणि विषमाणि च-विषमभूमिप्रतिष्ठितानि निनोन्नतानि च-प्रतीतानि द्वन्द्वोऽतस्तानि ॥ 'तत्तस|मजोइभूपत्ति तक्षेन-तापेन समाः-तुल्याः ज्योतिषा-वहिना भूता-जाता या सा तथा 'धूलीबहुले'त्यादी धूली-पांशुः |
रेणुः-यालुका पङ्क:-कईमः पनका-प्रबलः कर्दमविशेषः, चलनप्रमाणः कर्दमश्चलनीत्युच्यते, 'दुन्निकम'त्ति दुःखेन नितरां ४ क्रमः-क्रमणं यस्यां सा दुनिंक्रमा ।।
तीसे णं भंते ! समाए भारहे वासे मणुयाणं केरिसए आगारभावपडोयारे भविस्सति ?, गोयमा ! मणुया भविस्संति दुरूवा दुवन्ना दुगंधा दुरसा दुफासा अणिट्ठा अफंता जाव अमणामा हीणस्सरा दीणस्सरा अणिहस्सरा जाव अमणामस्सरा अणादेजवयणपञ्चायाया निल्ल जा कूडकवडकलहरहवंधवरनिरया मज्जा| यातिकमप्पहाणा अकजनिजुज्जता गुरुनियोपविणयरहिया य विकलरूवा परूढनहकेसमंसुरोमा काला खर
फरुसझामवन्ना फुसिरा कविलपलियकेसा बहुण्हाणि]संपिनद्वदुईसणिजरूवा संकुड़ियवलीतरंगपरिवेढि| यंगमंगा जरापरिणतच थेरगनरा पविरल परिसडियदंतसेढी उभडघडमुहा विसमनयणा चंकनासा बंगवली-8
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[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [२८८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
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व्याख्या-1 विगयभेसणमुहा कच्छूकसराभिभूया खरतिक्खनखकंडूइयविक्खयतणू दकिडिभसिंझफुडियफरुसच्छ-|४||७ शतके प्रज्ञप्तिः ४ वी चित्तलंगाटोलागतिविसमसंधिबंधणकुटुअद्विगविभत्तदुब्बलकुसंघयणकुप्पमाणकुसंठिया कुरुवा कुठा- उद्देशः ६ अभयदेवी-IAणासणकसेजकुभोहणो असुइणो अणेगवाहिपरिपीलियंगर्मगा खलंतवेज्झलगती निरुच्छाहा सत्तपरिव- पठारकवया वृत्तिः
जिया विगयचिट्ठा नहतेया अभिक्खणं सीयउण्हखरफरुसवायविज्झडिया मलिणपंसुरयगुंडियंगमंगा बहु- पण सू२८८ ॥३०७॥ कोहमाणमाया बहुलोभा असुहदुक्खभोगी ओसन्नं धम्मसपणसम्मत्तपरिभट्टा उकोसेणं रयणिप्पमाण
M मेत्ता सोलसवीसतिवासपरमाउसो पुत्तनत्तुपरियालपणयबहुला गंगासिंधूओ महानदीओ चेयहूं च पञ्वयं
निस्साए बावत्तरि निओदा वीयंबीयामेत्ता बिलवासिणो भविस्संति॥ते णं भंते । मणुया किमाहारमाहारें|ति ?, गोयमा ! ते णं काले णं ते णं समए णं गंगासिंधूओ महानदीओ रहपहवित्थराओ अक्खसोयप्पमाणमेसं जलं वोज्झिहिंति सेवि यणं जले बहुमच्छकच्छभाइन्ने णो चेव णं आउयवहुले भविस्सति,तए णं ते मणुया सुरुग्गमणमुहुरासि य सूरत्वमणमुहुर्ससि य बिलहितो २ निदाइत्ता मच्छकच्छभे थलाइंगाहे-18
हिंति सीयायवतत्तएहि मच्छकच्छएहिं एकवीसं वाससहस्साई वितिं कप्पेमाणा विहरिस्संति ॥ ते गं भंतेगा ॥३०॥ दमणुया निस्सीला निग्गुणा निम्मेरा निप्पचक्खाणपोसहोववासा ओसणं मंसाहारा मच्छाहारा खोदा
हारा कुणिमाहारा कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिंति? कहिं उववजिहिति?,गोयमा! ओसन्नं नरगतिरिक्खजोणिएसु उववजंति, ते णं भंते ! सीहा वग्धा बगा दीविया अच्छा तरच्छा परस्सरा निस्सीला
SALA5%8ॐॐॐ
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शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [२८८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
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ACC-%2525455*555453
तहेव जाव कहिं उवच जिहिति', गोयमा ! ओसन्नं नरगतिरिक्खजोणिएसु उववजिहिति, ते ण भंते ! ढंका कंका विलका मदुगा सिही निस्सीला तहेव जाव ओसन्नं नरगतिरिक्खजोणिएमु उपजिहिति । सेवं भंते ।। सेवं भंते ! त्ति (सूत्रं २८८) ॥ सत्तमस्स छटो उद्देसओ ।। ७-६॥
'दुरूवत्ति दुःस्वभावा 'अणाएजवयणपञ्चायाय'त्ति अनादेयवचनप्रत्याजाते येषां ते तथा, प्रत्याजातं तु जन्म, 'कूडे'त्यादौ कूट-भ्रान्तिजनकद्रव्यं कपट-वञ्चनाय वेषान्तरादिकरणं 'गुरुनिओगविणपरहिया यत्ति गुरुषु-मात्रा|| दिषु नियोगेन-अवश्यतया यो विनयस्तेन रहिता ये ते तथा, चः समुच्चये 'विकलरूवत्ति असम्पूर्ण रूपाः 'खरफरुस
उझामवण्ण'त्ति खरपरुषाः स्पर्शतोऽतीवकठोराः ध्यामवर्णा-अनुज्वलवर्णास्ततः कर्मधारयः 'फुट्टसिर'त्ति विकीर्ण | शिरोजा इत्यर्थः 'कविलपलियकेस'त्ति कपिलाः पलिताश्च-शुक्लाः केशा येषां ते तथा 'बहुण्हारसंपिणद्ध
उद्दसणिज्जरूवत्ति बहुस्नायुभिः संपिनद्ध-पद्धमत एव दुःखेन दर्शनीयं रूपं येषां ते तथा 'संकुडियवलीतरंगपरिवे| दियंगमंगा' सङ्कटितं पलीलक्षणतरङ्गैः परिवेष्टितं चाहं येषां ते तथा, क इव ? इत्यत आह-'जरापरिणयव थेरयणर'त्ति जरापरिगतस्थविरनरा इवेत्यर्थः, स्थविराश्चान्यथाऽपि व्यपदिश्यन्त इति जरापरिणताहणं, तथा 'पविरलपरिसडियदंतसेढी' प्रविरला दन्तविरलत्वेन परिशटिता च दन्तानां केषाश्चित्पतितत्वेन भन्नत्वेन वा दन्तश्रेणिर्थेषां ते तथा 'उन्भडघडमुह'त्ति उद्भट-विकराल घटकमुखमिव मुखं तुच्छदशनच्छदत्वाद्येषां ते तथा 'उन्भडघाडामुह'त्ति कचित्तत्र उद्भटे-स्पष्टे घाटामुखे-शिरोदेशविषयौ येषां ते तथा 'चकवलीविगयभेसणमुह'त्ति वत-वक्र पाठान्तरेण
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[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [२८८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[२८८]
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व्याख्या
|| व्यङ्गं-सलाञ्छनं वलिभिर्विकृतं च बीभत्स भेषणं-भयजनकं मुखं येषां ते तथा कच्छू कसराभिभूया'कच्छू:-पामणा(मा) ७ शतके प्रज्ञप्तिः तया कशरैश्च-खशरैरभिभूता-व्याप्ता ये ते तथा, अत एव 'स्वरतिक्खनखकंडुइयविक्खयतणु'त्ति खरतीक्ष्णनखाना उद्देशः ६ अभयदेवी-Pil कण्डूयितेन विकृता-कृतत्रणा तनुः-शरीरं येषां ते तथा, 'दहुकिडिभसिंझफुडियफरुसच्छवि'त्ति ददुकिडिमसि-18 पष्ठारकवया वृत्तिः१ध्मानि क्षुद्रकुष्ठविशेषास्तत्प्रधाना स्फुटिता परुषा च छविः-शरीरत्वग् येषां ते तथा, अत एव 'चित्तलंगति कर्बुरावयवाः, नसू२८८ ॥३०८॥
'टोले त्यादि, टोलगतयः-उष्ट्रादिसमप्रचाराः पाठान्तरेण टोलाकृतयः-अप्रशस्ताकाराः विषमाणि हस्वदीर्घत्वादिना सन्धि| रूपाणि बन्धनानि येषां ते विषमसन्धिबन्धनाः उत्कुटुकानि-पथास्थानमनिविष्टानि अस्थिकानि-कीकसानि विभक्का
नीव च-दृश्यमानान्तरालानीव येषां ते उत्कुटुकास्थिकविभक्ताः अधवो कुटुकस्थितास्तथास्वभावत्वाद्विभक्ताश्च-भोजन विशेषरहिता ये ते तथा, दुर्बला-बलहीनाः कुसंहननाः-सेवार्तसंहननाः कुप्रमाणा:-प्रमाणहीनाः कुसंस्थिताः-दुःसं-IN
स्थानाः, तत एषां 'टोलगे'त्यादिपदानां कर्मधारयः, अत एव 'कुरूव'त्ति कुरूपाः 'कुट्टाणासणकुसेजकुभोइणो'त्ति ४ कुत्सिताश्रयविष्टरदुःशयनदुर्भोजनाः 'असुइणों'त्ति अशुचयः खानब्रह्मचर्यादिवर्जितत्वात् , अश्रुतयो वा शास्त्रवर्जिताः,
'खलंतविझलगइ'त्ति खलन्ती-स्खलन्ती विह्वला च-अर्दवितर्दा गतिर्येषां ते तथा अनेकन्याधिरोगपीडितत्वात् Pi'विगयचेट्टानढतेय'ति विकृतचेष्टा नष्टतेजसश्चेत्यर्थः 'सीए'त्यादि शीतेनोष्णेन खरपरुषवातेन च 'विज्झडिय'त्ति ॥३०॥ मिश्रितं व्याप्तमित्यर्थः मलिनं च पांशुरूपेण रजसा द्रव्यरजसेत्यर्थः 'उग्गुंडिय'त्ति उडूलितं चाॉ२ येषां ते तथा 'असुदुक्वभागि'त्ति दुःखानुवन्धिदुःखभागिन इत्यर्थः 'ओसपण ति बाहुल्येन 'धम्मसण्ण'त्ति धर्मश्रद्धाऽवसन्ना
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शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [२८८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
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गलिता सम्यक्त्वभ्रष्टा 'रथणिपमाणमेत्त'त्ति रत्नेः-हस्तस्य यत्प्रमाणं-अङ्गुल चतुर्विंशतिलक्षणे तेन मात्रा-परिमाणं | ॥ येषां ते रलिप्रमाणमात्राः 'सोलसवीसइवासपरमाउसो'त्ति इह कदाचित् षोडश वर्षाणि कदाचिच्च विंशतिर्वर्षाणि परमायुर्वेषां ते तथा 'पुत्तनत्तुपरियालपणयबहुल'त्ति पुत्राः-सुताः नतार:-पौत्रा दौहित्राश्च एतलक्षणो यः परिवारस्तत्र यः प्रणया-स्नेहः स बहुलो-बहुर्येषां ते तथा, पाठान्तरे 'पुत्तनत्तुपरिपालणबहुल'त्ति तत्र च पुत्रादीनां परिपालनं बहुलं-बाहुल्येन येषां ते तथा, अनेनाल्पायुष्कत्वेऽपि बह्वपत्यता तेषामुक्ताऽल्पेनापि कालेन यौवनसद्भावादिति, 'निस्साए'त्ति निवाय-निनां कृत्वेत्यर्थः 'निओय'त्ति निगोदाः-कुटुम्बानीत्यर्थः 'वीर्य'ति बीजमिव पीजं भविष्यतां | जनसमूहानां हेतुत्वात् 'बीयमेतत्ति बीजस्येव मात्रा-परिमाणं येषां ते बीजमात्राः स्वल्पाः स्वरूपत इत्यर्थः ॥ रहपहत्ति रथपथः-शकटचक्रद्वयप्रमितो मार्गः 'अक्खसोयप्पमाणमत्त ति अक्षश्रोतः-चक्रधुरः प्रवेशरन्धं तदेव प्रमाणमक्षश्रोतःप्रमाणं तेन मात्रा-परिमाणमवगाहतो यस्य तत्तथोक्का 'वोज्झिहिंति, सेवि य णं जले' वक्ष्यतः 'आऊबहुले'त्ति बह्वप्कायमित्यर्थः 'निहाहिति'त्ति 'निर्झविष्यन्ति' निर्गमिष्यन्ति 'गाहेहिति'त्ति 'ग्राहयिष्यन्ति' प्रापयिप्यन्ति स्थलेषु स्थापयिष्यन्तीत्यर्थः वित्तिं कप्पेमाणे ति जीविका कुर्वन्तः ॥ 'निस्सील'त्ति महाव्रताणुव्रतविकलाः 'निग्गुण'त्ति उत्तरगुणविकलाः 'निम्मेर'त्ति अविद्यमानकुलादिमर्यादा: 'निपचक्खाणपोसहोववास'त्ति असत्पी
रुध्यादिनियमा अविद्यमानाष्टम्यादिपर्वोपवासाश्चेत्यर्थः 'ओसन्नं'ति प्रायो मांसाहाराः, कथम् । इत्याह-मत्स्याहारा | इयतः, तथा 'खोद्दाहार'त्ति मधुभोजिनः भूक्षोदेन वाऽऽहारो येषां ते क्षोदाहाराः 'कुणिमाहारे'ति कुणपः-शबस्तद्र
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शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [२८८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
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व्याख्या- सोऽपि वसादिः कुणपस्तदाहाराः। ते णं ति ये तदानीं क्षीणावशेषाश्चतुष्पदाः केचन भविष्यन्ति 'अच्छत्ति ऋक्षा७शतके प्रज्ञप्ति: 'तरच्छत्ति व्याप्रविशेषाः 'परस्सर'सि शरभाः, 'डंक'त्ति काकाः 'मदुग'त्ति मद्गवो-जलवायसाः 'सिहित्ति मयूराः॥ उद्देशः ७ अभयदेवी सप्तमशते षष्ठः॥ ७-६॥
संवृतक्रियाः ४२८९ काम
भोगः २९० ॥३०९॥ र अनन्तरोद्देशके नरकादावुरपत्तिरुक्ता, सा चासंवृतानाम् , अथैतद्विपर्ययभूतस्य संवृतस्य यद्भवति तत्सप्तमोद्देशके आह
संवुडस्स णं भंते ! अणगारस्स आउत्तं गच्छमाणस्स जाव आउत्तं तुयहमाणस्स आउत्तं वत्धं पडिग्गहं| ४ कंबलं पायपुंछणं गेण्हमाणस्स वा निक्खिवमाणस्स वा तस्स भंते । किं ईरियावहिया किरिया कज्जा &| संपराइया किरिया कजइ, गोयमा! संखुडस्स र्ण अणगारस्स जाव तस्स णं ईरियावहिया किरिया कजह ||
णो संपराइया किरिया कजइत्ति । से केणटेणं भंते ! एवं बुचइ-संवुडस्स णं जाव संपराइया किरिया कज्जइ, गोयमा । जस्स णं कोहमाणमायालोमा बोच्छिन्ना भवंति तस्स णं ईरियावहिया किरिया कज्जा, तहेव जाव उस्सुत्तरीयमाणस्स संपराइया किरिया कजा, सेणं अहामुत्तमेव रीयह, से तेणटुणं गोयमा ! जाव नो संपराईया किरिया कजइ ।। (सूत्रं २८९)॥रूवी भंते ! कामा अरूवी कामा ?, गोयमा ! रुवी ॥३०॥ कामा समणाउसो! नो अरूवी कामा। सचित्ता भंते ! कामा अचित्ता कामा ?, गोयमा ! सचित्तावि | कामा अचित्तावि कामा । जीवा भंते ! कामा अजीवा कामा ?, गोयमा ! जीवावि कामा अजीवावि
SASSASSAS
दीप अनुक्रम [३६०]
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अत्र सप्तम-शतके षष्ठ-उद्देशक: समाप्त: अथ सप्तम-शतके सप्तम-उद्देशक: आरम्भ:
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[ २८९
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[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति: ]
शतक [७], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [७], मूलं [ २८९ - २९०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
| कामा । जीवाणं भंते ! कामा अजीवाणं कामा ?, गोधमा ! जीवाणं कामा नो अजीवाणं कामा, कति| विहा णं भंते! कामा पन्नता ? गोयमा ! दुविहा कामा पन्नता, तंजहा-सहा य रूवा य, रूवी भंते ! भोगा अरूबी भोगा ?, गोयमा ! रूवी भोगा नो अरूबी भोगा, सचिता भंते! भोगा अचित्ता भोगा ?, गोयमा ! सचित्तावि भोगा अचित्तावि भोगा, जीवा णं भंते! भोगा ? पुच्छा, गोयमा ! जीवावि भोगा अजीवावि भोगा, जीवाणं भंते! भोगा अजीवाणं भोगा !, गोयमा ! जीवाणं भोगा नो अजीवाणं भोगा, कतिविहा णं भंते ! भोगा पन्नता ? गोयमा ! तिविद्दा भोगा पत्ता तंजहा-गंधा रसा फासा । कतिवि हा णं भंते! कामभोगा पन्नत्ता ?, गोयमा ! पंचविहा कामभोगा पन्नत्ता, तंजहा-सहा रूवा गंधा रसा फासा । जीवा णं भंते । किं कामी भोगी ?, गोयमा ! जीवा कामीवि भोगीवि । से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्च जीवा कामीवि भोगीवि ?, गोयमा ! सोइंदियचक्खिदियाई पड़ञ्च कामी धार्णिदियजिभिदियफासिंदियाई पहुंच भोगी, से तेणट्टेणं गोयमा ! जाव भोगीवि । नेरइया णं भंते । किं कामी भोगी ?, एवं चैव | एवं जाव धणियकुमारा । पुढविकाइयाणं पुच्छा, गोयमा ! पुढविकाइया नो कामी भोगी, से केणद्वेणं जाव भोगी ?, गोथमा ! फासिंदियं पहुच से तेणद्वेणं जाव भोगी, एवं जाव वणस्स इकाइया, बेदिया एवं चैव नवरं जिभिदियफासिंदियाई पटुच्च भोगी, तेइंद्रियावि एवं चैव नवरं घाणिदिय जिन्भिदियफासिंदियाई पहुँच भोगी, चउरिंदियाणं पुच्छा गोयमा ! चउरिंदिया कामीवि भोगीवि, से केणट्टेणं जाव भोगीवि ?, गोयमा !
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[०५]
प्रत
सूत्रांक
[ २८९
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अनुक्रम
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३६२]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति: ]
शतक [७], वर्ग [-], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [७], मूलं [ २८९ - २९०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १
॥३१०॥
Education 17
चक्खिदियं पच्च कामी घाणिदिय जिभिदियफासिंदियाई पडुच्च भोगी, से तेणद्वेणं जाव भोगीवि, अबसेसा जहा जीवा जाव वैमाणिया । एएसि णं भंते ! जीवाणं कामभोगीणं नोकामीणं नोभोगीणं भोगीण य कयरे कपरेहिंतो जाय बिसेसाहिया वा ?, गोयमा ! सवत्थोवा जीवा कामभोगी नोकामीनोभोगी अनंतगुणा भोगी अनंतगुणा ॥ ( सूत्रं २९० ) ॥
'संडे' त्यादि ॥ संवृतश्च कामभोगानाश्रित्य भवतीति कामभोगप्ररूपणाय 'रूबी' त्यादि सूत्रवृन्दमाह - तत्र रूपं मूर्त्तता तदस्ति येषां ते रूपिणः, तद्विपरीतास्त्वरूपिणः, काम्यन्ते - अभिलध्यन्ते एव न तु विशिष्टशरीर संस्पर्शद्वारेणोपयुज्यन्ते | ये ते कामाः- मनोज्ञाः शब्दाः संस्थानानि वर्णाश्च, अत्रोत्तरं रूपिणः कामा नो अरूपिणः, पुद्गलधर्मत्वेन तेषां मूर्त्त | त्वादिति, 'सचिन्तेत्यादि, सचित्ता अपि कामाः समनस्कप्राणिरूपापेक्षया, अचित्ता अपि कामा भवन्ति, शब्दद्रव्या| पेक्षयाऽसज्ञिजीवशरीररूपापेक्षया चेति । 'जीवेत्यादि, जीवा अपि कामा भवन्ति जीवशरीररूपापेक्षया, अजीवा अपि कामा भवन्ति शब्दापेक्षया चित्रपुत्रिकादिरूपापेक्षया चेति । 'जीवाण' मित्यादि, जीवानामेव कामा भवन्ति कामहेतुत्वात्, अजीवानां न कामा भवन्ति तेषां कामासम्भवादिति । 'रूवि' मित्यादि, भुज्यन्ते शरीरेण उपभुज्यन्ते इति ||भोगाः - विशिष्टगंधर सस्पर्श द्रव्याणि 'रूविं भोग'त्ति रूपिणो भोगा नो अरूपिणः पुद्गलधर्मत्वेन तेषां मूर्त्तत्वादिति । 'सचित्ते'त्यादि, सचित्ता अपि भोगा भवन्ति गन्धादिप्रधानजीव शरीराणां केषाञ्चित्समनस्कत्वात् तथाऽचित्ता अपि भोगा भवन्ति केषाञ्चिङ्गन्धादिविशिष्टजीवशरीराणाममनस्कत्वात्, 'जीवावि भोग'त्ति जीवशरीराणां विशिष्टगन्धा
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७ शतके उद्देशः ७
॥३१०॥
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [२८९-२९०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[२८९
-२९०
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दिगुणयुक्तत्वात् , 'अजीवावि भोग'त्ति अजीवद्रव्याणां विशिष्टगन्धादिगुणोपेतत्वादिति ॥ 'सवत्थोवा कामभोगि'त्ति
ते हि चतुरिन्द्रियाः पञ्चेन्द्रियाश्च स्युस्ते च स्तोका एव, 'नो कामी नो भोगि'त्ति सिद्धास्ते च तेभ्योऽनन्तगुणा एव, ४'भोगि'त्ति एकद्वित्रीन्द्रियास्ते च तेभ्योऽनन्तगुणा वनस्पतीनामनन्तगुणत्वादिति ॥ भोगाधिकारादिदमाह| छउमत्थे ण भते । मणसे जे भविए अन्नयरेम देवलोएसु देवत्साए उववजित्तए, से नूर्ण भंते ।
से खीणभोगी नो पभू उहाणेणं कम्मेणं बलेणं वीरिएणं पुरिसकारपरकमेणं विउलाई भोगभोगाई ४ा मुंजमाणे विहरित्तए ?, से नूर्ण भंते ! एयम एवं वयह ?, गोयमाणो इणठे समढे, पभू णं उठाणेणवि कम्मेणथि बलेणवि वीरिएणवि पुरुसकारपरकमेणवि अन्नयराई विपुलाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए, तम्हा भोगी भोगे परिचयमाणे महानिज़रे महापज्जवसाणे भवइ । आहोहिए भंते ! मणुस्से जे भविए | अन्नयरेसु देवलोएसु एवं चेव जहा छउमत्थे जाव महापज्जवसाणे भवति । परमाहोहिए णं भंते । मणुस्से
जे भविए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झित्तए जाव अंतं करेत्तए ?, से नूर्ण भंते ! से खीणभोगी सेसं जहा छआमत्थस्सवि । केवली णं भंते ! मणुस्से जे भविए तेणेव भवग्गहणणं एवं जहा परमाहोहिए जाव महापज्ज४ वसाणे भवइ ।। (सूत्रं २९१)॥ | 'छउमस्थे 'मित्यादि सूत्रचतुष्क, तत्र च 'से नूणं भंते ! से खीणभोगि'त्ति 'सेत्ति 'असी' मनुष्यः 'नूनं' निश्चितं भदन्त ! 'से'त्ति अयम(थार्थः अथशब्दश्च परिप्रश्नार्थःखीणभोगि'त्ति भोगो जीवस्य यत्रास्ति तयोगि-शरीरं
दीप अनुक्रम [३६१३६२]
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[२९१]
दीप
अनुक्रम [३६३]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति: ]
शतक [७], वर्ग [], अंतर् शतक [-] उद्देशक [७], मूलं [ २९१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्याप्रज्ञष्ठिः अभयदेवी
या वृत्तिः १
॥३११॥
तत्क्षीणं तपोरोगादिभिर्यस्य सः क्षीणभोगी क्षीणतनुर्दुर्बल इतियावत्, 'णो पभु'त्ति न समर्थः 'उडाणेणं' ति क्रींभवनेन 'कम्मेणं'ति गमनादिना 'बलेणं'ति देहप्रमाणेन 'वीरिएणं'ति जीवबलेन 'पुरिसकार परकमेणं' ति पुरुषाभिमानेन तेनैव च साधितस्वप्रयोजनेनेत्यर्थः 'भोग भोगाई' ति मनोज्ञशब्दादीन् 'से नूणं भंते! एयमहं एवं वयह' | अथ निश्चितं भदन्त ! एतम्-अनन्तरोक्तमर्थमेवम्- अमुनैव प्रकारेण वदथ यूयम् ? इति प्रश्नः पृच्छतोऽयमभिप्रायःयद्यसौ न प्रभुस्तदाऽसौ भोगभोजनासमर्थत्वान्न भोगी अत एव न भोगत्यागीत्यतः कथं निर्जरावान् ? कथं वा देवलोकगमनपर्यवसानोऽस्तु १, उत्तरं तु 'नो इणट्टे समट्टे'त्ति, कस्माद् ?, यतः 'पभू णं से'ति स क्षीणभोगी मनुष्यः 'अन्नतराई'ति एकतरान् कांश्चित्क्षीणशरीरसाधूचितान् एवं चोचितभोगभुक्तिसमर्थत्वाद्भोगित्वं तत्प्रत्याख्यानाश्च | तत्त्यागित्वं ततो निर्जरा ततोऽपि च देवलोकगतिरिति । 'आहोहिए णं'ति 'आधोऽवधिकः' नियतक्षेत्र विषयावधि| ज्ञानी 'परमाहोहिए णं'ति परमाधोऽवधिकज्ञानी, अयं च चरमशरीर एव भवतीत्यत आह- 'तेणेव भवग्गहणेणं | सिज्झितए' इत्यादि ॥ अनन्तरं छद्मस्थादिज्ञानवक्तव्यतोक्ता, अथ पृथिव्याद्यज्ञानिवक्तव्यतोच्यते
जे इमे भंते! असन्निणो पाणा, तंजड़ा-पुढविकाइया जाव वणस्सइकाइया छट्टा य एगतिया तसा, एए णं अंधा मूढा तमंपविट्ठा तमपडलमोहजालपढिच्छण्णा अकामनिकरणं वेदणं वेदंतीति वत्तवं सिया ?, हंता गोयमा ! जे इमे असन्निणो पाणा जाव पुढविकाइया जाव वणस्सइकाइया छट्टा य जाव वेदणं वेदतीति वित्तवं सिया ॥ अस्थि णं भंते ! पभूवि अकामनिकरणं वेदणं वेदंति ?, हंता गोपमा ! अस्थि, कन्नं भंते !
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७ शतके
उद्देशः ७
॥३१९॥
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [२९२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२९२]
9544564564565555
दीप अनुक्रम [३६४]
पभूवि अकामनिकरणं वेदणं वेदेति ?, गोयमा ! जे णं णो पभू विणा दीवेणं अंधकारंसि रूवाई पासित्तए जे शं नो पभू पुरओ रूवाई अणिज्झाइत्ता णं पासित्तए जे शं नो पभू मग्गओ रूवाई अणवयक्वित्ता णं पासित्तए [जे णं नो पभू पासओ रूवाई अणुलोइत्ता णं पासित्तए जे शं नो पभू उहुं रूवाई अणालोएताण पासित्तए जे शं नो पभू अहे रूवाई अणालोयएत्ताणं पासित्तए] एस णं गोयमा! पभूवि अकामनि-18 करणं चेदर्ण वेदेति ॥ अस्थि णं भंते । पवि पकामनिकरणं वेदणं वेदेति ?, हंता अस्थि, कहनं भंते ! पभूवि पकामनिकरणं वेदणं वेदति ?, गोयमा! जेणं नो पभू समुदस्स पारं गमित्तए जे शं नो पभू समु-12 इरस पारगयाई रुवाई पासित्तए जे शं नो पभू देवलोगं गमित्तए जे शं नो पभू देवलोगगयाई रुवाई पासि|त्तए एस णं गोयमा ! पभूवि पकामनिकरणं वेदणं वेदेति । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ॥ (सूत्र २९२)। |सत्तमस्स सत्तमो उद्देसओ समत्तो ॥७-७॥ _ 'जे इमे'इत्यादि, 'एगइया तसत्ति 'एके' केचन न सर्वे संमूच्छिमा इत्यर्थः 'अंध'त्ति अंध इवान्धा-अज्ञानाः
'मूढ'त्ति मूढाः तत्त्वश्रद्धानं प्रति एत एवोपमयोच्यन्ते 'तमंपविट्ठ'त्ति तमः प्रविष्टा इव तमःप्रविष्टाः 'तमपडलमोह★ जालपडिच्छन्नति तमःपटल मिव तमःपटलं-ज्ञानावरणं मोहो-मोहनीयं तदेव जालं मोहजालं ताभ्यां प्रतिच्छन्ना| आच्छादिता येते तथा 'अकामनिकरणं'ति अकामो-वेदनानुभावेऽनिच्छाऽमनस्कत्वात् स एव निकरणं-कारणं यत्र |तदकामनिकरणम् अज्ञानप्रत्ययमिति भावस्तद्यथा भवतीत्येवं 'वेदनां' सुखदुःखरूपां वेदनं वा-संवेदनं 'वेदयन्ति' अनु
RELIGunintentiation
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [२९२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२९२]
व्याख्या-13 भवन्तीति । अथासज्ञिविपक्षमाश्रित्याह-'अत्थी' त्यादि, अस्त्ययं पक्षो यदुत 'पभूवि'त्ति प्रभुरपि सज्ञित्वेन यथाव-5 शतके प्रज्ञप्तिः दूपादिज्ञाने समर्थोऽप्यास्तामसज्ञित्वेनाप्रभुरित्यपिशब्दार्थः 'अकामनिकरणम्'अनिच्छाप्रत्ययमनाभोगात् , अन्ये त्याहु:- उद्देशः ७ अभयदेवी- अकामेन-अनिच्छया 'निकरणं' क्रियाया-इष्टार्थप्राप्तिलक्षणाया अभायो यत्र वेदने तत्तथा तद्यथा भवतीत्येवं वेदना यावृत्तिः१४ वेदयन्तीति प्रश्नः, उत्तरं तु 'जे णं'ति यः प्राणी सज्ञित्वेनोपायसद्भावेन च हेयादीनां हानादौ समर्थोऽपि 'नो पहु'त्ति 31 ॥३१॥
न समर्थों विना प्रदीपेनान्धकारे रूपाणि 'पासित्तए'त्ति द्रष्टुम् , एषोऽकामप्रत्ययं वेदनां वेदयतीति सम्बन्धः, 'पुर
ओ'त्ति अग्रतः 'अणिज्झाएत्ता णं'ति 'अनिाय' चक्षुरव्यापार्य'मग्गओ'त्ति पृष्ठतः 'अणवयक्खिता णं'ति 'अन४ वेश्य' पश्चाद्भागमनवलोक्येति ॥ अकामनिकरणं वेदनां वेदयतीत्युक्तम् , अध तद्विपर्ययमाह-अस्थि 'मित्यादि,81
'प्रभुरपि' सग्ज्ञित्वेन रूपदर्शनसमधोऽपि 'पकामनिकरण ति प्रकाम:-ईप्सितार्थाप्राप्तितः प्रवर्द्धमानतया प्रकृष्टोऽभि| लापः स एव निकरण-कारणं यत्र घेदने तत्तधा, अन्ये वाहु:-प्रकामे-तीवाभिलाषे सति प्रकामं वा अत्यर्थं निकरणम्| इष्टार्थसाधकक्रियाणामभावो यत्र तत् प्रकामनिकरणं तद्यथा भवतीत्येवं बेदनां वेदयतीति प्रश्नः, उत्तरं तु 'जे ण'मि| स्यादि, यो न प्रभुः समुद्रस्य पारं गन्तुं तद्गतद्रव्यप्राप्त्यर्थे सत्यपि तथाविधशक्तिवैकल्यात् , अत एव च यो न प्रभुः समुद्रस्य पारगतानि रूपाणि द्रष्टुं, स तद्गताभिलाषातिरेकात् प्रकामनिकरणं वेदनां वेदयतीति ॥ सप्तमशते सप्तमः ॥७-शा
॥३१२॥
दीप अनुक्रम [३६४]
CONGRECAPCAKACOCCARCIAS
सप्तमोद्देशकस्यान्ते छानस्थिकं वेदनमुक्तमष्टमे त्वादावेव छमस्थवक्तव्यतोच्यते, तत्र चेदं सूत्रम्
अत्र सप्तम-शतके सप्तम-उद्देशक: समाप्त: अथ सप्तम-शतके अष्टम-उद्देशक: आरम्भ:
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आगम
[०५]
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सूत्रांक
[२९३
-२९४]
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[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः]
शतक [७], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [८], मूलं [ २९३ २९४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
छत्थे णं भंते! मणूसे तीयमतं सासयं समयं केवलेणं संजमेणं एवं जहा पढमसए उत्थे उद्देस तहा भाणियां जाव अलमत्यु || ( सू २९३ ) ॥ से णूणं भंते ! हत्थिस्स य कुंथुस्स य समे चैव जीवे 2, हंता गोयमा । हत्थिस्स कुंथुस्स य, एवं जहा रायप्पसेणइज्जे जाव खुड्डियं वा महालियं वा से तेणद्वेणं गोयमा ! जाव समे चैव जीवे ( सूत्रं २९४ ) ॥
'छत्थे णमित्यादि, एतच्च यथा प्रागू व्याख्यातं तथा द्रष्टव्यम् ॥ अथ जीवाधिकारादिदमाह - 'से णूण' मित्यादि, 'एवं जहा रायप्पसेणइज्जे'त्ति, तत्र चैतत्सूत्रमेवं-समे चैव जीवे, से णूणं भंते ! हत्थीओ कुंथू अप्पकम्मतराए चैव अप्पकिरियतराए चैव अप्पासवतराए चेव कुंधुओ हत्थी महाकम्मतराए चेव ४ १, हंता गोयमा ! । कम्हा णं भंते ! हस्थिस्स य कुंथुस्स य समे चैव जीवे १, गोयमा ! से जहानामए कूडागारसाला सिया दुहओ लित्ता गुत्ता गुत्तदुवारा निवाया निवाय गंभीरा अहे णं केई पुरिसे पईवं च जोहं च गहाय तं कूडागारसालं अंतो २ अणुपविसेइ २ तीसे कूडागारसाला सबओ समता घणनिचियनिरन्तर निच्छिडाई दुवारवयणाई पिछेति तीसे य बहुमज्झदेसभाए तं पईवं पलीवेज्जा, से य पईवे कूडागारसालं अंतो २ ओभासति उज्जोएइ तव प्रभासेइ नो चेव णं कूडागारसालाए बाहिं, तए णं, से पुरिसे तं पईवं इङ्करेणं पिहेइ, तए णं से पईवे इडरस्स अंतो २ ओभासेइ नो चेव णं इरस्स वाहिं, एवं गोकिलं| जपणं गंडवाणियाए पच्छिपिडएणं आढए अद्धाढएणं पत्थएणं अद्धपत्थएणं कुलवेणं अद्धकुलवेणं उभाइयाए अट्टभाइयाए सोलसियाए बचीसियाए चउसडियाए, तए णं से पुरिसे तं पईवं दीवगचंपणपणं पिहे, तर णं से पईवे
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आगम
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सूत्रांक
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[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः]
शतक [७], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [८], मूलं [ २९३ २९४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १
॥११३॥
तं दीवगचंपणयं अंतो २ ओभासह नो चेव णं दीवगचंपणयस्स वाहिं नो चेव णं चक्सडियाए बाहिं जाव नो चेव णं कूडागारसालाए बाहिं, एवामेव गोयमा ! जीवेवि जारिसियं पुर्वकम्मनिबद्धं बोदिं निवत्तेई तं असंखेज्जेहिं जीवपएसेहिं सचित्तीकरे शेषं तु लिखितमेवास्ति, अस्य चायमर्थः- कूटाकारेण शिखराकृत्या युक्ता शाला कूटाकारशाला 'दुहओ | लित्ता' बहिरन्तश्च गोमयादिना लिप्ता 'गुप्ता' प्राकाराद्यावृता 'गुप्तदुवारा' कपाटादियुक्तद्वारा 'निवाया' वायुप्रवेशरहिता, किल महगृहं प्रायो निवातं न भवतीत्यत आह- 'निवायगंभीरा' निवातविशालेत्यर्थः 'पईवं' तैलदशाभाजनं 'जोई'ति अग्निं 'घणनिचयनिरन्तरं निच्छिड्डाई दुवारवयणाई पिहेति' द्वाराण्येव वदनानि-मुखानि द्वारवदनानि पिधत्ते, | कीदृशानि कृत्वा ? इत्याह- धननिचितानि कपाटादिद्वारपिधानानां द्वारशाखादिषु गाढनियोजनेन तानि च तानि | निरन्तरं कपाटादीनामन्तराभावेन निश्छिद्राणि च नीरन्ध्राणि घननिचितनिरन्तर निश्छिद्राणि 'इडुरेणं'ति गन्त्रीदथ| नकेन 'गोकिलंजएणं' ति गोचरणार्थं महावंशमयभाजनविशेषेण डल्लयेत्यर्थः 'गंडवाणियाए'ति 'गण्डपाणिका' वंशमयभाजनविशेष एव यो गण्डेन हस्तेन गृह्यते डल्लातो लघुतरः 'पच्छिपिडएणं'ति पच्छिकालक्षणपिटकेन आढकादीनि प्रतीतानि नवरं 'चउभाइय'त्ति घटकस्य- रसमानविशेषस्य चतुर्थभागमात्री मानविशेषः 'अट्टभाइया' तस्यैवाष्ट | मभागमात्रो मानविशेषः एवं 'सोलसिया' षोडशभागमाना 'बत्तीसिया' तस्यैव द्वात्रिंशद्भागमात्रा 'चतुष्षष्टिका' तस्यैव चतुःषष्टितमांशस्वभावा पलमिति तात्पर्य 'दीवगचंप एणं'ति दीपकचम्पकेन दीपाच्छादनेन कोशिकेनेत्यर्थः, एतच्च सर्वमपि वाचनान्तरे साक्षालिखितमेव दृश्यत इति ॥ जीवाधिकारादिदमाह
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७ शतके उद्देशः ८ हस्तिकुन्यू समौसू२९४
॥३१३ ॥
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [२९५-२९६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२९५-२९६]
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नेरइयाणं भंते ! पावे कम्मे जे यकडे जे यकज्जह जे य कजिस्सइसके से दुक्खे जे निजिन्ने से सुहे ?,हंता | गोयमा ! नेरहयाण पावे कम्मे जाव सुहे, एवं जाच वेमाणियाणं (सूत्रं २९५)॥ कति णं भंते ! सन्नाओ-||2
पन्नत्ताओ?, गोयमा दस सन्नाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-आहारसन्ना१भयसन्ना २ मेहुणसन्ना ३ परिग्गहसन्ना ॥ ४ कोहसन्ना ५ माणसन्ना ६ मायासन्ना ७ लोभसन्ना ८ लोगसन्ना ९ ओहसन्ना १०, एवं जाव वेमाणियाणं ॥ नेरइया दसविहं वेषणिज्जं पचणुभवमाणा विहरंति, तंजहा-सीयं उसिणं खुहं पिवासं कई परज्झं जरं दाह भयं सोग ।। (सूत्रं २९६)॥
'नरइयाण'मित्यादि, 'सवे से दुक्खेति दुःखहेतुसंसारनिबन्धनत्वाद् दुःखं 'जे निजिन्ने से सुहे'त्ति सुखस्वरूपमोक्षहेतुत्वाधनिर्जीणे कर्म तत्सुखमुच्यते ॥ नारकादयश्च सचिन इति सज्ञा आह–'कति ण'मित्यादि, तत्र सज्ञानं | सज्ञा-आभोग इत्यर्थः मनोविज्ञानमित्यन्ये संज्ञायते वाऽनयेति सञ्ज्ञा वेदनीयमोहनीयोदयाश्रया ज्ञानदर्शनावरणक्षयोपशमाश्रया च विचित्राहारादिप्राप्तये क्रियैवेत्यर्थः, सा चोपाधिभेदाद्भिद्यमाना दशमकारा भवति, तद्यथा-'आहारसन्ने'त्यादि, तत्र क्षुद्वेदनीयोदयात् कावलिकाद्याहारार्थं पुद्गलोपादानक्रियैव संज्ञायतेऽनया तदानित्याहारसञ्ज्ञा, तथा भयमोहनीयोदयागयोद्धान्तदृष्टिवचनविकाररोमाञ्चोझेदादिक्रियैव सज्ञायतेऽनयेति भयसम्ज्ञा, तथा पुंवेदाद्युदयान्मधुनाय रुयाद्यङ्गालोकनप्रसन्नवदनसंस्तम्भितोरुवेपथुप्रभृतिलक्षणा क्रियैव सज्ञायतेऽनयेति मैथुनसम्झा, तथा लोभोदयात्प्रधानभवकारणाभिष्वङ्गपूर्विका सचित्तेतरद्रव्योपादानक्रियैव सज्ञायतेऽनयेति परिग्रहसज्ञा, तथा क्रोधोदयादावे
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दीप अनुक्रम [३६७-३६८]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [२९५-२९६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
मज्ञप्तिः
प्रत सूत्रांक [२९५-२९६]
दीप अनुक्रम [३६७-३६८]
व्याख्या
४ शगर्भा प्ररूक्षनयनदन्तच्छदस्फुरणादिचेष्टैव सज्ञायतेऽनयेति क्रोधसज्ञा, तथा मानोदयादहकारास्मिकोरसेकक्रियैव । |७शतके
IM सज्ञायतेऽनयेति मानसज्ञा, तथा मायोदयेनाशुभसक्केशादनृतसंभाषणादिक्रियैव सज्ञायतेऽनयेति मायासम्झा, तथा है| | उद्देशः८ अभयदेवी- लोभोदयालोभसमन्विता सचित्तेतरद्रव्यप्रार्थनैव सज्ञायतेऽनयेति लोभसज्ञा, तथा मतिज्ञानावरणक्षयोपशमाच्छन्दा-1||
क्रियमाणयावृत्तिः द्यर्थगोचरा सामान्यावबोधक्रियैव सज्ञायते वस्त्वनयेति ओघसज्ञा, एवं शब्दाद्यर्थगोचरा विशेषावबोधक्रियैव सज्ञायते
स्य दु:खता ऽनयेति लोकसभ्ज्ञा, ततश्चौघसम्ज्ञा दर्शनोपयोगो लोकसज्ञा तु ज्ञानोपयोग इति, व्यत्ययं त्वन्ये, अन्ये पुनरित्यमभि
निर्जीणस्य ॥३१ ॥
सुखतासू दधति सामान्यप्रवृत्तिरोधसज्ञा लोकदृष्टिस्तु लोकसज्ञा, एताश्च सुखप्रतिपत्तये स्पष्टरूपाः पश्शेन्द्रियानधिकृत्योक्ता,
२९५ संज्ञा एकेन्द्रियादीनां तुप्रायो यथोक्कक्रियानिवन्धनकोदयादिरूपा एवावगन्तब्या इति ॥ जीवाधिकारात्-'नेरइये त्यादि,
सू २९६ स'परज्म'त्ति पारवश्यम् ॥ प्रार वेदनोका सा च कर्मवशात् तच्च क्रियाविशेषात् सा च महतामितरेषां च समै- माः क्रिया वेति दर्शयितुमाह
२९७ आसे नूर्ण भंते हथिस्स य कुंथुस्सय समा चेव अपचक्खाणकिरिया कति ?, हंता गोयमा । हस्थिरस यापाकमाणा
न्धा २९ &| कुंथुस्स प जाव कजति । से केणढणं भंते । एवं वुच्चइ जाव कन्जद, गोपमा । अविरति पहुच, से तेणद्वेणं
जाव कजइ (सूत्रं २९७ ॥ आहाकम्मण्णं भंते ! भुंजमाणे किं बंध? किं पकरेइ ? किं चिणाइकिं उवचिणाइ एवं जहा पढमे सए नवमे उद्देसए सहा भाणिय जाच सासए पंडिए पंडियसं असासर्य, सेवं
॥३१॥ &भंते। सेवं भंते ति॥ (सूत्र २९८) सत्तमसयस्स अट्ठमउद्देसो॥७-८॥
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८,९], मूलं [२९७-२९८,२९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
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दीप
'से नूर्ण भंतेहित्यिस्सेत्यादि, अनन्तरमविरतिरुक्ता सा च संयतानामप्याधाकर्मभोजिनां कथश्चिदस्तीत्यतः पृच्छति| 'अहे'त्यादि, 'सासए पंडिए पंडियतं असासयंति अयमर्थः-जीवः शाश्वतः पण्डितत्वमशाश्वतं चारित्रस्य बंशादिति ।। सप्तमशतेऽऽष्टमोद्देशकः ॥ ७-८॥ पूर्वमाधाकर्मभोक्तृत्वेनासंवृतवक्तव्यतोक्ता, नवमोद्देशकेऽपि तद्वतव्यतोच्यते, तत्र चादिसूत्रम्
असंवुडे णं भंते ! अणगारे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एगवन्न एगरूवं विउषित्तए, णो तिणको समझे। असंवुडेणं भंते । अणगारे बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू एगवन एगरूवं जाव हंता पभू । से
भंते ! किं इहगए पोग्गले परियाइत्ता विउवह तस्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउबति अन्नत्थगए पोग्गले परिया& इत्ता विकुबह, गोपमा ! इहगए पोग्गले परियाइत्ता विकुवह नो तत्थगए पोग्गले परिवाइत्ता विकुषह नो
अन्नत्थगए पोग्गले जाव विकुवति, एवं एगवन्नं अणेगरूवं चउभंगो जहा छट्ठसए नवमे उद्देसए तहा इहावि
भाणियचं, नवरं अणगारे इहगयं इहगए चेव पोग्गले परियाइत्ता विकुवइ, सेसं तं चेव जाव लुक्खपोग्गलं * निसपोग्गल साए परिणामेत्तए ?, हंता पभू, से भंते । किं इहगए पोग्गले परियाइत्ता जाच नो अन्नस्थगए
पोग्गले परियाइत्ता विकुबह ।। (सूत्रं २९९)॥ | 'असंखुडे ण'मित्यादि, 'असंवृतः' प्रमत्तः 'इहगए'त्ति इह प्रच्छको गौतमस्तदपेक्षया इहशब्दवाच्यो मनुष्यलोक
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अनुक्रम [३६९-३७०]
अत्र सप्तम-शतके अष्टम-उद्देशक: समाप्त: अथ सप्तम-शतके नवम-उद्देशक: आरम्भ:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [२९९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[२९९]
व्याख्या- स्ततश्च 'इहगतान' नरलोकव्यवस्थितान 'तस्थगए'त्ति क्रियं कृत्वा यत्र यास्यति तत्र व्यवस्थितानित्यर्थः 'अन्नस्थ- ७ शतके
गए'त्ति उक्तस्थानद्वयव्यतिरिक्तस्थानाश्रितानित्यर्थः 'नवरंति अयं विशेष:-'इहगए इति इहगतः अनगार इति इह- उद्देशः ९ अभयदेवी पदवागतान् पुद्गलानिति च वाच्यं, तत्र तु देव इति तत्रगतानिति चोक्कमिति ॥ अनन्तरं पुद्गलपरिणामविशेष उक्तः, स||
इहातादिपुया वृत्तिः सासकामे सविशेषो भवतीति सङ्ग्रामविशेषवक्तव्यताभणनाय प्रस्तावयन्नाह
गलाद्वैक्रिय
सू२९९महा ॥३१५॥ । णायमेयं अरहया सुयमेयं अरहया विनायमेवं अरहया महासिलाकंटए संगामे २ ॥ महासिलाकंटए शिलाकण्ट
भंते ! संगामे वहमाणे के जइत्था के पराजइत्था ?, गोयमा ! वजी विदेहपुत्ते जइत्था, नवमल नवलेकाछकासू ३०० कासीकोसलगा अट्ठारसवि गणरायाणो पराजइत्या ॥ तए णं से कोणिए राया महासिलाकंटकं संगाम | उवडियं जाणित्ता कोडंबियपुरिसे सहावेइ २ एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! उदाई हत्थिरायं
पडिकप्पेह हयगयरहजोहकलियं चाउरंगिणिं सेणिं सन्नाह २त्ता मम एयमाणत्तियं खिप्पामेव पञ्चप्पिणह। तिए णं ते कोटुंबियपुरिसा कोणिएणं रना एवं चुत्ता समाणा हद्वतुट्ठ जाव अंजलि कटु एवं सामी! तहत्ति ||
आणाए विणएणं वयणं पडिसुणतिर खिप्पामेव छेयायरियोवएसमतिकप्पणाविकप्पेहि सुनिउणेहिं एवं जहा। उववाइए जाव भीमं संगामियं अउजसं उदाई हस्थिरायं पडिकति हयगय जाव सन्नाति २ जेणेव कूणिए ॥१५॥ राया तेणेव उवागच्छद तेणेव उवागच्छइत्ता करयल. कूणियस्स रन्नो तमाणत्तियं पचप्पिणंति, तए णं से कूणिए राया जेणेव मजणघरे तेणेव उचागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता मजणघरं अणुपविसह मजणघरं अणु
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सूत्रांक
[ ३००]
दीप अनुक्रम [३७२]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति: ]
शतक [७], वर्ग [-], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [९], मूलं [ ३०० ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
पविसित्ता हाए कपबलिकम्मे कथको उय मंगलपायच्छिते सङ्घालंकारविभूसिए सन्नद्धबद्धवम्मियकवर उप्पी. | लिपसरासणपट्टिए पिणद्ध गेवेले विमलवरवड चिंधपट्टे गहियाउहप्पहरणे सकोरिंटमलदामेणं छत्तेणं धरि| जमाणेणं चचामरवालवीतियंगे मंगलजयसद्दकपालोए एवं जहा उबवाइए जाव उवागच्छिता उदाई हस्थिरायं दुरूढे, तए णं से कूणिए राया हारोत्थय सुकयरयवच्छे जहा उबवाइए जव सेयवरचामराहिं | उदुधमाणीहिं उदुधमाणीहिं हयगयरह पवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिवुडे महया भड चडगरविंदपरिक्खित्ते जेणेच महासिलाए कंदए संगामे तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता महासिलाकंदयं संगामं ओयाए, पुरओ य से सके देविंदे देवराया एवं महं अभेजकवयं वहपडिरूवगं विउद्वित्ताणं चिट्ठति, | एवं खलु दो इंदा संगामं संगार्मेति, तंजहा-देविंदे य मणुदे य, एगहत्थिणावि णं पभू कूणिए राया पराजिवित्तए, तए णं से कृणिए राया महासिलाकंटकं संगामं संगामेमाणे नव मल्लइ नव लेच्छइ कासीकोसलगा अट्ठारसवि गणरायाणो हयमहिय पवरवीरघाइयविघडियषिद्धयपडागे किच्छपाणगए दिसो दिसिं पडिसेहित्या ॥ से केणद्वेणं भंते । एवं बुच्चइ महासिला कंटए संगामे ?, गोयमा ! महासिलाकंटए णं संगामे बट्टमाणे जे तत्थ आसे वा हत्थी वा जोहे वा सारही वा तणेण वा पसेण वा कट्टेण वा सक्कराए वा अभि | हम्मति सबै से जाणइ महासिलाए अहं अभिहए म० २, से तेणट्टेणं गोयमा ! महासिलाकंदए संगामे । | महासिलाकंदए णं भंते! संगामे वट्टमाणे कति जणसयसाहस्सीओ बहियाओ ?, गोपमा ! चउरासीइं जण
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महाशीलाकंटकं संग्रामं
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[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३००] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३००]
व्याख्या-
प्रज्ञप्तिः अभयदेवी- या वृत्तिः१|| ॥३१॥
दीप अनुक्रम [३७२]
CCESSORS
सयसाहस्सीओ वहियाओ। ते णं भंते ! मणुया निस्सीला जाव निप्पचक्खाणपोसहोववासा स्टा परि- शतके कुतिया समरवहिया अणुवसंता कालमासे कालं किचा कहिं गया कहिं उववन्ना, गोयमा! ओसनं नरग-| उद्देशा तिरिक्खजोणिएसु उववन्ना (सूत्रं ३००)।
महाशिला'णायमेय'मित्यादि, ज्ञातं सामान्यतः एतत्' वक्ष्यमाणं वस्तु 'अर्हता' भगवता महावीरेण सर्वज्ञत्वात् , तथा 'सुर्य'ति है
कण्टका
सू३०० स्मृतमिव स्मृतं स्पष्टप्रतिभासभावात्, विज्ञातं विशेषतः, किं तत् ? इत्याह-'महासिलाकंटए संगामे सि महा-| शिलैव कण्टको जीवितभेदकत्वात् महाशिलाकण्टकस्ततश्च यत्र तृणशलाकादिनाऽप्यभिहतस्याश्वहस्त्यादेमहाशिलाकण्ट-| केनेवाभ्याहतस्य वेदना जायते स सङ्कामो महाशिलाकण्टक एवोच्यते, द्विर्वचनं चोल्लेखस्यानुकरणे, एवं च किलाय सङ्ग्रामः सञ्जातः-चम्पायां कूणिको राजा बभूव, तस्य चानुजौ हल्लविहल्लाभिधानी धातरौ सेचनकाभिधानगम्धहस्तिनि समारूढी दिव्यकुण्डलदिव्यवसनदिव्यहारविभूषितौ विलसन्ती दृष्ट्वा पद्मावत्यभिधाना कूणिकराजस्य भार्या मत्सराद्दन्तिनोऽपहाराय तं प्रेरितवती, तेन तौ तं याचितौ, तौ च तद्याद्वैशाल्यां नगर्या स्वकीयमातामहस्य चेटकाभिधानस्य राज्ञोऽन्तिक सहस्तिको सान्तःपुरपरिवारौ गतवन्ती, कूणिकेन च दूतप्रेषणतो मार्गिती, न च तेन प्रेषिती, ततः कृणिकेन भाणित-यदि न प्रेषयसि भो! तदा युद्धसजो भव, तेनापि भाणितम्-एष सज्जोऽस्मि, ततः ॥३१६॥ कूणिकेन कालादयो दश स्वकीया भिन्नमातृका भ्रातरो राजानश्चेटकेन सह सङ्कामायाहूताः, तत्रैकैकस्य त्रीणि २ हस्तिनां सहस्राणि, एवं रथानामश्वानां च, मनुष्याणां तु प्रत्येकं तिनः २ कोटयः, कूणिकस्याप्येवमेव, एनं च व्यतिकरं ज्ञात्वा
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[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति: ]
शतक [७], वर्ग [-] अंतर् शतक [-] उद्देशक [९], मूलं [ ३००]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
| चेटकेनाप्यष्टादश गणराजा मिलिताः, तेषां चेटकस्य च प्रत्येकमेवमेव हस्त्यादिपरिमाणं ततो युद्धं संप्रलनं, चेटकराजश्व प्रतिपन्न तत्वेन दिनमध्ये एकमेव शरं मुञ्चति, अमोघवाणश्च सः, तत्र च कूणिक सैन्ये गरुडव्यूहः, [प्रस्थानं ७००० ] | चेटक सैन्ये च सागरव्यूहो विरचितः ततश्च कूणिकस्य कालो दण्डनायको युद्धयमानस्तावद्गतो यावच्चेटकः, ततस्तेनैकशरनिपातेनासौ निपातितो, भन्नं च कूणिकबलं, गते च द्वे अपि बले निजं निजमावासस्थानम्, एवं च दशसु दिवसेषु | चेटकेन विनाशिता दशापि कालादयः, एकादशे तु दिवसे चेटकजयार्थे देवताराधनाय कूणिकोऽष्टमभक्तं प्रजग्राह, ततः शक्रचमरावागतौ, ततः शक्रो बभाण- चेटकः श्रावक इत्यहं न तं प्रति प्रहरामि नवरं भवन्तं संरक्षामि, ततोऽसौ तद्रक्षार्थं वज्रप्रतिरूपकमभेद्यकवचं कृतवान्, चमरस्तु द्वौ सङ्ग्रामों विकुर्वितवान्- महाशिलाकण्टकं रथमुशलं चेति ॥ 'जइत्थ'त्ति जितवान् 'पराजइत्थ'त्ति पराजितवान् हारितवानित्यर्थः 'बज्जि'त्ति 'वज्री' इन्द्रः 'विदेहपुत्ते 'ति कोणिकः, एतावेव तत्र जेतारौ नान्यः कश्चिदिति 'नव मल्लइ ति मल्लकिनामानो राजविशेषाः 'नव लेच्छत्ति लेच्छ किनामानो राजविशेषा एव 'कासीकोसलग ति काशी- वाणारसी तज्जनपदोsपि काशी तत्सम्बन्धिन आद्या नव कोशला- अयोध्या तज्जनपदोऽपि कोशला तत्सम्बन्धिनो नव द्वितीयाः, 'गणरायाणो'त्ति समुत्पन्ने प्रयोजने ये गणं कुर्वन्ति ते गणप्रधाना राजानो गणराजाः सामन्ता इत्यर्थः, ते च तदानीं चेटकराजस्य वैशालीनगरीनायकस्य साहाय्याय गणं कृतवन्त इति ॥ अथ महाशिलाकण्टके सङ्ग्रामे चमरेण विकुर्विते सति कुणिको यदकरोत्तद्दर्शनार्थमिदमाह -- 'तए ण'मित्यादि, ततो' महाशिला कण्टकसङ्ग्रामविकुर्वणानन्तरमुदायिनामानं 'हस्थिराय'ति हस्तिप्रधानं 'पडिकप्पे 'त्ति सन्नद्धं कुरुत
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[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३००] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
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प्रज्ञप्तिः
IPI पचप्पिणह'त्ति प्रत्यर्पयत निवेदयतेत्यर्थः, 'हहह' इह यावत्करणादेवं दृश्यम्-'हद्वतुद्दचित्तमाणंदिया मंदिया ||७ शतके अभयदेवी पाहमणा'इत्यादि, तत्र हृष्टतुष्ट-अत्यर्थं तुष्टं दृष्टं वा-विस्मितं तुष्टं च-तोषवचित्त-मनो यत्र तत्तथा तद् हटतुएचित्तं यथा ||
X उद्देश: पा वृत्तिा भवति इत्येवमानन्दिता-ईपन्मुखसौम्यतादिभावैः समृद्धिमुपगताः, ततश्च नन्दिताः-समृद्धितरतामुपगताः प्रीतिः-॥
महाशिलापाणने-आप्यायनं मनसि येषां ते प्रीतिमनसः 'अंजलिं कत्ति , इदं वेवं रश्यम्-'करयलपरिग्गहियं दसणह सिरसा-IX|
कण्टका ॥३१७॥
वत्तं मत्थए अंजलिं कई तत्र शिरसाऽप्राप्त-असंस्पृष्ट मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वेत्यर्थः 'एवं सामी! तहत्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेति'त्ति एवं स्वामिन् । तथेति आज्ञया इत्येवंविधशब्दभणनरूपो यो विनयः स तथा तेन वचनं राज्ञः सम्बन्धि 'प्रतिशृण्वन्ति' अभ्युपगच्छन्ति 'छेयायरिओवएसमइकप्पणाविगप्पेहिति छेको-निपुणो य आचार्य:-शिल्पोपदेशदाता तस्योपदेशाद् या मतिः-बुद्धिस्तस्या ये कल्पनाविकल्पा:-कृतिभेदास्ते तथा तैः प्रतिकल्पयन्तीति योगः 'मुनिउणेहिति कल्पनाविकल्पानां विशेषणं नरैर्वा सुनिपुणैः, 'एवं जहा उपवाइए'त्ति तत्र चेदं सूत्र| मेवम्-'उज्जलनेवस्थहवपरिवच्छिय' उज्वलनेपथ्येन-निर्मलवेषेण 'हवं'ति शीघ्रं परिपक्षितः-परिगृहीतः परिवृतो यः स | तथा ते, सुसज्ज 'चम्मियसन्नद्धबद्धकवइयउप्पीलियवच्छकच्छगेवेजगबद्धगलगवरभूसणविराइयं' धर्मणि नियुक्ताश्चाम्मि ॥३१७॥ कास्तः सन्नद्धा-कृतसन्नाहश्चाम्मिकसंनद्धः बद्धा कवचिका-सन्नाहविशेषो यस्य स बद्धकवचिकः उत्पीडिता-गाढीकृता वक्षसि कक्षा-हृदयरजर्यस्य स तथा अवेयकं बर्द्ध गलके यस्य स तथा वरभूषणपिराजितो यः स तथा ततः कर्मधारयोsतिस्तम् 'अहियतेयजुत्तं विरइयवरकण्णपूरसललियपलंबावचूलचामरोयरकर्यधयार' विरचिते वरकर्णपूरे-प्रधानकर्णाभरण
दीप अनुक्रम [३७२]
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महाशीलाकंटक संग्राम
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३००] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [३००]
विशेषो यस्य स तथा सललितानि प्रलम्बानि अवचूलानि-यस्य स तथा चामरोत्करेण कृतमन्धकार यत्रस तथा ततः कर्मधा-||6|| रयोऽतस्तं, 'चित्तपरिकछोयपच्छयं' चित्तपरिच्छोको-लघुःप्रच्छदो-वनविशेषो यस्य स तथाऽतस्तं 'कणगघडियसुत्तगसुबद्धकच्छं' कनकघटितसूत्रकेण सुष्टु वद्धा कक्षा-उरोबन्धनं यस्य स तथा तं 'बहुपहरणावरणाभरियजुज्झसज्झं बहूनां प्रहरणाना(मस्यादीना)मावरणानां च-स्फुरककण्टकादीनां भृतो युद्धसज्जश्च यः स तथाऽतस्तं 'सछत्तं | सज्झर्य सघंटे' 'पंचामेलियपरिमंडियाभिरामं पञ्चभिरापीडिकाभिः-चूडाभिः परिमण्डितोऽभिरामश्च-रम्यो यः।
स तथाऽतस्तम् 'ओसारियजमलजुयलघंट' अवसारितं-अवलम्वितं यमलयुगल-द्वयं घण्टयोर्यत्र स तथाऽतस्तं 'विजु४ पिणद्धं व कालमेहं' भास्वरमहरणाभरणादीनां विद्युत्कल्पना(त्वात्)कालत्वाच्च गजस्य मेघसमतेति 'उप्पाइयपचयं व & सक्खं' औरपातिकपर्वतमिव साक्षादित्यर्थः 'मत्वं मेहमिव गुलुगुलंतं' 'मणपवणजाणवेग' मनःपवनजयी वेगो यस्य स
तथाऽतस्तं, शेषं तु लिखितमेवास्ति, वाचनान्तरे विदं साक्षाल्लिखितमेव दृश्यत इति, 'कयबलिकम्मे त्ति देवताना कृतबलिका 'कयकोउयमंगलपायच्छित्तेत्ति कृतानि कौतुकमङ्गलान्येव प्रायश्चित्तानीव दुःस्वमादिव्यपोहायावश्य कर्तव्यत्वात् प्रायश्चित्तानि येन स तथा, तत्र कौतुकानि-मषीपुण्ड्रादीनि मङ्गलानि-सिद्धार्थकादीनि 'सन्नद्धबद्धव
स्मियकवए'त्ति सन्नद्धः संहननिकया तथा बद्धः कशाबन्धनतो वर्मितो वर्मतया कृतोऽङ्गे निवेशनात् कवचः13 कळूटो येन स तथा, ततः कर्मधारयः, 'उप्पीलियसरासणपट्टिए'त्ति उत्पीडिता-गुणसारणेन कृतावपीडा शरा
सनपट्टिका-धनुर्दण्डो येन स तथा, उत्पीडिता वा-बाही बद्धा शरासनपट्टिका-बाहुपट्टिका येन स तथा, 'पिणद्धगेवेज
दीप अनुक्रम [३७२]
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महाशीलाकंटकं संग्राम
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३००] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
व्याख्या
प्रत सूत्रांक [३००]
|| विमलवरबद्धचिंधपट्टे'त्ति पिनद्धं-परिहित अवेयक-ग्रीवाभरणं येन स तथा विमलवरो पद्धश्चिह्नपट्टो-योधचिह्नपट्टो| || शतके प्रज्ञप्तिः दयेन स तथा, ततः कर्मधारयः, 'गहियाउहपहरणे'त्ति गृहीतानि आयुधानि-शस्त्राणि प्रहरणाय-परेषां प्रहारकरणाय उद्देशः अभयदेवी- येन स तथा, अथवाऽऽयुधानि-अक्षेप्यशस्त्राणि खनादीनि प्रहरणानि तु-क्षेप्यशखाणि नाराचादीनि ततो गृही-||महाशिलायावृत्तिः१५ तान्यायुधप्रहरणानि येन स तथा, 'सकोरिंटमल्लदामेणं'ति सह कोरिण्टप्रधानः-कोरिण्टकाभिधानकुसुमगुच्छा ज्यदा-15 कण्टका मभिः-पुष्पमालाभिर्यत्तत्तथा तेन, 'चउचामरवालवीइयंगे'त्ति चतुर्णी चामराणां वालींजितमहं यस्य स तथा, 'मंग-
सु ३०० ॥१८॥
लजयसद्दकयालोए'त्ति मङ्गलो-माङ्गल्यो जयशब्दः कृतो-जनैर्विहित आलोके-दर्शने यस्य स तथा, 'एवं जहा उचवाइए जाव' इत्यनेनेदं सूचितम्-'अणेगगणनायगदंडनायगराईसरतलवरमाडंबियकोटुंबियमंतिमहामंतिगणगदोवारियअमञ्चचेडपीढमद्दणगरनिगमसेहिसेणावइसत्यवाहदूयसंघिपाल सद्धिं संपरिबुडे धवलमहामेहनिग्गरविव गहगणदिप्पं
तरिक्खतारागणाण मज्झे ससिब पियर्दसणे नरवई मजणघराओ पडिनिक्खमइ मजणधराओ पडिनिक्खमित्ता जेणेव १ बाहिरिया उवठ्ठाणसाला जेणामेव उदाई हथिराया तेणामेव उवागच्छत्ति तत्रानेके ये गणनायका:-प्रकृतिम-15 ट्र हत्तराः दण्डनायकाः-तत्रपालाः राजानो-माण्डलिकाः ईश्वरा-युवराजाः तलवरा:-परितुष्ट नरपतिप्रदत्तपट्टबन्धविभूपिता राजस्थानीया माडम्बिका:-छिन्नमडम्बाधिपाः कौटुम्बिका:-कतिपयकुटुम्बप्रभवोऽवलगकाः मन्त्रिणः-प्रतीताः ॥३१॥ महामन्त्रिणो-मन्त्रिमण्डलप्रधानाः गणका:-ज्योतिषिकाः भाण्डागारिका इत्यन्ये दौवारिकाः-प्रतीहाराः अमात्या-रा-15 ज्याधिष्ठायकाः पेटा:-पादमूलिकाः पीठमः-आस्थाने आसनासीनसेवकाः वयस्या इत्यर्थः नगरमिह सैन्यनिवासिप्र
THARASEX
दीप अनुक्रम [३७२]
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महाशीलाकंटक संग्राम
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३००] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३००]
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दीप अनुक्रम [३७२]
कृतयः निगमाः-कारणिका वणिजो वा श्रेष्ठिन:-श्रीदेवताऽध्यासितसौवर्णपट्टविभूषितोत्तमाङ्गाः सेनापतयो-नृपतिनिरूपि-2 |तचतुरङ्गसैन्यनायकाः सार्थवाहाः प्रतीताः दूता-अन्येषां राजादेशनिवेदकाः सन्धिपाला:-राज्यसन्धिरक्षकाः, एतेषां ॥४
द्वन्द्वस्ततस्तैः, इह तृतीयाबहुवचनलोपो द्रष्टव्यः 'सद्धिति सार्द्ध सहेत्यर्थः, न केवलं तत्सहितत्वमेव अपि तु तैः समिति| समन्तात् परिवृता-परिकरित इति, 'हारोत्थयसुकयरइयवच्छे' हारावस्तृतेन-हारावच्छादनेन सुष्टु कृतरतिकं वक्षः-उरो | यस्य स तथा, जहाचेव उववाइए'त्ति तत्र चैवमिदं सूत्रम्-'पालंबपलबमाणपडसुकयउत्तरिज्जे इत्यादि तत्र प्रालम्बेनदीर्घेण प्रलम्बमानेन-गुम्बमानेन पटेन सुष्छु कृतमुत्तरीयं-उत्तरासको येन स तथा, 'महया भडचडगरवंदपरिक्खित्तेत्ति | महाभटानां विस्तारवत्सद्देन परिकरित इत्यर्थः 'ओयाए'त्ति 'उपयातः' सपागतः 'अभेजकवर्य'ति परप्रहरणाभेद्यावरणं | | 'वइरपडिरूवर्ग'ति वज्रसदृशम् 'एगहत्थिणावित्ति एकेनापि गजेनेत्यर्थः 'पराजिणित्तए'त्ति परानभिभवितमित्यर्थः। 'हयमहियपवरवीरघाइयविवडियधिद्वयपडागे'त्ति हताः-प्रहारदानतो मधिता-माननिर्मथनतः प्रवरवीराः-प्रधानभटा घातिताश्च येषां ते तथा, विपतिताश्चिह्नध्वजाः-चक्रादिचिह्नप्रधानध्वजाः पताकाश्च-तदन्या येषां ते तथा, ततः कर्मधारयोऽतस्तान्, 'किच्छपाणगए'त्ति कृच्छ्रगतप्राणान्-कष्टपतितप्राणानित्यर्थः 'दिसो दिसिं'ति दिशः सकाशा-3 दन्यस्यां दिशि अभिमतदिकृत्यागादिगन्तराभिमुखेनेत्यर्थः, अथवा दिगेवापदिग नाशनाभिप्रायेण यत्र प्रतिषेधने तहिगपदिकू तद्यथा भवत्येवं, 'पडिसेहित्य'त्ति प्रतिषेधितवान् युद्धान्त्रिवर्तितवानित्यर्थः ।।
णायमेयं अरहया सुयमेयं अरया विनायमेयं अरहया रहमुसले संगामे, रहमुसले णं भंते ! संगामे
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महाशीलाकंटकं संग्राम, रथमुशलं संग्राम
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३०१-३०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक
प्रज्ञप्तिः
या वृत्तिः
[३०१-३०४]
॥३१॥
ALOCHA
दीप अनुक्रम [३७३-३७६]
वहमाणे के जइत्था के पराजइत्या ?, गोयमा ! वजी विदेहपुत्ते चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया जइत्था नव का७शतके || मल्लई नव लेच्छई पराजइत्था, तए णं से कूणिए राया रहमुसलं संगाम उवहियं सेसं जहा महासिलाकंटए| उद्देशः
नवरं भूयाणंदे हत्थिराया जाव रहमुसलसंगामं ओयाए, पुरओ य से सके देविंदे देवराया, एवं तहेव जाव- ३०१ रथ| चिट्ठति, मग्गओ य से चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया एगं महं आयासं किढिणपडिरूवगं विउवित्ताणं | मुसलर | चिट्ठह, एवं खलु तओ इंदा संगाम संगामेति, तंजहा-देविंदे य मणुइंदे य असुरिंदे य, एगहत्थिणावि णं पभू
सान्निध्यं | कूणिए राया जइत्तए तहेव जाव दिसो दिसि पडिसेहिस्था । से केणटुणं भंते ! रहमुसले संगामे २१, गोयमा
रहमुसले णं संगामे वट्टमाणे एगे रहे अणासए असारहिए अणारोहए समुसले महया जणक्खयं जणयहं | ४ जणप्पमई जणसंवहकप्पं रुहिरकदमं करेमाणे सवओसमंता परिधाविस्था सेतेणढणं जाव रहमुसले संगामे।
रहमुसले णं भंते ! संगामे वहमाणे कति जणसयसाहस्सीओ वहियाओ?, गोयमा ! छन्नउर्ति जणसयसाहस्सीओ वहियाओ। ते णं भंते ! मणुपा निस्सीला जाव उववन्ना ?, गोयमा ! तस्थ णं दस साहस्सीओ8 |एगाए मच्छीए कुञ्छिसि ववन्नाओ, एगे देवलोगेसु उववन्ने, एगे सुकुले पञ्चायाए, अवसेसा ओसन्नं नरगतिरिक्खजोणिएसु उववन्ना । (सूत्रं ३०१) कम्हा णं भंते ! सके देविंदे देवराया चमरे असुरिंदे असुरकु
॥३१९॥ मारराया कूणियस्स रन्नो साहेज़ दलइत्था ?, गोयमा ! सके देविंदे देवराया पुवसंगतिए चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया परियायसंगतिए, एवं खलु गोयमा! सके देविंदे देवराया चमरे य असुरिंदे असुरकुमारराया
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रथमुशलं संग्राम
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३०१-३०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३०१-३०४]
HEAX
दीप
ट्राणियस्स रनो साहिजं दलइत्था ॥(मत्रं३०२) बहुजणे णं भंते ! अन्नमन्नस्स एवमाइक्खंति जाव परुति एवं
खलु बहवेमणुस्सा अन्नयरेसु उच्चावएसु संगामेसु अभिमुहा चेव पहया समाणा कालमासे कालं किच्चा अन्नय-12 रेसु देवलोएम देवत्ताए उववत्तारो भवंति, से कहमेयं भंते ! एवं ?, गोयमा !जण्णं से बहुजणो अन्नमन्नस्स एवं आइक्खति जाव उबवत्तारो भवंति जे ते एवमासु मिच्छं ते एवमाहंसु, अहं पुण गोयमा ! एवमाइ
क्खामि जाव परूवेमि-एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं वेसाली नाम नगरी होत्था, वण्णओ, तत्व मणं वेसालीए णगरीए वरुणे नामं णागनत्तुए परिवसइ अढे जाव अपरिभूए समणोवासए अभिगयजीवा
जीवे जाव पडिलामेमाणे छ8 छटेणं अनिक्खित्तेणं तबोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरति, तए णं से है वरुणे णागनत्तुए अन्नया कयाइ रायाभिओगेणं गणाभिओगेणं घलाभियोगेणं रहमुसले संगामे आणत्ते
समाणे छट्टभत्तिए अट्ठमभत्तं अणुवति अट्ठमभत्तं अणुवद्देत्ता कोटुंबियपुरिसे सद्दावेइ २ एवं बदासी-खिप्पामेव भो देवाणुपिया! चाउग्घंटं आसरहं जुत्तामेव उचट्ठावेह हयगयरहपवर जाव सन्नाहेत्ता मम एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह, तए णं से कोडुबियपुरिसा जाव पडिसुणेत्ता खिप्पामेव सच्छत्तं सज्झयं जाय उवट्ठावेंति हयगयरह जाब सन्नाति २ जेणेव वरुणे नागनतुए जाव पचप्पिणंति, तए णं से वरुणे मागनतुए जेणेच मनणघरे तेणेव उवागच्छति जहा कृणिओ जाव पायच्छित्ते सबालंकारविभूसिए सन्नद्धवद्धे सकोरेंटमल्लदामेणं जाव धरिजमाणेणं अणेगगणनायग जाव दूयसंधिपाल सईि संपरिवुडे मजणघराओ पडिनिक्खमति
अनुक्रम [३७३-३७६]
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रथमुशलं संग्राम
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३०१-३०४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
शतके
प्रत सूत्रांक [३०१
-३०४]
दीप अनुक्रम [३७३-३७६]
व्याख्या- पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उबट्ठाणसाला जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छड उवागच्छइत्ताह प्रज्ञप्तिःट चाउग्घंटं आसरहं दुरूहद २ हयगयरह जाव संपरिबुडे महया भडचढ़गर जाव परिक्खित्ते जेणेच रहम- देश अभयदेवी- सले संगामे तेणेव उवागच्छइरत्ता रहमुसलं संगाम ओयाओ, तए णं से वरुणे णागणतुए रहमुसलं संगाम ३०श्युद्धया वृत्तिःला
|| ओयाए समाणे अयमेयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हह-कप्पति मे रहमुसलं संगाम संगामेमाणस्स जे पुषि हतदेवत्व ॥२०॥ | पहणइ से पडिहणित्तए अवसेसे नो कप्पत्तीति, अयमेयारूवं अभिग्गहं अभिगेण्हह अभिगेण्हइत्ता रहमुसलं प्रघोषहेतु
संगाम संगामेति, तए णं तस्स वरुणस्स नागनत्तुयस्स रहमुसलं संगाम संगामेमाणस्स एगे पुरिसे सरिसए |सरिसत्तए सरिसपए सरिसभंडमत्तोवगरणे रहेणं पडिरह हदमागए, तए णं से पुरिसे वरुणं णागणत्तुर्य
एवं वयासी-पहण भो वरुणा ! णागणतुया ! प०२, तए णं से वरुणे णागणतुए तं पुरिसं एवं बदासीसनो खलु मे कप्पइ देवाणुप्पिया ! पुर्वि अहयस्स पणित्तए, तुम चेव णं पुर्व पहणाहि, तए णं से पुरिसे वरुणे Mणागणचएणं एवं बुत्ते समाणे आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे धणुं परामुसइ २ उK परामुसइ उK परामु& सित्ता ठाणे ठाति ठाणं ठिच्चा आययकन्नाययं उसुं करेइ आययकन्नाययं उसुकरेत्ता वरुणंणागणनुयं गाढप्पकाहारी करेइ, तए णं से वरुणे णागनतुए तेणं पुरिसेणं गाढप्पहारीकए समाणे आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे ||
॥३२०॥ ४ घणु परामुसइ धणुं परामुसित्ता उK परामुसह उK परामुसित्ता आययकन्नाययं उसुं करेइ आययकन्नापयं०२
तं पुरिसं एगाहचं कूडाहचं जीवियाओ ववरोवह, तए णं से वरुणे णागणतुए तेणं पुरिसेणं गाढप्पहारी
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३०१-३०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३०१-३०४]
दीप
कए समाणे अत्थामे अबले अवीरिए अपुरिसकारपरक्कमे अधारणिजमितिकडे तुरए निगिण्हइ तुरए निगिहित्ता रहं परावत्तेइ रहं परावत्तित्तारहमुसलाओसंगामाओ पडिनिक्खमतिरएगतमंतं अवक्कमइ एगतमंत - अवक्कमित्ता तुरए निगिण्हह २ रहं ठवेइ २त्ता रहाओ पच्चोरुहइ रहाओ २ रहाओ तुरए मोएइ तुरए मोएत्ता |तुरए विसज्जेइ २त्ता [ अन्ध ४०००] २ दन्भसंधारगं संधरह२ [पुरच्छाभिमुदे दुरूहइ दन्भसं०२]ठा पुरच्छाभिमुहे संपलियंकनिसने करयल जाव कटु एवं वयासी-नमोत्थु णं अरिहंताणं जाव संपत्ताणं नमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स आइगरस्स जाव संपाविउकामस्स मम धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स वदामि णं भगवन्तं तत्थगयं इहगए पासउ मे से भगवं तत्थगए जाव वंदति नमसति २एवं व
यासी-पुर्विपि मए समणस्त भगवओ महावीरस्स अंतिए धूलए पाणातिवाए पश्चक्खाए जावज्जीवाए एवं| ★ जावथूलए परिग्गहे पच्चक्खाए जावज्जीवाए, इयाणिपिणं अरिहंतस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं सर्व पाणा
|तिवायं पञ्चक्खामि जावजीवाए एवं जहा खंदओ जाव एयंपिणं चरमेहिं ऊसासनीसासेहि बोसिरिस्सा-18 समित्तिकहु सन्नाहपढें मुयइ सन्नाइपर्ट मुइत्ता सल्लुद्धरणं करेति सद्धरणं करेत्ता आलोइयपडिकंते समाहि
पत्ते आणुपुवीए कालगए, तए णं तस्स वरुणस्स णागनत्तुयस्स एगे पियवालवयंसए रहमुसलं संगाम | संगामेमाणे एगेणं पुरिसेणं गाढप्पहारीकए समाणे अस्थामे अबले जाव अधारणिमितिकट्ठ वरुणं णागनसुयं रहमुसलाओ संगामाओ पडिनिक्खममाणं पासइ पासइत्ता तुरए निगेण्हइ तुरए निगेण्हित्ता जहा
अनुक्रम [३७३-३७६]
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रथमुशलं संग्राम, वरुण-नागपुत्रस्य एकावतारित्वं
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३०१-३०४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३०१
-३०४]
दीप अनुक्रम [३७३-३७६]
व्याख्या-13 वरुणे जाव तुरए विसज्जेति पडिसंधारगं दुरूहह पडिसंथारगं दुरूहित्ता पुरत्याभिमुहे जाव अंजलि कटु ७ शतके प्रज्ञप्तिः
एवं वयासी-जाई णं भंते ! मम पियवालवयस्सस्स वरुणस्स नागनत्तुयस्स सीलाई बयाई गुणाई बेरमणाई। देशः ९ अभयदेवी पचक्खाणपोसहोववासाई ताइणं ममंपि भवंतुत्तिकटु सन्नाहपढें मुयइ २ सद्धरणं करेति सलुद्धरणं करेत्ता २०४वरुण& आणुपुषीए कालगए, तए णं तं वरुणं णागणनुयं कालगयं जाणित्ता अहासन्निहिएहिं वाणमंतरेहिं देवेहि
|स्यकावता
रिता ॥३२॥
| दिवे सुरभिगंधोदगवासे बुढे दसद्धबन्ने कुसुमे निवाडिए दिवे य गीयगंधवनिनादे कए यावि होत्या, तए णं तस्स वरुणस्स णागनत्तुयस्स तं दिवं देविहि दिवं देवजुर्ति दिवं देवाणुभागं सुणित्ता य पासित्ता य बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ जाव परूवेति-एवं खलु देवाणुप्पिया ! बहवे मणुस्सा जाव उववत्तारो भवंति ॥ (सूत्रं ३०३) वरुणे णं भंते !नागनत्तुए कालमासे कालं किचा कहिं गए कहिं उपवने, गोयमा! सोहम्मे कप्पे अरुणाभे विमाणे देवत्ताए उववन्ने, तस्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाणि ठिती | पन्नता, तस्थ णं वरुणस्सवि देवस्स चत्तारि पलिओवमाइं ठिती पन्नत्ता । से णं भंते ! वरुणे देवे ताओ देवलोगाओ आउखएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं जाव महाविदेहे वासे सिझिहिति जाव अंतं करेहिति।। वरुणस्स णं भंते ! णागणनुपस्स पियवालवयंसए कालमासे कालं किचा कहिं गए? कहिं उववन्ने ?,गोयमा सुकुले पचायाते।से णं भंते तओहिंतो अणंतर उच्चट्टित्ता कहिं गच्छहिति कहिं उववजहिति?, गोयमा !महा- ॥३२२॥ विदेहे वासे सिज्झिहिति जाच अंतं करेंति।सेवं भंते! सेषं भंते !त्तिा(मूत्रं३०४) सत्तमस्सणवमो उद्देसो॥७॥९॥
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[ ३०१
-३०४]
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अनुक्रम
[३७३
-३७६]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति: ]
शतक [७], वर्ग [-], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [९], मूलं [ ३०१-३०४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
'सारुह 'ति संरुष्टाः मनसा 'परिकुविय'त्ति शरीरे समन्ताद्दर्शितकोपविकाराः 'समरवहिय'त्ति सङ्ग्रामे हता 'रहमु|सले ति यत्र रधो मुशलेन युक्तः- परिधावन् महाजनक्षयं कृतवान् असौ रथमुशल: 'मग्गओ'ति पृष्ठतः 'आयसं'ति | लोहमयं 'किडिणपडिरूवगंति किठिनं-वंशमयस्तापससम्बन्धी भाजनविशेषस्तत्प्रतिरूपकं तदाकारं वस्तु 'अणासए'त्ति अश्वरहितः 'असारहिए'त्ति असारथिकः 'अणारोहए'त्ति 'अनारोहकः' योधवर्जितः 'महताजणक्खयं' ति | महाजनविनाशं 'जणवहं' ति जनवधं जनव्यथां वा 'जणपम ति लोकचूर्णनं 'जणसंवट्टकप्पं ति जनसंवर्त्त इव-लो. | कसंहार इव जनसंवर्त्तकल्पोऽतस्तम् । 'एगे देवलोगेसु उववन्ने एगे सुकुलपञ्चायाए' ति एतत्स्वभावत एव वक्ष्यति । 'पुसंगइए 'ति कार्त्तिकश्रेष्ठयवस्थायां शक्रस्य कूणिकजीवो मित्रमभवत् 'परियायसंगइए 'त्ति पूरणतापसावस्थायां चमरस्यासौ तापसपर्यायवर्त्ती मित्रमासीदिति ॥ 'जन्नं से बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्ख' इत्यत्रैकवचनप्रक्रमे 'जे तेएवमाहंसु' इत्यत्र यो बहुवचननिर्देशः स व्यक्त्यपेक्षोऽवसेयः 'अहिगयजीवाजीवे' इत्यत्र यावत्करणात् 'उवलद्धपुन्नपावा' इत्यादि दृश्यं 'पडिला भेमाणे'ति, इदं च 'समणे निग्गंथे फासुएणं एसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं | वत्थ पडिग्गह कंबलर ओहरणेणं पीढफलगसेज्जासंधारएणं पडिलाभेमाणे विहरइ' इत्येवं दृश्यं, 'चाउरघंटे'ति घण्टाचतुष्टयोपेतम् 'आसरह'ति अश्ववहनीयं रथं 'जुत्तामेव'त्ति युक्तमेव रथसामध्येति गम्यं 'सज्झय' मित्यत्र यावत्करणादिदं दृश्यं - 'सर्घढं सपडागं सतोरणवरं सर्णदिघोसं सकिंकिणी हेम जाल परंत परिक्खित्तं' सकिङ्किणीकेन- क्षुद्रघण्टिकायुक्तेन हेमजालेन पर्यन्तेषु परिक्षिप्तो यः स तथा तं 'हेमवयचित्ततेणिसकणगनि उत्सदारुयागं' हैमवतानि - हिमवद्भि
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३०१-३०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३०१-३०४]
व्याख्या- रिजातानि चित्राणि-विचित्राणि तैनिशानि-तिनिशाभिधानवृक्षसम्बन्धीनि स हिमवतीति तहणं कनकनियुक्तानि- शतके प्रज्ञप्तिः
नियुक्तकमकानि दारूणि यत्र स तथा तं 'संविद्धचकमंडलधुरागं' सुष्टु संविद्धे चक्रे यत्र मण्डला च-वृत्ता धूर्यत्र स तथा अभयदेवीयावृत्तिः
|तं 'कालायससुकयनेमिजंतकम्म' कालायसेन-लोहविशेषेण सुष्टु कृतं नेमेः-चक्रमण्डलमालाया यन्त्रकर्म-बन्धनक्रिया है
यत्र स तथा तम्, 'आइनवरतुरयसुसंपउत्त' जात्यप्रधानाश्वैः सुतु संप्रयुक्तमित्यर्थः, 'कुसलनरच्छेयसारहिसुसं॥३२२॥ पग्गहियं कुशलनररूपो यश्छेकसारथि:-दक्षप्राजिता तेन सुष्ठ संप्रगृहीतो यः स तथा तं, 'सरसयबत्तीसयतोणप-10
| रिमंडिय' शराणां शतं प्रत्येक येषु ते शरशतास्तैात्रिंशता तोणः-शरधिभिः परिमण्डितो यः स तथा तं, 'सकंकडवडेंसगं' सह कटैः कवचैरवर्तसैश्च-शेखरकैः शिरस्त्राणभूतैर्यः स तथा तं, सचावसरपहरणावरणभरियजोहजुद्धसज्ज' सह चापशरैर्यानि प्रहरणानि-खगादीनि आवरणानि च-स्फुरकादीनि तेषां भृतोऽत एव योधानां युद्धसज्जश्च-युद्धप्रगुणो यः स तथा तं, 'चाउग्घंटं आसरहं जुत्तामेव'त्ति, वाचनान्तरे तु साक्षादेवेदं दृश्यत इति, 'अयमेयारूवंति प्राकृतत्वादिदम् 'एतदूपं वक्ष्यमाणरूपं 'सरिसए'त्ति सदृशक:-समानः 'सरिसत्तए'त्ति सदृशत्वक् 'सरिसवए'त्ति सदृग्वयाः 'सरिसभंडमत्तोवगरणे'त्ति सदृशी भाण्डमात्रा-प्रहरणकोशादिरूपा उपकरणं च-ककटादिकं यस्य स तथा, 'पडिरहंति रथं प्रति 'आसुरुत्ते'त्ति आशु-शीघं रुप्तः-कोपोदयाद्विमूढः 'रूप लुप विमोहने' इति वचनात् , स्फुरि
|OL ||३२२॥ तकोपलिङ्गो वा, यावत्करणादिदं दृश्यं रुढे कुविए चंडिकिए'त्ति तत्र 'रुष्टा' उदितक्रोधः 'कुपितः' प्रवृद्धकोपोदयः 'चाण्डिकितः' सब्जातचाण्डिक्यः प्रकटितरौद्ररूप इत्यर्थः 'मिसिमिसीमाणे'त्ति कोधाग्निना दीप्यमान इव, एकार्थिका
RECACASSE
दीप
अनुक्रम [३७३-३७६]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३०१-३०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३०१-३०४]
दीप
वैते शब्दाः कोपप्रकर्षप्रतिपादनार्थमुक्ताः 'ठाणं ति पादन्यासविशेषलक्षणं 'ठाति'त्ति करोति 'आययकपणाययंति आयतः-आकृष्टः सामान्येन स एव कर्णायतः-आकर्णमाकृष्ट आयतकर्णायतस्तम्, 'एगाहचंति एका हत्या-हननं प्रहारो यत्र जीवितव्यपरोपणे तदेकाहत्यं तद्यथा भवति, 'कूडाहवंति कूटे इव तथाविधपापाणसंपुटादौ कालविलम्बाभावः। साधादाहत्या-आहननं यत्र तत् कूटाहत्यम् 'अस्थामेत्ति अस्थामा' सामान्यतः शक्तिविकल: 'अवले'त्ति शरीरशक्तिवर्जितः 'अवीरिए'त्ति मानसशक्तिवजितः 'अपुरिसकारपरकमेति व्यक्तं नवरं पुरुषक्रिया पुरुषकार:-पुरुषाभिमानः स एव निष्पादितस्वप्रयोजनः पराक्रमः 'अधारणिजंति आत्मनो धरणं कर्तृमशक्यम् 'इतिकट्ट'त्ति इत्तिकृत्वा इतिहेतो-४ | रित्यर्थः 'तुरए णिगिण्हई'त्ति अश्वान् गच्छतो निरुणद्धीत्यर्थः 'एगंतमंत'ति 'एकान्तं' विजनम् 'अन्त' भूमिभागं
सीलाई ति फलानपेक्षाः प्रवृत्तयः ताश्च प्रक्रमाच्छुभाः 'वयाईति अहिंसादीनि 'गुणाईति गुणवतानि 'बेरमणाईति सामान्येन रागादिविरतयः 'पचक्खाणपोसहोववासाईति प्रत्याख्यान-पौरुष्यादिविषयं पौषधोपवास:-पर्वदिनोप
वासः 'गीयगंधचनिनाए'सि गीतं गानमात्रं गन्धर्व-तदेव मुरजादिध्वनिसनाथं तल्लक्षणो निनादः-शब्दो गीतगन्धर्वका निनादः ॥ 'कालमासे'त्ति मरणमासे मासस्योपलक्षणत्वात् कालदिवसे इत्यायपि द्रष्टव्यं 'कहिं गए कहिं उवचन्नेत्ति | प्रश्नद्वये 'सोहम्मे'त्यायेकमेवोत्तरं गमनपूर्वकत्वादुत्पादस्योत्पादाभिधानेन गमनं सामर्थ्यादवगतमेवेत्यभिप्रायादिति ।
'आउक्खएणं आयुःकर्मदलिकनिर्जरणेन 'भवक्खएण'ति देवभवनिवन्धनदेवगत्यादिकर्मनिर्जरणेन 'ठिहक्खएणति |आयुष्कादिकर्मणां स्थितिनिर्जरणेनेति ॥ सप्तमशते नवमोदेशका सम्पूर्णः ॥ ७-९॥
अनुक्रम [३७३-३७६]
अत्र सप्तम-शतके नवम-उद्देशक: समाप्त:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [३०५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३०५]
दीप अनुक्रम [३७७]
अनन्तरोद्देशके परमतनिरास उक्तो दशमेऽपि स एवोच्यते इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदं सूत्रम्
७शतके व्याख्याप्रज्ञप्तिः ||
उद्देश: १० तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नाम नगरे होत्था बन्नओ, गुणसिलए चेइए वन्नओ, जाव पुढविसिलाप
३०५ काअभयदेवी- टाइए वणओ, तस्स णं गुणसिलयस्स चेइयस्स अदूरसामंते बहवे अन्नउत्थिया परिवसंति, संजहा-कालोदाई | लोदाविप या वृत्तिः
सेलोदाई सेवालोदाई उदए नामुदए तम्मुदए अन्नवालए सेलवालए संखवालए सुहत्थी गाहावई, तए णं ति बोधः ॥३२३॥ तेर्सि अन्नउस्थियाणं भंते ! अन्नया कयाईएगयओ समुवागयाणं सन्निविट्ठाणं सन्निसाणं अयमेयारूवे मिहो
है। कहासमुल्लावे समुप्पजित्था-एवं खलु समणे नायपुत्ते पंच अस्थिकाए पन्न वेति, तंजहा-धम्मत्थिकायं जावर
आगासस्थिकार्य, तत्थ णं समणे नायपुत्ते चत्तारि अधिकाए अजीवकाए पन्नवेति, तंजहा-धम्मस्थिकायं| ४ अधम्मस्थिकार्य आगासस्थिकायं पोग्गलस्थिकायं, एगं च समणे णायपुत्ते जीवस्थिकार्य अरूविकायं जीवकायं पन्नवेति, तस्थ णं समणे णायपुत्ते चत्तारि अस्थिकाए अरूविकाए पन्नवेति, तंजहा-धम्मत्थिकायं अधम्मत्थिकार्य आगासस्थिकायं जीवत्थिकायं, एगं च णं समणे णायपुसे पोग्गलत्धिकायं रूविकायं अजी
॥३२३॥ वकार्य पन्नचेति, से कहमेयं मन्ने एवं?, तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव गुणसिलए चेइए। समोसढे जाव परिसा पडिगया, तेणं कालेणं तेणंसमएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्टे अंतेवासी इंदभूईणामं अणगारे गोयमगोत्तेणं एवं जहा वितियसए नियंटुद्देसए जाव भिक्खायरियाए अडमाणे अहापज्जतं | भत्तपाणं पडिग्गहित्ता रायगिहाओ जाव अतुरियमचवलमसंभंतं जाव रियं सोहेमाणे सोहेमाणे तेसि अन्नज
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अथ सप्तम-शतके दशम-उद्देशक: आरम्भ: कालोदायी-श्रमणस्य कथा
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आगम
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[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः ]
शतक [७], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [१०], मूलं [ ३०५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
त्थियाणं अदूरसामंतेणं बीइवयति, तए णं ते अन्नउत्थिया भगवं गोयमं अदूरसामंतेणं वीहवयमाणं पासंति पासेत्ता अन्नमन्नं सदावेंति अन्नमन्नं सदावेत्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुपिया ! अम्हं इमा कहा अविप्पकडा अयं व णं गोयमे अम्हं अदूरसामंतेणं वीश्वयइ तं सेयं खलु देवाणुपिया ! अम्हं गोयमं एयमहं पुच्छि | सएत्तिकट्टु अन्नमन्नस्स अंतिए एयमहं पडिसुर्णेति २ ता जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छति तेणेव उवागच्छित्ता ते भगवं गोयमं एवं वयासी एवं खलु गोयमा । तब धम्मायरिए धम्मोवदेसर समणे णायपुत्ते पंच अस्थिकाए पनवेति, तंजहा-धम्मस्थिकार्य जाव आगासत्थिकार्य, तं चैव जाव रूविकार्य अजीवकार्य पनवेति से कहमेयं भंते! गोयमा ! एवं, तए णं से भगवं गोपमे ते अन्न उत्थिए एवं वयासी-नो खलु वयं देवाणुप्पिया ! अस्थिभावं नस्थिति बदामो नत्थिभावं अस्थिति बदामो, अम्हे णं देवाशुप्पिया ! सर्व अस्थिभावं अस्थीति वदामो सर्व नत्थिभावं नत्थीति वयामो, तं चैव सा खलु तुम्भे देवाणुपिया एयम सयमेयं पचवेक्खहत्तिकट्टु ते अन्नउत्थिए एवं वयासी एवं २, जेणेव गुणसिलए चेइए जेणेव समणे भगवं | महावीरे एवं जहा नियंडुद्देसए जाव भन्तपाणं पडिदंसेति भत्तपाणं परिदंसेत्ता समणं भगवं महावीरं बंदह नमसइ २ नच्चासन्ने जाव पज्जुवासति । तेणं कालेणं तेणं समर्पणं समणे भगवं महावीरे महाकहापडिवन्ने यावि होत्या, कालोदाई य तंदेसं हवमागए, कालोदाईति समणे भगवं महावीरे कालोदाई एवं वयासी-से नृणं [ भंते ] कालोदाई अन्नया कथाई एगयओ सहियाणं समुवागयाणं सन्निविद्वाणं तहेब जाव से कहमेयं
कालोदायी श्रमणस्य कथा
For Parts Only
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[ ३०५ ]
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अनुक्रम [३७७]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः ]
शतक [७], वर्ग [ - ], अंतर् शतक [-] उद्देशक [१०], मूलं [ ३०५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवी
यावृत्ति: १ ॥ ३२४ ॥
मने एवं १, से नूणं कालोदाई अत्थे समहे ?, हंता अत्थि तं०, सचे णं एसमट्ठे कालोदाई अहं पंचस्थिकार्य पनवेमि, तंजा-धम्मत्थिकार्य जाव पोग्गलत्थिकार्य, तत्थ णं अहं चत्तारि अस्थिकाए अजीवस्थिकाए अजीवतया पनवेमि तहेब जाव एवं चणं अहं पोग्गलत्थिकायं रूविकार्य पन्नवेमि, तए णं से कालोदाई | समणं भगवं महावीरं एवं बदासी- एयंसि णं भंते ! धम्मत्थिकार्यसि अधम्मत्थिकार्यसि आगासत्धिकार्यसि १ छोदायिपतिबोधः
७ शतके उद्देशः १० ३०५ का
| अरूविकार्यसि अजीव कायंसि चकिया के आसइत्तए वा १ सहराए वा २ चिन्तए वा ३ निसीहत्तए वा ४ तुयट्टितए वा ५१, णो तिणट्टे०, कालोदाई एगंसि णं पोग्गलत्थिकायंसि रूविकार्यसि अजीवकार्यंसि * चकिया केइ आसइत्तए वा सइत्तए वा जाव तुयट्टित्तए वा, एयंसि णं भंते! पोरगलत्थिकार्यसि रूविकार्यंसि अजीवकायंसि जीवाणं पावा कम्मा पावकम्मफलविद्यागसंजुत्ता कांति !, णो इण्डे समट्ठे कालोदाई !, एवंसिणं जीवत्थिकार्यसि अरूविका यंसि जीवाणं पाया कम्मा पावफल विवागसंजुक्ता कति ?, हंता कांति, एत्थ णं से कालोदाई संबुद्धे समणं भगवं महावीरं बंदर नमसह वंदिता नमसित्ता एवं वयासी- इच्छामिणं भंते! तुन्भं अंतियं धम्मं निसामेत्तए एवं जहा खंदए तहेव पञ्चइए तहेव एक्कारस अंगाई जाव विहरइ (सूत्रं ३०५ )
'ते' मित्यादि, 'एगयओ समुवागयाणं'ति स्थानान्तरेभ्य एकत्र स्थाने समागतानामागत्य च 'सन्निविद्वाणं'ति ॥३२४|| | उपविष्टानाम् उपवेशनं चोरकुटुकत्वादिनाऽपि स्यादत आह- 'सन्निसन्नाणं' ति संगततया निषण्णानां सुखासीनानामिति यावत् 'अस्थिकाए'त्ति प्रदेशराशीन् 'अजीवकाए'त्ति अजीवाश्च ते अचेतनाः कायाश्च राशयोऽजीवकायास्तान् 'जीव
Education internation
कालोदायी श्रमणस्य कथा
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[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति :]
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [३०५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
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स्थिकाय मित्येतस्य स्वरूपविशेषणायाह-'अरूविकार्य'ति अमूर्तमित्यर्थः 'जीवकार्य'ति जीवनं जीवो-ज्ञानाद्युपयोगस्तत्प्रधानः कायो जीवकायोऽतस्तं, कैश्चिजीवास्तिकायो जडतयाऽभ्युपगम्यतेऽतस्तन्मतव्युदासायेदमुक्तमिति, 'से|४/ कहमेयं मन्ने एवं ? ति अथ कथमेतदस्तिकायवस्तु मन्य इति वितकार्थः 'एवम्' अमुना चेतनादिविभागेन भवतीति, एषां समुल्लापः, 'इमा कहा अविपकड'त्ति इयं कथा-एषाऽस्तिकायवक्तव्यताऽप्यानुकूल्येन प्रकृता-प्रक्रान्ता, अधवा न विशेषेण प्रकटा अविप्रकटा, 'अविउपकड'त्ति पाठान्तरं तत्र अविद्वत्प्रकृताः-[अविज्ञप्रकृता] अथवा न | विशेषत उत्-पावल्यतश्च प्रकटा अव्युत्प्रकटा 'अयं चत्ति अयं पुनः 'तं चेयसा' इति यस्माद्यं सर्वमस्तिभावमेवास्तीति वदामः तथाविधसंवाददर्शनेन भवतामपि प्रसिद्धमिदं तत्-तस्मात् 'चेतसा' मनसा 'वेदसत्ति पाठान्तरे ज्ञानेन प्रमाणाबाधितत्वलक्षणेन 'एयमझुति अमुमस्तिकायस्वरूपलक्षणमध स्वयमेव 'प्रत्युपेक्षध्वं' पर्यालोचयतेति, 'महाकहापडिबन्ने'|त्ति महाकथाप्रबन्धेन महाजनस्य तत्वदेशनेन, 'एयंसिणं'ति एतस्मिन् उक्तस्वरूपे 'चकिया केई'त्ति शकुयात् कश्चित् ॥ | 'एयंसि णं भंते ! पोग्गलत्थिकार्यसि'इत्यादि, अयमस्य भावार्थ:-जीवसम्बन्धीनि पापकर्माण्यऽशुभस्वरूपफललक्षणविपाकदायीनि पुनलास्तिकाये न भवन्ति, अचेतनत्वेनानुभववर्जितत्वात्तस्य, जीवास्तिकाय एव च तानि तथा भवन्ति अनुभवयुक्तत्वात्तस्येति । प्राकालोदायिप्रश्नद्वारेण कर्मवक्तव्यतोका, अधुना तु तत्पश्चद्वारेणैव तान्येव यथा पाप| फलविपाकादीनि भवन्ति तथोपदिदर्शयिषुः 'एत्थ णं से' इत्यादि संविधानकशेषभणनपूर्वकमिदमाह
तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइरायगिहाओगुणसिलए(या) चेहए(या) पडिनिक्खमति पहिया
कालोदायी-श्रमणस्य कथा
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [३०६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३०६]
दीप अनुक्रम [३७८]
व्याख्या- जणवयविहारं विहरइ, तेणं कालेणं तेणं समएणरायगिहे नाम नगरे गुणसिले णामंचेइए होत्था,तए णंसमणे ७शतके प्रज्ञप्तिः
भगवं महावीरे अन्नया कयाइ जाव समोसढे परिसा पडिगया, तए णं से कालोदाई अणगारे अन्नया कयाइ | उद्देशः१० अभयदेवी
मोजेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ २ समर्ण भगवं महावीरं वंदा नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं व- पापकल्याया वृत्तिः || यासी अस्थि भंते ! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कजति ?,हंता अस्थि । कहपण भंते ! जीवाणं ||
टणकर्मविपा
कःकालोदा ॥३२५॥ ट्रा पावा कम्मा पावफल विवागसंजुत्ता कजंति, कालोदाई से जहानामए के पुरिसे मणुन्न थालीपागसुद्धं
यधिकारः अट्ठारसबंजणाउलं विससंमिस्सं भोयणं मुंजेज्जा तस्स णं भोयणस्स आवाए भद्दए भवति तओ पच्छा परिणममाणे परि० दुरूवत्ताए दुगंधत्ताए जहा महासवए जाव भुजो २ परिणमति एवामेव कालोदा जी| वाणं पाणाइवाए जाब मिच्छादसणसल्ले तस्स णं आवाए भद्दए भवइ तओ पच्छा विपरिणममाणे २ दुरू|वत्ताए जाय भुजो २ परिणमति, एवं खलु कालोदाई जीवाणं पाचा कम्मा पावफलविवाग० जाव कजंति ।।
अस्थि णं भंते ! जीवाणं कल्लाणा कम्मा कल्लाणफलविवागसंजुत्ता कचंति, हंता अस्थि, कहन्नं भंते ! जी| वाणं कलाणा कम्मा जाव कर्जति ?, कालोदाई से जहानामए केह पुरिसे मणुन्न थालीपागसुद्ध अहारसवं| जणाकुलं ओसहमिस्सं भोयणं भुजेजा, तस्स णं भोयणस्स आवाए नो भद्दए भवइ, तओ पच्छा परिण-1 ॥३२५॥
ममाणे २ सुरूवत्ताए सुवन्नत्ताए जाव सुहत्ताए नो दुक्खत्ताए भुज्जो २ परिणमति, एवामेव कालोदाई। |जीवाणं पाणाइवायवेरमणे जाव परिग्गहवेरमणे कोहविवेगे जाव मिच्छादसणसल्लविवेगे तस्स णं आवाए
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति :]
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [३०६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३०६]
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दिनो भद्दए भवइ तओ पच्छा परिणममाणे २ सुरूवत्ताए जाच नो दुक्खत्ताए भुजो २ परिणमह, एवं खल
कालोदाई ! जीवाणं कल्लाणा कम्मा जाव कजंति । (सूत्रं ३०६)॥ 'अस्थि ण'मित्यादि, अस्तीदं वस्तु यदुत जीवानां पापानि कर्माणि पापो यः फलरूपो विपाकस्तत्संयुक्तानि भवम्तीत्यर्थः थालीपागसुद्धति स्थाल्यां-उखायां पाको यस्य सत् स्थालीपाकम्, अन्यत्र हि पक्कमपक्वं वान तथाविध स्यादितीदं । विशेषणं, शुद्ध-भक्तदोषवर्जितं, ततः कर्मधारयः, स्थालीपाकेन वाशुद्धमिति विग्रहः, 'अट्ठारसवंजणाउलं'ति अष्टादशभिहै लोकप्रतीतैर्व्यञ्जनैः-शालनकैस्तकादिभिर्वा आकुलं सङ्कीर्ण यत्तत्तथा, अथवाऽष्टादशभेदं च ताञ्जनाकुलं चेति, अत्र भेद
पदलोपेन समासः, अष्टादश भेदाश्चैते-"सूओ १ दणो २ जवनं ३ तिन्नि य मंसाई ६ गोरसो ७ जूसो ८। भक्खा ९ गुललावणिया १० मूलफला ११ हरियगं १२ डागो १३ ॥१॥ होइ रसालू य १४ तहा पाणं १५ पाणीय १६ पाणगं १७ चेव । अहारसमो सागो १८ निरुवहओ लोइओपिंडो॥" तत्र मांसत्रय-जलजादिसक 'जूषो' मुगतन्दुलजीरककदुभाण्डादिरसः 'भक्ष्याणि'खण्डखाद्यादीनि 'गुललावणिया' गुडपपेटिका लोकप्रसिद्धा गुडधाना वा, भूलफलान्येकमेव| पदं 'हरितक' जीरकादि 'डाको वास्तुलकादिभर्जिका रसालू मजिका, तलक्षणं चेदम्-"दो घयपला महुपलं दहिय-18 |स्सद्धाढय मिरियषीसा । दस खंडगुलपलाई एस रसालू निवइजोगो ॥१॥" 'पान' सुरादि 'पानीयं जलं 'पानक | द्राक्षापानकादि शाक:-क्रसिद्ध इति, 'आवाय'त्ति आपातस्तत्प्रथमतया संसर्गः 'भदए'त्ति मधुरत्वान्मनोहरा 'दुरूव
RECACROSNOREXX
दीप अनुक्रम [३७८]
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RS
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[०५]
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सूत्रांक
[ ३०६ ]
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अनुक्रम [३७८]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः ]
शतक [७], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [१०], मूलं [ ३०६ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्या- ४ तात्ति दूरूपतया हेतुभूतया 'जहा महासवपत्ति षष्ठतस्य तृतीयोदेशको महाश्रवकस्तत्र यथेदं सूत्रं तथेहाप्यध्येप्रज्ञप्तिः यम् 'एवामेव'त्ति विषमिश्रभोजनवत् । 'जीवा णं भंते! पाणाइवाए' इत्यादौ भवतीतिशेषः 'तस्स णं'ति तस्य अभयदेवीप्राणातिपातादेः 'तओ पच्छा विपरिणममाणे 'ति 'ततः पश्चात्' आपातानन्तरं 'विपरिणमत्' परिणामान्तराणि या वृत्तिः १ गच्छत् प्राणातिपातादि कार्ये कारणोपचारात् प्राणातिपातादिहेतुकं कम्र्मेति 'दुरूवत्ताए 'त्ति दूरूपताहेतुतया परिणमति दूरूपतां करोतीत्यर्थः । 'ओसहमिस्सं'ति औषधं महातिककघृतादि 'एवामेव त्ति औषधमिश्रभोजनवत् 'तस्स णं'ति प्राणातिपातविरमणादे: 'आवाए नो भदए भवति'त्ति इन्द्रिय प्रतिकूलत्वात्, 'परिणममाणे'त्ति प्राणातिपातविरमणादिप्रभवं पुण्यकर्म परिणामान्तराणि गच्छत् ॥ अनन्तरं कर्माणि फलतो निरूपितानि, अथ क्रियाविशेषमाश्रित्य | सत्कर्तृपुरुषद्वयद्वारेण कर्मादीनामल्पबहुत्वे निरूपयति
॥३२६ ॥
दो भंते ! पुरिसा सरिसया जाव सरिसभंडमत्तोवगरणा अन्नमन्नेणं सद्धिं अगणिकार्य समारंभंति तत्थ णं एगे पुरिसे अगणिकार्य उज्जालेति एगे पुरिसे अगणिकार्य निद्यावेति, एएसि णं भंते ! दोण्हं पुरिसाणं कयरे २ पुरिसे महाकम्मतराए चेव महाकिरियतराए चैव महासवतराए चैव महावेयणतराए चैव कयरे वा पुरिसे अप्पकम्मतराए चैव जाव अप्पवेषणतराए चेव १, जे से पुरिसे अगणिकार्य उज्जाले जे वा से पुरिसे अगणिकार्य निद्यावेति ?, कालोदाई । तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकार्य उज्जालेह से णं पुरिसे महाकम्मतराए चैव जाव महावेषणतराए चेव, तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकार्य निवावेह से णंपुरिसे अध्यकम्म
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कालोदायी श्रमणस्य कथा
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७ शतके उद्देशः १०
ज्वालक विध्यापक
योः कर्म
सू २०७
॥ ३२६॥
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सूत्रांक
[३०७]
दीप
अनुक्रम [३७९]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र -५ [ मूलं + वृत्तिः ]
शतक [७], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [१०], मूलं [ ३०७]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
तराए चैव जाव अप्पवेयणतराए चेव । से केणद्वेणं भंते! एवं बुच्चइ-तत्थ णं जे से पुरिसे जाव अप्पवेयणतराए चेव ?, कालोदाई ! तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकार्य उज्जालेह से णं पुरिसे बहुतरागं पुढविकार्य समारंभति बहुतरागं आउकार्य समारंभति अप्पतरायं तेऊकार्य समारंभति बहुतरागं वाकार्य समारंभति बहुतरायं वणस्सइकार्य समारंभति बहुतरागं तसकार्य समारंभति, तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं निवावेति सेणं पुरिसे अप्पतरायं पुढविकार्य समारंभइ अप्पतरागं आउकापं समारंभइ बहुतरागं तेडक्कायं समारंभति अप्पतरागं वाउक्कार्य समारंभइ अप्पतरागं वणस्सहकार्य समारंभइ अप्पतरागं तसकार्य समारंभति से तेणट्टेणं कालोदाई ! जाव अप्पवेयणतराए चैव ॥ (सूत्रं ३०७ ) ॥
'दो भंते!' इत्यादि, 'अगणिकार्य समारंभंति'त्ति तेजःकार्य समारभेते उपद्रवयतः, तत्रैक उजवालनेनान्यस्तु विध्यापनेन, तत्रोज्वालने बहुतरतेजसामुत्पादेऽप्यल्पतराणां विनाशोऽप्यस्ति तथैव दर्शनात्, अत उक्त 'तत्थ णं एगे' इत्यादि, 'महाकम्मतराए चैवत्ति अतिशयेन महत्कर्म-ज्ञानावरणादिकं यस्य स तथा चैवशब्दः समुच्चये, एवं 'महाकिरियतराए चेव'त्ति नवरं क्रिया-दाहरूपा 'महासवतराए चैवत्ति बृहत्कर्मबन्धहेतुकः 'महावेयणतराए चेव'ति महती वेदना जीवानां यस्मात्स तथा ॥ अनन्तरमनित्रतन्यतोक्ता, अग्निश्च सचेतनः सन्नवभासते, एवमचित्ता अपि पुलाः किमवभासन्ते । इति प्रश्नयन्नाह
अस्थि णं भंते ! अचित्तावि पोग्गला ओभासंति उज्जोवैति तवेंति पभासेंति ?, हंता अत्थि । कयरे णं
कालोदायी श्रमणस्य कथा
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [३०८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
व्याख्या- प्रशतिः अभयदेवी या वृत्ति ॥२७॥
[३०८]
दीप अनुक्रम [३८०]
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भंते ! अचित्तावि पोग्गला ओभासंति जाव प्रभासेंति ?, कालोदाई । कुद्धस्स अणगारस्स तेयलेस्सा निसहा समाणी दूरं गंता दूरं निपतइ देसं गंता देसं निपतह जहिं जहिं च ण सा निपतइ तहिं ताहिं च का उद्देशान ते अचित्तावि पोग्गला ओभासंति जाव पभासंति, एएणं कालोदाई ! ते अचित्तावि पोग्गला ओभासंति अचित्तपुद्गजाव पभासंति, तए णं से कालोदाई अणमारे समणं भगवं महावीरं वंदति नर्मसति २ बरहि चमत्थछट्ट- लावभासाका हम जाव अप्पाणं भावेमाणे जहा पढमसए कालासवेसियपुत्तेजाव सबनुक्खप्पहीणे । सेवं भंते । सेवं भंते दिसू३०८
त्ति । (सूत्रं ३०८)७-१०॥ सत्तमं सयं समतं ॥७॥ ___ 'अस्थि णमित्यादि, 'अचित्तावि'त्ति सचेतनास्तेजस्कायिकादयस्तावदवभासन्त एवेत्यपिशब्दार्थः, 'ओभासंति'-1 त्ति सप्रकाशा भवन्ति 'उज्जोइंति'त्ति वस्तूयोतयन्ति तवंति'त्ति तापं कुर्वन्ति 'पभासंतित्ति तथाविधवस्तुदाहकत्वेन | प्रभावं लभन्ते 'कुद्धस्स'त्ति विभक्तिपरिणामास्क्रुद्धेन 'दूरं गन्ता दूरं निवयइत्ति दूरगामिनीति दूरे निपततीत्यर्थः, |अथवा दूरे गत्वा दूरे निपततीत्यर्थः, 'देसं गंता देसं निवयई'त्ति अभिप्रेतस्य गन्तव्यस्य क्रमशतादेर्देशे-तदर्भादौ गम-1 नस्वभावेऽपि देशे तदर्भादौ निपततीत्यर्थः, क्त्वाप्रत्ययपक्षोऽप्येवमेव, 'जहिं जहिं च'त्ति यत्र यत्र दूरे वा तद्देशे वा सा ||SA तेजोलेश्या निपतति 'तहि तहिं तत्र तत्र दूरे तद्देशे वा 'ते'त्ति तेजोलेश्यासम्बन्धिनः। सप्तमशते दशमोद्देशकः॥७-१०॥ शिष्टोपदिष्टयष्ट्या पदविन्यासं शनैरहं कुर्वन् । सप्तमशतविवृतिपर्थ लक्षितवान् वृद्धपुरुष इव ॥१॥
॥३२७॥ ॥समाप्तं च सप्तमं शतं वृत्तितः ॥७॥ FAPPOINDurgamPAPTEMPiprarapmirmirsiminimamimanilaununhatanAmasti
तत् समाप्ते सप्तमं शतकं अपि समाप्तं
अत्र सप्तम-शतके दशम-उद्देशक: समाप्त: कालोदायी-श्रमणस्य कथा
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[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति: ]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [१], मूलं [ ३०९ ] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५]
॥ अथ अष्टमशतकम् ॥
पूर्वाभावः प्ररूपिता इहापि त एव प्रकारान्तरेण प्ररूप्यन्त इत्येवं संबद्धमथाष्टमशतं विनियते, तस्य चोदेशसङ्ग्रहार्थ' 'पुग्गले'त्यादिगाथामाह
पोग्गल १ आसीविस २ रुक्ख ३ किरिय ४ आजीव ५ फासुग ६ मदत्ते ७ ।
पडिणीय ८ बंध ९ आराहणा य १० दस अट्ठमंमि सए ॥ १ ॥
रायगिहे जाव एवं वयासी-कइविहा णं भंते! पोग्गला पन्नत्ता १, गोयमा तिविहा पोग्गला पत्ता, तंजहा-पओगपरिणया मीससापरिणया वीससापरिणया । (सूत्रं ३०९ ) ॥
'पोग्गल’त्ति पुद्गलपरिणामार्थः प्रथम उद्देशकः पुद्गल एवोच्यते एवमन्यत्रापि १, 'आसीविस'ति आशीविषादि - विषयो द्वितीयः २ 'रुक्ख'ति सङ्ख्यात जीवादिवृक्षविषयस्तृतीयः ३ 'किरिय'ति कायिक्यादिक्रियाभिधानार्थश्चतुर्थः ४ 'आजीव'त्ति आजीविक वक्तव्यतार्थः पञ्चमः ५ 'फासुग'सि प्रासुकदानादिविषयः षष्ठः ६ 'अदत्ते'त्ति अदत्तादानविचारणार्थः सप्तमः ७ 'पडिणीय'त्ति गुरुप्रत्यनीकाद्यर्थप्ररूपणार्थोऽष्टमः ८ 'बंध'त्ति प्रयोगवन्धाद्यभिधानार्थी नवमः ९ 'आराहण' ति देशाराधनाद्यर्थो दशमः १० ॥ 'पओगपरिणय'ति जीवव्यापारेण शरीरादितया परिणताः 'मीससापरिणयत्ति मिश्रकपरिणताः - प्रयोगविस्रसाभ्यां परिणताः प्रयोगपरिणाममत्यजन्तो विस्रसया स्वभावान्तरमापादिता
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अथ अष्टम- शतके प्रथम उद्देशक: आरभ्यते
"भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
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अथ अष्टम- शतक आरम्भः
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गाथा
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[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [१], मूलं [ ३०९ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १
॥१२८॥
मुक्तकडेवरादिरूपाः, अथवौदारिकादिवर्गणारूपा विस्रसया निष्पादिताः सन्तो ये जीवप्रयोगेणै केन्द्रियादिशरीरप्रभृतिपरिणामान्तरमापादितास्ते मिश्रपरिणताः, ननु प्रयोगपरिणामोऽप्येवंविध एव ततः क एषां विशेषः १, सत्यं, किन्तु प्रयोगपरिणतेषु विस्रसा सत्यपि न विवक्षिता इति । 'वीससापरिणय'त्ति स्वभावपरिणताः ॥ अथ 'पओगपरिणयाणमित्यादिना ग्रन्थेन नवभिर्दण्डकैः प्रयोगपरिणतपुद्गलान् निरूपयति, तत्र च
पगपरिणया णं भंते! पोग्गला कहविहा पत्ता १, गोयमा 1 पंचविहा पत्नत्ता, तंजहा- एर्गिदियपओगपरिणया बेइंदिपपओगपरिणया जाब पंचिंदियपओगपरिणया । एर्गिदियपओगपरिणया णं भंते! पोग्गला कहविहा पन्नत्ता ?, गोयमा ! पंचविहा, तंजहा पुढविकाइयएगिंदियपयोगपरिणया जाव वणस्सइकाइयए| गिंदियपयोगपरिणया । पुढविकाइयए गिंदियपओगपरिणया णं भंते! पोग्गला कहविहा पत्नत्ता १, गोयमा ! दुविहा पक्षता, तंजा-सुमपुढविकाइथए गिंदियपओगपरिणया बादरपुट विकाइयएगिंदियपयोगपरिणया, आउक्का इयएर्गिदियपओगपरिणया एवं चैव, एवं दुपपओ भेदो जाव वणस्सइकाइ या य । बेइंदिपपयोगपरिगया णं पुच्छा, गोयमा ! अणेगविहा पन्नत्ता, तंजहा-, एवं तेइंदियचउरिंदियपओगपरिणयादि । पंचिंदियपयोगपरिणयाणं पुच्छा, गोयमा ! चउविहा पन्नत्ता, तंजा-नेरइयपंचिदियपयोगपरिणया तिरिक्ख०, एवं मणुस्स० देवपंचिंदिय०, नेरइयपंचिंदियपओग० पुच्छा, गोयमा ! सत्तविहा पनत्ता, तंजहा - रयणप्पभापुढविनेरइयपयोगपरिणयावि जाव आहेसत्तमपुढविनरश्य पंचिंदियपयोग परिणयावि, तिरिक्खजोणियपचि
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८ शतके उद्देशः १ प्रयोगादिः परिणामः
सू ३०९
प्रायोगिकः सू ३१०
॥३२८॥
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [३१०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३१०]
-%ANCES
दीप अनुक्रम [३८३]
दियपओगपरिणया णं पुच्छा, गोयमा!तिविहा पन्नत्ता, तंजहा-जलचरपंचिंदियतिरिक्खजोणिय० थलचरति
रिक्खजोणियपंचिंदियः खहचरतिरिक्खपंचिंदिय०, जलयरतिरिक्खजोणियपओगपुच्छा, गोयमा ! दुविहा ४ पन्नत्ता, तंजहा-समुच्छिमजलयर गम्भवतियजलयर, थलयरतिरिक्ख० पुच्छा, गोयमा ! दुविहा प-18
नत्ता, तंजहा-चउप्पयधलयर० परिसप्पधलयर०, चउप्पयथलयर० पुच्छा, गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता, तंजहा
समुच्छिमचउप्पयथलयर गम्भवतियचउप्पयथलयर, एवं एएणं अभिलावेणं परिसप्पा दुविहा पन्नत्ता, सतंजहा-उरपरिसप्पा य भुषपरिसप्पा य, उरपरिसप्पा दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-संमुच्छा य गम्भवतिया | &ीय, एवं भुयपरिसप्पावि, एवं खहयराचि । मणुस्सपंचिंदियपयोगपुच्छा, गोयमा दुविहा पन्नता, तंजहा
समुच्छिममणुस्स० गम्भवकं तियमणुस्सः । देवपंचिंदियपयोगपुच्छा, गोयमा ! चउविहा पन्नत्ता, तंजहाभवणवासिदेवपंचिंदियपयोग एवं जाव घेमाणिया । भवणवासिदेवपंचिंदियपुच्छा, गोयमा ! दसविहा |पन्नत्ता, तंजहा-असुरकुमारा जाव धणियकुमारा, एवं एएणं अभिलावणं अट्ठविहा घाणमंतरा पिसाया | जाव गंधवा, जोइसिया पंचविहा पन्नता, तंजहा-चंदविमाणजोतिसिय जाव ताराविमाणजोतिसियदेव०, वेमाणिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-कप्पोववन्न० कप्पातीतगवेमाणिय, कप्पोवगा दुवालसविहा पण्णत्ता, तंजहा-सोहम्मकप्पोवग जाव अनुयकप्पोबगवेमाणिया । कप्पातीत०, गो! दुविहा पण्णत्ता, तंजहागेवेजकप्पातीतवे० अणुत्तरोववाइयकप्पातीतवे०, गेवेजकप्पातीतगा नवविहा पण्णत्ता, तंजहा-हेहिम २
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आगम
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सूत्रांक
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अनुक्रम [३८३]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [१], मूलं [ ३१०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १
॥३२९||
गेवेज्जगकप्पातीतग० जाव उवरिम २ गेविजगकप्पातीय० । अणुत्तरोववाइयकप्पातीतगवेमाणियदेवपचिंदियपयोगपरिणया णं भंते ! पोग्गला कदविहा पण्णत्ता ?, गोपमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तंजहा-विजयअणु|त्तरोववाइय० जाव परिण० जाव सङ्घट्टसिद्धअणुत्तरोववाइयदेवपंचिंदिय जाव परिणया । सुमपुढचिकाइयएगिंदियपयोगपरिणया णं भंते ! पोग्गला कइ विहा पण्णत्ता ?, गोयमा ! दुबिहा पण्णत्ता, [केई अपतगं पदमं भणति पच्छा पज्जत्तगं, ] पज्जत्तगसुहुमपुढविकाइय जाव परिणया य अपात्तसुहमपुढविकाइय जाव परिणया य, वादरपुढविकाइयएगिंदिय० जाव वणस्सइकाइया, एकेका दुबिहा पोग्गला-सुहमा य यादरा य पचत्तगा अपजतगा य भाणियचा । दियपयोगपरिणया णं पुच्छा, गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता, तंजा| पज्जन्तर्वेदियपयोगपरिणया य अपजन्तग जाव परिणया य, एवं तेइंदियावि एवं चउरिंदियावि । रयणप्पभापुढविनेरइय० पुच्छा, गोयमा ! दुविदा पश्नत्ता, तंजहा-पज्जतगरयणप्पभापुढवि जाव परिणया य अपजतगजावपरिणया प, एवं जाव आहेसन्तमा । संमुच्छिमजलयर तिरिक्खपुच्छा, गोयमा ! दुबिहा पत्ता, तंजा-पजत्तग० अपलत्तग०, एवं गन्भवयंतियाचि, समुच्छिमच उप्पयथलयरा एवं चैव गन्भवतिया य, | एवं जाव संमुच्छिमखहयर गन्भवतिया य एक्केके पजन्तगा य अपजन्तगा य भाणियथा । संमुच्छिममणुस्सपंचिदियपुच्छा, गोयमा ! एगविहा पश्नत्ता, अपज्जन्तगा चेव । गन्भवकंतियमणुस्सपंचिंदियपुच्छा, गोयमा ! दुविहा पन्नता, तंजहा - पञ्चत्तगगग्भवकंतियावि अपज्जन्त्तगगन्भवकंतियाबि । असुरकुमारभवणवासिदे
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८ शतके
उद्देशः १ प्रायोगिक
परिणामः
सू ३१०
॥ ३२९॥
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [३१०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३१०]
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वाणं पुच्छा, गोयमा! दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-पजत्तगअसुरकुमार अपज्जत्तगअसुर०, एवं जाव थणियकुमारा पज्जतगा अपज्जनगा य, एवं एएणं अभिलावेणं दुयएणं भेदेणं पिसाया य जाव गंधवा, चंदा जाय ताराबिमाणा०, सोहम्मकप्पोवगा जाव अचुओ, हिडिमहि टिमगेविजकप्पातीय जाव उपरिमउवरिमगेविज०, विजयअणुत्तरो. जाव अपराजिय० सबद्दसिद्धकप्पातीयपुच्छा, गोयमा! दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-पज्जत्तसब-8 दृसिद्धअणुत्तरो० अपजत्तगसबढ जाव परिणयावि, २ दंडगा । जे अपज्जत्ता मुहुमपुढवीकाइयएगिदियपयोगपरिणया ते ओरालियतेयाकम्मगसरीरप्पयोगपरिणया जे पजत्ता सुहम० जाव परिणया ते ओरालियतेयाकम्मगसरीरप्पयोगपरिणया एवं जाव चउरिदिया पजत्ता, नवरं जे पजत्तबादरवाउकाइयएगिदिय|पयोगपरिणया ते ओरालियबेउवियतेयाकम्मसरीर जाव परिणता, सेसं तं चेव, जे अपजत्तरयणप्पभापुढविनेरझ्यपंचिंदियपयोगपरिणया ते वेउधियतेयाकम्मसरीरप्पयोगपरिणया, एवं पज्जत्तयावि, एवं जाव अहे
सत्तमा । जे अपजत्तगसमुच्छिमजलयरजावपरिणया ते ओरालियतेयाकम्मासरीर जाच परिणया एवं पजदत्तगावि, गन्भवतिया अपज्जत्तया एवं चेव पजत्तयाणं एवं चेय नवरं सरीरगाणि चत्तारि जहा बादरवाज
काइयाणं पजत्तगाणं, एवं जहा जल चरेसु चत्तारि आलाचगा भणिया एवं चउप्पयउरपरिसप्पभुयपरिसप्पखहयरेसुवि चत्तारि आलावगा भाणियचा । जे संमुच्छिममणुस्सपंचिंदियपयोगपरिणया ते ओरालियतेयाकम्मासरीर जाव परिणया, एवं गम्भवतियावि अपज्जत्तगावि पज्जत्तगावि एवं चेव, नवरं सरीरगाणि ||
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [३१०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३१०]
दीप अनुक्रम [३८३]
व्याख्या- पंच भाणियवाणि, जे अपज्जत्ता असुरकुमारभवणवासि जहा नेरइया तहेव एवं पजत्तगावि, एवं दुय- शतके प्रज्ञप्तिः एणं भेदेणं जाव थणियकुमारा एवं पिसाया जाव गंधवा चंदा जाव ताराविमाणा, सोहम्मो कप्पो जाव
उद्देशः१ अभयदेवी- अनओ हेटिम २गेवेजजावउवरिम २ गेवेज विजयअणुसरोवबाइए जाच सबट्टसिद्धअणु० एकेकेणं दुपओ |
प्रायोगिक यावृत्तिः१६ भेदो भाणियबो जाव जे पज्जत्तसबढसिद्धअणुत्तरोववाइया जाव परिणया ते घेउवियतेयाकम्मासरीरपयो
परिणामः
सू३१० ॥३०॥ गपरिणया, दंडगा ३ ॥ जे अपज्जत्ता मुहुमपुढधिकाइयएगिदियपयोगपरिणता ते फासिंदियपयोगपरिणया
जे पज्जत्ता सुहमपुढविकाइया एवं चेव, जे अपज्जत्ता बादरपुढविकाइया एवं चेव, एवं पञ्जत्तगावि,
एवं चउकएणं भेदेणं जाव वणस्सइकाइया, जे अपजत्ता बेईदियपयोगपरिणया ते जिम्भिदियफा-121 दसिंदिपपयोगपरिणया जे पज्जत्ता येइंदिया एवं चेव, एवं जाव चारिदिया नवरं एकेक इंदियं बहेयचं -
जाव अपजत्ता रयणप्पभापुढविनेरइया पंचिंदियपयोगपरिणया ते सोइंदियचखिदियघाणिदियजिन्भि|दियफार्सिदियपयोगपरिणया एवं पजत्तगावि, एवं सबे भाणियचा, तिरिक्खजोणियमणुस्सदेवा जाव जे दीपजत्ता सबट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइय जाव परिणया ते सोइंदियचक्खिदिय जाच परिणया ४॥ जे अपजत्ता
मुटुमपुटविकाइयएगिदियओरालियतेयकम्मासरीरप्पयोगपरिणया ते फासिंदिपयोगपरिणया जे पजत्ता ॥३३०॥ मुहुम० एवं चेव बादर अपज्जत्ता एवं चेव, एवं पञ्जत्तगाचि, एवं एएणं अभिलावेर्ण जस्स जइंदियाणि |सरीराणि य ताणि भाणियवाणि जाव जे य पज्जत्ता सबसिडअणुसरोववाइय जाव देवपचिदियवेउवियतेया
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अनुक्रम [३८३]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [१], मूलं [ ३१०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
कम्मासरीर पयोगपरिणया ते सोइंदियचक्खिदिय जाव फासिंदियपयोगपरिणया ५ ॥ जे अपज्जन्ता सुम| पुढविकाइय एगिंदियपयोगपरिणया ते वन्नओ कालवन्नपरिणयावि नील० लोहिय• हालिद्द• सुकिल्ल• गंधओ | सुभिगंध परिणयावि दुभिगंधपरिणयावि रसओ तित्तरसपरिणयावि कड्डयरसपरिणयावि कसायरसप० अंबिलरसप० मधुररसप० फासओ कक्खडफासपरि० जाव लुक्खफासपरि० संठाणओ परिमंडल संठा|णपरिणयावि बहु० तंस० चउरंस० आयतसंठाणपरिणयावि, जे पत्ता सुमपुढवि० एवं चैव एवं जहाणुपुबीए नेयवं जाव जे पज्जत्ता सङ्घहसिद्ध अणुत्तरोववाइय जाव परिणयावि ते वन्नओ कालवन्नपरिणयावि जाब | आययसंठाणपरिणयावि ६ || जे अपजत्ता सुहुम पुढवि० एगिंदियओरालियतेयाक म्मासरीरप्पयोगपरिणया ते बन्नओ कालवन्नपरि० जाव आययसंठाणपरि० जे पत्ता सुमपुढवि० एवं वेव, एवं जहाणुपुबीए नेयवं जस्स जइ सरीराणि जाच जे पत्ता सबट्टसिद्ध अणुत्तरोववाह यदेवपंचिदिद्यविउद्विद्यते या कम्मा सरीरा जाव परिणया ते बनओ कालवन्नपरिणयावि जाब आयतसंठाणपरिणयादि ७ ॥ जे अपजन्त्ता सुमपुढविकाइय| एगिंदियफा सिंदियपयोगपरिणया ते वन्नओ कालवन्नपरिणया जाव आययसंठाणपरिणयावि जे पत्ता | सुहमपुढवि एवं चैव एवं जहाणुपुबीए जस्स जइ इंदियाणि तस्स तत्तियाणि भाणियवाणि जाव जे पत्ता सबइसिद्ध अणुत्तर जावदेवपंचिंदियसोइंदिय जाव फासिंदियपयोगपरिणयाचि ते वन्नओ कालवन्नपरिणया जाव आयय संठाणपरिणयादि ८ ॥ जे अपजत्ता सुमपुढ विकाइयए गिंदियओरालियते या कम्माफा सिंदिग्रपयो
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [३१०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
योगिकप
प्रत सूत्रांक [३१०]
दीप अनुक्रम [३८३]
व्याख्या- गपरिणया ते वन्नओ कालवनपरिणयावि जाव आयतसंठाणप० जे पजत्ता सुहमपुढवि० एवं चेव, एवं जहा- शतके प्रज्ञप्तिः
णुपुरीए जस्स जइ सरीराणि इंदियाणि य तस्स तहभाणियचा जाव जे पजत्ता सबढसिद्धअणुत्तरोववाइया| उद्देशा१ अभयदेवीजाव देवपंचिंदियवेउवियतेयाकम्मा सोईदिय जाव फासिंदियपयोगपरि० ते वाओ कालवनपरि० जाव।
पुनलेणाया वृत्तिः
आययसंठाणपरिणयावि, एवं एए नव दंडगा ९॥ (सूत्रं ३१०)॥ ॥३॥
रिणाम: ____एकेन्द्रियादिसर्वार्थसिद्धदेवान्तजीवभेदविशेषितप्रयोगपरिणतानां पुद्गलानां प्रथमो दण्डका, तत्र च 'आउकाइयए-1||
सू३१० गिदिय एवं चेव'त्ति पृथिवीकायिकैकेन्द्रियप्रयोगपरिणता इव अपकायिकैकेन्द्रियप्रयोगपरिणता वाच्या इत्यर्थः 'एवं |
दुयओ'त्ति पृथिव्यपकायप्रयोगपरिणतेष्विव द्विको-द्विपरिणामो द्विपादो वा भेदः-सूक्ष्मबादरविशेषणः कृतस्ते(स्तथा ते)जः [४ कायिकैकेन्द्रियप्रयोगपरिणतादिषुवाच्य इत्यर्थः, 'अणेगविह'त्ति पुलाककृमिकादिभेदत्वाद् द्वीन्द्रियाणां, जीन्द्रियप्रयोगप-1X
|रिणता अप्यनेकविधाः कुन्थुपिपीलिकादिभेदत्वात्तेषां, चतुरिन्द्रियप्रयोगपरिणता अण्यनेकविधा एव मक्षिकामशकादिभे|| दत्वात्तेषाम् , एतदेव सूचयन्नाह-एवं तेइंदी'त्यादि । 'सुहमपदविकाइए इत्यादि सर्वार्थसिद्धदेवान्तः पर्याप्तकापर्या-151 |प्तकविशेषणो द्वितीयो दण्डकः, तत्र 'एकेको त्यादि एकैकस्मिन् काये सूक्ष्मवादरभेदाद्विविधाः पुद्गला वाच्याः, ते च प्रत्येक ॥३३॥
पर्याप्तकापर्याप्तकभेदात्पुनर्द्विविधा वाच्या इत्यर्थः॥ जे अपजत्ता सुहमपुढवी त्यादिरीदारिकादिशरीरविशेषणस्तृतीयो मा दण्डकः, तत्र च 'ओरालियतेयाकम्मसरीरपओगपरिणय'त्ति औदारिकरीजसकार्मणशरीराणां यः प्रयोगस्तेन परि-121
णता येते तथा, पृथिव्यादीनां हि एतदेव शरीरत्रयं भवतीतिकृत्वा तत्प्रयोगपरिणता एव ते भवन्ति, बादरपर्योतकवा-16
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [३१०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३१०]
चूनां स्याहारकवर्जशरीरचतुष्टयं भवतीतिकृत्वाऽऽह-नवर 'जे पजसे त्यादि । 'एवं गन्भवतियावि अपजसगति बैंक्रियाहारकशरीराभावादू गर्भव्युत्क्रान्तिका अप्यपर्याप्तका मनुष्यात्रिशरीरा एवेत्यर्थः । 'जे अपवत्ता सुहमपुढवी-12
त्यादिरिन्द्रियविशेषणश्चतुर्थों दण्डकः ४ ॥'जे अपज्जत्ती सुहमपुढवी'त्यादिरौदारिकादिशरीरस्पर्शादीन्द्रियविशेषणः लापञ्चमः ५॥ जे अपजत्ता सहमपुढवी'त्यादि वर्णगन्धरसस्पर्शसंस्थानविशेषणः षष्ठः ॥ एवमौदारिकादिशरीरवर्णादि
मावविशेषणः सप्तमः ७॥ इन्द्रियवर्णादिविशेषणोऽष्टमः ८॥शरीरेन्द्रियवर्णादिविशेषणो नवम इति, अत एवाह-- एते नव दण्डकाः ॥
मीसापरिणया णं भैते ! पोग्गला कतिबिहा पण्णत्ता ?, गोयमा! पंचविहा पणत्ता, तंजहा-एगिदियमीसापरिणया जाव पंचिंदियमीसापरिणया एगिदियमीसांपरिणया णं भंते ! पोग्गला कतिविहा पण्णता?, गोयमा ! एवं जहा पओगपरिणएहिं नव दंडगा भणिया एवं मीसापरिणएहिवि नव दंडगा भाणियबा, तहेव सर्व निरवसेस, नवरं अभिलावो मीसापरिणया भाणियचं, सेसं तं चेच, जाव जे पजत्ता सबट्ठसिद्धअणुत्तर जाव आययसंठाणपरिणयावि ॥ (सूत्रं ३११)॥ वीससापरिणया भंते ! पोग्गला कतिविहा पन्नत्ता ?, गोयमा ! पंचविहा पन्नत्ता, तंजहा-वनपरिणया गंधपरिणया रसपरिणया फासपरिणया संठाणपरिणया, जे | वनपरिणया ते पंचविहा पन्नत्ता, तंजहा-कालबनपरिणया जाव सुकिल्लवनपरिणया, जे गंधपरिणया ते &| दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-सुम्भिगंधपरिणयावि दुन्भिगंधपरिणयावि, एवं जहा पन्नवणापदे तेहेव निरवसैसं
दीप अनुक्रम [३८३]
ॐॐॐॐॐॐॐ
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[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [३११-३१२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
| मिश्रविश्न
प्रत सूत्रांक [३११-३१२]
व्याख्या- जाव जे संठाणओआयतसंठाणपरिणया ते वन्नओकालवन्नपरिणयाविजाव लुक्स्वफासपरिणयावि(सूत्रं३१२ शतके प्रज्ञप्तिः अभयदेवीII मिश्रपरिणतेष्वप्येत एवं नव दण्डका इति ॥ अथ विश्रसापरिणतपुद्गलांश्चिन्तयति-'बीससापरिणया णमित्यादि, जदया।
एवं जहा पन्नवणापए'त्ति तत्रैवमिदं सूत्र-जे रसपरिणया ते पंचविहा पन्नत्ता, तंजहा-तित्तरसपरिणया एवं कडय०
कसाय. अविल• महुररसपरिणया, जे फासपरिणया ते अहविहा प० तं०-कक्खडफासपरिणया एवं मउय. गरुय. ॥३२॥ लहयः सीय० उसिण. निलुक्खफासपरिणया य' इत्यादि । अथैकं पुद्गलद्रव्यमाश्रित्य परिणाम चिन्तयन्नाह- १२पकन
एगे भंते ! दधे किं पयोगपरिणए मीसापरिणए वीससापरिणए? , गोयमा ! पयोगपरिणए वा मीसाप- व्यपरिणारिणए वा वीससापरिणए वा । जह पयोगपरिणए किं मणप्पयोगपरिणए वइप्पयोगपरिणए कायप्पयोगप-8 मासू३१३ |रिणए , गोषमा ! मणप्पयोगपरिणए वा बइप्पयोगपरिणए वा कायप्पओगपरिणए चा, जइ मणप्पओगपरिणए कि सच्चमणप्पओगपरिणए मोसमणप्पयोग सचामोसमणप्पयो० असचामोसमणप्पयो, गोय-2 मा! सचमणप्पयोगपरिणए मोसमणप्पयोग सचामोसमणप्प० असच्चामोसमणप्प०, जइ सचमणप्पओगप किं आरंभसचमणप्पयो अणारंभसच्चमणप्पयोगपरि० सारंभसचमणप्पयोग० असारंभसचमण. समारंभसंचमणप्पयोगपरि० असमारंभसचमणप्पयोगपरिणए ?, गोयमा! आरंभसचमणप्पओगपरिणए वा
जाव असमारंभसचमणप्पयोगपरिणए चा, जइ मोसमणप्पयोगपरिणए कि आरंभमोसमणप्पयोगपरिजाणए वा ? एवं जहा सचेणं तहा मोसेणवि, एवं सचामोसमणप्पओगपरिणएवि, एवं असचामोसमणप्पयो
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[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः ]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [१], मूलं [३१३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
| गणवि । जइ वइप्पयोगपरिणए किं सच्चवइप्पयोगपरिणए मोसवयप्पयोगपरिणए ? एवं जहा मणप्पयोगपरिणए तहा वयप्पयोगपरिणएवि जाव असमारंभवयप्पयोगपरिणए वा । जइ कायप्पयोगपरिणए किं ओरालिय सरीरकायप्पयोगपरिणए ओरालियमीसाखरीरकायप्पयो० वेडविपसरीरकायप्प० बेडबियमीसा| सरीरका यप्पयोगपरिणए आहारगसरीरकायप्पओगपरिणए आहारकमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए कम्मा| सरीरकायप्पओगपरिणए ?, गोयमा ! ओरालिय सरीरकायप्पओगपरिणए वा जाव कम्मासरीरकायप्पओगपरिणए वा, जइ ओरालिय सरीर कायप्पओगपरिणए किं एर्गिदियओरालियस रीरका यप्पओगपरिणए एवं | जाय पंचिंदियओरालिय जाव परि०१, गोयमा ! एर्गिदियओरालियसरीरकायप्पओगपरिणए वा बेंदिय | जाव परिणए वा पंचिंदिय जाव परिणए वा, जइ एगिंदियओरालियसरीरकायप्पओगपरिणए किं पुढविकाइयएगिंदिय जाव परिणए जाव वणस्सहकाइयएगिंदिय ओरालियसरीरकायप्पओगपरिणए वा १, गोयमा पुढ विकाइयएगिंदियपयोग जाव परिणए वा जाव वणस्सइकाइयएगिंदिय जाव परिणए वा, जइ पुढचिका| इयएगिंदियओरालियसरीर जाव परिणए किं सुहमपुढविकाइय जाव परिणए वायरपुढविका इयपगिंदिय जाब परिणए ?, गोयमा ! सुमपुढविकाइयए गिंदिय जाव परिणए बायरपुढविक्काहय जाव परिणए, जह | सुहुमपुढविकाइय जाव परिणए किं पजत्तमुहमपुढवि जाव परिणए अपज्जत्तसुहुमपुढवी जाव परिणए ?, गोयमा ! पत्तमुहुमपुढविकाइय जाव परिणए वा अपज्जत्तसुमपुढविकाइय जाव परिणए वा, एवं बाद
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[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [३१३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
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व्याख्या- रावि, एवं जाव वणस्सइकाइयाणं चक्कओ भेदो, बेइंदियतेइंदियचारिदियाणं दुयओ मेदो पञ्चत्तगा यPट शतके प्रज्ञप्तिः
अपज्जत्तगाय । जइ पंचिंदियओरालियसरीरकायप्पओगपरिणए किं तिरिक्खजोणियपंचिंदियओरालियसरी-18|| सरकायप्पओगपरिणए मणुस्सपंचिंदिय जाव परिणए , गोयमा! तिरिक्खजोणिय जाव परिणए वा मणु- मिश्रविश्र
स्सपंचिंदिय जाव परिणए बा, जइ तिरिक्खजोणिय जाव परिणए किंजलचरतिरिक्खजोणिय जाय परि-15 सापरिणा॥३३॥ णए वा थलचरसहचर०, एवं चउक्कओ भेदो जाव खहचराणं । जइ मणुस्सपचिंदिय जाव परिणए कि संमु- मोसू३११
३१२एकदच्छिममणुस्सपंचिंदिय जाव परिणए गम्भवकंतियमणुस्स जाव परिणए ?, गोयमा ! दोसुवि, जइ गम्भव
व्यपरिणातियमणुस्स जाव परिणए किं पचत्तगब्भवतिय जाय परिणए अपनत्तगन्भवतियमणुस्सपंचिंदियओरा-1
मासू३१३ लियसरीरकायप्पयोगपरिणए ?, गोयमा ! पजत्तगन्भवतिय जाव परिणए वा अपजसगन्भवतिय जाव परिणए १ । जइ ओरालियमीसासरीरकायप्पओगपरिणए किं एगिदियओरालियमीसासरीरकायापओगपरिणए बेईदियजावपरिणए जाव पंचेंदियओरालिय जाव परिणए, गोयमा ! एंगिदियओरालिय एवं जहा ओरालियसरीरकायप्पयोगपरिणएणं आलावगो भणिो तहा ओरालियमीसा सरीरकायप्पओगपरिणएवि आलावगो भाणियबो, नवरं वायरवाउक्काइयगन्भवतियपंचिंदियतिरिक्खजोणियगन्भवतियमणुस्साणं, एएसि गं पज्जत्तापज्जत्तगाणं सेसाणं अपजत्तगाणं २। जई वेउवि
॥३३॥ यसरीरकायप्पयोगपरिणए किं एगिदियवेउवियसरीरकायप्पओगपरिणए जाव पंचिंदियवेउवियसरीर जाव
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शतक [८], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [१], मूलं [ ३१३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
परिणए ?, गोयमा एर्गिदिय जाव परिणए वा पंचिदिये जाव परिणए, जइ ऐगिंदिय जाव परिणए किंवाडकाइएर्गिदिय जाव परिणए अवाकाइयएगिंदिय जाव परिणए ?, गोयमा ! वाक्कायएगिंदिय जाव परिणए नो अवाक्काय जाय परिणए, एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओगाहणसंठाणे वेडद्वियसरीरं भणियं तहा | इहवि भांणियां जाव पंजत्तसङ्घट्टसिद्ध अणुत्तरोववातियकप्पातीय वैमाणियदेवपंचिंदियं वेद्दियसरीरकायप्पओगपरिणए वा अपजत्तसङ्घट्टसिद्ध कायष्पयोगपरिणए वा ३ । जह बेधियमीसासरीर कायप्पयोग परिणए | किं एगिंदियमीसा सरीर कायप्पओगपरिणए वा जाब पंचिंदियमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए ?, एवं जहा वेडधियं तहा मीसगंपि, नवरं देवनेरइयाणं अपात्तगाणं सेसाणं पजसगाणं तहेब जाव नो पज्जत्तसङ्घट्टसि अणुत्तरो जाव पओग० अपज्जन्तसबट्टसिद्ध अणुत्तरोववा तियदेव पंचिंदियवे उचियमीसासरीरकायप्पओगपरिगए ४ । जइ आहारगसरीर कायप्पओगपरिणए किं मणुस्साहारगसरीरकायप्पओगपरिणए अमणुस्साहारगजाव प० १, एवं जहा ओगाहणसंठाणे जाव इडिफ्त्तपमत्ससंजयसम्मद्दिद्विपज्जन्तगसंखेजवासाज्य जाव परि गए नो अणिपित्तपमत्त संजयसम्म द्दिद्विपज्जत्तसंखेज्जवासाज्य जाव प० ५ । जइ आहारगमीसासरीरकायउपयोगप० किं मणुस्साहारगमीसासरीर० ? एवं जहा आहारगं तहेव मीसगंपि निरवसेसं भाणिय ६ । | जइ कम्मासरीरकायप्पओगप० किं एर्गिदियकम्मासरीरकायप्पओगप० जाव पंचिदियकम्मासरीर जाव प० १, गोधमा । एगिंदियकम्मासरीरकायप्पओ० एवं जहा ओगाहणसंठाणे कम्मगस्स भेदो तहेब इहावि
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[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [३१३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३१३]
व्याख्या- जाव पजत्तसबढसिद्धअणुत्तरोववाइय जाव देवपंचिंदियकम्मासरीरकायप्पयोगपरिणए अपज्जत्तसबट्ठसिद्ध- ८ शतके मज्ञप्तिः
अणु० जाव परिणए वा ७॥ जइ मीसापरिणए किं मणमीसापरिणए वयमीसापरिणए कायमीसापरिणए ?, उद्देशा' अभयदेवी
गोयमा ! मणमीसापरिणए वयमीसा कायमीसापरिणए वा, जइ मणमीसापरिणए किं सचमणमीसा- मिविश्नया वृत्तिः || परिणए वा मोसमणमीसापरिणए वा जहा पओगपरिणए तहा मीसापरिणएवि भाणियवं निरवसेसं जावRISE
सापरिणा॥३३४॥ पिज्जत्तसबसिद्धअणुत्तरोववाइय जाव देवपंचिंदियकम्मासरीरगमीसापरिणए वा अपवत्तसवसिद्धअणुज्जाव | SIMPus
कम्मासरीरमीसापरिणए वा । जइ वीससापरिणए किं वनपरिणए गंधपरिणए रसपरिणए फासपरिणए। संठाणपरिणए ?, गोयमा ! वनपरिणए वा गंधपरिणए वा रसपरिणए वा फासपरिणए वा संठाणपरिणए वा, मासू३१३ जह वनपरिणए किं कालवनपरिणए नील जाव सुकिल्लवन्त्रपरिणए?, गोयमा! कालवनपरिणए जाव मुकिल्लव-| अपरिणए, जा गंधपरिणए किं सुभिगंधपरिणए दुन्भिगंधपरिणए ?, गोयमा ! सुन्भिगंधपरिणए दुम्भिर्गघपरिणए, जह रसपरिणए किं तित्तरसपरिणए ?५, पुच्छा, गोयमा ! तित्तरसपरिणए जाव महुररसप|रिणए, जइ फासपरिणए किं कक्खडफासपरिणए जाव लुक्खफासपरिणए , गोयमा ! कक्खडफासपरिणए |जाव लुक्खफासपरिणए, जइ संठाणपरिणए पुच्छा, गोयमा! परिमंडलसंठाणपरिणए वा जाव आयपसं-| ॥२॥ ठाणपरिणए वा ॥ (सूत्रं ३१३)॥ 'एगे'इत्यादि, 'मणपओगपरिणए'त्ति मनस्तया परिणतमित्यर्थः 'वइप्पयोगपरिणएति भाषाद्रव्यं काययोगेन ||
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दीप अनुक्रम [३८६]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [३१३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [३१३]
गृहीत्वा वाग्योगेन निसृज्यमानं वाक्प्रयोगपरिणतमित्युच्यते 'कायप्पओगपरिणए'त्ति औदारिकादिकाययोगेन गृही-IK |तमौदारिकादिवर्गणाद्रव्यमौदारिकादिकायतया परिणतं कायप्रयोगपरिणतमित्युच्यते, 'सचमणे'त्यादि सद्भूतार्थचिन्तननिबन्धनस्य मनसःप्रयोगः सत्यमनःप्रयोग उच्यते, एवमन्येऽपि, नवरं मृषा-असद्भूतोऽर्थः सत्यमृषा-मिश्रो यथा पञ्चसु
दारकेषु जातेषु दश दारका जाता इति, असत्यमृषा-सत्यमृषास्वरूपमतिक्रान्तो यथा देहीत्यादि, 'आरंभसचेत्यादि, || आरम्भो-जीवोपघातस्तद्विषयं सत्यमारम्भसत्यं तद्विषयो यो मनम्प्रयोगस्तेन परिणतं यत्तत्तथा, एवमुत्तरत्रापि नवरमना-IIM बारम्भो-जीवानुपघातः 'सारंभ'त्ति संरम्भो-वधसङ्कल्पः समारम्भस्तु परिताप इति । 'ओरालिए'त्यादि, औदारिकश-16
रीरमेव पुदलस्कन्धरूपत्वेनोपचीयमानत्वादू काय औदारिकशरीरकायस्तस्य यः प्रयोगः औदारिकशरीरस्य वा यः कायमयोगः स तथा. अयं च पर्याप्तकस्यैव वेदितव्यस्तेन यत् परिणतं तत्तथा, 'ओरालिपमिस्सासरीरकापप्पयोगपरिणय'त्ति औदारिकमुत्पत्तिकालेऽसम्पूर्ण सत् मित्रं कार्मणेनेति औदारिकमिदं तदेवीदारिकमिश्रर्क तलक्षणं शरीरमौ-13
दारिकमिश्रकशरीरं तदेव कायस्तस्य यः प्रयोगः औदारिकमिश्नकशरीरस्य वा यः कायप्रयोगः स औदारिकमिश्रकशरीहैरकायप्रयोगस्तेन परिणतं यत्तत्तथा, अयं पुनरौदारिकमिश्रकशरीरकायप्रयोगोऽपर्याप्तकस्यैव वेदितव्यः, यत आह
"जोएण कम्मएणं आहारेई अणंतरं जीवो। तेण परं मीसेणं जाव सरीरस्स निष्फत्ती ॥१॥" [उत्पत्त्यनन्तरं जीवः कार्मणेन योगेनाहारयति ततो यावच्छरीरस्य निष्पत्तिः (शरीरपर्याप्तिः) तावदीदारिकमिश्रेणाहारयति ॥१॥] एवंद्र तावत् कार्मणेनौदारिकशरीरस्य मिश्रता उत्पत्तिमानित्य तस्य प्रधानत्वात् , यदा पुनरौदारिकशरीरी वैक्रियलब्धिसं
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आगम [०५]]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [३१३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३१३]
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व्याख्या
T-II पन्नो मनुष्यः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका पर्याप्तबादरवायुकायिको वा वैक्रियं करोति तदा औदारिककाययोग एंव वर्त-1 शतके प्रज्ञप्तिः मानः प्रदेशान् विक्षिप्य वैक्रियशरीरयोग्यान पुद्गलानुपादाय यावद् वैक्रियशरीरपर्याश्या न पर्याप्र्सि गच्छति ताव कि- उद्देशः१ अभयदेवी- येणौदारिकशरीरस्य मिश्रता, प्रारम्भकत्वेम तस्य प्रधानत्वात्, एवमाहारकेणाप्यौदारिकशरीरस्य मिश्रती वैदितव्येति, मिश्रविश्रया वृत्तिः उषियसरीरकायप्पओगपरिणएत्ति इह क्रियशरीरकायप्रयोगो वैक्रियपर्याप्तकस्येति । 'वेषियमीसोसरीरका- सापरिणा
॥प्पओगपरिणए'त्ति, इह वैक्रियमिश्नकशरीरकायप्रयोगो देवनारकेयूत्पद्यमानस्यापर्याप्तकस्य, मित्रता पेह वैफियशरी-1 मौ सू३११॥३३५॥
१२एकद्ररस्य कार्मणेनेव, लब्धिवैक्रियपरित्यागे त्वौदारिकप्रवेशाज्ञायामौदारिकोपादानाय प्रवृत्ते वैक्रियप्राधान्यादीदारिकेणापि ||
व्यपरिणाक्रियस्य मिश्रतेति । 'आहारगसरीरकायप्पयोगपरिणएति इहाहारकशरीरकायप्रयोग आहारकेशरीरनिपसी सत्या
मासू३१३ 18 तदानीं तस्यैव प्रधानत्वात् । 'आहारगमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए'त्ति इहाहारकमिश्रशरीरकार्यप्रयोग आहा-15 & रकस्यौदारिकेण मित्रतायां, स चाहारकत्यागेनौदारिकग्रहणाभिमुखस्य,एतदुक्तं भवति-यदाऽऽहारकशरीरी भूत्वा कृतकार्यः
पुनरप्यौदारिक गृह्णाति तदाऽऽहारकस्य प्रधानत्वादौदारिकप्रवेश प्रति व्यापारभावान्न परित्यजति यावत्सर्वथैवाहारक शतावदीदारिकेण सह मिश्रतेति, ननु तत्तेन सर्वथाऽमुक्तं पूर्वनिर्वर्तितं तिष्ठत्येव तत्कथं गृह्णाति , सत्यं तिष्ठति तत् तथाMऽप्यौदारिकशरीरोपादानार्थ प्रवृत्त इति गृह्णात्येवेत्यच्यत इति । 'कम्मासरीरकायप्पओगपरिणए'त्ति इह कार्मणश-X॥३५॥ शरीरकायप्रयोगो विग्रहे समुद्घातगतस्य च केवलिनस्तृतीय चतुर्थपञ्चमसमयेषु भवति, उक्तं च-"कार्मणशरीरयोगी चतुर्थके ॐ पञ्चमे तृतीये चे"ति, एवं प्रज्ञापनाटीकानुसारेणीदारिकशरीरकायप्रयोगादीनां व्याख्या, शतकटीकाऽनुसारतः |
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[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [३१३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [३१३]
पुनर्मिश्रकार्यप्रयोगाणामेव-औदारिकमिश्र औदारिक एवापरिपूर्णो मिश्र उच्यते, यथा गुडमिश्र दधि, न गुडतया नापि3 दषितया व्यपदिश्यते तत् ताभ्यामपरिपूर्णत्वात् , एवमौदारिक मिश्र कार्मणेनैव नौदारिकतया नापि कार्मणतया व्यपदेष्टुं शक्यमपरिपूर्णत्वादिति तस्यौदारिकमिश्रव्यपदेशः, एवं वैक्रियाहारकमिश्रावपीति, नवरं 'यापरवाउचाइए'इत्यादि, यथौदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणते सूक्ष्मपृथिवीकायिकादि प्रतीत्यालापकोऽधीतस्तथीदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणते-|| |ऽपि वाच्यो, नवरमयं विशेष:-तत्र सर्वेऽपि सूक्ष्मपृथिवीकायिकादयः पर्याप्तापर्याप्तविशेषणा अधीता इह तु बादरषायु-| | कायिका गर्भजपश्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्याश्च पर्याप्तकापर्याप्तकविशेषणा अध्येतव्याः, शेषास्त्वपर्याप्तकविशेषणा एव, यतो बादरवायुकायिकादीनां पर्याप्तकावस्थायामपि वैक्रियारम्भणत औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगो लभ्यते, शेषाणां पुनरपर्याप्तकावस्थायामेवेति । 'जहा ओगाहणसंठाणे'त्ति प्रज्ञापनायामेकविंशतितमपदे, तत्र चैवमिदं सूत्र-जइ वाउकाइयएगिंदि| यवेउबियसरीरकायप्पयोगपरिणए किं मुहुमवाउकाइयएगिदिय जाव परिणए बादरवाउक्काइयएगिदिय जाव परिणए,गोय मा ! नो सहुम जाव परिणए बायर जाव परिणए'इत्यादीति। एवं जहा ओगाहणसंठाणे'त्ति तत्र चैवमिदं सूत्र-गोयमा! जो अमणुस्साहारगसरीरकायप्पओगपरिणए मणुस्साहारगसरीरकायप्पओगपरिणए'इत्यादि । 'एवं जहा ओगाहणासंठाणे कम्मगरस भेओ'त्ति स चायं भेदः-'वेइंदियकम्मासरीरकायप्पओगपरिणए वा एवं तेइंदियचउरिदिय'इत्यादिरिति ॥ अथ द्रव्यद्वयं चिन्तयन्नाह
दो भंते । दवा किं पयोगपरिणया मीसापरिणया वीससापरिणया ?, गोयमा ! पोगपरिणया वा १
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[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [३१४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३१४]
दीप अनुक्रम [३८७]
व्याख्या- मीसापरिणया वा २ वीससापरिणया था ३ अहवा एगे पओगपरिणए एगे मीसापरिणए ४ अह- शतके प्रज्ञप्तिः वेगे पओगप० एगे वीससापरि०५ अहवा एगे मीसापरिणए एगे बीससापरिणए एवं ६। जइ पओगपरि- श अभयदेवीणया कि मणप्पयोगपरिणया वइप्पयोग कायप्पयोगपरिणया?, गोयमा ! मणप्पयो बइप्पयोगप० काय
द्रव्यद्वययावृत्तिः१
| परिणाम: प्पयोगपरिणया वा अहवेगे मणप्पयोगप० एगे वयप्पयोगप०, अहवेगे मणप्पयोगपरिणए कायप०, अहवेगे |
सू.१४ ॥३६॥ वयप्पयोगप० एगे कायप्पओगपरि०, जइ मणप्पयोगप० किं सचमणप्पयोगप०४१, गोयमा ! सचमणप्पयो-४
गपरिणया वा जाव असचामोसमणप्पयोगप०१ अहवा एगे सचमणप्पयोगपरिणए एगे मोसमणप्पओगपollरिणए १ अहवा एगे सचमणप्पओगप० एगे सच्चामोसमणप्पओगपरिणए २ अहवा एगे सचमणप्पयोगपरिणया एगे असचामोसमणप्पओगपरिणए ३ अहवा एगे मोसमणप्पयोगप० एगे सचामोसमणप्पयोगप०४४ अहवा एगे मोसमणप्पयोगप० एगे असचामोसमणप्पयोगप०५ अहवा एगे सचामोसमणप्पओगप० एगे। असचामोसमणप्पओगप०६ । जइ सचमणप्पओगप किं आरंभसच्चमणप्पयोगपरिणए जाव असमारंभसच्चमणप्पयोगप०१, गोयमा ! आरंभसचमणप्पयोगपरिणया वा जाव असमारंभसचमणप्पयोगपरिणया वा, अहवा एगे आरंभसचमणप्पयोगप० एगे अणारंभसचमणप्पयोगप० एवं एएणं गमएणं दुयसंजोएणं नेयवं, सवे संयोगा जत्थ जत्तिया उद्देति ते भागिपचा जाव सबसिद्धगत्ति । जह मीसाप० किं मणमीसापरि०॥ |एवं मीसापरि०वि० जइ वीससापरिणया कि वनपरिणया गंधप० एवं वीससापरिणयावि जाव अहवा एगे।
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[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [३१४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [३१४]
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चउरंससंठाणपरि० एगे आययसंठाणपरिणए वा । तिन्नि भंते ! दद्या किं पयोगपरिणयामीसाप० बीससाप, 51 द गोपमा । पयोगपरिणया वा मीसापरिणया वा वीससापरिणया वा १ अहवा एगे पयोगपरिणए दो मीसाप
१ अहवेगे पयोगपरिणए दो बीससाप०२ अहवा दो पयोगपरिणया एगे मीससापरिणए ३ अहवा दो पयोगप० एगे वीससाप०४ अहवा एगे मीसापरिणए दो बीससाप०५ अहवा दो मीससापक एगे वीससाप०६ अहवा एगे पयोगप० एगे मीसापरि० एगे वीससाप०७। जइ पयोगप० किं मणप्पयोगपरिणया वइप्पयोगप० कायप्पपोगप०१, गोयमा ! मणप्पयोगपरिणया वा एवं एकगसंयोगो यासंयोगो तियासंयोगो|| भाणियो, जइ मणप्पयोगपरि० किं सचमणप्पयोगपरिणए ४१, गोयमा ! सच्चमणप्पयोगपरिणया वा जाव असचामोसमणप्पयोगपरिणए वा ४, अहवा एगे सच्चमणप्पयोगपरिणए दो मोसमणप्पयोगपरिणया वा, |एवं दुयासंयोगो तियासंयोगो भाणियचो, पत्थवि तहेव जाव अहवा एगे तंससंठाणपरिणए वा एगे चउरं
ससंठाणपरिणए वा एगे आययसंठाणपरिणए चा॥ चत्तारि भंते ! दवा किंपओगपरिणया ३१, गोयमा । पयो-15 ४ गपरिणया वा मीसापरिणया वा बीससापरिणया वा, अहया एगे पओगपरिणए तिन्नि मीसापरिणया
अहवा एगे पओगपरिणए तिनि वीससापरिणया २ अहवा दो पयोगपरिणया दो मीसापरिणया ३ अहवा दो पयोगपरिणया दो वीससापरिणया ४ अहवा तिन्नि पओगपरिणया एगे मीससापरिणया ५ अहवा तिन्नि ॥पओगपरिणया एगे चीससापरिणए ६ अहवा एगे मीससापरिणए तिन्नि वीससापरिणया ७ अहवा दो
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [३१४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३१४]
दीप अनुक्रम [३८७]
व्याख्यानीसापरिणया दोवीससापरिणया ८ अहवा तिन्नि मीसापरिणया एगे वीससापरिणए ९ अहवा एगे पओगपरि-
14 शतके प्रज्ञप्तिः पणए दो चीससापरिणया (एगे मीसापरिणए)१ अहवाएगे पयोगपरिणए दो मीसापरिणया एगे वीससापरिणएला उद्देशः१ अभयदेवी- अहवा दो पयोगपरिणया एगे मीसापरिणए एगे वीससापरिणए ३ जइपयोगपरिणया किंमणप्पयोगपरिणया । एकादिद्रया वृत्तिः१]
३१॥ एवं एएणं कमेणं पंच छ सस जाव दस संखेज्जा असंखेजा अर्णता य दबा भाणियचा (एकगसंजोगेण) |दुयासंजोएणं तियासंजोएणं जाव दससंजोएणं बारससंजोएणं उबजुंजिऊणं जत्थ जत्तिया संजोगा उद्रेतिमाखू ३१४
ते सबे भाणियन्वा, एए पुण जहा नवमसए पवेसणए भणिहामि तहा उबजुञ्जिऊण भाणियथा जाव असं| खेजा अर्णता एवं चेव, नवरं एकं पदं अम्भाहियं, जाव अहवा अर्णता परिमंडलसंठाणपरिणया जाव अर्णता आययसंठाणपरिणया ॥ (सूत्रं ३१४)॥
'दो भंते !'इत्यादि, इह प्रयोगपरिणतादिपदत्रये एकत्वे त्रयो विकल्पाः, द्विकयोगेऽपि त्रय एवेत्येवं षट्, एवं मन:प्रयोगादित्रयेऽपि, सत्यमनःप्रयोगपरिणतादीनि तु चत्वारि पदानि तेष्वेकत्वे चत्वारि द्विकयोगे तु षट् एवं सर्वेऽपि दश,18 आरम्भसत्यमनःप्रयोगपरिणतादीनि च पटू पदानि, तेष्वेकत्वे पडू द्विकयोगे तु पश्चदश सर्वेऽप्येकविंशतिः ६, (एकत्वे १- ॥३३७॥ २-३-४-५-६ ॥ द्वित्वे १५। ३.२९-३५ANK) सूत्रे च 'अहवा एगे आरंभसचमणप्पओगपरिणए'इत्यादिनेह द्विकयोगे प्रथम एव भङ्गको ""दर्शितः, शेषांस्तदन्यपदसम्भवांश्चातिदेशेन पुनदर्शयतोक्तम्-एवं ४ एएणं गमेणं इत्यादि एवमेतेन गमेनारम्भसत्यमनःप्रयोगादिपदप्रदर्शितेन द्विकर्मयोगेन नेतन्यं समस्तं द्र-16
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[३१४]
दीप
अनुक्रम [३८७]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर् - शतक [ - ], उद्देशक [१], मूलं [ ३१४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्यद्वयसूत्रं, द्विकसंयोगस्य चैकत्वविकल्पाभिधानपूर्वकत्वादेकत्वविकल्पैश्चेति दृश्यं, तत्र च यत्रारम्भसत्यमनः प्रयोगादिपदसमूहे यावन्तो द्विकसंयोगा उत्तिष्ठन्ते सर्वे ते तत्र भणितव्याः, तत्र चारम्भसत्यमनः प्रयोगा दर्शिता एव, आरम्भादिपदपङ्कविशेषितेषु पुनरित्थमेव त्रिषु मृषामनः प्रयोगादिषु चतुर्षु च सत्यवाक्प्रयोगादिषु तु प्रत्येकमेकत्वे षड् विकल्पाः द्विकसंयोगे तु | पञ्चदशेत्येवं प्रत्येकमेवमेव सर्वेष्वप्येकविंशतिः, औदारिकशरीर कायप्रयोगादिषु तु सप्तसु पदेष्वेकत्वे सप्त द्विकयोगे त्वेकविंशतिरित्येवमष्टाविंशतिरिति (एकत्वे १-२-३-४-५-६-७ द्विवे २१ १-२२-३,३-४४-५५ ६६-७ | एवमेकेन्द्रियादिपृथि व्यादिपदप्रभृतिभिः पूर्वोक्तक्रमेणौदारिकादिकायप्रयोगपरिणतद्र- १-२२-४१-५४-६५-७ कियद्दूरं यावत् ? इत्याह- 'जाब सङ्घट्टसिद्धग'त्ति, एतच्चैवं - १-४२-५३.६४-७ तरोववाइयकप्पातीतगवेमाणियदेव पंचेंद्रिय कम्मासरीरकायप्पओग १-५२-६३-७
सब सिद्धजाब परिणया अपज्जन्त सबसिद्ध जाव परिणया वा?, गो- १-६२-७ सिद्ध जाव परिणया वा अपजस सबसिद्ध जावपरिणया वा अहवा १-७ / द्ध जाव परिणए एगे अपजत्त सबट्ठसिद्ध जाव परिणए'त्ति, 'एवं बीससापरिणयावित्ति एवमिति प्रयोगपरिणतद्रव्यद्वयवत्प्रत्येक विकल्पैर्द्विक संयोगैश्च विश्रसापरिणते अपि द्रव्ये वर्णगन्धरसस्पर्शसंस्थानेषु पञ्चादिभेदेषु वाच्ये, कियद्दूरं यावत् ? इत्याह- 'जाव अहवेगे' इत्यादि, अयं च पञ्चभेदसंस्थानस्य दशानां द्विकसंयोगानां दशम इति ॥ अथ द्रव्यत्रयं चिन्तयन्नाह - 'तिन्नी' त्यादि, इह प्रयोगपरिणतादिपदत्रये एकत्वे त्रयो विकल्पाः द्विकसंयोगे तु षट्, कथम् ?, आद्यस्यैकत्वे शेषयोः
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व्यद्वयं प्रपञ्चनीयं, 'जाव सबसिद्धअणुपरिणया किं पज्जतयमा । पज्जत सबड़एगे पज्जत सबसि
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [३१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३१४]
दीप अनुक्रम [३८७]
व्याख्या- क्रमेण द्वित्वे द्वौ तथाऽऽयस्य द्वित्वे शेषयोः क्रमेणैकत्वेऽन्यौ द्वौ ४ तथा द्वितीयस्यैकत्वे तृतीयस्य च द्वित्वेऽन्यः ५ तथा द्विती-|
८शतके प्रज्ञप्तिः ।
का यस्य द्वित्वे तृतीयस्य चैकत्वेऽन्यः ६ इत्येवं षट्, त्रिकयोगे त्वेक एवेत्येवं सर्वे दश, एवं मनःप्रयोगादिपदत्रयेऽपि, अत एवाह-| उद्देशः१ अभयदेवी-'एवमेकगसंजोगो'इत्यादि, सत्यमनःप्रयोगादीनि तु चत्वारि पदानीत्यत एकत्वे चत्वारो द्विकसंयोगे तु द्वादश, कथम् || एकादिद्रया वृत्तिः आद्यस्यैकत्वेन शेषाणां त्रयाणां क्रमेणानेकत्वेन त्रयो लब्धाः, पुनरन्ये वय आद्यस्यानेकत्वेन शेषाणां बयाणां क्रमेणकत्वेन ६,
व्यपरिणा॥३३८॥
तथा द्वितीयस्यैकत्वेन शेषयोः क्रमेणानेकत्वेन दौ, पुनर्वितीयस्यानेकत्वेन शेषयोः क्रमेणैवैकत्वेन द्वायेव तृतीयचतुर्थयोरेकत्वा-10 नकेत्वाभ्यामेकः पुनर्विपर्ययेणैक इत्येवं द्वादश त्रिकयोगे तु चत्वार इत्येवं सर्वेऽपि विंशतिरिति । सूत्रे तु कांश्चिदुपदर्य | शेषानतिदेशत माह-एवं दुयासंजोगो'इत्यादि, 'एत्थवि तहेव'त्ति अत्रापि द्रव्यत्रयाधिकारे तथैव वाच्यं सूत्रं यथा द्रव्यद्वयाधिकारे उक्त, तत्र च मनोवाकायप्रभेदतो यः प्रयोगपरिणामो मिश्रतापरिणामो वर्णादिभेदतश्च विश्रसापरि-|| णाम उक्तः स श्हापि वाच्य इति भावः, किमन्तं तत्सूत्र वाच्यम् ? इत्याह-जावेत्यादि, इह च परिमण्डलादीनि पञ्च | पदानि तेषु चैकरवे पश्च विकल्पाः द्विकसंयोगे तु विंशतिः, कथम् ?, आद्यस्यैकस्खे शेषाणां च क्रमेणानेकरचे तथाऽऽध-|| स्यानेकत्वे शेषाणां तु क्रमेणैवैकत्वे एवं द्वितीयस्यैकत्वेऽनेकवे च शेषत्रयस्य चानेकत्वे एकत्वे च षटु तथा तृतीयस्यैकत्वे च द्वयोश्चानेकवे एकरखे च चत्वारः तथा चतुर्थस्यैकत्वेऽनेकत्वे च पञ्चमस्य चानेकवे एकत्वे च द्वावित्येवं सर्वेऽपि ||
K an विंशतिः, त्रिकयोगे तु दश, अत्र च 'अहवा एगे तंससंठाणे इत्यादिना त्रिकयोगाना दशमो दर्शित इति । अथ || द्रव्यचतुष्कमाश्रित्याह'चत्तारि भंते ।इत्यादि, इह प्रयोगपरिणतादिवये एकत्वे प्रयो द्विकसंयोगे तु नव, कथम् |
X
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [३१४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३१४]
आद्यस्यैकत्वे द्वयोश्च क्रमेण त्रित्वे द्वौ, तथाऽऽद्यस्य द्वित्वे द्वयोरपि क्रमेणैव द्वित्वेऽन्यो द्वौ, तथाऽऽद्यस्य त्रित्वे द्वयोश्च क्रमेणैवैकत्वेऽन्यौ द्वौ, तथा द्वितीयस्यैकत्वेऽन्यस्य त्रित्वे तथा द्वयोरपि द्वित्वे तथा द्वितीयस्य त्रित्वेऽन्यस्य चैकत्वे |त्रयोऽन्ये इत्येवं सर्वेऽपि नव त्रययोगे तु वय एव भवन्तीत्येवं सर्वेऽपि पञ्चदश इति । 'जह पओगपरिणया किं मणप्पओगे'त्यादिना चोक्तशेष द्रव्यचतुष्कप्रकरणमुपलक्षितं, तच्च पूर्वोक्तानुसारेण संस्थानसूत्रान्तमुचितभङ्गकोपेतं समस्तमध्येयमिति । अथ पञ्चादिद्रव्यप्रकरणान्यतिदेशतो दर्शयन्नाह-एवं एएण'मित्यादि, एवं चाभिलाप:-'पंच भंते ! दबा किं पओगपरिणया ३१, गोयमा! पओगपरिणया ३ अहवा एगे पओगपरिणए चत्तारि मीसापरिणया' इत्यादि, इह च द्विकसंयोगे विकल्पा द्वादश, कथम् , एक चत्वारि च १ द्वे त्रीणि च २ त्रीणि द्वे च ३ चत्वार्येकं च ४ इत्येवं चत्वारो विकल्पा द्रव्यपञ्चकमाश्रित्यैकत्र द्विकसंयोगे पदत्रयस्य त्रयो द्विकसंयोगास्ते च चतुर्भिर्गुणिता द्वादशेति, त्रिकयोगे तु षट्, कथम् , त्रीण्येकमेकं च १ एकं त्रीण्येकं च २ एकमेकं त्रीणि च द्वे द्वे एकं च ४ द्वे एक द्वे च ५एकं| देवेच ६ इत्येवं षट्, 'जाव दससंजोएण'ति इह यावत्करणाच्चतुष्कादिसंयोगाः सूचिताः, तत्र च द्रव्यपश्चकापेक्षया सत्यमनःप्रयोगादिषु चतुर्यु पदेषु द्वित्रिकचतुष्कसंयोगा भवन्ति, तत्र च द्विकसंयोगाश्चतुर्विंशतिः २४, कथम् , चतुर्णी | पदानां षट् द्विकर्सयोगाः, तत्र चैकैकस्मिन् पूर्वोक्तक्रमेण चत्वारो विकल्पाः पग्णां च चतुर्भिर्गुणने [च] चतुर्विंशतिरिति, त्रिकसंयोगा अपि चतुर्विंशतिः, कथम् !, चतुर्णा पदानां त्रिकसंयोगाश्चत्वारः, एकैकस्मिंश्च पूर्वोतक्रमेण पडू विकल्पाः, चतुणी च पनिर्गुणने चतुर्विंशतिरिति, चतुष्कसंयोगे तु चत्वारः, कथम् ?, आदी द्वे त्रिषु चैकैकं १ तथा द्वितीयस्थाने
दीप अनुक्रम [३८७]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [३१४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३१४]
*
व्याख्या- द्वे शेषेषु चैकैक २ तथा तृतीय स्थाने द्वे शेषेषु चैकैकं ३ तथा चतुर्थे वे शेषेषु चैकैकम् ४ इत्येवं चत्वार इति, एकेन्द्रि- ८ शतके प्रज्ञप्तिः
| यादिषु तु पञ्चसु पदेषु द्विकचतुष्कपश्चकसंयोगा भवन्ति, तत्र च द्विकसंयोगाश्चत्वारिंशत् , कथम् , पञ्चानां पदानां | उद्देशः१ अभयदेवी या दृत्तिः१
दश द्विकसंयोगा एकैकस्मिंश्च द्विकसंयोगे पूर्वोक्तक्रमेण चत्वारो विकल्पा दशानां च चतुर्भिर्गुणने चत्वारिंशदिति, एकादिद|त्रिकसंयोगे तु षष्टिः, कथम् ?, पञ्चानां पदानां दश त्रिकसंयोगाः एकैकस्मिंश्च त्रिकसंयोगे पूर्वोक्तक्रमेण षड् विकल्पाः ||
व्यपरिणा॥३३९॥
मासू३१४ दशानां च पडूभिर्गुणने पष्टिरिति, चतुष्कसंयोगास्तु विंशतिः, कथम् ?, पञ्चानां पदानां तु चतुष्कसंयोगे पश्च विकल्पा एकैकस्मिंश्च पूर्वोक्तक्रमेण चत्वारो भङ्गाः पञ्चानां चतुर्भिर्गुणने विंशतिरिति, पञ्चकसंयोगे स्वेक एवेति, एवं षवादिसंयोगा अपि वाच्याः, नवरं पटूसंयोग आरम्भसत्यमनःप्रयोगादिपदान्याश्रित्य सप्तकसंयोगस्त्वौदारिकादिकायप्रयो| गमाश्रित्य अष्टकसंयोगस्तु व्यन्तरभेदान् नवकसंयोगस्तु अवेयकभेदान् दशकसंयोगस्तु भवनपतिभेदानाश्रित्य |
वैक्रिय शरीरकायप्रयोगापेक्षया समवसेयः, एकादशसंयोगस्तु सूत्रे नोक्तः, पूर्वोक्तपदेषु तस्यासम्भवात, द्वादशसंयोगस्तु ४ कल्पोपपन्नदेवभेदानाश्रित्य वैक्रियशरीरकायप्रयोगापेक्षया वेति । 'पवेसण'त्ति नवमशतकसत्कर्तृतीयोद्देशके गाङ्गेयाभिधानानगारकृतनरकादिगतप्रवेशनविचारे, कियन्ति तदनुसारेण द्रव्याणि वाच्यानि ! इत्याह-'जाच असंखेजेति3/
१ यद्यपि नवमे शतके द्वात्रिंशत्तमोदेशके वक्तव्यतैषा तथाऽपि उत्पातोद्वर्तनाख्याधिकारद्वयानन्तरं प्रवेशनकस्य तृतीयस्य भावात् | Pil द्वात्रिंशचमोदेशकस्य तृतीये उद्देशे-विभागापरनामके इदं ज्ञेयम्,
दीप अनुक्रम [३८७]
॥३३॥
For P
OW
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [३१४,३१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३१४,
असलयाताम्तनारकादिवक्तव्यताश्रयं हि तत्सूत्रम्, इह तु यो विशेषस्तमाह-'अणंता इत्यादि, एतदेवाभिलापतो दर्शय-IKI शाह-'जाव अणं'इत्यादि । अथैतेषामेवाल्पबहुस्वं चिन्तयन्नाह
एएसिणं भंते ! पोग्गलाणं पयोगपरिणयाणं मीसापरिणयाणं बीससापरिणयाण य कयरे २ हितो जाव विसेसाहिया वा?, गोयमा ! सबत्थोवा पोग्गला पयोगपरिणया मीसापरिणया अर्णतगुणा वीससा-II का परिणया अणन्तगुणा । सेवं मंते ! सेवं भंते ! त्ति॥(सूत्रं ३१५)। अहमसयस्स पदमो उद्देसो समत्तो॥८-१॥
'एएसि ण'मित्यादि, 'सवत्थोवा पुग्गला पओगपरिणय'त्ति कायादिरूपतया, जीवपुद्गलसम्बन्धकालस्य स्तोकत्वात् , 'मीसापरिणया अणंतगुण'त्ति कायादिप्रयोगपरिणतेभ्यः सकाशान्मिश्रकपरिणता अनन्तगुणाः, यतः प्रयोगकृतमाकारमपरित्यजन्तो विश्रसया ये परिणामान्तरमुपागता मुक्तकडेवराद्यवयवरूपास्तेऽनन्तानन्ताः, विश्रसापरिणट्रा तास्तु तेभ्योऽप्यनन्तगुणाः, परमाण्वादीनां जीवाग्रहणप्रायोग्याणामप्यनन्तत्वादिति ॥ अष्टमशते प्रथमः ॥८-१॥
३१५]
दीप अनुक्रम
EGESSAX5
[३८७, ३८८]
प्रथमे पुद्गलपरिणाम उक्को, द्वितीये तु स एवाशीविषद्वारेणोच्यते इत्येवंसम्बन्धस्यास्यादिसूत्रम्---
कतिविहाणं भंते ! आसीविसा पन्नत्ता ?, गोयमा! दुविहा आसीविसा पन्नत्ता, तंजहा-जातिआसीविसा य कम्मआसीविसा य, जाइआसीविसा णं भंते ! कतिविहा पन्नत्ता ?, गोयमा ! चविहा पन्नत्ता, तंजहा-विच्छयजातिआसीविसे मंटुकजाइआसीविसे उरगजातिआसीविसे मणुस्सजातिआसीविसे,
अत्र अष्टम-शतके प्रथम-उद्देशक: समाप्त: अथ अष्टम-शतके द्वितीय-उद्देशकः आरभ्यते आशीविषस्य अधिकार:
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[३१६]
दीप
अनुक्रम [३८९]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति: ]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [२], मूलं [३१६]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १
॥३४०॥
| विच्छुयजाति आसीविसस्स णं भंते! केवतिए विसए पन्नत्ते ?, गोयमा ! पभू णं विच्छुयजातिभसीविसे अद्धभहप्पमाणमेत्तं बौद्धिं विसेणं विसपरिगयं विसट्टमाणं पकरेत्तए, विसए से विसट्टयाए नो चैव णं संपसीए करेंसु वा करेंति वा करिस्संति वा १, मंदुकजाति आसीविसपुच्छा, गोयमा ! पभ्रूणं मंडुक्कजाति आसी विसे भरहष्यमाणमेत्तं बोंदिं विसेणं विसपरिगयं सेसं तं चैव जाव करेस्संति वा २, एवं उरगजाति आसीविस|स्सवि नवरं जंबुद्दीवप्पमाणमेत्तं बोदिं विसेणं विसपरिगयं सेसं तं चैव जाव करेस्संति वा ३, मणुस्सजाति - आसीविसस्सवि एवं चैव नवरं समयखेत्तप्यमाणमेत्तं वौदिं विसेण विसपरिगयं सेसं तं चैव जाव करेस्संति वा ४ । जइ कम्मआसीविसे किं नेरइयकम्मआ सीविसे तिरिक्खजोणियकम्मआसीविसे मणुस्सकम्मआसीविसे देवकम्मासीविसे ?, गोयमा ! नो नेरइयकम्मासीविसे तिरिक्खजोणियकम्मासीविसेवि मणुस्तकम्मा० देवकम्मासी०, जह तिरिक्खजोणियकम्मासीविसे किं एगिंदियतिरिक्ख जोणियकम्मासीबिसे जाव पंथिंदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे १, गोयमा ! नो एर्गिदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे जाव नो चरिंदियतिरिकख जोणियकम्मा सी विसे पंचिदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे, जड़ पंचिंदियतिरिक्ख जोणियजावकम्मासीविसे किं संमुच्छिम पंचेंद्रियतिरिक्खजोणियजावकम्मासीविसे गन्भवतियपंचिंदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे ?, एवं जहा वेडवियसरीरस्स भेदो जाव पत्तासंखेज्जवासाज्यगन्भवयंतियपंचिदिद्यतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे नो अपज्जन्त्तासंखेज्जवासाज्य जावकम्मासीविसे । जइ मणुस्तकम्मासीविसे किं
आशीविषस्य अधिकार:
For Penal Use Only
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८ शतके
उद्देशान आशीविषाधिकारः
सू ३१६
॥३४०॥
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३१६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३१६]
DABAR
समुच्छिममणुस्सकम्मासीविसे गन्भवतियमणुस्सकम्मासीविसे?, गोयमा ! णो समुच्छिममणुस्सकम्मा-16 सीविसे गन्भवतियमणुस्सकम्मासीविसे एवं जहा वेउवियसरीरं जाव पज्जत्तासंखेजवासाउयकम्मभूमग-113 गन्भवतियमणूसकम्मासीविसे नो अपज्जत्ता जाव कम्मासीविसे । जइ देवकम्मासीविसे किं भवणवासी-|| देवकम्मासीविसे जाव वेमाणियदेवकम्मासीबिसे, गोयमा! भवणवासीदेवकम्मासीविसे वाणमंतर जोति|| सिय० चेमाणियदेवकम्मासीबिसे, जइ भवणवासिदेवकम्मासीविसे से किं असुरकुमारभवणवासिदेवकम्मासीविसे जाव थणियकुमार जाव कम्मासीविसे, गोयमा! असुरकुमारभवणवासिदेवकम्मासीविसेवि जाच थणियकुमारआसीविसेवि, जइअसुरकुमार जाच कम्मासीविसे किं पजत असुरकुमार जाव कम्मासीविसे अपज्जस असुरकुमारभवणवासिकम्मासीविसे? गोयमा! नो पज्जत्त असुरकुमार जाव कम्मासीबिसे अपजत्तअसुरकुमारभवणवासिकम्मासीविसे एवं थणियकुमाराणं, जइ वाणमंतरदेवकम्मासीविसे किं पिसायवाणमंतर० एवं सबेसिपि अपजत्तगाणं, जोइसियाणं सधेसि अपज्जत्तगाणं, जब वेमाणियदेवकम्मासीविसे किं कप्पोवगवेमाणियदेवकम्मासीविसे कप्पातीयवेमाणियदेवकम्मासीविसे ?, गोयमा ! कप्पो| वगवेमाणियदेवकम्मासीविसे नो कप्पातीयवमाणियदवे जाव कम्मासीविसे, जह कप्पोवगवेमा-181 |णियदेवकम्मासीषिसे किं सोहम्मकप्पोव. जाव कम्मासीविसे अचुपकप्पो वा जाव कम्मासीविसे ?, गोयमा! सोहम्मकप्पोवगवेमाणियदेवकम्मासीविसेवि जाव सहस्सारकप्पोवगवेमाणियदेवक-12
दीप अनुक्रम [३८९]
आशीविषस्य अधिकार:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३१६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रज्ञप्तिः
प्रत
सूत्रांक
[३१६]
व्याख्या
||म्मासीविसे, नो आणयकप्पोचग जाव नो अञ्चुयकप्पोचगवेमाणियदेव०, जह सोहम्मकप्पोवग जाव कम्मासी-II शतके
विसे किं पजत्तसोहम्मकप्पोवगवेमाणिय. अपज्जत्तगसोहम्मग०, गोयमा! नो पजत्त सोहम्मकप्पोचगवे- उद्देशः२ अभयदेवी-||||माणिय अपज्जत सोहम्मकप्पोवगवेमाणियदेवकम्मासीविसे, एवं जाव नो पजत्तासहस्सारकप्पोवगबेमा- भाशीविषाया वृत्तिमाणिय जाव कम्मासीविसे, अपज्जत्त सहस्सारकप्पोवगजावकम्मासीविसे ॥ (सर्व ३१६)॥
Pधिकारः ॥४१॥४ 'कइविहे त्यादि, 'आसीविसत्ति 'आशीविषाः' दंष्ट्राविषाः 'जाइआसीविसत्ति जात्या-जन्मनाऽऽशीविषा 81
सू३१६ जात्याशीविषाः 'कम्मआसीविसत्ति कर्मणा-क्रियया शापादिनोपघातकरणेनाशीविषाः कर्माशीविषाः, तत्र पञ्चेन्द्रियतियञ्चो मनुष्याश्च कर्माशीविषाः पर्याप्तका एव, एते हि तपश्चरणानुष्ठानतोऽन्यतो वा गुणतः खल्वाशीविषा भवन्ति, शापप्रदानेनैव व्यापादयन्तीत्यर्थः, एते चाशीविषलब्धिस्वभावात् सहस्रारान्तदेवेष्वेवोत्पद्यन्ते, देवास्त्वेत एव ये देवत्वे-3 नोत्पन्नास्तेऽपर्याप्तकावस्थायामनुभूतभावतया काशीविषा इति, उक्तश्च शब्दार्थभेदसम्भवादि भाष्यकारेण-"आसी | | दाढा तग्गयमहाविसाऽऽसीविसा दुविहभेया। ते कम्मजाइभेएण गहा चउविहविगया॥१॥" 'केवइए'त्ति कियान् | 'विसए'त्ति गोचरो विषयस्येति गम्यम् 'अद्धभरहप्पमाणमेत्तंति अर्द्धभरतस्य यत् प्रमाण-सातिरेकत्रिषष्यधिकयोजनशतद्वयलक्षणं तदेव मात्रा-प्रमाणं यस्याः सा तथा तां 'बोंदिति तनुं 'विसेणं ति विषेण स्वकीयाशीप्रभवेण कर
॥३४॥ |णभूतेन 'विसपरिगर्य'ति विर्ष भावप्रधानत्वानिर्देशस्य विषतां परिगता-प्राप्ता विषपरिगताऽतस्ताम् , अत एव 'विस
१-आश्यो-दंष्ट्रास्तद्गतविषा आशीविषास्ते कर्मजातिभेदेन द्विविधाः कर्माशीविषा अनेकविधा जात्याशीविषाश्चतुर्विधविकल्पाः ॥१॥
दीप अनुक्रम [३८९]
| आशीविषस्य अधिकार:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३१६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३१६]
हमाणिति विकसन्ती-विदलन्ती 'करेत्तए'त्ति कर्तुं 'विसए सेति गोचरोऽसौ, अथवा 'से'तस्य वृश्चिकस्य 'वि-181 सट्टयाए'त्ति विषमेवार्थो विषार्थस्तद्धावस्तत्ता तस्या विषार्थतायाः-विषत्वस्य तस्यां वा 'नो घेव' नैवेत्यर्थः 'संपत्तीए'त्ति | संपत्त्या एवंविधयोन्दिसंप्राप्तिद्वारेण 'करिसुति अकार्रवृश्चिका इति गम्यते, इह चैकवचनप्रक्रमेऽपि बहुवचन निर्देशो | वृश्चिकाशीविषाणां बहुत्वज्ञापनार्थम्, एवं कुर्वन्ति करिष्यन्तीत्यपि, त्रिकालनिर्देशश्चामीषां त्रैकालिकत्वज्ञापनार्थः, 'सम-RI | यक्वेत्त'त्ति 'समयक्षेत्र' मनुष्यक्षेत्रम् ‘एवं जहावेउवियसरीरस्स भेउ'त्ति यथा वैक्रिय भणता जीवभेदो भणितस्तथे| हापि वाच्योऽसावित्यर्थः, स चायं-'गोयमा ! नो समुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे गन्भवतियपंचिंदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे, जइ गब्भवकंतियपंचिंदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे किं संखेजवासाउयगन्भवतियपंचिंदियतिरिक्खजोणियकम्मासीबिसे असंखेजबासाउय जाव कम्मासीविसे ?, गोयमा ! संखेजवासाउय जाव कम्मासी| विसे नो असंखेज्जवासाउय जाव कम्मासीविसे, जइ संखेज जाव कम्मासीविसे किंपज्जत्तसंखेज जाव कम्मासीबिसे अपज्ज
ससंखेज जाव कम्मासीविसे ?, गोयमा ! शेषं लिखितमेवास्ति । एतच्चोक्तं वस्तु अज्ञानो न जानाति, ज्ञान्यपि कश्चिद्दश ★ वस्तूनि कथञ्चिन्न जानातीति दर्शयन्नाह
दस ठाणाई छमत्थे सबभावेणं न जाणइ न पासइ, संजहा-धम्मत्थिकायं १ अधम्मत्थिकार्य २ आगा-| सत्थिकार्य जीवं असरीरपडिवद्धं ४ परमाणुपोग्गलं ५ सई ६ गंधं ७ वातं ८ अयं जिणे भविस्सइ वा ण वा | भविस्सह ९ अयं सबदुक्खाणं अंतं करेस्सति वा न वा करेस्सइ १०॥ एयाणि चेव उष्पन्ननाणदंसणधरे
दीप अनुक्रम [३८९]
| आशीविषस्य अधिकार:
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[३१७]
दीप
अनुक्रम [३९०]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति: ]
शतक [८], वर्ग [-] अंतर् शतक [-] उद्देशक [२], मूलं [३१७]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्याप्रज्ञष्ठिः अभयदेवी- 8 यावृत्तिः १
॥ ३४२ ॥
अरहा जिणे केवली सहभावेणं जाणइ पासह, तंजहा-धम्मत्थिकार्य जाव करेस्संति वानवा करेस्संति (सूत्रं ३१७ ) ॥
ज्ञानस्य भेद-प्रभेदाः
'दसे त्यादि, 'स्थानानि' वस्तूनि गुणपर्यायाश्रितत्वात् छद्मस्थ इहावध्याद्यतिशय विकलो गृह्यते, अन्यथाऽमूर्त्तखेन धर्मास्तिकायादीनजानन्नपि परमाण्वादि जानात्येवासी, मूर्त्तत्वात्तस्य, समस्त मूर्त्तविषयत्वाच्चावधिविशेषस्य । अथ सर्व - भावेनेत्युक्तं ततश्च तत् कथञ्चिज्जानन्नप्यनन्तपर्यायतया न जानातीति, सत्यं, केवलमेवं दशेति सङ्ख्या नियमो व्यर्थः स्यात्, घटादीनां सुबहूनामर्थानाम केवलिना सर्वपर्यायतया ज्ञातुमशक्यत्वात् सर्वभावेन च साक्षात्कारेण चक्षुःप्रत्यक्षेणेति हृदयं श्रुतज्ञानादिना त्वसाक्षात्कारेण जानात्यपि 'जीवं असरीरपडिबद्ध ति देहविमुक्तं सिद्धमित्यर्थः, 'परमाणुपुग्गलं'ति परमाणुश्चासौ पुद्गलश्चेति, उपलक्षणमेतत्तेन द्वाणुकादिकमपि कश्चिन्न जानातीति, अयमिति प्रत्यक्षः कोऽपि प्राणी जिनो वीतरागो भविष्यति न वा भविष्यतीति नवमम् ९ 'अय' मित्यादि च दशमम् ॥ उक्तव्यतिरेकमाह'एयाणी'त्यादि, 'सङ्घभावेणं जाणइ 'त्ति सर्वभावेन साक्षात्कारेण जानाति केवलज्ञानेनेति हृदयम् ॥ जानातीत्युक्तमतो ज्ञानसूत्रम्
कतिचिणं भंते! नाणे पनते ?, गोयमा ! पंचविहे नाणे पनते, तंजहा - आभिणिवोहियनाणे सुयनाणे ओहिनाणे मणपजवनाणे केवलनाणे, से किं तं आभिणिवोहियनाणे ?, आभिणिवोहियनाणे चउबिहे पन्नते, तंजहा उग्गहो ईहा अवाओ धारणा, एवं जहा रायप्पसेणइए णाणाणं भेदो तहेव इहवि
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८ शतके
उद्देशः २ दशस्थानज्ञानाज्ञोने सू ३१७
॥३४२॥
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३१८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३१८]
364564564560
भाणियबो जाव से केवलनाणे ॥ अनाणे णं भंते ! कतिविहे पण्णते?, गोयमा! तिविहे पण्णते, जहा-81 मइअन्नाणे सुयअन्नाणे विभंगनाणे । से किं तं मइभन्नाणे १, २" चउबिहे पण्णत्ते, तंजहा-उग्गहो जाव
धारणा । से किं तं उग्गहे १, २ दुविहे पपणत्ते, तंजहा-अत्थोग्गहे य वंजणोग्गहे य, एवं जहेव आभिणिमा बोहियनाणं तहेव, नवरं एगट्ठियवजं जाव नोइंदियधारणा, सेतं धारणा, सेतं मइअन्नाणे । से किं तं सुय
अन्नाणे ?, २ ज इमं अन्नाणिएहि मिच्छद्दिटिएहिं जहा नंदीए जाव चत्तारि वेदा संगोवंगा, सेत्तं सुयअ-II नाणे । से किं तं विभंगनाणे, २ अणेगविहे पण्णत्ते, तंजहा-गामसंठिए नगरसंठिए जाव संनिवेससं-| लिए दीवसंठिए समुहसंठिए वाससंठिए वासहरसंठिए पब्वयसंठिए रुखसंठिए शुभसंठिए हयसंठिए गय-3 संठिए नरसंठिए किंनरसंठिए किंपुरिससंठिए महोरगगंधवसंठिए उसमसंठिए पसुपसयविहगवानरणाणासंठाणसंठिए पण्णसे ॥जीवा णं भंते । किं नाणी अन्नाणी, गोयमा ! जीवा नाणीवि अन्नाणीवि, जे नाणी ते अत्धेगतिया दुनाणी अत्थेगतिया तिन्नाणी अत्धेगतिया चउनाणी अत्धेगतिया एगनाणी जे दु
नाणी ते आभिणियोहियनाणी य सुचनाणी य जे तिनाणी ते आभिणियोहियनाणी सुयनाणी ओहिनाणी है अहवा आभिणियोहियनाणी सुपनाणी मणपजवनाणी जे चउनाणी ते आभिणियोहियनाणी सुयनाणी *
ओहिनाणी मणपज्जवनाणी जे एगनाणी ते नियमा केवलनाणी, जे अन्नाणी ते अत्धेगतिया दुअन्नाणी अस्थे-13 गतिया तिअनाणी जे दुअनाणी ते महअन्नाणी य सुयअन्नाणी य जे तियअन्नाणी ते महअन्नाणी सुयअन्नाणी द
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[३१८]
दीप
अनुक्रम [३९१]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [२], मूलं [३१८]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १ ॥१४३॥
उद्देशः २
| विभंगनाणी । नेरइया णं भंते! किं नाणी अन्नाणी ?, गोयमा ! नाणीचि अन्नाणीवि, जे नाणी ते नियमा ४८ शतके तिन्नाणी, तंजहा-आभिणिवोहि० सुपना० ओहिना० जे अन्नाणी ते अत्थेगतिया अन्नाणी अत्थेगतिया तिअन्नाणी, एवं तिन्नि अन्नाणाणि भयणाए । असुरकुमारा णं भंते ! किं नाणी अन्नाणी ?, जहेव नेरइया तहेव तिनि नाणाणि नियमा, तिन्नि अन्नाणाणि भगणाए, एवं जाव धणियकु० । पुढविकाइया णं भंते ! किं नाणी अन्नाणी !, गोयमा नो नाणी अन्नाणी, जे अन्नाणी ते नियमा दुअन्नाणी- महअन्नाणी य सुयअन्ना०, एवं जाव वणस्सइका० । वेइंदियाणं पुच्छा, गोयमा ! णाणीव अन्नाणीवि, जे नाणी ते नियमा दुन्नाणी, तंजहा- आभिणिबोहियनाणी व सुयनाणी य, जे अन्नाणी ते नियमा दुअन्नाणी आभिणियोहियअन्नाणी सुयअन्नाणी, एवं तेइंदियचउरिंदियावि, पंचिंदियतिरिक्खजो० पुच्छा, गोयमा ! नाणीव अन्नाणीवि, जे नाणी ते अत्थे० दुन्नाणी अत्थे० तिन्ना० एवं तिनि नाणाणि तिन्नि अन्नाणाणि य भगणाए । मणुस्सा जहा जीवा तहेव पंच नाणाणि तिन्नि अन्नाणाणि भयणाए । वाणमंत० जहा ने० जोइसियवेमाणियाणं | तिन्नि नाणा तिन्नि अन्नाणा नियमा । सिद्धा णं भंते! पुच्छा, गोषमा! णाणी नो अन्नाणी, नियमा एगनाणी केवलनाणी (सूत्रं ३१८ ) ।
ज्ञानस्य भेद-प्रभेदाः
तत्र च 'आभिणिमोहियनाणे' त्ति अर्थाभिमुखोऽविपर्ययरूपत्वात् नियतोऽसंशयरूपत्वाद्बोधः- संवेदनमभिनिबोधः स एव स्वार्थिकेकप्रत्ययोपादानादाभिनिबोधिकं ज्ञातिशयते वाऽनेनेति ज्ञानम्, आभिनिबोधिकं च तज्ज्ञानं चेति
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ज्ञानाज्ञानाधिकारः सू० ३१८
॥३४३ ॥
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३१८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३१८]
31%
आभिनियोधिकज्ञानम्-इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तो बोध इति । 'सुयनाणे'त्ति श्रूयते तदिति श्रुतं-शब्दः स एव ज्ञानं |भावश्रुतकारणत्वात् कारणे कार्योपचारात् श्रुतज्ञानं, श्रुताद्वा-शब्दात् ज्ञानं श्रुतज्ञानम्-इन्द्रियमनोनिमित्तः श्रुतग्रन्थानुसारी बोध इति । 'ओहिणाणे'त्ति अवधीयते-अधोऽधो विस्तृतं वस्तु परिच्छिद्यतेऽनेनेत्यवधिः स एव ज्ञानम् अवधिना वा-मर्यादया मुर्तद्रव्याण्येव जानाति नेतराणीति व्यवस्थया शानमवधिज्ञानं 'मणपजवणाणे'त्ति मनसो-.. मन्यमानमनोद्रव्याणां पर्यवः-परिच्छेदो मनापर्ययः स एव ज्ञानं मनःपर्यवज्ञानं मनःपर्यायाणां वा-तदवस्थाविशेषाणां ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानम् । 'केवलणाणे'त्ति केवलमेकं मत्यादिज्ञाननिरपेक्षत्वात् शुद्ध वा आवरणमलकलङ्करहितत्वात् सकलं वा-तत्प्रथमतयैवाशेषतदावरणाभावतः सम्पूर्णोत्पत्तेः असाधारणं वाऽनन्यसहशत्वात् अनन्तं वा ज्ञेयानन्तत्वात यथाऽवस्थिताशेषभूतभवद्राविभावस्वभावावभासीति भावना तच तत् ज्ञानं चेति केवलज्ञानम् । 'उग्गहो'त्ति सामान्यार्थस्य-अशेषविशेषनिरपेक्षस्यानिर्देश्यस्य रूपादेः अव इति-प्रथमतो ग्रहण-परिच्छेदनमवग्रहः 'ईहत्ति सदर्थविशेषा| लोचनमीहा 'अवाओ'त्ति प्रक्रान्तार्थविनिश्चयोऽवायः 'धारणेति अवगतार्थविशेषधरणं धारणा एवं जहे'त्यादि, एवम्' उक्तक्रमेण यथा राजप्रश्नकृते द्वितीयोपाने ज्ञानानां भेदो भणितस्तथैवेहापि भणितव्यः, स चैवम्-'से किंतं उम्गहे , जग्गहे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-अत्थोग्गहे य वंजगोग्गहे य'इत्यादिरिति, यच्च वाचनान्तरे श्रुतज्ञानाधि
कारे यथा नन्यामङ्गप्ररूपणेत्यभिधाय 'जाव भवियअभविया तत्तो सिद्धा असिद्धा येत्युक्तं तस्यायमर्थ:-श्रुत& ज्ञानसूत्रावसाने किल नन्द्यां श्रुतविषयं दर्शयतेदमभिहितम्-'इचेयमि दुवालसंगे गणिपिडए अर्णता भावा अणंता
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ज्ञानस्य भेद-प्रभेदा:
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[३१८]
दीप
अनुक्रम [३९१]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [२], मूलं [३१८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५]
व्याख्या
प्रज्ञधिः अभयदेवीया वृत्तिः १
॥ ३४४॥
अभावा जाव अनंता भवसिद्धिया अनंता अभवसिद्धिया अनंता सिद्धा अनंता असिद्धा पन्नन्ते'ति, अस्य च सूत्रस्य या सङ्ग्रहगाथा - "भावमभावा हेऊमहेड कारणमकारणा जीवा । अज्जीव भवियाऽभविया तत्तो सिद्धा असिद्धा य ॥ १ ॥” ४ इत्येवंरूपा तस्याः खण्डमिदमेतदन्तं श्रुतज्ञानसूत्रमिहाध्येयमिति ॥ ज्ञानविपर्ययस्त्वज्ञानमिति तत्सूत्रम् ---तत्र च 'अन्नाणे' ति नञः कुत्सार्थत्वात् कुत्सितं ज्ञानमज्ञानं, कुत्सितत्वं च मिथ्यात्व संचलितत्वात् उक्तञ्च - "अवि सेसिया मइश्चिय सम्मद्दिट्ठिस्स | सा मइन्नाणं । मइअन्नाणं मिच्छदिट्टिस्स सुर्यपि एमेव ॥ १ ॥” “विभंगणाणे'त्ति विरुद्धा भङ्गा-वस्तुविकल्पा यस्मिंस्तद्विभङ्गं तच तज्ज्ञानं च अथवा विरूपो भङ्गः-अवधिभेदो विभङ्गः स चासौ ज्ञानं चेति विभङ्गज्ञानम्, इह च कुत्सा विभङ्गशब्देनैव गमितेति न ज्ञानशब्दो नत्रा विशेषितः, 'अत्थोग्गहे य'त्ति अर्थ्यत इत्यर्थस्तस्यावग्रहः अर्थावग्रहःसकलविशेषनिरपेक्षानिर्देश्यार्थग्रहण मेकसामयिकमिति भावार्थ:, 'वंजणोग्गहे यत्ति व्यज्यतेऽनेनार्थः प्रदीपेनेव घट इति व्यञ्जनं तचोपकरणेन्द्रियं शब्दादिपरिणतद्रव्यसङ्घातो वा ततश्च व्यञ्जनेन-उपकरणेन्द्रियेण व्यञ्जनानांवा-शब्दादिपरिणतद्रव्याणामवग्रहो व्यञ्जनावग्रहः, अत्रार्थावग्रहस्य सुलक्ष्यत्वात् सकलेन्द्रियार्थव्यापकत्वाच्च प्रथममुपन्यासः, 'एवं जहेवेत्यादि, यथैवाभिनिवोधिकज्ञानमधीतं तथैव मत्यज्ञानमप्यध्येयं तचैवम्— 'से किं तं बंजणोग्गहे १, २ चडबिहे पन्नन्ते, तंजहा- सोइंदियवंजणोग्गहे घाणिंदिद्यवंजणोग्गहे जिभिदियवंजणोग्गहे फासिंदियवंजणोग्गहे'
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ज्ञानस्य भेद-प्रभेदाः
१- भावा अभावा तमोऽहेतवः कारणान्यकारणानि जीवा अजीवा भव्या अभव्यास्ततः सिद्धा असिद्धाः ॥ ( द्वादशाङ्गीरूपमणिपिटके) 1 २- अविशेषिता मतिरेव सा सम्यम्टष्टेर्मतिज्ञानं मिथ्यादृष्टेर्मत्यज्ञानं श्रुतमप्येवमेव ॥ १ ॥
"भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
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८ शतके उद्देशः २ ज्ञानाज्ञानाधिकारः सू ३१८
॥३४४॥
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३१८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३१८]
इत्यादि, यश्चेह विशेषस्तमाह-'नवरं एगट्टियवजं सि इहाभिनियोधिकज्ञाने 'उग्गिण्हणया अवधारणया सवणया अवलंबणया मेहेत्यादीनि [पञ्च पञ्च पञ्चैकार्थिकान्यवग्रहादीनामधीतानि, मत्यज्ञाने तु न तान्यध्येयानीति भावः, 'जाव मोइंदियधारण'त्ति इदमन्स्यपदं यावदित्यर्थः, 'ज इमं अन्नाणिएहि ति यदिदम् 'अज्ञानिक: निर्ज्ञानः, तत्रा-115 ल्पज्ञानभावादधनवदशीलवद्वा सम्यग्दृष्टयोऽप्यज्ञानिकाः प्रोच्यन्तेऽत एवाह-मिथ्यादृष्टिभिः, 'जहा नंदीए'त्ति, तत्रैवमेतत्सूत्रम्-सच्छंदबुद्धिमहविगप्पियं तंजहा-भारहं रामायण'मित्यादि, तनावग्रहेहे बुद्धिः अवायधारणे च मतिः, स्वच्छन्देन-स्वाभिप्रायेण तत्त्वतः सर्वज्ञप्रणीतार्थानुसारमन्तरेण बुद्धिमतिभ्यां विकल्पितं स्वच्छन्दवद्धिमतिविकल्पितं-10 स्वबुद्धिकल्पनाशिल्पनिर्मितमित्यर्थः 'चत्तारि य वेय'त्ति साम ऋक् यजुः अथर्वा चेति 'संगोवंग'त्ति इहाङ्गानि-शिक्षा-15 दीनि षट् उपाङ्गानि च-तद्व्याख्यानरूपाणि 'गामसंठिए'त्ति प्रामालम्बनत्वाद् प्रामाकारम् , एवमन्यान्यपि, नवरं| 'वाससंठिए'त्ति भरतादिवर्षाकारं 'वासहरसंठिए'त्ति हिमवदादिवर्षधरपर्वताकारं 'हयसंठिए' अश्वाकार, 'पसय'त्ति पसयसंठिए, तत्र पसया-आडव्यो द्विखुरश्चतुष्पदविशेषः, एवं च नानाविधसंस्थानसंस्थितमिति ॥ अनन्तरं ज्ञानान्यज्ञानानि चोक्तानि, अथ शानिनोऽज्ञानिनश्च निरूपयन्नाह-'जीवा णं भंते! इत्यादि, इह च नारकाधिकारे 'जे नाणी ते नियमा तिनाणी'ति सम्यग्दृष्टिनारकाणां भवप्रत्ययमवधिज्ञानमस्तीतिकृत्वा ते नियमात्रिज्ञानिनः, 'जे
अनाणी ते अत्थेगतिया दुअन्नाणी अत्धेगतिया तिअन्नाणी'ति, कथम् १, उच्यते, असजिनः सन्तो ये नारके★ पूत्पद्यन्ते तेपामपर्याप्तकावस्थायां विभङ्गाभावादाद्यमेवाज्ञानद्वयमिति ते व्यज्ञानिनः ये तु मिथ्यादृष्टिसज्ञिभ्य उत्प
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३१८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३१८]
सू ३१९
दीप अनुक्रम [३९१]
व्याख्या- द्यन्ते तेषां भवप्रत्ययो विभङ्गो भवतीति ते त्र्यज्ञानिनः, एतदेव निगमयन्नाह-एवं तिन्नि अन्नाणाणि भयणाए'त्ति। दातके प्रज्ञप्तिमा बेदियाण'मित्यादि, द्वीन्द्रियाः केचित् ज्ञानिनोऽपि सास्वादनसम्यग्दर्शनभावेनापर्याप्तकावस्थायां भवन्तीत्यत |||| देशा२
का उच्यते 'नाणीवि अन्नाणीवित्ति ॥ अनन्तरं जीवादिषु पविंशतिपदेषु ज्ञान्यज्ञानिनश्चिन्तिताः, अथ तान्येव गती-|| गत्यादिषु बा वृत्तिः१ न्द्रियकायादिद्वारेषु चिन्तयन्नाह
ज्ञानाज्ञ
नानि ॥३४५॥ | निरयगइया णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी, गोयमा ! नाणीवि अन्नाणीवि, तिन्नि नाणाई नियमा8
मातिनि अन्नाणाई भयणाए। तिरियगइया णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी, गोयमा! दो नाणा दो।
अन्नाणा नियमा । मणुस्सगइया णं भंते । जीवा किं नाणी अन्नाणी, गोयमा ! तिन्नि नाणाई भपणाए दो है अन्नाणाई नियमा, देवगतिया जहा निरयगतिया । सिद्धगतिया णं भंते! जहा सिद्धा ॥ सइंदिया णं भंते !
