Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Part 04
Author(s): Bhadrabahuswami, Chaturvijay, Punyavijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JL EISTIGES25252 ॥ अर्हम् ॥ श्री आत्मानन्द-जैन-ग्रन्थरत्नमाला-रत्नम् ८७ नियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्त्युपेत 2EETES DEEPSE बृहत कल्पसूत्रम् SECREEESEथा चतुर्थो विभागः ܒܒܡܫܫܫܫܫܫܫܫܫܫܡܡܡܡܡܡܡܡܡܡܡܡRE 15ESESESESESESE : प्रकाशक: श्री जैन आत्मानन्द सभा - खारगेट, भावनगर-३६४००१ (सौ.) ESESESESESESESESEGESESEGESSESSSSSSGE Education International www.jainelibrary org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआत्मानन्द-जैनग्रन्थरनमालायाः सप्ताशीतितम रनम् (८७) स्थविर-आर्यभद्रबाहुस्वामिप्रणीतस्वोपज्ञनिर्युक्त्युपेतं बृहत् कल्पसूत्रम् श्री सङ्घदासगणिक्षमाश्रमणसङ्कलितभाष्योपबृंहितम् । जैनागम-प्रकरणाद्यनेकग्रन्थातिगूढार्थप्रकटनप्रौढटीकाविधानसमुपलब्ध 'समर्थटीकाकारे तिख्यातिभिः श्रीमद्भिर्मलयगिरिसूरिभिः प्रारब्धया वृद्धपोशालिकतपागच्छीयैः श्रीक्षेमकीर्त्याचार्यैः पूर्णीकृतया च वृत्त्या समलङ्कृतम् । तस्यायं चतुर्थ विभागः [ द्वितीय-तृतीयाबुद्देशकौ ।] तत्सम्पादकौसकलागमपरमार्थप्रपचप्रवीण-बृहत्तपागच्छान्तर्गतसंविग्नशाखीय-आद्याचार्यन्यायाम्भोनिधि-श्रीमद्विजयानन्दसूरीश (प्रसिद्धनामश्रीआत्मारामजी महाराज) शिष्यरत्नप्रवर्तक-श्रीमत्कान्तिविजयमुनिपुङ्गवानां शिष्य-प्रशिष्यौ चतुरविजय-पुण्यविजयौ । प्रकाशं प्रापयित्रीभावनगरस्था श्रीजैन-आत्मानन्दसभा । SNNEMimicipatel l ectuawooneen प्रथम आवृत्ति : वीर संवत २४६५, ईस्वीसन - १९३८, विक्रम संवत १९९४, आत्मसंवत ४२, प्रत - ५०० द्वितीय आवृत्ति : वीर संवत २५२८, ईस्वीसन - २००२, विक्रम संवत २०५८, आत्मसंवत १०५, प्रत - ६०० Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक: बृहत् कल्पसूत्रम् । मूल्य: रू. २५०/ प्रकाशक: "प्रमोदकांत खीमचंद शाह - प्रमुख श्री जैन आत्मानंद सभा भावनगर - ३६४ ००१." * धन्य भक्ति धन्य दाता * , दादर जैन पौषधशाला ट्रस्ट आराधना भवन, दादर, मुंबई " श्री हीरसूरीश्वरजी जगद्गुरु श्वे. मू. पू. तप. जैन संघ ट्रस्ट, मलाड, मुंबई • महुवा जैन संघ, महुवा, जि. भावनगर " शाहीबाग गीरधरनगर जैन संघ, अहमदाबाद • भूतीबेन जैन उपाश्रय, शाहीबाग, अहमदाबाद • श्री जैन श्वे. मू.पू.संघ, शिव, मुंबई * PRINTERS Tejas Printers 403, Vimal Vihar Apartment, 22, Saraswati Society, Nr. Jain Merchant Society, Paldi, AHMEDABAD - 380 007. • Ph.: (079) 6601045 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (अर्पण) जैन छेद आगमोना प्रकाशननी महत्ताने समजनार अने ए आगमोना गम्भीर रहस्योने उकेलनार विद्वान् मुनिगणना करकमलमा मुनि चतुरविजय तथा मुनि पुन्यविजय Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्दन जे महापुरुषे, स्वर्गवासी गुरुदेव श्री १००८ श्री विजयानंदसूरीश्वर (प्रसिद्ध नाम श्री आत्मारामजी महाराज) नी आज्ञा अने आंतर इच्छाओने शिरोधार्य करी तेमज • तेने सांगोपांग पार उतारवा अथाग प्रयत्न सेवी, एमना पवित्र पट्टने शोभावेल छे, ए धर्मधुरंधर, धर्मरक्षक पुरुषसिंह श्री १००८ श्री विजयवल्लभसूरिवर नी सेवामां बृहत् कल्पसूत्रनो आ चतुर्थ विभाग सादर अर्पण करीए छीए. चरणोपासक शिशुओ मुनि चतुरविजय अने मुनि पुण्यविजय Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्तपागच्छान्तर्गत संविग्नशाखीय आद्याचार्य न्यायाम्मोनिधि श्री १००८ श्री विजयानन्दसरि पट्ट प्रतिष्ठित आचार्यप्रवर :जन्म : :दीक्षा: विक्रम संवत् १९२७ वडोदरा. विक्रम संवत् १९४३ राधनपुर. श्री १००८ श्री विजयवल्लभसूरिमहाराज स्वर्गगमनः :आचार्यपदारोहण: :चारित्रसुवणोत्सव: वि. सं.२०१० भादरवा सुद १० विक्रम संवत् १९८१ लाहोर, विक्रम संवत् १९९४ ज्येष्ठ वदि ९. ता. २२-९-१९५४, मुंबइ. Jain Education intermesoni Founiverseasonal use Only jainelibrary.org Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ક , શિવમસ્તુ સર્વજગતઃ ચરમ તીર્થપતિ શ્રી મહાવીરસ્વામિને નમઃ શ્રી આત્મ-વલ્લભસૂરીશ્વરજી સદગુરુભ્યો નમઃ પૂ. પ્રવર્તક મુનિરાજ શ્રી કાંતિવિજયજી મ. સાહેબનાં શિષ્ય પ્રશિષ્ય પૂ. મુનિરાજ શ્રી ચતુરવિજયજી મ. તથા પૂ. મુનિરાજ શ્રી પુણ્યવિજયજી મહારાજે આજથી ૬૯ વર્ષ પહેલાં પૂર્ણ કાળજીથી સંપાદન કરેલ બૃહતું કલ્પસૂત્રનાં ભાગ ૧ થી ૬ અમારી સંસ્થાએ છપાવેલ તે ઘણાં વખતથી અપ્રાપ્ય હતા. તેનું પુનર્મુદ્રણ પૂજ્યોની કૃપાથી અનેક સંઘોનાં સહકારથી અમે કરી રહ્યાં છીએ તેનો અમને અપૂર્વ આનંદ છે. બૃહત્ કલ્પસૂત્રની આ આવૃતિમાં દરેક ભાગમાં જે શુદ્ધિ પત્રક હતું તે અને છઠ્ઠા ભાગમાં છ એ ભાગનું શુદ્ધિપત્રક હતું. તે બંને શુદ્ધિપત્રકની શુદ્ધિઓ ઉમેરી છે. ઉપરાંત, પ્રથમ આવૃતિ પ્રગટ થયા પછી આગમ પ્રભાકર મુનિ શ્રી પુણ્યવિજયજીએ અન્ય હસ્તપ્રતોના આધારે છાપેલી નકલમાં જ અનેક સ્થળોએ શુદ્ધિવૃદ્ધિ કરી હતી તે નકલો અમદાવાદ સ્થિત લાલભાઈ દલપતભાઈ ભારતીય સંસ્કૃતિ વિદ્યામંદિરમાં સુરક્ષિત છે તેના આધારે પણ અહીં શુદ્ધિ પત્રક ઉમેરવામાં આવ્યું છે. તેથી જિજ્ઞાસુઓને અધ્યયનમાં સરળતા રહેશે. શુદ્ધિવૃદ્ધિયુક્ત નકલો ઉપલબ્ધ કરાવી આપવા બદલ અમે ઉપર્યુક્ત સંસ્થાના આભારી છીએ. આ ગ્રંથનાં વાચનથી પૂજ્ય સંયમમાર્ગનાં વધુ જાણકાર બને અને મુક્તિપંથમાં આગળ વધે એ જ પ્રાર્થના. - શ્રી જેન આત્માનંદ સભા ભાવનગર Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ बृहत्कल्पसूत्र चतुर्थविभागसंशोधनकृते सङ्गृहीतानां प्रतीनां सङ्केताः । भा० पत्तनस्थ भाभा पाटकसत्कचित्कोशीया प्रतिः । डे० अमदावाद डेलाउपाश्रयभाण्डागारसत्का प्रतिः । मो० पत्तनान्तर्गतमका मोदी भाण्डागारसत्का प्रतिः । ले० पचनसागरगच्छोपाश्रयगतले हे रुवकीलसत्कज्ञानकोशगता प्रतिः । कां० प्रवर्तक श्रीमत्कान्तिविजयसत्का प्रतिः । तामू० पत्तनीयश्रीसङ्घभाण्डागारसत्का ताडपत्रीया मूलसूत्रप्रतिः । ताटी० पत्तनीयश्री सङ्घभाण्डागारसत्का ताडपत्रीया टीकाप्रतिः । ताभा० पत्तनीय श्रीसङ्घभाण्डागारसत्का ताडपत्रीया भाष्यप्रतिः । प्रकाश्यमानेऽस्मिन् ग्रन्थेऽस्माभिर्येऽशुद्धाः पाठाः प्रतिषूपलब्धा स्तेऽस्मत्कल्पनया संशोध्य ( ) एताह - ग्वृत्तकोष्ठकान्तः स्थापिताः सन्ति, दृश्यतां पृष्ठ १० पङ्क्ति २६, पृ० १७ पं ३०, पृ० २५ पं० १२, पृ० ३१ पं० १७, पृ० ४० पं० २४ इत्यादि । ये चास्माभिर्गलिताः पाठाः सम्भावितास्ते [ ] एतादृक्चतुरस्रकोष्ठकान्तः परिपूरिताः सन्ति, दृश्यतां पृष्ठ ३ पंक्ति ९, पृ० १५ पं० ६, पृ० २८ पं० ५, पृ० ४९ पं० २६ इत्यादि । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाश्यमानेऽस्मिन् ग्रन्थे टीकाकृताऽस्माभिश्च निर्दिष्टानामवतरणानां स्थानदर्शकाः सङ्केताः। अनुयो. आचा० श्रु० अ० उ० आव० हारि० वृत्तौ आव०नि० गा० । आव० नियु० गा० आव० मू० भा० गा० उ० सू० उत्त० अ० गा० ओघनि० गा० कल्पबृहद्भाष्य गा० चूर्णि जीत० भा० गा० तत्त्वार्थ दश० अ० उ० गा. दश० अ० गा० । दशवै० अ० गा." दश० चू० गा० देवेन्द्र० गा० नाट्यशा० पञ्चव० गा० पिण्डनि० गा० प्रज्ञा० पद प्रशम० आ० मल० महानि० अ० विशे० गा० विशेषचूर्णि अनुयोगद्वारसूत्र आचाराङ्गसूत्र श्रुतस्कन्ध अध्ययन उद्देश आवश्यकसूत्र हारिभद्रीयवृत्तौ आवश्यकसूत्र नियुक्ति गाथा आवश्यकसूत्र मूलभाष्य गाथा उद्देश सूत्र उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन गाथा ओघनियुक्ति गाथा बृहत्कल्पबृहद्भाष्य गाथा बृहत्कल्पचूर्णि जीतकल्पभाष्य गाथा तत्त्वार्थाधिगमसूत्राणि दशवैकालिकसूत्र अध्ययन उद्देश गाथा दशवैकालिकसूत्र अध्ययन गाथा दशवैकालिकसूत्र चूलिका गाथा देवेन्द्र-नरकेन्द्रप्रकरणगत देवेन्द्रप्रकरण गाथा भरतनाट्यशास्त्रम् पञ्चवस्तुक गाथा पिण्डनियुक्ति गाथा प्रज्ञापनोपाङ्गसटीक पद प्रशमरति आर्या मलयगिरीया टीका महानिशीथसूत्र अध्ययन विशेषावश्यकमहाभाष्य गाथा बृहत्कल्पविशेषचूर्णि Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्य० भा० पी० गा० व्यवहारसूत्र भाष्य पीठिका गाथा व्यव० उ० भा० गा० व्यवहारसूत्र उद्देश भाष्य गाथा श० उ० शतक उद्देश श्रु० अ० उ. श्रुतम्कन्ध अध्ययन उद्देश सि० । सिद्ध सिद्धहेमशब्दानुशासन सि० हे० औ० सू० सिद्धहेमशब्दानुशासन औणादिक सूत्र हैमाने० द्विस्व० हैमानेकार्थसङ्ग्रह द्विस्वरकाण्ड ___ यन टीकाकृद्भिर्ग्रन्थाभिधानादिकं निर्दिष्टं स्यात् तत्रास्माभिरुल्लिखितं श्रुतस्कन्ध-अध्ययन-उद्देश-गाथादिकं स्थानं तत्तद्न्थसत्कं ज्ञेयम् , यथा पृष्ठ १५ पं० ९ इत्यादि । यत्र च तन्नोल्लिखितं भवेत् तत्र सामान्यतया सूचितमुद्देशादिकं स्थानमेतत्प्रकाश्यमानबृहत्कल्पसूत्रग्रन्थसत्कमेव ज्ञेयम् , यथा पृष्ठ २ पंक्ति २-३-४, पृ० ५५० ३, पृ० ८ पं० २५, पृ० ११ पं० २७, पृ० ६७ पं० १२ इत्यादि । प्रमाणत्वेनोद्धृतानां प्रमाणानां स्थानदर्शक ग्रन्थानां प्रतिकृतयः। शेठ देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फंड सुरत । रतलाम श्रीऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था । शेठ देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड सुरत । आगमोदय समिति । रतलाम श्रीऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था । आगमोदय समिति । अनुयोगद्वारसूत्रअनुयोगद्वारसूत्र चूर्णीअनुयोगद्वारसूत्र सटीक (मलधारीया टीका) । आचाराङ्गसूत्र सटीकआवश्यकसूत्र चूर्णीआवश्यकसूत्र सटीक । (श्रीमलयगिरिकृत टीका) - आवश्यकसूत्र सटीक ( आचार्य श्रीहरिभद्रकृत टीका) आवश्यक नियुक्तिओघनियुक्ति सटीक-- कल्पचूर्णिकल्पबृहद्भाष्यकल्पविशेषचूर्णिकल्प व्यवहार-निशीथसूत्राणि आगमोदय समिति । आगमोदय समिति प्रकाशित हारिभद्रीय टीकागत । आगमोदय समिति हस्तलिखित । जैनसाहित्यसंशोधक समिति। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाभिगमसूत्र सटीकदशवैकालिक नियुक्ति टीका सहदशाश्रुतस्कन्ध अष्ठमाध्ययन र ( कल्पसूत्र) देवेन्द्रनरकेन्द्र प्रकरण सटीक-- नन्दीसूत्र सटीक (मलयगिरिकृत टीका) नाट्यशास्त्रम्निशीथचूर्णिपिण्डनियुक्तिप्रज्ञापनोपाङ्ग सटीकवृहत्कर्मविपाकमहानिशीथसूत्रराजप्रश्नीय सटीकविपाकसूत्र सटीकविशेषणवतीविशेषावश्यक सटीकव्यवहारसूत्रनियुक्ति भाष्य टीकासिद्धप्राभूत सटीकसिद्धहेमशब्दानुशासनसिद्धान्तविचारसूत्रकृताङ्ग सटीकस्थानाङ्गसूत्र सटीक आगमोदय समिति । शेठ देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड सुरत । शेठ देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फंड सुरत । श्रीजेन आत्मानन्दसभा भावनगर । आगमोदय समिति । निर्णयसागर प्रेस मुंबई। हस्तलिखित । शेठ देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फंड सुरत । आगमोदय समिति। श्रीजैन आत्मानन्द सभा भावनगर । हस्तलिखित । आगमोदय समिति । रतलाम श्रीऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था । श्रीयशोविजय जैन पाठशाला बनारस । "श्रीमाणेकमुनिजी सम्पादित । श्रीजैन आत्मानन्द सभा भावनगर । शेठ मनसुखभाई भगुभाई अमदावाद । हस्तलिखित । आगमोदय समिति । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ॥ अर्हम् ॥ प्रासंगिक निवेदन | निर्युक्ति-भाष्य - वृत्तिसहित बृहत्कल्पसूत्रना आ अगाउ अमे त्रण विभाग प्रसिद्ध करी चूक्या छीए । आजे एनो चतुर्थ विभाग प्रसिद्ध करवामां आवे छे । पहेला त्रण विभागमां पहेलो उद्देश समाप्त थयो छे अने आ विभागमां वीजो-त्रीजो उद्देश पूर्ण थाय छे । आ विभागनी समाप्ति साथै निर्युक्ति-भाष्य-वृत्तिसहित बृहत्कल्पसूत्रनी मनाती ४२६०० श्लोकसंख्या पैकी ३३८२५ श्लोक सुधीनो अंश समाप्त थाय छे । आ प्रमाण अमे अमारी नोंध अनुसार जणावीए छीए । निर्युक्ति-भाष्य - वृत्तियुक्त बृहत्कल्पसूत्रनी जुदी जुदी प्रतोमां ग्रन्थानं ०नी नोंध अति अस्तव्यस्त होई एने आधारे विवेक करी आपेली अमारी ग्रन्थप्रमाणनी संख्या सर्वथा वास्तविक होवामाटे अमे भार मूकता नथी ते छतां अमेटलं भारपूर्वक कहीए छीए के अमे ग्रन्थाग्रं०नी नोंध आपवा माटे अतिघणी काळजी अने चोकसाई राखेली छे । पहेलां प्रसिद्ध करवामां आवेला त्रण विभागना संशोधनमां जे जे हस्तलिखित प्रतिओनो उपयोग करवामां आव्यो छे ते बधीओनो परिचय अमे ते ते विभागना "प्रासंगिक निवेदन" वगेरेमां आप्यो छे । प्रस्तुत चतुर्थ विभागना संशोधनमां, तृतीय विभागना "प्रासङ्गिक निवेदन" मां जणावेल द्वितीयखंडनी सात प्रतिओ उपरांत तेज भंडारमांनी त० प्रति सिवायनी तृतीयखंडनी छ प्रतिओनो पण अमे उपयोग कर्यो छे; जेमनो परिचय आ नीचे आपवामां आवे छे । तृतीयखंडनी प्रतिओ १-२ डे० प्रति अने कां० प्रति—आ बन्नेय प्रतिओनो परिचय आ पहेलां प्रकाशित थइ चूकेला विभागोमां संपूर्णपणे अपाइ गयेल होवाथी आने अंगे अमारे अहीं कशुं ज कहेवानुं रहेतुं नथी । ३ भा० प्रति — आ प्रति पाटण - भाभाना पाडामांना विमळना ज्ञानभंडारनी छे । एनां पानां २२९ छे । दरेक पानामां पूठीदीठ १८ - १९ लीटीओ लखेली छे अने दरेक लीटीमा ४० थी ४७ अक्षरो छे । प्रतिनी लंबाई ११ ॥ इंचनी अने पहोळाई ४ ॥ इंचनी छे । प्रतिना अंतमां नीचे प्रमाणेनी, प्रस्तुत प्रति जेना उपरथी लखाई छे तेना लखावनारनी तेम ज प्रस्तुत प्रतिना लखनार - लखावनारनी पुष्पिका छे Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासंगिक निवेदन । ११ ॥ छ । मंगलं महाश्री ॥।॥ छ । शुभं भवत् ।। छ ।। ॥ श्रीजैन श्रीजिनाय नमः ॥ श्रीमदर्जरवंशमौक्तिकमणिः सद्वृत्तताभाजनं, तेजस्वी पुरुषोऽजयद्दय इति ख्यातः क्षमायामभूत् । आश्चर्याय बभूव यस्य गुरुता सा काऽपि भूमण्डले, __ यस्याः साम्यमुपैति नैव निवहः क्षोणीधराणामपि ॥ १ ॥ जैत्रश्रीरिति चैतस्य, जज्ञे श्रीरिव वल्लभा । वसन्ती हृदयाम्भोजे, परं चापल्यवर्जिता ॥२॥ सुतस्तस्योदारः स्फुरदुरुयशाः सत्त्वसदनं, हरिश्चन्द्रो नामा नव इव बभौ कोऽपि जगति । यतो यस्यान्तेहा अगमदनिशं चैकदशया, तथा नासीच्छकादपि परिभवो यज्जनयितुः ॥ ३ ॥ पुण्यश्रीकुक्षिभूस्तस्य, तनयो विनयोद्यतः । कुमारपाल इत्यासीत्, सङ्घाधिपतिपुङ्गवः ॥४॥ पड्वेदवहीन्दु १३४६ मिते च वर्षे, तीर्थेषु यात्रां परमां विधाय । बिम्बे विधोरेप लिलेख लक्ष्मलक्षेण दक्षः प्रकटां स्वसंज्ञाम् ॥ ५ ॥ एतस्याऽनङ्गपालाख्यस्तेजःपालोऽथ केशवः । गजश्च नयपालश्च, जयन्ति भुवि सोदराः ।। ६ ।। कुमारपालस्य च देविनीति, जायाऽस्ति साक्षादिव गेहनीतिः । पुत्रास्त्वमी धर्मधुरैकधुर्याः, ख्यातास्त्रयो निर्मितधर्मकार्याः ॥ ७ ॥ आद्यस्तेषु प्रतीतो नृपसदसि सदा लब्धहम्मीरवीर प्राज्यप्रौढाधिकारस्फुरितगुरुयशाः क्षेत्रसिंहो विवेकी । अर्थिस्वान्तोदधीन्दुः सकरुणहृदयः सोमसिंहो द्वितीय, मूलं सन्नीतिवल्लेरतिधिषणमतिर्मूलराजस्तृतीयः ॥ ८ ॥ श्रीवज्रसेनाह्वगुरोर्मुखेन्दुवाक्कन्द्रिकापानपरश्वकोरः । श्रीक्षेत्रसिंहः सकुटुम्बकोऽपि, सौहित्यमुच्चैरनिशं बभार ॥ ९ ॥ तेषामेवोपदेशेनालेखयद् भ्रातृसंयुतः । कल्पाध्ययनटीकायाः, पुस्तकत्रितयं मुदा ॥ १० ॥ पुष्पदन्ताविमौ यावद् , वर्त्तते गगनाङ्गणे। साधुभिर्वाच्यमानोऽयं, तावन्नन्दतु पुस्तकः ॥ ११ ॥ संवत् १६०८ वर्षे महाचैत्रमासे शुक्लपक्षे द्वादश्यां तिथौ गुरुवासरे ॥ श्री........ भ० श्रीश्रीश्री..........." ......... .... ........ .... ... .... Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ पासंगिक निदेदन । जादृशं पुस्तके दृष्ट, तादृशं लिखितं मया । यदि शुद्धमशुद्धं वा, मम दोषो न दीयते ॥ १ ॥ प्रन्थानम् सहश्र ४२६०० ॥ ॥ श्री ॥ छ ॥ ॥ श्री॥ ॥ श्रीरस्तु नो गुरोः ॥ छ ॥ श्री ॥ ॥श्री ॥ छ। .............. आ पुष्पिकामां ज्यां टपकां मूकवामां आव्यां छे ते अक्षरोने आ प्रतिना कोई उठाउगीरे भूसी नाख्या छे । प्रतिनी स्थिति साधारण छे । प्रति भाभाना पाडाना ज्ञानसंग्रहमांनी होवाथी एनी अमे भा० संज्ञा राखी छे । आ प्रति अमे ज्ञानभंडारना वहीवटदार शेट उत्तमचंद नागरदास द्वारा मेळवी छे । ४ मो० प्रति—आ प्रति पाटण-सागरगच्छना उपाश्रयमां मूकेला शेठ मोका मोदीना भंडारनी छे । एनां पानां १५१ छे। दरेक पानानी पूठीदीठ सत्तर सत्तर लीटीओ छे अने ए दरेक लीटीमां ६६ थी ७० अक्षरो छ । प्रतिनी लंबाई १३।। इंचनी अने पहोलाई ५। इंचनी छ । प्रतिना अंतमा लेखकनी पुष्पिका आदिनो उल्लेख नथी, ते छतां आ प्रति एक ज लेखकना हाथे लखायेली होई तेना पहेला वीजा खंडो अनुक्रमे संवत् १५७३-७४ मां लखायेला होवार्थी आ त्रीजो खंड ए पछीना वर्षमा लखायेलो छे एमां लेश पण शंकाने स्थान नथी । प्रतिनी स्थिति जीर्ण जेवी छ । प्रति मोदीना भंडारनी होई तेनी अमे मो० संज्ञा राखी छे । ५ ले० प्रति-आ प्रति पाटण-सागरगच्छना उपाश्रयमा रहेला लेहेरु वकीलना ज्ञानभंडारनी छे । आ प्रति अपूर्ण होई तेनां पानां मात्र ४१ रह्यां छे अने वीजां गूम थयां छे । दरेक पानानी पूठीदीठ सत्तर सत्तर लीटीओ छे अने दरेक लीटीमां ६९ थी ७४ अक्षरो छ । प्रतिनी लंबाई १३।। इंचनी अने पहोळाई ५ इंचनी छ । प्रतिनी स्थिति जीर्ण जेवी छ । प्रति लेहेरु वकीलना भंडारनी होवाथी एनी अमे ले० संज्ञा राखी छे । उपरोक्त बन्नेय प्रतिओ अमे भंडारनी संरक्षक हेमचन्द्रसभा द्वारा मेलवी छ । ६ ताटी० प्रति-आ प्रति पाटण-बखतजीनी सेरीमा रहेला संघना ज्ञानभंडारनी छे । एनां पानां ३३५ छ । दरेक पानानी पूठीदीठ ४ थी ६ लीटीओ लखायेली छे अने दरेक लीटीमा ५३० थी १४४ अक्षरो छ । प्रतिनी लंबाई ३४। इंचनी अने पहोळाई २। इंचनी छ । प्रति लांबी होई एने त्रण विभागमां लखवामां आवी छे अने तेने बांधवामाटे त्रण विभागना वे अंतरोमां वचमां काणां पाडेलां छ । प्रतिना अंतमां नीचे प्रमाणेनी पुष्पिका छे___ ग्रं० ९५५१ ॥ साहु० आसधरसुत साधु० श्रीरतनसीहसुत तेजपालश्रेयोऽर्थ अयं कल्पवृत्तिपुस्तकं तृतीयपंडं करापितं लिषापितं च ॥ सुभं भवत् ॥ For Private & Personal use only. Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासंगिक निवेदन | आ पुष्पिकामां संवतनो निर्देश नथी, ते छतां प्रतिनुं स्वरूप जोतां ते ग्रन्थरचनाना नजीकना समयमां लखायेली होवानी संभावना करी शकाय छे । आ प्रति, तेने बांधवानी वेकाळजीने लीधे वळी गयेली छे, ते छतां तेनी स्थिति एकंदर घणी सारी छे । प्रति ताडपत्रीय होई तेनी अमे ताटी० संज्ञा राखी छे । मुद्रित तृतीय विभागमां असे आ. प्रतिनी संज्ञा मात्र ता० राखी हती, परंतु प्रस्तुत ग्रंथना संशोधनमां भाष्य अने टीका ए उभयनी ताडपत्रीय प्रतोनो उपयोग करेल होवाथी टीका अने भाष्यगाथांना पाठभेदमां बन्नेयना संकेतने समजवामां गरबड न थाय ए माटे आ विभागमां अमे भाष्यनी प्रतिने ताभा० संज्ञाथी अने वृत्तिनी प्रतिने ताटी० संज्ञाथी ओळखावी छे । आ प्रति अमे ज्ञानभंडारनी संरक्षक शेठ धर्मचंद अभेचंदनी पेढी द्वारा मेळवी छे । तृतीयखंडनो विभाग भा० प्रति अने ताटी० प्रतिमां त्रीजा खंडनी समाप्ति साथै ज प्रस्तुत महाशास्त्री समाप्ति थाय छे। अने डे० प्रति अने कां० प्रति एक विभागमां लखायेली होवा छतां ए बन्नेय प्रतो खंडात्मक प्रतो उपरथी लखायेली होवाथी एमां खंडसमाप्तिनो उल्लेख ते ते स्थळे नोंधायेलो छे, जे अमे पहेलाना विभागोना "प्रासङ्गिक निवेदन "मां जणावी चूक्या छीए; ते मुजब आ बन्नेय प्रतोमां पण त्रीजा खंडनी समाप्ति साथै महाग्रन्थनी समाप्ति थाय छे । अर्थात् भा० ताटी० डे० अने कां० आ चारे प्रतिओमां त्रीजा खंडनी समाप्ति साथै ज निर्युक्ति-भाष्य - वृत्तियुक्त बृहत्कल्पसूत्र महाग्रंथनी समाप्ति थाय छे । १३ मो० प्रति अने ले० प्रति चार खंडमां लखायेल होवाथी एना तृतीयखंडनी समाप्ति मुद्रित पांचमा विभागना १४६९ मा पानामां चोथा उद्देशाना २९ मा सूत्रमां ५५४९ भाष्यगाथानी टीका समाप्त थया पछी थाय छे ( जुओ पृ० १४६९ टिप्पणी १ ) । आ खंडनो विभाग पाडवामां तेना लखनार - लखावनाराओए जरा सरखो य विवेक दाखव्यो नथी । कारण के आ पछी थोडे ज अंतरे चालु सूत्रनी व्याख्या समाप्त थाय छे त्यां विभाग न पाडतां अधूरी सूत्रव्याख्याए विभाग पाडी नाख्यो छे । प्रतिओनी समविषमता प्रस्तुत चतुर्थी विभागना संशोधनमादे उपर जणाव्या मुजब तृतीय खंडनी कुल छ तो एकत्र करवामां आवी छे, जे चार वर्गमां वहेंचाइ जाय छे - एक वर्ग मो० ले० ताटी० प्रतिनो, बीजो डे० प्रतिनो त्रीजो भा० प्रतिनो अने चोथो वर्ग कां० प्रतिनो । आ चारे वर्गनी प्रतिओ एक-वीजा वर्गनी प्रतिओथी पाठभेदवाळी छे; ते छतां मो० ले० ताटी० वर्गनी प्रतिओ अने डे० प्रति परस्पर घणुं खरं मळती रहे छे, ज्यारे भा० प्रति अने कां० प्रति परस्पर जुदा वर्गनी तेमज अतिशय पाठभेदवाळी छतां Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ प्रासंगिक नीवेदन । आपसमा घणी वार मळती रहे छे । आम छतां त्रीजा विभागना "प्रासङ्गिक निवेदन"मां जणाव्या प्रमाणे पाठभेदना विषयमा एक वीजा वर्गनी प्रतिओ केटलीये वार सेळभेळ थइ जाय छे, जे टिप्पणमां आपेला समविषम पाठभेदो उपरथी जोइ शकाशे । पाठभेदनी वावतमां वधारे तरीके अमारे अहीं एटलं ज उमेरवानुं छे के-पहेला त्रण विभाग करतां आ विभागमां एटले के वीजा जीजा उद्देशामां पाठभेदो बहुज ओछा प्रमाणमां आव्या छे अने ए पाठभेदो पण मुख्यत्वे करीने भा० प्रति अने कां० प्रतिना ज छे। प्रस्तुत विभागमा अने आ पछीना विभागोमां आपेला सूत्रोना संख्यादर्शक अंको, प्रकृतोनां नाम अने तेनो विभाग वगेरेना संबंधमां अमारे जे कांइं कहेवानुं छे ते अमे छेल्ला विभागमा स्पष्ट रीते जणावीशुं । अंतमां अमे एटलुंज निवेदन करीए छीए के अमारा प्रस्तुत संशोधन वगेरेमां स्खलना नजरे आवे तो विशेषज्ञ विद्वानो क्षमा करे । निवेदक-गुरु-शिष्य मुनि चतुरविजय-पुण्यविजय Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अहम् ॥ द्वितीयोद्देशकप्रकृतानामनुक्रमः। पत्रम् सूत्रम् प्रकृतम् १-१२ उपाश्रयप्रकृतम् १३-१६ सागारिकपारिहारिक प्रकृतम् १७-१८ आहृतिकानिहतिका प्रकृतम् पत्रम् सूत्रम् प्रकृतम् ९२३ १९ अंशिकाप्रकृतम् १०१२ २०-२३ पूज्यभक्तोपकरणप्रकृतम् १०१४ २४ उपधिप्रकृतम् १०१७ १००४ २५ रजोहरणप्रकृतम् १०२१ ९८० तृतीयोद्देशकप्रकृतानामनुक्रमः । सूत्रम् प्रकृतम् पत्रम् । सूत्रम् प्रकृतम् पत्रम् १-२ निर्गन्ध्युपाश्रयप्रवेश- १७ शैय्यासंस्तारकपरिप्रकृतम् १०२३ भाजनप्रकृतम् ११८१ ३-६ चर्मप्रकृतम् १०५० १८ कृतिकर्मप्रकृतम् ११९२ कृत्स्नाकृत्स्नवस्त्रप्रकृतम् १०६७ अन्तरगृहस्थानादि. ८-९ भिन्नाभिन्नवस्त्रप्रकृतम् १०७५ प्रकृतम् १२३० १०-११ अवग्रहानन्तकावग्रह- | २०-२१ अन्तरगृहाख्यानादिपट्टकप्रकृतम् १११८ प्रकृतम् १२३३ १२ निश्राप्रकृतम् ११२८ २२-२४ शय्यासंस्तारकप्रकृतम् १२४२ १३-१४ त्रिकृत्स्नप्रकृतम् ११३७, २५-२९ अवग्रहप्रकृतम् १२५४ १५ समवसरणप्रकृतम् ११४९ ३० रोधेकप्रकृतम् १२८७ १६ वस्त्रपरिभाजनप्रकृतम् ११६७ ३१ अवग्रहप्रमाणप्रकृतम् १२९८ १ यद्यप्यत्र कृत्स्नाकृत्स्नप्रकृतम् इति मुद्रितं - १ अत्र यथारत्नाधिकशय्यासंस्तारग्रहण. वर्तते तथाप्यत्र कृत्स्नाकृत्तवस्त्रप्रकृतम् इति । प्रकृतम् इति मुद्रितं तत्स्थाने शय्यासंस्तारकबोद्धव्यम् ॥ परिभाजनप्रकृतम् इति ज्ञेयम् ।। २१०७५ पृष्ठशिरोदेशे सूत्रम् इत्यस्योपरिष्टात् ____ २ अत्र सेनाप्रकृतम् इति मुद्रितं तत्स्थाने भिन्नाभिन्नवस्त्रप्रकृतम् इति ज्ञातव्यम् ॥ रोधकप्रकृतम् इति विज्ञेयम् ॥ ३ अत्र यथारत्नाधिकवस्त्रग्रहणप्रकृतम् ३ अत्र अवग्रहक्षेत्रप्रमाणप्रकृतम् इति इति मुद्रितं विद्यते तत्स्थाने वस्त्रपरिभाजन- मुद्रितं वर्तते तत्स्थाने अवग्रहप्रमाणप्रकृतम् इति प्रकृतम् इति ज्ञेयम् ॥ ! बोदव्यम् ॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अहम् ॥ बृहत्कल्पसूत्र चतुर्थ विभागनो विषयानुक्रम । गाथा पत्र ९२३-७९ ९२३-३० द्वितीय उद्देश। विषय ३२९०-३५१७ उपाश्रयप्रकृत सूत्र १-१२ उपाश्रयना व्याघातोतुं विस्तृत वर्णन ३२९०-३३०९ १ पहेलु उपाश्रयसूत्र शालि व्रीहि मग आदि सचेतन अनाज वीज आदि वेराएल होय तेवा उपाश्रयमा निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने थोडो वखत पण रहेg कल्पे नहि ३२९०-९२ वीजा उद्देशनो अने उपाश्रयप्रकृतनो पहेला उद्देश साथे अने तेना अंतिम सूत्र साथे संबंध पहेला उपाश्रयसूत्रनी व्याख्या ३२९३-९५ 'उपाश्रय'पदना निक्षेपो अने एकार्थिक नामो ३२९६ 'वगडा'पदना निक्षेपो ३२९७-३३०१ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने रहेवा योग्य अने नहि रहेवा योग्य उपाश्रयो ३३०२-३ पहेला उपाश्रयसूत्रमा आवतां उत्क्षिप्त, विक्षिप्त, व्यतिकीर्ण, विप्रकीर्ण अने यथालन्द पदोनी व्याख्या ३३०४-९ वीजाकीर्ण आदि उपाश्रयमा रहेवाने लगतां प्राय श्चित्तो, अपवाद अने यतनाओ ३३१०-९२ २बीजं उपाश्रयसूत्र जे उपाश्रयमा शालि आदि अनाज वेराएल न होय पण एक बाजु ढगला आदि रूपे राखेल होय त्यां हेमंत-ग्रीष्म ऋतुमां निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने रहेQ कल्पे बीजा उपाश्रयसूत्रनी व्याख्या राशीकृत पुञ्जीकृत वीजादिवाळा उपाश्रयमा अगीतार्थने वसवाथी लागतां प्रायश्चित्तो ९२३-२४ ९२४ ९२४-२५ ९२५ ९२५-२७ ९२७ ९२७-३० ९३०-४८ ९३० ९३० Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३३११-१२ ३३१३–२५ ३३२६–२७ ३३२८-३१ ३३३२ ३३३३-४० ३३४१-५० ३३५१-६० ३३६१-६६ ३३६७-७५ ३३७६-९२ ३३९३-३४०१ बृहत्कल्पसूत्र चतुर्थी विभागनो विषयानुक्रम | विषय वीजा उपाश्रयसूत्रमां आवतां राशीकृत, पुञ्जीकृत, कुलिकाकृत, लाञ्छित, मुद्रित अने पिहित ए छ पदोनी व्याख्या प्रस्तुत सूत्रमां गीतार्थ के अगीतार्थ विशेषण न होवा छतां आ सूत्र गीतार्थअनुज्ञाविषयक छे तेनुं शुं कारण ? ए प्रकारनी शिष्यनी शंका अने आचार्ये करेलुं समाधान अने ते प्रसंगे १ उत्सर्गसूत्र २ आपवादिकसूत्र ३ उत्सर्गापवादिकसूत्र ४ अपवादौत्सर्गिकसूत्र ५ उत्सर्गौत्सर्गिकसूत्र ६ अपवादापवादिकसूत्र ए छ प्रकारनां सूत्रोनुं तथा १ देशसूत्र २ निरवशेषसूत्र ३ उत्क्रमसूत्र ४ क्रमसूत्र ए चार प्रकारनां सूत्रोनुं स्वरूप औत्सर्गिक अने आपवादिक सूत्रोनो विषय अने तेमनुं स्वस्थान शिष्य अने आचार्यनी प्रश्नोत्तरीद्वारा उत्सर्ग अने अपवादना रहस्यनुं प्रतिपादन अनुज्ञापनायतना, स्वपक्षयतना अने परपक्षयतनाना स्वरूपने अगीतार्थ निर्मन्थो जाणता नथी अगीतार्थविषयक अनुज्ञापनाअयतनानुं स्वरूप अगीतार्थविषयक स्वपक्षअयतनानुं स्वरूप अगीतार्थविषयक परपक्षअयतनानुं स्वरूप गीतार्थविषयक अनुज्ञापनायतनानुं स्वरूप गीतार्थविषयक स्वपक्षयतनानुं स्वरूप गीतार्थविषयक परपक्षयतनानुं स्वरूप [ गाथा ३३८६ - जयन्ती श्राविकानुं उदाहरण ] ३ त्रीजुं उपाश्रयसूत्र जे उपाश्रयमां शालि आदि अनाज एक बाजु ढगला आदि रूपे राखेल न होय पण कोठार आदिमां सुरक्षित रीते राखेल होय त्यां निर्मन्थनिर्मन्थीओने चोमासामा रहेवुं कल्पे १७ पत्र ९३०-३१ ९३१-३४ ९३५ ९३५-३६ ९३६ ९३७-३८ ९३८-४० ९४०-४२ ९४२-४३ ९४३-४५ ९४५-४८ ९४८-५१ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ गाथा ९४९ ९४९ ९४९-५१ ९५१-५५ ९५१-५२ ९५२ ९५२ बृहत्कल्पसूत्र चतुर्थ विभागनो विषयानुक्रम । विषय त्रीजा उपाश्रयसूत्रनी व्याख्या ३३९३-९५ त्रीजा उपाश्रयसूत्रमा आवतां पल्यागुप्त, मञ्चागुप्त, मालागुप्त, अवलिप्त, लिप्त, पिहित, लाञ्छित अने मुद्रित पदोनी व्याख्या ३३९६-३४०१ पल्यागुप्त आदि उपाश्रयमां वसवाथी अगीतार्थने आश्री प्रायश्चित्त अने अयतनानुं स्वरूप ३४०२-१८ ४ चोथु उपाश्रयसूत्र सुराविकटकुंभ, सौवीरविकटकुंभ वगेरे मूकेला होय तेवा उपाश्रयमा निम्रन्थ-निम्रन्थीओने रहेवू न कल्पे ३४०२-३ चोथा उपाश्रयसूत्रनो पूर्वसूत्र साथे सम्बन्ध ___ चोथा उपाश्रयसूत्रनी व्याख्या ३४०४-५ 'हुरत्था' शब्दनो अर्थ अने 'परिहार'पदने 'छेद' पद पछी राखवानुं कारण ३४०६ सुरा अने सौवीरक पदनी व्याख्या ३४०७-१२ सुराविकटकुंभादियुक्त उपाश्रयमां वसवाथी अगीता र्थने आश्री अयतनानुं स्वरूप ३४१३-१८ सुराविकटकुंभादियुक्त उपाश्रयमां वसता गीतार्थने आश्री स्वपक्ष-परपक्षविषयक यतनानुं स्वरूप ३४१९-२९ ५ पांचमुं उपाश्रयसूत्र शीतोदकविकटकुंभादियुक्त उपाश्रयमा निर्ग्रन्थ निम्रन्थीओने रहेQ कल्पे नहि. ३४१९ पांचमा उपाश्रयसूत्रनो पूर्वसूत्र साथे संबंध पांचमा उपाश्रयसूत्रनी व्याख्या ३४२० शीतोदक-उष्णोदकविषयक चतुभंगी अने तयुक्त उपाश्रयमां वसवाथी प्रायश्चित्त ३४२१-२९ शीतोदकविकटकुंभादियुक्त उपाश्रयमां वसता अगीतार्थविषयक अयतनानुं वर्णन ३४३०-५८ ६ छटुं उपाश्रयसूत्र ज्योतियुक्त उपाश्रयमां निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओए न रहे, ३४३० छहा उपाश्रयसूत्रनो पूर्वसूत्र साथे सम्बन्ध ९५३-५४ ९५४-५५ ९५६-५८ ९५६ ९५६ ९५६ ९५७-५८ ९५९-६६ ९५९ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ गाथा पत्र ९५९ ९५९-६० ३४३१-३२ ३४३३-५८ ३४५९-७३ ९६०-६६ ९६६-६८ ३४५९-६० ३४६१-७३ बृहत्कल्पसूत्र चतुर्थ विभागनो विषयानुक्रम । विषय छट्ठा उपाश्रयसूत्रनी व्याख्या 'हुरत्था' शब्दनो अर्थ आदि ज्योतिनुं स्वरूप अने तयुक्त उपाश्रयमां वसवाथी लागता दोषोनुं १ प्रतिलेखना २ प्रमार्जना ३ आवश्यक ४ पौरुषी ५ मनः ६ निष्क्रमण ७ प्रवेश ८ आपतन ९ पतन पदो द्वारा निरूपण, तद्विषयक प्रायश्चित्तो अने तेने लगती यतनाओ ७ सातमुं उपाश्रयसूत्र दीपकयुक्त उपाश्रयमा निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओए न रहेवू 'हुरच्छा' शब्दनो अर्थ आदि दीपकना प्रकार अने तयुक्त उपाश्रयमा रहेवाथी लागता दोषोनुं प्रतिलेखना, प्रमार्जना आदि पदो द्वारा निरूपण, तद्विषयक प्रायश्चित्तो अने यतनाओ ८ आठमुं उपाश्रयसूत्र जे उपाश्रयमां पिंड, लोचक, दूध, दही, नवनीत आदि पदार्थो वेराएल होय त्यां निम्रन्थ-निर्ग्रन्थी. ओने रहेQ कल्पे नहि आठमा उपाश्रयसूत्रनो पूर्वसूत्र साथे संबंध आठमा उपाश्रयसूत्रमा आवतां पिण्ड, लोचक, फाणित, शष्कुली, शिखरिणी आदि पदोनी व्याख्या जे उपाश्रयमां पिंड, लोचक, फाणित आदि वेराएल होय त्यां वसवाने लगतां प्रायश्चित्तो ९ नवमुं उपाश्रयसूत्र जे उपाश्रयमां पिंड, लोचक, नवनीत आदि एक बाजु राखेल होय त्यां निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने हेमंतप्रीष्म ऋतुमा रहेQ कल्पे १० दशमुं उपाश्रयसूत्र जे उपाश्रयमां पिंड, लोचक, नवनीत, फाणितादि बराबर मुद्रित करीने राखेल होय त्यां निम्रन्थनिर्ग्रन्थीओने चोमासामा रहेQ कल्पे ९६६-६८ ९६९-७० ३४७४-७९ ३४७४ ३४७५-७७ ९६९ ९६९-७० ३४७८-७९ ३४८०-८१ ९७०-७१ ३४८२-८३ ९७१-७२ . Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० गाथा ३४८४- ३५०९ ३४८४-८५ ३४८६-९८ ३५०३ ३४९९-३५०२ विकटगृह अने वंशीमूलनी व्याख्या अने त्यां रहेaret निर्मन्थीओने लागता दोषो ३५०४-९ ३५१०-१७ ३५१०-१७ ३५१८-३६१५ ३५१८-८४ ३५१८ ३५१९-८४ ३५१९-२० बृहत्कल्पसूत्र चतुर्थ विभागनो विपयानुक्रम । विषय ११ अगीआरमुं उपाश्रयसूत्र आगमनगृह, विकटगृह, वंशीमूल, वृक्षमूल अथवा raraatani निर्ग्रन्थीओने रहेवुं कल्पे नहि अगीआरमा उपाश्रयसूत्रनी व्याख्या निर्ग्रन्थीओने आगमनगृह, विकटगृह, वंशीमूल आदिमा रहेवाथी लागतां प्रायश्चित्तो आगमनगृहनी व्याख्या अने त्यां वसवाथी निर्ग्रन्थीओने लागता विविध दोषो अने प्रायश्चित्तादि वृक्षमूल अने अभ्रावकाशमां वसवाथी निर्ग्रन्थीओने लागता दोषो अपवादपदे निर्मन्थीओने आगमनगृहादिमां वसवाने लगतो विधि १२ बारमुं उपाश्रयसूत्र निर्ग्रन्थोने आगमनगृह आदिमा रहेवुं कल्पे निर्मन्थोने रहेवा लायक आगमनगृहादिनुं स्वरूप अने त्यां रहेवानो विधि सागारिकपारिहारिकप्रकृत सूत्र १३-१६ १३ पहेलुं सागारिकपारिहारिक सूत्र वसतिना एक अथवा अनेक सागारिकना आहारादिकना त्यागनो विधि सागारिकपारिहारिक प्रकृतनो पूर्वसूत्र साथै संबंध पहेला सागारिकपारिहारिकसूत्रनी व्याख्या पहेला सागारिकपारिहारिक सूत्रनी विस्तृत व्याख्या पहेला सागारिकपारिहारिकसूत्रनी विस्तृत व्याख्या विषयक द्वारगाथा पन ९७२-७७ ९७२ ९७२ ९७३-७५ ९७५-७६ ९७६ ९७६-७७ ९७७-७९ ९७८-७९ ९८० - १००४ ९८०-९६ ९८० ९८० ९८०-९६ ९८० Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्र चतुर्थ विभागनो विषयानुक्रम । २१ गाथा पत्र ३५२१-२४ ३५२५-२६ ३५२७-३१ ९८२-८३ ३५३२-३५ ९८४ ३५३६-३८ ९८४-८५ विषय १ सागारिकद्वार सागारिकना शय्याकर, शय्यादाता, शय्यातर, शय्याधर आदि एकार्थिको अने तेनी व्याख्या २ 'कः सागारिका' द्वार सागारिक कोने मानवो तेनुं स्वरूप ३ 'कदा सागारिका' द्वार वसतिनो स्वामी शय्यातर क्यारथी गणाय तेने लगता नैगमनयाश्रित अनेक आदेशो अने शास्त्र. कारने मान्य आदेश ४ 'कतिविधः सागारिकपिण्डः' द्वार सागारिकना कल्प्याकल्प्य पिंडनु स्वरूप अने प्रकारो ५ 'अशय्यातरो वा कदा' द्वार वसतिनो स्वामी शय्यातर क्यारे मटी जाय ? तेनुं स्वरूप ६ 'शय्यातरः कस्य परिहर्त्तव्यः' द्वार ७ 'के दोषाः' द्वार सागारिकनो एटले के शय्यातरनो पिंड लेवाथी लागता दोषोनुं १ तीर्थकरप्रतिक्रुष्टत्व २ आज्ञाविराधना ३ अज्ञातोन्छ ४ उद्गमाशुद्धि ५ अवि. मुक्ति ६ अलाघवता ७ दुर्लभशय्या अने ८ व्यवच्छेद ए आठ द्वारो वडे वर्णन ८'कारणजाते कस्मिन् कल्पते' द्वार शय्यातरनो आहारादि पिंड कल्पनीय होवाने योग्य कारणोनुं वर्णन ९ 'कया यतनया ग्रहीतव्यः' द्वार वसतिना एक सागारिकना पिंडादिने ग्रहण करवाने लगती यतनाओनुं वर्णन अनेक शय्यातरनी मालकीवाळी वसति अने तेमना पिंडादिना ग्रहणने लगती यतना अने दोषोना वर्णनविषयक द्वारगाथा ३५३९ ३५४०-४९ ९८५ ९८६-८८ ३५५०-५४ ९८९ ९९०-९६ ३५५५-८१ ३५५५ ९९० ३५५६ ९९० Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ९९०-९१ -९९१-९२ ९९३-९४ ९९४-९५ बृहत्कल्पसूत्र चतुर्थ विभागनो विषयानुक्रम । विषय ३५५७-६२ १ पितापुत्रद्वार पिता अने पुत्रनी मालकीवाळी वसति अने तेमना पिंडादिना ग्रहणने लगती यतनाओ अने दोपोनुं स्वरूप ३५६३-६७ २ सपत्नीद्वार अनेक सपत्नीओनी मालकीवाळी बसति अने तेमना पिंडादिना ग्रहणने लगती यतनाओ अने दोषोनुं वर्णन ३५६८-७३ ३ वणिगद्वार वसतिना मालीक वणिगना पिंडादिना ग्रहणने लगती यतनाओ अने तेनुं स्कन्ध, सङ्खडी, अटवी आदि पदो द्वारा निरूपण ३५७४-७८ ४ घटाद्वार महत्तर, अनुमहत्तर, ललितासन, कटुक अने दण्डपतिनी मालकीवाळी घटा एटले गोठोनुं वर्णन अने तेमना वसति, पिंड आदिना ग्रहणने लगती यतना वगेरे ३५७९-८१ ५ व्रजद्वार शय्यातरनी मालकीवाळा गोकुलना दुग्धादिना ग्रहणने लगती यतनाओ अने दोषोनुं वर्णन ३५८२-८४ पहेला सागारिकपारिहारिक सूत्रना अंशनी व्याख्या ३५८५-९५ १४ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयक बीजं सागारिकपारिहारिक सूत्र ३५८५ वीजा सागारिकपारिहारिकसूत्रनो पूर्वसूत्र साथे सम्बन्ध बीजा सागारिकपारिहारिकसूत्रनी व्याख्या ३५८६-९५ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने वाडानी बहार नहीं काढला सागारिकना संसृष्ट के असंसृष्ट पिंडने लेवाथी लागता दोषोनुं विस्तृत वर्णन ३५९६-३६०२ १५ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयक त्रीजें सागारिकपारिहारिक सूत्र ९९५ ९९६ ९९७ ९९७ ९९७-९९ ९९९ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्र चतुर्थ विभागनो विषयानुक्रम । २३ गाथा विषय निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने वाडानी बहार काढेलो सागारिकनो संसृष्ट पिण्ड लेवो कल्पे। त्रीजा सागारिकपारिहारिकसूत्रनी व्याख्या ९९९ ३५९६-३६०२ त्रीजा सागारिकपारिहारिकसूत्रनी विस्तृत व्याख्या ९९९-१००० ३६०३-१५ १६ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयक चोधुं सागारिकपारिहारिक सूत्र १००१-४ जे निर्ग्रन्थ अथवा निम्रन्थी वाडानी बहार काढेला सागारिकना असंसृष्ट पिंडने संसृष्ट करे अथवा तेमाटे सम्मति आपे तेने लगतुं प्रायश्चित्त चोथा सागारिकपारिहारिकसूत्रनी व्याख्या १००१ सागारिकना असंसृष्ट पिंडने संसृष्ट करवाथी अथवा तेमाटे सम्मति आपवाथी लागता दोषो अने तेने अंगेनुं अपवादपद १००१-४ ३६१६-४२ १००४-११ १००४-९ ३६१६ आहृतिका-निर्दृतिकाप्रकृत सूत्र १७-१८ १७ आहृतिकासूत्र कोइने त्यांथी सागारिकने माटे भाणुं आव्यु होय तेने सागारिक ले तो तेमांनो पिण्ड साधुने न कल्पे पण सागारिक ते भाणाने न ले तो तेमांनो अपातो पिण्ड साधुने लेवो कल्पे आहृतिका-निर्दृतिकाप्रकृतनो पूर्वसूत्र साथे संदष्टक नामनो सम्बन्ध __आहृतिकासूत्रनी व्याख्या आहृतिकानो अर्थ अने द्रव्य क्षेत्र काल अने भाव एम चार प्रकारनी आहृतिकानुं स्वरूप 'द्रव्यतः प्रतिगृहीता न भावतः' इत्यादि आहृतिकाविषयक चतुर्भगी पैकी पहेला चोथा भंगने लक्षीने प्रस्तुत सूत्र छ एम कहेनार लोभी अने अजाण शिष्य प्रत्ये आचार्यनो प्रत्युत्तर १००४ १००५ ३६१७-२४ ३६२५-३४ १००७-९ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ बृहत्कल्पसूत्र चतुर्थ विभागनो विषयानुक्रम । गाथा पत्र ३६३५-४२ विषय १८ निर्हतिकासूत्र सागारिकनी निर्हृतिका बीजाए लीधी न होय तो निर्ग्रन्थने कल्पे नहि पण जो ते वीजाए लीधी होय अने ते आपे तो लेवी कल्पी शके निर्हतिकासूत्रनी व्याख्या निर्हतिकाविषयक चतुर्भगीने आश्री कल्प्याकल्प्य विभाग अने जे कारणसर आहृतिका अने निर्दृतिका कल्पी शके ते कारणोनुं वर्णन १०१० ३६३५-४२ १०१०-११ ३६४३-५२ १०१२-१४ ३६४३ १०१२ १०१२ १०१२ ३६४४ ३६४५-४६ अंशिकाप्रकृत सूत्र १९ सागारिकनी अंशिका एटले पांती जुदी न पाडी होय त्यां सुधी वीजानो अंशिकापिंड पण निम्रन्थोने कल्पे नहि पण सागारिकनी पांती जुदी पाड्या पछी ज कल्पे अंशिकाप्रकृतनो पूर्वसूत्र साथे सम्बन्ध अंशिकासूत्रनी व्याख्या सागारिकनी अंशिकाना वर्णनविषयक द्वारगाथा अंशिकासूत्रगत अव्वोच्छिन्न, अव्वोगड, अनिज्जूढ आदि विषमपदोनी व्याख्या १ क्षेत्रद्वार क्षेत्रविषयक सागारिकांशिकानुं स्वरूप २ यत्रद्वार यविषयक सागारिकांशिका ३-४ भोज्यद्वार अने क्षीरद्वार भोज्य अने क्षीरविषयक सागारिकांशिका ५ मालाकारद्वार मालाकारविषयक सागारिक अंशिका सागारिकनी अंशिकाना ग्रहणविषे अपवाद १०१२-१३ ३६४७ १०१३ ३६४८ ३६४९ १०१३ ३६५०-५१ १०१३-१४ ३६५२ १०१४ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्र चतुर्थ विभागनो विषयानुक गाथा विषय ३६५३ - ५८ पूज्य भक्तोपकरणप्रकृत सू० २०-२४ २० पहेलुं प्रातिहारिक सागारिक पूज्य भक्तोपकरण सूत्र ३६५३-५७ सागारिकसंबंधी प्रातिहारिक पूज्यभक्त अने उपकरण सागारिक पोते अथवा तेनो परिवार आपे तो पण कल्पे नहि पूज्य भक्तोपकरणप्रकृतनो पूर्वसूत्र साथै सम्बन्ध पहेला प्रातिहारिक सागारिकपूज्यभक्तोपकरणसूत्रनी व्याख्या पूज्यभक्त, चेतित, प्राभृतिका, उपकरण, निष्ठित, निष्ट आदि पदोनुं स्वरूप अने तेना एकार्थिको २१ बीजुं प्रातिहारिक सागारिकपूज्य भक्तोपकरण सूत्र सागारिका प्रातिहारिक पूज्यभक्तादिने सागारिकना पूज्य आपे तो पण साधुने लेवुं कल्पे नह २२ न्रीजुं अप्रातिहारिक सागारिकपूज्य भक्तोपकरण सूत्र अप्रातिहारिक सागारिकपूज्यभक्तादि सागारिक अगर तेनो परिजन आपे तो साधुने लेवां कल्पे नहि २३ चोथुं अप्रातिहारिक सागारिक पूज्य भक्तोपकरण सूत्र अप्राविहारिक सागारिकपूज्यभक्तादि सागारिक अगर तेनो परिजन न आपे पण सागारिकना पूज्य पोते आपे तो साधुने लेवां कल्पे चोथा सागारिकपूज्य० सूत्रनुं आपवादिकपणुं ३६५३-५४ ३६५५-५७ ३६५८ ३६५९-७२ ३६५९-६० उपधिप्रकृत सूत्र २४ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने संग्रहवा योग्य अने पहेरवा योग्य पांच प्रकारनां वस्त्रो उपधिप्रकृतनो पूर्वसूत्र स्वाथे संबंध १०१४- १७ १०१४ १०१४-१५ १०१५ १०१५-१६ १०१६ १०१६ १०१६ १०१७ १०१७-२० १०१७ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ बृहत्कल्पसूत्र चतुर्थ विभागनो विषयानुक्रम । गाथा पत्र १०१७ विषय २४ उपधिसूत्रनी व्याख्या ३६६१-६३ ___जङ्गिक, भाङ्गिक, सानक, पोतक अने तिरीडपट्ट ए पांच प्रकारनां वस्त्रोतुं स्वरूप । ३६६४-७२ उपधिना परिभोगनो विधि, तेनी संख्या, अप वाद वगेरे १०१८ १०१९-२० ३६७३-७८ १०२१-२२ ३६७३ १०२१ रजोहरणप्रकृत सूत्र २५ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने पांच प्रकारना रजोहरणनो संग्रह करवो अने तेनो उपभोग करवो कल्पे रजोहरणप्रकृतनो पूर्वसूत्र साथे संबंध २५ रजोहरणसूत्रनी व्याख्या रजोहरणनी व्याख्या वञ्चकचिप्पक अने मुञ्जचिप्पकनुं स्वरूप और्णिक, औष्ट्रिक, सानक, वञ्चकचिप्पक अने मुञ्जचिप्पक ए पांच प्रकारना रजोहरणोना ग्रहणने लगतो क्रम, तेनो विधि अने कारणो १०२१ १०२१ ३६७४. ३६७५ ३६७६-७८ १०२१ १०२२ तृतीय उद्देशक। ३६७९-३८०४ उपाश्रयप्रवेशप्रकृत सूत्र १-२ १०२३-५० ३६७९-३८०१ १ निर्ग्रन्थ्युपाश्रयप्रवेशसूत्र . . . . १०२३-४९ निम्रन्थोने निम्रन्थीना उपाश्रयमां बेसबुं, सुवु, आहार, निहार, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग वगेरे कशु य करवू कल्पे नहि ३६७९-८१ उपाश्रयप्रवेशप्रकृतनो पूर्वसूत्र साथे संबंध १०२३-२४ निर्ग्रन्थ्युपाश्रयप्रवेशसूत्रनी व्याख्या : १०२४ ३६८२-८६ स्थविरादिने पूछीने के पूछया सिवाय निम्रन्थीना उपाश्रये विना कारणे जवाथी आचार्यादिने लागतां १ आ ठेकाणे मूळमां निर्ग्रन्थ्युपाश्रयप्रवेशप्रकृतम् एम छपायुं छे तेने बदले उपाश्रयप्रवेशप्रकृतम् समजबुं॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ पत्र १०२४-२५ १०२५ १०२५ १०२६ १०२६-३१ बृहत्कल्पसूत्र चतुर्थ विभागनो विषयानुक्रम । गाथा विषय ओघ प्रायश्चित्तो, गमन दूर शङ्कित आदि दश पदो अने तेने लगतां ओघ प्रायश्चित्तो ३६८७ निर्ग्रन्थीना उपाश्रयमां निष्कारण प्रवेशने लक्षी विस्तारथी प्रायश्चित्तनुं निरूपण ३६८७-८९ निर्ग्रन्थीना उपाश्रयमां निष्कारण प्रवेशने लगता स्थान, निषदन, त्वग्वर्त्तन, निद्रा आदि सूत्रोक्त पदो ३६९०-१२ कारण सिवाय विधि:अविधिथी निर्ग्रन्थीना उपाश्रय प्रवेशने लगती चतुर्भंगी अने प्रायश्चित्तो ३६९३-३७१७ निष्कारण अविधिथी निम्रन्थीना उपाश्रयमा प्रवेश करवाथी लागता दोषोनुं १ विश्वस्ता २ ग्लाना ३ क्षपिका ४ विचार ५ भिक्षा ६ स्वाध्याय ७ स्व-पर तदुभय पालीभेद ए सात द्वारोवडे विस्तृत वर्णन ३७१८-२० पू० निष्कारण विधिथी पण अने सकारण अविधिधी निम्रन्थीना उपाश्रयमा प्रवेशने लगतां प्रायश्चित्तो ३७२००-२१ कारणसर पण विधिपूर्वक निर्ग्रन्थीना उपाश्रयमां प्रवेशनी आज्ञा अने प्रवेशने योग्य कारणोना निर्देशविषयक द्वारगाथा ३७२२-४३ १ 'गम्यते कारणजाते' द्वार निम्रन्थीना उपाश्रयमा निम्रन्थादिना प्रवेशने योग्य कारणोनुं-३७२२-२३ प्रतिद्वारगाथानिर्दिष्ट १ उपाश्रय २ संस्तारक ३ उपधि ४ सङ्घप्राधुणक ५ शैक्ष ६ स्थापना ७ उद्देश ८ अनुज्ञा ९ भण्डन १० गण(धर) ११ अनात्मवशा १२ अमि १३ अप्काय १४ विचार १५ पुत्र १६ सङ्गम १७ संलेखना १८ व्युत्सर्जन १९ व्युत्सृष्ट अने २० निष्ठित-ए वीस द्वारोवडे निरूपण ३७४४-४८ २ प्राघुणकद्वार प्राघूर्णक निर्ग्रन्थो शय्यातर, मामाक, प्रतिक्रुष्ट कुलादिनी जाणकारी माटे निम्रन्थीनी वसतिमां जाय तेने लगतो विधि १०३२ १०३२ १०३३-३७ १०३७-३८ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ वृहत्कल्पसूत्र चतुर्थ विभागनो विषयानुक्रम । गाथा पत्र १०३८-३९ १०३९-४० १०४० १०४०-४२ विषय ३७४९-५४ प्रकारान्तरे प्राघुणकद्वार परदेशी अने ते देशनी भाषार्थी अपरिचित निर्ग्रन्थो वसति आदि मेळववा माटे निर्ग्रन्थीना उपाश्रयमा जाय तेने लगतो विधि ३७५५-५६ ३ गणधरद्वार निर्ग्रन्थीने साप वगेरे करडेल होय, दाहज्वर वगेरे थएल होय इत्यादि कारणसर गणधरादि निम्रन्थीना उपाश्रयमा जइ शके. ३७५७-५९ ४ महर्द्धिकद्वार प्रवजित राजा-अमात्य-श्रेष्ठी-पुरोहितादि निम्रन्थीना उपाश्रयमा जइ शके तेमना जवाथी थता लाभो ३७६०-६७ ५ 'प्रच्छादना च शैक्षे' द्वार . दीक्षित राजकुमारादिना प्रच्छादनमाटे निर्ग्रन्थीनी वसतिमां जवा आदिने लगतो विधि ३७६८-३८०१ ६ 'असहिष्णोश्चतुष्कभजना' द्वार ग्लान निर्ग्रन्थी अने तेना प्रतिचरक निम्रन्थविषयक सहिष्णु-असहिष्णु पदनी चतुरंगी अने तेने लगती यतनाओनुं विस्तृत वर्णन अने अपवाद ३८०२-४ २ निन्धोपाश्रयप्रवेशसूत्र निर्मन्थीओने निम्रन्थोना उपाश्रयमा उभा रहे, सुवं, बेस वगेरे कशुं य करवू कल्पे नहि ३८०२ निर्ग्रन्थोपाश्रयप्रवेशसूत्रनो पूर्वसूत्र साथे सम्बन्ध निर्ग्रन्थोपाश्रयप्रवेशसूत्रनी व्याख्या . ३८०३-४ निम्रन्थोपायप्रवेशसूत्रनी व्याख्यामादे पूर्वसूत्रनी व्याख्यानी भलामण १०४२-४९ १०४९-५० १०५० १०५० १०५० %3 १०५०-६६ ३८०५-७८ ३८०५-१९ चर्मप्रकृत सूत्र ३-६ ३ निर्ग्रन्थीविषयक सलोमचर्मसूत्र निम्रन्थीओने रोमयुक्त चामडानो बेसवा आदि तरीके उपभोग करवो कल्पे नहि १०५० Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३८०५-६ ३८०७-१४ ३८१५ - १९ ३८२०-४३ ३८२० ३८२१ ३८२२-४३ ३८४४-७१ ३८४४-४५ ३८४६-५५ ३८५६-७१ बृहत्कल्पसूत्र चतुर्थ विभागनो विषयानुक्रम | विषय चर्मप्रकृतनो पूर्वसूत्र साथै सम्बन्ध निर्ग्रन्थीविषयक सलोमचर्मसूत्रनी व्याख्या निर्ग्रन्थीओने सलोम चर्मना उपभोगथी लागतां प्रायश्चित्तो अने दोषोनुं स्वरूप निर्मन्थीओने आश्री सलोम चर्मना उपभोग विषयक अपवाद अने तेने लगतो विधि निर्ग्रन्थविषयक सलोमचर्मसूत्र निर्मन्थोने परिभोग करेल एकरात्रिक प्रातिहारिक सलोम चर्मनो उपभोग करवो कल्पे निर्मन्थविषयक सोमचर्मसूत्रनी व्याख्या निर्ग्रन्थीओने सलोम चर्म नहि कल्पवानां कारणो सलोम चर्म उत्सर्गथी निर्मन्थोने पण अकल्प्य छे पुस्तकपञ्चक, तृणपञ्चक, दूष्यपञ्चकद्वय अने चर्मपञ्चकनुं स्वरूप अने तेना उपभोगने लगतां प्रायश्चित्तो, दोषो, यतना वगेरे ५ निर्ग्रन्ध-निर्ग्रन्थीविषयक कृत्स्नचर्मसूत्र निर्मन्थ-निर्ग्रन्थीओने कृत्स्नचर्मनो एटले वर्ण-प्रमानादियुक्त चर्मनो उपभोग के संग्रह करवो कल्पे नहि निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयक कृत्स्नचर्मसूत्रनो पूर्वसूत्र साथै सम्बन्ध निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयक कृत्स्नचर्म - सूत्रनी व्याख्या कृत्स्नना सकलकृत्स्न, प्रमाणकृत्स्न, वर्णकृत्स्न अने बन्धनकृत्स्न ए चार प्रकारो, तेनुं स्वरूप अने तेने लगतां प्रायश्चित्त कृत्स्नचर्मना उपभोगादिने आश्री लागता दोषोनुं १ गर्व २ निर्मार्दवता ३ निरपेक्ष ४ निर्दय ५ निरन्तर ६ भूतोपघात ए छ द्वारो वडे पण, तेने लगता अपवादो, यतना आदि निरू २९ पत्र १०५०-५१ १०५१ १०५१-५२ १०५२-५३ १०५३-५९ १०५३ १०५४ १०५४ १०५४ - ५९ १०५९-६५ १०५९ १०५९ १०५९-६१ १०६१-६५ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० बृहत्कल्पसूत्र चतुर्थ विभागनो विषयानुक्रम । गाथा विषय पत्र ३८७२-७८ १०६५-६६ ६ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्धीविषयक अकृत्ल चर्मसूत्र निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने वर्ण-प्रमाणादिरहित चर्मनो उपभोग अने संग्रह करवो कल्पे निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयक अकृत्स्नचर्म सूत्रनी व्याख्या अकृत्स्नचर्मनो सकारण उपभोग, निष्कारणे प्रायश्चित्त अने अकृत्स्नचर्मना अढार खण्ड करवाने लगतुं चार्चिक ३८७२-७८ १०६७-७४ १०६७ १०६७ ३८७९-३९१७ कृत्स्नाकृत्स्नवस्त्रप्रकृत सूत्र ७ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने कृत्स्नवस्त्रनो संग्रह अने उपभोग करवो न कल्पे पण अकृत्सवस्त्रनो संग्रह अने उपभोग करवो कल्पे ३८७९ कृत्स्नाकृत्स्नवस्त्रप्रकृतनो पूर्वसूत्र साथे सम्बन्ध ७ कृत्लाकृत्स्नवस्त्रसूत्रनी व्याख्या ३८८० कृत्सवखना छ निक्षेपो ३८८१-८३ द्रव्यकृत्स्नना सकलकृत्स्न अने प्रमाणकृत्ल ए वे प्रकारो अने तेनुं स्वरूप ३८८४-८५ क्षेत्रकृत्न अने कालकृत्स्ननु स्वरूप ३८८६-९८ __ भावकृत्लन स्वरूप ३८८६ भावकृत्स्नना वर्णयुत अने मूल्ययुत ए बे प्रकारो ३८८७-९८ पांच प्रकारना वर्णयुत अने त्रण प्रकारना मूल्ययुत भावकृत्स्ननुं स्वरूप अने तेने लगतां प्रायश्चित्तो ३८९९ प्रकारान्तरे भावकृत्स्ननुं स्वरूप ३९००-१७ द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकृत्सवखने लगता दोषो अने तेने अंगना अपवादो [गाथा ३९२३-४-स्तेन- उदाहरण] १०६७-६८ १०६८ १०६८-७० १०६८ १०६८-७० १०७० १०७०-७४ - - - ११.७४ मा पृष्ठमा ३९१७ गाथानी व्याख्या पछी ॥ कृत्लाकृत्मप्रकृतं समाप्तम् ॥ एटलं उमे॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा पत्र बृहत्कल्पसूत्र चतुर्थ विभागनो विषयानुक्रम ! विषय ३९१८-४०९९ भिन्नाभिन्नवस्त्रप्रकृत सूत्र ८-९ १०७५-१११८ ३९१८-४०७७ ८निर्ग्रन्थ-निर्घन्धीविषयक अभिन्नवस्त्रसूत्र १०७५-१११३ निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने अभिन्न वस्त्रनो संग्रह अने उपभोग करवो कल्पे नहि निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयक अभिन्नवस्त्रसूत्रनी व्याख्या १०७५ ३९१८-१९ कृत्स्न अने अकृत्स्नपदनी भिन्न-अभिन्न पद' साथे चतुर्भगी, अभिन्नपदना द्रव्य क्षेत्र काल अने भाव ए चार प्रकारो, तेना ग्रहणादिने लगता विधि प्रायश्चित्त आदिनो अतिदेश अने भिन्न वस्त्र न मळे तो अभिन्न वस्त्रने फाडीने उपयोगमा लइ शकाय १०७५ ३९२० भिन्नाभिन्नवस्त्रसूत्रोना निरूपणनां कारणो। १०७५ ३९२१-५१ वस्त्रने फाडीने लेवाथी हिंसा लागे माटे वस्त्रने फाडीने लेवू न जोइए ए प्रकारनी शिष्यनी शंकाना जवाबमां हिंसा-अहिंसाना खरूप वणेनविषयक गंभीर वादस्थल १०७६-८३ ३९२१-२६ वरने फाडीने लेवाथी हिंसा लागे ए विषयक शिष्यनो पूर्वपक्ष १०७६-७७ ३९२७-३४ वस्त्रने फाडवाथी हिंसा लागवा सामे आचार्यनो प्रत्युत्तर, द्रव्य-भावहिंसानी चतुभंगी अने तेनुं स्वरूप १०७७-७९ ३९३५-३६ हिंसा करवामां राग द्वेष अने मोहनी विविधताने लीधे कर्मबंधमां ओछावत्तापणुं अने तेना वर्णनमाटेनी द्वारगाथा १०७९ ३९३७ . १ तीव्रमन्दद्वार १०८० हिंसादि करवामां रागादिनी तीव्रताथी तीव्र कर्मबंध अने अल्पताथी अल्प कर्मबंध ३९३८-३९ २ ज्ञाताज्ञातद्वार १०८० ११०७५ मा पानाने मथाळे सूत्रम्ना पहेलां भिन्नाभिन्नवस्त्रप्रकृतम् एटलं उमेर ॥ - Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ बृहत्कल्पसूत्र चतुर्थ विभागनो विषयानुक्रम । गाथा पत्र ३९४०-४१ १०८०-८१ ३९४२-४७ १०८१-८२ ३९४८-४९ १०८२-८३ विषय हिंसादि करनार ज्ञानी अने अन्नानी होवाने कारणे कर्मबंधमां ओछावत्तापणुं ३ भावद्वार हिंसादि करनार क्षायिक क्षायोपशमिक औपशर्मिक आदि विविध भावमां वर्त्ततो होवाने कारणे कर्मबंधमां विचित्रता ४ अधिकरणद्वार अधिकरणनी विविधताने लीधे कर्मबंधमां विविधता, निर्वर्तना निक्षेपणा संयोजना अने निसर्जनाधिकरणनुं स्वरूप अने परिणामनी विचित्रताने कारणे कर्मबंधमां विविधता होवा छतां अधिकरणनिमित्तक कर्मबंधनी विचित्रता कया कारणे अहीं कहेवामां आवी ? एनुं निरूपण ५ वीर्यद्वार हिंसादि करनारना देहादि बलने कारणे कर्मबंधमां विविधता अने देहादिवलनी हानि-वृद्धिने लगतां पदस्थानको हिंसा-अहिंसाविषयक वादस्थलनो उपसंहार वस्त्रने फाडवा माटे शिष्ये बतावेला प्रकारो अने ते सामे आचार्यनो विरोध अयोग्य रीते वस्त्र फाडवाथी वस्त्र अपलक्षणुं अने नहीं राखवा लायक थइ जाय छे ए बताववा माटे लक्षणयुक्त अश्व मागनार द्रमकनुं उदाहरण वस्त्रोना प्रमाण वगेरेना निरूपणविषयक द्वारगाथा १ प्रमाणद्वार जिनकल्पिक अने स्थविरकल्पिकनो उपधि अने तेनी संख्या जिनकल्पिकना जघन्य मध्यम उत्कृष्ट उपधिनी संख्या अने तेनुं माप ३९५०-५१ ३९५२-६० १०८३-८५ १०८६ १०८७-९३ ३९६२-८९ ३९६२-६५ १०८७-८८ ३९६६-६८ १०८८ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा पत्र वृहत्कल्पसूत्र चतुर्थ विभागनो विषयानुक्रम । विषय ३९६९-८३ गच्छवासीना उपधिनुं माप १०८९-९२ ३९६९-७२ गच्छवासीना कल्पो, पात्रकबन्ध अने रजत्राणमाप । १०८९ ३९७३-७६ प्रीष्म, शिशिर अने वर्षाऋतुने आश्री पडला. ओनी संख्या अने माप १०९० ३९७७-७९ रजोहरण- स्वरूप अने तेनुं माप १०९०-९१ ३९८०-८३ संस्तारक, उत्तरपट्ट, चोलपट्ट, रजोहरणनी उननी अने सूतरनी निषद्याओ, मुखवत्रिका, गोच्छक, . पात्रप्रत्युपेक्षणिका अने पात्रस्थापन- माप १०९१-९२ ३९८४-८६ स्थविरकल्पिकोए ऋण प्रच्छादककल्पो अवश्य लेवा ज जोइए एवी भगवाननी आज्ञा अने जीर्णादि कारणसर गुरुआज्ञाथी सात प्रच्छादक कल्पो लेवा सुधीनी आज्ञा १०९२-९३ ३९८७ भिक्षुए धारण करवा योग्य उपधिनां लक्षणो १०९३ ३९८८-८९ प्रमाणातिरिक्त उपधिने लगतो अपवाद १०९३ २ अतिरिक्त-हीनद्वार १०९३ वधारे के ओछो उपधि राखवार्थी लागता दोषो ३९९१-९२ ३ परिकर्मद्वार १०९४ वस्त्रना परिकर्म एटले सांधवा विषयक सकारणनिष्कारण पद साथे विधि-अविधिपदनी चतुभंगी अने विधिपरिकर्म अने अविधिपरिकर्मनुं स्वरूप ३९९३-९६ ४ विभूषाद्वार १०९४-९५ विभूषानिमित्ते उपधिने धोg वगेरे करनारने प्राय. श्चित्त अने तेनां कारणो ३९९७-९८ ५ मूर्छाद्वार मूर्छाथी उपधि राखनारने प्रायश्चित्त अने दोषो ३९९९-४०६० पात्रविषयक विधि १०९६-११०७ ३९९९-४००० पात्रकना प्रमाणादिना निरूपणविषयक द्वारगाथा १०९६ ४००१-१५ १ प्रमाणातिरेक-हीनदोषद्वार १०९६-९९ ४००१-४ गणतरी करतां वधारे अने माप करतां मोटां पात्र राखवाथी लागता दोषो अने प्रायश्चित्त १०९६-९७ १०९५ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ बृहत्कल्पसूत्र चतुर्थ विभागनो विषयानुक्रम । गाथा पत्र ४००५-११ ४०१२-१५ ४०१६-२१ १०९७-९८ १०९९ ११००-१ ४०२२-२६ ११०१-२ ४०२७ ११०२ ४०२८ ११०२ विषय गणतरी करतां ओछां अने माप करतां नानां पात्र राखवाथी लागता दोषो अने प्रायश्चित्त पात्रकनुं प्रमाण-माप २ अपवादद्वार गणतरी करतां वधारे के ओछां अने माप करतां मोटां के नानां पात्र राखवाविषयक अपवाद ३ लक्षणालक्षणद्वार पात्रकनां सुलक्षणो अने अपलक्षणो, तद्विषयक गुण-दोषो अने प्रायश्चित्तो ४ त्रिविधोपधिद्वार तुम्बपात्र, काष्ठपात्र अने मृत्पात्र तेमज यथाकृत, अल्पपरिकर्म अने सपरिकर्म पात्रो ५ विपर्यस्तद्वार पात्रग्रहणना क्रमनो भंग करवाने लगतां प्रायश्चिचादि अने यथाकृतादि पात्रोनुं स्वरूप ६ 'क' द्वार केवो निर्ग्रन्थ पात्रां लावी शके ? ७ पौरुषीद्वार पात्रनी याचनानो समय ८कालद्वार केटला दिवसो सुधी पावनी याचना करवी ? ९ आकरद्वार पात्र मेळववानां स्थानो अने तेने लगतो विधि १० चाउलद्वार तन्दुलधावन, उष्णोदक आदिथी भावित कल्पनीय पात्रो अने तेना ग्रहणनो विधि ११ जघन्ययतनाद्वार पात्रग्रहणविषयक जघन्य यतना १२ चोदकद्वार अने १३ 'असति अशिव' द्वार जघन्ययतनाविषयक शिष्याचार्यनां शंका-समाधानो १४ प्रमाणउपयोगछेदनद्वार ४०२९ ११०२ ११०३ ४०३१-३२ ११०३ ४०३३-३६ ११०३-४ ४०३७-४२ ११०४-५ ४०४३-४९ ११०५-६ ४०५०-५२ ११०७ ४०५३-५८ ११०७ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्र चतुर्थ विभागनो विषयानुक्रम । गाथा ४०५९-६० ११०९ ४०६१-७७ ४०६१-६३ ४०६४ ४०६५-६६ ११०९-१० १११० १११० ४०६७-६९ ११११ ४०७०-७२ ११११-१२ ४०७३-७५ विषय प्रमाणयुक्त पात्र न मळे तो उपयोग पूर्वक पात्रनुं छेदन १५ मुखप्रमाणद्वार पात्रना मुखनुं प्रमाण मात्रकविषयक विधि मात्रकना ग्रहणनुं विधान मात्रक नहि लेवाथी लागता दोषविषयक द्वारगाथा १'अग्रहणे वारत्रक'द्वार मात्रक नहि राखवाथी लागता दोषो अने वारत्रकनुं दृष्टान्त २ प्रमाणद्वार मात्रकनुं माप ३.हीनद्वार अने ४ अधिकद्वार नानुं के मोटुं मात्रक राखवाथी लागता दोषो ५ शोधिद्वार ६ अपवादद्वार ७ परिभोगद्वार ८ ग्रहणद्वार अने ९ द्वितीयपदद्वार मात्रकना लेपनो विधि ९निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयक भिन्न - वस्त्रसूत्र निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयक भिन्नवस्त्रसूत्रनुं प्रयोजन निर्ग्रन्थीओनो पचीस प्रकारनो ओघोपधि निम्रन्थीओना नीचेना शरीरने ढांकवाना १ अवग्रहानंतक २ पट्ट ३ अोरुक ४ चलनिका ५ अन्तर्निवसनी अने ६ बहिर्निवसनी ए छ प्रकारना ओघोपधिनुं स्वरूप अने तेनो उपयोग निर्ग्रन्थीओना उपरना शरीरने ढांकवाना १ कञ्चक २ औपकक्षिकी ३ वैकक्षिकी ४ सङ्घाटी अने ५ स्कन्धकरणी ए पांच प्रकारना ओघोपधिनुं स्वरूप अने तेनो उपयोग निर्ग्रन्थीओना पचीस प्रकारना ओघोपधिनो उपसंहार अने तेना संघातिम असंघातिम ए वे विभाग १११२ १११३ ४०७६-७७ ४०७८-९९ ४०७८-७९ ४०८०-८३ ४०८४-८७ १११३-१७ १११३ १११४ १११४-१५ ४०८८-९१ १११५-१६ ४०९२ १११६ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्र चतुर्थ विभागनो विषयानुक्रम । गाथा विषय ४०९३ - ४०९९ जिनकल्पिक, स्थविरकल्पिक अने आर्याओना जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट उपधिनो विभाग ३६ ४१००-४७ ४१००-४ ४१०० ४१०१-४ ४१०५-४७ ४१०५-१३ ४११४-२८ ४१२९-४७ अवग्रहानन्तकावग्रहपट्टक प्रकृत सूत्र १०-११ १० निर्ग्रन्थविषयक अवग्रहानन्तकाव ग्रहपट्टकसूत्र निर्ग्रन्थोने अवग्रहानन्तक अने अवग्रहपट्टकनो उपयोग करवो कल्पे नहि अवग्रहानन्तकावग्रहपट्टकप्रकृतनो पूर्वसूत्र साथै सम्बन्ध निर्ग्रन्थविषयक अवग्रहानन्तकावग्रह पट्टकसूत्रनी व्याख्या निर्ग्रन्थोने अवग्रहानन्तक अने अवग्रहपट्टक धारवाने लगतां प्रायश्चित्त अने अपवाद ११ निर्ग्रन्थीविषयक अवग्रहानन्तकावग्रहपट्टकसूत्र निर्ग्रन्थीओने अवग्रहानन्तक अने अवग्रहपट्टक राखवो अने तेनो उपयोग करवो कल्पे निर्ग्रन्थीओने अवग्रहानन्तक अने अवग्रहपट्टक नहि रावाथी लागता दोषो अने तद्विषयक अपवाद निर्ग्रन्थीओना विधिपूर्वक अने अविधिपूर्वक बहार नीकळवानुं स्वरूप तेने लगता गुण-दोषो, गुणदोषोने अंगे योध, मुरुण्डजड, नर्तकी, लसिका अने कदलीस्तम्भनां दृष्टान्तो अने प्रायश्चित्तादि धर्षित निर्ग्रन्थीना परिपालननो विधि अने तेनो अवर्णवाद - अवहेलनादि करनारने प्रायश्चित्तादि [ गाथा ४१३९ – गर्भोत्पत्तिनां पांच स्थानो ] पत्र १११६ - १७ १११८-२८ १११८ १११८ १११८ १११८-१९ १११९-२८ १११९-२१ ११२१-२४ ११२४-२८ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ४१४८-८८ ४१४८-५० निश्राप्रकृतनो पूर्वसूत्र साथै सम्बन्ध ४१५१-५२ ४१५३-५८ ४१५९-८८ हत्कल्पसूत्र चतुर्थ विभागनो विषयानुक्रम | विषय निश्राप्रकृत सूत्र १२ भिक्षामादे गएली निर्ग्रन्धीए वस्त्र लेवुं होय तो प्रवर्त्तिनीनी निश्राए लेवुं. जो साथै प्रवर्त्तिनी न होय तो ते क्षेत्रमां आचार्य वगेरे जे होय तेमनी निश्रा करीने लेवं १२ निश्रासूत्रनी व्याख्या निश्रासूत्र आचार्य प्रवर्त्तिनीने, प्रवर्त्तिनी भिक्षुणीओने न समजावे तेने लगतां प्रायश्चित्तो निर्मन्थीओने प्रवर्त्तिनीआदिनी निश्राए वस्त्रादि नहि लेवाथी लागता दोषोनुं १ मिध्यात्व २ शंकादि ३ विराधना ४ लोभ ५ अभियोग ६ गौरव ७ भंडन ८ अस्थानस्थापन ए आठ द्वारोथी वर्णन निश्रासूत्रनी सफलता, तेने लगतो अपवाद, निर्मन्थीओए कारणसर वस्त्र लेवानो विधि, वेमणे आला वस्त्रोनी परीक्षा अने तेना संस्कारनो विधि, भद्रक अने अभद्रक दाता पासेथी वस्त्र लेवानो विधि, आचार्य उपाध्याय प्रवर्त्तिनीनी निश्राए वस्त्र लेवानो विधि अने आचार्यादि न होय त्यारे शय्यातरादिनी निश्राए वस्त्र लेवानो विधि आदि ४१८९-४२३४ त्रिकृत्स्नप्रकृत सूत्र १३ – १४ १३ निर्ग्रन्थविषयक त्रिकृत्नसूत्र पहेल वहेली दीक्षा लेनार निर्मन्थने त्रण जोड रजोहरण गोच्छक अने प्रतिग्रहरूप मध्यम जघन्य उत्कृष्ट उपधि लइने दीक्षा लेवी कल्पे. परंतु ते दीक्षा लेनार पूर्वे दीक्षा लीवेलो होय तो ते नवा उपधिने लइने प्रब्रजित न थइ शके किन्तु पासे होय ते लइने ज प्रत्रजित थइ शके ३७ पत्र ११२८-३६ ११२८-२९ ११२९ ११२९-३० ११३०-३१ ११३१-३६ ११३७-४८ ११३७ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्र ११३७ ११३७ ११३८ ११३८-३९ ११३९ ३८ बृहत्कल्पसूत्र चतुर्थ विभागनो विषयानुक्रम । गाथा विषय ४१८९ त्रिकृत्स्नप्रकृतनो पूर्वसूत्र साथे सम्बन्ध निर्ग्रन्थविषयक त्रिकृत्स्नसूत्रनी व्याख्या ४१९०-९१ द्रव्य-भावपद्वारा निर्ग्रन्थनी चतुरुंगी। ४१९२-९४ द्रव्यनिर्ग्रन्थ अने भावनिर्ग्रन्थनुं स्वरूप दर्शाववा माटे देव असुर राक्षस अने मनुष्य स्त्री-पुरुषना संवासविषयक षोडशभंगी अने मनुष्यत्री साथे संवास राखनार यक्षनुं दृष्टान्त ४१९५-९६ रजोहरण, गोच्छक अने प्रतिग्रहपदनी अने कृत्स्न पदनी व्याख्या ४१९७-४२११ पहेल वहेली प्रव्रज्या लेनार शिष्यने लगतो चैत्य आचार्य उपाध्याय भिक्षु वगेरेनी पूजा-सत्कारनो विधि, तेने लगती विशोधिकोटि-अविशोधिकोटिनु स्वरूप, आ सम्बन्धमा मतान्तरो अने तेने लगतां सहस्रानुपातिविष अने मेरुमहीधरनां दृष्टान्तो ४२१२-२३ रजोहरण-गोच्छक-प्रतिग्रहरूप विकृत्स्न खरीदवा योग्य कुत्रिकापणो, कुत्रिकापणनुं वर्णन, कुत्रिकापणो केवी रीते उत्पन्न थाय छे अने प्राचीन काळमां कुत्रिकापणो कया कया नगरोमां हतां तेनुं वर्णन ४२२४-२८ पहेलवहेली दीक्षा लेनारना सात निर्योगोनी एटले उपकरणनी जोडोनी वहेंचणी ४२२९-३२ एक वार दीक्षा मूकी पुनः दीक्षा लेवा तैयार थना रने अंगे वीरणसढक घास, उदाहरण अने यस्वैषणा तथा पात्रैषणाना जाणकार अने नहि जाणकार दीक्षा लेनारने आश्री त्रिकृत्स्नग्रहणनो विभाग निर्ग्रन्थीविषयक चतु:कृत्लसूत्र पहेलवहेली दीक्षा लेनार निर्ग्रन्थीने चार जोड जघन्य मध्यम उत्कृष्ट उपधि लइने प्रत्रजित थर्बु कल्पे आदि ११३९-४३ ११४३-४६ ११४६-४७ ११४७-४८ ११४८ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ४२३५-४३०७ ४२३५-३६ ४२३७-४३०७ ४२३७-४१ ४२४२ ४२४३-४५ ४२४६-४८ ४२४९-५१ ४२५२-५८ ४२५९-६२ ४२६३ ४२६४-६६ ४२६७-७१ ४२७२-७७ ४२७८-७९ बृहत्कल्पसूत्र चतुर्थ विभागनो विषयानुक्रम | विषय समवसरणप्रकृत सूत्र १५ निर्ग्रन्थ अने निर्ग्रन्थीओने प्रथम समवसरणना उद्देशमां एटले वर्षाकालसम्बन्धी क्षेत्र - कालमां प्राप्त reat aal कल्पे नहि पण द्वितीयसमवसरणना उद्देशमां प्राप्त थलां वस्त्रो कल्पे समवसरणप्रकृतनो पूर्वसूत्र साथै सम्बन्ध १५. समवसरणसूत्रनी व्याख्या समवसरणसूत्रनी विस्तृत व्याख्या उद्देशशब्दना अर्थमां वक्रोक्तिद्वारा शिष्ये उत्पन्न करेली शंका अने तेनुं आचार्ये करेलुं समाधान समवसरणसूत्रनी विस्तृत व्याख्यामां वक्तव्य पदार्थो उद्देशशब्दना छ निक्षेपो अने तेनुं स्वरूप क्षेत्र अने कालथी प्राप्त अप्राप्त पदनी चतुर्भगी अने तेनुं स्वरूप वर्षाऋतुमां अधिक उपधि लेवानी आज्ञा, तेनां कारणो अने तेने लगतुं कुटुम्बीनुं दृष्टान्त वर्षाऋतुयोग्य उपकरणो अधिक नहि राखवाथी लागता संयमविराधना आत्मविराधना आदि दोषो वर्षाऋतुयोग्य अधिक उपकरण राखवाने लगतां अपवादस्थानो वर्षाऋतु योग्य उपकरणो प्रथम समवसरणमां वर्षाऋतुने योग्य उपकरण लइ शकाय के नहि ? लइ शकाय तो कया क्रमे ? तेने लगतो उत्सर्ग- अपवादमार्गे विधि वर्षाऋतुने लगता व्याघातो अने तन्निमित्ते उपकरणोनी तपास करी राखवा माटेनां स्थानो कारणसर वर्षाक्षेत्रनी बहार दूर जवामां अने वस्त्रादि लेवामां गुणवृद्धि अन्यथा आधाकर्मादि दोषो निष्कारण दर्पथी के स्वाध्यायादिमादे वस्त्रग्रहणना कमने उल्लङ्घने ग्रहण करेलां वस्त्रोनुं परिष्ठापन पत्र ३९ ११४९-११६६ ११४९ ११४९ ११५०-६६ ११५०-५१ ११५१ ११५१-५२ ११५२ ११५२-५३ ११५३ - ५५ ११५५ ११५६ ११५६-५७ ११५७-५८ ११५८-५९ ११५९-६० Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० गाथा ४२८०-८७ ४२८८-९६ ४२९७-४३०७ ४३०८-६६ ४३०८ ४३०९-१८ ४३१९-२९ ४३३०-३१ ४३३३-६० बृहत्कल्पसूत्र चतुर्थ विभागनो विषयानुक्रम | विषय जे कालमां, जे विधिथी अने जेटला मास पर्यंत चोमा रहेवुं जोइए तेनुं निरूपण अने तेनां कारणो वर्षावासना क्षेत्रथी नीकळेला निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओए वस्त्रादि ग्रहण करवानो विधि द्वितीय समवसरणसूत्रनी व्याख्या ऋतुबद्ध कालमां वस्त्रादिग्रहणनो विधि अपवादादि येथारनाधिकवस्त्रपरिभाजन प्रकृत सूत्र १६ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने यथारत्नाधिक वस्त्र लेवां कल्पे यथारत्नाधिकवस्त्रपरिभाजनप्रकृतनो पूर्वसूत्र साथै सम्बन्ध १६ यथारत्नाधिकवस्त्र परिभाजनसूत्रनी व्याख्या एकाचार्यप्रतिबद्ध अने साम्भोगिक - असाम्भोगिक अनेकाचार्यप्रतिबद्ध क्षेत्रोमां निर्ग्रन्थसंघाटके वस्त्र लाववानो विधि, तेनुं यथारत्नाधिक परिभाजन, क्रमभंगने लगतां प्रायश्चित्तो, गुरुओने योग्य वस्त्रो, रत्नाधिको कोण ? अने कये क्रमे ? तेनुं स्वरूप निर्ग्रन्थोना समुदाये मळीने आणेलां वस्त्रोना परिभाजननो-वहेंचवानो क्रम, लोभी साधुओए निर्देशेलो वस्त्र वचवानो क्रम, लोभी साधुने समजाववानो प्रकार, कोई रीते नहि समजनार लोभी साधु लगतो वस्त्रपरभाजननों विधि, तेने धमaraarat विधि आदि क्षपके आगेलां वस्त्रोने वहेंचत्रानो विधि वस्त्र परिभाजनप्रसंगे लुब्ध साधु साथै थल विवादने अंते छुपके कहेल सचित्त- अवित्त-मिश्रना ग्रहणनो विधि पत्र ११६०-६२ ११६२-६४ १९६४-६६ ११६७-८० ११६७ ११६७ ११६७-६९ ११७०-७२ ११७२ ११७३-७९ १ आ ठेकाणे मूळमां यथारत्नाधिकवस्त्रग्रहणप्रकृतम् छपायुं छे तेने बदले यथारनाधिकवस्त्र परिभाजनप्रकृतम् समजवं ॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्र चतुर्थ विभागनो विषयानुक्रम । गाथा विषय ४३३३-४६ ४३४७-५२ ११७६-७७ १ सचित्तग्रहण- स्वरूप पाणी, आग, चोर, दुर्भिक्ष, महारण्य, ग्लान, श्वापद आदि आगाढ कारणप्रसंगे आचार्य उपाध्याय भिक्षु क्षुल्लक अने स्थविर ए पांच निर्ग्रन्थो तथा प्रवर्तिनी उपाध्याया स्थविरा भिक्षुणी अने क्षुल्लिका ए पांच निर्ग्रन्थीओ पैकी कोने कये क्रमे बचाववा तेने लगतो विधि अने ए क्रमने अंगे शिष्याचार्यनां शंका-समाधानो २ मिश्रग्रहण- स्वरूप आचार्य उपाध्याय आदि निर्ग्रन्थो अने प्रवर्तिनी, उपाध्याया आदि निर्ग्रन्थीओ आ उभयपक्ष एकी साथे पाणी आग चोर दुर्भिक्ष आदिना उपद्रवमा सपडाया होय त्यारे तेमने पार उतारवाने लगतो क्रम अने विधि ३ अचित्तग्रहणनो विधि वस्त्रपात्रादिविषयक अभिनवग्रहणनुं अने उपस्थापनाग्रहण अने उपस्थापितग्रहण ए बे प्रकारना पुराणग्रहण- स्वरूप सचित्त अचित्त अने मिश्रग्रहणना विधिमां क्षपक साधुए दर्शावेल क्रममां लुब्धसाधुए दर्शावेली खामी अने अभिनवसचित्तग्रहणना ४८ भेदोनी पूर्ति ४३५३-६० ११७७-७९ ४३६१-६६ ११७९-८० ११८१-९२ ४३६७-४४१३ यथारत्नाधिकशय्यासंस्तारक परिभाजनप्रकृत सूत्र १७ निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने यथारनाधिक शय्या अने संस्तारक लेवा कल्पे यथारत्नाधिकशय्यासंस्तारकपरिभाजनप्रकृतनो पूर्वसूत्र साथे सम्बन्ध ११८१ १ आ ठेकाणे मूळमां यथारत्नाधिकशय्यासंस्तारकग्रहणप्रकृतम् छपायुं छे तेने बदले यथारनाधिकशय्यासंस्तारकपरिभाजनप्रकृतम् समजवु ॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ११८१ बृहत्कल्पसूत्र चतुर्थ विभागनो विषयानुक्रम । विषय १७ यथारत्नाधिकशय्यासंस्तारक परिभाजनसूत्रनी व्याख्या ४३६८ शय्या अने संस्तार पदनी व्याख्या अने तेना ग्रह णादिनो समय ४३६९-४४१३ यथारत्नाधिक शय्या एटले वसति अने संस्तारक एटले संथारानी जग्या लेवानो विधि, तेने लगती यतनाओ, अपवाद वगेरेनुं विस्तृत स्वरूप ११८१ ११८१-९२ ४४१४-४५५३ कृतिकर्मप्रकृत सूत्र १८ १९९२-१२२८ निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने यथारत्नाधिक ज कृतिकर्म करवं कल्पे ४४१४ कृतिकर्मप्रकृतनो पूर्वसूत्र साथे सम्बन्ध ११९२ १८ कृतिकर्मसूत्रनी व्याख्या १९९२ ४४१५ कृतिकर्मना अभ्युत्थान अने वन्दनक ए वे प्रकारो ११९२ ४४१६-६७ ___ अभ्युत्थानकृतिकर्मनुं स्वरूप ११९३-१२०६ ४४१६-२० निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने पार्श्वस्थादि, अन्यतीर्थिक, गृहस्थ, यथाच्छंद, अन्यतीर्थिनी अने संयतीवर्गअभ्युत्थान करवाथी लागतां प्रायश्चित्तो अने संभवता दोषोनुं वर्णन ११९३-९४ आचार्य उपाध्याय भिक्षु अने क्षुल्लक प्राघूर्णक तरीके आवता आचार्यादिनुं अभ्युत्थान न करे तेने लगतां प्रायश्चित्तो ११९४-९६ ४४३०-३६ प्राघूर्णक आचार्यादिनुं अभ्युत्थान नहि करवामां कोइ पण जातनी आत्मविराधना के संयमविराधना जेवू नहि छतां प्रायश्चित्त आपवानुं कारण, तेने अंगे यक्षरकर्नु-दासनुं दृष्टान्त अने तेना अप्रशस्त प्रशस्त उपनयो ११९६-९७ ४४३७-४२ स्वगच्छीय आचार्य- सूत्रपौरुषी पात्रलेप प्रति. लेखना आदि करतां अथवा ग्लानपणाने लीधे के भक्तप्रत्याख्यान करवाने लीधे अभ्युत्थान नहि ४४२१-२९ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ गाथा बृहत्कल्पसूत्र चतुर्थ विभागनो विषयानुक्रम । विषय पत्र करवाथी लागता दोषो, प्रायश्चित्तो अने अभ्युत्थानथी थता लाभो ११९८-९९ ४४४३-४६ आचार्य फरता होय, प्रस्रवणभूमि अने विचार भूमीथी आवता होय, साधु संयती श्रावक अन्यतीर्थिक श्राविका अन्यतीर्थिकी वादि अमात्य संघ अने राजा पैकी कोइनी साथे बहारथी आवता होय ते वखते तेमनुं अभ्युत्थान नहि करवाने लगतां प्रायश्चित्तो अने तेनां कारणो ११९९-१२०० ४४४७-५८ आचार्य चंक्रमण करता होय त्यारे शामाटे उठवू जोइये तेने लगतुं शिष्याचार्यतुं चार्चिक, समितिवाळो नियमे गुप्तिमान् होय छे अने गुप्तिमान समितपणामां भजनीय छे, समिति-गुप्तिनो परस्पर समवतार, आचार्यना चंक्रमण- सार्थकपणुं, आचार्यना चंक्रमण प्रसंगे अभ्युत्थान नहि करवाथी थता दोषोने समजाववा माटे भद्रकभोजिकनुं दृष्टान्त ४४५९-६४ आचार्य-उपाध्यायादिनुं अभ्युत्थान नहि करनारने सावचेत नहि करनार वृषभोने प्रायश्चित्त अने तेथी थता दोषो १२०४-५ ४४६५-६६ आचार्यादितुं अभ्युत्थान नहि करनारने प्रकारान्तरे प्रायश्चित्त १२०५-६ ४४६७-४६५३ वन्दनकृतिकर्मनुं सरूप १२०६-२१ ४४६७-६९ दैवसिक रात्रिक पाक्षिकादि प्रतिक्रमणमा आचार्य उपाध्यायादि वंदनक न करे, वन्दनको लगता पदोने न पाळे तेमज देवसिक-रात्रिक प्रतिक्रमणमा वन्दनक ओछां वत्ता करे तेने लगतां प्रायश्चित्तो १२०६ ४४७०-९५ वन्दनकविषयक पदो १९०७-१३ ४४७० वन्दनकविषयक पचीस आवश्यको ४४७१-९५ वन्दनकविषयक अनाहत, स्तब्ध, प्रवृद्ध, परि पिण्डित, टोलगति, अंकुश आदि वत्रीस दोषो, तेनुं स्वरूप अने तद्विपयक प्रायश्चित्तो १२०७-१३ १२००-४ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ गाथा ४४९६-९९ ४५००-२ ४५०३-८ ४५०९-१४ ४५१५ ४५१६-२० ४५२१-२३ ४५२४-३२ ४५३२-४० बृहत्कल्पसूत्र चतुर्थ विभागंनो विषयानुक्रम । विषय आचार्यादिने कृतिकर्म करवानो विधि, विधिनो विपर्यास करनारने प्रायश्चित्त अने आचरणानुं स्वरूप आचार्यथी जे पर्यायज्येष्ठ होय तेमणे आचार्यने वन्दन कर के नहि तेनो विधि अने आचार्यना रत्नाधिकोनुं स्वरूप कृतिकर्म कोने कर अथवा कोने न करवुं तेनुं स्वरूप, श्रेणिस्थितोने वन्दन करवानो विधि, व्यवः हारथी श्रेणिस्थितोने वंदन अने व्यवहारनय करतां निश्वयनयनी सविशेष प्रामाणिकतानुं स्थापन संयमश्रेणिनुं स्वरूप संयमना अविभागपलिच्छेदो, स्थानो, कण्डको, षट्स्थानो, अधः स्थान, पर्यवसान, वृद्धि अने अल्पबहुत्वनी प्ररूपणा जीवप्ररूपणा साथै सम्बन्ध धरावतां आलाप, गणना, विरहित, अविरहित, स्पर्शना, गणनापद, श्रेण्यपहार, भाग, अल्पबहुत्व अने समय ए पदोनी प्ररूपणाना गुरुगमनो अभाव संयमणिनो वन्दक साथ सम्बन्ध श्रेणिबाह्यस्थितनी ओळख, तेने लग जाए नोकरोने साचववामाटे सोंपेला बे शर्कराक्कुटोनुं - बे साकरना भरेला घडानुं दृष्टान्त अने तेनो उपनय मूळ गुणप्रतिसेवी अने उत्तरगुणप्रतिसेवी तत्काळ अने काळान्तरे केवी रीते भ्रष्ट थाय छे ते समजाववामाटे सङ्कर-कचरो सर्ववशकट, सर्वपमंडप, तैलभावित वस्त्र अने मरुकनां दृष्टान्तो पार्श्वस्थ आदि वन्दन कर के नहि ? ते विषेनी व्यवस्था, संयमवृद्धि आदि पुटालम्बने वन्दनकनी अनुज्ञा अने ते विषे धनिकर्तुं टान्त संयमश्रेणिस्थानमा रहेला छतां जेमनी साथे वन्दनकने लगतो व्यवहार नियमे करवामां नथी पत्र १२१३-१४ १२१४ १२१५-१६ १२१६-१९ १२१९ १२१९-२० १२२१-२२ १२२२ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धृहत्कल्पसूत्र चतुर्थ विभागनो विषयानुक्रम ! ४५ गाथा पत्र विषय आवतो अने जेमनी साथे वैकल्पिक रीते करवामां आवे छे तेमनुं वर्णन, तेने लगतो अपवाद, अजापाल वाचकनुं दृष्टान्त, पुष्टालम्बने पार्श्वस्थादिने वन्दनक नहि करवाथी लागतां प्रायश्चित्तो अपवादपदे पुष्टालंबने केवा प्रकारना पार्श्वस्थादि साथे कयां स्थानोमां केवी रीतनो अभ्युत्थान अने वन्दनकनो व्यवहार राखवो तेनुं अने ते रीते नहि करवाने लगता दोषादिनुं निरूपण १२२४-२६ ४५४१-५३ १२२६-२९ १२३०-३३ १२३० ४५५४-६५ ___ अन्तरगृहस्थानादिप्रकृत सूत्र १९ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने घरनी अंदर अथवा वे घरना वचमा रहेवू, वेसवु, सुवु आदि कल्पे नहि, पण कोई रोगी वृद्ध तपस्वी आदि मूर्छित थइ जाय के पडी जाय वगेरे प्रसंगे रहे, बेसबु, सुवु आदि कल्पे ४५५४ अन्तरगृहस्थानादिप्रकृतनो पूर्वसूत्र साथै सम्बन्ध १९ अन्तरगृहस्थानादिसूत्रनी व्याख्या । ४५५५-५७ अन्तरगृहनी व्याख्या, त्यां रहेवाने लगतां प्राय श्चित्तो अने दोषो ४५५८ अन्तरगृहमा नहि रहे वाने लगता अपवादो ४५५९-६५ प्रकारान्तरे अन्तरगृहमा नहि रहेवाने लगता अप वादोनुं १ औषध २ संखडी ३ संघाटक ४ वर्षा ५ प्रत्यनीक ए पांच द्वारो वडे निरूपण अने तेने लगती यतनाओ १२३० १२३०-३१ १२३१ १२३१-३३ ४५६६-९७ अन्तरगृहाख्यानादिप्रकृत सूत्र २०-२१ २० अन्तरगृहगाथाद्याख्यानादिसूत्र निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने अन्तरगृहमां चार के पांच गाथाओर्नु आख्यान-कीर्तनादि कल्पे नहि, पण १२३३-४१ १२३३-३९ ४५६६-८९ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ बृहत्कल्पसूत्र चतुर्थ विभागनो विषयानुक्रम । गाथा पत्र ४५६६ १२३३ १२३३ ४५६७ १२३४ ४५६८-७५ १२३४-३६ १२३६-३७ ४५७६-८३ ४५८४-८६ विषय एक ज्ञात, एक श्लोक के एक गाथादिनुं कथन आदि उभा उभा करवू कल्पे अन्तरगृहाख्यानादिप्रकृतनो पूर्वसूत्र साथे सम्बन्ध अन्तरगृहगाथाद्याख्यानादिसूत्रनी.