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श्रेष्ठि- देवचन्द्र- लालभाई - जैनपुस्तकोद्वारे ग्रन्थाः ९३
श्रीमदञ्चलगच्छीयकविचक्रवर्त्तिश्रीजयशेखरसूरिविरचितं
जैनकुमारसंभवमहाकाव्यम् ।
तच्छियश्रीधर्मशेखरसूरिकृतया टीकया सहितम् ।
ख
श्रेष्ठि- देवचन्द्र- लालभाई जैनपुस्तकोद्धारसंस्था ।
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0==
श्रेष्ठी देवचन्द लालभाई जह्वेरी.
=
जन्म १९०९ वैक्रमाब्दे
कार्तिक शुक्लैकादश्याम् (देवदीपावली-सोमवासरे)
सूर्यपुरे.
निर्याणम् १९६२ वैक्रमाब्दे
पौषकृष्णतृतीयायाम् (मकरसङ्क्रान्तिमन्दवासरे)
मुम्बय्याम्.
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Seth Dovchand Lalbhai Jain Pustakoddhar
Fund Series: No. 93
JAIN KUMĀR SAMBHAVA MAHĀ KĀVYA
BY
S'RĪ JAYASHEKHARA SŪRI
With the Commentary of
S'RĪ DHARMASHEKHARA SŪRI
(of 15th Century)
Vikrama Era 2002]
Price Rs. 2-8-0
[1946 4. D.
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बोर्ड आफ् ट्रस्टीज् इ.
१९४६
शेठ साकरचंद खुशालचंद. शेठ नेमचंद गुलाबचंद. शेठ मोतीचंद मगनभाई. शेठ हीराचंद कस्तुरचंद.. शेठ तलकचंद मोतीचंद. शेठ बाबुभाई प्रेमचंद..
शेठ दे. ला. जैन पु. फंड.
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श्रेष्ठि-देवचन्द्र-लालभाई-जैनपुस्तकोद्धारे ग्रन्थाङ्कः ९३
श्रीमदञ्चलगच्छीयकविचक्रवर्तिश्रीजयशेखरसूरिविरचितंजैनकुमारसंभवमहाकाव्यम् । तच्छिष्यश्रीधर्मशेखरसरिकृतया टीकया सहितम् ।
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अष्टमसर्गपर्यन्तं संशोधकाः, सम्पादकाश्चदिवङ्गताः आचार्याः श्रीमद्विजयक्षमाभद्रसूरयः ।
तेषां स्वर्गमनानन्तरं संशोधकःआचार्यश्रीमद्विजयलब्धिसूरीश्वरचरणचश्चरीकः
विक्रमविजयो मुनिः।
प्रकाशकोहीराचन्द कस्तुरचन्द झवेरी
मोतीचन्द मगनभाई चोकशी श्रेष्ठि-देवचन्द्र-लालभाई-जैनपुस्तकोद्धारसंस्थायाः कार्याधिकारिणौ ।
ख्रिस्ताब्दं १९४६
वि. सं. २००२ वीरात् २४७२ शाके १८६८
प्रतीनां सार्द्ध सप्तशतम् मूल्यं २३ रूप्यकसार्घद्वयम्
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प्रकाशक:--
हीराचन्द कस्तुरचन्द झवेरी मोतीचंद मगनभाई चोकशी
ट्रस्टी शेठ देवचंद लालभाई जै. पु. फंड. गोपीपुरा, बडेखांनो चकलो, सुरत.
प्रिन्टर:- रामचंद्र येसू शेडगे, निर्णयसागर प्रेस, नं. २६-२८ कोलभाट स्ट्रीट, मुंबई.
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प्रस्तावना
विश्वसाहित्यमां, भारतीय साहित्य घणुं ज उच्चस्थान भरावे छे. भारतीय तत्त्ववेत्ताओए पोतानी विचारगंगानो स्रोत प्रत्येक भाषामां अने साहित्यनां विविध अंगोमां वहेवडाव्यो छे. भारतीय साहित्यकारोनी असाधारण मौलिकता एछे के तेमनी रचनानुं ध्येय लोकमनोरंजन न बनतां लोकहितमां छे, अने तेथीज तेमनी कृतिओ सर्व बंधनोथी मुक्ति अने मानवताना आदर्शनी सुगंधिथी महेकी उठे छे.
भारतीय साहित्यने शणगारवामां जैन महर्षिओए आपेलो फाळो असाधारण महत्त्वनो छे. आत्महित अने लोकहितने खातर पोतानां जीवनने अर्पण करनारा आ पूज्योए शुद्ध मानवताने माटे ज सर्जन कर्यु छे. लोकमानसमां अनादिथी घर करी बेठेली आसुरी वासनाओना निर्मूल नाशनाज एक मात्र प्रयत्न का साहित्यने तेमणे पोतानुं साधन बनाव्युं छे. अलबत्त ! केटलाक अपवादोमां, श्रृंगार आदि रसोनां पण अपूर्व वर्णनो तेमने करवां पड्यां छे ते पण बालबुद्धि जीवने ते द्वारा धर्मामृतनां पान कराववा माटेज अने तेथी ज जैनाचार्योए नहि खेड्यो होय तेवो एक पण साहित्यप्रदेश आपणने मळनार नथी. अपूर्व प्रतिभा, महान् सर्जनशक्ति अने आदर्श त्यागी जीवनना त्रिवेणी संगमरूप
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प्रस्तावना
सागरमांथी एमणे वहावेली साहित्यभागीरथी साचेज लोकहितकर, पवित्र अने सुखादु छे. __ जैन साहित्यस्रष्टाओए जनकल्याण अर्थे निर्माण करेला साहित्यने आडे सांप्रदायिक भावनाने आवया दीधी नथी. प्रत्येक दर्शनना साहित्योने पोतानी विवेचनशक्तिद्वारा एमणे विवेच्यां छे. 'न वदेद्यावनी भाषाम्' नी मान्यता वाळा भारतना ए साहित्यकारोए फारसीभाषामां पण पोतानी ज्ञानगंगा वहावी छे. अने मुस्लीम साहित्यकार अब्दुल रहमानना 'संदेशरासक' ने टीका द्वारा सुसंस्कृत कयों छे. आ सिवाय भारतीय दर्शनकारोना ग्रन्थरत्नो परनी एमनी कृतिओने आलेखीये तो एक महा निबंध थई जाय. कन्नडभाषानुं व्याकरण पण जैन विद्वानोनीज प्रसादी छे. • आम विश्वतोमुखी प्रतिभावान जैन विद्वानोए विकसावेला अनेक क्षेत्रोमांनुं आ काव्य पण एक महान् उदाहरण छे. महाकवि कालिदासना कुमारसम्भवतुं अनुकरण आ काव्यमा छे. जेम कालिदासना कुमारसम्भवमा कार्तिकेयना जन्मनुं वर्णन छे तेम आ काव्यमा भगवान् श्री ऋषभदेव स्वामिना पुत्र श्री भरतजीना जन्मनुं वर्णन कविश्रीए कर्यु छे. प्रासंगिक वर्णन तरीके युगादिदेव श्री ऋषभ प्रभुनो जन्म, बाल्यावस्था सुनन्दा-सुमंगला साथे पाणिग्रहण चतुर्दशस्वप्न विगेरे वर्णनो कर्यां छे. तदुपरांत ऋतुओर्नु अने प्रातःकाल आदिनुं पण मनोरम वर्णन कविश्रीए यथावसर कयु छे आ काव्य एक महाकाव्य छे अने महाकाव्यमा
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प्रस्तावना
होवा जोईता सघळा गुणो आमां आपणने प्राप्त थाय छे. पदलालित्य, अर्थगौरव, रसपूर्ति, शब्दालंकार अने अर्थालंकारोथी अलंकृत आ काव्य विद्वानोने अपूर्व आनन्द उत्पन्न करावे तेवू छे. कविश्रीनी दर्शनशास्त्रो आदिमां पण असाधारण विद्वत्ता हती ए एमना ग्रन्थोनुं परिशीलन करनारने मुक्तकंठे स्वीकारवू पडे तेम छे. - कविश्रीने आ काव्य रचवानी प्रेरणा सरस्वती तरफथी थई छे. आ काव्यना टीकाकार कविश्रीना ज शिष्य श्रीधर्मशेखरसूरिजी आना पहेला सर्गना पहेला अने बीजा श्लोकोनी टीका करतां आ प्रमाणे जणावे छः "श्री जयशेखरसूरिजी स्तम्भतीर्थ ( खंभात ) मां समाधि ध्यानमां बेठेला हता त्यारे श्री भारती देवीए कह्यु के,-'प्रभो ! निश्चिन्त शा माटे वेठा छो ? आम कहीने 'अस्त्युत्तरस्यां दिशि कोशलेति' तथा 'सम्पन्नकामां नयनाभिरामाम्' आ बे पादोथी शरु थता बे काव्यो आपी आ काव्यनी रचना करावी" टीकाना मंगलाचरणमा पोताना गुरु श्री जयशेखरसूरिजीनी स्तुति करतां 'यस्मै काव्ययुगप्रदानवरदा श्रीशारदा देवता' आ मुजब विशेषण आपे छे. तेमज कविश्रीए पोते पण आज काव्यना अन्तिम सर्गना छेल्ला पद्यमां 'वाणिदत्तवरः' आ पदनो उल्लेख पोताना विशेषण रूपे कर्यो छे जे उपरनी मान्यतानुं सारु समर्थन करे छे. खंभातमां उपरनो सरस्वती साथेनो वार्तालाप थयो होवाथी संभव छ के, आ ग्रन्थनी रचना खंभातमांज थई होय.
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प्रस्तावना
ग्रन्थकारनो परिचयः -आ काव्यना कर्ता आंचलगच्छीय श्री महेन्द्रप्रभसूरिना शिष्य आचार्य श्री जयशेखरसूरिजी छे. जो के, ग्रन्थकारे अन्थना अन्तमा पोताना नाम निर्देश सिवाय विशेष कशो परिचय आप्यो नथी तेम छतां, तेओश्रीना अन्यान्य संस्कृत अन्थोमां तेओए पोतानी विधिपक्ष (आंचलगच्छ ) नी परंपरा आ मुजब सूचित करी छे ।
१ आर्यरक्षितसूरि ६ अजितसिंहसूरि (आंचलगच्छ स्थापक)
२ जयसिंहसूरि
७ देवेन्द्रसिंहसूरि
३ धर्मघोषसूरि
८ धर्मप्रभसूरि
४ महेन्द्रसिंहमूरि
९ सिंहतिलकसूरि
५ सिंहप्रभसूरि
१० महेन्द्रप्रभसूरि
१ मुनिशेखरसूरि २ जयशेखरसूरि ३ मेरुतुंगसूरि
. १ श्री महेन्द्रप्रभसूरिनो जन्म वि. सं. १३६३ मां वडगाममा, दीक्षा वि. सं. १३७५ मां विजापुरमां, आचार्यपद वि. सं. १३९३ मां अहिलपुरपाटणमां, गच्छनायकपद वि. सं. १३९८ मां खंभातमा, अने खर्गवास वि.सं. १४४४ मां थयो हतो.
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प्रस्तावना
कवीश्वरे पोतानो श्री महेन्द्रप्रभसूरिना मध्यमशिष्य तरीके निर्देश करी पोतानो दीक्षा समय श्री मुनिशेखरसूरि पछी अने श्री मेरुतुंगसूरिजी पहेलां सूचित कर्यो छे. अंचलगच्छनी पट्टावलिमां मेरुतुंगसूरिनो दीक्षासमय वि. सं. १४१८ मां बताव्यो छे अने जयशेखरसूरिजी ते पूर्वे दीक्षित थयेला होवाथी तेमनो जन्म विक्रमनी चौदमी शताब्दिना अन्तमां अगर पंदरमी शताब्दिना प्रारंभमां होवानुं अनुमान थई शके छे. तेमनो विशेष विहार गुजरात अने तेनी आसपास थयो होय तेम तेमना ग्रन्थरचनास्थलो उपरथी समजी शकाय छे. वि. सं. १४६२ सुधीनी तेमनी कृतिओ जोवा मळे छे तेथी ते पछीना नजदीकना समयमां तेमनुं अवसान थयु हशे तेम अनुमानी शकाय छे. ___ कविश्रीनो संस्कृत प्राकृत भाषाओ उपरांत गुजराती भाषा उपर पण घणो सारो काबु हतो, ए तेमना त्रिभुवनदीपकप्रबन्ध आदि ग्रन्थो अवलोकतां रहेजे जणाया विना नही रहे.
तेमनी संस्कृत प्राकृत गुजराती आदि कृतिओ नीचे मुजब छे
१ उपदेशचिन्तामणि' (वि. सं. १४३६) - २ प्रबोधचिन्तामणि' (वि. सं. १४६४ खंभात)
३ धम्मिल्लचरित्रकाव्य १ मुद्रित हीरालालहंसराज. २ मुद्रित जैनधर्मप्रसारकसभा, भावनगर ३ मुदित ही ह..
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४ जैनकुमारसंभवकाव्य ५ शत्रुंजयद्वात्रिंशिको
६ गिरनार गिरिद्वात्रिंशिका
७ महावीरजिनद्वात्रिंशिका
८ आत्मावबोधकुलक ( प्राकृत ) ९ धर्म सर्वस्व
प्रस्तावना
१० उपदेशमालावचूरि'
११ पुष्पमालावचूरि
१२ उपदेश चिन्तामण्यवचूरि
१३ क्रियागुप्तस्तोत्र
१४ छन्दशेखर
१५ नवतत्त्वकुलक
१६ अजितशान्तिस्तव ( प्रचलित नही, अन्य ) १७ संबोधसप्ततिको
१ नं. ५०६-७ आ त्रणे ग्रन्थो कुमारपालचरित्र ( हिन्दी ) साथे जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर तरफथी प्रकाशित थया छे. २ नं. १० थी १३ ना ग्रन्थो जैनग्रन्थावलिमां जणाव्या छे. ३ जैनग्रन्थावलिमां नं. १४-१५-१६ ना कर्ता पण जयशेखरसूरि जणाव्या छे. तेम छतां तेओ आज आचार्य छे के अन्य तेनो खुलासो जोवामां आवतो नथी. जयशेखरसूरि नामना आचार्यो नागपुरीयतपागच्छ कृष्णर्षियगच्छ आदिमां थया छे. ४ आ ग्रन्थना उपर खरतरगच्छीय क्षेमशाखाना क्षेमराज - जयसोमना शिष्य गुणविनये वृत्ति सं. १६५१ म
रची छे
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प्रस्तावना
१८ त्रिभुवनदीपकप्रबन्ध १९ नेमिनाथफागु (५८ कडीनो छे.)
आ सिवाय केटलांक स्तवनो बनाव्यानो उल्लेख मले छे. टीका अने टीकाकारः
आ ग्रन्थमां, काव्यकारना आशयने स्पष्ट करती काव्यकारना ज शिष्य श्री धर्मशेखरसूरिजी कृत टीका पण साथैज मुद्रित थई छे. अभ्यासिवर्गने काव्यकारनो आशय समजवामां सरलता पडे अने प्राथमिक अभ्यासियो पण लाभ लई शके ए हेतुथी टीकाकार महर्षिए टीकाने घणीज सरळ करी छे. टीकाकार पोतेज, टीकानी शरुआतमां, टीकानी रचनाने उद्देशीने लखे छे के 'अत्र ग्रन्थे च कापि समासं कृत्वा व्याख्या करिष्यते, कापि पर्यायमात्रमेव प्रोच्य व्याख्या करिष्यते' आ पोतानी करेली प्रतिज्ञा मुजब संक्षेपमां पण स्पष्टार्थावबोधक टीका करी छे. __टीकाकारे टीकानी रचना सं. १४८३ मां, संपादलक्षदेशमां, षदपुर नामना नगरमां करी छे. आ सिवाय तेमणे पोताना विषे कशोज उल्लेख प्रशस्तिमां कों नथी. तेमज अन्य ग्रन्थोमां पण तेमना विषेनो उल्लेख हजी सुधी मारा जोवामां आव्यो नथी.
१ आ ग्रन्थ पोताना प्रबोधचिन्तामणिनो काव्यमय अनुवाद छे. परमहंसप्रबन्ध, प्रबोधचिंतामणि चौपाई, अंतरंग चौपाई आदि पण तेना नामो छे. २ जुओः प्रशस्तिश्लोक नं. ४-६ आजना अजमेर (मारवाड) ना आसपासनो प्रदेश.
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आ टीकार्नु संशोधन श्रीमाणिक्य सुन्दरसूरिजीए कर्तुं छे एम टीकाकारे टीकानी प्रशस्तिना पांचमा लोकमां तथा प्रत्येक सर्गना अन्तमां उल्लिखित कयुं छे. श्री माणिक्यसुन्दरसूरिजी काव्यकार श्रीजयशेखरसूरिजीना लघुगुरुभ्राता श्री मेरुतुङ्गसूरिजीना शिष्य छे. तेमणे पण संस्कृत गुजराति गद्य आदिमां अनेक कृतिओ रची छे
प्रस्तावना
प्रस्तुत संस्करण:
आ ग्रंथना नीचे मुजब वे संस्करण आ प्रकाशन पहेलां छपाई गयां छे.
श्रावक भीमसी माणेक तरफथी प्रकरणरत्नाकरना भागमां केवळ मूल अने तेनुं पं. हीरालाल हंसराजे करेलं गुजराती भाषावतरण घणां वर्षो अगाउ मुद्रित थयुं छे. बीजुं संस्करण जामनगरनी 'आर्यरक्षितपुस्तकोद्धार संस्था' तरफथी गत वर्ष - मांज प्रकाशन पाम्युं छे. तेमां धर्मशेखरसूरिजी कृत टीका पण मुद्रित थई छे. परंतु ते अने अहिं प्रकाशन पामती टीका एकज होवा छतां केटलाक स्थलोए फेरफारवाली छे. आ फेरफार, संभव छे के, प्रतिना कोई वांचके कर्यो होय अथवा तो प्रस्तुत संस्करणना संपादके कर्यो होय. उक्त संस्करण मुद्रित थई रह्युं हशे त्यारेज स्व० विद्वान् आचार्य श्री विजयक्षमा भद्रसूरिजी महाराजे, प्रस्तुत वांचको समक्ष रजु
१ वधु परिचय माटे जुओ: मो. द. देसाईकृत जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास.
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प्रस्तावना
थता संस्करण- संपादन शरु कयु हतुं. हुं मार्नु छ के, तेमने जामनगरनी उक्तसंस्था तरफथी थई रहेला प्रकाशननी जाण नहीं होय तेथीज तेमणे आ शरु कयु हशे. जो आपणी पुस्तकप्रकाशन संस्थाओ एक बीजाना सहकारथी अने पोतानी प्रवृत्तिओनी अन्योन्य माहिती आपवा पूर्वक कार्य करे तो एकजातनां कार्यो पाछळनो श्रम, शक्ति अने द्रव्यनो दुरुपयोग थतो अटके अने अन्य उपयोगी कार्यों थई शके. ___ कमभाग्ये, आ प्रकाशनना अढार फोर्म ( २८८ ... ८ सर्ग) मुद्रित थया पछी, विद्वान आचार्य श्रीविजयक्षमाभद्रसूरिजी महाराज वढवाण केम्प (काठीयावाड) मां वि. सं. २००० ना आषाढ शुक्ल एकमना अमंगल प्रभाते विकराल कालना दुरुच्छेद पंजामां बेतालीस वर्षनी उमरे अनेक धर्मसेवा अने श्रुतसेवा करवानी भावना साथे सपडाई गया अने परिणामे आ पुस्तक- मुद्रण त्यांथीज अटकी पड्यु.
पूज्य व्याख्यान वाचस्पति कविकुलकिरीट गुरुदेव श्री विजय लब्धिसूरीश्वरजी महाराजानी शुभनिष्ठा मां गत चातुर्मास अत्र थयुं दरमियान शेठ देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फंडना ट्रस्टीओ श्री हीराचंद कस्तुरचंद झवेरी अने श्री बाबुभाई प्रेमचंद झवेरीए अधुरा रहेला आ कार्यने संपूर्ण करी आपवानुं कहेतां में आ कार्य हाथ धयु. संशोधन माटे कोई हस्तप्रतो मने आपी नथी, पू. क्षमाभद्रसूरि महाराजे तैयार करेल प्रेस कॉपीना आधारेज में आ
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प्रस्तावना
पुस्तकनुं नवमा सर्गथी संशोधन कर्यु छे. प्रेस कॉपीमां पण तेनी कई हस्तप्रतना आधारे कॉपी करावी छे, तेनो निर्देश नथी, तेथी कया भंडारनी कई हस्त प्रत के प्रतोना आधारे आनी कॉपी थई छे ते कहेवाने हुं समर्थ नथी. • आ पुस्तकना संशोधनमां, खास करीने प्रस्तावनाना लेखनमां मुनिश्री भास्करविजयजीए आपेली मदद माटे तेमने धन्यवाद आप्या सिवाय केम चाले ? ... अन्तमां, प्रेसदोष, संशोधनदोष अगर तो मतिमंदता आदिना योगे जे कांई स्खलना रही जवा पामी होय तेनुं संशोधन करी अभ्यासिओ आनुं अध्ययन-परिशीलन करे अने ते द्वारा वीतरागभाषित सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन, अने सम्यग् चारित्र रूप रत्नत्रयीनी यथाशक्ति आराधनामां वधुने वधु आगळ वधे एम इच्छु छु.. .
लालबाग जैन उपाश्रय, । पू. आचार्यदेव श्रीमद्विजय.. भुलेश्वर, मुंबई ४ लब्धिसूरीश्वरचरणसेवक आषाढ शु. ८ वि. सं. २००२ , मुनि विक्रमविजय
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आभारदर्शन ।
सद्गत पू० आचार्य श्री क्षमाभद्रसूरिजीथी दैववशात् संपूर्ण नहि करी शकायलं आ जैनकुमारसंभव महाकाव्य सद्भाग्ये पूज्य आचार्यवर श्री विजयलब्धिसूरिजीना मुंबई चातुर्मास दरम्यान तेमना विद्वान शिष्यरत्नो मुनिप्रवर श्री विक्रमविजयजी तथा श्री भास्करविजयजीना सानंद सहकारने परिणामे संपूर्णता पामी शक्युं छे, ते बदल फंड तरफथी तेओश्रीनो अहीं आभार मानवानी अमे तक लइए छीए.
प्रस्तुत ग्रन्थना रचयिता विष प्रस्तावनामां विस्तृत रीते कहेवायुं छे एटले अहिं ते बाबतनुं पुनरुच्चारण जरूरनुं नथी; परंतु आ संस्थाना व्यवस्थापको प्राचीन अने अप्रकट रहेला जैन साहित्यादिना ग्रंथोनुं प्रकाशन करवा सदा उत्सुक छे-- अने रहेशे. तेओ आशा राखे छे के तेवा प्राचीन ग्रंथोना प्रकाशन माटे धुरंधर विद्वान जैनमुनिओ तथा श्रावक समुदाय तरफथी फंडना व्यवस्थापकोने योग्य मार्गदर्शन तथा सहाय मळशे. आ फंडद्वारा जैन साहित्यना छूपां अनेक रनो जाहेरमां मूकाय अने ते द्वारा जैन शासननी कीर्तिपताका दिगन्तमा फरकती रहे ए अमारी भावना छे.
आ प्रकाशनमा सहाय करनारा सर्वेनो फरी वार आभार मानी विरमीए छीए.
ली. हीराचंद कस्तुरचंद झवेरी मोतीचंद मगनभाई चोकशी
व्यवस्थापको श्री दे० ला० जै० पु० फंड.
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श्रेष्ठि देवचन्द्र लालभाई-जैनपुस्तकोद्धारेश्रीमदश्चलगच्छीयकविचक्रवर्त्तिजयशेखरसूरिविरचितं जैनकुमारसंभवमहाकाव्यम् । तच्छिष्यश्रीधर्मशेखरसूरिकृतटीकया सहितम् । विश्वहितबोधिदायकश्रीअमीविजयगुरुभ्यो नमः
६
॥ अर्हम् ॥ अथ प्रथमः सर्गः प्रारभ्यते । अस्त्युत्तरस्यां दिशि कोशलेति,
पुरी परीता परमर्द्धिलोकैः। निवेशयामास पुरः प्रियायाः,
खस्या वयस्यामिव यां धनेशः॥१॥ सम्पन्नकामा नयनाभिरामाः,
सदैवजीवत्प्रसवा अवामाः। यत्रोज्झितान्यप्रमदाऽवलोका अदृष्टशोका न्यविशन्त लोकाः ॥२॥
युग्मम् । टीकाकारमङ्गलाचरणम्ध्यात्वा श्रीशारदां देवीं, नत्वा श्रीगुरूनपि। कुमारसम्भवस्येयं, विवृतिर्लिख्यते मया ॥१॥
१४
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३
सि
जैनकुमारसंभवं [प्रथमः यस्मै काव्ययुगप्रदानवरदा, श्रीशारदा देवता, श्रीमज्जैनकुमारसम्भवमहाकाव्यादिकर्ता कलौ ॥ सिद्धान्तोदधिचन्द्रमाः सहृदयश्रेणीशिरःशेखरः, सोऽयं श्रीजयशेखराख्यसुगुरु याजगन्मङ्गलम् ॥२॥
अत्राऽयं किल सम्प्रदायः-लौकिककाव्यानुसारेण 'अस्त्यु६त्तरस्यां दिशि' इति सप्ताक्षराणि वर्तन्ते इति न ज्ञातव्यं किन्तु
श्रीस्तंभतीर्थे श्रीमदञ्चलगच्छगगनप्रभाकरेण यमनियमासनप्राणायामाद्यष्टाङ्गयोगविशिष्टेन समाधिध्यानोपविष्टेन निजम९तिजितसुरसूरिणा परमगुरुश्रीजयशेखरसूरिणा चन्द्रमण्डलसमुज्ज्वलराजहंसस्कन्धोषितया चञ्चच्चलकुण्डलाद्याभरणविभूषितया भगवत्या श्रीभारत्या प्रभो ! त्वं कविचक्रवर्तित्वं च १२ प्राप्य निश्चित इवासीनः किं करोषि ? इति प्रोच्य ( अस्त्युत्तरस्यां दिशि कोशलेति० ॥ १॥ सम्पन्नकामा नयनाभिरामा०
॥ २ ॥ एतदाद्यकाव्ययुग्मं दत्वा विहितसुरासुरसेव१५श्रीयुगादिदेवसत्कजन्मबालकेलियौवनमहेन्द्रस्तवनसुमंगलासुनन्दापाणिग्रहणचतुर्दशस्वप्नदर्शनभरतसंभवप्रातर्वर्णनपुरःसरं जैनं
श्रीकुमारसम्भवमहाकाव्यं कारितं, यथा लौकिककुमारसम्भवे १८ कुमारः कार्तिकेयः तस्य सम्भवस्तथा अत्र कुमारो भरतः
तस्य संभवो ज्ञेयः । शिशवश्च सर्वेऽपि कुमारा उच्यन्ते अतः
कुमारसम्भव इति नाम्ना महाकाव्यमत्रापि ज्ञेयम् । तेन २१ आदौ ध्यात्वा श्रीशारदां देवीं इति प्रारम्भे न दुष्टम् ।
अत्र ग्रन्थे च क्वापि समासं कृत्वा व्याख्या करिष्यते, कापि शब्दस्य पर्यायमात्रमेव प्रोच्य व्याख्या करिष्यते । २४ अस्त्युत्तरस्यां दिशि कोशलेति० । अस्ति विद्यते-कासौ
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३
सर्गः] टीकया सहितम् कर्तृ० १ कोशला अयोध्या इति पुरी नगरी । अयोध्यायाः शाश्वतस्वेन त्रिकालव्यापकत्वेऽपि वर्तमाननिर्देशः । अतीतभविष्यतोः कालयोर्विनष्टानुत्पन्नत्वेन अवस्तुत्वात् वर्तमानस्यैव कालस्य ३ वास्तवत्वात् । यदागमः "भवति स नामातीतः प्राप्तो यो नाम वर्तमानत्वम् । एष्यंश्च नाम स भवति यः प्राप्स्यति वर्तमानत्वम् ॥ १॥" क्वास्ति उत्तरस्यां दिशि कौबेयाँ ककुभि । इह ६ यद्यपि नानादेशनिवेशभाजनं जनं प्रतीत्य विवक्षितनगर्यादिकनियमनं न तादृशीं सङ्गतिमङ्गति तथापि सकले दिग्मण्डले उत्तरस्याः प्रशस्यत्वात् तन्नामोत्कीर्तनं चकार कविः,९ खाक्रान्तं दक्षिण दिशमाश्रित्य वा । कथंभूता कोशला ? परमर्द्धिलोकैः परीता--परमा ऋद्धिर्धनकनकवसनादिका येषां ते परमर्द्धयस्ते च ते लोकाश्च परमर्द्धिलोकास्तैः परीता परिगता १२ अन्विता इति यावत् , अथ कोशलामेव प्रधानपुरुषकतत्वेन विशिनष्टि-~-धनेशो धनद उत्तरदिक्पालो यां कोशलां पुरी निवेशयामास स्थापयामास, ऋषभजन्मतः पूर्वलक्षाणां १५ विंशतौ व्यतीतायाम् । एवं हि आगमे श्रूयते, यदा किल भगवान् ऋषभस्वामी अस्या अवसपिण्यास्तृतीयारकस्यावसाने विश्वव्यवहारवन्ध्यत्वेन मुग्धमतीनां प्रजानां निखिलन्याय-१८ प्रदर्शनाय राज्यभारमङ्गीचकार । तदा च सौधर्मसुरपतिनिदेशवशंवदो धनदो वर्ण्यसौवर्णप्राकारां अभ्रंलिहस्फुटस्फाटिकागारां संभवन्नवनवपूजोत्सव विहारां नवयोजनविस्तारां द्वाद-२१ शयोजनायामां सरःसरसदीर्घिकागृहवाटिकारामाभिरामां काले भविष्यदयोध्याभिधानां विनीतां पुरीं निवेशयामास । ततः २३
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जैनकुमारसंभवं [प्रथमः दूरस्थानगास्तदासन्ननरानाहुस्ते कुशला इति कालेन सा कोशला
अभूत् । एतेन दक्षिणभरतार्धमध्यवर्तित्रिभागरूपस्य कौश३ लायाः स्थानस्य शाश्वतत्वं तन्निवेशस्य च गृहप्राकारारामलक्ष. णस्य धनदकर्तृकत्वं उक्तं भवति । उत्प्रेक्ष्यते-खस्याः आत्मनः सम्बधिन्याः प्रियाया इष्टायाः। (पुरः) पुरतो नगर्याः अलकाया ६ वयस्यामिव सखीमिव । सख्यं हि समानशीलयोरेव शोभते इत्य. नेन कोशलायाः केनाऽपि रामणीयकगुणेन अलकायाः सादृश्य मन्यन्ते । तेन च कोशलायां दृष्टायां अदृष्टामप्यलकां दृष्टामिव ९ मन्यन्ते । अन्योऽपि धनेशो धनवान् खस्याः प्रियायाः कान्तायाः पुरोऽग्रे वयस्यां सखी निवेशयति । ननु इदं शास्त्रं नगर
सागरशैलऋतुचन्द्रार्कोदयोद्यानजलकेलिमधुपानसुरतमन्त्रदूतप्र१२याणाजिनायकाभ्युदयविवाहविप्रलम्भकुमारवर्णनरूपविशिष्टाष्टादशवर्णनोपेतत्वान्महाकाव्यम् तच्चादौ मङ्गलाभिधानमन्तरेण (कथं) श्रोतुः प्रवृत्तिनिमित्तं भवति । नैवम् । अस्य महाकाव्यस्य १५ तत्र तत्राधिकारे श्रीऋषभदेवनाममन्त्रपवित्रितस्य सर्वस्याऽपि मङ्गलमयत्वात् मङ्गलमयस्यापि मङ्गलान्तरकरणे अनवस्थादौस्थ्यस्य
दुर्निवारत्वात् । न हि प्रकाशमयः प्रदीपः खप्रकाशे प्रदीपा१८न्तरमपेक्षते । किञ्च 'यदध्यासितमर्हद्भिस्तद्धि तीर्थ प्रचक्षते', इति वचनात् बहुभिस्तीर्थकृद्भिरध्यासितायाः कोशलायास्तीर्थ
रूपतैव । शास्त्रारम्भे च तन्नामग्रहणात् कर्तुः श्रोतुश्च निश्चितो २१ मङ्गलाभ्युदय इति सुस्थम् ॥ १ ॥ सम्पन्नकामा नयनाभि
रामा-यत्र यस्यां नगयों एवंविधा, लोका न्यविशन्त, धातूनाम२३ नेकार्थत्वात् वसन्ति स्म 'निविशः' (३।३।२४) इति सूत्रेणा
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सर्गः] टीकया सहितम् स्मनेपदमत्र । किंलक्षणा लोकाः? सम्पन्नकामाः सम्पन्नाः कामा अभिलाषा मनोरथा येषां ते सम्पन्नकामास्तत्कालमेव प्राप्तमनोवाञ्छितसर्वसुखसम्पत्तित्वात्, पुनः किं०? नयनाभिरामाः ३ नयनानां लोचनानाम् अभिरामाः मनोज्ञाः सर्वाङ्गसौभाग्यसुन्दरत्वात् । पुनः किंविशिष्टाः? सदैव जीवत्प्रसवः सर्वकालं जीवितावधि जीवन्तः प्रसवा अपत्यानि येषां ते सदैवजीवत्प्रसवाः। ६ पुनः किंविशिष्टाः ? अवामा न परस्परं प्रतिकूला मिथः सौहार्दपरत्वात् । पुनः किंविशिष्टाः ? उज्झितान्यप्रमदावलोका उज्झितस्त्यक्तोऽन्यप्रमदानां परस्त्रीणामवलोको दर्शनं यैस्ते उज्झित०९ परस्त्रीपराङ्मुखत्वेन परनारीसहोदरेति लब्धबिरुदत्वात् । पुनः किंविशिष्टाः ? अदृष्टशोकाः न दृष्टः शोको यैस्ते अदृष्टशोकाः इष्टवस्त्वादेरवियोगत्वात् ॥ २॥
चन्द्राश्मचञ्चत्कपिशीर्षशाली
सुवर्णशालः श्रवणोचितश्रीः। यत्राभितो मौक्तिकदत्तवेष्ट
ताटङ्कलीलामवहत्पृथिव्याः ॥३॥ चन्द्राश्मचञ्चत्कपिशीर्षशाली । यत्र यस्यां नगर्यां सुवर्णशालः वर्णप्राकारः अभितः समन्ततः पृथिव्या मौक्तिकदत्तवेष्टितां १८ ताटङ्कलीलां मौक्तिकैर्दत्तो वेष्टो यस्मिन् एवंविधो यस्ताटङ्कः कर्णाभरणं तस्य लीलां अवहत् । किंलक्षणः सुवर्णशाला? चन्द्राश्मचञ्चत्कपिशीर्षशाली चन्द्रकान्तसत्कानि चञ्चन्ति प्रस-२१ रन्ति कपिशीर्षाणि तैः शाली शोभमानः । पुनः किंविशिष्टः? श्रवणोचितश्रीः श्रवणायोचिता योग्या श्रीः शोभा यस्य स २३
१२
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जैनकुमारसंभवं
[प्रथमः
श्रव० । ताटङ्कपक्षे श्रवणोचितश्रीः, कर्णस्य योग्या श्रीलक्ष्मी यस्य सः॥३॥ ३ नदद्भिरर्हद्भवनेषु नाट्य
क्षणे गभीरध्वनिभिर्मुदङ्गैः।
यत्राऽफलत्केलिः कलापिपते६ विनापि वर्षा घनगर्जिताशा ॥४॥
नदद्भिरहद्भवनेषु नाट्य० । यत्र यस्यां नगर्यां केलिः क्रीडा, कलापिपतेः मयूराणां श्रेणेः, वर्षाकालं विनापि घनगर्जिताशा ९मेघगर्जारवस्याशा अफलत् । वर्षाशब्दो बहुवचनान्तो ज्ञेयः यथा प्राणदारासुप्रमुखाः । कैर्मृदंगैः । मृदङ्गैः किं कुर्वद्भिः ? अर्हद्भ
वनेषु सर्वज्ञप्रासादेषु नाट्यक्षणे नाटकावसरे नदद्भिः शब्दाय१२ मानैः। किंविशिष्टैर्मृदङ्गैः? गम्भीरध्वनिभिः गम्भीरो ध्वनि दो येषां ते गम्भीरध्वनयः तैः ॥ ४ ॥ हर्षादिवाधास्थितनायकानां
प्राप्य स्थिति मौलिषु मन्दिराणाम् । यस्यां क्वणत्किङ्किणिकानुयायि
नित्यं पताकाभिरकारि नृत्यम् ॥५॥ १८. हर्षादिवाधःस्थितनायकानां० । यस्यां नगर्यां पताकाभिः नित्यं, निरंतरं नृत्यं अकारि, उत्प्रेक्षते हर्षादिव । किं कृत्वा ? मन्दिराणां आवासानां मौलिषु शृङ्गेषु स्थितिं प्राप्य । किंविशिष्टानां मन्दिराणाम् ? अधःस्थितनायकानां अधःस्थिता नायका खामिनो येषु, २२ अत एव हेतोः पताकानां उपरिस्थितत्वहर्षान्नृत्यमिति भावः ।
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सर्गः] टीकया सहितम् किंलक्षणं नृत्यम् ? कणत्किकिणिकानुयायि शब्दायमानक्षुद्रघंटिकाधरिकामनुगच्छत् ॥ ५॥
तमिस्रपक्षेऽपि तमिस्रराशे
रुद्धेऽवकाशे किरणैर्मणीनाम् । यस्यामभूवनिशि लक्ष्मणानां
श्रेयोऽर्थमेवावसथेषु दीपाः॥६॥ तमिस्रपक्षेऽपि तमिस्रराशे० । यस्यां पुर्यां लक्ष्मणानां लक्ष्मीवतां आवसथेष्वावासेषु निशि रात्रौ दीपाः श्रेयोऽर्थमेव मङ्गलार्थमेवाभूवन् , निशि इत्यत्र 'मासनिशासनस्य शसादौ लुग्वा' ९' (सि०२।१।१००) इति सूत्रेणाकारलोपः । क सति ? तमिस्रपक्षेऽपि अन्धकारपक्षेऽपि, तमिस्रराशेरन्धकारसमूहस्य मणीनां किरणैरवकाशं रुद्धे सति । अत एव दीपानां श्रेयोऽर्थत्वमेव १२ तमसो मणिकरणैरेव रुद्धत्वादिति भावः ॥ ६ ॥
रत्नौकसां रुनिकरेण राकी
कृतासु सर्वास्वपि शर्वरीषु । सिद्धिं न मत्रा इव दुःप्रयुक्ता
यत्राभिलाषा ययुरित्वरीणाम् ॥ ७॥ रत्नौकसां० । यत्र यस्यां नगर्याम् इत्वरीणामसतीनां अभि-१८ लाषाः मनोरथाः सिद्धिं न ययुः न गताः, क इव ? दुःप्रयुक्ता अविधिव्यापारिता मन्त्राः (इव) सिद्धिं न यान्ति । कासु सतीषु ? रत्नौकसां रत्नमयावासानां रुग्निकरेण कान्तिसमूहेन, सर्वाखपि शर्वरीषु रात्रिषु, राकीकृतासु राका पूर्णिमा तत्सदृशासु कृतासु २२
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जैनकुमारसंभवं
[ प्रथमः
रात्रिषु । कुलटा चौराणामभिलाषसाधकं तम एव तत्र च
तन्नास्तीति भावः ॥ ७ ॥
३
यद्वेश्मवातायनवर्त्तिवामाजने विनोदेन बहिः कृतास्ये ।
व्योमाम्बुजोदाहरणं प्रमाणविदां भिदामापदभावसिद्धयै ॥ ८ ॥
यद्वेश्मवातायनवर्तिवामा० । प्रमाणविदां तार्किकाणां व्योमांबुजोदाहरणम् - आकाशकमलदृष्टान्तः, अभावसिद्ध्यै अभावसि - ९ द्ध्यर्थं प्रयुक्तं सत् भिदामापत् भेदं प्राप । यदसद्वस्तु प्रमाणेन स्थाप्यते सा अभावसिद्धिः कथ्यते । महीतले घटो नास्ति यथा आकाशे कमलम् । क्व सति ? यद्वेश्मवातायनवर्त्तिवामाजने १२ यस्या नगर्या धवलगृहसत्क गवाक्षवर्तिनि स्त्रीजने, अत्र जातावेकवचनम्, विनोदेन बहिः कृतास्ये सति कौतुकेन गवाक्षस्य द्वारिकाया बहिः कृतमुख इत्यर्थः । स्त्रीणां मुखान्येव आकाशे १५ कमलानि सत्यानि । अत एवाकाशकमलानामसत्कल्पना वादिनां व्यर्था जातेति भावः ॥ ८ ॥
१८
युक्तं जनानां हृदि यत्र चित्रं वितेनिरे वेश्मसु चित्रशालाः ।
यत्तत्र मुक्ता अपि बन्धमा पुगुणैर्वितानेषु तदद्भुताय ॥ ९ ॥
युक्तं जनानां हृदि यत्र चित्रं । यत्र यस्यां पुर्यां वेश्मसु २२ आवासेषु चित्रशाला जनानां लोकानां हृदि चित्रं युक्तं विते
1
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टीका सहितम्
निरे विस्तारयामासुः चित्रशब्देन चित्रकर्म आश्चर्यं वा । चित्रशालाश्चित्रं कुर्वन्ति, एतद्युक्तं यस्य यद्वस्तु स्यात् स तदन्येभ्योऽपि दत्ते युक्तमेतत् । यत् तत्र तासु चित्रशालासु मुक्ता अपि गुणै - ३ वितानेषु बन्धम् आपुः प्राप्तास्तदद्भुताय आश्चर्याय जातम्, ये मुक्ताः सिद्धाः स्युस्ते गुणैः सत्वरजस्तमोलक्षणैः बन्धं कथमावन्ति ? अथवा ये वितानेषु मुक्ताः स्थापिताः स्युः ते गुणै - ६ विनयादिभिर्बन्धं कथम् ? अथवा ये मुक्ताश्चौरादयः स्युः ते गुणै रज्जुभिश्च ० ? इत्थं विरोधः । अथ विरोधपरिहारमाहमुक्ताशब्देन मौक्तिकानि वितानेषु चन्द्रोदयतेषु गुणैस्तन्तु - ९ भिर्बन्धं आपुरिति तत्त्वम्, अत्र विरोधालङ्कारो ज्ञेयः ॥ ९ ॥ प्रभुप्रतापप्रतिभग्नचौरे पौरे जने ज्योतिषिकैर्न यत्र । चौराधिकारः पठितोऽपि सम्यक् प्रतीयते स्मानुभवेन वन्ध्यः ॥ १० ॥ प्रभुप्रतापप्रतिभग्नचौरे० । यत्र यस्यां पुर्यां ज्योतिषिकैर्गणकै- १५ श्रीराधिकारः सम्यक् पठितोऽपि न प्रतीयते स्म ज्ञायते स्म । किंभूतश्चौराधिकारः ? अनुभवेन विना वन्ध्यो फललक्षणया रहितः, कोऽपि चौर्य न करोतीति भावः । व सति ? पौरे जने १८ नागरिकलोके प्रभुप्रतापप्रतिभग्नचौरे सति - प्रभोः श्रीऋषभदेवस्य प्रतापात् प्रतिभग्नाश्चौरा येन स प्रभुप्रताप ० तस्मिन् ॥ १० ॥ पणायितुं यत्र निरीक्ष्य रत्नराशि प्रकाशीकृतमापणेषु ।
२१
सर्गः ]
१२
२३.
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जैनकुमारसंभवं
[प्रथमः
रत्नाकराणां मकराकरत्व
मेवावशिष्टं बुबुधे बुधेन ॥११॥ ३ पणायितुं यत्र निरीक्ष्य रत्न० । यत्र यस्यां नगर्यां बुधेन विदुषा रत्नाकराणां मकराकरत्वं मकरमत्स्यादीनामाकरत्वमेवावशिष्टं उद्धृतं बुबुधे ज्ञातवान् । किं कृत्वा ? आपणेषु हट्टेषु ६ पणायितुं व्यवहाँ रत्नराशिं मौक्तिककर्केतनहंसगर्भपद्मरागादिरत्नसमूहं प्रकाशीकृतं प्रकटीकृतं वीक्ष्य दृष्ट्वा । समुद्रस्य रत्नाकर-मकराकर इति द्वे नाम्नी प्रसिद्धे । रत्नाकरत्वं पुर्या ९गृहीतं, मकराकरत्वं तु समुद्रे स्थितमिति भावः ॥ ११ ॥
यच्छ्रीपथे सञ्चरतो जनस्य
मिथो भुजेष्वङ्गदधट्टनोत्थैः । १२ व्यतायत व्योमगतैः स्फुलिङ्गै
नक्षत्रचित्रं न दिवापि कस्य ॥ १२ ॥ यच्छीपथे सञ्चरतो जनस्य० । यत्र यस्यां नगर्यां व्योमगतै१५राकाशस्थितैः स्फुलिङ्गैर्दिवापि दिवसेऽपि कस्य पुरुषस्य नक्षत्र
चित्रं नक्षत्रसत्काश्चर्य न व्यतायत न विस्तारयामास, 'तनूयी
विस्तारे' तन् यस्तनीत अड् 'क्यः शिति' (सि० ३।४।७०) १८इति (क्यः) ततश्च 'तनः क्ये' (सि० ४।२।६३) इति
नकारस्थाने आकार इति प्रयोगो ज्ञेयः। किंलक्षणैः स्फुलिङ्गैः०,
यच्छ्रीपथे सञ्चरतो जनस्य मिथो भुजेषु अङ्गदघट्टनोत्थैः, २१ यस्यां नगर्यां राजमार्गे सञ्चरतो जनस्य लोकस्य मिथः परस्परं
भुजेषु बाहुषु अङ्गदानां बाहुरक्षाणां घट्टनमास्फुलनम् , ततः २३ समुत्थितैरुत्पन्नैरित्यर्थः ॥ १२ ॥
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सर्गः] टीकया सहितम्
हल्लीसके श्रीजिनवृत्तगान__ यद्वालिकालिः किल चारणीन् । शुश्रूषमाणानिह निश्चलय्या
..ऽलुम्पद्दिवः सप्तऋषिव्यवस्थाम् ॥ १३ ॥ हल्लीसके श्रीजिनवृत्तगानैर्यतालिकालिः । यस्याः पुर्या बालिकानां श्रेणिः । किल इति सत्ये । दिव आकाशस्य सप्तऋषि-६, व्यवस्थां अलुम्पत् , सप्तेभ्योऽप्यधिकतरा मुनयो जाता इत्यर्थः । किं कृत्वा ? हल्लीसके श्रीजिनवृत्तगानैः, रासकमध्ये श्रीऋषभदेवस्य गुणगानैः, इहाकाशे । शुश्रूषमाणान् श्रोतुमिच्छतः । ९ चारणीन् आकाशगामिनो मुनीन् । निश्चलय्य निश्चलीकृत्य ॥ १३॥ दत्तोदकभ्रान्तिभिरिन्द्रनील-
१२ भित्तिप्रभाभिः परिपूर्यमाणाः। आनाभिनीरा अपि केलिवापी
यस्यां जनो मन्दपदं जगाहे ॥ १४ ॥ १५ दत्तोदकान्तिभिरिन्द्रनील० । यस्यां पुर्यां जनो लोकः । केलिवापीः क्रीडासक्तवापीर्मन्दपदं मन्दमन्दपदन्यासं यथा भवति तथा जगाहे अवगाहयामास । किंलक्षणा वापीः ? १८ आनामिनीरा अभि नाभिं यावदेव नीरं यासां ता आना। पुनः किंविशिष्टाः? इन्द्रनीलभित्तिप्रभाभिः परिपूर्यमाणाः इन्द्रनीलसत्कमणिभित्तेः प्रभाभिः सामस्त्येन भ्रियमाणाः ।२१ किंविशिष्टाभिरिन्द्रनीलभित्तिप्रभाभिः ? दत्तोदकान्तिभिर्दत्ता उदकस्य भ्रान्तिर्याभिस्त्राभिर्दत्तो० ॥ १४ ॥
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जैनकुमारसंभवं [प्रथमः यियाचिषौ यत्र जने यथेच्छं
कल्पद्रुमाः कल्पितदानवीराः। निवारयन्ति स मरुद्विलोल
प्रवालहस्तैः प्रणयस्य दैन्यम् ॥ १५ ॥ यियाचिषौ यत्र जने यथेच्छम् । यत्र यस्यां नगर्या कल्प६ द्रुमाः कल्पवृक्षा मरुद्विलोलप्रवालहस्तैर्वायुना चञ्चलानि किशलयान्येव हस्तास्तै ने लोके 'तृणं लघु तृणात् तूलं तूलादपि हि याचकः' इति न्यायात् प्रणयस्य दैन्यं याच्नाया दीनभावं निवा९रयन्ति स, किंविशिष्टे जने? यथेच्छं यियाचिषौ यदृच्छया
गृहभूषणादि याचितुमिच्छौ, किंलक्षणाः कल्पद्रुमाः ? कल्पितदानवीराः वाञ्छितदाने समर्थाः ॥ १५ ॥ १२ पूषेव पूर्वाचलमूर्ध्नि घूक
कुलेन घोरं ध्वनतापि यत्र ।
नाखण्डि पाखण्डिजनेन पुण्य१५ भावः सतां चेतसि भासमानः ॥ १६ ॥
पूषेव पूर्वाचलमूर्ध्नि घूक० । यत्र यस्यां नगर्यां पाखण्डिजनेन सतां चेतसि भासमानो देदीप्यमानो पुण्यभावो न अखण्डि न १८ खण्डयामास । किंलक्षणेन पाखण्डिजनेन ? घोरं ध्वनतापि रौद्रं
यत् (तत्) प्रलपतापि । क इव ? पूषा इव, यथा पूषा सूर्यो घोरं ध्वनतापि धूककुलेन न खण्ड्यते । सूर्यः किंलक्षणः ? पूर्वाचलमूर्ध्नि उदयाचलमस्तके भासमानः ॥ १६ ॥
इति पुरीवर्णनम् -
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सर्ग:]
टीकया सहितम्
इक्ष्वाकुभूरित्यभिधामधाभू
र्यदा निवेशात्प्रथमं पुरोऽस्याः । नामेस्तदा युग्मिपतेः प्रपेदे
तनूजभूयं प्रभुरादिदेवः ॥ १७ ॥ इक्ष्वाकुभूरित्यभिधामधा० । यदा यस्मिन्नवसरे अस्याः पुरो नगर्या निवेशाद्रचनाया प्रथमं पूर्व भूर्भूमिरिक्ष्वाकुभूरित्य-६ भिधां नाममधात् धरति स्म, तदा तस्मिन्नवसरे आदिदेवप्रमुर्युग्मिपते भेयुगलिखामिनो नाभिनृपस्य तनूजभूयं पुत्रभावं प्रपेदे प्रपन्न इत्यर्थः । तनूजभूयमित्यत्र तनूजेन भवनं तनूज-९ भूयं 'हत्याभूयं भावे' (५.१।३६) इति सूत्रेण भूय इति निपातः ॥ १७॥
यत्रोदरस्थे मरुदेव्यदीव्य
त्पुण्येति साध्वीति न कस्य चित्ते । श्रीधानि सन्मौलिनिवासयोग्ये ___ महामणौ रत्नखनिः क्षमेव ॥ १८॥ १५ यत्रोदरस्थे । यत्र यस्मिन् भगवति उदरस्थे सति मरुदेवी पुण्या इति पवित्रा निःपापत्वात् , साध्वी इति निर्मलशीलत्वात् , कस्य चित्ते न अदीव्यत् न दिदीपे, केव ? रत्नखनिः क्षमेव, यथा १८ रत्नखनिः क्षमा महामणौ उदरस्थे मध्यस्थिते सति कस्य चित्ते न दीप्यति; अपि तु सर्वस्यैव चित्ते दीप्यत इति भावः । किंविशिष्टे भगवति ? श्रीधान्नि श्रियः शोभाया गृहे । पुनः किंविशिष्टे भगवति ? सन्मौलिनिवासयोग्ये सतां साधूनां शीर्ष-२२
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६
जैनकुमारसंभवं [प्रथमः निवासयोग्ये । मणिपक्षे श्रीधानि श्रियो लक्ष्या गृहे, पुनः किं०? सन्मौलिनि० ? प्रशस्यमुकुटस्य निवासयोग्ये ॥ १८ ॥ ३ यो गर्भगोऽपि व्यमुचन्न दिव्यं
ज्ञानत्रयं केवलसंविदिच्छुः । विशेषलाभं स्पृहयन्न मूलं .....
खं सङ्कटेऽप्युज्झति धीरबुद्धिः॥१९॥ यो गर्भगो०। यो भगवान् गर्भगोऽपि गर्भस्थितोऽपि दिव्यं देवलोकसम्बन्धि ज्ञानत्रयं मतिश्रुतावधिलक्षणं न व्यगुचत् न ९मुक्तवान् , किंविशिष्टो भगवान् ? केवलसंविदिच्छुः केवल. ज्ञानं प्राप्तुकामः । दृष्टान्तमाह-धीरबुद्धिः पुमान् विशेषलाभ स्पृहयन् वाब्छन् सङ्कटेऽपि मूलं खं मूलद्रव्यं नोज्झति न १२ त्यजति ॥ १९॥
मध्येनिशं निर्भरदुःखपूर्णा
स्ते नारका अप्यदधुः सुखायाम् । यत्रोदिते शस्तमहोनिरस्त
तमस्ततौ तिग्मरुचीव कोकाः ॥ २०॥ मध्येनिशं० । यत्र यस्मिन् भगवति उदिते जाते सति १८ नारका अपि सुखायां सुखानुभवं अदधुः धरति स्म । सुखायामि .. त्यत्र 'सुखादेरनुभवे' (३।४।३४) इति आयप्रत्यये श्रद्धावत्
सुखायाशब्दः, किंलक्षणा नारकाः? मध्ये चित्तेऽनिशं निरन्तरं २१ निर्भरं दुःखपूर्णाः क्षेत्रजाऽन्योन्यकृतपरमाधार्मिककृतत्रिविध
वेदनाभिर्बाढं दुःखिता इत्यर्थः । के इव ? कोकाश्चक्रवाका इव, २३ यथा कोकास्तिग्मरुचि सूर्ये उदिते सति सुखायां सुखं दधति,
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सर्गः] टीकया सहितम् किंलक्षणाः कोकाः ? मध्येनिशं निशाया मध्ये रात्रौ निर्भरेण दुःखेन पूर्णा पूरिताः । किंविशिष्टे भगवति ? शस्तमहोनिरस्ततमस्ततो-प्रशस्ततेजसा निराकृता तमस्ततिः पापश्रेणि- ३ फैन । सूर्यपक्षे तमोऽन्धकारं ज्ञेयम् ॥२०॥ - निवेश्य यं मूर्द्धनि मन्दरस्या
चलेशितुः स्वर्णरुचिं सुरेन्द्राः। प्राप्तेऽभिषेकावसरे किरीट
मिवानुवन्मानवरत्नरूपम् ॥ २१ ॥ निवेश्य यं० । सुरेन्द्रा इन्द्रा अभिषेकावसरे जन्माभिषेक- ९ समये प्राप्ते सति यं भगवन्तं अनुवन् स्तुवन्ति स्म । किं कृत्वा ? अचलेशितुः पर्वतेश्वरस्य मन्दरस्य मेरोमूर्द्धनि मस्तके किरीटं मुकुटमिव स्वर्णरुचिं सुवर्णकान्ति यं स्वामिनं निवेश्योपवेश्य, १२ किं वि० भगवन्तम् ? मानवरत्नरूपं मनुष्येषु रत्नप्रायम्, अन्यस्याप्यचलेशितुः पृथ्वीपतेर्मूर्द्धनि मस्तके मुकुटो निवेश्यते । अर्थवशाद्विभक्तिपरिणामः, कीदृशो मुकुटः ? खर्णरुचिः, १५ पुनः कीदृशः?-मानवरत्नरूपः, माया लक्ष्म्या वा नवरत्नरूपश्च यः स मानवः ॥ २१ ॥
सुपर्वसु स्वानुचरेषु तोषा. दिवेक्षुदण्डेऽस्य सुपर्वणीन्द्रः।
शिशोर्विदित्वा रुचिमाशुवंश
मिक्ष्वाकुनामाङ्कितमातनिष्ठः ॥ २२॥ २१ । सुपर्वसु खानु० । इन्द्रः आशु शीघ्रं इक्ष्वाकुनामाङ्कितवंशमातनिष्ट विस्तारयामास । कस्मादिव ? उत्प्रेक्षते-खानुचरेषु २३
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१६
जैनकुमारसंभवं
[प्रथमः
निजसेवकेषु सुपर्वसु देवेषु तोषाद्धर्षादिव । किं कृत्वा ? अस्य
खामिनः शिशोर्बालस्य सत् इक्षुदण्डे रुचिं अभिलाषं विदित्वा ३ ज्ञात्वा, किंविशिष्टे इक्षुदण्डे ? सुपर्वणि शोभनपर्वणि । सुपर्वशब्देन देवा उच्यन्ते । शोभनपर्वत्वात् सुपर्वा उच्यते, अत एव हेतोः देवेष्वपि तोष इति भावः। कोऽर्थः-अतीतवर्तमानैष्यतां ६ आद्यार्हतां वंशस्थापनादि हरेजीतमति कृत्वा शको वंशस्थापने प्रस्तुते इक्षुयष्टिहस्त आगतोऽर्हदृष्टिं इक्षौ इक्षुविषये खामिनो रुचिं दृष्ट्वोचे-प्रभो ! किं इक्षु अकुर्भक्षयसि 'अकु भक्षणे' इति । ९ अर्हन् करं प्रासारयत् अतो हेतोः हरिरिक्ष्वाकुवंशमस्थापयत् । तदाऽन्येऽपि क्षत्रिया इक्षु भुञ्जते तेन भवन्तीक्ष्वाकवः ।
प्रभोश्च पूर्वजाः काश्यं इक्षुरसं पीतवन्तस्ततः काश्यपगोत्रम् । १२ इक्षवश्च तदा पानीयवल्लीवद्रसं गलन्ति स्म ।। २२ ॥
विलोक्य यं पालनके शयालु
यशोऽस्य लोकत्रयपूरकं च । कार्य कलामञ्चति कारणस्ये
त्युक्तिम॒षैवानिमिषैरघोषि ॥ २३ ॥ विलोक्य यं० । अनिमिषैर्देवैरित्युक्तिम॒षैवालीकैवाऽघोषि१८घोषिता । इतीति किम् ? कार्य कारणस्य कलां अञ्चति प्राप्नोति,
किं कृत्वा यं भगवन्तं पालनके शयालुं विलोक्य खपनशीलं . दृष्ट्वा, च अन्यत् , अस्य भगवतो यशो लोकत्रयपूरकं विश्व
व्यापकं च विलोक्य । कार्य घटः कारणं मृत्पिण्डः, मृत्पिण्डानु२२ मानेन च घटः स्यात् , अत्र तु भगवान् कारणं यशस्तु कार्य
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सर्ग: ]
टीका सहितम्
१७
भगवान् पालन के माति यशो लोकत्रयेऽपि न माति, अत एव कार्यकारणयोः सादृश्ये मृषात्वमिति भावः ॥ २३ ॥
आशाम्बरः शान्तविकल्पवीचिमना विना लक्ष्यमचञ्चलाक्षः । बालोऽपि योगस्थितिभूरवश्यः स्वस्यायतौ यः कमनेन मेने ॥ २४ ॥
आशाम्बरः ० यो भगवान् कमनेन कन्दर्पेण आयतौ उत्तर- काले खस्य आत्मनः अवश्यो मेने मन्यते स्म । किंविशिष्टो भगवान्, बालोऽपि योगस्य स्थितेर्मर्यादायाः भूः स्थानं, पुनः ९ किंविशिष्टो भगवान् ? आशाम्बरः आशा दिश एव अम्बराणि वस्त्राणि यस्य सः पुनः किंविशिष्टो भगवान् ? शान्तविकल्पवीचिमना - उपशान्ता विकल्पानां वीचयः कल्लोला यत्र एवंविधं १२ मनो यस्य सः, पुनः किंविशिष्टो भगवान् ? लक्ष्ये विलोकनीयं वस्तु विनापि अचञ्चलाक्षो निश्चललोचनः, योगवानपि एवंविधः ः स्यात्, भगवानपि एवंविधः, अतः कमनस्य मनसि १५ भगवत्यजेयत्वशङ्का जातेति भावः ॥ २४ ॥
अस्तन्यपायीति विनिश्चितोऽपि
कामुं पयोऽपीप्यदिति खमातुः ।
चिराय चेतश्चकितं चकार
स्मितेन धौताधरपल्लवो यः ।। २५ ।। अस्तन्यपायी ० यो भगवान् अस्तन्यपायीति विनिश्चितोऽपि -स्तन्यं न पिबतीत्येवंशीलोऽस्तन्यपायी इति निर्णीतोऽपि खमातुरा • २२
जै०
० कु० २
ઢ
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१८
जैनकुमारसंभवं [प्रथमः त्मीयजनन्याः, चेतो मनश्चिराय चिरकालम्, इति अमुना प्रकारेण, चकितं चकार, इति इति किम् ? का स्त्री अमुं बालं ३ पयो दुग्धं अपीप्यत् पाययति स्म । अथ पयःपानशङ्कायां हेतुमाह-किंविशिष्टो भगवान् ? स्मितेन धौताधरपल्लवः हास्येन प्रक्षालितोष्ठपल्लवः । तीर्थकृतः सर्वेऽपि बाल्ये मातुः स्तन्यपानं. न कुर्वत इति भावः ॥ २५ ॥ ___ अश्वोघदम्भादहिरुद्गतेन
माता न माता हृदि संमदेन । परिप्लुताक्षी तनुजं वजन्ती
यं तोषदृष्टेरपि नो विभाय ॥२६॥ अश्वोघदं० माता मरुदेवी यं तनुजं खजन्ती आलिङ्गन्ती १२ सती तोषदृष्टेरपि संतोषदृशोपि नो बिभाय बिभेति स्म, किंविशिष्टा माता !, सम्मदेन परिप्लुताक्षी, हर्षेण प्लावित
लोचना । किंविशिष्टेन संमदेन ? हृदि न माता, मातीति १५ मात्, तेन माता, पुनः किंविशिष्टेन संमदेन ? अश्वोधदम्भाद्वहिरुद्गतेन अश्रुप्रवाहमिषाबहिनिःसृतेन ॥ २६ ॥
अव्यक्तमुक्तं स्खलदंहियानं
निःकारणं हास्यमवस्त्रमङ्गम् । जनस्य यद्दोषतयाभिधेयं
तच्छेशवे तस्य बभूव भूषा ॥ २७ ॥ २. अव्यक्तमुक्तं० जनस्य लोकस्येति सर्वत्र सम्बध्यते । यत्
- * लोकदृष्टेरपि इत्यत्र टीकायां च समीचीनं भाति, शेषं तु तत्त्वविदो विदाङ्कुर्वन्तु, संपादकः..
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सर्गः ]
टीका सहितम्
१९
अव्यक्तं उक्तं मनमनत्वेन भाषणम्, स्खलदंहियानं लुडनस्थूडचरणाभ्यां गमनम् । निःकारणं कारणं विना हास्यम् । अवस्त्रम वस्त्ररहितं शरीरम् । दोषतया अभिधेयं दूषणत्वेन ३ वाच्यं स्यात्, तस्य भगवतः शैशवे बाल्ये भूषा आभरणं बभूव ॥ २७ ॥
दूरात्समाहूय हृदोपपीड माद्यन्मुदा मीलित नेत्रपत्रः । अप्यङ्गजं स्नेहविमोहितात्मा
०
यं तात तातेति जगाद नाभिः ॥ २८ ॥ दूरात्समाहूय • नाभिर्यं भगवन्तं दूरात्समाहूय आकार्य हृदोपपीडं हृदयेन उपपीड्य तात तात इति जगाद, किंविशिष्टं भगवन्तम् ? अङ्गजं पुत्रमपि । नाभिः कीदृक् ? स्नेह विमो - १२ हितात्मा स्नेहेन विमोहित आत्मा यस्य सः । पुनः कीदृग् नाभिः ? माद्यन्मुदा मीलितनेत्रपत्रः माद्यन् उन्मादं प्राप्नुवता मुदा हर्षेण मीलितो नेत्रे लोचनपक्ष्मणी यस्य सः ॥ २८ ॥ १५ भारेण मे भूभरणाभियोगभुग्नं शिरो मा भुजगप्रभोर्भूत् । इतीव ताते यति तं यो
मन्दांहिविन्यासरसं चचाल ॥ २९ ॥
भारेण मे० यो भगवान् ताते पितरि नाभौ आह्वयति आकारयति सति द्रुतं शीघ्रं मन्दाद्दिविन्यासरसं मन्दचरणन्यासरसं यथा भवति तथा चचाल, उत्प्रेक्षते इतीव इतिकारणादिव । इति इति किम् ? मे मम भारेण, भुजगप्रभोः शेष- २३
१८
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जैनकुमारसंभवं
[प्रथमः
नागाधिराजस्य, भूभरणे अभियोगि उद्यमकारि, शिरो मस्तकम् , भुमं वक्र मा भूत् ॥ २९ ॥
यः खेलनालिषु धूमरोपि
कृताप्लवेभ्योऽधिकमुद्दिदीपे ।
तारैरनभैः प्रभया नु भानु६ रभ्रावलिप्तोप्यधरीक्रियेत? ॥३०॥
यः खेलनालिषु धूलिषु खेलनात् क्रीडनात् धूसरोपि यो भगवान् कृताप्लवेभ्यः कृतस्त्रानेभ्योऽधिकमुहिदीपे। तस्य दृष्टान्तो९ऽत्र-अभ्रानुलिप्तोऽपि अभ्राच्छादितोऽपि भानुः सूर्यः अनभैरभ्ररहितैस्तारैः प्रभया किं अधरी क्रियेत ? अपि तु नैव ॥ ३० ॥
उद्भूतबालोचितचापलोऽपि
लुलोप यो न प्रमदं जनानां। कस्याऽप्रियः स्यात्पवनेन पारि
प्लवोऽपि मन्दारतरोः प्रवालः ॥३१॥ १५ उद्भूतबालोचित-उद्भूतबालोचितचापलोऽपि प्रकटीभूतबाल्ययोग्यचपलभावोऽपि, यो भगवान् जनानां लोकानां प्रमदं हर्ष न लुलोप न लुप्तवान् , मन्दारतरोः प्रवालकल्पवृक्षस्य प्रवालः किशलयः पवनेन परिप्लावितोऽपि चपलोऽपि सन् कस्य पुंसोऽप्रियः स्यादपि तु न कस्यापि ॥ ३१ ॥
लसद्विशेषाकृतिवर्णवेषा
लेखाः परेषामसुलंभमर्भम् । यं बालहारा इव खेलनौधैः
कटीतटस्थं रमयांबभूवुः ॥३२॥
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सर्गः]
टीकया सहितम्
२१
लसद्विशेषाकृतिवर्णवेष० लेखा देवा यं भगवन्तं अभै बालरूपं कटीतटस्थं रमयांबभूवुः, किंविशिष्टाः लेखाः ? लसद्विशेषाकृतिवर्णवेषाः, (लसन्त) आकृतिश्च वर्णश्च वेशश्च आकृतिवर्णवेषा३ येषान्ते लसद्विशेषाकृतिवर्णवेषा, कोऽर्थः देवानं देहः खभावेन केशरोमनखमांसचर्मअस्थिनसावसारुधिरमलमूत्ररहितः शुभवर्णादियुक्तः, पुद्गलनिःपन्नतेजोमयश्च स्यात् विशेषः, ते देवा ६ वैक्रियरूपं कृत्वा सर्वोत्तमवर्णवेषादि धृत्वा भगवन्तं रमयामासुः इति भावः, किंविशिष्टं भगवन्तम् ? बालं परेषां सामान्यानां असुलभं दुःप्राप्यम् । लेखाः के इव ? बालहारा इव, यथा बालहारा ९ नृपबालक्रीडाकारका बालं कटीतटस्थं रमयन्ति ॥ ३२ ॥ रसालसालं प्रति दत्तदृष्टौ
श्रोतुं च सूक्तानि सतृष्णकर्णे। अनन्यकृत्या अभजनमा
यत्र स्वभक्त्या शुकवित्वमुच्चैः ॥ ३३॥ रसालसालं-अमर्त्या देवा यत्र यस्मिन् भगवति विषये १५ उच्चैरत्यर्थ वभक्त्या शुकवित्वं शुकपक्षित्वं पक्षे आशुकवित्वं शीघ्रकवीश्वरत्वं अभजन सेवन्ते स्म, किंलक्षणा अमर्त्याः ? अनन्यकृत्याः । न विद्यते अन्यत् कृत्यं येषान्ते अनन्य-१८ कृत्याः, किंविशिष्टे भगवति ? रसालसालं सहकारवृक्षं प्रति दत्त- , दृष्टौ सति, पुनः किंविशिष्टे भगवति ? च अन्यत् । सूक्तानि सुभाषितानि श्रोतुं सतृष्णकणे ॥ ३३ ॥ परार्थदृष्टिं कलहंसकेकि
कोकादिकेलीकरणैरकाले ।
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२२
जैनकुमारसंभवं [प्रथमः नीत्वाभिमुख्यं सुखतो यमीशं
मुधाभिधानं विबुधैर्न दः ॥ ३४ ॥ ३ परार्थदृष्टिं० विबुधैः देवैः विबुध इति अभिधानं नाम, मुधा न दभ्रे न धृतं, विबुधा देवा विद्वांसो वा कथ्यन्ते । हेतुमाह-किं कृत्वा ? यं ईशं खामिनम् , अथवा यमिनः संयमिनः ६ तेषामीशम् , सुखतः सुखेनैव अभिमुख्यं खसांमुख्यम् , नीत्वा प्राप्य, कैः करणैः कारणभूतैः ? अकाले अप्रस्तावे कलहंसकेकिकोकादिकेलीकरणैः, कलहंसा राजहंसाः, केकिनो ९ मयूराः, कोकाश्चक्रवाकाः, इत्यादिपक्षिणां क्रीडाविधानः, किंविशिष्टं यम् ? परार्थदृष्टिं परस्मिन् अर्थे घटपटादिके दृष्टि
यस्य सः परार्थदृष्टिस्तं परार्थदृष्टिं पक्षे परमार्थदृष्टिम् विबुध१२ त्वस्य एतदेव फलम् , यत् सुखेनैव सर्वकार्यसाधनमिति भावः ॥ ३६॥
क्रोडीकृतः काञ्चनरुग् जनन्या
प्रियङ्गुकान्त्या घननीलचूलः । यः सप्तवर्षोपगतः सुमेरोः
श्रियं ललौ नन्दनवेष्टितस्य ॥ ३५ ॥ १८ क्रोडीकृतः० यो भगवान् सप्तवर्षोपगतः सप्तवर्षसंयुक्तः
सन् सुमेरोर्मेरुपर्वतस्य श्रियं शोभां ललौ गृहीतवान् , किंलक्षणस्य सुमेरोः ? नन्दनवेष्टितस्य नन्दनेन परिवेष्टितस्येत्यर्थः, किंविशिष्टो भगवान् ? प्रियङ्गुकान्त्या, नीलकान्त्या, जनन्या २२ मरुदेव्या, क्रोडीकृत उत्सङ्गे उपवेशितः, पुनः कीदृग् भगवान् ?
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सर्गः] टीकया सहितम् काञ्चनरुग् सुवर्णवर्णकान्तिः, पुनः कीदृग् भगवान् ? घननीलचूलः, घनो मेघस्तद्वन्नीला कृष्णा, चूला शिखा, यस्य स घननीलचूलः । अर्थवशात् विभक्तिपरिणामः, सुमेरुः कीदृग् १३ काञ्चनरुक् काञ्चनमयः, पुनः कीदृग् ? घननीलचूलः घना दृढा नीलवर्णचूला चूलिका यस्य स, सप्तवर्षापगतः सप्तभिः वर्षेः क्षेत्ररुपगतः तद्यथा भरहं १ हेमवयं २ ति हरिवासं ३ तोह महाविदेहं ४ च । रम्मय ५ हेरण्णवयं ६ एरवयं ७ चेव वासाइं ॥ एतैः सप्तक्षेत्रर्युक्त इत्यर्थः ॥ ३५ ॥
पुरा परारोहपराभवस्या
वश्याः कशाकष्टमदृष्टवन्तः। बबन्धिरेऽनेन बलात् कुरङ्गा
इवोल्लसन्तः शिशुना तुरङ्गाः ॥ ३६॥ १२ पुरा परारोह० अनेन भगवता शिशुना बालेन सता तुरता अश्वा बलात् हठात् बबन्धिरे बध्यन्ते स्म, किंलक्षणा तुरङ्गाः ? पुरा पूर्व परारोहभवस्य अवश्याः अन्यच्चटनस्य पराभवस्य न १५ वश्याः । पुनः किं कृतवन्तः तुरङ्गाः ? कशाकष्टं अदृष्टवन्तः कशायाः तर्जनकस्य कष्टं कदापि न दृष्टं यैस्ते कशाकष्टमदृष्टवन्तः । पुनः किं कुर्वन्तः ? कुरङ्गा इव उल्लसन्तः हरिणा : इव ऊर्ध्वमुत्पतन्तः ॥ ३६॥
करे करेणुः स्वकरेण मत्तो,
वने चरन् येन धृतो बलेन । रोषारुणं चक्षुरिहादधानो,
गानं धुनानोऽपि न मोक्षमाप ॥ ३७॥ २१
२३
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जैनकुमारसंभवं
[प्रथमः
करे करेणुः० करेणुर्हस्ती गात्रं धुनानोऽपि मोक्षं न आप, किंविशिष्टः करेणुः ? वने चरन् । पुनः कीदृग् ? येन भगवता, ३ करे शुंडादण्डे, खकरेणात्मीयहस्तेन बलेन धृतः, किं कुर्वाणः ! इह भगवति, रोषारुणं चक्षुरादधानो निवेशयन् ॥ अत्र वृत्ते द्वितीयार्थों लिख्यते करे करेणुः करो राजदेयभागस्तत्र करे १२, अणुः सूक्ष्मः अदायकत्वात् योगी खकरेण आत्मीयते.
जसा मत्तो मामी वनेचरन् योगिनां प्रायो वनचारित्वात् , पुनः किंविशिष्टः? बलेन सामर्थ्येन, येन या लक्ष्मीस्तस्या इनः खामी ९कृष्णः तेन धृत आहतो वैष्णवत्वात् केषांचिद्योगिनां, किं कुर्वाणः ! इह भगवति रोषारुणं चक्षुरादधानो जैनानिष्टत्वात् ,
पुनः किं कुर्वाणः ? अश्वकर्म गजकर्म नउलिकर्म रेचकपूरका१२.दिभिर्गात्रं धूनानोपि चालयन्नपि, अत एव कारणात् मोक्षं
मुक्तिं न प्राप, सम्यग्दर्शनं विना न मोक्ष इति जिन
वचनात् ॥ ३७॥ १५ चापल्यकृद्धाल्यमपास्य सोऽथ
खे यौवनं वासयतिस्स देहे।
साध्वौचिती द्युम्नविशेषदाना१६ प्रकाशयामास तदप्यमुष्य ॥ ३८ ॥
चापल्यकृद्धाल० अथोऽनन्तरं स भगवान् खे आत्मीये देहे यौवनं वासयतिस्म, किं कृत्वा ! बाल्यं अपास्य बाल्यभावं २१ परित्यज्य, किंलक्षणं बाल्यम् ! चापल्यकृत् चपलभावं करोतीति चापल्यकृत् । तदपि यौवनम् , अमुष्य भगवतो, द्युम्नं द्रव्यं बलं वा, तस्य विशेषदानात् साधोः सज्जनस्य, औचिती
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सर्गः]
टीकया सहितम्
उचितं गुणं प्रकाशयामास, उपकारकारके प्रत्युपकारः क्रियते इति सतां लक्षणमिति भावः ॥ ३८ ॥ __ अथ भगवतो रूपवर्णनमाह--'मानवा मौलितो वा ३ देवाश्चरणतः पुनः' इति न्याये सत्यपि भगवतो मानवत्वेऽपि तीर्थंकराणां देवत्वमेव कथ्यते ॥
तस्याननेन्दावुपरिस्थितेऽपि,
पादाब्जयोः श्रीरभवन हीना। धत्तां स एव प्रभुतामुदीते,
द्रुह्यन्ति यसिन्न मिथोऽरयोऽपि ॥ ३९॥ ९ तस्य भगवत आननेन्दौ मुखचन्द्रे उपरिस्थितेऽपि पादाब्जयोश्चरणकमलयोः श्रीलक्ष्मीहीना न अभवत् । स एव पुमान् प्रभुतां धत्तां यस्मिन् पुरुषे उदीते सति मिथः परस्परं अरयोऽपि १२ वैरिणोपि न द्रुह्यन्ति न द्रोहं कुर्वतीत्यर्थः, मुखं चन्द्रश्चरणौ कमले, एषां च विरोधः, स च भगवता भग्न इति भावः॥३९॥ दत्तैर्नमद्भिः ककुभामधीशै
थान्द्रैः किरीटैर्निजराजचिद्वैः। पयां प्रभोरगुलयो दशापि,
कान्ता अभूष्यन्त मिषानखानाम् ॥ ४० ॥ १८ दत्तैर्नमद्भिः० प्रभोः श्रीऋषभदेवस्य पद्भ्यां दशाऽपि अङ्गुलयः कान्ता मनोज्ञाः पल्या(?) वा नखानां मिषात् मणिकिरीटैमणिमयैर्मुकुटैरभूष्यन्त अलंकृताः । किंविशिष्टैः किरीटैः ? नमभिः नमस्कारं कुर्वद्भिः। कुकुभामधीशैः दिक्पालैदैत्तैः,२२
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- जैनकुमारसंभवं
[प्रथमः
पुनः किं० १ निजराजचिरैः । अन्योऽपि यो महान्तं राजानं सेवते, स निजराजचिह्नानि पुरो ढौकयते ॥ ४० ॥ । अन्तः ससारेण मृदुत्वभाजा,
पादाब्जयोरूर्वमवस्थितेन । विलोमताऽधायि तदीयजङ्घा
नालद्वयेनालमनालमेतत् ॥४१॥ अन्तः ससारेण० तदीयजङ्घानालद्वयेन तस्यैव भगवतो जङ्घारूपनालद्विकेन, अलं अत्यर्थ विलोमता लोमरहितत्वं ९अन्यनालेभ्यो विसदृशत्वं वैपरीत्यं वा अधायि धार्यतेस्म, एतत् अनालं सम्यक्, किंलक्षणेन जङ्घानालद्वयेन ? अन्तः ससारेण मध्ये संभरेण, पुनः किं० ? मृदुत्वभाजा सौकुमार्य १२ सेवमानेन, पुनः किं० १ पादाब्जयोरूवं अवस्थितेन अतोऽन्यकमलनालेभ्योऽत्र वैपरीत्यमिति भावः ॥ ४१॥
धीराङ्गनाधैर्यभिदे पृषत्काः,
पञ्चेषुवीरस्य परेऽपि सन्ति । तदूरुतूणीरयुगं विशाल
वृत्तं विलोक्येति बुधैरतर्कि ॥ ४२ ॥ १८ धीरांगना० बुधैर्विद्वद्भिस्तदूरुतूणीरयुगं तस्य भगवता ऊरूरूपं - भस्वकयुग्मं विलोक्य इति अतर्कि विचारितम् , किं विशिष्टं
ऊरुतूणीरयुगम् ? विशालवृत्तं विशालं च तत् वृत्तं च विशाल२० वृत्तम्, इति इति किम् ? धीरांगनाधैर्यभिदे शीले निश्चलचित्तानां
स्त्रीणां धैर्यस्य भिदे भेदाय, पञ्चेषुवीरस्य उन्मदन १ मदन २३२ मोदन ३ तपन ४ शोषण ५ रूपा (पञ्च) इषवो बाणा
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m.
सर्गः] टीकया सहितम् यस्य स पञ्चेषुः, तस्य पञ्चेषुवीरस्य परे अन्ये पृषत्का बाणाः सन्तीति बहून् बाणान् विना भस्त्रकयुग्मं न स्यात् इति वितर्कः ॥ ४२ ॥
कटीतटीमप्यतिलंध्य धाव
ल्लावण्यपूरः प्रससार तस्य । तथा यथा नाऽनिमिषेन्द्रदृष्टि
द्रोण्योऽप्यलं पारमवामुमस्य ॥४३॥ कटीतटी० तस्य भगवतो लावण्यपूरः तथा प्रससार, किं कुर्वन् लावण्यपूरः ? कटीतटीमप्यतिलंध्य धावन् । 'लि लौ' ९ (सि० १॥३॥६५) इत्यनेन पदेन तस्य लत्वं जातम् , यथाऽ. निमिषेन्द्रदृष्टिद्रोण्योऽपि अनिमिषा देवास्तेषामिन्द्राः देवेन्द्राः तेषां दृष्टिद्रोण्यो हम्बेडा अथवा अनिमिषेद्रा मत्स्येषु समर्थास्तेषु १२ दृष्टिर्येषां ते अनिमेषेन्द्रदृष्टयो धीवरास्तेषां द्रोण्यो बेडा अपि अस्य लावण्यपूरस्य पारं अवाप्तुं प्राप्तुं नाऽलं न समर्था अभूवन् , प्रायः प्रचुरे पयःपूरे बेडानामप्यसमर्थत्वमिति १५ युक्तम् ॥ ४३ ॥
सनाभितामश्चति नाभिरेका, ___ कूपस्य तस्योदरदेशमध्ये । प्रभाम्बुनेत्रांजलिभिः पिपासुः,
कथं वितृष्णा जनताऽस्तु तत्र ॥४४॥ सनाभितामञ्चति० तस्य भगवत उदरदेशमध्ये एको नाभिः २१ कूपस्य सनाभितां सादृश्यं अञ्चति प्राप्नोति, तत्र नाभौ जनता जनसमूहः कथं वितृष्णा तृष्णारहितास्तु अपितु नैव भवतु, २३
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जैनकुमारसंभवं
[प्रथमः
किं कर्तुकामा जनता नेत्रांजलिभिः दृष्टिरूपांजलिभिः प्रभांबु प्रभारूपजलं पिपासुः पातुमिच्छुः ॥ १४ ॥ ३ उपर्युरः प्रौढमधः कटी च,
व्यूढान्तराभूत्तलिनं विलग्नम् ।
किं चिन्मयेऽस्मिन्ननुयोजकानां, ६ त्रिलोकसंस्थाननिदर्शनाय ॥ ४५ ॥
उपर्युरः० अस्मिन् भगवति सर्वत्र योज्यते, उपरि उरो वक्षःस्थलं प्रौढम् , च अन्यत् , अधः कटी व्यूढा विस्तीर्णा । अन्तरा ९ अव्ययशब्दः मध्ये, विलग्नं उदरं तलिनं कृशं अभूत् , किमर्थम् ? चिन्मये ज्ञानमये अस्मिन् भगवति अनुयोजकानां
पृच्छकानाम् किं त्रिलोकसंस्थाननिदर्शनाय । कोऽर्थः ज्ञान१२ मयो भगवान् सर्वलक्षणोपेतत्वात् जडानां लोकानाम् वेत्रासन
समोऽधस्तादित्यादि त्रैलोक्यसंस्थानं अदर्शयत् तथाऽपि लोका
न ज्ञातवन्तः, पश्चात्तेषां स्वीयमेवं रूपं दर्शयामास, भगवान् १५ इति तात्पर्यार्थः ॥ ४५ ॥
व्यूढेऽस्य वक्षस्य वसत्सदा श्री.
वत्सः किमु छद्मधिया प्रवेष्टुम् । रुद्धः परं बोधिभटेन मध्य,
मध्यूषिषासीद्वहिरंग एव ॥४६॥ व्यूढे०-श्रीवत्सो लाञ्छनं कन्दो वाऽस्य भगवतो व्यूढे २१ विशाले वक्षसि हृदये किमु छद्मधिया कपटबुद्ध्या प्रवेष्टुं सदा
अवसत् , परं केवलं बोधिभटेन सम्यक्तत्वपरिज्ञानरूपसुभ२३ टेन रुद्धः सन् बहिरंग एवासीत् , किं कृतवता बोधिभटेन ?
१८
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सर्गः] टीकया सहितम् मध्यं अध्यूषिषा मध्ये उषितेन, 'वसं निवासे' वस् , अधिपूर्वः अध्युवास क सकानौ परोक्षावच कसन् प्रत्ययः, ततो द्वित्वेवस्य संप्रसारणे उत्वेऽधिना सह यत्वे इडागमे षत्वे अध्यूषिवत्स ३ इति स्यात् , ततस्तृतीयैकवचने अधुटखरादौ सेटस्यापि इट सहितस्य च शब्दस्योत्वे नलोपेऽध्यूषिषा इति स्यात् ॥ ४६ ॥
यत्र त्रिलोकी निहितात्मभारा,
शेते सुखं पत्रिणि पत्रिणीव । सोऽसन्मते तद्भुज एव शेषः,
__ कोऽन्यो जराजिह्मगतेर्विशेषः॥४७॥ ९ यत्र त्रिलोकी० यत्र भुजे त्रिलोकी निहितात्मभारा न्यस्त आत्मीयभारो यया सा निहितात्मभारा सुखं शेते खपिति । केव ? 'पत्रिणीव यथा पत्रिणी पक्षिणी पत्रिणि वृक्षे सुखं शेते । तद्भुज १२ एव अस्मन्मते शेषः, अस्मदीयमते जिनशासने तस्य भगवत एव भुजरूपशेषनागाधिराजोऽस्तु जराजिह्मगतेवृद्धसर्पस्य विशेषः अन्यः शेषः कः ? न कोऽपि ॥ ४७ ॥ पाणेस्तलं कल्पपुलाकिपत्रं,
तस्यांगुलीः कामदुधास्तनांश्च । चिंतामणीस्तस्य नखानमंस्त,
दानावदानावसरेऽर्थिसार्थः ॥४८॥ पाणेस्तलं० अर्थिसार्थों याचकसमूहः तस्य भगवतो दानाचदानावसरे दानमेव अवदानं शुद्धकर्म तस्य अवसरे, एतत् २१ सर्वत्र योज्यते, अर्थिसार्थो दानावदानावसरे तस्य भगवतः पाणेस्तलं कल्पपुलाकिपत्रं कल्पवृक्षसत्कं पत्रं अमंस्त मन्यते २३
१५
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३०
जैनकुमारसंभवं
[प्रथमः
स्म, च अन्यत् , तस्य भगवतः अङ्गुलीः कामदुधास्तनानमंस्त, तस्य नखान् चिंतामणीनमंस्त ॥ १८ ॥
येन त्रिलोकीगतगायनौचं,
जिगाय धीरध्वनिरस्य कण्ठः ।
क्रमेण तेनैव किमेष रेखा६ त्रयं कृतं साक्षिजनैर्बभार ॥४९॥
येन त्रिलोकी०-अस्य भगवतः कण्ठो येन क्रमेण त्रिलोकीगतगायनौघं, त्रिभुवनस्थानां गायनानां समूहं जिगाय इति ९ जितवान् , किंलक्षणः कण्ठः ? धीरध्वनिः धीरो गम्भीरो ध्वनिः शब्दो यस्य स धीरध्वनिः । एष कण्ठस्तेनैव क्रमेण किं रेखात्रयं बभार, किंविशिष्टं रेखात्रयम् ? साक्षिजनैः कृतम् , कोऽर्थः ? १२ त्रिभुवने तावता खामिकण्ठसदृग् धीरध्वनिर्नास्तीत्यर्थः ॥ १९॥
यजातिवैरं सरता तदास्या
भोजन्मनाऽभंजि जगत्समक्षम् । १५
निशारुचिस्तत्किमपत्रपिष्णुः,
सोऽयं दिवाभूद्विधुरप्रकाशः॥५०॥ . यज्जातिवैरं० यत् तदास्यांभोजन्मना तदीयमुखकमलेन १८ अयं विधुश्चन्द्रो जगत्समक्षं विश्वसाक्षिकं अभंजि जीयतेस
इत्यर्थः, किं कुर्वता तदास्यांभोजन्मना ? जातिवैरं स्मरता, सोऽयं विधुश्चन्द्रः तत् तस्मात् कारणात् दिवा दिवसे किं
अप्रकाशो अप्रकट एवाभूत् , किंलक्षणो विधुः ! अपत्रपिष्णुः २२ लज्जनशीलः, पुनः किं० ? निशायां रुचिः कान्तिः यस्य स
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सर्गः] टीकया सहितम्
३१ निशारुचिः, अन्योऽप्यपत्रपिष्णुर्दिवा अप्रकाशः स्यात् , तस्यैव हि निशायां रुचिरभिलाषः स्यात् ॥ ५० ॥
ओष्ठद्वयं वाक्समयेऽवदात
दन्तद्युतिप्लावितमेतदीयम् । बभूव दुग्धोदधिवीचिधौत
प्रवालवल्लीप्रतिमल्लितथि ॥५१॥ ओष्ठद्वयं० एतदीयं ओष्ठद्वयं दुग्धोदधिवीचिधौतप्रवालवल्लीप्रतिमल्लितश्रि दुग्धोदधेः क्षीरसमुद्रस्य वीचिभिः कल्लोलैः धौताया क्षालितायाः प्रवालवल्लेः प्रतिमल्लिता प्रतिमल्लीकृता९ श्रीर्येन तत् दुग्धोदधिश्रीबभूव, किंविशिष्टं ओष्ठद्वयम् ? वाक्समये वचनावसरे अवदातदन्तद्युतिप्लावितं उज्वलदन्तसत्ककिरणैाप्तं ओष्ठद्वयं प्रवालवल्लीसदृशं दन्तद्युतयः क्षीरसमुद्र-१२ कल्लोलसदृशाश्चेति इति भावः ॥ ५१ ॥
व्यक्तं द्विपतिभवनादजस्रं, __ श्रीरक्षणे यामिकतां प्रपन्नाः। द्विजा द्विजेशस्य तदाननस्य,
लक्ष्मीसमूहं प्रभुदत्तमूहः॥५२॥ व्यक्तं द्विपति० द्विजेशस्य इति । तस्य भगवत आननं मुखं १४ तदेव द्विजेशश्चन्द्रस्तस्य द्विजा दन्ता लक्ष्मीसमूहं शोभासमुदयं ऊहुर्वहन्ति स्म, किंविशिष्टं लक्ष्मीसमूहम् ? प्रभुणा मुखेन दत्तं मुख एव स्थिता दन्ताः शोभां भजन्त इति, किंलक्षणा २१ द्विजाः ? व्यक्तं प्रकटं द्विपतिभवनात् अजस्रं निरंतरं श्रीरक्षण यामिकतां आरक्षकतां प्रपन्नाः, दन्तैरेव मुखस्य शोभा स्यात् । २३
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जैनकुमारसंभवं
[प्रथमः
अथ द्वितीयपक्षे द्विजानां ब्राह्मणानां ईशः खामी द्विजेशः तस्य द्विजा ब्राह्मणा प्रभुणा खामिना दत्तं लक्ष्मीसमूह वहंति ३ स्म । व्यक्तं द्विपजिभवनादित्यादि अत्राऽपि योज्यम् ॥ ५२ ॥
अदान्मृदुर्मादेवमुक्तियुक्त्या,
युक्तं तदीया जनतासु जिह्वा । लोला स्वयं स्थैर्यगुणं तु सभ्या
नभ्यासयन्ती कुतुकाय किं न ? ॥ ५३॥ अदान्मृदुः० तदीया तस्य भगवतः सम्बन्धिनी जिह्वा ९ जनतासु जनसमूहेषु उक्तियुक्तया वचनं चातुर्य मार्दवं सौकुमार्ययुक्तं अदात्, किंलक्षणा जिह्वा ? मृदुः कोमला अत
एव हेतोर्मादेवं अदात् , तु पुनः खयं लोला चपला सती १२ सभ्यान् सभाजनान् स्थैर्य गुणं अभ्यासयन्ती कुतुकाय किं न स्यादपि तु स्यादेव । कोऽर्थः खामिनो जिव्हया सर्वथा स्थैर्यभावः
खान्ते उत्पाद्यते ॥ ५३ ॥ १५ प्राणं जगजीवनहेतुभूतं,
नासा यदौन्नत्यपदं दधाति ।
कर्मारिमाराय तदग्रवीक्षा, 16 दीक्षादिनान्तेन ततो निधाता ॥ ५४॥
प्राणं जगजीवनहेतुभूतं० नासा नासिका प्राणं पवनं बलं वा यद् दधाति । किंलक्षणा नासा ? औन्नत्यपदं उच्चतायाः स्थानम्। २.प्राणं किंलक्षणम् ? जगज्जीवनहेतुभूतं जगतो विश्वस्य जीवनाय
हेतुभूतं तत् तस्मात् कारणात् तेन भगवता कर्मारिमाराय २३ कर्मरूपशत्रूणां विनाशाय आदीक्षादिनात् दीक्षादिनमारभ्य
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सर्गः] टीकया सहितम् तदप्रवीक्षा तस्या नासिकाया अग्रनिरीक्षणं विधास्यता । कोऽर्थः? खामी दीक्षानन्तरं खनासाग्रदचहक् कर्मशत्रून् हनिष्यतीति भावः, यो बलवान् स्यात् तस्यैव वीक्षा शत्रुहननावसरे ३ क्रियते ॥ ५४॥
श्रेयस्करावुल्लसदंशुराशी,
पार्श्वद्वयासीनजनेषु यस्य । कलौ कपोलावकरप्रयत्न
हैमात्मदर्शत्वमशिश्रियाताम् ॥ ५५ ॥ श्रेयस्करा०, तस्य भगवतः कलौ मनोज्ञौ कपोलौ पार्श्वद्व-९ यासीनजनेषु उभयोः पार्थयोः उपविष्टलोकेषु अकरप्रयत्नहेमात्मदर्शत्वं हस्तापक्रमरहितवर्णमयदर्पणत्वं अशिश्रियातां आश्रितवन्तौ, किंविशिष्टौ कपोलौ ? श्रेयस्करौ मङ्गलकर्तारौ । १२ पुनः किंविशिष्टौ ? उल्लसदंशुराशी उद्गच्छत्किरणसमूहौ ॥५५॥
वितेनुषी श्मश्रुवने विहारं,
दोलारसाय श्रितकर्णपालिः।
स्फुरत्प्रभावारि चिरं चिखेल, .. तदाननाम्भोजनिवासिनी श्रीः॥ ५६ ॥ :: वितेनुषी० तदाननाम्भोजनिवासिनी तस्य भगवतो मुख-१८ कमलवासिनी श्रीलक्ष्मीः, स्फुरत्प्रभावारि प्रसरत्प्रभारूपजले, चिरं चिरकालं चिखेल क्रीडाञ्चकार, वार्शब्दो व्यंज-. नान्तोऽत्र ज्ञेयः । किंलक्षणा श्रीः ? श्मश्रुवने कूर्चरूपोद्याने विहारं विचरणं वितेनुषी कृतवती, पुनः किंविशिष्टा श्रीः१२२
जै० कु. ३
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३४
जैनकुमारसंभवं [प्रथमः दोलारसाय श्रितकर्णपालिः आन्दोलनरसकृते श्रिता कर्णपालिर्यया सा दोलारसाय श्रितकर्णपालिः ॥ ५६ ॥
पद्मानि जित्वा विहिताऽस्य दृग्भ्यां,
सदा खदासी ननु पनवासा ।
किमन्यथा सावसथानि याति, व तत्प्रेरिता प्रेमजुषामखेदम् ॥ ५७ ॥
पद्मानि० अस्य भगवतो हग्भ्यां पद्मवासा लक्ष्मीन्नु निश्चितं सदा सर्वदा खदासी विहिता, किं कृत्वा ! पद्मानि ९ जित्वा, किमन्यथा सा पद्मवासा तत्प्रेरिता ताभ्यां दृग्भ्यां प्रेरिता प्रेमजुषां प्रीतिमतां आवसथानि गृहाणि अखेदं खेदरहितं
यथा भवति तथा याति, कोऽर्थः ? खामिग्भ्यां भक्तलोकानां १२ दारिद्यदौर्भाग्यादयो दोषा नश्यन्ति, पदे पदे संपदश्व - विजुभन्त इति भावः ॥ ५७ ॥
कृष्णाभ्ररेखाभ्रमतो निभाल्य,
तव्युगं यौवनवह्नितप्तः। अकारि नृत्यं प्रमदोन्मदिष्णु
___ मनोमयूरैर्विलसत्कलापैः ॥ ५८ ॥ १४ कृष्णाम्र० प्रमदोन्मुदिष्णुमनोमयूरैः प्रमदानां स्त्रीणाम् ___ उन्मदिष्णूनि उन्मादसंयुक्तानि मनांस्येव मयूरा प्रमदोन्मुदि० । __ तैः प्र० मयूरैः । पक्षे प्रमदेन हर्षेण उन्मुदिष्णुमनसो ये मयूर २१ रास्ते प्रेम तैर्मयूरैः नृत्यं नाट्यं अकारि कृतं, किं कृत्वा तयुगं
तस्य भगवतो भ्रूयुगलं कृष्णाम्ररेखाम्रमतो निभाल्य कृष्णा २३श्यामा या अप्ररेखा तस्या यो प्रमो विभ्रमस्तस्मात् । कृष्णा हग्वा।
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३५
सर्गः] टीकया सहितम् किंविशिष्टैः प्रमदोन्मुदिष्णुमनोमयूरैः ? यौवनरूपवैश्वानरेण संतप्तैः, पुनः किंवि० ? विलसत्कलापैः विलसत् कलानां आपः प्राप्तिः येषु ते विलसत्कलापास्तैर्विल०, पक्षे विकसन्मोरपिच्छैः३ बवानलादिसंभवे वह्नितप्तत्वं च मयूराणां अपि स्यात् ।। ५८॥
भ्रान्त्वाखिलेऽङ्गेऽस्य दृशो वशानां,
प्रभापयोऽक्षिप्रपयोर्निपीय । छायां चिरं भूलतयोरुपास्य,
भालस्थले सन्दधुरध्वगत्वम् ॥ ५९ ॥ प्रान्त्वा० वशानां स्त्रीणां दृशोऽस्य भगवतोऽखिले समस्ते अङ्गे भ्रान्त्वा, ततः परं अक्षिप्रपयोर्लोचनरूपप्रपयोः प्रभापयः प्रभारूपजलं निपीय पीत्वा झूलतयोभ्रंवल्योः छायां कान्ति वा चिरं चिरकालं उपास्य सेवित्वा, भालस्थले अध्वगतं पथिकत्वं सन्दधुः सन्दधते स, अन्यत्रापि पथिक्यः अङ्गनाग्नि देशे आन्वा प्रपासु पयः पीत्वा लतासु छायामुपास्य स्थलमार्गे गमनं कुर्वन्ति ॥ ५९ ॥
अर्ध च पूर्ण च विधुं ललाट. मुखच्छलाद्वीक्ष्य तदङ्गभूतौ । न के गरिष्ठां जगुरष्टमी च, - राकां च तन्नाथतया तिथिषु ॥६०॥ अर्ध च पूर्ण च० के विज्ञपुरुषा अष्टमी च अन्यत् राकां : च पूर्णिमां च तन्नाथतया तौ अर्धपूर्णौ विधुनाथौ ययोस्तत्तनाथयोर्भावस्वनाथतया, तिथिषु पञ्चदशखपि, गरिष्ठां न जगुर्न २१
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३६
जैनकुमारसंभवं
[ प्रथमः
कथयामासुः, अपि तु जगुरेव । किं कृत्वा ? अर्ध च अन्यत् पूर्ण च विधुं चन्द्रं ललाटमुखच्छलाचदङ्गभूतौ तस्य भगवतोऽङ्ग३ भूतौ अवयवतां गतौ वीक्ष्य दृष्ट्वा । कोऽर्थः ? स्वामिभालं अर्धचन्द्रसदृक् वक्रं संपूर्णचन्द्रमण्डलसदृक्षं चाभूत्, तेनाष्टमी पूर्णिमास्यौ, सर्वतिथिमध्ये गरिष्ठे जाते कथ्येते ॥ ६० ॥ द्विष्टोऽपि लोकैरमुना स्वमूर्भि, निवेशितः केशकलापरूपः ।
वर्णोsवरः श्रीभरमाप नाथप्रसादसाध्ये ह्युदये कुलं किम् १ ॥ ६१ ॥ द्विष्टोऽपि लोकै० अवरः अप्रशस्यो वर्णः श्यामवर्णको नीचवर्णको वा, श्रीभरं शोभासमूहं आप प्राप, किंविशिष्टः १२ वर्णः ? लोकैर्द्विष्टोऽपि पुनः किंविशिष्टः ? अमुना भगवता स्वमूर्ध्नि आत्मीयमस्तके निवेशत आरोपितः पुनः किंविशिष्टः ? केशकलापरूपः केशकलाप एव रूपं यस्य सः, हि निश्चितं नाथप्रसादे साध्ये उदये सति कुलं किं वीक्ष्यते ? कोऽर्थः ? नृपो यस्य प्रसादाभिमुखं स्यात् तस्याऽकुलीनस्यापि सम्पदः स्युरिति भावः, उक्तं च " सुप्रसन्नविशदस्य भूपतेर्यत्र यत्र विलसन्ति दृष्टयः । तत्र तत्र शुचिता कुलीनता दक्षता सुभगता च गच्छति ॥ १ ॥” ६१ ॥
१५
बुद्धा नवश्मश्रुसमाश्रिताङ्कश्रीकं निशोदीतमदोमुखेन्दुम् । केशौघदम्भात्किमु पुष्पतारालङ्कारहारिण्यभिसारिकाभूत् ॥ ६२ ॥
१८
"
२१
Mar
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सर्गः ]
टीका सहितम्
३७
बुद्धा नवश्म० निशा रात्रिः, केशौघदम्भात् केशानां ओघः : समूहस्तस्य दम्भात् मिषात् किमु अभिसारिकाऽभूत् "अलंकृता या प्रियं याति कथ्यते साभिसारिका" । किं कृत्वा ? ३. अदोमुखेन्दुम् अमुष्य भगवतो मुखेन्दुः अदोमुखेन्दुः तं अदोमुखेन्दुं मुखचन्द्रं उदीतं उदितं बुद्धा ज्ञात्वा किंलक्षणं अदोमुखेन्दुम् ? नवश्मश्रुसमाश्रिताङ्क श्रीकं नवीनकूर्चेणैव आश्रिता ६ अङ्कश्रीः लाञ्छनश्रीर्येन तं नवश्मश्रु० अत्र स्वार्थे कः प्रत्ययो ज्ञेयः । किंलक्षणा रात्रिः ? पुष्पतारालङ्कारहारिणी पुष्पाण्येव तारकास्तेषामलङ्कारस्तेन हारिणी मनोज्ञा या सा पुष्पतारा० । ९ यतः शिरसि पुष्पाणि स्युः रात्रौ च तारकाः स्युरिति भावः । एतावता मुखं पूर्णचन्द्रसमं केशकलापश्च रात्रिसम इति भावः ॥ ६२ ॥
वर्णेषु वर्णः स पुरस्सरोऽस्तु, योऽजस्रमाशिश्रियदङ्गमस्य । अवेपियच्छायलवेऽपि लब्धे, लोके सुवर्णश्रुतिमाप हेम ॥ ६३ ॥
१२
वर्णेषु वर्णः० सप्तलक्षणेषु वर्णेषु श्वेतरक्तादिषु पुरःसरोऽप्रेसरोsस्तु, यः पीतवर्णोऽजस्रं निरंतरं अस्य भगवतो अङ्गं १८ आशिश्रियत् आश्रयति स्म, अवेपि 'टुवेपृङ् केपृङ् गेट कपुङ् चलने' इतिधातोरिनि प्रत्यये वेपिन् इति स्यात् अतः कारणादवेपिनि निश्वले यच्छायलवेऽपि यस्य भगवतः कान्तिलेशेऽपि सति हेम सुवर्णं लोके लोकमध्ये सुवर्णश्रुतिं सुष्ठु शोभनो १२
१५
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३८
जैनकुमारसंभवं
[ प्रथमः
वर्णः सुवर्ण इति ख्यातिं आप, भगवान् सुवर्णवर्णशरीसे
वर्तत इति भावः ॥ ६३ ॥
मकारि माद्यत्प्रमदेन तस्य ॥ ६४ ॥
"
द्युम्नं यत् द्युम्नं बलं पक्षे धनं तस्य भगवतः शैशवे बाल्ये गुप्तं अभूत् किंविशिष्टस्य तस्य ? परमार्थदृष्टेः परमार्थे मोछे ९ दृष्टिर्दर्शनं यस्य, पक्षे परमा प्रकृष्टाऽर्थद्रव्ये दृष्टिः । किंलक्षणं द्युम्नम् ? जगद्भृत्युपयोगि जगतो भृतिर्भरणं पक्षे जगतो विश्वस्य भृतिः पोषणं तत्र उपयोगि । धनवान् जगतः पोषणं कर्तुं समर्थः, १२ भगवान् मेरुं दण्डं पृथ्वीं छत्रं कर्तुं समर्थः । तत् द्युम्नं यौवनेन प्रकाशं प्रकटमकारि क्रियते स्म । किंवत् ? उत्सववत् यथा उत्सdr नं धनं प्रकाशं क्रियते । किंलक्षणेन यौवनेन ! माद्यत्प्र१५ मदेन - माद्यन्त्यः प्रमदाः स्त्रियो येन तत् माद्यत्प्रमदम्, लेन माद्यत्प्रमदेन । पक्षे प्रमदो हर्षो ज्ञेयः ॥ ६४ ॥ यूनोऽपि तस्याजनि वश्यमश्ववारस्य वाजीव सदैव चेतः ।
सशङ्कमेवोरसिलोऽप्यनङ्ग
१८
नं जगत्युपयोगि गुतं, यच्छैशवेऽभूत्परमार्थदृष्टेः । तद्यौवनेनोत्सववत्प्रकाश
२१
स्तदङ्गजन्मा तदुपाचरतम् ॥ ६५ ॥ यूनोऽपि तस्य भगवतो युनोऽपि यौवनाधिरूढस्यापि चेतश्चित्तं सदैव वश्यं, अजनि जातम् । कस्येव ? अश्ववारस्येव । यथा २३ अश्ववारस्य वाजी तुरगो वश्यो भवति । तत् तस्मात् कारणात्,
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सर्गः ]
टीका सहितम्
३९
उरसिलोऽपि बलवानपि, अनङ्गः कन्दर्पः, तं भगवन्तं सशङ्कमेव यथा भवति, तथा उपचारात् सेवते स्म । किंलक्षणोऽनङ्गः ? तदङ्गजन्मा तस्य चित्तस्याङ्गजन्मा पुत्रः । यदि पिता वश्यस्तदा ३ पुत्रोऽप्यवश्यं वश्य एव स्यादिति ॥ ६५ ॥
पश्चादमुष्यामरवृन्दमुख्याः, पदाभिषेकं प्रथयाम्बभूवुः ।
प्रागेव पृथ्व्यां प्रससार दुष्टचेष्टोरगीवज्रमुखः प्रतापः ॥ ६६ ॥
पश्चादमुष्या० - अमरवृन्दमुख्या सुरेन्द्राः अमुष्य स्वामिनः ९ पदाभिषेकं पश्चात् प्रथयाम्बभूवुर्विस्तारयामासुः अमुष्य भगवतः प्रतापः पृथ्व्यां प्रागेव प्रथममेव प्रससार प्रसरतिस्म । किंलक्षणः प्रतापः ? दुष्टचेष्टोरगी वज्रमुखः दुष्टानां अन्याय - १२ कारिणां चेष्टा, सैव उरगी सर्पिणी, तां प्रति वज्रमुखो गरुडसमानः ॥ ६६ ॥
आनचुरिन्द्रा मकरन्दबिन्दुसन्दोहवृत्तरूपनावयत्नम् । मन्दारमाल्यैर्मुकुटाग्रभाग
भ्रष्टैर्नमन्तोऽनुदिनं यदंही ॥ ६७ ॥
१५
आनञ्चुरिन्द्रा० इन्द्रा यदही यस्य स्वामिनः पादौ, मन्दारमाल्यैः मन्दारस्य कुसुममालाभिः, अयत्नं उपक्रमं विनैव, आनञ्चुः पूजयामासुः । किंलक्षणौ यदही ? मकरन्दबिन्दु सन्दोह वृत्तस्वपनौ । मकरन्दबिन्दूनां समूहेन निष्पन्नात्रौ । किंलक्षणैर्म - २२
१८
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४०
जैनकुमारसंभवं
[ प्रथमः
न्दारमाल्यैः ? मुकुटाग्रभागभ्रष्टैर्मुकुटस्याग्रभागात् भ्रष्टैः पतितैः । किं कुर्वन्तः सुराः ? अनुदिनं निरन्तरं नमन्तः । खयमेव ३ नमतां मालापतने स्नात्रं पूजा च स्यात्, अतोऽयलमिति उक्तम् ॥ ६७ ॥
आमोक्षसौख्यांहति संधयास्मिनात्मातिरिक्तेऽभ्युदिते पृथिव्याम् ।
अशिश्रियन्मन्दरकन्दराणि,
संजातलजा इव कल्पवृक्षाः ॥ ६८ ॥
आमोक्षसौ ० कल्पवृक्षा मन्दरकन्दराणि मेरोर्गुहा अशिश्रियन् आश्रितवन्तः । उत्प्रेक्षते, संजातलज्जा इव उत्पन्नलज्जा इव । क्व सति ? अस्मिन् भगवति आमोक्षसौख्यांहति सन्धया, १२ मोक्षावधि यत् सौख्यं तस्य अंहतिर्दानं तद्विषये सन्धा प्रतिज्ञा तया । आत्माऽतिरिक्ते आत्मनोऽधिके पृथिव्यां अभ्युदिते सति कल्पवृक्षैरात्मभ्योऽपि अधिकदातारं भगवन्तं वीक्ष्य लज्जया मेरु१५ गुहा आश्रिताः ॥ ६८ ॥
स्वर्गायनैः स्वर्गिपतेः सभायामाविष्कृते कीर्त्यमृते तदीये । तत्पानतस्तृप्यति नाकिलो के,
सुधा ग्रहीतारमृते मुधाभूत् ॥ ६९ ॥ स्वर्गायनैः० सुधा अमृतम्, ग्रहीतारं ग्राहकम्, ऋते विना, २१ मुधा निःफला भूत् । क सति ? खर्गायनैस्तुम्बरुनारदाद्यैः गायनैः, स्वर्गिपतेरिन्द्रस्य सभायाम्, तदीये तस्य खामिनः सत्के, कीर्त्य - २३ मृते आविष्कृते प्रकटीकृते सति । पुनः क सति ! तत्पानतस्तस्य
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सर्गः ]
टीका सहितम्
४१
कीर्त्यमृतस्य पानात्, नाकिलोके खर्गिलोके, तृप्यति तृप्तिं
प्राप्नुवति सति ॥ ६९ ॥
मेरौ नमेरुद्वतले तदीयं, यशो हयास्यैरुपवीण्यमानम् । श्रोतुं विशालाऽपि सुरैः समेतैः, सङ्कीर्णतां नन्दनभूरलम्भि ॥ ७० ॥
मेरौ नमेरुद्रुतले० सुरैर्देवैर्विशालापि विस्तीर्णापि नन्दनभूः नन्दनवनभूमिः सङ्कीर्णतामलम्भि सङ्कीर्णत्वं प्रापिता । किंलक्षणैः सुरैः ? तदीयं तस्य भगवतो यशः श्रोतुं आकर्णयितुं समेतैर्मि- ९ लितैः । किंलक्षणं यशः ? मेरौ मेरुपर्वते नमेरुदुतले नमेरुनाम्नो वृक्षस्य तले, हयास्यैः किंनरैरुपवीण्यमानं वीणया गीयमानम् ॥ ७० ॥
यशोऽमृतं तस्य निपीय नागाङ्गनास्यकुण्डोद्भवमद्भुतेन । शिरो धुनानस्य भुजङ्गभर्तु - भूभार एवाभवदन्तरायः ॥ ७१ ॥
३
१२
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यशोऽमृतं • भुजङ्गभर्तुः शेषनागाधिराजस्य, अद्भुतेन आश्चर्येण, शिरो धुनानस्य शीर्षं धुनतः सतः, भूभार एव अन्तरा - १८ योऽभवत् । किं कृत्वा ? तस्य स्वामिनो यशोऽमृतं निपीय पीत्वा, किंविशिष्टं यशः ? नागाङ्गनाऽऽस्यकुण्डोद्भवम्, पातालकन्याया: मुखमेव कुण्डं तस्मादुत्पन्नम्, न च कुण्डेष्वमृतं वर्तत इति वचनात् ॥ ७१ ॥
S'
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४२
जैनकुमारसंभवं
[प्रथमः
धत्तां यशोऽस्याखिललोलगर्व
सर्वस्वसर्वङ्कषताभिमानम् । गुणैदृढयूंढघनैर्निबद्ध,
मपि त्रिलोकाटनलम्पटं यत् ॥ ७२ ॥ धत्तां यशो० अस्य भगवतो यशः अखिललोलगर्वसर्वख६ सर्वकषताभिमानम् , अखिलाः समस्ता लोलाश्चपला ये पदार्थास्तेषां यद्गर्वसर्वखं तस्य सर्वकषता सर्वोन्मूलनता तस्याभिमानं
अहङ्कारं धत्तां बिभर्तु । कोऽर्थः? भगवतो हि यशस्त्रिभुवने ९सर्वचपलपदार्थेभ्योऽप्यतिचपलत्वेन विश्वं व्यामोति स्म । यद् यशो गुणैरौदार्यधैर्यगाम्भीर्यचातुर्यमाधुर्यादिभिर्दवरकैः वा निबद्धं बद्धमपि त्रिलोकाटनलम्पटं विश्वभ्रमणारसिकं वर्तते । किं१२ लक्षणैर्गुणैः ? दृढव्यूढधनैः दृढा निश्चलाश्च व्यूढा विस्तीर्णाश्च धना निचिताश्च दृढव्यूढघनास्तैदृढन्यूढघनैः ॥ ७२ ॥
स एव देवः स गुरुः स तीर्थ, १५ स मङ्गलं सैष सखा स तातः।
स प्राणितं स प्रभुरित्युपासा
मासे जनस्तद्गतसर्वकृत्यैः ॥७३॥ १८ स एव देवः० जनैर्लोकः स एव भगवान् इति अमुना प्रका
रेण उपासामासे सेव्यतेस । उपासामासे इति क्रियापदं अष्टसु.