जीवा किं नाणी अन्नाणी, गोयमा ! चत्तारि नाणाई तिन्नि अनाणाईभयणाए । एगिदिया णं भंते! जीचा || किं नाणी०१, जहा पुदविकाइया बेइंदियतेइंदियचरिदियाणं दो नाणा दो अन्नाणा नियमा। पंचिंदिया जहा सइंदिया । अणिदिया णं भंते ! जीवा किं नाणी०१, जहा सिद्धा॥ सकाइया णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी, गोयमा ! पंच नाणाणी तिन्नि अन्नाणाई भयणाए । पुढविकाइया जाव वणस्सइकाइया नो
॥३४५॥ नाणी अनाणी नियमा दुअन्नाणी, तंजहा-मतिअन्नाणी य सुयअन्नाणी य, तसकाइया जहा सकाइया। अकाइया णं भंते ! जीवाकिंनाणी०?,जहा सिद्धा ३।। सुहुमा णं भंते जीवाकिंनाणी? जहा पुढविकाइया।
| नैरयिक-गत्यादिषु ज्ञान-अज्ञानानि
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आगम
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[३१९]
टीप
अनुक्रम
[३९२]
[भाग १] "भगवती" - अंगसूत्र- ५ [ मूलं + वृत्तिः ] [मूलं+वृत्तिः] शतक [८], वर्ग (-), अंतर-शतक (--), उद्देशक [२] मूलं [ ३१९ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
बादरा णं भंते! जीवा किं नाणी० ? जहा सकाइया । नोमानोवादरा णं भंते! जीवा० जहा सिद्धा ४ ॥ पञ्जन्त्ता णं भंते! जीवा किं नाणी० १, जहा सकाइया । पञ्चत्ता णं भंते । नेरहया किं नाणी० १, तिन्नि नाणा तिन्नि अन्नाणा नियमा जहा नेरइए एवं जाव धणियकुमारा । पुढविकाइया जहा एगिंदिया, एवं जाव चउरिंदिया । पत्ता णं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया किं नाणी अन्नाणी ?, तिन्नि नाणा तिन्नि | अन्नाणा भयणाए । मणुस्सा जहा सकाइया । वाणमंतरा जोइसिया वैमाणिया जहा नेरइया । अपलत्ता णं भंते ! जीवा किं नाणी० २१, तिन्नि नाणा तिन्नि अन्नाणा भयणाए । अपलत्ता णं भंते! नेरतिया किं नाणी अनाणी ?, तिन्नि नाणा नियमा तिन्नि अन्नाणा भयणाए एवं जाव धणियकुमारा । पुढविकाइया जव वणस्सइकाइया जहा एगिंदिया बेंदियाणं पुच्छा, दो नाणा दो अन्नाणा नियमा, एवं जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं । अपज्जत्तगा णं भंते ! मणुस्सा किं नाणी अन्नाणी ?, तिन्नि नाणाई भयणाए दो अन्नाणाई नियमा, वाणमंतरा जहा नेरइया, अपजत्तगा जोइसियवेमाणिया णं तिन्नि नाणा तिन्नि अन्नाणा नियमा नो पञ्चत्तगा नो अपजत्तगा णं भंते ! जीवा किं नाणी० १, जहा सिद्धा ५ ॥ निरयभवत्था णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी ?, जहा निरयगतिया । तिरियभवत्था णं भंते! जीवा किं नाणी अन्नाणी ?, तिन्नि नाणा तिन्नि अन्नाणा भयणाए । मणुस्सभवत्था णं० जहा सकाइया । देवभवत्था णं भंते! जहा निरयभवत्था | अभवत्था जहा सिद्धा ६ ॥ भवसिद्धिया णं भंते जीवा किं नाणी० १,
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नैरयिक- गत्यादिषु ज्ञान-अज्ञानानि
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३१९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
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बावृत्तिः१॥
[३१९]
सू११९
ध्या वा ज्ञानि-
जहा सकाइया, अभवसिद्धियाणं पुच्छा, गोयमा ! नो नाणी अन्नाणी तिनि अन्नाणाई भयणाए । नो- शतके व्याख्या
॥ भवसिद्धियानोअभवसिद्धिया णं भंते ! जीवा. जहा सिद्धा ७॥ सन्नीणं पुच्छा जहा सइंदिया, असन्नी उद्देशार अभयदेवी- जहा बेइंदिया, नोसन्नीनोअसन्नी जहा सिहा ८॥ (सूत्रं ३१९)॥
गत्यादिषु 'निरयगइया ण'मित्यादि, गत्यादिद्वाराणि चैतानि-"गइईदिए य काए सुहुमे पजत्तए भवत्ये य । भवसिद्धिए या | ज्ञानाज्ञासन्नी लद्धी उवओग जोगे य॥१॥लेसा कसाय वेए आहारे नाणगोयरे काले । अंतर अप्पाबहुयं च पजवा चेहटू
नानि ॥४६॥
दोराई ॥२॥" तत्र च निरये गति:-गमनं येषां ते निरयगतिकास्तेषाम् , इह च सम्यग्दृष्टयो मिथ्यादृष्टयो वा ज्ञानि
नोऽज्ञानिनो वा ये पवेन्द्रियतिर्यग्मनुष्येभ्यो नरके उत्पत्तुकामा अन्तरगती वर्तन्ते ते निरयगतिका विवक्षिताः, एतत्यनयोजनवाद्दतिग्रहणस्येति, 'तिमि नाणाई नियमत्ति अवधेर्भवप्रत्ययत्वेनान्तरगतावपि भावात् 'तिन्नि अन्नाणाइंडू
भयणाए'त्ति असज्ञिनां नरके गच्छतां द्वे अज्ञाने अपर्याप्तकत्वे विभङ्गस्याभावात् सजिनां तु मिथ्यादृष्टीनां वीण्य
ज्ञानानि भवप्रत्ययविभङ्गस्य सद्भावा अतस्त्रीण्यज्ञानानि भजनयेत्युच्यत इति । 'तिरियगइया णति तियेच गति:दागमनं येषां ते तिर्यग्गतिकास्तेषां तदपान्तरालपतिनां 'दो नाण'ति सम्यग्दृष्टयो बवधिज्ञाने प्रपतिते एव तिर्यक्षु गच्छ-15 |न्ति तेन तेषां द्वे पब ज्ञाने 'दो अनाणेति मिथ्यादृष्टयोऽपि हि विभङ्गज्ञाने प्रतिपतिते एव तिर्यक्षु गच्छन्ति तेन तेषां ॥१४॥
१गतय एकेन्द्रियादिः पृथ्वीकायादिः सूक्ष्मः पर्याप्तः भवस्थश्च भवसिद्धिकश्च सम्झी लब्धिरुपयोगो योगश्च ॥ १॥ लेश्या कषायः वेदः महारः ज्ञानविषयः कालः अन्तरम् अल्पबहुवं च पर्यायाश्वेह द्वाराणि ॥२॥
दीप अनुक्रम [३९२]
| नैरयिक-गत्यादिषु ज्ञान-अज्ञानानि
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३१९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
ES
%
प्रत सूत्रांक [३१९]
IT अज्ञाने इति । 'मणुस्सगइया 'मित्यादौ, 'तिनि माणाई भयणाए'त्ति मनुष्यगती हि गच्छन्तः केचिज्ञानिनो
अवधिना सहैव गच्छन्ति तीर्थङ्करवत् केचिच्च तद्विमुच्य तेषां त्रीणि वाद्वे या ज्ञाने स्यातामिति, ये पुनरज्ञानिनो मनु-19 प्यगतावुत्पत्तुकामास्तेषां प्रतिपतित एव विभङ्गे तत्रोत्पत्तिः स्यादित्यत उक्तं 'दो अन्नाणाई नियमति । 'देवगइया जहा निरयगइय'त्ति देवगतो ये ज्ञानिनो यातुकामास्तेषामवधिर्भवप्रत्ययो देवायुःप्रथमसमय एवोत्पद्यतेऽतस्तेषां नारकाणामिवोच्यते, तिन्नि नाणाई नियम'त्ति, ये त्वज्ञानिनस्तेऽसज्ञिभ्य उत्पद्यमाना व्यज्ञानिना, अपर्याप्तकत्वे विभङ्गस्याभावात् सजिभ्य उत्पद्यमानास्त्वज्ञानिनो भवप्रत्ययविभङ्गस्य सद्भावाद् अतस्तेषां नारकाणामिवोच्यते|'तिन्नि अन्नाणाई भयणाए'ति । 'सिद्धिगइया ण'मित्यादि, यथा सिद्धाः केवल ज्ञानिन एव एवं सिद्धिगतिका अपि वाच्या इति भावः, यद्यपि च सिद्धानां सिद्धिगतिकानां चान्तरगत्यभावान विशेषोऽस्ति तथाऽपीह गतिद्वारबलायात
त्वात्ते दर्शिताः, एवं द्वारान्तरेष्वपि परस्परान्तर्भावेऽपि तत्सद्विशेषापेक्षयाऽपौनरुत्य भावनीयमिति ॥ अथेन्द्रियद्वारेMI'सइंदियेत्यादि, 'सेन्द्रियाः' इन्द्रियोपयोगवन्तस्ते च ज्ञानिनोऽज्ञानिनश्च, तत्र ज्ञानिनां चत्वारि ज्ञानानि भजनया Pा स्यात् । स्यात् त्रीणि स्वाञ्चत्वारि, केवलज्ञानं तु नास्ति तेषाम् , अतीन्द्रियज्ञानस्वात्तस्य, धादिभावश्च ज्ञानानां लब्ध्य
पेक्षया, उपयोगापेक्षया तु सर्वेषामेकदैकमेव ज्ञानम् , अज्ञानिनां तु त्रीण्यज्ञानानि भजनयैव-स्यात् द्वे स्थात्रीणीति, है'जहा पुढविकाइय'ति एकेन्द्रिया मिथ्यादृष्टित्वादज्ञानिनस्ते च क्यज्ञाना एवेत्यर्थः । 'बेइंदियेत्यादि, एषां
रे ज्ञाने, सासादनस्तेपूत्पद्यत इति कृत्वा, सासादनश्चोत्कृष्टतः पडावलिकामानोऽतो द्वे ज्ञाने तेषु लभ्येत इति ।।
दीप अनुक्रम [३९२]
16159184%95
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| नैरयिक-गत्यादिषु ज्ञान-अज्ञानानि
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[३१९]
दीप
अनुक्रम [३९२]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति: ]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [२], मूलं [ ३१९ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्या.
प्रज्ञष्ठिः अभयदेवीया वृत्तिः १
॥ १४७॥
'अणिदिय'त्ति केवलिनः ॥ कायद्वारे - 'सकाइया ण'मित्यादि, सह कायेन - औदारिकादिना शरीरेण पृथिव्या दिषट्कायाम्यतरेण वा कायेन ये ते सकायास्त एव सकायिकाः, ते च केवलिनोऽपि स्युरिति सकायिकानां सम्यग्दशां पञ्च ज्ञानानि मिथ्यादृशां तु त्रीण्यज्ञानानि भजनया स्युरिति । 'अकाइया णं'ति नास्ति कायः- उत्तलक्षणो येषां तेऽकायास्त एवाकायिकाः सिद्धाः ॥ सूक्ष्मद्वारे - 'जहा पुढविकाइय'त्ति द्व्यज्ञानिनः सूक्ष्मा मिथ्यादृष्टित्वादित्यर्थः | 'जहा सकाइय'त्ति वादराः केवलिनोऽपि भवन्तीतिकृत्वा ते सकायिकवद्भजनया पश्चज्ञानिनख्वज्ञानिनश्च वाच्या | इति ॥ पर्याप्तकद्वारे - 'जहा सकाइय'त्ति पर्याप्तकाः केवलिनोऽपि स्युरिति ते सकायिकवत्पूर्वोक्तप्रकारेण वाच्याः । पर्याष्टकद्वार एव चतुर्विंशतिदण्डके पर्याप्तकनारकाणां 'तिन्नि अन्नाणा नियमति अपर्याप्त कानामेवासञ्ज्ञिनारकाणां विभङ्गाभाव इति पर्याप्तकावस्थायां तेषामज्ञानत्रयमेवेति । 'एवं जाव चउरिंदिय'त्ति द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाः पर्याप्तका ज्ञानिन एवेत्यर्थः । 'पजत्ता णं भंते! पंचिंदियतिरिक्खे' त्यादि, पर्याप्त रुपञ्चेन्द्रिय तिरश्वामवधिर्विभङ्गो वा | केषाञ्चित्स्यात्केषाञ्चित्पुनर्नेति त्रीणि ज्ञानान्यज्ञानानि वा द्वे वा ज्ञाने अज्ञाने वा तेषां स्यातामिति । 'बेइंदियाणं दो नाणे'त्यादि, अपर्याप्तकद्वीन्द्रियादीनां केषाञ्चित्सासादनसम्यग्दर्शनस्य सद्भावाद् द्वे ज्ञाने केषाञ्चित्पुनस्तस्यासद्भावाई एवाज्ञाने । अपर्याप्तकमनुष्याणां पुनः सम्यग्दृशामवधिभाव त्रीणि ज्ञानानि यथा तीर्थकराणां तदभावे तु द्वे ज्ञाने, मिथ्यादृशां तु द्वे एवाज्ञाने, विभङ्गस्यापर्याष्टकत्वे तेषामभावात्, अत एवोकं 'तिनि नाणाई भयणाए दो अन्नाणाई नियम'ति । 'वाणमंतरे' त्यादि, व्यन्तरा अपर्याप्तका नारका इव त्रिज्ञाना यज्ञानाख्यज्ञाना वा वाच्याः तेष्वप्यसभ्य उत्पद्य
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नैरयिक- गत्यादिषु ज्ञान-अज्ञानानि
For Parts Only
~ 136~
शतके
उद्देशः २ गत्यादिषु
ज्ञानाज्ञा
नानि
सू ३१६
॥३४७॥
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३१९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३१९]
| मानानामपर्याप्तकानां विभङ्गाभावात् शेषाणां चावधेविभङ्गस्य वा भावात् । 'जोइसिए'त्यादि, एतेषु हि सजिभ्य एवोत्पद्यन्ते, तेषां चापर्याप्तकत्वेऽपि भवप्रत्ययस्यावधेर्विभङ्गस्य चावश्यम्भावात् त्रीणि ज्ञानान्यज्ञानानि वा स्युरिति । 'नोपज्जत्तगनोअपज्जत्तग'त्ति सिद्धाः ॥ भवस्थद्वारे-'निरयभवस्था 'मित्यादि, निरयभवे तिष्ठन्तीति निरयभवस्था:-प्राप्तोत्पत्तिस्थाना, ते च यथा निरयगतिकास्त्रिज्ञाना द्वयज्ञानाख्यज्ञानाश्चोक्तास्तथा वाच्या इति ॥ भवसिद्धिक-1131 द्वारे-'जहा सकाइय'त्ति भवसिद्धिकाः केवलिनोऽपीति ते सकायिकवद्भजनया पञ्चज्ञानाः तथा यावत्सम्यक्त्वं न प्रतिपन्नास्तावद्भजनयैव व्यज्ञानाश्च वाच्या इति । अभवसिद्धिकानां त्वज्ञानत्रयं भजनया स्यात् सदा मिथ्याष्टित्वात्तेषामत उक्तं 'नो नाणी अन्नाणी'त्यादीति ॥ सज्जिद्वारे-'जहा सईदिय'त्ति ज्ञानानि चत्वारि भजनया अज्ञानानि च त्रीणि तथैवेत्यर्थः । 'असन्नी जहा इंदिय'त्ति अपर्याप्तकावस्थायां ज्ञानद्वयमपि सासादनतया स्यात्, पर्याप्तकाव-115 | स्थायां त्वज्ञानद्वयमेवेत्यर्थः ॥ लब्धिद्वारे लब्धिभेदान् दर्शयन्नाह४ काविहा णं भंते ! लद्धी पण्णता?, गोयमा ! दसविहा लद्वी पण्णत्ता, तंजहा-नाणलद्धी १दसणलद्वी
२ चरित्तलद्धी ३ चरित्ताचरित्तलद्धी ४ दाणलद्धी ५ लाभलडी ६ भोगलद्धी ७ उवभोगलजी ८ वीरियलद्धी ९इंदियलद्धी १० । णाणलद्धी णं भंते ! कइविहा पण्णत्ता ?, गोयमा! पंचविहा पण्णत्ता, तंजहा-आभिणियोहियणाणलडी जाव केवलणाणलद्धी ।। अन्नाणलही णं भंते ! कतिविहा पपणत्ता, गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-महअन्नाणलद्धी सुपअन्नाणलद्धी विभंगनाणलडी ॥ दसणलद्वीण भंते ! कतिविहा पन्नत्सा,
REASSACRORECASIA
दीप अनुक्रम [३९२]
For P
OW
नैरयिक-गत्यादिषु ज्ञान-अज्ञानानि, 'लब्धि'शब्दस्य अर्थ एवं भेदा:
~137
Page #138
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३२०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३२०]
दीप अनुक्रम [३९३]
व्याख्या- गोयमा! तिपिहा पण्णता, तंजहा-सम्मईसणलही मिफादसणलद्धी सम्मामिछादसणलदी। परि-8 शतक
सलीम भले! कत्तिविहा पण्णसा, मोयमा! पंचविहा पन्नत्ता, तंजहा-सामाझ्यचरित्तलखी छेदोषट्ठा- उद्देशान अमयदेवी-18
| वणिपलद्धी परिहारषिसुद्धलद्धी सुहुमसंपरागलद्धी अहक्खायचरित्सलद्धी । चरिसाचरित्तलद्धी णे भले ज्ञानादिलयावृत्तिः१८ कतिविद्या पणता, गोयमा! एगागारा पण्णत्ता, एवं जाव उवभोगलद्धी एगागारा पन्नसा ॥ बीरियल-1|8|| कार
सू ३२० द्धी गंभंते ! कत्तिविहा पण्णता, गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-बालवीरियलद्धी पंडियबीरियलद्धी ॥३४८॥
वालपजियवीरियलद्धी। इंदियलद्धी णं भंते ! कतिविहा पण्णता?, गोयमा! पंचविहा पण्णत्ता, संजहाद्र सोइंदिवलद्धी जाव फासिंदियलद्धी ॥ नाणलद्धिया भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी, गोषमा! नाणी नो अन्नाणी, अत्गतिथा दुन्नाणी, एवं पंच नाणाई भयणाए । तस्स अलीया गं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी, गोयमानो नाणी अनाणी, अत्धेगतिया दुअन्नाणी तिन्नि अन्नाणाणि भयणाए । आभिप्राणियोहियणाणलद्धिया णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी?, गोयमा नाणी नो अनाणी, अत्धेगतिया 8 दुनाणी चत्तारि नाणाई भयणाए । तस्स अलद्धिया गंभंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी, गोयमा! नाणीवित
अनाणीवि, जे नाणी ते नियमा एगनाणी केवलनाणी, जे अन्नाणी ते अत्धेगइया दुअन्नाणी तिनि अनादाणाई भयणाए। एवं सुयनाणलीयावि, तस्स अलद्धीयावि जहा आभिणियोहियनाणस्स लदीया। ओहि-18|| ॥३४८॥
नाणलद्धीया णं पुरुछा, गोयमा ! नाणी नो अनाणी, अत्धेगतिया तिन्नाणी अत्थेगतिया चउनाणी, जे |
SARELaturintamational
'लब्धि'शब्दस्य अर्थ एवं भेदा:, ज्ञानादि अधिकार:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३२०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३२०
तिनाणी ते आभिणिबोहियनाणी सुयनाणी ओहिनाणी, जे चउनाणी ते आभिणियोहियनाणी सुय०ओहि मणपज्जवनाणी। तस्स अलद्धीया णं भंते! जीवा किं नाणी,गोयमा! नाणीवि अन्नाणीवि। एवं ओहिनाणवजाई चत्तारि नाणाई तिन्नि अन्नाणाई भयणाए । मणपज्जवनाणलद्धिया णं पुच्छा, गोयमा ! णाणी णो अन्नाणी, अस्थगतिया तिनाणी अत्थेगतिया चउनाणी, जे तिन्नाणी ते आभिणियोहियनाणी सुयणाणी मणपज्जच-12 णाणी, जे चउनाणी ते आभिणियोहियनाणी सुयनाणी ओहिनाणी मणपज्जवनाणी, तस्स अलरीया णं पुच्छा, गोयमा ! णाणीधि अन्नाणीवि, मणपजवणाणवजाई चत्तारि णाणाई, तिनि अन्नाणाई भयणाए। केवलनाणलद्धिया णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी?, गोयमा ! नाणी नो अन्नाणी, नियमा एगणाणी | केवलनाणी, तस्स अलबियाणं पुच्छा, गोयमा! नाणीवि अन्नाणिवि, केचलनाणवज्जाईचत्तारि णाणाई तिन्नि अन्नाणाई भयणाए ॥ अन्नाणलद्धिया गं पुच्छा, गोयमा !नो नाणी अन्नाणी, तिन्नि अन्नाणाई भयणाए, तस्स अलद्धियाणं पुच्छा, गोयमा ! नाणी नो अन्नाणी, पंच नाणाई भयणाए जहा अन्नाणस्स लद्धिया अलद्धिया य भणिया एवं मइअन्नाणस्स सुयअन्नाणस्स यलद्धिया अलद्धिया य भाणियबा । विभंगनागलद्धियाण तिन्नि अन्नाणाई नियमा, तस्स अलद्धियाणं पंच नाणाई भयणाए दो अनाणाई नियमा ॥ दसणलद्धिया णं भंते ! जीवा किं नाणी अनाणी ?, गोयमा ! नाणीवि अन्नाणीवि, पंच नाणाई तिन्नि अन्नाणाई भयणाए, तस्स अलडिया णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी, गोयमा ! तस्स अलडिया
दीप अनुक्रम [३९३]
CEREBHARA
ज्ञानादि अधिकार:
~139~
Page #140
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३२०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३२०]
व्याख्या- नत्थि । सम्मइंसणलद्धियाणं पंच नाणाई भयणाए, तस्स अलद्धियाणं तिन्नि अन्नाणाई भयणाए, मिच्छा- शतके प्रज्ञप्तिः |दसणलद्धिया णं भंते ! पुच्छा, तिन्नि अन्नाणाई भयणाए, तस्स अलद्धियाणं पंच नाणाई तिन्नि य अन्ना
उद्देशः२ अभयदेवी
तणाई भयणाए, सम्मामिच्छादसणलद्विया य अलद्विया जहा मिच्छादसणलद्धी अलद्धी तहेव भाणियचं ॥ या वृत्तिः
ज्ञानाज्ञाना चरित्तलद्धिया ण भंते ! जीचा किं नाणी अन्नाणी, गोयमा ! पंच नाणाई भयणाए, तस्स अलद्रियाणं
ट्रानि गत्यादी
सू० ३२० ॥३४९॥ मणपज्जवनाणवजाईचत्तारि नाणाई तिनि य अन्नाणाई भयणाए, सामाइयचरित्तलद्धिया भंते ! जीचा
किं नाणी अन्नाणी, गोयमा! नाणी केवलबजाईचत्तारि नाणाई भयणाए, तस्स अलद्धियाणं पंच है. नाणाई तिनि य अन्नाणाई भयणाए, एवं जहा सामाइयचरित्तलद्धिया अलद्धिया य भणिया एवं जहा जाव | अहक्खायचरित्तलद्धिया अलद्धिया य भाणियबा, नवरं अहक्खायचरित्तलद्धिया पंच नाणाईभ चरित्ताचरित्तलविया णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी?, गोयमा! नाणी नो अनाणी, अत्धेगड्या दुण्णा-|| णी अत्थेगतिया तिन्नाणी, जे दुनाणी ते आभिणियोहियनाणी य सुयनाणी य, जे तिन्नाणी ते आमिर सुयना० ओहिना,तस्स अल. पंच नाणाई तिन्नि अन्नाणाई भयणाए ४ ॥दाणलद्धियणं पंच नाणाई तिनि । | अन्नाणाई भयणाए, तस्स अ० पुच्छा, गोयमा ! नाणी नो अन्नाणी, नियमा एगनाणी केबलनाणी । एवं| ॥३४९॥ | जाव वीरियस्स लद्धी अलद्धी य भाणियथा ॥ बालवीरियलद्धियाणं तिन्नि नाणाई तिनि अन्नाणाई भयणाए, तस्स अलद्धियाणं पंच नाणाई भयणाए । पंडियवीरियलद्धियाणं पंच माणाई भयणाए, तस्स अलद्रिया-18
KISAA
दीप अनुक्रम [३९३]
ज्ञानादि अधिकार:
~140
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३२०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३२०
॥ गं मणपज्जवनाणबजाई णाणाई अन्नाणाणि तिन्नि य भयणाए । बालपंडियबीरियलद्धियाणं भंते ! जीवा
तिनि नाणाई भयणाए, तस्स अलद्रियाण पंच नाणाई तिन्नि अन्नाणाई भपणाए ॥ इंदिपलद्विपाणं भंते| Pाजीवा किं नाणी अन्नाणी, गोयमा ! चत्तारि गाणाई तिनि य अन्नाणाई भयणाए, तस्स अलबियाणं पुच्छा,[१]
गोयमा! नाणी नो अन्नाणी नियमा एगनाणी केवलनाणी, सोइंदियलद्धियाणं जहा इंदियलद्धिया, तस्स। * अलद्धियाण पुच्छा, गोयमा ! नाणीवि अन्नाणीवि, जे नाणी ते अत्धेगतिया दुनाणी अत्थेगतिया एगन्नाणी
जे दुन्नाणी ते आभिणिवोहियनाणी सुयनाणी जे एगनाणी ते केवलनाणी, जे अन्नाणी ते नियमा दुअन्नाणी, तंजहा-मइअन्नाणी य सुयअन्नाणी य, चक्खिदियघाणिदियाणं लड़ियाणं अलद्धियाण य जहेब सोइंदियस्स, जिभिदियलद्धियाणं चत्तारि णाणाई तिन्नि य अन्नाणाणि भयणाए, तस्स अलड़ियाणं पुच्छा, गोयमा ! नाणीवि अन्नाणीवि जे नाणी ते नियमा एगनाणी केवलनाणी, जे अन्नाणी ते नियमा दुअन्नाणी, ४ तंजहा-मइअन्नाणी य सुयअन्नाणी य, फासिदियलद्धियाणं अलद्रियाणं जहा इंदियलद्धिया य अलद्धिया य॥ (सूत्रं ३२०)॥
'कतिविहा ण'मित्यादि, तत्र लब्धिः-आत्मनो ज्ञानादिगुणानां तत्तत्कर्मक्षयादितो लाभः, सा च दशविधा, तत्र ज्ञानस्य-विशेषबोधस्य पञ्चप्रकारस्य तथाविधज्ञानावरणक्षयक्षयोपशमाभ्यां लब्धिानलब्धिः, एवमन्यत्रापि, नवरं लाच दर्शनं-रुचिरूप आत्मनः परिणामः, चारित्रं-चारित्रमोहनीयक्षयक्षयोपशमोपशमजो जीवपरिणामः, तथा चरित्रं च
45440+GGARG5%X
ACANCREASKARECACH
दीप अनुक्रम [३९३]
AN
Humstaram.org
ज्ञानादि अधिकार:
~141
Page #142
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३२०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३२०]
दीप अनुक्रम [३९३]
व्याख्या-14 तदचरित्रं चेति चरित्राचरित्रं-संयमासंयमः, तच्चाप्रत्याख्यानकषायक्षयोपशमजो जीवपरिणामः, दानादिलब्धयस्तु पश्च- शतक प्रज्ञप्तिः प्रकारान्तरायक्षयक्षयोपशमसम्भवाः, इह च सकृद्भोजनमशनादीनां भोगः, पौनःपुन्येन चोपभोजनमुपभोगः, स च उद्देशार अभयदेवी- वस्त्रभवनादेः, दानादीनि तु प्रसिद्धानीति, तथा इन्द्रियाणां-स्पर्शनादीनां मतिज्ञानावरणक्षयोपशमसम्भूतानामेकेन्द्रिया- ज्ञानाज्ञाना या वृत्तिः
१४ दिजातिनामकर्मोदयनियमितकमाणां पर्याप्तकनामकर्मादिसामर्थ्य सिद्धानां द्रव्यभावरूपाणां लन्धिरात्मनीतीन्द्रियलब्धिःनि गत्यादी ॥३५०॥ अथ ज्ञानलब्धेविपर्ययभूताऽज्ञानलब्धिरित्यज्ञानलब्धिनिरूपणायाह-'अन्नाणलद्धी'त्यादि ॥ 'सम्मईसणे'त्यादि, इह स-II
सू३२० म्यग्दर्शनं मिथ्यात्वमोहनीयकर्माणुवेदनोपशमक्षयरक्षयोपशम ३ समुत्थ आत्मपरिणामः, मिथ्यादर्शनमशुद्धमिथ्यात्व-8 दलिकोदयसमुत्थो जीवपरिणामः, सम्यग्मिथ्यादर्शनं त्वर्द्धविशुद्धमिथ्यात्वदलिकोदयसमुत्थ आत्मपरिणाम एवं ॥ 'सामाइयचरित्तलद्धि'त्ति सामायिक-सावद्ययोगविरतिरूपं एतदेव चरित्रं सामायिकचरित्रं तस्य लब्धिः सामायिकच-2 रित्रलब्धिः, सामायिकचरित्रं च विधा-इत्वरं यावत्कथिकं च, तत्राल्पकालमित्वरं, तच्च भरतैरावतेषु प्रथमपश्चिमतीर्थ-18 करतीयेवनारोपितमतख शिक्षकस्य भवति, यावत्कथिकं तु यावजीविक, सच मध्यमवैदेदिकतीर्थकरतीर्थान्तर्गतसाधूनामवसेयं, तेपामुपस्थापनाथा अभावात् , नन्वितरस्यापि यावज्जीवितया प्रतिज्ञानात् तस्यैव चोपस्थापनायां परित्या-ADI गात् कथं न प्रतिज्ञालोपः, अनोच्यते, अतिचाराभावात, तस्यैव सामान्यतः सावद्ययोगनिवृत्तिरूपेणावस्थितस्य ||
॥३५॥ शुक्यन्तरापादनेन सज्ञामात्रविशेषादिति । 'छओवठ्ठावणियचरित्तलद्धिति छेदे-पाकनसंयमस्य व्यवच्छेदे सति | यदुपस्थापनीय-साधावारोपणीचं सपदोपस्थापनीयं, पूर्वपर्यायच्छेदेन महानतानामारोपणमित्यर्थः, तच्च सातिचारमन-12
555
wireluctaram.org
ज्ञानादि अधिकार:
~142
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३२०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३२०
दीप अनुक्रम [३९३]
तिचार च, सत्रानतिचारमित्वरसामायिकस्य शिक्षकस्यारोप्यते, तीर्थान्तरसङ्कान्तौ वा, यथा पार्श्वनाथतीर्थाद्वर्द्धमानस्वामितीर्थ सङ्कामतः पञ्चयामधर्मप्राप्ती, सात्तिचारं तु मूलगुणघातिनो यदूतारोपणं, तच्च तचरित्रं च छेदोपस्थापनीयचरित्रं तस्य लब्धि छेदोपस्थापनीयचरित्रलब्धिः, 'परिहारविमुदियचरिसलद्धि'त्ति परिहार:-तपोविशेषस्तेन विशुद्धि-10 यस्मिंस्तत्परिहारविशुद्धिक, शेषं तथैव, एतच द्विविध-निर्विशमानकं निर्विष्टकायिकं च, तत्र निर्विशमानकास्तदासेव-द्र कास्त दव्यतिरेकाचदपि निर्विशमानकम्, आसेवितविवक्षितचारित्रकायास्तु निर्विष्टकायास्त एव निर्विष्टकायिकास्तदव्यतिरेकात्तदपि निर्विष्टकायिकमिति, इह च नवको गणो भवति, तत्र चत्वारः परिहारिका भवन्ति, अपरे तु तद्वैयावृत्त्य
कराश्चत्वार एवानुपरिहारिकाः, एकस्तु कल्पस्थितो वाचनाचार्यो गुरुभूत इत्यर्थः, एतेषां च निर्विशमानकानामयं परि-1 & हारः-परिहारियाण उ तबो जहन्न मझो तहेव उक्कोसो। सीउण्हवासकाले भणिो धीरेहिं पत्तेयं ॥१॥ तस्थ
जहनो गिम्हे चउत्थ छह तु होइ मज्झिमओ। अममिह उक्कोसो एत्तो सिसिरे पवक्खामि ॥२॥ सिसिरे उ जहन्नाई
छहाई दसमचरिमगा होति । वासासु अट्ठमाई वारसपजन्तओ इ ॥ ३॥ पारणगे आयाम पंचसु गह दोसऽभिग्गहो & भिक्खे । कप्पट्टिया य पइदिण करेंति एमेव आयामं ॥४॥ इह सप्तस्वेषणासु मध्ये आद्ययोरग्रह एव, पञ्चसु पुनम्रहः,
-परिहारिकाणां तपो जघन्य मध्यम तथैवोत्कृष्टं । शीतोष्णवर्षाकाले धीरैः प्रत्येकं भणितम् ॥ १ ॥ तत्र जघन्यं प्रीष्मे चतुर्थः षष्ठं तु भवति मध्यमः । इहाष्टम उत्कृष्टं इतः शिशिरे प्रवक्ष्यामि ॥२॥ शिशिरे तु जघन्यादिषु षष्ठाय दशमचरमं भवति । वर्षाखष्टमादि ॥ द्वादशमपर्यन्तं नयति ततः ॥३॥ पारणके आचाम्ल पञ्चस्वेकस्य अहः दूयोरभिग्रहो मिक्षायाम् । कल्पखिताश्च प्रतिदिनमाचामाम्लमेव कुर्वन्ति ॥४॥
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३२०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३२०
दीप अनुक्रम [३९३]
व्याख्या-भला तत्राप्येकतरया भक्कमेकतरया च पानकमित्येवं द्वयोरभिग्रहोऽवगन्तव्य इति । एवं छम्मासतवं चरि परिहारिगा अणु-| दशतके
प्रज्ञप्तिः ॥ चरंति। अनुचरगे परिहारियपयलिए जाव छम्मासा॥५|कप्पडिओवि एवं छम्मासतवं करेड सेसा उ । अणुपरिहारिगभावं वयंति ||६|| उद्देशः २ अभयदेवीला कप्पडियत्तं च ॥६॥ एवेसो अट्ठारसमासपमाणो उ वणिओ कप्पो । संखेवओ विसेसो सुत्ता एयस्स णायवो ॥७॥
ज्ञानाज्ञाना या वृत्तिः१ कप्पसमत्तीइ तयं जिणकप्पं वा ज्वेति गर्छ वा । पडिवजमाणगा पुण जिणस्सगासे पवनंति ॥८॥तित्थयरसमी-|
नि मत्यादी वासेवगरस पासे व नो य अन्नस्स । एएसिं जं चरणं परिहारबिसुद्धियं तं तु ॥९॥" अन्यैस्तु व्याख्यातं-परिहारतो ॥३५॥
सू ३२० मासिकं चतुर्लयादि तपश्चरति यस्तस्य परिहारिकचरित्रलब्धिर्भवतीति, इदं च परिहारतपो यथा स्यात्तथोच्यते"नवमस्स तइयवरधु जहन्न उकोस ऊणगा दस उ । सुत्तत्थभिग्गहा पुण दबाइ तवो रयणमाती ॥१॥" अयमर्थ:यस्य जघन्यतो नवमपूर्वं तृतीयं वस्तु यावद्भवति उत्कर्षतस्तु दश पूर्वाणि न्यूनानि सूत्रतोऽर्थतो भवन्ति, द्रव्यादयश्चाभिग्रहा रत्नावल्यादिना च तपस्तस्य परिहारतपो दीयते, तद्दाने च निरुपसर्गार्थ कायोत्सर्गों विधीयते, शुभेच नक्षत्रादौ
१ एवं षण्मासी तपश्चरित्वा परिहारिका अनुचरन्ति । अनुचरकाः परिहारिकपदखिता भवन्ति यावषण्मासाः ॥ ५॥ कल्पखितोऽप्येवं | षण्मासी तपः करोति शेषास्त्वनुपरिहारिकभावं कल्पस्थितत्वं च ब्रजन्ति ॥ ६॥ एवमेषोऽष्टादशमासप्रमाणस्तु फल्लो वर्णितः । सङ्केपतो विशे| घस्वेतस्य सूत्राज्ञातव्यः ॥ ७ ॥ कल्पसमाप्तौ तं जिनकल्प वा गच्छं वोपयन्ति। प्रतिपद्यमानकाः पुनर्जिनसकाशे प्रपद्यन्ते ॥८॥ तीर्थङ्कर- ॥३५॥ || समीपासेवकस्य पाई वा अन्यस्य पार्थे न । एतेषां यच्चरणं तत्तु परिहारविशुद्धिकम् ॥ ९॥२-नवमस्य तृतीयवस्तु यावजधन्यत उत्कृष्टत ऊनानि दश । सूत्राभ्यां द्रव्यादयोऽभिग्रहाः पुनस्तपो रलावल्यादि ॥ १॥
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[३२०]
दीप
अनुक्रम [३९३]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [२], मूलं [३२०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
तत्प्रतिपत्तिः, तथा गुरुस्तं ब्रूते यथाऽहं तव वाचनाचार्यः अयं च गीतार्थः साधुः सहायस्ते, शेषसाधवोऽपि वाच्याः, यथा
स तवं पडिवज्जइ न किंचि आलवइ मा य आलवह । अत्तद्वचिंतगस्स उ वाघाओ भे न कायो ॥ १ ॥” तथा कथम| हमालापादिरहितः संस्तपः करिष्यामीत्येवं बिभ्यतस्तस्य भयापहारः कार्यः, कल्पस्थितश्च तस्यैतत्करोति — " किंइकम्मं |च पडिच्छ परिन्न पडिपुच्छयपि से देइ । सोवि य गुरुमुवचिइ उदंतमवि पुच्छिओ कहइ ॥ १ ॥ इह परिज्ञा-प्रत्याख्यानं प्रतिपृच्छा वालापकः, ततोऽसौ यदा ग्लानीभूतः सन्नुत्थानादि स्वयं कर्त्तुं न शक्नोति तदा भणति उत्थानादि कर्त्तुमिच्छामि ततोऽनुपरिहारकस्तूष्णीक एव तदभिप्रेतं समस्तमपि करोति, आह च - "उहेज निसीएजा भिक्ख हिंडेज्ज भंडगं पेहे। कुवियपियबंधवस्त व करेइ इयरोवि तुसिणीओ ॥ १ ॥" तपश्च तस्य ग्रीष्मशिशिरवर्षासु जघन्यादिभेदेन चतुर्थादिद्वादशान्तं पूर्वोक्तमेवेति । 'मुहमसंपरायचरितलद्धि'त्ति संपरैति - पर्यटति संसारमेभिरिति सम्प रायाः कषायाः सूक्ष्मा-लोभांशावशेषरूपाः सम्पराया यत्र तत् सूक्ष्मसम्परायं शेषं तथैव, एतदपि द्विधा-विशुद्धयमानकं सङ्क्लिश्यमानकं च तत्र विशुद्धयमानकं क्षपकोपशमकश्रेणिद्वयमारोहतो भवति १ सक्लिश्यमानकं तूपशमश्रेणीतः प्रच्यवमानस्येति २ । 'अहरवायचरितलडी' ति यथा येन प्रकारेण आख्यातं - अभिहितमकषायतयेत्यर्थः तथैव यत्तद्यः
ज्ञानादि अधिकार:
१ एप तपः प्रतिपद्यते न किञ्चिदालपिप्यति मा च लीलपध्वं । आत्मार्थचिन्तकस्य भवद्भिर्व्याघातो न कर्त्तव्यः ॥ १ ॥ २ कृतिकर्म | प्रतीच्छति प्रत्याख्यानं प्रतिपृच्छामपि तस्मै ददाति । सोऽपि च गुरुमुपतिष्ठते उदन्तमपि पृष्टः कथयति ॥ १ ॥ ३-उत्तिष्ठेत् निषीदेत् भिक्षां हिण्डेत भाण्डं प्रेक्षेत । कुपितप्रियवान्धवस्येव करोति इतरोऽपि तूष्णीकः ॥ १ ॥
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३२०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
व्याख्या
प्रत सूत्रांक [३२०]
ख्या-1 थाख्यातं, तदपि द्विविधम्-उपशमकक्षपकश्श्रेणिभेदात, शेषं तथैवेति ॥ एवं 'चरित्ताचरित्ते'त्यादौ, 'एगागारति शतके प्रज्ञप्तिः मूलगुणोत्तरगुणादीनां तद्भेदानामविवक्षणात् द्वितीयकवायक्षयोपशमलभ्यपरिणाममात्रस्यैव च विवक्षणाचरित्राचरित्र-18 उद्देशान
लब्धेरेकाकारत्वमवसेयम् । एवं दानलब्ध्यादीनामप्येकाकारत्वं, भेदानामविवक्षणात् ॥ 'बालवीरियलद्धी त्यादि, बाल- ज्ञानाज्ञाना यावृत्तिः स्य-असंयतस्य यद्वीर्य-असंयमयोगेषु प्रवृत्तिनिबन्धनभूतं तस्य या लब्धिश्चारित्रमोहोदयावीर्यान्तरायक्षयोपशमाञ्च सा
नि गत्यादी 18 तथा, एवमितरे अपि यथायोग वाच्ये, नवरं पण्डितः-संयतो, बालपण्डितस्तु संयतासंयत इति ॥ 'तस्स अलद्धि-8
सू३२० ॥३५॥
या णं'ति तस्य ज्ञानस्य अलब्धिका:-अलब्धिमन्तः ज्ञानलब्धिरहिता इत्यर्थः । 'आभिणियोहियमाणे त्यादि, आभि| निबोधिकज्ञानलब्धिकामां चत्वारि ज्ञानानि भजनया, केवलिनो नास्त्याभिनिवोधिकज्ञानमिति, मतिज्ञानस्यालन्धिकास्तु ये ज्ञानिनस्ते केवलिनस्ते चैकज्ञानिन एव, ये त्वज्ञानिनस्तेऽज्ञानद्वयवन्तोऽज्ञानत्रयवन्तो वा, एवं श्रुतेऽपि ।
ओहिमाणलद्धी'त्यादि, अवधिज्ञानलग्धिकास्त्रिज्ञानाः केवलमनःपर्यायासद्भावे चतुर्ताना वा केवलाभावात्, अवधिज्ञानस्खालब्धिकास्तु ये ज्ञानिनस्ते द्विज्ञाना मतिश्रुतभावात् , त्रिज्ञाना वा मतिश्रुतमनःपर्यायभावात् , एकज्ञाना षा केवलभावात् , ये स्वज्ञानिनस्ते यज्ञाना मत्यज्ञानश्रुताज्ञानभावात् , व्यज्ञाना वाऽजानत्रयखापि भावा-13 त् ।'मणपजवे'त्यादि, मनःपर्यवज्ञानलब्धिकास्त्रिज्ञाना अवधिकेवलाभावात् , चतुर्ज्ञाना वा केवलस्येवाभावात् , मन:-1||
॥३५२॥ |पयेंवज्ञानस्यालब्धिकास्तु ये शानिनस्ते विज्ञाना आद्यद्वयभावात् , त्रिज्ञाना वाऽऽपत्रयभावात् , एकज्ञाना वा केवलदैव भावात्, ये त्वज्ञानिनस्ते यज्ञामा आद्याज्ञानद्वयभावात्, व्यज्ञाना वाऽज्ञानत्रयस्यापि भावात्, 'केचलमाणे त्यादि
दीप अनुक्रम [३९३]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३२०
दीप अनुक्रम [३९३]
BHAENCES
|| केवलज्ञानलब्धिका एकज्ञानिनस्ते च केवलज्ञानिन एव, केवलज्ञानस्यालब्धिकास्तु ये ज्ञानिनस्तेषामायं ज्ञानद्वयं तत्रयं जामतिश्रुतावधिज्ञानानि मतिश्रुतमनःपर्यायज्ञानानि वा केवलज्ञानवर्जानि चत्वारि वा ज्ञानानि भवन्ति, ये त्वज्ञानिनस्तेषामा
चमज्ञानद्वयं तत्रयं वा भवतीत्येवं भजनाऽवसेयेति ॥ 'अन्नाणलद्धियाण'मित्यादि, अज्ञानलब्धिका अज्ञानिनस्तेषां च त्रीण्यज्ञानानि भजनया, द्वे अज्ञाने त्रीणि वाऽज्ञानानीत्यर्थः, अज्ञानालन्धिकास्तु ज्ञानिनस्तेषां च पञ्च ज्ञानानि भजनया पूर्वोपदर्शितया पाच्यानि, 'जहा अन्नाणे'त्यादि, अज्ञानलब्धिकानां त्रीण्यज्ञानानि भजनयोक्तानि मत्यज्ञानश्रुताज्ञानलब्धिकानामपि तानि तथैव, तथाऽज्ञानालब्धिकानां पञ्च ज्ञानानि भजनयोकानि, मत्यज्ञानश्रुताज्ञानालब्धिकानामपि पञ्च ज्ञानानि भजनयैव वाच्यानीति । 'विभंगे'त्यादि, विभङ्गज्ञानलब्धिकानां तु त्रीण्यज्ञानानि नियमात्, तदलब्धि| कानां तु ज्ञानिनां पच ज्ञानानि भजनया, अज्ञानिनां च द्वे अज्ञाने नियमादिति ॥'दसणलही त्यादि, 'दर्शनलब्धिकाः ||
श्रद्धानमात्रलब्धिका इत्यर्थः ते च सम्यश्रद्धानवन्तो ज्ञानिनस्तदितरे त्वज्ञानिनः, तत्र ज्ञानिनां पञ्च ज्ञानानि भजनया, ॐ अज्ञानिनां तु त्रीण्यज्ञानानि भजनयैवेति । 'तस्स अलद्धिया नत्थिति तस्य दर्शनस्य येषामलब्धिस्ते न सन्त्येव,
सर्वजीवानां रुचिमात्रस्यास्तित्वादिति । 'सम्मईसणलद्धियाणं'ति सम्यग्दृष्टीना, 'तस्स अलद्धियाण'मित्यादि,
तस्यालन्धिकानां सम्यग्दर्शनस्यालम्धिमतां मिध्यादृष्टीनां मिश्रदृष्टीनां च त्रीण्यज्ञामानि भजनया, यतो मिश्रदृष्टीनामप्य-18 & ज्ञानमेष, तात्त्विकसद्धोधहेतुत्वाभावान्मिश्रस्येति । 'मिच्छादसणलद्धियाणं ति मिथ्यादृष्टीना, 'तस्स अलद्धियाण'
मित्यादि, 'तस्यालग्धिकानां' मिथ्यादर्शनस्यालब्धिमतां सम्यग्दृष्टीनां मिश्रदृष्टीनां च क्रमेण पञ्च ज्ञानानि त्रीण्यज्ञानानि
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[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३२०]
सू३२०
दीप अनुक्रम [३९३]
व्याख्याच भजनयेति ॥'चरित्तली'त्यादि चरित्रलब्धिका ज्ञानिन एव, तेषां च पञ्च ज्ञानानि भजनया, यतः केवल्यपि ८ शतके
प्रज्ञप्तिः चारित्री। चारित्रालन्धिकास्तु ये ज्ञानिनस्तेषां मनःपर्यववर्जानि चत्वारि ज्ञानानि भजनया भवन्ति, कथम् ', असंब- उद्देशः२ अभयदेवी- तत्वे आद्यं ज्ञानद्वयं तत्रयं वा, सिद्धत्वे च केवल ज्ञान, सिद्धानामपि चरित्रलब्धिशुन्यत्वाद् , यतस्ते नोचारित्रिणो ज्ञानाज्ञाना या वृत्तिः नोअचारित्रिण इति, ये त्वज्ञानिनस्तेषां त्रीण्य ज्ञानानि भजनया। 'सामाइए'त्यादि, सामायिकचरित्रलब्धिका ज्ञानिन न गत्यादी ॥२५॥
एव, तेषां च केवलज्ञानवर्जानि चत्वारि ज्ञानानि भजनया, सामायिकचरित्रालब्धिकास्तु ये ज्ञानिनस्तेषां पञ्च ज्ञानानि भजनया, छेदोपस्थापनीयादिभावेन सिद्धभावेन वा, ये त्वज्ञानिनस्तेषां त्रीण्यज्ञानानि भजनया । एवं छेदोपस्थापनी-|
यादिष्वपि वाच्यम् , एतदेवाह-'एच'मित्यादि, तत्र छेदोपस्थापनीयादिचरित्रत्रयलब्धयो ज्ञानिन एव, तेषां चाद्यानि I ४ चत्वारि ज्ञानानि भजनया, तदलब्धयो यथाण्यातचारित्रलब्धयश्च ये ज्ञानिनस्तेषां पश्च ज्ञानानि भजनया, ये त्वज्ञानि-15
नस्तेषामज्ञानत्रयं भजनयैव, यथाख्यातचारित्रलब्धिकानां तु विशेषोऽस्ति अतस्तद्दर्शनायाह-'नवरं अहक्खायेत्यादि, द्र सामायिकादिचारित्रचतुष्टयलब्धिमतां छद्मस्थत्वेन चत्वार्येव ज्ञानानि भजनया, यथाख्यातचारित्रलब्धिमतां छद्मस्थेX/ तरभावेन पञ्चापि भजनया भवन्तीति तेषां तथैव तान्युक्तानीति ॥ 'चरिताचरिते'त्यादौ, तस्स अलद्धिय'त्ति चरि-13 त्राचरित्रस्यालब्धिकाः श्रावकादन्ये, ते च ये ज्ञानिनस्ते (पां) पञ्च ज्ञानानि भजनया, ये त्वज्ञानिनस्तेषां त्रीण्यज्ञानानि ||
॥३५३॥ भजनयैव ॥ 'दाणलद्धी'त्यादि, दानान्तरायक्षयक्षयोपशमाद्दाने दातव्ये लब्धियेषां ते दानलब्धया,ते च ज्ञानिनोऽज्ञानि-1|| निश्च, तत्र ये ज्ञानिनस्तेषां पश्च ज्ञानानि भजनया, केवलज्ञानिनामपि दानलब्धियुक्तत्वात् , ये खज्ञानिनस्तेषां त्रीण्यज्ञा
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[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [२], मूलं [ ३२० ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
| नानि भजनयैव, दानस्यालब्धिकास्तु सिद्धास्ते च दानान्तरायक्षयेऽपि दातव्याभावात् सम्प्रदानासत्त्वाद्दानप्रयोजनाभावाच्च दानालब्धय उक्तास्ते च नियमात्केवलज्ञानिन इति ॥ लाभभोगोपभोगवीर्यलब्धीः सेतरा अतिदिशन्नाह - 'एव'| मित्यादि, इह चालब्धयः सिद्धानामेवोक्तन्या यादवसेयाः, ननु दानाद्यन्तरायक्षयात्केवलिनां दानादयः सर्वप्रकारेण | कस्मान्न भवन्ति ? इति उच्यते, प्रयोजनाभावात्, कृतकृत्या हि ते भगवन्त इति । 'बालबीरियलदियाण' मित्यादि, बालवीर्यलब्धयः-असंयताः तेषां च ज्ञानिनां त्रीणि ज्ञानानि अज्ञानिनां च त्रीण्यज्ञानानि भजनया भवन्ति, तदलब्धिकास्तु संयताः संयतासंयताश्च ते च ज्ञानिन एव एतेषां च पञ्च ज्ञानानि भजनया । 'पंडियबीरिये' त्यादौ, 'तस्स अलद्धियाणं ति असंयतानां संयतासंयतानां सिद्धानां चेत्यर्थः, तत्रासंयतानामाद्यं ज्ञानत्रयमज्ञानत्रयं च भजनया, संयतासंयतानां तु ज्ञानत्रयं भजनयैव भवति, सिद्धानां तु केवलज्ञानमेव, मनःपर्यायज्ञानं तु पण्डितवीर्यलब्धिमतामेव भवति नान्येषामत उक्तं 'मणपज्जवे'त्यादि, सिद्धानां च पण्डितवीर्यालब्धिकत्वं पण्डितवीर्यवाच्ये प्रत्युपेक्षणायनुष्ठाने। प्रवृत्त्यभावात्, 'बालपंडिए' इत्यादौ, तस्स अलद्वियाणं'ति अश्रावकाणामित्यर्थः ॥ 'इंदियलद्धियाण' मित्यादि, इन्द्रि यलब्धिका ये ज्ञानिनस्तेषां चत्वारि ज्ञानानि भजनया, केवलं तु नास्ति तेषां केवलिनामिन्द्रियोपयोगाभावात्, ये त्वज्ञानिनस्तेषामज्ञानत्रयं भजनयैवेति, इन्द्रियालब्धिकाः पुनः केवलिन एवेत्येकमेव तेषां ज्ञानमिति । 'सोइंदिय' इत्यादि, श्रोत्रेन्द्रियलब्धय इन्द्रियलब्धिका इव वाच्याः, ते च ये ज्ञानिनस्तेऽकेवलित्वादाद्यज्ञानचतुष्टयवन्तो भजनया भवन्ति, अज्ञानिनस्तु भजनया त्र्यज्ञानाः, श्रोत्रेन्द्रियालब्धिकास्तु ये ज्ञानिनस्ते आद्यद्विज्ञानिनः, तेऽपर्याप्तकाः सासा
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[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३२०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३२०
दीप अनुक्रम [३९३]
व्याख्या- |दनसम्यग्दर्शनिनो विकलेन्द्रियाः, एकज्ञानिनो वा केवलज्ञानिनः, ते हि श्रोत्रेन्द्रियालब्धिका इन्द्रियोपयोगाभावात् , ये 80 शतके प्रज्ञप्तिः
द त्वज्ञानिनस्ते पुनराद्याज्ञानद्वयवन्त इति । 'चक्खिदिए इत्यादि, अयमर्थः-यथा श्रोत्रेन्द्रियलब्धिमतां चत्वारि ज्ञानानि । उद्देशः २ अभयदेवी-18 यावृत्तिः१
भजनया त्रीणि चाज्ञानानि भजनयैव तदलब्धिकानां च द्वे ज्ञाने द्वे चाज्ञाने एकच ज्ञानमुक्तमेवं चक्षुरिन्द्रियलब्धि- ज्ञानाज्ञाना कानां घाणेन्द्रियलब्धिकानां च तदलब्धिकानां च वाच्यं, तत्र चक्षुरिन्द्रियलब्धिका घ्राणेन्द्रियलब्धिकाश्च ये पश्चेन्द्रि- नगत्यादा
यास्तेषां केवलवर्जानि चत्वारि ज्ञानानि त्रीणि चाज्ञानानि भजनयैव, ये तु विकलेन्द्रियाश्चक्षुरिन्द्रियमाणेन्द्रियलब्धि॥३५४||
सू ३२० कास्तेषां सासादनसम्यग्दर्शनभावे आद्यं ज्ञानद्वयं तदभावे त्वाद्यमेवाज्ञानद्वयं, चक्षुरिन्द्रियघ्राणेन्द्रियालब्धिकास्तु यथायोग विषेकेन्द्रियाः केवलिनश्च, तन्त्र द्वीन्द्रियादीनां सासादनभावे आद्यज्ञानद्वयसम्भवः, तदभावे त्वाधाज्ञानद्वयस-1 म्भवः, केवलिनां वे केवल ज्ञानमिति । 'जिन्भिदिय इत्यादौ, 'तस्स अलद्विय'त्ति जिह्वालन्धिवर्जिताः, ते च केव-| |लिन एकेन्द्रियाश्चेत्यत आह–'नाणीवी'त्यादि, ये ज्ञानिनस्ते नियमात्केवल ज्ञानिनः येऽज्ञानिनस्ते नियमाद् त्यज्ञा-| निनः एकेन्द्रियाणां सासादनभावतोऽपि सम्यग्दर्शनस्याभावाद् विभङ्गाभावाचेति । 'फार्सिदिय' इत्यादि, स्पर्शनेन्द्रि-1 |यलब्धिकाः केवलवर्जज्ञानचतुष्कवन्तो भजनया तथैवाज्ञानत्रयवन्तो वा, स्पर्शनेन्द्रियालब्धिकास्तु केवलिन एव, इन्द्रियलमध्यलब्धिमन्तोऽप्येवंविधा एवेत्यत उक्तं 'जहा इंदिए इत्यादि ॥ उपयोगद्वारे
सागारोवउत्ताणं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी, पंच नाणा तिनि अन्नाणाई भयणाए ॥ आमिणि-18/ ॥२५॥ बोहियनाणसाकारोवउत्ता णं मंते ! चत्तारि णाणाई भयणाए । एवं सुयनाणसागारोवउत्तावि । ओहिना
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[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति: ]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [२], मूलं [३२१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
णसागारोवउत्ता जहा ओहिना णलद्धिया, मणपज्जवनाणसागारोवउत्ता जहा मणपज्जवनाणलद्धिया, केवलनाणसागारोवउत्ता जहा केवलनाणलद्धिया, महअन्नाणसागारोवउत्ताणं तिन्नि अन्नाणाई भयणाए, एवं | सुयअन्नाणसागारोवउत्तावि, विभंगनाणसागारोवउत्ताणं तिन्नि अन्नाणारं नियमा || अणागारोवउत्ता णं भंते! जीवा किं नाणी अन्नाणी ?, पंच नाणाई तिनि अन्नाणाई भयणाए । एवं चक्खुदंसणअचक्खुदंसणअणागारोवउत्सावि, नवरं चत्तारि णाणाई तिन्नि अन्नाणाई भयणाए, ओहिदंसणअणागारोवउत्ताणं पुच्छा, गोयमा ! नाणीवि अन्नाणीवि, जे नाणी ते अत्थेगतिया तिन्नाणी अत्येगतिया चडनाणी, जे तिन्नाणी ते आभिणिवोहिय० सुयनाणी ओहिनाणी, जे चउणाणी ते आभिणिवोहियनाणी जाव मणपञ्जवनाणी, जे अन्नाणी ते नियमा तिअन्नाणी, तंजहा- मइअन्नाणी सुयअन्नाणी विभंगनाणी, केवलदंसणअणागारोवउत्ता जहा केवलनाणलद्धिया ॥ सजोगी णं भंते । जीवा किं नाणी जहा सकाइया, एवं मणजोगी बहजोगी कायजोगीवि, अजोगी जहा सिद्धा ॥ सलेस्सा गं भंते! जहा सकाइमा, कण्हलेस्ला नं भंते ! जहा सईदिया, एवं जाब पहलेसा, सुकलेस्सा जहा सलेस्सा, अलेस्सा जहा सिद्धा ॥ सकलाई णं भंते ! जहां सइंदिया एवं जान लोहकसाई, अकसाई मं मंते ! पंच माणाई भयणाए ॥ सवेदगा णं भंते! जहा सईदिया एवं इक्विवेदमावि, एवं पुरिसवेवगा एवं मपुंसकवे, अवेदगा जहा अकसाई || आहारगा णं ते!
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३२१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३२१]
ज्ञानाज्ञाने
दीप अनुक्रम [३९४]
व्याख्या- जीवा जहा सकसाई नवरं केवलनाणंपि, अणाहारगाणं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी, मणप-IXI ८ शतके प्रज्ञप्ति जवनाणवजाई नाणाई अन्नाणाणि य तिन्नि भयणाए ॥ (सूत्रं ३२१)॥
| उद्देशः२ अभयदेवीयाला 'सागारोवउत्तेत्यादि, आकारो-विशेषस्तेन सह यो बोधः स साकारः, विशेषग्राहको बोध इत्यर्थः, तस्मिन्नुपयुक्ताः
|| उपयोगातसंवेदका ये ते साकारोपयुक्ताः, ते च ज्ञानिनोऽज्ञानिनश्च, तत्र ज्ञानिना पच ज्ञानानि भजनया-स्याद् द्वे स्थात्रीणि स्या
दिषु ॥३५५|| चत्वारि स्यादेक, यश्च स्यादेकं यच्च स्याद्वे इत्याधुच्यते तल्लब्धिमात्रमङ्गीकृत्य, उपयोगापेक्षया त्वेकदा एकमेव ज्ञानमज्ञानं ||3||
सू ३२१ वेति,अज्ञानिनां तु त्रीण्य ज्ञानानि भजनयैवेति॥ अथ साकारोपयोगभेदापेक्षमाह-'आभिणी'त्यादि, ओहिनाणसागारेत्यादि, अवधिज्ञानसाकारोपयुक्ता यथाऽवधिज्ञानलब्धिकाः प्रागुक्ताः स्यात् त्रिज्ञानिनो मतिश्रुतावधियोगात् स्याच्च-| || तुर्तानिनो मतिश्रुतावधिमनःपर्यवयोगात्तथा वाच्याः । 'मणपज्जवे'त्यादि, मनःपर्यवज्ञानसाकारोपयुक्ता यथा मनःपये&| वज्ञानलब्धिकाः प्रागुक्ताः स्थात्रिज्ञानिनो मतिश्रुतमनःपर्यवयोगात् स्याञ्चतानिनः केवलवर्जज्ञानयोगात्तथा धाच्या *
इति ॥'अणागारोवउत्ता ण'मित्यादि, अविद्यमान आकारो यत्र तदनाकार-दर्शनं तत्रोपयुक्ताः-तत्संवेदनका ये ते | |४|| तथा, ते च ज्ञानिनोऽज्ञानिनश्च, तत्र ज्ञानिनां लब्ध्यपेक्षया पञ्च ज्ञानानि भजनया, अज्ञानिनां तु त्रीण्यज्ञानानि भज|नयैव । 'एच'मित्यादि, यथाऽनाकारोपयुक्ता ज्ञानिनोऽज्ञानिनश्चोक्काः एवं चक्षुर्दर्शनाद्युपयुक्ता अपि, 'नवरति विशेषः
& ॥३५५|| पुनरयं-चक्षुर्दर्शनेतरोपयुक्ताः केवलिनो न भवन्तीति तेषां चत्वारि ज्ञानानि भजनयेति ॥ योगद्वारे-सजोगीण'मि-18 त्यादि, जहा सकाइय'त्ति प्रागुक्त कायद्वारे यथा सकायिका भजनया पञ्चज्ञानाख्यज्ञानाश्चोक्तास्तथा सयोगा अपि वाच्याः
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३२१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३२१]
एवं मनोयोग्यादयोऽपि, केवलिनोऽपि मनोयोगादीनां भावात् , तथा मिथ्याशा मनोयोगादिमतामज्ञानत्रयभावाचा 'अजोगी जहा सिद्ध'त्ति अयोगिनः केवललक्षणेकज्ञानिन इत्यर्थः ।। लेश्याद्वारे-'जहा सकाइय'त्ति सलेश्याः सका। यिकवद्भजनया पञ्चज्ञानारूयज्ञानाश्च वाच्याः, केवलिनोऽपि शुक्ललेश्यासम्भवेन सलेश्यत्वात् , 'कण्हलेसे'त्यादि, 'जहार सइंदिय'त्ति कृष्णलेश्याश्चतुज्ञानिनस्यज्ञानिनश्च भजनयेत्यर्थः, 'सुक्कलेसा जहा सलेस'त्ति पञ्चज्ञानिनो भजनया |व्यज्ञानिनश्चेत्यर्थः । 'अलेस्सा जहा सिद्ध'त्ति एकज्ञानिन इत्यर्थः ॥ कषायद्वारे–'सकसाई जहा सइंदिय'त्ति भज
नया केवलवर्जचतुर्जामिनस्यज्ञानिनश्चेत्यर्थः, 'अकसाईण'मित्यादि, अकषायिणां पच ज्ञानानि भजनया, कथम् 1,8 - उच्यते, छद्मस्थो वीतरागः केवली चाकषायः, तत्र च छद्मस्थवीतरागस्याद्यं ज्ञानचतुष्कं भजनया भवति, केवलिनख | पञ्चममिति ॥ वेदद्वारे-'जहा सईदिय'त्ति सवेदकाः सेन्द्रियवद्भजनया केवलवर्जचतुर्शानिनस्यज्ञानिनश्च वाच्याः, 'अवेदगा जहा अकसाइ'त्ति अवेदका अकपायिवद्जनया पश्च ज्ञाना वाच्याः, यतोऽनिवृत्तिवादरादयोऽवेदका भवन्ति, तेषु च छद्मस्थानां चत्वारि ज्ञानानि भजनया केवलिनां तु पञ्चममिति ॥ आहारकद्वारे-'आहारगे'त्यादि, सकषाया | भजनया चतुर्ज्ञानाख्यज्ञानाश्चोक्ताः आहारका अप्येवमेव, नवरमाहारकाणां केवलमप्यस्ति, केवलिन आहारकत्वादपीति, 'अणाहारगा णमित्यादि, मनःपर्यवज्ञानमाहारकाणामेव, आर्य पुननित्रयमज्ञानत्रयं च विद्महे भवति, केवलं च ४ केवलिसमुद्घातशैलेशीसिद्धावस्थास्वनाहारकाणामपि सादत उकं 'मणपजवे'त्यादि ।। अथ ज्ञानगोचरद्वारे
आभिणिबोहियनाणस्स णं भंते ! केवतिए विसए पन्नत्ते, गोयमा से समासओ चउधिहे पन्नत्ते, तंज
दीप अनुक्रम [३९४]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३२२-३२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०५], अंग सूत्र - [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३२२३२३]
दहा-दचओ खेत्तओ कालओ भावओ, दवओणं आभिणियोहियनाणी आएसेणं सषदवाई जाणइ पासह, दी
८ शतके प्रज्ञप्तिः खेसओ आभिणिबोयिणाणी आएसेणं सबखेत्तं जाणइ पासह, एवं कालओवि, एवं भावओवि । सुय- उद्देश अभयदेवी- || नाणस्स णं भंते ! केवतिए विसए पण्णत्ते, गोयमा ! से समासओ चउविहे पण्णत्ते, तंजहा-दवओ४, मत्यादीनां या वृत्तिः१ दवओणं सुयनाणी उबउत्ते सबदचाई जाणति पासति, एवं खेत्तओवि कालओवि, भावओ णं सुयनाणी विषयक ॥३५६॥
उवउसे सवभावे जाणति पासति । ओहिनाणस्स णं भंते ! केवतिए विसए पन्नत्से?, गोयमा ! से समासओ योयाश्च चउधिहे पण्णत्ते, तंजहा-दवओ४, दयओ णं ओहिनाणी रूविदवाई जाणइ पासइ जहा नंदीए जाव भावओ।|| सू२२१ मणपज्जवनाणस्स गंभंते । केबतिए विसर पण्णते?,गोयमा! से समासओ चउबिहे पण्णते, तंजहा-दवओ४८ दवओ गं उज्जुमती अणते अर्णतपदेसिए जहा नंदीए जाव भावओ। केवलनाणस्स णं भंते ! केवतिए विसए पण्णते?, गोयमा से समासओ चउबिहे पत्ते, तंजहा-दवओ खेतओ कालओ भावओ, दधओ || केवलनाणी सचदघाई जाणह पासह एवं जाच भावओ॥ महअनाणस्स णं भंते ! केवतिए विसए पसे । गोयमा 1 से समासओ चरविहे पलसे, तंजहा-दवओ खेत्तओ कालओ भावओ, दवओ में मइअन्नाणी ||*
महअशाणपरिगयाई दवाइं जाणह, एवं जाव भावो महअनाणी महअन्नाणपरिगए भावे जाणइ पासह। & सुपअन्माणस्स णं भंते ! केवतिए विसर पण्णत्ते. गोयमा से समासओ चउबिहे पण्णसे, तंजहा-दघओ [दघओर्ण सुयअन्नाणी सुयभन्माणपरिमयाई दवाई आघवेति पन्नवेति परूवेह एवं खेत्तओ काली, भावओ णं|
*
दीप अनुक्रम [३९५-३९६]
ॐॐॐॐ58
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...अत्र मूल-संपादने सूत्र-क्रमांकने स्खलना दृश्यते- अत्र सू.३२३ लिखितम्, तत् सू.३२२ अस्ति
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[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३२२-३२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [३२२३२३]
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सुयअन्नाणी सुयअन्नाणपरिगए भाचे आघवेति तं चेव । विभंगणाणस्त भंते ! केवतिए विसर पणते ?, गोयमा ! से समासओ चउविहे पण्णते, तंजहा-दवओ ४, दवाओणं विभंगनाणी विभममाणपरिगयाई दवाई जाण पासह, एवं जाव भावओ गं विभंगनाणी विभंगनाणपरिगए भावे जाणा पासह (सर्व३२२) णाणी ण भंते ! गाणीति कालओ केवञ्चिरं होइ ?, गोयमा! नाणी दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-साइए वा अपजवसिए साइए वा सपजवसिए, तत्थ णं जे से साइए सपजबसिए से जहन्नेणं अंतोमुलुत्तं उक्कोसेणं छावहिं सागरोवमाई सातिरेगाई। आभिणियोहियणाणी णं भंते ! आभिणियोहिय० एवंनाणी आभिणियोहियनाणी जाव केवल-2 नाणी । अन्नाणी माइअनाणी सुपअन्नाणी विभंगनाणी, एएसिं दसहवि संचिट्ठणा जहा कापठिए ॥8॥ अंतरं सर्व जहा जीवाभिगमे ॥ अप्पाबहुगाणि तिनि जहा बहुवत्तषयाए ॥ केवतिया णं भंते !! आभिणियोहियणाणपज्जया पण्णता ?, गोयमा ! अणंता आभिणियोहियणाणपजवा पण्णत्ता । केवतिया णं || भंते ! सुयनाणपजवा पपणत्ता, एवं चेव एवं जाव केवलनाणस्स । एवं मइअन्नाणस्स सुयअन्नाणस्स, केवतिया णं भंते ! विभंगनाणपज्जवा पण्णत्ता?, गोयमा ! अणंता विभंगनाणपल्लवा पण्णत्ता, एएसिणं भंते!
आभिणियोहियनाणपज्जवाणं सुयनाण. ओहिनाण. मणपज्जवनाण केवलनाणपज्जवाण य कयरे २ जाव ४ विसेसाहिया वा?, गोयमा ! सबथोवा मणपज्जवनाणपजवा ओहिनाणपजवा अणंतगुणा सुयनाणपज्जवा
अर्णतगुणा आभिणिचोहियनाणपजवा अणंतगुणा केवलनाणपजवा अणंतगुणा ॥ एएसिणं भंते ! मइअन्ना
दीप अनुक्रम [३९५-३९६]
25%84%434%
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[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३२२-३२३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३२२३२३]
व्याख्या
INTणपज्जवाणं सुयअन्नाणविभंगनाणपजवाण य कयरे २ जाव विसेसाहिया वा?, गोयमा सवयोवा विभंग-I||८ शतके अभयदेवी-नाणपज्जवा सुयअन्नाणपजवा अर्णतगुणा महअन्नाणपजवा अणंतगुणा ॥ एएसि णं भंते ! आभिणिवोहिय-18 उद्देशः२ या वृत्तिाकाणाणपज्जवाणं जाव केवलनाणप० मइअन्नाणप० सुयअन्नाणपविभंगनाणप० कयरे २जाव विसेसाहिया वा. मत्यादीनां गोयमा! सबत्थोवा मणपज्जवनाणपज्जवा विभंगनाणपजवा अणंतगुणा ओहिणाणपजवा अणंतगुणा सुयअन्ना
| विषयः प॥३५७॥ गणपज्जवा अणंतगुणा सुयनाणपजवा विसेसाहिया मइअन्नाणपजवा अणंतगुणा आभिणियोहियनाणप
| यायाश्च
४ सू ३२३ जवा विसेसाहिया केवलणाणपजवा अर्णतगुणा । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॥ (सूत्रं ३२३) ॥ अट्ठमस्स ४ सयस्स वितिओ उद्देसो॥८-२॥
केवापति किंपरिमाणः 'विसए'त्ति गोचरो ग्राह्योऽर्थ इतियावत् , तं च भेदपरिमाणतस्तावदाह-से'इत्यादि, 'स'आभिनिचोधिक ज्ञानविषयस्तद्वाऽऽभिनिबोधिक ज्ञानं 'समासत'सद्धेपेण प्रभेदानां भेदेष्वन्तर्भावेनेत्यर्थः चतुर्विधचतुर्विध वा, द्रव्यतो-द्रव्याणि धर्मास्तिकायादीन्याश्रित्य क्षेत्रतो-न्याधारमाकाशमात्र वा क्षेत्रमाश्रित्य कालता-अद्धां द्रव्यपर्यायावस्थिति वा समाश्रित्य भावतः-औदयिकादिभावान् द्रव्याणां वा पर्यायान् समाश्रित्य 'दचओ णति द्रव्य-14 माश्रित्याभिनियोधिकज्ञानविषयद्रव्यं वाऽऽश्रित्य यदाभिनिबोधिक ज्ञानं तत्र 'आएसेणीति आदेश:-प्रकारः सामान्य
| ॥३५७॥ |विशेषरूपस्तत्र चादेशेन-ओघतो द्रव्यमात्रतया न तु तद्गतसर्वविशेषापेक्षयेति भावः, अथवा 'आदेशेन' श्रुतपरिक|म्मिततया 'सर्वद्रव्याणि' धर्मास्तिकायादीनि 'जानाति' अवायधारणापेक्षयाऽवबुध्यते, ज्ञानस्यावायधारणारूपत्वात्,
ACCOCK
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३२२-३२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३२२३२३]
पासइ'त्ति पश्यति अवग्रहहापेक्षयाऽवबुध्यते, अवग्रहेहयोदर्शनत्वात् , आह च भाष्यकार:-"नाणमवायधिईओ दसण. | मिदं जहो ग्गहेहाओ। तह तत्तरुई सम्मं रोइजइजेण तंणाणं ॥१॥" तथा-"ज सामनग्गहणं देसणमेयं विसेसियं नाणं" दि अपायधारणे ज्ञानमवग्रहेहे दर्शनं यथेष्टं तथा तत्त्वरुचिः सम्यक्त्वं येन रोच्यते तज्ज्ञानम् ॥१॥ यत्सामान्यग्रहणं दर्शन-18
मेतद् विशेषितं ज्ञानम् ।] अवग्रहेहे च सामान्यार्थग्रहणरूपे अवायधारणे च विशेषग्रहणस्वभावे इति, नन्वष्टाविंशतिभे-दि। ॥ दमानमाभिनिबोधिकज्ञानमुच्यते, यदाह-"आभिणिबोहियनाणे अडावीसं हवंति पयडीओ"त्ति [आभिनियोधिक ज्ञाने। ६ प्रकृतयोऽष्टाविंशतिर्भवन्ति] इह च व्याख्याने श्रोत्रादिभेदेन षड्भेदतयाऽवायधारणयोर्दादशविध मतिज्ञान प्राप्तं, तथा| Xोत्रादिभेदेनैव पभेदतयाऽर्थावग्रहईहयोW जनावग्रहस्य च चतुर्विधतया षोडशविधं चक्षुरादिदर्शनमिति प्राप्तमिति ||
कथं न विरोधः, सत्यमेतत्, किन्त्वविवक्षयित्वा मतिज्ञानचक्षुरादिदर्शनयोर्भेदं मतिज्ञानमष्टाविंशतिधोच्यते इति पूज्या! व्याचक्षत इति, खेसओ'त्ति क्षेत्रमाश्रित्याभिनिवोधिक ज्ञानविषयक्षेत्रं वाऽऽश्रित्य यदाभिनिचोधिक ज्ञानं तत्र 'आदे| सेणं ति ओघतः श्रुतपरिकर्मिततया वा 'सवं खेतंति लोकालोकरूपम् , एवं कालतो भावतश्चेति, आह च भाष्यकार:"आएसोत्ति पगारो ओघादेसेण सबदबाई । धम्मस्थिकाइयाई जाणइ न उ सवभावेणं ॥१॥ खेतं लोगालोग कालं | सबद्भमहब तिविपि । पंचोदझ्याईए भावे जन्नेयमेवइयं ॥२॥ आएसोत्ति व सुतं सुओवल सु तस्स मइनाणं । | पसरइ तब्भावणया विणावि सुत्ताणुसारेणं ॥३॥" इति [आदेश इति प्रकारः सामान्यादेशेन सर्वद्रव्याणि धर्मास्तिकायादीनि जानाति न तु सर्वभावैः॥१॥ लोकालोक क्षेत्रं सर्वोद्धा कालमथवा त्रिविधमपि । भावानौदयिकादीन् पश्च
964444564564454:55
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[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३२२-३२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३२२३२३]
यदेतावरज्ञेयम् ॥ २॥ यद्वा आदेश इति श्रुतं श्रुतोपलब्धेषु तस्य मतिज्ञानं प्रसरति तद्भावनया सूत्रानुसारेण विनाऽपि शतके प्रज्ञप्तिः६॥३॥] इदं च सूत्र नन्यामिहैव वाचनान्तरे 'न पासहत्ति पाठान्तरेणाधीतम् , एवं ध मन्दिटीकाकृता व्याख्या- उद्देशार अभयदेवी-द तम्-"आदेश:-प्रकारः, सच सामान्यतो विशेषतच, तत्र द्रव्यजातिसामान्यादेशेन सर्वद्रव्याशि धर्मास्तिकायादीनि | मत्यादीनां या वृत्तिः १ जानाति, विशेषतोऽपि यथा धर्मास्तिकायो धर्मास्तिकायस्य देश इत्यादि, न पश्यति सर्वान् धर्मास्तिकायादीन, शब्दा-IMP विषयः प. ॥३५८॥
थायाश्च हदीस्तु योग्यदेशावस्थितान् पश्यत्यपीति, "उवउत्तेत्ति" भावभुतोपयुक्तो नानुपयुक्ता, स हि नाभिधानादभिधेयप्रतिपत्ति || *| समर्थो भवतीति विशेषणमुपास, 'सर्वव्याणि' धर्मास्तिकायादीनि 'जानाति' विशेषतोऽवगच्छति, श्रुतज्ञानस्य ||
सू ३२३ तत्स्वरूपत्वात् , पश्यति च श्रुतानुवर्सिना मानसेन अचक्षुदर्शनेन, सर्वव्याणि पाभिलाप्यान्यव जापाति, पश्यति || || चाभिषदशपूर्वधरादिः श्रुतकेवली, तदारतस्तु भजना, सा पुनर्मतिविशेषतो ज्ञालम्बेति, वृद्धा पुनः पश्यतीत्यत्रेदमुक-18|| ननु पश्यतीति कथा, कथं चन, सकलगोचरदर्शनायोगात् !, अत्रोच्यते, प्रज्ञापनावां श्रुतज्ञानपश्यतयाः प्रतिपादि-I तत्वादनुत्तरविमानादीनां चालेख्यकरणात् सर्वथा चादृष्टस्यालेख्यकरणानुपपसे, एवं क्षेत्रादिष्वपि भावनीवमिति, अन्ये । तुन पासहति पठन्तीति, ननु 'भावओ ण सुयनाणी उपउत्ते सबभावे जाण' इति ययुक्तमिह तत् “मुए परिते || पजका सवे"त्ति [श्रुते चारित्रे न सर्वे पर्यायाः (अभिलाप्यापेक्षया)। अनेन च सह कथं न विरुध्यते, उच्यते, हा ॥५॥
सूत्रे सर्वग्रहणेन पश्चीदयिकादयो भावा गृह्यम्ते, लांब सर्वान् जातितो जानाति, अथवा यमप्यभिलाष्याणां भावानाम| नन्तभाग एव श्रुतनिबद्धस्तथापि प्रसङ्गमानुप्रसङ्गतः सर्वेऽप्यमिलाप्याः श्रुतविषया सच्यन्ते असतदपेक्षया सर्वभावान।
SCORRC
दीप
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३२२-३२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३२२३२३]
जानातीत्युक्तम् , अनभिलाप्यभावापेक्षया तु “सुए चरित्ते न पजवा सो" इत्युक्तमिति न विरोधः। दवओ 'मित्यादि, अवधिज्ञानी रूपिद्रव्याणि पुद्गलद्रव्याणीत्यर्थः, तानि च जघन्येनानन्तानि तैजसभापाद्रव्याणामपान्तरालवत्तीनि, यत | उक्त-"तेयाभासादवाण अंतरा एस्थ लभति पटवओ" सि, [अत्र प्रस्थापकस्तेजोभाषावर्गणयोरन्तरालद्रव्याणि जानाति] उत्कृष्टतस्तु सर्वबादरसूक्ष्मभेदभिन्नानि जानाति विशेषाकारेण, ज्ञानत्वात्तस्य, पश्यति सामान्याकारणावधिज्ञानिनोऽवधिदर्शनस्यावश्यम्भावात्, नन्वादी दर्शनं ततो ज्ञानमिति क्रमस्तकिमर्थमेनं परित्यज्य प्रथमं जानातीत्युक्तम् , ४ अत्रोच्यते, इहावधिज्ञानाधिकारात् प्राधान्यख्यापनार्थमादौ जानातीत्युक्तम् , अवधिदर्शनस्य त्ववधिविभङ्गसाधारणत्वे-४ & नाप्रधानत्वात् पश्चात्पश्यतीति, अथवा सो एव लब्धयः साकारोपयोगोपयुक्तस्योत्पद्यन्ते लब्धिवावधिज्ञानमिति साका-I16
रोपयोगोपयुक्तस्यावधिज्ञानलब्धिर्जायते इत्येतस्यास्य ज्ञापनार्थ साकारोपयोगाभिधायकं जानातीति प्रथममुक्तं ततः ४ क्रमेणोपयोगप्रवृत्तेः पश्यतीति, 'जहा नंदीएत्ति, एवं च तत्रेदं सूत्र-'खेत्तओणं ओहिणाणी जहलेणं अंगुलस्स असं-18
खेजहभागं जाणइ पासह इत्यादि, व्याख्या पुनरेव-क्षेत्रतोऽवधिज्ञानी जपन्येनाङ्गलस्यासवेयभागमुस्कृष्टतोऽसयेयान्यलोके शक्तिमपेक्ष्य लोकममाणानि खण्डानि जानाति पश्यति, कालखोऽवधिज्ञानी जघन्येनावलिकाया असङ्ख्येयं |भागमुत्कृष्टतोऽसयेया उत्सर्पिण्यवसर्पिणीरतीता अनागताश्च जानाति पश्यति, तदतरूपिव्यावगमात्, अथ कियडूरं| यावदिह नन्दीसूत्र वाच्यम् । इत्याह-जाव भावओ'त्ति भावाधिकारं चावदित्यर्थः, स चैवं-भावतोऽवधिज्ञानी जघन्येनानन्तान् भावानाधारद्रव्यामन्तत्वाजानाति पश्यति, न तु प्रतिव्यमिति, उत्कृष्टतोऽप्वमन्तान् भावान् जानाति
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३२२-३२३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३२२३२३]
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व्याख्या- पश्यति च, तेऽपि चोत्कृष्टपदिनः सर्वपर्यायाणामनन्तभाग इति, 'उजमइति मननं मतिः संवेदनमित्यर्थः ऋग्वी-सा
४८शतके प्रतिः मान्यग्राहिणी मतिः ऋजुमतिः-घटोऽनेन चिन्तित इत्यध्यवसायनिवन्धना मनोद्रव्यपरिच्छित्तिरित्यर्थः, अधवा ऋज्वी उद्देशः नमयदेवी
मतिर्यस्यासावृजुमतिस्तद्वानेव गृह्यते, 'अणते'त्ति 'अनन्तान्' अपरिमितान् 'अणंतपएसिए'त्ति अनन्तपरमाण्वात्मकान मत्यादीनां पावृषिमा
'जहा नंदीए'त्ति, तत्र चेदं सूत्रमेवं-'खंधे जाणइ पासई'त्ति तत्र 'स्कन्धान् विशिष्टैकपरिणामपरिणतान् सजिभिः विषयः प॥३५॥ पर्याप्तकैः प्राणिभिरर्बतृतीयद्वीपसमुद्राम्तयतिभिर्मनस्त्वेन परिणामितानित्यर्थः, 'जाणइति मनःपर्यायज्ञानावरणक्षयो-18|
योयाश्च पशमस्य पटुत्वात्साक्षात्कारेण विशेषभूयिष्ठपरिच्छेदात् जानातीत्युच्यते, तदालोचितं पुनरर्थं घटादिलक्षणं मनःपर्याय
सू ३२३ ज्ञानं स्वरूपाध्यक्षतो न जानाति किन्तु तत्परिणामान्यथाऽनुपपत्त्याऽतः पश्यतीत्युच्यते, उक्तश्च भाष्यकारेण-"जाणइ
बझेऽणुमाणाओ"त्ति, [बाह्याननुमानाजानाति] इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यं, यतो मूलद्रव्यालम्बनमेवेदं, मन्तारश्चामूर्त्तमपि ट्रधर्मास्तिकायादिकं मन्येरन्, न च तदनेन साक्षात् कत्तुं शक्यते, तथा चतुर्विधं च चक्षुर्दर्शनादि दर्शनमुक्तमतो भिन्ना| लम्बनमेवेदमवसेय, तत्र च दर्शनसम्भवात्पश्यतीत्यपि न दुष्टम् , एकममात्रपेक्षया तदनन्तरभावित्वाचोपन्यस्तमित्यलमतिविस्तरेण, 'ते चेव उ विउलमई अमहियतराए वितिमिरतराए विसुद्धतराए जाणइ पासई तानेव स्कन्धान विपुला-3 || विशेषमाहिणी मति विपुलमतिः-घटोऽनेन चिन्तितः स च सौवर्णः पाटलिपुत्रकोऽद्यतनो महानित्यायध्यवसायहेतुभूता|| ॥३५९॥
मनोद्रव्यविज्ञप्तिः, अथवा विपुला मतिर्यस्थासौ विपुलमतिस्तद्वानेव, 'अभ्यधिकतरकान्' ऋजुमतिदृष्टस्कन्धापेक्षया बहुतकारान् द्रव्यातया वर्णादिभिश्च वितिमिरतरा इय-अतिशयेन विगतान्धकारा इव ये ते वितिमिरतरास्त एव वितिमिर
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३२२-३२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३२२३२३]
|तरका अतस्तान , अत एव 'विशुद्धतरकान्' विस्पष्टतरकान् जानाति पश्यति च, तथा 'खेतओ णं जमई अहे जाव
इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उवरिमडिल्ले खुड्डागपयरे उहुंजाव जोइसरस उवरिमतले तिरियं जाव अंतोमणुस्सखेत्ते PI अट्ठाइजेसु दीवस मुद्देसु पन्नरससु कम्मभूमीसु छप्पन्नाए अंतरदीवगेसु सन्नीर्ण पंचिंदियाणं पज्जत्तगाणं मणोगए भावे | 2 जाणइ पासई' तत्र क्षेत्रत ऋजुमतिरधा-अधस्ताद् यावदमुच्या रक्षप्रभाषाः पृथिव्या उपरिमाधस्त्यान् क्षुल्लकप्रतरान ५ तावत् , किं-मनोगतान भावान जानाति पश्यतीति योगः, तत्र रुचकाभिधानात्तिय'लोकमध्यादधो यावन्नव योजनशतानि तावदमुष्या रलप्रभाया उपरिमाः क्षुल्लकप्रतराः, क्षुल्लकत्वं च तेषामधोलोकप्रतरापेक्षया, तेभ्योऽपि येऽधस्ताद-2 धोलोकग्रामान यावत्तेऽधस्तनाः क्षुलकप्रतरा उर्दू यावज्योतिषश्च-ज्योतिश्चक्रस्योपरितलं 'तिरियं जाव अंतोमणुस्स-18
खेत्तेत्ति तिर्यक् यावदन्तर्मनुष्यक्षेत्र मनुष्य क्षेत्रस्यान्तं यावदित्यर्थः, तदेव विभागत आह-'अहाइजेसु'इत्यादि, तथा Wil'तं चेव विउलमई अड्डाइजेहिं अंगुलेहिं अब्भहियतरागं विउलतरागं विसुद्धतरार्ग वितिमिरतरागं जाणइ पासईत्ति तत्र ४'तं चेव'त्ति इह क्षेत्राधिकारस्य प्राधान्यात्तदेव मनोलब्धिसमन्वितजीवाधार क्षेत्रमभिगृह्यते, तत्राभ्यधिकतरकमायामविष्कम्भावाश्रित्य विपुलतरकं बाहल्यमाश्रित्य 'विशुद्धतरक' निर्मलतरक वितिमिरतरकं तु तिमिरकल्पतदावरणस्य |
विशिष्टतरक्षयोपशमसद्भावादिति, तथा-काल ओणं उज्जुमई जहन्नेणं पलिओषमस्स असंखेजाइभार्ग उक्कोसणवि पलिओविमस्स असंखेजइभागं जाणइ पासह अईयं अणागयं च, तं चेव विपुलमई विसुजतरागं वितिमिरतराग जाणइ पास।
कियनन्दीसूत्रमिहाध्येयम् । इत्याह-'जाच भावओ'त्ति भावसूत्रं यावदित्यर्थः, तथैर्य-'भावओ उज्जुमई अर्णते भावे
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[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३२२-३२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३२२३२३]
व्याख्या- जाणइ पासइ सवभावाणं अणतं भागं जाणइ पासइ, तं चैव विपुलमई विसुद्धतरागं वितिमिरत्तराग जाणइ पासइति ।। ८ शतके प्रज्ञप्तिः
'केवलणाणस्सेत्यादि, एवं जाय भावओ'त्ति 'एवम्' उक्तन्यायेन यावद्भावत इत्यादि तावत्केवलविषयाभिधायि उद्देशः२ अभयदेवी
नन्दीसूत्रमिहाध्येयमित्यर्थः, तश्चैवं-'खेतओ णं केवलनाणी सबखेत्तं जाणइ पासई' इह च धर्मास्तिकायादिसर्बद्रव्यत्र- मत्यादीनां यावृत्तिः१
विषयः - 18|हणेनाकाशद्रव्यस्य ग्रहणेऽपि यत्पुनरुपादानं तत्तस्य क्षेत्रत्वेन रूढत्वादिति, कालओ णं केवलणाणी सर्व कालं जाणह|
योयाश्च ॥३६॥ पासह, भावओणं केवली सबभाये जाणइ पासई''मइअन्नाणस्से'त्यादि, 'मइअन्नाणपरिगयाईति मत्यज्ञानेन-IKHIS
मिथ्यादर्शनसंवलितेनावग्रहादिनौत्पत्तिक्यादिना च परिगतानि-विषयीकृतानि यानि तानि तथा, जानात्यपायादिना |
पश्यत्यवग्रहादिना, यावत्करणादिदं दृश्य-'खेत्तओणं मइअन्नाणी मइअन्नाणपरिगय खेचं जाणइ पासह, कालओणं 31 दामहअन्नाणी मइअन्नाणपरिगयं कालं जाणद पासह'त्ति । 'सुपअन्नाणे' त्यादि, 'सुपअन्नाणपरिगयाईति श्रुताज्ञानेन-IC | मिथ्याष्टिपरिगृहीतेन सम्यक्श्रुतेन लौकिकश्रुतेन कुमावनिकश्रुतेन वा यानि परिगतानि-विषयीकृतानि तानि तथा 'आघवेइत्ति आग्राहयति अथोपयति वा आख्यापयति वा प्रत्याययतीत्यर्थः 'प्रज्ञापयति' भेदतः कथयति 'मरूपयति' | उपपत्तितः कथयतीति, वाचनान्तरे पुनरिदमधिकमवलोक्यते-'दंसेति निदंसेति उवदंसेति'त्ति तत्र च दर्शयति उपमामात्रतस्तच यथा गौस्तथा गवय इत्यादि, निदर्शयति हेवदृष्टान्तोपन्यासेन उपदर्शयति उपनयनिगमनाभ्यां मतान्तरदर्श-III |नेन वेति । 'दघओ णं विभंगनाणी'त्यादी 'जाणइत्ति विभङ्गज्ञानेन 'पासह'त्ति अवधिदर्शनेनेति ॥अथ कालद्वारे'साइए'इत्यादि, इहाद्यः केवली द्वितीयस्तु मत्यादिमान, तत्राबस्य साद्यपर्ववसितेति शब्दत एव कालः प्रतीयत इति ॥
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[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३२२-३२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३२२३२३]
द्वितीयस्यैव तं जघन्येतरं भेदमुपदर्शयितुमिदमाह-'तत्थ णं जे से साइए' इत्यादि, तत्र च 'जहन्नेणं अंतोमुहत्तं ति | आय ज्ञानद्वयमाश्रित्योतं, तस्यैव जघन्यतोऽन्तर्मुहर्तमानत्वात् , तथा 'उक्कोसेणं छावडिं सागरोबमाई साइरेगाई'ति यदुक्तं तदाचं ज्ञानत्रयमाश्रित्य, तस्य हि उत्कर्षेणैतावत्येव स्थितिः, सा चैवं भवति-"दो वारे विजयाइस गयस्स तिनचुए अहव ताई। अइरेगं नरभवियं णाणाजीवाण सबर्द्ध ॥१॥"[विजयादिषु द्विरच्युते त्रिर्गतस्य अथ तानि नरभ-13 विकातिरेकाणि नानाजीवानां सर्वाद्धां ॥१॥] 'आभिणिनोहिये'त्यादि सूचामात्रम्, एवं चैतद्रष्टव्यम्-'आभिणि-II |बोहियणाणी णं भंते ! आभिणिवोहियनाणित्ति कालओ केवञ्चिरं होइ ? ति 'एवं नाणी आभिणियोहियनाणी'त्यादि
अयमर्थः-एव मित्यनन्तरोकेन 'आभिणिचोहिए'त्यादिना सूत्रक्रमेण ज्ञान्याभिनिवोधिकज्ञानिश्रुतज्ञान्यवधिज्ञानि| मनःपर्यवज्ञानिकेवलज्ञान्यज्ञानिमत्यज्ञानिश्रुताज्ञानिविभङ्गज्ञानिनां संचिटुणे'ति अवस्थितिकालो यथा कायस्थिती। प्रज्ञापनाया अष्टादशे पदेऽभिहितस्तथा वाच्यः, तत्र ज्ञानिनां पूर्वमुक्त एवावस्थितिकालः, यच्च पूर्वमुक्तस्याप्यतिदेशतः पुनर्भणनं तदेकप्रकरणपतितत्वादित्यवसेयम् , आभिनिवोधिकज्ञानादिद्वयस्य तु जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कृष्टतस्तु सातिरे-12 काणि पट्षष्टिः सागरोपमाणि, अवधिज्ञानिनामप्येवं, नवरं जपम्यतो विशेषः, स चायम्-'ओहिनाणी जहनेणं एक समय र कथं , यदा विभजज्ञानी सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते तत्प्रथमसमय एच विभङ्गमवधिज्ञानं भवति तदनन्तरमेव च तत् प्रतिपतति तदा एक समयमवधिर्भवतीत्युच्यते । 'मणपजवनाणी णं भंते ! पुच्छा, गोयमा । जहन्नेणं एकं समयं उक्कोसेणं |देसूणा पुषकोडी, कथं, संयतस्याप्रमत्ताद्धायां वर्तमानस्य मनःपर्यवज्ञानमुत्पर्य तत उत्पत्तिसमयसमनन्तरमेव विनष्ट
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[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३२२-३२३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३२२३२३]
व्याख्या- चेत्येवमेकं समयं, तथा घरणकाल उत्कृष्टो देशोना पूर्वकोटी, तत्प्रतिपत्तिसमनन्तरमेव च यदा मनःपर्यवज्ञानमुत्पन्नमाप्रज्ञप्तिः
HT- Cशतके जन्म चानुवृत्तं तदा भवति मनःपर्यषस्योत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटीति । केवलनाणी णं पुच्छा, गोयमा ! साइए अपजव-| अभयदेवी
Fउद्देशः२ या वृत्तिा
सिप, अशाणी महअन्नाणी सुयअन्नाणी णं पुच्छा, गोयमा ! अनाणी महअन्नाणी सुयअन्नाणी य तिषिहे पन्नते, तंजहा- ज्ञानाज्ञान
अणाइए या अपज्जवसिए अभध्यानां १ अणाइए वा सपज्जवसिए भव्यानां २ साइए वा सपज्जवसिए प्रतिपतितसम्य- योः स्थिति॥२६॥ ग्दर्शनानां ३, 'तस्थ ण जे से साइप सपज्जवसिए से जहन्नेणं अंतोमुहुर्त' सम्यक्त्वप्रतिपतितस्यान्तमहत्तोपरि सम्यक्त्व- * रम्तरंच प्रतिपत्ती, 'उकोसेणं अर्णतं कालं अर्णता उस्सप्पिणीओसप्पिणीमओ कालओ खेत्तो अवई पोग्गलपरियई देसूर्ण' सम्य
सू३२३ क्वाअष्टस्य वनस्पत्यादिष्वनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिणीरतिवाह्य पुनः प्राप्तसम्यग्दर्शनस्येति । 'विभंगनाणी णं भंते! पुच्छा, गोयमा ! जहनेणं एक समय' उत्पत्तिसमयानन्तरमेव प्रतिपाते 'उक्कोसेणं तेत्तीस सागरोवमाई देसूणपुषकोडिअभहि-| याई देशोनां पूर्वकोटिं विभनितया मनुष्येषु जीवित्वाऽप्रतिष्ठानादावुत्पन्नस्येति ॥ अन्तरद्वारे-'अंतरं सर्व जहा | जीवाभिगमें'त्ति पश्चानां ज्ञानानां त्रयाणां चाज्ञानानामन्तरं सर्वं यथा जीवाभिगमे तथा वाच्यं, तचैवम्-आभिणिबोहियणाणस्स णं भंते ! अंतरं कालओ केवच्चिर होइ?, गोयमा । जहन्नेणं अंतोमहतं उकोसेणं अणतं कालं जा अवई पोग्गलपरिघट्ट देसूर्ण, सुयनाणिओहिनाणीमणपज्जवनाणीणं एवं चेब, केवलनाणिस्स पुच्छा, गोयमा ! नस्थि ॥३६१॥
अंतरं, मइअमाणिस्स सुयअन्नाणिस्स य पुच्छा, गोयमा! जहनेणं अंतोमुहुः उकोसेणं छावहिं सागरोचमाई साइरेगाई। X विभंगनाणिस्स पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमहत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो त्ति ॥ अल्पबहुत्वद्वारे-'अप्पाबहुगाणि
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३२२-३२३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३२२३२३]
तिमि जहा बहवसषयाए'त्ति अल्पबहुत्वानि त्रीणि ज्ञानिनां परस्परेणाज्ञानिनां च ज्ञान्यज्ञानिनां च यथाऽस्पबह-I | त्ववक्तच्यतायां प्रज्ञापनासम्बन्धिन्यामभिहितानि तथा वाच्यानीति, तानि चैवम्-'एएसि णं भंते ! जीवाणं आभिमणिबोहियनाणीणं ५ कयरे २ हिंतो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसाहिया वा!, गोयमा! सबथोवा जीवा मणपज
| वनाणी ओहिनाणी असंखेजगुणा आभिणियोहियनाणी सुयणाणी दोवि तुला विसेसाहिया केवलनाणी अणंतगुणा'. लि. इत्येकम् १। एएसिणं भंते । जीवाणं मइअन्नाणीणं ३ कयरे २ हितो अप्पा वा पहुया वा तुला वा विसेसाहिया वा ?|p
गोयमा ! सवत्थोवा जीवा विभंगणाणी मइअन्नाणी सुयअन्नाणी दोवि तुल्ला अनंतगुणा' इति द्वितीयम् २ । 'एएसि || भंते ! जीवाणं आभिणिबोहियनाणीणं ५ मइअन्नाणीणं ३ कयरे २ हिंतो जाव विसेसाहिया वा ?, गोयमा ! सब
स्थोवा जीवा मणपज्जवणाणी ओहिनाणी असंखेजगुणा आभिणिबोहियनाणी सुथनाणी य दोवि तुल्ला विसेसाहिया || विभंगनाणी असंखेजगुणा केवलनाणी अणंतगुणा मइअन्नाणी सुयअन्नाणी दोवि तुल्ला अणंतगुण'त्ति, तत्र ज्ञानिसूत्रे ||
स्तोका मनापर्यायज्ञानिनो,यस्माद्धिप्राप्तादिसंयतस्यैव तद्भवति, अवधिज्ञानिनस्तु चतसृष्वपि गतिषु सन्तीति तेभ्योऽ-||| | सङ्घयेयगुणाः, आभिनिबोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनश्चान्योऽन्य तुल्याः, अवधिज्ञानिभ्यस्तु विशेषाधिकाः, यतस्तेऽवधिज्ञानिनोऽपि मनःपर्यायज्ञानिनोऽपि अवधिमन:पर्याय ज्ञानिनोऽपि अवध्यादिरहिता अपि पञ्चेन्द्रिया भवन्ति सास्वा-18
दनसम्यग्दर्शनसद्भावे विकलेन्द्रिया अपि च मतिश्रुतज्ञानिनो लभ्यन्त इति, केवलज्ञानिनस्त्वनन्तगुणाः, सिद्धानां सर्वMज्ञानिभ्योऽनन्तगुणत्वात् । अज्ञानिसूत्रे तु विभङ्गज्ञानिनः स्तोकाः, यस्मात् पञ्चेन्द्रिया एव ते भवन्ति, तेभ्योऽनन्तगुणा
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[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३२२-३२३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३२२३२३]
व्याख्या-मत्यज्ञानिनः
| मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनः, यतो मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनश्चैकेन्द्रिया अपीति तेन तेभ्यस्तेऽनन्तगुणाः, परस्परतश्च| प्रज्ञप्तिः तुल्याः। तथा मिश्रसूत्रे स्तोका मनःपर्यायज्ञानिनः, अवधिज्ञानिनस्तु तेभ्योऽसमवेयगुणाः, आभिनिबोधिकज्ञानिनः श्रुत- उद्देशार अभयदेवी- ज्ञानिनश्चान्योऽन्य तुल्या प्राक्तनेभ्यश्च विशेषाधिकाः, इह युक्तिः पूर्वोक्तव, आभिनियोधिकज्ञानिश्रुतज्ञानिभ्यो विभङ्ग- ज्ञान्यज्ञा
| ज्ञानिनोऽसत्येयगुणाः, कथम् ?, उच्यते, यतः सम्यग्दृष्टिभ्यः सुरनारकेभ्यो मिथ्यादृष्टयस्तेऽसजये यगुणा उक्तास्तेन निनामल्पः ॥२६॥ विभङ्गज्ञानिन आभिनिवोधिकज्ञानिश्रुतज्ञानिभ्योऽसावेयगुणाः, केवलज्ञानिनस्तु विभङ्गज्ञानिभ्योऽनन्तगुणाः, सिद्धा- बहुत्व
सू३२३ नामेकेन्द्रियवर्जसर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणत्वात्, मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनश्चान्योऽन्य तुल्याः, केवलज्ञानिभ्यस्त्वनन्तगुणाः, वनस्पतिध्वपि तेषां भावात् , तेषां च सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वादिति ॥अथ पर्यायद्वारे-केवइया इत्यादि, आभि| निबोधिकज्ञानस्य पर्यवा:-विशेषधा आभिनिवोधिकज्ञानपर्यवाः, ते च द्विविधाः स्वपरपर्यायभेदात्, तत्र येऽवग्रहादयो| मतिविशेषाः क्षयोपशमवैचित्र्यात्ते स्वपर्यायास्ते चानन्तगुणाः, कथम् !, एकस्मादवप्रहादेरन्योऽवग्रहादिरनन्तभागवृद्ध्या विशुद्धः१ अन्यस्त्वसाधेयभागवृद्ध्या २ अपरः सयेयभागवृक्या ३ अन्यतरः समवेयगुणवृक्ष्या ४ तदन्योऽसोयगुणवृक्ष्या ५ अपरस्त्वनन्तगुणवृक्ष्या ६ इति, एवं च सङ्ख्यातस्य सङ्ख्यातभेदत्वादसंख्यातस्य चासङ्ग्यातभेदत्वादनन्तस्य चान-IN |न्तभेदत्वादनम्ता विशेषा भवन्ति, अथवा तज्ज्ञेयस्यानन्तत्वात् प्रतिज्ञेयं च तस्य भिद्यमानत्वात् अथवा मतिज्ञानम-18 पविभागपरिच्छेदैर्बुद्ध्या छिद्यमानमनन्तखण्डं भवतीत्येवमनन्तास्तत्पर्यवाः, तथा ये पदार्थान्तरपर्यायास्ते तस्य परपर्या-IX||१॥
यास्ते च स्वपर्यायेभ्योऽनन्तगुणाः, परेषामनन्तगुणत्वादिति, ननु यदि ते परपर्यायास्तदा तस्येति न व्यपदेष्टुं युक्तं, हा
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[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र -५ [ मूलं + वृत्तिः ]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर- शतक [-] उद्देशक [२] मूलं [ ३२२-३२३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
परसम्बन्धित्वात्, अथ तस्य ते तदा न परपर्यायास्ते व्यपदेष्टव्याः, स्वसम्बन्धित्वादिति, अत्रोच्यते यस्मात्तत्रासम्ब द्धास्ते तस्मात्तेषां परपर्यायव्यपदेशः यस्माच्च ते परित्यज्यमानत्वेन तथा स्वपर्यायाणां स्वपर्याया एते इत्येवं विशेषणहेतुत्वेन च तस्मिन्नुपयुज्यन्ते तस्मात्तस्य पर्यवा इति व्यपदिश्यन्ते यथाऽसम्बद्धमपि धनं स्वधनं उपयुज्यमानत्वादिति, आह च - "जइ ते परपज्जाया न तस्स अह तस्स न परपजाया । [आचार्य आह ] -जं तंमि असंबद्धा तो परपज्जायववएसो ॥ १ ॥ चायसपज्जायविसेसणाइणा तस्स जमुवजुज्जंति । सघणमिवासंबद्धं बंति तो पज्जवा तस्स ॥ २ ॥ "त्ति । [यदि ते परपर्यायास्तस्य न अथ तस्य न परपर्यायाः । यत्तस्मिन्न सम्बद्धा ततः परपर्यायव्यपदेशः ॥ १॥ तस्य त्यागस्वपर्या| यविशेषणत्वादिना यदुपयुज्यन्ते ततः स्वधनमिवासम्बद्धमपि तस्य पर्याया भवन्ति ॥ २ ॥] 'केवइया णं भंते ! सुप णाणे'त्यादी, 'एवं चेव'त्ति अनन्ताः श्रुतज्ञानपर्यायाः प्रज्ञता इत्यर्थः ते च स्वपर्यायाः परपर्यायाश्च तत्र स्वपर्याया ये श्रुतज्ञानस्य स्वतोऽक्षर श्रुतादयो भेदास्ते चानन्ताः क्षयोपशमवैचित्र्यविषयानन्त्याभ्यां श्रुतानुसारिणां बोधानामनन्तत्वात् अविभागपरिच्छेदानन्त्याच्च, परपर्यायास्वनन्ताः सर्वभावानां प्रतीता एव, अथवा श्रुतं प्रन्थानुसारि ज्ञानं श्रुतज्ञानं, | श्रुतप्रन्थश्चाक्षरात्मकः, अक्षराणि चाकारादीनि तेषां चैकैकमक्षरं यथायोगमुदात्तानुदात्तस्वरितभेदात् सानुनासिकनिरनुनासिकभेदात् अल्पप्रयत्न महाप्रयत्न भेदादिभिश्च संयुक्त संयोगा संयुक्तसंयोगभेदाद् द्व्यादिसंयोगभेदादभिधेयानन्त्याश्च | भिद्यमानमनन्तभेदं भवति, ते च तस्य स्वपर्यायाः, परपर्यायाश्चान्येऽनन्ता एव, एवं चानन्तपर्याय तत्, आह च- "एके कमक्खरं पुण सपरपज्जायभेयओ भिन्नं । तं सङ्घदवपज्जायरासिमाणं मुणेयचं ॥ १ ॥ जे लग्भइ केवलो से सवन्नसहिओ य
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[३२२
३२३]
दीप
अनुक्रम
[३९५
-३९६]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर- शतक [ - ], उद्देशक [२], मूलं [ ३२२-३२३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्या
पज्जबेऽगारो । ते तस्स सपजाया सेसा परपज्जवा तस्स ॥ २॥ त्ति [ तद् एकैकमक्षरं स्वपर्यायभेदतो भिन्नं तत् पुनः सर्वद्र प्रज्ञष्ठिः व्यपर्याय राशिप्रमाणं ज्ञातव्यम् ॥ १ ॥ यान् पर्यवान् लभते केवलोऽकारः सवर्णसहितञ्चाथ ते तस्य स्वपर्यायाः शेषा अभयदेवी - ४ स्तस्य परपर्यायाः ॥ २ ॥] एवं चाक्षरात्मकत्वेनाक्षरपर्यायोपेतत्वादनन्ताः श्रुतज्ञानस्य पर्याया इति, 'एवं जाव'त्तिया वृत्तिः १ करणादिदं दृश्यं - 'केवइया णं भंते ! ओहिनाणपज्जवा पत्ता?, गोयमा ! अनंता ओहिनाणपजवा पत्ता । केवइया ॥३६॥ * भंते! मणपज्जवनाणपज्जवा पत्ता १, गोयमा ! अनंता मणपज्जवनाणपज्जवा पण्णत्ता । केवइया णं भंते! केवलनाणपजवा पन्नत्ता ?, गोयमा ! अनंता केवलनाणपजवा पन्नत्ता' इति, तत्रावधिज्ञानस्य स्वपर्याया येऽवधिज्ञानभेदाः भवप्रत्ययक्षायोपशमिकभेदात् नारकतिर्यगूमनुष्यदेव रूपतत्स्वामिभेदाद् असङ्ख्यात भेदतद्विषयभूत क्षेत्रकालभेदाद् अनन्तभेदतद्विषयद्रव्यपर्यायभेदादविभागपलिच्छेदाच्च ते चैवमनन्ता इति, मनःपर्यायज्ञानस्य केवलज्ञानस्य च स्वपर्याया ये स्वाम्यादिभेदेन स्वगता विशेष्यास्ते चानन्ता अनन्तद्रव्यपर्यायपरिच्छेदापेक्षयाऽविभागपरिच्छेदापेक्षया वेति, एवं मत्यज्ञाना| दित्रयेऽप्यनन्तपर्यायत्वमूह्यमिति । [ ग्रन्थाग्रम् ८००० ] अथ पर्यवाणामेवात्पबहुत्वनिरूपणायाह - 'एएसि ण' मित्यादि, इह च स्वपर्यायापेक्षयैर्वेषामल्पबहुत्वमवसेयं, स्वपरपर्यायापेक्षया तु सर्वेषां तुल्यपर्यायत्वादिति, तत्र सर्वस्तोका मनःपर्यायज्ञानपर्यायास्तस्य मनोमात्रविषयत्वात्, तेभ्योऽवधिज्ञानपर्याया अनन्तगुणाः, मनःपयायज्ञानापेक्षयाऽवधिज्ञानस्य द्रव्यपर्यायतोऽनन्तगुण विषयत्वात्, तेभ्यः श्रुतज्ञानपर्याया अनन्तगुणाः, ततस्तस्य रूप्यरूपिद्रव्यविषयत्वेनानन्तगुणविषयस्त्वात्, ततोऽप्याभिनिबोधिकज्ञानपर्याया अनन्तगुणाः, ततस्तस्याभिलाप्यानभिलाप्यद्रव्यादिविषयत्वेनानन्तगुणविषय
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८ शतके
उद्देशः श् ज्ञानाज्ञानपर्यायाः
सू ३२३
॥ ३६३||
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आगम
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सूत्रांक
[३२२
३२३]
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[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र -५ [ मूलं + वृत्तिः ]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर- शतक [-] उद्देशक [२] मूलं [ ३२२-३२३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
त्वात्, ततः केवलज्ञानपर्याया अनन्तगुणाः, सर्वद्रव्यपर्यायविषयत्वात्तस्येति । एवमज्ञानसूत्रेऽप्यस्पबहुत्वकारणं सूत्रानुसारेणोहनीयं, मिश्रसूत्रे तु स्तोका मनःपर्यायज्ञानपर्यवाः, इहोपपत्तिः प्राग्वत्, तेभ्यो विभङ्गज्ञानपर्यवा अनन्तगुणाः, | मनःपर्यायज्ञानापेक्षया विभङ्गस्य बहुतमविषयत्वात् तथाहि - विभङ्गज्ञानमूर्द्धाध उपरिममैवेयकादारभ्य सप्तमपृथिव्यन्ते क्षेत्रे तिर्यक् चासयातद्वीपसमुद्ररूपे क्षेत्रे यानि रूपिद्रव्याणि तानि कानिचिज्ज्ञानाति कांश्चित्तत्पर्यायांश्च तानि च मन:पर्यायज्ञानविषयापेक्षयाऽनन्तगुणानीति, तेभ्योऽवधिज्ञानपर्यया अनन्तगुणाः, अवधेः सकलरूपिद्रव्यप्रतिद्रव्यासङ्ख्यातपर्यायविषयत्वेन विभङ्गापेक्षया अनन्तगुणविषयत्वात्, तेभ्योऽपि श्रुताज्ञानपर्यवा अनन्तगुणाः, श्रुताज्ञानस्य श्रुतज्ञानवदोघादेशेन समस्त मूर्त्तामूर्त्तद्रव्यसर्व पर्यायविषयत्वेनावधिज्ञानापेक्षयाऽनन्तगुणविषयत्वात्, तेभ्यः श्रुतज्ञानपर्यवा विशेपाधिकाः, केषाञ्चित् श्रुताज्ञानाविषयीकृतपर्यायाणां विषयीकरणाद्, यतो ज्ञानत्वेन स्पष्टावभासं तत्, तेभ्योऽपि मत्यज्ञानपर्यवा अनन्तगुणाः, यतः श्रुतज्ञानमभिलाप्यवस्तुविषयमेव, मत्यज्ञानं तु तदनन्तगुणानभिलाप्य वस्तुविषयमपीति, ततोऽपि मतिज्ञानपर्यवा विशेषाधिकाः केषाञ्चिदपि मत्यज्ञानाविषयीकृतभावानां विषयीकरणात्, तद्धि मत्यज्ञानापेक्षया स्फुटतरमिति, ततोऽपि केवलज्ञानपर्यवा अनन्तगुणाः, सर्वाद्धाभाविनां समस्त द्रव्यपर्यायाणामनन्यसाधारणावभासनादिति ॥ अष्टमशते द्वितीयः ॥ ८-२ ॥
अनन्तरमाभिनिवोधिकादिकं ज्ञानं पर्यवतः प्ररूपितं, तेन च वृक्षादयोऽर्था ज्ञायन्तेऽतस्तृतीयोदेशके वृक्षविशेषानाहकहविहा णं भंते! रुक्खा पन्नत्ता १, गोयमा ! तिविहा रुक्खा पण्णत्ता, तंजहा संखेज्जजीविद्या असंखे
अत्र अष्टम-शतके द्वितीय- उद्देशकः समाप्तः अथ अष्टम शतके तृतीय- उद्देशक: आरभ्यते
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति :]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [३२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३२४]
व्याख्या- जजीविया अर्णतजीविया । से किं तं संखेजजीविया, संखे. अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-ताले तमाले शतके प्रज्ञप्तिः तकलि तेतलि जहा पन्नवणाए जाव नालिएरी, जे यावन्ने तहप्पगारा, सेत्तं संखेजजीविया । से कितं असं- उद्देशा अभयदेवी- खेजजीविया ?, असंखेजजीविया दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-एगढिया य बहुबीयगा य । से किं तं एगडिया, संख्यातयावृत्तिः||||२ अणेगविहा पण्णता, तंजहा-निबंधजंबू० एवं जहा पन्नवणापए जाव फला बहुवीयगा, सेतं बहुपी
जीविताद्या
वृक्षाः यगा, सेतं असंखेजजीविया । से किं तं अणंतजीविया , अणंतजीविया अणेगविहा पण्णत्ता, ॥२६॥ तंजहा-आलुए मूलए सिंगवेरे, एवं जहा सत्तमसए जाव सीउण्हे सिउंढी मुसुंढी, जे यावन्ने त०, सेत्तं
सू१२४ अणंतजीविया ॥ (सूत्रं ३२४)॥
'कईत्यादि, संखेजजीविय'सि सङ्ख्याता जीवा येषु सन्ति ते सङ्ख्यातजीविकाः, एवमन्यदपि पदद्वयं, 'जहा पन्न-||४|| |वणाए'त्ति यथा प्रज्ञापनायां तथाऽनेदं सूत्रमध्येयं, तत्र चैवमेतत्-'ताले तमाले तकलि तेतलि साले य सालकल्लाणे ||
सरले जायइ केयर कंदलि तह चम्मरुक्खे य॥१॥ भुयरुक्खे हिंगुरुक्खे लवंगरुक्खे य होइ बोजवे । पूयफली खजूरी || | बोद्धवा नालिएरीय ॥२॥" 'जे यावन्ने तहप्पगारे ति ये चाप्यन्ये तथाप्रकारा वृक्षविशेषास्ते समातजीविका इति ||
॥३६४ प्रक्रमः । 'एगडिया य'त्ति एकमस्थिक-फलमध्ये बीजं येषां ते एकास्थिकाः 'बहुवीयगा यत्ति बहूनि बीजानि फलमध्ये || मायेषां ते बहुबीजका:-अनेकास्थिकाः 'जहा पनवणापए'त्ति यथा प्रज्ञापनाण्ये प्रज्ञापनाप्रथमपदे तथाऽनेदं सूत्रमध्येय, II
तच्चैवं-"निबंधजंबुकोसंबसालअंकोल्लपीलुसल्या । सल्लइमोयइमालुय बउलपलासे करंजे य ॥१॥" इत्यादि । तथा “से 8
दीप अनुक्रम [३९७]
CHAKKA
SOCTOCHAKRUA5
JAIRTELILAEOnmama
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [३२४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
-
प्रत सूत्रांक
[३२४]
रु
किं तं बहुबीयगा ?, बहुबीयगा अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-अस्थियतेंदुकविहे अंबाडगमाउलुंगबिल्ले य । आमलगफण| सदाडिम आसोडे उंबरवडे य ॥१॥" इत्यादि । अन्तिम पुनरिदं सूत्रमत्र-"एएसिं मूलावि असंखेजजीविया कंदावि
खंधावि तयावि सालावि पवालावि, पत्ता पत्तेयजीविया पुष्फा अणेगजीविया फला बहुवीयग"त्ति, एतदन्तं चेदं वाच्य|| मिति दर्शयन्नाह-'जावेत्यादि । अथ जीवाधिकारादिदमाह| अह भंते ! कुम्मे कुम्मावलिया गोहे गोहावलिया गोणे गोणावलिया मणुस्से मणुस्सायलिया महिसे । महिसावलिया एएसिणं दुहा वा तिहा या संखेज्जहावि छिन्नाणं जे अंतरा तेवि गं तेहिं जीवपएसेहिं फुडा , हंता फुडा । पुरिसे णं भंते ! (जं अंतरं) ते अंतरे हत्षेण वा पादेण वा अंगुलियाए वा सलागाए वा कटेण रवा कलिंचेण वा आमुसमाणे वा संमुसमाणे वा आलिहमाणे वा विलिहमाणे वा अन्नयरेण वा तिक्खेणं
सत्यजाएणं आछिदमाणे चा विञ्छिदमाणे वा अगणिकाएणं वा समोडहमाणे तेर्सि जीवपएसाणं | किंचि आवाई वा विवाहं वा उपायइ छविच्छेदं वा करेइ , णो तिणढे समढे, नो खलु तस्थ सत्थं
संकमइ ॥ (सूत्रे ३२५)॥ है 'अहे'त्यादि, 'कुम्मे त्ति 'कूर्मः' कच्छपः 'कुम्मावलिय'त्ति 'कूर्मावलिका' कच्छपपशिः 'गोहे'त्ति गोधा सरीसप
विशेषः 'जं अंतरन्ति यान्यन्तरालानि ते अंतरेंचि तान्यन्तराणि 'कलिंचेण वत्ति क्षुद्रकाष्ठरूपेण 'आमुसमाणे
दीप अनुक्रम [३९७]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [३२५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३२५]
दीप अनुक्रम [३९८]
व्याख्या
वत्ति आमृशन् ईषत् स्पृशनित्यर्थः 'संमुसमाणे यत्ति संमृशन् सामस्त्येन स्पृशनित्यर्थः 'आलिहमाणे वत्ति आलि-|| प्रज्ञप्तिः खन ईषत् सकृद्वाऽऽकर्षन् 'विलिहमाणे वत्ति विलिखन् नितरामनेकशी वा कर्षन 'आदिभाणे वत्ति ईषत् सकृद्धा
उद्देशः३
प्रदेशानाम अभयदेवी-छिन्दन् 'विच्छिदमाणे वत्ति नितरामसकृद्धा छिन्दन् 'समोडहमाणे'त्ति समुपदहन 'आवाहं वत्ति ईषद्बाधां या वृत्तिः
स्तरावेद'वायाहं वत्ति व्यावाघां-प्रकृष्टपीडाम् ।। कूर्मादिजीवाधिकारात्तदुत्पत्तिक्षेत्रस्य रलप्रभादेश्चरमाचरमविभागदर्शनायाह- नाया ॥३६५| __ कति णं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ?, गोषमा | अट्ठ पुढवीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-रयणप्पभा जाव अहे |
अभाव
३२५ सत्तमा पुढवि ईसिपम्भारा ।इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढची किं चरिमा अचरिमा ?, चरिमपदं निरवसेसं
|चरमादिः भाणिय जाव वेमाणिया णं भंते ! फासचरिमेणं किं चरिमा अचरिमा ?, गोयमा! चरिमावि अचरिमावि।
सू ३२६ सेवं भंते !२ भग० गो ॥ (सूत्रं ३२६)॥८-३ ॥
'कइ ण'मित्यादि, तत्र 'इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढवी किं चरिमा अचरिमा?' इति, अथ केयं चरमाचरमIX परिभाषा इति, अत्रोच्यते, चरमं नाम प्रान्तं पर्यन्तवर्ति, आपेक्षिकं च चरमत्व, यदुक्तम्-"अन्यद्रव्यापेक्षयेदं चरम ||४/ IMI द्रव्यमिति, यथा पूर्वशरीरापेक्षया चरमं शरीर"मिति, तथा अचरम नाम अप्रान्त मध्यवर्ति, आपेक्षिकं चाचरमत्वं, |
॥३६५।। यदुक्तम्-"अन्यद्रव्यापेक्षयेदमचरम द्रव्य, यथाऽन्त्यशरीरापेक्षया मध्यशरीर"मिति इह स्थाने प्रज्ञापनादशमं पदं वाच्यं, II ४ एतदेवाह-चरिमें'त्यादि, तत्र पदद्वयं दर्शितमेव, शेषं तु दश्यते-चरिमाई अचरिमाई चरिमंतपएसा अचरिमंतपएसा ?,
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [३२६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३२६]
*5454545556456565%
गोयमा ! इमा ण रयणप्पभापुढवी नो चरिमा नो अचरिमा नो चरिमाई नो अचरिमाई नो चरिमंतपएसा नो अचरिमतपएसा नियमा अचरिमं चरमाणि य चरिमंतपएसा य अचरिमंतपएसा य' इत्यादि, तत्र किं चरिमा अचरिमा
इत्येकवचनान्तः प्रश्नः 'चरिमाइं अचरिमाई' इति बहुवचनान्तः प्रश्ना, 'चरिमंतपएसा अचरिमंतपएस'त्ति चरिमाठाण्येवान्तवत्तित्वादन्ताश्चरिमान्तास्तेषां प्रदेशा इति समासः, तथाऽचरममेवान्तो-विभागोऽचरमान्तस्तस्य प्रदेशा अचर-2
मान्तप्रदेशाः, 'गोयमा ! नो चरिमा नो अचरिमा' चरमत्वं ह्येतदापेक्षिकम् , अपेक्षणीयस्याभावाच कथं चरिमा भवि&|| यति , अचरमत्वमप्यपेक्षयैव भवति ततः कथमन्यस्यापेक्षणीयस्याभावेऽचरमत्वं भवति , यदि हि रत्नप्रभाया मध्येऽन्यास | पृथिवी स्यात्तदा तस्याश्चरमत्वं युज्यते, न चास्ति सा, तस्मान्न चरमासौ, तथा यदि तस्या वाह्यतोऽन्या पृथिवी स्यात्तदा
तस्था अचरमत्वं युज्यते न चास्ति सा तस्मानाचरमाऽसाविति, अयं च वाक्यार्थोऽत्र-किमियं रक्षप्रभा पश्चिमा उत | मध्यमा ? इति, तदेतद्वितयमपि यथा न संभवति तथोक्तम् , अथ 'नो चरिमाई नो अचरिमाईति कथं ?, यदा & तस्याश्चरमव्यपदेशोऽपि नास्ति तदा चरमाणीति कथं भविष्यति ?, एवमचरमाण्यपि, तथा 'नो चरिमंतपएसा नो
अचरिमंतपएस'त्ति, अत्रापि चरमत्वस्याचरमत्वस्य चाभावात्तत्प्रदेशकल्पनाया अप्यभाव एवेत्यत उक्त-नो चरिमान्त
प्रदेशा नोअचरिमान्तप्रदेशा रसप्रभा इति, किं तर्हि 'नियमात् नियमनाचरम च चरमाणि च, एतदुक्तं भवति-अव-131 ४ाश्यतयेयं केवलभङ्गवाच्या न भवति, अवयवावयविरूपत्वादसङ्ख्येयप्रदेशावगाढत्वाद्यधोक्तनिर्वचनविषयैवेति, तथाहि
दीप अनुक्रम [३९९]
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आगम [०५]]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३,४], मूलं [३२६,३२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३२६, ३२७]
व्याख्या रतप्रभा तावदनेन प्रकारेण व्यवस्थितेति विनेयजनानुग्रहाय लिख्यते, स्थापना चेयम्प्रज्ञप्ति अभयदेवी
द एवमवस्थितायां यानि प्रान्तेषु व्यवस्थितानि तदध्यासितक्षेत्रखण्डानि तानि तथाविधवियावृत्तिः१
शिष्टैकपरिणामयुक्तत्वाच्चरमाणि, यत्पुनर्मध्ये महद् रसप्रभाकान्त क्षेत्रखण्डं तदपि तथा
विधपरिणामयुक्तत्वादचरमं तदुभयसमुदायरूपा चेयमन्यथा तदभावप्रसङ्गात्, प्रदे॥६६॥ शपरिकल्पनायां तु चरमान्तप्रदेशाचाचरमान्तप्रदेशाच, कथं , ये बाह्यखण्डप्रदेशास्ते
परमान्तप्रदेशाः ये च मध्यखण्डप्रदेशास्तेऽचरमान्तप्रदेशा इति, अनेन चैकान्तदुर्णयनिरासप्रधानेन निर्वचनसूत्रेणावयवावयविरूपं वस्त्वित्याह, तयोश्च भेदाभेद इति । एवं शर्करादिष्वपि, अथ कियडूरं तद्वाच्यम् ? इत्याह-'जावे'त्यादि, ये वैमानिकभवसम्भवं स्पर्श न लप्स्यन्ते पुनस्तत्रानुत्पादेन मुक्तिगमनाते वैमानिकाः स्पर्शचरमेण चरमाः, ये तु तं पुनर्लप्स्यन्ते ते त्वचरमा इति ।। अष्टमशते तृतीयः॥८-३॥
1८शतके | उद्देशः३ चरमादिः सू ३२६ काविक्या
दयः सू३२७
दीप अनुक्रम [३९९, ४००]
CASCECACAREER
अनन्तरोद्देशके पैमानिका उक्तास्ते च क्रियावन्त इति चतोंद्देशके ता सच्यन्ते, तत्र च 'रायगिहे'इत्यादिसूत्रम्
रायगिहे जाच एवं वयासी-कति णं भंते ! किरियाओ पन्नत्ताओ? गोयमा ! पंच किरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-काइपा अहिगरणिया, एवं किरियापदं निरवसेसं भाणिपर्व जाच मायावत्तियाओ किरियाओ विसे-|| साहियाओ, सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति भगवं गोयमे०॥ (सूत्रं ३२७)॥८-४॥
॥३६॥
अत्र अष्टम-शतके तृतीय-उद्देशक: समाप्त: अथ अष्टम-शतके चतुर्थ-उद्देशकः आरभ्यते
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[३२७]
दीप
अनुक्रम [४००]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति: ]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [४], मूलं [ ३२७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५]
'एवं किरियापयति, 'एवम्' एतेन क्रमेण क्रियापदं प्रज्ञापनाया द्वाविंशतितमं तत्रं 'काइया अहिगरणिया | पाओसिया पारियावणिया पाणाश्वायकिरिया' इत्यादि, अन्तिमं पुनरिदं सूत्रमत्र 'एयासि णं भंते! आरंभियाणं परिगहियाणं अपञ्चक्खाणियाणं मायावत्तियाणं मिच्छादंसणवत्तियाण य कयरे२हिंतो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसाहिया वा ?, गोयमा ! सवत्थोवा मिच्छादंसणवत्तियाओ किरियाओ' मिथ्यादृशामेव तद्भावात्, 'अप्पञ्चक्खाणकिरियाओ विसेसाहियाओ' मिथ्यादृशामविरत सम्यग्दृशां च तासां भावात्, 'परिग्गहियाओ विसेसाहियाओ' पूर्वोक्तानां देशविरतानां च तासां भावात् 'आरंभियाओ किरियाओ विसेसाहियाओ' पूर्वोक्तानां प्रमत्तसंयतानां च तासां भावात्, 'मायावत्तियाओ विसेसाहियाओ' पूर्वोक्तानामप्रमत्तसंयतानां च सद्भावादिति एतदन्तं चेदं वाच्यमिति दर्शयन्नाह - 'जावे'त्यादि, इह गाथे- "मिच्छापञ्चक्खाणे परिग्गहारंभमायकिरियाओ। कमसो मिच्छा अविरयदेसपमत्त| प्यमत्ताणं ॥ १ ॥ मिच्छत्तबत्तियाओ मिच्छदिडीण चेव तो थोया । सेसाणं एक्केको वहुइ रासी तओ अहिया ॥ २ ॥” | इति ॥ [ गतार्थे पूर्वोक्तेन ] ॥ अष्टमशते चतुर्थोद्देशकः ॥ ८-४ ॥
क्रियाधिकारात्पञ्चमोदेशके परिग्रहादिक्रियाविषयं विचारं दर्शयन्नाह -
रायगिहे जाव एवं वयासी आजीविया णं भंते ! धेरे भगवंते एवं वपासी समणोवासगस्स णं भंते ? | सामाइयकडस्स समणोवस्सए अच्छमाणस्स केइ भंडे अवहरेजा से णं भंते । तं भंडं अणुगवेसमाणे किं
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अत्र अष्टम- शतके चतुर्थ उद्देशकः समाप्तः अथ अष्टम- शतके पंचम उद्देशक: आरभ्यते
"भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [३२८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
सामायिक
प्रत सूत्रांक
HAPANE
[३२८]
दीप अनुक्रम [४०१]
व्याख्या- सर्य भंड अणुगषेसह परायगं भंड अणुगवेसह, गोयमा ! सयं भंड अणुगवेसति नो परायगं भंडं अणुग- शतक
प्रज्ञप्तिः वेसेह, तस्स णं भंते ! तेहिं सीलषयगुणवेरमणपञ्चक्खाणपोसहोववासेहिं से भंडे अभंडे भवति', हंता अभयदवा-|| भवति ॥ से केणं खाइ णं अद्वेणं भंते ! एवं बुचइ सयं भंडं अणुगवेसइ नो परायगं भंड अणुगवेसह या वृत्तिः
वतो भागोयमा तस्स णं एवं भवति-णो मे हिरने नो मे सुबन्ने नो मे कंसे नो मे दूसे नो मे विउलधणकणगरयण-14
ण्डादि ॥३६॥ मणिमोसियसंखसिलपवालरत्सरयणमादीए संतसारसावदेने, ममत्तभावे पुण से अपरिणाए भवति, से सू ३२८
तेणद्वेणं गोयमा! एवं बुचइ-सयं भंड अणुगवेसइ नो परायगं भंडं अणुगवेसह ॥ समणोवासगस्स णं भंते ।। सामाइयकडस्स समणोवस्सए अच्छमाणस्स केनि जायं चरेजा से णं भंते ! किं जायं चरइ अजायं चरह, | गोयमा ! जायं चरइ नो अजायं चरइ, तस्स णं भंते ! तेहिं सीलवयगुणवेरमणपञ्चक्खाणपोसहोववासेहि सा जाया अजाया भवइ, हंता भवइ, से केणं खाइणं अटेणं भंते. एवं बुचह-जायं चरइ नो अजायं ।। चरह, गोयमा! तस्स णं एवं भवइ-णो मे माता णो मे पिता णो मे भाया णो मे भगिणी णो मे भज्जा | णो मे पुत्ता णो मे धूया नो मे सुण्हा, पेजबंधणे पुण से अवोच्छिन्ने भवइ, से तेण?णं गोयमा ! जाव नो
॥३६७॥ | अजायं चरइ ॥ (सूत्रं ३२८)॥
'रायगिहें'इत्यादि, गौतमो भगवन्तमेवमवादीत-'आजीविका' गोशालकशिष्या भदन्त ! 'स्थविरान्' निर्मन्धान | भगवतः 'एवं' वक्ष्यमाणप्रकारमवादिषुः, यच्च ते तान् प्रत्यवादिषुस्तद्गौतमः स्वयमेव पृच्छमाह-'समणोवासगस्स
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SAREastatinintenational
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सूत्रांक
[३२८]
दीप
अनुक्रम [४०१]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [५], मूलं [३२८]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
|णमित्यादि, 'सामाइयक उस्स' सि कृतसामायिकस्य प्रतिपन्नाद्यशिक्षाव्रतस्य श्रमणोपाश्रये हि श्रावकः सामायिकं प्रायः प्रतिपद्यते इत्यत उक्तं श्रमणोपाश्रये आसीनस्येति, 'केइ'त्ति कश्चित्पुरुषः 'भंडं'ति वस्त्रादिकं वस्तु गृहवर्त्ति साधूपाश्रय[वर्त्ति वा 'अवहरेज'ति अपहरेत् 'से' ति स श्रमणोपासकः 'तं भंड'ति तद्-अपहृतं भाण्डम् 'अणुगत्रे समाणे' ति सामायिकपरिसमाध्यनन्तरं गवेषयन् 'सभंडे 'ति स्वकीयं भाण्डं 'परायगं'ति परकीयं वा ?, पृच्छतोऽयमभिप्रायः-स्वसम्बन्धित्वात्तत्स्वकीयं सामायिकप्रतिपत्तौ च परिग्रहस्य प्रत्याख्यातत्वादस्वकीयमतः प्रश्नः, अत्रोत्तरं 'सभंड' ति स्वभाण्डं, | 'तेहिं 'ति तैर्विवक्षितैर्यथाक्षयोपशमं गृहीतैरित्यर्थः, 'सीले 'त्यादि, तत्र शीलव्रतानि - अणुव्रतानि गुणा - गुणव्रतानि विर| मणानि - रागादिविरतयः प्रत्याख्यानं - नमस्कारसहितादि पौषधोपवासः - पर्वदिनोपवसनं तत एषां द्वन्द्वोऽतस्तैः, इह च शीलतादीनां ग्रहणेऽपि सावद्ययोगविरत्या विरमणशब्दोपात्तया प्रयोजनं तस्या एव परिग्रहस्यापरिग्रहता निमित्तत्वेन | भाण्डस्याभाण्टताभवन हेतुत्यादिति 'से भंडे अभंडे भवद्दत्ति 'तत्' अपहृतं भाण्डमभाण्डं भवत्यसंव्यवहार्यत्वात् ॥ 'से केणं'ति अथ केन 'खाइ णं'ति पुनः 'अद्वेणं'ति अर्थेन हेतुना 'एवं भवति एवंभूतो मनःपरिणामो भवति'नो मे हिरन्ने' इत्यादि, हिरण्यादिपरिग्रहस्य द्विविधं त्रिविधेन प्रत्याख्यातत्वात्, उक्तानुकार्थानुसङ्ग्रहेणाह - 'नो मे' इत्यादि धनं-गणिमादि गवादि वा कनकं प्रतीतं रत्नानि - कर्केतनादीनि मणय:- चन्द्रकान्तादयः मौक्तिकानि शङ्खाश्थ | प्रतीताः शिलाप्रवालानि-विद्रुमणि, अथवा शिला-मुक्ताशिलाद्याः प्रवालानि विदुमाणि रक्तरलानि-पद्मरागादीनि तत एषां द्वन्द्वस्ततो विपुलानि - धनादीन्यादिर्यस्य स तत्तथा 'संत'त्ति विद्यमानं 'सार'त्ति प्रधानं 'सावएज्ज'
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [३२८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३२८]
दीप अनुक्रम [४०१]
व्याख्या- त्ति स्वापतेयं द्रव्यम् , एतस्य च पदत्रयस्य कर्मधारयः, अथ यदि ताण्डमभाण्ड भवति तदा कथं स्वकीयं तद्गवेषयति ? शतके प्रज्ञप्तिः इत्याशवाह-'ममत्ते'त्यादि, परिग्रहादिविषये मनोवाकायानां करण कारणे तेन प्रत्याख्याते ममत्वभावः पुनः-हिर-13
उद्देश: अभयदेवी- ण्यादिविषये ममतापरिणामः पुनः 'अपरिज्ञात: अप्रत्याख्यातो भवति, अनुमतेरप्रत्याख्यातत्वात् , ममत्वभावस्य । श्रमणोपा-- या वृत्तिः चानुमतिरूपत्वादिति ।। 'केह जायं चरेजति कश्चिद् उपपतिरित्यर्थः 'जायां भार्या 'चरेत्' सेवेत, 'सुण्ह'त्ति स्नुषा-2 सकवतपुत्रभार्या 'पेजबंधणे'त्ति प्रेमैव-प्रीतिरेव बन्धनं प्रेमवन्धनं तत्पुनः 'से' तस्य श्राद्धस्याव्यवच्छिन्नं भवति, अनुमते-18
भाः ॥३६८०
सू३२९ ४ारप्रत्याख्यातत्वात् प्रेमानुबन्धस्य चानुमतिरूपत्वादिति ॥ | समणोवासगस्स णं भंते ! पुषामेव थूलए पाणाइवाए अपचक्खाए भवद से णं भंते ! पच्छा पच्चाइक्खमाणे |
किं करेति', गोयमा ! तीयं पडिकमइ पटुप्पन्नं संवरेइ अणागयं पञ्चक्खाति॥तीयं पडिकममाणे किं तिविह ६ तिषिहेणं पडिफमति १ तिविहं दुविहेणं पडिकमति २ तिविहं एगविहेणं पडिकमति ३ दुविहं तिविहेणं पडि
कमति ४ दुविहं दुविहेणं पडिकमति ५ दुविहं एगविहेणं पडिक्कमति ६ एकविहं तिविहेणं परिशमति ७ एकविहं दुबिहेणं पडिक्कमति ८ एक्कविहं एगविहेणं पडिक्कमति ९, गोयमा ! तिविहं तिबिहेणं पडिकमति तिविहं दुविहेण वा पडिक्कमति तं चेव जाव एकविहं वा एक्कविहेणं पडिकमति, तिविहं वातिविहेणं पडिक्कममाणे न करेति न कारवेति करेंतं णाणुजाणइ मणसा वयसा कायसा १,तिविहं दुविहेणं पडिन कामका०३६८॥ करेंतं नाणुजाणइ मणसा वयसा २, अहवा न करेइ न का० करतं नाणुजा मणसा कायसा ३, महन
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-४०४]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः ]
शतक [८], वर्ग (-), अंतर- शतक [-1, उद्देशक [५] मूलं [ ३२९-३३१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
| करेइ ३ वयसा कायसा ४, तिविहं एमविहेणं पडि० न करेति ३ सणसा ५, अहवा न करेइ ३ वयसा ६, | अहवा न करेइ ३ कायसा ७, दुविहं ति० प० न करेइ न का० मणसा वयसा कायसा ८, अहवा न करेइ करें नाणुजाण मण० वय० काय० ९, अहवा न कारवेइ करेंतं नानुजा० मणसा वयसा कायसा १०, दु० दु० प० नक० न का० म० व० ११, अहवा न क० न का० म० कायसा १२, अहवा न क० न का० वयसा कायसा १३, अहवा न करेइ करेंतं नाणुजाणइ मणसा वयसा १४, अहवा न करे० करेंतं नाणुजाणइ मणसा कायसा १५, अहवा न करेति करेंतं नाणुजाणति वयसा कायसा १६, अहवा न कारवेति करेंतं नाणुजाणति मणसा वयसा १७, अहवा न कारवेद करेंतं नाणुजाणइ मणसा कापसा १८, अहवा न कारवेति करेंतं नाणुजाण वयसा कायसा १९, दुविहं एकविहेणं पडिकममाणे न करेति न कारवेति मणसा २०, अहवा न करेति न कारवेति वयसा २१, अहवा न करेति न कारवेति कायसा २२, अहवा न करेति करेंतं नानुजाणइ मणसा २३ अहवा न करेइ करेतं नाणुजाण वयसा २४, अहवा न करेइ करेंतं नानुजाणइ कायसा २५, अहवा न कारवेइ करेंतं नाणुजाणइ मणसा २६, अहवा न कारवेद करेंतं नाणुजाण वयसा २७ अहवा न कारवेद | करेंतं नाणुजाणइ कायसा २८, एगविहं तिविहेणं पडि० न करेति मणसा वयसा कायसा २९, अहवा न कारवेह मण० वय कायसा ३०, अहवा करेंतं नाणुजा० मणसा ३३३१, एक्कविहं दुविहेणं पडिकममाणे न | करेति मणसा वयसा ३२, अहबा न करेति मणसा कापसा ३३, अहवा न करे वयसा कापसा ३४, अहवा न
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[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [३२९-३३१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३२९-३३१]
जासू३२९
व्याख्या-ल कारवेति मणसा वयसा ३५, अहवा न कारवेति मणसा कायसा ३६, अहवा न कारवेइ वयसा कायसा ३७, शतक प्रज्ञाप्तः अहवा करेंतं नाणुजा मणसा वयसा ३८, अहवा करेंतं नाणुजा मणसा कापसा ३९, अहवा करेंतं नाणु-18|दशा अभयदेवीजाणइ वयसा कायसा ४०, एक्कविहं एगविहेणं पडिकममाणे न करेति मणसा ४१, अहवा न करेति वयसा
श्रमणोपा. या वृत्तिः
सकवत४२, अहषा न करेति कायसा ४३, अहवा न कारवेति मणसा ४४, अहवा न कारवेति वयसा ४५, अहवा ||
भङ्गाः ३६९॥ न कारवेइ कायसा ४६, अहवा करेंतं नाणुजाणइ मणसा ४७ अहवाकरेंतं नाणुजा० वयसा ४८ अहवा करतं
नाणुजाणइ कायसा ४९। पटुप्पन्नं संवरेमाणे किं तिविहं तिविहेणं संवरेइ ?, एवं जहा पडिकममाणेणंएगूण| पन्नं भंगा भणिया एवं संवरमाणेणवि एगूणपन्न भंगा भाणियवा। अणागयं पञ्चक्खमाणे किं तिविहं तिविहेणं |पचक्खाइएवं ते चेव भंगा एगणपन्ना भाणियवा जाव अहवा करेंतं नाणुजाणइ कायसा ।। समणोवासगस्स | | भंते ! पुवामेव थूलमुसाबाए अपचक्खाए भवइ से गं भंते ! पच्छा पञ्चाइक्खमाणे एवं जहा पाणाइवायस्स सीपालं भंगसयं भणियं तहामुसावायस्सवि भाणियत्वं । एवं अदिनादाणस्सवि, एवं धूलगस्स मेहुणस्सवि थूलगस्स परिग्गहस्सवि जाव अहवा करेंतं नाणुजाणइ कायसा ॥ एए खलु एरिसगा समणोवासगा भवंति, अनोखलु एरिसगा आजीवियोवासगा भवंति (सूत्रं३२९) आजीवियसमयस्स गं अयम? पण्णत्ते अक्खीणपडि- ॥३६९॥ भोइणो सधे सत्ता से हंता छेप्सा भेत्ता लुंपित्ता विलुपित्ता उहवइत्ता आहारमाहारेंति, तत्थ खलु इमे दुवालस आजीवियोवासगा भवंति, तंजहा-ताले १ तालपलंबे २ उबिहे ३ संविहे ४ अवविहे ५ उदए ६ नामुदए ७
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सूत्रांक
[३२९
-३३१]
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[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर- शतक [ - ], उद्देशक [५] मूलं [ ३२९-३३१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
णमुदए ८ अणुवालए ९ संखवालए १० अयंबुले ११ कायरए २२, चेते दुवालसमाजीवियोवासगा अरिहंत| देवतागा अम्मापि सुस्सु सगा पंचफलपडिता, तंजा-उबरेहिं वडेहिं बोरेहिं सतरेहिं पिलंखहिं, पठंडुल्ह| सणकंदमूलविषञ्जगा अणिलुंछिएहिं अणकभिन्नहिं गोणेहिं तसपाणविवज्जिएहिं चित्तेहिं वित्तिं कप्पेमाणे बिहरंति, एएवि ताव एवं इच्छंति, किमंग पुण जे इमे समणोवासगा भवंति जेर्सि नो कप्पंति इमाई पन्नरस | कम्मादाणाई सयं करेत्तए वा कारवेत्तए वा करेंतं वा अन्नं न समणुजाणेत्तए, तंजहा - इंगालकम्मे वणकम्मे साडीकम्मे भाडीकम्मे फोडीकम्मे दंतवाणिज्ये लक्खवाणिजे केसवाणिज्जे रसवाणिजे विसवाणिज्जे जंतपीलणकम्मे निलंछणकम्मे दवग्गिदावणया सरदहत लायपरिसोसणया असतीपोसणया, इथेते समणोवासगा सुका सुकाभिजातीया भविया भवित्ता कालमासे का किया अन्नयरेसु देवलोएस देवत्ताए उववन्तारो भवति ॥ ( सू ३३०) कतिविहा णं भंते ! [देवा] देवलोगा पण्णत्ता ?, गोयमा ! चउच्चिहा देवलोगा पण्णत्ता तंजा-भवणवासिवाणमंतर जोइसवेमाणिया, सेवं भंते २ ॥ ( सूत्रं ३३१ ) | अट्टमसयरस पंचमो ॥ ८-२ ॥
'समणोवासयस्स नं'ति तृतीयार्थत्वात् षष्ठ्याः श्रमणोपासकेनेत्यर्थः सम्बन्धमात्रविवक्षया वा पष्ठीयं, 'पुवामेव'त्ति प्राक्कालमेव सम्यक्त्वप्रतिपत्तिसमनन्तरमेवेत्यर्थः 'अपञ्चखाए'त्ति न प्रत्याख्यातो भवति, तदा देश विरतिपरिणामस्याजातत्वात्, ततश्च 'से णं'ति श्रमणोपासकः 'पश्चात्' प्राणातिपातविरतिकाले 'पचाइक्खमाणे ति प्रत्याचक्षाणः प्राणा| तिपातमिति गम्यते किं करोति । इति प्रश्नः, वाचनान्तरे तु 'अपञ्चकखाए' इत्यस्य स्थाने 'पञ्चखाए'त्ति दृश्यते 'पच्चा
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[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [३२९-३३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३२९-३३१]
व्याख्या- इक्खमाणे इत्यस्य च स्थाने 'पचक्खावेमाणे त्ति दृश्यते, तत्र च प्रत्याख्याता स्वयमेव प्रत्याख्यापर्यश्च गुरुणा हेतुकी शतके
प्रज्ञप्तिः प्राणातिपातप्रत्याख्यानं गुरुणाऽऽत्मानं मायन्नित्यर्थ इति, 'तीत'मित्यादि, 'तीतम्' अतीतकालकृतं प्राणातिपातं || उद्देशा ५ अभयदेवी- प्रतिक्रामति'ततो निन्दाद्वारेण निवर्तत इत्यर्थः 'पडप्पन'ति प्रत्युत्पन्नं-वर्तमानकालीनं प्राणातिपातं 'संवृणोति' न आजीविया वृत्तिः१
करोतीत्यर्थः 'अनागतं भविष्यत्कालविषयं 'प्रत्याख्याति'न करिष्यामीत्यादि प्रतिजानीते ॥'तिविहं तिविहेण मित्यादि, कोपासकाः इह च नव विकल्पास्तत्र गाथा-"तिन्नि तिया तिन्नि दुया तिन्नि य एक्का हवंति जोगेसु । तिदुएक तिदुएक तिदुएक चेव 8
है. देवेलोकाः १३७०॥ करणाई॥१॥"[त्रयस्त्रिकास्त्रयो द्विकात्रयश्चैकका भवन्ति योगेषु । त्रयो द्वावेक त्रयो द्वावेकं त्रयो द्वावेकं चैव कर-
सू३३०
३३३ णानि ॥१॥] एतेषु च विकल्पेष्वेकादयो विकल्पा लभ्यन्ते, आह च-"एगो तिन्नि य तियगा दो नवगा तह य तिन्नि | श्रमणोपानव नव य । भंगनवगस्स एवं भंगा एगणपन्नासं ॥१॥[एकश्च त्रयस्त्रिका द्वौ नवकी तथा च त्रयो नव नव च । भज- 8 सकातनवकस्यैवं भङ्गा एकोनपश्चाशत् ॥१॥] व्रतेषु ७३५ स्थापना चेयम्-२३३/२२२योगाः तत्र 'तिविहं तिविहेणं'ति भङ्गार |'त्रिविध' त्रिप्रकारं करणकारणानुमतिभेदात् प्राणातिपातयोगमिति ३२१ ३२३३२१ कर गम्यते, 'त्रिविधेन' मनोवचन
कायलक्षणेन करणेन प्रतिक्रामति,ततो निन्दनेन विरमति, तिविहं दुवि- २९१५९१ ७हेण ति त्रिविधं बधकरणादिहै| भेदात् 'द्विविधेन' करणेन मनःप्रभृतीनामेकतरवर्जिततयेन,'तिविहं एगविहेण ति त्रिविधं तथैव 'एकविधेन' मनःप्र
॥३७०॥ भृतीनामेकतमेन करणेनेति 'दुविहं तिविहेर्ण द्विविध' कृतादीनामन्यतमद्वयरूपं योग 'त्रिविधेन' मनःप्रभृतिकरणेन, एवमन्येऽपि, 'तिविहं तिविहेणं पडिक्कममाणे इत्यादि न करोति' न स्वयं विदधाति अतीतकाले प्राणातिपातं, मनसा
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [३२९-३३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३२९-३३१]
हा हतोऽहं येन ममा तदाऽसौ न हत इत्येवमनुध्यानात्, तथा 'न' नैव कारयति मनसैव यथा हा न युक्तं कृतं यदसौ परेण न घातित इति चिन्तनात्, तथा 'कुर्वन्तं विदधानमुपलक्षणत्वात् कारयन्त वा समनुजानन्तं वा परमात्मानं प्राणाति-15 पातं 'नानुजानातिनानुमोदयति, मनसैव वधानुस्मरणेन तदनुमोदनात्, एवं न करोति न कारयति कुर्षन्तं नानुजा.