व्याख्या आख्यान, विभावना, कीर्तना अने प्रवेदनपदनी व्याख्या भिक्षाए गएला निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओ गाथादिनु आख्यान वगेरे करे तेने लगता दोषोनुं वर्णन, प्रायश्चित्त अने अपवाद 'एकज्ञातेन'पदनी व्याख्या अने उदकनुं दृष्टान्त 'एकव्याकरणेन, एकगाथया, एकश्लोकेन'पदोनी व्याख्या उभा उभा धर्मकथा करवानुं कारण अने धर्मकथानुं स्वरूप २१ अन्तरगृहमहाव्रताख्यानादिसूत्र निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने अन्तरगृहमां पंचमहाव्रतोतुं आख्यान विभावन आदि करवं कल्पे नहि. एक ज्ञात एक श्लोकादिनु आख्यानादि करवू कल्पे, ते पण उभा अन्तरगृहमहाव्रताख्यानादिसूत्रनी व्याख्या प्रस्तुत सूत्रनो वीसमा सुत्रमा समावेश थतो होवा छतां आ सूत्रनी रचनानुं कारण अन्तरगृहमां महाव्रतोतुं आख्यानादि करवाथी संभवता दोषो अने तेने लगतो अपवाद १२३७-३८ ४५८७-८९ ४५९०-९७ १२३८-३९ १२३९-४१ १२३९ ४५९० १२३९ ४५९१-९७ १२४०-४१ ४५९८-४६४९ . शय्यासंस्तारकप्रकृत सूत्र २२-२४ १२४२-५३ ४५९८-४६०९ २२ पहेलं शय्यासंस्तारकसूत्र १२४२-४४ निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने प्रातिहारिक-उछीना मागीने आणेला नाना मोटा संथाराओ मालीकने सोप्या सिवाय बीजे विहरवं कल्पे नहि Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गावा ४५९८ शय्या संस्तारकप्रकृतनो पूर्वसूत्र साथै सम्बन्ध पहेला शय्यासंस्तारकसूत्रनी व्याख्या ४५९९-४६०९ शय्या अने संस्तारकना परिशादी अने अपरिशाटी ए ये भेदो, तेने सोप्या सिवाय जनारने लागतां प्रायश्चित्त, दोषो अने तेने अंगेनां आपवादिक कारणो ४६१०-१४ ४६१० ४६११-१४ ४६१५-४९ ४६१५ ४६१६–१९ ४६२०-२१ ४६२२-४९ बृहत्कल्पसूत्र चतुर्थ विभागनो विषयानुक्रम | विषय २३ बीजं शय्या संस्तारकसूत्र निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने शय्यातरना शय्या संस्तारकने पोते जे रीते तैयार कर्यो होय तेने विखेरी नाख्या सिवाय विहरवुं कल्पे नहि बीजा शय्यासंस्तारकसूत्रनो पूर्वसूत्र साथै संबंध वीजा शय्यासंस्तारकसूत्रनी व्याख्या सागारिकाना परिशाटी अपरिशादी शय्या - संस्तारकने विखेर्या सिवाय जवाथी संभवता दोषो २४ न्रीजुं शय्यासंस्तारकसूत्र निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओए शय्यातरनी मालकीना शय्यासंस्तारक चोराइ जाय तो तेनी शोध करवी जोइए. शोध करतां मळे तो ते ज शय्यातरने पाछा आपवा जोइए. ते छतां न मळी शके तो वीजी बार याचना करीने धारणा अने परिभोग कल्पी शके त्रीजा शय्यासंस्तारकसूत्रनो पूर्वसूत्र साथै सम्बन्ध त्रीजा शय्यासंस्तारकसूत्रजी व्याख्या संस्तारक आदि चोराई न जाय ते माटे वसति सूनी हि मूकवाने लगतो विधि अने तेने लगता दोषो वसतिने सूनी नहि मूकवानुं विधान होवाने कारणे निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओनां उपकरणो चोराइ जवानो संभव ज नथी तो पछी त्रीजा शय्यासंस्तारकसूत्रनी सार्थकता कइ रीते ए शंकानुं समाधान निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओनां उपकरणोने पडावी लेनार अथवा चोरी जनार द्रमक, चोर, राजमान्य पुरुष ४७ पत्र १२४२ १२४२ १२४२-४४ १२४५-४६ १२४५ १२४५ १२४५-४६ १२४६-५३ १२४६ १२४६ १२४७ १२४७-४८ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ गाथा ४६५०-४७९४ ४६५०-४७३९ ४६५० ४६५१-५४ ४६५५-५८ ४६५९-६२ ४६६३-७२ १६७३-७६ 'बृहत्कल्पसूत्र चतुर्थ विभागनो विषयानुक्रम | विषय आदिने उपकरणादि पाछा आपवामाटे समजाववाना प्रकारो तेम ज तेनी तपास वगेरे करवामादे राजकर्मचारीओने समजावताना प्रकारो, प्रस्तुत सूत्र लगतुं अपवादपद आदि अवग्रहप्रकृत सूत्र २५ - २९ २५ पहेलुं अवग्रह सूत्र जे दिवसे श्रमणो वसति अने संस्तारकनो त्याग करे तेज दिवसे बीजा श्रमणो त्यां आवे ते छतां एक दिवस सुधी पूर्व श्रमणोनो अवग्रह कायम रहे छे अत्रग्रहप्रकृतनो पूर्वसूत्र साथै सम्बन्ध - पहेला अवग्रहसूत्रनी व्याख्या शैक्षविषयक अवग्रहनी उत्पत्तिनो संभव, तेना कालप्रमाणविषयक बे अनादेशो अने सैद्धान्तिकनो आदेश वास्तव्य अने वाताहत एटले आगन्तुक शैक्षना रूपज्ञ, शब्दज्ञ, उभयज्ञ आदि पांच पांच प्रकारो वास्तव्य अने वाताहत शिष्यनुं स्वरूप वर्णववा माटे द्वारगाथाओ २ 'पुणो दाई' अने ३ 'यावज्जीवपराजित' द्वार परिचित क्षेत्रिक श्रमणोना गया पछी प्रव्रज्यामादे भविष्य उपर आधार राखनार शैक्षने आगन्तुक श्रमणो द्वारा प्रतिबोध ४६७७-७८ पृ० ४ 'शापिते कथं कल्पो वास्तव्ये वाताहतेऽपि च' द्वार १ अव्याघातद्वार रूपज्ञ, शब्दज्ञ, उभयज्ञ अने यशःकीर्तिज्ञ वास्तव्य अने वाताहृत शैक्षविषयक चार नवको-नवभंगी अने तद्विषयक अवग्रहनुं स्वरूप पत्र १२४८-५३ १२५४-८७ १२५४-७४ १२५४ १२५४ १२५४-५५ १२५५-५६ १२५६-५७ १२५७-५९ १२५९-६० १२६०-६१ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ४६७८०-९० ५ ऋजु - अनृजुद्वार ४६९१-९९ ४७०० - १ ४७०२-५ ४७०६-९ ४७१०-१६ बृहत्कल्पसूत्र चतुर्थ विभागनो विषयानुक्रम । विषय ज्ञापित अने इतर वाताहृत अने क्षेत्रिकोनी यश:कीर्त्तिने नहि जाणनार वास्तव्यविषयक चार नवको अने तेमने क्षेत्रिको पासे मोकलवानो विधि ऋजु अनृजु आचार्य, तेने लगतां प्रायश्चित्त, मुण्डित पुरुष अने स्त्री तथा ज्ञायक अने ज्ञापित सशिखाक शैक्षविषयक चार द्वादशभंगो, ऋजुअनृजुनुं लक्षण अने आभाव्य - अनाभाव्य सचित्तादिनो विभाग ६ 'कथं कल्पोऽभिधारणे' द्वार एक अथवा अनेक साधुने लक्षीने आवेला शैक्षविषयक आभाव्य - अनाभाव्यनो विभाग ७ 'एकग्रामे' द्वार ज्यां क्षेत्रिको विद्यमान होय त्यां आवीने कोइ निर्मन्थे परधर्मीने उपशान्त कर्यो होय ते कोनो आभाव्य तेनुं स्वरूप ८ 'अतिक्रामन्' द्वार कोई शैक्ष कोई आचार्यने लक्षीने जतो होय तेने कोई धर्मकथी स्वाभाविक रीते अथवा पोता तरफ आकर्षवामाटे धर्मोपदेश करे अने ते शैक्ष प्रतिबोध पामेतेने आश्री आभाव्य-अनाभाव्यनो विधि ९ 'द्विविधा मार्गणा शिष्ये' इत्यादि द्वार अनन्तरवल्ली अने परम्परवल्ली एटले के नालबद्ध अने अनालबद्धना अनुक्रमे छ अने सोल भेदो अने तेने लक्षी शिष्य अने प्रतीच्छक विषयक आभाव्य - अनाभाव्यनी मार्गणा १० 'प्रतिषिद्धे व्रजति' इत्यादि द्वार ग्लानी सेवामां जोडाएलए शैक्षने प्रव्रज्या न आपवी एवी भगवाननी आज्ञा छतां जे ते शैक्षने प्रव्रज्या आपीने बीजे मोकले तेने लगतो विधि प्रायश्चित्तादि पत्र ४९ १२६१-६३ १२६३-६५ १२६५ १२६६ १२६७ १२६७-६९ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा पत्र ४७१७-३९ १२६९-७४ आदि ४७४०-६२ १२७४-८० १२७५ ४७४० १२७५ १२७५ ४७४१-४३ ४७४४-६२ बृहत्कल्पसूत्र चतुर्थ विभागनो विषयानुक्रम । विषय ११ 'संगारदत्ते कथं कल्पः' द्वार शैक्षविषयक अनेक प्रकारना संकेतो, संकेत करेल शैक्षविषयक आभाव्य-अनाभाव्यनो विधि, शिष्यविपरिणामननुं स्वरूप, ज्ञान-दर्शन-चारित्रविषयक गर्हार्नु अने मन-वचन-कायाविषयक गर्हार्नु स्वरूप आदि २६ बीजं अवग्रहसूत्र वीजा अवग्रहसूत्रनो पूर्वसूत्र साथे सम्बन्ध बीजा अवग्रहसूत्रनी व्याख्या बीजा अवग्रहसूत्रगत पदोनी व्याख्या वसतिमा रहेवा अगाउ वृषभो द्वारा आहार अने उपधिना अवग्रहना ग्रहणनो विधि, ते रीते नहि करवाथी लागता दोषो अने अवग्रहविषयक अनेकविध यतनाओ २७ त्रीजं अवग्रहसूत्र त्रीजा अवग्रहसूत्रनो पूर्वसूत्र साथे सम्बन्ध त्रीजा अवग्रहसूत्रनी व्याख्या त्रीजा अवग्रहसूत्रगत वास्तु, अव्वावड, अन्वोगड, अपरपरिग्गहिय, अमरपरिग्गहिय पदोनी व्याख्या अव्वावड आदि पदोने लगतां कुटुम्बी, काणेष्टका, वृक्ष अने पिशाचगृहनां दृष्टान्तो अने तद्विषयक विधि, यतनादि २८ चोथु अवग्रहसूत्र चोथा अवमहसूत्रनो पूर्वसूत्र साथे सम्बन्ध चोथा अवग्रहसूत्रनी व्याख्या अवस्थित अनवस्थित अवप्रहो राजावग्रहनुं स्वरूप आदि ४७६३-७६ १२७५-८० १२८०-८३ १२८० १२८० ४७६३ ४७६४-६७ १२८०-८१ ४७६८-७६ ४७७७-८८ ४७७७ १२८१-८३ १२८३-८५ १२८३ १२८४ १२८४ १२८४-८५ ४७७८ ४७७९-८८ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पसूत्र चतुर्थ विभागनो विषयानुक्रम गाथा विषय पत्र ४७८९-९४ ४७८९ २९ पांचमुं अवग्रहसूत्र पांचमा अवग्रहसूत्रनो पूर्वसूत्र साथे सम्बन्ध पांचमा अवग्रहसूत्रनी व्याख्या पांचमा अवग्रहसूत्रगत कुड्डु, भित्ति, चरिया, परिखा वगेरे पदोनी व्याख्या आदि १२८६-८७ १२८६ १२८६ ४७९०-९४ १२८६-८७ १२८७-९८ १२८८ १२८८ १२८८ ४७९५-४८३९ सेनाप्रकृत सूत्र ३० निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओए गाम, नगर आदिनी बहार सेनानो पडाव पड्यो होय तो ते ज दिवसे बीजा गामथी भिक्षाचर्या लइने पाछा आवq जोइए ४७९५ सेनाप्रकृतनो पूर्वसूत्र साथे सम्बन्ध ३० सेनासूत्रनी व्याख्या ४७९६-९७ निम्रन्थ-निर्ग्रन्थीओ परचक्र, अशिव, अवमौदर्य, बोधिकस्तेनभय आदिनी संभावना होय तेवां क्षेत्रोमांथी पहेलेथी नीकळी न जाय तेने लगतां प्रायश्चित्तो अने दोषो ४७९८-४८०० परचक्रागमनने जाणवानी रीतो अने ते प्रसंगे नहि नीकळी शकावानां कारणो ४८०१-९ १ संवर्त्तद्वार परचक्रागमन प्रसंगे नहि नीकळी शकवाने कारणे संवर्त्तमां वसता निर्ग्रन्थ-निर्घन्धीओने लगती यतनाओगें भिक्षा, भक्तार्थना अने वसति ए त्रण द्वार वडे निरूपण ४८१०-३९ २ नगररोधकद्वार परचक्रागमन प्रसंगे नहि नीकळी शकवाने कारणे नगररोधकमा अर्थात् लश्करी घेरामां सपडाइ गएला निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने भिक्षादिमाटे जवाने लगती यतनाओनुं वसति, भक्तार्थना, स्थण्डिल, शरीरविवेचन अने भिक्षा ए पांच द्वारवडे निरूपण १२८९ १२८९-९१ १२९१-९८ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ गाथा ४८४० - ७६ ४८४० ४८४१-४५ ४८४६-५० ४८५१-५२ ४८५३-५८ ४८५९ - ७६ बृहत्कल्पसूत्र चतुर्थ विभागनो विषयानुक्रम | विषय अवग्रहप्रमाणप्रकृत सूत्र ३१ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीओने चोमेर सवा योजननो अवग्रह लइने गाम नगर आदिमां रहे कल्पे अवग्रहप्रमाणप्रकृतनो पूर्वसूत्र साथै सम्बन्ध अवग्रहप्रमाणसूत्रनी व्याख्या सव्याघात अने निर्व्याघात क्षेत्रविषयक अवग्रहनुं प्रमाण अने सक्रोशपदनी व्याख्या सर्वसाधारण क्षेत्रमां क्षेत्रिक अने अक्षेत्रिकविषयक आभाव्य - अनाभाव्यनो विभाग अने जे क्षेत्रमां दरेक रीते निर्वाह पामता क्षेत्रिको बीजाने वस्त्र वगेरे न आपे अथवा दरेक प्रकारे निर्वाह पामता अक्षेत्रिको बलात्कारे क्षेत्रिकना क्षेत्रमां दाखल थइ वस्त्रादि ग्रहण करे तेने लगतां प्रायश्चित्त आदि वृषभप्रामोने लगता अवग्रहनुं प्रमाण अने वृषभग्रामोनुं स्वरूप अचल ऐन्द्र क्षेत्र अने तद्विषयक अवग्रहनुं प्रमाण चल क्षेत्रना व्रजिका, सार्थ, सेना अने संवर्त्त ए चार प्रकारो, तेनुं स्वरूप अने तेने लगता अवमहनी मर्यादा पत्र १२९८ - १३०६ १२९८ १२९८ १२९९ १३००-१ १३०१ १३०२-३ १३०३-६ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अर्हम् ।। पूज्यश्रीभद्रबाहुखामिविनिर्मितखोपज्ञनियुक्त्युपेतं बृहत् कल्पसूत्रम् ॥ श्रीसङ्घदासगणिक्षमाश्रमणसूत्रितेन लघुभाष्येण भूषितम् । आचार्यश्रीमलयगिरिपादविरचितयाऽर्धपीठिकावृत्त्या तपाश्रीक्षेमकील्. चार्यवरानुसन्धितया शेषसमग्रवृत्त्या समलङ्कृतम् । द्वितीय-तृतीयाबुद्देशको। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ક્રમ ૧ ૩ ૪ ત્રિષ્ટિ શલાકા પુરૂષ પર્વ ૨-૩-૪ પુસ્તક ૨ ત્રિશષ્ટિ શલાકા પુરૂષ પર્વ . દ્વાદશારે નયચક્રમ્ ભાગ-૧ દ્વાદશારે નયચક્રમ્ ભાગ-૨ દ્વાદશારે નયચક્રમ્ ભાગ-૩ સ્ત્રીનિર્વાણ કેવળી ભુક્તિ પ્રકરણ જિનદત્ત આખ્યાન. ૫ ૬ ૭ ८ સાધુ-સાધ્વી આવશ્યક ક્રિયા સૂત્ર પ્રત. કુમાર વિહાર શતક પ્રતાકારે ૧૦ પ્રાકૃત વ્યાકરણ ૧૧ આત્મક્રાંતિ પ્રકાશ ૧૨ નવસ્મરણાદિ સ્તોત્ર સંદોહ ૧૩ જાણ્યુ અને જોયું.... ૧૪ સુપાર્શ્વનાથ ચરિત્ર ભાગ-૨ કથારત્ન કોપ ભાગ-૧ ૧૫ જ્ઞાન પ્રદિપ ભાગ ૧-૨-૩ સાથે. જૈન આત્માનંદ સભા પ્રાપ્ય પુસ્તકો વિગત ૧૬ ૧૭ સુમતિનાથ ચરિત્ર ભાગ-૧ ૧૮ સુમતિનાથ ચરિત્ર ભાગ-૨ ૧૯ શત્રુંજય ગિરિરાજ દર્શન ૨૦ વૈરાગ્ય ઝરણા ૨૧ ૨૨ ધર્મ કૌશલ્ય ... ઉપદેશમાળા ભાષાંતર ૨૩ નમસ્કાર મહામંત્ર ૨૪ પુણ્યવિજય વિશેષાંક ૨૫ આત્મવિશુદ્ધિ . ૨૬ જૈનદર્શન મીમાંસા ૨૭ શત્રુંજય તીર્થનો ૧૫મો ઉદ્ધાર ૨૮ આત્માનંદ ચોવિસી..... ૨૯ બ્રહ્મચર્ય ચારિત્ર પૂજાદિત્રયી સંગ્રહ ૩૦ આત્મવલ્લભપૂજા ૩૧ નવપદજી પૂજા ૩૨ ગુરુભક્તિ ગહુંલી સંગ્રહ ૩૩ ભક્તિ ભાવના, ૩૪ જૈન શારદાપૂજન વિધિ. ૩૫ જંબૂસ્વામી ચરિત્ર ૩૬ ચાર સાધન ૩૭ શ્રી તીર્થંકર ચરિત્ર (સચિત્ર). કિંમત ૫૦-૦૦ ૫૦-૦૦ ૫૦૦-૦૦ ૩૫૦-૦૦ ૩૫૦-૦૦ ૨૫-૦૦ ૧૫-૦૦ ૨૦-૦૦ ૨૦-૦૦ ૫૦-૦૦ ૫-૦૦ ૭-૦૦ ૧૦-૦૦ ૨૦-૦૦ ૩૦-૦૦ ૪૦-૦૦ ૪૦-૦૦ ૪૦-૦૦ ૧૦-૦૦ ૩-૦૦ ૩૦-૦૦ ૧૦-૦૦ ૫-૦૦ ૧૦-૦૦ ૧૦-૦૦ ૧૦-૦૦ ૨-૦૦ ૨-૦૦ ૫-૦૦ ૫-૦૦ ૫-૦૦ ૨-૦૦ ૨-૦૦ ૫-૦૦ ૧૫-૦૦ ૨૦-૦૦ ૧૫૦-૦૦ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्रीमद्विजयानन्दसूरिवरेभ्यो नमः॥ पूज्यश्रीभद्रबाहुखामिविनिर्मितखोपज्ञनियुक्त्युपेतं बृहत् कल्पसूत्रम् । श्रीसङ्घदासगणिक्षमाश्रमणसूत्रितेन लघुभाष्येण भूषितम् आचार्यश्रीमलयगिरिपादविरचितयाऽर्धपीठिकावृत्त्या तपाश्रीक्षेमकीर्त्या चार्यवरानुसन्धितया शेषसमग्रवृत्त्या समलङ्कृतम् । द्वितीय उद्देशः। उ पा अ य प्र कृ त म् वीजसूत्राणि १-३ . व्याख्यातः प्रथम उद्देशकः, सम्प्रति द्वितीयः प्रारभ्यते, तस्य चेदमादिसूत्रम् उवस्सयस्स अंतोवगडाए सालीणि वा वीहीणि वा मुग्गाणि वा मासाणि वा तिलाणि वा कुलस्थाणि वा गोहमाणि वा जवाणि वा जवजवाणि वा इक्खि. त्ताणि वा विक्खित्ताणि वा विई किन्नाणि वा विप्पकिन्नाणि वा, नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए १॥ अथास्य सूत्रस्य कः सम्बन्धः? इत्याह एरिसए खेत्तम्मी, उवस्सए केरिसम्मि वसितव्वं । पुव्वुत्तदोसरहिते, वीयादिजढेस संबंधो ॥ ३२९० ॥ 'ईदृशे' प्रथमोद्देशकान्त्यसूत्रवर्णिते आर्यक्षेत्रे विहरद्भिरुपाश्रये कीदृशे वस्तव्यम् ? इति चिन्तायामनेन सूत्रेणोपवर्ण्यते । पूर्वम्-आद्योद्देशके ये उपाश्रयस्य दोपाः-सागारिकत्वादय १°य आर° ताटी० मो० ले० ॥ २ अस्य त० डे० ॥ ३ डे० प्रति विहाय सर्वास्वपि प्रतिषु-उक्खिन्नाणि वा विखिन्नाणि वा इति पाठो दृश्यते । टीका पुनरेतत्पाठानुसारेण भा० प्रतावेव वर्तते । दृश्यतां पत्रं ९२४ टिप्पणी ३ ॥ ४ भा० का. तामू० विनाऽन्यत्र-विइकिन्ना ताटी. मो० ले । विकिन्ना तामू० ॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [उपाश्रयप्रकृते मूत्रम् १ उक्ताः ( सूत्रम् २५-२९) तैः रहितो वीजादिपरित्यक्तश्च य उपाश्रयस्तत्र वस्तव्यमिति । एष पूर्वसूत्रेण सहास्य सम्बन्धः ॥ ३२९० ॥ अहवा पढमे सुत्तम्मि पलंबा वणिया ण भोत्तव्या। तेसिं चिय रक्खट्ठा, तस्सहवासं निवारेति ॥ ३२९१ ॥ 5 'अथवा' इति सम्बन्धस्य प्रकारान्तरताद्योतकः । प्रथमोद्देशके 'प्रथम' प्रलम्बसूत्रे (गा० ८४९-५७ ) सविस्तरं प्रलम्बान्युपवर्णितानि, तानि च न भोक्तव्यानीति प्रतिषिद्धानि; अतो द्वितीयोद्देशकेऽपि प्रथमसूत्रे 'तेषामेव' प्रलम्बानां रक्षार्थ तैः-बीजाख्यैः प्रलम्बैः सह वासम्अवस्थानं निवारयति ॥ ३२९१ ॥ . अवि य अणंतरसुत्ते, उवस्सतो अधिकतो णिसिं जत्थ । 10 समणाण न निग्गंतुं, कप्पति अह तेण जोगो उ ॥ ३२९२ ॥ 'अपि च' इत्यभ्युच्चये, न केवलं पूर्वोक्त सम्बन्धद्वयम् , तृतीयोऽपि सम्बन्धोऽस्तीति भावः । पूर्वसूत्रस्याधस्ताद् 'अनन्तरसूत्रे' "नो कप्पइ निगंथस्स एगाणियस्स राओ वा वियाले वा" (उ० १. सू० ४९) इत्यादिलक्षणे उपाश्रयोऽधिकृतः, यत्रैकाकिनां श्रमणानां 'निशि' रात्रौ विचारभूम्याद्यर्थ न निर्गन्तुं कल्पते । 'अथ' अयं तेन सूत्रेण सह 'योगः' सम्बन्धः ॥३२९२॥ 15 इत्यनेकैः सम्बन्धैरायातस्यास्य व्याख्या-उपाश्रयस्य या 'अन्तर्वगडा' वगडाया अभ्यन्तरम्, तच्च प्रतिश्रयमध्यं वा स्यात् प्राङ्गणं वा । तत्र “सालीणि व” त्ति शालिवीजानि वा “वीहीणि व" ति व्रीहिबीजानि वा, एवं मुद्ग-माष-तिल-कुलत्थ-गोधूम-[ यव- ]यवयवैरपि तत्तबीजान्युच्यन्ते, यवयवाः-यवविशेषास्तबीजानि वा । एतानि बीजानि यत्रोपाश्रये उत्क्षिप्तानि वा विक्षिप्तानि वा व्यतिकीर्णानि वा विप्रकीर्णानि वा तत्र नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निम्रन्थीनां 20 वा यथालन्दमपि वस्तुम् । इह यथालन्दं त्रिधा-जघन्यं मध्यममुत्कृष्टं च । यावता काले. नोदकाद्रों हस्तः शुष्यति तद् जघन्यम् , पञ्चरात्रिन्दिवान्युत्कृष्टम् , तयोरपान्तराले सर्वमपि मध्यमम् । अत्र जघन्य मध्यमयोः सूत्रावतारः । अपिशब्दः सम्भावनायाम् । जघन्यमपि मध्यममपि वा यथालन्दं नो कल्पते वस्तुम् , किं पुनरुत्कृष्टम् ? इति भावः । अत्र चोक्षिप्ता दीनि पदानि भाष्यगाथयैव व्याख्यास्यन्त इत्यभिप्रायेणात्र न व्याख्यातानीति सूत्रसङ्केपार्थः ॥ 25 अथ नियुक्तिविस्तरः नामं ठवणा दविए, भावे य उवस्सओ मुणेयव्यो। एएसिं नाणत्तं, वोच्छामि अहाणुपुबीए ॥ ३२९३ ॥ नामोपाश्रयः स्थापनोपाश्रयो द्रव्योपाश्रयो भावोपाश्रयश्चेति उपाश्रयश्चतुर्की मन्तव्यः। एतेषा१ वासमपि निवा° भा० ॥ २ यत्र एकस्य-एकाकिनः श्रमणस्य 'निशि' भा० ॥ ३ वा । तत्र शालयो वा व्रीहयो वा मुद्गा वा माषा वा तिला वा कुलत्था वा गोधूमा वा यवा वा यवयवा वा । वाशब्दाः सर्वेऽपि विकल्पार्थाः । सूत्रे च प्राकृतत्वान्नपुंसकनिर्देशः । यवयवा यवविशेषाः, शेषाः सुप्रसिद्धाः । एतानि धान्यानि यत्रोपाश्रये उत्कीर्णानि वा विकीर्णानि वा व्यतिकीर्णानि भा० ॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 भाप्यगाथाः ३२९१-९७] द्वितीय उद्देशः । मुपाश्रयाणां 'नानात्वं' विशेषमहमानुपूर्व्या वक्ष्यामि ॥ ३२९३ ॥ तत्र नाम-स्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य द्रव्य-भावोपाश्रयौ प्रतिपादयति दवम्मि ऊ उवस्सओं, कीरइ कड वुत्थमेव सुन्नम्मि । भावम्मि निसिटे संजएसु दवम्मि इयरेसु ।। ३२९४ ॥ 'द्रव्ये तु द्रव्यविषयः पुनरुपाश्रयो यः संयतार्थं 'क्रियते' क्रियमाणो वर्त्तते, कृतो वा 5 परमद्यापि न संयतेभ्यो वितीर्यते, अथवा यो गृहस्थैरात्मार्थ निष्पादितः परं तत्र संयता मासकल्पं वर्षाकल्पं वा 'वुत्थ' त्ति उषित्वा अन्यत्र गताः, साम्प्रतं स उपाश्रयः शून्यस्तिष्ठति एष द्रव्योपाश्रयः । भावोपाश्रयो नाम यः संयतेभ्यः 'निसृष्टः' प्रदत्तः, तैः परिभुज्यमान इत्यर्थः । यः पुनः 'इतरेषां' पार्श्वस्थादीनां निसृष्टः सोऽपि द्रव्योपाश्रयो विज्ञेयः । आह च बृहद्भाष्यकृत् जो समणट्ठाएँ कतो, वुत्था वा आसि जत्थ समणा उ । अहवा दवउवस्सओं, पासत्थादीपरिग्गहिओ ॥ ॥ ३२९४ ॥ अथोपाश्रयस्यैकार्थिकान्याह उबसग पडिसग सेजा, आलय वसधी णिसीहिया ठाणे। एगट्ट वंजणाई, उवसग वगडाय निक्खेवो ॥ ३२९५॥ 15 उपेत्य-आगत्य साधुभिराश्रीयत इत्युपाश्रयः । एवं प्रतिश्रीयत इति प्रतिश्रयः । शेरते साधवोऽस्यामिति शय्या । आलीयन्ते साधवोऽत्रेत्यालयः । वसन्ति साधवोऽस्यामिति वसतिः । निषेधः-गमनादिव्यापारपरिहारः स प्रयोजनमस्याः तमहतीति वा नैषेधिकी । तिष्ठन्ति साधवोऽत्रेति स्थानम् । एतान्येकार्थानि 'नानाव्यञ्जनानि' पृथगक्षराण्युपाश्रयस्य नामानि । अथ वगडाया निक्षेपः कर्त्तव्यः ॥ ३२९५ ॥ तमेवातिदेशेनाह 20 एमेव होति वगडा, चउबिहा सा उ पतिपरिक्खेवो। दव्यम्मि तिप्पगारा, भावे समणेहि भुजंती ॥ ३२९६ ॥ 'एवमेव' उपाश्रयवद् वगडा अपि नामादिभेदात् चतुर्विधा भवति । तत्र द्रव्यवगडा गृहसम्बन्धी वृतिपरिक्षेपो मन्तव्यः । सा च त्रिप्रकारा, तद्यथा-सचित्ता अचित्ता मिश्रा च । इयं त्रिप्रकाराऽपि यथा मासकल्पप्रकृते द्रव्यपरिक्षेपः (गा० ११२२-२३) उक्तस्तथैव 25 वक्तव्या । 'भावे' भाववगडा 'श्रमणैः' साधुभिर्यो वृतिपरिक्षेपः परिभुज्यते सा मन्तव्या ॥ ३२९६ ॥ १ अंथ कोऽसावुपाश्रयो यस्यैषा वगडा वर्णिता ? उच्यते-- वलया कोट्ठागारा, हेट्ठा भूमी य होइ रमणिज्जा। १°तार्थ क्रियमाणः कृतो वा वर्तते, स चाद्या भा० । “दवम्मि तु० गाधा । कीरमाणो वा कतो वा संजतेहिं अपरिग्गहितो।" इति चूर्णौ । “दवम्मि उ० गाहा । जो संजयट्ठाए उवस्सओ कीरह कतो वा, जो ण ताव णिसिरिजइ ।" इति विशेषचूर्णौ ॥ २ वति । सा तु वगडा वृतिपरिक्षेपो मन्तव्यः । तत्र द्रव्यवगडा त्रिप्रकारा, मा० ॥ ३ एतचिह्नमध्यगतमवतरणमिदं भा० नास्ति ॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२६ 5. सनिर्युक्ति-लघुभाय-वृत्तिके बृहत्करूपसूत्रे [ उपाश्रय प्रकृते सूत्रम् १ ater विमुको, उवस्सओ एरिसो होइ ।। ३२९७ ॥ 'वलयानि ' कटपल्यादीनि 'कोष्ठागाराणि च' सुप्रतीतानि यत्र भवन्ति, अधस्ताच्च तत्र भूमिर्भवति ' रमणीया' बीजाद्यभावेन प्रशस्या, ईदृश उपाश्रयो वीजैर्विप्रमुक्तो भवति ॥ ३२९७॥ इदमेव व्याख्यानयति कडपला सण्णा, तणपल्लाणं च देसितो वलया । णिप्परिसाडिमभुजंतगा य कयभूमिकम्मंता ।। ३२९८ ॥ 'देशीतः ' देशी भाषामाश्रित्य कटपल्यानां तृणपल्यानां च वलयानीति संज्ञा । 4 तेषां मालेषु बद्धेषु धान्यानि क्रियन्ते । तानि च यत्र 'निः परिशाटीनि' परिशाटिरहितानि, 'अभुज्यमानानि' अव्यापार्यमाणानि, तथा कृतं भूमिकर्म - छगणलेपनादिकम् अन्तेषु - प्रान्तप्रदेशे - 10 येषां तानि कृतभूमिकर्मान्तौनि, अधस्ताच्च भूमिका वीजादिविप्रमुक्ता, ईदृशे प्रतिश्रये वस्तुं कल्पते ॥ ३२९८ ॥ अथ कोष्ठागाराणि व्याचष्टे चाउरसालघरेसु व, जत्थोव्वर - कोट्टएस धण्णाई । निच्च इतमभोगा, तेसु निवासं न वारेइ ।। ३२९९ ॥ अथवा चतुःशालादिगृहेषु यत्रोपाश्रयेऽपवरकेषु वा इष्टकादिमयेषु कोष्ठकेषु वा मृत्तिकाम15 येषु धान्यानि 'नित्यस्थगितानि' सदापिहितानि 'अभोग्यानि' परिभोगरहितानि तिष्ठन्ति तत्र ये शेषा अपवरका ः कोष्ठका वा तेषु निवासं न वारयति ॥ ३२९९ ॥ पुनस्तर्हि वस्तुं न कल्पते ? इत्याह - साहिं वीहीहिं, तिल - कुलत्थेहिं विप्पकिष्णेहिं । 20 आदिणे वितिकिणे, अहलंद ण कप्पती वासो ॥ ३३०० ॥ शालिभिर्त्रीहिभिस्तिलैः कुलत्थैः उपलक्षणत्वाद् मुद्ग- माषादिभिश्च विप्रकीर्णैराकीर्णैर्व्यतिकीर्णैः उपलक्षणत्वाद् विकीर्णैश्च सङ्कुले उपाश्रये निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां च यथालन्दमपि कालं न कल्पते वासः । एषा श्रीभद्रबाहुस्वामिकता गाथा । अनया सूत्रपदानि संगृहीतानि - आकीर्णग्रहणेन च उत्क्षिप्तपदं विकीर्णग्रहणे तु विक्षिप्तपदं गृहीतं मन्तव्यम् ॥ ३३०० ॥ १ भूमिरतिरमणीया बीजादिविप्रमुक्ता । ईदृश भा० ॥ २ देशविशेषमा भा० ॥ ३ "कडपल त्ति वा धण्णसाल त्ति वा तणपल त्ति वा वलय त्ति वा एगडं, तेसिं माला बद्धा, तेसु धन्नाणि कीरंति” इति चूर्णौ विशेषचूर्णो च ॥ ४ एतदन्तर्गतः पाठः भा० नास्ति ॥ ५ न्तानि, ईशान वलयानि यत्र मालोपरि भवन्ति, अधस्ता भा० ॥ ६ “उब्बरओ त्ति वा कोद्रुगो त्ति वा एगहूं” विशेषचून ॥ ७ साली हिं० गाहा पुरातना ॥ एतीसे विभायागाद्दाओ तिनि - सालीहि व० गाहा कण्या ॥ ओखिन्न० गाह्रा कण्ठ्या || तिविहं च० गाहा कण्ठ्या ॥” इति विशेषचूर्णो ॥ ८ 'विप्रकीर्णैः' इतस्ततो विक्षितैः 'आकीर्णे' एकजातीयैधान्यैरभिव्याप्ते 'व्यतिकीर्णे' तैरेवाने कजातीयैः सङ्घले भा० ॥ ९ था ॥ ३३०० ॥ अथैनामेव भाष्यकारी व्याख्यानयति-तत्र परः प्राह । भा० ॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 भाष्यगाथाः ३२९७ -३३०४] द्वितीय उद्देशः । ९२७ अत्र परः प्राह-ननु जातिवाचकाः शब्दाः 'सम्पन्नः शालिः' इत्यादिवदेकवचननिर्देशेन व्यवह्रियमाणा उपलभ्यन्ते, ततः किमर्थमत्र "शालिभित्रीहिभिः” इत्यादौ बहुवचनेन निर्देशः कृतः ? उच्यते सालीहिँ व वीहीहिं व, इति उत्ते होति एतदुत्तं तु । सालीमादीयाणं, होति पगारा बहुविहा उ ॥ ३३०१॥ शालिभिर्वा ब्रीहिभिर्वा 'इत्युक्ते' एवं बहुवचननिर्देशे कृते एतद् 'उक्तम्' अभिहितं भवति-शाल्यादीनां धान्यानां बहुविधाः प्रकारा भवन्ति । तद्यथा-कलमशालिः रक्तशालिमहाशालिरित्यादि ॥ ३३०१ ॥ उस्क्षिप्तादिपदानां व्याख्यानमाह उक्खित्त भिन्नरासी, "विक्खित्ते तेसि होति संबंधो । वितिकिण्णे सम्मेलो, विपइण्णे संथडं जाणे ॥ ३३०२ ॥ उत्क्षिप्तानि नाम येषां धान्यानां राशयो भिन्नाः । विक्षिप्तानि नाम त एव धान्यराशयो भिन्नाः परमेकतः सम्बद्धाः, अत एवाह- विक्षिप्तपदे व्याख्यायमाने 'तेषां' भिन्नराशीनां सम्बन्धो भवति । व्यतिकीर्णानि तु तानि सर्वाण्यपि धान्यान्येकतः सम्मिलितानि, आह चव्यतिकीर्णपदे तेषां धान्यानां सम्मीलको भवति । विप्रकीर्णानि तु सर्वतः संस्तृतानि पुष्पप्रकरवत् , अत एवाह-विप्रकीर्णपदे 'संस्तृतं' विप्रकिरणं जानीयात् ॥ ३३०२ ॥ 15 अथ यथालन्दपदं व्याचप्टे तिविहं च अहालंदं, जहन्नयं मज्झिमं च उकोसं । उदउल्लं च जहण्णं, पणगं पुण होइ उक्कोसं ॥ ३३०३ ॥ 'त्रिविधं च' त्रिप्रकारं यथालन्दम् , तद्यथा--जघन्यं मध्यममुत्कृष्टं च । तत्रोदकाः करो यावता कालेन शुष्यति तावन्मानं जघन्यम् । 'पञ्चकं' पञ्चरात्रिन्दिवानि पुनरुत्कृष्टम् । 20 अर्थादापन्नं तयोरपान्तरालवर्ति सर्वमपि मध्यमम् ॥ ३३०३ ॥ . अथात्र वीजाकीर्णे प्रतिश्रये तिष्ठतां प्रायश्चित्तमाह वीयाईआइण्णे, लहुओ मासो उ ठायमाणस्स । आणादिणो अ दोसा, विराहणा संजमाऽऽताए ॥ ३३०४ ॥ "बीयाइ" ति आदिशब्दः स्वगतानेकभेदसूचकः । ततश्च वीजैः-शाल्यादिभेदादनेकप्रका- 25 रैराकीर्णे उपाश्रये तिष्ठत आचार्यादेर्लघुको मासः प्रायश्चित्तम् , अयं च तपः-कालविशेषितः । तद्यथा-~-आचार्यस्य तपसा कालेन च गुरुकः, उपाध्यायस्य तपसा गुरुकः, वृषभस्य कालेन गुरुकः, भिक्षोस्तपसा कालेन च लघुकः । एतत् प्रत्येकवीजविषयं प्रायश्चित्तमुक्तम् । अनन्तबांजेवाप्येवमेव । नवरं मासलघुस्थाने मासगुरुकम् । संयती नागपि प्रवर्तिनी-गणावच्छेदिन्य १ लिभिहिभिश्च 'इत्यु भा० ॥ २ उत्कीर्णादिप भा० ॥ ३ एतदग्रे ताटी० मो० ले. ग्रन्थानम्-१०० वर्तते ॥ ४ उक्खिन्न भि° भा० का चूर्णी विशेषचूर्णौ च ॥ ५ विक्खिण्णे ते भा० त० डे० का ० । विकेण्णे ते ताभा० ॥ ६ उत्कीर्णानि नाम भा० ॥ ७ त्रिकीर्णानि नाम भा० ।। ८ विकीर्णपदे व्या भा० ॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२८ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [ उपाश्रयप्रकृते सूत्रम् १ भिषेका-भिक्षुणीनामेवमेव वक्तव्यम् । आज्ञादयश्च दोषा अत्र भवन्ति । तथा विराधना संयमे आत्मनि च मन्तव्या । इयं द्विधाऽपि पुरस्तादभिधास्यते ॥ ३३०४ ॥ प्रकारान्तरेण प्रायश्चित्तमेवाह उक्खित्तमाइएK, थिरा-थिरसुं तु ठायमाणस्स । पणगादी जा भिण्णो, विसेसितो भिक्खुमाईणं ॥ ३३०५ ॥ साहारणम्मि गुरुगा, दसादिगं मासे ठाति समणीणं ।। मासो विसेसिओ वा, लहुओ साहारणे गुरुगो ॥ ३३०६ ॥ उत्क्षिप्तादिषु पदेषु स्थिरा-ऽस्थिरभेदभिन्नेषु तिष्ठतां भिक्षुप्रभृतीनां पञ्चकादारभ्य भिन्नमासं यावत् तपः-कालविशेषितं प्रायश्चित्तम् । तद्यथा-उत्क्षिप्तेषु स्थिरसंहननिषु बीजेषु 10 तिष्ठति लघुपञ्च-रात्रिन्दिवानि, अस्थिरसंहननिपु लघु-दशरात्रिन्दिवानि; विक्षिप्तेषु स्थिरेषु तिष्ठति लघुदशरात्रिन्दिवानि, अस्थिरेषु लघुपञ्चदशराबिन्दिवानि; व्यतिकीर्णेषु स्थिरेषु तिष्ठति लघुपञ्चदशरात्रिन्दिवानि, अस्थिरेषु लघुविंशतिरात्रिन्दिवानि; विप्रकीर्णेषु स्थिरेषु तिष्ठति लघुविंशतिरात्रिन्दिवानि, अस्थिरेपु लघुपञ्चविंशतिरात्रिन्दिवानि । एतत् सर्वमपि प्रायश्चित्तं भिक्षोस्तपसा कालेन च लघुकम् , वृषभस्य कालेन गुरुकम् , उपाध्यायस्य तपसा गुरुकम् , आचा15 यस्य तपसा कालेन च गुरुकम् । एतत् प्रत्येकवीजविषयं प्रायश्चित्तमुक्तम् ॥ ३३०५॥ ___ साधारणबीजेषु त्वेतदेव गुरुकं कर्त्तव्यम् , गुरुपञ्चकादारभ्य गुरुपञ्चविंशतिकान्तमित्यर्थः । श्रमणीनां तु लघुदशरात्रिन्दिवेभ्यः प्रारब्धं लघुमासे तिष्ठति । तत्रापि भिक्षुण्या उभयलघुकम् , अभिषेकायाः कालगुरुकम्, गणावच्छेदिन्यास्तपोगुरुकम् , प्रवर्तिन्या उभयगुरुकम् । १ उक्खिन्नमा मो० ले० विना ॥ २ उत्कीर्णादि भा० ॥ ३ "उक्खिण्ण० गाधाद्वयम् । उक्खिन्नेसु थिरेसु भिक्खू ठाति ना, भथिरेसु १०; विविखण्णेसु थिरेसु १०, अथिरेसु १०ना; विति किण्णेसु थिरेसु १०ना, अथिरेसु थ; विप्पतिण्णेसु थिरेसु थ; अथिरेसु थना । एतं भिक्खुस्स उभयल हुं, वसभस्स कालगुरुं, अभिसेतस्स तवगुरुं, आयरियस्स उभयगुरुं । एतं परित्तएसुं। एतं चेव गुरुगं पच्छित्तं संजतीणं दससु आरद्धं मासलहुए ठाति, भिक्खुणि अभिसेयपत्त गणावच्छेदणीपवत्तिणीणं । एतं परित्तेसु । अणंतेसु एतं चेव गुरुगं । एसा संजमविराधणा ॥” इति चूर्णिः ।। "उक्खिन्नेसु अयिरेसु ठायंतस्स पंचराइंदिया, थिरेसु दस; विक्खिण्णेसु अथिरेसु दस, थिरेसु पनरस; विति गिन्नेसु अथिरेसु पनरस, थिरेसु वीस; विप्पकिण्णेसु अथिरेसु वीस, थिरेसु पणुवीस । एवं भिक्खुस्स दोहि लहुया, वसभस्स कालगुरु, अभिसेयस्स तवगुरु, आयरियस्स उभयगुरु । एयं परितम् । संजईण दससु आरद्धं मासलहुए ठाति । भिक्खुणी अभिसेयपत्ता गणावच्छेइणी पवत्तिणी एयासिं तव-कालविसेसो। एतं परित्तेसु । अणंतेसु एए चेव पायच्छि ता । अहना सम्वेसिं चेव उक्खिण्णेसु मासलहुं उभयलहुँ, विक्खिप्णेसु कालगुरुं, विति किण्णेसु तवगुरुं, विप्पकिण्णेसु उभयगुरुं । एतं परित्ते। अणंते एतं चेव मासगुरुं। आणादी दोसा। विराहणा दुविहा संजमा-ऽऽयाए । संजमविराहणा शिंतो वा अतितो वा बीयकायसंघट्ट करे तण्णिप्फणं, जे य तदस्सिया पाणा ॥” इति विशेषचूर्णिः॥ . ४ उत्कीर्णेषु स्थि° भा० ॥ ५॥ एतचिह्नमध्यगतः पाठः का. एव वर्तते । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३३०५-९] द्वितीय उद्देश १२९ एवं प्रत्येकबीजविषयमुक्तम् । अनन्तबीजेपु वेवमेव गुरुदशरानिन्दिवेभ्यः प्रारब्धं गुरुमासान्तं वक्तव्यम् । अथवा भिक्षुप्रभृतीनां चतुर्णामप्यविशेषेणोत्कीर्णादिषु चतुर्ख पि तपः-कालविशेषितो मासलघुकः, तद्यथा-उत्कीर्णेषु तपसा कालेन च लघुका, विकीर्णेषु कालेन गुरुकः, व्यतिकीर्णेषु तपसा गुरुकः, विप्रकीर्णेषु तपसा कालेन च गुरुकः । अनन्तवीजेवप्युत्कीर्णादिप्वेवमेव तपः-कालविशेषितं मासगुरुकम् । द्विविधा च विराधना संयमा-ऽऽत्मविषयाऽत्र मन्तव्या 15 तत्र संयमविराधना निर्गच्छन् वा प्रविशन् वा बीजानां सङ्घट्टनं परितापनमपद्रावणं वा कुर्यात् , ये च तदाश्रिताः प्राणिनस्तेषामपि सङ्घटनादिकं कुर्यात् तन्निप्पन्नं प्रायश्चित्तम् ॥ ३३०६ ॥ अथात्मविराधनां भावयति सालि-जव अच्छि सालुग, णिस्सरणं मास-मुग्गमादीसु । संस्सू गुज्झ कुतूहल, विप्पहरण मास णिस्सरणं ॥ ३३०७॥ 10 तत्र स्थितानां साधूनां शालि-यवानां शालुकान्यक्ष्णोः प्रविशन्ति । तैश्च प्रविष्टैश्चक्षुषी अनागाढमागाढं वा परिताप्येते । तथा मुद्ग-माषादिषु विप्रकीर्णेषु गमना-ऽऽगमने विदधानानां 'निस्सरणं' प्रस्खलनं भवति, ततश्च हस्तभङ्गादयो दोषाः । अत्र श्वश्रूदृष्टान्तः___ एगो अगारो चिंतेइ-जइ सस्सुगाए गुज्झोरुगाइ पेच्छामि । ताहे मासा अइगमणनिग्गमणपहे विप्पकिन्ना । सा तत्थ वच्चंती फिल्लसिया गलियवसणा उत्ताणिया पडिया ॥ 15 इदमेवाह-"सस्सू" इत्यादि । श्वश्याः सम्बन्धि यद् गुह्यं तदवलोकने यत् कुतूहलं तद्वशाद् माषाणां विप्रकिरणम् , ततस्तस्याः श्वश्वाः 'निस्सरणं' प्रस्खलनमभवत् । एवं तत्र स्थितानां साधूनामप्यात्मविराधना भवेत् ॥ ३३०७ ॥ "द्वितीयपदमाह-~ विइयपय कारणम्मि, पुब्बि सभा पमज जतणाए । विक्खिरणम्मि वि लहुओ, तत्थ वि आणादिणो दोसा ॥ ३३०८ ॥ 20 द्वितीयपदे 'कारणे' अध्वनिर्गमनादौ शुद्धोपाश्रयालाभे बीजाकीर्णेऽप्युपाश्रये तिष्ठन्ति । कथम् ? इत्याह-पूर्व वृषभा दण्डप्रोक्छनकं गृहीत्वा तत्र गत्वा यतनया यथा तेषां बीजानां परितापनादि न भवति तथा प्रमृज्य ततः सबाल-वृद्धमपि गच्छमानीय यथालन्दं कालं तिष्ठन्ति । यदि प्रमार्जनां विदधाना बीजानां विकिरणम्-इतस्ततो विक्षेपणं कुर्वते तदा लघुमासः प्रायश्चित्तम् । तत्राप्यविधिप्रमार्जने आज्ञादयो दोषाः ॥ ३३०८ ॥ अथैतदेव स्पष्टयति- 25 गीया पुरा गंतु समिक्खियम्मि, थिरे पमजित्तुमहाथिरे वा। साहट्टमेगंति वसंति लंदं, उक्कोसयं जाणिय कारणं वा ॥ ३३०९ ॥ केचिदध्वनिर्गतादयः साधवो विवक्षितं ग्रामं प्राप्ताः, तत्र च गीतार्थाः पुरतो गत्वा त्रिकृत्वः शुद्धां वसतिं समीक्षन्ते-प्रत्युपेक्षन्ते । यदि तथासमीक्षिते न प्राप्यते तदा शाल्यादिवीजेषूत्कीर्णेषु प्रथमं स्थिरसंहननिषु तिष्ठन्ति, तदभावेऽस्थिरसंहननिष्वपि । तानि च 30 १ कां० विनाऽन्यत्र-त्वयमेव भा० । त्वेनमेव ताटी० त० डे. मो० ले० ॥ २ प्युत्क्षिप्तादिवे भा० ॥ ३ सुस्सू ताभा० विना ॥ ४ क्षुषोरनागाढमागाढं वा परिताप्यते भा०॥ ५॥ एतन्मध्यगतमवतरणं भा० नास्ति ॥ ६°षां जीवानां परि मो• ले.॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३० सनिर्युक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ उपाश्रयप्रकृते सूत्रम् २ GIF नया प्रमृज्य तत एकान्ते संहरन्ति - संस्थापयन्ति । संहृत्य च तत्र जघन्यं वा मध्यमं चा यथालन्दं वसन्ति । 'कारणं वा' अध्वपरिश्रमादिकं ज्ञात्वोत्कृष्टमपि यथालन्दं वसन्ति । अत्र पाठान्तरम् – “साहट्टुमेगं तु" त्ति तानि बीजानि संहृत्य ततः 'एकम्' इति जघन्यं यथालन्दं वसन्ति, शेषं प्राग्वत् । उत्कीर्णानामभावे विकीर्णेषु तेषामभावे व्यतिकीर्णेषु तदप्राप्तौ ð विप्रकीर्णेष्वपि तिष्ठन्ति । तत्रापि प्रथमं प्रत्येकेषु ततः साधारणेष्वपि । अथोत्क्रमेण तिष्ठन्ति 1 ततो मासलघु । संयतीनामप्येवमेव द्वितीयपदं मन्तव्यम् ॥ ३३०९ ॥ सूत्रम्--- अह पुण एवं जाणिजानो उक्त्तिाइं नो विक्खिताई नो विकिण्णाई नो विष्वकिरणाइं रासिकडाणि वा पुंजकडाणि वा भित्तिकडाणि वा कुलियाकडाणि वा लंछियाणि वा मुद्दियाणि वा पिहिताणि वा कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा हेमंतगिम्हासु वत्थए २ ॥ - अँथ पुनरेवं जानीयात् — तानि शास्यादीनि वीजानि तत्रोपाश्रये नो उत्क्षिप्तानि नो 15 विक्षिप्तानि नो विकीर्णानि नो विप्रकीर्णानि, किन्तु राशीकृतानि वा पुञ्जीकृतानि वा भित्ति कृतानि वा कुलिकाकृतानि वा लाञ्छितानि वा मुद्रितानि वा पिहितानि वा, तत एवं कल्पते निर्मन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा हेमन्त ग्रीष्मेषु वस्तुमिति सूत्राक्षरार्थः ॥ अत्र भाष्यम् - 10 20 25 रासीकडा य पुंजे -कुलियकडा पिहित मुद्दिते चैव । ठायंतगाण लहुगा, कास अगीतत्थ सुत्तं तु || ३३१० ॥ यत्रोपाश्रये राशीकृतानि पुञ्जीकृतानि कुलिकाकृतानि पिहितानि मुद्रितानि चशब्दाद् भित्तिकृतानि लाञ्छितानि च बीजानि तत्र तिष्ठतां चतुर्लघुकाः । कस्य पुनरेतत् प्रायश्चित्तम् ? उच्यते—अगीतार्थस्य । ‘सूत्रं तु' सूत्रं पुनर्गीतार्थविषयं द्रष्टव्यमिति वाक्यशेषः || ३३१०॥ अथ राशीकृतादिपदानां व्याख्यानमाह पुंज य होति वट्टो, सो चेव य ईसिआयतो रासी । कुलिया कुल्लीणा, भित्तिकडा संसिया भित्ती ।। ३३११ ॥ 'वृत्तः ' वृत्ताकारो धान्योत्करः पुञ्ज इत्युच्यते । स एव 'ईपदायतः' मनाग् दीर्घो राशिः । अपुञ्जः पुञ्जः कृतानीति व्युत्पत्त्या पुञ्जीकृतानि, एवं राशीकृतानीत्यपि । तथा कुलिका कुड्यमुच्यते, ततः कुलिकाकृतानि नाम कुड्यालीनानि कृत्वा स्थापितानि । भित्तिकृतानि तु भित्तौ - · १० क्खिण्णाइं नो विखिष्णाई तामू• ताटी० कां० ॥ २ विकिरण तामूः । विइकिण्णा' ताटी० ॥ ३१० एतच्चिहान्तर्वर्तिनीयं सूत्रवृत्तिर्भ• प्रतौ नास्ति ॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३३१०-१६] द्वितीय उद्देशः । संश्रितानि, भित्तिनिश्रया स्थापितानीत्यर्थः । अथ कुड्य-भित्त्योः कः प्रतिविशेषः ? उच्यतेइष्टकादिरचिता भित्तिः, मृत्पिण्डादिनिर्मितं कुड्यम् ॥ ३३११ ॥ छारेण लंछिताइं, मुद्दा पुण छाणपाणियं दिण्णं । परिकल्लाई करेत्ता, किलिंजकडएहिँ पिहिताई ॥ ३३१२ ॥ लाञ्छितानि नाम 'क्षारेण' भस्मना चिहितानि । तथा मुद्रा पुनः छगणपानीयं तद् यत्र 3 प्रदत्तं तानि मुद्रितानि । “परिकलाई" ति यानि नापि लाञ्छितानि नापि मुद्रितानि किन्तु तदुभयप्रकारबाह्यानि कृत्वा विवक्षितप्रदेशे स्थापयित्वा किलिञ्जकटैरेवमेव स्थगितानि तानि पिहितान्युच्यन्ते । एवंविधेषु बीजेषु हेमन्त-ग्रीष्मयोगीतार्थस्य वस्तुं कल्पते नागीतार्थस्येति ॥ ३३१२ ॥ परः प्रेरयति नत्थि अगीतत्थो वा, सुत्ते गीतो व वणितो कोइ । जा पुण एगाणुण्णा, सा सेच्छा कारणं किं वा ॥ ३३१३ ॥ सूत्रे अगीतार्थो वा गीतार्थो वा न कश्चिद् निर्झर्य 'वर्णितः' निर्दिष्टोऽस्ति, अतो येयं भवद्भिः एकस्य-गीतार्थपक्षस्यानुज्ञा अपरस्यागीतार्थपक्षस्य प्रतिषेधः क्रियते सैषा युष्माकं व्याख्यातृणां खेच्छा, न पुनर्भगवदुक्तमिति भावः । अथ कारणं किमप्यत्रास्ति ततोऽभिधीयताम् ॥ ३३१३ ॥ सूरिराह 15 एयारिसम्मि वासो, ण कप्पती जति वि सुत्तऽणुण्णातो। अन्वोकडो उ भणितो, आयरिओं उवेहती अत्थं ॥ ३३१४ ॥ 'एतादृशे' उपाश्रये वासो यद्यपि सूत्रेऽनुज्ञातस्तथापि न कल्पते, यतः 'अव्याकृतः' अविशेषित एवार्थः सूत्रे भणितः, परमाचार्यस्तमर्थम् 'उत्प्रेक्षते' विषय विभागप्रकटनेनोन्मीलयति । यथा किलैकस्माद् मृत्तिण्डात् कुलालोऽनेकानि घट-शरावादिरूपाणि निष्पादयति, एवमाचा- 20 योऽप्येकस्मात् सूत्रपदादभ्यूह्यानेकेषामर्थविकल्पानामुपदर्शनं करोति । यथा वा सान्धकारे गृहादौ विद्यमाना अपि घटादयः पदार्थाः प्रदीपं विना न विलोक्यन्ते, तथा सूत्रेऽप्यर्थविशेषा आचार्येणाप्रकाशिताः सन्तोऽपि नोपलभ्यन्ते ।। ३३१४ ॥ किञ्च- . जंजह सुत्ते भणितं, तहेव तं जइ वियालणा नत्थि । किं कालियाणुओगो, दिट्ठो दिटिप्पहाणेहिं ॥ ३३१५॥ 25 'यद्' वस्तु 'यथा' येन विधिरूपेण प्रतिषेधरूपेण वा प्रकारेण सूत्रे भणितं तत् तथैव यदि प्रतिपत्तव्यं 'विचारणा' विषयविभागव्यवस्थापना युक्ता-ऽयुक्तविमर्शो वा 'नास्ति' न क्रियते ततः 'किं' केन हेतुना कालिकश्रुतस्यानुयोगः 'दृष्टः' विधेयतयोपलव्धः 'दृष्टिप्र. धानैः' केवलज्ञान-श्रुतज्ञानरूपलोचनप्रवरैस्तीर्थकर-गणधरैः ?; अथवा 'दृष्टिप्रधानैः' नैगमादिनयमतविशारदैः श्रीभद्रबाहुस्वामिभिः किमिति नियुक्तिकरणद्वारेण कालिकश्रुतानुयोगो 30 'दृष्टः' प्रतिपादितः? ॥ ३३१५ ।। अपि च उस्सग्गसुतं किंची, किंची अववातियं भवे सुत्तं । १ पक्खिल्लाई ताभा० ॥ २ "पक्खिलाई" का० ॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३२ मनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे | उपाश्रयप्रकृते सूत्रम् २ तदुभयसुत्तं किंची, सुत्तस्स गमा मुणेयव्या ॥ ३३१६ ॥ किञ्चिदुत्सर्गसूत्रम् १, किञ्चित् पुनरापवादिकं सूत्रम् २, किञ्चित् तदुभयसूत्रम् , तच्च द्विधाउत्सर्गापवादिकम् अपवादौत्सर्गिकम् ३-४ । एते सूत्रस्य 'गमाः' प्रकाराश्चत्वारो ज्ञातव्याः । अथवा 'गमा नाम' द्विरुच्चारणीयानि पदानि । तद्यथा--- उत्सर्गोत्सर्गिकम् ५ अपवादापयादि5 कम् ६ एवमेतो द्वौ भेदौ चत्वारश्च प्रागुक्ता इत्येवं मूत्रस्य पड् भेदाः सञ्जाताः । एते च पुरस्तादुदाहरिष्यन्ते ।। ३३१६ ॥ अन्येऽपि च सूत्रस्य भेदा भवन्तीति दर्शयति-» __णेगेसु एगगहणं, सलोम णिल्लोम अकसिणे अइणे । विहिभिन्नस्स य गहणं, अववाउस्सग्गियं सुत्तं ॥ ३३१७ ॥ 'अनेकेषु' कषायेन्द्रिया-ऽऽश्रवादिष्वर्थेषु ग्रहीतव्येषु कापि सूत्रे एकस्य-अन्यतरस्य ग्रहणं 10 भवेत् , यथा-यत्र सूत्रे क्रोधनिग्रहः साक्षादुपदिष्टस्तत्र माननिग्रहादयोऽप्यर्थत उक्ता द्रष्टव्याः । एवमिन्द्रिया-ऽऽश्रवादिष्वपि भावनीयम् । कानिचित्तु सूत्राणि साधूनां साध्वीनां च प्रत्येकविषयाणि । यथेहैव कल्पाध्ययने सलोमसूत्रं निर्लोमसूत्रं वा । तद्यथा-"नो कप्पइ निगंथाणं अलोमाइं चम्माइं धारितए )। कप्पइ निग्गंथाणं सलोमाइं चम्माइं धारित्तए ( उ० ३ सू० ४)। नो ४ कप्पइ निग्गंथीणं सलोमाइं चम्माइं धारित्तए । ( उ० ३ सू० ३) । कप्पइ निगंथीणं अलोमाई चम्माइं धारित्तए ( )" कानिचित्तु सामान्यसूत्राणि भवन्ति, यथा अकृत्स्नाजिनविषयं सूत्रम् । तच्चेदम्-"कप्पइ निग्गंथाण वा निगंथीण वा अकसिणाई चम्माइं धारित्तए" (उ० ३ सू० ६)। अथ "अनानुपूर्यपि व्याख्यानम्” इति न्यायोपदर्शनार्थ प्रागुक्तसूत्रषट्कमध्यात् चतु20 र्थभेदमुदाहरति-"विहिभिन्नम्स य" इत्यादि । इहैव ग्रन्थे यद् विधिभिन्नस्य ग्रहणमुक्तं तदपवादौत्सर्गिकं सूत्रम् । तच्चेदम् - "कप्पइ निग्गंथीणं पक्के तालपलंबे भिन्ने पडिगाहित्तए, से वि य विहिभिन्ने नो चेव णं अविहिभिन्ने” ( उ० १ सू० ५) ॥ ३३१७ ॥ ___ आह यद्यपवादेनानुज्ञातं तर्हि भूयः कथं प्रतिषिध्यते ? इत्याह उस्सग्गठिई सुद्धं, जम्हा दव्वं विवजयं लभति । __ण य तं होइ विरुद्धं, एमेव इमं पि पासामो ॥ ३३१८ ॥ 'उत्सर्गस्थितौ' उत्सर्गपदे 'शुद्धम्' उद्गमादिदोषरहितं यद् भक्त-पानादिद्रव्यं ग्रहीतुं कल्पते तदेवापवादपदे यस्माद् ‘विपर्यय' वैपरीत्यं लभते, अशुद्धमप्युपादातुं कल्पते इत्यर्थः । 'न च' नैव तत् तथा गृह्यमाणं विरुद्धं भवति, ज्ञानादिगुणोपकारकत्वादविरुद्धमेवेति भावः । एवमेव 'अमुमपि' प्रकृतमर्थ “कल्पते निर्ग्रन्थीनां पकं तालप्रलम्बं भिन्नं प्रतिग्रहीतुम्" (उ०१ 30 सू० ५) इत्यपवादेनानुज्ञातस्याप्यविधिभिन्नप्रतिषेधरूपमविरुद्धमेव पश्यामः ॥ ३३१८ ॥ अथोत्सर्गसूत्रादीनामुदाहरणान्याह१°वमेते सूत्रस्य भा०॥ २ » एतदन्तर्गतमवतरणं भा० नास्ति । ३°ाऽपि व्याख्यानम्" इति भा० कां० विना ॥ 25 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३३ 10 भाष्यगाथाः ३३१६-२२ द्वितीय उद्देशः । उस्सग्ग गोयरम्मी, निसेज कप्पाऽववादतो तिहं । मंसं दल मा अट्ठी, अववादुस्सग्गियं सुत्तं ॥ ३३१९ ॥ उत्सर्गसूत्रं गोचरं पर्यटतः साधोहद्वयापान्तराले या 'निषद्या' निषदनं तद्विषयम् ।. तच्चेदम्-"नो कप्पइ निगंथाण वा निग्गीण वा अंतरगिइंसि आसइत्तए वा जाव काउस्सग्गं वा ठाणं वा ठाइत्तए ( उ० ३ सू० २२ ) त्ति ।" __यत्तु 'त्रयाणां' जराभिभूतादीनां निषद्या कल्पते इत्येवंलक्षणं सूत्रं तदापवादिकम् । तच्चदम्"अह पुण एवं जाणिज्जा जराजुण्णे १ वाहिए २ तवस्सी ३ मुच्छिन्न वा पवडिज वा एवण्हं कप्पइ अंतरगिहंसि आसइत्तए ।" ( उ० ३ सूत्र ३२) इदं पुनरपवादौत्सर्गिकम् -''मंसं दल मा अट्टि" त्ति पुद्गलं प्रयच्छ मा अस्थीनीति ॥३३१९॥ नो कप्पति व अभिन्नं, अववातेणं तु कप्पती भिन्नं । कप्पति पकं भिण्णं, विधीय अववायउस्सग्गं ॥ ३३२० ॥ "नो कल्पतेऽभिन्नमामप्रलम्बं प्रतिग्रहीतुम्” (उ० १ सू० १) एतद्वा उत्सर्गसूत्रम् । यत् पुनः 'अपवादपदेन' अध्वा-ऽवमौदर्यादिषु भिन्न प्रतिग्रहीतुं कल्पते इत्येवंरूपं (उ०१ सू० २) तदापवादिकम् । यत् पुनः “निर्ग्रन्थीनां कल्पते पक्कं प्रलम्बं विधिभिन्नं नाविधिभिन्नम्" ( उ० १ सू०५)15 इति सूत्रं तदपवादौत्सर्गिकम् । एतत् प्रागुक्तमपि स्पष्टीकरणार्थमिहाभिहितम् । - इदं त्वौत्सर्गापवादिकम् --"नो कप्पइ० राओ वा वियाले वा सेजा-संथारयं पडिगाहित्तए । नऽन्नत्थ एगेणं पुवपडिलेहिएणं सिजा-संथारएणं ( उ० १ सू० ४३)। इदं पुनरुत्सर्गौत्सर्गिकम् -"नो कप्पइ० असणं वो एक पढमाए पोरिसीए पडिगाहित्ता पच्छिमं पोरिसिं उवाइणावेत्तए । से य आहच उवाइणाविए सिया, जो तं भुंजइ भुंजंत 20 वा साइजइ से आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्टाणं उग्याइयं (उ० ४ सू० ११)। ___ तथा येषु सूत्रेष्वपवादो भणितस्तेष्वेवार्थतः पुनरनुज्ञा प्रवर्तते तान्यपवादापवादिकानि ॥ ३३२० ।। किश्चान्यत् कत्थइ देसग्गहणं, कत्थति भण्णंति णिरवसेसाई । उक्कम-कमजुत्ताई, कारणवसतो णिजुत्ताई ॥ ३३२१॥ कचित् सूत्रेऽभिधेयपदानां देशतो ग्रहणं क्रियते, कुत्रापि च निरवशेषाण्यभिधेयपदानि भण्यन्ते, तथा कानिचित् सूत्राण्युत्क्रमयुक्तानि, कानिचित्तु क्रमयुक्तानि 'कारणवशतः' कारणविशेषमाश्रित्य 'नियुक्तानि' गणधरादिभिः श्रुतधरैर्विरचितानि ॥ ३३२१ ।। एतदेव विवृणोति देसग्गहणे बीएहि सूयिया मूलमादिणो हुंति । कोहादिअणिग्गहिया, सिंचंति भवं निरवसेसं ॥ ३३२२ ॥ १ "भभिकंखसि मे दाउं जावइयं तावइयं पुग्गलं दलयाहि, मा य अट्ठियाणि" इतिरूपं सूत्रं आचाराङ्गे 'भु०२चू० १ अ० १० १०॥ २वाक पढत. डे.॥... 25 ___ 30 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [उपाश्रयप्रकृते सूत्रम् २ देशग्रहणे कृते सति तज्जातीयानां सर्वेषामपि ग्रहणं भवति, यथा-"सालीणि वा वीहीणि वा" इत्यादावस्मिन्नेव सूत्रे बीजैहीतैर्मूलादयोऽपि भेदाः सूचिता भवन्ति । कुत्रापि च सूत्रे निरवशेषाण्यभिधेयपदानि गृह्यन्ते, यथा दशवकालिके क्रोधादयोऽनिगृहीताः सन्तः ‘भव' संसारं 'निरवशेष' चतुर्गतिकमपि सिञ्चन्तीत्युक्तम् । तथा च तत्सूत्रम्___ कोहो य माणो य अणिग्गहीया, माया य लोभो अ पवडमाणा । चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाइ पुणब्भवस्स ॥ (अध्य० ८ श्लो० ४०) ॥ ३३२२ ॥ १ अथोत्क्रम-क्रमयुक्तानि सूत्राणि दर्शयति-- सत्थपरिणादुक्कमें, गोयर पिंडेसणा कमेणं तु । जंपि य उक्कमकरणं, तमभिणवधम्ममादऽट्ठा ॥ ३३२३ ॥ शस्त्रपरिज्ञाध्ययने तेजःकायोद्देशकानन्तरं वायुकायोद्देशकः क्रमप्राप्तोऽपि नोक्तः, किन्तु वनस्पति-त्रसकायोदेशको प्ररूप्य पर्यन्तेऽसौ भणितः, एवमादिकमुत्क्रमयुक्तं सूत्रमुच्यते ।। __ क्वचित्तु सूत्रे क्रमेणैवार्थपदानि भवन्ति, यथा-अष्टौ गोचरभूमयः, तद्यथा-"पेडा अद्धपेडा गोमुत्तिया पतंगवीहिया अंतोसंवुका बाहिंसंवुक्का उजुगी गंतुंपञ्चागता" 15 तथा सप्तपिण्डैषणासूत्रमपि क्रमनिबद्धं मन्तव्यम् । तद्यथा--"असंसठ्ठा संसट्ठा उद्धडा अप्पलेवा उग्गहिता पग्गहिता उज्झितधम्मिया ।" ___ अथवा 'पिण्डैषणा' इति प्रथमं पिण्डपदं तत एषणापदं यत्र ओपनियुक्त्यादौ सूत्रे यथाक्रम प्ररूप्यते तत् क्रमनिबद्धम् ।। यदपि चोत्क्रमकरणं शस्त्रपरिज्ञादावध्ययने तदभिनवधर्माद्यर्थम् । किमुक्तं भवति ?-अभि20 नवधर्मा शैक्षः, स ह्यद्याप्यपरिणतजिनवचनतया वायुकायं परिस्फुटमनुपलभ्यमानतया प्रथमतः प्ररूप्यमाणं न सम्यक् प्रतिपद्यते, अतो वनस्पति-त्रसान् प्ररूप्य यदा तेषु सम्यग् जीवत्वं प्रतिपन्नस्तदा वायुकायं जीवत्वेन प्ररूप्यमाणं सुखेनैव श्रद्धत्ते, एवमादिभिः कारणैरुत्क्रमकरणं मन्तव्यम् ॥३३२३॥ अथ "बीएहि सूइया मूलमाइणो" (गा० ३३२२) त्ति पदं व्याचष्टे वीएहि कंदमादी', वि सूयिया तेहिं सव्व वणकाओ। भोम्मादिगा वणेण तु, सभेद सारोवणा भणिता ॥ ३३२४ ॥ इहैव सूत्रे बीजैगृहीतैः कन्द-मूलादयोऽपि भेदाः सूचिताः, तेष्वपि तिष्ठतः प्रायश्चित्तं भवतीति भावः । 'तैश्च' कन्दादिभिः सर्वोऽपि वनस्पतिकायः' परीत्ता-ऽनन्तभेदभिन्नः सूचितः । 'वनेन तु' वनम्पतिना 'भीमादयः' पृथिव्यप्कायादयः कायाः सूचिताः । एवं 'सभेदाः' भेदप्रभेदसहिताः पडपि कायाः 'सारोपणाः' सप्रायश्चित्ता भणिता अवसातव्याः ॥ ३३२४ ।। जत्थ उ देसग्गहणं, तथंऽवसेसाइं सूइयवसेणं ।। मोत्तूणं अहिगारं, अणुयोगधरा पेभासंति ॥ ३३२५ ॥ १ एतन्मध्यगतमवतरणं भा० नास्ति ॥ २°दी, तु सू तामा०॥ ३ सूचिताः। तैश्च सर्वोऽपि भा० ॥ ४थ वि सेसाई तामा० ॥ ५ पसासंति तामा०॥ 25 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३३२३-२९] द्वितीय उद्देशः । ९३५ एवमत्रापि यत्र देशग्रहणं तत्रावशेषाण्यर्थपदानि, सूचितं सूचा, भावे क्तप्रत्ययः, तद्वशेनावगन्तव्यानि । तथा कुत्रापि सूत्रेऽनुयोगधराः 'अधिकार' प्रस्तुतार्थ मुक्त्वा सूत्रानुपाति प्रसङ्गागतमर्थ प्रथमतः प्रभाषन्ते, यथा पिण्डाधिकारे प्रस्तुते "पुढवी आउकाए, तेऊ वाऊ वणस्सई चेव । बिइ तिय चउरो पंचिंदिया य लेवो दसमओ अ॥" (गा० ३३६) इत्यादिनौपनियुक्तौ सविस्तरं कायप्ररूपणा कृता । एवं विचित्राणि सूत्राणि भवन्ति, अत एव यावदमीषामर्थः सूरिणा न व्यक्तीकृतस्तावन्न सम्यगवगमपथमुपगच्छति ॥ ३३२५ ॥ अथौत्सर्गिका-ऽऽपवादिकसूत्रयोविषयविभागमाह उस्सग्गेणं भणियाणि जाणि अववादतो तु जाणि भवे । कारणजातेण मुणी!, सव्वाणि वि जाणितव्याणि ॥ ३३२६॥ 10 उत्सर्गेण यानि सूत्राणि भणितानि यानि चापवादतः सूत्राणि तानि हे मुने ! कारणजातेन सर्वाण्यपि ज्ञातव्यानि । किमुक्तं भवति ?-प्रतिषिद्धस्य आचरणहेतुः कारणम्, तच्च ज्ञानादि, तत्र चोत्सर्गसूत्रेषु साक्षादुत्सर्ग विषयो निबन्धः, अर्थतस्तु कारणजाते तत्राप्यनुज्ञा मन्तव्या; अपवादसूत्रेषु पुनः कारणजातमुद्दिश्य साक्षादपवादविषयो निबन्धः, अर्थतस्तु तत्राप्युत्सर्गो . द्रष्टव्यः । एवं सर्वसूत्रेषु तत्त्वत उत्सर्गा-ऽपवादावुभावपि निबद्धाववगन्तव्यौ ॥ ३३२६ ॥15 अथ किं पुनरनयोः स्वस्थानम् ? इत्याह--- उस्सग्गेण निसिद्धाइँ जाइँ दव्वाइँ संथरे मुणिणो। कारणजाते जाते, सव्याणि वि ताणि कप्पंति ॥ ३३२७ ॥ 'उत्सर्गेण संस्सरणमाश्रित्य यानि 'द्रव्याणि' प्रलम्बादीनि 'मुनेः' संयतस्य प्रतिषिद्धानि तान्येव 'कारणजाते' विशुद्धालम्बनप्रकारे 'जाते' समुत्पन्ने सति सर्वाण्यपि कल्पन्ते ॥३३२७।। 20 अत्र परः प्रश्नयति 'जं चिय पए णिसिद्धं, तं चिय जति भूतों कप्पती तस्स । एवं होतऽणवत्था, ण य तित्थं व सच्चं तु ॥ ३३२८॥ 'यदेव' प्रलम्बादिकं 'प्राक्' पूर्व निषिद्धं तदेव यदि 'भूयः' पुनरपि तस्य' साधोः कल्पते, तत एवं सूत्रार्थस्य यदृच्छाप्रवृत्तौ चरण-करणस्यानवस्था भवति । ततश्च न तीर्थमनुस(ष)जति, 25 नैव च प्रतिषिद्धं समाचरतः 'सत्यं' संयमो भवति, तदभावे दीक्षा निरर्थिका, तन्निरर्थकतायां मोक्षस्याप्यभावः प्रामोति ॥ ३३२८ ॥ अपि च उम्मत्तवायसरिसं, खुदंसणं ण वि य कप्पऽकप्पं तु । अध ते एवं सिद्धी, ण होज सिद्धी उ कस्सेवं ॥ ३३२९ ॥ आचार्य ! पूर्वमेकत्र सूत्रे प्रतिषिय पुनखदेवानुजानत इदं भवतो दर्शनमुन्मत्तवाक्यसदृशं 30 प्रामोति, तथा नापि च 'इदं कल्प्यम् , इदमकल्प्यम्' इति व्यवस्था भवति, यदि चैवमपि ब्रुवतस्तवाभिप्रेतार्थसिद्धिर्भवति तहिं कस्य न सा भवेत् ? चरक-परिव्राजकादीनामप्यसमञ्जस१शानुग भा० ॥ २ जंपि य भा० ॥ ३ यद्यपि प्र° भा॥ - Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुमा-य-वृत्तिका कन्या उपाश्रय प्रकृते सूत्रम् । प्रलापिना सा भविष्यतीति भावः ॥ ३३२९ ॥ सूरिराह--- ण वि किंचि अणुण्णायं, पडिसिद्धं वा वि जिणवरिंदेहि । एसा तेसिं आणा, कजे सच्चेण होतव्यं ।। ३३३० ॥ हे नोदक ! यदेतद् भवता मलपितं तत् प्रवचनरहस्यानभिज्ञतासूचकम् , यतो जिनवरेन्द्रैस्तथाविधकारणाभावे नापि 'किञ्चिद' अकल्पनीयमनुज्ञातम् , कारणे च समुत्पन्ने नापि किञ्चित् प्रतिषिद्धम् , किन्तु एषा 'तेषां' तीर्थकृतां निश्चय-व्यवहारनयद्वयाश्रिता सम्यगाज्ञा मन्तव्यायदुत कार्ये' ज्ञानादावालम्बने ‘सत्येन' सद्भावसारेण साधुना भवितव्यम् , न मातृस्थानतो यत्किञ्चिदालम्बनीयमित्यर्थः । अथवा सत्यं नाम-संयमः तेन कार्ये समुत्पन्ने भवितव्यम् , यथा यथा संयम उत्सर्पति तथा तथा कर्तव्यमिति भावः । आह च वृहद्भाष्यकार: कजं नाणादीयं, सच्चं पुण होइ संजमो नियमा । जह जह सो होइ थिरो, तह तह कायधयं होइ ॥ ॥३३३० ॥ इदमेव भावयति दोसा जेण निरुभंति जैण खिजंति पुनकम्माई । __सो सो मोक्खोवाओ, रोगावत्थासु समणं वा ॥ ३३३१ ॥ 15 'येन' अनुष्ठानविशेषेण 'दोषाः' रागादयो निरुध्यन्ते, पूर्वोपचितानि च कर्माणि येन क्षीयन्ते, ‘स सः' अनुष्ठानविशेषो मोक्षोपायो ज्ञातव्यः । 'रोगावस्थासु' ज्वरादिरोगप्रकारेषु 'शमनमिव' उचितौषधप्रदानापथ्यपरिहाराद्यनुष्ठानमिव; यथा तेन विधीयमानेन ज्वरादिरोगः क्षयमुपगच्छति, एवमुत्सर्गे उत्सर्गमपवादेऽपवादं समाचरतो रागादयो दोषा निरुध्यन्ते पूर्वकर्माणि च क्षीयन्ते । अथवा यथा कस्यापि रोगिणः पथ्यौषधादिकं प्रतिषिध्यते कस्यापि पुन20 स्तदेवानुज्ञायते, एवमत्रापि यः समर्थस्तस्याकल्प्यं प्रतिषिध्यतेऽसमर्थस्य तु तदेवानुज्ञायते । उक्तञ्च भिषग्वरशास्त्रे उत्पद्येत हि साऽवस्था, देश-काला-ऽऽमयान् प्रति । यस्यामकार्य कार्य स्यात् , कर्म कार्य च वर्जयेत् ।। ३३३१ ।। एवंविधं चोत्सर्गा-ऽपवादविभागमगीतार्थो न जानाति अत:25 अग्गीयस्स न कप्पइ, तिविहं जयणं तु सो न जाणाइ । ___अणुन्नवणाए जयणं, सपक्ख-परपक्वजयणं च ।। ३३३२॥ अगीतार्थस्य प्रस्तुतसूत्र विषयभूतं वस्तुं न कल्पते, यतोऽसौ त्रिविधां यतनां न जानीते । तद्यथा-अनुज्ञापनायतनां खपक्षयतनां परपक्षयतनां चेति । तिस्रोऽप्येता वक्ष्यमाणखरूपाः । परः ग्राह-अगीतार्थेनापि तावत् सूत्रमधीतम् अतः कथमसौ न जानीते ? उच्यते-इह 30 सर्वेषामप्यागमानामर्थपरिज्ञानमाचार्यसहायकादेवोपजायते, न यथाकथञ्चित् । उक्तञ्च सत्स्वपि फलेषु यद्वन्न ददाति फलान्यकम्पितो वृक्षः । तद्वत् सूत्रमपि बुधैरकम्पितं नार्थवद् भवति ॥ ॥ ३३३२॥ ____ २ °स्य बीजाकीर्णे उपाश्रये वस्तुं का० ॥ १वताभा० ॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाधाः ३३६-३७/ इदमेवाह द्वितीयः । निउणो खलु सुत्तस्थो, ण हु को अपडिबोधितो पाउं । ते सुह तत्थ दोसा, जे तेसिं तहिं वसंताणं ॥ ३३३३ ॥ 'निपुण:' सूक्ष्मः खलु सूत्रस्यार्थो भवति, जन एव न शक्योऽसावाचार्येणाप्रतिबोधितः सम्यक् परिज्ञातुम् अतोऽगीतार्थः सूत्रमात्रेण पठितेन न यतनामवबुध्यते, अतः 'तेषाम्' 5 अगीतार्थानां 'तत्र' बीजाकीणोंपाश्रये वसतां ये दोषा भवन्ति तान् शृणुत ॥ ३३३३ ॥ अगीयत्था खलु साहू, णवरिं दोसे गुणे अजाणता । afrared गामो, ठायंतऽह धण्णसालाएं ॥ ३३३४ ॥ गीतार्थाः खल; के ? 'साधवः' साधुक्रियासु उद्यताः 'नवरे' केवलं सदोपाया निर्दोषाया वा वसतेरनुज्ञापने दोषान् गुणांश्चाजानन्तः कापि याये मैक्षं प्रभूतं लब्ध्वा भिक्षया ' रमणीयोऽयं 10 ग्रामः' इति कृत्वा 'अथ' अनन्तरं धान्यशालायां तिष्ठन्ति ।। ३३३४ ॥ इदमेव स्पष्टतरमाहरमणि भिक्ख गामो, ठायामों इहेव वसहि झोसेह । धण्णघराणुण्णवणा, जति रक्खह देगु तो भंते ! ।। ३३३५ ।। कविदगीतार्थगच्छ ग्रामानुग्रामिकं विहरन् कमपि ग्रामं सम्प्राप्तः । तत्र बहिर्देवकुलादौ स्थित्वा भिक्षों पर्यटन् प्रभूतम् इष्टं च भैक्षं लब्धवान् । ततस्तैः साधुभिः परस्परमुक्तम् — रम- 15 योऽयं ग्रामः अत इहैव मासकल्पं तिष्ठामः परं वसतिरद्यापि न गवेषिता अतस्तां "झोसेह" ति देशीवचनत्वाद् गवेषयत । ततस्तैर्वसतिं प्रत्युपेक्षमाणैः कस्याप्यगारिणो धान्यगृहं दृष्टम्, ततस्तस्यानुज्ञापना कृता । गृहपतिः प्राह – यदि नदन्त ! सदीयं धान्यगृहं तस्कर - गवादिभिरुपद्र्यमाणं रक्षत ततोऽहं प्रयच्छामि नान्यथा ॥ २३३५ ॥ अपि चकरेमों व पवसामो । ९३७ वसही रक्खणवग्गा, कस्मं न पिचितो होहि तुमं, अम्हे रति पि जग्गामो || ३३३६ ॥ वयमस्या वसतेः - धान्यशालारूपाया रक्षणे व्याः सन्तः कृप्यादिकं कर्मापि न कुर्महे, न च सुहृदादिभिरामन्त्रिताः क्वापि विवाहादौ कार्ये ग्रामान्तरे प्रवसामः । ततस्तेऽगीतार्थी वसत्यनुज्ञापनाविधिमजानन्तो ब्रुवते - निश्चिन्तस्त्वमत्रार्थे भव, वयं रात्रिमपि महरकेण जागरिष्यामः।। ३३३६॥ जोतिस - निमित्तमादी, छंद जयिं व अम्ह साधेत्था । अक्रमादी डिंभे, गाधेस्सह अजतणा सुणणे || ३३३७ ॥ ज्योतिषं निमित्तम् आदिशब्दादन्यदपि गन्धर्व विद्यादिकं तथा छन्दःशास्त्रं गणितशास्त्रं वा यद्यस्माकं कथयिष्यथ, अक्षराणि नाम - लिपिविज्ञानं तद् आदिशब्दाद् व्याकरणादिकं वा यद्यस्माकं 'डिम्भानि' बालकानि ग्राहयिप्यथ ततस्तिष्ठन्तु भवन्त इति । एवं वसतिस्वामिनोक्ते सति यदि तेऽगीतार्थास्तत् प्रतिशृण्वन्ति' 'आमम्, कथयिष्यामो ग्राहयिष्यामो वा' इत्यनुमन्यन्ते 30. ततोऽनुज्ञापनाया अयतना कृता भवति ।। ३३३७ ॥ तत्र चामी दोषाः १ मो० ले० विनाऽन्यत्र - क्रियासु यताः त० डे० । क्रियायामुद्यताः ताटी० भा० कां० ॥ २ 'क्षार्थं पर्य° डे० ॥ 20 25. Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .९३८ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [उपाश्रयप्रकृते सूत्रम् २ अणुण्णवण अजतणाए, पउत्थ सागारिए घरे चेव । तेसि पि य चीयत्तं, सागारियवजियं जातं ॥ ३३३८॥ एवमयतनानुज्ञापनया तत्र तेषु स्थितेषु सागारिकश्चिन्तयति-'एते साधवस्तावद् मदीयं धान्यगृहं रक्षन्ति अतः कस्मादहं स्वजनादिकार्ये न गच्छामि ?' इति परिभाव्य कुत्रचिद् ग्रामादौ प्रवसति । प्रोषिते च तस्मिन् गृह एव वा निश्चिन्ततया धान्यानां व्यापारमवहमाने तेषामपि संयतानां प्रीतिकं भवति-साधु साधु सागारिकवर्जितं जातम् ॥ ३३३८ ॥ अस्या एव गाथायाः पूर्वार्द्ध व्याचष्टे तेसु ठिएसु पउत्थो, अच्छंतो वा वि ण वहती तत्ति । जति विय पविसितुकामो, तह वियण चएति अतिगंतु ॥३३३९॥ 10 'तेषु' संयतेषु तत्र स्थितेषु स सागारिको निश्चिन्ततया प्रोषितो गृहे वा तिष्ठन् धान्यानां 'तप्ति' व्यापारं न वहति । यद्वा धान्यं सम्भालयितुं यद्यप्यसौ तत्र प्रवेष्टुकामः तथापि 'नातिगन्तुं' न प्रवेष्टुं शक्नोति ॥ ३३३९ ॥ कुतः ? इति चेद् उच्यते संथारएहि य तहिं, समंततो आतिकिण्ण विइकिण्णं । सागारितो ण एती, दोसे य तहिं ण जाणाती ॥ ३३४०॥ 15 संस्तारकै: 'तत्र' उपाश्रये समन्ततः 'अतिकीण' परिपाट्या प्रसृतैर्मालितं 'व्यतिकीर्ण' तैरेवानानुपूर्व्या प्रसृतैर्याप्तं दृष्ट्वा सागारिकः 'नैति' नागच्छति, ततो ये तत्र धान्यपरिशटनादयो दोषास्तानसौ न जानीते ॥ ३३४० ॥ A गंता अनुज्ञापनाया अयतना । अथ संयतलक्षणस्वपक्षविषयामयतनामाह-~ ते तत्थ सण्णि विट्ठा, गहिया संथारगा जधिच्छाए । ___णाणादेसी साधू, कासइ चिंता सपुप्पण्णा ॥ ३३४१ ॥ 'ते' अगीतार्थाः 'तत्र' उपाश्रये 'सन्निविष्टाः' स्थिताः, यदृच्छया च तैस्तत्र संस्तारका गृहीताः, न गणावच्छेदिकेन यथारनाधिकं प्रदत्ता इति भावः, नानादेशीयाश्च तत्र साधवः, तेषां मध्ये "कासइ" ति कस्यचिद् मन्दधर्मणश्चिन्ता समुत्पन्ना ॥ ३३४१ ।। यथा अणुहूया धण्णरसा, णवरं मोत्तूण सेडगतिलाणं । 25 काहामि कोउहल्लं, पासुत्तेसुं समारद्धो ॥ ३३४२ ॥ अनुभूतास्तावदपरेषां धान्यानां रसाः, 'नवरं' केवलं "सेडंगतिलाणं" ति श्वेतकतिलानां रसं मुक्त्वा, अत एतद्विषयं 'कौतुकम्' अभिलाषं 'करिष्यामि' पूरयिष्यामीत्यर्थः । एवं विचिन्त्य शेषसाधुषु रात्रौ प्रसुप्तेषु समारब्धस्तान् तिलान् भक्षयितुम् ॥ ३३४२ ॥ ततश्च विगयम्मि कोउहल्ले, छठवतविराहण त्ति पडिगमणं । वेहाणस ओहाणे, गिलाण सेधेण वा दिह्रो ।। ३३४३ ॥ १ 'अतिकीर्णे' परिपाट्या प्रसृतैर्मालिते 'व्यतिकीणे' तैरेवानानुपूर्व्या [प्रसृतैः ] व्याप्ते सागारिक: भा०॥ २ - एतन्मध्यगतमबतरणं भा० नास्ति ॥ ३ "सेड़गतिला पंडरा' 30 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३३३८-४८ ] द्वितीय उद्देशः । ९३९ 'विगते' व्यतीते सति कौतुके ' षष्ठ व्रतस्य विराधना ममाभूत्, एकत्रतभङ्गे च सर्वत्रतभङ्गः' इति कृत्वा 'प्रतिगमनं' भूयोऽपि गृहवासाश्रयणं कुर्यात्, वैहायसं वा मरणमभ्युपगच्छेत्, ‘अवधावनं वा' संविग्नविहारं कुर्वीत, पार्श्वस्थादिविहारमाद्रियेत इत्यर्थः । अथवा स संयतस्तिलभक्षणं विदधानो ग्लानेन वा शैक्षेण वा दृष्टो भवेत् ॥ ३३४३ ॥ ततश्च - दडूण वा गिलाणो, खुधितो भुंजेज जा विराधणता । एमेव सेधमादी, भुंजे अप्पच्चयो वा सिं ॥। ३३४४ ॥ तं साधुं तिलान् भक्षयन्तं दृष्ट्वा ग्लानः क्षुधितः सन् तांस्तिलान् भुञ्जीत, ततश्चापथ्यप्रति - सेवनेन या तस्य परितापनादिका विराधना तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् । एवमेव शैक्षादयोऽपि तं तिलान् भुञ्जानं दृष्ट्वा तथैव भुञ्जीरन्, अप्रत्ययो वा तेषां भवेत् — यथैतद् मृषा तथाऽन्यदप्यमीषामेवंविधमिति ॥ ३३४४ ॥ उड्डाहं व करेजा, विष्परिणामो व होज सेहस्स । हंतेण व तेणं, सव्वो पुंजी समारो ।। ३३४५ ॥ स शैक्षस्तं तिलान् भक्षयन्तं विलोक्यापरापरजनेभ्यः कथयन्नुड्डाहं वा कुर्यात्, विपरिणामो वा शैक्षस्य भवेत्, विपरिणतश्च सम्यक्त्वं चारित्रं लिङ्गं वा परित्यजेत् । तेन च साधुना 'गृहता' भक्षयता सर्वोऽपि तिलपुञ्जः खादितुं समारब्धः ॥ ३३४५ ॥ ततश्चफेडिय मुद्दा तेणं, कजे सागारियस्स अतिगमणं । केण इमं तेणेहिं, तेणाणं आगमो कत्तो ।। ३३४६ ॥ 5 तिलपुञ्जस्य या छगणपानीयादिना मुद्रा कृताऽऽसीत् सा 'तेन', तिलान् भक्षयता 'स्फेटिता ' अपनीता । तत्र च क्वचित् कार्ये 'सागारिकस्य' शय्यातरस्य 'अतिगमनं' प्रवेशो भवेत् । दृष्टश्च तेन खण्डितस्तिलपुञ्जः । ततः पृष्टाः – केनेदं धान्यं विलुप्तम् ? | साधवो भणन्ति —स्तेनैः । 20 सागारिकः प्राह — स्तेनानामागमः कुतो नामास्महे सञ्जातो येनास्माभिर्न ज्ञातः ? इति । ततः सागारिकेण चेतसि निश्चितम् — नूनमेतैरेव भक्षितमिदं धान्यमिति ॥ ३३४६ ॥ १° तो सिंह, गि' भा० । 'तो मिं, गि' तामा० ॥ 10 स भद्रको वा स्यात् प्रान्तो वा । भद्रकस्तावदिदं ब्रूयात् 25 इरा वि ताव अम्हं, भिक्खं व बलिं व गिण्हह ण किंचि । एहि खु तारितो मी, गण्हह छंदेण जा अट्ठो ॥ ३३४७ ॥ इतरथाऽपि तावदस्माकं गृहे भिक्षां वा 'बलिं वा' देवतानिवेदनमुद्वरितं गृद्धीथ, अत इदानीं संसारसागरात् तारितोऽस्म्यहम्, अन्येनापि येन भवताम् 'अर्थः ' प्रयोजनं तद् भगवन्तः 'छन्देन' खेच्छया गृह्णीध्वम् ॥ ३३४७ ॥ 15 लहुगा अणुग्म्मी, अप्पत्तिग धम्मकंचुए गुरुगा । कडुग - फरुसं भणते, छम्मासा करभरे छेदो ॥। ३३४८ ॥ 30 यद्येवं भद्रकोऽनुग्रहं मन्यते तदा चतुर्लघवः । अथ प्रान्तोऽसौ ततोऽप्रीतिकं कुर्यात् एते धर्मकञ्चुकप्रविष्टा लोकं मुष्णन्ति; एवमप्रीति के चतुर्गुरवः । अथासौ ' कटुक - परुषं ' ' चौरस्त्वम्, २ हमि, अ तामा• ॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४० सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ उपाश्रयप्रकृते सूत्रम् २ धिग् मुण्ड !, दुरात्मन् !' इत्यादि वचनं भणति तदा षगुरवः । अथैवं ब्रूयात् - अहो ! राजकरभर भरस्माभिरिदानीं श्रमणकरो वोढव्यः; तदा छेदः प्रायश्चित्तम् ॥ ३३४८ ॥ मूलं सएज्झएसुं, अणवटुप्पो तिए चउक्के य । रच्छा - महापथेसु य, पावति पारंचियं ठाणं ।। ३३४९ ॥ 5 " सइज्झका नाम -सहवासिनः प्रातिवेश्मिका इत्यर्थः तैः परिज्ञातम् यथा श्रमणैर्धान्यं स्तैन्येन भक्षितम् ; ततो मूलम् । अथ त्रिके चतुष्के वा साधूनां स्तेनवादः प्रसरमुपगतः ततोऽनवस्थाप्यम् । अथ रथ्यासु महापथेषु वा स्तैन्यापयशः समुच्छलितं ततः पाञ्चिकं स्थानमा - चार्यादिः प्राप्नोति ॥ ३३४९ ॥ अथ कटुक- परुष-करभरपदानि व्याचष्टे - चोरुचि कय दुब्बोडितो त्ति फरुसं हतो सि पव्वावी ! । समणकरो वोढव्वो, जातो णे करभरहताणं ।। ३३५० ॥ ‘चौरस्त्वम्' इत्यादि वचनं कटुकम् । यत्तु 'दुर्मुण्डः' इति वा 'हतोऽसि प्रत्रजित !' इति वा वचनं तत् परुषं मन्तव्यम् तथा स शय्यातरो ब्रूयात् - अस्माकं करभरहतानां सम्प्रति श्रमणानां करो वोढव्यः सञ्जातः ॥ ३३५० ॥ 10 एषा स्वपक्षविषया अयतनाऽभिहिता । अथ परपक्षविषयामयतनामाह परपक्खम्मि अजयणा, दारे उ अवंगुतम्मि चउलहुगा । पिणे वि होंति लहुगा, जंते तसपाणघातो य ॥। ३३५१ ॥ मनुष्य- गवादयो येऽसंयतास्ते परपक्षः तद्विषया अयतना भाव्यते — इह कोलि कादिजीवविराधाभयाद्यदि द्वारमपावृतं करोति-न स्थगयतीत्यर्थः ततश्चतुर्लघवः । अथ द्वारस्य पिधानं कुर्वन्ति तदापि चतुर्लर्धेवः । 'यत्रे' चचुइआरकाख्ये सञ्चारिमानामुद्देहिकादीनां त्रप्राणिनां 20 घातो भवतीति तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् ॥ ३३५१ ॥ 15 गोणे य साणमादी, वारण लहुगा य जं च अधिकरणं । खरए य तेण या, गुरुगा य पदोसओ जं च ॥ ३३५२ ॥ अपिहिते द्वारे गौः प्रविष्टो धान्यं भक्षयेत्, श्वानो वा आदिशब्दाद् मार्जारो वा प्रविश्य धान्यं विकिरेत् खादेद्वा, ते च यदि वार्यन्ते तदा चतुर्लघवः । ते च वारिताः प्रतिनिवृत्य 25 व्रजन्तो हरितमर्दनादिरूपं यदधिकरणं कुर्वन्ति तन्निष्पन्नम् ; चशब्दादन्तरायं च तेषां कृतं भवति । तथा शय्यातरस्य यद् व्यक्षरकं - दास-दासीरूपं ये च स्तेनकास्ते धान्यं हर्तुकामा यदि वार्यन्ते तदा चतुर्गुरुकाः । ते च वारिताः प्रद्वेषतो यदभ्याख्यान- परितापनादिकं करिष्यन्ति तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् || ३३५२ ॥ तेसि अवारणें लहुगा, गोसे सागारियस्स सिट्ठम्मि । १यां यतनामसौ न जानीते । कथम् ? इति चेद् उच्यते - आवर्तन पीठिकायां जीवव्यपरोपण भया भा० ॥ २ ताटी० कां० विनाऽन्यत्र - 'र्लघु । 'यन्त्रे' चचुइआकार के सश्चारि° त० डे, मो० ० | र्लघु । वर्त्तनपीठिकायां सञ्चारि° मा० ॥ ३ द्वारे गो- श्वान - मार्जारादयः प्रविशेयुः । ते च यदि भा० ॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 . भाष्यगाथाः ३३४९-५७] द्वितीय उद्देशः । ९४१ ___लहुगा य जं च जत्तो, असिढ़ें संकापदं जं च ॥ ३३५३ ॥ __ अचैतद्दोषभयात् 'तेषां' ब्यक्षरकादीनां वारणं न करोति तदा चतुर्लघवः । ते चावारिताः सन्तः प्रविश्य धान्यं भक्षयेयुरपहरेयुर्वा ततो यदि 'गोसे' प्रत्यूषे सागारिकस्य कथयन्ति यथा 'अमुकेनामुकेन च रात्रौ धान्यमपहृतम्' ततश्चतुर्लघुकाः । 'शिष्टे' कथिते सति स रुष्टः सन् यद् ब्यक्षरकादीनां परितापनादि 'यतः' बन्धन-घातनविशेषतः करिष्यति तन्निष्पन्नं प्रायश्चि-5 तम् । अथ न कथयन्ति ततोऽपि चतुर्लघुकाः । यच्च साधूनामुपरि शङ्कापदं शय्यातरः करोति-'नूनमेतैरपहृतं यदेवं न कथयन्ति' तत्र चतुर्लघु । निःशङ्किते चतुर्गुरु ॥ ३३५३ ।। गवादीनां वारणे दोषानुपदर्शयति तिरियनिवारण अभिहणण मारणं जीवघातों णासंते । खरिया छोभ विसागणि, खरए पंतावणादीया ॥ ३३५४ ॥ 10 गवादीनां तिरश्चां निवारणे शृङ्गादिना संयतानामभिघातो मारणं वा भवेत् । ते च निवारिता नश्यन्तो जीवघातं कुर्युः । यक्षरिका च निवारिता संयतानां 'छोभम्' अभ्याख्यानं दद्यात्-एष श्रमणो मां प्रार्थयते; विषं वा दद्यात् , वसतिं वाऽमिना प्रज्वालयेत् । व्यक्षरको वा प्रद्विष्टः प्रान्तापनादिकं कुर्यात् ॥ ३३५४ ॥ अथ स्तेनका येन कारणेन धान्यमपहरन्ति तत् प्रतिपादयति आसन्नो य छणूसवों, कजं पि य तारिसेण धण्णेणं । तेणाण य आगमणं, अच्छह तुण्हिक्कका तेणा ॥ ३३५५ ॥ क्षणः-एकदैवसिकः, उत्सवः-बहुदैवसिकः, क्षणयुक्त उत्सवः क्षणोत्सवः, शाकपार्थिवादिवद् मध्यपदलोपी समासः, क्षण उत्सवो वा इत्यर्थः । स स्तेनानां प्रत्यासन्नो वर्तते, तत्र च तेषां तादृशेन धान्येन कार्यमस्ति ततः स्तेनानामागमनम् , ततश्चागीतार्था भणन्ति–भदन्त ! 20 स्तेनाः समायाताः सन्ति अतस्तूष्णीकास्तिष्ठथ । न कल्पते साधूनामेवमाख्यातुम्-अयं स्तेनः, अयं चोपचरक इति । अथवा संयतैः 'स्तेना आयाताः सन्ति' इत्युक्ते स्तेना ब्रुवतेसंयताः ! तूष्णीकास्तिष्ठथ, अन्यथा युष्मानपद्रावयिष्यामः ॥ ३३५५ ॥ एवमुक्त्वा तैः किं कृतम् ? इत्याह गहियं च हिँ धणं, घेत्तूण गता जहिं सि गंतव्यं । सागारिओ य भणती, सउणी वि य रक्खए णेहुं ॥ ३३५६ ॥ गृहीतं च 'तैः' तेनकैर्धान्यम् , गृहीत्वा च ते गतास्तत्र खस्थाने यत्र तेषां गन्तव्यम् । सागारिकश्चात्मीयकार्येण प्रभाते समागतो मुद्राभेदं दृष्ट्वा भणति-भगवन् ! 'शकुनिकाऽपि' पक्षिण्यपि तावदात्मनः 'नीडम्' आश्रयं रक्षति, भवद्भिः पुनरेतदपि न रक्षितमिति भावः ॥ ३३५६ ॥ रासी ऊणे दढे, सव्वं णीतं व धण्णखेरिं वा । केण इमं तेणेहिं, असिढ़े भद्देतर इमं तु ॥ ३३५७ ॥ । १ तेषां' व्यक्षरक-ठ्यक्षरिका-स्तेनानामवारणे प्रत्येकं चतुर्लघवः भा० ॥ 30 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ९४२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ उपाश्रयप्रकृते सूत्रम् २ स सागारिकस्तत्र धान्यराशीन् 'ऊनान्' तुच्छान् दृष्ट्वा, सर्व वा धान्यं 'नीतम्' अपहृतं विलोक्य, यद्वा धान्यस्य खेरि-परिशाटिं दृष्ट्वा पृच्छति–केनेदमपहृतम् ? । साधवो ब्रुवतेस्तेनैः । स भूयः पृच्छति-के पुनः स्तेनाः ? । ततो यदि नाम्ना वर्णेन वयसा वा निर्दिश्य कथयन्ति ततः स्तेनानां ग्रहणा-ऽऽकर्षणादयो दोषाः । 'अशिष्टे' अकथिते 'एतैरेव हृतम्' 5 इति शङ्का स्यात् तत्र भद्रकेतरदोषा भवन्ति । यद्यसौ सागारिको भद्रकस्तदा अनुग्रहं मन्येत । अथ 'इतरः' प्रान्तस्ततोऽप्रीतिकादयो दोषाः ॥ ३३५७॥ तेषु च भद्रक-प्रान्तदोषेष्विदं प्रायश्चित्तम् - लहुगा अणुग्गहम्मि, गुरुगा अप्पत्तियम्मि कायव्वा । कडुग-फरुसं भणंते, छम्मासा करभरे छेदो ॥ ३३५८ ॥ मूलं सएज्झएसुं, अणवट्ठप्पो तिए चउके य । रच्छा-महापहेसु य, पावति पारंचियं ठाणं ॥ ३३५९ ॥ गाथाद्वयस्य व्याख्या प्राग्वत् (गा० ३३४८-४९)॥ ३३५८ ॥ ३३५९॥ एगमणेगे छेदो, दिय रातों विणास-गरहमादीया । जं पाविहिंति विहणिग्गतादि वसधिं अलभमाणा ॥ ३३६०॥ 15 सागारिकः प्रद्विष्टः सन् एकेषां तेषामेव अनेकेषां वा-सर्वसाधूनाम् , यद्वा एकस्य-तद्रव्यस्य अनेकेषां वा-तद्रव्या-ऽन्यद्रव्याणां व्यवच्छेदं विदध्यात् । अथवा दिवा निष्काशयति चतुर्लघु, रात्रौ निष्काशयति चतुर्गुरु । निष्काशिताश्च स्तेन-श्वापदादिभिर्विनाशं लोकाद्वा गर्दामासादयन्ति, 'एते स्तेनाः' इति कृत्वा निष्काशिताः, आदिग्रहणेनं ग्रहणा-ऽऽकर्षणादयो दोषाः » । यच्च विधं-अध्वा ततो निर्गता आदिशब्दादशिवादिनिर्गता वा तदीयदोषेण 20 वसतिमलभमाना आत्मविराधनादिकं प्राप्स्यन्ति तन्निष्पन्नम् ॥ ३३६० ॥ एतेऽगीतार्थानां दोषा उक्ताः । अथ गीतार्थानधिकृत्य विधिमाह गीयत्थेसु वि एवं, णिकारण कारणे अजतणाए । कारणे कडजोगिस्सा, कप्पति तिविहाएँ जतणाए ॥ ३३६१॥ गीतार्था अपि यदि निष्कारणे धान्यशालायां तिष्ठन्ति, कारणे वा स्थिता यतनां न कुर्वन्ति 25 ततस्तेष्वप्येवमेव दोषाः । अथ 'कृतयोगी' गीतार्थः कारणे तिष्ठति तदा तस्य 'त्रिविधया यतनया' अनुज्ञापनादिविषयया वक्ष्यमाणया तत्र स्थातुं कल्पते ॥३३६१॥ इदमेव स्पष्टतरमाह निकारणम्मि दोसा, पडिबद्धे कारणम्मि निदोसा । ते चेव अजतणाए, पुणो वि सो लग्गती दोसे ॥ ३३६२ ॥ धान्यप्रतिबद्धे गृहे निष्कारणे तिष्ठतामेते दोषा मन्तव्याः । कारणे तु यतनया तिष्ठन्तो 30निर्दोषाः । अथ कारणे स्थितो यतनां न करोति तदा 'तानेव' पूर्वोक्तान् दोषान् 'लगति' प्रामोति ॥ ३३६२ ॥ किं पुनस्तत् कारणम् ? इत्याह ___ अद्धाणनिग्गतादी, तिक्खुत्तो मग्गिऊण असतीए । १४- एतन्मध्यगतः पाठः भा० नास्ति ॥ FREEEEEEEEEETHEL Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३३५८-६७] द्वितीय उद्देशः । गीतत्था जतणाए, वसंति तो धण्णसालाए ॥ ३३६३ ॥ ___ अध्वनिर्गतादयः 'विकृत्वः' त्रीन् वारान् विशुद्धां वसतिं मार्गयित्वा यदि न प्रामुवन्ति तदा गीतार्था यतनया धान्यशालायां वसन्ति ॥ ३३६३ ॥ तामेव यतनामाह तुस-धन्नाई जहियं, णिप्परिसाड-परिसाडगाई वा । तेसु पढमं तु ठायति, तेसऽसती दंतखजेसु ॥ ३३६४ ॥ 5 येषूपाश्रयेषु 'तुषधान्यानि' व्रीहि-यवादीनि निष्परिशाटीनि परिशाटीनि वा भवन्ति तेषु प्रथमतस्तिष्ठन्ति । तेषामभावे यत्र 'दन्तखाद्यानि' तिलादीनि धान्यानि तत्र तिष्ठन्ति ॥ ३३६४ ॥ तिष्ठतां च यदि वसतिखामी ब्रूयात्-यद्यस्माकम् अस्मद्वालकानां वा ज्योतिषादिकमक्षरादिविज्ञानं वा कथयिष्यथ गृहादिकं वा रक्षिष्यथ ततो वसतिं प्रयच्छाम इति । तत्र साधुभिर्वक्तव्यम् 10 ण वि जोइसं ण गणियं, ण अक्खरे ण वि य किंचि रक्खामो। अप्पस्सगा असुणगा, भातणखंभोवमा वसिमो ॥ ३३६५ ॥ वयं नापि ज्योतिषं न गणितं नाक्षराणि वा शिक्षयामो न वा जानीमः, नापि च किञ्चिद् गृहादिकं रक्षामः, किन्तु भाजनस्तम्भोपमा वसामः । यथा भवतां भाजन-स्तम्भ-कुड्यादीनि सौस्थ्य-दौःस्थ्यव्यापारं न वहन्ति, एवं वयमपि भवद्भिर्मन्तव्याः । अत एव भवद्गृहे कस्यापि 15 कार्यस्य विपत्तिं पश्यन्तोऽप्यपश्यकाः । यदा च कोऽपि ब्रूयात्-इदं शय्यातरस्य कथयत तदा वयं शृण्वन्तोऽप्यश्रोतारो मन्तव्याः । । यद्येवमभ्युपगच्छति तदा स्थातव्यम् ॥ ३३६५ ॥ अत एवाह - निकारणम्मि एवं, कारणे दुलभे भणंतिमं वसभा। अम्हे ठितेल्लग चिय, अधापवत्तं वहह तुम्भे ॥ ३३६६ ॥ 20 'निष्कारणे' कारणाभावे एवं तिष्ठन्ति । अथाशिवादौ कारणे शुद्धा वसतिर्दुर्लभा ततो धान्यशालायां तिष्ठन्त इत्थं साधारणवचनं वृषभा भणन्ति-वयं तावदत्र स्थिता एव, यूयमपि यथाप्रवृत्तं दिवसदैवसिकं व्यापार वहथैव ॥ ३३६६ ॥ गता अनुज्ञापनायतना । अथ स्वपक्षयतनामाह आमं ति अब्भुवगते, भिक्ख-वियारादि णिग्गत मिएस। भणति गुरू सागारिय, गाउं जे कत्थ किं धणं ।। ३३६७ ॥ 'आमम्' इत्यनुमतार्थद्योतकमव्ययम् । यदि सागारिकेणानुमतम्-मम निष्प्रत्युपकारिणो भूत्वा यूयं तिष्ठत; ततस्तत्र स्थातव्यम् । स्थितानां च तत्रायं विधिः-यदा सर्वेऽपि मृगाःअगीतार्थी भिक्षायां विचारभूम्यादौ वा निर्गता भवन्ति तदा 'गुरुः' आचार्यः सागारिकमन्यव्यपदेशेन भणति । किमर्थम् ? इत्याह-कुत्र किं धान्यं वर्तते ? इति ज्ञातुम् । “जे" इति 3c पादपूरणे ॥ ३३६७ ॥ १ भवदहे कस्यापि भा० का० ॥२ स्याधिपत्तिं त० डे० ॥३॥ एतन्मध्यगतः पाठः भा० नास्ति ॥ ४ °ह-'ज्ञातुं' परीक्षितुम् , “जे” इति वाक्यालङ्कारे, कुत्र किं धान्यं वर्तते ॥ भा०॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ९४४ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ उपाश्रयप्रकृते सूत्रम् २ सालीणं वीहीणं, तिल-कुलत्थाण मुग्ग-मासाणं । दिट्ठ मए सण्णिचया, अण्णे देसे कुटुंबीणं ॥३३६८॥ शालीनां व्रीहीणां तिल-कुलत्थानां मुद्गानां माषाणां च सन्निचया अन्यस्मिन् देशे कुटुम्बिनां गृहेषु मया दृष्टाः ॥ ३३६८ ॥ एवं च भणितमित्तम्मि कारणे सो भणाति आयरियं । अस्थि महं सण्णिचया, पेच्छह णाणाविहे धण्णे ॥ ३३६९ ॥ एवं चाचार्येण भणितमात्रेऽपि स सागारिकः कथनकारणे क्रमप्राप्ते सति आचार्य भणतिभगवन् ! सन्ति मे बहवः सन्निचयाः, पश्यत नानाविधानि धान्यानि । एवं ब्रुवन् हस्तसंज्ञया निर्दिशति, यथा-अत्र शालयः सन्ति, अत्र गोधूमाः, अत्र तिला इत्यादि ॥ ३३६९ ॥ उवलक्खिया य धण्णा, संथाराणं जहाविधि ग्गहणं ।। जो जस्स उ पाउग्गो, सो तस्स तहिं तु दायव्यो । ३३७० ॥ आचार्येणोपलक्षितानि तानि धान्यानि, ततः संस्तारकाणां 'यथाविधि' यथारनाधिकं ग्रहणे प्राप्तेऽपि तत्र सूरय औत्पत्तिकीं सामाचारी स्थापयन्ति । कथम् ? इत्याह—यः 'यस्य' शैक्ष-ग्लानादेगीतार्थादेर्वा धान्यस्य दूरेऽदूरे वा यत्र संस्तारकः प्रायोग्यः स तस्य तत्रावकाशे 16 दातव्यः ॥ ३३७० ॥ निक्खम-पवेसवजण, दरेण अभाविया तु धण्णाणं । धण्णंतेण परिणता, चिलिमिणि दिवरत्तऽसुण्णं तु ॥ ३३७१ ॥ यत्र सागारिको धान्यग्रहणार्थ निष्क्रामति प्रविशति वा तमवकाशं वर्जयित्वा साधुभिरासितव्यं शयितव्यं वा । ये पुनः 'अभाविताः' अगीतार्थास्ते धान्यानां दूरेण स्थाप्यन्ते । ये तु 20 'परिणताः' धर्मश्रद्धालवः स्थिरचेतसश्च ते धान्यानाम् अन्तेन-पार्श्वेन क्रियन्ते । धान्यानां चापान्तराले चिलिमिलिका दातव्या । गीतार्थपरिणामकैश्च दिवा च रात्रौ चाशून्यं कर्त्तव्यम् ॥ ३३७१ ॥ ते तत्थ सन्निविट्ठा, गहिया संथारगा विहीपुत्वं । जागरमाण वसंती, सपक्खजतणाएँ गीयत्था ॥ ३३७२ ।। 25 'ते' साधवः तत्र' उपाश्रये सन्निविष्टाः सन्तः खाध्यायादिकं कुर्वन्तीति वाक्यशेषः । तैश्च संस्तारकाः 'विधिपूर्व' यथा पूर्वोक्ता दोषा न भवन्ति तथा गृहीताः । तत्र च गीतार्थाः 'खपक्षयर्तनायै' खपक्षविषयरक्षार्थ 'जाग्रतः' सजागराः 'वसन्ति' .खपन्ति ॥ ३३७२ ॥ ठाणं वा ठायंती, णिसिज अहवा सजागर सुवति ।। बहुसो अभिवेंते, वयणमिणं वायणं देमि ॥ ३३७३ ॥ 10 ये वा दृढसंहननास्ते 'स्थानं तिष्ठन्ति' कायोत्सर्ग कुर्वन्तीत्यर्थः । अथवा "निसिज्ज" त्ति १°ण सुवंती भा० । एतदनुसारेणैव भा० टीका । दृश्यतां टिप्पणी २॥ २°तनां-वपक्षविषयां रक्षां कुर्वाणाः 'जाग्रतः' सजागराः स्वपन्ति भा० ॥ ३°न्तीति भावः । अथवा भा०॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३३६८-७७] द्वितीय उद्देशः । ९४५ 'निषण्णाः ते सूत्रार्थमनुप्रेक्षमाणास्तिष्ठन्ति । यश्च शैक्षादिरपरिणतस्तेषां धान्यराशीनां समीपे व्रजति तत्र गुरवो वृषभा वा सजागराः स्वपन्तस्तथा काशितादिशब्दं कुर्वन्ति यथाऽसौ प्रतिनिवर्त्तते । अथासौ 'बहुशः' भूयो भूयोऽभिद्रवति ततो गुरुभिः सामान्यत इदं वचनं वक्तव्यम्-आर्याः ! उत्तिष्ठत येन युप्मभ्यं वाचनां प्रयच्छामि । यद्वा तमेव साधु भणन्तिआर्य ! तुभ्यमहं वाचनां प्रयच्छामि ? ॥ ३३७३ ॥ फिडियं धण्णहूं वा, जतणा वारेति न उ फुडं बेंति । मा णं सोही' अण्णो, णित्थको लज गमणादी ॥ ३३७४ ॥ "स्फिटितं' दिङ्मूढतया द्वारात् परिभ्रष्टं 'धान्यार्थिनं वा' धान्यभक्षणाभिलाषिणं साधु यतनया वारयन्ति, न पुनस्तस्य सम्मुखं 'स्फुट' रूक्षवचनं ब्रुवते । कुतः ? इत्याह-मा स्फुटमभिधीयमानमन्यः श्रोष्यति, स च श्रुत्वा अन्येषां कथयेत् , ततश्च परम्परया सर्वैरपि साधुभि-10 ख़ते 'नित्थक्कः' निर्लज्जो भवेत् । यद्वा 'ज्ञातोऽस्म्यहम्' इति लज्जया प्रतिगमन-वैहायसादीनि विदध्यात् ॥ ३३७४ ॥ कथं पुनर्वारयन्ति ? इत्याह दारं न होइ एत्तो, णिद्दामत्ताणि पुंछ अच्छीणि । भण जं व संकियं ते, गिण्हह वेरत्तियं भंते ! ॥ ३३७५ ॥ यः स्फिटितो धान्यार्थी वा साधुः स वक्तव्यः-आर्य ! यत्र भवान् गच्छति इतो द्वारं न 15 भवति, निद्राप्रमत्ते वाऽक्षिणी 'प्रोञ्छ' हस्तेन परिस्पृश्योन्मीलयेत्यर्थः, यच्च किमपि ते सूत्रेऽर्थे वा शङ्कितं तदस्माकमग्रे भण येन निःशङ्कितं कुर्महे । यद्वा साधवो वक्तव्याः-'भदन्ताः !' आर्याः ! गृह्णीध्वं वैरात्रिकं कालं येन खाध्यायः क्रियते ॥ ३३७५ ।। गता खपक्षयतना । अथ परपक्षयतनामाहे-(सर्वग्रन्थाग्रम्-२३४२०) परपक्खम्मि वि दारं, पिहंति जतणाएँ दो वि वारेति । 20 तह वि य अठायमाणे, उवेह पुट्ठा व साहिति ॥ ३३७६ ॥ 'परपक्षे' गो-श्वान-मार्जारादौ प्रतिश्रयं प्रविशति यतनया द्वारं पिदधति । अथ द्वारं पिधातव्यं न भवति ततः 'द्वावपि' तिर्यङ्-मनुष्यौ दासी-दासौ वा स्त्री-पुरुषौ वा आक्रान्तिकाऽनाक्रान्तिकस्तेनौ वा प्रविशन्तौ निवारयन्ति । यदि तथापि 'न तिष्ठन्ति' धान्यग्रहणाद् नोपरमन्ते तत उपेक्षां कुर्वन्ति, तूष्णीकास्तिष्ठन्तीति भावः । सागारिकेण च 'केनेदं धान्यं नीतम् ?' 25 इति पृष्टाः सन्तः कथयन्ति- अमुकेनामुकया वा इति सङ्ग्रहगाथासमासार्थः ॥ ३३७६ ॥ अथैनामेव विवरीषुराह पेहिय पमजिया णं, उवओगं काउ सणिय ढकेंति । तिरिय णर दोनि एते, खर-खरि पुं-थी णिसिडितरे ॥ ३३७७॥ चक्षुषा प्रत्युपेक्ष्य रजोहरणेन प्रमृज्य शनैर्यथा जीवानां विराधना न स्यात् तथा 'तं' द्वार 30 'ढक्कयन्ति' स्थगयन्ति । अथ तदानीमचक्षुर्विषयं ततः श्रोत्रादिभिरिन्द्रियैरुपयोगं कृत्वा द्वार १ सोहिति अ° ता० ॥ २ एतदनन्तरं ताटी० मो० ले० प्रतिषु ग्रन्थानम्-७५०० इति वर्तते ।। ३ °न्यं गृहीतम् ?' का० ॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 ९४६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [उपाश्रयप्रकृते सूत्रम् २ पिधानं कुर्वन्ति । तथा द्वौ नाम-तिर्यङ्-नरौ, अथवा खरः-दासः खरिका-दासी एतौ, यद्वा पुरुष-स्त्रीरूपौ, अथवा निसृष्टः इतरश्च-अनिसृष्टः । निसृष्टो नाम-यस्य शय्यातरेण प्रवेशोऽनुज्ञातः, अनिसृष्टस्तद्विपरीतः । अथवा निसृष्टाः-आक्रान्तिकाः स्तेनाः, अनिसृष्टाः अनाकान्तिकाः । एते धान्यग्रहणं कुर्वन्तो वारणीयाः ॥ ३३७७ ॥ कथम् ! इत्याह गेण्हंतेसु य दोसु वि, वयणमिणं तत्थ बिंति गीयत्था । बहुगं च णेसि धणं, किं पगतं होहिती कल्लं ॥ ३३७८ ॥ स्त्री-पुरुषादिरूपयोर्द्वयोरपि धान्यं गृहानयोर्गीतार्था इदं वचनं ब्रुवते-भो भद्र ! बहिदं धान्यमद्य नयसि किं कल्ये 'प्रकृतं' प्रकरणं भविष्यति ? ॥ ३३७८ ॥ नीसढेसु उवेहं, सत्थेण व तासिता उ तुहिक्का । 