स्थानेषु संयोज्यते । स पुनः भगवान् देव इति चतुःषष्टीन्द्र२१ सुरासुरनरप्रभृतिलोकैः सेव्यपादारविन्दत्वात् । स भगवान् गुरु
रिति लोकानां आचारविचारव्यवहारकलाविद्याशिल्पविज्ञानादि२३ प्रकाशकत्वात् । स जिनस्तीर्थमिति "अगाधे विमले शुद्धे सत्य
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जनैः ? तखतमिः प्रजानो जनः प्रभुः खार
सर्गः] टीकया सहितम्
४३ शीलसमे हृदि । स्थातव्यं जङ्गमे तीर्थे ज्ञानार्जवदयापरैः," इत्यादितीर्थलक्षणाश्रितत्वात् । स खामी मङ्गलमिति सर्वपापच्छेदकत्वात् । स एष जिनः, सखा मित्रं आश्रितजनानां श्लाध्य-३ कर्मोद्यमकारकत्वात् । स खामी तातः पिता इति भव्यानां अन्तरङ्गशत्रुरक्षकत्वात् । स भगवान् प्राणितं जीवितमिति, पुण्यभाजां पुण्यरूपजीवितदायकत्वात् । स जिनः प्रभुः खामी इति सकलरीतिनीतिस्थितिभिः प्रजानां पालकत्वात् । किंविशिष्टैः जनैः ? तद्गतसर्वकृत्यैः तस्मिन् भगवति गतानि स्थितानि सर्वकृत्यानि येषां ते तद्गतसर्वकृत्यास्तैस्तद्गतसर्वकृत्यैः ॥ ७३ ॥९
योगीश्वरोऽभिनवमन्यतनुप्रवेश
मभ्यस्तवानुदरकन्दरगः स्वमातुः । बालो युवाप्यनपहाय तनूं स याव
१३ द्वेदं विवेश हृदयानि यदीक्षकाणाम् ॥७४॥ योगीश्वरो० यो भगवान् योगीश्वरः सन् अभिनवं नवीनं अन्यतनुप्रवेशं अभ्यस्तवान् , किंविशिष्टः भगवान् ? खमातु-१५ रुदरकन्दरगः आत्मीयजनन्या उदरमेव कन्दरं तत्र स्थितः, अन्योऽपि योगी कन्दरमध्ये परकायप्रवेशविद्यामभ्यसति । स जिनो बालो युवापि सन् तनूं शरीरं अनपहाय अत्यक्त्वा १४ ईक्षकाणां आलोकनपराणां यद् हृदयानि यावद्वेदं यथालाभ विवेश प्रविष्टवान् । अन्यो योगी निजशरीरं त्यक्त्वा अन्यस्य एकस्य कस्यचित् शरीरे परकायप्रवेशविद्यया प्रविशति, २१ अयं तु भगवान् शरीरं अत्यक्त्वा परेषां शरीरे प्रविवेश अतोऽत्रापूर्वता । कोऽर्थः ? भगवान् बालो युवानपि यैदृष्टस्तेषां हृदये २३
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४४
जैनकुमारसंभवं
[ 'प्रथमः
प्रविष्टः जिनं विना लोकचित्ते नान्यो जनः स्थित इति भावः । यावद्वेदमिति ‘विदूंती लाभे' विद् । यावत् पूर्वं 'यावतो - ६ विन्दजीवः' (सि० ५/४/५५ ) इति सूत्रात् यथा यावज्जीवं तथा यावद्वेदमिति प्रयोगः ॥ ७४ ॥ अप्राप्यकारि नयनं न मृषाह जैनः, सम्पृच्य चेद्भगवतो वपुषा विदध्युः । सेवामुपासकदृशस्तदिमा अपीह
दध्युः, कराद्यवयवा इव दिव्यभूषाम् ॥ ७५ ॥ अप्राप्यकारि - जैनः नयनं लोचनं अप्राप्यकारीति दूरस्थमेव स्वविषयग्राहकं मृषा अलीकं न आह न जल्पति, जैनानां हि स्पर्शनरसनप्राणश्रवणेन्द्रियाणि प्राप्यकारीणि स्पृष्टवि१२ षयग्राहकत्वात्, नयनमनसी त्वप्राप्यकारिणी दहनाद्यसम्भवे अस्पृष्टविषयग्राहकत्वात्, ( ' पुढं सुणेइ सद्द रूवं पुण पासई अपुढं तु' ) इत्यागमवचनात्, अत्रोपपत्तिमाह – चेत् यदि १५. उपासकदृशः सेवकदृष्टयः भगवतो वपुषा संपृच्य सेवा - करणेन दिव्यभूषां कङ्कणमुद्रामुकुटादिकां दधति, तथा दृशः । तासां कज्जलमेव भूषणं च स्यात्, न तु स्वर्णादि । 'परहस्तेन १८ वाणिज्यम्, सेवा सन्देशतस्तथा । तादृगेव फलं धत्ते, लोकेऽपि श्रूयते किल' इति ॥ ७५ ॥
२१
२३
हृदि ध्याते जातः कुसुमशरजन्मा ज्वरभरः, श्रुते चान्यश्लाघावचनविरुचित्वं श्रवणयोः ॥ दृशोर्दृष्टे स्पष्टेतरविषयगत्यामलसता, तथापी स्नेहं दधुरमरवध्वो निरवधिम् ॥ ७६ ॥
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सर्गः] टीकया सहितम्
हृदि ध्याते. इह भगवति हृदि ध्याते सति कुसुमशरजन्मा ज्वरभरः कामज्वरसमूहो जातः । च अन्यत् इह खामिनि श्रुते सति श्रवणयोः कर्णयोः अन्यश्लाघा वचनविरुचित्वं ३ जातं, अन्येषां प्रशंसावचनेऽरुचिरुत्पन्ना । इह भगवति दृष्टे सति दृशोलोचनयोः इतरविषयगत्यां अलसता स्पष्टा जाता अन्यत्रावलोकने आलस्यं प्रकटं जातम् । तथापि अमरवध्वो ६ देव्य इह भगवति निरवधि अवधिरहितं स्नेहं दधुः । यस्मिन् ध्याते ज्वरः, श्रुतेऽरुचिः, दृष्टे आलस्यं जायते, तत्र स्नेहः कथं ध्रियते इति विरोधः ॥ ७६ ॥ .... नारीणां नयनेषु चापलपरीवादं विनिनन् वपुःन, . सौन्दर्येण विशेषितेन वयसा बाल्यात्पुरोवर्तिना ॥ निर्जेतापि मनोभवस्य जनयंस्तस्यैव वामाकुले,
भ्रान्ति कालमसौ निनाय विविधक्रीडारसैः कश्चन ७७
नारीणां नयनेषु० असौ भगवान् विविधक्रीडारसैः कञ्चन कालं कियन्तं समयं निनाय गमयतिस्म । किं कुर्वन् ? वपुःसौन्द-१५ र्येण शरीरमनोहरत्वेन निश्चलताकरणात् नारीणां स्त्रीणां नयनेषु लोचनेषु चापलपरीवादं चपलताया अपवादं विनिनन् विनाशयन्। किंलक्षणेन वपुःसौन्दर्येण ? बाल्यात् पुरोवर्तिना बाल्यादग्रेस- १८ रेण वयसा यौवनलक्षणेन विशेषितेन विशेषविशिष्टतां सश्रीकतां प्रापितेन । किं कुर्वन् भगवान् ? मनोभवस्य कामस्य निर्जेतापि वामाकुले स्त्रीवर्गे रूपश्रिया तस्यैव मनोभवस्य भ्रान्ति अयमेव २४
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जैनकुमारसंभवं [द्वितीयः कामदेव इति भ्रमं जनयन् उत्पादयन् । यो यस्य निर्जेता स्यात् स तस्यैव भ्रान्ति कथं उत्पादयति इति चित्रम् ॥ ७७ ॥ ३ इति श्रीअञ्चलगच्छे कविचक्रवर्तिश्रीजयशेखरसूरिविरचितस्य जैनकुमारसम्भवस्य तच्छिष्यश्रीधर्मशेखरसूरिविरचितटीकायां श्रीमाणिक्य
सुन्दरसूरिशोधितार्या प्रथमसर्गव्याख्या समाप्ता ॥ १॥
॥ अथ द्वितीयः सर्गः प्रारभ्यते ॥ तदा हरेः संसदि रूपसम्पदं,
प्रभोः प्रभाजीवनयौवनोदिताम् । अगायतां तुम्बरुनारदौ रदो- .
च्छलन्मयूखच्छलदर्शिताशयौ ॥१॥ तदा हरेः० तदा तस्मिन् अवसरे तुम्बरुनारदौ हरेरिन्द्रस्य १२ संसदि सभायां प्रभोः श्रीऋषभदेवस्य रूपसम्पदं रूपलक्ष्मी अगायतांगायनः स्म । किंलक्षणं रूपसंपदम् ? प्रभाजीवनयौवनोदितां प्रभाया जीवनं यद्यौवनं तस्मादुदितां उत्पन्नाम् , किंलक्षणौ तुम्बरु१५ नारदौ ? रदोच्छलन्मयूखच्छलदर्शिताशयौ रदेभ्यो दन्तेभ्य
उच्छलन्तो ये मयूखाः किरणास्तेषां च्छलेन मिषेण दर्शिताशयों
दर्शित प्रकटित आशयो अभिशयो याभ्यां तौ रदोच्छलन्म१८यूखदर्शिताशयौ एतावता विशदचित्तौ ॥ १॥
प्रभुः प्रभाम्भोनिधिरामरी सभा,
किमु स्तुमस्तौ यदि मातुमुद्यतौ । मणिमहार्यः शुचिकान्ति काञ्चनम् ,
कला कलादस्य कलापि वर्ण्यताम् ॥२॥
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सर्गः] टीकया सहितम्
४७ प्रभुः प्रभाम्भोनिधि०, प्रभुः श्रीऋषभदेवः प्रभाम्भोनिधिः प्रभाया अम्भोनिधिः समुद्रो वर्तते, सभा आमरी अमराणामियमामरी देवसभा वर्तते । वयं किमु स्तुमः, यदि तौ तुम्बर-३ नारदौ गातुं उद्यतौ । अत्र दृष्टान्तमाह-मणिमहायों बहुमूल्यो वर्तते, काञ्चनं सुवर्ण शुचि कान्ति पवित्ररुक् वर्तते, ततः परं कलादस्य सुवर्णकारस्य कला मनोज्ञा कलापि वर्ण्यताम् ॥२॥६
गुणाढ्यया गेयविधिप्रवीणया,
न वीणया गीतमदोऽन्वगायि न । सरस्वती पाणितलं न मुञ्चती,
किमौचितीतच्यवते कदापि सा ॥३॥ गुणाढ्यया गेयविधिप्रवीणया, वीणया अदस्तुम्बरुनारदसम्बन्धि गीतं न न अन्वगायि नहि नहि अनु पश्चाद्गीयते स्म, १२ अपितु गीयते स्म । अत्र द्वौ नौ प्रकृतमथें गमयतः । किंविशिष्टया वीणया? गुणाढ्यया गुणैस्तंत्रीभिः विवेकादिभिर्वा आन्यया समृद्धया। अन्या गायिनी गुणैर्माधुर्यादिभिराव्या स्यात् । १५ पुनः किंविशिष्टया ? गेयविधौ गेयं गानं तस्य विधौ प्रवीणया निपुणया । सा वीणा औचिती औचित्यगुणात् किं कदापि च्यवते अश्यति अपितु नैव । किंकुर्वती वीणा ? सरखती-१८ पाणितलं सरखत्या हस्ततलं न मुञ्चती । यः सरखत्याः समीपं न मुञ्चति, तस्य विवेकाद्या गुणाः स्युः । अत्र किं चित्रम् ॥३॥ निनिन्दुरेकेऽमरधेनुजं पयो,
मरुद्रुमाणामपरे फलावलीम् । २२
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जैनकुमारसंभवं [द्वितीय: परेऽर्णवालोडनसाधितां सुधां .
प्रभोः पिबन्तश्चरितामृतं सुराः॥४॥ ३ निनिन्दुरेके० एके देवा अमरधेनुजं पयः कामधेनुसंबन्धि
दुग्धं निनिन्दुर्निन्दन्ति स्म । णिदि कुत्सायामिति धातोः प्रयोगः इति क्रिया सर्वत्र योज्यते । अपरे देवा मरुद्रुमाणां मरुतो ६ देवास्तेषां द्रुमाः कल्पवृक्षाः तेषां फलावलीम् । अपरे सुराः सुधां अमृतम्। किंलक्षणां सुधाम् ? अर्णवालोडनेन करणात् साधितां समुद्रस्य आलोडनं मथनं ततः साधितां प्रकटिताम्। किं कुर्वन्तः ९सुराः? प्रभोः श्रीऋषभदेवस्य चरित्रामृतं पिबन्तः । कोऽर्थः ?
देवानां श्रीयुगादिदेवचरितामृतं कामधेनुदुग्ध-कल्पवृक्षफलसुधानिर्यासादिभ्योऽप्यधिकतरं सरसं जातम् अतोऽमरधेनु१२ मरुद्रुमकरीर इति हीनशब्दौ साभिप्रायो, सुधायाः प्रयास 'साध्यत्वमेव दोषः ॥ ४ ॥
श्रवाः श्रियं प्रापुरमी प्रभोर्गुणै-, १५ वयं वृथाभारकृतः किमामहे । - मुदा शिरः स्खं धुनता सभासदा- .
मितीव पेते किल कर्णवेष्टकैः ॥५॥ १४ श्रवाः श्रियं० किल इति सत्ये । सभासदां सभ्यानां कर्ण
वेष्टकैः कुण्डलैः पेते पतितम् । उत्प्रेक्षते, इतीव इतिकारणादिव
इतीति किम् ? अमी सभासदः सभ्याः प्रभोर्गुणैः श्रवः श्रियं २५ कर्णशोभा प्रापुः, वृथाभारकृतो मुधाभारकारिणो वयं किं
आस्महे किं तिष्ठामः । किं कुर्वतां सभासदाम् ? मुदा हर्षेण खं २३ शिरः खीयं मस्तकं धुनताम् । कर्णवेष्टकः पुनपुंसको ज्ञेयः ॥५॥
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सर्गः] टीकया सहितम् यशोऽमृतौषः प्रससार तन्मुखा,
तथा प्रभोः पार्षदनिर्जरैर्यथा । अयं श्रवः कूपकहृत्सरेष्वमान् , . दृगध्वनावामि मुदश्रुदम्भता ॥ ६॥ ...... यशोऽमृतौघः० तन्मुखात् तयोस्तुम्बरुनारदयोर्मुखात् प्रभोः श्रीऋषभदेवस्य यशोऽमृतौघः यशोऽमृतस्य उद्यत्प्रवाहस्तथा प्रस-६ सार प्रसरति स्म, यथा पार्षदनिर्जरैः सभ्यदेवैरेवं यशोऽमृतौघः मुदश्रुदम्भतो हर्षाश्रुमिषात् दृगध्वना दृष्टिमार्गेण वाम्यते स्म । किं कुर्वन् यशोऽमृतौषः ? श्रवः कूपकहृत्सरेष्वमान् ।९ श्रवणरूपकूपहृदयरूपसरोवरेषु अमान् मातुमशक्तः ॥६॥
ध्रुवं दृशोश्च श्रवसोश्च सङ्गतं, . प्रवाहवत्मान्तरमस्ति देहिनाम् ।... १२
श्रुतिं गतो गीतरसो दृशोदभूत्, . ... मुदश्रुदम्भाद् धुसदां किमन्यथा? ॥७॥
ध्रुवं दृशोश्च० देहिनां प्राणिनां ध्रुवं निश्चितं दृशोदृष्ट्योः च १५ अन्यत् श्रवसोः कर्णयोः अन्तरं मध्यसत्कं प्रवाहवर्त्म प्रवाहमार्ग संगतं मिलितं अस्ति, अन्यथा गीतरसः घुसदां देवानां श्रुतिं कर्णं गतः सन् मुदश्रुदम्भात् दृशा किं उदभूत् प्रकटो१८ बभूव । कोऽर्थः ? खामिनो गीतेन देवानां लोचनानि हर्षाश्रुजलप्लाविजातानि, गीतस्य रसत्वारोपादयं कवर्भावो ज्ञेयः॥७॥
कथामृतं पीतवतां विभोरभूद्
यथा ऋभूणां श्रवसोर्भृशं सुखम् । तथा दृशोरतिरदोदिदृक्षया,
न जन्तुरेकान्तसुखी कचिद्भवे ॥८॥ जै० कु. ४
२४
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५०
जैनकुमारसंभवं
[द्वितीयः
कथामृतं पीतवता, विभोः श्रीऋषभदेवस्य कथामृतं पीतवतां ऋभूणां देवानां श्रवसोः कर्णयोः भृशं अत्यर्थसुखं ३ यथाऽभूत् , तथा दृशोर्नेत्रयोरर्तिः पीडा आसीत् । यथा ऋभूणां इति पाठे 'ऋलति हूखो वा' (सि० १।२।२) इति पदं ज्ञेयम् । कया ? अदोदिदृक्षया अस्य भगवतो दिदृक्षया । (अमुं) द्रष्टुमिच्छा दिदृक्षा (अदो०) तथा अदोदितक्षया । जन्तुः प्राणी, भवे संसारे, क्वचित् एकान्तसुखी न भवेत् ॥ ८॥
प्रकृत्य कृत्यान्तरशून्यतां सद९. स्यदस्य गीतेन तदा दिवौकसाम् ।
ध्वनेः खजन्यत्वमसूचि सूचितं,
यदुद्भवो यः स तदाभचेष्टितः॥९॥ १२ प्रकृत्य कृत्या० सदसि सभायां अदस्य गीतेन तदा तस्मिन्नवसरे दिवौकसां देवानां कृत्यान्तरशून्यतां कार्यान्तरविषयेषु
शून्यतां अचेतनत्वं प्रकृत्य प्रारभ्य ध्वनेः शब्दस्य खजन्यत्वं १५आकाशभवत्वं सूचितं यथा भवति तथा असूचि कथितम् ।
वैशेषिकाः शब्द आकाशगुण इति कथयन्ति । यो यदुद्भवो , यो यस्मात् उत्पद्यते स तदाभचेष्टितस्तत्सदृशचेष्टावान् स्यात्, १८यथा आकाशं शून्यं कथ्यते तदा तद्भवः शब्दोऽपि शून्यताकारी स्यादिति युक्तमेव ॥ ९॥
तदीयगीताहितहत्तया समं,
समुज्झिताशेषशरीरचेष्टितैः। खभावनिःस्पन्दनिरीक्षणैः क्षणं,
न तत्र चित्रप्रतिमायितं न तैः ॥१०॥
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सर्गः] टीकया सहितम् - तदीयगीता तैर्देवैः, क्षणं न चित्रप्रतिमायितं न, नहि नहि चित्रलिखितप्रतिमावदाचरितं अपि तु आचरितमेव । किंविशिष्टैर्देवैः । तदीयगीताहितहृत्तया तस्य भगवतो गीते आहित-३ न्यस्तहृदयत्वेन करणभूतेन । समं समकालम् , समुज्झिताशेषशरीरचेष्टितैः समुज्झितानि त्यक्तानि अशेषाणि समग्राणि शरीरचेष्टितानि येस्तैः समुज्झिताशेषशरीरचेष्टितैः । पुनः ६ किंविशिष्टैः! खभावनिःस्पन्दनिरीक्षणैः खभावेन निश्चललोचनैः, अनिमिषनयना देवा इति वचनात् ॥ १० ॥ विभुं तमद्यापि निशम्य तन्मुखा,
दखण्डकौमारकमाकरं श्रियाम् । मृतः स कामः किमिति प्रजल्पिते,
सुरीसमूहे मुमुचे रति रतिः ॥११॥ १२ विभुं तमद्यापि-सुरीसमूहे देविसमुदयमध्ये अन्याः सर्वा अपि भगवद्धतं(काम) श्रुत्वा प्रीति प्राप्ताः, रतिस्तु अप्रीता । हेतुमाह स सर्वप्रसिद्धः कामः किं मृतः इति सर्वैरपि प्रजल्पिते १५ प्रोक्ते सति, रतिः कामभार्या रतिं समाधिं मुमुचे । किं कृत्वा ! तं विभुं अद्यापि । तन्मुखात् तयोः तुंबरुनारयोर्मुखात् , अखण्डकौमारकं अपरिणीतं निशम्य श्रुत्वा । किंलक्षणं । विभुम् ! श्रियामाकरं लक्ष्मीनां स्थानम् ॥ ११ ॥ त्रिलोकमर्तुः परमाहतो विद
अथो विवाहावसरं सुरेश्वरः। विसृज्य सभ्यानुपसर्जनीकता
परक्रियः प्रास्थित वैक्रियाङ्गभृत् ॥ १२॥ २३
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जैनकुमारसंभवं
[ द्वितीयः
त्रिलोकभर्तुः ० अथो अथोऽनन्तरं सुरेश्वरः इन्द्रः प्रास्थित चचाल । स्थाधातुः प्रपूर्वकः 'संविप्रावात् ' ( सि० ३।३।६३ ) ३ इति सूत्रेणात्मनेपदी अद्यतनीत 'अड्धातोरा ०' (सि० ४।४।२९ ) अडागमः 'इश्व स्थादः ' ( ४ | ३ | ४१ ) अद्यतन्यामात्मने इत्यनेन आस्थाने इति प्रास्थित इति सिद्धम्, ६ किंलक्षण इन्द्रः ? वैक्रियांगभृत् वैक्रियं नवीनं अंग बिभर्तीति वैक्रियांगभृत् । देवेन्द्रा भवधारिणीय देहेनैव देवलोकान्तर्थमन्ति परं मनुष्यलोकमागच्छन्तो हि उत्तरवैक्रियरूपं कुर्व९ न्तीति वैक्रियांगधारीन्द्र इत्यर्थः । पुनः किंविशिष्ट इन्द्रः ! परमार्हतः परमजैनः । पुनः किं कुर्वन् ? त्रिलोकभर्तुः जिनेन्द्रस्य विवाहावसरं विदन् । किं कृत्वा ? सभ्यान् विसृज्य । पुनः १२ किंविशिष्टः इन्द्रः ? उपसर्जनीकृतापरक्रियः । उपसर्जनीकृता गौणीकृता निरादरीकृता अपराः क्रियाः कर्तव्यानि येन स उपसर्जनीकृतापरक्रियः ॥ १२ ॥
>
१५
५२.
स्वयं प्रयाणे वद किं प्रयोजनं, समादिशेष्टं तव कर्म कुर्महे । इमाः सुराणामनुगामिनां गिरो, यियासतस्तस्य ययुर्न विभताम् ॥ १३ ॥ स्वयं प्रयाणे० : अनुगामिनां पश्चाद्गामिनां सुराणां देवाना इमा गिरो यियासतो गन्तुमिच्छतस्तस्य इन्द्रस्य विनतां अन्त२१ रायतां न ययुः न गच्छन्तिस्म । इमाः काः ? हे खामिन् ! वद ब्रूहि स्वयं प्रयाणे किं प्रयोजनं किं कार्यम् : समादिश २६ आदेशं देहि । वयं तव इष्टं कर्म कुर्महे ॥ १३ ॥
$6
i
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सर्गः] टीकया सहितम् वजैः सुराणामनुवव्रजे व्रज
नसावनुक्त्वाप्यतिरिक्तभक्तिभिः । बलात् किमामंत्रयते बलाहकः,' __ स यदलाकापटलैः परीयते ॥ १४ ॥ वजैः सुरा० असौ इन्द्रो अनुक्त्वापि व्रजन् अकथयित्वैव गच्छन् सुराणां देवानां व्रजैः समूहैरनुवव्रजे अनुगम्यतेस्म । ६ 'किंलक्षणैः सुराणां व्रजैः ? अतिरिक्तभक्तिभिः अधिकभक्तिभिः। बलाहको मेघः। बलात् किं आमंत्रयते आकारयति अपितु नैव । यत् यस्मात् कारणात् । स बलाहकः बलाकापटलैः ९ बकपत्नीसमूहैः परीयते परित्रियते ॥ १४ ॥
न चिक्लिशे कापि विभोः प्रयोजनात्
स योजनानामयुतानि लयन् । १२ पदे पदे प्रत्युत तद्विवन्दिषा
रसेन कृष्टो गतिलाघवं दधौ ॥ १५॥ न चिक्लिशे कापि० स इन्द्रः वापि न चिक्तिशे न खेद-१५ माप्तवान् । 'क्लिशंच् उपतापे', क्लिश् परोक्षा ए। किं कुर्वन् इन्द्रः ? विभोः प्रयोजनात् खामिकार्यात् योजनानामयुतानि दशसहस्राणि लंघयन् । अयुतानि इति उपलक्षणमात्रमेतत् ।। यथा योजनानां दशसहस्राणि तथा कापि लक्षाणि, कापि दशलक्षाणि लंघयन्नित्याद्यपि ज्ञेयम् । पदे पदे प्रत्युत तद्विवन्दिषा प्रत्युत इति विशेषतस्तद्विवन्दिषा तस्य भगवतो वन्दनेच्छा तस्या रसेन कृष्टः सन् । गतिलाघवं, गतौ शीघ्रत्वं दधौ । २२
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५४
जैनकुमारसंभवं
[ द्वितीया
कोऽर्थः ! स्वामिवन्दनोत्कण्ठया वडी (१) १ चपला २ वेगा ३ जवनतरी भिश्चतसृभिर्गतिभिरतित्वरितं चलितः ॥ १५ ॥ शिरांसि सर्पन् रुचकादिभूभृतां, तदग्रसिद्धायतन स्थितार्हतः । विलंब भीरुर्मनसैव सोऽनम•
नयं न भिन्ते विबुधेशिता यतः ॥
१६ ॥ शिरांसि सर्पन् ० स इन्द्रः रुचकादिभूभृतां शिरांसि सर्पन् रुचकादिपर्वतशीर्षाणि गच्छन् सन् तदग्रसिद्धायतन स्थि९ ताईतस्तदग्रे जिनभुवनेषु ( ये ) स्थितार्हतस्तान् मनसैव अनमत | किंलक्षण इन्द्रः ? विलम्बभीरुः विलंबात् भयवान् यतो यस्मात् कारणात् । विबुधेशिता इन्द्रः, पक्षे विद्वन्मुख्यः, नयं न्यायं १२ न भिन्ते अन्यथाकरोति; श्रेयो हि प्रतिबध्नाति पूज्यपूजाव्यतिक्रम इति ॥ १६ ॥
न तस्य वज्रेsपि विलोकितेऽधरैभूवे क्वचिदंजनादिभिः । तदीयमौलौ प्रतिमा अकृत्रिमाः, सदासते यज्ञ्जगदेकपालिनाम् ॥ १७ ॥
३
१५
न तस्य वज्रेऽपि तस्य इन्द्रस्य वज्रे विलोकितेऽपि दृष्टेऽपि सति अञ्जनादिभिर्घोरैः पर्वतैः क्वचिदधरैः कातरैर्न बभूवे । यत् यस्मात् कारणात्, तदीयमौलौ तेषां पर्वतानां मस्तके, जगदेकपालिनां जिनेन्द्राणां अकृत्रिमाः शाश्वत्यः प्रतिमाः सदा २२ आसते तिष्ठन्ति । कोऽर्थः ? पर्वतानां शत्रुरिन्द्रो वज्रेण
१.८
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सर्गः] टीकया सहितम्
५५ पर्वतपक्षच्छेदिस्वात् । अंजनाचलाद्या इन्द्रं दृष्ट्वा मनागपि न क्षुभ्यन्तेम, खशीर्षे शाश्वतजिनप्रतिमानां स्थितत्वात् ॥१७॥ रुचाअनक्ष्माधरमौलिमूलयां
तरा तमस्यंचति सूचिभेद्यताम् । निरुद्धचक्षुर्विषयः स चिन्मयीं,
चरन् सहस्राभ्यधिकां दृशां दधौ ॥ १८॥ ६ रुचांजन० स इन्द्रः चरन् सन् सहस्रेभ्योऽधिकां सहस्रादधिकां चिन्मयीं ज्ञानमयीं दृशां दधौ धत्तेस्म । क्व सति ? अंजनक्षमाधरमौलिमूलया, अंजनाचलमस्तके मूलमुत्पत्तिर्यस्या-९ स्तया एवंविधया रुचा कान्त्या तमसि अन्धकारे सूचिमेद्यतां अंचति गच्छति सति । सूचीभिरन्धकारं न भेद्यते, तथापि कविधर्मोऽयम् । यतः कविशिक्षायामुक्तम्-'तिमिरस्य तथा १२ मुष्टिग्राह्यत्वं सूचिभेद्यता मिति । किंविशिष्टः इन्द्रः ? अत एव : कारणात् निरुद्धचक्षुर्विषयो निरस्तनेत्रगोचरः । कोऽर्थः ।, अञ्जनाचलो अतीच कृष्णः, तेन तत्रान्धकारं सूचिभेद्यम्, तत्र १५ इन्द्रः सहस्रनेत्रैरपि न पश्यति, पश्चात् ज्ञानदृशैवान्तश्वलितः ॥ १८॥
लतामयागारशया रिरंसया,
सुराः सदारा ददृशुस्तमध्वगम् ।
स तानपश्यनतिवेगतस्त्रपा. ". जडान चक्रेऽचलमूर्ध्नि चाचलिः ॥ १९॥ २१ - लतामया० सदाराः सकलत्राः सुरा देवास्तं इन्द्रं अध्वगं मार्गस्थं ददृशुः पश्यन्तिस्म । किंलक्षणाः सुराः? रिरंसया क्रीडे. २३
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जैनकुमारसंभवं [द्वितीयः च्छया लतामयागारशया वल्लीमयगृहे शेरते इति लतामया। स इन्द्रः अतिवेगतोऽपश्यंस्तान् सुरान् त्रपाजडान् लज्जया ३ मूर्खान् न चक्रे। किंलक्षण इन्द्रः ? अचलमूर्ध्नि चाचलिः, पर्वतमस्तके चलनशीलः । चाचलिरिति निपातो ज्ञेयः ॥ १९ ॥
दिवाकरस्योर्ध्वमधश्च रेजिरे, ६ नभोऽजिरे ये प्रखरांशुदण्डकाः।
अमी महेन्द्रस्य दिवोऽवरोहतः,
___करावलंबत्वमिव प्रपेदिरे ॥२०॥ ९ दिवाकरस्यो० ये दिवाकरस्य सूर्यस्य प्रखरांशुदण्डकाः कठिनकिरणरूपदण्डका नभोऽजिरे गगनाङ्गणे ऊर्ध्वम् अधश्च रेजिरे राजन्तेस्म । ते अमी प्रखरांशुदण्डकाः । महेन्द्रस्य १२ सौधर्मेन्द्रस्य, दिवोऽवरोहतः आकाशात् उत्तरतः सतः, करावलं
बत्वं हस्ताधारत्वमिव प्रपेदिरे, प्रपद्यन्तेस । इवशब्दोऽत्र
शंकायाम् । कोऽर्थः ? यदा कोपि ऊर्श्वभूमितोऽध उत्तरति तदा १५ बद्धवंशाधवलंब्याऽधो याति, तथा इन्द्रोऽपि सूर्यकिरणदण्डकाधारेणाधो उत्तरति स्म इति भावः ॥२०॥
विवाहहर्ये त्रिजगत्प्रभोर्युवा१८ __ मवाप्स्यथः किं न मणिप्रदीपताम् ।
इति प्रलोभ्याह्वयदिन्दुभास्करी,
कृतातिथेयो पथि संगतौ हरिः ॥२१॥ २१ विवाहहम्र्ये त्रि० हरिरिन्द्रः इन्दुभास्करौ चन्द्रसूर्यो इति
अमुना प्रकारेण प्रलोभ्य लोभयित्वा आयत्, आकारयति २३ स्म । इतीति किम् ? युवां त्रिजगत्प्रभोः श्रीऋषभदेवस्य
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सर्गः] टीकया सहितम् विवाहहयें विवाहमण्डपे मणिप्रदीपतां मणिसंबन्धिमाङ्गलिकरूपप्रदीपत्वं किं न अवाप्स्यथः, अपि तु प्राप्स्यथ एवेत्यर्थः । किंलक्षणौ इन्दुभास्करौ? कृतातिथेयौ कृतं आतिथेयं प्राघूर्णत्वं ३ याभ्यां तौ कृतातिथ्यौ । पुनः किंविशिष्टौ ? पथि मार्गे संगतौ मिलितौ ॥२१॥
निमेषविश्लेषिसमग्रदृग्मये,
प्रिये सदा सन्निहितेऽत्र वज्रिणि । कचिन या मुह्यति सा किमायसी,
शचीति तं वीक्ष्य जगुः शशिप्रियाः॥२२॥ ९ निमेषविश्लेष० शशिप्रिया रोहिण्यादयः तं इन्द्रं वीक्ष्य दृष्ट्वेति जगुः परस्परमिति जल्पन्तिम । इतीति किम् ? सा शची इन्द्राणी किं आयसी लोहमयी, या शची, अत्र अस्मिन् प्रिये १२ इन्द्रे भर्तरि सदा संनिहिते समीपस्थे सति कचिन्न मुह्यति मूढत्वं न दधाति । किंलक्षणे इन्द्रे ? वज्रिणि वज्रयुक्ते । पुनः किंविशिष्टे इन्द्रे ? निमेषविश्लेषिसमग्रहग्मये निमेषरहिते १५ समस्तलोचनरूपे । कोऽर्थः ? रोहिण्याद्याः खभर्तारं सौम्यं सोमं दृष्ट्वा सहस्रलोचनैर्विकरालरूपं वज्रयुक्तं च इन्द्रं दृष्ट्वा शच्या एव सर्वसहत्वं प्रशंसति स्म । यद्यपि च जैनानामिन्द्रस्य शरीरे १८ सहस्रलोचनत्वं नोच्यते तथापि काव्यं लोकानुरोधेनैव स्यादिति ॥ २२ ॥
विलोचनैरूर्ध्वमुखैर्वियत्युडू. ___ रधोमुख़र्वाधिजलेऽतिनिर्मले।
२२
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जैनकुमारसंभवं [द्वितीया स विप्रकीर्णा अवलोकयन्मणी
रणीयसीमप्यविदन्न मुद्भिदम् ॥ २३॥ ३ विलोचनैरू० स इन्द्रः अणीयसीमपि खरपामपि मुभिदं हर्षभेदं न अविदन् न अलभत् । अणुशब्दस्याग्रे ईयन्स प्रत्यये स्त्रीत्वे नलोपे अणीयसी स्यात् । किं कुर्वन् ! वियति ६ आकाशे ऊर्ध्वमुखैर्विलोचनैदृम्भिरुडूर्नक्षत्राणि अवलोकयन् , अधोमुखैलोचनैरतिनिर्मले वार्द्धिजले समुद्रपानीये विप्रकीर्णा विक्षिप्ता मणीः-रुचकस्फटिकलोहिताक्षमरकतप्रभृतिमणिसमू. ९हान् अवलोकयन् । उडुशब्दः स्त्रीनपुंसकलिङ्गो ज्ञेयः, मणिशब्दस्तु पुंस्त्रीलिङ्गो ज्ञेयः ॥ २३ ॥
अविश्रमे वर्त्मनि तस्य यायिनः, १२ - श्रमस्य यः कोऽपि लवोऽजनिष्ट सः। ___ अनोदि दुग्धोदधिशीकरैस्तटा
चलस्खलद्वीचिचयोत्पतिष्णुभिः ॥ २४ ॥ १५ अविश्रमे वर्मनी० तस्य इन्द्रस्य अविश्रमे विश्रामरहिते
वर्मनि मार्गे यायिनो गच्छतः सतः श्रमस्य यः कोऽपि लवोऽजनिष्ट जातः, स श्रमस्य लवः दुग्धोदधिशीकरैः क्षीरसमुद्रस्य १८ जलकणैरनोदि नुद्यते स्म । किंलक्षणैर्दुग्धोदधिशीकरैः ? तटा
चलस्खलद्वीचिचयोत्पतिष्णुभिः तटेषु ये अचलाः पर्वतास्तेषु स्खलन्त्य आस्फालन्त्यो ये वीचयः कल्लोलास्तासां चयात् २१ समूहात् उत्पतिष्णुभिरुत्पतनशीलैः। कोऽर्थः? इन्द्रस्य सार्धराज
प्रमाणं मार्गमतिक्रम्यागच्छतः सतो यः श्रमो जातः स शीतलैः २३क्षीरसमुद्रजलकणैः स्केटित इति भावः ॥ २४ ॥
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सर्ग: ]
टीकया सहितम्
प्रभूतभौमोष्मभयंकरः स्फुरन्महाबलेनांजन भंजनच्छविः ।
निजानुजाऽभेदधियामुना घनः, पयोधिमध्यान्निरयन्निरैक्ष्यत ॥ २५ ॥
प्रभूतभौमो० अमुना इन्द्रेण घनो मेघः निजानुजा भेदधिया स्वीयलघुभ्रातुर्नारायणस्यैक्यबुद्धया पयोधिमध्यात् समुद्र - ६ मध्यात् निरयन् निर्गच्छन् निरैक्ष्यत दृष्टः । किं लक्षणो घनः ? प्रभूतभौमोष्मभयंकरः प्रभूतस्य प्रचुरस्य भौमोष्मणः भूमिसत्कबाष्पस्य भयंकरः । पुनः किंविशिष्टः घनः ? महाबलेन वायुना ९ स्फुरन् । पुनः किंविशिष्टो घनः ? अंजनभंजनच्छविः कृष्णकान्तिः । नारायणः पुनः किंलक्षणः ? प्रभवः खामिनस्तेषु उत प्रसिद्धो यो भौमो भौमासुरस्तस्य ऊष्मा गर्वस्तस्य भयंकर : १२ उच्छेदकरः, बलेन शरीरसामर्थ्येन बलदेवेन चास्फुरन्महाः प्रसरत्तेजाः, शेषं स्पष्टम्, एवं विशेषणैर्जलदनारायणयोरैक्यम् । यद्यपि जैनमते समुद्रे नारायणः स्वपितीति वक्तुं न युक्तम्, १५ परमत्रापि कविरूढिरेव ज्ञेया, यथा श्रीकल्पे लक्ष्मीवर्णने दिग्गजाभिषेकवर्णनमिति ॥ २५ ॥
दिवः पते द्यौरहमस्मि सांप्रतं, न सांप्रतं मोक्तुमुपेत्य मां तव । इति स्ववर्णाबुदगर्जितेन सा,
५९
द्रुतं व्रजन्तं किमु तं व्यजिज्ञपत् ॥ २६ ॥ दिवः पते धौरहमस्मि सांप्रतं ० स द्यौराकाशः स्ववर्णाबुदगर्जितेन स्वः स्वीयो वर्णः श्यामतालक्षणो जातिविशेषो २३
34
२१
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६०
जैनकुमारसंभवं [द्वितीयः वा यस्य स खवर्ण एवंविधो योऽबुदो मेघः तस्य गर्जितेन गर्जारवच्छलेन तं इन्द्रं द्रुतं शीघ्रं व्रजंतं गच्छन्तं सतं, किमु ३ इति व्यजिज्ञपत् विज्ञापयति स्म । विज्ञप्तिः खजनेन कार्यत इति व्यङ्ग्यम्, इति इति किम् ? हे दिवःपते! अहं द्यौरस्मि तव
साम्प्रतं अधुना मामुपेत्य मम समीपमागत्य मोक्तुं न सांप्रतं न ६ युक्तम् । कोऽर्थः? द्यौशब्दः स्त्रीलिङ्गः खर्गाऽऽकाशवाची, अतो भङ्ग्याह त्वं दिवःपतिरहं तु द्यौरेतावता त्वं खामी
अहं च भार्या । अतः कारणात् तव मम समीपमागतस्येत्थं ९ मामुपेक्ष्य गंतुं न युक्तमिति भावः ॥ २६ ॥
पथि प्रथीयस्यपि लंघिते जवा
दवाप स द्वीपमथादिमं हरिः। १२ विभाति यो द्वीपसरस्वदुत्करैः,
परैः परीतः परिवेषिचन्द्रवत् ॥ २७॥ पथि प्रथीयस्यपि० अथानन्तरं स हरिरिन्द्रः जवात् वेगात् १५ प्रथीयस्यपि प्रचुरेऽपि पथि मार्गे लविते सति आदिमं द्वीप
अवाप प्राप्तः, यो द्वीपः परैरन्यैीपसरखदुत्करैः द्वीपानां
सरखतां समुद्राणां च उत्करैः समूहैः परीतो वेष्टितः सन् १८ परिवेषिचन्द्रवत् परिधियुक्तचन्द्रवद्विभाति शोभत इति, द्वीपशब्दः पुंक्लीवलिंगो ज्ञेयः ॥ २७ ॥
इहापि वर्ष समवाप्य भारतं,
बभार तं हर्षभरं पुरन्दरः। घनोदयोऽलं धनवमलंघन
श्रमं शमं प्रापयति स योद्भुतम् ॥ २८॥
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सर्गः] टीकया सहितम्
इहापि वर्ष० पुरंदर इन्द्र इहापि अस्मिन् जंबूद्वीपमध्येऽपि भारतं वर्ष भरतक्षेत्रमवाप्य तं हर्षभरं प्रमोदसमूहं बभार धरति स्म । अद्भुतं आश्चर्य यो हर्षभरः अलं अत्यर्थं धनवर्त्मनः३ घनवा आकाशस्तस्य लंघने यः श्रमः तं श्रमं शान्ति प्रापयति म । किंविशिष्टो हर्षभरः ? घनोदयः घनः प्रचुर उदय उत्पत्तिर्यस्य सः। कोऽर्थः? अन्यो भरो भारः श्रमं उत्पादयति ६ अयं हर्षभरस्तु श्रमं शमयति स्मेत्याश्चर्यम् ॥ २८॥
विनीलरोमालियुजो वनीघनो - गभीरनामेहुनिम्नपल्वलः। बभूव शच्या अपि मध्यदेशतोऽ
स्य मध्यदेशः स्फुटमीक्षितो मुदे ॥ २९॥ विनीलरोमालि० यत्र जिनचयर्धचक्रिणां जन्म स्यात्र स भरतसत्को मध्यदेशः शच्या अपि मध्यदेशतः उदरप्रदेशात् अधिकं अस्य इन्द्रस्य मुदे हर्षाय बभूव, हेतुमाह-किविशिष्टो मध्यदेशः ? स्फुटं प्रकटं ईक्षितो दृष्टः, शचीमध्यदेशस्तु १५ नैवमिति हर्षे विशेषः । किंलक्षणात् शच्या मध्यदेशतः ? विनीलरोमालियुजः । किंलक्षणो मध्यदेशः ? बहुनिम्नपल्वलः बहूनि निम्नानि गभीराणि पल्वलानि अखातसरांसि यत्र स १८ बहुनिम्नपल्वलः । यद्यपि देवानां शरीरे नखरोमादीनि न स्युस्तथापि उत्तरवैक्रियशरीरे घटन्ते इति विनीलरोमालि. युजो न चर्च्यम् ॥ २९॥
- २१ ददर्श दूरादथ दीर्घदन्तकं,
घनालिमाद्यत्कटकान्तमुन्नतम् ।
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१५
६२
१८
प्रलंबकक्षातिनीरनिर्झरं, सुरेश्वरोऽष्टापदमद्रिकुंजरम् ॥ ३० ॥
३ ददर्श दूरादथ० अथानन्तरं सुरेश्वर इन्द्रः अष्टापदं अद्रिकुंजरं पर्वतेषु कुञ्जरं हस्तिनं वा दूराद्ददर्श । किंलक्षणं अष्टापदम् ? दीर्घदन्तकं दीर्घा दन्तका बहिर्निर्गताः प्रदेशा यस्य ६ तम् । कुञ्जरपक्षे दीर्घौ दन्तौ दन्तमुशले यस्य स दीर्घदन्त कस्तम् । खार्थे कप्रत्ययः । पुनः किंविशिष्टं अष्टापदम् ? घनालिमाद्यत्क - टकान्तम् घनालिभिर्घनानां मेघानां आलिभिः श्रेणिभिर्माद्यन्तः ९ स्थूलीभवन्तः, कटकानां पर्वतमध्यभागानां अन्तरा यस्य तम्, कुंजरपक्षे घना बहवोऽलयो भ्रमरा यत्र ते घनालिनी माद्यन्ती मदं किरन्ती कटे कपोलौ ताभ्यां कान्तम् । पुनः किंविशिष्टम् ? १२ उन्नतमुच्चैस्तरम् । पुनः किंविशिष्टम् ? प्रलंबकक्षा यितनीर निर्झरं प्रलंबा कक्षा वस्त्रा तद्वदाचरितानि नीरस्य निर्झराणि यत्र तं प्रलम्बकक्षायितनीरनिर्झरम् ॥ ३० ॥
शिरो ममात्प्रतिमानविंशतिचतुर्युताध्यास्य वतंसयिष्यति । इतिप्रमोदानुगुणं तृणध्वज
व्रजस्य दम्भात्पुलकं बभार यः ॥ ३१ ॥ शिरो ममात्प्रतिमानविंशति० योऽष्टापदः तृणध्वजनजस्य तृणध्वजानां व्रजः समूहः तस्य दम्भात् मिषात् पुलकं रोमाञ्चं २१ बभार । किंलक्षणं पुलकम्? इतिप्रमोदानुगुणं, इति अमुना प्रकारेण यः प्रमोदो हर्षः तस्य अनुगुणं योग्यम् । कः प्रमोद २३ इत्याह- चतुर्युतार्ह त्प्रतिमानविंशतिरर्हतां प्रतिमानानि विम्बानि
जैनकुमारसंभवं
[ द्वितीयः
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सर्गः] टीकया सहितम् तेषां विंशतिः एतावता चतुर्विंशतिः, मम शिरो मस्तकमध्यास्य अध्याश्रित्य वतंसयिष्यति अवतंसयिष्यति अवतंससंयुक्तं मुकुटसंयुक्तं करिष्यति ॥ ३१ ॥
यदुच्चशृंगाग्रजुषोऽपि खेचरी
गृहीतशिम्बाफलपुष्पपल्लवाः। न सेहिरे स्वानुपभोगदुर्यशो,
द्रुमा मरुत्प्रेरितमौलिधूननैः ॥ ३२॥ यदुच्च० गुमाः वृक्षा मरुत्प्रेरितमौलिधूननैः पवनप्रेरितशिरःकम्पनच्छलेन खानुपभोगदुर्यशः आत्मीयस्य उपभोगरहितत्व-९ स्थापकीर्ति न सेहिरे न सोढवन्तः । किंलक्षणा द्रुमाः? यदुच्चशृङ्गाग्रजुषोऽपि यस्य पर्वतस्य उच्चशृंगाग्रे जुषन्ते सेवन्ते । एवंविधा अपि पुनः किंलक्षणा द्रुमाः? खेचरीगृहीतशिम्बाफल-१२ पुष्पपल्लवा विद्याधरीभिर्गृहीता शिम्बाफलिका फलपुष्पपल्लवानि च येषान्ते खेचरीगृहीतशिम्बाफलपुष्पपल्लवाः ॥ ३२ ॥ निवासभूमीमनवाप्य कन्दरे
.१५ ___ष्वपि स्फुटस्फाटिकभितिभानुषु । . तले तमस्तिष्ठति यन्महीरुहां,
शितिच्छविच्छायनिभानिशात्यये ॥ ३३ ॥ १८ निवास० तमः अन्धकारं निशात्यये प्रभाते यन्महीरुहां यस्य पर्वतस्य वृक्षाणां तले शितिच्छविच्छायनिभात् शितिः कृष्णा छविः कान्तिर्यस्याः सा शितिच्छविः, एवंविधा या छाया तस्या निभात् मिषात् तिष्ठति । किं कृत्वा ? कन्दरेष्वपि गुहाखपि २२
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जैनकुमारसंभवं [द्वितीयः निवासभूमी वासस्थानं अनवाप्य अप्राप्य । किंविशिष्टेषु कन्दरेषु ? स्फुटाः प्रकटाः स्फाटिकभित्तीनां मानवः किरणा ३ यत्र तानि स्फुटस्फाटिकभित्तिभानूनि तेषु । कोऽर्थः ! अत्र पर्वतेषु अन्धकारं मणिसत्कोहयोताग्रे प्रवेशं न लभते, पश्चात् छायामिषेण वृक्षाणां तले स्थितमिति भावः ॥ ३३ ॥
प्रतिक्षपं चन्द्रमरीचिरेचिता
मृतांशुकान्तामृतपूरजीवना। वनावली यत्र न जातु शीतगोः,
पिधानमैच्छन्मलिनच्छविं धनम् ॥ ३४॥. प्रतिक्षिपं० यत्र यस्मिन् पर्वते वनावली जातु कदाचिदपि मलिनच्छविं कृष्णकान्ति मेघं न ऐच्छत् न वांछति स्म। १२ किंलक्षणं धनम् ? शीतगोश्चन्द्रस्य पिधानमाच्छादनं, पक्षे शीता
शीतला गौर्वाणी यस्य स शीतगुस्तस्य पिधानमपह्नवकरणात् य
एवंविधो मलिनच्छविश्व स्यात् स सर्वस्याप्यनिष्ट एव स्यादिति । १५ अथ मेघं विना वनावली कथं जीविष्यतीत्याह-किंलक्षणा वनावली ? प्रतिक्षप क्षपां २ रात्रि २ प्रति चन्द्रमरीचिरेचिताः
चन्द्रकिरणैः श्राविता ये अमृतांशुकान्ताश्चन्द्रकान्तमणयः, १८ तेभ्यो योऽमृतपूरः स एव जीवनं यस्याः सा चन्द्रमरीचिरेचितामृतांशुकान्तामृतजीवना ॥ ३४ ॥
यदौषधीभिर्वलिताभिरर्दित,
तमासपत्नीभिरवेक्ष्य सर्वतः। तमखिनी गच्छति लांछनच्छलात्,
कलानिधिं किं दयितं स्थितेः कृते ॥ ३५ ॥
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सर्ग: ]
टीका सहितम्
६५
यदौ ० तमखिनी रात्रिछनच्छलात् किम् ? स्थितेर्मर्यादायाः कृते मर्यादार्थं कलानिधिं चन्द्रमसं दयितं भर्तारं गच्छति, किं कृत्वा ? ज्वलिताभिर्दीप्ताभिः सपत्नीभिः, यदौष- ३ घीभिः यस्य पर्वतस्योषधीभिः । सर्वतः अर्दितं पीडितं तमोऽन्धकारं अवेक्ष्य दृष्ट्ा । कोऽर्थः ? औषधीनां रात्रेश्व चन्द्रः पतिः, रात्रेश्च अपत्यं अन्धकारम् । ज्वलिताभिरौषधीभिस्तमः सर्वतः ६ पीड्यमानं दृष्ट्वा उपालम्भदानाय निजं कलानिधिं पतिं गता सा अद्यापि लाञ्छनच्छलेन चन्द्रे दृश्यते इति भावः ॥ ३५ ॥
पतन्ति ये बालरवेः प्रगे करा यदुल्लसद्वैरिकधातुसानुषु ।
क्रियेत तैरेव विसृत्य चापला
दिलाखिला गैरिकरंगिणी न किम् ॥ ३६ ॥ १२ पतन्ति प्रगे प्रभाते ये बालरवेर्बालार्कस्य कराः किरणाः यदुल्लसद्वैरिकधातुसानुषु, यस्य पर्वतस्य उल्लसद्वैरिकधातूनां सानुषु शिखरेषु पतन्ति, तैरेव चापलात् चपलभावाद् विसृत्य १५ विस्तारं प्राप्य, अखिला समस्ता, इला पृथ्वी, किं गैरिकरंगिणी गैरिकरंगभाक्, किं न क्रियते, अपितु क्रियत एव । कोऽर्थः ? बालः प्रायः क्रीडासक्त इति स्थिरभावं त्यक्त्वा बालार्ककिरणैः १८ समस्तापि पृथ्वी रक्ता कृता इति भावः । अत्र संशयाऽलङ्कारो ज्ञेयः ॥ ३६ ॥
यदीयगारुत्मतमित्तिजन्मभिः, करैरवंच्यन्त तथा हरित्प्रभैः ।
० कु० ५
जै०
२२
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९
२१
६६
३
यदीय० मुग्धमृगाः सरलहरिणा यदीयगारुत्मतभित्तिजन्मभिः यस्य पर्वतस्य नीलमणिभित्तेरुत्पन्नैर्हरित्प्रभै नीलवर्णकान्तिभिः करैः किरणैस्तथा अवच्यत वञ्चिताः, यथा अनली - ६ केष्वपि सत्येष्वपि तृणांकुरेषु क्वचिन्मुखं न चिक्षिपुर्न वाहयन्ति स्म ॥ ३७ ॥
शरन्निशोन्मुद्रितसांद्रकौमुदीसमुन्मदिष्णुस्फटिकांशुडम्बरे । निविश्य यन्मूर्धनि साधकै रसाधिकैर्महोंऽतर्बहिरण्यदृश्यत ॥ ३८ ॥
१२ शर० रसाधिकैः शान्तरसाधिकैः साधकैः योगिभिः यद् मूर्धनि यस्य पर्वतस्य मस्तके निविश्य उपविश्यान्तर्मध्ये बहिरपि महस्तेजो अदृश्यत । मध्ये अध्यात्मजं तेजो ज्ञेयम्, १५ बहिस्तु कथयति, किंलक्षणे यन्मूर्धनि ? शरन्निशोन्मुद्रितसांद्रकौमुदीसमुन्मुदिष्णुस्फटिकांशुडम्बरे शरद्काले रात्र्यां उन्मुद्रिताः प्रकटिता सांद्रा निविडा या कौमुदी चन्द्रज्योत्स्ना १८ तया समुन्मदिष्णवो वर्धनशीला याः स्फटिकमणीनां अंशवः किरणाः तेषामाडम्बरो यत्र तस्मिन् ॥ ३८ ॥
२३
जैनकुमारसंभवं
न चिक्षिर्मुग्धमृगा मुखं क्वचिद् यथाsनलीकेषु तृणांकुरेष्वपि ॥ ३७ ॥
[ द्वितीयः
तरुक्षरत्सूनमृदूत्तरच्छंदा व्यधत्त यत्तारशिला विलासिनाम् । रतिक्षणालम्बितरोषमानिनीस्मयग्रहग्रन्थिभिदे सहायताम् ॥ ३९ ॥
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सर्गः]
टीकया सहितम् - तरु० यत्तारशिला यस्य पर्वतस्य रौप्यशिला विलासिनां भोगिनां रतिक्षणालंबितरोषमानिनीस्मयग्रहप्रन्थिभिदे भोगावसरे कृतरोषस्त्रीणां अहंकाररूपग्रन्थिभेदनाय सहायतां सहायं ३ व्यधत्त अकरोत् । किंलक्षणा तारशिला ? तरुक्षरत्सूनमृदूत्तरच्छदा तरोवृक्षात् क्षरन्ति सूनानि पुष्पाणि तैम॒दुः श्लक्ष्ण उत्तरच्छद उत्तरपटो यत्र सा, कोऽर्थः ? सपुष्पशय्यातुल्यां शिलां दृष्ट्वा खयमेवाभिमानो वनिताया विलीनः, अतः, शिलया पत्युः साहाय्यं कृतमेवेति भावः ॥ ३९ ॥
यदुच्चवृक्षाग्रनिवासिनी फला
वलीमविन्दन्नुपलैः पुलिन्द्रकः। कपीनदःस्थानभिवृष्य तान् सुखं, ___ समश्नुते तैः प्रतिशस्त्रिता रुषा ॥४०॥ १२ यदुच्च० पुलिन्द्रको यदुच्चवृक्षाग्रनिवासिनीं यस्य पर्वतस्य उच्चा ये वृक्षास्तेषां शृङ्गाग्रे शिखराग्रे निवासिनी फलावली फलश्रेणी अविन्दन् अलभमानोऽपि सुखं समश्नुते प्रामोति । किं १५ कृत्वा ? अदःस्थान् अमीषु वृक्षेषु स्थितान् कपीन् वानरान् . उपलैः पाषाणैः अभिवृष्य सन्मुखं आहत्य । किंलक्षणां फलावली. फलश्रेणी अविन्दन् ? तैः कपिभिः रुषा रोषेण प्रतिशस्त्रितां १८ प्रतिशस्त्रीकृताम् ॥ ४०॥
इमाः सुवर्णैस्तुलिता इति क्षपा
मुखे रविः खं प्रवसन् वसु न्यधात् । यदीयगुंजासु किमन्यथा हिमव्यथां हरीणां सहिता हरन्ति ताः॥४१॥ २३
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६८
जैनकुमारसंभवं
[ द्वितीयः
इमाः ० रविः सूर्यः क्षपामुखे रात्रिप्रारंभे प्रवसन् परद्वीपं गच्छन् खं वसु-आत्मीयं तेजो द्रव्यं वा, इतिकारणात् यदीय३ गुंजासु न्यधात् । सर्व उत्तमस्यैव हस्ते निजद्रव्यं समर्पयति, अत आह इतीति किम् ? इमा गुंजाः सुवर्णैः कांचनैः उत्तमजातीयैर्वा तुलिताः सन्ति सदृशी कृता वा । अथ रवितेजोनिवेशफलमाह ६ अन्यथा ता गुंजाः, सहिता मिलिताः सत्यः, हरीणां वानराणां हिमव्यथां किं हरन्ति ? कोऽर्थः ? सूर्येण सन्ध्यासमये स्वीयं तेजो गुंजासु क्षिप्तम्, तेन हेतुना वानरा एकत्र संभूय गुंजा९ भिस्तापयन्ति तेषां च इत्थं शीतं यात्येवेति भावः ॥ ४१ ॥
2
जिनेशितुर्जन्मभुवः समीपगं,
नगं तमाधाय मुदा दृगध्वगम् ।
१२
सगोत्रपक्षक्षतिजातपातकै
र्विमुक्तमात्मानममंस्त वासवः ॥ ४२ ॥
जिने ० स वासव इन्द्रः गोत्रपक्षक्षतिजातपातकैः पर्वतानां १५ पक्षच्छेदनेन समुत्पन्नैः पापैरात्मानं विमुक्तं अमंस्त मन्यते स्म । किं कृत्वा ? जिनेशितुः श्री ऋषभदेवस्य जन्मभुवः समीपस्थं तं पूर्ववर्णितं नगं अष्टापदपर्वतं मुदा हर्षेण दृगध्वगं १८ दृष्टिमार्गगोचरं आधाय कृत्वा । कोऽर्थः ? पुरा पर्वताः पक्षाभ्यामुत्पत्य एवाहर्निशं ग्रामनगराद्युपरि पतंत आसन्, इतश्वेन्द्रेण वज्रेण पर्वतपक्षा रिछन्ना इति हि लोकरूढिः । इन्द्रो जिनस्य जन्मभूमिप्रत्यासन्नं अष्टापदाचलं दृष्ट्वा पर्वतपक्षच्छेदन पात२२ कात् छुटितः । अन्योऽपि महातीर्थं दृष्ट्वा सगोत्राणां खगोत्रिणां
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सर्गः] टीकया सहितम् पक्षक्षितिवंशोच्छेदः तज्जातपातकैर्विमुक्तः स्यात् , यथा पाण्डवादयः शत्रुजयतीर्थे सिद्धा इति भावः ॥ ४२ ॥
अथ प्रभोर्जन्मभुवं पुरन्दरो___ऽसरच्छरचन्द्रिकयेव दृष्टया । यया चिरादुत्कलिकाभिराकुलं, .
प्रसादमासादयदस्य हृत्सरः ॥४३॥ ६ अथ० अथानन्तरं पुरंदर इन्द्रः प्रभोर्जिनस्य जन्मभुवं असरत् अगमत्, यया जन्मभुवा दृष्टया अस्य इन्द्रस्य हृत्सरः हृदयरूपसरोवरं प्रसादं प्रसन्नत्वं आसादयत् प्राप्नोति स्म । कया९ इव ? शरचन्द्रिकया इव । यथा शरचन्द्रिकया शारदज्योत्स्नया सरः सरोवरं प्रसादं आसादयति । किंलक्षणं हृत्सरः ? चिराचिरकालादुत्कलिकाभिः उत्कण्ठाभिः, पक्षे लहरीभिराकुलं १२ व्याप्तम् ॥ ४३ ॥
स तत्र मन्दारमणीवकस्रवन्
मधुच्छटासौरभभाजने वने । अमुक्तपूर्वाचलहेलिलीलया,
निविष्टमष्टापदसिंह विष्टरे ॥४४॥ दृशोरशोपामृतसत्रमंगिना
मनंगनाट्योचितमाश्रितं वयः। वयस्यतापन्नसुपर्वसङ्गतं,
रसं गतं तत्कृतनर्मकर्मसु ॥४५॥ शिरःस्फुरच्छत्रमखण्डमण्डन
द्युसद्वधूधूनितचारुचामरम् ।
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७०
जैनकुमारसंभवं
विशारदैर्वदितपादमादरादरातिरद्रेर्जगदीशमैक्षत ॥ ४६ ॥ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥
[ द्वितीयः
स० स अद्रेररातिः पर्वतस्यारिरिन्द्रस्तत्र वने जगदीशं श्रीयुगादिनाथं ऐक्षत पश्यति स्म । किंलक्षणे वने ? मन्दार६ मणीवकस्रवन्मधुच्छटा सौरभ भाजने, मन्दराणां मणीवकानि पुष्पाणि तेभ्यः स्रवन्मधुमकरन्दरस छटाभिर्यत्सौरभं सौगन्ध्यं तस्य भाजने स्थाने । अन्यानि सर्वाणि विशेषणानि जगदीश - ९ सत्कानि, किंविशिष्टं जगदीशम् ? अमुक्तपूर्वाचल हेलिलीलया अमुक्तोऽत्यक्तः पूर्वाचल उदयाचलो येन स एवंविधो हेलि सूर्यः तस्य लीलया अष्टापदसिंह विष्टरे सुवर्णसिंहासने १२ निविष्टं उपविष्टम् ॥ ४४ ॥ पुनः किंविशिष्टं जगदीशम् ? अङ्गिनां प्राणिनां दृशोरशोषामृतसत्रं शोषरहितामृतसत्रागारम् । पुनः किंविशिष्टं जगदीशम् ? अनंगनाट्योचितं कन्दर्पसत्क - १५ नाटक योग्यं वयो यौवनमाश्रितम्, पुनः किंविशिष्टम् ? वयस्यतापन्नसुपर्वसंगतं मित्रत्वं प्राप्ताः सुपर्वणो देवास्तैः सह संगत मिलितम् । पुनः किंविशिष्टम् ? तत्कृतनर्मकर्मसु तैः सुरैः १८ कृतेषु नर्मकर्मसु क्रीडाकर्तव्येषु रसं गतं रसं - प्राप्तम् ॥ ४५ ॥ पुनः किंविशिष्टम् शिरः स्फुरच्छत्रं शीर्षे प्रसरत् श्वेतातपत्रम् । पुनः किंविशिष्टम् ? अखंडमण्डनघुसद्वधूधूनितचारुचामरम् अखंडानि मण्डनानि मुकुटकुण्डलहारार्धहारकटककेयूराद्याभर२२ णानि यासां ताः ग्रुसद्वध्वो देवांगनास्ताभिश्चालितमनोज्ञचा
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सर्गः ]
टीका सहितम्
मरम् । विशारदैश्चतुरैरादराद्वन्दितपादं नमस्कृतचरणम् ॥४६॥
त्रिभिर्विशेषकम् ॥
कनीनिकादंभमधुव्रतस्पृशां, दृशां शतैर्बिभ्रदिवाम्बुजस्रजम् । ततस्त्रिलोकीपतिमेनमर्चितुं, रयादुपातिष्ठत निर्जरेश्वरः ॥ ४७ ॥
कनी ० ततस्ततोऽनन्तरं निर्जरेश्वर इन्द्र एनं त्रिलोकीपतिं श्रीयुगादीशं अर्चितुं पूजयितुं रयात् वेगात् उपातिष्ठत आगच्छत् । किंलक्षण इन्द्रः ? कनीनिकादंभमधुत्रतस्पृशां ९ तारामिषेण भ्रमरस्पृशां दृशां शतैरंबुजस्रजं कमलमालां बिश्रदिव धरन्निव । नयनानां कमलोपमा दीयते, अतः सहस्रलोचनत्वात् मूर्तिमती कमलमालां बिभ्राणो भगवन्तं पूजयितुमिव हरिः १२ समेत इति भावः ॥ ४७ ॥
शिरः स्वमिन्दिन्दिरयन् विनम्य तत्पदानयुग्मे लसदंगुलीदले । इति स्फुरद्भक्तिरसोर्मिनिर्मलं,
शचीपतिः स्तोत्र वचः प्रचक्रमे ॥ ४८ ॥
शिरः० शचीपतिरिन्द्रः इति अमुना प्रकारेण स्फुरद्भक्ति- १८ रसोर्मिनिर्मलं प्रसरद्भक्तिरसकल्लोलैः निर्मलं स्तोत्रवचः प्रचक्रमे प्रारेभे । किं कुर्वन् इन्द्रः ? लसदंगुलीदले लसत् अङ्गुलिका1 रूपपत्रे तत्पदाब्जयुग्मे तस्य भगवतश्चरणकमले विनम्य नत्वा स्खशिरः आत्मीयमस्तकं इन्दिन्दिरयन् भ्रमरवत् कुर्वन् ॥४८॥ २२
१५
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जैनकुमारसंभव [द्वितीयः महामुनीनामपि गीरगोचरा
खिलवरूपास्तसमस्तदूषण । जयादिदेव त्वमसत्तमस्तम
प्रभाप्रभावाल्पितभानुवैभव ॥४९॥ महा० मन्वते त्रिकालावस्था इति मुनयः । महान्तो ये मुनयस्तेषां महामुनीनामपि गिरां वाणीनां अगोचरं अखिलं समस्तं खरूपं यस्य तस्य सम्बोधनं क्रियते हे महामुनी । हे अस्तसमस्तदूषण अस्तानि समस्तानि दूषणानि येन स तस्य ९ संबोधनम् । हे आदिदेव ! हे असत्तमस्तमप्रभाप्रभावाल्पितभानुवैभव ! असत् अविद्यमानं तमः पापं यस्याः सा असत्तमा, प्रकृष्टा असत्तमा असत्तमस्तमा, अतीव निःपापा । असत्तम१२ स्तमायाः प्रभायाः प्रभावेण अल्पितं अल्पीकृतं भानुवैभवं
सूर्यप्रभुत्वं येन, एवंविधस्त्वं जय सर्वोत्कर्षेण वर्तख । जयः परैरनभिभूयमानता प्रतापवृद्धिश्च इत्यर्थः ॥ ४९ ॥
गुणास्तवाकोदधिपारवर्तिनो, ___ मतिः पुनस्तच्छफरीव मामकी । अहो महाधा_मियं यदीहते,
जडाशया तत्क्रमणं कदाशया ॥ ५० ॥ गुणा० हे नाथ ! तव गुणा अङ्कोदधेः अङ्कसमुद्रस्य पारवर्तिनः पारगामिनो वर्तन्ते । मामकी मतिः पुनः तच्छ२१ फरीव तस्य अङ्कोदधेर्मच्छीवद्वते । युष्मदस्मदोऽजीनौ
यौष्माकास्माकं चैकत्वे तु तवकममकम् ( ) इति २३ पदाम्बीप्रत्यये मामकी स्यात् । अहो इत्याश्चर्ये महाधार्य
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सर्गः] टीकया सहितम् बृहद्धैर्य इयं मतिर्यत् जडाशया मूर्खाभिप्राया सती तक्रमणं तेषां गुणानां क्रमणं आक्रमणं . कदाशया ईहते वाञ्छति । यदि जलस्थिता मच्छी जलबहिर्गतं वस्तु ग्रहीतुमिच्छति ३ तदा सा मूखैवेति भावः ॥५०॥
मनोऽणु धत्तु न गुणांस्तवाखिलान्
न तद्धृतान्वक्तुमलं वचोऽपि मे । स्तुतेर्वरं मौनमतो न मन्यते,
परं रसज्ञैव गुणामृतार्थिनी ॥ ५१॥ मनो० हे नाथ ! मे मम मनस्तव अखिलान् समस्तान् ९ गुणान् धतुं नालं न समर्थः। किंलक्षणं मनः ? अणु सूक्ष्मम् । तद्धृतान् मनसा धृतान् गुणान् मे मम वचोपि वक्तुं नालं अतः कारणात् स्तुतेर्मोनं वरं भव्यम् । परं रसज्ञैव जिद्वैव च न१२ मन्यते, किंलक्षणा रसज्ञा : गुणामृतार्थिनी, गुणा औदार्यज्ञानाद्यास्तानेवामृतं अर्थयति वाञ्छयतीति गुणामृतार्थिनी, ॥५१॥ सुरद्रुमाद्यामुपमा स्मरन्ति यां,
१५ जनाः स्तुतौ ते भुवनातिशायिनः । अवैमि तां न्यक्कृतिमेव वस्तुत
स्तथापि भक्तिमुखरीकरोति माम् ॥ ५२ ॥ १८ सुर० हे नाथ! जना लोकाः ते तव स्तुतौ सुरद्रुमाद्यां कल्पवृक्षाद्यां, यामुपमां सरन्ति कथयन्ति । किंविशिष्टस्य ते तव ? भुवनातिशायिनस्त्रिभुवनेऽधिकस्य । अहं तां स्तुति २१ वस्तुतः परमार्थतो न्यकृति निंदामेव अवैमि जानामि, तथापि भक्तिर्मा मुखरीकरोति मम वाचालत्वं कुरुत इत्यर्थः ।।५२ ॥ २३
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७४
जैनकुमारसंभवं [द्वितीयः अनङ्गरूपोऽप्यखिलाङ्गसुन्दरो,
___ रवेरदभ्रांशुभरोऽपि तारकः । ३ अपि क्षमाभृन्न सकूटतां वह- .
स्थपारिजातोऽपि सुरद्रुमायसे ॥ ५३ ॥ अन० हे नाथ! त्वं अनङ्गरूपोऽपि अखि लाङ्गसुन्दरः, ६ सर्वाङ्गसुन्दरो वर्तसे, योऽनङ्गरूपः स्यात् सो अखिलाङ्गसुन्दरः कथं स्यात् ? अत्र विरोधपरिहारमाह अनङ्गरूपः कन्दर्परूपः, अखिलाङ्गसुन्दरश्च । हे नाथ ! त्वं रवेरदभ्रांशुभरोऽपि सूर्याद९धिकतेजःपटलोऽपि तारकोऽपि । यो रवेरदभ्रांशुभरः स्यात् स तारकः कथम् ? तारयतीति तारकः । त्वं क्षमाभृदपि पर्व
तोऽपि सकूटतां सशिखरतां न वहसि । यः क्षमाभृत् स्यात् , स १२ सकूटतां किं न वहति ? क्षमां बिभर्तीति क्षमाभृत् । सकूटतां
सालीकतां न वहसि । त्वं अपारिजातोऽपि सुरद्रुमायसे । योऽपारिजातः स्यात् स सुरद्रुमवत् कथमाचरति ? अपगतं अरिजातं १५ यस्य स अपारिजातः ॥ ५३ ॥
इदं हि षट्खण्डमवाप्य भारतं,
भवन्तमूस्खलमेकदैवतम् । १८ बिभर्ति षट्कोणकयंत्रसूत्रणां,
नृणां स्फुरत्पातकभूतनिग्रहे ॥ ५४॥ इदं हि० हे नाथ ! हि निश्चितं इदं षट्खण्डभारतं २१ भरतक्षेत्रं, कर्तृपदं । ऊर्जवलं बलवन्तं एकदैवतं भगवन्तं
अवाप्य प्राप्य, नृणां मनुष्याणां स्फुरत्पातकभूतनिग्रहे, २३ प्रसरत्पापरूपभूतस्य निर्घाटने षट्कोणकयन्त्रसूत्रणां बिभर्ति ।
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सर्गः] टीकया सहितम् कोऽर्थः ? भरतक्षेत्रेण परमदैवतं भगवन्तं अवाप्य प्राप्य नृणां मनुष्याणां लोकानां पापभूतनिग्रहे षट्खण्डरूपषट्कोणकयन्त्रसूत्रणा समाश्रितेति भावः ॥ ५४ ॥ तपोधनेभ्यश्चरता वनाध्वना,
धनस्य भावे भवता धनीयता । अदीयताज्यं यदनेन कौतुकं,
तवैव शिश्राय वृषो वृषध्वज ॥ ५५ ॥ तपो० हे नाथ ! भवता त्वया वनाध्वना वनमार्गेण चरता धनस्य भावे धनसार्थवाहभावे, तपोधनेभ्यो यतिभ्यो यदाज्यं ९ घृतं अदीयत दत्तम् । किं कुर्वता भवता ? धनीयता धनमिच्छता । तत् अनेनाज्येन हे वृषध्वज वृषो वृषभो लाञ्छनं यस्य स तस्य संबोधनम् । कौतुकं तवैव वृषो वृषभः पुण्यं वा, १२ शिश्राय ववृधे । कोऽर्थः ? पात्रे दत्तेन धनेन धनसार्थवाहेन महत् पुण्यमर्जितं । उक्तं च "दानेन धन्यो धनसार्थवाहः, कर्मोत्तमं तीर्थकरस्य नाम । बबन्ध कर्मक्षयहेतुभूतं, दानं हि १५ कल्याणकरं नराणाम्" ॥ १॥ ५५ ॥
भवे द्वितीये भुवनेश युग्मितां,
कुरुष्ववाप्ते त्वयि किङ्करायितम् । १८ मनीषितार्थक्रियया सुरद्रुमै
र्जितैरिव प्राग्जननापवर्जनैः॥५६॥ भवे० मत्तंगया य १ भिंगा २ तुडियंगा ३ दीव ४ जोइ ५२१ चित्तंगा ६ । चित्तरसा ७ मणियंगा ८ गेहागारा ९ अ णियणाय १०॥१॥ सरसमद्य १ मणिभाजन २ वाद्य ३ रत्न-२३
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जैनकुमारसंभवं [द्वितीयः प्रदीप १ तेजोमण्डल ५ चित्रकारिसुरभिपुष्प ६ विचित्रखाद्यभोज्य ७ मणिभूषण ८ निश्रेणिसोपानकलितविविधध३ वलगृहादिक ९ प्रधानवस्त्राणि १० एतैः पूर्णाः ये दशविधकल्पवृक्षास्तैः सुरद्रुमैर्मनीषितार्थक्रियया वाञ्छितार्थकरणेन हे भुवनेश ! द्वितीयभवे कुरुषु उत्तरकुरुषु युग्मितां युगलित्वं ६ अवाप्ते प्राप्ते सति त्वयि विषये किङ्करायितं किङ्करवदाचरितम् । किंलक्षणैः सुरद्रुमैः ? उत्प्रेक्षते प्राग्जननापवर्जनैः पूर्वजन्मदानैर्जितैरिव ॥ ५६ ॥ ९ सधर्म सौधर्मसुपर्वतां ततो
___ऽधिगत्य नित्यं स्थितिशालिनस्तव ।
सुराङ्गनाकोटिकटाक्षलक्ष्यता१२ . जुषोऽपि न धैर्यतनुत्रमत्रुटत् ॥ ५७ ॥
सधर्म० हे सधर्म सह धर्मेण वर्तते इति सधर्मः। ततस्तस्मात् युगलित्वतः सौधर्मदेवत्वं अधिगत्य प्राप्य तव धैर्यतनुत्रं १५धैर्यजगरं (कवचं) न अत्रुटत, नैव त्रुटितम् । किंविशिष्टस्य
तव नित्यं निरंतरं स्थितिमर्यादा तया शालिनः शोभमानस्य । पुनः किंविशिष्टस्य ? सुराङ्गनाकोटिकटाक्षलक्ष्यता१८ जुषोपि देवाङ्गनाकोटीनां कटाक्षाः तेषां लक्ष्यतां वेध्यतां सेवमानस्याऽपि ॥ ५७ ॥
महाबलक्ष्मापभवे यथार्थकी__ चकर्थ बोधैकबलानिजाभिधाम् ।
अखर्वचार्वाकवचांसि चूर्णय२३ नयोधनानक्षरकोटकुट्टने ॥ ५८॥
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७७
सर्गः] टीकया सहितम्
महा० हे नाथ ! त्वं महाबलक्ष्मापभवे महाबलाख्यस्य राज्ञो भवे बोधैकबलात् बोधस्य प्रबोधस्यैकबलं बोधैकबलं तस्मात् निजाख्यं आत्मीयं नाम यथार्थकी चकर्थ सत्यार्थीकृतवान्! १३ किं कुर्वन् ? अखर्वाणि प्रौढानि चार्वाकवचांसि चूर्णयन् , (पुनः) किंविशिष्टानि (चार्वाक ) वांसि अक्षरकोटकुट्टने मोक्षदुर्गकुट्टने अयोधनान् लोहमुद्रान् ॥ ५८ ॥
द्वितीयकल्पे ललिताङ्गतां त्वया,
गतेन वध्वा विरहे व्यलापि यत् । दरिद्रपुत्र्यै दयितुं तपःफलं,
तदन्यदर्था हि सतां क्रियाखिला ॥ ५९॥ द्वितीय० हे नाथ ! त्वया द्वितीयकल्पे ईशानदेवलोके ललिताङ्गतां ललितं सविलासं अङ्गं यस्य स ललिताङ्गस्तस्य भावो १२ ललिताङ्गता ताम् , ललिताङ्गताख्यदेवत्वं वा । गतेन प्राप्तेन वध्वा विरहे यत् व्यलापि व्यलापः कृतः, तत् दरिद्रपुत्र्यै निर्नामिकायै तपःफलं दयितुं दातुं ज्ञेयम् । हि यस्मात् १५ कारणात् सतां साधूनां अखिला समस्ता क्रिया अन्यदर्था अन्येषामुपकारहेतुं वर्तते, अत्र षष्ठी 'तृतीयादन्याषष्ठ्यर्थे। ( ) इति व्याकरणसूत्रेण अन्यदर्थी इति स्यात् ।। ५९ ॥ १८
स वज्रजङ्घो नृपतिर्भवन् भवा
नवाप हालाहलधूमपायिताम् । यदङ्गजादङ्गजतस्ततस्तवा
धुनापि विश्वासबहिर्मुखं मनः ॥ ६०॥ २२
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७८
जैनकुमारसंभवं
[ द्वितीयः
1
स वज्र ० हे नाथ ! स भवान् वज्रजङ्घो नृपतिर्भवन् सन् यत् अङ्गजात् पुत्रात् हालाहलधूमपायितां विषसक्तधूमपानत्वं ३ अवाप प्राप्तः । ततः तस्मात् कारणात् अधुनापि तव मनो अङ्गजतः कन्दर्पात् विश्वासबहिर्मुखं वर्तते । कोऽर्थः ? अङ्गजशब्देन कन्दर्पः पुत्रोऽपि भण्यते, भवता वज्रजङ्घनृपभवे ६ अङ्गजान्मरणं प्रापि, पश्चात्तीर्थकृद्भवे भगवन्मनो अङ्गजस्योपरि विश्वासरहितं जातमिति भावः ॥ ६० ॥ उपास्य युग्मित्वमथाद्यकल्पगसुधाशनीभूय भिषग् भवानभूत् । मुनेः किलासं व्यपनीय यः स्वकं, कलाविलासं फलितं व्यलोकत ॥ ६१ ॥ १२ उपास्य हे नाथ ! अथानन्तरं भवान् युग्मित्वं उपास्य संसेव्य, आद्यकल्पगसुधाशनीभूय प्रथमदेवलोके देवो भूत्वा, भिषग् वैद्योऽभूत् । यो भिषग् वैद्यो मुनेः किलासं १५ कुष्ठरोगं व्यपनीय स्फेटयित्वा स्वकं आत्मीयं कलाविलासं कलासमूहं फलितं सफलं व्यलोकत अपश्यत् ॥ ६१ ॥
१८
अथेयिवानच्युतनाकिधाम चेत् अवातरस्तत्किमिह प्रभोऽथवा । लयं लभन्ते विबुधा हि नाभिधागुणेषु यत्ते परमार्थदृष्टयः ॥ ६२ ॥
अथे० अथानन्तरं हे प्रभो ! चेत् यदि त्वं अच्युतनाकिधाम अच्युतदेवलोकं ईयिवान् गतः । तत् इह पृथिव्यां किं अवातरः २३ अवतीर्णः । अथवा विबुधा देवा विद्वांसो वा अभिधा नाम
२१
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सर्ग: ]
टीका सहितम्
७९
तस्या गुणेषु लयं विश्रामं न लभन्ते । यत् यस्मात् कारणात् ते विबुधाः परमार्थदृष्टयो दीर्घदर्शिनो वर्तन्ते । कोऽर्थः ? न विद्यते च्युतं च्यवनं यत्र तत् अच्युतं नाकिधाम स्वर्गं गत- ३ स्तत्कथमत्रावतीर्णः, परमिन्द्रगोपवत् तन्नाममात्रमेवेति त्वं तत् त्यक्तवानिति भावः ॥ ६२ ॥
निरीक्ष्य तां तीर्थकृतः पितुः श्रियं, न चक्रिसम्पद्यपि तोषमीयुषा ।
तदर्थमेव प्रयतं ततस्त्वया,
त्रपा हि तातोनतया सुसूनुषु ॥ ६३ ॥ निरीक्ष्य० ततस्ततोऽनन्तरं हे नाथ! त्वया तदर्थमेव तीर्थंकर श्रीनिमित्तमेव प्रयतं उपक्रान्तम् । किंविशिष्टेन त्वया ? तीर्थकृतः तीर्थंकरस्य पितुस्तां श्रियं लक्ष्मीं निरीक्ष्य दृष्ट्वा १२ चक्रिसम्पद्यपि चक्रवर्तिलक्ष्म्यामपि तोषं हर्षं न ईयुषा न प्राप्तवता । हि निश्चितं सुसूनुषु सत्पुत्रेषु तातोनतया तातात् हीनतया त्रपा लज्जा वर्तते । कोऽर्थः । वज्रसेनस्य तीर्थकरस्य १५ वज्रनाभः पुत्रश्चक्रीजातस्तेन च चक्रित्वं विहाय संयमं गृहीत्वा विंशतिस्थानकैस्तीर्थ करनाम उपार्जितम् । अतश्चक्रिलक्ष्म्यास्तीर्थकरलक्ष्मीरधिकेति भावः ॥ ६३ ॥
६
ससीमसर्वार्थविमानवासिनः, शिवाश्रयाः सङ्गममिच्छतोऽपि ते । अभूद्विलम्बस्तदसंस्तुते जने,
रिरंसया को न दधाति मन्दताम् ॥ ६४ ॥ ससीम० हे नाथ! ते तव ससीमासन्नसर्वार्थविमानवासिनः २३
१८
२१
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जैनकुमारसंभवं
[ द्वितीयः
सतः शिवश्रिया मोक्षलक्ष्म्याः सङ्गमं मिलनमिच्छतोऽपि यद्विलम्बोऽभूत् । तत् असंस्तुते अपरिचिते, जने रिरंसया ३रन्तुमिच्छया मन्दतां जडतां को न दधाति, अपि तु सर्वकोऽपि दधात्येव ॥ ६४ ॥
८०
ध्रुवं शिवश्रीस्त्वयि रागिणी यतस्तटस्थितस्यापि भविष्यदीशितुः ।
असंस्पृशन्मारविकारजं रजः,
स्वसौख्य सर्वस्वमदत्त ते चिरम् ॥ ६५ ॥
ध्रुवं हे नाथ ! ध्रुवं निश्चितं शिवश्रीः मोक्षलक्ष्मीस्त्वयि विषये रागिणी अनुरागवर्ती वर्तते, यतो यस्मात् कारणात्, ते तव तटस्थितस्यापि आसन्नस्थितस्यापि चिरं चिरकालं १२ खसौख्य सर्वखं आत्मीयसुखसर्वखं अदत्त । किंलक्षणस्य ते ? भविष्यदीशितुर्भाविभर्तुः । किं कुर्वन् ? खसौख्य सर्वखं मारविकारजं रजः विषयविकाराद्युत्पन्नरजः पापं धूलिं वा १५ असंस्पृशत् ॥ ६५ ॥
१८
अवाप्य सर्वार्थविमानमंतिकी - भवत्परब्रह्मपदस्तदध्वगः । यदागमस्त्वं पुनरत्र तद्भुवं,
हितेच्छया भारतवर्षदेहिनाम् ॥ ६६ ॥ अवाप्य हे नाथ ! त्वं सर्वार्थविमानं अवाप्य प्राप्य, यत्पु२१ नरत्रागमः अत्रागतः । किंविशिष्टस्त्वं अन्तिकीभवत्परब्रह्मपदः समीपीभवन्मोक्षपदः । पुनः किंविशिष्टस्त्वम् ? तदध्वगस्तस्य २३ मोक्षस्य पथिकः । तत् ध्रुवं निश्चितं भारतवर्षदेहिनां
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सर्गः] टीकया सहितम् भरतक्षेत्रसत्कप्राणीनां हितेच्छया मुक्तिमुक्तिदानार्थमित्यर्थः । त्वं सर्वार्थविमानादेव आसन्नत्वेऽपि मुक्तिं न गतः, किन्तु लोकहितेच्छयैवात्रावतीर्ण इति भावः ।। ६६ ॥
तदेव भूयात्प्रमदाकुलं कुलं, ___ महीमहीनत्वमुपासिषीष्ट ताम् । क्रियाजनं वस्तुतिवादिनं दिन,
तदेव देवाऽजनि यत्र ते जनिः॥६७ ॥ तदेव० हे नाथ! तदेव कुलं प्रमदेन हर्षेणाकुलं व्याप्तं भूयात् । अहीनत्वं संपूर्णत्वं कर्तृपदं तां महीं पृथ्वी ९ उपासिषीष्ट सेविषीष्ट । तदेव दिनं जनं लोकं खस्तुतियादिनं खकीयश्लाघाकर्तारं क्रियात्, तद्दिनस्य महामहोत्सवमयत्वात् । हे देव ! हे खामिन् ! यत्र कुले यत्र मयां यत्र दिने ते तकार जनिर्जन्म अजनि जातम् ॥ ६७ ॥
अमी धृताः किं पविचक्रवारिजा
सयः शये लक्षणकोश! दक्षियो। शचीशचक्रयच्युतभूपसंपद
स्त्वया निजोपासकसाच्चिकीर्षता॥६८॥ अमी० हे लक्षणकोश! प्रासादपर्वतशुकांकुशसुप्रतिष्ठपद्मा-१८ भिषेकयवदर्पणचामराणीत्यादि अष्टोत्तरसहसाणां लक्षणानां कोश ! हे भाण्डागार ! त्वया शचीश इन्द्रः, चक्री चक्रवर्ती, अच्युतो वासुदेवः, भूपो राजा, तेषां सम्पदो लक्ष्मीः , निजोषा-२१ सकसात् स्खकीयसेवकायत्ताश्चिकीर्षता कर्तुमिच्छता सता । 'आयत्ते सात्' ( ) इति सूत्रेण सात्प्रत्ययः २
जै० कु. ६
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८२. जैनकुमारसंभवं [द्वितीयः दक्षिणे शये हस्ते पविचक्रवारिजासयः पविर्वज्रम् , चक्रं, वारिजः, शंखः, असिः खनः, अमी किं धृताः । वज्रमिन्द्र३ पदवीदानायेत्यादिभावः ॥ ६८ ॥
सदंभलोभादिभटब्रजस्त्वया,
स्वसंविदा मोहमहीपतौ हते । ६ खयं विलाता, धनवारिवारिते,
दवे न हि स्थेमभृतः स्फुलिंगकाः॥६९ ॥ - सदंभ० हे नाथ ! त्वया खसंविदा आत्मीयज्ञानेन मोह९महीपतौ मोहभूपे हते सति सदंभलोभादिभटब्रजः, मायालोभक्रोधमानमदनादिसुभटसमूहः, स्वयं आत्मनैव विलाता विलयं यास्यति, 'लीङ्च श्लेषणे' धातोर्विपूर्वकस्य लीलि१२ नोर्वा (सि० हे० ४।२।६) इति सूत्रेण लास्यते । हि यस्मात् कारणात् धनवारि मेघजलं तेन दवे वारिते सति स्फुलिङ्गकाः स्थेमभृतः स्थैर्यधारिणो न हि वर्तन्ते ॥ ६९ ॥ १५ इषुः सुखव्यासनिरासदा सदा,
सदानवान् यस्य दुनोति नाकिनः ।
सरो भवद्ध्यानमये विभावसा१८ .. ५..वसावसारेध्मदशां गमिष्यति ॥ ७० ॥
। इषुः० यस्य स्मरस्य कंदर्पस्य इषुर्बाणः सदा सदानवान् दानवसहितान् नाकिनो देवान् दुनोति पीडयति, इषुशब्दः २९ स्त्रीलिंगो ज्ञेयः । किंलक्षणा · इषुः ? सुखव्यासनिरासदा, सुखस्य व्यासो विस्तारः तस्य निरासं निराकरणं ददाति सुखव्यासनिरासदा । हे नाथ! असौ स्मरः कामः भवघ्यानमये,
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सर्गः] टीकया सहितम्
८३ भवतस्तव ध्यानं निर्विषयं मन इत्येवंरूपे ध्यानमये विभावसौ वैश्वानरे इध्मदशां निःसारेन्धनस्य दशां अवस्थां गमिष्यति यास्यति ॥ ७० ॥ परं न हि त्वत्किमपीह दैवतं,
तवाभिधानान्न परं जपाक्षरम् । न पुण्यराशिस्त्वदुपासनात्पर
स्तवोपलंभान्न परास्ति निर्वृतिः ॥ ७१ ॥ परं न० हे नाथ ! त्वदपरं त्वत्तो अन्यत् इह जगति किमपि दैवतं नास्ति, त्रिभुवनजनपूज्यत्वात् । इह तव अभिधा-९ नात् तव नामतोऽपरं जपाक्षरं नास्ति, वाग्मनोङ्गैः शुद्धत्वात् । इह तवोपलंभात् उपलक्षणात् परा अन्या निर्वृतिर्मोक्षो नास्ति वीतरागं विना नैव मुक्तिरित्यर्थः ॥ ७१ ॥
१२ तव हृदि निवसामीत्युक्तिरीशे न योग्या __ मम हृदि निवस त्वं नेति नेता नियम्यः । न विभुरुभयथाहं भाषितुं तद्यथाह
__ मयि कुरु करुणार्हे स्वात्मनैव प्रसादम् ॥७२॥ तव० हे नाथ ! अहं तव हृदि हृदये निवसामि इति उक्तिजैल्पनं, ईशे खामिनि न योग्या । त्वं मम हृदि निवस निवासं कुरुत, इति अमुना प्रकारेण नेता खामी न नियम्यः न नियंत्रणीयः, यो नेता स्यात् सोऽपरं सेवकादि नियंत्रयति, न तु सेवका नेतारम् । अहं उभयथापि द्वाभ्यामपि प्रकाराभ्यां भाषितुं जल्पितुं न विभुर्न समर्थः । तत् तस्मात् कारणात् २२
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जैनकुमारसंभवं [द्वितीयः हे खामिन् ! 'परदुःखनिरासिनी भवेत् करुणा' ईदृग् करुणा समायोग्ये मयि खात्मनैव खयमेव प्रसादं कुरु ॥ ७२ ।। ३ इति स्तुतिमिरान्तरङ्ग विनयमानयन्वैबुधे
प्रतीतिविषयं गणेऽनणुधियां धुरीणो हरिः। प्रसभनयनेक्षणैर्भगवता सुधासोदरै
रसियत सुधाशनैरपि च साधुवादोर्मिभिः ॥७३॥ इति० हरिरिन्द्रः भगवता श्रीऋषभखामिना प्रसन्ननयनेक्षणैः सप्रसादलोचनावलोकनैरसिच्यत सिक्तः । किंलक्षणैन९यनेक्षणैः । सुधासोदरैरमृतसदृशैः । च अन्यत् । सुधाशनैरपि देवैरपि, साधुवादोर्मिभिः श्लाघारूपकल्लोलैरसिच्यत, किं कुर्वन् हरिः इति पूर्वोक्तमहामुनीनामपि गीरगोचरेत्यादिचतुर्विंशति१२काव्यरूपस्तुतिभिरान्तरङ्गं विनयं वैबुधे गणे देवसमूहे प्रतीतिविषयं आनयन् प्रत्ययगोचरं प्रापयन् । पुनः किंविशिष्टो
हरिः ! अनणुधियां गुरुबुद्धीनां धुरीणो धुर्यः ॥ ७३ ।। १५ इति श्रीअञ्चलगच्छे कविचक्रवर्तिश्रीजयशेखरसूरिविरचित
श्रीजैनकुमारसंभवमहाकाव्यस्य तच्छिष्यश्रीधर्मशेखरसूरिविरचितटीकायां श्रीमाणिक्यसुन्दरसूरिशोधितायां
द्वितीयसर्गव्याख्या ॥ इति ॥२॥
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सर्गः] टीकया सहितम्
॥ अथ तृतीयः सर्गःप्रारभ्यते ॥ अथ प्रसादाभिमुखं त्रिलोका
धिपस्य पश्यन्मुखमुग्रधन्वा । अवाप्तवारोचितरोचितश्रि,
वचः पुनः प्रास्तुत वक्तुमेवं ॥१॥ अथ० अथानन्तरं उग्रधन्वा इन्द्रः एवं वचः पुनर्वक्तुं जल्पितुं प्रास्तुतं प्रारब्धवान् । किं कुर्वन् इन्द्रः ? त्रिलोकाधिपस्य श्रीआदिदेवस्य मुखं प्रसादाभिमुखं प्रसादस्य अभिमुखं प्रसादं कर्तुकाममिव पश्यन् । किंलक्षणं वचः ? अवाप्तवारो-९ चितरोचितश्रि, अवाप्तवारं प्राप्तावसरं अत एव उचितां युक्तां रोचितां रुचिं प्राप्ता श्रीः शोभा यस्य तत् अवाप्तवारोचितरोचितथि ॥१॥
स्वयं समस्तान्न न वेत्सि भावा
स्तथाप्यसौ त्वां प्रति मे प्रजल्पः । इयतु मेघंकरमारुतत्त्व
मुदेष्यतः कालबलाद्घनस्य ॥२॥ खयं० हे नाथ ! स्वयं समस्तान् भावान् न न वेसि! न न जानासि अपि तु जानास्येव । तथापि असौ त्वां प्रति मे १८ मम प्रजल्पः धनस्य मेघस्य, मेघंकरमारुतत्वं इयतुं गच्छतु, 'मेघर्तिभयाभयात् खः' (सि० हे० ५।१।१०६) इति सूत्रेण खप्रत्यये खित्यनव्ययारुषोर्मोन्तो हखश्च (सि० हे० ३।२।१११)२१ इति मागमे मेघङ्कर इति सिद्धम् । किं करिष्यतो घनस्य ? कालबलादुदेण्यत उदयं प्राप्स्यतः ॥ २॥
२३
१५
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जैनकुमारसंभवं
साधारणस्ते जगतां प्रसादः, स्वहेतुम्हे तमहं तु हन्त । हृद्यो न कस्येन्दुकलाकलापः, स्वात्मार्थमभ्यूहति तं चकोरः ॥ ३ ॥
साधारण हे नाथ! ते तव प्रसादो जगतां विश्वानां ६ साधारणः सदृशो वर्तते । तु पुनः, अहं, हन्त इति वितर्के, तं प्रसादं खहेतुं आत्मनिमित्तं ऊहे विचारयामि । इन्दुकलाकलापश्चन्द्रस्य कलासमूहः कस्य न हृद्यो नाभीष्टः, अपि तु ९ सर्वस्यैव । चकोरस्तं इन्दुकलाकलापं स्वात्मार्थं अभ्यूहति विचारयति ॥ ३ ॥
१२
१५
८६
२२
भवन्तु मुग्धा अपि भक्तिदिग्धा, वाचो विदग्धाय ! भवन्मुदे मे । अश्मापि विस्मापयते जनं किं,
न स्वर्ण संवर्मित सर्वकायः ॥ ४ ॥
भवन्तु हे विदग्ध्याग्र्य हे विद्वन्मुख्य ! मे मम, वाचो मुग्धा अपि, भवन्मुदे तव हर्षाय भवन्तु । किंलक्षणा वाचः ? भक्तिदिग्धा भक्त्या लिप्ताः । अश्मापि पाषाणोऽपि स्वर्ण संवर्मित१८ सर्वकायः सुवर्णेन संवर्मित ( सर्वकायः ) वेष्टित सर्व कायः वेष्टितसर्वाङ्गः सन्, जनं लोकं किं न विस्मापयते ? सविस्मयं न करोति । अपि तु करोत्येव ॥ ४ ॥
जडाशया गा इव गोचरेषु, प्रजा निजाचारपरंपरासु ।
[ तृतीयः
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सर्ग: ]
टीकया सहितम्
प्रवर्तयनक्षत दंडशाली, भविष्यसि त्वं स्वयमेव गोपः ॥ ५ ॥
1
जडा० हे नाथ ! त्वं गोपो राजा गोपालो वा स्वयमेव भवि-३ व्यसि । किं कुर्वन् ? प्रजा लोकान् निजाचारपरंपरासु प्रवर्तयन् । का इव ! यथा गोपो धेनूः गोचरे प्रवर्तयति । किंलक्षणाः जडाशया मूर्खाभिप्रायाः । गाः किंलक्षणा: १६ जले आशयो यासां ताः । किंलक्षणो गोपः ? अक्षतदण्डशाली, दंडः सैन्यं पक्षे लकुटो वा तेन शोभी ॥ ५ ॥
प्रजाः ?