नाति वचसा, तथाविधवचनप्रवर्तनात्, एवं न करोति न कारयति कुर्वन्तं नानुजानाति कायेन तथाविधाङ्गविकारककारणादिति, न ह यथासयन्यायो न करोति मनसा न कारयति वचसा नानुजानाति कायेनेत्येवंलक्षणोऽनसरणीयो.
वक्तृविवक्षाधीनत्वात् सर्वन्यायानां वक्ष्यमाणविकल्पायोगान्चेति, एवं त्रिविधं त्रिविधेनेत्यत्र विकल्पे एक पर विकल्पः। तदन्येषु पुनर्द्वितीयतृतीयचतुर्थेषु यः २ पञ्चमषष्ठयोर्नव नव सप्तमे वयः अष्टमनवमयोर्नव नवेति, एवं सर्वेऽप्येकोन| पञ्चाशत्, एवमियमतीतकालमाश्रित्य कृता करणकारणादियोजना, अथवैवमेषाऽतीतकाले मनःप्रभृतीनां कृतं कारित| मनुज्ञातं वा वधं क्रमेण न करोति न कारयति न चानुजानाति तन्निन्दनेन तदनुमोदननिषेधतस्ततो निवर्तत इत्यर्थः, &| तन्निन्दनस्याभावे हि तदनुमोदनानिवृत्तेः कृतादिरसी क्रियमाणादिरिख स्यादिति, वर्तमानकालं वाश्रित्य सुगमैव,
भविष्यकालापेक्षया त्येवमसौ-न करोति मनसा तं हनिष्यामीत्यस्य चिन्तनात्, न कारयति मनसैव तमहं घातयिष्यामीत्यस्य चिन्तनात्, नानुजानाति मनसा भाविनं वधमनुश्रुत्य हर्षकरणात्, एवं वाचा कायेन च तयोस्तथाविधयोः करणादिति, अथचैवमेव भविष्यत्काले मनप्रभृतिना करिष्यमाणं कारयिष्यमाणमनुमंस्यमानं वा वध क्रमेण न करोति न कारयति न चानुजानाति ततो निवृत्तिमभ्युपगच्छतीत्यर्थः, सर्वेषां चैषां मीलने सप्तचत्वारिंशदधिकं भङ्गकशतं भवति, इह
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-३३१]
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[४०२
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[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति:]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर- शतक [ - ], उद्देशक [५] मूलं [ ३२९-३३१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्याप्रज्ञष्ठिः अभयदेवीया वृत्तिः १
॥३७॥
च त्रिविधं त्रिविधेनेति विकल्पमाश्रित्याक्षेपपरिहारौ वृद्धोक्तावेवम्- "न करेच्चाइतियं गिहिणो कह होइ देसविरयस्स १ । भन्नइ विसयस्स वहिं पडिसेहो अणुमईएवि ॥ १ ॥ केई भांति गिहिणो तिविहं तिविहेण नत्थि संवरणं । तं न जओ निद्दिद्वं इहेव सुत्ते विसेसेउं ॥ २ ॥ तो कह निज्जुत्सीए ऽणुमइनिसेहोत्ति ? सो सविसयंमि । सामन्ने वऽन्नत्थ उ तिविहं तिविहेण को दोसो ॥ ३ ॥” [न करोतीत्यादि त्रिकं गृहिणो देशविरतस्य कथं भवति ।। भण्यते विषयाद्वहिरनुमत्या अपि प्रतिषेधः ॥ १ ॥ केचिद्भणन्ति गृहिणस्त्रिविधं त्रिविधेन नास्ति संवरणं । तन्न यत इहैव सूत्रे विशिष्य निर्दिष्टम् ॥ २ ॥ तदा कथं नियुक्तावनुमतिनिषेध १ इति, स स्वविषये । सामान्ये वा, तथा चान्यत्र विशेषे वा त्रिविधं त्रिविधेन स्यात् को | दोषः १ ॥ ३ ॥ ] इह च 'सविसयंमि' ति स्वविषये यथानुमतिरस्ति 'सामने व' ति सामान्ये वाऽविशेषे प्रत्याख्याने |सति 'अण्णस्थ उ'त्ति विशेषे स्वयंभूरमण जलधिमत्स्यादौ “पुत्ताइसंतइनिमित्तमेत्तमेगारसिं पवण्णस्स । जयंति केइ गिहिणो | दिक्खाभिमुहस्स तिविहंपि ॥ १ ॥ [ पुत्रादिसन्ततिनिमित्तमात्रमेकादश प्रतिमां प्रपन्नस्य गृहिणस्त्रिविधं त्रिविधेन | केचित् जल्पन्ति दीक्षाभिमुखस्य ॥ १ ॥ ] यथा च त्रिविधं त्रिविधेनेत्यत्राक्षेपपरिहारौ कृतौ तथाऽन्यत्रापि कार्यों पत्रानुमतेरनुप्रवेशोऽस्तीति । अथ कथं मनसा करणादि १, उच्यते, यथा वाक्काययोरिति, आह च - "आह कहं पुण मणसा करणं कारावणं अणुमई य ? । जह वहतणुजोगेहिं करणाई तह भवे मणसा ॥ १ ॥ तयहीणत्ता वइतणुकरणाईणं च अहव मणकरणं । सावज्जजोगमणर्ण पक्ष तं वीयरागेहिं ॥ २ ॥ कारावण पुण मणसा चिंते करेड एस साव। चिंतेई य कए उण सुहु कथं अणुमई होइ ॥ ३ ॥” इति [आह कथं पुनर्मनसा करणं कारापणमनुमतिश्च । यथा वाक्तनुयोगाम्यां
can Internation
श्रमणोपासकस्य व्रत एवं तस्य भेदा:
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८ शतके
उद्देशः ५ श्रमणोपा
सकमत भङ्गाः २३१
॥ ३७१ ॥
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सूत्रांक
[३२९
-३३१]
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[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः ]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर- शतक [-] उद्देशक [५] मूलं [ ३२९-३३१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
करणादि तथा मनसा भवेत् ॥ १ ॥ तदधीनत्वाद्वाक्तनुकरणादीनां अथवा मनःकरणं सावद्ययोगमननं प्रज्ञतं वीतरागैः ॥२ ॥ मनसा पुनः काराणं एष सावद्यं करोत्विति चिन्तयति कृते पुनः सुष्ठु कृतमित्यनुमतिर्भवति चिन्तयति ॥ ३ ॥ ] इह च पञ्चस्वणुव्रतेषु प्रत्येकं सप्तचत्वारिंशदधिकस्य भङ्गशतस्य भावाद् भङ्गकानां सप्त शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि भवन्तीति ॥ यत् स्थविरा आजीविकैः श्रमणोपासकगतं वस्तु पृष्टाः गौतमेन च भगवांस्तत्तावदुक्तम्, अथानन्तरोक्तशीलाः श्रमणोपासका एव भवन्ति न पुनराजी विकोपासकाः आजीविकानां गुणित्वेनाभिमता अपीति दर्शयन्नाह - 'एए खलु' इत्यादि, 'एते खलु' एत एवं परिदृश्यमाना निर्मन्यसत्का इत्यर्थः 'एरिसग'त्ति ईदृशकाः प्राणातिपातादिष्वतीतप्रतिक्रमणादिमम्तः, 'नो खलु'त्ति नैव 'एरिसगति उक्तरूपा उक्तार्थानामपरिज्ञानात् 'आजीविओवासय'त्ति गोशालक| शिष्यश्रावकाः ॥ अथैतस्यैवार्थस्य विशेषतः समर्थनार्थमाजीविकसमयार्थस्य तदुपासक विशेषस्वरूपस्य चाभिधानपूर्वक| माजीविकोपासकापेक्षया श्रमणोपासकानुत्कर्षयितुमाह-'आजीविए'त्यादि, आजीविकसमय:-गोशालक सिद्धान्तः तस्य 'अयमद्वे 'त्ति इदमभिधेयम्- 'अक्खीणपरिभोहणो सबै सत्त'त्ति अक्षीणं-अक्षीणायुष्कमप्रासुकं परिभुञ्जत इत्येवंशीला अक्षीणपरिभोगिनः, अथवा इन्प्रत्ययस्य स्वार्धिकत्वादक्षीणपरिभोगा- अनपगताहारभोगासक्तय इत्यर्थः 'सर्वे सत्त्वाः' असंयताः सर्वे प्राणिनः, यद्येवं ततः किम् ? इत्याह- 'से इंते'त्यादि, 'सेति ततः 'हंत' ति हत्वा लगुडादिना अभ्य|वहार्य प्राणिजातं 'छित्त्वा असिपुत्रिकादिना द्विधा कृत्वा 'भित्त्वा' शूलादिना भिन्नं कृत्वा 'लुत्वा' पक्षादिलोपनेन | 'विलुप्य' त्वचो विलोपनेन 'अपद्राव्य' विनाश्याहारमाहारयन्ति, 'तत्थ'त्ति 'तत्र' एवं स्थितेऽसंयतसत्त्ववर्गे हननादि
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[३२९
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[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति:]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर- शतक [ - ], उद्देशक [५] मूलं [ ३२९-३३१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
॥ १७२ ॥
| दोषपरायणे इत्यर्थः आजीविकसमये वाऽधिकरणभूते द्वादशेति विशेषानुष्ठानत्वात् परिगणिता आनन्दादिश्रमणोपासकवदन्यथा बहवस्ते, 'ताले'त्ति ताठाभिधान एकः, एवं तालप्रलम्बादयोऽपि, 'अरिहंतदेवयाग' त्ति गोशालकस्य तत्कल्पनयाऽर्हत्वात्, 'पंचफलपडित'त्ति फलपञ्चकानिवृत्ताः, उदुम्बरादीनि च पञ्च पदानि पञ्चमीबहुवचनान्तानि प्रतिक्रा ४ न्तशब्दानुस्मरणादिति, 'अनिल्लेडिएहिं ति अवर्द्धितकैः 'अनकभिन्नहिं'ति अनस्तितः । 'एतेवि ताव एवं इच्छति' ॐ एतेऽपि तावद्विशिष्टयोग्यतात्रिकला इत्यर्थः एवमिच्छन्ति अमुना प्रकारेण वाञ्छन्ति धर्म्ममिति गम्यम्, 'किमंग पुणे'त्यादि, किं पुनर्ये इमे श्रमणोपासका भवन्ति ते नेच्छन्तीति गम्यम्?, इच्छन्त्येवेति, विशिष्टतरदेवगुरुप्रवचनसमाश्रि तत्वाचेषां, 'कम्मादाणाई'ति कर्माणि - ज्ञानावरणादीन्यादीयन्ते यैस्तानि कर्मादानानि, अथवा कर्माणि च तान्यादानानि च कर्मादानानि कर्महेतव इति विग्रहः, 'इंगाले' त्यादि, अङ्गारविषयं कर्म अङ्गारकर्म-अङ्गाराणां करणविक्रय स्वरूपम्, एवमग्निव्यापाररूपं यदन्यदपीष्टकापाकादिकं कर्म तदङ्गारकमच्यते, अङ्गारशब्दस्य तदन्योपलक्षणत्वात्, 'वणकम्मे 'ति वनविषयं कर्म वनकर्म्म- धनच्छेदन विक्रयरूपम्, एवं बीजपेषणाद्यपि, 'साडीकम्मे 'ति शकटानी वाहनघटन विक्रयादि 'भाडीकम्मे त्ति भाव्या-भाटकेन कर्म अन्यदीयद्रव्याणां शकटादिभिर्देशान्तरनयनं गोगृहादिसमदर्पणं वा भाटीकर्म्म 'फोडीकम्मे त्ति स्फोटि:-भूमेः स्फोटनं हलकुद्दालादिभिः सैव कर्म्म स्फोटीकर्म्म 'दंतवाणिज्जे ति दन्तानां - हस्तिविषाणानाम् उपलक्षणत्वादेषां चर्मचामरपूतिकेशादीनां वाणिज्यं क्रयविक्रयो दन्तवाणिज्यं 'लक्खवा| णिति लाक्षाया आकरे ग्रहणतो विक्रयः, एतच्च त्रससंसक्तिनिमित्तस्यान्यस्यापि तिलादेर्द्रव्यस्य यद्वाणिज्यं तस्योपलक्षणं,
व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीयावृत्तिः
Education Inte
श्रमणोपासकस्य व्रत एवं तस्य भेदा:
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८ शतके उद्देशः ५ आजीविकोपास०
सू ३३१
॥ ३७२ ॥
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [३२९-३३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
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C5%
प्रत सूत्रांक [३२९-३३१]
केसवाणिज्जेत्ति केशवज्जीवानां गोमहिषीस्त्रीप्रभृतिकानां विक्रयः रसवाणिज्जेत्ति मद्यादिरसविक्रयः 'विसवाणिज्जेपति विषस्योपलक्षणस्वाच्छखवाणिज्यस्याप्यनेनावरोधः, 'जतपीलणकम्मे'त्ति यन्त्रेण तिलेश्वादीनां यत्पीडनं तदेव कर्म ||
| यन्त्रपीडनकर्म 'निल्लंछणकम्मेत्ति निर्लाञ्छनमेव-चर्चितककरणमेव कर्म निलाञ्छनकर्म 'दवग्गिदावणय'त्ति दवाग्नेःदवस्य दापन-दाने प्रयोजकत्वमुपलक्षणत्वादानं च दवाग्निदापनं तदेव प्राकृतत्वाद् 'दवग्गिदावणया' 'सरदहतलायपरिसोसणय'त्ति सरसः-स्वयंसंभूतजलाशयविशेषस्य इदस्य-नद्यादिषु निम्नतरप्रदेशलक्षणस्य तडागस्य-कृत्रिमजला|शयविशेषस्य परिशोपर्ण यत्तत्तथा, तदेव प्राकृतत्वात् स्वार्थिकताप्रत्यये 'सरदहतलायपरिसोसणया' 'असईपोसणय'चि | दास्याः पोषणं तद्भाटीग्रहणाय, अनेन च कुर्कुटमार्जारादिक्षुद्रजीवपोषणमप्याक्षिप्तं दृश्यमिति, 'इचेते'त्ति 'इति' एवं-12
प्रकाराः 'एते' निर्ग्रन्थसत्काः 'सुफत्ति शुक्ला अभिन्नवृत्ता अमत्सरिणः कृतज्ञाः सदारम्भिणो हितानुबन्धाश्च 'मुक्का|भिजाइ यति 'शुक्लाभिजात्या' शुकप्रधानाः॥ अनन्तरं देवतयोपपत्तारो भवन्तीत्युक्तमथ देवानेव भेदत आह| 'कतिविहा णमित्यादि ॥ अष्टमशते पश्चमः ।। ८-५॥
%4%2591
दीप
अनुक्रम
[४०२
-४०४]
पञ्चमे श्रमणोपासकाधिकार उक्तः, षष्ठेऽप्यसावेवोच्यते, इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदं सूत्रम्| समणोबासगस्स ण भंते ! तहारूचं समणं वा माहणं वा फासुएसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेमाणस्स किं कजति !, गोयमा ! एगंतसो निजरा कजइ नत्थि य से पावे कम्मे कजति । समणोवा
अत्र अष्टम-शतके पंचम-उद्देशक: समाप्त: अथ अष्टम-शतके षष्ठं-उद्देशक: आरभ्यते श्रमणोपासकस्य व्रत एवं तस्य भेदा:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [३३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३३२]
BENERG
दीप अनुक्रम [४०५]
व्याख्या- सगस्स णं भंते !तहारूवं समणं वा माहणं वा अफामुपणं अणेसणिज्जेणं असणपाणजावपडिलाभेमाणस्सा
* उद्देशः६ प्रज्ञप्तिः किं कज्जइ, गोयमा ! बहुतरिया से निजरा कज्ज अप्पतराए से पाये कम्मे कजइ। समणोवासगस्स णं
दाने निर्जअभयदेवी- भंतेतहारूवं अस्संजयअविरयपडिहयपञ्चक्खायपाषकम्मं फासुएण वा अफासुएण वा एसणिज्जेण वा घात अणेसणिजेण वा असणपाण जाव किं कज्जइ ?, गोयमा! एगतसो से पावे कम्मे कज्जा नस्थि से कार नि- सू१२२
जरा कजह ॥ (सूत्रं ३३२)॥
'समणेत्यादि, 'किंकाइति किं फलं भवतीत्यर्थः, 'एगंतसो'त्ति एकान्तेन तस्य श्रमणोपासकस्य, 'नस्थिय से'त्ति | नास्ति चैतद् यत् 'से'तस्य पापं कर्म 'क्रियते'भवति अमासुकदाने इवेति, 'बहुतरिय'त्ति पापकर्मापेक्षया "अप्पत-1 राए'त्ति अल्पतरं निर्जरापेक्षया, अयमर्थः-गुणवते पात्रायामासुकादिद्रव्यदाने चारित्रकायोपष्टम्भो जीवघातो व्यवहारतस्तच्चारित्रवाधा च भवति, ततश्च-चारित्रकायोपष्टम्भान्निर्जरा जीवधातादेव पापं कर्म, तत्र च स्वहेतुसामथ्योत्पापापेक्षया बहुतरा निर्जरा निर्जरापेक्षया चाल्पतरं पापं भवति, इह च विवेचका मन्यन्ते-असंस्तरणादिकारणत एवापासु
| ॥३७३|| कादिदाने बहुतरा निर्जरा भवति नाकारणे, यत उक्तम्-"संथरणमि असुद्धं दोण्हविगेहंतदितयाणऽहियं । आउरदिहतेणं तं चेव हियं असंधरणे ॥१॥" इति, [निर्वाहेऽशुद्धं गृह्णददतोड़योरप्यहितं । आतुरदृष्टान्तेन तदेवासंस्तरणे माहितं ॥१॥] अन्ये त्वाः-अकारणेऽपि गुणवत्पात्रायामासुकादिदाने परिणामवशाद्वहतरा निर्जरा भवत्यल्पतरं च पाप 2 ४कम्मेंति, निर्विशेषणत्वात् सूत्रस्य परिणामस्य च प्रमाणत्वात् , आह च-"परमरहस्समिसीणं समत्तगणिपिडगझरिय
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [३३२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [३३२]
दीप अनुक्रम [४०५]
साराणं । परिणामियं पमाणं निच्छयमवलंबमाणाणं ॥१॥"[समस्तगणिपिटकस्मारितसाराणामृषीणां । परमरहस्य निश्चयमवलम्बयतां पारिणामिक प्रमाणम् ( विवादास्पदे दाने) ॥१॥] यच्चोच्यते 'संथरणंमि असुद्ध'मित्यादिनाऽशुद्धं ||
द्वयोरपि दातृगृहीत्रोरहितायेति तम्राहकस्य व्यवहारतः संयमविराधनात् दायकस्य च लुब्धकदृष्टान्तभावितत्वेनाब्यु४ पन्नत्वेन वा ददतः शुभाल्पायुष्कतानिमित्तत्वात्, शुभमपि चायुरल्पमहितं विवक्षया, शुभाल्पायुष्कतानिमित्तत्वं चाप्रादोसुकादिदानस्याल्पायुष्कताफलप्रतिपादकसूत्रे प्राक् चर्चित, यत्पुनरिह तत्त्वं तत्केवलिगम्यमिति । तृतीयसूत्रे 'अस्सं
जयअविरये'त्यादिनाऽगुणवान् पात्र विशेष उक्तः, 'फासुएण वा अफासुएण वा इत्यादिना तु प्रासुकापासुकादेनस्य | | पापकर्मफलता निर्जराया अभावश्चोक्का, असंयमोपष्टम्भस्योभयत्रापि तुल्यत्वात्, यश्च प्रासुकादी जीवघाताभावेन अप्रा- | सकादौ च जीवघातसद्भावेन विशेषः सोऽत्र न विवक्षितः, पापकर्मणो निर्जराया अभावस्यैव च विवक्षितत्वादिति, सूत्र-|| त्रयेणापि चानेन मोक्षार्थमेव यद्दानं तच्चिन्तितं, यत्पुनरनुकम्पादानमौचित्यदानं वा तन्न चिन्तितं, निर्जरायास्तत्रानपेक्षणीयत्वाद् , अनुकम्पौचित्ययोरेव चापेक्षणीयत्वादिति, उक्तश्च-"मोक्खत्थं जं दाणं तं पद एसो विही समक्खाओ। | अणुकंपादाणं पुण जिणेहिं न कयाइ पडिसिद्धं ॥ १॥” इति [मोक्षार्थं यद्दान.तत्पति विधिरेष भणितः । अनुकम्पादानं Pilपुनर्न कदाचित्प्रतिषिद्धम् ॥१॥] दानाधिकारादेवेदमाह
निग्गंथं च णं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविर्ट केई दोहिं पिंडेहिं उवनिमंतेजा-एर्ग आउसो अप्पणा मुंजाहि एग थेराणं दलयाहि, से य तं पिण्डं पडिग्गहेज्जा, घेरा य से अणुगवेसियवा सिया जत्थेव
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [३३३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३३३]
*
व्याख्या
IC अणुगेवसमाणे धेरे पासिज्जा तत्थेवाणुप्पदायचे सिया नो चेव णं अणुगवेसमाणे धेरे पासिज्जा तं नो अप्पणा प्रज्ञप्तिःमुंजेजा नो अन्नसिं दावए एगते अणावाए अचित्ते बहुफासुए थंडिल्ले पडिलेहेत्ता पमजित्ता परिहावेय सि-
1८शतके
उद्देशः अभयदेवी- या। निग्गथं च णं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पचिटुं केति तिहिं पिंडेहिं उवनिमंतेजा-एगं आउ-पिण्डादिदयावृत्तिः ॥ सो! अप्पणा भुंजाहि दो थेराणं दलयाहि, से य ते पडिग्गहेजा, घेरा य से अणुगवेसेयवा सेसं तं चेव ||शकनिमन्त्र
जाव परिहावेयवे सिया, एवं जाच दसहिं पिंडेहिं उवनिमंतेज्जा नवरं एगं आउसो ! अप्पणा मुंजाहि नव णा सू३३३ ॥३७४॥
धेराणं दलयाहि सेसं तं चेव जाव परिहावेयवे सिया । निग्गंधं च णं गाहावइ जाव केह दोहिं पडिग्गहे-181 ॥हिं उवनिमंतेजा एग आउसो! अप्पणा पडिभुंजाहि एग थेराणं दलयाहि, से यतं पडिग्गहेजा, तहेव |जाव तं नो अप्पणा पडिभुजेजा नो अन्नेसिं दावए सेसंत चेव जाव परिद्ववेयवे सिया, एवं जाव वसहिं|
पडिग्गहेहि, एवं जहा पडिग्गहवत्तवया भणिया एवं गोच्छगरयहरणचोलपट्टगचललहीसंथारगवसबया जय भाणियवा जाप दसहिं संथारएहिं उवनिमंतेजा जाव परिहायवे सिया ॥ (सूत्रं ३३३)॥ RI 'निग्गंथं चे'त्यादि, इह चशब्दः पुनरर्थस्तस्य चैवं घटना-निर्ग्रन्थाय संयतादिविशेषणाय प्रासुकादिदाने गृहपतेरे-12
कान्तेन निर्जरा भवति, निर्मन्धः पुनः 'गृहपतिकुलं गृहिगृहं 'पिंडवायपडियाए'त्ति पिण्डस्य पातो-भोजनस्य पात्रे || || गृहस्थानिपतनं तत्र प्रतिज्ञा-ज्ञानं बुद्धिः पिण्डपातप्रतिज्ञा तया. पिण्डस्य पातो मम पात्रे भवत्वितिबुवेत्यर्थः, 'उव|निमंतेजत्ति भिक्षो ! गृहाणेदं पिण्डद्वयमित्यभिदध्यादित्यर्थः, तत्र च 'एग'मित्यादि, 'से यति स पुनर्निग्रन्धः 'त'ति ||
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दीप अनुक्रम [४०६]
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अनुक्रम [४०६ ]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति: ]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [६], मूलं [ ३३३ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
स्थविरपिण्डं 'घेरा य से'त्ति स्थविरा: पुनः 'तस्य' निर्ग्रन्थस्य 'सिय'त्ति स्युर्भवन्तीत्यर्थः, 'दाव'ति दद्यात् दापयेद्वा अदत्तादानप्रसङ्गात् गृहपतिना हि पिण्डोऽसी विवक्षितस्थविरेभ्य एव दत्तो नान्यस्मै इति, 'एगंतेत्ति जनालोकवर्जिते 'अणावाए'त्ति जनसंपातवर्जिते 'अचित्ते'त्ति अचेतने, नावेतनमात्रेणैवेत्यत आह- 'बहुफासुए'ति बहुधा प्रासुक बहुप्रासुकं तत्र, अनेन चाचिरकालकृते विकृते विस्तीर्णे दूरावगाढे त्रसप्राणवीजरहिते चेति सङ्गृहीतं द्रष्टव्यमिति, 'से य ते'त्ति स च निर्ग्रन्थः 'तो' स्थविरपिण्डौ 'पडिग्गाहेजत्ति प्रतिगृह्णीयादिति ॥ निर्ग्रन्थप्रस्तावादिदमाह
निथेण य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविद्वेणं अन्नयरे अकिचट्ठाणे पडिसेविए, तस्स णं एवं भव|ति-इहेब ताव अहं एयरस ठाणस्स आलोएमि पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि विजट्टामि विसोहेमि अकरण| याए अन्भुमि अहारिहं पायच्छितं तवोकम्मं परिवज्जामि, तओ पच्छा घेराणं अंतियं आलोएस्सामि | जाव तवोकम्मं पडिवज्जिस्सामि, से य संपट्टिओ असंपत्ते थेरा य पुवामेव अमुहा सिया से णं भंते किं आराहए विराहए ?, गोयमा ! आराहए नो विराहए १ । से य संपट्टिए असंपते अप्पणा य पुद्दामेव अमुहा सिया से णं भंते । किं आराहए विराहए ?, गोयमा ! आराहए नो विराहए २, से य संपट्टिए असंपत्ते अपणा य पुधामेव थेरा य कालं करेज्जा से णं भंते! किं आराहए विराहए ?, गोयमा ! आराहए नो विराहुए है, से य संपट्टिए असंपत्ते अप्पणा य पुवामेव कालं करेजा से णं भंते । किं आराहए विराहए ?, गोयमा ! आराहए नो विराहए ४, से य संपट्टिए संपत्ते घेरा य अमुहा सिया से णं भंते । किं आराइए
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [३३४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३३४]
दीप अनुक्रम [४०७]
व्याख्या-विराहए ?, गोयमा आराहए नो विराहए, से य संपट्टिए संपत्ते अप्पणा य, एवं संपत्तणवि चत्तारि आला- शतके माधि
वगा भाणियथा जहेव असंपत्तेणं । निग्गंथेण य पहिया वियारभूमि विहारभूमि वा निक्खंतेणं अनपरे | उद्देशा अभयदेवीअकिञ्चट्ठाणे पलिसेविए तस्स णं एवं भवति-इहेव ताव अहं एवं एथवि एते चेव अट्ट आलावगा भाणियचा
अकृत्यसेवा या वृतिः
ME
यांतत्राम्यजाव नो विराहए। निग्गंधेण य गामाणुगाम दूइज्जमाणेणं अन्नयरे अकिञ्चट्ठाणे पडिसेविए तस्स णं एवं Pati ॥३७५॥ भवति इहेव ताव अहं एस्थवि ते चेव अ आलावगा भाणियवा जाव नो विराहए। निग्गंधीए य गाहावइ-RH
कुलं पिंडवायपडियाए अणुपविहाए अन्नयरे अकिञ्चट्ठाणे पडिसेविए तीसे णं एवं भवइ इहेव ताव अहं | एपस्स ठाणस्स आलोएमि जाव तवोकम्म पडिवज्जामितओ पच्छा पवत्तिणीए अंतियं आलोएस्सामि जाव 2 ल पडिवजिस्सामि, सा य संपट्टिया असंपत्ता पवत्तिणी य अमुहा सिया सा णं भंते 1 किं आराहिया बिराहि
या?, गोयमा ! आराहिया नो विराहिया, सा य संपडिया जहा निग्गंधस्स तिनिगमा भणिया एवं निग्ग४ थीएवि तिन्नि आलावगा भाणियचा जाव आराहिया नो विराहिया ॥ से केण?णं भंते ! एवं बुचइ-आराहलाए नो विराहए?, गोयमा ! से जहा नामए के पुरिसे एग महं उन्नालोमंवा गयलोमं वासणलोमं वा कप्पास
लोमं वा तणसूयं वा दुहा वा तिहा बा संखेज्जहा वा छिदित्ता अगणिकायंसि पक्खिवेजा से नूर्ण गोयमा ? ४ छिजमाणे छिन्ने पक्खिप्पमाणे पक्खित्ते दज्झमाणे दहेत्ति वत्तवं सिया ?, हंता भगवं!छिजमाणे छिन्ने जाव & दहृत्ति वत्तवं सिया, से जहा वा केइ पुरिसे वत्थं अहतं वा धोतं वा तंतुग्गयं वा मंजिहादोणीए पक्खिवेना
॥३७५॥
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [३३४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
*
प्रत सूत्रांक [३३४]
दीप अनुक्रम [४०७]
ENAS
*से नणं गोषमा ! उक्खिप्पमाणे उक्षिसे पक्खिप्पमाणे पक्खिसे रजमाणे रत्तेत्ति वत्त सिया साट
| भगवं । उक्खिप्पमाणे उक्खित्ते जाव रत्तेत्ति वत्त सिया, से तेणढणं गोयमा ! एवं वुचइ-आराहए नो द विराहए ॥ (सूत्रं ३३४)
'निग्गंधण येत्यादि, इह चशब्दः पुनरर्थस्तस्य घटना चर्व-निर्मन्थं कश्चित् पिण्डपातप्रतिज्ञया प्रविष्टं पिण्डादिनोपनिमन्त्रयेत् तेन च निर्मन्थेन पुनः 'अकिञ्चट्ठाणे'त्ति कृत्यस्य-करणस्य स्थानं-आश्रयः कृत्यस्थानं तन्निषेधः अकृत्यस्थान-मूलगुणादिप्रतिसेवारूपोऽकार्यविशेषः 'तस्स णं'ति तस्य निर्घन्धस्य सञ्जातानुतापस्य एवं भवति' एवंप्रकारं मनो
भवति 'एयरस ठाणस्स'त्ति विभक्तिपरिणामादू 'एतत्स्थानम् अनन्तरासेवितम् 'आलोचयामि' स्थापनाचार्यनिवेमदनेन 'प्रतिक्रमामि'मिथ्यादुष्कृतदानेन 'निन्दामि' स्वसमक्षं स्वस्याकृत्य स्थानस्य वा कुत्सनेन 'गहें' गुरुसमई कुत्स
नेन 'विउहामित्ति वित्रोटयामि-तदनुबन्धं छिनझि 'विशोधयामि' प्रायश्चित्तपङ्क प्रायश्चित्ताभ्युपगमेन 'अकरणतया
अकरणेन 'अभ्युत्तिष्ठामि अभ्युत्थितो भवामीति 'अहारिहति 'यथाई यथोचितम् , एतच्च गीतार्थतायामेव भवति जनान्यथा, 'अंतिय'ति समीपं गत इति शेषः 'धेरा य अमुहा सिय'त्ति स्थविराः पुनः 'अमुखाः'निर्वाचः स्युर्वातादि
दोषात्, ततश्च तस्यालोचनादिपरिणामे सत्यपि नालोचनादि संपद्यत इत्यतः प्रश्नयति-से ण'मित्यादि, 'आराहए' || &ाति मोक्षमार्गस्याराधकः शुद्ध इत्यर्थः भावस्य शुद्धत्वात् , संभवति चालोचनापरिणती सत्यां कथश्चित्तदप्राप्तावप्यारा-14
धकत्वं, यत उक्त मरणमाश्रित्य-"आलोयणापरिणओ सम्म संपडिओ गुरुसगासे । जइ मरइ अंतरे चिय तहावि सुद्धोत्ति
AAAAAK
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [३३४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३३४]
दीप अनुक्रम [४०७]
व्याख्या
भावाओ ॥१॥ इति । [आलोचनापरिणतः सम्यक् संप्रस्थितो गुरुसकाशे । यदि वियतेऽन्तरेव तथाऽपि शुद्ध इति श तके प्रज्ञप्तिः भावात् ॥१॥] स्थविरात्मभेदेन चेह द्वे अमुखसूत्रे, द्वे कालगतसूत्रे, इत्येवं चत्वारि असंप्राप्तसूत्राणि ४, संप्राप्तसूत्रा-37 उद्देशः अभयदेवी- |ण्यप्येवं चत्वार्येव ४, एवमेतान्यष्टौ पिण्डपातार्थ गृहपतिकुले प्रविष्टस्य, एवं विचारभूम्यादावष्ट ८, एवं ग्रामगमनेऽष्टी, प्रदोपादी या वृत्तिः१|| एवमेतानि चतुर्विंशतिः सूत्राणि । एवं निर्गन्धिकाया अपि चतुर्विंशतिः सूत्राणीति ॥ अथानालोचित एवं कथमारा- मातप्रश्नः ॥३७६॥ |धकः ? इत्याशङ्कामुत्तरं चाह-से केणढण'मित्यादि, 'तणसूयं वत्ति तृणाग्रं वा '
छिमाणे छिन्नेत्ति क्रियाकाल-| निष्ठाकालयोरभेदेन प्रतिक्षणं कार्यस्थ निष्पत्तेः छिद्यमानं छिन्नमित्युच्यते, एवमसाबालोचनापरिणती सत्यापाराधना
प्रवृत्त आराधक एवेति । 'अयं वत्ति 'अहत' नवं 'धोय'ति प्रक्षालित 'तंतुग्गयं ति तन्त्रोद्गतं तूरिवेमादेरुत्तीर्ण[४मात्र 'मंजिहादोणीए'त्ति मञ्जियारागभाजने ॥ आराधकश्च दीपबद्दीप्यत इति दीपस्वरूपं निरूपयवाह
पईवस्स णं भंते ! झियायमाणस्स किं पदीवे झियाति लट्ठी झियाइ वत्ती झियाइ तल्ले झियाइ दीवचंपएर |झियाइ जोति झियाइ ? गोयमा ! नो पदीये झियाइ जाव नो पदीवचंपए झियाइ जोड झियाइ ॥ अगारसणं भंते । तियायमाणस्स किं आगारे झियाह कुडा झियाइ कडणा झिधारणा शिवलहरणे हि वंसा-15 मला मि० बग्गा सिपाह छित्तरा झियाह छाणे झियाति जोति सियाति , गोयमा, नो अगारे सियाति नोट कुडा झियाति जाव नो छाणे झियाति जोति झियाति ।। (सूत्रं ३३५) जीवे णं भंते ! ओरालिपसरीराओ कति किरिए, गोयमा सिय तिथिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए सिय अकिरिए। नेरइए णमंते ।
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [३३५,३३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [३३५-३३६]]
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4
ओरालियसरीराओ कतिकिरिया (ए)?, गोपमा सिय तिकिरिए सिय चकिरिए सिय पंचकिरिए। असु-18 रकुमारे णं भंते ! ओरालियसरीराओ कतिकिरिए ? एवं चेव, एवं जाव चेमाणिए, नवरं मणुस्से जहा जीवे । जीवे णं भंते ! ओरालियसरीरोहिंतो कतिकिरिए, गोयमा ! सिय तिकिरिए जाव सिय अकिरिए।
नेरइए णं भंते ! ओरालियसरीरेहिंतो कतिकिरिए, एवं एसो जहा पढमो दंडओ तहा इमोवि अपरिसेसो Plभाणियको जाव बेमाणिए, नवरं मणुस्से जहा जीवे । जीवा णं भंते ! ओरालियसरीराओ कतिकिरिया ?,
गोयमा ! सिय तिकिरिया जाच सिय अकिरिया, नेरइया णं भंते ! ओरालियसरीराओ कतिकिरिया, एवं एसोवि जहा पढमो दंडओ तहा भाणियबो, जाव वेमाणिया, नवरं मणुस्सा जहा जीवा । जीवा णं भंते ! ओरालियसरीरोहिंतो कतिकिरिया ?, गोयमा ! तिकिरियावि चकिरियावि पंचकिरियावि अकिरियावि.॥ नेरइया णं भंते ! ओरालियसरीरोहितो कइकिरिया ?, गोयमा! तिकिरियावि चउकिरियावि पंचकिरियावि एवं
जाव वेमाणिया, नवरं मणुस्सा जहा जीवा ॥ जीवे णं भंते ! वेवियसरीराओ कतिकिरिए १, गोयमा? Pसिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय अकिरिए, नेरइए णं भंते । वेउवियसरीराओ कतिकिरिए !, गोयमा! || सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए एवं जाच वेमाणिए, नवरं मणुस्से जहा जीवे, एवं जहा ओरालियसरी-18 राणं चत्तारि दंडका तहा वेवियसरीरेणवि चत्तारि दंडगा भाणियवा, नवरं पंचमकिरिया न भन्नइ, सेसंद तं चेव, एवं जहा बेउत्वियं तहा आहारगपि तेयगंपि कम्मगंपि भाणियवं, एकके चत्तारि दंडगा भाणिय
+0
*
दीप अनुक्रम [४०८-४०९]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [३३५,३३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
व्याख्या-1
प्रत सूत्रांक [३३५-३३६]]
वा जाव वेमाणिया णं भंते ! कम्मगसरीरोहितो कहकिरिया , गोयमा ! तिकिरियावि चउकिरियाविशतके प्रज्ञप्तिः । सेवं भंते । सेवं भंते ! ॥ (सूत्रं ३३६) ।। अट्ठमसयरस छहो उद्देसओ समत्तो ।। ८-६॥
या उद्देशः ६ अभयदेवी-||3|| 'पदीवस्से'त्यादि, 'झियायमाणस्स'त्ति ध्मायतो ध्मायमानस्य वा ज्वलत इत्यर्थः 'पदी'त्ति प्रदीपो दीपयष्यादि-IIX भादारका या वृत्तिासमुदायः 'झियाइत्ति ध्मायति ध्मायते वा ज्वलति 'लट्टित्ति दीपयष्टिः 'वत्ति'त्ति दशा 'दीवचंपए'त्ति दीपस्थगन है
दितःक्रिया
सू३३६ ॥३७७॥
'जोइत्ति अग्निः ॥ ज्वलनप्रस्तावादिदमाह-अगारस्सण मित्यादि, इह चागार-कुटीग्रह 'कुइ'त्ति भित्तयः 'कखण'त्ति बट्टिकाः 'धारण'त्ति बलहरणाधारभूते स्थूणे 'घल हरणे'त्ति धारणयोरुपरिवर्ति तिर्यगायतकाष्ठं 'मोभ' इति यत्पसिद्धं 'वंस'त्ति वंशाछित्त्वराधारभूताः 'मल्लत्ति मल्ला:-कुख्यावष्टम्भनस्थाणवः बलहरणा धारणाश्रितानि वा छित्त्वरासाधारभूतानि ऊोयतानि काष्ठानि 'वाग'ति वल्का-वंशादिबन्धनभूता बटादित्वचः 'छित्तर'त्ति छित्वराणि-वंशादिम-| लियानि छादनाधारभूतानि फिलिजानि 'छाणे'ति छादनं दर्भादिमयं पटल मिति ॥ इत्थं च तेजसा ज्वलनक्रिया परशरी
राश्रयेति परशरीरमौदारिकाद्याश्रित्य जीवस्य नारकादेश्च क्रिया अभिधातुमाह-'जीवे ण'मित्यादि, 'ओरालियसरी-IN
राओ'त्ति औदारिकशरीरात्-परकीयमौदारिकशरीरमाश्रित्य कतिक्रियो जीयः इति प्रश्नः, उत्तरं तु 'सिय तिकिरिए' प्रति यदैको जीवोऽन्यपृथिव्यादेः सम्बन्ध्यौदारिकशरीरमाश्रित्य कार्य व्यापारयति तदा त्रिक्रिया, कायिक्यधिकरणि-॥
॥३७७॥ कीप्रादेषिकीनां भायात्, एतासां च परस्परेणाविनाभूतत्वात् स्यात्त्रिक्रिय इत्युक्तं न पुनः स्यादेकक्रियः स्यादिक्रिय इति, अविनाभावश्च तासामेवम्-अधिकृतक्रिया ह्यवीतरागस्यैव नेतरस्य, तथाविधकर्मबन्धहेतुत्वात् , अवीतरागकायस्य चाधि
दीप अनुक्रम [४०८-४०९]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [३३५,३३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
CDCOST
प्रत सूत्रांक [३३५-३३६]]
+
|| करणत्वेन प्रदेषान्वितत्वेन च कायक्रियासमाये इतरयोरवश्यंभावः, इतरभावे च कायिकीसद्भावः, उक्तश्च प्रज्ञापनाया-18 | मिहार्थे-“जस्स णं जीवस्स काइया किरिया कजइ तस्स अहिंगरणिया किरिया नियमा कज्जइ, जस्स अहिंगरणिया किरिया कजइ तस्सवि काइया किरिया नियमा कजई" इत्यादि, तथाऽऽद्यक्रियात्रयसनावे उत्तरक्रियाद्वयं भजनया भवति, यदाह-"जस्सण जीवस्स काइया किरिया कजइ तस्स पारियावणिया सिय कजइ सिय नो कजई" इत्यादि, ततश्च यदा कायब्यापारद्वारेणाद्यक्रियात्रय एवं वर्तते न तु परितापयति न चातिपातयति तदा त्रिक्रिय एवेत्यतोऽपिx | स्यात्त्रिक्रिय इत्युक्तं, यदा तु परितापयति तदा चतुष्क्रियः, आद्यक्रियात्रयस्य तत्रावश्यभावात्, यदा त्वतिपातयति तदा पश्यक्रिया, आद्यक्रियान्चतुष्कस्य तत्रावश्यंभावात् , उक्तञ्च-"जस्स पारियावणिया किरिया कजइ तस्स काइया नि-1 यमा कजईत्यादीति, अत एवाह-'सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए'त्ति, तथा 'सिय अकिरिय'त्ति वीतरागावस्थामा-18 नित्य, तस्या हि वीतरागस्वादेव न सन्त्यधिकृतक्रिया इति ॥ 'नेरइए ण'मित्यादि, नारको यस्मादीदारिकशरीरवन्त | | पृथिव्यादिकं स्पृशति परितापयति विनाशयति च तस्मादौदारिकात् स्यात्त्रिक्रिय इत्यादि, अक्रियस्त्वयं न भवति, | अवीतरागत्वेन क्रियाणामवश्यंभाक्त्विादिति, ‘एवं चेव'त्ति स्यात्त्रिक्रिय इत्यादि सर्वेष्वसुरादिपदेषु वाच्यमित्यर्थः, 'मणुस्से जहा जीवेत्ति जीवपदे इव मनुष्यपदेऽक्रियत्वमपि वाच्यमित्यर्थः, जीवपदे मनुष्यसिद्धापेक्षयैवाक्रियत्वस्याधी-18 तत्वादिति, 'ओरालियसरीरेहिंतोत्ति औदारिकशरीरेभ्य इत्येवं बहुत्वापेक्षोऽयमपरो दण्डका, एवमेतौ जीवस्यैकत्वेन |
दीप अनुक्रम [४०८-४०९]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [३३५,३३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३३५-३३६]]
॥३७८॥
व्याख्याद्वी दण्डको, एवमेव च जीवस्य बहुत्वेनापरौ द्वौ, एवमौदारिकशरीरापेक्षया चत्वारो दण्डका इति ॥ 'जीवे ण'मित्यादि, ८ शतके प्रज्ञप्तिः द जीवः परकीयं पक्रियशरीरमाश्रित्य कतिक्रियः ?, उच्यते, स्यास्त्रिक्रिय इत्यादि, पञ्चक्रियश्चेह नोच्यते, प्राणातिपातस्य उद्देशः६ अभयदेवी
IN वैक्रियशरीरिणः क मशक्यत्वाद्, अविरतिमात्रस्य चेहाविवक्षितत्वादू, अत एवोक्त-'पंचमकिरिया न भन्नईत्ति, 'एवं औदारिका यावृत्तिः१] जहा वेउषियं तहा आहारयपि तेयगपि कम्मगंपि भाणिय'ति, अनेनाहारकादिशरीरत्रयमष्याश्रित्य दण्डकचतुष्टयेन ||
दितःक्रिया नरयिकादिजीवानां त्रिक्रियत्वं चतुष्क्रियत्वं चोक्तं, पञ्चक्रियत्वं तु निवारितं, मारयितुमशक्यत्वात्तस्येति, अथ नारक
सू ३३६ स्थाधोलोकवर्तित्वादाहारकशरीरस्य च मनुष्यलोकवत्तित्वेन तरिक्रयाणामविषयत्वात् कथमाहारकशरीरमाश्रित्य नारक:
स्यास्त्रिक्रिया स्थाचतुष्क्रिय इति ?, अत्रोच्यते, यावत्पूर्वशरीरमव्युत्सृष्टं जीवनिर्वतितपरिणामं न त्यजति तावत्पूर्वभावदामज्ञापनानयमतेन निकजीवस्यैवेति व्यपदिश्यते घृतघटन्यायेनेत्यतो नारकपूर्वभवदेहो नारकस्यैव तद्देशेन च मनुष्य-6
लोकवर्तिनाऽस्थ्यादिरूपेण यदाहारकशरीरं स्पृश्यते परिताप्यते वा तदाहारकदेहान्नारकखिक्रियश्चतुष्क्रियो वा भवति, ४ कायिकीभावे इतरयोरवश्यभावात् , पारितापनिकीभावे चाद्यत्रयस्यावश्यंभावादिति । एवमिहान्यदपि वि(तहिषयमष-18|| टगन्तव्यं, यच तेजस कार्मणशरीरापेक्षया जीवानां परितापकत्वं तदीदारिकाद्याश्रितत्वेन तयोरवसेयं, स्वरूपेण तयोरा
॥३७८॥ परितापयितुमशक्यत्वादिति ।। अष्टमशते षष्ठोद्देशः॥८-६॥
दीप अनुक्रम [४०८-४०९]
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अत्र अष्टम-शतके षष्ठं-उद्देशक: समाप्त:
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आगम
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प्रत
सूत्रांक
[३३७]
दीप
अनुक्रम [४१०]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [७], मूलं [ ३३७]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
षष्ठोदेश के क्रियाव्यतिकर उक्त इति क्रियाप्रस्तावात् सप्तमोद्देश के प्रद्वेपक्रियानिमित्त कोऽन्ययूथिक विवादव्यतिकर उच्यते, इत्येवं सम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम् -
लेणं काले २ रायगिहे नगरे वन्नओ, गुणसिलए चेहए वन्नाओ, जाव पुढवि सिलावट्टओ, तस्स णं गुणसिलस्स चेइयस्स अदूरसामंते बहवे अन्नउत्थिया परिवसंति, तेणं कालेणं २ समणे भगवं महावीरे आदिगरे जाव समोसढे जाव परिसा पडिगया, तेणं कालेणं २ समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे अंतेवासी थेरा भगवंतो जातिसंपन्ना कुलसंपन्ना जहा वितियसए जाव जीवियासामरणभय विप्पमुक्का समणस्स भगवओ | महावीरस्स अदूरसामंते उहुंजाणू अहोसिरा झाणकोडोवगया संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा जाव विहरंति, तरणं ते अन्नउत्थिया जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छति २ ता ते धेरे भगवंते एवं वयासीतुम्भेणं अजो ! तिविहं तिविहेणं अस्संजयअविरयअप्पडिय जहा सत्तमसर बितिए उद्देसए जाव एवं तवाले यावि भवह, तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउत्थिए एवं वयासी-केण कारणेणं अलो ! अम्हे तिविहं तिविहेणं अस्संजयअविरय जाव एगंतबाला यावि भवामो १, तए णं ते अन्नउत्थिया ते घेरे भगवंते एवं वयासी-तुम्भे णं अज्जो ! अदिन्नं गेव्हह अदिन्नं भुंजह अदिन्नं सातिजह, तए णं ते तुम्भे अदिन्नं गेण्हमाणा अदिनं भुंजमाणा अदिनं सातियमाणा तिविहं तिविहेणं अस्संजयअविरय जाव एगंतवाला यांवि भवह, तए णं ते घेरा भगवंतो ते अन्नउत्थिए एवं व्यासी-केण कारणेणं अजो ! अम्हे अदिनं गेव्हामो अदिन्नं
अथ अष्टम शतके सप्तम उद्देशक: आरभ्यते
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [३३७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
ॐ
प्रत सूत्रांक [३३७]
%
%
व्याख्या- मामुंजामो अदिन्नं सातिजामो, जए णं अम्हे अदिन्नं गेण्हमाणा जाप अदिन्न सातिजमाणा तिविहं तिथि- शतके प्रज्ञप्तिःला
४ हेणं अस्संजय जाब एगंतवाला यावि भवामो,तए णं ते अन्नउत्थिया ते धेरे भगवंते एवं वयासी-तुम्हा का उद्देशः अभयदेवी
है अज्जो । दिज्जमाणे अदिने पडिग्गहेजमाणे अपडिग्गहिए निस्सरिजमाणे अणिसट्टे, तुम्भे गं अजो। दिल- या वृत्तिः१
दा माणं पडिग्गहगं असंपत्तं एस्थ णं अंतरा केह अवहरिजा, गाहावइस्स णं तं भंते ! नो खलु तं तुन्भं, तए थे।
दत्तंसू३३७ ॥७९॥ तुझे अदिन्नं गेण्हह जाव अदिन्नं सातिजह, तए णं तुझे अदिन्नं गेण्हमाणा जाब एगंतवाला यावि भवह,
तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउस्थिए एवं बयासी-नो खलु अञ्जो! अम्हे अदिन्नं गिण्हामो अदिन्नं भुंजामो त अदिन्नं सातिजामो अम्हे णं अबो । दिन्नं गेल्हामो दिन्नं भुजामो दिन्नं सातिजामो, तए णं अम्हे दिन्नं गेण्ह-| माणा दिनं भुंजमाणा दिन्नं सातिजमाणा तिविहं तिविहेणं संजयविरयपडिहय जहा सत्तमसए जाव एगंतपंडिया यावि भवामो, तए णं ते अन्नउत्थिया ते धेरे भगवंते एवं वयासी-केण कारणेणं अजो! तुम्हे - दिन गेण्हह जाव दिन्नं सातिज्जह, जए णं तुझे दिलं गेण्हमाणा जाब एगंतपंडिया यावि भवह, तए णं3|| शते थेरा भंगवंतो ते अन्नउत्थिए एवं वयासी-अम्हे णं अजोदिजमाणे दिने पडिग्गज्जमाणे पडिग्गहिए निसि
रिजमाणे निसट्टे जेणं अम्हे णे अजो ! दिजमाणं पडिग्गहगं असंपत्सं एत्थ ण अंतरा केह अवहरेजा अम्हाणं | मणो खलु तं गाहावइस्स, जए णं अम्हे दिन्नं गेमहामो दिन्नं भुजामो दिन सातिजामो तए णं अम्हे दिन ४ गेण्हमाणा जाच दिनं सातिजमाणा तिविहं तिचिहेणं संजय जाव एगंतपंडिया यावि भवामो, तुज्झे गं |
दीप अनुक्रम [४१०]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [३३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३३७]
||| अन्जो अप्पणा चेव तिविहं तिविहेणं अस्संजय जाव एगंतवाला यावि भवह, तए णं ते अन्नउत्थिया ते धेरे |भगवते एवं वयासी-केण कारणेणं अजो! अम्हे तिविहं जाव एगंतवाला याचि भवामो, तर ते थेरा
भगवंतो से अनउस्थिए एवं वयासी-तुझे णं अज्जो ! अदिन्नं गेण्हह ३,तएणं तु अजो तुन्भे अदिनं गे०जाय X एगंत०, लए ण ते अन्नउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी-केण कारणेणं अजो! अम्हे अविलं गेण्हामो जाव & गंतवा, तए णं ते घेरे भगवंते ते अन्नउत्थिए एवं बयासी-तुझे णं अजो! दिनमाणे अदिन्ने तं चेव
जाव गाहावइस्स णं णो खलु तं तुझे, तए णं तुझे अदिन्नं गेण्हह, तं चेव जाव एगंतवाला यावि भवह, तए णं ते अन्नउ० ते धेरे भ० एवं व०-तुझे णं अजो! तिविहं तिविहेर्ण अस्संजय जाव एगंतचा भवह,
तए णे ते थेरा भ० ते अन्नउस्थिए एवं वयासी-केण कारणेणं अम्हे तिविहं तिविहेणं जाव एयंतवाला यावि Pाभवामो, तए णं ते अनस्थिया ते धेरे भगवंते एवं वयासी-तुझे गं अज्जोरीयं रीयमाणा पुनर्वि पहर
अभिहणह बत्तेह लेसेह संघाएह संघदेह परितावेह किलामेह उद्दवेह तएणं तुझे पुढविं पञ्चेमाणा जाव पवद इवेमाणा तिविहं तिविहेणं असंजयअधिरय जाब एगंतवाला यावि भवह, तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्न
उथिए एवं बयासी-नो खलु अज्जो ! अम्हे रीयं रीयमाणा पुढवि पेच्चेमो अभिहणामो जाव खवयमो अम्हे गं ||
अजोरीयं रीयमाणा कार्य वा जोयं वा रियं वा पडुच देसं देसेणं वयामो पएसं पएसेणं क्यामो ते णं & अम्हे देसं देसेणं वयमाणा पएसं पएसेणं वयमाणा नो पुरविं पञ्चेमो अभिहणामो जाय उवद्दवेमो, तए थे।
दीप अनुक्रम [४१०]
*
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [३३७-३३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
शतके
प्रत सूत्रांक
[३३७,
३३८]
व्याख्या- | अम्हे पुनर्वि अपेचेमाणा अणभिहणेमाणा जाव अगुवहवेमागा तिविहं तिविहणं संजय जाव एगंतपंडिया प्रज्ञप्तिः यावि भवामो, तुज्झे णं अजो ! अप्पणा चेव तिविहं तिविहेणं अस्संजय जाच बाला यावि भवह, तए ण ते देशा अभयदेवी- अनउत्थिया घेरे भगवंते एवं वयासी-केण कारणेणं अज्जो। अम्हे तिविहं तिविहेणं जाव एगंतवाला यावि गतिप्रपात या वृत्तिः
भवामो?, तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउत्थिए एवं वयासी-तुझे णं अजो! रीयं रीयमाणा पुर्वि पे सू२३८
जाव उदवेह, तए णं तुझे पुढविं पेचेमाणा जाव उवहवेमाणा तिविहं तिविहेणं जाव एगंतवाला यावि भव-12 ॥३८०॥
ह, तए ते अन्नउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी-तुझणं अजो ! गममाणे अगते वीतिकमिजमाणे अवीतिकते रायगिहं नगरं संपाविउकामे असंपत्ते, तए णं ते घेरा भगवंतो ते अनउस्थिर एवं बयासी-नो
खलु अनो! अम्हं गममाणे अगए वीइकमिजमाणे अवीतिकते रायगिह नगरं जाव असंपत्ते, अम्हा गं प्रभजोगममाणे गए वीतिकमिजमाणे घीतिकते रायगिह नगरं संपाविउकामे संपत्ते तुज्झे गं अप्पणा चेष
गममाणे अगए वीतिममिज्जमाणे अवीतिकते रायगिह नगरं जाव असंपत्ते, तए णं ते घेरा भगवंतो भन्नउथिए एवं परिहणेन्ति पडिहणिसा गइप्पवायं नाम अझयणं पन्नवंइसु ॥ (सूत्रं ३३७)॥ कइविहे णं भंते! गइप्प
| ॥२८॥ कावाएपण्णत्ते ,गोयमा: पंचविहे गइप्पवाए पपणत्ते, तंजहा-पयोगगती ततगती बंधणछेयणगती सखवायकागती विहायगती, एत्तो आरम्भ पपोगपयं निरवसेसं भाणियर, जाव सेसं विहायगई। सेवं भंते ! सेवं भते!
ति (सूत्रं ३३८)। भट्ठमसयस्स सत्तमो॥८-७॥
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दीप
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अनुक्रम [४१०, ४११]]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [३३७-३३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक
[३३७,
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३३८]
'तेण मित्यादि, तत्र 'अज्जो'त्ति हे आव्ः ! 'तिविहं तिविहेणं'ति त्रिविधं करणादिकं योगमाश्रित्य त्रिविधेन मना-14 IM प्रभृतिकरणेन 'अदिन्नं साइजह'त्ति अदत्तं स्वदध्वे अनुमन्यध्य इत्यर्थः 'दिज्जमाणे अदिन्ने' इत्यादि दीयमानमद,
दीयमानस्य वर्तमानकालत्वाद् दत्तस्य चातीतकालवर्तित्वाद् वर्तमानातीतयोश्चात्यन्तभिन्नत्वाद्दीयमानं दत्तं न भवति XI दत्तमेव दत्तमिति च्यपदिश्यते, एवं प्रतिगृह्यमाणादावपि, तत्र दीयमानं दायकापेक्षया प्रतिगृधमार्ण ग्राहकापेक्षया Kा निसृज्यमान' क्षिप्यमाणं पात्रापेक्षयेति 'अंतरे'त्ति अवसरे, अयमभिप्रायः यदि दीयमानं पात्रेऽपतितं सद्दत्तं भवति
तदा तस्य दत्तस्य सतः पात्रपतनलक्षणं ग्रहणं कृतं भवति, यदा तु तद्दीयमानमदत्तं तदा पात्रपतनलक्षणं ग्रहणमदत्तदास्येति प्राप्तमिति, निम्रन्थोत्तरवाक्ये तु 'अम्हे गं अजो दिजमाणे दिने' इत्यादि यदुक्तं तत्र क्रियाकालनिष्ठाकाल योरभेदा-18
दीयमानत्वादेर्दत्तत्वादि समवसेयमिति । अथ दीयमानमदत्तमित्यादेर्भवन्मतत्वाद् यूयमेवासंयतत्वादिगुणा इत्यावेदनाDil यान्यपूधिकान् प्रति स्थविराः प्राहुः-'तुझे गं अनो! अप्पणा चेवेत्यादि, 'रीय रीयमाण'त्ति रीतं गमनं |
रीयमाणाः गच्छन्तो गमनं कुर्वाणा इत्यर्थः 'पुढविं पेयेह' पृथिवीमाक्रामथेत्यर्थः अभिहणह'त्ति पादाभ्यामाभिमुख्येन हथ 'वत्तेह'त्ति पादाभिघातेनैव 'वर्त्तयथ' श्लक्ष्णतां नयथ 'लेसेहत्ति 'श्लेषयथ' भूम्यां श्लिष्टां कुरुथ 'संघाएहत्ति 'सङ्घातयथ' संहतां कुरुथ 'संघट्टेह'त्ति 'सङ्घयथ' स्पृशथ 'परितावेह'त्ति 'परितापयथ' समन्ताज्जातसन्तापां कुरुथ 'किलामेह'त्ति कुमयथ-मारणान्तिकसमुद्घातं गमयथेत्यर्थः "उवहवेह'त्ति उपद्भवयथ मारयथेत्यर्थः 'कार्य वत्ति 'कार्य शरीरं प्रतीत्योचारादिकायकार्यमित्यर्थः 'जोगं वत्ति 'योग' ग्लानवैयावृत्त्यादिव्यापार प्रतीत्य 'रियं वा पटुच्च'त्ति
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ॐ
दीप अनुक्रम [४१०, ४११]]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [३३७-३३८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३३७,
३३८]
व्याख्या- 'ऋतं' सत्यं प्रतीत्य-अकायादिजीवसंरक्षण संयममाश्चित्येत्यर्थः 'देसंदेसेणं वयामोत्ति प्रभूतायाः पृथिव्या ये विवक्षिताद शतके
देशास्तैर्बजामो नाविशेषेण, ईर्यासमितिपरायणत्वेन सचेतनदेशपरिहारतोऽचेतनदेशैर्बजाम इत्यर्थः, एवं 'पएसं पएसेणं ईशः ८ अभयदेवी
गतिप्रपातः या वृत्तिः वयामो'इत्यपि नवरं देशो-भूमर्महरखण्ड प्रदेशस्तु-लघुतरमिति ॥ अथोक्तगुणयोगेन नास्माकमिवैषां गमनमस्तीत्यभि
सू३३८ प्रायतः स्थविराः यूयमेव पृथिव्याक्रमणादितोऽसंयतत्वादिगुणा इति प्रतिपादनायान्ययूथिकान् प्रत्याहुः-'तुझे णं ॥३८१॥ अज्जो'इत्यादि 'गइप्पचाय'ति गतिः प्रोद्यते-प्ररूप्यते यत्र तद्गतिप्रवाद गते -प्रवृत्तेः क्रियायाः प्रपात:-प्रपतनस
म्भवः प्रयोगादिष्वर्थेषु वर्त्तनं गतिप्रपातस्तत्प्रतिपादकमध्ययन गतिप्रपातं तत् प्रज्ञापितवन्तो, गतिविचारप्रस्तावादिति ॥ ट्र अथ गतिप्रपातमेव भेदतोऽभिधातुमाह-'काविहे णमित्यादि, 'पओगगति'त्ति इह गतिमपातभेदप्रक्रमे यातिभेद-1 भणनं तद्गतिधर्मत्वात् प्रपातस्य गतिभेदभणने गतिप्रपातभेदा एव भणिता भवन्तीति न्यायादवसेयं, तत्र प्रयोगस्य सत्यमनःप्रभृतिकस्य पञ्चदशविधस्य गति:-प्रवृत्तिः प्रयोगगतिः, 'ततगइ'त्ति ततस्य-प्रामनगरादिकं गन्तुं प्रवृत्तत्वेन तचाप्राप्तत्वेन तदन्तरालपथे वर्तमानतया प्रसारितक्रमतया च विस्तारं गतस्य गतिस्ततगतिः, ततो वाऽवधिभूतप्रामा| देनगरादौ गतिः प्राकृतत्वेन ततगई, अस्मिंश्च स्थाने इतः सूत्रादारभ्य प्रज्ञापनायां षोडशं प्रयोगपदं 'सेतं विहायगई। एतत्सूत्र यावद्वायमेतदेवाह-'एत्तो'इत्यादि, तच्चैर्व-बंधणछेयणगई उववायगई विहायगई'इत्यादि, तत्र बन्धनच्छेदन
॥३८॥ गतिः-बन्धनस्य कर्मणः सम्बन्धस्य वा छेदने-अभावे गतिर्जीवस्य शरीरात् शरीरस्य वा जीवाइन्धनच्छेदनगतिः, उप-| पातगतिस्तु त्रिविधा-क्षेत्रभवनोभवभेदात् , तत्र नारकतिर्यग्नरदेवसिद्धानां यत् क्षेत्रे उपपाताय-उत्पादाय गमनं सा
दीप
अनुक्रम [४१०, ४११]
अत्र मूल-संपादने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना जाता, उद्देशक: । स्थाने ८ लिखितं
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [३३७-३३८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रोपपातगतिः, या च नारकादीनामेव स्वभवे उपपातरूपा गतिः सा भवोपपातगतिः, यच्च सिद्धपुद्गलयोर्गमनमा सा नोभवोपपातगतिः, विहायोगतिस्तु स्पृशद्गत्यादिकाऽनेकविधेति ॥ अष्टमे शते सप्तमः ॥७॥
प्रत सूत्रांक
[३३७,
A5%+
३३८]
अनन्तरो देशके स्थविरान् प्रत्यन्ययूथिकाः प्रत्यनीका उक्ताः, अष्टमे तु गुर्वादिप्रत्यनीका उच्यन्ते, इत्येवंसम्ब-IK ४ धस्यास्येदं सूत्रम्
रायगिहे नयरे जाच एवं वयासी-गुरू णं भंते ! पडुच्च कति पडिणीया पण्णता ?, गोयमा ! तओ पडिणीया पण्णत्ता, तंजहा आयरियपडिणीए उवज्झायपडिणीए थेरपडिणीए ।। गई णं भंते ! पडुच्च कति पडिणी-1 या पण्णत्ता, गोयमा ! तो पडिणीया पण्णत्ता, तंजहा-दहलोगपडिणीए परलोगपटिणीए दहओलोगप-1 डिणीए । समूहण्णं भंते ! पडुच्च कति पडिणीया पण्णत्ता?, गोयमा! तओ पडिणीया पपणत्ता, तंजहाकुलपडिणीए गणपडिणीए संघपडिणीए ॥ अणुकंपं पडच्च पुच्छा, गोयमा ! तो पडिणीया पण्णत्ता, तंजहा- तवस्सिपडिणीए गिलाणपडिणीए सेहपडिणीए ॥ सुयणं भंते ! पडुच्च पुच्छा, गोयमा ! तओ पडिणी
या पण्णत्ता, तंजहा-मुत्तपडिणीए अत्यपडिणीए तदुभयपडिणीए । भावं णं भंते ! पडुच पुच्छा, गोयमा! *तो पडिणीया पन्नत्ता, तंजहा-नाणपडिणीए दंसणपडिणीए चरित्तपडिणीए ॥ (सूत्रे ३३९)॥
'रायगिहे'इत्यादि, तत्र 'गुरूण ति 'गुरून्' तत्त्वोपदेशकान् प्रतीत्य-आश्रित्य प्रत्यनीकमिव-प्रतिसैन्यमिव प्रतिकू
दीप अनुक्रम [४१०, ४११]]
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अत्र अष्टम-शतके सप्तम-उद्देशक: समाप्त: अथ अष्टम-शतके अष्टम-उद्देशकः आरभ्यते
आचार्यादिनाम् प्रत्यनिका:
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[३३९]
दीप
अनुक्रम [४१२]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति: ]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [८], मूलं [ ३३९ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १
॥१८२॥
लतया ये ते प्रत्यनीकाः, तत्राचार्यः - अर्थव्याख्याता उपाध्यायः- सूत्रदाता स्थविरस्तु जातिश्रुतपर्यायैः, तत्र जात्या पष्टिवर्षजातः श्रुतस्यधिरः- समवायधरः पर्यायस्थविरो-विंशतिवर्षपर्यायः, एतत्प्रत्यनीकता चैवम्- "जच्चाईर्हि अवनं भासइ वट्टइ न यावि उववाए। अहिओ छिदप्पेही पगासवाई अणणुठोमो ॥ १ ॥ अहवावि वए एवं उवएस परस्स देति एवं तु । दसविहवेयावच्चे कायम सयं न कुषंति ॥ २ ॥ [ जात्यादिभिरवर्ण भाषते न चाप्युपपाते वर्त्तते । अहितश्चिद्रप्रेक्षी प्रकाशवादी अननुलोमः ॥१॥ अथवापि वदेदेवमुपदेशमेवं परस्य ददति दशविधवैयावृत्यं यत्कर्त्तव्यं स्वयं तु न कुर्वन्ति ॥ २ ॥] 'गहूं ण' मित्यादि, 'गर्ति' मानुष्यत्वादिकां प्रतीत्य तत्रेहलोकस्य प्रत्यक्षस्य मानुषत्वलक्षणपर्यायस्य प्रत्यनीक इन्द्रियार्थप्रतिकूलकारित्वात् पञ्चाग्नितपस्विवद् इहलोकप्रत्यनीकः, परलोको-जन्मान्तरं तत्प्रत्यनीकः - इन्द्रियार्थतत्परः, द्विधालोकप्रत्यनीकश्च चौर्यादिभिरिन्द्रियार्थसाधनपरः ॥ 'समूहणं भंते !' इत्यादि, 'समूह' साधुसमुदायं प्रतीत्य तत्र कुलं- चान्द्रादिकं तत्समूहो गणः- कोटिकादिस्तत्समूहः सङ्घः, प्रत्यनीकता चैतेषामवर्णवादादिभिरिति कुलादिलक्षणं | चेदम्- "एत्थ कुलं विज्ञेयं एगायरियस्स संतई जा उ । तिन्ह कुलाण मिट्टो पुण सावेकखाणं गणो होइ ॥ १ ॥ सवोवि नाणदंसणचरणगुण विद्वसियाण समणाणं । समुदाओ पुण संघो गणसमुदा ओत्तिकाऊणं ॥ २ ॥” [अत्र कुठं विज्ञेयमेकाचार्यस्य या सन्ततिः । त्रयाणां कुलानामिह सापेक्षाणां पुनर्गणो भवति ॥ १ ॥ सर्वोऽपि ज्ञानदर्शन चरणगुणविभूषितानां श्रमणानां समुदयः पुनः सङ्घो गुणसमुदाय इतिकृत्वा ] ॥ २ ॥ 'अणुकंप मित्यादि, अनुकम्पा - भक्तपानादिभिरुप|ष्टम्भस्तां प्रतीत्य, तत्र तपस्वी-क्षपकः ग्लानो -रोगादिभिरसमर्थः शैक्षः - अभिनवप्रत्रजितः, एते ह्यनुकम्पनीया भवन्ति,
आचार्यादिनाम् प्रत्यनिका:
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८ शतके
उद्देशः ८ गुर्वादिप्रत्य नीकाः सू३३९
॥१८२॥
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [३३९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३३९]
तदकरणाकारणाभ्यां च प्रत्यनीकतेति ॥ 'सुपण्ण मित्यादि, 'श्रुतं'सूत्रादि तत्र सूत्र-ध्याख्येयम् अर्थ:-तळ्याख्यान |
नियुक्त्यादि तदुभयं-एतद्वितयं, तत्प्रत्यनीकता च-"काया वया य ते चिय ते चेवपमाय अप्पमाया य । मोक्खाहिगारि|सायाण जोइसजोणीहिं कि कर्ज ॥१॥"[काया व्रतानि च तान्येव त एवं प्रमादा अप्रमादाश्च । मोक्षाधिकारिणां ।
(योनिप्राभृतादि) ज्योतिर्योनिभिः किं कार्यम् ॥१॥] इत्यादि दूषणोद्भावनं । 'भाव'मित्यादि, भावः-पर्यायः,
सच जीवाजीवगतः, तत्र जीवस्य प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च, तत्र प्रशस्त:-क्षायिकादिरप्रशस्तो विवक्षयौदयिका, क्षायिकादिः | IPL पुनर्ज्ञानादिरूपोऽतो भावान ज्ञानादीन् प्रति प्रत्यनीकः तेषां वितथप्ररूपणतो दूषणतो वा, यथा-"पाययसुत्तनिवद्धं को
||वा जाणडपणीय केणेय । किं वा चरणेणं तु दाणेण विणा उ हवइत्ति ॥ १॥"[प्राकृतनिबद्धं सत्र को वा जानाति ||४|| पद केनेदं प्रणीतं ?, किंवा दानेन विना चरणेनैव भवति ? इति ॥ १॥] एते च प्रत्यनीका अपुनःकरणेनाभ्युत्थिताः शुद्धिIMA मर्हन्ति शुद्धिश्च व्यवहारादिति व्यवहारप्ररूपणायाह
कइविहे णं भंते ! ववहारे पन्नत्ते ?, गोयमा ! पंचविहे ववहारे पन्नते, तंजहा-आगमे सुत्तं आणा धारणा जीए, जहा से तत्थ आगमे सिया आगमेणं ववहारं पट्टवेज्जा, णो य से तत्थ आगमे सिया जहा से तत्थ सुते दसिया सुएणं ववहारं पट्टवेजा, णो वा से तत्थ सुए सिया जहा से तत्थ आणा सिया आणाए ववहारं पट्ट-ट
वेजा, णो य से तत्थ आणा सिया जहा से तत्थ धारणा सिया धारणाए णं ववहारं पट्टवेज्जा, णो य से
दीप अनुक्रम [४१२]
आचार्यादिनाम् प्रत्यनिका:, आगम आदि पञ्चविध-आचारा:
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[ ३४०
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दीप
अनुक्रम
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४१४]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति:]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर- शतक [ - ], उद्देशक [८], मूलं [ ३४०-३४१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
॥१८३॥
व्याख्या- तत्थ धारणा सिया जहा से तत्थ जीए सिया जीएणं ववहारं पट्टवेजा, इथेपहिं पंचहिं ववहारं पवेज्जा, प्रज्ञप्तिः ४१ तंजहा- आगमेणं सुएणं आणाए धारणाए जीएणं, जहा २ से आगमे सुए आणा धारणा जीए तहा २ यवहारं अभयदेवी पड़वेजा ॥ से किमान भंते !, आगमवलिया समणा निग्गंथा श्वेतं पंचविहं वबहारं जया २ जहिं २ तहा २ या वृत्तिः १ तहिं २ अणिस्सिओषसितं सम्मं बबहरमाणे समणे निग्गंधे आणाए आराहए भवइ (सूत्रं ३४०) । कवि णं भंते! बंधे पण्णत्ते १, गोयमा ! दुविहे बंधे पन्नन्ते, तंजहा- ईरिया बहियाबंधे य संपराइयबंधे य ईरियाबहिणं भंते! कम्मं किं नेरहओ बंधइ तिरिक्खजोणिओ बंधह तिरिक्खजोणिणी बंधइ मणुस्सो बंधइ मणुस्सी बं० देवो बं० देवी बं० १, गोयमा ! नो नेरइओ बंधइ नो तिरिक्खजोणीओ बंधइ नो तिरिक्खजोणिणी बंधइ नो देवो बंधइ नो देवी बंध पुढपडिवनए पहुच मणुस्सा य मणुस्सीओ य बं० पडिवज्रमाणए पहुंच मणुस्सो वा बंधह १ मणुस्सी वा बंधइ २ मणुस्सा वा बंधंति ३ मणुस्सीओ वा बंघंति ४ अहवा मनुस्सो य मणुस्सी व बंधइ ५ अहवा मणुस्सो प मणुस्सीओ य बंधन्ति ६ अहवा मणुस्सा य मणुस्सी य बंधंति ७ अहवा मणुस्सा य मणुस्सीओप बं० ॥ तं भंते किं इत्थी बंधइ पुरिसो बंधइ नपुंसगो बंधति इत्थीओ बंधन्ति पुरिसा पं० नपुंसगा बंधन्ति नोइत्थीनोपुरिसोनोनपुंसओ बंधइ ?, गोयमा । नो इत्थी बंधह मो पुरिसो बं० जाच मो नपुंसगा | बंधन्ति पुचपडिवन्नए पथ अवगयवेदा बंघति, पडिवजमाणए य पडुच अवगयवेदो वा बंधति अवगयवेदा वा बंधेति । जइ भंते! अवगयवेदो वा बंधइ अवगयवेदा वा बंधति ते भंते! किं इत्थीपच्छाकडो बं० पुरि
Internation
आगम आदि पञ्चविध-आचारा, बन्धः एवं बन्धस्य भेदाः
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८ शतके
उद्देशः ८ व्यवहाराः सू ३४०
बन्धः सू ३४१
॥ ३८३॥
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [३४०-३४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३४०-३४१]
सपच्छाकहो ०२ नपुंसकपच्छणकडो बं०३ इत्थीपच्छाकडा बंधति ४ पुरिसपछाकडावि बंधति ५ नपुंस-18 गपच्छाकडावि पं०६ उदाहु इत्थिपच्छाकहो य पुरिसपच्छाकडो य बंधति ४ उदाहु इत्थीपच्छाकडो य णपुंसगपच्छाकहो य बंधा ४ उदाहु पुरिसपच्छाकहो य णपुंसगपच्छाकहो य पंधा ४ उदाह इत्थिपच्छाक-1 डोय पुरिसपच्छाकडो य णपुंसगपच्छाकडो य भाणियचं ८, एवं एते छवीसं भंगा २६ जाव उदाहु इत्थी-18 | पच्छाकडा यं पुरिसप० नपुंसकप. चंति, गोयमा ! इत्थिपच्छाकडोवि बंधह १ पुरिसपच्छाकडोचि०२]
नपुंसगपच्छाकडोचि ०३ इत्थीपच्छाकहावि ०४ पुरिसपच्छाकडाधि पं०५नपुंसकपच्छाकहावि ०६|| ४ अहवा इत्थीपच्छाकडा पुरिसपच्छाकडो य बंधइ ७ एवं एए चेव छपीसं भंगा भाणियचा, जाव अहवा
इस्थिपकछाकडा य पुरिसपच्छाकडा य नपुंसगपच्छाकडा य बंधति ॥ तं भंते ! कि पंधी बंधा बंधिस्सह १
पंधी पंधइन पंधिस्सइ २बंधी न बंधा बंधिस्सइ ३ घंधी न बंधइन बंधिस्सह ४ न बंधी बंधइ बंधिस्सह ५ सन पंधी पंधान पंधिस्सह ६ न बंधी न बंधा बंधिस्सइन बंधी न बंधइन बंधिस्सह ८१, गोयमा! भवा
गरिसं पडुच्च अत्धेगतिए बंधी बंधह बंधिस्सह अत्थेगतिए बंधी बंधइन बंधिस्सइ, एवं तं चेव सर्व जाव अत्थेगतिए म पंधी न बंधइ न बंधिस्सह, गहणागरिसं पहुंचे अत्धेगतिए बंधी बंधा बंधिस्सह एवं जाव | अत्धेगतिए न बंधी बंधद पंधिस्सइ, णो चेव णं न बंधी बंधइन पंधिस्सइ, अस्धेगतिए न पंधी न बंघहबंधि-18/ स्सइ अत्थेगतिए न बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ ॥ तं भंते ! किं साइयं सपज्जवसिय संघद साइयं अपज्जवसि
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बन्ध: एवं बन्धस्य भेदा:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [३४०-३४१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३४०-३४१]
व्याख्या
सायं बंधइ अणाइयं सपज्जवसियं बंधइ अणाइयं अपज्जवसियं बंधइ ?, गोयमा ! साइयं सपञ्जवसियं बंध श तके प्रज्ञप्तिः दानो साइयं अपज्जवसियं बंधा नो अणाइयं सपज्जवसियं बंध नो अणाइयं अपज्जवसियं बंधइ ॥ भंते । उद्देशः ८ अभयदेवी- किं देसेणं देसंबंधड़ देसणं सर्व बंधइ सोणं देसं बंधइ सघेणं सर्व बंधइ ?, गोयमा! नो देसेणं देसं बंधा णो यावृत्तिः१ || देसेणं सर्व बंघइ नो सवेणं देसं बंधह सवेणं सर्व बंधइ ।। (सूत्रं ३४१)॥
सू३४०
बन्धः ॥३८४॥ 'कइविहे ण'मित्यादि, व्यवहरणं व्यवहारो-भुमुक्षुप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपः इह तु तन्निबन्धनत्वात् ज्ञानविशेषोऽपि व्यव-14
सू ३४१ हारः, तत्रागम्यन्ते-परिच्छिद्यन्ते अर्था अनेनेत्यागमः-केवलमनःपर्यायावधिपूर्वचतुर्दशकदशकनवकरूपः, तथा श्रुतं
शेषमाचारप्रकल्पादि, नवादिपूर्वाणां च श्रुतत्वेऽप्यतीन्द्रियार्थेषु विशिष्टज्ञानहेतुत्वेन सातिशयत्वादागमव्यपदेशः केवल-13 दावदिति, तथाऽऽज्ञा-यदगीतार्थस्य पुरतो गूढार्थपदैर्देशान्तरस्थगीतार्थनिवेदनायातीचारालोचनं इतरस्यापि तथैव शुद्धि-पद्र
दानं, तथा धारणागीतार्थसंविग्नेन द्रव्याद्यपेक्षया यत्रापराधे यथा या विशुद्धिः कृता तामवधार्य यदगुप्तमेवालोचन
दानतस्तत्रैव तथैव तामेव प्रयुझे इति वैयावृत्त्यकरादेवा गच्छोपग्रहकारिणोऽशेषानुचितस्य प्रायश्चित्तपदानां प्रदर्शितानां || साधरणमिति, तथा जीतं द्रव्यक्षेत्रकालभावपुरुषप्रतिसेवानुवृत्त्या संहननत्यादिपरिहाणिमवेक्ष्य यत् प्रायश्चित्तदानं यो वा|| | यत्र गच्छे सूत्रातिरिक्तः कारणतः प्रायश्चित्तव्यवहारः प्रवर्तितो बहुभिरन्यैश्चानुवर्तित इति । आगमादीनां व्यापारणे ॥३८४॥
उत्सर्गापवादावाह-'जहे त्यादि, यथेति यथाप्रकारः केवलादीनामन्यतमः 'से तस्य व्यवहषुः स चोकलक्षणो व्यवहारः | दा'तत्र' तेषु पञ्चसु व्यवहारेषु मध्ये तस्मिन् वा प्रायश्चित्तदानादिव्यवहारकाले व्यवहर्तव्ये वा वस्तुनि विषये 'आगम:'
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| आगम आदि पञ्चविध-आचारा:, बन्ध: एवं बन्धस्य भेदा:
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आगम
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प्रत
सूत्रांक
[ ३४०
-३४१]
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[४१३
४१४]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति:]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर- शतक [-] उद्देशक [८], मूलं [ ३४०-३४१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
केवलादिः 'स्यात्' भवेत् तादृशेनेति शेषः आगमेन 'व्यवहारं' प्रायश्चित्तदानादिकं 'प्रस्थापयेत्' प्रवर्त्तयेत् न शेषैः, आगमेऽपि पविधे केवलेनावन्ध्यबोधत्वात्तस्य तदभावे मनः पर्यायेण, एवं प्रधानतराभावे इतरेणेति । अथ 'नो' नैव शब्दो यदिशब्दार्थः 'से' तस्य स वा तत्र व्यवहर्त्तव्यादावागमः स्यात्, 'यथा' यत्प्रकार 'से' तस्य तत्र व्यवहर्त्त व्यादौ श्रुतं स्यात् तादृशेन श्रुतेन व्यवहारं प्रस्थापयेदिति, 'इच्चेएहिं' इत्यादि निगमनं सामान्येन, 'जहा जहा से' इत्यादि तु विशेषनिगमनमिति । एतैर्व्यवहतुः फलं प्रश्नद्वारेणाह - 'से कि' मित्यादि, अथ किं हे भदन्त ! - भट्टारक 'आहु:' प्रतिपादयन्ति ये 'आगमबलिका' उक्तज्ञानविशेषचलवन्तः श्रमणा निर्मन्थाः केवलिप्रभृतयः 'इथेयं'ति इत्येतद्वक्ष्यमाणं, अथवा इत्येवमिति -- एवं प्रत्यक्षं पञ्चविधं व्यवहारं प्रायश्चित्तदानादिरूपं 'सम्मं ववहरमाणे 'त्ति संबध्यते, व्यवहरन् प्रवर्त्तयन्नित्यर्थः, कथं १-'सम्म' ति सम्यक्, तदेव कथम् ? इत्याह- 'यदा २' यस्मिन् २ अवसरे 'यत्र २' प्रयोजने वा क्षेत्रे वा यो य उचितस्तं तमिति शेषः तदा २ काले तस्मिन् २ प्रयोजनादौ कथम्भूतम् ? इत्याह--अनि| श्रितैः - सर्वाशंसारहितैरुपाश्रितः - अङ्गीकृतोऽनिश्चितोपाश्रितस्तम्, अथवा निश्रितश्च-शिष्यत्वादि प्रतिपक्षः उपाश्रितश्चस एव चैयावृत्यकरत्वादिना प्रत्यासन्नतरस्ती, अथवा निश्रितं रामः उपाश्रितं च- द्वेपस्ते, अथवा निक्षितं च-आहारादिलिप्सा उपाश्रितं च-शिष्यप्रतीच्छक कुलाद्यपेक्षा ते न तो यत्र तचथेति क्रियाविशेषणं, सर्वथा पक्षपातरहितत्वेन | यथावदित्यर्थः, इह पृज्यव्याख्या - "रागो य होइ निस्सा उबस्सिओ दोससंजुत्तो ॥ अहह्मण आहाराई दाही मज तु एस | निस्सा उ । सीसो प्रडिच्छओ वा होइ उबस्सा कुलादीया ॥ १ ॥ इति [ रागा भवति निश्रा उपाश्रितो भवति दोष
आगम आदि पञ्चविध-आचारा, बन्धः एवं बन्धस्य भेदा:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [३४०-३४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
SAXI
प्रत सूत्रांक [३४०-३४१]
व्याख्या- संयुक्तः ॥ अथवाऽऽहारादि मह्यं दास्यत्येवेति तु निश्रा। शिष्यः प्रतीच्छको वा भवत्युपश्रा कुलादिका ॥१॥] आज्ञाया-४८ शतके प्रज्ञप्तिः ४ जिनोपदेशस्याराधको भवतीति, हन्त ! आहुरेवेति गुरुवचनं गम्यमिति, अन्ये तु 'से किमाहुभंते । इत्याद्येवं व्या
था- उद्देश अभयदेवी
व्यवहारा ख्यान्ति-अथ किमाहुर्भदन्त ! आगमबलिकाः श्रमणा निम्रन्थाः ! पञ्चविधव्यवहारस्य फलमिति शेषः, अत्रोत्तरमाह
सु.३४० I'इचेय'मित्यादि । आज्ञाराधकश्च कर्म क्षपयति शुभं वा तद् बनातीति धन्ध निरूपयवाह-कईत्यादि, बंधे'त्ति ||
ईयोपथिक ॥२८॥
द्रव्यतो निगडादिबन्धो भावतः कर्मबन्धः, इह च प्रक्रमात् कर्मबन्धोऽधिकृतः 'ईरियावहियावधे यत्ति ईर्या-गमन | बन्धः तत्प्रधानः पन्था-मार्ग ईर्यापथस्तत्र भवमैर्यापथिक केवलयोगप्रत्ययं कर्म तस्य यो बन्धः स तथा, स चैकस्य वेदनी-|सू ३४१ | यस्य, 'संपराइयबंधे यत्ति संपरैति-संसारं पर्यटति एभिरिति सम्परायाः कषायास्तेषु भवं साम्परायिक कर्म तस्य यो || Pबन्धः स साम्परायिकबन्धः कपायप्रत्यय इत्यर्थः, स चावीतरागगुणस्थानकेषु सर्वेविति । 'नो नेरइओ'इत्यादि, मनु
प्यस्यैव तद्वन्धो, यस्मादुपशान्तमोहक्षीणमोहसयोगकेवलिनामेव तद्वन्धनमिति, 'पुवपडिवन्नए' इत्यादि, पूर्व-प्राकाले प्रतिपन्नमैर्यापथिकबन्धकत्वं यैस्ते पूर्वप्रतिपन्नकांस्तान् , तद्वन्धकत्वद्वितीयादिसमयवर्त्तिन इत्यर्थः, ते च सदैव बहवः पुरुषाः स्त्रियश्च सन्ति उभयेषां केवलिनां सदैव भावादत उक्तं 'मणुस्सा य मणुस्सीओ य बंधंतित्ति, 'पडिवजमा
॥३८५।। माणए'त्ति प्रतिपद्यमानकान ऐपिथिककर्मबन्धनप्रथमसमयवर्त्तिन इत्यर्थः, एषां च विरहसम्भवाद् एकदा मनुष्यस्य ॥४/
स्त्रियाश्चकैकयोगे एकत्वबहुत्वाभ्यां चत्वारो विकल्पाः, द्विकसंयोगे तथैव चत्वारः, एवमेते सर्वेऽप्यष्टौ, स्थापना चेयमे
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [३४०-३४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३४०-३४१]
६ पाम्-पु१खी १ पुं३ खी खी । एतदेवाह-'मणुस्से वा इत्यादि, एषां च पुंस्त्वादि तत्तल्लिङ्गापेक्षया न तु & वेदापेक्षया, क्षीणोपशान्तवेदत्वात्। अथ चेदापेक्षं खीत्वाधधिकृत्याह-तं भंते ! कि'मित्यादि, 'नो इत्थी' || इत्यादि च पदत्रयनिषेधेनावेदकः प्रश्चितः, उत्तरे तु षण्णां पदानां निषेधः सप्तमपदोक्तस्तु व्यपगतवेदः, तत्र
च पूर्वप्रतिपन्नाः प्रतिपद्यमानकाच || भवन्ति, तत्र पूर्वप्रतिपन्नकानां विगतवेदानां सदा बहुत्वभावात् आह'पुषपडिवन्ने'त्यादि, प्रतिपद्यमानकानां तु सामयिकत्वाखू विरहभावेनैकादिसम्भवादिकल्पद्वयमत एवाह-पडिवज्ज-18 माणे त्यादि ॥ अपगतवेदमैर्यापथिकबन्धमाश्रित्य स्त्रीत्वादि भूतभावापेक्षया विकल्पयन्नाह 'जईत्यादि, 'तं भंते ! | तदा भदन्त ! तद्वा कर्म 'इत्थीपच्छाकडेति भावप्रधानत्वानिर्देशस्य स्त्रीत्वं पश्चात्कृत-भूतता नीतं येनावेदकेनासौ खीपश्चात्कृतः, एवमन्यान्यपि, इहैककयोगे एकत्वबहुत्वाभ्यां पड़ विकल्पाः द्विकयोगे तु तथैव द्वादश त्रिकयोगे पुनस्तथैवाष्टी, एते च सर्वे पडूविंशतिः, इयं चैषां स्थापना-खी १ पु०१न०१खी ३ पु०३ न०३ । सूत्रे च चतुर्भजवष्टभहीनां प्रथमविकल्पा दर्शिताः सर्वान्तिमश्चेति । प्रस्तार अथैर्यापथिककर्मबन्धनमेव कालत्रयेण विकल्पयन्नाह-तंभंते!' इत्यादि, 'त' ऐपिधिक कर्म पंधी की पनाति बद्धवान् बनाति भन्स्यति चेत्येको विकल्पः, एवमन्येऽपि सप्त, एषां च स्थापना खी खी न | न.२२ । उत्तरं तु 'भवेत्यादि, भवे अनेकत्रोपशमादिश्रेणिप्राप्त्या आकर्षः-ऐयोपधिकक- ३१३ S णुग्रहणं भवाकर्षस्तं प्रतीत्य 'अस्त्यैकः' भवत्येकः कश्चिज्जीवः प्रथमवैकल्पिकः, तथा- ii 5. हि-पूर्वभवे उपशान्तमोहत्त्वे सत्यैर्यापथिक कर्म बद्धवान् वर्तमानभवे चोपशान्तमोहत्वे बनाति,
अनागते चोपशाम्तमोहावस्थायां भन्तस्यतीति १, द्वितीयस्तु
HotecSCACI
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [३४०-३४१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
अभयदेवी
प्रत सूत्रांक [३४०-३४१]
बन्धः
यः पूर्वस्मिन् भवे उपशान्तमोहत्वं लब्धवान् वर्तमाने च क्षीणमोहत्वं प्रातः स पूर्व बद्धवान् वर्तमाने च बनाति शैले- शतके व्याख्या
PI श्यवस्थायां पुनर्ने भन्रस्थतीति २, तृतीयः पूर्वजन्मनि उपशान्तमोहत्ये बद्धवान तत्प्रतिपतितो ग पनाति अनागसे चोप-I उद्देशा८ शान्तमोहत्वं प्रतिपरस्यते तदा भन्स्यतीति ३, चतुर्धस्तु शैलेशीपूर्वकाले बद्धवान् शैलेण्यां च न बनाति म पुनर्भ-18 व्यवहाराः
स३४० या वृत्तिः१
नत्स्यतीति ४, पनामस्तु पूर्वजन्मनि नोपशान्तमोहरवं लब्धवानिति न बद्धवान अधुना लब्धमिति बनाति पुनरप्येष्य-द काले उपशान्तमोहाद्यवस्थायां भन्स्यतीति पञ्चमः ५, षष्ठः पुनः क्षीणमोहत्वादि न लब्धवानिति न पूर्व बद्धवान |
| ईर्यापथिक ॥५८६॥ अधुना तु क्षीणमोहत्वं लब्धमिति पभाति पौलेश्यवस्थायां पुनर्न भन्स्यतीति षष्ठः ६, सप्तमः पुनर्भव्यस्य, सघनादी ||
सू ३४१ Xकाले न बद्धवान् अधुनाऽपि कश्चिन्त बनाति कालान्तरे तु भन्त्स्यतीति ७, अष्टमस्त्वभव्यस्य ८,सच प्रतीत एष । “गह
णागरिस'मिस्यादि, एकस्मिन्नेव भवे ऐपिथिककर्मपुद्गलानां ग्रहणरूपो य आकर्षोऽसौ ग्रहणाकर्षसं प्रतीत्यारत्येका Xi कश्चिज्जीवः प्रथमवैकल्पिकः, तथाहि-उपशान्तमोहादिर्यदा ऐर्यापधिक कर्मवता बनाति तदाऽतीतसमयापेक्षया बद्ध- *वान् वर्तमानसमयापेक्षया च बनाति अनागतसमयापेक्षया त भन्स्यतीति १, द्वितीयस्तु केवळी, स हातीतकाळे बद्ध-IG
वान् वर्तमाने च बनाति शैलेश्यवस्थायां पुनर्न भन्स्यतीति २, तृतीयस्तूपशान्तमोहत्वे बद्धवान् तत्प्रतिपसितस्तु न || ॥२८॥ वनाति पुनस्तत्रैव भये उपशमश्रेणी प्रतिपन्नो भन्स्यतीसि, एकभवे चोपशमश्रेणी द्विरं प्राप्यत एवेति ३, चतुर्थः पुनः |सयोगित्वे बद्धवान् शैलेश्यवस्थायां न वनाति न च भन्स्यतीति ४, पञ्चमः पुनरायुषः पूर्वभागे उपचान्तमोहत्वादि शन लम्पमिति न पद्धवान् अधुना तु लन्धमिति बनाति तदद्धाया एव चैष्यत्समयेष्ठ पुनर्भवतीति , समस्तु नास्त्येव,
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बन्ध: एवं बन्धस्य भेदा:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [३४०-३४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३४०-३४१]
ॐ15555
तत्र बद्धवान् बनातीत्यनयोरुपपद्यमानत्वेऽपि न भन्स्यतीति इत्यस्यानुपपद्यमानत्वाम् , तथाहि-आयुषः पूर्वभागे | उपशान्तमोहत्वादि न लब्धमिति न बद्धवान् सल्लाभसमये च बनाति ततोऽनन्तरसमयेच अन्तस्यत्येव तु नट भन्स्यति, समयमात्रस्य बन्धस्येहाभावात् , यस्तु मोहोपशमनिर्ग्रन्थस्य समयानन्तरमरणेनैपथिककर्मबन्धः समयमात्रो भवति नासौ पठविकल्पहेतुः, तदनन्तरर्यापथिककर्मबन्धाभावस्य भवान्तरवर्तित्वाग्रहणाकर्षस्य चेह प्रक्रान्तत्वात्,8 यदि पुनः सयोगिचरमसमये बनाति ततोऽनन्तरं न भन्स्यतीति विवक्ष्येत तदा यत्सयोगिचरमसमये बनातीति तद्वन्ध-6 | पूर्वकमेव स्यानाबन्धपूर्वक, तत्पूर्वसमये तस्य बन्धकत्वात् , एवं च द्वितीय एव भङ्गः स्यामा पुनः षष्ठ इति , सप्तमः पुनर्भव्यविशेषस्य ७, अष्टमस्त्वभव्यस्येति ८, इह च भवाकर्षापेक्षेष्वष्टसु भनकेषु'बंधी बंधा बंधिस्सई' इत्यत्र प्रथमे भने उपशान्तमोहः, 'बंधी बंधान बंधिस्सई' इत्यत्र द्वितीये क्षीणमोहा, 'बंधी न बंधइ अंधिस्सई' इत्यत्र तृतीये उपशान्तमोहां, 'बंधी न बंधइन बंधिस्सई' इत्यत्र चतुर्थे शैलेशीगतः, 'न बंधी बंधा मंघिस्सह इत्यत्र पश्चमे 2 उपशान्तमोहा, 'न बंधी बंधइन बंधिस्सई' इत्यत्र षष्ठे क्षीणमोहा, 'न बंधीन बंधा बंधिस्साई' इत्यत्र सप्तमे भव्यः, 'न घंधी न पंधान बंधिस्सई' इत्यत्राष्टमेऽभव्या, ग्रहणाकर्षापेक्षेषु पुनरेतेष्वेव प्रथमे उपशान्तमोहः क्षीणमोहो या, द्वितीये तु केवली, तृतीये तूपशान्तमोहा, चतुर्थे शैलेशीगतः पञ्चमे उपशान्तमोक्षीणमोहो वा, पष्ठः शून्या, सप्तमे भन्यो भाविमोहोपशमो भाविमोहक्षयो वा, अष्टमे त्वभव्य इति ॥ अथैर्यापथिकबन्धमेब निरूपयमाह-'स'मित्यादि, 'तत्' ऐयोपथिक कर्म 'साइयं सपज्जवसिय'मित्यादि चतुर्भजी, तत्र चैर्यापथिककर्माणः प्रथम एव भने बन्धोऽन्येषु
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दीप अनुक्रम [४१३४१४]
बन्ध: एवं बन्धस्य भेदा:
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक [ ३४०
-३४१]
दीप
अनुक्रम
[४१३
४१४]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति:]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर- शतक [-] उद्देशक [८], मूलं [ ३४०-३४१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १
॥२८७॥
तदसम्भवादिति 'त' मित्यादि, 'तत्' ऐयपथिकं कर्म 'देसेणं देस'ति 'देशेन' जीवदेशेन 'देश' कर्म्मदेशं बनातीत्यादि चतुर्भङ्गी, तत्र च देशेन कर्म्मणो देशः सर्वं वा कर्म्म सर्वात्मना वा कर्म्मणो देशो न बध्यते, किं तर्हि ?, सर्वात्मना सर्वमेव बध्यते, तथास्वभावत्वाज्जीवस्येति ॥ अथ साम्परायिकबन्धनिरूपणायाह
संपरायणं भंते! कम्मं किं नेरइयो बंधइ तिरिक्खजोणीओ बंधइ जाव देवी बंधइ ?, गोयमा ! नेरइओवि बंधइ तिरिक्खजोणीओवि बंधइ तिरिक्खजोणिणीचि बंधइ मणुस्सोवि बंधइ मणुस्सीवि बंधr देवोवि बंधइ देवीवि बंधइ ॥ तं भंते ! किं इत्थी बंधइ पुरिसो बं० तहेव जाब नोइत्थीनोपुरिसोनोनपुंसओ बंधइ ?, गोयमा ! इत्थीवि वं० पुरिसोवि बंधइ जाव नपुंसगोवि बंधइ अहवेए य अवगयवेदो व बंधइ अहवे य | अवगद्यवेया य बंधइ । जह भंते । अवगयवदो य बंध अवगयवेदा य बंधन्ति तं भंते । किं इत्थीपच्छाको बंधह पुरिसपच्छाकडो बंधड़ ? एवं जहेब ईरियावहियाबंधगस्स तहेब निरवसेसं जाव अहवा इत्थीपच्छाकडा य पुरिसपच्छाकडा य [ बंधइ ] नपुंसगपच्छाकडा य बंधंति ॥ तं भंते! किं बंधी बंध बंधिस्स १ बंधी बंधर न बंधिस्सइ २ बंधी न बंध बंधिस्स ३ बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ ४१, गोयमा ! अथेगतिए बंधी गंध बंधिस्सर १ अत्थेगतिए बंधी बंधह न बंधिस्सइ २ अत्थेगतिए बंधी न बंधह बंधिस्सर ३ अत्थेगतिए बंधी न बंधइ न बंधिस्सह । तं भंते । किं साइयं सपज्जवसियं बंध ? पुच्छा तहेव, गोयमा ! साइयं वा | सपज्जवसियं बंधइ अणाइयं वा सपज्जवसियं बंध अणाइयं वा अपज्जवसियं बंधह णो चेव णं साइयं अप
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अत्र मूल - संपादने सूत्र - क्रमांकने एका स्खलना जाता, सू. ३४२ स्थाने सू. ३४३ लिखितं
बन्धः एवं बन्धस्य भेदा:
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८ शतके उद्देशः ८ सांपरायि
क बन्धः
सू २४३
॥३८७ ॥
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [३४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक
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[३४२]
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जवसियं बंधइ । तं भंते ! किं देसेणं देसं बंधइ एवं जहेव ईरियावहियाबंधगस्स जाव सणं सर्व बंधह
(सूत्रं ३४२)॥ KI 'संपराइयं 'मित्यादि, 'किं नेरहओं' इत्यादयः सप्त प्रश्नाः, उत्तराणि च सप्तव, एतेषु च मनुष्यमनुषीवर्जाः | पञ्च साम्परायिकबन्धका एवं सकषायत्वात् , मनुष्यमनुष्यौ तु सकपायित्वे सति साम्परायिक बनीतो न पुनरन्यदेति ॥ साम्परायिकबन्धमेव ख्याधपेक्षया निरूपयन्नाह-तं भंते ! किं इत्थी'त्यादि, इह ख्यादयो विवक्षितैकत्वबहुत्वाः षट् । सर्वदा साम्परायिक वनन्ति, अपगतवेदश्च कदाचिदेव, तस्य कादाचित्करवात्, ततश्च ख्यादयः केवला बन्नन्ति अपगतवेदसहिताच, ततश्च यदाऽपगतवेदसहितास्तदोच्यते अथवैते ख्यादयो बनन्ति अपगतवेदश्च, तस्यैकस्यापि सम्भवात् , अथवैते ख्यादयो बन्नन्ति अपगतवेदाश्च, तेषां बहूनामपि सम्भवात् , अपगतवेदश्च साम्परायिकबन्धको वेद
त्रये उपशान्ते क्षीणे वा यावद्यथाख्यातं न प्रामोति तावल्लभ्यत इति, इह च पूर्वप्रतिपन्नप्रतिपद्यमानकविवक्षा न कृता, * द्वयोरप्येकत्वबहुत्वयोर्भावेन निर्विशेषत्वात् , तथाहि-अपगतवेदत्वे साम्परायिकबन्धोऽल्पकालीन एव, तत्र च योऽप
गतवेदत्वं प्रतिपन्नपूर्वः साम्परायिक बन्नात्यसावेकोऽनेको वा स्यात्, एवं प्रतिपद्यमानकोऽपीति ।। अथ साम्परायिककलार्मवन्धमेव कालत्रयेण विकल्पयन्नाह-तं भंते ! किमित्यादि, इह च पूर्वोक्तष्वष्टासु विकल्पेष्वाद्याश्चत्वार एव संभ-|| *वन्ति नेतरे, जीवानां साम्परायिककर्मबन्धस्यानादित्वेन 'नबंधी'त्यस्यानुपपद्यमानत्वात् , तत्र प्रथमः सर्व एव संसारी | यथाख्यातासंप्राप्तोपशमकक्षपकावसानः, स हि पूर्व बद्धवान् वर्तमानकाले तु बनाति अनागतकालापेक्षया तु भन्स्यति |
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दीप अनुक्रम [४१५]
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बन्ध: एवं बन्धस्य भेदा:
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[३४२]
दीप
अनुक्रम [४१५]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति: ]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [८], मूलं [ ३४२ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्यामज्ञप्तिः अभयदेवी
या वृत्तिः १ १
॥३८८॥
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१, द्वितीयस्तु मोहक्षयात्पूर्वमतीतकालापेक्षया बद्धवान् वर्तमानकाले तु बध्नाति भाविमोक्षयापेक्षा तु न भत्स्यति २, तृतीयः पुनरुपशान्तमोहत्वात् पूर्व बद्धवान् उपशान्तमोहत्वे न बनासि तस्माच्युतः पुनर्भन्त्स्यतीति ३, चतुर्थस्तु मोहक्षयात्पूर्व साम्परायिकं कर्म बद्धवान् मोहक्षये न बनाति न च भन्त्स्यतीति ॥ साम्परायिक कर्मबन्धमेवाश्चित्याह'तं'मित्यादि, 'साइयं वा सपज्जवसियं बंधइत्ति उपशान्तमोहतायाश्वयुतः पुनरुपशान्तमोहतां क्षीणमोहतां वा प्रतिपत्स्यमानः, 'अणाइयं वा सपज्जबसिये बंधइति आदितः क्षपकापेक्षमिदम्, 'अणाइयं वा अपज्जयसियं बंध ति एतच्चाभव्यापेक्षं, 'नो चेय णं साइयं अपज्जवसियं बंधहन्ति, सादिसाम्परायिकबन्धो हि मोहोपशमाध्युत्तस्यैव भवति, तस्य चावश्यं मोक्षयायित्वात्साम्परायिकबन्धस्य व्यवच्छेदसम्भवः, ततश्च न सादिरपर्यवसानः साम्परायिकबन्धोऽस्तीति ॥ अनन्तरं कर्म्मवन्यतोक्ता, अथ कर्मस्वेव यथायोगं परीपहावतारं निरूपयितुमिच्छुः कर्मप्रकृती: परीपहांश्च तावदाइ
करणं भंते! कम्मपयडीओ पन्नत्ताओ ?, गोयमा ! अड कम्मपयडीओ पन्नत्ताओ, संजहा- णाणावरपिल्लं जाव अंतराइयं ॥ कइ णं भंते । परीसहा पण्णत्ता १, गोयमा 1 बाबीसं परीसहा पद्मत्ता, तंजा-दिगिछापरीसहे पिवासासहे जाब दंसणपरीसहे । एए णं भंते 1 बाबीसं परीसहा कतिसु कम्मपगडीसु समोयरंति ?, गोयमा । चउसु कम्मपयडीसु समोयरंति, तंजा-नाणावरणिजे वेयणिजे मोहणिजे अंतराइए । नाणावरणिजे पां अंते । कम्मे कलि परीसहा समोवरंति, गोपसा दो सहा समोरंति, संजा
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बन्धः एवं बन्धस्य भेदा:, कर्म-प्रकृत्तिः, कर्मन: भेदा:
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८ शतके उद्देशः ८ परीपहाणां कर्मण्यवता रः सू ३४३
॥१८८॥
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आगम
[०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [३४३] +गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३४३]
ASSORS
गाथा:
पन्नापरीसहे नाणपरीसहे य, चेयणिज्ने णं भंते ! कम्मे कति परीसहा सम्मोमालि, गोयमा ! एकारस परीसहा समोयरंति, तंजहा-पंचेच आणुपुषी चरिया सेज्जा बहेयरोगे यालणास जन्मेवय एकारस वेदणि
मि ॥१॥दसणमोहणिजे णं भंते ! कम्मे कति परीसहा समोयाति १, गोयनाएको दसपापरीसहे समो|यरा, चरितमोहणिजे भंते !कम्मे कति परीसहा समोयरति १,गोयमा सत्तापरीसहा समोयरंति. तंजहाअरती अचेल इत्थी निसीहिया जायणा य अकोसे । सकारपुरकारचरितमोरभि सत्तेते ॥१॥ अंतराइए । ण भंते ! कम्मे कति परीसहा समोयरंति ?, गोयमा ! एगे अलाभपरीसहे समोयरद । सत्तविहबंधगस्स गं भंले ! कति परीसहा पण्णत्ता ?, गोयमा ! बावीसं परीसहा पण्णत्ता, वीसं पुण वेदेो, जं समयं सीयपरी| सर वेदेति यो त समयं उसिणपरीसह वेदेह जं समयं उसिणपरीसहं देह पोतं समपं सीयपरीसह वेदेह, जं समयं चरियापरीसहं वेदेति णो तं समयं निसीहियापरीसह बेदेति जं समपं निम्सीहियारीसहं वेदेव । जो तं समयं चरियापरीसहं घेदेह । अवधिहबंधणस्स णं भले ! कति परीसहा पण्णसा !, गोयमा ! बावीस |परीसहा पण्णसा, तंजहा-छुहापरीसहे पिवासापरीसहे सीयप सफ० मसग. जाव अलाभप०, एवं अट्ठविहवंधगस्सवि सत्तविहबंधगस्सवि । छबिहबंधगस्स भंते ! सरागसमत्थस्स कत्ति परीसहा पण्ण-181
सा, गोयमा! चोइस परीसहा पण्णता बारस पुण बेदेड, जं समयं सीयपरीसहं वेदेह णो तं समयं उसि-6 कणपरीसहं वेदेड जं समर्ष पसिणपरीसह वेदेव मोतं समयं सीयपरीसह देश, जं समय पारियापरीसह
दीप अनुक्रम [४१६-४२०]
| कर्म-प्रकृत्तिः , कर्मन: भेदाः, परिषहा:
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आगम
[०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [३४३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [३४३]
गाथा:
व्याख्या-वात ॥ वेदेति णो तं समयं सेज्जापरीसहं वेदेइ ज समय सेजापरीसहं वेदेति णो तं समयं चरियापरीसहं वेदेइ ।
दशतके प्रज्ञप्तिः || एकविहबंधगस्स णं भंते ! बीयरागमस्थरस कति परीसहा पणत्सा', गोयमा ! एवं चेव जहेव विह-18 उद्देशान अभयदेवी- बंधगस्सणं । एगविहबंधगस्स णं भंते ! सजोगिभवत्थकेवलिस्स कति परीसहा पण्णत्ता, गोधमा ! एकार-लापरीपहाणां या वृचिस परीसहा पण्णत्ता, नव पुण वेदेइ, सेसं जहा छबिहबंधगस्स । अबंधगस्स णं भंते ! अजोगिभवत्थकेव- कर्मण्यवता ॥३८॥
लिस्स कति परीसहा पण्णता ?, गोयमा ! एक्कारस परीसहा पण्णत्ता, नव पुण वेदेइ, जं समयं सीयपरी-18||रासू ३४३ है सहं वेदेति नो तं समयं उसिणपरीसहं वेदेइ जं समयं उसिणपरीसहं वेदेति नो तं समयं सीयपरीसहं वेदेह,
जं समयं चरियापरीसहं वेदेह नो तं समयं सेजापरीसहं वेदेति जं समर्थ सेजापरीसहं वेदेह नो तं समयं| चरियापरीसहं वेदेव (सूत्रं ३४३)॥
'कति ण'मित्यादि, 'परीसह'त्ति परीति-समन्तात् स्वहेतुभिरुदीरिता मार्गाच्यवननिर्जरार्थ साध्वादिभिः सह्यन्त इति परीषहास्ते च द्वाविंशतिरिति 'दिगिं'त्ति बुभुक्षा सैव परीपहा-तपोऽर्थमनेषणीयभक्तपरिहारार्थ वा मुमुक्षुणा परिषद्यमाणत्वात् दिगिंछापरीसहेत्ति, एवं पिपासापरीसहोऽपि, यावच्छन्दलब्धं सव्याख्यानमेवं रश्य-'सीयपरीसहे| ॥३८९॥ उसिणपरीसहे' शीतोष्णे परीषही आतापनार्थ शीतोष्णवाधायामप्यग्निसेवास्नानाचकृत्यपरिवर्जनार्थं वा मुमुक्षुणा तयोः परिपह्यमाणत्वात् , एवमुत्तरत्रापि, 'दंसमसगपरीसहे' दंशा मशकाच-चतुरिन्द्रियविशेषा, उपलक्षणत्वाच्चैषां यूकामत्कुणमक्षिकादिपरिग्रहः, परीषहता चैतेषां देहव्यथामुत्पादयत्स्वपि तेष्वनिवारणभयद्वेषाभावतः||
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अनुक्रम [४१६-४२०]
| कर्म-प्रकृत्ति:, कर्मन: भेदाः, परिषहा:
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आगम
[०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [३४३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३४३]
गाथा:
ट्रा अचेलपरीसहे'चेलानां-याससामभावोऽचेलं तच्च परीषहोऽचेलतायां जीर्णापूर्णमलिनादिचेलत्वे च लज्जादैन्यायालय-18] * करणेन परिषह्यमाणत्वादिति, 'अरहपरीसहे' अरतिः-मोहनीयजो मनोविकारः सा च परीषहस्तनिषेधनेन सहनादिति । का इत्थियापरीसहे' स्त्रियाः परीषहः २ तत् परीषहणं च तन्निरपेक्षत्वं ब्रह्मचर्यमित्यर्थः 'चरियापरीसहे' चर्या-ग्रामनगरा-1 | दिषु संचरणं तत्परिषहणं चाप्रतिबद्धतया तत्करणं 'निसीहियापरीसहे' नैषेधिकी-स्वाध्यायभूमिः शन्यागारादि-18 | रूपा तत्परिषहणं च तत्रोपसर्गेष्वत्रासः 'सेजापरीसहे' शय्या-वसतिस्तत्परिषहणं च तज्जन्यदुःखादेपेक्षा 'अफोसपरीसहे' आक्रोशो-दुर्वचनं 'चहपरीसहें' व्यधो वधो वा-यषष्ट्यादिताडनं तत्परीषहणं च क्षान्त्यवलम्बनं 'जायणापरीसहे' याचा-भिक्षणं तत्परिषहणं च तत्र मानवर्जनम् 'अलाभपरीसहे' अलाभ:-प्रतीतस्तस्परिषहणं च तत्र दैन्याभावः रोगपरीसहे' रोगो-रुक् तत्परिषहणं च-तत्पीडासहनं चिकित्सावर्जनं च तणफासपरीसहें तृणस्पर्श:-कुशादिस्पर्शस्तत्परिपर्ण च कादाचित्कतृणग्रहणे तसंस्पर्शजन्यदुःखाधिसहनं 'जल्लपरीसहे' जल्लो-मलस्तत्परिषहणं च देशतः ४ सर्वतो वा स्नानोद्वर्तनादिवर्जन 'सकारपुरकारपरीसहे' सत्कारो-वस्त्रादिपूजा पुरस्कारो-राजादिकृताभ्युत्थानादिस्त-*
त्परिषहणं च तत्सद्भावे आत्मोत्कर्षवर्जनं तदभावे दैन्यवर्जनं तदनाकासा चेति 'पण्णापरीसहे' प्रज्ञा-मतिज्ञानवि|शेषस्तत्परिषणं च प्रज्ञाया अभावे उद्वेगाकरणं तद्भावे च मदाकरणं 'नाणपरीसहे' ज्ञान-मत्यादि तत्परिषहणं च | तस्य विशिष्टस्य सद्भावे मदवर्जनमभावे च दैन्यपरिवर्जन, ग्रन्थान्तरे त्वज्ञानपरीषह इति पठ्यते, 'दसणपरीसहे || दर्शनं-तत्त्वश्रद्धानं तत्परिषहणं च जिनानां जिनोक्तसूक्ष्मभावानां चाश्रद्धानवर्जनमिति । 'कइसु कम्मपयडीसु समो
दीप
अनुक्रम [४१६-४२०]
| कर्म-प्रकृत्ति:, कर्मन: भेदाः, परिषहा:
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आगम
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[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [३४३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [३४३]
गाथा:
व्याख्या-1 यरंतिति कतिषु कर्मप्रकृतिषु विषये परीषहाः समषतारं वजन्तीत्यर्थः 'पण्णापरीसहे' इत्यादि प्रज्ञापरीमहो शामावरणे-31 शतके मज्ञप्तिः | मतिज्ञानावरणरूपे समवतरति, प्रज्ञाया अभावमाश्रित्य, तदभावस्य ज्ञानावरणोदयसम्भवत्यातू, यन्तु सदभाये कैम्यपरिवर्तनं उद्देशा८ अभयदेवी- तत्सद्भावे च मानवर्जनं तच्चारित्रमोहनीयक्षयोपशमादेरिति, एवं ज्ञानपरीषहोऽपि.नवरं मत्यादिज्ञानावरणेऽक्तरति, 'पंचे- परीपहाणां यावृत्तिः१ त्यादिगाथा, 'पंचेव आणुपुची ति क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकपरीपहा इत्यर्थः, पतेषु च पीडैव वेदनीयोत्था तदधिसहनं ।
कर्मण्यवता
सू३४३ ॥१९॥ तु चारित्रमोहनीयक्षयोपशमादिसम्भवं, अधिसहनस्य चारित्ररूपत्वादिति ॥ 'एगे दंसणफीसहे समोयरतित्ति यतो
|| दर्शन तत्त्वश्रद्धानरूपं दर्शनमोहनीयस्य क्षयोपशमादौ भवति उदये तु न भवतीत्यतस्तन दर्शममीपहः समवत्तरतीति, ४|| 'अरई'त्यादि गाथा, तत्र चारतिपरीघहोऽरतिमोहनीये तज्जन्यत्वात् , अचेलपरीषहो जुगुप्सामोहमीये रुणापेक्षया, है खीपरीषहः पुरुषवेदमोहे ख्यपेक्षया तु पुरुषपरीपहः खीवेदमोहे, तत्त्वतः स्याद्यभिलाषरूपत्वात्तस्य, नैषेधिकीपरीषहो
भयमोहे उपसर्गभयापेक्षया, याबापरीपहो मानमोहे ताष्करत्यापेक्षया, आक्रोशपरीपहः क्रोधमोहे क्रोधोत्पत्त्यपेक्षया, | सत्कारपुरस्कारपरीषहो मानमोहे मदोत्पत्त्यपेक्षया समवतरति, सामान्यतस्तु सर्वेऽप्येते चारित्रमोहनीये समवतन्तीति। है 'एगे अलाभपरीसहे समोयरतित्ति अलाभपरीषह एवान्तराये समवतरति, अन्तरायं चेह लाभान्तरार्थ, तदुदय ॥ एव लाभाभावात् , तदधिसहन व चारित्रमोहनीयक्षयोपशम इति ॥ अथ बन्धस्थानान्याश्रित्य परीवहान विचारयक्षाह
॥३९॥ टू सत्तविहे 'त्यादि, सप्तविधबन्धक:-आयुर्वर्जशेषकर्मबन्धक 'जं समय सीपपरीसह मित्यादि, या समस्ये शीसमरी
पहं वेदयते न तत्रोष्णपरीसई, शीतोष्णयोः परस्परमत्सन्सविरोधेनकदैकनासम्भवात, अब यद्यपि शीतोष्णायोकादिक-||||
दीप
अनुक्रम [४१६-४२०]
| कर्म-प्रकृत्ति:, कर्मन: भेदाः, परिषहा:
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आगम
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[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [३४३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३४३]
गाथा:
वासम्भवस्तथाऽप्यात्यन्तिके शीते तथाविधाग्निसन्निधौ युगपदेवैकस्य पुंस एकस्यां दिशि शीतमन्यस्यां चोष्णमित्येवं
द्वयोरपि शीतोष्णपरीषयोरस्ति सम्भवः, नैतदेवं, कालकृतशीतोष्णाश्रयत्वादधिकृतसूत्रस्यैवंविधव्यतिकरस्य वा प्रायेण लतपस्विनामभावादिति । तथा 'जं समयं चरियापरीसहमित्यादि तत्र चर्या-प्रामादिषु संचरणं नैषेधिकी च-ग्रामादिष
प्रतिपन्नमासकल्पादेः स्वाध्यायादिनिमित्तं शय्यातो विविक्ततरोपाश्रये गत्वा निषदनम् , एवं चानयोर्विहारावस्थानरूप॥ त्वेन परस्परविरोधानेकदा सम्भवः, अथ नैषेधिकीवच्छय्याऽपि चर्यया सह विरुद्धेति न तयोरेकदा सम्भवस्ततैश्चकोनविं& शतेरेव परीपहाणामुत्कर्षणकदा वेदनं प्राप्तमिति, नैवं, यतो प्रामादिगमनप्रवृत्ती यदा कश्चिदौत्सुक्यादनिवृत्ततत्परिणाम
एव विश्रामभोजनाद्यर्थमित्वरशय्यायां वत्तेते तदोभयमप्यविरुद्धमेव, तत्त्वतश्चर्याया असमाप्तत्वा आश्रयस्य चाश्रय-12 णादिति, ययेवं तहिं कथं पबिधवन्धकमाश्रित्य वक्ष्यति-'जं समयं चरियापरीसहं वेएति नो तं समयं सेज्जापरीसह। वेएई'इत्यादीति !, अबोच्यते, पद्दधिधबन्धको मोहनीयस्याविद्यमानकरूपत्वात् सर्वत्रौत्सुक्याभावेन शय्याकाले शय्यायामेव वर्तते न तु बादररागवदौत्सुक्येन विहारपरिणामाविच्छेदाचर्यायामपि, अतस्तदपेक्षया तयोः परस्परविरोधाधुगपदसम्भवः, ततश्च साध्वेव 'जं समयं चरिए'त्यादीति । 'छबिहबंधे'त्यादि, पविधवन्धकस्यायुमोहवर्जानां बन्धकस्य |
१ अत एव ऋजुसूत्रादीनां संयतानामेव परीवहा इति कथने अविरतदेश विरतानां परीषहा इति पक्षरूपाभ्यां नैगमन्यवहाराभ्यां विशिष्टता, क्रमेणोपयोगे सहजसमाधानमिदं, तथापि विंशतिपरीपयोगपद्यमतिपादकसूत्रविरोधात् न तत्कल्पना, भवतु वान्येषां परस्पराविरुद्धानां समुदित उपयोगो नानयोईयोः परस्पर विरुद्धयोः, वेदनाद्वयस्य योगपवाभावात् ।
दीप
SCR
अनुक्रम [४१६-४२०]
ECles
| कर्म-प्रकृत्ति:, कर्मन: भेदाः, परिषहा:
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आगम
[०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [३४३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [३४३]
CRECE
गाथा:
व्याख्या- । सूक्ष्मसम्परायस्येत्यर्थः, एतदेवाह-सरागछाउमस्थस्से'त्यादि, सूक्ष्मलोभाणूनां वेदनात्सरागोऽनुत्पन्नकेबलत्वाच्छन-||
८ शतके प्रज्ञप्ति
उद्देशः८ ]] स्थस्ततः कर्मधारयोऽतस्तस्य 'चोइस परीसह'त्ति अष्टानां मोहनीयसम्भवानां तस्य मोहाभावेनाभावाद्वाविंशतः शेषा-|| अभयदेवी
परीषहाः या वृत्ति चतुर्दशपरीपहा इति, ननु सूक्ष्मसम्परायस्य चतुर्दशानामेवाभिधानान्मोहनीयसम्भवानामष्टानामसम्भव इत्युक्तं, ततश्च|
सू ३४३ 3 सामोद निवृत्तिवादरसंपरायस्य मोहनीयसम्भवानामष्टानामपि सम्भवः प्राप्तः, कथं चैतदू युज्यते ।, यतो दर्शनसप्त
कोपशमे वादरकषायस्य दर्शनमोहनीयोदयाभावेन दर्शनपरीषहाभावात्सप्तानामेव सम्भवो नाष्टानां, अथ दर्शनमोहनीक्स-II |त्तापेक्षयाऽसावपीष्यत इत्यष्टावेव तहि उपशमकत्वे सूक्ष्मसम्परायस्यापि मोहनीयसत्तासद्भावात्कथं तदुत्थाः सर्वेऽपि परीपहा न भवन्ति । इति, न्यायस्य समानत्वादिति, अनोच्यते, यस्मादर्शनसप्तकोपशमस्योपर्येव नपुंसकवेदाधुपचायकाले
ऽनिवृत्तिवादरसम्परायो भवति, स चावश्यकादिव्यतिरिक्तग्रन्थान्तरमतेन दर्शनत्रयस्य बृहति भागे उपशान्ते शेष चानुIM|| पशान्ते एव स्यात्, नपुंसकवेदं चासौ तेन सहोपशमयितुमपक्रमते, ततच नपुंसकवेदोपशमावसरेऽनिवृत्तिबादरसम्पराकायस्य सतो दर्शनमोहस्य प्रदेशत उदयोऽस्ति न तु सत्तैव, ततस्तत्प्रत्ययो दर्शनपरीषहस्तस्यास्तीति, ततश्चाष्टावपि भव
न्तीति, सूक्ष्मसम्परायस्य तु मोहसत्तायामपि न परीषहहेतुभूतः सूक्ष्मोऽपि मोहनीयोदयोऽस्तीति न मोहजन्यपरीपहस-||
म्भवः, आह च-"मोहनिमित्ता अढवि बायररागे परीसहा किह । किह वा सुहमसरागे न होंति उवसामए समे | ॥३९१॥ Du१॥ आचायें आह-सत्तगपरओश्चिय जेण वायरो जं च सावसेसंमि। मम्गिल्लंमि पुरिले लग्गइ तो दंसणस्सावि ॥२॥ | लग्भइ पएसकर्म पडुच्च सुहुमोदओ तओ अट्ठ । तस्स भणिया न सहमे न तस्स सुहुमोदओऽवि जओं ॥३॥
दीप
अनुक्रम [४१६-४२०]
CG
| कर्म-प्रकृत्तिः , कर्मन: भेदाः, परिषहा:
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आगम
[०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [३४३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३४३]
गाथा:
वादरसम्परावे मोहनिमित्ता अष्टौ परीपहाः कथं । कथं वा सूक्ष्मसम्पराये औपशमिकेच सर्वे न भवन्ति ॥१॥ दर्शनसप्तकपरत एव बादरो येन यस्माच सावशेपे पाश्चात्येऽने लगति ततो दर्शनस्यापि ॥ २॥ लभ्यते प्रदेशकर्म प्रतीत्य | सूक्ष्मोदयस्ततोऽष्टौ तस्य भणिताः, न सूक्ष्मे, न तस्य सूक्ष्मोदयोऽपि यतः॥३॥] यच सूक्ष्मसम्परायस्य सूक्ष्मलोभ| किट्टिकानामुदयो नासौ परीषहहेतुर्लोभहेतुकस्य परीषहस्यानभिधानात् , यदि च कोरुपि कथश्चिदसौ स्यात्तदा तस्येहात्यन्ताल्पत्वेनाविवक्षेति । 'एगविहवंधगस्स'त्ति वेदनीयबन्धकस्येत्यर्थः, कस्य तस्य ? इत्यत आह-वीयरागछ
उमत्थस्स'त्ति उपशान्तमोहस्य क्षीणमोहस्य चेत्यर्थः 'एवं चेवेत्यादि चतुर्दश प्रज्ञप्ता द्वादश पुनर्वेदयतीत्यर्थः, शीतोXणयोश्चर्याशय्ययोश्च पर्यायेण वेदनादिति ॥ अनन्तरं परीपहा उक्तास्तेषु चोष्णपरीपहस्तद्धेतवश्च सूर्या इत्यतः सूर्येवकव्यतायां निरूपयमाह
जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे सरिया उग्गमणमुहुरासि दूरे य मूले य दीसंति मतियमुहुर्ससि मूले य दूरे य दीसंति अत्यमणमुहुर्ससि दूरे य मूले य दीसंति ,हंता गोयमा । जंबुद्दीवे गंदीचे सूरिया उग्गमणमुहु
तंसि दूरे य तं व जाप अस्थमणमुहसंसि दूरे य मूले य दीसंति । जंबूडीवे णं भंते ! दीवे सूरिया उग्ग|मणमुहुरासि मजांसि य मुहत्तंसि य अत्यमणमुहुरासि य सवत्थ समा उच्चत्तेणं, हंता गोयमा ! जंबुडीवे णं दीवे सूरिया उग्गमण जाप उच्चसेणं । जइ णं भंते ! जंबुद्दीवे र सरिया उग्गमणमुहुरासि य मज्झतिय अस्थमणमुहत्तंसि मूले जाप पञ्चत्तेणं से फेणं खाइ अट्टेणं भंते ! एवं चह जंबुद्दीषेणं दीवे सूरिया उपग
दीप
अनुक्रम [४१६-४२०]
For P
OW
| कर्म-प्रकृत्तिः , कर्मन: भेदाः, परिषहा:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [३४४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
सू३४४
[३४४]
व्याख्या
मणमुहुरासि दूरे य मूले य दीसंति जाव अत्यमणमुहुरासि दूरे य मूले य दीसंति ?, गोपमा ! [ ग्रन्धार प्रज्ञप्तिः ५००० ] लेसापडियारण उग्गमणमुहुत्तसि दूरे य मूले य दीसंति लेसाभितावेणं मझतियमुहुतंसिक
| उद्देशः८ अभयदेवी- समूले य दूरे य दीसंति लेस्सापडियाएणं अस्थमणमुहुर्त्तसि दूरे य मूले पदीसंति, से तेणटेणं गोपमा।|| सर्योदयादि या वृत्तिः१ एवं वुचइ-जंबुद्दीवेणं दीवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसन्ति जाव अस्थमण जाव दीसंतिता | दर्शन
जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरिया किं तीयं खेत्तं गच्छंति पडप्पन्नं खेत्तं गच्छंति अणागयं खेसं गच्छति , ॥३९२॥
गोयमाणो तीयं खेत्तं गच्छंति पडुप्पन्न खेत्तं गच्छंतिणो अणागयं खेत्तं गच्छंति, जंबुद्दीवे णं दीवे सूरिया | किंतीय खेत्तं ओभासंति पडप्पन्नं खेत्तं ओभासंति अणागयं खेत्तं ओभासंति ?, गोयमा ! नो तीयं खेतं ओभासंति पहुप्पन्न खेतं ओभासंति नो अणागयं खेतं ओभासंति, तं भंते ! किं पुढे ओभासंति अपुढे ओभासंति', गोयमा! पुढे ओभासंति नो अपुढे ओभासंति जाव नियमा छदिसि । जंबूदीवे णं भंते ! दीवे सूरिया किं तीयं खेतं उज्जो ति एवं चेव जाप नियमा छदिसिं, एवं तवति एवं भासंति जाव नियमा छदिसि ॥ जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे सूरियाणं किं तीए खेत्ते किरिया कज्जा पडप्पन्ने खेत्ते किरिया कजई अणागए खेत्ते किरिया कजइ १, गोयमा । नो तीए खेत्ते किरिया कजइ पड्डप्पन्ने खेत्ते किरिया कजह |
॥३९॥ प्राणो अणागए खेत्ते किरिया कज्जइ, सा भंते ! किं पुट्ठा कज्जति अपुट्ठा कज्जा, गोयमा ! पुट्ठा कज्जा नो||
अपुट्ठा कज्जति जाब नियमा छदिसिं । जंबुदीवेणं भंते ! दीवे सूरिया केवतियं खेत्तं उई तवंति केवतियं खेसं
दीप अनुक्रम [४२१]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [३४४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३४४]
अहे तवंति केवतियं खेत्तं तिरियं तवंति, गोयमा ! एगं जोयणसवं उहुं तवंति अवारस जोयणस-18 याई अहे तवंति सीयालीसं जोयणसहस्साई दोन्नि तेवढे जोयणसए एकवीसं च सट्टियाए जोयणस्स तिरिय तवंति ॥ अंतो गं भंते ! माणुसुत्तरस्स पचयरस जे चंदिमसूरियगहगणणक्वत्सतारारूवा ते ण भंते । देवा |कि उहोचवनगा जहा जीवाभिगमे तहेव निरवसेसं जाव उकोसेर्ण छम्मासा । पहिया णं भंते ! माणुसुस-18 रस्स जहा जीवाभिगमे जाव इंदहाणे णं भंते ! केवतियं कालं उबवाएणं विरहिए पन्नत्ते, गोयमा ! जहनेणं एकं समयं उक्कोसेणं छम्मासा । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ॥ सूत्रं ३४४॥ अट्ठमसए अट्ठमो उद्देसो समत्तो।
'जंबुद्दीवे इत्यादि, 'दूरे य मूले य दीसंति'त्ति 'दूरे च' द्रष्टुस्थानापेक्षया व्यवहिते देशे 'मूले च' आसन्ने द्रष्टुप्रतीत्यपेक्षया सूर्यो दृश्येते, द्रष्टा हि स्वरूपतो बहुभिर्योजनसहजैर्व्यवहितमुद्गमास्तमययोः सूर्य पश्यति, आसन्नं पुनर्मन्यते, सतं तु विप्रकर्ष सन्तमपि न प्रतिपद्यत इति । 'मज्झंतियमुहुर्ससि मूले य दूरे य दीसंति'त्ति मध्यो-मध्यमोऽस्तोविभागो गगनस्य दिवसस्य वा मध्यान्तः स यस्य मुहूर्तस्यास्ति स मध्यान्तिकः स चासौ महर्त्तश्चेति मध्यान्तिकमहर्त-18 स्तत्र 'मूले च' आसन्ने देशे द्रष्टृस्थानपेक्षया 'दूरे च' व्यवहिते देशे द्रष्टुप्रतीत्यपेक्षया सूर्यो दृश्येते, द्रष्टा हि मध्याहे | उदयास्तमनदर्शनापेक्षयाऽऽसन्न रविं पश्यति योजनशताष्टकेनैव तदा तस्य व्यवहितत्वात् , मन्यते पुनरुदयास्तमयप्रतीत्यपेक्षया व्यवहितमिति । 'सबस्थ समा उच्चत्तेणं ति समभूतलापेक्षया सर्वत्रोच्चत्वमष्टी योजनशतानीतिकृत्वा, 'लेसा|पडियाएण'तेजसः मतिघातेन दूरतरत्वात् तद्देशस्य तदप्रसरणेनेत्यर्थः, लेश्याप्रतिघाते हि सुखदृश्यत्वेन दूरस्थोऽपि स्वरू
ॐ4545555453
CAAAAAA
दीप अनुक्रम [४२१]
~227
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[३४४]
दीप
अनुक्रम [४२१]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति: ]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [८], मूलं [ ३४४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्या
प्रशसिः अभयदेवीया वृतिः १
॥२९३॥
पेण सूर्य आसन्नप्रतीतिं जनयति, 'लेसाभिताबेणं'ति तेजसोऽभितापेन, मध्याहे हि आसन्नतरत्वात्सूर्यस्तेजसा प्रतपति, | तेजः प्रतापे च दुर्दृश्यत्वेन प्रत्यासन्नोऽप्यसी दूरप्रतीतिं जनयतीति । 'नो तीनं स्लेशं गच्छति'त्ति अतीतक्षेत्रस्यातिकान्तत्वात्, 'पप्पन्नं'ति वर्तमानं गम्यमानमित्यर्थः, 'नो अजागयंति गमिष्यमाणमित्यर्थः इह च यदाकाशखण्डमा २ | दित्यः स्वतेजसा व्याप्नोति तत् क्षेत्रमुच्यते, 'ओभासंति'त्ति 'अवमास्यतः' ईषदुद्योतयतः 'बुद्ध'ति तेजसा स्पृष्टं 'जाव नियमा छद्दिसिं'ति इह भावत्करणादिदं दृश्यं - 'तं भंते । किं ओगाढं ओभासह अणोगाढं ओभासइ ?, गोयमा ! ओगाढं ओभासइ नो अजोगाढ' मित्यादि 'तं भंते । कतिदिसिं ओभासेइ १, गोयमा !' इत्येतदन्तमिति । 'उज्जोति'सि 'उद्योतयतः' अत्यर्थं द्योतयतः 'तवंति'सि तापयतः उष्णरश्मित्यासयोः 'भासंति'ति भावयतः शोभयत इत्यर्थः ॥ उक्तमेवार्थ शिष्यहिताय प्रकारान्तरेणाह— 'जंबू' इत्यादि, 'किरिया कज्जइति अवभासनादिका क्रिया भवतीत्यर्थः 'पुढ'ति तेजसा स्पृष्टात्-स्पर्शनाद् या सा स्पृष्टा 'एगं जोयणसवं उहुं तवंति त्ति स्वस्वविमानस्यो|परि योजनशतप्रमाणस्यैव तायक्षेत्रस्य भावात् 'अट्ठारस जोयणसगाई आहे तवंति'त्ति, कथं १, सूर्यादष्टासु योजनशतेषु भूतलं भूतलाश्च योजनसहस्रेऽघोलोकग्रामा भवन्ति तांश्च यावदुद्योतनादिति, 'सीयालीस' मित्यादि, एतच्च | सर्वोत्कृष्टदिवसे चक्षुःस्पर्शापेक्षयाऽक्सेयमिति ॥ अनन्तरं सूर्यवक्तव्यतोता, अथ सामान्येन ज्योतिष्कवकव्यतामाह-'अंतो णं भंते 'इत्यादि, 'जहा जीवाभिगमे तहेब निरवसेसं'ति तत्र चेदं सूत्रमेवं-'कप्पोववनगा विमाणोवदचणा चारोवपक्षमा चारहिश्या गद्दरया गइसमावशगा १, गोयमा ! ते णं देवा नो अहोक्वन्नगा को कप्पोवचक्षण
Eucation Intention
For Parts Only
८ शतके उद्देशः ८ ४९ सूर्योदयादि दर्शनं सू ३४४
~ 228 ~
॥१९३॥
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [३४४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
बिमाणोक्वनगा कारोववनगा'ज्योतिश्चकचरणोपलक्षितक्षेत्रोपपमा इत्यर्थः 'नो चारविश्या इस चारो-ज्योतिषामबहानक्षेनो नैव चारे स्थितियां ते तथा, अत एव 'गइरइया' अत एव 'गइसमावनगा इत्यादि, कियहरमिदं वाच्यम् || इत्याह-जाव कोसेणं छम्मास'चि इदं चैवं द्रष्टव्यम्-'इंदहाणे णं भंते ! केवइयं कालं विरहिए उववाएणं ?,
गोयमा ! जहन्नेर्ण एक समय उक्कोसेणं छम्मास'त्ति, 'जहा जीवाभिगमे'त्ति, इदमप्येवं तत्र-'जे चंदिमसूरियगहगण४ नक्खत्ततारारूवा ते पं भंते ! देवा किं उट्टोववन्नगा इत्यादि प्रश्नसूत्रम् , उत्तरं तु 'गोयमा ! ते ण देवा नो उड्डोवन- दिनमा नो कप्पोक्वन्नगा विमाणोवबच्चगा नो चारोववन्नगा चारहिइया नो गइरइया नो गइसमावन्नगे'त्यादीति ॥ अष्टम
शतेऽष्टमः ॥८-८॥
[३४४]
दीप अनुक्रम [४२१]
+5+कर
अष्टमोद्देशके ज्योतिषां वक्तव्यतोक्का, लाच नसिकीति वैश्चसिकं प्रायोगिकं च बन्धं प्रतिपिपादयिपुर्नवमोहे-/ शकमाह, तस्य चेदमादिसूत्रम्--
काविहे ण मंते ! बंधे पण्णसे, मोयमा ! दुविहे बंधे पण्णसे, संजहा-पयोगधंधे वीससाधे य (सूत्रं ३४५) वीससाबंधे णं भंते ! कतिविहे पणते ?, गोयमा ! दुषिहे पलसे, संजहा-साइयवीससावंधे अणाइयवीससायंधे य । अणाइयवीससाबंधे णं भंते ! कतिविहे पण्णसे ?, गोयमा ! तिविहे पण्णते, तंजहा-धम्मत्थिकायअन्नमनअणादीयवीससाचंधे अधम्मस्थिकायअनमत्रमणादीयवीससावंचे आमालस्थिका
SAREauratoninternational
अत्र अष्टम-शतके अष्टम-उद्देशक: समाप्त: अथ अष्टम-शतके नवम-उद्देशकः आरभ्यते
~229~
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३४५-३४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
NEW
शतके
प्रत सूत्रांक [३४५
-३४६]
-
व्याख्या
| यअन्नमन्नअणादीयवीससाबंधे।धम्मत्यिकायअन्नमन्नअणादीयवीससाबंधेणं भंते! किं देसबंधे सबबंधे?,गोयमा।|| प्रज्ञप्तिः देसबंधे नो सबबंधे, एवं चेव अधम्मस्थिकायअन्नमनअणादीयवीससाबंधेवि, एवमागासस्थिकायअन्नमन्नअ-Fil
उद्देश: अभयदेवी- णादीयवीससाबंधे । धम्मत्थिकायअन्नमन्नअणाइयवीससाबंधे णं भंते ! कालओ केवचिरं होई, गोयमा || बन्धः या वृत्तिः सबद्ध, एवं अधम्मत्थिकाए, एवं आगासस्थिकाये। सादीयवीससाबंधे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते, गोय- सू३४५ ॥३९॥
मा ! तिविहे पण्णत्ते, तंजहा-पंधणपञ्चइए भायणपच्चइए परिणामपञ्चइए । से कितं बंधणपचहए ?, २ जन्नं |5|| विश्रसाबद परमाणुपुग्गला दुपएसिया तिपएसिया जाव दसपएसिया संखेजपएसिया असंखेजपएसिया, अणंतपएसियाण भंते !खंधाणं वेमायनिद्धयाए बेमालुक्खयाए वेमायनिद्धलुक्खयाए बंधणपचए णं बंधे समुप्पजइ जहन्नेणं एक समय उक्कोसेणं असंखेनं कालं, सेत्तं बंधणपचाए । से किं तं भायणपचहए, भा०२ जन्नं जुन्नसुराजु
गुलजुन्नतंदुलाणं भायणपचइएणं बंधे समुप्पज्जइ जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उकोसेणं संखेनं कालं, सेत्तं भायणपञ्च-2 |इए । से किं तं परिणामपचइए, परिणामपच्चइए जन्नं अन्माणं अभरुक्खाणं जहा ततियसए जाव अमोहा8 गं परिणामपचइए णं बंधे समुप्पजइ जहनेणं एक समयं उक्कोसेणं छम्मासा, सेत्तं परिणामपञ्चइए, सेत्तं सादीहै यवीससावंधे, सेत्तं बीससाबंधे (सूत्रं ३४६)॥ ___ 'कहविहे ण'मित्यादि 'बंधे'त्ति बन्धः-पुद्गलादिविषयः सम्बन्धः 'पओगबंधे यत्ति जीवप्रयोगकृतः 'बीससाबंधे य'त्ति स्वभावसंपन्नः। यथासत्तिन्यायमाश्नित्याह-वीससे'त्यादि, 'धम्मत्तिकायअन्नमन्नअणाईयवीससाबंधे यत्ति ॥३९४॥
दीप अनुक्रम [४२२-४२३]
C%5C
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३४५-३४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
ॐ
प्रत सूत्रांक [३४५
-३४६]
धर्मास्तिकायस्यान्योऽन्य-प्रदेशानां परसरेण योऽनादिको विश्रसाबन्धः स तथा, एवमुत्तरत्रापि । 'देसबंधे 'सि देशतो-16 देशापेक्षया बन्धो देशबन्धो यथा सङ्कलिकाकटिकाना, 'सबबंधे'त्ति सर्वतः सर्वात्मना वन्धः सर्ववन्धो यथा क्षीरनी-||
रयोः 'देसबन्धे नो सवधेति धर्मास्तिकायस्य प्रदेशानां परस्परसंस्पर्शेन व्यवस्थितत्वादेशबन्ध एव न पुनः सर्वबन्धः, है। तत्र हि एकस्य प्रदेशस्य प्रदेशान्तरः सर्वथा बन्धेऽन्योऽन्यान्तर्भावेनैकप्रदेशत्वमेव स्यात् नासावेयप्रदेशत्वमिति ! PI'सपद्धति सर्वाद्धा-सर्वकालं 'साइयवीससाबंधे य'त्ति सादिको यो विश्रसाबन्धः स तथा, 'बंधणपचहए'ति बध्यते
ऽनेनेति बन्धन-विवक्षितस्निग्धतादिको गुणः स एव प्रत्ययो-हेतुर्यत्र स तथा, एवं भाजनप्रत्ययः परिणामप्रत्ययश्च, नवरं। भाजन-आधारः परिणामो-रूपान्तरगमनं 'जन्नं परमाणुपुग्गले त्यादौ परमाणुपुद्गलः परमाणुरेव 'बेमायनिद्धयाएत्ति विषमा मात्रा यस्यां सा विमात्रा सा चासी स्निग्धता चेति विमात्रस्निग्धता तया,एवमन्यदपि पदद्वयम् ,इवमुकं भवति| "समनिद्धयाए बन्धो न होइ समलुक्खयाएविन होइ । वेमायनिद्धलुक्खत्तणेण बंधो उ खंधाणं ॥१॥" अयमर्थः-समगु
स्निग्धस्य समगुणस्निग्धेन परमाणुव्यणुकादिना बन्धो न भवति, समगुणरूक्षस्यापि समगुणरूक्षेण, यदा पुनर्विपमा मात्रा तदा भवति बन्धः, विषममात्रानिरूपणार्थं चोच्यते-"निद्धस्स निद्रेण दुयाहिएणं, लुक्खस्त लुक्खेण दुयाहिएणं । निद्धस्स लुक्खेण उवे बंधो, जहन्नवजो विसमो समो वा ॥१॥" इति [स्निग्धस्य स्निग्धेन द्विकाधिकेन रूक्षस्य रुक्षेण द्विकाधिकेन । स्निग्धस्य रूक्षेणोपैति बन्धो जघन्यवों विषमः समो वा ॥१॥] 'बंधणपचहएणं'ति बन्धनस्यवन्धस्य प्रत्ययो-हेतुरुक्तरूपविमात्रस्निग्धतादिलक्षणो बन्धनमेव वा विवक्षितस्नेहादि प्रत्ययो बन्धनप्रत्ययस्तेन, इह च |
दीप अनुक्रम [४२२-४२३]
45
~231
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[ ३४५
-३४६]
दीप
अनुक्रम
[४२२-४२३]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति:]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर- शतक [-] उद्देशक [९], मूलं [ ३४५ - ३४६]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्या प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १
॥ ३९५ ॥
वन्धनवत्वयेनेति सामान्यं विभात्रधितत्वादयस्तु तदा इति । 'असंलेजं कालं ति असङ्गमेयोत्सर्पिण्यक्सर्पिणीरूपं 'जुनसुरे' त्यादि तत्र जीर्णसुरायाः स्त्वानी भवनलक्षणो बन्धः, जीर्णगुडस्य जीर्णसन्दुलानां च पिण्डीभवनलक्षणः ॥ ४ से किं तं पयोनबंधे ?, पयोगबंधे तिविहे पत्ते, तंजहा-अगाइए वा अपजबसिए साइए वा अपजवसिर साइए या सपज्जबसिए, तत्थ णं जे से अणाइए अपजवसिए से णं अद्वहं जीवमझपएसाणं ॥ तत्थवि णं ति २ अणाइए अपजवसिष्ट सेसाणं साइए तत्थ णं जे से सादीए अपनवसिए से णं सिद्धाणं तस्य णं जे से साइए सपजयसिए से णं पिनले, तंजहा- आलावणबंधे अलियावामधे सरीरबंधे सरीरप्पयोगबंधे ॥ से किं तं आलावणयंत्रे ?, आलावणयंत्रे जपणं तथभाराण वा कभाराज वा पत्त भाराण वा पलालमाराम वा बेल्लभाराम वा वेसल्यावागवरत्तरज्जुवलिसदन्भमादिएहिं आलावणबंधे समुपाजणं अंतमुहरू उकोसेणं संखेनं कालं, सेनं आलावणवधे । से किं तं अल्लियावणयंत्रे १, अलियाणबंधे चविहे पनसे, संजहा-लेखनाबंधे उचयबंधे समुच्चयबंधे साह्णणाबंधे से किं तं लेसणाबंधे ?, लेमसाबंधे जनं कुद्वाणं कोहिमाणं संभाणं फसायाणं कद्वाणं चम्माणं घडाणं पचाणं कदाणं छुहाचि सिलसिले सलक्सम दुसित्यमाह एहिं लेसणएहिं बंधे समुवाइ जहनेणं अंतोमुहुसं उकोसेणं संखे कालं, सेतं लेसणायचे, से किं तं उचयचे ?, उथयबंधे जनं तरासीण वा करासीण वा पसरासीण का तुसरासीण वा सुसरालीण वा गोमयरासीण या अवगररासीण वा उम्रन्तेणं बंधे समुष्पवद जहनेणं अंतोसुकुन्तं
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प्रयोगबन्धः एवं तस्य भेदा:
For Parts Only
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८ शतके
उद्देशः ९ प्रयोगबधः सू३४७
॥ ३९५॥
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३४७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
*
प्रत
सूत्रांक
[३४७]
-%
उकोसेणं संखेनं कालं, खेतं उपयवंधे, से कि तंसमुपैयबंधे, समुच्चयबंधे जनं अगडतडागनदीदहवाकीपुक्त&ारिणीदीहियाणं मुंगालियाणं सराणं सरपंतिआणं सरसरपंतियाण विलपंतियाणं देवकुलसभापत्थूभवाइयाणं है।
करिहाणं पागारशलमचरियदारगोपुरतोरणाणं पासायचरसरणलेणभाषणामं सिंघाडगतिवचषकचचरचउम्र | हमहापहमादीणं हाथिसिलसिलेससमुचएणं बंधे समुच्चए णं बंधे समुप्पना जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उकोसेणं || संखेनं कालं, सेतं समुभयकंधे, से किं तं साहणणाबंधे?, साहणणाचंधे दुविहे पाते, तंजहा-देससाहणणापंधे | य सवसाहणणाचंधे य, से किस देससाहणणावधे, देससाहणणाचे जन्नं सगडरहजागाजुपमगिविधिक
सीयसंदमाणियालोहीलोहकडाहकटुच्छासणसवणखंभभंतमत्तोवगरणमाईणं देससाहणणाबंधे समुष्क- टाइजहनेणं अंतोमुहुर्त उकोसेणं संखेज कालं, सेत्तं देससाहणणावं, से किं तं सघसाहणणाबंधे ?, सब
साहणणायंधे से गं खीरोदगमाईणं, सेतं सघसाहणणायचे, सेत्तं साहणणाधे, सेसं अल्लियावणवंधे ॥ से ४ किं तं सरीरबंधे , सरीरबंधे दुषिहे पण्णते, तंजहा-पुप्पओगपञ्चइए य पदुप्पमपओगपचाइए य, से किं तं |
पुवप्पयोगपञ्चइए , पुचपओमपचइए जलं नेहवाणं संसारवस्थाणं सबजीचाणं तत्थ २ तेसु २ कारणेलु समोहणमाणाणं जीवपदेसाणं बंधे समुपबाइ सेतं पुबप्पयोगपञ्चइए, से किं तं पडष्पक्षणपयोगपञ्चइए १, २ जमे । केवलमाणस्स अणमारस्स केवलिलमुरघातणं समोहयस्स ताओ समुग्यायामओ पहिनियसेवाणस्स अंतरा मंचे क्हमाणस तेयाकम्माणं बंधे समुष्पनाइ, किं कारणं, लाहे से पएका एमसीगचा व भवंतिसि, सेल
X
दीप अनुक्रम [४२४]
ॐॐॐॐॐॐ
-
प्रयोगबन्ध: एवं तस्य भेदा:
~233
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३४७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३४७]
दीप अनुक्रम [४२४]
व्याख्या-13पडप्पन्नप्पयोगपचहए, सेसं सरीरबंधे ॥से किंतं सरीरप्पयोगवंधे, सरीरप्पयोगवंधे पंचविहे पन्नत्ते, ||८ शतके प्रज्ञप्तिः तंजहा-ओरालियसरीरप्पओगबंधे घेउवियसरीरप्पओगबंधे आहारगसरीरप्पओगबंधे तेयासरीरप्पयोगबंधे अभयदेवी- कम्मासरीरप्पयोगबंधे । ओरालियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कतिविहे पण्णते ?, गोयमा! पंचविहे पन्नत्ते,
| प्रयोगबया वृत्तिः१/तंजहा-एगिदियओरालियसरीरप्पयोगबंधे दियओ० जाच पंचिंदियओरालियसरीरप्पयोगबंधे । पगिदिय
न्धःसू३४७ ओरालियसरीरप्पयोगवंधे गंभंते ! कतिविहे पण्णते?, गोयमा! पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा-पुढविक्काइय॥३९॥
पगिदिय० एवं एएणं अभिलावेणं भेदो जहा ओगाहणसंठाणे ओरालियसरीरस्स तहा भाणियबो जाव पजत्तगन्भवतियमणुस्सपंचिंदियओरालियसरीरप्पयोगबंधे य अपजत्तगन्भवतियमणूस. जाव बंधे य॥ ओरालियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं?, गोयमा! चीरियसजोगसद्दबयाए पमादपचया कम्मं च जोगं च भवं च आउयं च पडच ओरालियसरीरप्पयोगनामकम्मरस उदएणं ओरालियसरीरप्पयो। गबंधे ॥ एगिदियओरालियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं?, एवं चेव, पुढविकाइयएर्गिदियओरालियसरीरप्पयोगबंधे एवं चेव, एवं जाव वणस्सइकाइया, एवं बेइंदिया एवं तेइंदिया एवं चरिदियतिरिक्खजोणिय०, पंचिंदियओरालियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते कस्स कम्मस्स उदएणं, एवं चेव, मणुस्स. ॥३९६॥ ॥पंचिदियओरालियसरीरप्पयोगबंधे गं भंते । कस्स कम्मस्स उदएणं, गोयमा ! वीरियसजोगसहवयाए |पमादपञ्चया जाव आउयं च पडच मणुस्सपंचिंदियओरालियसरीरप्पयोगनामाए कम्मरस उदएणं ओरालि.
