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________________ आगम [०५] प्रत सूत्रांक [३३३] दीप अनुक्रम [४०६ ] [भाग-९] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ [ मूलं + वृत्ति: ] शतक [८], वर्ग [-], अंतर् शतक [-] उद्देशक [६], मूलं [ ३३३ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः स्थविरपिण्डं 'घेरा य से'त्ति स्थविरा: पुनः 'तस्य' निर्ग्रन्थस्य 'सिय'त्ति स्युर्भवन्तीत्यर्थः, 'दाव'ति दद्यात् दापयेद्वा अदत्तादानप्रसङ्गात् गृहपतिना हि पिण्डोऽसी विवक्षितस्थविरेभ्य एव दत्तो नान्यस्मै इति, 'एगंतेत्ति जनालोकवर्जिते 'अणावाए'त्ति जनसंपातवर्जिते 'अचित्ते'त्ति अचेतने, नावेतनमात्रेणैवेत्यत आह- 'बहुफासुए'ति बहुधा प्रासुक बहुप्रासुकं तत्र, अनेन चाचिरकालकृते विकृते विस्तीर्णे दूरावगाढे त्रसप्राणवीजरहिते चेति सङ्गृहीतं द्रष्टव्यमिति, 'से य ते'त्ति स च निर्ग्रन्थः 'तो' स्थविरपिण्डौ 'पडिग्गाहेजत्ति प्रतिगृह्णीयादिति ॥ निर्ग्रन्थप्रस्तावादिदमाह निथेण य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविद्वेणं अन्नयरे अकिचट्ठाणे पडिसेविए, तस्स णं एवं भव|ति-इहेब ताव अहं एयरस ठाणस्स आलोएमि पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि विजट्टामि विसोहेमि अकरण| याए अन्भुमि अहारिहं पायच्छितं तवोकम्मं परिवज्जामि, तओ पच्छा घेराणं अंतियं आलोएस्सामि | जाव तवोकम्मं पडिवज्जिस्सामि, से य संपट्टिओ असंपत्ते थेरा य पुवामेव अमुहा सिया से णं भंते किं आराहए विराहए ?, गोयमा ! आराहए नो विराहए १ । से य संपट्टिए असंपते अप्पणा य पुद्दामेव अमुहा सिया से णं भंते । किं आराहए विराहए ?, गोयमा ! आराहए नो विराहए २, से य संपट्टिए असंपत्ते अपणा य पुधामेव थेरा य कालं करेज्जा से णं भंते! किं आराहए विराहए ?, गोयमा ! आराहए नो विराहुए है, से य संपट्टिए असंपत्ते अप्पणा य पुवामेव कालं करेजा से णं भंते । किं आराहए विराहए ?, गोयमा ! आराहए नो विराहए ४, से य संपट्टिए संपत्ते घेरा य अमुहा सिया से णं भंते । किं आराइए For Parts Only ~ 191~ yor
SR No.035009
Book TitleSavruttik Aagam Sootraani 1 Part 09 Bhagavati Mool evam Vrutti Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandsagarsuri, Dipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherVardhaman Jain Agam Mandir Samstha Palitana
Publication Year2017
Total Pages552
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size120 MB
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