कलाः समं शिल्पकुलेन देव, त्वदेवलब्धप्रभवा जगत्याम् ।
क्क नो भविष्यन्त्युपकारशीलाः, शैलात्सरत्ना इव निर्झरिण्यः ॥ ६ ॥
८७
कलाः ० हे खामिन् ! कला गीतनृत्यवादित्राद्या द्वासप्ततिसंख्याः । कुंभकार १ लोहकार २ चित्रकार ३ वानकर ४ नापित ५ शिल्पानां पञ्चानामपि पृथक् २ विंशति २ भेदाः १५ स्युः एवं शिल्पशतं स्यात्, ईदृक् शिल्पकुलेन समं जगत्यां पृथ्यां क्व उपकारशीला उपकारखभावाः न भविष्यन्ति अपि तु सर्वत्र भविष्यन्ति । किंविशिष्टाः कलाः ? त्वदेव त्वत्सकाशा - १८ देव, लब्धः प्रभव उत्पत्तिर्याभिस्तास्त्वदेव० । का इव ? सरला निर्झरिण्य इव । यथा शैलात् पर्वतात् लब्धप्रभवा रत्नसहिता नद्यः क्व उपकारशीला न भवन्ति, अपि तु सर्वत्र भवन्त्येव ॥ ६ ॥
१२
२२
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जैनकुमारसंभवं
त्वदागमां भोनिधितः स्वशक्त्या - ssदायोपदेशांबुलवान् गमीरात् । घना विधास्यत्यवनीवनीस्थान्, विनेयवृक्षानभिवष्य साधून् ॥ ७ ॥
त्वदा० घना लोका मेघा वा गभीरात् त्वदागमांभोनिधितः ६ स्वदीयागमसमुद्रतः उपदेशाम्बुलवान् खशतया आदाय गृहीत्वा विनेयवृक्षान् शिष्यवृक्षानभिवृष्य सिक्त्वा, साधून् निर्ग्रन्थान् मनोज्ञान् वा, करिष्यन्ति । किंलक्षणान् विनेय९ वृक्षान् ? अवनीवनीस्थान् पृथ्वीरूपमहाघनस्थितान् । मेघाः समुद्राज्जलं गृह्णन्ति इति लोकरूढिः ॥ ७ ॥ भवद्वयेऽप्यक्षय सौख्यदाने, यो धर्मचिन्तामणिरस्त्यजिह्नः ।
१२
4.
१५
प्रमादपाटच्चरलुंट्यमानं,
२२
त्वमेव तं रक्षितुमीशितासे ॥ ८ ॥
भवद्वये ० हे नाथ ! यो धर्मचिंतामणिर्भवद्वयेऽप्यक्षय अविनश्वर सौख्यदाने अजिह्मः सोद्यमोऽस्ति । त्वमेव तं धर्मचिंतामणिं प्रमादपाटच्चरतस्करलुंट्यमानं रक्षितुं ईशिता से समर्थों १८ भविष्यसि ॥ ८ ॥
तद्वेहिधर्मद्रुम दोहदस्य, पाणिग्रहस्यापि भव त्वमादिः ।
न युग्मिभावे तमसीव मग्नां, महीमुपेक्षख जगत्प्रदीप ! ॥ ९ ॥
[ तृतीय:
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सर्ग: ]
टीका सहितम्
८९
तद्द्वेहि० हे नाथ ! तत् तस्मात् कारणात् त्वं पाणिग्रहस्यापि आदिः प्रथमो भव । किंविशिष्टस्य पाणिग्रहस्य ! गेहिधर्म दोहदस्य गृहस्थधर्म एव द्रुमो वृक्षः तस्य दोहदसदृशो यथा दाडिमीमुख्यानां धूमपानादि दोहदेन पूरितेन सश्रीकता सफलता स्यात्, तथात्रापि ज्ञेयम् । हे जगत् प्रदीप ! महीं • पृथ्वीं न उपेक्षख, किंलक्षणां महीम् ! तमसि अन्धकार इव युग्मभावे युगलिधर्मे मनां बुडिताम् ॥ वितन्वता केलिकुतूहलानि,
९ ॥
त्वया कृतार्थीकृतमेव बाल्यम् । विना विवाहेन कृपामपश्य तवाद्य न म्लायति यौवनं किम् ॥ १० ॥ वितन्वता ० हे नाथ ! स्वया केलिकुतूहलानि केलिर्जल - १२ क्रीडा, कुतूहलानि गीतनृत्यनाटकादीनि कुर्वता बाल्यं बालत्वं कृतार्थीकृतमेव सफलीकृतमित्यर्थः, अद्य यौवनं किं न म्लायति न हियात् । अपि तु म्लायत्येव । किं कुर्वन् यौवनम् ? १५ विवाहेन विना तव कृपां अपश्यत् ॥ १० ॥ दृष्ट्वा जगत्प्राणहृतोऽपि सर्व
सेहे स्वहेतस्त्वयि नाथ ! मोघाः । अनङ्गतां कामभटोsस्य मुख्यः,
सखा विषादानुगुणां दधाति ॥ ११ ॥ दृष्ट्वा ० ० हे नाथ ! कामभटोsपि कंदर्पयोधोऽपि विषादानुगुणं २१ विषादस्य योग्यां अनंगतां अङ्गरहितत्वं दधाति । किंविशिष्टः कामभटः ? अस्य यौवनस्य मुख्यः अग्रणीः सखा मित्रम् | २३
१८
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जैनकुमारसंभवं [तृतीयः किं कृत्वा ? सर्वसहे त्वयि विषये खहेतीः प्रहरणानि मोघा निष्फला दृष्ट्वा, किंलक्षणाः खहेतीः ? जगत्प्राणहृतोऽपि ३ विश्वजीवितं हरंतीति जगत्पाणहृतः ॥ ११ ॥
मधुर्वयस्यो मदनस्य मूच्छा, ... मत्वा ममत्वाद्विषमां विषण्णः । तनोत्ययाची पवनानखंड
श्रीखंडखंडप्लवनाप्तशैत्यान् ॥ १२॥ मधु० वयस्यो मित्रं मधुर्वसन्तो मदनस्य कामस्य विषमां ९ मूच्छौँ मत्वा ज्ञात्वा ममत्वान्मोहाद् अयाची दक्षिणदिक् पवनान्
तनोति विस्तारयति । किंलक्षणो मधुः ? विषण्णो विषादी । किंविशिष्टान् पवनान् ? अखंडश्रीखंडखंडप्लवनाप्तशैत्यान् अख१२ण्डेषु संपूर्णेषु श्रीखण्डानां खण्डेषु चन्दनानां वनेषु प्लवनेनाप्तं
प्राप्तं शैत्यं शीतत्वं यैस्ते अखण्डश्रीखण्डखण्डप्लवनाप्तशैत्यास्तान् ॥ १२ ॥ १५. मत्वा मधोर्मित्रशुचा प्रियस्या
मनस्यमाक्रन्दत यद्वनश्रीः । तदत्र किं कजलविजलाश्रु.
कणाः स्फुरत्युल्ललितालिदंभात् ॥ १३ ॥ मत्वा० तद्वनश्रीराक्रन्दत तारस्वरेण विललाप । किं कृत्वा ? प्रियस्य वल्लभस्य मधोर्वसन्तस्य मित्रस्य शुचा शोकेन आमनस्य २१दुःखं मत्वा ज्ञात्वा । तत् , अत्र अस्यां लोचनश्रियां उल्ललिता
लिदभात् उच्छलितभ्रमरमिषात् , किं कजलविजलाश्रुकणाः, २३ कजलकलुषाश्रुबिन्दवः स्फुरन्ति प्रसरन्ति ॥ १३ ॥
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सर्गः] टीकया सहितम्
ये सेवकाश्चास्य पिकाः स्खभर्तुः
दुःखाग्निना तेऽप्यलभंत दाहम् । किमन्यथा पल्लवितेऽपि कक्षे,
तदंगमंगारसमत्वमेति ॥ १४॥ ये० च अन्यत् अस्य मधोर्वसन्तस्य सेवका ये पिकाः कोकिला वर्तन्ते, तेऽपि खभर्तुर्वसन्तस्य दुःखामिना दाहं ६ अलभन्त प्राप्तवन्तः । अन्यथा पल्लवितेऽपि कक्षे वने तदंगमंगारसमत्वं तेषां पिकानां अंगं तदंगं अङ्गारसहशत्वं किं एति गच्छति ॥ १४ ॥
तनोषि तत्तेषु न किं प्रसाद,
न सांयुगीना यदमी त्वयीश । स्याद्यत्र शक्तेरवकाशनाशः,
श्रीयेत शूरैरपि तत्र साम ॥ १५ ॥ ___ तनोषि० हे ईश! त्वं तत् तस्मात् कारणात् तेषु यौवनादिषु किं प्रसादं न तनोषि न करोषि ? । यदमी यौवनादयस्त्वयि १५ सांयुगीना रणे साधवो न वर्तन्ते । यत्र शक्तेरवकाशनाशः स्यात्, शूरैः सुभटैरपि तत्र साम साम्यगुणः श्रीयेत आश्रीयेत् ॥ १५॥
शठौ समेतौ दृढसख्यमेतौ,
तारुण्यमारौ कृतलोकमारौ। भेत्तुं यतेतां मम जातु चित्तदुर्ग महात्मन्निति मास मंस्थाः ॥१६॥ २२
१८
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९२
जैनकुमारसंभवं [मृतीयः शठौ० हे महात्मन् ! त्वं इति मास मंस्था इति मा जानीहि । इतीति किम् ? एतौ तारुण्यमारौ यौवनकंदपो जातु कदाचिदपि ३ मम चित्तदुर्ग मेनुं यतेतां उपक्रामतः । किंलक्षणौ तारुण्यमारौ शठौ धूर्ती, पुनः किंविशिष्टौ ! दृढसख्यं गाढमैव्यं यथा भवति तथा समेतौ मिलितौ । पुनः किंविशिष्टौ ? कृतलोकमारौ कृता लोकानां माराः संसारभ्रमणरूपा याभ्यां तौ कृतलोकमारौ ॥ १६ ॥
हत्वा विवेकांबकबोधमंधी। भूतं जगत्पातयदाधिगर्ने । तावत्तव ज्ञानविभाकरस्य,
तन्वीत तारुण्यतमो न मोहम् ॥१७॥ १२ हृत्वा० हे नाथ! तावत् तारुण्यतमः यौवनान्धकारं तव
ज्ञानविभाकरस्य ज्ञानरूपसूर्यस्य मोहं न तन्वीत न कुर्वीत । किं कुर्वत्तारुण्यतमः ? विवेकांबकबोधं विवेकलोचनज्ञानं हृत्वा १५अन्धीभूतं जगद्विश्वं आधि असमाधि गर्ने विवरे पातयत् , यथा गर्ताशब्दस्तथा गर्तशब्दोऽपि ज्ञेयः ॥ १७ ॥
ब्रह्मास्त्रभाजः कुसुमास्त्रयोधी, ___ मारोऽपि किं ते घटते विरोधी । विरोत्स्यते वा खलु तदहूक्त्या,
भोक्ता बलिस्पर्धफलं स्वयं सः॥१८॥ २१ ब्रह्मा० हे नाथ ! मारोऽपि कन्दर्पोऽपि ते तव विरोधी
किं घटते ? अपि तु न घटते। किंविशिष्टस्य तव ! ब्रह्मास्त्र२३ भाजः ब्रह्मज्ञानरूपं अस्त्रं भवतीति ब्रह्मास्त्रभाक, तस्य
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सर्गः] टीकया सहितम् ब्रह्मास्त्रभाजः । ब्रह्मास्त्रशब्देन अस्खलितशस्त्रमुच्यते, उक्तं च 'केनापि स्खलितुं यन्न शक्यते कापि सर्वथा । तद्ब्रह्मास्त्रं परिज्ञेयं यथा चक्रं हि चक्रिणः' । किंलक्षणो मारः। कुसुमास्त्रयोधी कुसुमायुधेन पुष्पायुधेन युध्यतीति कुसुमास्त्रयोधी । अथवा विरोत्स्यते यदि विरोधं करिष्यति तद्बहुक्त्या खलु पूर्यताम् । स मारः बलिस्पर्धफलं बलवता सह स्पर्धायाः ६ फलं खयं भोक्ता भोक्ष्यति, यथा स्पर्धाशब्दस्तथा स्पर्धशब्दोऽपि ज्ञेयः ॥ १८ ॥
यया दृशा पश्यसि देव ! रामा,
इमा मनोभूतरवारिधाराः। तां पृच्छ पृथ्वीधरवंशवृद्धौ,
नैताः किमंभोधरवारिधाराः॥१९॥ १२ यया० हे देव ! यया हशा अभिप्रायरूपया इमा रामाः स्त्रियो मनोभूतरवारिधाराः कन्दर्पसत्कखड्गधाराः पश्यसि, तां दृशं पृच्छ, एताः स्त्रियः पृथ्वीधरवंशवृद्धौ पृथ्वीधराणां १५ राज्ञां वंशा अन्वयाः, पक्षे पर्वतानां वंशास्तेषां वृद्धौ वृद्ध्यर्थ किं अंभोघरवारिधारा मेघसत्कजलधारा न वर्तन्ते ? अपि तु वर्तन्त एव ॥ १९॥ नयस्य वश्यः किमु संग्रहस्य,
बैणं चलं ध्यायसि सर्वमीश । कोशातकीकल्पलते लतासु,
दृष्ट्वाश्च विश्वं व्यवहारसारम् ॥ २०॥ नयस्य० हे ईश! त्वं संग्रहनयस्य वश्यः सन् सर्व स्त्रैणं २३
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जैनकुमारसंभव
[ तृतीयः
"
स्त्रीसमूहं चलं चंचलं किमु किं ध्यायसि ? यथा किंशब्दस्तथा किमुशब्दोऽप्यस्ति । नैगम १ संग्रह २ व्यवहार ३ ऋजुसूत्र ३४ शब्द ५ समभिरूढ ६ एवंभूतेषु ७ सप्तनयेषु संग्रहनयलक्षणमिदम् - 'सद्रूपतानतिक्रान्तः खखभावमिदं जगत् । सत्त्वरूपतया सर्वं संगृह्णन् संग्रहो मतः । यत् सर्वा अपि स्त्रियश्चपल६ खभावा इति, त्वं लतासु वल्लीसु कोशातकी कल्पलते घींसोटिका - कल्पवल्ल्यौ दृष्ट्रा विश्वं व्यवहारसारं अच्च जानीहि, 'अंचू गतौ च' परं सर्वे गत्यर्था ज्ञानार्थ इति ज्ञेयं । एवं ९ स्त्रियो हि काश्विद्भव्याः काश्चिन्न भव्याश्च । व्यवहारलक्षणं चेदम्- 'व्यवहारस्तु तामेव प्रतिवस्तु व्यवस्थितां । तथैव दृश्यमानत्वात् व्यापारयति देहिनः' इति ॥ २० ॥
"
१२
१५
९४
२२
किं शंकसे दारपरिग्रहेण 2, विरागतां निर्वृतिनायिकायाः ।
प्रभुः प्रभूतेऽप्यवरोधने स्या
नागः पदं लुम्पति न क्रमं चेत् ॥ २१ ॥
किं० हे नाथ ! त्वं दारपरिग्रहेण कलत्रादरणेन निर्वृतिनायकायाः मुक्तिस्त्रियाः विरागतां नीरागत्वं, किं शंकसे ? १८प्रभुः स्वामी प्रभूते प्रचुरेऽप्यवरोधने अन्तःपुरे आगः पदं अपराधस्थानं न भवति, चेत् यदि, क्रमं न लुंपति । सांप्रतं पाणिग्रहणं कुरु क्रमेण पश्चात्तामपि भजेरिति भावः ॥ २१ ॥ अद्यापि नाथः किमसौ कुमारो, निष्कन्यकं किं वरिवर्त्यवन्याम् ।
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सर्ग: ]
टीका सहितम्
भृत्यों तरंगोऽस्य हरिर्विचेता, यायावरं वेत्ति न यौवनं यः ॥ २२ ॥
इत्थं मिथः पार्षद निर्जराणां, कथाप्रथाः कर्णकटूर्निपीय । तेषां प्रदाने प्रबलोत्तरस्य,
दरिद्रितोऽहं त्वयि नायकेऽपि ||२३|| युग्मम् ॥ ६ अद्यापि हे नाथ ! अहं त्वयि नायकेऽप्यधिपतौ सति तेषां सभ्यदेवानां प्रबलोत्तरस्य प्रदाने दरिद्रितो दरिद्रो जातः । किं कृत्वा ? इत्थं अमुना प्रकारेण पार्षदनिर्जराणां सभ्यदेवानां ९ मिथः परस्परं कर्णकटूः कथाप्रथा वार्ताविलासान् निपीय पीत्वा इत्थमिति किम् ? ॥ २२ ॥ अद्यापि असौ नाथः किं कुमारः अपरिणीतः, किं अवन्यां पृथ्व्यां निःकन्यकं कन्यकानां अभावो १२ वा वरीवर्ति, अस्य भगवतोंऽतरंगभृत्यः सेवको हरिरिन्द्रः किं विचेता अचेतनो वर्तते, यो हरिरस्य खामिनो ययावरं गत्वरं यौवनं न वेत्ति ? न जानाति । ययावरमिति निपातः ॥ २३ ॥ १५
वयस्यनंगस्य वयस्यभूते, भूतेशरूपेऽनुपमस्वरूपे । पदींदिरायां कृतमन्दिरायां,
को नाम कामे विमनास्त्वदन्यः ॥ २४ ॥ वय० नाम इति कोमलामंत्रणे । हे भूतेश ! भूतानां प्राणिनां ईशः भूतेशस्तस्य संबोधने हे भूतेश ! त्वदन्यस्त्वत्तः २१ विमना विमुखो वर्तते ? क्व कामस्य वयस्यभूते मित्रसदृशे २३
परः कः पुमान् कामे कंदर्पे सति ? वयसि यौवने अनंगस्य
९५
१८
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जैनकुमारसंभवं [तृतीयः सति, पुनः व सति ? रूपे अनुपमसर्वोत्तमखरूपे सति । पुनः क सत्यां ? इंदिरायां लक्ष्म्यां पदि चरणे कृतमंदिरायां ३ सत्यां त्वच्चरणयोर्लक्ष्मीवसतीत्यर्थः ॥ २४ ॥ . जाने न कि योगसमाधिलीन!,
विषायते वैषयिकं सुखं ते। ६ तथापि संप्रत्यनुषक्तलोक!,
लोकस्थितिं पालय लोकनाथ ॥ २५॥ जाने. हे योगसमाधिलीन ! अहं एवं किं न जाने ? अपि तु जाने । ते तव वैषयिकं सुखं विषायते विषवदाचरति, तथापि हे संप्रत्यनुषक्तलोक संप्रत्यधुना अनुषक्त आश्रितो लोको जनो येन स अनुषक्तलोकः तस्य संबोधनं क्रियते हे १२संप्रत्यनुषक्तलोक हे लोकनाथ लोका विश्वं तस्य नाथ: लोकनाथः तस्य संबोधनं हे लोकनाथ ! लोकस्थितिं पाणिग्रहणादि रूपां मर्यादां पालय ॥ २५ ॥
त्वयैव याऽभूत् सहभूरभूमि_स्तमोविलासस्य सुमंगलेति । राकेव सा केवलभाखरस्य,
कलाभृतस्ते भजतां प्रियात्वम् ॥ २६ ॥ स्वयैव० हे नाथ ! या सुमंगला त्वयैव सहभूः सहजन्माऽभूत्, किंविशिष्टा सुमंगला ? तमोविलासस्य अभूमिः पाप२१ विस्तारस्य अस्थानं निःपापेत्यर्थः । सा सुमंगला ते तव प्रिया
तव कलत्रत्वं भजताम् । किंविशिष्टस्य ते ? केवलभाखरस्य २३ केवलसंपूर्णजगदुद्दयोतकस्य । का इव ! राका इव, यथा राका
१५
men-
-
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३
सर्गः] टीकया सहितम् पूर्णिमा, कलाभृतश्चन्द्रस्य प्रिया त्वां भजते, सोऽपि भास्करो भवेत् , राकापि तमो विलासस्य अभूमिर्भवति ॥ २६ ॥
अवीवृधद्यां दधदङ्कमध्ये,
नाभिः सनाभिर्जलधेर्महिम्ना । प्रिया सुनंदापि तवास्तु सा श्री,
हेरेरिवारिष्टनिषूदनस्य ॥ २७॥ अवी० नाभियाँ सुनंदां अंकमध्ये उत्संगोपरि अवीवृधत् वर्धयति स्म । किंलक्षणो नामिः ? महिना विस्तारेण जलधेः समुद्रस्य सनाभिः सदृशः । सा सुनंदा तव प्रियास्तु ।९ कस्येव ? हरेर्नारायणस्येव, यथा हरेः श्रीलक्ष्मीः प्रिया स्यात् । किंविशिष्टस्य तव हरेश्च ? अरिष्टनिषूदनस्य अरिष्टं विघ्नं पक्षे अरिष्टनामा दैत्यस्तं निषूदयति, विनाशयति इति अरिष्ट-१२ निषूदनस्तस्य । तस्मिन् समये हरिर्नास्ति कथं तद्विशेषणम् ? परं भाविनि भूतवदुपचार इति न्यायो ज्ञेयः ॥ २७ ॥
कन्ये इमे त्वय्युपयच्छमाने,
जाने विमानस्त्रिदिवेषु भाव्यम् । भूपीठसंक्रान्तसकान्तदेवै.
रेकैकदौवारिकरक्षणीयैः ॥ २८॥ कन्ये. हे नाथ! अहं एवं जाने त्वयि इमे सुमंगलासुनंदे उपयच्छमाने परिणयति सति त्रिदिवेषु स्वर्गेषु विमानैरेकैकेन दौवारिकेण प्रतीहारेण रक्षणीयैः रक्षितव्यैर्भाव्यम् । उपपूर्वोऽयं धातुः उपात् 'यमः खीकारे' (सि० ३।३१५९)२२
जै० कु. ७
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९८ जैनकुमारसंभवं [तृतीयः इत्यनेन पदेन आत्मनेपदी ज्ञेयः। किंविशिष्टैर्विमानैर्भूपीठसंक्रान्तसकान्तदेवैः भूपीठे संक्रान्ताः सकांताः सकलत्रा देवा ३ येषां ते भूपीठसंक्रांतसकान्तदेवैः ॥२८॥
अधौतपूतद्युतिवारिधौ ते,.
देहे सुरस्त्रीजनदृक्शर्यः। भ्रमन्तु लावण्यतरंगभंगि
प्रेढोलनोद्वेलितकेलिरङ्गाः ॥ २९ ॥ __ अधौ० हे नाथ ! तस्मिन्नवसरे सुरस्त्रीजनदृक्शर्यः, ९देवांगनानां दृष्टिरूपमत्स्यस्ते तव देहे भ्रमन्तु । शर्यः समुद्रे भवन्तीति आह, किंविशिष्टे देहे ? अधौतपूतद्युतिवारिधौ
अधौता पूता च द्युतिः कान्तिस्तस्य वारिधौ समुद्रे । किं१२ लक्षणाः सुरस्त्रीजनदृक्शर्यः ? लावण्यतरंगभंगिखोलनोद्वेलितकेलिरङ्गाः, तरङ्गलावण्यकल्लोलानां भङ्गिषु विच्छित्तिषु प्रेखोलनं
आंदोलनं तेनोद्वेलिता लक्षणया वर्धिताः केलिरजा यासां ता १५ लावण्यतरंगभंगिप्रेङ्खोलनोद्वेलितकेलिरङ्गाः ॥ २९ ॥
श्रीसार्व! जन्यास्तव सार्वजन्या,
देवा भवन्तः शुभलोभवन्तः । १८ पुराकृतप्रौढतफाफलानां,
विपक्रिमत्वं हृदि भावयन्तु ॥३०॥ श्रीसार्व० हे श्रीसार्व हे श्रीसर्वज्ञ देव ! तव जन्या २१ जन्ययात्रिका भवन्तः सन्तः पुराकृतप्रौढतपःफलानां
विपक्रिमत्वं प्राप्तपरिपाकत्वं हृदि भावयन्तु, चिंतयन्तु । भूण २३ चिन्तायां इतिधातोः प्रयोगः। किंलक्षणा देवाः १. सर्वजन्याः
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सर्गः] टीकया सहितम् सर्वजनेभ्यो हिताः, पुनः किंलक्षणाः ? शुभलोभवन्तः शुमे मङ्गलादिकार्ये लोभसंयुक्ताः ॥ ३०॥ .
शचीमुखा अप्सरसो रसोर्मि
प्रक्षालनापास्तमला ननु त्वाम् । तदा ददाना धवलान् सुवाचा.. __माचार्यकं बिभ्रतु मानवीषु ॥ ३१॥ शची० हे नाथ ! तदा तस्मिन्नवसरे शचीमुखा अप्सरस इन्द्राणीप्रमुखा देवांगना मानवीषु स्त्रीषु सुवाचां शोभनवाणीनां आचार्यकं आचार्यकर्म बिभ्रतु । किं कुर्वाणा: १ शचीमुखा अप्सरसः ? त्वां अनु पश्चाद्धवलान् ददानाः । त्वां अनु इति प्रतिपर्यनुयोगे द्वितीया । किंलक्षणान् धवलान् ! रसोर्मिप्रक्षालनापास्तमलान् , रसः शृङ्गारादिस्तस्योर्मिभिः कल्लोलैः १२ प्रक्षालनेन निराकृतमलान् ॥ ३१ ॥
खरंगणेऽकारि चिरं खरंगा__ यो रम्भया नृत्यपरिश्रमः प्राक् । अग्रे भवत्संभविता तदानी
मभ्यासलभ्या फलसिद्धिरस्य ॥ ३२॥ खरं० रम्भया रम्भानाम्न्या . देवांगनया खरंगणे १८ खाँगणे खरंगात् आत्मीयोल्लासात्, यो नृत्यपरिश्रमः, प्राक् पूर्व चिरं चिरकालं अकारि कृतः । अस्य श्रमस्य फलसिद्धिस्तदानी तस्मिन् पाणिग्रहणक्षणे, अग्रे भवत् भवतोऽग्रे संभ-२१ विता भविष्यति, किंलक्षणा फलसिद्धिः ? अभ्यासेन लभ्या प्राप्या ॥ ३२॥
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जैनकुमारसंभव
[तृतीयः
त्वत्तः प्रभोः स्वासहनात्पलाय्य,
रागः श्रितस्तुंबरुनारदादीन् ।। गुणावलीगानमिषेण देव, __ तदा तदास्यात्तव संगसीष्ट ॥ ३३ ॥
त्वत्तः० हे देव ! रागस्तदा तस्मिन्नवसरे तदा स्यात्तेषां ६ तुम्बरुनारदादीनां मुखात् गुणावलीगानमिषेण तव संगसीष्ट, तव सङ्गतो भूयात् । किंविशिष्टो रागः ? खासहनात् खः
खकीयः असहनः शत्रुस्तस्मादेवं विधात्प्रभोः समर्थत्वात् त्वत्तः ९ पलाय्य पलायनं कृत्वा तुंबरनारदादीन् श्रित आश्रितः ।
अत्र शब्दछलं ज्ञेयम् । रागो द्वेषसहचारी श्रीरागादिर्वा, तुंबरनारदौ यदा त्वदने गीतं गास्यतस्तदा सोपि रागस्तव गोचरो १२ भविष्यति, विवाहाद्युत्सवे परस्परमसमंजसानि भज्यन्त इति भावः ॥ ३३ ॥
एवं विवाहे तव हेतवः स्यु
रन्येऽपि भावा भुवनप्रसत्तेः । यथोचितं तत्प्रविधेहि धीम
1, नितीरयित्वा विरराम वज्री ॥ ३४ ॥ 16 एवं० हे नाथ ! एवं अमुना प्रकारेण अन्येऽपि भावा विवाहसत्कास्तव विवाहे भुवनप्रसत्तेस्त्रिभुवने लक्षणया सौख्यस्य
हेतवः कारणानि स्युः, तत् तस्मात् कारणात् हे धीमन् २॥धीर्बुद्धिर्विद्यते यस्य स धीमान् तस्य संबोधनं क्रियते हे
धीमन् ! यथोचितं यथायोग्यं कुरु, वजी इन्द्रस्तुतेरनु इति २३ पूर्वोक्तं ईरयित्वा कथयित्वा विरराम निवृत्तः । रम्धातुर्विपूर्व
१५
___
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सर्गः] टीकया सहितम् को 'व्याङ्परे रम' (सि० ३।३।१०५) इति सूत्रेण परस्मैपदी स्यात् अन्यथा त्वात्मनेपदी ज्ञेयः ॥ ३४ ॥
खं भोगकर्माथ विपाककाल्यं, ... जाननजोषिष्ट जिनः सजोषम् । अताविके कर्मणि धीरचित्ताः,
प्रायेण नोत्फुल्लमुखीभवन्ति ॥ ३५॥ ६ खं० अथानन्तरं स भगवन् जोषं मौनं अजोषिष्ट असेविष्ट, किं कुर्वन् भगवान् ? खं भोगकर्म विपाककाल्यं विपाककालप्राप्त जानन् , विपाककाले साधुर्यप्रत्यये (सि०९ ७।१।१५) विपाककाल्यमिति स्यात् । धीरचिचा गंभीरनरा अतात्त्विके परमार्थरहिते कर्मणि कार्ये प्रायेण न उत्फुल्लमुखीभवन्ति, प्रहसितवदना न स्युरित्यर्थः ॥ ३५ ॥
इन्द्रोऽवसाय व्यवसायसिद्धिं,
स्वस्येंगितैर्भागवतैस्तुतोष । भृत्यो हि भर्तुः किल कालवेदी,
नेदीयसीं वाक्फलसिद्धिमेति ॥ ३६॥ इन्द्रो० इन्द्रस्तु तोषहृष्टः, किं कृत्वा ? भागवतैर्भगवत्संबन्धिभिरिंगितैश्चेष्टितैः खस्यात्मनोध्यवसायसिद्धिं उपक्रमसिद्धिं १८ अवसाय ज्ञात्वा । अनिषिद्धं अनुमतमिति न्यायात् खामिनस्तदनुरूपचेष्टां दृष्ट्वा इत्यर्थः । हि यस्मात् कारणात्, किल इति सत्ये, भृत्यः सेवकः भर्तुः खामिनः कालवेदी अवसरज्ञो २१ नेदीयसी. प्रत्यासन्नां वाक्फलसिद्धिं एति प्रामोति । समये कथितं सर्वः कोपि मन्यत इति भावः ॥ ३६॥
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जैनकुमारसंभवं
[तृतीयः
जग्राह वीवाहमहाय मंच,
मुहूर्तमासन्नमथो महेन्द्रः। अवत्सरायन्त यदन्तरस्था,
लेखेषु हल्लेखिषु काललेशाः ॥ ३७॥ जग्राह० अथो अथानन्तरं महेन्द्रो मंक्षु शीघ्र विवाह६ महोत्सवाय आसन्नं मुहूर्त जग्राह, हल्लेखिषु उत्कंठायुक्तेषु लेखेषु देवेषु यदन्तरस्था, यस्य मुहूर्तस्य अन्तरालस्थाः काललेशा अवत्सरायन्त वर्षवदाचरन्ति स्म वर्ष सहशा जाता इति ९भावः ॥ ३७ ॥ ...वैवाहिके कर्मणि विश्वभर्तु
यंदादिदेश त्रिदशानृभुक्षा। १२ बुभुक्षिताद्वानसमानमेत
दमानि तैः प्रागपि तन्मनोभिः ॥ ३८॥ वैवा० ऋभुक्षाः इन्द्रः विश्वभर्तुः खामिनो वैवाहिके १५ कर्मणि त्रिदशान् देवान् यः कार्य आदिदेश आदिष्टवान् ,
तैत्रिदशैर्देवैरेतत् बुभुक्षिताह्वानसमानममानि बुभुक्षाक्रान्तस्य
कारणसदृशं मन्यते स । किंविशिष्टैस्तैः ? प्रागपि तन्मनोभि१रप्रेऽपि तच्चित्तैः ॥ ३८॥ .
मनोभुवा कल्पनयैव जिष्णो
- स्तत्र क्षणादाविरभावि शच्या । २६ तन्नाद्धतं सा हृदये स्वभतु
नित्यं वसन्ती खलु वेद सर्वम् ॥ ३९ ॥ २३ मनो० शच्या इन्द्राण्या तत्र स्थाने जिष्णोः इन्द्रस्य
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सर्गः] टीकया सहितम्
१०३ मनोभुवा चित्तोत्पन्नया कल्पनयैव क्षणात् तत्कालमेव आविरभावि प्रगटीबभूवे, तन्नाद्भुतं नाश्चय, सा शची खभर्तुः हृदये नित्यं वसंती सति खलु निश्चितं सर्व वेद जानाति, ३ हृदये वसतीति लक्षणया ज्ञेयं, विदोऽग्रेतिस्थाने अद ज्ञेयः ॥ ३९॥ स्वयं प्रभूपास्तिपरः शचीशः,
शची शुचिप्राज्यपरिच्छदां यः। न्यदिक्षतोपस्करणे कुमार्यो
र्यो हि नारीष्वधिकारणीयाः॥४०॥ ९ खयं० शचीश इन्द्रः शची इन्द्राणी सुमंगला सुनन्दयोरुपस्करणे अलंकरणे न्यदिक्षत आदिष्टवान् । किंलक्षण इन्द्रः? खयं प्रभूपास्तिपर आत्मना खामिसेवातत्परः! किंविशिष्टां १२ शचीम् ? शुचिप्राज्यपरिच्छदां पवित्रप्रभूतपरिवारां, हि निश्चितं नार्यः स्त्रियो नारीषु स्त्रीषु अधिकारणीया । उक्तं च-सदाप्रमाणं पुरुषा नृपांगणे रणे वणिज्येषु विचारकर्मसु । विवाह- १५ कर्मण्यथ गेहकर्मणि प्रमाणभूमिं दधते पुनः स्त्रियः॥ ४० ॥
तदाभियोग्या विबुधा वितेनु
मणीमयं मण्डपमिन्द्रवाचा । खं दास्यकर्माऽपि यशः सुगन्धि, .
- पुण्यानुबन्धीत्यनुमोदमानाः॥४१॥ । तदा० तदा तस्मिन्नवसरे आभियोग्या विबुधा आदेशकारिणो देवा इन्द्रवाचा मणीमयं मण्डपं तेनुश्चक्रुः । किं- २२
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१०४
जैनकुमारसंभवं
[ तृतीय:
कुर्वाणा विबुधाः ? स्वं दास्यकर्मापि यशःसुगन्धि पुण्यानुबन्धीति अनुमोदमानाः; दासत्वेऽपि प्रभोः मण्डपकरणे१३ नास्माकं यशः पुण्यं वास्तीति हर्षवन्त इति भावः ॥ ४१ ॥ रत्नैः सयत्नं जनितैः स्वशक्त्या, तले यदीये त्रिदशैर्नबद्धे ।
रत्नप्रभेत्यागमिकी निजाख्या
नया पृथिव्या न वृथा प्रपेदे ॥ ४२ ॥
रत्नैः :० अनया साक्षात् दृश्यमानया पृथ्व्या रत्नप्रभाया रतैः ९ प्रभा यस्याः सा रत्नप्रभा इति आगमिकी आगमसंबन्धिनी निजाख्या आत्मीयाभिधानं वृथा न प्रपेदे । क सति ? यदीये यस्य मंडपस्य तले त्रिदशैर्देवै रतैः करणभूतैर्निबद्धे सति, किं१२ विशिष्टै रतैः ? स्वशक्त्या स्वसामर्थ्येन सयत्नं यथा भवति तथा जनितैरुत्पादितैः ॥ ४२ ॥
वैर्यवर्यद्युतिभाजि भूमौ वितानलंबी प्रतिबिंबिताङ्गः । मुक्तागणो वारिधिवारिमध्यनिवासलीलां पुनराप यत्र ॥ ४३ ॥
१८ वैडूर्य ० यत्र यस्मिन् मण्डपे मुक्तागणो मौक्तिकसमूहो वारिधिवारिमध्ये समुद्रजलमध्ये निवासलीलां पुनर्द्वितीयवेलं प्राप प्राप्तः । किंलक्षणो मुक्तागण: ? भूमौ प्रतिबिम्बिताङ्गः, किंलक्षणायां भूमौ ? वैडूर्यवर्यद्युतिभाजि वैडूर्यरत्नानां वर्यां २२ प्रधानां द्युतिं कान्तिं भजतीत्येवंशीला, तस्यां वैडूर्यद्युतिभाजि ।
१५
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सगेः ]
टीका सहितम्
१०५
पुनः किंविशिष्टो मुक्तागण: ? वितान लंबी चन्द्रोदयोते लम्बते इति वितानलंबी । कोऽर्थः ! मुक्तासमूहः समुद्र एव प्रायो वसति, देवैर्विवाहमंडपे कृतचन्द्रोदयतेषु मौक्तिकडुं - ३ बनानि यानि कृतानि तानि कृष्णरत्नभूमौ प्रतिबिंबितानि दृष्ट्वा सर्वः कोपि दध्यौ, समुद्रादुत्पन्नानि मुक्ताफलानि पुनरपि समुद्रं प्राप्तानीति भावः ॥ ४३ ॥ संदर्शितस्वस्तिकवास्तुमुक्तारदावलिः स्फाटिकभित्तिभाभिः ।
यद्भूरदूरप्रभुपादपाता,
मुक्तां चिरात्तेन दिवं जहास ॥ ४४ ॥
सांद० यद्भूर्यस्य मंडपस्य भूर्यद्भूः स्फाटिकभित्तिभाभिः स्फटिकमणिरत्नभित्तेः प्रभाभिः करणभूताभिः दिवं खर्गं जहास १२ हसितवती । किंविशिष्टा यद्भूः ? संदर्शितस्वस्तिकवास्तुमुक्तारदावलिः खस्तिका वास्तु स्थानं यासां ताः स्वस्तिकवास्तवः संदशिताः प्रकटीकृताः खस्तिकवास्तुमुक्ता एव रदा दन्तास्तेषां १५ आवलिः श्रेणिर्यया सा संदर्शितस्वस्तिकवास्तुमुक्तारदावलिः दन्तदर्शनेन विशेषतो हास्यं ज्ञायते । पुनः किंलक्षणा यद्भूः ? अदूरप्रभुपादपाता अदूर आसन्नः प्रभोः श्रीऋषभस्य पाद- १८ पातश्चरणन्यासो यस्यां सा अदूरप्रभुपादपाता । किंविशिष्टां दिवम् ? तेन भगवता चिरात् चिरकालात् मुक्तामत एव हेतोर्दिवं प्रति पृथिव्या हास्यमिति भावः ॥ ४४ ॥
विश्वामविश्वासमयीमधीत्य, नीतिं यदौपाधिकपुष्पपुंजात् ।
२१
२३
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जैनकुमारसंभवं
सत्येsपि पुष्पप्रकरे पतद्भिरालम्बि रोलम्बगणैर्विलम्बः ॥ ४५ ॥
विश्वा० रोलंबगणैर्भ्रमरसमूहैः सत्येऽपि पुष्पप्रकरे पतद्भिः सद्भिः विलंब आलंबि अवलम्बितः । किं कृत्वा ? यदौपाधिकपुष्पपुंजात् यस्य मंडपस्य कृत्रिमकुसुमसमूहात् विश्वां समग्रां ६ अविश्वासमयीं नीतिं न्यायं अधीत्य अभ्यस्य । अविश्वासं भयो मूलमिति नीतिः ॥ ४५ ॥ जगज्जनो येन पुराखिलोऽपि, व्यलोपि तं यत्र विकीर्णमन्तः । ममर्द पुष्पप्रकरापदेशं,
पदैः स्मरेषुत्रजमेष युक्तम् ॥ ४६ ॥
९
१८
१०६
१२ जग० येन स्मरेषुत्रजेन स्मरस्य कामस्य इषवो बाणास्तासां जेन समूहेन पुरा पूर्वं अखिलोऽपि समस्तोऽपि जगज्जनो व्यलोपि लुप्तः । एष जगज्जनः तं स्मरेषुत्रजं तत्र मंडपे अन्त१५ मध्ये विकीर्णं विक्षिप्तं संतं पदैर्युक्तं ममर्द । किंलक्षणं स्मरेषुव्रजम् ? पुष्पप्रकारापदेशं पुष्पाणां प्रकरः समूहः एव अपदेशो मिषं यस्य तं पु० । कामस्य बाणा पुष्पाणीति प्रसिद्धिः ॥ ४६ ॥ यत्रादृतस्तंभ शिरोविभागा, भासिरे काञ्चनशालभंज्यः । प्रागेव संन्यस्तभुवो भविष्यजनौघसंमर्दभियेव देव्यः ॥ ४७ ॥ अप० यत्र मंडपे कांचनशालभंज्यः सुवर्णपुत्रिका बभा - २३ सिरे शोभिताः । किंलक्षणाः शालभंज्यः ? आहतस्तंभशिरो
२१
[ तृतीयः
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सर्गः] टीकया सहितम्
१०७ विभागाः स्तंभोपरिस्थिताः । उत्प्रेक्षते-भविष्यज्जनौघसंमर्दभिया भाविजनसमूहस्य संमर्दभयेन प्रागेव पूर्वमेव संन्यस्तभुवः त्यक्तभुवो देव्यो देवांगना इव । भुवि संमों भविष्यति, अतः३ पूर्वमेव स्तंभशिरसि स्थिता इति भावः ॥ ४७ ॥
सुचारुगारुत्मततोरणानि,
द्वाराणि चत्वारि बभुर्यदये।
देवीषु रुद्धाग्रपथासु रोपाद् .. भ्रूभङ्गभांजीव दिशां मुखानि ॥४८॥ - सु० यस्य मंडपस्य अग्रे चत्वारि द्वाराणि बभुः, शोभि-९ तानि । किंलक्षणानि द्वाराणि ? सुचारुगारुत्मततोरणानि सुष्ठ अत्यर्थ चारूणि मनोज्ञानि गरुडोद्गारसत्कानि तोरणानि यत्र तानि सुचारुगारुत्मततोरणानि । उत्प्रेक्षते-देवीषु रुद्धाग्रपथासु १२ रुद्धाग्रमार्गासु सतीषु रोषागभङ्गभांजि उत्पाटितभृकुटिसंयुक्तानि दिशां मुखानीव ॥ १८ ॥
अलंभि यस्योपरि शातकुंभ___ कुंभैरनुद्भिन्नसरोरुहाभा। नभः सरस्यां चपलैर्ध्वजौषै_ विसारिवैसारिणचारिमा च ॥ ४९॥ १८ अलंभि० यस्य मण्डपस्योपरि शातकुंभकुंभैः शातकुम्भस्य सुवर्णस्य कुंभैः कलशैनभःसरस्यां आकाशसरोवरे अनुद्भिन्नसरोरुहाभा अविकखरकमलशोभाऽलंभि प्राप्ता । कमलकोशानां कलशानां च सादृश्यं स्यात् । च अन्यत्, चपलैर्ध्वजौघर्विसारि-२२
१८
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जैनकुमारसंभवं
वैसारिणचारिमा विसारिणां प्रसरणशीलानां मत्स्यानां चारिमा मनोज्ञता अलम्भि ॥ ४९ ॥
१२
१०८
तथा कथाः पप्रथिरे सुरेभ्यस्त्रिविष्टपे तत्कमनीयतायाः । यथा यथार्थत्वमभाजि शोभाभिमान भंगादखिलैर्विमानैः ॥ ५० ॥
तथा० त्रिविष्टपे त्रिभुवने सुरेभ्यो देवेभ्यस्तत्कमनीयतायाः तस्य मंडपस्य मनोज्ञत्वस्य तथा कथाः पप्रथिरे विस्तृताः । ९ यथा अखिलैः समस्तैर्विमानैः शोभाभिमानभङ्गात् यथार्थत्वं सत्यार्थत्वं अभाजि सेव्यते स्म । कोऽर्थः ? यस्य मंडपस्य शोभया विमानानि निरभिमानानि ( जातानि ) इति भावः ॥ ५० ॥
१५
श्रीदेवता हैमवतं वितन्द्रा, शच्याज्ञया चन्दनमानिनाय । निनिंद स खं मलयाचलस्तु, द्विजिह्वबन्दीकृतचन्दनडुः ॥ ५१ ॥
श्रीदे० श्रीर्नाम्ना देवता वितन्द्रा आलस्यरहिता सती हैमवतं हिमवत्संबंधिनं शच्याज्ञया इन्द्राण्यादेशात् चन्दन१८ मानिनाय । तु पुनः स सर्वप्रसिद्धो मलयाचलः खं आत्मानं निनिंद निन्दितवान् । किंलक्षणो मलयाचल: : द्विजिह्वबन्दीकृतचन्दनद्रुः द्विजिह्वैः सपैर्दुर्जनैर्वा बन्दीकृताश्चन्दनद्रवश्चन्दनवृक्षा यस्य स द्विजिह्वबन्दीकृत चन्दनदुः, दुर्जनहस्तगतं वस्तु २२ पुण्यावसरे व्ययितुं न शक्यते इति भावः ॥ ५१ ॥
[ तृतीयः
वैसारिणानां
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सर्गः] टीकया सहितम्
उपाहरनंदनपादपानां,
पुष्पोत्करं तत्र दिशां कुमार्यः। शिरस्यपुष्पप्रकरस्य शेष
वृक्षवृथा वैवधिकी बभूवे ॥५२॥ उपा० तत्र मण्डपे दिशां कुमार्यः नन्दनपादपानां नन्दनवनवृक्षाणां पुष्पोत्करं पुष्पसमूहं उपाहरन् आनयन्ति स्म । शेषैश्चं-६ पकाशोकपुन्नागप्रियंगुपाटलाप्रभृतिवृक्षैः शिरस्यपुष्पप्रकरस्य मस्तकसंबन्धिपुष्पसमूहस्य वृथा वैवधिकी बभूवे निरर्थक भारवाहकैर्जातम् । अत्र भावे उक्तिः ज्ञेया ॥ ५२ ॥ ९
वध्वोरलंकारसहं सहर्षा,
मणीगणं पूरयति स्म लक्ष्मीः । वारांनिधेस्तद्धनिनश्चिरत्नो,
१२ रत्नोचयः फल्गुरभूचितोऽपि ॥ ५३ ॥ वध्वो० लक्ष्मीः सहर्षा सती मणिगणं रत्नसमूहं पूरयति स्म। किंलक्षणं मणिगणम् ? वध्वोरलंकारसहम् सुमंगला सुनन्दयोर- १५ लंकारसमर्थम् । तद्धनिनः कृपणस्य वारांनिधेः समुद्रस्य चिरनश्चिरकालीनश्चितोऽपि संचितोपि रत्नोच्चयो । समूहः फल्गुनिःफलोऽभूत् ॥ ५३॥
मन्दाकिनीरोधसि रूढपूर्वा
दूर्वा वरार्धाय समानिनाय । । पराभिराभिर्नवरं जिजीवे,
वालेयदन्तक्रकचार्तिहेतोः॥ ५४॥ २२
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११०
जैनकुमारसंभवं [तृतीयः मन्दा० मन्दाकिनी गंगा वरार्थाय वरस्य अर्थकृते दूर्वा समानिनाय । किंलक्षणा दूर्वा ? रोधसि रूढपूर्वा रोधसि तटे पूर्व रूढा रूढपूर्वा अग्रेऽप्युहृताः । पराभिरन्याभिराभिर्दूर्वाभिनवरं केवलं वालेयदन्तक्रकचार्तिहेतोवालेयानाम् रासमानां दन्तक्रकचं दन्तरूपकरपत्रं तदर्तिहेतोः तत्पीडानिमित्तं ६ जिजीवे ।। ५४ ॥
कश्मीरवासा भगवत्यदत्त,
काश्मीरमालेप्यमनाकुलैव । यत्रापि तत्रापि भवन हीदं,
मद्देशनाम त्यजतीति बुद्ध्या ॥ ५५ ॥ काश्मीरवासा भगवती आलेप्यं आलेपनयोग्यं काश्मीरं १२ कुंकुम इतिबुद्ध्या अनाकुलैव अदत्त ददौ । इति इति किम् ? हि निश्चितं इदं काश्मीरकुंकुमं यत्रापि तत्रापि भवन् सन् मद्देश
नाम न त्यजति, यत्तत् कुंकुमं काश्मीरमे वोच्यते ॥ ५५॥ १५ करोषि तन्वंगि! किमंगभंगं,
त्वमर्धनिद्राभरबोधितेव । न सांप्रतं संप्रति तेऽलसत्वं,
कल्याणि ! कार्पण्यमिवोत्सवान्तः ॥ ५६ ॥ आलंबितस्तंभमवस्थितासि, __ बाले जरातेव किमेवमेव ।
अलक्ष्यमन्विष्यसि किं सलक्षे, २२ साधोः समाधिस्तिमितेव दृष्टिः॥५७॥
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सर्गः] टीकया सहितम्
मनोरमे ! मुंचसि किं न लीलाम् , .. अद्याप्यविद्यामिव साधुसंगे। इतस्ततः पश्यसि किं चलाक्षि !,
निध्यातयूनी पुरि पामरीव ॥ ५८ ॥ भूषां वधव्यां द्रुतमानयध्वं, .. ... धृत्वा वरार्थं धवलान् ददध्वम् ।.. . शच्यरितानामिति निर्जरीणां, कोलाहलस्तत्र बभूव भूयान् ॥ ५९ ॥
॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ करोषि० तत्र तस्मिन् मंडपे निर्जरीणां देवीनां भूयान् बहुः कोलाहलो बभूव । किंविशिष्टानां निर्जरीणाम् ? शच्या इन्द्राण्या इति अमुना प्रकारेण ईरितानां प्रेरितानाम् । इतीति १२ हे तन्वंगि! त्वं अंगभंगं किं करोषि ? के च अर्धनिद्राभरे बोधितेव यथार्धनिद्राभरबोधिता जागरिता अंगभङ्गं आलस्यं करोषि, हे कल्याणि ते तव संप्रति अधुनाऽलसत्वं न सांप्रतं न युक्तं, १५ किमिव कार्पण्यमिव यथा उत्सवान्तरुत्सवमध्ये कार्पण्यं न सांप्रतम् ॥ ५६ ॥ हे बाले ! त्वं आलंबितस्तंभ अवलंबितस्तंभ एवमेव किं स्थितासि ? या बाला स्यात् सावष्टंभं नैव गृह्णाति । १८ केव ? जरातेव। यथा जराती जरया पीडिता एवमेव आलंबितस्तम्भं तिष्ठति, हे सलक्षे सुज्ञाने! त्वं अलक्षं किं अन्विष्यसि आलोकयसि, केव साधोदृष्टिरिव यथा साधोः समाधिस्तिमिता २१ समाधानेन निश्चला अलक्ष्यं अन्वेषयति ॥५७ ॥ हे मनोरमे ! त्वं अद्यापि लीलां किं न मुंचसि? कामिव ? अवद्यामिव यथा २३
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११२
जैनकुमारसंभवं [तृतीयः साधुसंगे कोऽपि अविद्यां न मुंचति । हे चलाक्षि ! त्वं इतस्ततः किं पश्यसि । केव ? पामरीव ! यथा पामरी ग्रामीणस्त्री पुरि ३ नगरे निध्यात्यूनीति ध्याता दृष्टा युवानस्तरुणवयसो यया सा निध्यातयूनी इतस्ततः पश्यति ॥ ५८ ॥ हे हला! वधव्यां वधूभ्यो हितां भूषां शृंगारादिकां द्रुतं शीघ्र आनयध्वं, यूयं ६ वरार्थं धृत्वा धवलान् ददध्वम् ॥ ५९॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥
अथालयः शैलभिदः प्रियायाः, ___संस्कर्तुकामा वसुधैकरने । निवेश्य कन्ये कनकस्य पीठे,
रत्नासनाख्यां ददुरस्य दक्षाः ॥ ६०॥ अथा० अथान्तरं शैलभिद इन्द्रस्य प्रियायाः शच्या आलयः १२ सख्यः संस्कर्तुकामा अलङ्कारं कर्तुमिच्छवः सत्यः कन्ये सुमंगलासुनंदे कनकस्य पीठे सुवर्णस्यासने निवेश्य उपवेश्य
अस्य कनकपीठस्य रत्नासनाख्यां ददुः। किंविशिष्टे कन्ये ? वसु१५धैकरनै वसुधायां पृथ्व्यां एकरत्नप्राये । किंविशिष्टा आलयः ?
दक्षाः चतुराः । यत्र रत्नं स्थाप्यते तदपि रत्नासनं कथ्यते, रत्नप्रायकन्ये तयोरासनमेतत् , अतो रत्नासनमिदमिति दक्ष१० त्वभावः ॥ ६०॥ __ उभे प्रभौ स्नेहरसानुविद्वे,
स्नेहैः समभ्यज्य च संस्नपय्य । २१ लावण्यपुण्ये अपि भक्तितस्ता,
न स्वश्रमेऽमंसत पौनरुक्त्यम् ॥ ६१॥ २३. उभे० ता आलयः सख्यो भक्तितः खश्रमे आत्मीय
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सर्ग: ]
टीका सहितम्
११३
प्रयासे पौनरुक्तत्यं पुनरुक्तदोषं न अमंसत न मन्यन्ते स्म । किं कृत्वा ! उभे कन्ये नेहैस्तैलैः समभ्यज्य अभ्यंग्य च अन्यत् संस्खपय्य स्नानं कारयित्वा । किंविशिष्टे कन्ये ? प्रभौ श्री ऋषभदेवें I स्नेहरसानुविद्धे स्नेहरसेन व्याप्ते, पुनः किंविशिष्टे ? लावण्यपुण्ये अपि लावण्येन पुण्ये पवित्रेऽपि । कोऽर्थः ? ते कन्ये पूर्वमेव स्नहरसेन प्रभौ प्रेमरसेन तैलेन वानुविद्धे, लावण्येन ६ च पवित्रे वर्तते, पुनरपि तत्करणे पुनरुक्तत्वं स्यात् परं भक्ति - भावात्तन्न जातमिति भावः ॥ ६१ ॥
1
तृषातुरेणेव पटेन वान्तनानीयपानीयलवे जवेन ।
स्फुरन्मयूखे निभृते क्षणं ते, सुवर्णपुत्रयोः श्रियमन्वभूताम् ॥ ६२ ॥
तृषा ते कन्ये सुमंगलासुनन्दे क्षणं क्षणमेकं सुवर्णपुत्र्योः सुवर्णपुत्रिकयोः श्रियां शोभां अन्वभूताम् । किंविशिष्टे ते ? जवेन वेगेन तृषातुरेणेव पटेन वस्त्रेण वांत-ग्रस्त-स्वानीय- १५ लवे स्नानसंबंधिजललवे । पुनः किंविशिष्टे ? स्फुटन्मयूखे उल्लसत्किरणे, पुनः किंविशिष्टे : निभृते निश्चले ॥ ६२ ॥
सगोत्रयोर्मूर्ध्नि तयोरुदीय, नितंबचुम्बी चिकुरौघमेघः । वर्षन् गलन्नीरमिषान्मुखाब्जान्यस्मेरयच्चित्रमवेक्षकाणाम् ॥ ६३ ॥ स० चित्रं आश्चर्यं चिकुरौघमेघः केशकलापरूप जलदः गलन्नीरमिषात् वर्षन् सन् अवेक्षकाणां अवलोककानां मुखा - २३
जै०
० कु० ८
९
१२
१८
२१
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११४
जैनकुमारसंभवं [ तृतीयः ब्जानि मुखकमलानि अस्मेरयद्विकासयति स्म, अन्यान्यन्जानि वर्षाकाले शटित्वा पतंति परमत्र वैपरीत्यमतस्तच्चित्रम् । ३ किं कृत्वा ? तयोः सुमंगलासुनन्दयोः सद्गोत्रयोः सत्प्रधानं गोत्रं ययोस्ते सद्गोत्रे, पक्षे प्रधानपर्वतयोर्मूर्ध्नि मस्तके उदीय उदयं प्राप्य । किंविशिष्टश्चिकुरौघमेघः ? नितंबचुंबी नितम्बं ६ कटितट पक्षे कटकं चुम्बति स्पृशति इति भावः ॥ ६३ ॥
धम्मिल्लमल्लोऽधिगतसरास्त्र
मालोऽन्तरालोल्लसितप्रसूनैः। तन्मौलिवासादलवान कस्य,
बलीयसोऽप्येजयति स चेतः ॥६४॥ धम्मि० धम्मिल्लमल्लः बद्धकेशकलाप एव मल्लः कस्य १२ बलीयसोऽपि बलवतश्चेतः खान्तं न एजयति स्म अपि तु
सर्वस्यापि । किंलक्षणो धम्मिल्लमल्लः ? अन्तरालोल्लसितैः प्रसूनैः
पुष्पैरधिगता प्राप्ता स्मरस्य कामस्य अस्त्रमाला शस्त्रश्रेणिर्येन १५ सः । पुनः किंविशिष्टः ? तन्मौलिवासात् तयोः कन्ययोः मस्तके
वासात् बलवान् । यतः-स्थानं प्रधानं न बलं प्रधानं स्थानस्थितो गर्जति कातरोऽपि । हे वासुके ! वेद्मि तव प्रमाणं १८ कण्ठस्थितो गर्जसि शंकरस्य ॥ १ ॥ इति स्थानबलं, कामस्य
पुष्पबाणत्वात् प्राप्तपुष्पैः शस्त्रबलं च, ततो धम्मिल्लमल्लः कान् न कम्पयतीति भावः ॥ ६४ ॥
सारांगरागैः सुरभि सुवर्ण
मेवैतयोः कायमहो विधाय ।
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सर्गः] टीकया सहितम् ११५ जहे सुवर्णस्य सुराङ्गनाभिः,
सौगन्ध्यवन्ध्यत्वकलंकपङ्कः ॥६५॥ सारां० सुराङ्गनाभिर्देवांगनाभिः सुवर्णस्य सौगन्ध्यवन्ध्य ३ त्वकलंकपंकः सौरभ्यरहितत्वमेव कलङ्कपको जहे स्फेटितः । किं कृत्वा ? एतयोः सुमंगलासुनंदयोः कायं सारंगरागैः प्रशस्यविलेपनैरहो इति आश्चर्ये, सुरभिपरिमलबहुलं विधाय कृत्वा, ६ किंविशिष्टं कायं ? सुवर्णमेव गौरवर्णत्वात् ॥ ६५ ॥
तयोः कपोले मकरीः स्फुटांगी.
यद्गन्धधूल्या लिलिखुस्त्रिदश्यः। सरं स्वधार्य मकरः पुरंधी
स्नेहेन धावंस्तदिहानिनाय ॥६६॥ तयोः० त्रिदश्यः सुराङ्गनाः, तयोः कन्ययोः कपोले यवंध-१२ धूल्या कस्तूर्या स्फुटांगीः प्रकटरूपा मकरीलिलिखुर्लिखन्ति स्म। मकरः खधार्य खवायं खामिनं स्मरं कन्दर्प, तत् तस्मात् कारणात् इह आनिनाय । किं कुर्वन् मकरः ? पुरंध्रीनेहेन कल- १५ त्रप्रीत्या धावन् कामो मकरध्वज उच्यते, मकरे मकरीस्नेहेन तत्रागते कामोऽपि तत्रागत इति भावः ॥ ६६ ॥ बभार मारः कुचकुंभयुग्मं,
क्रीडन् ध्रुवं कान्तिनदे तदङ्गे। यत्पत्रवल्लयो मृगनामिनीला,
निरीक्षितास्तत्परितोऽनुषक्ताः ॥ ६७॥ २१ बभार० मारः कन्दर्पः कान्तिनदे प्रभाया हदे तदने तयोः कन्ययोः अङ्गे शरीरे क्रीडन् सन् ध्रुवं निश्चितं कुचकुंभयुग्मं २३
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११६
जैनकुमारसंभवं
[ तृतीयः
बभार, अन्यापि कुंभाधारेण हृदादिकं तरति । हेतुमाह-यत् यस्मात् कारणात् तत् कुचकुंभयुग्मं परितः समंततः अनु३ षक्ताः लग्नाः मृगनाभिनीला कस्तूरिकावद् या नीलवर्णाः पत्रवयो निरीक्षिता दृष्टाः ॥ ६७ ॥ तनूस्तदीया ददृशेऽमरीभिः संवीतशुभ्रामलमञ्जवासा । परिस्फुटस्फाटिककोशवासा,
मी कृपाणीव मनोभवस्य ॥ ६८ ॥
,
तनु० अमरीभिर्देवांगनाभिः तदीया तनूः शरीरं दहशे दृष्टा, तनूशब्दो देहवाचकः स्त्रीलिङ्गो ज्ञेयः कन्याद्वये सत्यपि तनूरित्यत्रजातावेकवचनं ज्ञेयम् । किंविशिष्टा तनूः ? १२ 'संवीत शुभ्रामलमंजुवासा' संवीतानि परिहितानि शुभ्राणि उज्ज्वलानि अमलानि निर्मलानि मंजूनि मनोज्ञानि वासांसि यया सा संवीतशुभ्रामलमंजुवासा । उत्प्रेक्ष्यते—- परिस्फुटप्रकट१५ स्फाटिक स्फाटिकमणिमयकोशे प्रत्याकारे कृतवासा मनोभवस्य कामस्य, हैमी सुवर्णमयी कृपाणीव क्षुरिकेव ॥ ६८ ॥ द्वारेण वां चेतसि भर्तुरेष, संश्लेषमास्यामि मुमुक्षतोऽपि । इतीव लाक्षारसरूपधारी, रागस्तयोरंहितलं सिषेवे ॥ ६९ ॥
१८
२१ द्वा० लाक्षारसरूपधारी अलक्तकरसरूपधारी रागस्तयोः कन्ययोरहितलं चरणतलं सिषेवे सेवते स्म । उत्प्रेक्ष्यते इतीव २३ एषोऽहं वां युवयोर्द्वारेण भर्तुः श्री ऋषभदेवस्य चेतसि संश्लेष
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सर्गः] टीकया सहितम्
११७ संसर्ग आप्स्यामि प्राप्स्यामि । किंविशिष्टोऽहम् ? मुमुक्षितोऽपि मोक्तमिष्टोऽपि ॥ ६९ ॥
मन्दारमाला मकरन्दविन्दु
संदोहरोहत्प्रमदाश्रुपूरा। दूरागता शैत्यमृदुत्वसारा,
सखीव शिश्लेष तदीयकंठम् ॥ ७॥ मन्दा० मन्दारमाला दूरागता सखीव तदीयं सुमंगलासुनन्दयोः कण्ठं शिश्लेष आलिंगति स्म । किंलक्षणा मंदारमाला ? मकरन्दबिन्दुसंदोहरोहत्प्रमदाश्रुपूरा; मकरन्दबिन्दूनां ९ सन्दोहः समूहः स एव रोहत् प्रवर्धमानः प्रमदाश्रुपूरः हर्षाश्रुपूरो यस्याः सा मकरन्द० । पुनः किंभूता मन्दारमाला ? शैत्यमृदुत्वसारा शैत्यं च मार्दवं च ताभ्यां सारा मनोज्ञा ॥ ७० ॥१२ न्यस्तानि वध्वोर्वदनेऽमरीभि
राभाभरं भेजुरभङ्गरङ्गम् । उद्वेगयोगेऽपि भुजङ्गबल्ले
दलानि सुस्थानगुणः स कोऽपि ॥ ७१ ॥ न्यस्ता० भुजंगवल्लेनागवल्लेदलानि पत्राणि उद्वेगयोगेऽपि उद्वेगः संतापः, पक्षे पूगीफलम् ; तस्य योगेपि आभाभरं शोभास- १८ मूहं भेजुर्भजंति स्म । किंविशिष्टं आभाभरं ? अभंगरंगं अभंगो रंगो स्वर्णरंग एव यत्र तम् । स कोऽपि सुस्थानगुणो ज्ञेयः । किंविशिष्टानि दलानि ? अमरीभिर्देवांगनाभिर्वध्वोः कन्ययोर्वदने न्यस्तानि क्षिप्तानि । एकं भुजंगवल्लेदलानि, द्वितीयं उद्वेग-२२
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३
१५
११८
जैनकुमारसंभवं
[ तृतीयः
योगः, परमीदृशेऽपि सति यत् रंगो जातः स तयोः कन्ययोवदनस्थानकगुणो ज्ञेय इति भावः ॥ ७१ ॥
स्तत्कर्णकृपौ त्वरितं प्यधत्त ॥ ७२ ॥
मा स्म० कापि देवांगना उत्पलकर्णपूरैः कमलकर्णाभरणैः तत् कर्णकूपौ तयो: सुमंगला सुनन्दाकन्ययोः कर्णरूपकूपौ ९ त्वरितं शीघ्रं प्यधत्त, आच्छादयति स्म । उत्प्रेक्ष्यते - इतीव अत्र एतयोः कर्णकूपयोर्यूनां यौवनप्राप्तानां चेतः स्वान्तं स्मरान्धं कामान्धं सन् मा स्म पतत् । किंलक्षणं चेतः ? त्वरया १२ औत्सुक्येन पुरान्तः संचारि पुरं शरीरं पक्षे नगरं तस्यान्तर्मध्ये संचरणशीलम् ॥ ७२ ॥
मा म स्मरान्धं त्वरया पुरान्त:संचारि चेतः पतदत्र यूनाम् । इतीव काप्युत्पलकर्णपूरै
१८
भोगीदमीयः किल केशहस्तस्ततान यूनां हृदि यं विमोहम् । सोऽवधिं चूडामणिनापि तेषा
मथो गतिः केत्यवदन्मघोनी ॥ ७३ ॥
भोगी० मघोनी इन्द्राणी इत्यवदत् । इतीति किम् ? इदमीयः अनयोरयं इदमीयः किल इति सत्ये केशहस्तः केशकलापः । हस्तः पक्षः कलापश्च नाममालोक्तं ज्ञेयम्। यूनां हृदि यं विमोहं २१ ततान् । किंविशिष्टः केशहस्तः ? भोगी भोगः कुसुमकस्तूरिकादीनां विद्यते यत्र असौ भोगवान्, पक्षे सर्पः । स विमोहः २३ चूडामणिनापि अवर्द्धि वर्द्धितः । तेषां यूनां अथो का गति
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सर्गः] टीकया सहितम् ११९ भविष्यति कोऽर्थः ? सर्पमणेर्विषमुत्तरति इति हि रूढिस्तयोः कन्ययोः शीर्षे केशकलापसोपरि चूडामणिं दृष्ट्वा युवानो विशेषतो व्यामोहिताः ॥ ७३ ॥
हस्ते शलाकावदने च तिष्ठ
दनिष्ठुरं तन्नयनप्रविष्टम् । धिक्कजलं भस्मयति स्म यूनः,
को विश्वसेत्तापकरप्रसूतेः ॥ ७४ ॥ हस्ते कजलं 'धिधिक्योगे द्वितीया' ( ) यत् । कज्जलं तत् नयनप्रविष्टं सन् तयोः कन्ययोः नेत्रांतःप्रविष्टं सत् यूनो९ भस्मयति स्म । अत्र लक्षणा ज्ञेया, व्यामोहयति स्मेतिभावः, किंविशिष्टं कज्जलम् ? हस्ते, च अन्यत् , शलाकावदने तिष्ठत् सत् , अनिष्ठुरं कोमलं लक्षणया शान्तं वा । तापकरणप्रसूतेः १२ तापकरोऽग्निः दुर्जनादिर्वा तत्प्रसूतेः तज्जातस्य अन्यस्यापि को विश्वसेत् , अपि तु कोऽपि नैव । विश्वसेत् इति 'अन श्वसक् प्राणने' इतिधातोर्न प्रयोगः किन्तु अन्यः कोपि घटते; १५ 'न विश्वसेदमित्रस्य मित्रस्यापि न विश्वसेत्' इति लोकेऽप्यस्ति । कोऽर्थः ? कज्जलं पूर्व हस्ते ध्रियते ततः शलाकामुखे स्थाप्यते, अस्मिन्नवसरे न कमपि व्यामोहयति, किन्तु १८ नयनप्रविष्टमेव, अतः कजलेन विश्वासघातः कृतः, अतस्तापकरजातस्य (कोऽपि ) न विश्वसेदिति भावः ।। ७४ ॥
शची स्वहस्तेन निवेश्य मौलौ,
मौलिं मणीनां किरणेर्जटालम् ।
२२
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जैनकुमारसंभवं
तयोर्गुणाधिक्यभवं प्रभुत्वमशेषयोषित्सु दृढीचकार ।। ७५ ।।
शची० शची इन्द्राणी स्वहस्तेन तयोः कन्ययोः मौलौ मस्तके मौलिं मुकुटं निवेश्य अशेषयोषित्सु समस्तस्त्रीषु गुणाधिक्यभवं गुणा औदार्य गांभीर्यादि गुणानामाधिक्यादुत्पन्नं ६ प्रभुत्वं दृढीचकार । किंविशिष्टं मौलिम् ? मणीनां किरणैर्जटालं व्याप्तम् । अत्रापि लक्षणा ज्ञेया ॥ ७५ ॥ पारे शिरोज तमसामुदियाय भाले लक्ष्म्या घनावसथतां गमिते तदीये ।
९
२१
१२०
२३
१२
पारे० तरणिः सूर्यः तदीये तयोः कन्ययोर्भाले शिरोजतमसां केशरूपांधकाराणां पारे उदियाय उदयं प्राप्तः, किंविशिष्टे भाले ? लक्ष्म्याः श्रियः शोभाया वा घनावसथतां दृढ१५ स्थानकतां पक्षे घनावसथतां आकाशतां गमिते प्रापिते । पुनः किंविशिष्टे भाले ? विक्षिप्त नागजरजोत्रजसांध्या गसंकीर्ण सीनि विक्षिप्तं विस्तारितं नागजरजः सिन्दूररजः तस्य व्रजः १८ समूहः स एव सान्ध्यरागः तेन संकीर्णा सीमा पर्यंत देशो
यस्य सः ॥ ७६ ॥
विक्षिप्तनागजरजोव्रजसांध्यराग
संकीर्ण सीन तरणिस्तिलकच्छलेन ॥ ७६ ॥
[ तृतीयः
यच्चाक्रिकभ्रमि-दिनाधिपताप-वह्निसेवा - पयोवहनमुख्यमसोढ कष्टम् । पुण्येन तेन तदुरोरुहतामवाप्य, कुंभो बभाज मणिहारमयोपहारम् ॥ ७७ ॥
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सर्ग: ]
टीका सहितम्
१२१
यच्चा० कुम्भो यत् चाक्रिकभ्रमिः चाक्रिकः कुलालः तस्य चक्रोपरि श्रमिः, दिनाधिपतापः सूर्यकिरणतापः, वह्निसेवा पावकावस्थाभवा, पयोवहनं च एतत् मुख्यं कष्टं असोढ सहते ३ स्म, तेन पुण्येन तदुरोरुहतां तयोः कन्ययोः स्तनत्वं प्राप्य मणिहारमयोपहारं मणिहारमयं उपहारं पूजां बभाज भजति स्म । 'देहे दुःखं महाफलं' इत्यागमः । अत्र वृत्ते अनुमाना- ६ लंकारो ज्ञेयः, कुंभेन किमपि पुण्यं कृतं तेन हारादिपूजा प्राप्तेति भावः ॥ ७७ ॥
येतयोरशुभतां करमूले, काममोहभटयोः कटके ते ।
अङ्गुलीषु सुपमामददुर्या,
ऊर्मिका ननु भवांबुनिधेस्ताः ॥ ७८ ॥ ये ० ये कटके तयोः कन्ययोः करमूले अशुभतां शोभिते ते काममोहभयोः कटके सैन्ये ज्ञेये । या ऊर्मिका मुद्रिका - स्तयोः कन्ययोः अंगुलीषु सुषमां शोभां अददुर्ददंतिस्म । १५ ननु निश्चितं ता भवाम्बुनिधेः संसारसमुद्रस्योर्मिका लहर्यो ज्ञेयाः ॥ ७८ ॥
९
त्रिभुवनविजिगीषोमरभूपस्य बाह्या
saनिरजनि विशाला तनितंब स्थलीयम् । व्यरचि यदिह कांचीकिंकिणीभिः प्रवल्गचतुरतुरगभूषाघर्घरीघोषशङ्का ।। ७९ ।। त्रिभु० इदं तन्नितंब स्थली तयोः कन्ययोः कटितटस्थली कामराजस्य बाह्यावनिः बाह्यावनिः अश्ववाहनिकाभूमिः २३
मारभूपस्य
१२
१८
२१
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१२२ जैनकुमारसंभवं
[तृतीयः अजनि जाता । हेतुमाह यत् यस्मात् कारणात् इह नितंबस्थल्यां कांची मेखला तस्याः किंकिणीभिः क्षुद्रघंटिकाभिः ३प्रवल्गच्चतुरतुरंगभूषाघघरीघोषशंका प्रवल्गन्त उच्छलंतश्चतुरा ये तुरगाः अश्वास्तेषां भूषाघधरीणां घोषशङ्का व्यरचि कृता । यत्राश्वा वाह्यते तत्र घर्घरीघोषो स्यादेवेति ६भावः । किंविशिष्टस्य मारभूपस्य ? त्रिभुवन विजिगीषोः त्रिभुवनं जेतुमिच्छोः ॥ ७९ ॥ नखजितमणिजालौ स्वश्रियापास्तपद्मो
गतिविधुरितहंसौ मार्दवातिप्रवालौ । तदुचितमिह साक्षीकृत्य देवीस्तदंही
सपदि दधतुराभां यत्तुलाकोटिवृत्ताम् ॥८॥ १२ नख० इह देवीः साक्षीकृत्य तदही तयोः कन्ययोः क्रमौ
सपदि झटिति यत् तुलाकोटिवृत्तां तुलाकोटिशब्देन नूपुरे पक्षे तुला उपमा तस्याः कोटिः अग्रभागः ततो वृत्तां निष्पन्नां आभां १५शोभा दधतुः, तत् उचितं योग्यम् । एतानि सर्वाणि तदंयोविशेषणानि । किंविशिष्टौ तदंही ? नखजितमणिजालौ नखै
र्जिता मणिसमूहा याभ्यां तौ नखजितमणिजालौ । खश्रि१८ यापास्तपद्मौ खशोभया निराकृतकमलौ । गतिविधुरितहंसौ
गत्या विधुरिता लक्षणया जिता हंसा याभ्यां तौ गतिविधुरितहंसौ । मार्दवातिप्रवालौ मार्दवेन सौकुमार्येण अतिक्रान्ताः
प्रवालाः किसलया याभ्यां तो मार्दवातिप्रवालौ । अत एव २२ जितसर्वोपमानत्वात् तुलाकोटित्वमिति भावः ॥ ८० ।।
___
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१२३
सर्गः] टीकया सहितम् एवं स्नातविलिप्तभूषिततनू उद्धृत्य कन्ये उभे
मध्ये मातृगृहं निवेश्य दिविषद्योषा अदोषासने। गायन्त्यो धवलेषु तद्गुणगणं तद्वक्त्रवीक्षोत्सव- ३ च्छेदानाकुलनिर्निमेषनयनास्तस्थुः स्मरन्त्यो वरम् ॥
एवं० दिविषद्योषा देवांगना वरं स्मरन्त्यः सत्यः तस्थुः । किं कृत्वा ? उभे सुमंगलासुनन्दे कन्ये उद्धृत्य स्नानस्थानात् ६ उत्पाट्य मध्ये मातृगृहं मातृगृहस्य मध्ये अदोषासने निर्दोपासने निवेश्योपवेश्य । किंविशिष्टे कन्ये ? एवं अमुना पूर्वोक्तप्रकारेण स्नातविलिप्तभूषिततनू स्माता विलिप्ता भूषिताऽलंकृता ९ च तनुः शरीरं ययोस्ते । अत्र अग्रेऽपि सन्धिर्न । किं कुर्वन्यो दिविषद्योवाः! धवलेषु तद्गुणगणं तयोः वध्वोः गुणसमूह गायंत्यः । पुनः किंविशिष्टाः ? तद्वक्त्रवीशोत्सवच्छेदानाकुल- १२ निर्निमेषनयनाः, तयोः कन्ययोः वक्त्रस्य मुखस्य वीक्षा अवलोकनं सैव उत्सवः तस्य च्छेदे च्छेदविषये अनाकुले अव्याकुले निर्निमेष निमेषरहिते नयने लोचने यासां १५ ताः तद्वक्त्रवीक्षोत्सवच्छेदानाकुलनिर्निमेषनयनाः । मेषोन्मेषकारिणां जनानां वीक्षोत्सवच्छेदः स्यात् परं तासां खभावनिनिमेषत्वात् नेत्रयोरनाकुलत्वमिति भावः ॥ ८१ ॥ १८
इति अंचलगच्छे कविचक्रवर्तिश्रीजयशेखरसूरि विरचित श्रीजैनकुमारसंभवस्य तच्छिष्यश्रीधर्मशेखरसूरि विरचितायां टीकायां श्रीमाणिक्यसुन्दरसूरिशोधितायां तृतीय
सर्गव्याख्या समाप्ता ॥ ३॥
२२
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२४
जैनकुमारसंभवं [चतुर्थः ॥ अथ चतुर्थः सर्गः॥ अथात्र पाणिग्रहणक्षणे प्रति
क्षणं समेते सुरमण्डलेऽखिले। इलातलयातिथितामिवागता
ममस्त सौधर्मदिवं दिवःपतिः ॥१॥ ६ अथा० अथानन्तरं दिवःपतिरिन्द्रः सौधर्मदिवं इलातलस्य पृथ्वीमंडलतलस्य अतिथितां प्राघूर्णतामिवागतां अमंस्त मन्यते स्म । क सति ? अत्र अस्मिन् पाणिग्रहणक्षणे विवाहा९ वसरे अखिले सुरमण्डले देवसमूहे प्रतिक्षणं क्षणं क्षणं प्रति समेते समागते सति ॥ १ ॥
नवापि वैमानिकनाकिनायका,
अधस्त्यलोकाधिभुवश्च विंशिनः । शशी रविय॑न्तरवासिवासवा,
द्विकाधिका त्रिंशदुपागमनिह ॥२॥ १५ नवा० एकस्य पूर्वमागतत्वात् शेषा नवापि वैमानिक
नायका इन्द्राः, च अन्यत् , विंशिनः विंशतिर्मानमेषामिति 'विंशतिनः डिन' ( ) इति सूत्रेण डिनप्रत्ययः इन १८ 'स्युः विंशते स्तेडिते' ( ) अनेन तिलोपः 'डिः' ( )
इत्यंतखरादेरन्त्यस्वरलोपे विशिन् इति । विंशतिसंख्या अधस्त्यलोकाधिभुवः पाताललोकस्य स्वामिनः; शशी चन्द्रः, रविः सूर्यः, व्यन्तरवासिवासवा व्यन्तरेन्द्रा द्विकाधिका त्रिंशत् २२ द्वात्रिंशत् इह मण्डपे उपागमन् आगताः ॥ २ ॥
१२
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सर्गः ]
टीका सहितम्
तदा हदालोडनशाखिदोलनप्रियामुखालोकमुखो मखाशिनाम् । रसः प्रयाणस्य रसेन हस्तिनः, पदेन पादान्तरवलुप्यत ॥ ३ ॥
तदा तस्मिन्नवसरे मखाशिनां देवानां हृदालोडनं हृदावगाहनं शाखिनो वृक्षास्तेषु दोलनं प्रियामुखालोकश्च एतत्प्रमुखो ६ रसः प्रयाणस्य रसेन व्यलुप्यत लुप्तः । किंवत् ? पदान्तरवत् । यथा हस्तिनः पदेन द्विपदचतुः पदादीनां पादान्तरं लुप्यते 'सर्वे पदा हस्तिपदे प्रविष्टा' इति न्यायात् ॥ ३ ॥ विनिर्यतां स्वस्वदिवो दिवौकसां,
स कोऽपि घोषः सुहृदादिहूतिभूः । अभूद्वहायस्यपि यत्र गोत्रजं,
विमिश्रितं कः प्रविभोक्तुमीश्वरः || ४ ||
अमीषु नीरंध्रचरेषु कस्यचिनिरीक्ष्य युग्यं हरिमन्यवाहनम् ।
१२५
विनि० खखदिवो विनिर्यतां आत्मीय आत्मीय देव - लोकान्निर्गच्छतां दिवौकसां देवानां सुहृदादितिभूः सुहृदादीनां १५ मित्रादीनां हूतिराकारणा तद्भूः सुहृदादिहूतिभूः । स कोऽपि घोषः कलकलो गोकुलं वा अभूत् । यत्र घोषे गोत्रजं वाणिसमूहं धेनूसमूहं वा विमिश्रितं एकीभूतं सत् विहायस्यपि १८ आकाशेऽपि प्रविभक्तुं पृथक् कर्त्तुं क ईश्वरः समर्थः स्यादपि तु न कोऽपि ॥ ४ ॥
१.२
२२
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१२६
१२
जैनकुमारसंभवं
इभो न भीतोऽप्यशकत्पलायितुं, प्रकोपनः सोऽपि न तं च धर्षितुम् ॥ ५ ॥
३
अमी० अन्य वाहनं अन्यस्य देवस्य वाहनं इभो हस्ती कस्यचिद्देवस्य युग्यं यानभूतं हरिं सिंहं निरीक्ष्य दृष्ट्वा भीतोऽपि पलायितुं नाशकत्, न शक्तः । सोऽपि सिंहोऽपि प्रकोपन ६ इर्ष्यालुः सन् तं इथं हस्तिनं धर्षितुं न अशकत् । केषु सत्सु ? अमीषु देवेषु नीरंध्रचरेषु निश्छिद्रं यथा भवति तथा चरेषु चलत्सु सत्सु | तिलोऽपि पतितो यत्र नाधो याति ९ तन्नीरंभ्रम् ॥ ५ ॥
૩૩
महातनुः स्थूलशिरो विलोहिते
क्षणः परस्यासन कासरः पुरः । पलाययन् वाहनवाजिनो व्यधातुरंगिणां प्राजनविश्रमं क्षणम् ॥ ६ ॥ महा० परस्यान्यस्य देवस्यासनसक्तकासरो महिषः तुरं१५ गिणां अश्ववाराणां क्षणं प्राजनविश्रमं तर्जनकविश्रामं व्यधात् । किंलक्षणः कासरः ? महातनुः महाशरीरः, स्थूलशिरो बृहनमस्तकः, विलोहितेक्षणः आरक्तलोचनः । किं कुर्वन् कासरः ? १८ वाहन वाजिनो वाहनीभूतान् वाजिनस्तुरगान् पलाययन् । पूर्ववृत्ते नीरंध्रचरत्वं प्रोक्तं, अत्र तु पलायनं इत्थं वचनविरोधः स्यात् परं मार्गे चलतां कापि असंकीर्णता भवति ततो न २१ विरोधः ॥ ६ ॥
"
प्रभोर्विवाहाय रयाद्यियासतां, वितेनिरे प्रत्युत सादिनां श्रमम् ।
[ चतुर्थः
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सर्ग: ]
टीकया सहितम्
नभोनदीतीरतृणार्पिताननाः, कशाप्रहारैः पथि यानवाजिनः ॥ ७ ॥
प्रभो० यानवाजिनः पथि मार्गे कशाप्रहारैः प्रत्युत विशे- ३ षात् सादिनां अश्ववाराणां श्रमं वितेनिरे चक्रुः, किं कुर्वतां अश्ववाराणाम् ! प्रभोः श्रीऋषभदेवस्य विवाहाय रयाद्वेगात् यियासतां गन्तुमिच्छताम् । किंलक्षणा यानवाजिनः ! नभो - ६ नदीतीरतृणार्पिताननाः- नभोनदी आकाशगंगा तत्सत्कतीरे यानि तृणानि तत्र क्षिप्तमुखाः । आकाशगंगायास्तीरे तृणानि कथमुद्गच्छंतीति केनापि पृष्ठे प्रत्युत्तरमिदम् - यादृशी आंका-९ शगङ्गा तादृशि तृणान्यपि ज्ञेयानि परं लोकरूढ्यैव ज्ञेयम् । उक्तं च । कविशिक्षायाम् 'जले भाव्यं नभोनद्यामं भोजाद्यनदीष्वपि ' इति अग्रतोऽपि व्यावर्णनं न दोषाय ॥ ७ ॥
१२७
मिथो निरुच्छ्वासविहारिणां सुधाभुजां भुजालंकृतिघट्टनात्तदा । मणित्रजो यत्र पपात ते पयः, क्षितिश्च रत्नाकरखानितां गते ॥ ८ ॥
मिथो० तदा तस्मिन्नवसरे मिथो निरुच्छ्वास विहारिणां मिथः परस्परं निरुच्छ्वासविहारिणां श्वासमपि विना चलनशीलानां १८ सुधाभुजां देवानां भुजालंकृतिघट्टनात्
भुजांगदघर्षणात् यत्र क्षितिश्च पृथ्वी च
मणिव्रजः पपात, ते पयः पानी रत्नाकरखानितां रत्नाकरः समुद्रो रत्नखानिश्च तद्भावं गते प्राप्ते, अत्राप्यनुमानालंकारो ज्ञेयः ॥ ८ ॥
१२
१५
२२
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१२८ जैनकुमारसंभवं
[चतुर्थः भवेत्प्रयाणे भुवि विघ्नकृन्मृगी
दृशां नितंबस्तनभारगौरवम् । ३ अधोऽवतारे तु सुपर्वयौवतै
स्तदेव साहायककारि चिंतितम् ॥९॥ भवे० मृगीहशीणां नितंबस्तनभारगौरवं प्रयाणमार्गे भुवि ६ पृथिव्यां विघ्नकृद्भवेत् , तु पुनः, सुपर्वयौवतैर्देवयुवतीसमूहैरघोऽवतारे अधःपतने तदेव नितंबादिगौरवं सहायककारि चिंतितम् ॥ ९॥
उपात्तपाणिस्त्रिदशेन वल्लभा,
श्रमाकुला काचिदुदंचिकंचुका ।
वृषस्यया चाटुशतानि तन्वती, १२ जगाम तस्यैव गतस्य विघ्नताम् ॥१०॥ ___ । उपा० काचिद्देववल्लभा श्रमाकुला त्रिदशेन देवेन उपात्त
पाणिर्गृहीतहस्ता सती तस्यैव गतस्य गमनस्य विघ्नतां जगाम । १५ किं कुर्वती? वृषस्यया मैथुनेच्छया चाटुशतानि तन्वती कुर्वती, पुनः किंलक्षणा ? उदंचिकंचुका उच्छृसत्कंचुका ॥ १०॥
पुरस्सरीभूय मनाक् प्रमादिनं,
क्वचित्कृषन्तीष्वमरीषु वल्लभम् । . वशा वशाः स्युः पथि पादशृंखला, . इति श्रुति केऽपि वृथैव मेनिरे ॥११॥ २१ पुर० केऽपि देवा इति श्रुतिं वृथैव मेनिरे । इतीति किम्
वशाः स्त्रियः पथि मागें वशाः पुरुषाणां पादशृङ्खला पादबन्ध२३ नानि स्युः । कासु सतीषु ? अमरीषु देवीषु मनाक् स्तोकं
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सर्गः ]
टीका सहितम्
१२९
प्रमादिनं वल्लभं भर्तारं पुरस्सरीभूय अग्रे भूत्वा कृष॑तीषु
-बलादाकर्षन्तीषु सतीषु ॥ ११ ॥
दिवो भुवश्चान्तरलं गतागतैखाहि योऽध्वा त्रिदशैरनेकशः । द्युदण्डकत्वेन स एव विश्रुतः,
प्रपद्यतेऽद्यापि नभोsब्धिसेतुताम् ॥ १२ ॥ ६ दिवो० त्रिदशैर्देवैर्दिवः खर्गस्य भुवः पृथिव्याश्चान्तर्मध्ये मलं अत्यर्थं गतागतैर्गमनागमनैयोंऽध्वा मार्गों अनेकशो अनेकबारान् अवाहि वाहितः, स एव अध्वा द्यदण्डकत्वेन विश्रुतो ९ विख्यातः सन् अद्यापि नभोऽब्धिसेतुतां आकाशसमुद्रे सेतु - बन्धत्वं प्रपद्यते ॥ १२ ॥
जनिर्जिनस्यानि यत्र सा मही, महीयसी नः प्रतिभाति देवता । sara देवा भुवमागता अपि,
- १५
क्रमैर्न सम्पस्पृशुरेव तां निजैः ॥ १३ ॥ जनि० देवा भुवं पृथ्वीं आगता अपि निजैः क्रमैस्तां भुवं न संपस्पृशुरेव नैव स्पृष्टवन्तः । उत्प्रेक्ष्यते - इतीव । इतीति किम् ? यत्र यस्यां पृथ्व्यां जिनस्य श्रीऋषभदेवस्य जनिर्जन्म १८ अनि, सा मही पृथ्वी नो अस्माकं महीयसी अत्यन्तं महती देवता प्रतिभाति, देवतावन्मान्या; देवता च कथं चरणैः स्पृश्यते इति भावः ॥ १३ ॥ मुहूर्तमासीदति किं बिडौजसां, प्रमादितेत्युद्भिरि नाकिमण्डले ।
जै० ० कु० ९
ર
२१
२३
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१३.
जैनकुमारसंभवं [चतुर्थः विमानमानज तमंजसा वरं,
वरेण्यतैलैः प्रथमः पुरन्दरः ॥१४॥ ३ मुहू० प्रथमः पुरन्दरः इन्द्रो वरेण्यतैलैः प्रशस्यतैलैस्तं वरं भीऋषभं अंजसा सामस्त्येन विमानं निरहंकारं यथा भवति तथा आनंज अभ्यनक्ति स्म । क सति ? नाकिमण्डले देवसमूहे ६इति उद्विरि उद्तवाचि सति । इतीति किम् ? मुहूर्त
आसीदिति आसन्नं भवति, बिडौजसा इन्द्राणां किं प्रमादिता पमादकारिता ॥ १४ ॥ ९ तनूस्तदीया पटवासकैरभा
द्विशेषतः शोषिततैलताण्डवा ।
अकृत्रिमज्योतिरमित्रमत्र न, १२ निहिक्रिया स्यादहिरंगगापि किम् ॥ १५॥
तनु० तदीया तस्य खामिनस्तनूः शरीरं पटवासकैः पिष्टातैः शोषिततैलताण्डवा सती शोषितां शोषं नीतं तैलस्य तांडवं १५ नृत्यं यत्र सा एवंविधा सती विशेषतो भात् दिदीपे, अत्रास्मिन्
भगवति बहिरंगगापि बाह्यशरीरस्थापि निहिक्रिया किं अकृत्रिमा ज्योतिषः अमित्रं विरोधिनी न स्यात् अपि तु स्यादेव । १४ कोऽर्थः ! भगवतः शरीरे यन्मुख्यं तेजस्तत्तैलाभ्यंगेन आवृतमभूत् , पिष्टातैस्तैले शोषिते तत्पकटं जातमिति भावः ॥ १५॥
जलानि यां स्नानविधौ प्रपेदिरे,
पवित्रतां तद्विशदाङ्गसङ्गतः । तयैव तैरादरसंगृहीतया
धुनापि विश्वं पवितुं प्रभूयते ॥१६॥
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सर्गः]
टीकया सहितम्
१३१
जला० जलानि पानीयानि स्नानविधौ लाने कार्यमाणे तद्विशदानसङ्गतस्तस्य भगवतो निर्मलाङ्गसंसर्गात् पवित्रतां प्रपेदिरे प्रपन्नानि । आदरसङ्गहीतया तयैव पवित्रतया तै लै-३ रधुनापि विश्वं पवितुं पवित्रीकतुं प्रभूयते समर्थीभूयते ॥१६॥
सुवस्त्रदान्तोदकलेपभासुरः,
समन्ततः सङ्गतदिव्यचन्दनः । घनात्ययोद्वान्तजलं मरुद्गिरेः,
सिताभ्रलिप्तं कटकं व्यजैष्ट सः ॥ १७ ॥ सुव० स भगवान् मरुद्रेिः मेरुपर्वतस्य सिताम्रलिप्तं ९ शरत्काले मेघानां शुभ्रत्वात् श्वेताम्रर्लिप्तं कटकं व्यजैष्ट जितवान् विपूर्वकजेर्धातोः 'परावेर्जेः' (सि० ३।३।२८) इति सूत्रेणात्मनेपदम् , किंविशिष्टः सः ? सुवस्त्रदान्तोदकलेपभासुरः १२ सुवस्त्रेण गन्धकाषायिकेन दान्तो ग्रस्त उदकलेपस्तेन भासुरो देदीप्यमानः । पुनः किंविशिष्टः सः ? समंततः सर्वतः संगतं मिलितं दिव्यचन्दनं गोशीर्ष चन्दनं यस्य सः । किंलक्षणं मेरोः १५ कटकम् ? घनात्ययोद्वान्तजलं, घनात्यये शरत्काले उद्वान्तं शुष्कं जलं यस्य तद् धनात्ययोद्वान्तजलम् ॥ १७ ॥
अमुं पृथिव्यामुदितं सुरद्रुमं,
निरीक्ष्य हृन्मूर्ध्नि सुमांचितं सुराः। जगत्प्रियं पुत्रफलोदयं वयः,
क्रमादवोचनचिरेण भाविनाम् ॥ १८॥ २१ अमुं० सुरा देवा अमुं भगवन्तं पृथिव्यां उदितं सुरद्रुमं कल्पवृक्षं निरीक्ष्य वयःक्रमात् षट्लक्षपूर्वानन्तरं अपि अचिरेण २३
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१३२
जैनकुमारसंभवं [चतुर्थः स्तोककालेन भाविनं पुत्रफलोदयं भरतबाहुबलिप्रभृतिपुत्र. रूपफलोदयमवोचन् । किंलक्षणं अमुम् ? हृन्मूर्ध्नि सुमांचितं ३ हृदये मस्तके च मन्दारसहितं हरिचन्दनपारिजातादिकुसुमैः पूजितं हृन्मूर्ध्नि इति 'प्राणितूांगाणाम्' (सि० ३।१११३७) इति सूत्रेण एकत्वं ज्ञेयमत्र जगत्प्रियं विश्वाभीष्टम् ॥ १८ ॥ ६ अदःकचश्योतनवारिविप्लषो,
निपीय यैश्चातकितं तदामरैः । ततः परं तेषु गतं सुधावधि,
स्वधिक्लियामेव ययों रसान्तरम् ॥ १९॥ अदः० तदा तस्मिन्नवसरे यैरमरैः देवैः अदःकचश्च्योतनवारिविप्लुषः अमुष्य भगवतः कचाः केशास्तेषां श्योतने क्षरणे १२वारिविप्लुषो जलबिन्दून् निपीय पीत्वा चातकितं बप्पीहवदा
चरितं, ततःपरं तेषु अमरेषु सुधावधि अमृतावधि रसान्तर
अपरो रसः, खकीयां धिक्रियां निन्दामेव ययौ प्राप्तः ॥१९॥ १५. महेशितुः सद्गणशालिनो वृष
ध्वजस्य मौलिस्थितितोऽधिकं बभुः। अमुष्य सर्वाङ्गमुपेत्य सङ्गमं,
विशुद्धवस्त्रच्छलगाङ्गवीचयः ॥२०॥ महे० विशुद्धवस्त्रच्छलगानवीचयो विशुद्धेन निर्मलवस्त्रच्छलेन ये गानाः गङ्गासम्बन्धिनो वीचयः कल्लोलाः ते २. अमुष्य भगवतः सर्वाङ्गसङ्गमं उपेत्य प्राप्य मौलिस्थितितो
मस्तकस्थितेरधिकं बभुः, शोभिताः । किंलक्षणस्य अमुष्य १३ भगवतः ? महेशितुः महांश्वासौ ईशिता च महेशिता तस्य
___
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सर्गः] टीकया सहितम् १३३ महेशितुः सतां गणैः समूहैः शालिनः शोभमानस्य वृषध्वजस्य वृषभलांछनस्य, पक्षे महेशितुः ईश्वरस्य सद्गुणशालिनः सन्तो विद्यमाना नंदिवंदिप्रमुखा गणास्तैः शालिनः । ईश्वरगणाश्चामी, ३ तद्यथा-महाकालः पुनर्बाणो लूनबाहुर्वृषाण कः । वीरभद्र सुधीराजो हेरकस्तु कृतालकः ॥ १ ॥ अथ चंडो महश्चंडः कुशंडी कंकणप्रियः । मजनो छागः छागमोघा महाघसः ॥ २ ॥६ महाकपाल आलावः संतापनविलेपनौ । महाकपोलः पेलेजः शङ्खवर्णः शरस्तपः ॥ ३ ॥ उत्कामा की महाजंभः श्वेतपादः खरांडकः । गोपालो ग्रामणी घंटाकर्ण फर्ण कराध्वमौ ।। ४ ॥९ एभिः गणैः शोभमानस्य ईश्वरस्य शिर मे गङ्गाकल्लोलाः स्युः । अत्र तु सर्वांगे वस्त्रछत्रं गङ्गाम्लोल्ला अभूवन्निति विशेषः ॥ २० ॥
कचान्विभोर्वासयितुं सुगन्धयः,
प्रयेतिरे ये जलकेतकादयः । अमीषु ते प्रत्युत सौरभश्रियं,
न्यधुन मोघा महतां हि मङ्गतिः ॥ २१ ॥ कचा० जलशब्देन वालकः केनकादयश्च ये सुगन्धयः पदार्थाः विभोः स्वामिनः कचान् केशान् वासयितुं प्रयेतिरे १८ उपक्रान्ताः । ते कचा अमीषु जलकेनकादिषु प्रत्युत विशेषतः सौरभश्रियं न्यधुनिक्षिप्तवन्तः हि निश्चितं महता. सङ्गतिर्मोघा निःफला न वर्तते, भगवन्तो देहस्य जन्मप्रभृति २१ खभावतः सुगन्धित्वात् केशादिवासनं देवैर्व्यवहारार्थमेव कृतम् ॥ २१ ॥
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जैनकुमारसंभवं
[चतुर्थः पिनद्धकोटीरकुटीरहीरक
प्रभास्य मौलेरुपरि प्रसृत्वरी। प्रतापमेदखिमदां विवस्वतो
ऽभिषेणयन्तीव करावली बभौ ॥२२॥ पिनद्ध० पिनद्धो बद्धः कोटीरो मुकुटः स एव कुटीरं ६ स्थानं, तत्र ये हीरकास्तेषां प्रभा अस्य भगवतो मौलेर्मस्तकस्योपरि प्रसृत्वरी प्रसरणशीला सती बभौ शोभिता । किं कुर्वती? उत्प्रेक्ष्यते प्रतापमेदखिमदां प्रतापेन स्थूलमदां विवखतः ९ सूर्यस्य करावली किरणश्रेणि अभिषेणयन्तीव सेनयाभिसन्मुखं यान्तीव ॥ २२ ॥
सनिष्कलङ्कानुचरः प्रभार्णवं,
विगाह्य नावेव दृशा तदाननम् । शिरः पदं पुण्यजनोचितं जनो,
ददर्श दूरान्मुकुटं त्रिकूटवत् ॥ २३ ॥ १५ सनि० जनो लोकस्त्रिकूटवत् , शिखरत्रययुक्तं, पक्षे त्रिकूट
नामा पर्वतस्तद्वत् , मुकुटं दूराद्ददर्श, किंविशिष्टो जनः ?