प्रयोगबन्ध: एवं तस्य भेदा:
~2344
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
-१४
प्रत
%
सूत्रांक
2-
%
[३४७]
-5
-
यसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! किं देसबंधे सबबंधे ?, गोयमा ! देसर्वधेवि सत्वबंधेवि, एगिदियओरालियसरी-IMP द रप्पयोगबंधे णं भंते । किं देसबंधे सबबंधे, एवं चेष, एवं पुढविकाइया, एवं जाव मणुस्सपंचिंदियओरालि-14
यसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! किं देसबंधे सवबंधे?, गोयमा । देसबंधेवि सबबंधेवि ।। ओरालियसरीरप्पयोगबंधे थे भंते ! कालओ केवचिरं होइ?, गोयमा । सवर्षधे एकं समयं, देसबंधे जहनेणं एक समयं उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाई समयऊणाई, एगिदियओरालियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कालओ केवचिरं होइ,18 गोयमा सघर्षधे एकं समयं देसबंधे जहन्नेणं एवं समयं उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई समऊणाई, पुढ-14 | विकाइयएगिदियपुच्छा, गोयमा सबबंधे एक समयं देसबंधे जहन्नेणं खुड्डागभवग्गहणं तिसमयऊणं | ||उकोसेणं बावीसं वाससहस्साई समऊणाई, एवं सबेसिं सर्वधो एक समयं देसपंधो जेसि नस्थि वेषविय-18
सरीरं तेसिं जहन्नेणं खुड्डागं भवरगहणं तिसमयऊर्ण उक्कोसेणं जा जस्स ठिती सा समऊणा कायवा, जेसिं पुण अस्थि वेषियसरीरं तेर्सि देसबंधो जहन्नेणं एवं समयं उकोसेणं जा जस्स ठिती सा समजणा कायदा जाच मणुस्साणं वेसबंधे जहन्नेणं एवं समयं उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाई समयूणाई । ओरालियसरीरबंधतरे भंते ! कालओ केवचिरं होह, गोयमा। सबबंधंतरं जहन्नेणं खुडागं भवग्गहणं तिसमयऊणं अको- सेणं तेत्तीसं सागरोचमाई पुबकोडिसमयाहियाई, देसबंधतरं जहन्नेणं एक समयं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरो|वमाई तिसमयाहियाई, एगिदियओरालियपुच्छा, गोयमा ! सवबंधंतरं जहन्नेणं खुड्डागं भवग्गहणं तिसमय
दीप अनुक्रम [४२४]
%2
SCkA
4
%
%
%
प्रयोगबन्ध: एवं तस्य भेदा:
~235
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३४७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
या वृत्तिा
बन्धः
प्रत सूत्रांक [३४७]
व्याख्या भाजणं उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई समयाहियाई, देसबंधंतरं जहन्नेणं एवं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहत्त, शतके प्रज्ञप्तिः पुढविकाइयएगिदियपुच्छा गो! सबबंधतरं जहेव एगिदियस्स तहेच भाणियई, देसघंतरं जहन्नेणं एक समयं 8
उद्देशः९ अभयदेवीउक्कोसेणं तिन्नि समया जहा पुडविकाइयाणं, एवं जाव चारिदियाणं वाजकाइयवजाणं, नवरं सवबंधंतर
औदारिक उक्कोसेणं जा जस्स ठिती सा समयाहिया कायद्या, बाउक्काइयाणं सबबंधंतरं जहनेणं खुड्डामभवग्गहणं
| सू ३४८ ॥३९७॥ तिसमयऊणं उक्कोसेणं तिनि वाससहस्साईसमयाहियाई, देसबंधतरं जहन्नेणं एक समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुसं,
पंचिंदियतिरिक्खजोणियओरालियपुच्छा, सबबंधंतरं जहन्नेणं खुड्डागभवग्गहणं तिसमयऊणं उक्कोसेणं पुष-| कोडी समयाहिया, देसबंधंतरं जहा एगिदियाणं तहा पंचिंदियतिरिक्खजो०, एवं मणुस्साणवि निरवसेस भाणियचं जाव उक्कोसेणं अंतोमुहत्तं ॥ जीवस्स णं भंते ! एगिदियत्ते णोएगिदियत्ते पुणरवि एगिदियते एगिदियओरालियसरीरप्पओगधंतर कालओ केवचिरं होई, गोयमा ! सवयंधतरं जहन्नेणं दो खुशागभ
वग्गहणाई तिसमयऊणाई उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साई संखेज्जवासमन्भहियाई, देसबंधतरं जहन्नेणं ४खुट्टागं भवग्गहणं समयाहियं उफोसेणं दो सागरोवमसहस्साई संखेजचासमभहियाई, जीवस्स णं भंते ।। ला पुढविकाइयत्ते नोपुढचिकाइयत्ते पुणरवि पुढविकाइयत्ते पुढविकाइयएगिदियओरालियसरीरप्पयोगधंतरं ||॥१९॥ कालओ केवचिरं होइ, गोयमा! सवयंघंतरं जहन्नेणं दो खुडाई भवग्गहणाई तिसमयऊणाई उकोसेणं अणतं कालं अणता उस्सप्पिणीओसप्पिणीमो कालो खेत्तओ अर्णता लोगा असंजा पोग्गलपरियहा ||४||
दीप अनुक्रम [४२४]
RSESC5555%A5%258
अत्र मूल-संपादने सूत्र-क्रमांके सू. ३४८ किम लिखितं तत् अहम् न जानामि!![यहाँ सूत्र ३४७ चल रहा है, प्रतमे इस सूत्र के बिचमे कोई क्रमांक नहीं बदला, पूज्यपाद सागरानंदसूरीश्वरजी संपादित 'आगममञ्जूषा' में भी यह सूत्र सळंग ही संपादित हुआ है, फिर भी यहाँ दो पृष्ठ तक सू.३४७ लिखा है और बादमे सू.३४८ लिख दिया है, जो की इस प्रत के पृष्ठ ४०७ तक चलता है, बादमे नया सूत्र क्रम ३४९ लिखा है ]
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[३४८]
दीप
अनुक्रम [४२४]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति: ]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [९], मूलं [ ३४७]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
ते णं पोग्गलपरियहा आवलियाए असंखेज्जइभागो, देसबंधंतरं जहनेणं खुड्डागभवग्गहणं समग्राहियं को| सेणं अनंतं कालं जाब आवलियाए असंखेज्जइभागो, जहा पुढविकाइयाणं एवं वणस्सइकाइयवजाणं जावमणुस्साणं, वणस्स इकाइयाणं दोन्नि खुड्डाई, एवं चेव उक्कोसेणं असंखिनं कालं असंखिजाओ उस्सप्पिणि| ओसप्पिणीओ कालओ खेतओ असंखेजा लोगा, एवं देसबंधंतरंपि उक्कोसेणं पुढवीकालो । एएसि णं | भंते ! जीवाणं ओरालियसरीरस्स देसबंधगाणं सवबंधगाणं अबंधगाण य कयरे २ जाव विसेसाहिया वा?, गोयमा । सवस्थोवा जीवा ओरालियसरीरस्स सवबंधगा अबंधगा विसेसाहिया देसबंधगा असंखेज्जगुणा ( सूत्रं ३४८ ) ॥
'ओगबंधे 'ति जीवव्यापारबन्धः स च जीवप्रदेशाना मौदारिकादिपुद्गलानां वा 'अणाइए वा' इत्यादयो द्वितीयवर्जाखयो भङ्गाः, तत्र प्रथमभङ्गोदाहरणायाद - 'तत्थ णं जे से' इत्यादि, अस्य किल जीवस्यासत्येयप्रदेशिकस्याष्टौ ये | मध्यप्रदेशास्तेषामनादिरपर्यवसितो बन्धो, यदाऽपि लोकं व्याप्य तिष्ठति जीवस्तदाऽप्यसौ तथैवेति, अन्येषां पुनर्जीवनदेशानां विपरिवर्त्तमानत्वान्नास्त्यनादिरपर्यवसितो बन्धः, तत्स्थापना - एतेषामुपर्यन्ये चत्वारः, एवमेतेऽष्टौ ॥ एवं | तावत्समुदायतोऽष्टानां बन्ध उक्तः, अथ तेष्वेकैकेनात्मप्रदेशेन सह ० यावतां परस्परेण सम्बन्धो भवति दर्शनायाह-- 'तत्थवि ण' मित्यादि, 'तत्रापि' तेष्वष्टासु जीवप्रदेशेषु मध्ये त्रयाणां त्रयाणामेकैकेन सहानादिरपर्यवसितो बन्धः, तथाहि - पूर्वोकप्रकारेणावस्थितानामष्टानामुपरितनप्रतरस्य यः कश्चिद्विवक्षितस्तस्य द्वौ पार्श्ववर्त्तिनावेकश्चाधोव
प्रयोगबन्धः एवं तस्य भेदा:
For Pernal Use On
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[३४८]
दीप अनुक्रम [४२४]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति: ]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [९], मूलं [३४७]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १
॥१९८॥
८ शतके
ओदारिक
| तीत्येते त्रयः संबध्यन्ते शेषस्त्वेक उपरितनस्त्रयश्चाधस्तना न संबध्यन्ते व्यवहितत्वात् एवमधस्तनप्रतरापेक्षयाऽपीति चूर्णिकार व्याख्या, टीकाकारव्याख्या तु दुरवगमत्वात्परितेति, 'सेसाणं साइए'ति शेषाणां मध्यमाष्टाभ्योऽन्येषां + उद्देशा ९ सादिर्विपरिवर्त्तमानत्वात् एतेन प्रथमभङ्ग उदाहृतः, अनादिसपर्यवसित इत्ययं तु द्वितीयो भङ्ग इह न संभवति, अनादिसंघद्धानामष्टानां जीवप्रदेशानामपरिवर्तमानत्वेन बन्धस्य सपर्यवसितत्वानुपपत्तेरिति । अथ तृतीयो भङ्ग उदाहियते 'तस्थ णं जे से साइए' इत्यादि, सिद्धानां सादिरपर्यवसितो जीवप्रदेशवन्धः, शैलेश्यवस्थायां संस्थापितप्रदेशानी | सिद्धस्वेऽपि चलनाभावादिति । अथ चतुर्थभङ्गं भेदत आह-'तत्थ णं जे से साहए' इत्यादि, 'आलावणयंत्रे 'ति आला|प्यते-आढीनं क्रियत एभिरित्यालापनानि-रखवादीनि तैर्बम्धस्तृणादीनामालापनबन्धः, 'अलियावणबंधे 'ति अलि| यावर्ण-द्रष्यस्य द्रव्यान्तरेण श्लेषादिनाऽऽलीनस्य यत्करणं तद्रूपो यो बन्धः स तथा, 'सरीरबंधे' ति समुदूधाते सति | यो विस्तारितसङ्कोचितजीवप्रदेशसम्बन्धविशेषवशातैजसादिशरीर प्रदेशानां सम्बम्धविशेषः स शरीरबन्धा, शरीरिषन्ध इत्यन्ये, तत्र शरीरिणः समुद्घाते विक्षिप्तजीवप्रदेशानां सङ्कोचने यो बन्धः स शरीरिवन्ध इति, 'सरीरप्पभोगांचे' सि | शरीरस्य - औदारिकादेर्यः प्रयोगेण वीर्यान्तरायक्षयोपशमादिजनितव्यापारेण बन्धः- तत्पुन्नलोपादानं शरीररूपस्य वा | प्रयोगस्य यो बन्धः स शरीरप्रयोगबन्धः ॥ 'तणभाराण ब'ति तृणभारास्तृणभारकास्तेषां 'बेते' त्यादि क्षेत्रलता - जलवंशकम्वा 'वाम' ति वल्कः वरत्रा-धर्म्ममयी रज्जुः- सनादिमयी वल्ली-त्रपुष्यादिका कुशा-निर्मूलदर्भाः दर्भास्तु समूलाः, आ[दिशब्दाचीवरादिग्रह', 'लेसणाबंधेति श्लेषणा-लद्रव्येण द्रव्ययोः संबन्धनं तद्रूपो यो बन्धः स तथा, 'उच्चयबंधे 'त्ति
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वन्धः सू ३४८
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॥१९८॥
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अत्र मूल-संपादने सूत्र-क्रमांके सू. ३४८ किम लिखितं तत् अहम् न जानामि !!! [यहाँ सूत्र ३४७ चल रहा है, प्रतमे इस सूत्र के बिचमे कोई क्रमांक नहीं | बदला, पूज्यपाद सागरानंदसूरीश्वरजी संपादित 'आगममञ्जूषा' में भी यह सूत्र सळंग ही संपादित हुआ है, फिर भी यहाँ दो पृष्ठ तक सू. ३४७ लिखा है | और बादमे सू. ३४८ लिख दिया है, जो की इस प्रत के पृष्ठ ४०७ तक चलता है, बादमे नया सूत्र क्रम ३४९ लिखा है |]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३४७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३४८]
उधयः-
कचयनराशीकरण तद्रूपो बन्ध उच्चयबन्धः, 'समुच्चयबंधेसि सङ्गतः-उच्चयापेक्षया विशिष्टतर उच्चयः समुच्चयः स एव बन्धः समुचयवन्धः, 'साहणणाबंधे'त्ति संहनन-अवयवानां सहातनं तपो यो बम्धः स संहननबन्धः, दीर्घत्वादि चेह प्राकृतशैलीप्रभवमिति, कुट्टिमार्ण'ति मणिभूमिकानां 'छुहाचिक्खिल्ले त्यादौ सिलेसत्ति श्लेषोवज्रलेपः 'लक्ख'त्ति जतु 'मङसित्य'त्ति मदनम्, आदिशब्दाद् गुग्गुलरालाखल्यादिग्रहः 'अवगररासीण वत्ति || कचवरराशीनाम् 'उच्चपणं ति ऊबै चयनेन 'अगडतलागनई इत्यादि मायः प्राग व्याख्यातमेव, 'देससाहणणाचंधेद य'त्ति देशेन देशस्य संहननलक्षणो बन्धः-सम्बन्धः शकटानादीनामिवेति देशसंहननबन्धः, 'सघसाहणणाबंधे यत्ति सर्वेण सर्वस्य संहननलक्षणो बन्धा-सम्बन्धः क्षीरनीरादीनामिवेति सर्वसंहननबन्धः 'जन्नं सगडरहे'त्यादि, शकटादीनि |
च पदानि प्रार व्याख्यातान्यपि शिष्यहिताय पुनर्व्याख्यायन्ते-तत्र 'सगड'त्ति गन्त्री 'रह'त्ति स्यन्दनः 'जाण'त्ति IM यानं-लघुगन्त्री 'जुग्ग'त्ति युग्यं गोलविषयप्रसिद्ध द्विहस्तप्रमाणं वेदिकोपशोभित जम्पानं 'गिल्लि'प्ति हस्तिन उपरि 18| कोल्लरं यम्मानुषं गिलतीव चिल्लित्ति अनुपाल्लाणं 'सीय'त्ति शिविका-कुटाकारणाच्छादितो जम्पानविशेष: 'संदमाणि-18||
यत्ति पुरुषप्रमाणो जम्पान विशेषः 'लोहि'त्ति मण्डकादिपचनभाजन 'लोहकशाहेति भाजनविशेष एव 'कडच्छुय'ति | परिवेषणभाजनम् आसनशयनस्तम्भाः प्रतीताः भवति मृन्मयभाजन 'मस'त्ति अमत्रं भाजनविशेषः 'उवगरण सि| नानाप्रकारं तदन्योपकरणमिति ॥ 'पुषप्पओगपञ्चहए यत्ति पूर्व-प्राकालासेवितः प्रयोगो-जीवव्यापारो वेदनाकषायादिसमुद्रातरूपः प्रत्यय:-कारणं यत्र शरीरबन्धे स तथा स एवं पूर्वप्रयोगप्रत्ययिका, 'पचुप्पन्नपओगपचहए यत्ति
दीप अनुक्रम [४२४]
SARASHTRA
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३४८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
मज्ञप्ति
प्रत सूत्रांक
[३४८]
व्याख्या- प्रत्युत्पन्न:-अप्राप्तपूर्वो वर्तमान इत्यर्थः प्रयोगः-केवलिसमुद्घातलक्षणव्यापारः प्रत्ययो यत्र स तथा स एव प्रत्युत्पनम- शतके
सायोगप्रत्ययिकः । 'नेरइयाईण'मित्यादि, 'तत्थ तत्थ'त्ति अनेन समुद्घातकरणक्षेत्राणां बाहुल्यमाह, 'तेसु तेसुत्ति ||४|| उद्देशा। अभयदेवीसामनेन समुद्धातकारणानां वेदनादीनां बाहुल्यमुक्तं 'समोहणमाणाण'ति समुद्धन्यमानानां समुद्घातं शरीराद्वहिर्जी-16
औदारिक या वृत्तिः |वप्रदेशप्रक्षेपलक्षणं गच्छता 'जीवपएसाणति इह जीवप्रदेशानामित्युक्तावपि शरीरबन्धाधिकारात्तास्थ्यात्तळ्यपदेश इति
बन्धः ॥३९॥ न्यायेन जीवप्रदेशाश्रिततैजसकार्मणशरीरप्रदेशानामिति द्रष्टव्यं, शरीरिवन्ध इत्यत्र तु पक्षे समुपातेन विक्षिप्य सङ्को-
| सू ३४८ |चितानामुपसर्जनीकृततैजसादिशरीरप्रदेशानां जीवप्रदेशानामेवेति 'बंधे'त्ति रचनादिविशेषः, 'जन्नं केवले त्यादि,
केबलिसमुघातेन दण्ड १ कपाट २ मथिकरणा ३ न्तरपूरण ४ लक्षणेन 'समुपहतस्य' विस्तारितजीवप्रदेशस्य 'ततः'। है। समुद्घातात् 'प्रतिनिवर्तमानस्य' प्रदेशान् संहरतः, समुद्घातप्रतिनिवर्तमानत्वं च पञ्चमादिष्वनेकेषु समयेषु स्यादि
त्यतो विशेषमाह-'अंतरामंथे वहमाणस्स'त्ति निवर्त्तनक्रियाया अन्तरे-मध्येऽवस्थितस्य पश्चमसमय इत्यर्थः, यद्यपि च पष्ठादिसमयेषु तैजसादिशरीरसङ्घातः समुत्पद्यते तथाऽप्यभूतपूर्वतया पञ्चमसमय एवासौ भवति शेषेषु तु भूतपूर्वतयैवेतिकृत्वा ।
'अंतरामथे बट्टमाणस्से'त्युक्तमिति, 'सयाकम्माणं बंधे समुप्पज्जईत्ति तैजसकार्मणयोः शरीरयोः 'बन्धः' सहातः समु-18 कास्पद्यते 'किं कारणं' कुतो हेतोः ।, उच्यते-'ताहे'त्ति तदा समुद्घातनिवृत्तिकाले 'से'त्ति तस्य केवलिनः 'प्रदेशाः' जीव-|| ॥३९९॥
प्रदेशाः 'एगत्तीगयत्ति एकत्वं गता-संघातमापन्ना भवन्ति, तदनुवृत्त्या च तैजसादिशरीरप्रदेशानां बन्धः समुत्पद्यत इति | * प्रकृतम् , शरीरिबन्ध इत्यत्र तु पक्षे 'तेयाकम्माणं बंधे समुप्पज्जईत्ति तैजसकार्मणाश्रयभूतत्वातैजसकामेणाः शरीरिप-18
दीप अनुक्रम [४२४]
अत्र मूल-संपादने सूत्र-क्रमांके सू. ३४८ किम लिखितं तत् अहम् न जानामि!!! [यहाँ सूत्र ३४७ चल रहा है, प्रतमे इस सूत्र के बिचमे कोई क्रमांक नहीं बदला, पूज्यपाद सागरानंदसूरीश्वरजी संपादित 'आगममञ्जूषा' में भी यह सूत्र सळंग ही संपादित हुआ है, फिर भी यहाँ दो पृष्ठ तक सू.३४७ लिखा है और बादमे सू.३४८ लिख दिया है, जो की इस प्रत के पृष्ठ ४०७ तक चलता है, बादमे नया सूत्र क्रम ३४९ लिखा है ]
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[३४८]
दीप
अनुक्रम [४२४]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति: ]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [९], मूलं [ ३४८]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
देशास्तेषां बन्धः समुत्पद्यत इति व्याख्येयम्, 'वीरियस जोगसद्दइयाए 'चि वीर्य-वीर्यान्तरायक्षयादिकृता शक्तिः योगा :- मनःप्रभृतयः सह योगैर्वर्त्तत इति सयोगः सन्ति विद्यमानानि द्रव्याणि - तथाविधपुद्गला यस्य जीवस्यासी सद्द्रव्यः वीर्यप्रधानः सयोगो वीर्यसयोगः स चासौ सद्रव्यश्चेति विग्रहस्तद्भावस्तत्ता तथा वीर्यसयोगसद्द्रव्यतया, सवीर्यतया सयो गतया सव्यतया जीवस्य, तथा 'पमायपचय'त्ति 'प्रमादप्रत्ययात्' प्रमादलक्षणकारणात् तथा 'कम्मं चत्ति कर्मच | एकेन्द्रियजात्यादिकमुदयवर्त्ति 'जोगं च'त्ति 'योगं च' काययोगादिकं 'भवं चत्ति 'भवं च'तिर्यग्भवादिकमनुभूयमानम् 'आउयं च'त्ति 'आयुष्कं च' तिर्यगायुष्काद्युदयवर्त्ति 'पथ'त्ति 'प्रतीत्य' आश्रित्य 'ओरालिए'त्यादि औदारिकशरीरप्रयोगसम्पादकं यन्नाम तददारिकशरीरप्रयोगनाम तस्य कर्म्मण उदयेनौदारिकशरीरप्रयोगबन्धो भवतीति शेषः, एतानि च वीर्यसयोगसट्रव्यतादीनि पदान्यौदारिकशरीरप्रयोगनामकर्मोदयस्य विशेषणतया व्याख्येयानि, बीर्यसयोगसद्रव्यतया हेतुभूतया यो विवक्षितकर्मोदयस्तेनेत्यादिना प्रकारेण, स्वतन्त्राणि वैतान्यौदारिकशरीरप्रयोगबन्धस्य कारणानि, तत्र च पक्षे यदौदारिकशरीरप्रयोगबन्धः कस्य कर्म्मण उदयेन ? इति पृष्टे यदन्यान्यपि कारणान्यभिधीयन्ते तद्विवक्षितक मोंदयोऽभिहितान्येव सहकारिकारणान्यपेक्ष्येह कारणतयाऽवसेय इत्यस्यार्थस्य ज्ञापनार्थमिति ॥ 'ए-ि दिए'त्यादी 'एवं चेव'ति अनेनाधिकृतसूत्रस्य पूर्वसूत्रसमताभिधानेऽपि 'ओरालियसरीरप्पओगनामा ए' इत्यत्र पदे 'एगिंदियओरालि यसरीरप्पओगनामाए' इत्ययं विशेषो दृश्यः, एकेन्द्रियौदा रिकशरीरप्रयोग बन्धस्ये हाधिकृतत्वात्, एवमुत्तरत्रापि वाच्यमिति । 'देसबंधेऽवि सङ्घबंधेऽवि ेत्ति तत्र यथाऽपूपः स्नेहभृतततता पिकायां प्रक्षिप्तः प्रथमसमये
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प्रयोगबन्धः एवं तस्य भेदा:
For Parts Only
~ 241~
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३४८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
शतके उद्देशा औदारिक
बन्धः सू३४०
[३४८]
दीप अनुक्रम [४२४]
घृतादि गृह्णात्येव शेषेषु तु समयेषु गृह्णाति विसृजति च एवमयं जीवो यदा प्राकनं शरीरकं विहायान्यगृहाति तदा प्रध- व्याख्याप्रज्ञप्तिः
|| मसमये उत्पत्तिस्थानगतान शरीरप्रायोग्यपुद्गलान् गृह्णात्येवेत्ययं सर्वबन्धः, ततो द्वितीयादिषु समयेषु तान् गृहाति विसृजति अभयदेवी- चेत्येवं देशबन्धः, ततश्चैवमौदारिकस्य देशबन्धोऽप्यस्तीति सर्वबन्धोऽप्यस्तीति ॥'सर्वधं एवं समय'ति अपूपदृष्टाम्तेनैव या वृत्तिः तत्सर्ववन्धकस्यैकसमयत्वादिति, 'देसषधे इत्यादि, तत्र यदा वायुर्मनुष्यादि वैक्रिय कृत्वा विहाय च पुनरौदारिकस्य
समयमेकं सर्ववन्धं कृत्वा पुनस्तस्य देशबन्धं कुर्वनेकसमयानन्तरं वियते तदाजघन्यत एक समयं देशबन्धोऽस्य भवतीति, ॥४०॥
'उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाईसमयऊणाईति, कथं ?, यस्मादौदारिकशरीरिणां त्रीणि पल्योपमान्युत्कर्षतः स्थितिः, तेषु | च प्रथमसमये सर्वबन्धक इति समयन्यूनानि त्रीणि पल्योपमान्युत्कर्षत औदारिकशरीरिणां देशबन्धकालो भवति । एगिदियओरालिए'त्यादि, 'देसबंधे जहनेणं एक समय'ति, कथं ?, वायुरौदारिकशरीरी वैक्रियं गतः पुनरौदारिकप्रतिपत्ती सर्वबन्धको भूत्वा देशबन्धकश्चैकं समयं भूत्वा मृतः इत्येवमिति, 'उकोसेणं बावीस'मित्यादि, एकेन्द्रियाणामुत्कर्षतो द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि स्थितिस्तत्रासौ प्रथमसमये सर्ववन्धकः शेषकालं देशबन्ध इत्येवं समयोनानि द्वाविंशतिवर्षसहखाण्येकेन्द्रियाणामुत्कर्षतो देशबम्धकाल इति ॥ 'पुढविकाइए'त्यादि, 'देसबंधे जहनेणं खुदागं भवग्गहणं तिसमयमणं'ति, कथम् ।, औदारिकशरीरिणां क्षुल्लकभवग्रहणं जघन्यतो जीवितं, तच्च गाथाभिर्निरूप्यते-“दोणि
सयाई नियमा छप्पनाई पमाणओ होति । आवलियपमाणेणं खुडागभवग्गहणमेयं ॥१॥पणसहि सहस्साई पंचेव सयाई || सह य उत्तीसा । खुडागभवग्गहणा हवंति भंतोमुहवेणं ॥२॥ सत्तरस भवग्गणा खडागा हुंति आणुपाणमि । तेरस ||
RSk404
॥४०
॥
अत्र मूल-संपादने सूत्र-क्रमांके सू. ३४८ किम लिखितं तत् अहम् न जानामि!![यहाँ सूत्र ३४७ चल रहा है, प्रतमे इस सूत्र के बिचमे कोई क्रमांक नहीं बदला, पूज्यपाद सागरानंदसूरीश्वरजी संपादित 'आगममञ्जूषा' में भी यह सूत्र सळंग ही संपादित हुआ है, फिर भी यहाँ दो पृष्ठ तक सू.३४७ लिखा है और बादमे सू.३४८ लिख दिया है, जो की इस प्रत के पृष्ठ ४०७ तक चलता है, बादमे नया सूत्र क्रम ३४९ लिखा है |]
प्रयोगबन्ध: एवं तस्य भेदा:
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Page #243
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३४८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३४८]
दाचेव सयाई पंचाणउयाई अंसाणं ॥ ३॥" [ यदू आवलिकाप्रमाणेन षट्पश्चाशदधिके द्वे शते नियमात् भवतः प्रमाPणतः क्षुतिकमवग्रहणमेतत् ॥१॥पञ्चषष्टिः सहस्राणि पत्रिंशदधिकानि पश्चैव शतानि तथा च क्षुल्लकभवग्रहणानि भव
त्यन्तर्मुहुर्तेन ॥२॥ भानप्राणे सप्तदश क्षुल्लकभवग्रहणानि भवन्ति पञ्चनवत्यधिकानि त्रयोदधा शतान्यशानां (मुहूर्तो-18 दाच्यासानां)॥३॥] इहोक्तलक्षणस्य ६५५३६ मुहूर्तगतक्षुलकभवग्रहणराशेः,सहनत्रयशतसतकत्रिसप्ततिलक्षणेन ३७७३
मुहूर्तगतोच्यासराशिना भागे हते यल्लभ्यते तदेकत्रोच्छ्रासे क्षुलकभवग्रहणपरिमाणं भवति, तच सप्तदश, अवशिष्टस्तूक्तलक्षणोऽशराशिर्भवतीति, अयमभिप्रायः येषामंशानां त्रिभिः सहौ। सप्तभिश्च त्रिसप्तत्यधिकशतः पावकभषग्रहणं भवति तेषामंधानां पश्चनवत्यधिकानि त्रयोदश शतानि अष्टादशस्यापि क्षुलकभवग्रहणस्य तत्र भवन्तीति, तत्र यः पृथिवीका|यिकतिसमयेन विग्रहेणागतः स तृतीयसमये सर्वबन्धका शेपेषु देशबन्धको भूत्वा आक्षुलकभवग्रहणं मृतः, मृतश्च सन्नविग्रहेणागतो यदा तदा सर्वबन्धक एव भवतीति, एवं च येते विग्रहसमयावयस्तैरूनं चालकमित्युच्यते, 'कोसेणं बावीस'मित्यादि भावितमेवेति, 'देसबंधो जेसिं नत्थी'त्यादि, अयमर्थ:-अप्लेजोवनस्पतिद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां क्षुल्ल
कभवग्रहण त्रिसमयोनं जघन्यतो देशबन्धो यतस्तेषां वैक्रियशरीरं नास्ति, वैक्रियशरीरे हि सत्येकसमयो जघन्यत औदा|| रिकदेशबन्धा पूर्वोक्तयुक्त्या स्यादिति, 'उकोसेण जा जस्से' त्यादि तत्रापां वर्षसहस्राणि सप्तोत्कर्षतः स्थितिः, तेजसाम
होरात्राणि त्रीणि, वनस्पतीनां वर्षसहस्राणि दश, द्वीन्द्रियाणां द्वादश वर्षाणि श्रीन्द्रियाणामेकोनपश्चाशदहोरात्राणि चतुरिन्द्रियाणां पण्मासा, तत एषां सर्वबन्धसमयोना उत्कृष्टतो देशबन्धस्थितिर्भवतीति, 'जेसिं पुणे'त्यादि, ते च वायवः
दीप अनुक्रम [४२४]
प्रयोगबन्ध: एवं तस्य भेदा:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३४८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३४८]
दीप अनुक्रम [४२४]
व्याख्या- पोन्द्रियतिर्यचो मनुष्याश्च, एषां जघन्येन देशबन्ध एकं समयं, भावना च प्रागिव, 'उकोसेण'मित्यादि तत्र वायूनी है।
पून शतके ४ त्रीणि वर्षसहस्राणि उत्कर्षतः स्थितिः, पञ्चेन्द्रियतिरश्चां मनुष्याणां च पल्योपमत्रयम् , इयं च स्थितिः सर्ववन्धसमयोना
| उद्देशः९ अभयदेवी- उत्कृष्टतो देशबन्धस्थितिरेषां भवतीत्यतिदेशतो मनुष्याणां देशवन्धस्थिती लब्धायामप्यन्तिमसूत्रत्वेन साक्षादेव तेषां | या वृत्तिः
भीदारिक मकतामाह-'जाव मणुस्साणमित्यादि ॥ उक्त औदारिकशरीरप्रयोगबन्धस्य कालोऽथ तस्यैवान्तरं निरूपयन्नाह- बन्धः ॥४०१॥ 'ओरालिए'त्यादि, सर्वबन्धान्तरं जघन्यतः क्षुलकभवग्रहणं त्रिसमयोन, कथं, त्रिसमयविग्रहेणौदारिकशरीरिष्वागत- सू ३४८
|स्तत्र द्वौ समयावनाहारकस्तृतीयसमये सर्ववन्धकः क्षुल्लकभवं च स्थित्वा मृत ओदारिकशरीरिष्वेवोत्पन्नस्तत्र च प्रथम| समये सर्ववन्धकः, एवं च सर्वबन्धस्य सर्वबन्धस्य चान्तरं क्षुल्लकभवो विग्रहगतसमयत्रयोना, 'उक्कोसेण'मित्यादि, उत्कृष्टत
स्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि पूर्वकोटेः (टी च)समयाभ्यधिकानि (का)सर्वबन्धान्तरं भवतीति,कथं १, मनुष्यादिष्वविग्रहेणागत# स्तत्र च प्रथमसमय एव सर्वचम्धको भूत्वा पूर्वकोटिं च स्थित्वा वयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थिति रकः सर्वार्थसिद्धको वा भूत्वा ||
निसमयेन विग्रहेणीदारिकशरीरी संपन्नस्तत्र च विग्रहस्य द्वौ समयावनाहारकस्तृतीये च समये सर्वबन्धका, औदारिकशरीर४ास्यैव च यौ तौ द्वावनाहारसमयी तयोरेकः पूर्वकोटीसर्वबन्धसमयस्थाने क्षिप्तस्ततध पूर्णा पूर्वकोटी जाता एकच सम&योऽतिरिक्त, एवं च सर्वबन्धस्य सर्वबन्धस्य चोत्कृष्टमन्तरं यथोकमानं भवतीति । 'देसर्वधंतर'मित्यादि, देशबन्धानन्तरं जघन्येनैकं समयं, कथं १, देशबन्धको मृतः सशविग्रहेणैवोत्पन्नस्तत्र च प्रथम एव समये सर्वबन्धको द्वितीयादिषु
॥४०॥ पाच समयेषु देशबन्धकः संपन्नः, तदेवं देशबन्धस्य देशबन्धस्य चान्तरं जघन्यत एका समयः सर्वबन्धसम्बन्धीति ।
अत्र मूल-संपादने सूत्र-क्रमांके सू. ३४८ किम लिखितं तत् अहम् न जानामि!![यहाँ सूत्र ३४७ चल रहा है, प्रतमे इस सूत्र के बिचमे कोई क्रमांक नहीं बदला, पूज्यपाद सागरानंदसूरीश्वरजी संपादित 'आगममञ्जूषा' में भी यह सूत्र सळंग ही संपादित हुआ है, फिर भी यहाँ दो पृष्ठ तक सू.३४७ लिखा है और बादमे सू.३४८ लिख दिया है, जो की इस प्रत के पृष्ठ ४०७ तक चलता है, बादमे नया सूत्र क्रम ३४९ लिखा है |]
प्रयोगबन्ध: एवं तस्य भेदा:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३४८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३४८]
'उकोसेण'मित्यादि, उत्कृष्टतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि त्रिसमचाधिकानि देशबन्धस्य देशबन्धस्यान्तरं भवतीति, कथं। * देशबन्धको मृत उत्पन्नश्च त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमायुः सर्वार्थसिद्धादी, ततश्च क्युत्वा त्रिसमयेन विग्रहेणौदारिकशरीरी संपमानस्तत्र च विग्रहस्य समयद्वयेऽनाहारकस्तृतीये च समये सर्वबन्धकस्ततो देशबन्धकोऽजनि, एवं चोत्कृष्टमन्तरालं देशव
न्धस्य देशबन्धस्य च यथोकं भवतीति ॥ औदारिकबन्धस्य सामान्यतोऽन्तरमुक्तमय विशेषतस्तस्य तदाह-एगिदिए-|| * त्यादि, एकेन्द्रियस्यौदारिकसर्ववन्धान्तरं जघन्यतः क्षुल्लकभवग्रहणं त्रिसमयोनं, कथं?, त्रिसमयेन विग्रहेण पृथिव्यादिष्वागतस्तत्र च विग्रहस्य समयद्वयमनाहारकस्तृतीये च समये सर्वबन्धकस्ततः क्षुल्लक भवग्रहणं त्रिसमयोनं स्थित्वा मृतः अविग्रहेण च यदोत्पद्य सर्वबन्धक एव भवति तदा संबन्धयोर्यथोक्तमन्तरं भवतीति । 'उक्कोसेण मित्यादि, उत्कृष्टतः सर्वबन्धान्तरं द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि समयाधिकानि भवन्ति, कथम् 1, अविग्रहेण पृथिवीकायिकेप्वागतः
प्रथम एव च समये सर्वबन्धकस्ततो द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि स्थित्वा समयोनानि विग्रहगत्या त्रिसमययाऽन्येषु पृथिव्यादि४ पूत्पन्नस्तत्र व समयद्वयमनाहारको भूत्वा तृतीयसमये सर्ववन्धकः संपन्नः, अनाहारकसमययोश्चैको, द्वाविंशतिवर्षसहस्रेषु १ |समयोनेषु क्षिप्तस्तत्पूरणार्थ, ततश्च द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि समयश्चैकेन्द्रियाणां सर्वबन्धयोरुत्कृष्टमन्तरं भवतीति । 'देसबंधंतर मित्यादि तत्रैकेन्द्रियौदारिकदेशबन्धान्तरं जघन्येनैकं समय, कथं !, देशबन्धको मृतः सन्नविग्रहेण सर्वब-||
न्धको भूत्वा एकस्मिन् समये पुनर्देशबन्धक एव जातः, एवं च देशबन्धयोर्जघन्यत एका समयोऽन्तरं भवतीति, 'उक्कोIXIसेणं अंतोमहतंति, कथं ?, वायुरौदारिकशरीरस्य देशबन्धकः सन् वैक्रियं गतस्तत्र चान्तर्महर्स स्थित्वा पुनरौदारि
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औदारिकबन्ध: एवं तस्य भेदा:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३४८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
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दीप अनुक्रम [४२४]
व्याख्या- 18|| शरीरस्य सर्वबन्धको भूत्वा देशबन्धक एष जातः, एवं च देशबन्धयोरुत्कर्षतोऽन्तर्मुहर्तमन्तरमिति ॥ 'पुढविकाइए'-51 शतके प्रज्ञप्तिः
|| त्यादि, 'देसतरं जहनेण एकं समयं जक्कोसेणं तिनि समय'त्ति, कथं 1, पृथिवीकायिको देशवन्धको मृतः सन्म-II उद्देशः अभयदेवी
विग्रहगल्या पृथिवीकायिकेष्वेवोत्पन्नः एक समयं च सर्वबन्धको भूत्वा पुनर्देशबन्धको जातः एवमेकसमयो देशबन्धयो- औदारिक
जघन्येनान्तरं, तथा पृथिवीकायिको देशबन्धको मृतः सन् त्रिसमयविग्रहेण तेष्वेवोत्पन्नस्तत्र च समयदयमनाहारकः बन्धः ॥४०॥ तृतीयसमये च सर्वबन्धको भूत्वा पुनर्देशबन्धको जाता, एवं च त्रयः समया उत्कर्षतो देशवन्धयोरन्तरमिति । अथाका
|यिकादीनां बन्धान्तरमतिदेशत आह-जहा पुढविकाइयाण'मित्यादि, अत्रैव च सर्वथा समतापरिहारार्धमाह-मवरमित्यादि, एवं चातिदेशतो यालब्धं तदर्श्यते-अकायिकानां जघन्यं सर्वबन्धान्तरं क्षुल्लकभवग्रहणं त्रिसमयोन उत्कृष्ट तु | सप्त वर्षसहस्राणि समयाधिकानि, देशवधाम्तरं जघन्यमेक: समय उत्कृष्ट तु यः समयाः, एवं वायुवजोना सेजाप्रभृतीनामपि, नवरमुत्कृष्टं सर्ववन्धान्तरं स्वकीया स्वकीया स्थितिः समयाधिका वाच्या ॥ अथातिदेशे वायुकापिकव-|| जर्जानामित्यनेनातिदिष्टवन्धान्तरेभ्यो वायुबन्धान्तरस्य विलक्षणता सूचितेति वायुबन्धान्तरं भेदेनाह-वाउकाइयाण'-18 मित्यादि, तत्र च वायुकायिकानामुत्कर्षेण देशवम्धान्तरमन्तर्मुहूर्त, कथं ,वायुसैदारिकशरीरस्य देशबन्धका सन् वैक्रिय-1|| ॥४०२ बन्धमन्तमुद्रः कृत्वा पुनरौदारिकसर्ववन्धसमयानन्तरमौदारिकदेशबन्धं यदा करोति तदा यथोक्तमन्तरं भवतीति ॥ 'पंचिदियेत्यादि, तत्र सर्वबन्धान्तर जपम्य भाषितमेव उत्कृष्टं तुभाव्यते-पञ्चेन्द्रियतिर्य अविग्रहेणोत्पन्नः प्रथम एव च समये सर्ववन्धकस्ततः समयोनो पूर्वकोटि जीवित्वा विग्रहगत्या त्रिसमयया तेम्बेवोत्पमस्तत्र च द्वावनाहारकसमयौ |
अत्र मूल-संपादने सूत्र-क्रमांके सू. ३४८ किम लिखितं तत् अहम् न जानामि!!! [यहाँ सूत्र ३४७ चल रहा है, प्रतमे इस सूत्र के बिचमे कोई क्रमांक नहीं बदला, पूज्यपाद सागरानंदसूरीश्वरजी संपादित 'आगममञ्जूषा' में भी यह सूत्र सळंग ही संपादित हुआ है, फिर भी यहाँ दो पृष्ठ तक सू.३४७ लिखा है और बादमे सू.३४८ लिख दिया है, जो की इस प्रत के पृष्ठ ४०७ तक चलता है, बादमे नया सूत्र क्रम ३४९ लिखा है |]
औदारिकबन्ध: एवं तस्य भेदा:
~246
Page #247
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३४८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
30%
प्रत सूत्रांक
[३४८]
दीप अनुक्रम [४२४]
तृतीये च समये सर्वबन्धकः संपन्ना, अनाहारकसमययोश्चैकः समयोनायां पूर्वकोव्यां क्षिप्तस्तत्पूरणार्थमेकस्त्वधिक इत्येवं यथोक्तमन्तरं भवतीति, देशबन्धान्तरं तु यथैकेन्द्रियाणां, तश्चैवं-जघन्यमेका समयः, कथं 1, देशबन्धको मृतः सर्वबन्धसमयानन्तरं देशवन्धको जात इत्येवं, उत्कर्षेण त्वन्तर्मुहूर्त, कथं ?, औदारिकशरीरी देशबन्धकः सन् वैक्रिय प्रतिपन्नस्तत्रान्तर्मुहूर्त स्थित्वा पुनरौदारिकशरीरी जातस्तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धको द्वितीयादिषु तु देशबन्धक इत्येवं देशबन्धयोरन्तर्मुहूर्तमन्तरमिति, एवं मनुष्याणामपीति, एतदेवाह-जहा पंचिंदिए त्यादि । औदारिकवन्धान्तर प्रकारान्तरेणाह-'जीचे'त्यादि, एकेन्द्रियत्वे 'नोएगिदियत्तेत्ति द्वीन्द्रियत्वादी पुनरेकेन्द्रियत्वे सति यत्सर्व|| चन्धान्तरं तज्जघन्येन वे क्षुलकभवग्रहणे त्रिसमयोने, कथम् , एकेन्द्रियनिसमयया विग्रहगत्योत्पन्नस्तत्र च सम
यद्वयमनाहारको भूत्वा तृतीयसमये सर्वबन्धं कृत्वा तदूनं क्षुल्लकभषग्रहणं जीवित्वा मृत अनेकेन्द्रियेषु क्षुलकभवग्रह-IX || णमेव जीवित्वा मृतः सन्नविग्रहेण पुनरेकेन्द्रियेष्वेवोत्पद्य सर्वबन्धको जातः, एवं च सर्ववन्धयोरुक्तमन्तरं जातमिति, Pl'उकोसेणं दो सागरोषमसहस्साई संखेजवासमन्भदियाईति, कथम् ?, अविग्रहेणैकेन्द्रियः समुत्पन्नस्तत्र च प्रथ
मसमये सर्वबन्धको भूत्वा द्वाविंशतिं वर्षसहस्राणि जीवित्वा मृतस्त्रसकायिकेषु पोत्पन्नः, तत्र च सङ्ख्यातवर्षाम्यधिकसा#गरोपमसहस्रबयरूपामुत्कृष्टत्रसकायिककायस्थितिमतिबाह्य एकेन्द्रियेष्वेवोत्पच सर्वबन्धको जात इत्येवं सर्वबन्धयोका यथोक्तमन्तरं भवति, सर्वबन्धसमयहीनएकेन्द्रियोत्कृष्टभवस्थितेस्त्रसकायस्थितौ प्रक्षेपणेऽपि सङ्ख्यातस्थानानां सङ्ख्यातभे४ा दत्वेन समयातवर्षाभ्यधिकत्वस्याव्याहतत्वादिति । 'देसबंधतरं जहन्नेणं खुड्डागं भवग्गहणं समयाहियंति, कथम् !,
% AESA
औदारिकबन्ध: एवं तस्य भेदा:
~2474
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३४८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
REC
प्रत सूत्रांक [३४८]
E
व्याख्या-सा एकेन्द्रियो देशबन्धकः सन् मृत्वा द्वीन्द्रियादिषु क्षुल्लकभवग्रहणमनुभूयाविग्रहेण चागत्य प्रथमसमये सर्वबन्धको भूत्वा शतके
उद्देशः प्रज्ञप्तिः द्वितीये देशबन्धको भवति, एवं च देशबन्धान्तरं क्षुल्लकभवः सर्ववन्धसमयातिरिक्तः, 'उकोसेण'मित्यादि सर्वबन्धास्तर
औदारिक वाट भावनोक्तप्रकारेण भावनीयमिति ॥ अथ पृथिवीकायिकबन्धान्तरं चिन्तयन्नाह-'जीवस्से'त्यादि, 'एवं चेव'त्ति करया वृत्ति
बन्धः Ill णात् 'तिसमयऊणाईति दृश्यम् , 'उकोसेणं अणतं कालं'ति, इह कालानन्तवं वनस्पतिकायस्थितिकालापेक्षयाऽ
सू३४४ ॥४०॥ | || नन्तकालमित्युक्तं तद्विभजनार्थमाह-'अणंताओ'इत्यादि, अयमभिप्रायः तस्यानन्तस्य कालस्य समयेषु अवसर्पिण्यु
सर्पिणीसमयैरपहियमाणेष्वनन्ता अवसर्पिण्युत्सर्पिण्यो भवन्तीति, 'कालओ'त्ति इद कालापेक्षया मानं, 'खेत्तओत्ति क्षेत्रापेक्षया पुनरिदम्-'अणता लोग'त्ति, अयमर्थः-तस्यानन्तकालस्य समयेषु लोकाकाशप्रदेशैरपहियमाणेष्वनन्ता लोका भवन्ति, अथ तत्र कियन्तः पुद्गलपरावर्त्ता भवन्ति । इत्यत आह–'असंखेज्जेत्यादि, पुद्गलपरावर्तलक्षणं सामान्येन पुनरिद-दशभिः कोटीकोटीभिरद्धापल्योपमानामेकं सागरोपमं दशभिः सागरोपमकोटीकोटीभिरवसर्पिणी, उत्सपिण्यप्येवमेव, ता अवसर्पिण्युत्सर्पिण्योऽनन्ताः पुद्गलपरावर्तः, एतद्विशेषलक्षणं तु इहैव पक्ष्यतीति, पुद्गलपरावानामेवासयातत्वनियमनायाह-'आवलिए'ल्यादि, असङ्ख्यातसमयसमुदायश्चावलिकेति'। 'देसर्वधंतरं जहन्नेण'मित्यादि, भावना त्वेव-पृथिवीकायिको देशबन्धकः सन्मृतः पृथिवीकायिकेषु क्षुल्लकभवग्रहणं जीवित्वा मृतः सन् पुनरवि- ४०३|| ग्रहेण पृथिवीकायिकेष्वेवोत्पन्नः, तत्र च सर्वबन्धसमयानन्तरं देशबन्धको जातः, एवं च सर्वबन्धसमयेनाधिकमेकं क्षुल्ल-18 कभवग्रहणं देशवन्धयोरन्तरमिति । 'वणस्सइकाइयाणं दोनि खुड्डाईति बनस्पतिकायिकानां जघन्यतः सर्वबन्धा
दीप अनुक्रम [४२४]
NESS
7%24
अत्र मूल-संपादने सूत्र-क्रमांके सू. ३४८ किम लिखितं तत् अहम् न जानामि!!! [यहाँ सूत्र ३४७ चल रहा है, प्रतमे इस सूत्र के बिचमे कोई क्रमांक नहीं बदला, पूज्यपाद सागरानंदसूरीश्वरजी संपादित 'आगममञ्जूषा' में भी यह सूत्र सळंग ही संपादित हुआ है, फिर भी यहाँ दो पृष्ठ तक सू.३४७ लिखा है और बादमे सू.३४८ लिख दिया है, जो की इस प्रत के पृष्ठ ४०७ तक चलता है, बादमे नया सूत्र क्रम ३४९ लिखा है |]
औदारिकबन्ध: एवं तस्य भेदा:
~248~
Page #249
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३४८]
दीप अनुक्रम [४२४]
|न्तरं दे चलके भवग्रहणे 'एवं चेव'त्तिकरणाश्रिसमयोने इति दृश्यम् , एतद्भावना च वनस्पतिकायिकस्त्रिसमयेन विनहेणोत्पन्नः तत्र च विग्रहस्य समयदयमनाहारकस्तृतीये समये च सर्वबन्धको भूत्वा क्षुल्लकभवं च जीवित्वा पुनः पृथि-II व्यादिषु क्षुल्लकभवमेव स्थित्वा पुनरविग्रहेण वनस्पतिकायिकेष्वेवोत्पन्नः प्रथमसमये च सर्वबन्धकोऽसाविति सर्वबन्धयोखिसमयोने द्वे क्षुलकभवग्रहणे अन्तरं भवत इति । 'उकोसेण'मित्यादि, अयं च पृथिव्यादिषु कायस्थितिकाला एवं देसबंधंतरंपि'त्ति यथा पृथिव्यादीनां देशचन्धान्तरं जघन्यमेवं वनस्पतेरपि, तच्च क्षुल्लकभवग्रहणं समयाधिक, भावना चास्य पूर्ववत्, 'उकोसेणं पुढविकालो'त्ति उत्कर्षेण वनस्पतेर्देशबन्धान्तरे 'पृथिवीकाल' पृथिवीकायस्थितिकालोसङ्ख्यातावसर्पिण्युत्सपिण्यादिरूप इति ॥ अथौदारिकदेशवन्धकादीनामल्पत्वादिनिरूपणायाह-एएसी'त्यादि, तत्र
सर्वस्तोकाः सर्ववन्धकास्तेषामुत्पत्तिसमय एव भावात् , अबन्धका विशेषाधिकाः, यतो विग्रहगती सिद्धत्वादौ च ते भवसन्ति, ते च सर्ववन्धकापेक्षया विशेषाधिकाः, देशबन्धका असङ्ख्यातगुणाः, देशबन्धकालस्थासङ्ख्यातगुणत्वात्, एतस्य च ४ सूत्रस्य भावनां विशेषतोऽये वक्ष्याम इति ॥ अथ वैक्रियशरीरप्रयोगबन्धनिरूपणायाह& वेबियसरीरप्पयोगधंधे भंते ! कतिविहे पन्नत्ते, गोयमा ! दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-एगिदियवेवियस-1 शरीरप्पयोगबंधे य पंचिंदियवेवियसरीरप्पयोगबंधे य । जइ पगिदियवेउवियसरीरप्पयोगबंधे किं वाउक्काइय
एगिदियसरीरप्पयोगबंधे य अवाउकाइयएगिदिय० एवं एएणं अभिलावणं जहा ओगाहणसंठाणे वेउविय-* & सरीरभेदो तहा भाणियबो जाच पज्जत्तसबढसिद्धअणुत्तरोववाइयकप्पातीयवेमाणियदेवपंचिंदिपवेषिय
ॐॐॐॐ4564545525%
औदारिकबन्ध: एवं तस्य भेदा:, वैक्रिय-प्रयोगबन्ध: एवं तस्य भेदा:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३४९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३४९]
व्याख्या
सरीरप्पयोगबंधे य अपनत्तसपट्टसिहअणुत्तरोववाइय जाब पयोगधंधे य । वेउपियसरीरप्पयोगबंधे थे भंते l प्रज्ञप्तिः कस्स कम्मस्स उदएणं ?, गोयमा । बीरियसजोगसहषयाए जाव आउयं वा लड़ि वा पडच वेउवियसरीर- उद्देशार अभयदेवी-प्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं वेउवियसरीरप्पयोगधंधे । वाउकाइयएगिदियवउवियसरीरप्पयोग पुच्छा, विक्रियादि. या वृत्तिः Mगोयमावीरियसजोगसव्वयाए चेव जाव लडिंच पडच वाउक्काइयएगिदियवेउधिय जाय बंधो। रयणप्पभापुढ
बन्धः
सू३४९ विनेरइयपंचिंदियवेउवियसरीरप्पयोगबंधे गंभंते!कस्स कम्मस्स उदएणं?,गोयमा बीरिपसयोगसहवयाए जाव ॥४०४॥
आउयं वा पडुन रयणप्पभापुढवि०जाव बंधे, एवं जाव अहेससमाए । तिरिक्खजोणियपंचिंदियवेउबियसरी| रपुच्छा, गोषमा 1 पीरिय० जहा बाउकाइयाणं, मणुस्सपंचिंदियवेउबिया एवं,चेव, असुरकुमारभवणवा-|| सिदेवपंचिंदियवेउधियः जहा रयणप्पभापुढविनेरइया एवं जाव थणियकुमारा, एवं वाणमंतरा एवं जोइसिया एवं सोहम्मकप्पोवगया वेमाणिया एवं जाव अचुयगेवेजकप्पातीया वेमाणिया, एवं चेव अणुसरो- 8 धवाइयकप्पातीया वेमाणिया एवं चेष । वेउपियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते । किं देसवंधे सवपंधे ?, गोयमा देसबंधेवि सवर्षधेवि, वाउकाइयएगिदिय एवं चेव रयणप्पभापुढविनेरइया एवं चेव, एवं जाव अणुसरोव
वाइया । वेउवियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कालओ केवचिरं होर?, गोयमा ! सवर्षधे जहलेणं एवं समय | ॥४ा &ाउकोसेणं दो समया, देसर्वधे जहनेणं एक समयं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई समयूणाई ॥ चाउकाइए-14 Pागिदियवेउवियपुच्छा, गोयमा ! सपबंधे एकं समयं देसवंधे जहन्नेणं एकं समयं उकोसेणं अंतोमुहुर्त ॥ रय-12
दीप अनुक्रम [४२५]
वैक्रिय-प्रयोगबन्ध: एवं तस्य भेदा:
~250
Page #251
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३४९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३४९]
शणप्पभापुढविनेरइय पुच्छा, गोयमा ! सवबंधे एक समयं देसवंधे जहन्नेणं दसवाससहस्साई तिसमयऊणाई
उकोसेणं सागरोवमं समजणं, एवं जाव अहेसत्तमा, नवरं देसवंधे जस्स जा जहनिया ठिती सा समजणा कायबा जस्स जाव उकोसा सा समयूणा ॥ पंचिंदियतिरिक्खजोणियाण मणुस्साण य जहा वाउचाइयाणं। असुरकुमारनागकुमार० जाव अणुत्तरोववाइयाणं जहा नेरइयाणं नवरं जस्स जा ठिई सा भाणियचा जाव अणुत्तरोववाइयाणं सपबंधे एक समयं देसवंधे जहन्नेणं एकतीस सागरोवमाई तिसमऊणाई जक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई समऊणाई ॥ वेउधियसरीरप्पयोगधंतरे णं भंते ! कालओ केवञ्चिरं होई, गोयमा!
सषधंतरं जहनेणं एक समयं उक्कोसेणं अणतं कालं अर्णताओ जाव आवलियाए असंखेजहभागो, एवं देस| बंधंतरंपि ॥ वाउकाइयषेउवियसरीरपुच्छा, गोयमा ! सवचंधंतरं जहनेणं अंतोमुटुत्तं उक्कोसेणं पलिओवमस्स | असंखेज्जाभार्ग, एवं देसर्वधंतरंपि ॥ तिरिक्खजोणियपंचिंदियवेउधियसरीरप्पयोगपंचतरं पुच्छा, गोयमा । सवबंधतरं जहन्नेणं अंतोमहतं उकोसेणं पुषकोहीपुरतं, एवं देसर्वधंतरंपि, मणूसस्सवि ॥ जीवस्स णं भंते ! वाउकाइयत्ते नोवाउकाइयत्से पुणरवि वाउकाइयत्ते वाउकाइयएगिदिय० वेउवियपुच्छा, गोयमा ! सब
धंतरं जहन्नेणं अंतोमुहुर्त उक्कोसेणं अणतं कालं वणस्सइकालो, एवं देसबंधंतरंपि ॥ जीवस्स णं भंते ! रयठाणप्पभापुढविनेरइयत्ते णोरपणप्पभापुढवि० पुच्छा, गोयमा ! सवधतरं जहनेणं दस वाससहस्साई अंतो-18
मुत्तमम्भहियाई उकोसेणं वणस्सइकालो, देसर्वधंतरं जहन्नेणं अंतोमुहसं उक्कोसेणं अणतं कालं वणस्सइ
X +XX-XX 43, 45x4
CARCISESASACARE
दीप अनुक्रम [४२५]
वैक्रिय-प्रयोगबन्ध: एवं तस्य भेदा:
~251
Page #252
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३४९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३४९]
दीप अनुक्रम [४२५]
व्याख्या- कालो, एवं जाव अहेसत्तमाए, नवरं जा जस्स ठिती जहन्निया सा सवर्वधंतरं जहनेणं अंतोमुत्तमन्भ- दशतके प्रज्ञप्तिः हिया कायवा, सेसं तं चेच, पंचिंदियतिरिक्खजोणियमणुस्साण य जहा वाउकाइयाणं । असुरकुमारनागकुमार उद्देशः अभयदेवी-४ सजाव सहस्सारदेवाणं एएसिं जहा रयणप्पभापुढविनेरल्याणं नवरं सघर्षधंतरे जस्स जा ठिती जहनिया सा
वैक्रियादिबा वृत्तिःला अंतोमुटुत्तमम्भहिया कापवा, सेसं तं चेव ॥ जीवस्स णं भंते! आणयदेवते नोआणयपुच्छा, गोयमा
बन्धः
सू३४९ ॥४०५॥
सवबंधतरं जहनेणं अट्ठारस सागरोवमाई वासपुटुत्तमम्भहियाई उकोसेणं अणतं कालं वणस्सइकालो, देस-18 बंधंतरं जहनेणं वासपुहुत्तं उक्कोसेणं अणतं कालं वणस्सइकालो, एवं जाव अचुए नवरं जस्स जा.ठिती सा है सर्वधंतरं जह० बासपुत्समन्भहिया कायवा सेसं तं चेव। गेवेजकप्पातीयपुच्छा, गोयमा! सबंधतरं जह-2 नेणं बावीसं सागरोवमाई वासपुहुत्तमभहियाई उक्कोसेर्ण अणतं कालं वणस्सइकालो, देसबंधंतरं जहन्नेणं |वासपहसं उकोसेणं वणस्सहकालो ॥ जीवस्स णं भंते ! अणुत्तरोववातियपुच्छा, गोयमा । सवधतरं जहलानेणं एकतीसं सागरोवमाई वासपुहत्तमभहियाई उकोसेणं संखेजाई सागरोवमाई, देसपंधतर जहनेणं || 2
वासपुरतं उक्कोसेणं संखेज्जाइं सागरोवमाइं॥ एएसिणं भंते ! जीवाणं वेचियसरीरस्स देसबंधगाणं सवर्ष-14 धगाणं अवंधगाण य कयरेशहितो जाब विसेसाहिया वा?, गोयमा ! सबथोवा जीवा वेषियसरीरस्स सव- ४०५॥
बंधगा देसबंधगा असंखेजगुणा अबंधगा अर्णतगुणा | आहारगसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कतिविहे| K पण्णत्ते ?, गोयमा ! एगागारे पण्णत्ते।जइ एगागारे पपणत्ते किंमणुस्साहारगसरीरप्पयोगधंधे किं अमणुस्साहा
वैक्रिय-प्रयोगबन्ध: एवं तस्य भेदा:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३४९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
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[३४९]
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| रंगसरीरप्पयोगधे, गोयमा ! मणुस्साहारगसरीरप्पयोगवंधे नो अमणुस्साहारगसरीरप्पयोगधंधे, एवं
एएणं अभिलावणं जहा ओगाहणसंठाणे जाव इहिपत्तपमत्तसंजयसम्मदिद्विपक्षप्तसंखेजवासाउयकम्मभूदिमिगगन्भवतियमणुस्साहारगसरीरप्पयोगबंधे णो अणिहिपत्तपमत्त जाव आहारगसरीरप्पयोगधंधे । आहा-18
रगसरीरप्पयोगबंधे गं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं ?, गोयमा! पीरियसयोगसव्वयाए जाव लद्धिं पहुच आहारगसरीरप्पयोगणामाए कम्मरस उदएणं आहारगसरीरप्पयोगधंधे । आहारगसरीरप्पयोगबंधे णं भंते! किं देसर्वधे सर्वधे; गोयमा ! देसबंधेवि सपबंधेवि । आहारगसरीरप्पयोगधंघे भंते । कालो केवचिरं|| होइ ?, गोयमा ! सवबंधे एक समयं देसबंधे जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उकोसणवि अंतोमुहतं ॥ आहारगसरीर
प्पयोगबंधतरे णं भंते ! कालओ केवचिरं होइ ?, गोयमा। सबबंधतरं जहन्नेणं अंतोमुहसं उकोसेणं अणतं । * कालं अर्णताओ ओसप्पिणिउस्सप्पिणीओ कालओ खेत्राओ अर्णता लोया अवहुपोग्गलपरियह देसूर्ण, एवं
देसबंधंतरंपि ।। एएसि णं भंते ! जीवाणं आहारगसरीरस्स देसबंधगाणं सबबंधगाण अपंधगाण य कयरे ४२ जाब विसेसाहिया वा?, गोयमा ! सबत्योवा जीचा आहारगसरीरस्स सबबंधगा देसवंधगा संखेवगुणा
अवंधगा अर्णतगुणा ३॥ (सूत्र ३४९)॥ Kil तत्र 'एगिदियवेउविए'त्यादि वायुकायिकापेक्षमुक्तं, 'पंचिंदिए'त्यादि तु पञ्चेन्द्रियतिर्यअनुष्यदेवनारकापेक्ष
मिति । 'वीरिये त्यादौ यावरकरणात् 'पमायपचया कम्मं च जोगं च भवं चेति द्रष्टव्यं 'लद्धिं वत्ति बैंक्रिय
दीप अनुक्रम [४२५]
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आहारक-प्रयोगबन्ध: एवं तस्य भेदा:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३४९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३४९]
दीप अनुक्रम [४२५]
करणलब्धि वा प्रतीत्य, एतच्च वायुपश्वेन्द्रियतिर्यानुष्यानपेक्ष्योक्तं, तेन वायुकायादिसूत्रेषु लन्धि वैक्रियशरीर- शतके प्रज्ञप्ति
॥ ग्धस्य प्रत्ययतया वक्ष्यति, नारकदेवसूत्रेषु पुनस्तां विहाय वीर्यसयोगसद्रव्यतादीन् प्रत्ययतया वक्ष्यतीति । 'सवर्षधे उद्देशा अभयदेवी- जहनेणं एक समय'ति, कथं १, वैक्रियशरीरिघूत्पद्यमानो लब्धितो वा तत् कुर्वन् समयमेकं सर्वबन्धको भवतीत्येवमेका क्रियादि
समयं सर्वबन्ध इति, 'उकोसेणं दो समय'त्ति, कथं !, औदारिकशरीरी वैक्रियतां प्रतिपद्यमानः सर्ववन्धको भूत्वा मृतः बन्धः ॥४०६॥
पुनर्नारकत्वं देवत्वं वा यदा प्रामोति तदा प्रथमसमये वैक्रियस्य सर्वबन्धक एवेतिकृत्वा वैक्रियशरीरस्य सर्वबन्धक उत्कृष्टतः 8|| समयद्वयमिति, 'देसबंधे जहन्नेणं एक समय'ति, कथं ?, औदारिकशरीरी वैक्रियतां प्रतिपद्यमानः प्रथमसमये सर्वबन्धको भवति द्वितीयसमये देशबन्धको भूत्वा मृत इत्येवं देशबन्धो जघन्यत एक समयमिति, 'उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई समयऊणाई ति, कथं ?, देवेषु नारकेषु चोत्कृष्टस्थितिषूत्पद्यमानःप्रथमसमये सर्वबन्धको वैक्रियशरीरस्य ततः परं देशबन्ध-18 |कस्तेन सर्वबन्धकसमयेनोनानि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्युत्कर्षतो देशबन्ध इति ॥'चाउकाइए'त्यादि, 'देसबंधे जहन्नेणं एक || समयंति, कथा, वायुरौदारिकशरीरी सन् बैंक्रियं गतस्ततः प्रथमसमये सर्वबन्धको द्वितीयसमये देशबन्धको भूत्वा मृत इत्येवं| 18 जघन्येनैको देशबन्धसमयः "उकोसेणे अंतोमुहुति वैक्रियशरीरेण स एव यदाऽन्तर्मुहुर्तमात्रमास्ते तदोत्कर्षतो देशबन्धो टून्तर्मुहूर्त, लन्धिवैक्रियशरीरिणो जीवतोऽन्तर्मुहुर्तात्परतो न वैक्रियशरीरावस्थानमस्ति, पुनरौदारिकशरीरस्यावश्यं प्रतिपत्ते
रिति ॥रयणप्पभे'त्यादि, 'देसबंधे जहनेणं बस वाससहस्साई ति समयऊणाई"ति, क, त्रिसमयविग्रहेण रक्षण- ४०६॥ भायां जघन्यस्थिति रकः समुत्पन्नः तत्र च समयद्वयमनाहारकस्तृतीये च समये सर्वबन्धकस्ततो देशबन्धको वैक्रियस्य ।
औदारिकआदि शरीर-प्रयोगबन्धस्य व्याख्या:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३४९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३४९]
तदेवमाद्यसमपत्रयम्यून वर्षसहस्रदशक जपन्यतो देशबन्धा, 'उकोसेणं सागरोवमं समयऊणं'ति, कथं !, अविग्रहेण रत्नप्रभायामुत्कृष्टस्थिति रकः समुत्पन्नः, तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धको वैक्रियशरीरस्य ततः परं देशबन्धकस्तेन सर्वबन्धसमयेनोनं सागरोपममुत्कर्षतो देशबन्ध इति, एवं सर्वत्र सर्वबन्धः समयं देशबन्धश्च जघन्यो विग्रहसमयत्रयन्यूनो | निज़निजजघन्यस्थितिप्रमाणो वाच्यः, सर्वबन्धसमयन्यूनोत्कृष्टस्थितिप्रमाणश्चोत्कृष्टदेशबन्ध इति, एतदेवाह एवं जावेत्यादि, पञ्चेन्द्रियतिर्यमनुष्याणां वैक्रियसर्वबन्ध एक समय देशबन्धस्तु जघन्यत पकं समयमुत्कर्षेण स्वन्तर्मुहूर्तम् । एतदे-12 वातिदेशेनाह-पंचिंदिये'त्यादि, यच "अंतमुहुत्तं निरएसु होइ चत्तारि तिरियमणुपमा देवेसु अद्धमासो उक्कोस विउवणा-15 कालो ॥१॥"[ नरकेष्वन्तर्मुहर्स भवति तिर्यमनुष्येषु चत्वारि देवेष्वर्द्धमासः उत्कृष्टो विकुर्वणाकालः॥१॥] इति
वचनसामर्थ्यादन्तर्तचतुष्टयं तेषां देशबन्ध इत्युच्यते तन्मतान्तरमित्यवसेयमिति ॥ तो वैक्रियशरीरप्रयोगवन्धस्य 18|| काला, अथ तस्यैवान्तरं निरूपयन्नाह-वेउवियेत्यादि, 'सतबंधंतरं जहनेणं एक समयंति. कथ1. औदारिकश-18
रीरी वैक्रियं गतः प्रथमसमये सर्वबन्धको द्वितीये देशबन्धको भूत्वा मृतो देवेषु नारकेषु वा वैक्रियशरीरिष्वविग्रहेणोत्पद्यमानः प्रथमसमये सर्वबन्धक इत्येवमेकः समयः सर्वबन्धान्तरमिति, 'उकोसेणं अणतं कालं'ति, कथं !, औदारिकशरीरी वैक्रियं गतो वैक्रियशरीरिषु वा देवादिषु समुत्पन्नः स च प्रथमसमये सर्वबन्धको भूत्वा देशवन्धं च कृत्वा 8 मृतः ततः परमनन्तं कालमौदारिकशरीरिषु बनस्पत्यादिषु स्थित्वा वैक्रियशरीरवत्सूत्पन्ना, तत्र च प्रथमसमये सर्ववन्धको जातः, एवं च सर्वबन्धयोर्यथोक्तमन्तरं भवतीति, [अन्थानम् ९०००] 'एवं देसबंधंतरंपि'त्ति, जघन्येनेकै समयमु
NAGGCCESCRACT
दीप अनुक्रम [४२५]
औदारिकआदि शरीर-प्रयोगबन्धस्य व्याख्या:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३४९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
%A4%
उद्देशः९
प्रत सूत्रांक [३४९]
व्याख्या- स्कृष्टतोऽनन्तं कालमित्यर्थः, भावना चास्य पूर्वोक्तानुसारेणेति ॥ 'बाउकाइए'त्यादि 'सर्वधंतरं जहन्नेणं अंतोमुह- शतके
प्रज्ञप्तिः ||'ति, कथं १, वायुरीदारिकशरीरी वैक्रियमापन्नः, तत्र च प्रथमसमये सर्ववन्धको भूत्वा मृतः पुनर्वायुरेव जातः, तस्य || अभयदेवी- चापर्याप्तकस्य वैक्रियशक्ति विर्भवतीत्यन्तर्मुहूर्त्तमात्रेणासौ पर्याप्तको भूत्वा वैक्रियशरीरमारभते, तत्र चासौ प्रथमसमये ४
| वैक्रियादिया वृत्तिः
बन्ध: | सर्वबन्धको जात इत्येवं सर्वबन्धान्तरमन्तर्मुहूर्त्तमिति, 'उकोसेणं पलिओवमस्स असंखेजहभागं"ति, कथं ?, वायुरौ-12
सू ३४९ ॥४०७॥
दारिकशरीरी वैफियं गतः, तत्प्रथमसमये च सर्वबन्धकस्ततो देशबन्धको भूत्वा मृतस्ततः परमौदारिकशरीरिषु वायुषु पल्यो-15
पमासङ्ख्येयभागमतिवाद्यावश्यं वैक्रियं करोति, तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धकः, एवं च सर्वबन्धयोर्यथोक्तमन्तरं भवतीति, का एवं देसर्वधंतरंपिपत्ति, अस्य भावना प्रागिवेति । 'तिरिक्खें'त्यादि, 'सबबंधंतरं जहणं अंतोमुहतं'ति, कथं ,*
पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिको बैक्रियं गतः तन्त्र च प्रथमसमये सर्वबन्धकस्ततः परं देशबन्धकोऽन्तर्मुहर्तमानं तत औदारिकस्य सर्वबन्धको भूत्वा समयं देशवन्धको जातः पुनरपि श्रद्धेयमुत्पन्ना वैक्रिय करोमीति पुनक्रिय कुर्वतः प्रथमसमये | सर्वबन्धः, एवं च सर्ववन्धयोर्यथोक्तमन्तरं भवतीति, 'उक्कोसेणं पुत्वकोडिपुहुत्त'ति, कथं ।, पूर्वकोव्यायुः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिको वैक्रियं गतः, तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धकस्ततो देशबन्धको भूत्वा कालान्तरे मृतस्तत्र पूर्वकोव्यायुः पथे-1|3| |न्द्रियतिर्यवेवोत्पन्नः पूर्वजन्मना सह सप्ताष्टौ चा वारान , ततः सप्तमेऽष्टमे वा भवे वैक्रियं गतः, तत्र च प्रथमसमये
॥४०७॥ सर्ववन्धं कृत्वा देशबन्धं करोतीति, एवं च सर्वबन्धयोरुत्कृष्टं यथोक्तमन्तरं भवतीति, 'एवं देसवंर्धतरपित्ति, भावना चास्य सर्वबन्धान्तरोक्तभावनानुसारेण कर्त्तव्येति ॥ वैक्रियशरीरबन्धान्तरमेव प्रकारान्तरेण चिन्तयन्नाह-'जीवस्से- का
CHES
दीप अनुक्रम [४२५]
AR
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३४९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३४९]
दीप अनुक्रम [४२५]
| त्यादि, 'सत्वबंधतरं जहन्नेणं अंतोमुहत्त'ति, कथं ?, वायुक्रियशरीरं प्रतिपक्षः, तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धको भूत्वा |४||
मृतस्ततः पृथिवीकायिकेषूत्पन्नः तत्रापि क्षुल्लकभवग्रहणमात्रं स्थित्वा पुनर्वायुर्जातः, तत्रापि कतिपयान् क्षुल्लकभवान् । स्थित्वा वैक्रियं गतः, तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धको जातस्ततश्च वैक्रियस्य सर्वबन्धयोरन्तरं बहवः क्षुल्लकभवास्ते च | ४ बहवोऽप्यन्तर्मुहूर्त, अन्तर्मुहूर्चे बहूनां क्षुलकभवानां प्रतिपादितत्वात् , ततश्च सर्वबन्धान्तरं यथोकं भवतीति, 'उको-18
सेणं अणंतं कालं वणस्सइकालो'त्ति, कथं ?, वायुक्रियशरीरीभवन मृतो वनस्पत्यादिष्वनन्त कालं स्थित्वा वैक्रियशरीरं पुनर्यदा लप्स्यते तदा यथोक्तमन्तरं भविष्यतीति, 'एवं देसबंधंतरपित्ति, भावना चास्य प्रागुक्तानुसारेणेति ॥
रत्नप्रभासूत्रे 'सबधतर'मित्यादि, एतद्भाव्यते-रसप्रभानारको दशवर्षसहस्रस्थितिक उत्पत्ती सर्वबन्धकः तत उद्धृतस्तु || है गर्भजपचेन्द्रियेष्वन्तर्मुहूर्त स्थित्वा रत्नप्रभायां पुनरप्युत्पन्नः तत्र च प्रथमसमये सर्ववन्धक इत्येवं सूत्रोकं जघन्यमन्तरं
सर्ववन्धयोरिति, अयं च यदाऽपि प्रथमोत्पत्ती त्रिसमयविग्रहेणोत्पद्यते तदापि न दश वर्षसहस्राणि त्रिसमयन्यूनानि भवन्ति, | अन्तर्मुहूर्तस्य मध्यात्समयत्रयस्य तत्र प्रक्षेपात्, न च तत्प्रक्षेपेऽप्यन्तर्मुहूर्तस्यान्तर्मुहूर्तत्वव्याघातस्तस्यानेकभेदत्वादिति, 'उकोसेणं वणस्सइकालो त्ति, कथं ?, रसप्रभानारक उत्पत्तौ सर्ववन्धकः तत उद्धृतश्चानन्तं कार्ल वनस्पत्यादिषु स्थित्वा पुनस्तत्रैवोत्पद्यमानः सर्वबन्धक इत्येवमुत्कृष्टमन्तरमिति, 'देसबंधंतरं जहन्नेणं अंतोमुटुत्तंति, कथं !, रत्नप्रभानारको देशबन्धकः सन् मृतोऽन्तर्मुहर्तायुः पञ्चेन्द्रियतियेक्तयोत्पद्य मृत्वा रत्नप्रभानारकतयोरपना, तत्र च द्वितीयसमये देश-31 बन्धक इत्येवं जघन्य देशबन्धान्तरमिति, 'पक्कोसेण मित्यादि, भावना प्रागुक्तानुसारेणेति । शर्कराप्रभादिनारकाणांपला
MARRASTAR
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[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३४९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
क्रियादि
प्रत सूत्रांक [३४९]
दीप अनुक्रम [४२५]
व्याख्या 13 वैक्रियशरीरवन्धान्तरमतिदेशतः सङ्केपार्धमाह-एवं जावे'त्यादि, द्वितीयादिपृथिवीधु च जघन्या स्थितिः क्रमेण शतक प्रज्ञप्ति
त्रीणि सप्त दश सप्तदश द्वाविंशतिश्च सागरोपमाणीति । 'पचिदिए'त्यादौ 'जहा वाउकाइयाण'ति जघन्येनान्तर्मु- गद्देशः९ अभयदेवी
तमुत्कृष्टतः पुनरनन्तं कालमित्यर्थः । असुरकुमारदयस्तु सहस्रारान्ता देवा उत्पत्तिसमये सर्ववन्धं कृत्वा स्वकीयां । |जघन्यस्थितिमनुपास्य पञ्चेन्द्रियतिर्यक्षु जघन्येनान्तर्मुहर्तायुष्कत्वेन समुत्पद्य मृत्वा च तेष्वेव सर्ववन्धका जाता, पा
बन्धः ॥४०॥ दाच तेषां वैक्रियस्य जघन्य सर्वबम्धान्तरं जघन्या तस्थितिरन्तर्मुहाधिका वक्तव्या, उत्कृष्ट स्वनन्तं काले, यथा रकम-HI
सू३४९ भानारकाणामिति, एतदर्शनायाह-'अमरकुमारे त्यादि, तत्र जघन्या स्थितिरसुरकुमारादीनां व्यन्तराणां च दश वर्षसहस्राणि ज्योतिष्काणां पस्योपमाष्टभागः सौधर्मादिषु तु “पलियमहियं दो सार साहिया सत्तदस य चोइस 431 सतरस य इत्यादि ॥ आनतसूत्रे 'सबबंधंतर'मित्यादि, एतस्य भावना आनतकल्पीयो देव उत्पत्ती सर्वयम्धका, सारा चाष्टादशसागरोपमाणि तत्र स्थित्वा ततश्युतो वर्षपृथक्त्वं मनुष्येषु स्थित्वा पुनस्तत्रैवोत्पन्न: प्रथमसमये चासौ सर्व
बन्धक इत्येवं सर्ववन्धान्तरं जघन्यमष्टादश सागरोपमाणि वर्षपृथक्त्वाधिकानीति, उत्कृष्ट खनन्तं कालं, कर्थ, स एवं द| तस्माच्युतोऽनन्त कालं वनस्पत्यादिषु स्थित्वा पुनस्तत्रैवोत्पन्न प्रथमसमये चासौ सर्वबन्धक इत्येवमिति, 'दसबंधतर
जहन्नेणं वासपुटुसं'ति, कथं, स एव देशबन्धकः संश्युतो वर्षपृथक्त्वं मनुष्यत्वमनुभूय पुनस्तत्रैव गतस्तस्य च स-1 वन्धानम्तरं देशबन्ध इत्येवं सूत्रोक्तमन्तरं भवति, इहच यद्यपि सर्वबन्धसमयाधिक वर्षपृथक्त्वं भवति तथाऽपि तस्य वर्ष-15 थक्त्वादनन्तरत्वविवक्षया न भेदेन गणनमिति । एवं प्राणतारणाच्युतमेवेयकसूत्राण्यपि शेयानि । अथ सनत्कुमारा-15)
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[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३४९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
%
[३४९]
%
दीप अनुक्रम [४२५]
| दिसहस्रारान्ता देवा जपन्यत्तो नवदिनायुष्केभ्यः आनताद्यच्युतान्तास्तु नघमासायुष्केभ्यः समुत्पद्यन्त इति जीवसमासे-11 ऽभिधीयते, ततश्च जघन्यं तत्सर्वबन्धान्तरं तत्तदधिकतज्जघन्यस्थितिरूपं प्रामोतीति, सत्यमेतत. केवल मतान्तरमेवे-IXI दमिति ।। अनुत्तरविमानसूत्रेतु 'उकोसेण'मित्यादि, उत्कृष्टं सर्वबन्धान्तरं देशवम्धान्तरं च समासानि सागरोपमाणि, यतो नानन्तकालमनुत्तरविमानच्युतः संसरति, तानि च जीवसमासमतेन द्विसमानीति ॥ अथ वैक्रिय शरीरदेशबन्ध-1 कादीनामल्पत्वादिनिरूपणायाह-एएसी'त्यादि, तत्र सर्वस्तोका क्रियसबन्धकास्तरकालस्याल्पत्वात् , देशबन्धका असङ्ख्यातगुणास्तरकालस्य तदपेक्षयाऽसद्धयेयगुणत्वात् , अवन्धकारवनन्तगुणाः सिद्धानां बनस्पत्यादीनां च तदपेक्षयाउनन्तगुणत्वादिति ॥ अथाहारकशरीरप्रयोगबन्धमधिकृत्याह-'आहार'त्यादि, 'एगागाति एका प्रकारो नौदारि| कादिवन्धवदेकेन्द्रियाद्यनेकप्रकार इत्यर्थः, 'सवर्षधे एक समय'ति आघसमय एव सर्वबन्धभावात् , 'देसषधे जह| नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणवि अंतोमुहुर्त'ति, कथं !, जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तर्मुहर्तमानमेवाहारकशरीरी भवति, परत
औदारिकशरीरस्यावश्यं ग्रहणात् , तत्र चान्तर्मुहले आद्यसमये सर्वबन्धः उत्तरकालं च देशबन्ध इति ॥ अथाहारकशरीरप्रयोगबन्धस्यैवान्तरनिरूपणायाह-'आहारे'त्यादि, 'सबषंधतरं जहन्नेणं अंतोमुहत्तंति, कधं 1, मनुष्य आहारकशरीरं प्रतिपक्षस्तत्प्रथमसमये च सर्वबन्धकस्ततोऽन्तर्मुहर्त्तमात्रं स्थित्वौदारिकशरीरं गतस्तत्राप्यन्तर्मुहर्त स्थित्तः, पुनरपि च तस्य संशयादि आहारकशरीरकरणकारणमुत्पन्न ततः पुनरप्याहारकशरीरं गृह्णाति, तत्र च प्रथमसमये सर्वधन्धक एवेति, एवं च सर्वबन्धान्तरमन्तर्मुहूर्त, द्वयोरप्यन्तर्मुहूर्तयोरेकत्वविवक्षणादिति, 'उकोसेणं अर्णतं कालं ति;
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औदारिकआदि शरीर-प्रयोगबन्धस्य व्याख्या:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३४९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
BROWS
SCOTECREENS
[३४९]
| कथं ?, यतोऽनन्तकालादाहारकशरीर. पुनर्लभत इति, कालानन्त्यमेव विशेषेणाह-'अणंताओ उस्सप्पिणीओ ओ-|| शतके प्रज्ञप्तिः स्सप्पिणीओ कालओ खेत्तओ अणंता लोग'त्ति, एतव्याख्यानं च प्राग्वत् । अथ तत्र पुद्गलपरावर्तपरिमाणं किं
उद्देशः९ अभयदेवीदवा- भवति ? इत्याह-अबई पोग्गलपरियट्ट देसूर्ण ति, 'अपार्धम्' अपगतार्द्धमीमात्रमित्यर्थः 'पुद्गलपरावर्त' प्रागु-IMPLE
औदारिकया वृत्तिः१
दावन्धकत्वाकस्वरूपम् , अपार्द्धमप्यर्द्धतः पूर्ण स्थादत आह-देशोनमिति । एवं देसबंधंतरंपित्ति जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतः पुन
दिसू ३५० ॥४०९॥ रपार्द्ध पुद्गल पराव देशोनं, भावना तु पूर्वोक्तानुसारेणेति ॥ अथाहारकशरीरदेशबन्धकादीनामल्पत्वादिनिरूपणायाह
'एएसि ण'मित्यादि, तत्र सर्वस्तोका आहारकस्य सर्वबन्धकास्तत्सर्वबन्धकालस्याल्पत्वात् , देशबन्धकाः सञ्जयातगुणा-| स्तद्देशबन्धकालस्य बहुत्वात्, असङ्ख्यातगुणास्तु ते न भवन्ति, यतो मनुष्या अपि सङ्ख्याताः किं पुनराहारकशरीरदे| शबन्धकाः १, अबन्धकास्वनन्तगुणाः, आहारकशरीरं हि मनुष्याणां तत्रापि संयतानां तेषामपि केषाञ्चिदेव कदाचिदेव च | | भवतीति, शेषकाले ते शेषसत्त्वाश्चाबन्धकाः, ततश्च सिद्धवनस्पत्यादीनामनन्तगुणत्वादनन्तगुणास्त इति ॥ अथ तैजसश-|| |रीरप्रयोगबन्धमधिकृत्याह
तेयासरीरप्पयोगबंधे णं भंते । कतिविहे पपणते?, गोयमा पंचविहे पण्णत्ते, तंजंहा-एगिदियतेयासरी &ारप्पयोगबंधे बेइंदिय० तेईदिया जाच पंचिंदियतेयासरीरप्पयोगबंध। एगिदियतेयासरीरप्पयोगबंधे | P४०९॥
भंते ! कविहे पणते?, एवं एएणं अभिलावेणं भेदो जहा ओगाहणसंठाणे जाव पजत्तसवट्ठसिद्धअणु-18 ४त्तरोववाहयकप्पातीयवेमाणियदेवपंचिंदियतेयासरीरप्पयोगबंधे य अपज्जत्तसचट्टसिद्धअणुत्तरोववाइयजा-3
दीप अनुक्रम [४२५]
A R
तैजस शरीर-प्रयोगबन्ध एवं तस्य भेदा:
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[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३५०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३५०]
दीप अनुक्रम [४२६]
CASSESEX
६ वबंधे य । तेयासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं?, गोयमा ! वीरियसजोगसव्वयाए जाव।
आउयं च पडुच्च तेयासरीरप्पयोगनामाए कम्मरस उदएणं तेयासरीरप्पयोगधे । तेयासरीरप्पयोगधंधे गं भंते । किं देसबंधे सबबंधे ?, गोयमा ! देसबंधे नो सबबंधे ॥ तेयासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कालओ केवचिरं होई, गोयमा ! दुबिहे पण्णते, तंजहा-अणाइए वा अपज्जवसिए अणाइए वा सपज्जवसिए ॥ तेया-16 सरीरप्पयोगबंधंतरे णभंते ! कालओ केवचिरं होइ ?, गोयमा अणाझ्यस्स अपज्जवसियस्स नस्थि अंतरं, अणाइयस्स सपज्जवसियस्स नत्थि अंतरं । एएसिणं भंते ! जीवाणं तेयासरीरस्स देसबंधगाणं अबंधगाण य कयरे २ जाब विसेसाहिया वा?, गोयमा ! सबथोवा जीवा तेयासरीरस्स अबंधगा देसवंधगा अणंतगुणा ४ (सूत्रं ३५०)॥
'तेये त्यादि, 'नो सतबंधेत्ति तैजसशरीरस्यानादित्वान्न सर्वबन्धोऽस्ति, तस्य प्रथमतः पुद्गलोपादानरूपत्वादिति । 'अणाइए वा अपज्जवसिए' इत्यादि, तवाय तैजसशरीरबन्धोऽनादिरपर्यवसितोऽभव्यानां अनादिः सपर्यवसितस्तु | भव्यानामिति ॥ अथ तैजसशरीरप्रयोगबन्धस्यैवान्तरनिरूपणायाह-'तेये'त्यादि, 'अणाइयस्से त्यादि, यस्मात्संसारस्थो जीवस्तै जसशरीरबन्धेन द्वयरूपेणापि सदाऽविनिर्मुक्त एव भवति तस्माद्यरूपस्याप्यस्य नास्त्यन्तरमिति ॥ अथ तैजसश-| रीरदेशबन्धकाबन्धकानामल्पत्वादिनिरूपणायाह-'एएसी'त्यादि, तत्र सर्वस्तोकास्तैजसशरीरस्यावन्धकाः सिद्धाना-3
तैजस शरीर-प्रयोगबन्ध एवं तस्य भेदा:
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[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३५०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३५०]
दीप अनुक्रम [४२६]
व्याख्या- मेव तदबन्धकत्वात् , देशबन्धकास्त्वनन्तगुणास्तद्देशबन्धकानां सकलसंसारिणां सिद्धेभ्योऽनन्तगुणत्वादिति ॥ अथ शतके प्रज्ञप्तिः कार्मणशरीरप्रयोगवन्धमधिकृत्याह
उद्देशः अभयदेवी-II कम्मासरीरप्पयोगबंधे गं भंते ! कतिविहे पण्णते?, गोयमा ! अट्ठविहे पण्णते, संजहा-नाणावरणिज-
कामणवया वृत्तिः
पास३५१ कम्मासरीरप्पयोगबंधे जाव अंतराइयकम्मासरीरप्पयोगबंधे । णाणावरणिज्ञकम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते !! ॥४१०॥ कस्स कम्मस्स उदएणं १, गोयमा! नाणपडिणीययाए णाणणिण्हवणयाए णाणंतराएणं णाणप्पदोसेणं है
णाणचासादणाए णाणविसंवादणाजोगेणं णाणावरणिनकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं ॥ णाणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगबंधे। दरिसणावरणिजकम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं, गोयमा ! दसणपडिणीययाए एवं जहा णाणावरणिज्जं नवरं दसणनाम घेत्तवं जाव दसणविसंवाद-17
णाजोगेणं दरिसणावरणिजफम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मरस उदएणं जावप्पओगधंधे । सायावेयणिज-181 X कम्मासरीरप्पयोगबंधे भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं, गोयमा ! पाणाणुकंपयाए भूपाणुकंपयाए एवं जहाद। सत्तमसए दसमोऽसए जाव अपरियावणयाए सायावेयणिनकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उवरण ४१०॥
सायावेयणिनकम्मा जाव बंधे । अस्सायावेयणिजपुच्छा,गोयमा! परदुक्खणयाए परसोयणयाए जहा सत्त-18 ट्रा मसए दसमोद्देसए जाव परियावणयाए अस्सायावेयणिज्नकम्मा जाय पयोगबंधे। मोहणिज्नकम्मासरीरप्पयोगपुच्छा, गोयमा ! तिबकोहयाए तिबमाणयाए तिघमायाए तिवलोभाए तिबदसणमोहणिज्जयाए तिवचरित्समो
कार्मण शरीर- प्रयोगबन्ध एवं तस्य भेदा:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३५१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
BHERE
[३५१]
हणिज्जयाए मोहणिनकम्मासरीरजावपयोगधंधे । नेरइयाउयकम्मासरीरप्पयोगबंधेणं भंते ! पुच्छा, गोयमा! & महारंभयाए महापरिग्गयाए कुणिमाहारेणं पंचिंदियवहेणं नेरइयाउयकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्सल
उदएणं नेरच्याउयकम्मासरीरजाव पयोगपंधे । तिरिक्खजोणियाउयकम्मासरीरप्पओगपुच्छा, गोयमा ! माइल्लियाए नियडिल्लयाए अलियवयणेणं कूडतुलकूडमाणेणं तिरिक्खजोणियकम्मासरीरजावपयोगपंधे । मणुस्सआउयकम्मासरीरपुच्छा, गोयमा ! पगहभइयाए पगइविणीययाए साणुकोसयाए अमच्छरियाएं मणुस्साउथकम्मा जावपयोगधंधे । देवाउयकम्मासरीरपुच्छा, गोपमा। सरागसंजमेणं संजमासंजमेणं | बालतवोकम्मेणं अकामनिज्जराए देवाज्यकम्मासरीर जावपयोगबंधे ॥ सुभनामकम्मासरीरपुच्छा, गोयमा! कायउजुययाए भावुजययाए भासुजुययाए अविसंवादणजोगेणं सुभनामकम्मासरीरजावप्पयोगधे ॥ असुभनामकम्मासरीरपुच्छा, गोयमा ! कायअणुजुययाए भावअणुजुययाए भासअणुज्जुययाए विसंवायणाजोगेणं असुभनामकम्माजाव पयोगबंधे । उच्चागोयकम्मासरीरपुच्छा, गोयमा जातिअमदेणं कुलअमदेणं बलअमदेणं रूवअमदेणं तवअमदेणं सुयअमदेणं लाभअमदेणं इस्सरियअमदेणं उच्चागोयकम्मासरीरजाब ॥पयोगबंधे, नीयागोयकम्मासरीरपुच्छा, गोयमा ! जातिमदेणं कुलमदेणं बलमदेणं जाव इस्सरियमदेणं णीयागोयकम्मासरीरजावपयोगबंधे । अंतराइयकम्मासरीरपुच्छा, गोयमा दाणंतराएणं लाभंतराएणं भोगतराएणं | उवभोगतराएणं वीरियंतराएर्ण अंतराइयकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं अंतराइयकम्मासरीरप्पयो
कास्की
दीप अनुक्रम [४२७]
SAREauraton international
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३५१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
शतके
मज्ञप्तिःDI
कामेणबधासू३५१
प्रत सूत्रांक [३५१]
दीप अनुक्रम [४२७]
व्याख्या- गधे ॥णाणावरणिज्नकम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते! किं देसबंधे सवर्वधे?, गोयमा! देसबंधेणो सवर्षधे, एवं
जाव अंतराइयकम्मााणाणावरणिज्नकम्मासरीरप्पयोगबंधेणं भंते! कालओ केवचिरं होइ',गोयमा!णाणा अभयदेवी- दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-अणाइए सपनवसिए अणाइए अपज्जवसिए वा एवं जहा तेयगस्स संचिट्ठणा तहेच एवं जाव या वृत्तिः१]
अंतराइयकम्मरस । णाणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगधंतरेणं भंते कालओ केवचिरं होही,गोयमा !अणाइयस्स ॥४१॥
एवं जहा तेयगसरीरस्स अंतरं तहेव एवं जाव अंसराइयरस । एएसिणं भंते ! जीवाणं नाणावरणिजस्स
कम्मरस देसबंधगाणं अबंधगाण य कयरे २ जाव अप्पायहुगं जहा तेयगस्स, एवं आषयवजं जाव अंतराइय| स्साआउयस्स पुच्छा,गोयमा सवस्थोवा जीवा आउयस्स कम्मस्स देसवंधगा अबंधगा संखेनगुणाप(सूत्रं ३५१)॥3 ki 'कम्मासरीरेत्यादि, 'णाणपरिणीययाए'ति ज्ञानस्य-श्रुतादेस्तदभेदात् ज्ञानवतां वा या प्रत्यनीकता-सामान्येन
प्रतिकूलता सा तथा तया, 'णाणनिण्हवणयाए'त्ति ज्ञानस्य-श्रुतस्य श्रुतगुरूणां वा या निहवता-अपलपनं सा X|| तथा तया, 'नाणंतराएणं'ति ज्ञानस्य-श्रुतस्यान्तरायः-तहणादौ विघ्नो यः स तथा तेन, 'नाणपओसेKणे'ति ज्ञाने-श्रुतादौ ज्ञानवत्सु वा यः प्रद्वेषः-अप्रीतिः स तथा तेन, 'नाणचासायणाए'त्ति ज्ञानस्य ज्ञानिनां Pillवा याऽस्याशातना-हीलना सा तथा तया, 'नाणविसंवायणाजोगेण'ति ज्ञानस्य ज्ञानिनां वा विसंवादन|| योगी-व्यभिचारदर्शनाय व्यापारो यः स तथा तेन, एतानि च बाह्यानि कारणानि ज्ञानावरणीयकाम्भेणशरीरबन्धे,
अधाऽऽन्तरं कारणमाह-'नाणावरणिमित्यादि, ज्ञानावरणीयहेतुत्वेन ज्ञानावरणीयलक्षणं यरकाम्मेणशरीरप्रयोग
॥४१॥
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति :]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३५१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३५१]
IP नाम तत्तथा तस्य कर्मण उदयेनेति, 'दसणपडिणीययाए'त्ति इह दर्शनं-चक्षुर्दर्शनादि, तिबदसणमोहणिज्जयाएति
तीब्रमिथ्यात्वतयेत्यर्थः 'तिवचरितमोहणिजयाए'ति कषायव्यतिरिक्त नोकषायलक्षणमिह चारित्रमोहनीयं ग्राहय, तीन| क्रोधतयेत्यादिना कषायचारित्रमोहनीयस्य प्रागुक्तत्वादिति, 'महारंभयाए'त्ति अपरिमितकृप्याद्यारम्भतयेत्यर्थः, महारंभपरिग्गहयाए'त्ति अपरिमाणपरिग्रहतया कुणिमाहारेणं'ति मांसभोजनेनेति'माइल्लयाए'त्ति परवचनबुद्धिव(मोत्तया 'नियडिल्लयाए'निकृतिः-वञ्चनार्थं चेष्टा मायापच्छादनार्थ मायान्तरमित्येके अत्यादरकरणेन परवश्वनमित्यन्ये तदतया, 'पगइभद्दयाए'त्ति स्वभावतः पराननुतापितया 'साणुकोसयाए'त्ति सानुकम्पतया 'अमच्छरिययाए"त्ति मत्सरिक:-परगुणानामसोढा तद्भावनिषेधोऽमत्सरिकता तया ॥ 'सुभनामकम्मे त्यादि, यह शुभनाम देवगत्यादिकं कायउज्जुययाए'त्ति कायर्जुकतया परावश्चनपरकायचेष्टया 'भावुनुययाएत्ति भावणुकतया परावश्चनपरमनःप्रवृत्त्येत्यर्थः, 'भासजययाए'त्ति भाषर्जुकतया भाषाऽऽर्जवेनेत्यर्थः 'अविसंवायणाजोगेण ति विसंवादन-अन्यथाप्रतिपन्नस्यान्यथाकरणं तद्रूपो योगो-व्यापारस्तेन वा योगः-सम्बन्धी विसंवादनयोगस्तनिषेधादविसंवादनयोगस्तेन, इह च कायर्जुकतादित्रयं वर्तमानकालाश्रयं, अविसंवादनयोगस्वतीतवर्तमानलक्षणकालद्धयाश्रय इति ॥ 'असुभनामकम्मे त्यादि, इह चाशुभनाम नरकगत्यादिकम् ॥ 'कम्मासरीरप्पओगबंधे ण'मित्यादि, कार्मणशरीरप्रयोगबन्धप्रकरणं तैजसशरीरप्रयोगवन्धप्रकरणवनेयं, यस्तु विशेषोऽसावुच्यते-सबस्थोवा आउयस्स कम्मरस देसवंधग'त्ति, सर्वस्तोकत्वमेषामायुर्वन्धाद्धायाः स्तोकत्वादबन्धाद्धायास्तु बहुगुणत्वात् ,तदबन्धकाः समातगुणाः, नन्वसङ्ख्यातगुणास्तदबन्धकाः कस्मान्नोक्ताः?
दीप अनुक्रम [४२७]
COMBAHEORGESBE
C+
SSSSSS
कार्मण शरीर- प्रयोगबन्ध एवं तस्य भेदा:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३५१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३५१]
1 तदबन्धाद्धाया असङ्ख्यातजीवितानाश्रित्यासङ्ख्यातगुणत्वात् , उच्यते, इदमनन्तकायिकानाचित्य सूत्र, तत्र चानन्तकायिका शतके प्रज्ञप्तिः सातजीविता एव, ते चायुष्कस्थाबन्धकास्तद्देशबन्धकेभ्यः सयातगुणा एव भवन्ति, यद्यबन्धकाः सिद्धादयस्तन्मध्ये उद्देशा अभयदेवी-द|| क्षिप्यन्ते तथाऽपि तेभ्यः सयातगुणा एव ते, सिद्धाधबन्धकानामनन्तानामध्यनन्तकायिकायुर्वन्धकापेक्षयाऽनन्तभागत्वा- शरीराणान या वृत्तिः१ दिति । ननु यदायुषोऽबन्धकाः सन्तो बन्धका भवन्ति तदा कथं न सर्वबन्धसम्भवस्तेषाम् 1, उच्यते, न हि आयु प्रक- धासू२५२
|| तिरसती सर्वातैर्निबध्यते औदारिकादिशरीरवदिति न सर्ववन्धसम्भव इति ॥ प्रकारान्तरेणीदारिकादि चिन्तयमाह- 8 ॥४१॥
र जस्स णं भंते ! ओरालियसरीरस्स सवबंधे से णं भंते । बेउवियसरीस्स किं बंधए अबंधए !, गोयमा
नो बंधए अपंधए, आहारगसरीरस्स किं बंधए अबंधए, गोयमा ! मो बंधए अर्थधए, तेयासरीरस्स किं । बंधए अबंधए, गोयमा ! वंधए नो अबंधए, जह बंधए कि देसबंधए सबबंधए, गोयमा! देसपंधए नो सब-15 पंधए, कम्मासरीरस्स किं बंधए अबंधए ?, जहेव तेयगस्स जाब देसबंधए नो सवयंधए । जस्स गंमत! ओरालियसरीरस्स देसवंधे से णं भंते ! वेउधिषसरीरस्स किंबंधए अपंधए, गोयमा ! नो बंधए अपषए,
एवं जहेव सवर्वघेणं भणियं तहेव देसबंधेणवि भाणिय जाव कम्मगस्सणं । जस्सणं भंते ! वेवियसरी-| || रस्स सबंधए से णं भंते ! ओरालियसरीरस्स किं बंधए अबंधए ?, गोयमा ! मो बंधए अबंधए, आहारग
सरीरस्स एवं चेच, तेयगस्स कम्मगस्स य जय ओरालिएणं समं भणिवं तहेव भाणियचं जाच देसपंधए नो कासपबंधए । जस्स णं भंते ! वेवियसरीरस्स देसर्वधे से मंते ! ओरालियसरीरस्स किं पंचए अचंधए,
दीप अनुक्रम [४२७]
४१॥
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३५२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३५२]
गोयमा ! नो बंधए अबंधए, एवं जहा सवर्वघेणं भणियं तहेव देसर्वघेणवि भाणियई जाप कम्मगस्स। जस्स में भंते । आहारगसरीरस्स सबंधे से णं भंते ! ओरालियसरीरस्स किं बंधए अबंधए, गोयमा! नो बंधए अबंधए, एवं वेउवियस्सवि, तेयाकम्माणं जहेव ओरालिएणं समं भणियं तहेव भाणियत्वं । जस्स णं भंते! आहारगसरीरस्स देसवंधे से णं भंते ! ओसलियसरीर० एवं जहा आहारगसरीरस्स सबंधणं भणियं तहा देसर्वघेणवि भाणियवं जाव कम्मगस्स । जस्स णं मंते ! तेयासरीरस्स देसबंधे से णं भंते ! ओरालियसरी-1 रस्स किंबंधए अबंधए, गोयमा ! बंधए वा अधए वा, जइ बंधए किं देसबंधए सवबंधए, गोयमा देसबंधए वा सबबंधए वा, वेउवियसरीस्स किं बंधए अबंधए? एवं चेष, एवं आहारगसरीरस्सवि, कम्मगसरीरस्स किं बंधए अबंधए?, गोयमा! बंधए नो अबंधए, जइ बंधए किं देसर्वधए सर्वधए, गोयमा ! देसंबंधए । नोसवर्षधए । जस्स णं भंते ! कम्मगसरीरस्स देसबंधे से गं भंते ! ओरालियसरीरस्स जहा तेयगस्स वत्सवया |भणिया तहा कम्मगस्सवि भाणियचा जाच तेयासरीरस्स जाव देसघंधए नो सपपंधए (सूत्रं ३५२)॥ _ 'जस्से' त्यादि, 'भो बंधए'त्ति, न होकसमये औदारिकवैक्रिययोर्वन्धो विद्यत इतिकृत्वा नो बन्धक इति । एवमाहारकस्यापि । तैजसस्य पुनः सदैवाविरहितत्वाद्वन्धको देशबन्धकेन, सर्वबन्धस्तु नारत्येव तस्येति । एवं कार्मणशरीरस्थापि वाच्यमिति । एवमौदारिकसर्वबन्धमाश्रित्य शेषाणां बन्धचिन्तार्थः अनन्तरं दण्डक उक्कोऽयौदारिकस्यैव देशवन्धकमाश्रित्यान्यमाह-'जस्स णमित्यादि, अथ वैक्रियस्य सर्ववन्धमाश्रित्य शेषाणां बन्धचिन्तार्थोऽन्यो दण्डकः, तत्रच
दीप अनुक्रम [४२८]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३५२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
*
प्रत सूत्रांक
**
[३५२]
दीप अनुक्रम [૪ર૮]
व्याख्या
जातेयगस्स कम्मगस्स जहेवें'त्यादि, यथौदारिकशरीरसर्वबन्धकस्य तैजसकार्मणयोर्देशबन्धकत्वमुक्तमेवं वैक्रियशरीरसर्व- शतके प्रज्ञप्तिः शबन्धक स्यापि तयोर्देशबन्धकत्वं वाच्यमिति भावः । बैक्रियदेशबन्धदण्डक आहारकस्य सर्वेबन्धदण्डको देशबन्धदण्ड- उद्देशः अभयदेवी-द कश्च सुगम एव । तैजसदेशबन्धकदण्डके तु 'बंधए वा अबंधए वत्ति तैजसदेशबन्धक औदारिकशरीरस्य बन्धको वा शरीरबन्धया वृत्तिः स्यादबन्धको वा, तत्र विग्रहे वर्तमानोऽबन्धकोऽविग्रहस्थः पुनर्बन्धकः स एवोत्पत्तिक्षेत्रप्राप्तिप्रथमसमये सर्वबन्धक काल्पबहुत्वं
॥ द्वितीयादौ तु देशबन्धक इति, एवं कार्मणशरीरदेशबन्धकदण्डकेऽपि वाच्यमिति ॥ अथौदारिकादिशरीरदेशबन्धका॥४१३॥
दीनामल्यत्वादिनिरूपणायाह
एएसिणं भंते ! सवजीवाणं ओरालियवेउविय आहारगतेयाकम्मासरीरगाणं देसबंधगाणं सवबंधगाणं अबंधगाण य कयरे २ जाव विसेसाहिया वा?, गोयमा! सवत्थोवा जीवा आहारगसरीरस्स सबबंधगा १ तस्स 0 चेव देसबंधगा संखेजगुणा २ वेवियसरीरस्स सबबंधगा असंखेजगुणा ३ लस्स चेव देसघंधगा असंखेज-पद गुणा ४ तेयाकम्मगाणं कुण्डषि तुल्ला अबंधगा अणंतगुणा ५ ओरालियसरीरस्स सवयंधगा अर्णतगुणा | तस्स चेव अपंधगा विसेसाहिया ७ तस्स चेव देसबंधगा असंखेजगुणा ८ तेयाकम्मगाणं देसबंधगा विसे || | साहिया ९ घेउवियसरीरस्स अबंधगा विसेसाहिया १० आहारगसरीरस्स अबंधगा विसेसाहिया १११ सेकंद
का॥४१३॥ भंते !२॥ सूत्र (३५३) अट्ठमसयस्स नवमो उद्देसओ समत्तो॥८-९॥ 'एएसी'त्यादि, तत्र सर्वस्तोका आहारकशरीरस्य सर्वबन्धकाः, यस्मात्ते चतुर्दशपूर्वधरास्तथाविधप्रयोजनवम्त एवं
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३५३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३५३]
भवन्ति, सर्वबन्धकालश्च समयमेवेति, तस्यैव च देशबन्धकाः सङ्घषेयगुणाः, देशबन्धकालस्य बहुत्वात् , वैक्रियशरीरल सर्ववन्धका असोयगुणाः, तेषां तेभ्योऽसयातगुणत्वात्, तस्यैव च देशबन्धका असोयगुणाः, सर्वबन्धाद्धापेक्षया | देशबन्धाद्धाया असङ्ख्यातगुणत्वात् , अथवा सर्वबन्धका प्रतिपद्यमानकाः देशबन्धकास्तु पूर्वप्रतिपन्नाः, प्रतिपद्यमानकेभ्यश्च | पूर्वप्रतिपन्नानां बहुत्वात् , वैक्रियसर्वबन्धकेभ्यो देशबन्धका असोयगुणाः, तैजसकार्मणयोरवन्धका अनन्तगुणा, | यस्मात्ते सिद्धास्ते च वैक्रियदेशवन्धकेभ्योऽनन्तगुणा एव, वनस्पतिवर्जसर्वजीवेभ्यः सिद्धानामनन्तगुणत्वादिति, औदा| रिकशरीरस्य सर्ववन्धका अनन्तगुणास्ते च वनस्पतिप्रभूतीन् प्रतीत्य प्रत्येतव्याः, तस्यैव चाबन्धका विशेषाधिकाः, एते | हि विग्रहगतिकाः सिद्धादयश्च भवन्ति, तत्र च सिद्धादीनामत्यन्ताल्पत्वेनेहाविवक्षा, विग्रहगतिकाश्च वक्ष्यमाणन्यायेन | सर्ववन्धकेभ्यो बहुतरा इति तेभ्यस्तदवन्धका विशेषाधिका इति, तस्यैव चौदारिकस्य देशबन्धका असङ्ख्यातगुणाः, विग्रहाद्वापेक्षया देशबन्धाद्धाया असङ्ख्यातगुणत्वात् , तेजसकार्मणयोर्देशबन्धका विशेषाधिकाः, यस्मात्सर्वेऽपि संसारिणस्तै| जसकार्मणयोदेशबन्धका भवन्ति, तत्र च ये विग्रहगतिका औदारिकसर्ववन्धका वैक्रियादिवग्धकाच.ते औदारिकदेशबन्धकेभ्योऽतिरिच्यन्त इति ते विशेषाधिका इति, वैक्रियशरीरस्थाबन्धका विशेषाधिकाः, यस्माद्वैक्रियस्य बन्धकाः प्रायो देवनारका एव शेषास्तु तदवन्धकाः सिद्धाश्व, तत्र पसिद्धास्तैजसादिदेशबन्धकेभ्योऽतिरिच्यन्ते इति ते विशेषाधिका उक्काः, आहारकशरीरस्थाबन्धका विशेषाधिका यस्मान्मनुष्याणामेवाहारकशरीरं वैक्रियं तु तदन्येषामपि,ततो वैक्रियबन्धकेभ्य आहारकबन्धकानां स्तोकत्वेन वैक्रियावन्धकेभ्य आहारकावन्धका विशेषाधिका इति । इह चेयं स्थापना
दीप अनुक्रम [४२९]
55345643
CARECASEKA
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[३५३]
टीप
अनुक्रम
[४२९]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः ]
शतक [८], वर्ग (-), अंतर-शतक (--), उद्देशक [९]. मूलं [ ३५३ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृष्टिः १
॥४१४॥
॥ ओराल० १ ॥ || वेडषिय० २ ॥ सबबंधा अनंता ६ सबंध असं० ३ देसबंधा असंखेज० ८ देशबंध० असंखे० ४ (विग्रहगति) अबंधा अबंधा विसेसाविसेसाहिया ७ हिया १०
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॥ आहारग० ३ ॥ सबंध० धोवा १ देशबंध. संख्यातगुणा २ अबंधा विसेसाहिया ११
॥ तैजस० ४ ॥ | देसबंध. विसेसाहिया ९ अबंधा अनंता
For Penal Use On
इहाल्पबहुत्वाधिकारे वृद्धा गाथा एवं प्रपश्चितवन्तः --
ओरालयबंधा थोवा अब्बंधया विसेसहिया । ततो य देसबंधा असंखगुणिया कहं नेया ॥ १ ॥ पढमंमि सवबंधो समय सेसेसु देसबंधी उ । सिद्धाईण अबंधो विग्गगइयाण य जिवाणं ॥ २ ॥ इह पुण विग्गहिए चिय पहुच मणिया अबंधगा अहिया । सिद्धा अनंतभागंमि सबन्धाणवि भवन्ति ॥ ३ ॥ उज्जुयाय एगयंका दुइओका गई भवे तिविहा । पढमाइ सव्वबंधा सव्वे बीयाइ अद्धं तु ॥ 8 ॥ तइयाइ तइयभंगो लम्मइ जीवाण सब्वबंधाणं । इति तिनि सव्वगंधा रासी तिन्नेव य अधा ॥ १५ ॥ रासिप्पमाणओ ते तुलाबंधा य सब्वबंधा य । संखापमाणओ पुण अबंघगा पुण जन्महिया ॥ ६ ॥ जे एगसमहया से एगनिगोदंमि छद्दिसि एंति । दुसमश्या तिपयरिया तिसमईया सेसलोगाओ ॥ ७ ॥ तिरियाययं चउद्दिसि पयरमसंखप्पएसबाहलं । उ पुष्यावरदाहिणुतरायमा य दो परा ॥८॥ ने तिपयरिया ते छद्दिसिएहिंतो भवंतसंखगुणा । सावि असंसगुणा खेतासंखेजगुणियता ॥ ९ ॥ एवं बिसेस अहिया अवधया सव्वगंधादि
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५
॥ कामण० ५ ॥ देसबंधा विसेसाहिया ९ अबंधा गणता
८ शतके उद्देशः ९ शिका
॥४१४॥
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[३५३]
टीप
अनुक्रम [४२९]
[भाग १] "भगवती" - अंगसूत्र- ५ [ मूलं + वृत्तिः ]
[मूलं+वृत्तिः]
शतक [८], वर्ग (-), अंतर-शतक (--), उद्देशक [९]. मूलं [ ३५३ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
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तो तिसगइयविग्गहं पुण पडुच सुचं इमं होइ ॥ १० ॥ चउसमयविग्गहं पुण संखेजगुणा अबंधगा होति । एएसिं निदरिसणं ठवणारासीहिं वोच्छामि ॥ ११ ॥ पढगो होइ सहस्सं दुसमइया दोनि लक्खमेकं । तिसमइया पुण तिन्निवि रासी कोडी भवेकेका ॥ १२ ॥ एएसिं जहसंभवमत्थोवणयं करेजा रासीणं । एतो असंखगुणिया वोच्छं जह देसबंधा से ॥ १३ ॥ एगो असंखभागो वह उबवणो| ववायम्मि एगनिगोए निथं एवं सेसेमुवि स एव ॥ १४ ॥ अंतोमुहुतमेचा ठिई निगोयाण जं विणिदिट्ठा पलहंति निगोया तम्हा अंतोमुहुरे ॥ १५ ॥ तेखि ठितिसमयाणं विग्गहसमया हवंति जड़भागे । एवतिभागे सबै विमाहिया सेसजीवाणं ॥ १६ ॥ सबेबि य विग्गहिया सेसाणं जं असंखभागंमि । तेणासंखगुणा देसबंधयाऽबंधपति ॥ १७ ॥ वेउचिय आहारगतेयाक म्माई पढिय सिद्धाई । तहवि विसेसो जो जत्थ तस्थ तं तं भणीहामि ॥ १८ ॥ वेवियसबंधा थोवा जे पढमसमयदेवाई । तस्सेव देसबंधा असंखगुणिया कह के वा ? ॥ १९ ॥ [ उच्यते - ] तेर्सि चिय जे सेसा ते सधे सव्यबंध मोतुं । होति अवधाणता तव्वज्जा सेसजीवा जे ॥ २० ॥ आहारसब्वबंधा थोवा दो विन्नि पंच वा दस वा । संखेनगुणा देते ते उ पुडुचं सहस्साणं ॥ २१ ॥ तबज्जा सब्बजिया अबंधया ते हवंतऽणंतगुणा । थोवा अवन्धया तेयगरस संसारमुक्का जे ॥ २२ ॥ सेसा व देसबंधा तब्बजा ते हंवतऽणंतगुणा एवं कम्मगमेयावि नवरि णाणतमा उम्मि || २३ || [ तच्चायुर्नानात्वमेवम् ] थोवा आउयबंधा संखेजगुणा अबंधया होंति । तेयाकम्माणं सव्वबंधगा नत्थऽणाइत्ता ॥ २४ ॥ अस्संखेज्जगुणा आउगस्स किमबंधगा न भन्नंति जम्हा असंखभागो उन्बइ एगसमएणं ।। २५ ।। भन्नई एगसमइओ कालो उब्बडणार जीवाणं । बंधणकालो पुण आउगरस अंतोमुहुत्तो उ ॥ २६ ॥ जीवाण ठिईकाले आयबंधद्धभाइए लद्धं । एवइभागे आउस्स बंधया सेसजीवाणं ॥ २७ ॥ जं संखेज्जतिभागी ठिकालस्सा उबंधकालो उ तम्हाऽसंखगुणा
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[३५३]
दीप
अनुक्रम [४२९]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति: ]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [९], मूलं [ ३५३ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५ ] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवी
या वृत्तिः १
॥ ४१५॥
से अबंधया बंधएहिंतो ॥ २८ ॥ [' से 'ति आयुषः ] संजोगप्पाबहुयं आहारगसब्बबंधगा थोवा । तस्सेव देसबंधा संखगुणा ते य पुब्बुत्ता ॥ २९ ॥ तत्तो वेडब्बियसन्वबंधगा दरिसिया असंखगुणा । जमसंखा देवाई उपवतेगसमएणं ॥ ३० ॥ तस्सेव देसंबंधा असंखगुणिया हवंति पुन्बुत्ता । तेयगकम्माबंधा अनंतगुणिया य ते सिद्धा ॥ ३१ ॥ ततो उ अनंतगुणा ओरालियसब्दबंधगा होति । तस्सेव ततोऽबंधा य देसबंधा य पुदुत्ता ॥ ३२ ॥ ततो तेयगकम्माणं देसबंधा भवे विसेसहिया । ते चेवोरालियदेसंबंधगा होति वन्ने ॥ ३३ ॥ जे तस्स सम्बंबंधा अबंधगा जे य नेरइयदेवा । एएहिं साहिया ते पुणाइ के सन्वसंसारी ॥ ३४ ॥ वेउब्वियस्स तत्तो अर्थधगा साहिया विसेसेणं । ते चैव य नेरइया इविरहिया सिद्धसंजुता ॥ ३५ ॥ आहारगस्स तत्तो अबंधगा साहिया विससेणं । ते पुण के ! सब्जीबा आहारगलद्धिए मोत्तुं ॥ ३६ ॥
इहाँदारिक सर्वबन्धादीनामल्पत्वादिभावनार्थं सर्वबन्धादिस्वरूपं तावदुच्यते - इह ऋजुगत्या विग्रहगत्या चोत्पद्यमा | नानां जीवानामुत्पत्तिक्षेत्रप्राप्तिप्रथमसमये सर्वबन्धो भवति, द्वितीयादिषु तु देशबन्धः, सिद्धादीनामित्यत्रादिशब्दाद्वैक्रियादिवन्धकानां च जीवानामौदारिकस्यावन्ध इति, इह च सिद्धादीनामबन्धकत्वेऽप्यत्यन्ताल्पत्वेनाविवक्षणाद्वै ग्रहिकानेव प्रतीत्य सर्वबन्धकेभ्योऽबन्धका विशेषाधिका उक्ता इति ॥ १-२ ॥ एतदेवाह - साधारणेष्वपि सर्वबन्धभावात्सर्वबन्धकाः सिद्धेभ्योऽनन्तगुणाः, यत एवं ततः सिद्धास्तेषामनन्तभागे वर्त्तन्ते, यदि च सिद्धा अपि तेषामनन्तभागे वर्त्तन्ते तदा सुतरां वैक्रियबन्धकादय इति प्रतीयन्त एव ततश्च तान् विहायैव सिद्धपदमेवाधीतमिति ॥ ३ ॥ अथ सर्वबन्धकानामबन्धकानां च समताभिधानपूर्वकमबन्धकानां विशेषाधिकत्वमुपदर्शयितुमाह-ऋज्वायतायां गतौ सर्वबन्धका एवाधसमये
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८ शतके
उद्देशः ९ बन्धपि "शिका
॥४१५॥
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३५३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३५३]
। भवन्त्येषमेकस्तेषां राशिः, एकवक्रया ये उत्पद्यन्ते तेषां ये प्रथमे समये तेऽवन्धका द्वितीये तु सर्वबन्धका इस्येवं तेषां द्वितीयो राशिः, स चैकवकाभिधानद्वितीयगत्योत्पद्यमानानाम भूतो भवतीति, द्विवक्रया गत्या ये पुनरुत्पद्यन्ते ते आये समयद्धयेऽबन्धकास्तृतीये तु सर्ववन्धकाः, अयं च सर्वबन्धकानां तृतीयो राशिः, स च द्विवक्राभिधानतृतीयग
त्योत्पद्यमानानां त्रिभागभूतो भवति, तृतीयसमयभावित्वात्तस्य, एवं च त्रयः सर्वबन्धकानां राशयः त्रय एव चावन्ध-18 &| कानां, समयभेदेन राशिभेदादिति, एवं च ते राशिप्रमाणतस्तुल्या यथपि भवन्ति तथाऽपि सङ्ख्याप्रमाणतोऽधिका अब-I
न्धका भवन्ति ॥ ४-५-६ ॥ ते चैवम्-ये एकसमयिका ऋजुगत्योत्पद्यमानका इत्यर्थः ते एकस्मिन्निगोदे-साधारणशरीरे लोकमध्यस्थिते पढूभ्यो दिग्भ्योऽनुश्रेण्याऽऽगच्छन्ति, ये पुनर्द्विसमयिका एकवक्रगत्योत्पद्यमाना इत्यर्थः ते त्रिन| तरिका:-प्रतरत्रयादागच्छन्ति, विदिशो बक्रेणाऽऽगमनात्, अतरश्च वक्ष्यमाणस्वरूपः, ये पुनस्त्रिसमयिकाः-समयत्रयेण वक्रदयेन चोत्पद्यमानकास्ते शेषलोकात् प्रतरत्रयातिरिक्तलोकादागच्छन्तीति ॥७॥ प्रतरप्ररूपणायाह---लोकमध्यगतैकनिगोदमधिकृत्य तिर्यगायतश्चतसृषु दिक्षु प्रतरः कल्प्यते, असङ्ख्येयप्रदेशवाहल्यो-विवक्षितनिगोदोत्पादकालोचितावगाहनाबाहत्य इत्यर्थः तन्मात्रबाहल्यावेव 'उडे'ति उर्दाधोलोकान्तगती पूर्वापरायतो दक्षिणोत्तरायतश्चेति द्वौ प्रतराविति ॥ ८॥ अथाधिकृतमल्पबहुत्वमुच्यते-ये जीवास्त्रिप्रतरिका एकवक्रया गत्योत्पत्तिमन्तस्ते पडूदिग्भ्यः-ऋजुगत्या | षड्भ्यो दिग्भ्यः सकाशाद् भवन्त्यसङ्ख्यगुणाः, शेषा अपि ये त्रिसमयिकाः शेषलोकादागतास्तेऽप्यसयेयगुणा भवन्ति, ते कुतः १, क्षेत्रासहयगुणितत्वाद्, यतः पदिक्क्षेत्राश्रिप्रतरमसङ्ख्यगुणं, ततोऽपि शेपलोक इति ॥९॥ ततः किम् ?
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३५३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
४८शतके
प्रत सूत्रांक [३५३]
दीप अनुक्रम [४२९]
व्याख्या-
इत्याह-वक्रदयमाश्रित्येदं सूत्रमित्यर्थः ॥ १०॥ प्रथम ऋजुगत्युत्पन्नसर्वबन्धकराशिः सहस्र परिकल्पित, क्षेत्रस्याल्पप्रज्ञप्तिः त्वात् , द्विसमयोत्पन्नानां द्वौ राशी, एकोऽबन्धकानामन्यः सर्वबन्धकानां, तौ च प्रत्येकं लक्षमानी, तत्क्षेत्रस्य बहुतरत्वात् , ये| उद्देश अभयदेवी- पुनखिभिः समयैरुत्पद्यन्ते तेषां त्रयो राशयः, तत्र चाद्ययोः समययोरवन्धको द्वौ राशी तृतीयस्तु सर्वबन्धको राशिः, बन्धपटिया वृत्तिः१|| तेच त्रयोऽपि प्रत्येक कोटीमानास्तत्क्षेत्रस्य बहुतमत्वादिति, तदेवं राशित्रयेऽपि सर्वबन्धकाः सहस्रं लक्षं कोटी चेत्येवं | शिका ॥४१॥
सर्वस्तोकाः, अपन्धकास्तु लक्षं कोटीद्वयं चेत्येवं विशेषाधिकास्त इति ॥१२॥ अनेन च गाथाद्वयेनोद्वर्त्तनाभणनाद्विग्रहसम|| यसम्भवः, अन्तर्मुहर्त्तान्ते परिवर्तनाभणनाच निगोदस्थितिसमयमानमुक्तं, ततश्च अयमर्थः-॥१४॥ तेषामेव वैक्रियबन्धकानां सर्वबन्धकान मुक्त्वा ये शेषास्ते सर्वे क्रियस्य देशबन्धका भवन्ति,तत्र च सर्ववन्धकान् मुक्त्वेत्यनेन कथमित्यस्य निर्वचनमुक्त, ये शेषा इत्यनेन तु के वेत्यस्येति, अवन्धकास्तु तस्यानन्ता भवन्ति, ते च के, ये तदर्जा-बैक्रियसर्वदेशबन्धकवर्जाः शेष| जीवास्ते चौदारिकादिबन्धकाः देवादयश्च वैग्रहिका इति ॥२॥ तदर्जाः' आहारकबन्धवर्जाः सर्वजीधा अबन्धका इस्या-||४ हारकावन्धस्वरूपमुक्त, ते च पूर्वेभ्योऽनन्तगुणा भवन्ति ॥२२-२४॥ सङ्ख्यातगुणा आयुष्काबन्धका इति यदुक्तं तत्र प्रश्न
यन्नाह एकोऽसयभागो निगोदजीवानां सर्वदोद्वर्त्तते, स च बद्धायुषामेव, तदन्येषामुद्वर्तनाऽभावात् , तेभ्यश्च ये शेषाकास्तेऽबद्धायुषः, ते च तदपेक्षयाऽसङ्ख्यातगुणा एवेत्येवमसझवगुणा आयुष्काबन्धकाः स्युरिति, ॥२५।। अत्रोच्यते, निगोदजीवभ-|| 5 ॥१६॥
बकालापेक्षया तेषामायुर्वन्धकालः सङ्ग्यातभागवृत्तिरित्यबन्धकाः सायातगुणा एवं ॥ एतदेव भाव्यते-निगोदजीवानांना स्थितिकालोऽन्तर्मुहर्तमानः, स च कल्पनया समयलक्षं, तत्र 'आयुर्वन्धाद्धया' आयुर्वेन्धकालेनान्तमुत्तेमानेनैव कल्प
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [८], वर्ग [-, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [३५३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३५३]
नया समथसहनलक्षणेन भाजिते सति यल्लब्धं कल्पनया शतरूपं एतावति भागे वर्तन्ते आयुर्घन्धकाः 'सेसजीवाण'ति शेषजीवानां तदवन्धकानामित्यर्थः, तत्र किल लक्षापेक्षया शतं सक्यतमो भागोऽतो बन्धकेभ्योऽबन्धका साधेयगुणा ॥ भवन्तीति ।।२६-२७ ॥ एतदेव भाव्यते ॥ २८ ॥ समाप्तोऽयं बन्धः ॥ अष्टमशते नवमः ॥८-९॥
अनन्तरोद्देशके बन्धादयोऽर्था उक्काः, तांश्च श्रुतशीलसंपन्नाः पुरुषा विचारयन्तीति श्रुतादिसंपन्नपुरुषप्रभृतिपदार्थ-IPI Bा विचारणार्थों दशम उद्देशकः, तस्य चेदमादिसूत्रम्* रायगिहे नगरे जाव एवं बयासी-अन्नउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति जाव एवं पवेति-एवं खलु सील
सेयं १ सुयं सेयं २ सुर्य सेयं ३ सील सेयं ४, से कहमेयं भंते ! एवं ?, गोयमा ! जन्नं ते अन्नउत्थिया एवमाइक्खंति जाव जे ते एवमाहंसु मिच्छा ते एवमाहंसु, अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि, एवं
खलु मए चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तंजहा-सीलसंपन्ने णाम एगेणो सुयसंपन्ने १ सुयसंपन्ने नामं एगे नो लसीलसंपन्ने २ एगे सीलसंपन्नेवि सुयसंपन्नेवि ३ एगे णो सीलसंपन्ने नो सुयसंपन्ने ४, तत्थ गंजे से पढमे पुरि
सजाए से णं पुरिसे सीलवं असुयवं, उवरए अविनायधम्मे, एस गंगोयमा एमए पुरिसे देसाराहए पपणते, ४॥ तस्थ गंजे से दोचे पुरिसजाए से णं पुरिसे असीलवं सुयवं, अणुवरए विनायधम्मे, एस गं गोयमा ! मए & पुरिसे देसविराहए पण्णत्ते, तत्थ णं जे से तच्चे पुरिसजाए से णं पुरिसे सीलवं सुयवं, उवरए विनायधम्मे,
4564645459184582
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दीप अनुक्रम [४२९]
अत्र अष्टम-शतके नवम-उद्देशक: समाप्त: अथ अष्टम-शतके दशम-उद्देशक: आरभ्यते
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [३५४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
४ चतुर्भङ्गी
[३५४]
दीप अनुक्रम [४३०]
व्याख्या-पीएस गोयमा ! मए पुरिसे सबाराहए पन्नते, तत्थ पंजे से चउत्थे पुरिसजाए से णं पुरिसे असीलवं असुाद शतके प्रज्ञप्तिः तवं, अणुवरए अविण्णायधम्मे, एस गंगोयमा ? मए पुरिसे सबविराहए पन्नत्ते ॥ (सूत्रं ३५४)॥
उद्देशः १० अभयदाना 'रायगिहे'इत्यादि, तत्र च एवं खलु सील सेयं १ सुयं सेयं २ सुर्य सेयं ३ सील सेयं ४' इत्येतस्य चूर्ण्यनुसारेण-|| शालश्रुतया वृत्तिः व्याख्या-'एवं' लोकसिद्धन्यायेन 'खलु'निश्चयेन इहान्ययूथिकाः केचित् क्रियामात्रादेवाभीष्टार्थसिद्धिमिच्छन्ति न च
सू ३५४ ॥४१७॥ किश्चिदपि ज्ञानेन प्रयोजनं, निश्चेष्टत्वात् , घटादिकरणप्रवृत्तावाकाशादिपदार्थवत् , पठ्यते च-"क्रियैव फलदा पुंसां, न डू
ज्ञानं फलदं मतम् । यतः खीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात्सुखितो भवेत् ॥१॥" तथा "जहा खरो चंदणभारवाही, भारस्स भागी न हु चंदणस्स । एवं खु नाणी चरणेण हीणो, नाणस्स भागी नहु सोगईए॥१॥"[यथा चन्दनभारवाही खरो | भारभार न चैव चन्दनस्थ । एवं चरणहीनो ज्ञानी ज्ञानभाग् न तु सुगते॥॥] अतस्ते प्ररूपयन्ति-शीलं श्रेयः प्राणाकातिपातादिविरमणध्यानाध्ययनादिरूपा क्रियैव श्रेया-अतिशयेन प्रशस्य श्लाघ्य पुरुषार्थसाधकत्वात् , श्रेयं वा-समाश्रयप्राणीयं पुरुषार्थविशेषार्थिना, अन्ये तु ज्ञानादेवेष्टार्थसिद्धिमिच्छन्ति न क्रियाता, ज्ञानविकलस्य क्रियावतोऽपि फलसियदर्शनातं, अधीयते च-"विज्ञप्तिः फलदा पुंसां, न किया फलदा मता। मिथ्याज्ञानात्प्रवृत्तस्य, फलासंवादवर्धानात् ॥१॥" तथा-पढम नाणं तओ दया, एवं चिद सबसंजए । अन्नाणी किं काही किंवा नाही छेयपावयं ॥१॥"| ॥४१७||
प्रथमं ज्ञानं ततो दयैवं सर्वसंयतेषु तिष्ठति अज्ञानी किं करिष्यति किंवा ज्ञास्यति छेकं पापकं वा ॥१॥] अतस्ते | प्ररूपयन्ति-श्रुतं श्रेयः, श्रुतं-श्रुतज्ञानं तदेव श्रेयः-अतिप्रशस्यमाश्रयणीयं वा पुरुषार्थसिद्धिहेतुत्वात् न तु शीलमिति,
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[३५४]
दीप
अनुक्रम [४३०]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः ]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर् शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [ ३५४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
अम्बे तु ज्ञानक्रियाभ्यामन्योऽन्यनिरपेक्षाभ्यां फलमिच्छन्ति, ज्ञानं क्रियाविकलमेवोपसर्जनीभूतक्रियं वा फलदं क्रियाऽपि | ज्ञानविकला उपसर्जनीभूतज्ञाना या फलदेति भावः, भणन्ति च - "किञ्चिद्वेदमयं पात्रं, किञ्चित्यात्रं तपोमयम् । आगमिष्यति तत्पात्रं, यत्पात्रं तारविष्यति ॥ १ ॥" अतस्ते प्ररूपयन्ति श्रुतं श्रेयः तथा शीलं श्रेयः ३, द्वयोरपि प्रत्येकं | पुरुषस्य पवित्रतानिबन्धनत्वादिति, अन्ये तु व्याचक्षते - शीलं श्रेयस्तावन्मुख्यवृत्त्या तथा श्रुतं श्रेयः श्रुतमपि श्रेयो गौणवृत्त्या तदुपकारित्वादित्यर्थः इत्येकीयं मतं, अन्यदीयमतं तु श्रुतं श्रेयस्तावत्तथा शीलमपि श्रेयो गौणवृत्त्या तदुपकारित्वादित्यर्थः, अयं चार्थ इह सूत्रे काकुपाठालभ्यते, एतस्य च प्रथमव्याख्यानेऽन्ययूथिक मतस्य मिथ्यात्वं, पूर्वोक्तपक्षत्रयस्यापि फलसिद्धावनङ्गत्वात् समुदायपक्षस्यैव फलसिद्धिकरणत्वात्, आह च "णाणं पयासयं सोहओ तवो संजमो य गुत्तिकरो । तिव्हपि समाओगे मोक्खो जिणसासणे भणिओ ॥ १ ॥” [ज्ञानं प्रकाशकं तपः शोधकं संयमच गुप्तिकरः । त्रयाणामपि समायोगे जिनशासने मोक्षो भणितः ॥ १ ॥ ] तपःसंयमौ च शीलमेव, तथा - " संजोगसिद्धीइ फलं वयंति, न हु एगचकेण रहो पयाइ। अंधो य पंगू य वणे समिच्चा, ते संपडत्ता नगरं पविट्ठा ॥ १ ॥ इति, [फलं संयोगसिद्धया वदन्ति एकचक्रेण न रथः प्रयाति । वनेऽन्धः पङ्गश्च समेत्य तौ संप्रयुक्त नगरं प्रविष्टी १ |] द्वितीय| व्याख्यानपक्षेऽपि मिथ्यात्वं, संयोगतः फलसिद्धेष्टत्वाद्, एकैकस्य प्रधानेतरविवक्षयाऽसङ्गतत्वादिति, अहं पुनगतम ! | एवमाख्यामि यावत्प्ररूपयामीत्यत्र श्रुतयुक्तं शीलं श्रेयः इत्येतावान् वाक्यशेषो दृश्यः अथ कस्मादेवं १, अत्रोच्यते' एवं 'मित्यादि, एवं' वक्ष्यमाणन्यायेन - 'पुरिसजाय'त्ति पुरुषप्रकाराः 'सीलवं असुयवं'ति कोऽर्थः १, 'उचरए अवि
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [३५४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
शतके
प्रत सूत्रांक
उद्देशः १० ज्ञानदर्शनचारित्रारा
18 धना:
[३५४]
सू१५५
ACASSESAGACHERS
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व्याख्या- नायधम्म'त्ति 'उपरतः' निवृत्तः स्वबुद्ध्या पापात् 'अविज्ञातधर्मा' भावतोऽनधिगतश्रुतज्ञानो बालतपस्वीत्यर्थः,गीतार्था-1 प्रज्ञप्तिः 18 निश्रिततपश्चरणनिरतोऽगीतार्थ इत्यन्ये, 'देसाराहए'त्ति देश-स्तोकमंशं मोक्षमार्गस्याराधयतीत्यर्थः सम्यग्बोधरहितत्वात् अभयदेवी- क्रियापरत्वाचेति, 'असीलवंसुय'ति, कोऽर्थः?-'अणुवरए विनायधम्म'त्ति पापादनिवृत्तो विज्ञातधर्मा चाविरतिसम्य- या वृत्तिः १
|| दृष्टिरितिभावः, 'देसचिराहए'त्ति देश-स्तोकमशं ज्ञानादित्रयरूपस्य मोक्षमार्गस्य तृतीयभागरूपं चारित्रं विराधयती-
मा ॥४१८॥
त्यर्थः,माप्तस्थ तस्यापासनादप्राप्तेर्वा, 'सबाराहए'त्ति सर्व-त्रिप्रकारमपि मोक्षमार्गमाराधयतीत्यर्थः,श्रुतशब्देन ज्ञानदर्शनयोः। || सङ्गहीतत्वात् , न हि मिथ्यादृष्टिविज्ञातधर्मा तत्त्वतो भवतीति, एतेन समुदितयोः शीलश्रुतयोः श्रेयस्त्वमुक्तमिति 'सधाराहए'त्युक्तम् ।। अथाराधनामेव भेदत आह
कतिविहा णं भंते ! आराहणा पण्णत्ता ?, गोयमा ! तिविहा आराहणा पण्णता, तंजहा-नाणाराहणा दसणाराहणा चरित्ताराहणा । णाणाराहणाणं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता ?, गोयमा ! तिविहा पपणत्ता, तंजहा-उक्कोसिया मज्झिमा जहन्ना । दसणाराहणा णं भंते!०, एवं चेव तिविहावि । एवं चरिताराहणावि ।।
जस्स भंते ! उकोसिया णाणाराहणा तस्स उक्कोसिया दंसणाराहणा जस्स उक्कोसिया दंसणाराहणा तस्स द उक्कोसिया गाणाराहणा?, गोयमा ! जस्स उकोसियाणाणाराहणा तस्स दसणाराहणा उकोसियावा अजह
उक्कोसिया चा, जस्स पुण उकोसिया दंसणाराहणा तस्स नाणाराहणा उक्कोसा वा जहना था अजहन्नमणु|कोसा वा । जस्स णं भंते ! उफोसिया जाणाराहणा तस्स उकोसिया चरिताराहणा जस्सुकोसिया चरि
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४१८॥
ज्ञानादि आराधनाया: वर्णनं
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[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः ]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [१०], मूलं [ ३५५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
साराहणा तस्सुकोसिया णाणाराहणा, जहा उनकोसिया णाणाराहणा य दंसणाराहणा य भणिया तहा उक्कोसिया नाणाराहणा य चरिताराहणा य भाणिपषा । जस्स णं भंते ! उक्कोसिया दंसणाराहणा तस्सुकोसिया चरिताराहणा जस्सुकोसिया चरिताराहणा तस्मृक्कोसिया दंसणाराहणा ?, गोयमा ! जस्स उक्कोसिया दंसणाराहणा तस्स चरिताराहणा उक्कोसा वा जहन्ना वा अजहनमणुकोसा वा जस्स पुण उको| सिया चरिताराहणा तस्स दंसणाराहणा नियमा उक्कोसा ॥ उकोसियं णं भंते! णाणाराहणं आहेत्ता कतिहिं भवग्गहणेहिं सिज्ांति जाव अंत करेंति ?, गोयमा ! अस्थेगइए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्यंति जाव अंतं करेंति अत्थेगतिए दोचेणं भवग्गहणेणं सिज्यंति जाय अंतं करेंति, अत्थेगतिए कप्पोषएस वा कप्पातीएसु वा उबवजंति, उक्कोसियं णं भंते । दंसणाराहणं आरा हेत्ता कतिहिं भवग्गहणेहिं, एवं चेव, उक्कोसियण्णं भंते ! चरिताराहणं आराहेत्ता, एवं चैव, नवरं अत्थेगतिए कप्पातीयएस उववति । मज्झिमियं णं भंते ! | णाणाराहणं आहेत्ता कतिहि भवग्गहणेहि सिजांति जाव अंत करेंति ?, गोयमा ! अत्येगतिए दोघेणं भवग्गहणेणं सिज्झइ जाव अंतं करेंति तचं पुण भवग्गहणं नाइकुमह, मज्झिमियं णं भंते! दंसणाराहणं आराहेत्ता एवं चैव एवं मज्झिमियं चरिताराहणंपि । जहन्नियन्नं भंते ! नाणाराहणं आराहेता कतिहिं | भवग्गहणेहिं सिज्झति जाव अंतं करेंति ?, गोयमा ! अत्थेगतिए तच्चेणं भवग्गहणेणं सिज्झइ जाव अंत | करेइ सत्तट्टभवग्गहणाई पुण नाइकमह, एवं दंसणाराहणंपि, एवं चरिताराहणंपि ॥ (सूत्रं ३५५ ) ।।
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [३५५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३५५]
धनाः
सू ३५५
व्याख्याना 'कतिविहा णमित्यादि, 'आराहणत्ति आराधना-निरतिचारतयाऽनुपालना, तत्र ज्ञान पश्चप्रकारं श्रुतं वा तस्या-
1८शतके प्रज्ञप्तिः राधना-कालाधुपचारकरणं दर्शन-सम्यक्त्वं तस्याराधना-निश्शङ्कितत्वादितदाचारानुपालनं चारित्रं-सामायिकादि उद्देशः १० अभयदेवी-दातदाराधना-निरतिचारता, 'उकोसिय'त्ति उत्कर्षा ज्ञानाराधना ज्ञानकृत्यानुष्ठानेषु प्रकृष्टप्रयलता 'मज्झिमत्ति तेष्वेव ट्रज्ञानदर्शनया वृतिः मध्यमप्रयक्षता 'जहन्न'त्ति तेष्वेवाल्पतमप्रयत्नता । एवं दर्शनाराधना चारित्राराधना चेति ॥ अथोक्ताऽऽराधनाभेदा-II
चारित्रारा॥४१९॥ नामेव परस्परोपनिबन्धमभिधातुमाह-'जस्स णमित्यादि, 'अजहन्नुकोसा वत्ति जघन्या चासौ उत्कर्षा च-उत्कृष्टा
जघन्योत्कर्षा तनिषेधादजघन्योत्कर्षा मध्यमेत्यर्थः, उत्कृष्टज्ञानाराधनावतो हि आये द्वे दर्शनाराधने भवतो न पुनस्तूतीया, तथास्वभावत्वात्तस्येति । 'जस्स पुणे त्यादि उत्कृष्टदर्शनाराधनावतो हि ज्ञान प्रति त्रिप्रकारस्यापि प्रयत्नस्य | सम्भवोऽस्तीति त्रिप्रकाराऽपि तदाराधना भजनया भवतीति । उत्कृष्टज्ञानचारित्राराधनासंयोगसूत्रे तूत्तरं-यस्योत्कृष्टा | ज्ञानाराधना तस्य चारित्राराधना उत्कृष्टा मध्यमा वा स्यात्, उत्कृष्टज्ञानाराधनावतो हि चारित्रं प्रति नाल्पतमप्रयलता | स्यात्तत्स्वभावात्तस्येति, उस्कृष्टचारित्राराधनावतस्तु ज्ञान प्रति प्रयलत्रयमपि भजनया स्यात्, एतदेवातिदेशत आह|'जहा उफोसियेत्यादि, उत्कृष्टदर्शनचारित्राराधनासंयोगसूत्रे तृत्तरं-'जस्स उकोसिया दंसणाराहणा'इत्यादि, यस्यो| स्कृष्टा दर्शनाराधना तस्य चारित्राराधना त्रिविधाऽपि भजनया स्यात् , उत्कृष्टदर्शनाराधनावतो हि चारित्रं प्रति प्रयशस्य |
॥४१९॥ त्रिविधस्याप्यविरुद्धत्वादिति । उत्कृष्टायां तु चारित्राराधनायामुत्कृष्टैव दर्शनाराधना, प्रकृष्टचारित्रस्य प्रकृष्टदर्शनानुगत-II स्वादिति ॥ अथाराधनाभेदानां फलप्रदर्शनायाह-'उक्कोसियं णमित्यादि, 'तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झइत्ति उत्कृष्टां5i
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दीप अनुक्रम [४३१]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [३५५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३५५]
ज्ञानाराधनामाराध्य तेनैव भवग्रहणेन सिद्धपति, उत्कृष्टचारित्राराधनायाः सद्भावे, 'कप्पोवएस वत्ति 'कल्पोपगेषु'|| सीधर्मादिदेवलोकोपगेषु देवेषु मध्ये उपपद्यते, मध्यमचारित्राराधनासद्भावे, कप्पातीएम बत्ति अवेयकादिदेवेपत्पद्यते। मध्यमोत्कृष्टचारित्राराधनासद्भावे इति, तथा-'उकोसियंणं भंते! दंसणाराहण'मित्यादि, एवं चेव'त्ति करणात् 'तेणेव | भवग्गहणेणं सिझ'इत्यादि दृश्य, तद्भवसियादि च तस्यां स्यात्, चारित्राराधनायास्तत्रोत्कृष्टाया मध्यमायाश्चोकत्वा-1 दिति, तथा-'उकोसियण्णं भंते ! चारित्ताराहण'मित्यादौ 'एवं चेव'त्ति करणात् 'तेणेव भवग्गहणण मित्यादि दृश्य, ४ केवलं तत्र 'अत्धेगइए कप्पोवगेस 'त्यभिहितमिह तु तन्न वाच्यं, उत्कृष्ट चारित्राराधनावतः सौधर्मादिकल्पेष्वगमना, वाच्यं पुनः 'अत्थेगइए कप्पातीएसु उववज्जईत्ति सिद्धिगमनाभावे तस्यानुत्तरसुरेषु गमनात्, एतदेव दर्शयतोतं'नवर'मित्यादि । मध्यमज्ञानाराधनासूत्रे मध्यमत्वं ज्ञानाराधनाया अधिकृतभव एवं निर्वाणाभावात, भावे पुनरुत्कृटत्वमवश्यम्भावीत्यवसेयं, निर्वाणान्यथाऽनुपपत्तेरिति, 'दोचेणं ति अधिकृतमनुष्यभवापेक्षया द्वितीयेन मनुष्यभवेन 'तच पुण भवग्गहणं'ति अधिकृतमनुष्यभवग्रहणापेक्षया तृतीयं मनुष्यभवग्रहणं, एताच चारिचाराधनासंवलिता ज्ञानाद्याराधना इह विवक्षिताः, कथमन्यथा जघन्यज्ञानाराधनामाश्रित्य वक्ष्यति 'सत्तट्ठभवग्गहणाई पुण णाइक्कमइत्ति, यतश्चारित्राराधनाया एवेदं फलमुकं, यदाह-"अट्ठभवा उ चरित्ते"त्ति [अष्टौ भवास्तु चारिने], श्रुतसम्यक्त्वदेशविरतिभवास्त्वसवेया उक्काः, ततश्चरणाराधनारहिता ज्ञानदर्शनाराधना असहयेयभविका अपि भवन्ति नत्वष्टभविका एवेति ॥ अनन्तरं जीवपरिणाम उक्तोऽध पुद्गलपरिणामाभिधानायाह
दीप अनुक्रम [४३१]
ज्ञानादि आराधनाया: वर्णनं
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[३५६]
दीप
अनुक्रम
[४३२]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः ]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [१०], मूलं [ ३५६ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्या
प्रज्ञधिः अभयदेवीया वृत्तिः १
॥४२०॥
कतिविहे णं भंते ! पोरगलपरिणामे पण्णत्ते ?, गोयमा ! पंचविहे पोग्गल परिणामे पण्णत्ते, तंजहा-वन्न| परिणामे १ गंधप० २ रसप० ३ फासप० ४ संठाणप० ५। वनपरिणामे णं कविहे पण्णत्ते ?, गोपमा ! पंचविहेपण्णत्ते, तंजहा-कालवन्नपरिणामे जाव सुकिल्लवन्नपरिणामे, एएणं अभिलावेणं गंधपरिणामे दुबिहे रसप णामे पंचविहे फासपरिणामे अट्ठबिहे, संठाणप० भंते! कविहे पण्णत्ते १, गोपमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा- परिमंडलसंठाणपरिणामे जाव आययसंठाणपरिणामे ॥ (सूत्रं ३५६ ) ॥
'कविहे 'मित्यादि, 'वन्नपरिणामे' त्ति यत्पुद्गलो वर्णान्तरत्यागाद्वर्णान्तरं यात्यसौ वर्णपरिणाम इति, एवमन्यत्रापि, 'परिमंडलसं ठाणपरिणामे'त्ति इह परिमण्डलसंस्थानं वलयाकारं, यावत्करणाञ्च 'बट्टसंठाणपरिणामे तंससंठाणपरिणामे चरंस संठाणपरिणामे' त्ति दृश्यम् ॥ पुद्गलाधिकारादिदमाह -
एगे भंते! पोग्गलस्थिकायपरसे किं दवं १ दवदेसे २ दवाई ३ दवदेसा ४ उदाहु दहं च दवदेसे य ५ उदाह दबं च ववदेसा प ६ उदालु दवाई च दबदेसे य ७ उदाहु दवाई च दवदेसाय ८१, गोयमा ! सिय दूवं सिप दबदेसे नो दबाई नो दधदेसा नो दयं च दवदेसे य जांव नो दवाई च दषदेसा य ॥ दो भंते ! पोग्गलत्थिकायपरसा किं दक्षं दबदेसे पुच्छा तहेव, गोयमा । सिय दबं १ सिय दबदेसे २ सिप दवाई ३ सिय दधदेसा ४ लिय दक्षं च दवदेसे य ५ नो दवं च दधदेसा प ६ सेसा पडिसेहेयद्वा ॥ तिनि भंते! पोग्गलत्थिकायपणसा किं दक्षं दद्ददेसे० १ पुच्छा, गोयमा ! सिय दक्षं १ लिय दवदेसे २ एवं सत्त भंगा भाणियचा, जाव सिय दवाई
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८ शतके
उद्देशः १० पुङ्गलपरिणामः
सू ३५६ द्रव्यद्रव्यदेशादिः
सू ३५७
॥४२० ॥
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [३५७-३५८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३५७-३५८]
1ि5
च दरदेसे य नो दधदेसा य । चत्तारि भंते ! पोग्गल त्थिकायपएसा किं दई ? पुच्छा, गोयमा ! सिय दई १ हामियदेवदेसे २ अट्ठवि भंगा भाणियचा जाब सिय दवाई च दवदेसा य८।जहा चत्तारि भणिया एवं ||
पंच छ सत्त जाव असंखेजा । अणंता भंते ! पोग्गलस्थिकायपएसा किं दवं०१, एवं चेव जाव सिय दवाईच दबदेसा य ॥ (सूत्रं ३५७) केवतिया णं भंते ! लोयागासपएसा पन्नत्ता, गोयमा ! असंखेज्जा लोयागासपएसा पनत्ता ॥ एगमेगस्सणं भंते! जीवरस केवइया जीवपएसा पण्णत्ता,गोयमा! जावतिया लोगागासपएसा एगमेगस्स णं जीवस्स एवतिया जीवपएसा पण्णत्ता ॥ (सूत्रं ३५८)॥
एगे भंते ! पोग्गलत्थिकाये'इत्यादि, पुद्गलास्तिकायस्य-एकाणुकादिपुद्गलराशेः प्रदेशो-निरंशोऽशः पुद्गलास्तिकायप्रदेश-परमाणुः द्रव्य-गुणपर्याययोगि द्रव्यदेशो-द्रव्यावयवः, एवमेकत्थबहुत्वाभ्यां प्रत्येकविकल्पाश्चत्वारः, द्विकर्स- | योगा अपि चत्वार एवेति प्रश्नः, उत्तरं तु स्याद्रव्यं द्रव्यान्तरासम्बन्धे सति, स्थान्यदेशो द्रव्यान्तरसम्बन्धे सतिः शेषविकल्पानां तु प्रतिषेधः, परमाणोरेकत्वेन बहुस्वस्य द्विकसंयोगस्य चाभावादिति । 'दो भंते ! इत्यादि, इहाष्टासु
भनकेषु मध्ये आद्याः पञ्च भवन्ति, न शेषाः, तत्र द्वौ प्रदेशौ स्याद्रव्य, कथं ?, यदा तो द्विप्रदेशिकस्कन्धतया परिणती | है तदा द्रव्यं १, यदा तु वणुकस्कन्धभावगतावेव तो द्रव्यान्तरसम्बन्धमुपगतौ तदा द्रव्यदेशः २, यदा तु ती द्वावपि
भेदेन व्यवस्थितौ तदा द्रव्ये ३, यदा तु तावेव वणुकस्कन्धतामनापद्य द्रव्यान्तरेण सम्बन्धमुपगतौ तदा द्रव्यदेशाः ४, X|| यदा पुनस्तयोरेका केवलतया स्थितो द्वितीयश्च द्रव्यान्तरेण सम्बद्धस्तदा द्रव्यं च द्रव्यदेशश्चेति पश्चमः, शेषविकल्पाना ||
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दीप अनुक्रम [४३३-४३४]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [३५७-३५८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३५७-३५८]
३५८
दीप अनुक्रम [४३३-४३४]
व्याख्या- तु प्रतिषेधोऽसम्भवादिति ॥ 'तिमि भंते !'इत्यादि, त्रिषु प्रदेशेष्यष्टमविकल्पवर्जाः सप्त विकल्पाः संभवन्ति, तथाहि- शतके
प्रज्ञप्तिः ४ यदा त्रयोऽपि त्रिप्रदेशिकस्कन्धतया परिणतास्तदा द्रव्यं १, यदा तु त्रिप्रदेशिकस्कन्धतापरिणता एव द्रव्यान्तरसम्बन्ध- उद्देशः१० अभयदेवी
दिवालमुपगतास्तदा द्रव्यदेवाः २, यदा पुनस्ते त्रयोऽपि भेदेन व्यवस्थिता द्वौ वा व्यणुकीभूतावेकस्तु केवल एव स्थितस्तदा । या वृत्तिः२ ell 'दवाईति ३, यदा तु ते त्रयोऽपि स्कन्धतामनागता एव द्वौ वा व्यणुकीभूतावेकस्तु केवल एवेत्येवं द्रव्यान्तरेण संबद्धा-||
| व्यत्वादि ॥४२॥ | स्तदा 'दबदेसाइति ४, यदा तु तेषां द्वौ वणकतया परिणतावेकश्च द्रव्यान्तरेण संबद्धः अथवैका केवल एव स्थितो. यप्रदेशा
द्वौ तु व्यणुकतया परिणम्य द्रव्यान्तरेण संबद्धौ तदा 'दचं च दरदेसे य'ति ५, यदा तु तेषामेकः केवल एव स्थितो |सू ३५७. द्वौ च भेदेन द्रव्यान्तरेण संबद्धौ तदा 'दवं च दवदेसा यत्ति ६, यदा पुनस्तेषां दो भेदेन स्थितावेकश्च द्रव्यान्तरेण ||| संबद्धस्तदा 'दवाइं च दबदेसे यत्ति ७, अष्टमविकल्पस्तु न संभवति, उभयत्र त्रिषु प्रदेशेषु बहुवचनाभावात् , प्रदेशचतुष्टयादौ त्वष्टमोऽपि संभवति, उभयत्रापि बहुवचनसद्भावादिति ॥ अनन्तरं परमाण्वादिवक्तव्यतोक्का, परमाण्वादयश्च लोकाकाशप्रदेशावगाहिनो भवन्तीति तद्वक्तव्यतामाह-केवइया ण'मित्यादि, 'असंखेजत्ति यस्मादसोयप्रदेशिको लोकस्तस्मासस्य प्रदेशा असङ्ग्येया इति ॥ प्रदेशाधिकारादेवेदमाह-एगमेगस्से त्यादि, पकैकस्य जीवस्य तावन्तः प्रदेशा यावन्तो लोकाकाशस्य, कथं ?, यस्माज्जीवः केवलिसमुद्घातकाले सर्व लोकाकाशं व्याप्यावतिष्ठति तस्माल्लोकाकाशप- ॥४२१॥ देशप्रमाणास्त इति ।। जीवप्रदेशाश्च प्रायः कर्मप्रकृतिभिरनुगता इति तद्वक्तव्यतामभिधातुमाह
कति णं भंते । कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ?, गोयमा ! अट्ठ कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-नाणावर
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कर्म-प्रकृते: अष्टविध-भेदा:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [३५९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३५९]
18णिज्जं जाच अंतराइयं, नेरइयाण भंते ! कइ कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ?, गोयमा ! अह, एवं सघजीवाणं
अट्ट कम्मपगडीओ ठावेयच्चाओ जाव वेमाणियाणं । नाणावरणिज्जस्स णं भंते ! कम्मस्स केवतिया अधिभागपलिच्छेदा पण्णत्ता, गोयमा ! अर्णता अविभागपलिकछेदा पण्णत्ता, नेरइयाणं भंते ! णाणावरणिजस्स कम्मस्स केवतिया अविभागपलिच्छेया पपणत्ता?, गोयमा ! अर्णता अविभागपलिच्छेदा पण्णत्ता, एवं
सघजीवाणं जाव येमाणियाणं पुच्छा, गोयमा ! अणंता अविभागपलिच्छेदा पण्णता, एवं जहा णाणावर#णिजस्स अविभागपलिच्छेदा भणिया तहा अट्टहवि कम्मपगडीणंभाणियषा जाव चेमाणियाणं । अंतराइ
यस्स । एगमेगस्स णं भंते ! जीवस्स एगमेगे जीवपएसे णाणावरणिज्जस्स कम्मरस केवइएहिं अविभागपलिलिच्छदेहिं आवेडिए परिवेदिए सिया?, गोयमा । सिय विढियपरिवेढिए सिय नो आवेढियपरिवेटिए, जह
आवेढियपरिवेटिए नियमा अणंतेहिं, एगमेगस्स णं भंते ! नेरदयस्स एगमेगे जीवपएसे गाणावरणिजस्स कम्मरस केवइएहिं अविभागपलिच्छेदेहिं आवेढिए परिवेढिते !, गोयमा! नियमा अणंतेहिं, जहा नेरइय|स्स एवं जाच वेमाणियस्स, नवरं मणूसस्स जहा जीवस्स । एगमेगस्स णं भंते । जीवस्स एगमेगे जीवपएसे *दरिसणावरणिज्जस्स कम्मस्स केवतिएहिं एवं जहेव नाणावरणिजस्स तहेब दंडगो भाणियबो जाव वेमाणि
यस्स, एवं जाव अंतराइयस्स भाणियई, नवरं वेयणिजस्स आउयस्स णामस्स गोयस्स एएसिं चउण्हवि || कम्माणं मणूसस्स जहा नेरइयरस तहा भाणिय सेसं तं चेव ॥ (सूत्रं ३५९)॥
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दीप अनुक्रम [४३५]
कर्म-प्रकृते: अष्टविध-भेदा:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक -], उद्देशक [१०], मूलं [३५९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३५९]
व्याख्या
'कइ ण मित्यादि, 'अविभागपलिच्छेद'त्ति परिच्छिद्यन्त इति परिच्छेदा-अंशास्ते च सविभागा अपि भवन्त्यतो शतके प्रज्ञप्ति विशेष्यन्ते-अविभागाश्च ते परिच्छेदाश्चेत्यविभागपरिच्छेदार, निरंशा अंशा इत्यर्थः, ते च ज्ञानावरणीयस्य कर्मणोड- उद्देशः १० अभयदेवी- नन्ताः, कथं , ज्ञानावरणीयं यावतो ज्ञानस्याविभागान् भेदान् आवृणोति तावन्त एव तस्याविभागपरिच्छेदाः, दलि-8 कर्मपरिया वृत्तिः२ कापेक्ष्या वाऽनन्ततत्परमाणुरूपाः, 'अविभागपलिच्छेदेहिंति तत्परमाणुभिः 'आवेदिए परिवेडिए'त्ति आवेष्टितप
सु ३५९ ॥४२२॥ | रिवेष्टितोऽत्यन्तं परिवेष्टित इत्यर्थः आवेष्ट्य परिवेष्टित इति वा 'सिय नो आवेढियपरिवेढिए'त्ति केवलिनं प्रतीत्य
तस्य क्षीणज्ञानावरणत्वेन तत्प्रदेशस्य ज्ञानावरणीयाविभागपलिच्छेदैरावेष्टनपरिवेष्टनाभावादिति । 'मणूसस्स जहा जीवस्स'त्ति 'सिय आवेढियेत्यादि वाच्यमित्यर्थः, मनुष्यापेक्षयाऽऽवेष्टितपरिवेष्टितत्वस्य तदितरस्य च सम्भवात् । एवं दर्शनावरणीयमोहनीयान्तरायेप्वपि वाच्यं, वेदनीयायुप्कनामगोत्रेषु पुनर्जीवपद एव भजना वाच्या सिद्धापेक्षया, मनुष्यपदे तु नासी, तत्र वेदनीयादीनां भावादित्येतदेवाह-'नवरं वेयणिजस्से'त्यादि ॥ अथ ज्ञानावरणं शेषैः
सह चिन्त्यतेIPL जस्स णं भंते ! नाणावरणिज्ज तस्स दरिसणावरणिनं जस्स दसणावरणिज्जं तस्स नाणावरणिज, || गोयमा ! जस्स णं नाणावरणिजं तस्स दसणावरणिज्नं नियमा अस्थि जस्स दरिसणावरणिज्जं तस्सवि नाणावरणिजं नियमा अस्थि । जस्स णं भंते । णाणावरणिज्नं तस्स बेयणिजं जस्स वेयणिजं तस्स णाणाच
॥४२२॥ वरणिज्जं?, गोयमा ! जस्स नाणावरणिज्वं तस्स वेयणिज्ज नियमा अस्थि जस्स पुण वेयणिजं तस्स णाणाव-2
दीप अनुक्रम [४३५]
कर्म-प्रकृते: अष्टविध-भेदा: ज्ञानावरण-आदि कर्मन: सह अन्य कर्माणाम् संबंध:
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[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [३६०-३६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३६०-३६१]
दीप अनुक्रम [४३६-४३७]]
रणिजं सिय अस्थि सिय नत्थि । जस्स ण भंते ! नाणावरणिज्जं तस्स मोहणिज्जं जस्स मोहणिज्नं तस्स नाणावरणिज्जं?, गोयमा ! जस्स नाणावरणिज्जं तस्स मोहणिजं सिय अस्थि सिय नत्थि, जस्स पुण मोहणिजे
तस्स नाणावरणिज्जं नियमा अस्थि । जस्स णं भंते ! णाणावरणिज्जं तस्स आउयं एवं जहा वेयणिज्जेण समं । ४ भणियं तहा आउएणवि समं भाणियचं, एवं नामेणवि एवं गोएणचि समं, अंतराइएण समं जहा दरिस
णावरणिज्जेण समं तहेव नियमा परोप्परं भाणियवाणि १॥ जस्स णं भंते ! दरिसणावरणिज्जं तस्स वेयणिजं जस्स बेयणिज्जं तस्स दरिसणावरणिज्जं. जहा नाणावरणिज्ज उवरिमेहिं सत्तहिं कम्मेहि सम भणियं तहा दुरिसणावरणिजंपि उवरिमेहिं छहिं कम्मेहि समं भाणियई जाव अंतराइएणं २ । जस्स णं भंते ! वेयणिज्जं तस्स मोहणिज जस्स मोहणिज्जं तस्स वेयणिज्जं?, गोयमा ! जस्स बेयणिज्नं तस्स मोहणिज्जं सिय | अस्थि सिय नत्थि, जस्स पुण मोहणिलं तस्स वेयणिज्जं नियमा अस्थि । जस्स ण मंते । चेयणिजं तस्स आउयं.
एवं एयाणि परोपरं नियमा, जहा आउएण समं एवं नामेणवि गोएणवि समं भाणियर्छ । जस्स णं भंते ।। & वेयणिज्जं तस्स अंतराइयं ? पुच्छा, गोयमा ! जस्स वेयणिज्नं तस्स अंतराइयं सिय अस्थि सिय नत्थि, जस्स
पुण अंतराइयं तस्स चेयणिज्ज नियमा अस्थि ३ । जस्स णं भंते ! मोहणिज्नं तस्स आउयं जस्स आउयं तस्स ४ मोहणिज्न?, गोयमा । जस्स मोहणिज्जं तस्स आउयं नियमा अस्थि जस्स पुण आउयं तस्स घुण मोहणिज्ज लिसिय अस्थि सिय नस्थि, एवं नाम गोयं अंतराइयं च भाणियवं ४, जस्स णं भंते ! आउयं तस्स नाम
ॐॐॐॐॐ
ज्ञानावरण-आदि कर्मन: सह अन्य कर्माणाम् संबंध:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [३६०-३६१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३६०-३६१]
दीप अनुक्रम [४३६-४३७]]
व्याख्या-12 पुच्छा, गोयमा ! दोवि परोप्परं नियम, एवं गोत्तेणवि समं भाणियचं, जस्स णं भंते ! आउयं तस्स अंत-Pleशतके प्रज्ञातारायं.१, पुरुछा, गोयमा ! जस्स आउयं तस्स अंतराइयं सिय अस्थि सिय मस्थि, जस्स पुण अंतराइयं|४|| उद्देशः१० अभयदेवीया वृत्तिः |
तस्स आउयं नियमा ५। जस्स णं भंते ! नाम तस्स गोयं जस्स गं गोयं तस्सणं नाम ? पुच्छा, गोयमा ज्ञानावरजस्स णं णामं तस्स णं नियमा गोयं जस्स णं गोयं तस्स नियमा नाम, गोयमा ! दोवि एए परोप्परं नियमा,
णादिकम॥४२३॥ जस्स णं भंते ! णामं तस्स अंतराइयं० १ पुच्छा, गोयमा ! जस्स नामं तस्स अंतराइयं सिय अस्थि सियासू ३६०
1 संवेधः नस्थि, जस्स पुण अंतराइयं तस्स नाम नियमा अस्थि । जस्स णं भंते ! गोयं तस्स अंतराइयं०१ पुच्छा, जीवानां पु. गोयमा जस्स गंगोयं तस्स अंतराइयं सिय अस्थि सियनत्थि,जस्स पुण अंतराइयं तस्स गोयं नियमा अत्थिाद्लत्वादि (सूत्रं ३६०) जीवे णं भंते । किं पोग्गली पोग्गले ?, गोयमा ! जीवे पोग्गलीवि पोग्गलेवि, से केणद्वेणं भंते || || एवं बुचइ जीवे पोग्गलीवि पोग्गलेवि?, गोयमा! से जहानामए छत्सेणं छत्ती दंडेणं दंडी घडेणं घडी पडेणं पटी | 5 करेणं करी एवामेव गोयमा ! जीवेवि सोइंदियचक्खिदियघाणिदियजिभिदियफासिंदियाई पहुच पोग्गली, जीवं पडच पोग्गले, से तेणट्टेणं गोयमा! एवं बुचइ जीचे पोग्गलीवि पोग्गलेवि । नेरहए णे मंते! किं | ॥४२॥ पोग्गली, एवं चेव, एवं जाव वेमाणिए नवरं जस्स जइ इंदिया तस्स तइवि भाणियचाई। सिडेणं भंते किं पोग्गली पोग्गले, गोयमा ! नोपोग्गली पोग्गले, से केण?णं भंते । एवं बुच्चइ जाव पोग्गले ?, गोयमा!
ज्ञानावरण-आदि कर्मन: सह अन्य कर्माणाम् संबंध:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [३६०-३६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
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%
%
प्रत सूत्रांक [३६०-३६१]
4
कर
3
जीचं पडच, से तेण?णं गोयमा ! एवं बुधह सिद्धे नो पोग्गली पोग्गले। सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति ॥(सूत्रं ३६१) an८-१०॥ अट्ठमसए दशमः समत्तं अट्ठमं सयं ॥८॥ RI 'जस्स ण'मित्यादि, 'जस्स पुण बेयणिज्ज तस्स नाणावरणिज सिथ अस्थि सिय नस्थिति अकेवलिनं केवलिनं च प्रतीत्य, [अकेवलिनो हि वेदनीयं ज्ञानावरणीयं चास्ति, केवलिनस्तु वेदनीयमस्ति न तु ज्ञानावरणीयमिति । 'जस्स णाणावरणिज तस्स मोहणिज सिय अस्थि सिय नस्थित्ति अक्षपर्क क्षपकं च प्रतीत्य, अक्षपकस्य हि ज्ञानावरणीय मोहनीयं चास्ति, क्षपकस्य तु मोहक्षये यावत् केवलज्ञानं नोत्पद्यते तावज्ज्ञानावरणीयमस्ति न तु मोहनीयमिति । एवं च यथा ज्ञानावरणीयं वेदनीयेन सममधीतं तथाऽऽयुषा नाम्ना गोत्रेण च सहाध्येयं, उक्तमकारेण भजनायाः सर्वेषु तेषु भावात् , 'अंतराएणं च || सम' ज्ञानावरणीयं तथा वाच्यं यथा दर्शनावरण, निर्भजनमित्यर्थः, एतदेवाह-एवं जहा वेयणि ण सम'मित्यादि, |'नियमा परोप्परं भाणियवाणि'त्ति कोऽर्थः -'जस्स नाणावरणिजं तस्स नियमा अंतराइयं जस्स अंतराइयं तस्स | नियमा नाणावरणिज्ज'मित्येवमनयोः परस्परं नियमो वाच्य इत्यर्थः ॥ अथ दर्शनावरणं शेषैः पद्भिः सह चिन्तयन्नाह'जस्से'त्यादि, अयं च गमो ज्ञानावरणीयगमसम एवेति । 'जस्सणं भंते ! वेयणिज्ज'मित्यादिना तु वेदनीयं शेषैः पश्चभिः सह चिन्त्यते, तत्र च 'जस्स वेयणिज तस्स मोहणिज सिय अस्थि सिय नस्थित्ति अक्षीणमोई क्षीणमोहं च प्रतीत्य, अक्षीणमोहस्य हि वेदनीय मोहनीयं चास्ति, क्षीणमोहस्य तु वेदनीयमस्ति नतु मोहनीयमिति । 'एवं एयाणि परोप्परं| नियम'त्ति कोऽर्थः -यस्य वेदनीयं तस्य नियमादायुर्यस्यायुस्तस्य नियमावेदनीयमित्येवमेते वाच्ये इत्यर्थः, एवं नामगो.
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दीप अनुक्रम [४३६-४३७]]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [३६०-३६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३६०-३६१]
ASTRA
दीप अनुक्रम [४३६-४३७]]
त्राभ्यामपि वाच्यं, एतदेवाह-'जहा आउएणे त्यादि, अन्तरायेण तु भजनया यतो वेदनीय अन्तरायं चाकेवलिनामस्ति शतके प्रज्ञप्तिः
केवलिनां तु वेदनीयमस्ति न वन्तराय, पतदेव दर्शयतोकं 'जस्स वेयणिज तस्स अंतराइयं सिय अस्थि सिय नत्थि'त्ति अभयदेवी
है ज्ञानावर
उशः १० यावृत्तिः२५
॥ अथ मोहनीयमन्यैश्चतुर्भिः सह चिन्त्यते, तत्र यस्य मोहनीयं तस्यायुर्नियमादकेवलिन इव, यस्य पुनरायुस्तस्य मोहनीयं XIMER
भजनया, यतोऽक्षीणमोहस्यायुर्मोहनीयं चास्ति क्षीणमोहस्य त्वायुरेवेति, 'एवं नामं गोयं अंतराइयं च भाणिय'ति, संवेधः ॥४२४॥ अयमर्थः-यस्य मोहनीयं तस्य नाम गोत्रमन्तरायं च नियमादस्ति, यस्य पुनर्नामादित्रयं तस्य मोहनीयं स्यादस्त्यक्षीण- सू ३६०
४॥ मोहस्येव, स्थानास्ति क्षीणमोहस्येवेति ॥ अथायुरन्यै खिभिः सह चिन्त्यते--'जस्स णं भंते । आय'मित्यादि.दोवि| जीवाना परोप्परं नियम'त्ति कोऽर्थः -'जस्स आउयं तस्स नियमा नाम जस्स नामं तस्स नियमा आउय'इत्यर्थः, एवं गोत्रे-FITH
पुद्गलत्वादि |णापि, 'जस्स आउयं तस्स अंतराइयं सिय अस्थि सिय नस्थिति यस्यायुस्तस्यान्तरायं स्यादस्ति अकेवलिवत् स्थानास्ति
केवलिवदिति । 'जस्स णं भंते ! णाम इत्यादिना नामान्येन द्वयेन सह चिन्त्यते, तत्र यस्य नाम तस्य नियमाद्गोत्रं टू यस्य गोत्रं तस्य नियमानाम, तथा यस्य नाम तस्यान्तरायं स्यादस्त्यकेवलिवत् स्यानास्ति फेवलिवदिति । एवं गोत्रान्तहै राययोरपि भजना भावनीयेति ॥ अनन्तरं कर्मोक्तं तच्च पुद्गलात्मकमतस्तदधिकारादिदमाह-'जीवे 'मित्यादि, ven || 'पोग्गलीवि'त्ति पुद्गला:-श्रोत्रादिरूपा विद्यन्ते यस्यासौ पुद्गली, 'पुग्गलेवित्ति 'पुद्गल इति सज्ञा जीवस्य ततस्तयोगात् | पुनल इति । एतदेव दर्शयन्नाह-से केणटेण मित्यादि ॥ अष्टमशते दशमः ॥ ८-१०॥
अत्र अष्टम-शतके दशम-उद्देशक: समाप्त:
तत् समाप्ते अष्टमं शतकं अपि समाप्तं
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [३६२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३६२]
सद्भक्त्याहुतिना विवृद्धमहसा पार्थप्रसादाग्निना, तन्नामाक्षरमन्त्रजप्तिविधिना विनेन्धनप्लोषितः। सम्पन्नेऽनधशान्तिकर्मकरणे क्षेमादहं नीतवान् , सिद्धिं शिल्पिवदेतदष्टमशतच्याख्यानसन्मन्दिरम् ॥१॥
. ॥ समाप्तं चाष्टमशतम् ॥ ८॥ प्रन्यायम् ९४३८॥
गाथा
दीप
व्याख्यातमष्टमशतमथ नवममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-अष्टमशते विविधाः पदार्था उकार, नवमेऽपि। त एव भजयन्तरेणोच्यन्ते, इत्येवंसम्बन्धस्योद्देशकार्थसंसूचिकेयं गाथा| जंबुद्धीवे १ जोइस २ अंतरदीवा ३० असोच ३१ गंगेय ३२॥ कुंडग्गामे ३३ पूरिसे ३४ नवमंमि सए | चउत्तीसा॥१॥
'जंबुद्धीवे'इत्यादि, तत्र 'जंबुद्दीचे'त्ति तत्र जम्बूद्वीपवक्तव्यताविषयः प्रथमोद्देशकः १, 'जोइस'त्ति ज्योतिष्कविषयो | द्वितीयः २, 'अंतरदीच'त्ति अन्तरद्वीपविषया अष्टाविंशतिरुद्देशकाः ३०, 'असोच'त्ति अश्रुत्वा धर्म लभेतेत्याधर्थप्रति
|पादनार्थ एकत्रिंशत्तमः ३१, 'गंगेय'त्ति गाङ्गेयाभिधानगारवक्तव्यताओं द्वात्रिंशत्तमः ३२, 'कुंडग्गामेत्ति ब्राह्मणकु॥ण्डग्रामविषयखयखिंशत्तमः २३, 'पुरिसे'त्ति पुरुषः पुरुष भन्नित्यादिवक्तव्यतार्थश्चतुर्विंशत्तम २४ इति ॥ हैतेणं कालेणं तेणं समएणं मिहिलानाम नगरी होत्था बन्नओ, माणभद्दे चेहए वनओ, सामी समोसढे
परिसा निग्गया जाव भगवं गोयमे पज्जुवासमाणे एवं बयासी-कहिणं भंते ! जंबुद्दीये दीवे ? किंसंठिए णं
अनुक्रम [४३८-४३९]
अथ नवमं शतकं आरब्धं
अथ नवमे शतके प्रथम-उद्देशक: आरभ्यते
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [३६२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३६२]
गाथा
व्याख्या-
भंते ! जंबुद्दीवे दीवे एवं जंबुद्दीवपन्नत्ती भाणियबा जाव एवामेव सपुत्वावरेणं जंबुद्धीवे २ चोइस सलिला |९ शतके
भता प्रज्ञप्तिः ॥ सयसहस्सा छप्पन्नं च सहस्सा भवंतीतिमक्खाया। सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति ॥ (सूत्रं ३६२)॥ नवमस्स उद्देशः१ अभयदेषी- पढमो॥९-१॥
जम्बूसंग्रहया वृत्तिः२|| कहिण भंते इत्यादि, कस्मिन् देशे इत्यर्थः 'एवं जंबुद्धीवपन्नती भाणिय'त्ति, सा चेयम्-'केमहालए णं भंते !| ॥४२५॥
जबहीवे दीवे किमागारभावपडोयारेण भंते ! जंबुद्दीवे दीवे पन्नते?' कस्मिन्नाकारभावे प्रत्यवतारो यस्य स तथा 'गोयमा|| & अयन जंबुद्दीवे दीवे सबदीवसमुद्दाणं सबभतरए सबसुड्डाए कहे तिलपूयसंठाणसंठिए चट्टे रहचकवालसंठाणसंठिए बढेर
पुक्खरकक्षियासंठाणसंठिए बट्टे पडिपुन्नचंदसंठाणसंठिए पन्नत्ते एग जोयणसयसहस आयामविक्खंभेण मित्यादि, किम|न्तेयं व्याख्या । इत्याह-जावेत्यादि, 'एवामेव'त्ति उकेनैव न्यायेन पूर्वापरसमुद्रगमनादिना 'सपुषावरेणं'ति सह पूर्षण नदीवृन्देनापरं सपूर्वापरं तेन 'चोरस सलिला सयसहस्सा छप्पन च सहस्सा भवतीति मक्खाय'त्ति इह 'सलिला शतसहस्राणि नदीलक्षाणि, एतत्सङ्ख्या चैवं-भरतैरावतयोर्गङ्गासिन्धुरस्कारक्तवत्यः प्रत्येक चतुर्दशभिर्नदीनां सहर्युक्ताः, तथा हैमवतैरण्यवतयोः रोहिद्रोहितांशा सुवर्णकूला रूप्यकूलाः प्रत्येकमष्टाविंशत्या सहनैर्युक्ताः, तथा हरिवर्षरम्यकवर्षयोहरिहरिकान्तानरकान्तानारीकान्ताः प्रत्येकं षट्पञ्चाशता सहस्रैर्युताः समुद्रमुपयान्ति, तथा महाविदेहे शीताशीतोदे प्रत्येक पञ्चभिल क्षेत्रिंशता च सहमयुक्त समुद्रमुपयात इति, सर्वासां च मीलने सूत्रोक्तं प्रमाणं |
॥४२५॥ | भवति, वाचनान्तरे पुनरिदं दृश्यते-'जहा जंबूहीवपश्नत्तीए तहा यवं जोइसविहूणं जाव-खंडा जोयण वासा पक्ष्य
दीप
+
44COM
C
अनुक्रम [४३८-४३९]
%
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [३६२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३६२]
गाथा
कडा य तित्थ सेढीओ। विजयद्दहसलिलाउ य पिंडए होति संगहणी ॥१॥ति, तत्र 'जोइसवितणं'ति जंबद्वीपप्रज्ञायां | ज्योतिष्कवक्तव्यताऽस्ति तद्विहीनं समस्तं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रमस्योद्देशकस्य सूत्र ज्ञेयं, किंपर्यवसानं पुनस्तद् इत्याह'जाव खंडे'त्यादि, तत्र खंडे'त्ति जम्बूद्वीपो भरतक्षेत्रप्रमाणानि खण्डानि कियस्ति स्यात् !, उच्यते, नवत्यधिक खण्ड| शतं, 'जोयण'त्ति जम्बूद्वीपः कियन्ति योजनप्रमाणानि खण्डानि स्यात् ।, उच्यते,-'सत्तेव य कोडिसया णउया छप्पभसयसहस्साई । चउणउई च सहस्सा सय दिवहुं च साहीयं ॥१॥ गाउयमेगं पारस धणुस्सया तह धणूणि पन्नरस । सहि च अंगुलाई जंबुद्दीवस्स गणियपयं ॥२॥ इति, गणितपदमित्येवंप्रकारस्य गणितस्य सज्ञा 'वास'त्ति जम्बू
द्वीपे भरतहेमवतादीनि सप्त वर्षाणि क्षेत्राणीत्यर्थः, 'पचय'त्ति जम्बूद्वीपे कियन्तः पर्वताः ।, उच्यन्ते, पद् वर्षधरपर्वता IM हिमवदादयः एको मन्दरः एकश्चित्रकूटः एक एव विचित्रकूटः, एतौ च देवकुरुषु, द्वौ यमकपर्वती, पती चोत्तरकुरुषु,
| वे शते काननकानाम् , एते च शीताशीतोदयोः पार्श्वतो, विंशतिः वक्षस्काराः, चतुर्विंशदीर्घविजयाचपर्वताश्चत्वारो वर्नुIR लविजयार्डाः, एवं वे शते एकोनसप्तत्यधिके पर्वतानां भवतः, 'कूड'त्ति कियन्ति पर्वतकूटानि , उच्यते, पट्पञ्चाशद्वर्ष-113 | धरकूटानि षण्णवतिर्वक्षस्कारकूटानि त्रीणि पडुत्तराणि विजयाचें कूटानां शतानि नव च मन्दरकूटानि, एवं चत्वारि सप्तपट्याधिकानि कूटशतानि भवन्ति, 'तित्यत्ति जम्बूद्वीपे कियन्ति तीर्थानि !, उच्यते, भरतादिषु चतुस्विंशति खण्डेषु
१ सप्वैव कोटीशतानि नवतिः कोट्यः षट्पञ्चाशलक्षाश्चतुर्नवतिः सहस्राणि साधिकं साधं शतं च ॥१॥ गव्यूतमेकं पञ्चदशाधिकानि ॐ पञ्चदश शतानि धषि पष्टिश्चाङ्गुलानां जम्बुद्वीपस्तदू गणितपदम् ॥२॥
RASESCARSA
दीप
अनुक्रम [४३८-४३९]
ASEX
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [३६२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३६२]
मागधवरदामप्रभासाख्यानि त्रीणि त्रीणि तीर्थानि भवन्ति, एवं चैकं व्युत्तरं तीर्थशतं भवतीति, सेढीओत्ति विद्याधर- प्रज्ञप्ति
९ शतके अभयदेवी
श्रेणयः आभियोगिकश्रेणयश्च कियन्त्यः १, उच्यते, अष्टषष्टिः प्रत्येकमासां भवन्ति, विजया पर्वतेषु प्रत्येक द्वयोर्द्धयो-18 उद्देशः१ या वृत्तिः२८
र्भावात् , एवं च षट्त्रिंशदधिकं श्रेणिशतं भवतीति, 'विजय'त्ति कियन्ति चक्रवर्तिविजेतव्यानि भूखण्डानि !, उच्यते, जम्बूसंग्रह
चतुस्त्रिंशत्, एतावन्त एव राजधान्यादयोऽर्था इति, 'दह'त्ति कियन्तो महादाः, उच्यते, पद्मादयः पद दशचणीसू३५२ ॥४२६॥ नीलवदादय उत्तरकुरुदेवकुरुमध्यवर्तिन इत्येवं षोडश, 'सलिल'त्ति नद्यस्तत्प्रमाणं च दर्शितमेव, 'पिंडए होति संग
साहणि'त्ति उदेशकार्थानां पिण्डके-मीलके विषयभूते इयं सङ्ग्रहणीगाथा भवतीति ॥ नवमशते प्रथमः ॥ ९-१॥
गाथा
दीप
अनुक्रम [४३८-४३९]
अनन्तरोद्देशके जम्बूद्वीपवक्तव्यतोक्ता द्वितीये तु जम्बूद्वीपादिषु ज्योतिष्कवक्तव्यताऽभिधीयते, तस्य चेदमादिसूत्रम्रायगिहे जाब एवं क्यासी-जम्बुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइया चंदा पभासिंसु वा पभासेंति वा पभासिस्संति वा, एवं जहा जीवाभिगमे जाव-'एगं च सयसहस्सं तेत्तीसं खलु भवे सहस्साई । नव यसपा पदिनासा तारागणकोडिकोडीणं ॥१॥' सोमं सोभिम सोभिति सोभिस्संति ॥ (सूत्रं ३६३) लवणे णं भंते ।
समुहे केवतिया चंदा पभासिसुवा पभासिति वा पभासिस्संति वा एवं जहा जीवाभिगमेजाव ताराओ|| ॥४२६॥ धायइसंडे कालोदे पुक्खरवरे अम्भितरपुक्खर मणुस्सखेत्ते, एएसु सन्चेसु जहा जीवाभिगमे जाव-एगससीपरिवारो तारागणकोडाकोटीणं ।' पुक्खरहे णं भंते ! समुझे केवइया चंदा पभार्सिसु वा', एवं सबेस
SAEBARESMS
अत्र नवमे शतके प्रथम-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ नवमे शतके द्वितीय उद्देशक: आरभ्यते
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आगम [०५]]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३६३, ३६३R] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
ॐ
प्रत सूत्रांक [३६३]
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गाथा
दीवसमुरेसु जोतिसियाणं भाणियचं जाव सयंभूरमणे जाव सोभं सोभिंसु वा सोभति वा सोभिस्संतिका सेवं भंते । सेवं भंतेत्ति ॥ (सूत्रं ३६३) नवमसए बीओ उद्देसो समत्तो ।।९-२॥
'रायगिहे'इत्यादि, 'एवं जहा जीवाभिगमे'त्ति तत्र चैतत्सूत्रमेवम्-'केवतिया चंदा पभासिसु वा पभासिति वा |पभासिस्संति वा ३१ केवतिया सूरिया तर्विसु वा तवंति वा तविस्संति वा केवइया नक्वत्ता जोयं जोईसु वा ३१ | केवइया महग्गहा चारं चरिंसु वा ३१ केवइयाओ तारागणकोडाकोडीओ सोहिं सोहिंसु वा ३१ शोभां कृतवत्य इत्यर्थः, 'गोतमा ! जंबूहीवे दीवे दो चंदा पभासिसु वा ३ दो सूरिया तर्विसु वा ३ छप्पन्नं नक्खता जोगं जोइंसु वा ३ छावत्तरं गहसयं चार चरिंसु वा ३' बहुवचनमिह छान्दसत्वादिति, 'पगं च सयसहस्सं तेत्तीस खलु भवे सहस्साई शेष तु सूत्रपुस्तके लिखितमेवास्ते ॥ 'लवणे णं भंते इत्यादी 'एवं जहा जीवाभिगमे'त्ति तत्र चेदं सूत्रमेवं-केवइया || चंदा पभासिसु वा ३ केवतिया सूरिया तर्विसु वा ३'इत्यादि प्रश्नसूत्र पूर्ववत् , उत्तरं तु 'गोयमा! लवणे णं समुदे चत्वारि
चंदा पभासिसु वा ३ चत्तारि सूरिया तर्विसु वा ३ बारसोत्तरं नक्खत्तसयं जोगं जोइंसु वा ३ तिति बावन्ना महग्गह४ सया चारं चरिंसु वा ३ दोनि सयसहस्सा सत्तहिं च सहस्सा नवसया तारागणकोडिकोडीणं सोहं सोहिंसु वा ३५ सूत्र
पर्यन्तमाह-'जाव ताराओ'त्ति तारकासूत्रं यावत्तच्च दर्शितमेवेति । 'धायइसंडे'इत्यादौ यदुक्तं 'जहा जीवामि-1 गमे तदेवं भावनीयं-धायइसंडे णं भंते ! दीवे केवतिया चंदा पभासिसु वा ३ केवतिया सूरिया तर्विसु वा ३१ इत्यादिप्रश्नाः पूर्ववत्, उत्तरं तु 'गोयमा ! बारस चंदा पभासिसु वा ३ बारस सूरिया तविंसु वा ३, एवं-'वउवीस ||
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*
दीप
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अनुक्रम [४४०-४४३]
...अब सूत्र क्रमांक ३६३ द्वि-वारान् मुद्रितं तत् मुद्रण-दोष: संभाव्यते
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आगम [०५]]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३६३, ३६३R] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३६३]
शतके ससिरविणो नक्खत्तसया य तिमि छत्तीसा। एगच गहसहसं छप्पन्न धायईसंडे ॥१॥ अद्वेव सयसहस्सा तिमि सहव्याख्या
तीन सहा उद्देशः१ प्रप्तिःस्साई सत्त य सयाई । धायइसंडे दीवे तारागणकोडिकोडीणं ॥२॥ सोहं सोहिंसु वा 'कालोए णं भंते ! समुद्दे अभवदवा केवतिया चंदा इत्यादि प्रश्नः, उत्तरं तु 'गोयमा ! 'बायालीसं चंदा बायालीसं च दिणयरा दित्ता । कालोदहिमि एएणीस २६३ या वृत्तिा
४चरंति संबद्धलेसागा ॥१॥ नक्खत्तसहस्स एगं एगं छावत्तरं च सयमन्नं । छच्च सया छन्नउया महागहा तिनि य,
|| ॥४२७॥ सहस्सा ॥२॥ अठ्ठावीस कालोदहिमि बारस य तह सहस्साइं । णव य सया पन्नासा तारागणकोडिकोडीणं ॥३॥ सोहं द
सोहिंसु वा ।' तथा 'पुक्खरवरदीवेणं भंते ! दीवे केवइया चंदा इत्यादि प्रश्नः, उत्तरं खेतद्गाथाऽनुसारेणावसेयं'चोयालं चंदसर्य चोयालं चेव सूरियाण सयं । पुक्खरवरंमि दीवे भमंति एए पयासिंता॥१॥ इह च यद्धमणमुक्त।
न तत्सर्वाश्चन्द्रादित्यानपेक्ष्य, किं तर्हि, पुष्करद्वीपाभ्यन्तरार्द्धवर्तिनी द्विसप्ततिमेवेति, 'चत्तारि सहस्साई बत्तीसं चेव ट्र माहोति नक्खता । छ सया बावत्तरि महागहा भारससहस्सा ॥१॥छसखाइ सयसहस्सा चोयालीसं भवे सहस्साई
चत्तारि सया पुक्खरि तारागणकोडिकोडीणं ॥१॥ सोहं सोहिंसु वा' । तथा-'अम्भितरपुक्खरद्धे णं भंते ! केवतिया चंदा इत्यादि प्रश्नः, उत्तरं तु-बावत्तरि च चंदा बावत्तरिमेव दिणयरा दित्ता । पुक्खरवरदीवहे चरंति एए पभासिंता॥१॥ तिनि सया छत्तीसा छच्च सहस्सा महग्गहाणं तु । नक्खत्ताणं तु भवे सोलाई दुवे सहस्साई ॥२॥ अडयाल सयसहस्सा बावीसं खलु भवे सहस्साई। दो य सय पुक्खरखे तारागणकोडिकोडीणं ॥३॥ सोभं सोभिंसु वा ३।' तथा 'मणुस्सखेत्ते णं भंते ! केवइया चंदा इत्यादि प्रश्नः, उत्तरं तु-'बत्तीस चंदसर्य बत्तीस चेव सूरियाण|
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गाथा
दीप
॥४२७॥
अनुक्रम [४४०-४४३]
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आगम [०५]]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३६३, ३६३R] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३६३]
गाथा
सयं । सयलं मणुस्सलोयं चरति एए पयासिता ॥१॥ एकारस य सहस्सा छप्पिय सोला महागहाणं तु । छच्च सया छण्णउया णक्खत्ता तिन्नि य सहस्सा ॥२॥ अडसीइ सयसहस्सा चालीस सहस्स मणुयलोगंमि । सत्त य सया अणूणा|| तारागणकोडिकोटीणं ॥३॥इत्यादि, किमन्तमिदं वाच्यम् । इत्याह-'जावेत्यादि, अस्य च सूत्रांशस्यायं पूर्वोऽश:-18 'अट्ठासीईप गहा अट्ठावीस च होइ नक्सत्ता । एगससीपरिवारो एत्तो ताराण वोच्छामि ॥१॥ छावहि सहस्साई नव घेव| सयाई पंच सयराई'ति । 'पुक्खरोदे णं भंते! समुद्दे केवइया चंदा' इत्यादी प्रश्ने इदमुत्तरं दृश्य-संखेज्जा चंदा पभासिंसु वा ३' इत्यादि, 'एवं ससु दीवसमुद्रसुत्ति पूर्वोक्तेन प्रश्नेन यथासम्भवं सङ्ग्याता असलाताच चन्द्रादय इत्यादिना चोत्तरेणेत्यर्थः, द्वीपसमुद्रनामानि चैवं-पुष्करोदसमुद्रादनन्तरो वरुणवरो द्वीपस्ततो वरुणोदः समुद्रः, एवं क्षीरवरक्षीरोदौ । घृतवरघृतोदौ क्षोदवरक्षोदोदी नन्दीश्वरवरनन्दीश्वरोदौ अरुणारुणोदी अरुणवरारुणवरोदौ अरुणवरावभासारुणवरावभासोदो कुण्डलकुण्डलोदी कुण्डलवरकुण्डलवरोदौ कुण्डलवरावभासकुण्डलवरावभासोदौरुचकरुचकोदो रुचकवररुचकवरोदी| दारुचकवरावभासरुचकवरावभासोदी इत्यादीन्यसातानि, यतोऽसङ्ख्याता द्वीपसमुद्रा इति ।। नवमशते द्वितीयः॥९-२॥
द्वितीयोदेशके द्वीपवरवक्तव्यतोक्का, तृतीयेऽपि प्रकाराम्तरेण सैवोच्यते, इत्येवंसम्बन्धस्यास्वेदमादिसूत्रम्
रायगिहे जाव एवं वयासी-कहि णं भंते! दाहिणिल्लाणं एगोस्यमणुस्साणं एगोरुयदीवेणामंदीवे पन्नत्ते, गोयमा बुद्धीवे दीवे मंदरस्स पवयस्स दाहिणणं चुल्लहिमवंतस्स वासहरपवयस्स पुरच्छिमिलामो परिमंताओ लवणसमुई उत्तरपुरच्छिमेणं तिनि जोयणसयाईओगाहित्ता एत्थ गंदाहिणिल्लाणं एगोख्यमणुस्साणं एगोश्य
XXXSAEXXXAS
दीप
ॐ
अनुक्रम [४४०-४४३]
अत्र नवमे शतके द्वितीय-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ नवमे शतके तृतीयात् त्रिंशत् पर्यन्ता: उद्देशका: आरभ्यते
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३-३०], मूलं [३६४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३६४]
व्याख्या-दीवे नाम दीवे पण्णत्ते, तं गोयमा! तिनि जोयणसयाई आयामविक्खंभेणं णवएकोणवन्ने जोयणसए किंचि- ९ शतके प्रज्ञप्तिः
विसेसूणे परिक्खेवेणं पन्नत्ते, से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सबओ समंता संपरिक्खिस्ते में उद्देशाअभयदेवीयावृत्तिः२
दोण्हवि पमाणं वन्नओ य, एवं एएणं कमेणं जहा जीवाभिगमे जाव सुद्धदतदीचे जाव देवलोगपरिग्गहिया ३० अन्तर&ाणं ते मणुया पण्णत्ता समणाउसो।। एवं अट्ठावीसं अंतरदीवा सएणं २ आयामविक्खंभेणं भाणियचा.
