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आगम
[०५]
प्रत
सूत्रांक
[ ३००]
दीप अनुक्रम [३७२]
[भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति: ]
शतक [७], वर्ग [-], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [९], मूलं [ ३०० ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
पविसित्ता हाए कपबलिकम्मे कथको उय मंगलपायच्छिते सङ्घालंकारविभूसिए सन्नद्धबद्धवम्मियकवर उप्पी. | लिपसरासणपट्टिए पिणद्ध गेवेले विमलवरवड चिंधपट्टे गहियाउहप्पहरणे सकोरिंटमलदामेणं छत्तेणं धरि| जमाणेणं चचामरवालवीतियंगे मंगलजयसद्दकपालोए एवं जहा उबवाइए जाव उवागच्छिता उदाई हस्थिरायं दुरूढे, तए णं से कूणिए राया हारोत्थय सुकयरयवच्छे जहा उबवाइए जव सेयवरचामराहिं | उदुधमाणीहिं उदुधमाणीहिं हयगयरह पवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिवुडे महया भड चडगरविंदपरिक्खित्ते जेणेच महासिलाए कंदए संगामे तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता महासिलाकंदयं संगामं ओयाए, पुरओ य से सके देविंदे देवराया एवं महं अभेजकवयं वहपडिरूवगं विउद्वित्ताणं चिट्ठति, | एवं खलु दो इंदा संगामं संगार्मेति, तंजहा-देविंदे य मणुदे य, एगहत्थिणावि णं पभू कूणिए राया पराजिवित्तए, तए णं से कृणिए राया महासिलाकंटकं संगामं संगामेमाणे नव मल्लइ नव लेच्छइ कासीकोसलगा अट्ठारसवि गणरायाणो हयमहिय पवरवीरघाइयविघडियषिद्धयपडागे किच्छपाणगए दिसो दिसिं पडिसेहित्या ॥ से केणद्वेणं भंते । एवं बुच्चइ महासिला कंटए संगामे ?, गोयमा ! महासिलाकंटए णं संगामे बट्टमाणे जे तत्थ आसे वा हत्थी वा जोहे वा सारही वा तणेण वा पसेण वा कट्टेण वा सक्कराए वा अभि | हम्मति सबै से जाणइ महासिलाए अहं अभिहए म० २, से तेणट्टेणं गोयमा ! महासिलाकंदए संगामे । | महासिलाकंदए णं भंते! संगामे वट्टमाणे कति जणसयसाहस्सीओ बहियाओ ?, गोपमा ! चउरासीइं जण
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