सनिष्कलङ्कानुचरः निर्दोषानुचरा निष्कलङ्क नुचरास्तैः सह वर्तते १८ यः स सनिष्कलंकानुचरः । पक्षे निष्कं सुवर्ण तेन सह वर्तते,
या सा सनिष्का तो लंकां अनुचरतीति सनिष्कलङ्कानुचरः । किं
कृत्वा ? प्रभाया अर्णवं समुद्र, तदाननं तस्य भगवतो मुखं नावैव २१ बेडिक येव दृशा अवगाह्य । किंविशिष्टं मुकुटम् ? शिरःपदं
शिरसि मस्तके पदं स्थानं यस्य तत् शिरःपदम् , पक्षे शिरसां २३ शिखराणां पदं स्थानम् । पुनः किंविशिष्टम् ? पुण्यजनोचितं
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सर्ग: 1
टीकया सहितम्
१३५
पुण्याः पवित्रा जनास्तेषां उचितम् । यथा प्रावाहणिको लोको लङ्कासमीपे त्रिकूट पर्वतं पश्यति, तथा भगवतः शिरसि मुकुटं दृष्टवान्, अतो मुकुटत्रिकूटयोः साभ्यम् । मुकुटशब्दो ३ नपुंसकेऽपि ॥ २३ ॥
ललाटपट्टेser पृथौ ललाटिकानिविष्टमुक्तामिषतोऽक्षराणि किम् ? | पर्तिवरे पाठयितुं रतिश्रुतिं,
लिलेख लेखप्रभुपण्डितः स्वयम् ॥ २४ ॥
०
लला • लेखप्रभुपण्डितः लेखा देवास्तेषां प्रभुः स्वाभीन्द्रः ९ स एव पण्डित इन्द्रः, पक्षे लिखनं लेखः तद्विषये प्रभुः समर्थः एवंविधः पण्डितः । पृथौ विस्तीर्णे ललाटपट्टे । ललाटिकानिविष्टमुक्तामिषतो ललाटिका ललाटाभरणं तत्र निविष्टोपविष्ट १२ मुक्ता मौक्तिकमिषात् स्वयं किं अक्षराणि लिलेख, अन्योऽपि लिखने समर्थः पंडितः, पट्टके लिखित्वा पाठयति । किं कर्तुम् ? पतिवरे सुमंगलानन्दे रतिश्रुतिं पाठयितुम् ॥ २४ ॥
उदित्वरं कुण्डलकैतवाद्रवि
द्वयं विदित्वा परितस्तदाननम् ।
क्षितेक्षिते श्रीरिह वज्रिणामपि
१५
त्यजन्यजन्यं विबुधैः फलं जगे ॥ २५ ॥
उदि० विबुधैर्देवदक्षैर्वा तदाननं तस्य भगवतो मुखं परितः कुण्डलकैतवात् कुण्डलयोः कैतवात् मिषात् उदित्वरं उदयनशीलं रविद्वयं सूर्ययुगलं विदित्वा ज्ञात्वा इति अजन्यजन्यं २२
૨
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१३.६
जैनकुमारसंभवं
[ चतुर्थः
अजन्येन उत्पातेन जन्यं जनितं फलं जगे उक्तम् । इतीति किम् ? इह रविद्वये सूर्यद्विके ईक्षिते दृष्टे सति वज्रिणामपि ३ इन्द्राणां श्रीलक्ष्मीः क्षिता क्षयं गता, सूर्यद्वये चन्द्रद्वये च दृष्टे राज्ञां उत्पातः स्यादिति भावः ॥ २५ ॥
उदारमुक्तास्पदमुल्लसद्गुणा, समुज्वला ज्योतिरुपेयुषी परम् । तदा तदीये हृदि वासमासदतेऽक्षरीरिव हावरी ॥ २६ ॥
उदा० तदा तस्मिन्नवसरे हारवल्लरी तदीये हृदि तस्य भगवतो हृदये वासं आसदत् प्राप्ता । केव ! अक्षरश्रीरिव मोक्षलक्ष्मीरिव यथा अक्षरश्रीर्वते दीक्षायां सत्यां तदीये हृदि वासं आसंदयति १२ ‘सिद्धिमिच्छन्ति योगिन' इति भावः । किंविशिष्टा हारवल्लरी उदारमुक्तास्पदं उदाराणां मुक्तानां मौक्तिकानां आस्पदं स्थानम् । पुनः किंविशिष्टा ! उल्लसद्गुणा उल्लसत् गुणो दवरको यस्याः १५ सा उल्लसद्गुणा । पुनः किंविशिष्टा ? समुज्ज्वला निर्मला परं ज्योतिरुपेयुषी, परं प्रकृष्टं ज्योतिः तेजः तं प्राप्ता । अक्षरश्रीः किंलक्षणा ? उदारमुक्तास्पदम् उत् ऊर्ध्व आरो गमनं येषां ते १८ उदारा एवंविधा मुक्ताः सिद्धास्तेषां आस्पदं स्थानम् । पुनः किंलक्षणा ? उल्लसन्तो गुणा ज्ञानदर्शनादयो यस्यां सा उल्लसद्गुणा । पुनः किंविशिष्टा ? परं ज्योतिः परब्रह्मसत्कं २१ तेजःप्राप्ता समुज्ज्वला च ॥ २६ ॥
२३
जगत्त्रयीरक्षणदीक्षितौ क्षितौ, भुजौ तदीयाविति केन नेष्यते ।
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सर्गः] टीकया सहितम् १३७
अवाप हेमाऽपटुसंज्ञमध्यहो,
यदंगदत्वं तदुपासनाफलम् ॥ २७॥ जग० केन पुंसा इति न इयते न मन्यते, अपि तु ३ सर्वेणापि (मन्यते एव)। इतीति किम् ? क्षितौ पृथिव्यां तदीयौ भुजौ जगत्रयीरक्षणदीक्षितौ जगत्रयीरक्षणाय दीक्षितौ, लक्षणया समर्थों वर्तते । हेतुमाह यत् यस्मात् कारणात् हेम ६ सुवर्ण अपटुसंज्ञमपि, अहो इति आश्चर्ये, अंगदत्वं बाहुरक्षत्वं, पक्षे देहदायकत्वं अवाप । किविशिष्टं अंगदत्वम् ! तदुपासनाफलं तयोर्भुजयोः सेवाया फलम् ॥ २७ ॥
प्रकोष्टकन्दं कटकेन वेष्टितं,
विधाय मन्येऽस्य ररक्ष वासवः । सपंचशाखोऽमरभूरुहो यदु
भवस्त्रिलोकीमदरिद्रितुं क्षमः ॥२८॥ प्रको० अहं एवं मन्ये, वासव इन्द्रः अस्य भगवतः प्रकोष्टः कलाचिका तस्याः कन्दं कटकेन कङ्कणेन, पक्षे सैन्येन वेष्टितं १५ विधाय कृत्वा ररक्ष । यदुद्भवः यस्मात् प्रकोष्टकंदादुद्भव उत्पत्तिर्यस्य स यदुद्भवः, स सर्वप्रसिद्धः, पञ्चशाखो हस्तः पक्षे सपंचशाखः पञ्चशाखासहितः अमरभूरुहः कल्पवृक्षस्त्रिलोकी १८ त्रिभुवनं अदरिद्रितुं अदरिद्रीकर्तुं क्षमः समर्थों वर्तते। यस्मात् कन्दात् एवंविधः कल्पद्रुमः स्यात् स कथं न रक्ष्यत इति भावः ॥ ८॥
तलं करस्यास्य परं परिष्कृता
खिलाङ्गसाधोर्यदभूदभूषितम् ।
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१३८
तलं० यत् अस्य भगवतः करस्य हस्तस्य तलं, परं केवलं, अभूषितं अनलङ्कृतं, पक्षे न भुवि उषितं अभूषितं अभूत् । किंविशिष्टस्य भगवतः ? परिष्कृतेन अलङ्कृतेन अखिलेन ६ समस्तेन अङ्गेन साधोर्मनोज्ञस्य तत् श्रियो देव्या वसनाय अवैमि जानामि । देवता भुवि पृथिव्यां भूम्ना बाहुल्येन रतिं निर्वृतिं न यन्ति न प्राप्नुवन्ति, एतावता लक्ष्मीः प्रभोः करतले ९ वसतीति भावः ॥ २९ ॥
१२
जैनकुमारसंभवं
[ चतुर्थः
अवैमि देव्या वसनाय तच्छ्रियो, रतिं न भूम्ना भुवि यान्ति देवताः ॥ २९ ॥
२२
तदीयमुख्य द्युतिभङ्गभीषणं,
विभूषणं तैस्तदभानि दूषणम् ॥ ३० ॥ सुव० वासवैरिन्द्रैस्तस्य भगवतो येषु येषु अपघनेषु १५ अवयवेषु यत् सुवर्णमुक्तामणिभासि सुवर्णैर्मौक्तिकैर्मणिभिश्च भासि देदीप्यमानं भूषणं न्यवेशि निवेशितम् । तैर्वा सवैस्तदीयमुख्यद्युतेर्भङ्गेन भीषणं रौद्रं तत् भूषणं दूषणं अमानि । येषु ३८ प्रभोरवयवेषु भूषणं निवेश्यते, तेन भूषणेन तेषां अवयवानां काचिन्निरुपमा कान्तिराच्छाद्यते, ततो भूषणानां दूषणत्वमिति
भावः ॥ ३० ॥
सुवर्णमुक्तामणिभासि वासवै-, वेशि तस्यापघनेषु येषु यत् ।
यथा भ्रमर्यः कमले विकस्वरे, यथा विहज्यः फलिते महीरुहे ।
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सर्ग: ]
टीका सहितम्
उपर्युपर्यात्तविभूषणे विभौ, तथा निपेतुस्त्रिदशाङ्गनादृशः ॥ ३१ ॥ यथा० त्रिदशाङ्गनादृशो देवाङ्गनादृष्टय आत्तविभूषणे ३ गृहीतालङ्करणे विभौ खामिनि उपरि उपरि तथा निपेतुः पतिताः । यथा भ्रमर्यो विकखरे कमले, यथा विहन्यः पक्षिण्यः फलिते महीरुहे वृक्षे निपतन्ति । पूर्ववृत्ते भूषणानां ६ दूषणत्वमारोपितं, अत्र तु भूषणकृता शोभा आरोपिता परं विचित्रा कविव्यावर्णना, यथा भक्तामरस्तवे 'वक्त्रं क ते' इति वृत्ते चन्द्रबिम्बस्य निन्दा कृता, 'नित्योदयमिति' वृते पुनरपि ९ चन्द्रबिम्बोपमा रोपिता ॥ ३१ ॥
हिरण्यमुक्तामणिभिर्निजश्रिय
चिराच्चितायाः फलिनत्वमाप्यत । अलङ्कृते नेतरि नाकिनां करैः, प्रसाधनाकर्मणि कौशलस्य च ॥ ३२ ॥ हिर० नेतरि स्वामिनि अलङ्कृते सति हिरण्यमुक्तामणिभि- १५ हिरण्यैः सुवर्णैर्मुक्ताभिर्मणिभिश्च चिरात् चितायाः सञ्चिताया निजश्रियः फलिनत्वं सफलत्वं आयत प्राप्तम् । यद्भुहे सुवर्णमुक्तामणयः स्युस्तत्रैव लक्ष्मीर्वसतीति प्रसिद्धिस्ते व १८ लक्ष्मीवास इति भावः । च अन्यत्, नाकिनां देवानां करैर्हस्तैः प्रसाधनाकर्मणि मण्डनविधौ कौशलस्य फलिनत्वं फलवत्वं प्राप्तम् ॥ ३२ ॥
अथानयत्तस्य पुरः पुरन्दरः, कृताचलेन्द्र भ्रममभ्रमूपतिम् ।
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१२
२१
२३
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१४०
जैनकुमारसंभवं [चतुर्थः व्यसिसयद्यत्कटकान्मदाम्बुभिः,
क्षरद्भिराबद्धजवा यमी न कम् ॥ ३३ ॥ ३ अथा० अथानन्तरं पुरन्दरः तस्य पुरो अग्रे अभ्रमूपति ऐरावणं __ आनयत् । किंविशिष्टं अभ्रमूपतिम् ? कृताचलेन्द्रभ्रमं कृतो
ऽचलेन्द्रस्य हिमाचलस्य भ्रमो येन स कृताचलेन्द्रभ्रमस्तं कृता६ चलेन्द्रभ्रमं, श्वेतवर्णत्वात् । यमी यमुना कं पुरुषं न व्यसिस्मयत् कं न विस्मापयतिस्म अपि तु सर्वमेव । किंविशिष्टा यमी
यत्कटकात् यस्य कपोलात् , पक्षे कटकात् पर्वतमध्यप्रदेशात् ९क्षरद्भिर्मन्दांबुभिर्मन्दजलैः आ सामस्त्येन बद्धजवा बद्धवेगा। हिमवतो गङ्गा प्रभवति नतु यमुनेत्याश्चर्यम् ॥ ३३ ॥
अगुप्तसप्तांगतयाप्रतिष्ठित
स्तरोनिधि नविधिस्फुरत्करः। प्रगूढचारः सकलेभराजतां,
दधौ य आत्मन्यपरापराजिताम् ॥ ३४ ॥ १५ अगु० य ऐरावण आत्मनि विषये अपरापराजिताम् अपरैः
अन्यैः अपराजितां अनिर्जितां सकलेभराजतां सकलेषु समस्तेषु इभेषु हस्तिषु राजतां राजत्वं दधौ । किंलक्षणो ऐरावणो १८ राजा च ? अगुप्तसप्तांगतया प्रतिष्ठितः । अगुप्तानि प्रकटानि
शुंडापुच्छमेण्टपादाश्च सप्तांगानि, पक्षे खाम्यमात्यसुहृत्कोश
राष्ट्रदुर्गबलानि चेति सप्त राज्यांगानि तद्भावेन प्रतिष्ठितः। पुनः २१ किंलक्षण ऐरावणः ? तरोनिधिस्तरोवेगः पक्षे बलं तस्य निधिः,
पुनः किंलक्षणः ? दानविधिस्फुरत्करः, दानं मदजलं फलवत्वं २३ तद्विधौ स्फुरन् करः शुंडादण्डः, पक्षे दानवितरणं तस्य विधी
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सर्गः] टीकया सहितम्
१४१ स्फुरन् करो हस्तो यस्य स दान विधिस्फुरत्करः । पुनः किंलक्षणो ऐरावणः ? प्रगूढचारः प्रगूढश्वारो गतिर्यस्य सः, पक्षे प्रगूढाधाराश्चरपुरुषा यस्य स प्रगूढचारः ।। ३४ ॥ क्रमोनतस्तंभचतुष्टयांचितः,
शुभंयुकुंभद्वितयं वहन् पुरः। गवाक्षकल्पश्रुतिरग्रदन्तको,
जगाम यो जंगमसौधतां श्रियाः॥ ३५ ॥ क्रमो० य ऐरावणः श्रियो लक्ष्म्या जङ्गमसौधतां चलदावासत्वं जगाम । किंविशिष्टः ऐरावणः सौधं च ? क्रमोन्नतस्तंभचतु-९
यांचितः क्रमाश्चरणा एवोन्नता उच्चैस्तरास्तंभास्तेषां चतुष्टयेन युक्तः, पुनः किंकुर्वन् ! पुरोऽग्रे शुभंयुः शुभसंयुक्तं कुंभद्वितयं कुंभस्थलयुगलं वहन् , पुनः किंविशिष्टः ? गवाक्षकल्पश्रुतिर्ग-१२ वाक्षसदृशकर्णः। अग्रदन्तकः अग्रे दन्ता एव दन्तका यस्य । सौधमपि क्रमेण उन्नतस्तंभचतुष्टयांचितं स्यात्, पुरः कुंभद्वितयं कलशद्वितयं वहति गवाक्षयुक्तं स्यात्, अग्र्याः प्रधाना १५ दन्तका घोटकाकारकाष्ठानि यत्र तत् एवंविधं च स्यात्, एवं हस्तिसौधयोः सादृश्यं ज्ञेयम् ॥ ३५॥
वृषध्वजेशानविभोः पवित्र्यते,
सदासनं किं मम नो मनागपि । चटूक्तिमाद्यस्य हरेः प्रमाणय
निवेति तं वारणमारुरोह सः॥ ३६॥ वृष० स भगवान् वारणं गजमारुरोह चटितः, किं कुर्वन् ? २२
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१४२
जैनकुमारसंभवं [चतुर्थः उत्प्रेक्ष्यते-आद्यस्य हरेः सौधर्मेन्द्रस्य इतिवदुक्तिं चाटुवचनं प्रमाणयन्निव प्रमाणं कुर्वन्निव । इतीति किम् ? हे वृषभध्वज ३ त्वया ईशानविभोरीशानेन्द्रस्य आसनं सदासनं पवित्र्यते पवित्रीक्रियते, ममासनं मनागपि स्तोकमपि किं नो पवित्र्यते, ईशानेन्द्रस्य वाहने वृषभः, भगवानपि वृषभध्वज इति ६ भावः ॥ ३६॥
शरद्घनः कांचनदण्डपाण्डुरा
तपत्रदंभात्तडिता कृताश्रयः । जनैरदानेति जुगुप्सितो जिनं,
न्यसेवताध्येतुमुदारतामिव ॥ ३७॥ शर० कांचनदण्डपाण्डुरातपत्रदंभात् कांचनस्य दण्डो १२ यस्य तत् काञ्चनदण्डं, एवंविधं पाण्डुरातपत्रं श्वेतच्छत्रं तस्य दम्भात् तडिता विद्युता कृताश्रयः सन् शरद्घनः शरत्कालमेघः
यं भगवन्तं न्यसेवत, सेवते स्म । सुवर्णवणे विद्युत्सदृशः छत्र १५च मेघसदृशमिति । किं कर्तुम् ? उत्प्रेक्ष्यते-उदारतां औदार्य
गुणमध्येतुं शिक्षितमिव । किंलक्षणः शरद्घनः ? जनैलोंकैरदाता
कृपण इति जुगुप्सितो निंदितः गर्हितः 'गर्जति शरदि न १८वर्षति' इति वाक्यात् ॥ ३७॥
विहाय नूनं शशिनं कलंकिनं,
प्रकीर्णकच्छमधरः करोत्करः। शुचिं बभाजोभयतस्तदाननं,
- विधुं विधाय प्रणतिं मुहुर्मुहुः ॥ ३८ ॥ २३ विहा० नूनं निश्चितं कलंकिनं कलंकयुक्तं शशिनं चन्द्र
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सर्गः] टीकया सहितम् विहाय त्यक्त्वा करोत्करः किरणसमूहः मुहुः २ वारं २ उभयतः द्वयोः पार्श्वयोः प्रणति प्रणामं विधाय कृत्वा शुचिं पवित्रं तदाननं तस्य खामिनो मुखं विधु चन्द्रं बभाज, ३ सेवते स्म । किंविशिष्टः करोत्करः ? प्रकीर्णकछद्मधरः प्रकीर्णकयोश्चामरयोश्छद्मधरतीति प्रकीर्णछद्मधरः ॥ ३८ ॥
विमुक्तवैरा मृदुतिग्मताजुषः, - सुराऽसुराः खोचितचिह्नभासुराः । प्रभुं परीयुः शशिभावतोरिवा____ शवो गोत्रमुदारनंदनम् ॥ ३९ ॥ विमु० सुरासुरा देवदानवाः प्रभुं खामिनं परीयुः परिवत्रुः । किंलक्षणाः सुरासुराः ? विमुक्तवैरा परस्परं प्रीतिभाजः । पुनः किंलक्षणाः सुरासुरा ? मृदुतिग्मताजुषः, मृदुता सौकुमार्य १२ तिग्मता तीव्रत्वं जुषन्ते सेवन्ते इति मृदुतिग्मताजुषः । पुनः किंलक्षणाः ? खोचितचिन्हमासुराः खस्य आत्मनः उचितानि योग्यानि चूडामणिफणिगरुडेवजेतहकलससीहअमेय इत्यादि १५ चिह्नानि लांछनानि तैर्देदीप्यमानाः । के इव? शशिभाखतोचन्द्रसूर्ययोः अंशवः किरणा इव । यथा शशिभाखतोः किरणा दिवो गोत्रं मेरुपर्वतं परियन्ति परिवृण्वन्ति । किंविशिष्टं प्रभु १८ मेरं च ? उदारनन्दनं उदारं नन्दनं समृद्धिकरं च, मेरुपक्षे . उदारं नंदनं वनं यस्य स तं, शशिभाखतोः करा अपि मृदुतिग्मताजुषो भवन्ति ॥ ३९ ॥ प्रभुः प्रतस्थेऽथ बुधे स्वधैर्यतः,
समेधयन् रक्तिविरक्तिसंशयम् ।
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जैनकुमारसंभवं [चतुर्थः न मारतारुण्यविभुत्वयोगजा
भिमानघोरासवघूर्णितेक्षणः॥४०॥ ३ प्रभुः० अथानन्तरं प्रभुः श्रीऋषभदेवः प्रतस्थे परिणेतुं चलितः । किं कुर्वन् प्रभुः । बुधे विदुषि खधैर्यतः आत्मीयधीरत्वात् रक्तिविरक्तिसंशयं रागवैराग्यसंदेहं समेधयन् ६ सामस्त्येन वर्धयन् । पुनः किंलक्षणः प्रभुः ? न मारतारुण्यविभुत्व
योगजाभिमानघोरासवर्णितेक्षणः, मारः कन्दर्पः तारुण्यं यौवनं विभुत्वं प्रभुता तेषां योगादुत्पन्नो योऽभिमानरूप एव घोरो ९ रौद्रो आसवो मदिरा तेन न पूर्णितेक्षणः; न घूर्णितलोचन इत्यर्थः ॥ ४०॥
अमाति लावण्यभरे खभावतो
ऽप्यमुष्य देहे किमुतोत्सवे सदा । स्थितानुपुष्टं लवणं सुरांगनो
चितं समुत्तारयतिस काचन ॥४१॥ १५ अमा० काचन सुराना अनुपृष्टं भगवतोऽनुपश्चात् स्थिता __ सत्ती लवणं उचितं योग्यं समुत्तारयति स्म । क सति : अमुष्य . देहे खभावतोऽपि लावण्यभरे लावण्यसमूहे आभाति सति, १८ तदा उत्सवे किमुत किमुच्यते ॥ ४१ ॥
वरस्य दृष्टान्तयुतं पुरस्सरी,
सुरीषु यं यं धवलैर्गुणं जगौ। न तत्र तत्र खमवेत्य किं शची, .
शुशोच हीनोपमयापराधिनम् ॥ ४२ ॥
२२
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सर्गः] जैनकुमारसंभवं
१४५ वर० शची इन्द्राणी सुरीषु देवीषु पुरःसरी अग्रेसरी सती वरस्य श्रीऋषमदेवस्य धवलैः कल्पद्रुमकामधेनुचिंतामणिकामकुम्भप्रभृतिदृष्टान्तयुतं यं औदार्यधैर्यगाम्भीर्यमाधुर्यादिगुणं जगौ । गायति म, तत्र तत्र हीनोपमायां खं अपराधिनं अवेत्य ज्ञात्वा (किं !) न शुशोच । अपि तु शोचते स्म ॥ १२ ॥
फलानि यासामशनं धुभूरुहां,
सुधारसैः पानविधिस्तदुद्भवैः । उलूलगानैः प्रमदः सुधाभुजां,
भुजान्तरीयोऽपि मुमूर्छ कौतुकम् ॥४३॥ १ फला० यासां देवांगनानां द्युभूरुहां कल्पवृक्षाणां फलानि अशनं भोजनं वर्तते, यासां सुधारसैरमृतरसैः पानविधिः स्यात् । तदुद्भवैः ताभ्यो देवाननाभ्यः उद्भवैः जातः उलूलगानैर्धवल-१२ गानैः सुधाभुजां देवानां भुजान्तरीयोऽपि हृदयसंबध्यपि प्रमदो हर्षः मुमूर्छ मूछों प्राप । तत्कौतुकं ज्ञेयम्-भुजान्तरं हृदयं दृढं वर्ण्यते, तज्जातप्रमदोऽपि दृढ एवास्तु, दृढस्य च मूर्छा५ कथमिति अपिशब्दो द्योतयति । कोऽर्थः ? अमृतरसभोजिनीभ्यः अमृतरसपायिनीभ्यो देवांगनाभ्यो जाता धवला अतिअमृतमयाः स्युः । सुधाभुजां अमृतभोजिनां प्रमदोऽपि मूच्छा ।। कथमामोति ? परमेवंविधे सत्यपि धवलैर्यत्प्रमदो हर्षों मुमूर्छ, तत्कौतुकं ज्ञेयम् । पक्षे मुमूर्च्छ वृद्धि प्राप्त इति भावः । देवानां फलाशनं. अमृतपानं, देवानामपि सुधाभोजित्वं लोकरून्या ज्ञेयम् , अन्यथा कावलिकाहारस्य निषिद्धत्वात् ।। ४३ ॥ १॥
जै० कु. १०
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१४६
टीकया सहितम् [चतुर्थः हरौ पदातित्वमिते जगत्रयी__पतौ सितेभोपगते सुरैः क्षणम् । किमेष एव घुसदीशितेत्यहो,
वितर्कितं च क्षमितं च तत्क्षणम् ॥४४॥ हरौ० हरौ इन्द्रे पदातित्वं पादचारित्वं इते प्राप्ते सति ६ जगत्रयीपती श्रीऋषभदेवे सितेभोपगते ऐरावणाधिरूढे सति
सुरैर्देवैः । अहो इति आश्चर्ये, क्षणं इति वितर्कितं ईदृशं विचारितम् । इतीति किम् ? एष एव ऐरावणाधिरूढो द्युसदीशिता ९इन्द्रः, च पुनः, तत्क्षणं च क्षमितं क्षाम्यतेस। कोऽर्थः ! इन्द्रः खर्लोकस्येव खामी, श्रीऋषभदेवस्तु त्रिलोकाधिपतस्तत्र इन्द्रभ्रान्ति ज्ञात्वा देवैः क्षमितमिति भावः ॥ ४॥
समग्रवाग्वैभवघसरः सर
ध्वजवजस्य बनिरंबराध्वनि ।
अवाप्तमूर्छः स्वयमस्तु मूञ्छितं, १५ क्षमः किमुजीवयितुं प्रभो सरम् ॥४५॥
. समग्र० लालतालतान्तिकं कफडहयतीति लोकोक्तपंचशब्दरूपस्य स्मरध्वजवजस्य वादिनसमूहस्य ध्वनिः अम्बराध्वनि १५ आकाशमार्गे स्वयं अवाप्तमूर्छः सन् प्रभौ श्रीऋषभदेवविषये
मूच्छितं मरं कन्दर्प उत्प्राबल्येन जीवयितुं कि क्षमः अपि तु नैव । खयंप्राप्तमूर्छः कथमन्यमूञ्छितं जीवयितुं समर्थः स्यात्,
परंवादिनविशेषणे मूर्छाशब्देन वृदिशैंया, मच्छितं सरमित्यत्र २२ मूछितं अचेतनत्वं प्राप्तमिति, एतावता वाघरवं श्रुत्वा भगवतो
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सर्ग: ]
जैनकुमारसंभव
१४७
हृदि कामो नोत्पन्न इति भावः । किंलक्षणः ध्वनिः ? समग्रवाग्वैभवघस्मरः सर्ववचनविलासस्य घस्मरो भक्षकः । स्मरध्वजानि वाद्यानि, स्मरस्य ध्वजाश्चिह्नानि वा, तेषां व्रजः समूहः स्मरं ३ जीवयितुं युक्तमपक्रमते परं स एव अवाप्तमूर्च्छऽभूत् ततो मूर्च्छितं स्मरं कथं जीवयितुं क्षमः स्यादिति व्यंग्यम् ॥ ४५ ॥
सुपर्वगन्धर्वगणादुणावलीं, पिबन्निजामेव न सोऽनुषत्तराम् । अभूत्पुनर्न्यसुख एव दोष्मतां,
पा स्वकोशे परहस्तगे न किम् ॥ ४६ ॥
सुप० स भगवान् सुपर्वगन्धर्वगणात् देवगन्धर्वसमूहात्, निजामेव गुणावलीं आत्मीयामेव गुणश्रेणिं पिबन् सन् अनुषतरां न अतिशयेन अनुष्टा, पिबन्निति अत्यादरात् श्रवणं पान - १२ मुच्यते । पुनः परं न्यग्मुख एव अधोमुख एवाभूत्, दोष्मतां बलवतां खकोशे आत्मीयभाण्डागारे परहस्तगे अन्यहस्ते गते सति किं त्रपा लज्जा न, अपि तु स्यादेव, स्वकीयाः सारभूता १५ गुणाः यदि परहस्तगताः स्युस्तदा कथं त्रपा न स्यादिति कवेर्भावः ॥ ४६ ॥
मुदश्रुधारा निकरैर्घनायिते, सच्चये कांचनरोचिरुर्वशी ।
प्रणीतनृत्या करणैरपप्रथतडिल्लताविभ्रममभ्रमण्डले ॥ ४७ ॥
मुद० कांचनरोचिरुर्वशी देवनर्तकी अभ्रमंडले आकाश- २२
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टीकया सहितम् [चतुर्थः मण्डले तडिल्लताविप्रमं विद्यदल्लीममं अपप्रथत् विस्तारयति स्म । किंलक्षणा उर्वशी ! करणैः प्रणीतनृत्या कृतनाटका । क ३ सति ! अभ्रमंडले घुसञ्चये देवसमूहे मुदश्रुधारानिकरैः हर्षाश्रुजलधारासमूहैः धनायिते मेघवदाचरिते सति ॥ १७ ॥ विलग्नदेशस्तनुरुन्नतस्तन
द्वयातिभारव्यथितोऽस्य भाजि मा । घनाङ्गहारौघविधूर्णितं वपु
विलोक्य रांभं त्रिदशा इदं जगुः ॥४८॥ ९ विल० त्रिदशा देवाः रांभं रंभाया इदं रांभं वपुर्धनांगहारौपविघूर्णितं घनः बहुभिः अङ्गहाराणां अङ्गविक्षेपानां ओधैः
समूहैर्विपूर्णितं प्रामितं विलोक्य इदं जगुः । इदमिति किम् ? १२ अस्य वपुषो विलमदेश उदरप्रदेशः तनुः कृशः सन् उन्नतस्त
नद्वयातिभारव्यथित उच्चैस्तरस्तनद्वयस्यातिभारेण पीडितो
माऽभाजि मा भज्यताम् ॥ ४८॥ १५ . प्रकाशमुक्तास्रगसंकुचत्कुच
द्वयं घृताच्या नटने निरीक्ष्य कः। कृती न कुंभावतिगूढमौक्तिका
बभर्सयजंभनिशुंभिकुंभिनः ॥४९॥ प्रका० कः कृती घृताच्या देवनर्तक्या नटने नृत्ये प्रकाशमुक्तासगसंकुचत् प्रकटमौक्तिकमालाभिरसंकुचत् कुचद्वयं २१ स्तनयुग्मं निरीक्ष्य दृष्ट्वा जंभनिशुंभी इन्द्रः तस्य कुंभिनो
हस्तिनोऽतिगूढमौक्तिको कुंभौ न अभय॑त् न निन्दति । २३ अपि तु सर्वः कोपि ॥ १९ ॥
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सर्गः] जैनकुमारसंभवं तिलोत्तमा निर्जरपुंजरंजना
र्थिनी कलाकेलिगृहं ननर्त यत् । सुरैस्तदंगद्युतिरुद्धदृष्टिभिः,
प्रबभूवभूवे तदवेक्षणेऽपि न ॥५०॥ तिलो. तिलोत्तमा यत् ननर्त यत् नृत्यं चकार । किलक्षणा तिलोत्तमा ? निर्जरपुंजरंजनार्थिनी देवसमूहस्य रंजने ६ आर्थिनी । पुनः किंलक्षणा ? कलानां केलिगृहं क्रीडास्थानं अत्र रूपकात् गृहशब्दस्य न स्त्रीत्वम् । तदंगद्युतिरुद्धदृष्टिभिस्तस्यास्तिलोत्तमाया अङ्गकान्त्या रुद्धलोचनैः सुरैः तदवेक्षणेऽपि तस्य ९ नृपस्यावलोकनेऽपि न प्रबभूवभूवे न समर्थीभूयते स्म ॥५०॥
अचालिषुः केऽपि पदातयः प्रभोः,
पुरो विकोशीकृतशास्त्रपाणयः। अमूमुहत्कि विबुधानपि भ्रमः,
स जन्ययात्रेत्यभिधासमुद्भवः ॥५१॥ अचा० केऽपि देवाः प्रभोः खामिनः पुरोऽग्रेऽचालिषुश्च १५ लिताः। किंलक्षणा सुराः ? विकोशीकृतशस्त्रपाणयः, प्रत्याकाररहितशस्त्रहस्ताः । स सर्वप्रसिद्धो जन्ययात्रेत्यभिधासमुद्भवो विवाहयात्रोत्पन्नः, पक्षे संग्रामयात्राया उत्पन्नो भ्रमः, किं १८ विबुधान् देवान् विदुषोऽपि वा किं अमूमुहत् मोहयति स्म किम् इति संशयः ॥ ५१॥
प्रसिद्ध एकः किल मङ्गलाख्यया, ... ग्रहाः परेऽष्टावपि मङ्गलाय ते ।
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१५०
१२
टीकया सहितम्
इतीरयंतीव सुरैः करे धृता, पुरोगतामस्य गताष्टमङ्गली ॥ ५२ ॥
३ प्रसि० सुरैर्देवैः करे धृता 'दप्पण १, भद्दासण २, बद्धमाण ३, वरकलस ४, मच्छ ५, सिरिवच्छ ६, । सत्थिय ७ नंदावत्ता ८, कहिया अठ्ठठ्ठमंगलगा' ॥ १ ॥ एवंविधा आग६ मोक्ता अष्टमंगली अस्य भगवतः पुरोगताम् अग्रेसरत्वं गता प्राप्ता । उत्प्रेक्षते इतीरयंतीव ईदृक् कथयंतीव । इतीति किम् ? किल इति सत्ये, मंगलाख्यया एको ग्रहः प्रसिद्धो वर्तते, परे ९ आदित्याद्या अष्टावपि ग्रहास्ते तव मङ्गलाय भवन्तु ॥ ५२ ॥
प्रबुद्धपद्मानननादिषट्पदा, उदारवृत्ताः सुरसार्थतोषिणः ।
पुरोऽस्य कल्याणगिरिस्थिता स्तुतिव्रता दधुनकतटाकसौहृदम् ॥ ५३ ॥
[ चतुर्थ::
प्रबु० स्तुतिव्रता भटा अस्य जिनस्य पुरोऽग्रे नाकतटाक१५ सौहृदं नाकतटाकानां स्वर्गसत्कसरोवराणां सौहृदं सादृश्यं दधुः । किंलक्षणाः स्तुतित्रताः ? प्रबुद्धपद्मानननादिषट्पदाः, प्रबुद्धपद्मसमानेषु आननेषु मुखेषु नादिनः शब्दायमानाः षट्पदाः १८ छंदोविशेषा येषां ते प्रबुद्ध पद्मानननादिषट्पदाः । पुनः किंल० उदारवृत्ता उदाराणि वृत्तानि कवित्वानि येषां ते उदारवृत्ताः । पुनः किं० ? सुरसार्थतोषिणः, सुरसैः शोभनरसैरथं तोषयन्ति इत्येवंशीलाः सुरसार्थतोषिणः । पुनः किंल० ? कल्याणगिरि२२ स्थिताः शुभवाचिवाण्यां स्थिताः । नाकतटाकस्याथ विशेषणानि,
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सर्गः] जैनकुमारसंभवं किंलक्षणा नाकतटाकाः ! प्रबुद्धपद्मा विकसितकमला नाननादिषट्पदा अपितु नादिषट्पदा गुंजद्ममराः, द्वौ नौ प्रकृतमर्थ गमयतः, उदारवृत्ताश्च वृत्ताकाराः सुरसार्थान् ३ देवसमूहान् तोषयन्तीत्येवंशीलाः, कल्याणगिरौ सुवर्णाचले स्थिताः ॥ ५३॥
अभर्मभृत्यश्चलितेऽर्हति प्रभाः,
प्रभाकरः स्वा विनियुक्तवांस्तथा । यथा वृथाभावमवाप नो दिवा,
न तापमापत्सत जान्यिका अपि ॥ ५४॥ ९ अभ० प्रभाकरः सूर्यः अर्हति श्रीऋषभे चलिते सति खा आत्मीयाः प्रभाः तथा विनियुक्तवान् व्यापारितवान् , किंलक्षणः प्रभाकरः ? अभर्मभृत्यः सेवकः । यथा दिवा. दिनं १२ वृथाभावं न अवाप न प्राप्तः, जान्यिका अपि तापं न आपत्सत न प्राप्तवन्तः ॥ ५४॥
तथा प्रसन्नत्वमभाजि मार्गगे,
जगत्रयत्रातरि मातरिश्वना । यथा दृगान्ध्यं न रजस्तनूमतां,
चकार धर्माबु च चिल्किदं वपुः ॥ ५५॥ १८ तथा० मातरिश्वना वायुना जगत्रयत्रातरि जगत्रयरक्षके मार्गगे सति तथा प्रसन्नत्वममाजि, यथा रजः तनूमतां प्राणिनां हगान्ध्यं न चकार । च अन्यत् । घाबु धर्मजलं च वपुः शरीरं चिल्किदं पित्सिलं न चकार ॥ ५५॥ .
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९
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२२.
टीकया सहितम्
क्वचिभिषिक्ता द्विरदैर्मदांबुभिः, क्वचित्खुरैरुद्धृतरेणुर्खताम् । सत्किटैः क्वचिदापिता महस्तमश्च नीलातपवारणैः क्वचित् ॥ ५६ ॥
क्वचित्खगानां न पदापि संगता, क्वचिद्रथैः क्षुण्णतलाऽरधारया । समाशया स्वं क्षितिरक्षतं जगौ,
जगत्सु माध्यस्थ्यगुणं जगत्प्रभोः ॥ ५७ ॥
क्वचि० क्षितिः पृथ्वी जगत्सु स्वर्ग ( मर्त्य ) पातालेषु मध्ये स्थितत्वात् माध्यस्थ्यगुणं पक्षे साम्यरूपं माध्यस्थगुणं खं आत्मीयं जगत्प्रभोः श्रीऋषभदेवस्य अक्षतं जगौ । किंलक्षणा १२ क्षितिः ? क्वचिद्दिरदैर्गजैर्मद बुभिर्मदजलैर्निषिक्ता सिक्का । क्वचित् अर्वतां तुरगाणां खुरैरुद्धृतरेणुरुत्पाटितरजाः । कचित् द्युसत्किरीटैः देवमुकुटैर्महस्तेजः आपिता प्रापिता । च १.५ अन्यत्, क्वचित् नीलातपवारणैः कृष्णच्छत्रैः तमः अन्धकारं प्रापिता ॥ ५६ ॥ क्वचित् खगानां विद्याधराणां पदापि चरणेनापि न संगता न मिलिता । क्वचित् रथैः अरधारया १.८ चक्रधारया क्षुण्णतला । समाशया समाभिप्राया ॥५७॥ युग्मम् ॥ कृपापयः पुष्करिणीं दृशं न्यधादसौ स्वभावादपि यत्र नाकिनि ।
साढौष्मायत देवसंहतौ,
मयि प्रसादाधिकता प्रभोरिति ।। ५८ ।।
[ चतुर्थः
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वर्ग: ]
जैनकुमारसंभव
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कृपा० असौ भगवान् यत्र नाकिनि यस्मिन् देवे खभावादपि कृपापयः पुष्करिणीं कृपाजलवापीं दृशं न्यधात् स देवौ देवसंहती देवसमूहे इति अमुना प्रकारेण बाढमौष्मायत गर्व ३ अधत्त - प्रभोः खामिनो मयि विषये प्रसादाधिकता प्रसादस्याधिक्यं वर्तते ॥ ५८ ॥
विचित्रवाद्यध्वनिगर्जितोर्जितो, यथा यथासददसौ गुणैर्घनः । तथा तथानंदवने सुमंगलासुनंदयोरन्दसखायितं हृदा ॥ ५९ ॥
विचि० असौ भगवान् विचित्रवाद्यध्वनिगर्जितोर्जितः विचित्रवाद्यध्वनय एव गर्जितानि तैः ऊर्जितो बलवान् सन्, यथा यथा आसीदत्, आसन्न आगतः । किंविशिष्टाऽसौ ? १२ गुणैर्धनो बहुलो मेघो वा, तथा तथा सुमंगलासुनंदयो: हृदा आनंदवने अब्दसखायितं मयूरवदाचरितम् ॥ ५९ ॥
तदान्यबालावदुपेयिवत्प्रभो - दिदृक्षयोत्पिंजल चित्तयोस्तयोः ।
शची नियुक्त खसखी नियंत्रणा, बहिर्विहारेऽभवदर्गलायसी ॥ ६० ॥
දී
j
तदा तदा तस्मिन्नवसरे तयोः सुमंगला सुनन्दयोः अन्यचालावत् उपेयिवत्प्रभोरागतस्य स्वामिनो दिदृक्षया द्रष्टुमिच्छया उत्पिंजल चित्तयोराकुलमनसोः सत्योर्बहिर्विहारे बहिर्निंगरणे शची नियुक्तखसखी नियंत्रणा
शच्या
इन्द्राण्या नियुक्ता २२.
૧૮
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१५४
दीकयासहितम्
[चतुर्थ
मुक्ता याः खसख्यस्तासां नियंत्रणा अयसी लोहमयी, अर्गला
अभवत् ॥ ६०॥ ३. कलागुरुः स्वस्य गतौ यथाशयं,
समूह्यमानः पुरुहूतदन्तिना । मुखं मुखश्रीमुखितेंदुमण्डलः,
स मण्डपस्याप दुरापदर्शनः ॥६१॥ कला० स भगवान् मण्डपस्य मुखं आप प्राप । किंविशिष्टो भगवान् ? पुरुहूतदन्तिना ऐरावणेन यथाशयं यथाभिप्राय ९ समूह्यमानो धार्यमाणः । हेतुमाह-पुनः किंविशिष्टो भगवान् ! खस्य गतौ आत्मनः गतौ कलागुरुः कलाचार्यः । ऐरावणेन
प्रभोः पार्चे गतिः शिक्षिता अतः प्रभुः तस्य कलागुरुः । १२ पुनः किंविशिष्टः ? मुखश्रीमुखितेन्दुमण्डलः, मुखश्रिया मुखितं लक्षणया जितं इन्दुमण्डलं चन्द्रमण्डलं येन स मुख
श्रीमुखितेन्दुमण्डलः, दुरापदर्शनः दुर्लभदर्शनः ॥ ६१ ॥ १५ अथावतीर्येभविभोः ससंभ्रम,
प्रदत्तबाहुः पविपाणिना प्रभुः। मुहूर्तमालंब्य तमेव तस्थिवान् ,
श्रियः स्थिरस्पतिवचः सरन्निव ॥ ६२ ॥ अथा० अथानन्तरं प्रभुः श्रीऋषभदेवः पविपाणिना इन्द्रेण ससंभ्रमं प्रदत्तबाहुः सन् इभविभोः ऐरावणात् अवतीर्य २१ तमेव इन्द्रं आलंब्य मुहूर्त तस्थिवान् स्थितः । उप्रेक्ष्यते,
इतिवचः स्मरन्निव, इतीति किम् ? स्थिरस्य श्रियः स्युरिति २३वचनात् ॥ ६२ ॥
१४
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सर्गः] जैनकुमारसंभवं १५५
न दिव्ययाऽरंजि स रंभया प्रभु,
हरेनटः शिक्षितनृत्यया यथा । नभस्खता नर्तितयाग्रतोरण
स्थया यथाऽरण्यनिवासया तया ॥ ६३ ॥ न० स प्रभुर्दिव्यया देवलोकसत्कया रंभया तथा न अरंजि । किंलक्षणया रंभया ! हरेरिन्द्रस्य नटैः शिक्षितनृत्यया यथा ६ नभखता वायुना नर्तितयाऽग्रतोरणस्थया तोरणाग्रस्थयाऽरण्यनिवासया, रंभया कदल्यारंजि ॥ ६३ ॥
समानय स्थालमुरुस्तनस्थले,
निधेहि दूर्वा दधि चात्र चित्रिणि । सुलोचने संचितु चन्दनद्रवं,
शरावयुग्मं धर बुद्धिबन्धुरे ॥ ६४॥ १२ गृहाण मंथं गतिमन्थरे युगं,
जगजनेष्टे मुशलं च पेशले । क्षणः समासीदति लग्नलक्षणः,
कियच्चिरं द्वारि वरोऽवतिष्ठताम् ॥ ६५ ॥ इहोगशस्त्रे कुसुमबजे निजे,
जनोष्मणा म्लानिमुपागते हलाः। १८ महाबलेनाऽपि मनोभुवा भवां
तकेऽत्र देवे प्रभविष्यते कथम् ॥ ६६ ॥ घनत्वमापाद्य मरुन चन्दन
द्रवस्य मुष्णाति किमेष सौरभम् ।
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[चतुर्थः
टीकयासहितम् ऊलूलपूर्वाय वरार्थकर्मणे,
विमुच्यतां तत्करकंठकुंठता ॥ ६७॥ इतीरयंतीवितरेतरां घुस- द्वधूषु काचित् करपाटवांचिता। विलोलकौसुंभनिचोलशालिनी,
प्रभातसंध्येव समग्रकर्मणाम् ॥ ६८॥ मणीमयस्थालधृतार्घसाधना,
स्त्रियोचिताया न वशंवदा हियः । वराभिमुख्यं भजति स ससया, न कोऽथवा खेऽवसरे प्रभूयते ॥ ६९ ॥
पभिः कुलकम् ॥ १२ समा० काचित् स्त्री सस्मया सगर्वा सती वराभिमुख्यं भजति
स्म वरस्य सन्मुखत्वं सेवते स्म । वा अथवा खीये आत्मीये
अवसरे को न प्रभूयते समर्थो भवति अपितु सर्वः कोऽपि । किं१५ लक्षणा स्त्री ? करपाटवांचिता हस्तलाघवेन युक्ता, पुनः किंल. विलोलकोसुंभनिचोलशालिनी, लोचनचंचलेन कौसुंभेन निचो
लनेन प्रच्छदपटेन शालिनी शोभमाना। उत्प्रेक्ष्यते-समग्रकर्मणां १८प्रभातसन्ध्येव, पुनः किंविशिष्टा स्त्री ? मणिमयस्थाले धृतार्घसा
धना धृता?पकरणा । पुनः किंवि० ? स्त्रियोचितायाः स्त्रीयोग्याया ह्रियो लजाया न वशंवदा न वश्या । कासु २१ सतीषु ? धुसद्वधूषु देवांगनासु इतरेतरां परस्परं इतीरयन्तीषु
कथयन्तीषु सतीषु । इतीति किम् ? हे उरुस्तनस्थले उरूणी २३ गुरुणी स्तनस्थले यस्याः सा उरुस्तनस्थला तस्याः संबोधनं
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सर्गः ]
जैनकुमारसंभवं
१५७
क्रियते त्वं स्थालं समानय । हे चित्रिणि वक्रदन्तत्वात् स्तनयोः समत्वात् मधुगन्धत्वात् वक्रकेशत्वाच्च चित्रिण्युच्यते, चित्रिणी आश्चर्यकारिणी वा तस्याः संबोधने हे चित्रिणि ! त्वं अत्र ३ स्थले दूर्वा, च अभ्यत्, दधि निधेहि धेहि निवेशय । हे सुलोचने ! शोभनानि लोचनानि यस्यास्तस्याः संबोधनम् । त्वं चन्दनद्रवं संचितु संचितं कुरु । हे बुद्धिबन्धुरे ! ६ बुद्ध्या बन्धुरा मनोज्ञा तस्याः संबोधनम् । त्वं शरावयुग्मं धर । हे गति मंथरे ! गत्या मंथरा अलसा तस्याः संबोधनम् । त्वं मंथं मन्थानकं गृहाण | हे जगज्जनेष्टे ! विश्वजनानामिष्टाभीष्टा तस्याः संबोधनम् | त्वं युगं गृहाण । हे पेशले ! मनोज्ञे त्वं मुशलं गृहाण | लग्मलक्षणः क्षणः कालविशेषः समासीदति आसन्नः स्यात् । वरो द्वारि कियच्चिरं कियत्कालं अवतिष्ठते । अवयोगात् १२ आत्मने पदमत्र ज्ञेयम् । हे हलाः सख्यः इह जगति, निजे आत्मीये, उग्रशस्त्रे उत्कटायुधे, कुसुमव्रजे पुष्पसमूहे, जनोष्मणा लोकबाष्पेन ग्लानिं शोषमुपागते सति, महाबले - १५ नापि मनोभुवा कामेन, अत्र देवे कथं प्रभविष्यते कथं समर्थीभविष्यते । किंविशिष्टे अत्र ? भवान्तके भवः संसारो महेशो वा तस्य अन्तके यमप्राये भवेन कामो निर्जितः १८ भवस्यापि जेता अयं कामेन कथं जेष्यते इति व्यंग्यम् । एष मरुत् पवनश्चन्दनद्रवस्य घनत्वं दृढत्वं आपाद्य सौरभ परिमलं किं न मुष्णाति, अपितु मुष्णात्येव तत् तस्मात् कारणात् उलूलपूर्वाय धवलध्वनि पूर्वकाय वरार्थकर्मणे करकंठ- २३
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१५८ टीकयासहितम् [चतुर्थः कुंठगता करौ च कण्ठश्च करकंठास्तेषां कुंठता जिह्मता करकंठकुंठता विमुच्यताम् ॥ ६९ ॥ षभिः कुलकम् ॥ ३ जगद्वरेऽत्रार्घमुपाहरद्वरे,
यथेक्षिता सा हरिणा सकौतुकम् । स्त्रियोंऽतिकस्था धवलैस्तथा जगुः,
क्वचिद्भवद्विस्मृतिशङ्कया किमु ॥ ७० ॥ जग० सा देवांगना जगद्वरे विश्वप्रशस्ये अत्र वरे तथा उपाहरत् अढौकयत् । किंविशिष्टा सा ! हरिणा इन्द्रेण सकौतुक९ मीक्षिता, अन्तिकस्थाः समीपस्थाः, स्त्रियो धवलैः तथा जगु
यंतिम । किमु इति संशये, कचिद्भवद्विस्मृतिशंकया भवंती विस्मृतिस्तस्याः शंकया जगुः ॥ ७० ॥ १२ स.पस्पृशे हृद्यपि दुर्लभे पर
स्त्रिया तथा च्छेकधिया कृतसितम् । - अमुं कथंचिदधिबिन्दुमर्घत१५ श्युतं विनच्मीति गृहीतदंभया ॥ ७१ ॥
स० छेकधिया चतुरबुद्ध्या तया देवांगनया कृतस्मितं यथा भवति तथा स भगवान् हृद्यपि पस्पृशे स्पृष्टः । किंलक्षणे १८ हृदि ? परस्त्रिया दुर्लभे दुःप्रापे । अपिशब्दोप्येनमेवार्थ द्योत
यति । किंविशिष्टया तया ? इति गृहीतदंभया अमुना प्रकारेणातगृहीतमायया । इतीति किम् ? हे खामिन् अमुं दधिबिन्दु २१ कथंचिदर्घतश्च्युतं पतितं विनच्मि पृथक् करोमि ॥ ७१ ॥
अपि प्रवृत्तार्यविधिर्वधूद्वयी- ..... दिदृक्ष्या नोदमनायत प्रभुः। .
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सर्गः] जैनकुमारसंभवं १५९
समाधिनिधौतधियां न तादृशां,
स्वभावभेदे विषया प्रभूष्णवः ॥ ७२ ॥ अपि० प्रभुः खामी प्रवृत्तार्यविधिरपि समाचीर्णाविधिरपि । वधूद्वयीदिक्षया सुमंगलासुनंदयोर्दिदृक्षया विलोकनेच्छया नोदमनायत उत्सुको नाभवत् । समाधिनितधियां संतोषाधि. समाधिना धौतबुद्धीनां तादृशां विषयाः स्वभावभेदे न प्रभूष्णवः । समर्था न स्युः ॥ ७२ ॥ तदीयलावण्यरुचोरिवेय॑या,
शरावयुग्मं लवणाग्निगर्भितम् । पुरो विमुक्तं सुदृशाम्रदिष्ट सो
ऽनलोच्छसत्पर्पटलीलयाहिणा ॥ ७३ ॥ तदी० स भगवान् सुदृशा स्त्रिया पुरो अग्रे विमुक्तं शराव- १२ युग्मं, अनलोच्छसत्पर्पटलीलया अनलेन वैश्वानरेण उच्छासेन यः पर्पटस्तस्य लीलया अहिणा चरणेन अम्रदिष्ट मृदितवान् , किंविशिष्टं शरावयुग्मम् ? उत्प्रेक्ष्यते तदीयलावण्यरुचोस्तस्य १५ भगवतो लावण्यकान्त्योरीय॑या क्रोधनेन लवणामिगर्भितम् ॥ ७३ ॥ प्रगृह्य कौसुंभसिचा गलेऽवला,
१८ बलात्कृत्येनमनैष्ट मण्डपम् । अवाप्तवारा प्रकृतिर्यथेच्छया,
भवार्णवं चेतनमप्यधीश्वरम् ॥ ७४ ॥ .. प्रगृ० अबला स्त्री एनं भगवन्तं कौसुंभसिचा कौसुंभवस्त्रेण २२
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टीकयासहितम्
[चतुर्थ:
गले प्रगृह्य, बलात्कृषंती मंडपमनैष्ट नीतवती । किंलक्षणा स्त्री:
अवाप्तवारा प्राप्तावसरा । केव ? प्रकृतिरिव । यथा इवार्थे, यथा ३ प्रकृतिः कर्मरूपा अवाप्तवारा प्राप्तावसरा सती चेतनं आत्मानं इच्छया भवार्णवं संसारसमुद्रं नयति । किंलक्षणं एनं भगवंतं
आत्मानं च ! अधीश्वरमपि खामिनम् अधिकं समर्थन ६ मपि ॥ ७ ॥
शतमखस्तमखंडितपौरुषं,
सपदि मातृगृहे विहिताग्रहः । अभिनिषण्णवरेन्दुमुखीद्वयं,
जिनवरं नवरंगभृदासयत् ॥ ७५ ॥ शत. नवरंगभृत् नवं हर्षरूपरंग (बिभर्ति)धरतीति नव१२ रंगभृत् । शतमख. इन्द्रो विहिताग्रहः कृताऽऽग्रहः सन् , तं जिनवरं सपदि झटिति, मातृगृहे निषण्णवरेंदुमुखीद्वयं अभि
प्रामिविष्टवधूद्वयं अभि सन्मुखं आसयत् उपवेशयति स्म । १५ अभियोगे द्वितीया । किंलक्षणं भगवन्तम् ? अखंडितपौरुषं न खण्डितं पौरुषं पराक्रमो यस्य स अखंडितपौरुषम् ॥ ७५॥
दृष्ट्वाऽऽयान्तं नोदतिष्ठाव नाथं,
नाथ खास्याविष्कृतिः सङ्गता नौ । ध्यात्वेतीव स्वामिनोऽभ्यर्णभावे,
ते नीरंगीगोपितास्ये अभूताम् ॥ ७६॥ दृष्ट्वाल अथानन्तरं ते सुमंगलासुनंदे खामिनोऽभ्यर्णभावे २२सामीप्ये नीरंगीगोपितास्ये पट्टयुगलाच्छादितवदने अभूताम् ।
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सर्गः]
टीकया सहितम्
१६१
किं कृत्वा ? उत्प्रेक्ष्यते-इति ध्यात्वा च । इतीति किम् ? आवां नाथं स्वामिनं आयान्तं दृष्ट्वा नोदतिष्ठाव नोस्थिते । नौ आवयोः खस्य खस्य आत्मीयस्य आस्यस्य आविष्कृतिः३ विकृतिः प्रकटीकरणं न संगता न युक्ता ॥ ७६ ॥
लावण्यवारिसरसो दयितादमुष्मात् ,
पातुं प्रकाशमनलं नयनद्वयं नौ । पानेन तृप्तिरिह चोरिकया न काचि
देवं मिथोऽकथयतामपृथुखरं ते ॥ ७७॥ लाव० ते कन्ये अपृथुखरं मन्दखरं यथा भवति तथा९ मिथः परस्परमेव कथयताम् । एवमिति किम् ? अमुष्मात् दयितात् भर्तुः सरसः सरोवरात् , लावण्यवारिप्रकाशं प्रकटं पातुं नौ आवयोनयनद्वयं लोचनयुगलं अनलं असमर्थम् । १२ इह चौरिकया च पाने काचित् तृप्तिनं ।। ७७ ॥
शैशवावधिवधूद्वयदृष्ट्यो
थापलं यदभवदुरपोहम् । तत्समग्रमुपभर्ट विलिल्ये,
ऽध्यापकान्तिक इवान्तिषदीयम् ॥ ७८॥ शैश० वधूद्वयदृष्ट्योः शैशवावधि बाल्यादारभ्य यत् १८ चापलं दुरपोहं दुस्त्याज्यं अभवत् । तच्चापलं समग्र उपभर्तृ भर्तुः समीपे विलिल्ये विलयं गतम् । किमिव ? आन्तिपदीयं चापलमिव यथा आन्तिपदीयं छात्रसत्कं चापलं अध्यापकांतिके उपाध्यायसमीपे विलयं याति ॥ ७८ ॥
जै० कु. ११
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जैनकुमारसंभवं
[चतुर्थः
तारुण्येन प्रतिपतिमुखं प्रेरितोन्मादभाजा,
बाल्येनेषत्परिचयजुषा जिह्मतां नीयमाना। ३ दृष्टिर्वध्वोः समजनितरामेहिरेयाहिरातः,
श्रान्तेः पात्रं न हि सुखकरः सीमसन्धौ निवासः॥७९॥
तारु० वध्वोर्डष्टिः एहिरेयाहिरात आगमनगमनतः श्रमस्य ६पात्रं स्थानं समजनि । किंलक्षणा दृष्टिः ? उन्मादभाजा तारुण्येन यौवनेन पतिमुखं प्रति प्रेरिता । पुनः किंलक्षणा ? ईषत्परिचयजुषा बाल्येन जिह्मतां मन्दतां नीयमाना । हेतुमाह-हि ९ यस्मात् कारणात् सीमसन्धौ निवासः सुखकरो न स्यात् ॥ ७९ ॥
जैनी सेवां यो निर्भरं निर्मिमीते, - भोगाद्योगाद्वा तस्य वश्यैव सिद्धिः। हस्तालेपे त्वत्कं सिषेवे ययोः श्री
वृक्षोऽभूदेकोऽन्यस्तयोः किं शमी न ॥८॥ १५ जैनी० यः पुमान् जैनी जिनसत्कां सेवां निर्भरं यथा
भवति तथा निर्मिमीते करोति । भोगात् वाऽथवा योगात् तस्य पुंसः सिद्धिर्वश्यैव स्यात् , ययोवृक्षयोस्त्वक् हस्तालेपे तं जिनं १८ सिषेवे सेवतेस्म, तयोर्मध्ये एको वृक्षः श्रीवृक्षोऽभूत् , श्रिया लक्ष्म्या वृक्षः, पक्षे पिप्पलः । अन्यो वृक्षः किं शमी न अभूत् अपि तु अभूत् , एतावता श्रीवृक्षो भोगी ज्ञेयः, यस्य गृहे
श्रीः स एव भोगी इति न्यायात् । शमी च शमवान् योगी २२ ज्ञेयः, एवं जिनसेवातो भोगात् योगाच तयोः सिद्धिर्जातेति
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सर्गः ]
टीका सहितम्
१६३
भावः ॥ 'श्रीवृक्षः कुंजराशन' इत्यादि पिप्पलनामानि । 'शमी शमयते पापम्' इत्यादि लोका अपि वदन्ति ॥ ८० ॥
इति अंचलगच्छे कविचक्रवर्तिश्रीजयशेखरसूरिविरचितश्रीजैनकुमारसंभवस्य तच्छिष्यश्रीधर्मशेखरसूरिविरचितायां टीकायां श्रीमाणिक्यसुन्दरसूरिशोधितायां चतुर्थसर्गव्याख्या समाप्ता ॥ ३ ॥
अथ पंचमः सर्गः ॥
वज्रिणा द्रुतमयोजि कराभ्यां, कन्ययोरथ करः करुणाब्धेः । तस्य हृत्कलयितुं सकलाङ्गालिङ्गनेऽपि किल कौतुकिनेव ॥ १ ॥ वज्रि० अथानन्तरं वज्रिणा इन्द्रेण करुणाब्धेः 'दुःख - १२ निरासनी भवेत् करुणा' तस्याः अब्धेः समुद्रस्य, एतावता भगवतः करो हस्तः कन्ययोः सुमङ्गलासुनन्दयोः कराभ्यां द्रुतं शीघ्रमयोजि योज्यतेस्म । किंलक्षणेन वज्रिणा ? उत्प्रेक्ष्यते - १५ सकलांगालिंगनेऽपि तस्य भगवतो हृत्कलयितुं कौतुक - नेव ॥ १ ॥
धावतामभिमुखं समवेतुं, तत्करस्य च वधूकरयोथ ।
अङ्गुलीयकमणिघृणिजालैः,
प्रष्ठपतितुलया मिमिले प्राक् ॥ २ ॥ धाव० तत्करस्य तस्य स्वामिनो हस्तस्य वधूकरयोश्च अभि- २२
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१६४
जैनकुमारसंभवं
[ पञ्चमः
मुखं सन्मुखं समवेतुं मिलितुं धावतां सतां, प्राक् पूर्वं अङ्गुलीयकमणिघृणिजालैः अङ्गुलीयकमणीनां मुद्रिकारत्नानां घृणि३ जालैः किरणसमूहैः प्रष्ठपत्तितुल्या अग्रेसरपदातिसदृश तया मिमिले मिलितम् ॥ २ ॥
तत्फलं प्रभुकरग्रहमाप
दक्षिणः क्षणफलः क नु वामः ॥ ३ ॥ वाम० कन्ययोर्वामनामनि करे हस्ते स्फुरणं यत् शुभनिमित्तं उदीये उदितम्, 'अङ्गविस्फुरणं नृणां दक्षिणं सर्वकामदं । तदेव शस्यते सद्भिः, नारीणामदक्षिणमिति निमित्तशास्त्रात्, १२ दक्षिणस्तत्फलं तस्य शुभनिमित्तस्य फलं प्रभुकरग्रहणं खामिपाणिग्रहणं आपत् प्राप्तः । इति वितर्के । वामः क्षणफलः उत्सवफलः क्व वर्तते, वामो वामहस्तः प्रतिकूलो वा यः प्रति१५ कूलः स्यात् स उत्सवफलं व प्राप्नोति : अपि तु न कापीत्यर्थः ॥ ३ ॥
१८
वामनामनि करे स्फुरणं यत्, कन्ययोः शुभनिमित्तमुदीये ।
२१
उत्तराधरतया दधदास्यां, तत्करे वरकरः स्फुटमूचे । अव्यवस्थ्यमधरोत्तरभावं,
योगभाजि पुरुषे प्रकृतौ च ॥ ४ ॥
उत्त० वरकरस्तत्करे तयोः सुमङ्गला सुनन्दयोः करे उत्तराघरतया आस्यां अवस्थितिं दधन् सन् अधरोत्तरभावं अधःस्थो - २३ परितया अवस्थानं पुरुषे आत्मनि, च अन्यत्, प्रकृतौ कर्मणि
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सर्गः] टीकया सहितम् योगभाजि संयोगभाजि सति सत्यां च अव्यवस्थ्यं व्यवस्थारहितं स्फुटं प्रकटमूचे वक्ति स्म, “कत्थवि जीवो बलिओ कत्थवि कम्माइं इंति बलियाई" इत्याद्यागमवचनात् ॥ ४ ॥ ३ तत्करे करशयेऽजनि जन्योः ,
सञ्चरे सपदि सात्त्विकभावैः। सात्विको हि भगवानिजभावं,
खेषु संक्रमयतेन न चित्रम् ॥५॥ तत्क० जन्योः वध्वोः सञ्चरे शरीरे सपदि तत्कालं सात्त्विकभावैः अजनि जातं, सात्त्विकभावाश्चामी-तंभः १९ खेदो २ ऽथ रोमाञ्चः ३ खरभेदश्च ४ वेपथुः ५ । वैवयं ६ रोदनं चैव ७ प्रलये ८ त्यष्ट सात्त्विकाः ॥ १॥ व सति ? तत्करे तस्य स्वामिनः करे हस्ते करशये हस्ते स्थिते सति १२ हि निश्चितं । सात्त्विको भगवान्, निजमावं खेषु आत्मीयेषु संक्रमयते, अत्र न चित्रं आश्चर्य । सत्त्वेन धैर्येण चरतीति सात्त्विकः, पक्षे सात्त्विका भावाः पूर्वोक्ताः । सात्त्विको हि १५ सात्त्विकं भावमन्यत्र संक्रमयतीति, अत्र किं चित्रम् ! शब्दच्छलमत्र ज्ञेयम् ॥ ५॥ बाल्ययौवनवयोवियदन्त
वर्तिनं जगदिनं परितस्ते । रेजतर्गतघनेऽहनि पूर्वा
पश्चिमे इव करोपगृहीते ॥६॥ बाल्य० ते कन्ये, करोपगृहीते करेण पाणिना उपगृहीते २२
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१६६ जैनकुमारसंभवं [पञ्चमः गृहीतहस्ते, जगदिनं जगन्नाथं परितो रेजतुः शोभिते, किंलक्षणं जगदिनम् ? बाल्ययौवनवयोवियदन्तर्वतिनं बाल्यं च ३ यौवनं च वय एव वियदाकाशं तन्मध्ये वर्तिनम् । के इव ? पूर्वापश्चिमे करोपगृहीते इव, गतघने अहनि निरभ्रे दिवसे इनं सूर्य वा परितो राजेते ॥ ६ ॥ ६ पाणिपीडनरतोऽपि न पाणी
बालयोः स मृदुलावपिपीडत् । कोऽथवा जगदलक्ष्यगुणस्या
मुष्य वृत्तमवबोद्धुमधीष्टे ॥ ७॥ पाणि० स भगवान् पाणिपीडनरतोऽपि पाणिपीडनं पाणिग्रहणं, पक्षे पाणेः पीडनं व्यथनं तत्र रत आसक्तोऽपि २ बालयोः सुमंगलासुनंदयोः मृदुलौ सुकोमलौ पाणी हस्तौ नापिपीडत् न पीडितवान् , अथवा कः पुमान् जगदलक्ष्य
गुणस्य जगतां अलक्ष्यस्वरूपस्य, अमुष्य भगवतो वृत्तं १५ चरित्रं अवबोद्धं ज्ञातुं अधीष्टे समर्थो भवेत् ? अपि तु न कोऽपि ॥ ७ ॥
तत्यजुर्न समयागततारा
मेलपर्वणि वरस्य तयोश्च । धीरतां चपलतां न दृशः स्वां,
देहिनां हि सहजं दुरपोहम् ॥ ८॥ तत्य० वरस्य श्रीऋषभस्य तयोश्च वध्वोदृशो दृष्टयः २२ खां आत्मीयां धीरतां च पुनश्चपलतां समयागततारामेल
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सर्गः ]
टीका सहितम्
१६७
पर्वणि अवसरायातपरस्परकनीनिकामेलनोत्सवे न तत्यजुः, हि निश्चितं, देहिनां प्राणिनां सहजं, दुरपोहं दुस्त्याज्यम् ॥ ८ ॥
३
"
स्वर्वधूविहित कौतुक गानोपज्ञमस्य वपुषि स्तिमितत्वम् ।
योगसिद्धिभवमेव मघोना
शंकि वेद चरितं महतां कः ॥ ९ ॥
खर्व० मघोना इन्द्रेण अस्य भगवतो वपुषि शरीरे तिमि - तत्वं निश्चलत्वं योगसिद्धिभवमेव योगसिद्धेः समुत्पन्नमेव आशंकि शङ्कितम् । किंलक्षणं स्तिमितत्वम्? खर्वधू विहित - ९ कौतुक गानोपज्ञं खर्वधूभिर्देवांगनाभिर्विहितं कृतं यत् कौतुकानं, तेन उपज्ञं प्रणीतम् । महतां चरितं को वेद को जानाति, अपि तु न कोऽपि ॥ ९ ॥
बद्धवान् वरवधूसिचयानामंचलान् स्वयमथाशु शचीशः । एवमस्तु भवतामपि हार्दग्रन्थि
१२
इति प्रथितोक्तिः ॥ १० ॥
बद्ध० अथानन्तरं शचीश इन्द्रः वरवधूसिचयानां वरवधूनां सिचयानां वस्त्राणां अञ्चलान् आशु शीघ्रं स्वयं बद्धवान् । किं- १८ लक्षणः इन्द्रः ? इति प्रथितोक्तिः, इति अमुना प्रकारेण विस्तारितवचनः । इतीति किम् ? एवं अमुना प्रकारेण भवतामपि हार्दग्रन्थिः हार्दस्य स्नेहस्य ग्रन्थिः अश्लथो ढोऽस्तु ॥ १० ॥
१५
२२
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१६८ जैनकुमारसंभवं
[पञ्चमः एणदृग्द्वयमुदस्य मघोनी,
वासवश्च वरमद्भुतरूपम् । वेदिकामनयतां हरिदुच्चै
वंशसंकलितकांचनकुंभाम् ॥ ११ ॥ एण० मघोनी इन्द्राणी एणगद्वयं वधूद्वयं, च पुनर्वा६ सव इन्द्रोऽद्भुतरूपं वरं उदस्योत्पाट्य वेदिकां चतुरिकामानयतां गृहीतवन्तौ, किंलक्षणां वेदिकाम् ? हरिदुच्चैवंशसंकलितकाञ्चनकुम्भां हरितो नीला एतावता आर्द्रा उच्चा वंशास्तैः संकलिताः ९ कांचनकुंभाः, सुवर्णकलशा यस्यां सा ताम् ॥ ११ ॥
कोऽपि भूधरविरोधिपुरोधा
स्तत्र नूतनमजीज्वलदग्निम् । १२ यः समः सकलजन्तुषु योग्यः,
स प्रदक्षिणयितुं न हि नेतुः ॥ १२ ॥ को० कोऽपि भूधरविरोधिपुरोहितः, तत्र तस्यां वेदिकायां १५ नूतनं नवीनं अग्निं अजीज्वलत् ज्वालयति स्म । यो अमिः सकलजन्तुषु सर्वप्राणिषु समः सदृशोऽस्ति, सोऽग्निर्नेतुः खामिनः प्रदक्षिणयितुं न हि योग्यः ॥ १२ ॥ मंत्रपूतहविषः परिषेका
दुत्तरोत्तरशिखः स बभासे। सूचयन् परमहःपदमसै,
यावदायुरधिकाधिकदीप्तिम् ॥ १३ ॥ २९ मंत्र० सोऽमिः मंत्रपूतहविषः परिषेकात् मंत्रेण पूतस्य
१८
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१६९
सर्गः] टीकया सहितम् पवित्रस्य हविषो होतव्यद्रव्यस्य परिषेकात् सेचनात् उत्तरोतरशिखोऽधिकाधिकविशेषः स बभासे दीप्यते स्म । किं कुर्वन् अग्निः ? अस्मै भगवते यावदायुः, आयुर्यावदधिकाधिकदीप्तिं ३ सूचयन् कथयन् । किंविशिष्टोऽग्निः ? परमहःपदं परं प्रकृष्टं महस्तेजस्तस्य पदं स्थानम् ॥ १३ ॥
हेम्नि धाम मदुपाधि कथं ते, ____मां विना वपुरदीप्यत हैमम् । प्रष्टुमेवमनलः किमु धूम,
खांगजं प्रभुमभि प्रजिघाय ॥ १४॥ ९ हेनि० अनलो वैश्वानरः खांगजं आत्मीयपुत्रं धूमं प्रभु अभि खामिसंमुखं किमु एवं प्रष्टुं प्रजिघाय प्रहिणोतिस्म । एवमिति किम् ? हे खामिन् ! हेम्नि सुवर्णे धाम तेजो मदुपाधि १२ मन्निमितं वर्तते । मां विना ते तव हैमं वपुः सुवर्णमयं शरीरं कथमदीप्यत ? ॥ १४ ॥ सोऽभितः प्रसृतधूमसमूहा
श्लिष्टकांचनसमद्युतिदेहः। खां सखीमकृत सौरभलुभ्य
ढुंगसंगमितचंपकमालाम् ॥१५॥ १० सो० स भगवान् अभितः समंततः प्रसृतधुमसमूहाश्लिष्टकांचनसमद्युतिदेहः, प्रसृतेन धूमसमूहेन आश्लिष्टः आलिजितः, काञ्चनसमद्युतिः सुवर्णसमानकान्तिदेहो यस्य स एवंविधः सन् २१ सौरभलुभ्यद्धंगसंगमितचंपकमालां, सौरभ्येण परिमलेन लुभ्यन्ते भुंगा भ्रमरास्तैः संगमितां मिलितां चंपकसत्कमालां, २३
___
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१७०
जैनकुमारसंभवं [पञ्चमः खां सखीमकृत । एतावता गौरवर्णत्वात् चंपकमालासदृशो भगवतो देहः, तत्र लग्मो धूमश्च भ्रमरसमूहसदृशः, एवं भगवतो ३ देहस्य चंपकमालायाश्च सखीत्वं सादृश्यं ज्ञेयमिति ॥ १५ ॥
धूमराशिरसितोऽपि चिरंट्यो
लोहितत्वमतनोन्नयनानाम् । ६ चूर्णकश्च धवलोऽपि रदानां,
रागमेधयति रागिषु सर्वम् ॥ १६॥ धूम० असितोऽपि कृष्णोऽपि धूमराशिश्चिरंट्योर्वधूट्योन९ यनानां लोचनानां लोहितत्वं आरक्तत्वं अतनोत् करोतिस्म । च पुनः । धवलोऽपि चूर्णको रदानां दन्तानां लोहितत्वं आरक्तत्वं
अतनोत् कृतवान् , रागिषु रागवत्सु सर्व वस्तु रागं एधयति १२वर्धयति ॥ १६ ॥
पद्मिनीसमवलंबितहस्तो,
बभ्रमभ्रमददभ्रतरार्चिः। ५५ स प्रदक्षिणतया परितोऽग्निं,
___ तं शुचिं विबुधवल्लभगोत्रम् ॥ १७॥
पद्मि० स भगवान् पद्मिनीसमवलम्बितहस्तः पद्मिनी१० लक्षणाभ्यां सुमंगलासुनन्दाभ्यां समवलंबितहस्तः सन् बभ्रु
पीतवर्णं अग्निं परितः प्रदक्षिणतया अभ्रमत् भ्रमतिस्म । अभ्रमत्
इति 'भ्रमूच् अनवस्थाने' इति दिवादिधातुः परं । 'भ्रासभ्लास२. भ्रमक्लमक्रमत्रसित्रुटिलषियसिसंयंसेवा' (३।४।७३) इतिसूत्रेण
विकल्पात् दिवादेयं न भवति, अत्र किंलक्षणो भगवान् ? . २३ अदभ्रतरार्चि अदभ्रतरं बहुतरं अर्चिस्तेजो यस्य सः, पुनः किं
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सर्गः] टीकया सहितम्
१७१ लक्षणः ? शुचिः पवित्रः । किंविशिष्टं अग्निम् ? विबुधवल्लभगोत्रं विबुधानां देवानां वल्लभं गोत्रं नाम यस्य सः, 'अग्निमुखा वै देवा' इति वचनात् , द्वितीये अर्थे शुचिः सूर्यो विबुधानां३ वल्लभं गोत्रं पर्वतं मेरुं प्रदक्षिणतया भ्रमति । किंविशिष्टः सूर्यः? पद्मिनीभिः कमलिनीभिः समवलंबिता हस्ताः करा यस्य सः । शेषं पूर्ववत् ॥ १७ ॥
यत्तदा भ्रमिरतः परितोऽग्निं,
मङ्गलाष्टकरुचिर्विभुरासीत् । कुर्वतोऽस्य पुरतः किमजस्रं,
मङ्गलाष्टकमतो मतिमन्तः॥१८॥ यत्त० विभुः खामी तदा तस्मिन्नवसरे अग्निपरितो भ्रमिभ्रमणं तस्यां रत आसक्तः सन् यन्मंगलाष्टकरुचिरासीत् , अतः १२. कारणात् मतिमन्तो विद्वांसः अस्य भगवतः पुरतोऽग्रे किं अजस्रं निरंतरं मङ्गलाष्टकं कुर्वते ॥ १८ ॥ श्यालकप्रतिकृतिः प्रभुपादां
गुष्ठमिष्टविभवेच्छुरगृह्णात् । पूर्णमेष तमितोऽस्य निरूचे,
श्रीगृहांघ्रिकमलाग्रदलत्वम् ॥ १९॥ १८ श्याल० श्यालकप्रतिकृतिः श्यालकसदृशः पुमान् इष्टं अभीष्टं, विभवं द्रव्यं, इच्छतीति इष्टविभवेच्छुः सन् प्रभुपादांगुष्ठं स्वामिसत्कचरणस्यांगुष्ठं अगृण्हात् गृहीतवान् , एष २१ श्यालकप्रतिकृतिः, पूर्ण संपूर्ण तं विभवं इतः प्राप्तः सन् अस्य प्रभुपादांगुष्ठस्य श्रीगृहांघ्रिकमलाग्रदलत्वं, श्रिया लक्ष्म्या २३
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१७२
जैनकुमारसंभवं
[ पञ्चमः
गृहं यत् अधिकमलं चरणकमलं तस्य अग्रदलत्वं निरूचे निश्चितमूचे । कोऽर्थः ? खामिसत्कचरणकमले निश्चितं लक्ष्मीर्व३ सति, यः कोऽपि एकचित्तः तत् सेवते स लक्ष्मीमवश्यं प्राप्नोत्येव ॥ १९ ॥
पाणिमोचनविधावथ सार्द्धद्वादशास्य पुरतोऽर्जुनकोटीः । वासवः समकिरत् कियदेतत्,
तस्य यः करवसच्छतकोटिः ॥ २० ॥ ९ पाणि० अथानन्तरं वासव इन्द्रः अस्य भगवतः पाणिमोचनविधौ पुरतो अग्रे सार्द्धद्वादश अर्जुनकोटीः सुवर्णकोटीः, समकिरत् विक्षिप्तवान् । तस्य एतत् कियद् यः १२ करवसच्छतकोटिः, करे वसंती शतसंख्याकोटिः शतकोटिर्वजं वा यस्य स ईदृक् वर्तते ॥ २० ॥
१५
रोहणाद्रिविलवासितयाऽन्योपक्रियाव्रतमहारि पुरायैः । तैस्तदा गिरिभिदास्य वितीर्णैः स्वीयसृष्टिफलमाप्यत रत्नैः ॥ २१ ॥
१८
रोह० यैः रतैः पुरा पूर्वं रोहणाद्विबिलवासितया रोहणा - चलसत्कगहरवासित्वेन अन्योपक्रियात्रतं परोपकारकरणत्रतं अहारि । तदा तस्मिन्नवसरे तैः रलैः गिरिभिदा इन्द्रेण अस्य भगवतो वितीर्णैर्दत्तैः, सद्भिः स्वीयसृष्टिफलं आप्यत, प्राप्यते २२ स्म ॥ २१ ॥
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सर्ग: ]
टीका सहितम्
याः पुरो मघवतास्य विमुक्तास्ता वदामि विशदा भुवि मुक्ताः ।
क्षारपंकवसनादितरासां,
क्षीण एव खलु शुक्तिमगर्वः ॥ २२ ॥
"
या० मघवता इन्द्रेण अस्य भगवतः पुरो अग्रे या मुक्ता विमुक्ताः, अहं भुवि पृथ्व्यां ता मुक्ता मौक्तिकानि विशदा ६ उज्ज्वला वदामि तद्यथा - 'तारं वृत्तं गुरु स्निग्धं कोमलं निर्मलं तथा । षड्भिर्गुणैः समायुक्तं मौक्तिकं गुणवत् स्मृतम्' ॥ १ ॥ ईदृग्गुणयुक्ता दोषमुक्ता मुक्ता विशदा उच्यन्ते, इतरासां ९ मुक्तानां क्षारपंकवसनात् खलु निश्चिंतं, शुक्तिमगर्वः धवलितागर्वः क्षीण एव ॥ २२ ॥ दीपकाः सदसि यन्मणिजालैः, क्रोधिताः स्वमहसा परिभूय ।
"
१७३
कुत्फलं शलभकेषु वितेनु
स्ता अढौकयदमुष्य स भूषाः ॥ २३ ॥ दीप० स इन्द्रोऽमुष्य भगवतो हारार्द्धहारकटककेयूरनक्षत्रमालास्ता भूषा आभरणान्यढौकयत् ढौकितवान् । सदसि सभायां दीपकाः यन्मणिजालैर्यासां भूषाणां मणिसत्ककिरण- १८ समूहैः स्वमहसा आत्मीयतेजसा परिभूय पराभवस्थानं कृत्वा क्रोधिता ईर्ष्या प्रापिताः सन्तः कुत्फलं क्रोधफलं शलभकेषु पतंगेषु वितेनुश्चक्रुः ॥ २३ ॥ श्लक्ष्णशुभ्रमृदुरादित रंभा - स्तंभभङ्गभवतंतुसमूहः ।
१५
२१
२३
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१७४
जैनकुमारसंभवं
[पञ्चमः
यद्गुणोपमितिलेशमृभुक्षा
स्तानि तस्य सिचयान्युपनिन्ये ॥ २४ ॥ ३ श्लक्ष्ण० ऋभुक्षा इन्द्रस्तानि सिचयानि चीनांशुकपट्टांशुकगोर्जनेर्मनीलनेत्र ! हीरागर वइरागर जादरमेघाडंबरप्रभृतिवस्त्राणि उपनिन्ये ढोकयामास । सिचयशब्दः पुनपुंसकलिङ्गे के ज्ञेयः। रंभास्तंभभंगभवतंतुसमूहः-रम्भा कदली तस्याः स्तंभस्तस्य यो भंगस्तद्भवस्तंतुसमूहः । यद्गुणोपमितिलेशं येषां सिचयानां गुणास्तंतवस्तेषां उपमितिलेशं उपमानभवं आदित गृह्णाति स्म । ९ किंलक्षणः रम्भास्तंभभंगभवतंतुसमूहः ? श्लक्ष्णः शुभ्रः मृदुः सूक्ष्मः धवलकुसुमालः ॥ २४ ॥
यन्मरीचिनिकरे ननु विष्व१२
द्रीचिवीचिसदृशे जलराशेः। पोतति स सयुवापि निविष्टो,
रत्नविष्टरमदात्स तमस्सै ॥२५॥ १५ यन्म० स इन्द्रः अस्मै भगवते तं रत्नविष्टरं रत्नमयं सिंहा
सनं अदात् । स भगवान् युवापि तरुणोऽपि यत्र रत्नासने निविष्टः सन् यन्मरी चिनिकरे यस्य रत्नासनस्य किरण१८ समूहे पोतति स्म, पोतो बालः प्रवहणं वा तद्वदाचरति स्म । किंविशिष्टे यन्मरीचिनिकरे? ननु निश्चितं विष्वद्रीचि विष्वग् समंततः प्रसृत्वरे 'सर्वादिविष्वग् देवा.' (सि० है.
३।२।१२२) इत्यादिसूत्रेण विष्वद्रीचिनिष्पत्तिः । पुनः २२ किम् ? जलराशेः समुद्रस्य वीचिभिः कल्लोलैः सदृशे ॥ २५ ॥
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सर्ग: ]
टीकया सहितम्
छत्रमत्रुटितचारिम चोक्षे, चामरे शयनमुच्चविशालम् । यन्मनोऽभिमतमन्यदपीन्द्रातु स्तुतिपदं तदवाप ॥ २६ ॥
छन्न० अत्रुटितचारिम अत्रुटितः अच्छिन्नः चारिमा रमणीयत्वं यस्य तत् छत्रम्, चोक्षे पवित्रे चामरे, उच्चविशालं ६ शयनं । अन्यदपि यद्वस्तु मनोहारि तद्वस्तु भगवान् इन्द्रात् अवाप प्राप्तः । किंविशिष्टं वस्तु ? स्तुतिपदं स्तुतेः श्लाघायाः पदं स्थानम् ॥ २७ ॥
नायकस्त्रिभुवनस्य न चार्थी, दायकथ कथमस्य दिवीशः ।
किन्तु वाहितमुवाच विवाहप्रान्तरं तनुभृतामयमेवम् ॥ २७ ॥
नाय० त्रिभुवनस्य नायकोऽर्थी याचको न स्यात्, दिवीश इन्द्रः अस्य भगवतो दायकः कथं स्यात् । किंतु अयं भगवान् तनुभृतां प्राणिनां विवाहप्रान्तरं विवाहस्य दूरशून्यमार्गं एवं अमुना प्रकारेण वाहितं उवाच ॥ २८ ॥
वल्लनावसरपाणिगृहीतीवक्रसंगमितपाणिरराजत् ।
१७५
९
१२
१५
जातयत्न इव जातिविरोधं, सोमतामरसयोः स निहन्तुम् ॥ २८ ॥
चल्ल० स भगवान् वल्लनावसरपाणिगृहीतीवऋसंगमित - २२
१८
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१७६
जैनकुमारसंभवं [पञ्चमः पाणिः, वल्लनावसरे भोजनावसरे पाणिगृहीत्योः पत्योः वक्रे मुखे संगमितो मेलितः पाणिः हस्तो येन स, एवंविधः सन् ३ अराजत शोभितः, उत्प्रेक्ष्यते-सोमतामरसयोश्चन्द्रकमलयो
र्जातिविरोधं निहन्तुं विनाशयितुं जातयत्नः कृतोपक्रम इव । एतावता पत्न्योः मुखचन्द्रः प्रभोर्हस्तकमलमितिभावः ॥२८॥
भक्ष्यमादतुरिमे पतिपाणि__ स्पर्शपोषितरसं मुदिते यत् । तजनेन युवतीजनवृत्तेः,
पुंस्यवस्थितिरिति प्रतिपेदे ॥ २९॥ भक्ष्य० इमे सुमङ्गलासुनन्दे मुदिते हर्षिते सत्यौ पतिपाणिस्पर्शपोषितरसं पतिपाणिर्भर्तृहस्तस्पर्शेन पोषितरसं यद्भक्ष्य १२ आदतुः भुञ्जते स्म, तत् तस्मात् कारणात् , जनेन लोकेन इति प्रतिपेदे प्रतिपन्नं आहतम् ? इतीति किम् ? युवती
जनवृत्तेः स्त्रीजनस्य वृत्तनिर्वाहस्य पुंसि पुरुषे अवस्थितिः अवस्थानं १५ज्ञेयं, स्त्रीणां पुरुषान्निर्वाह इति भावः ॥ २९ ॥
पाणिना प्रभुरथ प्रणयिन्यो
यत्तदा किमपि भक्ष्यमभुंक्त । १८ प्राभवेऽपि नृषु यौषिदधीनं,
__ भोजनं तदिति को न जगाद ॥३०॥
पाणि० अथानन्तरं प्रभुः प्रणयिन्योः पन्योः पाणिना २१ हस्तेन तदा तस्मिन्नवसरे यत्किमपि भक्ष्यं अभुंक्त । तत्
तस्मात् कारणात् इति को न जगाद अपितु सर्वः कोपि २३ जगौ । इतीति किम् ? नृषु पुरुषेषु प्राभवेपि प्रभुत्वेपि
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सर्गः]
जैनकुमारसंभवं
सति भोजनं योषिदधीनं योषितां स्त्रीणां अधीनं आयत्तं ज्ञेयम् ॥ ३०॥
वासवोऽथ वसनांचलमोक्षं,
निर्ममे विधिवदीशवधूनाम् । विश्वरक्षणपरस्य पुरोऽस्या
ऽचेतनेष्वपि चिरं न हि बन्धः ॥३१॥ ६ वास० अथानन्तरं वासव इन्द्रः ईशवधूनां विधिवल्लो. कोक्तप्रकारेण वसनांचलमोक्षं निर्ममे कृतवान् । विश्वरक्षणपरस्य अस्य भगवतः पुरः अचेतनेष्वपि बन्धश्चिरं न हि ९ स्यात् , 'अजीवाणारंभं' इत्यागमेऽपि वचनं ॥ ३१॥
ऊढवद्विभुमुखेन्दुनिरीक्षा__मेदुरप्रमदवारिधिवीच्यः । नाकिनां हृदयरोधसि लग्ना. स्तेनिरे तुमुलमंबरपूरम् ॥ ३२ ॥ ऊढ० ऊढवत्परिणीतप्रभोर्मुखेन्दोर्मुखचन्द्रस्य निरीक्षातो १५ दर्शनतो मेदुराः स्थूलाः प्रमदवारिधेः हर्षसमुद्रस्य वीच्यः कल्लोला नाकिनां देवानां हृदयरोधसि हृत्तटे लमाः सत्योऽम्बरपूरं आकाशपूरणसमर्थ, तुमुलं कोलाहलं तेनिरे १८ कुर्वन्तिस्म ॥ ३२॥
यन्ननर्त मघवानघवाक्त्वं, . नात्र शंभुभरतौ विभृतः स्म । तद्विवाह विधिसिद्धनिजेच्छा. भूरभूत्प्रमद एव गुरुस्तु ॥ ३३ ॥ जै० कु. १२
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१७८
टीकया सहितम् [पञ्चमः यन्न० मघवा इन्द्रो यन्ननर्त । अत्र नृत्ये शंभुभरतौ शंभुः ईश्वरो महानटत्वात् , भरतो भरतशास्त्रकर्तृत्वात् अनघवाक्त्वं ३अनघा निर्दुष्टा वाग् वाणिस्तस्या भावः अनघवाक्त्वं एतावता
उपदेशकत्वं न बिभृतः स्म । तु पुनः । तद्विवाह विधिसिद्धनिजेच्छाभूस्तस्य खामिनो विवाहविधेः सिद्धाः निष्पन्ना ६या निजेच्छा ततो भूरुत्पन्नः, प्रमदो हर्षः एव गुरुरभूत् । गुरुराचार्यः प्रौढो वा, गुरुहीना च नृत्यादिकला न स्यात् ॥ ३३॥ ९ नृत्यतोऽस्य करयुग्ममलासी
न्मुक्तिमेवमुपरोद्धमिवोर्ध्व । नात्र नेतरि विरक्तिवयस्यां,
संग्रति प्रहिणुया वरणाय ॥ ३४ ॥ नृत्य अस्य इन्द्रस्य नृत्यतः सतः करयुग्मं ऊवं अलासीत् , किं कर्तु? उत्प्रेक्ष्यते-मुक्तिं एव उपरोद्धमिव । एवमिति १५ किम् ? न अत्र अस्मिन् , नेतरि खामिनि संप्रत्यधुना विरक्तिवयस्यां वैराग्यसखीं वरणाय प्रहिणुया नैव प्रेषयेः ॥ ३४ ॥
अङ्गहारभरभङ्गुरहार
सस्तमौक्तिकमिषामृतबिन्दून् । अप्सरःसरसगानसमाने,
नर्तनेऽतत शचीप्रमदाब्धिः ॥ ३५॥ २१ अङ्ग० शचीप्रमदाब्धिः इन्द्राणीहर्षसमुद्रः अप्सरः___ सरसगानसमाने नर्तने नृत्यावसरे सति अङ्गहारभरभङ्गुरहार२३ सस्तमौक्तिकमिषामृतबिन्दून्-अङ्गहारभरेण अङ्गविक्षेपसमूहेन
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सर्गः] जैनकुमारसंभवं
१७९ भङ्गुराः त्रुटिता हारास्तेभ्यः सस्तक्षरितमौक्तिकमिषादमृतबिन्दून् अतत विस्तारयति स्म ॥ ३५ ॥
गेयसारधवलः प्रमदौघैः,
क्लीवदुर्वहकरग्रहचिह्नः । सोऽभ्यगादहमथो परदेशा
भूमिपाल इव लब्धमहेलः ॥ ३६॥ ६ गेय० अथो अथानन्तरं स भगवान् गृहं अभ्यगात् गृहं प्रति ययौ । किंविशिष्टः भगवान् ? प्रमदानां स्त्रीणां समूहैर्गेयाः सारा धवला यस्य सः। पुनः किंविशिष्टः ? क्लीबैः षण्डैः दुर्वहं ९ करग्रहं चिह्न (यस्य) पाणिग्रहणचिहं यस्य सः। पुनः किंविशिष्टः? लब्धे प्राप्ते महेले स्त्रियौ येन सः । क इव ? भूमिपाल इव, यथा भूमिपालो राजा परदेशात् गृहं अभ्येति । किंविशिष्टः १२ भूमिपालः ? प्रमदानां हर्षाणां समूहे गेयं, सारं बलं तेन धवल उज्ज्वलः । पुनः किंविशिष्टः ? क्लीबैः कातरैर्दुर्वहं करग्रहस्य सर्वदेशदण्डग्रहणस्य चिह्नं यस्य सः । पुनः किंविशिष्टः? लब्धा १५ महती इला पृथ्वी, ईडा स्तुतिर्वा येन सलब्धमहेलः । डलयोरैक्यम् ॥ ३६॥
स्वामिनः पथि यतः पुरतो य.
स्तूरपूरनिनदः प्रससार । स स्वमंदिरगतासु बभारा
कृष्टिमंत्रतुलनां ललनासु ॥ ३७॥ खामि० स्वामिनः श्रीऋषभदेवस्य पथि मार्ग यतः गच्छतः सतो यस्तत १ वितत २ घन ३ शुषिराणां ४ तूराणां पूरस्य २३
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१८०
टीका सहितम्
[ पञ्चमः
निनदो ध्वनिः प्रससार, सतूरपूरनिनदः खमन्दिरगतासु आत्मीयावासस्थितासु ललनासु स्त्रीषु आकृष्टिमंत्रतुलनां ३. बभार । कोऽर्थः ? तूरपूरनिनदेन खामिनं नवपरिणीतं सवधूकमागच्छन्तं श्रुत्वा स्त्रियः सर्वव्यापारं विमुच्यागता विलोकनायेति भावः ॥ ३७ ॥
पंक्ति मौक्तिकनिवेशनिमित्तं, स्वक्रमांगुलिकया धृतसूत्राम् । हारयष्टिमवधूय दधावे,
पंक्ति० काचित् स्त्री हारयष्टिं अवधूयावगणय्य दधावे धाविता । केव ? करिवधूरिव यथा करिवधूर्हस्तिनी वीरुधं १२ वल्लीं अवधूय धावति । किंविशिष्टां हारयष्टिम् ? पंक्ति मौक्तिकनिवेशनिमित्तं पंक्त्या मौक्तिकनिवेशार्थं वक्रमाङ्गुलिकया आत्मीयचरणांगुष्ठेन धृतसूत्राम् ॥ ३८ ॥
कापि नार्ययमितश्लथनीवीप्रक्षरन्निवसना (प्य?) ललज्जे ।
नायकानननिवेशित नेत्रे,
१५
वीरुधं करवधूरिव काचित् ॥ ३८ ॥
१८
जन्यलोकनिकरेऽपि समेता ॥ ३९ ॥
कापि ० कापि स्त्री अयमितश्लथनीवी अयमिताया अत एव हेतोः श्रथाया नीव्या मेखलायाः प्रक्षरन्निवसनापि क्षरद्वत्रापि सती न ललज्जे । लज्जाया अभावहेतुमाह, किंलक्षणा २२ काचित् ? जन्यलोकनिकरे समेतापि । किंविशिष्टे जन्यलोक -
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सर्गः] जैनकुमारसंभवं
१८१ निकरे ? नायकानननिवेशितनेत्रे नायकस्य श्रीऋषभदेवस्य आनने मुखे दत्तलोचने ॥ ३९ ॥
तत्समिनिशमनोच्छसितान्या,
कंचुकत्रुटिपटूकृतवक्षाः । यौवनोत्कटकटाक्षितकुन्तैः,
पाटितापि सुभटीव पुरोऽभूत् ॥४०॥ ६ तत्सं० अन्या स्त्री यौवनोत्कटकटाक्षितकुन्तैयौवनेन उत्कटास्तरुणाः पुरुषास्तेषां कटाक्षा एव कुन्ताः भल्लास्तैः पाटितापि विदारितापि सुभटीव पुरोऽग्रेऽभूत् । किंलक्षणा ९ अन्या ? तत्समिन्निशमनोच्छसिता तस्य भगवतः समित् सभा संग्रामो वा तस्य निशमनेन निरीक्षणेन उच्छसिता । पुनः किंलक्षणान्या ? कंचुकत्रुटिपटूकृतवक्षाः, कंचुकः कंचुलिका १२ जरादावा (१) तस्या त्रुटिः त्रोटनेन पटूकृतं वक्षो हृदयं यस्याः सा कंचुकत्रुटिपटूकृतवक्षाः ॥ ४० ॥
तूर्णिमूढगपास्य रुदन्तं,
पोतमोतुमधिरोप्य कटीरे । कापि धावितवती नहि जज्ञे, __ हस्यमानमपि जन्यजनैः स्वम् ॥४१॥ १० तूर्णि० कापि स्त्री जन्यजनैः खं हस्यमानमपि नहि जज्ञे नहि ज्ञातवती । किं कृतवती ? पोतं बालं रुदन्तं अपास्य त्यक्त्वा ओतुं बिडालं कटितटे अधिरोप्य धावितवती ।२१ किंलक्षणा स्त्री ? तूर्णिमूढदृक् , तूर्ध्या औत्सुक्येन मूढा दृष्टिर्यस्याः सा तूर्णिमूढदृक् ।। ४१॥
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१८२
टीकया सहितम् [पञ्चमः कजलं नखशिखासु निवेश्या__ लक्तमक्षणि च वीक्षणलोला । कंठिकां पदि पदांगदमुच्चैः ___ कंठपीठलुठितं रचयन्ती ॥ ४२ ॥ मजनात् परमसंयतकेशी,
वैपरीत्यविधृतांशुकयुग्मा । काचिदागतवती ग्रहिलेव, त्रासहेतुरजनिष्ट जनानाम् ॥ ४३॥
युग्मम् ॥ कज० मज्जनात्० परमसंयतकेशी वैपरीत्यविधृतांशुकयुग्मा काचिदागतवती अहिलेव । काचित् स्त्री गृहिलेव आगत१२ वती आयाता सती जनानां लोकानां त्रासहेतुरजनिष्ट जाता। किंलक्षणा स्त्री ? वीक्षणलोला विलोकनचपला । किं कुर्वती ?
कजलं नखशिखासु निवेश्य । च पुनः, अलक्तं अक्षणि १५ लोचने निवेश्य, कण्ठिकां कण्ठिकाभरणं पदि चरणे निवेश्य,
पदांगदं नूपुरं उच्चैः कंठपीठलुठितं रचयन्ती ॥ पुनः किं
लक्षणा स्त्री ? मजनात् परं स्नानादनन्तरं असंयतकेशी अबद्ध१८ कुन्तला। पुनः किंलक्षणा स्त्री वैपरीत्यविधृतांशुकयुग्मं परिधान
वस्त्रं शीर्षे शीर्षवस्त्रं परिधाने, एवं विपरीतत्वेन धृतवस्त्रयुगला ॥ ४२ ॥ ४३ ॥ युग्मम् ॥
यौवतेन जविना वरवीक्षा
धाविना विधुरितप्रसरान्या ।
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१८३
सर्गः] जैनकुमारसंभवं
पत्युरिष्टमपि मंदितचारं
खं निनिन्द जघनस्तनभारम् ॥४४॥ निर्मि० अन्या स्त्री पत्युरिष्टमपि भर्तुरभीष्टमपि, मन्दित-३ चारं मन्दीकृतगमनं, खं आत्मीयं जघनस्तनभारं निनिन्द । किंलक्षणा स्त्री अन्या ? जविना वेगवता यौवतेन युवतीसमूहेन विधुरितप्रसरा मन्दीकृतत्वरितरागमना । किंलक्षणेन यौवतेन ? ६ वरवीक्षार्थ धाविना ॥ ४४ ॥
निनिमेषनयनां नखचर्या ___ऽस्पृष्टभूमिमपरामिह दृष्ट्वा । को नु देव्यजनि पश्यत देव
ध्यानतो द्रुतमसाविति नोचे ॥४५॥ निर्नि० इह समुदये अपरां स्त्रियं निर्निमेषां निमेषरहित-१२ लोचना नखचर्यास्पृष्टभूमिं दृष्ट्वा कः पुमान् इति न ऊचे, इतीति किम् ? भो ! भो ! जनाः पश्यत । असौ स्त्रीषु । इति वितर्के । देवध्यानतो द्रुतं शीघ्रं देव्यजनि, यतो देवतापि १५ निर्निमेषलोचना अस्पृष्टभूमिश्च स्यात् , 'चतुरंगुलेन भूमि न छिवन्ति सुरा जिणा बिन्ति', इति वचनात् ॥ ४५ ॥ प्रागपि प्रभुरभूद्रमणीयः,
१० काधिकास्य विदधे विबुधैः श्रीः। यत्त एव परियन्त्यमुमन्या,
तदिक्षुरिति सेयमुवाच ॥४६॥ प्राग० अन्या स्त्री तदिदृक्षुः तं भगवन्तं द्रष्टुमिच्छुः सती, २२
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१८४
टीकया सहितम्
[पञ्चमः
इति अमुना प्रकारेण, सेयं ईर्षासहितं यथा भवति तथा उवाच । इतीति किम् ? प्रभुः खामी प्रागपि अग्रेऽपि रमणीयोs३ भूत् । विबुधैर्देवैरस्य भगवतः काऽधिका श्रीः शोभा विदधे कृता । यत् यस्मात् कारणात् , त एव विबुधा अमुं भगवन्तं परियन्ति परिवृण्वन्ति ॥ ४६ ॥ ६ मुश्च वर्त्म सखि ! पृष्ठगतापि,
त्वं निभालयसि नाथमकृच्छ्रम् । इत्युपात्तचटुवाक् पुरतोऽभूत् ,
कापि खर्ववपुरुचतरांग्याः ॥४७॥ मुञ्च० कापि खर्ववपुर्वा मनशरीरा स्त्री उच्चतरांग्याः उच्चैस्तरायाः स्त्रिया इति अमुना प्रकारेण उपात्तचटुवाक् १२ गृहीतचाटुवचना सती पुरोऽग्रेऽभूत् । इतीति किम् ? हे
सखि ! त्वं वर्त्म मार्ग मुंच, त्वं पृष्ठगतापि पृष्ठौ स्थितापि
सती नाथं खामिनं अकृच्छ्रे सुखेन निमालयसि विलोक१५यिष्यसि ।। ४७॥
एवमद्भुतरसोम्भितनारी
नेत्रनीलनलिनांचितकायः। ४ तासु काञ्चनमुदं प्रददाना,
खालयाग्रमगमजगदीशः॥४८॥ एव० जगदीशो जगन्नाथः खालयानं खीयावासद्वारं अगमत् । किंलक्षणो जगदीशः १ एवं पूर्वोक्तप्रकारेण अद्भुत२२ रसोम्भितनारीनेत्रनीलनलिनांचितकायः, अद्भुतरसेन उम्भि
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सर्ग: ]
जैनकुमारसंभवं
१८५
ज्ञानां पूरितानां नारीणां नेत्रैरेव नीलनलिनैर्नील कमलैः अंचितः पूजितः, कायो देहो यस्य सः । पुनः किंलक्षणः स्वामी ? तासु स्त्रीषु काञ्चनमुदं काञ्चनपूर्वी मुदं हर्षं प्रददानः, ३ पक्षे कांचनं सुवर्णं प्रभुपूजायाः फलं, 'देवचणेण रजं' इति वचनात् ॥ ४८ ॥
हस्तिनो हसित मेरुमहिम्नो, गाङ्गपूरवदथावतरन्तम् । वासवः शमितपातकतापं,
तं दधौ युगतमेव बलोयः ॥ ४९ ॥
हस्ति० अथानन्तरं वासव इन्द्रस्तं भगवन्तं हस्तिना ऐरावणात् अवतरंतम् स्रुगतमेव आकाशस्थमेव दधौ धृतवान्, किंलक्षणः इन्द्रः ? बलेन उग्रः उत्कटः अथवा उग्र ईश्वरः १२ यथा उम्र ईश्वरो मेरोः मेरुपर्वतादवतरं तं गाङ्गपूरं गङ्गायाः पूरं युगतमेव आकाशस्थमेव दधौ धृतवान् । किंविशिष्टाद् हस्तिनः ? हसितमेरुमहिम्नः । किंलक्षणं तं भगवन्तम् ? १५ शमितपातकतापम् ॥ ४९ ॥
हेमकान्तिहरिणा हरिणाक्षीयामलं पुनरदीयत शच्यै ।
पाणिभूषणतया क्षणमस्या
स्तत्सुवृत्तमभजद्वलयाभाम् ॥ ५० ॥
हेम० हरिणा इन्द्रेण हेमकान्तिसुवर्णवत्कान्तिर्यस्य तद् हेमकान्ति, हरिणाक्षीयामलं वधूयुगलं, पुनः शच्यै इन्द्राण्यै २२
१८
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टीकया सहितम्
[पञ्चमः
अदीयत दत्तम् । तत् हरिणाक्षीयामलं क्षणं अस्याः शच्याः पाणिभूषणतया हस्ताभरणत्वेन वलयानां शोभा वलयशोभां ३अभजत । किंलक्षणं हरिणाक्षीयामलम् ? सुवृत्तं शोभनं वृत्तं चरित्रं यस्य, पक्षे सुष्टु वृत्तं वृत्ताकारम् ॥ ५० ॥
अंसदेशमनयन्नयशाली,
तं हरिः स्वमथ शच्यपि वध्वौ । शक्तिमत्त्वमखिलापघनेभ्यो,
विश्रुतं किमु परीक्षितुमस्य ॥५१॥ ९ अंश० अथानन्तरं नयशाली न्यायेन शोभत इति, नयशाली हरिरिन्द्रस्तं भगवन्तं खं आत्मीयं अंसदेशं स्कन्धप्रदेशं अनयत् । शच्यपि इन्द्राण्यपि वध्वौ सुमङ्गलासुनन्दे १२खं अंसं अनयत् अलात् , किं कर्तुं ? अस्य अंसदेशस्य अखिला
पघनेभ्यः समस्तावयवेभ्यो विश्रुतं विख्यातं शक्तिमत्त्वं
शक्तियुक्त्वं, परीक्षितुं किमु ॥ ५१॥ १५ विश्वविश्वविभुना परिण?
कांसभूरपि विभुः स भूणाम् ।
सङ्गतां सयुगलामबलाभ्यां, १४ न स्वतः प्रणयिनी बहु मेने ॥५२॥
विश्व० स ऋभूणां विभुरिन्द्रः विश्वविश्वविभुना परिणबैकांसभूरपि समग्रविश्वाधिपेन व्याप्तैकस्कन्धस्थानोऽपि सन् , उभाभ्यां सुमंगलासुनन्दाभ्यां अबलाभ्यां सङ्गतां सयुगलां २२ मिलितस्कन्धयुग्मामपि प्रणयिनी इन्द्राणी खत आत्मनो न
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सर्गः] जैनकुमारसंभवं
१८७ बहु मेने । कोऽर्थः ? इन्द्रेण भगवान् एकस्मिन्नेव स्कन्ध आरोपित इन्द्राण्या उभयो स्कन्धयोः वधूयुग्ममारोपितं तेन आत्मानं न्यूनत्वेन न मेने । भगवान् एकोऽपि गुरुः, वध्वौ तु अबले ३ इति भावः ॥ ५२ ॥
तत्र तौ प्रमदनिर्मितनृत्यौ,
तं च ते च परितोषयतः स्म । क्ष्मां तदंहिकमलस्पृहयालं,
प्रक्षरत्सुमचयैः सुखयन्तौ ॥ ५३ ॥ तत्र तत्र तस्मिन्नवसरे तो शचीन्द्रौ प्रमदनिर्मितनृत्यौ ५ हर्षेण कृतनाट्यौ सन्तौ तं च भगवन्तं ते च कन्ये परितोषयतः स्म, हर्षयतः स्म । किं कुर्वन्तौ शचीन्द्रौ ? तदंहिकमलस्पृहयालं तस्य भगवतश्चरणकमलस्पृहणशीलां मां पृथ्वी १२ प्रक्षरद्भिः सुमचयैः पुष्पसमूहैः सुखयन्तौ ॥ ५३ ।।
अप्सरोभिरिति कौतुकगाने
ऽप्यस्य न स्मरवशत्वमभाणि । मास लजिततरस्तरुणीना
मिष्टमेष कषदेकभटस्तम् ॥ ५४॥ अप्स० अप्सराभिर्देवांगनाभिरित्यस्मात् कारणात् कौतुकगाने १८ कौतुकेन गीतगानमध्येऽपि अस्य भगवतः स्मरवशत्वं न अभाणि न भणितम् । इतीति किम् ? एकभट एष भगवान् लज्जिततरो लज्जितः सन् तरुणीनां स्त्रीणां इष्टं तं स्मरं तं कंदर्प मास्म कपद् मास्म हिंसीत् ॥ ५४ ॥
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टीकया सहितम्
[पञ्चमः
नेत्रमण्डलगलज्जलधारा
धिष्ण्यबन्धुरिमधूर्वहदेहः। ३ तं शतक्रतुरथो कृतकृत्यः,
स्वर्यियासुरभिवन्द्य जगाद ॥ ५५॥ नेत्र० अथो अथानन्तरं शतक्रतुरिन्द्रः कृतकृत्यः ६निष्पादितसर्वकार्यः सन् खर्यियासुः खर्गगमनमिच्छुः, तं भगवन्तमभिवन्द्य जगाद । स्थाने मुक्त्वा इत्यूचिवान् । किंलक्षणः इन्द्रः ? नेत्रमण्डलगलज्जलधाराधिष्ण्यबन्धुरिमधूर्वहदेहः, ९ नेत्रमंडलाद् गलज्जलं तेन धाराधिष्ण्यस्य धारागृहस्य बन्धुरिम्नो मनोज्ञत्वस्य धूर्वहो भारवाहो देहो यस्य स नेत्रमंडलगलजलधाराधिष्ण्यबन्धुरिमधूर्वहदेहः ॥ ५५ ॥
रूपसिद्धिमपि वर्णयितुं ते,
लक्षणाकर ! न वाक्पतिरीशः।
यचतुष्ककलनाऽपि दुरापा, १५ तद्धि तत्प्रकरणं मनुते कः ॥५६॥
___ रूप० हे लक्षणाकर ! भृङ्गारचामरयुगध्वजयुग्मशङ्खमंजीरनीरधिसरित्पुरपुष्करिण्य इत्याद्याष्टोत्तरसहस्रलक्षणानामाकरो यः, १८ पक्षे लक्षणानां व्याकरणानां आकरस्तस्य संबोधनम् । वाक्
पतिबृहस्पतिः। ते तव रूपसिद्धिमपि रूपं शरीरसत्कं तस्य सिद्धिः, पक्षे रूपसिद्धिः तामपि वर्णयितुं न ईशो न समर्थः । २१ यच्चतुष्ककलना पि दुरापा, यस्य भगवतः चतुष्कावसरः सभाव
सरः तस्य कलनापि दुःप्रापा वर्तते । तद्धितप्रकरणं तस्य २३ भगवतो हितप्रकरणं तदा को मनुते को जानाति, अपि तु न
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सर्ग: ]
जैनकुमारसंभवं
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कोऽपि । यस्य चतुष्के सभायामपि गन्तुं न शक्यते तस्य हितप्रकरणं हितचिन्ता कथं क्रियते ? द्वितीयेऽर्थे तस्य लक्षणाकरस्य तद्धितप्रकरणं तद्धितवृद्धिं को मनुते यस्य ३ चतुष्कस्य आद्यवृत्तेः कलनापि दुरापा दुःप्रापाऽस्तीति ॥ ५६ ॥
यन्महः समुपजीव्य जडोऽपि, स्यात्कलाभृदिति विश्रुतिपात्रम् ।
यन्नये विनयनं तव तस्य, द्योतनं द्युतिपतेस्तदधीश ! ॥ ५७ ॥
यन्म० हे नाथ ! यस्य तव महः समुपजीव्य जडोsपि ९ मूर्खोऽपि कलाभृदिति विश्रुतिपात्रं कलावान् इति विश्रुतिपात्रं ख्यातिस्थानं स्यात् । पक्षे यन्महः यस्य द्युतिपतेः सूर्यस्य महस्तेजः समुपजीव्य जडोऽपि चन्द्रः कलाभृत् स्यात् । १२ अमावास्यायां सूर्याचन्द्रमसौ सङ्गतः स्यातां, ततश्चन्द्रः सूर्यतेजः प्राप्य प्रतिपदि गोभिर्विलोक्यः स्यात्, द्वितीयायां मानुषैः । एवं कलाधर इति प्रसिद्धः स्यात् । तस्य तव नये न्यायविषये १५ यद्विनयनं शिक्षणं हे अधीश ! तत् द्युतिपतेः सूर्यस्य द्योतनं प्रकाशनं वर्तते ॥ ५७ ॥
वच्मि किञ्चन पुनः प्रभुभक्त्या, ये इमे ऋजु (कृत ? ) मती कुलकन्ये ।
आते भगवता सुविनीते,
प्रेम जातु न तयोः श्लथनीयम् ॥ ५८ ॥ वच्मि० हे नाथ ! अहं पुनः किंचन प्रभुभक्त्या वच्मि, ये२२
१८
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टीकया सहितम्
[पञ्चमः
इमे कृतमती विचक्षणे सुविनीते कुलकन्ये सुमंगलासुनन्दे भगवता आहते, (तयोः) प्रेम स्नेहो जातु कदाचिदपि न ३ श्लथनीयम् ॥ ५८॥
यः परोऽपि विभुमाश्रयतेऽसौ,
तस्य पुण्यमनसः खलु पाल्यः। किं पुनः कुलवधूरवधूय,
प्रेम पैतृकमुपान्तमुपेता ॥ ५९ ॥ यः० हे नाथ ? यः परोऽपि अन्योऽपि विभुं खामिनं ९ आश्रयते, खलु निश्चितं असौ पुमान् पुण्यमनसः, तस्य विभोः पाल्यः पालनीयः । किं पुनः ? कुलवधूः कुलवधूनां किमुच्यते, या पैतृकं प्रेम अवधूय पितृस्नेहं त्यक्त्वा उपान्तं १२ खामिसमीपं उपेता समेता ॥ ५९ ॥
ये द्विषत्सु सहना इह गेहे
नर्दिनः प्रणयिनी प्रति चण्डाः । १५ ते भवन्तु पुरुषाश्चरितार्थाः,
__ श्मश्रुणैव न तु पौरुषभंग्या ॥६॥
ये. हे नाथ ये पुरुषा इह जगति द्विषत्सु वैरिषु १८ सहनाः क्षमापरा वर्तन्ते । किंलक्षणा ये ? गेहेनर्दिनो गेहे
शूराः । पुनः किंलक्षणाः ? प्रणयिनी प्रति चण्डाः कलत्रं प्रति रौद्राः । ते पुरुषाः श्मश्रुणैव कूर्चेनैव चरितार्थाः, सत्यार्थाः २९ भवन्तु । न तु पौरुषभझ्या न तु पराक्रमव्युत्पत्त्या । उक्तं च __पात्रे त्यागी गुणे रागी भोगी परिजनैः सह । शास्त्रे बोद्धा रणे २३ योद्धा, पुरुषः पञ्चलक्षणः' ॥१॥ हीनत्वात् तेषाम् ॥ ६०॥
___
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सर्गः] जैनकुमारसंभवं
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१९१ अन्तरेण पुरुषं न हि नारी,
तां विना न पुरुषोऽपि विभाति । पादपेन रुचिमंचति शाखा,
शाखयैव सकलः किल सोऽपि ॥ ६१ ॥ अन्त० हे नाथ ! नारी स्त्री पुरुष अन्तरेण विना नहि भाति न शोभते, पुरुषोऽपि तां नारी विना न विभाति, शाखा ६ पादपेन वृक्षेण रुचिं शोभां अंचति प्राप्नोति, सोऽपि पादपोऽपि शाखयैव सकलः संपूर्णो वर्तते ॥ ६१ ॥
मुक्तिरिच्छति यदुज्झितदारं
स्त्री स्त्रियं न हि सहेत स हेतुः। कामयन्त इतरे तु महेला
युक्तमेव पुरुषं पुरुषार्थाः ॥ ६२ ॥ मुक्ति० मुक्तिमोक्षरूपः पदार्थः यत् उज्झितदारं त्यक्तकलत्रं पुरुषं इच्छति, स हेतुरयं ज्ञेयः, यत् स्त्री स्त्रियं न हि सहेत । इतरे धर्मार्थकामाः पुरुषार्था महेलायुक्तं स्त्रीयुक्तमेव पुरुष १५ कामयते ॥ ६२ ॥
योषितां रतिरलं न दुकूले,
नापि हेनि न च सन्मणिजाले। १८ अन्तरङ्ग इह यः पतिरङ्गः,
सोऽदसीय हृदि निश्चलकोशः ॥ ६३॥ योषि० हे नाथ ! योषितां स्त्रीणां अलं अत्यर्थ दुकूले पट्टदुकूले न रतिः, नापि हेम्नि सुवर्णे । च पुनः, सन्मणिजाले २२
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टीकया सहितम्
[ पञ्चमः
प्रशस्यमणिसमूहे न रतिः, इह जगति अन्तरङ्गो यः पतिरंगः, स अदसीय हृदि अमूषां योषितां हृदये निश्चलकोशो ३ भांडागारः ॥ ६३ ॥
स्पष्टनैकगुणमुज्झति नैका दीनवाजनमदीनमनस्कः ! चञ्चलापि किमनल्पगुणाढ्या,
मौग्ध्यहेतुरनयोरनयोऽपि, स्वामिना समुचितो ननु सोढुम् । कारिकासु सिकताधिकतायाः,
किं प्रकुप्यति नदीषु नदीशः ॥ ६५ ॥
०
मौग्ध्य • हे नाथ! अनयोर्वध्वोरनयोऽन्यायोऽपि खामिनो ननु निश्चितं सोढुं समुचितो योग्यः । किंविशिष्टोऽनयः ? मौग्ध्यहेतुः मौग्ध्यं मुग्धता हेतुः कारणं यस्य सः । नदीशः समुद्रः १५ किं नदीषु प्रकुप्यति ? कोपं कुरुते अपितु नैव, किंलक्षणासु नदीषु ? सिकताधिकताया सिकतानां अधिकताया आधिक्यस्य कारिकासु कुर्वाणासु ॥ ६५ ॥
मन्तुमन्तमपि भावविशुद्धं, शुद्धमेव गणयन्ति गुणज्ञाः । मान्य एव शुचिरंतरिहेभ्यस्त्रैणकण्ठरसिकोsपि हि हारः ॥ ६६ ॥
१२
१८
धीयते न कुलमूर्ध्नि पताका ॥ ६४ ॥
२१
* टीकात्र नोपलब्धा प्राप्तयोरादर्श प्रत्योः संपादकः ।
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सर्ग: ]
जैनकुमारसंभवं
१९३
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* स्पष्ट हे नाथ ? अदीनमनस्कः उदारहृदयः, एका दीनवात् एकम्मात् आदीनवात् दूषणात् स्पष्टनैकगुणं प्रकटानेकगुणं जनं न उज्झति, अनल्पगुणाढ्या अनल्पैर्बहुभिर्गुणैर्विन-३ दिभिस्तंतुभिवा, आढ्या समृद्धा चञ्चलाऽपि पताका कुलमूर्ध्नि कुलं आवामं गोत्रं वा तस्य मूर्ध्नि मस्तके (किं ? ) न धीयते अपि तु य एव ॥ ६४ ॥
मन्तु हे नाथ ! गुणज्ञाः पुरुषाः मन्तुमन्तमपि अपराधिनमपि पुरुषं भावविशुद्धं शुद्धमेव गणयन्ति । इहैष दृष्टन्तः, I हि निश्चितं इभ्यस्त्रैणकंठरसिकोऽपि इभ्या धनवन्तस्तेषां स्त्रैणं ९ स्त्रीसमूहस्तस्य कण्ठे रसिकोऽपि कण्ठासक्तोऽपि हारः अन्तमध्ये शुचिः पवित्रः सन् मान्य एव ॥ ६६ ॥ त्वं परां नृषु यथाञ्चसि कोटिं, स्त्रीविमे अपि तथा प्रथिते तत् । प्रेम्णि वीक्ष्य घनतां जनता वः, स्थैर्यमावहतु दंपतिधर्मे ॥ ६७ ॥ त्वं ० हे नाथ ? त्वं नृषु पुरुषेषु यथा परां कोटिं अग्र विभागं अञ्चसि प्राप्नोसि, तथा इमे अपि सुमंगला सुनन्दे स्त्रीषु प्रथिते विख्याते । तत् तस्मात् कारणात् जनता जनसमूहो वः युष्माकं १ प्रेम्णि स्नेहे घनतां दृढतां वीक्ष्य दंपतिधर्मे दयिता च पतिश्व दंपती तयोर्धर्मे स्थैर्यं आवहतु ॥ ६७ ॥ प्राप्तकालमिति वाक्यमुदित्वा, मोदभाजि विरते सुरराजे ।
* टीकेयं लेखकदाषादत्र पतिताऽपि यथास्थानं वाच्येत प्रार्थयति सम्पादकः ।
जे०
१० कु० १३
.