द्वीपा ॥४२८॥ नवरं दीवे २ उद्देसओ, एवं सबेवि अट्ठावीसं उद्देसगा भाणियबा । सेवं भंते! सेवं भंते! ति॥ (सूत्र ३६४)
नवमस्स तईयाइआ तीसंता उद्देसा समत्ता ।। ३ ।।
'रायगिहे'इत्यादि, दाहिणिल्लाणं'ति उत्तरान्तरद्वीपन्यवच्छेदार्थम् एवं जहा जीवाभिगमेत्ति, तत्र घेदभेवं सर्व'चुल्लहिमवंतस्स वासहरपवयस्स उत्तरपुरच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुई तिनि जोयणसयाई ओगाहित्ता एस्थ ण | दाहिणिहाणं एगोरुयमणुस्साणं एगोरुयनाम दीवे पन्नत्ते, तिन्नि जोयणसयाई आयामविक्रमेणं नवएगणपने जोयणसए 3/ [किंचिविसेसूणे परिक्खेवण, से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सबओ समता संपरिक्सित्ते'इत्यादि, इह ट्रा |च वेदिकावनखण्डकल्पवृक्षमनुष्यमनुष्यीवर्णकोऽभिधीयते, तथा तन्मनुष्याणां चतुर्थभक्कादाहारार्थ उत्पद्यते, ते च|| ४ १ अतः बमे निर्देश्यमाणात् 'जहा जीवाभिगमे उत्तरकुरुवत्तवयाए' इत्यतिदेशाचानुमीयते एतद्यदुत केषुचित्तदानीतनेषु जीवामिग-2 || मादर्शेषु अभूतु एकोरुकवक्तव्यतासूत्रे कल्पवृक्षादिवर्णनं केषुचिच्चोतरकुरुवक्तव्यताया, तथा च जीवामिगमसूत्रे एकोरुकवक्तव्यतायां कस्स-18
॥४२८॥ IPक्षादिवर्णनेऽपि वृत्तौ प्रतीकधृतिपूर्वमुचरकुरुवक्तव्यतायां व्याख्यानं कल्पवृक्षादेताह शादर्शदर्शनमूलमेव.
दीप अनुक्रम [४४४]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक -, उद्देशक [३-३०], मूलं [३६४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३६४]
धिवीरसपुष्पफलाहाराः, तत्पृथिवी च रसतः खण्डादितुल्या, ते च मनुष्या वृक्षगेहार, तत्र च गेहाथभावा, तम्मनुघ्याणां च स्थितिः पल्योपमासययभागप्रमाणा, षण्मासावशेषायुषश्च ते मिथुनकानि प्रसुवते, एकाशीतिं च दिनानित | तेऽपत्यमिधुनकानि पालयन्ति, उच्छसितादिना च ते मृत्वा देवेषूयन्ते, इत्यादयश्चार्था अभिधीयन्ते इति, वाचनान्तरे विदं दृश्यते एवं जहा जीवाभिगमे उत्तरकुरुवत्तषयाए यवो, नाणत्तं अधणुसया उस्सेहो चउसकी पिट्टकरंडया अणु-18| सजणा नत्धित्ति, तत्रायमर्थे:-उत्तरकुरुषु मनुष्याणां त्रीणि गव्यूतान्युत्सेध उक्त इह त्वष्टौ धनुःशतानि, तथा ते || मनुष्याणां द्वे शते षट्पञ्चाशदधिके पृष्ठकरण्डकानामुक्त इह तु चतुःषष्टिरिति, तथा-'उत्तर कुराए णं भंते ! कुराए|
कइविहा मणुस्सा अणुसजति , गोयमा ! छषिहा मणुस्सा अणुसअंति, तंजहा-पम्हगंधा मियगंधा अममा तेयली सहा| ★ सणिचारी इत्येवं मनुष्याणामनुषञ्जना तत्रोका इह तु सा नास्ति, तथाविधमनुष्याणां तत्राभावात्, एवं ह त्रीणि नानात्वस्थानान्युक्तानि, सन्ति पुनरन्यान्यपि स्थित्यादीनि, किन्तु तान्यभियुक्तेन भावनीयानीति, अयं चेहैकोरुकद्वीपोद्देशकस्तृतीयः। अथ प्रकृतवाचनामनुसृत्योच्यते-किमन्तमिदं जीवाभिगमसूत्रमिह वाच्यम् । इत्याह-'जावेत्यादि 'यावत् शुखदन्तद्वीपः' शुद्धदन्ताभिधानाष्टाविंशतितमान्तरद्वीपवक्तव्यतां यावत् , साऽपि कियरं यावद्वाच्या
इत्याह-'देवलोकपरिग्गहे'त्यादि, देवलोकः परिग्रहो येषां ते देवलोकपरिग्रहाः देवगतिगामिनः इत्यर्थः, इह चकैक18 मिन्नन्तरद्वीपे एकैक उद्देशका, तत्र चैकोरुकद्वीपोद्देशकानन्तरमाभासिकद्वीपोद्देशकः, तत्र चैवं सूत्रं-'कहिणं भंते ! दाहि-10
|| णिल्डाणं आभासियमणूसाणं आभासिए नाम दीवे पन्नत्ते ।, गोयमा ! जंबुद्दीचे दीवे चुलहिमवंतस्स वासहरपवयस्त ||8
दीप अनुक्रम [४४४]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३-३०], मूलं [३६४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३६४]
दीप अनुक्रम [४४४]
व्याख्या-1 दाहिणपुरच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुई तिन्नि जोयणसयाई ओगाहित्ता एत्थ णं दाहिणिलाणं आभासियनाम || शतके दीचे पनत्ते' शेपमेकोरुकद्वीपवदिति चतुर्थः। एवं वैषाणिकद्वीपोद्देशकोऽपि नवरं दक्षिणापराचरमान्तादिति पश्चमा ५
देशा३
३०अन्तरअभयदेवी-ट्र एवं लालिकद्वीपोद्देशकोऽपि, नवरमुत्तरापराचरमान्तादिति षष्ठः । एवं हयकर्णद्वीपोद्देशको नवरमेकोरुकस्योत्तर
द्वीपा:या वृत्तिा पौरस्त्याच्चरमान्तालवणसमुद्रं चत्वारि योजनशतान्यवगाह्य चतुर्योजन शतायामविष्कम्भो हयकर्णद्वीपो भवतीति सप्तमः | Renu 1 एवं गजकर्णद्वीपोद्देशकोऽपि, नवरं गजकर्णद्वीप आभासिकद्वीपस्य दक्षिणपौरस्त्याचरमान्तालवणसमुद्रमवगाय
चत्वारि योजनशतानि हयकर्णद्वीपसमो भवतीत्यष्टमः । एवं गोकर्णद्वीपोद्देशकोऽपि, नवरमसौ वैषाणिकद्वीपस्य दक्षिणापराचरमान्तादिति नवमः ९ । एवं शषकुलीकर्णद्वीपोद्देशकोऽपि, नवरमसौ लाङ्गलिकद्वीपस्योत्तरापराच्चरमान्तादिति दशमः १० । एवमादर्शमुखद्वीपमेण्मुखद्वीपायोमुखद्वीपगोमुखद्वीपा हयकर्णादीनां चतुर्णी क्रमेण पूर्वोत्तरपूर्वदक्षिणद-15 क्षिणापरापरोत्तरेभ्यश्वरमान्तेभ्यः पश्च योजनशतानि लवणोदधिमवगाह्य पञ्चयोजनशतायामविष्कम्भा भवन्ति, तत्प्रतिपादकाश्चान्ये चत्वार उद्देशका भवन्तीति १४ । एतेषामेवादर्शमुखादीनां पूर्वोत्तरादिभ्यश्चरमान्तेभ्यः षडू योजनशतानि
लवणसमुद्रमवगाह्य षड़योजनशतायामविष्कम्भाःक्रमेणाश्चमुखद्वीपहस्तिमुखद्वीपसिंहमुखद्वीपच्याप्रमुखद्वीपा भवन्ति, तत्प्र-|| प्रतिपादकाश्चान्ये चत्वार उद्देशका भवन्तीति १८। एतेषामेवाश्वमुखादीनां तथैव सप्त योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्य
॥४२९॥ ला सप्तयोजनशतायामविष्कम्भा अश्वकर्णद्वीपहस्तिकर्णद्वीपकर्णप्रावरणद्वीपाः प्रावरणदीपा भवन्ति, तत्प्रतिपादकाश्चापरे चPवार एवोदेशका इति २२ । एतेषामेवाश्वकर्णादीनां तथैवाष्टयोजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्याष्टयोजनशतायामविष्कम्भाद
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३-३०], मूलं [३६४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३६४]
कर
उल्कामुखद्वीपमेघमुखद्वीपविद्युन्मुखद्वीपविद्युहन्तद्वीपा भवन्ति, तत्प्रतिपादकाश्चान्ये चत्वार एवोदेशका इति २५ । एतेषा8|मेवोल्कामुखद्धीपादीनां तथैव नव योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्य नवयोजनशतायामविष्कम्भाः घनदन्तद्वीपलष्टद-11
न्तद्वीपगूढदन्तद्वीपशुद्धदन्तद्वीपा भवन्ति, तत्प्रतिपादकाश्चान्ये चत्वार एवोदेशका इति, एवमादितोऽत्र त्रिंशत्तमः | |शुद्धदन्तोदेशकः ३० इति ॥
उक्तरूपाचार्थाः केवलिधर्माद् ज्ञायन्ते तं चाश्रुत्वाऽपि कोऽपि लभत इत्याद्यर्थप्रतिपादनपरमेकत्रिंशत्तममुद्देशकम-k प्याह, तस्य चेदमादिसूत्रम्
रायगिहे जाव एवं वयासी-असोचा णं भंते ! केवलिस्स वा केवलिसावगस्स वा केवलिसावियाए वा का केवलिउवासगरस वा केवलिउवासियाए वा तप्पक्खियस्स वा तप्पक्खियसावगरस वा तपक्खिपसावियाए
वा तप्पक्खियउवासगरस वा तप्पक्खियउवासियाए वा केवलिपन्नत्तं धम्म लभेजा सघणयाए , गोयमा! असोचा णं केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए या अत्थेगतिए केवलिपन्नतं धर्म लभेवा सवणयाए अत्धेगतिए केवलिपन्नत्तं धम्मं नो लभेजा सवणयाए । से केणतुणं भंते ! एवं बुच्चइ-असोचा णं जाव नो लभेजा सवणयाए', गोयमा ! जस्स णं नाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कटे भवइ से णं असोचाकेवलिस्स वा जाव तपक्खियउवासियाए वा केवलिपन्नत्तं धम्म लभेज सवणयाए, जस्स णं नाणावरणिज्वाणंकIम्माण खोवसमे नोकडे भवह से असोचा णं केवलिस्स बाजाव तप्पक्खियषवासियाए केवलिपन्नतं धम्म ||
दीप अनुक्रम [४४४]
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अत्र नवमे शतके द्वितीय-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ नवमे शतके एकत्रिंशत-उद्देशक: आरभ्यते
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति :]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक -1, उद्देशक [३१], मूलं [३६५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३६५]
दीप अनुक्रम [୨]
व्याख्या- नो लभेज सवणयाए, से तेणटेणं गोयमा ! एवं बुच्चा-तं चेव जाव नो लभेज सवणयाए ॥ असोचाणं भंते।
शतके प्रज्ञप्तिः केवलिस्स वा जाप तप्पक्खियउवासियाए था केवलं बोहिं बुज्झेजा ?, गोयमा ! असोचा णं केवलिस्स वा
रदेश:३१ जमवाजाव अस्थेगतिए केवलं वोहिं बुजलेजा अत्थेगतिए केवलं बोहिं णो बुज्झेजा ॥से केणढणं भंते ! जाव नो ||| अप्रत्वाके यावृत्तिः२/४
||| बुज्झज्जा ?, गोयमा ! जस्स णं दरिसणावरणिजाणं कम्माण खओवसमे कडे भवइ से णं असोचाकेवलिस्स पा| ॥४३०॥ जाव केवल बोहिं बुझेजा, जस्स णं दरिसणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे णो कडे भवइ सेणं असो- सू३६५ टचाकेवलिस्स चा जाव केवलं बोहिं णो बुज्झेजा, से तेणद्वेणं जाव णो बुझेजा ॥ असोचा णं भंते ! केव
लिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पवएजा, गोयमा। हि असोचा णं केवलिस्स वा जाव उवासियाए वा अत्थेगतिए केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पच-5 हिजा अरगतिए केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं नो पवएज्जा, से केणतुणं जाव नो पथएज्जा, IPगोयमा ! जस्स णं धम॑तराइयाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवति से णं असोचाकेवलिस्स वा जाव केवलं ६ मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पचएज्जा, जस्स णं धम्मतराइयाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवति से णं असोचाकेवलिस्स वा जाव मुंडे भवित्ता जाव णो पचएज्जा, से तेणद्वेणं गोयमा ! जाव नोद्र
४॥३०॥ पथएज्जा । असोचा थे भंते ! केवलिस्स वा जाव उवासियाए वा केवलं घंभचेरवासं आवसेजा, गोयमा।|| || असोचा णं केवलिस्स या जाव पवासियाए वा अत्थेगतिए केवलं बंभचेरवासं आवसेज्जा अत्धेगतिए केवलं
Hereumstaram.org
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक -], उद्देशक [३१], मूलं [३६५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [३६५]
भचेरवासं नो आवसेज्जा, से केणद्वेणं भंते ! एवं वुचइ जाव नो आवसेज्जा ?, गोयमा ! जस्स चरिसावरणिज्जार्ण कम्माणं खओवसमे कडे भवद से णं असोचाकेवलिस्स वा जाव केवलं बंभचेरवासं आकसेवा, जस्स णं चरित्तावरणिज्जाणं कम्माणं खोवसमे नो कडे भवइ से णं असोचाकेबलिस्स वा जाव नो
आवसेज्जा, से तेण?णं जाव नो आवसेज्जा । असोचाणं भंते ! केवलिस्स वा जाव केवलेणं संजमेणं संज|मेजा, गोषमा ! असोचा णं केवलिस्स जाव पवासियाए वा जाच अत्धेगतिए केवलेणं संजमेणं संजमेजा अस्थगतिए केवलेणं संजमेणं नो संजमेजा, से केणटेणं जाव नो संजमेज्जा?, गोपमा । जस्स णं जयणावरणिजाणं कम्माणं खओषसमे कडे भवद से णं असोचा णं केवलिस्स चा जाब केवलेणं संजमेणं संजमेजा जस्स ॥णं जयणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ से णं असोचाकेवलिस्स वा जाव नो संजमेजा, दिसे तेणडेणं गोयमा । जाव अत्यंगतिए नो संजमेजा। असोचा णं भंते ! केवलिस्स वा जाव उवासियाए
वा केवलेणं संवरेणं संवरेजा ?, गोयमा ! असोचाणं केवलिस्स जाव अत्थेगतिए केवलेणं संवरेणं संवरेजा अत्थेगतिए केवलेणं जाव नो संवरेजा, से केणद्वेणं जाव नो संवरेजा', गोयमा । जस्स णं अज्नवसाणा-है|
वरणिजाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से णं असोचाकेवलिस्स या जाव केवलेणं संवरेणं संवरेजा, *जस्स णं अज्झवसाणावरणिज्जार्ण कम्माणं खओवसमे णो कडे भवद से णं असोचाकेचलिस्स वा जाव ||
नो संवरेजा, से तेणडेणं जाव नो संवरेजा। असोचा णं भंते ! केवलिस्स जाव केवलं आभिणियोहियनाणं
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक -], उद्देशक [३१], मूलं [३६५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रज्ञष्ठिः
प्रत सूत्रांक [३६५]
दीप अनुक्रम [४४५]
व्याख्या- उप्पाडेजा ?, गोयमा ! असोचाणं केवलिस्स वा जाव उवासियाए वा अत्धेगतिए केवलं आभिणियोहि- ९ शतके
यनाणं उप्पाडेजा अत्थेगइए केवलं आभिणियोहियनाणं नो उपाडेजा, से केणट्टेणं जाव नो उप्पाडेजा, उशः ११ अभयदेवी-गोयमा ! जस्स णं आभिणियोहियनाणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से णं असोचाकेवलिस्सी
भक्षुत्वाकेया वृत्तिावा जाव केवलं आभिणियोहियनाणं उप्पाडेजा, जस्स णं आभिणियोहियनाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे
| वल्यादि
सू१६५ ॥४३॥
नो कडे भवइ से णं असोचाकेवलिस्स या जाच केवलं आभिणियोहियनाणं नो उच्पादना से तेणद्वेणं जाव नो|8| ल|| उप्पाडेजा, असोचाणं भंते ! केवलि जाव केवलं सुयनाणं उप्पाडेजा एवं जहा आभिणियोहियनाणस्सल
वत्तवया भणिया तहा सुपनाणस्सवि भाणियथा, मवरं सुपनाणावरणिज्जाणं कम्माण खओवसमे भाणियो। एवं चेव केवलं ओहिनाणं भाणियवं, नवरं ओहिणाणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे भाणियो, एवं केवल मणपज्जवनाणं उप्पाडेजा, नवरं मणपज्जवणाणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे भाणियो, असोचा भंते ! केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियषवासियोए वा केवलनाणं उप्पाडेजा, एवं चेव नवरं केवलनाणावरणि-IPI जाणं कम्माणं खए भाणियो, सेसं तं चेव, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुचइ जाव केवलनाणं उप्पाडेजा। असोचा णं भंते ! केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलिपन्नतं धम्मं लभेजा सवणयाए केवलं ॥४३१० वोहिं बुझेजा केवलं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पवएना केवलं बंभचेरवासं आवसेज्जा केवलेणं संजमेणं संजमेजा केवलेणं संवरेणं संवरेजा केवलं आभिणियोहियनाणं उप्पाडेजा जाव केवलं, मणपज्जव
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक -], उद्देशक [३१], मूलं [३६५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३६५]
4
नाणं उप्पाडेजा केवलनाणं उप्पाडेजा, गोयमा ! असोचाणं केवलिस्स वा जाव उवासियाए वा अत्थेगतिए केवलिपातं धर्म लभेजा सवणयाए अत्थेगतिए केवलिपनत्तं धर्म नो लभेजा सवणयाए अत्थेगतिए केवलंबोहिं बुजोजा अत्धेगतिए केवलं बोहिं णो बुज्झेजा अत्धेगतिए केवलं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पथएज्जा अत्धेगतिए जाव नो पक्षएजा अत्धेगतिए केवलं भरवासं आवसेज्जा अत्थे
गतिए केवलं बंभचेरवासं नो आवसेना अत्थेगतिए केवलेणं संजमेणं संजमेजा अत्गतिए केवलेणं संजकामेणं नो संजमेजा एवं संवरेणवि, अत्धेगतिए केवलं आभिणियोहियनाणं खुप्पाडेजा अत्यगतिए जाव नो ४ उप्पाडेजा, एवं जाव मणपज्जवनाणं अस्थेगतिए केवलनाणं उप्पाडेजा अत्धेगतिए केवलनाणं नो उप्पाडेजा।
से केण?णं भंते ! एवं बुचद असोचाणं तं चेव जाव अत्गतिए केवलनाणं नो उप्पाडेजा ?, गोयमा । जस्स कणं नाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओबसमे नो कडे भवह १ जस्स णं दरिसणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे Mनो कडे भवइ २ जस्स गं धम्मतराइयाणं कम्माणं खओवसमे नो कहे भवद ३ एवं चरित्तावरणिजाणं ४|81
जयणावरणिज्जाणं ५ अज्झवसाणावरणिज्जाणं ६ आभिणियोहियनाणावरणिज्जार्ण ७ जाच मणपज्जवनाणा
वरणिजाणं कम्माणं खभोषसमे नो कडे भवइ १० जस्स णं केवलनाणावरणिजाणं जाव खए नो कडे भवह ४११ से णं असोचाकेवलिस्स वा जाव केवलिपन्नत्तं धम्मं नो लभेजा सवणयाए केवलं बोहिं नो बुझेवा & जाव केवलनाणं नो उत्पाडेजा, जस्स णं भाणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे भवति जस्स णं दरिसणा
दीप अनुक्रम [४४५]
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[३६५]
दीप
अनुक्रम [४४५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः ]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [३१], मूलं [ ३६५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्या प्रज्ञसिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥४३२ ॥
| वरणिजाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ जस्स णं धम्मंतराइयाणं एवं जाव जस्स णं केवलनाणावरणि जाणं कम्माणं खए कडे भवह से णं असोचा केवलिस्स वा जाब केवलिपन्नसं धम्मं लभेजा सवणयाए केवलं बोहिं बुज्झेजा जाब केवलणार्ण उप्पाडेजा ( सू ३६५ ) ॥
'रायगि' इत्यादि, तत्र च 'असोच'त्ति अश्रुत्वा धर्मफलादिप्रतिपादकवचनमनाकर्ण्य प्राकृतधर्म्मानुरागादेवेत्यर्थः 'केवलिस्स व'त्ति 'केवलिनः' जिनस्य 'केवलिसावगस्स वत्ति केवली येन स्वयमेव पृष्टः श्रुतं वा येन तद्वचनमसौ केवलिश्रावकस्तस्य 'केवलिउवासगस्स वत्ति केवलिन उपासनां विधानेन केवलिनैवान्यस्य कथ्यमानं श्रुतं येनासी केवल्युपासकः 'तप्पक्खियस्स' ति केवलिन: पाक्षिकस्य स्वयंयुद्धस्य 'धम्मं 'ति श्रुतचारित्ररूपं 'लभेज' त्ति प्राप्नुयात् 'सवणयाए 'ति श्रवणतया श्रवणरूपतया श्रोतुमित्यर्थः ॥ 'नाणावर णिज्जाणं'ति बहुवचनं ज्ञानावरणीयस्य मतिज्ञा|नावरणादिभेदेनावग्रहमत्यावरणादिभेदेन च बहुत्वात्, इह च क्षयोपशमग्रहणात् मत्यावरणाद्येव तद् ग्राह्यं न तु केवलावरणं तत्र क्षयस्यैव भावात्, ज्ञानावरणीयस्य क्षयोपशमश्च गिरिसरिदुपलघोलनान्यायेनापि कस्यचित्स्यात्, तत्सद्भावे [चाश्रुत्वाऽपि धर्म्म लभते श्रोतुं क्षयोपशमस्यैव तहाभेऽम्तरङ्गकारणत्वादिति ॥ 'केवलं बोहिंति शुद्धं सम्यग्दर्शनं 'बुझेज 'ति बुद्धयेतानुभवेदित्यर्थः यथा प्रत्येकबुद्धादिः, एवमुत्तरत्राप्युदाहर्त्तव्यं, 'दरिसणावरणिजाणं' ति इह दर्शनावरणीयं दर्शमोहनीयमभिगृह्यते, बोधेः सम्यग्दर्शनपर्यायत्वात् तलाभस्य च तत्क्षयोपशमजन्यत्वादिति ॥ 'केवलं मुंडे [ भवित्ता अगाराओ अणगारियं'ति 'केवलां' शुद्धां सम्पूर्णा वाऽनगारितामिति योगः 'धम्मंतरायाणं'ति अन्त
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९ शतके उद्देशः ३१ अश्रुत्वा केबल्यादिः सू३६५
॥४३२॥
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक -1, उद्देशक [३१], मूलं [३६५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३६५]
काययो-विनः सोऽस्ति येषु तान्यन्तरायिकाणि धर्मास्य-चारित्रप्रतिपत्तिलक्षणस्थान्तरायिकाणि धर्मान्तरायिकाणि तेषा॥ वीर्यान्तरायचारित्रमोहनीयभेदानामित्यर्थः, 'चारित्तावरणिज्जाणं'ति, इह वेदलक्षणानि चारित्रावरणीयानि विशेषतो ग्राह्याणि, मैथुनविरतिलक्षणस्य ब्रह्मचर्यवासस्य विशेषतस्तेषामेधावारकत्वात् , 'केवलेणं संजमेणं संजमेजति इह संयमः प्रतिपन्नचरित्रस्य तदतिचारपरिहाराय यतनाविशेषः, 'जयणावरणिज्जाणति इह तु यतनावरणीयानि चारि-ना विशेषविषयवीर्यान्तरायलक्षणानि मन्तव्यानि 'अज्ज्ञवसाणावरणिजाण'ति संवरशब्देन शुभाध्यवसायवृत्तेर्विवक्षितत्वात तस्याश्च भावचारित्ररूपत्वेन तदावरणक्षयोपशमलभ्यत्वात् अध्यवसानावरणीयशन्देनेह भावचारित्रावरणीया युक्तानीति । पूर्वोक्तानेवार्थान् पुनः समुदायेनाह-'असोचा गं भंते ! इत्यादि ॥ अथाश्रुत्वैव केवल्यादिवचनं यका कचित् || | केवलज्ञानमुत्पादयेत्तथा दर्शयितुमाह
तस्स णं भंते ! छटुंछद्रेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उखु बाहाओ पगिज्झिय पगिझिय सूराभिमुहस्स भायावणभूमीए आयावेमाणस्स पगतिभट्याए पगइज्यसंतयाए पगतिपयणुकोहमाणमायालोभयाए मिडमहवसंपनयाए अल्लीवणयाए भइयाए विणीययाए अनया कयाइ सुभेणं अज्झचसाणेणं सुभेणं परिणामेणं लेस्साहिं बिसुज्झमाणीहिं २ तयावरणिजाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापोहमम्गणगवेसणं करेमाणस्तर विभंगे नाम अनाणे समुप्पज्जा, से णं तेणं विम्भंगनाणेणं समुप्पनेणं जहनेणं अंगुलस्स असंखेवाभार्गी उकोसेणं असंखेजाई जोयणसहस्साई जाणइ पासइ, से णं तेणं विन्भंगनाणेणं समुप्पनेणं जीवेवि जाण
दीप अनुक्रम [४४५]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३१], मूलं [३६६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
भभुत्वाके
प्रत सूत्रांक
[३६६]
व्याख्या- अजीवेवि जाणइ पासंडस्थे सारंभे सपरिग्गहे संकिलिस्समाणेषि जाणइ विसुज्झमाणेवि जाणइ से णं पुवा- ९ शतके प्रतिः
मेव सम्म पडिवजा संमत्तं पडिवजित्ता समणधम्म रोएति समणधम्म रोएसा चरितं पडिवज्जइ चरित उद्देशः ३१ अभयदेवीया वृत्तिार THE परिवजित्सा लिंग पडिबज्जइ, तस्स णं तेहिं मिच्छत्तपनवेहि परिहायमाणेहिं २ सम्मईसणपज्जवेहि परिवह
द वलिपक्षमाणेहिं २ से विभंगे अन्नाणे सम्मत्तपरिग्गहिए खिप्पामेव ओही परावत्सइ (सूत्रं ३६६)॥
स्यावधिः ॥४३॥
'तस्से'त्यादि 'तस्स'त्ति योऽश्रुत्वैव केवल ज्ञानमुत्पादयेत्तस्य कस्यापि 'छटुंछट्टेण'मित्यादि च यदुक्तं तत्प्रायः पठ- सू३६६ ततपश्चरणवतो बालतपस्विनो विभङ्गः-ज्ञानविशेष उत्पद्यत इति ज्ञापनार्थमिति, 'पगिज्झिय'त्ति प्रगृह्य धृत्वेत्यर्थः 'पगतिभड्याए'इत्यादीनि तु प्राग्वत्, 'तयावरणिज्जाणं ति विभङ्गज्ञानावरणीयानाम् 'ईहापोहमग्गणगवेसणं करेमा-||2 णस्स'त्ति इहेहा-सदाभिमुखा ज्ञानचेष्टा अपोहस्तु-विपक्षनिरास: मार्गणं च-अन्वयधमालोचनं गवेषणं तु-व्यतिरे-18 कधर्मालोचनमिति से 'ति असौ बालतपस्वी 'जीवेवि जाणइत्ति कथञ्चिदेव न तु साक्षात् मूर्तगोचरत्वात्तस्य 'पासंडत्य'त्ति व्रतस्थान् 'सारंभे सपरिग्गहे'त्ति सारम्भान् सपरिग्रहान् सतः, किंविधान जानाति । इत्याह-संकिलिस्समाणेवि जाणइ'त्ति महत्या संक्लिश्यमानतया सङ्किश्यमानानपि जानाति 'विसुज्झमाणेवि जाणइति अल्पी-14 | यस्याऽपि विशुख्यमानतया विशुधमानानपि जानाति, आरम्भादिमतामेवस्वरूपत्वात्, से गं'ति असी विभङ्गज्ञानी||| ४३॥ |जीवाजीवस्वरूपपापण्डस्थसक्तिश्यमानतादिज्ञायकः सन् 'पुच्चामेव'त्ति चारित्रप्रतिपत्तेः पूर्वमेव 'सम्मति सम्यग्भावं 5| 'समणधम्मति साधुधम्मै रोएइति श्रद्धत्ते चिकीर्षति वा 'ओही परावत्तइत्ति अवभिर्भवतीत्यर्थः, इह च यद्यपि ट्रा
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[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३१], मूलं [३६६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
RSS
प्रत सूत्रांक
[३६६]
चारित्रप्रतिपत्तिमादावभिधाय सम्यक्त्वपरिगृहीतं विभङ्गज्ञानमवधिर्भवतीति पश्चादुक्तं तथाऽपि चारित्रप्रतिपत्तेः पूर्व & सम्यक्त्वप्रतिपत्तिकाल एव विभङ्गज्ञानस्यावधिभावो द्रष्टव्यः, सम्यक्त्वचारित्रभावे विभङ्गज्ञानस्याभावादिति ॥ अथैन-2
मेव लेश्यादिभिर्निरूपयन्नाह| से णं भंते । कतिलेस्सासु होजा?, गोयमा ! तिसु विसुद्धलेस्सासु होजा, संजहा सेउलेस्साए पम्हले
स्साए सुफलेस्साए । से णं भंते ! कतिमु णाणेसु होजा, गोयमा ! तिसु आभिणियोहियनाणसुयनाणओ#हिनाणेसु होजा । से णं भंते । किं सजोगी होजा अजोगी होजा, गोयमा। सजोगी होजा नो अजोगी का होजा, जइ सजोगी होजा किं मणजोगी होजा वहजोगी होजा कायजोगी होजा, गोपमा ! मणजोगी | लावा होज्जा वाइजोगी वा होजा कायजोगी वा होजा। सेणं भंते ! किं सागारोवउसे होजा अणागारोवउत्ते होजा, गोयमा ! सागारोवपत्ते वा होज्जा अणागारोवउत्ते वा होला । से गं भंते । कयरंमि संघयणे || होवा ?, गोयमा ! बहरोसभनारायसंघयणे होज्जा । से णं भंते ! कयरंमि संठाणे होज्जा ?, गोयमा ! छण्हं संठाणार्ण अन्नयरे संठाणे होजा । सेणं भंते ! कयरंमि उच्चत्ते होजा, गोयमा ! जहनेणं सत्स रयणी उको-19 सेणं पंचधणुसतिए होज्जा । से णं भंते ! कयरंमि आउए होजा?, गोयमा !जहन्नेणं सातिरेगट्टवासाउए उक्कोसेणं पुवकोडिआउए होना । से गंभंते ! किं सवेदए होजा अवेदए होज्जा , गोयमा! सवेदए होजा नो अवेदए होजा, जइ सवेदए होजा किं इत्थीवेयए होजा पुरिसवेदए होज्जा नपुंसगचेदए होना पुरिसनपुं
दीप अनुक्रम [४४६]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३१], मूलं [३६७-३६९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३६७-३६९]
दीप अनुक्रम [४४७४४९]
व्याख्या-सगवेदए होजा?, गोयमा ! नो इथिवेदए होजा पुरिसवेदए वा होजा नो नपुंसगवेदए होजा पुरिसनपुंसण-||९ शतके मज्ञप्तिः वेदए वा होजा । सेणं भंते ! कि सकसाई होजा अकसाई होजा, गोयमा ! सकसाई होजा को अक- उद्देशः३१ अभयदेवी- साई होजा, जद सकसाई होजा से णं भंते ! कतिसु कसाएमु होजा ?, गोयमा ! चउसु संजलणकोहमा-8| अश्रुत्वाकेया वृत्तिःणमायालोमेसु होजा । तस्स णं भंते ! केवतिया अज्झवसाणा पन्नत्ता ?, गोयमा ! असंखेजा अजायसाणा वलिपक्षस्य ॥४३४॥
पन्नत्ता, ते णं भंते । पसत्था अप्पसत्था ?, गोयमा ! पसत्था नो अप्पसत्था, से णं भंते ! तेहिं पसत्थेहि वलभमा|भज्झवसाणेहि वहमाणेहि अणंतहिं नेरइयभवग्गहणेहिंतो अप्पाणं विसंजोएइ अणतेहिं तिरिक्खजोणिय-स्थानामा
वादिक जाव विसंजोएइ अणंतेहिं मणुस्सभवग्गहणेहितो अप्पाणं विसंजोएह अणतेहिं देवभवग्गहणेम्तिो अप्पाणं है।
मरातापासू३६७विसंजोएड, जाओवि य से इमाओ नेरहयतिरिक्खजोणियमणुस्सदेवगतिनामाओ चत्तारि उसरपयडीमो ३६८-१९ तासिं पण उवम्गहिए अर्णताणुबंधी कोहमाणमायालोभे खवेह अणं०२ अपचक्याणकसाए कोहमाणमा-| यालोमे खवेइ अप्प०२ पञ्चक्खाणावरणकोहमाणमायालोभे खवेइ पच २ संजलणकोहमाणमायालोमे सवेइ
संज० २ पंचविहं नाणाव. नवविहं दरिसणाच० पंचविहमंतराइयं तालमत्थकडं च णं मोहणिज कटु कम्मसारयविकरणकरं अपुवकरणं अणुपचिट्ठस्स अणते अणुत्तरे निवाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुळे केवलवरना-18 पाणदसणे समुप्पन्ने (सूर्व ३६७)।से णं भंते ! केवलिपन्नत्तं धम्म अध्यवेज वा पनवेज वा परवेजबानी || ४३४॥
तिणढे समढे, णण्णत्व एगण्णाएण वा एगवागरणेण वा, सेणं भंते ! पवावेज वा मुंडावेजवा , जो तिण||
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३१], मूलं [३६७-३६९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३६७-३६९
समढे, अवदेसं पुण करेजा, से णं भंते ! सिजाति जाव अंतं करेति !, हंता सिजाति जाव अंतं करेति (सूत्रं ३६८) से णं भंते । किं उहूं होजा अहो होजा तिरियं होजा?, गोयमा ! उहुंचा होजा अहे वाद होजा तिरियं वा होजा, उहं होजमाणे सद्दावह वियडावह गंधावइ मालवंतपरियाएसु वडवेयहपषएसु होजा, साहरणं पहुच सोमणसवणे चा पंडमवणे वा होजा, अहे होजमाणे गड्डाए वा दरीए वा होजा, साह-|| रणं पडुच्च पायाले वा भवणे वा होजा, तिरियं होजमाणे पन्नरस कम्मभूमीसु होज्जा, साहरण पहुच अड्डाइजे. दीवसमुद्दे तदेकदेसभाए होजा, ते णं भंते ! एगसमएणं केवतिया होजा?, गोयमा ! जहनेणं एको
वा दो वा तिमि वा सकोसेणं दस, से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच असोचा णं केवलिस्स वा जाव अस्थेव गतिए केवलिपातं धम्म लभेजा सवणयाए अत्धेगतिए असोचा णं केवलि जाव नो लभेजा सवणयाए ।
जाव अत्यंगतिए केवलनाणं तृप्पाडेजा अत्थेगतिए केवलनाणं नो उप्पाडेजा (सूत्रं ३६९)॥ __'से णं भंते !'इत्यादि, तत्र 'से 'ति स यो विभङ्गज्ञानी भूत्वाऽवधिज्ञानं चारित्रं च प्रतिपन्नः 'तिसु विसुद्ध-8 | लेस्सासु होज'त्ति यतो भावलेश्यासु प्रशस्तास्वेव सम्यक्त्वादि प्रतिपद्यते नाविसुद्धास्विति । 'तिसु आमिनियोहिएत्यादि, सम्यक्त्वमतिश्रुतावधिज्ञानिनां विभङ्गविनिवर्तनकाले तस्य युगपदावादाचे ज्ञानत्रय एवासौ तदा वर्तत इति । 'णो अजोगी होज'त्ति अवधिज्ञानकालेऽयोगित्वस्याभावात्, 'मणजोगी'त्यादि चैकतरयोगप्राधान्यापेक्षयाऽवगन्तव्यं । 'सागारोवउत्ते त्यादि, तस्य हि विभङ्गज्ञानानिवर्तमानस्योपयोगदयेऽपि वर्तमानस्य सम्यक्त्वावधिज्ञानप्रतिपत्सिर
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दीप अनुक्रम [४४७४४९]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३१], मूलं [३६७-३६९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३६७-३६९]
बलिपक्षस्य
दीप अनुक्रम [४४७४४९]
व्याख्या
लिस्तीति, ननु 'सवाओ लद्धीओ सागारोवओगोवउत्तरस भवंती'त्यागमादनाकारोपयोगे सम्यक्त्वावधिलब्धिवि- ९ शतके प्रज्ञप्तिः रोधः१, नैवं, प्रवर्द्धमानपरिणामजीवविषयत्वात् तस्यागमस्य, अवस्थितपरिणामापेक्षया चानाकारोपयोगेऽपि उब्धिलाभस्य ||९|| देशा११
सम्भवादिति । 'वइरोसभनारायसंघयणे होजति प्राप्तब्यकेवलज्ञानत्वात्तस्य, केवलज्ञानप्राप्तिश्च प्रथमसंहनन एव | अश्रुत्वाकेया वृत्ति भिवतीति, एवमुत्तरत्रापीति ॥'सवेयए होज'त्ति विभङ्गस्यावधिभावकाले न वेदक्षयोऽस्तीत्यसौ सवेद एव, नो इत्थि-|
केवलंधर्मा॥४३५॥ वेयए होज'त्ति खिया एवंविधस्य व्यतिकरस्य स्वभावत एवाभावात् 'पुरिसनपुंसगवेयए'त्ति वर्द्धितकत्वादित्वे नपु
ख्यानाभासकः पुरुषनपुंसकः 'सकसाई होज्जत्ति विभङ्गावधिकाले कषायक्षयस्याभावात् 'चउसु संजलणकोहमाणमायालोट्राभेसु होजति स ह्यवधिज्ञानतापरिणतविभज्ञानश्चरणं प्रतिपन्नः उक्तः, तस्य च तत्काले चरणयुक्तत्वात्सवलना एव सू ३६७* क्रोधादयो भवन्तीति । 'पसत्य'त्ति विभङ्गस्यावधिभावो हि नाप्रशस्ताध्यवसानस्य भवतीत्यत उक्त-प्रशस्तान्यध्यवसा-18||३६८-३६९ यस्थानानीति । 'अणतेहिं ति 'अनन्तैः' अनन्तानागतकालभाविभिः 'विसंजोएइत्ति विसंयोजयति, तत्प्राप्तियोग्यताया है अपनोदादिति । 'जाओऽविय'त्ति यापि च 'नेरयतिरिक्खजोणियमणुस्सदेवगतिनामाओत्ति एतदंभिधानाः |'उत्तरपयडीओ'त्ति नामकर्माभिधानाया मूलप्रकृतेरुत्तरभेदभूताः 'तासिं च णति तासां च नैरयिकगत्याद्युत्तरप्रकृतीनां माचशब्दादन्यासां च 'उवग्गहिए'त्ति औपग्रहिकान-उपष्टम्भप्रयोजनान् अनन्तानुबन्धिनः क्रोधमानमायालोभान् क्षपयति, || ॥४३५॥ || तथाऽप्रत्याख्यानादींश्च तथाविधानेव क्षपयतीति , पंचविहं नाणावरणिति मतिज्ञानावरणादिभेदात् 'नवविहं दसणा-IDII वरणिज्जति चक्षुर्दर्शनाद्यावरणचतुष्कस्य निद्रापश्चकस्य च मीलनानवविधत्वमस्य 'पंचविहं अंतराइयं ति दानलाभभो
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३१], मूलं [३६७-३६९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
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प्रत
सूत्रांक
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[३६७-३६९]
दीप अनुक्रम [४४७४४९]
| गोपभोगवीर्य विशेषितत्वादिति पश्चविधत्वमन्तरायस्य, तत्र क्षपयतीति सम्बन्धः, किं कृत्वा ? इत्यत आह-तालमत्थकम् || |च णं मोहणिज्जं कट्ठ'त्ति मस्तक-मस्तकशूची कृत्तं-छिन्नं यस्यासौ मस्तककृत्ता, तालश्चासौ मस्तककृत्तश्च तालमस्तककृत्तः, छान्दसत्वाचे निर्देशः, तालमस्तककृत्त इव यत्तत्तालमस्तककृत्तम् , अयमर्थ:-छिन्नमस्तकतालकल्पं च मोहनीयं कृत्वा, यथा हि छिन्नमस्तकस्तालः क्षीणो भवति एवं मोहनीयं च क्षीणं कृत्वेति भावः, इदं चोक्तमोहनीयभेदशेषापेक्षया द्रष्टव्यमिति, अथवाऽथ कस्मादनन्तानुबन्ध्यादिस्वभावे तत्र क्षपिते सति ज्ञानावरणीयादि क्षपयत्येव । इति, अत आह'तालमत्थे'त्यादि, तालमस्तकस्येव कृत्त्व-क्रिया यस्य तत्तालमस्तककृत्त्वं तदेवंविधं च मोहनीयं 'कटु'त्ति इतिशब्दस्येह गम्यमानत्वादितिकृत्वा-इतिहेतोस्तत्र क्षपिते ज्ञानावरणीयादि क्षपयत्येवेति, तालमस्तकमोहनीययोश्च क्रियासाधर्म्यमेव, | यथा हि तालमस्तकविनाशक्रियाऽवश्यम्भावितालविनाशा एवं मोहनीयकर्मविनाशक्रियाऽप्यवश्यम्भाविशेषकर्मविनाशेति, आह च-"नस्तकसूचिविनाशे तालस्य यथा ध्रुवो भवति नाशः । तद्वत्कर्मविनाशोऽपि मोहनीयक्षये नित्यम् ॥१॥" ततश्च कर्मरजोविकरणकर-तद्विक्षेपकम् अपूर्वकरणम्-असदृशाध्यवसायविशेषमनुप्रविष्टस्य, अनन्त विषयानन्त्यात् अनुत्तरं सर्वोत्तमत्वात् निर्व्याघातं कटकुख्यादिभिरमतिहननात् निरावरणं सर्वथा स्वावरणक्षयात् कृत्स्नं सकलार्थग्राहकत्वात् प्रतिपूर्ण सकलस्वांशयुक्ततयोत्पन्नत्वात् केवलवरज्ञानदर्शनं-केवलमभिधानतो वरं ज्ञानान्तरापेक्षया ज्ञानं च दर्शनं च ज्ञानदर्शनं समाहारद्वन्द्वस्ततः केवलादीनां कर्मधारयः, इह च क्षपणाक्रमः-अणमिच्छमीससम्म अह नपुंसिधिवे
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auremarary.org
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३१], मूलं [३६७-३६९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३६७-३६९]
वलिपक्षस्य
व्याख्या- यछकं च । पुमवेयं च खवेई कोहाईए य संजलणे ॥१॥[अनन्तानुबन्धिनो मित्रं सम्यक्त्वं अष्टकं नपुंसकं स्त्रीवेदं
९शतके प्रज्ञप्तिः | षकं च । पुंवेदं च क्षपयति क्रोधादिकांश्च संज्वलनान् ॥१॥] इत्यादिग्रन्थान्तरप्रसिद्धो, न चायमिहाश्रितो यथा कथ- Dil उद्देशः ३१ भभयदेवी- चित्क्षपणामात्रस्यैव विवक्षितत्वादिति । 'आघवेज'त्ति आग्राहयेच्छिष्यान् अर्धापयेद्वा-प्रतिपादनतः पूजा प्रापयेत् 'पर- अश्रुत्वाकेया वृत्तिः२ वेज'त्ति प्रज्ञापयेझेदभणनतो बोधयेदा परवेज'त्ति उपपत्तिकथनतः 'नन्नत्य एगनाएण व'त्ति न इति योऽयं निषेधः |
केवलंधर्मा8 सोऽन्यत्रैकज्ञाताद्, एकमुदाहरणं वर्जयित्वेत्यर्थः, तथाविधकल्पत्वादस्येति, 'एगवागरणेण वत्ति एकच्याकरणादेको॥४३६॥
[चरादित्यर्थः 'पवावेज वत्ति प्रवाजयेद्रजोहरणादिद्रव्यलिङ्गदानतः 'मुंडावेज वत्ति मुण्डयेच्छिरोलुशनतः 'खवएस दाख्यानाभा|पुण करेज'त्ति अमुष्य पार्थे प्रवजेत्यादिकमुपदेशं कुर्यात् । 'सद्दावईत्यादि, शब्दापातिप्रभृतयो यथाक्रम जम्बूदीप-| प्रज्ञाप्यभिप्रायेण हैमवतहरिवर्षरम्यफैरण्यवतेषु क्षेत्रसमासाभिप्रायेण तु हैमवतैरण्यवतहरिवर्षरम्यकेषु भवन्ति, तेषु च
न सू ३६० तस्य भाव आकाशगमनलब्धिसम्पन्नस्य तत्र गतस्य केवलज्ञानोत्पादसद्भावे सति, 'साहरणं पहुचत्ति देवेन नयनं । प्रतीत्य 'सोमणसवणे'त्ति सौमनसवनं मेरौ तृतीयं 'पंडगवणे'त्ति मेरौ चतुर्थं 'गड्डाए वत्ति गर्ने-निने भूभागेऽभोलोकमामादी 'दरिए वत्ति तत्रैव निम्नतरप्रदेशे 'पायाले वत्ति महापातालकलशे वलयामुखादी 'भवणे वत्ति भव-13 नवासिदेवनिवासे 'पारससु कम्मभूमीसुत्ति पश्च भरतानि पञ्च ऐरवतानि पञ्च महाविदेहा इत्येवंलक्षणासु कर्माणि-पद
४३६॥ कृषिवाणिज्यादीनि तत्प्रधाना भूमयः कर्मभूमयस्तासु 'अट्ठाइज्जे'त्यादि अर्द्ध तृतीयं येषां तेऽतृतीयास्ते च ते द्वीपा-1 वेति समासः, अर्द्धतृतीयद्वीपाश्च समुद्री च तत्परिमितावर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रास्तेषां स चासी विवक्षितो देशरूपो|
DSCIENSACAKACॐ
दीप अनुक्रम [४४७४४९]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३१], मूलं [३६७-३६९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
*
सूत्रांक
*
[३६७-३६९
दीप अनुक्रम [४४७४४९]
है भागः-अंशोऽर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रतदेकदेशभागस्तत्र ॥ अनन्तरं केवल्यादिवचनाभवणे यत्स्यात्तदुकमच तच्छ्रवणे यत्स्यात्तदाह
सोचाणं भंते ! केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलिपन्नत्तं धम्म लभेजा सवणयाए ?, गोपमा ! सोचाणं केवलिस्स या जाव अत्थेगतिए केवलिपन्नत्तं धम्म एवं जा चेव असोचाए वत्तवया सा
चेव सोचाएवि भाणियचा, नवरं अभिलावो सोचेति, सेसं तं चेव निरवसेसं जाव जस्स णं मणपज्जवनाठाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ जस्सणं केवल नाणावरणिजाणं कम्माणं खए कडे भवह से गं
सोचाकेवलिरस वा जाव उवासियाए वा केवलिपन्नत्तं धम्म लभइ सवणयाए केवलं बोहिं बुजमेजा जाव केवलनाणं उप्पाडेजा, तस्स णं अट्टमंअट्टमेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणस्स पगहभइयाए तहेव जाव गवेसणं करेमाणस्स ओहिणाणे समुप्पज्जा, से तेणं ओहिनाणेणं समुप्पन्नेणं जहन्नेणं अंगुलस्स
असंखेजहभागं उकोसेणं असंखेज्जाई अलोए लोयप्पमाणमेसाई खण्डाईजाणइ पासह ॥ से णं भंते ! कतिसु मालेस्सासु होजा, गोयमा ! सुलेस्सासु होजा, तंजहा कण्हलेसाए जाव सुकलेसाए । से णं भंते ! Bा कतिसुणाणेसु होजा, गोयमा! तिमु वा चउसु वा होज्जा, तिसु होजमाणे तिसु आभिणियोहियनाणसुदयनाणओहिनाणेसु होजा, चउसु होजा माणे आभि सुय० ओहि मणप० होजा । से गंभंते। किं सयोगी
होजा अयोगी होजा ?, एवं जोगोवओगो संघयणं संठाणं उच्चत्तं आउयं च, एयाणि सवाणि जहा असो
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक -], उद्देशक [३१], मूलं [३७०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३७०]
व्याख्या
चाए तहेव भाणियवाणि । से णं भंते ! किं सवेदए०१ पुच्छा, गोयमा सवेदए वा होज्जा अवेदए वा, जइ अवेदए ९ शतके प्रज्ञप्तिः ४ होज्जा किंउवसंतवेयए होजा खीणवेयए होजा?,गोयमानो उबसंतवेदए होज्जा खीणवेदए होज्जा, जइ सवेदए । उद्देशः ३१ अभयदेवी- होजा किं इत्थीचेदए होजा पुरिसवेदए होज्जा नपुंसगवेदए वा होजा पुरिसनपुंसगवेदए होज्जा ?, पुच्छा, गो-||
वलिपक्षस्य *यमा ! इत्थीवेदए वा होजा पुरिसवेदए वा होज्जा पुरिसनपुंसगवेदए होजा । से गंभंते !किं सकसाई होजा श्रवणादिः ॥४३७॥ || अकसाई वा होजा?, गोयमा ! सकसाई वा होजा अकसाई वा होज्जा, जइ अकसाई होजा कि उवसंत- सू३७० | कसाई होजा खीणकसाई होला ?, गोयमा नो उवसंतकसाई होजा खीणकसाई होजा, जह सकसाई होजाना
से णं भंते ! कतिसु कसाएसु होजा?, गोयमा! चउसु वा दोसु वा एकमि वा होजा, चउसु होजमाणे चउसु IP संजलणकोहमाणमायालोमेसु होज्जा, तिसु होजमाणे तिमु संजलणमाणमायालोमेसु होजा, दोसु होज
माणे दोसु संजलणमायालोभेसु होजा, एगंमि होजमाणे एगमि संजलणे लोभे होजा । तस्स णं भंते ! केव18 तिया अज्झवसाणा पण्णता ?, गोयमा ! असंखेना, एवं जहा असोचाए तहेव जाव केवलवरनाणदंसणे हैं समुप्पज्जा, सेणं भंते ! केवलिपन्नत्ते धम्म आघवेज वा पन्नवेज वा परूवेज वा ?, हंता आघवेज्ज वा पन्नवेज वा
॥४३७॥ | परवेज वा । से णं भंते ! पवावेज वा मुंडावेज वा ?, हंता गोयमा! पहावेज वा मुंडावेज वा, तस्स णं भंते ! |सिस्सावि पवावेज वा मुंडावेज वा ?, हंता पहावेज वा मुण्डावेज्ज वा, तस्स णं भंते!पसिस्सावि पवावेज वामुंडा
RRCE
दीप अनुक्रम [४५०]
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक [३७०]
दीप
अनुक्रम [४५०]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः ]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [३१], मूलं [३७०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
वेज वा १, हंता पवावेज्ज वा मुंडावेज वा । से णं भंते! सिज्झति बुज्झति जाव अंतं करे ?, हंता सिज्झइ वा जाव अंत करेइ तस्स णं भंते ! सिस्सावि सिज्झति जाव अंतं करेन्ति ?, हंता सिज्यंति जाव अंतं करेन्ति, | तस्स णं भंते ! पसिस्सावि सिज्यंति जाव अंतं करेन्ति, एवं चैव जाव अंतं करेन्ति । से णं भंते । किं उई | होज्जा जहेब असोचाए जाव तदेकदेसभाए होज्जा । ते णं भंते ! एगसमएणं केवतिया होज्जा ?, गोयमा ! | जहनेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं असयं १०८, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-सोचाणं केवलिस्स वा जाव केवलिडवासियाए वा जाव अत्थेगतिए केवलनाणं उप्पाडेजा अस्थेगतिए नो केवलनाणं उप्पाडेजा। सेवंभंते । २ त्ति ॥ (सूत्रं ३७०) नवमसयस्स इगतीसइमो उद्देसो ॥ ९-३१ ।।
'सोचा 'मित्यादि, अथ यथैव केवल्यादिवचनाश्रवणावासबोध्यादेः केवलज्ञानमुत्पद्यते न तथैव तच्छ्रवणावासवो| ध्यादेः किन्तु प्रकारान्तरेणेति दर्शयितुमाह- 'तस्स ण'मित्यादि, 'तस्स' ति यः श्रुखा केवलज्ञानमुत्पादयेत्तस्य कस्याप्यर्थात् प्रतिपन्नसम्यग्दर्शनचारित्रलिङ्गस्य 'अट्टमअमेण 'मित्यादि च यदुक्तं तत्प्रायो विकृष्टतपश्चरणवतः साधोरव|धिज्ञानमुत्पयत इति ज्ञापनार्थमिति, 'लोयप्यमाणमेत्ताई ति लोकस्य यत्प्रमाणं तदेव मात्रा परिमाणं येषां तानि तथा ॥ अथैनमेव लेइयादिभिर्निरूपयन्नाह-- 'से णं भंते!' इत्यादि, तत्र 'से णंति सोऽनन्तरोक्तविशेषणोऽधिज्ञानी 'छसु लेसामु होज 'ति यद्यपि भावलेश्यासु प्रशस्तास्वेव तिसृष्वपि ज्ञानं लभते तथाऽपि द्रव्यलेश्याः प्रतीत्य षट्स्वपि लेश्यासु
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक -], उद्देशक [३१], मूलं [३७०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३७०]
व्याख्या- लभते सम्यक्त्वश्रुतंवत् , यदाह-सम्मत्तसुयं सहामु लब्भइत्ति तल्लाभे चासौ षट्स्वपि भवतीत्युच्यत इति, ९ शतके प्रज्ञप्तिः 'तिसु वत्ति अवधिज्ञानस्याद्यज्ञानद्वयाविनाभूतत्वादधिकृतावधिज्ञानी त्रिषु ज्ञानेषु भवेदिति, 'चउसु वा होजति उद्देशः ३१ अभयदेवी- मतिश्रुतमनःपर्यायज्ञानिनोऽवधिज्ञानोत्पती ज्ञानचतुष्टयभावाच्चतुर्यु ज्ञानेष्वधिकृतावधिज्ञानी भवेदिति । 'सधेयए अश्रुत्वाकेया वृत्तिः२ ४ वा इत्यादि, अक्षीणवेदस्यावधिज्ञानोत्पत्ती सवेदकः सञ्चवधिज्ञानी भवेत् , क्षीणवेदस्य चावधिज्ञानोत्पत्ताववेदकः सन्मयं ||
mix बलिपक्षस्य
मिश्रिवणादि। ॥४३॥ द स्यात्, 'नो उवसंतवेयए होज'त्ति उपशान्तवेदोऽयमवधिज्ञानी न भवति, प्राप्तव्यकेवलज्ञानस्यास्य विवक्षितत्वादिति ।
सू३७० 'सकसाई वा इत्यादि, यः कषायाक्षये सत्यवधि लभते स सकषायी सन्नवधिज्ञानी भवेत् , यस्तु कषायक्षयेऽसावकषा-14
यीति । 'चउसु वेत्यादि, यद्यक्षीणकषायः सन्नवधि लभते तदाऽयं चारित्रयुक्तत्वाच्चतुर्यु सवलनकषायेषु भवति, यदा 8 है तु क्षपकश्रेणिवर्तित्येन सज्वलनक्रोधे क्षीणेऽवधिं लभते तदा त्रिषु सञ्चालनमानादिषु, यदा तु तथैव सज्वलनकोधमानयोः क्षीणयोस्तदा द्वयोः, एवमेकवेति ॥ नवमशते एकत्रिंशत्तम उद्देशकः समाप्तः ॥ ९-३१॥
१ यद्यपि अत्र श्रुत्वाफेवल्यधिकारात मनुष्येणैवाधिकारः, तस्य च द्रव्यलेश्याभावलेश्यापार्थक्यं द्रव्यलेश्यावा अवस्थितिश्च चिर यावन्न, तथापि भवन्नित्यस्य जायमान इत्यर्थकत्वाभावे विद्यमान इत्यर्थकस च ग्रहणे न काप्यनुपपचिः, प्रासेऽवधिज्ञाने लेश्यापरावृत्तिः प्रमादात् , अत्र द्रव्य-18
॥४३८॥ |लेश्योक्तिस्तु तछेश्यकद्रव्याणां तथा तथा परिणतिमपेक्ष्य, न चैतदन्यलेश्याद्रव्याणामन्यलेश्यातया परिणमनमसंभवि, नृतिरस्या द्रव्यलेश्याद्र-| व्यपरिणामान्तरखीकारात्, एवं स्वात्तदापि नासंगतिः । २ पूर्व यापशान्तः स्यात्तदापि पातस्तस भूतपूर्व एव, अधुनोपशमे तु द्विरुपशमे || श्रेण्यारोहेण केवलस्योत्पाद एव न स्यात् तत युक्तं उक्तं ॥
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अत्र नवमे शतके एकत्रिंशत-उद्देशक: परिसमाप्त:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३२], मूलं [३७१-३७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३७१
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अनन्तरोद्देशके केवल्यादिवचनं श्रुत्वा केवलज्ञानमुत्पादयेदित्युक्तम्, इह तु येन केवलिवचनं श्रुत्वा तदुत्पादितं. स दर्शाते, इत्येवंसंबद्धस्य द्वात्रिंशत्तमोद्देशकस्वेदमादिसूत्रम्-- है तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियगामे नगरे होत्या वन्नओ, दूतिपलासे चेहए, सामी समोसढे, परिसा
निग्गया, धम्मो कहिओ, परिसा पडिगया, तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावधिज्जे गंगेए नाम अणगारे जेणेव समणे भगवं महावीरे सेणेष उपागच्छह तेणेव उवागच्छइत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामते ठिचा समर्ण भगवं महावीरं एवं वयासी-संतरं भंते । नेरइया उववनंति निरंतरं नेरड्या उववजंति ?, गंगेया! संतरपि नेरइया उवववति निरंतरंपि नेरड्या उववजंति, संतरं भंते ! असुरकुमारा उबव-2
जति निरंतरं असुरकुमारा उववज्जति ?, गंगेया! संतरपि असुरकुमारा ख्ववज्जति निरंतरंपि असुरकुमारा ल उववज्जति एवं जाव धणियकुमारा, संतरं भंते ! पुढविकाइया उवववति निरंतरं पुढविकाइया उववर्जति ?,
गंगेया! नो संतरं पुढविकाइया उपयजति निरंतरं पुढविकाइया उववजंति, एवं जाव वणस्सइकाइया, बेई-18 ४ दिया जाव चेमाणिया एते जहा णेरड्या (सूत्रं ३७१)संतरं भंते ! नेरइया उचवदृति निरंतर नेरहया उववहति?,
गंगेया! संतरंपि नेरइया उपवहति निरंतरंपि नेरइया उववहति, एवं जाव थणियकुमारा, संतरं भंते ! पुरवि-- काइया उववति ? पुच्छा, गंगेया ! णो संतरं पुढविकाइया उच्चति निरंतरं पुढविक्काइया उपति, एवं जाव वणस्सइकाइया नो संतरं निरंतरं उबद्दति, संतरं भंते ! बेइंदिया उबति निरंतरं दिया उबद्दति ?, गंगेया !
ACAAS
दीप अनुक्रम [४५१४५२]
ki
अथ नवमे शतके द्वात्रिंशत-उद्देशकः आरभ्यते
पार्वापत्य गांगेय-अनगारस्य प्रश्ना:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३२], मूलं [३७१-३७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३७१-३७२]
दीप अनुक्रम [४५१४५२]
व्याख्या- संतरंपि इंदिया उबद्दति निरंतरंपि इंदिया उबट्टति, एवं जाव वाणमंतरा, संतरंभंते जोइसिया पति श तके
प्रज्ञप्तिः पुच्छा, गंगेया संतरपिजोइसिया चयंति निरंतरपि जोइसिया चयंति, एवं जाय वेमाणियावि (सूत्रं १७२) उद्देशः ३२ अभयदेवी
सान्तरायुCM 'ते णमित्यादि, 'संतरंति समयादिकालापेक्षया सविच्छेदं, तत्र चैकेन्द्रियाणामनुसमयमुत्पादात् निरन्तरत्वमन्येषा या वृत्तिः तूत्पादे विरहस्यापि भावात् सान्तरत्वं निरन्तरत्वं च वाच्यमिति ॥ उत्पन्नानां च सतामुद्वर्तना भवतीत्यतस्ता निरूपय
त्पादोद्वर्त्तने
सू३७१. ॥४३॥ माह-संतरं भंते ! नेरइया उववदृती'त्यादि ॥ उद्भुत्तानां च केपाश्चिद्गत्यन्तरे प्रवेशनं भवतीत्यतस्ततिरूपणायाह
४ ३७२ काविहे गं भंते ! पवेसणए पन्नत्ते, गंगेया ! चउबिहे पवेसणए पन्नत्ते तंजहा-नेरहयपवेसणए तिरि-1 यजोणियपवेसणए मणुस्सपवेसणए देवपवेसणए । नेरइयपवेसणए णं भंते ! कहविहे पनसे ,गंगेया।। सत्तविहे पन्नत्ते, तंजहा-रयणप्पभापुढविनेरइयपवेसणए जाय अहेसत्तमापुढविनेरइयपवेसणए ॥ एगे | भंते । नेरइए नेरइयपबेसणएणं पविसणमाणे किं रयणप्पभाए होजा सकरप्पभाए होजा जाव अहे
सत्तमाए होजा, गंगेया ! रयणप्पभाए वा होजा जाव अहेससमाए वा होजा। दो भंते ! नेरइया नेरह| यपवेसणएर्ण पविसमाणा किं रयणप्पभाए होजा. जाव अहेसत्तमाए होजा?, गंगेया ! रयणप्पभाए वा होजा जाव अहेससमाए वा होजा, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए होज्जा अहचा एगे रपण-IN
प्पभाए एगे वालपप्पभाए होजा जाव एगे रयणप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा, अहवा एगे सकरप्पभाएx ४ाएगे वालुयप्पभाए होजा जाव अहवा एगे सकरप्पभाए एगे अहेसत्समाए होजा, अहवा एगे वालुपप्पभाए
RAGNERS5555
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पार्वापत्य गांगेय-अनगारस्य प्रश्ना:
~320
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति :]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३२], मूलं [३७३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३७३]
IPI
एगे पंकप्पभाए होजा एवं जाव अहवा एगे चालुयप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा, एवं एकेका पुतवी एडेयषा जाव अहवा एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्या ॥ तिन्नि भंते ! मेरइया नेरझ्यपधेसणएणं पविसमाणा किं रयणप्पभाए होजा जाव अहेसत्तमाए होला, गंगेया! रयणप्पभाए वा होजा जाव आहेसत्तमाए वा ४ || होजा, अहवा एगे रयणप्पभाए दो सकरप्पभाए होजा जाव अहवा एगे रयणप्पभाए दो अहेससमाए होजा अहवा दो रपणषभाए एगे सकरप्पभाए होजा जाच अहवा दो रयणप्पभाए एगे अहेससमाए होज्जा १२ अहवा एगे सकरप्पभाए दो बालुयप्पभाए होजा जाव अहवा एगे सफरप्पभाए दो अहेससमाए । होजा १७ अहवा दो सकारप्पभाए एगे वालुयप्पभाए होजा जाव अहवा दो सकरप्पभाए एगे अहेससमाए होजा २९ एवं जहा सकरप्पभाए वत्तबया भणिया तहा सबपुरवीणं भाणियचा जाव अहवा दो तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा, ४-४-३-३-२-२-१-१ (४२) अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे वालय-18 प्पभाए होजा १ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे पंकप्पभाए होज्जा २जाव हवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे अहेससमाए होजा ५ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंक-19 |प्पभाए होजा ५ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए होज्जा ७ एवं जाव अहवा एगे४ रयणप्पभाए एगे वालुय० एगे अहेसत्समाए होज्जा ९,अहवा एगे रपणपभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए होजा १० जाव अहया एगे रयणप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा १२ अहवा एगे रयणप
दीप अनुक्रम [४५३]
पाापत्य गांगेय-अनगारस्य प्रश्ना:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३२], मूलं [३७३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
व्याख्या- प्रज्ञप्ति: अभयदेवी- या वृत्तिः
सू३७२
[३७३]
॥४४०॥
दीप अनुक्रम [४५३]
ॐॐॐॐ
भाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होज्जा १३ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होला ९ शतके १४ अहवा १४ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा १५ अहवा एगे सकरपभाए एगे वालु- उद्देशः३२ यप्पभाए एगे पंकप्पभाए होजा १६ अहवा एगे सकरप्पभाए एगे वालुयपभाए एगे धूमप्पभाए होजा १७४ एकादिजीजाव अहवा एगे सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा १९ अहवा एगे सकरप्पभाए
वप्रवेशाधि. एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए होज्जा २० जाव अहवा एगे सकर० एगे पंक० एगे अहेसत्तमाए होजा २२ भहवा एगे सफरप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होज्जा २३ अहवा एगे सकरप्पभाए एगे धूमप्प० एगे
अहेसत्तमाए होजा २४ अहवा एगे सकरप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा २५ अहवा एगे वाल*यप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए होजा २६ अहवा एगे वालपप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे तमाए|| होना २७ अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा २७ अहवा एगे बालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होज्जा २९ अहवाएगेवालयप्पभाए एगेधूमप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा ३० अहवा एगे बालुयप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा ३१ अहवा एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे। तमाए होजा ३२ अहवा एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होना ३३ अहवा एगे पंकप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होना ३४ अहवा एगे धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहेससमाए होजा ३५ ।। चत्तारि भंते । नेरइया नेरइयपवेसणएणं पविसमाणा किं रयणप्पभाए होज्जा ? पुच्छा, गंगेया। स्य
...अत्र सू.३७३ एव वर्तते, मूल संपादकस्य स्खलनत्वात् सू.३७२ लिखितं, तस्मात् सू.३७२ स्थाने सू.३७३ एव जानीत
पार्वापत्य गांगेय-अनगारस्य प्रश्ना:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति :]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३२], मूलं [३७३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
4
+
प्रत सूत्रांक [३७३]
C
दीप अनुक्रम [४५३]
गप्पभाए वा होजा जाव अहेसत्तमाए वा होना ७, अहवा एगे रयणप्पभाए तिन्नि सकरप्पभाए होला ला अहवा एगे रयणप्पभाए तिन्नि वालुयप्पभाए होजा एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए तिन्नि अहेसत्समाएर
होजा ६ अहवा दो रयणपाए दो सकरप्पभाए होना एवं जाव अहवा दो रयणप्पभाए दो अहेसत्तमाए होजा १२, अहवा तिन्नि रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए होजा, एवं जाव अहवा तिन्नि रयणप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा १८, अहवा एगे सकरप्पभाए तिन्नि वालुयप्पभाए होजा, एवं जहेव रयणप्पभाए उवरिमाहिं समं चारियं तहा सकरप्पभाएवि उपरिमाहिं समं चारेयचं ५, एवं एकेकाए समं चारियवं. जाव अहवा तिनि तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा १२-६-३-६३) अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए
दो वालुयप्पभाए होजा अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकर दो पंक० होज्जा एवं जाव एगे रयणप्पभाए Pएगे सकर दो अहेसत्तमाए होजा ५ अहवा एगे रयण दो सकर० एगे वालुयप्पभाए होजा एवं जाव Bा अहवा एगे रपण दो सफर० एगे अहेसत्तमाए होजा १० अहवा दो रपण एगे सकर० एगे वालपप्प-18
भाए होला, एवं जाव अहवा दो रयणक एगे सकार० एगे अहेसत्तमाए होबा १५ अहवा एगे रयण. एगे वालुय० दो पंकप्पभाए होज्जा एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुप० दो अहेसत्तमाए होजा ४ एवं
पएणं गमएणं जहा तिहं तियजोगो तहा भाणियखो जाव अहवा दो धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तMमाए होज्जा १०५ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे वालयप्पभाए एगे पंकप्पभाए होज्जा'
पाापत्य गांगेय-अनगारस्य प्रश्ना:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक -1, उद्देशक [३२], मूलं [३७३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३७३]
|सू ३७२
दीप अनुक्रम [४५३]
व्याख्या- अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकर० एगे वालुय. एगे धूमप्पभाए होजा २ अहवा एगे रयण एगे सकार श तके प्रज्ञप्तिः एगे वालुप० एगे तमाए होज्जा ३ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे अभयदेवीला अहेसत्तमाए होज्जा ४ अहवा एगे रयण एगे सकर एगे पंक० एगे धूमप्पभाए ५ महवा एगे रयण एगेका
एकादिजीया वृत्तिा सकर एगे पंकप्पभा० एगे तमाए होजा ६ अहवा एगे रयण. एगे सकर एगे पंक एगे अहेसत्तमाए
वप्रवेशाधि॥४४१॥ होजा ७ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकर० एगे धूम० एगे तमाए होजा ८ अहवा एगे रयण एगे सकर०
एगे धूम० एगे अहेसत्तमाए होजा ९ अहवा एगे रयण एगे सकरप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसप्समाए होना १० अहवा एगे रयण. एगे पालुप० एगे पंक० एगे धूमप्पभाए होजा ११ अहवा एगे रयण एगे वालुप० एगे पंक० एगे तमाए होजा १२ अहवा एगे रयण एगे वालुय०एगे पंक० एगे अहेसत्तमाए होजा१३ अहवा एगे रयण० एगे वालुय०एगे धूम० एगे तमाए होजा १४ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुर्य० एगे घूम० एगे अहेसत्तमाए होजा १५ भहवा एगे रयण. एगे वालुय० एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा *१६ अहवा एगे रयण. एगे पंक० एगे धूम. एगे तमाए होजा १७ अहवा एगे रयण एगे पंक० एगे धूम018 का एगे अहेसत्तमाए होना १८ अहवा एगे रपण एगे पंक०एगे तमाए एगे अहेसत्समाए होजा १९ अहवा एगे।
॥४४॥ रयण० एगे धूम० एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा २० अहवा एगेसकर एगेवालुप० एगे पंक० एगे घूमप्पभाए होजा २१ एवं जहा रयणप्पभाए उवरिमाओ पुढवीओचारियाओ तहा सकरप्पभाएवि उवरिमाओ
...अत्र सू.३७३ एव वर्तते, मूल संपादकस्य स्खलनत्वात् सू.३७२ लिखितं, तस्मात् सू.३७२ स्थाने सू.३७३ एव जानीत
पार्वापत्य गांगेय-अनगारस्य प्रश्ना:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति :]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक -], उद्देशक [३२], मूलं [३७३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३७३]
चारियवाओ जाव आहवा एगे सक्कर० एगे धूम एगे तमाए एगे अहेससमाए होजा ३० हवा एगे वालु
प० एगे पंक० एगे घूम. एगे तमाए होजा ३१ अहवा एगे वालुय० एगे पंक० एगे धूमप्पभाए एगे अहेस दत्तमाए होज्जा ३२ अहवा एगे वालुय० एगे पंक० एगे तमाए एगे अहेसप्तमाए होजा ३३ अहवा एगे वालु-15
य एगे धूम० एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा ३४ अहवा एगे पंक० एगे धूम एगे तमाए एगे आहेससः माए होजा ३५ ॥
'कइविहे ण'मित्यादि, 'पवेसणए'त्ति गत्यन्तरादुद्वृत्तस्य विजातीयगतो जीवस्य प्रवेशन, उत्पाद इत्यर्थः, 'एगे है भंते । नेरइए'इत्यादी सप्त विकल्पाः। 'दो भंते ! नेरइए'त्यादावष्टाविंशतिर्विकल्पास्तत्र रमप्रभाद्याः सप्तापि पृथिवी
|क्रमेण पट्टादी व्यवस्थाप्याक्षसकारणया पृथिवीनामेकत्वद्विकसंयोगाभ्यां तेऽवसेयाः, तत्रैकैकपृथिव्यां नारकद्वयोत्पत्ति, का लक्षणैकत्वे सप्त विकल्पा, पृथिवीद्वये नारकद्वयोत्पत्तिलक्षणद्विकयोगे त्वेकविंशतिरित्येवमष्टाविंशतिः 'एवं एकेका पुढवी
उडेय'ति अक्षसधारणापेक्षयेदमुक्तमिति ॥ 'तिन्नि भंते ! नेरहए'त्यादौ चतुरशीतिर्विकल्पाः, तथाहि-पृथिवीनामेकत्वे सप्त विकल्पाः, द्विकसंयोगे तु तासामेको द्वावित्यनेन नारकोत्पादविकल्पेन रक्षमभया सह शेषाभिः क्रमेण चारिताभिर्लब्धाः षड्, द्वावेक इत्यनेनापि नारकोत्पादविकल्पेन पडेव, तदेते द्वादश १२, एवं शर्कराप्रभया पञ्च पति दशएवं चालुकाप्रभयाऽष्टी पडूप्रभया षट् धूमप्रभया चत्वारः तमम्प्रभया द्वापिति, द्विकयोगे द्विचत्वारिंशत्, त्रिकयोगे तु तासां पञ्चत्रिंशद्विकल्पास्ते चाक्षसञ्चारणया गम्यास्तदेवमेते सर्वेऽपि चतुरशीतिरिति । ७॥ ४२ ॥ ३५॥ ८४ ॥'चसारि
दीप अनुक्रम [४५३]
4%
पाश्र्वापत्य गांगेय-अनगारस्य प्रश्ना:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक -], उद्देशक [३२], मूलं [३७३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३७३]
C+
+
+
व्याख्या-1 भंते । नेरइया इत्यादी दशोत्तरे वे शते विकल्पानां, तथाहि-पृथिवीनामेकरखे सप्त विकल्पाः, द्विकसंयोगे तु तासा-III शतके प्रज्ञप्तिः | मेकत्रय इत्यनेन नारकोत्पादविकल्पेन रक्षप्रभया सह शेषाभिः क्रमेण चारिताभिलब्धाः षट् , द्वौ द्वावित्यनेनापि पट्ठा उद्देशः ३२ अभयदेवी- त्रय एक इत्यनेनापि षडेच, तदेवमेतेऽष्टादश, शर्कराप्रभया तु तथैव त्रिषु पूर्वोक्तनारकोत्पादविकल्पेषु पञ्च पश्चेति पश्च-|| यावृत्तिः२
वप्रवेशाधि. |दश, एवं वालुकाप्रभया चत्वारश्चत्वार इति द्वादश, पङ्कप्रभया त्रयस्त्रय इति नव, धूमप्रभया द्वी द्वाविति षट्, तम:-HTTA ॥४४२॥ ॥४॥ प्रभय कैक इति त्रयः, तदेवमेते द्विकसंयोगे त्रिषष्टिः ६३, तथा पृथिवीनां त्रिकयोगे एक एको दी चेत्येवं नारकोत्पाद-18
विकल्पे रत्नप्रभाशर्कराप्रभाभ्यां सहान्याभिः क्रमेण चारिताभिर्लब्धाः पञ्च, एको द्वावेकश्वेत्येवं नारकोत्पादविकल्पां-पत न्तरेऽपि पञ्च, द्वाषेक एकश्चेत्येवमपि नारकोत्पादविकल्पान्तरे पञ्चैवेति पञ्चदश १५, एवं रक्षप्रभावालुकामभाभ्यां सहोत्त-| राभिः क्रमेण चारिताभिर्लब्धा द्वादश १२, एवं रक्षप्रभापकप्रभाभ्यां नव, रत्नप्रभाधूमप्रभाभ्यां षद्, रसमभातमः-18|| प्रभाभ्यां त्रयः, शर्कराप्रभावालुकाप्रमाभ्यां द्वादश १२, शर्करामभापङ्कप्रभाभ्यां नव, शर्कराप्रभाधूमप्र-चतुष्पको त्रिकयोनार भाभ्यां षट्, शर्कराप्रभातमम्प्रभाभ्यां त्रयः, वालुकाप्रभापङ्कप्रभाभ्यां नव, वालुकाप्रभाधूमप्रभाभ्यां ५५ र
३. शर्करा, पटू , वालुकाप्रभातमम्प्रभाभ्यां बयः, पङ्कप्रभाधूमप्रभाभ्यां षट्, पङ्कप्रभातमःप्रभाभ्यां प्रया, धूमप्रभा | पालुका. IP४४२॥ दिभिस्तु त्रय इति, तदेवं त्रिकयोगे पश्चोत्तरं शतं चतुष्कसंयोगे तु पञ्चविंशदिति, एवं सप्तानां त्रिषष्टेः | पंकप्रभा
भूमप्रमा | पञ्चोत्तरशतस्य पञ्चत्रिंशतश्च मीलने द्वे शते दशोत्तरे भवत इति ॥
पंच भंते ! नेरइया नेरइयप्पवेसणएणं पविसमाणा किं रयणप्पभाए होला ? पुच्छा, गंगेया । रयणप्प
+
दीप अनुक्रम [४५३]
+
...अत्र सू.३७३ एव वर्तते, मूल संपादकस्य स्खलनत्वात् सू.३७२ लिखितं, तस्मात् सू.३७२ स्थाने सू.३७३ एव जानीत
पार्वापत्य गांगेय-अनगारस्य प्रश्ना:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति :]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३२], मूलं [३७३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
+
प्रत सूत्रांक [३७३]
दीप अनुक्रम [४५३]
भाए वा होजा जाव अहेसत्तमाए वा होज्जा अहवा एगे रयण चत्तारि सकरप्पभाए होजा जाब अहवा | एगे रयण चत्तारि अहेसत्तमाए होजा अहवा दो रयण तिनि सकरप्पभाए होज्जा एवं जाव अहवा दोरयणप्पभाए तिन्नि अहेसत्तमाए होज्या अहवा तिनि रयण दो सकरप्पभाए होजा एवं जाव अहेस-15 त्तमाए होजा अहवा चत्तारि रयण एगे सकरप्पभाए होजा एवं जाव अहवा चत्तारि रयण एगे अहेससमाए होला अहवा एगे सकर चत्तारि वालुयप्पभाए होजा एवं जहा रयणप्पभाए समं उचरिमपदवीओ चारियाओ तहा सकरप्पभाएवि समं चारेयवाओ जाव अहवा चत्तारि सकरप्पभाए एगे अहेसत्तमाए| होजा एवं एकेकाए समं चारेयवाओ जाव अहवा चत्तारि तमाए एगे अहेससमाए होजा अहवा एगे रयण | एगे सक्कर तिनि वालुयप्पभाए होजा एवं जाब अहवा एगे रयण एगे सकर तिन्नि अहेसत्तमाए होजा 18 अहवा एगे रयण दो सकर दो वालुयप्पभाए होजा एवं जाव अहवा एगे रयण दो सकर दो अहेस-18
समाए होज्जा अहवा दो रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए दो वालुयप्पभाए एवं पंचजीवानां दिकसयोगे | होजा एवं जाव अहवा दो रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए दो अहेसत्तमाए होजा | रस
अहवा एगे कारयण तिमि सफर० एगे वालुयप्पभाए होजा एवं जाच अहवा एगे
रयण तिन्नि | सकर एगे अहेसत्तमाए होजा अहवा दो रयण दो सकार० एगे |
वालुयप्पभाए होजा एवं जाव अहेसत्तमाए अहवा तिन्नि रयण एगे सकर. एगेका
चालुयप्पभाए
ॐ+%
कर
भागा:८४ २४ रनमना २.शर्करापमा १६वायुकाममा १२पकप्रभा ८५मसभा ४ तमःप्रभा
C45
पाश्र्वापत्य गांगेय-अनगारस्य प्रश्ना:
~327
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[३७३]
टीप
अनुक्रम [ ४५३]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः ]
शतक [९] वर्ग (1) अंतर- शतक -1. उद्देशक [३२] मूलं [ ३७३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥४४३॥
होज्जा एवं जाव अहवा तिन्नि रयण० एगे सकर एगे अहेसत्तमाए होला अहवा एगे रयण० एगे वालुय० तिनि पंकप्पभाए होज्जा, एवं एएणं कमेणं जहा चउण्डं तियासंजोगो भणितो तहा पंचण्हवि तियासंजोगो | भाणियो नवरं तत्थ एगो संचारिज्जर इह दोन्नि सेसं तं चैव जाव अहवा तिन्नि घूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहे सत्तमाए होखा त्रिसंयोगे अहवा एगे रयण० एगे सफर० एगे वालप० दो पंकप्पभाए होखा एवं जाब अहवा एगे ९० ख० ६० शर्करा रयण० एगे सक्कर० एगे वालुय० दो आहेसत्तमाए होला ४ अहवा | एगे रयण०एगे सक्कर० २६ मालुकप्रभा दो वालुय० एगे पंकप्पभाए होजा एवं जाव आहेसत्तमाए ८, अहवा एगे रयण० एगे सकरप्पभाए एगे वालय० एगे पंकप्पभाए होजा एवं जाव अहवा एगे रयण० दो सफर० पूर्व १२० - एगे वालुय० एगे अहेसत्तमाए होला १२ अहवा दो रयण० एगे सकर० एगे वास्तुय० एणे पंकष्पभाए होजा एवं जाव अहवा दो रयण० एगे सकर० एगे बालुय० एगे अहेसतमाए होज्जा १६ अहवा एगे रयण० एगे सकर० एगे पंक० दो धूमप्पभाए होला एवं जहा चउण्हं चउक्षसंजोगो भणिओ तहा पंचण्हषि चकसंजोगो भाणियो, नवरं अन्भहियं एगो संचारेयधो, एवं जाव अहवा दो पंक० एगे धूम० एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होला अहवा एगे रयण० एगे सकर० एगे वालय एगे पंक० एगे घूमप्पभाए होजा १ अहवा एगे रयण० एगे सकर० एगे वालय एगे पंक० एगे तमाए होला २ अहवा एगे | रयण० जाव एगे पंक० एगे असत्तमाए होला ३ अहवा एगे रयण० एगे सक्कर० एगे वालपप्पभाए एगे
१८ पंकप्रभा ६ धूमप्रभा
Eucation Intematon
For Pale Only
•••अत्र सू.३७३ एव वर्तते, मूल संपादकस्य स्खलनत्वात् सू. ३७२ लिखितं, तस्मात् सू. ३७२ स्थाने सू. ३७३ एव जानीत पार्श्वपत्य गांगेय अनगारस्य प्रश्ना:
~328~
९ शतके
उद्देशः ३२ एकादिजीवप्रवेशाधि.
सू ३७२
॥ ४४३॥
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३२], मूलं [३७३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३७३]
धूमप्पभाए एगे तमाए होजा ४ अहवा एगे रयण एगे सकर० एगे वालुय० एगे घूमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा ५ अहवा एगे रयण एगे सक्कर० एगे वालुय० एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होला ६ अहवा एगे| रयण. एगे सकर० एगे पंक० एगे धूम० एगे तमाए होजा ७ अहवा एगे रयण एगे सकर० एगे पंक० एगे| धूम० एगे अहेसत्तमाए होला ८ अहवा एगे रयण एगे सक्कर• एगे पंक० एगे तम० एगे अहेसत्तमाए होबा ९ अहवा एगे रपण एगे सकर० एगे धूम० एगे तम० एगे अहेसत्तमाए होज्जा १० अहवा एगे रपण. एगे वालय.एगे पंक० एगे घूम० एगे तमाए होज्जा ११ अहवा एगे रयण एगे वालुय० एगे पंक० एगे धूम एगे अहेसत्तमाए होला १२ अहवा एगे रयण एगे बालुय० एगे पंक० एगे धूम० एगे अहेसत्तमाए होजा १३३
अहवा एगे रयण एगे वालुयः एगे धूम० एगे तम० एगे अहेसत्तमाए होजा १४.अहवा एगे रयण एगे | पंक० जाव एगे अहेससमाए होजा १५ अहवा एगे सकर० एगे वालुय० जाव एगे तमाए होज्जा १६ अहवा | एगे सकर जाव एगे पंक० एगे धूम० एगे अहेसत्तमाए होज्जा १७ अहवा एगे सकर जाच एगे पंक० एगे | तमाए एगे अहेसत्समाए होजा १८ अहवा एगे सकर० एगे वालुय० एगे घूम० एगे तमाए एगे अहेसत्समाए
होजा १९ अहवा एगे सफर० एगे पंकजाव एगे अहेसत्तमाए होना २० अहवा एगे बालुय० जाव एगे। ४ अहे सत्तमाए होजा २१॥
'पंच भंते ! नेरइया'इत्यादि, पूर्वोक्तक्रमेण भावनीयं, नवरं सङ्केपेण विकल्पसङ्ख्या दर्श्यते-एकत्वे सप्त विकल्पाः,
दीप अनुक्रम [४५३]
AE%
ACE
पाापत्य गांगेय-अनगारस्य प्रश्ना:
~329~
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति :]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३२], मूलं [३७३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
*
G
प्रत सूत्रांक
RECECAROO
[३७३]
व्याख्या- द्विकसंयोगे तु चतुरशीतिः, कथं ?, द्विकसंयोगे सप्तानां पदानामेकविंशतिर्भङ्गाः, पञ्चानां च नारकाणां द्विधाकरणेऽक्ष- ९ शतके प्रज्ञप्तिः सञ्चारणावगम्याश्चत्वारो विकल्पा भवन्ति, तद्यथा-एकश्चत्वारश्च, द्वौ त्रयश्च, त्रयो द्वौ च, चत्वार एकश्चेति, तदेवमेक- उद्देशः ३२ अभयदेवी-साविंशतिश्चतुर्भिर्गुणिता चतुरशीतिर्भवतीति, त्रिकयोगे तु सतानां पदानां पञ्चत्रिंशद्विकल्पाः, पञ्चानां च त्रिवेन स्थापने एकादिजीया वृत्तिः२/४ | पद विकल्पास्तद्यथा-एक एकखयश्च, एको द्वौ बीच, द्वावेको द्वौ च, एकत्रय एकच, द्वौ द्वावेकश्व, वय एक एकश्चेति, वप्रवेशाधि.
सू३७२ तदेवं पञ्चत्रिंशतः षभिर्गुणने दशोत्तरं भङ्गकशतद्वयं भवति, चतुष्कसंयोगे तु सप्तानां पञ्चत्रिंशद्विकल्पाः, पचानां ॥४४४॥
चतूराशितया स्थापने चत्वारो विकल्पास्तद्यथा-१११२ । ११२१ । १२११ । २१११ । तदेवं पञ्चत्रिंशतश्चतुर्भिगुणने । चत्वारिंशदधिकं शतं भवतीति, पञ्चकयोगे त्वेकषिंशतिरिति, सर्वमीलने च चत्वारि शतानि द्विषष्यधिकानि भवन्तीति ॥18 | भंते ! नेरहया नेरहयप्पवेसणएणं पविसमाणा किं रयणप्पभाए होजा? पुच्छा, गंगेया। रयणप्पभाए
वा होज्बा जाव अहेसत्तमाए वा होजा ७ अहवा एगे रयण पंच सकरप्पभाए वा होज्जा अहवा एगे रयण |पंच वालुयप्पभाए चा होजा जाव अहवा एगे रयण पंच अहेसत्तमाए होज्जा अहवा दो रयण चत्तारि |सकरप्पभाए होजा जाव अहवा दो रयण चत्तारि अहेसत्तमाए होजा अहवा तिन्नि रयण तिनि सकर
॥४४४॥ |एवं एएणं कमेणं जहा पंचण्डं दुयासंजोगो तहा छपहवि भाणियचो नवरं एको अन्भहिओ संचारेयधो जाव अहवा पंच तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा, अहवा एगे रयण. एगे सफर० चत्तारि वालुयप्पभाए होजा अहवा एगे रयण एगे सकर०चत्तारि पंकप्पभाए होजा एवं जाव अहवा एगे रयण० एगे सकर. चत्तारि
दीप अनुक्रम [४५३]
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...अत्र सू.३७३ एव वर्तते, मूल संपादकस्य स्खलनत्वात् सू.३७२ लिखितं, तस्मात् सू.३७२ स्थाने सू.३७३ एव जानीत
पार्वापत्य गांगेय-अनगारस्य प्रश्ना:
~330
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[३७३]
टीप
अनुक्रम
[ ४५३]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः ]
शतक [९], वर्ग (-) अंतर-शतक 1-1 उद्देशक [३२] मूलं [ ३७३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
अहे सन्तमाए होजा अहवा एगे रण० दो सकर० तिनि वालुयप्पभाए होजा, एवं एएणं कमेणं जहा पंचहं तियासंजोगो भणिओ तहा छण्हवि भाणियवो नवरं एको अहिओ उचारेचो, सेसं तं चैव ३४, चक्कसंजोगोवि तहेव, पंचगसंजोगोवि तहेव, नवरं एको अन्महिओ संचारेयत्रो जाव पच्छिमो भंगो अहवा दो वालुय० एगे पंक० एगे धूम० एगे तम० एगे अहेसत्तमाए होज्जा अहवा एगे रयण० एगे सक्कर० जाव एगे तमाए होज्जा १ अहवा एगे रयण० जाव एगे धूम० एगे असत्तमाए होजा २ अहवा एगे रयण० जाव एगे पंक एगे तमाए एगे अहेसप्तमाए होज्जा ३ अहवा एगे रयण० जाव एगे बालुय० सर्वमीकने ९२४ भङ्गाः एक०७हिकसंयोगाः १०५ एगे धूम० जाव एगे अहेसत्तमाए होजा ४ अहवा एगे रयण० एगे सफर० एगे पंक० त्रिसंयोगाः ३५० जाब एगे अहेसत्तमाए होजा ५ अहवा एगे रयण० एगे बालु० जाएगे अहे सन्तमाए होज्जा ६ अहवा एगे सफरप्पभाए एंगे वालुयप्पभाए जाव एगे आहेससमाए होजा ७ ॥
चतुष्कसंयोगाः ३५० पंचकसंयोगाः १०५ संयोगाः ७
'छते नेरइये 'त्यादि ॥ इहैकरवे सप्त द्विकयोगे तु पण्णां द्वित्वे पञ्च ४२ । ५१ । तैश्च सप्तपदद्विक संयोग एकविंशतेर्गुणनात् पश्चोतरं भङ्गकशतं २५ विकल्पास्तद्यथा । ११४ । १२३ । २१३ । १३२ । २२२ । ३१२ । १४१ । १ त्रिंशतः सप्तपदत्रिक संयोगानां गुणनात् त्रीणि शतानि पञ्चाशदधिकानि राशितया स्थापने दश विकल्पास्तद्यथा । १११३ | ११२२ । १२१२ ।
२०
(१०५
Education International
पार्श्वपत्य गांगेय अनगारस्य प्रश्नाः
For Parts Only
~331~
विकल्पास्तद्यथा । १५ । २४ । ३३ । भवति, त्रिकयोगे तु षण्णां त्रित्वे दश २३१ । ३२१ । ४११ । एतैश्च पञ्चभवन्ति, चतुष्क संयोगे तु पण्णां चतू२११२ । ११३१ । १२२१ । २१२१ ।
war
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३२], मूलं [३७३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३७३]
एक.. भयाः
व्याख्या॥ १३११ । २२११ । ३१११ । पञ्चत्रिंशतश्च सप्तपदचतुष्कर्सयोगानां दशभिर्गुणनात्रीणि शतानि पश्चाशदधिकानि भवन्ति,
९ शतके प्रज्ञप्तिः
उद्देशः ३२ पञ्चकसंयोगे तु पण्णां पञ्चधाकरणे पश्च विकल्पास्तद्यथा-११११२ । १११२१ । ११२११ । १२१११ । २१९११।
एकादिजीसप्तानां च पदानां पञ्चकसंयोगे एकविंशतिर्विकल्पाः, तेषां च पञ्चभिर्गुणने पश्चोत्तरं शतमिति, पदसंयोगे तु सव, वप्रवेशाधि. तेच सर्वमीलने नव शतानि चतुर्विशत्युत्तराणि भवन्तीति ।।
सू३७३ ॥४४॥
| सत भंते । नेरइया नेरझ्यपवेसणएणं पविसमाणा पुच्छा, गंगेया ! रयणप्पभाए वा होजा जाव अहे सलमवेशे संयोगाः सत्तमाए वा होना ७, अहवा एगे रयणप्पभाए छ सकरप्पभाए होजा एवं एएणं कमेणं
जहा छहं दुयासंजोगो तहा सत्तण्हवि भाणियवं नवरं एगो अम्भहिओ संचारिजा.सेस द्विकर्सयोगाः १२६ विकसयोगाः ५२५ |तं चेव, तियासंजोगो चउकसंजोगो पंचसंजोगो छक्कसंजोगो य छण्हं जहा तहा ससहवि पंचकसंयोगाः ३१५
भाणियब, नवरं एकेको अब्भहिओ संचारेयबो जाव छक्कगसंजोगो अहवा दो सफर एगे| पसंयोगाः ४२ वालुयजाव एगे अहेसत्तमाए होजा अहवा एगे रयण एगे सकर जाव एगे अहेसत्त-II
॥४४५॥ माए होजा ।। 'सत्स भंते !'इत्यादि, इहैकत्वे सप्त, द्विकयोगे तु सप्तानां द्वित्वेषद् विकल्पास्तद्यथा-१६।२५।३४॥४३॥५२॥११॥ पनिश्च सप्तपददिकसंयोगएकविंशतेर्गुणनात् षविंशत्युत्तरं भकशतं भवति, त्रिकयोगे तु सप्तानां त्रित्वे पञ्चदश विकल्पास्तद्यथा-११५ । १२४ । २१४ । १३३ । २२३ । ३१३ | १४२ । ३३२ । ३२२ । ४१२ । १५१ १.२४१॥ ३३॥
दीप अनुक्रम [४५३]
चतुष्कसंयोगाः ७००
स
पाापत्य गांगेय-अनगारस्य प्रश्ना:
~332
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक -], उद्देशक [३२], मूलं [३७३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३७३]
|४२१ । ५११ । एतैश्च पत्रिंशतः सप्तपदत्रिकसंयोगानां गुणनात् पञ्च शतानि पञ्चविंशत्यधिकानि भवन्तीति, चतुष्कयोगे तु सप्तानां चतूराशितया स्थापने एक एक एकश्चत्वारश्चेत्यादयो विंशतिर्विकल्पाः तेच वक्ष्यमाणाश्च पूर्वोक्तभाकानुसारेणाक्षसञ्चारणाकुदालेन स्वयमेवावगन्तव्याः, विंशत्या च पञ्चत्रिंशतः सप्तपदचतुष्कसंयोगानां गुणनात् सप्त शतानि विकल्पानां भवन्ति, पश्चकसंयोगे तु सप्तानां पञ्चतथा स्थापने एक एक एक एकसयश्चेत्यादयः पञ्चदश विकल्पाः, एतैश्च सप्तपदपकसंयोगएकविंशतेर्गुणनात्रीणि शतानि पश्चदशोत्तराणि भवन्ति, षटूसंयोगे तु सप्तानां पोढाकरणे पञ्चैकका द्वौ चेत्यादयः १११११२ षडू विकल्पाः , सन्तानां च पदानां पदसंयोगे सप्त विकल्पाः , तेषां च षनिर्गुणने द्विचत्वारिंशद्विकल्पा भवन्ति, सप्तकसंयोगे त्वेक एवेति, सर्वमीलने च सप्तदश शतानि षोडशोत्तराणि भवन्ति । ला 'अभंते । नेरतिया नेरइयपवेसणएणं पविसमाणा पुच्छा, गंगेया। रयणप्पभाए वा होजा जाव अहे
ससमाए वा होज्जा अहवा एगे रयण सस सकरप्फ्भाए होजा एवं यासंजोगो जाव छक्कसंजोगो य जहा जासत्तण्हं भणिओ तहा | नाना जीवानां अट्ठपहवि भाणियबो नवरं एकेको अन्भहिलो संचारेयषो सेसं सं चेय | जाव छक्कसंजोगस्स एकयोगे अहवा तिनि सकर एगे वालुय० जाव एगे अहेसत्तमाए होज्जा
अहवा एगे रयण जाच त्रिक०७५ | एगे तमाए दो अहेसत्समाए होजा अहवा एगे रयण जाव दो तमाए जाएगे अहेसत्तमाए होजा | एवं संचारेयई जाव अहवा दो रयण एगे सकर० जाव एगे अहेस
समाए होजा॥
दीप अनुक्रम [४५३]
चतु. १२२५
पद०१४७ मा०
पाापत्य गांगेय-अनगारस्य प्रश्ना:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३२], मूलं [३७३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
९ शतके
प्रत सूत्रांक
[३७३]
व्याख्या-1
'अट्ठ भंते 'इत्यादि, इहैकत्वे सप्त विकल्पाः, द्विकसयोगे त्वष्टानां द्वित्वे एकः सप्तेत्यादयः सप्त विकल्पाः प्रतीता प्रज्ञप्तिः एव, तैश्च सप्तपदविकसंयोगैकविंशतेगुणनाच्छतं सप्तचत्वारिंशदधिकानां भवतीति, त्रिकसंयोगे त्वष्टानां त्रित्वे एक एकः 3GRE अभयदेवी- पद् इत्यादय एकविंशतिर्विकल्पाः, तैश्च सप्तपदत्रिकसंयोगे पश्चत्रिंशतो गुणने सप्त शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि भवन्ति, एकादिजीया वृत्तिःलाचतुष्कसंयोगे त्वष्टानां चतुर्द्धात्वे एक एक एकः पञ्चेत्यादयः पञ्चविंशद्विकल्पाः, तैश्च सप्तपदचतुष्कसंयोगाना पश्चत्रिंशतोवप्रवेशाषि. गुणने द्वादश शतानि पञ्चविंशत्युत्तराणि भङ्गकानां भवन्तीति, पञ्चकसंयोगे त्वष्टानां पञ्चत्वे एक एक एक एकश्चत्वा-४॥
सू३७३ ॥४४६॥
रश्चेत्यादयः पञ्चविंशद्विकल्पाः, तैश्च सप्तपदपञ्चकसंयोगैकविंशतेर्गुणने सप्त शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि भवन्तीति, पटू& संयोगे त्वष्टानां पोदात्वे पञ्चैककास्त्रयश्चेत्यादयः १११११३ एकविंशतिर्विकल्पाः, तैश्च सप्तपदषटूसंयोगानां सप्तकस्य गुणने
सप्तचत्वारिंशदधिकं भङ्गकशतं भवतीति, सप्तसंयोगे पुनरष्टानां सप्तधात्वे सप्त विकल्पाः प्रतीता एव, तैकेकस्य सप्तक-18| संयोगस्य गुणने सप्तैव विकल्पाः, एषां च मीलने त्रीणि सहस्राणि व्युत्तराणि भवन्तीति ॥
नव भंते ! नेरतिया नेरतियपवेसणएणं पविसमाणा किं पुच्छा, गंगेया ! रयणप्पभाए वा असंभोगा होजा जाव अहेसत्तमाए वा होजा अहवा एगे रयण अह सकरप्पभाए होजा एवं दुयास- त्रिकर्स: १८०
दिकसं०१५८ जोगो जाव सत्तगसंजोगो य जहा भट्टण्हं भणियं तहा नवण्हपि भाणियवं नवरं एफेको | &| अम्भहिओ संचारेयचो, सेंसं तं चेच पच्छिमो आलाचगो अहवा तिन्नि रयण. एगे सकर
||४४६॥. एगे बालुय० जाव एगे अहेसत्तमाए वा होजा॥
ACCAKASKAR
दीप अनुक्रम [४५३]
परकस०३५२ सकर्म०२८
nok.
For P
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HIRTUNastaram.org
पाश्र्वापत्य गांगेय-अनगारस्य प्रश्ना:
~3344
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक -], उद्देशक [३२], मूलं [३७३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३७३]
दीप अनुक्रम [४५३]
भयभंत इत्यादि, हाप्येकत्वे सप्तव, द्विकसंयोगे तु नवानां द्वित्वेऽष्टौ विकल्पाः प्रतीता एव, तैश्चैकविंशते सप्तपदद्विकसंयोगानां गुणनेऽष्टषष्यधिक भङ्गकशतं भवतीति, त्रिकसंयोगे तु नवानां द्वावेकको तृतीयश्च सप्तकः ११७ इत्येवमादयोऽष्टाविंशतिर्विकल्पाः, तैश्च सप्तपदत्रिकसंयोगपश्चत्रिंशतो गुणने नव शतान्यशीत्युत्तराणि भङ्गकानां भवन्तीति, ट्रा चतुष्कयोगे तु नवानां चतुर्द्धात्वे त्रय एककाः षटू चेत्यादयः १११६ षट्पञ्चाशद्विकल्पा, तैश्च सप्तपदचतुष्कसंयोगपश्च|त्रिंशतो गुणने सहलं नव शतानि पष्टिश्च भङ्गकानां भवन्तीति, पञ्चकसंयोगे तु नवानां पश्चधारवे चत्वार एककाः पश्चकश्चेत्यादयः ११११५ सप्ततिर्विकल्पाः, तैश्च सप्तपदपञ्चकसंयोगएकविंशतेर्गुणने सहस्रं चत्वारि शतानि सप्ततिश्च भङ्ग-४ कानां भवन्तीति, पसंयोगे तु नवानां पोढात्वे पश्चैककाश्चतुष्ककश्त्यादयः १११११४ पटूपशाशद्विकल्पा भवन्ति, तैव | सप्तपदपटूसंयोगसप्तकस्य गुणने शतवयं द्विनवत्यधिक भङ्गकानां भवन्तीति, सप्तपदसंयोगे पुनर्नवानां सप्तत्वे एककाः पटू विकत्यादयो ११११११३ ऽष्टाविंशतिर्विकल्पा भवन्तीति, तैश्चैकस्य सप्तकसंयोगस्य गुणनेऽष्टाविंशतिरेव भजकाः एषां च सर्वेषां मीलने पच सहस्राणि पञ्चोत्तराणि विकल्पानां भवन्तीति ॥ | दस भंते ! नेरइया नेरइयपवेसणएणं पविसमाणा पुच्छा, गंगेया ! रयणप्पभाए होज्जा जाव अहेसत्त|माए वा होजा ७ अहवा एगे रयणप्पभाए नब सकरप्पभाए होजा एवं दुयासंजोगो जाव सत्तसंजोगो य |जहा नवण्हं नवरं एकेको अन्भहिओ संचारेयबो सेसं तं चेव अपच्छिमालाचगो अहवा चत्तारि रयण. एगे सकरपभाए जाव एगे अहेसत्तमाए होजा ॥
Accc
पाापत्य गांगेय-अनगारस्य प्रश्ना:
~335.
Page #336
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति :]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३२], मूलं [३७३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
+
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया दृत्तिः
१२६० विकसं.
+
प्रत सूत्रांक [३७३]
॥४४७
+
व्याख्या
संयोगी । 'दस भंते !'इत्यादि, इहाप्येकत्वे सप्तैव, द्विकसंयोगे तु दशानां द्विधारवे एको नव चेत्येवमादयो || ९ शतके
नव विकल्पाः, तैश्चैकविंशतेः सप्तपदद्विकसंयोगानां गुणने एकोननवत्यधिकं भजकवात भवतीति, उद्देशः ३२ त्रिकयोगे तु दशानां विधात्वे एक एकोऽष्टी चेत्येवमादयः पत्रिंशद्विकल्पाः, तैश्च सप्तपदत्रिकसंयो- एकादिजी
| गपञ्चविंशतो गुणने द्वादश शतानि पाल्पधिकानि भङ्गकानां भवन्तीति, चतुष्कसंयोगे त दशानां वप्रवशाधि. ८८२ पसं. चतुर्धात्वे एकत्रयं सप्तकश्चेत्येवमादयश्चतुरशीतिर्विकल्पाः, तैश्च सप्तपदचतुष्कसंयोगपश्चत्रिंशतो
|सू ३७३ सर्व ८००४ गुणने एकोनत्रिंशच्छतानि चत्वारिंशदधिकानि भङ्गकानां भवन्तीति, पञ्चकसंयोगे तु दशानां || पञ्चधात्वे चत्वार एककाः षटुश्चेत्यादयः षड्विंशत्युत्तरशतसङ्ग्या विकल्पा भवन्ति तैश्च सप्तपदपञ्चकसंयोगैकविंशतेर्गुणने || है पविंशतिः शतानि षट्चत्वारिंशदधिकानि भङ्गकानां भवन्तीति, षट्कसंयोगे तु दशानां पोढात्वे पञ्चैककाः पञ्चकश्चेत्या
दयः षड्विंशत्युत्तरशतसङ्ग्मा विकल्पा भवन्ति, तैश्च सप्तपदषसंयोगसप्तकस्य गुणनेऽष्टौ शतानि त्यशीत्यधिकानि मा
कानां भवन्तीति, सप्तकसंयोगे तु दशानां सप्तधात्वे बडेककाश्चतुष्कश्चेत्येवमादयश्चतुरशीतिर्विकल्पाः, तैश्चैकस्य सप्तकसं-|| है योगस्य गुणने चतुरशीतिरेव भङ्गकानां भवन्ति, सर्वेषां चैषां मीलनेऽष्ट सहस्राणि अष्टोत्तराणि विकल्पानां भवन्तीति । all संखेचा भंते । नेरइया नेरइयप्पवेसणएणं पविसमाणा पुच्छा, गंगेया ! रयणप्पभाए वा होजा जाव अहे- ४४७॥
सत्तमाए वा होजा ७ अहवा एगे रयण संखेजा सकरप्पभाए होजा एवं जाव अहवा एगे रयण संखेज्जा अहेसत्तमाए होज्जा अहवा दो रयण संखेजा सकरप्पभाए वा होजा एवं जाव अहवा दो रयण संखेजा।
दीप अनुक्रम [४५३]
+
पाापत्य गांगेय-अनगारस्य प्रश्ना:
~336~
Page #337
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक -1, उद्देशक [३२], मूलं [३७३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३७३]
अहेसत्तमाए होजा अहवा तिन्नि रयण संखेजा सकरप्पभाए होजा एवं एएणं कमेणं एकेको संचारेयचो जाव अहवा दस रयण संखेजा सकरप्पभाए होजा एवं जाव अहवा दस रयण संखेजा अहेससमाए होजा अहवा संखेजा रयण संखेजा सक्करप्पभाए होजा जाच अहवा संखेज्जा रयणप्पभाए संज्ज्जा अहेससमाए । होजा अहवा एगे सकर० संखेना वालुयप्पभाए होजा एवं जहा रयणप्पभाए उवरिमपुडवीएहिं समं|४| चारिया एवं सकरप्पभाएवि उवरिमपुढवीएहिं समं चारेयत्वा, एवं एकेका पुढवी उवरिमपुढवीएहि समं चारेयवा जाव अहवा संखेजा तमाए संखेजा अहेसत्तमाए होजा अहवा एगे रयण. एगे सक्कर० संखेजा वालुयप्पभाए होजा अहवा एगे रयण० एगे सक्कर० संखेना पंकप्पभाए होजा जाव अहवा एगे रयण. जाएगे सक्कर० संखेज्जा अहेसत्तमाए होज्जा अहवा एगे रयणदो सक्कर०संखेज्जा वालुयप्पभाए होजा अहवा
एगे रयण दो सकर०संखेज्जा अहेससमाए होजा अहवा एगे रयण तिनि सकर०संखेजा वालुयप्पभाए होजा, एवं एएणं कमेणं एकेको संचारेयवो अहवा एगे रयण संखेजा सकर० संखेज्जा वालुयप्पभाए होजा || जाव अहवा एगे रयण संखेज्जा वालुय० संखेजा अहेसत्तमाए होज्जा अहवा दो रयण संखेजा सकर
संखेजा वालुयप्पभाए होजा जाव अहवा दो रयण संखेजा सकर० संखेज्जा अहेसत्तमाए होजा अहवा |तिन्नि रयण संखेजा सकर संखेजा वालुयप्पभाए होज्जा, एवं एएणं कमेणं एकेको रयणप्पभाए संचारेकायचो जाव अहवा संखेजा रयण संखेजा सकर० संखेज्जा वालुयप्पभाए होजा जाव अहबा संखेज्जा रयण
दीप अनुक्रम [४५३]
पाापत्य गांगेय-अनगारस्य प्रश्ना:
~337
Page #338
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक -], उद्देशक [३२], मूलं [३७३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३७३]
व्याख्या- संखेजा सकर० संखेजा अहेसत्तमाए होज्जा अहवा एगे रयणक एगे वालुय० संखेजा पंकप्पभाए होजा ९शतके प्रज्ञप्तिः जाव अहवा एगे रयण एगे वालुय० संखेज्जा अहेसत्तमाए होजा अहवा एगे रयणदो बालुय० संखेज्जा उद्देशः ३२ अभयदेवीपंकप्पभाए होजा, एवं एएणं कमेणं तियासंजोगो चउक्कसंजोगो जाव सत्तगसंजोगो य जहा दसहं तहेव
एकादिजीया बृत्तिः२
* भाणियको पच्छिमो आलावगो सत्तसंजोगस्स अहवा संखेजा रयण संखेजा सक्कर जाच संखेजा अहे-है सू ७२ ॥४४८॥ सत्तमाए होजा ॥
| 'संखेज्जा भंते । इत्यादि, तत्र सङ्ख्याता एकादशादयः शीर्षप्रहेलिकान्ताः, इहाप्येकत्वे सप्तव द्विकसंयोगे तु सङ्ख्यातानां || द्विधात्वे एकः सयाताश्चेत्यादयो दश सङ्ख्याताः सङ्गपाताश्चेत्येतदन्ता एकादश विकल्पाः, एते चोपरितनपृथिव्यामेकादीनामेकादशानां पदानामुच्चारणे अधस्तनपृथिव्यां तु सङ्ग्यातपदस्यैवोच्चारणे सत्यवसेयाः, ये वन्ये उपरितनपृधिव्यां सङ्ख्यातपदस्याधस्तनपृथिव्यां त्वेकादीनामेकादशानां पदानामुच्चारणे लभ्यन्ते ते इह न विवक्षिताः, पूर्वसूत्रक्रमाश्रयणात्, पूर्वसूत्रेषु हि दशादिराशीनां द्वैविध्यकल्पनायामुपर्येकादयो लघवः सङ्ख्याभेदाः पूर्वं ग्यस्ता अधस्तु नवादयो | महान्तः एवमिहाप्येकादय उपरि समातराशिश्चाधः, तत्र च सङ्ख्यातराशेरधस्तनस्यैकाद्याकर्षणेऽपि सङ्ख्यातत्वमवस्थितमेव |प्रचुरत्वात् , न पुनः पूर्वसूत्रेषु नवादीनामिकादितया तस्यावस्थानमित्यतो नेहाय एकादिभावः, अपि तु समातसम्भव एवेति नाधिकविकल्पविवक्षेति, तत्र रत्नप्रभा एकादिभिः सङ्ख्यातान्तरेकादशभिः पदैः कमेण विशेषिता
SARKAR
दीप अनुक्रम [४५३]
४४८॥
पाश्र्वापत्य गांगेय-अनगारस्य प्रश्ना:
~338~
Page #339
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३२], मूलं [३७३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
WATC
प्रत सूत्रांक [३७३]
सञ्जयाताः सङ्गयातपदविशेषिताभिः शेषाभिः सह क्रमेण चारिता षट्षष्टिर्भङ्गकालभते एवमेव शर्कराप्रभा पञ्चपश्चाशत |
सङ्ख्याता वालुकाप्रभा चतुश्चत्वारिंशतं पङ्कप्रभा त्रयस्त्रिंशतं धूमप्रभा द्वाविंशतिं तमःप्रभा त्वेकादशेति, एवं च ३ सङ्ख्याताः द्विकसंयोगविकल्पानां शतद्वयमेकत्रिंशदधिकं भवति, त्रिकयोगे तु विकल्पपरिमाणमात्रमेव दयते
| रमप्रभा शर्कराप्रभा वालुकाप्रभा चेति प्रथमस्त्रिकयोगः, तत्र चैक एकः सङ्ख्याताश्चेति प्रथमविकल्पस्ततः। प्रथमायामेकस्मिन्नेव तृतीयायां सङ्ग्यातपद एव स्थिते द्वितीयायां क्रमेणाक्षविन्यासे च व्याद्यक्षभावेन दशमचारे सश्यातपदं भवति, एवमेते पूर्वेण सहकादश, ततो द्वितीयायां तृतीयायां च सश्यातपद एव स्थिते प्रथमायां तथैव व्याद्यक्षभावेन दशमचारे सङ्ख्यातपदं भवति, एवं चैते दश, समाप्यते चेतोऽक्ष-1
| विन्यासोऽन्त्यपदस्य प्राप्तत्वात् , एवं चैते सर्वेऽप्येकत्र त्रिकसंयोगे एकविंशतिः, अनया च पश्चत्रिंशतः १० सश्याताः सप्तपदत्रिकसंयोगानां गुणने सप्त शतानि पश्चत्रिंशदधिकानि भवन्ति, चतुष्कसंयोगेषु पुनराद्याभिश्च११ सङ्ख्याताः | तसृभिः प्रथमश्चतुष्कसंघोगः, तत्र चाद्यासु तिसृष्वेकैकचतुझं तु सङ्ख्याता इत्येको विकल्पस्ततः पूर्वोक्तएवं ११ भागाः क्रमेण तृतीयायां दशमचारे सङ्ख्यातपदं, एवं द्वितीयायां प्रथमायां च, तत एते सर्वेऽप्येकत्र चतुष्कयोगे एकत्रिंशत् , अनया च सप्तपदचतुष्कसंयोगानां पञ्चत्रिंशतो गुणने सहस्र पञ्चाशीत्यधिक भवति, पञ्चकसंयोगेषु वाद्याभिः पञ्चभिः प्रथमः पञ्चकयोगः, तत्र चाद्यासु चतसृष्वेकैकः पञ्चम्यां तु सायाता इत्येको विकल्पः ततः पूर्वोक्तक-16 मेण चतुर्थ्यां दशमचारे सयातपदं, एवं शेषास्वपि, तत एते सर्वेऽप्येकत्र पञ्चकयोगे एकचत्वारिंशत्, अस्याश्च प्रत्येक
सहयाताः सहपाताः सझवाताः सव्वाता:
+
दीप अनुक्रम [४५३]
पाापत्य गांगेय-अनगारस्य प्रश्ना:
~339~
Page #340
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[३७३]
दीप
अनुक्रम [४५३]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति: ]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [३२], मूलं [ ३७३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २ ॥४४९॥ १
सप्तपदपञ्चकसंयोगानामेकविंशतेर्लाभादष्ट शतानि एकषष्ट्यधिकानि भवन्ति, षट्संयोगेषु तु पूर्वोक्तक्रमेणैकत्र पटुसंयोगे एकपञ्चाशद्विकल्पा भवन्ति, अस्याश्च प्रत्येकं सप्तपदपट्र्योगे सप्तकलाभात्रीणि शतानि सप्तपञ्चाशदधिकानि भवन्ति, सप्तकसंयोगे तु पूर्वोक्त भावनयैकषष्टिर्विकल्पा भवन्ति, सर्वेषां वैषां मीलने त्रयस्त्रिंशच्छतानि सप्तत्रिंशदधिकानि भवन्ति ।। असंखेजा भंते ! नेरइया नेरइयपवेसणएणं पुच्छा, गंगेया ! रयणप्पभाए वा होजा जाव अहेसत्तमाए होज्जा, अहवा एगे रयण० असंखेज्जा सक्करप्पभाए होज्जा, एवं दुयासंजोगो जाव सत्तगसंजोगो व जहा संखिज्जाणं भणिओ तहा असंखेज्जाणवि भाणियचो, नवरं असंखेजाओ अन्महिओ भाणियचो, सेसं तं चैव जाव सत्तगसंजोगस्स पच्छिमो आलावगो अहवा असंखेज्जा रयण० असंखेज्जा सक्कर० जाव असंखेखा आहेससमाए होना ॥
'असंखेजा भंते ! 'इत्यादि, सङ्ख्यातप्रवे शनकवदेवैतदसङ्ख्यातप्रवेशनकं वाच्यं, नवरमिहासङ्ख्यातपदं द्वादशमधी - यते, तत्र चैकत्वे सप्तैव, द्विकसंयोगादौ तु विकल्पप्रमाणवृद्धिर्भवति सा चैवं द्विकसंयोगे द्वे शते द्विपञ्चाशदधिके २५२, त्रिकसंयोगेऽष्टौ शतानि पश्नोत्तराणि ८०५, चतुष्कसंयोगे त्वेकादश शतानि नवत्यधिकानि ११९०, पञ्चकसंयोगे पुनर्नव शतानि पश्चचत्वारिंशदधिकानि ९४५, षट्संयोगे तु त्रीणि शतानि द्विनवत्यधिकानि ३९२, सप्तकसंयोगे पुनः सप्तषष्टिः, एतेषां च सर्वेषां मीलने षटूत्रिंशच्छतानि अष्टपञ्चाशदधिकानि भवन्तीति ॥ अथ प्रकारान्तरेण नारकप्रवेशनकमेवाह
पार्श्वपत्य गांगेय अनगारस्य प्रश्ना:
For Pale Only
~340~
९ शतके
उद्देशः ३२ एकादिजी'वप्रवेशाधि. सू ३७३
॥४४९ ॥
Page #341
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक -], उद्देशक [३२], मूलं [३७३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३७३]
उक्कोसेणं भंते ! नेरइया नेरतियपवेसएणं पुच्छा, गंगेया ! सवेवि ताव रयणप्पभाए होजा अहवा रयणप्पभाए य सकरप्पभाए य होजा अवा रयणप्पभाए य वालुयप्पभाए य होजा जाव अहवा रयणप्पभाए य अहेसत्तमाए होजा अहया रयणप्पभाए य सकरप्पभाए य वालुयप्पभाए य होजा एवं जाव अहवा रयण सकरप्पभाए य अहेसत्तमाए य होज्जा ५ अहवा रयण बालुय० पंकप्पभाए य होजा जाव अहवा रयण वालुय० अहेसत्तमाए होना ४ अहवा रयण पंकप्पभाए धूमाए होजा एवं रयणप्पभं अमुयंतेसु जहा तिण्हं तियासंजोगो भणिओ तहा भाणियपंजाब अहवा रयण तमाए य अहेसत्तमाए प होना |१५ अहवा रयणप्पभाए सकरप्पभाए वालुय० पंकप्पभाए य होजा अहवा रयणप्पभाए सक्करप्पभाए वालुय. धूमप्पभाए य होला जाव अहवा रयणप्पभाए सक्करप्पभाए वालुय. अहेसत्तमाए य होजा ४ अहवा रयण सकर पंक० धूमप्पभाए य होजा एवं रयणप्पभं अमुयंतेसु जहा चउण्हं चउकसंजोगो तहा भाणियवं जाव अहवा रयण धूम तमाए अहेसत्तमाए होजा अहवा रयण सक्कर वालुय० पंक. धूमप्पभाए य होजा १ अहवा रयणप्पभाए जाव पंक० तमाए य होजा २ अहवा रयण जाव पंक. अहेसत्तमाए य होजा Pil अहवा रयण सकर वालुय० धूम तमाए य होजा ४ एवं रयणप्प अमुयंतेसु जहा पंचण्डं पञ्चकसंसाजोगो तहाभाणिय, जाव अहवा रयण पंकप्पभाजाव अहेसत्तमाए होजा अहवा रयण सक्कर. जाव धूम
प्पभाए तमाए य होज्जा १ अहवा रयण जाव धूम० अहेसत्तमाए य होजा २ अहवा रयण सकर जाव
दीप अनुक्रम [४५३]
5*555
पाश्र्वापत्य गांगेय-अनगारस्य प्रश्ना:
~341
Page #342
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक -], उद्देशक [३२], मूलं [३७३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३७३]
व्याख्या-13 पंक० तमाए य अहेसत्तमाए य होज्जा ३ अहवा रयण सकर वालुय० धूमप्पभाए तमाए अहेसत्तमाए ९ शतके मज्ञप्तिः
होजा ४ अहवा रयण सकर पंक० जाव अहेसत्तमाए य होजा ५ अहवा रयण वालुय० जाव अहेस- उद्देशः ३२ अभयदेवी- समाए होजा ६ अहवा रयणप्पभाए य सफर जाव अहेसत्तमाए य होजा ७॥
एकादिजीया वृत्तिः
४ वप्रवेशाधि. . . . .. .
सू३७३ ॥४५॥
Gmrrrrrrrnar mmm
२३
१५
वशभकाः
१२५
५५ १६
१५६ १५७
8
२५६
चतुष्कसंयोगे विधातिभंगाः
१५.
-
-
-
-
-
-
-
-
-
१६ .द्विकयोगे पद्धका ५
एवं पनकसंबोगे पञ्चदश भनाः १२
दीप अनुक्रम [४५३]
&
..Marrrrrwwwsax
एयस्स णं भंते! रयणप्पभापुढविनेरइयप
वेसणगस्स सक्करप्पभापुढवि० जाव अहे
":::::सत्तमापुढविनेरइयपवेसणगस्स य कयरे २ जाच विसेसाहिया वा?, गंगेया। सवस्थोवे अहेसत्तमापुढविनेरइयपवेसणए तमापुढविनेरइयपवेसणए द्र असंखेनगुणे एवं पडिलोमगं जाच रयणप्पभापुढविनेरयपवेसणए असंखेजगुणे (सूत्र ३७३)॥
'उकोसेण'मित्यादि, उत्कर्षा-उस्कृष्टपदिनो येनोत्कर्षत उत्पद्यन्ते 'तेसवेवित्तिये उत्कृष्टपदिनस्ते सर्वेऽपि रसप्रभायां |
॥४५॥
पाापत्य गांगेय-अनगारस्य प्रश्ना:
~342
Page #343
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३२], मूलं [३७३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
C
प्रत सूत्रांक [३७३]
| भवेयुः तन्नामिना तत्स्थानानां च बहुत्वात् , इह प्रक्रमे द्विकयोमे षड् भङ्गकाखिकयोगे पञ्चदश चतुष्कसंयोगे विंशति पत्रकसंयोगे पञ्चदश षड्योगे षट् सप्तकयोगे त्वेक इति ॥ अथ रलप्रभादिष्वेव नारकप्रवेशनकस्याल्पत्वादिनिरूपयायाह-एयस्स ण'मित्यादि, तत्र सर्वस्तोकं सप्तमपृथिवीनारकप्रवेशनक, तद्गामिना शेषापेक्षया स्तोकस्वात् , ततः षष्ट्यामसळयातगुणं, तनामिनामसपातगुणत्वात् , एवमुत्तरत्रापि ।। अथ तिर्यग्योनिकप्रवेशनकप्ररूपणायाहतिरिक्खजोणियपवेसणए णं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते ?, गंगेया ! पंचविहे पन्नते, तंजहा-एगिदियतिरिखजोणियपवेसणए जाव पंचेंदियतिरिक्खजोणियपवेसणए । एगे भंते ! तिरिक्खजोणिए तिरिक्खजोणिय-31 पवेसणएणं पविसमाणे किं एगिदिएसु होज्जा जाव पंचिदिएसु होज्जा?, गंगेया! एगिदिएसु वा होजा जाव पंचिंदिएसु वा होजा । दो भंते । तिरिक्खजोणि- योस्तिरश्चोतंक | या पुच्छा, गंगेया ! एगिदिएसु वा होजा जाब पंचिंदियएसु वा होना, अहवा एगे एगिदि- योगे १० भए एम होजा एगे बेईदिएसु होजा एवं जहा नेरइयपबेसणए तहा तिरिक्खजोणियपवेसणएवि ३२५ एवं भाणियचे जाव असंखेजा। उक्कोसा भंते!
तिरिक्खजोणिया पुच्छा, गंगेया ! सधेवि ताव | " द इंदिएसुपा होजा, एवं जहा नेरतिया चारिया | २५ ४५तहा तिरिक्खजोणियावि चारेयषा, पर्गि-1 दिया अमुश्चंतेसु दुयासंजोगो तियासंजोगो चउकसंजोगो पंचसंजोगो उबउजिऊण भाणियबो जाव अहवाल एगिदिएम या बेईदिय जाव पंचिंदिएमु वा होजा ॥ एयस्स णं भंते ! एगिदियतिरिक्खजोणियपवेसणगस्सा
दीप अनुक्रम [४५३]
Hereasaramorg
पाापत्य गांगेय-अनगारस्य प्रश्ना:
~343
Page #344
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[३७४]
दीप
अनुक्रम [४५४]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर् शतक [-], उद्देशक [३२], मूलं [ ३७४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥४५१॥
| जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणियपवेसणयस्स कयरे २ जाव विसेसाहिया वा ?, गंगेया ! सवत्थोवा पंचिंदियतिरिक्खजोणियपवेसणए चउरिंदियतिरिक्खजोणिय विसेसाहिए तेइंदिय० विसेसाहिए येइंदिय० विसेसाहिए एर्गिदियतिरिक्ख० विसेसाहिए (सूत्रं ३७४ ) ॥
'तिरिकखेत्यादि, इहैकस्तिर्यग्योनिक एकेन्द्रियेषु भवेदित्युक्तं, तत्र च यद्यप्येकेन्द्रियेष्वेकः कदाचिदप्युत्पद्यमानो न लभ्यतेऽनन्तानामेव तत्र प्रतिसमयमुत्पत्तेस्तथाऽपि देवादिभ्य उद्धृत्य यस्तत्रोत्पद्यते तदपेक्षयैकोऽपि लभ्यते, एतदेव च प्रवेशनकमुच्यते यद्विजातीयेभ्य आगत्य विजातीयेषु प्रविशति सजातीयस्तु सजातीयेषु प्रविष्ट एवेति किं तत्र प्रवेशनकमिति, तत्र चैकस्य क्रमेणैकेन्द्रियादिषु पञ्चसु पदेषूत्पादे पञ्च विकल्पाः, द्वयोरप्येकैकस्मिन्नुत्पादे पञ्चैव, द्विकयोगे तु दश, एतदेव सूचयता 'अहवा एगे एगिदिएस' इत्याद्युक्तम् । अथ पार्थ त्र्यादीनामसङ्ख्यातपर्यन्तानां तिर्यग्योनि| कानां प्रवेशमकमतिदेशेन दर्शयन्नाह - 'एवं जहे' त्यादि, नारकप्रवेशनकसमानमिदं सर्वे, परं तत्र सप्तसु पृथिवीष्वेकादयो | नारका उत्पादिताः तिर्यञ्चस्तु तथैव पञ्चसु स्थानेषूत्पादनीयाः, ततो विकल्पनानात्वं भवति, तच्चाभियुक्तेन पूर्वोक्कन्यायेन स्वयमवगन्तव्यमिति, इह चानन्तानामेकेन्द्रियाणामुत्पादेऽप्यनन्तपदं नास्ति प्रवेशनकस्योक्तलक्षणस्यासङ्ख्यातानामेव लाभादिति, 'सविताब एगिंदिए होज'त्ति एकेन्द्रियाणामतिबहूनामनुसमयमुत्पादात्, 'दुयासंजोगो' इत्यादि, इह प्रक्रमे द्विक्संयोगश्चतुर्द्धा त्रिकसंयोगः पोढा चतुष्कसंयोगश्ञ्चतुर्द्धा पञ्चकसंयोगस्त्येक एवेति ॥ 'सब
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पार्श्वपत्य गांगेय अनगारस्य प्रश्ना:
For Penal Use Only
~344~
2
९ शतके
उद्देशः ३२ तिर्यक्प्रवेशनक
सू ३७४
॥४५१ ॥
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३२], मूलं [३७५-३७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
%
प्रत सूत्रांक [३७५-३७७]
4
थोवा पंचिंदियतिरिक्खजोणियपवेसणएत्ति पञ्चेन्द्रियजीवानां स्तोकत्वादिति, ततश्चतुरिन्द्रियादिप्रवेशनकानि परस्परेण विशेषाधिकानीति ॥
मणुस्सपवेसणए णं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते ?, गंगेया! दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-समुच्छिममणुस्सपवेसणए गम्भवतियमणुस्सपवेसणए य । एगे भंते ! मणुस्से मणुस्सपवेसणएणं पविसमाणे किं समुच्छिममणुस्सेसु लि|| होजा गम्भवतियमणुस्सेसु होजा?, गंगेया संमुच्छिममणुस्सेसु वा होजा गम्भवतियमणुस्सेसु था।
होजा । दो भंते ! मणुस्सा पुच्छा, गंगेया! संमुच्छिममणुस्सेसु वा होजा गन्भवतियमणुस्सेसु वा होना | अहवा एगे संमुच्छिममणुस्सेसु वा होजा एगे गन्भवतियमणुस्सेसु वा होजा, एवं एएणं कमेणं जहा नेरइयपवेसणए तहा मणुस्सपवेसणएवि भाणियचे जाव दस ।। संखेजा भंते ! मणुस्सा पुच्छा, गंगेया! संमु|च्छिममणुस्सेसु वा होज्जा गम्भवतियमणुस्सेसु वा होज्जा अहवा एगे संमुच्छिममणुस्सेसु होज्जा संखेजा
गन्भवतियमणुस्सेसु वा होजा अहवा दो समुच्छिममणुस्सेसु होजा संखेजा गन्भवतियमणुस्सेसु होना टाएवं एफेकं उस्सारितेसु जाव अहवा संखेजा संमुच्छिममणुस्सेसु होजा संखेजा गन्भवतियमणुस्सेसुर होजा ॥ असंखेजा भंते !मणुस्सा पुच्छा, गंगेया! सबेवि ताव संमुच्छिममणुस्सेसु होजा अहवा असंखेज्जा संमुच्छिममणुस्सेसु एगे गम्भवतियमणुस्सेसु होजा अहवा असंखेजा संमुच्छिममणुस्सेसु दो गन्भवति-1 यमणुस्सेसु होजा एवं जाव असंखेजा संमुच्छिममणुस्सेसु होजा संखेजा गन्भवतियमणुस्सेसु होला ।
+
दीप अनुक्रम [४५५-४५७]
4+9
-5404
%
% 945
564
पाापत्य गांगेय-अनगारस्य प्रश्ना:
~345
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३२], मूलं [३७५-३७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३७५-३७७]
सू ३७५
॥४५॥
दीप अनुक्रम [४५५-४५७]
व्याख्या
उकोसा भंते ! मणुस्सा पुच्छा, गंगेपा ! सबेवि ताव संमुच्छिममणुस्सेसु होजा अहवा संमुछिमम- ९ शतके प्रज्ञप्तिः
*णुस्सेसु य गम्भवतियमणुस्सेसु वा होजा । एपस्स णं भंते ! संमुच्छिममणुस्सपवेसणगस्स गन्भवक-13 उद्देशः३२
तियमणुस्सपवेसणगरस य कयरे २ जाब विसेसाहिया ?, गंगेया ! सबत्योवा गम्भवतियमणुस्सपके मनुष्यप्रवे. या वृत्तिः लसणए समुच्छिममणुस्सपवेसणए असंखेज्जगुणे (सूत्रं ३७५) देवपवेसणए णं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते, गंगेया!
देवप्रवेशचउबिहे पन्नत्ते, तंजहा-भवणवासिदेवपवेसणए जाव वेमाणियदेवपवेसणए । एगे भंते ! देवपवेसणएणं पवि-5
नक सू३७६ समाणे किं भवणवासीसु होजा वाणमंतरजोइसियवेमाणिएसु होजा ?, गंगेया! भवणवासीसुथा होजा वाणमंतरजोइसियवेमाणिएसु वा होज्जा । दोभंते ! देवा देवपवेसणए पुच्छा, गंगेया ! भवणवासीसु वा होजा वाणमंतरजोइसियवेमाणिएमु चा होजा अहवा एगे भवणवासीसु एगे वाणमंतरेसु होजा एवं जहा तिरिक्खजोणियपवेसणए तहा देवपवेसणएवि भाणियये जाव असंखेजत्ति । उक्कोसा भंते ! पुच्छा, गंगेया।
सवेवि ताच जोइसिएसु होज्जा अहवा जोइसियभवणवासीसु य होज्जा अहवा जोइसियवाणमंतरेसु य होना *अहवा जोइसियवेमाणिएमु य होज्जा अहवा जोइसिएमु य भवणवासीसु य वाणमंतरेसु प होजा अहवा,
॥४५२॥ जोइसिएसु य भवणवासिसु य वेमाणिएस य होजा अहवा जोइसिएसु वाणमंतरेसु बेमाणिएस य होला अहदा जोइसिएसु य भवणवासीसु य वाणमंतरेसु य वेमाणिएस य होजा । एपस्स र्ण भंते ! भवणवासि-1
देवपवेसणगस्स वाणमंतरदेवपवेसणगस्स जोइसियदेवपवेसणगस्स वेमाणियदेवपवेसणगस्स य कयरे २ जाव IDI
पाापत्य गांगेय-अनगारस्य प्रश्ना:
~346
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[३७५
-३७७]
दीप
अनुक्रम
[४५५
-४५७]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः ]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर् शतक [-], उद्देशक [३२], मूलं [ ३७५-३७७]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
विसेसाहिया वा १, गंगेया ! सवत्थोवे बेमाणियदेवपवेसण भवणवासिदेवपवेसणए असंखेजमुणे बाज़ तरदेव पवेसण असंकेजमुणे जोह सियदेवपवेक्षणए संखेज्जगुणे (सूत्रं ३७६ ) ॥ एयरस णं भंते ! नेरपपवेसणगस्स तिरिक्ख० मणुस्स० देवपवेसणगस्स कपरे कपरे जाव विसेसाहिए वा १, गंगेया । सवत्थोवे मृणुस्सपवेसणए नेरइयपवेसणए असंखेज्जगुणे देवपवेसणए असंखेज्जगुणे तिरिक्खजोणियपवेसणए असंखेखगुणें (सूत्रं ३७७) ।
मनुष्यप्रवेशनकं देवप्रवेशनकं च सुगमं, तथाऽपि किञ्चिल्लिख्यते मनुष्याणां स्थानकद्वये संमूच्छिमगर्भजलक्षणे प्रविशतीति द्वयमाश्रित्यैकादिसत्यातान्तेषु पूर्ववद्विकल्पाः कार्याः, तत्र चातिदेशानामन्तिम सातपदमिति तद्विकल्पान साक्षाद्दर्शयन्नाह - 'संखेखे' त्यादि, इह द्विकयोगे पूर्ववदेकादश विकल्पाः, असातपदे तु पूर्वं द्वादश विकल्पा उका इह पुनरेकादशैव, यतो यदि संमूच्छिमेषु गर्भजेषु चासङ्ख्यातत्वं स्यात्तदा द्वादशोऽपि विकल्पो भवेत्, न चैवं, इह गर्भजमनुष्याणां | स्वरूपतोऽप्यसङ्ख्यातानामभावेन तत्प्रवेशन के सातासम्भवाद्, अतोऽसयातपदेऽपि विकल्पैकादशकदर्शनायाह-'असंखेज्जा' इत्यादि ॥ 'उकोसा भंते' इत्यादि, 'सदेवि ताव संमुच्छिममणुस्सेसु होज'त्ति संमूच्छिमानामसा तानां भावेन प्रविशतामप्यसङ्ख्यातानां सम्भवस्ततश्च मनुष्यप्रवेशनकं प्रत्युत्कृष्टप दिनस्तेषु सर्वेऽपि भवन्तीति, अत एव संमूच्छिममनुष्यप्रवेशनकमितरापेक्षयाऽसात गुणमवगन्तव्य सिति ॥ देवप्रवेशन के 'सबेवि ताव जोइसिएस होज 'चि ज्योतिष्कगामिनो बहव इति तेषूत्कृष्टपदिनो देवप्रवेशन कवन्तः सर्वेऽपि भवन्तीति 'सवत्थोवे वैमाणियदेव प्पवेस
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पार्श्वपत्य गांगेय अनगारस्य प्रश्ना:
For Parts Only
~347~
Page #348
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३२], मूलं [३७५-३७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
| उद्देशः ३२
क
प्रत सूत्रांक [३७५
-३७७]
दीप अनुक्रम [४५५-४५७]
व्याख्या-लणए'ति तद्गामिनां तत्स्थानानां चाल्पत्वादिति ॥ अथ नारकादिप्रवेशनकस्यैवाल्पत्वादि निरूपयशाह-एयरस 'मि- शतके प्रज्ञप्तिः त्यादि, तत्र सर्वस्तोक मनुष्यप्रवेशनक, मनुष्यक्षेत्र एव तस्य भावात् , तस्य च स्तोकत्वात् , नैरयिकप्रवेशनकं त्वसङ्ख्या-18 अमयदेवी-४ तगुणं, तगामिनामसङ्ख्यातगुणत्वात् , एवमुत्तरत्रापीति ॥ अनन्तरं प्रवेशनकमुकं तत्पुनरुत्पादोद्वर्त्तनारूपमिति नारका
प्रवेशनाल्पया वृत्तिः२ दीनामुत्पादमुद्वर्त्तनां च सान्तरनिरन्तरतया निरूपयन्नाह
बहुत्वं
सू ३७८ ॥४५३|| संतरं भंते ! नेरइया स्ववजंति निरंतरं नेरइया उववनंति संतरं असुरकुमारा उववजंति निरंतरं असुर-8 सान्तराद्य
॥ कुमारा जाव संतरं वेमाणिया उववज्जति निरंतरं वेमाणिया उववजंति संतरं नेरइया उवव९ति निरंतरं नेर- पादादि तिया उववस॒ति जाव संतरं वाणमंतरा उववति निरंतरं वाणमंतरा उववदृति संतरं जोइसिया चयंति सू ३७८ निरंतरं जोइसिया चयंति संतरं वेमाणिया चयंति निरंतरं बेमाणिया चयंति, गंगेया ! संतरंपि नेर-18
तिया उववजंति निरंतरं नेरतिया उववनंति जाव संतरंपि थणियकुमारा उववज्जंति निरंतरं थणिजयकुमारा उववजति नो संतरपि पुरविकाइया उबवज्जति निरंतरं पदविकाइया उववजंति एवं जाव वणस्स-11
इकाइया सेसा जहा नेरइया जाव संतरंपि वेमाणिया उववर्जति निरंतरंपि माणिया उधवजंति, संतरपि|| नेरइया उववटुंति निरंतरंपि नेरइया उववहृति एवं जाव थणियकुमारा नो संतरं पुढविकाइया उववहति ॥
॥४५॥ | निरंतरं पुढविकाइया उबवटुंति एवं जाव वणस्सइकाइया सेसा जहा नेरड्या, नवरं जोइसियवेमाणिया |चयंति अभिलायो, जाव संतरपि वेमाणिया चयंति निरंतरं वेमाणिया चर्षति ।। संतो भंते ! नेरतिया उब
SARERatun international
पाापत्य गांगेय-अनगारस्य प्रश्ना:
~348~
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३२], मूलं [३७८-३७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३७८-३७९]
दीप अनुक्रम
वनंति असंतो भंते ! नेरक्या उववनंति ?, गंगेया ! संतो नेरइया उववजंति नो असंतो नेरइया उववज्जति, ४ एवं जाव वेमाणिया, संतो भंते ! नेरतिया उववदंति असंतो नेरइया उववदंति ?, गंगेया ! संतो नेरइया द उववति नो असंतो नेरइया उववदंति, एवं जाव चेमाणिया, नवरं जोइसियवेमाणिएसु चयंति भाणियचं ।
सओ भंते ! नेरहया उववहति असंतो भंते ! नेरड्या उघवहति संतो असुरकुमारा उववहति जाव सतो वेमाणिया उववर्जति असतो बेमाणिया उववजंति सतो नेरतिया उबवति असतो नेरइया उववति संतो असुरकुमारा उववति जाव संतो वेमाणिया चयंति असतो वेमाणिया चयंति, गंगेया ! सतो नेरइया उधवजंति नो असओ नेरड्या उववति सओ असुरकुमारा उववजति नो असतो असुरकुमारा उववज्जति
जाव सओ बेमाणिया उववज्जति नो असतो वेमाणिया उववज्जति सतो नेरतिया उपवति नो असतो नेरइया ट्राउववर्जति जाव सतो वेमाणिया चयंति नो असतो वेमाणिया०, से केणढणं भंते! एवं बुचइ सतो नेरहया उव-12 वजंति नो असतो नेत्या उववजति जाव सओ वेमाणिया चयंति नो असओ वेमाणिया चयंति !, से नूर्ण भंते ! गंगेया! पासेणं अरहया पुरिसादाणीएणं सासए लोए बुइए अणादीए अणवयग्गे जहा पंचमसए जाव जे लोकह से लोए, से तेणटेणं गंगेया! एवं बुचह जाव सतो वेमाणिया चयंति नो असतो वेमाणिया चयंति ॥ सर्य भंते ! एवं जाणह उदाहु असयं असोचा एते एवं जाणह उदाहु सोचा सतो नेरहया उववजंति | नो असतो नेरक्या उववजंति जाव सओ वेमाणिया चयंति नो असओ वेमाणिया चयंति ?, गंगेया ! सयं
[४५८
-४५९]
+
55
+
+
पाापत्य गांगेय-अनगारस्य प्रश्ना:
~349
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३२], मूलं [३७८-३७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
शतके
प्रत सूत्रांक [३७८-३७९]
515
दीप अनुक्रम
व्याख्या- एते एवं जाणामि नो असयं, असोचा एले एवं जाणामिनो सोचा सतो नेरइया उबवंति नो असओ नेरप्रज्ञप्तिः इया उवचजंति जाव सतो माणिया चयंति, नो असतो वेमाणिया चयंति, से केण?णं भंते ! एवं बुचाइ उद्देशः ३२ अभयदा- तं चेव जाच नो असतो वेमाणिया चयंति', गंगेया! केवली गं पुरच्छिमेणं मियंपि जाणइ अनियंपि जाणइ सान्तराद्युयावृत्तिः२
दाहिणेणं एवं जहा सगढदेसए जाव निछुडे नाणे केवलिस्स, से तेण?णं गंगेया ! एवं बुझतं चेक जावनोत्पादादि ॥४५॥ असतो वेमाणिया चयंति ॥ सयं भंते ! नेरइया नेरइएमु उबवजन्ति असय नेरइया नेरइएमु उवचळति !,
सू ३७८ 16 गंगेया ! सर्प नेरइया नेरइएसु उबवजंति नो असर्थ नेरइया नेरइएमु उवववति !, से केण?णं भंते । एवं Fiचुचइ जाव उववज्जति , गंगेया ! कम्मोदएणं कम्मगुरुयसाए कम्मभारियत्ताए कम्मगुरुसंभारियत्साए
असुभाणं कम्माणं उदएणं असुभाणं कम्माणं विवागणं असुभाणं कस्माणं फलविवागणं सर्य नेरहपा नेरदिइएसु उववज्जति नो असर्थ नेरइया नेरहएसु उबवजंति, से तेण?णं गंगेया ! जाव उववज्जति ॥ सर्व भंते !