ર
14
२२
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१९४
आलपत्कुलवधूसमयज्ञा, शच्यपि प्रथमनाथनवोढे ॥ ६८ ॥
३
प्राप्त कुलवधूसमयज्ञा कुलवधूनामाचारज्ञा शच्यपि इन्द्राण्यपि प्रथमनाथनवोढे श्रीयुगादिदेवकलत्रे, सुमंगला सुनन्दे आलपत् उवाच । क्क सति ? प्राप्तकालं प्राप्तावसरम् इति ६ पूर्वोक्तं वाक्यं उदित्वा घटयित्वा मोदभाजि हर्षभाजि सुरराजे इन्द्रे विरते निवृत्ते सति ॥ ६८ ॥ यस्य दास्यमपि दुर्लभमन्यैस्तत्प्रिये बत युवां यदभूतम् । भाग्यमेतदलमत्रभवत्योः,
१८
टीका सहितम्
कः प्रवक्तुमलमत्रभवत्योः ॥ ६९ ॥ यस्य ० हे कुलीने ! यस्य भगवतो दास्यमपि अन्यैः दुर्लभं वर्तते । बत इति वितर्के । युवां यत् तत्प्रिये तस्य स्वामिनो दयिते अभूतं जाते । एतत् अलं अत्यर्थ अत्रभवत्योः पूज्ययो१५ र्भवत्योः युवयोर्भाग्यं । अत्र जगति । कः पुमान् प्रवक्तुं प्रकर्षेण जल्पितुं अलं समर्थो भवेत् । अपि तु न कोऽपि ॥ ६९ ॥ देवदेवहृदि ये निविशेथे, ते युवां न भवथोऽन्यविनेये । स्वान्तमेव मम धृष्टधुरीणं,
२१.
[ पञ्चमः
यच्छशिक्षयिषु वामपि कामम् ॥ ७० ॥
देव० हे सुमंगलानन्दे युवां ये देवदेवहृदि देवदेवस्य श्रीयुगादीशस्य हृदये निविशेथे वसथः, ते युवां अन्यविनेये २३ अन्यशिक्षणीये न भवथः । मम खान्तमेव चित्तमेव धृष्टधुरीणं
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सर्गः]
जैनकुमारसंभवं १९५ वर्तते, यत् स्वान्तं वामपि कामं अत्यर्थ शिशिक्षयिषु शिक्षयितुमिच्छु वर्तते ॥ ७० ॥
श्रोत्रयोर्गुरुगिरां श्रुतिरास्ये,
सूनृतं हृदि पुनः पतिभक्तिः । दानमर्थिषु करे रमणीना
मेष भूषणविधिविधिदत्तः॥ ७१॥ ६ श्रोत्र० रमणीनां स्त्रीणां एष भूषणविधिविधिदत्तो वर्तते, विधिना विधात्रा दत्तो विधिदत्तः । एष कः ? श्रोत्रयोः कर्णयोः गुरुगिरां श्रुतिगुरुवाणीनां श्रवणम् । आस्ये मुखे ९ सूनृतं सत्यवचः । पुनः । हृदि पतिभक्तिः । करे अर्थिषु याचकेषु दानम् ॥ ७१ ॥ सुभ्रवां सहजसिद्धमपास्यं,
चापलं प्रसवसम विपत्तेः । येन कूलकठिनाश्मनिपाता
द्वीचयोऽम्बुधिभुवोऽपि विशीर्णाः ॥ ७२ ॥ १५ सुश्रु० सुभ्रुवां स्त्रीणां चापलं चपलत्वं सहजसिद्धं अपास्यं त्याज्यं त्यजनयोग्यं वर्तते । किंलक्षणं चापलम् ? विपत्तेः विनाशस्य प्रसवसद्म जन्मस्थानम् । येन चापलेन कूलकठिनाश्म-१८ निपातात् , कूलं तटं तत्र ये कठिना अश्मानः पाषाणाः तत्र निपातात् पतनात् अम्बुधिभुवोऽपि समुद्रजाता अपि वीचयः कल्लोला विशीर्णा भग्नाः ॥ ७२ ॥
चापलेऽपि कुलमूर्ध्नि पताका, तिष्ठतीति हृदि मा म निधत्तम् ।
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१९६ टीकया सहितम् [पञ्चमः
प्राप साऽपि वसति जनबाह्यां,
दण्डसंघटनया दृढबद्धा ॥ ७३ ॥ ३ चाप० हे कुलीने ! हृदि इति मा म निधत्तं चित्ते इति
मा म चिन्तयन्तम् । इतीति किम् ? पताका चापलेऽपि चपलत्वेऽपि सति, कुलमूर्ध्नि कुलं गृहं गोत्रं वा तस्य मूर्ध्नि मस्तके ६ तिष्ठति । सापि पताका दण्डसङ्घटनया दृढ बद्धा सती जनबाह्यां वसतिं वासं प्राप ।। ७३ ।।
अस्ति संवननमात्मवशं चे
दौचितीपरिचिता पतिभक्तिः। मूलमंत्रमणिभिर्मूगनेत्रा
स्तद् भ्रमन्ति किमु विभ्रमभाजः॥ ७४ ॥ १२ अस्ति० हे कुलीने ! स्त्रीणां चेत् यदि औचितीपरिचिता
औचित्यगुणयुक्ता पतिभक्तिरात्मवशं संवननं वशीकरणमस्ति, तत् तस्मात् कारणात् मृगनेत्राः स्त्रियो मूलमंत्रमणिभिः १५किमु किमर्थं विभ्रमभाजो भ्रमभाजो भ्रमन्ति ॥ ७४ ॥
भोजिते प्रियतमेऽहनि भुंक्ते,
या च तत्र शयिते निशि शेते । १८ प्रातरुज्झति ततः शयनं प्राक्,
__सैव तस्य सुतनुः सतनुः श्रीः॥ ७५ ॥
भोजि० या स्त्री प्रियतमे भत्तरि अहनि दिवसे भोजिते २१ सति भुंक्ते । च पुनः या तत्र प्रियतमे निशि रात्रौ शयिते सति
शेते । प्रातः प्रभाते तत् प्रियतमात् प्राक् पूर्वं शयनं उज्झति २३ त्यजति । तस्य प्रियतमस्य सैव सुतनुः स्त्री सतनुः मूर्तिमती
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सर्गः] जैनकुमारसंभवं १९७ श्रीः लक्ष्मीः स्यात् , उक्तं च-"अनुकूला, सदा तुष्टा दक्षा साध्वी विचक्षणा । एभिः पंचगुणयुक्ता श्रीरिव स्त्री न संशयः" ।। ७५ ॥
नेत्रपद्ममिह मीलति यस्या,
वीक्षिते परपुमाननचन्द्रे । श्रीगृहं सृजति पंकजिनीव,
तामिनः स्वकरसङ्गमबुद्धाम् ॥ ७६ ॥ नेत्र० यस्याः स्त्रियाः परपुमाननचन्द्रे परपुरुषमुखचन्द्रे वीक्षिते सति नेत्रपद्मं मीलति संकुचति । इनो भर्ता सूर्यो वा९ खकरसङ्गमबद्धां आत्मीयकरस्पर्शनविकसितां तां स्त्रियं पंकजिनीव कमलिनीवत् श्रीगृहं सृजति, आत्मीयगृहसत्कसर्वलक्ष्मीस्थानं करोतीति भावः ॥ ७६ ॥ मास तप्यत तपः परितक्षीत्,
मा तनूमतनुभिर्वतकष्टैः। इष्टसिद्धिमिह विन्दति योषि
चेन लुम्पति पतिव्रतमेकम् ॥ ७७॥ माम० तपः मा म तप्यत तनूं शरीरं अतनुभिर्बहुभिव्रतकष्टैमा परितक्षीत् मा कृशां कार्षीत् । योषित् स्त्री इह जगति १८ चेत् यदि एकं पतिव्रतं शीलं न लुम्पति तदा इष्टसिद्धिं विन्दति लभते ॥ ७७ ॥
उग्रदुर्ग्रहमभंगमयत्न
प्राप्यमाभरणमस्ति न शीलम् । २२
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१९८
टीकया सहितम् [पञ्चमः चेत्तदा वहति कांचनरत्नै
वीवधं मृदुपलैमहिला किम् ॥ ७८ ॥ ३ उग्र० स्त्रीणां चेत् यदि उग्रदुर्ग्रहं उत्कटैर्दुह्यं अभङ्गं अयत्नप्राप्यं शीलं आभरणं नास्ति, तदा महिला स्त्री मृदुपलैः मृत्तिकापाषाणरूपैः कांचनरत्नैः वीवधं भारं किं वहति ॥ ७८॥
मजितोऽपि धनकजलपंके,
शुभ्र एव परिशीलितशीलः। स्वर्धनीसलिलधौतशरीरो
ऽप्युच्यते शुचिरुचिन कुशीलः ॥ ७९ ॥ .. ___मजि० परिशीलितशीलः पालितशीलः पुमान् घनकज्जल
पंके घने निचिते कर्दमकजले मज्जितोऽपि त्रुडितोऽपि १२ शुभ्र एवोज्वल एव । कुशीलः पुमान् खर्धनीसलिलधौत
शरीरोऽपि गङ्गाजलक्षालितदेहोऽपि शुचिरुचिः पवित्रकान्तिनों
च्यते॥ ७९ ॥ १५ कष्टकर्म न हि निष्फलमेत
, चेतनावदुदितं न वचो यत् । शीलशैलशिखरादवपातः,
पातकापयशसोर्वनितानाम् ॥ ८॥ कष्ट० कष्टकर्म कृतं सत् निष्फलं न हि स्यात् , न एतत् चेतनावदुदितं चेतनावता सचेतनेन उदितं कथितम् । यत् २. यस्मात् कारणात् , वनितानां स्त्रीणां शीलशैलशिखरात् अवपातः,
शीलमेव शैलः पर्वतः तच्छिखरात् अवपातं पतनं पातकाऽप२३ यशसे स्यात् । कोऽर्थः ? एकेचन भृगुपातादि कष्ट कर्म कृत्वा
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सर्गः] जैनकुमारसंभवं
१९९ भवान्तरे राज्यादिसुखं वाञ्छन्ति, एतत् मिथ्या । कथमिति ? शीलरूपपर्वतात् पतनतः स्त्रीणां पापाऽपयशोदुःखादीन्येव स्युन तु सुखमिति भावः ॥ ८०॥ .
या प्रभूष्णुरपि भर्तरि दासी
भावमावहति सा खलु कान्ता । कोपपंककलुषा नृषु शेषा,
योषितः क्षतजशोषजलूकाः ॥ ८१ ॥ या० या स्त्री प्रभूष्णुरपि समर्थापि सति भर्तरि प्रियतमे दासीभावमावहति, खलु निश्चितं सा कान्ता पत्नी ज्ञेया । शेषा ९ योषितः कोपपंककलुषाः सत्यो नृषु पुरुषेषु क्षतजरुधिरशोषाय जलूका ज्ञेयाः ॥ ८१ ॥
रोषिताऽवगणिता निहताऽपि,
प्रेम नेतरि न मुंचति कुल्या । मेघ एव परितुष्यति धारा
दण्डधोरणिहतापि सुजातिः॥ ८२ ॥ १५ रोषि० कुल्या कुलीना स्त्री रोषिताऽवगणिता निहतापि नेतरि खामिनि प्रेम स्नेहं न मुंचति । यथा सुजातिः शोभना जातिः मालती कुलीना वा धारादण्डधोरणिहतापि मेघसत्कधारारूप-१० दंडश्रेणिहतापि सती मेघे एव परितुष्यति ॥ ८२ ॥
तधुवामपि तथा प्रयतेथां,
स्त्रैणभूषणगुणार्जनहेतोः। येन वां प्रतिदधाति समस्ता,
स्त्रीगणो गुणविधौ गुरुबुद्धिम् ॥ ५३॥ २३
- १२
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टीका सहितम्
[ पञ्चमः
c
तद्यु हे कुलीने ! तत् तस्मात् कारणात् युवामपि भवत्यावपि स्त्रैण भूषण गुणार्जन हेतोः स्त्रीसमूह योग्यालंकार गुणोपार्जननिमित्तं ३ तथा प्रयतेथां उपक्रमं कुर्वाथां येन कारणेन समस्त स्त्रीगणः स्त्रीसमूहो वां युवयोः गुणविधौ गुरुबुद्धिं तदधाति
.२००
धरति ॥ ८३ ॥
६ बुद्धिं शुद्धामिति मतिमतामुत्तमेभ्यः शचीन्द्रा, भक्त्या वेशाद्विशदहृदयों प्राभृतीकृत्य नभ्यः । स्वागस्त्यागं चरणलुठनैः क्लृप्तवन्तौ दिवं ता
०
द्राग्भेजाते चिरविरहतो त्याकुलस्थानपालाम् ८४ बुद्धि तौ शचीन्द्रौ मतिमतां बुद्धिमतामुत्तमभ्यस्तेभ्यो वधूवरेभ्य इति पूर्वोक्तां शुद्धां बुद्धिं भवत्य वेशात प्राभृती१२ कृत्योपदी कृत्य द्राक् शीघ्रं दिवं भेजाते, खर्गलोक तो । किंलक्षणौ शचीन्द्रौ ? विशदहृदयौ, पुनः किं कुवत्यौ (?) स्वागस्त्यागं आत्मीयापराधपरिहारं चरणलुठनैश्च नमस्कारैः १५ क्लृप्तवन्तौ । किंलक्षणां दिवम् ? चिरविरहतो त्याकुलस्थानपालाम् ॥ ८४ ॥
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अन्येऽपीन्द्राः सकलभगवत्कार्यभारे धुरीणं, सौधर्मस्याधिपतिमधरमप्युत्तरं भावयन्तः । धन्यं मन्यास्त्रिभुवनगुरोर्दर्शनादेव देवैः,
१८
२१
साकं नाकं निजनिजमयुर्निर्भरानन्दपूर्णाः ॥ ८५ ॥ अन्ये॰ अन्येऽपीन्द्रा ईशानेन्द्राद्या निर्भरानन्दः सन्तो देवैः साकं निजनिजं नाकं आत्मीयात्मीयं खर्लोकं अयुर्गताः । २३ किं कुर्वन्तः ? सकलभगवत्कार्यभारे धुरीणं भगवतः कार्याणि
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सर्गः] जैनकुमारसंभवं
२०१ तेषां भारे धुरीणं धुर्यं सौधर्माधिपं, सौधर्मेन्द्रं अधरमपि अधस्तनमपि उत्तरं उत्कृष्टं भावयन्तः चिन्तयन्तः । किंलक्षणा इन्द्राः ? त्रिभुवनगुरोर्दर्शनादेव धन्यंमन्याः आत्मानं धन्यं ३ मन्यमानाः ॥ ६॥ इति श्रीअंचलगच्छे कविचक्रवर्तिश्रीजयशेखरसरि विरचितश्रीजैनकुमारसंभवस्य तच्छिष्यश्रीधर्मशेखरसूरि विरचितायां टीकायां ६
श्रीमाणिक्यसुन्दरसूरिशोधितायां पञ्चम
सगेव्याख्या समाप्ता ॥५॥
अथ षष्ठः सर्गः॥ अथाश्रयं स्खं सपरिच्छदेषु,
सर्वेषु यातेषु नरामरेषु । नाथं नवोढं रजनिर्विभक्त
इवेक्षितुं राजवधूरुपागात् ॥१॥ अथा० अथानन्तरं रजनिः राजवधू राज्ञश्चन्द्रस्य, पक्षे नृपस्य चधूनवाढं नवपरिणीतं नाथं विभक्ते एकान्ते ईक्षितुमिवो-१५ पागात् । समेता केषु सत्सु ? । सपरिच्छदेषु सपरिवारेषु, सर्वेषु नरामरेषु, स्वाश्रयं आत्मीयगृहं यातेषु गतेषु सत्सु ॥ १॥ निशा निशाभङ्गविशेषकान्ति
१८ __ कान्तायुतस्यास्य वपुर्विलोक्य । स्थाने तमाश्यामिकया निरुद्धं,
__ दधौ मुखं लब्धनवोदयापि ॥२॥ निशा० निशा रात्रिः लब्धनवोदयापि सती कान्तायुतस्य २२
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२०२
टीकया सहितम् [षष्ठः कलत्रयुक्तस्य अस्य भगवतो वपुः शरीरं विलोक्य दृष्ट्वा तमःश्यामिकया निरुद्धं, अन्धकारकालिम्ना व्याप्तं मुखं स्थाने ३ युक्तं दधौ बभार । किंविशिष्टं वपुः ? निशाभङ्गविशेषकान्ति, निशा हरिद्रा तस्या भङ्गः च्छेदस्तद्विशेषिणी सविशेषा कान्तिर्यस्य तत् निशाभङ्गरुचि, पक्षे निशाया रात्रेभंगे सति ६ विशेषकान्ति, अत्र शब्दच्छलमेव ज्ञेयम् ॥ २॥
अभुक्त भूतेशतनोर्विभूति,
__ भौती तमोभिः स्फुटतारकौघा । ९ विभिन्नकालच्छविदन्तिदैत्य
चर्मावृतेर्भूरिनरास्थिभाजः ॥ ३॥ अभु० भौती रात्रिभूतेशतनोरीश्वरस्य मूर्विभूति अभुक्त १२ सेवते स्म । किंविशिष्टा रात्रिः? तमोभिरन्धकारैरुपलक्षिता । यथा विशेषणे ( ) इति सूत्रे जटाभिस्तापसमपश्यदित्यादि । पुनः किंविशिष्टा ? स्फुटतारकौघा प्रकटतारा१५ समूहा । किंविशिष्टायास्तनोः ? विभिन्नकालच्छविदन्तिदैत्य
चर्मावृतेः विशेषेण भिन्नः, कालः छविः कृष्णकान्तिः दन्ति.
दैत्यवृतिः गजासुरचर्म तदेव आवृति आवरणं यस्याः सा । १८ तस्याः पुनः किंविशिष्टायाः? भूरिनरास्थिभाजः । कोऽर्थः
रानेरन्धकारमेव दैत्यसत्कं कृष्णचर्मवृतिः, तारासमूहा मनुष्यास्थीनि, अतः कारणादीश्वरतनोरुपमानं, रात्रिरिति भावः ॥३॥
न्यास्यन्निशा तस्करपुंश्वलीनां,
नेत्रेषु लोकाक्षिमहांसि हत्वा ।
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सर्गः]
जैनकुमारसंभवं
सूरे गते दुःसहमंडलाये,
तमखिनां हि फलिता कदाशा ॥४॥ न्यास्य० निशा रात्रिोंकाक्षिमहांसि लोकस्य लोचनसत्क-३ तेजांसि हृत्वा तस्करपुंश्चलीनां चौरखैरिणीनां नेत्रेषु न्यास्यत् न्यस्यति स्म । क सति ? दुःसहमण्डलाये दुःसहं मण्डलस्याग्रं मण्डा खड्गो वा यस्य तस्मिन् सूरे सूर्ये सुभटे वा गते द सति । तमखिनां अन्धकारचारिणां पापिनां वा । हि इति खेदे । कदाशा फलिता ॥ ४ ॥ कालीयमालीय गिरेगुंहासु,
भास्वद्भयेनाति निशा तदस्ते । भूबद्धखेलाखिलवस्तु काली
चकार कालेन विना क शक्तिः ॥५॥ १२ काली० इयं निशा रात्रिः काली कृष्णा भावद्भयेन सूर्यभियाहि दिवसे गिरेगेंहासु आलीय निलीय भूत्वा । भूबद्धखेला,.. भुवि पृथ्व्यां रचितक्रीडा सती अखिलवस्तु कालीचकार १५ कालेन विना क शक्तिः ॥ ५॥
कुमुद्वतीं चाकृत रोहिणीं च, ... प्रिये निशां वीक्ष्य शिति सितांशुः। १८ श्रियं च तेजश्च तयोर्ददाना,
- साऽधत्त साधु क्षणदेति नाम ॥६॥ सितांशुश्चन्द्रः शितिं कृष्णां निशां रात्रिं वीक्ष्य कुमुदतीं कुमुदिनी, रोहिणी च द्वे. प्रिये अकृत । सा निशा तयोः २२
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३ साधु युक्तमधत्त ॥ ६ ॥
२०४
टीका सहितम्
[ षष्ठः
"
कुमुहती रोहिण्योः श्रियं च अन्यत्, तेजो, ददाना सती क्षणदा क्षणं उत्सवं ददातीति क्षणदा, पक्षे रात्रिरिति नाम
हरिद्रयेयं यदभिन्ननामा, बभूव गौर्येव निशा ततः प्राक् । संतापयन्ती तु सतीरनाथा
स्तच्छापदग्धाऽजनि कालकाया ॥ ७ ॥
""
हरि० यत् यस्मात् कारणात् इयं निशा रात्रिः हरिद्रया सह ९ अभिन्ननामा सदृशनामा वर्त्तते, यतो “ नाममालायां हरिद्रा कांचनी पीता निशाख्या वरवर्णिनी", इत्यादि । तत् तस्मात् कारणात् । प्राक् पूर्वं गौर्येव गौरवर्णा एव बभूव इति ज्ञायते । १२ तु पुनः । अनाथाः सतीः संतापयन्ती सती तच्छापदस्या कालकाया कृष्ण देहाऽजनि ॥ ७ ॥ किं योगिनीयं धृतनीलकन्था, तमस्विनी तारकशङ्खभूषा । वर्णव्यवस्थामवधूय सर्वा
१५
मभेदवादं जगतस्ततान ॥ ८ ॥
किं० इयं तमखिनी किं योगिनी वर्त्तते किंलक्षणा तमखिनी ? धृतनीलकन्था । पुनः किंलक्षणा तमखिनी ? तारकशङ्खभूषा तारका एव शंख सत्काभरणानि यस्याः सा तारक - २१ कशङ्खभूषा । या जगतो विश्वस्य सर्वां वर्णव्यवस्थां वर्णानां ब्राह्मणादीनां श्वेतकृष्णादीनां वा व्यवस्थामवधूय अभेदवादं २३ एकाकारत्वं विस्तारयामास ॥ ८ ॥
१८
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सर्गः] जैनकुमारसंभवं
२०५ तितांसति श्वैत्यमिहेन्दुरस्या,
जाया निशा दित्सति कालिमानम् । अहो कलत्रं हृदयानुयायि,
कलानिधीनामपि भाग्यलभ्यम् ॥९॥ तितां० इन्दुश्चन्द्र इह जगति श्वैत्यं धवलतां तितांसति विस्तारयितुमिच्छति । अस्य इन्दोर्जाया निशा कालिमानं ६ कृष्णत्वं दित्सति दातुमिच्छति । अहो इति आश्चर्ये । हृदयानुयायि मनोऽनुकूलं कलत्रं कलानिधीनामपि कलावताम प भाग्यलभ्यं स्यात् , यतः चन्द्रस्य कलावतोऽपि निशा प्रियास्ति ॥९॥९
दत्त्वा पतङ्गः प्रवसन्वसु खं,
तमो निरोद्धं भुवि यान्ययुक्त । तैर्दीपभृत्यनिजनाथनाम
विडम्बिनो हन्त हताः पतङ्गाः॥ १० ॥ दत्त्वा० पतङ्गः सूर्यः प्रवसन प्रवासं गच्छन् सन् , खं वसु द्रव्यं तेजो वा दत्त्वा तमो निरोद्धं अन्धकारं स्फोटयितुं यान- १५ दीपभृत्यान् भुवि पृथिव्यां नियुक्त व्यापारिनवान्, तैर्दीपभृत्यैः, हन्त इति वितर्के । निजनाथनाम वेडंबिनः पतंगा हताः, पतङ्गशब्देन सूर्यः शलभाश्चेति शब्दच्छलम् ॥ १० ॥१८ यत्कोकयुग्मस्य वियोगवह्निः
ज्वाल मित्रेऽस्तमिते निशादौ । सोड्योतखद्योतकुलस्फुलिंग,
तद्भुमराजिः किमिदं तमिस्रम् ॥ ११॥ २२
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२०६
टीकया सहितम् [षष्ठः यत्को० यत्कोकयुग्मस्य चक्रवाकमिथुनस्य निशादौ मित्रे सूर्य सुहृदि वा अस्तमिते सति वियोगवह्निर्जज्वाल । इदं तमिस्रं २ अन्धकारम् । किं न धूमराजि वर्तते । किंलक्षणं तमिस्रम् ? सोयोतखद्योतकुलस्फुलिंगं, सोयोतं यत् खद्योतकुलं तदेव स्फुलिंगा यत्र तत् ॥ ११ ॥ ६. अवेत्य पाटच्चरपांसुलानां,
तमोबलादुर्ललितानि तानि ।
प्रभां दिशीन्द्रस्य तमोऽपनोदा९ मदीदृशत् स्वोदयचिह्नमिन्दुः ॥१२॥
अवे० इन्दुश्चन्द्रः इन्द्रस्य दिशि प्रभां अदीदृशत् दर्शितवान् । किंविशिष्टां प्रभाम् ? तमोऽपनोदां तमो अन्धकारं अपनोदयति १२ स्फोटयतीति तमोऽपनोदाम् ? पुनः किंविशिष्टाम् ? खोदयचि- हम् । आविष्टलिङ्गमेतत् । किं कृत्वा ? पाटचरपांसुलानां पाट
चराणां तस्कराणां पांसुलानां असतीनां तमोबलात् तानि ३५वक्तुमशक्यानि दुर्ललितानि दुश्चेष्टितानि अवेत्य ज्ञात्वा ॥१२॥
धामेदमौत्पातिकमानलं, वे
त्यहं वितन्वत्यसतीसमूहे । उदीतमेवैक्षत चन्द्रबिम्ब,
पूर्वांबुधेः कोकनदश्रि लोकः ॥ १३ ॥ धामे० लोकः पूर्वांबुधेः पूर्वसमुद्राच्चन्द्रबिम्ब उदीतमेव ऐक्षत २१ आलुलोके । किंविशिष्टं चन्द्रम् ? कोकनदश्रि कोकनदं रक्तोत्पलं __तद्वत् श्रीः शोभा यस्य तत् । क सति ? असतीसमूहे इति २३ ऊहं विचारं वितन्वति कुर्वति सति । इतीति किम् ? इदं
___
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वर्गः: ]
जैनकुमारसंभवं
औत्पातिकं उत्पातकारि वा अथवा आनलं अनलोऽग्निस्तत्संबंधि धाम तेजो वर्त्तते ॥ १३ ॥
सुधानिधानं मृगपत्रलेखं, शुभ्रांशुकुम्भं शिरसा दधाना | कौसुंभवस्त्रायितचान्द्ररागा,
प्राची जगन्मंगलदा तदाभूत् ॥ १४ ॥
सुधा० प्राची पूर्वदिग् तदा तस्मिन्नवसरे जगन्मङ्गलदा जगतो मङ्गलदायिनी अभूत् । किं कुर्वाणा ? शुभ्रांशुकुंभं शुभ्रांशुः चन्द्रः तमेव कुम्भं कलशं शिरसा दधाना, शुभ्रांशुशब्देन ९ रौप्यं तस्य कलशं दधाना । पुनः किंविशिष्टा : कौसुंभवस्त्रायितचान्द्ररागा, कौसुंभवस्त्रवदाचरितः, चन्द्रसंबंधी रागो यस्याः सा कौसुम्भवस्त्रायितचान्द्ररागा, किंलक्षणं शुभ्रांशुकुंभम् ? सुधा- १२ निधानं अमृतपूर्णम् । पुनः किंविशिष्टम् ? मृगपत्रलेखं मृग एव पत्रलेखा यस्मिन् तं मृगपत्रलेखम् ॥ १४ ॥
सांराविण राजकरोपनीतपीयूपपानैर्विहितं चकोरैः । भास्वद्विरोकापगमाप्तशोकाः,
२०७
कोकाः क्षतक्षारमिवान्वभूवन् ॥ १५ ॥
सांरा० चकोरैर्विहितं कृतं सांराविणं कोलाहलं, कोकाश्चक्रवाकाः क्षतक्षारमिवान्वभूवन् क्षते व्रणे क्षारक्षेपमिवानुभवन्ति स्म । किंविशिष्टैः चकोरैः ? राजकरोपनीत पीयूषपानैः राजा चन्द्रो नृपो वा तस्य करेण हस्तेन किरणैर्वा उपनीतं २२
१५
१८
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२०८ टीकया सहितम् [षष्ठः पीयूषपानं अमृतपानं येषाम् । राजकरोपनीतपीयूष गानेः । किलक्षणाः कोकाः ? भावद्विरोकापगमाप्तशोकाः भास्वतः सूर्यस्य ३ विरोकानां किरणानां अपगमे विनाशे आप्तः प्राप्तः शोको यैः ते भावद्विरोकापगमाप्तशोकाः ॥ १५ ॥
तमस्सु राज्ञा स्वमयूखदण्डै
विखंड्यमानेष्वदयं तमोऽयात् । तमेव भेजे शरणं शरण्यं
लक्ष्माभिधां किं तदलंभि लोकैः ॥ १६ ॥ ९ राज्ञा चन्द्रेण नृपेण वा खमयूखदण्डैरात्मीयकिरणरूप.
दण्डैस्तमःसु अन्धकारेषु अदयं निर्दयं यथा भवति तथा विखंड्यमानेषु सत्सु यत्तमस्तमेव चन्द्रं शरणं भेजे, किं१२ विशिष्टं चन्द्रम् ? शरण्यं शरणहेतुम् । लोकैस्तमो अन्धकारं
लक्ष्माभिधाम् लांछनाभिधानं किं न अलंभि न प्रापितं अपि तु प्रापितमेव ॥ १६॥
अत्रेर्द्विजादुद्भवति स न श्री
तातात्पयोधेविधुरित्यवैमि ।
यजातमात्रप्रतिधिष्ण्यमेषो. १८ क्षिपत्करं श्रीलबलाभलोभात् ॥१७॥
अत्रे० एके चन्द्रं अत्रिनेत्र वदन्ति । कचिच्चतुर्दशरत्नमध्ये समुद्राज्जातं वदन्ति, परं अहं इति अवमि इति जानामि । इतीति किम् ? विधुश्चन्द्रः अत्रेर्द्विजात् अत्रिनाम्नो ब्राह्मणात् २२ उद्भवति स्म उत्पन्नः । श्रीतातात् पयोधेर्लक्ष्मीपितुः समुद्रात्
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सर्गः] टीकया सहितम्
२०९ नोत्पन्नः । हेतुमाह । यत् यस्मात् कारणात् एष विधुश्चन्द्रो जात. मात्रः सन् श्रीलवलाभलोभात् श्रीलक्ष्मीः शोभा वा तस्या लवो लेशस्तल्लाभलोभात् प्रतिधिष्ण्यं प्रतिनक्षत्रं प्रतिगृहं वा करं हस्तं ३ अक्षिपत् । चन्द्रोदये नक्षत्राणि निस्तेजांसि जातानीति भावः । ब्राह्मणा अपि प्रतिगृहं याच्यां कुर्वन्ति, तेन कारणेन भिक्षाचरकुलोत्पन्नश्चन्द्र इति ज्ञायते ॥ १७ ॥
अलोपि सूरोऽपि मयाऽऽपतन्त्या
प्यहं महोऽवग्रहभिद्रहाणाम् । मय्येव जन्मोत्तमपूरुषाणां,
का योगिभोगिष्वपरा मदिष्टा ॥ १८॥ न स्त्री ततः कापि मया समाना, __मानास्पदं या बत सा पुरोऽस्तु । इतीव सल्लक्ष्मलिपींदुपत्र
मुच्चैः समुत्तंभयति स रात्रिः ॥ १९ ॥ अलो० रात्रिः सल्लक्ष्मलिपि सत् विद्यमानं लक्ष्म लांछन- १५ मेव लिपिर्यत्र तत् सलक्ष्मलिपि, इन्दुपत्रं इन्दुश्चन्द्रस्तमेव पत्रं उच्चैरुच्चैस्तरं समुत्तभयति स्म, वादिनो हि उच्चैः पत्रावलम्ब उत्तभयन्ति, उक्तं च "उद्धृत्य बाहू परिरारटीमि यस्यास्ति शक्तिः१० स च वावदीतु ॥ मयि स्थिते वादिनि वादिसिंहे नैवाक्षरं वेत्ति महेश्वरोऽपि" इति पत्रावलम्बो वादिनां ज्ञेयः, उत्प्रेक्ष्यते-- इतीव, इतीति किं मया आपतन्या आगच्छंत्या सूरोऽपि २१ सूर्यः सुभटो वा अलोपि लुप्तः, अहं ग्रहाणां महोऽवग्रहभिद्, महस्तेजस्तस्यावग्रहो विघ्नं तद्भिनद्मीति महोऽवग्रहभित् २२
जै० कु. १४
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जैनकुमारसंभवं [षष्ठः वर्ते, उत्तमपुरुषाणां तीर्थकृच्चक्रवर्तिबलदेववासुदेवाधुत्तमपुरुषाणां जन्म मय्येव मयि सत्यामेव वर्तते, योगिभोगिषु का ३ अपरा अन्या मदिष्टा मत्सकाशात् इष्टा अभीष्टा : कोऽर्थः ? योगिनो हि रात्रावेव प्रायो ध्यानस्तिमितलोचना योगनिद्रामापन्नाः स्युः । भोगिनोऽपि शब्दरूपरसगन्धस्पर्श एतत् ६ पञ्चप्रकारविषयसुखमनुभवन्ति. रात्राविति भावः, तत् तस्मात् कारणात् कापि स्त्री मया समाना न वर्तते, या स्त्री मानास्पदं अहंकारस्थानं अस्ति, सा बत इति वितर्के पुरोऽस्तु अग्रे ९ भवतु ॥ १८-१९ ॥ युग्मम् ॥
अदान्मदान्ध्यं तमसामसाध्यं,
क्षिपाक्षिपादं प्रतिवैरिणां या। १२ तां विंदुरिन्दुर्दयितां चकार,
सारं कलत्रं क कलंकिनो वा ॥ २० ॥ अदा० या क्षिपा रात्रिः तमसां अन्धकाराणां असाध्यं १५ मदान्ध्यं अदात् ददौ । किंविशिष्टानां तमसाम् ? क्षिपा रात्रिर्द
कलत्रं यस्य तं क्षिपादं प्रति चन्द्रं प्रति; पक्षे अक्षिणी लोचने पादौ च द्वन्द्वे अक्षिपादं, तत्प्रति वैरिणाम् । इन्दुश्चन्द्रो विंदुर्वि१०द्वानपि तां दयितां पत्नी चकार । वा अथवा कलंकिनः सारं कलत्रं क वर्तते ॥ २० ॥ विधोरुद्दीतस्य करैरनायि,
दिनायितं यत्प्रसृतैस्त्रियामा। युवाक्षिभृङ्गैस्तदरामि रामा
तरंगिणीसेरमुखाम्बुजेषु ॥ २१ ॥
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सर्गः ]
टीकया सहितम्
२११
विधो० त्रियामा रात्रिरुदीतस्योदितस्य विधोश्चन्द्रस्य करैः किरणैः प्रसृतैः सद्भिर्दिनाथितं दिवसवदाचरितं अनायि अप्रापि । तत् युवाक्षिभृङ्गैः यूनां तरुणानां अक्षिभृङ्गैर्लोचनरूप - ३ भ्रमरैः रामातरंगिणी स्मेरमुखाम्बुजेषु स्त्रीरूपनदी सत्कविकस्वरमुखकमलेषु अरामि रम्यते स्म ॥ २१ ॥ लोके सितांशोर्गमिते मयूखैदुग्धाब्धि केली कुतुकानि देवः । इयेष स वापसुखं सरोज
साम्यं सिसत्यापयिषुः किमक्ष्णोः ।। २२ ।। ९ लोके० स देवः श्रीयुगादीशः स्वापसुखं निन्द्रा सौख्यं इयेष इच्छति स्म । किंलक्षणो भगवान् ? अक्ष्णोर्लोचनयोः सरोजसाम्यं कमलसा दृश्यम् । किं किमु सिसत्यापयिषुः सत्या- १२ पयितुमिच्छुः । क्व सति ? लोके सितांशोश्चन्द्रस्य मयूखैः किरणैर्दुग्धाब्धि केली कुतुकानि क्षीरसमुद्रसत्कक्रीडाकौतुकानि गमिते प्रापिते सति । यथा देवो नारायणः क्षीरसमुद्रे १५ शेते ॥ २२ ॥
तदैव देवैः कृतमग्र्यवर्ण,
समं वधूभ्यां मणिहर्म्यमीशः । ततोऽगुरुगन्धि विवेश शास्त्रं,
मतिस्मृतिभ्यामिव तत्त्वकामः ॥ २३ ॥ तदै ० ततस्ततोऽनन्तरं ईशः श्रीऋषभो वधूभ्यां सुमंगला - २१ सुनन्दाभ्यां समं मणिहर्म्यं मणिसत्कावासं विवेश प्रविष्टः । किंलक्षणं मणिहर्म्यम् ? तदैव देवैः कृतम् ? पुनः किंलक्षणं हर्म्यम् ? अग्र्यवर्ण प्रधानवर्णम् । पुनः किंलक्षणम् ? अगुरूगंधि अगरुणा २४
१८
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२१२
जैनकुमारसंभवं
[ षष्ठः
उद्गन्धितं परिमलबहुलम् । क इव ? तत्त्वकाम इव । यथा तत्त्वकामस्तत्त्वमिच्छुर्मतिस्मृतिभ्यां सह शास्त्रं प्रविशति, ३ किंलक्षणं शास्त्रम् ? प्रधानवर्णं प्रशस्याक्षरं गुरुगन्धि गुरुणा उद्बन्धि उत्पाबल्येन गन्धि गन्धेन परिमलेन युक्तम् । गुरुं विना शास्त्रस्य परिमलो न स्यात् ॥ २३ ॥
विवाहदीक्षाविधिविद्वधूभ्यां, कृत्वा सखीभ्यामिव नर्मकेलीः | निद्रां प्रियीकृत्य स तत्र तल्पे, शिश्ये सुखं शेष इवासुरारिः ॥ २४ ॥
विवा० स भगवान् तत्र तस्मिन् मणिहम्यें मणिमयावासे तल्पे पल्यंके निद्रां प्रियीकृत्य निद्रामेव प्रियां अभीष्टां १२ कलत्रं वा कृत्वा सुखं शिश्ये सुप्तः । क इव ? असुरारिरिव यथा असुरारिः श्रीनारायणः शेषे सुखं खपिति । किंविशिष्टो भगवान् ? विवाहदीक्षा विधिवित् विवाहसत्कदीक्षाया आचारं १५ वेतीति विवाहदीक्षाविधिवत् । किं कृत्वा शिश्ये : सखीभ्यामिव वधूभ्यां सुमंगलासुनंदाभ्यां नर्मकेलीः, क्रीडाकौतुकानि कृत्वा ॥ २४ ॥
त्रिरात्रमेवं भगवानतीत्यानिरुद्धपित्रानुपरुद्धचित्तः । ततस्तृतीयेऽपि पुमर्थसारे,
६
14
२२
प्रावर्ततावक्रमतिः क्रमज्ञः ॥ २५ ॥
त्रिरा० स भगवान् एवं अमुना प्रकारेण त्रिरात्रं रात्रित्रयं
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सर्गः] टीकया सहितम्
२१३ अतीत्य ततस्ततो अनंतरं तृतीयेऽपि पुमर्थसारे पुरुषार्थरहस्ये कामाख्ये प्रावर्तत, किंलक्षणो भगवान् ? अनिरुद्धपित्रा कामेन अनुपरुद्धं अनासक्तं चित्तं यस्य स अनि० । पुनः किंविशिष्टो३ भगवान् ? अवक्रमतिरकुटिलबुद्धिः । पुनः किंवि० भ० ? क्रमशः धर्मार्थकामादीनां क्रमं जानातीति क्रमज्ञः ॥ २५ ॥
भोगाईकर्म ध्रुववेद्यमन्य
जन्मार्जितं खं स विभुर्विबुध्य । मुक्त्येककामोऽप्युचितोपचारै
रभुंक्त ताभ्यां विषयानसक्तः ॥ २६॥ ९ भोगा० स विभुः अन्यजन्मार्जितं प्राग्जन्मन्युपार्जितं खं भोगार्ह कर्म आत्मीयभोगफलकर्म ध्रुववेद्यं अवश्यभोक्तव्यं विबुध्य ज्ञात्वा, मुक्त्येककामोऽपि मुक्तौ एकाभिलाषोऽपि सन् , १२ उचितोपचारैः शीतग्रीष्मवर्षर्तुयोग्योपहारैरसक्तो नासक्तः सन् ताभ्यां सुमंगलासुनन्दाभ्यां समं विषयानमुंक्त ॥ २६॥
न तस्य दासीकृतवासवोऽपि, ___ मनो मनोयोनिरियेष जेतुम् । विगृह्णते स्वस्य परस्य मत्वा,
ये स्थाम तानाश्रयते जयश्रीः ॥ २७॥ १८ न० मनोयोनिः कन्दर्पः, दासीकृतवासवोऽपि सन् दासीकृताः वासवा इन्द्रा येन स दासीकृतवासवोऽपि, तस्य भगवतः मनो जेतुं न इयेष न वांछितवान् । ये पुरुषाः खस्य आत्मीयस्य २१ परस्य अन्यस्य स्थाम बलं मत्वा ज्ञात्वा विगृह्यते विग्रहं कुर्वति, जयश्रीजैत्रलक्ष्मीस्तानाश्रयते ॥ २७ ॥
२३
१५
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२१४:
जैनकुमारसंभवं
[ षष्ठः
श्रोतांसि पश्चापि न पुष्पचाप
चापल्यमातन्वत तस्य नेतुः । खदेहगेहांशनिवासिनां यो,
न शासकः सोऽस्तु कथं त्रिलोक्याः॥२८॥ श्रोतां० तस्य नेतुः खामिनः पञ्चापि श्रोतांसि इन्द्रियाणि ६ पुष्पचापचापल्यं कन्दर्पसत्कचपलत्वं न अतन्वन् नाकुर्वन् ।
यः खदेहगेहांशनिवासिनां खीयदेहरूपगृहकोणवासिनां न शासको न शिक्षकः, स त्रिलोक्याः शासकः कथमस्तु ॥२८॥
या योषिदेनं प्रति दृष्टिभल्ली
चिक्षेप बाधाकरकामबुद्ध्या ।
तामप्यवैक्षिष्ट दृशा स साम्य१२ स्पृशैव शक्तौ सहना हि सन्तः ॥ २९ ॥
या० या योषित् स्त्री एनं भगवन्तं प्रति बाधाकरकामबुद्ध्या दृष्टिभल्लीश्चिक्षेप । बाधाकरकामबुद्धयेति, कामस्तस्या ५५ बाधाकरोऽस्ति, भगवन्तं दृष्ट्वा तया चिंतितं, एष एव कामस्त
तोऽहमपि एनं हन्मीति बुद्ध्या दृष्टिभिल्लीश्चिक्षेप इति भावः ।
स भगवान् तामपि स्त्रियं साम्यस्पृशैव दृशा रागरहितदृशा १८ अवैशिष्ट व्यलोकयत् । हि निश्चितं सन्तो विद्वांसः शक्तौ सत्यां
सहना वर्तन्ते, 'ज्ञाने मौनं क्षमा शक्ती त्यागे श्लाघाविपर्यय' इति न्यायात् ॥ २९ ॥
नासौ विलासोर्मिभिरप्सरोभिरक्षोभि नाव्यावसरागताभिः ।
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टीकया सहितम्
श्रोतः पतेर्यो मनसोऽपि शोषे, प्रभूयते तस्य किमत्र चित्रम् ॥ ३० ॥
नासौ० असौ भगवान् नाट्यावसरागताभिरप्सरोभिर्देवाङ्ग - ३ नाभिः पक्षे अप्प्रधानैः सरोभिर्विलासोर्मिभिः विलासरूपैः ऊर्मिभिः कल्लोलैर्न अक्षोभि न क्षोभितः, 'विलासी नेत्रजो ज्ञेयः' । यो भगवान् श्रोतः पतेः, श्रोतसां इन्द्रियाणां पतिः श्रोतः पतिः, ६ तस्य श्रोतः पतेः मनसोऽपि समुद्रस्य वा शोषे प्रभूयते समर्थो भवति, तस्य भगवतोऽत्र अप्सरोभिरक्षोभणे किं चित्रं किमाश्चर्यम् ॥ ३० ॥
सर्गः ]
जगे न गेयेष्वपि नाकसद्भिः, स्मरस्य साराधिकता पुरोऽस्य । शान्तं सतां वर्धयितुं विरोधं,
लोला कथं सौमनसी विलोला ॥ ३१ ॥
अवारि वैराग्निविवर्धनोऽपि तं नारदो ज्ञीप्सुरनन्यजौजः ।
जीवन्नसौ जीवगणान्नियोध्य,
२१५.
जगे० नाकसद्भिर्देवैरस्य भगवतः पुरोऽग्रे गेयेष्वपि गीतेष्वपि स्मरस्य कंदर्पस्य साराधिकता बलाधिकत्वं न जगे न गीयते १५ स्म । सौमनसी सुमनसां देवानां सतां वा इयं सौमनसी । लोला जिह्वा । सतां साधूनां शांतं उपशान्तं विरोधं वर्धयितुं कथं विलोला चञ्चला स्यात्, अपि तु नैव ॥ ३१ ॥
मां भूरिशस्तोषयितेति बुद्ध्या ॥ ३२ ॥
१२
१८
२२.
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२१६
जैनकुमारसंभवं
[ षष्ठः
अवा० नारदो वैराग्निविवर्धनोऽपि वैररूपनिर्विवर्धनशीलोsपि तं भगवन्तं अनन्यजौज : अनन्यस्य कामस्य ओजो ३ बलं ज्ञीप्सुर्ज्ञापयितुमिच्छुः सन् इति बुद्ध्या अवारि वारितवान् । इतीति किम् ? असौ कन्दर्पो जीवन् सन् जीवगणान जीवसमूहान् नियोध्य संग्रामे पातयित्वा मां भूरिशो धनिकवारान तोषयिता हर्षं प्रापयिष्यति । अत्र नारदवर्णनकं विधर्मत्वात् माविनिभूतवदुपचार इति न्यायाद्वा ॥ ३२ ॥ आद्यापि या तस्य सुमंगलेति, हेतिः स्मरस्याम्खलिता रराज । रंभाप्यरं भारहिता यदग्रे,
रूपं रतेरप्यरतिं तनोति ॥ ३३ ॥
आद्या० तस्य भगवतः आद्या प्रथमा प्रिया सुमङ्गला इति रराज शोभिता । किंलक्षणा सुमङ्गला ? स्मरस्य कंदर्पस्या स्खलिता हेतिः प्रहरणम् । रंभापि अरं अत्यर्थं यदग्रे यस्याः सुमंगलाया १५ अग्रे भारहिता प्रभारहिता जाता, यदग्रे रतेरपि कामभार्याया अपि रूपं अरतिं असमाधिं तनोति करोति ॥ ३३ ॥ यज्वालमालायुजि कांचनेनाहुतिः स्वतन्वा विहिता हुताशे । तत्तेन तुष्टेन यदंगवर्ण
सवर्णतादायि मना किम ॥ ३४ ॥
१९
१८
यज्वा० काञ्चनेन सुवर्णेन हुताशे वैश्वानरे यत् खतन्वा निजशरीरेण आहुतिर्विहिता । किंलक्षणे हुताशे ? ज्वालामाला - २३ युजि ज्वालाश्रेणियुक्ते, तत् तस्मात् कारणात् तेन हुताशेन नु
२१
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सर्गः ]
टीका सहितम्
२१७
तुष्टेन मनाक् स्तोकतरा अस्मै कांचनाय यंगवर्णता यस्याः सुमंगलाया अङ्गवर्णेन सह सवर्णता सदृशताऽदायि दत्ता ॥ ३४ ॥ पद्मं न चन्द्रं प्रति सप्रसाद, तस्योदितः सोऽपि ददाति सादम् । यस्या मुखं द्वावपि तावलुप्त,
श्रीमान् परस्फातिसहः क्क हन्त ॥ ३५ ॥ पद्मं० पद्मं कमलं चन्द्रं प्रति सप्रसादं सुप्रसन्नं न वर्तते । सोऽपि चन्द्र उदितः सन् तस्य पद्मस्य सादं खेदं ददाति । यस्याः सुमंगलाया मुखं कर्तृपदं तावपि द्वौ पद्मचन्द्रौ अलुप्त ९ लुम्पति । हन्त इति वितर्के । श्रीमान् परस्फातिसहः क्व वर्त्तते । श्रीलक्ष्मीः शोभा वा मुखे वसतीति श्रीमत्त्वम् ॥ ३५ ॥
I
पूर्व रसं नीरसतां च पश्चाद्विवृतो वृद्धिमतो जलौघैः ।
जगज्जने तृप्यति तद्भिरेव
स्थानेऽभवन्निष्फलजन्मतेक्षोः ॥ ३६ ॥
पूर्व० इक्षोरिक्षुयष्टेर्निः फलजन्मता स्थाने युक्तं अभवत् किं कुर्वत इक्षोः ? पूर्वं प्रथमं रसं पश्चान्नीरसतां विवृण्वतः प्रकटयतः । पुनः किं कुर्वतः : जलैौधैः पानीयसमूहैर्जड - १८ समूहैर्वा वृद्धिमतो वृद्धियुक्तस्य । क सति : तद्गिरैव तस्याः सुमंगलाया वाण्या एव जगज्जनैर्विश्वलोके तृप्यति सति तृप्तिं प्राप्नुवति सतीत्यर्थः ॥ ३६ ॥ यया खशीलेन ससौरभांग्या, श्रीखंडमन्तर्गडुतामनायि ।
१२
१५
२१
२३
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जैनकुमारसंभवं
[षष्ठः
देवार्चने खं विनियोज्य जात
पुण्यं पुनर्भोगिभिराप योगम् ॥ ३७॥ ३ यया० यया सुमङ्गलया श्रीखण्डं अन्तर्गडुतां निरर्थकतां अनायि गृहीतम् ? किंलक्षणया सुमंगलया ? खशीलेन ससौरभाग्या परिमलसहितशरीरया शीलपरिमलवासितदेहेन; चन्दन६मधरीकृतमित्यर्थः । पुनः किम् ? देवार्चने खं आत्मानं विनियोज्य व्यापार्य जातपुण्यं सत् श्रीखण्डं भोगिभिः सः भोगिभिः पुरुषैर्वा योगं आप ।। ३७ ॥ ५ गरेण गौरीशगलो मृगेण,
__गौरद्युतिर्नीलिकयाम्बु गांगम् ।
मलेन वासः कलुषत्वमेति, १२ शीलं तु तस्या न कथंचनापि ॥ ३८॥ __ गरे० गौरीशगल ईश्वरकंठो गरेण विषेण कलुषत्वं एति
गच्छति, गौरद्युतिश्चन्द्रो मृगेण, गांगं अंबु गंगापानीयं १५ नीलिकया सेवालेन, वासो वस्त्रं मलेन, तु पुनः, तस्याः
सुमंगलायाः शीलं कथंचनापि कथमपि कलुषत्वं नैति, ईश्वरचन्द्रादिभ्यो निर्मलं शीलमित्यर्थः ।। ३८ ॥
उदारवेदिन्युरुमानभित्तो,
सद्वारशोभाकरणोत्तरंगे । उवास वासौकसि वर्मणा या,
गुणैस्तु तैस्तैर्हदि विश्वभर्तुः ॥ ३९ ॥ २२ उदा० सुमङ्गला वर्मणा शरीरेण वासौकसि शरीरेण
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२१९
सर्गः] टीकया सहितम् भवने उवास वसति स्म । तु पुनः, तैस्तैः सुरूपा सुभगा सुवेषा : सुरतप्रवीणा सुनेत्रा सुरम्या विभागिनी विचक्षणा प्रियभाषिणी प्रसन्नमुखी प्रभृति नायिकानां गुणैर्विश्वभर्तुः श्रीऋषभदेवस्य हृदि ३ उवास । किंलक्षणे वासौकसि विश्वभर्तुर्वा हृदि ? उदारवेदिनि उदारा देदयो वरंडिका यत्र तत् उदारचेदि तस्मिन् उदारवेदिनि, पक्षे उत्कृष्टज्ञानिनि । पुनः किंलक्षणे वासौकसि ? उरु-६ मानभित्तौ उरुमाना गुरुप्रमाणा भित्तयो यत्र तत्र उरुमानभित्तौ, . पक्षे उर्वी मानस्य गर्वस्य भित्तिः क्षयो यस्मात् तस्मिन् उस्मानभित्तौ । अत्र भाषितपुंस्कं पुंवद्वेति पुंलिङ्गत्वेऽनुगगमानाऽभूत् ।९ पुनः किं० ? सद्वारशोभाकरणोत्तरंगे सत् द्वारस्य शोभाकरण उत्तरंगो यत्र तस्मिन् सद्वार० । पक्षे सतां वारस्य समूहस्य तत्प्रशस्य वा शोभायाः करणे करणेन वा उत्तरंगे उत्क-१२ ल्लोले ॥ ३९ ॥
घनागमप्रीणितसत्कदम्बा, सारस्वतं सा रसमुद्रिंती ।
१५ रजोत्रज मंजुलतोपनीत,
च्छाया नती प्रावृषमन्वकार्षीत् ॥ ४०॥ घना० . सा देवी सुमंगला प्रावृषं श्रावणभाद्रपदजातं १८ वर्षाऋतुमन्वकार्षीत् अनुचकार । किंविशिष्टा सुमङ्गला ? किंविशिष्टं प्रावृषं वा ? धनागमप्रीणितसत्कदम्बा अर्थवशाद्वि- . भक्तिपरिणामः, धनागमप्रीणितसत्कदंबा घनैरागमैः शास्त्रैः २१ प्रीणिता सतां कदम्बाः समूहा यया सा घनागम० । पक्षे घनानां मेघानां आगमेन प्रीणिताः सन्तः प्रधानाः कदम्बाः२३. .
___
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२२०
जैनकुमारसंभवं
[षष्ठः
कदंबवृक्षा यया, तां घनागम० । पुनः किं कुर्वती ? सारखतं रसं उद्रिंती प्रकटयन्ती सरस्वत्या वाण्या संबन्धितं पक्षे ३ नद्या वा रसं उद्विरन्ती प्रकटयन्ती । पुनः किम् ? रजोत्र पापत्र रेणुव्रजं वा नती क्षयं नयन्ती । किंलक्षणा सुमंगला ? मंजुलतोपनीतच्छाया मंजुलता मनोज्ञत्वं तया उपनीता ६ ढौकिता च्छाया कान्तिर्यस्याः सा, पक्षे मंजवो मनोज्ञा लतावल्लयस्ताभिरुपनीता च्छाया यस्याः सा मंजुलतोपनीतच्छाया ॥ ४० ॥ ९ सेरास्यपद्मा स्फुटवृत्तशालि
क्षेत्रा नदद्धंसकचारुचर्या । याऽपास्तपंका विललास पुष्प
प्रकाशकाशा शरदंगिनीव ॥४१॥ स्मेरा० सा सुमंगला अङ्गिनी मूर्तिमती शरदिव अश्वयुक् कार्तिकसत्कस्तुवद्विललास । किंलक्षणा सुमंगला शरद् वा ? १५ स्मेरास्यपद्मा मेरं विकखरं आस्यपद्मं मुखकमलं यस्याः, पक्षे स्मेरकमला । पुनः किंविशिष्टा ? स्फुटवृत्तशालिक्षेत्रा स्फुटं
प्रकटं औदार्यधैर्यगांभीर्यमाधुर्यादिवृत्तेन चरित्रेण शालि१८ शोभमानं क्षेत्रं शरीरं यस्याः सा स्फुटवृत्तशालिक्षेत्रा; पक्षे
स्फुटानि प्रकटानि वृत्तानि निष्पन्नानि शालिक्षेत्राणि यत्र सा स्फुटवृत्तशालिक्षेत्रा । पुनः किं ? नदद्धंसक चारुचर्या नदयां २१ शब्दायमानाभ्यां हंसकाभ्यां चारुमनोज्ञा चर्या गमनं यस्याः,
पक्षे नदतां हंसकानां चारुचर्या यत्र । पुनः किं० ? अपास्तपंका २३ निराकृतपापा पक्षे शोषितकर्दमा । पुनः किं० ? पुण्यप्रकाशकाशा
१२
प्रकार
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सर्गः] टीकया सहितम्
२२१ पुण्यप्रकाशिका आशा यस्याः सा; पक्षे पुण्याः पवित्राः प्रकाशा प्रकटाः काशा यस्यां सा ॥ ४१॥
सत्पावकार्चिःप्रणिधानदत्ता
दरा कलाकेलिबलं दधाना । श्रियं विशालक्षणदा हिमतॊः,
शिश्राय सत्यागतशीतलास्या ॥ ४२ ॥ ६ सत्पा० सा सुमंगला हिमोंः मार्गशीर्षपौषसंबन्धिनी श्रियं शिश्राय । किंलक्षणा सुमंगला? हिमतुश्चात्राप्यर्थवशाद्विभक्तिपरिणामः, सत्पावकार्चिःप्रणिधानदत्तादरा सत् प्रधानं ९ पावकं पावित्र्यकारकं अर्चिस्तेजः परब्रह्मरूपं तत्र प्रणिधानं ध्यानं येषान्ते सत्पावकाप्रिणिधानास्तेभ्यो दत्त आदरो यया सा० । पक्षे सत् प्रधानं पावकस्य अग्नेः अर्चिस्तेजस्तत् प्रणिधाने १२ दत्तादरा । पुनः किं० ? कलाकेलिबलं दधाना कलासु केलिबलं क्रीडाबलं दधाना, पक्षे कलाकेले: कंदर्पस्य बलं दधातीति कला० । 'कामं निकामं सेवेत शीतकाले' इति वचनात् , १५ पुनः किं० ? विशालक्षणदा विशालं विस्तीर्ण क्षणं उत्सवं ददातीति, पक्षे विशाला क्षणदा रात्रिर्यस्यां सा । पुनः किं० ? सत्यागतशीतलास्या त्यजनं त्यागः, सह त्यागेन वर्तते इति १८ सत्याग एवंविधस्तकारो यत्र । एतावता रहितः शीतलः शब्दः शील इति स्यात् , तस्मिन् शीले आस्या निवेशो यस्याः सा सत्यागतशीतलास्या शीले निश्चला इत्यर्थः, पक्षे सत्येन आगतस्य शीतलस्य आस्य(स्या ?) यस्यां सा ॥ ४२ ॥ २२
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जैनकुमारसंभवं
[षष्ठः
सत्रं विपत्रं रचयन्त्यदभ्रा
गमं क्रमोपस्थितमारुतौघा। सा श्रीदकाष्ठामिनमानयन्ती, ___ गोष्ठ्यां विजिग्ये शिशिरतुकीर्तिम् ॥४३॥ सत्रं० सा सुमङ्गला शिशिरतुकीर्ति माघफाल्गुनयोः ६ कीर्ति विजिग्ये जितवती । किं कुर्वती सुमंगला? हिमतुः सत्रं विपत्रं रचयन्ती, सत्रं सत्रागारं विपत्रं विपत्रायकं विपदो रक्षकं, पक्षे सत्रं वनं पत्ररहितम् । किंलक्षणं सत्रवनं च? अदभ्रागमं ९ अदम्रो बहुः आगमो जनानामागमनं यत्र तं? पक्षे अगमा वृक्षा बहुवृक्षमित्यर्थः । पुनः किंल० सुमंगला ? क्रमोपस्थित
मारुतौघा क्रमयोश्चरणयोरुपस्थितो मारुतौघो मरुतां देवानां १२ सत्क ओघः समूहो यस्याः, पक्षे क्रमेण उपस्थितो मारुतौघः पवनसमूहो यत्र सा० । पुनः किं कुर्वती सुमंगला ? इनं
खामिनं गोष्ठयां श्रीदानां लक्ष्मीदायकानां काष्ठां कोटिं १५ आनयन्ती, गोष्ठयां सखीमध्ये वार्तायां खामिनं लक्ष्मीदायकत्वेन श्लाघयन्तीति भावः । पक्षे इन सूर्यं श्रीदस्य धनदस्य
काष्ठां उत्तरदिशं आनयन्ती ॥ ४३ ॥ १८ उल्लासयन्ती सुमनःसमूह,
तेने सदालिप्रियतामुपेता।
वसन्तलक्ष्मीरिव दक्षिणाहि२१. कान्ते रुचिं सत्परपुष्टघोषा ॥४४॥
उल्ला० दक्षिणा अनुकूला सुमंगला हि निश्चितं कान्ते २३ श्रीऋषभदेवे भर्तरि वसंतलक्ष्मीरिव चैत्रवैशाखसत्कऋतुरिव
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.सर्गः]
टीकया सहितम्
२२३
रुचिं अभिलाषं तेने विस्तारयामास । वसन्तलक्ष्मी दक्षिणस्या दिशः अहिकान्ते पवने रुचिं विस्तारयति । किं कुर्वती सुमंगला वसंतलक्ष्मीश्व ? सुमनसः समूहं सुमनसामुत्तमानां पुष्पाणां च ३ समूहं उल्लासयन्ती । पुनः किंल० सुमंगला ? सदालिप्रियता-- मुपेता सदा सर्वदा आलयः सख्यः, पक्षे अलयो भ्रमरास्तत्र प्रियत्वं गता । पुनः किं० ? सत्परपुष्टघोषा सत्सु साधुषु परः ६ प्रकृष्टः पुष्टो घोषः प्रसिद्धिरूपो यस्याः, पक्षे सत् विद्यमानः परपुष्टानां कोकिलानां घोषो यस्यां सा० ॥ ४४ ॥ संयोज्य दोषोच्छ्रयमल्पतायां,
शुचिप्रभां प्रत्यहमेधयन्ती । तारं तपः श्रीरिव सातिपट्वी,
जाड्याधिकत्वं जगतो न सेहे ॥ ४५ ॥ १२ सयो० सा सुमंगला तारं अत्यर्थं तपःश्री ग्रीष्मलक्ष्मी ज्येष्ठाषाढसत्कऋतुरिव जगतो विश्वस्य जाड्याधिकत्वं मूर्खत्वं जलाधिकत्वं वा न सेहे । किं कुर्वती ? दोषोच्छ्रयं दोषाणां १५ दूषणानां पक्षे दोषा रात्रिस्तस्या उच्छ्यं विस्तारं अल्पतायां संयोज्य, प्रत्यहं निरंतरं शुचिप्रभां शुचिं निर्मलां प्रभां, पक्षे शुचेः सूर्यस्य प्रभां राधयन्ती वर्धयन्ती । पुनः किंलक्षणा १८ सुमंगला ? अतिपट्टी विदुषी, पक्षे अतिशयेन पट्वी तीव्रा ॥४५॥
परांतरिक्षोदकनिष्कलंका, नाना सुनंदा नयनिष्कलंका ।
२१ तसै गुणश्रेणिभिरद्वितीया,
प्रमोदपूरं व्यतरद् द्वितीया ॥ ४६ ॥ २३
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जैनकुमारसंभवं
[ षष्ठः
"
परां० तस्मै भगवते श्री ऋषभदेवाय परा अन्या सुनन्दानाम्ना द्वितीया कलत्रं प्रमोदपूरं व्यतरत् ददौ किंलक्षणा ३ सुनंदा ? अन्तरिक्षोदकनिः कलंकाकाशोदकवन्निर्मला । पुनः किंल० ? नयनिष्कलंका न्याय एवं निष्कं सुवर्ण तस्य लंकापुरी सुवर्णं हि लंकायां प्रचुरम्, पुनः किं० ? गुणश्रेणिभिर्विनय६ विवेक विचारशीलप्रभृतिगुणसमूहैरद्वितीया मनोज्ञा ॥ ४६ ॥ तयोः सपत्न्योरपि यत्प्रसन्न - हृदोर्मदोद्रेक विविक्तमत्योः । अभूद्भगिन्योरिव सौहृदं स, सुखामिलाभप्रभवः प्रभावः ॥ ४७ ॥ तयोः ० तयोः सुमंगलासुनन्दयोः सपदयोरपि सत्योर्भ गि१२ न्योरिव यत् सौहृदं प्रेम अभूत् । किंविशिष्टयोस्तयोः ! प्रसन्न - हृदोः । पुनः किंवि० ? मदोद्रेकविविक्तमत्योः, जातिलाभकुलैश्वर्यबलरूपतपःश्रुतिः, एषोऽष्टप्रकारो मदः तस्योद्रेकेण १५ आधिक्येन विविक्तमत्योः रहितबुद्ध्योः सुखामिलाभप्रभवो भव्यभर्तृप्राप्तेरुप्तन्नप्रभावो ज्ञेयाः ॥ ४७ ॥
१८
२२४
आत्मोचिता मालिमनाप्तवत्यौ, त्रिलोकभर्तुर्हृदयंगमे ते | सुरालय स्वामिनि बद्धरुच्या,
शच्यापि सख्या समलजिषाताम् ॥ ४८ ॥ आत्मो० ते त्रिलोकभर्तुहृदयंगमे श्रीयुगादिजिनकलत्रे २२ सुमंगला सुनन्दे शच्यापि इन्द्राण्यापि सख्या समलज्जिषातां
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सर्गः]
जैनकुमारसंभवं
२२५
लजिते, किं कुर्वत्यौ ? आत्मोचितां आलिं सखीं अनाप्तवत्यौ । अप्राप्तेः । किंलक्षणया शच्या ? सुरालयखामिनिबद्धरुच्या, सुरालयो देवलोको मदिरागृहं वा तस्य खामिनिबद्धरुच्या ३ बद्धाऽभिलाषया ॥ ४८॥
तयोरहपूर्विकया निदेशं,
विधिसमानासु गताभिमानम् । खगंगताखप्यमरांगनासु,
ययौ न जातु प्रशमं विवादः ॥ ४९ ॥ तयो० तयोः सुमंगलासुनन्दयोर्निदेशमादेशमहंपूर्विकया ९ अहमहमिकया अमरांगनासु देवांगनासु गताभिमानं निरहंकार यथा भवति तथा विधिसमानासु कर्तुमिच्छन्तीषु वर्गगताखपि जातु कदाचिदपि विवादः प्रशमं उपशान्तिं न १२ ययौ ॥ १९॥ उपाचरद् द्वे अपि तुल्यबुद्धया,
प्रभुः प्रभापास्ततमःसमूहः । उच्चावचां न स्वरुचिं तनोति,
भावान्निलीनालिषु पद्मिनीषु ॥५०॥ उपा० प्रभुः श्रीऋषभस्ते द्वे अपि कलत्रे तुल्यबुद्धया १८ सदृशभावेन उपाचरत्, आसेविष्ट । किंलक्षणः प्रभुः ! प्रभापास्ततमःसमूहः प्रभया निराकृतांधकारपटलः । भाखान् सूर्यः निलीनालिषु पद्मिनीषु निलीना अलयो भ्रमरा अलयः सख्यो वा यत्र तासु एवंविधासु पद्मिनीषु कमलिनीषु स्त्रीषु २२
जै० कु. १५
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२२६
टीकया सहितम्
[षष्ठः
वा उच्चावचा विषमां खरुचिं आत्मीयप्रभा खाभिलाषां वा किं तनोति अपि, नैव ॥ ५० ॥
ऋतूचितं पंचसु गोचरेषु, ___ यदा यदाशंसि जिनेन वस्तु । तदिगिताकूतविदोपनिन्ये,
तदैव दूरादपि वासवेन ॥५१॥ ऋतू० जिनेन श्रीऋषभेण पञ्चसु गोचरेषु विषयेषु यदा यस्मिन्नवसरे यत् ऋतूचितं षड्ऋतुयोग्यं वस्तु आशंसि ९वाञ्छितं वासवेन इन्द्रेण तद्वस्तु दूरादपि उपनिन्ये ढौकितम् । किंलक्षणेन वासवेन ? तदिगिताकूतविदा । तस्य भगवतः इङ्गितं
चेष्टितं आकूतं अभिप्रायं च वेत्तीति इंगिताकूतवित् तेन, १२ तदिगिताकूतविदा ॥५१॥
कदापि नाथं विजिहीर्घमन्त
वणं विबुध्येव समं वधूभ्याम् । पत्रैश्च पुष्पैश्च तरूनशेषा
विभूषयामास ऋतुर्वसन्तः ॥ ५२॥ कदा० ऋतुर्वसंतः पत्रैश्च पुनः पुष्पैरशेषान् तरून् १८ समस्तवृक्षान् विभूषयामास अलंकृतवान् । किं कृत्वा ?
उत्प्रेक्षते-नाथं श्रीऋषभदेवं कदापि अन्तर्वणं वनस्यान्तर्मध्ये वधूभ्यां सुमंगलासुनंदाभ्यां समं विजिहीर्षु क्रीडाकर्तुमि
च्छुर्विबुध्येव ज्ञात्वेव अन्तर्वणमित्यत्र 'निष्प्राग्रेऽन्त' रित्यादि२२ सूत्रेण (सि० २।३।६६) नस्य णत्वं ज्ञेयम् ।। ५२ ।।
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सर्गः ]
जैनकुमारसंभवं
शैत्यं सरस्यां मृदुतां लतायां, सौरभ्यमब्जे ललनैः प्रकाश्य ।
आनन्दयन्निद्यदिगुद्भवोऽपि, देवं समेतत्रिगुणः समीरः ॥ ५३ ॥
शैत्य • निंद्यदिगुद्भवोऽपि निंद्या दिग् दक्षिणा तस्या उद्भवतीति निंद्यदिगुद्भवः, समीरो वायुर्देवं श्री ऋषभदेवं आनन्दयत् । ६ किंलक्षणः समीरः ? समेतत्रिगुणः मिलितास्त्रयो गुणा यस्य सः । हीन कुलोत्पन्नोऽपि गुणैर्मान्यः स्यात् । वायोस्त्रयो गुणाः शीतो मन्दः सुरभिश्च । ललनैः प्रकाश्य च इति त्रिष्वपि स्थानेषु ९ संबध्यते । किं कृत्वा ? सरस्यां सरोवरे ललनैः खेलनैः शैत्यं शीतलत्वं प्रकाश्य प्रादुःकृत्य, लतायां वल्लयां ललनैर्मृदुतां सकोमलत्वम्, अब्जे कमले ललनैः खेलनैः सौरभ्यं १२ परिमलबहुलत्वम् ॥ ५३ ॥
I
वल्ली विलोला मधुपानुषङ्ग, वितन्वती सत्तरुणाश्रितास्य ।
पुरा परागस्थितितः प्ररूढा, पुपोष योषित्सुचलत्वबुद्धिम् ॥ ५४ ॥
२२७
वल्ली ० वल्ली, अस्य भगवतः श्री ऋषभदेवस्य योषित्सु स्त्रीषु १८ चलत्वबुद्धिं पुपोष । किंलक्षणा वल्ली ? विलोला चंचला । पुनः 1 किं कुर्वती ! मधुपानुषंगं वितन्वती, मधुपा भ्रमरा मद्यपा वा तेषां संसर्गं कुर्वती । पुनः किं० ? सत्तरुणाश्रिता प्रशस्यवृक्षेणाश्रिता, अथवा सत्तरुणं प्रशस्ययुवानं आश्रिता । पुनः किंल० पुरा २२
१५
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२५८ . टीका सहितम्
२२८
टीकया सहितम्
[षष्ठः
पूर्व परागस्थितितः प्ररूढाम् , परागः किंजल्कं परं प्रकृष्टं
आगः अपराधो वा तस्य स्थितेः प्ररूढां उद्गताम् । अर्थव३ शाद्विभक्तिपरिणामः ॥ ५४ ॥
निविश्य गुल्मानि महालतानां,
विश्रम्य पत्रर्धिमिलारुहाणाम् । मंक्त्वा सदारः सरसां जलानि,
कृतार्थयामास कृती वने सः ॥ ५५॥ निवि० स कृती विद्वान् भगवान् सदारः सकलत्रः सन् ९ वनमध्ये महालतानां महावल्लीनां गुल्मानि निविश्य उपविश्य कृतार्थयामास । एतत् क्रियापदं सर्वत्र संबध्यते । इलारुहाणां वृक्षाणां पत्रधि पत्रसंपदं विश्रम्य । सरसां सरोवराणां जलानि १२ मंक्त्वा स्नात्वा ॥ ५५॥
विभोळतायंत विवाहकाले, ___ यत्पल्लवैस्तोरणमंगलानि ।
चूतस्य तस्याविकलां फलधि___ मपप्रथत्साधु ततस्तपर्तुः ॥५६॥
विभो० यत् पल्लवैर्यस्य चूतस्य पल्लवैर्विभोर्विवाहकाले १८ तोरणमङ्गलानि व्यतायन्त व्यस्तार्यन्त, ततस्ततोऽनन्तरं तपतु
स्तस्य चूतस्य अविकलां संपूर्णां फलर्द्धि साधु युक्तं अपप्रथत् विस्तारयति स्म ॥ ५६ ॥
दोषोन्नतिर्नाऽस्य तमोमयीष्टा,
दृष्टेति तामेष शनैः पिपेष ।
२२
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सर्गः] जैनकुमारसंभवं २२९
२२९ पुपोष चाहस्तदमुख्यपूजा
पर्यायदानादुदितद्युतीति ॥ ५७ ॥ दोषो० एष ग्रीष्मर्तुरस्य भगवतस्तमोमयी अन्धकारमयी ३ पापमयी वा दोषोन्नतिर्दूषणानामुन्नतिः, रात्रेरुन्नतिर्वा दृष्टा सती न इष्टा इति कारणात् तां दोषोन्नति शनैर्मदं मन्दमपि पिपेष पिष्टवान् । च पुनः । अहर्दिनम्, इति कारणात् पुपोष । ६ इतीति किम् ? तत् अहः अमुष्य भगवतः पूजापर्यायदानात् पूजावसरदानतः उदितद्युतिः उदितप्रकाशं वर्तते ।। ५७ ॥
उदग्रसौधाग्रनिलीनमल्ली
वल्लीसुमश्रेणिसुगन्धिशय्यः । श्रीखंडलेपावृतचन्द्रपाद
स्पर्शः कृशा ग्रीष्मनिशाः स मेने ॥ ५८ ॥ १२ उद० स भगवान् ग्रीष्मनिशा उष्णकालसत्का रात्रीः कृशा मेने । किंलक्षणो भगवान् ! उदग्रसौधाग्रनिलीनमल्लीवल्लीसुमश्रेणिसुगन्धिशय्यः उदग्र उच्चैस्तरे सौधाग्रे निलीना १५ स्थापिता मल्लीवल्लीनां विचकिललतानां सुमश्रेणिभिः सुगन्धिशय्या यस्य स उदग्रसौधाय० ॥ पुनः किं० ? श्रीखण्डलेपावृतचन्द्रपादस्पर्शः, श्रीखण्डस्य लेपेन आवृतः अन्तरितः चन्द्रस्य १४ पादानां किरणानां पक्षे चरणानां स्पर्शो यस्य सः श्रीखंडलेपावृतचन्द्रपादः ॥ ५८ ॥
पुष्ट्यर्थमीशध्वजतैकसम्म
ककुमतः किं जलभृअलौफैः ।
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२३०
टीकया सहितम्
[षष्ठः
उदीततृण्यामवनी समंता
द्वितन्वती प्रावृडथ प्रवृत्ता ॥ ५९॥ ३ पुष्ट्य० अथानन्तरं प्रावृट् वर्षाऋतुः प्रवृत्ता । किं कुर्वती? जलभृजलौघैर्मेघसत्कजलसमूहैः समन्तात् सर्वतः उदीततृण्यां
उद्गततृणसमूहां अवनीं पृथ्वीं वितन्वती विस्तारयन्ती। किमर्थं ? ६ किमिति संशये, ईशध्वजतैकसमककुद्मतः पुष्ट्यर्थम् । ईशस्य
खामिनो ध्वजताया एकं सद्म स्थानं यः ककुद्मान् वृषभस्तस्य पुष्ट्यर्थम् ॥ ५९॥ ९ या वारिधारा जलदेन मुक्ताः,
सान्द्राः शिरस्यस्य बहिर्विहारे।
असंस्मरंस्ता हरिहस्तकुम्भ१२. नीराभिषेकं शिशुतानुभूतम् ॥६०॥
या० जलदेन मेघेन अस्य भगवतः शिरसि शीर्षे या वारिधाराः, सांद्रा निबिडा बहिर्विहारे मुक्ताः, ता वारिधाराः १५ शिशुतानुभूतं बाल्येन जन्माभिषेकावसरे अनुभूतं हरिहस्तकुंभनीराभिषेकं असंस्मरन् स्मारयन्ति स्म ॥ ६० ॥
असौ बहिर्बल्कुिलेन क्लृप्तं, __ मृदंगवद्गर्जति वारिवाहे । निभालयन्नाट्यमदान्मुदा तां,
दृशं धनाढ्यैरपि दुर्लभा या ॥ ६१॥ असौ० असौ भगवान् बहिर्मृदंगवत् वारिवाहे मेघे गर्जति २२ सति यत् बर्हि कुलेन मयूरसमूहेन क्लुप्तं रचितं नाव्यं मुदा हर्षेण
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सर्गः] जैनकुमारसंभवं
२३१ निमालयन् सन् तां दृशं - अदात् या दृग् धनाढ्यैरपि श्रीमद्भिरपि दुर्लभा स्यात् ॥ ६१ ॥
लोकोपकाराय स लोकनाथः,
कृत्वा क्षमाभृद्भवसिन्धुरोधम् । तदा, तदभ्यासवशाद्विधत्ते
द्यापि क्षमाभृद्भवसिंधुरोधम् ॥ ६२॥ ६ लोको० स लोकनाथः तदा तस्मिन्नवसरे लोकोपकाराय क्षमाभृद्भवसिन्धुरोधं क्षमाभृद्भवानां पर्वतोत्पन्नानां सिन्धूनां नदीनां रोधं बन्धं कृत्वा तदभ्यासवशात् अद्यापि क्षमाभृद्भव-९ सिन्धुरोधं क्षमाभृतां साधूनां भवसिन्धोः संसारसमुद्रस्य रोधं विधत्ते ॥ ६२ ॥ प्रसादयंत्यांबु पयोजपुंज,
१२ प्रबोधयन्त्या विधुमिद्धयन्त्या । अस्याभिषेकार्चनवक्त्रदास्या,
धिकारतोऽसौ शरदोपतस्थे ॥ ६३॥ प्रसा० असौ भगवान् शरदोपतस्थे आश्रितः । किं कुर्वत्या शरदा ? अंबु प्रसादयंत्या अंबु पानीयं प्रसन्नं कुर्वत्या । पुनः किंकुर्वत्या ? पयोजपुञ्ज प्रबोधयंत्या कमलसमूहं विकासयन्त्या । १८ पुनः किंकुर्वत्या ? विधुं चन्द्रं इद्धयंत्या समृद्धं कुर्वत्या । कस्मात् ? अस्य भगवतोऽभिषेकार्चनवक्रदास्याधिकारतः, अभिषेकः सात्रं अर्चनं पूजनं वक्रस्य मुखस्य दास्ये तेषु अंबु. प्रमुखानां अधिकारात् ।। ६३ ।।
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[षष्ठः
टीकया सहितम् पदैर्घनोपाधिभिराकुले प्राक्,
___ लोके तिरोभावमुपागतो यः। ३ अहो स हंसः सहसा प्रकाशी
बभूव भाखत्महसा विपके ॥ ६४ ॥ पकै० यो हंसः प्राक् पूर्व लोके तिरोभावं अदृश्यत्वं ६ उपागतः । किंलक्षणे लोके ? घनोपाधिभिर्मेघहेतुकैर्बहुकारणैर्वा पकैः कर्दमैपापैर्वा आकुले । अहो इति आश्चर्ये, स हंसः पक्षी
आत्मा वा, भावन्महसा सूर्यतेजसा दीप्तज्ञानेन वा, विपके ९सति सहसा प्रकाशीबभूव ॥ ६४ ॥
करैः श्रमच्छेदकरैः शरीर
सेवां मणीकुट्टिमशायिनोऽस्य । १२
विधुर्विविक्ते विदधन् प्रसाद
पूर्वामपूर्वो श्रियमाप युक्तम् ॥६५॥ करैः० विधुश्चन्द्रः अस्य भगवतो मणिकुट्टिमशायिनः १५ सतः विवक्ते विजने श्रमच्छेदकरैः किरणैः हस्तैर्वा शरीरसेवां विदधन् ( कुर्वन् ) प्रसादपूर्वा अपूर्वां श्रियं युक्तं आप प्राप,
श्रीः चन्द्रे वसतीति प्रसिद्धिः ॥ ६५ ॥ १८मनाग मुखश्रीः परमेश्वरस्य,
जिहीर्षिता यैः शरदा मदाढ्यैः । विधाय मन्तोः फलमन्तमेषु,
पोषु भेजे प्रशलतुरेनम् ॥ ६६ ॥ २२ मना० यैः पद्मः शरदा मदाढ्यैर्मदपरवशैः सद्भिः परमेश्वरस्य
___
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सर्गः] जैनकुमारसंभवं
२३३ मनाक् स्तोकतरं मुखश्री जिहीर्षिता हर्तुं वांछिता । एषु पद्मेषु अन्तं विनाशं मन्तोरपराधस्य फलं विधाय कृत्वा प्रशलतुः हेमंतर्तुः, एनं भगवंतं भेजे । शरदि पद्मानि सश्रीकानि हेमन्ते ३ च दह्यन्त इति भावः ॥ ६६ ।।
भृशं महेलायुगलेन खेला___ रस रहस्तस्य विलोकमाना । पौषी पुपोषालसतां गतौ यां,
निशा न साद्यापि निवर्ततेऽस्याः ॥ ६७ ॥ भृशं० पौषी निशा पौषमाससंबन्धिनी रात्रिर्गतौ गमने यां९ अलसतां आलस्यं पुपोष, सा अलसता अस्या निशाया अद्यापि न निवर्तते । किं कुर्वाणा ? भृशं अत्यर्थ तस्य भगवतो महेलायुगलेन रह एकान्ते खेलारसं क्रीडारसं विलोकमाना ।। ६७॥ १२
नक्तं जगत्कंपयतो हसन्ती, ___ या शीतदैत्यस्य बलं विभेद । नेतुः पुरःस्थोचितमाप्तचक्रा,
सा कृष्णवाश्रयतां बिभर्तु ॥ ६८॥ नक्तं० या, हसंती शकटिका, पक्षे हास्यं कुर्वती, नक्तं रात्रौ, जगत्कंपयतः शैत्यदैत्यस्य बलं बिभेद, सा हसंती आप्त-१४ चक्रा सती नेतुः खामिनः पुरःस्था, उचितं युक्तं, कृष्णवाश्रयतां कृष्णवर्मनोऽमेः पक्षे कृष्णस्य वर्म मार्गः तस्याश्रयतां बिभर्तु । कृष्णश्चक्रधरः दैत्यभेत्ता च भवतीति भावः ॥ ६८॥२१
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२३४ टीकया सहितम्
[षष्ठः अथ प्रभाहासकरी विमोच्य,
दुर्दक्षिणाशां शिशिरतुरंशुम् । अचीकरद्दीप्तिकरं प्रणन्तु
मिवोत्तरासंगमसंगमेनं ॥ ६९॥ अथ० अथानन्तरं शिशिरतुः अंशुं सूर्य असंगं सङ्गरहितं ६ एनं भगवन्तं प्रणंतुमिव नमस्कर्तुमिव उत्तरासंगं अचीकरत्
अकारयत् । किंवि० ? अंशुदीप्तिकरं दीप्तौ दीप्ता वा करौ हस्तौ किरणाः वा यस्य स तम् किं कृत्वा ? प्रभाया हानि९ कारिणी दुर्दक्षिणाशां दुष्टदक्षिणदिशं दुर्दक्षिणाया आशां - अभिलाषं वा विमोच्य ॥ ६९ ॥
प्रभौ प्रसुप्ते निशि शीतवश्यं,
यदम्बु कम्बुच्छवि बन्धमाप । तजाग्रतादिष्ट इवाह्नि तेन,
__ भानुः स्वभावं स्वकरैर्निनाय ॥ ७० ॥ १५ प्रभौ० कंबुच्छवि शंखसदृशं निर्मलं यदंबु जलं, निशि रात्रौ - प्रभौ प्रसुप्ते सति शीतवश्यं सन् बन्धं आप, भानुः सूर्यस्तज्जलं
अह्नि देवमिव स्वकरैरात्मीयहस्तैः किरणैर्वा स्वभावं निनाय, १८ उत्प्रेक्षते-तेन भगवता जाग्रता सता आदिष्ट इव ॥ ७० ॥
शीतेन सीदत्कुसुमासु युष्मा
खर्चास्य देवस्य मदेकनिष्ठा । इति स्फुटत्पुष्परदा तदानीं,
शेषा लताः कुन्दलता जहास ॥ ७१॥ २३ शीते. कुन्दलता कुन्दनाम्नी लता वल्ली तदानीं तस्मिन्
स्वभावं स्वायदंबु जलतजलं
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सर्गः]
जैनकुमारसंभवं
२३५
शिशिरतौ शेषा लता इति अमुना प्रकारेण जहास । किंलक्षणा कुंदलता ? स्फुटत्पुष्परदा स्फुटन्ति विकसन्ति पुष्पाण्येव रदा दन्ता यस्याः सा स्फुट० । इतीति किम् ? युष्मासु शीतेन ३ सीदत्कुसुमासु सतीषु अस्य देवस्य अर्चा पूजा मदेकनिष्ठा वर्तते मय्येव एका निष्ठा यस्याः सा मदेकनिष्ठा ॥ ७१ ॥
तत्ताहगाहारविहारवासो
निवासनि शितशीतभीतिः । शरीरसौख्येन स शैशिरीणां,
निशां न सेहे विपुलत्ववादम् ॥ ७२ ॥ ९ तत्ता० स भगवान् शैशिरीणां शिशिरसंबन्धिनीनां निशां रात्रीणां शरीरसौख्येन विपुलत्ववादं विस्तीर्णवादं न सेहे, किंलक्षणो भगवान् ? तत्ताहगाहारविहारवासोनिवासनिर्वा- १२ सितशीतभीतिः, ते तादृशाः . शीतव्यथोपशमनहेतुभूताआहारा विहाराविचरणानि वासांसि वस्त्राणि निवासा गृहाणि तैर्निनाशिता शीतभीतिर्येन स । उक्तं च,
१५ "तप्तं जलं तापनतैलतूष्णीतांबूलतूलीवसनं तरुण्यः । तः (१) प्रतापः, कथितं पयोऽपि शरीरिणां शीतभये सुखाय"७२
इति ऋतूचितखेलनकैन कैः
हृतहृदश्वरतोऽस्य यथारुचि । सुकृतसूरसमुत्थधृतिप्रभा
परिचिता अरुचनखिला दिनाः ॥७३॥ २१ इति० अस्य भगवतो यथारुचि खेच्छया चरतः सतः अखिलाः समस्ता दिनाः अरुचन् अदीप्यन्त । किंविशिष्टा २३
१८
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टीकया सहितम् [षष्ठः दिनाः सुकृतसूरसमुत्थधृतिप्रभापरिचिताः, सुकृतं पुण्यमेव सूरः सूर्यः ततः समुत्था समुत्पन्ना धृतिः समाधिरेव प्रभा कान्तिः ३ तया परिचिताः सेविताः । किंविशिष्टस्य भगवतः ? इति ऋतूचितखेलनकैः न कैः हृतहृदः, इति पूर्वोक्तप्रकारैः षड्ऋतुयोग्यक्रीडनैः, ६ "वर्षासु लवणममृतं शरदि जलं गोपयश्च हेमन्ते ।
शिशिरे चामलकरसो घृतं वसन्ते गुडश्चान्ते" ॥ १॥ इत्यादिभिश्च कैः कैर्न हृतहृदः, अपि तु सर्वैरपि हृतहृदः ॥७३॥
कौमारकेलिकलनाभिरमुष्य पूर्व
लक्षाः पडेकलवतां नयतः सुखाभिः । आद्या प्रिया गरभमेणदृशामभीष्टं,
भर्तुः प्रसादमविनश्वरमाससाद ॥ ७४ ॥ कौमा० अमुष्य भगवतः आद्या प्रिया सुमंगला गरभं गर्भ आससाद प्राप्ता, 'गर्भस्तु गरभो भ्रूणो' इति पाठः । किं१५ लक्षणं गरभं ? एणदृशां स्त्रीणां अभीष्टम् । पुनः किंलक्षणम् ?
भर्तुः श्रीऋषभदेवस्य अविनश्वरं प्रसादम् । किंकुर्वतो भगवतः?
कौमारकेलिकलनाभिः षट्पूर्वलक्षा एकलवतां षट्त्रिं. १० शनिमेषैरेको लव' उच्यते, तद्भावं नयतः । किंविशिष्टाभिः कौमारकेलिकलनाभिः ? सुखाभिः सुखहेतुभिः ॥ ७४ ॥ इति श्रीअंचलगच्छे कविचक्रवर्तिश्रीजयशेखरसूरिविरचितश्रीजैनकुमारसंभवस्य तच्छिष्यश्रीधर्मशेखरसूरिविरचितायां टीकायां
श्रीमाणिक्यसुन्दरसूरिशोधितायां षष्ठ
सर्गव्याख्या समाप्ता ॥ ६॥
१२
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सर्ग: ]
जैनकुमारसंभवं
अथ सप्तमः सर्गः ॥
अथ प्रथमनाथस्य, प्रिया तस्य सुमंगला । अध्युवास निजं वासभवनं यामिनीमुखे || १ ||
अथ० अथानन्तरं तस्य प्रथमनाथस्य श्रीयुगादिदेवस्य प्रिया सुमंगला यामिनीमुखे रात्रिमुखे निजं आत्मीयं वासभवनं आवासं अध्युवास उषिता ॥ १ ॥
यत्र ज्वलत्प्रदीपाणां प्रभाप्राग्भारभाषितम् । धृत्वा धूमशिखेत्याख्यांतरं दूरेऽगमत्तमः ॥ २ ॥ यत्र० यत्र यस्मिन् वासे तमोऽन्धकारं दूरेऽगमत् । किं ९ कृत्वा ? धूमशिखा इति आख्यान्तरं नामान्तरं धृत्वा । किंलक्षणं तमः ? ज्वलत्प्रदीपाणां प्रभाप्राग्भारेण भाषितं प्रभासमूहेन त्रासितम् ॥ २ ॥
२३७
9
यत्र नीलामलोलोचामुक्तामुक्ताफलस्रजः । बभुर्नभस्तलाधारतारकालक्षकक्षया || ३ ||
यत्र यत्रावासे मुक्ताफलस्रजो नभस्तलाघारतारकाल - १५ लक्षाणां कक्षा सादृश्येन बभुः शोभिताः । किंलक्षणा मुक्ताफलस्रजः ? नीलामलोल्लोचामुक्ता नीलेषु कृष्णवर्णेषु अमलेषु उल्लोचेषु आमुक्ता बद्धाः ॥ ३ ॥
१२.