असुरकुमारा पुच्छा, गंगेया सर्य असुरकुभारा जाव उववज्जति नो असयं असुरकुमारा जाव उववजंति, 13|से फेणद्वेणं तं चेव जाव उववज्जति 2, गंगेया ! कम्मोदएणं कम्मोवसमेणं कम्मविगतीए कम्मविसोहीए कम्म-|| दाविसुद्धीए सुभाणं कम्माणं उदएणं सुसाणं कम्माणं विवागणं सुभाणं कम्माणं फलचिवागणं सर्य असुरकुमारा। असुरकुमारत्ताए जाच उबवजंति नो असर्य असुरकुमाराअसुरकुमारत्ताए उववजंति से तेणद्वेणं जाच उयचजति ||
४५४॥ ठा पर्व जाव धणियकुमारा ॥ सर्य भंते ! पुदविकाइया पुच्छा, गंगेया! सयं पुढयिकाइया जाव उषचंति को
[४५८
-४५९]
पाश्र्वापत्य गांगेय-अनगारस्य प्रश्ना:
~350
Page #351
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३२], मूलं [३७८-३७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३७८-३७९]
दीप
EAL पुच्छा जाव उववनंति, सेकेणढणं भंते! एवं बुषा जाव उववखंति?, गंगेया कम्मोदयां कम्मगुरुयलाए
कम्मभारियत्ताए कम्मगुरुसंभारियत्ताए सुभासुभाणं कम्माणं उदएणं सुभासुभाणं कम्माणं विवागणं सुभासुभाण कम्माणं फलविवागणं सयं पुढविकाइया जाव उवयजति नो असर्य पुढविकाइया जाव उववज्जति, से तेणटेणं जाव उववनंति, एवं जाव मणुस्सा, वाणमंणरजोइसिया वेमाणिया जहा असुरकुमारा, से तेण्टेणं गंगेया! एवं बुचड़ सयं वेमाणिया जाच उववजंति नो असयं जाच उघयज्जति (सूर्व ३७८) तप्पभिई च णं से गंगेधे ।
अणगारे समणं भगवं महावीरं पञ्चभिजाणइ सघनु सघदरिसी, तए णं से गंगेये अणगारे समणं भगवं महाहै वीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेह करेत्ता चंदा नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं क्यासी-इच्छामिण
भैते ! तुजसं अतियं चाउचामाओ धम्माओ पंचमहपइयं एवं जहा कालासवेसियपुत्तो तहेव भाणियषं जाय || सबदुक्खप्पहीणे ॥ सेवं भंते ! सेवं भंते ! (सूत्रं ३७९) गंगेयो समत्तो॥९॥३२॥
'संतरं भंते !' इत्यादि, अथ नारकादीनामुत्पादादेः सान्तरादित्वं प्रवेशनकात्पूर्व निरूपितमेवेति किं पुनस्तनिरू-है। प्यते ! इति, अत्रोच्यते, पूर्व नारकादीनां प्रत्येकमुत्पादस्य सान्तरत्वादि निरूपितं, ततश्च तथैवोद्वर्त्तनायाः, इह तु पुन
नारकादिसर्वजीवभेदानां समुदायतः समुदितयोरेव चोत्पादोद्वर्तनयोस्तनिरूप्यत इति ॥ अथ नारकादीनामेव प्रकारा-| है न्तरेणोत्पादोद्वर्तने निरूपयवाह-सओ भंते' इत्यादि, तत्र च 'सओ नेरइया उववअंति'त्ति 'सन्तः' विद्यमाना
द्रव्यार्थतया, नहि सर्वथैवासत् किविदुत्पद्यते, असस्वादेव खरविषाणवत्, सत्वं च तेषां जीवद्रच्यापेक्षया नारकपर्या
अनुक्रम
कल
[४५८
-४५९]
SARERatininematra
For P
OW
| पार्वापत्य गांगेय-अनगारस्य प्रश्ना:
~351
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३२], मूलं [३७८-३७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३७८
-३७९]
॥४५५॥5
दीप
व्याख्या-5 यापेक्षया वा, तथाहि-भाविनारकपर्यायापेक्षया द्रव्यतो नारकाः सन्तोनारका उत्पद्यन्ते, नारकायुष्कोदयाद्वा भावनारका ९ शतके प्रज्ञष्ठिः | एव नारकत्वेनोत्पद्यन्त इति । अथवा 'सओ'त्ति विभक्तिपरिणामात् सत्सु प्रागुत्पन्नेष्वन्ये समुत्पद्यन्ते नासत्सु, लोकस्य || उद्देशः ३२ अभयदेवी- शाश्वतत्वेन नारकादीनां सर्वदैव सद्भावादिति । 'से गूणं भंते ! गंगेया इत्यादि, अनेन च तत्सिद्धान्तेनैव स्वमतं सान्तरायुया वृत्तिः२ मा पोषितं, यतः पार्थेनार्हता शाश्वतो लोक उक्तोऽतो लोकस्य शाश्वतत्वात्सन्त एव सत्स्वेब बा नारकादय उत्पद्यन्ते च्यवन्ते | सादः
चेति साध्वेवोच्यत इति ॥ अथ गाङ्गेयो भगवतोऽतिशायिनी ज्ञानसम्पदं सम्भावयन् विकल्पयन्नाह-सयं भंते ! इत्यादि, स्वयमात्मना लिङ्गानपेक्षमित्यर्थः 'एवं ति वक्ष्यमाणप्रकारं वस्तु 'असर्य'ति अस्वयं परतो लिङ्गत इत्यर्थः,
| गाङ्गेयस्य
संक्रमः ID तथा 'असोच'त्ति अश्रुत्वाऽऽगमानपेक्षम् 'एतेवंति एतदेवमित्यर्थः 'सोच'त्ति पुरुषान्तरवचनं श्रुत्वाऽऽगमत इत्यर्थः
'सयं एतेवं जाणामित्ति स्वयमेतदेवं जानामि, पारमार्थिकप्रत्यक्षसाक्षात्कृतसमस्तवस्तुस्तोमस्वभावत्वान्मम 'सयं नेर*इया नेरइएसु उववर्जति'त्ति स्वयमेव नारका उत्पद्यन्ते नास्वयं-नेश्वरपारतच्यादेः, यथा कैश्चिदुच्यते-"अज्ञो जन्तु
रनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः। ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्स्वर्ग वाश्वभ्रमेव वा ॥१॥" इति, ईश्वरस्य हि कालादिकारणकलापव्यतिरिक्तस्य युक्तिभिर्विचार्यमाणस्याघटनादिति, 'कम्मोदएणं ति कर्मणामुदितत्वेन, न च कर्मोदयमात्रेण नारकेषूत्पद्यन्ते, केवलिनामपि तस्य भावाद , अत आह-कम्मगुरुयत्ताए'त्ति कर्मणां गुरुकता कर्मगुरुकता तया 'कम्म-||
भारियत्ताए'त्ति भारोऽस्ति येषां तानि भारिकाणि तझावो भारिकता कर्मणां भारिकता कर्मभारिकता तया चेत्यर्थः, ले॥४५५॥ Xथा महदपि किश्चिदल्पभारं दृष्टं तथाविधभारमपि च किञ्चिदमहदित्यत आह-कम्मगुरुसंभारिपत्ताए'ति गुरोः
अनुक्रम
[४५८
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-४५९]
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मा SAREauratonintimational
| पार्वापत्य गांगेय-अनगारस्य प्रश्ना:
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[३७८
-३७९]
दीप
अनुक्रम
[४५८
-४५९]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्र-शतक [-] उद्देशक [३२] मूलं [३७८-३७९]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
५ सम्भारिकस्य च भावो गुरुसम्भारिकता, गुरुता सम्भारिकता चेत्यर्थः, कर्म्मणां गुरुसम्भारिकता कर्म्मगुरुसम्भारिकता तया, अतिप्रकर्षावस्थयेत्यर्थः, एतच्च त्रयं शुभकर्मापेक्षयाऽपि स्यादत आह- असुभाणमित्यादि, उदयः प्रदेशतोऽपि स्यादत आह- 'विवागणं' ति विपाको यथावद्धरसानुभूतिः, स च मन्दोऽपि स्यादत आह- 'फलविवागेणं ति फलस्येवाला बुका देविपाको विपच्यमानता रसप्रकर्षावस्था फलविपाकस्तेन || असुरकुमारसूत्रे 'कम्मोदरणं'ति असुरकुमारोचितकर्म्मणामुदयेन, वाचनान्तरेषु 'कम्मोवसमेणं'ति दृश्यते, तत्र चाशुभकर्म्मणामुपशमेन सामान्यतः 'कम्मविगईए'त्ति कर्म्मणामशुभानां विगत्या - विगमेन स्थितिमाश्रित्य 'कम्मविसोहीए' ति रसमाश्रित्य 'कम्मविसुडीए'त्ति प्रदेशापेक्षया, | एकार्था वैते शब्दा इति । पृथ्वीकायिकसूत्रे 'सुभासुभाणं' ति शुभानां शुभवर्णगन्धादीनाम् अशुभानां तेषामेकेन्द्रियजात्यादीनां च । 'तप्पभिडं चत्ति यस्मिन् समयेऽनन्तरोक्तं वस्तु भगवता प्रतिपादितं ज्ञानस्य तत्तथा, चशब्दः पुनरर्थे समुच्चये वा 'से'त्ति असौ 'पञ्चभिजाणह'त्ति प्रत्यभिजानाति स्म, किं कृत्वा ? इत्याह-सर्वज्ञं सर्वदर्शिनं, जातप्रत्ययत्वा| दिति ॥ नयमशते द्वात्रिंशत्तमोद्देशकः ॥ ९३२ ॥ [ ग्रन्थाग्रम् १०००० ]
अत्र नवमे शतके अथ नवमे शतके
गायो भगवदुपासनातः सिद्धः अन्यस्तु कर्मवशाद्विपर्ययमप्यवाप्नोति यथा जमालिरित्येतद्दर्शनाय त्रयस्त्रिंशत्तमोद्देशकः, तस्य चेदं प्रस्तावना सूत्रम्-
तेणं कालेणं तेणं समएणं माहणकुंडग्गामे नयरे होत्था वन्नओ, बहुसालए चेतिए वनओ, तत्थ णं माह
द्वात्रिंशत- उद्देशकः परिसमाप्तः त्रयस्त्रिंशत- उद्देशक: आरभ्यते
For Parts Only
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८०-३८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३८०-३८२]
व्याख्या-18णकुंडग्गामे नयरे उसमदते नाम माहणे परिवसति अहे दित्ते वित्ते जाव अपरिभूए रिउवेदजजुवेदसाम-||९ शतके प्रज्ञप्तिः वेदअथवणवेद जहा खदंओ जाच अन्नेसु य बहुसु भन्नएसु नएसु सुपरिनिहिए समणोवासए अभिगयजी- उद्देशः ३३ अभयदेवी- वाजीवे उक्लद्धपुण्णपाचे जाव अप्पाणं भावेमाणे विहरति, तस्स णं उसभदत्तमाहणस्स देवाणंदा नाम || या वृत्तिःला
ताधिकारः माहणी होत्या, सुकुमालपाणिपाया जाव पिपदसणा सुरूवा समणोवासिया अभिगयजीवाजीवा एवल-16
सू३८० ॥४५६॥
द्धपुनपावा जाव विहरइ । तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे, परिसा जाब पजुवासति, तए णं से उस-दि भदसे माहणे इमीसे कहाए लद्धटे समाणे हह जाव हियए जेणेव देवाणंदा माहणी तेणेव उवागछति २ देवाणंदं माहणिं एवं बयासी-एवं खलु देवाणुप्पिए ! समणे भगवं महावीरे आदिगरे जाच सषलू सबद-1 रिसी आगासगएणं चकेणं जाव सुहसुहेणं विहरमाणे बहुसालए चेहए अहापडिरूपंजावविहरति, तं महा-द| काफलं खलु देवाणुप्पिए ! जाव तहारूवाणं अरिहंताणं भगवंताणं नामगोयस्सविसवणयाए किमंग पुण अभि
गमणवंदणनमंसणपरिपुरणपजुबासणयाए ?, एगस्सवि आयरियस्स धम्मियस्स सुषयपास्स सवणयाए किमंग| |पुण विजलस्स अट्ठस्स गहणयाए,तं गच्छामोणं देवाणुप्पिए । समण भगवं महावीरं बंदामो नमंसामो जान |
|पज्जुवासामो, एपण्यां हहभवे य परभवे पहियाप सुहाए खमाए निस्सेसाए आणुगामियत्ताप भविस्सह तप | ॥४५६॥ xणं सा देवाणंदा माहणी उसमदत्तेणं माहणणं एवं बुत्ता समाणी हबजाय हियथा करयलजावका सभ-18
दत्तस्स माहणस्स एपमढ विणपणं पविणे, बए पां से सभदते मारणे कोडंपियपुरिसे सहायर कोडविथ
SIR-
4444*48*
दीप अनुक्रम [४६०-४६२]
ऋषभदत्त एवं देवानन्दाया: अधिकारः
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८०-३८२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
-%C4%-5
सूत्रांक
[३८०-३८२]
दीप
पुरिसे सहाषेसा एवं बयासि-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! लहुकरणजुत्तजोइयसमखुरवालिहाणसमलिरियसिंगेहिं जंबूणयामयकलावजुत्त[स्स]परिविसिद्धेहिं रययामयघंटासुत्तरजुयपवरकंचणनत्थपग्गहोग्गहियपहि नीलुप्पलकयामेलएहिं पवरगोणजुवाणएहिं नाणामणिरयणघंटियाजालपरिगयं सुजायजुगजोत्तरज्जुयजुगपसत्थसुविरचितनिम्मियं पवरलक्षणोवयेयं [ ग्रन्थानम् ६००० धम्मियं जाणप्पवरं जुत्तामेव उववेहर मम एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह, तए णं ते कोडंवियपुरिसा उसमदत्तेणं माहणेणं एवं वुत्ता समाणा हट्ट जाव हियया करयल एवं सामी! तहत्ति आणाए विणएणं वयणं जाव पडिमणेत्ता खिप्पामेव लहुकरणजुसजाव धम्मियं जाणप्पवरं जुत्तामेव उवद्ववेत्ता जाव तमाणत्तियं पचप्पिणंति, तए णं से उसमदत्ते माहणे
पहाए जाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरे साओ गिहाओ पडिनिक्खमति साओ गिहाओ पडिनिक्ख&मित्ता जेणेव बाहिरिया उबट्ठाणसाला जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छह सेणेच उवागच्छित्ता :
धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढे । तए णं सा देवाणंदा माहणी अंतो अंतेउरंसि पहाया कयवलिकम्मा कयकोज्य-15 मंगलपायच्छित्ता किंच वरपादपत्तनेउरमणिमेहलाहारविरइयउचियकडगखुड्डायएकावलीकंठसुत्तउरत्थगेवेजसोणिसुत्तगनाणामणिरयणभूसणविराइयंगी चीणंमुयवत्वपवरपरिहिया दुगुल्लसुकुमालउत्तरिजा सघोजयसुरभिकुसुमवरियसिरया वरचंदणवंदिया वराभरणभूसियंगी कालागुरुधूवधूविया सिरिसमाणवेसा जाव अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरा बहूहिं खुजाहिं चिलाइयाहिं वामणियाहिं वडहियाहिं बवरियाहिं ईसिगणि
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अनुक्रम [४६०-४६२]
*-%
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८०-३८२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिा
-
[३८०-३८२]
॥४५७॥
FRESS-40CBSE+
दीप
याहिं जोण्हियाहिं चारुगणियाहिं पल्लवियाहिं ल्हासियाहिं लउसियाहिं आरधीहिं दमिलीहिं सिंघलीहिं पुलिं- ९ शतके दीहिं पुक्खलीहिं मुरुंडीहिंसबरीहिं पारसीहि नाणादेसीहिं विदेसपरिपंडियाहिं इंगितचिंतितपस्थियवियाणि- उद्देशः ३३ याहिं सदेसनेवत्थगहियसाहिं कुसलाहिं विणीयाहि य चेडियाचकवालवरिसघरधेरकंचुइज्जमहत्तरगवंद
ऋषभदस
दि देवानन्दापक्खित्सा अंतेउराओ निग्गच्छति अंतेउराओ निग्गच्छित्ता जेणेव बाहिरिया उचट्ठाणसाला जेणेव धम्मिए |
गमनं जाणप्पवरे तेणेव पवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता जाच धम्मियं जाणप्पवरं दुरूडा ॥ तए णं से उसभदत्ते
Xसू ३८० माहणे देवाणंदाए माहणीए सहिं धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढे समाणे णियगपरियालसंपरिबुडे माहणकुंडग्गामं | नगरं मझमझेणं निग्गच्छद निग्गच्छइत्ता जेणेव बहुसालए चेहए तेणेच उवागच्छइ तेणेव उवागच्छइत्ता छत्तादीए तिस्थकरातीसए पासइ छ०२ धम्मियं जाणप्पवरं ठवेइ २त्ता घम्मियाओ जाणप्पवराओ पश्चोकहइ |ध०२ समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छति, तंजहा-सचित्ताणं दवाणं विउसरणपाए। एवं जहा वितियसए जाव तिविहाए पञ्जुवासणयाए पजुवासति,तएणं सा देवाणंदाभाहणीधम्मियाओ जाणप्पवराभो पचोरुभति धम्मियाओ जाणप्पवराओ पञ्चोरुभित्ता बहुहिं खुजाहिं जाव महत्तरगवंदपरि|क्खित्ता समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छह, तंजहा-सचित्ताण दवाणं विउसरण-14 याए अचित्ताणं दवाणं अविमोयणयाए विणयोणयाए गायलठ्ठीए चक्खुफासे अंजलिपरगहेणं मणस्स ए-18|| गत्तीभावकरणेणं जेणेच समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छह तेणेव उवागच्छित्ता समर्ण भगवं महावीर
-ॐ
ॐ
अनुक्रम [४६०-४६२]
%A5
%
SARERainintamarana
ऋषभदत्त एवं देवानन्दाया: अधिकारः
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८०-३८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३८०-३८२]
दीप
तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइरसा वंदइनमंसह वंदित्ता नमंसित्ता उसभदत्तं माहणं पुरओ कडु ठिया itlचेव सपरिवारा सुस्सूसमाणी णमंसमाणी अभिमुहा विणएणं पंजलिउहा जाव पजुवासइ ( सूत्रं३८०) तए मणंसा देवाणंदा माहणी आगयपण्हाया पप्फुयलोयणा संवरियवलयबाहा कंचुयपरिक्खिसिया धाराहयकलंब-8 || गंपिव समृसचियरोमकूवा समणं भगवं महावीरं भणिमिसाए दिहीए देहमाणी चिट्ठति ॥ भंते त्ति भगवं|
गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति बंदित्ता नमंसित्सा एवं क्यासी-किण्णं भंते ! एसा देवाणदा माहणी आगयपण्हवा तं चेव जाव रोमकूवा देवाणुप्पिए अणिमिसाए विट्ठीए देहमाणी चिट्ठइ ?, गोय
मादि समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी-एवं खलु गोयमा ! देवाणंदा माहणी मम अम्मगा, द अइन्नं देवाणंदाए माहणीए अत्तए, तए णं सा देवाणंदा माहणी तेणं पुचपुत्तसिणेहाणुराएणं आगयपण्हया || जाव समूसवियरोमकूवा मम अणिमिसाए विट्ठीए देहमाणी २चिट्ठा । (सूत्रं ३८१)तए णं समणे भगवं ४ महावीरे उसमदत्तस्स माहणस्स देवाणदाए माहणीए तीसे य महप्तिमहालियाए इसिपरिसाए जाव परि-ट द सा पडिगया । तए णं से उसमदते माहणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म सोचा निसम्म हट्टतुट्टे उडाए उद्देइ उवाए उढेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव नमंसित्ता एवं वदासी-एवमेयं
भंते ! तहमेयं भंते ! जहा खंदओ जाव सेयं तुझे बदहत्ति कहु उत्तरपुरच्छिम दिसीभागं अवकमह उत्तदारपु०२त्ता सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयह सयमे०२त्ता सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेति सयमे०२त्ता जेणेष
अनुक्रम [४६०-४६२]
ऋषभदत्त एवं देवानन्दाया: अधिकारः
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८०-३८२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
F
सूत्रांक
[३८०
-३८२]
व्याख्या- समणेभगवं महावीरे तेणेव उवागच्छहरसमणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं जाव नमंसित्ता ९ शतके प्रज्ञप्तिः । एवं वयासी-आलित्ते भंते ! लोए पलित्ते णं भंते ! लोए आलित्तपलिते णं भंते ! लोए जराए मरणेण|| उद्देशः३१ अभयदेवी-४ य, एवं एएणं कमेणं इमं जहा खंदओ तहेव पवइओ जाव सामाइयमाइयाई एकारस अंगाई अहिजइ जावदेवानन्दाया वृत्तिः२ बहहिं चउत्थछट्ठहमदसमजाव विचित्तेहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणे बहूई वासाई सामनपरियागंयाः प्रसव
सू ३८१ पाउणइ २ मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झुसेति मास०२ सहि भत्ताई अणसणाए छेदेति सहि २त्ता जस्स॥४५८॥ हाए कीरति नग्गभावो जाव तम8 आराहह जाव सम8 आराहेत्ता तए णं सो जाव सचदुक्खप्पहीणे।
ऋषभदत्ततए णं सा देवाणंदा माहणी समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा निसम्म हड्तुहा समणं योदया. | भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं जाब नमंसित्ता एवं वयासि-एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते । एवं | जहा उसमदत्तो तहेव जाव धम्माइक्खियं । तए णं समणे भगवं महावीरे देवाणंदं माहणि सपमेव पचा- |सू३८२ || वेति सय २ सयमेव भज्जचंदणाए अज्जाए सीसिणित्ताए दलयह॥तए णं सा अज्जचंदणा अज्जा देवाणंद माहर्णि सयमेव पचावेति सयमेव मुंडावेति सयमेव सेहावेति एवं जहेब उसभदत्तो तहेव अजचंदणाए
अजाए इमं एयारूवं घम्मियं अबदेसं सम्मं संपतिवज्जा तमाणाए तह गच्छद जाव संजमेणं संजमति, तए | ॥४५॥ द्राणं सा देवाणंदा अज्जा अज्जचंदणाए अजाए अंतियं सामाइयमाझ्याई एकारस अंगाई अहिजइ सेसं तं चेव ||
जाच सबदुक्खप्पहीणा (सूत्रं ३८२)॥
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दीप
अनुक्रम [४६०-४६२]
SARELIEatin international
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८०-३८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
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सूत्रांक
[३८०-३८२]
दीप
तेणं कालेण'मित्यादि, 'आहे'त्ति समृद्धः 'वित्तेत्ति दीप्त:-तेजस्वी रप्तो वा-दर्पवान् 'विसे'त्ति प्रसिद्धा, यावत्क: रणात् 'विच्छिन्नविउलभवणसयणासणजाणवाहणाइने'इत्यादि दृश्य 'हियाए'त्ति हिताय पथ्यान्नवत् 'मुहाए'ति सुखाय शर्मणे 'खमाए'त्ति क्षमत्वाय सङ्गतत्वायेत्यर्थः 'माणुगामियत्ताएत्ति अनुगामिकत्वाय शुभानुवन्धायेत्यर्थः 'हह' इह यावत्करणादेवं दृश्य-'हहतुद्दचित्तमाणदिया' दृष्टतुष्टम्-अत्यर्थ तुष्टं दृष्ट वा-विस्मितं तुष्ट-तोषवञ्चित्तं यत्र तत्तथा, तद्यथा भवत्येवमानंदिता-ईपन्मुखसौम्यतादिभावः समृद्धिमुपगता, ततश्च नन्दिता-स्मृद्धितरतामुपगता 'पीड़मणा'प्रीतिः-प्रीणनं-आप्यायनं मनसि यस्याः सा प्रीतिमनाः 'परमसोमणस्सिया' परमसौमनस्य-सु सुमनस्कता सञ्जातं यस्याः सा परमसौमनस्थिता 'हरिसवसविसप्पमाणहियया हर्षवशेन विसर्पद्-विस्तारयायि हृदयं यस्याः सा तथा लहुकरणजुत्तजोइए'इत्यादि, लघुकरण-शीघ्रक्रियादक्षत्वं तेन युक्ती यौगिको च-प्रशस्तयोगवन्ती प्रशस्तसरारूपत्वाधौ।
तौ तथा, समाः खुराश्व-प्रतीताः 'चालिहाण'त्ति वालधाने-पुच्छौ ययोस्तौ तथा, समानि लिखितानि उल्लिखितानि शृङ्गा४णि ययोस्ती तथा, ततः कर्मधारयोऽतस्ताभ्यां लघुकरणयुक्तयौगिकसमखुरवालिधानसमलिखितङ्गकाभ्यां, गोयुवभ्यां दायुक्तमेव यानप्रवरमुपस्थापयतेति सम्बन्धः, पुनः किंभूताभ्याम् । इत्याह-जाम्बूनदमयी-सुवर्णनिर्वृत्ती यौ कलापी
कण्ठाभरणविशेषी ताभ्यां युक्ती प्रतिविशिष्टको च-प्रधानी जवादिभियौं तौ तथा ताभ्यां जाम्बूनदमयकलापयुक्तप्रति
विशिष्टकाभ्यां रजतमध्यौ-रूप्यविकारौ घण्टे ययोस्ती तथा, सूत्ररजुके-काप्पोसिकसूत्रदवरकमय्यौ वरकाश्चने-प्रवरसु&|| वर्णमण्डितत्वेन प्रधानसुवर्णे ये नस्ते-नासिकारजू तयोः प्रग्रहेण-रश्मिनाऽवगृहीतकी-बद्धौ यौ सौ तथा ततः कर्मधार
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ऋषभदत्त एवं देवानन्दाया: अधिकारः
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८०-३८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
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[३८०-३८२]
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दीप
योऽतस्ताभ्यां रजतमयघण्टसूत्ररजुकवरकाश्चननस्ताप्रग्रहावगृहीतकाभ्यां नीलोत्पलै:-जलजविशेषैः कृतो-विहितः||९सके प्रज्ञप्तिः
'आमेल'त्ति आपीड:-शेखरो ययोस्तौ तथा ताभ्यां नीलोत्पल कृतापीडकाभ्यां 'पवरगोणजुवाणएहिति प्रवरगोयुअभयदेवी
| उद्देशः ३३ या वृत्तिः२ ४ वाभ्यां नानामणिरतानां सत्कं यद् घण्टिकाप्रधानं जालं-जालकं तेन परिंगतं-परिक्षिप्तं यत्तत्तथा, सुजात-सुजातदा
ऋषभदत्तदे | रुमयं यदू युग-यूपस्तत् सुजातयुगं तच यौकरज्जुकायुगं च-योकाभिधानरजुकायुग्मं सुजातयुगयोकरमुकायुगे ते | ॥४५९॥ प्रशस्ते-अतिशुभे सुविरचिते-सुघटिते निर्मिते-निवेशिते यत्र यत् सुजातयुगयोकरजुकायुगप्रशस्तसुविरचितनिर्मितम् ।।
'एव'मित्यादि, एवं स्वामिन् ! तथेत्याज्ञया इत्येवं बुवाणा इत्यर्थः 'विनयेन'अनलिकरणादिना ॥ 'तए णं सा देवाणदा माहणी'त्यादि, इह च स्थाने वाचनान्तरे देवानन्दावर्णक एवं दृश्यते-'अंतो अंतेउरंसि पहाया' 'अन्तः' मध्येऽन्तःपुरस्य नाता, अनेन च कुलीनाः खियः प्रच्छन्नाः स्नान्तीति दर्शितं, 'कयवलिकम्मा' गृहदेवताः प्रतीत्य 'कय४ कोज्यमंगलपायच्छित्ता' कृतानि कौतुकमङ्गलान्येव प्रायश्चित्तान्यवश्यकार्यत्वात् यया सा तथा, तत्र कौतुकानि| मषीतिलकादीनि मङ्गलानि-सिद्धार्थकदूर्षादीनि 'किश्य'त्ति किश्चान्यदू 'वरपादपत्तनेउरमणिमेहलाहारविरइय-12 चियकडगखुडयएगावलीकंठसुत्तउरत्थगेवेञ्जसोणिसुत्तगणाणामणिरयणभूसणविराइयंगी' वराभ्यां पादप्रा
॥४५९॥ तनूपुराभ्यां मणिमेखलया हारेण विरचितै रतिदैर्वा उचितैः-युक्तः कटकैश्च 'खुट्टाग'त्ति अकुलीयकैश्च एकावल्या च| विचित्रमणिकमय्या कण्ठसूत्रेण 'च-उरःस्थेन च रूदिगम्येन अवेयकेण च-प्रतीतेन उरःस्थौवेयकेण वा श्रोणिसूत्रकेण च-कटीसूत्रेण नानामणिरक्षानां भूषणैश्च विराजितमङ्ग-शरीरं यस्याः सा तथा, 'चीणंसुयवस्थपवरपरिहिया' चीनां
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[३८०
-३८२]
दीप
अनुक्रम
[४६०
-४६२]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति: ]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर् शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [ ३८०-३८२ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
शुकं नाम यद्वखाणां मध्ये प्रवरं तत्परिहितं - निवसनीकृतं यया सा तथा 'दुगुल्लसुकुमालउत्तरिज्जा' दुकूलो - वृक्षविशेपस्तद्वल्काज्जातं दुकूलं वस्त्रविशेषस्तत् सुकुमारमुत्तरीयम् - उपरिकायाच्छादनं यस्याः सा तथा 'सघोउयसुरभिकुसुमवरियसिरया' सर्वर्तुकसुरभिकुसुमैर्वृता वेष्टिताः शिरोजा यस्याः सा तथा 'वरचंदणवंदिया' वरचन्दनं वन्दितं - | ललाटे निवेशितं यया सा तथा 'वराभरणभूसियंगी'ति व्यक्तं 'कालागुरुधूव भूविया' इत्यपि व्यकं 'सिरीसमाणवेसा' श्रीः-देवता तथा समाननेपथ्या, इतः प्रकृतवाश्वनाऽनुश्रियते- 'खुज्जाहिंति कुलिकाभिर्वक्रजङ्घाभिरित्यर्थः 'चिलाइयाहिंति चिलातदेशोत्पन्नाभिः यावत्करणादिदं दृश्यं - 'बामणियाहिं' ह्रस्वशरीराभिः 'वडहियाहिं' मडहकोष्ठाभिः 'बम्बरियाहिं पओसियाहिं ईसिगणियाहिं वासगणियाहिं जोहियाहिं पल्हवियाहिं व्हासियाहिं लउसियाहिं आरबीहिं दमिलाहिं सिंहलीहिं पुलिंदीहिं पक्कणीहि बहलीहिं मुरुडीहिं सबरीहिं पारसीहिं नाणादेसविदेसपरि पिंडियाहिं' नानादेशेभ्यो-बहुविधजनपदेभ्यो विदेशे तद्देशापेक्षया देशान्तरे परिपिण्डिता यास्तास्तथा 'सदेसनेवत्थगहियबेसाहिं' स्वदेशनेपथ्यमिव गृहीतो वेषो यकाभिस्तास्तथा ताभिः 'इंगिय चितियपत्थियवियाणियाहिं' इङ्गितेन नयनादिचेष्टया चिन्तितं च परेण प्रार्थितं च-अभिलषितं विजानन्ति यास्तास्तथा ताभिः 'कुसलाहिं विणीयाहिं' युक्ता इति गम्यते 'चेडिया चकवा लवरिसधरथेरकं चुइज्जमहत्तरयवंदपरिक्खित्ता' चेटीचक्रवालेनार्थात्स्वदेशसम्भवेन वर्षधराणां वर्धितककरणेन नपुंसकीकृतानामन्तः पुरमहलकानां 'थेरकंचुइज' सि स्थविरकशु किनां-अन्तःपुरप्रयोजननिवेदकानां प्रतीहाराणां वा महत्तरकाणां च अन्तःपुरकार्यचिन्तकानां वृन्देन परिक्षिप्ता या सा तथा इदं च सर्वे वाचनान्तरे साक्षा
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ऋषभदत्त एवं देवानन्दाया: अधिकार:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८०-३८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३८०-३८२]
दीप
च्याख्या- देवास्ति । 'सचित्ताणं दाणं विउसरणयाए'त्ति पुष्पताम्बूलादिद्रव्याणां व्युत्सर्जनया त्यागेनेत्यर्थः 'अचित्ताणं
प्रज्ञप्तिः दवाणं अविमोयणयाए'त्ति वस्त्रादीनामत्यागेनेत्यर्थः 'मणस्स एगत्तीभावकरणेणं' अनेकस्य सत एकतालक्षणभाव- उद्देशः ३३ अभयदेवी- करणेन 'ठिया चेव'त्ति उर्द्धस्थानस्थितैव अनुपविष्टेत्यर्थः 'आगयपणहय'त्ति 'आयातप्रश्रवा पुत्रस्नेहादागतस्तनमु
ऋषभदत्तदे या वृत्तिः२४
खस्तन्येत्यर्थः 'पप्फुयलोयणा' प्रप्लुतलोचना पुत्रदर्शनात् प्रवर्त्तितानन्दजलेन 'संवरियवलयवाहा' संवृती-हर्षातिर- वानन्दाधि ॥४६॥ कादतिस्थूरीभवन्तौ निषिद्धौ वलयैः-कटकै हू-भुजौ यस्याः सा तथा 'कंचुपपरिखित्तिया' कबुको-वारवाणः परिक्षिप्तो- सू३८२
विस्तारितो हर्षातिरेकस्थूरीभूतशरीरतया यया सा तथा धाराहयकयंवगंपिव समूसवियरोमकूवा' मेघधाराभ्याहतकदम्नपुष्पमिव समुच्छ्रसितानि रोमाणि कृपेषु-रोमरन्ध्रेषु यस्याःसा तथा 'देहमाणी'ति प्रेक्षमाणा, आभीक्ष्ण्ये चात्र द्विरुक्तिः। 'भंते ति भदन्त । इत्येवमामन्त्रणवचसाऽऽमन्येत्यर्थः 'गोयमाइ'त्ति गौतम इति एवमामन्त्र्येत्यर्थः अथवा गौतम इति नामोच्चारणम् 'अहे'ति आमन्त्रणार्थों निपातः हे भो इत्यादिवत् 'अत्तए'त्ति आत्मजः-पुत्रः 'पुषपुत्तसिणेहाणुराएणं'ति
पूर्व-प्रथमगर्भाधानकालसम्भवो यः पुत्रस्नेहलक्षणोऽनुरागः स पूर्वपुत्रस्नेहानुरागस्तेन 'महतिमहालियाए'त्ति महती | |४||चासावतिमहती चेति महातिमहती तस्यै, आलप्रत्ययश्चेह प्राकृतप्रभवः, इसिपरिसाए'त्ति पश्यन्तीति ऋषयो-ज्ञानिनस्तदूपा दि पर्षत-परिवार ऋषिपर्षत्तस्यै, यावत्करणादिदं दृश्य-मुणिपरिसाए जइपरिसाए अणेगसयाए अणेगसयविंदपरिवारापाल
॥४६॥ || इत्यादि, तत्र मुनयो-चाचयमा यतथस्तु-धर्मक्रियासु प्रयतमानाः अनेकानि शतानि यस्याः सा तथा तस्यै अनेकशतप्रमाणानि | वृन्दानि-परिवारो यस्याः सा तथा तस्यै ॥'तए णं सा अजचंदणा अज्जेत्यादि, इह च देवानन्दाया भगवता प्रवा
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८०-३८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३८०-३८२]
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दीप
जनकरणेऽपि यदार्यचन्दनया पुनस्तत्करणं तत्तत्रैवानवगतावगमकरणादिना विशेषाधानमित्यवगन्तव्यमिति। तमाणाएंत्ति तदाज्ञया-आर्यचन्दनाज्ञया ।
तस्स णं माहणकुंडग्गामस्स नगरस्स पञ्चस्थिमेणं एस्थ णं खत्तियकुंडग्गामे नाम नगरे होत्था वनभो. तत्य णं खत्तियकुंडग्गामे नयरे जमालीनाम खत्तियकुमारे परिवसति अहे दित्ते जाव अपरिभूए उपि| पासायवरगए फुहमाणेहिं मुइंगमधएहिं बत्तीसतिबद्धेहिं नाइएहिणाणाविहवरतरुणीसंपउत्तेहिं उवनचित्रमाणे जवनचित्रमाणे अवगिजमाणे २ उवलालिज्जमाणे उव०२ पाउसवासारत्तसरदहेमंतवसंतगिम्हपजंते छप्पि उक्त जहा विभवेणं माणमाणे २ कालं गालेमाणे इहे सद्दफरिसरसरूवगंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पच्चणुन्भवमाणे विहरह। नए णं खत्तियकुंडग्गामे नगरे सिंघाडगतियचकचचरजाव बहुजणसह वा जहा| उववाइए जाब एवं पन्नवेड एवं परूवेइ-एवं खलु देवाणुप्पिया! समणे भगवं महावीरे आइगरे जाव सवनू सबदरिसी माहणकुंडग्गामस्स नगरस्स बहिया बहुसालए चेहए अहापडिरूवं जाव विहरहतं महप्फलं| खलु देवाणुप्पिया! तहारूवाणं अरहताणं भगवंताणं जहा उववाइए जाच एगाभिमुहे खत्तियकुंडग्गामं नगरं मझमझेणं निग्गच्छंति निग्गच्छित्ता जेणेव माहणकुंडग्गामे नगरे जेणेव बहुसालए चेइए एवं जहा ४ उवचाइए जाव तिचिहाए पजुवासणाए पजुवासंति । तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स तं महया जणसई वा जाव जणसन्निवायं वा सुणमाणस्स वा पासमाणस्स वा अयमेयारूवे अज्झस्थिए जाच समुप्प
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
तिबोधः
प्रत सूत्रांक [३८३]
दीप
व्याख्या- जित्था-किन्नं अज खत्तियकुंडग्गामे नगरे इंदमहेइ वा खंदमहेइ वा मुगुंदमहेइ वा णागमहेइ वा जखम- १ शतके प्रज्ञप्तिः
हेह वा भूयमहेइ वा कूवमहेइ वा तडागमहेइ वा नईमहेइ वा दहमहेइ वा पच्चयमहेइ वा रुक्खमहेइ वा चेइ-17 उद्देशः ३३ अभयदेवी| यमहेइ वा थूभमहेइ वा जपणं एए यहवे उग्गा भोगा राइन्ना इक्खागा णाया कोरबा खत्तिया खत्तियपुत्ता ||
जमालिपया वृत्ति:२४
| महा भडपुत्ता जहा उचचाइए जाव सत्यवाहप्पभिइए पहाया कयघलिकम्मा जहा उबचाइए जाच निग्गच्छं॥४६॥ ति?, एवं संपेहेइ एवं संपेहित्ता कंचुइज्जपुरिसं सद्दावेति कंचु०२ एवं वयासी-किण्हं देवाणुप्पिया ! अज
सू ३८३ हे खत्तियकुंडग्गामे नगरे इंदमहेइ वा जाव निग्गच्छंति , तए णं से कंचुइज्जपुरिसे जमालिणा खत्तियकुमारणं एवं वुत्ते समाणे हद्दतुडे समणस्स भगवओ महावीरस्स आगमणगहियविणिच्छए करयल जमालि खत्तियकुमार जएणं विजएणं वहावेह बद्धावेत्ता एवं बयासी-णो खलु देवाणुप्पिया ! अज्ज खत्तियकुंड-12 ग्गामे नयरे इंदमहेइ वा जाव निग्गच्छइ, एवं खलु देवाणुप्पिया ! अज्ज समणे भगवं महावीरे जाव सबन्नु सबदरिसी माहणकुंडगामस्स नयरस्स बहिया घहुसालए चेइए अहापडिरूवं उग्गहं जाव विहरति, तए णं एए बहवे उग्गा भोगा जाव अप्पेगइया बंदणवत्तियं जाव निग्गच्छति । तए णं से जमालियखत्तियकुमारे |2|| कंचुइज्जपुरिसस्स अंतिए एयमटुं सोचा निसम्म हहतुट्ट० कोटुंबियपुरिसे सद्दावेइ कोडुंबियपुरिसे सद्दावइत्ता ४११ एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! चाउरघंटं आसरहं जुत्तामेव उवट्ठवेह उचट्ठवेत्ता मम एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह, तए णं ते कोडुंबियपुरिसा जमालिणा खत्तियकुमारेणं एवं वुत्ता समाणा जाव पञ्चप्पिणंति,
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SC+COACC
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति :]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३८३]
दीप
|| तए णं से जमालियखत्तियकुमारे जेणेव मजणघरे तेणेव पवागच्छह तेणेव उवागच्छित्ता हाए कयवलि-||४| * कम्मे जहा उववाइए परिसावन्नओ तहा भाणिय जाव चंदणाकिन्नगायसरीरे सबालंकारविभूसिए मजणघराओ पडिनिक्षमा मज्जणघराओ पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उचट्ठाणसाला जेणेव चाउरघंटे
आसरहे तेणेव उवागच्छह तेणेव उवागच्छित्ता चाउग्घंटे आसरहं दुरूहेइ चाउ०२त्ता सकोरंटमल्लदामेणं ४ *छत्तेणं धरिजमाणेणं महया भडचडकरपहकरवंदपरिक्खित्ते खत्तियकुंडग्गामं नगरं मजझमहोणं निग्गच्छा निग्गच्छित्ता जेणेव माहणकुंडग्गामे नगरे जेणेच बहुसालए चेहए तेणेव उवागच्छह तेणेव उवागच्छित्ता तुरए ।
निगिण्डे। तरए २त्ता रहं ठवेइ रहं ठवेत्ता रहाओ पचोरुहति रहा.२सा पुष्फतंबोलाउहमादीयं वाहणाओ लाय विसजेइ २त्ता एगसाडियं उत्तरासंगं करेइ उत्तरासंगं करेत्ता आयंते चोक्खे परमसुइम्भूए अंजलि-ल
मउलियहत्थे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उचागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगर्व महावीर || तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ २ तिक्खुत्तो २ जाव तिविहाए पजुवासणाए पज्जुवासइ । तए णं समणे लाभगवं महावीरं जमालिस्स खत्तियकुमारस्स तीसे य महतिमहालियाए इसिजावधम्मकहा जाव परिसाल
पडिगया, तए णं ते जमाली खत्तियकुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोचा निसम्म हह जाव उठाए उद्वेद उठाए उद्देत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव नमंसित्ता एवं वयासी-सहहामि गं भंते ! निग्गंथं पावयणं पत्तयामि णं भंते । निग्गथं पावयणं रोएमिणं भंते ! निग्गंथं पावयणं अन्चष्टेमिण
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३८३]
दीप
व्याख्या
भंते । निग्गं, पावयणं एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते । अवितहमेयं भंते 1 असंदिद्धमेयं भंते ! जाव से जहेयं ४/९ शतके प्रज्ञप्तिः तुज्झे बदह, जे नवरं देवाणुप्पिया! अम्मापियरो आपुच्छामि । तए णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतियं मुंडेद
उद्देशः ३३ अभयदेची-INभवित्ता अगाराओ अणगारियं पचयामि, अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध (सूत्र ३८३)।
जमालिपया वृत्तिः२/
तिबोधः 'फुडमाणेहिति अतिरभसाऽऽस्फालनात्स्फुटद्भिरिव विदलद्भिरिवेत्यर्थः 'मुइंगमस्थएहिं ति मृदङ्गाना-मर्दलानां
| सू ३८३ ॥४६२॥ समस्तकानीव मस्तकानि-उपरिभागाः पुटानीत्य): मृदङ्गमस्तकानि 'बत्तीसतिबद्धेहिंति द्वात्रिंशताऽभिनेतव्यप्रकारः |
पात्ररित्येके बद्धानि द्वात्रिंशद्वद्धानि तैः 'उवनचिजमाणे ति उपनृत्यमानः तमुपश्रित्य नर्तनात् 'उवगिजमाणे'त्ति तद्गुणगानात् 'उवलालिज्जमाणे'त्ति उपलाल्यमान ईप्सितार्थसम्पादनात् 'पाउसे त्यादि, तत्र प्रावृट् श्रावणादिः वर्षा-3 रात्रोऽश्वयुजादि शरत् मार्गशीर्षादिः हेमन्तो माघादिः वसन्तः चैत्रादिः ग्रीष्मो ज्येष्ठादिः, ततश्च प्रावृट् च वर्षारात्रश्च || शरच हेमन्तश्च वसन्तश्चेति प्राय रात्रशरद्धेमन्तवसन्तास्ते च ते ग्रीष्मपर्यन्ताश्चेति कर्मधारयोऽतस्तान् पढपि
'तून' कालविशेषान् 'माणमाणे'त्ति मानयन् तदनुभावमनुभवन् 'गालेमाणे'त्ति 'गालयन्' अतिवाहयन् ॥ द'सिघारगतिगचउपचचर' इह यावत्करणादिदं दृश्य-चउम्मुहमहापहपहेसुत्ति, 'बहुजणसइ बत्ति यत्र ||
नाटकादी बहूनां जनानां शब्दस्तत्र बहुजनोऽन्योऽन्यस्यैवमाख्यातीति वाक्यार्थी, तब च बहुजनशब्दः परस्परालापा- ४६२॥ |दिरूपः, इतिशब्दो वाक्यालङ्कारे वाशब्दो विकल्पे, 'जहा उपवाइए'त्ति तत्र चेदं सूत्रमेवं लेशतः-'जणहेर वा | जणबोलेड वा जणकलकलेति वा जणुम्मीद वा जणुकलियाइ वा जणसन्निवाएड वा बहुजणो अनमन्नस्स एवमाइक्खा
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[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३८३]
दीप
ॐCR55555SCARE
एवं भासइत्ति, अस्थायमर्थः-'जनव्यूहः' जनसमुदायः बोलः-अव्यक्तवर्णों ध्वनिः कलकला-स एवोपलभ्यमानवचन|विभागः ऊम्मिः-सम्बाधः उत्कलिका-लघुतरः समुदायः संनिपातः-अपरापरस्थानेभ्यो जनानामेकत्र मीलनं आख्याति सामान्यतः भाषते व्यक्तपर्यायवचनतः, एतदेवार्थद्वयं पर्यायतः क्रमेणाह-एवं प्रज्ञापयति एवं प्ररूपयतीति, 'अहापडिरूवं' इह थावत्करणादिदं दृश्यम्- 'उग्गहं ओगिण्हति ओगिहित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे'त्ति, | 'जहा उववाइए'त्ति, तदेव लेशतो दश्यते-'नामगोयस्सवि सवणयाए किमंग पुण अभिगमणवंदणणमंसणपडिपुच्छणपवासणयाए एगस्सवि आयरियस्स सुवयणरस सवणयाए ! किमंग पुण विउलस्स अहस्स गहणयाए ?, तं गच्छामोणं है | देवाणुप्पिया! समणं ३ वंदामो ४ एवं णे पेच्च भवे हियाए ५ भविस्सइत्तिकहु बहवे उग्गा उग्गपुत्ता एवं भोगा राइन्ना ४ खत्तिया भडा अप्पेगइया बंदणवत्तियं एवं पूयणवत्तियं सक्कारवत्तिय (सम्माणवत्तियं) कोउहलवत्तियं अप्पेगतिया
जीयमेयंतिकटु ण्हाया कयवलिकम्मा इत्यादि 'एवं जहा उववाइए' तत्र चैतदेवं सूत्र-तणामेव उवागच्छति तेणामेव : उवागच्छित्ता छत्ताइए तित्थयरातिसए पासंति जाणवाहणाई ठाईति'इत्यादि । 'अयमेयारूवेत्ति अयमेतद्पो वक्ष्यमाणस्वरूपः 'अज्झथिए'त्ति आध्यात्मिकः-आत्माश्रितः, यावत्करणादिदं दृश्य-चिंतिए'त्ति स्मरणरूपः 'पत्थिए'त्ति | प्रार्थितः-लन्धुं प्रार्थितः 'मणोगएत्ति अबहिन्प्रकाशितः 'संकप्पे'त्ति विकल्पः 'इंदमहेइ वत्ति इन्द्रमह-इन्द्रोत्सवः । 'खंदमहेइ वत्ति स्कन्दमहा-कार्तिकेयोत्सवः 'मुगुंदमहेइ बत्ति इह मुकुन्दो वासुदेवो बलदेवो वा 'जहा उबवाइए'ति | तत्र चेदमेवं सूत्रं-'माणा भटा जोहा मलाई लेच्छई अन्ने य बहवे राईसरतलवरमाइंबियकोडुंबियइम्भसेडिसेणाबाई'त्ति
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शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [३८३]
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दीप
व्याख्याः तत्र 'भटाः शूराः 'योधाः' सहयोधादयः, मलई लेच्छई राजविशेषाः 'राजानः' सामन्ताः ईश्वराः' युवराजादयः 'तरुवरा शतके राजवल्लभाः 'माडम्बिका' संनिवेशविशेषनायकाः 'कोडुम्बिका कतिपयकुटुम्बनायकाः 'इभ्याः' महाधनाः 'जहाद
उद्देशः ३३ अभयदेवी
उववाहए'त्ति अनेन चेदं सूचित-कयकोज्यमंगलपायच्छित्ता सिरसाकंठमालाकडा इत्यादि, शिरसा कंठे च माला या वृत्तिः२/
जमालिप्र
तिबोधः कृता-धृता यैस्ते तथा, प्राकृतत्वाच्चैवं निर्देशः, 'आगमणगहियविणिच्छए'त्ति- आगमने गृहीतः-कृतो विनिश्चयो
सू३८३ ॥४६॥ निर्णयो येन स तथा 'जएणं विजएणं वद्धावेईत्ति जय त्वं विजयस्व त्वमित्येवमाशीर्वचनेन भगवतः समागमनसूचनेन द
तमानन्देन वर्धयतीति भावः । 'अप्पेगतिया वंदणवत्तियं जाव निग्गच्छति' इह यावत्करणादिदं दृश्यम्-'अप्पेगMil इया पूयणवत्तियं एवं सकारवत्तियं सम्माणवत्तियं कोउहलवत्तियं असुयाई सुणिस्सामो सुयाई निस्संकियाई करिस्सामो
मुंडे भपित्ता आगाराओ अणगारियं पवइस्सामो अप्पेगइया हयगया एवंगयरहसिवियासंदमाणियागया अप्पेगझ्या पायविहारचारिणो पुरिसवग्गुरापरिक्खित्ता महता उक्कटिसीहणायबोलकलकलरवेणं समुहरवभूयपि व करमाणा खत्तियकुंडग्गा| मस्स नगरस्स मज्झमझण'ति ॥ 'चाउग्घंट'ति चतुर्घण्टोपेतम् 'आसरह ति अश्ववाह्यरथं 'जुत्तामेव'त्ति युक्तमेय III 'जहा उधवाइए परिसावन्नओ'त्ति यथा कौणिकस्यौपपातिके परिवारवर्णक उक्तः स तथाऽस्यापीत्यर्थः, स चायम्
॥४६॥ MI'अणेगगणनायगदंडनायगराईसरतलवरमाडंबियकोडंबियमंतिमहामंतिगणगदोवारियभमबचेडपीढमदनगरनिगमसे हिस
त्थवाहदूयसंधिवालसद्धिं संपरिचुडे'त्ति, तत्रानेके ये गणनायका:-प्रकृतिमहत्तराः दण्डनायकाः-तन्त्रपालकाः राजानो|माण्डलिकाः ईश्वरा-युवराजानः तलवरा:-परितुष्टनरपतिप्रदत्तपट्टबन्धविभूषिता राजस्थानीयाःमाडम्बिका:-छिन्नमडम्बा
अनुक्रम [४६३]
C5%
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति :]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३८३]
दीप
धिपाः कोडम्बिकाः कतिपयकुटुम्बप्रभवः अवलगका-सेवकाःमन्त्रिणः-प्रतीता: महामन्त्रिणो-मन्त्रिमण्डलप्रधानाः हस्तिसाधनोपरिका इति च वृद्धाः गणका:-गणितज्ञाः भाण्डागारिका इति च वृद्धाः दौवारिकाः-प्रतीहाराः अमात्या-राज्याधिछायकाः चेटा:-पादमूलिकाः पीठम-आस्थाने आसनासीनसेवकाः वयस्या इत्यर्थः नगर-नगरवासिप्रकृतयः निगमाः| कारणिकाः श्रेष्ठिन:-श्रीदेवताऽध्यासितसौवर्णपट्टविभूषितोत्तमाङ्गाः सेनापतयः-सैन्यनायकाः दूताः-अन्येषां राजादेशनिवेदकाः सन्धिपाला-राज्यसन्धिरक्षकाः, एषां द्वन्द्वस्ततस्तै, इह तृतीयाबहुवचनलोपो द्रष्टव्यः 'साई' सह, न केवलं सहितत्वमेवापि तु तैः समिति-समन्तात् परिवृतः-परिकरित इति 'चंदणुक्खित्तगायसरीरे'त्ति चन्दनोपलिप्ताङ्गदेहा इत्यर्थः | 'महयाभडचडगरपहकरवंदपरिक्खित्ते'त्ति 'महय'त्ति महता बृहता प्रकारेणेति गम्यते, भटानां प्राकृतत्वान्महाभटानां | वाचडगर त्ति चटकरवन्तो-विस्तरवन्तः पहकर'त्ति समूहास्तेषां यद्वन्दं तेन परिक्षिप्तो यःस तथा पुष्फतंबोलाउहमाइयं' | |ति इहादिशब्दाच्छेखरच्छत्रचामरादिपरिग्रहः 'आयते'त्ति शौचाथै कृतजलस्पर्शः 'चोक्खे'त्ति आचमनादपनीताशुचिद्रव्यः |'परमसुइन्भूए'त्ति अत एवात्यर्थं शुचीभूतः 'भंजलिमउलियहत्थे'त्ति अञ्जलिना मुकुलमिव कृतौ हस्तौ येन स तथा ॥
तए णं से जमाली खत्तियकुमारे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं धुत्ते समाणे हहतुढे समर्ण भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाच नमंसित्ता तमेव चाउग्छदं आसरहं दुरूहेइ दुरूहित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंति-18 ४ याओ बहुसालाओ चेहयाओ पडिमिक्खमइ परिनिक्खमित्ता सकोरंटजाव धरिजमाणेणं महया भडचड-16
गरजावपरिक्खित्ते जेणेव खत्तियकुंडग्गामे नयरे तेणेव उवागच्छइ तेणेव उषागच्छित्ता खत्तियकुंडग्गामं
अनुक्रम [४६३]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति :]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३८४]
दीप
व्याख्या-14 नगरं मझमझेणं जेणेव सए गिहे जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छद् तेणेव उवागच्छित्ता ६९ शतके प्रज्ञप्तिः | तरए निगिपहइ तुरए निगिहिता रहं ठवेह रहे ये सारहाओ पञ्चोकहइ रहाओ पञ्चोकहित्ता जेणेव अन्भि-IPI उद्देशः५६ अभयदेवी- तरिया उचट्ठाणसाला जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छिता अम्मापियरो जएणं विज-18 दीक्षाय अया वृत्तिः एणं वजायेइ बहावेत्ता एवं बयासी-एवं खलु अम्मताओ! मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मे नुमतिः | निसंते, सेवि य मे धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए, तए णं तं जमालिं खत्तियकुमारं अम्मापियरो एवं ||
18 सू ३८४ ॥४६॥
| बयासि-धन्नेसि णं तुमं जाया ! कयत्थेसि णं तुमं जाया ! कय पुन्नेसि गं तुम जाया ! कयलक्खणेसि णं तुमं|
जाया ! जन्नं तुमे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मे निसंते सेवि य धम्मे इच्छिए पडिच्छिए || अभिरुइए, तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मापियरो दोचंपि एवं वयासी-एवं खलु मए अम्मताओ |समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मे निसंते जाव अभिरुहए, तए णं अहं अम्मताओ! संसारभउ-|
विग्गे भीए जम्मजरामरणेणं तं इच्छामिणं अम्म! ताओ! तुजाहिं अध्भणुनाए समाणे समणस्स भग-1 ★|| वओ महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पचहत्तए । तए णं सा जमालिस्स खत्तिप
॥४६४ा कुमारस्स माता तं अणि8 अकंतं अप्पियं अमणुन्नं अमणामं असुयपुर गिरं सोचा निसम्म सेयागयरोमकू-४ |वपगलंतविलीणगत्ता सोगभरपवेबियंगमंगी नित्तया दीणविमणवयणा करयलमलियच कमलमाला तक्ख-13
णओलुग्गदुव्यलसरीरलायनसुन्ननिच्छाया गयसिरीया पसिढिलभूसणपडतखुपिणयसंचुनियधवलवलयपन्भट्ट
अनुक्रम [४६४]
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[३८४]
दीप
अनुक्रम [४६४]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः ]
शतक [९], वर्ग [ - ], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [३३], मूलं [ ३८४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
उत्तरिया मुच्छावस पहुंचेत गुरुई सुकुमालविकिन्नकेसहत्था परसुणियत्तव चंपगल्या निवत्तमहे व इंदली | विमुकसंधिबंधणा कोट्टिमतलंसि धसन्ति सङ्घगेहिं संनिवडिया, तए णं सा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स माया | ससंभमोपत्तियाए तुरियं कंपणभिंगारमुह विणिग्गयसीयलविमलजलधारा परिसिंचमाणनिद्दवियगायलट्टी उ. | क्रखेवयतालियंटवीयणगजणियवाएणं सफुसिएणं अंतेडर परिजणेणं आसासिया समाणी रोयमाणी कंदमाणी सोयमाणी विलवमाणी जमालिं खत्तियकुमारं एवं वयासी तुमसि णं जाया । अम्हं एगे पुत्ते इट्ठे कंते पिए | मणुने मणामे थे वेसासिए संमए यहुमए अणुमए भंडकरंङगसमाणे रणे रणभूए जीविऊसविये हिय| यानंदिजणणे उंबरपुष्पमिव दुल्लभे सवणयाए किमंग पुण पासणयाए?, तं नो खलु जाया ! अम्हे इच्छामो तुझं स्वणमवि विप्पओगं, तं अच्छाहि ताव जाया ! जाव ताव अम्हे जीवामो, तभो पच्छा अम्हेहिं कालगएहिं समाणेहिं परिणयवये वह्नियकुलवंसतंतुकमि निरवयक्खे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं | मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पञ्चहहिसि । तरणं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मापियरो एवं वयासीतहावि णं तं अम्म ! ताओ ! जण्णं तुज्झे मम एवं वह तुमंसि णं जाया ! अम्हं एगे पुत्ते इट्ठे कंते तं चैव | जाव पवइहिसि एवं खलु अम्म ! ताओ ! माणुस्सए भवे अणेगजाइजरामरणरोगसारीर माणुस्सए कामदुक्खवयणवसणस तोवद्दवाभिभूए अधुए अणितिए असासए संज्झन्भरागसरिसे जलबुब्बुदसमाणे कुसग्गजल| बिंदुसन्निभे सुविणगदंसणोवमे विलयाचंचले अणिचे सडणपडणविद्धंसणधम्मे पुधिं वा पच्छा वा अवस्स
Education International
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३८४]
दीप
व्याख्या- विप्पजहियचे भविस्सइ, से केस णं जाणइ अम्म! ताओ! के पुर्वि गमणयाए के पच्छा गमणपाए ,तं ९शतके
प्रज्ञप्तिः इच्छामि णं अम्मताओ! तुज्झेहिं अन्भणुन्नाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पबहत्तए। उद्देशुः३३ अभयदेवी
तए णं तं जमालिं खत्तियकुमार अम्मापियरो एवं वयासी-इमं च ते जाया ! सरीरगं पविसिहरूव- दाक्षायू या वृत्तिः२ लालक्खणवंजणगुणोववेयं उत्तमबलवीरियसत्तजुत्तं विण्णाणवियक्खणं ससोहग्गगुणसमुस्सियं अभिजायम
| सू ३८४ ॥४१५
हक्खमं विविहवाहिरोगरहियं निरुवहयउदत्तलटुं पंचिंदियपडपढमजोवणत्धं अणेगउत्तमगुणेहिं संजुत्तं तं | अणुहोहि ताव जाव जाया! नियगसरीररूवसोहग्गजोवणगुणे, तओ पच्छा अणुभूयनियगसरीररूवसोहग्गजोषणगुणे अम्हेहिं कालगएहिं समाणेहिं परिणयवये वड्डियकुलवंसतंतुकमि निरचयक्खे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पवइहिसि, तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मापियरो एवं बयासी-तहावि णं तं अम्मताओ! जन्नं तुझे ममं एवं वदह-इमं च ण ते जाया! सरीरगं तं चेव जाव पवाहिसि, एवं खलु अम्मताओ! माणुस्सगं सरीरं दुक्खायपर्ण विविहचाहिसयसनिकेतं अट्ठियकट्टियं छिराण्हारुजालओणद्धसंपिणद्धं मट्टियभंड व दुव्वलं असुइसंकि लिटुं|8 अणिट्ठवियसब कालसंठप्पिय जराकुणिमजज्जरघरं व सडणपडणविद्धंसणधम्म पुर्वि वा पच्छा वा अवस्सवि-IC ॥४६५|| प्पजहियवं भविस्सह, से केस णं जाणति ? अम्मताओ के पतिं चेव जाव पचहत्तए । तए णं तं जमालि | खत्तियकुमारं अम्मापिपरोएवं वयासी-इमाओपते जाया! विपुलकुलबालियाओ सरित्तयाओसरिषयाओ
अनुक्रम [४६४]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
+
6
+
C+
प्रत सूत्रांक [३८४]
+-
+
सरिसलावन्नरूवजोषणगुणोववेयाओसरिसएहितो अकुलेहितो आणिएल्लियाओ कलाकुसलसबकाललालियसुहोचियाओ महवगुणजुत्तनिउणविणओवयारपंडियवियक्खणाओ मंजुलमियमहुरभणियविहसियविप्पे-| |क्खियगतिविसालचिट्टियघिसारदाओ अविकलकुलसीलसालिणीओ विसुद्धकुलवंससंताणतंतुवद्धणप्पग(भु)
भवप्पभाविणीओ मणाणुकूलहियइच्छियाओ अह तुज्य गुणवल्लहाओ उत्तमाओ निश्चं भावाणुत्तरसवंगसुं-1 दरीओ भारियाओ, तं भुंजाहि ताव जाया! एताहिं सद्धिं विउले माणुस्सए कामभोगे, तो पच्छा भुत्तभोगी विसयविगयवोच्छिन्नकोउहल्ले अम्हेहिं कालगएहि जाव पवइहिसि । तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मापियरो एवं बयासी-तहावि णं तं अम्म! ताओ! जन्नं तुज्झे मम एवं वयह इमाओ ते जाया विपु-| लकुलजावपवाहिसि, एवं खलु अम्म ! ताओ! माणुस्सयकामभोगा असुई असासया वंतासवा पित्तासवा खेलासवा सुक्कासवा सोणियासचा उच्चारपासवणखेलसिंघाणगवंतपित्तपूयसुफसोणियसमुभवा अम|णुन्नदुरूवमुत्तपूइयपुरीसपुन्ना मयगंधुस्सासअसुभनिस्सासा उच्चैयणगा बीभत्था अप्पकालिया लहुसगा कलमलाहिया सदुक्खबहुजणसाहारणा परिकिलेसकिच्छदुक्खसज्झा अवुहजणणिसे चिया सदा साहुगरहणिज्जा अर्णतसंसारबद्धणा कडुगफलविवागा चुडलिब अमुचमाणदुक्खाणुयंधिणो सिद्धिगमणविग्घा, से केस णं
जापति अम्मताओ! के पुर्षि गमणयाए के पच्छा गमणयाए?,तं इच्छामि णं अम्मताओ!जाव पवइत्तए। तए कोणतं जमालिं खत्तियकुमारं अम्मापियरो एवं चयासी-इमे यते जाया! अजयपजयपिउपजयागए बहु हिरने
-
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CANARAACANCERCONS
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सूत्रांक
[३८४]
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[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति: ]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर् शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [ ३८४ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥४६६ ॥
Education
जमाली चरित्रं
य सुबने य कंसे य दूसे य विजलधणकणगजाव संतसारसाव एबे अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पकामं दाडं पकामं भोत्तुं पकामं परिभाएवं तं अणुहोहि ताव जाया ! विउले माणुस्सर इहिसकारसमुदए, तओ ४ पच्छा हूयंकल्लाणे वह्नियकुलतंतु जाव पचइहिसि । तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मापियरो एवं वयासी- तहाचि णं तं अम्मताओ ! जन्नं तुज्झे ममं एवं बदह इमं च ते जाया ! अजग पज्जगजावपवइ हिसि, एवं खलु अम्मताओ ! हिरन्ने य सुबन्ने प जाव सावएजे अग्गिसाहिए चोर साहिए रायसाहिए मन्नुसाहिए दाइयसाहिए अग्गिसामने जाव दाइयसामने अधुवे अणितिए असासए पुर्वि वा पच्छा वा अवस्सविप्पजहियधे भविस्सह, से केस णं जाणइ तं चैव जाब पवइन्सए । तए णं तं जमालिं खत्तियकुमारं अम्म ताओ जाहे तो संचारन्ति विसयाणुलोमाहिं बहूहिं आघवणाहि य पद्मवणाहि य सम्भवणाहि य विभवनाहि य आघवेत्तए वा पन्त्रवेत्तए वा सन्नवेत्तए वा विनवेत्तए वा ताहे विसयपडिकूलाहिं संजमभयुवेयण| कराहिं पत्रवणाहिं पशवेमाणा एवं वयासी एवं खलु जाया ! निग्गंधे पावयणे संचे अणुत्तरे केवले जहा आवस्सए जाव सङ्घदुक्खाणमंतं करेंति अहीव एतदिठ्ठीए खरो इब एगंतधाराए लोहमया जवा चावेयवा वालुयाकवले इव निस्साए गंगा वा महानदी पडिसोपगमणयाए महासमुद्दे वा भुयाहिं दुत्तरो तिक्खं कमियवं गरुयं लंबे असिधारणं यतं चरियां, नो खलु कप्पड़ जाया ! समणाणं निग्गंथाणं अहाकस्मिएन्ति वा उद्देसएइ वा मिस्सजाएइ वा अज्झोयरएइ वा पूइएइ वा कीएर वा पामिचेह वा अच्छे वा अणि
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९ शतके उद्देशा ३३ दीक्षायै अ
नुमतिः
सू ३८४
॥४६६॥
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३८४]
दीप
सट्टेइ वा अभिह डेइ वा कंतारभत्तेइ वा दुभिक्खभत्तेइ वा गिलाणभत्तेइ वा बदलियाभत्तेइ वा पाहुणगभतेह वा सेजायरपिंडेइ वा रायपिंडेइ वा मूलभोयणेइ वा कंदभोयणेह वा फलभोयणेइ वा बीयभोयणेह वा
हरियभोयणेइ वा भुत्तए वा पायए वा, तुम च णं जाया! सुहसमुचिए पो चेव णं दुहसमुचिते नालं सीयं ४|| टनाल उपहं नालं खुहा नालं पिपासा नालं चोरा नालं वाला नालं दंसा नालं मसया नालं वाइपपित्तियसें
भियसन्निवाइए विविहे रोगायंके परीसहोवसग्गे उदिन्ने अहियासेत्तए, तं नो खलु जाया ! अम्हे इच्छामो | तुजसं खणमवि विप्पओगं तं अच्छाहि ताव जापा ! जाव ताव अम्हे जीवामो, तओ पच्छा अम्हेहिं जाव पबाहिसि । तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मापियरो एवं वयासी-तहावि णं तं अम्म! ताओ। जन्नं तुझे ममं एवं चयह-एवं खलु जाया ! निग्गंथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे केवले तं चेव जाव पवाहिसि, एवं खलु अम्मताओ! निग्ग) पावयणे कीवाणं कायराणं कापुरिसाणं इहलोगपडियहाणं परलोगपरंमु. हाणं विसयतिसियाणं दुरणुचरे पागयजणस्स, धीरस्स निच्छियस्स ववसियस्स नो खलु एत्थं किंचिवि दुकरं |
करणयाए, तं इच्छामि अम्म ! ताओ! तुझे हिं अम्भणुनाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स Bाजाव पचहत्तए । तए णं जमालिं खत्तियकुमारं अम्मापियरोजाहे नो संचाएंति विसयाणुलोमाहि य विसय
पडिकूलाहि य बहहि प आघवणाहि य पन्नवणाहि य ४ आघवेत्तए वा जाव चिन्मवेत्तए वा ताहे अकामए चेव जमालिस्स खत्तियकुमारस्स निक्खमणं अणुमन्नित्था (सूत्रं ३८४)।
अनुक्रम [४६४]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति :]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३८४]
नुमतिः सू ३६४
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व्याख्या- 'सदहामिपत्ति श्रद्दधे सामान्यतः 'पत्तियामिति उपपत्तिभिः प्रत्येमि प्रीतिविषयं वा करोमि रोएमिति चिकी- शतके प्रज्ञप्तिःमि 'अन्भुडेमित्ति अभ्युत्तिष्ठामि "एवमेय'ति उपलभ्यमानप्रकारवत् 'तहमेयं ति आप्तवचनाषगतपूर्वाभिमतप्रका- उद्देशः ३३ अभयदा-दारवत् 'अवितहमेय'ति पूर्वमभिमतप्रकारयुक्तमपि सदन्यदा विगताभिमतप्रकारमपि किञ्चित्स्यादत उच्यते-अधितथ- दीक्षायै अपा वृत्तिः२४
मेतत्' न कालान्तरेऽपि विगताभिमतप्रकारमिति ॥ 'अम्म! ताओ'त्ति हे अम्ब! हे-मातरित्यर्थः हे तात !हे-पितरि॥४६७ त्यर्थः 'निसंतेत्ति निशमितः श्रुत इत्यर्थः 'इच्छिए'ति इष्टः 'पडिच्छिएति पुनः पुनरिष्टः भावतो वा प्रतिपन्नः
'अभिमदए'त्ति स्वादुभावमियोपगतः 'धन्नेऽसित्ति धनं लब्धा 'असि' भवसि 'जाय'त्ति हे पुत्र ! 'कयत्वेऽसित्ति 'कृतार्थः कृतस्वप्रयोजनोऽसि 'कयलक्खणे त्ति कृतानि-सार्थकानि लक्षणानि-देहचिह्नानि येन स कृतलक्षणः ॥ 'अनिट्ठति अवाछिताम् 'अकंतंति अकमनीयाम् 'अप्पियं ति अप्रीतिकरीम् 'अणुमन्नति न मनसा ज्ञायते सुन्दरतयेत्यमनोज्ञा ताम् 'अमणाम'ति न मनसा अम्यते-गम्यते पुनः पुनः संस्मरणेने त्यमनोज्ञाता 'सेयागयरोमकूवपग
संतविलीणगत्ता' स्वेदेनागतेन रोमकूपेभ्यः प्रगलन्ति-क्षरन्ति विलीनानि च-क्लिन्नानि गात्राणि यस्याः सा तथा 'सोजगभरपवेचियंगमंगी' शोकभरेण प्रवेपित-प्रकम्पितमङ्गमङ्गं यस्याः सा तथा 'नित्तेया' निर्वीर्या 'दीणविमणवयणा'| दीनस्येव विमनस इव(च) बदनं यस्याः सा तथा 'तक्खणओलुग्गदुबलसरीरलायनसुन्ननिच्छाय'त्ति तरक्षणमेय-अनजा
का ॥४६७॥ मीतिवचनश्रवणक्षण एव अवरुग्ण-म्लानं दुर्बलं च शरीरं यस्याः सा तथा, लावण्येन शून्या लावण्यशून्या, निश्छायानिष्पभा, ततः पदत्रयस्थ कर्मधारयः, 'गयसिरीय'त्ति निःशोभा 'पसिदिलभूसणपडतखुन्नियसंचुन्नियधवलवलय
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[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३८४]
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पभट्टउत्तरिया' प्रशिथिलानि भूषणानि दुर्बलत्वाद्यस्याः सा तथा पतन्ति-कृशीभूतबाहुत्याद्विगलन्ति. 'खुन्निय'त्ति भूमिपतनात् प्रदेशान्तरेषु नमितानि संचूर्णितानि च-भग्नानि कानिचिद्भवलवलयानि-तथाविधकटकानि यस्याः सा तथा, | प्रभृष्टं व्याकुलस्वादुत्तरीयं-वसनविशेषो यस्याः सा तथा, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः, 'भुच्छावसणट्टचयगरुइ'त्ति ४ मूर्छावशान्नष्टे चेतसि गु/-अलघुशरीरा या सा तथा 'सुकुमालविकिन्नकेसहत्यत्ति सुकुमारः-स्वरूपेण विकीर्णोK|| व्याकुलचित्ततया के शहस्तो-धग्मिल्हो यस्याः सा तथा सुकुमाला वा विकीणोंः केशा हस्ती च यस्याः सा तथा 'परसु
| नियत्तव चंपगलय'त्ति परशुच्छिन्नेव चम्पकलता 'निश्चत्तमहे व इंदलहित्ति निवृत्तोत्सवेवेन्द्रयष्टिः 'विमुकसंधिसाधण'त्ति श्लथीकृतसन्धिवम्धनाससंभमोयत्तियाए तुरियं कंचणभिंगारमुहविणिग्गयसीयलजलविमलधारपरिसिं-| |चमाणनिववियगायलहित्ति ससम्भ्रमं व्याकुलचित्ततया अपवर्त्तयति-क्षिपति या सा तथा तया ससम्भ्रमापवर्ति
कया चेव्येति गम्यते त्वरितं-शीनं काञ्चनभृङ्गारमुखविनिर्गता या शीतजलविमलधारा तया परिषिच्यमाना निर्धापिता| स्वस्थीकृता गात्रयष्टिर्यस्याः सा तथा, अथवा ससम्भ्रमापवर्तितया-ससम्भ्रमक्षिप्तया काञ्चनभृङ्गारमुखविनिर्गतशीतलालजलविमलधारयेत्येवं व्याख्येयं, लुप्ततृतीयैकवचनदर्शनात् , 'उक्खेवगतालिपंटवीपणगजणियवाएणं ति उत्क्षेपको
वंशदलादिमयो मुष्टिमाह्यदण्डमध्यभागः तालवृन्त-तालाभिधानवृक्षपत्रवृन्तं तत्पत्रच्छोट इत्यर्थः तदाकारं वा धर्ममयं वीजनकं तु-वंशादिमयमेवान्तर्माह्यदण्डं एतैर्जनितो यो वातः स तथा तेन 'सफुसिएणं'सोदकविन्दुना 'रोय-5 माणी अश्रुविमोचनात् 'कंदमाणी' महाध्वनिकरणात् 'सोयमाणी' मनसा शोचनात् 'विलवमाणी' आर्तवचनकर
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[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३८४]
व्याख्या-13णात् ॥ 'इडे'इत्यादि पूर्ववत् 'थेजेत्ति स्थैर्य गुणयोगारस्थैर्यः 'वेसासिए'त्ति विश्वासस्थानं 'संमए'त्ति संमतस्तस्कृतका- ९ शतके प्रज्ञप्तिः हर्याणां संमतत्वात् 'बहुमए'त्ति बहुमतः-बहुप्वपि कार्येषुबहु वा-अनल्पतयाऽस्तोकतया मतो बहुमतः 'अणुमए'त्ति कार्य
उद्देशः ३३ अभयदेवीव्याघातस्य पश्चादपि मतोऽनुमतः 'भंडकरण्डगसमाणे भाण्ड-आभरणं करण्डकः-तद्भाजन तत्समानस्तस्यादयत्वात् ||
दीक्षायै अया वृत्तिः 'रयणे'त्ति रतं मनुष्यजाताचुत्कृष्टत्वात् रजनो वा रञ्जक इत्यर्थः 'रयणभूए'त्ति चिन्तारनादिविकल्पः 'जीविऊस-15
सू३८४ ॥४६८॥
विए'त्ति जीवितमुत्सूते-प्रसूत इति जीवितोत्सवः स एव जीवितोत्सविक जीवितविषये वा उत्सवो-महः स इव यः स टू | जीवितोत्सविकः जीवितोच्छासिक इति पाठान्तरं 'हिययाणंदिजणणे' मनःसमृद्धिकारकः 'उंबरेत्यादि, उदुम्बरपुष्पं ह्यलभ्यं भवत्यतस्तेनोपमान 'सवणयाए'त्ति श्रवणतायै श्रोतुमित्यर्थः 'किमंग पुण'त्ति किं पुनः अंगेत्यामन्त्रणे 'अच्छा-| हि ताव जाया ! जाव ताव अम्हे जीवामोत्ति, इत्यत्राऽऽस्व ताबद हे ता! यावद्वयं जीवाम इत्यैतावतैव विवक्षित-[2] सिद्धी यत्पुनस्तावच्छब्दस्योच्चारणं तद्भाषामात्रमेवेति 'वहियकुलवंसतंतुकज्जम्मि निरयवक्खे'त्ति 'वडिय'त्ति सप्तम्ये-II कवचनलोपदर्शनाद्वर्द्धिते-पुत्रपौत्रादिभिर्वद्धिमुपनीते कुल रूपो वंशो न वेणुरूपः कुलवंशः-सन्तानः स एव तन्तुर्दीघ-12 | स्वसाधम्योत् कुल वंशतन्तुः स एव कार्य-कृत्यं कुलवंशतन्तुकार्य तत्र, अथवा वर्द्धितशब्दः कर्मधारयेण सम्बन्धनीयस्तत्र सति 'निरवका' निरपेक्षः सन् सकलप्रयोजनानाम् ॥तहावि गंतति तथैव नान्यथेत्यर्थः यदुक्तं 'अम्हेहिं ॥४६८॥ | कालगएहिं पवइहिसि तदाश्रित्यासावाह-एवं खलु'इत्यादि, एवं वक्ष्यमाणेन न्यायेन 'अणेगजाइजरामरणरोग-| सारीरमाणसए कामदुक्खवेयणवसणसओवद्दवाभिभूए'त्ति अनेकानि यानि जातिजरामरणरोगरूपाणि शारी
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[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः ]
शतक [९], वर्ग [ - ], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [३३], मूलं [ ३८४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
राणि मानसिकानि च प्रकामं अत्यर्थं दुःखानि तानि तथा तेषां यद्वेदनं, व्यसनानां च चौर्यद्यूतादीनां यानि शतानि | उपद्रवाश्च - राजचौर्यादिकृतास्तैरभिभूतो यः स तथा अत एव 'अधुवे 'त्ति न ध्रुवः- सूर्योदयवन्न प्रतिनियतकालेऽवश्यम्भावी 'अणितिए'त्ति इतिशब्दो नियतरूपोपदर्शनपरः ततश्च न विद्यत इति यत्रासावनितिकः- अविद्यमाननियतस्वरूप इत्यर्थः, ईश्वरादेरपि दारिद्र्यादिभावात्, 'असासए'ति क्षणनश्वरत्वात्, अशाश्वतत्वमेवोपमानैर्दर्शयन्नाह - 'संझे'त्यादि, किमुक्तं भवति ? इत्याह- 'अणिच्चे' त्ति अथवा प्राग् जीवितापेक्षयाऽनित्यत्वमुक्तमथ शरीरस्वरूपापेक्षया तदाह'अणिचे' 'सटणपडणविद्धंसणधम्मे' त्ति शटनं कुष्ठादिनाऽङ्गुल्यादेः पतनं बाह्लादेः खङ्गच्छेदादिना विध्वंसनं-क्षयः एत एवं धर्मा यस्य स तथा 'पुद्धिं वि'त्ति विवक्षितकालात्पूर्वे वा 'पच्छा वित्ति विवक्षितकालात्पश्चाद्वा 'अवस्सविप्पजहिय'त्ति अवश्यं 'विप्रजहातव्यः' त्याज्यः 'से केस णं जाणइति अथ कोऽसौ जानात्यस्माकं, न कोऽपीत्यर्थः, 'के | पुष्टिं गमणयाए ति कः पूर्व पित्रोः पुत्रस्य वाऽन्यतोगमनाय परलोके उत्सहते कः पश्चाद्गमनाय तत्रैवोत्सहते, कः पूर्व को वा पश्चान्त्रियत इत्यर्थः ॥ 'पविसिद्धरूवं 'ति प्रविशिष्टरूपं 'लक्खणवंजणगुणोववेयं' लक्षणम् 'अस्थिष्वर्थः सुखं मांसे, त्वचि भोगाः स्त्रियोऽक्षिषु । गतौ यानं स्वरे चाज्ञा, सर्व सत्त्वे प्रतिष्ठितम् ॥ १ ॥" इत्यादि, व्यञ्जनं-मपतिलकादिकं तयोर्यो गुणः-प्रशस्तत्वं तेनोपपेतं सङ्गतं यत्तत्तथा 'उत्तमबलबीरियसत्तजुत्तं' उत्तमैर्बलवीर्यसत्स्वैर्युक्तं यत्तत्तथा, तत्र बलं शारीरः प्राणो वीर्य मानसोऽवष्टम्भः सत्त्वं चित्तविशेष एव यदाह - " सत्त्वमवैक्लव्य कर मध्यवसानकरं च अथवा उत्तमयोर्बलवीर्ययोर्यत्सत्यं सत्ता तेन युक्तं यत्तत्तथा 'ससोहग्गगुणसमूसियं ति ससौभाग्यं गुणसमुच्छ्रितं
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[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति :]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
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व्याख्या ४ चेत्यर्थः 'अभिजायमहक्खमंति अभिजातं-कुलीनं महती क्षमा यत्र तत्तथा, ततः कर्मधारयः, अथवाऽभिजातानां शतके
प्रज्ञप्तिः शामध्ये महत्-पूज्यं क्षम-समर्थ च यत्तत्तथा, 'निरुवहयउदत्तलठ्ठपंचिंदियपटुंति निरुपहतानि-अविद्यमानवाताद्युपघा- उद्देशः ३३ अभयदेवी- तानि उदात्तानि-उत्तमवर्णादिगुणानि अत एव लष्टानि-मनोहराणि पञ्चापीन्द्रियाणि पटूनि च-स्वविषयग्रहणदक्षाणि यत्र दीक्षाय अया वृत्तिः || तत्तथा 'विविहवाहिसयसंनिकेयंति इह संनिकेतं-स्थानम् 'अट्ठियकड्डुट्टिय'ति अस्थिकान्येव काठानि काठि-||3||
नुमतिः
* || न्यसाधात्तेभ्यो यदुस्थितं तत्तथा 'छिराण्हारुजालओणद्धसंपिणद्धंति शिरा-नाध्यः 'हार'त्ति स्नायवस्तासा
सू ३८४ ॥४६९॥
यज्जालं-समूहस्तेनोपनद्धं संपिनद्धं-अत्यर्थं वेष्टितं यत्तत्तथा 'असुइसंकिलि8'ति अशुचिना-अमेध्येन सकिष्ट-दुष्टं यत्ततथा 'अणिहवियसपकालसंठप्पयं'ति अनिष्ठापिता-असमापिता सर्वकाल-सदा संस्थाप्यता-तत्कृत्यकरण यस्य स तथा 'जराकुणिमजज्जरधरं व' जराकुणपश्च-जीर्णताप्रधानशबो जर्जरगृहं च-जीर्णगेहं समाहारद्वन्द्वाजराकुणपजर्जरगृहं,
तदेवं किम् ? इत्याह-'सडणे'त्यादि । 'विपुले'त्यादि, विपुल कुलाश्च ता बालिकाश्चेति विग्रहः कलाकुशलाश्च ताः ॐ सर्वकाललालिताश्चेति कलाकुशलसर्वकाललालिताः ताश्च ताः सुखोचिताश्चेति विग्रहः, मार्दवगुणयुक्तो निपुणो यो विन-15||
योपचारस्तत्र पण्डितविचक्षणा-अत्यन्तविशारदा यास्तास्तथा ततः कर्मधारयः, 'मंजुलमियमहुरभणियविहसिय| विप्पेक्खियगइ विलासविट्ठियविसारयाओं मञ्जलं-कोमलं शब्दतः मितं-परिमितं मधुरं-अकठोरमर्थतो यन-|| माणितं तत्तथा तच विहसितं च विप्रेक्षितं च गतिश्च विलासश्च-नेत्रविकारो गतिविलासो वा-विलसन्ती गतिः विस्थित|| Xच-विशिष्टा स्थितिरिति द्वन्द्वः एतेषु विशारदा यास्तास्तथा, 'अविकलकुलसीलसालिणीओ' अविकलकुला:-ऋद्धि
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[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः]
शतक [९], वर्ग [ - ], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [३३], मूलं [ ३८४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
परिपूर्णकुलाः शीलशालिन्यश्च - शीलशोभिन्य इति विग्रहः, 'विशुद्धकुलवंससंताणतंतुवडणपगन्भवय भाविणीओ' विशुद्धकुलवंश एवं सन्तान तन्तुः - विस्तारितन्तुस्तद्वर्द्धनेन - पुत्रोत्पादनद्वारेण तद्वृद्धी प्रगस्भं - समर्थ यद्वयो - यौवनं तस्य भावः- सत्ता विद्यते यासां तास्तथा 'विसुद्ध कुलवंससंताणतंतुवद्धणपगःभुन्भवपभाविणीओ ति पाठान्तरं तत्र च विशुद्धकुलवंश सन्तान तन्तुवर्द्धना ये प्रगल्भाः प्रकृष्टगर्भास्तेषां य उद्भवः सम्भूतिस्तत्र यः प्रभावः - सामर्थ्य स यासा मस्ति तास्तथा 'मणाणुकूलहियइच्छियाओ' मनोऽनुकूलाश्च ता हृदयेनेप्सिताश्चेति कर्म्मधारयः 'अह तुज्झ गुणवलभाओ'त्ति गुणैर्वल्लभा यास्तास्तथा 'विसयविगयवोच्छिन्नको हल्ले' ति विषयेषु शब्दादिषु विगतव्यवच्छिन्नम् - अत्यन्तक्षीणं कौतूहलं यस्य स तथा ॥ 'माणुस्सगा कामभोग'त्ति, इह कामभोगग्रहणेन तदाधारभूतानि स्त्रीपुरुषशरीराव्यभिप्रेतानि, 'उच्चारे'त्यादि, उच्चारादिभ्यः समुद्भवो येषां ते तथा 'अमणुन्नदुरूवमुत्तप्यपुरीसपुन्ना' अमनोज्ञाश्च ते दुरूपमूत्रेण पूतिकपुरीषेण च पूर्णाश्चेति विग्रहः, इह च दूरूपं विरूपं पूतिकं च कुथितं, 'मयगंधुस्सासअसु भनिस्सासउयणगा' मृतस्यैव गन्धो यस्य स मृतगन्धिः स चासावुच्छ्रासश्च मृतगन्ध्युच्छ्रासस्तेनाशुभनिःश्वासेन चोद्वेगजनकाउद्वेगकारिणो जनस्य ये ते तथा, उच्छ्रासश्च मुखादिना वायुग्रहणं निःश्वासस्तु तन्निर्गमः 'बीभच्छ'त्ति जुगुप्सोत्पादकाः 'हुस्सग'ति लघुस्वकाः -लघुस्वभावाः 'कलमलाहिवास दुक्ख बहुजणसाहारणा' कलमलस्य - शरीरसत्का| शुभद्रव्यविशेषस्याधिवासेन - अवस्थानेन दुःखा- दुःखरूपा ये ते तथा तथा बहुजनानां साधारणा भोग्यत्वेन ये ते तथा, ततः कर्मधारयः, 'परिकिलेस किच्छदुक्ख सज्झा' परिक्लेशेन - महामानसायासेन कृच्छ्रदुःखेन च गाढशरीरायासेन ये
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[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
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साध्यन्ते--वशीक्रियन्ते येते तथा 'कडुगफलविवागा' विपाका पाकोऽपि स्यादतो विशेष्यते-फलरूपो विपाकः फलवि-८९ शतके व्याख्याप्रज्ञप्तिः पाकः कटुकः फल विपाको येषां ते तथा 'चुडलिव'त्ति प्रदीप्ततृणपूलिकेव 'अमुच्चमाणे'त्ति इह प्रथमाबहुवचनलोपो उद्देशः३३ अभयदेवी- दृश्यः ॥'इमे य ते जाया ! अज्जयपज्जयपिउपज्जयागए' इदं च तव पुत्र! आर्य:-पितामहः प्रार्यका-पितुः पिता- दीक्षाय अया वृत्तिः महः पितृप्रार्यकः-पितुः प्रपितामहस्तेभ्यः सकाशादागतं यत्तत्तथा, अथवाऽऽर्यकप्रार्यकपितॄणां यः पर्ययः-पर्यायः परि- नुमतिः पाटिरित्यर्थः तेनागतं यत्तत्तथा 'विपुलधणकणग' इह यावत्करणादिदं दृश्य-रयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पवालरत
|सू ३८४ ॥४७॥1
| रयणमाइए'त्ति तत्र 'विपुलधणेति प्रचुरं गवादि 'कणगत्ति धान्यं 'रयण'सि कर्केतनादीनि 'मणि'सि चन्द्रका
न्ताद्याः मौक्तिकानि शाश्च प्रतीताः 'सिलप्पवाल' ति विद्रुमाणि 'रत्तरयण'त्ति पद्मरागास्ताम्यादिर्यख तत्तथा WI'संतसारसायएज्जेत्ति 'संत'त्ति विद्यमानं स्वायत्तमित्यर्थः 'सार'त्ति प्रधान 'सावएजति स्वापतेयं द्रव्यं, ततःDI
कर्मधारयः, किम्भूतं तत् । इत्याह-'अलाहित्ति अलं-पर्याप्तं भवति 'या'त्ति यत्परिमाणम् 'आसत्तमाओ कुल|| साओ'त्ति आसप्तमात् कुलवंश्यात्-कुलल क्षणवंशे भवः कुलवंश्यस्तस्मात् , सप्तमं पुरुष यावदित्यर्थः 'पकामं दान्ति k||अत्यर्थ दीनादिभ्यो दातुम् , एवं भोतुं-स्वयं भोगेन 'परिभाए'ति परिभाजयितुं दायादादीनां, प्रकामदानादिए। मायावत् स्वापतेयमलं तावदस्तीति हृदयम् 'अग्गिसाहिए'इत्यादि, आयादेः साधारणमित्यर्थः 'दायसाहिए'ति दायाहादा-पुत्रादयः, एतदेव द्रव्यस्यातिपारवश्यप्रतिपादनार्थ पर्यायान्तरेणाह-'अग्गिसामने इत्यादि, 'विसयाणुलो
माहिति विषयाणां-शब्दादीनामनुलोमाः-तेषु प्रवृत्तिजनकत्वेनानुकूला विषयानुलोमास्ताभिः 'भाषवणादि पति ||
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[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
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आख्यापनाभिः-सामान्यतो भणनेः 'पन्नवणाहि यत्ति प्रज्ञापनाभिश्च-विशेषकथनः 'सन्नवणाहि य'त्ति सज्ञापनाभिश्च-सम्बोधनाभिः 'विनवणाहि य'त्ति विज्ञापनाभिश्च-विज्ञप्तिकाभिः सप्रणयप्रार्थनः, चकाराः समुच्चयार्थाः, 'आघवित्तए वत्ति आख्यातुम् , एवमन्यान्यपि पूर्वपदेषु क्रमेणोत्तराणि योजनीयानि, 'विसयपडिकूलाहिति विषयाणां प्रति-15 कूला:-तत्परिभोगनिषेधकत्वेन प्रतिलोमा यास्तास्तथा ताभिः 'संजम भउचेयणकरीहिंति संयमानयं-भीति उद्वेजन च-चलनं कुर्वन्तीत्येवंशीला यास्तास्तथा ताभिः । 'सचे'त्ति सन्यो हितत्वात् 'अणुत्तरे'त्ति अविद्यमानप्रधानतरम् , अन्यदपि तथाविधं भविष्यतीत्याह-'केवल'त्ति केवलं-अद्वितीयं 'जहावस्सएत्ति एवं चेदं तत्र सूत्र-पडिपुग्ने । अपवर्गप्रापकगुणभृतं 'नेयाउए' नायकं मोक्षगमकमित्यर्थः नैयायिक वा न्यायानपेतत्वात् 'संसुद्धे'सामस्त्येन शुद्धं || || 'सल्लगत्तणे' मायादिशल्यकर्तनं 'सिद्धिमग्गे हितार्थप्राप्युपायः 'मुत्तिमग्गे' अहितविच्युतेरुपायः 'निजाणमग्गे
सिद्धिक्षेत्रगमनोपायः, 'निबाणमग्गे' सकल कर्मविरहजसुखोपायः 'अवितहे' कालान्तरेऽप्यनपगततथाविधाभिमतप्रका-15 | रम् 'अविसंधि' प्रवाहणाव्यवच्छिन्नं 'सबदुक्खप्पहीणमग्गे' सकलाशर्मक्षयोपायः एत्थं ठिया जीवा सिझंति बुजतंति मुच्चंति परिनिवाति'त्ति 'अहीवेगंतदिहीए' अहेरिव एकोऽन्तो-निश्चयो यस्याः सा (एकान्ता सा) दृष्टि:-बुद्धिर्यस्मिन् । निर्मन्धवचने चारित्रपालनं प्रति तदेकान्तदृष्टिकम् , अहिपक्षे आमिषग्रहणकतानतालक्षणा एकान्ता-एकनिश्चया | दृष्टिः-दृग् यस्य स एकान्तदृष्टिकः 'खुरो इच एगंतधाराए'त्ति एकान्ता-उत्सर्गलक्षणैकविभागाश्रया धारेव धारा-क्रिया दि यत्र तत्तथा, 'लोहमयेत्यादि, लोहमया यवा इव चर्वयितव्याः, नैर्ग्रन्थं प्रवचनं दुष्करमिति हृदयं, 'वालुयेत्यादि,
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[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति :]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३८४]
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व्याख्या- वालुकाकवल इव निरास्वादं वैषयिकसुखास्वादनापेक्षया, प्रवचनमिति, 'गंगे'त्यादि, गङ्गा वा-शैव महानदी प्रति- ९ शतके
प्रज्ञप्तिः श्रोतसा गमनं प्रतिश्रोतोगमनं तद्भावस्तत्ता तया, प्रतिश्रोतोगमनेन गनेव दुस्तरं प्रवचन मिति भावः, एवं समुद्रोपमं | उद्देशः३३ . अभयदेवी-14 प्रवचनमपि, 'तिक्खं कमिय'ति यदेतत् प्रवचनं तत्तीक्ष्णं खदादि ऋमितव्यं, यथा हि खगादि ऋमितुमशक्यमेव-
दीक्षायै अ
दाक्षा या वृतिः२/
४ नुमतिः M मशक्यं प्रवचनमनुपालयितुमितिभावः 'गरुयं लंबेयधति 'गुरुकं' महाशिलादिकं 'लम्बयितव्यम्' अवलम्बनीय :
सू ३८४ ॥४७१॥ रज्वादिनिबद्धं हस्तादिना धरणीयं प्रवचनं, गुरुकलम्बनमिव दुष्करं तदिति भावः, 'असी'त्यादि, असेर्धारा यस्मिन्
व्रते आक्रमणीयतया तदसिधाराक 'वत' नियमः 'चरितव्यम् आसेवितव्यं, यदेतत् प्रवचनानुपालनं तद्बहुदुष्करमित्यर्थः । अथ कस्मादेतस्य दुष्करत्वम् !, अत्रोच्यते 'नो'इत्यादि, आधार्मिकमिति, एतद्वा 'अज्झोयरएइ वा' अध्यवपूरक इति वा, तलक्षणं चेदं-स्वार्थ मूलाग्रहणे कृते साध्वाद्यर्थमधिकतरकणक्षेपणमिति 'कतारभत्तेइ बत्ति कान्तारंअरण्यं तत्र यभिक्षुकार्थं संस्मियते तत्कान्तारभक्तम् , एवमन्यान्यपि, 'भोत्तए वत्ति भोक्तुं 'पायए 'त्ति पातुं वा नालं' न समर्थः शीतायधिसोदमिति योगः, इह च क्वचित्प्राकृतत्वेन द्वितीयाथे प्रथमा दृश्या, 'वाल'त्ति ब्यालान्श्वापदभुजगलक्षणान् 'रोगायके'त्ति इह रोगाः-कुष्ठादयः आतङ्का-आशुघातिनः शूलादयः 'कीवाणं'ति मन्दसं| हननानां 'कायराण'ति चित्तावष्टम्भवर्जितानाम् अत एव 'कापुरिसाण'ति, पूर्वोक्तमेवार्थमन्वयव्यतिरेकाभ्यां पुन-1 राह-'दुरणु'इत्यादि, 'दुरनुपरं' दुःखासेव्यं प्रवचनमिति प्रकृतं धीरस्स'त्ति साहसिकस्य तस्यापि 'निश्चितस्य' कर्त-18||
अनुक्रम [४६४]
॥४७१॥
जमाली-चरित्रं
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[३८४]
दीप
अनुक्रम [४६४]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः ]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर् शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [ ३८५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
जमाली चरित्रं
व्यमेवेदमिति कृतनिश्चयस्य तस्यापि 'व्यवसितस्य' उपायप्रवृत्तस्य 'एत्थं'ति प्रवचने ठोके वा, दुष्करत्वं च ज्ञानो|पदेशापेक्षयाऽपि स्यादत आह-'करणतया' करणेन संयमस्य अनुष्ठानेनेत्यर्थः ॥
तणं तस्स जमालिस खत्तियकुमारस्स पिया कोटुंबियपुरिसे सहावे सहावेत्ता एवं वयासी- विप्पा| मेच भो देवाणुप्पिया ! खत्तियकुंडग्गामं नगरं सम्भितर बाहिरियं आसियसंमजिओवलिप्तं जहा उपचाइए | जाव पञ्चपिर्णति, तए णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया दोचंपि कोटुंबियपुरिसे सहावेइ सहाव| इन्ता एवं क्यासी- खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! जमालिस्स खत्तियकुमारस्स महत्थं महग्धं महरिहं विपुलं निक्खमणाभिसेयं उबवेह, तए णं ते कोटुंबियपुरिसा तहेब जाव पचप्पियंति, तए णं तं जमालि खत्तियकुमारं अम्मापियरो सीहासणवरंसि पुरत्याभिमुहं निसीयावंति निसीयावेत्ता अनुसरणं सोवन्नियाणं कलसाणं एवं जहा रायप्पसेणइज्जे जाव असणं भोमेजाणं कलसाणं सविट्टीए जाव रवेणं महया महया | निक्मणाभिसेगेणं अभिसिंचइ निक्खमणाभिसेगेणं अभिसिंचित्ता करयल जाब जएणं विजएणं वद्धावेन्ति, जएणं विजएणं वद्धावेत्ता एवं वयासी भण जाया । किं देमो ! किं पयच्छामो ? किणा वा ते अट्ठो ?, तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मापियरो एवं वयासी- इच्छामि णं अम्म ! ताओ! कुत्तियावणाओ स्यहरणं च पडिग्गहं च आणि कासवर्ग च सदाविषं, तए णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया कोडुंबि यपुरिसे सहावे सहावेत्ता एवं वयासी खिप्पामेव भो देवाणुप्पिए । सिरिघराओ तिन्नि सयसहस्साई गहाय
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति :]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०५], अंग सूत्र - [०५] "भगवती"मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३८५]
व्याख्या| दोहि सयसहस्सेहिं कुत्तियावणाओ रयहरणं च पडिग्गहंच आणेह सयसहस्सेणं कासवगं च सदावेह, तए
९शतके प्रज्ञप्तिःणं ते कोडंबियपुरिसा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिउणा एवं वुत्ता समाणा हतुट्ठा करयल जाव पडि-शा उद्देशा। अभयदेवी-लसुणेत्ता खिप्पामेव सिरिघराओ तिन्नि सयसहस्साई तहेव जाव कासवगं सद्दावेति । तए णं से कासवए दीक्षायै अया वृत्तिः२ जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिउणा कोडुंबियपुरिसेहिं सद्दाविए समाणे हढे तुढे पहाए कयबलिकम्मे जाव नुमतिः
सू२८४ ॥४७२॥
||सरीरे जेणेव जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया तेणेव उवागच्छद तेणेव उवागच्छित्ता करयल० जमाहालिस्स खत्तियकुमारस्स पिपरं जएणं विजएणं बद्धावे जएणं विजएणं बद्धावित्ता एवं बयासी-संदिसं-1
तुणं देवाणुप्पिया! मए करणिजं, तए णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया तं कासवर्ग एवं वयासी18 तुम देवाणुप्पिया! जमालिस्स खत्तियकुमारस्स परेणं जत्तेणं चउरंगुलबजे निक्खमणपयोगे अग्गकेसे
पडिकप्पेहि, तए णं से कासवे जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिउणा एवं बुत्ते समाणे हहतुढे करपल जाव एवं | सामी! तहत्ताणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइ २त्ता सुरभिणा गंधोदएणं हत्थपादे पक्खालेइ सुरभिणा २
सुद्धाए अट्ठपडलाए पोत्तीए मुहं बंधह मुहं पंधित्ता जमालिस्स खत्तियकुमारस्स परेणं जत्तेणं चउरंगुलबजे द निक्खमणपयोगे अग्गकेसे कप्पह । तए णं सा जमालस्स खत्तियकुमारस्स माया हंसलक्खणेणं पडसा
४७२ डएणं अग्गकेसे पडिच्छह अग्गकेसे पडिच्छित्ता सुरभिणा गंधोदएणं पक्खालेह सुरभिणा गंधोदएणं पक्खालेत्ता अम्गेहिं वरेहिं गंधेहिं मल्लेहिं अञ्चेति २ सुद्धचत्थेणं बंधेइ सुद्धवत्धेणं बंधित्ता रयणकरंडमंसि
EX-15
दीप अनुक्रम [४६५]
+
...अत्र मूल-संपादने सूत्र-क्रमांकने मुद्रण-दोष: संभाव्यते सू.३८५ स्थाने सू,३८५ लिखितं
जमाली-चरित्रं
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति :]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३८५]
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पक्खिवति २ हारवारिधारासिंदुवारछिन्नमुत्तावलिप्पगासाइं सुयवियोगदूसहाई अंसूई विणिम्मुयमाणी PR एवं वयासी-एस णं अम्हं जमालिस्स खत्तियकुमारस्स बहूसु तिहीसु य पवणीसु य उस्सवेसु य जन्नेसु ।
य छणेसु य अपच्छिमे दरिसणे भविस्सतीतिक ओसीसगमूले ठवेति, तए णं तस्स जमालिस्स खत्तिय-18 कुमारस्स अम्मापियरो दोचंपि उत्तरावकमणं सीहासणं रयाति २ दोचपि जमालिस्स खत्तियकुमारस्स सीयापीयएहिं कलसेहिं नाण्हेंति सीयापीयएहिं कलसेहिं नाण्हेत्ता पम्हसुकुमालाए सुरभिए गंधकासाइए गायाईलूहेंति सुरभिए गंधकासाइए गायाई चूहेत्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाई अणुलिंपन्ति गायाई अणुलिंपित्ता नासानिस्सासवायवोझ चक्खुहरं वन्नफरिसजुत्तं हयलालापेलवातिरेगं धवलं कणगखचिर्पतकम्मं महरिहं हंसलक्खणपडसाडगं परिहिंति २हारं पिणति २ अद्धहारं पिणद्वेति २एवं| जहा सूरियाभस्स अलंकारो तहेव जाव चित्तं रयणसंकटुकडं मउड पिणद्धति, किं बहुणा !, गंधिमवेढिम-18 पूरिमसंघातिमेणं घउपिहेणं मल्लेणं कप्परुक्खगं पिव अलंकियविभूसियं करेंति । तए णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया कोडंबियपुरिसे सद्दावेद सहावेत्ता एवं बयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! अणेगखंभसयसन्निविट्ठ लीलट्ठियसालभंजियागं जहा रायप्पसेणइज्जे विमाणवाओ जाव मणिरयणघंटिया-3
जालपरिक्खित्तं पुरिससहस्सवाहणीयं सीयं उचढवेह उववेत्ता मम एयमाणत्तियं पचप्पिणह, तए पण ते कोटुंबियपुरिसा जाव पञ्चप्पिणति । तए णं से जमाली खत्तियकुमारे केसालंकारेणं वत्थालं
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[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति :]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३८५]
दीप अनुक्रम [४६५]
व्याख्या- कारेणं मल्लालंकारेणं आभरणालंकारेणं चउबिहेणं अलंकारेणं अलंकारिए समाणे पडिपुन्नालंकारे सीहास- ९ शतके प्रज्ञप्तिः ||णाओ अन्भुवइ सीहासणाओ अम्भुटेता सीयं अणुप्पदाहिणीकरेमाणे सीयं दुरूहद २ सीहासणवरंसि पुर- का उद्देशः ३३ अभयदेवी- स्थाभिमुहे सन्निसणे । तए णं तस्स जमा लिस्स खत्तियकुमारस्स माया व्हाया कयवलि जाव सरीरा दीक्षायै अया वृत्तिः२४
हंसलक्षणं पडसाडगं गहाय सीयं अणुप्पदाहिणीकरमाणी सीयं दुरूहद सीयं दुरूहित्ता जमालिस्स खत्ति- नुमतिः ॥४७॥ यकुमारस्स दाहिणे पासे भद्दासणवरंसि संनिसन्ना, तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स अम्मघाई सू ३८४
&ण्हाया जाव सरीरा रयहरणं च पडिग्गहं च गहाय सीयं अणुप्पदाहिणी करेमाणी सीयं दुरूहद सीयं दुरू
हित्ता जमालिस्स खत्तियकुमारस्स बामे पासे भद्दासणवरंसि संनिसन्ना । तए णं तस्स जमालिस्स खत्ति| यकुमारस्स पिट्टओ एगा वरतरुणी सिंगारागारचारवेसा संगयगय जावं रूचजोबणविलासकलिया सुंदरहै थण हिमरययकुमुद कुंदेंदुप्पगासं सकोरेंटमल्लदामं धवलं आयवतंगहाय सलीलं उवरि धारेमाणी२चिट्ठति,
तए णं तस्स जमालिस्स उभओपासिं दुवे वरतरुणीओ सिंगारागारचारजाबकलियाओ नाणामणिकणगरयणविमलमहरिहतवणिज्जुज्जलविचित्तचित्तदंडाओ चिल्लियाओ संखककुंदेंददगरयअमयमहियफेणपुनपुं-| जसंनिकासाओ धवलाओ चामराओ गहाय सलील वीयमाणीओ बीयमाणीओ चिट्ठति तए णं तस्स
॥४७३॥ जमालिस्स खत्तियकुमारस्स उत्तरपुरच्छिमेणं एगा वरतरुणी सिंगारागारजाव कलिया सेतरययामपविमलसलिलपुषणं मत्तगयमहामुहा कितिसमाणं भिंगारं गहाय चिट्ठइ । तए णं तस्स जमालिस्स खत्तिय
KARE
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३८५]
SCIE%
कुमारस्स दाहिणपुरकिछमेणं एगा वरतरुणी सिंगारागारजाव कलियाचित्तकणगर्दड तालचेंट गहाय चिट्ठति,8 तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया कोटुंबियपुरिसे सहावेइ को०२त्सा एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! सरिसयं सरित्तयं सरिवयं सरिसलावन्नरूवजोवणगुणोववेयं एगाभरणं वसणगहि| यनिजोयं को९विषवरतरुणसहस्सं सदाचेह, तए णं ते कोटुंबियपुरिसा जाव पडिसुणेत्ता खिप्पामेव सरि-1 सयं सरित्तयं जाव सहावेंति, तए णं ते कोटुंबियपुरिसा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिउणा कोटुंबियपुरिसेहिं सद्दाविया समाणा हद्वतु पहाया कयषलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता एगाभरणवसणगहि
यनिज्जोया जेणेव जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया तेणेव उवागच्छइते०२त्ता करयलजाव बद्धावेत्ता एवं & वयासी-संदिसंतुणं देवाणुप्पिया! जे अम्हेहिं करणिज, तए णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया ट्र तं को९वियचरतरुणसहस्संपि एवं वदासी-तुझे णं देवाणुप्पिया ! हाया कयवलिकम्मा जाव गहियनिजोगा जमालिरस खत्तियकुमारस्स सीयं परिवहह । तए ण ते कोडुंबियपुरिसा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स8 जाव पडिसुणेत्ता पहाया जाव गहियनिजोगा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स सीयं परिवहति । तए णं तस्स | जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पुरिससहस्सवाहिणी सीयं दुरूढस्स समाणस्स तप्पढमयाए इमे अट्ठट्टमंगलगा | पुरओ अहाणुपुवीए संपट्ठिया, तं०-सोत्थिय सिरिवच्छजाव दप्पणा, तदाणंतरं च णं पुन्नकलसभिंगारं जहा उववाइए जाव गगणतलमणुलिहंती पुरओ अहाणुपुबीए संपट्ठिया, एवं जहा उबवाइए तहेव भाणियई
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
सू ३८४
[३८५]
दीप अनुक्रम [४६५]
व्याख्या-15जाव आलोयं वा करेमाणा जप २ सई च पञ्जमाणा पुरओ अहाणुपुषीए संपट्ठिया। तदाणंतरं च णं वहये ||९ शतके प्रज्ञप्तिः उग्गा भोगा जहा उववाइए जाव महापुरिसवग्गुरपरिक्खित्ता जमालिस्स खत्तियस्स पुरओ य मग्गओ य उद्देशः ३३ अभयदेवी-पासओ य अहाणुपुबीए संपट्टिया। तए णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया पहाया करवलिकम्मा दीक्षाये अया वृत्तिः२|| जाव विभूसिए हत्यिखंधवरगए सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं सेषवरचामराहिं उदुषमाणे २ हय-181 ॥४७॥
गयरहपवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिबुडे महयाभडचडगर जाव परिक्खित्ते जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिट्ठओ २ अणुगच्छह । तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पुरओ महं आसा आसवरा उभओ पासिं णागा णागवरा पिट्टओ रहा रहसंगेल्ली । तए णं से जमाली खत्तियकुमारस्स अन्भुग्गभिंगारे परिग्गहियतालियंटे ऊसवियसेतत्ते पवीइयसेतचामरवालवीयणीए सबिड्डीए जाव णादि
तरवेणं । तयाणंतरं च णं बहवे लडिग्गाहा कुंतग्गाहा जाव पुत्थयगाहा जाव वीणगाहा, तयाणंतरं च गं ||3|| अट्ठसयं गयाणं अट्ठसयं तुरयाणं अट्ठसयं रहाणं तयाणतरंच ण लउडअसिकोतहस्थाणं बहूर्ण पायत्ता
णीणं पुरओ संपवियं, तयाणंतरं च णं बहवे राईसरतलवरजावसत्यवाहप्पभिइओ पुरओ संपविया जाच णादितरवेणं खत्तियकुंडग्गामं नगरं मज्झमजमेणं जेणेव माहणकुंडग्गामे नपरे जेणेव बहुसालए चेहए |
॥४७४॥ जेणेच समणे भगवं महावीरे तेणेथे पहारेत्य गमणाए । तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स खत्ति-15 यकुंडग्गामं नगरं मजझमझेणं निग्गच्छमाणस्स सिंघाडगतियच उकाजाव पहेसु यहवे अत्यत्थिया जहा उब-1
CACANCS
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[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३८५]
वाइए जाच अभिनंदता य अभिस्थुर्णता य एवं वयासी-जय जय गंदा धम्मेणं जय जय पांदा तवेणं जय जय गंदा ! भदंते अभग्गेहिं णाणदसणचरित्तमुत्तमहिं अजियाई जिणाहि इंदियाई जियं च पालेहि सम॥णधम्म जियविग्धोऽपि य वसाहितं देव ! सिद्धिमझे णिहणाहि य रागदोसमल्ले तवेण धितिधणियवद्धकच्छे | मद्दाहि अट्ठकम्मसत्तू झाणेणं उत्तमेणं सुक्केणं अप्पमत्तोहरा हि याराहणपड़ागं च धीर ! सेलोकरंगमझे पावय सावितिमिरमणुसरं केवलं च गाणं गच्छय मोक्खं परं पदं जिणवरोवदितुणं सिद्धिमग्गेणं अकडिलेणं हता|| |परीसहच अभिभविय गामकंटकोवसग्गाणं धम्मे ते अधिग्धमत्थुत्तिकट्ठ अभिनंदति य अभिथुणंति य । तए णं से जमाली खत्तियकुमारे नयणमालासहस्सेहिं पिच्छिजमाणे २ एवं जहा उववाइए कूणिओ जाव णिग्गच्छति निग्गच्छित्ता जेणेव माहणकुंडग्गामे नयरे जेणेव बहुसालए चेइए तेणेव उवागच्छद तेणेव |उवागच्छित्ता छत्तादीए तित्थगरातिसए पासइ पासित्ता पुरिससहस्सवाहिणी सीयं ठवेइ २ पुरिससहस्स-1 | वाहिणीओ सीयाओ पच्चोरुहइ, तए णं तं जमालिं खत्तियकुमारं अम्मापियरो पुरओ कार्ड जेणेव मासमणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छद तेणेव उवागचिछत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव
नमंसित्ता एवं बदासी-एवं खलु भंते ! जमाली खत्तियकुमारे अम्हं एगे पुत्ते इडे कंते जाव किमंग पुण
पासणयाए ? से जहानामए-उप्पलेइ वा पउमेइ वा जाव पउमसहस्सपत्तेइ वा पंके जाए जले संबुद्धे णोव|| लिप्पति पंकरणं णोवलिप्पा जलरएणं एवामेव जमालीवि खत्तियकुमारे कामेहिं जाए भोगेहि संवुहे।
दीप अनुक्रम [४६५]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति :]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [३८५]
व्याख्या- णोवलिप्पइ कामरएणं णोवलिप्पइ भोगरएणं णोवलिप्पइ मित्तणाइनियगसयणसंबंधिपरिजणेणं, एस णं ४
| ९ शतके प्रज्ञप्तिः | देवाणुपिया! संसारभउचिग्गे भीए जम्मणमरणणं देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अण
Nउद्देशः ३३ गारियं पचएइ, तं एयन्नं देवाणुप्पियाणं अम्हे भिक्खं दलयामो, पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया ! सीसभिक्खं,
दीक्षायै अया वृत्तिः तए णं सम०३ तं जमालिं खत्तियकुमार एवं वयासी-अहामुहं देवाणुप्पिया !मा पडिबंध। तए णं से जमाली
| नुमतिः
सू ३८५ ॥४७५॥ खत्तियकुमारे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हहतुट्टे समणं भगवं महावीर तिक्खुत्तो जाब दा
नमंसित्ता उत्तरपुरच्छिमं दिसीभार्ग अवकमा २ सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयइ, तते णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स माया हंसलक्खणेणं पडसाडएणं आभरणमल्लालंकारं परिच्छति पडिच्छित्ता हारवारिजाव विणिम्मुयमाणा वि०२ जमालिं खत्तियकुमारं एवं वयासी-घडियचं जाया जइयचं जाया ! परिकमियचं जाया। अस्सि च णं अढे णोपमायेतचंतिक जमालिस्स खत्तियकुमारस्स अम्मापियरो समणं भगवं महावीर वंदइणमंसह पंदित्ता मंसित्ता जामेव दिस पाउन्भया तामेव दिसि पडिगया।तए णं से जमाली | खत्तिए सयमेय पंचमुट्टियं लोयं करेति २ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छद तेणेव उवागच्चित्ता * एवं जहा उसभदत्तो तहेव पचाओ नवरं पंचहिं पुरिससएहिं सर्डि तहेव जाच सर्व सामाइयमाझ्याई ||
Pil॥४७॥ एकारस अंगाई अहिज्जह सामाइयमा० अहिजेत्ता बहहिं चउत्थछट्ठमजावमासद्धमासखमणेहिं विचित्तेहिं|| तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ॥ (सूत्रं ३८५)
XX
दीप अनुक्रम [४६५]
CACANCCROCARLOC459-
जमाली-चरित्रं
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३८५]
*584%-9-2-%80
'सम्भितरवाहिरिय'ति सहाभ्यन्तरेण बाहिरिकया च-बहिर्भागेन यत्तत्तथा 'आसियसम्मज्जिओवलितंति आसितमुदकेन संमार्जितं प्रमार्जनिकादिना उपलिप्तं च गोमयादिना यत्तत्तथा 'जहा उववाइए'त्ति एवं चैतत्तत्र-'सिंघाड-2 गतियचउक्कचच्चरचउम्मुहमहापहपहेसु आसित्तसित्तसुइयसंमट्टरस्थंतरावणवीहियं' आसिक्तानि-ईषत्सित्कानि * सिक्तानि च तदन्यान्यत एव शुचिकानि-पवित्राणि संमृष्टानि कचरापनयनेन रथ्यान्तराणि-रथ्यामध्यानि आपणवीहै थयश्च-हमार्गा यत्र तत्तथा 'मंचाइमंचकलियंणाणाविहरागभूसियझयपडागाइपडागमंडिय' नानाविधरागैरुच्छि
तैर्वजैः-चक्रसिंहादिलान्छनोपेतैः पताकाभिश्च-तदितराभिरतिपताकाभिश्च-पताकोपरिवर्तिनीभिर्मण्डितं यत्तत्तथा इत्यादि। |'महत्य'ति महाप्रयोजनं 'महग्छ'ति महामूल्यं 'महरिहंति महाई-महापूज्य महतां वा योग्यं 'निक्षमणाभिसेय'ति । | निष्क्रमणाभिषेकसामग्रीम् ‘एवं जहा रायप्पसेणइजेत्ति एवं चैतत्तत्र-'अहसएणं सुषन्नमयाणं कलसाणं अहसएणं रूप्पमयाणं कलसाणं अहसएणं मणिमयाणं कलसाणं असएणं सुवन्नरूप्पमयाणं कलसाणं अहसएणं सुवन्नमणिमयाणं कलसाणं अहसएणं रुप्पमणिमयाणं कलसाणं असएणं सुवन्नरुप्पमणिमयाणं कलसाणं अहसएणं 'भोमेजाणंति मृन्मयानां 'सधिहीए'त्ति सर्बा-समस्तछत्रादिराजचिह्नरूपया, यावत्करणादिदं दृश्य-'सबजुईए'सर्वद्युत्या-आभरणादिसम्बन्धिन्या | सर्वयुच्या वा-उचितेष्टवस्तुघटनालक्षणया 'सच्चबलेणं' सर्वसैन्येन 'सबसमुदएणं' पौरादिमीलनेन 'सबायरेणं' सोंचितकृत्य करणरूपेण 'सबविभूईए' सर्वसम्पदा 'सबविभूसाए' समस्तशोभया 'सबसंभमेणं' प्रमोदकृतीत्सुक्येन 'सबपुष्पगंधमल्लालंकारेणं सबतुडियसहसंनिनाएण' सर्वतूर्यशब्दानां मीलने यः सङ्गतो निनादो-महाघोषः स तथा
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4%4%A5%
जमाली-चरित्रं
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[३८५]
दीप
अनुक्रम [४६५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः]
शतक [९], वर्ग [ - ], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [३३], मूलं [ ३८५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २ ॥४७६॥
तेन, अल्पेष्वपि ऋद्ध्यादिषु सर्वशब्दप्रवृत्तिर्दृष्टेत्यत आह- 'महया इडीए महया जुईए महया वलेणं महया समुदरणं' 'महया वरतुडियजमगसमगप्पवाइएणं' यमकसमकं युगपदित्यर्थः 'संखपणवपटह मेरिझल्लरिखरमुहिहु हुकमुरयमुगदुदु हिनिग्घोसना इप'सि पणवो भाण्डपटहः भेरी - महती ढक्का महाकाहला वा शहरी अल्पोच्या महामुखा |चम्मवनद्धा खरमुखी - काहला मुरजो - महामर्द्दल: मृदङ्गो - मईलः दुन्दुभी-ढक्काविशेष एव ततः शङ्खादीनां निर्घोषो | महाप्रयलोत्पादितः शब्दो नादितं तु ध्वनिमात्रं एतद्वय लक्षणो यो रवः स तथा तेन ॥ 'किं देमो'त्ति किं दद्मो भवदभिमतेभ्यः 'किं पयच्छामो'त्ति भवते एव, अथवा दद्मः सामान्यतः प्रयच्छामः प्रकर्षेणेति विशेषः 'किणा वत्ति केन वा 'कुत्तियावणाओ ति कुत्रिकं- स्वर्गमर्त्यपाताललक्षणं भूत्रयं तत्सम्भवि वस्त्यपि कुत्रिकं तत्सम्पादको य आपणो-हट्टो देवाधिष्ठि तत्वेनासौ कुत्रिकापणस्तस्मात् 'कासवर्ग'ति नापितं 'सिरिघराओ'त्ति भाण्डागारात् 'अग्गके से'त्ति अग्रभूताः केशा अग्रके शास्तान 'हंस लक्खणेणं' शुक्लेन हंस चिह्नेन वा 'पडसाडणं'ति पटरूपः शाटक: पटशाटकः, शाटको हि शटनकारकोडप्युच्यत इति तव्यवच्छेदार्थ पटग्रहणम्, अथवा शाटको वस्त्रमात्रं स च पृथुलः पटोऽभिधीयत इति पटशाटकः, 'अग्गेहि'ति 'अम्यैः' प्रधानैः, एतदेव व्याचष्टे-'वरेहिं'ति 'हारवारिधारसिंदुवारच्छिन्नमुत्तायलिप्पगासाईति इह 'सिंदुवार 'ति वृक्षविशेषो निर्गुण्डीति केचित् तत्कुसुमानि सिन्दुवाराणि तानि च शुक्लानीति 'एस णं'ति एतत्, | अग्रकेशवस्तु अथवैतद्दर्शनमिति योगो णमित्यलङ्कारे 'तिहीसु यति मदनत्रयोदश्यादितिथिषु 'पदणीसु य'ति | पर्वणीषु च कार्त्तिक्यादिषु 'उस्सवेसु य'त्ति प्रियसङ्गमादिमहेषु 'जन्नेसु य'त्ति नागादिपूजासु 'छणेसु यति इन्द्रोत्स
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जमाली चरित्रं
For Parts Only
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९ शतके
उद्देशः ३३ दीक्षाये अ नुमतिः
सू ३८५
॥४७६ ॥
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३८५]
वादिलक्षणेषु 'अपच्छिमेत्ति अकारस्यामङ्गलपरिहारार्थत्वात् पश्चिमं दर्शनं भविष्यति एतत् केशदर्शनमपनीतकेशाव-18 स्थस्य जमालिकुमारस्य यदर्शनं सर्वदर्शनपाश्चात्यं तद्भविष्यतीति भावः, अथवा न पश्चिमं पौनःपुन्येन जमालिकुमारस्य दर्शनमेतद्दर्शने भविष्यतीत्यर्थः 'दोचंपित्ति द्वितीयं वारं 'उत्तरावकमण ति उत्तरस्यां दिश्यपक्रमणं-अवतरणं यस्मात्तद् उत्तरापक्रमणम्-उत्तराभिमुखं पूर्व तु पूर्वाभिमुखमासीदिति 'सीयापीयएहिति रूप्यमयैः सुवर्णमयश्चेत्यर्थः 'पम्हलसुकुमालाए'ति पक्ष्मवत्या सुकुमालया चेत्यर्थः 'गंधकासाइए'त्ति गन्धप्रधानया कषायरक्तया शाटिकयेत्यर्थः 'नासानीसासे'त्यादि नासानिःश्वासवातवाह्यमतिलघुत्वात् चक्षुहर-लोचनानन्ददायकत्वात् चक्षुरोधकं वा घनत्वात् 'वनफ-13 रिसजुत्तंति प्रधानवर्णस्पर्शमित्यर्थः हयलालायाः सकाशात् पेलव-मृदु अतिरेकेण-अतिशयेन यत्तत्तथा कनकेन खचितं-1 मण्डितं अन्तयोः-अञ्चलयोः कर्मचानलक्षणं यत्तत्तथा 'हारं ति अष्टादशसरिक 'पिणद्धंति पिनह्यतः पितराविति शेषः |'अद्धहारंति नवसरिकम् ‘एवं जहा सूरियाभस्स अलंकारो तहेवत्ति, स चैवम्-'एगावलि पिणद्धति एवं मुत्तावलिं|| ॥४॥ कणगावलिं रयणावलिं अंगयाई केऊराई कडगाई तुडियाई कडिसुत्तयं दसमुहयाणतयं वरमुत्तं मुरविं कंठमुरवि पालंब
कुंडलाई चूडामणि ति तत्रैकावली-विचित्रमणिकमयी मुक्तावली-केवल मुक्काफलमयी कनकावली-सौवर्णमणिकमयी || | रनावली-रत्नमयी अङ्गदं केयूरं च बाहाभरणविशेषः, एतयोश्च यद्यपि नामकोशे एकार्थतोक्ता तथाऽपीहाऽऽकारविशे-[2 |पादू भेदोऽवगन्तव्यः, कटक-कलाचिकाभरणविशेषः त्रुटिक-बाहुरक्षिका दशमुद्रिकानन्तकं-हस्ताङ्गुलीमुद्रिकादशकं । वक्षासूत्रं-हृदयाभरणभूतसुवर्णसङ्कलक 'वेच्छासुत्तंति पाठान्तरं तत्र वैकक्षिकासूत्रम्-उत्तरासङ्गपरिधानीयं सङ्कलक
4%95%-159454645645R1
RAKAASCACACC
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जमाली-चरित्रं
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति :]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३८५]
व्याख्या-1 मुरवीमुरजाकारमाभरणं कण्ठमुरवी-तदेव कण्ठासनतरावस्थानं पालम्ब-झुम्बनकं, वाचनान्तरे स्वयमलहारवर्णकः९ शतके प्रज्ञप्तिः साक्षाल्लिखित एव दृश्यत इति, 'रयणसंकटुक्कडं 'ति रजसङ्कटं च तदुत्कटं च-उत्कृष्टं रत्नसङ्कटोत्कटं गंथिमवेढिमपू
उद्देशः३३ अभयदेवी- रिमसंघाइमेणं'ति इह प्रन्थिम-ग्रन्थननिर्वृत्तं सूत्रग्रथितमालादि वेष्टिम-वेष्टितनिष्पन पुष्पलम्वूसकादि पूरिम-येन |
दीक्षायै अया वृत्तिः२ वंशशलाकामयपञ्जरकादि कूर्चादि वा पूर्यते सङ्घातिमं तु यत्परस्परतो नालसङ्घातनेन सङ्घात्यते 'अलंकियविभूसियंति
नुमतिः ॥४७॥ अल कृतश्चासौ कृताल कारोऽत एव विभूषितश्च-सञ्जातविभूषश्चेत्यल कृतविभूषितस्तं, वाचनान्तरे पुनरिदमधिकं 'दद्दरम-18
लयसुगंधिगंधिएहिं गायाई भुकुंडेति'त्ति दृश्यते, तत्र च दईरमलयाभिधानपर्वतयोः सम्बन्धिनस्तदुतचन्दनादिद्रव्यजत्वेन ये सुगन्धयो गन्धिका-गन्धाबासास्ते तथा, अन्ये त्वाः-दईर:-चीवरावनड कुण्डिकादिभाजनमुखं तेन गालितास्तत्र पका वा ये 'मलय'त्ति मलयोद्भवस्पेन मलयजस्थ-श्रीखण्डस्य सम्बन्धिनः सुगन्धयो गन्धिका-गन्धास्ते तथा तैर्गात्राणि 'भुकुंडेति'त्ति उद्धलयन्ति ॥'अणेगखंभसयसन्निविहति अनेकेषु स्तम्भशतेषु सन्निविष्टा या सा तथा अनेकानि वा & सम्भशतानि संनिविष्टानि यस्यां सा तथा ता 'लील द्वियसालिभंजियागति लीलास्थिताः शालिभञ्जिका:-पुत्रिकाविशेषा यत्र सा तथा तां, वाचनान्तरे पुनरिदमेवं दृश्यते-'अम्भुम्गयसकयवहरवेइयतोरणवररइयलीलष्ट्रियसालिभंजि-18 याग'ति तत्र नाभ्युद्गते-उच्छ्रिते सुकृतबज्रवेदिकायाः सम्बन्धिनि तोरणवरे रचिता लीलास्थिता झालभञ्जिका यस्यां सा|
॥४७७॥ तथा तां 'जहा रायप्पसेणइज्जे विमाणवन्नओ'चि एवमस्या अपि वाच्य इत्यर्थः, स चायम्-'ईहामियउसमतुरगनरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्त' ईहामृगादिभिर्भक्तिभिः-विच्छितिभिश्चित्रा-चित्र
ACCICICCROSS
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३८५]
|वती या सा सथा तां, तत्र ईहामृगा-वृका ऋषभाः वृषभाः घ्यालका:-श्वापदाभुजङ्गा वा किन्नरा-देवधिशेषाः रुरबो-मृगयिशेषाः सरभा:-परासराः बनलता-चम्पकलतादिकाः पझलता-मृणालिकाः शेषपदानि प्रतीतान्येव 'संभुग्गयवहरवेइयापरिगांभिरामं स्तम्भेषु उद्गता-निविष्टा या वनवेदिका तया परिगता-परिकरिता अत एवाभिरामा च-रम्या या सा तथा तां 'विजाहरजमलजुयलजंतजुत्तंपिव' विद्याधरयोर्यद् यमलं-समश्रेणीकं युगलं-द्वयं तेनेव यन्त्रेण-सञ्चरिष्णुपुरुषप्रतिमाद्वयरूपेण युक्ता या सा तथा ताम् , आपत्वाचैवंविधः समासः, 'अचीसहस्समालिणीय' अचिःसहस्रमाला:-दीप्तिसहस्राणामावल्यः सन्ति यस्यां सा तथा, स्वार्थिककप्रत्यये च अधिःसहस्रमालिनीका तां, 'रूवगसहस्सकलियं 'भिसमाणं दीप्यमानां 'भिभिसमाणां' अत्यर्थं दीप्यमानां 'चक्खुलोयणलेसं चक्षुः कर्तृ लोकने-अवलोकने
सति लिशतीव-दर्शनीयत्वातिशयात् श्लिष्यतीव यस्यां सा तथा तां 'सुहफास सस्सिरीयरूवं' सशोभरूपका 'घंटावलिचलालियमहरमणहरसर' घण्टावल्याश्चलिते-चलने मधुरो मनोहरश्च स्वरो यस्यां सा तथा तां 'मुहं कंतं दरिसणिज निउ-11 कणोवियमिसिमिसंतमणिरयणघंटियाजालपरिक्षित निपुणेन-शिल्पिना ओपितं-परिकम्मित 'मिसिमित
चिकचिकायमानं मणिरलानां सम्बन्धि यद् घण्टिकाजालं-किङ्किणीवृन्दं तेन परिक्षिप्ता-परिकरिता या सा तथा तां,
वाचनान्तरे पुनरयं वर्णकः साक्षादृश्यत एवेति ॥ 'केसालंकारेणं'ति केशा एवालङ्कारः केशालङ्कारस्तेन, यद्यपि तस्य *तदानी केशाः कल्पिता इति केशालङ्कारो न सम्यक् तथाऽपि कियतामपि सद्भावात्तभाव इति, अथवा केशानामलङ्कारः। all पुष्पादि केशालङ्कारस्तेन, 'वत्थालंकारेणं'ति वस्त्ररक्षणालङ्कारेण 'सिंगारागारचारुवेस'त्ति शृङ्गारस्य-रसविशेषस्या
SUCCESAR
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जमाली-चरित्रं
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति :]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३८५]
दीप अनुक्रम [४६५]
व्याख्या-1|| गारमिव यश्चारुश्च वेपो-नेपथ्यं यस्याः सा तथा, अथवा शृङ्गारप्रधान आकारश्चारुश्च वेपो यस्याः सा तथा 'संगते त्यादौ| Des
प्रज्ञप्तिः यावत्करणादेवं दृश्यं-'संगयगयहसियभणियचिठ्ठियविलाससंलावुल्लावनिउणजुत्तोवयारकुसल'त्ति तत्र च सङ्गतेषु गता- उद्देश:३३ अभयदेवी
दिषु निपुणा युक्तेचूपचारेषु कुशला च या सा तथा, इह च विलासो नेत्रविकारो, यदाह-"हावो मुखविकारः स्याद्भावयावृत्तिः२ श्चित्तसमुद्भवः । विलासो नेवजो ज्ञेयो, विभ्रमो धूसमुद्भवः॥१॥” इति, तथा संलापो-मिथोभाषा उल्लापस्तु काकु- नुमतिः
सू ३८५ ॥४७८|| वर्णनं, यदाह-"अनुलापो मुहुर्भाषा, प्रलापोऽनर्थकं वचः। काका वर्णनमुलापः, संलापो भाषणं मिथः ॥१॥ इति,
| 'रूवजोषणविलासकलिय'त्ति इह विलासशब्देन स्थानासनगमनादीनां सुश्लिष्टो यो विशेषोऽसावुच्यते, यदाह-"स्थानासनगमनानां हस्तधूनेत्रकर्मणां चैव । उत्पद्यते विशेषो यः श्लिष्टोऽसौ विलासः स्यात् ॥१॥" 'सुन्दरचण'इत्यनेन
'सुंदरचणजहणवयणकरचरणणयणलावण्णरूवजोवणगुणोववेय'त्ति सूचितं, तत्र च सुन्दरा ये स्तनादयोऽस्तैिरुपेता दिया सा तथा, लावण्यं चेह स्पृहणीयता रूपं-आकृतिबिन-तारुण्यं गुणा-मृदुस्वरत्वादयः 'हिमरयपकुमुयकुंदेंदुप्प
गासंति हिमं च रजतं च कुमुदं च कुन्दश्चेन्दुश्चेति द्वन्दस्तेषामिव प्रकाशो यस्य तत्तथा 'सकोरेंटमल्लदामति सकोरेण्टकानि-कोरण्टपुष्पगुच्छयुक्तानि माल्यदामानि-पुष्पमाला यत्र तत्तथा 'नाणामणिकणगरयणविमलमहरिहतवणि
जउज्जलविचित्तदंडाओ'ति नानामणिकनकरलानां विमलस्य महाईस्य महाघस्य वा तपनीयस्य च सत्काबुज्ज्वलो विचित्री ॥४७८॥ || दण्डको ययोस्ते तथा, अधात्र कनकतपनीययोः को विशेषः १, उच्यते, कनकं पीतं तपनीयं रक्तमिति, 'चिल्लियाओ'त्ति दीप्यमाने लीने इत्येके 'संखंककुंददगरयअमयमहियफेणपुंजसंनिगासाओ'त्ति शाकुन्ददकरजसाममृतस्य
CRRENCHOREOGRECTOR
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३८५]
मथितस्य सतो यः फेनपुञ्जस्तस्य च संनिकाशे-सदृशे ये ते तथा, इह चाडो रतविशेष इति, 'चामराओं'त्ति यद्यपि । चामरशब्दो नपुंसकलिङ्गो रूढस्तथाऽपीह खीलिङ्गतया निर्दिष्टस्तथैव क्वचिद्रूढत्वादिति ॥ 'मत्तगयमहामुहाकिइसमाण'ति मत्तगजस्य यन्महामुखं तस्य याऽऽकृतिः-आकारस्तथा समानं यत्तत्तथा 'एगाभरणवसणगहियणिज्जोय'त्ति || एक:-एकादश आभरणवसनलक्षणो गृहीतो निर्योगः-परिकरो यैस्ते तथा ॥'तप्पटमयाए'त्ति तेषां विवक्षितानां मध्ये | प्रथमता तत्प्रथमता तथा 'अट्ठमंगलगत्ति अष्टावष्टाविति चीप्सायां द्विवचनं मङ्गलकानि-माङ्गल्यवस्तूनि, अन्ये त्वाहुःअष्टसङ्ख्यानि अष्टमङ्गलकसज्ञानि वस्तूनि 'जाव दप्पणं'ति इह. यावत्करणादिदं दृश्य-नंदियावत्तवद्धमाणगभद्दासणकलसमच्छत्ति तत्र वर्द्धमानक-शरावं (वसंपुट) पुरुषारुढपुरुष इत्यन्ये स्वस्तिकपञ्चकमित्यन्ये प्रासादविशेषमित्यन्ये
'जहा उववाइए'त्ति, अनेन च यदुपात्तं तद्वाचनान्तरे साक्षादेवास्ति, तच्चेदं-'दिवा य छत्तपडागा'दिव्येव दिव्या। प्रधाना छत्रसहिता पताका छत्रपताका तथा 'सचामरादरसरइयआलोयदरिसणिज्जा वाउद्धपविजयवेजयंती य8
ऊसिय'त्ति सह चामराभ्यां या सा सचामरा आदर्शो रचितो यस्यां साऽऽदर्शरचिता आलोक-दृष्टिगोचरं यावदृश्यतेऽन्युचत्वेन या साऽऽलोकदर्शनीया, ततः कर्मधारयः, 'सचामरा दंसणरइयआलोयदरिसणिज'त्ति पाठान्तरे तु सचामरेति भिन्नपदं, तथा दर्शने-जमालेई ष्टिपथे रचिता-विहिता दर्शनरचिता दर्शने वा सति रतिदा-सुखप्रदा दर्शनरतिदा सा चासावालोकदर्शनीया चेति कर्मधारयः, काऽसौ ? इत्याह-वातोद्धृता विजयसूचिका वैजयन्ती-पार्वतो लघुपताकिकाद्वययुक्ता पताकाविशेषा वातोद्भूतविजयवैजयन्ती 'उच्छ्रिता' उच्चा, कथमिव ?-'गगणतलमणुलिहंतीति गगनतळ
दीप अनुक्रम [४६५]
45056545459
XXX-SXSAXAS
जमाली-चरित्रं
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३८५]
व्याख्या-2 आकाशतलमनुलिखन्तीवानुलिखन्ती अत्युचतयेति 'जहा उपवाइए'त्ति अनेन यत्सूचितं तदिदं-'सयाणंतरं पण वेरु- ९ शतके प्रज्ञप्तिःला लियभिसंतविमलदंड भिसंतत्ति दीप्यमानं 'पलंघकोरंटमल्लदामोवसोहियं चंदमंडलनिभं समूसियं विमलमायर उद्देशः ३३ अभयदेवी- पवर सीहासणं च मणिरयणपायपीद' 'सपाउयाजुगसमाउत्त' स्वकीयपादुकायुगसमायुक्तं 'बहुकिंकरकम्मगरपुरिसपा- दीक्षायै अया वृत्ति यत्तपरिक्खितं' बहवो ये विरा:-प्रतिकर्म प्रभोः पृच्छाकारिणः कर्मकराश्च तदन्यथाविधास्ते च ते पुरुषाक्षेति नुमतिः ॥४७॥18 समासः पादातं च-पत्तिसमूहः बहुकिकरादिभिः परिक्षिप्तं यत्तत्तथा 'पुरओ अहाणुपुषीए संपडियं, तयाणंसरं च णं यह लट्ठि
४ सू३८५ ग्गाहा कुंतग्गाहा चामरग्गाहा पासग्गाहा चावग्गाहा पोत्थयग्गाहा फल गग्गाहा पीढयग्गाहा वीणग्गाहा कूषयग्माहा' कुसपःतैलादिभाजनविशेषः 'हडप्पग्गाहा' हडप्पो-द्रम्मादिभाजनं ताम्बूलार्थ पूगफलादिभाजनं वा 'पुरओ अहाणुपुषीए | संपडिया, तयाणंतरं च णं वहवे दंडिणो मुंडिणो सिहंडिणो-शिखाधारिणः जटिणो-जटाधराः पिच्छिणो-मयूरादिपि
चाहिनः हासकराये हसन्ति डमरकरा-विड्वरकारिणः दवकरा:-परिहासकारिणः चाटुकरा:-प्रियवादिनः कंदप्पियाPकामप्रधानकेलिकारिणः कुकुझ्या-भाण्डाः भाण्डप्राया वा 'वार्यता मायंता य नचंता य हासता य भासंता य सासिंसा | | शिक्षयम्तः 'साविता य' इदं चेदं भविष्यतीत्येवंभूतवांसि श्रावयन्तः 'रक्संता व अन्यायं रक्षन्तः 'आलोकंच करे
॥४७९॥ & माणे'त्यादि तु लिखितमेवास्ति इति, एतच वाचनान्तरे प्रायः साक्षादृश्यत एव, तथेदमपरं तत्रैवाधिकं-'तयाणंतरं च | माजचाणं वरमलिहाणाणं चंचुच्चियललियपुलयविकमविलासियगईणं हरिमेलामलमलियच्छाणं धासगअमिलाणघमरग-1
परिमंडियकडीणं असयं बरतुरगाणं पुरमओ अहाणुपुषीए संपद्विवं, तवाणंतरंण सिं दंतागं इंसिं मचाणं इंसि |
दीप अनुक्रम [४६५]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३८५]
नियविसालपवलदंताण कंचणकोसीपविदंतोपत्तोहियाण अहसयं गवकलहाणं पुरजो अहाणपबीए संपद्विवं, तयाणवरं ॥ |च णं सच्छसाणं सझवाणं सघंटाणं सपडामाषं सतोरणवराणं सखिखिणीहेमजालपेरंतपरिक्तिसाशं सनन्दियोसम | हेमवयवित्ततिणिसकणगनिज्जुसदारुगाणं सुसंविद्धचकमंडलधुराणं काछायससुकयनेमिजतकम्मा आइसपरतुरमसुसंप-11 उत्ताणं कुसलनरच्छेयसारहिसुसंपग्गहियाणं सरसवक्त्तीसतोणपरिमंदिवाणं सकंकडवडेंसगाणं सथावसरपहरणावरणभरियजुद्धसजाणं अहसयं रहाणं पुरओ अहाणुपुबीए संपद्वियं, तथाणंतरं च णं असिसत्तिकोततोमरसूललाष्टभिहिमालधा-1 बाणसजं पायत्ताणीयं पुरओ अहाणुपुषीए संपडियं, सयातरं च बहवे राईसरतलबरकोर्दुषियमाईबियइम्भसेहिसे-14
णावइसत्थवाहपभिइओ अप्पेगइया हयगया अपेगइया मयगया अप्पेगइया रहगया पुरओ अहाणुपुषीए संपढ़िय'ति तत्र हैच'वरमल्लिहाणार्णति वरं माल्याधानं-पुष्पबन्धनस्थानं शिरः केशकलापो येषां ते वरमास्थाधानास्तेषाम् , इकारःप्राकृत
प्रभवो 'वालिहाण' मित्यादाविवेति, अथवा वरमल्लिकावद् शुक्लत्वेन प्रवरविचकिलकुसुमवद् घ्राणं-नासिका येषां ते तथा # | तेषां, कचित् 'तरमल्लिहायणाणति रश्यते तत्र च तरो-वेगो वलं, तथा 'मल मल्ल धारणे' ततश्च तरोमल्ली-तरोधारको | वेगादिधारको हायना-संवत्सरो वर्सते येषां ते तरोमल्लिहायनाः-यौवनवन्त इत्यर्थः अतस्तेषां वरतुरगाणामितियोगः 'चरममल्लिभासणाणति क्वचिदृश्यते, तत्र तु प्रधानमाल्यवतामत एष दीप्तिमतां चेत्यर्थः 'चंचुचियललियपुलियविकमविला॥४ सियगईण'ति 'युधिय'ति प्राकृतत्वेन चरित-कुटिलगमनम्, अथवा त्रशुः शुकवस्तद्वदकतया उचितम्-उधता-1 &करणं पदस्योत्पाटनं वा (शुक) पादस्येवेति चश्चितं तच्च ललितं क्रीडितं पुलितं च-गतिविशेषः प्रसिद्ध एवं विक्र-121
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति :]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
सू ३८५
[३८५]
दीप अनुक्रम [४६५]
व्याख्या- 13 मच-विशिष्ट क्रमणं क्षेत्रललनमिति द्वंद्वस्तदेतत्प्रधाना विलासिता-विशेषेणोल्लासिता गतियस्ते तथा तेषां, क्वचिदिदं शतके प्रज्ञप्तिः || विशेषणमेवं दृश्यते-चंचुचियललियपुलियचलचबलचंचलगईण ति तन्त्र च चरितललितपुलितरूपा चलानां-अस्थि- उद्देशः ३३ अभयदेवी- राणां सतां चञ्चलेभ्यः सकाशाच्चञ्चला-अतीवचटुला गतिर्येषां ते तथा तेषां 'हरिमेलमउलमल्लियच्छाणति हरिमेल- दक्षिाय अया वृत्तिः||६|| को-वनस्पतिविशेषस्तस्य मुकलं-कुडालं मल्लिका च-विचकिलस्तद्वदक्षिणी येषां, शुक्लाक्षाणामित्यर्थः, 'थासगअमिलाण-18|| ॥४८॥ चामरगंडपरिमंडियकरीण ति स्थासका-दर्पणाकारा अश्वालङ्कारविशेषास्तैरम्लानचामरैर्गण्डैश्च-अमलिनचामरदण्डैः
परिमण्डिता कटियेषां ते तथा तेषां, कचित्पुनरेवमिदं विशेषणमेवं दृश्यते-'मुहभंडगओचूलगथासगमिलाणचामरग
ण्डपरिमंडियकडीणं'ति तत्र मुखभाण्डक-मुखाभरणम् अवचूलाश्च-प्रलम्बमानपुच्छाः स्थासकार-प्रतीताः 'मिलाण'त्ति || दापर्याणानि च येषां सन्ति ते तथा मत्वर्थीयलोपदर्शनात् ,चमरी(चामर)गण्डपरिमण्डितकटय इति पूर्ववत्,ततक्ष कर्मधारयोऽ
तस्तेषां, चिरपुनरेवमिदं दृश्यते-थासगअहिलाणचामरगंडपरिमंडियकडीणं'ति तत्र तु अहिलाण-मुखसंयमनं| । ततश्च 'थासगअहिलाण' इत्यत्र मत्वर्थीयलोपेनोत्तरपदेन सह कर्मधारयः कार्यः, तथा 'ईसिं दंताण'ति 'ईपदान्तानां'
मनागमाहितशिक्षाणां गजकलभानामिति योगः 'ईसिंउच्छंगउन्नयविसालघवलदंताणं'ति उत्सङ्गः-पृष्ठदेशः ईषदुत्सने | उन्नता विशालाश्च ये यौवनारम्भवसिवात्ते तथा ते च ते धवलदन्ताश्चेति समासोऽतस्तेषां 'कंचणकोसीपविठ्ठदंतो- ॥४८॥ 8 वसोहियाण'ति इह काश्चनकोशी-सुवर्णमयी खोला, रथवर्णकेत सजायाण सपहागाणं' इत्यत्र गरुडादिरूपयुक्तो ध्वजः |
तदितरा तु पताका 'सखिखिणीहेमजालपेरंतपरिक्खित्ताण'ति सकिङ्किणीक-क्षुद्रघण्टिकोपेतं यद् हेमजालं-सुवर्ण
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आगम
[०५]
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सूत्रांक
[३८५]
दीप
अनुक्रम [४६५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर् शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [ ३८५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
मयस्तदाभरणविशेषस्तेन पर्यन्तेषु परिक्षिप्ता ये ते तथा तेषां, 'सनंदिघोसाणं'ति इह नन्दी- द्वादशतूर्यसमुदायः, तानि मानि-“भंभा १ मबंद २ मद्दल ३ कर्डब ४ झहरि ५ हुटुक्क ६ कंसाला ७ । काहल ८ तलिमा ९ वंसो १० संखो ११ | पणवो १२ य वारसमो ||१||" इति 'हेमवयचित्ततिणिसकणगनिजुत्तदारुगाणं' ति हैमवतानि - हिमवगिरिसम्भवानि चित्राणि विविधानि तैनिशानि-तिनिशाभिधानतरुसम्बन्धीनि कनकनियुक्तानि - सुवर्णखचितानि दारुकाणि-काष्ठानि येषु ते तथा तेषां, 'सुसंविद्धच कमंडलधाराणं ति सुष्ठु संविद्धानि चक्राणि मण्डलाश्च वृत्ता धारा येषां ते तथा तेषां 'सुसि लिङ्कचित्तमंडलधुराणं ति कचिदृश्यते तत्र मुटु संश्लिष्टाः चित्रवत्कुर्वत्यो मण्डलाश्च-वृत्ता धुरो येषां ते तथा तेषां 'कालायससुकयने मिजंतकम्माणंति कालायसेन- लोहविशेषेण सुष्ठु कृतं नेमेः- चक्रमण्डनधाराया यन्त्रकर्म-बन्धनक्रिया येषां ते तथा तेषाम् 'आइन्नवरतुरगसुसंपत्ताणं'ति आकीर्णैः-जात्यैर्वरतुरगैः सुष्ठु संप्रयुक्ता ये ते तथा तेषां 'कुसलनरच्छेयसारहि सुसंपग्ग हियाणं ति कुशलनरैः- विज्ञपुरुषैन्छेक सारथिभिश्च दक्षप्राजितृभिः सुष्ठु संप्रगृहीता ये ते तथा तेषां 'सरसयबत्तीसतोणपरिमंडिया'ति शरशतप्रधाना ये द्वात्रिंशतोणा-भस्त्रकास्तैः परिमण्डिता ये ते तथा तेषां 'सकंकडवडेंसगाणं' ति सह कङ्कटैः कवचैरवतंस कैश्च शेखरकैः शिरस्त्राणैर्वा ये ते तथा तेषां 'सचावसरपहरणावरणभरिपजुद्धसज्जाणं ति सह चापैः शरैश्च यानि प्रहरणानि-कुन्तादीनि आवरणानि च-स्फुरकादीनि तेषां भरिता युद्धसज्जाश्च युद्धप्रगुणा ये ते तथा तेषां शेषं तु प्रतीतार्थमेवेति । अथाधिकृतबाचनाऽनुश्रियते' तयाणंतरं च णं बहवे उग्गा' इत्यादि, तत्र 'उमा' आदिदेवेनारक्षकत्वे नियुक्तास्तद्वंश्याश्च भोगास्तेनैव गुरुत्वेन व्यवहृतास्तद्वंश्याश्च 'जहा
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जमाली चरित्रं
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[३८५]
दीप अनुक्रम [४६५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः ]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर् शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [ ३८५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
| उबवाइए'ति करणादिदं दृश्यं - 'राइन्ना खत्तिया इक्खागा नाया कोरबा ' इत्यादि, तत्र 'राजन्याः' आदिदेवेनैव वयस्यतया || व्यवहृतास्तद्वंश्याश्च क्षत्रियाश्च प्रतीताः 'इश्वाकवः' नाभेयवंशजाः 'ज्ञाताः ' इक्ष्वाकुवंशविशेषभूताः 'कोरव'त्ति कुरवःकुरुवंशजाः, अथ कियदन्तमिदं सूत्रमिहाध्येयम् ? इत्याह- 'जाव महापुरिसवग्गुरापरिक्खित्तेत्ति वागुरा- मृगबन्धनं या वृत्तिः२४ वागुरेव वागुरा सर्वतः परिवारणसाधर्म्यात् पुरुषाश्च ते वागुरा च पुरुषवागुरा महती चासौ पुरुषवागुरा च महापुरुष
॥४८॥
व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभवदेवी
वागुरा तथा परिक्षिप्ता ये ते तथा 'मह'आस'त्ति महाश्वाः किम्भूताः ? इत्याह- 'आसवरा' अश्वानां मध्ये वराः 'आसवार'ति पाठान्तरं तत्र 'अश्ववाराः ' अश्वारूढपुरुषाः 'उभओ पासिंति उभयोः पार्श्वयोः 'नाग'त्ति नागाहस्तिनः नागवरा - हस्तिनां प्रधानाः 'रहसंगेल्लि'त्ति रथसमुदायः 'अन्भुग्गयभिंगारे' त्ति अभ्युद्गतः - अभिमुखमुत्पादितो | भृङ्गारो यस्य स तथा 'पग्गहियतालियंटे' प्रगृहीतं तालवृन्तं यं प्रति स तथा 'ऊसविघसेयच्छन्ते' उच्छ्रितश्वेतच्छत्रः 'पवीइयसे यचामरवालवीयणीए' प्रवीजिता श्वेतचामरवालानां सत्का व्यजनिका यं अथवा प्रवीजिते श्वेतचामरे वालव्यजनिके च यं स तथा, 'जहा उववाइए'त्ति करणादिदं दृश्यं - 'कामस्थिया भोगत्थिया' कामौ - शुभशब्दरूपे | भोगाः - शुभगन्धादयः 'लाभस्थिया' घनादिलाभार्थिनः 'इडिसिय'त्ति रूढिगम्याः 'किट्टिसिय'त्ति किल्बिषिका भाण्डादय इत्यर्थः, कचित् किट्टिसिकस्थाने 'किविसिय'ति पठ्यते 'कारोडिया' कापालिका: 'कारवाहिया' कारं| राजदेयं द्रव्यं वहन्तीत्येवंशीलाः कारवाहिनस्त एव कारवाहिकाः करबाधिता वा 'संखिया' चन्दनगर्भशङ्खहस्ता माङ्ग| ल्यकारिणः शङ्खवादका वा 'चक्किया' चाक्रिका:- चक्रप्रहरणाः कुम्भकारादयो वा 'नंगलिया' गलावलम्बितसुवर्णादि
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जमाली चरित्रं
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९ शतके
उद्देशः २३ दीक्षायै अनुमतिः
सू. ३८५
॥४८१॥
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[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३८५]
|मयलाङ्गलप्रतिकृतिधारिणो भट्टविशेषाः कर्षका वा 'मुहमंगलिया' मुखे मङ्गलं येषामस्ति ते मुखमङ्गलिकाः-चाटुकारिणः । |'वद्धमाणा' स्कन्धारोपितपुरुषाः 'पूसमाणवा' मागधाः 'इजिसिया पिंडिसिया घंटिय'त्ति क्वचिदृश्यते, तत्र च | जाइज्यां-पूजामिच्छन्त्येषयन्ति वा ये ते इज्यैषास्त एव स्वार्थिकेकप्रत्ययविधानाद् इज्यैषिकार, एवं पिण्डैषिका अपि, नवरं ४ |पिण्डो-भोजनं, घाण्टिकास्तु ये घण्टया चरन्ति तो वा वादयन्तीति, 'ताहिं'ति ताभिर्विवक्षिताभिरित्यर्थः, विवक्षितत्वमेवाह-वाहि' इष्यन्ते स्मेतीष्टास्ताभिः, प्रयोजनवशादिष्टमपि किश्चित्स्वरूपतः कान्तं स्यादकान्तं चेत्यत आह-IN 'कंताहिं' कमनीयशब्दाभिरित्यर्थः 'पियाहिं' प्रियार्थाभिः 'मणुन्नाहिं' मनसा ज्ञायन्ते सुन्दरतया वास्ता मनोज्ञा भावतः सुन्दरा इत्यर्थः ताभिः 'मणामाहिं' मनसाऽम्यन्ते-गम्यन्ते पुनः पुनर्याः सुन्दरत्वातिशयाचा मनोऽमास्ताभिः । 'ओरालाहिं' उदाराभिः शब्दतोऽर्थतश्च 'कल्लाणाहिं' कल्याणप्राप्तिसूचिकाभिः 'सिवाहिं' उपद्रवरहिताभिः शब्दा
र्थदूषणरहिताभिरित्यर्थः 'धन्नाहिं' धनलम्भिकाभिः 'मंगल्लाहिं' मङ्गले-अनर्थप्रतिघाते साध्वीभिः 'सस्सिरीयाहिं' ४ शोभायुक्ताभिः 'हिययगमणिजाहि' गम्भीरार्धतः सुबोधाभिरित्यर्थः 'हिययपल्हायणिज्जाहिं' हृदयगतकोपशोका-1 & दिनश्थिविलयनकरीभिरित्यर्थः 'मियमहरगंभीरगाहियाहिं' मिता:-परिमिताक्षरा मधुरा:-कोमलशब्दाः गम्भीरा-14
महाध्वनयो दुरवधार्यमप्यर्थं श्रोतून ग्राहयन्ति यास्ता ग्राहिकास्ततः पदचतुष्टयस्य कर्मधारयोऽतस्ताभिः 'मियमहुरगं-18 भीरसस्सिरीयाहिंति कचिद् दृश्यते, तत्र च मिताः अक्षरतो मधुराः शब्दतो गम्भीरा-अर्थतो ध्वनितश्च स्वश्रीः-| | आत्मसम्पद् यासां तास्तथा ताभिः 'अहसइयाहिं' अर्थशतानि यासु सन्ति ता अर्थशतिकास्ताभिः, अथवा सइ-बहु
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[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः ]
शतक [९], वर्ग [ - ], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [३३], मूलं [ ३८५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्याप्रज्ञप्तिः
अभयदेवी
या वृत्तिः २
॥४८२ ॥
फलत्वं अर्थतः सइयाओ अट्टसइयाओ 'ताहि अपुणरुत्ताहिं वग्गूहिं' वाग्भिर्गीर्भिरेकार्थिकानि वा प्राय इष्टादीनि वाग्विशेषणानीति 'अणवरयं' सन्ततम् 'अभिनंदता येत्यादि तु लिखितमेवास्ते, तत्र चाभिनन्दयन्तो जय जीवेत्यादि भणन्तोऽभिवृद्धिमाचक्षाणाः 'जय जय' त्याशीर्वचनं भक्तिसम्भ्रमे च द्विर्वचनं 'नंदा धम्मेणं'ति 'नन्द' वर्द्धस्व धर्मेण ॐ एवं तपसाऽपि अथवा जय जय विपक्षं, केन ?- धर्मेण हे नन्द । इत्येवमक्षरघटनेति 'जय २ नंदा भहं ते' जय एवं हे जगन्नन्दिकर भद्रं ते भवतादिति गम्यं 'जियविग्धोऽविय'त्ति जितविनश्व 'वसाहि तं देव सिद्धिमज्झे' त्ति बस त्वं हे देव ! सिद्धिमध्ये देवसिद्धिमध्ये वा 'निहणाहि ये' त्यादि निर्घातय च रागद्वेषमहौ तपसा, कथम्भूतः सन् १ इत्याहधृतिरेव धनिकं अत्यर्थ बद्धा कक्षा [ कच्छोटा ] येन स तथा मलो हि महान्तरजयसमर्थो भवति गाढबद्धकक्षः सन्नितिकृत्वोक्तं 'धिइधणियेत्यादि, तथा 'अप्पमत्तो' इत्यादि, 'हराहि'ति गृहाण आराधना - ज्ञानादिसम्यक् पालना सैव | पताका जयप्राप्तनटमाह्या आराधनापताका तां त्रैलोक्यमेव रङ्गमध्यं-महयुद्धद्रष्टृमहाजनमध्यं तत्र, 'हंता परीसहचमूं ति हत्वा परीपहसैन्यं, अथवा 'हन्ता' घातकः परीषहचम्वा इति विभक्तिपरिणामात् शीलार्थकतृनन्तत्वाद्वा हन्ता परी पहचमूमिति 'अभिभविय'त्ति अभिभूय जित्वा 'गामकंटकोवसग्गाणं'ति इन्द्रियग्रामप्रतिकूलोपसर्गानित्यर्थः णं वाक्यालङ्कारे अथवा 'अभिभविता' जेता ग्रामकण्टकोपसर्गाणामिति, किं बहुना ?-'घम्मे ते' इत्यादि ॥ 'नयणमालास हस्सेहिं' ति नयनमालाः- श्रेणीभूतजननेत्र पङ्कयः 'एवं जहा उचबाइए'त्ति अनेन यत्सूचितं तदिदं 'वयणमालासह सेहिं अभिप्रमाणे २ हिययमाला सहरसेहिं अभिनंदिजमाणे २' जनमनःसमूहैः समृद्धिमुपनीयमानो जय जीव नन्दे !
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९ शतके उद्देशः ३५ दीक्षायै अनुमतिः सू ३८५
||૪૮૨ક
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३८५]
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४ त्यादिपर्यालोचनादिति भावः 'मणोरहमालासहस्सेहिं विच्छिप्पमाणे २' एतस्य पादमूले वत्स्याम इत्यादिभिर्जनवि
कम्पविशेषेण स्पृश्यमान इत्यर्थः 'कतिरूवसोहग्गजोवणगुणेहिं पत्थित्रमाणे 'कान्ल्यादिभिर्गुणैर्हेतुभूतैः प्रार्थ्यमानो भर्तृतया स्वामितया वा जनैरिति 'अंगुलिमालासहस्सेहिं दाइजमाणे २' 'दाहिणहत्थेणं बहूर्ण नरनारिसहस्साणं | अंजलिमालासहस्साई पडिच्छेमाणे २ भवणभित्ती(पन्ती)सहस्साई"समइच्छिमाणे २' समतिकामन्नित्यर्थः 'तंतीतलताल-13 गीयवाइयरवेणं' तन्त्री-वीणा तला:-हस्ताः ताला:-कांसिकाः तलताला वा-हस्ततालाः गीतवादिते-प्रतीते एषां यो रवः स तथा तेन 'महुरेणं मणहरेणं' 'जय २ सदुग्धोसमीसएण' जयेतिशब्दस्य यद् उद्घोषणं तेन मिश्रो यः स तथा तेन है | तथा 'मंजुमंजुणा घोसेणं' अतिकोमलेन ध्वनिना स्तावकलोकसम्बन्धिना नूपुरादिभूषणसम्बन्धिना वा 'अप्पडि-13|| बुज्झमाणे'त्ति अप्रतिबुद्ध्यमानः-शब्दान्तराण्यनवधारयन् अप्रत्युह्यमानो वा-अनपहियमाणमानसो वैराग्यगतमानसत्वादिति 'कंदरगिरिविवरकुहरगिरिबरपासादुद्धघणभवणदेवकुलसिंघाडगतिगचउक्कचबरआरामुजाणकाणणसभप्पचप्पदेसदेसभागे'त्ति कन्दराणि-भूमिविवराणि गिरीणां विवरकुहराणि-गुहाः पर्वतान्तराणि वा गिरिवराःप्रधानपर्वताः प्रासादा:-सप्तभूमिकादयः ऊधनभवनानि-उच्चाविरलगेहानि देवकुलानि-प्रतीतानि शृङ्गाटकत्रिकचतुकचत्वराणि प्राग्वत् आरामाः-पुष्पजातिप्रधाना वनखण्डाः उद्यानानि-पुष्पादिमढुक्षयुक्तानि काननानि-नगराद् दूरवतीनि सभा-आस्थायिकाः प्रपा-जलदानस्थानानि एतेषां ये प्रदेशदेशरूपा भागास्ते तथा तान् , तत्र प्रदेशा-लघुतरा |भागाः देशास्तु महत्तराः, अयं पुनर्दण्डकः क्वचिदन्यथा दृश्यते-'कंदरदरिकुहरविवरगिरिपायारट्टालचरियंदारगोउरपा
दीप अनुक्रम [४६५]
AARA
जमाली-चरित्रं
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[३८५]
दीप
अनुक्रम [४६५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः ]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर् शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [ ३८५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥४८३ ॥
| सायदुवारभवणदेव कुल आरामुजाण काणणसभपएस' त्ति प्रतीतार्थश्चायं, 'पडिसुयासयस हस्ससंकुले करेमाणे 'ति प्रतिश्रुच्छतसहस्रसङ्कुलान् प्रतिशब्दलक्षसकुलानित्यर्थः कुर्वन् २ निर्गच्छतीति सम्बन्धः 'हय हे सियहत्थिगुलुगुलाश्यरहघघणाइय सद्दमीसएणं महया कलकलरवेण य जणस्स सुमहुरेणं पूरंतोऽवरं समंता सुयंधव रकुसुमचुन्नड विद्धवासरेणुमइले णभं करेंते' सुगन्धीनां वरकुसुमानां चूर्णानां च 'उविद्धः ' ऊर्द्धगतो यो वासरेणुः- वासकं रजस्तेन मलिनं यत्तत्तथा 'कालागुरुपवरकुंदुरुक्क तुरुक्क धूवनिवहेण जीवलोगमिव वासयंते' कालागुरुः--गन्धद्रव्यविशेषःप्रवरकुन्दुरुकं-वरचीडा तुरुकं सिल्हकं धूपः- तदन्यः एतलक्षणो वा एषामेतस्य वा यो निवहः स तथा तेन जीवलोकं वासयन्निवेति 'समंतओ खुभियचक्कवाल' क्षुभितानि चक्रवालानि - जनमण्डलानि यत्र गमने तत्तथा तद्यथा भवत्येवं निर्गच्छतीति सम्बन्धः 'पउरजणबाल बुहपमुइयतुरियपहा वियविउ लाउल बोलबहुलं नभं करेंते' पौरजनाश्च अथवा प्रचुरजनाश्च वाला वृद्धाश्च | ये प्रमुदिताः त्वरितप्रधाविताश्च शीघ्रं गच्छन्तस्तेषां व्याकुलाकुलानां अतिव्याकुलानां यो बोलः स बहुलो यत्र तत्तथा | तदेवम्भूतं नभः कुर्वन्निति 'खत्तियकुंडग्गामस्स नगरस्स मज्झमज्झेणं'ति शेषं तु लिखितमेवास्त इति ॥ 'पडमेइ वत्ति इह यावत्करणादिदं दृश्यं-'कुमुदेइ वा नलिइ वा सुभगेइ वा सोगंधिएइ वा' इत्यादि, एषां च भेदो रूढिगम्यः, 'कामेहिं जाए'ति कामेषु शब्दादिरूपेषु जातः 'भोगेहिं संबुद्धेत्ति भोगा - गन्धरसस्पर्शास्तेषु मध्ये संवृद्धो-वृद्धिमुपगतः 'नोवलिप्पड़ कामरएण' त्ति कामलक्षणं रजः कामरजस्तेन कामरजसा कामरतेन वा कामानुरागेण 'मित्तनाई' इत्यादि, मित्राणि - प्रतीतानि ज्ञातयः - स्वजातीयाः निजका - मातुलादयः स्वजनाः- पितृपितृव्यादयः सम्बन्धिनः- श्वशुरादयः परिजनो - दासादिः, इह
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जमाली चरित्रं
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९ शतक
उद्देशः ३३ दीक्षाये अनुमतिः सू २८५
॥४८३॥
or
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३८५]
S
समाहारद्वन्द्वस्ततस्तेन नोपलिप्यते-रोहतः सम्बद्धो न भवतीत्यर्थः 'हारवारि' इह यावत्करणादिदं दृश्य-धारासिंदु-18
वारच्छिन्नमुत्तावलिपयासाई अंसूणित्ति ॥ 'जइय'ति प्राप्तेषु संयमयोगेषु प्रयत्नः कार्यः 'जाया! हे पुत्र ! 'घडियति | ६ अप्राप्तानां संयमयोगानां प्राप्तये घटना कार्या 'परिकमिय'ति पराक्रमः कार्यः पुरुषत्वाभिमानः सिद्धफलः कर्तव्य इति ।
भावः, किमुक्तं भवति :-'अस्सि चे'त्यादि, अस्मिंश्चार्थे-प्रव्रज्यानुपालनलक्षणे न प्रमादयितव्यमिति, 'एवं जहा उसभदत्तो' इत्यनेन यरसूचितं तदिद-'तेणामेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पया| हिणं पकरेइ २ वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-आलित्ते ण भंते ! लोए' इत्यादि, व्याख्यातं चेदं प्रागिति ।
तए णं से जमाली अणगारे अन्नया कयाई जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छइत्ता समणं भगवं महावीरं चंदति नमंसति वंदित्ता २ एवं बयासी इच्छामि णं भंते ! तुजाहिं अन्भणु-15
नाए समाणे पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं बहिया जणवयविहारं विहरित्तए, तए णं से समणे भगवं महा-16 18/वीरे जमालिस्स अणगारस्स एयम णो आढाइ णो परिजाणाइ तुसिणीए संचिहद । तए णं से जमाली
अणगारे समणं भगवं महावीरं दोचंपि तचंपि एवं बयासी-इच्छामि णं भंते ! तुझेहिं अब्भणुनाए समाणे *पंचहिं अणगारसरहिं सद्धिं जाव विहरित्तए, तए णं समणे भगवं महावीरे जमालिस्स अणगारस्स दोचंपि तिचंपि एयमढ णो आदाइ जाव तुसिणीए संचिट्ठद । तए णं से जमाली अणगारे समणं 'भगवं महावीरं वंदह
k5%
दीप अनुक्रम [४६५]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८६-३८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३८६-३८७]
दिसू ३८६
दीप अनुक्रम [४६६-४६७]]
व्याख्या- मंसह बंदित्ता णमंसित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ बहसालाओ इयाओपडिनिक्खमहशतके प्रज्ञासितापडिनिक्खमित्ता पंचर्हि अणगारसएहिं सद्धिं बहिया जणवयविहारं विहरइ, तेणं कालेणं तेणं समएणं साव
उद्देशा ३३ अभयदेवीधीनामं णयरी होत्था वन्नओ, कोहए चेइए वन्नओ, जाव वणसंडस्स, तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम ५
जमालेनियावृत्तिः२०
हवता नयरी होत्था वन्नओ पुन्नभहे चेइए वन्नओ, जाव पुढविसिलावट्टओ । तए णं से जमाली अणगारे अन्नया । ॥४८४॥ कयाइ पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं संपरिबुडे पुवाणुपुर्वि चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे जेणेव सावत्थी
नयरी जेणेव कोट्ठए चेइए तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्सा अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हति अहापडिरूपं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरह । तए णं समणे भगवं महावीरे , अन्नया कयावि पुषाणुपुर्षि चरमाणे जाव मुहं सुहेणं विहरमाणे जेणेव चंपानगरी जेणेच पुन्नभ चेइए तेणेव 3 उवागच्छद तेणेव उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हति अहा०२ संजमेणं तवसा अप्पाणं भावे
माणे विहरह ॥ तए णं तस्स जमालिस्स अणगारस्स तेहिं अरसेहि य पिरसेहि य अंतेहि य पंतहि य लूहेहि || काय तुच्छेहि य कालाइकतेहि य पमाणाइतेहि य सीतएहि य पाणभोषणेहिं अन्नया कयावि सरीरगंसि || द| विउले रोगातके पाउन्भूए उल्लले विजले पगाढे ककसे कड़ए चंडे दुक्खे दुग्गे तिबे दुरहियासे पित्तजरप-16॥४८॥ I||रिगतसरीरे दाहवर्कतिए पावि बिहरह । तए णं से जमाली अणगारे वेयणाए अभिभूए समाणे समणे
|णिग्गथे सदावह सहावेत्ता एवं वयासी-तुझे णं देवाणुप्पिया ! मम सेज्जासंधारगं संथरेह, तए णं ते
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८६-३८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३८६
-३८७]
दीप
समणा णिग्गंथा जमालिस्स अणगारस्स एयमढ विणएणं पडिसुणेति पडिसुणेत्ता जमालिस्स अणगारस्सा सेज्जासंथारगं संघरैति, तए णं से जमाली अणगारे बलियतरं वेदणाए अभिभूए समाणे दोचंपि समणे | निग्गंथे सहावेइ २ सा दोचंपि एवं वयासी-ममन्नं देवाणुप्पिया! सेनासंधारए किं कडे कजइ, एवं बुत्ते
समाणे समणा निग्गंथा विति-भो सामी ! कीरइ, तए णं ते समणा निग्गंथा जमालिं अणगारं एवं वयासी|णो खलु देवाणुप्पियाणं सेवासंथारए कडे कजति, तए णं तस्स जमालिस्स अणगारस्स अयमेयारूवे अज्झ|थिए जाव समुप्पज्जित्था-जन्नं समणे भगवं महावीरे एवं आइक्खइ जाव एवं परवेइ-एवं खलु चलमाणे चलिए उदीरिजमाणे उदीरिए जाव निजरिजमाणे णिजिन्ने तं णं मिच्छा इमं च णं पच्चक्खमेव दीसइ सेजासंधारण कज्जमाणे अकडे संघरिजमाणे असंथरिए जम्हा णं सेजासंधारए कजमाणे अकडे संथरिजमाणे || असंथरिए तम्हा चलमाणेवि अचलिए जाव निजरिजमाणेवि अणिजिन्ने, एवं संपेहेइ एवं संपेहेत्ता समणे | निग्गंथे सहावेइ समणे निग्गंधे सहावेत्ता एवं वयासी-जन्नं देवाणुप्पिया । समणे भगवं महावीरे एवं आइक्खइ जाव परूवेद-एवं खलु चलमाणे चलिए तं चेव सवं जाव णिज्जारज्जमाणे अणिज्जिन्ने । तए णं जमालिस्स अणगारस्स एवं आइक्खमाणस्स जाच परवेमाणस्स अत्धेगइया समणा निग्गंथा एयमद्वं सद्दहति । पत्तियंति रोयंति अत्धेगइया समणा निग्गंधा एघमझु णो सद्दहति ३, तत्थ णं जे ते समणा निग्गंधा जमा| लिस्स अणगारस्स एयम8 सदहति ३ ते णं जमालिं चेव अणगारं उबसंपज्जित्ताणं विहरंति, तत्व णं जे ते
+ CCCCCCCCC
अनुक्रम [४६६-४६७]]
जमाली-चरित्रं
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८६-३८७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३८६-३८७]]
व्याख्या-समणाणगया जमालस्सणगार
समणा णिग्गधा जमालिस्स अणगारस्स एयमटुं णो सदहति णो पत्तियंतिणो रोयंति ते णं जमालिस्स अण- शतके प्रज्ञप्तिः | गारस्स अंतियाओ कोट्ठयाओ चेयाओ पडिनिक्खमंति २ पुषाणुपुर्षि चरमाणे गामाणुगामं दूह. जेणेव उद्देशः ३३ अभयदेवी- चंपानयरी जेणेव पुन्नभद्दे चेहए जेणेव समणं भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ २त्ता समणं भगवं महावीरं जमालेनिया वृत्तिः तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेंति २त्ता बंदइ णमंसइ २ समर्ण भगवं महावीरं उवसंपज्जित्ता ण विह-|| रुत्तरता ॥४८५||
रति । (सूत्रं ३८६)तए णं से जमाली अणगारे अन्नया कयावि ताओ रोगायंकाओ विप्पमुके हढे तुढे जाए & अरोए पलियसरीरे सावत्थीओ नयरीओ कोट्टयाओ चेइयाओ पडिनिक्खमह२ पुवाणुपुर्षि चरमाणे गामाणु-12
गाम दूइज्जमाणे जेणेव चंपा नयरी जेणेव पुनभद्दे चेहए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागन्छइ & || समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिचा समणं भगवं महावीरं एवं बयासी-जहा गं देवाणु-I & प्पियाणं बहवे अंतेवासी समणा निग्गंधा छउमत्था भवेत्ता छउमस्थावकमणेणं अवकता णो खलु अहं||
तहा छउमस्थे भवित्ता छउमस्थावकमणेणं अवक्कमिए, अहन्नं उप्पन्नणाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली |भवित्ता केवलिअवकमणेणं अवकमिए, तए थे भगवं गोयमे जमालिं अणगारं एवं वयासी-णो खलु जमा
ली ! केवलिस्स णाणे वा दंसणे वा सेलसि वा थंभंसि वा थूभंसि वा आवरिजइ वा णिवारिजइ वा, जहर गाणं तुम जमाली! उप्पन्नणाणदसणधरे अरहा जिणे केवली भवित्ता केवलिअवकमणेणं अबकते तो इमाई
दो वागरणाई वागरेहि-सासए लोए जमाली! असासए लोए जमाली, सासए जीवे जमाली! असासए
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दीप
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अनुक्रम [४६६-४६७]]
॥४८५॥
जमाली-चरित्रं
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[३८६
-३८७]
दीप
अनुक्रम
[४६६
-४६७]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति: ]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर् शतक [-], उद्देशक [ ३३ ], मूलं [ ३८६-३८७]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
जीवे जमाली ?, तए णं से जमाली अणगारे भगवया गोयमेणं एवं बुत्ते समाणे संकिए कंखिए जाव कल| ससमाचन्ने जाए यावि होत्या, णो संचापति भगवओ गोयमस्स किंचिवि पमोक्खमाइक्खित्तए तुसिणीए संचिट्ठइ, जमालीति समणे भगवं महावीरे जमालिं अणगारं एवं वयासी अस्थि णं जमाली ममं बहवे अंतेवासी समणा निग्गंधा छउमत्था जेणं एयं वागरणं वागरित्तए जहाणं अहं नो चेवणं एयप्पगारं भासं भासित्तए | जहा णं तुमं, सासए लोए जमाली ! जन्न कयादि णासि ण कयाविण भवति ण कदावि ण भविस्सह भुर्वि च भवइ य भविस्सह य धुवे णितिए सासए अंक्खए अक्षर अवट्ठिए णिचे, असासए लोए जमाली । जओ | ओसप्पिणी भवित्ता उस्सप्पिणी भवइ उस्सप्पिणी भवित्ता ओसप्पिणी भवइ, सासए जीवे जमाली ! जं न कयाइ णासि जाव णिचे असासए जीवे जमाली जन्नं नेरइए भवित्ता तिरिक्खजोणिए भवह तिरिक्खजोणिए भवित्ता मणुस्से भवइ मणुस्से भवित्ता देवे भवइ । तए णं से जमाली अणगारे समणस्स भगवओ | महावीरस्स एवमाइक्खमणस्स जाव एवं परूवेमाणस्स एयमहं णो सदहइ णो पत्तिएइ णो रोएर एयमहं | असद्दहमाणे अपत्तियमाणे अरोपमाणे दोचंपि समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ आयाए अवक| मह दोबंपि आयाए अवकमित्ता बहूहिं असम्भावुभावणाहिं मिच्छत्ताभिणिवेसेहि य अप्पाणं च परं च तदुभयं च बुग्गाहेमाणे दुप्पाएमाणे बहूयाई वासाई सामन्नपरियागं पाउणइ २ अद्धमासियाए संलेहणाए
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दीप
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-४६७]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति: ]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर् शतक [-], उद्देशक [ ३३ ], मूलं [ ३८६-३८७]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥४८६॥
अत्ताणं झूसेह अ० २ तीसं भत्ताई अणसणाए छेदेति २ तस्स ठाणस्स अणालोश्यपडिते कालमासे काल | किया लंतए कप्पे तेरससागरोवमठितिएस देवकिञ्चिसिएस देवेसु देवकिविसियत्ताए उबवन्ने (सूत्रं० ३८७ ) 'नो आढाइ 'त्ति नाद्रियते तत्रार्थे नादरवान् भवति 'नो परिजाणह' त्ति न परिजानातीत्यर्थः भाविदोषत्वेनोपेक्षणीयत्वा५ त्तस्येति ॥ 'अरसेहि य'ति हिमवादिभिरसंस्कृतत्वादविद्यमानरसैः 'विरसेहि य'त्ति पुराणत्याद्विगतरसैः 'अंतेहि य'ति | अरसतया सर्वधान्यान्तवर्त्तिभिर्वल्लचणकादिभिः 'पंतेहि यत्ति तैरेव भुक्तावशेषत्वेन पर्युषितत्वेन वा प्रकर्षेणान्तवर्त्तित्वात्प्रान्तैः 'व्हेहि य'ति रूक्षैः 'तुच्छेहि य'त्ति अल्यैः 'कालाइकंतेहि य'त्ति तृष्णावुभुक्षा कालाप्राप्तैः 'पमाणाइ| कंतेहि यत्ति बुभुक्षापिपासामात्रानुचितैः 'रोगायंके' त्ति रोगो-व्याधिः स चासावातङ्कश्च कृच्छ्रजीवित कारीति रोगातङ्कः 'उज्जले'त्ति उज्ज्वलो विपक्षलेशेनाप्यकलङ्कितत्वात् 'तिउले 'ति त्रीनपि मनःप्रभृतिकानर्थान् तुलयति-जयतीति त्रितुखः, कचिद्विपुल इत्युच्यते, तत्र विपुलः सकलकायव्यापकत्वात्, 'पगाढे'त्ति प्रकर्षवृत्तिः 'ककसे'त्ति कर्कशद्रव्यमिव कर्कशोऽनिष्ट इत्यर्थः ' कटुए'त्ति कटुकं नागरादि तदिव यः स कटुकोऽनिष्ट एवेति 'चंडे'त्ति रौद्रः 'दुक्खे'ति दुःखहेतुः 'दुग्गे 'ति कष्टसाध्य इत्यर्थः 'तिषे'त्ति तीव्रं तिक्तं निम्बादिद्रव्यं तदिव तीव्रः किमुक्तं भवति १- रहियासे'त्ति दुरधिसाः 'दाहवकंतिए'ति दाहो व्युत्क्रान्तः- उत्पन्नो यस्यासौ दाहव्युत्क्रान्तः स एव दाहव्युत्क्रान्तिकः | 'सेज्जासंधारगं'ति शय्यायै- शयनाय संस्तारकः शय्यासंस्तारकः ॥ 'बलियतरं' ति गाढतरं 'किं कडे कज्जइ'ति किं निष्पन्न उत निष्पाद्यते १, अनेनातीतकालनिर्देशेन वर्त्तमानकालनिर्देशेन च कृतक्रियमाणयोर्भेद उक्तः, उत्तरेऽप्येवमेव,
Jucaton Intemationa
जमाली चरित्रं
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९ शतके
उद्देशः ३६ जमालेर्नि रुत्तरता
सू ३८७
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[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८६-३८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
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सूत्रांक
[३८६
-३८७]
तदेवं संस्तारककर्तृसाधुभिरपि क्रियमाणस्याकृततोक्ता, ततश्चासौ स्वकीयवचनसंस्तारककर्तृसाधुवचनयोविमर्शात् प्ररूपि8 तवान्-क्रियमाणं कृतं यदभ्युपगम्यते तन्न सङ्गच्छते, यतो येन क्रियमाणं कृतमित्यभ्युपगतं तेन विद्यमानस्य करणक्रिया प्रतिपन्ना, तथा च बहवो दोषाः, तथाहि-यत्कृतं तरिक्रयमाणं न भवति, विद्यमानत्वाचिरन्तनघटवत् , अथ कृत
मपि क्रियते ततः क्रियतां नित्यं कृतत्वात् प्रथमसमय इवेति, न च क्रियासमाप्तिर्भवति सवेंदा क्रियमाणत्वादादिसमय४ वदिति, तथा यदि क्रियमाणं कृतं स्यात्तदा क्रियावैफल्यं स्वाद् अकृतविषय एव तस्याः सफलत्वात् , तथा पूर्वमसदेव
भवदृश्यने इत्यध्यक्षविरोधश्च, तथा घटादिकार्यनिष्पत्तौ दीर्घः क्रियाकालो दृश्यते, यतो नारम्भकाल एव घटादिकार्य ॥ दृश्यते नापि स्थासकादिकाले, किं तहि, तरिक्रयाऽवसाने, यतश्चैवं ततोन क्रियाकालेषु युक्त कार्य किन्तु क्रियाऽत्र|सान एवेति, आह च भाष्यकार:-"जस्सेह कजमाणं कयति तेणेह विजमाणस्स । करणकिरिया पवना तहा य बहुदोसपडिवत्ती ॥ १॥ कयमिह न कज्जमाणं तब्भावाओ चिरंतणघडोब । अहवा कयपि कीरइ कीरउ निश्च न य समत्ती ॥२॥ किरियावेफलंपि य पुवमभूयं च दीसप हुँतं । दीसइ दीहो य जओ किरियाकालो घडाईणं ॥३॥ नारंभे चिय
१ यस्येह क्रियमाणं कृतमिति मतं तेनेह विद्यमानस्य करणक्रियाशीकृता तथा च बहुदोषापत्तिः ॥ १ ॥ इह कृतं न क्रियमाणं तद्भावाचिरन्तनघट इव । अथवा कृतमपि चेक्रियते करोतु नित्यं न च समातिः ॥ २ ॥ क्रियाफल्यमपि च पूर्वमभूतं च भवदृश्यते (दृष्टापळापः ) यत्नो पढादीनां क्रियाकालश्च दी| दृश्यते ॥ ३ ॥न चारम्भे
अनुक्रम [४६६-४६७]]
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आगम
[०५]
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सूत्रांक
[३८६
__-३८७]
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अनुक्रम
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-४६७]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति: ]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर् शतक [-], उद्देशक [ ३३ ], मूलं [ ३८६-३८७]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
४८७
दीसह न सिवादखाइ दीसह तदंते । तो नहि किरियाकाले जुत्तं कर्ज तदंतंमि ॥ ४ ॥” इति । 'अत्थेगइया समणा णिगंधा एयमहं णो सद्दहंति'त्ति ये च न श्रदधति तेषां मतमिदं-नाकृतं अभूतमविद्यमानमित्यर्थः क्रियते अभावात् खपुष्पवत्, यदि पुनरकृतमपि असदपीत्यर्थः क्रियते तदा खरविषाणमपि क्रियतामसत्त्वाविशेषात् अपि च-ये कृतकरणपक्षे नित्यक्रियादयो दोषा भणितास्ते च असत्करणपक्षेऽपि तुल्या वर्त्तन्ते, तथाहि नात्यन्तमसत् क्रियतेऽसद्भावात् खरवि पाणमिव, अथात्यन्तासदपि क्रियते तदा नित्यं तत्करणप्रसङ्गः, न चात्यन्तासतः करणे क्रियासमाप्तिर्भवति, तथाऽत्यन्तासतः करणे क्रियावैफल्यं च स्यादसत्त्वादेव खरविषाणवत्, अथ च अविद्यमानस्य करणाभ्युपगमे नित्यक्रियादयो दोषाः कष्टतरका भवन्ति, अत्यन्ताभावरूपत्वात् खरविषाण इवेति, विद्यमानपक्षे तु पर्यायविशेषेणापर्ययणात् स्यादपि क्रियाव्यपदेशो यथाssकाशं कुरु, तथा च नित्यक्रियादयो दोषा न भवन्ति, न पुनरयं म्यायोऽत्यन्तासति खरविषाणादावस्तीति यच्चो- 'पूर्वमसदेवोत्पद्यमानं दृश्यत इति प्रत्यक्षविरोधः', तत्रोच्यते, यदि पूर्वमभूतं सद्भवद्दृश्यते तदा पूर्वमभूतं सद्भवत् कस्मात्त्वया खरविषाणमपि न दृश्यते, यच्चोक्तं-'दीर्घः क्रियाकालो दृश्यते, तत्रोच्यते', प्रतिसमयमुत्पनानां परस्परेणेषद्विलक्षणानां सुबह्वीनां स्थासकोसादीनामारम्भसमयेष्वेव निष्ठानुयायिनीनां कार्यकोटीनां दीर्घः क्रियाकालो यदि दृश्यते तदा किमत्र घटस्यायातं १ येनोच्यते दृश्यते दीर्घश्व क्रियाकालो घटादीनामिति, यच्चोक्तं- 'नारम्भएव दृश्यते' इत्यादि, तत्रोच्यते, कार्यान्तरारम्भे कार्यान्तरं कथं दृश्यतां पटारम्भे घटवत् ?, शिवकस्थासकादयश्च कार्य१ दृश्यते ( घटादि ) न स्वासकाद्यद्धायां किन्तु तदन्ते ततः क्रियाकाले कार्य न युक्तं युक्तम् तदन्त एव ॥ ४ ॥
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९ शतके
उद्देशः ३३ कृतक्रिय
माणता सू३८७
॥४८७||
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८६-३८७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
CACROCC
सूत्रांक
[३८६
बर
-३८७]
विशेषा घटस्वरूपा न भवन्ति, ततः शिवकादिकाले कथं घटो दृश्यतामिति !, किंच-अन्त्यसमय एव घटः समारब्धः, तत्रैव च यद्यसौ रश्यते तदा को दोषः, एवं च क्रियमाण एवं कृतो भवति, क्रियमाणसमयस्य निरंशत्वात् , यदि च संप्रतिसमये क्रियाकालेऽप्यकृतं वस्तु तदाऽतिक्रान्ते कथं क्रियतां कथं वा एष्यति', क्रियाया उभयोरपि विनष्टत्वानुत्पन्नत्वेनासत्त्वादसम्बध्यमानत्वात् , तस्मात् क्रियाकाल एव क्रियमाणं कृतमिति, आह च-"थेराण मयं नाकयमभावओ कीरए खपुप्फंव । अहव अकयंपि कीरइ कीरउ तो खरविसाणंपि ॥१॥ निश्चकिरियाइ दोसा नणु तुला असइ कहतरया वा । पुबमभूयं च न ते दीसइ किं खरविसाणंपि ? ॥२॥ पइसमउप्पन्नाणं परोप्परविलक्खणाण सुबहूर्ण । दीहो
किरियाकालो जइ दीसइ किं च कुंभस्स ॥ ३ ॥ अन्नारंभे अन्नं किह दीसा जह घडो पडारंभे । सिवगादओ न कुंभो। * किह दीसउ सो तदाए ॥४॥ अंते चिय आरद्धो जइ दीसइ तमि चेव को दोसो।।अकयं च संपइ गए किहु कीरउ Poll किह व एसंमि ॥५॥" इत्यादि बहु वक्तव्यं तच्च विशेषावश्यकादवगन्तव्यमिति । 'छउमत्थावकमणेणं'ति छद्म
१ खपुष्पमिवाकृतं न क्रियतेऽभावादिति स्थविरमतम् । अथ चाकृतमपि क्रियते तदा खरविषाणमपि कियताम् ॥ १॥ नित्यक्रियादयो दोषा ननु तुल्या असति कष्टतरका वा । खरविषाणमपि पूर्वमभूतं खया किन दृश्यते । ॥ २॥ प्रतिसमयोत्पन्नानां सुबहूनां परस्पर विल
क्षणानां क्रियाणां कालो दीपों यदि दृश्यते कुम्भस्य किम् ॥३॥ अन्यारम्भेऽन्यत् कथं दृश्यताम् ! यथा पटारम्भे घटः । शिवफादयो न ४ कुम्भो दृश्यतां कथं स तत्काले ! ॥१॥ अन्त एवं यद्यारम्धोऽन्त एव यदि दृश्यते को दोषः । वर्तमानेऽकृतं च चेत्कथं अतीते क्रियता कथं चैष्यति काले ! भविष्यति ॥ ५॥
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अनुक्रम [४६६-४६७]]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८६-३८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
जमालिम
[३८६-३८७]
दीप अनुक्रम [४६६-४६७]]
व्याख्या- स्थानां सतामपक्रमणं-गुरुकुलान्निर्गमनं छद्मस्थापक्रमणं तेन, 'आवरिज 'त्ति ईपनियते 'निवारिजईत्ति नितरां|
९ शतके प्रज्ञप्तिः वार्यते प्रतिहन्यत इत्यर्थः 'न कयाइ नासी'त्यादि तत्र न कदाचिन्नासीदनादित्वात् न कदाचिन्न भवति सदैव भावात् है
उद्देशः ३३ अभयदेवी-४न कदाचिन्न भविष्यति अपर्यवसितत्वात् , किं तर्हि ?,'भविंचे'त्यादि ततश्चायं त्रिकालभावित्वेनाचलत्वाद् ध्रुवो मेर्वादिया वृत्तिःवत् ध्रुबत्वादेव 'नियतः' नियताकारो नियतत्वादेव शाश्वतः प्रतिक्षणमप्यसत्त्वस्याभावात् शाश्वतत्त्वादेव 'अक्षयः'
रणं सू३८८ निर्विनाशः, अक्षयत्वादेवाव्ययः प्रदेशापेक्षया, अवस्थितो द्रव्यापेक्षया, नित्यस्तदुभयापेक्षया, एकार्था वैते शब्दाः।
1 किल्बिषि
। ॥४८८॥
काम्सू३८९ तएणं से भगवंगोयमे जमालिं अणगारं कालगयं जाणित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छह ते०२ समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति २ एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी कुसिस्से | जमालिणाम अणगारे से णं भंते ! जमाली अणगारे कालमासे कालं किच्चा कहिं गए कहिं उववन्ने ?, गोयमादि समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी-एवं खलु गोयमा! ममं अंतेवासी कुसिस्से जमाली नाम से णं तदा मम एवं आइक्खमाणस्स ४ एयमढ णो सहहाइ ३ एयमट्ठ असदहमाणे ३ दोपि ममं अंतियाओ आयाए अवकमइ २ बहहिं असम्भावुन्मावणाहिं तं चेव जाव देवकिविसियत्ताए उववन्ने (सूत्रं ३८८)।
कतिविहाणं भंते ! देवकिषिसिया पन्नता, गोयमा । तिविहा देवकिपिसिया पण्णत्ता, तंजहा-तिपलि-|| लाओवमहिइया तिसागरोवमट्ठिड्या तेरससागरोवमट्टिया, कहिणं भंते । तिपलिओवमद्वितीया देवकि- ॥४८॥
बिसिया परिवसंति ?, गोयमा ! उप्पि जोइसियाणं हिहि सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु एत्य णं तिपलिओवम
SAREauratonintamatkina
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८८-३९०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३८८-३९०]
दीप अनुक्रम [४६८-४७०]
हिल्या देवकिपिसिया परिवसति । कहि णं भंते ! तिसागरोवमहिइया देवकिचिसिया परिवसंति !, गोय-3 ट्रमा! खप्पि सोहम्मीसाणाणं कप्पा हिहिं सर्णकुमारमाहिंदेसु कप्पेसु पस्थ णं सिसागरोवमडिया
देवकिपिसिया परिवसंति, कहिणं भंते ! तेरससागरोवमट्टिइया देवकिपिसिया देवा परिवसंति !, गोयमा उपि भलोगस्स कप्पस्स हिडिं लंतए कप्पे एत्थ णं तेरससागरोवमहिइया देवकिविसिया देवा15 |परिवसंति । देवकिपिसिया णं भंते ! केसु कम्मादाणेसुदेवकिविसिपत्ताए उववत्तारो भवंति', गोयमा । जे इमे जीवा आयरियपडिणीया उवज्झायपडिणीया कुलपरिणीया गणपडिणीया संघपडिणीया आयरिय| उवज्झायाणं अयसकरा अवनकरा अकित्तिकरा बहुर्हि असम्भावुग्भावणाहिं मिच्छत्ताभिनिवेसेहि य अप्पाणं च ३ बुग्गाहेमाणा दुप्पाएमाणा यहूई वासाई सामनपरियागं पाउणति पा०२तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिकते कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवकिबिसिएसु देवकिविसियसाए उववत्तारो भवंति, संजहा-तिपलिओवमहितीएसु वा तिसागरोबमद्वितीएसु वा तेरससागरोचमहितीएसु वा । देवकिचिसियाणे । भंते ! ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्वएणं ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चहत्ता कहिं गछति कहिं उववनंति !, गोयमा । जाव चत्तारि पंच नेरइयतिरिक्वजोणियमणुस्सदेषभवग्गहणाई संसारं अणुपरियहिसा तो पच्छा सिझंति बुज्झति जाव अंतं करेंति, अत्धेगइया अणादीयं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरं-| तसंसारकतारं अशुपरियति ।। जमाली णं भंते! अणगारे अरसाहारे विरसाहारे अंताहारे लहाहारे तुच्छा
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८८-३९०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३८८-३९०]
॥४८९॥
दीप अनुक्रम
व्याख्या- हारे अरसजीवी विरसजीवी जाव तुच्छजीची अवसंतजीवी पसंतजीवी विवित्राजीवी, हंता गोयमा ।
उद्देशः३३ प्रज्ञप्तिः जमाली णं अणगारे अरसाहारे विरसाहारे जाव विवित्तजीवी । जति णं भंते ! जमाली अणगारे अर अभयदेवी
किल्बिषिया वृत्तिः साहारे विरसाहारे जाव विवित्तजीवी कम्हा णं भंते ! जमाली अणगारे कालमासे कालं किच्चा लंतए
लता का सू३८९ कप्पे तेरससागरोषमहितिएसु देवकिपिसिएम देवेसु देवकिपिसियत्ताए उबवन्ने , गोषमा 1 जमाली | जमाले अणगारे आयरियपडिणीए उवज्झायपडिणीए आयरियउवज्झायाणं अयसकारए जाव चुप्पाएमाणे जाव बहूई संसारः वासाइं सामनपरियागं पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए तीसं भत्ताई अणसणाए छेदेति तीसं०२ तस्स सू ३९० ठाणस्स अणालोइयपडिफ्ते कालमासे कालं किच्चा लंतए कप्पे जाव उववन्ने । (मूत्रं० ३८९) जमाली गं भंते ! देवे ताओ देवलोयाओ आउक्वएणं जाव कहिं उववज्जा, गोयमा ! चत्तारि पंच तिरिक्खजोणियम|णुस्सदेवभवग्गहणाई संसारं अणुपरियट्टित्ता तओ पच्छा सिज्झिहिति जाव अंतं काहेति । सेवं भंते २त्ति | (सूत्रं० ३९०)। जमाली समत्तो ॥९॥ ३३ ॥ | 'आयाए'त्ति आत्मना असम्भाबुम्भावणाहिं'ति असद्भावानां-वितथार्थानामुद्भावना-उत्प्रेक्षणानि असायोडावना४) स्ताभिः मिच्छत्ताभिनिवेसेहि यति मिथ्यात्वात-मिथ्यादर्शनोदयाद थेऽभिनिवेशा-आमहास्ते तथा तैः 'बुग्गाहेमाणे'त्तिा | ब्युग्राहयन विरुद्भग्रहवन्तं कुर्वन्नित्यर्थः 'बुपाएमाणे ति व्युत्पादयन् दुर्विदग्धीकुर्वन्नित्यर्थः । 'केसु कम्मादाणेसु'त्ति |
॥४८९॥ केषु कर्महेतुषु सरिस्वत्यर्थः 'अजसकारगे'त्यादी सर्वदिग्गामिनी प्रसिद्धिर्यशस्सत्पतिषेधादयशः, अवर्णस्त्वप्रसिद्धिमात्रम् ,
+:58-15
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३३], मूलं [३८८-३९०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३८८-३९०]
B5555
अकीर्तिः पुनरेकदिग्गामिन्यप्रसिद्धिरिति 'अरसाहारे'त्यादि, इह च 'अरसाहारे' इत्याद्यपेक्षया 'अरसजीवी'त्यादि न पुनरुक्तं शीलादिप्रत्ययार्थेन भिन्नार्थत्वादिति, 'उवसंतजीवित्ति उपशान्तोऽन्तर्वृत्त्या जीवतीत्येवंशील उपशान्तजीवी, एवं प्रशान्तजीवी नवरं प्रशान्तो बहिर्वृत्त्या, 'विवित्तजीवित्ति इह विविक्तः स्यादिसंसक्तासनादिवर्जनत इति । अथ | भगवता श्रीमन्महावीरेण सर्वज्ञत्वादमुं तद्भवतिकरं जानताऽपि किमिति प्रबाजितोऽसौ ? इति, उच्यते, अवश्यम्भाविभावानां महानुभावरपि पायो लहयितुमशक्यत्वाद् इत्थमेव वा गुणविशेषदर्शनाद्, अमूढलक्षा हि भगवन्तोऽहन्तो न निष्प्र-12 योजन क्रियासु प्रवर्तन्त इति ॥ नवमशते त्रयस्त्रिंशत्तम उद्देशकः समाप्तः॥९॥ ३३॥
दीप अनुक्रम [४६८-४७०]
अनन्तरोद्देशके गुरुप्रत्यनीकतया स्वगुणव्याधात उक्तश्चतुर्विंशत्तमे तु पुरुषव्याघातेन तदन्यजीवव्याघात उच्यत इत्यैवसंवद्धस्यास्वेदमादिसूत्रम्
तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव एवं घयासी-पुरिसे णं भंते । पुरिसं हणमाणे किं पुरिसं हण||४|| नोपुरिसं हणइ ?, गोयमा ! पुरिसंपि हणइ नोपुरिसेवि हणति, से केणटेणं भंते ! एवं बुचइ पुरिसंपि हण नोपुरिसेवि हणइ ?, गोयमा ! तस्स णं एवं भवइ एवं खलु अहं एगं पुरिसं हणामि से णं एगं पुरिसं हणमाणे अणेगजीवा हणइ, से तेणटेणं गोयमा! एवं युवाइ पुरिसंपिहणइ नोपुरिसेवि हणति । पुरिसेणं भंते !! आसं हणमाणे किं आसं हणइ नोभासेवि हणइ ?, गोयमा! आसंपि हणइ नोआसेवि हणइ, से केणटेणं |
अत्र नवमे शतके त्रयस्त्रिंशत-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ नवमे शतके चस्त्रिंशत-उद्देशक: आरभ्यते
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आगम
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अनुक्रम [४७१]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः ]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर् शतक [-], उद्देशक [३४] मूलं [ ३९१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥४९०॥
अट्ठो तहेव, एवं हत्थि सीहं वग्धं जाव चिह्नलगं । पुरिसे णं भंते । अन्नपरं तसपाणं हणमाणे किं अन्नयरं तसपाणं हणइ नोअन्नपरे तसपाणे हणइ ?, गोयमा ! अन्नयरंपि तसपाणं हणइ नोअन्नयरेवि तसे पाणे हाइ, से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ अन्नयरंपि तसं पाणं नोअन्नयरेवि तसे पाणे हणइ ?, गोयमा ! तस्स पर्ण | एवं भवइ एवं खलु अहं एवं अन्नयरं तसं पाणं हणामि से णं एवं अन्नयरं तसं पाणं हणमाणे अणेगे जीवे हाइ, से तेणट्टेणं गोयमा ! तं चैव एए सचेवि एक्कगमा । पुरिसे णं भंते । इसिं हणमाणे किं इसिं हणह नोइसिं हणइ १, गोयमा ! इसिपि हणइ नोइसिंपि हणइ, से केणट्टेणं भंते ! एवं बुचर जाब नोइसिंपि हणइ ?, गोयमा । तस्स णं एवं भवइ एवं खलु अहं एगं इसि हणामि, से णं एवं इसिं हणमाणे अणते जीवे हणह से तेणद्वेणं निक्खेषओ । पुरिसे णं भंते । पुरिसं हणमाणे किं पुरिसवेरेणं पुढे नोपुरिसवेरेणं पुढे ?, गोपमा । नियमा ताव पुरिसवेरेणं पुढे अहवा पुरिसवेरेण य णोपुरिसवेरेण य पुढे अहवा पुरिसवेरेण य नोपुरिसबेरेहि य पुट्ठे, एवं आसं एवं जाव चिह्नलगं जाव अहवा चिल्ललगवेरेण य णो चिल्लगचेरेहि य पुढे, पुरिसे णं भंते ! इसिं हणमाणे किं इसिवेरेणं पुढे नोहसिवेरेणं १, गोयमा 1 नियमा इसिवेरेण य नोइसिबेरेहि य | पुढे ॥ (सू० ३९१ )
'ते' मित्यादि, 'नोपुरिसं हणइ त्ति पुरुषव्यतिरिक्तं जीवान्तरं हन्ति 'अणेगे जीवे हाइ'सि 'अनेकान् जीवान्' धूकाशतपदिका कृमिगण्डोलकादीन् तदाश्रितान् तच्छरीरावष्टब्धांस्तद्रुधिरप्छा वितादिश्च हन्ति, अथवा स्वकायस्याकुश्च
Education internationa
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९ शतके
उद्देशः २४ पुरुषऋषिवैरादि
सू ३९१
॥४९०॥
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३४], मूलं [३९१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३९१]
दीप अनुक्रम [४७१]
नप्रसरणादिनेति, 'छणइत्ति क्वचित्पाठस्तत्रापि स एवार्थः, क्षणधातोहिसार्थत्वात् , बाहुल्याश्रयं चेदं सूत्रं, तेन पुरुषं नन्। तथाविधसामग्रीवशात् कश्चित्तमेव हन्ति कश्चिदेकमपि जीवान्तरं हन्तीत्यपि द्रष्टव्यं, वक्ष्यमाणभङ्गकत्रयान्यथाऽनुपप
तेरिति, 'एते सधे एकगमा 'एते' हस्त्यादयः 'एकगमाः' सहशाभिलापाः 'इसिंति ऋषिम् 'अणंते जीवे हणइत्ति || दि|ऋषि प्रसनन्तान् जीवान् हन्ति, यतस्तपातेऽनन्तानां घातो भवति, मृतस्य तस्य विरतेरभावेनानम्तजीवघातकत्वभा-टू
वात् , अथवा ऋषिजीवन बहून् प्राणिनः प्रतिबोधयति, ते च प्रतिबुद्धा! क्रमेण मोक्षमासादयन्ति, मुक्ताश्चानन्तानामपि
संसारिणामघातका भवन्ति, तद्वधे चैतत्सर्वं न भवत्यतस्तद्धेऽनन्तजीववधो भवतीति, 'निक्खेवओ'त्ति निगमनं । &||'नियमा परिसवेरेणे'त्यादि, पुरुषस्य हतत्वान्नियमात्पुरुषवधपापेन स्पृष्ट इत्येको भङ्गाः, तत्र च यदि पाण्यन्तरमपि
| हतं तदा पुरुषवरेण नोपुरुषचरेण चेति द्वितीयः, यदि तु बहवः प्राणिनो हतास्तत्र तदा पुरुषवरेण नोपुरुषधेरैश्चेति तृती||| यः, एवं सर्वत्र त्रयम् , ऋषिपक्षे तु ऋषिवैरेण नोऋषिवरैश्चेत्येवमेक एव, ननु यो मृतो मोक्षं यास्यत्यविरतो न भविष्यति
तस्पर्षेबंधे ऋषिरमेव भवत्यतः प्रथमविकल्पसम्भवः, अथ चरमशरीरस्य निरुपक्रमायुष्कवान हननसम्भवस्ततोऽचरमशरीरापेक्षया यथोक्तभलकसम्भवो, नैवं, यतो यद्यपि घरमशरीरो निरुपक्रमायुष्कस्तथाऽपि तद्वधाय प्रवृत्तस्य यमुनराजस्पेव वैरमस्त्येवेति प्रथमभङ्गकसम्भव इति, सत्यं, किन्तु यस्य ऋषेः सोपक्रमायुष्कत्वात् पुरुषकृतो वधो भवति तमाश्रित्येदं सूत्रं प्रवृत्तं, तस्यैव हननस्य मुख्यवृत्त्या पुरुषकृतत्वादिति ॥ प्राग् हननमुक्तं, हननं घोच्छासादिवियोगोऽत मासादिवक्तव्यतामाह
5555%
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३४], मूलं [३९२-३९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३९२-३९३]
दीप अनुक्रम [४७२-४७३]
पुढविकाइया णं भंते ! पुढविकायं चेव आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा ?, हंता व्याख्या
९ शतके प्रज्ञप्तिः
गोयमा ! पुढविक्काइए पुढविक्काइयं चेव आणमंति वा जाच नीससंति वा । पुढवीकाइए पं भंते ! आउकाइयं उद्देशः ३४ समयदेवी- आणमंति वा जाव नीससंति?, हता गोयमा ! पुढविक्काइए आउकाइयं आणमंति वा जाव नीससंति चा,|| पृथ्व्यादीपा.वृत्तिः २ एवं तेउकाइयं वाउचाइयं एवं वणस्सइयं । आउकाइए णं भंते ! पुढवीकाइयं आणमंति वा पाणमंति वा , नामुच्यासः ॥४९॥
एवं चेच, आउकाइए णं भंते ! आउकाहयं चेव आणमंति चा?, एवं चेव, एवं तेजवाजवणस्सइकाइयं तेज-|| सू २९२ काइए णं भंते ! पुढविकाइयं आणमंति वा ?, एवं जाव चणस्सइकाइए गं भंते ! वणस्सइकाइयं चेव आण-||||mage मंति वा तहेव । पुढविकाइए ण भंते ! पुढविकाइयं चेव आणममाणे वा पाणममाणे वा ऊससमाणे वा नीस
लनादौ क्रिसमाणे वा कइकिरिए !, गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए, पुढविकाइए गंभंते !