सौवर्ण्यः पुत्रिका यत्र, रत्नस्तम्भेषु रेजिरे । अध्येतुमागता लीलां, देव्या देवांगना इव ॥ ४॥ सौव ० यत्र वासे रत्नस्तंभेषु सौवर्ण्यः पुत्रिकाः सौवर्णमय्यः २१
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२३८
टीकया सहितम्
[सप्तमः
पुत्रिका रेजिरे शोभिताः । उत्प्रेक्ष्यते-देव्याः सुमंगलाया लीलां अध्येतुं पठितुं आगता देवांगना इव ॥ ४ ॥ ३ दह्यमानाः काकतुण्डा, यत्र धूमैर्विसृत्वरैः ।
स्वपंक्तिं वर्णगन्धाभ्यां, निन्युर्वन्तराण्यपि ॥ ५॥
दह्य० यत्रावासे काकतुंडाः कृष्णागरवो दह्यमानाः ६ उद्ग्राह्यमानाः संतः विसृत्वरैः प्रसरणशीलैधूमैदान्तिराण्यपि वर्णगन्धाभ्यां वर्णेन गन्धेन च खपंक्तिं निन्युगृहीतवन्तः ॥५॥
उत्पित्सव इवोत्पक्षा, यत्र कृत्रिमपत्रिणः । ९ आरेभिरे लोभयितुं, बालाभिश्चारुचूणिभिः ॥६॥
उत्पि० यत्रावासे कृत्रिमपक्षिणः बालाभिर्बालिकाभिश्चारुचूणिभिर्मनोज्ञभक्ष्यैः लोभयितुमारेभिरे । उत्प्रेक्ष्यते--उत्पक्षा १२ऊर्वीकृतपक्षाः सन्तः उत्पित्सव इव उत्पतितुंकामा इव ॥ ६॥
__यन्मणिक्षोणिसंक्रान्तमिन्दं कन्दुकशङ्कया। १५ आदित्सवो भगनखा, न बालाः कमजीहसन् ॥७॥
यन्म० बालाः कं पुरुषं न अजीहसन् न हासयन्ति स्म ? अपि तु हासयन्ति स्मैव, किंलक्षणा बालाः ? यन्मणिक्षोणिसंक्रान्तं १८ इन्दुं यस्यावासस्य रत्नपृथ्वीप्रतिबिंबितं इन्दं चन्द्रं कन्दुकशंकया आदित्सवो ग्रहीतुमिच्छवः, पुनः किंलक्षणाः ? भग्ननखाः ॥ ७॥
व्यालंबिमालमास्तीर्णकुसुमालि समन्ततः । २२ यददृश्यत पुष्पास्त्रशस्त्रागारधिया जनैः ॥८॥
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सर्गः]
जैनकुमारसंभवं
२३९
व्यालं० जनैलोकैर्यत् गृहं पुष्पास्त्रस्य कामस्य शस्त्रागारधिया आयुधशालाबुद्धया अदृश्यत । किंलक्षणं गृहम् ? व्यालंबिमालं लंबमानस्रक् । पुनः किंलक्षणम् ? समंततः सर्वतः आस्तीर्ण-३ कुसुमालि प्रसरितपुष्पश्रेणि ॥ ८॥ कौतुकी स्त्रीजनो यत्र, पुरःस्फाटिकभित्तिषु । स्पष्टमाचष्ट पृष्ठस्थचेष्टितान्यनुविम्बनैः ॥९॥ ६
कौतु० यत्रावासे कौतुकी जनः पुरःस्फाटिकभित्तिषु अग्रे स्फटिकमणिसत्कभित्तिमध्ये अनुबिंबनैः प्रतिबिंबनैः पृष्ठस्थचेष्टितानि स्फुटं प्रकटं आचष्ट कथितवान् ॥ ९॥
लतागुल्मोत्थितो यत्राहरजालावनागतः । मुक्ताधिया मरुचौरः, खेदविन्दून मृगीदृशाम् ॥१०॥
लता० यत्र वासे लतागुल्मोत्थितो वल्लिसत्कगुल्मसमुत्पन्नो १२ मरुच्चौरः, मृगीदृशां स्त्रीणां खेदबिन्दून् मुक्ताधियाऽहरत् हृतवान् । किंलक्षणो मरुच्चौरः ? जालाध्वनागतः जालमार्गेण प्रविष्टः ॥ १०॥ वीक्ष्य यत्परितोऽध्यक्ष, वनं सर्वर्तुकं जनः । श्रद्धेयमागमोक्त्यैवाभिननन्द न नन्दनम् ॥ ११ ॥ वीक्ष्य० जनो लोको यत्परितो यस्यावासस्य समंततः १८ सर्वर्तुकं सर्वऋतुषु साधारणं अध्यक्षं प्रत्यक्षं वनं वीक्ष्य नन्दनं नंदनाख्यं वनं न अभिननन्द न प्रशशंस । किंविशिष्टं नंदनम् ? आगमोक्त्यैव श्रद्धेयं नतु प्रत्यक्षम् ॥ ११॥ २१
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तमः
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२४०
टीकया सहितम् [सप्तमः श्वेतोत्तरच्छदं तत्र, दोलातल्पमुपेयुषी।
हंसीं गङ्गातरंगात्तरंगामभिवभूव सा ॥ १२ ॥ ३ श्वेतो० सा सुमंगला तत्र तस्मिन् वासे श्वेतोत्तरच्छदं श्वेतउत्तरपटयुक्तं, दोलातल्पं उपेयुषी दोलायमानशय्यां प्राप्तवती सती हंसीं अभिबभूव पराभवति स्म । किंलक्षणां ६ हंसीम् ? गङ्गातरंगेषु गङ्गाकल्लोलेषु आत्तगृहीतरंगाम् ॥ १२ ॥
दक्षिणं तमुरीचक्रे, विवाहे भगवानिति ।
वामा वाममुपष्टभ्य, पाणिं तसिन्नशेत सा ॥ १३ ॥ ___ दक्षि० सा वामा सुमंगला तस्मिन् शयनीये इति कारणात् वाम पाणिं उपष्टभ्य अशेत स्वपिति स्म । इतीति किं ? विवाहे भगवान् तं दक्षिणपाणिं हस्तं उरीचक्रे अङ्गीकृतवान् ॥ १३ ॥ १२ पूर्वमप्सरसामंके, स्थित्वा तत्पादपंकजे ।
पश्चादवाप्तां दिव्यतूलीमौलिवतंसताम् ॥ १४ ॥
पूर्व० पूर्व प्रथमं अप्सरसां अङ्के देवांगनानामुत्संगे स्थित्वा १५ पश्चात् तत्पादपंकजे तस्याः सुमंगलायाश्चरणकमलौ दिव्यतूलीमौलिवतंसतां हंसतूल्यामस्तके मुकुटत्वं अवाप्तां प्राप्तौ ॥ १४ ॥
दीपाः सस्नेहपटवो,ऽभितस्तां परिवत्रिरे । १४ ध्वान्तारातिभयं भेत्तुं, जाग्रतो यामिका इव ॥१५॥
दीपाः० दीपा अभितः समंततः तां सुमंगलां परिवत्रिरे, परिवृण्वन्ति स्म । किंलक्षणा दीपाः ? सस्नेहपटवः स्नेहसहिताः पटवश्व पटिष्ठाः । उत्प्रेक्ष्यते-ध्वान्तारातिभयं भेत्तुं अन्धकार२२ शत्रुभयं छेत्तुं जाग्रतो यामिकाः, प्राहरिका इव ॥ १५ ॥
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सर्ग:] टीकया सहितम्
२४१ विसृज्य सा परप्रेमालापपात्रीकृताः सखीः । निद्रां सुखार्थामेकान्तसखी संगंतुमैहत ॥१६॥ विसृ० सा सुमंगला परप्रेमालापपात्रीकृताः, परा प्रेमा-३ लापस्य प्रकृष्टा(या) स्नेहवार्ताया(तस्याः ?) पात्रीभूता एवंविधाः सखीः विसृज्य निद्रां संगंतुं निद्रासङ्गमं ऐहत इच्छति स्म । किंलक्षणां निद्राम् ? सुखार्थी सुखकारिणी, पुनः किंविशिष्टाम् ? ६ एकान्तसखीम् ॥ १६॥
तस्याः सुषुप्सया जोषजुषोऽजायत शर्मणे । मोहो निद्रानिमित्तः स्यादोषोऽप्यवसरे गुणः ॥१७॥९ तस्याः० सुमंगलायाः निद्रानिमित्तो मोहः शर्मणे सौख्याय अजायत जातः, किंलक्षणायाः सुमंगलायाः सुषुप्सया सुखशयनवांछया, जोषजुषो मौनं सेविन्या दोषोऽप्यवसरे गुणः १२ स्यात् ॥ १७ ॥
स्रोतांसि निवृतीभूय, नृपस्येव नियोगिनः। निशि निर्वत्रिरे तस्याः, स्वस्वव्यापारसंवृतेः॥१८॥१५
स्रोतां० तस्याः सुमंगलायाः स्रोतांसि इन्द्रियाणि खखव्यापारसंवृतेः निवृतीभूय निश्चलीभूय निर्वत्रिरे निवृति प्रापुः, के इव ? नियोगिनो व्यापारिण इव, यथा नृपस्य राज्ञो नियो- १८ गिनः वखव्यापारसंवृतेनिवृति समाधि प्राप्नुवन्ति ॥ १८ ॥
तदा निद्रामुद्रितहम् भवने सा वनेऽब्जिनी। निद्राणकमला सख्योचितमाचरतुर्मिथः ॥ १९ ॥ तदा० तस्मिन्नवसरे सा सुमंगला भवने गृहे निद्रामुद्रित-२२ जै० कु० १६
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२४२
जैनकुमारसंभवं
[सप्तमः
दृग् निद्रया संकुचितदृष्टिः, सती वने अब्जिनी कमलिनी निद्राणकमला संकुचितकमला द्वे अपि मिथः परस्परं ३ सख्योचितं मैत्रीसदृशं आचरतुः चरतुः ॥ १९ ॥
आसतामपरे मौनं, भेजुराभरणान्यपि।
असंचरतया तस्या, निद्राभङ्गमयादिव ॥ २० ॥ ६ . आस० अपरे आसतां दूरे सन्तु तस्याः सुमंगलाया आभरणान्यपि असंचरतया निःसञ्चलत्वेन मौनं भेजुः, उत्प्रेक्ष्यते-सुमंगलाया निद्राभङ्गभयादिव ॥ २०॥ ९ निद्रानिभृतकाया साऽनायासान्नाकियोषिताम् ।
लोचनेलेहसागलावण्या समजायत ॥ २१ ॥
निद्रा० सुमंगला निद्रानिभृतकाया निद्रया निश्चलदेहा १२ सती नाकियोषितां देवांगनानां लोचनैर्लेह्य आखाद्य सर्वांगलावण्या समजायत ॥ २१॥
निर्वातस्तिमितं पद्ममिवामुष्या मुखं सुखम् । १५ न्यपीयताप्सरोनेत्रभृङ्गैलावण्यसन्मधु ॥ २२ ॥
निर्वा० अमुष्याः सुमंगलायाः लावण्यसन्मधु लावण्यमेव __ सत् विद्यमानं मधु मकरन्दो यत्र एवंविधं मुखं यथा भवति १० तथा अप्सरोनेत्र गैर्देवांगनासत्कलोचनभ्रमरैय॑पीयत पीतम् , उत्प्रेक्ष्यते-निर्वातस्तिमितं वातरहितं निश्चलं पद्ममिव ॥ २२ ॥
आप्तनिद्रासुखा सौख्यदायीति स्वमदर्शनम् ।
अन्वभूत्पुण्यभूमी सोत्सवान्तरमिवोत्सवे ॥ २३ ॥ २२ आप्त० सा सुमंगला आप्त प्राप्तनिद्रासुखा सती सौख्यदायि
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२४३
सर्गः] टीकया सहितम् सुखदायिकं इति अमुना प्रकारेण वक्ष्यमाणं स्वमदर्शनमन्वभूत् अनुभवति स्म । किंलक्षणा सुमंगला ? पुण्यभूमी । किमिव ? उत्सवान्तरमिव यथा उत्सवेन उत्सवान्तरं अनुभूयते ॥ २३ ।। ३
प्रथमं सा लसदन्तदण्डमुच्छंडमुन्नतम् । भूरिभाराद्भुवो-भङ्गभीत्येव मृदुचारिणम् ॥ २४ ॥ गण्डशैलपरिस्पर्द्धिकुम्भं कर्पूरपाण्डुरम् । द्विरदं मदसौरभ्यलुभ्यद्भमरमैक्षत ॥ २५॥ युग्मम् ॥
प्रथ० सा सुमंगला प्रथमं द्विरदं गजेन्द्रं ऐक्षत दृष्टवती, किंलक्षणं गजेन्द्रम् ? एतानि सर्वाणि गजेन्द्रविशेषणानि ९ ज्ञेयानि । लसदन्तदण्डं उल्लसद्दन्तमुशलम्, उच्छंडं ऊर्तीकृतशुण्डादण्डम् , उन्नतं उच्चस्तरम् । उत्प्रेक्ष्यते-भूरि बहुभारात् भुवो भङ्गभीत्या पृथिव्या भङ्गभयेन मृदुचारिणमिव मन्दगमन- १२ मिव ॥ २४ ॥ गण्डशैलपरिस्पर्द्धिकुंभ पर्वतसत्कस्थूलोपलेन सह स्पर्द्धा कुर्वन् कुंभस्थलं यस्य तम् । कर्पूरपांडुरं कर्पूरवद्धवलम् । मदसौरभलुभ्यद्भमरं मदसौरभ्येण मदपरिमलेन लुभ्यन्तो १५ भ्रमरा यस्य तम् ॥ २५ ॥ युग्मम् ॥
भाग्यैः शकुनकामानामिव गर्जन्तमूर्जितम् । शुभ्रं पुण्यमिव प्राप्त, चतुश्चरणचारुताम् ॥ २६ ॥ १८ सिन्धुरोधक्षम रोधः स्यतं मृल्लवलीलया। सशृङ्गमिव कैलासं, ककुम॑तं ददर्श सा ॥ २७ ॥
युग्मम् ॥ भाग्यैः० सा सुमंगला कुकुतं वृषभं ददर्श, किंलक्षणं २२
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२४४
जैनकुमारसंभवं [सप्तमः ककुमंतम् ? एतानि सर्वाणि ककुद्मत एव विशेषणानि, किं कुर्वतं वृषभं अर्जितम् ? बलवन्तम , गर्जतम् । उत्प्रेक्ष्यते-शकुनका३ मानां शकुनाभिलाषिणां भाग्यरेव । उत्प्रेक्ष्यते-चतुश्चरणचारुतां
चतुर्भिः चरणैर्मनोज्ञत्वं प्राप्तं शुभं उज्वलं पुण्यमिव ॥ २६ ॥ सिन्धुरोधक्षम नद्या रोधसमर्थ एवंविधं रोधस्तटं मृल्लवलीलया ६ मृत्तिकालववत् खण्डवत् स्यन्तं पातयन्तम् । उत्प्रेक्ष्यतेसशृङ्गं कैलासमिव ॥ २ ॥ युग्मम् ।।
अप्यतुच्छतया पुच्छाघातकंपितभूतलम् । अत्युदारदरीक्रोडक्रीडत्क्ष्वेडाभयंकरम् ॥ २८ ॥ सद्यो भिन्नेमकुम्भोत्थव्यक्तमुक्तोपहारिणम् । हरिणाक्षी हरिं स्वप्न दृष्टं सा बह्वमन्यत ॥ २९ ॥
युग्मम् ॥ अप्य० सा हरिणाक्षी सुमंगला खप्नदृष्टं हरि सिंहं बहु अमन्यत बहु मन्यते स्म । किलक्षणं हरिम् ? एतानि सर्वाणि १५हरिविशेषणानि । अतुच्छतया धनतया, पुच्छाघातकंपितभूत
लमपि पुच्छप्रहारेण कंपितपृथ्वीतलमपि । उदारदरीकोडक्रीडत्
क्ष्वेडाभयंकरमपि उदारदरीगुहा तस्याः क्रोडे उत्संगे क्रीडन्ती १४क्ष्वेडा सिंहनादस्तेन भयंकरमपि ॥ २८ ॥ सद्यो भिन्नेभकुंभोस्थव्यक्तमुक्तोपहारिणं, सद्यस्तल्कालं भिन्ना विदारिता इभा गजास्तेषां कुंभोत्था व्यक्ता प्रकटा मुक्ता मौक्तिकानि उपहारिणम् ढोकयन्तम् , सद्योभि०, पहारिणम् । रौद्रोऽपि हरिः मौक्तिक२२ दायकत्वात् बहुमान्यो जात इति भावः ॥ २९ ॥ युग्मम् ॥
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टीकया सहितम्
निधीनक्षय्यसारौघतुंदिलान् सन्निधौ दधिः । भूषाहेम्नः स्ववपुषो, मयूखैरन्तरं प्रती ॥ ३० ॥ पद्माकरमयीं मत्वा, नेत्रवत्रिणा । पद्मवासा निवासार्थमित्रोपनमति स्म ताम् ॥ ३१ ॥
सर्गः ]
२४५
युग्मम् ॥
निधी० पद्मवासा लक्ष्मीस्तां सुमंगलां निवासार्थमिव निवा - ६ सहेतोरिव उपनमति स्म । किंलक्षद्मा अक्षय्य सारौघतुं - दिलान् अक्षय्य सारस्य अत्रुटितसार द्रव्यस्य ओघः समूहस्तेन तुंदिलान् लक्षणया स्थूलान् एवंविधान् निधीन् सन्निधौ समीपे ९ दधिर्दधाना | दधिरिति निपाता तेथः । पुनः किं कुर्वती ! स्ववपुषो मयूखैः आत्मीयशरीरस्य पूखैः किरणैः भूषाहेन्नः आभरणसत्कसुवर्णस्य अन्तरं न विनाशयती ॥ ३० ॥ १२ किं कृत्वा ? नेत्रवत्रकरांहिणा आणितूर्यांगाणाम् ' ( सि० ३।१।१३७) इत्येकवचनम्, लोचनमुखहस्तपादैः तां सुमंगलां पद्माकरमयीं मत्वा ज्ञात्वा लक्ष्मीः पो वसतीति सुमंगलामा - १५ श्रयते स्म ॥ ३१ ॥ युग्मम् ॥
:
भृङ्गैः सौरभलोभेनानुगतं से करिव ।
तन्व्या दोः पाशवत्पुण्यभाजां कण्ठग्रहो चितम् ॥ ३२ ॥ १८ प्रहितं प्राभृतं पारिजातेनैव जगत्प्रियम् । असम कौसुमं दाम, जज्ञे तत्र गोचरः ॥ ३३ ॥ युग्मम् ॥
भृङ्गै: कौसुमं दाम कुसुमसंवन्ति दाम माला तन्नेत्रगोचरो २१ जज्ञे, तया सुमंगलया पुष्पमाला दृष्टेति भावः । किंलक्षणं दाम ? सेवकैरिव भृङ्गैर्भ्रमरैः सौरभलोभेन अनुगतं परिमलस्य २३
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२४६
जैनकुमारसंभवं [सप्तमः लोभेन वेष्टितम् । दाम्न एव सर्वाणि विशेषणानि । तन्व्याः स्त्रियाः दोःपाशवत् भुजापाशवत् पुण्यभाजां भाग्यवतां कंठ३ ग्रहोचितं कंटक्षेपणयोग्यम् ॥ ३२ ॥ उत्प्रेक्ष्यते-पारिजातन प्रहितं प्राभृतमिव ढौकनमिव जगत्प्रियं विश्वाभीष्टम् । असमं निरुपमम् ॥ ३३ ॥ युग्मम् ॥ ६ चकोराणां सुमनसामिव प्रीतिप्रदामृतम् ।
रोहिण्या इव यामिन्या, हृदयंगमतां गतम् ॥३४॥
संप्राप्तकौमुदीसारं, कामुकैरिव कैरवैः । ९ आस्से विशंतं पीयूषमयूखं सा निरैक्षत ॥३५॥ युग्मम् ।।
चको० सा सुमंगला आस्ये मुखे विशंतं प्रविशंतं पीयूषमयूखं चन्द्रमसं निरैक्षत दृष्टवती । किंलक्षणं चन्द्रमसम् ? १२ एतानि सर्वाणि चन्द्रस्येव विशेषणानि । सुमनसां देवानामिव
चकोराणां प्रीतिप्रदामृतम् । यामिन्या इव रात्रेरिव रोहिण्या
हृदयंगमतां गतं भर्तृत्वं प्राप्तवन्तम् ॥ ३४ ॥ कामुकैरिव १५ कैरवैः कुमुदैनिविष्टकौमुदीसारम् उपभुक्तज्योत्स्नासारम् ॥३५॥ युग्मम् ॥
क्षिपन् गुहासु शैलानां, लोकादुत्सारितं तमः । १० सङ्कोचं मोचितं पद्मवनाद् घूकदृशां दिशन् ॥ ३६॥
न्यस्यन् प्राकाश्यमाशासु, तारकेभ्योऽपकर्षितम् । . स्वमेऽपि मेरयामास, तस्या हृत्कमलं रविः॥३७॥
युग्मम् ॥ क्षिप० रविः सूर्यस्तस्याः सुमंगलायाः हृत्कमलं स्वप्नेऽपि २५ मेरयामास विकासयति स्म । किं कुर्वन् रविः ? सर्वाणि
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सर्गः] टीकया सहितम्
२४७ विशेषणानि रवेरेव ज्ञेयानि। लोकात् उत्सारितं तमः अन्धकार शैलानां पर्वतानां गुहासु क्षिपन् , पद्मवनात् मोचितं संकोचं धूकदृशां दिशन् ॥ ३६॥ तारकेभ्योऽपकर्षितं गृहीतं प्राकाश्यं ३ प्रकटत्वं आशासु दिक्षु न्यस्यन् ॥ ३७॥ युग्मम् ।।
अखण्डदण्डनद्धोऽपि, न त्यजनिजचापलम् । सहजं दुस्त्यजं घोषन्निव किंकिणिकावणैः ॥ ३८ ॥६ ध्वजो रजोभयेनेव, व्योमन्येव कृतास्पदः । तत्प्रीतिनर्तकीनाट्याचार्यकम्बां व्यडम्बयत् ॥३९॥
अख० ध्वजस्तत्प्रीतिर्नर्तकीनाट्याचार्यकंबां तस्याः सुमं-९ गलायाः प्रीतिरूपमा(गाः)त्रस्य ? नर्तने नाट्याचार्य० रंगाचार्यकरकृतकंबां व्यडंबयत् , लक्षणया नाट्याचार्यकंबायाः सादृश्यं प्रापेति भावः । किं कुर्वन् ध्वजः ? एतानि ध्वजविशेषणानि १२ ज्ञेयानि । अखंडदंडेन नद्धपि बद्धोऽपि निजचापल्यं न त्यजन् , उत्प्रेक्ष्यते-किंकिणिकाकणैः क्षुद्रघंटिकाशब्दैः सहनं दुस्त्यजं घोषन्निव ॥ ३८ ॥ उत्प्रेक्ष्यते-रजोभयेन व्योमन्येव आकाश १५ एव कृतास्पदः कृतस्थान इव ॥ ३९ ॥ युग्मम् ॥ स्त्रैणेन मौलिनाधीये, सोऽहं साक्षी जगजनः। त्वं धत्सेऽतुच्छमत्संपल्लुम्पाको हृदये पुनः ॥४०॥ १८ मुखन्यस्तांबुजचंचचंचरीकरवच्छलात् । इति प्रीतिकलिं कुर्वन्निव कुम्भस्तयैक्ष्यत ॥४१॥
युग्मम् ॥ स्त्रैणे० तया सुमंगलया कुम्भ ऐक्षत दृष्टः । किं कुर्वन् २२
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२४८
जैनकुमारसंभवं [सप्तमः कुम्भः ? उत्प्रेक्ष्यते-मुखन्यस्तांबुजचंचच्चंचरीकरवच्छलात् मुखन्यस्तांबुजे चंचत् स्रवन् चंचरीकभ्रमररवच्छलात् मिषात् इति ३प्रीतिकलिं कुर्वन्निव ॥ ४० ॥ इतीति किम् ? सर्वप्रसिद्धोऽहं स्त्रैणेन स्त्रीसमूहेन मौलिना मस्तकेन आधीये ध्रिये, अत्र विषये जगज्जनः साक्षी वर्तते, त्वं पुनरतुच्छमत्संपल्लूपाको मदीय६ संपदो लंपाको अपहारको हृदये धत्से धरसि ॥४१॥ युग्मम् ।।
अम्लानकमलामोदमनेककविशब्दितम् ।
सद्वत्तपालिनिवेशक्षमविष्टरडम्बरम् ॥ ४२ ॥ ९ स्वर्णस्फातिस्फुरदगिवण्य विश्वोपकारकृत् । इभ्यागारमिवातेने, कासारं तदृगुत्सवम् ॥४३॥
युग्मम् ॥ १२ अम्ला० कासारं सरोवरं इभ्यागारमिव व्यावहारिक
गृहमिव तदृगुत्सवं तस्याः सुमंगलायाः दृष्टिगोचरे उत्सवं
आतेने विस्तारयति स्म । कासारः पुनपुंसको ज्ञेयः । किं१५ लक्षणं कासारं इभ्यागारं च ? द्वयोरपि विशेषणानि सर्वाणि ।
अम्लानकमलामोदं अम्लानकमलानां आमोदः परिमलो यत्र तत्, पक्षे अम्लानः कमलथा लक्ष्म्या आमोदो हर्षों यत्र तत् । १८ अनेककविशब्दितं, अनेककानां वीनां पक्षिणां शब्दितं यत्र
तत् , पक्षे अनेकानां कवीनां शब्दितं गीतकवित्वादिना कीर्तिविस्तारणं यत्र तत् । सती प्रशस्या वृत्ताकारा पालियंत्र तत् २१ सद्वत्तपालि निवेशस्य उपभोगस्य क्षमो विष्टराणां वृक्षाणां
डंबरो यत्र तत् निवेशक्षमविष्टरडम्बरम्, पक्षे सद्वृत्तानां २३ सच्चारित्राणां पालिः श्रेणिः तस्या निवेशक्षमो विष्टराणां
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सर्गः]
टीकया सहितम्
२४९
आसनानां डंबरो यत्र तत् ॥ ४२ ॥ वर्णस्फातिस्फुरदंगिवर्ण सुष्ठु शोभनस्य अर्णस्य पानीयस्य स्फात्या स्फुरंत्यो भंगयस्तरंगास्तैर्वर्ण्यम् , पक्षे स्वर्णस्य स्फात्या स्फुरन्त्यो भंगयो ३ विच्छित्तयस्ताभिर्वर्ण्य विश्वोपकारकृत् ॥ ४३ ॥ युग्मम् ॥ क्वचिद्वायुवशोद्धृतवीचीनीचीकृताचलम् । उद्वृत्तपृष्ठैः पाठीनैः, कृतद्वीपभ्रमं क्वचित् ॥४४॥ ६ पीयमानोदकं कापि, सतृपैरिव वारिदैः। रत्नाकरं कुरङ्गाक्षी,वीक्ष्यमाणा विसिष्मिये ॥४५॥
युग्मम् ॥ १ क्वचि० कुरंगाक्षी सुमंगला रत्नाकरं समुद्रं वीक्ष्यमाणा सती विसिष्मिये विस्मयं प्राप्ता । किंलक्षणं रत्नाकरम् ? सर्वाणि रत्नाकरस्यैव विशेषणानि । कचिद्वायुवशोद्भूतवीचीनीचीकृ-१२ ताचलम् , वायुवशेन उत्पाटिता ये वीचयः कल्लोलास्तैर्नीचीकृताः पर्वता येन तं वायु० । कचित् उद्वृत्तपृष्ठैः उत्पाटितपृष्ठविभागैः पाठीनैर्मत्स्यविशेषैः कृतद्वीपभ्रमम् ॥ ४४ ॥ उत्प्रेक्ष्यते-सतृषि-१५ तैरिव वारिदैर्मेधैः कचित् पीयमानोदकम् ॥ ४५ ॥ युग्मम् ॥
सूर्यबिम्बादिवोद्भूतं, जन्मस्थानमिवार्चिषाम् ।। चरिष्णुमिव रत्नादि, भारादिव दिवश्युतम् ॥ ४६ ॥१८ दीव्यद्देवांगनं रत्नभित्तिरुग्भिः क्षिपत्तमः। अभूदभ्रंकषं तस्या, विमानं नयनातिथिः॥४७॥ ..
युग्मम् ॥ २१ सूर्य० विमानं तस्याः सुमंगलाया नयनातिथिरभूत् , तया विमानं दृष्टमित्यर्थः । किंलक्षणं विमानम् ? एतानि सर्वाणि २३
___
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२५०
जैनकुमारसंभवं [सप्तमः विमानस्यैव विशेषणानि । उत्प्रेक्ष्यते-सूर्यबिंबादुद्भूतं प्रकटी
भूतमिव । उत्प्रेक्ष्यते-अर्चिषां तेजसां स्थानमिव । उत्प्रेक्ष्यते३ चरिष्णुः चलनशीलो रत्नाद्रिः रत्नाचल इव । उत्प्रेक्ष्यतेभारादिवः स्वर्गात् च्युतमिव भ्रष्टमिव !॥ ४६ ॥ दीव्यद्देवांगनं क्रीडदेवस्त्री । रत्नभित्तिरुग्भिः किरणैस्तमोऽन्धकारं क्षिपत् । ६ अभंकषं आकाशलग्नम् ॥ ४७ ॥ युग्मम् ॥ - रक्ताश्मरिष्टवैडूर्यस्फटिकानां गभस्तिभिः।
लम्भयन्तं नभश्चित्र-, फलकस्य सनाभिताम् ॥४८॥ वार्धिना दुहितुर्दत्तामिव कन्दुककेलये। रत्नराशिं दवीयांसमपुण्यानां ददर्श सा ॥४९॥
युग्मम् ॥ १२ रक्ता० सा सुमंगला रत्नराशिं ददर्श । किं कुर्वन्तं रत्नराशिम् ? रक्ताश्मरिष्टवैडूर्यस्फटिकानां रक्ताश्मा पद्मरागमणिः,
अरिष्टं कृष्णरत्नं, वैडूर्य नीलमणिः, स्फटिकः श्वेतमणिः, एतेषां १५ गभस्तिभिः किरणैः नभ आकाशं चित्रफलकस्य सनाभितां 'चित्रफलकस्य सादृश्यं लंभयन्तं प्रापयन्तम् ॥ ४८ ॥ पुनः
किंलक्षणं रत्नराशिम् ? उत्प्रेक्ष्यते-वार्धिना समुद्रेण दुहितुः १८ पुत्र्या लक्ष्म्याः कंदुककेलये दत्तमिव । अपुण्यानां निर्भाग्यानां : दवीयांसं अतिदूरम् ॥ ४९॥ युग्मम् ॥
आघोराघोररोचिष्णुं, जिष्णुं चामीकरत्विषाम् । २१ अजिमविलसज्वालाजिह्वमाहूतिलोलुपम् ॥ ५० ॥
श्मश्रुणेव नु धूमेन, श्याम मखभुजां मुखम् । ददर्श श्वसनोद्भूतरोचिषं सा विरोचनम् ॥ ५१ ॥
युग्मम् ॥
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सर्ग: ]
टीका सहितम्
२५१
आधा० सा सुमंगला विरोचनं अग्निं ददर्श । किंलक्षणं अग्निम् ? सर्वाण्यग्नेर्विशेषणानि, आघोराघोररोचिष्णुं आघोरं घृतं तस्य घोरेण सेकेन रोचिष्णुं देदीप्यमानम् । चामी - ३ करत्विषं सुवर्णकान्तिम्, जिष्णुं जयनशीलम् । अजिह्मविलसज्ज्वालाजिव्हं अजिह्मापदिष्टाः विलसन्त्यः ज्वाला एव जिह्वा यस्य तं अजि० । आहुतिलोलुपं आहुतौ होतव्यद्रव्य - ६ ग्रहणे लोलुपं लम्पटम् ॥ ५० ॥ उत्प्रेक्ष्यते - श्मश्रुणा इव कूर्चसदृशेन धूमेन श्यामं कृष्णम्, मखभुजां देवानां मुखम् श्वसनोद्भूतरोचिषं श्वसनः पवनः तस्मादुत्पन्नरुचिम् ॥ ५१ ॥ ९
युग्मम् ॥
** इत्यष्टाविंशतिश्लोकैः चतुर्दशस्वप्नवर्णनम् ॥ 9 प्रविश्य वदनद्वारा, तस्याः स्वमा अमी समे । कूटस्थ कौटुम्बिकतां, भेजिरे कुक्षिमन्दिरे ॥ ५२ ॥ प्रवि० अमी गजादयोऽग्निपर्यन्ताः समे सर्वे स्वमास्तस्याः सुमंगलायाः कुक्षिमन्दिरे उदररूपगृहे वदनद्वारा मुखद्वारेण १५ प्रविश्य कूटस्थ कौटुंबिकतां स्थिरगृहपतित्वं भेजिरे सेवन्ते
स्म ॥ ५२ ॥
ततो गुणत्रजागरं, जजागार सुमंगला । साक्षात्तद्वीक्षणात्कर्तुकामेव नयनोत्सवम् ॥ ५३ ॥
१२
ततो ० ततस्ततोऽनन्तरं सुमंगला जजागार । किंविशिष्टा सुमंगला ? गुणत्रजागारं गुणा औदार्यगांभीर्य चातुर्य माधुर्यधैर्यादयस्तेषां व्रजः समूहस्तस्य आगारं गृहम् । पुनः किंविशिष्टा ? २२
१८
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२५२
जैनकुमारसंभवं
[ सप्तमः
उत्प्रेक्ष्यते - साक्षात् प्रत्यक्षं तद्वीक्षणात् तेषां स्वप्नानां दर्शनात् नयनोत्सवं कर्तुकामेव ॥ ५३ ॥ स्वमार्थास्तानपश्यन्ती, पुरः सा चिखिदे क्षणम् । प्राप्ता मत्कुक्षिमेवामी, इति द्राग् मुमुदे पुनः ॥५४॥ स्वप्ना० सा सुमङ्गला पुरोऽग्रे तान् स्वनार्थान् स्वप्नपदार्थान् ६ अपश्यन्ती, क्षणं चिखिदे खेदं प्राप्तवती । पुनर्द्राग् शीघ्रं इति कारणात् मुमुदे प्रमोदं धृतवती, इतीति किम् ? अमी स्वप्नार्था मत्कुक्षिमेव प्राप्ताः ॥ ५४ ॥
निर्नष्टनिद्रनेत्रा सा, स्वमान्तरचिन्तयत् । मुनिरप्राप्तपूर्वाणि, पूर्वाणीव चतुर्दश ॥ ५५ ॥
निर्न० सा सुमंगला निर्नष्टनिद्रनेत्रा निद्रारहितलोचना १२ सती चतुर्दशखमान् अन्तर्मध्ये अचिन्तयत् । क इव मुनिरिव, यथा मुनिरप्राप्तपूर्वाणि चतुर्दशपूर्वाणि चिन्तयति स्मरति ॥ ५५ ॥
स्मृतिप्रत्ययमानीते, मत्या स्वनकदम्बके । कदम्बकोरकाकारपुलका साऽभवन्मुदा ॥ ५६ ॥ स्मृति० सा सुमंगला मुदा हर्षेण कन्दबकोरकाकारपुलका १८ कदंबाख्यपुष्पस्य कोरको मुकुलस्तदाकारका पुलका तत्सदृशरोमांचाऽभवत् । क्व सति ? मत्या बुद्ध्या खमकदंब के खप्नसमूहे स्मृतेः प्रत्ययं गोचरं आनीते सति ॥ ५६ ॥ नैयग्रोधोऽङ्कुर इव, प्रवर्धिष्णुः पुटं भुवः । आनन्दो हृदयं तस्याः, सोल्लासं निरवीवृतत् ॥ ५७ ॥
१५
२२
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२५३
सर्गः] टीकया सहितम्
नैय० प्रवर्धिष्णुर्वर्धनशीलः आनंदः तस्याः सुमंगलायाः हृदयं सोल्लासं सविकाशं निरवीवृतत् निवर्तयामास निष्पादयामासेत्यर्थः । क इव ? नैयग्रोधांकुर इव, न्यग्रोधस्यायं नैय-३ ग्रोधः, यथा वटसंबंधी अंकुरो वर्धिष्णुर्भुवः, पुटं सोल्लासं निवर्तयति ॥ ५७ ॥
यन्निभालनभूः प्रीतिमैने मम तनूं तनुम् । ६ तत्फलावाप्तिजन्मा तु, मातु क्वेत्याममर्श सा॥५८॥
यन्नि० सा सुमंगला इति आममर्श इत्थं विमर्शति स्म । इतीति किम् ? यन्निभालनभूः येषां स्खमानामालोकनसमुत्पन्ना प्रीतिर्मम तनूं शरीरं तनुं कृशां मेने। तु पुनस्तत्फलावाप्तिजन्मा तेषां खप्नानां फलप्राप्तिसमुत्पन्ना प्रीतिः क मातु ॥ ५८ ॥ तया स्वपक्षणोनीतप्रीतिसन्तर्पितात्मया। १२ उन्निद्रा नित्यमस्वमवध्वोऽप्यबहु मेनिरे ॥ ५९॥
तया० तया सुमंगलया अस्वप्नवध्वोऽपि देवांगना अपि नित्यं निरंतरं उन्निद्रा निद्रारहिताः सत्यः अबहु मेनिरे न बहु १५ मन्यन्ते स्म । किंविशिष्टया तया ? खप्नक्षणोन्नीतप्रीतिसंतपितात्मया, स्वप्नक्षणात् स्खमोत्सवात् उन्नीता प्राप्ता प्रीतिस्तया संतर्पितात्मया प्रीणितात्मया ॥ ५९ ॥
१० चेतस्तुरंगं तच्चारुविचाराध्वनि धावितम् । सा निःप्रत्यूहमित्यूहवल्गया विदधे स्थिरम् ॥ ६॥
चेत० सा सुमंगला चेतस्तुरंगं इति ऊहविचारवल्गया निःप्रत्यूहं निर्विघ्नं यथा भवति तथा स्थिरं विदधे । किंलक्षणं २२
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२५४
जैनकुमारसंभवं [सप्तमः चेतस्तुरंगम् ? तच्चारुविचाराध्वनि तेषां स्वमानां मनोज्ञविचारमार्गधावितं सत्वरं चलितम् ॥ ६० ॥ ३ नाम्ना न केवलं वामा, वामा बुद्धिगुणेष्वपि ।
ऊहे स्फुरन्ति सद्दृष्टिलालसे नालसेक्षणाः ॥ ६१॥
नाम्ना० वामा स्त्रियः केवलं नाम्ना न वामा न प्रतिकूला ६ किं तु बुद्धिगुणेष्वपि तु वामाः । अलसेक्षणाः स्त्रियः सदृष्टिलालसे प्रशस्यलोचनगोचरे ऊहे विचारे न स्फुरन्ति न समर्थी भवन्ति ॥ ६१ ॥ ९ कटीरस्तनभारेण, यासां मन्दः पदक्रमः ।
तासां विचारसामर्थ्य, स्त्रीणां संगच्छते कथम् ॥६२॥
कटी० यासां स्त्रीणां कटीरं कटितटं तस्य स्तनयोश्च भारेण १२ पदक्रमो मन्दो वर्तते, पदश्चरणः पक्षे विभक्त्यंतरं पदं, तासां स्त्रीणां विचारसामर्थ्य विशेषेण चारो गमनं तस्या समर्थ, पक्षे
ऊहशक्तिः कथं सङ्गच्छते, कथं घटते ? ॥ १२ ॥ १५ स्थूलस्तनस्थलं दृष्ट्वा, हृदयं हरिणीदृशाम् ।
त्रस्यता यानहंसेन, भारती नीयतेऽन्यतः ॥ ६३ ॥
स्थूल० हरिणीदृशां स्त्रीणां स्थूलस्तनस्थलं हृदयं दृष्ट्वा १० त्रस्यता त्रासं प्रामुवता यानहंसेन वाहनराजहंसेन भारती
सरखती अन्यतः अन्यत्र नीयते । कोऽर्थः ? स्थले राजहंसानां प्रायः स्थितिनं भवति इति भावः ॥ ६३ ॥ हारेऽनुस्तनवल्मीकं, महाभोगिनि वीक्षिते । २२ आसीदति कुलायेच्छुः, स्त्रीणां धीविष्करी कथम् ॥६४॥
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सर्गः] टीकया सहितम्
२५५ हारे० धीविष्करी बुद्धिपक्षिणी स्त्रीणां स्तनवल्मीकं अनुस्तनरूपो कोटनन्तरं, अनु पश्चात् महाभोगिनि, महानाभोगो विस्तारो यस्य स महाभोगी, तस्मिन् महासर्प ? या वा३ एवंविधे हारे वीक्षणे सति कथं आसीदति आसन्ना भवति अपितु नैव,, किंलक्षणा धीविष्करी ? कुलायेच्छुः कुलायं नीडं, पक्षे कुलाय वंशाय निरुपद्रवतां इच्छुः ॥ ६४ ॥ ६
मन्ये मोहमयः सर्गः, स्त्रीषु धात्रा समर्थितः।
यान्ति यत्तदभिष्वंगा-न्मूढतां तात्त्विका अपि॥६५॥ __ मन्ये० अहं एवंविधं मन्ये धात्रा ब्रह्मणा स्त्रीषु मोह-९ मयः सर्गः सृष्टिः समर्थितः कृतः, यत्तदभिष्वंगात् यत् यस्मात् कारणात् तासां स्त्रीणामासक्तितः तात्त्विका अपि विद्वांसोऽपि मूढतां यान्ति ॥ ६५ ॥ जातौ नः किल मुख्या श्रीः, सापि गोपालवल्लभा। जातं जलात्कलाधार-द्विष्टं शिश्राय पुष्करम् ॥६६॥ जातौ० नो अस्माकं जातौ या श्रीलक्ष्मी मुख्या वर्तते, १५ सापि श्रीर्गोपालवल्लभा गोपालः पशुपालः कृष्णो वा तस्य । वल्लभा पत्नी जलात्पानीयात् जडात् मूर्खाद्वा जातं कलाधारविद्विष्टं कलाधारश्चन्द्रो विचक्षणो वा तं प्रति द्विष्टं पुष्करं १८ कमलं शिश्राय आश्रितवती ॥ ६६ ॥ बभार भारती ख्याति, स्त्रीजातौ विदुषीति या। खभावभङ्गे न श्रेय, इति साऽभूदभर्तृका ॥ ६७॥ बभार० या भारती स्त्रीजातौ विदुषी इति ख्याति बभार २२
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जैनकुमारसंभवं [ सप्तमः धृतवती, स्वभावभङ्गे स्वीयसहजत्यागे न श्रेयः कल्याणं, इति कारणात् सा अभर्तृका भर्तृरहिता बालकुमार्येव ३ अभूत् ।। ६७ ॥
तज्जगद्गुरुरेवैत-द्विचारं कर्तुमर्हति ।
जात्यरत्नपरीक्षायां, बालाः किमधिकारिणः॥६८॥ * तज्ज० तत् तस्मात् कारणात् जगद्गुरुः श्रीयुगादीश्वर एवैतद्विचारं एतेषां चतुर्दशानां स्वप्नानां विचारं कर्तुं अर्हति योग्यः स्यात् , जात्यरत्नपरीक्षायां बालाः शिशवः किं अधि९ कारिणः स्युः, अपि तु नैव ॥ ६८ ॥
अथालसलसबाहुलता तल्पं मुमोच सा । . सौषुप्तिकैरिव प्रीयमाणा क्वणितभूषणैः ॥ ६९ ॥ १२ अथा० अथानन्तरं अलसलसराहुलता आलस्येन प्रसर
द्भुजवल्ली सती सा सुमंगला तल्पं शयनीयं मुमोच । किंवि. शिष्टा सुमंगला ? कणितभूषणैः कणितैः शब्दितैः भूषणैरा१५ भरणैः सौषुप्तिकैरिव सुषुप्तं सुष्टुं सुप्तं पृच्छन्तीति सौषुप्तिकानि तैः सौषु०, प्रीयमाणाः प्रीतिं प्राप्यमानाः ॥ ६९ ॥
अकुर्वती खहर्षस्य, सखीरपि विभागिनी । साऽचलचलनन्यास-हंसन्ती हंसवल्लभाः ॥ ७० ॥
अकु० सा सुमंगला अचलत् । किं कुर्वती ? सखीरपि खहर्षस्य विभागिनीरकुर्वती । पुनः किंवि० चलनन्यासै११श्चरणमोचनैर्हसवल्लभा राजहंसीहसन्ती ॥ ७० ॥
१८
सा
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सर्गः] टीकया सहितम्
२५७ इच्छन्त्या विजनं याने, तस्या नाऽभवतां प्रिये । नूपुरे रूपरेखाया, आरावैः स्तावकैः पदोः ॥ ७१॥
इच्छ० तस्याः सुमङ्गलाया नूपुरे प्रिये अभीष्टे नाभवताम् । ३ किं कुर्वत्याः ? याने गमने विजनं एकान्तं इच्छन्त्याः । किंलक्षणे नूपुरे ? आरावैः शब्दैः सुमङ्गलासंबन्धिनोः पदोः चरणयो रूपरेखायाः स्तावकैः स्तुतिकारकैः ॥ ७१ ॥ ६
अकाले मञ्जु सिञ्जाना, मेखला मे खलायितम् ।। अधुनैव विधात्री किमिति सा दध्युषी क्षणम् ॥७२॥
अका० सा सुमङ्गला क्षणं इति दध्युषी ध्यातवती । इतीति ९ किम् ? मे मम मेखला खलायितं दुर्जनाचरितं अधुनैव किं विधात्री करिष्यति ? किं कुर्वाणा मेखला ? अकाले मञ्ज सिञ्जाना मञ्जु मनोज्ञं सिञ्जाना अव्यक्तं शब्दं कुर्वाणा ॥७२॥ १२
मौनं भेजे करस्पर्शसंकेताद्वलयावलिः।। विदुषीव तदाकूतं, तरसा तत्प्रकोष्ठयोः ॥७३॥
मौनं० तत्प्रकोष्ठयोस्तस्याः सुमङ्गलायाः प्रकोष्ठयोः कला-१५ चिकयोर्वलयावलिः करस्पर्शसंकेतात् मौनं भेजे । किं कुर्वती वलयावलिः ? तरसा वेगेन तदाकूतं तस्याः सुमङ्गलायाः आकृतं खान्ताभिप्रायं विदुषी विज्ञातवती ॥ ७३ ॥
दुनिमित्तात्क गन्तासीत्यालापादालिजन्मनः । भीता मन्दपदन्यासं, साऽभ्यासं भर्तुरासदत् ।।७४॥
दुर्नि० सा सुमङ्गला मन्दपदन्यासं यथा भवति तथा भर्तुः श्रीऋषभदेवस्य अभ्यासं समीपं आसदत् प्राप्ता । किंलक्षणा २२
जै० कु० १७
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२५८
जैनकुमारसंभवं
[ सप्तमः
सुमङ्गला ? आलिजन्मनः सखीभ्यः समुत्पन्नात् दुर्निमित्तात् अमङ्गलरूपात् क्व गन्तासि त्वं कुत्र गमिष्यसि इत्यालापात् ३ ईदृग्जल्पात् भीता भयं प्राप्ता । इतीति किम् ? "छीए विभग्गे कमणिए कंटए य भग्गेय । दिट्ठे सप्पविराले नहि गमणे सुंदरं होई” ॥ १ ॥ इति वचनात् अपशकुनभयेन ६ सखीनामकथयित्वैव एकाकिनी ययाविति भावः ॥ ७४ ॥
रत्नप्रदीपरुचिसंयमितान्धकारे, मुक्तावचूलकमनीय वितानभाजि ।
सा तत्र दिव्यभवने भुवनाधिनाथं, निद्रानिरुद्धनयनद्वयमालुलोके ॥ ७५ ॥
रत्न० सा सुमङ्गला तत्र तस्मिन् दिव्यभवने भुवनाधिनाथं १२ निद्रानिरुद्धनयनद्वयं निद्रया मुद्रितलोचनयुग्मं आलुलोके ददर्श । किंविशिष्टे दिव्यभवने ? रत्नप्रदीपरुचिसंयमि तान्धकारे रत्नसत्कप्रदीपानां रुचिभिः कान्तिभिः संयमितं लक्षणया १५ निराकृतं अन्धकारं यत्र तस्मिन् सुप्रकाशे इत्यर्थः । पुनः किं.विशिष्टे ? मुक्तावचूलकमनीयवितानभाजि मुक्तावचूलैः मौक्तिकझुम्बनकैः कमनीयान् मनोज्ञान् वितानान् चन्द्रोद्द्योतान् १८ भजतीति भाक् तस्मिन् ॥ ७५ ॥
१२
पल्यङ्के विशदविकीर्णपुष्पतारे, व्योम्नीव प्रथिमगुणैकधानि लीनः । उत्फुल्लेक्षणकुमुदां मुदा जिनेन्दुचाणः सपदि कुमुद्वतीमिवैनाम् ॥ ७६ ॥
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सर्गः] टीकया सहितम्
२५९ पल्यं० जिनेन्द्रः श्रीऋषभचन्द्रः एनां सुमङ्गलां मुदा हर्षेण कुमुद्वतीं कुमुदिनीमिव चक्राणः कृतवान् । किंविशिष्टो जिनेन्दुः ? पल्यके व्योम्नीव आकाशवत् लीनः सुप्तः ।३ किंलक्षणे पल्यंके ? व्योम्नीव विशदविकीर्णपुष्पतारे, विशदानि निर्मलानि विकीर्णानि विक्षिप्तानि चम्पकशतपत्रविचकिलादिपुष्पाणि तैस्तारे मनोज्ञे, पक्षे विशद विकीर्णपुष्पवत्तारा यत्र ६ तत्र० । पुनः किंलक्षणे ? प्रथिमगुणैकधाम्नि प्रथिमगुणस्य विस्तारगुणस्यैकधाग्नि एकगृहे । किंलक्षणां सुमङ्गलाम् ? उत्फुल्लेक्षणकुमुदाम् , उत्फुल्ले विकखरे ईक्षणे लोचने एव कुमुदे यस्याः९ सा ताम् । कोऽर्थः ? यथा चन्द्रः कुमुदिनी खदर्शनेन विकासयति तथा जिनेन्दुरपि सुमङ्गलां मोदयामासेति भावः ॥ ७६॥
तोयााया इव परिचयान्मुक्तशोपं स्वतन्वाः, पौष्पं तल्पं प्रति परिमलेनोतमीभवन्तम् । दृग्भ्यां व्रीडाव्यपगमऋजुस्फारिताभ्यां प्रसुप्तं, दृष्ट्वा नाथं लवणिम बुधाम्मोनिधि पिप्रिये सा॥ ७७॥ १५
तोया० सा देवी सुमङ्गला दृग्भ्यां लोचनाभ्यां नाथं खामिनं प्रसुप्तं दृष्ट्वा पिप्रिये प्रीतिं प्राप । किं कुर्वन्तं नाथम् ? पौष्पं तल्पं प्रति पुष्पशय्यां प्रति परिमलेन उत्तमणीभवन्तं परिम-१८ लदानं कुर्वन्तम् । किंविशिष्टं पौष्पं तत्पम् ? जलक्लिन्नं वस्त्रं तोया उच्यते । तोयााया इव तोयासदृशायाः खतन्वा निजशरीरस्य परिचयात् मुक्तशोषं शोषरहितम् । किंलक्षणाभ्यां हग्भ्याम् ? ब्रीडाव्यपगमऋजुस्फारिताभ्यां ब्रोडाया लज्जाया- २२
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२६० जैनकुमारसंभवं
[अष्टमः व्यपगमेन अभावेन ऋजु सरलं यथा भवति तथा स्फारिताभ्यां विस्तारिताभ्याम् । पुनः किंवि० नाथं! लवणिमसुधाम्भो३निधिं लावण्यसुधाया अम्भोनिधिं समुद्रम् ॥ ७७ ॥
इति श्रीअञ्चलगच्छे कविचक्रवर्तिश्रीजयशेखरसूरिविरचिते श्रीजैनकुमारसंभवस्य तच्छिष्यश्रीधर्मशेखरसूरिविरचितायां टीकायां
श्रीमाणिक्यसुन्दरसूरिशोधितायां सप्तम
सर्गव्याख्या समाप्ता ॥ ७ ॥
र
अथ अष्टमः सर्गः। अथ प्रसन्नप्रभुवऋवीक्षा। पीयूषपानोत्सवलीनचेताः । विश्रम्य मृद्वी क्षणमंहिचार
जन्मक्लमच्छेदमसौ विवेद ॥१॥ अथ० अथानन्तरं मृद्वी सुकोमला असौ सुमङ्गला क्षणं विश्रम्य अंहिचारजन्मक्लमच्छेदं अंहिचारजन्मनः चरण१५ संचरणसमुत्पन्नस्य क्लमस्य श्रमस्य च्छेदं विवेद प्राप । किंलक्षणा
सुमङ्गला ? प्रसन्नप्रभुवक्रवीक्षापीयूषपानोत्सवलीनचेताः प्रसन्नस्य
प्रभोः वक्रस्य वीक्षा अवलोकनमेव पीयूषं अमृतं तस्य पानो१८ त्सवलीनचेतश्चित्तं यस्याः सा प्रस० ॥१॥
ये श्वासवाता वदनादमान्त
इवोद्भवन्ति स्म रवेण तस्याः। ते स्वास्थ्यमापत्सत वहिदिश्य
वायोर्विरामे जलधेरिवापः ॥ २॥
२२
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सर्गः ]
टीका सहितम्
२६१
ये० तस्याः सुमङ्गलायाः वदनात् मुखात् ये श्वासवाताः श्वासवायवो रवेण वेगेन अमान्त इवोद्भवन्ति स्म, उद्भवन्तः
श्वासवताः स्वास्थ्यं आपत्सत आगताः, का इव ? जलधेः ३ समुद्रस्य आप इव, यथा आपो जलानि वह्निदिश्यवायोकोणपवनस्य विरामे अभावे स्वास्थ्यं आपद्यन्ते ॥ २ ॥ या कृत्रिमा मौक्तिकमण्डनश्रीरदीयत खेदलवैस्तदङ्गे ।
तत्र स्थित सा सहसा विलीना, किं कृत्रिमं खेलति नेतुरग्रे || ३ || या० तदने तस्याः सुमङ्गलायाः शरीरे खेदलत्रैः प्रवेदबिन्दुभिः या कृत्रिमा मौक्तिकश्रीः मुक्तामयी अलंकार लक्ष्मीरदीयत दत्ता । तत्र स्थितौ श्रीयुगादीशदृष्टौ सा मौक्तिक- १२ मण्डनश्रीः सहसा विलीना विलयं गता । नेतुः स्वामिनोऽग्रे किं कृत्रिमं खेलति ? अपि तु नैव ॥ ३ ॥ श्लथं विहारेण यदन्तरीयदुकूलमासीत्पथि विप्रकीर्णम् । सांयात्रिकेणेव धनं नियम्य,
हथं
नवीं तया तद् दृढयाम्बभूवे || ४ || यदन्तरीयदुकूलं यस्याः सुमङ्गलायाः परिवानपट्टकूलं पथि मार्गे श्लथं शिथिलं विप्रकीर्णे विसंस्थुलं आसीत्, तत् दुकूलं तया सुमङ्गलया नीवीं मेखलां नियम्य बद्धा दृढया- २३ म्बभूवे दृढीचक्रे । "ये श्वासवाता इत्यादिकं सुमङ्गलायाः स्तोकचलनेऽप्युक्तम्” । तत् अतिशयालंकारे कवीनां धर्मादुक्तम्, २३
$5
१४
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२६२
जैनकुमारसंभवं
[अष्टम:
यथा वाग्भट्टालंकारे 'त्वदारितारितरुणीश्वसितानिलेने'त्यादिकेनेव । सांयात्रिकेणेव प्रावहणिकेनेव । यथा सांयात्रिकेण नीवी ३ मूलद्रव्यं नियम्य पथि विकीर्ण धनं दृढीक्रियते ॥४॥
भर्तुः प्रमीलासुखभङ्गभीति__ स्तामेकतो लम्भयति स धैर्यम् । स्वमार्थशुश्रूषणकौतुकं चा
न्यतस्तरां स्त्रीषु कुतः स्थिरत्वम् ॥५॥ भर्तुः० भर्तुः श्रीऋषभदेवस्य प्रमीलासुखं निद्रासुखं ९ तस्य भङ्गभीतिरेकतस्तां सुमङ्गलां धैर्य लम्भयति स्म । च पुनः,
खप्नार्थशुश्रूषणकौतुकं अन्यतस्तरामौत्सुक्यं प्रापयति स्म । स्त्रीषु स्थिरत्वं स्थैर्य कुतः स्यात् ? ॥ ५ ॥ १२ क्षोभो भवन्मा स सुषुप्तिहप्ते,
नाथेऽत्र तारस्वरया ममोक्त्या ।
मेधाविनी तज्जयजीवनन्दे१५ त्युदीरयामास मृदुं गिरं सा ॥६॥
क्षोभो० तारखरया महाशब्दया ममोक्त्या अत्र अस्मिन्नाथे सुषुप्तिः सुखखापस्तद्विषये तृप्ते क्षोभो मारम भवत् । तत् १८ तस्मात् कारणात् सा सुमङ्गला जयजीवनन्देति मृदं सुकोमलां गिरं उदीरयामास प्रोक्तवती ॥ ६ ॥
चित्रं वधूवऋविधूत्थवल्गु
वाकौमुदीभिः सरसी रराज । श्रीसङ्गमैकप्रतिभूप्रबोध
लीलोल्लसल्लोचननीरजन्मा ॥ ७॥
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सर्ग: ]
टीकया सहितम्
२६३
चित्रं ० स भगवान् सरसी रसाढ्यः पक्षे सरसी महासरः चित्रं आश्चर्यं रराज । काभिः ? वधूवऋविधूत्थवल्गुवाक्कौमुदीभिः, वधूः सुमङ्गला तस्या वक्रविधूत्थाः मुखचन्द्रसमुत्पन्ना वल्गवः ३ मनोज्ञाः वाचो वाण्यस्ताभिरेव कौमुदीभिः चन्द्रज्योत्स्नाभिः । किंविशिष्टो भगवान् ? श्रीसंग मैकप्रतिभूप्रबोध लीलोल्लसल्लोचननीरजन्मा श्रीलक्ष्मीः तस्याः संगमे एकप्रतिभू-समाने प्रबोधलीलया उल्लसन्ती लोचने एव नीरजन्मनी कमले यस्याः सा ॥ ७ ॥
६
निविष्टवानिष्टकृपः स पूर्वकायेन शय्यां सहसा विहाय । क्षणं धृतोष्मामिदमङ्गसङ्ग
भङ्गानुतापादिव देवदेवः ॥ ८ ॥ निवि० इष्टकृपः अभीष्टकरुणः स देवदेवो भगवान् पूर्वकायेन अन्यशरीरेण शय्यां सहसा औत्सुक्येन विहाय मुक्त्वा निविष्टवान् उपविष्टः । किंलक्षणां शय्याम् ? इदमङ्गसङ्ग - १५ भङ्गानुतापात् अस्य भगवतः अङ्गसङ्गस्य भङ्गसत्कपश्चात्तापात् क्षणं धृतोष्मामिव धृतसन्तापामित्यर्थः ॥ ८ ॥
पुरः स्थितामप्युषितां हृदन्तनिशि प्रबुद्धामपि पद्मिनीं ताम् । अप्यात्तमौनां स्फुरदोष्टदृष्टजिजल्पिषामैक्षत लोकनाथः ॥ ९ ॥ पुरः ० लोकनाथः श्रीयुगादीशः तां सुमङ्गलां ऐक्षत दृष्टवान् । किंविशिष्टां ताम् ? पुरोऽग्रे स्थितामपि हृदयान्तरुषितां हृदय- २३
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२६४
जैनकुमारसंभवं
[ अष्टमः
मध्ये कृतावासाम् । निशि रात्रौ प्रबुद्धां जागरितामपि पद्मिनीं कमलिनीं पक्षे पद्मिनीं स्त्रीम् । किंवि० ? आत्तमौनामपि गृहीतमौनामपि स्फुरदोष्ठदृष्ट जिजल्पिषया स्फुरद्भ्यां ओष्ठाभ्यां दृष्टा जिजल्पिषा जल्पनेच्छा यस्याः सा तां स्फुरदोष्ठ० ॥ ९ ॥ सुमङ्गलां मङ्गलकोटिहेतुनैतुर्निदेशस्त्रिदशेशमान्यः । निवेशयामास निवेशयोग्ये, भद्रासने भद्रमुखीमदूरे ॥ १० ॥
सुम नेतुर्निदेशः श्रीऋषभदेवस्यादेशो भद्रमुखीं कल्याणकृन्मुख सुमङ्गलां अदूरे प्रत्यासन्ने निवेशयोग्ये उपवेशना भद्रासने निवेशयामास, उपवेशयति स्म । किंविशिष्टो १२ निदेशः ? मङ्गलकोटिहेतुर्दधिदूर्वाक्षत चन्दनादिमाङ्गलिककोटेः कारणम्, पुनः किं० : त्रिदशेश मान्यः सौधर्मेन्द्रादिचतुःषष्टिदेवेन्द्राणां मान्यः ॥ १० ॥ दिगङ्गनाङ्गेषु सिताङ्गरागभङ्ग भजद्भिर्दशनांशुजालैः । ज्योत्स्त्रीयशो जापयता जिनेन,
९
१३
तया रजन्या जगदेऽथ जाया ॥। ११ ॥
दिग० अथानन्तरं जिनेन श्री ऋषभेण जाया सुमङ्गला जगदे | वशमांशुजालैः दन्तकिरणसमूहैः तया रजन्या ज्योत्स्त्री पूर्णिमा तस्या यशः कीर्तिः यशो जापयता जयाय प्रयुञ्जता । 'निजि अभिभवे' जिवातोः कारितान्तस्य प्रयोगः । किं कुर्वद्भिः २३ दशनांशुजालैः ! दिगङ्गनानां दिक्स्त्रीणां अङ्गेषु शरीरेषु
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सर्ग: ]
टीकया सहितम्
२६५
सिताङ्गरागभङ्ग श्वेतविलेपनविच्छित्तिं भजद्भिः सेवमानैः । कोऽर्थः ? भगवतो दन्तकिरणैः सा रात्रिरुज्ज्वला कृता, तया च पूर्णिमाया यशो निर्जितमिति भावः ॥ ११ ॥
अयानचर्यानुचितक्रमायाः, कच्चित्तव स्वागतमस्ति देवि ! |
तनूरबाधा तव तन्वि ! तापो
तीर्णस्य हेम्नो हसितप्रकाशा ।। १२ ।।
अया० हे देवि ! कच्चित् अभीष्टप्रश्ने तव स्वागतं सुष्ठ शोभनं आगमनं अस्ति विद्यते ? किंविशिष्टाया भव० १९ अयानचर्यानुचितक्रमायाः यानरहितगमनायोग्य चरणायाः । हे तन्वि कृशाङ्गि ! तब तनूः शरीरं अबाधा निराबाधा वर्तते ? किंविशिष्टा तनूः : तापाचीर्णस्य अरात्तमूगतगलितोत्तीर्णस्य १२ हेम्नः सुवर्णस्य हसितप्रकाशा जितखर्णकान्तेरित्यर्थः ॥ १२ ॥ छायेव पार्श्वदपृथग् बभूवान्, सुखी सदास्ते स सखीजनसे ।
प्राप्ताः सुवर्णे परभागमते,
माणिक्यभूषाः किमुतापदोपाः ॥ १३ ॥
૩.
छाये हे देवि ! स ते तव सखीजनः सदा सुखी आस्ते ? किंलक्षणः सखीजनः ? छाया इव पार्श्वीत समीपात् अपृथग् बभूवान् न पृथग्भूतः । उत अथवा शरीरे माणिक्यभूषा रत्नाभरणानि किं अंपदोषा निर्दोषा वर्तन्ते ? किंरूपा भाणि - क्यभूषाः ? सुवर्णे परभागं गुणोत्कर्षे प्राप्ताः ॥ १३ ॥
१५
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१२
२६६
६
महा० महानिशायामपि अर्धरात्रेऽपि मुक्तनिद्रे त्वं मां दिदृक्षया विलोकनेच्छया किं उपस्थितासि आगतासि ? येन कारणेन क्षणार्धमुक्तेऽपि प्रिये अभीष्टे चिराय चिरकालदृष्ट इव चेतो धावति ॥ १४ ॥
በረ
जैनकुमारसंभवं
महानिशायामपि मुक्तनिद्रे, दिदृक्षया मां किमुपस्थितासि । क्षणार्धमुक्तेऽपि चिराय दृष्ट
इव प्रिये धावति येन चेतः ॥ १४ ॥
स्वोपलब्धे मयि मारदूना, रिरंसया वा किमुपागतासि ।
प्रायोsवलासु प्रबलत्वमेति, कन्दर्पवीरो विपरीतवृत्तिः ॥ १५ ॥
स्वप्नो० वा अथवा हे देवि ! मयि खनोपलब्धे सति स्वप्नमध्ये दृष्टे सति त्वं मारदूना कामपीडिता सती रिरंसया १५ रन्तुमिच्छया किं उपागतासि आयातासि ? विपरीतवृत्तिः कन्दर्पवीरः प्रायो बाहुल्येन अबलासु स्त्रीषु प्रबलत्वं एति गच्छति ॥ १५ ॥
२२
[ अष्टमः
प्रिये प्रयासं विचिकित्सितं वा, मीमांसितुं किंचिदमुं व्यधास्त्वम् । सन्देहशल्यं हि हृदोऽनपोढ
मामृत्यु मर्त्यस्य महार्तिदायि ॥ १६ ॥ प्रिये ० ० वा अथवा हे प्रिये ! त्वं किंचित् विचिकित्सितं
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सर्गः] टीकया सहितम्
२६७ सन्दिग्धं विचारं मीमांसितुं विचारयितुं अमुं प्रयासं व्यधाः अकरोः ? हि निश्चितं हृदो हृदयात् सन्देहशल्यं अनपोर्ट अनाकृष्टं, मर्त्यस्य मनुष्यस्य आमृत्यु मृत्युं यावत् महातर्महा-३ दुःखस्य दायि भवति ॥ १६ ॥
चेद्वस्तु संत्रस्तमृगाक्षि मृग्यं,
तवास्ति किंचिद्वद तद्विशङ्कम् । आनाकमानागगृहं दुरापं,
प्रायो न मे नम्रसुरासुरस्य ॥ १७ ॥ चेद्व० संत्रस्तमृगस्य अक्षिणी इव अक्षिणी यस्यास्तस्याः९ संबोधनं क्रियते हे संत्रस्तमृगाक्षि ! चेत् यदि मृग्यं मार्गणीयं वस्तु किंचित्तवास्ति तद्विशकं निःशकं ब्रूहि, । प्रायो बाहुल्येन नम्रसुरासुरस्य मे मम आनाकं खर्ग यावत् , आनागगृहं १२ पातालं यावत् , न दुरापं न दुःप्रापम् ॥ १७ ॥
विश्वप्रभोर्वाचममुं सखण्डपीयूषपातेयरसां निपीय ।
१५ प्राप्ता प्रमोदं वचनाध्वपारं,
प्रारब्ध वक्तुं वनितेश्वरी सा ॥१८॥ विश्व० सा वनितेश्वरी वनितानां स्त्रीणां ईश्वरी सुमङ्गला १८ वक्तुं जल्पितुं प्रारब्ध प्रारभतेस्म । किंविशिष्टा वनितेश्वरी ? वचनाध्वपारं वाग्गोचरातीतं प्रमोदं प्राप्ता ? किं कृत्वा ? विश्वप्रभोः श्रीऋषभदेवस्य अमुं वाचं निपीय पीत्वा । किंविशिष्टां वाचम् ? सखण्डपीयूषपालेयरसां खण्डसहित २२
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२६८
जैनकुमारसंभवं [अष्टमः पीयूषं अभिनवं पयस्तस्य पालेयः पतिगतो रसो यस्याः सा ताम् ॥ १८॥ ३ पातुस्त्रिलोकं विदुषस्त्रिकालं,
त्रिज्ञानतेजो दधतः सहोत्थम् । खामिन्न तेऽमि किमप्यलक्ष्यं,
प्रश्नस्त्वयं स्नेहलतैकहेतुः ॥ १९ ॥ पातु० हे खामिन् ! अहं ते तव किमपि अलक्ष्यं अज्ञेयं न अवैमि न जाने । त्रीण्यपि विशेषणानि भगवतो ज्ञेयानि । किं९ विशिष्टस्य तव ? त्रिलोकं पातुस्त्रिभुवनं रक्षतः, त्रिकालं-विदुषः अतीतानागतवर्तमानकालान् ज्ञातवतः, सहोत्थं त्रिज्ञानतेजो मतिश्रुतावधिज्ञानसत्कं तेजो दधतः बिभ्रतः। तु पुनरयं प्रश्नः १२ लेहलतैकहेतुः स्नेहलतायाः स्नेहवार्ताया एकहेतुर्वर्तते ॥१९॥
निद्ध्यायतस्ते जगदेकबुद्ध्या,
__मय्यस्ति कोऽपि प्रणयप्रकर्षः। १५ भृशायते चूतलताविलासे,
साधारणः सर्ववने वसन्तः ॥२०॥ निघ्या. हे खामिन् ! ते तव जगत् विश्वं एकबुद्ध्या १८ निध्यायतः पश्यतः सतो माय विषये कोऽप्यपूर्वः प्रणय
प्रकर्षः स्नेहसमूहोऽस्ति । वसन्तः सर्ववने साधारणः सदृशो वर्तते, परं चूतलता सहकारवल्ली तस्या विलासे भृशायते २३ अधिकः स्यात् ॥ २० ॥
न नाकनाथा अपि यं नुवन्तो, २३ वहन्ति गर्व विबुधेशतायाः।
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सर्गः] टीकया सहितम् वक्तुं पुरस्तस्य तव क्षमेऽह
महो महासुर्महिलासु मोहः ॥ २१ ॥ न० हे नाथ ! नाकनाथा अपि इन्दा अपि यं त्वां। नुवानाः स्तुवन्तः सन्तो विबुधेशता देवेशत्वं पक्षे विद्वदीशत्वं । तस्या गवं अभिमानं न वहन्ति, तस्य तव पुरोऽये अहं वक्तुं जल्पितुं क्षमा शक्नोमि, अहो इत्याश्चर्ये महिलासु स्त्रीषु मोहो महासुर्महाप्राणो वर्तते ॥ २१ ॥ स्त्रीमात्रमेषासि तव प्रसादा
देवादिदेवाधिगता गुरुत्वम् । राज्ञो हृदि क्रीडति किं न मुक्ता
कलापसंसर्गमुपेत्य तन्तुः ॥ २२ ॥ स्त्री० हे आदिदेव ! एषा अहं स्त्रीमात्रं तव प्रसादादेव १२ गुरुत्वं अधिगता प्राप्तास्मि, तन्तुर्मुक्ताकलापसंसर्ग उपेत्य प्राप्य राज्ञो हृदि किं न क्रीडति, अपि तु क्रीडत्येव ।। २२ ।।
मां मानवी दानववैविध्वो,
याचन्ति यत्प्राञ्जलयोऽङ्गदास्यम् । सोऽयं प्रभावो भवतो न धेयं,
भसापि भाले किमु मत्रपूतम् ॥ २३॥ १८ मां० दानववैरिवध्वो देवाङ्गनाः प्राञ्जलयो योजिताञ्जलयः सत्यो मां मानवीमपि यत् अङ्गदास्यं अङ्गस्य शरीरस्य दास्यं याचन्ति, सोऽयं भवतस्तव प्रभावो वर्तते । भस्मापि रक्षापि मन्त्रपूतं सत् भाले ललाटे किं न धेयं ? अपि तु धार्यमेव ।।२३।। २२
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२७०
जैनकुमारसंभवं
[अष्टमः
त्वत्संगमात्संगमितेन दिव्य
पुष्पैर्मदङ्गेन विदूरितानि । वैराग्यरङ्गादिव पार्थिवानि, ___ वनेषु पुष्पाण्युपयान्ति वासम् ॥ २४ ॥ त्वत्सं० हे नाथ ! पार्थिवानि पृथिव्यां जातानि पुष्पाणि वैराग्यरङ्गादिव वनेषु वासं उपयान्ति । किंविशिष्टानि पुष्पाणि ? त्वत्संगमात् दिव्यपुष्पैः संगमितेन मिलितेन मदङ्गेन विदूरितानि दूरीकृतानि ॥ २४ ॥
अङ्गेषु मे देववधूपनीत
दिव्याङ्गरागेषु निराश्रयेण । नाथानुतापादिव चन्दनेन,
भुजङ्गभोग्या स्वतनुर्वितेने ॥ २५ ॥ ___ अङ्गे हे नाथ ! चन्दनेन खतनुरात्मीयशरीरं भुजङ्ग
भोग्या सर्पवेष्टिता वितेने कृता । उत्प्रेक्ष्यते-अनुतापादिव पश्चा१५त्तापादिव । किंविशिष्टेन चन्दनेन ? मे मम अङ्गेषु निराश्रयेण
आश्रयरहितेन । किंविशिष्टेषु अङ्गेषु? देववधूपनीतदिव्याङ्ग
रागेषु देवाङ्गनादौकितदिव्यविलेपनेषु ॥ २५ ॥ १८ वर्भूषणैरेव मदङ्गशोभां,
संभावयन्तीष्वमराङ्गनासु । रोषादिवान्तर्दहनं प्रविश्य,
द्रवीभवत्येव भुवः सुवर्णम् ॥ २६ ॥ २२ स्वर्भू० हे नाथ! भुवः पृथिव्याः सुवर्ण अन्तर्दहनं दहनस्य
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सर्गः] टीकया सहितम्
२७१ मध्ये प्रविश्य रोषादिव द्रवीभवति, गलत्येव । कासु सतीषु ? अमराङ्गनासु देवाङ्गनासु खर्भूषणैरेव वर्गसत्काभरणैरेव मदङ्गशोभा संभावयन्तीषु कुर्वन्तीषु सतीषु ॥ २६॥
पयः प्रभो ! नित्यममर्त्य धेनोः,
श्रीकोशतो दिव्यदुकूलमाला। पुष्पं फलं चामरभूरुहेभ्यः,
सदैव देवैरुपनीयते मे ॥ २७ ॥ पयः० हे प्रभो हे स्वामिन् ! देवैर्नित्यं निरन्तरं अमर्त्यधेनोः पयो दुग्धम् , श्रीकोशतः श्रियो लक्ष्याः कोशः श्रीकोशः९ तस्मादिव्यदुकूलमाला, च अन्यत् , अमरभूरुहेभ्यः कल्पवृक्षेभ्यः पुष्पं फलं सदैव मे मम उपनीयते ढौक्यते ॥ २७ ॥
भोगेषु मानव्यपि मानवीनां,
खामिन्न बध्नामि कदाचिदास्थाम् । अहं त्वदीयेत्यनिशं सुरीभिः,
स्वर्भोगभङ्गीष्वभिकीकृताङ्गी ॥ २८॥ १५ भोगे० हे स्वामिन् ! अहं मानवी मनुष्यमात्रापि मानवीनां भोगेषु कदाचिदास्थां न बध्नामि । अहं त्वदीया त्वत्सत्का इति कारणात् , सुरीभिर्देवाङ्गनाभिरनिशं निरन्तरं स्वर्भोग-१८ भङ्गीषु देवलोकसत्कभोगविच्छित्तिषु अभिकीकृताङ्गी कामुकीकृतशरीरा वर्ते ॥ २८॥
अन्यैरनीषल्लभमेति वस्तु,
यदा यदासेवनकं मनो मे।
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२७२
जैनकुमारसंभवं
तदा तदाकृष्टमिवैत्यद्रादपि प्रमोदं दिशति त्वयीशे ॥ २९ ॥
२२
३ अन्यै० हे नाथ ! यदा यस्मिन्नवसरे मे मम मनः यत् आसेवनकं नयनानन्दकारि वस्तु एति गच्छति । किंलक्षणं वस्तु ? अन्यैरनीषल्लभं दुःप्रापम् । तद्वस्तु त्वयि ईशे समर्थे ६ सति तदा तस्मिन्नवसरे दूरादपि आकृष्टमिव एत्य आगत्य मे मम मनः प्रमोदं दिशति ददाति ॥ २९ ॥
प्रमार्ष्टि हाग्रमृभुर्नभखान्, पिपर्ति कुम्भान् सुरसिन्धुरद्भिः । भक्ष्यस्य चोपस्कुरुतेऽशुमालीदास्योप नेशे त्वयि दुर्विधा मे ॥ ३० ॥
१२ प्रमा० हे नाथ ! त्वयि ईशे सति मे मम दास्योऽपि न दुर्विधा न दुःस्था न दुःकर्मकार्यो वर्तन्ते । नभखान् ऋभुर्वा - देवता मे मम हाग्रं गृहाङ्गणं प्रमार्ष्टि तृणकाष्ठकचवरादि १५ परत्र करोति । सुरसिन्धुः गङ्गा अद्भिः पानीयैः कुम्भान् पिपर्ति पूरयति । च पुनरंशुमाली सूर्यः भक्ष्यस्योपस्कुरुते शालिसूपपकान्नघृतादिभोज्यं संस्करोति । भक्ष्यस्यात्पन्ना षष्ठी - करोतेः ३८ प्रतियले इति सूत्रेण ज्ञेया ॥ ३० ॥
त्रातस्त्वयि त्राणपरे त्रिधापि, दुःखं न मनाति मुदं मदीयाम् ।
[ अष्टमः
यं हेतुमायासिषमत्र माया
मुक्तं ब्रुवे तच्छृणु सावधानः ॥ ३१ ॥
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सर्गः
जैनकुमारसंभवं
२७३ त्रात हे त्रातः ! हे रक्षक! त्वयि त्राणपरे रक्षणतत्परे सति त्रिधाऽपि आध्यात्मिकाधिभौताधिदैविकमेदं त्रिविधं वाग्मनोऽङ्गैश्चः कृतं देवमानुषतिर्यकृतं वा दुःखं मदीयं मुदं हर्ष ३ न मनाति नास्फेटयति । यं हेतुं येन हेतुना अहमत्रायासिषं आयाम् तत् अहं मायामुक्तं कपटरहितं ब्रुवे, त्वं सावधानः शृणु ॥ ३१॥ क्रियां समग्रामवसाय सायं
तनीमनीषद्धतिरत्र रात्रौ । अशिश्रियं श्रीजितदिव्यशिल्पं,
तल्पं खवासौकसि विश्वनाथ ? ॥ ३२ ॥ क्रियां० हे विश्वनाथ ! अहं सायंतनी संध्यासंबन्धिनी समग्रां क्रियां अवसाय समाप्य अत्र रात्रौ खवासौकसि १२ आत्मीयवासभवने, तल्पं शयनीयं अशिश्रियं आश्रितवती, किंविशिष्टं तल्पम् ? श्रीजितदिव्यशिल्पं श्रिया शोभया जितं दिव्यं शिल्पं विज्ञानं येन तत् श्रीजित० । किंलक्षणाऽहम् ? १५ अनीषद्धृतिर्बहुसमाधियुक्ता ॥ ३२ ।।
त्वन्नाममन्त्राहितदेहरक्षा
निद्रां स्वकालप्रभवामवाप्य ! खमानिभोक्षप्रमुखानदर्श,
चतुर्दशादर्शमुख ! क्रमेण ॥ ३३ ॥ त्वन्ना० हे आदर्शमुख ! आदर्शो दर्पणः माङ्गल्यकरत्वात् तत्सदृशं मुखं यस्य स तस्य संबोधने । अहं त्वन्नाममन्त्राहित-२२
जै० कु. १८
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२७४ टीकया सहितम् [अष्टमः देहरक्षा त्वदीयनाममन्त्रेण कृतशरीररक्षा सती वकालप्रभवां
आत्मीयकालोत्पन्नां निद्रां क्रमेण अवाप्य प्राप्य, इभो गज३ उक्षा वृषभस्तत्प्रमुखान् चतुर्दश खप्नानदर्श दृष्टवती॥ ३३ ॥
ततोऽत्यभीष्टामपि सर्वसार__ स्वभौधसंदर्शनया कृतार्थाम् । विसृज्य निद्रां चतुगश्चि: ! त्वां
तत्त्वार्थमीमांसिषया गतासि ॥ ३४ ॥ ततो० हे चतुराञ्चित हे विद्वत्पूजित ! ततोऽनन्तरं अहं ९अभीष्टामपि निद्रां विसृज्य त्यक्त्वा तत्त्वार्थमीमांसिषया विचारणेच्छया त्वां त्वत्समीपमागताऽस्मि, किंलक्षणां निद्राम् ?
सर्वसारखमोघसंदर्शनया सर्वप्रशस्यस्वप्नसमूहदर्शनेन कृतार्थाम १२॥ ३४ ॥
वस्त्वाकृषन्ती भवतः प्रसाद
संदंशकेनापि दविष्ठ मष्टम् । १५५ न कोऽपि दुःप्रापपदार्थलोभ
जन्माऽभजन्मा भगवंस्तदाधिः॥ ३५ ॥ वस्त्वा० हे भगवन् ! कोऽपि दुःप्रापपदार्थलोभजन्मा १८ दुःप्रापस्य प्राप्तुमशक्यपदार्थस्य वस्तुनो लोभजन्मा' वस्तुलोभो
त्पन्नः आधिरसमाधिस्तदा तस्मिन्नवसरे मा मां न अमजत् । किं कुर्वन्ती माम् ? भवतः प्रसादसंदंशकेन तव प्रसादरूपसंद
शकेन दविष्ठमपि, इष्टं अभीष्टं वस्तु आकृषन्ती आकृष्या२२ नयन्तीम् ॥ ३५ ॥
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सर्गः जैनकुमारसंभवं
२७५
२७५ आकूतमक्षिध्रुवचेष्टयैव, __हार्द विबुद्ध्याखिलकर्मकारी। न खैरचारीति परिच्छदोऽपि,
मनो दुनोति स तदा मदीयम् ॥ ३६॥ आकू० हे नाथ! तदा तस्मिन्नवसरे परिच्छदोऽपि परिवारोऽपि खैरचारी खच्छन्दचारी, इति कारणात् मदीयं । मनो न दुनोति स्म, किंलक्षणः परिच्छदः ? अक्षिभ्रुवचेष्टयैव दृष्टिभ्रुववालनयैव हार्दै हृदयसंबन्धि आकूतं अभिप्राय विबुध्य ज्ञात्वा अखिलकर्मकारी समस्तकार्यकृत् ॥ ३ ॥
अपि द्वितीयाद्वितये विभज्य,
चित्तं च वित्तं च समं समीचा । त्वया न सापत्यभवोऽभिभूति
लवोऽपि मेऽदत्त तदानुतापम् ॥ ३७॥ अपि० हे नाथ ! तदा तस्मिन्नवसरे सापल्यभवः सपल्या उत्पन्नो अभिभूतिलवोऽपि पराभवलेशोऽपि मे मम अनुतापं १५ विषादं न अदत्त । केन हेतुना ? त्वया द्वितीयाद्वितयेऽपि कलत्रद्विकेऽपि चित्तं च पुनर्वितं समं समकालं विभज्य विभागीकृत्य समीचा सम्यग् अञ्चता "अञ्चौ गतौ च" समञ्चतीति। किपि लोपे “सहसमः सध्रिपमी" सम्यक् वर्तमानेन ॥ ३७ ॥
आसीन मे वर्मणि मारुतादि
प्रकोपतः कोऽपि तदा विकारः। त्वयि प्रसन्ने न हि लब्धबाधा, मिथः पुमर्था इव धातवोऽपि ॥ ३८॥ २॥
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२७६
टीकया सहितम् [अष्टमः आसी० हे नाथ ! तदा तस्मिन्नवसरे मे मम वर्मणि शरीरे मारुतादिप्रकोपतः कोऽपि विकारो न आसीत् न अभूत् । ३ त्वयि प्रसन्ने धातवोऽपि पुमर्था इव मिथः परस्परं न हि लब्धबाधा लब्धपीडा वर्तन्ते ॥ ३८ ॥
गदा वपुःकुम्भगदाभिघाता,
नासंस्तदा त्वन्निगदागदास्या। अजातशत्रु पतिमाश्रिताया
स्त्वां मे कुतः संभव एव भीतेः ॥ ३९ ॥ ९ गदा० हे नाथ ! गदा वातपित्तश्लेष्मरूपा रोगा मम तदा तसिन्नवसरे त्वन्निगदागदाप्या तव निगदो नाम स एव अगद
औषधं तस्याप्त्या लाभेन न आसन् । किंविशिष्टा गदाः? १२ वपुःकुम्भगदाभिघाता शरीररूपकुम्भस्य गदासत्कप्रहारसदृशाः,
अजातशत्रु गतवैरिणं त्वां पति भर्तारं आश्रिताया मे मम
भीतेर्भयस्य संभव उत्पत्तिरेव कुतः स्यात् ? अपि तु न १५कुतोऽपि ॥ ३९ ॥
एवं मुखाखादरसर्जितायां, - मनस्तनुक्लेशविवर्जितायाम् । १८. स्वमैर्बभूवे मयि यैस्तदर्थ
मीमांसया मांसलय प्रमोदम् ॥ ४०॥ ___एवं० हे नाथ ! यैः स्वमैर्मयि बभूवे तदर्थमीमांसया २१ तेषामर्थस्य विचारणया हर्ष मयि विषये मांसलय पोषय ।
किंविशिष्टायां मयि ? एवं मुखावादरसैर्जितायां एवं पूर्वोक्त२३ प्रकारेण सुमुखस्याखादरसेन बलिष्ठायां, पुनः किंविशिष्टायां ?
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सर्गः]
जैनकुमारसंभवं
.२७७
मनस्तनुक्लेशविवर्जितायां मानसिकशारीरिकक्लेशरहितायाम् ॥ ४०॥
सूक्ष्मेषु भावेषु विचारणायां,
मेधा न मे धावति बालिशायाः। त्वमेव सर्वज्ञ! ततः प्रमाणं,
रात्रौ गृहालोक इव प्रदीपः ॥ ४१॥ ६ सूक्ष्म० हे नाथ ! बालिशाया मूर्खाया मे मम मेधा बुद्धिः सूक्ष्मेषु भावेषु विचारणायां न घावति, हे सर्वज्ञ ! तत् तस्मात् कारणात् त्वमेव प्रमाणम् । क इव ? प्रदीप इव । यथा प्रदीपो ९ रात्रौ गृहालोके प्रमाणं स्यात् ॥ ४१ ॥ यद्दीपगौरद्युतिभास्कराणां,
प्रकाशभासामपि दुर्व्यपोहम् । हादं तमस्तत्क्षणतः क्षिणोति, .
वागब्रह्मतेजस्तव तन्वपीश! ॥ ४२ ॥ यद्दी० यत् दीपगौरद्युतिभास्कराणां प्रदीपचन्द्रसूर्याणां १५ प्रकाशभासामपि प्रकटतेजसामपि हार्दै हृदयसंबन्धि तमोsज्धकारं दुर्व्यपोहं दुःखस्फेटनीयं वर्तते, हे ईश खामिन् ! तत् हार्द तमः तव वाग्ब्रह्मतेजः वचनज्ञानसत्कं तेजस्तन्वपि सूक्ष्ममपि क्षणतः क्षणादेव क्षिणोति क्षयं नयति ॥ ४२ ॥ यत्र कचिद्वस्तुनि संशयानाः,
सरन्ति यस्य त्रिदशेशितारः। तत्रान्तिकस्थे त्वयि शास्त्रश्वा
मानाई ! नाहत्यपरोऽनुयोक्तुम् ॥४३॥ २३
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टीकया सहिवम् [अष्टमः यत्रं हे मानार्ह माननीय! यत्र कचिद् वस्तुनि यस्मिन कसिंश्चिद अर्थे संशयानाः सन्देहं कुर्वाणाः त्रिदशेशितार: ३सुरेन्द्रा अपि यस्य स्मरन्ति यं स्मरन्ति, 'स्मृत्यर्थदयेशः' (२-२-११ सि० हे.) इत्यनेन स्मृत्यर्थानां व्याप्यस्य वा कर्मत्वमिति पक्षे 'शेषे' (२-२-८१ ) इत्यनेन षष्ठी, तत्र त्वयि ६अन्तिकस्थे तस्मिन् त्वयि समीपस्थे सति अपरः शास्त्रहश्वा
अन्यः समयहाः अनुयोक्तुं प्रश्नयितुं न अर्हति । मम भवन्त विनाऽन्यः प्रष्टुं न योग्य इत्यर्थः ॥ ४३ ॥
हकर्मघातीनि तमांसि हत्वा,
गोभिर्बभूवान् भुवि कर्मसाक्षी।
इदं हृदंतर्मम दीप्रदेह, ११ संदेहरक्षः स्फुरदेव रक्ष ॥४४॥
दृक० हे दीप्रदेह देदीप्यमानशरीर ! त्वं इदं संदेहरक्षो राक्षसं मम हृदन्तः हृदयमध्ये स्फुरत् प्रसरदेव रक्ष । किंविशि१५ष्टस्त्वं । गोभिर्वाचोभिः किरणैर्वा दृकर्मघातीनि तमांसि दृष्टिः
ज्ञानक्रिया दर्शनक्रिया वा तस्याः घातीनि विनाशकानि तमांसि 'पापानि अन्धकाराणि वा, हत्वा भुवि पृथिव्यां कर्मसाक्षी १४कर्मणां साक्षी, पक्षे कर्मसाक्षी सूर्यो बभूवान् जातः ॥ ४४ ॥
अतीन्द्रियज्ञाननिधेस्तवेश,
क्लेशाय नायं घटते विचारः। भङ्गं महाशैलतटीं घटीय
द्वनं किमायस्य तणं तृणेढि ॥४५॥ अती० हे ईश! अयं विचारस्तव क्लेशाय न घटते, किंविशिष्टस्य तव ? अतीन्द्रियज्ञाननिधेः, इन्द्रियातीतज्ञाननि
२१
___
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सर्गः]
जैनकुमारसंभवं
२७९
धानस्य । महाशैलतटीं महापर्वततटं भङ्गं भेतुं घटीयत् घटमिव आचरत् वज्रं किं आयस्योपक्रम्य तृणं तृणे ढे च्छिनत्ति ? अपि तु आयसं विनैव ।। ४५ ॥
उद्भूतकौतूहलया रयेणा
जागयथास्तन्मयि मास कुप्यः। कालातिपातं हि सहेत नेत
न कौतुकावेशवशस्त्वरीव ॥ ४६॥ उद्भू हे नाथ ! रयेण वेगेन मया उद्भूनकौतूहलया उत्पन्नकौतुकया त्वं अजागर्यथाः जागरितः, तन्मयि विषये ९ मास्म कुप्यः कोपं मा कार्षीः, हे नेतः खामिन् ! कौतुकावेशवशः कौतुकाक्षिप्तः पुमान् त्वरीव उत्सुक इव कालातेपातं विलम्बं हि निश्चितं न सहेत ॥ ४६॥
श्रुत्वा प्रियालापमिति प्रियायाः,
प्रीतिं जगन्वान् जगदेकदेवः । वाचं मृदुस्वादुतया सुधाब्धि
गोंदिवाप्तप्रभवामुवाच ॥ ४७॥ श्रुत्वा० जगदेकदेवः श्रीयुगादीशो वाच उवाच । किंविशिष्टां वाचं ? मृदुखादुतया सुधाब्धिगर्भात् अमृ समुद्रमध्यात् १० आप्तप्रभवां प्राप्तोत्पत्तिमिव; किंलक्षणो जगदेकदवः ? प्रियायाः सुमङ्गलायाः इति प्रियालापं अभीष्टवचनं श्रुत्वा प्रीतिं जगन्वान् प्राप्तवान् । गम्धातोः कसुप्रत्यये द्विर्वचने गस्य जत्वे 'मोनोम्वोच' २१ इति सूत्रेण मस्य नत्वे सिविभक्तौ जगन्वानिति सिद्धम् ॥४७॥
प्रिये ! किमेतजगदे मदेका
त्मया त्वया हन्त तटस्थयेव ।
१५
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२८०
टीकया सहितम्
[अष्टमः
त्वदुक्तिपानोत्सव एव निद्रा
भङ्गस्य मे दास्यति वैमनस्यम् ॥४८॥ ३. प्रिये० हे प्रिये! हन्त इति वितर्के, त्वया तटस्थया समीपस्थया इव किमेतत् जगदे प्रोक्तम् ? किंविशिष्टया त्वया ? मदेकात्मया मया सह एक आत्मा यस्याः सा मदे०, हे प्रिये ! ६त्वदुक्तिपानोत्सवः त्वदीयवचनस्य पानस्योत्सव एव मे मम निद्राभङ्गस्य वैमनस्यं मनोव्यथां दास्यति स्फेटयिष्यति ॥४८॥
निद्रा तमोमय्यपि किं विगेया,
सुखमदानात् परमोपकी । जाये ! जगजीवनदातुरब्दा
गमस्य को निन्दति पङ्किलत्वम् ॥ ४९ ॥ १२ निद्रा० हे जाये हे प्रिये ! तमोमय्यपि निद्रा किं विगेया निन्द्या स्यात् ? अपि तु न, किंलक्षणा निद्रा ? सुखप्नदानात्
परमोपकी शोभनखानदानतः परोपकारकारिणी । जगज्जीवन१५दायकस्य अब्दागमस्य वर्षाकालस्य पकिलत्वं कर्दमयुक्तास्वं को निन्दति ? अपि तु न कोऽपि ॥ १९ ॥
भद्रङ्करी निर्भरसेवनेन,
निद्राह्वया काचन देवतेयम् । दूरस्थितं वस्तु निरस्तनेत्रा
नप्यङ्गिनो ग्राहयते यदीहा ॥५०॥ १ भद्रं० हे प्रिये ! इयं निद्राह्वया निद्रानाम्नी काचन देवता निर्भरसेवनेन भद्रकरी सुखकरी वर्तते । यदीहा यस्या निद्राया ईहा इच्छा यदीहा निरस्तनेत्रानपि निरस्तलोचन२४व्यापारानपि अङ्गिनः प्राणिनः दूरस्थितं वस्तु ग्राहयते ।
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सर्गः] जैनकुमारसंभवं
२८१ अन्यापि देवता मनसोऽप्यगोचरं वस्तु यतस्ततोऽप्यानीय भक्तस्य दत्त इति ॥ ५० ॥
श्रोतांसि संगोप्य जडानि चेतः,
सचेतनं साक्षि रहो विधाय । संदर्शयन्ती नवसारभावा
निद्रा धुरं छेकधियां दधाति ॥५१॥ ६ श्रोतां० हे प्रिये ! निद्रा छेकधियां धुरं चतुरबुद्धीनां भारं दधाति धरति । किं कुर्वती निद्रा ? जडानि अज्ञानानि श्रोतांसि इन्द्रियाणि संगोप्य आज्ञापयित्वा रह · एकान्ते ९ चेतश्चित्तं सचेतनं साक्षि विधाय कृत्वा नवसारभावान संदर्शयन्ती ॥ ५१ ॥
एकात्मनोनौ परिमुञ्चती मां,
सुखमसर्वस्वमदत्त तुभ्यम् । निद्रा ननु स्त्रीप्रकृतिः करोति,
को वा स्वजातौ न हि पक्षपातम् ॥५२॥ ५५ एका० निद्रा ननु निश्चितं स्त्रीप्रकृतिः तुभ्यं खमसर्वखं अदत्त । किं कुर्वती? एकात्मनोनों आवामपि मां परिमुञ्चती। वा प्रवाहि । निश्चितं-खजातौ पक्षपातं को न करोति ? अपि १८ तु सर्वः करोति ॥ ५२॥
दुर्घोषलालाश्रुतिदन्तघर्षा
दिकं विकर्माप्यत निद्रया यैः। २१ स्वमवजे श्रोत्रपथातिथौ ते,
ते खेदतः खं खलु निन्दितारः ॥ ५३॥ २३
२१
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२८२
टीकया सहितम् [अष्टम: ___ दुर्घो० यैः पुरुषैः निद्रया दुर्घोषलालाश्रुतिदन्तघर्षादिकं विकर्म दुघोषो रौद्रखरेण पूत्करणं लालायाः श्रावः दन्तानां ३घर्षणं इत्यादि कुचिन्हानि आप्यत प्राप्यते सा, ते पुरुषास्त तव खमबजे स्वप्नसमूहे श्रोत्रपथातिथौ कर्णमार्गनिधौ एतावता श्रुते सति खलु निश्चितं खं आत्मानं निन्दितारो निन्दि६ष्यन्ति ॥ ५३॥
आदौ विरामे च फलानि कल्प
वल्लेरिव स्वादुविपाकभाजः । नेमाननेमानपि नीरजाक्षि!
स्वमान दृशः कर्म करोत्यपुण्या ॥५४॥ आदौ० हे नीरजाक्षि कमललोचने! अपुण्या पुण्यरहिता १२ स्त्री इमान् चतुर्दशखप्नान् अनेमानपि अर्धरहितानपि दृशः कर्म न करोति न पश्यतीत्यर्थः, किंविशिष्टान् इमान् ? आदौ प्रथमं चान्यत् विरामे प्रान्ते कल्पवल्लेः फलानीव खादुविपाक१५भाजः ॥ ५४॥
निशम्य सम्यक् फलदानशौण्डान,
स्वमानिमांस्ते वदनादिदानीम् । १८ दक्षे! ममोल्लासमियर्ति वक्षः,
किं स्थानदानाय मुदां भराणाम् ॥ ५५॥ निश० हे दक्षे विचक्षणे! मम वक्षो हृदयं इदानीमधुना ते तव वदनात् मुखात् सम्यक् फलदाने शैण्डिान् समर्थान् २२ इमान् चतुर्दशापि स्वप्मान् निशम्य श्रुत्वा मुदां भराणां हर्ष
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२८३
सर्गः
जैनकुमारसंभवं समूहानां स्थानदानाय स्थितिकारणाय किं उल्लासं विस्तार इयति याति ॥ ५५ ॥
आनन्दमाकन्दतरौ हृदाल__ वाले त्वदुक्तामृतसेकपुष्टे । रक्षावृति सूत्रयितुं किमङ्ग!,
ममाङ्गमुत्कण्टकतां दधाति ॥५६॥ ६ आनं० अङ्ग इति कोमलामन्त्रणे, हे सुमङ्गले! ममाङ्गं मदीयं शरीरं किं उत्कण्टकतां उद्तरोमाञ्चत्वं ऊर्ध्व कण्टकत्वं वा दधाति ? किं कर्तुं ? मम हृदालवाले हृदयरूपस्थानके आनन्द-९ माकन्दतरौ हर्षसहकारवृक्षे त्वदुक्तामृतसेकपुष्टे त्वदीयवचनामृतसिञ्चनेन प्रौढे सति रक्षावृतिं सूत्रयितुं रक्षायै कण्टकसत्कबुति कर्तुम् ॥ ५ ॥
श्रुत्योः सुधापारणकं त्वदुक्त्या, __ मत्वा मनोहत्य समीपवासात् । पिण्डोललोले इव चक्षुषी मे,
प्रसृत्य तत्संनिधिमाश्रयेते ॥ ५७॥ श्रुत्यो० हे प्रिये ! त्वदुक्त्या त्वदीयवचनेन श्रुत्योः कर्णयोः मनोहत्य मनस्तृप्तिं यावत् , सुधापारणकं अमृताशनं मत्वा । ज्ञात्वा मे मम चक्षुषी लोचने न तत्संनिधिं तयोः कर्णयोः समीपं न आश्रयेते, किंविशिष्टे चक्षुषी ? समीपवासात् प्रत्यासन्नवासतः पिण्डोललोले इव पिण्डोलं भक्तशेषं तत्र लोले लोलुपे ॥ ५७ ॥
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२८४
टीकया सहितम् [ अष्टमः एकखरूपैरपि मत्प्रमोद
तरोः प्ररोहाय नवाम्बुदत्वम् । खगैरमीभिः कुतुकं खलाशा- वल्लीविनाशाय दवत्वमीये ॥ ५८ ॥ एक० एकखरूपैरपि अमीभिः खप्नैः कुतुकं आश्चर्य ६ मत्प्रमोदतरोः हर्षवृक्षस्य प्ररोहाय अङ्कुराय नवाम्बुदत्वं नवीनमेघसादृश्यं, खलाशा दुर्जनमनोरथरूपवल्ली तस्या विनाशाय दवत्वं दवानलत्वं ईये प्राप्तम् ॥ ५८ ॥
नैषां फलोक्तावविचार्य युक्त
माचार्यकं कर्तुमहो ममापि । महामतीनामपि मोहनाय, - छमस्थतेयं प्रबलप्रसीला ॥ ५९॥ नैषां० अहो इति आश्चर्ये, एषां स्वप्नानां फलोक्तौ अविचार्य अविमृश्य ममापि आचार्यकं आचार्यकर्म कर्तुं न युक्तम् । इयं १५ छद्मस्थता प्रबलप्रमीला सबलनिद्रा महामतीनामपि विचक्षणानामपि मोहनाय वर्तते ॥ ५९॥
यावद् घनाभं धनघातिकर्म१८ चतुष्कमात्मार्यमणं स्तृणाति ।
तावत्तमश्छन्नतया विचारे,
स्फुरन चेतोऽञ्चति जाजिकत्वम् ॥६॥ २१ यावद्० हे प्रिये ! घनाभं मेघसदृशं घनघातिकमचनुष्कं
ज्ञानावरणीय १, दर्शनावरणीय २, मोहनीय ३, अन्तराय २३४, एतत् घनघातिकर्मचतुष्कं आत्मार्यमणं जीवसूर्य यावत्
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सर्गः] जैनकुमारसंभवं
२८५ स्तृणाति आच्छादयति ('स्तृग्य आच्छादने' अस्य धातोः प्रयोगः), तावच्चेतश्चित्तं तमश्छन्नतया विचारे स्फुरत् सत् जाचिकत्वं जङ्घालत्वं त्वरमाणत्वं न अञ्चति न प्राप्नोति ॥६०॥३
आकेवलार्चिःकलनं विशङ्क,
वयं न सन्देहभिदां विदध्मः । . को वा विना काञ्चनसिद्धिमुर्वी
माधातुमुर्वीमनृणां यतेत ॥ ६१॥ आके० हे प्रिये ! वयं आकेवलार्चिःकलनं केवलज्ञानलाभं यावत् विशकं निःशकं संदेहभिदां न विदध्मः, संदेह-९ भेदं न कुर्मः । वा अथवा कः पुमान् काञ्चनसिद्धिं सुवर्णसिद्धिं विना उर्वी गुर्वी उर्वी पृथ्वीं अनृणां आधातुं कर्तुं यतेत उपक्रमेत ? ।। ६१ ॥
तसान्मनागागमयस्व काल. मतित्वरा विघ्नकरीष्टसिद्धेः । इत्युक्तवांस्त्यक्तमनस्तरङ्गः,
क्षणं समाधत्त स मेधिरेशः ॥ ६२॥ तस्मा० तस्मात् कारणात् हे प्रिये ! मनाक् स्तोकं कालं आगमयख प्रतीक्षस्व । अतित्वरा इष्टसिद्धेर्विघ्नकरी अत्यौत्सुक्यं १४ अभीष्टसिद्धेर्विघ्नकृत् वर्तते, इत्युक्तवान् सन् एतावता इत्युक्त्वा स मेधिरेशः मेधिराः प्रज्ञालास्तेषां ईशो भगवान् त्यक्तमनस्तरङ्गः त्यक्तमनोव्यापारः सन् क्षणं समाधत्त समाधि दधौ ॥ १२॥
१२
. .
२२
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२८६
टीकया सहितम् [अष्टमः निमील्य नेत्रे विनियम्य वाचं,
निरुध्य नेताखिलकायचेष्टाः। निशि प्रसुप्ताजमनादिहंसं,
__ सरोऽन्वहार्षीदलसत्तरङ्गम् ॥ ६३ ॥ निमी० स नेता भगवान् निशि रात्री प्रसुप्ताजं संकुचितकमलं अनादिहंसं अशब्दायमानहंसं अलसत्तरङ्गं अनुल्लसत्कल्लोलं, एवंविधं सरः सरोवरं अन्वहार्षीत् अनुचकार, किं कृत्वा ? नेत्रे निमील्य, वाचं नियम्य संवृत्य, अखिलकायचेष्टाः ९ समस्तशरीरचेष्टाः निरुध्य ॥ ६३ ॥
स्वमानशेषानवधृत्य बुद्धि
बाह्वा मनोवेत्रधरः पुरोगः । महाधियामूहसभामभीष्टां,
निनाय लोकत्रयनायकस्य ॥१४॥ खमा० मनोवेधरो मन' प्रतीहारः अशेषान् समस्तान् खप्नान् बुद्धिबहा अवधृय लोकत्रयनायकस्य श्रीयुगादिदेवस्थाभीष्टां ऊहसभां विचारसभां निनाय । किं वेशिष्टा मनोवेत्रधरः ? महाधियां पुरोगः महाबुद्वीनामग्रेसरः ॥ १४ ॥
अस्तायताधारविचारवाई,
ज्ञानाञ्जनोद्भिनदृशापगाह्य । चित्तेन नेतुः स्फुटधीवरेण,
समर्पितास्तत्फलयुक्तिमुक्ताः॥६५॥ २२ अस्ता० चित्तेन तत्फलयुक्तिमुक्तास्तेषां खमानां फलयुक्तय
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२८७
सर्गः]
जैनकुमारसंभवं एव मुक्ताः मुक्ताफलानि नेतुः श्रीऋषभखामिनः समपिताः, किंविशिष्टेन चित्तेन ? स्फुटधीवरेण प्रकटबुद्धिप्रधानेन, पक्षे धीवरेण मात्स्यिकेन, पुनः किंवि० ज्ञानाञ्जनोद्भिन्नशा३ ज्ञानरूपाञ्जनेन उद्भिन्नदृशा विकखरलोचनेन, किं कृत्वा अस्ताघताधारविचारवाधि अस्तं अधं पापं येन स अस्ताघस्तस्य भावः अस्ताघता, पक्षे अस्तायता गम्भीरत्वं तस्या आधारं विचारसमुद्रं अवगाह्य । यथा अञ्जनोद्भिन्नदृशा धीवरेण समुद्र अवगाह्य मौक्तिकानि नेतुः स्वामिनः समय॑न्ते ६५ ॥ तद्भहर्षामृतरसभरः किं शिरासारणीभिः १
स्वान्तानूपाद्युगपदसृपत्क्षेत्रदेशेऽखिलेऽस्य । लोकत्रातुः कथमितरथा लोमबर्हिःप्ररोहैः ।
सद्यस्तत्रोल्लसितमसितच्छायसूक्ष्माग्रभागैः ॥६६॥१२ तद्भू० तद्भस्तेभ्यः खप्नेभ्यः समुत्पन्नो हर्षामृतरसभरः अस्य लोकत्रातुस्त्रिभुवनपालकस्य भगवतः खान्तानूप त् स्वान्तं चित्तमेवानूपं सजल प्रदेशस्तस्मादनूपात् किं शिरःसारगी भः अखिले ५५ समस्ते क्षेत्रदेशे शरीरप्रदेशे युगपत् समकालं असूपत् प्रासरत् । इतरथा तत्र क्षेत्रे देशे सद्यस्तत्कालं कथं लो प्रबर्हिःप्ररोहैलोमबर्हिषां रोमरूपदर्भाणां प्ररोहैः अङ्कुरैः उल्ल सेतं ? किंलक्षण-१८ लोमबर्हिःप्ररोहैः ? असितच्छायः कृष्णच्छायः सूक्ष्माग्रभागो येषान्तैः ॥ ६ ॥ दृग्युग्ममुल्लसितमुच्छसितां तनुं च,
चञ्चन्मतिद्रढिमधाम सुमङ्गला सा ।
२२
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२८८
टीकया सहितम् [अष्टमः दृष्ट्वाद्भुतं वरयितुर्वचनं विनापि,
स्वमान् महाफलतयान्वमिमीत सर्वान् ॥६७॥ ३ हग्० सा सुमङ्गला वरयितुः श्रीऋषभदेवस्य वचनं विनापि दृग्युग्मं उल्लसितं दृष्ट्वा, तनुं शरीरं च उच्छ्वसितां दृष्ट्वा, सर्वान्
खप्नान् महाफलतया अन्वमिमीत अनुमानेन ज्ञातवती । ६ किंविशिष्टा सुमङ्गला ? चञ्चन्मतिढिमधाम चञ्चन्मतेः प्रसरन्मतेढिमा दृढता तस्या धाम स्थानम् ॥ ६७ ॥
ईहाश्चके सा स्वामिनो मौनमुद्रा९ भेदं तृष्णालासुधायास्तथापि ।
धत्ते नोत्कण्ठां गर्जिते केकिनी किं, ...मेघस्योनत्या ज्ञातवर्षागमापि ॥ ६८॥ १२ ईहा० सा सुमङ्गला तथापि खामिनः श्रीऋषभदेवस्य ___ मौनमुद्राभेदं ईहाञ्चके वाञ्छितवती । किंलक्षणा सुमङ्गला ?
वाक्सुधायाः तृष्णालुः वचनामृतस्य तृषार्ता । मेघस्योन्नत्या १५ज्ञातवर्षागमापि केकिनी मयूरी गर्जिते उत्कण्ठां किं न धत्ते? अपि तु धत्ते ॥ ६८॥
इति श्रीमदञ्चलगच्छे कविचक्रवर्तिश्रीजयशेखरसूरिविरचिते १८ श्रीजैनकुमारसंभवस्य तच्छिष्यश्रीधर्मशेखरसूरिविरचित
टीकायां श्रीमाणिक्यसुन्दरसूरिशोधितायां अष्टमसर्गव्याख्या समाप्ता ॥ ८॥
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सर्ग: ]
टीका सहितम्
अथ नवमः सर्गः ।
तदा तदास्येन्दुसमुल्लसद्वचः, सुधारसास्वादन सादरश्रुतिः । गिरा गभीरस्फुटवर्णया जगत्रयस्य भर्त्रा जगदे सुमङ्गला ॥ १ ॥
तदा तदा तस्मिन्नवसरे जगत्रयस्य भर्त्रा श्रीयुगादीश्वरेण ६ सुमङ्गला गिरा वाण्या जगदे जल्पिता, किं लक्षणया गिरा गभीरस्फुटवर्णया गभीराश्च स्फुटाश्च प्रकटाश्च वर्णा अक्षराणि यस्याः सा तया प्रकटाक्षरया, किं विशिष्टा सुमंगला तदा- ९ स्येन्दुसमुल्लसद्वचः सुधारसाखादनसादरश्रुतिः, तस्य भगवतः आस्येन्दोर्मुखचन्द्रात् समुल्लसत् निर्गच्छत् वचो वचनमेवा - मृतरसास्वादस्तस्मिन् सादरे आदरपरे श्रुती कर्णौ यस्याः सा १२ तदास्येन्दु० ॥ १ ॥
जडाजडिम्ना जडभक्ष्यभोजनादनावृतस्थानशयेन जन्तुना । विलोक्यते यो विकलप्रचारवद्विचारणं स्वमभरो न सोऽर्हति ॥ २ ॥
२८९
जडा० हे सुमङ्गले ! जडाज्जडिना मिलज्जाड्येन जडभक्ष्य- १८ भोजनात् शीतलाहार भोजनात् अनावृतस्थानशयेन अनाच्छादितस्थानशायिना, एवंविधजंतुना मानवेन यः खमभरो विलोक्यते, दृश्यते स खमभरः खम्मसमूहो विकलप्रचारवत् ग्रथिलगमवत् विचारणं नार्हति विचारं कर्तुं न योग्यः स्यात् ॥ २ ॥
जै० कु० १९
१५
२२
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जैनकुमारसंभवं
[नवमः
निभालयत्यालयगोऽपि यं प्रिये__ऽनुभूतदृष्टश्रुतचिंतितार्थतः। नरो निशि खममबद्धमानसो,
न सोऽपि पंक्तिं फलिनस्य पश्यति ॥३॥ निभा० हे प्रिये ! अबद्धमानसः असंवृत्तचित्तो नरो मनुष्य ६ आलयगोपि गृहस्थितोऽपि अनुभूतदृष्टश्रुतचिंतितार्थतः नरो निशि रात्रौ खमं निभालयति पश्यति, सोऽपि खनः फलिनः फलवतः पंक्तिं न पश्यति ॥ ३ ॥ ९ .. नरस्य निद्रावधिवीक्षणोत्सवं,
तनोति यस्तस्य फलं किमुच्यते ।
विमुच्यते सोऽपि विचारतः पृथ१२ गतः प्रथां यो मलमूत्रबाधया ॥४॥
नर० यः खमः नरस्य मनुष्यस्य निद्रावधिवीक्षणोत्सवं निद्रां यावत् वीक्षणोत्सवं दर्शनोत्सवं तनोति करोति, तस्य खमस्य १५ फलं किमुच्यते किं कथ्यते, न किमपि इति, यः खमो मल
मूत्रस्य बाधया पीडया प्रथां विस्तारं गतः सोऽपि खनविचारतः पृथग् विमुच्यते विचारात् , अन्यत्र क्रियते ॥ ४ ॥ १० मनाक् समुत्पाद्य दृशोनिमीलनं,
सुखं निषण्णे शयितेऽथवा नरे। प्रवक्ति यत्स्वममिषेण देवता,...
वितायते तस्य विचारणा बुधैः ॥५॥ २२ मना० हे प्रिये ! नरे मनुष्ये सुखं निषण्णे सुखेनोपविष्टे
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सर्ग: ]
टीकया सहितम्
.२९१
संति अथवा शयिते सति दृशोः लोचनयोर्मनाकू स्तोकतरं निमीलनं समुत्पाद्य खप्नमिषेण देवता यत् प्रवक्ति बुधैः विद्भिस्तस्य विचारणा वितायते क्रियते ॥ ५ ॥
अधर्मधर्माधिकतानिबन्धनं, यमीक्षते खममपुष्कलं जनः । वदन्ति वैभातिकमेघगर्जिव -
न मोघतादोषपदं तमुत्तमाः ॥ ६ ॥
अध० हे प्रिये ! जनो लोक अपुष्कलं स्तोकं अधर्मधर्माधिकतानिबन्धनं अधर्मस्य वा धर्मस्य वा अधिकता आधिक्यं ९ सैव निबन्धनं कारणं यस्य तं, एवंविधं यं खमं ईक्षते पश्यति, उत्तमास्तं स्वमं वैभातिकमेघगर्जितवत् प्रभातसत्क - मेघस्य गजरववत्, मोघतादोषपदं निष्फलत्वदोषस्य स्थानं १२ न वदन्ति, कोऽर्थः यथा प्रभातसत्कमेघगर्जितं निःफलं नैव स्यात्, तथा सोपि स्वप्नः सफल एव स्यात् ॥ ६ ॥
त्वमादृतद्विड् निबिरीसभाञ्जनं, सभाजनं सिञ्चसि मे वचोऽमृतैः । सभाजनं यत्तव तन्वते सुरा
विभासि तत्पुण्यविलासभाजनम् ॥ ७ ॥
१५
मा० हे प्रिये ! त्वं वचोऽमृतैः मे मदीयं सभाजनं सभासत्कलोकं सिञ्चसि किं लक्षणं सभाजनं आहतद्विड् निविरीसभाजनं आहतद्विषां निबिरीसाया भायाः प्रभायाः अञ्जनं क्षेपणं येन तं आहतद्विड्०, सुरा देवास्तव यत् सभाजनं २२
32
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२९२ जैनकुमारसंभवं
[नवमः आपृच्छनं तन्वते कुर्वते, तत् तस्मात् कारणात् पुण्यविलासभाजनं विभासि पुण्यविलासस्य भाजनं पात्रं शोभसे ॥ ७ ॥
कुलं कलङ्केन न जातु पङ्किलं, __ न दुःकृतस्याभिमुखी च शेमुषी। गिरः शरच्चन्द्रकरानुकारिका, ___ गतं सतन्द्रीकृतहंसवल्लभम् ॥ ८॥ निरर्गलं मङ्गलमङ्गसौष्ठवं, __ वदावदीभूतविचक्षणा गुणाः । इदं समग्रं सुकृतैः पुराकृतै
ध्रुवं कृतज्ञे तव ढौकनीकृतम् ॥ ९॥ युग्मम् कुलं० हे कृतज्ञे ध्रुवं निश्चितं तव पुराकृतैः पूर्वभवकृतैः १२ पुण्यैरिदं समग्रं दौकनीकृतं उपदीक्रियते स्म, इदमिति किं ?
(तत्र) तव कुलं कलकेन जातु कदाचिदपि पङ्किलं कलुषं न
वर्त्तते च अन्यत् तव शेमुषी बुद्धिः दुष्कृतस्य पापस्य अभिमुखी १५ न स्यात् , (वर्नते)तते तव गिरो वाण्यः शरच्चन्द्रकरानुकारिकाः
शारदचन्द्रकिरणानुकारिण्यो वर्तन्ते, तव गतं गमनं सतन्द्री
कृतहंसवल्लभं सतन्द्रीकृता अलसीकृता हंसवल्लभा हंस्यो येन १८ तत् सतन्द्री० वर्तते ॥ ८॥ __तव अङ्गे सौष्ठवं शरीरपाटवं निरर्गलं अर्गलारहितं मङ्गलं
वर्चते, तव गुणा माधुयौदार्यादयो वदावदीभूतविचक्षणा २१ वाचालीभूतकवीश्वरा वर्तन्ते ॥ ९॥ युग्मम् ।
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२९३
२९३
सर्गः] टीकया सहितम्
न कोऽधिकोत्साहमना धनार्जने,
जनेषु को वा नहि भोगलोलुपः। कुतः पुनः प्राकृतपुण्यसम्पदं,
विना लता वृष्टिमिवेष्टसिद्धयः ॥१०॥ न० हे प्रिये कः पुमान् जनेषु लोकेषु धनार्जने धनोपार्जने अधिकोत्साहमना अधिकतरोद्यमचित्तो न स्यादपि तु ६ स्यादेव, हि निश्चितं वा अथवा कः पुमान् भोगलोलुपः सुखलम्पटो न स्यादपि तु स्यादेव, प्राक्तनपुण्यसम्मदं विना पुनः कुतः इष्टसिद्धयः स्युः, का इव लता इव यथा लता वयो वृष्टिं विना कुतः स्युः ॥ १० ॥ । न जापलक्षरपि यनिरीक्षणं,
क्षणं समस्येत विचक्षणैरपि। सुराङ्गनाः सुन्दरि तास्तव क्रम
द्वयस्य दास्यं स्पृहयन्ति पुण्यतः॥११॥ न० विचक्षणैरपि यनिरीक्षणं यासां सुराङ्गनानां दर्शनं १५ जापलक्षैरपि क्षणं न समस्येत न प्राप्येत । अशोट् व्याप्तौ इति धातोः प्रयोगः, हे सुन्दरि ताः सुराङ्गनाः देवाङ्गनास्तव क्रमद्वयस्य तव पदद्वयस्य पुण्यतः पुण्यप्रभावादास्यं स्पृहयन्ति ॥ ११ ॥ १८
न कापथे कण्टककोटिसङ्कटे,
पदेषु कासाञ्चन पादुका अपि । मणिक्षमाचारभवः क्रमक्लमः,
शमं सुरीभिः सुकृतस्तवाप्यते ॥ १२॥ २२
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२९४
जैनकुमारसंभवं
[ नवमः
न० हे प्रिये कासाञ्चन स्त्रीणां कण्टककोटिसङ्कटे कापथे कुमार्गे पदेषु पादुका अपि न स्युः, सुरी भिर्देवी भिस्तव ३ मणिक्षमाचारभवः क्रमक्कमः मणिकुट्टिमचलनः समुत्पन्नः पदश्रमः सुकृतैः पुण्यैः शमं उपशान्ति आप्यते प्राप्यते ॥ १२ ॥
बहुत्वतः काश्चन शायिनां वने, कृशे कुशस्तरकेsपि शेरते । द्युतल्पतूलीष्वपि न प्रिये रतिः, सुमच्छदप्रच्छदमन्तरेण ते ॥ १३ ॥
बहु० हे प्रिये काश्चन स्त्रियो वने वनमध्ये शायिनां बहुत्वतः कृशे दुर्बले कुशश्रस्तरकेऽपि दर्भसंस्तारकेऽपि शेर स्वपन्ति, हे प्रिये धुतल्पतूलीष्वपि स्वर्गशय्यातूलिकाखपि १२ सुमच्छदप्रच्छदं अन्तरेण पुष्पवस्त्रस्योत्तरपटं विना ते न रतिर्न सुखम् ॥ १३ ॥ कदन्नमप्यात्ममनोविकल्पनैमहारसीकृत्य लिहन्ति काथन । चटुक्रियां कारयसि सत्प्रियाः, फलाशने त्वं सुरभूरुहामपि ॥ १४ ॥
"
कद ० काश्चन स्त्रियः कदन्नमपि कुत्सितान्नमपि आत्ममनोविकल्पनैर्महारसीकृत्य लिहन्ति आखादयन्ति त्वं सत्प्रया देवाङ्गनाः सुरभूरुहामपि कल्पवृक्षाणामपि फलाशने फलाहारे चटुक्रियां चाटुवचनानि कारयसि ॥ १४ ॥ विनाश्रयं सन्ततदुःखिता ध्रुवं, स्तुवन्ति काश्चित् सुगृहाः पतत्रिणीः ।
९
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सर्गः] टीकया सहितम् २९५ विमानमानच्छिदि धाग्नि लीलया,
त्वमिद्धपुण्ये पुनरप्सरायसे ॥ १५ ॥ विना० हे प्रिये काश्चित् स्त्रियः आश्रयं गृहं विना संतत-३ दुःखिताः सत्यः ध्रुवं निश्चितं सुगृहाः पतत्रिणीः सुगृहाख्याः पक्षिणीः स्तुवन्ति, हे इद्धपुण्ये समृद्धपुण्ये त्वं विमानमानच्छिदि विमानमानच्छेदिनि धानि गृहे लीलया अप्सरायसे ६ देवाङ्गनावदाचरसि ॥ १५॥
अखण्डयन्त्या स्वसदःस्थिति सदा,
गतागतं ते सदने वितन्वती। ऋतीयते किं सुकृताश्चिते शची,
तुलां त्वया स्थानमधर्मकं श्रिता ॥१६॥ अख० हे सुकृताञ्चिते पुण्ययुक्ते शची इन्द्राणी त्वया १२ तुलां त्वत्सादृश्यं ऋतीयते गच्छति, अपि तु न गच्छत्येव, किं लक्षणा शची अधर्मकं स्थानं देवलोकं श्रिता आश्रिता, पुनः किं कुर्वती शची ते तव सदने गृहे सदा सर्वदा १५ गतागतं गमनागमनं वितन्वती कुर्वती, किं विशिष्टया त्वया खसदःस्थितिं खस्थानकस्थानं अखण्डयन्त्या ॥ १६ ॥
प्ररूढदोषाकरनानि निर्भर,
कलङ्किनीन्दौ महिषीत्वमीयुषीम् । तमासमुत्पनरुचि कृती नरो,
न रोहिणीमप्युपमित्सति त्वया ॥ १७ ॥ प्ररू० हे प्रिये कृती नरो विचक्षणः पुमान् त्वया रोहिणी- २२
खसदःस्थिति खाती कुर्वती, सिदा सर्वदा १५
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२९६
जैनकुमारसंभवं
[ नवमः
मपि न उपमित्सति, न उपमातुमिच्छति, किं विशिष्टां रोहिणीं तमः समुत्पन्नरुचिं अन्धकारेषु पापेषु वा उत्पन्ना रुचिः ३ कान्तिरभिलाषो वा यस्याः सा तां०, पुनः किं इन्दौ चन्द्रे महिषीत्वं ईयुष पट्टराज्ञीत्वं प्राप्तवत, किं लक्षणे इन्दौ प्ररू
दोष करनाम्नि दोषानामाकरः पक्षे दोषां रात्रिं करोतीति ६ दोषाकरः, प्ररूढं प्ररूढिं प्राप्तं दोषाकर इति नाम यस्य तस्य तस्मिन्, पुनः किं० निर्भरं अत्यर्थं कलङ्किनि कलङ्कयुक्ते ॥१७ कुतः प्रकर्षं समतामपि त्वया, न सङ्गता श्रीरपि रूपवैभवैः ।
कुतः ० हे प्रिये प्रकर्ष कुतः श्रीलक्ष्मीरपि रूपवैभवैः समाधिरूपद्रव्यैः त्वया सह समतामपि सादृश्यमपि न संगता न प्राप्ता, खेचराङ्गना विद्याधरस्त्री स्वकं आत्मीयं शकुन्त्याः ३५ पक्षिण्याः सदृशं नभोगतागुणं आकाशचारित्वं गुणं तृणं जल्पति ॥ १८ ॥
१२
स्वकं शकुन्त्याः सदृशं नभोगतागुणं तृणं जल्पति खेचराङ्गना ॥ १८ ॥
निजैर्द्विजिह्वप्रियतादिदूषणै
हियेव मुञ्चन्ति न जातु या बिलम् । अनाविलं ते चरितं विषानना,
न नागकन्या अनिशं स्पृशन्ति ताः ॥ १९ ॥ निजै० हे प्रिये नागकन्या निजैरात्मीयैर्द्विजिह्वप्रियतादि - २२ दूषणैर्द्विः जिहाः सर्पाः खला वा तत्प्रियतादितदमीष्टत्वादि
१८
J
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सर्गः ]
टीका सहितम्
२९७
दूषणदोषैः जातु कदाचिदपि बिलं पातालं न मुंचति, उत्प्रेक्ष्यते हिया लज्जयेव हे प्रिये ता विषानना विषमुख्यो नागकन्या अनिशं निरंतरं अनाविलं निर्मलं ते तव चरितं न३ स्पृशन्ति ॥ १९ ॥
नवोदयं सङ्गतया रया त्वया, ततो ऽतिशिष्ये त्रिजगद्वधूजनः ।
तमोबलाल्लब्धभवः परः प्रभा
भरः स्वधर्मैस्तरणेरिव त्विषा ॥ २० ॥ नवो० हे प्रिये तत् तस्मात् कारणात् त्रिजगद्वधूजनः स्वर्ग - ९ मर्त्यपातालसत्कस्त्रीजनस्त्वया अतिशिष्ये अतिक्रान्तः, किं विशिष्टया त्वया स्वधर्मैरात्मपुण्यैर्नवोदयं संगतया नवीनोदयं प्राप्तवत्या कस्येव तरणेरिव यथा सूर्यस्य त्विषा कान्त्या तमो- १२ बलादन्धकारबलाल्लब्वभवः परः प्रभाभरः, स्वधर्मैः खकिरणैरतिशिष्ये अतिक्रम्यते ॥ २० ॥
त्वयेक्षितः स्वमगणो गुणोज्जवलो, न जायते जात्यमणिर्यथा वृथा ।
पुनः प्रकल्प्या कथमल्पबुद्धिभि
विचारणा तस्य विचक्षणोचिता ॥ २१ ॥ वये ० हे प्रिये त्वया ईक्षितो दृष्टो गुणोज्जवलः स्वमगणः खमसमूहः वृथा निःफलो न जायते यथा जात्यमणिर्वृथा न जायते, यथा इवार्थः पुनः परं अल्पबुद्धिभिः मन्दबुद्धिभि - २१ र्मन्दप्रज्ञैः विचक्षणोचिता विद्वज्जनयोग्या तस्य खमगणस्य विचारणा कथं प्रकल्प्या ॥ २१ ॥
१५
१८
२३
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२९८ जैनकुमारसंभवं [ नवमः
मृगाक्षि वल्लीव घनाघनोदका
द्भवत्यतः स्वमभरानवा रमा। प्रयाति गर्भानुगुणात्प्रथां पुनः,,
पुरोदिता सा सरसीकृताश्रयात् ॥ २२ ॥ मृगा० हे मृगाक्षि मृगलोचने अतो अस्मात् खप्नभरात् ६ स्वप्नसमूहात् नवा रमा लक्ष्मीर्भवति, पुनः पुरोदिता पूर्व उदिता उत्पन्ना सारमा प्रथां विस्तारं प्रयाति, किं विशिष्टात् खप्नभरात् घनाघनोदकात् घनं अघं पापं नुदतीति स्फेटयतीति धना९घनोदकस्तस्मात् घना० । पुनः किं विशिष्टात् खप्नात् गर्भानुगुणात् गर्भसदृशात् यदि उत्तमो गर्भः तदा खप्नापि उत्तमाः स्युरिति, पुनः किं० स्वप्न०, सरसीकृताश्रयात् सरसीकृत १२ आश्रयो येन स सरसीकृताश्रयस्तस्मात् सरसीकृ० । केव
वल्लीव यथा वल्ली घनाघनोदकात् मेघजलात् नवा भवति पुरोदिता सा प्रथां प्रयाति, किं विशिष्टात् घनाघनोदकात् १५ गर्भानुगुणात् अभ्रविद्युहिमगर्भादयस्तत्सदृशात् यादृशो गर्भोऽस्ति तादृशी वृष्टिः स्यात् पुनः किं वि० घनाघनोदकात्
सरस्यां सरोवरे कृतः आश्रयः स्थानं येन तत् सरसीकृताश्रयं ५८ तस्मात् ।। २२॥
अनेन सर्व स्वजनाकुले कुले
नवा न वासं विदधत्यहो गदाः ।
पुरातना अप्युपयान्ति ते शमं, २२ रसायनेनेव विदोषधीभुवा ।। २३ ॥
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सर्गः] टीकया सहितम् २९९
अने. हे प्रिये अहो इत्याश्चर्ये अनेन स्वप्नभरेण सर्वखजनाकुले सर्वखजनव्याप्ते कुले नवा गदा रोगा वासं न विदधति न कुर्वन्ति, पुरातना अपि गदाः शमं यांति, किं३ विशिष्टेन रसायनेन विदोषधीभुवा वित् ज्ञानं ओषध्यश्च ताभ्यो भवतीति विदोषधीभूस्तेन विदो० ॥ २३ ॥
विनोदयेनेव हते सुसंहते
ऽमुना घनारिष्टतमिस्रमण्डले । कुले विलासं कमलावदुत्पले ।
करोति पुण्यप्रभवा शिवावली ॥ २४ ॥ १ विनो० अमुना खप्नभरेण सुसंहते सुष्टु अत्यर्थं संहते मिलिते सति घनारिष्टतमिस्रमण्डले घने निबिडे अरिष्टरूपे तमिस्रमण्डले धना मेघवत् अरिष्टरत्नवत् कृष्णे अन्धकार- ३२ पटले हते सति कमला लक्ष्मी उत्पले कमले वासं करोति ॥ २४॥ अबालभाविश्रुतसौख्यदायिनी,
१५ वृथा विभूतिर्विभुता च यां विना। अयं हि तां वर्धयितुं निशान्तरुग्,
धृति मतिं ब्राह्ममुहूर्तवत्प्रभुः॥ २५॥ १० अबा० विभूतिर्लक्ष्मी विभुता च प्रभुत्वं यां धृति मतिं विना निःफला स्यात् किं लक्षणां धृतिं अबालभाविश्रुतसौख्यदायिनी, अबाला प्रौढा भा प्रभा तया विश्रुतं विख्यातं सौख्यं ददातीति, किं रूपां मतिं अबालभा अबालेषु विद्वत्सु भवन- २२
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जैनकुमारसंभवं [नवमः शीलस्य श्रुतस्य शास्त्रस्य सौख्यदात्रीं अयं स्वप्नभरः, हि निश्चित तां धृति मतिं वर्धयितुं प्रभुः समर्थः स्यात्, किंवत् ब्राह्म३ मुहूर्तवत् यथा ब्राह्ममुहूर्तः धृतिं समाधि मतिं बुद्धिं वर्धयितुं प्रभुः स्यात् , किं विशिष्टः स्वप्नभरः ब्राह्ममुहूर्तश्च निशान्तरुक् नितरां शान्ता रोगा यस्य तस्मात् स निशान्तरुक्, पक्षे निशाया रात्रेरन्ते अवसाने रोचने निशा ॥ २५॥
जनानुरागं जनयन्नयं नवं,
ध्रुवोदयणाभवदानलग्नकः। यदन्यदप्यत्र मनोहरं तदा
प्यनेन जानीहि पुरः स्फुरत्प्रिये ॥२६॥ जना० हे प्रिये ! अयं स्वप्नभरः ध्रुवोदयप्राभवदानलमको १२ध्रुवो निश्चित उदयो यस्य एवंविधस्य प्राभवस्य खामित्वस्य
दानलमकः प्रतिभूर्वर्त्तते, किं कुर्वन्नयं नवं नवीनं जनानुरागं जनयन् उत्पादयन् यत् अन्यदपि त्रिगति विश्वमनोहरं वस्तु १५तदपि अनेन खप्नभरेण पुरोऽग्रे स्फुरत् देदीप्यमानं जानीहि
यदिष्यते हन्त शुभानिमित्ततः,
पुरापि तद्वस्तु समस्तमस्ति मे । ... भवनशीतांशुमहो महोजवले,
दिने न दीपः परभागमृच्छति ॥ २७ ॥ असावसामान्यगुणैकभूरिति, त्वया विशालाक्षि वृथा न चिन्त्यताम् ।
२२.
५पासास
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सर्गः] टीकया सहितम्
फलं यदग्र्यं तदथ ब्रवीमि ते, मितेः परां कोटिमियतु संमदः ॥ २८॥
युग्मम् । ३ यदि० हे प्रिये ! हन्त इति वितर्के शुभान्निमित्ततः शुभनिमित्तहेतोः यदिष्यते वाञ्छयते तत् समस्तं वस्तु पुरोप्यऽपि मे ममास्ति, अशीतांशुमहो महोज्वले सूर्यस्य महसा तेजसा देदीप्यमानदिवसे दीपोत्सवः सन् परभागं गुणोत्कर्ष न ऋच्छति न याति ॥ २७ ॥ ___ असा० हे विशालाक्षि विस्तीर्णलोचने असौ खमभरः १ असामान्यगुणैकभूनिरुपमगुणानामेकस्थानं वर्तते, इति अस्मात् कारणात् वृथा निःफलो न चिन्त्यतां, यत् अग्र्यं प्रशस्यं फलं तत् , अथ ब्रवीमि ते तव संमदो हर्षः मितेर्गणनायाः परां १२ कोटि इयतु प्राप्नोतु ॥ २८ ॥ युग्मम् ।
चतुर्दशवमनिभालनद्रुम
स्तनोत्यसौ मातुरुभे शुभे फले। इहैकमर्हजननं महत्फलं,
तनु द्वितीयं ननु चक्रिणो जनुः ॥ २९ ॥ चतु० असौ चतुर्दशस्वप्ननिभालनद्रुमः स्वप्नावलोकनरूप-१६ वृक्षः, मातुरुभे द्वे शुभे फले तनोति करोति, इह एकं अर्ह. जननं अर्हज्जन्ममहत्फलं वर्तते, द्वितीयन्तु स्तोकं ननु निश्चितं चक्रिणो जनुः जन्म स्यात् ॥ २९ ॥
प्रदुष्टभावारिभयच्छिदं स्फुटी
कृता निशीथे सुकृतैः पुराकृतैः।
२७.
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३०२
जैनकुमारसंभवं
तदर्धवीक्षा विशिनष्टि केशवोद्भवं भवोत्तारमरागवागिव ॥ ३० ॥
१५
३ प्रदु० हे प्रिये तदर्धवीक्षा तेषां स्वप्नानां अर्धदर्शनं केशवोद्भवं वासुदेवोत्पत्तिं विशिनष्टि कथयति, किं विशिष्टं केशवोद्भवं प्रदुष्टभावारिभयच्छिदं प्रकर्षेण दुष्टभावानां अरीणां ६ चैरिणां भयं च्छिनतीति, किं विशिष्टा तदर्धवीक्षा पुराकृतैः सुकृतैः स्फुटीकृता निशीथे अर्धरात्रे स्फुटीकृता प्रकटीकृता केव अरागवागिव यथा अरागवाग् वीतरागवाणी भवोत्तारं संसारपारं विशिनष्टि, किं विशिष्टा अरागवाक् प्रस्तावात् भव्यानां पुराकृतैः सुकृतैः स्फुटीकृता, निशीथस्योपलक्षणत्वात् अन्येपि सिद्धान्तग्रन्था ज्ञेयाः, किं विशिष्टं भवोत्तारं प्रदुष्ट१२ भावारिभयच्छिदं प्रदुष्टानां क्रोधमानमायालोभमोहादिभावारीणां भयं छिनतीति प्रदुष्टा० ॥ ३० ॥
बलं सुतं यच्छति तच्चतुष्टयी, लतेव जातिः कुसुमं समुज्वलम् । तदेकतां वीक्ष्य तदेकतानया, स्त्रियाङ्गभूमण्डलिकः प्रकल्प्यताम् ॥ ३१ ॥
बलं० तचतुष्टयी तेषां स्वप्नानां चतुष्कं बलं सुतं बलदेवं पुत्रं यच्छति दत्ते, केव जातिर्लतेव यथा जातिर्लता मालती समुज्ज्वलं कुसुमं यच्छति, यतो बलदेवोऽपि समुज्ज्वलः २१ स्यादिति, तदेकतानया तेषु खमेषु एकतानया सावधानया स्त्रिया तदेकतां एकं स्वमं वीक्ष्य मांडलिकोंsङ्गभूः पुत्रः २३ प्रकल्प्यतां चिन्त्यताम् ॥ ३१ ॥
[ नवमः
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सर्गः] टीकया सहितम्
३०३ तदीशस्वमविलोकनात्वया
ऽधिगंस्यते चक्रधरस्तनूरुहः । विशन्ति विद्याः किल यं चतुर्दश,
श्रयन्ति रत्नान्यपि संख्यया तया ॥३२॥ तदी० हे प्रिये तत् तस्मात् कारणात् ईदृशखामविलोकनात् त्वया चक्रधरस्तनूरुहः अधिगंस्यते प्राप्स्यते, किल० इति सत्ये ६ चतुर्दशविद्या यं पुत्रं विशन्ति प्रविशन्ति, तया चतुर्दशरूपया संख्यया रत्नान्यपि संश्रयन्ते सेवन्ते ॥ ३२॥ त्वया यदादौ हरिहस्तिसोदरः,
पुरः स्थितस्तन्त्रि करी निरीक्षितः। मनुष्यलोकेऽपि ततः श्रियं पुरा,
दधाति शातक्रतवीं तवाङ्गजः ॥ ३३॥ १२ त्वया० हे तन्वि त्वया यत् आदौ हरिहस्तिसोदरः ऐरावतस्य बांधवः करी हस्ती पुरः स्थितो निरीक्षितो दृष्टः, तत् तस्मात् कारणात् तवांगजः पुत्रः मनुष्यलोकेऽपि शातक्र-१५ तवीं शतक्रतोरियं शातक्रतवी इन्द्रसम्बधिनी श्रियं लक्ष्मी पुरादधाति, पुरा यावतो वर्तमाना इति सूत्रेण भविष्यति काले वर्तमानो ज्ञेया ॥ ३३ ॥
दिगन्तदेशांस्तरसा जिगीषया
भिषेणयिष्यन्तमवेत्य तेऽङ्गाजम् । प्रहीयते स प्रथमं दिशां गजैः, प्रिये किमैरावत एष सन्धये ॥ ३४॥ २२
१८
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३०४
२
जैनकुमारसंभवं [नवमः दिग० हे प्रिये तव अङ्गजं तरसा वेगेन दिगन्तदेशान् जिगीषया जेतुमिच्छया अभिषेणयिष्यन्ते सेनया सन्मुखं ३ गमिष्यन्तं अवेत्य ज्ञात्वा ऐरावतः १ पुण्डरीको २ वामनः ३ कुमुदो ४ अंजनः ५ पुष्पदन्तः ६ सार्वभौमः ७ सुप्रती. कश्च ८ दिग्गजाः पुंडरीकाद्यैर्दिशांगजैः हे प्रिये एष ऐरावतः ६ प्रथमं संघीय संधीकरणाय किं प्रहीयते सा ३४ ॥
यदक्षतश्रीवृषभो निरीक्षितः,
क्षितौ चतुर्भिश्वरणैः प्रतिष्ठितः। महारथाग्रेसरतां गतस्तत
स्तवांगभूरिधुरां धरिष्यति ॥ ३५॥ यद० यत् यस्मात् कारणात् अक्षतश्रीरक्षयलक्ष्मीवृषभो १२ निरीक्षितो दृष्टः, किं लक्षणो वृषभः क्षितौ पृथिव्यां चतुर्भिश्चरणैः
प्रतिष्ठितः, हे प्रिये तत् तस्मात् कारणात् तवाङ्गभूस्तव पुत्रः महारथाग्रेसरतां महारथाः सहस्रयोधिनस्तेषु अग्रेसरतां ७५ मुख्यतां, पक्षे महान् रथः तस्य अग्रेसरतां अग्रगामित्वं, प्राप्तः
सन् वीरधुरां धरिष्यति, 'धनुर्वेदस्य तत्त्वज्ञः सर्वयोधगुणान्वितः ॥ सहस्रं योधयेत्येकः स महारथ उच्यते ॥१॥३५॥
सुपर्वलोकायदिना तवाङ्गजे,
प्रवेशमातन्वति भूतले नवम् । अहो महोक्षः किमसौ पुरोऽस्फुर
नदन्नदभ्रं शकुनप्रदित्सया ॥३६ ॥ २२ सुप० यदि वा अथवा इति शब्दात् द्वितीयं कारणमाह
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३०५
सर्गः] . जैनकुमारसंभवं हे प्रिये अहो इति आश्चर्ये असौ महोक्षो महावृषभः, सपर्वलोकादेवलोकात् तवाङ्गजे पुत्रे भूतले पृथ्वीतले नवं प्रवेशं आतन्वती कुर्वती सति, अदनं अतुच्छं नदन् शब्दं ३ कुर्वन् सन् शकुनप्रदित्सया शकुनप्रदानेच्छया किं पुरो अग्रे स्फुरत् ॥ ३६॥
जिनेषु सर्वेषु मयैव लक्ष्मणा,
जनेन तातस्तव लक्षयिष्यते । अयं चटूक्त्येत्यथवा तवात्मजा
त्प्रसादमासादयितुं किमापतत् ॥ ३७॥ ९ जिने० अथवा अयं वृषभ इति चटूक्त्या चाटुवचनेन हे प्रिये तव आत्मजात् पुत्रात् प्रसादं आसादयितुं प्रापयितुं किं आपतत् आगतः, इतीति किं जनेन लोकेन सर्वेषु जिनेषु १२ मयैव लक्ष्मणा लाञ्छनेन तव तातः पिता लक्षयिष्यते उपलक्षयिष्यते ॥ ३७॥
द्विपद्विषो वीक्षणतोऽवनीगतां
गिनो मृगीकृत्य महाबलानपि । न नेतामाप्स्यति न त्वदङ्गजा,
प्रघोषतोऽन्तर्वनयन्महीभृतः ॥ ३८॥ .. १८ द्विप० हे प्रिये! द्विपद्विषो वीक्षणतः सिंहस्य विलोकनात् त्वदङ्गजः त्वत्पुत्रः नेतृतां प्रभुतां न न आप्स्यति अपि तु प्राप्स्यत्येव, किं कृत्वा ? अवनीगताङ्गिनः अवनी पृथ्वी, पक्षे महद्वनं वनी तत्र स्थितप्राणिनो महाबलानपि सबलानपि मृगी- २२
जै० कु० २०
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टीकया सहितम् [ नवमः कृत्य, किं कुवन् ? महीभृतो राज्ञः प्रघोषतः प्रसिद्धरन्तव॑नयन् चमत्कुर्वन् पक्षे प्रकृष्टात् घोषतः सिंहनादात् महीभृतः पर्वतान् ३ अन्तर्ध्वनयन् प्रतिशब्दयन् ॥ ३८ ॥
नयाप्तसप्ताङ्गकराज्यरङ्गभूः,
कनायकस्त्वं प्रखरायुधो नृणाम् । प्रभुः पशूनां नयनैपुणं विना,
वसन्वनेऽहं नखरायुधः क च ॥ ३९ ॥ तथापि मा कोऽयमुपागमः कृतो.
पमः कृतीशैयुधि विक्रमान्मया । सुतं तवेत्यर्थयितुं समागतः,
किमर्थिकल्पद्रुममेष केसरी ॥ ४०॥ युग्मम् । १२ नया० हे प्रिये ! एष केसरी सिंहः अर्थिकल्पद्रुमं याचक
कल्पवृक्षं तव सुतं इति प्रार्थयितुं किं समागतः, इतीति किं ?
त्वं नृणां नायकः क, किंविशिष्टस्त्वं ? नयाप्तसप्तांगकराज्य१५रंगभूः, नयेन न्यायेन अवाप्तं यत् सप्तांगराज्यं तस्य रंगभूमिः,
पुनः किं० प्रखरायुधः प्रखराणि कठोराणि आयुधानि यस्य, स
च अन्यत् क अहं पशूनां प्रभुः, किंवि० अहं नखरायुधः १८ नखरा एव आयुधानि यस्य सः, पक्षे न निषेधार्थे खरायुधस्ती
प्रशस्त्रेण, किंविशिष्टो अहं नयनैपुणं न्यायदक्षत्वं विना वने वसन् ॥ ३९ ॥ त्वं कृतीशैः कृतज्ञैर्युषि संग्रामे विक्रमात् पराक्रमात् मया सह कृतोपमो भविष्यसि, तथापि कोपं मा २२ उपागमः ॥ ४०॥ युग्मम् ।
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सर्गः ]
जैनकुमारसंभवं
यदिन्दिरा सुन्दरि वीक्षिता ततः, स्त्रियो नदीनप्रभवा अवाप्स्यति । कलाभृदिष्टाः कमलङ्गताः परःशतास्तयैवोपमिताः सुतस्तव ॥ ४१ ॥ यदि० हे सुंदरि ! यत् त्वया इन्दिरा लक्ष्मीर्वीक्षिता दृष्टा, ततस्तस्मात् कारणात् तव सुतः परःशताः शतसहस्राधिकाः ६ तयैव इन्दिरया उपमिता उपमानं प्रापिताः स्त्रियः आप्स्यति प्राप्स्यति, किंविशिष्टाः स्त्रियः नदीनप्रभवाः नदीनो हीनः प्रभव उत्पत्तिर्यासां सा लक्ष्मीः, पक्षे नदीनां इनः खामी ९ समुद्रस्तस्मात् प्रभवो यस्याः सा अत्र अर्थवशात् विभक्ति - परिणामो लक्ष्म्या विशेषणो ज्ञेयः, पुनः किंविशिष्टाः स्त्रियः ? कलाभृदिष्टाः कलाभृतः कलावन्तस्तेषां इष्टा अभीष्टाः लक्ष्मीः १२ पक्षे कलाभृच्चन्द्रस्तस्येष्टा रात्रौ लक्ष्म्याश्चन्द्रमण्डलवासित्वात् कमलङ्गताः कं सुखं अलं अत्यर्थं गताः पक्षे कमलं पद्म गता स्थिता ॥ ४१ ॥
"
बलाधिकत्वाच्चलिते हरेर्हृदि, प्रस भने युधि राजमण्डले । अनेन पद्भ्यां कुशिते कुशेशये,
३०७
१५
रजोभिः स्थगिते पयोनिधौ ॥ ४२ ॥ सुतस्तवैवास्ति गतिर्ममाधुना, तवेति वा जल्पितुमाययावसौ ।
स्वजातिधौरेयमनुप्रविश्य य
प्रभुप्रसादाय यतेत धीरधीः ॥ ४३ ॥ युग्मम् । २३
१८
२१
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३०८
टीका सहितम्
[ नवमः
बला० असौ इन्दिरा हे प्रिये ! वा अथवा तव इति जल्पितुं किं आययौ आयाता तव इति अत्र विवक्षातः, ३ कारकाणीति षष्ठी ज्ञेया, अन्यथा शमिति स्यात् इतीति किं ? मम तावच्चत्वारि स्थानानि एकं हरिहृदयं, द्वितीयं चन्द्रमण्डलं, तृतीयं कमलं, चतुर्थं समुद्रः । अनेन तव पुत्रेण इति सर्वत्र ६ योज्यते, बलाधिकत्वात् बलस्याधिक्यात् हरेर्वासुदेवस्य हृदि चलिते सति बलो बलभद्रः बलं सैन्यं वा हरेरेक एव बलः, अस्य तु बलाधिकत्वमिति भावः प्रसह्य बलात्कारेण राज९ मण्डले राजसमूहे चन्द्रमण्डले वा युधि संग्रामे भने सति पञ्चां चरणाभ्यां कुशेशये कमले कृशिते ग्लानिं प्रापिते सति चमूरजोभिः पयोनिधौ समुद्रे स्थगिते सति ॥ ४२ ॥ एवं १२ चतुर्णां स्थानानां अभावे मम अधुना तवैव सुतो गतिराधारोsस्ति, यत् यस्मात् कारणात् धीरधीः धीरबुद्धिः पुमान् स्त्री वा स्वजातिधौरेयं अनुप्रविश्य प्रभुप्रसादाय खामिनं प्रसन्नी - १५ कर्तुं यतते उपक्राम्यति ॥ ४३ ॥ युग्मम् |
स्वसौरभाकर्षित पट्पदाध्वगा, गालोके यदि कौमी त्वया । ततः सुतस्ते निजकीर्तिसौरभावलीढविश्वत्रितयो भविष्यति ॥ ४४ ॥
स्वसौ० हे प्रिये ! यदि त्वया कौसुमी कुसुमसंबन्धिनी स्रग् माला आलुलो दृष्टा, किंलक्षणा स्रक् ? खसौरभाकर्षितषट्२२ पदाध्वगा, आत्मीयपरिमलेनाकृष्टा भ्रमरा एव अध्वगाः पान्थ
૩.
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सर्गः] जैनकुमारसंभव यया सा०, तया ततस्तस्मात् कारणात् ते तव सुतो निजकीर्तिसौरभावलीढविश्वत्रितय आत्मीयकीर्तिपरिमलेन व्याप्तत्रिभुवनो भविष्यति ॥ ४४ ॥.
अयं विवादे ननु दानविद्यया,
विजेष्यते नश्चिरशिक्षितानपि । इयं भियतीव सुरद्रुभिर्भव
द्भुवो ददे दण्डपदेऽथवा किमु ॥ ४५ ॥ अयं० अथवा सुरद्रुभिः कल्पवृक्षैः इयं सग् भवद्भुवस्तव पुत्रस्य किमु दण्डपदे ददे दत्ता । उत्प्रेक्ष्यते-इति भिया ईडन ९ भयेनेव, इतीति किं ? अयं तव पुत्रो ननु निश्चितं चिरशिक्षितानपि नो अस्मान् दानविद्यया विजेष्यते 'पुरावेर्ने' इति -सूत्रेणात्मनेपदम् ॥ ४५ ॥
१२ भवान् ममादेशवशो भवेद्वही,
गृहीतदीक्षस्य च नासि ते प्रभुः। वदन्निदं वानुगभृङ्गनिःस्वनैः,
स्मरोऽस्य रोपं व्यसृजत् सजश्छलात् ॥४६॥ भवा० हे प्रिये ! वा अथवा स्मरः कन्दर्पः अस्य तव पुत्रस्य अनुगभृङ्गनिःखनैः पृष्ठस्थभ्रमरशब्दरिदं वदन् स्रजो मालाया १८ च्छलात् रोपं वाणं व्यसृजत् प्रहितवान् , इदमिति किं ? भवान् गृही गृहस्थः सन् ममादेशवशो भवेत् बशेन भवितव्यमिति भावः, च अन्यत् गृहीतदीक्षस्य ते तव अहं प्रभुः समर्थो नामि ॥ ४६॥
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३१० टीकया सहितम् [नवमः
यदिन्दुरापीयत पार्वणस्त्वया, __ ततः सुवृत्तो रजनीधनच्छविः । सदा ददानः कुमुदे श्रियं कला
कलापवांस्ते तनयो भविष्यति ॥४७॥ यदि० हे प्रिये ! त्वया यत् पार्वणः पूर्णिमासंबन्धी इन्दु६श्चन्द्रः आपीयत पीयते स्म, किंलक्षण इन्दुः? सुवृत्तो वृत्ताकारः, रजनीधनच्छविः रजन्यां बहुकान्तिः, कुमुदे करवे सदा श्रियं ददानः कलाकलापवान् कलासमूहयुक्तः तत् तस्मात् ९ कारणात् सुवृत्तः सुचरित्रः रजनीधनच्छविः, कुमुदे काः पृथिव्याः मुदे हर्षाय सदा श्रियं शोभां ददानः कलाकलापवान्
गीतवाद्यनृत्यगणितपठितलिखितादिभिः द्वासप्ततिकलाभिर्युक्त १२ एवंविधस्ते तव तनयो भविष्यति ॥ ४७ ॥
त्वदाननस्पर्धि सरोजमोजसा,
निमीलयिष्यामि तयाधिकश्रिये । तव श्रयिष्यामि सितातपत्रता
ममुक्तमुक्तामिषतारतारकः॥४८॥ परं रुजन् राजकमाजिभाजिनं,
न राजशब्दं मम माष्टुमर्हसि । . इतीव विज्ञापयितुं रहो रया।
दुपस्थितोऽयं तनयं तवाथवा ॥ ४९ ॥ त्व. अथवा अयं चन्द्रस्तव तनयं रह एकान्ते इति विज्ञा२२ पयितुमिव रयात् वेगात् उपस्थित आगतः, इतीति किं ? हे
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सर्गः] जैनकुमारसंभवं
३११ खामिन् ! अहं त्वदाननस्पर्धि त्वदीयमुखस्पर्धाकारि सरोज कमलं ओजसा बलेन तेजसा वा निमीलयिष्यामि, तया तव अधिकश्रिये अधिकशोभायै सितातपत्रतां श्वेतच्छत्रतां श्रयिष्यामि, ३ किंविशिष्टो विधुः? अमुक्तमुक्तामिषतारतारकः न मुक्ता अमुक्ताः, अमुक्ता मुक्तामिषा मुक्ताफलरूपास्तारा मनोज्ञास्तारा तारका येन स० ॥४८॥ त्वं परं आजिभाजिनं संग्रामसेविनं ६ राजकं राजसमूहं रुजन् भञ्जन् सन् समराजशब्द अतः कारणात् माष्टुं स्फेटयितुं न अर्हसि राजशब्देन चन्द्र उच्यते ॥४९॥ युग्मम् । दिशन्विकाशं गुणसअपमिनी
मुखारविन्देषु सदा सुगन्धिषु । निरुद्धदोषोदयमात्मजस्तव,
प्रपत्स्यते धाम रवेरवेक्षणात् ॥ ५० ॥ दिश० हे प्रिये ! रवेः सूर्यस्य अवेक्षणात् दर्शनात् तव आत्मजस्त्वत्सुतः धाम तेजः प्रपत्स्यते आश्रयिष्यति, किंवि-१५ शिष्टं धाम ? निरुद्धदोषोदयं निरुद्धदोषाया रात्रेः दोषाणां दूषणानां वा उदयो येन तत् , तव आत्मजः । किं कुर्वन् सदा सुगन्धिषु सुपरिमलेषु गुणानां विवेकादीनां सद्मसु स्थानेषु १४ पद्मिनीनां स्त्रीणां मुखारविन्देषु मुखकमलेषु विकाशं दिशन् , रविपक्षे गुणांस्तन्तवः पद्मिन्यः कमलिन्यः ।। ५० ।।
उदिष्यतस्त्वत्तनयस्य तेजसा, दिवाकरो दीप्तिदरिद्रतां गतः।
१२
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३१२
टीकया सहितम् [नवमः मृगाक्षि मन्येऽबलयापि तत् त्वया,
सुदर्शनः स्वप्नपरंपरास्वयम् ।। ५१ ॥ ३ उदि० हे मृगाक्षि ! अहं एवं मन्ये उदिष्यतः उदयं प्राप्तुकामस्य त्वत्तनयस्य तव पुत्रस्य दिवाकरः सूर्यस्तेजसा दीप्तिदरिद्रतां कान्तिरहितत्वं गतः प्राप्तः, तत् तस्मात् कारणात् ६ त्वया अबलयापि अयं सूर्यः स्वप्नपरंपरासु सुदर्शनः सुखेन दृश्यते, इति सुदर्शनो जातः ॥ ५१ ॥
मया नभःस्थालदशेन्धनेन ते,
विधातुरारात्रिककर्म भावि तत् । ममोर्ध्वगत्वं च महश्च मृश्यतां,
भवद्भुवं वक्तुमिदं स वाययौ ॥५२॥ १२ मया० वा अथवा स रविः भवद्भुवं तव पुत्रं इदं वक्तुं
आययौ आयातः । इदमिति किं ? विधातुः ब्रह्मणो मया नभ:स्थालदशेन्धनेन आकाशरूपस्थाले दीपसदृशेन ते तव आरा१५त्रिककर्म भावि भविष्यति, तत् तस्मात्कारणात् मम ऊर्ध्वगतत्वं उच्चैर्गमनतां च अन्यत् महस्तेजो मृश्यतां सह्यतां मृषूच्क्षान्तौ
एतस्य धातोः प्रयोगः ।। ५२ ॥ १४ ध्वजावलोकाद्दयिते तवाङ्गजो,
रजोभिरस्पृष्टवपुः कुसङ्गजैः। गमी गुणाढ्यः शिरसोऽवतंसतां,
कुले विशाले विपुलक्षणस्पृशि ॥ ५३ ॥ २२ ध्वजा० हे दयिते ! ध्वजावलोकात् ध्वजदर्शनेन तवाङ्गजः
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सर्ग: ]
जैनकुमारसंभवं
३१३
विशाल विस्तीर्णकुले वंशे गृहे वा शिरोऽवतंसतां मस्तकमुकुटत्वं गामी गमिष्यति, किंविशिष्टस्तव पुत्रो ध्वजश्च ! कुसङ्गजैः कुसंसर्गजातैः रजोभिः पापैः, पक्षे कुः पृथ्वी तस्याः सङ्गजैः ३ रेणुभिरस्पृष्टवपुरस्पृष्टशरीरः पुनः किं० गुणैर्विनयादिभिस्तन्तुभिर्वा आद्यः समृद्धः, किंविशिष्टे कुले ? विपुलक्षणस्पृशि विपुलो विस्तीर्णक्षण उत्सवो गृहविभागो वा तं स्पृशतीति ६ विपुलक्षणस्पृक् तस्मिन् ॥ ५३ ॥
"
परिस्फुरन्तं दिवि केतुसंज्ञया, निरीक्ष्य मां ते पृतनाग्रवर्तिनम् । विपक्षवर्गः स्वयमेव भक्ष्यते,
युधेऽमुना तद्भव जातु नातुरः ॥ ५४ ॥ बिभर्तु गांभीर्यगुणं युवा भवा
निधाय सर्वं मयि बालचापलम् । इति प्रजल्पन् कलकिंकिणीकणै
रसुं किमागात्प्रियमित्रवत्स वा ॥ ५५॥ युग्मम् | १५ परि० हे प्रिये ! वा अथवा स ध्वजः अमुं तव सुतं प्रियमित्रवत् किं आगात् किं कुर्वन् ! ध्वजः कलकिंकिणीकणैः मनोज्ञक्षुद्रघंटिकाशब्दैरिति जल्पन्, इतीति किं ? ते तव १८ पृतनाग्रवर्तिनं दिवि आकाशकेतुसंज्ञया केतुरिति नाम्ना मां परिस्फुरन्तं निरीक्ष्य दृष्ट्वा विपक्षवर्गः शत्रुसमूहः स्वयमेव भक्ष्यते भग्नो भविष्यति, केतुशब्देन ध्वज उच्यते, धूमकेतुरपीति भावः, तत् तस्मात् कारणात् युधे संग्रामे अमुना विप- २२
१२
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३१४
टीकया सहितम् [नवमः क्षवर्गेण सह जातु कदाचिदपि आतुर उत्सुको न भव मा भूः ॥ ५४ ॥ भवान् युवा यौवनं प्राप्तः सन् सर्वं बालचापलं मयि ३ निधाय मुक्त्वा गांभीर्य गुणं बिभर्तु धरतु ॥ ५५ ॥ युग्मम् ।
न्यभालि कुम्भः करभोरु यत्त्वया,
ततः सुवृत्तः सुमनश्चयाश्चितः। गतः सुतस्ते कमलैकपात्रता
मभङ्गमाङ्गल्यदशां श्रयिष्यति ॥५६॥ न्यभा० हे करभोरु ! मणिबन्धात् कनिष्ठां यावत् करम ९ उच्यते, करभवत् ऊरू यस्याः सा करभोरु तस्याः संबो०, यत्त्वया कुंभो न्यभालि पूर्णकलशो दृष्टः तत् तस्मात् कारणात्
ते तव सुतः कुम्भवत् अभङ्गमाङ्गल्यदशां श्रयिष्यति, किंवि१२ शिष्टः तव सुतः कुम्भश्च ? सुवृत्तः सच्चरित्रः सदाकारो वा सुमनश्चयाञ्चितः सुमनसां साधूनां पुष्पाणां वा चयेन समूहेन
अञ्चितः पूजितः कमलैकपात्रतां कमलाया लक्ष्म्याः कमलस्य १५ जलस्य वा एकपात्रतां स्थानकत्वं गतः प्राप्तः ॥ ५६ ॥
सुमङ्गलाङ्गी भवितुं तवर्द्धये,
विसोढवान् कारुपदाहतीरहम् । विवेश वह्नावनुभूयभूयसी
श्चिराय दण्डान्वितचक्रचालनाः॥ ५७ ॥
कृतज्ञ मद्दत्तजलैः प्रतीष्यतां, २१.. ततस्त्वया चक्रिपदाभिषेचनम् ।
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सर्गः] जैनकुमारसंभवं
३१५ इतीहितं ज्ञापयितुं किमाययौ, घटः स्फुटत्वं तनयस्य तेऽथवा ॥ ५८ ॥
युग्मम् । ३ सुम० हे प्रिये ! अथवा घटः कुम्भः ते तव तनयस्य इति ईहितं ईप्सितं ज्ञापयितुं स्फुटत्वं प्रकटत्वं आययौ प्राप, इतीति किं ? अहं तव ऋद्धये पुष्टये सुमङ्गलागी भवितुं कारु-६ पदाहतीः कारुणां कुम्भकाराणां चरणाघातान् विसोढवान् सेहे, भूयसीः बहीश्चिराय चिरकालं दण्डान्वितचक्रचालनाः दण्डयुक्तचक्रोपरिचालनं अनुभूय वह्नौ अग्नौ विवेश प्रविष्टः ९ ॥ ५७ ॥ तत् तस्मात् कारणात् हे कृतज्ञ चतुर! मद्दत्तजलैश्वक्रिपदाभिषेचनं चक्रवर्तिपदव्याः अभिषेकत्वं त्वया प्रतीष्यतां अङ्गीक्रियतां ॥ ५८ ॥ युग्मम् ।
१२ सरः सरोजाक्षि यदैक्षि तेन ते,
सुतः सतोषैः सुवयोभिराश्रितः । प्रफुल्लपोपगतो धनागमौ
रसं रसं धास्यति साधुपालियुक् ॥ ५९॥ सरः० हे सरोजाक्षि कमललोचने त्वया यत् सरः सरोवर ऐक्षि दृष्टं तेन कारणेन ते तव सुतः सरोवरवत् रसं पानीयं १८ शृङ्गारादिरसं वा धास्यति धरिष्यति, कथंभूतस्तव सुतः सरोवरं च ? संतोषैः सहर्षेः सुवयोभिः प्रधानवयोभिर्मित्रैः प्रधानवयोभिः पक्षिभिर्वा आश्रितः, प्रफुल्लपोपगतः प्रफुल्लया विकखरया पद्मया लक्ष्म्या, पक्षे पौः कमलैरुपगतः साधुपालि-२२
१७
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टीकया सहितम्
[नवमः
युक् साधूनां पालिः श्रेणिमनोज्ञा पालिर्वा तया युक्तः, किंविशिष्टं रसं? घनागमौरसं घनो बहुरागमः सिद्धान्तः, पक्षे धनागमा ३ वर्षर्तुस्तस्मादौरसं उत्पन्नं ॥ ५९॥
मयैव जातानि मयैव वर्धिता
न्यवाझुखीभूय ममावतस्थिरे । इमानि पद्मानि रमानिवासता
मवाप्य माद्यन्मधुपैश्च सङ्गतिम् ॥६०॥ प्रशाधि विश्वाधिप किं करोम्यहं,
त्वमीशिषे मूढजनानुशासने । इदं वदंस्तत्त्वधियः कृते स्वयं, जडस्तडागः किमुपास्त ते सुतम् ॥ ६१॥
युग्मम् । मयै० हे प्रिये ! स्वयं जडो मूर्खः शीतलो वा तडाग इदं वदन् सन् तत्त्वधियः कृते परमार्थबुद्ध्यर्थं किं ते तव सुतं १५ उपास्त सिषेवे, इदमिति किं ? इमानि पद्मानि मयैव जातानि मयैव वर्धितानि रमानिवासतां लक्ष्म्याऽऽवासत्वं च अन्यत्
माद्यन् मधुपैर्मदोन्मत्तभ्रमरैर्मद्यपैर्वा सङ्गति अवाप्य प्राप्य मम १८ अवाङ्मुखीभूय अवतस्थिरे स्थितानि ॥ ६० ॥ हे विश्वाधिप !
चक्रवर्तिन ! प्रशाधि शिक्षां देहि अहं किं करोमि त्वं मूढजनानुशासने मूर्खजनशिक्षणे ईशिषे समर्थो भवसि ॥६॥ युग्मम् । · निभालनान्नीरनिधेरधीश्वरः, २२ सरस्वतीनां रसपूर्तिसंस्पृशाम् ।
१२
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सर्गः] जैनकुमारसंभवं
३१७ अलब्धमध्योऽर्थिभिराश्रितो घनः,
सुतस्तवाऽत्येष्यति न स्वधारणाम् ॥ ६२ ॥ निभा० हे प्रिये ! त्वं नीरनिधेः समुद्रस्य निभालनात् दर्शनात् ३ रसपूर्तिसंस्पृशां शृंगारादिरसस्पृशां, पक्षे रसस्य पानीयस्य पूरणस्पृशां सरस्वतीनां वाणीनां अधीश्वरः स्वामी अलब्ध. मध्यो गंभीरः घनैः बहुभिर्मेधैर्वा अर्थिभिराश्रितः एवंविधस्तव ६ सुतः खधारणां निजमयादां न अत्येष्यति न अतिक्रमिष्यति ॥ ६२॥ प्रचेतसापि स्फुटपाशपाणिना,
कृपाणिना मध्यशयेन जिष्णुना । न राजनीतेः किल कूलमुद्रुजो,
न्यवारि मात्स्यः समयो भवन्मयि ॥ ६३ ॥१२ धरातलं धन्यमिदं त्वयि प्रभो,
न यनयव्यत्ययदोषमाप्स्यति ।। इति स्ववीचियानेतैरिव स्तुवन् ,
१५ किमाविरासीत्पुरतोऽस्य वारिधिः ॥ ६४ ॥
. युग्मम् । प्रचे. हे प्रिये ! वारिधिः समुद्रः अस्य तव पुत्रस्य पुरतोऽग्रे इति अमुना प्रकारेण खवीचिध्वनितैः खकल्लोलशब्दितैः स्तुवन्निव किं आविरासीत प्रकटीबभूव, इतीति किं ? स्फुटपाशपाणिना प्रकटपाशहस्तेन प्रचेतसापि वरुणेनापि कृपाणिना खड्गयुक्तेन मध्यशयेन मध्यवर्तिना जिष्णुना नारायणेन किल २२
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३१८
टीकया सहितम् [नवमः इति सत्ये राजनीतेः कूलमुद्रुजः कूलंकषः मात्स्यः समयः मत्स्यगिलागिलिन्यायो मयि भवन् सन् न न्यवारि न वारितः ३॥ ६३ ॥ इदं धरातलं पृथ्वीतलं धन्यं त्वयि प्रभौ खामिनि यत् नव्यतया दोषं न्यायविपरीतत्वदोषं न आप्स्यति न प्राप्स्यति ॥ ६४ ॥ युग्मम् । प्रिये विमानेन गतेन गोचरं,
समीयुषाऽऽभोगसमं समुच्छ्य म् । उदारवृन्दारकवल्लभश्रिया, ___ भवद्भुवा भाव्यमदभ्रवेदिना ॥६५॥ प्रिये. हे प्रिये! विमानेन गोचरं गतेन पृष्टेन सता भवझुवा तव पुत्रेण विमानसदृशेन भाव्यं, किंविशिष्टेन तव पुत्रेण ? १२ विमानेन भोगसमं भोगसदृशं, पक्षे आभोगसमं विस्तारसदृशं
समुच्छ्रयं वृद्धिं समीयुषा प्राप्तेन, पुनः किं० उदारवृन्दारकवल्लभाश्रिया उदारा दातारस्तन्मध्ये वृन्दारका देवसदृशास्तेषां १५ वल्लभाः श्रीलक्ष्मीर्यस्य, पक्षे उदाराः प्रौढा वृन्दारका देवास्तेषां
वल्लभाः श्रीः शोभा यस्य स तेन, पुनः किं० अदभ्रवेदिना
अदभ्रं बहु वेत्ति जानातीति अदभ्रवेदी तेन, पक्षे अदभ्रा १८ वेदिवलमी यस्य स तेन ॥ ६५ ॥
पुराश्रितं मां परिहत्य यन्महीं,
पुनासि पंकेरुहतापदैः पदैः । करत्र हेतुर्मयि दोषसंभवो, विरागता वा चिरसंस्तवोद्भवा ॥ ६६ ॥
___
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सर्गः] जैनकुमारसंभवं ३१९
नवीनपुण्यानुपलम्भतोऽथ चे
द्विरक्तिरंचिष्यसि तत्कथं शिवम् । प्रसीद मामेह्यथवोपयुज्यते, __चटूक्तिरस्नेहरसे न सेतुवत् ॥ ६७ ॥ यदि त्वयाऽत्यज्यत हन्त ताविषो,
विषोपमः सोऽस्तु न तन्ममापि किम् । ६ किमित्यमुष्यानुपदीनमागतं, सुधाशिधामानुनयाय तन्वि वा ॥ ६८॥
त्रिभिर्विशेषकम् । ९ पुरा० हे तन्वि वाथवा सुधाशिधाम अमरविमानं किं इति अमुना प्रकारेण अमुष्य तव पुत्रस्य अनुनयाय नेहकरणाय अनुपदीनं पृष्टलग्नं आगतं, इतीति किं ? हे खामिन् त्वं १२ पुराश्रितं मां परिहृत्य त्यक्त्वा रुहतापदैः कमलानां तापं संतापं ददतीति पंकेरुहतापदास्तै पंकेरुहतापदैः, पदैश्चरणैः महीं पृथ्वीं पुनासि पवित्रीकरोषि, अत्र मयि विषये दोषसंभवः १५ को हेतुः, वा अथवा चिरसंस्तवोद्भवा चिरकालीनपरिचयोत्पन्नाः विरागता वैराग्यं वर्तते ॥ ६६ ॥ अथ चेत् यदि नवीनपुण्यस्यानुपलम्भतः अवाप्तेविरक्तिर्वर्तते, तत् शिवं मोक्षं १८ कथं अंचिष्यसि यास्यसि, प्रसीद प्रसादं कुरु मां एहि अथवा अस्नेहरसे निस्नेहे पुरुषे चटूक्तिश्चाटुवचनं सेतुवत् पालिवत् नोपयुज्यते नोपयोगे सति ॥ ६७ ॥ यदि त्वया हन्त इति वितर्के, विषः खर्गोऽत्यजत त्यक्तः सता विषस्तत् तस्मात् २२
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३२०
टीकया सहितम् [नवमः कारणात् स वर्गो ममापि विषोपमो न अस्तु अपि तु अस्त्वेव वा ।। ६८ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् । ३ विलोकिते रत्नगणे स ते सुतः,
स्थितौ दधानः किल काञ्चनौचितीम् ।
उदंशुमत्रासमुपास्य विग्रहं, ६ महीमहेन्द्रैर्महितो भविष्यति ॥ ६९ ॥
विलो० हे प्रिये ! किल इति सत्ये स ते तव सुतः रत्नगणे रत्नसमूहे विलोकिते दृष्टे सति रत्नगणवत् उदंशु उद्गतकिरणं ९ अत्रासं भयरहितं दवरकरहितं वा विग्रहं युद्धं शरीरं वा समुपास्य संसेव्य महामहेन्द्रैः पृथ्वीसत्कराजभिः महितः पूजितो भविष्यति, किं कुर्वाणः त्वत्सुतो रत्नगणश्च स्थिती १२ मर्यादायां काञ्चन अपूर्वा औचितीं दधानः, पक्षे स्थितौ अवस्थाने काश्चने सुवर्णे औचितीं दधानः ॥ ६९ ॥
न रोहणे कर्कशतागुरौ गिरी, १५ न सागरे वाऽनुपकारिवारिणि ।
अहं गतो निर्मलधामयोग्यतां,
शुचौ समीहे तव धाम्नि तु स्थितिम् ॥ ७॥ १८ परार्थवैयर्थ्यमलीमसं जनुः,
.. पुनीहि मे संततदानवारिणा।
तवेति वा प्रार्थयितुं स गर्भगः, ...... - सुखं सिषेवे किमु रत्नराशिना ॥ ७१ ॥
- युग्मम् ।
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सर्ग:]
टीकया सहितम
३२१
__न० हे प्रिये ! वा अथवा तव स गर्भगः पुत्रः रत्नराशिना इति प्रार्थयितुं किमु इति किं सुखं सिषेवे सेवितः, इतीति किं अहं कर्कशतागुरौ काठिन्यगरीयसि रोहणगिरौ रोहणाचले ३ वा अथवा अनुपकारिणि उपकाररहिते जले सागरे समुद्रमध्ये निर्मलधामयोग्यतां निर्मलस्य धाम्नः स्थानकस्य योग्यतां न गतः न प्राप्तः, तु पुनः शुचौ पवित्रे तव धाम्नि स्थितिं समीहे ॥ ७० ॥६ हे खामिन् ! परार्थवैयर्थ्यमलीमसं परोपकारस्य निरर्थकत्वेन न मलिनं मे जनुर्मदीयं जन्म सन्ततदानवारिणा निरंतरदानरूपजलेन पुनीहि पवित्रं कुरु ।। ७१ ॥ युग्मम् ।
स्फुरन्महाः प्राज्यरसोपभोगतो,
गतो न जाड्यं द्युतिहेतुहेतिभृत् । तव ज्वलद्वतिविलोकनात्सुतो,
द्विषः पतङ्गानिव धक्ष्यति क्षणात् ॥ ७२ ॥ स्फुर० हे प्रिये ! तव सुतः ज्वलद्वह्रिविलोकनात् निधूमवैश्वानरदर्शनात् द्विषः शत्रून् पतङ्गानिव क्षणात् धक्ष्यति भस्मी-१५ करिष्यति । किं विशिष्टस्तव सुतः । वहिश्व ? प्राज्यरसोपभोगतः प्राज्या प्रभूता रसा पृथ्वी, पक्षे प्रकृष्टः आज्यरसः तस्याश्च तस्य उपभोगतः स्फुरन्महाः प्रसरतेजाः, पुनः किंलक्षणं जाड्यं१४ जडत्वं मूर्खत्वं शीतत्वं वा न गतः, द्युतिहेतुहेतिभृत् द्युतिहेतवो हेतयः प्रहरणानि ज्वाला वा ता धरतीति द्युति० ॥ ७२ ॥
प्रभो न मां कोऽप्युपलक्षयिष्यति, - क्षितौ चिरागोचरमागतोऽसि यत । जै० कु. २१
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३२२ जैनकुमारसंभवं [नवमः
मनुष्व मूर्ति मम तैजसीमिमां,
महानसि स्थापय तन्महानसे ॥ ७३ ।। जने जियत्सौ यदतीव जीवनं, ___ मयैव तद्भक्ष्यमुपस्करिष्यते ।
इति स्वरूपं किममुष्य भाषितुं, ६ भुवि प्रविश्यन्ननलोऽस्फुरत्पुरः ॥ ७४ ॥
युग्मम् । प्रभो० अनलो वैश्वानरः अमुष्य तव पुत्रस्य इति भाषितुं ९भुवि पृथिव्यां प्रविश्यन् प्रवेष्टुकामः सन् पुरोडो अस्फुरत् , इतीति किं ? हे प्रभो! क्षितौ पृथिव्यां मां कोऽपि न उपलक्षयिष्यति यत् अहं चिरात् गोचरं दृष्टिमार्ग आगतोऽस्मि, मम १२ इमां तैजसीं मूर्ति मनुष्व जानीहि, त्वं महान् असि, तत्
तस्मात् कारणात् मां महानसे पाकस्थाने स्थापय । जिघत्सौ
बुभुक्षिते जने लोके यद्भक्ष्यं अतीव जीवनं वर्तते तद्भक्ष्य १५ मयैवोपस्करिष्यते ॥ ७३-७१ ॥ युग्मम् ।।
सुदुर्वचं शास्त्रविदामिदं मया,
फलं खसंवित्तिबलादलापि ते । १४ दुरासदं यद् व्यवसायसोष्मणां,
सुखं तदाकर्षणमात्रिकोऽश्नुते ॥ ७५ ॥ सुदु० हे प्रिये ! इदं खमफलं मया ते तव खसंवित्तिबलात् खीयज्ञानबलात् , अलापि प्रोक्तं, किंलक्षणं खमफलं ? २२ शास्त्रविदां सुदुर्वचं वक्तुमशक्यं व्यवसायसोष्मणां व्यवसाय
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सर्गः] टीकया सहितम्
३२३ सोष्मणां सगर्वाणां यद्वस्तु दुरासदं दुःप्रापं वर्त्तते तद्वस्तु आकर्षणमात्रिक आकृष्टिमन्त्रिज्ञाः सुखं अनुते प्राप्नोति ॥ ७५ ॥
व्यलीकता दूषणमुत्तमे न मे,
मुखप्रियत्वेन गिरोऽधिरोप्यताम् । सुवर्णनाना हि समर्पिता रिरी
भवेत्स्वरूपाधिगमेऽधिकार्तये ॥ ७६॥ ६ व्यली. हे उत्तमे ! त्वं मे मम गिरो वाण्या मुखप्रियस्वेन व्यलीकता अलीकत्वदूषणं न अधिरोप्यतां मा स्थाप्यता, रिरी पित्तला हि निश्चितं सुवर्णनाम्ना समर्पिता समीप-९ खरूपाधिगमे खरूपे ज्ञाते सति अधिकार्तये अधिकपीडायै भवेत् ॥ ७६ ॥
इदं वदन्तं भगवन्तमन्तरा
लयं नमःस्था ऋभवो भवन्मुदः। सुमैरसिञ्चन् जय संशयक्षया
मयागदंकारवरेति वादिनः ॥ ७७॥ १५ इदं० नभःस्था आकाशस्था ऋभवो देवाः भवन्मुदो जायमानहर्षाः सन्तः अन्तरालयं आवासस्य अन्तर्मध्ये इदं वदन्तं भगवन्तं सुमैः कुसुमैरसिञ्चन् , किंलक्षणा ऋभवः ? हे संशय-१८ क्षयामयागदंकारवर! संदेहरूपक्षयरोगस्य राजवैद्य त्वं जय इति वादिनः ।। ७७ ॥
श्रुत्वेदं दयितवचः प्रमोदपूर्त्या,
दधे सा समुदितकंटकं वपुः स्वम् । २२
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३२४
जैनकुमारसंभवं
[नवमः
पभिन्या निजमुखमित्रपत्रमातु
यकतुं किमिह स कंटकत्वदोषम् ॥ ७८ ॥ ३ श्रुत्वे० सा सुमङ्गला इदं दयितवचः खभर्तुः श्रीऋषभदेववचनं श्रुत्वा प्रमोदपूर्त्या हर्षपूरेण खं वपुरात्मीयं शरीरं समुदितकंटकं उद्गतरोमाञ्चं दर्भे धरति स्म, किं कर्तुं ? निज६ मुखमित्रपद्ममातुः आत्मीयमुखसत्कमित्रकमलस्य जनन्याः पद्मिन्या इह जगति किं सकण्टकत्वदोष न्यक्कत्तु निराकर्तु ॥ ७८ ॥ ९ तामेकतोऽमृतमयीमभितश्चकार,
स्वमार्थसम्यगुपलब्धिभवः प्रमोदः ।
चक्रेऽन्यतश्च दवदाहमयीं विषादः, १२ प्राणेशितुर्वचनपानविरामजन्मा॥ ७९ ॥
तामे० खमार्थसम्यगुपलब्धिभवः समानां अर्थस्य सम्यक् प्राप्तेरुत्पन्नप्रमोदतां सुमङ्गलां अभितः समंततः एकतोऽमृत१५मयीं चकार, अन्यतश्च प्राणेशितुः श्रीऋषभदेवस्य वचनपानविरामजन्मा वचनरूपामृतस्य पानं तस्य विरामे निवर्त्तनं,
तस्माद् उत्पन्नो विषादो दवदाहमयीं चके ॥ ७९ ॥ १८ न हि बहिरकरिष्यद्वक्षसोऽस्याः स्तनाख्यं ।
यदि तरुणिमशिल्पी मण्डपद्वन्द्वमुच्चैः । तदिह कथममास्यल्लास्यलीलां दधानं प्रभुवचनसुताप्तिस्फीतमानन्दयुग्मम् ॥ ८॥
. इति ।
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सर्ग: ]
टीका सहितम्
३२५
न० तरुणिमशिल्पी यौवनरूपविज्ञानी अस्याः सुमङ्गलायाः स्तनाख्यं मण्डपद्वन्द्वं उच्चैरत्यर्थं यदि वक्षसो हृदयात् बहिर्न हि अकरिष्यत्, तत्तदा इह वक्षसि आनन्दयुग्मं कथं ३ अमास्यत्, किं कुर्वाणमानन्दयुग्मं ? लास्यस्य ताण्डवस्य लीलां दधानं, पुनः किंवि० प्रभुवचनसुताप्तिस्फीतं श्रीऋषभदेववचनं सुताप्तिश्च ताभ्यां प्रौढं ॥ ८० ॥
इति श्रीमदञ्च गच्छे कविचक्रवर्ति श्री जयशेखरसूरिविरचिते श्री जैनकुमारसंभवस्य तच्छिष्य श्री धर्मशेखरसूरिविरचितटीकायां श्रीमाणिक्यसुन्दर सूरिशोधितायां नवमसर्गव्याख्या समाप्ता ॥ ९ ॥
सर्गः 1
अथ दशमः
साथ नाथवदनारविन्दतो, वाङ्मरन्दमुपजीव्य निर्भरम् ।
उञ्जगार मृदुमंजुलां गिरं,
गौरवादिति सदालिवल्लभा ॥ १ ॥
साथ० अथानन्तरं सा सुमङ्गला गौरवात् मृदुमञ्जुलां सुकुमारां मनोज्ञां गिरं वाणीं उज्जगार उद्गिरति स्म, किंलक्षणा सुमङ्गला ? सदालिवल्लभा सदा सर्वदा आलयः सख्यः तासां १८ वल्लभा अभीष्टा अलिवल्लभा भ्रमरीसमाना, किं कृत्वा ? नाथवदनारविन्दतो खामिनो मुखकमलात् वाकारन्दं वचनमकरन्दं निर्भरं उपजीव्य ॥ १ ॥ लब्धवर्णजन कर्णकर्णिका, वाञ्छितार्थफलसिद्धिवर्णिका ।
१२
१५
२१
२३
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१२
जैनकुमारसंभवं
दीधितिर्धृतजडिनि पावकी, वाग्विभो जयति कापि तावकी ॥ २ ॥
३ लब्ध० हे विभो ! खामिन् कापि तावकी त्वदीया वाक् जयति, किंलक्षणा वाक् ? लब्धवर्णजनकर्णकर्णिका लब्धवर्णजना विद्वज्जनास्तेषां कर्णयोः कर्णिका कर्णाभरणं, पुनः किं० ६ वाञ्छितार्थ फलसिद्धिवर्णिका स्पष्टं, पुनः किं० ? घृतजडिनि घृतजाड्ये पुरुषे पावकी पावकस्येयं पावकी वह्निसंबन्धिनी दीधितिः कान्तिः ॥ २ ॥
૧૮
३२६
२२
रूपमीश समकं दिदृक्षते, तावकं यदि सहस्रलोचनः । ईहते युगपदञ्चनं च ते, चेत्सहस्रकर एव नापरः ॥ ३ ॥
रूप हे ईश ! तावकं रूपं यदि दिदृक्षते विलोकयितुमीहते तर्हि सहस्रलोचन इन्द्र एव नापर: दिदृक्षते इत्यत्र " स्मृदृशः " १५ इति व्याकरणसूत्रेण आत्मनेपदं च अन्यत् चेत् यदि ते तव युगपदं वनं युगपत् समकालं अञ्चनं पूजनं ईहते. वाञ्छति, तदा सहस्रकरसूर्य एव न अपरः ॥ ३ ॥
"
[ दशमः
यो बिभर्ति रसना सहस्रकं, व्याहतत्वमधिरोप्य सोऽप्यलम् । देव वक्तुमखिलान्न ते गुणा
न्मादृशः किमबलाजनः पुनः ॥ ४ ॥
यो० हे देव ! यो व्याहतत्वं द्विगुणत्वं अधिरोप्य रसना -
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सर्गः ]
टीकया सहितम्
३२७
सहस्रकं जिह्वासहस्रं अधिरोप्य बिभर्चि, सोऽपि शेषनागः तव अखिलान् समस्तान् गुणान् वक्तं न अलं न समर्थः, मादृशो मत्सदृशः अबलाजनः किं पुनः ॥ 8 ॥
घीधनोचितभवद्गुणस्तवाद्वारकेsपि निजजाब्वचिन्तने । उच्यते किमपि नाथ यन्मया, भक्तितन्मयतयाऽवधार्यताम् ॥ ५ ॥
घी० हे नाथ ! यन्मया निजजाड्यचिंतने आत्मीय मूर्खत्वचिन्तने धीधनोचितभवद्गुणस्तवात् विद्वज्जनयोग्यत्वदीयगुण - ९ स्तवात् वारकेऽपि सति किमपि उच्यते कथ्यते, तत् भक्तितन्मयतया अवधार्यतां ज्ञायतां ॥ ५ ॥
स्वादुतां मृदुलतामुदारतां, सर्वभावपटुतामकूटताम् ।
शंसितुं तव गिरः समं विधिः, किं व्यधान्न रसनागणं मम ॥ ६ ॥
किन्तु ते हृदि गभीरतागुणं, शिक्षितुं वसति दुग्धसागरः ।
खादु० ० हे नाथ ! विधिर्विधाता तव गिरो वाण्यः स्वादुतां सुखादुत्वं मृदुलतां सौकुमार्यत्वं, उदारतां औदार्यं सर्वभाव - पटुतां सर्वभावेषु पठिष्ठतां, अकूटतां सत्यतां, समं समकालं, १८ शंसितुं स्तोतुं मम रसनागणं, जिह्वासमूहं किं न व्यवात् न अकरोत् ॥ ६ ॥
१२
१५
२२
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३२८
जैनकुमारसंभवं [दशमः ईदृगुक्तिपयसां यदूर्मयो,
विस्फुरन्ति बहिराननाध्वना ॥७॥ ३ कि० यत् ईदृग् उक्तिपयसां ईदृशवचनदुग्धानां उर्मयः कल्लोला आननाध्वना मुखमार्गेण बहिर्विस्फुरन्ति प्रसरन्ति ॥७॥
खस्थमेव सुखयन्त्यहो जनं,
दुःखितेष्वपि सुखं ददानया । विभ्यतीव भवतो जिता गिरा,
किं सुधा न वसुधामियति सा ॥८॥ ९ खस्थ० हे नाथ ! भवतो गिरा त्वदीयवाण्या जिता सती
सा सुधा वसुधां पृथ्वी किं न इयर्ति नागच्छति, उत्प्रेक्ष्यतेबिभ्यतीव भयभ्रान्तेव, किं कुर्वाणया तव गिरा ? अहो इत्याश्चर्ये १२ दुःखितेष्वपि सुखं ददानया, किं कुर्वती सुधा ? खस्थमेव खर्गस्थं सुखिनमेव जनं सुखयन्ती ॥ ८॥ वैधवं ननु विधिय॑धात्सुधा
सारमत्र सकलं भवद्भिरि । पूर्णिमोपचितदेहमन्यथा, ... तं कथं व्यथयति क्षयामयः॥९॥ १८ वैध० हे नाथ ! विधिविधातो वैभवं विधोरिन्दोः वैभवं
चन्द्रसत्कं सुधासारं, सकलं संपूर्ण, अत्र अस्यां भवगिरि त्वद्वाण्यां न्यधात् क्षिप्तवान्, अन्यथा क्षयामयः क्षयरोगः तं
चन्द्र पूर्णिमोपचितदेहं पूर्णिमायां पुष्टदेहं कथं व्यथयति २९पीडयति ॥ ९॥
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सर्गः ]
टीकया सहितम्
बद्धधारममृतं भवद्वचो निर्व्यपायमभिपीय साम्प्रतम् । प्रीतिभाजिनि जनेऽत्र नीरसा, शर्करापि खलु कर्करायते ॥ १० ॥
बद्ध ० हे नाथ! शर्करा अपि अत्र मल्लक्षणे जने नीरसा सती, सांप्रतं अधुना खलु निश्चितं कर्करायते कर्करवदाचरति, किं ६ विशिष्टे जने ? बद्धधारममृतं भवद्वचः निर्व्यपायं निर्विघ्नं यथा भवति तथा अभिपीय पीत्वा प्रीतिभाजिनि ॥ १० ॥
प्राक्कषायकलुषं ततो घनं, घोलनार्पितरसं विनाशि यत् ।
तद्रिपूकृतघनागमं समं,
नाम्रमीशवचसामनीदृशाम् ॥ ११ ॥
प्राक्क० तत् आम्रं आम्रफलं ईशवचसां खामिनो वचनानां समं सदृशं न भवति, किंविशिष्टानां ईशवचसां अनीदृशां न अनेन आम्रफलेन सदृशानां, किंविशिष्टं आम्रं ? रिपूकृत- १५ घनागमं रिपुः कृतो घनागमो वर्षतुः सिद्धान्तो वा येन तत्, भगवद्वचनमागमं मन्यते, अत एव अनीदृशत्वं यत् आम्रफलं प्राक् पूर्वं कषायकलुषं भगवद्वचो नैवंविधं स्यात्, ततस्त- १५ तोऽनन्तरं यत् आम्रं घनं अत्यर्थं घोलनार्पितरसं विनाशि विनश्वरं वर्त्तते ॥ ११ ॥
द्राक्षया किल यदानुशिक्ष्यते, स्वं फलं मधुरतां भवद्भिरः ।
३२९
१२
२२.
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३३०
जैनकुमारसंभवं [दशम: तत्तदा द्रुतमितो वियोज्यते,
वेधसा ध्रुवममन्दमेधसा ॥ १२॥ ३ द्राक्ष हे नाथ! किल इति सत्ये, खं फलं आत्मीयफलं भवगिरः त्वदीयवाण्या मधुरतां अनुशिक्ष्यते तदा तस्मिन्नवसरे तत्फलं इतो द्राक्षावल्लीतः द्रुतं शीघ्रं अमन्दमेघसा बहु६ प्रज्ञावता मेधसा ब्रह्मणा ध्रुवं निश्चितं वियोज्यते पृथक्क्रियते ॥ १२॥
वारिवाहवदलं तव श्रव:
पल्वलप्रमभिवर्षतः सतः। निश्यधीश शममाम मामकं,
संशयान्धतमसं तदद्भुतम् ॥ १३ ॥ १२ वारि० हे अधीश! तव वारिवाहवत् मेघवत् अलं अत्यर्थ
श्रवःपत्वलं अत्र णमप्रत्यये 'वृष्टिमाने ऊलुक् च वा' इति सूत्रेण
पूर इत्यस्य ऊलोपे एष प्रयोगः स्यात् , रसं कर्णसरःपूरं १५ यथा भवति तथा अभिवर्षतः सतः, निशि रात्रौ मामकं मदीयं संशयान्धतमसं संदेहान्धकारं शमं आम जगाम, तत् अद्भुतं
आश्चर्य ॥ १३ ॥ १०
निर्गतं यदि तवाननाद्वचा,
क्षीणमेव तदशेषसंशयः । कोशतोऽसिरुदितो भटस्य चे
नष्टमेव तदसत्वदस्युभिः ॥१४॥ २२ निर्ग० हे नाथ ! यदि तवाननात् त्वद्वचो निर्गतं तत् अशेष
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सर्गः] टीकया सहितम् संशयैः समस्तसन्देहैः क्षीणमेव, चेत् यदि कोशतः परीवारात् भटस्य असिः खड्नः उदितो निर्गतः स्यात् , तत् असत्त्वदस्युभिनिःसत्त्वशत्रुभिः नष्टमेव ॥ १४ ॥ तावकेऽपि वचने श्रुति गते,
यस्य मानसमुदीर्ण संशयम् । मुष्टिधामनि मणौ सुधाभुजां,
तस्य हन्त न दरिद्रता गता ॥ १५॥ ताव० हे नाथ! तावकेऽपि वचने श्रुति कर्ण गते सति यस्य मानसं चित्तं उदीर्णसंशयं गतसंदेहं न वर्तते, तस्य ९ पुंसो मुष्टिधामनि मुष्टिस्थिते सुधाभुजां मणौ चिंतामणौ हंत इति वितर्के दरिद्रता न गता ॥ १५ ॥ यत्चयोच्यत तथैव तन्महे,
१२ तन्महेश निजहृद्यसंशयम् । कम्पते किल कदापि मन्दरो,
मन्दरोष न पुनर्वचस्तव ॥१६॥ १५ यत्त्व० हे महेश ! यत् त्वया औच्यत प्रोक्तं तत् तथैव असंशयं निःसन्देहं वयं तन्महे विस्तारयामः, 'अविशेषणे द्वौ चासद' इति पदेन एकवचने बहुवचनं, किल इति सत्ये १० हे मन्दरोष ! मन्दरो मेरुः कदापि कम्पते, पुनस्तव वचो न कम्पते ॥ १६ ॥
शैलसागरवनीभिरस्खलत्पक्ष्ममात्रमिलनान्नियंत्रितम् ।
२२
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३३२
जैनकुमारसंभवं [दशमः ज्ञानमेकमनलीकसङ्गतं,
नेत्रयुग्ममतिशय्य वर्तते ॥ १७ ॥ ३ शैल० हे नाथ ! एकं ज्ञानं नेत्रयुग्मं अतिशय्य जित्वा वर्तते, किंलक्षणं ज्ञानम् ? अनलीकसङ्गतं नेत्रयुग्मं तु अलीकेन ललाटेन संगतं मिलितं भवति, पुनः किं० शैलसागरवनीकभिरस्खलत् पर्वतसमुद्रमहद्वनादिभिः स्खलनां न प्राप्नुवन् , किंलक्षणं नेत्रयुग्मं ? पक्ष्ममात्रमिलनान्नियंत्रितं स्पष्टं ॥ १७ ॥
पात्रतैलदशिकादिभिर्वल.
निःसहायमधिकायितस्य ते ।। अश्रुते न खलु कजलध्वज
श्चिन्मयस्य महसः शतांशताम् ॥ १८ ॥ १२ पात्र. हे नाथ! कजलध्वजो दीपः खलु निश्चितं ते तव चिन्मयस्य ज्ञानरूपस्य महसस्तेजसः शतांशतां न अश्नुते न
प्राप्नोति, किंविशिष्टो दीपः? पात्रतैलदशिकादिभिः पात्रतैल१५ वर्तिप्रमुखैरुपकरणैर्बलत् दीप्यमानः, किंविशिष्टस्य महसः ?
निःसहायं साहायरहितं यथा भवति तथा अधिकायितस्य - आधिक्यं प्राप्तस्य ॥ १८ ॥ १० सर्वतो विकिरितोऽपि कौमुदीं, ... यस्य शाम्यति न कालिमा हृदः । स स्पृशत्यपि न ते तमस्विनी- .
वल्लभः स्वपरभासि चिन्महः ॥ १९ ॥ २२ सर्व० सर्वतः सर्वपार्श्वतः कौमुदीं ज्योत्लां विकिरतोऽपि
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सर्गः] टीकया सहितम्
३३३ विस्तारयतोऽपि यस्य चन्द्रमसः हृदो हृदयसंबन्धिकालिमा न शाम्यति, स तमखिनीवल्लभश्चन्द्रस्ते तव चिन्महो ज्ञानतेजः स्पृशत्यपि न, किं किंचिन्महः खपरं भासि खस्य आत्मनः परस्य अन्यस्य भासि प्रकाशकं ॥ १९ ॥
जाड्यहेतुनि हिमतुसंकटे,
याति याऽतिकृशतां रवेः प्रभा । तां गिरस्तव सदैव दिद्युतो,
लजते बत सपत्नयन कः ॥२०॥ जाड्य० हे नाथ! या रवेः सूर्यस्य प्रभा जाड्यहेतुनि जडत्व-९ कारणे हिमर्तुसंकटे सति अतिकृशतां याति, तां प्रभां सदैव दिद्युतो देदीप्यमानायास्तव गिरो वाण्याः, बत इति वितर्के, सपत्नयन् सदृशीकुर्वन् कः पुमान् न लज्जते अपि तु सर्वः १२ कोऽपि लज्जते । दिद्युत् इति निपातो ज्ञेयः ॥२०॥ बिभ्रता मतिमतीन्द्रियां त्वया, वस्तुतत्त्वमिह यन्निरोच्यते ।
१५ नेतरेतदपरेण जन्तुना,
दुर्वचं प्रतनुबुद्धितन्तुना ॥ २१ ॥ बिभ्र० हे नेतः खामिन् यत् त्वया इह जगति अतीन्द्रियां 16 इन्द्रियातीतां मतिं बुद्धिं बिभ्रता ध्रियमाणेन वस्तुतत्त्वं इह निरौच्यते प्रोचे, एतत् वस्तुतत्त्वं अपरेण जन्तुना प्रतनुबुद्धितन्तुना कृशबुद्धितन्तुकेन दुर्वचं वक्तुमशक्यं ॥ २१॥ २॥
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जैनकुमारसंभवं
अस्तु वास्तवफलस्य वाऽस्तु ते, वाग्लता त्वरितमेवमूचुषी । वासवेश्म निजमाश्रयेति सा, शासनं सपदि पत्युरासदत् ॥ २२ ॥
अ० सा सुमङ्गला निजं वासभवनं आश्रयं इति अमुना ६ प्रकारेण पत्युः श्रीऋषभदेवस्य शासनं आदेशं आसदत् प्राप्त, किंविशिष्टासुमङ्गला हे स्वामिन् ते तव वाग्लता वाग्वल्ली वास्तवफलस्य सम्यक् फलस्य वास्तु स्थानं अस्तु भवतु, ९ एवं ऊचुषी जल्पितवती ॥ २२ ॥ दत्तदक्षिणभुजा निजासने, गर्भगे धरणिपाकशासने । सोदतिष्ठदतनुस्तनावनीभृटीलुलितहारनिर्झरा ॥ २३ ॥
दत्त० सा सुमङ्गला धरणिपाकशासने चक्रवर्त्तिनि गर्भगे १५ उदरस्थे सति निजासने दत्तदक्षिणभुजा सती उदतिष्ठत उत्थिता, किंविशिष्टा सुमङ्गला ? अतनुस्तनावनीभृत् तटीलुलितहारनिर्झरा स्थूलस्तनावेव अवनीभृतौ पर्वतौ तयोस्तटे लुलिताः १८ सविलासा हारा एव निर्झरा यस्याः सा अतनुस्त ० ॥ २३ ॥
३
३३४
१२
२२
फुल्लमल्लिकमिदं वनं किमु, स्मेरकैरवगणं सरोऽथवा । एवमूहविवशा निशामयंत्यश्रमक्रमविकीर्णतारकम् ॥ २४ ॥
[ दशमः
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६
सर्गः] टीकया सहितम् बिभ्यति स्खलनतः शनैः शनैः,
प्रांजलेऽपि पथि मुंचती पदौ । अल्पकेऽपि भवनान्तरे गते, __ स्तानवेन भवनान्तरीयिता ॥ २५ ॥ कौतुकाय दिविषत्पुरन्ध्रिभिः,
खं तिरोहितवतीभिरग्रतः। शोध्यमानसरणिः शिरस्यथा
धीयमानधवलातपत्रिका ॥२६॥ रत्नभित्तिरुचिराशिभासिते
नाध्वना ध्वनितनपुरक्रमा । वायुनावसरवेदिनेव सा, दम्यमानगमनश्रमाञ्चलत् ।। २७॥ १२
चतुर्भिः कलापकम् ॥ फुल्ल • अथानन्तरं सा सुमङ्गला रवभित्तिरुचिराशिभासितेन रवसत्कभित्तिकान्तिसमूहेन दीपितेन अध्वना मार्गेण अचलत् , १५ किं कुर्वती अमुना प्रकारेण ऊह विवशा विचारेण परवशा सती अक्रमविकीर्णतारकं अभ्र आकाशं निमालयन्ती निशामयन्ती, एवमिति किं ? इदं फुल्लमल्लिकं विकसितविच. १४ किलपुष्पं किमु वनं वर्चते, अथवा स्मरकैरवगणं विकखरकुमुदसमूहं सरो वर्तते ॥२४॥ पुनः किं कुर्वती ? स्खलनतो बिभ्यती सती प्रांजलेऽपि सरलेऽपि पथि शनैः शनैः पादौ २१ मुञ्चती अल्पकेऽपि स्तोकेऽपि भवनान्तरे गते सति गतेस्तानवेन लाघवे न भवनान्तरीयिता भवनान्तरत्वमाचरितवती ॥ २५ ॥२३
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जैनकुमारसंभवं
[दशमः
पुनः किंवि० खं तिरोहितवतीभिः दिविषत्पुरन्ध्रीभिर्देवाङ्गनाभिः कौतुकाय अग्रतः शोध्यमानसरणिविलोक्यमान३ मार्गाः, पुनः किंल० शिरसि मस्तके आधीयमानधवलातपत्रिका धार्यमाणा श्वेतछत्रा ॥ २६ ॥ पुनः किं० ध्वनितनपुरक्रमा स्पष्टं, पुनः किं० अवसरवेदिना इव अवसरज्ञ६ सदृशेन वायुना दम्यमानगमनश्रमा निर्गम्यमानश्रमा ॥ २७ ॥ चतुर्भिः कलापकं ॥ कान्तमन्दिरमुपेत्य साचिरा
शंसितार्थपरिपूरिताशया। सारसंमदमहाबलेरिता,
खं निकेतनमियाय नौरिव ॥ २८॥ १२. कान्त० सा सुमङ्गला नौरिव कान्तमन्दिरं कान्तस्य भर्तुः मन्दिरं गृहं कान्तं प्रधान मन्दिरं तटं वा तत उपेत्य प्राप्य खं
आत्मीयं निकेतनं आवासं इयाय, आगता, कथंभूता १५ सा अचिराशंसितार्थपरिपूरिताशया अचिरेण स्तोककालेन
आशंसितः कथितोऽर्थः खमार्थलक्षणस्तेन परिपूरित आशयो
अभिप्रायो यस्याः सा, नौ पक्षे अर्थो द्रव्यं तेन परिपूरित १८ आशयो मध्यं यस्याः सा, सारसंमदमहाबलेरिता सारः
प्रधानः संमदो हर्षस्तस्य महाबलेन महास्थाना ईरिता प्रेरिता पक्षे महाबलो वायुज्ञेयः ॥ २८ ॥
तत्र चित्रमणिदीपदीधिति२२ ध्वस्यमानतिमिरे ददर्श सा।
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सर्गः]
जैनकुमारसंभवं पानशौण्डमिव लुप्तचेतनं,
सुप्तमन्तरखिलं सखीजनम् ।। २९ ॥ तत्र० सा सुमङ्गला तत्र निकेतने पानशौंडमिव सुरा-३ पानमत्तमिव लुप्तचेतनं अंतर्मध्ये सुप्तं अखिलं समस्तं सखीजनं ददर्श, किंविशिष्टे निकेतने ? चित्रमणिदीपदीधितिध्वस्यमानतिमिरे, आश्चर्यमयमणिसत्कप्रदीपकिरणैर्निराक्रियमा-६ णान्धकारे ॥ २९॥
सोऽध्वगत्वचपलाङ्गसङ्गतो
न्मेषिघोषमणिमेखलादिभिः । निद्रया जागरितोऽपि जागरं,
द्रागनीयत तया विना गिरम् ॥ ३०॥ सः० तया सुमंगलया स सखीजनः अध्वगत्वचपलांग- १२ संगतोन्मेषिघोषमणिमेखलादिभिः मार्गगत्वेन चपले अङ्गे गता मिलिता, उन्मेषि घोषा विकखरनादा ये मणिमेखलादयस्तैर्गिरं वाणी विना द्राक् शीघ्रं जागरं अनीयत गृहीतः, १५ किंविशिष्टः सखीजनः ? निद्रया जागरितोऽपि अजगरवदाचरितः ॥ ३०॥
तां ससंभ्रमसमुत्थितास्ततः,
सन्निपत्य परिवQरालयः। उच्छसजलरुहाननां प्रगे,
पद्मिनीमिव मधुव्रतालयः ॥३१॥ ता० ततस्ततोऽनन्तरं आलयः सख्यः ससंभ्रमसमुत्थिताः २२ जै० कु. २२
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टीकया सहितम् [दशमः सत्यः संनिपत्य समुदायं कृत्वा तां सुमङ्गलां परिवब्रुः परिवृण्वन्ति स्म, किंलक्षणां सुमङ्गलां? उच्चसज्जलरुहाननां ३ विकसत्कमलसदृशमुखीं, कामिव ? पद्मिनीमिव, यथा मधुव्रतालयः भ्रमरश्रेणयः प्रगे प्रभाते विकसत्कमलमुखी पद्मिनी परिवृण्वन्ति ॥ ३१ ॥
ऊचिरे त्रिचतुराः पुरस्सरी
भूय भक्तिचतुरा रयेण ताः। तां प्रणम्य वदनेन्दुमण्डला
भ्यासकुड्मलितपाणिपङ्कजाः ॥ ३२ ॥ ऊचि० त्रिचतुरास्तिस्रश्चतस्रो भक्तिचतुरास्ता आलयः सख्यः पुरस्सरीभूय अग्रेभूत्वा तां सुमङ्गलां प्रणम्य रयेण वेगेन १२ ऊचिरे ऊचुः, किंलक्षणाः सख्यः वदनेन्दुमंडलाभ्यास
कुङ्मलितपाणिपंकजाः वदनेन्दुमंडलस्य ? मुखचन्द्रमंडलस्य
अभ्यासे समीपे कुङमलिते कोशीकृते पाणिपंकजे याभिस्ता १५वदनेन्दु० ॥ ३२ ॥
एवमाजनुरसंस्तुतो भवे
द्यः स एव शयितो विमुच्यते । १८ उच्यते किमथवा तव प्रभु
न परस्य परिभाषणोचितः ॥ ३३॥ एव० हे स्वामिनि ! य आजनुरसंस्तुत आजन्म अपरिचितो २१ जनो भवति स एव शयितः सुप्तो विमुच्यते, अथवा तव
किमुच्यते ? प्रभुः खामी अपरस्य परिभाषणोचितः जल्पनयोग्यो २३न वर्तते ॥ ३३ ॥
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सर्गः] जैनकुमारसंभवं ३३९
युक्तमेव यदि वा विनिर्मित
सर्वविद्दयितया त्वया सखि । यत्तमोगुणजिता विमुच्य नो
रुच्यसद्म विकसझना गता ॥ ३४॥ युक्त० हे सखि ! यदि वा अथवा सर्वविद्दयितया सर्वज्ञपत्या त्वया युक्तमेव विनिर्मितं कृतं, यत्तमोगुणजिता तमो-६ गुणेन निद्रया जिता नो अस्मान् विमुच्य त्वं विकसझनाः सती रुच्यसझ भर्तुर्गृहं गता ॥ ३४ ॥ त्वामविझ न वयं विनिर्यतीं,
जातसिद्धिमिव ही प्रमद्वराः। मन्तुमेतमनपेतचेतना,
दध्महे स्वहृदि शल्यवत्पुरा ॥ ३५ ॥ १२ त्वाम० हे स्वामिनि! ही इति खेदे वयं प्रमद्वराः प्रमादिन्यः त्वां जातसिद्धिमिव, दृष्ट्यावरणादिसिद्धिमिव विनिर्यतीं निर्गच्छन्तीं न विद्म न ज्ञातवत्यः, एवं मन्तुं अपराध अनपेत-१५ चेतना गलितचेतनाः सत्यो वयं खहृदि शल्यवत् पुरा दध्महे धारयामः, 'पुरा यावतो वर्तमाना' ॥ ३५ ॥ विश्ववन्द्यवधु पारिपार्श्विको
ऽस्त्येव ते सततमप्सरोजनः । वेधसा हि वयमेव वश्चिता,
यत्कृता भवदुपासनादहिः ॥३६॥ विश्व० हे विश्ववन्द्यवधु त्रिभुवनाधीशदयिते ! अप्सरोजनः २२
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३४०
टीकया सहितम् [दशमः देवाङ्गनासमूहस्ते तव सततं निरंतरं पारिपार्श्विकः समीप
खोऽस्त्येव हि निश्चितं वेधसा ब्रह्मणा वयमेव वञ्चिताः, यत् ३ वयं भवदुपासनात् बहिष्कृताः ॥ ३६ ॥
कार्यमेतदजनिष्ट किं तवा__ कसिकं विमलशीलशालिनि । यत्पुरा व्रजसि चाटुकोटिभि
भवेश्म तदगाः स्वयं यतः॥ ३७॥ कार्य० हे विमलशीलशालिनि निर्मलशीलशोभिते ! एतत् ९ कार्य तव किं आकस्मिकं अजनिष्ट जातं, यत् पुरा पूर्व चाटुकोटिभिर्भर्तृवेश्म व्रजसि तदगाः यतो यस्मात् कार्यात् तत् खयमागतवती ॥ ३७॥ तद्भविष्यति फलोदये स्फुटं
गूढचारिणि चिरादपि खयम् । किन्तु नः प्रकृतिचञ्चलं मनः
काललालनमियन्न सासहि ।। ३८॥ तद्भ० हे गूढचारिणि प्रच्छन्नगमने ! तत् कार्य चिरादपि बहुकालतोऽपि वयं आत्मना फलोदये सति स्फुटं प्रकटं १८ भविष्यति, किन्तु नोऽस्माकं प्रकृतिचञ्चलं खभावेन चपलं मनः इयत् काललालनं कालविलम्बनं सासहि न सहते ॥ ३८॥ सिञ्च नस्त्वमखिलाः खकार्यवाक्
शीकरैः समयभङ्गतापिताः । सर्वदैकहृदयं सखीगणं,
मा पृथग्गणनयाऽवजीगणः॥ ३९ ॥
१५
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सर्गः]
जैनकुमारसंभवं
३४१
सिञ्च० त्वं समयभङ्गतापिताः मर्यादाभनेन तापयुक्ता नोऽस्मान् अखिलाः समस्ताः सखी: खकार्यवाक्शीकरैरात्मीयकार्यवचनरूपजलकणैः सिञ्च, सर्वदैकहृदयं सखीगणं मा ३ पृथग्गणनया अवजीगणः मा अवगणय ॥ ३९ ॥
सा सखीभिरिति भाषिता रमे
वोरुपद्ममणुपद्मवेष्टितम् । अध्यशेत शयनं समन्ततः
सन्निविष्टवरविष्टरावलि ॥ ४०॥ सा० सा सखीभिरिति अमुना प्रकारेण पूर्वोक्तप्रकारेण ९ जल्पिता भाषिता सती शयनं पत्यत अध्यशेत आश्रिता, किंलक्षणं शयनं ? समन्ततः सर्वतः सन्निविष्टवरविष्टरावलि सन्निविष्टा स्थिता प्रशस्यमञ्चिकागब्दिकामूटकसिंहपीठादि १२ आसनानां श्रेणियंत्र तत् , सुमङ्गला केव ? रमा लक्ष्मीरिव, यथा रमा अणुपद्मवेष्टितं लघुकमलपरिवृतं ऊरुपमं बृहत्कमलं आश्रयति ॥ ४० ॥
१५ एकमूलकमलद्वयाभयो___ स्तत्पदोरुपरि पेतुरुत्सुकाः । हेमहंसललनागरुच्छ्यिो
लालनाय शतशः सखीकराः॥४१॥ एक० शतशः सखीकराः शतसंख्याकाः सखीसत्कहस्ताः, उत्सुकाः सन्तः लालनाय प्रतिपालनाय तस्याः सुमङ्गलायाः पादयोरुपरि पेतुः पतिताः, किं विशिष्टयोस्तयोः ? एकमूलकमल-२२
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३४२
टीकया सहितम्
[ दशमः
द्वयाभयोः एकमेव मूलं च यत्कमलद्वयं च तत्सदृशयोः, किंलक्षणाः सखीकराः ? हेमहंसललनागरुच्छ्रियः हेमहंसललनाः ३ सुवर्णहंस्यस्ता सांगरुतः पक्षीः तद्वत् श्रीः शोभा येषान्ते हेम० ॥ ४१ ॥
पाणिपूरपरिमर्द मर्दना - हेतुमप्यपगतश्रमत्वतः । सालिपालिमरुणन तन्मनोरङ्गभङ्गभयतोऽतिवत्सला ॥ ४२ ॥
पाणि० सा सुमङ्गला तन्मनोरंगभङ्गभयतः सालिपालि सखीगणं पाणिपूरपरिमर्द मर्द्दनं अरुणत् न रुणद्धि स्म, रुधिधातोर्द्विकर्मकत्वात् इदं रूपं, किंविशिष्टं पाणिपूरपरिमर्द१२ अर्दनाहेतुं पीडाकरमपि ॥ ४२ ॥ स्वमवीक्षणमुखामुषाभरे, भर्तृवेश्मगतिहेतुदां कथाम् । तासु सासनगतासु विस्तृत
श्रोत्रपात्रपरमामृतं व्यधात् ॥ ४३ ॥
९
१५
स्वप्न० सा सुमङ्गला आसनगतासु तासु सखीषु उषाभरे १८ रात्रिमध्यभागे खमवीक्षणमुखां स्वप्नावलोकनप्रमुखां भर्तृवेश्मगतिहेतुदां प्रियगृहे गमनकारणदायिनीं कथां विस्तृत श्रोत्रपात्रे विस्तीर्ण कर्णरूपपात्रेषु परमामृतसमानां व्यधात् कृतवती ॥४३॥ तोषविस्मयभयः सखीमुखादुध कलकलः स कथन |
२२
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सर्गः]
जैनकुमारसंभवं अन्तरालयकुलायशायिभि
र्येन जागरितमण्डजैरपि ॥४४॥ तोष० तोषविस्मयभवः हर्षविस्मयादुत्पन्नः सखीमुखात् ३ स कश्चन कलकलः कोलाहल उद्ययौ उदयं प्राप, येन उदयेन अन्तरालयकुलायशायिभिः गृहमध्ये नीडशयनशीलैरंडजैरपि पक्षिभिर्जागरितं जागर्यते स्म ॥ ४४ ॥
स्वममेकमपि सालसेक्षणा,
किं विचारयितुमीश्वरीदृशम् । उल्लसत्तमसि यन्मनोगृहे,
सञ्चरन्त्यपि बिभेति भारती ॥४५॥ खन० सा अलसेक्षणा स्त्री ईदृशं स्वप्नं एकमपि विचारयितुं किं ईश्वरी समर्था वर्तते ? अपि तु नैव, यन्मनोगृहे भारती १२ सरखती संचरन्त्यपि बिभेति, किंविशिष्टे यन्मनोगृहे ? उल्लसत्तमसि अज्ञानरुपान्धकारे सान्धकारे वा ॥ ४५ ॥ वर्णयेम तव देवि कौशलं,
यत्प्रकृत्यकृतिनीरुपेक्ष्य नः। देवदेववदनादनाकुलं,
स्वमसूनृतफलं व्यबुध्यथाः ॥ ४६॥ वर्ण० हे देवि! वयं तव कौशलं वर्णयेम वर्णयामः यत् त्वं प्रकृत्यकृतिनीः खभावेन मूर्खान् नः अस्मान् उपेक्ष्य देवदेववदनात् श्रीऋषभमुखात् अनाकुलं यथा भवति तथा स्वामसूनृतफलं व्यबुध्यथाः ज्ञातवती ॥ १६ ॥
२२
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३४४
टीकया सहितम् [दशमः नाथवक्त्रविधुवाकरोंभित
स्त्वत्प्रमोदजलधिः सदैधताम् । ३ एवमालपितमालिभिर्वचा,
शुश्रुवे श्रुतिमहोत्सवस्तया ॥४७॥ नाथ. हे खामिन् ! तत् त्वत्प्रमोदजलधिः त्वदीयहर्ष ६ समुद्रः सदा एधतां वृद्धिं यातु, किंलक्षणः प्रमोदजलधिः । नाथवऋविधुवाकरोंभितः खामिसत्कमुखचन्द्रस्य वचनकरैः
उम्भितः पूरितः आलिभिः सखीभिरेवं आलपितं वचः, तया ९सुमङ्गलया शुश्रुवे श्रुतं, किंरूपं वचः? श्रुतिमहोत्सवः कर्णयोः महोत्सवरूपं ॥ ४७ ॥
वागमिषादथ सुमङ्गला गला
यातहनदजसंमदामृता। आदिशद्दशनदीधितिस्फुटी
भूतमुज्वलमुखी सखीगणम् ॥४८॥ १५ वाग्० अथानन्तरं सुमङ्गला सखीगणं आदिशत्, किंलक्षणा सुमङ्गला ? वाग्मिषात् गलायातहृन्नदजसंमदामृता गला
गतहृदयरूपनदजातहर्षामृता, पुनः किं० उज्वलमुखी, १८ किलक्षणं सखीगणं ? दशनदीधितिस्फुटीभूतं दन्तसत्ककिरणैः प्रकटीभूतं ॥ १८॥
रामणीयकगुणैकवस्तुनो, ___ वस्तुनः सुकरमजेनं जने । भाविविप्लवनिवारणं पुन
स्तस्य दुष्करमुशन्ति सूरयः॥४९॥
१२
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सर्गः] जैनकुमारसंभवं
३४५ राम० हे हलाः! रामणीयकगुणैकवस्तुनः रामणीयकत्वगुणानामकस्थानस्य वस्तुनः, जने लोके अर्जनं उपार्जनं सुकरं सुलभं स्यात्, पुनस्तस्य वस्तुनो भाविविप्लवनिवारणं, सूरयो ३ विद्वांसो दुष्करं उशन्ति, कथयन्ति ॥ १९ ॥
अर्जिते न खलु नाशशङ्कया,
क्लिश्यमानमनसस्तथा सुखम् । जायते हृदि यथा व्यथाभरो,
नाशितेऽलसतया सुवस्तुनि ॥ ५० ॥ आर्जि० हे हलाः! सुवस्तुनि अर्जिते उपार्जिते सति, खलु ९ निश्चितं पुरुषस्य तथा सुखं न जायते यथा अलसतया वस्तुनि नाशिते सति व्यथामरो जायते, किंविशिष्टस्य पुरुषस्य ? नाशशङ्कया क्लिश्यमानपीड्यमानमनसः ॥ ५० ॥
१२ दृष्टनष्टविभवेन वर्ण्यते,
भाग्यवानिति सदैव दुर्विधः। जन्मतो विगतलोचनं जनं,
प्राप्तलुप्तनयनः पनायति ॥५१॥ दृष्ट० सदैव दुर्विधो दरिद्री भाग्यवान् इति वयेते, प्राप्तलुप्तनयनः प्राप्तः लुप्तलोचनः पुरुषजन्मतो जन्म यावत् १८ विगतलोचनं अन्धजनं पनायति स्तवीति, इत्यत्र आत्मनेपदस्याभावात् पनायति भवति ॥ ५१ ॥
हारि मा तदिदमद्य निद्रया,
खमवस्तु मम संमदास्पदम् ।
१२
१५
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टीकया सहितम्
[दशमः
तत्प्रमादमवधूय रक्षितुं,
यामिकीभवत यूयमालयः ॥५२॥ ३ हा० हे हलास्तत् तस्मात् कारणात् संमदास्पदं हर्षस्थानं मम इदं स्वप्नवस्तु निद्रया अद्य मा हारि मा हार्यतां, हे आलयः हलास्तत् वस्तु प्रमाद अवधूय त्यक्त्वा रक्षितुं यूयं यामिकी६ भवत आरक्षीभवन्तु ॥ ५२ ॥
स्वमवस्तु दयतेऽप्यगोचरं,
दत्तमप्यहह हन्ति तामसी । ९ संनिरुध्य नयनान्यचेतसां,
चेष्टते जगति सा यदृच्छया ॥ ५३॥ स्वप्न० सा तामसी तमोमयी रात्रिः अचेतसां पुरुषाणां नयनानि १२ लोचनानि सन्निरुध्य जगति विश्वे चेष्टते, या रात्रिः अगोचरमपि खामवस्तु दयते दत्ते, अहह इति खेदे दत्तमपि हन्ति ॥ ५३॥
वासरे सरसिजस्य जाग्रतो, ___ गर्भमन्दिरमुपेयुषीं श्रियम् । शर्वरीसमयलब्धविक्रमा,
लुम्पतीयमनिमित्तवैरिणी ॥ ५४॥ १८ वास० इयं निद्रा अनिमित्तवैरिणी निनिमित्तवैरकारिणी
वर्चते, या निद्रा शर्वरीसमयलब्धविक्रमा रात्रिसमये लब्धपराक्रमा सती वासरे दिवसे जाग्रतः सरसिजस्य विकसितस्य
कमलस्य गर्भमन्दिरं उपयुषी गतवतीं श्रियं लक्ष्मी २२लुम्पति ॥ ५४ ॥
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सर्गः] जैनकुमारसंभवं ३४७ यद्यसौ भुवनवञ्चनोत्सुका,
स्वमराशिमपहृत्य तादृशम् । दास्यते किमपि गर्हितं तदा,
पत्तने वसति लुण्टितासि हा ॥ ५५ ॥ यद्य० यदि असौ निद्रा भुवनवंचनोत्सुका सती स्वप्नराशि खप्नसमूहं अपहृत्य तादृशं किमपि गर्हितं निंदितं स्वप्नं दास्यते, ६ तदा हा इति खेदे वसति पत्तने लुण्टितास्मि ॥ ५५ ॥
सर्वसारबहुलोहनिर्मितै युष्मदानननिषङ्गनिर्गतैः।
९ वाक्शरैः प्रसरमेत्य धर्मतो,
धर्षितेयमिहमासदत्पदम् ॥ ५६ ॥ सर्व० इयं निद्रा इह मयि विषये पदं स्थानं आसदत् , मा १२ प्राप्नोतु, किंविशिष्टा निद्रा ? धर्मतः पुण्यात् धनुषो वा वाक्शरैः वचनबाणैः प्रसरं एत्य धर्षिता, किंलक्षणैर्वाक्शरैः ? सर्वसारबहुलोहनिर्मितैः सर्वसारः सर्वोत्कृष्टो बहुल ऊहो १५ विचारस्तेन निर्मितैः, पक्षे सर्वसारमयं बहुलोहं तेन निर्मितैः निष्पादितैः, पुनः किं० युष्मदानननिषङ्गनिर्गतैः भवतां मुखरूपतूणकेभ्यो निःसृतैः ॥ ५६ ॥
तत्तदुत्तमकथातरङ्गिणी__भङ्गिमजनकसञ्जचेतसा । नैशिकोऽपि समयो मयोच्यतां,
वासरः खरसनष्टनिद्रया ॥ ५७॥ २२
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टीकया सहितम्
[ दशमः
तत्त० तत् तस्मात् कारणात् खरसनष्टनिद्रया स्वभावगतनिद्रया मया नैशिकोऽपि रात्रिसंबंधी अपि समयः वासरो दिवसः ३ कथ्यतां, किंविशिष्टया मया ? तत्तदुत्तमकथातरंगिणी भंगिमज्जनकसज्जचेतसा ताश्च ताश्च उत्तमकथा एव तरंगिण्यो नद्यस्तासां भङ्गः कल्लोलास्तत्र मज्जनके स्नाने सज्जचेतसा ॥५७॥
३४८
स्वप्रभङ्गभयकम्प्रमानसां,
मां विबोध्य सरसोक्तियुक्तिभिः । जाग्रतोऽस्ति न हि भीरिति श्रुतिनयिषीष्ट चरितार्थतां हलाः ॥ ५८ ॥ स्वम० हे हला इति श्रुतिश्चरितार्थतां सत्यार्थतां नायिषीष्ट प्रापयिष्ट, इतीति किं ? जाग्रतो भीर्नहि स्यात्, किं कृत्वा ? १२ खमभङ्गभयकम्प्रमानसां स्वप्नभङ्गभयेन कंपनशीलचित्तां मां सरसोक्तियुक्तिभिर्विबोध्य जागरयित्वा ॥ ५८ ॥
१५
एवमूचुषि विभोः परिग्रहे, विग्रहे घनरुचिः सखीगणः । धर्मधामगुणगीर्णवाक्शरा
सारमारभत मारभङ्गिवित् ॥ ५९ ॥
धर्मः
१८
एव० सखीगणः धर्मधामगुणगीर्णवाक्शरासारं पुण्यं धनुर्वा धाम स्थानं येषान्ते धर्मधामानः एवंविधा ये गुणा विनयादयः प्रत्यञ्चा वा तेभ्यो गीर्णाः निःसृताः वाक्शरा वचनणास्तेषां आसारं वेगवदृष्टिं आरभत प्रारंभे, क सति ? २२ विभोः स्वामिनः परिग्रहे कलत्रे एवं पूर्वोक्तप्रकारेण ऊचुषि
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सर्गः] जैनकुमारसंभवं ३४९ उक्तवति सखी किंविशिष्टः सखीगणः ? विग्रहे शरीरे घनरुचिः बहुकान्तिः, पक्षे विग्रहे युद्धे धनाभिलाषः, पुनः किंवि० मारभङ्गिवित् मारः कन्दर्पो विघ्नो वा तस्य भङ्गौ ३ विच्छित्तौ निपुणः ॥ ५९॥
प्रागपि प्रचुरकेलिकौतुकी,
सोऽदसीयवचसाऽभृशायत । नीरनाडियुजि किं न वापता
वेति वृष्टिघनतां धनाधनः ॥६०॥ प्राग० स सखीगणः अदसीयवचसाऽभृशायत अमुष्याः ९ सुमङ्गलायाः वचनेन अभृशायत प्रगल्भो बभूव, किंलक्षणः सखीगणः? प्रागपि प्रचुरकेलिकौतुकी अग्रेऽपि बहुक्रीडाविषये कौतुकवान् , नीरनाडियुक्ते वापतौ बृहस्पती धनाधनो मेघः १२ वृष्टिघनतां किं न एति न याति ? अपि तु यात्येव ॥ ६० ।।
सुश्रुताक्षरपथानुसारिणी, ज्ञातसंमतकृताङ्गिकक्रिया।
१५ आत्मकर्मकलनापटुर्जगो,
कापि नृत्यनिरता स्वमार्हतम् ॥६१॥ सुश्रु० कापि सखी नृत्यनिरता सती खं आत्मानं अर्हतं १८ जिनं जगौ, किंविशिष्टा सखी ? सुश्रुताक्षरपथानुसारिणी, मुटु अत्यर्थं श्रुतः कर्णगोचरीकृतः अक्षरपथो वर्णमार्गः तं अनुसरतीत्येवंशीला यादृग् गीतं वाद्यं तादृग् नृत्यमपि स्यात् , पुनः किंवि० ज्ञातसंमतकृतांगिकक्रिया ज्ञाता संमता आंगिकी २२
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३५०
टीकया सहितम्
[दशमः
अंगसंबंधिनी क्रिया यया सा पूर्व गीतवाद्यखरूपं ज्ञातं पश्चात् सम्यगवबुद्धं तदनुमानेन अङ्गसम्बन्धिन्यपि क्रिया कृतेति ३ भावः, पुनः किंवि० आत्मकर्मकलनापटुः आत्मीयनृत्यरूपकर्मणः कलनायां कर्तव्ये पटुः पटिष्ठा या आहती भवति सा तु एवंविधा सुष्ठु शोभनं श्रुतं सिद्धान्तस्तेन अक्षरपथं ६ मोक्षमार्ग अनुसरतीत्येवंशीला ज्ञाता सम्यग्ज्ञानेन संमता सम्यग्दर्शनेन, कृता सम्यग् चारित्रेण आङ्गिकी द्वादशाङ्गसम्बन्धिनी क्रिया यया सा, आत्मजीवः कर्माणि च तत्कलनायां ९ पटुः ॥ ६१ ॥ इति जैनं ।।
सद्गुणप्रकृतिरापचापलं,
__ कापि कापिलमताश्रयादिव । १२ रङ्गयोग्यकरणोघलीलया,
साक्षितामुपगते तदात्मनि ॥ ६२॥ सद्गुण० कापि सखी तदात्मनि तस्यात्मनि साक्षितां सम्यक् १५ परिज्ञानतया साक्षित्वं उपगते सति प्राप्ते सति रङ्गयोग्य
करणौघलीलया रङ्गो रंगभूमिस्तत्र योग्यानां करणानां उत्पतनपतनादिकानां ओघः समूहस्तस्य लीलया चापलं चपलत्वं आप १८प्राप, किंविशिष्टा सखी? सद्गुणप्रकृतिः सद्गुणाः प्रधानविनयादिगुणाः, प्रकृतिः खभावो यस्याः, उत्प्रेक्ष्यते-कापिलमताश्रयादिव, या कापिलमतं सांख्यमतं आश्रयते साप्येवं वक्ति सांख्यमते सत्त्वरजस्तमोलक्षणास्त्रयो गुणाः, तेषां च साम्यावस्था २२ प्रकृतिः प्रधानापरपर्याया उच्यते, सैव सर्वं व्यापार प्रपंच
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सर्गः ]
जैनकुमारसंभवं
३५१
यति, आत्मा च साक्षिमात्रं, ' अकर्ता निर्गुणोऽभोक्ता आत्मा कपिलदर्शने' इति वचनात् इति काव्यार्थः, सद्गुणा विद्यमानसत्वरजस्तमोलक्षणगुणाः प्रकृतिः प्रधानं रंगस्य हर्षस्य योग्यानां ३ करणानां इन्द्रियाणां ओघः समूहः, तस्य लीलया चापलं चपलत्वं प्राप, यथा प्रकृतेर्महान् ततोऽहंकारस्ततः पंचेन्द्रियाणीत्यादि, क सति तदा तस्मिन्नवसरे आत्मनि साक्षितां ६ अकर्तृत्वात् साक्षिमात्रत्वं प्राप्ते सति, यथा नृपे सभानि - विष्टे विलोकयति सति नर्तकी नृत्यं करोति तथाऽत्रापि ज्ञेयं ॥ ६२ ॥ इति सांख्यमतं ॥
तां विधाय शुचिरागसम्भवन्मूर्च्छनाभिरुपनीतमूर्च्छनाम् । सौगतं ध्वनिगतं तदुद्भवाभावदूषणमलुप्त काचन ॥ ६३ ॥
९
तां० काचन स्त्री सौगतं सुगतप्रणीतं ध्वनिगतं शब्दगतं तदुद्भवाभावदूषणं तस्मादुद्भवति, इति अस्य अभावः स १५ एव दूषणं तत् अलुप्त लुंपति स्म, किं कृत्वा ? शुचिरागसंभवन् मूर्च्छनाभिः शुचिः पवित्रः यो रागः श्रीरागादिस्तस्मात् संभवतीभिरेकविंशतिमूर्च्छनाभिस्तां सुमङ्गलां उपनीतमूर्च्छनां प्राप्त - १८ मोहां विधाय कृत्वा, तथा च बौद्धमते सुगतो देवः क्षणक्षणिकं च विश्वं क्षणक्षयत्वात् अमुकं अमुकादुत्पद्यते इति न वक्तव्यं, यतः 'यो यत्रैव स तत्रैव यो यदैव सदैव सः । न देशकाल - योर्व्याप्तिर्भावानामिह विद्यते' । यदि रागात् संभवतीभिर्मूर्च्छ- २२
१२
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३५२
टीकया सहितम्
[दशमः
नाभिस्तस्याः सुमङ्गलाया मूर्च्छना जाता तदा रागस्य क्षणक्षयत्वं नास्ति, यदि रागः क्षणक्षयी स्यात् तदा मूर्च्छना कथमुत्पद्यते? ३ अतः कारणात् ध्वनेः शब्दस्य तस्मादुद्भवस्य अभावः, यथा वन्ध्यायाः पुत्राभावदूषणं, तथा अत्रापि तदुद्भवाभावदूषण लुप्तमिति भावः, रागो ध्वनिस्तदुद्भवाश्च मूर्च्छना ज्ञेयाः॥६॥ ६ इति बौद्धमतम् ॥
तत्त्वषोडशकतोऽधिकं खकं,
गीततत्त्वमुपनीतनिति । व्यञ्जतीह विधिनाच्युतेन का
प्यक्षपादमतमन्यथाकृत ॥ ६४॥ तत्व० कापि स्त्री अक्षपादमतं नैयायिकमतं अन्यथा१२ कृत वैपरीत्यं करोति स्म, नैयायिकमते हि प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तवयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितंडाहे
स्वाभासछलजातिनिग्रहस्थानानि षोडशतत्त्वानि, सृष्टिसंहार१५ कर्ता मोक्षदो देवो महेशः, एवं च सति वैपरीत्यं कथ्यते,
किं कुर्वती कापि स्त्री ? तत्त्वषोडशकतः अधिकं खकीयं गीतं व्यञ्जयन्ती प्रकटयन्ती, किंविशिष्टं गीतं? अच्युतेन अस्ख१० लितेन विधिना उपनीता निर्वृतिः समाधिर्येन तत् , वैपरीत्यपक्षे षोडशतत्त्वेभ्यो अधिकं सप्तदशतत्त्वं कथयति, अच्युतेन
कृष्णेन विधिना ब्रह्मणा उपनीता दौकिता निर्वृतिमोक्षो यत्र २१ एवं वैपरीत्यं ज्ञेयं ॥ ६४ ॥ इति नैयायिकमतम् ॥
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सर्मः] जैनकुमारसंभव ३५३ विश्रुतस्वरगुणश्रुतेः परं,
या प्रपञ्चमखिलं मृषादिशत् । मूर्च्छनासमयसङ्कुचद् दृशां,
सा न किं परमहंसतां गता ॥६५॥ विश्रु० सा स्त्री किं सतां साधूनां परमहं प्रकृष्टं महं उत्सवं न गता अपि तु गता अथवा परमहंसतां मीमांसकभेदं न गता, अपि तु गतेव, यतः-चत्वारो भगवद्भेदाः कुटीचरबहूदको । हंसः परमहंसश्चाधिक्यामीषु परः परः ॥ १ ॥ एके मीमांसका भट्टाः, एके प्राभाकराः, भट्टानां , षप्रमाणानि प्रभाकराणां पञ्च प्रमाणानि, भट्टा प्रभाकराः कर्ममीमांसकाः वेदवादिनः, परे च वेदान्तवादिनो ब्रह्ममीमांसकाः इत्यादिमीमांसकखरूपं ज्ञेयम् ।। अथ काव्यार्थः कथ्यते-१२. या सतां परमहंसगता, सा किंविशिष्टा वर्तते, या स्त्री मूर्च्छनासमये सङ्कुचन्त्यौ दृशौ येषां ते मूर्च्छनासमयसङ्कुचदृशस्तेषां विश्रुतखरगुणश्रुतेः विश्रुता विख्याता खराः १५ सारिगमपधनिरूपाः मन्द्रमध्यतारास्तेषां गुणा ' माधुर्यादयः संगीतोक्त्या तेषां श्रुतेः श्रवणात् परं अन्यं अखिलं समस्तं प्रपञ्चं चक्षुरादीन्द्रियकृतं पदार्थविलोकनादिरूपं (देवतादि-१८ पौरुषेयशास्त्रादिविस्ताररूपं) अलीकं आदिशत्, गीतश्रोतारस्तलयलीनत्वेन गीतमेव शुश्रुवुरिति भावः, परमहंसमतपक्षे या स्त्री विश्वता विख्याता खरा उदात्त-अनुदात्त-खरितरूपा वेदोच्चारविशेषा गुणा बेदोक्ताः कारीरी निर्वपेत् वृष्टिकामः, अनि २१
जै० कु० २३
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३५४
टीकया सहितम्
[ दशमः
होत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः इत्यादिका यस्याः सा एवंविधा श्रुतिः वेदस्तस्याः परं अन्यं अखिलं प्रपञ्चं देवतादिपौरुषेय३ शास्त्रादिविस्ताररूपं मृषा अलीकं आदिशत्, तेषां मते वेदानामेव तत्त्वरूपत्वात्, तन्मते देवतापि मन्त्रमया मन्यन्ते ॥ ६५ ॥ इति मीमांसकमतं ॥
आत्मनः परभवप्रसाधना
भासुरा मिषनिषेधिनैपुणा । गीष्पतेर्मतमतीन्द्रियार्थवि
तत्र काचिदुचितं व्यधाद्वृथा ॥ ६६ ॥
आत्म० काचित् स्त्री गीष्पतेश्चार्वाकस्य मतं तत्र सुमङ्गलाये उचितं युक्तं वृथा निष्फलं व्यधात् कृतवती, चार्वाकमते १२ इन्द्रियार्था एव बहु मन्यन्ते, 'मणुन्नं भोयणं भुच्चा' इत्यादि वचनात् "पिब खाद च चारुलोचने । यदतीतं वरगात्रि ! तन्न ते । नहि भीरु ! गतं निवर्तते समुदयमात्रमिदं कलेवरं ॥ एतावानेव १५ लोकोऽयं यावानिन्द्रियगोचरः । भद्रे वृकपदं पश्य यद्वदन्ति बहुश्रुताः ॥" इत्याद्यागमस्तन्मते चात्मनः परभवो न मन्यते, इत्यादियुतं चार्वाकमतं, सा एवंविधं तन्मतं निराकार्षीत्, १८ सा कथंभूता ? आत्मनः परभवप्रसाधनाभासुरा आत्मनः स्वस्य परेभ्यो भवा स्नानशीर्षप्रथनादिसंभवा प्रसाधना अलंकरणा तया भासुरा देदीप्यमाना, पुनः किंल० मिषनिषेधिनैपुणा मिषं दस्तस्य निषेध निषेधकारकं नैपुणं चातुर्यं यस्याः सा पुनः २२ किं० अतीन्द्रियार्थवित् इन्द्रियातीतान् अर्थान् स्वर्ग नरकद्वीप
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सर्गः] - जैनकुमारसंभवं ३५५ समुद्रकर्मजीवादिपदार्थान् वेत्तीति अतीन्द्रियार्थवित् 'सबोलोगो लोगो सज्झायवियस्सपञ्चक्खो' इत्यागमात् चार्वाकमतनिराकरणपक्षे तु सा कथंभूता ? आत्मनो जीवस्य परभवस्य ३ खर्गनरकादिरूपस्य प्रसाधनं स्थापनं तेन अतिशोभिते इति परभवप्रसाधनभाः, पुनः कथंभूता सा? सुरामिषनिषेधिनैपुणा, सुरा मदिरा आमिषं पलं तनिषेधिनैपुण्यमस्याः सा, एतेन६ पिब खाद च इत्यादिवचनं निराकृतं । अतीन्द्रियार्थवित् अतिकान्तानि इन्द्रियाणि येन स एवंविधो धर्मार्थकाममोक्षेषु सारं इन्द्रियगृद्धिरसरहितो यो धर्मार्थसूत्रवन्निपुणा ॥६६॥ ९ इति चार्वाकमतं ।
तां प्रवीणहृदयोपवीणय
त्येकतानमनसं पुरः परा । निर्ममे खरवं स्ववल्लकी
दण्डमेव मृदुभास्वरस्वरा ॥ ६७॥ तां० प्रवीणहृदया अपरा स्त्री स्ववल कीदण्डमेव आत्मीयं १५ वीणासत्कमेव दण्डं खरवं कठोरशब्दं निर्ममे चकार, किं कुर्वती ? पुरोऽग्रे एकतानमनसं एकचित्तां सुमङ्गला उपवीणयन्ती वीणया गायन्ती, किंलक्षणा अपरा ! मृदुभाखर-१० खरा, सुकुमारो देदीप्यमानश्च खरो यस्याः सा मृदु० ॥६७।। ।
अन्यया ऋषभदेवसद्गुण.. ग्रामगानपरया रयागता । 'लभ्यते स लघु तामुपासितुं,
किं न किनरवधूः खशिष्यताम् ॥ ६८॥ २३
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३५६
टीकया सहित [दशमः अन्य० अन्यया स्त्रिया किन्नरवधूः खशिष्यतां आत्मीयछात्रत्वं किं न लभ्यते स न प्रापिता अपि तु प्रापितैव, किं३ विशिष्टा किन्नरवधूः? लघु शीघ्रं तां सुमङ्गला उपासितुं सेवितुं रयागता वेगेन, किंविशिष्टया अन्यया ! ऋषभदेवसद्गुणग्रामगानपरया, ऋषभदेवस्य कुलीन १ शीलवन्त २ वयस्थ ३ शोचवन्त ४ संततव्यय ५ प्रतिवन्त ६ सुराग ७ सावयवन्त ८ प्रियंवद ९ कीर्तिवन्त १० त्यागी ११ विवेकी १२
शृङ्गारवन्त १३ अभिमानी १४ श्लाघ्यवन्त १५ समुज्वलवेष ९१६ सकलकलाकुशल १७ सत्यवन्त १८ प्रिय १९ अव
दान २० सुगन्धप्रिय २१ सुवृत्तमंत्र २२ कोशसह २३ प्रदग्धपथ्य २४ पण्डित २५ उत्तमसत्व २६ धर्मित्व २७ १२महोत्साही २८ गुणग्राही २९ सुपात्रग्राही ३० क्षमी ३१
परिभावुकश्चेति लौकिक ३२ द्वात्रिंशत् नायकगुणग्रामसमूह
गानतत्परया ॥ ६८॥ १५ आङ्गिकाभिनयविज्ञयान्यया, .