याःसू३९३ * आजक्काइयं आणममाणे वा०१ एवं चेव एवं जाव वणस्सइकाइयं, एवं आउकाइएणवि सधेवि भाणियबा, oilएवं तेउक्काइएणवि, एवं बाउकाइएणवि, जाव वणस्सइकाइए णं भंते ! वणस्सइकाइयं चेव आणममाणे वा? IN पुच्छा, गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए ॥ (सूत्र० ३९२) वाउकाइए णं भंते । || रुक्खस्स मूलं पचालेमाणे वा पवाडेमाणे वा कतिकिरिए, गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए । एवं कंद एवं जाच मूलं बीयं पचालेमाणे वा पुच्छा, गोयमा! सिय तिकिरिए सिय चउकि
॥४९॥ XIरिए सिय पंचकिरिए । सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति (सूत्रं०३९३)॥ नवमं सयं समतं ॥ ९॥ ३४ ॥
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३४], मूलं [३९२-३९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३९२-३९३]
SACCOACC45646RSS
| 'पुदविकाइए णं भंते' इत्यादि, इह पूज्यव्याख्या यथा वनस्पतिरन्यस्योपर्यन्यः स्थितस्तत्तेजोग्रहणं करोति एवं प्रधि-|| वीकायिकादयोऽप्यन्योऽन्यसंबद्धत्वात्तत्तद्रूपं प्राणापानादि कुर्वन्तीति, तत्रैकः पृथिवीकायिकोऽन्यं स्वसंबद्धं पृथिवीकायिकम् अनिति-तद्रूपमुच्छ्रासं करोति, यथोदरस्थितकर्पूरः पुरुषः कर्पूरस्वभावमुच्छासं करोति, एवमकायादिकानिति, एवं पृथिवीकायिकसूत्राणि पश्च, एवमेवाप्कायादयः प्रत्येकं पश्च सूत्राणि लभन्त इति पञ्चविंशतिः सूत्राण्येतानीति । क्रियासूत्राण्यपि पश्चविंशतिस्तत्र 'सिय तिकिरिए'त्ति यदा पृथिवीकायिकादिः पृथिवीकायिकादिरूपमुच्डासं कुर्वन्नपि न तस्य पीडामुत्पादयति स्वभावविशेषात्तदाऽसौ कायिक्यादित्रिक्रियः स्यात् , यदा तु तस्य पीडामुत्पादयति तदा पारितापनिकीक्रियाभावाच्चतुक्रियः, प्राणातिपातसद्भावे तु पञ्चक्रिय इति ॥ क्रियाधिकारादेवेदमाह-बाउकाइए 'मित्यादि, इह च वायुना वृक्षमूलस्य प्रचलनं प्रपातनं वा तदा संभवति यथा नदीभित्त्यादिषु पृथिव्या अनावृत्तं तत्स्यादिति । अथ कथं प्रपातेन त्रिक्रियत्वं परितापादेः सम्भवात 1. उच्यते, अचेतनमुलापेक्षयेति ॥ नवमशते चतुर्विंशत्तमः॥९४॥ अस्मन्मनोव्योमतलप्रचारिणा, श्रीपार्श्वसूर्यस्य विसर्पितेजसा । दुर्घष्यसंमोहतमोऽपसारणाद् ,विभक्तमेवं नवमं शतं मया १
॥ समाप्तं नवमं शतम् ॥९॥ ॥ इति श्रीमदभयदेवसूरिविरचितवृत्तियुतं नवमं शतकं समाप्तं ॥
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दीप अनुक्रम [४७२-४७३]
%
अत्र नवमे शतके चतुस्त्रिंशत-उद्देशक: परिसमाप्त:
तत् समाप्ते नवमं शतकं अपि समाप्तं
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [१०], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [३९४] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
१० शतके
प्रत सूत्रांक [३९४]
गाथा
व्याख्या- व्याख्यातं नवमं शतम् , अथ दशम व्याख्यायते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-अनन्तरशते जीवादयोऽर्थाः प्रतिपादिताः प्रज्ञप्तिः दिइहापित एव प्रकारान्तरेण प्रतिपाद्यन्ते, इत्येवंसम्बन्धस्यास्योदेशकार्थसनहगाधेयम्अभयदेवीदिसि १ संवुडअणगारे २ भायही ३ सामहत्थि ४ देवि ५ सभा ६ । उत्तर अंतरदीवा २८ दसममि
दिगधिकाया वृतिः२ ४ सयंमि चोत्तीसा ॥३४॥
सू ३९४ ॥४९॥ | 'दिसे'त्यादि, 'विस'त्ति दिशमाश्रित्य प्रथम उद्देशकः १ 'संवुडअणगारे'त्ति संवृतानगारविषयो द्वितीयः २'आइ
||हित्ति भारमयों देवो देवी वा वासान्तराणि व्यतिकामेदित्याद्यर्थाभिधायकस्तृतीयः ३ 'सामह स्थित्ति श्यामहस्त्य
भिधानश्रीमन्महावीरशिध्यप्रश्नप्रतिवद्धश्चतुर्थः ४'देवित्ति चमराद्यप्रमहिषीप्ररूपणार्थः पञ्चमः ५ 'सभ'त्ति सुधर्मसदाभाप्रतिपादनार्थः षष्ठः ६ 'उत्सरअंतरदीविति उत्तरस्यां दिशि येऽन्तरद्वीपास्तत्प्रतिपादनार्थी अष्टाविंशतिरुदेशका एवं चादितो दशमे शते चतुर्विंशदुदेशका भवन्तीति ॥
रापगिहे जाव एवं वयासी-किमियं भंते ! पाईणत्ति पवुच्चई, गोयमा ! जीवा चेव अजीचा चेव, कि| मियं भंते ! पडीणाति पखुचई, गोषमा! एवं चेच एवं दाहिणा एवं उदीणा एवं उहा एवं अहोवि । कति र्ण भिंते । दिसाओ पण्णताओ!, गोयमा दिस दिसाओ पण्णत्ताओ, तंजहा-पुरच्छिमा १ पुरच्छिमदाहिणा २||
| ॥४९२॥ दाहिणा ३ दाहिणपस्थिमा ४ पचस्थिमा ५ पञ्चस्थिमुत्तरा ६ उसरा ७ उत्तरपुरच्छिमा ८ खडा ९ महीना ||१०। एपासि णं भंते । वसण्हं दिसाणं कति णामधेनापण्णता,गोयमा दसनामधेजा पण्णता, तंजहा
दीप
अनुक्रम [४७४-४७५]
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OW
अथ दशमं शतकं आरब्धं अत्र दशमे शतके प्रथम-उद्देशक: आरभ्यते ...अत्र मूल-संपादने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते-गाथा स्थाने ||३४|| लिखितं, तत्र ||१|| एव वर्तते
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [१०], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [३९४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३९४]
गाथा
Mदा १ अग्गेपी २ जमा य ३ नेरती ४ वारुणी ५ वायवा ६ सोमा ७ ईसाणी य ८ विमला य९तमा य१० || बोद्धया । इंदा णं भंते । दिसा किं जीवा जीषदेसा जीवपएसा अजीवा अजीवदेसा अजीवपएसा, गो.॥
यमा ! जीवावि ३ तं चेव जाय अजीवपएसावि, जे जीवा ते नियमा एगिदिया घेइंदिया जाच पंचिंदिया || अणिदिया, जे जीवदेसा ते नियमा एगिदियदेसा जाव अणिदियदेसा, जे जीवपएसा ते एगिदियपएसा यो-12 दियपएसा जाच अर्णिदियपएसा, जे अजीवा ते दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-रूवी अजीवा य अरूवी अजीवाय, जे रूची अजीचा ते चउबिहा पन्नत्ता, तंजहा-खंधा १ खंधदेसा २ खंधपएसा ३ परमाणुपोग्गला ४, जे अरूवी अजीवा ते सत्तविहा पन्नत्ता, तंजहा-नोधम्मस्थिकाए धम्मस्थिकायस्स देसे धम्मत्धिकायस्स पएसा नोअधम्मस्टिकाए अधम्मत्थिकायस्स देसे अधम्मस्थिकायस्स पएसा नोआगासस्थिकाए आगासत्थिकायस्स देसे आगासत्थिकायस्स पएसा अहासमए ॥ अग्गेई णं भंते ! दिसा किं जीवा जीवदेसा जीवपएसा पुच्छा, गोयमा ! णो जीवा जीवदेसावि१जीवपएसावि २ अजीवावि १ अजीवदेसावि २ अजीचपएसावि ३, जे जीवदेसा ते नियमा एगिदियदेसा अहवा एगिदियदेसा य इंदियस्स देसे १ अहवा एगिदियदेसा य येई-४ दियस्स देसा २ अहया एगिदियदेसा य येइंदियाण य देसा ३ अहचा एगिदियदेसा तेइंदियस्स देसे एवं चेव तियभंगो भाणियचो एवं जाच अणिदियाणं तियभंगो, जे जीवपएसा ते नियमा एगिदियपएसा अहवा एगिदियपएसा य इंदियस्स पएसा हवा एगिदियपदेसा य इंदियाण य पएसा एवं आइल्लविरहिमओ
दीप
अनुक्रम [४७४-४७५]
CH15
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [१०], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [३९४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
दिगादौ
[३९४]
गाथा
व्याख्या-8 जाव अणिदियाणं, जे अजीवा ते दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-रूविअजीवाय अरूवीअजीवा य जे रुवी अजीवा ||१९ शतके प्रज्ञप्तिः
ते चउबिहा पन्नत्ता, तंजहा-खंधा जाव परमाणुपोग्गला ४, जे अरूवी अजीवा ते सत्तविहा पन्नत्ता, तंजहा-श्री या वृत्तिनो धम्मत्थिकाए धम्मस्थिकायस्स देसे धम्मत्थिकायस्स पएसा एवं अधम्मस्टिकायस्सवि जाब आगास
ट्र जीवादिः थिकायस्स पएसा अद्धासमए । विदिसासु नस्थि जीवा देसे भंगो य होइ सवत्थ । जमा णं भंते ! दिसा || ४९३॥
सू३९४ किंजीवा जहा इंदा तहेव निरवसेसा नेरई य जहा अग्गेयी वारुणी जहा इंदा वायवा जहा अग्गेयी सोमा ||४|| जहा दा ईसाणी जहा अग्गेयी, विमलाए जीवा जहा अग्गेयी, अजीवा जहा इंदा, एवं तमाएवि, नवरं| अरूवी छबिहा अद्धासमयो न भन्नति ॥ (सूत्रं ३९४)
किमियं भंते । पाईणत्ति पबुच्चइ'त्ति किमेतद्वस्तु यत् प्रागेव प्राचीनं दिगविवक्षायां प्राची वा प्राची पूर्वेति प्रोच्यते, उत्तरं तु जीवाश्चैव अजीवाश्चैव, जीवा-जीवरूपा प्राची, तत्र जीचा एकेन्द्रियादयः अजीवास्तु-धर्मास्तिकाया[दिदेशादयः, इदमुक्तं भवति-पाच्या दिशि जीया अजीवाश्च सन्तीति । इदे'त्यादि, इन्द्रो देवता यस्याः सैन्द्री 'अग्नि
देवता यस्याः साऽऽग्नेयी, एवं यमो देवता, याम्या नितिर्देवता नैर्ऋती वरुणो देवता वारुणी वायुर्देवता वायव्या सोम- ॥४९शा || देवता सौम्या ईशानदेवता ऐशानी विमलतया विमला तमा-रात्रिस्तदाकारत्वात्तमाऽन्धकारेत्यर्थः, अत्र ऐन्द्री पूर्वा शेषाः || क्रमेण, विमला तू तमा पुनरधोदिगिति, इह च दिशःशकटोद्धिसंस्थिताः विदिशस्तु मुक्तावल्याकाराः ऊध्वोंधोदिशी च
दीप
अनुक्रम [४७४-४७५]
CREAR
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [१०], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [३९४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
%
ॐ*
प्रत सूत्रांक
[३९४]
गाथा
& रुचकाकारे, आह च-"सगडुद्धिसंठियाओ महादिसाओ हवंति चत्तारि । मुत्तावलीव चउरो दो चेव य होति रुयगनिभे
॥१॥” इति । 'जीवावी'त्यादि, ऐन्द्री दिग् जीवा तस्यां जीवानामस्तित्वात् , एवं जीवदेशा जीवप्रदेशाश्चेति, तथाs| जीवानां पुद्गलादीनामस्तित्वादजीवाः धर्मास्तिकायादिदेशानां पुनरस्तित्वादजीवदेशाः एवमजीवप्रदेशा अपीति, तत्र ये जीवास्त एकेन्द्रियादयोऽनिन्द्रियाश्च केवलिना, ये तु जीवदेशास्त एकेन्द्रियादीनाम् ६, एवं जीवप्रदेशा अपि, 'जे अरू
बी अजीवा ते सत्तविह'त्ति, कथं , नोधम्मस्थिकाए, अयमर्थः-धर्मास्तिकायः समस्त एवोच्यते, स च प्राचीदिग् न भवति, ४ तदेकदेशभूतत्वात्तस्याः, किन्तु धर्मास्तिकायस्य देशः, सा तदेकदेशभागरूपेति १, तथा तस्यैव प्रदेशाः सा भवति, अस&धेयप्रदेशात्मकत्वात्तस्याः २, एवमधर्मास्तिकायस्य देशः प्रदेशाश्च ३-४, एवमाकाशास्तिकायस्यापि देशः प्रदेशाश्च ५-६,
अद्धासमयश्चेति ७, तदेवं सप्तप्रकारारूप्यजीवरूपा ऐन्द्री दिगिति । 'अग्गेयी ण'मित्यादिप्रश्ना, उत्तरे तु जीवा निषेधनीयाः, विदिशामेकप्रदेशिकत्वादेकप्रदेशे च जीवानामबगाहाभावात् , असङ्ख्यातप्रदेशावगाहित्वात्तेषां, तत्र 'जे जीवदेसा ते नियमा एगिदियदेसत्ति एकेन्द्रियाणां सकललोकव्यापकत्वादाग्नेय्या नियमादेकेन्द्रियदेशाः सन्तीति, 'अहवे'त्यादि, एकेन्द्रियाणां सकललोकव्यापकत्वादेव द्वीन्द्रियाणां चाल्पत्वेन क्वचिदेकस्यापि तस्य सम्भवादुच्यते एके|न्द्रियाणां देशाश्च द्वीन्द्रियस्य देशश्चेति द्विकयोगे प्रथमः, अथवैकेन्द्रियपदं तथैव द्वीन्द्रियपदे त्वेकवचनं देशपदे पुनर्बहुव&चनमिति द्वितीयः, अयं च यदा द्वीन्द्रियो व्यादिभिर्देशैस्तां स्पृशति तदा स्यादिति, अधवैकेन्द्रियपदं तथैव द्वीन्द्रियपदं
१शकटोद्धिसंस्थिताश्चतस्रो महादिशो भवन्ति चतस्रो मुक्तावलीव द्वे च रुचकनिमे भवतः ॥१॥ (ऊधिोदिशौ)
*5*4545454555
दीप
ERCOACASSROCROSS
अनुक्रम [४७४-४७५]
SAREarattinintamational
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [१०], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [३९४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३९४]
॥४९४॥
सू १९४
गाथा
प्याख्या-1|| देशपदं च बहुवचनान्तमिति तृतीया, स्थापना-एगिंदेसा बेई १ देसे एगिंदेसा ३ बेई १ देसा १ एगिंदेसा ३ बेई.
१० शतक ३ देसा ।' एवं त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपश्चेन्द्रियानिन्द्रियैः सह प्रत्येकं भङ्गकत्रयं दृश्यम् , एवं प्रदेशपक्षोऽपिघाच्यो, नवरमिह त उद्देशः १ अभयदेवी
साद्वीन्द्रियादिषु प्रदेशपदं बहुवचनान्तमेव, यतो लोकन्यापकावस्थानिन्द्रियवर्जजीवानां यत्रका प्रदेशस्तबासङ्ख्यातास्ते भवन्ति.|| दिगादौ या वृत्तिः२ लोकब्यापकावस्थानिन्द्रियस्य पुनर्यधयेकत्र क्षेत्रप्रदेशे एक एव प्रदेशस्तथाऽपि तत्प्रदेशपदे बहुवचनमेवाग्नेय्यां तत्प्र
जीवादि | देशानामसलयातानामवगाढत्वाद्, अतः सर्वेषु शिकयोगेष्वाद्यविरहितं भङ्गकद्वयमेव भवतीत्येतदेवाह-'आइल्लविरहिओ-IC त्ति द्विकभङ्ग इति शेषः । 'विमलाए जीवा जहा अग्गेईए'त्ति विमलायामपि जीवानामनवगाहात् 'अजीवा जहा | इंदाए'त्ति समानवक्तव्यत्वात् , 'एवं तमावित्ति विमलावत्तमाऽपि वाच्येत्यर्थः, अथ विमलायामनिन्द्रियसम्भवात्तद्दे४ शादयो युक्तास्तमायां तु तस्यासम्भवात्कथं ते इति, उच्यते, दण्डाद्यवस्थं तमानित्य तस्य देशो देशाः प्रदेशाश्च विवIA क्षायां तत्रापि युक्ता एवेति । अथ तमायां विशेषमाह-नवर मित्यादि, 'अहासमयो न भन्नईत्ति समयव्यवहारो काहि सञ्चरिष्णुसूर्यादिप्रकाशकृतः, सच तमायां नास्तीति तत्राद्धासमयो न भण्यत इत्यर्थः । अथ विमलायामपि नास्त्य-IN
साविति कथं तन्न समयव्यवहारः ? इति, उच्यते, मन्दरावयवभूतस्फटिककाण्डे सूर्यादिप्रभासङ्क्रान्तिद्वारेण तत्र सश्चरिविष्णुसूर्यादिप्रकाशभावादिति ॥भनन्तरं जीवादिरूपा दिशः प्ररूपिताःजीवाश्च शरीरिणोऽपि भवन्तीति शरीरप्ररूपणायाह
कति णं भले सरीरा पासा, गोयमा ! पंच सरीरा पाता, संजहा-ओरालिए जाव कम्मए । ओरालि
दीप
अनुक्रम [४७४-४७५]
॥४९४॥
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[३९५]
दीप
अनुक्रम [४७६ ]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति: ]
शतक [१०], वर्ग [–], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [ ३९५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
यसरीरे पणं भंते! कतिविहे पनले ?, एवं ओगाहणसंठाणं निरवसेसं भाणियां जाव अप्पाबहुगंति । सेवं ५ १० शतक भंते! सेवं संतेलि ( सू० ३९५ ) इसमे सए पढमो उद्देसो समसो ॥ १० ॥ १ ॥
उद्देशः १ शरीराधि. सू ३९५
'कणं भंते!' इत्यादि, 'ओगाहणसं ठाणं'ति प्रज्ञापनायामेकविंशतितमं पदं, तचैवं- 'पंचविहे पन्नत्ते, तंजहा- एगिंदियओरालियसरीरे जाव पंचिंदियओराठियसरी रे' इत्यादि, पुस्तकान्तरे त्वस्य सङ्ग्रहगाथोपलभ्यते सा चेयम्- "कइसंठाणपमाणं पोग्गलविणणा सरीरसंजोगो दधपएसप्पबहुं सरीरओगाहणाए या ॥ १ ॥ तत्र च कतीति कति शरीरा णीति वाच्यं तानि पुनरौदारिकादीनि पञ्च, तथा 'संठाणं'ति औदारिकादीनां संस्थानं वाच्यं यथा नानासंस्थान मौदारिकं, तथा 'पमाण' ति एषामेव प्रमाणं वाच्यं यथा-औदारिकं जघन्यतोऽलासवेय भागमात्रमुत्कृष्टतस्तु सातिरेकयोजन सहस्रमानं, तथैषामेव पुद्गलचयो वाच्यो, यथौदारिकस्य निर्व्याघातेन षट्सु दिक्षु व्याघातं प्रतीत्य स्यात्रिदिशीत्यादि, तथैषामेव संयोगो वाच्यो, यथा यस्यौदारिकशरीरं तस्य वैक्रियं स्यादस्तीत्यादि, तथैषामेव द्रव्यार्थप्रदेशाथेतयाऽल्पबहुत्वं वाच्यं यथा 'सवत्थोवा आहारगसरीरा दवट्याए' इत्यादि, तथैषामेवावगाहनाया अल्पबहुत्वं वाच्यं, यथा 'सवत्थोवा ओरालियसरीरस्स जहनिया ओगाहणा इत्यादि । दशमशते प्रथमोदेशकः ।। १० । १ ।
अनन्तरोद्देशकान्ते शरीराण्युक्तानि शरीरी च क्रियाकारी भवतीति क्रियाप्ररूपणाय द्वितीय उद्देशकः, तस्य चेदमादिसूत्रम्
अत्र दशमे शतके प्रथम उद्देशकः परिसमाप्तः अथ दशमे शतके द्वितीय- उद्देशक: आरभ्यते
For Pale Only
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Page #432
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[३९६]
दीप
अनुक्रम [४७७]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति: ]
शतक [१०], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [ ३९६]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्याप्रज्ञप्तिः
॥४९५ ॥
रायगिहे जाव एवं वयासी-संवुडस्स णं भंते! अणगारस्स बीयीपंथे ठिचा पुरओ रुवाई निज्झायमाणस्स | मग्गओ रुवाई अवयक्खमाणस्स पासओ रूवाएं अवलोएमाणस्स उहूं रूवाएं ओलोएमाणस्स अहे रुवाई ४ अभयदेवीया वृतिः २ ४ आलोएमाणस्स तस्स णं भंते । किं ईरियावहिया किरिया कज्जइ संपराइया किरिया कज्जइ १, गोयमा ! संवुडस्स णं अणगारस्स वीयपंथे ठिचा जाब तस्स णं णो ईरियावहिया किरिया कज्जइ संपराइया किरिया कञ्ज्जइ, से केणट्टेणं भंते । एवं वुच्चइ संवड० जाव संपराइया किरिया कज्जइ १, गोयमा ! जस्स णं कोहमाणमायालोमा एवं जहा सत्तमसए पढमोदेसए जाव से णं उत्तमेव रीपति से तेणट्टेणं जाव संपराइया किरिया कज्जइ । संबुदस्स भंते! अणगारस्स अवीयीपंथे ठिचा पुरओ रूवाएं निज्झायमाणस्स जाव तस्म णं भंते! किं ईरियावहिया किरिया कज्जइ ?, पुच्छा, गोयमा ! संयुड० जाब तस्स णं ईरियावहिया किरिया कज्जइ नो संपराइया किरिया कलह, से केणट्टेणं भंते ! एवं बुचड़ जहा सत्तमे सए पढमोद्देसए जाव से णं अहासुत्तमेव रीपति से तेणट्टेणं जाव तो संपराइया किरिया कज्जइ ॥ ( सू० ३९६ )
'रायगि' इत्यादि, तत्र 'संवुडस्स' त्ति संवृतस्य सामान्येन प्राणातिपाताद्याश्रवद्वारसंवरोपेतस्य 'वीईपंथे ठिचे ति वीचिशब्दः सम्प्रयोगे, स च सम्प्रयोगोर्द्वयोर्भवति, ततश्चेह कषायाणां जीवस्य च सम्बन्धो वीचिशब्दवाच्यः ततश्च वीचिमतः कषायवतो मतुप्प्रत्ययस्य षष्ठ्याश्च लोपदर्शनात्, अथवा 'विचि पृथग्भावे' इति वचनाद् विविच्य - पृथग्भूय यथाऽऽख्यातसंयमात् कषायोदयमनपवार्येत्यर्थः, अथवा विचिन्त्य रागादिविकल्पादित्यर्थः, अथवा विरूपा कृतिः
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१० शतके उद्देश २ वीचिमतः
क्रिया सू ३९६
||४९५॥
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [१०], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३९६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३९६]
|| क्रिया सरागत्वात् यस्मिन्नवस्थाने तद्विकृति यथा भवतीत्येवं स्थित्वा 'पंथे'त्ति मार्गे 'अवयक्खमाणस्स'त्ति अवकादक्षतोऽपेक्षमाणस्य वा, पथिग्रहणस्य चोपलक्षणत्वादन्यत्राप्याधारे स्थित्वेति द्रष्टव्यं,'नो ईरियावहिया किरिया कजई-1
त्ति न केवलयोगप्रत्यया कर्मबन्धक्रिया भवति सकषायत्वात्तस्येति । 'जस्स णं कोहमाणमायालोभा' इह एवं जहे त्याद्यतिदेशादिदं दृश्य-वोच्छिन्ना भवंति तस्स गं इरियाबहिया किरिया कज्जइ, जस्स गं कोहमाणमायालोभा अवोच्छिन्ना भवंति तस्स णं संपराइया किरिया कजइ, अहासुतं रीयं रीयमाणस्स ईरियाबहिया किरिया कजइ, उस्सुत्तं ।
रीयं रीयमाणस्स संपराइया किरिया कजईत्ति व्याख्या चास्य प्राग्वदिति । 'से गं उस्सुत्तमेव'त्ति स पुनरुत्सूत्रमेवा8 गमातिक्रमणत एव 'रीपइति गच्छति । 'संवुडस्सेत्याधुक्तविपर्ययसूत्रं, तत्र च 'अवीईत्ति 'अवी चिमतः' अकषायट्र सम्बन्धवतः 'अविविन्य' वा अपृथग्भूय यथाऽऽख्यातसंयमात् , अविचिन्त्य वा रागविकल्पाभावेनेत्यर्थः अविकृति वा
यथा भवतीति ॥ अनन्तरं क्रियोक्का, क्रियावतां च प्रायो योनिप्राप्तिर्भवतीति योनिप्ररूपणायाह| कइविहा णं भंते ! जोणी पन्नत्ता ?, गोयमा ! तिविहा जोणी पण्णत्ता, तंजहा-सीया उसिणा सीतो-14 ४ सिणा, एवं जोणीपयं निरवसेसं भाणियचं ॥ (मूत्रं३९७) कतिविहा णं भंते ! वेयणा पन्नत्ता?, गोयमा दितिविहा वेषणा पन्नत्ता, तंजहा-सीया उसिणा सीओसिणा, एवं वेयणापयं निरवसेसं भाणियवं जाव
नेरइयाणं भंते । किं दुक्खं वेदणं वेदेति सुहं वेषणं वेयंति अदुक्खममुहं वेयणं वेयंति, गोयमा। दुक्खंपि ४ वेपणं वेयंति मुहपि वेयणं वेयंति अदुक्खमसुहंपि वेयणं वेयंति ।। (सूत्र ३९८)
दीप अनुक्रम [४७७]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [१०], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३९७-३९८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३९७-३९८]
व्याख्या- 'कतिविहाणमित्यादि,तत्र च 'जोणि'त्ति 'यु मिश्रणे' इतिवचनाद् युवन्ति-तैजसकार्मणशरीरवन्त औदारिकादिशरी- १० शतके प्रज्ञप्तिः
करयोग्यस्कन्धसमुदायेन मिश्रीभवन्ति जीवा यस्यां सा योनिः, सा च त्रिविधा शीतादिभेदात् , तत्र 'सीय'त्ति शीतस्पर्शाउद्देशा२ अभयदेवी-8'उसिण'त्ति षष्णस्पर्शा 'सीओसिण'त्ति द्विस्वभावा एवं जोणीपयं निरवसेसं भाणिय'ति योनिपदं च प्रज्ञापनायां *
योनि या वृत्तिः२ नवमं पदं, तच्चेदं-नेरइयार्ण भंते । किं सीया जोणी उसिणा जोणी सीओसिणा जोणी?, गोयमा! सीयावि जोणी उसिणावि |
वेदनाश ॥४९६॥
॥जोणी नो सीमोसिणा जोणी'त्यादि, अयमर्थः-'सीयावि जोणि'त्ति आद्यासु तिमषु नरकपृथिवीषु चतुर्थ्यां च केषु॥ चिरकावासेषु नारकाणां यदुपपातक्षेत्र तच्छीतस्पर्शपरिणतमिति तेषां शीताऽपि योनिः,'उसिणावि जोणिति शेषासु ||
| पृथिवीषु चतुर्थपृथिवीनरकावासेषु च केषुचिन्नारकाणां यदुपपातक्षेत्रं तदुष्णस्पर्शपरिणतमिति तेषामुष्णाऽपि योनिः, |'नो सीओसिणा जोणि'त्ति न मध्यमस्वभावा योनिस्तथास्वभावत्वात , शीतादियोनिप्रकरणार्थसञ्चहस्तु प्रायेणैवं-"सीओ-1 ६ सिणजोणीया सबे देवा य गम्भवती । उसिणा य तेउकाए दुह निरए तिविह सेसेसु ॥॥" 'गम्भवति'त्ति गम्भों
त्पत्तिकाः, [शीतोष्णयोनिकाः सर्वे देवाश्च गर्भव्युत्पत्तिकाः उष्णा च तेजाकाये द्विधा नरके त्रिविधा शेषेषु ॥१॥]
तथा-कतिविहाणं भंसे ! नोणी पन्नत्ता, गोयमा तिविहा जोणी पन्नचा, तंजहा-सञ्चित्ता अचित्ता मीसिया इत्यादि, ४ सच्चित्तादियोनिप्रकरणार्थसनहस्तु प्रायेणैवम्-"अञ्चित्ता खलु जोणी नेरइयाण तहेव देवाणं । मीसा य गब्भवासे तिचिहा 8 पुण होइ सेसेसु ॥२॥"[अचित्ता सलु योनि रकाणां तथैव देवानां । मिश्रा च गर्भवासे त्रिविधा पुनर्भवति शेषेषु ॥४९॥ P॥१॥] सत्यप्यकेन्द्रियसूक्ष्मजीवनिकायसम्भवे नारकदेवानां यदुपपातक्षेत्र तक्ष केनचिजीवेन परिगृहीतमित्यचिचा
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [१०], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३९७-३९८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३९७-३९८]
दीप अनुक्रम [४७८-४७९]
| तेषां योनिः, गर्भवासथोनिस्तु मिश्रा शुक्रशोणितपुद्गलानामचित्तानां गर्भाशयस्य सचेतनस्य भावादिति, शेषाणां पृथिव्यादीनां समूच्र्छनजानां च मनुष्यादीनामुपपातक्षेत्रे जीवेन परिगृहीतेऽपरिगृहीते उभयरूपे चोत्पत्तिरिति त्रिविधाऽपि
योनिरिति । तथा-'कतिविहा णं भंते ! जोणी पन्नत्ता?, गोयमा ! तिविहा जोणी पन्नत्ता, तंजहा-संवुडाजोणी वियडा४ जोणी संवुडबियडाजोणी'त्यादि, संवृत्तादियोनिप्रकरणार्थसङ्ग्रहस्तु प्राय एवम्-"एगिंदियनेरइया संबुडजोणी तहेव देवा || य । विगलिंदिपसु वियदा संवुडवियडा य गन्भमि ॥१॥"[एकेन्द्रिया नैरयिकाः संवृतयोनयस्तथैव देवाश्च । विकलेन्द्रि-। याणां विवृता संवृतविवृता च गर्भे ॥१॥] एकेन्द्रियाणां संवृता योनिस्तथास्वभावत्वात् , नारकाणामपि संवृतव, यतो नरकनिष्कुटाः संवृतगवाक्षकल्पास्तेषु च जातास्ते वर्द्धमानमूर्तयस्तेभ्यः पतन्ति शीतेभ्यो निष्कुटेभ्य उष्णेषु नरकेषु उष्णेभ्यस्तु शीतेष्विति, देवानामपि संवृतैव यतो देवशयनीये दूध्यान्तरितोऽङ्गलासङ्ख्यातभागमात्रावगाहनो देव उत्पद्यत | इति । तथा-कतिविहा णं भंते ! जोणी पन्नत्ता !, गोयमा तिविहा जोणी पन्नता, तंजहा-कुम्मुन्नया संखावत्ता वंसी| पत्ते त्यादि, एतद्वक्तव्यतासङ्ग्रहश्चैवं-संखावत्ता जोणी इत्थीरयणस्स होति विनेया । तीए पुण उप्पन्नो नियमा उ विणस्सई गम्भो ॥१॥ कुम्मुन्नयजोणीए तिस्थयरा चक्किचासुदेवा य । रामावि य जायते सेसाए सेसगजणो उ ॥२॥ [स्त्रीरतस्य शाकावर्ता योनिर्भवति विज्ञेया तस्यामुत्पन्नो गर्भः पुनर्नियमातु विनश्यति ॥१॥ कूर्मोन्नतायां योनी तीर्थकरचक्रिवासुदेवा रामाश्च जायन्ते शेषायां तु शेषकजनः॥२॥] अनन्तरं योनिरुक्ता, योनिमतां च वेदना भवन्तीति | तत्मरूपणायाह-काविहा णमित्यादि, एवं वेयणापयं भाणियति वेदनापदं च प्रज्ञापनायां पश्चत्रिंशत्तम,
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [१०], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३९७-३९८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३९७
-३९८]
व्याख्या-18| तच्च लेशतो दयते-'नेरइयाणं भंते ! कि सीयं वेयणं वेयंति ३ १, गोयमा ! सीयपि वेयणं वेयंति एवं उसिणंपि १० शतके प्रज्ञप्तिः णो सीओसिणं' एवमसुरादयो वैमानिकान्ताः 'एवं चरबिहा वेयणा दवओ खेत्तओ कालओ भावओं तत्र पुगलअभयदवा- द्रव्यसम्बन्धाद्रव्यवेदना नारकादिक्षेत्रसम्बन्धात्क्षेत्रवेदना नारकादिकालसम्बन्धारकालवेदना शोकक्रोधादिभावसम्ब-||| या वृत्ति:२४ कान्धाभाववेदना, सर्वे संसारिणश्चतुर्विधामपि, तथा 'तिबिहा वेयणा-सारीरा माणसा सारीरमाणसा' समनस्कास्त्रि
| वेदनाश्च ॥४९७॥ || विधामपि असज्ञिनस्तु शारीरीमेव, तथा 'तिविहा वेयणा साया असाया सायासाया' सर्वे संसारिणस्त्रिविधामपि,
३९८ तथा 'तिविहा वेयणा-दुक्खा सुहा अदुक्खमसुहा' सर्वे त्रिविधाम पि, सातासातसुखदुःखयोश्चायं विशेषः-सातासाते अनुक्रमेणोदयप्राप्तानां वेदनीयकर्मपुद्गलानामनुभवरूपे, सुखदुःखे तु परोदीर्यमाणवेदनीयानुभवरूपे, तथा 'दुविहा वेयणा-अम्भुवगमिया उपकमिया' आभ्युपगमिकी या खयमभ्युपगम्य बेद्यते यथा साधवः केशोधनातापनादिभिर्वेदयन्ति औपक्रमिकी तु स्वयमुदीर्णस्योदीरणाकरणेन चोदयमुपनीतस्य वेद्यस्यानुभवात् , द्विविधामपि पञ्चेन्द्रियतियशो मनुष्याश्च शेषास्त्वीपक्रमिकीमेवेति, तथा 'दुविहा वेयणा-निदा य अनिदा य' निदा-चित्तवती विपरीता| त्वनिदेति, सम्झिनो द्विविधामसज्ञिनस्त्वनिदामेवेति । इह च प्रज्ञापनायां द्वारगाथाऽस्ति, सा चेय-"सीया य दवसारीर | साय तह वेयणा हवइ दुक्खा । अब्भुवगमुक्कमिया निदा य अनिदाय नायवा ॥१॥" अस्याश्च पूर्वार्दोक्तान्येव द्वाराण्यधि- ४९७॥ कृतवाचनायां सूचितानि यतस्तत्राप्युक्त निदा य अनिदा य बजति ॥ वेदनाप्रस्तावाद्वेदनाहेतुभूतां प्रतिमा निरूपयन्नाह
मासियपणं भंते ! भिक्खुपडिम पडिबन्नस्स अणगारस्स निचं वोसढे काये चियत्ते देहे, एवं मासिया भिक्खु
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दीप अनुक्रम [४७८-४७९]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [१०], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३९९-४००] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३९९-४००
DI पडिमा निरवसेसा भाणियबा [जाव दसाहि] जाव आराहिया भवइ । (सूत्रं३९९) भिक्खू य अन्नयरं अकिञ्चट्ठाणं । पडिसेवित्ता से णं तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिकते कालं करेइ नस्थि तस्स आराहणा, सेणं तस्स ठाणस्स है |आलोइयपडिकते कालं करेइ अस्थि तस्स आराहणा, भिक्खू य अन्नयरं अकिञ्चट्ठाणं पडिसेबित्ता तस्स णं द एवं भवइ पच्छावि णं अहं चरमकालसमयंसि एयस्स ठाणस्स आलोएस्सामि जाव पडिवजिस्सामि, से
तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिकंते जाव नस्थि तस्स आराहणा, सेणं तस्स ठाणस्स आलोइयपडिकते कालं करेइ अस्थि तस्स अराहणा, भिक्खू य अन्नयरं अकिचट्ठाणं पडिसेवित्ता तस्स णं एवं भवइ-जइ ताव समणोवासगावि कालमासे कालं किचा अन्नयरेसु देवलोएम देवत्ताए उववत्तारो भवति किमंग पुण अहं अन्नपन्नियदेवत्तणंपि नो लभिस्सामित्तिकद्दु से णं तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कते कालं करेह नत्थि तस्स आराहणा से णं तस्स ठाणस्स आलोइयपडिकते कालं करेइ अस्थि तस्स आराहणा । सेवं भंते ! सेवं
भंतेत्ति ॥ (सूत्रं ४००)॥१०॥२॥ NI 'मासियण्ण'मित्यादि, मासः परिमाण यस्याः सा मासिकी तां 'भिक्षप्रतिमा' साधप्रतिज्ञाविशेष 'वोसट्टे काए'चि. All व्युत्सृष्टे स्नानादिपरिकर्मवर्जनात् 'चियत्ते देहेत्ति त्यक्ते वधबन्धाधवारणात् , अथवा 'चियत्ते' संमते प्रीतिविषये धर्म
साधनेषु प्रधानत्वादेहस्येति 'एवं मासिया भिक्खुपडिमा इत्यादि, अनेन च यदतिदिष्टं तदिदं-'जे केइ परीसहोव& सग्गा उप्पजति, तंजहा-दिवा वा माणुसा वा तिरिक्खजोणिया वा ते उप्पन्ने सम्मं सहइ खमद तितिक्खइ अहियासेई'-16
दीप अनुक्रम [४८०-४८१]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [१०], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [३९९-४००] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३९९-४००]
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दीप
व्याख्या-18|| त्यादि, तत्र सहते स्थानाविचलनतः क्षमते क्रोधाभावात् तितिक्षते दैन्याभावात् क्रमेण वा मनःप्रभृतिभिः, किमुक्तं | | १० शतके मज्ञप्तिः भवति -अधिसहत इति ॥ आराहिया भवतीत्युक्तमथाराधनाः यथा न स्याद्यथा च स्यात्तदर्शयन्नाह-भिक्खू य उद्देशः २ अभयदेवी
अनयरं अकिचहाण'मित्यादि, इह चशब्दश्चेदित्येतस्याः वर्तते, स च भिक्षोरकृत्यस्थानासेवनस्य प्रायेणासम्भवप्रदर्श- प्रतिमा आया वृत्तिः ४ नपरः, 'पडिसेवित्त'त्ति अकृत्यस्थानं प्रतिषेविता भवतीति गम्यं, वाचनान्तरे त्वस्य स्थाने 'पडिसेविज'त्ति दृश्यते, 'से
सू ३९९॥४९॥ 'ति स भिक्षुः 'तस्स ठाणस्स'त्ति तत्स्थानम् 'अणपन्नियदेवत्तणपिनोलभिस्सामित्ति अणपन्निका-व्यन्तरनिकाय
४०० || विशेषास्तत्सम्बन्धिदेवत्वमणपन्निकदेवत्वं तदपि नोपलप्स्य इति ॥ दशमशतस्य द्वितीयोद्देशकः ॥ १० ॥२॥
१० शतके
उद्देशः ३ | द्वितीयोद्देशकान्ते देवत्वमुक्तम् , अथ तृतीये देवस्वरूपमभिधीयते, इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्
देवदेवीनां रायगिहे जाव एवं चयासी-आइडीएणं ते देवे जाव चत्तारि पंच देवावासंतराई वीतिकंते तेण परं SH | परिहीए,हंता गोयमा ! आइडीए णंतं चेव, एवं असरकमारेवि, नवरं असुरकुमारावासंतराई सेस तं।
चेव, एवं एएणं कमेणं जाव थणियकुमारे, एवं वाणमंतरे जोडसवेमाणिय जाव तेण परं परिडीए । अप्प-13 |हिए णं भंते ! देवे से महड्डियस्स देवस्स मझमज्झेणं वीहवहजा?, णो तिणहे समहे । समिहीए णं भते गात
॥४९८॥ || देवे समडियस्स देवस्स मजामझेणं वीइवएजा, णो तिण समहे, पमत्तं पुण बीइचएज्जा, से र्ण भंते | Kार्कि विमोहित्ता पभू अविमोहित्ता पभू, गोयमा विमोडेता पम् नो अविमोहेत्ता पभू । से भंते ! किं||
अनुक्रम [४८०-४८१]
अत्र दशमे शतके द्वितीय-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ दशमे शतके तृतीय-उद्देशक: आरभ्यते
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[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [१०], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [४०१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४०१]
पुर्वि विमोहेत्ता पच्छा थीइवएज्जा पुर्षि वीइवएत्ता पच्छा विमोहेजा, गोयमा ! पुषि विमोहत्ता पच्छा
वीइयएजाणो पुछि वीहवइत्ता पच्छा विमोहेजा । महिड्डीए भंते ! देवे अप्पड्डियस्स देवस्स मझमझेणं & बीइवएजा, हता वीइवएज्जा, से भंते । किं विमोहित्ता पभू अविमोहेत्ता पभू,गोपमा विमोहेत्तावि
पभू अविमोहेत्तावि पभू , से भंते । किं पुषिं विमोहेत्ता पच्छा वीइवइजा पुर्वि बीइबासा पच्छा विमो
हेजा, गोषमा पुर्वि वा विमोहेत्ता पच्छा वीइवएज्जा पुर्वि वा वीहवएत्ता पच्छा विमोहेजा। अप्पिहिलिए भंते । असुरकुमार महहीयस्स असुरकुमारस्स मझमझेणं वीइयएजा, णो इणडे समह, एवं असुनरकुमारेवि तिन्नि आलावगा भाणियबा जहा ओहिएणं देवेणं भणिया, एवं जाव थणियकुमाराणं, वाणम
तरजोइसियवमाणिएणं एवं चेच । अप्पहिए णं भंते । देवे महिहियाए देवीए मजसंमज्झणं वीइवएजा, णो इणडे समहे, समहिए णं भंते । देवे समिहीयाए देवीए मज्झमजणं, एवं तहेव देवेण य देवीण य वंडओ भाणियो जाव षेमाणियाए । अप्पडिया णं भंते ! देवी महद्दीयस्स देवस्स मजझमझेणं एवं एसोषि तइओ दंडओ भाणियचो जाच महहिया वैमाणिणी अप्पटियस्स वेमाणियस्स मझमजलेणं बीइवएजा, हंता वीइवएजा । अपहिया णं भंते ! देवी महिहियाए देवीए मज्झमझेणं बीइवएज्जा', णो इण8 समढे, एवं समहिया देवी समडियाए देवीए, तहेव, महहियावि देवी अप्पड्डियाए देवीए तहेव, एवं एकेके तिनि २ आलावगा भाणियचा जाव महहिया पां भंते । वेमाणिजी अप्पहियाए वेमाणिणीए मज्झमजोणं वीइक
दीप अनुक्रम [४८२]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [१०], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [४०१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४०१]
या वृत्तिा
दीप अनुक्रम [४८२]
व्याख्या- एजा!, हंता वीइवएजा, सा भंते ! किं विमोहित्ता पभू तहेव जाव पुष्विं वा वीइवइत्ता पच्छा विमोहेजा || १९ शतके प्रज्ञप्तिः
उद्देश ३ एए चत्तारि दंडगा ।। (सू०४०१) अभयदेवी
देवदेवीनां | 'रायगिहे इत्यादि, 'आइडीए गंति आत्मा स्वकीयशस्या, अथवाऽऽत्मन एव ऋद्धिर्यस्यासावात्मर्द्धिकः 'देवे
मध्यगमत्ति सामान्यः 'देवाबासंतराईति देवावासविशेषान् 'वीइकते'ति 'व्यतिक्रान्तः' लवितवान् , क्वचिद् व्यतिब्रजतीति
नादि ॥४९॥
पाठः, 'तेण पति ततः परं परिहीए'त्ति परा परद्धिको वा विमोहित्ता पभुत्ति'विमोह्य' महिकाद्यन्धकारकरणेन सू४०१ दमोहमुत्पाद्य अपश्यन्तमेव तं व्यतिक्रामेदिति भावः। 'एवं असुरकुमारेणवि तिन्नि आलावग'त्ति अल्पर्द्धिकमह
ड़िकयोरेका समर्द्धिकयोरन्यः महर्द्धिकाल्पार्द्धकयोरपर इत्येवं त्रयः, ओहिएणं देवेणं'ति सामान्येन देवेन १, एवमालाप
कत्रयोपेतो देवदेवीदण्डको वैमानिकान्तोऽन्यः२,एवमेव च देवीदेवदण्डको वैमानिकान्त एवापरः ३, एवमेव च देव्योर्दण्डॐ कोऽन्यः४ इत्येवं चत्वार एते दण्डकाः॥ अनन्तरं देवक्रियोक्ता,सा चातिविस्मयकारिणीति विस्मयकर वस्त्वन्तरं प्रश्नयन्नाह
आसस्स गं भंते ! धावमाणस्स किं खुखुत्ति करेति?, गोयमा ! आसस्स णं धावमाणस्स हिदयस्स जय जगयस्स य अंतरा एत्थ णं कब्बडए नामं वाए संमुच्छह जेणं आसस्स धावमाणस्स खुखुत्ति करेइ ।
(सू०४०२) अह भंते ! आसइस्सामो सइस्सामो चिहिस्सामो निसिहस्सामो तुपहिस्सामो आमंतणि आणवणी जायणि तह पुच्छणी य पण्णवणी । पचक्खाणी भासा भासा इच्छाणुलोमा य ॥१॥ अणभिग्ग
||४९९॥ सहिया भासा भासा य अभिग्गहंमि बोद्धवा । संसयकरणी भासा वोयडमबोयडा चेव ॥ २॥ पनवणी णं
L-
HD
SARERatinintenmarana
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आगम
[०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [१०], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [४०२-४०३] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [४०२-४०३]
गाथा:
18 एसान एसा भासा मोसा', हंता गोयमा। आसइस्सामोतं चेव जाव न एसा भासा मोसा । सेवं भंतेला & सेवं भंतेत्ति (सूत्रं ४०३) दसमे सए तईओ उद्देसो ॥१०-३॥
'आसस्से त्यादि, 'हिययस्स य जगयरस यत्ति हृदयस्य यकृतश्च-दक्षिणकुक्षिगतोदरावयव विशेषस्य 'अन्तरा | अन्तराले ॥ अनन्तरं 'खुखुत्ति प्ररूपितं तच्च शब्दः, स च भाषारूपोऽपि स्यादिति भाषाविशेषान् भाषणीयत्वेन प्रददर्शयितुमाह-अह भंते! इत्यादि, अथेति परिप्रश्नार्थः "भंते "ति भदन्त ! इत्येवं भगवन्तं महावीरमामन्य गौतमः ।
पृच्छति-'आसइस्सामोत्ति आश्रयिष्यामो क्यमाश्रयणीयं वस्तु 'सहस्सामोत्ति शयिष्यामः 'चिहिस्सामोत्ति अस्थानेन स्थास्यामः 'निसिइस्सामोत्ति निषेत्स्याम उपवेश्याम इत्यर्थः 'तुयहिस्सामोत्ति संस्तारके भविष्याम इत्यादिका भाषा किं प्रज्ञापनी १ इति योगः ॥ अनेन चोपलक्षणपरवचनेन भाषाविशेषाणामेवंजातीयानां प्रज्ञाप| नीयत्वं पृष्टमथ भाषाजातीनां तत्पृच्छति-'आमंतणि'गाहा, तत्र आमन्त्रणी' हे देवदत्त ! इत्यादिका, एषा च किल
वस्तुनोऽविधायकत्वादनिषेधकत्वाच्च सत्यादिभाषात्रयलक्षणवियोगतश्चासत्यामृषेति प्रज्ञापनादावुक्का, एवमाज्ञापन्या|दिकामपि, 'आणवणि'त्ति आज्ञापनी कार्ये परस्य प्रवर्तनी यथा घटं कुरु 'जायणित्ति याचनी-वस्तुविशेषस्य देहीत्येवंमार्गणरूपा तथेति समुचये 'पुच्छणी यत्ति प्रच्छनी-अविज्ञातस्य संदिग्धस्य वाऽर्थस्य ज्ञानार्थं तदभियुक्तप्रेरणरूपा 'पण्णवणि'त्ति प्रज्ञापनी-विनयस्योपदेशदानरूपा यथा-"पाणवहाओं नियत्ता भवंति दीहाउया अरोगा| य। एमाई पन्नवणी पन्नत्ता वीयरागेहिं ॥१॥ [प्राणवधान्निवृत्ता दीर्घायुषोऽरोगाश्च भवन्तीत्यादिः प्रज्ञापनी भाषा
दीप अनुक्रम [४८३
४८६]
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[४०२
-४०३]
गाथा:
दीप
अनुक्रम
[४८३
४८६ ]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः ]
शतक [१०], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [ ३ ], मूलं [ ४०२ - ४०३] + गाथाः
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्या
प्रज्ञष्ठिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥५००॥
Jan Education
१
वीतरागैः प्रज्ञप्ता ॥ १ ॥ ] 'पञ्चक्खाणीभास' त्ति प्रत्याख्यानी याचमानस्यादित्सा मे अतो मां मा याचस्वेत्यादि प्रत्या| ख्यानरूपा भाषा 'इच्छानुलोम'त्ति प्रतिपादयितुर्या इच्छा तदनुलोमा-तदनुकूला इच्छानुलोमा यथा कार्ये प्रेरितस्य एवमस्तु ममाप्यभिप्रेतमेतदिति वचः । 'अणभिग्गहिया भासा'गाहा, अनभिगृहीता-अर्थानभिग्रहेण योच्यते टित्था| दिवत् 'भासा प अभिग्गमि बोद्धवा भाषा चाभिग्रहे बोद्धव्या-अर्थमभिगृह्य योच्यते घटादिवत्, 'संसय| करणी भास'त्ति याऽनेकार्थप्रतिपत्तिकरी सा संशयकरणी यथा सैन्धवशब्दः पुरुषलवणवाजिषु वर्त्तमान इति 'वीयड'| ति व्याकृता लोकप्रतीतशब्दार्था 'अधोयड'त्ति अव्याकृता - गम्भीरशब्दार्था मन्मनाक्षरप्रयुक्ता वाऽनाविर्भाषितार्था, 'पनवणी णं'ति प्रज्ञाप्यतेऽर्थोऽनयेति प्रज्ञापनी- अर्थकथनी वक्तव्येत्यर्थः, 'न एसा मोस' त्ति नैषा मृषा-नार्थानभिधायिनी नाव कन्येत्यर्थः, पृच्छतोऽयमभिप्रायः- आश्रयिष्याम इत्यादिका भाषा भविष्यत्कालविषया सा चान्तरायसम्भवेन व्यभिचारिण्यपि स्यात् तथैकार्थविषयाऽपि बहुवचनान्ततयोक्तेत्येवमयथार्था तथा आमन्त्रणीप्रभृतिका विधि| प्रतिषेधाभ्यां न सत्यभाषावद्वस्तुनि नियतेत्यतः किमियं वक्तव्या स्यात् । इति उत्तरं तु 'हंता' इत्यादि, इदमंत्र हृदयम्| आश्रयिष्याम इत्यादिकाऽनवधारणत्वाद्वर्त्तमान योगेनेत्येतद्विकल्पगर्भत्वादात्मनि गुरौ चैकार्थत्वेऽपि बहुवचनस्यानुमतत्वात्प्रज्ञापन्यैव तथाऽऽमन्त्रण्यादिकाऽपि वस्तुनो विधिप्रतिषेधाविधायकत्वेऽपि या निरवधपुरुषार्थसाधनी सा प्रज्ञापस्यैवेति ॥ दशमशते तृतीयोदेशकः ॥ १० ॥ ३ ॥
अत्र दशमे शतके तृतीय- उद्देशकः परिसमाप्तः
For Parts Only
~ 442~
| १० शतके
उद्देशः ३
अम्बशब्दः
भाषास्व.
सू ४०२ ૪૦૨
॥५००||
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [१०], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४०४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
%*&+9k
[४०४]
दीप अनुक्रम [४८७]
तृतीयोदेशके देववक्तव्यतोक्ता, चतुर्थेऽप्यसावेवोच्यते इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्
तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियगामे नाम नपरे होत्था बन्नओ, दूतिपलासए चेहए, सामी समोस, जाव परिसा पडिगया । तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेढे अंतेवासी इंदभूई नाम अणगारे जाव उहुंजाणू जाव विहरह। तेणं कालेणं तेर्ण समएर्ण समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी 3 सामहत्धी नामं अणगारे पयइभहए जहा रोहे जाव उहूंजाणू जाब विहरह, तए णं ते सामहस्थी अणगारे जायसढे जाच उट्ठाए उद्वेत्ता जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छद तेणेव उवागच्छित्सा भगवं गोयम में तिक्खुत्तो जाव पजुवासमाणे एवं वयासी-अस्थि णं भंते ! चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमारस्स
तायत्तीसगा देवा ,हंता अस्थि, से केण?णं भंते ! एवं बुचड़ चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमारस्स तापबत्तीसगा देवा ता०२१, एवं खलु सामहस्थी! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेष जंबुशीषे २ भारहे वासे कार्य
दी नार्म नयरी होत्था बन्नओ, तस्थ णं कायंदीए नयरीए तायत्तीसं सहाया गाहाई समणोवासगा परिवसइ अहा जाव अपरिभूया अभिगयजीवाजीवा उबलद्धपुण्णपावा विहरति जाव तए णं ते तायसीसं सहाया गाहावई समणोवासया पुषिं उग्गा उग्गविहारी संविग्गा संविग्गविहारी भविसा तो पच्छा पासस्था पासस्थबिहारी ओसन्ना ओसन्नविहारी कुसीला कुसील विहारी अहाछंदा अहाउंदविहारी बदरं वासाई समगोवासगपरियागं पाउणति २ अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं भूसेंति अत्ताणं झूससा तीसं भत्ताई अण
480+%
*
अथ दशमे शतके चतुर्थ-उद्देशकः आरभ्यते
श्यामहस्ती अनगार: कृत प्रश्न:
~443~
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [१०], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४०४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४०४]
व्याख्या- सणाए छेदेति २ तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिता कालमासे कालं किच्चा चमरस्स असुरिंदस्स असुरकु- १० शतक प्रज्ञप्तिः
माररन्नो तायत्तीसगदेवत्ताए उववन्ना, जप्पभिई च भंते ! कायंदगा तायत्तीसं सहाया गाहावई सम-18 उद्दशः४ अभयदेवीणोवासगा चमरस्स अमुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो तायत्तीसदेवत्ताए उववन्ना तप्पभि च णं भंते ! एवं वुच्चइ
वायखिंशाः या वृत्तिः२
चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो तायत्तीसगा देवा , तए णं भगवं गोयमे सामहत्विणा अणगारेणं ॥५०॥ एवं वुत्ते समाणे संकिए कैखिए वितिगिच्छिए उहाए उठेइ खट्टाए उद्देत्ता सामहस्थिणा अणगारेणं सद्धिं
जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ । लवदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-अस्थिणं भंते! चमरस्स अमरिंदरस असुररणो तायत्तीसगा देवा ता०२१,
हंता अस्थि, से केणटुणं भंते ! एवं बुचह, एवं तं चेव सई भाणिय जाव तप्पभिई च णं एवं बुचा चम-18 का रस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो तायत्तीसगा देवा २१, णो इणढे समढे, गोषमा 1 चमरस्स णं असुरिट्र दस्स असुरकुमाररन्नो तायत्तीसगाणं देवाणं सासए नामधेजे पण्णत्ते, जं न कयाइ नासी न कदावि न
भवति ण कयाई ण भविस्सई जाव निचे अघोच्छित्तिनयट्टयाए अन्ने चयंति अने उपवर्जति । अस्थिर्ण भंते!|| बलिस्स बहरोयर्णिदस्स वइरोयणरन्नो तायत्तीसगा देवा ता०२१, हता अस्थि, से केणद्वेणं भंते एवं बुचड़ 1॥५०१॥
बलिस्स वइरोयर्णिदस्स जाच तायत्तीसगा देवा ता०२१, एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव Fil जीवे २भारहे वासे विभेले णाम संनिवेसे होत्था वन्नओ, तत्थ णं विभेले संनिवेसे जहा चमरस्स जाव:
SANSAR
दीप अनुक्रम [४८७]
श्यामहस्ती अनगारः कृत प्रश्न:
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[४०४]
दीप
अनुक्रम [४८७]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति: ]
शतक [१०], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४०४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५]
उवबन्ना, जप्पभिदं च णं भंते ! ते विभेलगा नायन्तीसं सहाया गाहावइसमणोवासगा बलिस्स वइ० सेसं तं चैव जाव निचे अवोच्छित्तिणयट्टयाए अन्ने चयंति अने उवचनंति । अस्थि णं भंते ! घरणस्स णागकुमा रिंदस्स नागकुमाररन्नो तायत्तीसगा देवा ता० २१, हंता अस्थि, से केणद्वेणं जाव तायत्तीसगा देवा २१, गोयमा ! धरणस्स नागकुमारिंदस्स नागकुमाररनो तायत्तीसगाणं देवाणं सासए नामभेजे पन्नत्ते जं न कयाइ नासी जाव अन्ने चयंति अन्ने उववज्र्ज्जति, एवं भूयाणंदस्सवि एवं जाव महाघोसस्स । अस्थि णं भंते ! सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो पुच्छा, हंता अस्थि से केणद्वेणं जाव तायत्तीसगा देवा २१, एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेब जंबूद्दीवे दीवे भारहे वासे पालासए नामं संनिवेसे होत्था वन्नओ, तत्थ णं पाला|सए सन्निवेसे तायत्तीसं सहाया गाहावई समणोवासया जहा चमरस्स जाव विहरंति, तए णं तायन्तीसं | सहाया गाहावई समणोवासमा पुर्विपि पच्छावि उग्गा उग्गविहारी संविग्गा संविग्गविहारी बहूई वासाई | समणो वासगपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेइ झूसित्ता सर्द्वि भत्ताई अणसणाए छेदेति २ आलोइयपडिता समाहिपत्ता कालमासे कालं किथा जाव उववन्ना, जप्पभिदं च णं भंते! पालासिगा तायतीस सहाया गाहावई समणोवासगा सेसं जहा चमरस्स जाव उववज्र्ज्जति । अस्थि णं भंते ! ईसाणस्स एवं जहा सकस्स नवरं चंपाए नयरीए जाव उववन्ना, जप्पभि चणं भंते ! चंपिजा तायत्तीसं सहाया, सेसं तं चैव जाव अन्ने उववजंति । अस्थि णं भंते ! सणकुमारस्स देविंदस्स देवरन्नो पुच्छा, हंता अत्थि, से
श्यामहस्ती अनगारः कृत प्रश्न:
For Parts Only
"भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि- रचिता वृत्तिः
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [१०], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४०४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
अभयदेवी
प्रत सूत्रांक
[४०४]
व्याख्या- केणढणं जहा धरणस्स तहेष एवं जाव पाणयस्स एवं अच्चुयस्स जाव अन्ने उवचनंति । सेवं भंते ! सेवं भंते॥ १० शतके प्रज्ञप्तिः (सूत्रं ४०४)॥ दसमस्स चउत्थो ॥१०॥४॥
या उद्देशा३ 'तेण मित्यादि, 'तायत्तीसगति वायखिंशा-मन्त्रिविकल्पाः 'तायत्तीसं सहाया गाहावईत्ति त्रयस्त्रिंशत्परि-2
वायखिंशाः या वृत्तिः२
* माणाः 'सहायाः परस्परेण साहायककारिणः 'गृहपतयः'कुटुम्बनायकाः 'उग्ग'त्ति उग्रा उदात्ता भावतः 'उग्गविहारि॥५०शा त्ति उदात्ताचाराः सदनुष्ठानत्वात् 'संविग्ग'त्ति संविनाः-मोक्ष प्रति प्रचलिताः संसारभीरवो था 'संविग्गविहारित्ति
संविग्नविहारः-संविनानुष्ठानमस्ति येषां ते तथा 'पासस्थिति ज्ञानादिवहिर्वर्तिनः 'पासस्थविहारी'त्ति आकालं पार्श्वस्थसमाचाराः 'ओसण्णि'त्ति अवसन्ना इव-श्रान्ता इवावसन्ना आलस्यादनुधानासम्यकरणात् 'ओसाविहार'त्ति आजन्म शिथिलाचारा इत्यर्थः 'कुसील'त्ति ज्ञानाद्याचारविराधनात् 'कुसीलविहारित्ति आजन्मापि ज्ञानाधाचारवि-|| राधनात् 'अहाउंद'त्ति यथाकथचिन्नागमपरतन्त्रतया छन्दः-अभिप्रायो बोधः प्रवचनार्थेषु येषां ते यथाच्छन्दां, ते|| चैकदाऽपि भवन्तीत्यत आह-'अहाच्छंदविहारित्ति आजन्मापि यथाच्छन्दा एवेति । 'तप्पमिदं च 'ति यत्म[भूति त्रयस्त्रिंशत्सवोपेतास्ते श्रायकास्तत्रोत्पन्नास्तत्प्रभृति न पूर्वमिति ॥ दशमशते चतुर्थीदेशकः समाप्तः ॥१०॥४॥
|॥५०॥ || चतुर्थीदशके देववक्तव्यतोक्ता, पश्चमे तु देवीवक्तव्यतोच्यते इत्येवंसम्बन्धस्थास्येदमादिसूत्रम्---
तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नार्म नगरे गुणसिलए चेइए जाव परिसा पडिगया, तेणे कालेणं तेणं ||3
दीप अनुक्रम [४८७]
CRECCASS+
SAREauratonintamanimal
अत्र दशमे शतके चतुर्थ-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ दशमे शतके पंचम-उद्देशक: आरभ्यते
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[ ४०५
४०६]
दीप
अनुक्रम
[४८८
४८९]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः ]
शतक [१०], वर्ग [–], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [४०५-४०६]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
समएणं समणस्स भगषओ महावीरस्स बहवे अंतेवासी थेरा भगवंतो जाइसंपन्ना जहा अट्टमे सए सत्तमुद्देसए जाव विहरति । तए णं ते घेरा भगवंतो जायसहा जाय संसपा जहा गोयमसामी जाव पजुवासमाणा एवं वयासी- चमरस्स णं भंते । असुरिंदस्स असुरकुमाररनो कति अग्गमहिसीओ पत्ताओ ?, अज्जो ! पंच अग्गमहिसीओ पनन्त्ताओ, तंजहा-काली रायी रयणी विबु मेहा, तत्थ णं एगमेगाए देवीए अट्ठट्ठ देवीसहस्सा परिवारो पत्तो, पभू णं भंते ! ताओ एगमेगा देवी अन्नाई अट्ठट्ठदेवीसहस्साई परिवारं विधितए १, एवामेव सपुधावरेणं चत्तालीसं देवी सहस्सा, से तं तुडिए, पभू णं भंते । चमरे असुरिंदे असुरक| मारराया चमरचंचाए रायहाणीए सभाए चमरंसि सीहासांसि तुडिएणं सद्धिं दिवाहं भोगभोगाई भुंजमाणे विहरितए १, णो तिणट्ठे समट्ठे, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ नो पभू चमरे असुरिंदे चमरचंचाए राय| हाणीए जाव विहरितए १, अज्जो चमरस्स णं असुरिंदरस असुरकुमाररन्नो चमरचंचाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए माणवर वेश्यखंभे बहरामएस गोलबद्द समुग्गएसु बहूओ जिणसकहाओ संनिक्खित्ताओ चिति, जाओ णं चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररनो अन्नेसिं च बहूणं असुरकुमाराणं देवाण य देवीण य अचणि|ज्जाओ बंदणिज्जाओ नम॑सणिजाओ पूयणिनाओ सकारणिजाओ सम्माणणिजाओ कलाणं मंगल देवयं चेयं पज्जुवासणिज्जाओ भवंति तेसिं पणिहाए नो पभू, से तेणद्वेणं अज्जो ! एवं बुधइ-नो पभू चमरे असुरिंदे जाव राया चमरचंचाए जाव विहरित्तए । पभू णं अज्जो ! चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया चमरचंचाए
Educatin internation
अग्रमहिष्यः विषयक प्रश्नोत्तर:
For Parts Only
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [१०], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [४०५-४०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] “भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४०५४०६]
%
॥५०॥
दीप अनुक्रम [४८८-४८९]
व्याख्या- रायहाणीए सभासुहम्माए चमरंसि सीहासणंसि चसट्टीए सामाणियसाहस्सीहिं तायत्तीसाए जाव। प्रज्ञप्ति अन्नेहिं च बहहिं असुरकुमारेहिं देवेहि य देवीहि य सहि संपरिखुडे महयाहय जाव मुंजमाणे विहरित्तए उद्देशः५ अभयदेवी- केवलं परियारिडीए नो चेवणं मेहुणवत्तियं ॥(सूत्रं ४०५) चमरस्स णं भंते ! असुरिंदस्स असुरकुमाररनो | अग्रमहिया वृत्तिः सोमस्स महारन्नो कति अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ?, अज्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-व्यः सू४०५
६ कणगा कणगलया चित्तगुत्ता वसुंधरा, तत्थ णं एगमेगाए देवीए एगमेगंसि देविसहस्सं परिवारो पन्नत्तो, है पभू णं ताओ एगमेगाए देवीए अन्नं एगमेगं देवीसहस्सं परियारं विउवित्तए, एवामेव सपुधावरणं चत्तारि
देविसहस्सा, सेतं तुडिए, पभूणं भंते ! चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो सोमे महाराया सोमाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए सोमंसि सीहासणंसि तुडिएणं अवसेसं जहा चमरस्स, नवरं परियारो जहा सूरिहै याभस्स, सेसं तं चेव, जाव णो चेव णं मेहुणवत्तियं । चमरस्सणं भंते ! जाव रन्नो जमस्स महारनो कति
अग्गमहिसीओ, एवं चेव नवरं जमाए रायहाणीए सेसं जहा सोमस्स एवं वरुणस्सवि, नवरं वरुणाए रायहाणीए, एवं घेसमणस्सवि नवरं वेसमणाए रायहाणीए सेसं तं चेव जाव मेहुणवत्तियं । बलिस्स गंभंते ! वहरोयर्णिदस्स पुच्छा, अज्जो पंच २ अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-सुभा निमुंभारंभा निरंभा मदणा,तस्थ
एगमेगाए देवीए अट्ट सेसं जहा चमरस्स, नवरं बलिचंचाए रायहाणीए परियारो जहा मोउद्देसए, सेसं ॥५०॥ तं चेव, जाव मेहुणवत्तियं । वलिम्स णं भंते । वइरोयणिंदस्स बहरोयणरन्नो सोमस्स महारन्नो कति अग्गमहि-||
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SAMEmirathini
अग्रमहिष्य: विषयक प्रश्नोत्तर:
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आगम
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[ ४०५
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अनुक्रम
[४८८
४८९]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः ]
शतक [१०], वर्ग [–], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [४०५-४०६]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
सीओ पन्नताओ ?, अज्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तंजहा- मीणगा सुभद्दा विजया असणी, तत्थ णं एगमेगाए देवीए सेसं जहा चमरसोमस्स, एवं जाव वेसमणस्स || धरणस्स णं भंते! नागकुमारिंदस्स नाग| कुमाररनो कति अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ ?, अज्जो छ अग्गमहिसीओ पन्नताओ, तंजहा - इला सुक्का सदारा सोदामणी इंदा घणविजया, तत्थ णं एगमेगाए देवीए छछ देविसहस्सा परिवारो पन्नत्तो, पभू णं भंते! ताओ | एगमेगाए देवीए अन्नाई छ छ देविस हस्साई परिवारं विउवित्तए एवामेव सपुवावरेणं छतीस देविसहरसाई, सेतं तुडिए । पभू णं भंते ! धरणे सेसं तं चेव, नवरं धरणाए रायहाणीए धरणंसि सीहासणंसि सओ परियाओ | संसे तं चेव । धरणस्स णं भंते । नागकुमारिंदस्स कालवालस्स लोगपालस्स महारनो कति अग्गमहिसीओ पनत्ताओ ?, अजो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तंजहा- असोगा विमला सुप्पभा सुदंसणा, तत्थ णं | एगमेगाए अवसेसं जहा चमरस्स लोगपालाणं, एवं सेसाणं तिव्हवि । भूयाणंदस्स णं भंते! पुच्छा, अज़ो ! छ अग्गमहिस्सीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-ख्या रूयंसा सुख्या रुपगावती रुपकंता रुपप्पभा, तत्थ णं एगमेगाए | देवीए अवसेसं जहा धरणस्स, भूयाणंदस्स णं भंते ! नागवित्तस्स पुच्छा अजो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ | पण्णत्ताओ, तंजा-सुनंदा सुभद्दा सुजाया सुमणा, तस्थ णं एगमेगाए देवीए अवसेसं जहा चमरलोगपालाणं एवं सेसाणं तिन्हवि लोगपालाणं, जे दाहिणिल्लाणिंदा तेर्सि जहा घरणिंदस्स, लोगपालाणंपि सिं जहा धरणस्स लोगपालाणं, उत्तरिल्लाणं इंदाणं जहा भूयाणंदस्स, लोगपालाणचि तेसिं जहा भूयाणंदस्स
अग्रमहिष्यः विषयक प्रश्नोत्तर:
For Parts Only
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [१०], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [४०५-४०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४०५
४०६]
दीप अनुक्रम [४८८-४८९]
व्याख्या-15
लोगपालाणं, नवरं इंदाणं सधेसि रायहाणीओ सीहासणाणि य सरिसणामगाणि परियारो जहा तइयसए| १० शतके प्रज्ञप्तिः पढमे उद्देसए, लोगपालाणं सबेर्सि रायहाणीओ सीहासणाणि य सरिसनामगाणि परियारो जहा चमरस्स उशः ५ अभयदेवी-लोगपालाणं कालस्स । कालस्स णं भंते ! पिसायिंदस्स पिसायरन्नो कति अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ?, अजो
| अग्रमहिचित्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-कमला कमलप्पभा उप्पला सुदंसणा, तत्थ णं एगमेगाए देवीए
प्यासू४०६ 1५०४॥
एगभेगं देविसहस्सं सेसं जहा चमरलोगपालाणं, परियारो तहेव, नवरं कालाए रायहाणीए कालंसि सीहासणंसि, सेस तं चेव, एवं महाकालस्सवि । सुरुवस्स णं भंते । भूइंदस्स रनो पुरुछा, अजो चित्तारि अग्ग-1
महिसीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-रूववती बहुरूवा सुरूवा सुभगा, तत्थ णं एगमगाए सेसं जहा कालस्स, एवं दि पडिरूवस्सवि । पुनभहस्स णं भंते ! जखिदस्स पुच्छा अजो! चत्तारि अग्गमहिसीओ पनत्ताओ, तंजहा
पुना बहुपुत्सिया उत्समा तारया, तस्थ णं एगमेगाए सेसं जहा कालस्स, एवं माणिभहस्सवि। भीमस्स गं| ४. भंते । रक्खसिंदस्स पुच्छा, अजो!चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-पउमा पउमावती कणगा
| रयणप्पभा, तस्थ णं एगमेगा सेसं जहा कालस्स । एवं महाभीमस्सधि । किन्नरस्स भंते ! पुरुछा अनो! नाचत्तारि अग्गमहिसीओ पत्ताओ, तंजहावडेंसा केतुमती रतिसेणा रहप्पिया, तत्थ णं सेसं ते चेव, एवं 18|किंपुरिसस्सधि । सप्पुरिसस्स णं पुच्छा अज्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पनत्ताओ, तंजहारोहिणी नवमिया|
हिरी पुप्फवती, तस्थ णं एगमेगा०, सेसंत चेव, एवं महापुरिसस्सवि। अतिकायस्स णं पुच्छा, अज्जो चत्तारि
॥५०४॥
| अग्रमहिष्य: विषयक प्रश्नोत्तर:
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आगम
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प्रत
सूत्रांक
[ ४०५
४०६]
दीप
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[४८८
-४८९]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः ]
शतक [१०], वर्ग [–], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [४०५-४०६]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
अग्नमहिसी पन्नता, तंजहा भुयंगा भुयंगवती महाकच्छा फुडा, तत्थ णं०, सेसं तं चेव, एवं महाकायस्सवि । गीयर इस्स णं भंते! पुच्छा, अजो ! चत्तारि अग्गमहिसी पन्नता, तंजहा सुघोसा बिमला सुस्सरा सरस्सई, तत्थ णं०, सेसं तं चेव, एवं गीयजसस्सवि, सबेसिं एएसिं जहा कालस्स, नवरं सरिसनामियाओ रायहाणीओ सीहासणाणि य, सेसं तं चेव । चंदस्स णं भंते! जोइसिंदस्स जोइसरनो पुच्छा, अजो चत्तारि अग्गमहिसी पन्नता, तंजहा - चंद्रप्पभा दोसिणाभा अचिमाली पभंकरा, एवं जहा जीवाभिगमे जोइसियउद्देसए तहेव, सूरस्सवि सूरप्पभा आयवाभा अचिमाली पभंकरा, सेसं तं चेव, जहा (जाब) नो चेव णं मेहुणवत्तियं । इंगालस्स |णं भंते ! महग्गहस्स कति अग्ग० पुच्छा, अजो! चत्तारि अग्गमहिसी पन्नता, संजहा- विजया बेजयंती जयंती अपराजिया, तत्थ णं एगमेगाए देवीए सेसं तं चैव जहा चंदस्स, नवरं इंगालबटेंसए विमाणे इंगालगंसि सीहासणंसि सेसं तं चैव, एवं जाव विद्यालगस्सवि, एवं अट्ठासीतीएवि महागहाणं भाणियां जाव भाव के उस्स, नवरं | वडेंसगा सीहासणाणि य सरिसनामगाणि, सेसं तं चैव । सक्क्स्स णं भंते! देविंदस्स देवरन्नो पुच्छा, अज्जो ! अट्ठ अग्गमहिसी पन्नत्ता, तंजहा पउमा सिवा सेया अंजू अमला अच्छरा नवमिया रोहिणी, तत्थ णं एगमेगाए | देवीए सोलस सोलस देविसहरसा परिवारो पत्नत्तो, पभू णं ताओ एगमेगा देवी अन्नाई सोलस देषिसहस्सपरियारं विउवित्तए, एवामेव सपुष्षावरेणं अट्ठावीसुत्तरं देविसघसहस्स परियारं विद्वित्तए, सेत्तं तुटिए । पभू णं भंते ! सक्के देविंदे देवराया सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडेंसर विमाणे सभाए सुहम्माए सर्कसि सीहासणंसि
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अग्रमहिष्यः विषयक प्रश्नोत्तर:
For Par at Use Only
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [१०], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [४०५-४०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४०५४०६]
दीप अनुक्रम [४८८-४८९]
व्याख्या- तुडिएणं सहिं सेसं जहा चमरस्स, नवरं परियारो जहा मोउद्देसए । सक्कस्स णं देविंदस्स देवरन्नो सोमस्स १० शतके
प्रज्ञप्तिः अभयदेवी
महारत्नो कति अग्गमहिसीओ ?, पुच्छा, अजो! चसारि अग्गमहिसी पन्नत्ता, तंजहा-रोहिणी मदणा५ उद्देशः या वृत्तिः
चित्ता सोमा, तत्थ णं एगमेगा० सेसं जहा चमरलोगपालाणं, नवरं सर्यपभे विमाणे सभाए मुहम्माए| अममाहसोमंसि सीहासणंसि, सेसं तं चेव, एवं जाव वेसमणस्स, नवरं विमाणाई जहा तइयसए । ईसाणस्स णं |
प्यासू४०६ १५०५॥ भंते ! पुच्छा, अजो! अह अग्गमहिसी पन्नत्ता, तंजहा-कण्हा कण्हराई रामा रामरक्खिया बसू वसुगुत्ता
लवसुमित्ता वसुंधरा, तत्थ णं एगमेगाए०, सेसं जहा सक्कस्स । ईसाणस्स णं भंते ! देविंदस्स सोमस्स महा
रपणो कति अग्गमहिसीओ, पुच्छा, अज्जो। चत्तारि अग्गमहिसी पन्नत्ता, तंजहा-पुढवी रायी रयणी। || विज, तत्थ णं०, सेसं जहा सकस्स लोगपालाणं, एवं जाव वरुणस्स, नवरं विमाणा जहा चउत्थसए, सेसं
तं चेव, जाव नो चेव णं मेहुणवत्तियं । सेवं भंते । सेवं भंतेत्ति जाब विहरह॥ (मूत्रं ४०६)॥१०-५॥ | RI 'तेण'मित्यादि, 'से तं तुडिए'त्ति तुडिकं नाम वर्गः, 'वहरामएमुत्ति वज्रमयेषु 'गोलवहसमुग्गएसुत्ति गोलकाकारा
वृत्तसमुद्गकाः गोलवृत्तसमुद्गकास्तेषु 'जिणसकहाओ'त्ति 'जिनसक्थीनि' जिनास्थीनि 'अञ्चणिजाओ'त्ति चन्दना- ॥५०५|| | दिना 'वंदणिज्जाओ'त्ति स्तुतिभिः 'नमंसणिज्जाओं' प्रणामतः 'पूयणिज्जाओं' पुष्पैः 'सकारणिजाओं' वस्खादिभिः
'सम्माणणिजाओ' प्रतिपत्तिविशेषैः कल्याणमित्यादिवझ्या 'पञ्जवासणिज्जाओत्ति, 'महयाहय' इह यावत्करणादिदं: सारश्य-'नट्टगीयवाइयतंतीतलतालतुडियषणमुइंगपडुप्पवाइयरवेणं दिवाई भोगभोगाई'ति तत्र च महता-वृहता अह
TotkKEN
अग्रमहिष्य: विषयक प्रश्नोत्तर:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [१०], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [४०५-४०६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४०५४०६]
तानि-अच्छिन्नानि आख्यानकप्रतिवद्धानि वा यानि नाट्यगीतवादितानि तेषां तम्त्रीतलतालानां च 'तुडिय'त्ति शेषतर्याणां च घनमृदङ्गस्य च-मेघसमानध्वनिमईलस्य पटुना पुरुषेण प्रवादितस्य यो रवः स तथा तेन प्रभु गान् । भुञ्जानो विह मित्युक्तं, तत्रैव विशेषमाह-'केवलं परियारिडीए'त्ति 'केवलं' नवरं परिवारः-परिचारणा स चेह स्त्रीशब्दश्रवणरूपसंदर्शनादिरूपः स एव ऋद्धिः-सम्पत् परिवारर्द्धिस्तया परिवारा वा कलत्रादिपरिजनपरिचारणामात्रेणेत्यर्थः 'नो चेव णं मेहुणवत्तियति नैव च मैथुनप्रत्ययं यथा भवति एवं भोगभोगान् भुञ्जानो विहर्नु प्रभुरिति प्रकृतमिति ॥ 'परियारो जहा मोउद्देसए'त्ति तृतीयशतस्य प्रथमोद्देशके इत्यर्थः 'सओ परिवारो'त्ति धरणस्य स्वकः परिवारो वाच्यः, स चै-'छहि सामाणियसाहस्सीहिं तायत्तीसाए तायत्तीसएहिं चाहिं लोगपालेहिं छहिं अग्गमहिसीहिं सत्तहिं अणिएहिं सत्तहिं अणियाहिवई हिं चवीसाए आयरक्खदेवसाहस्सी हिं अन्नेहि य यहिं नागकुमारेहि |देवेहि य देवीहि य सद्धिं संपरिबुडे'त्ति एवं जहा जीवाभिगमें इत्यादि, अनेन च यत्सूचितं तदिदं-'वस्थ णं एगमेगाए देवीए चत्तारि २ देविसाहस्सीओ परिवारो पन्नत्तो, पहू ण ताओ एगमेगा देवी अन्नाई चत्तारि २ देवीसहस्साई परिवार विसवित्तए, एवामेव सपुवावरेणं सोलस देविसाहस्सीमो पन्नताओ'इति 'सेतं तुडिय'मित्यादीति, 'एवं अट्ठा
सीतिएवि महागहाणं भाणियचति, तत्र द्वयोर्वक्तव्यतोक्तव शेषाणां तु लोहिताक्षशनैश्चराघुणिकप्राघुणिककणककणMकणादीनां सा वायेति । 'विमाणाईजहा तझ्यसए'त्ति तत्र सोमस्योक्कमेव यमवरुणवैश्चमणानां तु क्रमेण चरसि ||
दीप
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| अग्रमहिष्य: विषयक प्रश्नोत्तर:
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[४०५
४०६ ]
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[४८८
४८९]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः ]
शतक [१०], वर्ग [-], अंतर- शतक [-], उद्देशक [५] मूलं [ ४०५-४०६]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥५०६ ||
Eaton Intiha
सयंजले वग्गुति विमाणा 'जहा चउत्थसए'ति क्रमेण च तानीशानलोकपालानामिमानि- 'सुमणे सबओभ वग्गू सुवग्गू इति ॥ दशमशते पञ्चमोद्देशकः ॥ १०५ ॥
पश्च मोद्देशके देववकव्यतोता, षष्ठे तु देवाश्रयविशेषं प्रतिपादयन्नाह
कहि णं भंते ! सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो सभा सुहम्मा पन्नत्ता ?, गोयमा ! जंबुद्दीचे २ मंदरस्स पवयस्स दाहिणेणं इमीसे रयणप्पभाए एवं जहा रायप्पसेणइले जाव पंच वडेंसगा पत्ता, तंजहा- असोगवडेंसए | जाव मज्झे सोहम्मवडेंसए, से णं सोहम्मवडेंसए महाविमाणे अद्धतेरस य जोयणसय सहस्साई आयामविक्खंभेणं, एवं जह सूरियाभे तहेब माणं तहेव उवबाओ । सकस्स य अभिसेओ तहेव जह सूरियाभस्स ॥ १ ॥ अलंकारअचणिया तहेब जाव आयरक्खत्ति, दो सागरोवमाई ठिती। सके णं भंते । देविंदे देव| राया केमहिहीए जाव केमहसोक्खे १, गोयमा ! महिहीए जाव महसोक्खे, से णं तत्थ बत्तीसार विमाणावाससयसहस्साणं जाव विहरति एवंमहहिए जाब महासोक्स्खे सके देविंदे देवराया । सेवं भंते ! सेवं भंतेति ॥ सूत्रं ४०७ ) ॥ १०६ ॥
|
'कहि 'मित्यादि, 'एवं जहा रायप्पसेणइज्जे' इत्यादिकरणादेवं दृश्यं - 'पुढबीए बहुसमरमणिजाओ भूमि| भागाओ उहं चंदमसूरियगह गणन क्खत्ततारारूवाणं बहूई जोयणाई बहूई जोयणसयाई एवं सहस्साई एवं सयसहस्साइं बहूओ जोयणकोडीओ बहूओ जोयणकोटाकोडीओ उहं दूरं वीरवत्ता एत्थ णं सोहम्मे नार्म कप्पे
अत्र दशमे शतके पंचम उद्देशकः परिसमाप्तः अथ दशमे शतके षष्ठं उद्देशक: आरभ्यते
For Pale Only
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१० शतके
६ उद्देशः सुधर्मासभा सु. ४०७
॥५०६ ॥
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Ir.
आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [१०], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [४०७] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४०७]
गाथा
|| पत्ते'इत्यादि, 'असोगपडेसए' इह थावस्करणादिदं दृश्य-सत्तवापरसए चंपगवडेंसए चूयव.सए'त्ति, विवक्षिता| भिधेचसूचिका चेयमतिदेशगाथा-'एवं जह सूरिया तहेव माणं तहेव बुधवाओ । सकस्सब अभिसेओ तहेव जह | सूरियाभस्स ॥१॥ इति, 'एवम्' अनेन क्रमेण यथा सूरिकाभे विमाने राजप्रवकृताख्यग्रन्थोक्के प्रमाणमुक्तं तथैवास्मिन् वाच्च, तथा यथा सूरिकाभाभिधानदेवस्य देवत्वेन तत्रोपपात उक्तस्तथैवोपपातः शक्रस्वेह वाच्योऽभिषेकश्चेति, तत्र प्रमाण-आयामविष्कम्भसम्बन्धि दर्शितं, शेष पुनरिदम्-'ऊयालीसं च सयसहस्साई बावतं सहस्साई अह य अडयाले जोयणसए परिक्खेवेणीति । उपपातश्चैवं-'तेणं कालेणं तेणं समएणं सके देविंदे देवराया अहुणोववन्नमेसे चेव समाणे पंचविहाए पजत्तीए पजत्तिभावं गच्छद, तंजहा-आहारपज्जत्तीए ५ इत्यादि । अभिषेकः पुनरेवं-'तए णं | सके देविंदे देवराया जेणेव अभिसेयसभा तेणेव उवागच्छा तेणेव उवागच्छित्ता अभिसेयसभं अणुष्पयाहिणीकरेमाणे D२ पुरपिछमिलेणं दारेणं अणुपविसइ जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता सीहासणवरगते पुरच्छा
भिमुहे निसन्ने, तए णं तस्स सकस्स ३ सामाणियपरिसोवषन्नगा देवा आभिओगिए देवे सहावेति सद्दावेत्ता एवं X वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सकस्स ३ महत्थं महरिहं विउल इंदाभिसेयं उबडवेह'इत्यादि. अलंकार अञ्चणिया ||4||
व तहेच'त्ति यथा सूरिकाभस्य तथैवालङ्कारः अर्चनिका चेन्द्रस्य वाच्या, तत्रालङ्कार:-'तए णं से सके देवे तप्पढमयाए | पम्हलखूमालाए सुरभीए गंधकासाईयाए गायाई लूहेइ २ सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाई अणुलिंपइ २ नासानीसासबायबोगसं चक्खुहरं वनफरिसजुत्तं हवलालापेलवातिरेगं धवलकनगखचियंतकर्म आगासफालियसमप्पभं दिवं|
दीप
अनुक्रम [४९०-४९२]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [१०], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [४०७] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४०७]
गाथा
व्याख्या- ट्रा देवदूसजुयलं नियंसेति २'हारं पिणद्धेती त्यादीति, अर्चनिकालेशस्त्वेवं-'तए णं से सके ३ सिद्धाययणं||१० शतके प्रज्ञप्तिः
पुरच्छिमिल्लेणं दारेणं अणुप्पविसइ २ जेणेव देवच्छंदए जेणेव जिणपडिमा तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता जिण- उहंशः अभयदेवीपडिमाण आलोए पणामं करेइ २ लोमहत्थगं गेण्हइ २ जिणपडिमाओ लोमहत्थएणं पमजइ २ जिणपडिमाओ सुरभिणा
सुधर्मासभा या वृत्ति
सुचना गंधोदएणं ण्हाणेइत्ति, जाव आयरक्ख'त्ति अचनिकायाः परो ग्रन्धस्तावद्वाच्यो यावदात्मरक्षाः, स चैवं लेशतः-'तए णं है
सू४०७ ॥५०७॥ | से सके ३ सभं सुहम्मं अणुप्पविसइ २ सीहासणे पुरच्छाभिमुहे निसीयइ, तए णं तस्स सकस्स ३ अवरुत्तरेणं उत्तर
पुरच्छिमेणं चउरासीई सामाणियसाहस्सीओ निसीयंति पुरच्छिमेणं अढ अग्गमहिसीओ दाहिणपुरच्छिमेणं अभितरिया परिसा बारस देवसाहस्सीओ निसीयंति दाहिणेणं मज्झिमियाए परिसाए चोद्दस देवसाहस्सीओ दाहिणपञ्चत्थिमेणं बाहिरियाए परिसाए सोलस देवसाहस्सीओ पञ्चस्थिमेणं सत्त अणियाहिवईणो, तए णं तस्स सकस्स ३ चउदिर्सि चत्तारि आयरक्खदेवचउरासीसाहस्सीओ निसीयंती'त्यादीति, केमहडीए' इह यावत्करणादिदं दृश्य-केमहजुइए केमहाणुभागे केमहायसे केमहाबले ?त्ति, 'बत्तीसाए विमाणावाससयसहस्साणं' इह यावत्करणादिदं दृश्य-चउरासीए सामाणियसाहस्सीणं तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं [ग्रन्थाग्रम् ११०००] अण्हं अग्गमहिसीणं जाव अन्नेर्सि च बहूर्ण | जाव देवाण देवीण य आहेवचं जाव कारेमाणे पालेमाणे'त्ति ॥ दशमशते पष्ठोदेशकः ॥ १०-६॥
पष्ठोद्देशके सुधर्मसभोक्ता, सा चाश्रय इत्याश्रयाधिकारादाश्रयविशेषानन्तरद्वीपाभिधानान् मेरोरुत्तरदिग्वत्र्तिशिखk|| रिपर्वतदंष्ट्रागतान लवणसमुद्रान्तर्वर्तिनोऽष्टाविंशतिमभिधित्सुरष्टाविंशतिमुद्देशकानाह
दीप
॥५०७॥
अनुक्रम [४९०-४९२]
REaication
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अत्र दशमे शतके षष्ठ-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ दशमे शतके सप्तमात् चस्त्रिंशत पर्यन्ता: उद्देशका: आरभ्यते
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [१०], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७-३४], मूलं [४०८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
*
प्रत सूत्रांक
कहिन भंते ! उत्तरिल्लाणं एगोरुयमणुस्साणं एगोरुयदीवे नाम दीवे पन्नत्ते?, एवं जहा जीवाभिगमे तहेव १० शतके | निरवसेसं जाव सुद्धदंतदीवोत्ति, एए अट्ठावीसं उद्देसगा भाणियवा सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति जाव विहरति॥ ७-३४ (सूत्रं०४०८)॥१०-३४ ॥ दसमं सयं समत्तं ॥१०॥
उत्तरान्त
द्वीपा: | 'कहिणं भंते ! उत्तरिल्लाण'मित्यादि । 'जहा जीवाभिगमे इत्ययमतिदेश:-पूर्वोक्तदाक्षिणात्यान्तरद्वीपवक्तव्यताs-18 मानुसारेणावगन्तव्यः॥ दशमशते चतुस्त्रिंशत्तम उद्देशकः समाप्तः॥ १०-३४ ॥ समाप्तं दशमं शतम् ॥१०॥
सू४०८
[४०८]
HIKARANEWS
इति गुरुजनशिक्षापार्श्वनाथप्रसादप्रस्ततरपतबद्वन्द्वसामर्थ्यमाप्य । दशमशतविचारमाधराय्येऽधिरूढा, शकुनिशिशुरिवाहं तुच्छबोधाङ्गकोऽपि ॥१॥
दीप अनुक्रम [४९३]
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Sieos
and rendered cateriadvante మళయక
e dhadavanthandadiety ॥इति श्रीमदभयदेवसूरिवरविहितभगवतीवृत्तौ दशमं शतकं समाप्तम् ।।
अत्र दशमे शतके 6-३४ उद्देशका: परिसमाप्ता:
तत् समाप्ते दशम शतक अपि समाप्त
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आगम [०५]]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [४०९] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४०९]
यावृतिः२४
गाथा:
दीप
व्याख्या अथैकादशं शतकम् ॥
११ शतके प्रज्ञष्ठिः
उत्पलोपअभयदेवीव्याख्यातं दशमं शतं, अथैकादशं व्याख्यायते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-अनन्तरशतस्यान्तेऽन्तरद्वीपा उक्तास्ते च
पातादि
सू४०९ * वनस्पतिबहुला इति वनस्पतिविशेषप्रभृतिपदार्थस्वरूपप्रतिपादनायैकादशं शतं भवतीत्येवंसम्बद्धस्यास्योद्देशकार्थसहगाथा॥५०८॥
| उप्पल १ सालु २ पलासे ३ कुंभी ४ नाली य५ पउम ६ कन्नी ७ य । नलिणसिव ९ लोग १० काला ११लंभिय १२ दस दो य एकारे ॥१॥ उववाओ १ परिमाणं २ अवहारु ३ वत्स ४ बंध ५ वेदे ६ य । उदए ७ उदीरणाए ८ लेसा ९ दिट्ठी १० य नाणे ११ य ॥१॥जोगु १२ वओगे १३ बन्न १४ रसमाई १५ ऊसासगे १६ य आहारे १७ । विरई १८ किरिया १९ बंधे २० सन्न २१ कसायि २२ थि २३ बंधे २४ य ॥२॥ | सन्नि २५ दिय २६ अणुबंधे २७ संवेहा २८ हार २९ ठिइ ३० समुग्याए ३१ । चयणं ३२ मूलादीसु य उव
चाओ ३३ सबजीवाणं ॥ ३ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव पञ्जुवासमाणे एवं वयासी उप्पले | भंते ! एगपत्तए कि एगजीवे अणेगजीवे ?, गोयमा! एगजीवे नो अणेगजीवे, तेण परं जे अन्ने जीवा उवव-पत
जंति ते.णं णो एगजीवा अणगेजीवा । तेणं भंते जीवा कओहिंतो उववज्जति ? किं नेहपहिती ववज्जति || तिरि० मणु० देवेहितो उववज्जति !, गोयमा ! नो नेरतिएहितोउववनंति तिरिक्खजोणिएहितोवि उवववन्ति
अनुक्रम [४९४
-४९८]
अथ एकादशमं शतकं आरब्धं
अथ एकादशमे शतके प्रथम-उद्देशक: आरभ्यते
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आगम [०५]]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [४०९] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४०९]
गाथा:
मणुस्सहिंतो देवहितोवि उववजंति, एवं उववाओ भाणियबो, जहा वक्तीए वणस्सइकाइयाणं जाव ईसाणेति १।से भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववजंति ?, गोयमा ! जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेजा वा असंखेजा वा अपवनंति । तेणं भंते ! जीवा समए २ अबहीरमाणा २ केवतिका-3 लेणं अवहीरंति ?, गोयमा! ते णं असंखेज्जा समए २ अवहीरमाणा २ असंखेचाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहि अवहीरंलि नो चेच णं अवहिया सिया ३ । तेसिणं भंते ! जीवाणं केमहालिया सरीरोगाहणा पण्ण
ता, गोयमा । जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेाइभागं उक्कोसेणं सातिरेगं जोयणसहस्सं ४ । तेणं भंते ! जीवा || ४ाणाणावरणिजस्स कम्मरस किंबंधगा अबंधगा, गोयमा नो अबंधगा बंधए वा बंधगा वा एवंजाब अंतराइयस्स,
नवरं आउयस्स पुच्छा, गोयमा! बंधए वा अबंधए वा वंधगा वा अबंधगावा अहवा बंधए य अवंधए य अहवा बंधए य अबंधगा य अहवा बंधगा य अबंधए य अहवा बंधगा य अबंधगा य८ एते अट्ठ भंगा ५ ते णं है मंते ! जीवा णाणावरणिनस्स कम्मरस किं वेदगा अबेदगा?, गोयमा! नो अवेदगा वेदए वा वेदगा वा एवं जाव अंतराइयस्स, ते णं भंते ! जीवा किं सायावेयगा असायावेयगा, गोयमा ! सायावेदए वा 8 असायावेयए वा अट्ट भंगा ६ ते णं भंते ! जीवा णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स किं उदई अणुदई 1, गोयमा! मो अयुधई उदई था उदहणो वा, एवं जाव अंतराइयस्स ७॥ तेणं भंते ! जीवा णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स
दीप
अनुक्रम [४९४
-४९८]
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आगम [०५]]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [४०९] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४०९]
गाथा:
व्याख्या- किं उदीरगा?, गोयमा ! नो अणुदीरगा उदीरए वा उदीरगा वा, एवं जाव अंतराइयरस, नवरं वेयणिज्जा- ११शतके प्रज्ञप्तिः। उपसु अट्ट भंगा ८ ते णं भंते ! जीवा किं कण्हलेसा नीललेसा काउलेसा तेउलेसा, गोयमा ! कण्हलेसे उत्पलोपअभयदेवी
पदवावा बा वृत्तिः २
पातादि जाव तेउलेसे वा कण्हलेस्सा वा नीललेस्सा वा काउलेस्सा वा तेउलेसा वा अहवा कण्हलेसे य नील-12
सू४०९ | लेस्से य एवं एए दुपासंजोगतियासंजोगचउकसंजोगेणं असीती भंगा भवंति ९॥ ते णं भंते । जीवा कि
सम्महिही मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छादिही?, गोयमा ! नो सम्मदिट्ठी नो सम्मामिच्छादिट्ठी मिच्छादिट्टी |चा मिच्छादिविणो वा १० ते णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी?, गोयमा ! नो नाणी अण्णाणी चा
अन्नाणिणो वा ११ । ते ण भंते ! जीवा किंमणजोगी वयजोगी कायजोगी, गोयमा ! नो मणजोगी जो वयजोगी कायजोगी वा कायजोगिणो वा १२ । तेणं भंते ! जीवा किं सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता ?, गोयमा ! सागारोवउत्ते चा अणागारोवउत्तेचा अभंगा १३ । तेसिणं भंते ! जीवाणं सरीरगा कतिवन्ना कतिगंधा कतिरसा कतिफासा पन्नत्ता, गोषमा ! पंचवन्ना पंचरसा दुगंधा अडफासा पन्नत्ता, ते पुण अप्पणा अबन्ना अगंधा अरसा अफासा पन्नत्ता १४-१५॥ तेणं भंते । जीवा किं उस्सासा निस्सासा नो| उस्सासनिसासा, गोयमा ! उस्सासए वा १ निस्सासए वा २नो उस्सासनिस्सासए वा ३ खस्सासगा वा
॥५०९॥ ४४ निस्सासगा वा ५नो उस्सासनीसासगा वा ६, अहवा उस्सासए य निस्सासए य ४ अहवा उस्सासए|
दीप
अनुक्रम [४९४-४९८]
SAREauratonintamational
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [४०९] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [४०९]
३
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गाथा:
यनो उस्सासनिस्सासए य अहवा निस्सासए य नो उस्सासनीसासए य ४, अहवा ऊसासए य नीसासए य नो उस्सासनिस्सासए य अट्ठ भंगा एए छधीसं भंगा भवंति २६ ॥
ते णं भंते ! जीवा किं आहारगा अणाहारगा?, गोयमा ! नो अणाहारगा आहारए वा अणाहारए बा एवं अट्ठ भंगा १७ ॥ -ते भंते ! जीवा किं विरता अविरता विरताविरता ?, गोपमा ! नो विरता नो विरयाविरया अविरए वा अविरया वा १८।
तेणं भंते ! जीवा किं सकिरिया HEE अकिरिया?, गोयमा! नो अकिरि
या सकिरिए वा सकिरिया वा १९||
का, २४ १३
४
दीप
पढ़सवाचारः३
हा संयोज्यात. .. | चतुर्ष स्थानचेते.
| चाच३२ भगाः
| एकबोगे एकरवएवं २४३४
| बटुवाम्बामष्टौ८
चतुर्विंशतिः विकसंयोग
द्वात्रिंशात् .३चनुष्कसंयोगे। १३ १३ कियाग जी.नो. चतुष्कसंखोगे १६ भागा २३
३१३१ पोडश भवन्ति ३.३३ एवं सर्व.-60
. 11.
१३. प्रियोग
मका १३
है
ना.
ते.
अनुक्रम [४९४-४९८]
1364CSGAR
एकयोगे| कृ.
STARN३ ३३ ३
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[४०९]
+
गाथाः
दीप
अनुक्रम
[४९४
-४९८]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति: ]
शतक [११], वर्ग [–], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [४०९] + गाथा:
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
1143011
ते णं भंते । जीवा किं सत्तविहबंधना अडविहबंधगा?, गोयमा ! सत्तविहबंधए वा अट्ठविहबंधए वा अट्ठ भंगा २० । ते णं भंते । जीवा किं आहारसन्नोवउत्ता भयसन्नोवउत्ता मेहुणसन्नोवडत्ता परिग्गहसन्नोवउत्ता ?, गोयमा ! आहारसन्नो वउत्ता वा असीती भंगा २१ । ते णं भंते । जीवा किं कोहकसाई माणकसाई मायाकसाई लोभकसाई ?, असीती भंगा २२ । ते णं भंते! जीवा किं इत्थीवेदगा पुरिसवेदगा नपुंसगवेदगा ?, गोयमा ! नो इत्थिवेदगा नो पुरिसवेदगा नपुंसगवेदए वा नपुंसगवेदगा वा २३ । ते णं भंते जीवा किं इत्थीवेदबंधगा पुरिसवेदबंधगा नपुंसगवेदबंधगा १, गोयमा ! इत्थिवेदबंध वा पुरिसवेदबंधए वा नपुंसगवेयबंधए वा, छबीसं भंगा २४ । ते णं भंते ! जीवा किं सनी असन्नी ?, गोपमा ! नो सन्नी असन्नी वा असनिणो वा २५ । ते णं भंते! जीवा किं सइंदिया अनिंदिया ?, गोयमा नो अर्णिदिया सदिए वा सइंदिया वा २६ से णं भंते ! उप्पलजीवेति कालतो केवचिरं होइ ?, गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहृत्तं उको| सेणं असंखेनं कालं २७ । से णं भंते ! उप्पलजीवे पुढविजीवे पुणरवि उप्पलजीवेत्ति केवतियं कालं सेवेज्जा ?, केवतियं कालं गतिरागति करेज्जा १, गोपमा । भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं असंखेखाई भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहनेणं दो अंतोमुहुत्ता उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं, एवतियं कालं सेवेज्जा | एवतियं काळं गतिरागतिं करेज्जा, से णं भंते ! उप्पलजीने आउजीवे एवं चैव एवं जहा पुढविजीचे भणिए तहा जाय बाउज़ीवे भाणियधे, से णं भंते ! उप्पलजीवे से वणस्सहजीवे से पुणरवि उप्पलजीवेति केव
Educatuny Internationa
For Penal Use On
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११ शतके
उत्पलोपपातादि सू ४०९
॥५१०॥
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आगम [०५]]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [४०९] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४०९]
गाथा:
Pइयं काल सेबेजा केवतियं कालं गतिरागतिं कजह?, गोयमा ! भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवरगहणाई उक्को
सेणं अणंताई भवग्गहणाई, कालाएसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुहुत्ता उक्कोसेणं अणतं कालं तरुकालं एवइर्यकाल सेवेज्जा एवइयं कालं गतिरागतिं कज्जा, से णं भंते ! उप्पलजीवे इंदियजीवे पुणरवि उप्पलजीवेत्ति केवइयं | काल सेवेजा केवइयं कालं गतिरागतिं कज्जइ ?,गोयमा भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं संखजाई | भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुहत्ता उक्कोसेणं संखेनं कालं एवतियं काल सेवेजा एवतियं कालं| गतिरागतिं कजइ, एवं तेइंदियजीवे, एवं चरिदियजीवेचि, से णं भंते ! उप्पलजीवे पंचेंदियतिरिक्खजोणियजीवे पुणरवि उप्पलजीवेत्ति पुकछा, गोयमा ! भवादेसेणं जहनेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई का कालादेसेणं जहनेणं दो अंतोमुत्ताई उक्कोसेणं पुषकोडिपुहुत्ताई एवतियं कालं सेवेजा एवतियं कालं गतिरागतिं
करेजा, एवं मणुस्सेणवि समं जाव एवतियं कालं गतिरागतिं करेजा २८ । ते णं भंते ! जीवा किमाहारमाहारेति !,गोयमा ! दपओ अर्णतपएसियाई दवाई एवं जहा आहारुद्देसए वणस्सइकाइयाणं आहारो तहेब जाव
सबष्पणयाए आहारमाहारेंति नवरं नियमा छरिसिं सेसं तं चैव २९ । तेसि णं भंते ! जीवाणं केवइयं | || कालं हि पण्णता, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं दस वाससहस्साई ३० । तेसि णं भंते ||
जीवाणं कति समुग्धाया पण्णत्ता, गोयमा! तओ समुग्धाया पण्णत्ता, तंजहा-वेदणासमुग्धाए कसायसा मारणंतियस. ३१ । तेणं भंते। जीवा मारणतियसमुग्घाएणं किं समोहया मरंति असमोहया मरंति ,
दीप
अनुक्रम [४९४-४९८]
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आगम [०५]]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [४०९] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४०९]
गाथा:
व्याख्या- गोयमा ! समोहयावि मरंति असमोहयावि मरंति ३२ । तेणं भंते । जीवा अणंतरं उच्चट्टित्ता कहिं गच्छति ११ शतक प्रज्ञप्तिःला
॥ कहिं उचयजति किं मेरइएसु उववज्जति तिरिक्खजोणिएसु उवध एवं जहा वर्षांतीए उच्चट्टणाए वणस्सह-||४|| १ उद्देश अभयदेवीकाइयाणं तहा भाणियई । अह भंते । सबपाणा सबभूया सबजीवा सबसत्ता उप्पलमूलत्ताए उप्पलकंद
उत्पलाधिया वृत्तिः ताए उपलनालताए उप्पलपत्तत्ताए उप्पलकेसरत्ताए उप्पलकनियत्ताए उपलथिभुगत्ताए उववन्नपुषा ,
कार:
सू४०९ ॥५१॥|हंता गोयमा! असतिं अदुवा अणंतक्खुत्तो। सेवं भंते सेवं भंते ति ३३ ॥(सू०४०९)। उप्पलदेसए॥११-१॥
र 'उप्पले'त्यादि, उत्पलार्थः प्रथमोद्देशकः १'सालु चि शालूक-उत्पलकन्दस्तदर्थो द्वितीयः २ 'पलासे'त्ति पलाश:किंशुकस्तदर्थस्तृतीयः ३ 'कुंभीति वनस्पतिविशेषस्तदर्थश्चतुर्थः ४ नाडीवद्यस्य फलानि स नाडीको-वनस्पतिविशेष एव तदर्थः पञ्चमः ५ 'पउमत्ति पदार्थः षष्ठः ६ 'कन्नीय'त्ति कर्णिकार्थः सप्तमः ७'नलिण'त्ति नलिनार्थोऽष्टमः ८ यद्यपि चोत्पलपद्मनलिनानां नामकोशे एकार्थतोच्यते तथाऽपीह रूढेविशेषोऽवसेयः, 'सिवत्ति शिवराजर्षिवक्तव्यतार्थों नवमः ९ 'लोग'त्ति लोकार्थों दशमः १०'कालालभिए'त्ति कालार्थ एकादशः ११ आलभिकायर्या नगर्या यत्मरूपितं | तत्प्रतिपादक उद्देशकोऽप्यालभिक इत्युच्यते ततोऽसौ द्वादश १२, 'दस दो य एक्कारित्ति द्वादशोदेशका एकादशे शते भवन्तीति । तत्र प्रथमोद्देशकद्वारसनगाथा वाचनान्तरे दृष्टास्ताश्चेमाः-उववाओ'इत्यादि, एतासां चार्थ उद्देशकार्था- ५१२॥ |धिगमगम्य इति ॥ 'उप्पले णं भंते ! एगपत्तए'इत्यादि, 'उत्पल' नीलोत्पलादि एक पत्रं यत्र तदेकपत्रकं अथवा एकं च तत्पत्रं चैकपत्रं तदेवकपत्रकं तत्र सति, एकपत्रक चेह किशलयावस्थाया उपरि द्रष्टव्यम् , 'एगजीवेति यदा
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दीप
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आगम [०५]]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [४०९] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
+ A
प्रत सूत्रांक [४०९]
गाथा:
हि एकपत्रावस्थं तदैकजीवं तत्, यदा तु द्वितीयादिपत्रं तेन समारब्धं भवति तदा नैकपत्रावस्था तस्येति बहवो जीवाIA|| स्तनोत्पयन्त इति, एतदेवाह-तण पर'मित्यादि, तेण परं ति ततः-प्रथमपत्रात् परतः 'जे अन्ने जीवा ववजंति'-12
त्ति येऽन्ये-प्रथमपत्रव्यतिरिक्ता जीवा जीवाश्रयत्वात्पत्रादयोऽवयवा उत्पद्यन्ते ते 'नकजीवा' नैकजीवाश्रयाः | किन्त्वनेकजीवाश्रया इति, अथवा 'तेणे'त्यादि, ततः-एकपत्रात्परतः शेषपत्रादिष्वित्यर्थः येऽन्ये जीवा उत्पद्यन्ते ते 'नैक-द *जीवा' नैककाः किन्त्वनेकजीवा अनेके इत्यर्थः ॥'ते भंते । जीवति ये उत्पले प्रथमपत्राद्यवस्थायामुत्पद्यन्ते । 'जहा वकंतीए'त्ति प्रज्ञापनायाः पष्ठपदे, स चैवमुपपातः-'जइ तिरिक्खजोणिएहितो उववजति किं एगिदियतिरि-14
क्खजोणिएहिंतो उववजति जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववति', गोयमा! एगिदियतिरिक्खजोणिएहिंहै तोवि उववजंति इत्यादि, एवं मनुष्यभेदा वाच्याः-'जइ देवहितो उवबजंति किं भवणवासी'त्यादि प्रश्नो निर्वचनं
च ईशानान्तदेवेभ्य उत्पद्यन्त इत्युपयुज्य वाच्यमिति, तदेतेनोपपात उक्तः ॥'जहन्नेण एको वेत्यादिना तु परिमाणम् २। 'ते णं असंखेजा समए'इत्यादिना त्वपहार उक्त, एवं द्वारयोजना कार्या ३ । उच्चत्वद्वारे 'साइरेग जोयणसहस्सं'ति तथाविधप्तमुद्रगोतीर्थकादाविदमुच्चत्वमुत्पलस्यावसेयम् ४ । बन्धद्वारे 'बंधए बंधया वत्ति एकपत्रावस्थायां ॥ बन्धक एकत्वात् व्यादिपत्रावस्थायां च बन्धका बहुत्वादिति, एवं सर्वकर्मसु, आयुष्के तु तदबन्धावस्थाऽपि स्यात् तद-18 |पेक्षया चाबन्धकोऽपि अबन्धका अपि च भवन्तीति, एतदेवाह-'नवर'मित्यादि, इह बन्धकावन्धकपदयोरेकरवयोगे एकवचनेन द्वौ विकल्पौ बहुवचनेन च द्वौ द्विकयोगे तु यथायोगमेकत्वबहुत्वाभ्यां चत्वारः इत्येवमष्टौ विकल्पा,
A-%AR
दीप
ॐ
अनुक्रम [४९४-४९८]
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आगम [०५]]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [४०९] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४०९]
व्याख्या-1 प्रज्ञप्ति नमयदेवीया वृत्तिः२ ११॥
गाथा:
स्थापना- १, अ.१, ३, अ ३, व १ अ १, बं १ अ३, बं ३ अ १, ३ अर्ब ३।५।वेदनद्वारे ते भदन्त ! जीवा शसके ज्ञानावरणीयस्य कर्मणः किं वेदका अवेदकाः, अत्रापि एकपत्रतायामेकवचनान्तता अन्यत्र तु बहुवचनान्तता एवं उद्देशः यावदन्तरायस्थ, वेदनीये सातासाताभ्यां पूर्ववदष्टौ भङ्गाः, इह च सर्वत्र प्रथमपन्नापेक्षयैकवचनान्तता, ततः परं तु बहु- उत्पलाधि वचनान्तता, वेदनं अनुक्रमोदितस्योदीरणोदीरितस्य वा कर्मणोऽनुभवः, उदयश्चानुक्रमोदितस्यैवेति वेदकत्वप्ररूपणे- कारः sपि भेदेनोदयित्वप्ररूपण ७ मिति ॥ उदीरणाद्वारे 'नो अणुदीरगत्ति तस्यामवस्थायां तेषामनुदीरकत्वस्थासम्भवात् । सू ४०९ वेयणिजाउएसु अट्ठभंग'ति वेदनीये-सातासातापेक्षया आयुपि पुनरुदीरकत्वानुदीरकत्वापेक्षयाऽष्टौ भनाः, अनुदीरकत्वं चायुष उदीरणायाः कादाचित्कत्वादिति ॥ लेश्याद्वारेऽशीतिर्भङ्गा, कथम् , एककयोगे एकवचनेन चत्वारो बहुवचनेनापि चत्वार एव, द्विकयोगे तु यथायोगमेकवचनबहुवचनाभ्यां चतुर्भङ्गी, चतुर्णी व पदानां पद द्विकयोगास्ते च चतुर्गुणाश्चतुर्विशतिः, त्रिकयोगे तु त्रयाणां पदानामष्टौ भङ्गाः, चतुर्णी च पदानां चत्वारखिकसंयोगास्ते चाष्टा| भिर्गुणिता द्वात्रिंशत् , चतुष्कसंयोगे तु षोडश भङ्गाः, सर्वमीलने चाशीतिरिति, अत एवोक्त 'गोयमा! कण्हलेसे वेत्यादि ॥ वोदिद्वारे ते पुण अप्पणा अवन्न'त्ति शरीराण्येव तेषां पञ्चवर्णादीनि ते पुनरुत्पल जीवाः 'अप्पण'त्ति | स्वरूपेण 'अवों' वर्णादिवर्जिताः अमूर्त्तत्वात्तेपामिति ॥ उच्छासकद्वारे 'नो उस्सासनिस्सासए'त्ति अपयोप्तावस्था-IXशा याम, इह च पडूविंशतिभाः कथम् ?, एककयोगे एकवचनान्तात्रयः बहुवचनान्ता अपि त्रया, द्विकयोगे तु यथा-14|| योगमेकत्वबहुत्वाभ्यां तिनश्चतुर्भङ्गिका इति द्वादश, त्रिकयोगे त्वष्टाविति, अत एवाह-एए छचीसं भंगा भयंति'त्ति in
दीप
अनुक्रम [४९४-४९८]
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आगम [०५]]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [४०९] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४०९]
गाथा:
बाहारकद्वारे 'आहारए वा अणाहारए वत्ति विग्रहगतावनाहारकोऽन्यदा त्वाहारकस्तत्र चाष्टौ भङ्गाः पूर्ववत् । * सज्ञाद्वारे कषायद्वारे चाशीतिर्भङ्गाः लेश्याद्वारवयाख्येयाः। 'से गं भंते ! उप्पलजीवे'त्ति इत्यादिनोत्पलवस्थितिरनुबन्धपर्यायतयोका । 'से णं भंते । लप्पलजीवे पुढविजीवेत्ति इत्यादिना तु संवेधस्थितिरुक्का, तब च "भवा
देसेण ति भवप्रकारेण भवमाश्रित्येत्यर्थः 'जहन्नेणं दो भवग्गहणाई'ति एकं पृथिवीकायिकत्वे ततो द्वितीयमुत्पलत्वे M ततः परं मनुष्यादिगतिं गच्छेदिति । 'कालादेसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुटुत्त'त्ति पृथिवीवेनान्तर्मुहुर्त पुनरुत्पलत्वे
नान्तर्मुहूर्समित्येवं कालादेशेन जघन्यतो वे अन्तर्मुहुर्ते इति, एवं द्वीन्द्रियादिषु नेयम् , 'उकोसेणं अह भवग्गहजाणाई'ति चत्वारि पञ्चेन्द्रियतिरश्चश्चत्वारि चोत्पलस्येत्येवमष्टौ भवग्रहणान्युत्कर्षत इति, 'कोसेणं पुच्चकोडीपुष्टुत्तति |
चतुर्यु पश्चेन्द्रियतिर्यम्भवग्रहणेषु चतस्रः पूर्वकोव्यः उत्कृष्टकालस्य विवक्षितत्वेनोत्पलकायोद्त्तजीवयोग्योत्कृष्टपश्चेन्द्रियतिर्यस्थितेप्रहणात्, उत्पलजीवितं त्वेतास्वधिकमित्येवमुस्कृष्टतः पूर्वकोटीपृथक्त्वं भवतीति । 'एवं जहा आहारुद्देसए वणस्सइकाइयाण'मित्यादि, अनेन च यदतिदिष्टं तदिदं-'खेत्तओ असंखेजपएसोगाढाई कालओ अन्नयरकालहिइयाई भाषओ वनमंताई'इत्यादि, 'सबप्पणयाए'त्ति सर्वात्मना 'नवरं नियमा छदिसिति पृथिवीकायिकादयः सूक्ष्मतया निष्कुटगतत्वेन स्यादिति स्यात् तिसृषु दिक्षु स्याच्चतसृषु दिक्षु इत्यादिनापि प्रकारेणाहारमाहारयन्ति, उत्पलजीवास्तु बादरत्वेन तथाविधनिष्कुटेष्वभावानियमापट्सु दिक्ष्वाहारयन्तीति । 'वकंतीए'त्ति प्रज्ञापनायाः षष्ठपदे 'उबदृणापति उदर्सनाधिकारे, तत्र चेदमेवं सूत्र-मणुएसु उववजति देवेसु उववजंति', गोयमा ! नो नेरइएसु उवला
दीप
अनुक्रम [४९४-४९८]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१,२-५], मूलं [४०९,४१०-४१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४०९,
४१०-४१३]
व्याख्या- वजति तिरिएसु उववजति मणुएसु उववजति नो देवेसु उवयजति उप्पलकेसरत्ताए'त्ति इह केसराणिकर्णिकाया: ११ शतक प्रज्ञासा परितोऽवयवाः पुप्पलकनियत्ताए'
त्तिकर्णिका-बीजकोशः 'पप्पलथिभुगताए'त्ति थिभुगाच यता पत्राणि || २-५उद्देशाः ४ प्रभवन्ति ॥ एकादशशते प्रथमोद्देशकः ॥ ११-१॥
शालूका या चिः२
Aधकारः सू. सालुए णं भंते ! एगपत्तए कि एगजीचे अणेगजीये?, गोयमा ! एगजीवे एवं उपलुदेसगवत्तषया अप-11४२०४१३ ॥५१॥
रिसेसा भाणियवा जाव अर्णतखुत्तो, नवरं सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जाभार्ग उकोसेणं धणु-1 पुष्टुत्तं, सेसं तं चेव । सेवं भंते। सेवं भंतेत्ति ॥ (सूत्रं ४१०)११-२॥
पलासे णं भंते ! एगपत्तए कि एगजीवे अणेगजीवे ?, एवं उप्पलुद्देसगवत्तवया अपरिसेसा भाणियषा, | नवरं सरीरोगाहणा जहनेणं अंगुलस्स असंखेजहभागं उक्कोसेणं गाउयपुष्टुत्ता, देवा एएसु चेष न उवव
जंति । लेसासु ते णं भंते । जीवा किंकण्हलेसे नीललेसे काउलेसे०१, गोयमा | कण्हलेस्से वा नीललेस्से ४ वा काउलेस्से वा छवीसं भंगा, सेसं तं चेव । सेवं भंते ! २ ति॥ (सूत्रं ४११) ॥११-३॥ | कुंभिए णं भंते जीवे एगपत्तए कि एगजीवे अणेगजीवे 2, एवं जहा पलासुझसए तहा भाणियचे, नवरं
ठिती जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उकोसेणं वासपुहुत्तं, सेसंत चेव । सेवं भंते । सेवं भंतेत्ति ॥ (सू०४१२)११-४॥ ॥५१॥ IXII नालिए णं भंते ! एगपत्तए कि एगजीचे अणेगजीवे , एवं कुंभिउद्देसगवत्सषया निरवसेसं भाणियवा ||
सेवं भंते ! सेवं भंते त्ति ॥ (सूत्रं ४१३)॥११-५॥
दीप अनुक्रम [४९४-५०२]
ॐॐॐ455
SAREauratonintemational
अत्र एकादशमे शतके प्रथम-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ एकादशमे शतके द्वितीय-तृतीय-चतुर्थ-पंचमा उद्देशका: आरब्धा: एवं परिसमाप्ता:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६-८], मूलं [४१४-४१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४१४-४१६]
पउमेणं भंते ! एगपत्तए कि एगजीवे अणेगजीवे ?, एवं उप्पलुद्देसगवत्तवया निरवसेसा भाणियधा। ४ सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॥ (सूत्रं ४१४)॥११-६॥
कनिएणं भंते!एगपत्तए किं एगजीवे०?, एवं चेव निरवसेसंभाणियबासेवं भंते सेवं भंते त्ति(सूत्र४१५)११-७१ | नलिणेणं भंते एगपत्तएकिंएगजीवे अणेगजीवे ?,एवं चेव निरवसेसंजाव अर्थतनुत्तो सेवं भंते सेवं भंते
त्ति (सूत्रं ४१६)११-८॥ है| शालुकोदेशकादयः सप्तोद्देशका प्राय उत्पलोदेशकसमानगमाः, विशेषः पुनयों यत्र स तत्र सूत्रसिद्ध एय, नवरं पला-18
शोद्देशके यदुक्तं 'देवेसुन उवववति'त्ति तस्यायमर्थः-उत्पलोद्देशके हि देवेभ्य उद्भुत्ता उत्पले उत्पधन्त इत्युक्तमिह | तु पलाशे नोत्पद्यन्त इति वाच्यम् , अप्रशस्तत्वात्तस्य, यतस्ते प्रशस्तेष्वेवोत्पलादिवनस्पतिषूत्पद्यन्त इति । तथा 'लेसासुत्ति लेण्याद्वारे इदमध्येय मिति वाक्यशेषः, तदेव दयते-ते णमित्यादि, इयमत्र भावना-यदा किल तेजोलेश्यायुती देवो देवभवावुद्धत्य वनस्पसियूत्पद्यते तदा तेषु तेजोलेश्या लभ्यते, न च पलाशे देवत्वोद्त्त उत्पद्यते पूर्वोक्तयुक्त, || एवं चेह तेजोलेश्या न संभवति, तदभावादाद्या एवं तिम्रो लेश्या इह भवन्ति, एतासु च पडूविंशतिर्भङ्गकार, प्रयाणां |
१शाले धनुःपृथक्त्वं भवति पलाशे च गब्यूतपृथक्त्वं । योजनसहस्रमधिकमवशेषाणां तु षण्णामपि ॥१॥ कुंभ्यां नालिकायां वर्ष* पृथक्वं तु स्थितिर्बोद्धव्या । दश वर्षसहस्राणि अवशेषाणां तु षण्णामपि ॥२॥ कुभ्यां नालिकायां भवन्ति पलाशे च तिसो लेश्याः ।
चतस्रो लेश्यास्तु अवशेषाणां पश्चानां तु ॥ ३॥
दीप
अनुक्रम [५०३-५०५]
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अथ एकादशमे शतके षष्ठ-सप्तम-अष्टमा उद्देशका: आरब्धा:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६-८], मूलं [४१४-४१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
R
व्याख्या-
प्राप्तिः अभयदेवी-
प्रत सूत्रांक [४१४-४१६]
यावृत्तिः २
-
पदानामेतावत्तामेव भावादिति । एतेषु चोद्देशकेषु नानात्वसङ्ग्रहार्थास्तिस्रो गाथा:-"सालंमि धणुपुहर्त होइ पलासे य ११ शतके गाउयपुहत्तं । जोयणसहस्समहियं अवसेसाणं तु छण्हंपि ॥१॥ कुंभीए नालियाए वासपुहत्तं ठिई उ बोद्धवा । दस वा-81-७८ 3ससहस्साई अबसेसाणं त छहंपि॥२॥भीए नाछियाए होति पलासे य तिनि लेसाओ। पत्तारि उलेसाओ अवसेसाणं ||| तु पंचहं ॥३॥" एकादशशते द्वितीयादयोऽष्टमान्ताः ॥११-८॥
पद्मादिसू
४१४-४१५ अनन्तरमुत्पलादयोऽर्धा निरूपिताः, एवंभूतांश्वार्थान् सर्वज्ञ एव यथाव ज्ञातुं समर्थो न पुनरन्यो, द्वीपसमुद्रानिव | ११शतके शिवराजर्षि, इति सम्बन्धेनु शिवराजर्षिसंविधानकं नवमोद्देशकं पाह, तस्य चेदमादिसूत्रम्
९ पदेशः तेणं कालेणं तेणं समएणं हस्थिणापुरे नाम नगरे होत्था बन्नओ, तस्स णं हरियणागपुरस्स नगरस्सा
शिवराज बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभागे एस्थ णं सहसंबवणे णाम उजाणे होत्था सबोउयपुष्फफलसमिडे रम्मे स्तापसता गंदणवणसंनिप्पगासे सुहसीयलच्छाए मणोरमेसादुफले अकंटए पासादीए जाच पडिरूवे, तत्थ णं हस्थिणा
सू४१५ || पुरे भगरे सिवे नामं राया होत्था मझ्याहिमवंत वन्नओ. तस्स णं सिवस्स रम्रो धारिणी नाम देवी होत्थाले। सकुमाल पाणिपाया वन्नओ, तस्स णं सिवस्स रन्नो पुत्ते धारणीए अत्तए सिवभहए नाम कुमारे होत्या सुकुमाल जहा सूरियर्कते जाव पवेक्खमाणे पञ्चवक्खमाणे विहरह, तए तस्स सिवस्स रनो अमया कपाधि
॥५१४॥ पुषरताचरत्तकालसमयसि रज्जधुरंचिंतेमाणस्स अपमेयारूवे अन्भत्थिए जाव समुपजित्था-अस्थि ता मे पुरा| |पोराणाणं जहा तामलिस्स जाव पुत्तेहिं वहामि पहिं वहामि रज्जेणं चहामि एवं रहेणं बलेणं वाहणेणं
दीप
अनुक्रम [५०३-५०५]
ESUGARCANCES
अत्र एकादशमे शतके षष्ठ-सप्तम-अष्टमा उद्देशका: परिसमाप्ता: अथ एकादशमे शतके नवम-उद्देशकः आरभ्यते
शिवराजर्षि-कथा
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [४१७-४१८] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
सूत्रांक [४१७-४१८]
गाथा
कोसे कोहागारेणं पुरेणं भवरेणं वहामि विपुलघणकणगरपणजावसंतसारसावएज्जेणं अतीव २ मभिवहामि तं किन्नं अहं पुरा पोराणाणं जाव एगंतसोक्खयं उल्वेहमाणे विहरामि, सं जाव ताव अहं हिर४ नेणं चहामि तं चेव जाव अभिवहामि जाव मे सामंतरायाणोवि वसे वटुंति ताव ता मे सेयं कल्लं पाउप्प-13
भयाए जाव जलते सुबई लोहीलोहकडाहकडच्छुयं तंपियं तावसभंडगं घडावेत्ता सिवभई कुमारं रज्जे
ठावेत्तातं सुपहुं लोहीलोहकडाहकडच्छुयं तंबियं तावसभंडगं गहाय जे इमे गंगाकूले वाणपत्था तावसा भवंति, ४०-होत्तिया पोत्तिया कोत्तिया जन्नई सहुई थालई जंच उट्ठदंतुक्खलिया उम्मजया संमज्जगा निमज्जगा संप
खाला उद्धकंडूयगा अहोकंडूयगा दाहिणकूलगा उत्तरकूलगा संखधमया कूलधमगा मितलुद्धा हस्थितावसा जलाभिसेयकिढिणगाया अंचुवासिणोचाउवासिणो जलवासिणो चेलवासिणो अवुभक्विणो वायभक्खिणो सेवालभक्विणो मूलाहारा कंदाहारा पत्ताहारा पुष्फाहारा फलाहारा बीयाहारा परिसडियकंदमूलपंदुपत्त-४ | पुष्फफलाहारा उदंदा रुक्खमूलिया वालवासिणो वक्कपासिणो दिसापोक्खिया आयावणाहिं पंचग्गितावेहि इंगालसोल्लियंपिच कंडसोल्लियपिव कट्ठसोल्लियंपिव अप्पाणं जाव करेमाणा विहरंति जहा उववाइए जाब कट्ठसोल्लियंपिव अप्पाणं करेमाणा विहरंति ॥ तत्थ णं जे ते दिसापोक्खियतावसा तेसिं अंतियं मुंडे ला भवित्ता दिसापोक्खियतावसत्ताए पचहत्तए, पपइएवि यणं समाणे अयमेयारूवं अभिग्गहं अभिगिहिस्सामि-कप्पा मे जावज्जीवाए छटुंछद्वेणं अनिक्खित्तेणं दिसायकवालेणं तवोकम्मेणं उहूं पाहाओ पगि
दीप
अनुक्रम [५०६-५०८]
शिवराजर्षि-कथा
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [४१७-४१८] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
सूत्रांक [४१७-४१८]
*
4
गाथा
झिय २ जाब विहरित्तएत्तिकह, एवं संपेहेति संपेहेत्ता कल्लं जाव जलते सुबहुं लोहीलोह जाव घडावेत्ता कोडं । ११शतके प्रजतिः ॥ चियपुरिसे सहावेइ सहावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! हस्थिणागपुरं नगरं सम्भितर-|| उद्देशा अभयदेवी- बाहिरियं आसिय जाव तमाणत्तियं पञ्चप्पिणंति, तए णं से सिवे राया दोर्चपि कोडंपियपुरिसे सहावेंति २||शिवराजर्षेबावृत्तिामा एवं बयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सिवभद्दस्स कुमारस्स महत्थं ३ विउलं रायाभिसेयं उबट्ठयेह, स्तापसता
तएणं ते कोडंबियपुरिसा तहेव उबट्ठति, तए णं से सिवे राया अणेगगणनायगर्दहनापग जाव संधिपाल|| ॥५१५॥
सहि संपरिबुढे सिवभई कुमारं सीहासणवरंसि पुरस्थाभिमुहं निसीयावेन्ति २ अट्ठसएणं सीवनियाणं कलसाणे जाव अट्ठसएणं भोमेजाणं कलसाणं सविडीए जाव रवेणं महपा २रायाभिसेएणं अमिसिंचह २ पम्हल-* सुकुमालाए सुरभिए गंधकासाईए गायाई लूहेह पम्ह०२ सरसेणं गोसीसेणं एवं जहेव जमालिस्स अलंकारो तहेव जाव कप्परुक्खगंपिव अलंकियविभसिपं करेंति २ करयल जाव कडू सिवभई कुमारं जएणंटू |विजएणं वायति जगणं विजएणं बद्धावेत्ता ताहिं इट्ठाहिं कंताहिं पियाहिं जहा उववाहए कोणिपस्स जाव परमा पालयाहि इहजणसंपरिबुडे हस्थिणपुरस्स नगरस्स अन्नेसिं च बहूर्ण गामागरनगर जाव विह-17 राहित्सिकह जयजयसई पति, तए णं से सिवभ कुमारे राया जाए महया हिमवंत वनओ जाब विहरह, तए णं से सिये राया अन्नया कयाई सोभणसि तिहिकरणदिवसमुहत्सनक्खतसि विपुलं असणपाण-1 | ॥५१५॥ खाइमसाइमं उबक्खडावेंति बक्खडावेत्ता मित्तणाइनियगजावपरिजर्ण रायाणो य खसिया आमंतेतिकी
दीप
अनुक्रम [५०६-५०८]
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शिवराजर्षि-कथा
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [४१७-४१८] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
सूत्रांक [४१७-४१८]
गाथा
आमंतेत्ता तओ पच्छा पहाए जाव सरीरे भोपणवेलाए भोयणमंडपंसि सुहासणवरगए तेणं मित्तणातिनि-18|| यगसयण जाव परिजणेणं राएहिय खत्तिएहि य सर्द्धि विपुलं असणपाणखाइमसाइमं एवं जहा तामली
जाव सकारेति संमाणेति सकारत्ता संमाणेत्ता तं मित्तणाति जाव परिजणं रायाणो य खत्तिए य सिवभई ट्रच रायाणं आपुच्छह आपुच्छित्सा सुबहुं लोहीलोहकडाहकडुच्छ जाव भंग गहाय जे इमे गंगाकूलगा
वाणपत्था तावसा भवंति तं चेव जाव तेर्सि अंतियं मुंडे भवित्ता दिसापोक्खियतावसत्ताए पदइए, पवइएकविय णं समाणे अयमेयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ-कप्पइ मे जावज्जीवाए छठें तं चेव जाव अभिग्गहं अभिगिण्हइ २ पढम छट्टक्खमणं उवसंपज्जित्ताणं विहरह । तए णं से सिवे रायरिसी पढमछट्टक्खमणपार
णगंसि आयावणभूमीए पचोरुहह आयाषणभूमिए पचोरुहित्ता वागलवत्थनियत्थे जेणेव सए उहए तेणेवPउवागका तेणेव उवागच्छित्ता किरिणसंकाइयगं गिण्हइ गिण्हित्ता पुरच्छिम दिसं पोक्खेह पुरच्छिमाए दिसाए सोमे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सिवे रायरिसी अभि०२, जाणि य तत्थ कंदाणि य मूलाणि य तयाणि य पत्ताणि य पुप्फाणि य फलाणि य बीयाणि य हरियाणि य ताणि अणुजाणउसि कट्ट पुरच्छिम दिसं पसरति पुर०२ जाणि य तत्थ कंदाणि प जाव हरियाणि य ताई गेण्हइ २ किढिणसंकाइयं भरेह कदि०२ दन्भे य कुसे य समिहाओ य पत्तामोहं च गेण्हेइ २ जेणेव सए उडए तेणेव उवा गच्छद २ किदिणसंकाइयगं ठवेह किढि०२ वेदि वइ २ उवलेवणसंमजणं करेइ उ०२ दन्भसगन्भकलसा
दीप
RRCHESTRA
अनुक्रम [५०६-५०८]
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SAREauratoninternational
शिवराजर्षि-कथा
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [४१७-४१८] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
सूत्रांक [४१७-४१८]
व्याख्या-15 हत्थगए जेणेव गंगा महानदी तेणेव पवागच्छद गंगामहानदी ओगाहेति २जलमजणं करोह २ जलकी-||| ११ शतके
दि कर २ जलाभिसेषं करेति २ आयंते चोक्खे परमसुइभूए देवयपितिकयकजे दग्भसगन्भकलसाहत्थगए उद्देश: अभयदेवी- गंगाओ महानईओ पच्चुत्तरह २ जेणेव सए उहए तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता दम्भेहि य कुसेहि
शिवराजर्षे४ ब चालुयाएहि य वेति रएति चेति रएत्ता सरएणं अरणिं महेति सर०२ अगि पाडेति २ अग्गि संधुद
स्तापसता ॥५१६॥
२ समिहाकट्ठाई पक्खिवह समिहाकट्ठाई पक्खिवित्ता अरिंग उज्जालेइ अरिंग उज्जालेत्ता-'अग्गिस्स दाहिणे | |पासे, सत्संगाई समादहे। सं०-सकई वक्कलं ठाणं, सिजा भई कमंडलु ॥१॥ दंडदार तहा पाणं अहे ।
ताई समादहे ॥ महुणा य घएण य तंदुलेहि य अग्गि हुणइ, अग्गि हुणित्ता च साहेइ, चर्क साहेत्ता बलि || | वइस्सदेवं करेइ बलिं वइस्सदेवं करेत्ता अतिहिपूर्य करेइ अतिहिपूर्व करेत्ता तओ पच्छा अप्पणा आहारमाहारेति, तए णं से सिषे रायरिसी दोचं छहक्खमणं उपसंपत्तिाणं विहरह, तए णं से सिवे रापरिसी दोचे हक्खमणपारणगंसि आयावणभूमीओ पचोरुहह आयावण २एवं जहा पढमपारणगं नवरं। दाहिणणं दिसं पोक्खेति २ दाहिणाए दिसाए जमे महाराया पत्धाणे पस्थियं सेसं तं चेव आहारमाहारोह, तए णं से सिवरायरिसी तचं छट्ठक्खमणं उवसंपजिसाणं विहरति, तए णं से सिवे रायरिसी सेसं तं चेव ।
नवरं पचच्छिमाए दिसाए वरुणे महाराया पत्थाणे पत्थियं सेसं तं चेव जाव आहारमाहारेह, तए णं से सिवे |||| दारापरिसी चउत्थं छट्ठक्खमणं उपसंपज्जित्ताणं विहरह, तए णं से सिवे रायरिसी चउत्थं छट्टक्खमणं एवं
ANSKREY
गाथा
दीप
अनुक्रम [५०६-५०८]
For P
OW
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [४१७-४१८] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
सूत्रांक [४१७-४१८]
HitSTH
गाथा
A
मात चेय नवरं उत्तरदिसं पोक्खेह उत्तराए दिसाए बेसमणे महारापा पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खत सिर्व.
सेसं तं चेव जाव तओ पच्छा अप्पणा आहारमाहारेइ (सूत्रं ४१७)तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स | छटुंछडेणं अनिक्खित्तेणं दिसाचकावालेणं जाव आयावेमाणस्स पगइभदयाए जाव विणीययाए अन्नया कयाचि तयावरणिजाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापोहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स विम्भंगे नाम अन्नाणे | समुप्पन्ने, से णं तेणं विग्भंगनाणेणं समुप्पनेणं पासइ अस्सि लोए सत्त दीवे सत्त समुदे तेण परं न जाणति न पासति, तए णं तस्स सिवस्स रापरिसिस्स अयमेयारूवे अभत्थिए जाव समुप्पजिस्था-अस्थि णं मम अइससे नाणदसणे समुप्पन्ने एवं खलु अस्सि लोए सत्त दीवा सत्तं समुद्दा तेण परं वोच्छिन्ना दीवा य समुदाय, एवं संपेहेइ एवं०२ आयावणभूमीओ पचोरुहइ आ० २ वागलवथनियत्थे जेणेच सए पडए तेणेव उवागाछइ २ सुबहुं लोहीलोहकडाहकटुच्छुयं जाव भंडगं किढिणसंकाइयं च गेण्हइ २ जेणेव हत्थिणापुरे नगरे जेणेव तावसावसहे तेणेव उवागच्छद उवा०२ भंडनिक्खेवं करेद २ हस्थिणापुरे नगरे सिंघाडगतिगजावपहेसु बहुजणस्स एवमाइक्खइ जाव एवं परूचेह-अस्थि णं देवाणुप्पिया ! ममं अतिसेसे नाणदसणे समुप्पन्ने, एवं खलु अस्सि लोए जाव दीवा य समुदा य, तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अंतियं एयमढे सोचा निसम्म हस्थिणापुरे नगरे सिंघाडगतिगजाव पहेसु बहुजणो अन्नमनस्स एवमाइक्खा | जाव परूवेइ-एवं खलु देवाणुप्पिया! सिवे रायरिसी एवं आइक्खइ जाव परूवेह-अस्थि णं देवाणु
दीप
अनुक्रम [५०६-५०८]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [४१७-४१८] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
सूत्रांक [४१७-४१८]
गाथा
व्याख्या.