- शस्तहस्तकविहस्तहस्तया ।
एतदीयहदि पूरितं मरु१८ ल्लोलपल्लवलताकुतूहलम् ।। ६९ ॥
आङ्गि० अन्यया स्त्रिया एतदीयहृदि तस्याः सुमङ्गलाहृदये मरुल्लोलपल्लवलताकुतूहलं पूरितवायुवशेन चंचलपल्ल
वलतायाः कौतुकं पूरितं, किंलक्षणया अन्यया ? आङ्गिका२२ मिनयविज्ञया अङ्गसंबन्धि नाव्यविधिस्तत्र चतुरया, पुनः किं.
____
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सर्गः]' जैनकुमारसंभवं शस्तहस्तकविहस्तहस्तया, प्रशस्ताः पताकुत्रिपताकुकर्तरीमुख इत्यादि चतुःषष्टि हस्तकास्तेषु व्याकुलहस्तया ॥ ६९ ।।
अप्युरुस्तननितम्बमारिणी, __- काचिदुल्लसदपूर्वलाघवा। लास्यकर्मणि विनिर्मितभ्रमि. .
निर्ममे विधृतकौतुकं न कम् ॥ ७० ॥ ६ अप्यु० काचित् स्त्री विधृतकौतुकं धृताश्चर्यकं न निर्ममे न कृतवती अपि तु सर्व निर्ममे, किंलक्षणा स्त्री ? उरुस्तननितम्बमारिण्यपि हृदयस्थलस्तनकटीतटाभ्यां भारेण युक्तापि९ लास्यकर्मणि उल्लसत् अपूर्वलाघवा, पुनः किं वे० ? विनिमितभ्रमिः कृतभ्रमणिका ॥ ७० ॥ शृण्वती धवलबन्धबन्धुरं,
१२ स्वामिवृत्तमुपगीतमन्यया। साह कुण्डनवकाधिकं सुधा
स्थानमास्यमिदमीयोव सा ॥ ७१ ॥ १५ शृण्व० सा सुमंगला इदमीयमेव आस्यं अस्याः सख्याः इदं इदमीयं मुखं कुंडनवकाधिकं सुधास्थानं आह स्म, प्रोक्तवती, किं कुर्वती ? सुमङ्गला धवलबन्धबन्धुरं मनोज्ञं धीरोद्धत-१८ १ धीरोदात्त २ धीरललित ३ धीरोपशान्त ४ एतन्नायकगुणचतुष्करूपं खामिवृत्तं श्रीऋषभदेवचरित्रं शृण्वती ॥ ७१ ॥
साधितस्वरगुणा ऋजूभव
देहदण्डतततुम्बकस्तनी।
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टीका सहितम्
कापि नाथगुणगानलालसा, व्यर्थतां ननु निनाय वल्लकीम् ।। ७२ ।।
३ साधि० कापि स्त्री च ननु निश्चितं वीणा विपंची नकुलोष्ठी, किंनरी, शततंत्री, जया हस्तिका, कुब्जिका, कच्छपी, घोषवती, सारंगी, उदुंबरी, तिसरी, ढिबरी, परि६ वादिनी, आलविणिप्रभृतिरूपवल्लकीं व्यर्थतां निरर्थकतां निनाय, किं लक्षणा स्त्री ? नाथगुणगानलालसा श्री ऋषभदेवसत्कवंश १९ विद्या २ विनय ३ विजय ४ विवेक ५ ९ विचार ६ सदाचार ७ विस्तार ८ प्रभृति षण्णवतिराजगुणगानतत्परा, पुनः किंलक्षणा स्त्री साधितखरगुणाः साधिताः स्वरस्य गुणा यया, पक्षे साधितखरो गुणस्तंत्री यस्याः सा, १२ तद्यथा "सप्तखरास्त्रयो ग्रामा मूर्छनास्त्वेको । विंशतिः ताना एकोनपंचाशत् इत्येवं गीतलक्षणं ॥ १ ॥ उद्गानादौ नकारो न मध्ये घकार एव च ॥ अन्ते हकारो नाकार्यस्त्रयो गीतस्य १५ वैरिणः ॥ २ ॥ नमाथुरो यदुद्गाने भवेत्तत्र न संशयः । हकारो वा घकारो वा रेफो वापि कुलक्षयः ॥ ३ ॥ नकारे नष्ट सर्वस्वं घकारे घातमेव च । हकारे निहता लक्ष्मीस्तस्मा८ गीतं न धारयेत् ॥ ४ ॥ हे जघन् ऋषभवर्णन कवयः परिहृत्य कुरुत सुकवित्वं, इत्यादिदोषान् विचार्य सुखरा १, सुताल २, सुपदं ३, शुद्धं ४, ललितं ५, सुबद्धं ६, सुप्रमेयं ७, २१ सुरागं ८, सुरम्यं ९, समं १०, सदर्थं ११, सुग्रहं १२, १५, सुरक्तं १६, संपूर्ण
हृष्टं १३, सुकाव्यं १४, सुयमकं २३ १७, सालंकारं १८, सुभाषाभव्यं १९, सुसन्धिव्युत्पन्नं २०,
३५८
[ दशमः
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सर्गः] जैनकुमारसंभवं
३५९ गम्मीर २१, स्फुटं २२, सुप्रभं २३, अग्राम्यं २४, कुंचितकंपितं २५, समायानं २६, ओजसःसंगतं २७, प्रसन्नस्थिरं २८, सुखस्थानकं २९, हृतं ३०, मध्यं ३१, विलंबितं३ ३२, द्रुतविलंबित ३३, गुरुत्वं ३४, प्रांजलत्वं ३५, उक्तप्रमाणं ३६, चेति पत्रिंशत् गीतगुणानादृत्य लघुसालिग सूड, धूनु, माठनु, पडमठजत, त्रिवडनु, पडतालनु, एकताली डंबडनु, कृपाणु पंचतालेश्वर रागकदंबकप्रभृतिगीतचतुरा, पुनः किंलक्षणा? ऋजूभवदहदण्डतततुम्बकस्तनी, सरलीभवत् देह एव दण्डस्ततौ विस्तीर्णी तुम्बकाकारौ स्तनौ यस्याः सा९ ऋजू० ॥ ७२ ॥
एकया किल कुलाङ्गनागुण
श्रेणिवर्णनकृता व्यधायि सा । कोशमाशु ममतात्त्विकं कदा
ऽदत्त सेयमिति संशयास्पदम् ।। ७३ ।। एक० एकया स्त्रिया सा सुमङ्गला इति संशयास्पदं विधायि १५ क्रियते स्म, इतीति किं : सा इयं सखी ममतात्त्विकं परमार्थिक कोशं भांडागारं आशु शीघ्रं कदा कस्यां वेलायां आदत्त गृहीतवती, किंविशिष्टया स्त्रिया ? कुलाङ्गनागुणश्रेणिवर्णना-१४ कृतसुरूपा १, सुभगा २, सुवेषा ३, सुरतप्रवीणा ४, सुनेत्रा ५, सुखाश्रया ६, विभोगिनी ७, विचक्षणा ८, प्रियभाषिणी ९, प्रसन्नमुखी १०, पीनस्तनी ११, चारुलोचना १२, रसिका १३, लज्जान्विता १४, लक्षणयुक्ता १५, पठितज्ञा ३२
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३६०
'टीकंया सहितम्
[ दशमः
१६, गीतज्ञा १७, वाद्यज्ञा १८, नृत्यज्ञा १९, सुप्रमाणशरीरा २०, सुगन्धप्रिया २१, नीतिमानिनी २२, चतुरा ३२३, मधुरा २४, स्नेहवती २५, विमर्षवती २६, गूढमंत्रा २७, सत्यवती २८, कलावती २९, शीलवती ३०, प्रज्ञावती ३१, गुणान्विता ३२, चेति द्वात्रिंशन्नायकानां गुणश्रेणिवर्णनं ६ करोतीति वर्णनकृत् तया वर्णनकृता, सर्वस्यापि तात्त्विकः कोशो गुणा एव ज्ञेया इति भावः ॥ ७३ ॥ स्वेश सौहृदमवेत्य तन्मुखस्वागतैः शरणमन्तरिक्षतः । भास्करोदय भयादिवोडुभिः, काप्यरंस्त शुचिरत्नकन्दुकैः ॥ ७४ ॥
स्वेश० कापि स्त्री शुचिरत्नकन्दुकैः पवित्रपद्मरागस्फटिकवैडूर्यचन्द्रकांतप्रभृतिरत्नस कत्कंदुकैः अरंस्त रेमे । उत्प्रेक्ष्यतेभास्करोदयभयात् अन्तरिक्षतः आकाशात् शरणं आगतैरुडु - १५ भिर्नक्षत्रैरिव, किं कृत्वा ? तन्मुखस्य तस्याः सुमङ्गलाया मुखस्य खेशसौहृदं अवेत्य स्वस्य आत्मनः ईशेन चन्द्रेण सह सौहृदं मैत्र्यं ज्ञात्वा मुखस्य चन्द्रदर्पणपद्मप्रभृतीनामुपमानं दीयते, १८ अतो मुखस्य चन्द्रेण मैत्र्यं तेन तत्पार्श्व प्राप्त इति
१२
२१
भावः ॥ ७४ ॥
२३
को बली जगति कः शुचां पदं, याचितो वदति किं मितंपचः । कीदृशं भटमनः सुरेषु को, भैरवस्तव धवश्व कीशः ॥ ७५ ॥
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सर्गः] जैनकुमारसंभवं ३६१
प्रश्नसन्ततिमिमां वितन्वती,
काञ्चनग्लपितकाञ्चनच्छविः। नाभिभूत इति सैकमुत्तरं,
लीलयैव ददती व्यसिष्मयत् ॥ ७६ ॥ युग्मम् ॥ को० सा सुमङ्गलानाभिभूत इति एकं उत्तरं लीलयैव ददती सती काञ्चन सखी विस्मयते विस्मयं प्रापयति स्म, किं-६ लक्षणा ? सुमङ्गला ग्लपितकाञ्चनच्छविः उपलपितसुवर्णकान्तिः, किं कुर्वन्तीं कांचनसखी इमां प्रश्नसंततिं प्रश्नश्रेणिं वितन्वती कुर्वन्ती, इमां कां जगति विश्वे को बली बलवान् ना पुरुषः, कः शुचां पदं शोकानां स्थानं अभिभूतः पराभूतः मितंपचः कृपणौ याचितः सन् किं वदति, नटमनः सुभटस्य खान्तं, कीदृशं ? अभिनिर्भय, सुरेषु देवेषु को भैरवो भयंकरः, भूतः, १२ च अन्यत् तव धवो भर्ता, कीदृशः ? नाभिभूतः नाभिजातः ॥ ७५ ॥ ७६ ॥
उत्तरोत्तरकुतूहलैरिमा,
चान्तचेतसमुवाच काचन । दृश्यतां सहृदयेऽरुणोदयो,
जात एव दिशि जम्भवैरिणः ॥ ७७ ॥ १८ उत्त० काचन सखी इमां सुमङ्गलां उवाच, किंलक्षणं सुमङ्गलां उत्तरोत्तरकुतूहलैः उपरिष्टात् २ वर्तमान २ कौतुकैश्चान्तचेतसं व्याप्तमानसां, हे सहृदये विचक्षणे जंभवैरिणो २१ दिशि इन्द्रस्य दिशि पूर्वस्यां अरुणोदयः सूर्योदयो जातः एव दृश्यताम् ॥ ७ ॥
___ १५
२३
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टीकया सहितम्
शङ्खण तत्र सौखरात्रिको, द्वारि संनदति दीयता श्रुतिः । आर्यकार्य फलवर्धनखनोपज्ञपुण्यपटलैरिवोज्वलः ॥ ७८ ॥
शङ्ख० हे स्वामिनि ! एष शंखो द्वारि द्वारे संनदति शब्द ६ करोति श्रुतिः कर्णो दीयतां, किंलक्षणः शंख: ? तवसौख - रात्रिकः सुखरात्रिं पृच्छतीति सौखः, पुनः किंलक्षणः उत्प्रेक्ष्यते-- आर्यकार्यफलवर्धनखनोपज्ञपुण्यपटलैरुज्वल इव ९ आर्य कार्य फलस्य उत्तमकार्यफलस्य वर्धनस्य वृद्धिकारिणः, खनशब्दस्यापज्ञैः संजातैः पुण्यपटलैरुज्वला धवल इव ॥ ७८ ॥ जाग्रदेव तव शान्तदिग्मुखो, वति यन्मृदुरवः प्रियं द्विकः । किं ततः सुचरिताद् द्विजन्मना - मग्रभोजनिकतामयं गमी ॥ ७९ ॥ जाग्र० हे स्वामिनि ! जायंदेव मृदुरवः सकोमलशब्दो द्विकः काको यत् तव प्रियं अभीष्टं वक्ति वदति, किंविशिष्टो द्विकः ? शान्त दिग्मुखः शान्ताया दिशि मुखं यस्य स शान्त०, १८ ततस्तस्मात् सुचरितात् सदाचरणात् अयं द्विकः द्विजन्मनां ब्राह्मणानां अग्रभोजनिकतां अग्रेसरभोजनत्वं गमिष्यति ॥ ७९ ॥ सुदति नदति सोऽयं पक्षिणां चण्डदीधित्युदय समयनश्यन्नेत्र मोहः समूहः । रज निरजनिदूरेऽस्मादृशां खैरचारप्रमथनमथ नृत्यत्पक्षतीनामितीव ।। ८० ।।
- १५
१२
२३
३६२
[ दशमः
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सर्ग: 1
जैनकुमारसंभवं
३६३
सुद० हे सुदति शोभना दंता यस्याः सा सुदती तस्याः संबोधनं क्रियते, सोऽयं पक्षिणां समूहो नदति शब्दायते, किंलक्षणः पक्षिणां समूहः ? चंडदी धित्युदय समयनश्यन्नेत्रमोहः ३ सूर्योदयसमये नष्टनिद्रा मोहः, किंविशिष्टानां पक्षिणां नृत्यत् पक्षीणां उत्प्रेक्ष्यते—इतीव, इतीति किं ? अथानन्तरं अस्मादृशां स्मेरवाचप्रथनं खेच्छागमनस्य स्फेटनं रजनि रात्रिर्दूरे ६ अजनि जाता ॥ ८० ॥
दिन वदनविनिद्रीभूतराजीवराजी - परमपरिमलश्रीतस्करोऽयं समीरः । सरिदपहृतशैत्यः किंचिदाधूय वल्ली
भ्रमति भुवि किमेष्यच्छूर भीत्याऽव्यवस्थम् ॥ ८१ ॥ दिन० अयं समीरो वायुः भुवि पृथिव्यां किं एष्यत १२ शूरभीत्या एष्यत आगमिष्यतः शूरस्य सूर्यस्य सुभटस्य वा भीत्या भयेन अव्यवस्थं व्यवस्थारहितं यथा भवति तथा भ्रमति, किं कृत्वा किंचिद्वलीराधूय धूनयित्वा किंलक्षणः १५ समीरः दिनवदनविनिद्रीभूतराजीवराजीपरमपरिमलश्री तस्करः दिनवदने प्रभाते विनिद्रीभूता विकखरा या राजीवराजी कमल श्रेणिस्तस्याः या परमपरिमलस्य श्रीलक्ष्मीस्तस्यास्तस्कर - १७ चौरः पुनः किंल० सरिदुपहृतशैत्यः सरितो नद्या अपहृतं गृहीतं शैत्यं शीतलत्वं येन स सरिदुप०, अन्योपि यो अपराधी स शूराद्विभेति, कमलपरिमल श्रीहरणे वायोरेको अपराधः, नद्याः शीतत्वहरणे द्वितीयः, वल्लीधूनने परदारलं- २२
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टीकया सहितम्
[ दशम
पटत्वलक्षणस्तृतीयोऽपराधः, वायुश्च शीतो मन्दः सुरभिश्चेति त्रिगुणो वर्ण्यते इति भावः ॥ ८१ ॥ लक्ष्मीं तथाम्बरमथात्मपरिच्छदं च, मुंचन्तमागमितयोगमिवास्तकामम् । दृष्ट्शमल्परुचिमुज्झति कामिनीव,
तं यामिनी समम्बुरुहाक्षि पश्य ॥ ८२ ॥ लक्ष्मीं ० हे अम्बुरुहाक्षि कमललोचने ! पश्य विलोकय यामिनी रात्रिः कामिनीव तं प्रसरं उज्झति त्यजति, किं ९ कृत्वा ? ईशं चन्द्र अल्परुचि अल्पकान्ति अल्पप्रकाशं अल्पेच्छं वा दृष्ट्वा विलोक्य किं कुर्वन्तं ? चन्द्रं लक्ष्मीं तथा अम्बरं आकाशवस्त्रं वा अथ आत्मपरिच्छेदं च आत्मपरिवारं मुंचन्तं, १२ उत्प्रेक्ष्यते — अस्त कामं अस्ताभिलाषिणं निरस्तकंदर्पं वा, आगमितयोगमिव अभ्यस्तात्मानमिव ॥ ८२ ॥
अवशमनशद्भीतः शीतद्युतिः स निरम्बरः खरतरकरे ध्वस्यद्ध्वान्ते रवाबुदयोन्मुखे । विरल विरलास्तज्जायन्ते नमोऽध्वनि तारकाः परिवृढीकाराभावे बले हि कियद्बलम् || ८३ ॥ अव० स शीतद्युतिः चन्द्रः सूर्यभयेन भीतस्त्रस्तनिरंबरो गतवस्त्रः सन् अवश्यं यथा भवति तथा अनशत् नष्टः, क सति खरतरकरे, तीक्ष्णकिरणे ध्वस्यध्वान्ते छिद्यमानान्धकारे, एवंविधे खौ सूर्ये उदयोन्मुखे सति तेन कारणेन २२ नभोऽध्वनि आकाशमार्गे तारका विरला विरला जायन्ते, हि
१५
३६४
१८
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वर्ग::]
जैनकुमारसंभवं
३६५
निश्चितं परिवृढी दृढीकाराभावे परिवृढस्य नायकस्य दृढीकारस्तस्य अभावे सति बले सैन्ये सति बलं कियद्भवति अपि तु न किमपि, अन्योपि शीतद्युतिः शीतलखभावो यः स्यात्, ३ सकठोरान्नश्यति तस्मिन्नष्टे तत्परिच्छदो विनश्यतीति
भावः ॥ ८३ ॥
गम्भीराम्भः स्थितमथ जपन्मुद्रितास्यं निशायामन्तर्गुजन्मधुकरमिषान्नूनमा कृष्टिमंत्रम् । प्रातर्जातस्फुरणमरुणस्योदये चन्द्रविम्बादाकृष्याब्जं सपदि कमलां वांकतल्पीचकार ॥ ८४ ॥ ९ गंभी० अब्जं कमलं कमलां लक्ष्मी चन्द्रबिम्बात् आकृष्य सपदि झटिति खाङ्कतल्पीचकार, खोत्संगे निवेशयति स्मेत्यर्थः, किंलक्षणं अब्जं ? गंभीरान्तः स्थितं गंभीरजले स्थितं, किं कुर्वन् ? १२ नूनं निश्चितं निशायां रात्रौ अन्तर्मध्ये गुंजन् मधुकर मिषात् गुंजारवकारि भ्रमरछलात् मुद्रितास्यं मुद्रितमुखं सत् आकृष्टिमंत्र जपन्, आकर्षणमंत्रस्य जापं कुर्वाणं, पुनः किं वि० १५ अब्जं प्रातः प्रभाते जातस्फुरणं संजातमंत्र सिद्धिः, अन्योपि साधको जले स्थित्वा मौनेन रात्रौ मंत्र जपतीति भावः ॥ ८४ ॥
इति श्रीमदञ्चलगच्छे कविचक्रवर्तिश्रीजयशेखरसूरिविरचिते श्रीजैनकुमारसंभवस्य तच्छिष्यश्रीधर्मशेखरसूरिविरचित - टीकायां श्रीमाणिक्यसुन्दर सूरिशोधितायां दशमसर्गव्याख्या समाप्ता ॥ १० ॥
६
१८
२१
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टीकया सहितम् [एकादशः
अथ एकादशः सर्गः। निराकरिष्णुस्तिमिरारिपक्षं ___ महीभृतां मौलिषु दत्तपादः। अथ ग्रहाणामधिभूरुदीये,
प्रसादयन् दिग्ललनाननानि ॥१॥ ६ निरा० अथानन्तरं ग्रहाणां अधिभः यः ग्रहखामी श्रीसूर्य उदीये उदयं प्राप्तः, किं कुर्वन् सूर्यः दिग्ललनाननानि प्रसादयन् दिगंगनानां मुखानि प्रसन्नीकुर्वन् , पुनः किं९विशिष्टः सूर्यः ? तिमिरारिपक्षं अन्धकारे शत्रुपक्षं निराकरिष्णुः निराकरणशीलः, पुनः किंवि० महीभृतां पर्वतानां राज्ञां
वा मौलिषु शिखरेषु मस्तकेषु वा दत्तपादः दत्तकिरणः दत्त१२ चरणो वा ॥१॥
तमिस्रबाधाम्बुजबोधधिष्ण्य
मोषाम्बुशोषाध्वविशोधनाद्याः। १५ अर्थक्रिया भूरितरा अवेक्ष्य,
- वेधा व्यधादस्य करान् सहस्रम् ॥ २॥
तमि० वेधा ब्रह्मा अस्य रवेः सूर्यस्य करान् सहस्र व्यधात् १८ चकार, यथा विंशतिः पुरुषा अत्रैकवचनं तथा अत्रापि,
किं कृत्वा ? तमिस्रबाधांबुजबोधिधिष्ण्यमोषांबुशोषाध्वविशोधनाद्याः, तमिस्रबाधा अन्धकारपीडा, अंबुजबोधः कमल२०विकासश्च धिष्ण्यमोषो नक्षत्रमोषश्च अंबुशोषो जलशोषश्च,
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सर्गः ]
जैनकुमारसंभवं
३६७
अध्वविरोधनं मार्गशोधनं च, इत्याद्या भूरितराः, प्रचुरा अर्थ
क्रियाः कार्याणि अवेक्ष्य ज्ञात्वा ॥ २ ॥
प्रातः प्रयाणाभिमुखं तमिस्रं, कोकास्यमालिन्य सरोजमोहौ । आलंब्य सार्थ न हि मार्गमेको, गच्छेदिति च्छेदितवान नीतिम् ॥ ३ ॥
प्रातः ० अन्धकार इति नीतिं न्यायं न छेदितवानत् न छिनत्ति स्म, इतीति किं न हि एको मार्गं गच्छेत्, किं रूपं तमिस्रं ? प्रातः प्रयाणाभिमुखं, किं कृत्वा ? कोकास्यमालिन्यसरों-९ मोहौ सार्थं आलंब्य कोकानां चक्रवाकानां आस्यमालिन्यं मुखमालिन्यं सरोजानां कमलानां मोहः संकोचः, एतौ द्वौ सार्थं आलम्ब्य आश्रित्य ॥ ३ ॥
तमो ममोन्मादमवेक्ष्य नश्यदेतैरमित्रं स्वगुहास्वधारि ।
इति क्रुधेव पतिर्गिरीणां, मूर्भो जघानायत केतुदण्डैः ॥ ४ ॥ तमो० ग्रुपतिः सूर्यः गिरीणां पर्वतानां मूर्ध्ना मस्तकानि आयतकेतुदण्डैर्विस्तीर्ण किरणदण्डैर्जघान, उत्प्रेक्ष्यते इति क्रुधेव १८ रोषेण वा इतीति किं ? एतैः पर्वतैः मम अमित्रः शत्रुरूपं तमोऽन्धकारं खगुहासु आत्मीयगुहासु अधारि धृतिं, किं कुर्वन् ? अन्धकारं मम उन्मादं अवेक्ष्य नश्यत् ॥ ४ ॥
२.४
१२
१५
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टीकया सहितम्
क्षारांबुपानादनिवृत्ततृष्णः, पूर्वोदधेरेष किमौर्ववह्निः । नदीसरः खादुजलानि पातुमुदेति कैश्विजगदे वदेति ॥ ५ ॥
क्षरां० तदा तस्मिन्नवसरे कैश्चित् पुरुषैरिति जगदे जल्पितं, इतीति किं ? एष पूर्वोदधेः पूर्वसमुद्रात् किं कुर्वन्वह्निः ? वडवानलः क्षारांबुपानादनिवृत्ततृष्णः, क्षारजलपानतो अभग्नतृष्णः सन् नदीसरः खादुजलानि पातुं उदेति उदयं प्राप्नोति ॥ ५ ॥
इन्दोः सुधास्राविकरोत्सवज्ञा विज्ञातभान्यर्क करोपतापा । व्याजान्निशाजागर गौरवस्य,
शिश्ये सुखं कैरविणी सरस्सु ॥ ६ ॥ इ० कैरविण कुमुदिनी या इन्दोः किरणैर्विकासति सा १५ कैरविणी कुमुदिनीत्युच्यते, निशाजागर गौरवस्य व्याजात् सरस्सु सरोवरेषु सुखं यथा भवति तथा शिश्ये सुप्ता, संकोच - माप्तेत्यर्थः, किं लक्षणा कैरविणी ? इन्दोः सुधास्त्राविकरोत्सवज्ञा १८ इन्दोश्चन्द्रस्य अमृतस्राविणां किरणानां उत्सवं जानातीति इन्दोः सुधा०, पुनः किं० विज्ञातभाव्यर्ककरोपतापा ज्ञातो भविष्यत् सूर्यकिरणानां तापो यया सा विज्ञात० ॥ ६ ॥ बिद्धांजलिः कोषमिषाद्गतेना, जातश्रियं पङ्कजिनीं दिनाहया ।
ર
३६८
[ एकादश:
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सर्गः] टीकया सहितम्
जहास यत्तब्यसने निशायां
कुमुदती तत् क्षमयांबभूव ॥७॥ बद्धां० कुमुद्रती कुमुदिनी निशायां रात्रौ यत् तव्यसनेन ३ तस्याः पंकजिन्याः कमलिन्या व्यसने कष्टे सतिं जहास हसितवती विकसिता वा, तत् क्षमयांबभूव, किं कृत्वा । दिवसप्राप्ल्या पंकजिनी कमलिनी जातश्रियं वीक्ष्य, किंलक्षणा कुमुद्वती? कोशमिषात् मुकुलमिषात् बद्धांजलियोजितहस्ता, पुनः किं० गतेनाऽस्तमित इनः खामी चन्द्रो भर्चा यस्याः सा गतेना ॥ ७॥
देहे न सेहे नलिनं यदिन्दु
पादोपघातं निशि तं ववाम । पराभवं सूरकराभिषङ्गे,
प्रगे हृदो निर्यदलिच्छलेन ॥८॥ देहे० नलिनं कर्तृपदं कमलं निशि रात्रौ यत् इन्दुपादोपघातं इन्दोश्चन्द्रस्य पादाः किरणाश्चरणा वा तेषां उपघातं देहे १५ न सेहे, प्रगे प्रभाते सूरकराभिषंगे सूर्यकिरणसंसर्गे हृदो निर्यदलिच्छलेन हृदयान्निर्गच्छत् भ्रमरमिषेण तं पराभवं च वामयति स्म ॥ ८॥
भित्त्वा तमः शैवलजालमंशु
मालिद्विपे स्फारकरे प्रविष्टे । आलीनपूर्वोऽपससार सद्यो,
वियत्तडागादुडुनीडजौघः ॥९॥ जै. कु. २४
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जैनकुमारसंभवं [एकादशः मित्त्वा० उडुनीडजौघः नक्षत्ररूपः पक्षिसमूहः आलीनपूर्वः पूर्वनिविष्टः सन् सद्यस्तत्कालं वियत्तडागात् आकाशसरो३ वरात्, अपससार अपमृतः, क सति ? तमाशैवलजालं
अन्धकाररूपशैवालसमूहं भित्त्वा स्फारकरे प्रौढकिरणे महाशुंडादंडे वा अंशुमालिद्विपे सूर्यरूपगजे प्रविष्टे सति ॥९॥ ६ किंचित्समासाद्य महः पतङ्ग
पक्षः क्षपायां यदलोपि दीपैः।
तां वैरशुद्धि व्यधिताभिभूय, ९ दीपान् प्रगे कोऽप्युदितः पतङ्गः ॥१०॥
किंचि० दीपैः क्षपायां रात्रौ किंचिन्महस्तेजः समासाद्य प्राप्य पतंगपक्षः शलभपक्षः पक्षे सूर्यपक्षे यत् अलोपि लुप्तः १२प्रगे प्रभाते कोऽपि पतंगः उदितः सन् दीपन् अभिभूय पराभूय वैरशुद्धिं व्यधित कृतवान् , अत्रापि पतङ्गः सूर्यः
शलभो वा ज्ञेयः ॥ १० ॥ १५ गते रवौ संववृधेऽन्धकारो,
- गतेऽन्धकारे च रविर्दिदीपे ।
तथापि भानुः प्रथितस्तमोभि१८ दहो यशो भाग्यवशोपलभ्यम् ॥ ११ ॥
गते० रवौ सूर्ये गते सति अन्धकारो ववृधे वृद्धि प्राप्तः अन्धकारशब्दः पुनपुंसकः अन्धकारे गते रविः सूर्यो दिदीपे २१ दीप्तः, तथापि भानुः सूर्यः तमोभित् अन्धकारभित् प्रथितो
विख्यातः, अहो इत्याश्चर्ये यशो भाग्यवशेन उपलभ्यं प्राप्यं २३ वर्तते ॥ ११॥
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वर्ग:] टीकया सहितम्
कृतो स्टद्भिः कटु लोककों
चाटो निशाटैस्तमसो बलाद्यैः । सूरे तमो निम्नति मौनिनस्ते,
निलीय तस्थुर्दरिणो दरीषु ॥ १२ ॥ कृ० यैर्निशाटैचूंकैः तमसो बलात् अन्धकारस्य बलात् कटु रटद्भिः कर्णस्य कटुशब्दं कुर्वद्भिः सद्भिः लोककर्णोच्चाट ६ कृतः, ते धूका दरिणो भययुक्ता मौनिनो मौनयुक्ताश्च सन्तः दुरीषु गुहासु निलीय तस्थुः स्थिताः, क सति ? सूरे सूर्य तमोऽन्धकारं निम्नति विनाशयति सति ॥ १२ ॥ कोकप्रमोदं कमलप्रबोध,
खेनैव तन्वंस्तरणिः करेण । नीति व्यलंघिष्ट न पोष्यवर्ग- .. . १२
ध्वनन्यहस्ताधिकृतिस्वरूपाम् ॥ १३॥ कोक० तरणिः सूर्यः कोकप्रमोदं कोकानां चक्रवाकानां हर्ष कमलप्रबोधं खेनैव करेणात्मीयेनैव किरणेन हस्तेन वा १५ तन्वन् सन् पोष्यवर्गेषु अनन्यहस्ताधिकृतिस्वरूपां खस्य हस्ताधिकारे खरूपां नीतिं न व्यलंधिष्ट न लंघयति स्म ॥ १३ ॥
इलातले बालरवेमयूखै
रुन्मेषिकाश्मीरवनायमाने । सुमङ्गला कौङ्कुममङ्गरागं,
निर्वेष्टुकामेव मुमोच तल्पम् ॥ १४॥ इला० इलातले.. पृथ्वीतले बालरवेर्बालार्कस्य मयूखैः २२
१८
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३७२
जैनकुमारसंभवं
[एकादशः
किरणैरुन्मेषिकाश्मीरवनायमाने सति विकखरकाश्मीरवनवदा
चरति सति सुमंगला कौङ्कुमं अङ्गरागं निर्देष्टुकामेव उपभोक्त३ कामेव तल्पं शयनीयं मुमोच ॥ १४ ॥
जलेन विष्वग्विततैस्तदंशु
जालैरभेदं भजता प्रपूर्णम् । ६ . करे मृगाङ्कोपलवारिधानी,
कृत्वा सखी काप्यभवत्पुरोऽस्साः ॥१५॥ जले० कापि सखी करे हस्ते जलेन पूर्ण मृगांकोपलवारिधानों ९चन्द्रकान्तकरकं कृत्वा अस्याः सुमंगलायाः पुरोऽग्रेऽभवत्, किंविशिष्टेन जलेन ? विष्वग् विततैः समंततः प्रसृतैस्तदंशु
जालैस्तस्या मृगांकोपलवारिधान्या अंशुजालैः किरणसमूहैरभेदं १२भजता ऐक्यं प्रामुवता ॥ १५ ॥
सुमङ्गलाया मृदुपाणिदेशे,
सा मुञ्चती निर्मलनीरधाराः। १५ उल्लासयन्ती गुरुभक्तिवल्लीं,
कादम्बिनी आलिजनेन भन ।। १६ ।। सुम० आलिजनेन सखीवर्गेण सा स्त्री कादंबिनी मेघमालेव १४मेने मन्यते स्म, किं कुर्वती ? मृदुपाणिदेशे कोमलहस्ते निर्मल
नीरधाराः मुंचती, पुनः किंविशि० ? गुरुभकिवल्ली उल्लासयन्ती वर्धयन्ती ॥ १६॥
यदम्भसा दम्भसमुज्झिताया, २१ राज्ञा मुखेन्दोर्विहितोऽनुषङ्गः ।
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सर्ग:
टीकया सहितम् कृतामृताख्यं कृतकर्मभिस्त
जगत्सु तज्जीवनतां जगाम ॥ १७ ॥ यद० अम्भसा पानीयेन दंभसमुज्झिताया मायामुक्ताया ३ राज्याः, सुमंगलायाः मुखेंदोः मुखचन्द्रस्य यत् अनुषङ्गः सम्पकों विहितः, तस्मात् कारणात् तत् अम्भः कृतकर्मभिर्विद्वद्भिर्जगत्सु विश्वेषु कृतामृताख्यं सजीवनतां जगाम, अमृतं जीवनं पानीयमेवोच्यते ।। १७ ॥ मुखं परिक्षालनलग्नवारि
लवं चलचंचलनेत्रभृङ्गम् । प्रातः प्रबुद्धं परितः प्रसक्ता
वश्यायमस्या जलजं जिगाय ॥ १८ ॥ मुख० अस्याः सुमंगलायाः मुखं कर्तृपदं जलजं कमलं १२ जिगाय जयति स्म, किं लक्षणं मुखं ? परिक्षालनलग्नवारि प्रक्षालनेन लमा जलबिन्दवो यत्र तत् परिक्षालन०, युन: किंवि० चलचंचलनेत्रगं चलन्तौ चंचल मन एव भुंगो भ्रमरौ यत्र १५ तत् चल०, पुनः विप्रातः प्रबुद्धं प्रभाते विकसितं, पुनः किं० ? परितः प्रसक्तावश्यायं समंततो लगतुहिनम् ॥ १८ ॥
निशावशाभूषणजालमस्या,
विसंस्थुलं सुष्टु निवेशयन्ती। काप्युज्झितं लक्षणवीक्षणस्य,
क्षणे करं दक्षिणमन्वनैषीत् ॥ १९ ॥ निशा० कापि सखी सुमंगलाया दक्षिणं कर अन्वनैषीत् १२
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३७४
जैनकुमारसंभवं [एकादशः रुष्टं प्रीतिमंतं चकार, किंवि० दक्षिणं करं ? लक्षणवीक्षणस्य क्षणे लक्षणावलोकनसमये उज्झितं त्यक्तं, पुरुषस्य दक्षिणहस्ते ३ लक्षणानि वीक्ष्यन्ते, नार्या वामहस्ते तु तदा दक्षिणो हस्तो रुष्ट इति भावः, किं कुर्वती सखी ? निशावशात् अस्याः सुमंगलाया विसंस्थुलं भूषणजालं आभरणसमूहं सुष्ठु शोभनं निवेशयन्ती ६ कुर्वती, तदा दक्षिणहस्तस्यापि भूषणानि सुष्टु निवेशितानि इति प्रीतिमाँश्चके ॥ १९ ॥
यं दर्पणो भस्मभरोपरागं, ९ प्रगेऽन्वभूत् कष्टधिया प्रदिष्ठः ।
तदा तदास्यप्रतिमामुपास्य,
___ सखीकरस्थः प्रशशंस तं सः ॥२०॥ १२ यं० दर्पणः आदर्शः प्रगे प्रभाते कष्टधिया कष्टबुद्ध्या यं
भस्मभरोपरागं भस्मनामार्जनोपप्लवं यत् प्रदिष्ठः सुकुमालतरः
सन् अन्वभूत् अनुभवति स्म तदा तस्मिन्नवसरे दर्पणः सखी१५ करस्थः सख्या हस्तस्थितः सन् तदास्यप्रतिमां उपास्य तस्याः
सुमंगलायाः आस्यं मुखं तस्य प्रतिमा प्रतिबिंबं सेवित्वा तं भस्मभरोपरागं प्रशशंस प्रशंसितवान् ॥ २० ॥
समाहिता संनिहितालिपालि
प्रणीतगीतध्वनिदत्तक । उपस्थित सा सहसा पुरस्ता.
दक्षा ऋभुक्षाणमथालुलोके ॥ २१ ॥ समा० सा दक्षा सुमंगला सहसा ऋभुक्षाणां इन्द्रं उपस्थितं २३ आगतं पुरस्तात् अग्रे आलुलोके अपश्यत् , किंलक्षणा
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सर्गः]
टीकया सहितम्
M
सुमंगला ? समाहिता समाधियुक्ता संनिहितालिपालिप्रणीतगीतध्वनिदत्तकर्णा समीपस्थसखीश्रेणिसत्ककृते गीतध्वनौ दत्तकर्णा ॥ २१ ॥
युगादिभर्तुर्दयितेति तीर्थ,
तां मन्यमानः शतमन्युरूचे । नत्वांजलेोजनया द्विनाल
नालीककोशभ्रममादधानः ॥ २२ ॥ युगा० शतमन्युरिन्द्रः सुमंगलां युगादिभर्तुर्दयिता पत्नी, इति तीर्थ मन्यमानः सन् नत्वा ऊचे, किंविशिष्ट इन्द्रः १९ अंजलयोजनया द्विनालनालीककोशभ्रमं नालद्वययुक् कमलस्य भ्रान्ति आदधानः ॥ २२ ॥
परिच्छदाप्यायकसौम्यदृष्टे,
मृगेक्षणालक्षणकोशसृष्टे । जयैकपत्नीश्वरि विश्वनाथ... श्रीमंजुहृत्पंजरसारिके त्वम् ॥ २३ ॥
परि० हे परिच्छदाप्यायकसौम्यदृष्टे! परिच्छदस्य आप्यायिका सौम्यदृष्टिर्यस्याः तस्याः संबोधनं क्रियते हे परि०, हे मृगेक्षणालक्षणकोशसृष्टे! त्रिषु श्यामां त्रिषु श्वेतां त्रिषु ताम्रां त्रिषूनता । त्रिगंभीरां त्रिविस्तीर्णा व्यायतां त्रिकृशीयसीं ॥१॥ एतद व्याख्या-नेत्र १ दृष्टिमध्य २ स्तनान्तरेषु ३ त्रिषु श्यामां, नेत्रमध्य १ दन्त २, शयःसु त्रिषु श्वेतां, हस्त १ ओष्ठ २ तालु ३ त्रिषु तामां आरक्तां, योनि १ नख २ स्तनेषु: ३२१
५
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३७६
जैनकुमारसंभवं
[ एकादशः
त्रिषून्नतां नाभिः १ सत्व २ खरेषु ३ त्रिगंभीरां, मुख १ जघन २ हृदयेषु ३ त्रिविस्तीर्णां, नासा १ अंगुलि २ नेत्रेषु ३३ व्यायतां त्रिप्रलंबां, मध्य १ आणि २ रोमावलिषु ३ त्रिकशीयसीं ० ईदृशस्त्रीलक्षणानां कोशस्य भांडागारस्य सृष्टे ! हे एकपत्नीश्वर ! हे विश्वनाथ श्री मंजुहृत्पंजरसारिके ! श्री आदिदेवस्य श्रिया शोभया मंजु मनोज्ञं यत् हृदयमेव पंजरं तत्र सारिकासदृशे त्वं जय ॥ २३ ॥
जाता महीधादिति या शिला सा, त्वां स्पर्धमानास्तु जडा मृडानी । अंभोधिलब्धप्रभवेति मत्सी,
न श्रीरपि श्रीलवमश्नुते ते ॥ २४ ॥ जा० सा मृडानी पार्वती त्वां स्पर्धमाना जडा अज्ञाना अस्तु, या पार्वती महीभ्रात् पर्वतात् जाता इति शिला वर्त्तते, श्रीरपि लक्ष्मीरपि ते तव श्रीलवं शोभायाः अंशं न अनुते न १५ प्राप्नोति, किंविशिष्टा लक्ष्मीः ? अंभोधिलब्धप्रभवा समुद्रात् जाता इति कारणात् मत्सी ॥ २४ ॥
केनापि नोढा स्थविराङ्गजेति,
या निम्नगाख्यामपि कर्मणाप्ता । पपात पत्यौ पयसां पिपर्ति,
कथं सरस्वत्यपि सा तुलां ते ।। २५ ।। केना० या सरखती स्थविरांगजा स्थविरो ब्रह्मा वृद्धश्च ** तस्य अंगजा पुत्री इति कारणात् केनापि नोढा न परिणीता,
१८
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सर्गः] टीकया सहितम् या सरखती कर्मणा निम्नगाख्यां निम्नं नीचैर्याति इति निम्नगा नदी नीचगामिनी स्त्री वा तस्या आख्यां नाम आप्ता प्राप्ता सती पयसां पत्यो समुद्रे पपात, सा सरखत्यपि, ते तव तुलां ३ सादृश्यं कथं पिपति प्राप्नोति ? ॥ २५ ॥
या स्वर्वधूः काचन कांचनांगी,
तुलां बयारोढुमियेष मूढा । असारतां किं विबुधैर्विचार्य,
रंभेति तस्या अभिधा व्यधायि ॥ २६ ॥ या० या कांचनांगी सुवर्णशरीरा काचन खर्वर्देवांगना ९ मूढा सती त्वया तुलां आरोढुं इयेष वांछति स्म, विबुधैर्विद्वद्भिर्देवैर्वा असारतां विचार्य तस्याः खर्वध्वाः किं रंभा इति नाम व्यधायि कृतं ? रंभाशब्देन कदली, सा मध्ये असारा १२ भवति ॥ २६॥
कलाकुलाचारसुरूपताध, __ यं तावकं गौरि गुणं गृणीमः । मंजामहाब्धावित्र तत्र मना,
वाग्न स्वमुद्धर्तुमधीश्वरी नः ॥ २७ ॥ कला० हे गौरि ! वयं तावकं त्वदीयं कलाकुलाचारसुरू-१८ पताचं यं गुणं गृणीमः ब्रूमः, तत्र तस्मिन् गुणे मनाः नोऽस्माकं वाक् खं उद्धर्तुं न अधीश्वरी न समर्था, का इव मंजेव छागीव महाब्धौ महासमुद्रे मग्ना सती खं उद्धत न समर्था स्यात् ।। २७ ॥
२२
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३७८
जैनकुमारसंभवं [एकादशः सीमासि सीमन्तिनि भाग्यवत्सु, । यल्लोकभर्तुर्हृदयंगमासि । ३. यचेदृशं स्वमसमूहमूह
क्षमं श्रुताधैर्यधियामपश्यः ॥ २८॥ सीमा० हे सीमंतिनि! त्वं भाग्यवत्सु लोकेषु सीमा, असि, ६ यत् लोकभर्तुः श्रीयुगादीश्वरस्य हृदयंगमा हृदयवल्लभा असि, च अन्यत् यत् श्रुताधैर्यधियां बहुश्रुताना ऊहक्षमं विचारक्षम ईदृशं स्वप्नसमूहं अपश्यः ।। २८ ।। ९ अतः परं किं तव भाग्यमीडे,
___ यद्विश्वनेत्रा निशि लम्भितासि ।
स्वमार्थनिश्चायिकया स्ववाचा, १२. रहः सुधापानसुखानि देवि ॥ २९ ॥
अतः० हे देवि ! तव अतः परं किं भाग्यं ईडे स्तवीमि, विश्वनेत्रा जगन्नाथेन निशि रात्रौ खनार्थनिश्चयकारिण्या १५ स्ववाचा एकांते सुधापानसुखानि लंभितासि प्रापितासि ॥२९॥
न पाययन् गोरसमर्थिनीं त्वां,
धत्ते स्म चित्ते रजनीमपीशः। १८ क्षुधातुरं भोजयतां न दोषाः,
दोषापि यस्मादियमहदाज्ञा ॥३०॥ न० ईशः स्वामी अर्थिनीं त्वां गोरसं वाणीरसं दुग्धं वा पाययन् सन् रजनीमपि रात्रिमपि चित्ते न धत्ते स्म, यस्मात् २२ कारणात् अर्हदाज्ञा श्री सर्वज्ञाज्ञा इयं वर्चते, इयमिति किं ?
१८
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सर्गः] टीकया सहितम् दोषापि रात्रिरपि अत्र दोषाशब्दो अव्ययो ज्ञेयः तेन विभक्तिलोपः, क्षुधातुरं बुभुक्षितं भोजयतां न दोषः स्यात् ॥ ३० ॥
कदाचिदुद्गच्छति पश्चिमायां,
सुरः सुमेरुः परिवर्तते वा । सीमानमत्येति कदापि वार्द्धिः,
शैत्यं समास्कन्दति वाश्रयाशः॥३१॥ ६ सर्वसहत्वं वसुधाऽवधूय,
श्वभ्रातिथित्वं भजते कदाचित् । रंभोरु दम्भोरगगारुडं ते, . वचो विपर्यस्यति न प्रियस्य ॥ ३२॥ युग्मम् ।
कदा० हे कल्याणि ! कदाचित् सूरः सूर्यः पश्चिमायां उद्गच्छति, वा अथवा कदापि सुमेरुः परिवर्तते मेरुपर्वतः १.२ स्थानाच्चलति, कदापि वार्द्धिः समुद्रः सीमानं अत्येति अतिक्रामति, कदापि आश्रयाशोऽग्निः शैत्यं समास्कन्दति समागच्छति ॥ ३१ ॥ कदाचित् वसधा पृथ्वी सर्वसहत्वं अवधूय १५ विमुच्य श्वभ्रातिथित्वं पातालस्य अतिथित्वं भजते सेवते, हे रभोरु ! रंभा कदलीवत् ऊरू यस्यास्तस्याः संबोधने, ते तव प्रियस्य श्रीयुगादीशस्य दंभोरगगारुडं मायारूपसर्पस्य गारुडमंत्र-१८ समानं वचो न विपर्यस्यति न परावर्तते ॥ ३२ ॥ युग्मम् ॥
यथा तथाम्भस्य मनुष्य वाचं, .वाचंयमानामपि माननीयाम् । पूर्णेऽवधौ प्राप्स्यसि देवि सूर्नु,
खं विद्धि नूनं सुकृतैरनूनम् ॥ ३३ ॥ .. २३
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३८० जैनकुमारसंभवं [एकादशः
यथा० हे देवि ! त्वं अस्य भगवतो यथा तथा सत्यं वाचं वाणी मनुष्य जानीहि, किंविशिष्टां वाचं ? वाचंयमानामपि ३ यतीनामपि माननीयां मान्यां, हे देवि! त्वं अवधौ पूणे सति
सूनुं पुत्रं प्राप्स्यसि, त्वं नूनं निश्चितं आत्मानं सुकृतैरनूनं पुण्यैः संपूर्ण विद्धि जानीहि ॥ ३३ ॥
दाता कुलीनः सुवचा रुचाढ्यो,
रत्नं पुमानेव न चाश्मभेदः। तद्रनगमा भवती निरीक्ष्य,
तयाख्ययापनपतेतरां भूः ॥३४॥ दाता० हे देवि! पुमानेव रत्नं वर्तते, न च अश्मभेदः, पाषाणविशेषो रत्नं, किंलक्षणः पुमान् ? दाता विश्वे सर्वेषामर्थि. १२ जनानामाशापूरकत्वात् , उपकारकत्वाच, कुलीनः सुकु
लोत्पन्नः, मातृकी जातिः, पैतृकं कुलमिति । सुवचा सत्यवाणी
मधुरवचनभाषणपरगुणग्रहणादित्वात् , रुचात्यो रुचा कन्त्य १५ आब्यः समृद्धः, तत् तस्मात् कारणात् भवतीं त्वां रत्नगर्भा निरीक्ष्य दृष्ट्वा भूः पृथ्वी तयाख्यया रत्नगर्भा इति नाम्ना
अपनपतेतरां लज्जतेतरां ।। ३४ ॥ १. सुवर्णगोत्रं वरमाश्रितासि,
गर्भ सुपर्वागममुद्वहन्ती।
श्रियं गता सौमनसीमसीमां, २१ न हीयसे नन्दनभूमिकायाः ॥ ३५ ॥
सुव० हे देवि! त्वं नंदनभूमिकायाः नंदनवनसंबन्धि२२ भूमिकातो न हीयसे न हीना भवसि, किं विशिष्टा त्वं ? सुवर्ण
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सर्ग:]
टीकया सहितम्
३८१
गोत्रं सुष्ठु शोभनवर्णा अक्षराणि यत्र तत् सुवर्ण एवंविधं गोत्रं नाम यस्य स तं वरं पतिं आश्रितासि, नन्दनवनभूमिपक्षे वरं श्रेष्ठं सुवर्णगोत्रं मेलं, त्वं किं कुर्वती ? सुपर्वागमं सुपर्वाणो ३ देवास्तेभ्यः आगम आगमने यस्य सुपर्वागमस्तं एवंविधं गर्भ उद्वहन्ती, पक्षे सुपर्वणां देवानां आगमा यत्र तं एवंविधं गर्भ मध्यं, पुनः किं० त्वं सीमारहितां सुमनसः सन्तस्तत्सं-६ बंधिनीं श्रियं शोभां श्रिता, पक्षे सुमनसः पुष्पाणि तत्संबन्धिनी एतावता नन्दनभूमेः सुमंगलायाः सादृश्यं जातं ॥ ३५॥ रिपुद्विपक्षेपिबलं गभीरा,
न भूरिमायैः परिशीलनीया। गर्भ महानादममुं दधाना, __ परैरधृष्यासि गिरोर्गुहेव ॥ ३६॥ रिपु० हे देवि ! त्वं अमुं गर्भ दधाना सती गिरेगुहेव परैरन्यैरधृष्या अनाकलनीयासि, किंविशिष्टं अमुं ? महानादं महानादः कीर्तिरूपो यस्य स तं, पक्षे महानादं सिंह, पुनः किं-१५ विशिष्टं अमुं? रिपुद्विपक्षेपिबलं, रिपवः शत्रव एव द्विपा गजास्तेषां क्षेपि तिरस्कारि बलं यस्य स तं, किंलक्षणा त्वं ? गुहेव गभीरा गंभीराः, पुनः किंवि० भूरिमायैर्मायाबहुलैः शृगा-१४ लैर्वा न परिशीलनीया, अनाश्रयणीया ॥ ३६ ॥ जित्वा गृहव्योममणिः खभासा,
ध्रुवं तव प्रोल्लसिता सुतेन । . . २१ तत्तेन मध्ये वसताभ्रगेह
यीव धत्से नवमेव तेजः ॥ ३७॥ .. २३
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३८२
जैनकुमारसंभवं
[ एकादश:
जित्वा ० हे देवि ! तव सुतेन स्वभासा आत्मीयकान्त्या गृहव्योममणिः गृहमणिः प्रदीपः व्योममणिः सूर्यः तौ जित्वा ३वं निश्चितं प्रोल्लसिता उल्लसिध्यते, तत् तस्मात् कारणान् तेन सुतेन मध्ये उदरे वसता त्वं अभ्रगेहद्वयीव, अभ्रगेहं अभ्रकगृहं आकाश वा नवतेजो धत्से दधासि ॥ ३७ ॥ सूते त्वया पूर्वदिशात्र भावत्युल्लासिनेत्राम्बुजराजि यत्र । दृष्टमृताघ्राणमुखं वपुर्मे,
सरस्यते तद्दिनमर्थयेऽहम् ॥ ३८ ॥
सूते ० अहं तत् दिनं अर्थये प्रार्थयामि, यत्र यस्मिन् दिने पूर्वदिक् सदृशया त्वया अत्र अस्मिन् सुते सूते सति मम १२ वपुः शरीरं सरस्यते सर इवाचरति, किंविशिष्टे ? अत्र भाखति देदीप्यमाने सूर्यसदृशे वा, किंविशिष्टं वपुः ? उल्लासितनेत्रांबुजराजि उल्लासिनी नेत्रांबुजानां सहस्रलोचनत्वात् राजिः १५ श्रेणिर्यत्र तत् उ०, किंविशिष्टः वपुः ? दृष्टामृताघ्राणमुखं दृष्टं अमृतेन आघ्राणस्य तृप्तेः मुखं येन तत् ॥ ३८ ॥ प्राप्ता भुवं खेलयितुं तनूजं, तवोपगुह्याप्तमुदस्त्रिदश्यः । तथा रतिं न स्वरिता रतार्त -:
૩૮
प्रियोपगूढा अपि बोधितारः ॥ ३९ ॥
·
प्राप्ता० त्रिदश्यो देवांगनाः खरिताः खः खर्गे इता गताः सत्यः रतार्तप्रियोपगूढा अपि संभोगावसरपीडितदयितालिंगिता २३ अपि तथा रतिसुखं न बोधितारो न ज्ञास्यन्ति, यथा तव तनूजं
२१
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३
सर्गः] टीकया सहितम् उपगुरा आलिंग्य प्राप्तमुदः प्राप्तहर्षाः सत्यः भुवं खेलयितुं प्राप्ता यथा सुखं बोधितारो ज्ञास्यन्ति ॥ ३९ ॥
असिन्मयैकासनसनिविष्टे,
मत्तो महत्त्वादिगुणैरनूने । चिहरिलास्पर्शनिमेषमुख्यै
रस्यैव मां लक्षयितामरौघः ॥ ४० ॥ अस्मि० हे देवि ! अस्मिन् तव सुते मयैकासनसंनिविष्टे मया सह एकस्मिन्नेवासने उपविष्टे सति अमरौधः देवसमूहः अस्यैव तव पुत्रस्य इलास्पर्शनिमेषमुख्यैः पृथ्वीतलस्पर्शनादि-९ चिन्हैः मां लक्षयिता उपलक्षयिष्यति, किंविशिष्टे ?, अस्मिन् मत्तो मत्सकाशात् महत्वादिगुणैरनूने संपूर्णे ॥ ४० ॥
अस्मिन्नसिव्यग्रकरे करीन्द्रा
रूढे रणाय प्रयतेऽरिभूषाः। ......पलायमाना वपुषो विगास्य
.त्युच्चत्वमेके गुरुतां तथान्ये ॥४१॥..... ... अस्मि० अस्मिन् तव पुत्रे असिव्यप्रकरे खगव्यग्रहस्ते करीन्द्रारूढे रणाय प्रयते संग्रामाय आदरपरे सति एके अरिभूपा. राजानः वपुषः शरीरस्य उच्चत्वं तथा अन्ये वपुषो। गुरुतां गुरुत्वं विगास्यन्ति, निन्दिष्यन्ति, किंविशिष्टा अरिभूपाः ? पलायमानाः ॥ ४१॥
अस्येषुपुंखाक्षरवीक्षणेन, क्षरन्मदाः संख्यमतन्वतोऽपि ।
२२
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३८४
१२
जैनकुमारसंभव
यास्यन्ति दास्यं समुपास्य लाख, दूरे मनुष्या दनुजारयोऽपि ।। ४२ ।।
अस्ये ० हे देवि ! ते सर्वप्रसिद्धाः सदानवा दानवसहिता दनुजारयोऽपि मागधवरदामप्रभास सिन्धुखंड प्रपातगुफातमिश्रगुफा सत्कप्रभृतिदेवा अपि अस्य तव पुत्रस्य लास्यं ३ नाट्यं समुपास्य कृत्वा अस्य तव पुत्रस्य दास्यं यास्यन्ति, किंविशिष्टा दनुजारयः इषुपुंखाया अक्षरदर्शनेन क्षरन्मदाः नश्यद्द्भर्वाः, किं कुर्वतोऽस्य ? संख्यं संग्रामं अतन्वतोऽपि ९ अकुर्वतोऽपि ॥ ४२ ॥
अस्मिन् दधाने भरताभिधानमुपेष्यतो भूमिरियं च गीश्व । विद्वद्भुवि स्वात्मनि भारतीति,
ख्यातौ मुदं सत्प्रभुलाभजन्माम् ॥ ४३ ॥ अस्मि० अस्मिन् तव पुत्रे भरताभिधानं दधाने सति इयं १५ भूमिः पृथ्वी च अन्यत् गीः सरखतीव विद्वद्भुवि विद्वज्जनस्थाने स्वात्मनि आत्मविषये भारतीति ख्यातौ सत्यां सत्प्रभुलाभजन्मां, सुखामिप्राप्तिसमुत्पन्नां, मुदं हर्ष उपेष्यतः, १ प्राप्स्यतः, विद्वांस इति विदन्ति, भरतस्येयं भारती, भरतक्षेत्रभूमिः सरखती वा ॥ ४३ ॥
२२
उदच्यमाना अपि यान्ति निष्ठां, सूत्रेषु जैनेष्विव येषु नार्थाः ।
[ एकादश
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सर्ग:] जैनकुमारसंभवं
३८५ तेषां नवानां निपुणे निधीनां, _स्वाधीनता वत्स्यति ते तनूजे ॥४४॥ उद० येषु निधिषु उदच्यमाना अपि निःकाम्यमानापि । अर्था द्रव्याणि निष्ठां क्षयं न यान्ति, केष्विव ? सूत्रेष्विव यथा जैनेषु आगमेषु अर्था निष्ठां न यान्ति, तद्यथा-"सव्वनईणं हुज्जवालु, या सव्व उदहिजं नीरं । इत्तो वि अणंतगुणो अणंतसो अत्थ सुतस्स ॥ १ ॥ इति न्यायात् आगमार्थनिष्ठां न यान्तीतिभावः, हे निपुणे? तेषां नवानां निधीनां खाधीनता खवशता ते तव तनूजे पुत्रे वर्त्यति भविष्यति, अमूनि ९ नव निधानानि-"नेसप्पे १ दुपए २ पिंगलए ३ सव्वरयण ४ महपउमे ५ कोलये ६ महाकाले ७ माणवगमहानिहि ८ खंखे ९॥१॥ एतेषु एते पदार्थाः स्युः, पुर १ रुणू १२ २ भूसण ३ रयण ४ वच्छ ५ सिप्पा ६ गराण ७ सच्छाण ८ नाडय ९ उप्पत्तिकमासनाम सुरठिय निहीणं ॥२॥ चकठपइठाणा अट्ठस्सेहाय नवयविक्खंभा बारसजोयणमंजूस-१५ संठिया जन्हवीयमूहे ॥ ३ ॥" ॥ ४४ ॥
न मानवीष्वेव समाप्तकामः,
प्रभामयीं मूर्तिमुपेतयासौ। समाः सहस्रं सुरशैवलिन्या,
समं समेष्यत्युपभोगभङ्गीः॥४५॥ न० हे देवि ! असौ तव पुत्रः मानवीष्वेव न समाप्तकामः॥ असंपूर्णाभिलाषः सन् प्रभामयीं मूर्तिमुपेतया प्राप्तया सुरशैव लिन्याः गङ्गायाः समं सहस्रं समाः सहस्रवर्षाणि उपभोगभङ्गी विलासादिसुखविच्छित्तीः समेष्यति प्राप्स्वति ॥ १५॥ २४
जै० कु. २५
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३८६
टीकया सहितम् [एकादशः सद्धर्मिकान् भोजयतोऽय भक्त्या
भक्तैर्विचित्रैः शरदां समुद्रान् । ३. भक्तेश्च भुक्तेश्च रसातिरेकं,
वक्तुं भविष्यत्यबुधा बुधाली ॥४६ ॥ सद्ध० हे देवि! अस्य तव सुतस्य सम्यक्त्वधारिणः १ सच्चित्तपरिहारिणः २ एकाहारिणः ३ ब्रह्मचारिणः ४ सत्यव्यवहारिणः ५ द्वादशव्रतधारिणः ६ ईदृग् षडरीयुक्तान् साधर्मिकान् सुश्रावकान् भक्त्या विचित्रैः शालिदालिपक्कान्न९घृतघोलाद्यैर्भक्तै रनैः शरदां वर्षाणां समुद्रात् कोटाकोटी.
भॊजयतः सतः भक्तेश्च अन्यत् भुक्तेश्च रसातिरेकं रसाधिक्यं वक्तुं जल्पितुं बुधाली विद्वत् श्रेणिरबुधा मूर्खा भविष्यति ॥४६॥
निवेशिते मूर्यमुना विहार
निमे मणिवर्णमये किरीटे।
न सुश्रु भर्ता किमुदारशोमां, १५ भूभृद्वरोऽष्टापदनामधेयः ॥४७॥
निवे. हे सुभु! अष्टापदनामधेयो भूभृद्वरः पर्वतः मुख्यः राजा वा उदारशोभां किं न भर्ती धरिष्यति अपि तु धरिष्य१८त्येव, क सति ! अमुना तव पुत्रेण विहारनिभेन प्रासादछलेन
मणिवर्णमये किरीटे मुकुटे मूर्ध्निमस्तके निवेशिते सति यत् उच्यते-"उत्सेधांगुलदीर्घयोजनमितं क्रोशत्रये चोच्छितं विस्तारे भरताधिराजविहितं गव्यूतमात्रोद्वरम् । एकाहर्निशवासनित्यविशदं कैलासभूषामणिं नाना सिंहनिषेधमुत्तममहं चैत्यं
स्तुवे सारदं ॥१॥" राजापि शिरसि मुकुटे निविशिते शोभां २७ प्रामोति मष्टापदेनापि प्रासादेन शोमा प्राप्तेति भावः ।। ४७॥
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सर्गः] जैनकुमारसंभवं ३८७ तथैष योगानुभवेन पूर्व
भवे स्वहस्तेऽकृत मोक्षतत्त्वम् । खरूपवीक्षामदकर्मबन्धा
त्रातुं यथाऽऽसत्स्यति तद्रयेण ॥४८॥ तथै० एष तव सुतः पूर्वभवे योगानुभावेन खहस्ते मोक्षतत्त्वं तथा अकृत यथा तत् मोक्षत्वं रयेण वेगेन खरूपवीक्षामद-६ कर्मबन्धात् त्रातुं रक्षितुं आसेत्स्यति आसन्नं भविष्यति ॥४८॥
एवं पुमर्थप्रथने समर्थः,
प्रभानिधिनैःस्वनिरासनिष्ठः । पाल्यो महोास्तव पद्मराग,
इव प्रयत्नान्न न गर्भगोऽयम् ॥ ४९ ॥ एवं० हे देवि ! एवं अमुना पूर्वोक्तप्रकारेण पुमर्थप्रथने १२ पुरुषार्थविस्तारे समर्थः प्रभानिधिः नैःखनिरासनिष्ठः दारिद्यनिराकरणतत्परः, एवंविधोऽयं गर्भगस्तव पुत्रः महोाः महापृथिव्याः पद्मराग इव प्रयत्नात् महोद्यमात् न न पाल्य-१५ अपि तु पालनीय एव ॥ ४९॥ गीर्वाणलोकेऽसि यथा गरीयां
स्तथा नृलोके भविता सुतस्ते । वयस्थ एवात्र सहग्वयस्या,
सम्पर्कसौख्यानि गमी ममात्मा ॥५०॥ ' गीर्वा० अहं गीर्वाणलोके देवलोके यथा गरीयानस्मि तथा नृलोके मनुष्यलोके तव सुतो गरीयान् भविता भवि-२२
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३८८
टीकया सहितम् [एकादशः ष्यति, वयस्थ एव यौवनं प्राप्त एव सुते मम आत्मा सहग्वयस्यः संपर्कसौख्यानि सदृक्षमित्रसंगमसुखानि गमिष्यति ॥ ५० ॥ ३ इत्युक्तिभिवृष्टिसिताम्बुमेघ
___ श्लाघाममोघां मघवा विधाय । तिरोदधे व्योमनि विद्युदर्चिः
स्तोमं स्वभासा परितो वितत्य ॥५१॥ इत्यु० मघवा इन्द्र इत्युक्तिभिः पूर्वोक्तवचनैर्वृष्टिसिताम्बुमेघश्लाघां शर्करोदकमेघप्रशंसां अमोघां सफलां विधाय कृत्वा ९तिरोदधे अदृश्यो बभूव, किं कृत्वा ? व्योमनि आकाशे खभासा
आत्मीयकान्त्या परितः समंततो विद्युदर्चिःस्तोमं विद्युत्तेजःसमूहं वितत्य विस्तार्य ॥ ५१ ॥ १२ तस्मिन्नथालोकपथाद्विभिन्ने,
हृनेत्रराजीवविकासहेतौ ।
सा पद्मिनीवानघचक्रबन्धौ, १५ क्षणात्तमःश्याममुखी बभूव ॥ ५२ ॥
तमि० अथानन्तरं तस्मिन् इन्द्रे आलोकपथाद्विभिन्ने दर्शनमार्गाद्विभिन्ने पृथग्भूते सति सा पमिनीव क्षणात्तमः१८ श्याममुखी बभूव, तमसा विषादेन श्यामवदना जाता, किं
विशिष्टे इन्द्रे ? हृनेत्रराजीवविकासहेतौ हृदयकमलनयन
कमलयोर्विकाशकारणे, पुनः किंवि० इन्द्रे ? अनघचक्रबन्धौ २१ अनघानां निष्पापानां चक्रे समूहे बन्धुसदृशे पक्षे अनघे
निर्दूषणे चक्रबन्धी सूर्ये आलोकपथाद्विभिन्ने सति कमलिनी २३ तमःश्याममुखी स्यात् तथा सा जाता ॥ ५२ ॥
___
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३८९
सर्गः] जैनकुमारसंभवं ३८९
अवोचदालीरुपजानुपाली
भूय स्थिता गद्गदया गिरा सा । अतृप्त एवात्र जने रसस्य,
हला बलारियरमत्किमुक्तेः॥ ५३॥ अवो० सा सुमंगला गद्दया गिरा स्खलिताक्षरया वाण्या उपजानु समीपे पालीभूय श्रेणीभूय स्थिता, एवंविधा आलीः ६ सखीरवोचत् , हे हलाः सख्यः ! बलारिः इन्द्रः अत्र मल्लक्षणे जने रसस्य अतृप्त एव उक्तः किं व्यरमत् व्यरराम ॥ ५३ ॥
दौःस्थ्यं किमस्यापि कथाप्रथासु,
न्यासोचिता वा किमु नासि तासाम् । वाणीरसे मामसमाप्तकामां,
विहाय यत्सैष ययौ विहायः ॥ ५४॥ १२ दौ० अस्यापि इन्द्रस्य कथाप्रथासु किं दौःस्थ्यं दारिद्र्यं वर्तते, वा अथवा तासां कथाप्रथानां किमु अहं न्यासोचिता संवासयोग्या नास्मि, यत् यस्मात् कारणात् स एष १५ इन्द्रः वाणीरसे असमाप्तकामां असंपूर्णाभिलाषां माम् विहाय मुक्त्वा विहायः आकाशं ययौ ॥ ५४ ।।
यस्यामृतेनाशनकर्म तस्य,
वचः सुधासारति युक्तमेतत् । पातुः पुनस्तत्र निपीयमाने,
चित्रं पिपासा महिमानमेति ॥ ५५॥ २१ यस्या० यस्य इन्द्रस्य अमृतेन अशनकर्म आहारो वर्तते, तस्य इन्द्रस्य वचःसुधासारति अमृतस्य आसार इवाचरति, २३
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टीकया सहितम् [एकादशः अमृतवृष्टिरिव भवति एतद्युक्तं, पुनः चित्रं आश्चर्य तत्र वचसि निपीयमाने सति पातुः पिबतीति पाता तस्य पिबतः पुरुषस्य ३ पिपासा तृष्णा महिमानं एति ॥ ५५॥
न मार्जितावत्कवलेन लेह्या,
न क्षीरवच्चांजलिना निपेया। ६ अहो सतां वाग् जगतोऽपि भुक्त
पीतातिरिक्तां विदधाति तुष्टिम् ॥५६॥ न० अहो इति आश्चर्ये, सतां वाक् मार्जितावत् कवलेन ९ लेह्या न आखाद्या वर्तते, च अन्यत् सतां वाक् क्षीरवत् पानीयवत् अञ्जलिना पेया न वर्तते, सतां वाग् जगतोऽपि विश्वस्य
मुक्तपीतातिरिक्तां, भोजनात् क्षीरपानात् विशेषकारिणी तुष्टिं १२ विदधाति ॥ ५६ ॥ . न चन्दनं चन्द्रमरीचयो वा,
न चाप्यपाचीपवनो वनी वा । १५ सितानुविद्धं न पयः सुधा वा,
__ यथा प्रमोदाय सतां वचांसि ॥ ५७ ॥
न० न चन्दनं वा अथवा चन्द्रमरीचयश्चन्द्रकिरणाः १८ अपाचीपवनो दक्षिणानिलो न चापि वा अथवा वनी महद्वनं सितानुविद्धं शर्करासंयुक्तं पयो वा अथवा सुधा अमृतं
तथा प्रमोदाय न स्युर्यथा सतां वचांसि प्रमोदाय स्युः ।। ५७ ॥ २१ अंगुष्ठयंत्रार्दनया ददानौ,
रसं रसज्ञा सुधियां रसज्ञे ।
सुधां प्रकृत्या किरती परेष्टु२४ . स्तनेक्षुयष्टी न न धिकरोति ॥ ५८॥...
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सर्गः] जैनकुमारसंभवं
३९१ ___ अंगु० सुधियां रसज्ञा परेष्टुः बहुप्रसूता गौस्तस्याः स्तनः इक्षुयष्टीश्च द्वौ न न धिक्करोति अपि तु धिकरोतीति तिरस्करोत्येव, किंविशिष्टौ ? परेष्टुस्तनेक्षुयष्टी अंगुष्ठयंत्रार्दनया अंगुष्ठस्य यंत्रस्य ३ च अर्दनया पीडनया रसौ ददानौ, किंवि०? रसज्ञा रसज्ञे पुरुषे प्रकृत्या खभावेन सुधां अमृतं किरती विस्तारयन्ती॥५८॥
अवेदि नेदीयसि देवराजे, __श्रोत्रोत्सवं तन्वति वाग्विलासैः। दिनो न गच्छन्नपि हन्त सख्या,
कालः किमेवं कुतुकैः प्रयाति ॥ ५९॥ ९ अवे. हे सख्यः ! हन्त इति वितर्के । मया दिनो गच्छन्नपि न अवेदि न ज्ञातः, क सति ? नेदीयसि प्रत्यासन्ने देवराजे इन्द्रे वाग्विलासैः श्रोत्रोत्सवं कर्णोत्सवं तन्वति कुर्वति सति काल: १२ किं एवं अमुना प्रकारेण कुतुकैराश्चयः प्रयाति ॥ ५९॥
विज्ञापयांचक्रुरथालयस्तां,
विमुग्धचित्ते गतचिन्तयालम् । स्नातुं च भोक्तुं च यतस्व पश्य,
खमध्यमास्कन्दति चण्डरोचिः॥६० ॥ विज्ञा० अथानन्तरं आलयः सख्यस्तां सुमङ्गलां विज्ञापयां १४ चक्रुः, हे विमुग्धचित्ते ! गतचिंतया अलं पूर्यतां पश्य विलोकय चण्डरोचिः सूर्यः खमध्यं आस्कन्दति आकाशमध्यं कामति, वं सातुं स्नानं कर्तुं च अन्यत् भोक्तुं यतख उपक्रमं कुरु ॥६०॥२॥
अहो अहः प्राप्य कृतप्रयत्नः, - शनैः शनैरुचपदोपलब्धौ ।
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टीकया सहितम्
करे खरीभूय नयस्य तत्त्वं, व्यनक्ति सूरेष्वपरेषु सूरः ॥ ६१ ॥
३ अहो ० अहो इत्याश्चर्ये, सूरः सूर्यः अहर्दिनं प्राप्य शनैः शनैरुच्च पदोपलब्धौ कृतप्रयत्नः सन् करे कणे खरीभूय कठोरो भूत्वा अपरेषु सूरेषु भटेषु नयस्य न्यायस्य तत्त्वं व्यनक्ति ६ प्रकटीकरोति, दिवसे प्राप्ते सति उच्चपदप्रात्यर्थं प्रयत्नः क्रियते करे दंडे खरत्वं क्रियत इति भावः ॥ ६१ ॥ लोकं ललाटंत परश्मिदण्डैरुत्सार्य भानुर्विजनीकृतेषु । सरस्स्ववक्रान्वियदन्तरस्थः,
३९२
कोडे करान्यस्यति पद्मिनीनाम् ॥ ६२ ॥ लोकं० भानुः सूर्यः विजनीकृतेषु निर्जनेषु सरस्सु सरोवरेषु पद्मिनीनां क्रोडे उत्संगे वियदंतरस्थः सन् आकाशमध्ये स्थितः सन् अवक्रान् करान् न्यस्यति व्यापारयति, किं १५ कृत्वा ? ललाटंतपरश्मिदंड: ललाटंतपैः रश्मिदंडे : किरणदंडे : लोकं उत्सार्य परत्र कृत्वा ॥ ६२ ॥
१२
१८
पद्मं श्रियः स बभूव भानोः, करैरधूमाय सूर्यकान्तः । भर्तुः प्रसादे सदृशेऽपि संप
[ एकादशः
फलोपलब्धिः खलु दैववश्या ॥ ६३ ॥
पद्म० भानोः सूर्यस्य करैः किरणैः पद्मं कमलं श्रियः सद्म २२ लक्ष्म्याः गृहं बभूव, सूर्यस्य करैः सूर्यकान्तः अधूमायत धूम
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सर्गः ]
जैनकुमारसंभवं
वदाचरितः, भर्तुः खामिनः सदृशेऽपि प्रसादे संपत्फलोपलब्धिर्लक्ष्मीफलप्राप्तिः खलु निश्चितं दैववश्या दैवायत्ता स्यात् ॥ ६३॥ यः कोऽपि दधे निशि राजशब्द, दिगन्त देशानियता ययौ सः । दधासि कस्योपरि तिग्मभावं, पान्थैः श्रमार्तैरविरेवमूचे ॥ ६४ ॥ यः ० श्रमार्तेः पान्थैः श्रमाकुलैः पथिकैः रविः सूर्यः एवं ऊचे । एवमिति किं ? यः कोऽपि निशि रात्रौ राजशब्दं दधे धरति स्म, सः इयता दिगंतदेशान् ययौ तर्हि कस्योपरि ९ तिग्मभावं तीव्रत्वं दधासि ॥ ६४ ॥
तोयाशया धावित एष पान्थवातो विमुद्यन् मृगतृष्णिकाभिः । अप्राप्य तोयं क्षरदश्रुपूरे
३९३.
रुत्थापयत्यम्बु किलोपरेऽपि ॥ ६५ ॥
;
तोया० एष पान्थव्रातः पथिकसमूहस्तोयाशया जलस्येच्छया १५ धावितः सन् तोयं जलं अप्राप्य क्षरदश्रुपूरैः किल इति सत्ये ऊषरेsपि अंबु उत्थापयति, ऊषरे स्थानेऽपि जलप्रकटं करोति, किं कुर्वन् ? पान्थत्रातं मृगतृष्णिकाभिः विमुह्यन् ॥ ६५ ॥ अमी निमीलन्नयना विमुक्तबाह्यभ्रमा मौनजुषः शकुन्ताः । श्रयन्ति सान्द्रद्रुमपर्णशाला,
अभ्यस्तयोगा इव नीरजाक्षि ॥ ६६ ॥ अमी० हे नीरजाक्षि कमललोचने ! अमी निमीलन्नयनाः २३
१२
१८
२१
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३९४
टीकया सहितम् [एकादशः मील्यमानलोचनाः विमुक्तबाह्यभ्रमाः मौनजुषः एवंविधाः शकुन्ताः पक्षिणः सांद्रुमपर्णशालाः निबिडवृक्षपत्रशालाः ३ अयन्ति, उत्प्रेक्ष्यते--अभ्यस्तयोगा इव ।। ६६ ॥
उदीयमानोऽकृत लोककर्म
साक्षीत्यभिख्यामयमाहितार्थाम् । ६ भाखानिदानीं तु कृतान्ततात,
इति त्विषा त्रासितसर्वसत्त्वः ॥ ६७॥ उदी० अयं भावान् सूर्यः उदीयमानः सन् लोककर्म९साक्षी इति अभिख्यां नाम आहितार्थो सत्यार्थी अकृत कृतवान् , तु पुनरिदानी अधुना कृतांततात इति अभिख्यां आहितार्थी अकृत, किंवि० सूर्यः ? विषा कान्त्या त्रासितसर्वसत्त्वः॥६७॥ इतीरयित्वा विरतासु तासु,
तारुण्यमारूढमहनिरीक्ष्य ।
सुमङ्गलाय स्वयशोनियुक्त१५ धीमज्जना मजनसम भेजे ॥ ६८॥
इती० अथानन्तरं सुमङ्गला मजनसद्म मज्जनगृहं भेजे, किं कृत्वा ? अहर्दिन तारुण्यं यौवनं आरूढं निरीक्ष्य, कासु १८सतीषु तासु सखीषु इति ईरयित्वा कथयित्वा विरतासु सतीषु, किंलक्षणा सुमंगला ? खयशोनियुक्तधीमज्जना, आत्मीययशसा नियुक्ता व्यापारिता, विद्वजना यया सा खयशोनि०॥६८॥
तद्वक्षोजश्रीप्रौढिमालोक्य हैमः,
कुम्भैर्मन्दाक्षेणेव नीचीभवद्भिः। अम्भःसंभारभ्राजिमिः स्नानपीठन्यस्ता सख्यस्तां मजयामासुराशु ॥ ६९॥
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सर्गः]
जैनकुमारसंभवं
३९५
COM
तद्व० सख्यः खानपीठन्यस्ता उपविष्टां तां सुमङ्गलां अंभः संभारभाजिभिः जलसमूहेन शोभमानैः भृतैः हैमैः सुवर्णसत्कैः कुंभैर्घटैराशु शीघ्रं मजयामासुः स्नानं कारयामासुः, किं३ कुर्वद्भिः कुंभैः ? उत्प्रेक्ष्यते-तद्वक्षोजश्रीप्रौढिं आलोक्य तस्याः सुमङ्गलायाः स्तनलक्ष्मीसत्काः प्रौढिं दृष्ट्वा मन्दाक्षेणेव लज्जयेव नीचीभवद्भिः ॥ ६९ ॥ जगद्भर्तुर्वाचा प्रथममथ जंभारिवचसा,
रसाधिक्यात्तृप्तिं समधिगमितामप्यनुपमाम् । खरायातैर्भक्ष्यैः शुचिभुवि निवेश्यासनवरे,
बलादालीपाली चटुघटनयाऽभोजयदिमाम् ॥७० जग० आलीपाली सखीश्रेणिः शुचिभुवि पवित्रभूमौ आसनवरे इमां सुमंगला बलान्निवेश्य खरायातैः खर्गात् । आगतैर्भक्ष्यैः चटुघटनया चाटुवचनया अभोजयत्, किंलक्षणां सुमंगलां ? प्रथमं जगद्भर्तुर्वाचा श्रीऋषभदेवस्य वचनेन अथ जंभारिवचसा इन्द्रस्य वाण्या रसाधिक्यात् अनुपमां तृप्तिं ५ समधिगमितामपि प्रापितामपि ॥ ७० ॥ मूरिः श्रीजयशेखरः कविघटाकोटीरहीरच्छवि
धेम्मिल्लादिमहाकवित्वकलना कल्लोलिनीनीरधिः। १५ वाणीदत्तवरश्चिरं विजयते तेन स्वयं निर्मिते,
सों जैनकुमारसम्भवमहाकाव्येऽयमेकादशः॥७१॥ इति श्रीअञ्चलगच्छकविचक्रवर्तिश्रीजयशेखरसूरिविरचितायां श्रीजैन- १ कुमारसंभवस्य तच्छिष्यश्रीधर्मशेखरसूरिविरचितायां टीकायां
श्रीमाणिक्यसुन्दरसूरिशोधितायां एकादश
सर्गव्याख्या समाप्ता ॥७॥
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३९६
३.
६
सुरासुरनराधीश सेव्यमानपदांबुजः । नाभिराजांगजो नित्यं श्रीयुगादिजिनो मुदे ॥ १ ॥ श्रीमदंचलगच्छे जयशेखरसूरयः । चत्वारस्तैर्महाग्रंथाः कविशकैर्विनिर्मिताः ॥ २ ॥ प्रबोधश्चोपदेशश्च चिंतामणिकृतोत्तरौ । कुमारसंभवं काव्यं चरित्रं धम्मिलस्य च || ३ || तेषां गुरूणां गुणबन्धुराणां शिष्येण धर्मोत्तरशेखरेण । श्रीजैनकुमारसंभवीयं सुखावबोधाय कृतेति टीका ॥ ४ ॥ देशे सपादलक्षे सुखलक्ष्ये षट्पुरे पुरप्रवरे । नयनर्वसुवार्धिचन्द्रे (१४८३) वर्षे हर्षेण निर्मिता सेयं ॥ ५ ॥ १२ विद्वत्पद्म विकाशम् दिनकराः सूरीश्वरा भाश्वराः
1.
माणिक्योत्तरसुन्दराः कविवरा कृत्वा प्रसादं परं । भक्त्या श्री जयशेखरे निजगुरौ शुद्धामकार्षुर्मुदा, १५ श्रीमज्जैनकुमारसंभवमहाकाव्यस्य टीकामिमां ॥ ६ ॥ यावन्मेरुर्महीपीठे स्थिरतां भजते भृशं ।
वाच्यमाना जनैस्तावट्टीकासौ नन्दताच्चिरम् ||
॥ इति समाप्तः ॥
१९ इति श्रेष्ठिदेवचन्द्र- लालभ्रातृ - जैनपुस्तकोद्धारे प्रन्थाः ।
टीका सहितम्
अथ प्रशस्तिः
[ एकादशः
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श्रीमती आगमोदयसमिति तथा शेठ देवचंद लालभाई
जैन पुस्तकोद्धार फंडना हालमां मळतां ग्रंथो.
नाम.
आगमोदय समितिनां ग्रंथो. अंक.
रूपिया. ४५ भक्तामरस्तोत्रपादपूर्तिरूप काव्यप्रथम विभागभाषांतर, टीका
३-०-० ४७ पंचसंग्रह-टीकासह ...
२-८-० ४८ विशेषावश्यक भाषांतर भाग २ जो ...
३-०-० ५० जीवसमास प्रकरणम् सटीक ...
१-८-० ५१ स्तुति चतुर्विंशतिका सचित्रा श्रीशोभनमुनिकृता संस्कृता ८-०-० ५२ स्तुति चतुर्विशतिका सचित्रा कवि धनपालकृता व ऐंद्रस्तुति ६-०-० ५३ चतुर्विंशतिका-सचित्रा श्री बप्प भट्टिसूरिकृता भाषांतरयुक्त ६-०-० ५४ भक्तामरस्तोत्रपादपूर्तिरूप काव्यद्वितीयविभागः टीका
भाषांतर ... ... ... ... ३-८-० ५५ नंद्यादि (सप्तसूत्र ) गाथाद्यकारादियुतो विषयानुक्रमः
२-०५६ आवश्यकसूत्रम्-मलयगिरिकृत टीकायुक्तं (पूर्वभागः) ४-०-० ५७ लोकप्रकाश-प्रथम विभागः द्रव्यलोकः सर्ग १ थी ११ .
भाषांतर ... ... ... ... ५९ चतुर्विशतिका-जिनानंद स्तुति सचित्रा-मेरुविजय
कृता भाषां० ... ६० आवश्यक सूत्रम्-मलयगिरिकृत टीकायुक्तं (द्वितीय
भागः) ... ... ... ...
(फंडमांथी बीजो भाग संपूर्ण छपायो छे) ६१ लोकप्रकाश-द्वितीयविभागः क्षेत्रलोकः सर्ग १२
थी २० भाषां. ... ... ... ३-८-०
३-८-०
२-८-०
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नाम.
१-४-०
शेठ दे० ला० जै० पु० फण्डनां ग्रंथो. अंक.
रूपिया. ८५ आवश्यकसूत्रम्-मलयगिरिकृत टीकायुक्तं (तृतीय भागः) २-८-०
(बे भाग समितिमांथी छपाया छे.) ८६ लोकप्रकाश-चतुर्थ विभागः सप्तत्रिंशतसर्गानि संपूर्ण ग्रन्थ १-०-० ८७ भरतेश्वर-बाहुबलिवृत्ति द्वितीयविभागः( संपूर्णम् ) २-०-०
नवीन ग्रन्थो ८८ प्रशमरति प्रकरणम् वाचक उमाखातिविरचितं
बृहतगच्छीय श्रीहरिभद्रसूरिकृतविवरणसमेतं ... ८९ अध्यात्मकल्पद्रुमः रत्नचंद्रगणि द्वयधनविजयगणिकृत टीका युक्त ... ... ... ...
३-८-० गौतमीय काव्यम्-रूपचंद्रगणिकृत महाकाव्यं ... १-८-० ९१ सटीक वैराग्यशतकादि ग्रंथ पंचकम्-पृथक् पृथक
मुनिराजोकृत-व्याख्यान योग्य ... .... १-०-० अभिधानचिंतामणिकोशादिपंच कलिकाल सर्वज्ञ
हेमचन्द्राचार्यादि विरचितं ... ... ... ९३ जैन कुमारसंभव सटीक. जयशेखरसूरि विरचितं
धर्मशेखरसूरिकृत टीकासहितम ... ... २-८-० ९४ सिद्धहेमचंद्र-शब्दानुशासन-बृहद्वृत्त्यवर्णिः नवपाद अवचूर्णिकार-अमरचंद्रः ... ... ...
मुद्रणालये प्राप्तिस्थानम्शेठ देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फंड
__ बडेखान् चकला, गोपीपुरा-सुरत. इति श्रेष्टि देवचंद-लालभ्रातृ-जैन-पुस्तकोद्धार-ग्रन्थाङ्के-ग्रन्थाङ्कः ९३
४-०-०
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