प्पिया। ममं अतिसेसे नाणदसणे जाव तेण परं बोच्छिन्ना दीवा य समुदा य, से कहमेयं मने एवं ११ शतके प्रज्ञप्ति तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे परिसा जाव पडिगया। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भग- ९ उद्देशः अभयदेवी- वओ महावीरस्स जेट्टे अंतेवासी जहा वितियसए नियंठुद्देसए जाव अडमाणे बहुजणसई निसामेइ बहु- शिवराजया वृत्तिा ] जणो अन्नमनस्स एवं आइक्खइ एवं जाव परूवेइ-एवं खलु देवाणुप्पिया! सिवे रायरिसी एवं आइक्खह
बोंधः
सू ४१८ ॥५१७॥
जाव परवेइ-अस्थि ण देवाणुप्पिया!तं चेव जाव चोच्छिन्ना दीवा समुद्दा य, से कहमेयं मन्ने एवं?, तर *णं भगवं गोयमे बहुजणस्स अंतियं एपमढे सोचा निसम्म जाव सट्टे जहा नियंठुद्देसए जाव तेण परं वो|च्छिन्ना दीवा य समुदा य, से कहमेयं भंते! एवं ? गोयमादि समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वयासी-जन्नं गोयमा! से बहुजणे अनमन्नस्स एवमातिक्खइतं चेव सर्व भाणियत्वं जाव भंडनिकलेचं करेतिर हत्थिणापुरे नगरे सिंघाडगतं चेव जाव वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य, तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अतिए एपमहूँ सोचा निसम्म तं चेव सर्व भाणियई जाव तेण पर वोच्छिन्ना दीवा य समुरा य तणं | | मिच्छा, अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि-एवं खलु जंबुद्धीवादीया दीवा लवणादीया || समुदा संठाणओ एगविहिविहाणा वित्थारओ अणेगविहिविहाणा एवं जहा जीवाभिगमे जाव सर्यभरम-/
१५१७॥ णपज्जवसाणा अस्सि तिरियलोए असंखेजे दीवसमुद्दे पन्नतेसमणाउसो। ॥ अस्थि णं भंते ! जंबुद्धीवे दीवेदबाई सवन्नाईपि अयनाइपि सगंधाइंपि अगंधाइपि सरसाइंपि अरसाइंपि सफासाइंपि अफासाइंपि अन्नमन्नब
दीप
*RANCEOGAOCRORE
अनुक्रम [५०६-५०८]
शिवराजर्षि-कथा
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [४१७-४१८] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
सूत्रांक [४१७-४१८]
*%%%A5%545
गाथा
दाई अनमन्नपुट्ठाई जाय घडताए चिट्ठति, हंता अस्थि । अस्थि णं भंते ! लघणसमुदवाई सपनाइंषि अवन्ना*इंपि सगंधाई अगंधाईपि सरसाइंपि अरसाइंपि सफासाइंपि अफासाइंपि अन्नमन्नवदाई अनमन्नपुट्ठाई जाव/
घडताए चिट्ठति ?, हंता अस्थि । अस्थि णं भंते ! धायसंडे दीवे दवाई सवनाईपि एवंचेव एवं जावा सयंभूरमणसमुझे ? जाव हंता अस्थि । तए णं सा महतिमहालिया महवपरिसा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमढे सोचा निसम्म हडतुट्ठा समणं भगवं महावीरं वंदह नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता जामेव |दिसं पाउन्भूया तामेव दिसं पहिगया, तए णं हस्थिणापुरे नगरे सिंघाडगजावपहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स | एवमाइक्खइ जाव परूबेइ-जन्नं देवाणुप्पिया ! सिवे रायरिसी एवमाइक्खा जाव परूवेह-अस्थि णं देवाणुप्पिया! ममं अतिसेसे नाणे जाव समुद्दा य तं नो इणढे समढे, समणे भगवं महावीरे एवमाइक्खहजाच | का परूवेइ-एवं खलु एयरस सिवस्स रायरिसिस्स छटुंछट्टेणं तं चेव जाच भंडनिक्खेवं करेइ भंडनिक्वेवं
करेत्ता हस्थिणापुरे नगरे सिंघाडग जाव समुद्दा य, तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अंतियं एयमदं सोचा | निसम्म जाव समुद्दा य तपणं मिच्छा, सभणे भगवं महावीरे एवमाइक्खइ०-एवं खलु वुद्दीवादीया दीवा लवणादीया समुद्दा तं चेव जाव असंखेजा दीवसमुदा पन्नत्ता समणासो! । तए णं से सिवे रायरिसी बहुजणस्स अंतियं एयमढे सोचा निसम्म संकिए कंखिए वितिगिच्छिए भेदसमावन्ने कलुससमावन्ने | जाए यावि होस्था, तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स संखियस्स कंखियस्स जाव कलुससमाव
दीप
अनुक्रम [५०६-५०८]
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शिवराजर्षि-कथा
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [४१७-४१८] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
सूत्रांक [४१७-४१८]
गाथा
व्याख्या- अस्स से विभंगे भन्नाणे सिप्पामेव परिवहिए, तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अयमेयारूवे अन्मस्थिए ।
थप ११ शतके प्रज्ञप्ति जाव समुप्पजित्था-एवं खलु समणे भगवं महावीरे आदिगरे तिस्थगरे जाव सम्पन्नू सबदरिसी आगासगएणं || ९ उद्देश अभयदेवीया वृत्तिः२
चक्षणं जाव सहसंबवणे उजाणे अहापडिरूवं जाव विहरइ, तं महाफलं खलु तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं शिवराजनामगोयस्स जहा उववाइए जाच गहणयाए, तं गच्छामि णं समणं भगवं महावीरं वदामि जाव पजुवा
र्बोधः
सू ४१८ ॥५१॥ सामि, एवं णे इहभवे य परभवे य जाब भविस्सइत्तिकट्ट एवं संपेहेति एवं रत्ता जेणेव तावसावसहे तेणेव
उवागच्छह तेणेव उवागच्छित्सा तावसायसहं अणुप्पविसति २त्ता सुबहुं लोहीलोहकडाह जाव किढिणसंकातिगं च मेहइ गेण्हित्ता तापसावसहाओ पडिनिस्वमति ताव०२ परिवडियविभंगे हथिणागपुरं नगर | मझमजोणं निग्गच्छइ निग्गच्छित्सा जेणेव सहसंबवणे उजाणे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागM| कछइ तेणेव उवागफिछत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ वंदति नमंसति वंदित्ता
नमंसित्ता मच्चासन्ने नाइदूरे [ग्रन्थानम् ७०००] जाव पंजलि उडे पजुवासइ, तए णं समणे भगवं महावीरे सिवस्स रापरिसिस्स तीसे य महतिमहालियाए जाव आणाए आराहए भवइ, तए णं से सिवे रापरिसी ||
॥५१८॥ समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म सोचा निसम्म जहा खंदओ जाव उत्तरपुरच्छिमं दिसीभार्ग अवकमा २ सुबहुं लोहीलोहकडाह जाव किढिणसंकातिगं एगते एडेड ए०२ सयमेव पंचमुट्टियं लोय करेति|
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अनुक्रम [५०६-५०८]
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[०५]
प्रत
सूत्रांक
[४१७
-४१८]
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अनुक्रम
[५०६
-५०८]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः ]
शतक [११], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [ ४१७-४१८] + गाथा
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
| सयमे० २ समणं भगवं महावीरं एवं जहेब उसभदन्ते तदेव पवइओ तहेव इक्कारस अंगाई अहिजति तहेव सर्व्वं जाव सङ्घदुक्खप्पहीणे || (सूत्रं ४१८ ) ॥
'ते काले 'मित्यादि, 'महया हिमवंत वन्नओ' ति अनेन 'महयाहिमवंतमहंत मलय मंदमहिंद सारे' इत्यादि राजवर्णको वाच्य इति सूचितं, तत्र महाहिमवानिव महान् शेषराजापेक्षया तथा मलयः पर्वतविशेषो मन्दरो-मेरुः महेन्द्र:शक्रादिर्देवराजस्तद्वत्सारः- प्रधानो यः स तथा, 'सुकुमाल० वन्नओ'ति अनेन च 'सुकुमालपाणिपाये'त्यादी राज्ञीवर्णको वाच्य इति सूचितं, 'सुकुमालजहा सूरियकंते जाव पशुवेक्खमाणे २ बिहरह'त्ति अस्थायमर्थ:-'सुकुमालपाणिपाए लक्खणर्वजणगुणोववेए' इत्यादिना यथा राजप्रश्नकृताभिधाने ग्रन्थे सूर्यकान्तो राजकुमारः 'पञ्चवेक्खमाणे २ विहरह' इत्ये| तदन्तेन वर्णकेन वर्णितस्तथाऽयं वर्णयितव्यः, 'पञ्चवेक्खमाणे २ बिहरइ' इत्येतञ्चैवमिह सम्बन्धनीयं- 'से णं सिवभद्दे कुमारे जुबराया यावि होत्था सिवस्स रनो रजं च रडं च बलं च वाहणं च कोर्स च कोडागारं च पुरं च अंतेवरं च जणवयं च सयमेव पवेक्खमाणे विहरङ्ग'ति । 'वाणपत्य'त्ति बने भवा वानी प्रस्थानं प्रस्था-अवस्थितिर्वानी प्रस्था येषां ते वानप्रस्थाः, अथवा "ब्रह्मचारी गृहस्थश्व, वानप्रस्थो यतिस्तथा" इति चत्वारो लोकप्रतीता आश्रमाः, एतेषां च तृतीयाश्रमवर्त्तिनो वानप्रस्था', 'होत्तिय'त्ति अग्निहोत्रिकाः 'पोत्तिय'त्ति वस्त्रधारिणः 'सोसिय'त्ति क्वचित्पाठस्तत्राप्ययमेवार्थः 'जहा उबवाइए' इत्येतस्मादतिदेशादिदं दृश्यं 'कोत्तिया जन्नई सहुई थालई हुंब उडा दंतुक्खलिया उम्मज्जगा सम्मज्जगा निमज्जगा संपक्खला दक्खिणकूलगा उत्तरकूलगा संखधमगा कूलधमगा मिगलुद्धया हस्थितावसा उद्दंडगा दिसापोक्खिणो वकवासिणो
Education Internation
शिवराजर्षि-कथा
For Parts Only
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [४१७-४१८] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
सूत्रांक [४१७-४१८]
गाथा
व्याख्या-वाचेलवासिणो जलवासिणो रुक्खमूलिया अंबुभक्खिणो वाउभविखणो सेवालभविखणो मूलाहारा कंदाहारा तयाहारा पत्ताहारा || ११ शतके
पुप्फाहारा फलाहारा बीयाहारा परिसडियकंदमूलतयपत्तपुष्फफलाहारा जलाभिसेयकढिणगाया आयावणाहिं पंचगिता-४९ उद्देशः अभयदेवी-1 वहिं इंगालसोल्लियं कंदुसोल्लियति तत्र 'कोत्तियत्ति भूमिशायिनः 'जन्नईत्ति यज्ञयाजिनः 'सहइति श्राद्धाः 'थालइतिशिवराजया वृत्ति
&|गृहीतभाण्डाः 'टुंबउर्दु'त्ति कुण्डिकाश्रमणाः 'दंतुक्खलिय'त्ति फलभोजिनः 'उम्मजग'सि उन्मजनमात्रेण ये सान्ति ||र्षिवृत्तं ॥५१९॥
'संमज्वगति उन्मजनस्यैवासकृत्करणेन ये स्नान्ति 'निमज्जगत्ति स्थानार्थं निमग्ना एव ये क्षणं तिष्ठन्ति 'संपक्खाल'
सि मृत्तिकादिघर्षणपूर्वकं ये क्षालयन्ति 'दक्षिणकूलग'त्ति यैर्गङ्गाया दक्षिणकूल एव वास्तव्यम् 'उत्तरकूलग'त्ति छ। उक्तविपरीताः 'संखधमग'त्ति शाई धमात्या ये जेमन्ति यद्यन्यः कोऽपि नागच्छतीति 'कलधमग'त्ति ये कूले स्थित्वा का शब्दं कृत्वा भुञ्जते 'मियस्लुन्डय'त्ति प्रतीता एवं 'हत्थितावस'त्ति ये हस्तिनं मारयित्वा तेनैव बहुकालं भोजनतो| छायापयन्ति 'पाइंडगति अवेंकृतदण्डा ये संचरन्ति 'दिसापोक्खिणो'त्ति उदकेन दिशः प्रोक्ष्य ये फलपुष्पादि समुचिन्वन्ति । |'वकलवासिणोति वल्कलवाससः 'चेलवासिणोति व्यक्तं पाठान्तरे वेलवासिणो'त्ति समुद्रवेलासंनिधिवासिनः 'जल-17
वासिणों'त्ति ये जलनिमग्ना एवासते, शेषाःप्रतीता, नवरं 'जलाभिसेपकिढिणगाय'त्ति येऽस्नात्वान भुंजते स्नानाद्वा पा|ण्डरीभूतगात्रा इति वृद्धाः, कचित् 'जलाभिसेयकविणगायभूय'त्ति दृश्यते तत्र जलाभिषेककठिनं गात्रं भूताः-प्राप्ता ॥५१९॥ येते तथा, 'इंगालसोल्लिय'ति अनारैरिव पक 'कंदुसोल्लियंति कन्दुपक्कमिवेति । 'दिसाचकवालएणं तवोकम्मति एकत्र पारणके पूर्वस्यां दिशि यानि फलादीनि तान्याहत्य भड़े द्वितीये तु दक्षिणस्यामित्येवं दिक्चकवालेन यत्र तपः
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अनुक्रम [५०६-५०८]
शिवराजर्षि-कथा
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [४१७-४१८] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
सूत्रांक [४१७-४१८]
गाथा
कर्मणि पारणककरणं तत्तपाकर्म दिक्चक्रवालमुच्यते तेन तपःकर्मणेति 'ताहिं इहाहि कंताहिं पियाहि' इत्यत्र | 'एवं जहा उववाइए' इत्येतत्करणादिदं दृश्य-'मणुन्नाहि मणामाहिं जाव वग्गूहि अणवरयं अभिनंदता य अभि
थुणंता य एवं व्यासी-जय २ नंदा जय जय भद्दा ! जय २ नंदा! भई ते अजियं जिणाहि जियं पालियाहि जियमझे | ||वसाहि अजियं च जिणाहि सत्तुपक्खं जियं च पालेहि मित्तपक्वं जियविग्योऽषिय बसाहित देव! सयणमझे इंदो इव ||
देवाणं चंदो इव ताराणं धरणो इव नागाणं भरहो इव मणुयाणं बहूई वासाई बहूई वाससयाई बलूई वाससहस्साई | अणहसमग्गे य हहतुठो त्ति, एतच्च व्यक्तमेवेति ॥'वागलवत्यनियत्थे'त्ति वल्कले-बल्कस्तस्येदं वाल्कलं सदस्खं निवसितं येन स वाल्कलवस्त्रनिवसितः 'उडए'त्ति उटजः-तापसगृहं 'किढिणसंकाइयगति 'किदिण'त्ति वंशमयस्तापसभाजनविशेषस्ततश्च तयोः साकायिक-भारोद्वहनयन्त्रं किढिणसाङ्कायिक 'महाराय'ति लोकपालः 'पत्थाणे पत्थियति 'प्रस्थाने' परलोकसाधनमार्गे 'प्रस्थितं' प्रवृत्तं फलाद्याहरणार्थ गमने वा प्रवृत्तं शिवराजर्षि 'दग्भे यत्ति समूलान् 'कुसे यत्ति दर्भानेव निर्मूलान् 'समिहाओ यत्ति समिधः-काष्ठिका 'पत्तामोडं च' तरुशाखामोटितपत्राणि 'वेदि| | बडेड'त्ति वेदिकां-देवार्चनस्थानं वर्द्धनी-बहकरिका तां प्रयङ्ग इति वर्धयति-प्रमार्जयतीत्यर्थः 'उबलेवणसंमजणं क-||* दारेडत्ति इहोपलेपनं गोमयादिना संमर्जनं तु जलेन समार्जन वा शोधन दमकलसाहस्थगए'त्ति दर्भाश्च कलशश्च हस्ते गता
यस्य स तथा 'दग्भसगम्भकलसगहत्थगए'त्ति क्वचित् तत्र दर्भेण सगर्भो यः कलशकः स हस्ते गतो यस्य स तथा 'जलमजण'ति जलेन देहशुद्धिमानं 'जलकीडति देहशुद्धावपि जलेनाभिरत 'जलाभिसेय'ति जलक्षरणम् 'आयते'त्ति
दीप
अनुक्रम [५०६-५०८]
शिवराजर्षि-कथा
~481
Page #482
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [४१७-४१८] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
सूत्रांक
[४१७
-४१८]
गाथा
व्याख्या- जलस्पर्शात् 'चोक्खेत्ति अशुचिद्रव्यापगमात्, किमुक्तं भवति ?-'परमसुइभूएसि, देवयपिइकयकत्ति देवतानां ११ शतके
माधिः || पितृणां च कृतं कार्य-जलाञ्जलिदानादिकं येन स तथा, 'सरएणं अरणिं महेइति 'दारकेन' निर्मन्थनकाष्ठेन|8उद्देशः अभयदेवी
दि| अरणिं' निर्मन्थनीयकाष्ठ 'मनाति' घर्षयति, 'अग्गिस्स दाहिणे इत्यादि सार्द्धः श्लोकस्तबथाशब्दबजेः, तत्र च 'सत्तं-15 यावृत्तिः२४ गाई' सप्ताङ्गानि 'समादधाति' संनिधापयति सकयां १ वल्कलं २ स्थानं ३ शय्याभापडं ४ कमण्डलुं ५ दंडदारु ६
पिवृत्तं ॥५२०॥18||तथाऽऽस्मान ७ मिति, तत्र सकथा-तत्समयप्रसिद्ध उपकरणविशेषः स्थान-ज्योतिःस्थानं पात्रस्थानं वा शय्याभाण्ड
दाशय्योपकरणं दण्डदारु-दण्डकः आत्मा-प्रतीत इति. 'च साहेति'त्ति चरुः-भाजनविशेषस्तत्र पच्यमानद्रव्यमपि चरु
रेव तं चकै बलिमित्यर्थः 'साधयति' रन्धयति 'बलिवइस्सदेवं करेइ'त्ति बलिना वैश्वानरं पूजयतीत्यर्थः, 'अतिहिपूर्व करेइ'त्ति अतिथे:-आगन्तुकस्य पूजां करोतीति । 'से कहमेयं मन्ने एवं ति अत्र मन्येशब्दो वितर्कार्थः 'बितिय-18 सए नियंटुद्देसए'त्ति द्वितीयशते पञ्चमोद्देशक इत्यर्थः 'एगविहिविहाण' त्ति एकेन विधिना-प्रकारेण विधान-व्यवस्थानं येषां ते तथा, सर्वेषां वृत्तत्वात् , 'वित्थारओ अणेगविहि विहाण'त्ति द्विगुण २ विस्तारत्वात्तेषामिति एवं जहा-| 8|जीवाभिगमे' इत्यनेन यदिह सूचितं तदिद-दुगुणादुगुणं पडुप्पाएमाणा पवित्थरमाणा ओभासमाणवीइया' अवभासदमानवीचयः-शोभमानतरका, समुद्रापेक्षमिदं विशेषणं, 'बहुप्पलकुमुदनलिणसुभगसोगंधियपुंडरीयमहापुंडरीयसयपसत्तसहस्सपत्तसयसहस्सपत्तपफुलकेसरोववेया' बहूनामुत्पलादीनां प्रफुल्लाना-विकसिताना यानि केशराणि तेल्पचिताः
५२०॥ संयुक्ता ये ते तथा, तत्रोत्पलानि-नीलोत्पलादीनि कुमुदानि-चन्द्रवोध्यानि पुण्डरीकाणि-सितानि शेषपदानि तु रूढिग
%
+
दीप
अनुक्रम [५०६-५०८]
शिवराजर्षि-कथा
~482
Page #483
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आगम
[०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [४१७-४१८] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
R
प्रत सूत्रांक [४१७-४१८]
गाथा
ल म्यानि पत्तेयं पत्तयं पउमवरवेझ्यापरिक्खित्ता पत्तेयं २ वणसंडपरिक्खित्त'त्ति ॥ 'सवन्नाइंपित्ति पुद्गलद्रव्याणि 'अवन्ना-|
इंपित्ति धम्मास्तिकायादीनि 'अन्नमनबद्धाइंति परस्परेण गाढाश्लेषाणि 'अन्नमन्नपुट्ठाईति परस्परेण गाढाश्लेषाणि, | इह यावत्करणादिदमेवं दृश्यम्-'अन्नमनबद्धपुटाई अन्नमनघडताए चिठंति' तत्र चान्योऽन्यबद्धस्पृष्टान्यनन्तरोक्तगुणद्वययोगात्, किमुक्तं भवति !-अन्योऽन्यघटतया-परस्परसम्बद्धतया तिष्ठन्ति 'तावसावसहे'त्ति तापसावसथःतापसमठ इति ॥ अनन्तरं शिवराजर्षेः सिद्धिरुक्ता, तां च संहननादिभिर्निरूपयन्निदमाह| भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगषं महावीरं बंदह नमंसह वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-जीवाणं भंते ! सिज्झमाणा कयरंमि संघयणे सिझंति ?, गोयमा ! वयरोसभणारायसंघयणे सिज्झंति एवं जहेब उववाइए सहेव संघयणं संठाणं उच्चत्तं आउयं च परिवसणा, एवं सिद्धिगंडिया निरवसेसा भाणियचा जाव अपाचाहं सोक्खं अणुहवं (हंती)ति सासया सिद्धा । सेवं भंते! २त्ति ॥ (सूत्रं०४१९)सिवो समत्तो ॥११-१|
भंते तिइत्यादि, अथ लाघवार्थमतिदेशमाह-एवं जहेवेत्यादि, 'एवम्' अनन्तरदर्शितेनाभिलापेन यथौपपातिके सिद्धानधिकृत्य संहननाघुक्तं तथैवेहापि वाच्यं, तत्र च संहननादिद्वाराणां सङ्ग्रहाय गाथापूर्वार्द्ध-संघयणं संठाणं उच्चत्तं आज्यं च परिवसण त्ति तत्र संहननमुक्कमेव, संस्थानादि त्वेवं-तत्र संस्थाने अण्णां संस्थानानामन्यतरस्मिन् सिद्धयन्ति, उच्चत्वे तु जघन्यतः सप्तरलिप्रमाणे उत्कृष्टतस्तु पञ्चधनुःशतके, आयुपि पुनर्जधन्यतः सातिरेकाष्टवर्षप्रमाणे उत्कृष्टतस्तु| पूर्वकोटीमाने, परिवसना पुनरेवं-रत्नप्रभादिपृथिवीनां सौधर्मादीनां चेपत्याग्भारान्साना क्षेत्रविशेषाणामधो न परिव-||
दीप अनुक्रम [५०६-५०८]
शिवराजर्षि-कथा
~4834
Page #484
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [४१९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४१९]
व्याख्या
सन्ति सिद्धाः किन्तु सर्वार्थसिद्धमहाविमानस्योपरितनात्स्तूपिकाग्रादूर्द्ध द्वादश योजनानि व्यतिक्रम्येपत्याग्भारा नाम । ११शतके प्रज्ञप्तिः ॥ पृथिवी पञ्चचत्वारिंशद्योजनलक्षप्रमाणाऽऽयामविष्कम्भाभ्यां वर्णतः श्वेताऽत्यन्तरम्याऽस्ति तस्याश्चोपरि योजने लोकान्तो || ९ उद्देशः अभयदेवी-II भवति, तस्य च योजनस्योपरितनगन्यूतोपरितनषदभागे सिद्धाः परिवसन्तीति, 'एवं सिडिगंडिया निरवसेसा सिद्धगण्डिया वृत्तिः भाणिय'त्ति एवमिति-पूर्वोक्तसंहननादिद्वारनिरूपणक्रमेण 'सिद्धिगण्डिका' सिद्धिस्वरूपप्रतिपादनपरा वाक्यपद्ध- का सू४१९
दतिरोपपातिकमसिद्धाऽध्येया, इयं च परिवसनद्वारं यावदर्थलेशतो दर्शिता, तत्परतस्त्वेव-'कहिं पडिहया सिद्धा कहिं । ॥५२१॥
सिद्धा पइडिया इत्यादिका, अथ किमन्तेयम् ? इत्याह-जावेत्यादि । 'अवाबाई सोक्ख'मित्यादि घेह गाधोत्तराद्धेमधीतं, समग्रगाथा पुनरियं-"निच्छिन्नसबदुक्खा जाइजरामरणबंधणविमुक्का । अबाबाई सोक्खं अणुहुंती सासयं । सिद्धा ॥१॥” इति ॥ एकादशशते नवमोद्देशकः ॥ ११-९॥
नवमोद्देशकस्यान्ते लोकान्ते सिद्धपरिवसनोक्तेत्यतो खोकस्वरूपमेव दशमे प्राह, तस्य चेदमादिसूत्रम्-' . रायगिहे जाव एवं वयासी-कतिविहे णं भंते । लोए पन्नत्ते ?, गोयमा ! चउबिहे लोए पन्नते, तंजहादबलोए खेत्तलोए काललोए भावलोए । खेलोएणं भंते । कतिविहे पण्णत्ते ?. गोयमा ! तिविहे पनसे. तंजहा-अहोलोयखेत्तलोए १ तिरियलोयखेत्तलोए २उहलोयखेत्तलोए ३ । अहोलोयखेत्तलोए णं भंते।। कतिविहे पन्नत्ते ?, गोयमा! सत्तविहे पन्नत्ते, तंजहा-रयणप्पभापुढचिअहेलोयखेत्तलोए जाव अहेसत्तमा
॥५२१॥ | पुढविअहोलोयखेत्तलोए । तिरियलोयखेत्तलोए णं भंते ! कतिविहे पत्नत्ते, गोयमा! असंखेनविहे पनत्ते,
EOS-%
%
दीप अनुक्रम [५०९]
2-964
अत्र एकादशमे शतके नवम-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ एकादशमे शतके दशम-उद्देशक: आरभ्यते
लोक-स्वरूपं एवं तस्य भेद-प्रभेदा:
~4840
Page #485
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________________
आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक -], उद्देशक [१०], मूलं [४२०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
-
[४२०]
--१०
तंजहा-जंबुद्दीवे तिरियखेत्तलोए जाव सयंभूरमणसमुद्दे तिरियलोयखेत्तलोए । उहृलोगखेत्तलोए णं भंते ! कतिविहे पन्नते ?, गोयमा पन्नरसविहे पन्नत्ते, तंजहा-सोहम्मकप्पउहलोगखेत्तलोए जाव अनुयाहुलोए। गेवेचविमाणउड्डलोए अणुत्तरविमाण. ईसिंपन्भारपुढविउहृलोगखेत्तलोए । अहोलोगखेत्तलोए णं भंते ! किंसंठिए पन्नते ?, गोयमा! तप्पागारसंठिए पन्नत्ते । तिरियलोयखेत्तलोए णं भंते ! सिंठिए पनत्ते, गोयमा ! झल्लरिसंठिए पन्नत्ते । उडलोयखेत्तलोयपुच्छा उहमुइंगाकारसंठिए पन्नत्ते । लोए णं भंते। किंसंठिए पन्नत्ते?, गोयमा सुपाडगसंठिए लोए पन्नत्ते, तंजहा-हेट्ठा विच्छिन्ने मजो संखित्ते जहा सत्तमसए पढ़मुः। रेसए जाय अंतं करेंति । अलोए णं भंते ! किंसंठिए पन्नत्ते?, गोयमा! झुसिरगोलसंठिए पन्नत्ते ॥ अहेलोगखसलोए णं भंते । किं जीवा जीवदेसा जीवपएसा? एवं जहा इंदा दिसा लहेव निरवसेसं भाणियचं जाव अद्धासमए । तिरियलोयखेत्तलोए णं भंते ! किं जीवा०, एवं चेव, एवं उडलोपखेत्तलोएवि, नवरं अरूवी छविहा अद्धासमओ नस्थि ॥ लोएणं भंते ! किं जीवा जहा बितियसए अस्थिउसए लोयागासे, नवरं अरू-115 थी सत्तवि जाव अहम्मस्थिकायस्स पएसा नो आगासस्थिकाये आगासस्थिकार्यस्स देसे आगासस्थिकायप-| एसा अद्धासमए सेसं तं चेच ॥ अलोए णं भंते । किं जीवा? एवं जहा अधिकायउद्देसए अलोयागासे | तहेव निरवसेसं जाव अणंतभागूणे । अहेलोगखेत्तलोगस्स णं भंते ! एगंमि आगासपएसे किं जीवा जीवदेसा जीवप्पएसा अजीवा अजीवदेसा अजीवपएसा, गोयमा ! नो जीवा जीवदेसावि जीवपएसावि
-१४
दीप अनुक्रम [५१०]
-
-
--
-
| लोक-स्वरूप एवं तस्य भेद-प्रभेदा:
~485
Page #486
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [४२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४२०]
॥५२२॥
दीप अनुक्रम [५१०]
व्याख्या- अजीवावि अजीवदेसावि अजीवपएसावि, जे जीवदेसा ते नियमा एगिदियदेसा १ अहवा एगिदियदेसा ११ शतक प्रज्ञप्तिः य इंदियस्स देसे २ अहवा एगिदियदेसा य बेइंदियाण य देसा ३ एवं मझिल्लविरहिओ जाव अणिदिएम अभयदेवी- जाव अहवा एगिदियदेसा य अणिदियदेसा य, जे जीवपएसा ते नियमा एगिदियपएसा १ अहवा एगिया वृत्ति दियपएसा य दियस्स पएसा २ अहवा एगिदियपएसा य बेइंदियाण य पएसा ३ एवं आइल्लविरहिओ सू४२०
जाव पंचिंदिएसु अणिदिएसु तियभंगो, जे अजीवा ते दविहा पन्नता. तंजहा-रुची अजीवा य अरूबी अ-IIM
जीवा य, रूबी तहेव, जे अरूवी अजीचा ते पंचविहा पण्णता, तंजहानो धम्मस्थिकाए धम्मस्थिकायस्स 15| देसे १ धम्मस्थिकायरस पएसे २ एवं अहम्मत्थिकायस्सवि ४ अद्धासमए ५ । तिरियलोगग्वेत्तलोगस्स णं द|| भंते ! एगमि आगासपएसे किं जीया, एवं जहा अहोलोगखेत्तलोगस्स तहेव, एवं उठुलोगखेत्तलोगस्सचि,
नवरं अद्धासमओ नस्थि, अरूवी चउविहा । लोगस जहा अहेलोगखेत्तलोगस्स एगमि आगासपएसे ॥ 8|| अलोगस्स णं भंते । एगंमि आगासपएसे पुच्छा, गोयमा! नो जीवा नो जीवदेसा तं चेव जाव अतिहि || द अगुरुयल हुयगुणेहिं संजुत्ते सवागासस्स अणंतभागूणे ॥ दवओ णं अहेलोगस्नेतलोए अर्णताई जीवदधाई || अर्णताई अजीवदवाई अर्थता जीवाजीवदया एवं तिरियलोयखेत्तलोएवि, एवं जडलोयखेत्तलोएवि, दर
| ॥५२२॥ |||ओ णं अलोए वधि जीवदया नेवस्थि अजीबददा नेवत्थि जीवाजीवदया एगे अजीवदबदेसे जाव सबाद गासअर्णतभागूणे । कालोणं अहेलोयखेत्तलोए न कयाइ नासि जाब निचे एवं जाव अहोलोगे। भाव
लोक-स्वरूपं एवं तस्य भेद-प्रभेदा:
~486
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________________
आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक -], उद्देशक [१०], मूलं [४२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४२०]
K4%
ओणं आहेलोगखेसलोए अर्णता बन्नपजवा जहा खंदए जाव अणंता अगुरुयलहुयपजवा पर्व जाच लोए.III भावओ गं अलोए नेषत्थि वनपखवा जाव मेवस्थि अगुरुयलहुयपज्जवा एगे अजीवदबदेसे जाव अणंतभा-8 गूणे । (सूत्रं ४२०)॥
'रायगिहे'इत्यादि, 'दबलोए'त्ति द्रव्यलोक आगमतो नोआगमतच, तनागमतो द्रव्यलोको खोकशब्दार्थज्ञस्तत्रा|नुपयुक्तः 'अनुपयोगो द्रव्य मिसि वचनात् , आह च मङ्गलं प्रतीत्य द्रव्यलक्षणम्-"आगमओऽणुवउत्तो मंगलसद्दाणुवासिओ यत्ता । तन्नाणलद्धिजुत्तो छ नोवउत्तोत्ति दवं ॥ १॥"ति [ आगमतो मङ्गलशब्दानुवासितोऽनुपयुक्तो बक्का तज्ज्ञानलब्धियुक्तोऽप्यनुपयुक्त इति द्रव्यमिति ॥१॥] नोआगमतस्तु ज्ञशरीरभव्यशरीरतयतिरिक्तभेदात्रिविधा, तत्र लोकशब्दार्थज्ञस्य शरीरं मृतावस्थं ज्ञानापेक्षयाभूतलोकपर्यायतया घृतकुम्भवल्लोकः स च ज्ञवारीररूपो द्रव्यभूतो लोको ज्ञशरीरद्रव्यलोकः, नोशब्दश्चेह सर्वनिषेधे, तथा लोकशब्दार्थ ज्ञास्यति यस्तस्य शरीरं सचेतनं भाषिलोकभावत्वेन मधुघटव भव्यशरीरव्रव्यलोका, नोशब्द इहापि सर्वनिषेध एव, ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तश्च द्रश्यलोको द्रव्याण्येव धर्मास्तिकायादीनि, आह -"जीवमजीवे रूविमरूवि सपएस अप्पएसे य । जाणाहि दवलोयं निश्चमणिचं च जं दर्थ ॥१॥"[जीवा भजीया रूपिणोऽरूपिणः सप्रदेशा अप्रदेशाच जानीहिद्रग्यलोकं नित्यमनित्यं च यद्रव्यम् ॥१॥] इहापि नोशब्दा सर्षनिषेधे आगमशब्दवाच्यस्य ज्ञानस्य सर्वथा निषेधात्, 'खेत्तलोप'त्ति क्षेत्ररूपो लोक स
%
%
दीप अनुक्रम [५१०]
% 2
4
SAREastatinintennational
लोक-स्वरूपं एवं तस्य भेद-प्रभेदा:
~487
Page #488
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[४२०]
दीप
अनुक्रम [५१०]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति: ]
शतक [११], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [१०], मूलं [४२०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्या. प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः२
||॥५२३ ।।
क्षेत्रलोकः, आह च "आगासस्स पएसा उहूं च अहे य तिरियलोए य । जाणाहि खेत्तलोयं अनंत जिणदेसियं सम्मं ॥ १ ॥” [ आकाशस्य प्रदेशा ऊर्द्ध चाधश्च तिर्यग्लोके च । जानीहि क्षेत्रलोकमनन्तजिनदेशितं सम्यक् ॥ १ ॥ ] 'काललोए' त्ति कालः - समयादिः तद्रूपो लोकः काललोकः, आह च — “समयावली मुहुत्ता दिवस अहोरचपक्खमासा व । | संवच्छरजुगपलिया सागरउस्सप्पिपरिया ॥ १ ॥ " [ समय आवलिका मुहूर्त्तः दिवसः अहोरात्रं पक्षो मासव संवत्सरो युगं पल्यः सागरः उत्सर्पिणी परावतः ॥ १ ॥ ] 'भावलोए'ति भावलोको द्वेधा-आगमतो नोआगमतश्च, तत्रागमतो लोकशब्दार्थज्ञस्तत्र चोपयुक्तः भावरूपो लोको भावलोक इति नो आगमतस्तु भावा- औदयिकादयस्तद्रूपो लोको भावलोकः, आह च - "ओदइए उवसमिए खइए य तहा खओवसमिए य । परिणामसन्निवाए य छविहो | भावलोगो उ ।। १ " [ औदयिक औपशमिकः क्षायिकश्च तथा क्षायोपशमिकश्च । पारिणामिकश्च सनिपातश्च परिधो भावलोकस्तु ॥ १ ॥ ] इति, इह नोशब्दः सर्वनिषेधे मिश्रवचनो वा आगमस्य ज्ञानत्वात् क्षायिकक्षायोपशमिकज्ञानस्वरूपभावविशेषेण च मिश्रत्वादौदयिकादिभावलोकस्येति । 'अहेलोयखेत्तलोपंत्ति अधोलोकरूपः क्षेत्रलोकोऽधोलोकक्षेत्रलोकः, इह किलाष्टप्रदेशो रुचकस्तस्य चाधस्तनप्रतरस्याधो नव योजनशतानि यावत्तिर्यग्लोकस्ततः परेणाधःस्थितत्वादधोलोकः साधिकसप्तरज्जुप्रमाणः, तिरियलोयखेत्तलोए त्ति रुचकापेक्षयाऽध उपरि च नव २ योजनशतमानस्तिर्यगूरूपत्वात्तिर्यगूलोकस्तद्रूपः क्षेत्रलोकस्तिर्यग्लोक क्षेत्रलोकः, 'उठ्ठलोपखेत्तलोए'त्ति तिर्यग लोकस्योपरि देशोनसप्त
लोक-स्वरूपं एवं तस्य भेद-प्रभेदाः
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~488~
११ शतके
१० उद्देशः द्रव्यक्षेत्रा दिलोकः सु ४२०
||५२३||
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Page #489
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक -], उद्देशक [१०], मूलं [४२०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४२०]
रजुप्रमाण ऊर्द्धभागवर्तित्त्वावलोकस्तद्रूपः क्षेत्रलोक ऊलोकक्षेत्रलोकः, अथवाऽधः-अशुभः परिणामो बाहुल्येन क्षेत्रा|नुभावाद् यत्र लोके द्रव्याणामसावधोलोकः, तथा तिर्यङ्-मध्यमानुभावं क्षेत्र नातिशुभं नाप्यत्यशुभं तद्रूपो लोकस्तिर्य| ग्लोकः, तथा ऊर्दू-शुभः परिणामो बाहुल्येन द्रव्याणां यत्रासालोकः, आह च-"अहव अहोपरिणामो खेत्तणु| भावेण जेण ओसन्नं । असुहो अहोत्ति भणिओ दवाणं तेणऽहोलोगो ॥१॥"इत्यादि, 'तप्पागारसंठिए'त्ति तमःउडपका, अधोलोकक्षेत्रलोकोऽधोमुखशरायाकारसंस्थान इत्यर्थः, स्थापना चेयं ,'झल्लरिसंठिए'त्ति अल्पोच्छ्रायत्वा महाविस्तारत्वाञ्च तिर्यग्लोकक्षेत्रलोको झालरीसंस्थितः, स्थापना चात्र-- उहमुइंगागारसंठिए'त्ति ऊर्द्ध:ऊर्ध्वमुखो यो मृदङ्गस्तदाकारेण संस्थितो यः स तथा शरावसंपुटाकार इत्यर्थः, स्थापना चेयम्-0, 'सुपइगसं, |ठिए'त्ति सुप्रतिष्ठक-स्थापनकं तच्चेहारोपितवारकादि गृह्यते, तथाविधेनैव लोकसादृश्योपपत्तेरिति, स्थापना चेय'जहा सत्तमसए'इत्यादौ यावरकरणादिदं दृश्यम्-'उप्पि विसाले अहे पलियंकसंठाणसंठिए माझे वरवइरविग्गहिए)
उप्पिं उद्धमुइंगागारसंठिए तेसिं च णं सासयंसि लोगसि हेठा विच्छिन्नंसि जाव उम्पिं उसमुईगागारसंठियंसि उप्पन्नना& गर्दसणधरे अरहा जिणे केवली जीवेवि जाणइ अजीचेवि जाणइ तओ पच्छा सिझाइ बुझई'इत्यादीति, 'झुसिरगो
लसंठिए'त्ति अन्तःशुपिरगोलकाकारो यतोऽलोकस्य लोकः शुषिरमिवाभाति, स्थापना चेयम्-O॥'अहेलोयखेत्तलोए णं भंते !' इत्यादि, 'एवं जहा इंदा दिसा तहेव निरवसेसं भाणिय'ति दशमशते प्रथमोद्देशके यथा ऐन्द्री दिगुक्ता तथैव निरवशेषमधोलोकस्वरूपं भणितव्यं, तञ्चैवम्-'अहोलोयखेत्तलोए णं भंते । किं जीवा जीवदेसा जीवपएसा
दीप अनुक्रम [५१०]
| लोक-स्वरूप एवं तस्य भेद-प्रभेदा:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [४२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४२०]
दीप अनुक्रम [५१०]
व्याख्या- अजीवा अजीवदेसा अजीवपएसा, गोयमा! जीवावि जीवदेसावि जीवपएसावि अजीवावि अजीवदेसावि अजीवपएसावि प्रज्ञप्तिः इत्यादि, नवरमित्यादि, अधोलोकतिर्यग्लोकयोररूपिणः सप्तविधाः प्रागुक्ताः धर्माधर्माकाशास्तिकायानां देशाः ३१.उन भमयदेवी- प्रदेशाः ३ कालश्चेत्येवम्, ऊर्झलोके तु रविप्रकाशाभिव्यञ्जयः कालो नास्ति, तिर्यगधोलोकयोरेव रविप्रकाशस्य भावाद व्यक्षेत्राया वृत्ति:२४
भतः पडेव त इति ॥ 'लोए णमित्यादि, 'जहा बीयसए अत्विउद्देसए'त्ति यथा द्वितीयशते दशमोद्देशक इत्यर्थः दिलोका ॥५२॥ 'लोयागासे'त्ति लोकाकाशे विषयभूते जीवादय उक्ता एवमिहापीत्यर्थः, 'नवर मिति केवलमयं विशेष:-तत्रारूपिणः
सू४२० पञ्चविधा उक्ता इह तु सप्तविधा वाच्याः, तत्र हि लोकाकाशमाधारतया विवक्षितमत आकाशभेदास्तत्र नोच्यन्ते, इह |तु लोकोऽस्तिकायसमुदायरूप आधारतया विवक्षितोऽत आकाशभेदा अप्याधेया भवन्तीति सप्त, ते चैवं-धर्मास्ति
काया, लोके परिपूर्णस्य तस्य विद्यमानत्वात् , धर्मास्तिकायदेशस्तु न भवति, धर्मास्तिकायस्यैव तत्र भावात् , धर्मास्ति| कायप्रदेशाध सन्ति, तद्रूपत्वाद्धर्मास्तिकायस्येति पूर्य, एवमधर्मास्तिकावेऽपि द्वयं ४, तथा नो आकाशास्तिकापो,
लोकस्य तस्यैतद्देशत्वात् , आकाशदेशस्तु भवति, तदंशत्वात् लोकस्य, तत्मदेशाश्च सन्ति ६, कालश्चे ७ ति सप्त ।। MI'अलोए णं भंते।' इत्यादि, इदं च 'एवं अहे'त्याधतिदेशादेवं दृश्यम्-'अलोए णं भंते । किं जीवा जीवदेसा|
जीवपएसा अजीवा अजीवदेसा अजीवपएसा !, गोयमा ! नो जीवदेसा नो जीवपएसा नो अजीवदेसा नो अजीवपएसा २४॥ एगे अजीबदबदेसे अणंतेहिं अगुरुलहुयगुणेहिं संजुने सबागासे अर्णतभागूणेति तत्र सर्वोकाशमनन्तभागो-M&l नमित्यस्यायमर्थ:-लोकलक्षणेन समस्ताकाशस्यानन्तभागेन न्यून सर्वाकाशमलोक इति ॥ 'अहोलोगखेसलोगस्सणं
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लोक-स्वरूपं एवं तस्य भेद-प्रभेदा:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक -], उद्देशक [१०], मूलं [४२०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४२०]
मले। एगमि आगामफएसे इत्यान, बो जीवा एकप्रदेशे तेषामनवगाहनात् , बहूनां पुनजीवानां देशस्य प्रदेशस्य &चावगाहनात् सच्यते 'जीवदेसावि जीवपएसाविति, यद्यपि धर्मास्तिकायाधजीवद्रव्यं नैकत्राकाशप्रदेशेऽवगाहते ||
तथाऽपि परमाणुकादिद्रयाणां कालव्यस्य चावगाहनादुच्यते-'अजीवावित्ति,व्यणुकादिस्कन्धदेशानां त्ववगाहनाद-150
कम्-अजीवदेसावित्ति, धर्माधर्मास्तिकायप्रदेशयोः पुद्गलद्रव्यप्रदेशानां चावगाहनादुच्यते-'अजीवपएसावित्ति, दो'एवं मज्झिल्लविरहिओत्ति दशमशतप्रदर्शितत्रिकभङ्गे 'अहवा एगिदियदेसा य इंदियदेसाय' इत्येवंरूपो यो| मध्यमभास्तद्विरहितोऽसौ त्रिकभङ्गः, 'एच'मिति सूत्रप्रदर्शितभनद्वयरूपोऽध्येतव्यो,मध्यमभङ्गहासम्भवात् , तथाहिदीन्द्रियस्यैकस्यैकत्राकाशप्रदेशे बहची देशा न सन्ति, देशस्यैव भावात् , 'एवं आपल्लविरहिओ'त्ति 'अहवा पनिंदि-II यस्स पएसा य दियस्स पएसा य' इत्येवंरूपाद्यभङ्गकविरहितस्विभङ्गः, “एवं'मिति सूत्रप्रदर्शितभनद्वयरूपोऽध्येतव्यः, आधभजाकस्येहासम्भवात् , तथाहि-नास्त्येवैकत्राकाशप्रदेशे केवलिसमुद्घातं विनैकस्य जीवस्यैकप्रदेशसम्भवोऽसमातानामेव भावादिति, 'अणिदिएमु तियभंगों'त्ति अनिन्द्रियेपूतभङ्गकत्रयमपि सम्भवतीतिकृत्वा तेषु तद्वाच्यमिति । 'रूवी तहेव'त्ति स्कन्धाः देशाः प्रदेशा अणवश्चेत्यर्थः 'नो धम्मत्थिकाये'त्ति नो धर्मास्तिकाय एकत्राकाशनदेशे संभवत्यसमपातप्रदेशावगाहित्वात्तस्येति, 'धम्मत्यिकायस्स देसे'त्ति यद्यपि धर्मास्तिकायस्यैकत्राकाशप्रदेशे प्रदेश एवास्ति तथाऽपि देशोऽवयव इत्यनान्तरत्वेनावयवमानस्यैव विवक्षितत्वात् निरंशतायाश्च तत्र सत्या अपि अविवक्षितत्वाद्धर्मास्तिकायस्य देश इत्युक्तं, प्रदेशस्तु निरुपचरित एवास्तीत्यत उच्यते-'धम्मस्थिकायस्स पएसे'ति, 'एवमहम्म
दीप अनुक्रम [५१०]
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लोक-स्वरूपं एवं तस्य भेद-प्रभेदा:
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[४२०]
दीप
अनुक्रम [५१०]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति: ]
शतक [११], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [१०], मूलं [४२०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्या
भज्ञप्तिः अभयदेवीया वृतिः २ ||५२५ ।।
| स्थिकायस्सवि'त्ति 'नो अधम्मस्थिकाए अहम्मत्थिकायरस देसे अहम्मत्थिकायरस पसे' इत्येवमधर्मास्तिकायसूत्रं वाच्य + मित्यर्थः, 'अद्धासमओ नत्थि, अरूवी चउविह'त्ति ऊर्द्धलोकेऽद्धासमयो नास्तीति अरूपिणञ्चतुर्विधाः- धर्मास्तिकाय- ४ देशादयः ऊर्द्धलोक एकत्राकाशप्रदेशे सम्भवन्तीति । 'लोगस्स जहा अहोलोगखेत्तलोगस्स एगंमि आगासपएसे 'ति अधोलोकक्षेत्रलोकस्यैकत्राकाशप्रदेशे यद्वक्तव्यमुक्तं तल्लोकस्याप्येकत्राकाशप्रदेशे वाच्यमित्यर्थः तच्चेदं - लोगस्स णं भंते! एगंमि आगासपएसे किं जीवा० ? पुच्छा गोयमा ! 'नो जीवेत्यादि प्राग्वत् । 'अहेलोयखेत्तलोए अनंता चन्नपज्जब'त्ति अधोलोकक्षेत्रलोकेऽनन्ता वर्णपर्ययाः एकगुणकालकादीनामनन्तगुणकालाद्यवसानानां पुद्गलानां तत्र | भावात् ॥ अलोकसूत्रे 'नेवत्थि अगुरुलहुयपञ्जव'त्ति अगुरुलघुपर्यवोपेतद्रव्याणां पुद्गलादीनां तत्राभावात् ॥
लोप णं भंते ! केमहालए पन्नत्ते ?, गोयमा ! अयन्नं जंबुद्दीवे २ सङ्घदीवा० जाव परिक्खेवेणं, तेणं का लेणं तेणं समपूर्ण छ देवा महिडीया जाव महेसक्खा जंबुद्दीवे २ मंदरे पए मंदरचूलियं सबओ समंता | संपरिक्खित्ताणं चिहेला, अहे णं चत्तारि दिसाकुमारीओ महत्तरियाओ चत्तारि बलिपिंडे गहाय जंबुद्दी| वस्स २ चउसुविदिसासु बहियाभिमुहीओ ठिचा ते चत्तारि बलिपिंडे जमगसमगं बहिगाभिमुहे पक्खिवेला, पभू णं गोयमा ! ताओ एगमेगे देवे ते चत्तारि बलिपिंडे घरणितलमसंपत्ते खिप्पामेव पडिसाहरितए, ते णं गोयमा ! देवा ताए उकिद्वाए जाव देवगइए एगे देवे पुरच्छाभिमुद्दे पयाते एवं दाहिणाभिमुहे एवं पचत्थाभिमुहे एवं उत्तराभिमुहे एवं उहाभि० एगे देवे अहोभिमुहे पयाए, तेणं कालेणं तेणं समएणं वाससहस्साउए
लोक स्वरूपं एवं तस्य भेद-प्रभेदाः
For Parts Only
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११ शतके १० उद्देशः लोकालो
कमहत्ता सू ४२१
||५२५||
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [४२१-४२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४२१-४२३]
CAMSANCHAR
दारा पयाए, तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पहीणा भवंति णो चेव णे ते देवा लोगतं संपाउणंति,
तए णं तस्स दारगस्स आउए पहीणे भवति, णो चेव णं जाच संपाउणंति, तए णं तस्स दारगस्स अटिहै मिजा पहीणा भवंति णो चेव णं ते देवा लोगंतं संपाउणंति, तए णं तस्स दारगस्स आसत्तमेवि कुलवंसे
पहीणे भवति णो चेव णं ते देवा लोगंतं संपाउणंति, तए णं तस्स दारगस्स नामगोएवि पहीणे भवति पणो चेव णं ते देवा लोगत संपाउणति, तेसि णं भंते ! देवाणं किं गए बहुए अगए बहुए?, गोयमा ! गए
बहुए नो अगए वहुए, गयाउ से अगए असंखेजहभागे अगयाउ से गए असंखेज्वगुणे, लोए गं गोयमा ! एमहालए पन्नत्ते । अलोए णं भंते ! केमहालए पन्नत्ते, गोयमा ! अयन्नं समयखेत्ते पणयालीसं जोयणसय-x सहस्साई आयामविसंभेणं जहा खंदए जाच परिक्खेबेणं, तेणं कालेणं तेणं समएणं दस देवा महिहिया तहेब जाव संपरिक्खित्ताणं संचिठेजा, अहे णं अट्ट दिसाकुमारीओ महत्तरियाओ अट्ठ बलिपिंडे गहाय माणुसुत्तरस्स पचयस्स चउसुवि दिसामु चउमुवि विदिसामु बहियाभिमुहीओ ठिचा अg बलिपिंडे गहाय माणुसुत्तरस्स पवयस्स जमगसमगं बहियाभिमुहीओ पक्खिवेज्जा, पभू णं गोयमा ! तओ एगमेगे देवे ते अट्ट बलिपिंडे धरणितलमसंपत्ते खिप्पामेव पडिसाहरित्तए, ते णं गोयमा ! देवा ताए उकिट्ठाए जाब देव-10
गईए लोगंसि ठिचा असम्भावपट्ठवणाए एगे देवे पुरच्छाभिमुहे पयाए एगे देवे दाहिणपुरच्छामिमुहे। कापयाए एवं जाच उत्तरपुरच्छाभिमुहे एगे देवे उहाभिमुहे एगे देवे अहोभिमुहे पपाए,तेणं कालेणं तेणं समएणं || |
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [४२१-४२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४२१-४२३]
व्याख्या- प्रज्ञप्तिः अमयदेवीया वृत्तिः२
१५२६॥
वाससयसहस्साउए दारए फ्याए, तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पहीणा भवंति नो चेव णं ते देवा
के अलोयंत संपाउणति, तं चेव०, तेसि णं देवाणं किं गए बहुए अगए बहुए?, गोयमा! नो गए पहुए अगए||१० उद्देशा बहुए गयाज से अगए अणंतगुणे अगयाउ से गए अणंतभागे, अलोएणं गोयमा! एमहालए पन्नत्ते॥(सूत्रं४२१) जीषप्रदेलोगस्स णं भंते ! एगमि आगासपएसे जे एगिदियपएमा जाव पंचिंदियपएसा अणिदियपदेसा अन्नमन- शानामेका. बद्धा अन्नमनपुट्ठा जाव अन्नमन समभरघडत्साए चिट्ठति, अस्थि णं भंते ! अनमनस्स किंचि आवाहं वा||४|| वगाहे वा. वावाहं वा उप्पायति छविच्छेदं वा करेंति?, णो तिणढे समझे, से केणटेणं भंते! एवं बुच्चई लोगस्स णं एगंमि| धाऽभावा आगासपएसे जे पगिदिवपएसा जाब चिटुंति णस्थि णं भंते ! अन्नमन्नस्स किंचि आवाहं वा जाव करेंति , गोयमा से जहानामए नहिया सिया सिंगारागारचारुवेसा जाब कलिया रंगट्ठाणसि जणसयाउलंसि जणसयसहस्साउलंसि बत्तीसइविहस्स नहस्स अन्नयर नट्टविहिं उवदंसेज्जा, से नूर्ण गोयमा! ते पेच्छगा तं नहियं अणिमिसाए दिहीए सचओ समता समभिलोएंति, हता समभिलोएंति, ताओ ण गोयमा ! | दिवीओ तसि नहिषंसि सबओ समंता संनिपडियाओ , हंता सन्निपडियाओ, अस्थि णं गोयमा! ताओ || |दिट्ठीओ तीसे नट्टियाए किंचिवि आबाई चा वापाई वा उप्पाएंति छविच्छेदं वा करेंति , णो तिणद्वेदी समडे, अहवा सा नदिया तासि विट्ठीणं किंचि आपाहं वा वायाहं वा उपाएति छविच्छदं वा करेह ॥५२॥ णो तिणढे समडे, ताओ वा विङीओ अन्नमनाए दिट्टीए किंचि आवाहं वा वाषाहं वा उप्पापंति पवि-18||
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[०५]
प्रत
सूत्रांक
[ ४२१
-४२३]
दीप
अनुक्रम
[५११
-५१३]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः ]
शतक [११], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [१०] मूलं [४२१-४२३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
छेदं वा करेति ?, णो तिणट्टे समझे, से लेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुचइ तं चैव जाब छविच्छेदं वा करेंति ॥ (सूत्रं ४२२ ) लोगस्स णं भंते ! एगंमि आमासपर जहन्नपए जीवपएसाणं उक्कोसपर जीवपएसाणं सबजीवाण यकयरे २ जाव विसेसाहिया वा १, गोयमा ! सवत्थोवा लोगस्स एमि आगासपएसे जहनपए जीवपएसा, सङ्घजीवा असंखेज्जगुणा, उक्कोसपर जीवपएसा विसेसाहिया । सेवं भंते ! सेवं भंतेति ॥ ( सूत्रं ४२३ ) | एक्कारससयस्स दसमोद्देसो समत्तो ॥ ११-१० ॥
'सङ्घदीच'त्ति इह यावत्करणादिदं दृश्यं - 'समुद्दाणं अन्तरए सबखुड्डाए बट्टे तेल्लापूपसंठाणसंठिए वट्टे रहचकवालसंठाण संठिए बट्टे पुक्खरक नियासंठाणसंठिए वट्टे पडिपुन्नचंदसंठाणसंठिए एवं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं तिनि जोयणसयसहस्साइं सोलस य सहस्साई दोन्नि य सत्तावीसे जोयणसए तिनि य कोसे अठ्ठावीसं च धणुसयं तेरस अंगुलाई अर्द्धगुलं च किंचि विसेसाहियंति, 'ताए उक्किट्ठाए'त्ति इह यावत्करणादिदं हृदयं - 'तुरियाए चलाए चंडाए सिहाए उदुयाए जयणाए छेयाए दिखाए चि तत्र 'त्वरितया' आकुलया 'चपलया' कायचापल्येन 'चण्डया' रौद्रया गत्युत्कर्षयोगात् 'सिंहया' दाढर्त्यस्थिरतया 'उद्धृतया' दर्पातिशयेन 'जयिन्या' विपक्षजेतृत्वेन 'छेकया' निपुणया 'दिव्यया' दिवि भवयेति, 'पुरच्छाभिमुहे'त्ति मेर्वपेक्षया, 'आसत्तमे कुलवंसे पहीणे'त्ति कुलरूपो वंशः प्रहीणो भवति आसप्तमादपि वंश्यात्, सप्तममपि वंश्यं यावदित्यर्थः, 'गयाउ से अगए असंखेजइभागे अगवा से गए | असंखेज्जगुणेत्ति, ननु पूर्वादिषु प्रत्येक मर्द्धरज्जुप्रमाणत्वाल्लोकस्योर्द्धाधश्च किञ्चिन्यूनाधिकसप्तरज्जुप्रमाणत्वात्तुल्यया गत्या
For Parsala Lise Only
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[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [४२१-४२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४२१-४२३]
सू४२३
व्याख्या- गच्छतां देवानां कथं षट्स्वपि दिक्षु गतादगतं क्षेत्रमसङ्ग्यातभागमानं अगताच गतमसङ्ग्यातगुणमिति !, क्षेत्रवैषम्या- ११ शती प्रज्ञाप्तादिति भावः, अत्रोच्यते, घनचतुरस्रीकृतस्य लोकस्यैव कल्पितत्वान्न दोषः, ननु यद्युक्तस्वरूपयाऽपि गल्या गच्छन्तो १० उद्देश: अभयदेवी-IPE या वृत्तिः२/ HIMदेवा लोकान्तं बहुनापि कालेन न लभन्ते तदा कथमच्युताजिनजन्मादिषु द्रागवतरन्ति बहुत्वारक्षेत्रस्याल्पवादवतरण-शनिदिषट्कालस्येति, सत्यं, किन्तु मन्देयं गतिः जिनजन्मायवतरणगतिस्तु शीघ्रतमेति । 'असम्भावपट्टवणाए'त्ति असद्भूता
त्रिंशिका ॥५२७॥ र्थकल्पनयेत्यर्थः । पूर्व लोकालोकवक्तव्यतोता, अध लोकैकप्रदेशगतं वक्तव्यविशेष दर्शयन्नाह 'लोगस्स 'मित्यादि,
'अत्थि णं भंते'त्ति अस्त्ययं भदन्त ! पक्षः, इह च त इति शेषो दृश्यः, 'जाव कलिय'ति इह यावत्करणादेवं दृश्य
संगयगयहसियभणियचिठियविलाससललियसंलावनिजणजुत्तोवयारकलिय'त्ति, 'बत्तीसइविहस्स नहस्सत्ति द्वात्रिं४ शद् विधा-भेदा यस्य तत्तथा तस्य नाट्यस्य, तत्र ईहामृगऋषभतुरगनरमकरविहगव्यालककिन्नरादिभक्तिचित्रो नामैको *नाव्यविधिः, एतचरिताभिनयनमिति संभाव्यते, एवमन्येऽप्येकत्रिंशद्विधयो राजप्रश्नकृतानुसारतो वाच्याः । लोकैक-||
प्रदेशाधिकारादेवेदमाह-'लोगस्स ण'मित्यादि, अस्य व्याख्या-यथा किलतेषु त्रयोदशसु प्रदेशेषु त्रयोदशप्रदेशकानि ४ दिग्दशकस्पर्शानि त्रयोदश द्रव्याणि स्थितानि तेषां च प्रत्याकाशप्रदेशं त्रयोदश त्रयोदश प्रदेशा भवन्ति, एवं लोका& काशप्रदेशेऽनन्तजीवावगाहेनैकैकस्मिन्नाकाशप्रदेशेऽनन्ता जीवप्रदेशा भवन्ति, लोके च सूक्ष्मा अनन्तजीवात्मका ||
6 ॥५२७॥ निगोदाः पृथिव्यादिसर्वजीवासपेयकतुल्याः सन्ति, तेषां चैकै कस्मिनाकाशप्रदेशे जीवप्रदेशा अनन्ता भवन्ति, तेषां च जघन्यपदे एकत्राकाशप्रदेशे सर्वस्तोका जीवप्रदेशाः, तेभ्यश्च सर्वजीवा असोयगुणाः, उत्कृष्टपदे पुनस्तेभ्यो विशेषाधिका
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[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [४२१-४२३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [४२१-४२३]
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जीवप्रदेशा इति ॥ अयं च सूत्रार्थोऽमूभिवृद्धोक्तगाथाभिर्भावनीयः-लोगस्सेगपएसे जहन्नयपयंमि जियपएसाणं । उक्को| सपए य तहा सबजियाणं च के बहुया । ॥१॥ इति प्रश्नः, उत्तरं पुनरत्र-थोवा जहण्णयपए जियप्पएसा जिया असंखगुणा । उक्कोसपयपएसा तओ विसेसाहिया भणिया ॥ २ ॥ अथ जघन्यपदमुत्कृष्टपदं चोच्यते-तत्य पुण जहन्नपयं लोगतो जत्थ फासणा तिदिसि । छद्दिसिमुक्कोसपर्य समत्तगोलंमि णण्णत्व ॥३॥ तत्र-तयो
पन्येतरपदयोर्जघन्यपदं लोकान्ते भवति 'जत्थति यत्र गोलके स्पर्शना निगोददेशस्तिसृष्वेव दिक्षु भवति, बशेषदिशामलोकेनावृतत्वात्, सा च खण्डगोल एव भवतीति भावः, 'छदिसिं'ति यत्र पुनोलके पटस्वपि दिक्ष निगो-||
ददेशः स्पर्शना भवति तत्रोत्कृष्टपदं भवति, तच्च समस्तगालैः परपूर्णगोलके भवति, नान्यत्र, खण्डगोलके न भवतीत्यर्थः, सम्पूर्णगोलकश्च लोकमध्य एव स्यादिति ॥ अथ परिवचनमाशङ्कमान आह-उकोसमसंखगुणं जहन्नयाओ पर्य ला हवइ किंतु। नणु तिदिसिंफुसणाओ छद्दिसिफुसणा भवे दुगुणा ॥ ४ ॥ उत्कर्ष-उत्कृष्टपदमसङ्ख्यातगुणं जीवप्रदेशापेक्षया जघन्यकात्पदादिति गम्यं, भवति 'किन्तु' कथं तु, न भवतीत्यर्थः, कस्मादेवम् ? इत्याह-'ननु'निश्चितम् ,
अक्षमायां वा ननुशब्दः, त्रिदिक्स्पर्शनायाः सकाशात् षदिक्स्पर्शना भवेहिगुणेति, इह च काकुपाठाद्धेतुत्वं प्रतीयत ५ इति, अतो द्विगुणमेवोत्कृष्टं पदं स्थादसङ्ग्यातगुणं च तदिष्यते, जपन्यपदाश्रितजीवप्रदेशापेक्षयाऽसपातगुणसर्वजीवेभ्यो। & विशेषाधिकजीवप्रदेशोपेतत्वात्तस्येति । इहोत्तरम्-थोवा जहन्नयपए निगोयमित्तावगाहणाफुसणा । फुसणासंखगुणचा
R
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E-MAIDE
निगोद-पत्रिंशिका
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[ ४२१
-४२३]
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अनुक्रम
[५११
-५१३]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः ]
शतक [११], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [१०] मूलं [४२१-४२३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृतिः २
॥ ५२८ ॥
उक्कोसपर असंखगुणा ॥ ५ ॥ स्तोका जीवप्रदेशा जघन्यपदे, कस्मात् ? इत्याह- निगोदमात्रे क्षेत्रेऽवगाहना येषां ते तथा | एकावमाहना इत्यर्थः तैरेव यत्स्पर्शनं अवगाहनं जधन्यपदस्य तन्निगोदमात्रावगाहनस्पर्शनं तस्मात् खण्डगोलकनि| ब्पादक निगोदैस्तस्वम्संस्पर्शनादित्यर्थः, भूम्यासन्नापवरककोणान्तिमप्रदेश सदृशो हि जघन्यपदाख्यः प्रदेशः, तं चालोकसम्बन्धादेकावगाहना एव निगोदाः स्पृशन्ति, न तु खण्डगोठनिष्पादकाः, तत्र किल जधन्यपदं कल्पनया जीवशर्त स्पृशति, तस्य च प्रत्येकं कल्पनयैव प्रदेशलक्षं तत्रावगाढमित्येवं जघन्यपदे कोटी जीयप्रदेशानामवगाढेत्येवं स्तोकास्तत्र | जीवप्रदेशा इति । अथोत्कृष्टपदजीव प्रदेशपरिमाणमुच्यते-'फुसणासंखगुणत्त 'त्ति स्पर्शनायाः - उत्कृष्टपदस्य पूर्णगोलक निष्पादकनिगोदैः संस्पर्शनाया यदसङ्ख्यातगुणत्वं जघन्यपदापेक्षया तत्तथा तस्माद्धेतोरुत्कृष्टपदेऽसङ्ख्यातगुणा जीवप्रदेशा जघन्यपदापेक्षया भवन्ति, उत्कृष्टपदं हि सम्पूर्णगोल कनिष्पादक निगोदैरे का वगाहनैरसोयैः तथोत्कृष्टपदाविमोचनेनैके कम| देशपरिहानिभिः प्रत्येकमसोयैरेव स्पृष्टं तच किल कल्पनया कोटी सहस्रेण जीवानां स्पृश्यते, तत्र च प्रत्येकं जीवप्रदेशलक्षस्वावगाहनाज्जीवप्रदेशानां दशकोटीकोव्योऽवगाढाः स्युरित्येवमुत्कृष्टपदे तेऽसङ्ख्यगुणा भावनीया इति । अथ | गोलकप्ररूपणा याह-उकोसपयममोतुं निगोयओगाहणाऍ सबत्तो निप्फाइजर गोलो पएसपरिबुद्धिहाणीहिं ॥ ६ ॥ 'उत्कृष्टपदं' विवक्षितप्रदेशम् अमुञ्चद्भिः निगोदावगाहनाया एकस्याः 'सर्वतः सर्वासु दिक्षु निगोदान्तराणि स्थापयद्विनिष्पाद्यते गोः कथं १, प्रदेशपरिवृद्धिहानिभ्यां कांश्चित् प्रदेशान् विवक्षितावगाहनाया आक्रामद्भिः कांश्चिद्वि| मुञ्चद्भिरित्यर्थः एवमेकगोल कनिष्पत्तिः, स्थापना चेयम् -० गोलकान्तरकल्पनायाह-- तत्तोश्चिय गोलामो उक्कोसपर्यं
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निगोद षट्त्रिंशिका
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१११ शतके १० उद्देशः निगोदपटूत्रिंशिका
सू ४२३
॥ ५२८ ॥
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [४२१-४२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [४२१-४२३]
महत्त जो अन्नो । होइ निगोओ तमिवि अन्नो निष्फजती गोलो ॥७॥ तमेवोक्तलक्षणं गोलकमाश्रित्यान्यो गोलको ||४|| निष्पद्यते, कथम् १, उत्कृष्टपदं प्राक्तनगोलकसम्बन्धि विमुच्य योऽन्यो भवति निगोदस्तस्मिन्नुत्कृष्टपदकल्पनेनेति ।
तथा च यत्स्यात्तदाह-एवं निगोयमेत्ते खेत्ते गोलस्स होइ निष्फत्ती । एवं निष्पजते लोगे गोला असंखिजा ॥८॥ Pएवम्' उक्तक्रमेण निगोदमात्रे क्षेत्रे गोलकस्य भवति निष्पत्तिः, विवक्षितनिगोदावगाहातिरिक्तनिगोददेशानां गोलका४न्तरानुप्रवेशात् , एवं च निष्पद्यन्ते लोके गोलका असोयाः, असङ्ख्येयत्वात् निगोदावगाहनानां, प्रतिनिगोदावगा
हनं च गोलकनिष्पत्तेरिति ॥ अथ किमिदमेव प्रतिगोलकं यदुक्तमुत्कृष्टपदं तदेवेह ग्राह्यमुतान्यत् ? इत्यस्यामाशङ्कायामाह-यवहारनएण इमं उक्कोसपयाबि एत्तिया चेव । जं पुण उक्कोसपयं नेच्छाइयं होइ तं बोच्छं ।।९॥'व्यवहारनयेन' सामान्येन 'इदम्' अनन्तरोक्तमुत्कृष्टपदमुकं, काका चेदमध्येयं, तेन नेहेदं ग्राह्यमित्यर्थः स्यात् , अथ कस्मादेवम् ? इत्याह-उक्कोसपयावि एत्तिया चेव'त्ति न केवलं गोलका असङ्येयाः उत्कर्षपदान्यपि परिपूर्णगोलकनरूपितानि एतावन्त्येव-असङ्ख्ययान्येव भवन्ति यस्मात्ततो न नियतमुस्कृष्टपदं किश्चन स्यादिति भावः, यत्पुनरुत्कृष्टपदं| नैश्चयिक भवति सर्वोत्कर्षयोगाद यदिह ग्राह्यमित्यर्थः तद्वक्ष्ये। तदेवाह-बायरनिगोयधिग्गहगइयाई जस्थ समहिया अने।। गोला हुज सुबहुला नेच्छइयपयं तदुक्कोसं ॥ १०॥ वादरनिगोदानां-कन्दादीनां विग्रहगतिकादयो बादरनिगोदविग्रहगतिकादयः, आदिशब्दवेहाविग्रहगतिकावरोधार्थः, यत्रोत्कृष्टपदे समधिका अन्ये-सूक्ष्मनिगोदगोलकेभ्योऽपरे गोलका भवेयुः सुबहवो नैश्चयिकपदं तदुत्कर्ष, बादरनिगोदा हि पृथिव्यादिषु पृथ्व्यादयश्च स्वस्थानेषु स्वरूपतो भवन्ति न
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [४२१-४२३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [४२१-४२३]
ध्याख्या
सूक्ष्मनिगोदवत्सर्वश्रेत्यतो यत्र कचित्ते भवन्ति तदुत्कृष्टपदं तात्त्विकमिति भाषः । एतदेव दर्शयन्ताह-इहरा पडुच ११ शतके प्रजातिका सुहुमा बहुतुल्ला पायसो सगसगोला । तो बायराइगहणं कीरइ उक्कोसयपयंमि ॥ ११ ॥ 'शहर'त्ति पादरनिगोदाश्रयणं ||२||१० उद्देशः अभयदेवी- || विना सूक्ष्मनिगोदान प्रतीत्य बहुतुल्या:-निगोदसजाया समानाः प्रायशः, प्रायोग्रहणमेकादिना न्यूनाधिकरवे व्यभिचार-I|| निगोदषट्या वृत्ति:२४ परिहारार्थ, क एते १ इत्याह-सकलगोलाः, न तु खण्डगोलाः, अतो न नियतं किञ्चिदुत्कृष्टपदं लभ्यते, यत एवं ततो
|सू ४२३ बादरनिगोदादिग्रहणं क्रियते उत्कृष्टपदे ॥ अथ गोलकादीनां प्रमाणमाह-गोला य असंखेज्जा होति निओया असंखया ॥५२९॥
गोले । एकेको उ निगोओ अणंतजीवो मुणेयो ॥१२॥ अथ जीवप्रदेशपरिमाणप्ररूपणापूर्वकं निगोदादीनामवगाहनामानमभिधित्सुराह-लोगस्स य जीवस्स य होन्ति पएसा असंखया तुला । अंगुलअसंखभागो निगोयजियगोलगो-| गाहो ॥ १५ ॥ लोकजीवयो। प्रत्येकमसावेयाः प्रदेशा भवन्ति ते च परस्परेण तुल्या एव, एषां च सङ्कोचविशेषाद् अङ्गलासपेयभागो निगोदस्य तज्जीवस्य गोलकस्य चावगाह इति निगोदादिसमावगाहना । तामेव समर्थयन्नाह-जंमि | | जिओ तंमेव उ निगोभ तो तम्मि चेव गोलोवि । निष्फजइज खेत्ते तो ते तलावगाहणया ॥ १४ ॥ यस्मिन् क्षेत्रे जीवो-| |ऽवगाहते तस्मिन्नेव निगोदो, निगोदव्यात्या जीवस्यावस्थानात्, 'तो'त्ति ततः तदनन्तरं तस्मिन्नेव गोलोऽपि निष्प-1
॥५२९॥ चते, विवक्षितनिगोदावगाहनातिरिकायाः शेषनिगोदावगाहनाया गोलकान्तरप्रवेशेन निगोदमात्रत्वाद् गोलकावगाह-1 नाया इति, यद्-यस्मारक्षेत्रे-आकाशे ततस्ते-जीवनिगोदगोलाः 'तुल्यावगाहनाका' समानावगाहनाका इति । अथ जीवा-|| धवगाहनासमतासामर्थेन यदेकत्र प्रदेशे जीवप्रदेशमान भवति तद्विभणिपुस्तत्प्रस्तावनार्थ प्रश्नं कारयन्नाह-उकोसपय-11
% A5%
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निगोद-पत्रिंशिका
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [४२१-४२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [४२१-४२३]
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पएसे किमेगजीवप्पएसरासिस्स । होजेगनिगोयस्स व गोलस्स व किं समोगाढं॥ १५ ॥ तत्र जीवमाश्रित्योत्तरम्जीवरस लोगमेत्तस्स सुहुमओगाहणावगाढस्स । एकेकंमि पएसे होंति पएसा असंखेजा ॥ १६ ॥ ते च किल कल्पनया | | कोटीशतसङ्ख्यस्थ जीवप्रदेशराशेः प्रदेशदशसहस्रीस्वरूपजीवावगाहनया भागे हृते लक्षमाना भवन्तीति ॥ अथ निगोदमा|श्रित्याह-लोगस्स हिर भागे निगोयोगाहणाएँ जेलर्छ । उकोसपएऽतिगयं एत्तियमेकेकजीवाओ॥ १७॥ 'लोकस्य कल्पनया प्रदेशकोटीशतमानस्य हृते भागे निगोदावगाहनया कल्पनातः प्रदेशदशसहस्रीमानया यल्लब्धं तच्च किल लक्षपरिमाणमुत्कृष्टपदेऽतिगत-अवगाढमेतावदेकैकजीवात्, अनन्तजीवात्मकनिगोदसम्बन्धिन एकैकजीवसत्कमित्यर्थः ।। अनेन निगोदसत्कमुत्कृष्टपदे यदवगाढं तद्दर्शितमध गोलकसत्कं यत्तत्रावगाढं तद्दर्शयति-एवं दबढाओ सबेसि एकगोलजीवाणं । उकोसपयमइगया होंति पएसा असंखगुणा ॥१८॥ यथा निगोदजीवेभ्योऽसोयगुणास्तत्प्रदेशा उत्कृटपदेऽतिगता एवं 'द्रव्यार्थात्' द्रव्यार्थतया न तु प्रदेशार्थतया 'सोर्सि'ति सर्वेभ्य एकगोलगतजीवद्रव्येभ्यः सकाशादुत्कृष्टपदमतिगता भवन्ति प्रदेशा असङ्ख्यातगुणाः । इह किलानन्तजीवोऽपि निगोदः कल्पनया लक्षजीवः, गोलकश्वासङ्ख्यातनिगोदोऽपि कल्पनया लक्षनिगोदः, ततश्च लक्षस्य लक्षगुणने कोटीसहस्रसपाः कल्पनया गोलके जीवा | भवन्ति, तत्पदेशानां च लक्ष लक्षमुत्कृष्टपदेऽतिगतं, अतश्चैकगोलकजीवसाया लक्षगुणने कोटीकोटीदशकसमा एकत्र | प्रदेशे कल्पनया जीवप्रदेशा भवन्तीति ।गोलकजीवेभ्य सकाशादेकत्र प्रदेशेऽसोयगुणा जीवप्रदेशा भवन्तीत्युक्तमथ तत्र | गुणकारराशेः परिमाणनिर्णयार्थमुच्यते-तं पुण केवइएणं गुणियमसंखेजयं भवेज्जाहि । भन्नइ दवद्याइ जावइया सब
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[ ४२१
-४२३]
दीप
अनुक्रम
[५११
-५१३]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः ]
शतक [११], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [४२१-४२३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्याप्रज्ञठिः श्रमपदेवीया वृत्तिः २
॥५३०॥
निगोद षट्त्रिंशिका
| गोठति ॥ १९ ॥ तत्पुनरनन्तरोक्तमुत्कृष्टपदातिगत जीवप्रदेशराशिसम्बन्धि 'कियता' किंपरिमाणेनासवेयराशिना गुणितं ४ सत् 'असंखेज्जयं' ति असङ्ख्येयकम् - असङ्ख्यातगुणनाद्वारायातं 'भवेत्' स्यादिति १, भण्यते अत्रोत्तरं, द्रव्यार्थतया न तु प्रदे- शार्थ तथा यावन्तः 'सर्वगोलकाः सकलगोलकास्तावन्त इति गम्यं स चोत्कृष्टपदगतेक जीवप्रदेशराशिर्मन्तब्यः, सकलगोलकानां तत्तुल्यत्वादिति ॥ किं कारणमोगाहणहत्ता जियमिगोयगोलाणं । गोला उक्कोसपएक्कजियपएसेहिं तो तुला ||२०|| 'किं कारणं'ति कस्मात्कारणाद् यावन्तः सर्वगोलास्तावन्त एवोरकृष्टपदगतैकजीवप्रदेशाः ? इति प्रश्नः, अत्रोत्तरम् - अवगा| हनातुल्यस्थात्, केषामियमित्याह -- जीवनिगोदगोलानाम्, अवगाहनातुल्यत्वं चैषामङ्कलासङ्ख्येयभागमात्रावगाहित्वादिति प्रश्नः, यस्मादेवं 'तो'ति तस्माद्गोलाः सकललोकसम्वन्धिनः उत्कृष्टपदे ये एकस्य जीवस्य प्रदेशास्ते तथा तैरुत्कृष्टपदैकजीवप्रदेशैस्तुल्या भवन्ति । एतस्यैव भावनार्थमुच्यते-- गोलेहि हिए लोगे आगच्छा जं तमेगजीवस्स । उक्कोसपयगथ|पएसरासितुलं हवइ जम्हा ॥ २१ ॥ 'गोलैः' गोलावगाहनाप्रदेशः कल्पनया दशसहस्रसङ्ख्यैः 'हृते' विभक्ते हृतभाग इत्यर्थः 'लोके' लोकप्रदेशराशौ कल्पनया एककोटीशतप्रमाणे 'आगच्छति' लभ्यते 'यत्' सर्वगोलस्थानं कल्पनया लक्ष| मित्यर्थः तदेकजीवस्य सम्बन्धिना पूर्वोक्तप्रकारतः कल्पनया लक्षप्रमाणेनैवोत्कृष्टपदगत प्रदेशराशिना तुल्यं भवति यस्मा| तस्माद्गोला उत्कृष्टपदैकजीवप्रदेशैस्तुल्या भवन्तीति प्रकृतमेवेति । एवं गोलकानामुत्कृष्टपदगतकजीवप्रदेशानां च तुल्यत्वं | समर्थितं, पुनस्तदेव प्रकारान्तरेण समर्थयति अहवा लोगपएसे एकेके ठविय गोलमेकैकं । एवं उफोसपएकजियपएसेसु | मायंति ॥ २२ ॥ अथवा लोकस्यैव प्रदेशे एकैकस्मिन् 'स्थापय' निधेहि विवक्षितसमत्वबुभुत्सो ! गोलक मेकैकं, ततश्च
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११ शतके
१० उद्देश: निगोदषटू
त्रिंशिका सू ४२३
॥५३०॥
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सूत्रांक
[ ४२१
-४२३]
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अनुक्रम [५११
-५१३]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः ]
शतक [११], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [४२१-४२३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
'एवम्' उक्तक्रमस्थापने उत्कृष्टपदे ये एकजीवप्रदेशास्ते तथा तेषु तत्परिमाणेष्वाकाशप्रदेशेध्वित्यर्थः मान्ति गोला इति गम्यं, यावन्त उत्कृष्टपदे एकजीवप्रदेशास्तावन्तो गोलका अपि भवन्तीत्यर्थः, ते च कल्पनया किल लक्षप्रमाणा उभयेऽपीति । | अथ सर्वजीवेभ्य उत्कृष्टपदजीवप्रदेशा विशेषाधिका इति विभणिषुस्तेषां सर्वजीवानां च तावत्समतामाह-गोलो जीवो य समा पएसओ जं च सबजीवावि। होंति समोगाहणया मज्झिमओगाहणं पप्प ॥ २३ ॥ गोलको जीवश्च समौ प्रदेशतःअवगाहनाप्रदेशानाश्रित्य, कल्पनया द्वयोरपि प्रदेशदशसहरूयामवगाढत्वात्, 'जं च'ति यस्माच्च सर्वजीवा अपि सूक्ष्मा | भवन्ति समावगाहनका मध्यमावगाहनामाश्रित्य, कल्पनया हि जघन्यावगाहना पश्चप्रदेशसहस्राणि उत्कृष्टा तु पञ्चदखेति | द्वयोश्च मीलनेनाद्धकरणेन च दशसहस्राणि मध्यमा भवतीति ॥ तेण फुडं चिय सिद्धं एगपएसंमि जे जियपएसा । ते सवजीवतुला सुणसु पुणो जह विसेसहिया ॥ २४ ॥ इह किलासद्भावस्थापनया कोटीशतसङ्घयप्रदेशस्य जीवस्याकाशप्रदे शदशसहरुयामवगाढस्य जीवस्य प्रतिप्रदेशं प्रदेशलक्षं भवति, तच्च पूर्वोक्तप्रकारतो निगोदवर्त्तिना जीवलक्षण गुणितं कोटीसहस्रं भवति, पुनरपि च तदेकगोलवर्त्तिना निगोदलक्षेण गुणितं कोटीकोटीदशकप्रमाणं भवति, जीवप्रमाणमध्येतदेव, तथाहि-- कोटीशतसंख्य प्रदेशे लोके दशसहस्रावगाहिनां गोलानां उक्षं भवति, प्रतिगोलकं च निगोदलक्षकल्पनात् निगोदानां कोटीसहस्रं भवति, प्रतिनिगोदं च जीवलक्षकल्पनात् सर्वजीवानां कोटीकोटीदशकं भवतीति ॥ अथ सर्वजीवेभ्य उत्कृष्टपदगतजीवप्रदेशा विशेषाधिका इति दर्श्यतेजं संति केइ खंडा गोला लोगंतवत्तिणो अन्ने । बायरविग्गहिएहि य | उको सपथं जमम्भहियं ॥ २५ ॥ यस्माद्विद्यन्ते केचित्खण्डा गोला लोकान्तवन्तिनः 'अन्नेति पूर्णगोल केभ्योऽपरेऽतो
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निगोद- षट्त्रिंशिका
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[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [४२१-४२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४२१-४२३]
व्याख्या
Kजीवराशिः कल्पनया कोटीकोटीदशकरूप ऊनो भवति पूर्णगोलकतायामेव तस्य यथोक्तस्य भावात् , ततश्च येन जीव-|११ शतके राशिना खण्डगोलका पूर्णीभूताः स सर्वजीवराशेरपनीयते असद्भूतत्वात्तस्य, स च किल कल्पनया कोटीमानः, तत्र
१० उद्देशः प्रज्ञप्तिः
निगोदषट्अभयदेवी- चापनीते सर्वजीवराशिः स्तोकतरो भवति, उत्कृष्टपदं तु यथोक्तप्रमाणमेवेति तत्त्वतो विशेषाधिक भवति, समता पुनः
त्रिंशिका या वृत्तिः२] खण्डगोलानां पूर्णताविवक्षणादुक्केति, तथा बादरविग्रहि कैश्च-बादरनिगोदादिजीवप्रदेशैश्चोत्कृष्टपदं यद्-यस्मात्सर्वजीव
सू४२३ राशेरभ्यधिक ततः सर्वजीवेभ्य उस्कृष्टपदे जीवप्रदेशा विशेषाधिका भवन्तीति, इयमन भावना-बादरविग्रहगतिकादी॥५३॥
नामनन्तानां जीवानां सूक्ष्मजीवासाबेयभागवर्तिनां कल्पनया कोटीप्रायसवानां पूर्वोक्तजीवराशिप्रमाणे प्रक्षेपणेन || || &|समताप्राप्तावपि तस्य पादरादिजीवराशे कोटीप्रायसङ्ख्यस्य मध्यादुत्कर्षतोऽसवेयभागस्य कल्पनया शतसक्यस्य विव-10 || क्षितसूक्ष्मगोलकावगाहनायामवगाहनात् एकैकस्मिंश्च प्रदेशे प्रत्येक जीवप्रदेशलक्षस्थायगाढत्वात् लक्षस्य च शतगुणत्वेन || कोटीप्रमाणत्वात् तस्याश्चोत्कृष्टपदे प्रक्षेपात्पूर्वोक्तमुस्कृष्टपदजीवप्रदेशमानं कोव्याऽधिकं भवतीति । यस्मादेवं-तम्हा K|| सहिंतो जीवेहिंतो फुड गहेयर्थ । उक्कोसपयपएसा होति विसेसाहिया नियमा ॥ २६ ॥ इदमेव प्रकारान्तरेण भाव्यते
अहवा जेण बहुसमा सुहमा लोएऽवगाहणाए य । तेणेकेक जीवं बुद्धीऍ विरलए लोए ॥ २७ ॥ यतो बहुसमाः-- प्रायेण समाना जीवसङ्ख्यया कल्पनया एकैकावगाहनायां जीवकोटीसहस्रस्यावस्थानात, खण्डगोलकैव्यभिचार- ॥५३१॥ |परिहारार्थ चेह बहुग्रहणं, 'सूक्ष्माः' सूक्ष्मनिगोदगोलकाः कल्पनया लक्षकल्पा: 'लोके' चतुर्दशरज्वात्मके, तथाऽवगाहनया च समाः, कल्पनया दशसु दशसु प्रदेशसहस्रेष्ववगाढवात, तस्मादेकप्रदेशावगाढजीवप्रदेशानां सर्वजी
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आगम
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प्रत
सूत्रांक [ ४२१
-४२३]
दीप
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[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्तिः ]
शतक [११], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [४२१-४२३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
वानां च समतापरिज्ञानार्थमेकैकं जीवं बुद्ध्या 'बिरलए'त्ति केवलिसमुद्घातगत्या विस्तारयेलोके, अथमत्र भावार्थ:| यावन्तो गोलकस्यैकत्र प्रदेशे जीवप्रदेशा भवन्ति कल्पनया कोटी२ दशकप्रमाणास्तावन्त एव विस्तारितेषु जीवेषु लोकस्यैकत्र प्रदेशे ते भवन्ति, सर्वजीवा अध्येतत्समाना एवेति अत एवाह एवंपि समा जीवा एमपएसगय| जियपएसेहिं । चायरबाहुला पुण होति पएसा विसेसहिया ॥ २८ ॥ एवमपि न केवलं 'गोलो जीवो य समा' इत्यादिना पूर्वोक्तन्यायेन समा जीवा एकप्रदेशगतैर्जीवप्रदेशैरिति, उत्तरार्द्धस्य तु भावना प्रावदवसेयेति । अथ पूर्वोक्तराशीनां निदर्शनान्यभिधित्सुः प्रस्तावयन्नाह - तेसिं पुण रासीणं निदरिसणमिणं भणामि पक्खं । सुहगहणगाणत्थं ठेवणारासिप्पमाणेहिं ॥ २९ ॥ गोलाण लक्खमेकं गोले २ निगोयलक्खं तु । एकेंकें य निगोए जीवाणं | लक्खमेकैकं ॥ २० ॥ कोडिसय मेगजीवप्पएसमाणं तमेव लोगस्स । गोलनिगोयजियाणं दस उ सहस्सा समोगाहो ॥ ३२ ॥ जीवस्सेकेकस्स य दसखाहस्सावगाहिणो लोगे । एक्केकंमि परसे पएसलक्खं समोगाढं ॥ ३२ ॥ जीवसयस्स जहने पर्यमि कोडी जियप्पएसाणं । ओगाढा उक्को से पर्यमिवोच्छं पएसगं ॥ ३३ ॥ कोटिसहस्वजियाणं कोडाकोडीद सप्पएसाणं । उकोसे ओगाढा सचजियाऽवेत्तिया चेव ॥ ३४ ॥ कोडी उक्कोसपर्यमि वायरजियप्पएसपक्लेवो । सोहणयमेत्तियं चिय काय खंडगोलाणं ।। ३५ ।। उत्कृष्टपदे सूक्ष्मजीवप्रदेशराशेरुपरि कोटीप्रमाणो बादरजीवप्रदेशानां प्रक्षेपः कार्यः, शतक| ल्पत्वाद्विवक्षितसूक्ष्मगोल कावगाढबादरजीवानां तेषां च प्रत्येकं प्रदेशलक्षस्योत्कृष्टपदेऽवस्थितत्वात् तन्मीलने च कोटीसद्भावादिति, तथा सर्वजीवराशेर्मध्याच्छोधनकं- अपनयनम् 'एत्तियं चिय'ति एतावतामेव कोटीसङ्ख्यानामेव कर्त्तव्यं,
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निगोद- षट्त्रिंशिका
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [४२१-४२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
बाल्या- पतिः अभयदेवीयावृत्तिः२||
प्रत सूत्रांक [४२१-४२३]
११ शतके ११ देखा
खण्डगोलानां' खण्डगोलकपूर्णताकरणे नियुक्तजीवानां तेषामसद्भाविकत्वादिति ॥ एएसि' जहासंभवमत्थोवणयं करेज रासीणं । सम्भावओ य जाणिज्ज ते अर्णता असंखा वा ॥ ३६ ।। इहार्थोपनयो यथास्थानं प्रायः प्राग् दर्शित एव, 'अणंतत्ति निगोदे जीवा यद्यपि लक्षमाना उक्तास्तथाऽप्यनन्ता, एवं सर्वजीवा अपि, तथा निगोदादयो ये लक्षमाना उकास्तेऽप्यसक्वेया अवसेया इति ॥ एकादशशते दशमोद्देशकः समाप्तः ॥११-१०॥
पंसू ४२४
॥५३॥
दीप अनुक्रम [५११-५१३]
__अनन्तरोदेशके लोकवकन्यतोक्का, इह तु लोकवर्तिकालद्रव्यवक्तव्यतोच्यते, इत्येवंसम्बद्धस्यास्यैकादशोद्देशक-18
स्वेदमादिसूत्रम्51 तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियगामे नाम नगरे होत्था चन्नओ, दूतिपलासे चेहए वन्नओ जाव पुढ-15 विसिलापट्टओ, तत्थ णं वाणियगामे नगरे सुदसणे नामं सेट्ठी परिवसइ अढे जाव अपरिभूए समणोचासए अभिगपजीवाजीवे जाव विहरह, सामी समोसढे जाव परिसा पजुवासइ, तए णं से सुदंसणे सेट्टी| इमीसे कहाए लढे समाणे हडतुडे पहाए कय जाव पायच्छित्ते सबालंकारविभूसिए साओ गिहाओ पडि-|| | मिक्खमा साओ गिहाओ पडिनिक्खमित्ता सकोरेंटमलदामेणं उत्तेणं धरिजमाणेणं पायविहारचारेणं महया पुरिसवग्गुरापरिक्खित्ते पाणियगाम नगरं मझमज्झणं निग्गच्छद निग्गच्छित्ता जेणेव दूतिपलासे | चेहए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव पवागच्छा तेणेव उवागच्छित्ता समर्ण भगवं महावीर पंचवि
॥५३॥
अत्र एकादशमे शतके दशम-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ एकादशमे शतके एकादशम-उद्देशकः आरभ्यते
निगोद-पत्रिंशिका
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक -], उद्देशक [११], मूलं [४२४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
45-4Me
5
[४२४]
& हेणं अभिगमेणं अभिगच्छति, त०- सचित्ताण दवाणं जहा उसभदत्तो जाव तिविहाए पल्लुवासणाए पजु
वासह । तए णं समणे भगवं महावीरे सुदंसणस्स सेहिस्स तीसे य महतिमहालयाए जाव आराहए भवइ। तए णं से सुदंसणे सेट्ठी समणस्स भगवओमहावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा निसम्म हहतुट्ठ० उट्ठाए उट्ठहरत्ता समर्ण भगवं महावीर तिक्खुत्तो जाव नमंसित्ता एवं वयासी-काविहेणं भंते ! काले पन्नत्ते, सदसणा चउबिहे काले पन्नत्ते, तंजहा-पमाणकाले १ अहाउनिबत्तिकाले २ मरणकाले ३ अद्धाकाले ४, से किं तं पमा-1 णकाले १, २ दुविहे पन्नते, तंजहा-दिवसप्पमाणकाले १ राइप्पमाणकाले य २, चउपोरिसिए दिवसे चज-1 पोरिसिया राई भवइ (सू०४२४)॥ | तेणमित्यादि, 'पमाणकाले'त्ति प्रमीयते-परिच्छिद्यते येन वर्षशतादि तत प्रमाण स चासौ कालश्चेति प्रमाणकालः | प्रमाणं वा-परिच्छेदनं वर्षादेस्तत्प्रधानस्तदर्थो वा कालः प्रमाणकाल:-अद्धाकालस्य विशेषो दिवसादिलक्षणः, आह च"दुविहो पमाणकालो दिवसपमाणं च होइ राई य । चउपोरिसिओ दिवसो राई चउपोरिसी चेव ॥१॥"[ द्विविधः प्रमाणकालो दिवसप्रमाणश्च भवति रात्रिश्च । चतुष्पौरुषीको दिवसो रात्रिश्चतुष्पौरुषीका चैव ॥१॥] 'अहाउनिचत्तिकाले'त्ति यथा-येन प्रकारेणायुषो निवृत्तिः-बन्धन तथा यः काल:-अवस्थितिरसौ यथायुर्निर्वृत्तिकालो-नारकाद्यायुष्कलक्षणः, अयं चाद्धाकाल एवायुःकर्मानुभवविशिष्टः सर्वेषामेव संसारिजीवानां स्यात् , आह च-"नेरइयतिरियमणुया देवाण अहाउयं तु जं जेणं । निवत्तियमनभवे पालेंति अहाउकालो सो॥१॥"[ नैरयिकतिर्यग्मनुजानां
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दीप अनुक्रम [५१४]
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[ ४२४]
दीप अनुक्रम
[५१४]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति: ]
शतक [११], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [११], मूलं [४२४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्या
| देवानामथायुर्यद्येनान्यस्मिन् भवे निर्वर्त्तितं तथा पाठयन्ति स यथाऽऽयुष्कालः ॥ २ ॥ ] 'मरणकाले'त्ति मरणेन कि प्रज्ञप्तिः अद्धा - शिष्टः कालः मरणकाल :- अद्धाकालः एव, मरणमेव वा कालो मरणस्य कालपर्यायत्वान्मरणकाल:, 'अद्वाकाले त्ति अभयदेवी| समयादयो विशेषास्तद्रूपः कालोऽद्धाकालः- चन्द्रसूर्यादिक्रिया विशिष्टोऽर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रान्तर्वर्त्ती समयादिः, आह चया वृत्तिः २ “समयावलियमुहुत्ता दिवस अहोत पक्खमासा य । संवच्छरजुगपलिया सागरओस्सप्पिपरियट्टा ॥ १ ॥ " [ समय आब||५३३॥लिका मुहूर्ती दिवसोऽहोरात्रं पक्षो मासश्च । संवत्सरो युगं पल्यः सागर उत्सर्पिणी परावर्त्तः ॥ १ ॥ ] इति । अनन्तरं
चतुष्पौरुषीको दिवसश्चतुष्पौरुषीका च रात्रिर्भवतीत्युक्तमथ पौरुषीमेव प्ररूपयन्नाह -
कोसिया पंचममुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवद्द जन्निया तिमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए या पोरिसी भवइ, जदा णं भंते ! उक्कोसिया अद्धपंचमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवति तदा णं कति भागमुहुत्तभागेणं परिहायमाणी परि० २ जहनिया तिमुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवति ?, जदा णं जहशिया तिमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवति तदा णं कति भागमुहुत्तमागेणं परिवहमाणी २ उक्कोसिया अद्वपंचममुत्ता दिवसस वा राईए वा पोरिसी भवइ ?, सुदंसणा 1 जदा णं उक्कोसिया अद्वपंचम मुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ तदा णं बावीससयभागमुहुतभागेणं परिहायमाणी परि० २ जन्निया निमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ, जदा णं जह शिया तिमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ तथा णं घावीससयभागमुहुत्त भागेणं परिवहुमाणी
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१९ शतके
१ ११ उद्देशः पौरुषीमानं सू ४२५
॥५३३॥
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक -], उद्देशक [११], मूलं [४२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
434
प्रत सूत्रांक [४२५]
परि०२ उफोसिया अपंचममुहत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवति । कदा गं भंते ! कोसिआ| ★ अद्धपंचममुहुत्ता दिवसस्स राईए वा पोरिसी भवइ ? कदा घा जहनिया तिमुहुत्ता दिवसस्स चा राईए वा पोरिसी भवह, सुदंसणा ! जदा णं उक्कोसए अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवइ जहनिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ तदा णं उकोसिया अपंचममुहुत्ता दिवसस्म पोरिसी भवइ जहनिया तिमुहत्ता राईए पोरिसी भवह, जया णं उकोसिया अट्ठारसमुहुत्तिआराई भवति जहन्निए दुवालसमुहत्ते दिवसे भवइ तदा णं उक्कोसिया अद्धपंचममुहुत्ता राईए पोरिसी भवइ जहनिया तिमुहुसा दिवसस्स पोरिसी भवइ । कदा गं भंते !
उकोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ जहन्निया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ? कदाचा उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता है राई भवति जहन्नए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवह, सुदंसणा! आसाहपुन्निमाए उकोसए अट्ठारसमुहुत्ते मदिवसे भवइ जहनिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, पोसस्स पुन्निमाए णं उक्कोसिया अट्ठारसमुहसा राई |
भवद जहन्नए दुवालसमुहत्ते दिवसे भवइ । अत्थि णं भंने! दिवसा य राईओ यसमा चेव भवन्ति !, हंता! अस्थि, कदा णं भंते ! दिवसा य राईओय समा चेव भवन्ति ?, मुदंसणा ! चित्तासोयपुन्निमासु णं, एत्य णं दिवसा प राईओय समा चेव भवन्नि, पन्नरसमुहत्ते दिबसे पन्नरसमुहुत्ता राई भवइ चउभागमुहुत्त|भागूणा चजमुटुसा दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ, सेत्तं पमाणकाले ॥ (सूत्रं ४२५)॥
'उक्कोसियेत्यादि, 'अपंचमुहुत्त'त्ति अष्टादश मुहूर्त्तख दिवसस्य रावेर्वा चतुर्थों भागो यस्मादपशममुहूर्त्ता नव
दीप अनुक्रम [५१५]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक -], उद्देशक [११], मूलं [४२५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४२५]
दीप अनुक्रम [५१५]
व्याख्या-18 घटिका इत्यर्थः ततोऽर्द्धपञ्चमा मुहर्ता यस्यां सा तथा, 'तिमुलत्तत्ति द्वादशमुहुर्तस्य दिवसादेश्चतुर्थो भागस्त्रिमुहतों भवति ११ शतके प्रशतिः अतस्त्रयो मुहर्ताः-पट् घटिका यस्यां सा तथा, 'कइभागमुहृत्तभागेग'ति कतिभाग:-कतिथभागस्तद्रूपो मुहूर्तभागः ११ उद्देश: अभयदेवी
कतिभागमुहूर्तभागस्तेन, कतिथेन मुहूर्त्ताशेनेत्यर्थः 'बावीससयभागमुहुत्तभागेणं'ति इहार्द्धपश्चमानां त्रयाणां च पौरुषीमानं या चाह मुहूर्सानां विशेषः साद्धों मुहतः, स च .यशीत्यधिकेन दिवसशतेन बर्द्धते हीयते च, सच साढ़ें मुहूर्तरुयशीत्यधिक- सू ४२५ ॥५३॥ शतभागतया व्यवस्थाप्यते, तत्र च मुहूर्त द्वाविंशत्यधिक भागशतं भवत्यतोऽभिधीयते-'बावीसे'त्यादि, द्वाविंशत्यधि
कशततमभागरूपेण मुहूर्त्तमागेनेत्यर्थः । 'आसादपुतिमाए इत्यादि, इह 'आषाढपौर्णमास्या'मिति यदुक्तं तत् पश्चसं-12 वत्सरिकयुगस्यान्तिमवर्षापेक्षयाऽवसेयं, यतस्तत्रैवाषाढपौर्णमास्यामष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति, अर्द्ध पञ्चममुहूर्त्ता च तत्पौरुषी भवति, वर्षान्तरे तु यत्र दिवसे कर्कसङ्कान्तिर्जायते तत्रैवासी भवतीति समवसेयमिति, एवं पौषपौर्णमास्यामप्यौ-| |चित्येन वाच्यमिति ॥ अनन्तरं रात्रिदिवसयोर्वेषम्यमभिहितं, अथ तयोरेव समतां दर्शयन्नाह-अस्थि ण'मित्यादि।
इह च 'चत्तासोयपुन्निमाएसु ण'मित्यादि यदुच्यते तद्व्यवहारनयापेक्ष, निश्चयतस्तु कर्कमकरसङ्क्रान्तिदिनादारभ्य | । यद् द्विनवतितममहोरात्रं तस्याः समा दिवरात्रिप्रमाणतेति, तत्र च पञ्चदशमुह दिने रात्री वा पौरुषीप्रमाणं त्रयो| मुहतोत्रयश्च मुहर्त चतुर्भागा भवन्ति, दिनचतुर्भागरूपत्वात्तस्याः, एतदेवाह-'चउभागे'त्यादि, चतुभोगरूपो यो| ५३४॥ | मुहूत्तेभागस्तेनोना चतुर्भागमुहर्तभागोना चत्वारो मुहर्ता यस्यां पौरुष्यां सा तथेति ॥
से किं तं अहाउनिबत्तिकाले?, अहा०२ जन्नं जेणं नेरइएण वा तिरिक्खजोणिएण वा मणुस्सेण वाट
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [११], मूलं [४२६-४२७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
rdity
प्रत सूत्रांक [४२६
-४२७]
देषेण का अहाउयं निबत्तियं सेत्तं पालेमाणे अहाउनिपत्तिकाले । से किं तं मरणकाले १, २ जीयो वा सरीराओ सरीरं वा जीवाओ, सेतं मरणकाले ॥से किंतं अद्धाकाले १. अद्धा०२ अणेगविहे प्रनते. सेणं ||
समयट्टयाए आवलियट्ठयाए जाव उस्सप्पिणीट्टयाए । एस णं सुदंसणा! अद्भा दोहारच्छेदेणं छिज&माणी जाहे विभागं नो हषमागच्छा सेत्सं समए, समयट्ठयाए असंखेजाणं समयाणं समुदयसमिइसमाग-1
मेणं सा एगा आवलियत्ति पवुचइ, संखेजाओ आवलियाओ जहा सालिउद्देसए जाव सागरोवमस्स उ एगस्स भवे परिमाणं । एएहि णं भंते ! पलिओवमसागरोवमेहिं किं पयोयणं ?, मुदंसणा ! एएहिं पलिओवमसागरोवमेहिं नेरइयतिरिक्खजोणियमणुस्सदेवाणं आउयाई मविनंति (सू०४२६)॥ नेरइयाणं भंते ! केवड्यं कालं ठिई पन्नत्ता ?, एवं ठिइपदं निरवसेसं भाणिय जाव अजहन्नमणुक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोव
माई ठिती पन्नसा (मूत्रं ४२७) &| 'से कितं अहाउनिवत्तियकाले'इत्यादि, इह च 'जेणं'ति सामान्यनिर्देशे ततश्च येन केनचिन्नारकाद्यन्यतमेन I'अहाउयं निपत्तिय'ति यत्प्रकारमायुष्क-जीवितमन्तर्मुहर्तादि यथाऽऽयुष्क 'निर्वतित' निबद्धं । 'जीवो वा स
शरीरेत्यादि, जीवो वा शरीरात् शरीरं वा जीवात् वियुज्यत इति शेषः, वाशब्दो शरीर जीवयोरवधिभावस्येच्छानुसारिताप्र-| हातिपादनार्थाविति ।। 'से किंसं अद्धाकाले'इत्यादि, अद्धाकालोऽनेकविधः प्रज्ञप्तस्तद्यथा-'समयट्टयाए'त्ति समय
पोऽर्थः समयास्तवावस्तत्ता तया समयभावेनेत्यर्थः एवमन्यत्रापि, यावत्करणात् 'मुहत्तट्टयाए' इत्यादि दृश्य
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[ ४२६
-४२७]
दीप
अनुक्रम
[५१६
-५१७]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र -५ [ मूलं + वृत्तिः ]
शतक [११], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [११], मूलं [४२६-४२७]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥५३५॥
मिति । अथानन्तरोक्तस्य समयादिकालस्य स्वरूपमभिधातुमाह- 'एस णमित्यादि, एषा अनन्तरोकोत्सर्पिण्या १११ शसके |दिका 'अद्धा दोहारच्छेयणेणं' ति द्वौ हारौ भागौ यत्र छेदने द्विधा वा कारः करणं यत्र तद् द्विहारं द्विधाकारं वा + ११ उद्देशः ४ यथायुष्का| तेन 'जाहे'त्ति यदा तदा समय इति शेषः 'सेत्त' मित्यादि निगमनम् । 'असंखेज्जाण' मित्यादि, असङ्ख्यातानां सम- + दिकाल: यानां सम्बन्धिनो ये समुदया-वृन्दानि तेषां याः समितयो - मीलनानि तासां यः समागमः संयोगः स समुदयसमि |तिसमागमस्तेन यत्कालमानं भवतीति गम्यते सैकावलिकेति प्रोच्यते, 'सालिउद्देसए'ति षष्ठशतस्य सप्तमोद्देशके ॥ पल्योपमसागरोपमाभ्यां नैरयिकादीनामायुष्काणि मीयन्त इत्युक्तमथ तदायुष्कमानमेव प्रज्ञापयन्नाह - 'नेरइयाण' मित्यादि, 'ठितिपय'ति प्रज्ञापनायां चतुर्थं पदं ॥
स्थितिः सू ४४२६-४२७
महाबलकुमार कथा
अत्थि णं भंते! एएसिं पलिओवमसागरोवमाणं खएति वा अवचयेति वा ?, हंता अस्थि, से केणणं भंते ! एवं gas अथ णं एut णं पलिओमसागरोवमाणं जाव अवचयेति वा ? एवं खलु सुदंसणा : तेणं कालेणं तेणं समर्पणं हृत्थिणागपुरे नाम नगरे होत्था बन्नओ, सहसंचचणे उज्जाणे वन्नओ, तत्थ णं हत्थिणागपुरे नगरे बले नाम राया होत्था वन्नओ, तस्स णं बलस्स रनो पभावई नामं देवी होत्या सुकुमाल० वन्नओ जाव विहरइ । तए णं सा पभावई देवी अन्नया | कयाई तंसि तारिसगंसि वासरंसि अभितरओ सचित्तकम्मे बाहिरओ दूमियम विचित्तउल्लोगचिलिगतले मणिरयणपणा सिधयारे बहुसमसुविभत्तदेसभाए पंचवन्न सरस सुरभिमुक्क पुप्फपुंजोवपारकलिए
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [११], मूलं [४२८] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४२८]
गाथा
लोकालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुकधूवमघमघतगंधुद्धयाभिरामे सुगंधिवरगंधिए गंधवडिभूए तंसि तारिसगंसि
सयणिजंसि सालिंगणवहिए उभओ विडोयणे दुहओ उन्नए मझेणपगंभीरे गंगापुलिणवालुयउद्दाल-10 सालिसए उचचियखोमियदुगुल्लपट्टपहिच्छन्ने सुविरइयरयत्ताणे रत्तंसुयसंवुए सुरम्मे आइणगरूयचूरणवणीयतूलफासे सुगंधवरकुसुमचुन्नसयणोचयारक लिए अद्धरत्तकालसमयंसि सुत्तजागरा ओहीरमाणी २ अयमेयारूवं ओराल कल्याण सिवं धन्नं मंगल्लं सस्सिरीपं महासुविणं पासित्ताणं पडिवुद्धा हाररययखीरसागरससंककिरणदगरयरययमहासेलपंडुरतरोरुरमणिज्जपेच्छणिज्जं थिरलट्ठपउवट्टपीवरसुसिलिट्ठविसिढतिक्खदाढाविडंबियमुहं परिकम्मियजचकमलकोमलमाइयसोभंतलहउ8 रत्तुप्पलपत्तमउयसुकुमालतालुजीहं । मूसागयपवरकणगताचियआवत्तायंतवद्दतडिविमलसरिसनयणं विसालपीवरोरं पडिपुन्नविमलखंचं मिउवि-12 सयसुहमलकखणपसत्यविच्छिन्नकेसरसडोवसोभियं ऊसियसुनिम्मियसुजायअप्फोडियलंगूलं सोमं सोमाकार लीलार्यतं जंभायंतं नहयलाओ ओवयमाणं निययवयणमतिवयंतं सीहं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धा । |तए णं सा पभावती देवी अयमेयारूवं ओरालं जाव सस्सिरीयं महासुविणं पासित्ता गं पडिबुद्धा समाणी हहतुह जाब हियया धाराहयकलंवपुप्फर्ग पिव समूससियरोमकूवा तं सुविणं ओगिण्हति ओगिम्हित्साहू सयणिज्जाओ अन्शुढेइ सपणिजाओ अन्भुटेता अतुरियमचवलमसंभताए अविलंबियाए रायहंससरिसीए गईए जेणेव बलस्स रन्नो सयणिज्जे तेणेच उबागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता पलं रायं ताहिं इहाहि कंताहिं
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[४२८]
गाथा
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[५१८
-५२०]
[भाग-९] “भगवती" - अंगसूत्र- ५ [ मूलं + वृत्तिः]
शतक [११], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [११], मूलं [ ४२८ ] + गाथा
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवी या वृत्तिः २
॥५३६ ।।
पियाहिं मणुन्नाहिं मणामाहिं ओरालाहिं कल्लाणाहिं सिवाहिं धन्नाहिं मंगल्लाहिं सस्सिरीयाहिं मियमहुरमं| जुलाहिं गिराहिं संलयमाणी संलवमाणी पडिबोहेति पडिवोहेत्ता बलेणं रन्ना अम्भणुन्नाया समाणी नाणामणिरयणभत्तिचित्तंसि भद्दासणंसि णिसीयति णिसीयित्ता आसत्था बीसत्धा सुहासणवरगधा बलं रा ताहिं इट्ठाहिं कंताहिं जाव संलवमाणी २ एवं वयासी एवं खलु अहं देवाणुपिया ! अब तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि सालिंगण० तं चैव जाव नियगवयणमइवयंतं सीहं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धा, तणं देवाणुप्पिया ! एयरस ओरालस्स जाव महासुविणस्स के मन्ने कलाणे फलवितिविसेसे भविस्सह १, तए णं से | बले राया पभावईए देवीए अंतियं एयमहं सोचा निसम्म हट्टतुट्ठ जाव हयहियये धाराहयनीवसुरभिकुसुमचंचुमाल इयतणुयऊस चियरोमकुबे तं सुषिणं ओगिण्हह ओगिरिहत्ता ईहं पविस्सह ईहं पविसित्ता अप्पणो साभाविएणं मइपुषएणं बुद्धिविन्नाणेणं तस्स सुविणस्स अत्थोग्गहणं करेइ तस्स० २ सा पभावई देविं ताहिं हाहिं कंताहिं जाव मंगल्लाहिं मियमहुरसस्सि० संलवमाणे २ एवं बयासी-ओराले णं तुमे देवी ! सुविणे दिट्ठे कल्लाणे णं तुमे जाव सस्सिरीए णं तुमे देवी! सुविणे दिट्ठे आरोगतुट्टिदीहा उकल्ला मंगल कारए णं तुमे देवी! सुविणे दिट्ठे अस्थलाभो देवाणुप्पिए! भोगलाभो देवाणुप्पिए । पुत्तलाभो देवाणुप्पिए ! 2 रज्जलाभो देवाणुप्पिए । एवं खलु तुमं देवाणुप्पिए । णवण्हं मासाणं बहुपदपुत्राणं भट्टमाण राईदियाणं | विज्ञताणं अहं कुलकेडं कुलदीवं कुलपदयं कुलवडेंसयं कुलतिलगं कुलकित्तिकरं कुलनंदिकरं कुलजस
||५३६ ॥
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महाबलकुमार कथा
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११ शतके
११ उद्देशः महाबलग
जम्मादि सू ४२८
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [११], मूलं [४२८] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४२८]
गाथा
कर कुलाधारं कुलपायवं कुलविवडणकर सुकुमालपाणिपायं अहीण [पडि] पुनपचिंदियसरीरं जाव ससिसोमाकारं कंतं पियदंसणं सुरूवं देवकुमारसमप्पभं दारगं पयाहिसि । सेवि य णं दारए उम्मुफ्यालभावे विनायपरिणयमिसे जोषणगमणुप्पत्ते सूरे चीरे विकते वित्थिन्नविउलबलबाहणे रज्जवई राया भविस्सह, |तं उराले णं तुमे जाव सुमिणे विढे आरोग्गतुवि जाव मंगल्लकारए णं तुमे देवी! सुविणे दिवेत्तिकड | पभावर्ति देवि ताहि इहाहिं जाव वग्गूहिं दोचंपि तचंपि अणुवूहति । तए णं सा पभावती देवी बलस्स रनों
अंतियं एयमढं सोचा निसम्म हडतुट्ठ. करयल जाव एवं वयासी-एवमेयं देवाणुप्पिया ! तहमेयं देवाणुपिया! अवितहमेयं देवाणुप्पिया ! असंदिद्धमेयं दे. इच्छियमेयं देवाणुप्पिया! पडिच्छियमेयं देवाणु ४ प्पिया! इच्छियपडिच्छियमेयं देवाणुप्पिया! से जहेयं तुज्झे बदहत्सिकह तं सुविणं सम्म पडिच्छद पडि|च्छित्ता पलेर्ण रन्ना अन्भणुखाया समाणी णाणामणिरयणभत्तिचित्ताओ भद्दासणाओ अम्भुढेह अम्भु
सा अतुरियमचवल जाव गतीए जेणेव सए सयणिजे तेणेव उवागच्छद तेणेव उवागच्छित्ता सयणिज्जसि निसीयति निसीइत्ता एवं ययासी-मा मे से उत्समे पहाणे मंगल्ले सुविणे अनेहिं पावसुमिणेहिं पडिहम्मिस्स-| है इत्सिकद्दु देवगुरुजणसंवद्धाहिं पसत्थाहिं मंगल्लाहिं धम्मियाहिं कहाहिं सुविणजागरियं पडिजागरमाणी२
विहरति । तए णं से पले राया कोडंबियपुरिसे सद्दावेद सहावेत्ता एवं बयासी-खिप्पामेव भो देवाणु-12 पिया ! अन सविसेसं बाहिरियं उबट्ठाणसालं गंधोदयसित्तसुझ्यसंमजिओवलितं सुगंधवरपंचवन्नपुष्फो
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [११], मूलं [४२८] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४२८]
गाथा
व्याख्या-|
वयारकलियं कालागुरुपवरकुंदुरुक्कजाव गंधवहिभूयं करेह य करावेह य करेत्ता करावेत्ता सीहासणं रएह |११शनके प्रज्ञप्तिः सीहासणं रयावेत्ता ममेतं जाव पचप्पिणह, तए णं ते कोडुबियजाव पडिसुणेत्ता खिप्पामेव सविसेस ११ उद्देशः अभयदेवी- बाहिरियं उचट्ठाणसालं जाव पचप्पिणंति, तए णं से बले राया पचूसकालसमयंसि सयणिजाओ अब्भुढेह महाबलगया वृत्तिः२ |सयणिज्जाओ अब्भुढेत्ता पायपीढाओ पचोकहह पायपीढाओ पचोरूहिसा जेणेव अहणसाला तेणेच उवाग-भजन्मादि
च्छति अट्टणसालं अणुपषिसह जहा उववाइए तहेव अट्टणसाला तहेव मजणघरे जाव ससिव पियर्दसणे नर-ट्र ॥५३७॥
दबई मजणघराओ पडिनिक्खम पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उबट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छह तेणेव ||
उवागच्छित्ता सीहासणवरंसि पुरच्छाभिमुहे निसीयइ निसीइत्ता अप्पणो उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए अट्ठ कामदासणाई सेयवस्थपञ्चुत्थुयाई सिद्धस्थगकयमंगलोवयाराई रयावेइ रयावेत्ता अप्पणो अदूरसामंते णाणा
मणिरयणमंडियं अहियपेच्छणिजं महग्धवरपणुग्गयं सहपबहभत्तिसयचित्ततार्ण इहामियउसमजाव-* भत्तिचित्तं अभितरियं जवणियं अंगावेद अंछावेत्ता नाणामणिरयणभत्तिचित्तं अच्छरयमउयमसूरगो-||5| कछर्ग सेयवत्थपचुत्धुयं अंगसुहफासुर्य सुमउयं पभावतीए देवीए भहासणं रयावेद रयावेत्ता कोडंबियपु-|| रिसे सद्दावेइ सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! अटुंगमहानिमित्तसुत्तत्थधारए चियि- ५३७॥ हसत्थकुसले सुविणलक्खणपाढए सहावेह, तए गं ते कोडंबियपुरिसा जाव पडिमुणेत्ता बलस्स रन्नो | अंतियाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता सिग्धं तुरियं चबलं चंडं वेइयं हथिणपुर नगरं मज्झमझेणं
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अनुक्रम [५१८-५२०]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [११], मूलं [४२८] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४२८]
गाथा
जेणेव तेसिं सुविणलक्षणपाढगाणं गिहाई तेणेव उवागच्छन्ति तेणेव उवागच्छित्ता ते सुविणलक्खणपाहए सहावेंति । तए णं ते सुविणलक्खणपाढगा बलस्स रन्नो को९वियपुरिसेहिं सदाविया समाणा हट्टतुट्ठ. पहाया कयजाब सरीरासिद्धत्थगहरियालियाकयमंगलमुद्धाणा सरहिं २ गिहे हिंतो निग्गच्छति स०२हत्थिणापुर नगरं मज्झमज्झेणं जेणेव बलस्स रन्नो भवणवरवडेंसए तेणेव उवागच्छन्ति तेणेव उवागच्छित्ता भवणवरवडेंसगपडिदुवारंसि एगओ मिलंति एगओ मिलित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छन्ति तेणेव उचागरिछत्ता करयल बलरायं जएणं विजएणं बद्धाति । तए णं सुविणलफ्णपाढगा बलेणं रना||8 बंदियपूइयसकारियसम्माणिया समाणा पत्तेयं २ पुवन्नत्थेसु भद्दासणेसु निसीयंति, तए णं से बले राया पभावति देवि जवणियंतरियं ठावेइ ठावेत्ता पुष्फफलपडिपुन्नहत्थे परेणं विणएणं ते सुविणलक्खणपाढए एवं बयासी-एवं खल्लु देवाणुप्पिया ! पभावती देवी अज तसि तारिसगंसि वासघरंसि जाव सीहं सुविणे पासित्ता गं पडिबुद्धा तपणं देवाणुप्पिया ! एयरस ओरालस्स जाव के मन्ने कल्लाणे फलवित्तिचिसेसे भवि|स्सइ, तए णं मुविणलक्खणपाढगा बलस्स रनो अंतियं एयमटुं सोचा निसम्म हहतुहलतं सुविणं ओगि-|| पहइ २ ईहं अणुप्पविसइ अणुप्पविसित्ता तस्स सुविणस्स अस्थोग्गहणं करेइ तस्स०२सा अनमनेणं सद्धिं | संचालेंति २ तस्स मुविणस्स लट्ठा गहियट्ठा पुच्छियट्ठा विणिच्छियहा अभिगयट्टा बलस्स रनो पुरओ सुविणसत्थाई उचारेमाणा उ० २ एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्ह सुविणसत्थंसि बायालीसं |
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अनुक्रम [५१८-५२०]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [११], मूलं [४२८] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४२८]
गाथा
व्याख्या- सुविणा तीसं महासुविणा पावत्तरि सबसुविणा दिहा, तस्थ णं देवाणुप्पिया ! तिथगरमायरो वा चक्क
११ शतके प्रज्ञप्तिः वहिमायरो वा तित्थगरंसि वा चकवादिसि वा गम्भं वक्कममाणंसि एएसि तीसाए महासुविणाणं इमे चोदस ||F११ उद्देशः अभयदेवी-४ महासुविणे पासित्ताणं पडिबुज्झति, तंजहा-गयवसहसीहअभिसेयदामससिदिणयरं झयं कुंभ । पउमस- महाबलगया वृत्तिः२ रसागरविमाणभवणरयणुबयसिहिं च १४ ॥१॥ वासुदेवमायरो वा वासुदेवंसि गम्भं वकममाणंसि | जन्मादि ३५३८॥ एएसिं चोइसण्हं महासुविणाणं अन्नयरे सत्त महासुविणे पासित्ताणं पडिबुज्झति, बलदेवमायरो वा बल
सू४२८ | देवंसि गम्भं वक्कममाणंसि एएसिं चोदसण्हं महासुविणाणं अन्नयरे चत्तारि महासुविणे पासित्ता ण पडि-||* | बुझंति, मंडलियमायरो वा मंडलियंसि गन्भं वक्कममाणंसि एतेसि णं चउदसण्ह महासुविणाणं अन्नयरं एग महासुविण पासित्ता गं पडिबुज्झन्ति, इमे य जे देवाणप्पिया। पभावतीए देवीए एगे महासविणे दिवे..|| तं ओराले गं देवाणुप्पिया ! पभावतीए देवीए सुविणे दिढे जाव आरोग्गतुट्ठ जाव मंगलकारए णं देवाणुप्पिया ! पभावतीए देवीए सुविणे दिवे, अत्यलाभो देवाणुप्पिए! भोगपुत्त रजलाभो देवाणुप्पिए एवं खलु देवाणुप्पिए ! पभावती देवी मवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं जाव वीतिकताणं तुम्ह कुलक
जाव पयाहिति, सेऽक्यि णं वारए उम्मुक्कवालभावेजाव रज्जबई राया भविस्सह अणगारे वाभावियप्पा,तं । &ओराले णं देवाणुप्पियापिमावतीए देवीए सुविणे विढे जाव आरोग्गतुदीहाउपकल्लाणजाव दिह । तए णं ॥५३८॥
से बले राया सुषिणलयसापाव्याणं अंतिए एपमह सोचा निसम्म घडतुह करयल जाव काते सुविण
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [११], मूलं [४२८] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४२८]
गाथा
लक्खणपाडगे एवं वयासी-एबमेयं देवाणुप्पिया ! जाव से जहेयं तुम्भे वदहत्तिकद्दु तं सुविणं सम्म पतिछह तत्तासुविणलक्खणपाढए विउलेणं असणपाणखाइमसाइमपुष्फवस्थगंधमल्लालंकारेणं सकारेति संमा
णेति सक्कारेशा संमाणेत्ता विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलयति २ विपुलं २ पडिवसजेति पडिविसज्जेत्ता दासीहासणाओ अब्भुढेइ सी० अन्भुटेता जेणेच पभावती देवी तेणेव उवागच्छद तेणेव उवागच्छिता पभा-||
वती देवीं ताहि इहाहि कंताहिं जाव संलवमाणे संलवमाणे एवं बयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! सुविणसत्थं|सिवायालीसं सुविणा तीसं महासुविणा यावत्तरि सबसुविणा दिहा, तस्थणं देवाणुप्पिए तित्थगरमायरोवा|| चावद्रियायरोवातंचेव जाप अन्नयर एग महासविणं पासित्ताणं पडिबुजांति, इमेयणं तुमे देवाणुप्पिए एगे|| महासुविणे दिडे तं ओराले तुमे देवी सुविणे दिवे जाव रजवई राया भविस्सह अणगारे वा भाचियप्पा, तं ओरालेणं तुमे देवी ! सुविणे दिढे जाव दिडेत्तिकड्ड पभावर्ति देविं ताहिं इटाहिं कंताहिं जाव दोचंपि तचंपि| अणुबूहर, तए णं सा पभावती देवी बलस्स रन्नो अंतियं एयमटुं सोचा निसम्म हड्तुट्ठकरपलजाव एवं बयासी
एयमेयं देवाणुपिया ! जाव तं सुविणं सम्म पडिकछति तं सुविणं सम्म पडिच्छित्ता बलेणं रन्ना अब्भPणुमाया समाणी नाणामणिरयणभत्तिचित्त जाव अम्भुट्ठति अतुरियमचलजावगतीए जेणेव सए भवणे तेणेव || उवागच्छद तेणेव उवगच्छित्सा सयं भवणमणुपविट्ठा । तए णं सा पभावती देवी पहाया कयवलिकम्मा जाव सवालंकारविभूसिया तं गम्भं गाइसीएहिं नाइउण्हेहिं नाइतित्तेहिं नाइकजुपहिं नाइकसाएहिं नाइअंथि
55%ACCASSACROCACACAX
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[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [११], मूलं [४२८] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४२८]
प्रज्ञप्तिः
गाथा
व्याख्या
लेहिं नाइमहुरेहिं उउभयमाणसुहेहिं भोयणच्छायणगंधमल्लेहिं जं तस्स गन्भस्स हियं मितं पत्थं गन्भ-||११ शतके
पोसणं तं देसे प काले य आहारमाहारेमाणी विवित्तमउएहिं सयणासणेहिं पइरिफमुहाए मणाणुकूलाए ||31 |११ उद्देश: अभयदेवी- विहारभूमीए पसत्थदोहला संपुन्नदोहला सम्माणियदोहला अवमाणियदोहला वोच्छिन्नदोहला ववणीय महाबलगया वृत्तिः२ दोहला ववगयरोगमोहभयपरित्तासा तं गम्भं सुहंसुहेणं परिवहति । तए णं सा पभावती देवी नवण्हं
भेजन्मादि
सू४२८ ॥५३॥
है मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अट्ठमाण राइंदियाणं वीतिफताणं सुकुमालपाणिपायं अहीणपडिपुन्नपंचिंदियसरीरं
लक्षणवंजणगुणोक्वेयं जाप ससिसोमाकारं कंतं पियदसणं सुरूवं दारयं पयाया । तए णं तीसे पभावतीए देवीए अंगपडियारियाओ पभावर्ति देविं पसूयं जाणेत्ता जेणेव बले राया तेणेव उवागच्छन्ति तेणेव &उवागच्छित्ता करयल जाव बलं रायं जयेणं विजएणं बद्धाति जएण विजएणं बद्धावेत्ता एवं वयासी-एवं
खलु देवाणुप्पिया ! पभावती पियट्टयाए पियं निवेदेमो पियं भे भवउ । तए णं से बले राया अंगपडियारियाणं अंतियं एयमहूँ सोचा निसम्म हट्ठतुट्ठ जाव धारायणीव जावरोमकूवे तासिं अंगपडियारियाणं | & मउडवजं जहामालियं ओमोयं दलयति २ सेतं रथयामयं विमलसलिलपुन भिंगारं च गिण्हा गिण्हित्ता कामस्थए धोबह मत्थए धोवित्ता विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलयति पीइदाणं दलपिता सकारेति सम्मा-1 ४णेति (सूत्रं ४२८)॥
अथ पल्योपमसागरोपमयोरतिप्रचुरकालत्वेन क्षयमसम्भावयन् प्रश्नयन्नाह–'अस्थि णमित्यादि, 'खयेत्ति
दीप
॥५३९॥
अनुक्रम [५१८-५२०]
महाबलकुमार-कथा
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [११], मूलं [४२८] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४२८]
गाथा
सर्वविनाशः 'अवचए'त्ति देशतोऽपगम इति ॥ अथ पल्योपमादिक्षयं तस्यैव सुदर्शनस्य चरितेन दर्शयन्निद-14 माह-एवं खलु सुदंसणे'त्यादि, 'तंसि तारिसगंसि'त्ति तस्मिंस्तादृशके-वक्तुमशक्पस्वरूपे पुण्यवतां योग्य ॥ इत्यर्थः 'दृमियघट्ठमति दूमित-धवलितं घृष्टं कोमलपाषाणादिना अत एवं मृष्टं-मसणं यत्तत्तथा तस्मिन् 'विचित्तउल्लोयचिल्लियतले'त्ति विचित्रो-विविधचित्रयुक्तः उल्लोकः-उपरिभागो यत्र 'चिल्लिय'ति दीप्यमानं तलं च-अधोभागो यत्र तत्तथा तत्र 'पंचवन्नसरससुरभिमुक्कपुष्कपुंजोवयारकलिए'त्ति पञ्चवर्णेन सरसेन सुरभिणा च मुक्तेन-क्षिप्तेन पुष्पपुञ्जलक्षणेनोपचारेण-पूजया कलितं यत्तत्तथा तत्र 'कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुकधूवमधमतगंधुद्धयाभिरामे'त्ति कालागुरुप्रभृतीनां धूपानां यो मघमघायमानो गन्ध उद्भूतः-उद्भूतस्तेनाभिराम-रम्यं यत्तत्तथा तत्र, कुन्दुरुका-चीडा तुरुक-सिल्हकं,'सुगंधिवरगंधिए'त्ति सुगन्धयः-सद्गन्धाः बरगन्धाः-वरवासाः सन्ति यत्र तत्तथा तत्र, 'गंधवडिभूए'त्ति सौरभ्यातिशयाद्गन्धद्रव्यगुटिकाकल्पे 'सालिंगणवट्टिए'त्ति सहालिङ्गनवा-शरीरप्रमाणो|पधानेन यत्तत्तथा तत्र 'उभओ विडोयणे उभयतः-शिरोऽन्तपादान्तावाश्रित्य विचोयणे-उपधानके यत्र तत्तथा तत्र
'दुहओ उन्नए' उभयत उन्नते 'मज्झेणधगंभीरे' मध्ये नतं च-निम्नं गम्भीरं च महत्त्वाद् यत्तत्तथा तत्र, अथवा मध्येन पाच-मध्यभागेन च गम्भीरे यत्तत्तथा, (पण्णत्त)'गंडविबोयणे'त्ति क्वचिद् रश्यते तत्र च सुपरिकर्मितगण्डोपधाने इत्यर्थः | 'गंगापुलिणवालुउद्दालसालिसए' गङ्गापुलिनवालुकाया योऽवदाल:-अबदलनपादादिन्यासेऽधोगमनमित्यर्थः तेन सह| शकमतिमृदुत्वाद्यत्तत्तथा तत्र, रश्यते च हंसतूल्यादीनामयं न्याय इति, 'जवचिपखोमियदुगुल्लपट्टपडिच्छायणे"उव
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [११], मूलं [४२८] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४२८]
गाथा
व्याख्या- चिय'ति परिकर्मितं यत् क्षौमिक दुकूल-कासिकमतसीमयं वा वखं युगलापेक्षया यः पट्टः-शाटकः स प्रतिच्छादनं-| प्रज्ञप्ति
११ उद्देशः अभयदेवीआच्छादनं यस्य तत्तथा तत्र 'सुविरइयरयत्ताणे' सुष्टु विरचितं-रचित रजस्त्राणं-आच्छादनविशेषोऽपरिभोगावस्थायां |
महाबलगHOTE यस्मिंस्तत्तथा तत्र 'रत्तंसुयसंवुए' रक्तांशुकसंवृते-मशकगृहाभिधानवस्त्र विशेषावृते 'आइणगरूयबूरनवणीयतूल-|
मजन्मादि फासे' आजिनक-चर्ममयो वस्त्रविशेषः स च स्वभावादतिकोमलो भवति रूतं च-कर्पासपक्ष्म वूरं च-वनस्पतिविशेषः
सू४२८ ॥५४०॥ नवनीतं च-घक्षणं तूलश्च-अर्कतूल इति द्वन्द्वस्तत एषामिव स्पशों यस्य तत्तथा तत्र 'सुगंधवरकुसुमचुन्नसयणो
है. वयारकलिए'त्ति सुगन्धीनि यानि वरकुसुमानि चूर्णा एतव्यतिरिक्ततधाविधशयनोपचाराश्च तैः कलितं यत्तत्तथा तत्र |'अद्धरसकालसमयंसि'त्ति समयः समाचारोऽपि भवतीति कालेन विशेपितः काउरूपः समयः कालसमयः स चानर्द्धरात्रिरूपोऽपि भवतीत्यतोऽर्द्धर त्रिशब्देन विशेषितस्ततश्चाद्धरात्ररूपः कालसमयोऽर्द्धरात्रकालसमयस्तत्र 'सुत्तजागर'त्ति नातिमुप्ता नातिजागरेति भावः किमुक्तं भवति ?-'ओहीरमाणी'ति प्रचलायमाना, ओरालादिविशेषणानि पूर्ववत्, 'सुविणे ति स्वमक्रियायां हाररययखीरसागरससंककिरणदगरयरययमहासेलपंडरतरोरुरमणिजपेच्छणिज' हारादय इव पाण्डुरतरः-अतिशक्त: उहा-विस्तीर्णो रमणीयो-रम्योऽत एव प्रेक्षणीयश्व-दर्शनीयो यः स तथा तम्, ५४०॥ [इहाच रजतमहाशैलो बैताम्य इति, 'थिरलट्ठपउट्ठबद्दपीवरससिलिट्ठविसिट्ठतिक्खदादाविडंबियमुहंस्थिरी-अप्रकम्पीदा लष्टी-मनोज्ञी प्रकोष्ठी-कर्पूरातनभागी यस्य स तथा तं वृता-वर्तुलाः पीवरा:-स्थूलाः सुश्लिष्टा-अविशवेराः विशि-14 श-घराः तीक्ष्णा-भेदिका या दंष्ट्रास्ताभिः कृत्वा विडम्बितं मुखं यस्य स तथा ततः कर्मधारयोऽतस्तं 'परिकम्मियज-18||
दीप
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SARERatininemarana
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [११], मूलं [४२८] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४२८]
चकमलकोमलमाइपसोहंतलहट्ट' परिकर्मित-कृतपरिकर्म यजात्यकमलं तद्वत्कोमलौ मात्रिकी-प्रमाणोपपत्नी शोभमा-| नानां मध्ये लष्टौ-मनोज्ञौ ओष्ठी-दशनच्छदौ यस्य स तथा तं 'रनुप्पलपत्तमउयसुकुमालतालुजीहं' रक्तोत्पलपत्रवत्र मृदूनां मध्ये सुकुमाले तालुजिहे यस्य स तथा तं, वाचनान्तरे तु रत्तुष्पलपत्तमउपसुकुमालतालुनिल्ला लियग्गजीहं, महुगुलियाभिसंतपिंगलकति तत्र च रक्तोत्पलपत्रवत् सुकुमालं तालु निलोलिताया च जिह्वा यस्य स तथा त मधुगुटिकादिवत् 'भिसंत'त्ति दीप्यमाने पिङ्गले अक्षिणी यस्य स तथा तं 'मूसागयपवरकणगतावियआवत्ताय-3 तवट्टतटिविमलसरिसनयणं मूषा-स्वर्णादितापनभाजनं तद्गतं यत्प्रवरकनकं तापित-कृताग्नितापम् 'आवत्तायंत'ति आवर्त कुर्वाणं तद्वद्ये वर्णतः वृत्ते च तडिदिव बिमले च सदृशे च परस्परेण नयने-लोचने यस्य स तथा तं 'विसाल-|| पीवरोरुपडिपुग्नविपुलखंध' विशाले-विस्तीर्णे पीवरे-उपचिते ऊरू-जझे यस्य परिपूणों विपुलश्च स्कन्धो यस्य स तथा
तं 'मिउविसयमुहमलक्खणपसस्थविच्छिन्नकेसरसडोषसोहियं मृदधः 'विसद'त्ति स्पष्टाः सूक्ष्मा: 'लक्षणपिसत्य'त्ति प्रशस्तलक्षणाः विस्तीर्णाः पाठान्तरेण विकीर्णा याः केशरसटाः-स्कन्धकेशच्छटास्ताभिरुपशोभितो यः स
तथा तम् 'ऊसियसुनिम्मियसुजायअप्फोडियलंगूलं' उच्छ्रितं-ऊटींकृतं सुनिर्मित-सुप्तु अधोमुखीकृतं सुजातं-शोभनतया जातं आस्फोटितं च-भूमावास्फालित लाङ्गलं येन स तथा तम् ॥ 'अतुरियमचवलं'ति देहमनश्चापस्यरहितं यथा भवत्येवम् 'असंभंताए'त्ति अनुत्सुकया 'रायहंससरिसीए'त्ति राजहंसगतिसदृश्येत्यर्थः 'आसत्य'त्ति आश्वस्तार गतिजनितश्रमाभावात् 'वीसत्य'त्ति विश्वस्ता सङ्खोभाभावात् अनुत्सुका वा 'सुहासणवरगयत्ति सुखेन सुखं वा शुभं 3
ARCH SAXY
गाथा
दीप
अनुक्रम [५१८-५२०]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [११], मूलं [४२८] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४२८]
महाबलग.
॥५४१॥
गाथा
व्याख्या-दास
वा आसनवरं गता या सा तथा 'धाराहयनीवसुरहि कुसुमचंचुमालइयतणु'त्ति धाराहतनीपसुरभिकुसुममिव |४|११ शतके प्रतिमा 'चंचुमालइय'त्ति पुलकिता तनु:-शरीरं यस्य स तथा, किमुक्तं भवति ?-ऊसषियरोमकवे'त्ति उच्छितानि रोमाणि[११७६यम अभयदेवी- कूपेषु-तबन्धेषु.यस्य स तथा, 'मइपुषेणं'ति आभिनिवोधिकप्रभवेन 'बुद्धिविनाणेणे ति मतिविशेषभूतीत्पत्तिक्या
भिजन्मादिया वृत्तिः दिबुद्धिरूपपरिच्छेदेन 'अत्थोग्गहणं'ति फलनिश्चयम् 'आरोग्गतुहिदीहाउकल्लाणमंगल्लकारए णति इह कल्या
सू४२८ णानि-अर्थप्राप्तयो मङ्गालानि-अनर्थप्रतिघाताः 'अत्यलाभो देवाणुप्पिए । भविष्यतीति शेषः 'कुलकेउंति केतुश्चिहं] ध्वज इत्यनर्थान्तरं केतुरिव केतुरद्भुतत्वात् कुलस्य केतुः कुलकेतुस्त, एवमन्यत्रापि, 'कुलदीवंति दीप इव दीपः प्रकाशकत्वात् 'कुलपपयंति पर्वतोऽनभिभवनीयस्थिराश्रयतासाधर्म्यात् 'कलवडेंसयं ति कुलावतंसकं कुलस्यावतंसक:-शेखर | उत्तमत्वात् 'कुलतिलय'ति तिलको-विशेषको भूषकत्वात् 'कुलकित्तिकरति इह कीतिरेकदिग्गामिनी प्रसिद्धिः 'कुलनंदिकर ति तत्समृद्धिहेतुत्वात् 'कुलजसकर ति इह यश:-सर्वदिग्गामी प्रसिद्धिविशेष. 'कुलपाय'ति पादपश्चा-1 श्रयणीयच्छायत्वात् 'कुलविवहणकर ति विविधैः प्रकारवर्द्धनं विवर्धनं तत्करणशीलं 'अहीणपुन्नपंचिदियसरी ति| अहीनानि-स्वरूपतः पूर्णानि-सङ्ख्यया पुण्यानि वा-पूतानि पवेन्द्रियाणि यत्र तत्तथा तदेवंविधं शरीरं यस्य स तथाटू तं, यावत्करणात् 'लक्खणवंजणगुणोववेय'मित्यादि दृश्य, तत्र लक्षणानि-खस्तिकादीनि व्यञ्जनानि-मपतिलकादीनि
॥५४॥ तेषां यो गुणः-प्रशस्तता तेनोपपेतो-युक्तो यः स तथा तं 'ससिसोमाकारं कंतं पियदंसणं सुरूवं शशिवत् सौम्या-13 कार कान्तं च-कमनीयं अत एव प्रियं द्रष्टणां दर्शन-रूपं यस्य स तथा तं 'विनायपरिणयमित्ते'त्ति विज्ञ एव विज्ञक
दीप
845ROSAROKA
अनुक्रम [५१८-५२०]
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [११], मूलं [४२८] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४२८]
XX
गाथा
स चासौ परिणतमात्रश्च कलादिष्विति गम्यते विज्ञकपरिणतमात्रः 'सूरे'त्ति दानतोऽभ्युपेतनिर्वाहणतो वा 'वीरे'ति XII सङ्घामतः 'विकते'त्ति विकारता-परकीयभूमण्डलाक्रमणतः'विच्छिन्नविपुलबलवाहणे'त्ति विस्तीर्णविपले-अतिविस्तीर्णे |
बलवाहने-सैन्यगजादिके यस्य स तथा रजवई'त्ति स्वतन्त्र इत्यर्थः 'मा मे से'त्ति मा ममासी स्वप्न इत्यर्थः 'उत्तमे त्ति | स्वरूपतः 'पहाणे'त्ति अर्थप्राप्तिरूपप्रधानफलतः 'मंगल्लेत्ति अनर्थप्रतिघातरूपफलापेक्षयेति 'सुमिणजागरियं ति स्वमसंर-d क्षणाय जागरिका-निद्रानिषेधः स्वप्नजागरिका तां पडिजागरमाणीति प्रतिजामती-कुर्वन्ती, आभीक्ष्ण्ये च द्विवचनम् ।। 'गंधोदयसित्तसुइयसम्मजिओचलितंति गन्धोदकेन सिक्ता शुचिका-पवित्रा समार्जिता कचरापनयनेन उप| लिप्ता छगणादिना या सा तथा तां, इदं च विशेषणं गन्धोदकसिक्तसंमार्जितोपलिप्तशुचिकामित्येवं दृश्य, सिक्तायनन्तरभावित्वाच्छुचिकत्वस्येति, 'अट्टणसालत्ति व्यायामशाला 'जहा उववाइए तहेब अट्टणसाला तहेव मजणघरे'त्ति यथातिपपातिकेऽट्टणशालाव्यतिकरो मजनगृहव्यतिकरश्चाधीतस्तथेहाप्यध्येतव्य इत्यर्थः, स चायम्-'अणेगवायामजोग्गवग्गणवामद्दणमल्लयुद्धकरणेहिं संते'इत्यादि, तत्र चानेकानि व्यायामार्थं यानि योग्यादीनि तानि |
तथा तैः, तत्र योग्या-गुणनिका वलूगर्न-उललनं व्यामईनं-परस्परेणाङ्गमोटन मिति, मज्जनगृहव्यतिकरस्तु 'जेणेव मज्ज४ णघरे तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता मजणघरं अणुपविसइ समंतजालाभिरामें समन्ततो जालकाभिरमणीये
'विचित्तमणिरयणकुट्टिमतले रमणिजे ण्हाणमंडसि णाणामणिरयणभत्तिचित्तसि पहाणपीढंसि सुहनिसण्णे' इत्यादिरिति । 'महग्धवरपट्टणुग्गयंति महार्ण च सा वरपत्तनोद्गता च-वरवस्त्रोत्पत्तिस्थानसम्भवेति समासोऽतस्तांवरपट्टनाद्वा-प्रधान
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [११], मूलं [४२८] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४२८]
गाथा
व्याख्या-1 प्रज्ञप्तिःवेष्टनकाद् उद्गता-निर्गता या सा तथा तां 'सण्हपट्टभत्तिसयचित्तताणति 'सण्हपट्टत्ति सूक्ष्मपट्टः सूत्रमयो भक्तिशत
११ शतके अभयदेवी-/चित्रस्तानः-तानको यस्यां सा तथा ताम् 'ईहामिए'त्यादि यावत्करणादेवं दृश्यम्-'ईहामियउसभणरतुरगमकरविहगवाल- १९ या वृत्तिः२ गकिन्नररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्त'ति तत्रेहामृगा-वृका ऋषभाः-वृषभाः नरतुरगमकरविहगाः प्रतीताः
महाबलगव्यालाः-स्वापदभुजगाः किराः-व्यन्तरविशेषाः रुरवो-मृगविशेषाः शरभा-आटव्या महाकायाः पशवः परासरेति पर्या- भजन्मादि ॥५४२॥
याः चमरा-आदच्या गावः कुञ्जराजाः वनलता-अशोकादिलताः पद्मलता:-पमिन्यः एतासां यका भक्तयो-विच्छि- सू ४२८ | त्यस्ताभिश्चित्रा या सा तथा तां 'अभितरिय'ति अभ्यन्तरां 'जवणियंति यवनिकाम् 'अंगावेईत्ति भाकर्षयति | 'अस्थरपमउयमसूरगोत्थर्य'ति आस्तरकेण-प्रतीतेन मृदुमसूरकेण वा अथवाऽस्तरजसा-निर्मलेन मृदुमसूरकेणावस्तृत-आच्छादितं यत्तत्तथा 'अंगसुहफासयं' अङ्गसुखो-देहस्य शर्महेतुः स्पर्शो यस्य तदङ्गसुखस्पर्शकम् ॥ 'अटुंगमहानिमित्तसुत्तत्थधारए'त्ति अष्टाङ्गं-अष्टावयवं यन्महानिमित्त-परोक्षार्थप्रतिपत्तिकारणव्युत्पादकं महाशास्त्रं तस्य यो| सूत्रार्थी ती धारयन्ति येते तथा तान्, निमित्ताङ्गानि चाष्टाविमानि-"अट्ठ निमित्तंगाई दिषु १प्पातं २ तरिक्स ३ भोम | च ४ । अंगं ५ सर ६ लक्खणबंजणंच ८तिविहं पुणेकेकं ॥१॥"[अष्ट निमित्तानानि दिव्यमुत्पातमन्तरिक्षं भौम चाझं स्वरं लक्षणं व्यञ्जनं च पुनरेकै त्रिविधम् ॥१॥] 'सिग्घ'मित्यादीन्येकार्थानि पदानि औत्सुक्योत्कर्षपति
॥५४२॥ 5/1पादनपराणि । 'सिहत्थगहरियालियाकयमंगलमुद्धाण'त्ति सिद्धार्थका:-सर्पपाः हरितालिका-दूर्वा तल्लक्षणानि कृतानि | || मङ्गलानि मूर्ध्नि यैस्ते तथा 'संचालंति'त्ति सञ्चारयन्ति 'लढ'त्ति स्वतः 'गहियवति परस्मात् 'पुच्छियचि संशये ||
दीप
-CRETRESS
अनुक्रम [५१८-५२०]
महाबलकुमार-कथा
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[४२८]
गाथा
दीप
अनुक्रम
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[भाग-९] “भगवती" - अंगसूत्र- ५ [ मूलं + वृत्तिः]
शतक [११], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [११], मूलं [ ४२८ ] + गाथा
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
महाबलकुमार- कथा
सति परस्परतः 'विणिच्छिय'त्ति प्रश्नानन्तरं अत एवाभिगतार्था इति॥' सुविण' त्ति सामान्य फलत्वात् 'महासुविण'ति महाफलत्वात् 'बावन्तरिं'ति त्रिंशतो द्विचत्वारिंशतश्च मीलनादिति 'गब्भं वक्कममाणंसि' त्ति गर्भ व्युत्क्रामति-प्रविशति सतीत्यर्थः, 'गयवसहे'त्यादि, इह च 'अभिसेय'त्ति लक्ष्म्या अभिषेकः 'दाम'त्ति पुष्पमाला, 'विमाणभवणत्ति एकमेव, तंत्र विमानाकारं भवनं विमानभवनं, अथवा देवलोकाद्योऽवतरति तन्माता विमानं पश्यति वस्तु नरकात् तन्माता भवनमिति, इह च गाथायां केषुचित्पदेष्वनुस्वारस्याश्रवणं गाथाऽनुलोम्याद् दृश्यमिति ॥ 'जीवियारिहं' ति जीविकोचितम् । 'उडभुयमाणमुहेहिंति ऋतौ २ भज्यमानानि यानि सुखानि-सुखहेतवः शुभानि वा तानि तथा तैः 'हियं'ति तमेव गर्भमपेक्ष्य 'मियं'ति परिमितं - नाधिकमूनं वा 'पत्थं'ति सामान्येन पथ्यं किमुक्तं भवति १ - 'गन्भपोसणं'ति गर्भपोषकमिति 'देसे य'ति उचितभूप्रदेशे 'काले य'त्ति तथाविधावसरे 'विवित्तमउएहिं ति विविक्तानि - दोषवियुक्तानि | लोकान्तरासङ्कीर्णानि वा मृदुकानि च-कोमलानि यानि तानि तथा तैः 'परिकसुहाए'ति प्रतिरिक्तत्वेन तथाविधजनापेक्षया विजनखेन सुखा शुभा वा या सा तथा तथा 'पसत्थदोहल' त्ति अनिन्द्यमनोरथा 'संपुन दोहला' अभिउषितार्थपूरणात् 'संमाणियदोहला' प्राप्तस्याभिलषितार्थस्य भोगात् 'अविमाणियदोहल'त्ति क्षणमपि देशेनापि व नापूर्णमनोरथेत्यर्थः अत एव 'वोच्छिन्न दोहल'त्ति त्रुटितवान्छेत्यर्थः, दोहदव्यवच्छेदस्यैव प्रकर्षाभिधानायाह-'विणी| यदोहल'त्ति 'बबगए' इत्यादि, इह च मोहो-मूढता भयं भीतिमात्रं परित्रासः - अकस्माद्भयम् इह स्थाने वाचनान्तरे 'सुहंसुहेणं आसयद सुयइ चिट्ठर निसीयह तुग्रहइ'त्ति दृश्यते तत्र च 'सुहंमुहेणं'ति गर्भानाबाधया 'आसयह' ति
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[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [११], मूलं [४२८] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४२८]
गाथा
व्याख्या- भाजप
आश्रयत्याश्रयणीयं वस्तु 'सुयइत्ति शेते 'चिट्ठइत्ति ऊपीस्थानेन तिष्ठति 'निसीयइ'त्ति उपविशति तय'त्ति ||११ शतके प्रज्ञप्तिः शय्यायां वर्तत इति ॥ 'पियट्टयाए'त्ति प्रियार्थतायै-प्रीत्यर्थमित्यर्थः 'पियं निवेएमोत्ति 'प्रियम्' इष्टवस्तु पुत्रजन्म-
११ उद्देशः .
महाबलअभयदेवी- लक्षणं निवेदयामः 'पियं भे भव:'त्ति एतच्च प्रियनिवेदनं प्रियं भवतां भवतु तदन्यद्वा प्रियं भवस्विति । 'मउडवज'
नामकरणं या वृत्तिः२|ति मुकुटस्य राजचिहत्वात् स्त्रीणां चानुचितत्वात्तस्येति तर्जनं 'जहामालिय'ति यथामालितं यथा धारितं यथा || SILY ॥५४॥
परिहितमित्यर्थः 'ओमोयंति अवमुच्यते-परिधीयते यः सोऽवमोकः-आभरणं तं 'मत्थए धोवईत्ति अङ्गप्रतिचारिडाकाणां मस्तकानि क्षालयति दासत्यापनयना), स्वामिना धौतमस्तकस्य हि दासत्वमपगच्छतीति लोकव्यवहारः ॥
तएणं से बले राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ सदावेत्ता एवं बयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! हत्थि-12 |णापुरे नयरे चारगसोहणं करेह चारग०२ माणुम्माणवडणं करेह मा०२हत्थिणापुरं नगरं सभितरवाहि-|| रियं आसियसंमजिओचलितं जाव करेह कारवेह करेत्ता य कारवेत्ता य जूयसहस्सं वा चक्कसहस्सं वा पूयामहामहिमसकारं वा उस्सवेह २ ममेतमाणत्तियं पचप्पिणह, तए णं ते कोटुंबियपुरिसा बलेणं रन्ना एवं बुत्ता जाव पचप्पिणंति । तए णं से बले राया जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्छति तेणेव उवाग-18 |पिछत्ता तं चेव जाव मजणघराओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता उस्सुकं उफर उकिडं अदिजं अमिळ | ॥५४॥ | अभडप्पवेसं अदंडकोडंडिमं अधरिमं गणियावरनाडइज्जकलियं अणेगतालाचराणुचरियं अणुदुधमुइंगं| अमिलायमल्लदाम पमुइयपफीलियं सपुरजणजाणवयं दसदिवसे ठिइवडियं करेति । तए णं से चले राया
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अनुक्रम [५१८-५२०]
SAREauratonintenational
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अनुक्रम [५२१]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति: ]
शतक [११], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [११], मूलं [४२९]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
| दसाहियाए ठिइवडिवाए बट्टमाणीए सहए य साहस्सिए य सयसाहस्सिए य जाए य दाए य भाए य दलमाणे य दवावेमाणे व सए य साहस्सिए य सयसाहस्सिए य लंभे पढिच्छेमाणे पडिच्छावेमाणे एवं | विहरइ । तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पढमे दिवसे ठिइडियं करेइ तह दिवसे चंदसूरदंसणियं | करेइ छट्ठे दिवसे जागरियं करेइ एक्कारसमे दिवसे वीतिकंते निवत्ते असुजायकम्मकरणे संपत्ते बारसाह - | दिवसे विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उबक्खडाविंति उ० २ जहा सिवो जाव खत्तिए य आमंतेति आ० २ तओ पच्छा पहाया कय० तं चैव जाव सकारेति सम्मार्णेति २ तस्सेव मित्तणातिजाव राईण य खत्तियाण य पुरओ अजयपज्जयपिउपज्जयागयं बहुपुरिसपरंपरप्परूढं कुलाणुरूवं कुलसरिसं कुलसंताणतंतुवण| करं अयमेयारूवं गोनं गुणनिष्पन्नं नामधेजं करेंति-जम्हा णं अम्हं इमे दारण बलस्स रत्नो पुत्ते प्रभावतीए | देवीए अत्तए तं होउ णं अहं एक्स्स दारगस्स नामधेज्जं महबले, तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो नाम| घेज्जं करेंति महबलेत्ति । तए णं से महबले दारए पंचधाईपरिग्गहिए, तंजहा - खीरधाईए एवं जहा दढपड़ने | जाब निवायनिवाघायंसि सुहंसुहेणं परिवहति । तए णं तस्स महबलस्स दारगस्स अम्मापियरो अणुपुषेणं ठितिवडियं वा चंदसरसावणियं वा जागरियं वा नामकरणं वा परंगामणं वा पचकमणं वा जेमामण वा पिंडवद्धणं वा पजपावणं वा कष्णवेहणं वा संवच्छरपडिलेहणं वा चोलोयणगं च उवणयणं च अन्नाणि य बहूणि गन्भाधाणजम्मणमादियाई कोउयाई करेंति । तए णं तं महबलं कुमारं अम्मापियरो
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक -], उद्देशक [११], मूलं [४२९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४२९]
दीप अनुक्रम [५२१]
व्याख्या
टि सातिरेगट्ठवासगं जाणित्ता सोभणसि तिहिकरणमुहुर्तसि एवं जहा दढप्पइन्नो जाव अलं भोगसमत्थे जाए ११ शतके प्रज्ञप्तिः अभयदेवी यावि होस्था । तए ण ते महवलं कुमारं उम्मुक्कवालभावं जाव अलं भोगसमत्थं विजाणित्ता अम्मापिपरो|४|११ उद्देश:
| महाबलयावृत्तिः|| अट्ठ पासायव.सए करेंति २ अग्भुग्गयमूसियपहसिए इव वन्नओ जहा रायप्पसेणइज्जे जाव पडिरूवे तेसि ||
नामकरणं है पासायवडेंसगाणं बहुमज्झदेसभागे एस्थ णं महेगं भवणं करेंति अणेगखंभसयसंनिविटुं वन्नओ जहा राय
दसू ४२९ ॥५४४॥ प्पसेणइजे पेच्छाघरमंडवंसि जाव पडिरूवे (सूत्रं ४२९)॥
| 'चारगसोहणं'तिबन्दिविमोचनमित्यर्थः 'माणुम्माणवणं करेहत्ति इह मान-रसधान्यविषयम् उन्मान-तुलारूपम् ट'उस्सुकंति 'उच्छुल्का मुक्तशुल्का स्थितिपतितां कारयतीति सम्बन्धः,शुल्क तु विक्रेयभाण्डं प्रति राजदेयं द्रव्यम्, 'उकरं'-||
ति उन्मुक्तकरां, करस्तु गवादीन् प्रति प्रतिवर्ष राजदेयं द्रव्य, 'उकि'ति उत्कृष्टा-प्रधानां कर्षणनिषेधाद्वा 'अदिज'ति द्रविक्रयनिषेधेनाविद्यमानदातव्या 'अमिजति विक्रयप्रतिषेधादेवाविद्यमानमातव्यां अविद्यमानमायाँ वा अभहप्प-||
वेसे'ति अविद्यमानो भटाना-राजाज्ञादायिनां पुरुषाणां प्रवेशः कुदम्बिगेहेषु यस्यां सा तथा तां 'अदंडकादडिमति का दण्डलभ्य द्रव्य दण्ड एव कुदण्डेन निर्वृत्तं द्रव्यं कुदण्डिमं तन्नास्ति यस्यां साऽदण्डकुदण्डिमा तां, तत्र दण्डा-अपरा-| धानुसारेण राजग्राह्यं द्रव्यं कुदण्डस्तु-कारणिकानां प्रज्ञापराधान्महत्यध्यपराधिनोऽपरापे अल्पं राजग्राह्यं द्रव्यमिति,
॥५४४॥ MI'अधरिमति अविद्यमानधारणीयद्रव्याम् ऋणमुकलनात् 'गणियावरनाडाजकलियं गणिकावरैः वेश्याप्रधाननी
टकीय-नाटकसम्बन्धिभिः पात्रैः कलिता या सा तथा ताम् 'अणेगतालाचराणुचरिय' नानाविधप्रेक्षाचारिसेविता
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महाबलकुमार-कथा
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक -], उद्देशक [११], मूलं [४२९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
+%
25%-4
प्रत सूत्रांक [४२९]
दीप अनुक्रम [५२१]
CACA5% 4%CE
मित्यर्थः 'अणुदुइयमुइंग'त्ति अनुदता-वादनार्थ वादकैरविमुक्ता मृदङ्गा यस्यां सा तथा ताम् 'अमिलायमल्लदाम' अम्लानपुष्पमाला 'पमुइयपफीलिय'ति प्रमुदितजनयोगात्प्रमुदिता प्रक्रीडितजनयोगात्मक्रीडिता ततः कर्मधारयोऽतस्तां 'सपुरजणजाणवयं सह पुरजनेन जानपदेन च-जनपदसम्बन्धिजनेन या वर्तते सा तथा ता, वाचनान्तरे 'विजयवेद्र जइय'ति दृश्यते तत्र चातिशयेन विजयो विजयविजयः स प्रयोजनं यस्याः सा विजयवैजयिकी तो 'ठिइवडिय'ति |
स्थिती-कुलस्य लोकस्य वा मर्यादायां पतिता-गता या पुत्रजन्ममहप्रक्रिया सा स्थितिपतिताऽतस्तांदसाहियाए'चि दशाहि| कायां-दशदिवसप्रमाणायां 'जाए यत्तियागान्-पूजाविशेषान् ‘दाए यत्ति दायांश्च दानानि 'भाए यत्ति भागांक्ष-विवक्षितद्व्यांशान् 'चंदसूरदंसणिय'ति चन्द्रसूर्यदर्शनाभिधानमुत्सवं 'जागरिय'ति रात्रिजागरणरूपमुत्सव विशेष 'निवसे असुइजायकम्मकरणे'त्ति 'निवृत्ते' अतिक्रान्ते अशुचीनां जातकर्मणां करणमशुचिजातकर्मकरणं तत्र 'संपत्से वारसाहदिवसे'त्ति संप्राप्ते द्वादशाख्यदिवसे, अथवा द्वादशानामहां समाहारो द्वादशाहं तस्य दिवसो द्वादशाहदिवसो येन स४ पूर्यते तत्र, कुलाणुरूवं'ति कुलोचितं, कस्मादेवम् ? इत्याह-'कुलसरिसंति कुलसदृशं, तस्कुलस्य बलवत्पुरुषकुखत्वान्महाबल इति नाम्नश्च बलवदर्थाभिधायकत्वात् तत्कुलस्य महाबल इति नाम्नश्च सादृश्यमिति 'कुलसंताणतंतुवद्धणकर'ति कुलरूपो यः सन्तानः स एव तन्तुर्दीर्घत्वात्तवर्द्धनकर माङ्गल्यत्वाद् यत्र तत्तथा 'अयमेयारूवंति इदमेतद्रूपं 'गोणं'ति गौणं तच्चामुख्यमप्युच्यत इत्यत आह-गुणनिप्फन्नति, 'जम्हा णं अम्ह'इत्यादि अस्माकमयं दारका प्रभावतीदेव्यात्मजो यस्माद्बलस्य राज्ञः पुत्रस्तस्मात्पितु मानुसारिनामास्य दारकस्यास्तु महावल इति । 'जहा ढपइन्ने'
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक -], उद्देशक [११], मूलं [४२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४२९]
दीप अनुक्रम [५२१]
व्याख्या-18 ति ययौपपातिके दृढप्रतिज्ञोऽधीतस्तथाऽयं वक्तव्यः, तच्चैवं-मजणधाईए मंडणधाईए कीलावणधाईए अंकधा- ११ शतके
प्रज्ञप्तिः पाईए'इत्यादि, 'निवायनिवाघायंसी'त्यादि च वाक्यमिहैवं सम्बन्धनीयं 'गिरिकंदरमल्लीणेच चंपगपायवे निवायनिवा-|| |११ उद्देश: अभयदेवी- घायंसि सुहंसुहेणं परिवहइत्ति । 'परंगामणंति भूमौ सर्पणं 'पयचंकामणति पादाभ्यां सचारण 'जेमामणं'ति |
| महाबलपावृत्तिः भोजनकारणं 'पिंडवद्धणं ति कवलवृद्धिकारणं 'पजपावण'ति प्रजल्पनकारणं 'कण्णवेहणं'ति प्रतीतं 'संवच्छरप-1
नामकरणं
सू४२९ डिलेहणं'ति वर्षग्रन्धिकरणं 'चोलोयण' चूडाधरणम् 'उवणयण ति कलाग्राहणं 'गम्भाहाणजम्मणमाइयाई कोउ५४५॥
याई करेंति'त्ति गर्भाधानादिषु यानि कौतुकानि-रक्षाविधानादीनि तानि गर्भाधानादीन्येवोच्यन्त इति गर्भाधानजन्मादिकानि कौतुकानीत्येवं समानाधिकरणतया निर्देशः कृतः, 'एवं जहा दढपइन्नो'इत्यनेन यत्सूचितं तदेवं दृश्य'सोहणंसि तिहिकरणनक्खत्तमुहुर्तसि पहायं कयबलिकम्मं कयकोउयमंगलपायच्छित्तं सवालंकारविभूसियं महया इहि-| | सकारसमुदएणं कलायरियस्स उवणयंती'त्यादीति । 'अन्नग्गयमूसियपहसिते इव' अभ्युद्गतोच्छूितान्-अत्युचान् इह चैवं व्याख्यानं द्वितीयावहुवचनलोपदर्शनात् , 'पहसिते इव'त्ति प्रहसितानिव-श्वेतप्रभापटलमबलतया हसत | इवेत्यर्थः 'वन्नओ जहा रायप्पसेणइजे'इत्यनेन यत्सूचितं तदिदं-'मणिकणगरयणभत्तिचित्तवाउहुयविजय-| वेजयंतीपडागाछत्ताइन्छत्तकलिए तंगे गगणतलमभिलंघमाणसिहरे'इत्यादि, एतच्च प्रतीतार्थमेव, नवरं 'मणिकनकरलानां भक्तिभिः-विच्छित्तिभिश्चित्रा ये ते तथा, वातोता या विजयसूचिका वैजयन्त्यभिधानाः पताकाछत्रातिच्छत्राणि च
॥५४५॥ तः कलिता येते तथा ततः कर्मधारयस्ततस्तान 'अणेगखंभसयसंनिविद्य'ति अनेकेषु स्तम्भशतेषु संनिविष्टं यदने-||
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक -], उद्देशक [११], मूलं [४२९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४२९]
दीप अनुक्रम [५२१]
कानि वा स्तम्भशतानि संनिविष्टानि यत्र तत्तथा 'वन्नओ जहा रायप्पसेणइजे पेच्छाधरमंडवं सित्ति यथा राजप्रश्नकृते प्रेक्षागृहमण्डपविषयो वर्णक उक्तस्तथाऽस्य वाच्य इत्यर्थः, स च 'लीलडियसालिभंजियाग'मित्यादिरिति ।
तए णं तं महत्वलं कुमारं अम्मापियरो अन्नया कयावि सोभणंसि तिहिकरणदिवसनक्खत्तमुहुर्ससि | पहायं कयबलिकम्मं कयकोउयमंगलपाय सबालंकारविभूसियं पमक्खणगण्हाणगीयवाइयपसाहणटुंगतिलगकंकणअविहववहुउवणीयं मंगलसुजंपिएहि य वरकोउयमंगलोवयारकयसंतिकम्मं सरिसयाणं सरित्त
याणं सरिचयाणं सरिसलावन्नरूवजोवणगुणोववेयाणं विणीयाणं कयकोउयमंगलपायच्छित्ताणं सरिसएहि | लि रायकुलेहितो आणिल्लियाणं अट्ठण्हं रायवरकन्नाणं एगदिवसेणं पाणिं गिहार्विसु । तए णं तस्स महाब-6 | लस्स कुमारस्स अम्मापियरो अयमेयारूवं पीइदाणं दलयंति तं०-अट्ठ हिरन्नकोडीओ अट्ठ सुचन्नकोडीओ अव मउडे मउडप्पवरे अह कुंडलजुए कुंडलजुयप्पवरे अढ हारे हारप्पवरे अट्ठ अद्धहारे अद्धहारप्पवरे अट्ट एगावलीओ एगावलिप्पवराओ एवं मुत्तावलीओ एवं कणगावलीओ एवं रयणावलीओ अह कडगजोए कडग-| || जोयप्पवरे एवं तुडियजोए अट्ठ खोमजुयलाई खोमजुयलप्पथराई एवं बडगजुयलाई एवं पहजुयलाई एवं| ail दुगुल्लजुयलाई अट्ट सिरीओ अट्ठ हिरीओ एवं धिईओ कित्तीओ बुद्धीओ लच्छीओ अट्ठ नंदाई अह भदाई|
अट्ठ तले तलप्पवरे सबरयणामए णियगवरभवणकेफ अह झए झयप्पवरे अह चये बयप्पवरे दसगोसाह-| स्सिएणं वएणं अट्ठ नाडगाई नाडगप्पवराई बत्तीसपद्धेणं नाडएणं अह आसे आसप्पवरे सत्वरयणामए
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक -], उद्देशक [११], मूलं [४३०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
वीवाहा
सूत्रांक [४३०]
दीप अनुक्रम [५२२]
|| सिरिधरपडिरूवए अह हस्थी हरियप्पवरे सवरयणामए सिरिघरपटिसवए अट्ठ जाणाई जाणप्पवराई अह||४|११ शतके प्रज्ञप्तिः | अभयदेवी
६ जुगाई जुगप्पवराई एवं सिवियाओ एवं संदमाणीओ एवं गिल्लीओ बिल्लीओ अह वियडजाणाई वियड-८ ११ उद्देशः या वृत्ति:२४
TE जाणप्पवराई अट्ठरहे पारिजाणिए अह रहे संगामिए अट्ठ आसे आसप्पवरे अह हत्थी हथिप्पवरे अट्ठ गामे महाबल
|गामापवरे दसकुलसाहस्सिएणं गामेणं अट्ठ दासे दासप्पवरे एवं चेव दासीओ एवं किंकरे एवं कंचुइजे एवं ॥५४६॥ वरिसघरे एवं महत्तरए अट्ठ सोवन्निए ओलंबणदीचे अट्ठ रुप्पामए ओलंबणदीवे अट्ठ सुचनरुप्पामए ओलं
सू४३० वणदीचे अट्ट सोवन्निए उक्चणदीवे एवं चेव तिन्निवि अह सोवन्निए थाले अट्ट रुप्पमए थाले अट्ट सुवन्नरुप्प मए थाले अट्ट सोवन्नियाओ पत्तीओ ३ अट्ठ सोबन्नियाई थासयाई ३ अट्ट सोवन्नियाई मंगल्लाई ३ अह । सोपनियाओ तलियाओ अट्ट सोचनियाओ कावइआओ अट्ट सोवन्निए अवएडए अट्ट सोवनियाओ अवयकाओ अह सोवण्णिए पायपीढए ३ अट्ठ सोचनियाओ भिसियाओ अट्ट सोवनियाओ करोडियाओ अट्ठ
सोवन्निए पाल्लंके अह सोवन्नियाओ पडिसेजाओ अह हंसासणाई अट्ठ कोंचासणाई एवं गरुलासणाई उन्न४ यासणाई पणयासणाई दीहासणाई भद्दासणाई पक्खासणाई मगरासणाई अट्ट पउमासणाई अट्ट दिसासो॥ वस्थियासणाई अट्टतेल्समुग्गे जहा रायप्पसेणहज्जे जाव अट्ठ सरिसवसमुग्गे अट्ठ खुज्जाओ जहा उवचाइए।
॥५४६॥ Mजाच अट्ट पारिसीओ अट्ठ उत्ते अट्ठ छत्तधारिओ चेडीओ अट्ट चामराओ अट्ट चामरधारीओ चेडीओ|| | अट्ट तालियंटे अह तालिपंटधारीओ चेडीओ अट्ट करोडियाधारीओ चेडीओ अह खीरधातीभो जाव अट्ट
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक -], उद्देशक [११], मूलं [४३०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४३०]
अंधातीओ अट्ट अंगमहियाओ अट्ट उम्मद्दियाओ अट्ट पहावियाओ अट्ठ पसाहियाओ अट्ट चन्नगपेसीओ र अह चुन्नगपेसीओ अट्ट कोडागारीओ अट्ठ वकारीओ अट्ठ उवस्थाणियाओ अट्ठ नाइजाओ अट्ट कोडु- विणीओ अट्ठ महाणसिणीओ अह भंडागारिणीओ अट्ठ अज्झाधारिणीओ अट्ठ पुप्फधरणीओ अट्ठ पाणि
घरणीओ अट्ट बलिकारीओ अट्ट सेजाकारीओ अट्ठ अभितरियाओ पडिहारीओ अट्ट बाहिरियाओ पडिहारीओ अट्ठ मालाकारीओ अट्ट पेसणकारीओ अन्नं वा सुबहुं हिरनं वा सुवन्नं था कंसं वा दसं वा विउलघणकणगजावसंतसारसावएजं अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पकामं दाउ पकामं भोजु पकामं
परिभाए । तए णं से महत्वले कुमारे एगमेगाए भजाए एगमेगं हिरनकोडिं दलपति एगमेगं सुबन्नकोडिं ददलयति एगमेगं मउर्ड मउडप्पवरं दलयति एवं तं चेव सर्व जाव एगमेगं पेसणकारिं दलयति अनं या
सुबहुं हिरन्नं वा जाव परिभाएउं, तए णं से महबले कुमारे उप्पि पासायवरगए जहा जमाली जाव विहरति (सूत्रं ४३०)॥ . | 'पमक्खणगण्हाणगीयवाइयपसाहणटुंगतिलगकंकणअविहववहुउवणीय'ति प्रवक्षणक-अभ्यञ्जनं स्नानगी
तवादितानि प्रतीतानि प्रसाधनं-मण्डनं अष्टस्वङ्गेषु तिलकाः-पुण्ड्राणि अष्टाङ्गतिलकाः करणं च-रक्तदवरकरूपं 15 एतानि अविधववधूभिः-जीवत्पतिकनारीभिरुपनीतानि यस्य स तथा तं 'मंगलसुजंपिएहि यत्ति मङ्गलानि-दध्यक्ष
तादीनि गीतगानविशेषा वा तासु जल्पितानि च-आशीर्वचनानीति द्वन्द्वस्तैः करणभूतैः 'पाणिं गिण्हाविंसुत्ति सम्बन्धः,
6555454545
दीप अनुक्रम [५२२]
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प्रत
सूत्रांक
[४३०]
दीप
अनुक्रम [५२२]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति: ]
शतक [११], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [११], मूलं [४३०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५ ] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥५४७॥
किं भूतं तम् ? इत्याह-'वरकोउयमङ्गलोवपारकय संतिकम्मं' वराणि यानि कौतुकानि - भूतिरक्षादीनि मङ्गलानि च-सिद्धार्थकादीनि तद्रूपो य उपचार:- पूजा तेन कृतं शान्तिकर्म्म- दुरितोपशमक्रिया यस्य स तथा तं 'सरिसि | याणं'ति सदृशीनां परस्परतो महाबलापेक्षया वा 'सरितयाणं'ति सहकृत्वचां-सदृशच्छवीनां 'सरिवयाणं' ति सहगूवयसां, 'सरिसला बन्ने' त्यादि, इह च लावण्यं मनोज्ञता रूपं आकृतियौवनं युक्ता गुणाः प्रियभाषित्वादयः, 'कुण्डलजोए'त्ति कुण्डलयुगानि 'कमजोर'ति कलाचिकाभरणयुगानि 'तुडिय'त्ति बाह्राभरणं 'खोमे'त्ति कार्पासिकं अतसीमयं वा वस्त्रं 'वडग 'ति त्रसरीमयं 'पह'ति पट्टसूत्रमयं 'दुगुल्ल'त्ति दुकूलाभिधानवृक्षत्वनिष्पन्नं श्रीप्रभृतयः | पड़देवताप्रतिमाः नन्दादीनि मङ्गलवस्तूनि अन्ये त्वाहु:-नन्दं वृत्तं लोहासनं भद्रं शरासनं मूढक इति यत्प्रसिद्धं 'तले'त्ति तालवृक्षान् 'वय'त्ति प्रजान् गोकुलानि 'सिरिघर पडिरूवए'त्ति भाण्डागारतुल्यान् रलमयस्थात् 'जाणाई'ति शकटादीनि 'जुग्गाई'ति गोहविषयप्रसिद्धानि जम्पानानि 'सिवियाओ'त्ति शिविकाः - कूटाकाराच्छादितजम्पानरूपाः 'संमाणियाओ'त्ति स्यन्दमानिकाः पुरुषप्रमाणाजम्पानविशेषानेव 'गिल्लीओ'ति हस्तिन उपरि कोहराकाराः 'बिल्लीओ'ति लाटानां यानि अड्डपल्यानानि तान्यन्यविषयेषु थिल्लीओ अभिधीयन्तेऽतस्ताः 'विषडजाणाई'ति विवृतयानानि तलटकवर्जितश कटानि, 'पारिजाणिए'त्ति परियानप्रयोजनाः पारियांनिकास्तान् 'संगामिए' त्ति सङ्ग्रामप्रयोजनाः साङ्ग्रामिकास्तान् तेषां च कटीप्रमाणा फलकवेदिका भवति, 'किंकरे' त्ति प्रतिकर्म्म पृच्छा कारिणः 'कंजुळे' त्ति प्रतीहारान 'वरसघरे'त्ति वर्णधरान् वर्द्धितकम हलकान 'महत्तरान्' अन्तःपुरकार्यचिन्तकान् 'ओलंबणदीवे 'ति शृङ्ख
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११ शतके
११ उद्देशः
महाबल
वीवाहः सू ४३०
॥५४७॥
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[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक -], उद्देशक [११], मूलं [४३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४३०]
दीप अनुक्रम [५२२]
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लावद्धदीपान् 'उचणदीवेत्ति उत्कश्चनदीपान ऊर्ध्वदण्डवतः 'एवं चेव तिन्निविसि रूप्यसुवर्णसुवर्णरूप्यभेदात् । M'पंजरदीवेत्ति अभ्रपटलादिपञ्जरयुक्तान् 'धासगाईति आदर्शकाकारान् 'तलियाओत्ति पात्रीविशेषान् 'कविचियाओ'त्ति कलाचिकाः 'अवएडए'त्ति तापिकाहस्तकान् 'अवयकाओ'त्ति अवपाक्यास्तापिका इति संभाव्यते 'भिसि
याओ'त्ति आसनविशेषान् 'पडिसेजाओ'त्ति उत्तरशय्याः हंसासनादीनि हंसाद्याकारोपलक्षितानि उन्नताथाकारोपलMक्षितानि च शब्दतोऽवगन्तव्यानि, 'जहा रायप्पसेणइजे' इत्यनेन यत्सूचितं तदिदम्-'अट्ठ कुटुसमुग्गे एवं पत्त
चोयतगरएलहरियालहिंगुलयमणोसिलअंजणसमुग्गे'त्ति, 'जहा उववाइए'इत्यनेन यत्सूचितं तदिहैव देवानजन्दाव्यतिकरेऽस्तीति तत एव दृश्य, 'करोडियाधारीओ'त्ति स्थगिकाधारिणीः 'अट्ट अंगमहियाओ अट्ट ओमदियाओ'त्ति इहाङ्गमर्दिकानामुन्मर्दिकानां चाल्पबहुमर्दनकृतो विशेषः 'पसाहियाओ'त्ति मण्डनकारिणीः 'वन्नगपेसी
ओ'ति चन्दनपेषणकारिका हरितालादिपेषिका वा 'चुन्नगपेसीओ'ति इह चूर्णः-ताम्बूलचूर्णो गन्धद्रव्यचूर्णो वा 'दवकारीओ'त्ति परिहासकारिणीः 'उवस्थाणियाओ'त्ति या आस्थानगतानां समीपे वर्तन्ते 'नाडइजाओ'त्ति नाट
कसम्बन्धिनीः 'कुटुंबिणीओ'त्ति पदातिरूपाः 'महाणसिणीओ'त्ति रसवतीकारिकाः शेषपदानि रूढिगम्यानि । | तेणं कालेणं २ विमलस्स अरहओ पओप्पए धम्मघोसे नाम अणगारे जाइसंपन्ने वन्नओ जहा केसिसा
मिस्स जाव पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं संपरिबुडे पुवाणुपुर्षि चरमाणे गामाणुगामं दृतिजमाणे जेणेव हत्थिणागपुरे नगरे जेणेव सहसंबवणे उजाणे तेणेव उवागच्छइ २ अहापडिरूवं उग्गहं ओगिण्हति २ संज
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[४३१
-४३२]
दीप
अनुक्रम
[५२३
-५२४]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र -५ [ मूलं + वृत्तिः ]
शतक [११], वर्ग [–], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [११], मूलं [४३१-४३२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५]
व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवी- ४ या वृत्तिः २
१५४८ ॥
महाबलकुमार- कथा
मेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति । तए णं हत्थिणापुरे नगरे सिंघाडगतिय जाव परिसा पज्जुवासह । तए णं तस्स महबलस्स कुमारस्स तं महया जणसद्दं वा जणवूहं वा एवं जहा जमाली तहेब चिंता तहेव कंचुइज्जपुरिसं सहावेति, कंचुइज्जपुरिसोवि तहेव अक्खाति, नवरं धम्मघोसस्स अणगारस्स आगमणगहियविणिच्छए करयलजाव निग्गच्छइ, एवं खलु देवाणुप्पिया ! विमलस्स अरहओ पउप्पर धम्मघोसे नामं अणगारे सेसं तं चैव जाव सोवि तहेब रहवरेणं निग्गच्छति, धम्मका जहा केसिसामिस्स, सोवि तहेव अम्मापियरो आपुच्छह, नवरं धम्मघोसस्स अणगारस्स अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पवतए तहेब वृत्तपडित्तया नवरं इमाओ य ते जाया विडलरायकुलवा लियाओ कला० सेसं तं चैव जाव | ताहे अकामाई चैव महबलकुमारं एवं बयासी-तं इच्छामो ले जाया ! एगदिवसमवि सिरिं पासित्तए, तए णं से महबले कुमारे अम्मापियराण वयणमणुपत्तमाणे तुसिणीए संचिति । तए णं से बले राया कोटुंबियपुरिसे सदावेह एवं जहा सिवभहस्स तहेव रायाभिसेओ भाणियवो जाव अभिसिंचति करय| लपरिग्गहियं महबलं कुमारं जएणं विजएणं वळावेंति जएणं विजएणं बद्धावित्ता जाव एवं वयासी भण जाया । किं देमो किं पयच्छामो सेसं जहा जमालिस्स तहेब जाव तए णं से महबले अणगारे धम्मघोसरस अण| गारस्स अंतियं सामाइयमाइयाई चोदस पुवाई अहिजति अ० २ बहूहिं चउत्थजाव विचितेहिं तवोकस्मेहिं अप्पानं भावेमाणे बहुपडिपुन्नाई दुबालस वासाई सामन्नपरियागं पाउणति बहू० मासियाए संलेहणाए
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"भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
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११ शसके
११ उद्देशः महाबलस्य संतानीय पार्श्वे दीक्षा
दि सू४३१
॥५४८ ||
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आगम [०५]]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [११], मूलं [४३१-४३२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४३१-४३२]
%84545
दीप अनुक्रम [५२३-५२४]
सढिभत्ताई अणसणाए. आलोइयपडिकते समाहिपत्ते कालमासे कालं किचा उह चंदमसूरिय जहा अ-1 *म्मडो जाय भलोए कप्पे देवत्ताए उववन्ने, तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं दस सागरोवमाई ठिती पण्णभत्ता, तत्थ शं महबलस्सवि दस सागरोवमाई ठिती पन्नत्ता, से णं तुमं सुदंसणा ! भलोगे कप्पे दस
सागरोवमाई दिवाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरिता ताओ चेव देवलोगाओ आउक्खएणं ३ * अणंतरं चयं चइत्ता इहेव वाणियगामे नगरे सेहिकुलंसि पुत्तत्ताए पदायाए (सूर्घ ४३१)।तए णं तुमे || Bा सदसणा ! उम्मुकबालभावेणं विनायपरिणयमेत्तेणं जोवणगमणुप्पत्तेणं तहारूवाणं घेराणं अंतियं केवलि-15
पन्नत्ते धम्मे निसंते, सेविय धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिराइए तं सुहुणं तुमं सुदंसणा! इदाणि पकरेसि। से तेणडेणं सुदंसणा! एवं बुबह-अस्थि णं एतेर्सि पलिओवमसागरोवमाणं खयेति वा अवचयेति वा, तए णं तस्स सुदंसणस्स सेविस्स समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एपमह सोचा निसम्म सुमेणं अझवसाणेणं सुभेणं परिणामेणं लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणिजाणं कम्माणं खओचसमेणं ईहा|पोहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स सन्नीपुषे जातीसरणे समुप्पन्ने एपमझु सम्म अभिसमेति, तए णं से सुदंसणे |
सेट्टी समणेणं भगवया महावीरेणं संभारियपुष्पभवे दुगुणाणीयसहसंवेगे आणंदसुपुन्ननयणे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आ०२० नमं०२त्ता एवं बयासी-एवमेयं भंते ! जाव से जहेयं तुज्झे वदहत्तिकदुई उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागं अवकमइ सेसं जहा उसमदत्तस्स जाव सबदुक्खप्पहीणे, नवरं चोइस पुबाई
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[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [११], मूलं [४३१-४३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४३१-४३२]
है सू ४३२
दीप अनुक्रम [५२३-५२४]
व्याख्या-1 अहिजइ, बहुपडिपुनाई दुवालस वासाई सामनपरियागं पाउणह, सेसं तं चेव । सेवं भंते ! सेवं भंते !|११ शतके प्रज्ञप्तिः (सूत्र ४३२)॥ महबलो समत्तो ॥११-११ ।।
| ११ उद्देशः अभयदेवी- विमलस्स'त्ति अस्यामवसर्पिण्यां त्रयोदशजिनेन्द्रस्य 'पप्पए'त्ति प्रपौत्रका-प्रशिष्यः अथवा प्रपत्रिके-शिष्य-
महाबल
दीक्षादि या वृत्तिा
|| सन्ताने 'जहा केसिसामिस्स'त्ति यथा केशिनाम्न आचार्यस्य राजप्रश्नकृताधीतस्य वर्णक उक्तस्तथाऽस्य वाच्यः, सच | ॥५४९० 'कुलसंपन्ने पलसंपन्ने रूवसंपन्ने विणयसंपन्ने' इत्यादिरिति, वुत्तपडिबुत्तयत्ति उक्तप्रत्युक्तिका भणितानि मातुः प्रतिभ-II सुदर्शन
णितानि च महावलस्येत्यर्थः, नवरमित्यादि, जमालिचरिते हि विपुलकुलबालिका इत्यधीतमिह तु पिपुलराजकुलबा-18 दीक्षादि लिका इत्येतदध्येतय, कला इत्यनेन चेदं सूचितं-कलाकुसलसबकाललालियसुहोइयाओ'त्ति, 'सिवभहस्स'त्ति एकादशशतनवमोदेशकाभिहितस्य शिवराजर्षिपुत्रस्य, 'जहा अम्मडो सि यथौपपातिके अम्मडोऽधीतस्तथाऽयमिह | | वाच्या, तत्र च यावत्करणादेतत्सूत्रमेवं दृश्य-गहगणनक्खत्ततारारूवाणं बरई जोयणाई बहूई जोयणसयाई बहई ||8| जोयणसहस्साई बहुई जोयणसयसहस्साई बहूई जोयणकोडाकोडीओ उहुं दूर उप्पइत्ता सोहम्मीसाणसणकुमारमाहिदे | कप्पे वीईवइत्त'त्ति, शह च किल चतुर्दशपूर्वधरस्य जघन्यतोऽपि लान्तके उपपात इष्यते, "जावंति लतगाओ चउद-| सपुबी जहन्न उववाओ"त्ति वचनादेतस्य चतुर्दशपूर्वधरस्यापि यद् ब्रह्मलोके उपपात उक्तस्तत् केनापि मनाग विस्मरणा-r.
॥५४९॥ दिना प्रकारेण चतुर्दशपूर्वाणामपरिपूर्णत्वादिति संभावयन्तीति । 'सनी पुचजाईसरणे ति सज्ञिरूपा या पूर्वी जातिबिस्तस्याः स्मरण यसत्तथा 'अहिसमेह'त्ति अधिगच्छतीत्यर्थः 'दुगुणाणीयसहसंवेगे'त्ति पूर्वकालापेक्षया द्विगुणावा
CROCCANCC
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[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [११], मूलं [४३१-४३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४३१-४३२]
नीतों श्रद्धासंवेगी यस्य स तथा, तत्र श्रद्धा-तत्त्वश्रद्धानं सदनुष्ठानचिकीर्षा वा संवेगो-भवभयं मोक्षाभिलापो वेति, |'उसभदत्तस्स'त्ति नवमशते त्रयस्त्रिंशत्तमोद्देशकेऽभिहितस्येति ॥ एकादशशतस्यैकादशः ॥ ११-११॥
एकादशोद्देशके काल उक्तो द्वादशेऽपि स एव भजयन्तरेणोच्यते इत्येवंसम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रम्४ तेणं कालेणं २ आलभिया नाम नगरी होत्था वन्नओ, संखवणे चेहए वन्नओ, तत्थ णं आलभियाए नगगरीए बहवे इसिभहपुत्तपामोक्खा समणो वासया परिवसंति अहा जाव अपरिभूया अभिगयजीवाजीवा जाव
विहरंति । तए णं तेसिं समणोवासयाणं अन्नया कयावि एगयओ सहियाणं समुवागयाणं संनिविहाणं सन्निसन्नाणं अयमेयारूवे मिहो कहासमुल्लावे समुप्पजित्था-देवलोगेसु णं अज्जो ! देवाणं केवतियं कालं |ठिती पण्णता?, तए णं से इसिभरपुत्ते समणोवासए देवहितीगहियढे ते समणोवासए एवं बयासी-देव
लोएसु णं अजो! देवाणं जहपणेणं दसवाससहस्साई ठिती पण्णत्ता, तेण परं समयाहिया दुसमयाहिया || द जाव दससमयाहिया संखेज़समयाहिया असंखेजसमगाहिया उकोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिती पन्नत्ता, |
तेण परं चोच्छिन्ना देवा य देवलोगा य । तए णं ते समणोवासया इसिभहपुत्तस्स समणोवासगस्स एव. माइक्खमाणस्स जाव एवं परूवेमाणस्स एयम8 नो सद्दहति नो पत्तियति नो रोयंति एयमह असद्दहमाणा [अपत्तियमाणा अरोएमाणा जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया (मूत्र ४३३)। तेणं कालेणं २ समणे भगवं महावीरे जाव समोसहे जाव परिसा पज्जुवासह । तए णं ते समणोवासया इमीसे कहाए|
दीप अनुक्रम [५२३-५२४]
4%95%
-5
4
अत्र एकादशमे शतके एकादशम-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ एकादशमे शतके द्वादशम-उद्देशक: आरभ्यते
ऋषिभद्रपुत्र अनगारः कृता प्ररुपणा एवं तस्य आगामी-भवा:
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आगम [०५]
[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१२], मूलं [४३३-४३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४३३-४३६]
श्रीवीरीक्ति
व्याख्या-|| लट्ठा समाणा हहतुट्ठा एवं जहा तुंगिउद्देसए जाव पजुधासंति । तए णं समणे भगवं महावीरे तेर्सि।
४|११ शतके ॥४ समणोवासगाणं तीसे य महति०धम्मकहा जाव आणाए आराहए भवइ । तए ते समणोवासया समदवा-दणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा निसम्म हहतुहा उवाए उढेइ उ०२ समणं भगवं महावीर
पावंदन्ति नमंसन्ति २ एवं वदासी-एवं खलु भंते ! इसिभद्दपुते समणोवासए अम्हं एवं आइक्खइ जाव परू॥५५०॥४ वेइ-देवलोएसु णं अजो ! देवाणं जहन्नणं दस वाससहस्साई ठिती पन्नत्ता तेण परं समयाहिया जाव तेण|
परं वोच्छिन्ना देवा य देवलोगा य, से कहमेयं भंते ! एवं ?, अजोत्ति समणे भगवं महावीरे ते समणो- संवादः वासए एवं बयासी-जन्नं अज्जो 1 इसिभद्दपुत्ते समणोवासए तुझं एवं आइक्खइ जाव परवेइ-देवलोगेसु सू ४३४
णं अजो ! देवाणं जहन्नेणं दस घाससहस्साई ठिई पन्नत्ता तेण परं समयाहिया जाव तेण परं वोच्छिन्ना ४ ६ देवा य देवलोगा य, सच्चे णं एसमडे, अहं पुण अज्जो । एवमाइक्खामि जाव परूवेमि-देवलोगेसु णं
अज्जो देवाणं जहन्नेणं दस वाससहस्साहं तं चेव जाव तेण परं वोच्छिन्ना देवा य देवलोगा प, सचे गं II 18| एसमढे । तए ण ते समणोवासगा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयम8 सोचा निसम्म समणं |
|भगवं महावीरं वंदन्ति नमसन्ति २ जेणेव हसिभहपुत्ते समणोवासए तेणेव उवागच्छन्ति २इसिभरपुतं सम-1|| |णोचासर्ग बंदंति नमसंति २ एयमढ संमं विणएणं भुसो २ खामेति। तए णं समणोवासया पसिणाई पुच्छति | ४ पु०२ अट्ठाई परियादेयंति अ०२ समर्ण भगवं महावीरं वदति नमसंति वं० २ जामेव दिसं पाउन्भूया
CREDIESEAR
दीप
अनुक्रम [५२५-५२८]
ऋषिभद्रपुत्र अनगार: कृता प्ररुपणा एवं तस्य आगामी-भवा:
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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[४३३
-४३६]
दीप
अनुक्रम
[५२५
-५२८]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र -५ [ मूलं + वृत्तिः ]
शतक [११], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [१२], मूलं [४३३-४३६]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
तामेव दिसं पडिगया (सूत्रं ४३४ ) । भंतेति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदर णर्मसह वं० २ एवं वयासी- पभू णं भंते ! इसिभद्दपुत्ते समाणोवासए देवाणुप्पियाणं अंतियं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पवइत्तए १, गोयमा ! णो तिणट्टे समट्ठे, गोयमा ! इसिभद्दपुत्ते समणोवासए बहूहिं सीलव्वयगुणवयवेरमणपञ्चवाणपोसहोववासेहिं अहापरिग्गहिएहिं तवोकस्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे बहूई बासाई समणोवास| गपरियागं पाउहिति ब० २ मासियाए संलेहणाए अप्ताणं सेहिति मा० २ सहि भत्ताई अणसणाई छेदेहिति २ आलोइयपडिकंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किवा सोहम्मे कप्पे अरुणाभे विमाणे देवत्ताए उववज्जिहिति, तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं चत्तारि पलिओ माई ठिती पण्णत्ता, तत्थ णं इसिमदपुसस्सवि देवरस चत्तारि पलिओ माई ठिती भविस्सति । से णं भंते । इसिभद्दपुत्ते देवे तातो देवलोगाओ आउक्खपणं भव० ठिइक्खएणं जाव कहिं उचवज्जिहिति ?, मोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं काहेति । सेवं भंते । सेवं भंते । सि भगवं गोयमे जाव अप्पाणं भावेमाणे विहरह (सूत्रं ४३५ ) । तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कथावि आलभियाओ नगरीओ संखषणाओ चेहयाओ पडिनिक्खमह पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरह । तेणं कालेणं तेणं समर्पणं आलभिया नामं नगरी होस्था बनाओ, तत्थ णं संखवणे णामं चेइए होत्था बनाओ, तस्स णं संखवणस्स अदूरसामंते पोग्गले नामं परिवायए परिवसति रिउवेदजजुर वेदजावनएस सुपरिनिट्ठिए छछणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड
ऋषिभद्रपुत्र अनगारः कृता प्ररूपणा एवं तस्य आगामी - भवाः, पुद्गल नामक परिव्राजकस्य कथा
For Parts Only
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[भाग-९] “भगवती"-अंगस
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१२], मूलं [४३३-४३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४३३-४३६]
पावृत्तिः२/
दीप
व्यास्या- वाहाओ जाव आयावेमाणे विहरति । तए णं तस्स पोग्गलस्स छटुंछडेणं जाव आयावेमाणस्स पगतिम-18|११ शतके
प्रज्ञप्तिः |पाए जहा सिवस्स जाब विन्भंगे नामं अन्नाणे समुप्पन्ने, से णं तेणं विन्भंगेर्ण नाणेणं समुप्पन्ने] संभलोए||१२ उद्देशः अभयदेवी- कप्पे देवाणं ठिर्ति जाणति पासति । तए णं तस्स पोग्गलस्स परिवायगस्स अयमेयारूवे अन्भथिए जाव 8|| ऋषिभद्र
समुप्पजिस्था-अस्थि णं ममं अइसेसे नाणदंसणे समुप्पन्ने, देवलोएसु णं देवाणं जहन्नेणं दसवाससहस्साई स्यागामिभ | ठिती पण्णत्ता तेण परं समपाहिया दुसमयाहिया जाव उकोसेणं असंखेजसमयाहिया उकोसेणं दससागरो-वसू४३५ |वमाई ठिती पन्नत्ता तेण परं वोच्छिना देवा य देवलोगा य, एवं संपेहेति एवं २ आयावणभूमीओ पच्ची-||
पुद्गलपरिसहइ आ०२ तिदंडकुंडिया जाव धाउरत्ताओ य गेपहइ गे० २ जेणेव आलंभिया णगरी जेणेव परिवाय
ब्राजक:
सू४३६ सगावसहे तेणेव उवागकछह उवा०२ भंडनिक्खेवं करेति भं०२ आलंभियाए नगरीए सिंघाडग जाव पहेसु| | अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ जाव परूवेइ-अस्थि णं देवाणुप्पिया ! ममं अतिसेसे नाणदसणे समुप्पझे, देवलोएमु णं देवाणं जहन्नेणं दसवाससहस्साई तहेव जाव चोच्छिना देवा य दवेलोगा य । तए णं आलंभियाए| | नगरीए एएणं अभिलावणं जहा सिवस्स तं चेव जाय से कहमेयं मने एवं ?, सामी समोसढे जाव परिसा| पिडिगया, भगवं गोयमे तहेव भिक्खायरियाए तहेव बहुजणसई निसामेइ तहेव बहुजणसई निसामेत्तार
तहेव सर्व भाणियावं जाव अहं पुण गोयमा! एवं आइक्खामि एवं भासामि जाव परुवेमि-देवलोएसुणं ५५१॥ ४देवाणं जहनेणं दस वाससहस्साई ठिती पण्णता तेण परं समपाहिया दुसमयाहिया जाव उकोसेणं तेत्तीसं ||
अनुक्रम [५२५-५२८]
SAREauratonintimational
ऋषिभद्रपुत्र अनगार: कृता प्ररुपणा एवं तस्य आगामी-भवा: पुद्गल नामक परिव्राजकस्य कथा
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[भाग-९] “भगवती”- अंगसूत्र-५ [मूलं+वृत्ति:]
शतक [११], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१२], मूलं [४३३-४३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४३३-४३६]
ॐॐॐ54
सागरोवमाई ठिती पन्नत्ता, तेण परं वोच्छिन्ना देवा य देवलोगा य । अत्थि णं भंते ! सोहम्मे कप्पे दवाई सवन्नाईपि अवन्नाईपि तहेव जाव हंता अत्थि, एवं ईसाणेवि, एवं जाव अनुए, एवं गेवेजविमाणेसु अणु-॥ तरविमाणेसुवि, ईसिपम्भाराएवि जाव हंता अस्थि, तए णं सा महतिमहालिया जाव पडिगया, तए णं. आलंभियाए नगरीए सिंघाडगतिय० अवसेसं जहा सिवस्स जाव सबदुक्खप्पहीणे नवरं तिवंडकुंडियं ५ जाव धाउरत्तवत्थपरिहिए परिवहियविभंगे आलंभियं नगरं ममं निग्गछति जाव उत्तरपुरच्छिम |दिसीभागं अवकमति अ०२ तिदंडकुंडियं च जहा खंदओजाव पवइओसेसं जहा सिवस्स जाव अवाबाहं सोक्खं * अणुभवति सासयं सिद्धा । सेर्व भंते !२ति ॥ (सूत्र ४३६)॥११-१२॥ एकारसमं सयं समत्तं ॥११॥
तेण'मित्यादि, 'एगओत्ति एकत्र 'समुवागयाणं'ति समायातानां 'सहियाणं ति मिलितानां 'समुविट्ठाणं'ति आसनग्रहणेन 'सन्निसन्नाणीति संनिहिततया निषण्णानां 'मिहो'त्ति परस्परं 'देवहितिगहिय?'त्ति देवस्थितिविषये के गृहीतार्थो-गृहीतपरमार्थों यः स तथा । 'तुंगिउद्दसएत्ति द्वितीयशतस्य पञ्चमे ॥ एकादशशते द्वादशः ॥ ११-१२॥ ॥ एकादशं शतं समाप्तम् ॥११॥
एकादशशतमेवं व्याख्यातमबुद्धिनाऽपि यन्मयका । हेतुस्तत्राग्रहिता श्रीवाग्देवीप्रसादो वा ॥१॥ RTAINEdvardhandaradadaiandva n cedIsrdhaTNEnativernaldNNAPanditerary
॥इति श्रीमदभयदेवमूरिवरविवृतायां भगवत्यां शतकमेकादशम् ॥
*SARK-E-HEREKKER
दीप
अनुक्रम [५२५-५२८]
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-4-5
अत्र एकादशमे शतके द्वादशम्-उद्देशकः परिसमाप्त:
तत् समाप्ते एकादशं शतकं अपि समाप्तं
भाग
भगवती-अंगसूत्र- [५/२] मूलं एवं अभयदेवसूरिजी रचिता टीका परिसमाप्ता:
मूल संशोधकः सम्पादकश्च पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब 9 | किंचित् वैशिष्ट्य समर्पितेन सह पुन: संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि)
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भाग
01
09
सवत्तिक-आगम-सत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा?
इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति भाग-१ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन-१,२ आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन- ३ से ९, श्रुतस्कन्ध- २ आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन- १ से १३ | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन १४ से १६, श्रुतस्कन्ध-२
आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ स्थान- १ से ४
आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ स्थान- ५ से १० संपूर्ण | आगम ०४ समवाय मुलं एवं वृत्ति. आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ शतक-१ से ६ आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ शतक-७ से ११ आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ शतक- १२ से २० आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-४ शतक- २१ से ४१ संपूर्ण आगम ०६ ज्ञाताधर्मकथा मूलं एवं वृत्ति. | आगम-6,८,९,१० उपासकदशा, अंतकृतदशा, अन्त्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण मूलं एवं वृत्ति. आगम-११,१२, विपाक, उववाई मूलं एवं वृत्ति. आगम १३ राजप्रश्नीय मूलं एवं वृत्ति. आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत सूत्र-१ से १३८ । आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत] सूत्र- १३९ से प्रतिपत्ती-१० संपूर्ण आगम १५ प्रज्ञापना भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. पद- १ से ५ आगम १५ प्रज्ञापना भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. पद-६ से २२
आगम १५ प्रज्ञापना भाग-३ मूलं एवं वृत्ति. पद- २३ से ३६ संपूर्ण | आगम १६ सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति.
कुलपृष्ठ
३१४ ५८६ ४९८ ३९२ ५९४ ४९४ ३३८ ५९२ ५५२ ५१४ ३८४ ५२२ ५३८ ३८४ ३१४ ४८० ४८८ ૪ર૬ ५१४ ३३६ ६१०
11 12 13 14
20
21
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भाग
कुलपृष्ठ
६१४ ३७६ ४२६ ३४४
३१२
थी मस्तीमामलपवाया, तन्नाथ, बकाया, व्यापार,दशावतात,
३३०
४६६
29
४४२
सवत्तिक-आगम-सत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा?
इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम आगम १७ चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- १ एवं २. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ३ एवं ४. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-३ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार-५ से ७. आगम १९ थी ३२ निरयावलिका, कल्पवतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका, वृष्णिदशा, चतुःशरण, आतुरपरत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान,
भक्तपरिज्ञा, तंदुलवैचारिक, संस्तारक, गच्छाचार, गणिविदया, देवेन्द्रस्तव मूलं एवं छाया | आगम ३३ थी ३९ मरणसमाधि मूलं एवं छाया, निशीथ, बुहत्कल्प, व्यवहार, दशाश्रुतस्कंध, जीतकल्प/पंचकल्प, महानिशीथ मूलं एव | आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, नियुक्ति-१ से १२१ । आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, नियुक्ति- ५२२ से ९५१ आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ नियुक्ति- ९५२ से १२७३ अपूर्ण, [अध्ययन- १ से ४ अपूर्ण) | आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-४ नियुक्ति- १२७३ अपूर्ण से १६२३, [अध्ययन- ४ अपूर्ण से ६ संपूर्ण] | आगम ४१/१ ओघनियुक्ति मूलं एवं वृत्ति.. आगम ४१/२ पिंडनियुक्ति मूलं एवं वृत्ति. आगम ४२ दशवैकालिक मूलं एवं वृत्ति. आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, अध्ययन- १ से ५ आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, अध्ययन-६ से २१ आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-३, अध्ययन- २२ से ३६ आगम ४४ नन्दिसूत्र मूलं एवं वृत्ति. आगम ४५ अनुयोगद्वार मूलं एवं वृत्ति. कल्प[बारसा]सूत्र... चतुःशरण, तन्दुलवैचारिक, गच्छाचार मूलं एवं वृत्ति.
४६४
૪ર૬ Bકર
३७६
५९० કરશે ४८२ ४६६ ૨૮ ५६० ३९४
40
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नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरुभ्यो नमः
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पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च "भगवती भाग-२ [मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:] शतक-७ से ११
(किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: "भगवती" मूलं एवं वृत्तिः” नामेण परिसमाप्त:
"सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि" श्रेणि, भाग- 9
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ਹਾਸ ਰਸ ਕਸ ਕੀਤਾ
ਸੀ
ਕਿ ਸਰਕਾਰ
आगम वाचना शताब्दी वर्ष
हम पाण्यात
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नमो नमो निम्मलदसुणस्स
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि ।
मूल संशोधक
अभिनव-संकलनकर्ता
OS
।
।
पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महायज
आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि]
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प्रत-प्राप्ति और पेज-सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका
मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855 19825306275
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ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता
श्री आगम मंदिर
पालिताणा
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________________ रागम आजम आगम म आजमा मूल संशोधक पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब आज आगम - 5 'भगवती' मूलं एवं वृत्ति: [2] आजमा आज अभिनव-संकलनकर्ता आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] आगम आगम आगम आगम आगमा ~552~