10 बहुसो भणाति महिलं, जह तं वयणं सुणति अण्णो ॥ ३३७९ ॥ निसृष्टाः-आक्रान्तिकस्तेनाः ये बलादपि हरन्ति तेषु समागतेषु उपेक्षां कुर्वन्ति-तूष्णीकास्तिष्ठन्ति । अथवा खनादिना शस्त्रेण त्रासिताः सन्त इतरेष्वप्यनाक्रान्तिकेषु तूष्णीका भवन्ति । अथ महिला काचित् तत्र धान्यं नयति ततस्ता महिला तथा भणन्ति यथा तद् वचनमन्यः शृणोति ॥ ३३७९ ॥ इदमेव व्यक्तीकरोति साहूणं वसहीए, रत्तिं महिला ण कप्पती एंती। बहुगं च णेसि धणं, किं पाहुणगा विकालो य ॥ ३३८० ॥ साधूनां वसतौ रात्रौ 'महिला' स्त्री न कल्पते "एंती" आगच्छन्ती, त्वं च बहिदं धान्यं गृह्णासि किं प्राघुणकाः समायाताः ?, विकालश्च सम्प्रति वर्त्तते ततो नेदानी ते ग्रहीतुमवसर इति ॥ ३३८० ॥ 20 तेणेसु णिसढेसुं, पुवा-ऽवररतिमल्लियंतेसु । तेणबियरक्खणट्ठा, वयणमिणं ति गीतत्था ॥ ३३८१ ॥ _ 'निसृष्टेषु' आक्रान्तिकेषु स्तेनेषु पूर्वरात्रमपररात्रं वा तत्राऽऽलीयमानेषु स्तेनेभ्यः सकाशाद् बीजानां रक्षणार्थ गीतार्था उच्चशब्देनेदं वचनं ब्रुवते ॥ ३३८१ ॥ किं तत् ? इत्याह जागरह नरा! णिचं, जागरमाणस्स वड्ढते बुद्धी। जो सुवति ण सो धण्णो, जो जग्गति सो सया धण्णो ॥ ३३८२ ॥ भो नराः ! नित्यं 'जागृत' जाग्रतस्तिष्ठत, यतो जाग्रतो बुद्धिः सूत्रा-ऽर्थानुप्रेक्षादिना वर्द्धते, अत एव यः खपिति नासौ 'धन्यः' ज्ञानादिधनार्हः, यस्तु जागर्ति स सदा धन्यः ॥ ३३८२॥ सीतंति सुवंताणं, अत्था पुरिसाण लोगसारत्था । तम्हा जागरमाणा, विधुणध पोराणयं कम्मं ॥३३८३ ॥ 30 खपतां पुरुषाणाम् 'अर्थाः' ज्ञानादयः 'लोकसारार्थाः' त्रैलोक्यप्रधानप्रयोजनभूताः 'सीदन्ति' हानिमुपगच्छन्ति । यत एवं तस्माद् जाग्रतः सन्तः पुरातनं कर्म विधूनयत ॥ ३३८३ ॥ सुवति सुवंतस्स सुतं, संकित खलियं भवें पमत्तस्स । १ तुसिणीया ता० ॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३३७८-८७ ] द्वितीय उद्देशः । जागरमाणस्स सुतं, थिर-परिचितमप्पमत्तस्स ॥ २३८४ ॥ 'खपतः' निद्रायमाणस्य 'श्रुतम्' आचारादिकं 'खपिति' विस्मरति । 'प्रमत्तस्य' विकथादिप्रमादनिanta 'शङ्कितं ' 'किमत्र प्रदेशे इदमालापकपदमर्थपदं वा भवति ? उत न ?' इति संशयकोडीकृतम् ; स्खलितं वा भवति, न परावर्त्तयतः शीघ्रमागच्छति किन्तु संस्मरणेनेति भावः । 'जाग्रतस्तु' विकथादिप्रमादेनाप्रमत्तस्य श्रुतं स्थिर-परिचितं भवति । स्थिरं नाम - 5 निःशङ्कितम् अविस्मरणधर्मकं वा, पेरिचितं नाम - परावर्त्त्यमानं क्रमेणोत्क्रमेण वा समागच्छति द्रुतं वा समाप्ति याति ॥ ३३८४ ॥ नालस्सेण समं सुक्खं, न विज्जा सह निद्दया । न वेरगं ममत्तेणं, नारंभेण दयालुया ।। ३३८५ ।। नालस्येन समं सौख्यं, न विद्या सह निद्रया । न वैराग्यं ममत्वेन, नारम्भेण दयालुता ॥ इति ॥ ३३८५ ॥ अपि चजागरिया धम्मणं, आहम्मीणं च सुत्तया सेया । वच्छाहिव भगिणीए, अकहिंसु जिणो जयंतीए ।। ३३८६ ॥ ૯૭ धार्मिकाणां जागरिका श्रेयसी, अधार्मिकाणां तु सुप्तता श्रेयसी, एवं वच्छाधिपस्य - शतानीकनृपतेर्भगिन्याः जयन्तीनामिकायाः 'जिनः' वर्द्धमानखामी कथितवान् । एवमादीनि वाक्यानि गीतार्थास्तत्र महता शब्देनोद्धोषयन्ति । यद्येवमुपरताः स्तेनास्ततो लष्टम्, अथ नोपरतास्ततः किं कर्तव्यम् ? इत्याह अत्र कथानकम् — वच्छाजणवए कोसंबी नयरी । सयाणिओ राया । तस्स जयंती नाम भगिणी परमसा - विया । अन्नया तत्थ भगवं वद्धमाणसामी समोसढो । जयंती हट्ट तुट्टा मिग्गया भगवन्तं वंदित्ता पुच्छर - सुत्तया भंते ! सेया ? जागरिया सेया ? । भगवयां वागरियं— जयंती ! धमियाणं जागरिया सेया न सुत्तया, अंधम्मियाणं सुत्तया सेया न जागरिया । एवं पनतीए 20 आलावा भाणिया ( शतक १२ उद्देश २ ) ॥ ॥ ३३८६ ॥ किञ्च सुबह य अयगरभूओ सुयं च से नासई अमयभूयं । होहि गोणन्भूओ, नट्ठम्मि सुए अमयभूए || ३३८७ ॥ यः खलु अजगरभूतः स निश्चिन्तः निर्भरं खपिति नान्यः । तस्य च एवंखपतः श्रुतमपि 'अमृतभूतं' माधुर्यादिगुणैः सुधासहोदरं नश्यति । नष्टे च श्रुतेऽमृतभूते 'गोभूतः' बलीवर्द - 25 कल्पोऽसौ भविष्यति ॥ ३३८७ ॥ 10 15 १-२ परिजितं त० विना ॥ ३ एतदनन्तरं भा० प्रतौ "सुबइ य अय०" ३३८७ गाथा तट्टीका, तदनन्तरं "जागरिया ०" ३३८६ गाथा तट्टीका जयन्ती कथानकं च, तदनन्तरं पुनः " नालस्सेण०" ३३८५ गाथा वर्त्ततें, तट्टीका चेत्थंरूपा - एतान्यालस्यादीनि कुर्वतः सौख्यादीनि न भवन्तीति भावः ॥ ३३८५ ॥ एतदनन्तरं च "सुबह य०” ३३८७ गाथाटीकानन्तरवर्त्ति - एवमादीनि० इयायवतरणानुसन्धानं भवति ॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 सनियुक्ति-लघुमाप्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [उपाश्रयवकृते सूत्रम् ३ तासेऊण अवहिएं, अचेइय हिए व गोसि साहति । — जाणंता वि य तेणं, साहति न वन-रूवेहिं ॥ ३३८८ ॥ यद्याक्रान्तिकस्तेनैः साधून् खड्गादिशस्त्रेण त्रासयित्वा धान्यमपहृतम् , अनाक्रान्तिकस्तेना वा समागच्छन्तः संयतैः न चेतिताः-न ज्ञाताः एवं . तैरप्यपहृते ‘गोसे' प्रभाते शय्यातरस्य 5 कथयन्ति, यथा-तेनैर्धान्यमपहृतम् । अथासौ भूयः प्रश्नयेत् --के पुन: स्तनाः ? । ततो यद्यपि तान् वर्ण-रूपादिभिर्जानन्ति तथापि न कथयन्ति, मा भूवन् ग्रहणा-ऽऽकर्षणादयस्तेषामु. पद्रवाः । अथ वर्णादिभिरकथितेषु तेषु साधवः स्तन्यार्थकारितया शक्यन्ते ततो यतनया कथयितव्याः ॥ ३३८८ ॥ इदमेव भावयति सुण सावग! जं वत्तं, तेणाणं संजयाण इह अन्ज । तेणेहि पविद्वेहिं, जाहे नीएकसिं धन्नं ॥ ३३८९ ॥ ताहे उवगरणाणिं, भिन्नाणि हियाणि चेव अन्नाणि । हरिओवही वि जाहे, तेणा न लभंति ते पसरं ॥ ३३९० ॥ गहियाऽऽउह-प्पहरणा, जाधे वधाए समुट्ठिया अम्हं । नत्थि अकम्मं ति ततो, एतेसि ठिता मु तुहिक्का ॥ ३३९१ ॥ 15 हे श्रावक ! शृणु स्तेनानां संयतानां च इह अद्य यद् वृत्तम् –यदा किल स्तेनैः प्रविष्टैरेकशो धान्यं 'नीतं बहिर्निप्काशितं तत उपकरणान्यप्यस्मत्सम्बन्धीनि तैः कानिचिद् भिन्नानि, अन्यानि पुनरपहृतानि । ततो हृतोपधयोऽपि ते स्तेना यदा द्वितीयं वारं धान्यं हतुकामा अप्यस्माकं पार्श्वतः प्रसरं न लभन्ते तदा गृहीतायुध-प्रहरणा अस्माकं वधाय ते समुत्थिताः । अभिहितं च तैः-श्रमणाः ! तूष्णीम्भावमास्थायापसरत यूयम् , अन्यथा सर्वानपदावयिष्याम इति । 20 ततश्चिन्तितमस्माभिः- नास्त्यमीषां पापकर्मकारिणामकर्मेति । ततो वयमेतेषु तूष्णीकाः स्थिताः ॥ ३३८९ ।। ३३९० ॥ ३३९१ ॥ एवमाचार्येणोक्ते सति शय्यातरः किमुक्तवान् ? इत्याह सेज्जायरों य भणती, अण्णं धण्णं पुणो वि होहिति थे। एसो अणुग्गहो मे, जं साधु ण दुक्खविओं को वि ॥ ३३९२ ॥ शय्यातरः सूरीन् भणति-भगवन् ! अस्माकमन्यदपि धान्यं पुनरपि भविष्यति, परमेष 25 महाननुग्रहो मे संवृत्तः, यत् कोऽपि युष्मदीयः साधुः स्तेनैर्न दुःखापित इति ॥ ३३९२ ॥ सूत्रम् अह पुण एवं जाणिज्जा नो रासिकडाइं नो पुंजकडाइं नो भित्तिकडाइं नो कुलियकडाई कोट्ठाउत्ताणि वा पल्लाउत्ताणि वा मंचाउत्ताणि वा मालाउत्ताणि 30 वा ओलित्ताणि वा लित्ताणि वा पिहियाणि वा १°५, गोसे सागारियस्स साहंति तामा० भा० कां• विना ॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४९ भाप्यगाथाः ३३८८-९६] द्वितीय उद्देशः । लंछियाणि वा मुद्दियाणि वा, कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा वासावासं वत्थए ३॥ सअथ पुनरेवं जानीयात्-नो राशीकृतानि नो पुञ्जीकृतानि नो भित्तिकृतानि नो कुलिकाकृतानि कोष्ठागुप्तानि वा पल्यागुप्तानि वा मञ्चागुप्तानि वा मालागुप्तानि वा अवलिप्तानि वा लिप्तानि वा पिहितानि वा लाञ्छितानि वा मुद्रितानि वा । तत्र » कोष्ठे-कुशूले आगुप्तानि-प्रक्षिप्य : रक्षितानि कोष्ठागुप्तानि । एवमुत्तरत्रापि भावनीयम् । नवरं पल्यं-वंशकटकादिकृतो धान्याधारविशेषः, मञ्चः-स्थूगानामुपरिस्थापितवंशकादिमयो लोकप्रसिद्धः, मालकः-गृहस्योपरितनो भागः, 'अवलिप्तानि नाम' द्वारदेशे पिधानेन सह गोमयादिना कृतोपलेपानि, 'लिप्तानि' मृत्ति. कया सर्वतः खरण्टितानि, 'पिहितानि' स्थगितानि, 'लान्छितानि' रेखा-ऽक्षरादिभिः कृतलाञ्छनानि, 'मुद्रितानि' मृत्तिकादिमुद्रायुक्तानि । एवंविधेषु धान्येषु कल्पते निम्रन्थानां वा 10 निम्रन्थीनां वा वर्षावासं वस्तुमिति सूत्रार्थः ॥ अथ भाष्यम् - कोहाउत्ता य जहिं, पल्ले माले तधेव मंचे य । ओलित्त पिहिय मुद्दिय, एरिस' ण कप्पती वासो ॥ ३३९३ ॥ यत्रोपाश्रये कोष्ठागुप्तानि पल्यागुप्तानि मालागुप्तानि मञ्चागुप्तानि अवलिप्तानि पिहितानि मुद्रितानि, उपलक्षणत्वाद् लिप्तानि लाञ्छितानि वा धान्यानि सम्भवन्ति, ईदृशे न कल्पते ।। वासः ॥ ३३९३ ॥ अथ सूत्रस्यैव विषमपदानि व्याचष्टे--- छगणादी ओलित्ता, लित्ता मट्टियकता उ ते चेव । कोट्ठियमादी पिहिता, लित्ता वा पल्ल-कडपल्ला ॥ ३३९४ ॥ ओलिंपिऊण जहि अक्खरा कया लंछियं तयं विति ।। जहियं मुद्दा पडिया, होति तगं मुद्दियं धणं ॥ ३३९५ ॥ द्वारदेशे यानि छगणादिना लिप्तानि तान्यवलिप्तानि । यानि तु मृत्तिकया कृतानि-खरण्टितानि तानि लिप्तानि । कोष्ठिकादीनि यानि द्वारदेशे स्थगितानि तानि पिहितानि । पल्यकटपल्यानि तु लिप्तानि भवन्ति । इह पल्यात् कटपल्यमुच्चतरं भवतीति विशेषः ॥ ३३९४ ॥ __ अवलिप्य 'यत्र' धान्येऽक्षराणि कृतानि तद् लाञ्छितमिति ब्रुवते । यत्र तु धान्ये मुद्रा पतिता तद् मुद्रितं भवति ॥ ३३९५ ।। 25 उडुबद्धम्मि अतीए, वासावासे उवहिते संते । ठायंतगाण लहुगा, कास अगीयस्थ सुत्तं तु ॥ ३३९६ ॥ ऋतुबद्धे कालेऽतीते वर्षावासे उपस्थिते सति यदि कोष्ठागुप्तादिधान्ययुक्ते प्रतिश्रये तिष्ठन्ति तदा चतुर्लघवः । कस्य पुनरेतत् प्रायश्चित्तम् ? । सूरिराह-अगीतार्थस्य । 'सूत्रं तु' व "कल्पते कोष्ठागुप्तादिधान्येषु वर्षावासे वस्तुम्" इतिलक्षणं » गीतार्थविषयं मन्तव्यमिति वाक्यशेषः 30 ।। ३३९६ ॥ इत ऊर्द्धम् - ११ एतन्मध्यगतः पाठः भा० नास्ति ॥ २ कानि । शेषं प्राग्वदिति सूत्रार्थः भा० ॥ 20 - Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ b अणुभूता घण्णरसा, नवरं मुत्तूण गंधसालीणं । काहामि को उहलं, थेरीऍ परंधणं भणियं । ३३९७ ।। अनुभूतास्तायत् सर्वेषामपि धान्यानां रसाः, नवरं गन्धशालीनां रसं मुक्त्वा, तेऽद्यापि नाखादिता इति भावः । अतः 'करिष्यामि' पूरयिष्यामि कौतूहलमिति विचिन्त्य तेन कोष्ठ10 परयादेः शालीनाकृष्य स्थविराया अग्रे 'प्ररन्धनं' 'पाकं कुरुष्व' इति वचो भणितम् ॥ ३३९७॥ इदमेव स्पष्टयति 20 ९५० "नस्थ अगtयत्थो वा गीतो वा कोऽपि वण्णिओ सुते ।" ( गा० ३३१३ ) इत्यादिका गाथाः पूर्वोक्ता एव तावदध्येतव्याः यावत् - ते तत्थ सन्निविट्ठा, गहिता संथारगा जहिच्छाए । णाणादेसी साधू, कासह इच्छा समुप्पण्णा ॥ ( गा० ३३४१ ) कीदृशी पुनरिच्छा तस्य समुद्भूता ! इत्युच्यते 25 सनिर्मुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ उपाश्रयप्रकृते सूत्रम् ४ " 'इतरथा' अद्यदिनात् पूर्व वयं गन्धशालीन् 'कथासु' वार्त्तान्तरेषु शृणुमः, इमे तु प्रत्यक्ष15 मुपलभ्यमानाः 'ते' कथान्तरश्रुताः कलमशालयः सुरभयः, तथा स्तोकेऽप्यत्र कलमशाल नास्ति तृप्तिः कश्च 'रसः ' आखादोऽन्योऽन्यमिश्रितानाममीषाम् ? । इत्थं विचिन्त्य पल्यात् तान् शालीनाकृष्य स्थविरायाः समर्पयति । साऽप्युपस्कृत्य तस्य संयतस्य दत्त्वा शेषमात्मना भुङ्क्ते । ततोऽसौ लब्धाखादो दिवसे दिवसे एवमेव विदधाति ॥ ३३९८ ॥ ततः किमभूद् ? इत्याहनिग्घोलियं च पलं, कज्जे सागारियस्स अतिगमणं । इहरा कहासु सुणिमो, इमे हु ते कलमसालिणो सुरभी । थो वि णत्थि तित्ती, को य रसो अण्णमण्णाणं ।। ३३९८ ।। सागारिओ विसनो, भीतो पुण पासए क्रूरं ॥ ३३९९ ॥ तेन संयतेनैवं शालीनपहरता तत् पल्यं 'निर्धोलितं' रिक्तीकृतम् । ततः कचिदात्मीयकार्ये सागारिकस्य तत्र 'अतिगमनं' प्रवेशोऽभवत् । ततः सागारिकः पल्यं रिक्तीकृतं दृष्ट्वा 'विषण्णः ' विषादमुपगतवान् । भीतश्च ' मा स्तेनादयोऽत्र प्रविष्टा भवेयुः' इति शङ्कया तत्र परिभ्रमन् शालिकूरमानीतं पश्यति ॥ ३३९९ ॥ सो भइ कओ लद्धो, एसो अहं खु लद्धिसंपन्नो । ओभावणं व कुजा, धिरत्थु ते ऐरिसो लाभो ।। ३४०० ।। 'सः' सागारिको भणति - कुत एष शालिकूरो लब्ध: ? । ततः साधवस्तदीयं वृत्तान्तमजानाना ब्रुवते - एष साधुरस्माकं लब्धिसम्पन्नोऽतः प्रतिदिनमीदृशं शालिकूरमानयति । ततः सागारिकस्तं साध्वाभासं ब्रूते - धिगस्तु मुण्ड ! तवेदृशं लाभं येन प्रतिदिवसं शालीनपहत्या - 30 स्माकं पल्यं रिक्तीकृतमिति । अपभ्राजनां वाऽसौ लोकमध्ये कुर्यात्, यथा - स्तेनका अमी । अत्र च भद्रक - प्रान्तकृता दोषा भवन्ति ।। ३४०० ॥ भद्रकस्तावदिदमभिदध्यात् हर वि ताव अहं, भिक्खं व बलिं व गिण्हह न किंचि । १ एरिसे लामे भा० ॥ २ तत आचार्यस्तदीयवृत्तान्तमज्ञानानो ब्रूते भा० ॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३३९७-३४०२] द्वितीय उद्देशः। . इहि खु तारिओ मि, ठवेमि अन्ने वि जा धने ।।३४७१।। उक्तार्था (गा० ३३४७) ॥ ३४०१ ॥ यस्तु प्रान्तो भवति स ब्रूयात्-अहो! धर्मकञ्चकप्रविष्टा अमी लोकं मुष्णन्तीत्यादि । अत्र "लहुगा अणुग्गहम्मी, अप्पत्तिय धम्मकंचुए गुरुगा ।" (गा० ३३४८) इत्यारभ्य "सेज्जायरो पभणई, अन्नं धन्नं पुणो वि होहि णे । एसो अणुभगहो मे, जा साहु न दुक्खविओं कोइ ॥ (गा० ३३९२) इतिपर्यन्ता गाथास्तदवस्था एवात्र द्रष्टव्याः ॥ विकटसूत्रम् ४ सूत्रम् उवस्सयस्स अंतोवगडाए सुरावियडकुंभे वा सोवीरकवियडकुंभे वा उवनिक्खित्ते सिया, नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए । हुरत्था य उवस्सयं पडिलेहमाणे नो लभेजा, एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए । जे तत्थ 15 एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसइ से संतरा छेए वा परिहारे वा ४ ॥ एवमुदकादिसूत्राण्यप्युच्चारणीयानि । अथामीषां कः सम्बन्धः ! इत्याह पगयं उवस्सएहि, वाघाया तेसि होति अन्नोन्ना । साहारण-पत्तेगा, जा पिंडो एस संबंधो ॥ ३४०२ ॥ 20 इहोपाश्रयैः 'प्रकृतम्' अधिकारो वर्तते । तेषां च' उपाश्रयाणां 'व्याघाताः' दोषाः 'अन्योऽन्ये' अपरापरे १ बीज-विकटोदकप्रतिबद्धतादयो भवन्ति । तेषु च यत्राल्पतरा दोषाःभवन्ति । तत्र स्थातव्यम् । इति ज्ञापनार्थ साधारणसूत्र-प्रत्येकसूत्राणामारम्भः क्रियते-"जा पिंडो" त्ति "उवस्सयस्स अंतोवगडाए पिंडए वा लोयए वा०" (उ० २ सू० ८) इत्यादिकं वक्ष्यमाणं पिण्डसूत्रं यावद् स एष सम्बन्धो मन्तव्यः » । साधारणसूत्राणि नाम-यत्रैकसूत्रे 25 १ वाघातो तेसि होति अन्नोने ताभा० ॥ २-३-४ । एतन्मध्यगतः पाठः भा० नास्ति । "पगतं. गाधा । तेसि उवस्सगाणं जत्थ दोसो गस्थि । तस्स अलंमे जत्य जत्थ अप्पतरा दोसा तस्थ ठाइयव्वं । 'साधारण' ति एकसूत्रे यानि बहूनि सूत्रपदानि गृहीतानि । 'पत्तेय' त्ति एकसूत्रे यदेकपदं गृहीतम्, प्रदीप-ज्योतिःसूत्रे इत्यर्थः । जाव "उवस्सगस्स अतो. पिंडए." एषां सर्वेषामेव एष सम्बन्धो पदिष्टो भवति ॥ इमो पत्तेयमुत्तसंबंधो-मालच्छु० गाधा कण्ठ्या ॥ इति चूर्णी विशेषचूर्णौ च ॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५२ सनियुक्ति-लघुभाप्य वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ उपाश्रयप्रकृते सूत्रम् ४ व्यादिप्रभृतीनि बहूनि पदानि भवन्ति । प्रत्येकसूत्राणि तु - यंत्रे कसूत्रे एकमेव पदम् । ततश्चात्र विकटसूत्रमुदकसूत्रं पिण्डसूत्रमित्येतानि त्रीणि साधारणसूत्राणि, प्रदीपसूत्रं ज्योतिःसूत्रं च प्रत्येकसूत्रे || ३४०२ ॥ एष पञ्चानामपि सूत्राणां सम्बन्धः सामान्यत उक्तः । अथ विशेषतः सम्बन्धमाहसाच्छुहि व कीरति, विगडं भुत्त तिसितोदयं पिवति । आहारमम्मि दोसा, जह तह पिजे वि जोगोऽयं । ३४०३ ॥ शालिभिरिक्षुभिर्वा विकटं क्रियते, अतो धान्यसूत्रानन्तरमिदं विकटसूत्रमारभ्यते । शालि- कूरादिकमाहारं भुक्त्वा तृषितो भवेत्, तृषितयोदकं पिबतीति उदकसूत्रं निरूपणीयम् । यद्वा 'आहारिमे' तिलादौ भुक्ते सति यथा दोषा भवन्ति तथा 'पेयेऽपि' मद्यादौ पीयमाने 10 दोषा भवन्त्येवेति तत्प्रतिबद्धे प्रतिश्रयेऽपि न स्थातव्यमिति ॥ ३४०३ ॥ 5 " अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या - सुराविकटं पिष्टनिप्पन्नम्, सौवीरकविकटं तु पिष्टवर्जेर्गुडादिद्रव्यैर्निप्पन्नम् । ततः सुराविकटकुम्भो वा सौवीरक विकटकुम्भो वा यत्रोपाश्रयस्यान्तर्वगडायामुपनिक्षिप्तः स्यात् तत्र नो कल्पते निर्मन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा यथान्दमपि कालं वस्तुम् । “हुरत्था य" त्ति देशीपदं वहिरथभिधायकम् चशब्दो वाक्यभेदद्योतकः, 15 ततोऽयमर्थः- - अथ बहिरन्योपाश्रयं प्रत्युपेक्षमाणोऽपि नो लभेत तत एवं "से" तस्य साधोः कल्पते एकरात्रं वा द्विरात्रं वा तत्र वस्तुम् । यस्तत्रैकरात्राद्वा द्विरात्राद्वा 'परम्' ऊर्द्ध वसति “से” तस्य संयतस्य 'खान्तरात् ' स्वस्वकृतं यदन्तरं - त्रिरात्र - चतूरात्रादिकालावस्थानरूपं तस्मात् 'छेदो वा' पञ्चरात्रिन्दिवादिः 'परिहारो वा' मासलघुकादिस्तपोविशेषो भवतीति सूत्रार्थः ॥ अथ विस्तरार्थं भाष्यकृद् बिभणिषुराह - देसी भासाइ कथं, जा बहिया सा भवे हुरत्था उ । - बंधऽणुलोमेण कथं, परिहारो होइ पुत्रं तु ।। ३४०४ ॥ "हुरत्था" इति यत् पदं तद् देशीभाषया 'कृतं ' निबद्धं बहिरर्थाभिधायकम् । ततो या विवक्षितोपाश्रयाद् बहिर्वर्तिनी वगडा सा "हुरत्था" इति शब्देनोच्यते । अथ परः प्राहपरिहारस्तावत् तपोविशेष उच्यते, छेदस्तु पर्यायच्छेदरूपः, ततः सूत्रे " से संतरा परिहारे वा 25 छेए वा" इति पठितुमुचितम्, किमर्थं व्यत्यासेन पाठः ? इत्याशङ्कयाह - बन्धानुलोम्येन सूत्रे परिहारपदात् पूर्वं छेदपदं कृतम् । किमुक्तं भवति ? - एवंविधो हि पाठः सुललितपदविन्यासतया सुश्लिष्टो भवतीति कृत्वा सूत्रकृता प्रथमं छेदपदमुपन्यस्तम् || ३४०४ ॥ अवण वारिजंतो, निकारणओ व तिण्ह व परेणं । 20 छेयं चिय आवजे, छेयमओ पुन्त्रमाहंसु ।। ३४०५ ॥ अथवा यदि तत्र विकटयुक्तोपाश्रये गुर्वादिना वार्यमाणः 'निष्कारणतो वा' दर्पतस्तिष्ठति, त्रयाणां वाsहोरात्राणां परतस्तिष्ठति, तदा छेदाख्यमेव प्रायश्चित्तमसावापद्यते, अतश्छेदपदं 'पूर्वं ' प्रथममुक्तवन्तो भगवन्तो भद्रबाहुखामिनः || ३४०५ ॥ 30 १ " लुक्खू हि भा० ॥ २ अतस्तदनन्तर° भा० ॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३४०३-१० द्वितीय उद्देशः । अथ सुरा-सौवीरकपदे व्याचष्टे पिढेण सुरा होती, सोवीरं पिटवजियं जाणे । ठायंतगाण लहुगा, कास अगीयस्थ सुत्तं तु ॥ ३४०६ ॥ व्रीह्यादिसम्बन्धिना पिप्टेन यद् विकटं भवति सा सुरा । यत्तु पिष्टवर्जितं द्राक्षा-खर्जूरादिभिव्यनिष्पाद्यते तद् मद्यं सौवीरकविकटं जानीयात् । एतद् द्विविधमपि यत्रोपनिक्षिप्तं भवति । तत्रोपाश्रये तिष्ठतां चतुर्लघुकाः । कस्य पुनरेतत् प्रायश्चित्तम् ? इत्याह-अगीतार्थस्य । 'सूत्रं तु' "कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वथए" इत्यादिलक्षणं गीतार्थविषयं मन्तव्यम् ॥३४०६॥ ___ इत ऊर्दू “नथि अगीयत्थो वा०" (३३१३) इत्यादिकाः "कासइ इच्छा समुप्पन्ना" (गा० ३३४१) इतिपर्यन्ता गाथास्तदवस्था एवात्र द्रष्टव्याः । अथ कीदृशी तस्येच्छा समुस्पन्ना ? इत्याह 10 अणुभूआ मजरसा, णवार मुत्तुणिमेसि मजाणं । काहामि कोउहल्लं, पासुत्तेसुं समारद्धो ॥ ३४०७॥ अनुभूता मया बहवो मद्यरसाः, परममीषां मद्यानां रसान् मुक्तवा, अतः 'करिष्यामि' पूरयिप्यामि कौतूहलमिति विचिन्त्य प्रसुप्तेषु शेषसाधुपु समारब्धोऽसौ तद्भाजनमुद्धाट्य विकटपानं कर्तुम् ॥ ३४०७ ॥ ततश्च 18. इहरा कहासु सुणिमो, इमं खु तं काविसायणं मज । पीते वि जायति सती, तज्जुसिताणं किमु अपीते ॥ ३४०८ ।। 'इतरथा' अद्यदिनात् पूर्वं कथाखेव शृणुमः, परमिदं 'तत्' कथान्तरश्रुतं कापिशायनं नाम मद्यम् । एवं तद्-मद्यं जुपितं-सेवितं यैस्ते तज्जुपिताः, गृहवासे विकटपायिन इत्यर्थः, तेषां पीतेऽपि विकटे स्मृतिरुपजायते, किं पुनरपीते ? ॥ ३४०८ ॥ 20 विगयम्मि कोउहल्ले, छट्टवयविराहण त्ति पडिगमणं । - वेहाणस ओहाणे, गिलाणसेहेण वा दिहो ॥ ३४०९ ॥ गतार्था (गा० ३३४३ ) ॥ ३४०९ ॥ उड्डाहं व करिजा, विप्परिणामो व हुज सेहस्त । गिण्हतेण व तेणं, खंडिय विद्वे व भिन्ने वा ॥ ३४१०॥ 28 शैक्षस्तं संयतं विकटपानं कुर्वाणं दृष्ट्वा लोकस्य पुरत उड्डाहं कुर्यात् , विपरिणामो वा शैक्षस्य भवेत् , विपरिणतश्च सम्यग्दर्शनं चारित्रं लिङ्गं वा परित्यजेत् । तथा 'तेन' संयतेन विकटमाजनं गृह्णता वाशब्दाद् मुञ्चता वा तद् भाजनं 'खण्डितम्' एकदेशभग्नं 'विद्धं वा' पातितच्छिद्रं 'भिन्नं वा' द्विधाकृतं भवेत् ॥ ३४१० ॥ इत ऊर्द्ध “फेडिय मुद्दा तेणं" (गा० ३३४६ ) इत्यारभ्य "अम्हे ठिएल्लग च्चिय, अहापवत्तं वहह तुब्भे” (गा० ३३६६) इति- 30 पर्यन्तं गाथाकदम्बकं तथैवाध्येतव्यम् । नवरं मद्यामिलापः कर्त्तव्यः । ततश्च.१ "एस सुत्तत्थो णिजुत्तीए वित्थारेति-पिटेण० गाधा ।" इदि चूर्णी विशेषचूर्णौ च ॥ २ तं तालफल-द्राक्षा भा० ॥ ३ जुषितुं-सेवितुं शीलं येषां ते तजु भा० ॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५४ सनियुक्ति लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [उपाश्रयप्रकृते सूत्रम् ४ आम ति अब्भुवगए, भिक्ख-वियाराइनिग्गयमिएसु । भणइ गुरू सागारिय, कहि मजं जाणणट्ठाए ॥ ३४११॥ ___ यदि शय्यातरेण 'आमम्' इत्यभ्युपगतं 'यूयं निश्चिन्तास्तिष्ठथ, वयं यथाप्रवृत्तं व्यापार चिन्तयिष्यामः' इति, ततः 'गुरुः' आचार्यों भिक्षाचर्या-विचारभूम्यादिनिर्गतेषु मृगेषु6 अगीतार्थसाधुषु सागारिकं भणति 'कुत्र मद्यमस्ति ?' इत्येवं परिज्ञानार्थम् ॥ ३४११ ॥ किं भणति ! इत्याह गोडीणं पिट्ठीणं, वंसीणं चेव फलसुराणं च । दिट्ठ मए सन्निचया, अन्ने देसे कुडुंबीणं ॥ ३४१२ ॥ 'गौडीनां' गुडनिष्पन्नानां 'पैष्टीनां' व्रीह्मादिधान्यक्षोदनिष्पन्नानां 'वांशीनां' वंशकरीलक10निष्पन्नानां 'फलसुराणां च' तालफल-द्राक्षा-खजूरादिनिष्पन्नानाम् एवंविधानां सुराणां सन्निचया अन्यसिन् देशे मया कुटुम्बिनां गृहेषु दृष्टाः ॥ ३४१२ ॥ "एवं च भणियमित्तम्मि कारणे सो भणाइ आयरियं । , अत्थि महं सन्निचया, पिच्छह नाणाविहे मजे ॥” (गा० ३३६९) इस्मादिकाः “दारं न होइ इत्तो०" (गा० ३३७५) इतिपर्यन्ता गाथाः प्राग्वदत्र सव्या16 ख्याना द्रष्टव्याः । अथात्रैव या विशेषतो यतना कर्तव्या तामभिधित्सुराह-- गहियम्मि वि जा जयणा, गेलन्ने अधव तेण गंधेणं । सागारियादिगहणं, णेयव्वं लिंगभेयाई ॥ ३४१३ ॥ शैक्षकेण विकटे 'गृहीते' पीते सति या यतना कर्तव्या सा वक्तव्या । ग्लानत्वे वा वैद्योपदेशेन विकट ग्रहीतव्यम् , अथवा 'तेन' विकटसम्बन्धिना गन्धेन कस्यापि गृहवासे विकट20 भावितस्याध्युपपातो भवेत् , ततः सागारिकः-शय्यातरः स आदिशब्दात् श्रावको वा यो मातापितृसमानस्ततो विकटस्य ग्रहणं कर्त्तव्यम् । यदि खलिङ्गेन न प्राप्यते उड्डाहो वा भवति ततो लिङ्गभेदादिकमपि 'नेतव्यं' कर्त्तव्यमिति यावत् । ऐष नियुक्तिगाथासमासार्थः ॥ ३४१३ ॥ अथैनामेव विवरीषुराह पीयं जया होजऽविगोविएणं, तत्थाऽऽणइत्ताण रसं छुभंति । भिन्ने उ गोणादिपए करेंति, तेसिं पवेसस्स उ संभवम्मि ॥ ३४१४ ॥ यदा किल 'अविकोविदेन' शैक्षकेण शेषसाधुषु प्रसुप्तेषु तद् विकटं पीतं भवेत् तदा गीतार्थाः 'तत्र' विकटभाजने 'रसम्' इक्षुरसादिकमानीय प्रक्षिपन्ति । अथ कथमपि तद् भाजनं गृह्यमाणं मुच्यमानं वा भिन्नं ततो भिन्ने सति तस्मिन् गवादीनां पदानि प्रतिश्रयप्राङ्गणे प्रविशन्ति निर्गच्छन्ति च 'कुर्वन्ति' आलिखन्तीत्यर्थः, येन सागारिको जानते, यथा-गवादिना 30 प्रविश्य भग्नमिदं भाजनमिति । परं यदि 'तेषां' गवादीनां तत्र प्रवेशः सम्भवति; अन्यथा हि सागारिकः प्रद्वेषं यायात्-एकं तावदमी इत्थं स्तेनकर्मकारिणः अपरं च तदपहवनायेत्थं १त्सुः सम हगाथामाह भा० ॥ २ “गहियम्मि य० गाहा पुरातना" इति विशेषचूर्णौ ॥ ३°ष सङ्गहगा भा०॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ भाप्यगाथाः ३४११-१८] द्वितीय उद्देशः । प्रपञ्चमुपरचयन्ति, धिगमीषां पाषण्डिनां धर्ममिति ॥ ३४१४ ॥ बंधित्तु पीए जयणा ठवेंति, मुद्दा जहा चिट्ठइ अक्खुया से । ऊणम्मि दिट्ठम्मि भणंति पुट्ठा, नूणं परिस्संदति भाणमेयं ॥ ३४१५ ॥ विकटे पीते तद् भाजनं द्वारदेशे वस्त्रादिना बद्धा 'जतुना' लाक्षया स्थगयन्ति, यथा "से" तस्य भाजनस्य मुद्रा अक्षता तिष्ठति । अथ सागारिकः तद् भाजनमूनं दृष्ट्वा पृच्छति-किमर्थ-5 मिदं न्यूनमवलोक्यते । एवं पृष्टाः सन्तो भणन्ति-नूनं भाजनमिदं परिस्यन्दति ॥३४१५॥ सव्वम्मि पीए अहवा बहुम्मि, संजोगपाढी व ठयंति अनं।। अभं व मग्गित्तु छुहंति तत्था, कीयंकयं वा गिहिलिंगमाई ॥३४१६ ॥ सर्वस्मिन् अथवा बहुके विकटे पीते सति ये 'संयोगपाठिनः' विकटनिष्पत्तियोग्यद्रव्यसंयोगवेदिनस्ते तथाविधानि द्रव्याणि संयोज्य अन्य विकटं स्थापयन्ति । अथ न सन्ति 10 संयोगपाठिनस्ततोऽन्यद् विकटं मार्गयित्वा तत्र प्रक्षिपन्ति । तच्च प्रथमतः शुद्धम् , तदभावे पञ्चकपरिहाण्या चतुर्लघुकं प्राप्तेन क्रीतकृतमपि ग्रहीतव्यम् । यदि खलिङ्गेन गृह्णतामुड्डाहो भवति, न वा तेन प्राप्यते ततो गृहिलिङ्गम् आदिशब्दादन्यतीर्थिकलिङ्गं वा कर्तव्यम् ॥ ३४१६ ।। १ अथ "गेलन्ने अहव तेण गंधेणं" (गा० ३४१३) इत्यादिपदानि व्याख्याति-- ‘तम्भावियट्ठा व गिलाणए वा, पुराण सागारिय सावए वा। 15 वीसंभणीआण कुलाणऽभावा, गिण्हंति स्वस्स विवजएणं ॥ ३४१७॥ तेन-विकटेन पूर्व भावितस्तद्भावितः स तत्र विकटेनाध्युपपन्नो भवति; ग्लानो वा कश्चित् तेनैवोपयुक्तेन प्रगुणीभवति नान्यथा; ततस्तदर्थ 'पुराणस्य' पश्चात्कृतस्य सकाशात् , तदभावे माता-पितृसमानो यः सागारिकस्तस्य हस्तात् , तदप्राप्तौ प्रतिपन्नाणुव्रतस्य माता-पितृसमानस्य श्रावकस्य पार्थाद् ग्रहीतव्यम् । अमीषामभावे यथाभद्रकाण्यपि यानि विश्रम्भणीयानि कुलानि, 20 नोड्डाहकारीणीत्यर्थः, तेषु ग्रहीतव्यम् । तेषामभावे यदि खलिङ्गेन गृह्यते ततः प्रवचनोपघातो भवेत् ततो रूपस्य विपर्ययेण गृहन्ति, लिङ्गविवेकं कृत्वा विकटमुत्पादयन्तीति भावः ॥३४१७॥ अचाउरं वा वि समिक्खिऊणं, खिप्पं तओ घेत्तु दलित्तु तस्स । __ अन्नं रसं वा वि तहिं छुभंती, संगं च से तं हवयंति तत्तो ॥ ३४१८ ॥ अत्यातुरं वा तं ग्लानं समीक्ष्य 'क्षिप्रं' शीघ्रं 'ततः' प्रतिश्रयवर्तिनो विकटभाजनाद् गृहीत्वा 25 'तस्य' ग्लानस्य दत्त्वा गीतास्तत्रान्यं वा रसं प्रक्षिपन्ति । ततश्च "से" तस्य ग्लानस्य 'त' विकटविषयं सङ्गं हापयन्ति, कार्ये निष्ठिते सति विकटप्रसङ्गं निवारयन्तीति भावः ॥ ३४१८॥ गता खपक्षयतना । अथ परपक्षयतनामाह "परपक्खम्मि वि दारं, पिहंति जयणाएँ दो वि वारिति । तह वि य अठायमाणे, उवेह पुट्ठा व साहति ॥” ( गा० ३३७६) 30 इत्यादिका मद्याभिलापविशेषिता गाथाः सर्वा अपि तथैवात्र वक्तव्याः ॥ १ एतदन्तर्गतमवतरणं भा० नास्ति ॥ २°कटगन्धेनाध्यु भा० का० ॥ ३°न्ति । यश्च "से" तस्य ग्लानस्य विकटविषयः सङ्गः तं हाप भा० ॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [उपाश्रयप्रकृते सूत्रम् ५ उदकसूत्रम् ५ सूत्रम् उवस्सयस्स अंतो वगडाए सीओदगवियडकुंभे वा उसिणोदगवियडकुंभे वा उवनिक्खित्ते सिया, नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए । हुरत्था य उवस्सयं पडिलेहमाणे नो लभेजा, एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए । जे तत्थ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वसइ से संतरा छेए वा परिहारे वा ५॥ 10 अथास्य सम्बन्धमाह छोद्रण दवं पिजइ, गालिंति दवं व छोढणं तं तु । . पातुं मुहं व धोवइ, तेण हिकारो सजीवं वा ॥ ३४१९ ॥ यतः 'द्रवं' पानीयं प्रक्षिप्य विकटं पीयते, अतो विकटसूत्रानन्तरमुदकसूत्रम् । यद्वा द्रवं प्रक्षिप्य तद्' विकटं गालवन्ति, अथवा विकटं पीत्वा तज्जनितदौर्गन्ध्यव्यपगमार्थमुदकेन 15 मुखं धावति तेन कारणेन विकटानन्तरमुदकाधिकारः प्रारभ्यते । यद्वा तद् विकटं निर्जीवम् इदं तु सजीवं निर्जीवं वा भवेदिति ।। ३४१९ ॥ __ अनेकैः सम्बन्धैरायातस्यास्य व्याख्या प्राग्वत् । नवरं विकृत-शीतोष्णादिशस्त्रेण विकारं प्रापितम् , प्राशुकीकृतमित्यर्थः, शीतोदकं च तद् विकृतं च शीतोदकविकृतं तस्य कुम्भः घटः । एवमुप्णोदकविकृतकुम्भोऽपि ॥ अथ भाष्यम्20 सीतोदे उसिणोदे, फासुगमप्फासुगे य चउभंगो । ठायंतगाण लहुगा, कास अगीतत्थ सुत्तं तु ॥ ३४२० ॥ शीतोदकोष्णोदक-प्राशुका-प्राशुकपदैश्चतुर्भङ्गी भवति । गाथायां प्राकृतत्वात् पुंस्त्वनिर्देशः । तद्यथा-शीतोदकं प्राशुकं १ शीतोदकमप्राशुकम् २ उष्णोदकं प्राशुकम् ३ उष्णोदकमप्रा. शुरुन् ४ । तत्र प्रथमभङ्गे उष्णोदकमेव शीतीभूतं तन्दुलधावनादिकं वा, द्वितीयभङ्के 25 शीतोदकमेव खभावस्थम् , तृतीयगङ्गे उष्णोदकमुद्वृत्तत्रिदण्डम् , चतुर्थभङ्गे तापोदकादिकं मन्तव्यम् । एवंविधोदकप्रतिबद्ध प्रतिश्रये तिष्ठतां चतुर्लघुकाः । एवमविशेषेणोक्तावप्ययं विशेषः-प्रथमतृतीयभङ्गयोर्मासलघु । द्वितीयचतुर्थभङ्गयोश्चतुर्लघवः । आह च निशीथचूर्णिकृत___ पढमतइयभंगे ठायंतस्स मासलहुं । बीयचउत्थेसु चउलहुं । १°कृतं-वह्नयादिशस्त्रेण भा० ॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 मायगाथा: ३४१२-२५] द्वतीय उद्देश । आह कस्य पुनरेतत् प्रायश्चित्तम् ! गुरुराह' गीतार्थस्य । सूत्रं पुनरनुज्ञाविपयं गीतार्थमधिकृत्य प्रवृतमित्युपस्कारः ॥ ३४२०॥ इत ऊर्द्धम् “नथि अगीयत्थो वा०" (गा० ३३१३ ) इत्यारभ्य "कासइ इच्छा समुप्पन्ना' (गा० ३३४१) इतिपर्यन्तं भाष्यमुद्र कामिलाएविशेषितं वक्तव्यम् ।। कीहशी पुनरिच्छा तस्य समुत्पन्ना : उच्यते-- अणुभूया उदगरसा, नवरं मोत्तुं इमेसि उदगाणं ! काहामि कोउहाल्लं, पासुत्तेमुं समारो ॥ ३४२१ ॥ - 'अनुभूता मया उदकानां रसाः, नवरं मुक्त्वा अमीषामुदकानां रसान् , अतः करिष्याम्यहमेतद्विषयं कुतूहलं सफलम्' इति विचिन्त्य प्रसुप्तेषु शेषसाधुषु समारब्ध उदकपानं कर्तुम् ॥ ३४२१ ॥ कानि पुनस्तान्युदकानि ? इत्याह 10 धारोदए महासलिलजले संभारित व्य दव्वेहिं । तण्हातियस्स व सती, दिया व राओ व उप्पजे ॥ ३४२२ ॥ .. 'धारोदकं नाम' गिरिनिरजलम् , यथा उज्जयन्तादौ, आन्तरिक्षं सवा धारोदकम् । तथा » महासलिला:-गङ्गा-सिन्धुप्रभृतयो महानद्यः तासां जलं महासलिलाजलम् । 'द्रव्यैः' कर्पूर-पाटलादिभिः 'सम्भारितं' वासितं द्रव्यसम्भारितम् । एषु पानीयेषु तृष्णायितस्याभिलाषो भवति । 15 पूर्वानुभूतेषु तु दिवा वा रात्रौ वा 'स्मृतः' संस्मरणमुत्पद्यते ॥ ३४२२ ।। ततश्चोदकमापिवन्नात्मनो हृदयस्य प्रत्यक्षमिदमाह इहरा कहामु मुणिमो, इमं खु तं विमलसीतलं तोयं । विगयस्स वि पत्थि रसो, इति सेवे धारतोयादी ॥ ३४२३ ॥ इतरथा कथान्तरेषु शृणुमः, परमिदनद्य विमलशीतलं 'तत्' कथान्तरश्रुतं तोयमाखादितम् । 20 यच्चोष्णोदकादिकं विकृतं-व्यपगतजीवमुदकमापिवामः तस्यापि शस्त्रोपहतत्वेनान्यथाभूतस्य रसो नास्तीति मत्वा धारातोयादिकं जलं सेवते ॥ ३४२३ ॥ विगम्मि कोउयम्मी, छट्टवयविराहण त्ति पडिगमणं । वेहाणस ओहाणे, गिलाणसेहेण वा दिट्ठो ॥ ३४२४ ।। विगते उदकपानकौतुके स संयतः षष्ठव्रतविराधना मया कृता' इति मत्वा प्रतिगमनं वा 25 वैहायसं वा मरणं संविनविहाराद्वा अवधावनं कुर्वीत । ग्लानेन वा शैक्षेण वा स दृष्टो भवेत् ॥ ३४२४ ॥ ततश्च---- तण्हाइओ गिलाणो, तं ददु पिएज जा विराहणया । एमेव सेहमादी, पियंति अप्पचओ वा सिं ॥३४२५ ॥ ग्लानम्तृष्णायितः 'त' संयतमुदकमापिबन्तं दृष्ट्वा पानीयं पिबेत् । तेन चापथ्येन या तस्या- 30 नागाढपरितापनादिका विराधना तन्निप्पन्नं प्रायश्चित्तम् । एवमेव च शैक्षादयोऽप्यपरिणतास्त १°यन्त-सप्तधारादिषु । महा भा० ॥२ - एतदन्तर्गतः पाठः का. एव वर्तते । "धारोदयं जधा उर्जितातो पडति, अधवा अंतरिक्खितं धारोदयं ।" इति चूर्णी ॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [उपाश्रयप्रकृते सूत्रम् ५ दुदकमापिबन्ति, अप्रत्ययो वा अमीषां भवेत् यथैतद् मृषा तथाऽन्यदपि सर्वममीषामुन्मत्तप्रलपितमिति ॥ ३४२५ ॥ "उड्डाहं व करिजा, विप्परिणामो व हुज सेहस्स । गिण्हतेण व तेणं, खंडिय विद्धे व भिन्ने वा ॥" (गा० ३३४५) इत्यारभ्य "आसन्नो य छणूसों, कजं पि य तारिसेण उदगेण । तेणाण य आगमणं, अच्छह तुहिकया तेणा॥" (गा० ३३५५) इतिपर्यन्ता गाथा गतार्थाः ॥ अथ यैः कारणैः स्तेना उदकमपहरन्ति तानि दर्शयति ऊसव-छणेसु संभारियं दगं तिसिय-रोगियट्ठाए। दोहल कुतूहलेण व, हरंति पडिवेसयाईया ॥ ३४२६ ॥ __उत्सवाः क्षणाश्च पूर्वोक्ताः, तेषु प्रत्यासन्नेषु स्तेना उदकमपहरेयुः । यद्वा तृषिताः सन्तः खयं पानार्थ 'सम्भारितं' कर्पूर-पाटलादिवासितं चतुर्मूलं पञ्चमूलकृतं वा तद् उदकमपहरन्ति । यद्वा रोगी कश्चित् तेषामस्ति तस्य तत् पानीयं पथ्यं तदर्थम् , अथवा गुर्विण्यास्तादृशमुदकमापातुं दोहदः समुत्पन्नः, यदि वा कुतूहलं तेषामुदपादि कीदृशोऽस्य पानीयस्य रसः ? । 16 एवमेभिः कारणैः प्रतिवेश्मिकादयः स्तेना अपहरेयुः ॥ ३४२६ ॥ गहियं च तेहिं उदगं, चित्तूण गया जहिं सि गंतव्यं । सागारिओ व भणई, सउणी वि य रक्खई निहुं ॥ ३४२७ ॥ उक्तार्था (गा० ३३५६)॥ ३४२७ ॥ दगभाणूणे द९, सजलं व हियं दगं व परिसडियं । केण इमं तेणेहि, असिढे भद्देयर इमे उ ॥ ३४२८ ॥ . सागारिको दकभाजनानि न्यूनानि सजलं वा भाजनमपहृतं दकं वा परिशटितं दृष्चा पृच्छति-केनेदं जलमपहृतम् ? । साधवो ब्रुवते-स्तेनैः । ततोऽसौ भूयः प्रश्नयति के पुनः स्तेनाः । ततो यदि नाम्ना वर्णेन वा तान् कथयन्ति ततस्तेषां बन्धनादयो दोषाः । अथ न कथयन्ति ततः 'अशिष्टे' अकथिते भद्रक-प्रान्तकृता इमे दोषाः ॥ ३४२८ ॥ "लहुगा अणुग्गहम्मी, मुरुगा अप्पत्तियम्मि कायबा । कडुग-फरुसं भणंते, छम्मासा करभरे छेओ॥" (गा० ३३५८) इत ऊर्द्धम् "आमं ति अब्भुवगए, भिक्ख-वियाराइ निग्गयमिएसुं । भणइ गुरू सागरियं, कत्थ दगं जाणणट्ठाए ॥” (गा० ३३६७) 30 इतिपर्यन्तं गाथाकदम्बकं प्रावत् ॥ कथं पुनः सूरयः सागारिकं प्रश्नयन्ति ? इत्याह चउमूल पंचमूलं, तालोदाणं च तावतोयाणं । दिट्ठ मए सन्निचया, अन्ने देसे कुटुंबीणं ॥ ३४२९ ॥' १ एतदनन्तरं ग्रन्थानम्-१०० ताटी० मो० ले० ॥ 25 . Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५९ भाष्यगाथाः ३४२६-३१] द्वितीय उद्देशः । 'चतुर्मूलं नाम' चतुर्भिः सुरभिमूलैर्भावितम् । एवं यत् पञ्चभिः सुरभिमूलै वितं तत् पञ्चमूलम् । तालोदकानि यथा तोसलिविषये । तापतोयानि राजगृहादौ । एवंविधानामुदकानां सन्निचया मयाऽन्यस्मिन् देशे कुटुम्बिनां गेहेषु दृष्टाः ॥ ३४२९ ॥ "एवं च भणियमेतम्मि कारणे सो भणाइ आयरिए । अस्थि महं सन्निचया, पेच्छह नाणाविहे उदए ॥” (गा० ३३६९) इत आरभ्य "आणता वि य तेणं, न वन्न-रूवेण साहति ॥” ( गा० ३३८८) इतिपर्यन्तं भाष्यं तथैवात्र वक्तव्यम् । नवरमुदकामिलापः कर्त्तव्यः ॥ ज्योतिःसूत्रम् ६ सूत्रम् उवस्सयस्स अंतो वगडाए सव्वराईए जोई झियाएज्जा, नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए । हुरच्छा य उवस्सयं पडिलेहमाणे नो लभेजा, एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए । जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं 15 वसइ से संतरा छेए वा परिहारे वा ६ ॥ एवं प्रदीपसूत्रमप्युच्चारणीयम् । अथास्य सूत्रद्वयस्य कः सम्बन्धः ? इत्याह उदगाणंतरमग्गी, सो उ पईवो व होज जोई वा । पडिवक्खेणं व गयं, समागमो एस सुत्ताणं ॥ ३४३० ॥ __प्रवचने ह्यप्कायप्ररूपणानन्तरममिकायः प्ररूप्यते, अतोऽत्राप्युदकसूत्रानन्तरमग्निसूत्रमा-20 रभ्यते । 'सच' अमिः प्रदीपो वा स्याद् ज्योतिर्वा । "पडिवक्खेण व गयं" ति भावप्रधानत्वान्निर्देशस्य प्रतिपक्षतया वा इदं सूत्रमागतम् । किमुक्तं भवति?-अप्कायस्यामिकायः शस्त्रम् , अग्निकायस्याप्यप्कायः, अत एतौ परस्परं प्रतिपक्षी, प्रतिपक्षत्वेन चाप्कायानन्तरं साम्प्रतमनिकायः प्ररूपणीयः । एषः 'समागमः' सम्बन्धो द्वयोरपि सूत्रयोर्मन्तव्य इति ॥ ३४३०॥ ___ अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य प्रथमसूत्रस्य तावद् व्याख्या-सा च प्राग्वत् । नवरं सार्व- 25 रात्रिकं 'ज्योतिः' अग्नियंत्रोपाश्रये 'ध्यायेत्' धातूनामनेकार्थत्वात् प्रज्वलेत् तत्र साधु-साध्वीनां वस्तुं न कल्पते ॥ अथ भाप्यविस्तर: देसीभासाएँ कयं, जा बहिया सा भवे हुरच्छा उ । बंधऽणुलोमेण कयं, छेए परिहार पुव्वं तु ॥ ३४३१ ॥ १°दकं यथा भा०॥ २°धानां तोयानां सन्नि भा० ॥ .. Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 15 ९६० दुविहो य होइ जोई, असव्वराई य सव्वराई य । ठायंतगाण लहुगा, कास अगीयत्थ सुत्तं तु || ३४३३ ॥ 'ज्योतिः' अमिकायोद्दीनं तद् द्विविधं भवति --- 'असार्वरात्रिकं' कियतीमपि रात्रिं यत् प्रज्वलति, तद्विपरीतं सार्वत्रिकम् । उभयोरपि तिष्ठतां चतुर्लघुकाः । आह कस्य पुनरेतत् प्रायश्चित्तम् ! उच्यते-अगीतार्थस्य । सत्रं तु गीतार्थमधिकृत्य प्रवृत्तम् || ३४३३ ॥ 10 इत ऊर्द्धम् -- “नत्थि अगीयत्थो वा० " ( गा० ३३१३ ) इत्यारभ्य “रमणिज्ज भिक्ख नामो, ठायंतse जोइसालाए" ( गा० ३३३४ ) इतिपर्यन्तं भाष्यं तथैवात्र वक्तव्यम् ॥ अथ तत्र स्थितानां दोषानुपदशयति उवगरणे पडिलेहा, पमजणाऽऽवास पोरिसि मणे य । निक्मणेय पवेसे, आवडणे चेव पडणे य ॥ ३४३४ ॥ सज्योतिषि वसतौ स्थितानामुपकरणप्रत्युपेक्षणे, वसतेः प्रमार्जने, आवश्यकस्य सूत्रार्थपौरुयोर्वा करणे, "मणे य" ति मनसा राग-द्वेषगमने, निष्क्रमणे च प्रवेशे च क्रमेण नैषेधिtrearraयोः करणे, 'आपतने च' गच्छतामुल्मुकादिषु प्रस्खलने, 'पतने च' प्रतीते, एतेषु या तेजःकायत्य आत्मनो वा विराधना तनिष्पन्नं प्रायश्चितम् । अथैतदोषभयात् प्रतिलेखनाप्रमार्जनादि न करोति ततोऽपि प्रायश्वित्तम् || ३४३४ ॥ किं पुनस्तद् ? इत्यत आहपण लहुओ लहुया, चंउरो लहुगा य चउसु ठाणेसु । लहुगा गुरुगा य मणे, सेसेसु वि होति चउलहुगा ॥। ३४३५ ॥ 1 यदि ज्योतिःशालायां स्थिताः 'अभिसङ्घट्टो मा भूत्' इति कृत्वा वस्त्राद्युपकरणं न प्रत्युपेक्षन्ते ततो जघन्ये पञ्चकं मध्यम मासलघु उत्कृष्टे चत्वारो लघवः । वसतिं प्रमार्जयन्ति यद्वा निर्गच्छन्तः भविशन्तो वाऽमविराघनाभयात्र प्रमार्जयन्ति उभयत्रापि मासलघु । आव21 इयकं न कुर्वन्ति चतुर्लघु । सूत्रपौरुषीं न कुर्वन्ति • मासलघु । अर्थपौरुषीं न कुर्वन्ति मासगुरु । अथैतद्दोषभयादुपकरणप्रत्युपेक्षणां वसतिप्रमार्जनामावश्यकं सूत्रार्थपौरुष्यौ च कुर्वन्ति तत एतेषु चतुर्ष्वपि स्थानेषु प्रत्येकं चत्वारों मासा लघवः । यस्तु 'शोभनं समजनि यदेवं • सप्रकाशे स्थाने स्थिताः" इत्येवं रागं करोति, यस्य वा सप्रकाशे निद्रा नागच्छति स यदि तत्र द्वेषं करोति, तत एवं मनसा राग-द्वेषकरणे यथाक्रमं चतुर्गुरवश्चतुर्लघवश्च । 'शेषेष्वपि ' आव 20 सनिर्युक्ति-लघुभान्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ उपाश्रयप्रकृते सूत्रम् ६ अहवण वारितो, निकारणओ व तिण्ह व परेणं । छेयं चिय आवजे, छेयमओ पुव्वमाहंसु ।। ३४३२ ।। गाथाद्वयमपि गतार्थम् ( गा० ३४०४ - १) ॥ ३४३१ ॥ ३४३२ ॥ ज्योतिः खरूपं निरूपयति १ आपतनं नाम - गच्छतामुल्मुकादिषु प्रस्खलनम्, पतनं प्रतीतम्, तयोर्या तेजःकायविराधना या चानागांढ परितापादिका आत्मविराधना तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् ॥ ३४३३ ॥ . अथैनामेव गाथां भाष्यकारो विवृणोति - पणगं भा० ॥ २ चउरो मासा य चउसु ताभा• विना ॥ ३ एतदन्तर्गतः पाठः कां• मो० ले० नास्ति ॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३४३२-३९] द्वितीय उद्देशः । श्यकी-नैषेधिकीकरणादिपु स्थानेषु प्रत्येकममिविराधनानिष्पन्नं चतुर्लघु ॥ ३४३५ ॥ . अमुमेवार्थ स्फुटतरमाह पेह पमजण वासग अग्गी, ताणि अकुव्वओं जा परिहाणी । पोरिसिभंगें अभंगि सजोई, होति मणे उ रती वरई वा ॥ ३४३६ ॥ उपकरणप्रत्युपेक्षां वसतिप्रमार्जनां "वासय" ति आकारलोपादावासकं च यदि करोति तदा-5 ऽमिविराधनानिष्पन्नं चतुर्लघु । अथैतदोषभयादेतानि न करोति ततो या संयमपरिहाणिस्तनिप्पन्नम् । सूत्रपौरुषीभङ्गे मासलघु, अर्थपौरुषीभङ्गे मासगुरु । "अभंगि" ति तयोः करणेऽमिविराधना । अथ 'सज्योतिरुपाश्रयः' इति मनसि रतिर्भवति तदा चतुर्गुरु, अरतिर्भवति चतुर्लघु ॥ ३४३६ ॥ जइ उस्सग्गे न कुणइ, तह मासा सच अकरणे लहुगा। 10 वंदण-थुईअकरणे, मासो संडासकाईसुं ॥ ३४३७॥ आवश्यके 'यति' यावतः कायोत्सर्गान् न करोति 'तति' तावन्तो लघुमासाः । अथ सर्वमप्यावश्यकं न करोति ततश्चतुर्लघु । अथ वन्दनकं न ददाति स्तुतिमङ्गलं वा न करोति ततो यावन्ति वन्दनकानि यावतीः स्तुतीर्वा न प्रयच्छति तावन्ति मासलघूनि । अथ ददाति ततश्चतुर्लघु । उपविशन् सन्दशकं न प्रमार्जयति मासलघु, अथ प्रमार्जयति ततश्चतुर्लघु 15 ॥ ३४३७ ।। अथ निष्क्रमणादिपदेषु प्रायश्चित्तमाह . आवस्सिगा-निसीहिग-पमज-आसजअकरणे इमं तु । पणगं पणगं लहु लहु, आवडणे लहुग जं चऽन्नं ॥ ३४३८ ॥ निष्कामन्तो यद्यावश्यिकीं न कुर्वन्ति पञ्चकम् । प्रविशन्तो नैषेधिकीं न कुर्वन्ति पञ्चकम् । निर्गम-प्रवेशौ कुर्वाणा न प्रमार्जयन्ति मासलघु । आसज्जशब्दस्याकरणे मासलघु । आपतनं 30 नाम-यद् भूमिमसम्प्राप्तस्य प्राप्तस्य वा जानु-कूपराभ्यां प्रस्खलनम् , पतनं-सर्वगात्रेण भूमौ प्रपातः, द्वयोरपि चत्वारो लघुमासाः । यच्चापतितः पतितो वा आत्मविराधनादिकमापद्यते तन्निष्पन्नम् । अथवा यच्चान्यदग्नौ प्रतापनादि करोति तदत्र द्रष्टव्यम् ॥ ३४३८ ॥ तदेव दर्शयतिसेहस्स विसीयणया, ओसकेऽतिसक अन्नहिं नयणं । 25 विज्झविऊण तुअट्टण, अहवा वि भवे पलीवणया ॥ ३४३९ ॥ शैक्षस्य शीतार्तस्य विशीतना स्यात् , अमौ प्रताप्य स विगतशीतमात्मानं कुर्यादिति भावः। अत्र च यावतो वारान् हस्तौ पादौ वा प्रतापयन् परावर्तयति तावन्ति चतुर्लघूनि । तथा १°स्तमापद्यते । सूत्र भा०॥ २°धु । अथ कुर्वन्ति तत एकैकस्मिन् कायोत्सर्गे प्रत्येकं चतुर्लघु । अथ वन्द' का ॥ ३ तथापि मासलघु । उप° भा० ॥ ४ °यतः छेदनकैरनिर्विराध्यते ततश्चतुर्लघु ॥ ३४३७ ॥ आवस्ति भा० ॥ ५°कऽधिसभा० कां । एतदनुसारेण भा० का टीका । दृश्यता पत्रं ९६२ टिप्पणी १॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६२ सनिर्युक्ति-लघुभाप्य वृत्ति के बृहत्कल्पसूत्रे [ उपाश्रयप्रकृते सूत्रम् ६ 'अवष्वष्कणं' शीघ्र विध्यापनार्थं ज्वलतामुल्मुकानामपकर्षणम् । 'अंतिष्वष्कणं तु' तेषामेव प्रज्वालनार्थमुदीरणम् । 'अन्यत्र नयनं नाम' शयनस्थानभावाद मेः स्थानान्तरसङ्क्रमणम् । तथा प्रदीपनकभयादमिं क्षारेण धूल्या वा विध्याप्य त्वग्वर्त्तनम् । एतेषु प्रत्येकं चतुर्लघुकम् ॥ ३४३९ ॥ अथवा प्रतापयतः प्रमादतः प्रदीपनकं भवेत् तत्रेदं प्रायश्चित्तम्गाउअ दुगुणाद्गुणं, बत्तीसं जोयणाइँ चरिमपदं । चत्तारि छ च लहु गुरु, छेओ मूलं तह दुगं च ॥ ३४४० ॥ व्यूतादारभ्य द्विगुणाद्विगुणवृच्या द्वात्रिंशद्योजनलक्षणं चरमपदं यावदिदं प्रायश्चित्तम्यद्येकं गव्यूतं दह्यते ततश्चत्वारो लघुमासाः, अर्द्धयोजनं दझते चत्वारो गुरुमासाः, योजनं दह्यते षण्मासा लघवः, योजनद्वये षण्मासा गुरवः, चतुर्षु योजनेषु च्छेदः, अष्टसु मूलम्, 10 षोडशसु अनवस्थाप्यम्, द्वात्रिंशद्योजनेषु दग्धेषु पाराञ्चिकम् || ३४४० ॥ तथागोणे य सामाई, वारणें लहुगा य जं च अहिगरणं । लहुगा अवारणमि, खंभ-तणाई पलीवेजा ॥ ३४४१ ॥ तत्र प्रविशतो गो-श्वानादीन् यदि वारयति तदा चतुर्लघुकाः, यच्च ते वारिताः सन्तो हरितकायादि विराधना रूपमधिकरणं कुर्वन्ति तन्निष्पन्नम् । अथ न वारयति ततोऽपि चतुर्ल15 घवः । प्रविष्टाश्च प्रज्वलदिन्धन चालनेन स्तम्भ-तृणादीनि प्रदीपयेयुः तत्रापि गव्यूतादारभ्य द्विगुणद्विगुणवृद्ध्या द्वात्रिंशद्योजनेषु पाराश्चिकम् । यत एते दोषा अतो न ज्योतिःशालायां स्थातव्यम् । भवेत् कारणं येन तत्रापि तिष्ठेयुः ॥ ३४४१ ॥ किं पुनस्तत् ? इति चेद् उच्यते - अद्धानियाई, तिक्खुत्तो मग्गिऊण असतीए । गीयत्था जयणाए, वसंति तो अगणिसालाए ॥ ३४४२ ॥ 20 अध्वा - महदरण्यं ततो निर्गता आदिशब्दादशिवा - मौदर्यादिषु वर्त्तमाना विकालवेलायां तं ग्रामं प्राप्ताः 'त्रिकृत्वः' त्रीन् वारान् शुद्धां वसतिं मार्गयन्ति । यदि न प्राप्यते ततो गीतार्था यतनया अभिशालायां वसन्ति ॥ ३४४२ ॥ एतदेव स्पष्टयति .5 अद्धानियाई, तिहं असईऍ फरुससालाए । गीयत्था जयणाए, वसंति तो पयणसालाए ॥ ३४४३ ॥ अध्वनिर्गतादयः 'तिसृणां' पणितशाला - भाण्डशाला - कर्मशालानामन्यतरस्याः 'परुष शालायाः ' कुम्भकारशालाया अभावे ततो गीतार्था यतनया 'पचनशालायां' भाजनप कशालायां वसन्ति । इह शालात्रयग्रहणादन्या अपि कुम्भकारशालाः सूचिताः ॥ ३४४३ ॥ 25 30 तासां खरूपमुपदर्शयितुमाह पणिय भंडसाला, कम्मे पयणे य वरवरणसाला । इंधणसाला गुरुगा, सेसासु वि होंति चउलहुगा ॥ ३४४४ ॥ १ 'अभिष्व' भा० कां० । “ओसक्कइ' ति उम्मुगं ओसारेति, 'अभिसक्कइ' त्ति उत्तुअति उम्मुगं" इति चूर्णौ । "ओसक्कइ' उम्मुगं ओसारेह, 'अइसकद' उम्मुयं उत्तुयद्द" इति विशेषचूर्णौ ॥ २ 'गुणाद्वि' मो० ० ॥ ३°स्याः परुषः - कुम्भकारः तस्य शालाया अभावे भा० ॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३४४०-४९]... द्वितीय उद्देशः । ९६३ पणितशाला भाण्डशाला कर्मशाला पचनशाला व्याधरणशाला इन्धनशाला चेति । अत्र निष्कारणे इन्धनशालायां तिष्ठतां चतुर्गुरुकाः । 'शेषासु' पणितशालाप्रभृतिषु चतुर्लघुकाः ॥ ३४४४ ॥ अथैतासामेव व्याख्यानमाह कोलालियावणो खलु, पणिसाला भंडसाल जहिं भंडं। कुंभारकुडी कम्मे, पयणे वासासु आवाओ ॥ ३४४५॥ तोसलिए वग्घरणा, अग्गीकुंडं तहिं जलति निच्चं । तत्थ सयंवरहेडं, चेडा चेडी य छुब्भंति ॥ ३४४६ ॥ कौलालिकाः-कुलालक्रय-विक्रयिणस्तेषामापणः पणितशाला मन्तव्या । किमुक्तं भवति :यत्र कुम्भकारा भाजनानि विक्रीणते, वणिजो वा कुम्भकारहस्ताद भाजनानि क्रीत्वा यत्रापणे विक्रीणन्ति सा पणितशाला । भाण्डशाला यत्र घट-करकादिभाण्डजातं सङ्गोपितमास्ते । कर्मशाला 10 कुम्भकारकुटी, यत्र कुम्भकारो घटादिभाजनानि करोतीत्यर्थः। पचनशाला नाम यत्रापाकस्थाने वर्षासु भाजनानि पच्यन्ते । इन्धनशाला तु यत्र तृण-करीष-कचवरास्तिष्ठन्ति ॥ ३४४५ ॥ ___ व्याधरणशाला नाम तोसलिविषये ग्राममध्ये शाला क्रियते, तत्राग्निकुण्डं खयंवरहेतोर्नित्यमेव प्रज्वलति, तत्र च बहवश्चेटकाः एका च खयंवरा चेटिका 'प्रक्षिप्यन्ते' प्रवेश्यन्ते इत्यर्थः । यस्तेषां मध्ये तस्यै प्रतिभाति तमसौ वृणीते, एषा व्याघरणशाला । एतासु तिष्ठतां चत्वारो 15 लघुकाः ॥ ३४४६ ॥ नवरम् - इंधणसाला गुरुगा, आदित्ते तत्थ नासिउं दुक्खं । दुविह विराहण झुसिरे, सेसा अगणी य सागरिए ॥ ३४४७॥ इन्धनशालायां तिष्ठतां चत्वारो गुरुकाः । कुतः? इत्याह-तत्र तृण-करीषादौ 'आदीप्ते' प्रदीप्ते सति नष्टुं 'दुःखं' दुष्करम् । शुषिरं च तत् तृणादि भवति, ततस्तत्र 'द्विविधा विराधना' 20 संयमा-ऽऽत्मविषया । 'शेषासु' पणितशालादिषु भाजनविक्रयिक-क्रयिकादिना जनेन सागारिकम् । पचनशालायां पुनरनिदोषो भवति ॥३४४७॥ एतासु द्वितीयपदे तिष्ठतां विधिमाह पढमं तु भंडसाला, तहि सागरि नत्थि उभयकोलं पि। कम्माऽऽपणि निसि नत्थी, सेस कमेणेधणी जाव ॥ ३४४८॥ शुद्धोपाश्रयालामे प्रथमं भाण्डशालायां तिष्ठन्ति, यतस्तत्र 'उभयकालेऽपि' दिवा रात्रौ च 25 सागारिकं नास्ति । तदभावे कर्मशालायाम् । तदप्राप्तौ आपणशालायामपि, यतस्तत्र 'निशि' रात्रौ सागारिकं नास्ति । तदभावे 'शेषासु' पचनशालादिषु क्रमेण स्थातव्यं यावदिन्धनशाला । तद्यथा-प्रथमं पचनशालायाम् , ततो व्याधरणशालायाम् , तत इन्धनशालायामपि ॥३४४८।। तत्र स्थितानां यतनामाहते तत्थ सन्निविट्ठा, गहिया संथारगा विहीपुव्वं । 30 जागरमाण वसंती, सपक्खजयणाएँ गीतत्था ॥ ३४४९ ॥ १°का:-कुम्भकारास्तेषा भा० ॥ २ °कालम्मि तामा० ॥ ३ कम्म पणिय निसि तामा० । एतदनुसारेण भा. टीका । दृश्यतां टिप्पणी ४ ॥ ४°प्राप्तौ पणितशा भा० ॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [ उपाश्रयप्रकृते सूत्रम् ६ 'ते' साधवः 'तत्र' उपाश्रये सन्निविष्टाः सन्तः स्वाध्यायं कुर्वन्ति । 'विधिपूर्व' यथारनाधिकं संस्तारकास्तैस्तत्र गृहीताः । ततश्च गीतार्थाः स्वपक्षयतनां कुर्वाणा जाग्रतः सन्तः 'वसन्ति' तिष्ठन्तीत्यर्थः ॥ ३४४९ ॥ कथम् ? इत्याह पासे तणाण सोहण, अहिसकोसक अन्नहिं नयणं ।। 5 संवरणा लिंपणया, छुक्कारण वारणाऽऽगट्ठी ॥ ३४५० ॥ ___अग्नेः पार्थे यदि तृणानि भवन्ति ततस्तेषां शोधना कर्तव्या । श्वापदभयेऽनाक्रान्तिकस्तेनसम्भवे वा अग्नेरभिष्वष्कणं कुर्वन्ति । यदि तत्र आक्रान्तिकस्तेनानां सम्भवस्तदा तमग्निमवष्वकयन्ति, खप्तुकामा वा तमन्यत्र नयन्ति, बहिः सङ्कामयन्तीत्यर्थः । कृते कार्ये क्षारेण मल्लकेन वा तस्यामेः 'संवरणम्' आच्छादनं कर्त्तव्यम् । ततो यथाऽऽयुष्कमनुपाल्य खयमेव 10 विध्यायति । प्रदीपनकभयात् तत्र स्तम्भस्य च्छगणादिना लेपनं कर्त्तव्यम् । श्वानो वा गौर्वा यदि तत्र प्रविशति स्तेनो वा ढौकते तदा "छुकारण" ति छिछिक्कारः कर्त्तव्यः । अथ तथापि न तिष्ठन्ति ततो निवारणा तेषां कर्त्तव्या । सहसा च प्रदीपनके लग्ने कटादेराकर्षणं कर्त्तव्यम् । यद्वा तत् प्रदीपनकं धूल्यादिना विध्यापयितव्यम् ॥ ३४५० ॥ अथोपकरणप्रत्युपेक्षणादिषु द्वारेषु यतनामाह कडओ व चिलिमिणी वा, असती सभए व बाहि जं अंतं । ठाणाऽसति य भयम्मि व, विज्झायऽगणिम्मि पेहिंति ॥ ३४५१ ॥ अग्नेरन्तरे-वंशमयः कटो वस्त्रमयी वा चिलिमिलिका दातव्या । ततः प्रत्युपेक्षणा-प्रमार्जनादीनि सर्वाण्यपि पदानि कुर्वन्ति । कटक-चिलिमिलिकयोरभावे प्रतिश्रयाद् बहिरुपकरणं प्रत्युपेक्षणीयम् । अथ बहिः 'सभयं' स्तेनभययुक्तं ततो यदन्त्यं परिजीर्णमुपकरणं तद् बहिः 20 प्रत्युपेक्षन्ते, सारोपकरणं तु विध्याते ज्योतिषि प्रत्युपेक्षितव्यम् । अथ बहिः स्थानं नास्ति यद्वाऽन्त्योपकरणस्यापि तत्रापहरणभयं ततः सर्वमप्युपंधि विध्यातेऽमौ प्रत्युपेक्षन्ते ॥३४५१॥ निंता न पमअंती, मूगाऽऽवासं तु वंदणगहीणं । पोरिसि बाहि मणेण व, सेहाण य दिति अणुसहूिं ॥ ३४५२॥ निर्गच्छन्तः प्रविशन्तो वा तत्र भुवं न प्रमार्जयन्ति, वसतिमपि न प्रमार्जयन्ति, आवश्य25 कमपि 'भूकं' वाग्योगविरहितं वन्दनकहीनं च कुर्वन्ति, सूत्रार्थपौरुष्यौ बहिर्विदधति, बहिः स्थानाभावे मनसैव सूत्रमर्थ वाऽनुप्रेक्षन्ते, ये च शैक्षाः ज्योतिःप्रकाशे रागमुपगच्छन्ति तेषां गीतार्था अनुशिष्टिं प्रयच्छन्ति ॥ ३४५२ ॥ कथम् ? इत्याह नाणुजोया साहू, दव्वुजोवम्मि मा हु सजित्था । जस्स वि न एइ निद्दा, स पाउय निमीलिओ गिम्हे ॥३४५३ ॥ 30 'ज्ञानोद्योताः' सकलजीवादिपदार्थसार्थप्रकाशकज्ञानलक्षणभावोद्योतकलिताः साधवो भवन्ति, अतः 'द्रव्योद्योते' कतिपयपदार्थप्रकाशके ज्योतिःप्रभृतिके 'मा सजत' मा रागमुपगच्छत । १ "पासे तणाण. गाहा पुरातना" इति विशेषचूर्णौ ॥ २'रणोगही ताभा०॥ ३ भा. कां. विनाऽन्यत्र-ति ततो वा दो ताटी० मो० ले.॥४°पकरणं विध्या कां•॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३४५०-५७] द्वितीय उद्देशः । ९६५ यस्य वा साधोः सप्रकाशे निद्रा नागच्छति स कल्पेन प्रावृतः खपिति । अथ ग्रीष्मकाले प्रावृतस्य धर्मो भवति ततो निमीलितलोचनः खपिति ॥ ३४५३ ॥ अथ "मूकावश्यकं वन्दनकहीनम्" (गा० ३४५२ ) इति पदं व्याचष्टे आवास बाहि असई, ठिय वंदण विगड जयण थुइहीणं । सुत्तत्थ वाहि अंतो, चिलि मिणि काऊण व झरंति ॥ ३४५४॥ 5 आवश्यकं बहिः कुर्वन्ति । अथ बहिः स्थानं नास्ति ततो यो यत्र स्थितः स तत्रैव स्थितो मनसैव करोति । द्वादशावर्त्तवन्दनकं न प्रयच्छन्ति । 'विकटनाम्' आलोचनां यतनया वर्षाकल्पप्रावृता निश्चेष्टा एव कुर्वन्ति । 'स्तुतिहीनं नाम' स्तुतिमङ्गलं मनसैव कुर्वन्ति । अथ "पोरिसि बाहि" (गा० ३४५२) ति पदं व्याख्यायते—सूत्रार्थपौरुष्यौ बहिः कुर्वन्ति । अथ बहिः स्थानं नास्ति ततः प्रतिश्रयस्याभ्यन्तरेऽपि चिलिमिलिकां कृत्वा 'झरन्ति' स्वाध्यायं 10 कुर्वन्ति । वा विकल्पोपदर्शने, चिलिमिलिकाया अभावे मनसैव सूत्रमर्थ वाऽनुप्रेक्षन्ते इत्यर्थः ॥ ३४५४ ॥ मूगा विसंति निति व, उम्मुगमाई कओ वि अछिवंता। सेहा य जोइ दरे, जग्गंति य जा धरइ जोई ॥३४५५॥ 'मूकाः' तूष्णीकाः प्रविशन्ति निर्गच्छन्ति वा, नैषेधिकीमावश्यिकी चे मनसैव कुर्वन्ती-15 त्यर्थः । 'उल्मुकम्' अलातम् आदिशब्दादमिशकटिकां वा कचिदप्यस्पृशन्तः तथा निर्गच्छन्ति वा प्रविशन्ति वा यथाऽऽपतन-प्रपतने न भक्तः । ये च शैक्षा अगीतार्थाश्च निर्धर्माणस्ते ज्योतिषो दूरे स्थापयितव्याः । गीतार्थवृषभाश्च तावद् जाग्रति यावद् ‘ज्योतिः' अग्निधियते, न विध्यायतीति भावः, मा शैक्षादयः प्रतापयेयुरिति कृत्वा ॥ ३४५५॥ अद्धाणाई अइनिद्दपिल्लिओ गीऑसक्किउं सुवह । 20 सावयभय उस्सके, तेणभए होइ भयणा उ॥ ३४५६ ॥ अध्वादिपरिश्रान्तोऽतिनिद्राप्रेरितो वा गीतार्थस्तमनिमपसर्प्य खपिति । सिंह-व्याघ्रादिश्वापदभये यतनया तान्युत्मकान्युत्सर्पयति । स्तेनभये तु भजना भवति-यद्याक्रान्तिकस्तेनास्ततः : 'मा ज्योतिः प्रज्वलदवलोक्यागमनं कार्युः' इति कृत्वा तमग्निमपसर्पयति, अथानाक्रान्तिकास्ततो ज्वलन्तममिं दृष्ट्वा 'जाग्रत्यमी' इति बुद्ध्या ते नाभिद्रवन्ति अतस्तेषु तममिमुत्स-25 र्पयतीति ॥ ३४५६ ॥ अद्धाणविवित्ता वा, परकड असती सयं तु जालेति । मूलाई व तवेठ, कयकजा छार अक्कमणं ॥ ३४५७ ॥ अध्वनि विविक्ताः-मुषिताः 'परकृतम्' अन्यप्रज्वालितममि सेवन्ते । अथ परकृतो वहिन प्राप्यते ततः 'खयम्' आत्मनैव ज्वालयन्ति, शीता स्तओन्धनं प्रक्षिपन्तीत्युक्तं भवति । शूलम् 30 आदिशब्दाद् विसूचिकां वा तापयितुं परकृताभावे स्वयं ज्वालयन्ति, 'कृतकार्याः' निष्ठित कायें .-- क्षारेणाक्रमणं कुर्वन्ति, मा प्रदीपनकं भविष्यतीति कृत्वा ॥ ३४५७ ।। १व सर तामा० ॥ २व न कुर्व मा०॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिकै बृहत्कल्पसूत्रे [उपाश्रयप्रकृते सूत्रम् ७ सावयभय आणिति व, सोउमणा वा वि बाहि नीणिति । बाहिं पलीवणभया, छारे तस्सऽसति निव्वावे ॥ ३४५८ । श्वापदभयेऽन्यतः स्थानादग्निमानयन्ति । स्वप्तुमनसो वा तस्मात् स्थानाद बहिर्नयन्ति । अथ बहिः प्रदीपनकभयान्न नयन्ति । ततस्तत्र स्थितमेव क्षारेण छादयन्ति । 'तस्य' क्षारस्याभावे 5 'निर्वापयन्ति' विध्यापयन्तीत्यर्थः ॥ ३४५८ ॥ प्रदीपसूत्रम् ७ सूत्रम् उवस्सयस्स अंतो वगडाए सव्वराईए पईवे दिप्पेजा, नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहालं. दमवि वत्थए । हुरच्छा य उवस्सयं पडिलेहमाणे नो लभेज्जा, एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वथए । जे तत्थ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वसइ से संतरा छेए वा परिहारे वा ७॥ अस्य व्याख्यानं ज्योतिःसूत्रवद् मन्तव्यम् ॥ अथ भाष्यम् देसीभासाय कयं, जा बहिया सा भवे हुरच्छा उ । बंधऽणुलोमेण कयं, छया परिहार पुव्वं तु ॥३४५९ ॥ अहवण वारिजंतो, निकारणओ व तिण्ह व परेणं । छेय चिय आवजे, छेयमओ पुव्वमाहंसु ॥ ३४६० ॥ गाथाद्वयमपि गतार्थम् (गा० ३४०४-५) ॥ ३४५९ ॥ ३४६० ॥ दुविहो य होइ दीवो, असव्वराई य सव्वराई य। ठायंते लहु लहुगा, कास अगीयत्थ सुत्तं तु ॥ ३४६१ ॥ द्विविधश्च भवति दीपः, तद्यथा-असार्वरात्रिकश्च सार्वरात्रिकश्च । तत्रासावरात्रिकप्रदीप युक्तायां वसतौ तिष्ठतां मासलघु, सार्वरात्रिकप्रदीपयुक्तायां तु चत्वारो लघवः । कस्य पुनरेतर प्रायश्चित्तम् ? । सूरिराह-अगीतार्थस्य ॥ ३४६१ ।। 25 इत ऊर्द्धम् ---"नत्थि अगीयत्थो वा०" (गा० ३३१३) इत्यारभ्य "ठायंति पईवसा लाए" (गा० ३३३४ ) इतिपर्यन्तं भाप्यं प्राग्वदन वक्तव्यम् । अथ तत्र स्थितानां दोषानाह उवगरणे पडिलेहा, पमजणाऽऽवास पोरिसि भणे य । निक्खमणे य पवेसे, आवडणे चेव पडणे य ॥ ३४६२ ॥ 15 20 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६७ 10 भाष्यगाथाः ३४५८-६९] द्वितीय उद्देशः । पणगं लहुओ लहुगा, चउरों लहुगा य चउसु ठाणेसु । लहुगा गुरुगा य मणे, सेसेसु वि होति चउलहुगा ॥ ३४६३ ॥ द्वे अपि प्राग् (गा० ३४३४-३५) व्याख्याते॥३४६२॥३४६३॥ मनोद्वारे विशेषमाह-- गुरुगा य पगासम्मि उ, लहुगा ते चेव अप्पगासम्मि । सायम्मि होति गुरुगा, अस्साए होंति चउलहुगा ॥ ३४६४॥ । प्रदीपस्य प्रकाशेऽभिरोच्यमाने चत्वारो गुरुकाः । अप्रकाशे चत्वारो लघुकाः । एतदेवोतरार्द्धन व्याचष्टे-सातं सुखं रतिरित्येकोऽर्थः, यदि प्रकाशे रतिं मन्यते तदा चत्वारो गुरवः । अथ असातम्-अरर्ति मन्यते ततश्चत्वारो लघुकाः ॥ ३४६४ ॥ तथा पडिमाएँ झामियाए, उड्डाहों तणाणि वा भवे हेट्ठा। साणाइ चालणा लाल, मूसए खंभ तणाई पलीवेजा ॥ ३४६५॥ 10 देवकुलादौ प्रदीपशालायां या स्कन्द-मुकुन्दादिप्रतिमा तस्यां प्रदीपेन 'ध्यामितायां' दग्धायामुड्डाहो भवेत्-अमीभिः श्रमणकैः प्रत्यनीकतया स्कन्दादिप्रतिमा दग्धेति । 'अधस्ताद्वा' संस्तारकादौ तृणानि भवेयुः तानि दोरन् । श्वानादिना वा प्रदीपस्य चालना भवेत् , मूषको वा 'लालां' वर्तिमपहरेत् ततः स्तम्भः प्रदीप्येत तृणानि वा प्रदीप्येरन् ॥ ३४६५ ॥ ततश्च गाउय दुगुणादुगुणं, बत्तीसं जोयणाइँ चरिमपदं । चचारि छ च्च लहु गुरु, छेदो मूलं तह दुगं च ॥ ३४६६ ॥ उक्तार्था (गा० ३४४०) ॥ ३४६६ ॥ द्वितीयपदे प्रदीपशालायामपि वसेयुः । कथम् ! इत्याह अद्धाणनिग्गयाई, तिक्खुत्तो मग्गिऊण असईए । गीयत्था जयणाए, वसंति तो दीवसालाए ।। ३४६७ ।। (ग्रन्थाग्रम्-२३९२०) अध्वनिर्गतादयस्त्रिकृत्वः शुद्धां वसतिं मार्गयन्ति । यदि न प्राप्यते ततो गीतार्था यतनया प्रदीपशालायां वसन्ति ॥ ३४६७ ॥ कथं पुनर्यतना कर्तव्या ? इत्याह___ ते तत्थ सन्निविट्ठा, गहिया संथारगा विहीपुव्वं । 25 जागरमाण वसंती, सपक्खजयणाएँ गीतत्था ॥ ३४६८ ॥ प्राग्वत् (गा० ३४४९)॥ ३४६८ ॥ विशेषयतनामाह-~ पडिमाझामण ओरुभण लिंपणा दीवगस्स ओरुभणं । ओसक्कण उस्सकण, छक्कारण वारणोकट्ठी ॥ ३४६९ ॥ यत्र प्रतिमाध्यापनभयं तत्र तस्मादवकाशात् प्रतिमायाः 'अवरोहणम्' अन्यत्र सङ्क्रामणं 30 कर्चव्यम् । अथ प्रतिमा सङ्क्रामयितुं न शक्यते ततः स्तम्भ-कुड्यादीनां लिम्पनं प्रदीपस्य च १ ग्रन्थानम् ८००० मो० ले । ० १०० ताटी० ॥ २ एतन्मध्यगतः पाठः भा० नास्ति । नास्तीयं गाथा चूर्णिकृता विशेषचूर्णिकृता वाऽऽदता ॥ . 20 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६८ ___ सनियुक्ति-लधुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ उपाश्रयप्रकृते सूत्रम् ७-८ ततः स्थानाद् 'अवरोहणं' सामणं विधेयम् । अथ शृङ्खलादीपोऽसौ न ततः स्थानादवतारयितुं शक्यते ततो लालाया अवसर्पणमुत्सर्पणं वा कुर्यात् । श्वान-गवादीनां च 'छक्कारणं' छिछिरिति प्रतिषेधकरणेन, वारणं वा दण्डादिदर्शनेन, अपकर्षणं वा वर्तेः कर्त्तव्यम् ॥ ३४६९ ॥ अथोत्सर्पणमवसर्पणं च व्याख्यानयति संकलदीवे वत्तिं, उन्वत्ते पीलए व मा डज्झे। रूएण व तं नेहं, घेत्तूण दिवा विगिचिंति ॥ ३४७० ॥ 'शृङ्खलादीपे' स्थानान्तरं सङ्कामयितुमशक्ये वर्तिमुहर्तयेद्वा निष्पीडयेद्वा, ‘मा दातां' मा प्रदीप्यतामिति कृत्वा । रूतेन वा 'त' प्रदीपवर्त्तिनं 'स्नेहं' तैलं गृहीत्वा ततो दिवा "विगिचंते" परिष्ठापयन्ति ।। ३४७० ॥ 10 हेट्टा तणाण सोहण, ओसकेऽभिसक अन्नहिं नयणं । आगाढ़े कारणम्मि, ओसक हिसकणं कुज्जा ॥ ३४७१ ॥ प्रदीपस्याधस्तात् तृणानां शोधनं कर्त्तव्यम् । यद्वा तं प्रदीपमवसर्पयति वा अभिसर्पयति वा अन्यत्र वा नयति सङ्कामयतीत्यर्थः । एतच्चांवसर्पणमभिसर्पणं वा आगाढे कारणे समुत्पन्ने गीतार्थः कुर्यात् , नानागढे ॥ ३४७१ ॥ 18 मज्झे व देउलाई, बाहिं व ठियाण होइ अतिगमणं । जे तत्थ सेहदोसा, ते इह आगाढ़ें जयणाए ॥ ३४७२ ॥ "ते साधवो विकाले सम्प्राप्ताः सन्तः सप्रदीपे देवकुले स्थिता भवेयुः । - यद्वा प्रामादेमध्ये देवकुलम् , आदिशब्दात् प्रपा-सभादिकं वा, तच्च दिवा सागारिकाकुलं तत्र प्रभातेऽपि समागता दिवा बहिः स्थित्वा सन्ध्यायां तत्र प्रविशन्ति । यद्वा बहिःस्थितानां 20 'स्तेन-श्वापदादिभयमत्र रात्रौ भवति' इति श्रुत्वा ग्राममध्ये 'अतिगमनं प्रवेशो भवति, तत्र च सप्रदीपायां वसतौ स्थितैयें पूर्व शैक्षविषयाः प्रतापनादयो दोषा उक्ताः ते इहागाढे कारणे यतनया परिहर्त्तव्याः ॥३४७२।। यदि प्रमादतः प्रदीपनकं मवेत् ततः को विधिः? इत्याह ___अन्नाए तुसिणीया, नाए दट्टण करण सविउलं । पाहि देउल सद्दो, समागयाणं खरंटो य ॥ ३४७३ ।। 28 यदि केनापि न ज्ञातम् यथा-'अत्र संयताः स्थिताः सन्ति' ततस्तूष्णीका भूत्वा पलायन्ते । अथ ज्ञातम्-'संयता अन्न स्थिताः सन्ति' इति ततः प्रदीप्तं दृष्ट्वा महता शब्देन 'सविउलं' बोलं कुर्वन्ति यावद् भूयान् जनो मिलितः । ततो बहुजनस्य पुरतो भणन्ति-पश्यत पश्यत केनापि पापेन प्रदीपनकं कृतमिति । यद्वा देवकुलाद् बहिर्निर्गत्य तथैव 'शब्दः' बोलः क्रियते, समागतानां लोकानां खरण्टना कर्तव्या-नूनं युष्माभिरेवैतत् प्रदीपितं येनैते श्रमणा दह्यन्ते, ० असाकं चोपकरणं सर्वमप्यत्र दग्धम् । एवं खरण्टिताः सन्तो न किञ्चिदुल्लपन्ति ॥ ३४७३ ।। यति वा निष्पीडयति वा 'मा भा० ॥ २ कातिस' तामा० ॥ ३'कास तामा• विना ॥ ४ एतचिहान्तर्गतः पाठः मा० नास्ति । ५प्रामान्तः 'भति° भा•॥ ६ शैक्षादयो दोषाः मा०॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्य गाथाः ३४७०-७६ सूत्रम् पिण्डादिसूत्राणि ८-१० उवस्सगस्स अंतो वगडाए पिंडए वालोयए वा खीरे वा देहिं वा नवणीए वा सप्पिं वा तेल्ले वा फाणिए वा पूर्व वा सक्कुली वा सिहरिणी वा उक्खित्ताणि वा विक्खैित्ताणि वा विइकिन्नाणि वा विप्पइन्नाणि वा, नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहालं. दमवि वत्थए ८॥ अथास्य सूत्रस्य कः सम्बन्धः? इत्याह देहोवहीण डाहो, तदन्नसंघट्टणाय जोतिम्मि । संगाल चरणडाहो, एसो पिंडस्सुवग्धाओ ॥ ३४७४ ॥ तेन-शैक्षेण अन्येन वा-श्वान-गवादिना ज्योतिषः सङ्घटने कृते देहस्य वा उपधेर्वा दाहो भवति इति पूर्वसूत्रे उक्तम् । अत्रापि पिण्डादियुक्तोपाश्रये स्थितस्य 'साङ्गारं' सरागं १ "रोगेण सइंगालं" (पिण्डनि० गा० ६५९) ति वचनात् । पिण्डादिकं समुद्दिशतश्चरणस्य दाहो भवतीति । एष पिण्डसूत्रस्य पूर्वसूत्रेण सह 'उपोद्धातः' सम्बन्धः ॥ ३४७४ ॥ 16 अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या --उपाश्रयस्यान्तर्वगडायां पिण्डको वा लोचकं वा क्षीरं वा दधि वा नवनीतं वा सर्पिर्वा तैलं वा फाणितं वा पूपो वा शप्कुलिका वा शिखरिणी वा, एतान्युत्क्षिप्तानि वा विक्षिप्तानि वा व्यतिकीर्णानि वा विप्रकीर्णानि वा भवेयुः, नो कल्पते निम्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा यथालन्दमपि वस्तुमिति सूत्रार्थः ॥ अथ भाप्यम् पिंडो जं संपन्न, पिंडगेझं व पिंडविगई वा। जंतु सभावा लुतं, तं जाणसु लोयगं नाम ।। ३४७५ ॥ पिण्डो नाम-यदशनादिकं 'सम्पन्नं' विशिष्टाहारगुणयुक्तं षड्रसोपेतमिति यावत् , यद्वा यत् 'पिण्डग्राह्य पिण्डरूपतया हस्ते ग्रहीतुं शक्यते, 'पिण्डविकृतिर्वा' गुडादिघनविकृतिरूपा पिण्डोऽभिधीयते । 'यत्तु' यत् पुनरशनादि खभावादेव 'लुप्तम्' आहारगुणैरनुपेतं तद् लोचकं नाम जानीहि क्षीर-दधि-नवनीत-सर्पिः-तैलादीनि सुप्रसिद्धानीति ॥ ३४७५ ॥ पूवो उ उल्लखजं, छुट्टगुलो फाणियं तु दविओ वा । सक्कुलिगाई सुकं, तु खजगं सूयि सव्वं ॥ ३४७६ ॥ १ दधी वा तामू० ॥ २-३ क्खिन्नाणि वा तामू० ताटी० भा० का० ॥ ४ एतदन्तर्गतः पाठः भा० का नास्ति ॥ ५°ख्या प्राग्वत् ॥ पिण्डादिपदानि तु भाष्येणैव व्याख्यायन्ते-पिंडो भा० ॥ ६ अत्र कां० ॥ ७°लानि सु° भा०॥ ८ चूर्णिकदभिमतः "खुडगुलो" त्ति पाठः । "खुइगुल्लो' ति फाणितं, 'द्रवितो व ति पिंडगुलो वा पाणिएण समं द्रवितो खुहुगुलो त्ति भण्णा" इति चूर्णी। 25 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७० सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ उपाश्रयप्रकृते सूत्रम् ९ 'पूपः ' आर्द्रखाद्यकविशेषः, तद्ग्रहणेन लपनश्रीप्रभृतिकं सर्वमप्यार्द्रखाद्यकं गृहीतम् । "छुट्टगुलो" ति आर्द्रा गुडः, 'द्रविकः' पिण्डगुड एव पानीयेन द्रावितः, एतदुभयमपि फाणितमुच्यते । शष्कुलिकाग्रहणेन शष्कुलिका - मोदकादिकं सर्वमपि शुष्क खाद्यकं सूचितम् ॥ ३४७६ ॥ जा दहिसरम्मि गालियगुलेण चउजायसुगयसंभारा । कूरम्मि ग्भमाणी, बंधति सिहरं सिहरिणी उ ॥ ३४७७ ॥ दध्नः शरे गालितेन गुडेन या निष्पन्ना, अपरं च 'चतुर्जातक सुकृतसम्भारा' एला-त्वक्तमालपत्र-नागकेसराख्यैश्चतुर्भिर्गन्धद्रव्यैराधिक्येनोपजनितवासा, कूरमध्ये प्रक्षिप्यमाणा शिखरं बघ्नाति सा शिखरिणीत्युच्यते । उत्क्षिप्त - विक्षिप्तादिपदव्याख्या प्राग्वत् ॥ ३४७७ ॥ अथैतेषु तिष्ठतां प्रायश्चित्तमाह 6 पंडाईआइने, निग्गंथाणं न कप्पई वासो । चउरो य अणुग्घाया, तत्थ वि आणाइणो दोसा ॥ ३४७८ ॥ पिण्डादिभिः शिखरिणीपर्यन्तैराकीर्णे प्रतिश्रये निर्ग्रन्थानाम् उपलक्षणत्वाद् निर्ग्रन्थीनां च - न कल्पते वासः । अथ तिष्ठन्ति ततश्वत्वारोऽनुद्धाता मासाः । तत्राप्याज्ञादयो दोषा मन्तव्याः || ३४७८ ॥ 10 15 अथवा 'द्वयोरपि' निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीवर्गयोस्तत्र तिष्ठतोश्चतुर्गुरुकास्तपः- कालविशेषिताः । तद्यथा——–भिक्षोश्चतुर्गुरुकं तपसा कालेन च लघु, वृषभस्य कालगुरु, उपाध्यायस्य तपोगुरु, आचार्यस्य तपसा कालेन च गुरुकम् । एवं भिक्षुणीप्रभृतीनामपि मन्तव्यम् । अथवा चतुर्गुरु20 कमादौ कृत्वा छेदपर्यन्ता चतुर्णामपि यथाक्रमं शोधिज्ञातव्या ॥ ३४७९ ॥ 25 चउरो विसेसिया वा दोण्ह वि वग्गाण ठायमाणाणं । अहवा चउगुरुगाई, नायव्वा छेयपजंता || ३४७९ ॥ सूत्रम् - अह पुण एवं जाणेज्जा -नो उक्खित्ताइं नो विक्खिताई नो विइण्णिाई नो विष्पकणाई रासिकडाणि वा पुंजकाणि वा कुलियाकडाणि वा “भित्तिकडाणि वा लंछियाणि वा मुद्दियाणि वा पहियाणि वा कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा १० हेमंत - गिम्हासु वत्थए ९ ॥ १ छुपमा ताटी० त० डे० ॥ २-३ एतदन्तर्गतः पाठः भा० नास्ति ॥ ४ धिर्मन्तव्या भा० ॥ ५-६ त॰ डे० विनाऽन्यत्र - विखन्नाई नो तामू ताटी० मो० ले० कां० । खिन्नाणि वा नो भा० ॥ ७°वणाणि वा नो भा० ॥ ८ष्णाणि वा रा० भा० ॥ ९ एतन्मध्यगतः पाठः तामू०] नास्ति ॥ १० एतदन्तर्गतः पाठः तामू० एव वर्त्तते ॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग्यगाथाः ३४७७-८२ ] द्वितीय उद्देशः । ९७१ •1 अस्य व्याख्या प्राग्वत् । नवरं यत्र पिण्डादीनि राशीकृतादिरूपाणि तत्र गीतार्थानां कल्पते ऋतुबद्धे वस्तुमिति सूत्रहृदयम् ॥ अत्रे-— "पुंजो उ होइ वट्टो, सो चेव य ईसि आयओ रासी । " ( गा० ३३११ ) इत्यादिभाष्यगाथाः पिण्डाद्यभिलापेन प्राभ्वद् मन्तव्याः यावत् " कासय इच्छा समुप्पन्ना" ( गा० ३३४१ ) इति । कीदृशी पुनरिच्छा समुत्पन्ना : इत्युच्यते - अणुभूया पिंडरसा, नवरं त्तूणिमेस पिंडाणं । कामों को उहलं, तव सेसा वि भणियन्त्रा ।। ३४८० ।। अनुभूतास्तावदन्येषां पिण्डानां रसाः परममीषां पिण्डानां रसान् मुक्तत्वा, अतः 'करिष्यामः ' पूरयिष्यामः कौतूहलमिति विचिन्त्य प्रसुप्तेषु शेषसाधुषु तानि भोज्यानि भुङ्क्ते । ' शेषाण्यपि ' क्षीरादीनि " अणुभूया खीररसा" इत्याद्यभिलापेन तथैव भणितव्यानि यावद् द्वितीयपदे तत्रापि 10 प्रतिश्रये स्थिता अगीतार्थसाधुषु भिक्षाचर्यादिनिर्गतेषु सूरयः सागारिकमित्थं ब्रुवते ॥ ३४८० ॥ तेल- गुड - खंड -मच्छंडियाण महु - पाण-सकराईणं । दिट्ठ मए सन्निचया, अने देसे कुटुंबीणं ॥ ३४८१ ॥ तैल-गुड-खण्ड-मत्स्यण्डिकानां मधु-पान- शर्करादीनां च सन्निचया मयाऽन्यस्मिन् देशे कुटुबिनां गृहेषु दृष्टाः । शेषं सर्वमपि पिण्डाभिलापेन प्राग्वदवसातव्यम् || २४८१ ॥ सूत्रम् — अह पुण एवं जाणिजानो रासिकडाँई जाव नो भित्तिकडाई कोट्टाउत्ताणि वा पला उत्ताणि वा मंचाउत्ताणि वा माला उत्ताणि वा कुंभिउत्ताणिवा करभि उत्ताणि वा ओलित्ताणि वा विलित्ताणि वा लंछियाणि वा मुद्दियाणि वा पिहियाणि वा कप्पइ निगंथाण वा निग्गंथीण वा वासावासं वत्थए १० ॥ अस्य व्याख्या प्राग्वत् । नवरं कुम्भी - मुखाकारा कोष्ठिका, करभी - घटसंस्थानसंस्थिता, तयोरागुप्तानि - प्रक्षिप्य रक्षितानि कुम्भ्यागुप्तानि करभ्यागुप्तानि वा ॥ अत्र भाष्यम् - कुंभी करहीऍ तहा, पल्ले माले तहेव मंचे य । ओलित पिहिय मुद्दिय, एरिसऍण कप्पती वासो ॥। ३४८२ ॥ १ एतच्चिह्नान्तर्गतः पाठः भा० नास्ति ॥ २° भाष्यम् - "पुंजो भा० ॥ ३ 'दि प्राग्वद् मन्तव्यं याव' भा० ॥ ४° तूण मेसि भा०विना ॥ ५ हामो कोहलं ताना० ॥ ६° ममीषां सुस्वादुतराणां पिण्डा कां० ॥ ७ 'डाणि वा जा० भा० ॥ ८ 'डाणि वा को भा० ॥ ९ “कुम्भी उड़िया, करवी दुक्कणादि" इति चूर्णौ विशेषचूर्णो च ॥ १० अस्य त० डे० ॥ 5 15 20 25 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ९७२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिकै बृहत्कल्पसूत्र [ उपाश्रयप्रकृते सूत्रम् ११ ___ यत्रोपाश्रये कुम्भ्यां वा करभ्यां वा पल्ये वा माले वा मञ्चे वा चशब्दात् कोष्ठे वा प्रक्षितानि पिण्डप्रभृतीनि भवन्ति, तानि चावलिप्तानि पिहितानि मुद्रितानि वा भवेयुः, ईदृशे न कल्पते वस्तुम् ॥ ३४८२ ॥ तथा चाह उडुबद्धम्मि अईते, वासावासे उवाहिए संते । ठायंतगाण गुरुया, कास अगीतत्थ सुत्तं तु ॥ ३४८३ ।। ऋतुबद्धे काले व्यतीते वर्षावासे चोपस्थिते । यद्यपि सूत्रेण तत्रोपाश्रये स्थातुमनुज्ञातं तथापि न कल्पते, » यदि तिष्ठन्ति ततश्चतुर्गुरुकाः । शिप्यः पृच्छति-कस्य पुनरेतत् प्रायश्चित्तम् ? । सूरिराह-अगीतार्थस्य । सूत्रं पुनर्गीतार्थमधिकृत्य प्रवृतम् । शेषं पिण्डामिलापेन तथैव वक्तव्यम् ॥ ३४८३ ॥ आगमनगृहादिसूत्राणि ११-१२ सूत्रम् नो कप्पइ निग्गंथीणं अहे आगमणगिहंसि वा वियडगिहंसि वा वंसीमूलंसि वा रुक्खमूलंसि वा अब्भावगासियंसि वा वस्थए ११ ॥ 15 इह निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीनां सामान्यतः सदोषा उपाश्रया उक्ताः, अथ केवलानामेव निम्र न्थीनामभिधीयन्त इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्य :- अस्य व्याख्या--अधःशब्द इह अवशव्दार्थे । पथिकादीनामागमनेनोपेतं तदर्थ वा गृहमागमनगृहम् । विवृतम्-अनावृतं गृहं विवृतगृहम् । वंसीमूलं नाम-गृहाद् बहिःस्थितमलन्दकादिकम् । वृक्षमूलं तु वृक्षस्य-सहकारादेः मूलम् अधोभागः । अभावकाशमाकाशमुच्यते । एतेषु प्रतिश्रयेषु निम्रन्थीनां वस्तुं न कल्पते इति 20 सूत्रसङ्केपार्थः ॥ अत्र भाप्यविस्तरः आगमणे वियडगिहे, बंसीमूले य रुक्खमभासे । ठायंतिकाण गुरुगा, सत्थ वि आणादिणो दोसा ॥ ३४८४ ॥ आगमनगृहे विवृतगृहे वंसीमूले वृक्षमूलेऽभ्रावकाशे च तिष्ठन्तीनां निम्रन्थीनां चत्वारो गुरुकाः । तत्राप्याज्ञादयो दोषा मन्तव्याः ।। ३४८४ ॥ अथवा आगमगिहादिएसं, भिक्खुणिमादीण ठायमाणीणं । गुरुगादी जा छेदो, विसेसितं चउगुरू वा सिं ॥ ३४८५ ।। आगमनगृहादिपु भिक्षुण्यादीनां तिष्ठन्तीनां चतुर्गुरुकमादौ कृत्वा छेदं यावत् प्रायश्चित्तम् । तद्यथा-भिक्षुण्याश्चतुर्गुरुकम् , अभिषेकायाः षड्लघुकम् , गणावच्छेदिन्याः षड्गुरुकम् , प्रवतिन्याश्छेदः । यद्वा "सिं" आसां चतसृणामपि तपः-कालविशेषितं चतुर्गुरुकं भवति । तत्र 50 भिक्षुण्यास्तपसा कालेन च लघुकम् , अभिषेकायाः कालेन गुरुकम् , गणावच्छेदिन्यास्तपसा गुरुकम् , प्रवर्तिन्यास्तपसा कालेन च गुरुकम् ॥ ३४८५ ॥ अथागमनगृहं व्याचष्टे१-२॥ एतचिहान्तर्गतः पाठः भा० नास्ति ॥ ३°ह अथश° भा० । ६ वाश° त० ॥ 25 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 भाष्यगाथा: ३४८३-९१] द्वितीय उद्देशः । ९७३ आगंतुगारत्थिजणो जहिं तु, संठाति जं चाऽऽगमणम्मि तेसि । तं आगमोगं तु विऊ वदंति, सभा पवा देउलमादियं वा ॥ ३४८६ ॥ आगन्तुकः-पथिकादिरगारस्थजनो यत्रागत्य सन्तिष्ठते, यच्च 'तेषां' पथिकादीनामागमने वर्तते, तद् 'आगमौकः' आगमनगृहं 'विद्वांसः' श्रुतधरा वदन्ति । तच्च सभा वा प्रपा वा देवकुलादिकं वा मन्तव्यम् ॥ ३४८६ ॥ तत्र तिष्ठन्तीनां दोषानाह आगमणगिहे अजा, जणेण परिवारिया अणजेण । दटुं कुलप्पसूता, संजमकामा विरजंति ॥ ३४८७ ॥ आगमनगृहे स्थिता आयी अनार्येन जनेन परिवारिता दृष्ट्वा कुलप्रसूताः स्त्रियः 'संयमकामाः' प्रव्रज्यां ग्रहीतुमनसो विरज्यन्ते ॥ ३४८७ ॥ कथम् ? इत्याह उवस्सए एरिसए ठियाणं, ण सीलभारा सगला भवंति । को दाणि हंसेण किणेज काकं, एवं नियत्तंति कुलप्पसूया ॥ ३४८८॥ ईदृशे उपाश्रये स्थितानामार्यिकाणां शीलं-ब्रह्मचर्य तत्प्रधाना भाराः-संयमयोगधुरालक्षणाः 'सकलाः' सम्पूर्णा न भवन्ति, किन्तु खण्डित-विराधिताः; अस्माकं च सुसंवृतगृहमध्यमध्यावसन्तीनां प्रत्यपायाभावाद् निष्कलङ्क शीलमनुपालयन्तीनां हंसकल्यो गृहवासः, एवंविधे तु तरुणादिप्रत्यपायबहुले प्रतिश्रये तिष्ठन्तीनां या प्रव्रज्या सा बहुदोषमलीमसतया काककल्पा, अतः 15 क इदानीं हंसेन काकं क्रीणीयात् ? । एवं विचिन्त्य कुलप्रसूताः स्त्रियः प्रव्रज्याग्रहणाद् निवतन्ते ॥ ३४८८ ॥ अथाव विशेषदोपानभिधिरखंराह काइय पडिलेह सज्झाए, मुंजणे वीयारमेव गेलण्णे । साणादी उवगरणे, तरुणाई जे भणिय दोसा ॥ ३४८९ ॥ ___ कायिक्यां प्रत्युपेक्षणायां स्वाध्याये भोजने विचारे ग्लानत्वे च दोषा भवन्ति । श्वानादिना 20 चोपकरणमपहियते । तरुणादयश्च दोषा ये प्रथमोद्देशके भणितास्तेऽत्र मन्तव्या इति' नियुक्तिगाथासमासार्थः ॥ ३४८९ ॥ अथ व्यासाथ प्रतिद्वारं विभणिषुराह मोयस्स वायस्स य सण्णिरोहे, गेलण्ण णीसट्टमसण्णिरोहे । पलोट्टणा घाण ससद्द मत्ते, आतोभया तत्थ भवंति कीवे ॥ ३४९० ॥ यद्यागमनगृहे स्थिताः सागारिकमिति कृत्वा मोकस्य वातस्य वा सन्निरोधं कुर्वन्ति ततो 'ग्लान्यं' 25 ग्लानत्वं भवति । अथ तयोः सन्निरोधं न कुर्वते ततो 'निसृष्टाः' निर्लज्जा भवेयुः । अथ मात्रके कायिकी व्युत्सृजन्ति ततो मात्रकस्य प्रलोटनायां दुरभिगन्धघ्राणिः समुच्छलति । मात्रके च सशब्दं प्रश्रवणमागच्छति, तं च श्रुत्वा सागारिका उड्डाहं कुर्वन्ति । आत्म-परोभयसमुत्थाश्च तत्र दोषा भवन्ति । तत्रात्मसमुत्थदोषा नाम-सा संयती स्वयं क्षुभ्येत । परसमुत्थस्तु “कीवे" त्ति शब्दक्लीबः संयत्याः कायिकीशब्दं श्रुत्वा क्षुभ्येत । उभयसमुत्थस्तु द्वावपि क्षुभ्येताम् ॥३४९०॥30 पेहिंति उड्डाह पवंच तेणा, अपेहणे सोहि तिहोवहिस्सा । कीरंतऽकीरंत सुते य दोसा, ण णिति भिक्खस्स निरुद्धमग्गा ॥ ३४९१ ॥ १ सुरिगाथामाह भा० ॥२°ति द्वारगा भा० ॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७४ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ उपाश्रयप्रकृते सूत्रम् ११ यदि संयत्यः सागारिके पश्यति खकीयमुपकरणं प्रत्युपेक्षन्ते तत उड्डाहो भवति, प्रपञ्चं वा स सागारिकः कुर्वीत, तथैव खकीयं वस्त्रं प्रत्युपेक्षेत इत्यर्थः । स्तेना वा तं सारोपछि प्रत्युपेक्ष्यमाणं दृष्ट्वा हरेयुः । अथैतद्दोपभयाद् न प्रत्युपेक्षन्ते ततस्त्रिविधोपधेः 'शोधिः' प्रायश्चित्तम् । तद्यथा-जघन्ये पञ्चकम् , मध्यमे मासलघु, उत्कृष्ट चतुर्लघु । 'श्रुते' खाध्याये क्रियमाणे । सागारिका आलापकान् आगमय्य तथैव उद्दट्टयेयुः । अथ स्वाध्यायो न क्रियते ततः सूत्रार्थनाशादयो दोषाः । तथा सागारिकैर्निष्कमण-प्रवेशस्थानोपविष्टैर्निरुद्धमार्गाः सत्यो न भैझाय 'निर्गच्छन्ति' निर्गन्तुं शक्नुवन्तीति भावः ॥ ३४९१॥ दुक्खं च भुंजंति सति द्वितेसु, तकिंति देंते य अति दोसा । भुंजंति गुत्ता अधिकारिया उ, कुलुग्गया किं पुण जा अतोया ॥ ३४९२ ॥ 10 सागारिकेषु तत्र 'सदा' नित्यमेव स्थितेषु संयत्यो दुःखं भुञ्जते । अथ तेषां मध्यात् कश्चिद् द्रमकप्रायः 'तर्कयति' आहारयाच्यां करोति ततो यदि दीयते तदा असंयतपोषणादधिकरणम् ; अथ न दीयते ततोऽसौ प्रद्वेषं गच्छेत् , प्रद्विष्टश्च प्रान्तापनम् उड्डाहम् अभ्याख्यानप्रदानं वा कुर्यात् ; एवमुभयथाऽपि दोषाः । किञ्च कुलोद्गताः स्त्रियः 'गुप्ताः' एकान्ते स्थिता अधिकारिण्यश्च भुञ्जते, किं पुनर्याः 'अतोयाः' शीतोदकविरहिताः संयत्यः काञ्जिकेनाचमन15 कारिण्य इत्यर्थः ? ताभिः सुतरामेकान्ते भूत्वा भोक्तव्यमिति ॥ ३४९२ ॥ वीयारभोमे वहि दोसजालं, णिसह-वीभच्छकया य अंतो । कीरंत किच्चे य गिलाण दोसा, कालोदिवत्ती य तहोसहस्स ॥ ३४९३ ॥ यदि सागारिकमिति मत्वा विचारभूमौ बहिर्गच्छन्ति ततः 'दोषजालं' मासकल्पप्रकृता. भिहितं दूषणनिकुरुम्बं ढौकते । अथैतद्दोषभयादन्तः संज्ञां व्युत्सृजेयुः ततः सागारिकालोके 20 व्युत्सृजन्त्यो निसृष्टाः-निर्लज्जा वीभत्साश्च गण्यन्ते, तत्कृताश्चोड्डाहादयो दोषाः । ग्लानायाश्च संयत्याः 'कृत्ये' अकल्प्यपथ्यौषधप्रदानादौ क्रियमाणे सागारिका वदेयुः-एतदमूषामकल्पनीयं परमेतदपि प्रतिसेवन्ते, नूनं सर्वमप्यलीकममूषामित्यादयो दोषाः । अथ सागारिकमिति मत्वा न क्रियते तत औषधस्य कालातिपत्तिः स्यात् , कालातिक्रमेण चौषधे दीयमाने ग्लाना परितापमश्नुयात् ॥ ३४९३ ॥ 25 हरंति भाणाइ सुणादिया य, सयंति भीया व वसंति णिचं । णिचाउले तत्थ णिरुद्धचारे, णेगग्गया होति को सि झाओ ॥ ३४९४ ॥ तत्रागमनगृहे शुनकादयः प्रविश्य भाजनादिकं हरन्ति । ततः 'नित्यम्' अहोरात्रमपि तत्र श्वानादिभयभीताः शेरते वा वसन्ति वा । 'नित्याकुले च' सदैव सागारिकैराकीर्णेऽत एव _ 'निरुद्धचारे' गमा-5ऽगमरहिते तत्रैकाग्रता न भवति, कुतः स्वाध्याय: "सिं' अमूषां 30 भविष्यति ? ॥ ३४९४ ॥ तरुणा-वेसिस्थि-विवाह-रायमादीसु होति सतिकरणं । .---१ °क्खं ति भुं ताभा० भा० विना ॥ २ लातिपत्ती ताभा० ॥ ३ 'चारे नैकाग्रता भवति । कुतः पुनः स्वाध्यायः "से" तस्य भविष्यति ? इति । भा० ॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७५ 15 भाष्यगाथाः ३४९२-३५००] द्वितीय उद्देशः । ___इच्छमणिच्छे तरुणा, तेणा ताओ व उवहिं वा ॥ ३४९५ ॥ तत्रागमनगृहे बहवस्तरुणा वेश्यास्त्रियो वा कामुकवृन्दपरिवृताः, विवाहो वा महता विच्छदेंन विधीयमानः, राजादयो वा निर्गच्छन्तः प्रविशन्तो विलोक्यन्ते ततः स्मृतिकरण-कोतुके भुक्ता-ऽभुक्तानां जायते । तथा यदि तरुणान् अवभाषमाणान् इच्छति ततो व्रतविराधना, अथ नेच्छति ततस्ते उड्डाहं कुर्युः । स्तेना वा ताः संयतीरपहरेयुः 'उपधिं वा' वस्त्रादिकं वा हरेयुः । ॥ ३४९५ ॥ तदेवं व्याख्याता “काइय पडिलेह" इत्यादिका (३४८२) नियुक्तिगाथा । अथागमनगृह एव दोषान्तराण्याह ओभावणा कुलघरे, ठाणं वेसित्थि-खंडरक्खाणं ।। उद्धंसणा पवयणे, चरित्तभासुंडणा सज्जो ॥ ३४९६ ॥ धूर्तेः परिवारितासु तासु कुलगृहस्यापभाजना स्यात् , अन्यच्च तद् आगमनगृहं वेश्यास्त्रीणां 10 'खण्डरक्षाणां चे' हिण्डिकानां स्थानं वर्तते, तत्र स्थितानाम् 'उद्धर्षणा' प्रवचनविषया हीला चारित्रस्य च भ्रंशना 'सद्यः' शीघ्रं भवति । तथा तरुणादीन् दृष्ट्वा कस्याश्चिद् दश कामवेगा भवेयुः ॥ ३४९६ ॥ ते च सप्रायश्चित्ता अमी चिंताइ दट्टमिच्छइ, दीहं णीससति तह जरे डाहे । भत्तारोयग मुच्छा, उम्मत्तों ण याणती मरणं ।। ३४९७ ॥ मासो लहुओ गुरुओ, चउरो लहुगा य होंति गुरुगा य। छम्मासा लहु-गुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च ॥ ३४९८ ॥ द्वे अपि प्राग् व्याख्याते (गा० २२५८-६२) ॥ ३४९७ ॥ ३४९८ ॥ स उक्ता आगमनगृहे दोषाः, अथ विवृतगृह-वंशीमूलयोर्दोषानाह-» एए चेव य दोसा, सविसेसतरा हवंति विगडगिहे । 20 वंसीमलद्वाणे, पडिबद्धे जे भणिय दोसा ॥ ३४९९ ॥ 'एत एव' आगमनगृहोक्ता दोषाः सविशेषतरा विवृतगृहे तिष्ठन्तीनां भवन्ति । वंसीमूल. स्थाने तु ते दोषा द्रष्टव्याः ये द्रव्यतो भावतश्च प्रतिबद्ध प्रतिश्रयेऽप्काययन्त्रयोजनादय आत्मपरोभयसमुत्थाश्च दोषाः प्रथमोद्देशके भणिताः ॥३४९९॥ अथैनामेव गाथां व्याख्यानयति अवाउडं जं तु चउदिसि पि', तीसुं दुसुं वा वि तहेक्कतो वा। 25 अहे भवे तं वियर्ड गिहं तु, उहुं अमालं च अर्छन्नगं वा ॥ ३५००॥ विवृतगृहं द्विधा-अधोविवृतम् ऊर्द्धविवृतं च । यत् पार्श्वतश्चतसृषु तिसृषु वा दिक्षु द्वयोर्वा दिशोरेकस्यां वा दिशि 'अपावृतं' कुड्यरहितं परमुपरि च्छन्नं तदधोविवृतगृहं भवेत् । यत् पुनः 'अमालं' मालरहितम् अच्छन्नं वा छाद्यरहितं परं पार्श्वतः कुड्ययुक्तं तदूर्द्धविवृतं भवति ॥३५००॥ १°कम् ॥ ३४९५॥ किञ्च-ओभा भा० ॥२ च' आरक्षिणां स्था° भा० ॥ ३ नास्त्येतदन्तर्गतमवतरणं भा० कां ॥ ४ तत्र विवृतगृहं व्याख्या भा० ॥ ५पि, दिसामओ तिनि दुवे स्थ चेकं । अहे ताभा० ॥ ६ छत्तगं तामा० ॥ ७ वा' पार्श्वतः कुड्ययुक्तम् उपर्यनाच्छादितमित्यर्थः तदू भा० ॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७६ सनियुक्ति-लधुभाव-वृत्ति के बृहत्कल्पसूत्रे [ उपाश्रयप्रकृते सूत्रम् ११-१२ अजंतिया तेण-सुणा उर्वति, गोणादि णिस्संकमभिवंति । तेणादिया तत्थ चिलीय दोसा, कडादिकम्मं तु सजीवघातं ॥ ३५०१ ॥ 'तत्र' विवृतगृहे 'अयन्त्रिताः' कुड्याद्यभावादनिरुद्धप्रचाराः स्तेन-शुनका उपायान्ति, ततश्चोपकरणहरणादयो दोषाः । गवादयश्च शृङ्गाद्यभिघातेन निःशङ्कमभिवन्ति । अथ तत्र पार्थतश्चिलिमिलिका दीयते ततः "चिलीए" त्ति “सूचनात् सूत्रम्' इति कृत्वा चिलिमिलि कायाः स्तेनादयो दोषाः, ते तामपहृत्य गच्छेयुरिति भावः । “कडाइ" त्ति अथ कटं किलिञ्चं वा कारयित्वा तत्र स्थापयन्ति तत आधाकर्मदोषनिष्पन्नं प्रायश्चित्तं 'सजीवघातम्' इति कटादौ निष्पाद्यमाने येषां जीवानामुपघातो भवति तन्निष्पन्नं पृथक् प्रायश्चित्तम् ॥ ३५०१ ॥ अथ वंशीमूलं व्याचष्टे10 जाओ(जो आ)वणे वी य बहिं घरस्स, अलिंदओ वा अवसारिगा वा । गेहस्स पासे पुर पिट्ठओ वा, तं वंसिमूलं कुसला वदंति ॥ ३५०२ ॥ यो गृहाद बहिर्धाराप्रवेर्तिस्थडिकारूप अलिन्दकः, या वा 'अपसारिका' पटालिका, कुत्र? इत्याह-गेहस्य पार्थे वा पुरतो वा पृष्ठतो वा तद् वंशीमूलं नाम गृहं 'कुशलाः' तीर्थकरादयो वदन्ति । अत्र तिष्ठन्तीनां प्रतिबद्धसूत्रोक्ता दोषाः ॥ ३५०२ ॥ 16 अथ वृक्षमूला-ऽभावकाशयोदोषानाह अर्हि व दारुगादी, सउणगपरिहार पुप्फ-फलमादी। एवं तु रुक्खमूले, अब्भावासम्मि सिण्हाई ॥ ३५०३ ॥ ___ अस्थि वा दारुकं वा आदिशव्दाद् लेष्ठुकादिकं वा वातेन चालितं सत् प्रपतेत् , शकुनाः पक्षिणस्तेषां सम्बन्धी परिहारः-पुरीषमुपरि निपतेत्, पुष्पाणि वा फलानि वा आदिशब्दाद् 26 पत्राणि वा पतेयुः, एषु यथायोगमात्म-संयमविराधना मन्तव्या । एवं वृक्षमूले । वृक्षस्याधो. वर्तिनि वा गृहे ~ तिष्ठन्तीनां दोषाः । अभावकाशे तु सिम्हा-अवश्यायो भवेत् , आदिशब्दात् । सचितं रजः प्रपतेदित्यादिपरिग्रहः । अवश्यायेनाद्रीभूतानां विसूचिकादिभिरात्मविराधना मन्तव्या । यत एते दोषा अतो न आगमनगृहादिषु स्थातव्यम् । भवेत् कारणं येन तत्रापि स्थीयते ।। ३५०३ ॥ किम् ? इत्याह अद्धाणनिग्गयादी, तिक्खुत्तो मग्गिऊण असतीये । वाडगआगमणगिहे, इयरम्मि य णिग्गहसमत्थे ॥ ३५०४ ॥ अध्वनिर्गतादयस्विकृत्वो निर्दोषां वसतिं मार्गयित्वा यदि न प्रामुवन्ति ततो वाटकस्य मध्यवर्ति यद् आगमनगृहं-देवकुलादिकं तत्र वसन्ति । कथम् ? इत्याह-इतरः-शय्यातरः स यदि निग्रहसमर्थः-जितेन्द्रियः प्रत्यनीकनिवारणक्षमश्च भवति ततस्तत्र वस्तव्यम् , नान्यथा 30॥ ३५०४ ॥ अथेदमेव स्फुटतरमाह जं देउलादी उ णिवेसणस्सा, मज्झम्मि गुंत्तं सुपुरोहडं च । १ वर्तिन्याश्चतुष्किकायाः पर्यन्ते अलि भा० ॥ २-३ एतदन्तर्गतः पाठः भा० नास्ति । ४ वागड़ आग का विशेषचूर्णौ च ॥ ५ वाकटस्य का० ॥ ६°त्तं च पु तामा० ॥ 25 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाभ्यगाथाः ३५०१..९) द्वितीय उदेशः । 15 अदुट्ठगम्म ण य दुदुमज्झे, अदूरगेहं तहियं वसंति ॥ ३५०५ ॥ 'निवेशनस्य' वाटकस्य मध्ये यद् देवकुलादि 'गुप्त' वृत्या फलिहकेन वा आवृतम् , 'सुपुरोहडं' रमणीयसंयतीप्रायोग्यविचारभूमिकम् , अदुष्टानां-शिष्टजनानां गम्यम्-आश्रयः, न च दुष्टजनमध्ये तद् वर्तते, 'अदूरगेहं' प्रत्यासन्नप्रातिवेश्मिकगृहं तत्र प्रथमतो वसन्ति ॥३५०५॥ जुवाणगा जे अविगारगा य, पुत्तादओ तुझ इहं वसंति । मा ते वि अम्हं इह संवयंतु, इच्छंत सत्ते य वसंति तत्थ ॥ ३५०६ ॥ तत्र यः सागारिकस्तं ब्रुवते-ये युवानः सविकाराः पुत्रादयस्त्वत्सम्बन्धिनः 'इह' अस्मिन् गृहे वसन्ति मा तेऽप्यस्माकं प्रतिश्रये सम्प्रति संवजन्तु' समायान्तु । एवमुक्ते यद्यसौ 'इच्छति' प्रतिशृणोति, यदि च स्वयं 'शक्तः' तन्निवारणक्षमः ततस्तत्र वसन्ति ॥ ३५०६ ॥ भोइयकुले व गुत्ते, दुजणवजे वसंति उ पउत्थे । 10 महतरगादिसुगुत्ते, वंसीमूलम्मि ठायति ।। ३५०७ ॥ अर्थदृशमागमनगृहं न प्राप्यते ततो भोजिकस्य-ग्रामवामिनः कुले-गृहे 'गुप्ते' वृत्या फलिहकेन वा सुसंवृते 'दुर्जनवर्जे' दुःशीलजनप्रवेशरहिते यदलिन्दकादि तत्र वसन्ति । स च भोजिको यदि प्रोषितस्तदा महत्तरकादिभिः-प्रधानपुरुपैन्तद् गृहं यदि सुगुप्त-सुरक्षितं भवति तत एवं विधे वंशीमूलगृहे तिष्ठन्ति ॥ ३५०७ ॥ तस्सऽसइ उद्दवियडे, वसंति कडगादि छोढणं उवरि । तस्सऽसति पासवियडे, कडगादी पंतवत्थेहिं ॥ ३५०८ ॥ 'तस्य' यथोक्तगुणोपेतस्य वंशीमूलगृहस्याभावे ऊर्दू विवृतगृहे उपरि कटादिकं प्रक्षिप्य तिष्ठन्ति, आदिशब्दाद् वस्त्रचिलिमिलिकया वाऽऽच्छादनं कुर्वन्ति । तस्याभावे पार्श्वविवृतेऽपि तिष्ठन्ति, अधोविवृते इत्यर्थः । तत्र च कट-किलिञ्चादिभिश्चिलिमिलि कां कृत्या पार्श्वतः प्रदद्यात् । अथ 20 कटादयो न प्राप्यन्ते ततः 'प्रान्तवस्त्रैः' परिजीर्णचीवरैः पानि च्छादयितव्यानि ॥३५०८॥ विहं पवन्ना घणरुक्खहेढे, वसंति उस्सा-ऽवणिरक्खणट्ठा। तस्साऽसती अन्भगवासिए वि, सुवंति चिट्ठति व उण्णिछन्ना ॥ ३५०१ ॥ अथ 'विहं' अध्वानं प्रपन्नास्ताः संयत्यस्तत्र चाधोविवृतमपि गृहं न प्राप्यते ततो धनःबहलो निश्छिद्रो यो वृक्ष:-वटादिस्तस्याधस्ताद् अवश्यायस्य-अन्तरिक्षसूक्ष्माप्कायस्य अवनेश्च 25 सचित्तपृथिवीकायस्य रक्षणार्थ वसन्ति । तस्याप्यभावे 'अम्रावकाशकेऽपि' आकाशे और्णिककरुपच्छन्नाः स्वपन्ति वा तिष्ठन्ति वा ॥ ३५०९ ।। सूत्रम् कप्पइ निग्गंथाणं अहे आगमणगिहंसि वा वियडगिहंसि वा वंसीमूलंसि वा रुक्खमूलंसि वा अब्भा. 30 वगासंसि वा वत्थए १२॥ १ वाफटस्य कां० ॥ २ संपर्य° ताभा. विशेषचूर्णौ च ॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ९७८ सनियुक्ति लघुभाष्य वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [उपाश्रयप्रकृत सूत्रस् १२ अस्य व्याख्या प्राग्वत् ॥ अथ भाष्यम् एसेव गमो नियमा, निग्गंथाणं पि णवरि चउलहुगा । णवरिं पुण णाणत्तं, अब्भावासम्मि वतिगादी ॥ ३५१०॥ 'एष एव' निम्रन्थीसूत्रोक्तो गमः आगमनगृहादिविषयो नियमाद् निर्ग्रन्थानामपि भवति, 5 नवरं प्रायश्चित्तं चतुर्लघुकाः, शेषं तु सर्वमपि दोषजालं तथैव वक्तव्यम् । नवरं पुनरत्र द्वितीयपदे तिष्ठतां नानात्वम् । किम् ? इत्याह-वजिका-गोकुलं तस्यां ग्लानार्थं गताः सन्त आदिशब्दादध्वनि वा वर्तमाना अभावकाशे वसेयुः। उत्सर्गतस्तु निग्रन्थानामप्यागमनगृहादिषु स्थातुं न कल्पते ॥ ३५१० ॥ आह सूत्रेणानुज्ञातमवस्थानमतस्तेन सह विरोधः प्रामोति ? सूरिराह सुत्तनिवाओ पोराण आगमे भोइए व रक्खंते । आराम अहेविगडे, वंसीमूले व णिदोंसे ॥ ३५११॥ पुराणं-चिरन्तनं यदागमनगृहं तत्र सागारिकः सम्प्रति कोऽपि नागच्छति, यद्वा यत्रागमनगृहे स्थितानां भोजिकः-ग्रामस्वामी जनमुपागच्छन्तं रक्षति, ईदृशे 'सूत्रनिपातः' सूत्रावतारो. मन्तव्यः । तथा य आरामो नवमालिकागुल्मादिभिर्गुप्तस्तत्राधोविवृते सूत्रमवतरति । वंशीमूल मपि यद् निर्दोषं तत्र सूत्रावतारः॥ ३५११॥ अथैनामेव नियुक्तिगाथां भाष्यकारः स्पष्ट यतिib अभुञ्जमाणी उ सभा पवा वा, गामेगपासम्मि ण याऽणुपंथे । पभू व वारेति जणं उ-तं, ण कुप्पती सो य तहिं तु ठंति ॥ ३५१२ ॥ सभा वा प्रपा वा या अपरिभुज्यमाना ग्रामस्यैकपार्थे भवति, 'न च' नैव 'अनुपथे' मार्गाभ्यणे यद्वा भुज्यमानायामपि यत्र स्थितानां 'प्रभुः' ग्रामखामी सम्यग्दृष्टिर्भद्रको वा जनमुपयान्तं निवारयति, ‘स च' जनो वार्यमाणः साधूनां ग्रामवामिनो वा न कुप्यति 'तत्र' ईदृशे आग20 मनगृहेऽपि तिष्ठन्ति ॥ ३५१२॥ गुम्मेहि आरामघरम्मि गुत्ते, वईय तुंगाय व एगदारे । अहे अगुत्ते छइतम्मि ठंती, ण जत्थ लोगो बहु सण्णिलेति ॥ ३५१३ ॥ 'गुल्मैः' नवमालिका-कोरिण्टकादिभिर्गुप्ते, वृत्या वा 'तुङ्गया' उच्चस्तरया परिक्षिप्ते, एकद्वारे आरामगृहे अधोऽगुप्तेऽप्युपरि 'छादिते' स्थगिते तिष्ठन्ति, परं यत्र 'बहुः' भूयान् लोको न 25 'सन्निलीयते' न समायाति ॥ ३५१३ ॥ जं वंसिमूलऽण्णमुहं च तेणं, 'पिहढुवार ण तओ उ छिंडी। सुणेति सदं न परोप्परस्स, न काइयं णेव य दिहिवातो ॥ ३५१४ ॥ यद् 'वंशीमूलम्' अलिन्दकादि 'तेन' मूलगृहेण सहान्यतोमुखं पृथग्द्वारं च, अत एव 'ततः' तदभिमुखा छिण्डिका न भवति, यत्र च परम्परं संयता अविरतिकाश्च शब्दं न शृण्वन्ति, 30 न चैकत्र कायिकी कुर्वते, नैव च परस्परं दृष्टिपातः, केवलं मूलगृहेण सह द्रव्यतः प्रतिबद्धम् , न चाप्काययोजनादयो दोषाः, एवंविधे कल्पते वस्तुम् ॥ ३५१४ ॥ ___ असई य रुक्खमूले, जे दोसा तेहिं वज्जिए ठंति । १ पिहं नु दारं न ततो य छिंडी ताभा० ॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७९ भाष्यगाथाः ३५१०-१७] द्वितीय उद्देशः । अद्धाणमन्भवासे, गेलण्णागाढ वहगादी ॥ ३५१५॥ __ एतेषामागमनगृहादीनामभावे ये पूर्वमस्थि-दारुकादयो दोषा उक्तास्तैर्वर्जिते वृक्षमूले तिष्ठन्ति । तथा अध्वानं प्रतिपन्ना अपरप्रतिश्रयाभावे आगाढे वा ग्लानत्वे वजिकादौ सम्प्राप्ता अभावकाशे वसन्ति ॥ ३५१५ ॥ अथ वृक्षमूले तिष्ठतां विशेषमुपदर्शयति कडं कुणंतेऽसति मंडवस्सा, कडाऽसती पोत्तिमतेणगम्मि । सद्दोवओगो धणुतासणा य, सोट्टादि पार्डिति य पुव्वलग्गे ॥ ३५१६ ॥ यत्र वृक्षमूलेऽधस्ताद् मण्डपो भवति तत्र प्रथमतः स्थातव्यम् । तदभावे कटं कुर्वन्ति, कटचिलिमिलिकां ददतीति भावः । अथ कटो न प्राप्यते ततः पोतं-वस्त्रं तैश्चिलिमिलिकाः कुर्वन्ति यदि 'अस्तेनकं' स्तेनभयं न स्यात् । अथ स्तेनभयं तत्र वर्तते सागारिका वा ब्रुवते 'श्रमणकाः पटमण्डपं कुर्वन्ति' ततः शब्दः कर्तव्यः, पक्षिणां 'छिछिका'इत्यादिना शब्देन 10 निवारणं कार्यमिति भावः । उपयोगो वा दातव्यः । धनुषा वा पाषाणैर्वा पक्षिणां त्रासनां कुर्वन्ति, भयमुपजनयन्तीत्यर्थः । सोट्टा नाम-शुष्ककाष्ठानि तानि आदिशब्दाद् लेष्टुकादीनि च » पूर्वलमानि पातयन्ति । एषा वृक्षमूले तिष्ठतां यतना भणिता। अथाम्रावकाशे तिष्ठता प्रतिपाद्यते-आगाढे ग्लानत्वे दुग्धादिना प्रयोजनं भवेत् तत्रामावकाशे वसनं सम्भवेत् ॥३५१६॥ कथम् ? इत्याह 16 विसोहिकोडिं हवइत्तु गामे, चिरं व कजं ति वयंति घोसं । अब्भासगामाऽसति तत्थ गंतुं, पडालि-रुक्खाऽसतिए अछण्णे ॥ ३५१७॥ यदा खग्रामे शुद्धं दुग्धादि न प्राप्यते तदा खग्राम एव ये विशोधिकोटिदोषास्तान् पञ्चकादिप्रायश्चित्तक्रमेण हापयित्वा दुग्धादिकं गृह्णन्ति । अथ तथापि न लभ्यते 'चिरं वा' प्रभूतदिवसान् तेन ग्लानस्य कार्यमिति कृत्वा 'घोष' गोकुलं व्रजन्ति । कथम् ? इत्याह -'अभ्यासे' 20 गोकुलपत्यासन्ने ग्रामे स्थित्वा गोकुलाद् दुग्धादिकमानेतव्यम् । अथ नास्ति प्रत्यासन्नग्रामस्ततः 'तत्र' वजिकायां गत्वा पटालिकायां तिष्ठन्ति । तस्या अभावे वृक्षमूले । तस्याप्यभावेऽच्छन्नेऽभावकाशेऽपि तिष्ठन्ति ॥ ३५१७ ॥ ॥ उपाश्रयप्रकृतं समाप्तम् ॥ १ सोढादि भा० । “सोडा सुककट्ठा" इति विशेषचूर्णौ ॥ २ स्त्रं तन्मयी चिलिमिलिका दातव्या यदि भा०॥ ३°योगं वा प्रयच्छन्ति । धनु भा० ॥ ४ सोढा नाम भा० ॥ ५। एतचिहान्तर्गतः पाठः भा. नास्ति । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्ति के बृहत्कल्पसूत्रे [ सागारिक० सूत्रम् १३ सा गा रि क पा रि हा रि क प्रकृतम् सूत्रम्--- एगे सागारिए पारिहारिए, दो तिनि चत्तारि पंच सागारिया पारिहारिया, एगं तत्थ कप्पागं ठवयित्ता अवसेसे निव्विसेज्जा १३॥ अथास्क सूत्रस्य कः सम्बन्धः ? इत्याह जहुत्तदोसेहिं विवजिया जे, उवस्सगा तेसु जती वसंता । एग अणेगे व अणुण्ण वित्ता, वसंति सामि अह सुत्तजोगो ॥३५१८॥ 10 यथोक्तैः-वीज-विकटादिभिरभावकाशतापर्यन्तैषैिर्विवर्जिताः ये उपाश्रयास्तेषु यतयो वसन्त एकं वा अनेकान् वा गृहखामिनोऽनुज्ञाप्य वसन्तीत्यनेन सूत्रेण प्रतिपाद्यते । 'अथ' अयं पूर्वसूत्रैः सहास्य सूत्रस्य योगः--सम्बन्धः ॥ ३५१८ ।। ___ अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या---एकः 'सागारिकः' वसतिखामी परिहारं-परित्याग बहतीति व्युत्पत्त्या 'पारिहारिक' भिक्षाग्रहणे परिहर्तव्य इत्यर्थः । यथा चैकः सागारिकः 15 पारिहारिकः तथा द्वौ त्रयश्चत्वारः पञ्च सागारिकाः पारिहारिकाः, न लेषां बहूनामपि गृहेषु प्रवेष्टव्यमिति भावः । अथ सूत्रेणैव सूत्रमपवदति-"एगं तत्थ कप्पागं" इत्यादि । बहुजनसाधारणे देवकुलादौ स्थिताः 'तत्र' तेषु बहुपु सागारिकेषु मध्ये येन सागारिकतया स्थापितेन शेषगृहेषु प्रवेष्टुं कल्पते तमेकं कल्पकं स्थापयित्वा शेषेषु सागारिककुलेषु "निर्विशेयुः प्रविशेयुरिति सूत्रसङ्केपार्थः ॥ 20 विस्तरार्थ भाष्यकृद् विभणिषुराह सागारिउ त्ति को पुण, काहे वा कति विहो व से पिंडो। असिजायरो व काहे, परिहरियव्यो व सो कस्सा ॥ ३५१९ ॥ दोसा वा के तस्सा, कारणजाए व कप्पती कम्मि । जयणाए या काए, एगमणेगेसु घेत्तव्यो ॥ ३५२० ॥ 25 सागारिक इति पदमेकाथिकनामभिः प्ररूपणीयम् । कः पुनः सागारिको भवति । इति चिन्तनीयम् । कदा वा स शय्यातरो भवति ? । कतिविधो वा "से" तस्य पिण्डः । अशय्यातरो वा कदा भवति ? । कस्य वा संयतस्य सम्बन्धी 'सः' सागारिकः परिहर्त्तव्यः ? । के वा 'तस्य' सागारिकपिण्डस्य ग्रहणे दोषाः ? । कस्मिन् वा कारणजातेऽसौ कल्पते । कया वा यत १°दि । 'तत्र' तेषु बहुषु सागारिकेष्वेकं कल्पकं स्थापयित्वा अवशेषाणि सागारिककुलानि 'निर्विशेत्' उपभुञ्जीत । किमुक्तं भवति?-ग्लानादिकारणे येन सागा भा० ॥ २°षु सर्वेष्वपि कुलेषु प्रविशेदिति सूत्र स° भा० ॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा: ३५१८-२६] द्वितीय उद्देशः । नया स पिण्ड एकस्मिन् वा सागारिके 'अनेकेषु वा' द्विव्यादिषु सागारिकेषु ग्रहीतव्यः ? इति द्वारगाथाद्वयसमासार्थः ॥ ३५१९ ॥ ३५२० ॥ अथ व्यासार्थ प्रतिद्वारमभिधित्सुराह- . सागारियस्स णामा, एगट्ठा णाणवंजणा पंच।। सागारिय सेजायर, दाता य तरे धरे चेव ॥ ३५२१ ॥ सागारिकस्य नामानि शक्रेन्द्र-पुरन्दरादिवदेकार्थानि 'नानाव्यञ्जनानि' पृथगक्षराणि पञ्च । भवन्ति । तद्यथा-सागारिकः १ शय्याकरः २ शय्यादाता ३ शय्यातरः ४ शय्याधरः ५ चेति ॥ ३५२१ ॥ अथैतेषामेव व्याख्यानमाह अगमकरणादगारं, तस्सहजोगेण होइ सागारी। सेजाकरणे सेजाकरो उ दाता तु तद्दाणा ॥ ३५२२ ॥ गोवाइऊण वसहि, तत्थ वि ते यावि रक्खिउं तरह। तदाणेण भवोघं, च तरति सेजातरो तम्हा ॥ ३५२३ ॥ जम्हा धारइ सिजं, पडमाणिं छज-लेपमाईहिं । जं वा तीऍ धरेती, नरगा आयं धरो तम्हा ॥ ३५२४ ॥ न गच्छन्तीत्यगमाः-वृक्षास्तैः कृतमगारम् , पृषोदरादित्वादिष्टरूपनिष्पत्तिः, तेन–अगारेण सह यस्य योगो विद्यते स सागारिकः, सर्वधनादेराकृतिगणत्वाद् मत्वर्थीय इक्प्रत्ययः । 15 यतश्चासौ शय्यां-प्रतिश्रयं करोति अतः शय्याकरः । तस्याः-शय्याया दानाच्च शय्यादाता भण्यते । यतश्चासौ वसतिं 'गोपायितुं' संरक्षितुं 'तरति' शक्नोति ततः शय्यातरः; यद्वा.'तत्र' तस्यां-शय्यायां स्थितान् साधून स्तेनादिप्रत्यपायेभ्यो रक्षितुं तरति ततोऽसौ शय्यातरः; अथवा तस्याः-शय्याया दानेन 'भवौघं' संसारप्रवाहं तरति अतः शय्यातर उच्यते । यस्माच शय्यां पतन्तीं छादन-लेपनाभ्याम् आदिशब्दात् स्थूणादानादिभिश्च धारयति अतः शय्याधरः; यद्वा 20 तया-शय्यया साधूनां वितीर्णया नरकादात्मानं धारयतीति शय्याधरः ।। ३५२२॥ ३५२३ ॥ ३५२४॥गतं सागारिकद्वारम् । अथ 'कः पुनः सागारिको भवति' इति प्रश्नस्य निर्वचनमाह सेजायरो पभू वा, पभुसंदिट्ठो व होइ कायव्वो। एगमणेगे व पभू, पभुसंदिट्टे वि एमेव ॥ ३५२५ ॥ शय्यातरः प्रभुर्वा प्रभुसन्दिष्टो वा कर्तव्यो भवति । तत्र प्रभुः--उपाश्रयखामी । प्रभुसन्दि-26 ष्टस्तु तेनैव प्रभुणा यत् कृतप्रमाणतया निर्दिष्टः । यः प्रभुः स एको वा स्यादनेको वा, प्रभुसन्दिष्टोऽपि 'एवमेव' एकोऽनेको वा भवति ॥ ३५२५ ॥ अमुमेवार्थ विशेषत आह सागारिय संदिटे, एगमणेगे चउक्कभयणा तु। एगमणेगा वज्जा, णेगेसु उ वजए एकं ॥ ३५२६ ॥ सागारिके सन्दिष्टे च एकानेकपदनिष्पन्ना चतुष्कभजना कर्तव्या । सा चेयम्-एकः 30 प्रभुरेकं सन्दिशति एष प्रथमो भङ्गः १ एकः प्रभुरनेकान् सन्दिशति इति द्वितीयः २ अनेके प्रभव एकं सन्दिशन्ति इति तृतीयः ३ अनेके प्रभवोऽनेकान् सन्दिशन्ति इति चतुर्थः ४ । १ उ ठावते एगं ताभा० ॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८२ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ सागारिक० सूत्रम् १३ अत्र चैको वा अनेके वा शय्यातरा वर्ज्याः । अपवादपदे पुनरनेकेषु शय्यातरेष्वेकं सागारिकं स्थापयित्वा वर्जयेत्, शेषेषु तु प्रविशेत् । एतदुपरिष्टाद् व्यक्तीकरिष्यते ॥ ३५२६ ॥ अथ 'कदा सागारिको भवति इति प्रश्नस्य प्रतिवचनमाह 1 अणुणविय उग्गहंगण, पायोम्गाणुण्ण अतिगते ठविते । सज्झाय मिक्ख भुत्ते, णिक्खित्ताऽऽवासए एक्को ।। ३५२७ ॥ पढमे बितिए ततिए, चउत्थ जामे वे होज वाघातो । निव्वाघाए भयणा, सो वा इतरो व उभयं वा ॥ ३५२८ ॥ अत्र नैगमऩयाश्रिता बहव आदेशाः । तत्रैक आचार्यदेशीयो ब्रूते —-क्षेत्रे प्रत्युपेक्षिते सति यदा प्रतिश्रयोऽनुज्ञापितस्तदा सांगारिको भवति १ । अपरो भणति - यदा सागारिकस्यावग्रहं 10 प्रविष्टाः २ । अन्यो ब्रूते - यदा तस्य गृहस्यांङ्गणं प्रविष्टाः ३ । अपरः प्राह-यदा तृणगादिकं प्रायोग्यमनुज्ञापितम् ४ । अन्यों भणति - यदा वसतिम् 'अतिगताः ' प्रविष्टाः ५ । अपरो ब्रूते - दण्डकाद्युपकरणे स्थापिते दानश्राद्धादिकुलानां वा स्थापने स्थापिते ६ । तदपरः प्राह---यदा स्वाध्यायः कर्त्तुमारब्धः ७ । अन्यो भणति - यदा गुरूणां पार्श्वे उपयोगं कृत्वा मिक्षां पर्यटितुं लमाः ८ । अपरो ब्रूते - यदा भोक्तुमारब्धाः ९ । अन्यो भणति - भाजनेषु 15 निक्षिप्तेषु १० । एको ब्रूते यदा दैवसिकमावश्यकं कृतम् ११ ॥ ३५२७ ॥ -- - अपरो भणति - रात्रौ प्रथमे यामे गते सति शय्यातरो भवति १२ । तदपरः- - द्वितीययामे गते १३ । अन्यः – तृतीययामे गते १४ । अपरोऽभिधत्ते – चतुर्थे यामे गते सति १५ । आचार्यः प्राह — एते सर्वेऽप्यनादेशाः । कुतः ? इत्याह – अनुज्ञापितावग्रहादिषु निक्षिप्तान्तेषु दिवसत एव व्याघातो भवेत्, व्याघाताच्चान्यां वसतिमन्यद्वा क्षेत्रं गताः ततः 20 कस्यासौ शय्यातरो भवतु ? । आवश्यकादिषु च चतुर्थयामपर्यन्तेषु वसतिव्याघातेन बोधिकस्तेनादिभयेन वाऽन्यत्र सङ्क्रामतां कस्य शय्यातरो भवितुमर्हति ? । आदेशः पुनरयम् - 'निर्व्याघाते' व्याघाताभावे यद्यन्यां वसतिं न गताः तत्रैव रात्रानुषितास्ततो भजना कर्त्तव्या । सवा शय्यातरो भवेत् 'इतरो वा' अन्य उभयं वा ॥ ३५२८ ॥ इदमेव भावयति — जइ जग्गंति सुविहिया, करेंति आवासगं च अण्णत्थ । सेजातरो ण होती, सुते व कए व सो होती ॥ ३५२९ ॥ 'यदि' इत्यभ्युपगमे, रात्रश्चतुरोऽपि प्रहरान 'सुविहिताः' शोभनानुष्ठानाः साधवो यदि जाग्रति प्राभातिकं चावश्यकमन्यत्र गत्वा कुर्वन्ति तदा स मूलोपाश्रयखामी शय्यातरो न भवति, किन्तु 'सुप्ते वा' शयिते कृते सति कृते वा प्राभातिकावश्यके स शय्यातरो भवति । अथ शय्यातरगृहे रात्रौ सुत्वा प्राभातिकप्रतिक्रमणं तत्रैव कुर्वन्ति तदा परिस्फुटं स एव शय्या३० तर इति ॥ ३५२९ ॥ 5 25 अन्नत्थ व सेऊणं, आवासम चरममण्णहिं तु करे । दोणि वि तरा भवंती, सत्थादिसु इधरधा भयणा ।। ३५३० ।। १ व होति वा ताभा० ॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८३ भाष्यगाथाः ३५२७-३१] द्वितीय उद्देशः । अन्यत्र स्थाने सुप्त्वा 'चरम' प्राभातिकमावश्यकमन्यत्र कुर्वन्ति तदा यस्यावग्रहे रात्रौ सुप्ता यदवग्रहे च प्राभातिकप्रतिक्रमणं कृतं तौ द्वावपि शय्यातरौ भवतः । इदं प्रायः सार्थादिषु सम्भवति, आदिशब्दात् चौरावस्कन्दभयादिपरिग्रहः । 'इतरथा तु' प्रामादिषु वसतां 'भजना' विकल्पना ।। ३५३० ॥ तामेवाह असइ वसहीय वीसे, वसमाणाणं तरा तु भयितव्वा ।। तत्थऽण्णत्थ व वासे, छत्तच्छायं तु वजेंति ॥ ३५३१ ॥ यत्र सङ्कीर्णायां वसतौ सर्वेऽपि साधवो न मान्ति तत्र 'विष्वग्' अन्यस्यां वसतौ वसतां साधूनां शय्यातरा भक्तव्याः । तत्र हि यदि साधवः पृथग्वसतावुषित्वा द्वितीयदिने सूत्रपौरुषीं कृत्वा समागच्छन्ति ततो द्वावपि शय्यातरौ । अथ मूलवसतिमागम्य सूत्रपौरुषीं कुर्वन्ति तत एक एव मूलवसतिदाता शय्यातरः । लाटाचार्याभिप्रायः पुनरयम्-शेषाः साधवः 'तन वा' 10 मूलवसतौ 'अन्यत्र वा' प्रतिवसतौ वसन्तु, न तेषां सम्बन्धिना सागारिकेणेहाधिकारः, किन्तु सकलगच्छस्य च्छत्रकल्पत्वात् छत्रः-आचार्यस्तस्य च्छायां वर्जयन्ति, मौलशय्यातरगृहमित्यर्थः इति विशेषेचूर्णि-निशीथचूर्योरभिप्रायः । मूलचूर्ण्यभिप्रायः पुनरयम्-विस्तीर्णाया वसतेरभावे विष्वग्वसतौ वसतां शय्यातरा भजनीयाः, यदि संस्तरति ततः सर्वेऽपि शय्यातराः परिहियन्ताम् , अथ न संस्तरति तत 15 एक शय्यातरकुलं निर्विशन्ति शेषाणि परिहरन्ति । तथाऽप्यसंस्तरणे द्विव्यादिक्रमेण तावद् वक्तव्यं यावद् यस्य वसतावाचार्याः स एको वर्जनीयः, शेषाः सर्वेऽपि निर्वेशनीयाः । तथा "तत्थऽन्नत्थ व वासे" इत्यादि । किलैकस्याचार्यस्य बहव आचार्याः श्रुतार्थमुपसम्पन्नाः, ते चैकस्यां वसतावमान्तः पृथक्पृथग्वसतिषु स्थिताः सन्तः 'तत्र' मूलाचार्यसमीपे 'अन्यत्र वा' आत्मीयासु वसतिषु वसन्तु सर्वेषामपि शय्यातराः परिहर्त्तव्याः । असंस्तरणे तु पूर्वोक्तकमेण 20 तावद् वक्तव्यं यावत् छत्रच्छायां वर्जयन्ति, मौलाचार्यशय्यातरगृहमित्यर्थः ।। ३५३१ ॥ १ छत्रस्य-आचार्यस्य च्छा भा० कां० ॥ २"असह० गाहा। जहसंकुया वसही अद्धगा अन्नत्थ सोवगा जंति, तत्थ जे गया कल्लेगाणियं पोरिसिं तत्थेव करेंति दो वि सेजायरा। अह भूलवसही पडियागंता करेंति पोरिसिं मूलवसहिदाया सेजायरो। एसा भयणा । अहवा लाडाचार्यानामादेशेन-जत्थ आयरिओ वसति सो सेज्जाय........ ........"छत्तो आयरिभो ॥ काहे त्ति गयं ।" इति विशेषचूर्णिः॥ ३"असति. माधा ॥ जति संकुडा वसधी, अद्धगा अण्णत्थ सोवगा जति ताधे सेज्जातरा भयितव्वा । कधं ? जति संघरति सव्वे वजेंतु, अध ण संथरति तो एगं णिविसंति, दो तिष्णि जाव जस्स वसधीए आयरिओ जेसु सुवति सो वजेतव्यो । एस भयणा । 'तत्थऽण्णत्थ व वासे' त्ति जत्थ एगस आयरियस्स बहवे आयरिया सुओवसंपण्णगा एगाए वसधीए अमायंता पिधप्पिधासु वसधीसु ठिता ते पुण आयरिया 'तत्थ 'त्ति मूलायरियसगासे वा वसंतु 'अण्णत्थ व' त्ति अप्पऽप्पणिज्जियासु वसधीसु वसन्तु सब्बे सेजातरा वजेतव्यासंथरणे जाव जत्थ आयरिओ वसति सो वजेतव्वो। छत्तो-आयरिओ। छद अपवारणे। भाचार्यवसलाः सेजातरमित्यर्थः । एतं पसंगेण भणियं ॥ काधे त्ति गतं ॥” इति चूर्णिः॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८४ मनियुक्ति लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे. { सागारिक० सूत्रम् १३ गतं 'कदा सागारिकः ?' इति द्वारम् । अथ 'कतिविधः शय्यातरपिण्डः?' इति द्वारमाह दुविह चउव्विह छविह, अट्टविहो होति बारसविहो य । सेञ्जातरस्स पिंडो, तबिवरीओ अपिंडो उ ॥ ३५३२ ॥ द्विविधो वा चतुर्विधो वा पड्विधो वा अप्टविधो वा द्वादशविधो वा शय्यातरस्य पिण्डो 5 भवति । तद्विपरीतः पुनः 'अपिण्डः' शय्यातरपिण्डो न भवति ॥ ३५३२ ॥ अथैनामेव गाथां विवृणोति आहारोवहि दुविहो, विदु अण्णे पाण ओहुवग्गहिए । असणादिचउर ओहे, उवग्गहे छविहो एस ॥ ३५३३ ॥ अण्णे पाणे वत्थे, पादे सूयादिया य चउरट्ट । असणादी वत्थादी, सूचादि चउकका तिन्नि ॥ ३५३४ ॥ द्विविधः शय्यातरपिण्डो भवति, तद्यथा-आहार उपधिश्च । “बिदु" त्ति द्विगुणितौ द्वौ चत्वारो भवन्तीति कृत्वा चतुर्विधः शय्यातरपिण्डः पुनरयम्-अन्नं पानं औधिकोपकरणं औपग्रहिकोपकरणं चेति । तथा अशनादयश्चत्वार औधिकोपधिः औपग्रहिकोपधिश्चेति षड्विधः ॥ ३५३३ ॥ 15 अन्नं पानं वस्त्रं पात्रं 'शूच्यादयः' शूची-पिष्पलक-नखरदनिका-कर्णशोधनरूपाश्चत्वार इत्यष्टविधः । तथाऽशनादीनि वस्त्रादीनि सूच्यादीनि चेति त्रीणि चतुष्कानि द्वादश भवन्ति । तद्यथा-अशनं १ पानं २ खादिमं ३ खादिमं ४ वस्त्रं ५ पात्रं ६ कम्बलं ७ पादप्रोञ्छनं ८ सूची ९ पिष्पलको १० नखच्छेदनकं ११ कर्णशोधनकं १२ चेति ॥ ३५३४ ॥ तण-डगल-छार-मल्लग-सेजा-संथार-पीढ-लेवादी। सेजातरपिंडो सो, ण होति सेहो य सोवहिओ ॥ ३५३५ ॥ - तृण-डगल-क्षार-मल्लक-शय्या-संस्तारक-पीठ-लेपा आदिशब्दात् कुटमुखादिकं च एष शय्यातरपिण्डो न भवति । यदि च शय्यातरस्य पुत्रादिः शैक्षो वस्त्र-पात्रसहितः प्रव्रजितुमुपतिष्ठते तदा स सागारिकपिण्डो न भवति, अतः कल्पते सोपधिरप्यसौ प्रव्राजयितुम् ॥ ३५३५॥ गतं 'कतिविधः सागारिकपिण्डः ?' इति द्वारम् । अथ [अ]शय्यातरः कदा भवति ?' इति 25 द्वारं निरूपयितुमाह . आपुच्छिय उग्गाहिय, वसहीतो णिग्गतोग्गहे एगे। पढमादि जाव दिवसं, वुत्थे वैजेजहोरत्तं ॥ ३५३६ ॥ अत्र नैगमनयाश्रितानि बहूनि मतान्तराणि । तत्रैको ब्रूते-सूरिभिः शय्यातरो यदा "उच्छू वोलिंति वई" (गा० १५३९) इत्यादिवचोभिरापृष्टस्तदाऽसावशय्यातरो भवति । अपरः १°ण्डः, यथा-आ° भा०॥ २“कतिविधे त्ति गतम् । इदानीमसेज्जातरो व काधे त्ति-आपुच्छि० गाधा॥" "कविहे त्ति गयं । असेज्जायरो व्व काहे त्ति-आपुच्छिय० गाहा" इति विशेषचूर्णौ ॥ ३ यमुग्गा तामा०॥ ४ वजे अहो ताटी. भा. कां.॥ 20 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३५३२-३९) द्वितीय उद्देशः । प्राहयदा निर्गन्तुकामैः पात्राद्युपकरणमुद्राहितं तदा अशय्यातरः । अन्यो ब्रूते-यदा वसतेनिर्गता भवन्ति । तदपरो भणति-यदा सागारिकस्यावग्रहाद् निर्गताः । एको ब्रूते--सूर्योद्गमे निर्गतानां प्रथमपौरुष्यामतीतायामशय्यातरः। अन्योऽभिधत्ते-द्वितीयस्यां पौरुष्यां गतायाम्। अपरो ब्रूते-तृतीयस्याम् । तदन्यः प्राह-'यावद् दिवसं' दिवससत्काश्चतस्रः पौरुष्यः तावतः कालादूर्द्धमशय्यातरः । एते सर्वेऽप्यनादेशाः । सिद्धान्तः पुनरयम्- "वुत्थे वैजेजऽहोरत्तं" ति: यस्यां वसतावुषितास्ततो यस्यां वेलायां निर्गताः तत ऊर्द्धमहोरात्रं यावत् तद्गृहेऽशनादिकं वर्जयेयुः, ततः परं तु कल्पते । आपृष्टादिषु तु सागारिकावग्रहनिर्गतान्तेष्वादेशेषु यदि कथमपि गमनविघ्नमुत्पन्नं ततो भूयोऽपि तस्यामेव वसतौ स्थितेषु कथमशय्यातरो भवितुमर्हति ? । ये पुनः प्रथमादिप्रहरविभागेनाशय्यातरमिच्छन्ति तेषां सूर्यास्तमननिर्गतानां रात्रौ प्रथमादिपौरुषीविभागेनाशय्यातरः प्रामोति तच्च न युज्यते ॥ ३५३६ ॥ कुतः ? इति चेद् उच्यते- 10 अग्गहणं जेण णिसिं, अणंतरेगंतरं दुहिं च ततो। गहणं तु पोरिसीहि, चोदग! एते अणादेसा ॥ ३५३७ ॥ 'येन' हेतुना 'निशि' रजन्यामस्माकं भक्त-पानादेरग्रहणं ततो यत्किञ्चिदनन्तरमेकान्तरव्यन्तराभिर्वा पौरुषीभिः शय्यातरपिण्डस्य ग्रहणमिच्छन्ति, हे नोदक ! त एते सर्वेऽप्यनादेशाः। आदेशः पुनरयम् -सन्ध्यायां दिवा निर्गतानां रजन्याश्चतुरो यामान् शय्यातरः, ततः परं 15 सूर्योद्मेऽशय्यातरः ॥ ३५३७ ॥ एवं जघन्यत उक्तम् । उत्कर्षतः पुनरित्थम् - सूरत्थमणम्मि उ णिग्गयाण दोण्ह रयणीण अट्ठ भवे । देवसिय मज्झ चउ दिणणिग्गति वितियम्मि सा वेला ॥ ३५३८ ॥ 'सूर्यास्तमनसमये' रात्रौ निर्गतीनां तामेव रात्रिमपरं चाहोरात्रं शय्यातरो भवति । ततो द्वयो रजन्योरष्टौ यामाः दैवसिकाश्च रजनीद्वयमध्यवर्तिनश्चत्वारो यामाः एवं द्वादशानां यामा- 20 नामन्ते उत्कर्षतोऽशय्यातरो भवति, • ऍष एक आदेशः । द्वितीयः पुनरयम्- “दिणनिग्गएँ बिइयम्मि सा वेल" ति सूर्योदये दिवा यदि निर्गतास्तदा द्वितीये दिने तस्यामेव वेलायामशय्यातरः, एवमहोरात्रं वर्जितं भवति ॥ ३५३८ । गत॑म् 'अशय्यातरो वा कदा ?' इति द्वारम् । अथ 'शय्यातरः कस्य परिहर्त्तव्यः ?' इति द्वारनिरूपणायाह लिंगत्थस्स उ वज्जो, तं परिहरतो व भुंजतो वा वि। जुत्तस्स अजुत्तस्स व, रसावणो तत्थ दिटुंतो ॥ ३५३९ ॥ 'लिङ्गस्थस्य' साधुलिङ्गधारिणः 'तं' शय्यातरपिण्डं परिहरतो वा भुञ्जानस्य वा साधुगुणैर्युक्तस्य वा अयुक्तस्य वा शय्यातरः 'वर्व्यः' वर्जनीयः। अत्र 'रसापणः' मधहट्टो दृष्टान्तः । यथा-महाराष्ट्रदेशे रसापणे मद्यं भवतु वा मा वा तथापि तत्परिज्ञानार्थं तत्र ध्वजो बध्यते, तं ध्वजं दृष्ट्वा सर्वे भिक्षाचरादयः परिहरन्ति । एवमस्माकमपि साधुगुणैर्युक्तोऽयुक्तो वा भवतु 30 १ वजे अहो' ताटी. भा० का० ॥ २ भा० कां. विनाऽन्यत्र-तानामेकरात्रि मो० ले । तानामेव रात्रि ताटी० त० डे० ॥ ३॥ एतदन्तर्गतः पाठः भा० नास्ति ॥ ४°तम् 'शय्या भा० का विना । "असेज्जायरे.त्ति गर्य" Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तित्थंकरपडिकुट्टो, आणा अण्णाय उग्गमों ण सुज्झे । अविमुत्ति अलाघवता, दुल्लभ सेजा य वोच्छेदो ॥ ३५४० ॥ तीर्थकरैः प्रतिकुष्टः - निषिद्धः शय्यातर पिण्डोऽतस्तं गृह्णता तेषामाज्ञा न कृता भवति । “अन्नाय” त्ति 'अज्ञातोन्छम् ' आसन्ननिवासवशाद् ज्ञातस्वरूपतया न शुध्यति । प्रत्यासन्नतया तत्रैव पुनः पुनः भैक्ष-पानादिनिमित्तं प्रविशत उद्गमोऽपि न शुध्यति । 'अविमुक्तिर्नाम ' स्वाध्यायश्रवणादिना आवर्जितः शय्यातरो दुग्ध-दध्यादि प्रणीतद्रव्यं ददाति, तग्रहण लोलुपतया गृहं न विमुञ्चति । 'अलाघवता तु' विशिष्टाहारलाभेन उपचितगल- कपोलतया शरीरलाघवं 10 प्रचुरवस्त्रादिलाभेन उपकरणलाघवं च न भवेत् । दुर्लभा च शय्या भवति, येन किल शय्या दत्ता तेनाहाराद्यपि देयमिति भयाद् भूयः शय्यामगारिणो न प्रयच्छन्तीति भावः । ' व्यवच्छेदश्व' विनाशः शय्यायाः क्रियेत, अथवा भक्त-पानादिप्रतिषेध इह व्यवच्छेदशब्देनोच्यते । एर्षं निर्युक्तिगाथासमासार्थः ॥ ३५४० ॥ अथैनामेव प्रतिपदं विवृणोति 5 15 ९८६ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ सागारिक० सूत्रम् १३ परं रजोहरणध्वजो दृश्यते इति कृत्वा लिङ्गस्थस्यापि शय्यातरः परिह्रियते ॥ ३५३९ ॥ अथ 'के दोषाः ?' इति द्वारमाह - पूर्वस्तीर्थकरः - ऋषभखामी पश्चिमः -श्रीमन्महावीरः एतद्वजैरजितादिभिर्मध्यमजिनवरैर्विदेहजैश्च तीर्थकरैराधाकर्मापि 'लेशेन' सूत्रादेशतः 'भुक्तं ' भोक्तुमनुज्ञातमिति भावः, 'न च' नैव सागारिकस्य पिण्डः । इयमत्र भावना - मध्यमतीर्थकृतां - विदेर्हेतीर्थकृतां . च ये साधवस्तेषां यस्यैव योग्यमाधाकर्म कृतं तस्यैव न कल्पते शेषाणां तु कल्पते इति तैराधाकर्मभोजनमपि 20 कथञ्चदनुज्ञातम्, न पुनः शय्यातरपिण्डः, सेज्जारपिंडम्मी, चाउज्जामे य पुरिसजिट्टे य । किइकम्मस्स य करणे, चत्तारि अवट्ठिया कप्पा ॥ ( पञ्चाश० १७ - १० ) इति वचनात् ॥ ३५४१ ॥ अथाज्ञाद्वारमज्ञातोञ्छद्वारं चाह - 25 पुर- पच्छिम जेहिं, अवि कम्मं जिणवरेहिं लेसेणं । भुत्तं विदेहहि य, ण य सागरियस्स पिंडो उ ।। ३५४१ ॥ सव्वेसि तेसि आणा, तप्परिहारीण गेण्हता ण कता । अण्णाउंछं न जुञ्जति, जहिं ठितो गेव्हतो तत्थ ।। ३५४२ ।। सर्वेषामपि 'तेषां' तीर्थकृतां 'तत्परिहारिणां' शय्यातर पिण्डप्रतिषेध कारिणामाज्ञा तत्पिण्डं गृह्णता न कृता भवति । तथा यत्रैव गृहे स्थितस्तत्रैव भिक्षां गृह्णतोऽज्ञातोञ्छं 'न युज्यते' न घटते, न शुध्यतीत्यर्थः, अज्ञातस्य - अविदितस्य यद् उञ्छं - भैक्षग्रहणं तदज्ञातोञ्छमिति व्युत्पत्तेः ॥ ३५४२ ॥ - उगमाशुद्धिद्वारमाह- -Do 30 बाहुल्ला गच्छस्स उ, पढमालिय- पाणगादिकजेसु । ४ १ 'जा विउच्छेदो ताभा० ॥ २ 'नकादि भा० कां० ॥ ३°ष सङ्ग्रहगा' भा० ॥ एतदन्तर्गतः पाठः भा० कां० एव वर्त्तते ॥ ५ एतदन्तर्गतमवतरणं भा० नास्ति ॥ ६ अतः सर्वे' भा० ॥ ७एतदन्तर्गतमवतरणं भा० नास्ति ॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३५४०-४७] द्वितीय उद्देशः । सज्झायकरणआउट्टिता करे उग्गमेगतरे ॥३५४३ ॥ गच्छस्य यद् बाहुल्यं-साधूनां प्राचुर्य तस्माद्धेतोः प्रथमालिका-पानकौषधादिकार्येषु पुनः पुनः प्रविशतां तथा स्वाध्यायश्रवणेन करणेन च-यथोक्त क्रियाकलापानुष्ठानेन आवर्तिताः-आवर्जिता उद्गमदोषाणामेकतरान् कुर्युः ॥ ३५४३ ॥ १ अविमुक्तिद्वारमाह-~ दव्वे भावऽविमुत्ती, दव्वे वीरल्ल हारुबंधणता । ___ सउणग्गहँणे कड्डण, पइद्ध मुको वि आणेइ ॥ ३५४४ ॥ अविमुक्तिर्द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च । द्रव्याविमुक्तौ 'वीरल्ल.' ओलायक: पक्षी दृष्टान्तः । स सायुः-तन्त्री तद्वन्धनेन पादे बवा यत्र तित्तिरिप्रभृतिकः पक्षी दृश्यते तत्र मुच्यते, ततस्तेन यदा तस्य शकुनकस्य ग्रहणं कृतं स्यात् तदा भूयोऽपि तयैव तत्र्या तस्य कर्षणं क्रियते, तत आगतस्य हस्ततले मांसं दीयते, ततो मांसे 'प्रगृद्धः' आसक्तः सन् मुक्तोऽपि स्नायुबन्धनमन्तरे-10 णापि शकुनिमानयति, आनीय च तत्रैवावतिष्ठते ॥ ३५४४ ।। एषा द्रव्याविमुक्तिः । अथ भावाविमुक्तिमाह भावे उक्कोस-पणीयगेहितो तं कुलं ण छड्डेति । व्हाणादी कजेसु व, गतो वि दूरं पुणो एति ॥ ३५४५ ॥ 'भावे' भावाविमुक्तिः पुनरियम्-उत्कृष्टद्रव्यं-शाल्योदनादि प्रणीतं-घृतादि तयोर्या 15 गृद्धिः-लौल्यं ततः 'तत् कुलं' शय्यातरसम्बन्धि न परित्यजति । अथवा स्नान-रथयात्रादौ पर्वणि कार्येषु च-कुल-गण-सङ्घप्रयोजनेषु दूरमपि गतो भूयः तत् कुलमागच्छति ॥३५४५॥ अथालाघवतां व्याचष्टे उवहि सरीरमलाघव, देहे णिद्धाइविंघियसरीरो। संघसग-सासभया, ण विहरइ विहारकामो वि ॥ ३५४६ ॥ 20 'अलाघवं' गौरवं तच्च द्विधा-उपधौ शरीरे च । तत्र 'देहे' देहविषयमलाघवमिदम्स्निग्धं-घृतादि तेन आदिशब्दाद् गुड-शर्करादिमधुरद्रव्यैः प्रतिदिनमभ्यवह्रियमाणैर्वृहितशरीरः सन् मार्गे गच्छतां शरीरजाड्यसमुत्थो यो गात्रसङ्घर्षों यश्च श्वासः तद्भयाद् विहरणकामोऽपि न विहरति ॥ ३५४६॥ अथोपकरणालाघवमाह सागारि-पुत्त-भाउग-णत्तुग दाण अतिखद्ध भारभया । ण विहरति ओम सावय, णियडाऽगणि भाण एज त्ति ॥ ३५४७॥ सागारिकेण-शय्यातरेण तदीयैश्च पुत्रैतृभिर्नप्तृभिश्च-पौत्रैः कस्यापि साधोरतिखद्धस्यअतीवप्रभूतस्य कम्बलाद्युपकरणस्य दानमकारि, स च साधुस्तद्भारभयान्न विहरति । अन्यदा च तत्र 'अवमं' दुर्भिक्ष सञ्जातम् , स च तदापि न विहरति । “सावय" त्ति श्रावकेण चिन्तितम्एष साधुः किमद्यापि न विहरति ? नूनं बहूपकरणप्रतिबद्धोऽयम् । ततस्तेन श्रावकेण तस्य 3) संयतस्य भिक्षाद्यर्थं विनिर्गतस्य सर्वमप्युपकरणं निष्काश्यान्यत्र सङ्गोप्य 'निकृत्या' मायया १°शन्तः तथा भा० का ० विना ॥ २१ एतदन्तर्गतमवतरणं भा० नास्ति ॥३°हणाऽऽकडे भाताभा.॥४°स्य आक° भा. कां. ॥५ मांसप्रगृद्धः सन् भा० ॥ 25 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८८ ___ सनियुक्ति-लधुभाप्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [सागारिक० सूत्रम् १३ तदीय उपाश्रयः सर्वोऽपि “अगणि" त्ति अग्निना प्रदीपितः । ततः समायातः संयतः, दृष्टः प्रतिश्रयो दग्धः, कृतवान् 'हा कप्टम् ! हा हा कष्टम् ! ! बहूपकरणं दग्धम् ! ! !' इति परि. खेदम् । पृष्टश्च श्रावकः--किञ्चिदुपकरणं निष्काशितं न वा ? इति । स प्राह-न शक्तं किमपि निष्काशयितुम् परं 'भाण' त्ति भाजनद्वसं महता कप्टेन निष्काशितम् । ततः साधुना 5 भणितम्-विहामि सम्प्रति यस्यां दिशि सुभिक्षम् । श्रावकः प्राह -“एज' त्ति सुभिक्षीभूते 'भूयोऽप्यागच्छेत् । ततः प्रतिपन्नं साधुना तद्वचनम् । समागतः कालान्तरेण पुनरपि तत्रैवासौ । निवेदितः श्रावकेण यथावस्थितो व्यतिकरः, क्षमयित्वा च दत्तं सर्वमपि तदीयमुपकरणम् । एवमादयो दोषा उपकरणालाघवे भवन्ति ॥ ३५४७ ॥ अथ दुर्लभशय्याद्वारमाह भिक्खा पयरणगहणं, दोगचं अण्णआगमें ण देमो। पयरण णत्थि ण कप्पति, असाहु तुच्छे य पण्णवणा ॥ ३५४८ ॥ ___कस्यापि श्रेष्ठिनो गृहे पञ्चशतिको गच्छो वर्षासु स्थितः । स च शय्यातरो गृहमानुषाण्यादिशति-यदि साधवो गृहात् तुच्छै जनैर्निर्गच्छन्ति ततो महदमङ्गलं स्यात् , अतो दिने दिनेऽमीषां प्रथममेव भिक्षा दातव्या । ततस्ते साधवः सर्वेऽपि तस्मिन् गृहे प्रतिदिनं प्रथमतः प्रतरणभिक्षां गृह्णन्ति । ततश्च शय्यातरस्य कालान्तरेण 'दौर्गत्यं' दरिद्रता । अन्येषां च 15 साधूनां तत्रागमनम् । ते च तं श्रेष्ठिनं वसतिं याचन्ते । स प्राह-विद्यते वसतिः परं न प्रयच्छामः । साधुभिरुक्तः-किं कारणं न प्रयच्छसि ? । स प्राह-'प्रैतरणं' प्रथमदातव्यभिक्षारूपं नास्ति । साधवो ब्रुवते-न कल्पतेऽस्माकं प्रतरणं ग्रहीतुम् । स प्रतिब्रूते-'असाधु' अमङ्गलमिदं यद् मम गृहात् तुच्छै जनैर्निर्गच्छन्ति । ततस्तस्य साधुभिः प्रज्ञापना कृता आयुष्मन् ! इदमेव भवतः परमं मङ्गलं यदेवं साधूनां वसतिरुपयुज्यते, अनया हि दत्तया 20 भवता सर्वमपि भक्त-पानादिकं दत्तमेव भवति । इत्थं प्रज्ञापितः स तेषां वसतिं प्रदत्तवान् । एवं दुर्लभा शय्या भवति ॥ ३५४८ ॥ अथ व्यवच्छेदद्वारमाह थल देउलिया ठाणं, सतिकालं दट्ठ दट्ट तहिँ गमणं । निग्गएँ वसहीभंजण, अण्णे उभामगाऽऽउट्टा ॥ ३५४९॥ कस्यापि ग्रामस्य मध्ये स्थलम् । तत्र च ग्रामेण मिलित्वा देवकुलिका कारिता । तत्र साधवः 25 स्थिताः । ते च तत्रोच्चतरे देवकुले स्थिताः 'सत्कालं' भिक्षाया देशकालं दृष्ट्वा दृष्ट्वा 'तत्र' तेषु कुलेषु भिक्षार्थ गच्छन्ति, न चैकमपि कुलं तेषां भिक्षां गृह्णतामुद्वरति । एवं च निर्विण्णाः सर्वेऽपि गृहस्थाः । ततो निर्गतेषु साधुषु 'वसतेः' देवकुलिकायास्तैर्भञ्जनम् ‘मा अन्योऽप्येवमागत्य स्थास्यति' इति । इतश्चान्यस्मिन्नीदृशे स्थलग्रामेऽन्ये केचन साधवो देवकुलिकायां स्थिताः । ते च भगवन्तो निःस्पृहाः बहिर्गामेषूद्रामकभिक्षाचर्यया गच्छन्ति खाध्यायपराश्च तिष्ठन्ति । 3८ ततस्ते गृहस्था आवृत्ताः सम्भूय तान् साधून निमन्त्रयन्ति । साधवो ब्रुवते-बाल-वृद्धादीनां १ प्रचर भा० । विशेषचूर्णी 'पतरण' 'पचरण' इति द्वावपि शब्दो दृश्येते ॥ २°क्तम्-किं भा० ॥ ३'प्रचर भा०॥ ४ ताटी. भा० कां. विनाऽन्यत्र-अन्येऽप्येवमागतास्तापयिष्यन्तीति मो० ले० डे० । अन्येऽप्येवमागतास्तापयन्तीति त० ॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३५४८-५१] द्वितीय उद्देशः । ९८९ कार्ये ग्रहीष्यामः । एवं घृतादि दुर्लभद्रव्यमपि सुलभं भवति, न च शय्याया व्यवच्छेदो जायते ॥ ३५४९ ॥ गतं 'दोषा वा के तस्य ?' इति द्वारम् । अथ 'कारणजाते कस्मिन् कल्पते ?' इति द्वारमाह दुविहे गेलनम्मी, निमंतणे दव्यदल्लमे असिवे । ओमोदरिय पोसे, भए व गहणं अणुण्णायं ॥ ३५५० ॥ _ 'द्विविधे' आगाढे अनागाढे च ग्लानत्वे १ तथा निमन्त्रणे २ दुर्लभद्रव्ये ३ अशिवे ४ अवमौदर्ये ५ प्रद्वेषे वा' राजद्विष्टे ६ 'भये वा' बोधिकस्तेनादिसमुत्थे ७, एवं सप्तसु कारणेषु शय्यातरपिण्डस्य ग्रहणमनुज्ञातम् । एवं नियुक्तिगाथार्थः ॥ ३५५०॥ साम्प्रतमेनामेव विवृणोति तिपरिरयमणागाढे, आगाढे खिप्पमेव गहणं तु । कजम्मि छंदिया घेच्छिमो त्ति ण य बेंति उ अकप्पं ॥ ३५५१ ॥ 10 'त्रिपरिरयं' त्रीन् वारान् परिभ्रमणं तदनागाढे ग्लानत्वे कर्तव्यम् । यदि तथापि ग्लानप्रायोग्यं न लभ्यते ततः पञ्चकपरिहाण्या मासलघुप्राप्ताः शय्यातरपिण्डं गृह्णन्ति । आगाढे तु ग्लानत्वे क्षिप्रमेव ग्रहणं कार्यम् । तथा शय्यातरेण 'भक्त-पानमस्मद्गृहे गृहीत' एवं 'छन्दिताः' निमन्त्रिताः सन्तो भणन्ति-कार्ये समुत्पन्ने ग्रहीष्याम इति । न च ब्रुवते-युष्मदीयं भक्तपानमस्माकं न कल्पते ॥ ३५५१ ॥ 15 जं वा असहीणं तं, भणंति तं देह तेण णे कजं । .. णिब्बंधे चेव सई, घेत्तूण पसंग वारेति ॥ ३५५२ ॥ यद् वा द्रव्यं तस्य गृहे 'अखाधीनं' नास्तीत्यर्थः तद् 'भणन्ति' याचन्ते इत्यर्थः । यथाअमुकं द्रव्यं प्रयच्छत तेनास्माकं गुरुतरं कार्यम् । अथ शय्यातरो निर्बन्धम्-अतीवाग्रह करोति ततः 'सकृद्' एकवारं गृहीत्वा भूयः प्रसङ्गं निवारयन्ति ॥ ३५५२ ॥ 20 दुल्लभदव्वं व सिया, संभारघयादि घेप्पती तं तु । [ओ.नि. ३२०] ओमऽसिवे पणगादिसु, जतिऊणमसंथरे गहणं ॥ ३५५३ ॥ दुर्लभद्रव्यं वा सम्भारघृतादिकं शय्यातरगृहे स्यात् , सम्भारः-बहुद्रव्यसंयोगस्तत्प्रधानं घृतं सम्भारघृतम् , आदिशब्दात् शतपाकतैलादि, तच्च ग्लानादिनिमित्तं शय्यातरगृहे गृह्यते । अवमौदर्या-ऽशिवयोरसंस्तरणे पञ्चकहान्या यतित्वा मासलघुप्राप्ताः शय्यातरकुले ग्रहणं 25 कुर्वन्ति ॥ ३५५३ ॥ उवसमणट्ट पदुटे, सत्थो वा जा ण लभते ताव । अच्छंता पच्छण्णं, गेहंति भए वि एमेव ॥ ३५५४॥ प्रद्विष्टस्य राज्ञ उपशमनार्थे तिष्ठन्तः, यद्वा राज्ञा निर्विषया आज्ञप्ताः सन्तो यावत् तत्र सार्थो न लभ्यते तावत् प्रच्छन्नं तिष्ठन्तः शय्यातरकुले भक्त-पानं गृह्णन्ति, मा पर्यटतो राजा 30 वा राजपुरुषा वा द्राक्षन्निति कृत्वा । भयं-बोधिकस्तेनादिप्रभवं तत्र बहिामेषु भिक्षां गन्तुं न शक्यते खग्रामे च न लभ्यते अतः 'एवमेव' शय्यातरकुले गृह्णन्ति ॥ ३५५४ ॥ १ एषा नियुक्तिगाथा ताटी. भा० कां० ॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९९० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [सागारिक० सूत्रम् १३ अथ 'कया यतनया ग्रहीतव्यः ?' इति द्वारमाह तिक्खुत्तो सक्खेत्ते, चउद्दिसिं मग्गिऊण कडयोगी। दव्वस्स य दुल्लभया, सागारियसेवणा दव्वे ॥ ३५५५॥ 'खक्षेत्रे' सक्रोशयोजनाभ्यन्तरे खग्राम-परग्रामयोः 'विकृत्वः' त्रीन् वारान् चतसृष्वपि दिक्षु 5 शुद्धं भैक्षं दुर्लभद्रव्यं वा मार्गयित्वा यदि न प्राप्नोति ततः कृतयोगी' गीतार्थः 'द्रव्यस्य' शुद्धभक्त पानादेर्दुर्लभतां मत्वा सागारिकद्रव्यस्य-शय्यातर- पिण्डस्य पतिसेवनां करोति ॥ ३५५५ । उक्त एकशय्यातर » विषयो विधिः । अथानेकशय्यातरविषयं विधिमाह णेगेसु पिया-पुत्ता, सवत्ति वणिए घडा वए चेव ।। एएसिं णाणत्तं, वोच्छामि अहाणुपुवीए ॥ ३५५६ ॥ 10 अनेकेषु शय्यातरेष्वमी भेदाः-पिता-पुत्रौ सपत्न्यो वा वणिजो वा घटावा-गोष्ठी व्रजो वागोकुलम् । एतेषां द्वाराणां 'नानात्वं' विभागं वक्ष्यामि' प्ररूपयिष्यामि यथानुपूर्व्या ॥ ३५५६॥ प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति-- पित-पुत्त थेरए या, अप्पभु दोसा य तम्मि उ पउत्थे। जेहातिअणुण्णवणा, पाहुणए जं विधिग्गहणं ॥ ३५५७ ॥ 15 यदि पिता पुत्रश्च द्वावपि प्रभू तत उभावपि अनुज्ञापयितव्यौ । अथ पिता स्थविर इति कृत्वा चशब्दात् पुत्रोऽप्यतिबाल इति कृत्वा यद्यप्रभुस्तदा नानुज्ञापनीयः । दोषाश्चानुज्ञापनायां निष्काशनादयः प्रभुकृता भवन्ति । अथ स प्रभुः प्रोषितस्ततस्तस्यैव यो ज्येष्ठः पुत्र आदिशब्दादनुज्येष्ठादयो वा तेषामनुज्ञापना कर्तव्या, प्राघुणको वा यस्तस्याभ्यर्हितः सोऽनुज्ञापनीयः । सर्वत्र यद् विधिना ग्रहणं तदेवानुज्ञातं भगवद्भिर्नाविधिनेति ॥३५५७ ॥ अथैनामेव व्याख्यानयति दुप्पभिइ पिया-पुत्ता, जहिँ होंति पभू ततो भणइ सव्वे । णातिकमंति जं वा, अपभुंव पहुं व तं पुव्वं ॥ ३५५८ ॥ द्विप्रभृतयोऽनियताः पितापुत्रा यत्र प्रभवो भवन्ति तत्र सर्वानपि तान् मिलितान् 'भणति' अनुज्ञापयति । यं वा प्रभुमप्रभुं वा 'नातिकामन्ति' नाप्रमाणयन्ति तं पूर्वमनुज्ञापयति ।। ३५५८॥ अप्पभु लहुओ दिय णिसि, पभुणिच्छूढे विणास गरहा य ।। 95 असहीणम्मि पभुम्मि उ, सहीणजेहादऽणुण्णवणा ।। ३५५९ ॥ ___यद्यप्रभुमनुज्ञापयन्ति ततो मासलघु । प्रभुश्च समागतो दिवा निष्काशयति चतुर्लघु । निशायां निष्काशयति चतुर्गुरु । रात्रौ निष्काशिताः स्तेन-श्वापदादिभिर्विनाशं प्रामुवन्ति । . अन्यत्र वसतिमलभमाना लोकतो गर्हामासादयन्ति, यथा- किं यूयं शोभनैः कर्मभिर्निर्घाटिताः ? वयमपि न प्रयच्छाम इति । अथ 'प्रभुः' पिता न स्वाधीनः किन्तु प्रोषितः ततो यः स्वाधीनः 30 ज्येष्ठादिः पुत्र आदिशब्दादनुज्येष्ठादिकोऽपि यः प्रभुः सोऽनुज्ञापयितव्यः । अथ सर्वेऽपि प्रभवः ततो युगपत् ते सर्वेऽप्यनुज्ञापनीयाः ॥ ३५५९ ॥ १ एतचिह्नान्तर्गतः पाठः का० एव वर्तते ॥ २ "पियपुत्त० गाहा पुरातना" इति विशेषचूर्णौ ॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९९१ भाष्यगाथाः ३५५५-६३] द्वितीय उद्देशः । पाहुणयं च पउत्थे, भणंति मेत्तं व णातगं वा से । तं पि य आगतमेत्तं, भणंति अमुएण णे दिण्णं ॥ ३५६०॥ प्रभौ प्रोषिते सति प्राघुणको यस्तस्याभ्यर्हितः समायातः तं वा मित्रं वा तदीयं 'ज्ञातकं वा' स्वजनं 'भणन्ति' अनुज्ञापयन्ति । 'तं च' प्रभुमागतमात्रमेव भणन्ति—'अमुकेन' युष्मन्मित्रादिना अस्माकमिदं गृहं प्रदत्तम् । स चाभीष्टनामग्रहणे कृते न निर्धाटयति ॥ ३५६० ॥5 अप्रभुविषयं विधिमाह अप्पभुणा उ विदिण्णे, भणंति अच्छामु जा पभू एती। पत्ते उ तस्स कहणं, सो उ पमाणं ण ते इतरे ॥ ३५६१ ॥ अप्रभुरनुज्ञापितो भणति-अहं न जानामि । ततः साधवो भणन्ति-यावत् प्रभुरागच्छति तावद् वयं तिष्ठामः । एवमनुज्ञापितेनाप्रभुणा वितीर्णे प्रतिश्रये यदा प्रभुः प्राप्तो भवति 10 तदा तस्याग्रे यथाभूतं कथयितव्यम् । कथिते च सं ददाति वा निष्काशयति वा स एव तत्र प्रमाणम् , न 'ते' पूर्वानुज्ञापिताः 'इतरे' अप्रभवः । एवमुक्तेन विधिना यद् वसतेर्ग्रहणं तदेवानुज्ञातमिति ॥ ३५६१ ॥ इय एसाऽणुण्णवणाजतणा पिंडो पभुस्स ऊ वजो। सेसाणं तु अपिंडो, सो वि य वजो दुविहदोसा ॥ ३५६२॥ 15 'इति' एवमुक्तप्रकारेण एषा प्रतिश्रयानुज्ञापनायां यतना प्रोक्ता । अथ शय्यातरपिण्डपरिहरणे यतनाऽभिधीयते-यः प्रभुः स शय्यातर इति कृत्वा तद्गृहे पिण्डो वर्व्यः । 'शेषाणाम्' अप्रभूणाम् 'अपिण्डः' शय्यातरपिण्डो न भवति, परं सोऽपि 'द्विविधदोषात्' भद्रक-प्रान्तकृ. तदोषपरिहारार्थ वर्जनीयः ॥ ३५६२ ॥ गतं पितापुत्रद्वारम् । अथ सपत्नीद्वारम्एगे महाणसम्मी, एक्कतों उक्खित्ते सेसपडिणीए। 20 जेट्टाएँ अणुण्णवणा, पउत्थें सुय जेट्ठ जाव पभू ॥ ३५६३ ॥ शय्यातरे प्रोषिते सति यास्तदीयाः पत्न्यस्तासां यद् भोजनं तत्र चतुर्भङ्गी-एकत्र राद्धमेकत्र भुक्तं १ एकत्र राद्धं विष्वग् भुक्तं २ विष्वग् राद्धमेकत्र भुक्तं ३ विप्वग् राद्धं विष्वग् भुक्तम् ४ । तत्र “एगे महाणसम्मी एगतो" ति एकस्मिन् महानसे राद्धमेकतो भुक्तमिति प्रथमभङ्गो गृहीतः । “उक्खित्तं" ति एकत इति पदमनुवर्तते, एकतः-एकस्मिन् स्थाने 'उत्क्षिप्त' 25 भोजनभूमिकां नीतं भुक्तमिति यावत् अर्थादापन्नं विष्वग् राद्धम् , एतेन तृतीयभङ्ग उपात्तः । द्वितीय-चतुर्थभङ्गो पुनरवर्जनीयाविति कृत्वा न गृहीतौ । (ग्रन्थाग्रम्-२४४२०) “सेसपडिणीए" ति यद एकत्र राद्धमेकत्र भुक्तं तत्र भुक्त शेषं यद्यपि शेषसपत्नीभिः स्वगृहं प्रत्यानीतं तथापि भद्रक-प्रान्तदोषपरिहारार्थ वर्जनीयम् । तथा प्रभो प्रोषिते तदीया ज्येष्ठभार्या वसतिमनुज्ञाप्यते । अथ सा न सुतमाता ततोऽनुज्येष्ठाऽपि या पुत्रवती । द्वयोर्वा पुत्रवत्योर्या ज्येष्ठ- 30 पुत्रा, यत्पुत्रो वा प्रभुः, या वा खयं गृहे 'प्रभुः' प्रमाणभूता सा अनुज्ञापनीया । एषा चिरन्तनगाथा ।। ३५६३ ॥ अथैनामेव विवृणोति १ ग्रन्थानम्-९०००त. डे०॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९९२ तम्भ असाही अह पुत्तमाय सव्वा, जीसे जेट्टो पभू वा वि ।। ३५६४ ॥ 'तस्मिन् ' गृहखामिनि 'अखाधीने' असन्निहिते ज्येष्ठा भार्या पुत्रमाता वा या वा "से" तस्य गृहपतेः 'इष्टा' वल्लभा सा वसतिमनुज्ञापनीया । अथ सर्वा अपि पुत्रमातरोऽभीष्टाश्च 5 ततो यस्याः पुत्रो ज्येष्ठस्तामनुज्ञापयन्ति । अथ ज्येष्ठः पुत्रो न प्रभुः ततः कनिष्ठोऽपि यस्याः पुत्रः प्रभुः सा अनुज्ञापयितव्या ।। ३५६४ ॥ पिण्डग्रहणे विधिमाह - 20 तु भद्दादी । असहीणे पभुपिंडं, वजंती सेस साहीणे जहिँ भुंजइ, सेसे वि उ भद्द - पंतेहिं ॥ ३५६५ ।। अवाधीने गृहस्वामिनि या तत्पली प्रभुस्तस्याः पिण्डं साधवो वर्जयन्ति । शेषसपत्नीगृहेषु 10 न शय्यातरपिण्डः परं भद्रक - प्रान्तकृता दोषा भवन्ति अतस्तासामपि पिण्डः परिहर्त्तव्यः । अथ खाधीनः शय्यातरः ततो यस्या गृहे भुङ्क्ते तत्र शय्यातरपिण्ड इति कृत्वा वर्जयन्ति । शेषाण्यपि सपत्नीगृहाणि भद्रक - प्रान्तदोषपरिहारार्थं वर्जयन्ति ॥ ३५६५ ॥ एत्थ रंधणे भुंजणे य वजेंति भुत्तसे पि । एमेव वीसु रद्धे, भुंजंति जहिं तु एगत्था ।। ३५६६ ॥ 15 एकत्र राद्धमेकत्र भुक्तमित्यादिचतुर्भङ्गयां यत्रैकत्र रन्धनं भोजनं वा तत्र भुक्तशेषमपि वर्ज - यन्ति, प्रथमभङ्गे इत्यर्थः । एवमेव विष्वग् राद्धेऽपि यत्रैकत्र भुञ्जते तत्र भुक्तशेषमपि न गृह्णन्ति, तृतीयभङ्गे इति भावः ॥ ३५६६ ॥ एवमखाधीनभर्तृकाणां विधिरुक्तः । अथ स्वाधीनभर्तृकाणां यो विधिस्तमाहनिययं व अणिययं वा, जहिं तरो भुंजती तु तं वजं । " सासु विणय गिहत, मा छोभगमादि भद्दाई || ३५६७ ॥ नियतं वा अनियतं वा यत्र शय्यातरो भुङ्क्ते तद् गृहं वर्जनीयम् । नियतं नाम - यदेकस्या एव गृहे प्रतिदिनं भुङ्क्ते । अनियतं तु वारकेण सर्वासामपि गृहे भुङ्क्ते । शेषपत्नीगृहेषु यद्यपि शय्यातरपिण्डो न भवति तथापि न गृह्णाति मा भद्रक - प्रान्तकृता छोभकादयो दोषा भवेयुः । छोभकः - प्रक्षेपकः तं शेषपत्नीगृहे भद्रकः शय्यातरः कुर्यात्, 'मम गृहे तावदमी 25 न गृह्णन्ति अत एवमपि दत्त्वा पुण्यमुपार्जयामि' इति बुद्ध्या । यस्तु प्रान्तः स द्वेषं यायात्अहो ! दुर्दृष्टधर्माणोऽमी, यदि मदीयगृहे न कल्पते तत एतासां मद्दत्तोपजीविनीनां गृहे कथं कल्पते ! इति; प्रद्विष्टश्च प्रतिश्रयान्निष्काशयेत् ॥ ३५६७ ॥ गतं सपत्नीद्वारम् । अथ वणिग्द्वारमाह सांनेर्युक्ति-लघुभाप्य वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ सागारिक० सूत्रम् १३ पुतमाया व जाव से इट्ठा । 30 दो वि अच्वोच्छिणे, सव्वं जंतम्मि जं च पाउग्गं । खंधे संखडि अडवी, असती य घरम्मि सो चेव ।। ३५६८ ।। कोऽपि शय्यातरी देशान्तरं गन्तुकामो नगरादेर्बहिः स्थितो वर्त्तते, तस्य च ' द्वयोरपि गृहयोः' अन्तर्गृहाद् बहिर्गृहे बहिर्गृहाच्चाभ्यन्तरगृहे भक्तादिकमव्यवच्छिन्नं यद् आनीयते तन्न कल्पते । अथासौ शय्यातरस्ततः स्थानात् प्रस्थितः ततः 'याति' गच्छति तस्मिन् 'सर्व' Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३५६४-७२] द्वितीय उद्देशः । तदिवसनीतमन्यदिवसनीतं च भक्त-पानं न कल्पते।' सर्वमित्युक्ते मा भूदतिप्रसङ्ग इत्याशच्याह-यच्च 'प्रायोग्यं' यतिजनयोग्यम् , एषणीयं प्रासुकं चेत्यर्थः, “खंधे" ति स्कन्धप्रदेशे मोट्टां कृत्वा बहिग्रीमेपु व्यवहरन् शय्यातरः साधूनां दधि-दुग्धादिकं दद्यात् , “संखडि' त्ति सङ्खडी कुर्वन् साधूनामपि दद्यात् , “अडवि' त्ति अटवीं वा काष्ठच्छेदनादिनिमित्तं गृहीतशम्बलो गच्छन् साधून् दृष्ट्वा तन्मध्यात् तेषामपि दद्यात् , एतेषु त्रिष्वपि न कल्पते । “असई 5 य घरम्मि सो चेव" ति यदि शय्यातरः सपुत्र-पशु-बान्धवो गृहे नास्ति किन्तु देशान्तरं प्रोषितः तदा देशान्तरस्थितोऽपि स एव शय्यातरो नान्य इति नियुक्तिगाथासमासार्थः ।। ३५६८ ॥ अथैनामेव विवरीषुराह निग्गमगाइ बहि ठिए, अंतो खेत्तस्स वजए सव्वं । बाहिं तद्दिणणीए, सेसेसु पसंगदोसेण ॥ ३५६९ ॥ शय्यातरो वाणिज्येन देशान्तरं गन्तुकामो निर्गमकः-प्रस्थानं स शुभमुहूर्ते क्रियते इत्यादिकारणेन नगरादेर्बहिर्गत्वा सक्रोशयोजनक्षेत्रस्याभ्यन्तरे बहिर्वा स्थितो भवेत् । यदि 'अन्तः' क्षेत्राभ्यन्तरे स्थितः तदा 'सर्व' तदिवसा-ऽन्यदिवसनीतं शय्यातरपिण्ड इति कृत्वा वर्जयेत् । अथासौ क्षेत्राद् बहिः स्थितस्ततस्तदिवसनीतं शय्यातरपिण्डः, शेषदिवसनीतं तु यत् परिवासितं यद् वा तत्रैवोपस्कृतं तन्न शय्यातरपिण्डः, परं तदपि 'प्रसङ्गदोषेण' 'मा भद्रक-प्रान्तकृत-18 दोषाणां प्रसङ्गो भवेत्' इति कृत्वा न ग्रहीतव्यम् ॥ ३५६९ ॥ ठितो जया खेत्तबहिं सगारो, भत्तादियं तस्स दिणे दिणे य । अच्छिण्णमाणिजति णिज्जती य, गिहा तदा होति तहिं वि वजे ॥ ३५७० ॥ यदा सागारिकः क्षेत्राद् बहिः स्थितस्तदा तस्य भक्तादिकमव्यवच्छिन्नं दिने दिने गृहाद् बहिरानीयते बहिःस्थानाच गृहं नीयते तत् सर्वमपि तत्र स्थितस्य तस्य वर्जयेत् ॥ ३५७० ॥ 20 बाहिं ठिय पठियस्स उ, सयं व संपत्थिया उ गेण्हंति । तत्थ उ भद्दगदोसा, ण होंति ण य पंतदोसा उ ॥ ३५७१ ॥ शय्यातरः क्षेत्राद् बहिः स्थितो यस्यां वेलायामग्रतो गन्तुं प्रस्थितः, खयं वा साधवः पूर्णे मासकल्पे सम्प्रस्थिताः तदा तदिवसा-ऽन्यदिवसानीतं सर्वमपि प्रायोग्यं भक्त-पानं गृहन्ति । कुतः ? इत्याह-'तत्र' तस्यां वेलायां गृह्यमाणे भद्रकदोषाः प्रान्तदोषाश्च न भवन्ति, पुनर्ग्रहणा- 25 भावादिति भावः ॥ ३५७१ ॥ अथ स्कन्धपदं सङ्खडिपदमडवीपदं च व्याख्याति अंतों बहि कच्छउडियादि क्वहरंते पसंगदोसा उ।। देउल-जण्णगमादी, कट्ठादण्डविं व वच्चंते ॥ ३५७२ ॥ क्षेत्रस्यान्तर्बहिर्वा शय्यातरः 'कक्षापुटिकादिः' कक्षाप्रदेशे पुटा यस्य स कक्षापुटिकःगृहीतोभयमोट्टाक इत्यर्थः, आदिशब्दात् कौतुपिकादिर्वा बहिामेषु व्यवहरन् साधूनां दधि-30 दुग्धादिकं दापयति । तत्र क्षेत्रस्यान्तस्तदिननीतमन्यदिननीतं च शय्यातरपिण्डः । बहिः १ अत्रान्तरे ग्रन्थानम् ८५८० इति मो० ले. ॥ २ इति सङ्ग्रहगाथा भा० । “दोसु वि अव्वोच्छिण्णे० गाहा पुरातना" इति विशेषचूर्णौ ॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९९४ सनियुक्ति-लधुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ सागारिक० सूत्रम् १३ पुनस्तद्दिवसनीतं शय्यातरपिण्डः, शेषदिवसनीतं न शय्यातरपिण्डः, परं भूयः प्रसङ्गदोषान्न गृह्यते । एवं देवकुल-तडाग-यज्ञादिकां सङ्खडी कुर्वता काष्ठादिनिमित्तं च शम्बलं गृहीत्वाऽटवीं व्रजता क्षेत्रान्तर्दीयमानं शय्यातरपिण्डः । क्षेत्रबहिस्तदिवसनीतं शय्यातरपिण्डः, न द्वितीयादिदिवसनीतम् , परं तदपि न ग्रहीतव्यम् , मा भूयः सङ्खडिकरणमटवीगमनं वा साधूनां दानार्थ 5 कार्षीदिति कृत्वा ॥ ३५७२ ॥ अथ 'गृहे असन् स एव शय्यातरः' इति पदं व्याचष्टे मुत्तूण गेहं तु सपुत्त-दारो, वाणिजमादी जति कारणेहिं । सयं व अण्णं व वएज देसं, सेजातरो तत्थ स एव होति ॥३५७३॥ 'मुक्त्वा' परित्यज्य गेहं साधूनर्पयित्वेत्यर्थः सपुत्र-दारः शय्यातरो वाणिज्यादिभिः कारणैयदि वकमन्यं वा देशं व्रजति तत्रापि स एव शय्यातरो भवति, न पुनर्दूरदेशान्तरस्थितत्वात् 1 तस्य शय्यातरत्वमपगच्छतीति ॥ ३५७३ ॥ गतं वणिग्द्वारम् । घटाद्वारमाह महतर अणुमहतरए, ललियासण कडुअ दंडपतिए य । एतेहिं परिग्गहिया, होति घडातो तदा काले ॥ ३५७४ ॥ महत्तरोऽनुमहत्तरको ललितासनिकः कटुको दण्डपतिकश्चेति, एतैः पञ्चभिः परिगृहीतास्तदा पूर्वकाले 'घटाः' गोष्ठ्यः भवन्ति' बभूवुरित्यर्थः ।। ३५७४ ।। 16 अथामूनेव महत्तरादीन् व्याख्यानयति सव्वत्थ पुच्छणिज्जो, तु महतरो जेट्टमासण धुरे य । तहियं तु असण्णिहिए, अणुमहतरतो धुरे ठाति ॥ ३५७५ ॥ यः सर्वत्र' सर्वेषु गोष्ठिकार्येषूत्पद्यमानेषु सर्वैरपि गोष्ठिपुरुषैः प्रच्छनीयः, यस्य च ज्येष्ठं बृहत्तरमासनम् , 'धुरि च' सर्वेषामादौ स्थाप्यते स महत्तरः । ततः तस्मिन्' मूलमहत्तरेऽस2८ निहिते यस्तत्र सर्वैरपि प्रच्छनीयः 'धुरि च' प्रथमं तिष्ठति सोऽनुमहत्तरः ॥ ३५७५ ॥ भोयणमासणमिटुं, ललिए परिवेसिया दुगुणभागो। कडुओ उ दंडकारी, दंडपती उग्गमे तं तु ॥ ३५७६ ॥ यस्य भोजनमासनं च 'इष्टम्' मनोभिरुचितं क्रियते, परिवेषिका च स्त्री तस्याभीष्टा क्रियते, इष्टभोजनस्य द्विगुणो भागो दीयते स ललितमशनमासनं वाऽस्येति व्युत्पत्त्या ललिताशनिको 25 ललितासनिको वा । अपराधापन्नस्य गोष्ठिकस्य यो दण्डपरिच्छेदकारी स कटुको भण्यते । यः पुनस्तं दण्डमुद्गमयति स दण्डपतिः ॥ ३५७६ ॥ एतेषां महत्तरादीनां यद् देवकुल-सभादिकं तस्य कथमनुज्ञापना विधेया ? इत्याह उल्लोमाऽणुण्णवणा, अप्पभुदोसा य एक्कओ पढ । जेहादिअणुण्णवणा, पाहुणए जं विहिग्गहणं ॥ ३५७७ ॥ 50 महत्तरादिक्रममुल्लङ्घय यदि उल्लोम-प्रतीपक्रमेणानुज्ञापनां करोति तदा मासलघु, 'अप्रभुदोषाश्च' निष्काशनादयो भवेयुः, अतः सर्वेऽप्येकतो मिलिताः प्रथममनुज्ञापनीयाः । अथ सर्वे मिलिता नावाप्यन्ते ततो ज्येष्ठमहत्तरस्य, तदभावे यथाक्रममनुमहत्तरादीनामनुज्ञापना १°धूनामर्प भा० मो० ले० ॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३५७३-८१ ] द्वितीय उद्देशः । विधेया । अथ महत्तरादीनामेकोऽपि गृहे न प्राप्यते ततो यस्तेषामभ्यर्हितः प्राघुणकस्तमनुज्ञापयन्ति । एवंविधेन विधिना यदुपाश्रयस्य ग्रहणं तदेवानुज्ञातम्, नाविधिग्रहणम् ॥ ३५७७ ॥ अमुमेवार्थं स्फुटतरमाह - उल्लो लहू दिय णिसि, तेणेकहिँ पिंडिए अणुण्णवणा । असहीणे जेट्ठादि व, जइ व समाणा महतरं वा ।। ३५७८ ।। यदि 'उल्लोमं' महत्तरादिक्रमव्यत्यासेनानुज्ञापयन्ति तदा मासलघु । तेनैकत्र 'पिण्डितानां' मिलितानां पञ्चानामप्यनुज्ञापना कर्त्तव्या । अथ सर्वेऽपि मिलिता अखाधीना:-न प्राप्यन्ते इत्यर्थः ततो ज्येष्ठ- महत्तरादिगृहेषु गत्वा अनुज्ञापना विधेया । 'यति वा' यावतः त्रिप्रभृतीन् तत्र सतः - स्वाधीनान् पश्यन्ति तावतामनुज्ञापनां कुर्वन्ति । महत्तरं वा एकमप्यनुज्ञापयन्ति, तस्य प्रमाणभूततया सर्वेषामनतिक्रमणीयत्वात् ॥ ३५७८ ॥ गतं घटाद्वारम्, व्रजद्वारमाहबाहिं दोहणवाडग, दुद्ध-दही- सप्पि-तक णवणीते । 10 १ अत्र “दिय णिसि" त्ति पदं वृत्तिकृता नास्ति विवृतम् । "जं इति विशेषचूर्णिकृता विवृतम् ॥ - आसण्णम्मि ण कप्पति, पंच पर उप्परिं वोच्छं ॥ ३५७९ ॥ कस्यापि शय्यातरस्य सम्बन्धी ग्रामाद् बहिर्गवां दोहनवाटको भवेत्, तस्मिन् दुग्ध-दधिसस्तिक-नवनीताख्यानि पञ्च 'पदानि' द्रव्याणि भवन्ति । एतच्च द्रव्यपञ्चकम् 'आसन्ने' क्षेत्राभ्यन्तरे दीयमानं न कल्पते, शय्यातरपिण्डत्वात् । अथैतानि दुग्धादीनि क्षेत्रस्य ' उपरि ' बहि- 15 वर्त्तन्ते ततस्तद्विषयं ग्रहण विधिमहं वक्ष्यामि ॥ ३५७९ ॥ प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति - 1 ९९५ निजंतं मोत्तणं, वारग भति दिवसए भवे गहणं । [आव.नि. १३६०] छिणं भतीय कप्पति, असती य घरम्मि सो चेव ।। ३५८० ॥ गोकुलाद् दुग्धादिपञ्चकं शय्यातरगृहे यद् नीयते स शय्यातरपिण्डो भवति, अतस्तद् दुग्धादिकं नीयमानं मुक्तत्वा यदन्यत् तत्रैव गोकुले परिभुज्यते तन्न भवति शय्यातर पिण्डः, परं 20 तदपि भद्रक-प्रान्तदोषपरिहारार्थं न गृह्यते । यस्मिन् पुनर्दिवसे 'भृतकस्य' गोपालस्य वारकस्तस्मिन् दुग्धादिकं शय्यातरपिण्डो न भवति, परं शय्यातरस्यापश्यतो ग्रहणं भवेद् न पश्यतः । तथा भृतिर्नाम - गोपालकस्य दुग्धचतुर्थभागादि परिभाषिता दिवसदैवसिकी वृत्तिः तया 'छिन्नं' विभक्तं यद् दुग्धादिकं तद् गोपालसत्कमिति कृत्वा कल्पते ग्रहीतुं यदि शय्यातरो न पश्यति । तथा यदि साधूनां शय्यां समर्प्य शय्यातरः सपुत्र- दारो व्रजिकायां गच्छेत् ततो गृहेऽविद्यमा- 25 नोsपि स एव शय्यातरो भवति ।। ३५८० ॥ अथास्या एव विषमपदानि विवृणोतिबाहिरखे छिणे, वारगदिवसे भतीय छिण्णे य । सो उण सांगरिपिंडो, वज्जो पुण दिट्ठि भद्दादि ॥ ३५८१ ।। सक्रोशयोजनक्षेत्रस्य बहिर्यश्छिन्नो विभागः शय्यातरगृहे न नीयते, गोपालकबारकदिवसे वा यः सर्वोऽपि दोहो गोपसत्कः, प्रतिदिवसलभ्यो वा भृत्या छिन्नो यो दुग्ध चतुर्थभागादि - 30 रूपो विभागः स एष सर्वोऽपि सागारिकपिण्डो न भवति, परं 'भद्रक - प्रान्तकृता दोषा दृष्टे 5 दिया वा राओ वा णिच्छुभिहिति” २ सारिय पिंडो ताभा० ॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९९६ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ सागारिक० सूत्रम् १४ सति मा भूवन्' इति कृत्वा शय्यातरस्य पश्यतः सोऽपि वर्जनीयः ॥ ३५८१ ॥ अथ यदुक्तं सूत्रे-“एगं तत्थ कप्पागं ठवइत्ता अवसेसे निबिसिज्जा" तदेतद् विभावयिपुराह एगं ठवें णिव्विसए, दोसा पुण भद्दए य पंते य । णिस्साए वा छुमणं, विणास.गरहं व पार्वति ॥ ३५८२ ॥ 5 यद्यनेकेषु शय्यातरेषु निष्कारणे एकं सागारिकं स्थापयन्ति शेषान् 'निर्विशन्ति' उपभुञ्जते ततो भद्रक-प्रान्तविषया दोषा भवन्ति । भद्रको निर्विश्यमानशय्यातरस्य निश्रया तदीयभक्त-पानमध्ये प्रक्षेपं कुर्यात् , 'मम गृहे तावदमी न गृह्णन्ति अतो मदीयमिदं भवद्भिः संयतानां दातव्यम्' इति कृत्वा । यस्तु प्रान्तः स एक एव स्थाप्यमानः प्रद्वेषं यायात् , प्रद्विष्टश्च वसतेनिष्काशनं कुर्यात् , निष्काशिताश्च स्तेन-श्वापदादिभिर्विनाशं लोकाद् वा गर्हामासादयन्ति । 10 कारणे पुनरेकमपि स्थापयन्तो निर्दोषाः ॥ ३५८२ ॥ कथम् ? इत्याह- सड्ढेहि वा वि भणिया, एग ठवेत्ताण णिघिसे सेसे । गणदेउलमादीसु व, दुक्खं खु विवजिउं बहुगा ॥ ३५८३॥ वाशब्द उत्सर्गपदे तावन्न कल्पते एकः सागारिकः स्थापयितुम् , द्वितीयपदे तु कल्पतेऽपीत्यस्यार्थस्य सूचनार्थः । ये श्राद्धाः-साधुसामाचारीकोविदास्तैः साधवो भणिताः-आर्याः ! 15 एकं शय्यातरं स्थापयित्वा शेषान् निर्विशत, मा सर्वानपि परिहरत । एवमुक्ता एकं स्थापयित्वा शेषान् निर्विशन्ति । अथवा गणस्य-बहुजनसमूहस्य सामान्ये देवकुल-सभादौ स्थिता अनुक्ता अप्येकं स्थापयित्वा शेषान् निर्विशन्ति । कुतः ? इत्याह-'दुःखं' दुष्करं तत्र बहून् वर्जयितुम् ॥ ३५८३ ॥ गिण्हंति वारएणं, अणुग्गहत्थीसु जह रुई तेसिं । पक्कण्णपरीमाणं, संतमसंतेयरे दव्वे ॥ ३५८४ ॥ ___ यद्वा ते सर्वेऽपि शय्यातरा अनुग्रहार्थिनः ततो यथा तेषां रुचिरुपजायते तथा वारकेण गृह्णन्ति । तत्र च पक्के-उपस्कृते अन्ने परिमाणं ज्ञातव्यम्-किं परिमितानामुपस्क्रियते ? उतापरिमितानाम् ? इति । तदपि द्रव्यं तस्य गृहे तत्र देशे वा 'सद्' विद्यमानम् ? उत 'असद् अविद्यमानम् ? । यदि पूर्वपरिणामेन सद् द्रव्यमुपस्कुर्वन्ति तदा कल्पते, अन्यथा भजनीयम् । 25 एवं तस्य शय्यातरस्य द्रव्ये सम्यगुपयोगो दातव्यः ॥ ३५८४ ॥ सूत्रम् नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सागारियपिंडं बहिया अनीहडं असंसट्टे वा संसह वा पडिग्गा हित्तए १४ ॥ 30 अथास्य सम्बन्धमाह १ दुःखतरं का.॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाप्यगाथाः ३१८२-८९] द्वितीय उद्देशः । अंतो नूण न कप्पइ, कप्पइ णिक्खामिओ हु मा एवं । पत्तेय विमिस्सं वा, पिंडं गेण्हेजस्तो सुत्तं ॥ ३५८५॥ नूनम् 'अन्तः' गृहाभ्यन्तरे शय्यातरपिण्डो न कल्पते, गृहाद् बहिर्निप्कामितस्तु कल्पते । एवं विचिन्त्य मा 'प्रत्येकम्' असंसृष्टं 'विमिश्रं वा' संसृष्टं पिण्डं गृह्णीयात् , अत एतत् सूत्रमारभ्यते । वक्ष्यमाणसूत्रद्वयस्याप्ययमेव सम्बन्धो द्रष्टव्यः ॥ ३५.५ ।।। __ अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या–नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा सागारिकपिण्डं बहिर्वाटकाद् 'अनिहतम्' अनिष्कामितम् 'असंसृष्टं वा' अन्यदीयपिण्डैः सहामीलितं 'संसृष्टं वा' अन्यदीयपिण्डैः समं मीलितं प्रतिग्रहीतुमिति सूत्रार्थः ।। अथ भाष्यविस्तरः _वाडगदेउलियाए, इच्छा देतम्मि गहण तह चेव । णीसट्ठमणीसट्टे, गहणा-ऽगहणे इमे दोसा ॥ ३५८६ ॥ 10 शय्यातरवाटकस्य मध्ये काचिद् देवकुलिका तस्या यद् वानमन्तरं तदर्थ वाटकवास्तव्या अगारिणः सङ्खडी कुर्वन्ति । तत्र च भिक्षाचरेभ्यो दातुं तेषामिच्छा समजनि । ततो वाटकवास्तव्यजने 'ददति' दातुमुपस्थिते ग्रहणं तथैव मन्तव्यं यथा पूर्वसूत्रे अभिहितम् । तथा निसृष्टं नाम-यद् बल्यादिकं वानमन्तरस्य निवेदितम् , अनिसृष्टं तु तद्विपरीतम् , तयोर्ग्रहणेऽग्रहणे च 'अमी' वक्ष्यमाणा दोषा भवन्तीति सङ्ग्रहगाथासमासार्थः ॥३५८६॥ अथैनामेव विवृणोति-15 उप्पत्तियं वा वि धुवं व भोजं, तस्सेव मज्झम्मि उ वाडगस्स । अमिस्सिते सागरिचोल्लगम्मि, अण्णेहिं सो चेव उ तस्स पिंडो॥ ३५८७॥ 'तस्यैव' सागारिकसत्कस्य वाटकस्य मध्ये वानमन्तरमुद्दिश्य 'भोज्यं' सङ्खडिर्भवेत् , तच्चीत्पत्तिकं वा स्याद् ध्रुवं वा । औत्पत्तिकं नाम-पर्वतिथिमन्तरेणाकस्मिकम् । ध्रुवं तु-पर्वतिथिभावि, यथा नवम्यां दशम्यां वा । तत्रान्यैश्चोल्लकैः समममिश्रितो यः सागारिकचोल्लकस्तस्मिन् 20 सङ्खड्यां दीयमाने स एव तस्य शय्यातरस्य पिण्डो भवति ॥ ३५८७ ॥ - अस्य निवेदितस्यानिवेदितस्य वा ग्रहणे तावदिमे दोषाः भद्दो तन्नीसाए, पंतो घेप्पते ददृणं भणइ । अंतोघरे ण इच्छह, इह गहणं दुट्टधम्मो त्ति ॥ ३५८८॥ यः सागारिको भद्रकः सः 'तन्निश्रया' वानमन्तरनिवेदनाव्याजेनान्यदप्यात्मीयमाहारजातं 25 तत्र प्रक्षिपेत् । यस्तु प्रान्तः स तथा गृह्यमाणं दृष्ट्वा भणति-'अन्तर्गृहे' गृहाभ्यन्तरे दीयमानं मदीयं पिण्डं नेच्छथ, इह पुनरेवं दीयमानस्य ग्रहणं कुरुथ, अहो! दुष्टधर्माणो यूयमिति ॥ ३५८८ ॥ तथैतदोषभयान्न गृहन्ति ततः किं भवति ? इत्याह तेसु अगिण्हंतेसु य, तीसे परिसाएँ एवमुप्पजे । को जाणइ किं एते, साहू घेत्तुं ण इच्छंति ॥ ३५८९ ॥ 'तेषु' साधुषु तं शय्यातरसत्कं निवेदनापिण्डमगृहानेषु 'तस्याः' सङ्खडिकारिण्याः पर्षद १ मा० कां० विनाऽन्यत्र-सह मी त• । सम्मी ताटी• मो• ले. डे० ॥ २ "नियुक्तिविस्तरः-वाडग• गाधा" इति चूर्णौ ॥ 30 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९९८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ सागारिक० सूत्रम् १५ एवं चिन्ता समुत्पद्यते, यथा—'को जानाति' को नामामुमथ सम्यग् वेति किम् एते' साधव इदं शय्यातरसत्कमाहारजातं ग्रहीतुं नेच्छन्ति ? ॥ ३५८९ ॥ नूणं से जाणंति कुलं व गोतं, आगंतुओ सो य तहिं सगारो। - भूणग्घऽसोयं व ततो चएवि, जं अम्ह इच्छंति ण सेजदातुं ॥ ३५९० ॥ । नूनं "से" तस्य शय्यास्वामिनो जानन्त्यमी कुलं वा गोत्रं वा, यथाऽयं नीचकुलोत्पन्नो हीनगोत्रो वेति । स च सागारिकः तत्र' ग्रामादावागन्तुकः अतो न तदीयं कुलादि तत्र कोऽपि वेत्ति । यद्वा ते गृहस्थाश्चिन्तयेयु:--'भ्रूणनः' बालमारकोऽयं शौचं वा-शुचिसमाचारतारूपमस्य नास्ति, तेत एतदीयं पिण्डं त्यक्त्वा • यदमी अम्माकं चोल्लकं ग्रहीतुमिच्छन्ति, न शय्यादातुः सम्बन्धिनम् ॥ ३५९० ॥ ततः सागारिक इत्थं चिन्तयेत्10 ओभामिओ णेहि सवासमझे, चंडालभूतो य कतो इमेहि । गेहे वि णिच्छंति असाधुधम्मा, अतो परं किं व करेज अण्णं ॥ ३५९१ ॥ अपभ्राजितोऽहम् 'अमीभिः' श्रमणकैः ‘खवासमध्ये' स्वकीयसहवासिजनमध्ये, चाण्डालभूतश्च कृतोऽहममीभिर्मुण्डैः, गेहेऽपि च मदीये नेच्छन्त्यमी असाधुधर्माणः पिण्डं ग्रहीतुम् , अतः परं किं वा मम 'अन्यद्' अपरं कुर्युः ? यत् कर्तुं योग्यं तदमीभिः कृतमिति भावः 15॥ ३५९१ ॥ ततश्च राओ दिया वा वि हु णेच्छुभेजा, एगस्सऽणेगाण व सेजछेदं । अद्धाण णिता व अलंमें जंतू, पावेज तं वा वि अगिण्हमाणा ॥ ३५९२ ॥ रात्रौ वा दिवा वा साधून प्रतिश्रयाद् निष्काशयेत् । 'एकस्य वा' तस्यैव गच्छस्य 'अनेकेषां वा' बहूनां गच्छानां शय्यादानव्यवच्छेदं कुर्यात् । ततोऽध्वनि वहमाना निर्गच्छन्तो वा 20साधवस्तदीयदोषेण वसतिमलभमाना यत् परितापनादिकं प्रामुयुः तत् ते शय्यातरचोल्लकमगृह्णानाः प्रामुवन्ति, तन्निष्पन्नं तेषां प्रायश्चित्तमिति भावः ॥ ३५९२ ॥ एवमसंसृष्टपिण्डविषया दोषा उक्ताः । अथ संसृष्टपिण्डविषयानाह संसहस्स उ गहणे, तहियं दोसा इमे पसजंति । तण्णीसाएँ अभिक्खं, संखडिकारावणं होजा ॥ ३५९३ ॥ 25 यद्यन्यदीयचोल्लकैः संसृष्टं सागारिकपिण्डं गृह्णन्ति तदा तत्रैते दोषाः प्रसजन्ति-'तन्निश्रया' 'यद्यन्यदीयपिण्डसंसृष्टो मदीयः पिण्डो अमीषां कल्पते तत इत्थं कृत्वा भूयो भूयो दापयिज्यामि' इत्यालम्बनेन वाटकवास्तव्यजनैरभीक्ष्णं सङ्खडीकारापणं भवेत् ॥ ३५९३ ॥ अलऽम्ह पिंडेण इमेण अजो!, भुजो ण आणेति जहेस इत्थं । साहू ण इच्छंति इमस्स दोसा, अम्हे वि वजेमु ण को वि एस ॥ ३५९४ ॥ 30 अथ भूयो यथैष सागारिकोऽत्र पिण्डं नानयतीत्येवमर्थं साधवो गृहस्थान् ब्रुवते-आर्याः ! अलमस्माकमनेन संसृष्टपिण्डेनेति । ततस्तेऽगारिणश्चिन्तयेयु:-अस्य सागारिकस्य दोषाद् यदि साधवोऽमुं पिण्डं नेच्छन्ति ततो वयमपि दान-ग्रहणादिव्यवहारमनेन सह वर्जयामः, यतो १ - एतदन्तर्गतः पाठः भा० नास्ति ॥ २ भूओ तामा० ॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३५९०-९८] द्वितीय उद्देशः । ९९९ न कोऽप्येष विशेषतो ज्ञायले, आगन्तुकत्वात् ।। ३५९४ ॥ अगम्मगामी किलिबोऽहवाऽयं, बोट्टी व हुआ सें सुणादिणा वा । दोसा बहू तेण जहिं सगारो, पिंडं णए तत्थ उ णाभिगच्छे ॥ ३५९५ ॥ अथवाऽयमगम्यगामी 'क्लीबो वा' नपुंसकः किल भविष्यति, 'बोट्टी वा' विट्टालना "से" तस्य शय्यातरपिण्डस्य शुनकादिना कृता भवेत् । एवमादयो बहवो दोषा यतो भवन्ति तेन 5 यत्र सङ्खडीकरणे सागारिकः खकीयं पिण्डं नयति तत्र प्रथमत एव नैवाभिगच्छेत् ॥३५९५॥ सूत्रम् नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सागारियपिंडं बहिया नीहडं असंसर्दु पडिग्गाहित्तए । कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सागारियपिंडं 10 बहिया नीहडं संसर्ट पडिग्गाहित्तए १५॥ अस्य व्याख्या प्राग्वत् । १ नेवरं सागारिकपिण्डो वाटकाद बहिनिष्क्रामितोऽपि 'असंसृष्टः' अन्यपिण्डैः समममीलितो न कल्पते, संसृष्टस्तु कल्पते इति ॥ अथ भाष्यम् बहिया उ असंसद्धे, दोसा ते चेव मोत्तु संसटुं। .. संसट्ठमणुण्णायं, पेच्छउ सागारितो मा वा ॥ ३५९६ ॥ 18 सागारिकवाटकाद् बहिर्निष्कामिते असंसृष्टे गृह्यमाणे 'त एव' पूर्वसूत्रोक्ता भद्रक-प्रान्तदोषाः, परं मुक्तवा संसृष्टम् , तत्र दोषा न भवन्तीति भावः । अत एव यद् वाटकाद् बहिनिष्क्रामितं संसृष्टं तदत्र सूत्रेऽनुज्ञातम् , सागारिकः पश्यतु वा मा वा । इदं पुरस्ताद् व्यक्तीकरिष्यते ॥ ३५९६ ॥ नीसहमसंसट्ठो, वि अपिंडो किमु परेहि संसहो । 20 अप्पत्तियपरिहारी, सगारदिटुं परिहरंति ॥ ३५९७ ॥ निसृष्टो नाम-बहिर्निष्काश्य वानमन्तरस्य निवेदितः, यस्य वा याचकादेरर्थाय निष्काशितस्तस्मै प्रदत्तः, स यद्यप्यन्यैश्चोल्लकैरसंसृष्टस्तथापि 'अपिण्डः' न सागारिकपिण्डः, किं पुनः 'परैः' अन्यैश्चोल्लकैः समं संसृष्टः ? स सुतरां सागारिकपिण्डो न भवतीत्यर्थः, परमप्रीतिकपरिहारिणः सन्तः सागारिकदृष्टं तमपि परिहरन्ति ॥ ३५९७ ॥ इदमेव सापवादमाह- 25 अद्दिद्वस्स उ गहणं, असती तव्वजितेण दिदुस्स । दिट्टे व पत्थियाणं, गहणं अंतो व बार्हि वा ।। ३५९८ ॥ प्रथमं सागारिकेण सकुटुम्बेनादृष्टस्य, ततः “असइ" त्ति संस्तरणाभावे 'तद्वर्जितेन' तमेकं १शुनादिना श्वपाकेनैकत्र भोजनादिना कृता भा० ॥२॥ एतचिह्नगतः पाठः भा० नास्ति ॥ ३ वा धार्मिकादे भा० का । वा धाककादे ताटी । “जो बहिता णीणित्ता णिवेदितो वाण. मंतरस्स, जस्स वा धम्मियादिणो भट्ठाए णीणितो सो णिसट्ठो भण्णह" इति चूर्णौ ॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००० सनिर्युक्तिघुमाप्य वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [ सागारिक० सूत्रम् १६ सागारिकं वर्जयित्वा शेषकुटुम्बेन दृष्टस्यं संसृष्टपिण्डस्य ग्रहणमनुज्ञातम् । अथ ते साधवो ग्रामान्तरं प्रस्थिताः ततः सागारिकेणापि दृष्टस्य संसृष्टस्य वा असंसृष्टस्य वा वाटकस्यान्तर्वा बहि सर्वत्र ग्रहणमनुज्ञातम्, पुनर्ग्रहणाभावेन भद्रक-प्रान्तदोषाणामभावात् ॥ ३५९८ ॥ पाहुण्या वा बाहिं, घेत्तुमसंसगं च वर्चति । अंतो वा उभयं पी, तत्थ पसंगादओ गत्थि || ३५९९ ।। 5 अथवा प्राघुणकाः साधवः केचित् तत्र समायाताः, ते च तं ग्रामं व्यतीत्याग्रतो गन्तुकामाः वाटकाद् बहिर्निष्क्रामितं निसृष्टमनिसृष्टमपि गृहीत्वा समुद्दिश्य च व्रजन्ति । तदभावे 'अन्तः' वाटकाभ्यन्तरे वर्त्तमानमुभयमपि प्राघुणकाः साधवो गृह्णन्ति, प्रथमं संसृष्टं तदप्राप्तावसंसृष्टमपीत्यर्थः । कुतः ? इत्याह- 'तत्र' एवंविधे प्राघुणकानां ग्रहणे प्रसङ्गादयो दोषाः भद्रक - प्रान्तकृताः पुनर्ग्रहणाभावान्न सन्ति । प्रसङ्गो नाम - तन्निश्रया भूयः सङ्खडीकारापणम्, आदिशब्दाद् निष्काशनादिपरिग्रहः || ३५९९ ॥ 10 अँथ “संसट्टमणुण्णायं" ( गा० ३५९६ ) इत्यादिपदानां भावार्थं गाथात्रयेणाह - जो उ महाजणपिंडेण मेलितो बाहि सागरिय पिंडो । तस्स तहिं अपभुत्ता, पण होति दिट्ठे वि अचियत्तं ॥ ३६०० ॥ जं पुण सिं चिय भायणेसु अविमिस्सियं भवे दव्वं । तं दिस्समाण गहियं, करेज अप्पत्तियं पभुणो ॥ ३६०१ ॥ जं पुण तेण अदिट्ठे, दुघाण गहणं तु होतऽसंसट्टे । तहियं ताणि कधिजा, ण यावि ण य आयरो तत्थ || ३६०२ ॥ यस्तु सागारिकपिण्डो महाजनपिण्डेन सह वाटकाद् बहिर्मीलितः स साधूनां कल्पते । 20 कुतः ? इत्याह—‘तस्य' सागारिकस्य तत्राप्रभुत्वाद् महाजनस्यैव च प्रभुत्वाद् दृष्टेऽपि सागार - कस्य नाप्रीतिकं भवति ॥ ३६०० ॥ यत् पुनर्द्रव्यं 'तेषामेव' शय्यातरमानुषाणां भाजनेषु 'अविमिश्रितम्' असंसृष्टं भवति तद् दृश्यमानं गृहीतं सत् 'प्र 'भोः' शय्यातरस्याप्रीतिकं कुर्याद् अतो न ग्राह्यम् ॥ ३६०१ ॥ 15 १ स्य पिण्ड' भा० ॥ २ देवकुलिकाया मुद्यानादिषु सर्वत्र कां० ॥ ३ “बहिया उ असंसट्टे॰" गा० ३५९६ तः आरभ्यैताश्चतस्रो गाथाः पुरातना इति चूर्णिकृतो विशेष चूर्णिकृतश्वाभिप्रायः । तथाहि तद्वचनम् — “ एताओ पुराणियाओ गाहाओ, एतासि इमाओ विभासागाधाओ - जो तु महा० गाधाश्रयम् ।" इति ॥ ४ एतादृग् हस्तचिह्नमध्यवर्ती ( इस आरभ्य ३६०७ गाथाटी कान्तर्गतहस्त चिह्नं यावत् ) समग्रोऽप्ययं ग्रन्थसन्दर्भः भा० प्रति विहायास्मत्पार्श्ववर्त्तिनीषु सर्वास्वपि प्राचीनासु प्रतिषु नास्ति, किं बहुना ? ताडपत्रीय प्रतावप्ययं पाठो न विद्यते । सम्भावयामश्च वयम् - यदुत ज्ञानकोशगतेषु निखिलेष्वप्यर्वा चीनप्राचीन कल्पटीकादर्शेषु नैवायं प्रन्यसन्दर्भो भूम्ना भविष्यतीति । अस्मत्स विधवर्तिनीषु भा० प्रतिवर्जितप्रतिषु सत् प्र [.........]येदिति भावः इति रूपः पाठो बर्त्तते । सम्भाव्यते किल-सत् प्र इति पाठानन्तरवर्ति मूलप्रतिगतमेकं तालपत्रमकल्पनीयेन केनचित् प्रमाददोषेण भ्रष्टमिति तत्परम्परा विश्वेष्वप्यादर्शेष्ववतीर्णेति ॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३५९९-३६०५] द्वितीय उद्देशः । यत् पुनः 'तेन' सागारिकेणादृष्टस्यासंसृष्टस्यापि "दुघाणे" दुर्भिक्षे संस्तरणाभावाद् ग्रहणं क्रियते तत्र 'तानि' शय्यातरमानुषाणि गत्वा शय्यातरस्य कथयेयुर्न वा; कथितेऽपि 'न च' नैव 'तत्र' दुर्भिक्षे शय्यातरस्य तथाविध आदरो भवति, येन भूयः सङ्खडी कुर्यादिति भावः ॥३६०२॥ सूत्रम् जो खलु निग्गंथो वा निग्गंथी वा सांगारियपिंडं बहिया नीहडं असंसटुं संसटुं करेइ, करेंतं वा साइजइ, से दुहओ वीइक्कममाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं १६ ॥ यः खलु निम्रन्थो निर्ग्रन्थी वा सागारिकपिण्डं बहिर्निर्गतमसंसृष्टं संसृष्टं करोति, कुर्वन्तं वा 'खादयति' कारयति कुर्वन्तमनुमन्यते वेत्यर्थः, सः 'द्विधा' लौकिक-लोकोत्तरिकभेदाद् द्विप्र-10 कारां मर्यादा व्यतिक्रामन् आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानमनुद्धातिकम् , चतुरो गुरुमासानित्यर्थः । एष सूत्रसङ्केपार्थः ॥ अथ भाष्यविस्तरः संसहस्स उ करणे, चउरो मासा हवंतऽणुग्घाता। आणादिणो य दोसा, विराहणा संजमा-ऽऽदाए ॥ ३६०३ ॥ असंसृष्टमस्माकं ग्रहीतुं न कल्पत इति कृत्वा यदि संसृष्टं करोति, तुशब्दस्यानुक्तसमुच्चया-15 र्थत्वात् कारयति वा कुर्वन्तमनुमोदयति वा, ततश्चत्वारो मासा अनुद्धाताः प्रायश्चित्तं भवति, आज्ञादयश्च दोषाः, विराधना च संयमा-ऽऽत्मविषया ॥ ३६०३ ॥ सयमेव उ करणम्मी, उदगप्फुस भंडणुण्हवण पंते । तेणा चारभडा वा, कम्मबंधे पसजणया ॥ ३६०४ ॥ खयमेव करणे तावदिमे दोषाः---'संयतेनाशुचिना स्पृष्टमिदं भाजनम्' इति विचिन्त्य 20 उदकेन स्पर्शनं-प्रक्षालनम् , तथा 'किमस्मदीयानि भाजनानि स्पृशसि ?' इति 'भण्डनं' कलहम् , "उण्हवण' ति तेषां भाजनानाममिकायेनाङ्गारणम् , एतानि प्रान्ताः सङ्खडिकारिणः कुर्वन्ति । तथा 'स्तेनाः' चौराः 'चारभटाः' राजपुरुषा एते तत्रागत्य तं संयतसंसृष्टं पिण्डं अपहरेयुः, ततश्च कर्मबन्धस्य प्रसजना भवति यावदसौ संयतो भूयो नावर्त्तते॥३६०४॥ किञ्चभिंदेज भाणं दवियं व उज्झे, डज्झेज उण्हेण कडी व भुजे। 25 संसत्तगं तं व जहिं व छुन्भे, विरोहि दव्वं व जहिं व छड्डे ॥ ३६०५॥ संयतः सागारिकपिण्डमन्यत्र प्रक्षिपन् तद् भाजनं प्रमादतो भिन्द्यात् , तत्र पश्चात्कर्मा-ऽन्यप्रवाहनादयो दोषाः । यद्वा तत्र भाजने यद् 'द्रव्यं' शालि-दाल्यादि तद् अन्यत्र सञ्चारयन् 'उज्झेत्' परित्यजेत् । अथवा तद् द्रव्यमतीवोष्णं तेनासौ दह्येत, कटी वा तथाकुर्वतो 'भुज्येत' वक्रीभवेत् । यत्र वाऽसौ सागारिकपिण्डं प्रक्षिपति 'तद्' द्रव्यं 'संसक्तं' जन्तुसंसक्ति- 30 युक्तम् , ततः संयमविराधना । विरोधि वा तद् द्रव्यम् , प्रक्षेपणीयद्रव्येण सह भुज्यमानं Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्ति के बृहत्कल्पसूत्रे [सागारिक० सूत्रम् १६ रोगादिविकारकारकमित्यर्थः, तत्रात्मविराधना । 'यत्र वा' भूभागे तद् द्रव्यं प्रक्षिपन् प्रमादतः छर्दयति तत्र षट्कायविराधना ॥ ३६०५ ॥ अथ "तेणा चारमडा वा, कम्मबंधे पसज्जणया ॥" (गा० ३६०४) इति व्याचष्टे तं तेण छूढ़ तहिगं च पत्ता, तेणा भडा घोड कुकम्मिगा य । 5 आसत्त णामट्टित आउ मंसा, ण जिण्णऽणादेस ण जा विउट्टे ॥ ३६०६॥ 'तद्' द्रव्यं 'तेन' संयतेन 'तत्र' भाजने प्रक्षिप्तम् , तत्र च प्राप्ताः 'स्तेनाः' चौराः 'भटाः' राजपुरुषाः 'घोटाः' पञ्चालचट्टाः 'कुकर्मिणश्च' कुकर्मकारिणः एते तद् भाजनमुत्कृष्टशालिदाल्यादिद्रव्यभूतमपहृत्य गच्छेयुः । तत्र केचिदाचार्यदेशीया ब्रुवते-यावत् तेषामासप्तमं कुलमनुवर्तते तावत् तस्य संयतस्य कर्मबन्धः । अपरे—तेषां यावद् नाम-गोत्रमनुवर्तते । 10 अन्ये-यावत् तेषामस्थीनि सन्ति । अपरे पुनराहुः-यावत् ते आयुर्धारयन्ति । एके भणन्तियावत् तेषां तद्रव्याभ्यवहारप्रत्ययो मांसोपचयः । अन्ये तु ब्रुवते-यावत् तेषां तद् भक्तं भुक्तं सद् नाद्यापि जीर्णं तावत् प्रतिसमयं तस्य कर्मबन्धः । सूरिराह-एते सर्वेऽप्यनादेशाः। सिद्धान्तपक्षः पुनरयम्-यावदसौ संयतः 'न व्यावर्त्तते' न तस्मात् स्थानादालोचनाप्रदानादिना प्रतिक्रामति तावत् कर्मबन्धो मन्तव्यः ॥ ३६०६ ॥ किञ्च15 णिच्छंति व मरुगादी, ओभावण जं च अंतरायं तु । कुजा व पच्छकम्म, पवत्तणं घाय बंधं वा ॥ ३६०७॥ संयतेन स्पृष्टमिति कृत्वा तद् भक्तं मरुकादयो भोक्तुं नेच्छन्ति । ततश्च 'अहो ! अमी अशुचयो यैः स्पृष्टमन्नमुच्छिष्टमिति कृत्वा ब्राह्मणादयो न भुञ्जते' इति महती साधूनामपभाजना स्यात् । यच्च मरुकादीनां तद् भक्तमभुञ्जानानामन्तरायं तन्निप्पन्नं प्रायश्चित्तम् । पश्चात्कर्म वा 20 स गृहपतिः कुर्यात्, मरुकादिभोजनार्थं भूयोऽप्यभिनवं भक्तपाकं कार येदिति भावः । यद्वा 'साधुभिरिदं पवित्रीकृतम्' इति मत्वा भद्रकास्तस्यान्नादेः स्वगृहे प्रवर्तनं कुर्युः । अथ ते प्रान्तास्ततो घातं वा बन्धं वा कुपिताः सन्तः संयतानां कुर्युः ॥ ३६०७ ॥ ___एते तावत् स्वयं करणे दोपा अभिहिताः । अथ स्वयं संसृष्टं कर्तुमसमर्थी अन्यैः कारयन्ति यो बा कोऽप्यन्यः प्रक्षिपति तमनुमोदयन्ति तत इमे दोषाः कारावणमण्णेहिं, अणुमोदण उम्हमादिणो दोसा । दुविहे वतिकमम्मि, पायच्छित्तं भवे तिविहं ॥ ३६०८ ॥ ___ अन्यैः कारापणे कुर्वतो वा अनुमोदने उष्मादयो दोषा भवन्ति । उष्मा नाम-तेनात्युष्णद्रव्येण तस्य अगारिणो हस्तादौ परितापः, आदिशब्दाद् यदीयं द्रव्यमसौ तत्र प्रक्षिपति स तेन सहासङ्खडं कुर्यात् – कस्मान्मदीयं म्पृशसि ? इति । एवमादयो दोषाः । अत्र च 'द्विविध 30 व्यतिक्रमे लौकिक-लोकोतरिकमर्यादातिकनरूपे प्रायश्चित्तं त्रिविधं भवति । तत्रैकं स्वयं करणे, द्वितीयं कारापणे, तृतीयमनुमताविति ॥ ३६०८॥ इदमेवोत्तरार्द्ध व्याचष्टे लोउत्तरं च मेरं, अतिचरई लोइयं च मेलंतो। अहवा सयं परेहि य, दुविहो तु वतिक्कमो होति ॥ ३६०९॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाण्यगायाः ३६०६-१३) द्वितीय उद्देशः । पहामेल्लगम्मि ठाणे, दोहि वि गुरुगा तवेण कालेण । वितियम्मि य तवगुरुगा, कालगुरू होति ततियम्मि ।। ३६१०॥ सागाारेकचोल्लकमितरेषां चोल्लकैः समं मीलयन 'लोकोत्तरिकी मर्यादां' "न कल्पते सागारकपिण्डोऽसंसृष्टः संसृष्टः कर्तुम्" इति भगवदाज्ञालक्षणां 'लौकिकी च' 'न मीलनीया अस्माकं चोल्लकाः' इत्येवंरूपां मर्यादाम् ‘अतिचरति' अतिक्रामतीत्यर्थः । अथवा खयं करणं परैश्च । क्रियमाणस्य खादनमित्येवं द्विविधो व्यतिक्रमो भवति ॥ ३६०९॥ तत्र 'प्रथमस्थाने' स्वयंकरणलक्षणे चत्वारा गुरवो द्वाभ्यामपि गुरुकाः, तद्यथा-पसा कालेन च । 'द्वितीये' कारापणे त एवं चत्वारा गुरवस्तपोगुरुकाः । 'तृतीये' अनुमोदनालक्षणे स्थाने त एव चतुर्गुरुकाः कालगुरवो भवन्ति ।। ३६१० ॥ किञ्च अम्हच्चयं छूटमिणं किमहा, तं केण उत्ते कहिते जतीहिं। 10 ते चेव तोयादि पवत्तणा य, असिह तेणे व असंखडादी ।। ३६११॥ अस्मदीयं तदिदं द्रव्यं किमर्थं केनान्यत्र प्रक्षिप्तम् ?, इत्थं सङ्कडिकारिभिः साक्षेपमुक्ते रक्षपालो ब्रवीति-यतिभिरिदमेकत्र मीलितम् । एवं कथिते सति त एव 'तोयादयः' उदकस्पर्शन-भण्डनादयो दोषाः । अथ ते भद्रकास्ततः 'साधुहस्तेन पवित्रीभूतमिदन्' इति मत्या प्रवत्तनं कुर्युः । अथासौ रक्षपालो न कथयाते ततः 'अशिष्टे' अकथिते 'तेनैव' रक्षपालेन 15 सममसङ्खडं कुर्युः, आदिशब्दाद् वधं वा वन्धं वा ते तस्य कुर्वन्ति । यत एते दोषा अतो नासंसृष्टं संसृष्टं कर्त्तव्यं कारयितव्यं क्रियमाणमनुमोदयितव्यं चेति ॥ ३६११॥ अथ द्वितीयपदमाह___ अद्धाणणिग्गयादी, पविसंता वा वि अहव ओमम्मि । अणुमोदण कारावण, पमुणिक्खंतस्स वा करणं ॥ ३६१२॥ अध्वनो निर्गता आदिशव्दाद् अशिवादिविनिर्गता अध्वनि वा प्रविशन्तोऽथवाऽवमौदर्य वर्तमानाः संसृष्टं पिण्डं कुर्वन्तः प्रथममनुमोदनं ततः कारापणमपि प्रतिसेवन्ते । यो वा प्रभुः-- बलवान् राज-गणसम्मतो वा निष्क्रान्तः--प्रतिपन्नदीक्षस्तस्य खयमपि करणं भवतीति सङ्ग्रहगाथासमासार्थः । अथ विस्तरार्थोऽभिधीयते-ते साधवो विप्रकृष्टादध्वनो निर्मतास्तं पा प्रविशन्तोऽवमौदये वा अन्यत्र पर्याप्तमलभमानास्तत् सागारिकसत्तं द्रव्यं निग्धं शरीरोपटक मत्वा प्रथमं तावदन्यं संसृष्टं कुर्वन्तमनुमोदयन्ति । अथान्यः संसृष्टं कुर्वन्न प्राप्यते ततः कारयेयुरपि ॥ ३६१२ । कथम् ? इत्याह-- पुराण सागं व महत्तरं वा, अण्णं व गाहेति तहिं च छोडं। गागारिओ वा वि विगोपिको जो, सपिंडमगोसु तु संदधाति ।। २६१३॥ पुराज पधात्कृतम् , तदप्राप्तौ प्रतिपन्नाशुवतं श्रावकम् , तदभावे बखत महत्तरस्तम् ,:0 'अन्यं वा' प्रमाणभूतं तत्र' अन्यविण्डषु सागारिकपिण्डं प्रक्षेप्तुं 'ग्राहयन्ति' प्रज्ञापयन्तीत्यर्थः । यो वा सागारिकः विकोविदः' विशेगेण साधुसामाचारी कुशलः स खकीयं पिण्डमन्येषु पिण्डेषु 'सन्दवाति मिअवतीत्यर्थः ।। ३६१३ ॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २००४ सनियुक्ति-लघुनाट्य-वृत्तेके वृहत्कल्पसूत्रे [ आहृतिका० सूत्रम् १७ सम्मिस्सियं वा वि अमिस्सियं वा, गिण्हंति गीता इतरेहिँ मिस्सं । कारेंतऽदिटुं चविगोवितेस् , दिटुं च तप्पच्चयकारि गीता ॥ ३६१४ ॥ यदि सर्वेऽपि गीतार्थास्ततः सम्मिश्रितं वा अमिश्रितं वा सागारिकपिण्डं गृह्णन्ति । अथ 'इतरैः' अगीतार्थैर्युक्तास्ततः 'मिथ' संसृष्टं गृह्णन्ति नासंसृष्टम् । अथासंसृष्टं ( अथ संसृष्टं) न 5 प्राप्यते अविकोविदाश्च-अगीतार्थास्तत्र सन्ति ततः 'अदृष्टं' यथा ते न पश्यन्ति तथा पुराणादिना संसृष्टं कारयन्ति । अथादृष्टे कार्यमाणे तेषामप्रत्यय उत्पद्यते, यथा-एतैः सागारिकपिण्ड एवासंसृष्ट आनीतः; ततस्तत्प्रत्ययकारिणो गीतार्थास्तैदृष्टमपि संसृष्टं कारयन्ति ॥ ३६१४ ॥ अथ “पभुनिक्खंतस्स वा करणं" (गा० ३६१२) इति पदं व्याख्यानयति जो उजिओ आसि पभू व पुव्वं, तप्पक्खिओ राय-गणच्चिओ वा। 10 सवीरिओ पक्खिवती इमं तु, वोत्तूण किं अच्छइ एस वीसुं ।। ३६१५ ॥ यस्तत्र ग्रामे पूर्वम् 'ऊर्जितः' बलवान् 'प्रभु' अधिपतिरासीत् , 'तत्पाक्षिको वा' तस्य ग्रामस्य हितैषी 'राज-गणाञ्चितो वा' राजसम्मतो मल्लादिगणसम्मतो वा आसीत् , एवंविधोऽपि यः 'सवीर्यः' शक्तिमान् , भाजनभेदादयो दोषा यस्य न भवन्तीति भावः; सः 'एन' सागारिकपिण्डमन्यपिण्डेषु प्रक्षिपति, परमिदं वचनमुक्त्वा, यथा-किमेषः 'विष्वक्' पृथक् तिष्ठ15 तीति ॥ ३६१५ ॥ ॥ सागारिकपारिहारिकप्रकृतं समाप्तम् ॥ आ ह ति का नि है ति का प्र कृ त म् सूत्रम् सागारियस्स आहडिया सागारिएण पडिग्गाहिया, तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिग्गाहित्तए। सागारियस्स आहडिया सागारिएण अप्पडिग्गा हिया, तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिग्गाहित्तए १७॥ अथास्य सूत्रस्य कः सम्बन्धः ? इत्याह नीहडसागरिपिंडस्स विवक्खो आहडो अह उ जोगो । 25 नीहडसुत्ते पुणरवि, जोगो संदट्ठओ नाम ॥ ३६१६ ॥ पूर्वसूत्रे निर्हतः सागारिकपिण्ड उक्तः, इह तु तद्विपक्ष आहृत उच्यते । 'अथ' एष प्रस्तुतसूत्रस्य 'योगः' सम्बन्धः । तथा इतः सूत्रादनन्तरं पुनरपि निर्हतसूत्रं भविष्यति ततोऽयं सूत्रत्रयस्य 'योगः' सम्बन्धः सन्दष्टको नाम मन्तव्यः । किमुक्तं भवति ?-आदौ निह. १ च अगोवि तामा० चूणि विशेषचूर्णिं च विना ॥ २ °ति तद्विषयश्च 'योगः' भा० ॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३६१४-२०] द्वितीय उदेशः ! १०६५ तसूत्रम् , मध्ये आहृतसूत्रम् , अवसाने तु भूयोऽपि निहतसूत्रम् ; एष ईदृशः सम्बन्धः सहशपूर्वापरसूत्रद्वयेन सन्दंशकेनेव गृहीतत्वात् सन्दष्टक इत्यभिधीयते । अनेन वक्ष्यमाणसूत्रस्याप्यत्रैव सम्बन्धोऽभिहित इति ॥ ३६१६ ॥ । अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या---'आहृतिका' प्रहेणकं सा सागारिकस्य गृहे कुतोऽपि गृहान्तरादागता, सा च सागारिकेण 'प्रतिगृहीता स्वीकृता, 'ततः' तस्या मध्याद दद्याद नो । "से" तस्य साधोः कल्पते प्रतिग्रहीतुम् । सागारिकस्याहृतिका सागारिकेण 'अप्रतिगृहीता' न खीकृता तस्या मध्याद् दद्यादेवं "से" तस्य साधोः कल्पते प्रतिग्रहीतुमिति सूत्रसङ्गेपार्थः ।। साम्प्रतं नियुक्तिविस्तरः आहडिया उ अभिघरा, कुलपुत्तग भगिणि मट्टिगालित्ते । . दवे खेत्ते काले, भावम्मि य होइ आहडिया ॥ ३६१७ ॥ 10 अभिशब्दोऽत्र पृथगर्थवाचकः । ततश्च 'अभिगृहाद्' अपरस्माद् वेश्मनो यद् विशिष्टं खाद्यकद्रव्यमागतं सा आहृतिका भण्यते । सा चैवं सम्भवति-कश्चित् कुलपुत्रकः कचिद् ग्रामे परिवसति, तस्य चान्यदा प्राघूर्णकः समायातः तदर्थे विविधमतिशायि द्रव्यमुपस्कृतम्, कुलपुत्रस्य च भगिनी तत्रैव ग्रामे परिणीता तदर्थ खकीयभार्याहस्ते घृतपूरादिकं प्रेषयति, सा च भगिनी तदानीं मृत्तिकालिप्तहस्ता ततस्तां भ्रातृजायां ब्रवीति-स्थापय त्वमिदममुकत्र प्रदेशे, 15 अहमिदानीमक्षणिका तिष्ठामीति । सा चाहृतिका चतुर्दा, तद्यथा-द्रव्याहृतिका क्षेत्राहतिका कालाहृतिका भावाहृतिका चेति ॥ ३६१७ ॥ अथैनामेव नियुक्तिगाथां विवरीषुराह आएसट विसेसे, सति काले भगिणि संभरित्ताणं । भजि भजाहत्थे, कुलओ पेसेति भगिणीए ॥ ३६१८ ॥ आदेशः-प्राघूर्णकस्तदर्थ घृतपूर-लपनश्रीप्रभृतेः खाद्यकद्रव्यस्य विशेष सञ्जाते सति 'काले' 20 भोजनदेशकाले भगिनी संस्मृत्य भार्याहस्ते 'भर्जिकां' प्रहेणकं 'कुलजः' कुलपुत्रको भगिनीनिमित्तं प्रेषयति एषा आहृतिकोच्यते । अस्यां च चत्वारो भङ्गाः, तद्यथा--द्रव्यतः प्रतिगृहीता न भावतः १ भावतः प्रतिगृहीता न द्रव्यतः २ द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि प्रतिगृहीता ३ नापि द्रव्यतो नापि भावतः प्रतिगृहीता ४ ॥ ३६१८ ॥ एषां यथाक्रमं भावनामाहउच्छंगें अणिच्छाए, ठविया दव्यगहिया ण पुण भावे । 25 एत्थ पुण भद्द-पंता, अचियत्तं चैव घेप्पंते ॥ ३६१९ ॥ वावार मट्टिया-असुइलित्तहत्था उ बिइयओ भंगो। दोसु वि गहिए तइओ, चउत्थभंगे उ पडिसेहो ॥ ३६२० ॥ यदर्थं सा भर्जिका प्रेषिता सा भगिनी तं भ्रातरं प्रति केनापि कारणेन रुष्टा सती भ्रातृजायया समर्प्यमाणामपि तां न गृह्णाति, ततस्तया ननान्दुरुत्सङ्गेऽनिच्छयाऽपि सा भर्जिका 30 स्थापिता, एषा द्रव्यतः प्रतिगृहीता न पुनर्भावतः । इयं च शय्यातरपिण्डो न भवति, भावतो १ "आएसट्टऽइसेसे" इति पाठः चूर्णी विशेषचूर्णौ च । तथाहि-"पाहुणगस्स अट्ठाए अतिसेसगं दव्वं खज्जगादि कतं" इति । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००६ सनियुक्ति-लधुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [आहृतिका० सूत्रम् १७ ऽगृहीतत्वात् । परमत्र पुनर्भद्रक-प्रान्तदोषा भवन्ति, भद्रकस्तन्निश्रया प्रक्षेपं प्रान्तस्तु निष्काशन• वसतिव्यवच्छेदादिकं कुर्यादिति भावः । अप्रीतिकं चैवं गृह्यमाणे भवति-किमेष मदीयः पिण्डो न भवति येनैवममी इदं गृह्णन्ति ? ॥ ३६१९ ॥ - तथा सा भगिनी यदा कमपि दलन-पेषणादिव्यापारं कुर्वाणा मृत्तिकया वा अशुच्या वा 5 लिप्तहस्ता भवति तदा ब्रवीति-स्थापय त्वममुकत्र प्रदेशे, एषा भावतः प्रतिगृहीता न द्रव्यत इति द्वितीयो भङ्गः । तृतीये तु भङ्गे 'द्वाभ्यामपि' द्रव्य-भावाभ्यां प्रतिगृहीता । चतुर्थभङ्गे 'द्वाभ्यामपि' द्रव्य-भावाभ्यां प्रतिषेधः । किमुक्तं भवति ?-सा भगिनी रुष्टा सती बलादlमाणामपि तां भर्जिका हस्ताभ्यामपि न स्पृशतीति । सा चाहृतिका द्रव्य क्षेत्र-काल-भावभेदात् चतुर्विधा । पुनरेकैका द्विविधा-छिन्ना अच्छिन्ना च ॥ ३६२० ॥ अर्थता एव भावयति10. संकप्पियं व दव्वं, दिट्ठा खेत्तेण कालतो छिन्नं । दोसु उ पसंगदोसा, सागारिऍ भावतो दुविहो ॥ ३६२१ ॥ - यद् द्रव्यं सङ्कल्पितम् , यथा-अमुकं घृतपूरादिकं तत्र गृहे नेतव्यम् , वाशब्दस्यानुक्त प्रकारान्तरद्योतकत्वाद् यद् वा तत्र गृहे नयनाथ पृथक् स्थापितम् , तदुभयमपि द्रव्यतश्छिन्नम् । __ या पुनराहृतिका खगृहमानीयमाना सागारिकेण दृष्टा सा क्षेत्रतश्छिन्ना । तथा 'अमुकस्यां . 15 वेलायां नेतव्यम्' इति निर्दिष्टं द्रव्यं कालतश्छिन्नम् । उपलक्षणमिदम् , तेने 'न नेष्यामि' इति यत्र भावो निवृत्तस्तद् भावतश्छिन्नम् । अच्छिन्ना त्वाहृतिका चतुर्दाऽप्येतद्विपरीता । तथा 'द्वयोर्भङ्गयोः', 'द्रव्यतः प्रतिगृहीता न भावतः, नापि द्रव्यतो नापि भावतः प्रतिगृहीता' इत्येवंलक्षणयोः न सागारिकपिण्डः, परं प्रसङ्गदोषान्न गृह्यते । "भावउ' त्ति 'भावतः प्रतिगृहीता न द्रव्यतः' इत्येवंरूपो यो भङ्गः, यश्च 'द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि प्रतिगृहीता' इत्येवंलक्षणो द्विविधः 20 प्रतिगृहीतो भङ्गः, एतयोः सागारिकपिण्ड इति कृत्वा न कल्पते ॥ ३६२१ ॥ अथैनामेव नियुक्तिगाथां व्याचष्टे संकप्पियं वा अहवेगपासे, सगारिदि8 अमुगं तु वेलं । नियट्ट भावे नऽमुगं अदिट्ठा, काले ण निद्देस अछिन्न भावे ॥ ३६२२ ॥ यद् घृतपूरादि तत्र गृहे नयनाय सङ्कल्पितम् , अथवा यदेकपाधै विश्वक् स्थापितं तदेतद् 25 द्रव्यतश्छिन्नम् । सागारिकेण खगृहमानीयमानं यद् दृष्टं तत् क्षेत्रतश्छिन्नम् । 'अमुकस्यां' मध्याह्रादिलक्षणायां वेलायां नेतव्यमिति निर्दिष्टं कालतश्छिन्नम् । यत्र तु 'न नेष्यामि' इति भावो निवृत्तस्तद् भावतश्छिन्नम् । एवं चतुर्दाऽपि छिन्नं व्याख्यातम् । अथाच्छिन्नं व्याख्याति"नऽमुगं" इत्यादि । यद् द्रव्यममुकं नेतव्यमिति न सङ्कल्पितं न वा पृथक् स्थापितं तद् द्रव्यतोऽच्छिन्नम् । या वा आहृतिका सागारिकेणानीयमाना न दृष्टा तत् क्षेत्रतोऽच्छिन्नम् । 30 कालेऽच्छिन्नं यत्र प्रतिनियताया वेलाया निर्देशो नास्ति । भावेऽच्छिन्नं तु यत्राद्यापि 'नेष्यामि' इति भावोऽव्यवच्छिन्नः, न निवर्तते इत्यर्थः ॥ ३६२२ ॥ अथात्रैव ग्रहणविधिमाह भावो जाव न छिज्जइ, विप्परिणय गेण्ह मोत्तु खेत्तं तु । १ तेन 'नेष्यामि' भा० कां० विना ॥ २ खेत्तम्मि ताभा० ॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 भाष्यगाथाः ३६२१-२७] द्वितीय उद्देशः । १००७ खेत्ते वि होति गहणं, अद्दिढे विप्परिणतम्मि ॥ ३६२३ ॥ भावो यावदद्यापि न व्यवच्छिद्यते तावन्न कल्पते । यदा तु 'न नेष्यामि' इति भावः 'विपरिणतः' व्यवच्छिन्नस्तदा क्षेत्रच्छिन्नं मुक्त्वा यदन्यत् क्षेत्रतोऽच्छिन्नं यच्च द्रव्यतः कालतश्च छिन्नमच्छिन्नं वा तद् ग्रहीतुं कल्पते, » क्षेत्रच्छिन्नं तु न कल्पत इति भावः । अथैतदेवापवदति-"खेते वि" इत्यादि । क्षेत्रच्छिन्नस्यापि ग्रहणं भवति यदि स तद् द्रव्यं । नयन्नपान्तराले 'न नेष्यामि' इति विपरिणतो भवति, तच्च सागारिकेण अदृष्टम्- अदृश्यमानं अहीतव्यम् ॥ ३६२३ ॥ यतः पुरतो पसंग-पंता, अचियत्तं चेव पुव्वभणियं तु । बितिय-ततिया उ पिंडो, पढम-चउत्था पसंगेहिं ॥ ३६२४ ॥ __ अथ सागारिकस्य पुरतो गृह्णन्ति ततो भद्रकः प्रसङ्गः तन्निश्रया तत्र प्रक्षेपम्, प्रान्तश्च निष्का-1 शनादिकं कुर्यात् , अप्रीतिकं च पूर्वभणितं तस्य तथापश्यतो गृह्यमाणे भवति, ततः पुरतो न ग्रहीतव्यम् । तथा द्वितीय-तृतीयौ भङ्गो शय्यातरपिण्ड इति कृत्वा परिहर्त्तव्यौ । प्रथम चतुर्थी तु न शय्यातरपिण्डः, परं प्रसङ्गदोषभयात् तावपि परिहर्तव्यौ ।। ३६२४ ॥ अथाचार्यों विनेयवर्गव्युत्पादनार्थमाक्षेप-परिहारौ निरूपयितुकाम इदमाह कप्पइ अपरिग्गहिया, णिक्खेवे चउ दुगं अजाणंता । जाणंता वि य केई, सम्मोहं काउ लोभा वा ॥ ३६२५ ॥ केचिदाचार्या निक्षेपचतुष्कस्य-'द्रव्यतः प्रतिगृहीता न भावतः' इत्यादिलक्षणभङ्गचतुष्टयस्य 'द्विकं' प्रथम-चतुर्थभङ्गद्वयमाश्रित्येदं सूत्रं प्रवृत्तमित्येवंविधमर्थमजानन्तः, यद्वा जानन्तोऽपि तदर्थ केचिदगीतार्थानां सम्मोहं कृत्वा लोभाद् ब्रुवते-कल्पते सागारिकेणापरिगृहीता आहृतिका ॥ ३६२५ ॥ इदमेव स्पष्टयति__ जं आहडं होइ परस्स हत्थे, जं णीहडं वा वि परस्स दिन्न । तं सुत्तछंदेण वयंति केई, कप्पं ण चे सुत्तमसुत्तमेवं ॥ ३६२६ ॥ यद् 'आहृतकं' प्रहेणकं शय्यातरगृहमानीयमानं परस्य हस्ते भवति, एतेन प्रस्तुतमेव सूत्रं गृहीतम् ; यच्च 'निहतं' सागारिकगृहाद् निष्काशितं परस्य दत्तम् , अनेन च वक्ष्यमाणं सूत्रमुपात्तम् ; तदेवंविधं द्रव्यं 'सूत्रच्छन्देन' सूत्राभिप्रायेण 'कल्प्यं' कल्पनीयम् 'न' नैव 'चेद' 25 यदि आचार्य ! एवमस्मदुक्तं मन्यसे ततः सूत्रमसूत्रमेव प्राप्नोति, अप्रमाणमित्यर्थः । एवं केचिदाचार्यदेशीया वदन्ति ॥ ३६२६ ॥ अत्र सूरिः प्रतिवचनमाह सुतं पमाणं जति इच्छितं ते, ण सुत्तमत्थं अतिरिच्च जाती। अत्थो जहा पस्मति भृतमत्थं, तं सुत्तकारीहिँ तहा णिबद्धं ॥३६२७॥ यदि 'ते' तव सूत्रं प्रमाणत्वेन 'इष्टम्' अनुमतं तत इदमप्यक्षिणी निमील्य विचारयतु 30 देवानांप्रियः-सूत्रं तावद् 'अर्थ' व्याख्यानमतिरिच्य 'न याति' न प्रवर्त्तते, नायवुध्यते २ अद्दिष्टं विप्प तामा० ॥ २॥ एतचिह्नमध्यवर्ती पाठः भा० कां० एव वर्त्तते ॥ ३र्थः ॥ ३६२६ ॥ एवमाचार्यदेशीयेनोक्ते सूरिः भा० ॥ 20 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति लघुभान-वृत्तिके हकल्पसूत्रे आहृतिका ० सूत्रम् १५ इत्यर्थः; अत एव 'अर्थः' नियुक्ति-भाष्यादिरूपः 'यथा' येन प्रकारेण 'भूतं' सद्भूतम् 'अर्थम्' अभिधेयं पश्यति 'सूत्रकारिभिरपि' गणधर-स्थविरैः 'तत्' सूत्रम् 'तथा' तेनैवाभिप्रायेण निबद्धमवसातव्यम् ॥ ३६२७ ॥ अमुमेवार्थ द्रढयति छाया जहा छायवतो णिबद्धा, संपत्थिए जाति ठिते य ठाति । अत्थो तहा गच्छति पजवेसू, सुत्तं पि अत्थाणुचरं तहेव ॥३६२८॥ ___ 'छाया' प्रतीता, सा यथा 'छायावतः' पुरुषादेः 'निबद्धा' परतन्त्रा सती तस्मिन् सम्प्रस्थिते याति, स्थिते च तस्मिन् साऽपि तिष्ठति; तथाऽत्रापि छायावत्पुरुषस्थानीयोऽर्थों येषु 'पर्यायेषु' भङ्गकादिविषयेषु प्रकारेषु गच्छति सूत्रमपि छायास्थानीयं तस्यैवार्थस्यानुचरं सत् 'तथैव' तेषु तेषु पर्यायेषु गच्छति ॥ ३६२८ ॥ इदमेव स्पष्टतरमाह10 जं केणई इच्छइ पजवेण, अत्थो ण सेसेहि उ पञ्जवेहि ।। विही व सुत्ते तहि वारणा वा, उभयं व इच्छंति विकोवणट्ठा ॥ ३६२९ ॥ _ 'अर्थः' व्याख्यानविधिर्येन केनचित् पर्यायेण यत् सूत्रं ग्रहीतुमिच्छति न ‘शेषैः' अपरैः पर्यायैः, तत्र स एव प्रमाणयितव्यो न शेषा इति वाक्यशेषः । यथेहैव सूत्रे यथाभावेन विपरि णते आनेतरि यदि सागारिको न पश्यति ततः कल्पते प्रतिग्रहीतुं तद् द्रव्यम् । एतेन पर्या 15 येण अर्थ आहृतिकामिच्छति, न शेषैरविपरिणत-क्षेत्रच्छिन्नतादिभिः पर्यायैः । एवमर्थेनेप्सितेऽनीप्सिते वा वस्तुनि सूत्रकारः कथं सूत्रं बनीयात् ? इत्याह-विधिर्वा तत्र सूत्रे वक्तव्यः, यथा अत्रैवाऽऽहतिकासूत्रे द्वितीये आलापके; 'वारणा वा प्रतिषेधः, यथेहैव प्रथमे आलापके; 'उभयं वा' विधि प्रतिषेधरूपं कचिदेकत्रापि सूत्रे शिष्यमति विकोपनार्थ सूरय इच्छन्ति, यथा "कप्पइ निग्गंथीणं पक्के तालपलंबे भिन्ने पडिग्गाहित्तए, से वि य विहिभिन्ने नो चेव णं अवि20 हिभिन्ने ।" (उ० १ सू० ५)॥ ३६२९ ॥ अपि च उस्सग्गओ नेव सुतं पमाणं, ण वाऽपमाणं कुसला वयंति । __ अंधो य पंगुं वहते स चावि, कहेति दोण्हं पि हिताय पंथं ॥ ३६३०॥ 'उत्सर्गतः' सामान्येन 'श्रुतं' सूत्रं नैव प्रमाणं न वा अप्रमाणम् , किन्तु पूर्वापराविरुद्धवृद्धसम्प्रदायागतेनार्थेन युक्तं प्रमाणम् , अन्यथा पुनरप्रमाणम् , इत्येवं 'कुशलाः' तीर्थकर25 गणधरा वदन्ति । तथाहि-यथा किल कश्चिदन्धो देशान्तरं गन्तुमनाः वयं मार्गमपश्यन् पहुं गन्तुमशक्तं चक्षुष्मत्तया स्कन्धे विन्यस्य वहति, 'स चापि' पङ्गुः 'द्वयोरपि' आत्मनस्तस्य च 'हिताय' गर्चा-प्रपातायुपद्रवरक्षणाय 'पन्थान' मार्ग कथयति । एवमर्थेनाप्रबोधितं सद् अन्धस्थानीयं सूत्रम् , तद् यदा पङ्गुस्थानीयमर्थमात्मन उपरिकृतं वहति तदा सोऽप्यर्थः सूत्रनिश्रया गच्छन् सम्यग्विषयविभागदर्शितया निष्प्रत्यपायं मुक्तिमार्गमुपदिशतीति, अतोऽर्थसव्यपेक्षमेव 30सूत्रं प्रमाणमिति स्थितम् ॥३६३०॥ अथ "जाणंता वि य केई, सम्मोहं काउ लोभा वा ।" (गा० ३६२५) इति पश्चार्द्ध व्याचष्टे अप्पस्सुया जे अविकोविता वा, ते मोहइत्ता इमिणा सुएण । १°मर्थोऽपीपिस भा० कां० ॥ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३६२८--२४ द्वितीय उद्देशः : १००९ तेसिं पगासो वि तमंतमेति निसाविहंगेसु व सूरपादा ॥ ३६३१ ॥ ये 'अल्पश्रुताः' अधीतस्वल्पसूत्रा ये वा 'अविकोविदाः' अगीतार्थास्तान् अनेन सूत्रेण मोहयित्वा विजानन्तोऽपि लोभबहुलतया सागारिकस्याहृतिकापिण्डं ग्राहयन्तीति वाक्यशेषः । 'तेषां च' एवं मोहितानां 'प्रकाशः' प्रस्तुतसूत्रस्यार्थः कथ्यमानोऽपि 'तमस्तमायते' प्रबलान्धकारतया परिणमते । यथा 'निशाविहङ्गाः' उलूकाद्यास्तेषु सूर्यस्य पादाः-किरणाः प्रकाशरूपा 5 अपि महान्धकारीभवन्ति ॥ ३६३१ ॥ आह-यद्येवं ततः "कल्पते सागारिकेणापरिगृहीता आहृतिका" इति प्रस्तुतसूत्रं कथं नीयते ? अत्रोच्यते अहभावविप्परिणए, अदिट्ट सुयं तु तम्मि उ पउत्थे । नीहडियाए पुरओ, संछोभगमादिणो दोसा ॥ ३६३२॥ यस्तामाहृतिका प्रहिणोति नयति वा तस्मिन् यथाभावं-खयमेव विपरिणते-न प्रहेष्यामि 10 न नेष्यामीति वा विपरिणाममापन्ने कल्पते । यद्वा तेन तंत्रागच्छता श्रुतम्-यस्य सकाशमहमिदं नयामि स प्रोषितः-ग्रामान्तरं गतः, ततस्तस्मिन् प्रोषिते सति स नेता 'न नयामि' इति विपरिणतः, अत्रान्तरे साधवः समायाताः ततः सागारिकेणादृष्टं कल्पते प्रतिग्रहीतुम्, अत्र सूत्रनिपातः । तथा वक्ष्यमाणसूत्रे भणिष्यमाणायां निर्हतिकायां सागारिकस्य पुरतो गृह्यमाणायां संछोभकः-प्रक्षेपक आदिशब्दाद् निष्काशन-शय्याव्यवच्छेदादयश्च दोषा भवन्ति, 15 अतः सागारिकस्य पुरतः सा न ग्रहीतव्या ॥ ३६३२ ॥ अत्र कथं स तत्राहृतिकां नयन् विपरिणमति ? इत्युच्यते नीयं पि मे ण घेच्छति, धम्मो व जतीण होति देंतस्स। वसणऽब्भुदओ वा सिं, भंडणकम्मे व अद्दण्णा ॥ ३६३३॥ भया तत्र नीतमप्येतद् घृतपूरादिकं स न ग्रहीष्यति, यद्वा यतीनामेवंविधै द्रव्यं ददतो 20 मम धर्मो महान् भवति, अथवा येषां समीपे तद् नीयते तेषां खजनमरण-धनहरणादिकं व्यसनं शोककारणमजनिष्ट, 'अभ्युदयो वा' कोऽप्युत्सवविशेषस्तेषां वर्त्तते, 'भण्डनं वा' कलहेस्तदानीं महता भरेण वर्त्तते, 'कर्मणि वा' कृष्यादौ ते 'अन्नाः' अक्षणिकाः सन्ति ततो नीतमपि नामी ग्रहीष्यन्ति ॥ ३६३३ ॥ इति भावम्मि णियत्ते, तेहि अदिट्ठस्स कप्पती गहणं ।। छेत्तादिणिग्गतेसु व, कप्पति गहणं जहिं सुत्तं ॥ ३६३४ ॥ 'इति' अनन्तरोक्तप्रकारेण भावे निवृत्ते सति येषां समीपे तद् नीयते 'तैः' शय्यातरमानुपैरदृष्टस्य कल्पते ग्रहणम् । यद्वा क्षेत्र-खलादौ निर्गतेषु तेषु ग्रहणं कल्पते । एवं यत्र सूत्रमवतरति स एष विषय उक्त इति ॥ ३६३४ ॥ १°ल्पसूत्राः' अधी° त. डे० ॥ २ तेषां 'प्रकाशः' अर्थः स चेह "भावो जाव न छिज्जह" (गा०३६२३) इत्यादिप्रागुक्तगाथारूपो गृह्यते, सोऽपि भा० ॥ ३ तथा गच्छता भा० कां० विना ॥ ४ या विवाहादिक उत्सव भा० ॥ ५ °हस्तेषां तदानीं भा० ॥६ ताटी.. कां• मो० ले• विनाऽन्यत्र-त्र-खलादिनिर्ग° भा० ।-कालादौ निर्ग त. दे.॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 10 15 १०१० सूत्रम् - सागारियस्स नीहडिया परेण अपडिग्गाहिता, तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिग्गा हित्तए । सागारियस नीहडिया परेण पडिग्गाहिया, तम्हा दाव एवं से कप्पइ पडिग्गाहित्तए १८ ॥ • अस्य सम्बन्धः प्रागेवोक्तः । व्याख्याऽपि प्राग्वत् । नवरं . सागारिकद्रव्यं यदन्यत्र नीयते सा निर्हृतिकेत्युच्यते । सा यस्य समीपे प्रेषिता तेनाप्रतिगृहीता न कल्पते, प्रतिगृहीता कल्पते ॥ अथ भाष्यम् – पढम- चउत्था पिंडो, वितिओ ततिओ य होति उ अपिंडो । पुरतो ते विवि, भद्दग - पंतेहिं दोसेहिं ॥ ३६३५ ॥ निर्हतिकायामपि द्रव्यतः प्रतिगृहीता न भावत इत्यादयश्चत्वारो भङ्गाः । नवरमत्र प्रथम - चतुर्थौ भङ्गौ शय्यातरपिण्डः, एकत्र भावतोsपरत्र तु द्रव्यतो भावतश्च परेणाप्रतिगृहीतत्वात् । द्वितीयस्तृतीयश्च भङ्गो न भवति शय्यातरपिण्डः, परं सागारिकस्य पुरतः 'तावपि ' द्वितीयतृतीयभङ्गौ भद्रक-प्रान्तदोषभयाद् विवर्जयेयुः || ३६३५ ॥ तत्र भद्रकस्तन्निश्रया प्रक्षेपं कुर्यात्, यस्तु प्रान्तः स इदं ब्रूयात् सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ आहृतिका ० सूत्रम् १८ . केणावि अभिपाएण दिजमाणं पि णेच्छिउं पुवि । 'अम्हे ओभावेंता, पुरओ च्चिय णे पडिच्छंति ॥ ३६३६ ॥ मी श्रमणाः केनाप्यभिप्रायेण पूर्वमस्माभिर्दीयमानमपि 'अनीप्सित्वा' अप्रतिगृह्य साम्प्रतं 'बहुजनमध्येऽस्मानपभ्राजयन्त इत्थमस्माकमेव पुरत इदमेव द्रव्यं प्रतीच्छन्ति ॥ ३६३६ ॥ 20 किं तं न होति अम्हं, खेत्तंतरियं व किं विसमदोसं । सुव्वत्त सोत्तिगादिव, चरेंति जतिणो वि डंभेणं ॥ ३६३७ ॥ किमेतद् द्रव्यमिदानीमस्माकं सत्कं न भवति ?, अथ 'क्षेत्रान्तरमागतम्' इति कृत्व कल्पते तदप्यसङ्गतम्, यतः क्षेत्रान्तरितं विषं किमदोषं भवति ? तदमी सुव्यक्तं 'श्रोत्रिया इव' धिग्जातीया इव यतयोऽपि सन्तो दम्भेन चरन्ति । किमुक्तं भवति ? - धिग्जातीयाः 25 'अशूद्रान्निका वयम्' इति कृत्वा शूद्रगृहे न समुद्दिशन्ति परं तन्दुलादीनि गृह्णन्ति; यथा तेषा - शूद्रान्नतं दम्भ एवममीषामपि शय्यातर पिण्डपरिहारादिवतं दम्भ इव लक्ष्यते ॥ २६३७ ॥ अथाहृतिका निर्हतिका वा येषु कारणेषु गृह्यते तान्याह दुविहे गेलनम्मी, णिमंतणे दब्दुल असिवे | ओमोदरिय पओसे, भए य गहणं अणुष्णायं ॥ ३६३८ ॥ १ एतदन्तर्गतः पाठः भ० नास्ति ॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३६३५-४२] द्वितीय उद्देशः । १०११ अस्य व्याख्या प्राग्वत् (गा० ३५५०) ॥ ३६३८ ॥ अत्र निमन्त्रणापदं विशेषतो भावयति निबंधनिमंतेंते, भणंति भजि दलाहि जा एसा । तं पुण अविगीतेसुं, गीया इतरं पि गेण्हंति ॥ ३६३९ ॥ शय्यातरं महता निर्बन्धेन निमन्त्रयमाणं साधवो भणन्ति-~-या तवैषा भर्जिका-प्रहेण 5 आहृतिका निर्दृतिका वा तां प्रयच्छ । 'तत् पुनः' आहृतिकाया निर्हतिकाया वा ग्रहणमगीतार्थेषु कुर्वन्ति । ये तु गीतार्थास्ते 'इतरमपि' सागारिकपिण्डमपि गृहन्ति ॥ ३६३९ ॥ __णेच्छंतमगीतं एतिणेव सुत्तेण पत्तियाति । सच्छंदेण ण भणिमो, फुड-वियडमिणं भणति सुत्तं ॥ ३६४०॥ अथागीतार्थ आहृतिकां निहतिका वा नेच्छति ग्रहीतुं तत एतेनैव सूत्रेण प्रत्याययन्ति, 10 यथा-आर्याः ! वयं 'स्वच्छन्देन' खाभिप्रायेण न भणामः, किन्तु 'स्फुट-विकटम् अतीवव्यक्ताक्षरमिदमेव सूत्रं भणति, यथा-कल्पते सागारिकेणाप्रतिगृहीता आहृतिका परेण च प्रतिगृहीता निर्हृतिकेति ॥ ३६४०॥ अपि च--- जो तं जगप्पदीवहिं पणीयं सयभावपण्णवणं । ण कुणति सुतं पमाणं, ण सो पमाणं पवयणम्मि ॥ ३६४१॥ 15 'तत्' सकलत्रिलोकीप्रसिद्ध 'जगत्प्रदीपैः' भगवद्भिस्तीर्थकरैः प्रणीतं सर्वेषाम्-उत्सर्गाऽपवाद-निश्चय-व्यवहारादीनां भावानां प्रज्ञापना-अरूपणा यत्र तत् तथाविधं श्रुतं यः कश्चित् प्रमाणं न करोति नासौ 'प्रवचने' चतुर्वर्णसङ्घमध्ये प्रमाणं भवति ॥ ३६४१ ॥ अमुमेवार्थमन्योक्तिभङ्गया द्रढयति जस्सेव पभावुम्मिल्लिता' तं चेव हयकतग्घाई। कुमुदाइँ अप्पसंभावियाइँ चंद उवहसंति ॥ ३६४२॥ यस्यैव प्रभावेणोन्मीलितानि-प्रबुद्धानि तमेव चन्द्रं कुमुदान्युपहसन्तीति सण्टङ्कः । कथम्भूतानि ? इत्याह-हतकृतघ्नानि, हतशब्दो निन्दावाचकः, कृतघ्नतया पापानीत्यर्थः । आत्मानं सम्भावयन्ति–'वयमेव शोभनानि' इत्यभिमन्यन्ते तच्छीलानि च यानि तान्यात्मसम्भावीनि, । कुत्सितान्यात्मसम्भावीनि आस्मसम्भाविकानि । » एवंविधानि परमोपकारिण-25 मपि चन्द्रं 'वयमतीवावदातानि, भवास्तु सकलकत्वान्न तथा' इति वकीयश्वेतप्रभापटलेनोपहसन्तीवोपहसन्तीत्युच्यते । एवमार्याः ! भवन्तोऽपि यस्यैव प्रभावेणोन्मीलितविवेकलोचनाः सञ्जाताः तदेव श्रुतं साम्प्रतमप्रमाणयन्तो हतकृतना इव लक्ष्यन्ते । एवं प्रज्ञापिताः सन्तः प्रतिपद्यन्ते सूत्राशातनापातकभयादगीतार्था अप्याहृतिकादिग्रहणम् ॥ ३६४२ ॥ ॥ आहृतिका-निर्रतिकाप्रकृतं समाप्तम् ॥ 30 १० एतन्मध्यगतः पाठः भा० एव वर्तते ॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Cr. १०१२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अंशिकाप्रकृत सूत्रम् १९ अंशि का प्रकृतम् सूत्रम् सागारियस्स अंसियाओ अविभत्ताओ अव्वोच्छिनाओ अव्वोगडाओ अनिजूढाओ, तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिग्गाहित्तए । सागारियस्स अंसियाओ विभत्ताओ वोच्छिन्नाओ वोगडाओ निजूढाओ, तम्हा दावए एवं से कप्पड़ पडिग्गाहित्तए १९॥ . अथास्य सम्बन्धमाह छिन्नममत्तो कप्पति, अच्छिण्णों ण कप्पती अह तु जोगो । पत्तेगं वा भणितो, इयाणि साहारणं भणिमो ॥ ३६४३॥ आहृतिका-निर्हतिकापिण्डवदंशिकापिण्डोऽपि सागारिकेण 'छिन्नममत्वः' 'ममायम्' इति भावाद् निवर्तितः कल्पते, अच्छिन्नममत्वस्तु न कल्पते । अथैषः 'योगः' सम्बन्धः । यद्वा 'प्रत्येकम्' एकस्यैव सागारिकस्य सत्कं पिण्डमाश्रित्य विधिर्भणितः । इदानीं तु सागारिकस्यान्येषां 15 च साधारणं पिण्डमधिकृत्य विधि भणामः ॥ ३६४३ ॥ अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या-सागारिकस्य या अंशिका तस्या अन्येषामंशिकाभ्योऽविभक्ताया अव्यवच्छिन्नाया अव्याकृताया अनिर्गुढाया मध्यात् कश्चिद् भक्त-पानं दद्यात् , नो "से" तस्य साधोः कल्पते प्रतिग्रहीतुम् । सागारिकस्यांशिका विभक्ता व्यवच्छिन्ना व्याकृता निगूढा च यस्माद् राशेर्भवति तस्माद् दद्यात् , एवं "से" तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुमिति सूत्र20 सङ्केपार्थः ॥ अथ नियुक्तिविस्तरः सागारियस्स अंसिय, अविभत्ता खेत-जंत-भोजेसु । खीरे मालाकारे, सगारदिहें परिहरंति ॥ ३६४४ ॥ सागारिकस्यांशिका अविभक्ता न कल्पते । सा च क्षेत्रे वा यन्त्रे वा भोज्येषु वा क्षीरे वा मालाकारे वा सम्भवति । अत्र च सागारिकदृष्टं सर्वत्रापि परिहरन्तीति नियुक्तिगाथासमा25 सार्थः ॥ ३६४४ ॥ अथैनामेव विवरीषुः सूत्रस्य विषमपदानि तावद् विवृणोति __ अंसो ति व भागो ति व, एगट्ठा पुंज एव अविभत्ता। कतभागो वि ण सव्वो, वोच्छिजति सा अवोच्छिण्णा ॥ ३६४५।। अंश इति वा भाग इति वा एकार्थे पदे । अंश एवांशिका, खार्थे कः प्रत्ययः । तत्र यावान् सागारिकादीनां साधारणश्चोल्लक उपस्कृतस्तावानद्याप्यखण्डः पुञ्ज एवं यदाऽऽस्ते न १ नियंढा मो० ले. ॥ २ स्वार्थिकः कप्रत्य° भा० ॥ ३ भा. विनाऽन्यत्र-°व अथस्ते त. डे. मो० ले । व......आस्ते कां० । °व अयस्ते ताटी० ॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उद्दशः । १०१३ भाव्यगाथाः ३६४३ - ५० ] भागादिविवक्षा कृता सा अंशिका अविभक्तेत्युच्यते । यत्र तु भागाः कृताः परं मूलराशिः कृतभागोऽपि न सर्वो व्यवच्छिद्यते सा अव्यवच्छिन्ना ॥ ३६४५ ॥ अव्बोगडा उ तुज्झं, ममं तु वा जा ण ताव णिद्दिसति । तत्थैव अच्छमाणी, होति अणिजूहिया अंसी || ३६४६ ।। सर्वेषामपि समा भागाः स्थापिताः परम् ' एष भागस्तव, एप पुनर्मम' इत्येवं यां न तावद् निर्दिशति साऽव्याकृताऽभिधीयते । या तु निर्दिष्टा परमद्यापि न ततोऽन्यत्र नीयते सा अंशिका तत्रैव तिष्ठन्ती अनिर्गूढा भवति । एवंविधा न कल्पते प्रतिग्रहीतुमिति || ३६४६ ॥ अथ क्षेत्रद्वारं व्याचष्टे – सीताइ जनो पहुगादिगा वा, जे कप्पणिजा जतिणो भवति । 10 साली - फलादीण व णिकयम्मि, पडेज तेल्लं लवणं गुलो वा ।। ३६४७ ॥ सागारिकस्यान्येषां च साधारणे क्षेत्रे 'सीतायाः ' हलपद्धतिदेवतायाः 'यज्ञः' पूजा भवेत् तत्र शाल्यादिद्रव्यं यद् उपस्कृतम्, पृथुकादयो वा ये तत्र क्षेत्रे यतीनां कल्पनीया भवन्ति, यद् वा तत्र शालीनां - कलमादीनां फलानां चिर्भटादीनाम् आदिशब्दादे योवारिप्रभृतीनां धान्यानां विक्रीयमाणानां निष्क्रये तैलं वा लवणं वा गुडो वा पतेत्, एषा सर्वाऽपि क्षेत्रविषया सागारिकांशिका || ३६४७ ॥ यन्त्रद्वारमाह जंते रसो गुलो वा, तेलं चक्कम्मि तेसु वा जंतू । विक्रेते पडितं, पवत्तणंते य पगयं वा ॥ ३६४८ ॥ यन्त्रमपि सागारिकस्यान्यैः सह साधारणं स्यात् । तच्च द्विधा - इक्षुयन्त्रं तिलयन्त्रं च । तत्रेक्षुयत्रे कोल्हुकाख्ये रसो गुडो वा भवेत् । तिलयन्त्रं तु चक्रमुच्यते, तत्र तैलं तिला ऽतसीसर्षपादीनां भवेत् । ‘तेषु वा' रसादिषु विक्रीयमाणेषु 'यत् तु' तन्दुल- धृत-वस्त्रादिकमापति - 20 तम्, अथवा यन्त्रस्य प्रवर्त्तने - प्रथमप्रारम्भे 'अन्ते वा' परिसमाप्तौ यत् ते सम्भूय 'प्रकृतं ' प्रकरणं कुर्वन्ति, एषा यत्रविषया अंशिका ॥ ३६४८ ॥ अथ भोज्य-क्षीरद्वारे व्याख्यानयतिगण-गोमादि भोजा, भुत्तुव्वरियं व तत्थ जं किंचि । भागमादीण पओ, अविभत्तं जं व गोवेणं ॥ ३६४९ ॥ 15 गणः–मल्लादिगणरूपः गोष्ठी - महत्तरादिपुरुषपञ्चकपरिगृहीता तयोः, आदिशब्दादन्यस्यापि 25 महाजनस्य साधारणानि यानि भोज्यानि - सङ्खडयः यद् वा किञ्चिद् मोदकचूरिप्रभृतिकं तत्र भुक्तोद्वरितं द्रव्यम् एषा भोज्यविषया सागारिकांशिका | तथा सागारिकसम्बन्धिनां भ्रातृभ्रातृव्यादीनां पयः' दुग्धं यावदद्यापि सागारिकेण सहाविभक्तम्, यद् वा दुग्धं वृत्तिच्छिन्नं सागारिकदुग्धमध्यादद्यापि गोपेनाविभक्तम्, एषा क्षीरविषया सागारिकांशिका ॥ ३६४९ ॥ मालाकारद्वारमाह 30 पुष्पाणिण आरामिगाण पडियं ण जाव उ विरिक्कं । पक्खेवगादि समुहं, अचियत्तादी य पुव्वुत्ता ॥ ३६५० ।। १° निर्यूढा भा० मो० ले० ताटी० ॥ २°द् यावा' भा० ॥ ३ कोल्हका भा० कां० बिना ॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१४ सनियुक्ति-लधुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ पूज्यभक्त० सूत्रम् २० . पुष्पाणां पणितेन-विक्रयेण यद् 'आरामिकाणां' मालिकानां घृतादिकं पतितं तद् आरामखामिना सागारिकेण यावदद्यापि न 'विरिक्तं' विभक्तं तावदेषाऽपि सागारिकांशिका । अथ च क्षेत्रादिषु मालाकारान्तेषु द्वारेषु यदि सागारिकस्य सम्मुखं पश्यतस्तदीयायामंशिकायामविभक्तायां साधवो भक्तादिकं गृह्णन्ति तदा भद्रककृताः प्रक्षेपकादयः प्रान्तकृताः पुनरप्रीतिकादयः 5 पूर्वोक्ता दोषा मन्तव्याः ॥ ३६५० ॥ मालाकारद्वारं प्रकारान्तरेणाह अहवा विमालकारस्स अंसियं अवणयंति भुजेसु । सो य सगारो तेसिं, तं पि ण इच्छंति अविभत्तं ॥ ३६५१॥ अथवा मालाकारस्य पुष्पावचयनादिनिर्विष्टामंशिकां 'भोज्येषु' शालि-दाल्यादिषु यावत् ___ तस्य आभाव्यं तावन्मात्रामगारिणः प्रागेवापनयन्ति, स च मालाकारः 'तेषां' साधूनां सागा10रिकः, अतो यावदसौ मालाकारांशिका अविभक्ता तावत् तामपि ग्रहीतुं नेच्छन्ति ॥३६५१॥ द्वितीयपदमाह गेलण्णमाईसु उ कारणेसू, माऽदिप्पसंगो ण य सव्वें गीता। गिण्हंति पुंजा अविरेडियातो, तस्सऽण्णतो वा वि विरेडियाओ ॥ ३६५२ ॥ ग्लानत्वा-ऽवमौदर्यादिषु कारणेषु संस्तरणाभावे 'मा प्रथमत एव शय्यातरपिण्डग्रहणेऽति15 प्रसङ्गो भवतु' इति कृत्वा, न च ते सर्वेऽपि गीतार्था अतः प्रथमम् 'अविरिक्ताद्' अन्यैः समं साधारणात् पुजात् , ततः 'अन्यस्मादपि' विरिक्तात् 'तस्य' सागारिकस्य सत्कात् पुञ्जाद् गृहन्ति ॥ ३६५२॥ ॥ अंशिकाप्रकृतम् ॥ 20 पूज्य भक्त उपकरण प्रकृतम् सूत्रम् सागारियस्स पूयाभत्ते उद्देसिए चेइए पाहुडियाए, सागारियस्स उवगरणजाए निटिए निसट्टे पाडिहारिए, तं सागारिओ देजा सागारियस्स परिजणो देजा, तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए २० ॥ अथास्य सूत्रस्य कः सम्बन्धः? इत्याह दव्वे छिण्ण मछिण्णं, ण कप्पती कप्पए य इति वुत्तं । इदमण्णं पुण भावे, अन्चोच्छिण्णम्मि पडिसिद्धं ॥ ३६५३ ॥ १ अत्र च भा० ॥ २-३ देइ भा० ॥ 25 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३६५१-५६ ] द्वितीय उद्देशः । १०१५ द्रव्यतः 'छिन्नं' विभक्तं सद् अंशिकाद्रव्यं कल्पते, तदेव 'अच्छिन्नं' 'अविभक्तं' न कल्पते इति प्रोक्तम् । इदं पुनरन्यद् अस्मिन् सूत्रे सागारिकस्याव्यवच्छिन्ने भावे प्रतिषिद्धम्, न कल्पते इत्यर्थः ॥ ३६५३ ॥ अविसेसिओ व पिंडो, हेट्ठिमसत्तेसु एसमक्खातो । 5 इह पुण तस्स विभागो, सो पुण उवकरण भत्ते वा ॥ ३६५४ ॥ अथवा अधस्तनसूत्रेषु 'अविशेषितः' विभागरहितः 'एषः ' सागारिकपिण्ड आख्यातः । 'इह पुनः' प्रस्तुतसूत्रे 'तस्य' सागारिकपिण्डस्य विभाग उच्यते । कथम् ? इत्याह -- 'स पुनः ' पिण्ड उपकरणं वा भवेद् भक्तं वा इति ॥ ३६५४ ॥ 1 अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या - सागारिकस्य ये पूज्याः - खामि - कलाचार्यादयस्तदर्थं भक्तम्-अशनादि पूज्यभक्तम्, तच्चोद्देशः - सङ्कल्पस्तेन निर्वृत्तमौदेशिकम्, तानेव पूज्यानु- 10 द्दिश्य कृतमित्यर्थः । ततस्तेषामेव प्राभृतिकायां 'चेतितं' ढौकनीकृतम्, उपनीतमिति भावः । तथा सागारिकस्य उपकरणजातं - वस्त्र - कम्बलादिकं पूज्यानामर्थाय 'निष्ठितं ' निष्पादितम्, ततः 'निसृ' पूज्येभ्यः प्रदत्तम् । 'तच्च' भक्तमुपकरणं वा तेभ्यः प्रातिहारिकं दत्तम्, भुक्तावशेषं सदिदं भूयोऽप्यस्माकं प्रत्यर्पणीयमिति भावः । तद् एवंप्रकारं संयतानां सागारिको वा दद्यात् सागारिकस्य परिजनो वा दद्यात् किं कल्पते ? न वा ? इत्याह - ( मैन्थानं २४९२०) 'तस्मात् ' 15 पूज्यभक्तात् पूज्योपकरणाद्वा प्रातिहारिकाद् दद्यात् परं न कल्पते प्रतिग्रहीतुमिति सूत्रार्थः ॥ अथ भाष्यम् - संबंधी सामि गुरू, पासंडी वा वितं समुद्दिस्स । पूया उक्खत्तं ति य, पट्टगभत्तं च एगट्ठा ॥ ३६५५ ॥ सागारिकस्यैव यः 'सम्बन्धी' पितृव्य- मातुलादियों वा तस्य 'स्वामी' प्रभुः 'गुरुर्वा' कला - 20 चार्यः यस्य वा पाषण्डिनो भक्तैः स पूज्य उच्यते तं समुद्दिश्य कृतं पूज्यभक्तमुच्यते । “तत्त्वभेद - पर्यायैर्व्याख्या" इति वचनादेकार्थिकान्याह — पूज्यभक्तम् उत्क्षिप्तभक्तं पट्टकभक्तम्, एतान्येकार्थानि पदानि ॥ ३६५५ ॥ चेय कडमेगट्ठ, पाहुडिय पहेणगं च एगट्ठा ।. 25 उवरणं वत्थादी, जाव विभागो व जोग्गं वा ॥ ३६५६ ॥ चेतितं कृतं चेत्येकार्थम् । प्राभृतिका प्रहेणकमिति च एकार्थे । उपकरणं वस्त्रादिकम् । वस्त्रं चेह क्षौमिकं गृह्यते, तच्च परिधानं पावरणं वा पूज्यानां दातव्यम्, आदिग्रहणात् पाषण्डिनः प्रतिग्रहो वा कम्बलं वा एकादशप्रतिमां प्रतिपित्सोर्वा रजोहरणं दातव्यम् एवमादिको यावान् विभागोऽत्र घटते यद् वा यस्योपकरणं योग्यं तद् वक्तव्यम् || ३६५६ ।। १ °तिकया 'चे' भा० ॥ २-३ ददाति भा० ॥ ४ ग्रन्थाग्रम् -- ९००० डे० ताटी० । ग्रन्थानम् - १०००० मो० ले० ॥ ५ अत्रान्तरे मो० ले० प्रतिसत्कः द्वितीयः खण्डः समाप्यते । अन्ते च इति श्रीकल्पवृत्तिद्वितीयखण्डं समाप्तम् इत्युल्लिखितं वर्त्तते ॥ ६ दिशब्दात् पा० भा० ॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 20 सनियुक्ति-लघुभाग्य वृत्तिके बृहत्कल्प निट्ठिय कडं च उक्कोसकं च दिण्णं तु जाणसु णिसङ्कं । भुतुव्वरियं पडिहारियं तु इयरं पुणो चत्तं ।। ३६५७ ॥ निष्ठितं कृतमित्येकोऽर्थः । यद्वा यद् उत्कृष्टं वस्त्रादि तद् निष्ठां प्राप्तमिति कृत्वा निष्ठितमुच्यते । यत्तु दत्तं तं निसृष्टं जानीहि । भुक्तोद्वरितं भूयोऽस्माकं प्रत्यर्पणीयमिति यत् प्रतिज्ञातं तत् प्रातिहारिकम् । 'इतरत् पुनः' अप्रातिहारिकं सागारिकेण भक्तमुपकरणं वा यत् त्यक्तं ' निर्देयतया दत्तमित्यर्थः । एवंविधं प्रातिहारिकदत्तं शय्यातर पिण्ड इति कृत्वा न ग्रहीतव्यम् - || ३६५७ ॥ सूत्रम् - 25 २०१३ अस्य व्याख्या प्राग्वत् । नवरम् अत्र न सागारिको न वा सागारिकस्य परिजनो दद्यात् किन्तु सागारिकस्य ‘पूज्यः’ सम्बन्धि - स्वाम्यादिर्दद्यात् तथापि न कल्पते, प्रातिहारिकतया दत्त - 15 मिति कृत्वा सागारिकपिण्डत्वात् ॥ सूत्रम् — [पूज्य० सूत्रम् २१-२४ सागारियस प्रयाभत्ते उद्देसिए चेइए जाब पाडिहारिए, तं नो सागारिओ देजा नो सागारियस्स परिजणो देजा, सागारियस्स पूया देजा, तम्हा दावए नो से कप्पड़ पडिग्गाहित्तए २९ ॥ सागारिस या उद्देसिए चेइए पाहुडियाए सागारियस्स उवगरणजाए निट्ठिए निसट्टे अपाडि हारिए, तं सागारिओ देइ सागारियस्स परिजणो देइ, तम्हा दावए नो से कप्पड़ पडिग्गाहित्तए २२ ॥ अमप्रातिहारिकतया सागारिकपिण्डो न भवति, परं सागारिकस्तत्परिजनो वा ददातीति कृत्वा प्रक्षेपकादिदोषसद्भावाद् न कल्पते ॥ सूत्रम् - सागारियल पूयाभत्ते जाव अपाडिहारिए, तं नो सागारिओ देइ, नो सागारियस्स परिजणो देइ, सागारियस्स पूया देइ, तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए २३ ॥ १ एतचिह्नगतः पाठः भा० नास्ति ॥ २ ददाति कि मा० ॥ ३ 'र्ददाति त' भा० ॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१७ भाष्यगाथाः ३६५७ - ६० ] द्वितीय उद्देशः । अत्र सागारिकेणादृष्टं तत्पूज्योऽप्रातिहारिकं ददातीति कृत्वा कल्पते, परं द्वितीयपदे, नोत्सर्गतः ॥ यत आह--- पूयाभत्ते चेतिऍ, उवकरणे णिहिते सिट्ठे य । तं पण कप घेत्तुं पक्खेवगमादिणो दोसा ॥। ३६५८ ।। पूज्यानामर्थाय यद् भक्तं 'चेतितं' कृतम्, यच्चोपकरणं निष्ठितं तत् तेभ्यः 'निसृष्टम् अप्रातिहारिकतया प्रदत्तं तदपि न कल्पते प्रतिग्रहीतुम्, प्रक्षेपकादयो दोषा भद्रक - प्रान्तकृता मा भूवन्निति ।। ३६५८ ॥ ॥ पूज्य भक्त- उपकरणप्रकृतं समाप्तम् ॥ उपधिकृतम् सूत्रम् - कप्पड़ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा इमाई पंच वत्थाई धारितए वा परिहरितए वा, तंजहाजंगिए भंगिए साणए पोत्तए तिरीडपट्टे नामं पंचमे २४ ॥ अथास्य सूत्रस्य कः सम्बन्धः ? इत्याह उवगरणं चिय पगयं, तस्स विभागो उ बितिय - चरिमम्मि । आहारो वा वृत्तो, इदाणि उवधिस्स अधिकारो ।। ३६५९ ॥ पूर्वसूत्रे तावदुपकरणमेव प्रकृतम्, अतः 'तस्य' उपकरणस्य 'विभागः' विशेष प्ररूपणं द्वितीयोदेशकस्य चरमे अन्त्ये सूत्रद्वये क्रियते । अथवा पूर्वसूत्रेषु सप्रपञ्चमाहार उक्तः, इदानीं त्वस्मिन् सूत्रे 'उपधि(धे) रधिकारः' यादृश उपधिर्ग्रहीतुं कल्पते तादृक् प्रतिपाद्यते इति भावः 20 ॥ ३६५२ ॥ ताई विरूवरूवाएँ दे वत्थाणि ताणि वा घेत्तुं । - सेस जतीणं देखा, तत्थ इमे पंच कप्पंति ॥ ३६६० ॥ 10 अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या – कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा इमानि पञ्च वस्त्राणि 'धारयितुं वा' परिग्रहे धर्तुं 'परिहर्तुं वा' परिभोक्तुम् । तद्यथा - जङ्गमाः - त्रसाः तदवयवनिष्पन्नं जाङ्गमिकम्, सूत्रे प्राकृतत्वाद् मकारलोपः, भङ्गा - अतसी तन्मयं भाङ्गिकम्, 15 अथवा 'तानि' परिधान - प्रावरण- कम्बलादीनि विरूपरूपाणि वस्त्राणि यदा सागारिको प्रातिहारिकतया ददाति तदा तानि गृहीत्वा पूज्यः कलाचार्यादिः 'शेषाणि' भुक्तोद्वरितानि यतीनां 26 दद्यात्, 'तत्र' तेषु दीयमानेष्वसूनि पञ्च वस्त्राणि कल्पन्ते ॥ ३६६० ॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१८ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ उपधिप्रकृते सूत्रम् २४ सनसूत्रमयं सानकम्, 'पोतकं' कार्पासिकम्, तिरीट:- वृक्षविशेषस्तस्य यः पट्टो वल्कलक्षणस्तन्निष्पन्नं तिरीटपट्टकं नाम पञ्चमम् । एष सूत्रसङ्क्षेपार्थः ॥ अथ विस्तरार्थं भाष्यकृद् बिभणिषुराह 5 जंगमजायं जंगिय, तं पुण विगलिंदियं च पंचिंदी | एकेक पि य एत्तो, होति विभागेणऽणेगविहं ।। ३६६१ ॥ जङ्गमेभ्यो जातं जङ्गिकम्, तत् पुनर्विकलेन्द्रियनिष्पन्नं पञ्चेन्द्रियनिष्पन्नं वा । अनयोर्मध्ये एकैकमपि विभागेन चिन्त्यमानमनेकविधं भवति ॥ ३६६१ ॥ तद्यथा - पट्ट सुन्ने मलए, अंग चीणसुके च विगलेंदी | उणोट्टि मिलोमे, कुतवे किट्टे त पंचेंदी || ३६६२ ॥ 10 "पट्ट" त्ति पट्टसूत्रजम्, “सुवन्ने" त्ति सुवर्णवर्ण सूत्रं केषाञ्चित् कृमीणां भवति तन्निष्पन्नं सुवर्णसूत्रम्, मलयो नाम - देशस्तत्सम्भवं मलयजम्, अंशुकः - लक्ष्णपट्टः तन्निष्पन्नमंशुकम्, चीनांशुको नाम - कोशिकारराख्यः कृमिः तस्माद् जातं चीनांशुकम्, यद्वा चीना नाम जनपद : तत्र यः श्लक्ष्णतरः पट्टस्तस्माद् जातं चीनांशुकम् एतानि विकलेन्द्रियनिष्पन्नानि । तथा और्णिकमौष्ट्रिकं मृगरोमजं चेति प्रतीतानि, कुंतपो जीणम्, किट्टं - तेषामेवोर्णा रोमादीनामवयवाः 15 तन्निष्पन्नं वस्त्रमपि किट्टम्, एतानि पञ्चेन्द्रियनिष्पन्नानि द्रष्टव्यानि || ३६६२ ॥ अथ भाकादीनि चत्वार्यप्येकगाथया व्याचष्टे " अतसी- सीमादी, उभंगियं साणियं च सणवके । पोत्तय कप्पासमयं, तिरीडरुक्खा तिरिडपट्टो || ३६६३ ॥ अतसीमयं वा “वंसि” चि वंशकरीलस्य मध्याद् यद् निष्पद्यते तद् वा, एवमादिकं भाङ्गि20 कम् । यत् पुनः सनवृक्षवल्काद् जातं तद् वस्त्रं सानकम् । पोतकं कर्पासमयम् । तिरीटवृक्षवल्कादु जातं तिरीपट्टकम् || ३६६३ ॥ 30 पंच परूवेऊणं, पत्तेयं गेण्हमाण संतम्मि । कप्पासिगा य दोणि उ, उण्णिय एक्को य परिभोगो ॥ ३६६४ ॥ एवं पञ्च वस्त्राणि प्ररूप्य सम्प्रति ग्रहणविधिरभिधीयते - 'प्रत्येकम्' एकैकस्य साधोः 25 प्रायोग्याणि वस्त्राणि गृह्णता 'सति' विद्यमाने लाभे द्वौ कल्पौ कार्पासिकौ एकचौर्णिक इत्येवं त्रयः कल्पा ग्रहीतव्याः । परिभोगश्चामीषां वक्ष्यमाणविधिना विधातव्यः । एषा पुरातना गाथा ॥ ३६६४ ॥ अथैनामेव विवृणोति एक्कोनि सोति दोणी, तिणि वि गेण्डिज उण्णिए लहुओ । पाउरमाणे चेवं, अंतो मज्झे व जति उण्णी ॥। ३६६५ ॥ एक और्णिकः कल्पो द्वौ वा सौत्रिकौ प्रत्येकं ग्रहीतव्यौ । अथ त्रीनपि कल्पान् सौत्रिकान् १ चीनो नाम भा० कां० ताटी० विना ॥ २ “पंचिंदियं मियलोमं सलोमं मूसगलोमं वा, कुतवं छागलं, किटं एरोसिं चेवावयवणिफणं" इति चूर्णौ । “उणिय-उहिया प्रतीता, मिथलोमे पव्त्रयाणं रोमा, कुतबो तस्सेन अवयवा, कित्रिमं सगलियारोमं, एयाणि पंचिदियणिफण्णाणि” इति विशेषचूर्णौ ॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३६६१-६९] द्वितीय उद्देशः ।। १०१९ और्णिकान् वा गृह्णाति ततो मासलघु । प्रावृण्वन्नपि यद्येकमौर्णिकं प्रावृणोति ततः ‘एवमेव' मासलघु । 'अन्तर्वा' शरीरानन्तरितं 'मध्ये वा' द्वयोः सौत्रिकयोर्मध्यभागे यद्यौर्णिकं प्रावृणोति तदाऽपि मासलघु ॥ ३६६५ ॥ इदमेव भावयति अभितरं व बाहिं, बाहिं अभितरं करेमाणे । परिभोगविवच्चासे, आवजइ मासियं लहुअं॥ ३६६६ ॥ अभ्यन्तरपरिभोग्यं-सौत्रिकं कल्पं बहिः 'कुर्वन्' प्रावृण्वन् बहिःपरिभोग्यं वा-औणिकमभ्यन्तरं कुर्वन् परिभोगव्यत्यासं करोति, तत्र चापद्यते मासिकं लघुकम् । यत एवमतः सौत्रिकं कल्पमन्तः प्रावृणुयात् , और्णिकं तु बहिः । एष विधिपरिभोग उच्यते ॥ ३६६६ ॥ अत्र विधीयमाने गुणानुपदर्शयतिछप्पइय-पणगरक्खा, भूसा उज्झायणा य परिहरिया। 10 सीतत्ताणं च कत, खोम्मिय अभितरे तेण ॥ ३६६७ ॥ और्णिके ह्यन्तः परिभुज्यमाने षट्पदिकाः संसज्येरन् , ताः सौत्रिकमन्तः प्रावृण्वता रक्षिता भवन्ति । और्णिकं चान्तः परिभुज्यमानं मलीमसं भवति, तत्र च पनकः संसज्यते, अतो विधिपरिभोगे पनकस्यापि रक्षा कृता भवति । सौत्रिकेण च बहिः प्रावृतेन विभूषा भवेत् । तथा वस्त्रमहर्निशमपि परिभुज्यमानं मलक्षम-न मलीमसं भवति, कम्बली तु परिभुज्यमाना मलीमसा 15 जायते, मलीमसतया च दुर्गन्धा, अतो विधिपरिभोगे "उज्झायणा' दुर्गन्धता साऽपि परिहृता । सौत्रिककल्पगर्भया च कम्बलिकया प्राब्रियमाणया शीतत्राणं कृतं स्यात् । एतेन कारणकलापेन 'क्षौमिकं' कार्पासिकं वस्त्रमभ्यन्तरे प्रावरणीयम् ॥ ३६६७ ॥ अथ कार्पासिकं न प्राप्यते ततः किं कर्त्तव्यम् ? इत्याहकप्पासियस्स असती, वागय पट्टे य कोसियारे य । 20 असती य उण्णियस्सा, वागत कोसेज पट्टे य ॥ ३६६८ ॥ कार्पासिकस्याभावे वल्कजम् , तस्याभावे पट्टवस्त्रम् , तदप्राप्ती कौशिकारवस्त्रमपि ग्रहीतव्यम् । अथौर्णिकं न प्राप्यते तत औणिकस्य स्थाने प्रथमं वल्कजं ततः कौशेयं ततः पट्टजमपि ग्राह्यम् । यद्वा पट्टशब्देनात्र तिरीटपट्टकमुच्यते । चशब्दादतसी-वंशीमयमपि ग्रहीतव्यम् ॥ ३६६८ ॥ अथ प्रावरणे गणनाविधिमाह ण उणियं पाउरते तु एकं, दोण्णी जता खोम्मिय उणियं च । दो सुत्ति अंतो बहि उणि तीसु, दुगादि उण्णी वि बहिं परेणं ॥ ३६६९ ॥ और्णिकं कल्पमेकं न प्रावृणुते, अर्थादापन्नं सौत्रिकमेकमपि प्रावृणुयात् । यदा तु द्वौ कल्पौ प्रावृणोति तदा 'क्षौमिकं' सौत्रिकमन्तः द्वितीयं पुनरौर्णिकं बहिः प्रावृणुयात् । त्रिषु कल्पेषु प्रावरीतुमिष्टेषु द्वौ सौत्रिकावन्तः एकं त्वौर्णिकं बहिः प्रावृणुयात् । अथौर्णिकान् 30 यादीनपि प्रावरीतुमिच्छति ततो द्वित्रिप्रभृतयोऽप्यौर्णिका बहिः सौत्रिकात् परतः पावरणीयाः ॥ ३६६९ ॥ अथ वस्त्रग्रहणे विधिमाह - १°णुयात्, अ° भा० ॥ 25 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [उपधिप्रकृते सूत्रम् २४ पंचण्डं वस्थाणं, परिवाडीगाएँ होइ गहणं तु । उप्परिवाडी गहणे, पच्छित्ते मग्गणा होइ ॥ ३६७० ॥ 'पञ्चानां' जङ्गिकादीनां वस्त्राणां परिपाट्या ग्रहणं कर्तव्यम् । परिपाटिर्नाम-पूर्व कार्पासिकमौर्णिकं च, तदभावे वल्कज-पट्टजादिकमित्यादिरनन्तरोक्तः क्रमः । तामुल्लङ्य उत्परिपाट्या 5 ग्रहणे प्रायश्चित्तस्य मार्गणा भवति । तद्यथा-जघन्यमुपधिमुत्परिपाट्या गृह्णाति पञ्चरात्रिन्दिवानि, मध्यमे मासलघु, उत्कृष्ट चतुर्लघवः ॥ ३६७० ॥ एतदेव भावयति अलंभऽहाडस्स उ अप्पकम्म, अलंमें तस्सावि उजं सकम्मं । एतं अकाउं चउरो उ मासा, भवंति वत्थे परिवाडिहीणे ॥ ३६७१ ॥ इह छेदन-सीवन-सन्धानादेरेकमपि परिकर्म यत्र न भवति तद् यथाकृतम् । यस्य तु 10 दशिका वा केवलं छेत्तव्याः, सन्धानं वा द्वयोः खण्डयोर्विधेयम् , तुन्ननं वा कर्तव्यं तदल्पपरि• कर्म । यत्तु बहुधा छिद्यमानं सन्धीयमानं वा प्रमाणप्राप्तं भवति, यद् वा बहुधा सीवितव्यं तद् वस्त्रं बहुपरिकर्मोच्यते । तत्र प्रथमं यथाकृतं मार्गयितव्यम् , तस्यालामेऽल्पपरिकर्म, तस्याप्यभावे यत् 'सकर्म' बहुपरिकर्मकम् । अथैवंविधं योगमकृत्वा प्रथममेवाल्पपरिकर्म बहुपरिकर्म वा गृह्णाति ततश्चत्वारो मासा लघवः । तुशब्दो विशेषणे, तल्लब्धश्चायमर्थः-उत्कृष्टस्य वस्त्रस्य 15 यथाकृतादिविपर्यासग्रहणे चतुर्लघवः, मध्यमस्य विपर्यासे मासिकम् , जघन्यस्य व्यत्यासे पञ्चकम् । एवं 'परिपाटीहीने' यथोक्तग्रहणक्रमरहिते वस्त्रे गृह्यमाणे प्रायश्चित्तम् ॥ ३६७१ ॥ अथ द्वितीयपदमाह अद्धाणमाईसु उ कारणेसुं, कुजा अलंभम्मि उ उक्कम पि । गेलन्नमादीसु विवजयं वा, असतीय कुजा खलु खुम्मियस्स ॥३६७२ ॥ 20 अध्वा-विप्रकृष्टो मार्गस्तं प्रपन्नानां ततो वा निर्गतानां दुर्लभं वस्त्रं भवेत् , एवमादिषु कारणेषु वस्त्रस्यालाभे उत्क्रममपि कुर्यात् , यथाकृतादिक्रमव्यत्यासेनापि गृह्णीयादिति भावः । तथा ग्लानत्वा-ऽनात्मवशतादिषु.कारणेषु 'विपर्ययमपि' परिभोगविपर्यासमपि कुर्यात् , अन्तःपरिभोग्यं बहिः बहिःपरिभोग्यं चान्तः प्रावृणुयादिति भावः । क्षौमिकस्य वा कल्पस्याभावे खल्वेकमप्यौर्णिकं प्रावृणुयात् ॥ ३६७२ ॥ ॥ उपधिप्रकृतं समाप्तम् ॥ 25 १ अभावे तस्सा ताभा० ॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्यगाधाः ३६७०-७५ ] सूत्रम् - कप्पड़ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा इमाई पंच रयहरणाई धारितए वा परिहरित्तए वा, तंजहा - उणिए उहिए साणए वच्चाचिप्पए मुंजचिवए नाम पंचमे २५ ॥ अथास्य सम्बन्धमाह- द्वितीय उद्देशः । र जो हर ण प्र कृ त म् १ मो० ले० विनाऽन्यत्र - तेऽष्टकर्म° त० डे० । ते कर्म भा० कां० ॥ १०२१ उदितो खलु उक्कोसो, उवही मज्झिममिदाणि वोच्छामि । संखा व एस सरिसी, पाउंछण सुत्तसंबंधो ॥ ३६७३ ॥ ‘उदितः' भणितः खल्वनन्तरसूत्रे 'उत्कृष्टः' और्णिक - सौत्रिक कल्परूप उपधिः । इदानीं तु 10 ‘मध्यममुपधिं' रजोहरणमहमस्मिन् सूत्रे वक्ष्ये । यद्वा अनयोः सूत्रयोर्या पञ्चलक्षणा सङ्ख्या एषा 'सदृशी' वस्त्राणां रजोहरणानां च तुल्या, अत इदं 'पादप्रोञ्छनं' रजोहरणं तद्विषयं सूत्रमारभ्यते । एष सम्बन्धः || ३६७३ ॥ अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या – कल्पते निर्मन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा इमानि पञ्च रजोहरणानि धारयितुं वा परिहर्तुं वा । 'तद्यथा' इति उपप्रदर्शनार्थः । ' और्णिकम् ' ऊरणिका - 15 नामूर्णाभिर्निर्वृत्तम्, ‘औष्ट्रिकं' उष्ट्ररोमभिर्निर्वृत्तम्, 'सानकं' सनवृक्षवल्काद् जातम्, वच्चक:तृणविशेषस्तस्य चिप्पकः- कुट्टितः त्वग्रूपः तेन निप्पन्नं वच्चकचिप्पकम् मुञ्जः शरस्तम्बस्तस्य चिप्पकाद् जातं मुञ्ज चिप्पकं नाम पञ्चममिति सूत्रार्थः ॥ अथ भाष्यविस्तरः अभितरं च बज्झं, हरति रयं तेण होइ रयहरणं । तं उण्णि उड्डि सणयं वच्चयचिप्पं च मुंजं च ॥ ३६७४ ॥ यस्मादाभ्यन्तरं बाह्यं च रजो हरति तेन रजोहरणं भवति । तत्र बाह्यं रजो हरतीति सुप्रतीतम्, आभ्यन्तरं कथं पुनरपहरति ? इति उच्यते — रजोहरणेन प्रमार्जिते भूभागे ये आदाननिक्षेपादयः संयमव्यापारा विधीयन्ते ते' तदष्टकर्मरूपमाभ्यन्तरं रजोऽपहरन्ति, अतः कारणे कार्याध्यारोपं विधाय तदप्याभ्यन्तररजोहरणमुच्यते । उक्तं च संजम जोगा एत्थं, रओहरा तेसि कारणं जेणं । रहरणं उपयारा, तेणं भण्णइ रओ कम्मं ॥ ( पञ्चवस्तुके गा० १३३ ) तच्च पञ्चविधम्—और्णिकमौष्ट्रिकं शनकं वच्चकचिप्पकं मुञ्ज चिप्पकं चेति ॥ ३६७४ ॥ तत्राद्यानि त्रीणि सुप्रसिद्धानि, अन्त्यद्वयं व्याख्यानयति वच्चक मुंजं कत्तंति चिप्पिउं तेहि वूयए गोणी । पाउरणत्थुरणाणि य, करेंति देसिं समासज्ज || ३६७५ ॥ 5 20 25 30 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 रयहरणपंचगस्सा, परिवाडीयाऍ होति गहणं तु । उपपरिवाडी गहणे, आवज्जति मासियं लहुअं ॥ ३६७६ ॥ 'रजोहरणपञ्चकस्य' अनन्तरोक्तस्य परिपाटिकया ग्रहणं भवति । उत्परिपाट्या तु ग्रहणे • आपद्यते मासिकं लघुकम् ॥ ३६७६ ॥ का पुनः परिपाटि : ? इत्याहतिविहोत्रिय असतीए, उदियमादीण गहण धरणं तु । उप्परवाडी गहणे, तत्थ वि सद्वाणपच्छेत्तं ॥ ३६७७ ॥ 10 15 १०२२ सनिर्युक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ रजोह ० प्र० सूत्रम् २५ क्वचिद् धर्मचक्रभूमिकादौ देशे 'वच्चकं' दर्भाकारं तृणविशेषं 'मुञ्जं च ' शरस्तम्बं प्रथमं 'चिप्पित्वा' कुट्टयित्वा तदीयो यः क्षोदस्तं कर्त्तयन्ति । ततः 'तैः' वच्चकसूत्रैर्मुञ्जसूत्रैश्च 'गोणी' बोरको व्यूयते, प्रावरणाssस्तरणानि च 'देशीं' देशविशेषं समासाद्य कुर्वन्ति । अतस्तन्निष्पन्नं रजोहरणं वञ्चकचिप्पकं मुञ्जचिप्पकं वा भण्यते ॥ ३६७५ ॥ 25 यथाकृतादिभेदात् त्रिविधं यदौर्णिकं तत् प्रथमतो ग्रहीतव्यम् । यथाकृतादिलाभचर्चः प्राग्वद् द्रष्टव्यः । अथौर्णिकं न प्राप्यते तत औष्ट्रिकादीनामपि चतुर्णां यथाक्रमं ग्रहणं धारणं वा कर्त्तव्यम् । अथ 'उत्परिपाट्या' यथोक्तक्रमव्यत्यासेन ग्रहणं करोति ततस्तत्रापि स्वस्थानप्रायश्चित्तम्, मध्यमोपधिनिष्पन्नं लघुमासिकमिति भावः ॥ ३६७७ ॥ आह—किमर्थं प्रथममौर्णिकं गृह्यते ? उच्यते— उद्ध-सणा कुच्छंती, उल्ला इयरेसु मद्दवं णत्थि । तेोणियं पसत्थं असतीय उ उक्कमं कुजा ॥ ३६७८ ॥ " उट्ट - सण" त्ति औष्ट्रिक - शनजे रजोहरणे वर्षाकाले व्याधारितवृष्टिकायेनाद्रींभूते सती कुथ्यतः । ततश्च पनकसम्मूर्च्छनादयो दोषाः प्रमार्जनाकार्यं च न भवति । अथार्द्रेणापि प्रमा20 र्जयन्ति ततो दशिकान्तेषु गोलकाः प्रतिबध्यन्ते, मलिनीभूते च तत्राप्कायविराधना । तथा 'इतरयोः' वच्चक-मुञ्जचिप्पकाख्ययो रजोहरणयोर्मार्दवं नास्ति, स्वभावत एव कठिनत्वात् । तेन कारणेनौर्णिकरजोहरण मौष्ट्रिकादिभ्यः प्रशस्तम् । और्णिकस्य 'असति' अभावे उत्क्रमं कुर्यात्, औष्ट्रिकादीन्यपि यथालाभं गृह्णीयादिति भावः || ३६७८ ॥ ॥ रजोहरणप्रकृतं समाप्तम् ॥ ॥ इति कल्पाध्ययनटीकायां द्वितीय उद्देशकः परिसमाप्तः ॥ द्वैतीयीकोदेशकोऽयं मयाऽपि, स्पष्टीचक्रे सद्गुरूणां प्रसादात् । सूते नाम्भोबिन्दुनिस्यन्दमिन्दुग्रावा चन्द्रज्योत्स्नया चुम्बितः किम् ? ॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ नमः श्रीजिनप्रवचनस्थविरेभ्यः स्थविरेभ्यः ॥ पूज्यश्री भद्रबाहुस्वामिविनिर्मितस्वोपज्ञनियुक्त्युपेतं बृहत् कल्पसूत्रम् । श्रीसङ्घदासगणिक्षमाश्रमणसूत्रितेन लघुभाष्येण भूषितम् तपाश्रीक्षेमकीर्त्त्याचार्यवरविहितया वृत्त्या समलङ्कृतम् । तृतीय उद्देशः । उपाश्रय प्रवेश प्र कृ त म् व्याख्यातो द्वितीय उद्देशकः, अथ तृतीयः प्रारभ्यते, अस्य चेदमादिसूत्रम्नो says निग्गंथाणं निग्गंधीणं उवस्तयंसि चिट्ठिकप्पइ तए वा निसीत्तए वा तुयहित्तए वा निद्दाइत्तए वा पयलाइत्तएवा, असणं वा ४ आहारं आहारितए, उच्चौरं वा पासवणं वा खेलं वा सिंघाणं वा परिहवित्तए, सज्झायं वा करित्तए, झाणं वा झाइत्तए, काउस्सग्गं वा ठाणं ठाइत्तए १ ॥ अथास्य सूत्रस्य कः सम्बन्धः ? इत्याह वत्थाण एवमादीणि गणहरो गेण्हिउं सयं चैव । वैच्चति वतिणीवसहिं, पवत्तिणीए पणामेउं ।। ३६७९ ॥ 10 'एवमादीनि' द्वितीयोद्देशकचरमसूत्रद्वयोक्तानि निर्ग्रन्थी प्रायोम्याणि वस्त्राणि गृहीत्वा 'गणधरः' निर्ग्रन्थीवर्त्तापकः प्रवर्त्तिन्यास्तानि वस्त्राणि स्वयमेव "पणामेउं" ति अर्पयितुं व्रतिनीनां वसतिं व्रजति, अतस्तद्विषयो विधिरनेन सूत्रेण प्रतिपाद्यते ॥ ३६७९ ॥ १ °सि आसहत्तर वा चिट्ठि' तामू० मु० । भाष्ये टीकायां च नास्ति "आसइत्तए" ति पदम्, दृश्यतां गाथा ३६८८ । चूर्णावपि नेक्ष्यत इदं पदम् । विशेषचूर्णी पुनः विद्यते ॥ २वा क आहारं तामू० ॥ ३चारं वा क परि° तामू० ॥ ४ वच्चति पवत्तिणीर, वसहिं सिग्धं पणा मेउं त डे० मो० ले० ॥ 5 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ निम्रन्थ्युपा०प्र० सूत्रम् १ प्रकारान्तरेण सम्बन्धमाह वीएहिं उ संसत्तो, वितियस्सातिम्मि इह उ इत्थीहिं । वितिए उवस्सगा वा, पगता इहई पि सो चेव ॥ ३६८०॥ द्वितीयोद्देशकस्यादिसूत्रे बीजैः संसक्त उपाश्रयो भणितः, 'इह तु' तृतीयोदेशकस्यादिसूत्रे 6 स्त्रीभिः संसक्त उच्यते । यद्वा द्वितीये उद्देशके बहुषु सूत्रेषूपाश्रयाः प्रकृता येषु साधूनां वस्तुं न कल्पते, अत इहाप्यादिसूत्रे स एवोपाश्रयः प्रोच्यते ॥ ३६८० ॥ तत्थ अकारण गमणं, पडुच्च सुत्तं इमं समुदियं तु । ___ कजेण वा गते तू , तुवट्टमादीणि वारेति ॥ ३६८१ ॥ 'तत्र' निम्रन्थीनामुपाश्रयेऽकारणं-वक्ष्यमाणकारणकलापं विना यद् गमनं तत् प्रतीत्य 10 इदं सूत्रं 'समुदितं' समायातम् , तदनेन प्रतिषिध्यते इति भावः । अथ कार्येण तत्र गताः ततः 'गते तु' गमने पुनः सञ्जाते त्वग्वर्त्तनादीनि कर्तुं वारयति ॥ ३६८१ ॥ अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या–नो कल्पते निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनामुपाश्रये स्थातुं वा निषत्तुं वा त्वग्वर्त्तयितुं वा निद्रायितुं वा प्रचलायितुं वा, अशनं वा पानं का खादिमं वा खादिमं वा चतुर्विधमप्याहारमाहर्तुम् , उच्चारं वा प्रश्रवणं वा खेलं वा सिंघाणं वा परिष्ठापयि15 तुम् , स्वाध्यायं वा कर्तुम् , ध्यानं वा ध्यातुम् , कायोत्सर्ग वा स्थानं स्थातुमिति सूत्रस पार्थः ॥ अथ विस्तरार्थं भाष्यकृद् बिभणिषुराह आपुच्छमणापुच्छा, व अकजे चउगुरुं तु वच्चंते । आपुच्छिय पडिसिद्धे, सुद्धा लग्गा उवेहंता ॥ ३६८२ ॥ स्थविराणामापृच्छयाऽनापृच्छया वा यदि अकार्ये निम्रन्थीनामुपाश्रयं ब्रजति ततश्चतुर्गुरु20 कम् । स्थविरा आपृष्टाः सन्तो यदि प्रतिषेधं कुर्वन्ति–'मा व्रज, न वर्त्तते निष्कारणं निम्रन्थीनामुपाश्रयं गन्तुम्' एवं प्रतिषिद्धे स्थविराः 'शुद्धाः' न प्रायश्चित्तभाजः । अथ स्थविरा उपेक्षन्ते ततस्तेऽपि लग्नाः, चतुर्गुरुकमापन्ना इत्यर्थः ॥ ३६८२ ॥ अथवा चउरो गुरुगा लहुगा, मासो गुरुगो य होति लहुगो य । आयरिए अभिसेगे, भिक्खुम्मि य गीतऽगीतत्थे ॥३६८३॥ . 25 आचार्यों यदि निष्कारणं निर्ग्रन्थीप्रतिश्रयं गच्छति ततश्चत्वारो गुरवः । अभिषेको व्रजति चत्वारो लघवः । गीतार्थभिक्षुर्बजति गुरुको मासः । अगीतार्थभिक्षुर्बजति लघुको मासः ॥ ३६८३ ॥ यद्वा गमणे दूरे संकिय, णिस्संकभिलाव कक्ख सतिकरणं । ओभासण पडिसुणणे, संपत्ताऽऽरोवणा भणिता ॥ ३६८४ ॥ 30 निष्कारणं संयतीनामुपाश्रये गच्छति १ तत्र गतो दूरे स्थितः संयतीः पश्यति एतास्ता इति २ कतरा कतरा पुनरियम् ? इत्येवं शङ्कां करोति ३ अमुका अमुका वा इयमिति निःशकितं जानाति ४ संयतीभिः समम् 'अभिलापं' संलापं करोति ५ कक्षान्तरादीनि विलोकयति ६ १ जानीते ४ भा० ॥ . आपुग्छन Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उद्देशः । १०२५ भाष्यगाथाः ३६८०-८९ ] 'स्मृतिकरणम् ' ' ईदृशी ममाप्यासीत्' इति लक्षणं करोति ७ तामवभाषते ८ अवभाषिता सती सा प्रतिशृणोति ९ सम्पत्तिं तया सह करोति १०, एतेषु दशसु स्थानेषु आरोपणा वक्ष्यमाणा भणिता || ३६८४ ॥ अथात्र स्मृतिकरणपदं व्याचष्टे - भावम्मि उ संबंधो, सतिकरणं एरिसा व सा आसि । अहवा णं इणम, पणएमि सती भवति एसा ॥ ३६८५ ।। 'भावे' भावतः - प्रतिसेवनाभिप्रायेण तया सह यः सम्बन्धः क्रियते, यादृशी त्वं ईदृशी 'सा' मेद्भार्या आसीत्, एतत् स्मृतिकरणमुच्यते । अथवा 'एतां ' संयतीमहम् 'अमुमर्थं ' प्रतिसेवनालक्षणं 'प्रणयामि' प्रार्थयामीत्येषा स्मृतिरुच्यते ॥ ३६८५ ॥ अथानन्तरोक्तेषु दशसु स्थानेषु प्रायश्चित्तमाह चउरो य अणुग्धाया, लहुगो लहुगा य होंति गुरुगा य । छम्मासा लहु-गुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च ॥ ३६८६ ॥ संयतीप्रतिश्रयगमने चत्वारोऽनुद्धाता मासाः । दूरदर्शने मासलघु । शङ्कायां चतुर्लघवः । निःशङ्किते चतुर्गुरवः । औलापे षण्मासा लघवः । कक्षान्तराद्यवलोकने षण्मासा गुरवः । स्मृतिकरणे छेदः । अवभाषणे मूलम् । प्रतिश्रवणेऽनवस्थाप्यम् । सम्पत्त्यां पाराञ्चिकम् ॥ ३६८६ ॥ एवं तावदोघतः प्रायश्चित्तमुक्तम् । अथ विभागतस्तदेव दर्शयितुमाहनिकारणगमणम्म, बहवे दोसा य पचवाता य । 15 जिण थेर पडिकुडा, तेसिं* चाऽऽरोवणा इणमो ॥ ३६८७ ॥ निष्कारणगमने बहवो दोषाश्च प्रत्यपायाश्च भवन्ति । तत्र दोषा आत्म-परोभयसमुत्थाः पारलौकिकाः, प्रत्यपायाश्च भोगिनी घाटिकादय ऐहलौकिकाः । ते चोभयेऽपि जिनैः – तीर्थक्रुद्भिः स्थविरैश्च–गणधरादिभिः प्रतिक्रुष्टाः, यथाऽमी भवन्ति तथा न विधेयमित्युपदिष्टमिति भावः । 20 तेषां च दोषाणाम् 'इयं' वक्ष्यमाणा 'आरोपणा' प्रायश्चितम् || ३६८७ || तच्चैतेषु सूत्रोक्तपदेषु भवति - चिट्ठित्त णिसीइत्ता, तुयट्ट णिद्दा य पयल सज्झाए । झाणा-ssहार-विहारे, पच्छित्ते मग्गणा होइ ॥ ३६८८ ॥ 5 स्थातुं निषत्तुं त्वग्वर्त्तनं निद्रां प्रचलां स्वाध्यायं ध्यानमाहारं वा कर्तुं विहारं चङ्क्रमणम् 25 उपलक्षणत्वाद् उच्चार-प्रश्रवणे कायोत्सर्ग वा कर्त्तुं न कल्पते । अथ करोति ततः प्रायश्चित्तंस्य मार्गणा भवति ॥ ३६८८ ॥ इदमेव प्रकटयति 10 एतेसिं तु पयाणं, पत्तेय परूवणा विभागो य । जो एत्थं आण्णोऽणावण्णो वा वि जो एत्थं ॥ ३६८९ ॥ 'एतेषां ' स्थानादीनां पदानां प्रत्येकं प्ररूपणा 'विभागश्व' दोषाणां विभाषालक्षणः कर्त्तव्यः | 30 कथम् ? इत्याह – यः 'अत्र' दोषजाले प्रायश्चित्तजाते वाssपन्नो यो वानापन्नः तदेतद् १ वस्स उ तामा० चूर्णौ च ॥ २ मदीया भार्या भा० कां० ॥ ३ अभिलापे कां० ॥ ४ सिं ताऽऽरो तामा• ॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२६ सनियुक्ति-लधुभाष्य-वृत्तिकै बृहत्कल्पसूत्रे [ निम्रन्थ्युपा०प्र० सूत्रम् १ वक्तव्यम् ॥ ३६८९ ॥ यथाप्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति निकारणमविहीए, निकारणओ तहेव य विहीए । कारणओ अविहीए, कारणतो चेव य विहीए ।। ३६९० ॥ [नि.गा. १६६६-१७८४] आदिमयणाण तिण्हं, अण्णतरीए उ संजतीसेजं । जे मिक्खू पविसेजा, सो पावति आणमादीणि ॥ ३६९१ ॥ ___ साध्वीप्रतिश्रये प्रविशतां चत्वारो भनाः, तद्यथा-निष्कारणेऽविधिना साध्वीप्रतिश्रये १ निष्कारणं विधिना २ कारणतोऽविधिना ३ कारणतो विधिना प्रविशति ४ ॥ ३६९० ॥ अत्र 'आदिभजनानाम् आद्यानां त्रयाणां मनानाम् अन्यतरया भजनया-भङ्गकेन संयतीनां शय्यां-वसति यो भिक्षुः प्रविशति स आज्ञादीनि दूषणानि प्रामोति ॥ ३६९१ ॥ 10 तत्र प्रथमभङ्गव्याख्यानार्थमाह निकारणम्मि गुरुगा, तीसु वि ठाणेसु मासियं गुरुगं । लहुगा य दारमूले, अतिगयमेत्ते गुरू पुच्छा ॥ ३६९२ ॥ निष्कारणे संयतीवसतिं गच्छतश्चतुर्गुरुकाः । अविधिना च प्रविशतस्त्रिष्वपि स्थानेषु मासिकं गुरुकम् । त्रीणि स्थानानि नाम अग्रद्वार-मध्या-ऽऽसन्नलक्षणानि, एतेषु नैषेधिकीमकुर्व16 तस्त्रीणि मासगुरुकाणि भवन्ति । यदि 'द्वारमूले मूलद्वारसमीपे बहिस्तिष्ठति ततश्चतुर्लघवः । अथैकमपि पदमुपाश्रयमध्येऽतिगतः-प्रविष्टस्तदा अतिंगतमात्रे चतुर्गुरुः । “पुच्छि" ति नोदकः पृच्छां करोति ॥ ३६९२ ॥ कथम् ! इत्याह पाणाइवायमादी, असेवतो केण होति गुरुगा उ । कीस व बाहिं लहुगा, अंतो गुरु चोतग! सुणेहिं ।। ३६९३ ॥ 20 प्राणातिपातादिकमपराधमसेवमानस्य केन कारणेन चतुर्गुरुका भवन्ति ? कस्माद्वा 'बहिः' द्वारमूले चतुर्लघुकाः ? कस्माच्चान्तःप्रविष्टमात्रस्य चतुर्गुरुकम् ? । आचार्यः प्राह-हे नोदक! 'शृणु' निशमयात्र कारणं येनैवं प्रायश्चित्तं दीयते ॥ ३६९३ ॥ किं तत् ! इत्याह वीसत्था य गिलाणा, खमिय वियारे य भिक्ख सज्झाए । पालीय होइ भेदो, अप्पाण परे तदुभए य ॥ ३६९४ ॥ 25 काचिदार्यिका तत्र 'विश्वस्ता' अपावृतशरीरा भवेत् सा संक्षोभमुपयायात् । ग्लाना वा क्षपिका वा संयतसंक्षोभेण न भुञ्जीत । विचारभूमौ भिक्षायां खाध्यायभूमौ वा प्रस्थितानां तासां व्याघातो भवेत् । पाली नाम-संयममहातडागस्यानतिकमलक्षणः सेतुः तस्या आत्म-परोभयसमुत्थो भेदो भवति; यद्वा "पालि" त्ति वसतिपालिका भण्यते, तया सार्द्धमालापादि कुर्वत आत्मसमुत्थः परसमुस्थ उभयसमुत्यो वा मेदो भवतीति द्वारगाथासमासार्थः ॥ ३६९४ ॥ 30. साम्प्रतमेनामेव विवृणोति काई सुहवीसत्था, दरजिमिय अवाउडा य पयलाति । अतिगतमेत्ते य तहिं, संकिय पपलाइया थद्धा ॥ ३६९५ ॥ १रणमविधिना प्रविशति १ निष्का भा० को० ॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माष्यगाथाः ३६९० - ९९ ] - तृतीय उद्देशः । १०२७ काचिदार्यिका वसतेरन्तः स्थिता 'सुख विश्वस्ता' आत्मसुखेनापावृतशरीरा तिष्ठति, दरजिमिता वा - अर्धभुक्ता दरनिवसिता काचिदास्ते, अपावृतनिषण्णा वा काचित् प्रचलायते । ततः 'तस्मिन् ' संयतेऽकस्माद् 'अतिगतमात्रे' प्रविष्टमात्र एव ' दृष्टाऽहमनेनापावृता' इति 'शङ्किता' शङ्काकुला सती प्रपलायते, सहसैव नश्यतीत्यर्थः । प्रपलायिता च सती संक्षोभतः स्तब्धगात्रा सा भवेत् || ३६९५ ।। अथेदमेव व्याचष्टे - वीरल्लसउणवित्तासियं जहा सउणिवंदयं वुण्णं । वच्चति णिरावयक्खं दिसि - विदिसाओ विभजतं ॥ ३६९६ ॥ - वीरल्लशकुनः - हुलायकः, तेन समागच्छता वित्रासितं सद् यथा शकुनिकानां - पक्षिणीनां वृन्दं “वुन्नं” विषण्णं सद् 'निरपेक्षं' पुत्रभाण्डाद्यपेक्षारहितं दिशो विदिशश्च 'विभज्यमानं' वियुज्यमानं ' व्रजति' सहसैव पलायते ॥ ३६९६ ॥ एप दृष्टान्तः, अयमर्थोपनयःतम्मिय अतिगतमिते, वित्तत्थाओ जहेव ता सउणी । गेहंति य संघाडि, रयहरणे यावि मग्गति ॥ ३६९७ ॥ 'तस्मिन् ' संयतेऽतिगतमात्र एव यथैव ताः शकुनिकास्तथैव ता अपि संयत्यो वित्रस्ता भवन्ति । ततश्च काचिदपावृतगात्रा त्वरितं प्रावृणोति, अन्याः काश्चन सङ्घाटिका गृह्णन्ति, यास्तु संयतं सहसा समागतं दृष्ट्वा रंजोहरणं मुक्त्वा नष्टाः ताः पश्चात् सुस्थीभूताः सत्यो रजो - 15 हरणानि मार्गयन्तीति ॥ ३६९७ ॥ यच्च नोदकेनोक्तम् " प्राणातिपातादिकमसे वमानस्य कस्माच्चतुर्गुरुकं दीयते ?" ( गा० ३६९३ ) तदेतत् परिहरन्नाह - छक्कायाण विराहण, पक्खुलणं खाणु कंटए विलिया । था य पेच्छिउं भावभेओं दोसा उ वीसत्थे ॥ ३६९८ ॥ ताः संयत्यः कुम्भकारशालादौ स्थिता भवेयुः, तत्र च निरपेक्षा नश्यन्त्यो मृत्तिकामर्दनेन 20 पृथिवीकायम्, उदककुम्भप्रलोटनेना कायम्, उल्मुकघट्टने नामिकायम्, “यत्राग्निस्तत्र नियमाद् वायुः” इति कृत्वा वायुकायम्, बीज- हरितमर्दनेन वनस्पतिम्, कुन्थु की टिकादिमर्दनेन सका च विराधयेयुः; एषा षट्कायविराधना, सा च तत्त्वतस्तेनैव साधुना कृता । प्रस्खलनं नामअधस्तादुपरि वा आस्फालनं यद् वा तासां नश्यन्तीनां भवेत् । स्थाणुना वा कण्टकेन वा पादयोरुपघातः स्यात् । “विलिया" 'व्रीडिता' अकस्मात् तद्दर्शनाद् लज्जिता सती काचिद् वैहायसो- 25 इन्धनादि कुर्यात् । भयातिरेकतो वा स्तब्धा भवेत् । तां च तथाभूतां दृष्ट्वा भावभेदो भवति, 'सात्त्विकभावप्रभवोऽयमस्य शरीरे स्तम्भः' इत्येवमितराः संयत्यश्चिन्तयेयुरिति भावः । एवमादयो दोषा विश्वस्तार्थिकाविषया मन्तव्याः ॥ ३६९८ ॥ गतं विश्वस्ताद्वारम् । अथ ग्लानाद्वारमाहकालाइकमदाणे, गाढतरं होज णेव पउणेजा । - 5 A 10 संखोभेण णिरोधो, मुच्छा मरणं व असमाही ॥ ३६९९ ॥ 30 लाना संयती तस्य संयतस्य सङ्घोभेण न भुङ्क्ते, प्रतिचरिका वा तदर्थं भिक्षां न गच्छति । ततः कालातिक्रमेण तस्या भक्त पानप्रदाने गाढतरं ग्लानत्वं भवेत्, न वा सा प्रगुणीभवेत् । अथवा तदीयसङ्क्षोभेण तस्या वातकर्मणः कायिक्याः संज्ञाया वा निरोधो भवेत्, ततस्तद्वाषया Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारणगपट्टिया आणियं च अविगडियऽदंसिय ण भुंजे । अचियत्त अंतराए, परिताव असम्भवयणे य ।। ३७०० ॥ क्षपिका चतुर्थादितपःकर्मकारिणी पारणकार्थं प्रस्थिताऽपि 'ज्येष्ठार्य आगतः' इति मत्वा निवर्त्तते । प्रवर्त्तिनी वा तस्य समीपे निविष्टा वर्त्तते, तया च क्षपिकया पारणकमानीतम्, परम् ‘अविकटितम्' अनालोचितम् 'अदर्शितं वा' अनालोकितं सा न भुङ्क्त इति कृत्वा प्रवर्त्तिनीं प्रतिपालयन्ती तिष्ठति । ततश्च तस्या अप्रीतिकमन्तरायोऽनागाढमागाढं वा परितापो भवेत् । असभ्यवचनं वा सा ब्रूयात् - अहो ! अयमस्मत्कार्याणां कीलक इव साम्प्रतमुपस्थित 10 इति ॥ ३७०० || विचारद्वारमाह- १०२८ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ निर्मन्थ्युपा ०प्र० सूत्रम् १ मूर्च्छा सञ्जायेत, निरोधेन वा मरणमाप्नुयात्, असमाधिर्वा तस्या भवेत्, तत्रानागाढपरितापनादिनिष्पन्नं प्रायश्चित्तम् || ३६.९९ ।। अथ क्षपिकाद्वारमाह 5 नोल्लेऊण ण सक्का, अंतो वा होज णत्थि वीयारो । संते वाण पवतति, णिच्छुभण विणास गरिहा य ।। ३७०१ ।। स साधुर्द्वारमूले उपविष्टत्वाद् 'नोदयितुं' लङ्घयितुं न शक्यते, तासां च संयतीनामन्तः विचारभूमिर्नास्ति, अस्ति वा परं तस्यां संज्ञा न प्रवर्तते, शय्यातरेण वा सा नानुज्ञाता, तस्यां 15 व्युत्सर्जने निष्काशनमसौ कुर्यात्, निष्काशिताश्च श्वापदादिभिर्विनाशं लोकाच्च गर्हामासादयन्ति, तन्निष्पन्नं तस्य संयतस्य प्रायश्चित्तम् || ३७०१ ॥ अथ भिक्षाद्वारमाह - 25 य, कुलेसु दोसा चरंतीणं ॥ ३७०२ ।। संयत्यो भिक्षायां प्रस्थिताः, स च साधुः समायातः, ततस्तस्य दाक्षिण्येन तावत् स्थिता 20 यावद् भिक्षायाः सत्कालः - देशकालः स्फिटितः । ततोऽवेलायां भिक्षामटन्त्य एषणाशुद्धेः आदिशब्दाद् उद्गमोत्पादनाशुद्धेश्व प्रेरणं कुर्युः । अथ न प्रेरयेयुः ततस्तासामात्मनो हानिः परिताप-महादुःखादिना भवेत् । अभावितकुलेषु वाऽकाले चरन्तीनां शङ्कादयो दोषा भवेयुः । शङ्कां मैथुनार्थविषया, आदिशब्दाद् भोजिका - घाटिकादिदोषपरिग्रहः || ३७०२ ॥ सहकाल फेडणे सणादितपेलणे हाणी | संकाय भावि अथ स्वाध्यायद्वारमाह सज्झाए वाघातो, विहारभूमिं व पत्थिय णियत्ता | अकरण णासाssरोवण, सुत्तत्थ विणा य जे दोसा || ३७०३ ॥ 'ज्येष्ठार्य आगतः' इति कृत्वा ताः पठनं परावर्त्तनं वा न कुर्वन्ति, एवं स्वाध्यायव्याघातो भवेत् । वसतौ वा अस्वाध्यायिके जाते 'विहारभूमिं ' स्वाध्यायभुवं प्रस्थिताः भूयस्तं समागतं दृष्ट्वा निवृत्ताः, ततः “अकरणे" ति सूत्रपौरुषीं न कुर्वन्ति मासलघु, अर्थपौरुषीं न कुर्वन्ति 30 मासगुरु । सूत्रा -ऽर्थनाशनिष्पन्ना चारोपणा, सा चेयम् सूत्रं नाशयति चतुर्लघु, अर्थं नाशयति चतुर्गुरु 1 सूत्रार्थाभ्यां च विना ये 'दोषाः' चरण- करणहान्यादयस्तन्निष्पन्नं सर्वमपि संयतस्य प्रायश्चित्तम् ॥ ३७०३ || पाली भेदद्वारमाह- १ "भूमौ' स्वाध्यायभुवि 'प्रस्थि' भा० ॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२९ भाष्यगाथाः ३७००-९] तृतीय उद्देशः । संजममहातलागस्स णाणवेरग्गसुपडिपुण्णस्स । सुद्धपरिणामजुत्तो, तस्स उ अणइक्कमो पाली ॥ ३७०४ ॥ संयमः-पञ्चाश्रवादिविरमणात्मकः स एव महद्-विस्तीर्णं यत् तडागं तस्य, 'ज्ञानवैराग्यसुप्रतिपूर्णस्य' ज्ञानम्-आचारादिश्रुतं तत्समुत्थं यद वैराग्यं-प्रतिसमयविशुद्ध्यमानो भवनिर्वेदः तेन जलस्थानीयेन सुष्टु-अतीव प्रतिपूर्णस्य, यः शुद्धपरिणामयुक्तस्तस्यानतिक्रमः स पालिरि-5 त्युच्यते ॥ ३७०४ ॥ तस्य भेदः कथं भवति ? इत्याह संजमअभिमुहस्स वि, विसुद्धपरिणामभावजुत्तस्स । विकहादिसमुप्पण्णो, तस्स उ मेदो मुणेयव्यो ॥ ३७०५ ॥ संयमाभिमुखस्यापि तस्य विशुद्धिपरिणामभावयुक्तस्य पालिस्थानीयस्यानतिक्रमस्य यः 'विकथादिसमुत्पन्नः' मिथःकथादिकरणसमुद्भूतः 'भेदः' विनाशः स इह पालीभेदो ज्ञातव्यः । 10 स चाऽऽत्म-परोभयसमुत्थो भवेत् ॥ ३७०५ ॥ अहवा पालयतीति, उवस्सयं तेण होति सा पाली । तीसे जायति भेदो, अप्पाण-परोभयसमुत्थो ॥ ३७०६ ॥ अथवा या तत्रोपाश्रयं पालयति रा "सत्यभामा भामा" इति न्यायात् पाली भण्यते । तस्या एकाकिन्यास्तं संयतं दृष्ट्वा आत्मसमुत्थः परसमुत्थ उभयसमुत्थो वा भेदो जायते 15 ॥ ३७०६ ॥ कथम् ! इति चेद् उच्यते मोहतिगिच्छा खमणं, करेमि अहमवि य बोहि पुच्छा य । मरणं वा अचियत्ता, अहमवि एमेव संबंधो ॥ ३७०७॥ स संयतस्तं संयतीप्रतिश्रयं गतो यावदेका वसतिपालिका तिष्ठति, ततस्तेन सा पृष्टाआयें ! किमिति भवती भिक्षा नावतीर्णा ? । सा पाह-अद्य मम क्षपणम् । स प्रश्नयति-20 किंनिमित्तम् ! । सा प्रतिब्रूते-मोहचिकित्सार्थम् । तयाऽपि स संयत एवमेव पृष्टो ब्रवीति-- अहमपि मोहचिकित्सार्थ क्षपणं करोमि । ततस्तेन पृच्छा कृता-आयें ! भवत्या कथं बोधिरासादिता ? । सा प्राह-मरणं मदीयम रजनिष्ट, तस्य वा अहम् 'अप्रीतिका' द्वेष्या पूर्वमभुवं अतः प्रव्रजिता । ततस्तया सोऽप्येमेव पृष्टः प्राह-अहमपि 'एवमेव' अमीष्टकलत्रवियोगादिना प्रामाजिषम् । एवं भिन्नकथासद्भावकथनैर्भावसम्बन्धो भवति ॥३७०७॥ इदमेव स्फुटतरमाह-25 ओमाणस्स व दोसा, तस्स के गमणेण सग्गलोगस्स। महतरियपभावेण य, लद्धा मे संजमे बोही ॥ ३७०८ ॥ अपमानं नाम-ससापल्यतायां यद् भर्ती माम् अवमतया पश्यति स्म तस्य दोषादहं प्रवबाज । अथवा मदीयो भर्चा मय्येकान्तानुरक्त आसीत्, अतस्तस्य वर्गलोकस्य गमनेन तथा महत्तरिकया यद् ममानवरतं धर्माख्यानकानि कथितानि तत्समावेण च लब्धा मया संयम बोषिः, संयम 30 प्रतिपनवतीत्यर्थः ॥ ३७०८ ॥ यद्वा--- पनिता मि घरासे, तेण हतासेण तो ठिता धम्मे । १व मरणेण तामा०॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ निर्ग्रन्थ्युपा०प्र० सूत्रम् - १ सिद्धं दाइ रहस्सं, ण कहिजइ जं अणत्तस्स || ३७०९ ॥ 'प्रदुमिता' प्रकर्षेण शिताऽस्मि अहं “घरासे" गृहवासे, प्राकृतत्वाद् वाशब्दलोपः, तेन 'हताशेन' कुपतिना, ततः स्थिताऽहमेवंविधे धर्मे । इदं च रहस्यमिदानीं मया भवतां 'शिष्टं ' कथितम्, यद् 'अनाप्तस्य' भवद्यतिरिक्तस्य कस्यापि पुरतो न कथ्यते ॥ ३७०९ ॥ रिक्खस्स वा वि दोसो, अलक्खणो सो अभागधिजो णु । नय निग्गुणा मिअजो !, तुब्भे वि य नाहिह विसेसं ॥ ३७१० ॥ मम पाणिग्रहण दिवसे यद् ऋक्षं-नक्षत्रं तस्य वा कोऽपि दोष आसीत्, तेन स तादृशो निःस्नेहोऽलक्षणोऽभागधेयश्च मम भर्त्ता अभवत्, न चाहं 'निर्गुणा' गुणविकला, यद्वा आर्य ! यूयमपि ज्ञास्यथ मदीयं 'विशेषं' सगुण-निर्गुणता विभागम् ॥ ३७१० ॥ एवमुक्ते संयतो ब्रूयात्इटुकलत्तविओगे, अण्णम्मि य तारिसे अविजंते । 5 25 १०३० महतरयभावेण य, अहमवि एमेव संबंधी ॥ ३७११ ॥ इष्टकस्य वियोगे सञ्जातेऽन्यस्मिँश्च तादृशे कलत्रेऽविद्यमाने महत्तरः- आचार्यो मम धर्ममाख्याति स्म, ततस्तत्प्रभावेणाहमपि प्रव्रजितः । " एमेव" ति यथा तया सविकारमात्मीयं चरितमाख्यातं तथा संयतोऽप्येवमेव कथयति । एवं तयोः परस्परं भावसम्बन्धो भवति 15।। ३७११ ।। किञ्चान्यत् — 'किं पिच्छह सारिक्खं, मोहं मे णेति मज्झ वि तहेव । उच्छंगगता मिमता, इहस ण वि पत्तियंतो मि ॥ ३७१२ ॥ संयतस्तां संयतीं निश्चलया दृष्ट्या निरीक्षते, ततः सा ब्रवीति - किमेवं पश्यथ ? । स प्राह--- मदीयभोगिन्या सह यद् भवत्याः सर्वथैव सादृश्यं तद् मां मोहं नयति, किमेषा सैव ? 20 इति विभ्रमं जनयतीत्यर्थः । सा ब्रवीति ममापि त्वं तथैव मोहं जनयसि । स प्राह-किं करोमि ? ममोत्सङ्गे गता - स्थिता सती सा मृता, 'इतरथा' यदि परोक्षं सा मृताऽभविष्यत् ततो देवानामपि वचनेन प्रत्ययं नागमिष्यम्, यथा-त्वं सा मम पत्नी न भवसीति ॥ ३७१२ ॥ इय संदंसण-संभासणेहिं भिन्नकध-विरहजोएहिं । सेजातरादिपासण, वोच्छेद दुदिट्ठधम्म त्ति ।। ३७१३ ॥ "इय" एवं यत् परस्परं सन्दर्शनं यच्च सम्भाषणं - 'किमिति त्वमद्य भिक्षां न गता ?' इत्यादिपृच्छारूपं ताभ्याम्, तथा यास्तया सह भिन्नकथाः, यश्च विरहे - एकान्ते योगः, एतैश्चारित्रस्य भेद उपजायते । तथा शय्यातर आदिशब्दादन्यो वा यः तत्परिजनादिस्तयोस्तथाविधं चेष्टितं पश्यति स तद्भव्या-ऽन्यद्रव्ययोर्व्यवच्छेदं कुर्यात् । 'दुर्दृष्टधर्माण एते' इत्येवं विपरिणाममुपगच्छेत् । अथासौ तया सह सम्पत्तिं गच्छति ततो नरकायुर्बध्नाति, तीर्थकृतां सङ्घस्य च 30 महतीमाशातनां विधाय बोधिलाभप्रतिबन्धकं कर्मजालमुपचिनोति । उक्तं च — लिंगेण लिंगिणीए, संपत्तिं जइ निगच्छई मूढो । निरयाउयं निबंध, आसायणया अबोही य ॥ ( कल्पवृहद्भाष्ये ) ॥ ३७१३ ॥ १ किं पेक्खह ताभा० ॥ २ एतचिह्नान्तर्गतः पाठः भा० नास्ति ॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३७१०-१७) तृतीय उद्देशः । १०३१ - एतत् सर्वं स्थानं निषदनं चाश्रित्योक्तम् । अथ त्वग्वर्तनादीनि पदान्यङ्गी » कृत्याह पयला निद्द तुअट्टे, अच्छिद्दिट्ठम्मि चमढणे मूलं ।। पासवणे सञ्चित्ते, संका वुच्छम्मि उड्डाहो ॥ ३७१४ ॥ प्रचलायनं नाम-निषण्णस्य सुप्तजागरावस्था, निद्रायणं तु-निषण्णस्यैव खपनम् , त्वरवर्तनं-- संस्तारकं प्रस्तीर्य शयनम् , अक्षिचमढनं-चक्षुषोर्मीलनम् । एतानि कुर्वाणो यद्यपि सागारिका-5 दिना न दृष्टस्तथापि चतुर्गुरु, दृष्टे तु शङ्कायां चतुर्गुरु, निःशकिते मूलम्, प्रश्रवणं संयतीनां कायिकाभूमौ करोति चतुर्लघु । “सच्चित्ते" त्ति संयत्याः कायिकां व्युत्सृजत्या योनौ संयतनिसृष्टं शुक्रबीजमवगाहेत ततो मूलम् । “संका वुच्छम्मि" त्ति तं संयतं तत्र कायिकां व्युत्सृजन्तं दृष्ट्वा सागारिकादिः शङ्कां कुर्यात्-किं मन्ये एष श्रमणको रजन्यामत्रैवोषितः ?, ततो महानुड्डाहः प्रवचनस्य भवतीति । एषा पुरातना गाथा ॥ ३७१४ ॥ -10 अथास्या एव व्याख्यानमाह पयला निद्द तुअट्टे, अच्छीणं चमढणम्मि चउगुरुगा। दिढे वि य संकाए, गुरुगा सेसेसु वि पदेसु ॥ ३७१५ ॥ प्रचलां निद्रां त्वग्वर्त्तनमक्षिचमढनं च कुर्वाणं यदि घरी न पश्यति ततश्चतुर्गुरुकाः, दृष्टेऽपि प्रचलादौ शङ्कायां चतुर्गुरुकाः, निःशङ्किते मूलम् । शेषेष्वपि' अशनादिसमुद्देशन-खाध्या-15 यकरणादिषु सूत्रोक्तपदेषु परेणादृष्टेषु चत्वारो गुरवः, दृष्टेष्वपि शङ्कायां चतुर्गुरु, निःशङ्किते मूलम् ॥ ३७१५ ॥ का पुनः शङ्का भवेत् ? इति चेद् उच्यते -सज्झाएण णु खिण्णो, आउं अण्णेण जेण पयलाति । संकाएँ हुंति गुरुगा, मूलं पुण होति णिस्संके ॥ ३७१६ ॥ 'नुः' इति वितर्के, किमेष संयतः खाध्यायजागरेण खिन्नः ? आहोश्चिदन्येन सागारिकप्र-20 सङ्गेन रात्रौ खिन्नः ? येनैवं प्रचलायते, एवं शङ्कायां चतुर्गुरुकाः, निःशकिते तु मूलं भवति अन्नत्थ मोय गुरुओ, संजतिवोसिरणभूमिए गुरुगा। जोणोगाहण बीए, केयी धाराएँ मूलं तु ॥ ३७१७ ॥ __ संयतीकायिकाभूमिं विमुच्यान्यत्र मोकस्य व्युत्सर्जने मासगुरु । अथ. संयतीव्युत्सर्जनभूमौ 25 व्युत्सृजति ततश्चतुर्गुरु । तत्र च कदाचिद् दृष्टिक्लीबस्यान्यस्य वा बीजनिसर्गो भवेत् , तच्च बीजं संयतीधाराहतं सद् ऊर्द्धमुखमुद्धावितं योनाववगाहेत तत्र संयतस्य मूलम् , वाहाडितायां च तस्यामुड्डाहादयो दोषाः । केचिदांचायर्या ब्रुक्ते-धारया स्पृष्टमात्र एव बीजे मूलं भवति । यत एते दोषा अतो निष्कारणे संयतीवसतिमविधिना न प्रविशेत् ॥.३७१७ ॥ __गतः प्रथमो भङ्गः । द्वितीयभङ्गमाह-- . ११ एतन्मध्यगतः पाठः ताटी• त० डे. मो० ले. नास्ति, कां० भा० एव वर्तते ॥ २ अशिवादि भा० कां० विना ॥ ३ आओ अ° ताभा० । आतो अ° बृहद्भाष्ये ॥ ४ "जे वाहडा उडाहादयो दोसा" इति चूर्णो विशेषचूर्णौ च ॥ 30 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 १०३२ निकारणे विधीय वि, दोसा ते चैव जे भणिय पुत्रि । वीसत्थाई मुत्तुं, गेन्नाई उवरिमा उ || ३७१८ । निष्कारणे 'विधिनाऽपि ' नैषेधिकीत्रय करणरूपेण प्रवेशे त एव दोषाः ये 'पूर्व' प्रथमभङ्गे सप्रपञ्चमुक्ताः । नवरं विश्वस्ता विषया ये दोषा उक्ताः, आदिशब्दस्तेषामेवानेकभेदसूचकः, 6 तान् मुक्तवा ये ग्लान्यादिविषया उपरितना दोषास्ते द्वितीयभङ्गे सम्भवन्ति, विश्वस्तादोषास्तु नैषेधिकीयकरणेन न सम्भवन्तीति भावः ॥ ३७१८ ॥ निक्कारणे विधीय वि, तिट्ठाणे गुरुगों जेण पडिकुटुं । कारणगमणे सुद्धो, णवरिं अविधीय मासतियं ।। ३७१९ ॥ निष्कारणे विधिनाऽपि प्रविशन् यस्त्रिषु स्थानेषु नैषेधिकीं प्रयुङ्क्ते तस्यापि मासगुरुकम् । 10 कुतः ? इत्याह-येन प्रतिकुष्टं भगवता निष्कारणमार्यिकावसतौ गमनम् । अथ तृतीयभङ्गमाह — " कारण " इत्यादि । कारणे यः संयतीवसतौ गच्छति स शुद्धः । नवरम् 'अविधिना' असामाचार्या प्रवेशनिष्पन्नं त्रिषु स्थानेषु यदि नैषेधिकीत्रयं न करोति ततो मासैलघुत्रयम्, द्वयोः स्थानयोर्न करोति मार्सेलघुद्वयम्, एकस्मिन् स्थाने न करोति एकं मासैलघुकम् ॥ ३७१९ ॥ कारणतो अविधीए, दोसा ते चेव जे भणिय पुवि । कारणें विधीय सुद्धो, इच्छं तं कारणं किन्नु ॥ ३७२० ॥ कारणतोऽविधिना प्रविशतो दोषास्त एव भवन्ति ये विश्वस्तादिविषयाः पूर्वं भणिता इति । कारणे तु 'विधिना' त्रिषु स्थानेषु नैषेधिकीत्रयं कृत्वा प्रविशन् शुद्धः । शिष्यः पृच्छति - इच्छाम्यहं ज्ञातुम् किं तत् कारणम् ? येन तत्र गम्यते ॥ ३७२० ॥ सूरिराहगम्म कारणजाए, पाहुणए गणहरे महिडीए । पच्छादणा य सेहे, असहुस्स चउक्कभयणा उ ।। ३७२१ ।। गम्यते यतीनां प्रतिश्रये 'कारणजाते' उपाश्रय संस्तारकप्रदानादिके । प्राघुणको वा साधुः संयतीनामनाबाधपृच्छानिमित्तं गच्छेत् । गणधरो वा मूर्च्छा-विसूचिकादौ संयतीनामागाढे कारणे समुत्पन्ने दिवा रात्रौ वा गच्छेत् । 'महर्द्धिको वा' राजा ऽमात्यादिप्रत्रजितः संयतीनां तेजो-गौरवादिजननार्थं यायात् । "सेहि" त्ति शैक्षस्य राजपुत्रप्रत्रजितादेरमात्यादिभिरुन्निका25 मयितुमारब्धस्य प्रच्छादना संयतीप्रतिश्रये नीत्वा कर्तव्या । काचिद्वा संयती ग्लाना तस्याश्चिकित्सा कर्त्तव्या, तत्रासहिष्णोः साधोः साध्व्या [श्च] चतुष्कभजना भवति, चतुर्भङ्गीत्यर्थः । सा चेयम् - साध्वी सहिष्णुः साधुरपि सहिष्णुः १ साध्वी संहिष्णुः साधुरसहिष्णुः २ साध्वी असहिष्णुः साधुः सहिष्णुः ३ साध्वी साधुश्च द्वावप्यसहिष्णू ४ । एष द्वारगाथासङ्क्षेपार्थः ॥ ३७२१ ॥ 30 अथ विस्तरार्थमभिधित्सुः प्रथमद्वारमङ्गीकृत्याह 20 सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ निर्ग्रन्थ्युपा०प्र० सूत्रम् १ १ “कारण० पच्छद्धं । कारणगमणे सुद्धो, अविधीए मासलहुगो तिसु ठाणेसु ।” इति चूर्णो ॥ २ अविधिप्रवेश भा० ॥ ३ 'सगुरुत्र' भा० ॥ ४°सगुरुद्ध भा० ॥ ५°सगुरुकम् भा० ॥ ६ °हिष्णुपदोपलक्षिता चतुष्क भा० ॥ ७ साधोश्चतु कां• विना ॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३७१८-२५] तृतीय उद्देशः । १०३३ उवस्सए य संथारे, उवही संघपाहुणे । सेहवणुद्देसे, अणुन्ना भंडणे गणे ॥ ३७२२ ॥ अणप्पज्झ अगणि आऊ, वीआर पुत्त संगमे । संलेहण वोसिरणे, वोसट्टे निहिए तिहं ॥ ३७२३ ॥ उपाश्रयस्य संस्तारकस्योपधेर्वा प्रदानार्थं संयतीप्रतिश्रयं गच्छेत् । काश्चिद्वा संयत्यः परीष-. हपराजिता अवधावनाभिमुख्यो वर्तन्ते तासां स्थिरीकरणार्थ सङ्घप्राघुणो गच्छेत् । इह कुलस्थविरो गणस्थविरः सङ्घस्थविरो वा सङ्घस्य गौरवार्हतया प्राघुण इव प्राघुण उच्यते । शैक्षस्य वोपस्थापनां स्थापनाकुलानां वा स्थापनां कर्तुं तत्र व्रजेत् । वसतावखाध्यायिके श्रुतस्योद्देशमनुज्ञां वा कर्तुं तत्र गच्छेत् । 'भण्डनं' कलहः तद् वा तासां परस्परमुत्पन्नं तदुपशमनार्थ गन्तव्यम् । “गणे" त्ति प्रवर्तिन्यां कालगतायां गणचिन्तार्थ गच्छेत् ॥ ॥ ३७२२ ॥ 10 __"अणप्पज्झ" ति देशीपदमनात्मवशवाचकम्, ततश्चानात्मवशायाः-यक्षाविष्टादिक पाया आर्यिकाया मन्त्र-तत्रादिप्रयोगेणात्मवशतां कर्तुं गच्छेत् । अग्मिना वा संयतीवसतिर्दग्धा, अप्कायपूरेण वा प्लाविता, विचारभूमौ वा गच्छन्तीनां तासां सोपसर्गम् , "पुत्ते" ति पुत्रः उपलक्षणत्वात् पिता भ्राता वा तासां कालगतो भवेत् , "संगमे" ति पुत्र-भ्रात्रादिरेव तासां सज्ञातकश्चिरादागतो भवेत् तस्य यः सङ्गमः-मीलकस्तदर्थम् , तथा 'संलेखनं' भक्तप्रत्याख्या-15 नाय परिकर्मणां काचिदार्यिका करोति, 'व्युत्सर्जनं वा' भक्तप्रत्याख्यानं कर्तुकामा काचिद् विद्यते, 'व्युत्सृष्टं वा' कयाचिद् भक्तं प्रत्याख्यातम् अनशनं प्रतिपन्नमित्यर्थः, एतेषु कारणेषु गच्छेत् । अथ काचिद् 'निष्ठिता' कालगता ततः शेषसंयतीनां शोकापनयनार्थ 'व्यहं त्रीन् दिवसान् यावदुपर्युपरि सूरिणा गन्तव्यमिति श्लोकद्वयसङ्केपार्थः ॥ ३७२३ ॥ अथैतदेव प्रतिपदं बिभावयिषुराह 20 अजाणं पडिकुटुं, वसही-संथारगाण गहणं तु । __ओभासिउ दाउं वा, वच्चेजा गणहरो तेणं ॥ ३७२४ ॥ आर्याणां खयं वसतेः संस्तारकाणां च ग्रहणं भगवता 'प्रतिक्रुष्टं' प्रतिषिद्धम् , अतो वसतिमवभाषितुं गणधरो गच्छति । संस्तारकांश्च तासां प्रायोग्यानुत्पाद्य तान् प्रदातुं गणधरस्तत्र व्रजेत् ॥ ३७२४ ॥ अथोपधिद्वारमाह पडियं पम्हु वा, पलावियं अवहियं व उग्गमियं । उवहिं भाएतुं जे, दाएउ वा वि वच्चेजा ॥ ३७२५॥ भिक्षादौ पर्यटन्तीनां तासामुपधिः पतितः, स्वाध्यायभूमौ वा गतानां "पम्हुटुं" ति विस्मृतः, उदकेन वा प्लावितः, स्तेनैर्वाऽपहृतः, स च भूयोऽपि साधुभिर्लब्धः; अपूर्वो वा उपधितः 'उद्गमितः' उत्पादितः, अतस्तमुपधिं भाजयितुं वा दातुं वा गणधरो व्रजेत् । तत्र पतित-विस्मृ-30 तादेरुपकरणस्य यद् यस्याः सत्कं तस्य तस्या एवं यद् विभज्य समर्पणं तद् भाजनमुच्यते, १ भा० कां० विनाऽन्यत्र- घावना भवति मुख्या वर्त मो० ले० । धारणा भवति मुख्या वर्त्त त० डे० ॥२°स्परं समु° मो० ले० ॥ 25 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ निर्ग्रन्थ्युपा०प्र० सूत्रम् १ यत् पुनरपूर्व उपधिरुत्पाद्य तासां दीयते तद् दानम् । अथवा भाजनं प्रवर्त्तिन्या अभावे शेषसंयतीनां विभज्य समर्पणम् , यत्तु प्रवर्त्तिन्या हस्ते समर्प्यते तद् दानम् ॥ ३७२५ ॥ अथ सङ्घमाघुणद्वारमाह ओहाणाभिमुहीणं, थिरकरणं काउ अज्जियाणं तु । .. - गच्छेज्जा पाहुणओ, संघ-कुलथेर-गणथेरो ॥३७२६ ॥ अवधावनाभिमुखीनां परीषहपराजितानामार्यिकाणां स्थिरीकरणं कर्तुं प्राघुणको गच्छेत् । कः पुनः प्राघुणकः ? इत्याह-सङ्घस्थविरः कुलस्थविरो गणस्थविरो वा, उपलक्षणमिदम् , तेनान्योऽपि यः स्थिरीकरणलब्धिसम्पन्नः स गच्छति ॥ ३७२६ ॥ अथ शैक्षद्वारमाह अन्नत्थ अप्पसत्था, होज पसत्था य अजिगोवसए। एएण कारणेणं, गच्छेन्ज उवट्ठवेउं जे ॥ ३७२७ ॥ अन्यत्र विधीयमाना उपस्थापना क्षारा-ऽङ्गार-कचवराद्यप्रशस्तद्रव्ययुक्तवादप्रशस्ता भवेत् , आर्यिकोपाश्रये तु प्रशस्ता, एतेन कारणेन शैक्षमुपस्थापयितुं "जे" इति पादपूरणे आर्यिकावसतिं गच्छेत् ॥ ३७२७ ॥ स्थापनाद्वारमाह- . ठवणकुलाइ ठवेउं, तासिं ठवियाणि वा निवेएउं । परिहरिउं ठवियाणिं, ठवणाऽऽदियणं व वोत्तुं जे ॥ ३७२८॥ ... दानश्राद्धादीनि स्थापनाकुलानि तासां समक्षं स्थापयितुम् , यद्वा तानि खवसतौ स्थापितानि परं तासां 'निवेदयितुम्' 'अमुकममुकं च कुलं स्थापितम्' इत्येवं ज्ञापयितुम् , इदानी वा तानि . कुलानि स्थापितानि ततः 'परिहत्तुं' 'न निर्वेष्टव्यानि' । इत्येवं निवारयितुम् , येषु जन्मसूतक मृतसूतकादियुक्तेषु कुलेषु पूर्वमित्वरस्थापना · कृता तेषु विवक्षितावधिपरिपूर्त्यनन्तरं भूयोऽपि 20 'आदानं' ग्रहणं कुरुतेत्यनुज्ञावचनं वक्तुं गन्तव्यम् ॥ ३७२८॥ अथोद्देशा-ऽनुज्ञाद्वारद्वयमाह वसहीऍ असज्झाए, गोरव भय सद्ध मंगले चेव । उद्देसादी काउं, वादेउं वा वि गच्छेजा ॥ ३७२९ ॥ वसतावखाध्यायिके जाते संयतीवसतिमुद्देशमनुज्ञा वा कर्तुं गच्छेत् । अथवा यद्याचार्यः वयं तासामुद्देशादिकं करोति ततस्ता आचार्य विषयं यद गौरवं यच्च तदीयं भयं ताभ्यां 25 शीघ्रं तदङ्ग-श्रुतस्कन्धादिकमधीयते, आचार्येण वा स्वयमुद्दिष्टे तासां महती श्रद्धोपजायते, प्रशस्तद्रव्यादिगुणयुक्तत्वाच्च तत्रोद्देशादौ विधीयमाने मङ्गलं भवेत् , एतैः कारणैरुद्देशादिकं कर्तुं तत्र गच्छेत् । प्रवर्त्तिन्यां वा कालगतायामन्या काचित् तासां वाचनादात्री न विद्यते ततो गणधरो वाचयितुं गच्छेत् ॥ ३७२९ ॥ भण्डनद्वारमाह. उप्पन्ने अहिगरणे, विओसवेउं तहिं पसत्थं तु । अच्छेति खउरियाओ, संजमसारं ठवेउं जे ॥ ३७३० ॥ .. अधिकरणे उत्पन्ने सति ताः संयमस्य सारं-सर्ववभूतमुपशमं पार्श्वे स्थापयित्वा “जे" इति प्राग्वत् “खउरियाओ" कलुषितचेतसः परस्परमनालपन्त्यस्तिष्ठन्ति, ततस्ता व्युपशमयितुं 'तत्रैव' १°याणि व, 3° तामा० ॥ २ °तेत्याज्ञा त० डे० ॥ ३ °रमा भा० विना ॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३७२६-३६] तृतीय उद्देशः । १०३५ संयतीवसतौ गणधरस्यान्यस्य वा तथाविधोपशमनालव्धिसम्पन्नस्य गमनं प्रशस्तं भवति ॥३७३०॥ गणधरद्वारमाह जइ कालगया गणिणी, नस्थि उ अन्ना उ गणहरसमत्था । एतेण कारणेणं, गणचिंताए वि गच्छेजा ॥ ३७३१॥ यदि 'गणिनी' प्रवर्तिनी कालगता, नास्ति चान्या संयती गणभरोद्वहनसमर्था, अत एतेन 5 कारणेन गणचिन्ताकरणार्थमपि गच्छेत् ॥ ३७३१ ॥ अथानात्मवशाद्वारमाह अजं जक्खाइटुं, [व] खित्तचित्तं व दित्तचित्तं वा । उम्मायं पत्तं वा, काउं गच्छेज्ज अप्पज्झं ॥ ३७३२ ॥ यक्षेण आविष्टा-गृहीता यक्षाविष्टा । अपमाननया क्षिप्तं-नष्टं चित्तं यस्याः सा क्षिप्तचित्ता । या तु हर्षातिरेकेणापहृतचित्ता सा दीप्तचित्ता भण्यते । या तु मोहनीयकर्मोदयेन चित्तशून्य-10 तामुपगता सा उन्मादप्राप्ता । ईदृशामायाँ विज्ञायाचार्यों मन्त्रेण वा तन्त्रेण वा "अप्पज्झं" ति 'आत्मवशां' खस्थचित्तां कर्तुं संयतीवसतिं गच्छेत् ॥ ३७३२ ॥ अनिद्वारमाह जइ अगणिणा उ वसही, दड्डा डज्झइ व डज्झिहिति व त्ति । नाऊण व सोऊण व, उवघेत्तुं जे व जाएजा ॥ ३७३३ ॥ यद्यमिना संयतीवसतिर्दग्धा, दह्यते वा सम्प्रतिकाले, अथवा प्रत्यासन्नाग्निप्रदीपनदर्शनेन 15 धक्ष्यते इति ज्ञात्वा वा स्वयं 'श्रुत्वा वा' परमुखेनाकर्ण्य तां वसतिम् 'उपग्रहीतुं' संस्थापयितुं निर्वापयितुं वा “जे" इति पादपूरणे संयतीवसतिं 'यायात्' गच्छेत् ॥ ३७३३ ॥ अथाप्कायद्वारमाह नेइपूरेण व वसही, वुज्झइ बूढा व वुज्झिहिति व त्ति । उदगभरियं व सोचा, उववेत्तुं तं तु वच्चेजा ॥ ३७३४ ॥ नदीपूरेण प्रसरता वसतिः साम्प्रतम् 'उह्यते' नीयते, 'व्यूढा वा' नीता, 'वक्ष्यते वा' नेष्यते, उदकेन वा वसतिर्भूता, एवं श्रुत्वा 'तां' वसतिम् ‘उपग्रहीतुम्' उल्लिञ्चनादिकं कर्तुं व्रजेत्॥३७३४॥ विचारद्वारमाह__ घोडेहि व धुत्तेहि व, अहवा वि जतीवियारभूमीए । जयणाए व करेउं, संठवणाए व बच्चेजा ॥ ३७३५ ॥ घोडाः-चट्टाः धूर्ताः-द्यूतकारादयः, तैर्वसत्याः पुरोहडे गच्छन्त्यस्ता उपसर्म्यन्ते ततस्तेषां सानुनयनिवारणार्थ गच्छेत् । अथवा यतीनां विचारभूमौ ताः समागच्छन्ति तन्निवारणार्थ गच्छति । अथवा यतनया तासां कायिकाभूमि विचारभूमि वा कत्तुं पूर्वकृताया वा संस्थापनानिमितं व्रजेत् ।। ३७३५ ॥ पुत्रद्वारमाह पुत्तो वा भाया वा, भगिणी वा होज ताण कालगया। अजाएँ दुक्खियाए, अणुसट्टीए वि गच्छेजा ॥ ३७३६ ॥ पुत्रो वा भ्राता वा भगिनी वा तासां कालगता भवेत् ततो या तत्रार्यिका 'दुःखिता' शोकसा१ नदिपूरएण वसही तामा० ॥ 90 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 20 १०३६ गरावगाढा भवति तस्या अनुशिष्यर्थमपि सूरिः खयमेव गच्छेत् || ३७३६ ॥ तस्याश्चेयमनुशिष्टिर्दातव्या सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ निर्ग्रन्थ्युपा०प्र० सूत्रम् १ 5 येsपि तावत् ' त्रैलोक्यदेवमहिताः ' भुवनत्रयवासिभिः सुरासुरैरभ्यर्चितास्तीर्थकर रास्तेऽपि भगवन्तः ‘नीरजसः’ सकलकर्मनिर्मुक्ताः 'गताः' प्राप्ताः सिद्धिम्, तथा 'स्थविरा अपि' ऋषभसेन- गौतमादयः केचित् चरमदेहधारिणो गताः सिद्धिम् । कथम्भूताः ? चरणगुणानी-मूलोतरगुणरूपाणां स्वयैमेव चरणेनान्येषां चोपदेशद्वारेण प्रभावकाः - प्रकर्षेण स्फातिं नेतारश्चरणगुणप्रभावकाः, 'धीराः' परीषहोपसर्गेरक्षोभ्याः, यद्येवंविधा अपि महापुरुषाः कालगतास्ततः शेष10 जनमरणे किमाश्चर्यम् ? इति भावः || ३७३७ ॥ तथा लोकदेवमहिया, तित्थयरा नीरया गया सिद्धिं । थेरा वि गया केई, चरणगुणपभावया धीरा || ३७३७ ॥ भी य सुंदरी या, अन्ना वि य जाउ लोगजेट्ठाओ । ताओ व य कालगया, किं पुण सेसाउ अजाउ || ३७३८ ॥ ब्राह्मी च सुन्दरी च अन्या अपि च या लोकज्येष्ठा आर्यचन्दना - मृगापतीप्रभृतय आर्यकस्ता अपि कालगताः, किं पुनः शेषा आर्यिकाः ? || ३७३८ ॥ ततः- न हु होइ सोइयव्वो, जो कालगओ दढो चरित्तम्मि | सो होइ सोतियन्वो, जो संजमदुब्बलो विहरे || ३७३९ ॥ 'न हु' नैवासौ साधु-साध्वीजनः शोचितव्यो भवति, यश्चारित्रे ' दृढः ' निःप्रकम्पः सन् भक्तप्रत्याख्यानादिविधिना कालगतः; किन्तु स वराकः शोचनीयो भवति यः पृथिव्याद्युपमर्द - नमनैषणीयपिण्डादिग्रहणं वा कुर्वन् संयमेन दुर्बलो विहरति ॥ ३७३९ ॥ अपि चलडूण माणुसत्तं, संजमसारं च दुल्लभं जीवा । आणा पमाएणं, दोग्गहभयवडणा होंति ।। ३७४० ॥ ' लब्ध्वा ' प्राप्य मानुषत्वं तथा संयम एव सारः - प्रधानं मोक्षानं तं च 'दुर्लभ' महानी - रधिनिममान रत्नमिव दुःप्रापं लब्ध्वा ये जीवा भागवत्याः 'आज्ञायाः ' विधि प्रतिषेधरूपायाः मान कालं गमयन्ति ते दुर्गतिभयवर्धना भवन्ति, आत्मनो देवादिदुर्गति परिभ्रमणजनितं 25 भयं वर्द्धयन्तीति भावः । एवमनुशिष्टिस्तासां दातव्या ॥ ३७४० ॥ अथ सङ्गमद्वारमाहपुतो पिया व भाया, अजाणं आगओ तहिं कोई । वित्तॄण गणहरो तं वच्चति तो संजतीवसहिं ।। ३७४१ ॥ पुत्रः पिता वा भ्राता वा आर्याणां सम्बन्धी चिरप्रोषितस्तत्र कश्चिदागतो भवेत्, ततस्तं गृहीत्वा गणधरः संयतीवसतिं व्रजति, येन तासां तस्मिन् संज्ञातकसाधौ दृष्टे समाधिरुपजायते १० ॥ ३७४१ ॥ अथ संलेखन- व्युत्सर्जन - व्युत्सृष्ट- निष्ठितद्वाराणि युगपदाह संलिहियं पि यतिविहं, वोसिरियव्वं च तिविह वोसङ्कं । १ 'नां लोकोत्तर' ताटी० मो० ले० ॥ २ 'यमाचर° भा० कां० ॥ ३ 'नस्य मर° भा० कां० ॥ ४ शोचनीयो भव' भा० ॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३७३७-४६) तृतीय उद्देशः । १०३७ कालगय ति य सोचा, सरीरमहिमाइ गच्छेजा ॥ ३७४२ ॥ इह संलेखितम् अपिशव्दात् संलेख्यमानं वस्तु त्रिधा-आहारः शरीरमुपकरणं च, यद्वोपधिः शरीरं कषायाश्चेति । व्युस्रष्टव्यमप्येवमेव त्रिविधम् , अनशनप्रतिपत्तिकाले एतदेव त्रयं व्युत्सर्जनीयमिति भावः । एवं व्युत्सृष्टमपि त्रिविधम् । एषु त्रिष्वपि तस्याः स्थिरीकरणार्थ सूरिणा गन्तव्यम् । यावत् 'कालगता सा संयती' इति वार्ता श्रुता, तां च श्रुत्वा तस्याः शरीरमहि । मार्थ गणधरः खयमेव गच्छेत् ।। ३७४२ ॥ जाहे वि य कालगया, ताहे वि य दुन्नि तिन्नि वा दिवसे । गच्छेञ्ज संजईणं, अणुसहि गणहरो दाउं ॥ ३७४३ ॥ यदापि च प्रवर्तिनीप्रभृतिका महानिनादसंयती कालगता भवति तदा द्वौ त्रीन् वा दिव. सान् संयतीनामनुशिष्टिं प्रदातुं गणधरो गच्छेत् ॥ ३७४३ ॥ 10 गतं “गम्यते कारणजाते" (गा० ३७२१) इति मूलद्वारम् । अथ प्राघुणकद्वारमाह अप्पविति अप्पतितिया, पाहुणया आगया सउवचारा । सिजायर मामाए, पडिकुट्ठद्देसिए पुच्छा ॥ ३७४४ ॥ प्राघुणकाः साधव आत्मद्वितीया आत्मतृतीया वा तत्रागताः, तैश्च तत्र श्रुतम् , यथाअत्र संयत्यस्तिष्ठन्ति; ततस्ते तासां वसतिं सोपचाराः प्रविशन्ति । सोपचारा नाम-त्रिषु स्थानेषु ।। प्रयुक्तनैषेधिकीशब्दाः, यद्वा संयतीभिर्येषां वक्ष्यमाण उपचारः प्रयुक्तस्ते सोपचारा उच्यन्ते । तेषु समागतेषु प्रवर्तिनी यदि स्थविरा तत आत्मद्वितीया निर्गच्छति, अथ तरुणी तत आत्मतृतीया । या च तत्र स्थविरा सा पुरतस्तिष्ठति । ततः साधवः शय्यातरकुलं मामाककुलं प्रतिकुष्टकुलानि च-रजकादिसम्बन्धीनि औद्देशिकं च येषु कुलेषु क्रियते तानि प्रवर्तिन्याः समीपे पृच्छन्ति ॥ ३७४४ ॥ अथोपचारं व्याख्याति 20 आसंदग कट्ठमओ, भिसिया वा पीढगं व कट्ठमयं । तक्खणलंभे असई, पडिहारिग पेहऽभोगऽण्णे ॥ ३७४५ ॥ यदि साधुषु समागतेषु तत्क्षणादेव. काष्ठमय आसन्दकोऽशुषिरादिगुणोपेतः प्राप्यते, वृषिका वा काष्ठमयं वा पीठकं लभ्यते ततस्तदानीमेव तद् ग्रहीतव्यम् । अथ तत्क्षणादेवासन्दकादि न लभ्यते ततोऽनागतं प्रातिहारिकं गृहीत्वा स्थापयन्ति । "पेह" ति तच्चोभय-25 सन्ध्यं प्रत्युपेक्षन्ते । “भोगऽन्ने' त्ति अकारप्रश्लेषादन्यो नाम--संयतीजनस्तस्य प्रातिहारिकस्य भोगं न करोति । ततस्ते तत्रोपविष्टाः संयतीनां निराबाधादिवा" पृष्ट्वा शय्यातरकुलादीनि पृच्छन्ति ॥ ३७४५ ॥ अथ केन विधिना ते पृच्छन्ति ? केन वा विधिना तास्तेषां दर्शयन्ति ? इत्युच्यते बाहाइ अंगुलीइ व, लट्ठीइ व उज्जुअं ठिओ संतो। न पुच्छेज न दाएजा, पञ्चावाया भवे तत्थ ॥३७४६ ॥ [आ.नि.४३९] शय्यातरादिकुलं पृच्छन् दर्शयन् वा 'बाहया' बाहुं प्रसार्य, एवमङ्गुल्या वा यष्ट्या वा १°ह संलेखनायां संलेख्यं वस्तु भा० ॥ २ ज संजतीणं, अणुसद्धि वा भवे तामा० ॥ 30 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३८ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ निर्ग्रन्ध्युपा०प्र० सूत्रम् १ गृहस्य ‘ऋजुकं' सम्मुखं स्थितः सन् न पृच्छेद् न वा दर्शयेत् । कुतः ? इत्याह - यतस्तत्रैवं पृच्छ्यमाने दर्श्यमाने वा प्रत्यपाया बहवो भवन्ति ॥ ३७४६ ॥ तानेवाहतेहि' अगणिणा वा, जीवियववरोवणं व पडिणीए । खेरए खरिया सुण्हा, नङ्के वट्टक्खुरे संका || ३७४७ ॥ बाह्रादिकं प्रसार्य साधुना यद् गृहं पृष्टम् संयत्या वा दर्शितम् ततः स्तेनैः किञ्चिदपहृतं भवेत्, अग्निना वा तद् गृहं दग्धम्, प्रत्यनीकेन वा तस्मिन् गृहे कस्यापि जीवितव्यपरोपणं कृतम्, (ग्रन्थाग्रम् - २५४२० ) व्यक्षरको वा व्यक्षरिका वा केनचिदपहृता, खुषा वा केनचिद् धूर्तेन सह पलायिता, 'वृत्तखुरो वा' प्रधानस्तुरङ्गमो नष्टो भवेत् ततः साधु-साध्वीविषया शङ्का भवेत् — नूनमेतैरेवापहृतम् दग्धमित्यादि; ततो नाविधिना पृच्छेत् न वा दर्शयेत् 10॥ ३७४७ ॥ तत्रं चाssसीनास्ते साधवो न हसन्ति न वा कन्दर्पं कुर्वन्ति, किन्तु — सेजायराण धम्मं, कहिंति अजाण देंति अणुसट्ठि । - धम्मम्मिय कहियम्मि य, सव्वे संवेगमावन्ना ॥ ३७४८ ॥ शय्यातराणां धर्मं कथयन्ति, आर्याणां चोद्यतानां स्थिरीकरणार्थं सीदन्तीनां पुनरुद्यमनार्थमनुशिष्टिं प्रयच्छन्ति । धर्मे च कथिते 'सर्वे' श्राद्धाः संयत्यश्च संवेगमापन्ना भवन्ति, आत्मनश्च 15 मिर्जरा भवति ॥ ३७४८ || प्राघुणकद्वारमेव प्रकारान्तरेण व्याचष्टे 5 अन्नो वि अ आएसो, पाहुणग अभासिया उ तेणभए । चिलिमिणिअंतरिया खलु, चाउस्साले वसेजा णं ॥ ३७४९ ॥ अयम् 'अन्यः' अपर आदेशः प्राघुणकद्वारे समस्ति - ते प्राघुणकाः 'अभाषिकाः' द्रविडादिदेशोद्भवाः, ततस्तत्र तेषामुपाश्रयो दुर्लभः, अतस्तदर्थं संयत्यो वसतिं मार्गयन्ति । यदि ताभि20 रपि गवेषयन्तीभिर्न लब्धा ततो वृक्षमूलादिषु बहिर्वसन्ति । अथ बहिः स्तेनभयं ततो यत्रार्याः स्थिताः सन्ति तत् चतुःशालं भवेत्, तत्रान्यस्यां शालायां साधवश्चिलिमिलिकया अन्तरिता वसेयुः ॥ ३७४९ ॥ चतुःशालस्याभावे विधिमाह -- रस्स असती, कडओ पुत्ती व अंतरे थेरा । तेसंतरिया खुड्डा, समणीण वि मग्गणा एवं ।। ३७५० ॥ 25 अन्यस्या वसतेरभावे संयताः संयत्यश्चैकस्मिन् गृहे वसन्तैः कुंड्यान्तरिते वसन्ति । कुड्यान्तरस्याभावे कटकोऽपान्तराले दीयते । कटकस्याभावे पोतं - वस्त्रं तन्मयी चिलिमिलिका । अथ - चिलिमिलिकायाः स्तेनभयं ततो यस्मिन् पार्श्वे संयत्यस्ततः प्रथमं स्थविराः, तैरन्तरिताः क्षुल्लकाः, ततो मध्यमाः, ततस्तरुणा इति । एवं श्रमणीनामपि मार्गणा कर्त्तव्या, तद्यथा - स्थविरसाधूनामासन्ने क्षुल्लिकाः, ततः स्थविराः, ततो मध्यमाः, ततो दृढकुड्यासन्ने 30 तरुण्यः स्थाप्यन्ते ॥ ३७५० ॥ तत्रस्थितानां विधिमाह - १° हिंगणि ताभा० ॥ २ खर- पे (बे) खरिया ताभा० 'म् - ५०० मो० ले० ॥ ४° तरियस्सऽसती भा० ताभा० 'कुड्यान्तरस्यासति' कुड्यान्तरस्याभावे त० ॥ ६ वर्त्तते ॥ ७ एतदन्तर्गतः पाठः भा० एव वर्त्तते ॥ विना ॥ ३°म् - ९५०० ताटी० । चूर्णे विशेषचूर्णे च ॥ ५°न्तः एतदन्तर्गतः पाठः भा० कां० एव Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 भाष्यगाथाः ३७४७-५५] तृतीय उद्देशः । १०३९ अन्नाए आभोगं, नाऍ ससदं करेंति सज्झायं ।। अच्चुव्याया व सुवे, अच्छंति व अन्नहिं दिवसं ॥ ३७५१ ॥ यदि तत्र जनेनाज्ञाताः स्थितास्ततो रात्रौ 'आभोगम्' उपयोगं कुर्वते, तृष्णीका आसते इत्यर्थः । अथ ज्ञातास्ततः 'सशब्दं' महता शब्देन युक्तं स्वाध्यायं कुर्वन्ति । अथातीवोद्वाताः-परिश्रान्तास्ततः स्वपन्ति । कारणतश्चैकं द्वौ त्रीन् वा दिवसान् तत्रैव यदि स्थानवः । ततो दिवसम् 'अन्यत्र' उद्यानादिषु स्थित्वा रात्रौ तत्र वसन्ति । कारणाभावे तु तत्रैकरात्रमुषित्वा प्रभाते व्रजन्ति ॥ ३७५१ ॥ समणी समण पविढे, निसंत उल्लावकारणे गुरुगा। पयला निद्द तुबट्टे, अच्छीमलणे गिही मूलं ॥ ३७५२ ॥ श्रमणीजने श्रमणजने च कायिकां कृत्वा प्रविष्टे सति यद्येको वाऽनेके वा एकया वाऽने-10 काभिर्वा संयतीभिः समं 'निशान्ते' निःसंचरवेलायामुल्लापम् 'अकारणे' आगाढकारणाभावे कुर्वन्ति ततश्चतुर्गुरुकम् । तथाऽन्यत्रोद्यानादिषु श्वापद-स्तेनादिभयाद् दिवाऽपि तत्रैव तिष्ठन्तो यदि प्रचलायन्ते निद्रायन्ते त्वग्वर्त्तयन्ति वा अक्षिणी वा मलयन्ति तत्र चतुर्गुरुकम् । अथ गृही प्रचलादि विदधानं तं दृष्ट्वा शङ्कां करोति-किमेष खाध्यायजागरेण खिन्नः प्रचलायते? उत सागारिकजागरेण ? इत्यादि ततश्चतुर्गुरु । निःशङ्किते मूलम् ।। ३७५२ ॥ उच्चारं पासवणं, व अन्नहिं मत्तएसु व जयंति । . अहिट्ठ पविट्ठा वा, अदिट्ठ णितेधरा भयिता ॥ ३७५३ ॥ उच्चारं प्रश्रवणं वा संयतीकायिकाभूमिं विमुच्यान्यत्र कुर्वन्ति, मात्रकेषु वा कृत्वा बहिः परिठापनायां यतन्ते । तत्र च यदि गृहिभिरदृष्टाः प्रविष्टास्ततोऽदृष्टा एव निर्गच्छन्ति, अथ दृष्टाः प्रविष्टास्ततः 'भक्ताः' विकल्पिताः, दृष्टा अदृष्टा वा निर्गच्छन्तीति भावः॥ ३७५३॥ 20 तत्थऽनत्थ व दिवसं, अच्छंता परिहरंति निदाई। जयणाए व सुर्विती, उभयं पि य मग्गए वसहिं ॥ ३७५४ ॥ तत्र रजन्यामुषित्वा दिवसतः 'तत्र वा' संयतीवसतौ 'अन्यत्र वा' उद्यानादिषु तिष्ठन्तो निद्रा-प्रचलादिकं परिहरन्ति, यवनिकान्तरिता वा यतनया खपन्ति यथा सागारिको न पश्यति । यदि ते तत्र कियन्तमपि कालं स्थातुकामास्ततः 'उभयमपि' साधवः साध्व्यश्चान्यां वसतिं मार्ग-25 यन्ति । लब्धायां च तत्र साधवस्तिष्ठन्ति ॥३७५४ ॥ गतं प्राघुणकद्वारम् । अथ गणधरद्वारमाह अहिणा विसूइका वा, सहसा डाहो व होज सासो वा। जति आगाढं अजाण होइ गमणं गणहरस्स ॥ ३७५५ ॥ 'अहिना' सर्पण काचिदार्यिका दष्टा, अतिमात्रे वा भुक्ते विशूचिका कस्याश्चिदजनिष्ट, सहसा पित्तेनामिना वा 'दाहः' दाहज्वरो वाऽभवत् , श्वासो वा कस्याश्चिदकस्मादजनि, एव-30 मादिकं यदि आगाढं कार्यमार्याणां भवति ततो दिवा रात्रौ वा गणधरस्य गमनमनुज्ञातम् ॥ ३७५५ ॥ अथवा१°ना । यतस्तत्र यदि भा० का० विना ॥२ एतचिह्नगतः पाठः भा० कां० एव वर्तते ॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [निम्रन्थ्युपा०प्र० सूत्रम् १ पडिणीय मेच्छ मालव, गय गोणा महिस तेणगाई वा । आसन्ने उपसग्गे, कप्पड़ गमणं गणहरस्स ॥३७५६ ॥ प्रत्यनीक-म्लेच्छ-मालवस्तेन-गज-गो-महिष-स्तेनकादयो वा संयतीनामुपसर्ग कर्तुमारब्धाः, यद्वा न तावत् ते उपसर्गयन्ति परं तेषामासन्न उपसर्गो वर्त्तते तत्क्षणादेव भावीत्यर्थः, ततः 5 कल्पते गणधरस्यान्यस्य वा समर्थस्य तन्निवारणार्थ गमनम् ॥ ३७५६ ॥ गतं गणधरद्वारम् । अथ महर्द्धिकद्वारमाह रायाऽमच्चे सेट्ठी, पुरोहिए सस्थवाह पुत्ते य । गामउडे रटुउडे, जे य गणहरे महिड्डीए ॥ ३७५७ ॥ 'राजा' पृथिवीपतिः । 'अमात्यः' मन्त्री । अष्टादशानां प्रकृतीनां महत्तरः श्रेष्ठी । पौर-जन10 पदयुक्तस्य राज्ञो होमादिनाऽशिवायुपद्रवप्रशमनः पुरोहितः । यस्तु क्रयाणकजातं गृहीत्वा लाभार्थमन्यदेशं व्रजन् सार्थ वाहयति-योग-क्षेमचिन्तया पालयति स सार्थवाहः । पुत्रशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, यथा-राजा राजपुत्र इत्यादि । तथा 'ग्रामकूटः' ग्राममहत्तरः, 'राजकूट।' राष्ट्रमहत्तरः, एते प्रव्रजिता इह गृह्यन्ते । यश्च गणधरो राजादिबहुमतो विद्यातिशयसम्पन्नो वा, एते सर्वेऽपि महर्द्धिका उच्यन्ते ॥ ३७५७ ॥ 15 एतेषां संयतीवसतिं गच्छताममी गुणा भवन्ति अजाण तेयजणणं, दुजण संचमकारया य गोरवया । तम्हा समणुण्णायं, गणहर गमणं महिड्डीए ॥ ३७५८॥ आर्याणां 'तेजोजननं' माहात्म्योत्पादनम् । दुर्जनानां च 'सचमत्कारता' साशङ्कता भवति, न किञ्चित् प्रत्यनीकत्वं कुर्वन्तीत्यर्थः । लोके च आर्याणां गौरवमुपजायते । तस्माद् गणधरस्य 20 'महर्द्धिकस्य च' राजप्रव्रजितादेर्गमनमार्यिकाप्रतिश्रये समनुज्ञातम् ॥ ३७५८ ॥ ताश्चार्यिकास्तान् राजादिदीक्षितान् दृष्ट्वा इत्थं चिन्तयन्ति संतविभवा जइ तवं, करेंति अवइज्झिऊण इड्डीओ। सीयंतथिरीकरणं, तित्थविवड्डी य वण्णो य ॥ ३७५९ ॥ सद्विभवा अप्यमी यदि 'ऋद्धीः' राज्यादिसम्पदः 'अपोज्झ्य' परित्यज्य तपः कुर्वन्ति 28 ततो वयमसती सम्पदं प्रार्थयमानाः किमेवं प्रमादमनास्तिष्ठामः ? इत्येवं सीदन्तीनामार्यिकाणां स्थिरीकरणं कृतं भवति । स्थिरीकरणे च क्रियमाणे तीर्थस्य विवृद्धिः । तीर्थवृद्धौ च प्रवचनस्य 'वर्णः' यशःप्रवादः प्रभावितो भवति ।। ३७५९ ॥ गतं महर्द्धिकद्वारम् । अथ 'प्रच्छादना च शैक्षे' इति द्वारमाह वीसुभिओ य राया, लक्खणजुत्तो न विज्जती कुमरो । पडिणीएहि व कहिए, आहावंती दवदवस्स ॥ ३७६० ॥ - कस्यापि नृपतेस्त्रयः पुत्राः सम्यग्दर्शनलब्धबुद्धयो दीक्षा कक्षीकृतवन्तः । कालान्तरेण च स राजा 'विश्वम्भूतः' शरीरात् पृथग्भूतः, कालगत इत्यर्थः । ततोऽमात्यादयः 'वयमराजकाः १ गोणो म° ताभा० ॥ २ सच्चंकार ताभा० ॥ 30 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३७५६-६५] तृतीय उद्देशः । १०४१ सन्तोऽनाथाः' इति परिभाव्य राज्यलक्षणोपेतं कुमार प्रयत्नेन गवेषितवन्तः, परं न विद्यते कोऽपि लक्षणयुक्तः कुमारः । ततः कथितं 'प्रत्य नीकैः' तचनिकादिभिः, यथा-येषां मध्येऽस्यैव नृपतेः पुत्राः प्रव्रजिताः सन्ति ते साधवो विहरमाणा इहैवोद्याने सम्प्राप्ताः । ततस्तेऽमात्यादयः सम्यग् ज्ञात्वा छत्र-चामर-खड्गादिकं राजाह वस्तु गृहीत्वा द्रुतद्रुतम् 'आधावन्ति' साधूनां समीपमागच्छन्ति ॥ ३७६०॥ अथ प्रत्यनीकाः केन कारणेन कथयन्ति ? इत्युच्यते अइ सिंजणम्मि वन्नो, य आयति इड्डिमंतपूया य । रायसुयदिक्खिएणं, तित्थ विवड्डी य लद्धी य ॥ ३७६१ ॥ अमुना राजसुतेन दीक्षितेन 'सिं' अमीषां श्रमणानाम् 'अति' अतीव 'जने' लोके 'वर्णः' यशःप्रवादो विजृम्भते, यथा-अहो ! अमीषामेव धर्मः प्रतपति यत्रेदृशाः प्रव्रजन्ति । 'आयतिश्च' सन्ततिरमीषामनेनाव्यवच्छिन्ना भविष्यति । ऋद्धिमन्तश्च-श्रेष्ठ्यादय एतत्प्रभावेणामीषां 10 पूजां कुर्वन्ति । तथा 'राजसुतोऽत्र प्रवजितः' इति कृत्वाऽन्येऽपि बहब इभ्यपुत्रादयः प्रव्रजन्तीति तीर्थवृद्धिः । लब्धिश्चाहार-वस्त्रादीनां प्रचुरा भवति । उत्पव्रजितेन पुनरमुना वर्णादयो न भविष्यन्तीति बुद्ध्या प्रत्यनीकाः कथयन्ति ॥ ३७६१ ॥ ततस्तानमात्यादीनुवाजनार्थमागच्छतः श्रुत्वा ते राजपुत्राः किं कुर्वन्ति ? इत्याहदट्टण य राइडिं, परीसहपराइतो तहिं कोई।। 15 आपुच्छइ आयरिए, सम्मत्ते अप्पमाओ हु ॥ ३७६२ ।। तां राजसमृद्धिमागच्छन्तीं दृष्ट्वा तत्र कोऽपि राजपुत्रः परीषहपराजितः सन्नाचार्यानाटच्छते-भगवन् ! अशक्तोऽहं प्रव्रज्यामनुपालयितुम् । तत आचार्या भणन्ति-सौम्य ! सम्यक्त्वे भवता 'हुः' निश्चितमप्रमादः कर्त्तव्यः ॥ ३७६२ ॥ नाऊण य माणुस्सं, सुदुल्लभं जीवियं च निस्सारं ।। संघस्स चेतियाण य, वच्छल्लत्तं करेजाहि ॥ ३७६३ ॥ ज्ञात्वा 'मानुष्यं' मनुष्यभवं सुदुर्लभं जीवितं च निस्सारं मत्वा सङ्घस्य चैत्यानां च 'वत्सलत्वं' भक्तिं कुर्या इति ।। ३७६३ ॥ द्वितीयः पुनराह किं काहिंति ममेते, पडलग्गतणं व मे जढा इड्डी । को वाऽनिट्टफलेसं, विभवेसु चलेसु रज्जेजा ॥ ३७६४ ॥ 25 किं करिष्यन्ति मम 'एते' अमात्यादयः ? पटलमतृणमिव मया राज्यऋद्धिः “जढा" परित्यक्ता, अपि च राज्यादिविभवानां भुक्तानां ध्रुवं नरकपातः फलम् , चलाश्चामी सन्ध्याभ्ररागवत् , अतः को वाऽनिष्टफलेषु चलेषु च विभवेषु 'रज्येत' रागमनुबध्नीयात् ? । एवमुक्त्वा प्रकट एव प्रदेशे स्थितः सर्वानुपसर्गानभिभूय स संयममनुपालयति ॥ ३७६४ ॥ यस्तु तृतीयः स किं करोति ? इत्याह तईओ संजमअट्ठी, आयरिए पणमिऊण तिविहेणं । गेलनं नियडीए, अजाण उवस्सगमतीति ॥ ३७६५ ॥ १इत्युच्यते भा० ॥ २ बितिओ तामा० चूर्णौ च ॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४२ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ निर्ग्रन्थ्युपा०प्र० सूत्रम् १ तृतीयो राजपुत्रः संयमार्थी स गुरुभिरभिहितः - आर्य ! संयतीप्रतिश्रये निलीयख । स प्राह—– इच्छाम्यहं भगवद्वचनम्, निस्तारयत मां येन केनापि प्रकारेणास्मादुपसर्गसमुद्रात् । एवमुक्त्वा स आचार्यान् 'त्रिविधेन' मनो- वाक्- कायकर्मणा प्रणम्य निकृत्या ग्लानत्वं कृत्वा - ssर्याणामुपाश्रयं प्रविशति ॥ ३७६५ ॥ 5 अंतद्भाणा असई, जइ मंसू लोय अंबिलीवीए । पीसित्ता देति मुहे, अपगासें ठवेंति य विरेगो ॥ ३७६६ ॥ यद्यन्तर्धानकारणमञ्जन-मन्त्रादि विद्यते ततः सोऽन्तर्हितः कृत्वा तत्रैव स्थाप्यते । अथ नास्त्यन्तर्धानकरणं ततः संयतीनेपथ्यं कारयित्वा तद्वसतिं नेतव्यः । यदि तस्य ' श्मश्रु' कूर्चं विद्यते ततो लोचः क्रियते । अम्लिनीबीजानि च पिष्ट्वा तस्य मुखे ददति, तैर्मुखमालिम्पन्ती10 त्यर्थः । अप्रकाशे च प्रदेशे संयतीवसतौ तं स्थापयन्ति । विरेकध विरेचनका रकौषधप्रयोगेण क्रियते ॥ ३७६६ ॥ संथार कुसंघाडी, अमणुने पाणए य परिसेओ । सण पीसण ओसह, अद्धिति खरकम्मि मा बोलं ।। ३७६७ ।। संस्तार के स संयतः शाय्यते । मलिनां त्रुटितां च कुसङ्घाटी स प्रावरणं कार्यते । 'अम15 नोज्ञ' दुर्गन्धि पानकं तेन तस्य परिषेकः क्रियते । तथा काश्चन संयत्यस्तत्र चन्दनस्य घर्षणम् अन्यास्तु पेषणं औषधस्य कुर्वन्ति । अपराः पुनः करतलपर्यस्तमुखा भूमिगतदृष्टयोऽधृतिं कुर्वाणास्तिष्ठन्ति, 'खरकर्मिकेषु च ' राजपुरुषेषु समागतेषु भणन्ति – मा बोलं कुरुत, एषा प्रवर्त्तिनी ग्लाना न युष्मदीयं बोलं सहते । एवमसौ तत्र संयतीवेषेण तिष्ठन् सर्वाण्यपि स्थान - निषदनादीनि पदानि कुर्यात् ॥ ३७६७ ॥ गतं 'प्रच्छादना च शैक्षे' इति द्वारम् । अथ 20 'असहिष्णोश्चतुष्कभजना' इति द्वारं बिभावयिषुराह दोन वि स भवंती, सो वडसहू सा व होज ऊ असहू । दोहं पि उ असहूणं, तिगिच्छ जयणाय कायव्वा ॥ ३७६८ ॥ यस्या ग्लानसाध्व्याश्चिकित्सा क्रियते यश्च तस्याः प्रतिचरकः तौ द्वावपि सहिष्णू भवतः, एष प्रथमो भङ्गः । “सो वऽसहु" ति साध्वी सहिष्णुः 'सच' साधुरसहिष्णुरिति द्वितीयः । 25 “सा व होज्ज ऊ असहु” त्ति 'सा' साध्वी असहिष्णुः साधुः सहिष्णुः, एष तृतीयः । साध्वी साधुश्च द्वावप्यसहिष्णू इति चतुर्थः । एतेषु चतुर्षु भङ्गेषु यतनया चिकित्सा कर्त्तव्या ॥ ३७६८॥ तत्र प्रथमभङ्गं तावद् भावयति सोऊण ऊ गिलाणं, पंथे गामे व भिक्खवेलाए । जइ तुरियं नागच्छइ, लग्गइ गुरुए चउम्मासे || ३७६९ ॥ 30 श्रुत्वा ग्लानां संयतीं पथि वा परिभ्रमन् ग्रामे वा तिष्ठन् भिक्षावेलायां वा पर्यटन् यदि त्वरितं ग्लानासमीपं नागच्छति ततश्चतुरो मासान् गुरुकान् 'लगति' प्राप्नोति, अतो ग्लानां श्रुत्वा निर्जरामभिलषता सर्वेणाप्यक्षेपेणैव तस्याः समीपं गन्तव्यम् || ३७६९ ॥ कथं पुनस्तस्याः श्रवणं भवति ? उच्यते - यत्र ग्रामे ग्लाना विद्यते तस्य बहिर दूरसमीपे Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३७६६-७३] तृतीय उद्देशः । १०१३ व्यतिव्रजन्तं संयतं गृहस्थः कोऽपि ब्रूते-युष्माकं ग्लानायाः प्रतिजागरणं क्रियते ! न क्रियते ? । साधुराह-सुष्टु क्रियते । । गृही ब्रवीति-ययेवं ततः लोलंती छग-मुत्ते, सोउं घेत्तुं दवं तु आगच्छे । तूरंतो तं वसहिं, णिवेयणं छायणऽजाए ॥ ३७७० ॥ एकाकिनी संयती 'छगण-मूत्रे' आत्मीय एव पुरीष-प्रश्रवणे 'लोलन्ती' विलुठन्ती अत्र ग्रामे तिष्ठति । एवं श्रुत्वा तत एव 'द्रवं' पानकं गृहीत्वा त्वरमाणः संयतीवसतिमागच्छति। ततो बहिः स्थित्वा शय्यातरीपा दार्यिकाया निवेदनं कारयति, यथा-बहिः साधुरागतोऽस्तीति । सा च शय्यातरी तस्या आर्यिकाया दुर्निवसितगात्राणां छादनं कुर्यात् । अथ सा न करोति तत आत्मनाऽपि यतनया तां छादयति ॥ ३७७० ॥ ततः स साधुस्तस्या इत्थं स्थिरीकरणं करोति 10 आसासो वीसासो, मा भाहि इति थिरीकरण तीसे । धुविउं चीरऽत्थुरणं, तीसेऽप्पण बाहि कप्पो य ॥ ३७७१ ॥ 'आश्वासो नाम' धीरा भव, अहं ते सर्वमपि वैयावृत्त्यं करिष्ये । 'विश्वासस्तु' त्वं मम माता भगिनी दुहिता वा अतो मा भैषीः, एवं वयोऽनुरूपमविरुद्धं वचनं ब्रवीति । इत्थं तस्याः स्थिरीकरणं कृत्वा छगण-मूत्रललितां तां धावित्वा तस्या एवौपग्रहिकाणि चीवराणि 15 तेषामभावे आत्मीयान्यपि संस्तारके आस्तृणाति तां वा परिधापयति । ततः खरण्टितचीवराणां प्रतिश्रयाद् बहिः कल्पो दातव्यः । भूमेरपि तस्या उपलेपनं कर्त्तव्यम् ॥ ३७७१ ॥ अथ प्रवेशविधि विशेषत आह एएहि कारणेहिं, पविसंते ऊ णिसीहिया तिनि । ठिच्चाणं कायव्वा, अंतर दूरे पवेसे य ॥ ३७७२ ॥ 'एतैः' ग्लानत्वादिभिः कारणैः संयतीवसतौ प्रविशता तिस्रो नैषेधिक्यः कर्त्तव्याः। कथम् ? इत्याह-'स्थित्वा' प्रथमनषेधिकीकरणानन्तरं कियन्तमपि कालं प्रतीक्ष्य द्वितीया नैषेधिकी, ततो द्वितीयानन्तरं तृतीयाऽप्येवमेव कर्त्तव्या। तथा प्रथमा नैषेधिकी 'दूरे' अग्रद्वारे, द्वितीया 'अन्तरे' मध्यभागे, तृतीया 'प्रवेशे' मूलद्वारे विधातव्या ॥ ३७७२ ॥ ततःपडिहारिए पवेसो, तकजसमाणणा य जयणाए। 25 गेलण्णे चिट्ठणादी, परिहरमाणो जतो खिप्पं ॥ ३७७३ ॥ शय्यातरीभिः 'प्रतिहारिते' आर्याया ज्ञापिते सति प्रवेशः कर्तव्यः । प्रविष्टेन च तस्यविवक्षितस्य ग्लानकार्यस्य पूर्वोक्तया वक्ष्यमाणया च यतनया समापना कर्तव्या । एवं ग्लानत्वे तत्र स्थानादीनि पदानि कुर्यात् । तथा ग्लानकृत्यान्युत्सर्गतोऽशुद्धं परिहरन् करोति । अथ शुद्धं न प्राप्यते ततः “जउ" त्ति अनागाढे पञ्चकहान्या 'यतः' यतमानः करोति, "खिप्पं" ति 30 आगाढे क्षिप्रमेव करोति । अथवाऽऽत्म-परोभयसमुत्थदोषान् परिहरमाणो ग्लानकृत्यं करोति, कुतः ? इत्याह-"जतो खिप्पं" ति यत आत्मसमुत्थादिदोषान् अपरिहरतः क्षिप्रमेव संयमवि. १°रणा कि भा. का० ॥ २ °नं कार्यते । अ° भा० कां० ॥ 20 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [निम्रन्थ्युपा०प्र० सूत्रम् १ राधना भवति ।। ३७७३ ॥ कीदृशः पुनस्तां प्रतिजागर्ति? इत्युच्यते-- पियधम्मो दढधम्मो, मियवादी अप्पकोतुहल्लो य । अजं गिलाणियं खल, पडिजग्गति एरिसो साह ॥३७७४॥[ओ.नि.६४८,आव.नि.१३७५] प्रियः-इष्टो धर्मो यस्य स प्रियधर्मा । धमें यः दृढः-निश्चलो दृढधर्मा, राजदन्तादित्वाद् दृढशब्दस्य पूर्वनिपातः । मितं-परिमिताक्षरं वदितुं शीलमस्येति मितवादी । अल्पशब्दस्य इह अभाववचनत्वाद् अल्पम्-अविद्यमानं कौतूहलं स्त्रीरूपदर्शनादिषु यस्य सोऽल्पकौतूहलः । ईदृशः साधुरा- म्लानां प्रतिजागर्ति ॥ ३७७४ ॥ सो परिणामविहिण्णू, इंदियदारेहिँ संवरियदारो। जं किंचि दुन्भिगंधं, सयमेव विगिचणं कुणति ॥ ३७७५ ॥ 10 'सः' वैयावृत्त्यकरः 'वर्ण-गन्धादिभिः शुभा अपि भावा भूयोऽप्यशुभा भवन्ति, अशुभा अपि च संस्कारविशेषतो विश्रसया वा शुभा जायन्ते' इत्येवं पुद्गलानां परिणाम विधिं जानातीति परिणामविधिज्ञः । तथा इन्द्रियद्वारेभ्यः संवृतद्वारः, इह “गम्ययपः कर्माधारे" (सिद्ध०२-२-७४) इत्यनेन पञ्चमी, ततोऽयमर्थः-इन्द्रियरूपाणि द्वाराण्यधिकृत्य संवृत द्वारः, न पुनर्बाह्यद्वाराणि । ईदृशः साधुर्यत् किश्चिदार्यिकायाः संज्ञादिकं दुरभिगन्धं तस्य 18 स्वयमेव 'विवेचनं' स्फेटनं परिष्ठापनं वा करोति ॥ ३७७५ ॥ संवृतद्वारपदस्य सफलीकरणार्थमाह गुझंग-वदण-कक्खोरुअंतरे तह थणंतरे दहूँ । साहरति ततो दिडिं, न य बंधति दिहिए दिहिं ॥ ३७७६ ॥ गुह्याङ्गस्य वदनस्य कक्षाया ऊर्वोश्च यान्यन्तराणि-अवकाशास्तानि तथा स्तनान्तराणि च 20 दृष्ट्वा 'संहरति' भास्करादिव ततो दृष्टिं निवर्तयति, 'नच' नैव आर्यिकाया दृष्टौ दृष्टिं 'बध्नाति' मीलयतीत्यर्थः ॥ ३७७६ ॥ अथ 'यत् किञ्चिद् दुरभिगन्धम्' इत्यादि व्याचष्टे उच्चारे पासवणे, खेले सिंघाणए विगिंचणया । उव्वत्तण परियत्तण, णंतग पिल्लेवण सरीरे ॥ ३७७७ ॥ उच्चारस्य प्रश्रवणस्य खेलस्य सिङ्घानस्य च विवेचनं करोति । उद्वर्तनं नाम-तस्या उत्ता25 नायाः पार्श्वतः करणम् , तत इतरस्यां दिशि स्थापनं परिवर्तनम् , ते अपि करोति । 'नन्तकं' वस्त्रं तथा शरीरं च यदि संज्ञया मूत्रेण वा लिप्तं ततस्तदपि निपयितव्यम् ॥ ३७७७ ॥ किरियातीतं गाउं, जं इच्छति एसणाएँ जं तत्थ । सद्धावणा परिणा, पडियरण कहा णमोकारो ॥ ३७७८॥ क्रियायां क्रियमाणायामपि या न प्रगुणीभवति सा क्रियातीता, तां ज्ञात्वा सा प्रष्टव्या-केन 30 भवत्याः समाधिरुत्पद्यते । ततो यद् द्रव्यमिच्छति तदेषणया शुद्ध शुद्धस्यौलामे पञ्चकहानि यतनयाऽपि गृहीत्वा दातव्यम् । ततः सा तथा श्रद्धाप्यते यथा 'परिज्ञाम्' अनशनं प्रतिपद्यते । अनशनप्रतिपन्नायाश्च सर्वप्रयत्नेन प्रतिचरणम् । धर्मकथा च तथा कर्त्तव्या यथा सम्यगु१ स्याभावे पञ्च भा.॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 भाष्यगाथाः ३७७४-८३] तृतीय उद्देशः । १०४५ तमार्थमाराधयति । नमस्कारश्च तस्या मरणवेलायां दातव्य इति ॥ ३७७८ ॥ क्रियासाध्याया विधिमाह दव्वं तु जाणियव्वं, समाधिकारं तु जस्स जं होति । णायम्मि य दव्वम्मि, गवसणा तस्स कायव्वा ॥३७७९॥ यस्य रोगस्य यद द्रव्यं पथ्यं यस्या वा ग्लानाया यत् समाधिकारकं तत् प्रथमत एव ज्ञात-5 व्यम् । ज्ञाते च तस्मिन् द्रव्ये सर्वप्रयत्नेन तस्य गवेषणा कर्त्तव्या ।। ३७७९ ॥ सयमेव दिट्ठपाढी, करेति पुच्छति अजाणओ वेजं । [ओ.नि. ७५] दीवण दव्वादिम्मि य, उवदेसे ठाति जा लंभो ॥ ३७८० ॥ वैद्यकशास्त्ररूपो दृष्टः पाठो येन स एवंविधः स्वयमेव चिकित्सां करोति । अथ 'अज्ञः' वैद्यकशास्त्राभिप्रायं न जानाति ततो वैद्यं पृच्छति । तस्य च वैद्यस्य दीपनं करोति, यथा-अहं 10 कारणत एकाकी सञ्जातः, अतो मा अपशकुनं गृहध्वम् । ततो वैद्येन द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावमेदात् चतुर्विधे उपदेशे दत्ते सति ब्रवीति-यदि वयमेतन्न लभामहे ततः किं प्रयच्छामः। एवं पृष्टे भूयो द्रव्यान्तरे उपदिष्ट ब्रूते-यद्येतदपि न लभामहे ततः किं कर्त्तव्यम् । एवं तावत् पृच्छति यावद् यस्य द्रव्यस्य ध्रुवो लाभः । तदुपदेशे च पृच्छा ‘तिष्ठति' उपरमत इत्यर्थः ॥ ३७८० ॥ अथ रात्रौ विधिमाह अब्भासे व वसेजा, संबद्ध उवस्सगस्स वा दारे । __ आगाढे गेलण्णे, उवस्सए चिलिमिणिविभत्ते ॥ ३७८१॥ संयतीप्रतिश्रयस्य 'अभ्यासे' समीपे यदसम्बद्धमन्यगृहं तत्र वसेत् , तस्याभावे सम्बद्धेऽप्यन्यगृहे, तदभावे उपाश्रयस्य वा द्वारे । अथागाढं ग्लानकार्य भवति तत उपाश्रयेऽपि चिलिमिलिकाविभक्ते वसति ॥ ३७८१ ॥ किमर्थं पुनरुपाश्रयस्यान्तर्वसति ? इत्याह उव्वत्तण परियत्तण, उभयविगिंचट्ठ पाणगट्ठा वा। तकरभय भीरू अध, णमोकारट्ठा वसे तत्थ ॥ ३७८२ ॥ तस्या उद्वर्त्तनं परिवर्त्त वा कर्तुम् , उभयस्य वा-कायिकी-संज्ञालक्षणस्य विवेचनार्थम् , तृष्णा या वा रात्रौ पानकदानार्थम् , यद्वा तत्र तस्करभयं सा च संयती खभावेनैव भीरुः ततो भयरक्षणार्थम् , 'अथ' इति अथवा मरणवेलायाः प्रत्यासन्नत्वाद् नमस्कारदानार्थ वा तत्र 25 रात्रौ वसेत् ॥ ३७८२ ॥ धिइ-बलजुत्तो वि मुणी, सेजातर-सण्णि-सिझगादिजुतो । वसति परपञ्चयट्ठा, सलाहणहा य अवराणं ।। ३७८३ ॥ यद्यपि स मुनिः सहिष्णुत्वाद् धृति-बलयुक्तस्तथापि शय्यातरेण संज्ञिना वा-श्रावण सिज्झकेन वा-सहवासिना युतः-सहितः संयतीप्रतिश्रये वसति । तं च शय्यातरादिकमित्थं 30 भणति-न वर्तते ममैकाकिनः संयतीप्रतिश्रये रात्री वस्तुम् , अतो मम द्वितीयेन भक्ता १रू य व ताभा० ॥ २°म् , मरण भा० कां•॥ ३ सिनगा तामा• बिना ॥ ४°ण 'सिजकेन सिसकेन वा' सह भा०॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 सनियुक्ति-लधुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [निर्मन्थ्युपा०प्र० सूत्रम् १ भवितव्यम् । अथ किमर्थमेवं करोति? इति चेर्दै इत्याह-'परप्रत्ययार्थ' परेषाम् अगारिणां प्रतीत्युत्पादननिमित्तम् , यथा-नैष विरुद्धाभिप्रायेणात्र वसति । 'अपरेषां च' साधूनां श्लाघनार्थम् , धन्या अमी येषामेवंविधः सुदृष्टो धर्म इति ॥ ३७८३ ॥ सो निजराऍ वट्टति, कुणति य आणं अणंतणाणीणं । स बितिञ्जओ कहेती, परियट्टेगागि वसमाणो ॥ ३७८४ ॥ 'सः' साधुरेवं कुर्वन् विपुलायां निर्जरायां वर्त्तते, आज्ञां च 'अनन्तज्ञानिनां' तीर्थकृतां करोति । स च सद्वितीयो वसन् तस्य द्वितीयस्य धर्म कथयति, अथैकाकी वसति ततः सर्वामपि रात्रिं परिवर्त्तयति ॥ ३७८४ ॥ पडिजग्गिया य खिप्पं, दोण्ह सहूणं तिगिच्छ जतणाए । तत्थेव गणहरो अण्णहिं व जयणाएँ तो नेइ ॥ ३७८५ ॥ एवं तेन साधुना प्रतिजागरिता सा 'क्षिप्रं' शीघ्रं प्रगुणीभवेत् । इत्थं द्वयोः सहिष्ण्वोयतनया चिकित्साकरणमुक्तम् । तां च प्रगुणीभूतां गृहीत्वा यदि तस्या गणधरः 'तत्रैव' आसन्ने समस्ति ततस्तं गाढं खरण्टयित्वा तस्य समर्पयति । अथ 'अन्यत्र' दूरदेशे ततः सार्थेन सह तां तत्र प्रस्थापयति, खयं वा यतनया तत्र नयति ॥ ३७८५ ॥ कथम् ? इत्याह निक्कारणिगिं चमढण, कारणिगि णेति अहव अप्पाहे । गमणित्थि मिस्स संबंधि वजिते असति एगागी ॥ ३७८६ ॥ यदि सा ग्लाना संयती निष्कारणं गणाद निष्क्रम्यैकाकिनी भूता ततस्तां 'चमढयति' निर्भर्सयतीत्यर्थः । अथ कारणिका ततस्तां खयं नयति, येषां वा आचार्याणां सा संयती तेषां सन्दिशति, यथा—युष्माकं संयती साम्प्रतमत्र तिष्ठति, अस्या आनयनकृते सङ्घाटकः प्रहेयः । 20 यदा पुनः स खयं नयति तदा इयं यतना-“गमणित्थि" इत्यादि । स्त्रीसार्थेन सम्बन्धिना समं प्रथमतो नयति, स ततः स्त्रीसार्थेनैवासम्बन्धिमिश्रेण, » ततः स्त्रीसार्थेनैवासम्बन्धिना । ततः पुरुषमिश्राभिरपि स्त्रीभिः-प्रथमं सम्बन्धिपुरुषयुक्ताभिः, ततोऽसम्बन्धिमिश्रपुरुषयुताभिः, » ततोऽसम्बन्धिपुरुषयुक्ताभिरपि । ततः पुरुषैरेव केवलै:-प्रथमं सम्बन्धिभिः, ततोऽसम्बन्धिमित्रैः, ततोऽसम्बन्धिभिरपि समं नयति । एषां प्रकाराणामभावे स साधुरेकाक्यपि तां 25 नयति, तत्र चात्मना पुरतो गच्छति, संयती तु नासन्ने नातिदूरे पृष्ठतः स्थिता आगच्छति ॥ ३७८६ ॥ गतः प्रथमो भङ्गः । अथ द्वितीयं भङ्गं बिभावयिषुराह न वि य समत्थो सव्वो, हवेज एतारिसम्मि कजम्मि । १°द् उच्यते-'पर' कां ॥ २-३ AD एतचिह्नान्तर्गतः पाठः भा० एव वर्तते । चर्णिरप्येतत्पाठसंवादिनी, तथा च तत्पाठः"निकारणिए गाधा कण्ठ्या । इत्थिसत्थेण संबंधिणा समंति, असइ इत्थीसत्थेण चेव असंबंधिमीसेणं, असति इत्थिसत्थेण चेव असंबंधिणा । एवं पुममीसाहिं वि थीहिं तिगं, पुरिसेहिं पि तिग। अण्णे भणति-इत्थिसत्थेण समं णेति, असति इत्थिमीसेणं, असति संबंधेयपुरिसेहिं समं । असति 'वजितेत्ति असंबंधेएहि समं । असतीते तेसिं सत्थाणं एगागी विणेति ॥" इति ॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३७८४-९२] तृतीय उद्देशः । १०४७ कायव्यों पुरिसकारो, समाहिसंधाणणट्ठाए ॥ ३७८७ ॥ 'साध्वी सहिष्णुः साधुरसहिष्णुः' इत्ययं भङ्गो भाव्यते-'नापि च नैव सर्वोऽपि साधुः 'एतादृशे स्त्रियाः स्पर्शादावपि मनोनिग्रहात्मके कार्ये समर्थों भवेत् ततः किं सा ग्लाना सती तेन परित्यक्तव्या ? न इत्याह-ज्ञान-दर्शन-चारित्राणां यः समाधिः-अन्योऽन्याविरोधेनैकत्रावस्थानं तस्य सैन्धानार्थ तथा साधुना पुरुषकारः कर्त्तव्यः यथा तस्याश्चिकित्सा क्रियते आत्मनश्च 5 शीलखण्डना न भवति ॥ ३७८७ ॥ स पुनः साधुः कथमसहिष्णुर्भवति ? इत्युच्यते सोऊण य पासित्ता, संलावणं तहेव फासेणं ।। एतेहि असहमाणे, तिगिच्छ जयणाइ कायव्वा ।। ३७८८ ॥ स्त्रियाः शब्दं श्रुत्वा रूपं वा तदीयं दृष्ट्वा तया सार्द्ध वा यः संलापो यो वा तस्याः स्पर्श स्तेन वा तस्य मोहोद्भवः समुल्लसति । एतैः प्रकारैः 'असहमानः' इन्द्रियनिग्रहं कर्तुमक्षमो 10 यस्तेन यतनया चिकित्सा कर्तव्या । तद्यथा-प्रथमं सा ग्लाना प्रष्टव्या--आर्ये ! भवती किं सहिष्णुः ? उतासहिष्णुः ? । सा च गीतार्था वा भवेदगीतार्था वा ॥ ३७८८ ॥ तत्र अविकोविया उ पुढा, भणाइ किं मं न पाससी णियए । छग-मुत्ते लोलंति, तो पुच्छसि किं सहू असहू ॥ ३७८९ ॥ 'अविकोविदा' अगीतार्था पृष्टा इदं भणति-किं मां न पश्यसि निजके छगण-मूत्रे लोल- 16 न्तीम् ? तत एवं पृच्छसि किं सहिष्णुः ? असहिष्णुः ? इति ॥ ३७८९ ॥ साधुराह पासामि णाम एतं, देहावत्थं तु भगिणि! जा तुझं । पुच्छामि घितिबलं ते, मा बंभविराहणा होजा ॥ ३७९० ॥ 'नाम' इति कोमलामन्त्रणे, भगिनि ! पश्याम्यहमेनां देहावस्था या साम्प्रतं तव वर्त्तते, परमहं 'ते' तव धृतिबलं पृच्छामि, मा मम तव च ब्रह्मवतविराधना भवेदिति कृत्वा ॥३७९०॥ 20 ततः साध्वी ब्रूते इहरा वि ताव सद्दे, रूवाणि य बहुविहाणि पुरिसाणं । सोऊण व दट्टण व, ण मणक्खोभो महं कोति ॥ ३७९१ ॥ 'इतरथाऽपि' नीरोगाया अपि मम तावत् पुरुषाणां गीतादीन् शब्दान् श्रुत्वा रूपाणि च 'बहुविधानि' विशिष्टनेपथ्यालङ्कृतानि दृष्ट्वा 'कोऽपि' मनागपि न मनःक्षोभो भवति ॥३७९१।। 25 किञ्च संलवमाणी वि अहं, ण यामि विगति ण संफसित्ताणं । हट्ठा वि किन्तु एण्हि, तं पुण णियगं धितिं जाण ॥ ३७९२ ॥ अहं सकलमपि दिवसं पुरुषेण सह संलपन्ती 'विकृति' विकारं न यामि, न वा पुरुषस्य हस्ताद्यवयवं संस्पृश्यापि विकारं गच्छामि । तदेवं 'हृष्टाऽपि' नीरोगाऽप्यहमेवं सहिष्णुः, किं 30 पुनः 'इदानीं' ग्लानाद्यवस्थां प्राप्ता ? त्वं पुनः 'निजकाम्' आत्मीयां धृतिं जानीहि ॥३७९२॥ १ संधारणटाए भा० । एतदनुसारेणैव भा. टीका । दृश्यतां टिप्पणी २ ॥ २सन्धारणार्थ भा० ॥ ३°यवसंस्पृष्टाऽपि भा० ॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ निर्ग्रन्थ्युपा०प्र० सूत्रम् २ एवमुक्ते स किं करोति ? इत्याह सो मग्गति साहम्मि, सणि अहाभदिगं व सूई वा। देति य से वेदणगं, भत्तं पाणं व पाउग्गं ॥ ३७९३ ॥ 'सः' असहिष्णुः साधुस्तत्रान्यत्र वा ग्रामे 'साधर्मिकी' संयती मार्गयति, तत्र च प्रथम 5 संविनां गीतार्थाम् , तदभावे संविनामगीतार्थाम् , तदलामे पार्श्वस्थां गीतार्थाम् , तदप्राप्तौ पार्श्वस्थामेवागीताम् । अथ संयती न प्राप्यते ततः 'संज्ञिनीं' श्राविकाम् , तामपि प्रथम गृहीताणुव्रताम् , ततो दर्शनश्राविकामपि; तदप्राप्तौ यथाभद्रिकामपि गवेषयति । तदलाभे 'सूतिकां' नवप्रसूतस्त्रीसूतिकर्मकारिणी मार्गयति । सा च धर्मकथया प्रज्ञाप्यते यथा मुधि कयैव संयत्या वैयावृत्त्यं करोति । अथासौ मुधिकया नेच्छति ततो वेतनमपि तस्यै भक्तं पानं 10 वा प्रायोग्यं ददाति ।। ३७९३ ॥ एयासिं असतीए, ण कहेति जहा अहं खु मिं असहू । सद्दादीजयणं पुण, करेमों एसा खलु जिणाणा ॥ ३७९४ ॥ 'एतासाम्' अनन्तरोक्तस्त्रीणामभावे स साधुस्तस्याः पुरतो नैवं कथयति, यथा-अहमसहिष्णुरस्मि परमेवं वचेतसि निश्चिनोति, यथा-शब्दादिविषयां यतनां कुर्मः । एषा 'खलु' 15 निश्चितं जिनानामाज्ञा ॥ ३७९४ ॥ यतनामेवाह सद्दम्मि हत्थ-वत्थादिएहिँ दिद्विम्मि चिलिमिणंतरिओ। संलावम्मि परम्मुहों, गोवालगकंचुतो फासे ॥ ३७९५ ॥ यद्यसौ साधुः शब्देऽसहिष्णुस्ततस्तां ग्लानां भणति—मा वचनेन मां व्यापारयः, किन्तु हस्तेन वा वस्त्रेण वा अङ्गुल्या वा संज्ञां कुर्याः । यस्तु दृष्टिक्लीबः स सर्वमपि वैयावृत्त्यं 20 चिलिमिलिकया अन्तरितः करोति । अथासौ संलापक्लीवस्ततोऽवश्यसंलपनीये पराङ्मुखः संलापं करोति । स्पर्शक्लीबस्तु गोपालककञ्चकमात्मना प्रावृत्य तस्याः सर्वमप्युद्वर्तनादिकृत्यं करोति ॥ ३७९५ ॥ गतो द्वितीयभङ्गः । अथ तृतीय-चतुर्थभङ्गयोरतिदेशमाह एसेव गमो नियमा, निग्गंथीए वि होति असहए । दोन्हं पि हु असहूणं, तिगिच्छ जयणाएँ कायव्वा ॥ ३७९६ ॥ __'एष एव' द्वितीयभङ्गोक्तः 'गमः' प्रकारो नियमाद् निम्रन्थ्यामप्यसहिष्णौ कर्त्तव्यः । नवरं यां शब्दादियतनामसावात्मना कृतवान् तां सा संयती कारयितव्या । 'द्वयोरपि च' संयती-संयतयोरसहिष्ण्वोः 'यतनया' द्वितीय-तृतीयभङ्गोक्तया चिकित्सा कर्त्तव्या ॥३७९६ ॥ गुणीभूता च काचिदिदं ब्रूयात्-- 30 आयंकविप्पमुक्का, हट्ठा बलिया य णिव्या संती । ___अजा भणेज काई, जेडजा! वीसमामो ता ॥ ३७९७ ॥ १ परं शब्दादिविषयां यतनां करोति । एषा भा० ॥२ दिट्ठी' चि ताभा० ॥ ३॥ एतदन्तर्गतमवतरणं भा० नास्ति ॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माष्यगाथाः ३७९३-३८०१ ] तृतीय उद्देशः । १०४९ आतङ्केन -रोगेण विप्रमुक्ता सती हृष्टा सञ्जाता, तथा बलिका – उपचितमांस - शोणिता, निर्वृता-खस्थीभूतेन्द्रिया, एवंविधा सती काचिदार्यिका ब्रूयात् — ज्येष्ठार्य ! चिरं संयमभाराक्रान्तावावाम् अत एनं भारं परित्यज्य यथासुखं किञ्चित् कालं तावद् 'विश्राम्यावः' विश्रामं गृह्णीवः ॥ ३७९७ ॥ किञ्च – दिवं च परामु च रहस्सं गुज्झ एकमेकस्स | तं वीसमामों अम्हे, पच्छा वि' तवं चरिस्सामो ॥। ३७९८ ॥ 'रहस्यम्' एकान्तयोग्यं यद् गुह्यं तद् मदीयं भवता मयाऽपि भवदीयमुद्वर्त्तन-परिवर्तनादिक्रियासु बहुश एकैकस्य दृष्टं परामृष्टं च, 'तत्' तस्माद् विश्राम्यावः किञ्चित् कालं 'पश्चात् ' पश्चिमे काले तपश्चरिष्यावः ॥ ३७९८ ॥ तं सोच्चा सो भगवं, संविग्गोऽवजभीरू दढधम्मो । अपरिमियसत्तजुत्तो, णिक्कंपो मंदरो चेव ।। ३७९९ ।। 'तत्' तस्या आर्यिकाया वचनं श्रुत्वा स भगवान् 'संविमः ' मोक्षाभिलाषी, अवद्यं पापं ततो भीरुः–चकितः, ‘दृढधर्मा' चारित्रे स्थिरः, अपरिमितम् - इयत्तारहितं यत् सत्त्वं - धृतिबलं तेन युक्तः, अत एव निष्कम्पः 'मन्दर इव' मेरुगिरिरिव । यथा हि मन्दरो वायुना न कम्प्यते एवं परिभोगनिमन्त्रणवायुना स भगवान् न कम्पितवान् ॥ ३७९९ ॥ किन्तु — उद्धंसिया य तेणं, सुड्डु वि जाणाविया य अप्पाणं । 15 चरसु तवं निस्संकों, उ सासियं सो उ चेतेइ || ३८०० ॥ ‘उद्धर्षिता' खरण्टिता गाढं तेन भगवता सा संयती, यथा - निर्धमें ! ईदृशं दुःखमनुभूय भवत्या वैराग्यमपि न सञ्जातम्, मयाऽपि साधर्मिकेति कृत्वा भवती चिकित्साकरणेन प्रगुणीकृता, इतरथा मृता अभविष्यत् । एवं 'सुष्ठु अतीव ज्ञापिता सा 'आत्मानं' आत्मनो निरभिला - 20 षतामित्यर्थः । ततश्च चर सम्प्रति निःशङ्का तपःकर्म, एवं तां शासित्वा 'सः' साधुः आवश्यक 'चेतयति' गमनं करोतीत्यर्थः || ३८०० || अथ द्वितीयपदमाह– बियप मणप्पज्झे, पविसे अविकोविए व अप्पज्झे । -गण-आउसंभम, बोहिकतेणेसु जाणमवि ।। ३८०१ ॥ 6 सूत्रम् — नो कप्पइ निग्गंधीणं निग्गंथउवस्यंसि चिट्टित्तए वा जाव काउस्सग्गं वा ठाणं ठाइत्तए २॥ द्वितीयपदे संयतवसतौ ' अनात्मवश: ' क्षिप्तचित्तादिको नैषेधिकीत्रयकरणमन्तरेणापि 25 प्रविशेत् । आत्मवशो वा यः 'अविकोविदः ' शैक्षः सोऽप्यविधिना प्रविशेत् । यद्वा स्तेनाऽम्न्यप्कायसम्भ्रमेषु बोधिकस्तेनेषु वा 'जानन्नपि ' गीतार्थोऽपि सहसा प्रविशेत् ॥ ३८०१ ॥ १ वि वयं चरि° तामा• ॥ २ का, तु सासितुं सो ताभा० ॥ 10 30 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [चर्मप्रकृते सूत्रम् ३ अस्य सम्बन्धमाह पडिवक्खेणं जोगो, तासि पि ण कप्पती जतीणिलयं । णिकारणगमणादी, जं जुजति तत्थ तं णेयं ॥ ३८०२ ॥ "पडिवक्खेणं" ति भावप्रधानत्वाद् निर्देशस्य प्रतिपक्षतया 'योगः' सम्बन्धः क्रियते5 यथा निम्रन्थानां निर्ग्रन्थ्युपाश्रये गमनादिकं कत्तुं न कल्पते तथा 'तासामपि' निर्ग्रन्थीनां 'यतिनिलये' निर्ग्रन्थोपाश्रये निष्कारणे गमनादिकं कर्तुं न कल्पते । एतदर्थप्रतिपादनार्थमिदं सूत्रमारभ्यते । अत्र च 'यत्' प्रायश्चित्त-दोषजालादि पूर्वसूत्रोक्तं 'यत्र' निष्कारणगमनादौ "युज्यते तत्र तद् 'ज्ञेयं' खबुद्ध्याऽभ्यूह्य ज्ञातव्यम् ॥ ३८०२ ॥ __अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या प्राग्वत् ॥ अथ भाष्यम्10 एसेव गमो णियमा, पण्णवण-परूवणासु अजाणं । पडिजग्गती गिलाणं, साहुं जतणाएँ अन्जा वि ॥ ३८०३ ॥ 'एष एव' पूर्वसूत्रोक्तो गमो नियमात् प्रज्ञापना-प्ररूपणयोरार्याणामपि मन्तव्यः । प्रज्ञापना नाम-निष्कारणेऽविधिना प्रविशतीत्याद्युल्लेखेन चतुर्भङ्गयाः सामान्यतः कथनम् । प्ररूपणापृथगेकैकभङ्गकस्य स्वरूपनिरूपणम् । तथा साधुं ग्लानमार्याऽपि यतनया तथैव प्रतिजागर्ति 15॥ ३८०३ ॥ नवरम् सा मग्गइ साधम्मि, सण्णि अहाभद्द संवरादी वा। देति य से वेदणयं, भत्तं पाणं च पायोग्गं ।। ३८०४ ॥ द्वितीय-तृतीय-चतुर्थभङ्गेषु 'सा' संयती 'साधर्मिक' साधु मार्गयति, तदप्राप्तौ 'संज्ञिनं' श्रावकम् , तदलाभे यथाभद्रकम् , तदभावे 'संवरं-स्नानिकाशोधकम् , आदिशब्दादन्यमपि 20 तथाविधं मार्गयति । यदि चासौ मुधिकया नेच्छति ततस्तस्य वेतनकमपि ददाति । भक्तं पानं च तस्य ग्लानस्य प्रायोग्यमुत्पादयति ॥ ३८०४ ।। ॥ उपाश्रयप्रवेशप्रकृतं समाप्तम् ॥ च म प्र कृतम् 25 सूत्रम् नो कप्पइ निग्गंथीणं सलोमाई चम्माई अहि द्वित्तए ३॥ अथास्य सूत्रस्य कः सम्बन्धः ? इत्याह बंभवयपालणट्ठा, अण्णोण्णउवस्सयं ण गच्छंति । उवकरणं पि ण इच्छति, जहिं पीला तस्स जोगोऽयं ॥ ३८०५॥ १ पूर्वोक्तो भा० ॥२ "संवरो ण्हाणितासोधओ" इति चूर्णी विशेषचूर्णौ च ॥ ३ जोगेसो भा० । एतदनुसारेणैव भा० टीका । दृश्यता पत्रं १०५१ टिप्पणी १॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 भाष्यगाथाः ३८०२-९] तृतीय उद्देशः । ब्रह्मव्रतपालनार्थ निर्ग्रन्था निर्ग्रन्थ्यश्चान्योऽन्योपाश्रयं न गच्छन्ति । अत उपकरणमपि तादृशं साधुः साध्वी वा नेच्छति ग्रहीतुम् , यत्र गृहीते 'तस्य' ब्रह्मचर्यस्य पीडा भवति । अयं 'योगः' सम्बन्धः ॥ ३८०५ ॥ सतिकरणादी दोसा, अण्णोण्ण उवस्सगाभिगमणेण । सतिकरण-कोउहल्ला, मा होज सलोमए अहवा ॥ ३८०६॥ 5 स्मृतिकरण-कौतुकादयो दोषा अन्योऽन्योपाश्रयाभिगमनेन भवन्ति । अतः सलोमनि चर्मणि गृहीते संयतीनां स्मृतिकरण-कौतूहले मा भूतामिति प्रकृतं सूत्रमारभ्यते । 'अथवा' इत्ययमपरः सम्बन्धः ॥ ३८०६॥ ___ अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या-नो कल्पते निर्ग्रन्थीनां सलोमानि चर्माणि 'अधिछातुं' निषदनादिना परिभोक्तुमिति सूत्रार्थः ॥ अथ भाष्यविस्तरः चम्मम्मि सलोमम्मि, णिग्गंथीणं उवेसमाणीणं । __ चउगुरुगाऽऽयरियादी, तत्थ वि आणादिणो दोसा ।। ३८०७ ॥ सलोमनि चर्मणि निर्ग्रन्थीनामुपविशन्तीनां चतुर्गुरुकाः । अत एवाचार्य एतत् सूत्रं प्रवतिन्या न कथयति चतुर्गुरवः, प्रवर्तिनी श्रमणीनां न कथयति चतुर्गुरुकाः, श्रमण्यो न प्रतिशृण्वन्ति मासलघु । 'तत्रापि' अकथनेऽश्रवणे सलोमचर्मोपवेशने चाज्ञादयो दोषाः ॥३८०७|| 15 अथानन्तरोक्तमेव प्रायश्चित्तं विशेषयन्नाह गहणे चिट्ठ णिसीयण, तुयट्टणे य गुरुगा सलोमम्मि । णिल्लोमे चउलहुगा, समणीणारोवणा चम्मे ।। ३८०८ ॥ सलोमचर्मणो ग्रहणं कुर्वन्ति चतुर्गुरुकाः तपसा कालेन च लघवः । गृहीत्वा तत्र 'स्थानम्' ऊर्ध्वस्थानरूपं कुर्वन्ति चतुर्गुरुकाः तपसा लघवः कालेन गुरवः, निषदनं कुर्वन्ति 20 चतुर्गुरुकाः तपसा गुरवः कालेन लघवः, त्वग्वर्त्तनं कुर्वन्ति तपसा कालेन च गुरवः । निर्लोमचर्मणि तु चतुर्लघुकाः । एवमेव चतुर्पु स्थानेषु तपः-कालविशेषिता एषा श्रमणीनां 'चर्मणि' चर्मविषयाऽऽरोपणा मन्तव्या ॥ ३८०८ ॥ अत्र दोषान् दर्शयति कुंथु-पणगाइ संजमें, कंटग-अहि-विच्छुगाइ आयाए । भारो भयभुत्तियरे, पडिगमणाई सलोमम्मि ॥ ३८०९ ॥ सलोमचर्मणि कुन्थु-पनकादयो वर्षासु सम्मूछेयुः, तेषु स्थान-निषदनादिना विराध्यमानेषु संयमविराधना । कण्टकेन अहिना वृश्चिकादिना वा तत्रोपविष्टाः सुप्ता वा यद् उपघातमाग्नुवन्ति सा आत्मविराधना । भारश्च मार्गे गच्छन्तीनां तस्य महान् भवति । भयं च स्तेनादिभ्यस्तद्विषयं भवति । भुक्तभोगिनीनां च स्मृतिकरणम् इतरासां तु कौतुकमुपजायते । ततश्च प्रतिगमनं-भूयोऽपि गृहवासाश्रयणम् , आदिशब्दादन्यतीर्थिकगमनादि वा कुर्युः ॥ ३८०९ ॥ 30 अथैनामेव नियुक्तिगाथां व्याख्यानयति तसपाणविराहणया, चम्म सलोमे उ होति अहिकरणं । १ एषः 'यो भा० ॥ २ “नियुक्ति विस्तरः- चम्मम्मि गाहा” इति चूर्णी विशेपचूर्णौ च ॥ 25 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [चर्मप्रकृते सूत्रम् ४ णिल्लोमे तसपाणा, संकुयमाणे य करणं वा ॥ ३८१० ॥ सलोमनि चर्मणि संसक्तानां कुन्थुप्रभृतीनां त्रसप्राणिनां विराधना भवति । तच्चातिरिक्तोपकरणत्वादधिकरणं भवति । निर्लोमन्यपि चर्मणि परिभुज्यमाने त्रसप्राणिनो विराध्यन्ते । सङ्कुचति च तस्मिन् 'करणं' पादकर्म संयती कुर्यात् ॥ ३८१० ॥ __ अविदिण्णोवधि पाणा, पडिलेहा वि य ण सुज्झति सलोमे । वासासु य संसञ्जति, पतावमपतावणे दोसा ॥ ३८११॥ तीर्थकरैः अवितीर्णः-अदत्तोऽयं सलोमचर्मलक्षण उपधिः । शुषिरतया च तत्र रोमान्तरेषु प्राणिनः सम्मूर्च्छन्ति, प्रत्युपेक्षणाऽपि च न शुध्यति । वर्षासु च कुन्थु-पनकादिभिस्तत् चर्म संसज्यते । यदि संसजनभयात् प्रतापयति ततोऽमिविराधना, अथ न प्रतापयति ततस्त्र10सप्राणिनः संसजन्ति, एवमुभयथाऽपि दोषा भवन्ति ॥ ३८११ ॥ आगंतु तदुभूया, सत्ताऽझुसिरे वि गिहितुं दुक्खं । अह उज्झति तो मरणं, सलोम-णिल्लोमचम्मेयं ॥ ३८१२ ॥ 'आगन्तुकास्तदुद्भूताश्च' कुन्थु-पनकादयः सत्त्वा अशुषिरेऽपि ग्रहीतुं दुःखेन शक्यन्ते किं पुनः शुषिरे सलोमचर्मणि? । ततो यत् तेषां भूयोभूयः सङ्घट्यमानानां परितापनं तन्नि15 पन्नं प्रायश्चित्तम् । अथ तदुद्भवान् जन्तूनुज्झति ततस्तेषां मरणं भवेत् । एतत् सलोम चर्माश्रित्योक्तम् । अथ सलोम-निर्लोम्नोरुभयोरपि दोषा उच्यन्ते ॥ ३८१२ ॥ भारो भय परितावण, मारण अहिकरणमेव अविदिण्णे । तित्थकर-गणहरेहि, सतिकरणं भुत्तभोगीणं ॥ ३८१३ ॥ सलोना निर्लोम्ना वा चर्मणा मार्गे गच्छन्तीनां भारो भयं चोत्पद्यते । कुन्थु-पनकादि20 जीवानां परितापनं मारणं वा भवति । अथैतद्दोषभयात् परित्यजति ततोऽसंयतैर्गृहीतेऽधिकर णम् । तीर्थकर-गणधरैश्च 'अवितीर्णः' अदत्तोऽयमुपधिः । सलोमनि च परिभुज्यमाने स्मृतिकरणं भुक्तभोगिनीनाम् , इतरासां कौतुकमुपजायते ॥ ३८१३ ॥ कथम् ? इत्याह जइ ता अचेतणम्मि, अयिणे फरिसो उ एरिसो होति ।। किमया सचेतणम्मि, पुरिसे फैरिसो उ गमणादी ॥ ३८१४ ॥ 25 यदि तावदचेतने 'अजिने' चर्मणि ईदृशः स्पर्शो भवति ततः किं पुनः सचेतनस्य पुरु षस्य स्पर्शो भवति ? । एवं विचिन्त्य काचिदार्यिका ‘गमनम्' अवधावनं कुर्यात् , आदिशब्दाद् वैहायसमरणं वा प्रतिपंद्यते ॥ ३८१४ ॥ द्वितीयपदमाह बिइयपय कारणम्मि, चम्मुव्वलणं तु होति णिल्लोमं । आगाढ कारणम्मि, चम्म सलोमं पि जतणाए ॥ ३८१५ ॥ 30 द्वितीयपदे कारणे चर्मापि गृह्णीयात् । कथम् ? इत्याह-'उद्वलनम्' अभ्यङ्गनं कस्याश्चिदार्यिकायाः कर्त्तव्यं तदर्थ निर्लोम चर्म गृह्यते । अथागाढं कारणं ततः सलोमचर्मणोऽपि १ण मन्तव्यम् । नि भा० ॥ २ श्च सत्त्वाः शुषिरेऽपि ग्रहीतुं दुःखेन शक्यन्ते ततो यत् भा० ॥ ३ फासो कां० ॥ ४°पद्येत भा० कां० ॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३८१०-१९] तृतीय उद्देशः । १०५३ यतनया परिभोगः कर्त्तव्य इति ॥ ३८१५ ॥ अथैनामेव नियुक्तिगाथां विवृणोति उड्डम्मि वातम्मि धणुग्गहे वा, अरिसासु सूले व विमोइते वा । एगंग-सव्वंगगए व वाते, अभंगिता चिट्ठति चम्मऽलोमे ॥३८१६॥ __ यस्याः संयत्याः प्राचुर्येणोर्द्धवात उच्छलति, 'धनुर्ग्रहोऽपि' वातविशेषो यः शरीरं कुब्जीकरोति स वा यस्या अजनिष्ट, अर्शासि वा सञ्जातानि, शूलं वा अभीक्ष्णमुद्धावति, पाणि- 5 पादाद्यङ्गं वा 'विमोचितं' स्वस्थानात् चलितम् , एकाङ्गगतो वा सर्वाङ्गगतो वा कस्याश्चिद् वातः समुत्पन्नः सा निर्लोमचर्मणि अभ्यङ्गिता तिष्ठति ॥ ३८१६ ॥ अथ सलोमविषयं विधिमाह. तरच्छचम्मं अणिलामइस्स, कडिं व वेटेंति जहिं व वातो । एरंड-ऽणेरंडसुणेण डकं, वेāति सोविंति व दीविचम्मे ॥३८१७॥ 10 'अनिलामयी' वातरोगिणी तस्याः कटी तरक्षचर्मणा वेष्टयन्ति । 'यत्र वा' हस्तादौ वातो भवति तं वेष्टयन्ति । एरण्डेन वा-हडक्कितेन अनेरण्डेन वा शुना या दष्टा तां वा चर्मणा वेष्टयन्ति, द्वीपिचर्मणि वा तां खापयन्ति ॥ ३८१७ ॥ पुया व घस्संति अणत्थुयम्मि, पासा व घस्संति वै थेरियाए । लोहारमादीदिवसोवभुत्ते, लोमाणि काउं अह संपिहंति ॥ ३८१८ ॥ 15 स्थविरायाः संयत्या अनास्तृते प्रदेशे उपविशन्त्याः पुतौ घृष्येते, सुप्ताया वा पाचौं घृष्येते, ततः सलोम चर्मापि यद् दिवसतो लोहारादिभिरुपविशद्भिरुपभुक्तं तत् प्रातिहारिक दिने दिने मार्गयित्वा लोमान्यधः कृत्वा 'सम्पिदधति' परिभुञ्जते इत्यर्थः ।। ३८१८ ॥ दिवसे दिवसे व दुल्लभे, उच्चत्ता घेत्तुं तमाइणं ।। लोमेहिं उण संविजोअए, मउअट्ठा व न ते समुद्धरे ॥ ३८१९ ॥ 20 अथ प्रातिहारिक दिवसे दिवसे गवेष्यमाणं दुर्लभं-न लभ्यते इत्यर्थः, ततः 'उच्चतया' निदेजत्वेन “णं" इति तदजिनं गृहीत्वा रोमभिः 'संवियोजयेत्' रोमाण्युत्खनेदिति भावः । अथ तेषूखातेषु तदजिनं परुषस्पर्श भवति ततो मृदुतार्थ न 'तानि' रोमाणि समुद्धरेत् ॥३८१९॥ सूत्रम् कप्पइ निग्गंथाणं सलोमाइं चम्माइं अहिहित्तए, से वि य परिभुत्ते नो चेव णं अपरिभुत्ते, से वि य पडिहारिए नो चेव णं अप्पडिहारिए, से वि य एगराईए नो चेव णं अणेगराईए ४ ॥ कल्पते निर्ग्रन्थानां सलोमानि चर्माणि 'अधिष्ठातुं' परिभोक्तुम् । तत्रापि यत् चर्म परि१व सोवियाए मो० ले० ॥ २ अत्र वृत्तिकृतां “णमाइणं" इति पाठोऽभिमतः, न चासौ क्वचिदपि भाष्यपुस्तकादर्श दृश्यते ॥ 25 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [चर्मप्रकृते सूत्रम् ४ भुक्तं तदेव ग्राह्यं नापरिभुक्तम् । तदपि च प्रातिहारिक नाप्रातिहारिकम् । तदपि चैकरात्रिकं नैवानेकरात्रिकमिति सूत्रार्थः । एतद् निर्ग्रन्थानामपवादसूत्रम् ।। अत्र शिष्यः प्राह-निर्ग्रन्थीनां किं कारणं न कल्पते ? सूरिराह दोसा तु जे होति तवस्सिणीणं, लोमाइणे ते ण जतीण तम्मि । तं कप्पती तेसि सुतोवदेसा, जं कप्पती तासि ण तं जतीणं ॥३८२०॥ __ ये 'दोषाः' स्मृतिकरणादयस्तपस्विनीनां लोमयुक्तेऽजिने-चर्मणि भवन्ति ते यतीनां 'तस्मिन् सलोमचर्मणि न भवन्ति । अतस्तत् कल्पते तेषां 'श्रुतोपदेशात्' प्रस्तुतसूत्रवचनात् । यच्च निर्लोम चर्म तासां कल्पते न तद् यतीनाम्, स्मृतिकरणादिदोषप्रसङ्गादिति ॥ ३८२० ॥ सलोमापि चर्म निर्ग्रन्थानामुत्सर्गतो न कल्पते, यत आह10 निग्गंथाण सलोम, ण कप्पती झुसिर तं तु पंचविहं ।। पोत्थग-तणपण दृसं, दुविहं चम्मम्मि पणगं च ॥ ३८२१ ॥ सलोम चर्म निर्ग्रन्थानां न कल्पते, शुषिरं जीवाश्रयस्थानमिति कृत्वा । अथ कतिविधं शुषिरम् ? इति प्रश्नावकाशमाशङ्कयाह—'तत्तु' शुषिरं पञ्चविधम् , तद्यथा-पुस्तकपञ्चकं तृणपञ्चकं दुष्यं-वस्त्रं तत्पञ्चकं 'द्विविधं' अप्रत्युपेक्ष्यदूष्यपञ्चकं दुःप्रत्युपेक्ष्यदूष्यपञ्चकं च चर्मप16ञ्चकं चेति ॥ ३८२१ ॥ एतान्येव यथाक्रमं व्याचष्टे गंडी कच्छति मुट्ठी, छिवाडि संपुडग पोत्थगा पंच । तिण सालि-वीहि-कोद्दव-रालग-आरण्णगतणं च ॥ ३८२२॥ गण्डीपुस्तकः कच्छपीपुस्तकः मुष्टिपुस्तकः सम्पुटफलकपुस्तकः छेदपाटीपुस्तकश्चेति पञ्च पुस्तकाः । एतेषां च स्वरूपमित्थमुक्तं पूर्वसूरिभिः बाहुल्ल-पुहत्तेहिं, गंडीपोत्थो उ तुल्लगो दीहो । कच्छवि अंते तणुओ, मज्झे पिहुलो मुणेयव्यो । चउरंगुलदीहो वा, वट्टागिइ मुट्ठिपुत्थगो अहवा । चउरंगुलदीहो चिय, चउरंसो होइ विन्नेओ । संपुडगो दुगमाई, फलगा वोच्छं छिवाडिमेताहे । तणुपत्तूसियरूवो, होइ छिवाडी बुहा बिंति ॥ दीहो वा हस्सो वा, जो पिहुलो होइ अप्पबाहुल्लो । तं मुणियसमयसारा, छिवाडिपोत्थं भणंतीह ॥ तथा शालीनां १ त्रीहीणां २ कोद्रवस्य ३ रालकस्य च ४ यानि पलालप्रायाणि तृणानि यच्च 'आरण्यकतृणं' श्यामाकादि, एतत् तृणपञ्चकम् ॥ ३८२२ ॥ re अथ दूष्यपञ्चकद्वयं चर्मपञ्चकं चाह कोयव पावारग दाढिआलि पूरी तधेव विरली य । एयं दुपेहपणयं, इणमण्णं अपडिलेहाणं ॥ ३८२३ ॥ १च्छभ मु तामा० ॥ २ एतदने ग्रन्थानम्-१००० ताटी• मो० ले० ॥ 20 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 भाष्यगाथाः ३८२०-२६] तृतीय उद्देशः । १०५५ उवहाण तूलि आलिंगणी उ गंडोवहाण य मसूरा । गो-माहिस-अय-एलग-रण्णमियाणं च चम्मं तु ॥ ३८२४ ॥ 'कोयविर्नाम' रूतपूरितः पटः, या लोके 'माणिकी' इति प्रसिद्धा । 'प्रावारकः' नेपालादिरुल्वणरोमा बृहत्कम्बलः । “दाढिगालि' त्ति यथा मुखमध्ये यमलितोभयदन्तपतिरूपा दाढिकालिः-दन्तावलिनिरीक्ष्यते एवं धौतपोतिकाऽपि द्विजसत्कसदशवस्त्रपरिधानरूपा दृश्यमाना 5 दाढिकालिरिव प्रतिभातीति कृत्वा दाढिकालिरुच्यते । पूर्यते-स्तोकैरपि तन्तुभिः पूर्णीभवतीति पूरिका-स्थूलशणगुणमयपटात्मिका, यया धान्यगोणिकाः क्रियन्ते हस्त्याद्यास्तरणानि वा । विरलिका नाम-द्विसरसूत्रपाटी । एतानि पञ्चापि सम्यक् प्रत्युपेक्षितुं न शक्यन्त इति दुःप्रत्युपेक्ष्यदूष्यपञ्चकमुच्यते । इदमन्यद् 'अप्रत्युपेक्ष्याणां' सर्वथाऽपि प्रत्युपेक्षितुमशक्यानां दूष्याणां पञ्चकं भवति ॥ ३८२३ ॥ तद्यथा 'उपधानं' हंसरोमादिपूर्णमुच्छीर्षकम् । 'तूली' संस्कृतरूतादिभृता अर्कतूलादिभृता वा प्रतीता । आलिङ्गनिका पुरुषप्रमाणा, या शयानैर्जानु-कूपरादिषु दीयते । 'गण्डोपधानं' गल्लमसूरिका । 'मसूरकं नाम' चर्मकृतं वस्त्रकृतं वा वृत्तं वूयादिपूर्ण चक्कल-गद्दिकादि । चर्मपञ्चकं पुनरिदम्-गोचर्म, माहिषचर्म, अजाः-छगलिकास्तासां चर्म, एडकाः-अजविशेषास्तच्चर्म, आरण्यकाश्च ये मृगाः-हरिण-शशकादयः तेषां चर्म पञ्चमं ज्ञातव्यम् ॥ ३८२४ ॥ 15 अथात्रैव प्रायश्चित्तमाह जहिँ गुरुगा तहिँ लहुगा, जहिं लहुगा चउगुरू तहिं ठाणे ।। दोहिँ लहू कालगुरू, तवगुरुगा दोहि वी गुरुगा ॥ ३८२५ ॥ 'यत्र' सलोमचर्मणि पुरुषतुल्यस्पर्शत्वाद् निर्ग्रन्थीनां चतुर्गुरुकाः प्रायश्चित्तमुक्तं तत्र निर्यन्थानां चतुर्लघुकाः । 'यत्र तु' निर्लोमचर्मणि निर्ग्रन्थीनां चतुर्लघुकाः तत्र निर्ग्रन्थानां चतुर्गु- 20 रुकाः, स्त्रीतुल्यस्पर्शत्वात् । परमुभयेऽपि प्रथमे ग्रहणाख्ये स्थाने द्वाभ्यां लघवः, तपसा कालेन चेत्यर्थः । ऊर्द्धस्थाने कालगुरवः । निषदने तपोगुरवः । त्वग्वर्त्तने 'द्वाभ्यामपि' तपः-कालाभ्यां गुरवः । पुस्तकपञ्चके तृणपञ्चके दूष्यपञ्चकद्वये च निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां च चतुर्लघवः । आह च चूर्णिकृत्"पोत्थग-तण-दूसेसु चउलहुगा ।" ॥ ३८२५॥ 25 अथ पुस्तकपञ्चके तावद् दोषानुपदर्शयति संघस अपडिलेहा, भारो अहिकरणमेव अविदिण्णं । संकामण पलिमंथो, पमाय परिकम्मणा लिहणा ॥ ३८२६ ॥ पुस्तकादिक ग्रामान्तरं नयतः स्कन्धे सङ्घर्षः स्यात् , ततश्च व्रणोत्पत्त्यादयो दोषाः । शुषिरत्वाच्च तत्र प्रत्युपेक्षणा न शुध्यति । भारो मार्गे गच्छतां भवेत् । अधिकरणं च कुन्थु-30 १ द्विस्तर° भा० ॥ २ ताटी० भा० विनाऽन्यत्र-वूयादि मो० ले० । ब्रूयादि त० डे० कां० ॥ ३°कं वहतः स्क° भा० । "खंधे संघंसो. भवति वहंतस्म" "खंचंतेण वहंतस्स संघसो भवति" इति विशेषचूर्णी ॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [चर्मप्रकृते सूत्रम् ४ पनकादिसंसक्तिलक्षणं भवति; यद्वा तत् पुस्तकं स्तेनैरपहियेत ततोऽधिकरणम् । तीर्थकरैरदत्तश्चायमुपधिः । स्थानान्तरे च पुस्तकं सङ्क्रामयतः पलिमन्थः । 'प्रमादो नाम' पुस्तके लिखितमस्तीति कृत्वा न गुणयति, अगुणनाच्च सूत्रनाशादयो नोषाः । परिकर्मणायां च सूत्रार्थपरिमन्थो भवति । अक्षरलेखनं च कुर्वतः कुन्थुप्रभृतित्रसप्राणव्यपरोपणेन कृकाटिकादिवाधया च 5 संयमा-ऽऽत्मविराधना ॥ ३८२६ ॥ किञ्च पोत्थग जिण दिलुतो, वग्गुर लेवे य जाल चक्के य ।। लोहित लहुगा आणादि मुयण संघट्टणा बंधे ॥ ३८२७ ॥ पुस्तके शुषिरतया यो जन्तूनामुपघातस्तत्र 'जिनैः' तीर्थकृद्भिर्वागुरया लेपेन जालेन चक्रेण च दृष्टान्तः कृतः । “लोहिय" त्ति यदि तेषां पुस्तकान्तर्गतानां जन्तूनां 'लोहितं' रुधिरं भवेत् 10 ततः पुस्तकबन्धनकालेऽक्षराणि परिस्पृश्य तद् रुधिरं परिगलेत् । “लहुग" ति यावतो वास्स्तत् पुस्तकं बध्नाति मुञ्चति वा अक्षराणि वा लिखति तावन्ति चतुर्लघूनि, आज्ञादयश्च दोषाः । पुस्तकस्य मोचने बन्धे च सङ्घट्टनम् , उपलक्षणत्वात् परितापनमपद्रावणं वा यद् आपद्यते तन्निध्पन्नं प्रायश्चित्तमिति नियुक्तिगाथासमासार्थः ॥ ३८२७ ॥ साम्प्रतमेनामेव विवृणोति चउरंगवग्गुरापरिवुडो वि फिट्टेज अवि मिगो रण्णे । 15 छीर खउर लेवे वा, पडिओ सउणो पलाएजा ॥ ३८२८ ॥ चतुरङ्गसेनारूपा या वागुरा तया परिवृतोऽपि-समन्ताद् वेष्टितोऽपि मृगः, 'अपि' इति सम्भावनायाम् , सम्भाव्यते अयमर्थः---यत् तथाविधदक्षतादिगुणोपेतो मृगोऽरण्ये तादृशादपायात् स्फिटेत् , न पुनः पुस्तकपत्रान्तरप्रविष्टा जीवाः स्फिटेयुः । तथा 'शकुनः' पक्षी, स चेह मक्षिकादिः, 'क्षीरे वा' दुग्धे 'खपुरे वा' चिक्कणद्रव्ये 'लेपे वा' अवश्रावणादौ पतितोऽपि 20 पलायेत, न पुनः पुस्तकजीवास्ततः पलायितुं शक्नुयुः ॥ ३८२८॥ सिद्धत्थगजालेण व, गहितो मच्छो वि णिप्फिडेजा हि । तिलकीडगा व चक्के, तिला व ण य ते ततो जीवा ॥ ३८२९ ॥ -- सिद्धार्थकाः-सर्षपास्तेऽपि येन जालेन गृह्यन्ते तत् सिद्धार्थकजालम् तेनापि गृहीतो मत्स्यः कदाचिद् निःस्फिटेत् । तथा 'चक्रे' तिलपीडनयन्त्रे प्रविष्टास्तिलकीटका वा तिला वा निर्ग2 च्छेयुः, न च ते जीवाः 'ततः' पुस्तकाद् निर्गन्तुं शक्नुयुः ॥ ३८२९ ॥ जइ तेसिं जीवाणं, तत्थगयाणं तु लोहियं होजा। पीलिजंते धणियं, गलेज तं अक्खरे फुसितं ॥ ३८३० ॥ यदि तेषां 'तत्रगतानां' पुस्तक-पत्रान्तरस्थितानां 'जीवानां' कुन्थुप्रभृतीनां लोहितं भवेत् ततः पुस्तकबन्धनकाले तेषां 'धणियं' गाढतरं पीड्यमानानां 'तद्' अनन्तरोक्तं रुधिरमक्षराणि 30 स्पृष्ट्वा बहिः परिगलेत् ॥ ३८३० ॥ अत एव जत्तियमेत्ता वारा, उ मुंचई बंधई व जति वारा । जति अक्खराणि लिहति व, तति लहुगा जं च आवजे ॥ ३८३१ ॥ १ रूपया वागुरया 'परि भा० का० ॥ २ सितुं भा० का० ताटी० ॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३८२७-३६] तृतीय उद्देशः । १०५७ यावन्मात्रान् वारान् पुस्तकं 'मुञ्चति' छोटयति, यति वारांश्च बध्नाति, 'यति वा' यावन्ति अक्षराणि लिखति 'तति' तावन्ति चतुर्लघूनि । यच्च कुन्थु-पनकादीनां सङ्घट्टनं परितापनमपद्रावणं वा आपद्यते तन्निप्पन्नं प्रायश्चित्तम् ॥ ३८३१ ॥ अथ तृणपञ्चकादिषु दोषानाह तणपणगम्मि वि दोसा, विराहणा होति संजमा-ऽऽताए । सेसेसु वि पणगेसुं, विराहणा संजमे होति ।। ३८३२॥ __ तृणपञ्चकेऽपि 'दोषाः' आज्ञाभङ्गादयो भवन्ति, विराधना च संयमा-ऽऽत्मविषया । 'शेषेष्वपि' दूण्यपञ्चकादिषु संयमविषया विराधना भवति ॥ ३८३२ ॥ इदमेव भावयति अहि-विचुग-विसकंडगमादीहि खयं व होज आयाए । कुंथादि संजमम्मि, जति उव्वत्तादि तति लहुगा ॥ ३८३३ ॥ तृणादिषु शुषिरत्वादहिर्वा वृश्चिको वा विषकण्टको वा भवेद् एतैः आदिशब्दात् 10 मत्कोटकादिभिश्च तत्र शयान आसीनो वोपद्रूयेत, क्षतं वा दर्भादिषु सुप्तस्य भवेत् , एषाऽऽत्मविराधना । कुन्थु-पनकादिप्राणिव्यपरोपणं तु संयमविराधना । तृणेषु च प्रसुप्तः 'यति' यावतो वारानुद्वर्त्तनं परिवर्तनमाकुञ्चनं प्रसारणं वा करोति 'तति' तावन्तश्चतुर्लघुकाः ॥३८३३॥ अत्र परः प्राह दिट्ट सलोमे दोसा, णिल्लोमं णाम कप्पती घेत्तुं । गिण्हणे गुरुगा पडिलेह पणग तसपाण सतिकरणं ॥ ३८३४ ॥ सलोमचर्मणि यतो दोषा दृष्टाः अतो निर्ग्रन्थानां निर्लोम चर्म 'नाम' इति सम्भावयामः कल्पते ग्रहीतुम् । सूरिराह-यदि निर्लोमचर्मणो ग्रहणं करोति ततश्चतुर्गुरुकाः, यतस्तत्र प्रत्युपेक्षणा न शुध्यति, पनकस्त्रसपाणिनो वा सम्मूर्च्छन्ति, सुकुमारतया भुक्तभोगिनः स्मृतिकरणं भवति अभुक्तभोगिनस्तु कौतुकम् ॥ ३८३४ ॥ इदमेव स्पष्टयति भुत्तस्स सतीकरणं, सरिसं इत्थीण एयफासेणं । जति ता अचेयणम्मि, फासो किमु चेयणे इतरे ॥ ३८३५ ॥ भुक्तभोगिनः स्मृतिकरणं भवति-अहो! स्त्रीणां सम्बन्धी यः स्पर्शोऽस्माभिरनुभूतपूर्वः तेन सदृशमेतत् । चर्मानुभूयते । अभुक्तभोगिनः कौतुकम् , यथा—यदि तावदचेतनेऽपि » चर्मण्येतादृशः सुखस्पर्शोऽनुभूयते किं पुनः सचेतने 'इतरस्मिन्' स्त्रीशरीरे भविता ? । एवं 25 विचिन्त्य प्रतिगमनादीनि कुर्युः । यत एते दोषा अतो निर्लोमापि न ग्रहीतव्यम् ॥३८३५॥ __आह यदि निर्लोम ग्रहीतुं न कल्पते तर्हि मा कल्पताम् , यत्तु सलोमकं तत् तावत् सूत्रेणानुज्ञातम् , भवद्भिस्तु तदपि प्रतिषिद्धम् तदेतत् कथम् ? इति अत्रोच्यते सुत्तनिवाओ वुड्डे, गिलाण तद्दिवस भुत्त जतणाए । आगाढ गिलाणे मक्खणह, घट्टे भिण्णे व अरिसाउ ॥ ३८३६ ॥ 30 सूत्रनिपातो वृद्धे ग्लाने वा भवति, वृद्धस्य ग्लानस्य वा परुषस्पर्शमसहिष्णोरास्तरणार्थ सलोम चर्म ग्राह्यमिति भावः । तच्च 'तदिवसभुक्तं' कुम्भकारादिभिस्तस्मिन्नेव दिवसे परिमुक्तम् , १°शमिदं भा० ॥२-३ १ एतचिह्नान्तर्गतः पाठः भा० का० एव वर्त्तते ॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 १०५८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [चर्मप्रकृते सूत्रम् ५ तत्र हि त्रसादयः प्राणिनो न भवन्ति, तच्च गृहीत्वा 'यतनया' रोमाण्युपरि कृत्वा परिभोक्तव्यम् । आगाढे च ग्लानत्वे यत् तैलेन म्रक्षणं तदर्थम् , यस्य वा गुदादिपार्थाणि घृष्टानि, यो वा साधुभिन्नकुष्ठी, यस्य वा अर्शासि समुद्भूतानि तदर्थं वा निलोम चर्म ग्रहीतव्यमिति सङ्ग्रहगाथासमासार्थः ॥ ३८३६ ॥ अथैनामेव विवृणोति संथारट्ट गिलाणे, अमिलादीचम्म घेप्पति सलोमं । वुड्डा-ऽसहु-बालाण व, अच्छुरणहा वि एमेव ॥ ३८३७ ॥ ग्लानस्य संस्तारकार्थममिलादिसम्बन्धि सलोम चर्म गृह्यते । वृद्धा-सहिष्णु-बालानामप्यास्तरणार्थम् 'एवमेव' सलोम चर्म ग्राह्यम् ॥ ३८३७ ॥ तच्च कीदृशम् ? इत्याह कुम्भार-लोहकारेहिं दिवसमलियं तु तं तसविहूणं । उवरि लोमे काउं, सोत्तुं गोसे समप्पेंति ॥ ३८३८ ॥ ___ कुम्भकार-लोहकारादिभिः स्वखकर्म कुर्वाणैर्य दिवसतो 'मलितं' परिभुक्तं तत् त्रसविहीनं भवति । अतः सन्ध्यासमये तेषु उत्थितेषु तत् प्रातिहारिकं गृहीत्वा लोमान्युपरि कृत्वा रात्रौ तत्र सुप्त्वा 'गोसे' प्रभाते प्रत्यर्पयन्ति ॥ ३८३८ ।। अवताणगादि णिल्लोम तेल्ल वम्मट्ट घेप्पती चम्मं । घट्ठा व जस्स पासा, गलंतकोढेऽरिसासुं वा ॥ ३८३९ ॥ अवयाणादितैलेन वा ग्लानस्याभ्यङ्गे विधातव्ये निर्लोम चर्म ग्रहीतव्यम् । अध्वानादौ वा वर्मार्थम् , यस्य वा पार्थाणि घृष्टानि तस्यास्तरणार्थम् , यो वा गलत्कुष्ठः साधुस्तस्य परिधानार्थमास्तरणार्थ वा, अर्शासि वा यस्य समुत्पन्नानि तस्योपवेशनार्थ निर्लोम चर्म गृह्यते ॥३८३९॥ सोणिय-पूयालित्ते, दुक्खं धुवणा दिणे दिणे चीरे।। कच्छल्ले किडिभिल्ले, छप्पतिगिल्ले व णिल्लोमं ॥ ३८४०॥ शोणितेन पूयेन वा आलिप्तस्य चीवरस्य दिने दिने धावना दुष्करा, अतः कच्छ्वतः किटिभवतश्च निर्लोम चर्म कल्पते । कच्छू:-पामा, किटिभं-शरीरैकदेशभावी कुष्ठभेदः । तथा यस्य षट्पदिकाः प्राचुर्येण सम्मूर्च्छन्ति स षट्पदिकावान् निर्लोमचर्मपरिधानं गृह्णाति ॥ ३८४० ॥ 25 जह कारणे निल्लोमं, तु कप्पती तह भवेज इयरं पि । __ आगाढि सलोमं आदिकाउ जा पोत्थए गहणं ॥ ३८४१॥ यथा कारणे निर्लोम चर्म 'कल्पते तथा 'इतरदपि' शुषिरमपि ग्रहीतुं कल्पते । किं बहुना ? आगाढे कारणे सलोम चर्म आदौ कृत्वा पश्चानुपूर्ध्या तावद् नेतव्यं यावत् पुस्तकस्यापि ग्रहणं कर्तव्यम् ॥ ३८४१ ॥ एतदेव स्पष्टयति भत्तपरिण गिलाणे, कुसमाइ खराऽसती तु झुसिरा वि । अप्पडिलेहियदूसाऽसती य पच्छा तणा होती ॥ ३८४२ ॥ १°मये तत् मो० ले० । °मये ते तत् त० डे० ॥ २ अत्र शिष्यः प्रश्नयति इत्यवतरणं भा० । न चैतत् सम्यक्सङ्गतिमत् ।। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1o भाष्यगाथाः ३८३७-४६) तृतीय उद्देशः । १०५९ भक्तपरिज्ञावतः' प्रतिपन्नानशनस्य तथा ग्लानस्यास्तरणार्थ कुशादीन्यशुषिरतृणानि गृह्यन्ते । अथ तानि 'खसणि' कर्कशानि न वा तानि प्राप्यन्ते ततः शुषिराण्यपि तृणानि ग्रहीतव्यानि । अथवा भक्तप्रत्याख्यानिनो ग्लानस्य वा सुखशयनार्थं प्रथमतः 'अप्रत्युपेक्ष्यदूष्यम्' उपधानतूल्यादि ग्रहीतव्यम् , तदभावे यथाक्रममशुषिर-शुषिराणि पश्चात् तृणानि भवन्ति, तानि प्रस्तीर्यन्त इत्यर्थः ॥ ३८४२ ॥ दुप्पडिलेहियदूसे, अद्धाणादी विवित्त गेण्हंति । घेप्पति पोत्थगपणगं, कालिय-णिज्जुत्तिकोसट्टा ॥ ३८४३ ॥ अध्वादौ 'विविक्ताः' मुषिताः सन्तो यथोक्तमुपधिमलभमानाः 'दुष्प्रत्युपेक्ष्यदूष्याणि' कोयवि-प्रावारप्रभृतीनि गृह्णन्ति । तथा मति-मेधादिपरिहाणिं विज्ञाय कालिकश्रुतस्य उपल: क्षणत्वाद् उत्कालिकश्रुतस्य वा नियुक्तीनां चाऽऽवश्यकादिप्रतिबद्धानां दान-ग्रहणादौ कोश 19, इव-भाण्डागारमिवेदं भविष्यतीत्येवमर्थं पुस्तकपञ्चकमपि गृह्यते ॥ ३८४३ ॥ सूत्रम् नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा कसिणाई चम्माइं धारित्तए वा परिहरित्तए वा ५॥ अस्य सम्बन्धमाह चम्मं चैवाहिकयं, तस्स पमाणमिह मिस्सिए सुत्ते । अपमाणं पडिसिज्झति, ण उ गहणं एस संबंधो ॥ ३८४४ ॥ इह पूर्वसूत्रे चर्मैव तावदधिकृतम् अतः 'तस्य' चर्मणः प्रमाणमिह 'मिश्रिते' निर्ग्रन्थ-निम्रन्थीप्रतिबद्धे सूत्रे प्ररूप्यते, 'अप्रमाणं' प्रमाणातिरिक्तं तत् प्रतिषिध्यते, न पुनः सर्वथा चर्मणो ग्रहणम् । एष सम्बन्धः ॥ ३८४४ ॥ अहवा अच्छुरणट्ठा, तं वुत्तमिदं तु पादरक्खट्ठा । तस्स वि य वण्णमादी, पडिसेहेती इहं सुत्ते ॥ ३८४५ ॥ अथवा 'तत्' पूर्वसूत्रोक्तं चर्म आस्तरणार्थमुक्तम् , 'इदं तु' प्रस्तुतसूत्रे पादरक्षार्थमुच्यते । 'तस्यापि च' चर्मणो ये वर्णादयो गुणास्तद्युक्तमिह सूत्रे प्रतिषेधयतीति ॥ ३८४५ ॥ अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्यानो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा 25 'कृत्लानि' वर्ण-प्रमाणादिभिः प्रतिपूर्णानि चर्माणि धारयितुं वा परिहर्तुं वेति सूत्रार्थः ॥ अथ भाष्यविस्तरः सगल प्पमाण वण्णे, बंधणकसिणे य होइ णायव्वे । [नि. ९१३-६५] अकसिणमट्ठारसगं, दोसु वि पासेसु खंडाई॥ ३८४६ ॥ कृत्स्नं चतुर्धा-सकलकत्सं १ प्रमाणकृत्सं २ वर्णकृत्स्नं ३ बन्धनकृत्स्नं ४ चेति भवति 30 ज्ञातव्यम् । एतच्चतुर्विधमपि न कल्पते प्रतिग्रहीतुम् । परः प्राह-यद्येवं ततो यद् अकृत्स्नं १ च देश्येकादिप्र° ताटी० ॥ २ °णगादी भा० का० विना ॥ 20 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ चर्मप्रकृते सूत्रम् ५ चर्म तद् 'अष्टादशकम्' अष्टादशभिः खण्डः कर्त्तव्यमित्यर्थः । तानि च खण्डानि द्वयोरपि पार्श्वयोः परिधातव्यानि इति सङ्ग्रहगाथासमासार्थः ॥ ३८४६ ॥ अथैनामेव विवरीपुराह एगपुड सकलकसिणं, दुपुडादीयं पमाणतो कसिणं । खल्लग खउसा वग्गुरि, कोसग जंघऽड्डजंघा य ॥ ३८४७ ॥ 6 'एकपुटम्' एकतलं चर्म सकलकृत्स्नमुच्यते । 'द्विपुटादिकं' द्वि-त्रिप्रभृतितलं तु प्रमाणतः कृत्स्नम् । तथा खल्लका द्विधा-अर्धखल्लका समस्तखल्लका च । या पादाई छादयति साऽर्धखल्लका, या पुनरुपानत् सम्पूर्ण पादं स्थगयति सा समस्तखल्लका । या तु घुण्टकं पिदधाति सा खपुसा । या पुनरङ्गुलीश्छादयित्वा पादावप्युपरि च्छादयति सा वागुरा । यत्र तु 'पाषा णादिषु प्रतिस्फलिताः पादनखाः मा भज्यन्ताम्' इति बुद्ध्या अङ्गुल्योऽङ्गुष्ठो वा प्रक्षिप्यन्ते स 10 कोशकः । या तु सम्पूर्णा जङ्घा पिदधाति सा जङ्घा । जङ्घार्धपिधायिनी सैवार्धजङ्घा । एतान्यपि प्रमाणकृत्स्नानि ॥ ३८४७ ॥ अथैतदेव स्पष्टयति पायस्स जं पमाणं, तेण पमाणेण जा भवे कमणी । मज्झम्मि तु अक्खंडा, अण्णत्थ व सकलकसिणं तु ॥ ३८४८ ॥ पादस्य यत् प्रमाणं तेन प्रमाणेन या युक्ता क्रमणिका मध्यप्रदेशेऽन्यत्र वाऽखण्डा भवति 15 तदेतत् सकलकृत्स्नमुच्यते ॥ ३८४८॥ दुपुडादि अद्धखल्ला, समत्तखल्ला य वग्गुरी खपुसा । अद्धजंघ समत्ता य, पमाणकसिणं मुणेयव्यं ॥ ३८४९ ॥ 'द्विपुटादिका' द्वि-त्रिप्रभृतितलोपेता या उपानद् या वाऽर्धखल्ला समस्तखल्ला वागुरा खपुसा अर्धजङ्घा समस्तजङ्घा चेति सर्वमप्येतत् प्रमाणकृत्वं ज्ञातव्यम् ॥ ३८४२ ॥ 20 तत्रैव कानिचिद् विषमपदानि व्याचष्टे उवरिं तु अंगुलीओ, जा छाए सा तु वग्गुरी होति । खपुसा य खलुगमेत्तं, अद्धं सव्वं च दो इयरे ॥ ३८५०॥ या पादयोरङ्गुलीश्छादयित्वोपर्यपि छादयति सा वागुरा भवति । खलुकः-घुण्टकः तन्मात्रं यावदाच्छादयन्ती खपुसा । 'इतरे तु द्वे' जङ्घा-ऽर्धजङ्घालक्षणे अर्धा सर्वां च जवां यथाखं 25 छादयत इति ॥ ३८५० ॥ गतं प्रमाण कृत्स्नम् , अथ वर्णकृत्स्न-बन्धनकृत्स्ने प्रतिपादयति वण्णड्ड वण्णकसिणं, तं पंचविहं तु होइ नायव्वं ।। बहुबंधणकसिणं पुण, परेण जं तिण्ह बंधाणं ॥ ३८५१ ॥ __ यत् चर्म वर्णेन आढ्यम्-उज्ज्वलमित्यर्थः तद् वर्णकृत्स्नम् । तच्च कृष्णादिवर्णभेदात् पञ्चविध ज्ञातव्यम् । यत्तु त्रयाणां बन्धानां 'परतः' बहुभिर्बन्धैर्बद्धं तद् बन्धनकृत्स्नमुच्यते 30॥ ३८५१ ॥ अथैतेष्वेव प्रायश्चित्तमाह लहुओ लहुगा दुपुडादिएसु गुरुगा य खल्लगादीसु । १ खल-ऽद्धखल्ल-खउसा, घग्गुरि-जंघ-ऽद्धजंघा य ताभा० ॥ २ अत्रैव भा० का० ॥ ३ खल्लकः भा० ॥ ४°गादि ख° ताभा० विना ॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाप्यगाथाः ३८४७-५७ ] तृतीय उद्देशः । १०६१ आणादिणो य दोसा, विराहणा संजमा-ऽऽदाए ॥ ३८५२ ॥ सकलकृत्स्नं गृह्णतां लघुमासः । द्विपुटादिपु चत्वारो लघवः । 'खल्लकादिपु' समस्ता-ऽर्धखलकाखपुसा-वागुरा-जङ्घा-ऽर्धजङ्घासु चत्वारो गुरुकाः । आज्ञादयश्च दोषाः, विराधना च संय. मा-ऽऽत्मविषया भवति । स तत्र क्रमणिकादिभिः पिनद्धाभिः कीटिकादिव्यपरोपणात् संयमविराधना, आत्मविराधना तु बैन्धे छिन्ने सति प्रस्खलनं भवेत् प्रमत्तं वा देवता छलयेत् ॥३८५२॥ 5 __ अंगुलिकोसे पणगं, सगले सुक्के य खल्लगे लहुओ। बंधण वण्ण पमाणे, लहुगा तह पूरपुण्णे य ॥ ३८५३ ॥ अङ्गुलिकोशे अङ्गुष्ठकोशके च पञ्चकम् । सकलकृल्ले 'शुष्के च' पूरपूरणविरहिते खल्लके मासलघु । बन्धनकृत्स्ने वर्णकृत्स्ने 'प्रमाणकृत्स्ने च' द्विपुटादिरूपे वूरपूर्णे च खल्लके चतुर्लघवः ॥ ३८५३ ॥ अर्धखल्लकादिषु यत् पूर्वं चतुर्गुरुकमुक्तं तदेव विशेषयन्नाह___अद्धे समत्त खल्लग, वग्गुरि खपुसा य अद्धजंघा य । गुरुगा दोहि विसिट्ठा, वग्गुरिए अण्णतरएणं ॥ ३८५४ ॥» 'अर्द्धखल्लकायाम्' उपानहि यच्चतुर्गुरु तत् तपसा कालेन च लघुकम् । समस्तखल्लकायां कालगुरुकम् । वागुरिकायाम् 'अन्यतरेण' तपसा कालेन वा गुरुकम् । खपुसायां तपोगुरुकम् । अर्धजङ्घायां समस्तजङ्घायां च तपसा कालेन च गुरुकम् ॥ ३८५४ ॥ किञ्च- 15 जत्तियमित्ता वारा, तु बंधते मुंचते व जति वारा। सट्टाणं तति वारे, होति विवड्डी य पच्छित्ते ॥ ३८५५ ॥ यावन्मात्रान् वारान् अङ्गुलीकोश-सकलकृत्स्नादिकं बध्नाति, मुञ्चति वा 'यति' यावतो वारान् तति तावन्तो वाराः खस्थानं मन्तव्यम् । 'खस्थानं नाम' यद् यत्र पञ्चकादिचतुर्गुरुकान्तं प्रायश्चित्तमुक्तम् । तथाऽऽज्ञाभङ्गे चतुर्गुरु, अनवस्थायां चतुर्लघु, मिथ्यात्वे चतुर्लघु, 20 आत्मविराधनायां चतुर्गुरु, संयमविराधनायां कायनिष्पन्नम् , एवमाज्ञादिभिः पदैरभीक्ष्णसेवानिष्पन्ना वा प्रायश्चित्तस्य विवृद्धिर्भवति ॥ ३८५५ ॥ अथोपानहोर्दोषप्रदर्शनार्थमिदमाह गव्यो णिम्मदवता, णिरवेक्खो निद्दतो णिरंतरता । भूताणं उवघाओ, कसिणे चम्मम्मि छद्दोसा ।। ३८५६ ॥ उपानहोः पिनद्धयोर्गर्यो निर्मार्दवता च भवेत् , जीवेषु निरपेक्षो निर्दयश्चासौ भवति, 25 'निरन्तरता' निरन्तरभूमिस्पर्शिता, 'भूतानां तु' प्राणिनामुपघातश्चोपजायते । एवं कृत्ले चर्मणि षड् दोषा भवन्तीति द्वारगाथास पार्थः ॥ ३८५६ ॥ साम्प्रतमेनामेव प्रतिपदं विवृणोति आसगता हथिगतो, गविज्जइ भूमितो य कमणिल्लो। पादो उ समाउको, कमणीउ खरा अवि य भारो ॥ ३८५७ ।। 'अश्वगताद्' अश्वारूढाद् हस्तिगतः पुरुषो यथा गर्वायते एवं भूमिगतात् क्रमणिकावान् 30 गर्वं करोति-अहो ! अहं सोपानको व्रजामीति । तथा पादः खभावेनैव समार्दवस्ततः स न १ एतचिह्नमध्यगतः पाठः भा० नास्ति ॥ २ बद्ध छि° ताटी० का० ॥ ३॥ एतच्चिदान्तर्गतः पाठः ताटी० मो० ले० डे. नास्ति ॥ ४ च' पूरणवि त० ॥ ५ अथैनामेव भा० ॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [चर्मप्रकृते सूत्रम् ५ तथा जीवोपघातं करोति यथा क्रमणिकाः 'खराः' कर्कशस्पर्शा जीवोपघातं कुर्वन्ति । अपि च भारतासा महान् भवति, ततस्तदाक्रान्ता बहवो जीवा विनाशमनुवते ॥ ३८५७ ॥ निरपेक्षद्वारमाह कंटाई देहंतो, जीवे वि हु सो तहेव देहिजा। अत्थि महं ति य कमणी, णावेक्खइ कंटएण जिंए ॥ ३८५८ ।। __ अनुपानको गच्छन् कण्टकादीन् मार्गे प्रेक्षते, ततस्तान् प्रेक्षमाणों जीवानपि तथैवासौ प्रेक्षेत । सोपानकस्तु गच्छन् विद्यते मम क्रमणिके इति कृत्वा निरपायवादात्मनो न कण्टकादिकमपेक्षते, ततश्चासौ जीवेष्वपि निरपेक्षो भवति ॥ ३८५८ ॥ अथ निर्दयद्वारमाह पुचि अदया भूएसु होति बंधति कमेसु तो कमणी।। जायति हु तदब्भासा, सुदयालुस्सावि णिदयया ॥ ३८५९ ।। पूर्व तावद् ‘अदया' निर्दयत्वं भूतेषु मनसि सञ्जातं भवति, ततः क्रमयोः क्रमणिके बध्नाति । तदभ्यासाच्च सुदयालोरपि प्रायो निर्दयतैव भवति ॥ ३८५९ ॥ निरन्तरद्वारमाह अवि यंत्रखुजपादेण पेल्लितो अंतरंगुलगतो वा। मुच्चेञ्ज कुलिंगादी, ण य कमणीपेल्लितो जियती ॥ ३८६० ॥ is कुशब्दस्येषदर्थवाचकतया असम्पूर्णानि लिङ्गानि-इन्द्रियाणि यस्यासौ कुलिङ्गी-विकलेन्द्रियः स आदिशब्दाद् मण्डूक्यादिश्च अनुपानकस्य पादेन प्रेरितः, 'अपि' इति सम्भावनायाम् , सम्भाव्यतेऽयमर्थः-यदामकुब्जं पादतलमध्यं तत्र तथा अन्तराङ्गुलम्-अङ्गुलीनामङ्गुष्ठस्य चापान्तरालं तत्र वा गतः सन् 'मुच्येत' न म्रियेत, सोपानकस्य तु निरन्तरभूमिस्पर्शिनीभिः क्रमणीमिः प्रेरितः-आक्रान्तो न जीवति, अवश्यं मरणमाप्नोतीत्यर्थः ॥ ३८६० ॥ 20 मूतोपघातद्वारमाह किंह भूयाणुवघातो, ण होहिती पगतिपेलवतणूणं । सभराहि पेल्लियाणं, कक्खडफासाहिँ कमणीहिं ।। ३८६१ ॥ 'कथं' केन प्रकारेण 'भूतानां' प्राणिनां प्रकृत्या-खभावेनैव पेलवतनूनाम्-अदृढशरीराणां 'सभाराभिः' पुरुषभाराक्रान्ताभिः कर्कशस्पर्शाभिः क्रमणीभिः प्रेरितानामुपघातो न भविष्यति ? ५ भविष्यत्येवेत्यर्थः । यत एते दोषा अतः क्रमणिका न परिधातव्याः । कारणे तु प्राप्ते परि• दध्यादपि ॥ ३८६१ ॥ किं पुनस्तत् कारणम् ? इत्याह विह अतराऽसहु संभम, कोट्ठाऽरिस चक्खुदुब्बले बाले । ___ अजा कारणजाते, कसिणग्गहणं अणुण्णायं ॥ ३८६२ ॥ _ विहं-अध्वा, अतरः-ग्लानः, असहिष्णुर्नाम-राजादिदीक्षितः सुकुमारपादः, सम्भ्रमः50 चौर-श्वापदादिसंक्षोभः, कुष्ठरोगी अर्शोरोगी चक्षुषा वा दुर्बलः कश्चिद् भवति, वालो वा यदि यत्र तत्र पादौ निक्षिपति, आर्या वा अध्वानं नीयन्ते, कारणजातं वा-कुल-गण-सङ्घविषयमुपस्थितम् । एतेषु कृत्स्नस्य चर्मणो ग्रहणमनुज्ञातमिति द्वारगाथासमासार्थः ॥ ३८६२ ॥ १न्दस्य कदर्थ मो० ले० ॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " गाथाः ३८५८-६६] तृतीय उद्देशः । अथैनामेव विवृणोति कंटा-हि-सीयरक्खट्ठता विहे खवुसमादि जा गहणं । ओसहपाण गिलाणे, अहुणुट्टियभेसयट्ठा वा ॥ ३८६३ ॥ 'विहे' अध्वनि प्रतिपद्यमाने कण्टकस्य अहेः शीतस्य च रक्षार्थमङ्गुलिकोशकं खल्लकादि वा गृह्णन्ति । किं बहुना ? खपुसामादौ कृत्वा यावदर्धजङ्घा-समस्तजङ्घयोरपि ग्रह्णम् । 5 तथा ग्लान औषधपानं कृत्वा वैद्योपदेशेन पृथिव्यां पादौ न स्थापयति । अधुनोत्थितो वा ग्लानः क्रमयोः क्रमणिके आविध्यति, मा शीतानुभावेन भक्तं न जरिष्यतीति कृत्वा । ग्लानस्य वा भेषजार्थं त्वरितं ग्रामान्तरं गन्तव्यम् ततः क्रमणिकाः पिनद्धव्याः ॥ ३८६३ ॥ ___ अरिसिल्लस्स व अरिसा, मा खुब्भे तेण बंधते कमणी । ____ असहुमवंताहरणं, पादो घट्ठो तु गिरिदेसे ॥ ३८६४ ॥ 10 अर्शोवतः पादतलदौर्बल्यादर्शासि मा क्षुभ्येरन्निति कृत्वा . क्रमणिके असौ बध्नाति । असहिष्णुर्नाम-मार्गे गच्छन्नुपानद्भिविना गन्तुं न शक्नोति, यदि गच्छति ततः पादाभ्यां रुधिरं परिगलति; अत्र अवन्तीसुकुमारोदाहरणं भवति, तच्चाऽऽवश्यकाद् (हारि० वृत्तिः पत्र ६७०) विज्ञेयम् ; स क्रमणिके बध्नीयात् । उदका-ऽमि-स्तेन-चापदादौ वा सम्भ्रमे क्रमणिकाः परिभोक्तव्याः । गिरिदेशे वा पर्यटतः कस्यापि पादतलं घृष्टं तत उपानही पिना पर्यटति ॥३८६४॥ib कुट्ठिस्स सकरादीहि वा वि भिण्णो कमो मधूला वा।। बालो असंफरो पुण, अजा विहि दोच पासादी ॥ ३८६५ ॥ कुष्ठिनः सम्बन्धी शोणित-पूयेन 'भिन्नः' स्फटितः क्रमः शर्करा-कण्टकादिभिराक्रान्तो महती पीडामुपजनयति, 'मधूला वा' पादगण्डं कस्यापि समजनि ततः क्रमणिके बध्नाति । बालो वा कश्चिद् 'असंस्फरः' असंवृतो यत्र तत्र पादं मुञ्चन् कण्टकादिभिरुपद्रयेत, अतोऽसौ क्रम-20 णिके परिधाप्यते । आर्या वा 'विधम्' अध्वानं नेतव्याः, तत्र च "दोच्च" ति चौरादिभयम् , ततो वृषभाः क्रमणिकाः पिनह्य पन्थानं मुक्त्वा पार्थस्थिता गच्छन्ति, आदिशब्दात् सर्वाणि वा तत्रोत्पथेन व्रजन्ति । यो वा चक्षुषा दुर्बलः स वैद्योपदेशेनोपानही पिनयति, यतः पादयोरभ्यङ्गनोपानद्वन्धनादिपरिकर्म यत् क्रियते तत् चक्षुष उपकाराय परिणमते । यत उक्तम् - दन्तानामञ्जनं श्रेष्ठं, कर्णानां दन्तधावनम् । 25 शिरोऽभ्यङ्गश्च पादानां, पादाभ्यङ्गश्च चक्षुषोः ॥ ॥ ३८६५ ॥ कारणजातद्वारमाह कुलमाइकज दंडिय, पासादी तुरियधावणट्ठा वा। कारणजाते वऽणे, सागारमसागरे जतणा ॥ ३८६६ ॥ कुलादिषु-कुल-गण-सङ्घविषयेषु कार्येषु दण्डिकावलगनार्थम् , पार्थस्थितैः आदिशब्दात् 30 पुरः पृष्ठतो वा गच्छद्भिः, त्वरितं वा धावनार्थम् , कारणजाते वा 'अन्यस्मिन्' आगाढे समु १ रक्खाए वा विहे तामा० ॥ २ अहेर्वातस्य मो० ले० । अहेर्वाअस्य त• डे० । नेद लेखकलिपिभ्रमनिष्पनं पाठभेदयुगलं समीचीनमिति ॥ ३°दर्शःक्षोभो मा भूदिति भा० ॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 १०६४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [चर्मप्रकृते सूत्रम् ६ त्पन्ने उपानहः परिभोक्तव्याः । तत्र च सागारिका-ऽसागारिकविषया यतना, यत्र सागारिकदोषो नास्ति तत्र नास्ति यतनाक्रमः, यत्र पुनः सागारिका उड्डाहं कुर्वन्ति तत्र ग्रामादिषु क्रमणिका अपनीय प्रविशन्तीति भावः ॥ ३८६६ ॥ एवमध्वादिषु कारणेषु कृत्स्नचर्मणो ग्रहणे प्राप्ते विधिमाह पंचविहम्मि वि कसिणे, किण्हग्गहणं तु पढमतो कुजा । किण्हम्मि असंतम्मि, विवण्णकसिणं तहिं कुज्जा ।। ३८६७॥ पञ्चविधे वर्णकृत्स्ने प्रथमतः कृष्णवर्णकृत्स्नग्रहणं कुर्यात् । ततः कृष्णे वर्णकृत्स्ने 'असति' अलभ्यमाने लोहितादिवर्णकृत्स्नमपि गृह्णीयात् । तच कृत्स्नमूष-तैलादिभिः 'विवर्ण' विरूपवर्ण कुर्याद् यथा लोको नोड्डाहं कुरुते आत्मनो वा न तत्र रागो भवति ॥ ३८६७ ॥ किण्हं पि गेण्हमाणो, झुसिरग्गहणं तु वजए साहू । बहुबंधणकसिणं पुण, वजेयव्वं पयत्तेणं ॥ ३८६८॥ कृष्णवर्णमपि गृह्णन् शुषिरग्रहणं साधुः प्रयत्नतो वर्जयेत् । अत्र पाठान्तरम्-"कसिणं पि गिण्हमाणो" त्ति, 'कृत्स्नं' सकलकृत्स्नं प्रमाणकृत्यं वा द्वितीयपदे गृह्णन् शुषिरग्रहणं साधु वर्जयेत् । यत्तु बहुबन्धनकृलं तत् प्रयत्नतो वर्जयितव्यम् ॥ ३८६८ ॥ 15 अथ किं तद् बन्धनम् ? इत्याशक्याह दोरेहि व वज्झेहि व, दुविहं तिविहं व बंधणं तस्स। अणुमोदण कारावण, पुवकतम्मि अधीकारो ॥ ३८६९ ॥ दवरकैर्वा वधैर्वा द्विविधं त्रिविधं वा बन्धनं तस्य चर्मणो भवति, द्वौ वा त्रयो वा बन्धा दातव्या इत्यर्थः । एवंविधं बन्धनकृत्स्नमनुज्ञातम् , न चतुरादिबहुबन्धनबद्धम् । तथा कृत्स्नमकृत्स्नं 20 वा चर्म साधुना खयं न कर्त्तव्यम् , अन्येन न कारापयितव्यम् , अन्यस्य कुर्वतो नानुमोदना कर्त्तव्या, किन्तु यत् पूर्वमेव गृहस्थैर्यथाभावेन कृतं तस्मिन् ‘अधिकारः' प्रयोजनम् , तस्य ग्रहणं कर्तव्यमिति भावः ॥ ३८६९ ॥ अथ द्वौ त्रयो वा बन्धाः कुत्र भवन्ति ? इति उच्यते खुलए एगो बधो, एगो पंचंगुलस्स दोण्णेते । खुलए एगो अंगुट बितिय चउरंगुले ततितो ॥ ३८७० ॥ 8 'खुलके' घुण्टके एको वध्रबन्धो भवति, 'एकस्तु' द्वितीयो बन्धः 'पञ्चाङ्गुलस्य चतसृणा__ मङ्गुलीनामङ्गुष्ठस्य चेत्यर्थः, एतौ द्वौ बन्धौ मन्तव्यौ । यदा तु त्रयो बन्धा भवन्ति तदा खुलके एकः अङ्गुष्ठे द्वितीयः चतसृणामङ्गुलीनां तृतीयः ।। ३८७० ॥ अथ खयकरणादिषु प्रायश्चित्तमाह सयकरणे चउलहुगा, परकरणे मासियं अणुग्घायं । अणुमोदणे वि लहुओ, तत्थ वि आणादिणो दोसा ॥ ३८७१ ॥ खयं यदि चर्म करोति तदा चतुर्लघवः । अथ परेण कारयति तदा मासिकमनुद्वातम् , १°णं पि य, व ताभा० ॥ २ भा० विनाऽन्यत्र-कृष्णवर्णमकृष्णमपि का० । कृत्स्नवर्णकष्णमपि मो० ले० । कृत्सवर्णकृत्स्नमपि ताटी० त० डे० ॥ ३"न्धा भवन्ति इ" भा० ॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाप्यगाथाः ३८६७-७५] तृतीय उद्देशः । १०६५ मासगुरुकमित्यर्थः । अनुमोदनायां मासलघु । तत्रापि स्वयङ्करणादावाज्ञादयो दोषा उड्डाहश्च भवति, तथाहि-तं संयतं खयमेव चर्म कुर्वाणं दृष्ट्वा लोको ब्रवीति-अहो ! चर्मकरोऽयमिति । अथ पूर्वकृतं न लभ्यते ततोऽनुमोदनया गृह्णीयात् । कथम् ? इति चेद् उच्यतेयदि कोऽपि ब्रूयात्-अहं ते उपानही करोमि ? ततः प्रतिशृणुयात् तूष्णीको वा तिष्ठेत् । अथाऽनुमोदनया न प्राप्यते ततोऽन्येन कारयेत् । एवमप्यलाभे आत्मनाऽपि यतनया । कुर्यात् ॥ ३८७१ ॥ ‘सूत्रम् कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अकसिणाई चम्माइं धारित्तए वा परिहरित्तए वा ६॥ ___ 'कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा [अकृत्स्नानि ] चर्माणि धारयितुं वा परिहर्तुं 10 वा इति सूत्रार्थः ॥ » अथ भाष्यम् अकसिणचम्मग्गहणे, लहुओ मासो उ दोस आणादी। बितियपद घेप्पमाणे, अट्ठारस जाव उक्कोसा ॥ ३८७२ ॥ यद्यपि सूत्रेऽनुज्ञातं तथापि न कल्पते अकृत्लचर्म प्रतिग्रहीतुम् । यदि गृह्णाति ततो लघुको मासः प्रायश्चित्तम् , आज्ञादयश्च दोषाः । 'द्वितीयपदे तु' पूर्वोक्तैरध्वादिभिः कारणैरकृत्ले गृह्य- 15 माणे विधिरभिधीयते । तत्र नोदकः प्राह-यद्यकृत्वं ग्रहीतुं कल्पते ततो द्वयोरुपानहोरुस्कपतोऽष्टादश खण्डानि यावत् कर्तव्यानि ॥ ३८७२ ॥ इदमेव व्याचष्टे अकसिणमट्ठारसगं, एगपुड विवण्ण एगबंधं च । तं कारणम्मि कप्पति, णिकारण धारणे लहुओ ॥ ३८७३ ॥ अकृत्स्नं नाम 'अष्टादशकम्' अष्टादशभिः खण्डैः कृतम् १ तदपि एकपुटम्' एकतलं २ 20 'विवर्ण' न वर्णाढ्यं ३ 'एकबन्धं च' न यादिबन्धनोपेतम् ४, एभिश्चतुर्भिः पदैर्यथाक्रमं सकलप्रमाण-वर्ण-बन्धनैः कृत्स्नता परिहृता । तदेवंविधमकृत्स्नं चर्म कारणे धारयितुं कल्पते । अथ निष्कारणे धारयति ततो लघुमासः । एषा पुरातना गाथा ॥३८७३॥ अथैनां व्याख्याति जइ अकसिणस्स गहणं, भाए काउं कमेण अहदस । एगपुड-विवण्णेहि य, तहिं तहिं बंधते कजे ॥ ३८७४ ॥ यद्यकृत्स्नस्य चर्मणो ग्रहणं कर्त्तव्यं तत उपानहावष्टादश भागान् वक्ष्यमाणक्रमेण कृत्वा तैः खण्डैरेकपुटैर्विवर्णैः चशब्दादेकबन्धैश्च यत्र यत्र पादप्रदेशे आबाधा तत्र तत्र कार्ये समुत्पन्ने बनीयात् ॥ ३८७४ ॥ कथं पुनरष्टादश खण्डानि भवन्ति ? इत्युच्यते पंचंगुल पत्तेयं, अंगुट्ठमज्झे य छट्ठ खण्डं तु । सत्तममग्गतलम्मी, मज्झऽट्ठम पण्हिया णवमं ॥ ३८७५ ॥ १॥ एतदन्तर्गतः पाठः भा० नास्ति ॥ २ अत्र भा° भा० ॥ ३°कृष्ण त्र भा० ॥ ४ ततो मासलघु प्रा कां० ॥ ५ कृष्णे गृ° भा० कां० त० ॥६ कृष्णं ग्र° भा० ॥ ॥ ३४७५ ॥ 30 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६६ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ चर्मप्रकृते सूत्रम् ६ इद्दैकस्य पादस्य पञ्चानामङ्गुलीनां बन्धनाय प्रत्येकमेकैकं खण्डं कर्त्तव्यम् अङ्गुष्ठस्य चाधः षष्ठं खण्डम्, अग्रतले सप्तमम्, मध्यतलेऽष्टमम्, पाष्णिकायां नवमम् एवं द्वितीयस्याप्युपानहो नव खण्डानि, सर्वाण्यप्येवमष्टादश खण्डानि भवन्ति ।। ३८७५ ।। 15 एवं परेणोक्ते सति सूरिराह - एतावतां खण्डानां ग्रहणे मासलघु प्रायश्चित्तम्, असामाचारी निष्पन्नमित्यर्थः । मुच्यमानेषु चैतावत्सु खण्डेषु महान् सूत्रार्थयोः परिमन्थो भवति । आह - यद्येवं ततः किन्ति खण्ड क्रियन्ते ? इत्याह- द्वितीयपदे यदा चर्म गृह्यते तदा मध्यप्रतिबद्धे द्वे खण्डे कर्त्तव्ये, मध्य10 भागात् त्रोटयित्वा खण्डद्वयं विधाय मध्ये वर्धादिना बन्धनीयमित्यर्थः । अत्र पूर्वार्द्धस्येदं पाठान्तरम् - "मुचंते पलिमंथो, जत्तियमित्तं तु तत्तिए गहणं ।" अष्टादश खण्डानि मुञ्चति साधोर्महान् पलिमन्थः, ततो यावन्मात्रमपरिमन्थाय भवति तावन्मात्रं ग्रहीतव्यम् । उत्तरार्द्ध प्राग्वत् ॥ ३८७६ ॥ अथाष्टादशानां खण्डानां करणे कीदृशः परिमन्थो भवति : इत्याहपडिलेहा पलिमंथो, णदिमादुदए य मंच बंधते । सत्थफिडणेण तेणा, अंतरवेधो य डंकणता ॥ ३८७७ ॥ एवइयाणं गहणे, मासो मुच्चति होति पलिमंथो । विपद घेपमाणे दो खंडा मज्झडिबंधा ॥ ३८७६ ॥ यावदष्टादश खण्डानि द्विसन्ध्यं प्रत्युपेक्षते तावत् सूत्रार्थयोः परिमन्थो भवति । नद्याद्युदकमवतितीर्षुश्च यावदष्टादश खण्डानि मुञ्चति उत्तीर्णश्च यावत् तानि भूयोऽपि बध्नाति तावत् सार्थात्. स्फिटति, स्फिटितश्च स्तेनानां गम्यो भवति । बहूनां खण्डानामन्तरेषु च कण्टकैर्विध्येत । बहुबन्धघर्षेण वा पादयोर्डको भवेत् । यत एवमतः पूर्वोक्तनीत्या खण्डद्वयं विधेयम् 20॥ ३८७७ ॥ कथं पुनस्तद् बन्धनीयम् ? इत्याह तज्जायमतञ्जायं, दुविहं तिविहं व बंधणं तस्स । जामि वि लहुओ, तत्थ वि आणादिणो दोसा || ३८७८ ॥ 'तस्य' चर्मखण्डद्वयस्य तज्जातं वा बन्धनं भवति अतज्जातं वा बन्धनं भवति । तज्जातं नाम तस्मिन् चर्मणि जातम् वर्धादिबन्धनमित्यर्थः, तद्विपरीतं दवरकादिकमतज्जातम् । 25 एतच्च द्विविधं त्रिविधं वा भवति, द्वौ वा त्रयो वा बन्धा दातव्या इति भावः । अत्र प्रथममतज्जातेन दवरकादिना बन्धनीयम् । यदि तज्जातेन वर्षादिना बध्नाति ततो मासलघु, तत्राप्याज्ञादयो दोषा भवन्ति ॥ ३८७८ ॥ ॥ चर्मप्रकृतं समाप्तम् ॥ १ एतदन्तर्गतः पाठः भा० नास्ति ॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाप्यगाथाः ३८७६-८२] तृतीय उद्देशः । १०६७ कृत्स्ना कृ त्स्न व स्त्र प्र कृ त म्। सूत्रम् नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा कसिणाई वत्थाई धारित्तए वा परिहरित्तए वा । कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अकसिणाई । वस्थाई धारित्तए वा परिहरित्तए वा ७॥ अस्य सम्बन्धमाह पडिसिद्धं खलु कसिणं, चम्मं वत्थकसिणं पि णेच्छामो । अववादियं तु चम्म, ण वत्थमिति जोगणाणत्तं ॥ ३८७९ ॥ प्रतिषिद्धं खल्वनन्तरसूत्रे चर्मकृत्स्नम् , यथा च तन्न कल्पते तथा वस्त्रकृत्स्नमपि नेच्छामः 10 प्रतिग्रहीतुम् । यद्वा पूर्वसूत्रे चर्म आपवादिकमुक्तम् , इदं तु वस्त्रं नापवादिकं किन्तु सदैव साधुभिः परिभुज्यमानत्वेनौत्सर्गिकम् , अत इदं प्रतिपक्षतया सूत्रमारभ्यते इति योगस्य-सम्बन्धस्य नानात्वं-प्रकारान्तरतेत्यर्थः ॥ ३८७९ ॥ अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या- "नो कप्पई" त्ति आर्षत्वादेकवचनम् , नो कल्पन्ते निम्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा » 'कृत्स्नानि' सकलंकृत्स्नादिरूपाणि वस्त्राणि 'धारयितुं 15 वा' परिग्रहे धतुं 'परिहत्तुं वा' परिभोक्तुम् , अकृत्स्नानि तु कल्पन्त इति सूत्रसङ्केपार्थः । अथ नियुक्ति-भाष्यविस्तरः कसिणम्म उ वत्थरमा, णिक्खेवो छबिहो तु कातन्त्रो। नाम ठवणा दविए, खेचे काले य भावे य ॥ ३८८० ॥ _कृत्वस्य वस्त्रस्य निक्षेपः षड्विधः कर्तव्यः । तद्यथा-नामकृत्स्नं १ स्थापनाकृत्स्नं २ द्रव्य-30 कृत्वं ३ क्षेत्रकृत्स्नं ४ कालकृत्स्नं ५ भावकृत्स्नं ६ चेति । तत्र नाम-स्थापने गतार्थे ॥३८८०॥ द्रव्यकृत्स्नमाह-- दुविहं तु दव्वकसिणं, सकलक्कसिणं पमाणकसिणं च । एतेसिं दोण्हं पी, पत्तेय परूवणं वोच्छं ॥ ३८८१॥ 'द्विविधं' द्विप्रकारं द्रव्यकृत्स्नम् , तद्यथा-सकलकृत्वं प्रमाणकृत्वं चेति । एतयोर्द्वयोरपि 35 'प्रत्येकं' पृथक् प्ररूपणां वक्ष्ये ॥ ३८८१ ॥ प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति घण मसिणं णिरुवहयं, जं वत्थं लब्भते सदसियागं । एतं तु सकलकसिणं, जहण्णगं मज्झिमुक्कोसं ॥ ३८८२ ।। १ एतदन्तर्गतः पाठः भा० नास्ति ॥ २ भा० ताटी० विनाऽन्यत्र-°लरूपा त० डे. मो. ले० । 'लकृत्स्नरूपा का० ॥ ३°क्तं न कल्पते(न्ते), अकृ° भा० ॥ ४°सिगायं भा०॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [कृत्स्वाकृत्तप्रकृते सूत्रम् ७ 'धनं' तन्तुभिः सान्द्रं 'मसृणं' सुकुमारस्पर्श 'निरुपहतम्' अञ्जन-खञ्जनादिदोषरहितम् , एवंविधं यद् वस्त्रं सदशाकं लभ्यते एतत् सकलकृत्स्नमुच्यते । तच्च जघन्यं मध्यममुत्कृष्टं वा ज्ञातव्यम् । जघन्यं मुखपोतिकादि, मध्यमं पटलकादि, उत्कृष्टं कल्पादि ॥ ३८८२ ।। वित्थारा-ऽऽयामेणं, जं वत्थं लब्भए समतिरेगे। ___ एयं पमाणकसिणं, जहण्णयं मज्झिमुक्कोसं ॥ ३८८३ ॥ विस्तारश्च-पृथुत्वं आयामश्च-दैर्ध्य विस्तारा-ऽऽयामम् , द्वन्द्वैकवद्भावः, तेन, यद् वस्त्रं यथोक्तप्रमाणतः समतिरिक्तं लभ्यते एतत् प्रमाणकृत्वं भण्यते । तच्च जघन्य-मध्यमोत्कृष्टभेदात् त्रिविधं प्राग्वद् द्रष्टव्यम् ॥ ३८८३ । क्षेत्रकृत्स्नमाह जं वत्थ जम्मि देसम्मि दुल्लहं अचियं व जं जत्थ । तं खित्तजयं कसिणं, जहण्णयं मज्झिमुक्कोसं ॥ ३८८४ ॥ यद् वस्त्रं यस्मिन् देशे' दुर्लभम् , यत्र वा यद् 'अर्चितं' सुमहाघम् , यथा-पूर्वदेशजं वस्त्रं लाटविषयं प्राप्य महाय॑म् , तत् क्षेत्रयुतं कृत्स्नमुच्यते, क्षेत्रकृत्स्नमित्यर्थः । तदपि जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदात् त्रिविधम् ॥ ३८८४ ॥ कालकृत्स्नमाह जं वत्थ जम्मि कालम्मि अग्घितं दुल्लभं व जं जत्थ । तं कालजुतं कसिणं, जहण्णयं मज्झिमुक्कोसं ॥ ३८८५ ॥ यद् वस्त्रं यस्मिन् काले 'अर्पितं' बहुमूल्यम् , यच्च यत्र दुर्लभम् , यथा-ग्रीष्मे काषायिकादि, शिशिरे प्रावारादि, वर्षासु कुङ्कुमखचितादि, तदेतत् कालकृत्स्नम् । एतदपि जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदात् त्रिविधम् ॥ ३८८५ ॥ भावकृत्स्नमाह दुविहं च भावकसिणं, वण्णजुतं चेर्वे होति मोल्लजुयं । वण्णजयं पंचविहं, तिविहं पुण होइ मोल्लजुतं ॥ ३८८६ ॥ द्विविधं च भावकृत्स्नम् , तद्यथा-वर्णयुतं मूल्ययुतं च, वर्णतो मूल्यतश्चेत्यर्थः । तत्र वर्णयुतं 'पञ्चविधं कृष्णादिवर्णभेदात् पञ्चप्रकारम् । मूल्ययुतं पुनः 'त्रिविधं' जघन्यादिभेदात् त्रिप्रकारम् ॥ ३८८६ ॥ इदमेव स्पष्टयति पंचण्हं वण्णाणं, अण्णतराएण जं तु वण्णहूँ । [आव.नि. ७३१] तं वण्णजुयं कसिणं, जहण्णयं मज्झिमुक्कोसं ॥ ३८८७ ॥ 'पञ्चानां' कृष्णादीनां वर्णानामन्यतरेण वर्णेन यद् आत्यं-समृद्धं तदेतद् वर्णयुतं कृत्यमुच्यते । इदमपि जघन्यं मध्यममुत्कृष्टं चेति । मूल्ययुतं सभेदमप्युपरि वक्ष्यते ॥ ३८८७ ॥ अथानन्तरोक्तकृत्स्नेषु प्रायश्चित्तमाह-- चाउम्मासुकोसे, मासो मज्झे य पंच य जहण्णे । तिविहम्मि वि वत्थम्मि, तिविधा आरोवणा भणिया ॥ ३८८८ ॥ १म्मि अच्चियं दुल्लहं व जं भा० । एतदनुसारेणेव भा० टीका । दृश्यतां टिप्पणी २ ॥ २ शेऽ. र्चितं यत्र वा यद् 'दुर्लभं' सुम° भा० ॥ ३ जं जं तु जम्मि ताभा ॥ ४°च तह य मो° ताभा० ॥ ५°मृद्धं तद् व भा० का ताटीविना ॥ 25 30 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३८८३-९४] तृतीय उद्देशः । १०६९ 'उत्कृष्टे' कल्यादौ कृत्स्ने चतुर्लघवः । 'मध्यमे' पटलकादौ लघुमासः । 'जघन्ये' मुखवस्त्रिकादौ पञ्चरात्रिन्दिवानि । एवं त्रिविधेऽपि कृत्स्न वस्त्रे यथाक्रमं त्रिविधा आरोपणा भणिता ॥३८८८।। दव्याइतिविहकसिणे, एसा आरोवणा भवे तिविहा । एसेव वण्णकसिणे, चउरो लहुगा व तिविधे वि ॥ ३८८९ ॥ एषा च त्रिविधाऽप्यारोपणा द्रव्यादौ त्रिविधकृत्स्ने भवति, द्रव्यकृत्स्ने» क्षेत्रकृत्ले काल-3 कृत्स्ने चेत्यर्थः । एषैव च वर्णकृत्स्नेऽपि मन्तव्या । अथवा वर्णकृत्ले जघन्यादिभेदात् त्रिविधेऽपि चतुर्लघुकमेव । नवरं तपः-कालविशेषोऽत्र क्रियते--उत्कृष्टे यत् चतुर्लघु तत् तपसा कालेन च गुरुकम् , मध्यमे तदेव तपोगुरुकम् , जघन्ये कालगुरुकम् ; यद्वा उत्कृष्टे द्वाभ्यां गुरुकम् , मध्यमेऽन्यतरगुरुकम् , जघन्ये द्वाभ्यामपि लघुकम् ॥३८८९॥ अथ मूल्ययुतं व्याख्यानयतिमुल्लजुयं पि य तिविहं, जहण्णगं मज्झिमं च उक्कोसं । 10 जहण्णेणऽद्वारसगं, सतसाहस्सं च उक्कोसं ॥ ३८९० ॥ मूल्ययुतमपि कृत्यं त्रिविधम् - जघन्यं मध्यममुत्कृष्टं च । यस्य रूपकाणामष्टादशकं मूल्यं तद् जघन्यम् , शतसहस्ररूपकमूल्यमुत्कृष्टम् , शेषमष्टादशकादूई शतसहस्रादर्वाग्मूल्यलभ्यं सर्वमपि मध्यमम् ॥ ३८९० ॥ अथ कतमेन रूपकेणेदं प्रमाणं निरूप्यते ? इत्याहदो साभरगा दीविचगा तु सो उत्तरापथे एको। 15 दो उत्तरापहा पुण, पाडलिपुत्तो हवति एको ॥ ३८९१ ॥ 'द्वीपं नाम' सुराष्ट्राया दक्षिणस्यां दिशि समुद्रमवगाह्य यद् वर्त्तते तदीयौ द्वौ 'साभरको रूपकौ स उत्तरापथे एको रूपको भवति । द्वौ च उत्तरापथरूपको पाटलिपुत्रक एको रूपको भवति ॥ ३८९१ ॥ अथवा दो दक्षिणावहाँ तू, कंचीए णेलओ स दुगुणो य ।। एगो कुसुमणगरगो, तेण पमाणं इमं होति ॥ ३८९२ ॥ दक्षिणापथौ द्वौ रूपको काञ्चीपुर्या द्रविडविषयप्रतिबद्धाया एकः 'नेलकः' रूपको भवति । 'सः' काञ्चीपुरीरूपको द्विगुणितः सन् कुसुमनगरसत्क एको रूपको भवति । कुसुमपुरं पाटलिपुत्रमभिधीयते । 'तेन च' रूपकेणेदमनन्तरोक्तमष्टादशकादिप्रमाणं प्रतिपत्तव्यं । भवति ॥ ३८९२ ।। अथ मूल्यवृद्ध्या प्रायश्चित्तवृद्धिमुपदर्शयति अट्ठारस वीसा या, अगुणापण्णा य पंच य सयाई । एगूणगं सहस्सं, दस पण्णासं सतसहस्सं ॥ ३८९३ ॥ चत्तारि छच्च लहु गुरु, छेदो मूलं च होइ बोद्धव्वं । अणवटुप्पो य तहा, पावति पारंचियं ठाणं ॥ ३८९४ ॥ अष्टादशरूपकमूल्यं वस्त्रं गृह्णाति चत्वारो लघवः । विंशतिरूपकमूल्ये चत्वारो गुरवः । 30 एकोनपञ्चाशन्मूल्ये षड्लघवः । पञ्चशतमूल्ये षड्गुरवः । एकोनसहस्रमूल्ये छेदः । दशसहस्र १ > एतदन्तर्गतः पाठः भा० का० एव वर्तते ॥ २ °रावहो ए° ताभा० ॥ ३°हा वा, कंचीए णेलओ हवह एको ताभ! ॥ ४॥ एतदन्तर्गतः पाठः भा० कां० एव वर्तते ॥ 25 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ कृत्स्नाकृत्स्नप्रकृते सूत्रम् ७ मूल्ये » मूलम् । पञ्चाशत्सहस्रमूल्येऽनवस्थाप्यम् । शतसहस्रमूल्ये पाराच्चिकं स्थान प्राप्नोति ॥ ३८९३ ॥ ३८९४ ॥ प्रकारान्तरेणात्रैव प्रायश्चित्तमाह - अट्ठारस वीसा या, सयमड्डाइज पंच य सयाई। सहसं च दससहस्सा, पण्णास तधा सतसहस्सं ॥ ३८९५ ॥ लहुगो लहुगा गुरुगा, छम्मासा होंति लहुग गुरुगा य । छेदो मूलं च तहा, अणवढप्पो य पारंची ॥ ३८९६ ॥ अष्टादशरूपकमूल्ये वस्त्रे गृह्यमाणे लघुमासः । विंशतिमूल्ये चतुर्लघवः । शतमूल्ये चतुर्गुरवः । अर्घतृतीयशतमूल्ये षड्लघवः । पञ्चशतमूल्ये षड्गुरवः । सहस्रमूल्ये छेदः । दशसहस्रमूल्ये मूलम् । पञ्चाशत्सहस्रमूल्येऽनवस्थाप्यम् । शतसहस्रमूल्ये पाराञ्चिकम् ।। ३८९५ ।। ३८९६ ॥ 10 अथवा अट्ठारस वीसा या, पण्णास तधा सयं सहस्सं च । पण्णासं च सहस्सा, तत्तो य भवे सयसहस्सं ॥ ३८९७ ॥ चउगुरुग छच्च लहु गुरु, छेदो मूलं च होति बोद्धव्वं । अणवठ्ठप्पो य तहा, पावति पारंचियं ठाणं ॥ ३८९८ ।। 15 अष्टादशरूपकमूल्ये चतुर्गुरवः । विंशतिमूल्ये पड्लघवः । पञ्चाशन्मूल्ये षड्गुरवः । शत मूल्ये छेदः । सहस्रमूल्ये मूलम् । पञ्चाशत्सहस्रमूल्येऽनवस्थाप्यम् । शतसहस्रमूल्ये पाराञ्चिकम् ॥ ३८९७ ।। ३८९८ ॥ प्रकारान्तरेण भावकृत्स्नमुपदर्शयति अहवा रागसहगतो, वत्थं धारेति दोससहितो वा । एवं तु भावकसिणं, तिविहं परिणामणिप्फण्णं ॥ ३८९९ ॥ 20 अथवा 'अहो! रमणीयं वस्त्रम्' इत्येवं रागसहगतो यद्वा 'अहो! मे मलिनं कुथितं वस्त्रम्' इत्येवं द्वेषसहितो यद् वस्त्रं धारयति तदेतद् भावकृत्रं मन्तव्यम् । इदं च परिणामनिष्पन्नं त्रिविधम् , तद्यथा--जघन्येन राग-द्वेषपरिणामेन जघन्यम् , मध्यमेन मध्यमम् , उत्कृष्टेनोत्कृष्टम् ॥ ३८९९ ॥ अथ द्रव्यादिकृत्लेषु दोषानाह भारो भय परियावण, मारण अहिगरण दव्वकसिणम्मि । पडिलेहाऽऽणालोवो, मणसंतावो उवायाणं ॥ ३९०० ॥ प्रमाणातिरिक्तं वस्त्रं वहत आत्मन एव भारो भवति, अध्वप्रपन्नानां सकलकृत्स्नादौ स्तेनेभ्यो भयं भवेत् , ते च साधूनां बन्धनादिरूपं परितापनं मारणं वा कृत्वा तादृशं वस्त्रमपहरेयुः, अविरतकैश्च गृहीतेऽधिकरणं भवेत् , एते द्रव्यकृत्स्ने गृह्यमाणे दोषाः । तथा 'क्षेत्र-काल कृत्स्नोपधिं मा सागारिको द्राक्षीत्' इति कृत्वा यदि न प्रत्युपेक्षन्ते तत उपधिनिष्पन्नं तीर्थकृतां 30 चाज्ञालोपः कृतो भवति । अथ प्रत्युपेक्षन्ते ततः स्तेनास्तादृशं वस्त्रं दृष्ट्वा हरेयुः, पन्थानं वा बड्वा तिष्ठेयुः । हृते च तस्मिन् महान् मनःसन्तापो भवति । यद्वा तत् कृत्वं वस्त्रं शैक्षस्योत्प्रव्रजितुकामस्योपादानं भवति, तदपढ्त्योत्प्रवदित्यर्थः ॥ ३९०० ॥ १ पडिलेही नालोगो, मणसंतायो य आया ताभा० ॥ 26 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३८९५-३९०४) तृतीय उद्देशः । १०७१ गहणं च गोम्मिएहिं, परितावण धोव कम्मबंधो य । अन्ने वि तत्थ रुंभइ, तेणक ते वा अहव अन्ने ॥ ३९०१॥ कृत्स्नवस्त्रनिमित्तं 'गौल्मिकैः' शुल्कपालैर्ग्रहणं प्राप्नुवन्ति, 'कुतोऽमीषामीदृशानि वस्त्राणि ? नूनं कस्यापि गृहादपहृतानि' इति कृत्वा । ते च गृहीत्वा बन्धनादिभिः परितापनां कुर्वन्ति, ततस्तानि वस्त्राण्यपहृत्य प्रावृण्वन्ति, मलिनीभूतानि च तानि धावन्ति । तत्र कर्मबन्धस्तावद् । भवति यावत् तस्मात् स्थानान्न प्रतिक्रामति । यद्वा "परितावण धोव्व कम्मबंधो य" त्ति प्रमा. णातिरिक्तवस्त्राणि धावनकाले महता प्रयासेन धान्यन्ते, तत्र परितापनादयो दोषाः । प्रभूतेन च पानकेन वस्त्रधावनेऽनुपदेशकारितया कर्मबन्धो भवति । तथा गौल्मिका अन्यानपि साधून् निरुन्धन्ति, सर्वेषामपीहशानि वस्त्राणि सन्तीति कृत्वा । 'त एव च' गौल्मिका अपरेण मार्गेण गत्वा स्तेनका भवन्ति, अथवा तैः प्रेरिताः सन्तोऽन्येऽपहरन्ति ॥ ३९०१॥ 10 भावकसिणम्मि दोसा, ते चेव उ नवरि तेणदिलुतो।। देसी गिलाण जावोग्गहो उ दव्यम्मि वितियपयं ॥ ३९०२ ॥ 'भावकृत्स्नेऽपि' वर्णयुत-मूल्ययुतलक्षणे 'त एव' भार-भय-परितापनादयो दोषाः । 'नवरं' केवलमत्र स्तेनदृष्टान्तो भवति, स चानन्तरमेव वक्ष्यते । कारणे तु प्राप्ते कृत्स्नमपि गृह्णीयात् । कथम् ? इत्याह-"देसी" इत्यादि । देशविशेष ग्लानं वा प्रतीत्य सकलकृत्लं प्रमाणकृत्लं 15 वा गृह्णीयात् । आचार्या वा कुलादिकार्येषु निर्गताः ततः "जावोग्गहो" ति यावत् तेषां समीपे वस्त्रस्यावग्रहो नानुज्ञापितस्तावत् तस्य दशिका न वि(छि)द्यन्ते इत्येवमत्र द्रव्यकृत्स्ने द्वितीयपदं मन्तव्यमिति सङ्घहगाथासमासार्थः ॥ ३९०२ ॥ अथैनामेव विवरीषुः स्तेनदृष्टान्तमाह उवसामिओ णरिंदो, कंबलरयणेहिँ छंदए गच्छं। णिबंध एगगहणं, णिववयणे पाउतो णीति ॥ ३९०३ ॥ 20 तेणाऽऽलोग णिसिजा, रत्तिं तेणागमो गुरुग्गहणं । दरिसणमपत्तियंते, सिव्वावणया य रोसेणं ।। ३९०४ ॥ एगेणं आयरिएणं धम्मकहालद्धिसंपन्नेणं राया उबसामिओ । सो सव्वं गच्छं कंबलरयणेहिं पडिलाभिउ उवट्टिओ आयरिएहिं निसिद्धो-न वट्टइ एयारिसं मुल्लकसिणं गिहिउँ ति । तहा वि अतिनिबंधेणं एगं गहियं । राया भणइ-पाउया हट्टमग्गेणं गच्छह । तहा कयं । तेणगेण 25 दिट्टा । तेहिं वसहिं आगंतुं निसिज्जाओ कयाओ । सो तेणओ रतिं आगंतुं आयरियाणं उवरि छुरियं कड्डिऊण भणइ-देहि मे तं वत्थं, अन्नहा मारिस्सामि । ते भणति —इमाणि खंडाणि अस्थि । सो भणाइ–सिव्वित्ता मे देह, अन्नहा ते उद्दविस्सामि । तेहिं सिव्वित्ता दिन्नं ॥ ___ अथ गाथाद्वयस्याक्षरार्थः–केन चिदाचार्येणोपशामितो नरेन्द्रः कम्बलरैनैर्गच्छं 'छन्दयति' निमन्त्रयते । तत आचार्यों महति निर्बन्धे एकस्य कम्बलरत्नस्य ग्रहणं कृत्वा नृपवचनात् तेन 30 प्रावृतो निर्गच्छति । ततः स्तेनेन 'आलोकः' अवलोकनं कृतम् । आचार्यश्च वसतिमागम्य १यणेण छं° भा० ॥२ °यणेणं प° भा० ॥ ३ °रत्नेन गच्छ भा० कां ॥ कृत्वा आचा भा० कां. विना॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७२ सनियुक्ति-लधुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [कृत्स्नाकृत्स्नप्रकृते सूत्रम् ७ कम्बलरत्नेन निषद्याः कृताः । रात्रौ स्तेनस्यागमः । गुरोश्च तेन छुरिकामाकृप्य ग्रहणं कृत्वा भणितम् ----प्रयच्छत मम तत् कम्बलग्नम् । सूरिक्तिम्---खण्डितं तदस्माभिः । स प्राह-दर्शयत । ततस्तत्र 'अप्रत्ययति' प्रत्ययमकुर्वाणे खण्डानां दर्शनम् । रोषाच तेन भूयः सीवनं कारयित्वा कम्बलरत्नं गृहीतम् । यत एवमादयः कृत्स्ने दोषाः अतो द्रव्यतः स्थूरम5 दशाकं यथोक्तप्रमाणोपेतं क्षेत्रतः कालतश्च सर्वजनभोग्यं भावतो वर्णहीनमल्पमूल्यं च वस्त्रं ग्रहीतव्यम् ॥ ३९०३ ॥ ३९०४ ॥ अथ द्वितीयपदं बिभावयिषुः सङ्घहगाथोक्तं देशीपदं व्याख्यानयति न पारदोच्चा गरिहा व लोए, थूणाइएसुं विहरिज एवं । भोगाऽइरित्ताऽऽरभडा विभूसा, कप्पेजमिच्चेव दसाउ तत्थ ॥३९०५॥ 10 "पारदोच्च" त्ति चौरभयं तद् यत्र नास्ति, यत्र च तथाविध वस्त्रे प्राब्रियमाणे लोके गर्दा नोपजायते तत्र स्थूणादिविषयेषु एवं' सकलकृत्वमपि वस्त्रं प्रावृत्य विहरेत् , परं तस्य दशाश्छेत्तव्याः । कुतः ? इत्याह-"भोग" त्ति तासां दशानां शुषिरतया परिभोगः कर्तुं न कल्पते, अतिरिक्तश्चोपधिर्भवति, प्रत्युपेक्ष्यमाणे च दशिकाभिरारभडादोषाः, विभूषा च सदशाके वस्त्रे प्रात्रियमाणे भवति । 'इत्येवम्' एभिः कारणैस्तत्र दशाः 'कल्पयेत्' छिन्द्यात् ॥३९०५॥ 15 कारणतो न छिन्द्यादपीति दर्शयति पासगंतेसु बद्धेसु, दढं होहिति तेण तु । णातिदिग्घदसं वा वि, ण तं छिंदिज देसिओ ॥ ३९०६ ॥ किञ्चिद् वस्त्रं प्रथमत एव दुर्बलम् ततः पार्का-ऽन्तेषु दशिकाभिर्बद्धेषु 'दृढ' चिरकालवहनक्षमं भविष्यतीति कृत्वा तेन कारणेन दशिकास्तस्य न कल्पयेत् । यद्वा 'देशीतः' 20 सिन्ध्वादिदेशमाश्रित्य यन्नातिदीर्घदशाकं वस्त्रं तन्न छिन्द्यात् , तस्य दशिका न कल्पयितव्या इति भावः ।। ३९०६ ॥ अथ ग्लानद्वारं व्याचष्टे असंफुरगिलाणट्ठा, तेण माणाधियं सिया। सदसं वेजकज्जे वा, विसकुंभट्टयाति वा ॥ ३९०७ ॥ असंस्फरो नाम-ग्लानो यः क्षीणबलतया सङ्कुचितपादः खप्तुं न शक्नोति, ५ तेस्य प्रमाण25 युक्तं वस्त्रं प्राब्रियमाणं इसति, तेन » तदर्थं 'मानाधिकमपि' प्रमाणातिरिक्तमपि वस्त्रं स्यात् । यद्वा ग्लानचिकित्सको यो वैद्यः 'तत्कार्ये' तस्य दानार्थम् , अथवा दीर्घजातीयेन कश्चिद् दष्टो भवेत् ततस्तस्य 'विद्याकार्ये' विद्यायां प्रयुज्यमानायामपमार्जनाय सदशं वस्त्रमुपयुज्यते । विषकुम्भः-स्फोटिकाविशेषस्तस्यापमार्जनाय वा सदशं वस्त्रं ग्रहीतव्यम् ॥ ३९०७ ॥ ___ अथ यावदवग्रहद्वारमाह अविभत्ता ण छिजंति, लाभो छिजिज मा खलु । पारदोच्चाववादस्स, पडिपक्खो व होज उ ॥ ३९०८ ॥ आचार्याः कुलादिकार्येषु निर्गतास्ततो यावदद्यापि तैः प्रतिनिवृत्य वस्त्राणि न विभक्तानि १ नकृतं भवि भा० का विना ॥ २२!» एनदन्तर्गतः पाठः भा० नास्ति ॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३९०५-१२] तृतीय उद्देशः । १०७३ तावत् तानि प्रमाणातिरिक्तान्यपि न छिद्यन्ते, ‘मा खलु लाभश्छिद्यत्' मा भूयो वस्त्रलाभव्यवच्छेदो भवेदिति भावः । तथा "न पारदुच्चा" (गा० ३९०५ ) इत्यादिना स्थूणादौ विषये यत् कृत्स्नवस्त्राणां प्रावरणमनुज्ञातमेष पारदुच्चापवादो भण्यते । यत्तु 'तेषां कृत्स्नवस्त्राणां दशाः परिभोगा-ऽतिरिक्तादिदोषपरिहारार्थ छेत्तव्याः' (गा० ३९०५) इत्युक्तम् एष तस्य पारदोच्चापवादस्य प्रतिपक्ष उच्यते स चात्र यावदवग्रहद्वारे भवेत् , अविभक्तानामपि तेषां वस्त्राणां दशिकाश्छेत्तव्या इति भावः ॥ ३९०८ ।। अक्वायाववादो वा, एत्थ जुजइ कारणे । सहाणं व तमब्भेति, अच्छिजं जं उदाहडं ॥ ३९०९ ॥ अपवादापवादो वा अत्र कारणे युज्यते । किमुक्तं भवति ?-'स्थूणाविषयादि प्रतीत्य यत् कृत्स्नं वस्त्रं कल्पते' एष तावदपवादः, यत्तु तत्र 'दशिकाश्छेत्तव्याः' इत्युक्तम् एष भूयोऽपि 10 तत्रापवादे उत्सर्गो मन्तव्यः, अयमप्यपोद्यते-यदा 'तत् पाश्र्वान्तेषु दशिकाभिर्बद्धेषु दृढं भविष्यति' इति मत्वा सिन्धुविषये वा नातिदीर्घदशाकस्य वस्त्रस्य यद् दशा अपि न छिद्यन्ते, एतेनापवादे य उत्सर्गः सोऽप्यपोदित इति कृत्वा अपवादापवाद उच्यते, सोऽप्यत्र घटते । एवं च 'खस्थानं वा' कृत्स्नत्वमेव 'तद्' वस्त्रम् 'अभ्येति' प्रामोति यद् 'अच्छेद्यम्' अच्छेदनीयम् 'उदाहृतम्' उक्तम् । इयमत्र भावना-प्रमाणातिरिक्तं दशिकाश्च यस्य न छिद्यन्ते तत् 15 कृत्स्नमेव ज्ञातव्यं नाकृत्स्नमिति ॥ ३९०९ ॥ गतं द्रव्यकृल्ले द्वितीयपदम् । अथ भावकृत्स्ने द्वितीयपदमाह देसी गिलाण जावोग्गहो उ भावम्मि होति वितियपदं । तब्भाविते य तत्तो, ओमादिउवग्गहट्ठा वा ।। ३९१० ॥ देशी-ग्लान-यावदवग्रहविषयं भावकृत्स्ने द्वितीयपदं भवति । 'ततः' तदनन्तरं तैः-भाव- 20 कृल्लैहवासे भावितस्तद्भावितस्तद्विषयं द्वितीयपदम् , सोऽपि भावकृत्लानि परिभुञ्जीतेत्यर्थः । अवमौदर्यादिषु वा गच्छस्योपग्रहार्थं तानि धारयेदिति सङ्ग्रहगाथासमासार्थः ॥ ३९१० ॥ अथैनामेव विवृणोति देसी गिलाण जावोग्गहो उ दव्वकसिणम्मि जं वुत्तं ।। तह चेव होति भावे, तं पुण सदसं व अदसं वा ॥ ३९११॥ 25 देशी-ग्लान-यावदवग्रहद्वारेषु यदेव द्रव्यकृल्ने द्वितीयपदमुक्तं तदेव 'भावकृत्स्नेऽपि' वर्णाव्ये बहुमूल्ये वा वस्त्रे मन्तव्यम् । नवरं तत् पुनः सदशमदशं वा भवेत् , उभयमप्यपवादपदे ग्राह्यमिति भावः ॥ ३९११ ॥ अथ क्षेत्रकृत्लापवदति नेमालि तामलित्तीय, सिंधूसोवीरमादिसु।। सव्वलोकोवभोजाई. धरिज कसिणा: वि ॥३९१२॥ नेपालविषये ताम्रलिप्यां नगर्यां सिन्धुसौवीरादिषु च विषयेषु सर्वलोकोपभोज्यानि १ "थूणा त(तू )राण विसओ' इति चूर्णी विशेषचू च ।। २ ताटी० तामा० विनाऽन्यत्रनेपाल भा० डे । तेमाल मो० ले. त० ॥ 30 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७४ कृत्स्नान्यपि वस्त्राणि धारयेत ॥ ३९१२ ॥ कुतः ? इत्याहआइनता ण चोरादी, भयं व य गावो । उज्झाइवत्थवं चेव, सिंधूमादीसु गरहितो || ३९१३ ।। " " नेपालादौ देशे सर्वलोकेनापि तादृग्वस्त्राणामाचीर्णता, न च तत्र चौरादिभयम् नैव च 5‘गौरवम्' ‘अहो ! अहमीदृशानि वस्त्राणि प्रावृणोमि' इत्येक्लक्षणम् अपि च उज्झाइतं - विरूपं यद् वस्त्रं तद्वान् सिन्धुसौवीरकादिषु गर्हितो भवति, अतस्तत्र कृत्स्नान्यपि परिभोक्तव्यानि ॥ ३९१३ ॥ अथ कालकृत्स्नमपवदति - 10 सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्ति के बृहत्कल्पसूत्रे [ कृत्स्ना कृत्स्नप्रकृते सूत्रम् ८ नीलकंबलमादी तु, उष्णियं होति अंच्चियं । सिसिरे तं पिधारेजा, सीतं नऽण्णेण रुब्भति ॥ ३९१४ ॥ नीलकम्बलादिकमौर्णिकं महाराष्ट्रविषये 'अर्चितं' महार्घ्यं भवति, तदपि तत्र प्राप्तः 'शिशिरे' शीतकाले 'धारयेत्' प्रावृणुयादित्यर्थः, शीतं यतो नान्येन वस्त्रेण निरुध्यते ॥ ३९१४ ॥ अथ तद्भावितपदं व्याख्याति -- 20 15 'खरैः' स्थूलतया कठिनस्पर्शेश्चीवरै राजादिप्रत्रजितः कश्चिद् निद्रां न लभते, तानि च तस्य दिवसतोऽप्यरतिं कुर्वन्ति, "उज्झाइयं वा ” जुगुप्सां मन्यते तैः, ततः स्थूलैयवदद्याप्यभावितस्तावत् तस्य भावकृत्स्नवस्त्रमनुज्ञातम् ॥ ३९१५ ॥ 'अवमादिषु गच्छोपग्रहार्थम्' इति भावयति न लभइ खरेहिं निदं, अरतिं च करिंति से दिवसतो वि । उज्झागं व मण्णति, धूलेहिँ अभावितो जाव || ३९१५ ।। ओमा- सिव-दुट्ठेस, सीमट्ठेऊण तं असंथरणे । गच्छो नित्थारिञ्जति, जाव पुणो होति संथरणं ॥ ३९१६ ॥ मौदर्या शिवराजद्विष्टेषु भक्त पानालाभे गच्छस्यासंस्तरणं भवेत्, ततः शतसहस्रमूल्यं वस्त्रं “सीमट्टेऊण” चि चूर्णिकारवचनाद् विक्रीय गच्छो निस्तार्थते यावत् पुनरपि संस्तरणं भवति । विशेषचूर्णौ तु – “सीमट्ठेऊण" इत्यस्य स्थाने " उवक्कमट्ठा व" ति पाठः, तत्रोपक्रमः– कालगमनं तदर्थम् । किमुक्तं भवति ? — कस्यापि साधोरतर्कितं कालगमनं भवेत् 25 तस्याच्छादनार्थं 'भावकृत्स्नं' वर्णाढ्यं वस्त्रं प्रागेव ग्रहीतव्यम् ॥ ३९१६ ॥ - अथवा द्रव्यकृत्स्नं भावकृत्स्नं चेति द्विविधमेवेह कृत्स्नम् । कथम् ? इति चेद् उच्यतेमाहियं साधिय, एताइँ पडंति दव्वकसिणम्मि । तस्सेव य जो वण्णो, मुल्लं च गुणो य तं भावे ॥। ३९१७ ।। क्षेत्रकृत्स्ने कालकृत्स्ने च यद् 'मानाधिकं' यथोक्तप्रमाणातिरिक्तम्, यच्च 'दशाधिकं' सदशाकं 36 वस्त्रम्, एते द्वे अपि द्रव्यकृत्स्ने निपततः । यस्तु तस्यैव वस्त्रस्य 'वर्णः ' कृष्णत्वादिकः, यच्च 'मूल्यम् ' अष्टादशरूपकादि, यश्च 'गुण:' मृदुत्वादिः, तदेतत् सर्वमपि भावकृत्स्नेऽवतरति ॥ ३९१७ ॥ कृत्स्नाकृत्स्नवस्त्रप्रकृतं समाप्तम् ॥ १°रयेयुः त० डे० ॥ २ अचियं तामा० ॥ ३°लैर्यद्यद्याप्य मा० ॥ ४°णं स्यात् । क्वचित्तु - "सी भा० ॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३९१३-२०1 तृतीय उद्देशः । १०७५ भि ना भित्र व स्त्र प्र कृ त म् सूत्रम् नो कप्प३ निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा अभिन्नाई वस्थाइं धारित्तए वा परिहरित्तए वा ८॥ नो कल्पते निर्मन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा 'अभिन्नानि' अच्छिन्नानि वस्त्राणि धारयितुं वा परिहत वेति॥ अथ भाष्यम्अकसिण भिण्णमभिण्णं, व होज्ज भिण्णं तु अकसिणे भइतं । कसिणा-ऽकसिणे य तहा, भिन्नमभिन्ने य चउभंगो ॥ ३९१८ ।। यत् पूर्वसूत्रेऽकृत्स्नमुक्तं तद् भिन्नं वा स्याद् अभिन्नं वा । भिन्नमपि अकृल्ले 'भक्तं' विकल्पितम् , अकृत्यं वा कृत्स्नं वा भवतीत्यर्थः । अत एव कृत्स्ना-ऽकृत्स्नपदाभ्यां भिन्ना-ऽभिन्नपदाभ्यां च चतुर्भङ्गी । गाथायां पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् । सा चेयम्-कृत्समभिन्नं 10 १ कृत्यं भिन्नं २ अकृत्स्नमभिन्नं ३ अकृत्स्नं भिन्नम् ४ । तत्राद्यभङ्गे कृत्मपदेन द्रव्य-क्षेत्राद्यविशिष्टं सामान्यतः कृत्मं गृहीतम् , अभिन्नपदेन तु सकलम् । आह च बृहद्भाष्यकृत दव्वाईअविसिटें, कसिणग्गहणेण होइ गहियं तु । गहणेण अभिन्नस्स उ, सगलग्गहणं कयं होइ ॥ ___ एवं द्वितीयभङ्गे द्रव्य-क्षेत्रादिकृत्स्नमसकलं गृहीतम् । तृतीयभङ्गे तु क्षेत्र-काल-भावैरकृत्स्नं 25 परं सकलम् । चतुर्थभङ्गे क्षेत्रादिभिरकृत्स्नमसकलम् ॥ ३९१८ ॥ अत्र विधिमतिदिशन्नाह तम्मि वि सो चेव गमो, उस्सग्ग-ऽववादतो जहा कसिणे । भिण्णग्गहणं तम्हा, असती य सयं पि भिंदिजा ॥ ३९१९ ॥ 'तस्मिन्नपि' अभिन्ने स एव उत्सर्गतोऽपवादतश्च ‘गमः' प्रकारो यथा कृत्स्ने भणितः । तथाहि-कृत्लवद् द्रव्या[द्य]भिन्नमपि चतुर्धा, तत्र द्रव्याभिन्नं गणनया प्रमाणतश्चातिरिक्तम् , 20 क्षेत्राभिन्नं यद् यस्मिन् क्षेत्रे महाय॑म् , कालाभिन्नं यद् यस्मिन् कालेऽर्चितम् , भावाभिन्नं तथैव वर्णयुतं मूल्ययुतं च; या च कृल्ने आरोपणा सैवाभिन्नेऽपि द्रष्टव्या, परमिदं चतुर्ख पि द्रव्यादिषु सकलमेव प्रतिपत्तव्यम् । यत एवं तस्माद् भिन्नस्य वस्त्रस्य ग्रहणं कर्तव्यम् । अथ भिन्नं न प्राप्यते ततः स्वयमपि भिन्द्यात् , यावता प्रमाणेनातिरिक्तं तावत् छित्त्वा प्रमाणयुक्तं कुर्यादिति भावः ॥ ३९१९ ॥ परः प्राह-यदि पूर्वसूत्रोक्त एव गम इहापि सूत्रे वक्तव्यः ततः- 25 पुणरुत्तदोसों एवं, पिट्ठस्स व पीसणं णिरत्थं तु । कारणमवेक्खति सुतं, दुविहपमाणं इहं सुत्ते ॥ ३९२० ॥ पुनरुक्तदोष एवं प्रामोति, एतच्च पुनर्भगनं पिष्टस्यैव पेषणं 'निरर्थकं' परिफल्गुप्रायमेव पश्यामः, अतो नेदं सूत्रमारम्भणीयमिति भावः । सूरिराह-सूत्रमिदं कारणमपेक्षते । कि १ अस्य व्याख्या प्राग्वत् ॥ अथ भा०॥ २°तिभा भा० का• विना ॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९७६ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्ति के बृहत्कल्पसूत्रे [ कृत्स्नाकृत्प्रकृते सूत्रम् ८. पुनस्तत्कारणम् इत्याह-- इह सूत्रे वस्त्राणां 'द्विविधप्रमाणं' गणनालक्षणं १ प्रमाणलक्षणं २ नियम्यते कियन्ति किंप्रमाणानि वा तानि ग्रहीतव्यानि । इत्येवं निरूप्यत इत्यर्थः ॥ ३९२० ॥ तम्हा उभिदिव्वं, केई पम्हेहि अह व तह चेव । लोगंते पाणादीविराधणा तेसि पडिघातो ।। ३९२१ ।। » यस्मादभिन्नस्य धारणे पूर्वसूत्रोक्ता दोषास्तस्मात् प्रमाणातिरिक्तं वस्त्रं 'भेत्तव्यं' छेदनीयम्, न तदवस्थं धारयितव्यम् । अथवाऽत्र 'केचिद्' नोदकाः प्रेरयन्ति - वस्त्रे छिद्यमाने या नि पक्ष्माण्युड्डीयन्ते तैर्लोकान्तं यावद् गच्छद्भिर्बहूनां प्राणादीनां - त्रसप्राणिप्रभृतीनां सूक्ष्मजन्तूनां विराधना भवति, अतः “ तह चेव" त्ति यथा लब्धं तथैवाधितिष्ठेत् । एवं वदतां ' तेषां ' नोदकानां 'प्रतिघातः' निराकरणं विधेयमिति पुरातनगाथासमासार्थः || ३९२१ ॥ 10 अथैनामेव विवरीषुः परप्रेर्यमेव प्रपञ्चयन्ना है सो तहिं मुच्छति छेदणा वा, धावंति ते दो विउ जाव लोगो । वत्थस्स देहस्स य जो विकंपो, ततो वि वादादि भरिंति लोगं ।। ३९२२ ॥ भो आचार्य ! 'तत्र' वस्त्रे छिद्यमाने शब्दः सम्मूर्च्छति, 'छेदनका वा' सूक्ष्मपक्ष्मावयवा उड्डीयन्ते, एते च द्वयेऽपि ततो निर्गता लोकान्तं यावद् 'धावन्ति' प्राप्नुवन्ति । तथा वस्त्रस्य 15 देहस्य च यः 'विकम्पः' चलनं ततोऽपि विनिर्गता वातादयः प्रसरन्तः सकलमपि लोकमा - पूरयन्ति ॥ ३९२२ ॥ अहिच्छसे जंति न ते उ दूरं, संखोभिया तेर्हेश्वरे वयंति । उड्डुं अधे यावि चउद्दिसिं पि, पूरिंति लोगं तु खणेण सव्वं ।। ३९२३ ॥ अथ आचार्य ! त्वम् ‘इच्छसि' मन्यसे 'ते च' वस्त्रच्छेदनसमुत्थाः शब्द- पक्ष्म वातादिपुद्गला २८ न 'दूरं' लोकान्तं यान्ति तर्हि तैः 'संक्षोभिताः' चालिताः सन्तोऽपरे व्रजन्ति, एवमपराऽपरपुद्गलप्रेरिताः पुद्गलाः प्रसरन्तः क्षणेनोर्द्धमधस्तिर्यक् चतसृष्वपि दिक्षु सर्वमपि लोकमापूरयन्ति ॥ ३९२३ ॥ यत एवमतः - 'विन्नाय आरंभमिणं सदोसं, तम्हा जहालद्धमधिट्ठिहिजा । वृत्तं सयो खलु जावदेही, ण होति सो अंतकरी तु ताव ।। ३९२४ ।। £5 'इम्' अनन्तरोक्तं सर्वलोकपूरणात्मकमारम्भं 'सदोषं' सूक्ष्मजीवविराधनया सावद्यं विज्ञाय 'तस्मात् ' कारणाद् यथालब्धं वस्त्रमधितिष्ठेत्, न छेदनादिकं कुर्यात् । यतः 'उक्तं' भणितं - व्याख्याप्रज्ञप्तौ — यावदयं 'देही' जीवः 'सैजः' सकम्पः चेष्टावानित्यर्थः तावदसौ कर्मणो भवस्य वा अन्तकारी न भवति । तथा च तदालापक: जाव णं एस जीवे सया समियं एयइ वेयइ चलह फंदर घट्ट खुबभइ उदीरइ तं तं 30 भावं परिणमइ ताव णं तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया न भवति । ( श० पत्र. ) ।। ३९२४ ॥ १ इ-अत्र सूत्रे भा० ॥ प्रभू - १५०० इति ताटी० मो० उ० २ ना१प्रमाण २लक्षणं निय भा० ॥ ३ एतदनन्तरं ग्रन्धा० ॥ ४ वा, पार्वति ताभा० ॥ ५ से हियरे तामा• ॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३९२१-२८] तृतीय उद्देशः । १०७७ अधेत्थं भणिष्यथ एवं तर्हि भिक्षादिनिमित्तमपि चेष्टा न विधेया इति, नैवम् , यतः जा यावि चिट्ठा इरियाइआओ, संपस्सहेताहिं विणा न देहो। संचिट्ठए नेवमछिञ्जमाणे, वत्थम्मि संजायइ देहनासो ॥ ३९२५ ॥ याश्चापि चेष्टा ईर्यादिकाः सम्पश्यत, तोरणमीर्या-भिक्षा-संज्ञाभूम्यादौ गमनम् , आदिशब्दाद् भोजन-शयनादयो गृह्यन्ते, एताभिर्विना देहः पौद्गलिकत्वात् 'न सन्तिष्ठते' न निर्व-5 हति, देहमन्तरेण च संयमस्यापि व्यवच्छेदः प्राप्नोति, वस्त्रे पुनरच्छिद्यमाने नैवं देहनाशः सञ्जायते, अतो न तत् छेदनीयम् ॥ ३९२५ ॥ किञ्च जहा जहा अप्पतरो से जोगो, तहा तहा अप्पतरो से बंधो। निरुद्धजोगिस्स व से ण होति, अछिद्दपोतस्स व अंबुणाधे ॥३९२६ ॥ यथा यथा “से" तस्य जीवस्याल्पतरो योगस्तथा तथा "से" तस्याल्पतरो बन्धो भवति । यो वा निरुद्धयोगी-शैलेश्यवस्थायां सर्वथा मनो-वाकायव्यापारविरहितः तस्य सः' कर्मबन्धो न भवति । दृष्टान्तमाह-अच्छिद्रपोतस्येव 'अम्बुनाथे' समुद्रे । यथा किल निश्छिद्रप्रवहणं -सलिलसञ्चयसम्पूर्णेऽपि जलधौ वर्तमानं खल्पमपि जलं नाश्रवति, एवं निरुद्धयोग्यपि जन्तुः कर्मवर्गणापुद्गलैरञ्जनचूर्णपूर्णसमुद्गकवद् निरन्तरनिचितेऽपि लोके वर्तमानः खल्पीयोऽपि कर्म नोपादत्ते । अतः कर्मबन्धस्य योगान्वय-व्यतिरेकानुविधायितया तत्परिजिहीर्षणा वस्त्रच्छेद-15 नादिव्यापारो न विधेयः ॥ ३९२६ ॥ इत्थं परेण खपक्षे स्थापिते सति सूरिराह आरंभमिट्ठो जति आसवाय, गुत्तीय सेआय तधा तु साधू।। मा फंद वारेहि व छिज्जमाणं, पतिण्णहाणी व अतोऽण्णहा ते ॥ ३९२७ ॥ "आरंभमिट्ठो” त्ति मकारोऽलाक्षणिकः, हे नोदक ! यद्यारम्भस्तव 'आश्रवाय' कर्मोपादानाय 'इष्टः' अभिप्रेतः 'गुप्तिश्च' तत्परिहाररूपा 'श्रेयसे' कर्मानुपादानायाभिप्रेता, तथा च सति हे 20 साधो ! मा स्पन्द मा वा वस्त्रं छिद्यमानं वारय । किमुक्तं भवति ?-यदि वस्त्रच्छेदनमारम्भतया भवता कर्मबन्धनिबन्धनमभ्युपगम्यते ततो येयं वस्त्रच्छेदनप्रतिषेधाय हस्तस्पन्दनादिका चेष्टा क्रियते यो वा तत्प्रतिषेधको ध्वनिरुच्चार्यते तावप्यारम्भतया भवता न कर्त्तव्यौ । 'अतः' मदुक्तादुपदेशादन्यथा चेत् करोषि ततस्ते 'प्रतिज्ञाहानिः' खवचनविरोधलक्षणं दूषणमापद्यते इत्यर्थः ॥ ३९२७ ॥ अथ ब्रवीथाः-योऽयं मया वस्त्रच्छेदनप्रतिषेधको ध्वनिरुच्चार्यते स 25 आरम्भप्रतिषेधकत्वान्निर्दोष इति अत्रोच्यते-- अदोसवं ते जति एस सद्दो, अण्णो वि कम्हा ण भवे अदोसो । अघिच्छया तुज्झ सदोस एको, एवं सती कस्स भवे न सिद्धी ॥ ३९२८ ॥ यद्येष त्वदीयः शब्दोऽदोषवान् ततः 'अन्योऽपि वस्त्रच्छेदनादिसमुत्थः शब्दः कस्माददोषो न भवेत् ? तस्यापि प्रमाणातिरिक्तपरिभोग-विभूषादिदोषपरिहारहेतुत्वात् । अथ 'इच्छया' 30 खाभिप्रायेण तव 'एकः' वस्त्रच्छेदनशब्दः सदोषः अपरस्तु निर्दोषः एवं सति कस्खन खपक्षसिद्धिर्भवेत् ? सर्वस्यापि वागाडम्बरमात्रेण भवत इव खाभिप्रेतार्थसिद्धिर्भवेदिति भावः । १°स चओ ण तामा० ॥ २ वा गादं वचनमाने भा० का• विना ॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्ति के बृहत्कल्पसूत्रे [कृत्लाकृमप्रकृते सूत्रम् ८ ततश्चास्माभिरप्येवं वक्तुं शक्यम्-योऽयं वस्त्रच्छेदनसमुत्थः शब्दः स निर्दोषः, शब्दत्वात् , भवत्परिकल्पितनिर्दोषशब्दवदिति ॥ ३९२८ ॥ किञ्च तं छिंदओ होज सतिं तु दोसो, खोभादि तं चैव जतो करेति । जं पेहतो होंति दिणे दिणे तु, संपाउणंते य णिबुज्झा ते वी ॥ ३९२९ ॥ । यतः तदेव' वस्त्रं छिद्यमानं पुद्गलानां क्षोभादि करोति अतः 'तद' वस्त्रं छिन्दतः 'सकृद' एकवारं दोषो भवेत् । अच्छिद्यमाने तु वस्त्रे प्रमाणातिरिक्तं तत् प्रत्युपेक्षमाणस्य ये भूमिलोलनादयः प्रत्युपेक्षणादोषा दिने दिने भवन्ति, ये च तद् वस्त्रं सम्प्रावृण्वतो विभूषादयो बहवो दोषाः, तानपि 'निबुध्यस्ख' अक्षिणी निमील्य सम्यग् निरूपयेति भावः ॥ ३९२९ ॥ ___ आह-यदि वस्त्रच्छेदने युष्मन्मतेनापि सकृद् दोषः सम्भवति ततः परिहियतामसौ, 10गृहस्थैः खयोगेनैव यद् भिन्नं वस्त्रं तदेव गृह्यताम् , उच्यते घेत्तव्वगं भिन्नमहिच्छितं ते, जा मग्गते हाणि सुतादि ताव । अप्पेस दोसो गुणभूतिजुत्तो, पमाणमेवं तु जतो करिति ॥ ३९३० ।। अथ 'ते' तव 'इष्टं मतं यथा चिरमपि गवेष्य भिन्नं ग्रहीतव्यम् तत उच्यते-यावत् तद् भिन्नं वस्त्रं मार्गयति तावत् तस्य 'श्रुतादौ' सूत्रा-ऽर्थपौरुष्यादौ हानिर्भवति । अपि च य 15 एष वस्त्रच्छेदनलक्षणो दोषः स प्रत्युपेक्षणाशुद्धि-विभूषापरिहारप्रभृतीनां गुणानां भूत्या-सम्पदा युक्तः, बहुगुणकलित इति भावः । कुतः ? इत्याह-यतः प्रमाणमेव वस्त्रस्य तदानीं साधवः कुर्वन्ति, न पुनस्तत्राधिकं किमपि सूत्रा-ऽर्थव्याघातादिकं दूषणमस्तीति ॥ ३९३० ।। अथ "जा यावि चिट्ठा इरियाइयाओ" (३९२५) इत्यादि परोक्तं परिहरन्नाह आहार-णीहारविहीसु जोगो, सव्यो अदोसाय जहा जतस्स । 20 हियाय सस्सम्मि व सस्सियस्स, भंडस्स एवं परिकम्मणं तु ॥ ३९३१ ॥ - यथा 'यतस्य' प्रयत्नपरस्य साधोराहार-नीहारादिविधिविषयः सर्वोऽपि योगो भवन्मतेनाप्यदोषाय भवति तथा 'भाण्डस्य' उपकरणस्य 'परिकर्मणमपि' छेदनादिकम् 'एवमेव' यतनया क्रियमाणं निर्दोष द्रष्टव्यम् । दृष्टान्तमाह-"हियाय सस्सम्मि व सस्सियस्स" ति सस्येन चरतीति सास्थिका-कृषीवलस्तस्य यथा सस्यविषयं परिकर्मण-निद्दिणनादिकं हिताय भवति 2 तथेदमपि भाण्डपरिकर्मणम् । तथा चोक्तम् यद्वत् सस्यहितार्थ, सस्याकीर्णेऽपि विचरतः क्षेत्रे । या भवति सस्यपीडा, यत्नवतः साऽल्पदोषाय ॥ तद्वज्जीवहितार्थ, जीवाकीर्णेऽपि विचरतो लोके । या भवति जीवपीडा, यत्नवतः साऽल्पदोषाय ॥ ॥ ३९३१ ॥ 30 किच्च अप्पेव सिद्धतमजाणमाणो, तं हिंसगं भाससि जोगवंतं । दव्वेण भावेण य संविभत्ता, चत्तारि भंगा खलु हिंसगत्ते ॥ ३९३२ ॥ १°पावणं° तामा० भा. कां. विना ॥ २°णं-लवनादिकं भा०॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३९२९-३६] तृतीय उद्देशः ।। १०७९ 'अपि' इत्यभ्युच्चये, अस्त्यन्यदपि वक्तव्यमिति भावः, यदेवं 'योगवन्तं' वस्त्रच्छेदनादिव्यापारवन्तं जीवं हिंसकं त्वं भाषसे तद् निश्चीयते सम्यक् सिद्धान्तमजानान एवं प्रलपसि । नहि सिद्धान्ते योगमात्रप्रत्ययादेव हिंसोपवर्ण्यते, अप्रमत्तसंयतादीनां सयोगिकेवलिपर्यन्तानां योगवतामपि तदभावात् । कथं तर्हि सा प्रवचने प्ररूप्यते ? इत्याह--द्रव्येण भावेन च संविभक्ताश्चत्वारो भङ्गाः खलु हिंसकत्वे भवन्ति । तथाहि-द्रव्यतो नामैका हिंसा न । भावतः १ भावतो नामैका हिंसा न द्रव्यतः २ एका द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि ३ एका न द्रव्यतो नापि भावतः ४ ॥ ३९३२ ॥ अथैषामेव यथाक्रमं भावनां कुर्वन्नाह---- आहच्च हिंसा समितस्स जा तू, सा दव्यतो होति ण भावतो उ । भावेण हिंसा तु असंजतस्सा, जे वा वि सत्ते ण सदा वधेति ॥ ३९३३ ॥ संपत्ति तस्सेव जदा भविजा, सा दयहिंसा खलु भावतो य । 10 अज्झत्थसुद्धस्स जदा ण होजा, वधेण जोगो दुहतो वहिंसा ॥ ३९३४॥ 'समितस्य ईर्यासमितावुपयुक्तस्य या “आहच्च" कदाचिदपि हिंसा भवेत् सा द्रव्यतो हिंसा, इयं च प्रमादयोगाभावात् तत्त्वतोऽहिंसैव मन्तव्या, "प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा" (तत्त्वा० अ० ७ सू० ८) इति वचनात् ; न भावत इति । 'भावेन भावतो या हिंसा न तु द्रव्यतः सा 'असंयतस्य' प्राणातिपातादेरनिवृत्तस्य उपलक्षणत्वात् संयतस्य वा 15 अनुपयुक्तगमना-ऽऽगमनादि कुर्वतो यानपि सत्त्वानसौ सदैव न हन्ति तानप्याश्रित्य मन्तव्या, "जे वि न वाविजंती, नियमा तेसि पि हिंसओ सो उ" (ओघ नि० गा० ७५३) इति वचनात् ।। ३९३३ ॥ __यदा तु तस्यैव प्राणिव्यपरोपणसम्प्राप्तिर्भवति तदा सा द्रव्यतो भावतोऽपि हिंसा प्रतिपत्तव्या । यः पुनरध्यात्मना-चेतःप्रणिधानेन शुद्धः-उपयुक्तगमना-ऽऽगमनादिक्रियाकारीत्यर्थः 20 तस्य यदा 'वधेन' प्राणिव्यपरोपणेन सह 'योगः' सम्बन्धो न भवति तदा 'द्विधाऽपि' द्रव्यतो भावतोऽपि च अहिंसा, हिंसा न भवतीति भावः । तदेवं भगवत्प्रणीते प्रवचने हिंसाविषयाश्चत्वारो भङ्गा उपवर्ण्यन्ते । अत्र चाद्यभङ्गे हिंसायां व्याप्रियमाणकाययोगोऽपि भावत उपयुक्ततया भगवद्भिरहिंसक एवोक्तः । ततो यदुक्तं भवता---'वस्त्रच्छेदनव्यापारं कुर्वतो हिंसा भवति' इति तत् प्रवचनरहस्यानभिज्ञतासूचकमिति ॥ ३९३४ ॥ किञ्च रागो य दोसो य तहेव मोहो, ते बंधहेतू तु तओ वि जाणे। णाणत्तगं तेसि जधा य होति, जाणाहि बंधस्स तहा विसेसं ॥ ३९३५ ॥ 'रागश्च' अभिष्वङ्गलक्षणः 'द्वेषश्च' अप्रीतिकरूपः तथैव 'मोहः' अज्ञानलक्षणः, एतान् त्रीनपि बन्धहेतून् जानीहि । 'नानात्वं' विशेषो यथा 'तेषां' रागादीनां भवति तथा कर्मबन्धस्यापि विशेष जानीहि ॥ ३९३५ ॥ इदमेव बिभावयिषुरिगाथामाह 30 तिव्वे मंदे णातमणाए भावाधिकरण विरिए य । जह दीसति णाणत्तं, तह जाणसु कम्मबंधे वि ॥ ३९३६ ॥ हिंसादिकं पापं कुर्वतो रागादिपरिणामस्तीत्रो वा भवेद् मन्दो वा । "नायमनाए" ति एको 25 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८० सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ कृत्स्ना कृत्स्लप कृते सूत्रम् ८ हिंसादिफलविपाके व्यापाद्ये वा जीवे जीवतया ज्ञाते हिंसां करोति, अपरस्तु न जानाति परमेवमेव जन्तून् हिनस्ति । तथा भावः -- औदयिकादिः, अधिकरण-निर्वर्त्तनादिरूप प्रागुक्तम्, 'वीर्यं' देहबलं बाल - पण्डितादिसामर्थ्यं वा । एवं तीत्र-मन्दादिकं नानात्वं यथा रांगादिषु दृश्यते तथा कर्मबन्धेऽपि नानात्वं जानीहि इति द्वारगाथा समासार्थः ॥ ३९३६ ॥ अथैनामेव विवरीषुराह— 5 तिब्वेहि होति तिव्वो, रागादीएहि उवचओ कम्मे । मंदेह होति मंदो, मज्झिमपरिणामतो मज्झो || ३९३७ ॥ पापं विदधानस्य यदि 'तीत्राः ' सङ्किष्टपरिणामा रागादयो भवन्ति ततस्तैस्तीत्रः कर्मणापचयो भवति । यदा तु त एव मन्दाः - प्रतनुपरिणामाः तदा कर्मोपचयोऽपि मन्दो भवति । 10 यदा तेषां मध्यमः परिणामः - नातितीव्रो न चातिमन्द इत्यर्थः तदा मध्यमः कर्मोपचयो भवति ॥ ३९३७ ॥ अथ ज्ञाताज्ञातद्वारमाह - जाणं करेति एक्को, हिंसमजाणमपरो अविरतो य । तत्थ वि बंधविसेसो, महंतरं देसितो समए ।। ३९३८ ॥ FE द्वावविरतौ, तत्रैकस्तयोजनन् हिंसां करोति, विचिन्त्येत्यर्थः ; अपरः पुनरजानन् । 15 ' तत्रापि' तयोरपि बन्धविशेषः "महंतरं" ति महता अन्तरेण देशितः 'समये' सिद्धान्ते । तथाहि — यो जानन् जीवहिंसां करोति स तीव्रानुभावं बहुतरं पापकर्मोपचिनोति, इतरस्तु (मन्दतरविपाकमल्पतरं तदेवोपादत्ते ।। ३९३८ ॥ विरतो पुण जो जाणं, कुणति अजाणं व अप्पमत्तो वा । तत्थ वि अज्झत्थसमा, संजायति णिज्जरा ण चयो ।। ३९३९ ॥ 20 यः पुनः 'विरतः ' प्राणातिपाता देर्निवृत्तः सः 'जानानोऽपि ' सदोषमित्यवबुध्यमानोऽपि गीतार्थतया द्रव्य-क्षेत्राद्यागाढेषु प्रलम्बादिग्रहणेन हिंसां करोति, यद्वा न जानाति परम् 'अप्रमत्तः ' विकथादिप्रमादरहित उपयुक्तः सन् यत् कदाचित् प्राण्युपघातं करोति तत्रापि 'अध्यात्मसमा ' चित्तप्रणिधानतुल्या निर्जरा सञ्जायते, यस्य यादृशस्तीत्रो मन्दो मध्यमो वा शुभाध्यवसायस्तस्य तादृश्येव कर्मनिर्जरा भवतीति भावः । " न चउ" त्ति न पुनः 'चयः' कर्मबन्धः सूक्ष्मोऽपि 25 भवति, प्रथमस्य भगवदाज्ञया यतनया प्रवर्त्तमानत्वात्, द्वितीयस्य तु प्रमादरहितस्याजानतः कथञ्चिद् प्राण्युपघातसम्भवेऽप्यदुष्टत्वात् ॥ ३९३९ ॥ अथ भावद्वारमाह एगो खओवसमिए, वट्टति भावेऽवरो उ ओदइए । तत्थ वि बंधविसेसो, संजायति भावणाणत्ता ।। ३९४० ॥ 'एकः' कोऽपि क्षायोपशमिके भावे वर्तते, अपरश्चौदयिके, तत्रापि बन्धविशेषः सञ्जायते, 30 भावनानात्वात् । तथाहि—य औदयिके भावे वर्तते स तीव्रतरं कर्मोपचिनोति, यस्तु क्षायोपशमिके स मन्दतरमिति ॥ ३९४० ॥ १ महत्तरं भा० तांभा० । एतदनुसारेणैव भा० टीका । दश्यतां टिप्पणी २ ॥ २ 'बः 'महत्तरः ' अतिशयेन महान् देशितः भा० ॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३९३७-४५] तृतीय उद्देशः । १०८१ एमेव ओवसमिए. खओवसमिए तहेव खहए य । बंधा-ऽबंधविसेसो, ण तुलवंधा य जे बंधी ।। ३९४१ ॥ एवमेवौपशमिके क्षायोपशमिके तथैव क्षायिके च भावे बन्धा-ऽबन्धविशेषः सम्यगुपयुज्य वक्तव्यः । येऽपि 'बन्धिनः' कर्मबन्धका जीवास्तेऽपि न तुल्यबन्धकाः, किन्तु प्रकृति-स्थित्यनुभाव-प्रदेशैः परस्परविसदृशकर्मबन्धकाः ॥ ३९४१ ॥ अथाधिकरणद्वारमाह-- अहिकरणं पुन्धुत्तं, चउविहं तं समासओ दुविहं । णिव्यत्तणताए वा, संजोगे चेवणेगविधं ॥ ३९४२ ॥ अधिकरणं पूर्व-प्रथमोद्देशके यथा निर्वर्तना-निक्षेपणा-संयोजना-निसर्जनाभेदात् चतुर्विध मुक्तं तथैव ज्ञातव्यम् । नवरं 'तद्' अधिकरणं समासतो द्विविधं भवति । तद्यथा-निर्वर्तनायां 'संयोगे चैव' संयोजनायां च । पुनरेकैकमनेकविधं भवति ॥ ३९४२ ॥ 10 तत्र निर्वर्तनाधिकरणमनेकविधमुपदर्शयति एगो करेति परसुं, णिव्यत्तेति णखछेदणं अवरो । - कुंत-कणगे य वेज्झे, आरिय सूई अ अवरो उ ॥ ३९४३ ॥ 'एकः' लोहकारः 'पर्यु' कुठारं करोति । अपरस्तु नखच्छेदनम् , तथा कुन्तः-प्रतीतः, कणकः-बाणविशेषः, तो, चकारादपराण्यपि शक्ति-शूलप्रभृतीनि 'वेधकानि' परशरीरवेधका-18 रीणि शस्त्राणि करोति । अपरस्तु लोहंकार आरिकां सूची वा करोति । तत्र यः कुठार-कुन्तकणकादीनि करोति स तीव्रकर्मबन्धभाक्, यस्तु नखच्छेदना-ऽऽरिका-सूच्यादि निर्वर्त्तयति स खल्पकर्मबन्धक इति ॥ ३९४३ ॥ सईसुं पि विसेसो, कारणसूईसु सिव्वणीसुं च । . संगामिय परियाणिय, एमेव य जाणमादीसु ॥ ३९४४ ॥ सूचीष्वपि विशेषो विद्यते-एकाः कारणसूच्योऽपराः सीवनसूच्यः । तत्र याः परव्यपरोपणादिकारणमुद्दिश्य कारयित्वा परस्य नखमूलादौ कुट्यन्ते ताः कारणसूच्य उच्यन्ते, तासु विधीयमानासु महान् कर्मबन्धो भवति । यास्तु वस्त्रसीवनाथ क्रियन्ते तासु खल्पतरः कर्मबन्धः । एवमेव च यानादिप्वपि वक्तव्यम् । तथाहि-किमपि यानं सानामिकं भवति, यत्रारूढैः सङ्ग्रामः क्रियते; अपरं तु 'पारियानिकं' परियानं-गमनं तत् प्रयोजनमस्येति पारियानिकम् , 25. उद्यानादौ यस्मिन्नारूढैर्गम्यते । तत्र साभामिकयानादीनि कुर्वतो महान् कर्मबन्धः, पारियानि. कानि तु कुर्वाणस्याल्पतरः ॥ ३९४४ ॥ __ आह यदि नाम अधिकरणमनेकविधम् ततस्तन्निमित्तः कर्मबन्धविशेषः कथमुपपद्यते ! यावता परिणामवैचित्र्यप्रत्यय एवासाविष्यत इत्याह कारग-करेंतगाणं, अधिकरणं चेव तं तहा कुणति । . जह परिणामविसेसो, संजायति तेसु वत्थूसु ॥ ३९४५॥ कारापक-कुर्वतोस्तदधिकरणमेव 'तथा' तेन रूपेण 'करोति' बुद्धिमुपजनयति यथा 'तेषु' १°कम्, प्रामान्तरादौ उद्या भा० ॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८२ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ कृत्स्नाकृत्स्रप्रकृते सूत्रम् ८ पर्शु-नखच्छेदनादिषु वस्तुषु कार्यमाणेषु क्रियमाणेषु च 'परिणामविशेष:' सक्लिष्टा ऽसङ्कक्लिष्टरूपमध्यवसायवैचित्र्यं सञ्जायते, यथा -- कारयाम्यहमिदं पर्शु - कुन्त- कणकादिकम्, ततोऽनेन वैरिणं व्यापाद्य आत्मनः सुखमुत्पादयिष्यामीत्यादि । अतस्तत्त्वतः परिणामवैचित्र्यप्रत्यय एवात्रापि कर्मबन्धविशेष इति न किञ्चिदनुपपन्नम् || ३९४५ ॥ 5 उक्तं निर्वर्त्तनाधिकरणम् । अथ संयोजनाधिकरणमाह संजोययते कूड, हलं पडं ओसहे य अण्णोणे । भोयविहिं च अण्णे, तत्थ वि णाणत्तगं बहुहा ॥। ३९४६ ॥ कश्चिद् लुब्धको मृगादीनां बन्धनाय कूटं रज्यादिना संयोजयति, अपरो हालिकादिः क्षेत्र कर्षणाय हलं युगादिना योजयति, अन्यस्तु पटं पटान्तरेण सह सीवनप्रयोगेण संयुनक्ति, 10 कश्चित्तु वैद्यादिः 'औषधानि ' हरीतकी - पिप्पलीप्रभृतीन्यन्यान्यानि परस्परमेकत्र मीलयति, अन्यस्तु 'भोजनविधिं' शालि - दालि - घृत- शालनकादिकं संयुनक्ति, तत्रापि कर्मबन्ध विशेषस्य बहुधा नानात्वं प्रतिपत्तव्यम् । तथाहि - यः कूटं संयोजयति तस्य सक्लिष्ट परिणामतया तीव्र - तरः कर्मबन्धः, तदपेक्षया हलं संयोजयतः खल्पतरः पटं संयोजयतः खल्पतम इत्यादि खबुद्ध्या सम्यगुपयुज्य वक्तव्यम् || ३९४६ ॥ 15 अथ निर्वर्त्तना-संयोजने द्वे अपि यत्र सम्भवतः तान्युपदर्शयति निव्वत्तणा य संजोयणा य सगडाइएस अ भवंति । आसजुत्तरकरणं, निव्वत्ती मूलकरणं तु ।। ३९४७ ॥ निर्वर्त्तना च संयोजना च शकटादिषु द्वे अपि भवतः । तथाहि — शकटाङ्गानाम् - उद्धिचक्रप्रभृतीनां या प्रथमतो घटना सा निर्वर्त्तना, या पुनस्तेषामेव निर्वर्त्तितानामेकत्र सङ्घातना 20 सा संयोजना । अत्र च ' उत्तरकरणं' संयोजनारूपामुत्तरक्रियाम् ' आसाद्य' प्रतीत्य 'निर्वृत्तिः ' प्रथमतो निर्वर्त्तना मूलकरणं प्रतिपत्तव्यम् || ३९४७ ॥ गतमधिकरणद्वारम् । अथ वीर्यद्वारमाह 25 यद् ‘देहबलं' संहननजनितं शरीरसामर्थ्यं तत् खलु वीर्यं मन्तव्यम् । तस्य च बलस्य सदृश एव प्राणिनां परिणामो भवति । तथाहि- - यः सेवार्त्तसंहननी जघन्यबलो जीवस्तस्य परिणामोऽपि शुभोऽशुभो वा मन्द एव भवति न तीत्रः, ततः शुभाशुभकर्मबन्धोऽपि तस्य स्वल्पतर एव, अत एवास्योर्द्धगतौ कल्पचतुष्टयादूर्द्धम् अधोगतौ नरकपृथ्वीद्वयादध उपपातो न भवतीति प्रवचने प्रतिपाद्यते । एवं कीलिकादिसंहननिष्वपि भावना कार्या । १० इदं च देहवीर्यम् ‘आसाद्य' प्राप्य षट्स्थानगताः 'सर्वतः ' सर्वेष्वपि संहननेषु प्राणिनः परस्परं भवन्ति । तथाहि — सेवार्त्तसंहननिषु ये सर्वजघन्यबलास्तदपेक्षया अपरेऽनन्तभागवृद्ध्या अस देहवलं खलु विरियं, बलसरिसो चैव होति परिणामो । आज देहविरियं, छट्टाणगया तु सव्वत्तो ।। ३९४८ ॥ १ विही उ अ तामा० ॥ २ उताभा० ॥ ३ कां विनाऽन्यत्र - हवम् मो० ले० ताटी त० ई० | 'इबलम् भा० ॥ ४ 'वृद्धाः अ० भा० कौ० ॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८३ 15 भाष्यगाथाः ३९५६-५२] तृतीय उद्देशः । ख्यातभागवृद्ध्या सङ्ख्यातभागवृध्या सङ्ख्यातगुणवैया असङ्ख्यातगुणधुंध्या अनन्तगुणवृद्ध्या वा भवन्ति, एवं कीलिकादिष्वपि । यतः षट्स्थानपतिताः प्राणिनोऽतो देहबलवैचित्र्येण परिणामवैचित्र्यात् कर्मबन्धोऽपि विचित्रो भवतीति स्थितम् ।। ३९४८ ।। बलद्वारमेव प्रकारान्तरेण व्याचष्टे अहवा बालादीयं, तिविहं विरियं समासतो होति । बंधविसेसो तिण्ह वि, पंडिय बंधी अबंधी य ॥ ३९४९ ॥ अथवा वीर्य बालादिभेदात् त्रिविधम् । तत्र बालस्य-असंयतस्य प्राणातिपाताद्यसंयमकरणे यद् वीर्य तद् बालवीर्यम् , बालपण्डितस्य-देशविरतस्य संयमा- संयमविषयं वीर्य बालपण्डितवीर्यम् , पण्डितस्य-सर्वविरतस्य सर्वसंयमविषयं वीर्यं पण्डितवीर्यम् । एतत् त्रिविधं वीर्य समासतो भवति । एषां त्रयाणामपि बन्धविशेषः, तद्यथा--बालवीर्यवान् प्रभूततरं कर्म 10 बनाति, बालपण्डितवीर्यवान् । अल्पतरम् , पण्डितवीर्यवान् » अल्पतमम् । स च पण्डितो द्विधा—बन्धी अवन्धी च । प्रमादादीनां कर्मबन्धहेतूनां कापि कियतां सद्भावादवश्यं बनातीति बन्धी, "णिन् चावश्यकाधमण्यें" (सि० हे० ५-४-३६) इति णिन्प्रत्ययः, तद्विपरीतो अबन्धी । तत्र प्रमत्तसंयतमादौ कृत्वा सयोगिकेवलिनं यावद् बन्धकः, अयोगिकेवली तु नियमादबन्धकः ॥ ३९४९ ॥ गतं वीर्यद्वारम् । अथोपसंहरन्नाह तम्हा ण सव्वजीवा, उ बंधगा णेव बंधणा तुल्ला । अधिकिच्च संपरागं, इरियावहिबंधगा तुल्ला ॥ ३९५० ॥ यत एवं तस्मान्न सर्वेऽपि जीवा बन्धकाः । येऽपि बन्धकास्तेषामपि 'साम्परायं' कषायप्रत्ययं कर्माधिकृत्य बन्धनं नैव तुल्यम् , रागादिवैचित्र्यतः कर्मबन्धविशेषस्यानन्तरमेव प्रसाधितत्वात् । ये तूपशान्तमोह-क्षीणमोह-सयोगिकेवलिन ऐर्यापथस्य-योगमात्रप्रत्ययस्य कर्मणो 20 बन्धकास्ते परस्परं तुल्याः, एकस्यैव सातवेदनीयस्य द्विसमयस्थितिकस्य सर्वेषामपि बन्धनात् । तदेवं न योगप्रत्ययः कर्मबन्धस्याल्पबहुत्वविशेषः, किन्तु रागादितीव्र-मन्दताप्रत्ययः, ततो वरच्छेदनं विधिना कुर्वतां न कश्चिद् दोषः ॥ ३९५० ॥ अपि च संजमहेऊ जोगो, पउजमाणो अदोसवं होइ।। जह आरोग्गणिमित्तं, गंडच्छेदो व विजस्स ॥ ३९५१ ॥ संयमः-प्रत्युपेक्षणादिशुद्धिरूपस्तद्धेतुः 'योगः' वस्त्रच्छेदनादिव्यापारः प्रयुज्यमानोऽदोषवान् भवति । यथा 'आरोग्यनिमित्तं' रोगिणो रोगव्यपगमार्थ वैद्यस्य गण्डच्छेदोऽदुष्ट इति ॥३९५१॥ परः प्राह-यद्येवं ततो यथाऽहं भणामि तथा वनं छिद्यताम् । कथम् ? इति चेद् उच्यते भिन्मम्मि माउगंतस्मि केइ अहिकरण गहिय पडिसेहो । एवं खु भिञ्जमाणं, अलक्खणं होइ उहुं च ॥३९५२॥ 30 इह वस्त्रं यतो व्यूयते तदादिभूतत्वाद् मातृकेव मातृका, अन्तश्चेह दशान्त उच्यते, १-२-३-४-५ °वृद्धाः भा० कां ॥६एतन्मध्यगतः पाठः भा० का ० एव वर्तते ॥ ७ यतो वातुमारभ्यते तदा भा० ॥ 25 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८४ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ कृत्स्नाकृत्मप्रकृते सूत्रम् ८ मातृका चान्तश्च मातृकान्तम् , द्वन्द्वैकवद्भावः, तस्मिन् भिन्ने सति वस्त्रं यद्यपि स्तेनैरपहियेत तथापि तैर्गृहीते सति नाधिकरणं भवति, उभयपार्श्वयोश्छिन्नत्वेन परिभोगाभावादित्यभिप्रायः । एवं केचिदाचार्यदेशीया भणन्ति तेषामेवं वदतां प्रतिषेधः कर्तव्यः । कथम् ? इत्याह-'एवम्! अमुना प्रकारेण 'खुः' अवधृतार्थे, अवधारितोऽयमर्थः, परमेवं भिद्यमानं वस्त्रमलक्षणं भवति । 5 भूयोऽपि परः प्राह-यद्येवं तत ऊर्द्ध कृत्वा तद् वस्त्रं द्विधा छिद्यताम् । सूरिराह-एवमप्यलक्षणदोषाश्चापरे बहवो भवन्ति, अतो नैवं छेदनीयमिति सङ्ग्रहगाथासमासार्थः ॥ ३९५२ ।। अथैनामेव विवृणोति-- उभओ पासिं छिजउ, मा दसिया उकिरिज एगत्तो। अहिकरणं णेवं खलु, उद्घो फालो व मज्झम्मि ॥ ३९५३ ॥ 10 परः प्राह-उभयपार्श्वयोर्वस्त्रं छिद्यताम् । किं कारणम् ? इति चेद् अत आहयद्येकपार्वतश्छिद्यते तदा कदाचित् स्तेनैरपहियेत, ततस्ते तत्रैकतरिछन्ने दशिका उत्किरेयुः, उत्कीर्य च तद् वस्त्रं विक्रीणन्तः सदशाकतया प्रेभूतं मूल्यं प्राप्नुयुः, स्वयं वा तत् परिभुञ्जीरन् , ततो द्वयोरपि पार्श्वयोश्छेदनीयम् , एवं विधीयमानेऽधिकरणं न भवति । अथ नै भवतां विचारचर्यायां सङ्गच्छते ततो मध्ये गृहीत्वोर्द्धः फालो विधीयताम् , उर्दू द्विधा फाल्य18 तामिति भावः ।। ३९५३ ॥ अथ सूरिः प्रथमं परोक्तमाद्यप्रकारं दूषयन्नाह... भन्नइ दुहतो छिन्ने, उभतो दसियाइँ किण्ण जायंति । कुप्पासए करेंति व, अदसाणि व किं ण भुंजंति ॥ ३९५४ ॥ भण्यते अत्रोत्तरम् - त्वदुक्तनीत्या द्विधा छिन्ने वस्त्रे किमुत्कीर्यमाणा उभयतो दशिका न जायन्ते ? जायन्त एव । अथवा तेनोभयतश्छिन्नेन वाससा ते स्तेनाः 'कूर्पासकान्' र कञ्च20 कान् । कुर्वन्ति । अथवा ते किमदशाकानि वस्त्राणि न भुञ्जते ? येनैवमुच्यते-उभयत. श्छेत्तव्यमिति ॥ ३९५४ ॥ अथ द्वितीयं प्रकारमङ्गीकृत्य परिहरन्नाह उद्धप्फालाणि करेंति अणिहुआ दुब्बलं च तं होति । कजं तं च ण पुस्सति, असिव्व-सिव्वंतदोसा य ॥ ३९५५ ॥ इँह 'अनिभृता नाम' त्रिदण्डिनः, त एव प्राय ऊर्द्ध फालानि वस्त्राणि वसितुं प्रावरीतुं वा 25 कुर्वन्ति नान्ये । तथा 'तद्' ऊर्द्धफालितं वस्त्रं दुर्बलं भवति । दुर्बलत्वादेव च 'तद्' विवक्षितं __ 'कार्य' प्रावरणादिकं 'न पुष्यति' न पूरयति, परिभुज्यमानमचिरादेव स्फटतीति भावः । स्फटितं च यदि न सीव्यते ततो बहुतरं स्फटति, ततश्च वस्त्राभावे ये तृणग्रहणादयो दोषास्तान् प्राप्नुवन्ति । अथ सीव्यते ततः सूत्रा-ऽर्थपरिमन्थादयो दोषाः ॥ ३९५५ ॥ अपि च छिन्नम्मि माउगते, अलक्षणं मज्झफालियं चेव । गुणबुद्धा जं गहियं, न करेति गुणं अलं तेणं ॥ ३९५६ ॥ १ उद्धो वा दो व म° ताभा० ॥ २१ एतचिह्नान्तर्गतः पाठः भा० का० एव वर्त्तते । “कुप्पा. सओ कंचुगो" इति चूर्णी विशेषचूर्णौ च ॥ ३ °जं च तं ण ताभा० ॥ ४ इह ये 'अनिभृताः' पिड्डाः, त एव भा० । “अणिहुता हिंडिया, वादिया इत्यर्थः ।" इति चूर्णों विशेषचूर्णौ च ॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 भाष्यगाथाः ३९५३-६०] तृतीय उद्देशः । १०८५ मातृकान्ते' उभयपावरूपे छिन्ने सति वस्त्रमलक्षणं भवति । मध्यस्फाटितमपि तदलक्षणमेवोपजायते । अलक्षणे च वस्त्रे प्रत्युत ज्ञानादीनामुपघातो भवति, न पुनः कोऽपि गुणः । अतो गुणबुद्ध्या यद् वस्त्रं गृहीतं सत् तमेव गुणं न करोति अलं 'तेन' वस्त्रेण, न तद् ग्रहीतुमुचितमिति भावः ॥ ३९५६ ॥ अथ भूयोऽपि परः प्रेरयति- . किं लक्षणेण अम्हं, सव्वणियत्ताण पावविरयाणं । लक्खणमिच्छंति गिही, धण-धणे-कोसपरिवुड्डी ॥ ३९५७ ॥ अस्माकं सर्वस्माद्-धन-धान्यादिपरिग्रहाद् निवृत्तानां पापात्-प्राणातिपातादेर्विरतानां किं वसादिलक्षणेनान्वेषितेन ? न किञ्चिदित्यर्थः । ये तु गृहिणः सारम्भाः सपरिग्रहास्ते स धनधान्ध-कोशपरिवृद्धिनिमित्तं लक्षणमिच्छन्ति, अस्माकं तु » धन-धान्याद्यभावान्न किमपि वृद्धि प्रापणीयमस्तीति परस्याभिप्रायः ॥ ३९५७ ॥ सूरिराह 10 लक्खणहीणो उवही, उवहणती णाण-दंसण-चरित्ते । तम्हा लक्खणजुत्तो, गच्छे दमएण दिटुंतो ॥ ३९५८ ॥ लक्षणः-प्रशस्तवर्ण-संस्थानादिभिहीन उपधिः साधूनां ज्ञान-दर्शन-चारित्राण्युपहन्ति, तस्माद् लक्षणयुक्तोऽसौ धारयितव्यः । तेन हि धार्यमाणेन गच्छे महती ज्ञानादिस्फातिरुपजायते । तथा चात्र द्रमकेण दृष्टान्तः क्रियते ॥ ३९५८ ॥ तमेवाह थाइणि वलवा वरिसं, दमओ पालेति तस्स भाएणं । चेडीघडण निकायण, उविट्ठ दुम चम्म भेसणया ॥ ३९५९ ॥ दुण्ह वि तेसिं गहणं, अलं मि अस्सेहि अस्सिगं भणइ । वड्डइ भच्चइ धूयापयाण कुलएण ओवम्मं ॥ ३९६०॥ इह पारस विषये कस्य चिद् गृहे प्रभूताः प्रतिवर्षप्रसविन्यो वडवाः सन्ति । तत एव च 20 तुरङ्गमा अपि तस्य बहवः समजायन्त । तेन चाश्वखामिना 'एतावदश्वसमूहमध्ये त्वया वर्षान्ते अश्वद्वयं भृतौ ग्राह्यम्' इत्युक्त्वा कश्चिद् द्रमकोऽश्व-वडवारक्षणार्थं धृतः । तस्य च तत्पुच्या सार्धं सङ्गतिरभूत् । भृतिकाले च समायाते तेनाश्वरक्षकेण सा तहुहिता पृष्टा-कथय, अमीषां मध्ये किमपि लक्षणयुक्तमश्वद्वयं येन तद् गृह्णामि । ततस्तयाऽभिहितोऽसौ-सर्वेध्वश्वेष्वरण्ये वृक्षच्छायायां विश्रब्धमुपविष्टेषु चर्ममयं कुतपं पाषाणखण्डानां भृत्वा वृक्षशिखर-25 'मारुह्य ततः स चर्मकुतपः खडक्खडारवं कुर्वन्नधस्ताद् मोक्तव्यः, पटहश्च तदग्रतो वादनीयः, एवंकृते यौ न समुत्रस्यतः; तथा खुरुखुरकेण चर्ममयेण पाषाणखण्डभृतेन पृष्ठतो वाद्यमानेन सर्वानपि वाहय, यौ शेषाश्ववाहनिकातोऽधिकं निर्वहतः तौ द्वावपि गृहाणेति । तेन सर्व तथैव कृतम् । मूल्यकाले च तेनाश्वखामी याचितः-ममामुकममुकं चाश्वं देहि । तुरङ्गम. खामी तु 'समस्तलक्षणयुक्ताविमावश्वौ' इति कृत्वा ब्रवीति-शेषान् द्वौ त्रीन् सर्वान् वा ३० गृहाण, किमेताभ्यां करिष्यसि ? । सोऽपि तदश्वद्वयवर्जमपरं कथमपि नेच्छति । ततश्चाश्वखामिना स्वभार्याऽभिहिता---प्रदीयतामस्मै स्वपुत्रिका येन गृहजामातृत्वं प्रतिपन्नो न सलक्षणा१°न्ते' प्रागुक्तखरूपे भा० ॥२ एतदन्तर्गतः पाठः भा० का• एव वर्तते ॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८६ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ कृत्स्त्राकृत्स प्रकृते सूत्रम् ८ asar गृहीत्वाऽन्यत्र जति । सा च 'हीनोऽसौ ' इति नेच्छत्यमुमर्थम् । ततोऽश्वस्वामी भार्यावबोधाय वर्द्धकिसुतं दृष्टान्तीकरोति, यथा 1 केनापि वर्द्धकिना भागिनेयः स्वसुतां दत्त्वा गृहजामाता कृतः । स च कमपि व्यवसायं न करोति ततो वर्द्धकिदुहित्र्या प्रेरितः - किमिति पुरुषत्रतरहितः परदत्तमुपजीवेंस्तिष्ठसि ? 5 विधेहि किञ्चित् कर्मान्तरमिति । ततः कुठारं गृहीत्वा काष्ठकर्तनार्थमटवीं गतः । स्वाभिलषितकाष्ठप्रात्यभावाच्च प्रतिदिवसं रिक्त एव निवर्त्तते । षष्ठे च मासे लब्धं कृष्णचित्रककाष्ठम् । घटितस्तत्र कुलकः - कलसिका चतुर्थांशरूपो धान्यमानविशेषः । ततः प्रेषिता स्वभार्या 'द्रव्यलक्षण यो गृह्णाति तस्मै प्रदातव्यः' इत्युक्त्वा हट्टमार्गे विक्रयार्थम् । सा च तन्मूल्ये लक्षं याचमाना लोकैरुपहस्यते । समायातश्च तत्र कश्चिद् बुद्धिमान् वणिक्, परिभावितं च तेन 10 स्वचेतसि — नूनमत्र कारणेन भवितव्यम्, यदेवमियमस्य काष्ठस्य मूल्ये लक्षं याचते । ततो यावत् तेन धान्यं मिमीते तावन्न कथञ्चित् क्षीयते । अतो धान्याद्यक्षयनिमित्तं लक्षमपि दत्त्वा गृहीतस्तेन कुलकः । ततः प्रभृति तेन सलक्षणजामातृकेण गृहे धृतेन सर्वमपि बर्द्धकिकुटुम्बं धन-धान्यादिना वृद्धिमुपययौ ॥ तथा त्वमपि निजदुहितरं यद्यस्मै प्रयच्छसि ततोऽनेनास्मद्गृहे तिष्ठता समस्तलक्षणोपेतमइत्र15 द्वयमपि तिष्ठति । ततोऽश्वद्वयमाहात्म्येन च सर्वात सम्पदः करस्था एवास्माकं भवन्ति इत्यादि बहुविधमुक्त्वा दापिता तस्मै दुहिता ॥ अथ गाथाद्वयस्याक्षरार्थः - स्थायिन्यो नाम वडवास्ता उच्यन्ते या वर्षे वर्षे विजायन्ते । ताश्च वर्षमेकं कश्चिद् द्रमकः पालयति, उपलक्षणमिदम् तेनाश्वानपि पालयतीत्यादि द्रष्टव्यम् । कथं पालयति ? इत्याह- 'तस्य' अश्वाधिपतेः 'भागेन' वेतनभूताश्वद्वयलक्षणेन । 20 ततश्च तस्य तत्राश्ववडवं पालयतश्चेटिकया समं घटना । तया च स निकाचनां कारितः - एवंविधलक्षणोपेतमेवाश्वद्वयं ग्रहीतव्यं नान्यदिति । किं पुनस्तल्लक्षणम् ? इत्याह — उपविष्टे - ष्वश्वेषु द्रुममारुह्य चर्म कुतपस्य पाषाणभृतस्य भूमौ पातनेन - भेषणा कर्तव्या, यौन त्रस्तस्तौ लक्षणयुक्तौ । ततो भृतिकाले 'द्वयोरपि तयोः' सलक्षणयोरश्वयोरसौ ग्रहणं करोति । 'अलं मे परैरश्वैः, इदमेवाश्वद्वयं समर्पय' इत्येवम् 'आश्विकम् ' अश्वस्वामिनं भणति । स च 2: खभार्यावबोधाय 'वर्द्धकेः' रथकारस्य 'भच्चकः ' भागिनेयस्तस्य यद् वर्द्धकिना दुहितुः प्रदानं ततः स्वभार्यया प्रेरितेन तेन कृष्णचित्रकाष्ठमानीय यत् कुलको घटितस्तेनोपलक्षितम् ' औपम्यं' दृष्टान्तं कृतवान् । एवं गच्छेsपि लक्षणयुक्तेनोपधिना ज्ञानादीनां वृद्धिरुपजायते । ततश्च स्थितमेतत् - विधिनैव तथा वस्त्रं छेदनीयं यथा प्रमाणयुक्तं भवति ॥ ३९५९ ॥ ३९६० ॥ अथ प्रमाणादिखरूपनिरूपणाय द्वारगाथामाह 30 दव्वपमाण अतिरेग हीण, परिकम्म विभूसणा य मुच्छा य । उवहिस्स य पमाणं, जिण थेर अहकमं वोच्छं ।। ३९६१ ।। इह द्रव्यं वस्त्रं तस्य प्रमाणं गणनया प्रमाणेन च द्विविधं वक्तव्यम् । अतिरिक्ते हीने वा १ एतचितः पाठः भा० कां० एव वर्तते ॥ २ स्वकार्या' भा० कां विना ॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गष्यगाथाः ३९६१-६४] तृतीय उद्देशः । १०८७ वस्त्रे दोषा अभिधातव्याः । परिकर्मणं सीवनमित्येकोऽर्थः, तन्निरूपयितव्यम् । “विभूसणा य" त्ति विभूषार्थ यदि वस्त्रं क्षालयति वा रजति वा घर्षति वा सम्प्रमाटि वा तदा प्रायश्चित्तं भवतीति वक्तव्यम् । “मुच्छा य" त्ति मूर्च्छया यदि वस्त्रं न परिभुङ्क्ते तदाऽपि प्रायश्चित्तं वक्तव्यम् । तत्र प्रथमद्वारे तावदुपधेः प्रमाणं जिनकल्पिक-स्थविरकल्पिकानङ्गीकृत्य यथाक्रममहं वक्ष्ये ॥ ३९६१ ॥ प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयितुं जिनकल्पिकानामुपधि गणनाप्रमाणतो निरूपयति पत्तं पत्ताबंधो, पायढवणं च पायकेसरिया । [ओ.नि.६६९.नि. १३९३-९४] पडलाइँ रइत्ताणं, च गोच्छओ पायनिजोगो ॥ ३९६२ ॥ तिन्नेव य पच्छागा, रयहरणं चेव होइ मुहपोती । [ओ.नि.६७०] एसो दुवालसविहो, उवही जिणकप्पियाणं तु ।। ३९६३ ॥ 'पात्रं' प्रतिग्रहः, 'पात्रबन्धः' येन वस्त्रखण्डेन चतुरस्रेण पात्रकं धार्यते, 'पात्रस्थापन' कम्ब-10 लमयं यत्र पात्रकं स्थाप्यते, 'पात्रकेसरिका' यया पात्रं प्रत्युपेक्ष्यते, 'पटलकानि' यानि भिक्षां पर्यटद्भिः पात्रोपरि स्थाप्यन्ते, 'रजस्त्राणं' पात्रवेष्टकम् , 'गोच्छकः' कम्बलमयो यः पात्रकोपरि दीयते । एष सप्तविधः 'पात्रनिर्योगः' पात्रपरिकरभूत उपकरणकलाप इत्यर्थः ॥ ३९६२ ॥ __ तथा—'त्रय एव' न चतुः-पञ्चप्रभृतयः, क एते ? इत्याह-'प्रच्छादकाः' प्रावरणरूपाः कल्पाः, द्वौ सौत्रिकावेकश्चोर्णामय इत्यर्थः । 'रजोहरणं' प्रतीतम् । 'चः' समुच्चये । एव-15 शब्दः पादपूरणे । 'मुखपोतिका' प्रसिद्धा । एष द्वादशविध उपधिर्जिनकल्पिकानां मन्तव्यः। तुशब्दो विशेषणे, स चैतद् विशिनष्टि-जिनकल्पिका द्विविधाः-पाणिपात्राः प्रतिग्रहधारिणश्च । पुनरेकैके द्विविधाः-अप्रावरणाः सप्रावरणाश्च । तत्राप्रावरणानां पाणिपात्राणां रजोहरण-मुखवस्त्रिकारूपो द्विविध उपधिः । सप्रावरणानां तु त्रिविधो वा चतुर्विधो वा पञ्चविधो वा-तत्र त्रिविधो रजोहरणं मुखवस्त्रिका एकः सौत्रिकः कल्पः, चतुर्विधः स एवौर्णिक- 20 कल्पसहितः, पञ्चविधश्चतुर्विध एव द्वितीयसौत्रिककल्पेन सहितः । प्रतिग्रहधारिणां प्रावरणवर्जितानां च नवविध उपधिः, तद्यथा-पात्रं १ पात्रकबन्धः २ पात्रस्थापनं ३ पात्रकेसरिका ४ पटलकानि ५ रजस्त्राणं ६ गोच्छकः ७ रजोहरणं ८ मुखवस्त्रिका ९ चेति । ये तु प्रावरणसहितास्तेषामत्रैव नवविधे एककल्पप्रक्षेपे दशविधः, कल्पद्वयप्रक्षेपे एकादर्शभेदः, कल्पत्रयप्रक्षेपे तु द्वादशविधः । तदेवमुत्कर्षतो जिनकल्पिकानां द्वादशविध उपधिः सम्भवति, एष 25 तुशब्दसूचितो विशेषार्थः । “एकग्रहणे तज्जातीयानां सर्वेषां ग्रहणम्" इति न्यायाद् अन्येऽपि ये गच्छनिर्गतास्तेषां यथायोगमिदमेवोपकरणप्रमाणमवसातव्यम् ॥ ३९६३ ॥ अथ स्थविरकल्पिकानङ्गीकृत्याह एए चेव दुवालस, मसग अइरेग चोलपट्टो य । [ओ.नि.६७१] एसो उ चउदसविहो, उवही पुण थेरकप्पम्मि ।। ३९६४ ॥ 30 'एत एव' अनन्तरोक्ता द्वादशोपधिभेदा अपरं चातिरिक्तं मात्रकं चोलपट्टकश्च, एष चतु. देशविध उपधिः स्थविरकल्पे भवति ।। ३९६४ ॥ अनन्तरोक्तमेवार्थमुपसंहरन्नाह--- १ क-स्थिरक' भा० ॥ २शविधः, कल्प का ॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [कृत्स्नाकृत्स्नप्रकृते सूत्रम् ८ जिणा बारसरुवाई, थेरा चउदसरूविणो। [ओ.नि.६७२] ओहेण उवहिमिच्छति, अओ उड़ उवग्गहो ॥ ३९६५ ।। 'जिनाः' जिनकल्पिका उपकरणानां द्वादशरूपाणि धारयन्तीति शेषः । स्थविरास्तु 'चतुदशरूपिणः' उपकरणचतुर्दशकधारिण इत्यर्थः । एवम् 'ओघेन' सामान्येनोपधिमिच्छन्ति तीर्थकराः, ओघोपधिमित्यर्थः । 'अत ऊर्द्धम्' अतिरिक्तो दण्डक-चिलिमिलिकादिः स्थविरकल्पिकानां सर्वोऽप्युपग्रहोपधिर्मन्तव्यः ॥ ३९६५ ॥ 4 अथ जिनकल्पिकानामुपधेरुत्कृष्टादिविभाग प्रमाणप्रमाणं चाह-» चत्तारि य उक्कोसा, मज्झिमग-जहन्नगा वि चत्तारि । कप्पाणं तु पमाणं, संडासो दो य रयणीओ ॥ ३९६६ ॥ 10 जिनकल्पिकानां चत्वार्युपकरणान्युत्कृष्टानि भवन्ति, त्रयः कल्पाः प्रतिग्रहश्चेति । मध्यम जघन्यान्यपि प्रत्येकं चत्वारि-तत्र पटलकानि रजस्त्राणं रजोहरणं पात्रकबन्धश्चेति मध्यमानि, मुखवस्त्रिका पात्रकेसरिका पात्रस्थापनं गोच्छकश्चेति जघन्यानि । एतेषां च ये कल्पास्तेषां 'सन्दंशकः' कुरण्टको द्वौ च 'रत्नी' हस्तौ दीर्घत्वेन प्रमाणं भवति, विस्तरतस्तु साध हस्तमेकम् ॥ ३९६६ ॥ अथवा15 अनो वि य आएसो, संडासो सथिए णुवन्ने य । जं खंडियं ददं तं, छम्मासे दुब्बलं इयरं ॥ ३९६७ ॥ 'भन्योऽपि च 'आदेशः' प्रकारोऽस्ति । कः ? इत्याह-सन्दंशः स्वस्तिकश्च । तत्र जिनकल्पिकस्योत्कटुकनिविष्टस्य जानुसन्दंशकादारभ्य पुतौ पृष्ठं च छादयित्वा स्कन्धोपरि यावता प्राप्यते एतावत् तदीयकल्पस्य दैर्घ्यप्रमाणम् , अयं च सन्दंशक उच्यते । तथा तस्यैव 20 कल्पस्य द्वावपि पृथुत्वकर्णी हस्ताभ्यां गृहीत्वा द्वे अपि बाहुशीर्षे यावत् प्राप्येते, तद्यथादक्षिणेन हस्तेन वामं बाहुशीर्ष वामेन दक्षिणम् , एष द्वयोरपि कलाचिकयोर्हृदये यो विन्यासविशेषः स खस्तिकाकार इति कृत्वा स्वस्तिक उच्यते, एतत् पृथुत्वप्रमाणमवसातव्यम् । "णुवन्ने य" तिं निपन्नः-त्वग्वर्तितस्तद्विषयं स्थविरकल्पिकानामादेशद्वयं तच्चाग्रे (गा० ३९६९) वक्ष्यते । जिनकल्पिकश्च यद् वस्त्रं 'खण्डितम्' एकस्मात् पार्श्वतश्छिन्नं प्रमाणयुक्तं च यदि 25 च तत् परिभुज्यमानं षण्मासान् यावद् ध्रियते तदीदृशं दृढमिति ज्ञात्वा गृह्णाति, 'इतरद् नाम' षण्मासानपि यावन्न निर्वाहक्षमं तद दुर्बलमिति कृत्वा न गृह्णाति ॥ ३९६७ ॥ अथ किमर्थमसौ खस्तिकं करोति ? इत्याह संडासछिडेण हिमादि एति, गुत्ता वऽगुत्ता वि य तस्स सेजा। हत्थेहि सो सोस्थिकडेहि घेत्तुं, वत्थस्स कोणे सुवई व झाती ॥ ३९६८ ॥ 30 'तस्य' जिनकल्पिकस्य शय्या 'गुप्ता वा' घनकुड्य-कपाटयुक्ता अगुप्ता वा भवेत् , अतः सन्दंशकच्छिद्रेण 'हिमादिकं' शीत-वात-सादिकम् 'एति' आगच्छति, ततस्तस्य रक्षणार्थ 'स्वस्तिककृताभ्यां' स्वस्तिकाकारनिवेशिताभ्यां हस्ताभ्यां द्वावपि वस्त्रस्य कोणौ गृहीत्वा उत्कु नास्त्येतदन्तर्गतमवतरणं भा० ॥२त्ति अनुपनः भा. बिना ॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३९६५-७२ ]. तृतीय उद्देशः । १०८९ टक एव स खपिति वा ध्यायति वा । तत्र प्रायेण धर्मजागरिकया जागर्त्ति परं केचिदाचार्या ब्रुवते --- उत्कुटक एव तृतीये यामे क्षणमात्रं स्वपितीति ॥ ३९६८ ॥ अथ गच्छवासिनां कल्पप्रमाणमाह कप्पा आयपमाणा, अड्डाइजा उ वित्थडा हत्था । [ ओ. नि. ७०६ ] एग्रं मज्झिम माणं, उक्कोसं होंति चत्तारि ।। ३९६९ ॥ 5 कल्पाः 'आत्मप्रमाणाः' सार्धहस्तत्रयप्रमाणायामाः, अर्धतृतीयांश्च हस्तान् 'विस्तृताः ' पृथुला विधेयाः, एतद् मध्यमं ' मानं' प्रमाणं भवति । उत्कर्षतो दैर्येण चत्वारो हस्ताः । एतदाशद्वयं मन्तव्यम् || ३९६९ || अत्रैव कारणमाह संकुचिय तरुण आयप्पमाण सुयणे न सीयसंफासो । दुओ पेल थेरे, अणुचिय पाणाइरक्खाऽऽया ।। ३९७० ।। 10 यो भिक्षुस्तरुणो बलवान् स सङ्कुचितपादः खप्तुं शक्नोति, तस्य तथा खपने शीतस्पर्शो न भवति, अतस्तस्य आत्मप्रमाणाः कल्पा अनुज्ञाताः । यस्तु स्थविरो वयसा वृद्धः स क्षीणबलत्वान्न शक्नोति सङ्कुचितपादः शयितुम्, अतस्तस्यानुग्रहार्थं दैर्येणात्मप्रमाणादूर्द्धं षडङ्गुलानि विस्तरतोऽप्यर्ध तृतीयहस्तप्रमाणादभ्यधिकानि षडङ्गुलानि विधीयन्ते । एवं विधीयमाने गुणमुपदर्शयति - "दुहओ पेल्लग" त्ति शिरः - पादान्तलक्षणयोर्द्वयोरपि पार्श्वयोर्यत् कल्पस्य 'प्रेरणम् ' 15 आक्रमणं तेन स्थविरस्य शीतं न भवति । 'अनुचितः ' अभावितः शैक्ष इत्यर्थः, तस्यापि स्वपनविधावनभिज्ञस्य कल्पप्रमाणमेवमेव ज्ञातव्यम् । अपि च एवं प्राणिनां रक्षा कृता भवति, न मण्डूकप्लुत्या कीटिकादयः प्राणिनः प्रविशन्तीति भावः, आदिशब्दाद् दीर्घजातीयादयोऽपि न प्रविशन्ति, तेनात्मनोऽपि रक्षा कृता भवति ॥ ३९७० ॥ अथ पात्र बन्धादीनां प्रमाणनिरूपणायाह- पत्ता बंधपमाणं, भाणपमाणेण होड़ कायव्वं । [ ओ.नि. ६९४] चउरंगुलं कर्मता, पत्ताबंधस्स कोणा उ ।। ३९७१ ॥ पात्र बन्धप्रमाणं भाजनप्रमाणेन कर्त्तव्यं भवति । यदि मध्यमं जघन्यं वा पात्रं भवति तदा पाकबन्धोऽपि तदनुसारेण करणीयः, अथोत्कृष्टप्रमाणं पात्रं तदा सोऽपि गुरुतरः कार्यः । किं बहुना ? यथा ग्रन्थौ कृते सति पात्रकबन्धस्य कोणाश्चतुरङ्गुलमूर्द्ध क्रामन्तो भवन्ति, प्रन्थे - 25 रतिरिक्ताश्चतुरङ्गुला अञ्चला यथा भवन्तीति भावः, तथा पात्रकबन्धप्रमाणं विधेयम् ॥ ३९७१ ॥ रयताणस्स पमाणं, भाणपमाणेण होति कायव्वं । पायाहिणं करितं, मज्झे चउरंगुलं कमति ।। ३९७२ ॥ रजस्त्राणस्य प्रमाणं भाजनप्रमाणेन कर्त्तव्यं भवति । कथम् ? इत्याह- प्रादक्षिण्येन वेष्टनं कुर्वत् पात्रस्य मध्ये 'चतुरङ्गुलं' चत्वार्यङ्गुलानि यथा रजस्त्राणमतिक्रामति तथा रजस्त्राणप्रमाणं 30 विधेयम् ॥ ३९७२ ॥ पटलकानां प्रमाणमाह १ भणितम् । उ° भा० ॥ २ क्खा य तामा• ॥ ३ " अणुयितत्ति अभावितस्स ति" इति चूर्णौ विशेषचूर्णौ च ॥ 20 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ कृत्स्ना कुत्तप्रकृते सूत्रम् ८ तिविहम्मि कालछेए, तिविहा पडला उ होंति पायस्स । गिम्ह सिसिर - वासासुं, उक्कोसा मज्झिम जहन्ना || ३९७३ ॥ त्रिविधे 'कालच्छेदे' कालविभागे त्रिविधानि पटलकानि पात्रस्य भवन्ति । इदमेव व्याचष्टे - ग्रीष्म- शिशिर वर्षासु प्रत्येकमुत्कृष्टानि मध्यमानि जघन्यानि च । तत्र यानि अत्यन्त - 5 दृढानि तान्युत्कृष्टानि, दृढ- दुर्बलानि मध्यमानि, दुर्बलानि जघन्यानि ॥ ३९७३ ॥ इदमेव भावयति गिम्हासु तिनि पडला, चउरो हेमंतें पंच वासासु । उक्कोसगा उ एए, एत्तो वोच्छामि मज्झिमए ॥ ३९७४ ॥ 'ग्रीष्मेषु' चतुर्ष्वप्युष्णर्त्तुमासेषु त्रीणि पडलानि भवन्ति, कालस्यात्यन्तरूक्षतया त्वरित - 10 मेव पृथिवीरजः प्रभृतीनां परिणतेस्तैः पटलकानां भेदासम्भवात् । चत्वारि पटलकानि 'हेमन्ते' शीतकाले भवन्ति, कालस्य स्निग्धतया विमर्देन पृथिवीरजः प्रभृतीनां परिणतेः । पञ्च पटलकानि वर्षासु भवन्ति, कालस्यात्यन्तस्निग्धत्वात् । एतान्युत्कृष्टानि मन्तव्यानि । अत ऊर्द्ध मध्यमानि वक्ष्ये || ३९७४ ॥ प्रतिज्ञातमेवाह 15 20 १०९० गिम्हासुं होंति चउरो, पंच य हेमंतें छच्च वासासु । मज्झिमा खलु एए, एत्तो उ जहन्नए वोच्छं ॥ ३९७५ ॥ मेषु चत्वारि पटकानि, हेमन्ते पञ्च, वर्षासु षट्, मनाग् जीर्णतया प्रभूततराणामेव कार्यसाधनात् । एतानि खलु मध्यमकानि मन्तव्यानि । अत ऊर्द्ध जघन्यानि वक्ष्ये ॥३९७५ ॥ गिम्हासु पंच पडला, हेमंते छच्च सत्त वासासु । तिविहम्मि कालछेए, तिविहा पडला उ पायस्स ।। ३९७६ ॥ ग्रीष्मेषु पञ्च पटकानि, हेमन्ते षट्, वर्षासु सप्त । एतानि जघन्यानि । एवं त्रिविधे कालच्छेदे त्रिविधानि पटलकानि पात्रस्य भवन्ति ॥ ३९७६ ॥ उक्तं पटलकानां गणनाप्रमाणम्, अथ प्रमाणप्रमाणम् -तत्र च विशेषचूर्णि::-गच्छनिग्गयाणं चउरंसा पडला, जं भाणे मज्झे कए हेट्टा अट्ठ अंगुलाई लंबंति । गच्छवासीणं जं उग्गाहिए समाणे चउहिं अंगुलेहिं जन्नुए न पावति; अहवा दीहत्तणेण अड्डाइज्जा हत्था, 25 दत्तणेण दिवडो हत्थो || रजोहरणप्रमाणमाह मूले थिरं मज्झे, अग्गे मद्दवजुत्तया । [ ओ.नि.७०८]• एगंगियं अनुसिरं, पोरायामं तिपासियं ।। ३९७७ ॥ १ एतचिहान्तर्गतः पाठः भा० प्रतावेव वर्तते। कां० प्रतौ तु एतत्स्थाने कालस्यात्यन्त रुक्षस्वात् । 'हेमन्ते' शीतकाले चतुषु मासेषु चत्वारि, [ कालस्य स्निग्धत्वात् । वर्षासु पञ्च पटलकानि भवन्ति, ] इति कोष्टान्तर्गतगलित पाठरूपः पाठ उपलभ्यते । अन्यासु पुनः प्रतिषु सर्वथा पाठो गलत इति ॥ २° रो पडला, पंच ताभा० ॥ ३ "स्यहरणं गणणष्पमाणेण एवं गच्छणिग्गयाणं, गच्छवासीणं दो वासासु । पमाणप्पमाणेण समं दसियासु बत्तीसं अंगुलाई जस्स चउव्वीसं अंगुलाई दंडो तस्स अट्ठ अंगुलाई दसियाओ, जस्स पुण वीसं अंगुलाई दंडो तस्स बारसंगुला दसियाओ ।" इति विशेषचूर्णो ॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९१ भाष्यगाथाः ३९७३-८२] तृतीय उद्देशः । 'मूले' हस्तग्रहणप्रदेशे रजोहरणं 'धनं' निबिडवेष्टितम् , 'मध्ये' मध्यभागे 'स्थिर' दृढम् , 'अग्रे' दशिकापर्यन्ते 'मार्दवयुक्तता' दशिका मृदुस्पर्शा विधेया इत्यर्थः । 'एकानिकं नाम' तज्जातदशिकं न वा व्यादिखण्डनिष्पन्नम् , 'अशुषिरं' न रोमबहुलं न वा ग्रन्थिलम् , “पोरायाम" ति पर्वायाम अङ्गुष्ठपर्वणि प्रतिष्ठितायाः प्रदेशिन्या यावदपान्तरालं तावत्पमाणायामम् , "तिपासियं" ति त्रिभिर्दवरकवेष्टकैः पाशितं-बद्धम् , एवंविधं रजोहरणं कर्त्तव्यम् ॥३९७७॥ । इदमेव स्पष्टतरमाह अप्पोल्लं मिदुपम्हं च, पडिपुग्नं हत्थपूरिमं । तिपरियल्लमणीसहूं, रयहरणं धारए मुणी ॥ ३९७८ ॥ 'अप्पोल्लं' दृढवेष्टनादशुषिरमशुषिरदण्डं वा, तथा मृदूनि-कोमलानि पक्ष्माणि-दशिकारोमाग्रभागरूपाणि यस्य तद् मृदुपक्ष्मकम् , 'प्रतिपूर्ण' बाह्येन निषद्याद्वयेन युक्तं सद् 'हस्तपू-10 रिमं' यथा हस्तं पूरयति तथा कर्त्तव्यमित्यर्थः, 'त्रिपरिवर्त' त्रीन् वारान् वेष्टनीयम् , 'अनिसृष्टं नाम' हस्तप्रमाणादवग्रहादस्फेटितम् , एवंविधं रजोहरणं मुनिर्धारयेत् ॥ ३९७८ ॥ उन्नियं उट्टियं चेव, कंबलं पायपुंछणं । [आ.नि.७१०] रयणीपमाणमित्तं, कुजा पोरपरिग्गरं ॥ ३९७९ ॥ 'और्णिकम्' ऊर्णामयं 'औष्ट्रिकं वा' उष्ट्ररोममयं यत् कम्बलं तत् ‘पादप्रोञ्छनं' रजोहरणं 15 कर्तव्यम् । 'रनिप्रमाणमात्रं' हस्तप्रमाणायामदण्डकं 'पर्वपरिग्रहम्' अङ्गुष्ठपर्वलमप्रदेशिनीशुपिरपूरकम् एवंविधं रजोहरणं कुर्यात् ॥ ३९७९ ।। 1 औपंग्रहिकोपधिविशेषभूतानां संस्तारकादीनां प्रमाणमाह-~ संथारुत्तरपट्टा, अड्डाइजा उ आयया हत्थे । तेसि विक्खंभो पुण, हत्थं चतुरंगुलं चेव ।। ३९८० ॥ संस्तारकोत्तरपट्टकावर्धतृतीयान् हस्तान् 'आयतौ' दीर्यौ भवतः, तयोः 'विष्कम्भः' विस्तारः पुनरेकं हस्तं चतुरङ्गुलं च भवति, चतुर्भिरङ्गुलैरधिको हस्त इत्यर्थः ॥ ३९८० ॥ दुगुणो चतुग्गुणो वा, हत्थो चतुरंसों चोलपट्टो उ। ___एगगुणा उ निसेजा, हत्थपमाणा सपच्छाया ॥ ३९८१ ॥ द्विगुणश्चतुर्गुणो वा कृतः सन् यथा हस्तप्रमाणश्चतुरस्रो भवति तथा चोलपट्टकः कर्त्तव्यः । 25 तत्र द्विगुणः स्थविराणाम् , चतुर्गुणस्तरुणानाम् । तथा रजोहरणपट्टस्यौर्णिकी निषद्या 'एकगुणा' गुणनया एकत्वसङ्ख्यायुक्ता प्रमाणेन च हस्तप्रमाणा 'सपच्छादका' तावत्प्रमाणयैव सौत्रिकया प्रच्छादकनिषद्यया सहिता भवति ॥ ३९८१ ॥ खवस्त्रिकाप्रमाणमाह-~ चउरंगुलं विहत्थी, एयं मुहणंतगस्स उ पमाणं । [ओ.नि.७१२] वितियं पि य पमाणं, मुहप्पमाणेण कायव्वं ॥ ३९८२ ॥ 30 'चतुरङ्गुलं' चत्वार्यङ्गुलानि वितस्तिश्चैका एतद् 'मुखानन्तकस्य' मुखवस्त्रिकायाः प्रमाणम् । १°ङ्गलिप मो० ले० ॥ २ » एतदवतरणं भा० नास्ति ॥ ३ हत्थायामा सप' तामा०॥ ४ - एतचिह्नमध्यगतमवतरणं भा० नास्ति ॥ 20 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९२ सनियुक्ति-लघुभाप्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [कृत्लाकृत्सप्रकृते सूत्रम् ८ द्वितीयमप्यत्र प्रमाणं भवति, किम् ? इत्याह--मुखप्रमाणेन मुखानन्तकं कर्त्तव्यम् । किमुक्तं भवति ?-वसतिं प्रमार्जयन् रजःप्रवेशरक्षणार्थं कोणद्वये गृहीत्वा नासिकां मुखं च प्रच्छाय कृकाटिकायां यावता ग्रन्थि दातुं शक्नोति तावत्प्रमाणा मुखवस्त्रिका कर्तव्या ॥ ३९८२ ॥ गोच्छक पडिलेहणिया, पायट्ठवणं च होइ तह चेव । 5 तिण्हं पिय पमाणं, विहत्थि चउरंगुलं चेव ॥ ३९८३ ॥ गोच्छकः पात्रप्रत्युपेक्षणिका पात्रकस्थापनं च तथैवात्र प्रमाणतो निरूपणीयं भवति । कथम् ? इत्याह-'त्रयाणामपि' गोच्छकादीनां प्रमाणं वितस्तिश्चतुरङ्गुलं च भवति, षोडशाङ्गुलप्रमाणानि चतुरस्राणि त्रीण्यपि भवन्तीति भावः ॥ ३९८३ ।। तदेवमुक्तं पात्र-मात्रक वर्जितानां शेषोपकरणानां प्रमाणम् , पात्र-मात्रकयोस्तु वस्त्राधिकारादत्र न क्रियते, पुरस्ताद् 10 विधास्यते । इह स्थविरकल्पिकानां त्रयः प्रच्छादका भवन्तीति पूर्वमुक्तं तदिदानी द्रढयन्नाह जो वि तिवत्थ दुवत्थो, एगेण अचेलगो व संथरइ। न हु ते खिंसंति परं, सव्वेण वि तिन्नि घेत्तव्या ॥ ३९८४ ॥ योऽपि साधुः त्रिवस्त्रो द्विवस्त्रो वा संस्तरति, त्रिभिाभ्यां वा कल्पैरित्यर्थः, स त्रीन् द्वौ वा कल्पान् परिभुक्ताम् , योऽप्येकेन कल्पेन संस्तरति स एकमेव परिभुताम् , यो वा जिन15 कल्पिकादिरचेलकः संस्तरति स एकमपि कल्पं मा गृह्णातु, परं 'नहि' नैव 'ते' स्वल्पतरवस्त्रा अचेलका वा 'परम्' अन्यमधिकतरवस्त्रं खिसन्ति । कुतः ? इति चेद् उच्यते-सर्वेणापि स्थविरकल्पिकेन त्रयः कल्पा नियमाद् ग्रहीतव्याः । यद्यपि शीतपरीषहसहिष्णुतया कश्चिदेकेनापि कल्पेनाप्रावृतः संस्तरति तथापि भागवतीमाज्ञामनुवर्तमानः सोऽपि त्रीन् कल्पान् गृह्णाति ॥ ३९८४ ॥ किमर्थं पुनरीदृशी भगवतामाज्ञा ! इति उच्यते अप्पा असंथरंतो, निवारिओ होइ तीहि वत्थेहिं । गिण्हति गुरूविदिण्णे, पगासपडिलेहणे सत्त ॥ ३९८५ ॥ 'आत्मा' शरीरं स शीतादिना 'असंस्तरन्। त्रिभिर्वस्वैर्निवारितो भवति । तथा चात्र विशेषचूर्णिलिखितो भावार्थः उस्सग्गेणं ण चेव पाउरियव्वं । जाहे न संथरइ ताहे एक्कं पाउणइ । जाहे तेण वि न 25 संथरेजा ताहे बिइयं पि उण्णिय पाउणेज्जा । जाहे तेण वि न संथरेज्जा ताहे तइयं पि पाउणिज्जा । जइ नाम तह वि न संथरेज्जा ताहे तिन्नि वि छड्डेऊण बाहिं पडिमाए ठाइ, ताव अच्छइ जाव सीएणं नीसढे द्रावितो, पच्छा तम्मि चेव निवेसइ । जइ तत्थ न संथरेजा ताहे अंतो पडिमं ठाइ, तत्थ झाणोवगओ चिट्ठइ । जइ न संथरइ ताहे तम्मि चेव निवेसइ । एवं पि जइ न संथरेइ ताहे एक कप्पं गिण्हेज्जा, जाहे तेण वि न संथरेइ ताहे बिइयं, ततो 30 तइयं, तत्थ से अईव सायं भवइ । एवं अप्पा तिहिं वत्थेहिं निवारिओ हवइ त्ति । अथ तानि परिजीर्णानि ततो न त्रिभिः शीतं निवारयितुं पार्यते तत आह-गुरुभिःआचार्यैर्वितीर्णानि 'प्रकाशप्रत्युपेक्षणानि' जीर्णत्वादचौरहरणीयानि सप्त वस्त्राण्युत्कर्षतो गृहाति १ वितथि साभा०॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 भाष्यगाथाः ३९८३-९०] तृतीय उद्देशः । १०९३ ॥ ३९८५ ॥ इदमेव स्पष्टयति तिनि कसिणे जहन्ने, पंच य दढदुबलाइँ गेण्हेजा। सत्त य परिजुन्नाई, एयं उक्कोसगं गहणं ॥ ३९८६ ॥ कृत्सानि नाम-घनमसृणानि यैरन्तरितः सविता न दृश्यते ईदृशानि त्रीणि वस्त्राणि जघन्यतो गृह्णीयात्, यानि तु दृढदुर्बलानि तानि पञ्च गृह्णीयात् , यानि परिजीर्णानि तानि सप्त । एतदुत्कृष्टं ग्रहणं मन्तव्यम् ॥ ३९८६ ॥ -4 कीदृशं पुनरुपधिं भिक्षुर्धारयति ? इत्याह -» भिन्नं गणणाजुत्तं, पमाण इंगाल-धूमपरिसुद्धं ।। उवहिं धारऍ भिक्खू, जो गणचिंतं न चिंतेइ ॥ ३९८७ ॥ 'भिन्नं नाम' सदशं सकलं वा यन्न भवति, गणनायुक्तं' गणनाप्रमाणोपेतम् , प्रमाणेन 10 च-यथोक्तदैर्घ्य-विस्तरविषयमानेन युक्तमित्यनुवर्तते, तथा 'अङ्गार-धूमाभ्यां स राग-द्वेष. परिणामाभ्यां » परि-समन्तात् शुद्धं-विरहितम् , एवंविधमुपधिं स भिक्षुर्धारयेत् , यो गणचिन्तां न चिन्तयति, सामान्यसाधुरिति भावः । यस्तु गणचिन्तकस्तस्य न प्रतिनियतमुपधिप्रमाणम् ॥ ३९८७ ॥ तथा चाह गणचिंतगस्स एत्तो, उक्कोसो मज्झिमो जहन्नो य । सव्वो वि होइ उवही, उवग्गहकरो महाणस्स ॥ ३९८८ ॥ गणचिन्तकः-गणावच्छेदिकादिस्तस्य सत्तायामत ऊद्धं उत्कृष्टो मध्यमो जघन्यश्च 'सर्वोऽपि' औधिक-औपग्रहिकश्वोपधिर्महाजनस्योपग्रहकरो भवति ॥ ३९८८ ॥ इदमेव भावयति आलंबणे विसुद्धे, दुगुणो तिगुणो चउग्गुणो वा वि। सयो वि होइ उवही, उव्वग्गहकरो महाणस्स ॥ ३९८९ ॥ 20 आलम्बनं द्विधा-द्रव्यतो गर्तादौ निमजतो रज्वादि, भावतः संसारगर्तायां निपततां ज्ञानादि । इह पुनर्यत्र क्षेत्रे काले वा दुर्लभं वस्त्रं तदादिकमालम्बनं गृह्यते, तत्र 'विशुद्धे प्रशस्ते सति द्विगुणो वा त्रिगुणो वा चतुर्गुणो वा औधिक औपग्रहिकश्वोपधिः सर्वोऽपि 'महाजनस्य' गच्छस्योपग्रहकरो भविष्यतीति कृत्वा गणचिन्तकस्य परिग्रहे भवतीति ॥३९८९॥ गतं प्रमाणद्वारम् , अथातिरिक्त-हीनद्वारमाह 25 पेहा-ऽपेहादोसा, भारो अहिकरणमेव अतिरित्ते । एए भवंति दोसा, कजविवत्ती य हीणम्मि ॥ ३९९० ॥ अतिरिक्तमुपधिं यदि प्रत्युपेक्षते तदा सूत्रा-ऽर्थयोर्महान् परिमन्थः, अथ न प्रत्युपेक्षते तत उपधिनिष्पन्नम् , एवं प्रेक्षा-ऽप्रेक्षयोरुभयोरपि दोषाः । भारश्च महान् मार्गे गच्छतां भवति । अपरिभोग्यस्य चोपधेर्धारणे अधिकरणम् । एतेऽतिरिक्ते दोषा भवन्ति । अथ 'हीनं' यथोक्त-30 १ एतदन्तर्गतमवतरणं भा० नास्ति ॥ २ "भिण्णं दबतो भावतो य । दबतो पमाणेणं गणणाए य। भावतो मुल्लबहुगं !” इति विशेषचूर्णौ ॥ ३१॥ एतदन्तर्गतः पाउ: भा० का० एव वर्तते ॥ ४एवमुभयथाऽपि दो भा० ॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लधुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [कृत्लाकृतप्रकृते सूत्रम् ८ प्रमाणाद् न्यूनमुपकरणं भवति ततः कार्यस्य विपत्तिः, यत् तेन कल्पादिना कार्य तन्न सिध्यतीति भावः ॥ ३९०० ॥ अथ परिकर्मणिद्वारमाह -- परिकम्मणि चउभंगो, कारणे विहि बितिओं कारणे अविही । निकारणम्मि उ विही, चउत्थों निकारणे अविही ॥ ३९९१.॥ 5 परिकर्मणायां चतुर्भङ्गी, गाथायां पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् । सा चेयम्-कारणे विधिना परिकर्मणमित्येको भङ्गः, कारणेऽविधिनेति द्वितीयः, निष्कारणे विधिनेति तृतीयः, निष्कारणेऽविधिनेति चतुर्थः ॥ ३९९१ ॥ कारणे अणुन विहिणा, सुद्धो सेसेसु मासिका तिन्नि । तव-कालेसु विसिट्ठा, अंते गुरुगा य दोहिं पि ॥ ३९९२ ॥ 10 कारणे विधिना परिकर्मणमनुज्ञातम् , अत एवायं प्रथमो भङ्गः शुद्धः । 'शेषेषु' त्रिषु भङ्गेषु त्रीणि मासिकानि भवन्ति, नवरं तपः- कालयोविशिष्टानि-तत्र द्वितीयभने कालगुरुकम् , तृतीये तपोगुरुकम् , 'अन्त्ये' चतुर्थभने 'द्वाभ्यामपि' तपः कालाभ्यां गुरुकम् । अत्र चे गर्गरसीवनादिकम् अविधिपरिकर्मणं मन्तव्यम् । एकसरा द्विसरी ऋषकण्टका च सीवनिका विधिपरिकर्मणं समनुज्ञातम् ॥ ३९९२ ॥ विभूषाद्वारमाह15 उदाहडा जे हरियाहडीए, परेहि धोयाइपया उ वत्थे । भूसानिमित्तं खलु ते करिति, उग्घातिमा वत्थें सवित्थरा उ ॥ ३९९३ ॥ प्रथमोदेशके हताहतिकासूत्रे (सू० ४५) 'परैः' स्तेनैः कृतानि धौतादिपदानि यानि वस्त्रे उदाहृतानि तानि यद्यात्मनो विभू सानिमित्तं करोति तदा सविस्त - राश्चत्वार उद्घातिमा मासा भवन्ति । इयमत्र भावना-विभूषानिमित्तं यद्यात्मीयं वस्त्रं प्रक्षालयति रजति 20 घृष्टं मृष्टं वा करोति पटवासादिना वा वासयति तदा चतुर्लघुकम् । सविस्तरग्रहणाद् धौतादिपदानि कुर्वतो या आत्मविराधना तन्निप्पन्नमपि प्रायश्चित्तम् ॥ ३९९३ ॥ किमर्थं पुनर्विभूषामासेवते ? इत्याह मलेण पत्थं बहुणा उ वत्थं, उज्झाइगो हं चिमिणा भवामि । हं तस्स धोव्वम्मि करेमि तत्ति, वरं न जोगो मलिणाण जोगो ॥ ३९९४ ॥ 25 इदं मदीयं वस्त्रं बहुना मलेन 'ग्रस्तम्' आपूरितम् , अतोऽनेनाहं “उज्झाइओ" विरूपो भवामि । यतश्चाहं विरूप उपलभ्ये ततः 'तस्य' वस्त्रस्य धौतव्ये तंप्तिमहं करोमि, येन गोमूत्रादिना शुध्यति तदानयामीत्यर्थः । कुतः ? इत्याह-वरं मे वस्त्रेण सह न योगः, परं मलिनवस्त्राणां योगो न वरम् , मलिनवस्त्रप्रावरणादप्रावरणमेव श्रेय इति भावः । कारणे तु वस्त्रं धावन्नपि शुद्धः ॥ ३९९४ ॥ १°कर्मद्वा भा• कां०॥ २ च धर्घरसी मो० ले । “अविधीए गग्गरसिव्वणादि, विधी असकंटा एगसरिया बिसरिया य" इति चूर्णौ । “अविही गग्गरसिव्वणा-तुण्णणाई य । विही ऋसकंटा एगसरिगा बिसरिगा य” इति विशेषचूर्णी ३ रा ऊषक मो० ले० ताटी० ॥ ४॥ एतदन्तर्गतः पाठः भा० का. एव वर्तते ॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ३९९१-९८] तृतीय उद्देशः । १०९५ पर: प्राह---ननु वस्त्रधावने विभूषा भवति, सा च साधूनां कत्तुं न कल्पते, “विभूसा इत्थिसंसग्गी' (दशवै० अ० ८ गा० ५७ ) इत्यादिवचनात् ; सूरिराह----- कामं विभूसा खलु लोभदोसो, तहा वि तं पाउणओ न दोसो। मा हीलणिज्जो इमिणा भविस्सं, पुग्विविमाई इय संजई वि॥ ३९९५ ॥ 'कामम्' अनुमतमेतत् , 'खलुः' अवधारणे, यैषा विभूषा सा लोभदोष एव, तथापि 5 'तद्' । वस्त्रं शुचि » भूतं कारणे कृत्वा प्रावृण्वतो न दोषः । कस्य ? इत्याह--यः पूर्व राजादिक ऋद्धिमानासीत् स तादृशीमृद्धिं विहाय प्रव्रजितः सन् चिन्तयति-माऽमुना मलक्लिन्नवाससा अबुधजनस्येहलोकप्रतिबद्धस्य हीलनीयो भविष्यामि, यथा-नूनं केनापि देवादिना शापशप्तोऽयम् , यदेवं तादृशीं विभूतिं विहाय साम्प्रतमीदृशीमवस्थां प्राप्तः । आदिशब्दादाचार्यादिरप्येवमेव शुचिभूतं वस्त्रं प्रावृणोति । संयत्यपि ऋद्धिमत्प्रव्रजिता नित्यं 10 पाण्डरपटप्रावृता तिष्ठति पर्यटति वा ॥ ३९९५ ॥ शुचिभूतं वस्त्रं प्रावृण्वतस्तस्य कथं रागो भवति ? इत्याह--- न तस्स वत्थाइसु कोइ संगो, रजं तणं चेव जदं तु तेणं । मो सो उ उज्झाइय वत्थजोगो, तं गारवा सो न चएति मोत्तुं ॥ ३९९६ ॥ योऽसौ ऋद्धिमान् प्रव्रजितस्तस्य वस्त्रादिषु 'कोऽपि' खल्पोऽपि 'सङ्गः' रागो नास्ति, यतः 15 'तेन' महात्मना राज्यं तृणमिव परित्यक्तम् ; यः पुनरसौ "उज्झाइओ" विरूपोऽहममुना मलविलीनेन वाससा इत्येवमभिप्रायेण धौतादिगुणोपेतस्य वस्त्रस्य योगस्तमसौ विभूषाप्रियः संयतः “गारव" ति ऋद्धिगौरवान्न मोक्तुं शक्नोति, अतस्तस्य प्रायश्चित्तमुक्तमिति भावः ॥ ३९९६ ॥ गतं विभूषाद्वारम् । अथ मूर्छाद्वारमाह महद्धणे अप्पधणे व वत्थे, मुच्छिजती जो अविवित्तभावो। सतं पि नो भुंजति मा हु झिज्झे, वारेति चऽनं कसिणा दुगा दो॥३९९७॥ 'महाधने' महामूल्ये 'अल्पधने वा' अल्पमूल्ये वस्त्रे यः 'अविविक्तभावः' विवेकविकलाशयः 'मूर्च्छति' मूछों करोति; कथमेतद् ज्ञायते ? इत्याह-खयमपि तत् प्रधानं वस्त्रं न परिभुते 'मा क्षीयतां' मा परिभुज्यमानं सत् परिजीर्यतामिति कृत्वा, 'अन्य' परिभुञ्जानं च वारयति, तस्य प्रायश्चित्तम् ‘कृत्स्नाः' सम्पूर्णाः “दुगा दो" ति चत्वारो मासाः, चतुर्गुरुकमि-25 त्यर्थः ॥ ३९९७ ॥ अथ किमर्थं वस्त्रे मूछों करोति ? इत्याह देसिल्लगं वनजुयं मणुन्नं, चिरादणं दाइँ सिणेहओ वा । लब्भं च अनं पि इमप्पभावा, मुच्छिजई ईय भिसं कुसत्तो ।। ३९९८॥ "देसिल्लग" देशविशेषोद्भवम् , “वर्णयुतं' वर्णाढ्यम् , खदेशीयं परदेशीयं वा श्लक्ष्णं स्थूलं वा यद् मनसो रुच्यते तद् मनोज्ञम् , 'चिरन्तनं नाम' यदाचार्य परम्परागतम् , "दाइं" ति 30 निपातो विकल्पाथें, येन वा तत् प्रदचं तस्योपरि महान् स्नेहः, यद्वाऽमुना वस्त्रेण तिष्ठताऽह ११» एतदन्तर्गतः पाठः भा० का० एव वर्तते ॥ २ ॥ एतदन्तर्गतमवतरणं मा० नास्ति । ३तं संजतो सो त २०॥ ४ कमन्ते तामा• ॥ 20 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९६ सनियुक्ति-लधुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [कृत्लालप्रकृते सूत्रम् ८ मन्यदपि वस्त्रमेतत्प्रभावादेव लप्स्ये, एवमेभिः कारणैः 'भृशम्' अत्यर्थ 'कुसत्त्वः' तुच्छधृतिबलो मूर्च्छति, मूर्छातश्च न विवक्षितं वस्त्रं परिभुते ॥ ३९९८ ॥ उक्तो वस्त्रविषयो विधिः, अथ पात्रविषयं तमेवाभिघिरसुराह दव्वप्पमाणअतिरेगहीणदोसा तहेव अववाए । लक्वणमलक्खणं तिविह उवहि वोच्चत्थ आणादी ॥ ३९९९ ॥ को पोरुसी य कालो, आगर चाउल जहन जयणाए । चोदग असती असिव, पमाण उवओग छेयण मुहे य ॥ ४०००॥ द्रव्यमिह-पात्रं तस्य यद् वक्ष्यमाणं प्रमाणं ततोऽतिरिक्ते हीने च पात्रे दोषा वक्तव्याः १। तथैव 'अपवादः' कारणे हीना-ऽतिरिक्तधारणलक्षणः २ । पात्रस्य किं लक्षणम् ! किं 10 वा अलक्षणम् ! ३ । 'त्रिविधः' उत्कृष्टादिभेदाद् यथाकृतादिभेदाद्वा त्रिप्रकार उपधिर्यथा गृह्यते ४ । यथोक्तक्रमाच्च विपर्यस्तेन ग्रणे प्रायश्चित्तमाज्ञादयश्च दोषाः ५ ॥ ३९९९ ॥ तथा "को' त्ति कः पात्रं गृह्णाति ? ६ । “पोरिसि" त्ति बहुबन्धनबद्धं पात्रं धारयता सूत्राऽर्थपौरुष्यौ द्वे अपि हापयित्वाऽपरं पात्रं गवेषणीयम् ७ । "कालो" ति तस्य च गवेषणे कियान् कालः ? इति ८ । 'आकरः' कुत्रिकापणादि यत्र पात्रं गवेष्यमाणं लभ्यते ९ । “चाउल" ति 15 तन्दुलधावनेन उपलक्षणत्वादुष्णोदकादिना वा भावितं किं कल्पते ? न वा ? इति १० । "जहन जयण" ति जघन्यं पञ्चकप्रायश्चित्तम् , जघन्यानि वा-सर्षपादीनि बीजानि तयुक्तमपि पात्रं यतनया ग्रहीतव्यम् ११ । नोदकः प्रेरयति-कथं बीजभृतमपि पात्रमनुज्ञायते ? १२ । सूरिराहे-यदेतद् बीजयुक्तपात्रग्रहणमनुज्ञातं तद् 'असत्तायां' पात्रकस्याभावे, यत्र वा भाजनानि लभ्यन्ते तत्र अपान्तराले वा अशिवम् १३ । “पमाण उवओग छेयण" ति यदि 50प्रमाणयुक्तं पात्रं न लभ्यते तत उपयोगपूर्वकं पात्रस्य च्छेदनं विधाय प्रमाणं विधेयम् १४ । __"मुहे" ति अल्पपरिकर्म-सपरिकर्मकयोर्मुखकरणं सम्भवति न यथाकृते १५ । एवमेतानि द्वाराणि प्ररूपणीयानीति द्वारगाथाद्वयस पार्थः ॥ ४००० ॥ साम्प्रतमेतदेव विवरीषुराह पमाणातिरेगधरणे, चउरो मासा हवंति उग्घाया। आणाइणो य दोसा, विराहणा संजमा-ऽऽयाए । ४००१॥ ॐ प्रमाणातिरिक्तपात्रकस्य धारणे चत्वारो मासा उद्धातिका भवन्ति, आज्ञादयश्च दोषाः, विराधना च संयमा-ऽऽत्मविषया ॥ ४००१ ॥ इदमेव भावयति गणणाएँ पमाणेण य, गणणाएँ समत्तओ पडिग्गहओ । पलिमंथ भरुटुंडुग, अतिप्पमाणे इमे दोसा ।। ४००२॥ गणनया प्रमाणेन च पात्रकस्य प्रमाणं द्विविधम् । तत्र गणनायां 'समात्रकः' मात्रकसहितः 30 प्रतिग्रहो मन्तव्यः । अथ इत ऊध तृतीयादिकं पात्रं धारयति ततः परिकर्मण-रङ्गनादौ प्रत्युपेक्षणादिषु च महान् परिमन्थो भवति, अध्वनि बहूनि पात्राणि वमानस्य भारः, बहूपकरणश्च 'उडुण्डुकः' जनोपहास्यो भवति, अहो ! भारवाहकोऽयमिति । तत्र च 'अतिप्रमाणे' १ एतदने ग्रन्थानम्-११००० इति ताटी ।। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९७ भाष्यगाथाः ३९९९-४००७] तृतीय उद्देशः। प्रमाणद्वयातिरिक्ते पात्रे एते दोषाः ॥ ४००२ ॥ तद्यथा--- भारेण वेयणा वा, अभिहणमाई ण पेहए दोसा । रीयाइ संजमम्मि य, छक्काया भाणभेओ य ॥ ४००३ ॥ प्रभूतपात्रवहने भारेणाक्रान्तस्य वेदना, तयाऽर्दितो गो-हस्ति-तुरङ्गमादीनभिघातं-प्रहारं प्रयच्छति, न पश्यति, आदिशब्दात् स्थाणु-कण्टकादीनि न प्रेक्षते, एवमात्मविराधनायां । 'दोषाः । संयमविराधनायाम् । ईर्यादिकं न शोधयति, ततश्च षट्कायविराधना, अनुपयुक्तो वा प्रस्खलितो भाजनभेदमपि विदध्यात् ॥ ४००३ ॥ एते गणनातिरिक्त दोषा उक्ताः, प्रमाणातिरिक्ते तु पात्रे इमे दोषाः भाणऽप्पमाणगहणे, भुंजणे गेलनऽभुंज उज्झिमिगा। एसणपेल्लण भेओ, हाणि अडते दुविह दोसा ॥ ४००४ ॥ 10 "भाणऽप्पमाण' त्ति अकारप्रश्लेषाद् 'अप्रमाणस्य अतिबृहत्तरप्रमाणस्य भाजनस्य ग्रहणे इमे दोषाः-तदतिबृहत्तरं भाजनं परिपूर्णमपि भृत्वा यदि सर्वमपि मुझे ततो ज्वरादिकं ग्लानत्वं भवेत् । अथ न भुङ्क्ते ततः 'उज्झिमिका' परिष्ठापनिका भवति । अतिबृहत्तरं च पात्रं यदा चिरेणापि न पूर्यते तदा एषणाप्रेरणं कृत्वाऽपि बिभृयात् । भरितं चातिभारेण प्रतिस्खल्य भेदमुपगच्छेत् । ततो भाजनेन विना या आत्मनः कार्यपरिहाणिस्तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् | 15 गुरुत्वेन चात्म-संयमविराधनालक्षणा द्विविधा दोषा भवन्ति-तत्रात्मविराधनायां पर्यटतोऽतिभारेण कटी-स्कन्धादिकं परिताप्येत, संयमविराधनायामीर्यामशोधयन् षट्कायान् विराधयेत् ॥ ४००४ ॥ गतमतिरिक्तद्वारम् । अथ हीनद्वारमाह हीणप्पमाणधरणे, चउरो मासा हवंति उग्घाया। आणादिणो य दोसा, विराहणा संजमा-ऽऽयाए ॥४००५॥ 20 यत् प्रतिग्रहस्य मात्रकस्य वा प्रमाणं वक्ष्यते ततो हीनं यदि धारयति तदा चत्वारो मासा . उद्धातिमा भवन्ति, एतच्च प्रतिग्रहे मन्तव्यम् । मात्रके तु मासलघु । आह च निशीथचूर्णित् __ पडिग्गहगे चउलहुँ, मत्तगे मासलहुं । आज्ञादयश्च दोषाः, विराधना च संयमा-ऽऽत्मविषया ।। ४००५ ॥ इदमेव भावयति ऊणेण न पूरिस्सं, आकंठा तेण गिण्हती उभयं । मा लेवकडं ति पुणो, तत्थुवओगो न भूमीए ॥ ४००६ ॥ अनेन प्रमाणहीनेन 'ऊनेन' अभरितेन नाहमात्मानं पूरयिष्ये, तत आकण्ठात् तत्र भाजने 'उभयमपि' कूरं कुसणं च गृह्णाति । ततो मा पात्रबन्धो लेपकृतो भवत्विति कृत्वा तत्रैव' पात्रकबन्धखरण्टने उपयोगो भवति, न पुनर्भूमौ ॥ ४००६ ॥ अनुपयुक्तस्य चेमे दोषाःखाणू कंटग विसमे, अभिहणमाई ण पेहए दोसे । 30 रीया पगलिय तेणग, भायणभेए य छकाया ॥ ४००७॥ १ > एतदन्तर्गतः पाठः भा० का० एव वर्तते ॥ २ भा० विनाऽन्यत्र-भवेत् 'तत्रै मो० ले. त.. तारी॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [कृत्लाकृत्तप्रकृते सूत्रम् ८ ईर्यायामनुपयुक्तः स्थाणुना कण्टकेन वा विध्यते, विषमे वा भूभागे निपतेत् , गवादिकृताभिघातादींश्च दोषान् न प्रेक्षते, इयमात्मविराधना । संयमविराधना त्वेवम्-~-अनुपयुक्त ईयां न शोधयेत् , भाजनाच्च भक्तं पानकं वा परिगलेत् , तच्च प्रगलितं विलोक्य स्तेनाः 'परि पूर्ण भृतमिदं भाजनमस्ति' इति परिभाव्यापहरेयुः । अथ कुत्रापि प्रस्खलितस्ततो भाजनभेदः 5 षट्कायविराधना वा भवेत् ॥ ४००७ ॥ गुरु पाहुण खम दुब्बल, बाले वुड्ढे गिलाण सेहे य । लाभाऽऽलाभऽद्धाणे, अणुकंपा लाभवोच्छेदो ॥ ४००८॥ प्रमाणहीनं भाजनं धारयता गुरु-प्राघुणक-क्षपक-दुर्बला बालो वृद्धो ग्लानः शैक्षश्च परित्यक्ता मन्तव्याः । तथा क्षेत्रप्रत्युपेक्षणार्थं प्रेषितस्तेन लघीयसा भाजनेन कथं लाभा-ऽलाभपरीक्षा 10 करोतु ? । अध्वनि प्रपन्नानां सङ्खडिर्भवेत् , तत्र पर्याप्ते लभ्यमाने लघौ भाजने किं नाम गृह्णातु ? । छिन्नाध्वनि वा कश्चिद् दानश्रद्धालुरनुकम्पया यद् यदुपस्थाप्यते तत् तद् भाजनं भरति, तत्र गच्छसाधारणं भाजनमुपस्थापयितव्यम् । हीनभाजने पुनरुपस्थाप्यमाने तस्य लाभस्य व्यवच्छेदो भवति, निर्जरायाश्च लाभो न भवतीति सङ्घहगाथासमासार्थः ।। ४००८ ॥ अथैनामेव विवरीषुः प्रथमतः प्रायश्चित्तमाह16 गुरुगा य गुरु-गिलाणे, पाहुण-खमए य चउलहू होति । सेहस्स होइ गुरुओ, दुब्बल जुयले य मासलहू ॥४००९ ॥ गुरूणां ग्लानस्य चोपष्टम्भमकुर्वतश्चतुर्गुरुकाः । प्राघुणकस्य क्षपकस्य चोपष्टम्भाकरणे चतुर्लघवो भवन्ति । शैक्षस्यादाने मासगुरुकः । दुर्बलस्य 'युगलस्य च' बाल-वृद्धलक्षणस्यादाने मासलघु ॥ ४००९॥ . अप्प-परपरिचाओ, गुरुमाईणं अदेंत-देतस्स । अपरिच्छिए य दोसा, वोच्छेओ निजराऽलाभे ॥ ४०१० ॥ लघुतरभाजनगृहीतं गुर्वादीनां यदि ददाति तत आत्मपरित्यागः, अथ स्तोकमिति कृत्वा न ददाति ततो गुर्वादीनां परेषां परित्यागः कृतो भवति । तथा प्रमाणहीनं भाजनं गृहीत्वा क्षेत्रप्रत्युपेक्षणार्थं गतः कथं लाभा-ऽलाभं परीक्षताम् ? । ततोऽपरीक्षित क्षेत्रे ये दोषास्ते मन्द26 परीक्षिते मन्तव्याः । अध्वनि प्रपन्नानां च सङ्खडिर्भवेत् , दानश्राद्धो वा कश्चिदनुकम्पया प्रभूतं भक्त पानं दद्यात्, यद्वा स्वस्थानेऽपि घृतादि साधारणद्रव्यं लभ्येत तत्र लघुतरभाजने भक्त-पानलाभस्य निर्जरायाश्च व्यवच्छेदो भवति ।। ४०१० ॥ अथ क्षुल्लकभाजनस्यैव दोषान्तराभिधानायाह. लेवकडे वोसढे, सुक्खे लग्गे य कोडिते सिहरे । एए हवंति दोसा, डहरे भाणे य उड्डाहो ॥४०११ ॥ तकादिना तदवमप्रमाणं भाजनमाकण्ठमापूरितं ततो “वोसट्टे" ति प्रलुठिते तक्रादौ तद् भाजनं लेपकृतं क्रियते । अथ पात्रलेपनभयात् तत्र शुष्कमेव भक्तं गृहाति ततस्तद् भक्तं भुजानस्य गलके उदरे वा लगेत् , लग्ने च तत्राजीणं भवेत् । “कोडियं" ति गाढचम्पितं 20. 30. Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उद्देशः । १०९९ भाष्यगाथाः ४००८-१५ ] चम्प्यमानं वा पात्रकं भज्येत । 'शिखरं वा' पात्रस्योपरि भक्तस्य शिखां कुर्वन्तं दृष्ट्वा लोको ब्रूयात् -- अहो ! असन्तुष्ट । वहुभक्षका अमी; एवमुड्डाहो भवेत् । एते डहरे भाजने दोषाः ॥ ४०११ ।। अथैनामेव भावयति- धुवणा-धुवणे दोसा, वोसते य काय आउसिणे । सुक्खे लग्गाऽजीरग, कोडिय सिहरे य उड्डाहो ॥ ४०१२ ॥ अतिभृतत्वेन तक्र-तीमनादीनि प्रलोठयता यत् पात्रकं लेपकृतीकृतं तस्य धावना -ऽधावनयोरुभयोरपि दोषाः । तत्र धावने प्लावनादयः, अभावने तु रात्रिभोजनत्रतभङ्गः । “वोसते य" परिगलति भक्त-पाने पण्णां कायानां विराधना । अथवा तेनोष्णेन परिगलती दिग्धशरीरस्यात्मविराधना । शुष्के च भक्तेऽतिमात्रं भुज्यमाने गलके उदरे वा लग्नेऽजीर्ण भवेत्, तत्र च ग्लानारोपणा । " कोडितं " गाढं चप्पितं सत् तत् पात्रकं भज्येत । 'शिखरे च' भक्तस्योपरि 10 शिखायां विधीयमानायां उड्डाहो भवति । यत एवमादयो दोषास्ततः प्रमाणयुक्तमेव ग्रहीतव्यम् ॥ ४०९२ ॥ कीदृशं पुनस्तत् प्रमाणम् ? इत्याशङ्कय प्रमाणमाह - तिनि विहत्थी चउरंगुलं च भाणस्स मज्झिमपमाणं । [ नि. ६८९ ] एतो हीण जहन्नं, अतिरेगयरं तु उक्कोसं ॥ ४०१३ ॥ पात्रस्य परिधिर्दवरकेण मीयते, तत्र च मिते यदा स मानदवरकस्तिस्रो वितस्तयश्चत्वार्य - 15 ङ्गुलानि च भवन्ति तदा तस्य 'भाजनस्य' पात्रकस्य तद् मध्यमप्रमाणम् । 'इतः' मध्यमप्रमाणाद् हीनं यत् पात्रं तद् जघन्यम् । 'अतिरिक्ततरं तु' मध्यमप्रमाणाद् बृहत्तरमुत्कृष्टम् ॥ ४०१३ ॥ अथवा उक्को सतिसामासे, दुगाउअद्वाणमागओ साहू | [नि. ६९०] चउरंगुलव भत्त-पाण पज्जत्तियं हेट्ठा ।। ४०१४ ॥ उत्कृष्टस्तृङ्मासः स उच्यते यस्मिन् अतीवप्रबला पिपासा समुल्लसति, स च ज्येष्ठ आषाढ वा; तस्मिन् काले द्विगव्यूतप्रमाणादध्वन आगतो यः साधुः तस्येदृशकाला - ध्वखिन्नस्य यत् 'चतुरङ्गुलवर्जम्' उपरितनैश्चतुर्भिरङ्गुलैर्न्यनमधस्ताद् भक्त-पानस्य भृतं सत् पर्याप्तं भवति तदित्थम्भूतं पात्रकस्य प्रमाणं मन्तव्यम् ॥ ४०९४ ॥ - एयं चैव पमाणं, सविसेसयरं अणुग्गहपवत्तं । कतारे दुभिक्खे, रोहगमाईसु भइयव्वं ॥ ४०९५ ॥ एतदेव प्रमाणं 'सविशेषतरं' समधिकतरं यस्य भाजनस्य भवति तद् 'अनुग्रह प्रवृत्तं ' गच्छस्यानुग्रहार्थं प्रवर्त्तते । कथम् ? इत्याह – 'कान्तारे' महत्यामटव्यां वर्त्तमानस्य तदुत्तीर्णस्य वा गच्छस्यानुग्रहार्थं तद् गृहीत्वा वैयावृत्यकरः पर्यटति, दुर्भिक्षेऽप्यलभ्यमानायां भिक्षायां तद् गृहीत्वा चिरमटित्वा बालादिभ्यो ददाति एवं नगरस्य रोधके सञ्जाते आदिशब्दादपरेषु 30 वा भयविशेषेषु कश्चिद् दानश्रद्धालुर्यावदेकस्मिन् भाजने माति तावत् प्रचुरतरमपि भक्त-पानं १ °अथैतदेव भा॰ भा॰ ॥ २ नादि प्रलोक० | 'नादिना प्रलो' मा० ॥ ३ 'ता दुग्ध भा० कां० ताटी० ॥ ४ चंपितं भा० ॥ ५°दा तत् पात्रकं मध्य भा० ॥ 5 20 25 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [कृत्लाकृत्तप्रकृते सूत्रम् ८ दद्यात् , तत्र तद अतिरिक्तभाजनं भक्तव्यं सेवनीयम् ।। ४०१५ ॥ अथापवादद्वारमभिधित्सुथैः कारणैरधिकं हीन वा धारयति तानि तावद् दर्शयति अन्नाणे गारवे लुद्धे, असंपत्ती य जाणए । लहुओ लहुया गुरुगा, चउत्थों सुद्धो उ जाणओ ॥ ४०१६ ॥ यदि अज्ञानेन हीना-ऽधिकैप्रमाणं भाजनं धारयति ततो लघुमासः । गौरवेण धारयतश्चत्वारो लघवः । लोभनं-लुब्धं लोभ इत्यर्थः, तेन धारयतश्चत्वारो गुरवः । असम्प्राप्तिर्नाम-प्रमाणयुक्तस्य पात्रस्याप्राप्तिस्तस्यां यो हीना-ऽतिरिक्तं धारयति सः 'चतुर्थः' असम्प्राप्तिधारकः शुद्धः । तथा ज्ञायको नाम-पात्रलक्षणा-ऽलक्षणवेदी स लक्षणयुक्तं हीना-ऽधिकप्रमाणमपि धारयन् शुद्ध इति द्वारश्लोकसमासार्थः ॥ ४०१६ ॥ अथैनमेव विवृणोति10 हीणा-ऽदिरेगदोसे, अजाणओ सो धरिज हीण-ऽहियं । पगईय थोवभोगी, सति लाभे वा करेतोमं ॥ ४०१७ ॥ पात्रस्य ये हीना-ऽतिरिक्तविषया दोषाः पूर्वमुक्तास्तान् यो यतिन जानीते स हीना-ऽधिकप्रमाणं धारयेत् । तथा कश्चिद् ऋद्धिगौरवगुरुकः सत्यपि भक्त-पानलाभे प्रकृत्यैव स्तोकभोजी _ 'खल्पाहारोऽयं महात्मा' इति ख्यापनार्थम् 'अवमं' हीनप्रमाणं भाजनं करोति ॥ ४०१७ ॥ 15 किं पुनस्तस्य ऋद्धिगौरवम् ? इत्याह-~ ईसरनिक्खंतो वा, आयरिओ वा वि एस डहरेणं । इति गारवेण ओमं, अइप्पमाणं चिमेहिं तु ॥ ४०१८॥ 'ईश्वरनिष्क्रान्तो वा' राजादिमहर्द्धिकप्रबजितः, आचार्यों वा एष साधुर्यदेवं 'डहरेण' लघुना भाजनेन भिक्षां पर्यटति, 'इति' एवं 'गौरवेण' यशःप्रवादलिप्सालक्षणेनावमं भाजन 20 करोति । अतिप्रमाणं पुनः पात्रममुना कारणेन करोति ॥ ४०१८ ॥ __ अणिगृहियबल-विरिओ, वेयावच्चं करेति हों ! समणो । मम तुल्लो न य कोयी, पसंसकामी महल्लेणं ॥ ४०१९ ॥ 'अथ' इत्युपन्यासे । अहो! अयं श्रमणः पुण्यात्मा अनिगूहितबल-वीर्यों महता भाजनेन सकलस्यापि गच्छस्य वैयावृत्यं करोति, एवं प्रशंसाकामी नास्ति कोऽपि मम बाहुबलमङ्गीकृत्य 25 'तुल्यः' सदृश इति ख्यापनार्थमतिरिक्तं भाजनं करोति ॥ ४०१९ ।। अथ लुब्धपदं व्याचष्टे-~ अंतं न होइ देयं, थोवासी एस देह से सुद्धं । उक्कोसस्स व लंभे, कहि घेच्छ महल्ल लोभेणं ॥ ४०२० ॥ क्षुल्लकभाजनेन गृहाङ्गणस्थितं साधुं दृष्ट्वा गृहखामी भणति—'स्तोकाशी' स्तोकाहारोऽयं 30 मुनिः अतोऽस्यान्तप्रान्तं भक्तं न देयम् , किन्तु 'शुद्धम्' उत्कृष्टद्रव्यम् अस्य प्रयछंथ, एवं १ सुराह-अन्ना भा० ॥२°धिकरणं भाज भा० का. विना ॥३ - एतचिहान्तर्गतमवतरणं भा० नास्ति ॥ ४ अहसताभा. विना॥ ५ एतचिहान्तर्गतमवतरणं भा० नास्ति । ६°च्छस्व, एवं मो० ले । च्छध्वम् , एवं भा० ॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४०१६-२५] तृतीय उद्देशः । ११०१ विचिन्त्य लुब्धनया हीनप्रमाणं करोति । तथा 'उत्कृष्टस्य शालि-मुद्दाल्यादेव्यस्य प्रभूतस्य लाभे सति चिन्तयति-अनेन प्रमाणोपेतभाजनेन पूर्व सामान्यभक्तस्य भृतेन पश्चादुत्कृष्टद्रव्यं लभ्यमानं कुत्र ग्रहीप्यामि ? इति विचिन्त्य लोभेन महत्तरं भाजनं गृह्णाति ॥ ४०२० ॥ अथासम्प्राप्ति-ज्ञायकपदे व्याख्यातिजुत्तपमाणस्सऽसती, हीण-ऽतिरित्तं चउत्थों धारेति । । लक्खणजुय हीण-ऽहियं, नंदी गच्छ8 वा चरिमो ॥ ४०२१॥ युक्तप्रमाणं-यथोक्तप्रमाणोपेतं तद् अनेकेशो गवेष्यमाणमपि न प्राप्यते, अतस्तस्याभावे हीनं वाऽतिरिक्तं वा पात्रं 'चतुर्थः' सङ्ग्रहगाथोक्त( गा० ४०१६ )क्रमप्रामाण्यादसम्प्राप्तिमान् धारयति । तथा यद् लक्षणयुक्तं तद् लक्षणा- लक्षणवेदी हीना-ऽधिकप्रमाणमपि ज्ञानादिवृद्धिनिमित्तं धारयति । यद्वा गच्छस्योपग्रहकरं यद् नन्दीभाजनं तद् गच्छार्थ 'चरमः' चरमद्वार-10 वर्ती-ज्ञायको धारयति ॥ ४०२१ ॥ गतमपवादद्वारम् , अथ लक्षणा-ऽलक्षणद्वारमाह वर्द्ध समचउरंसं, होइ थिरं थावरं च वनहूँ । नि. ६९३,ओ.नि. ६८७] हुंडं वायाइद्धं, भिन्नं च अधारणिज्जाइं ॥ ४०२२ ॥ 'वृत्तं' वर्तुलं तदपि 'समचतुरस्रं' उच्छ्यपरिधिना कुक्षिपरिधिना च तुल्यं 'स्थिरं' सुप्रतिठानं दृढं वा 'स्थावरम्' अप्रातिहारिकं 'वर्णाढ्यं' स्निग्धवर्णोपेतं पाठान्तरेण "धैन्नं तु" ति15 एतैर्गुणैर्युक्तं 'धन्यं' ज्ञानादिधनावहमित्यर्थः, एवंविधं लक्षणयुक्तमुच्यते । तथा 'हुण्डं' विषमसंस्थितं कैंचिद् निम्नं कचिदुन्नतमित्यर्थः, 'वाताविद्धं' निष्पत्तिकालमन्तरेणागिपि शुष्कम् अत एव सङ्कुचितं वलिभृतं च सञ्जातम्, 'भिन्नं नाम' सच्छिद्रं राजियुक्तं वा, एतान्यलक्षणतयाऽधारणीयानि ॥ ४०२२ ॥ अथ लक्षणा-ऽलक्षणयुक्तयोरेव गुण-दोषानाह संठियम्मि भवे लाभो, पतिट्ठा सुपतिट्ठिए । [ओ.नि. ६८८] 20 निव्वणे कित्तिमारोग्गं, वनड्ढे नाणसंपया ॥ ४०२३ ॥ हुण्डे चरित्तभेओ, सबलम्मि य चित्तविभमं जाणे । [ओ.नि.६८९] दुप्पुते खीलसंठाणे, नत्थि हाणं ति निदिसे ॥ ४०२४ ॥ . पउमुप्पले अकुसलं, सव्वणे वणमाइसे । [ओ.नि. ६९०] अंतो बहिं व दवे, मरणं तत्थ निदिसे ॥ ४०२५ ॥ 'संस्थिते' वृत्त-समचतुरस्रे पात्रे धार्यमाणे विपुलो भक्त-पानादिलामो भवति । 'सुप्रतिष्ठिते' स्थिरे पात्रे चारित्रे गणे आचार्यादिपदे वा प्रतिष्ठा' स्थिरता सञ्जायते । 'निर्बणे' व्रणविकले कीर्तिरारोग्यं च भवति । 'वर्णाढ्ये' स्निग्धवर्णोपेते 'ज्ञानसम्पत्' प्रभूतसूत्रा-ऽर्थलाभरूपा भवति ।। ४०२३ ॥ 'हुण्डे' विषमसंस्थिते 'चारित्रस्य भेदः' मूलोत्तरगुणविषयाश्चारित्रातिचारा इत्यर्थः । 30 शबलं-विचित्रवर्णं तत्र 'चित्तविभ्रमं' क्षिप्तचित्ततादिरूपं सम्भवन्तं जानीयात् । दुप्पुयं नाम १ या च° ताभा० ॥ २ "व दुविहं-समचउरसव उद्धव च ।" इति विशेषौ । ३"धनहुं" ति एतै भा० कां० विना ॥ ४ कचिन्नं क्वचिदिनमित्य भा० का विना ॥ 25 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०२ सनियुक्ति-लधुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [कृत्स्नाकृत्स्नप्रकृते सूत्रम् ८ पुष्पकमूले न प्रतिष्ठितम् , कीलकसंस्थानं तु-कर्पराकारं कीलकवद् दीर्घम् , ईदृशे पात्रे गणे चरणे वा स्थानं नास्तीति निर्दिशेत् ॥ ४०२४ ॥ 'पद्मोत्पले' अधः पद्मोत्पलाकारपुष्पकयुक्ते साधूनामकुशलं भवति । सव्रणे व्रणमादिशेत् , पात्रकखामिनो व्रणो भवतीति भावः । अन्तर्बहिर्वा दग्धे सति पात्रके मरणं निर्दिशेत् ६॥ ४०२५ ॥ अत्रैव प्रायश्चित्तमाह दड्डे पुप्फगभिन्ने, पउमुप्पल सधणे य चउगुरुगा। सेसगभिन्ने लहुगा, हुंडादीएसु मासलहू ॥४०२६ ।। अन्तर्बहिर्वा दग्धे पात्रे तथा पुष्पकं-पात्रकस्य नाभिः तत्र यद् भिन्नं तस्मिन् तथा पद्मोत्पलाकारपुष्पकयुक्ते सव्रणे च प्रत्येकं चतुर्गुरुकाः । शेषेषु-पुष्पकव्यतिरिक्तेषु कुक्ष्यादि10 स्थानेषु भिन्ने चतुर्लघुकाः । हुण्डे आदिशब्दाद् वाताविद्धे दुप्पुते कीलकसंस्थाने अवर्णाढ्ये शबले च मासलघु ॥ ४०२६ । गतं लक्षणा- लक्षणद्वारम् , अथ त्रिविधोपधिद्वारमाह तिविहं च होइ पायं, अहाकडं अप्प-सपरिकम्मं च । पुव्वमहाकडगहणं, तस्सऽसति कमेण दोणियरे ॥४०२७ ॥ त्रिविधं च भवति पात्रम्-अलाबुमयं दारुमयं मृत्तिकामयम् । पुनरेकैकं त्रिविधम्15 यथाकृतमल्पपरिकर्म सपरिकर्म च । पूर्व यथाकृतस्य ग्रहणम् , तस्याभावे क्रमेणेतरे द्वे पात्रके ग्रहीतव्ये, प्रथममल्पपरिकर्म तदप्राप्तौ बहुपरिकर्मापीत्यर्थः ॥ ४०२७ ॥ विपर्यस्तद्वारमाह तिविहे परूवियम्मि, वोचत्थे गहणे लहुग आणादी । छेदण-भेदणकरणे, जा जहिँ आरोवणा भणिता ॥ ४०२८॥ 20 यथाकृतादिभेदात् त्रिविधे पात्रे प्ररूपिते सति ततो विपर्यस्तग्रहणे चतुर्लघुकाख्यं प्रायश्चित्तम् , आज्ञादयश्च दोषा वक्तव्याः । तत्र यथाकृतादिप्ररूपणं तावद् विधीयते-यथाकृतं नाम-पूर्वकृतमुखं प्रदत्तलेपं च सर्वथा परिकर्मरहितम् , अल्पपरिकर्म तु पात्रं तदुच्यते यदर्धाङ्गुलं यावत् छिद्यते, अर्धाङ्गलात् परतश्छिद्यमानं बहुपरिकर्मकम् । पुनरेकैकं त्रिधा उत्कृष्ट-मध्यम-जघन्यभेदात् । तत्रोत्कृष्टस्य यथाकृतस्योत्पादनाय निर्गतस्तस्य योगमकृत्वाऽल्प25 परिकर्म गृह्णाति चतुर्लघवः, बहुपरिकर्म गृह्णाति चतुर्लघवः । यदा यथाकृतं योगे कृतेऽपि न प्राप्यते तदाऽल्पपरिकर्मणो योगमकृत्वा बहुपरिकर्म गृह्णाति चतुर्लघव आज्ञादयश्च दोषाः, एवं मध्यम-जघन्ययोरपि भावना कर्तव्या । नवरं मध्यमस्य विपर्यासेन ग्रहणे मासलघु, जघन्यस्य विपर्यासग्रहणे पञ्चकम् । अपि च सपरिकर्मणि पात्रे छेदन-भेदनादि कुर्वतो या यत्रा रोपणा पीठिकायां पात्रकल्पिकद्वारे (गा० ६६८) भणिता सैवेहापि मन्तव्या ॥४०२८॥ 30 अथ 'कः' इति द्वारं विवृणोति को गेण्हति गीयत्थो, असतीए पायकप्पिओ जो उ । उस्सग्ग-ऽववाएहिं, कहिजती पायगहणं से ॥ ४०२९ ॥ कः संयतः पात्रं गृह्णाति ? । सूरिराह-'गीतार्थः' परिज्ञातसकलच्छेदश्रुतार्थः पात्रकं Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४०२६-३३] तृतीय उद्देशः । ११०३ गृह्णाति । अथ नास्ति गीतार्थस्ततो यः ‘पात्रकल्पिकः' गृहीतपात्रैषणासूत्रार्थः स गृह्णाति । तस्याप्यभावे यो मेधावी तस्य पात्रग्रहणमुत्सर्गतोऽपवादतश्च कथ्यते ततोऽसौ पात्रं गृह्णीयात् ॥ ४०२९ ॥ अथ पौरुषीद्वारमाह हुंडादि एकबंधे, सुत्तत्थे करेंतें मग्गणं कुजा । दुग-तिगबंधे सुत्तं, तिण्हुवरि दो वि वजेजा ॥ ४०३० ॥ 5 यत् पात्रं हुण्डम् , आदिशब्दाद् दुष्पुतं कीलकसंस्थितं शबलं च, यच्चैकबन्धम् , एतानि परिभुञ्जानः सूत्रा-ऽर्थपौरुष्यौ द्वे अपि कुर्वन् यथाकृतादेः पात्रस्य मार्गणां कुर्यात् । अथ द्विविधं त्रिविधं (द्विवन्धं त्रिबन्धं ) वा पात्रं परिभुज्यमानमस्ति ततः सूत्रपौरुषीं कृत्वाऽर्थपौरुषी हापयित्वा मार्गयति । अथ त्रयाणां बन्धानामुपरि चतुःप्रभृतिस्थानेषु तत् पात्रं बद्धमस्ति। ततः सूत्रार्थपौरुष्यौ द्वे अपि वर्जयेत् , सूर्योदयादारभ्यैवापरं पात्रकं मार्गयतीति ॥ ४०३०॥10 अथ कालद्वारमाह चत्तारि अहाकडए, दो मासा होति अप्पपरिकम्मे । तेण पर मग्गियम्मि य, असति ग्गहणं सपरिकम्मे ॥ ४०३१॥ हुण्ड-शबलताद्यपलक्षणयुक्तं पात्रं धारयता चतुरो मासान् यथाकृतं मार्गयितव्यम् । चतुर्यु मासेषु पूर्णेष्वपि यदा यथाकृतं न प्राप्यते तदा द्वौ मासावल्पपरिकर्मगवेषणे भवतः । ततः 16 परं मार्गितेऽप्यल्पपरिकर्मण्यप्राप्ते षण्मास्यां पूर्णायां सपरिकर्मणो ग्रहणं करोति ॥ ४०३१ ॥ तच्च कियन्तं कालं गवेषणीयम् ? इत्याह पणयालीसं दिवसे, मग्गित्ता जा न लब्भए ततियं । तेण परेण न गिण्हइ, मा पक्खेणं न रज्जेजा ॥४०३२ ॥ पञ्चचत्वारिंशतं दिवसान् 'तृतीयं बहुपरिकर्म मार्गयित्वा यदि न लभ्यते ततः किम् ? 20 इत्याह---"तेण परेण" त्ति प्राकृतत्वात् पञ्चम्यर्थे तृतीया, ततः पञ्चचत्वारिंशतो दिवसेभ्यः परं बहुपरिकर्म न गृह्णाति । कुतः ? इति चेद उच्यते-यथाकृतगवेषणकालादारभ्य सार्धसप्तसु मासेषु गतेषु पञ्चदशभिर्दिवसैवर्षारात्रो भवति, तेन च पक्षमात्रेण कालेन मा तत् पात्रकं 'न रज्येत' मा लिप्तं सत् प्रगुणीभवेत् । किमुक्तं भवति ?-वर्षाकाले पात्रस्य परिकर्म कर्तुं ने लभ्यते, बहुपरिकर्मणि च पात्रे छेदन-भेदनादि प्रभूतं परिकर्म विधेयम् , तच्च पक्षमात्रेण न 25 कत्तुं पार्यते, अतः पञ्चचत्वारिंशदिवसेभ्यः परतो न ग्रहीतव्यमिति ॥ ४०३२ ॥ गतं कालद्वारम् , अथाकरद्वारमाह कुत्तीय सिद्ध-निण्हग-पवंच-पडिमाउवासगाईसु । कुचियवजं वितियं, आगरमाईसु वा दो वि ॥ ४०३३ ।। यथाकृतं पात्रकं कुत्रिकापणे मार्गयितव्यम् । सिद्धपुत्रकस्य वा निद्दवस्य वा प्रपञ्चश्रमणस्य वा 30 १ "दुबंध तिवंधणं च सुन्तपोरिणि करेंनो अस्थपोरिसिं अकरतो वि मग्गिजा" इति चूर्णी विशेषचूर्णां च ॥ २ नद्ध भा० का विना । ३ न कल्पते, बहु' भा० का ० ॥ यितुं सिद्व' भा० कां० विना ॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 कय कारियं व कीतं, जइ कप्पर घेप्पतू अजो ! ॥ ४०३४ ॥ 'आकरः' भिल्लपल्ल्यादिः' यत्रालावूनि प्राप्यन्ते, नद्यो यास्तुम्बकैस्तीर्यन्ते, 'कुंड नाम ' यत्र वनखण्डे तुम्बकानि जायन्ते, “वाहे तेणे य" त्ति व्याघपल्यां स्तेनपट्टयां वाऽलाबूनि लभ्यन्ते, “भिक्ख" त्ति ये भिक्षाचरा अलावुकानि गृहीत्वा भिक्षां पर्यटन्ति, "जंत" त्ति यन्त्रशालासु गुडादीनामुत्सेचनार्थमलाबूनि धार्यन्ते, एतेषु स्थानेषु "विहि" त्ति विधिना पात्र कं 10 ग्रहीतव्यम् । कः पुनर्विधिः ? इति चेद् उच्यते - तत्राकरादिषु गत्वाऽवभाषणे कृते दायकेन च पात्रके दर्शिते प्रष्टव्यम् – कस्यार्थमेतत् कृतम् । ततस्तेऽभिदध्युः - युष्माकमर्थाय कृतं कारितं क्रीतं वा, यदि कल्पते तत आर्य ! गृह्यताम् । एवमुक्ते सति गृह्णातीति सङ्ग्रह - गाथासमासार्थः ॥ ४०३४ ॥ अथैनामेव गाथाद्वयेन विवृणोति - ११०४ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ कृत्स्नाकृत्स्नप्रकृते सूत्रम् ८ एकादशी प्रतिमां पूरयित्वा वा श्रमणोपासको गृहं प्रत्यागतस्तदादेव पार्श्वे यथाकृतं पात्रं प्राप्यते । 'कुत्रिकाण्णव शेषेषु सिद्धपुत्रकादिषु द्वितीयम्' अल्पपरिकर्म प्राप्यते । अथवा आकरादिषु 'द्वे अपि' अल्पपरिकर्म- सपरिकर्मणी प्राप्येते ॥ ४०३३ ॥ तद्यथाआगर नई कुडंगे, चाहे तेणे य भिक्ख जंत विही । आगर पल्लीमाई, निचुदग नदी कुडंगमुस्सरणं । वाहे तेणे भिक्खे, जंते परिभोगऽसंसत्तं ॥ ४०३५ ॥ भट्ठाऍ कयमिणं, अनेसऽट्ठाऍ अहवण सअट्ठा । जो घेच्छति व तदट्ठा, एमेव य कीय- पामिच्चे ॥ ४०३६ ॥ आकरो नाम भिल्लपल्ली भिल्लकोट्टं वा, तत्र प्रायोऽलाबूनि प्रभूतानि प्राप्यन्ते । तथा नित्योदकाः-अगाधजला महानद्यो यत्र ग्रामादौ अलाबुभिस्तीर्यन्ते तत्र पात्राणि प्राप्यन्ते । 20 ‘कुडङ्गं' वृक्षगहनं तत्र तुम्बिकानाम् ' उत्सरणं' वापनं क्रियते, यद्वा तासामेव नदीनां कूलेषु ये वृक्षकुडङ्गास्तेषु तुम्बिका वाप्यन्ते । व्याघपल्यां स्तेनपल्यां च तुम्बकेषु काञ्जिक - पानीयादी न प्रक्षिप्यन्ते, तत्र कौलालभाजनाभावात् । भिक्षाचरा भिक्षार्थमलाबूनि गृह्णन्ति । यन्त्रशालादिषु च गुडोत्सेचनादिहेतोरला बूनि गृह्यन्ते । एतेष्वाकरादिषु यस्य प्रतिदिवसं परिभोगः क्रियमाणो विद्यते तत् पात्रकं जन्तुभिरसंसक्तं भवतीति कृत्वा ग्रहीतव्यम् ॥ ४०३५ ॥ 15 25 पात्रे च दर्शिते कस्यार्थमेतत् कृतम् ? इति पृष्टो दाता ब्रूयात् - युष्माकमर्थाय कृतमिदं कारितं वा, अथवाऽन्येषां साधूनामर्थाय कृतम्, "अहवण" त्ति निपातोऽथवार्थे, 'स्वार्थम्' आत्मनोऽर्थाय कृतमिदमस्माभिः यद्वा य एव भिक्षाचरो ग्रहीष्यति तस्यार्थाय कृतमिदम् यावन्तिकमित्यर्थः । एवमेव च क्रीत-प्रामित्यादिकमपि वक्तव्यम् । यच्चात्रात्मार्थं कृतादिकं तत् कल्पते, आधाकर्मिकादिकं तु न कल्पते ॥ ४०३६|| गतमाकरद्वारम् । अथ चाउलद्वारमाहचाउल उण्होदग तुयरे कुसणें तहेव तक्के य । जं होइ भावियं तं कप्पति भइयव्वगं सेसं ॥ ४०३७ ॥ 30 १ 'स्तस्य वा पा' भा० ॥ २ 'दिः, 'नयः' प्रतीताः, 'कुड' भा० ॥ ३ तुम्हाडा' ताभा० ॥ ४ घेप्पति ताभा० ॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 भाष्यगाथाः १०३४-४५] तृतीय उद्देशः । ११०५ "चाउल'' ति नन्दुलधावनम् , 'उष्णोदक' प्रतीतम् , 'तुवर' कुसुम्भोदकादि, 'कुसणं' मुद्दाल्यादि तम्य यदुदकं तदपि कुसणम् , तकं प्रतीतम् , एतैर्यद् भावितं तत् कल्पते । 'शेषम्' एतद्विपरीतजलभावितं 'भक्तव्यं' विकल्पनीयम् ॥ ४०३७ ॥ भजनामेवोपदर्शयति सीतजलभावियं अविगते तु सीतोदए ण गिण्हंति । मज-वस-तेल्ल-सप्पी-महुमादीभावियं भयितं ॥ ४०३८॥ । शीतजलभावितं यत् पात्रं तद् 'अविगते' अपरिणते शीतोदके न गृह्णन्ति । मद्य-वसा-तैलसर्पिर्मध्वादिभिस्तु भावितं 'भक्तं' विकल्पितम् । तथाहि-यदि तेषां मद्यादीनामवयवा निःशेषा अप्यपनेतुं शक्यन्ते ततो गृह्यते, 1 इतरथा न गृह्यते; » अथवा विकटादिभावितं यत्र जुगुप्सितं तत्र न गृह्यते, अजुगुप्सितं तु गृह्यते ॥४०३८॥ पात्रग्रहण एव विधिमाह-- ओभासणा य पुच्छा, दिढे रिके मुहं वहंते य । संसट्टे निक्खित्ते, सुक्खे य पगास दट्टणं ॥४०३९ ॥ ओमंथ पाणमाई, पुच्छा मूलगुण उत्तरगुणे य । तिट्ठाणे तिक्खुत्तो, सुद्धो ससिणिद्धमादीसु ॥४०४० ॥ दाहिणकरेण कोणं, घेत्तुत्ताण वाममणिबंधे । घट्टेइ तिन्नि वारे, तिन्नि तले तिनि भूमीय ॥ ४०४१ ॥ 15 तस वीयम्मि वि दिडे, न गेण्हती गेण्हती तु अद्दिष्टे । गहणम्मि उ परिसुद्धे, कप्पति दिढेहि वि बहूहिं ॥ ४०४२ ॥ एताश्चतस्रोऽपि गाथाः पीठिकायां सविस्तरं व्याख्याताः (गा० ६६०-६५-६६-६७) इति नेह भूयो व्याख्यायन्ते ॥ ४०३९ ॥ ४०४० ॥ ४०४१ ॥ ४०४२ ॥ गतं चाउलद्वारम् । अथ जघन्ययतनाद्वारमाह 20 पच्छित्त पण जहणं, तेण उ तव्वुड्दिए य जयणाए । जहन्ना - सासवादी, तेहिँ उ जयणेयर कलादी ॥ ४०४३ ॥ जघन्यं प्रायश्चित्तं पञ्चकम् तेन यतना जघन्ययतना । कथम् ? इत्याह-तद्वृद्ध्या' पञ्चकादिवृद्धिरूपया यतनया पात्रकासत्तायां यतन्ते । अथवा सर्षपादीनि बीजानि 'जघन्यानि' सूक्ष्माणीत्यर्थः, तैर्युक्तं पात्रकं वक्ष्यमाणया षड्भागकरवृद्धियतनया गृहन्ति, 'इतराणि तु' 25 बादराणि बीजानि कलाः-चणकास्तदादीनि, आदिशब्दाद् मसूरादीनि च ॥ ४०४३ ॥ अमुमेवार्थ विवरीषुराह छन्भागकए हत्थे, सुहुमेसू पढमपव्व पणगं तू । दस बितिए राइदिणा, अंगुलिमूलेसु पन्नरस ।। ४०४४ ॥ वीसं तु आउलेहा, अंगुटुंतो य होइ पणुवीसा । 30 पसंयम्मि होइ मासो, चाउम्मासा भवे चउसु ॥४०४५ ॥ - १°भावियं तं, अविगय सीओदगे ण गि° तामा० ॥ २ » एतदन्तर्गतः पाठः भा. एव वर्त्तते ॥ ३°ण कण्णं, घेत्तु ताभा० ॥ ४ व सरिसवा तामा० ॥५ पसतिम्मि ताभा० ॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ कृत्स्नाकृत्नप्रकृते सूत्रम् ८ इह हस्तः षड् भागाः क्रियते-तत्र प्रथमपर्वाण्यैको भागः, द्वितीयपर्वाणि द्वितीयः, अङ्गुलिमूलानि तृतीयः, आयुषो रेखा चतुर्थः, अङ्गुष्ठवुघ्नं पञ्चमः, अङ्गुष्ठमतिक्रम्य शेषः सर्वोऽपि षष्ठो भागः । एवं षड्भागीकृत हस्ते प्रथमपर्वमात्रेषु सूक्ष्मबीजेषु ‘पञ्चकं' पञ्चरात्रिन्दिवानि प्रायश्चित्तम् , द्वितीयपर्वमात्रेषु दशरात्रिन्दिवानि, अङ्गुलिमूलेषु पञ्चदशरात्रिन्दिवानि ॥ ४०४४ ॥ 5 आयूरेषामात्रेषु विंशतिरात्रिन्दिवानि, अङ्गुष्ठवुध्नमात्रेषु पञ्चविंशतिरात्रिन्दिवानि, प्रसूतिप्रमाणेषु मासलघु, चतुःप्रसूतिप्रमाणेषु चत्वारो मासा लघवः ॥ ४०४५ ॥ एवं सूक्ष्मबीजेषु प्रायश्चित्तमुक्तम् , अथ बादरवीजेषु तदेवातिदिशन्नाह एसेव कमो नियमा, थूलेसु वि वीयपव्यमारद्धो । ___ अंजलि चउक्क लहुगा, ते चिय गुरुगा अणंतेसु ॥४०४६ ॥ 10 एष एव क्रमो नियमात् 'स्थूलेष्वपि' चणकादिबीजेषु मन्तव्यः । नवरं द्वितीयपर्वाण्यादौ कृत्वाऽत्र प्रायश्चित्तक्रमः प्रारभ्यते, तद्यथा-द्वितीयपर्वमात्रेषु बादरबीजेषु पञ्चकम् , अङ्गुलिमूलमात्रेषु दशकम् , आयूरेषामात्रेषु पञ्चदशकम् , अङ्गुष्ठमूलमात्रेषु विंशतिः, प्रसूतिप्रमाणेषु भिन्नमासः, अञ्जलिमात्रेषु मासलघु, अञ्जलीचतुष्कपरिमाणेषु चतुर्लघु, एतत् प्रत्येकबीजविषयं भणितम् । अनन्तबीजेषु सूक्ष्म-स्थूरेषु यथाक्रममेतान्येव प्रायश्चित्तानि गुरुकाणि 16 कर्त्तव्यानि ॥ ४०४६ ॥ निकारणम्मि एए, पच्छित्ता वन्निया उ बीएसु । नायव्या अणुपुव्वी, एसेव उ कारणे जयणा ॥४०४७ ॥ एतानि प्रायश्चित्तानि निष्कारणे 'बीजेषु' बीजयुक्ते पात्रके गृह्यमाणे वर्णितानि । 'कारणे तु' पात्रकस्यासत्तालक्षणे 'आनुपूर्व्या' प्रथमपर्वादिरूपया 'एषैव' पञ्चकादिका यतना कर्तव्या 20॥ ४०४७ ॥ अथ यथाकृते प्रथमपर्वप्रमाणानि बीजान्यल्पपरिकर्मकं च शुद्ध प्राप्यतेऽनयोः कतरद् ग्रहीतव्यम् ? उच्यते-यथाकृतं ग्राह्यं नाल्पपरिकर्म । एवं द्वितीयपर्वादिष्वपि वक्तव्यम् , यावद् बीजैराकण्ठभृतमपि यथाकृतं ग्राह्यम् । तथा चाह वोसर्दु पि हु कप्पइ, वीयाईणं अधाकडं पायं । न य अप्प-सपरिकम्मा, तहेव अप्पं सपरिकम्मा ॥ ४०४८ ॥ 26 आगन्तुकानां बीजादीनां 'वोसट्टमपि' आकण्ठभृतमपि यथाकृतं पात्रं कल्पते न चाल्प. परिकर्म-सपरिकर्मणी शुद्धे अपि । 'तथैव' एवमेवाल्पपरिकर्मकमागन्तुकबीजानां भृतमपि कल्पते, न च सपरिकर्मकं शुद्धमपि ॥ ४०४८ ॥ अत्रैवैदम्पर्यमाह थूला वा सुहुमा वा, अवहंते वा असंथरंतम्मि । आगंतुअ संकामिय, अप्पबहु असंथरंतम्मि ॥ ४०४९॥ 30 यथाकृते स्थूलानि वा' चणकादीनि वीजानि भवन्तु 'सूक्ष्माणि वा' सर्पपादीनि, यदि तस्य प्राक्तनं भाजनं नवरङ्गत्वादवहमानकम् , तेन वा भाजनेन न संस्तरति, सर्वथा वा भाजनं तस्य नाम्ति, एवमसंस्तरतोऽल्पबहुत्वं तोलयित्वा बहुगुणकरमिति कृत्वा यथाकृतमागन्तुकबी जानां भृतमपि बीजानि यतनयाऽन्यत्र सङ्कमय्य ग्रहीतुं कल्पते ॥ ४०४९ ॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४०४६-५३] तृतीय उद्देशः । ११०७ गतं जघन्ययतनाद्वारम् । अथ "चोयग असई असिव" (गा० ४०००) ति द्वारद्वयमाह थूल सुहुमेसु वुत्तं, पच्छित्तं तेसु चेव भरिओ वि । जं कप्पइ त्ति भणिअं, ण जुञ्जई पुग्यमवरेणं ॥ ४०५० ॥ _स्थूल-सूक्ष्मेषु बीजेषु पूर्व सप्रपञ्चं प्रायश्चित्तमुक्तम् , सम्प्रति 'तैरेव' बीजै तोऽपि यथाकृतप्रतिग्रहो ग्रहीतुं कल्पते, 'इति' एवं यद भणितं तदेतद् युष्माकं पूर्वमपरेण न युज्यते । ॥ ४०५० ॥ गुरुराह चोयग! दुविहा असई, संताऽसंता य संत असिवादी । इयरा उ झामियाई, संते भणिया उसा सोही॥ ४०५१ ।। हे नोदक! द्विविधा असत्-सदसत्ता असदसत्ता च । तत्र सदसत्ता नाम यत्र ग्रामे नगरे वा भाजनानि सन्ति तत्र अपान्तराले वा अशिवम् , खग्रामे वा येषु कुलेषु लभ्यन्ते 10 तेष्वशिवम् , आदिशब्दादवमौदर्यादीनि तत्र अपान्तराले वा विद्यन्ते, अथवा अस्ति भाजनं परं नवरङ्गत्वाद् न तावद् वहति, यद्वा तद् भाजनमतिलघुतरमतो न तेन संस्तीर्यते । 'इतरा' असदसत्ता सा पुनरियम्-पात्रं 'ध्यामितं' प्रदीपनकेन दग्धम् , आदिशब्दात् स्तेनैर्वाऽपहृतं भनं वा । एवंविधयोर्द्वयोरप्यसत्तयोर्यथाकृतमागन्तुकबीजानां भृतमपि कल्पते, न पुनः शुद्धमल्पपरिकर्म । यत् पुनरस्माभिः 'शोधिः' प्रायश्चित्तमुक्तं सा द्विविधाया असत्ताया अभावे सति 15 पाने यो गृह्णाति तद्विषया मन्तव्या ॥ ४०५१ ॥ किञ्च जो उ गुणो दोसकरो, न सो गुणो दोसमेव तं जाणे । अगुणो वि होति उ गुणो, विणिच्छयो सुंदरो जस्स ॥ ४०५२ ॥ 'यस्तु' यः पुनर्गुणः 'दोषकरः' आत्मोपघातादिदोषजनकः स परमार्थतो गुण एव न भवति किन्तु दोषमेव तं जानीयात् , दोषकारणत्वात् ; यस्य तु 'विनिश्चयः' निर्वाहः सुन्दरः 20 स कथञ्चिद्गुणोऽपि परिणामसुन्दरतया गुण एव भवति, गुणकारणत्वात् ; एवमिहापि यथाकृते यद्यपि तान्यागन्तुकबीजानि यतनयाऽन्यत्र सङ्कामयतः खल्पः सङ्घनदोषस्तथापि न तत्र सूत्रार्थयोः परिमन्थः, न च छेदन-भेदनादिना आत्मोपघातः, अपि च तद् गृहीतं सत् तस्यामेव वेलायां भक्त-पानग्रहणे उपयुज्यते, एवं सदोषमपि तद् बहुगुणम् । अल्पपरिकर्मादौ तु परिकhमाणे सूत्रार्थपरिमन्थः, छेदनादिनाऽऽत्मोपघात इत्यादयो बहवो दोषाः, अतः सगु- 25 णमपि तद् बहुदोषतरम् ॥ ४०५२ ॥ अथ “पमाण उवओग छेयण" ( गा० ४०००) ति द्वारमाह __ असइ तिगे पुण जुत्ते, जोगे ओहोवही उवग्गहिए । छयण-मेयणकरणे, सुद्धो अं निजरा विउला ॥ ४०५३ ॥ यथाकृतं त्रीन् वारान् मार्गितं परं न लब्धम् , ततो वारत्रिकं 'योगे' व्यापारे 'युक्ते' 30 कृतेऽपि यथाकृतस्य 'असति' अप्राप्तौ, 'पुनःशब्दः' अवधारणे, स चैतदवधारयति-वारत्रयात् परतोऽल्पपरिकर्मकमेव ग्रहीतव्यम् । अथ तदपि न प्राप्यते ततो बहुपरिकर्मापि ग्राह्यम् । १°श्चयो न बहिः सुन्द' भा० का विना ॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०८ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ कृत्स्ना कृत्स्नप्रकृते सूत्रम् ८ एष घोपधौ औपग्रहिकोपधौ च सर्वस्मिन्नपि विधिरवसातव्यः । एवं च क्रमागतमल्पपरिकर्मादि गृहीत्वा तत्रोपयुक्तो यः छेदन-भेदने करोति सः 'शुद्ध' न प्रायश्चित्तभाग् कुतः ? इत्याह —‘यद्' यस्माद् यथोक्तक्रमागतं विधिं विदधानस्य निर्जरा विपुला भवति ॥४०५३॥ ननु चाल्पपरिकर्मादौ छेदनादिपरिकर्मसम्भवादात्म-संयमविराधना भवति ततः कथं तस्य o ग्रहणमनुज्ञायते ? उच्यते चोयग ! एताए चिय, असईय अहाकडस्स दो इयरे । कष्पति छेयणे पुण, उवओगं मा दुवे दोसा ॥ ४०५४ ॥ हे नोदक ! या पूर्वं द्विविधा असत्ता प्ररूपिता 'एतयैव' यथाकृतस्यासत्तया 'द्वे इतरे' अल्पपरिकर्म-सपरिकर्मणी कल्पेते प्रतिग्रहीतुम्, परं तयोश्छेदनादौ महता प्रयत्नेनोपयोगं 10 करोति, मा 'द्वौ ' संयमा-ssत्मविराधनालक्षणौ दोषौ भूतामिति कृत्वा ॥ ४०५४ ॥ अहवा विकतो णेणं, उवओगो न वि य लब्भती पढमं । हीणाहियं व लब्भति, सपमाणा तेण दो इयरे ॥। ४०५५ ।। अथवा कृतः 'अनेन' साधुना 'उपयोगः ' मार्गणव्यापारः परं न लभ्यते 'प्रथमं' यथाकृतं पात्रम्, अथवा लभ्यते परं स्वप्रमाणतो हीनाधिकं तेन कारणेन 'द्वे इतरे' अल्पपरिकर्म-सप15 रिकर्मणी यथाक्रमं गृह्णाति ॥ ४०५५ ॥ कुतः ? इति चेद् उच्यते जह सपरिकम्मलंभे, मग्गतें अहाकडं भवे विपुला । निज्जरमेवमलंभे, बितिथस्सियरे भवे विउला ।। ४०५६ ।। यथा 'सपरिकर्मणः' अल्पपरिकर्मपात्रकस्य लाभेऽपि यथाकृतं मार्गयतो विपुला निर्जरा भवति, तथा यथाकृताला 'इतरस्मिन्' बहुपरिकर्मणि लभ्यमानेऽपि 'द्वितीयस्य' अल्पपरिक20 र्मणो मार्गणे उपलक्षणत्वादल्प परिकर्मणोऽप्यलामे बहुपरिकर्ममार्गणे विपुलैव निर्जरा द्रष्टव्या ।। ४०५६ ।। अथवा — यत्र यथाकृतमल्पपरिकर्म वा भाजनं प्राप्यते तत्र अपान्तराले वाऽशिवमवमौदर्यं राजद्विष्टं 25 ' भयं वा' बोधिक स्तेनादिसमुत्थं वर्त्तते, ग्लानलं वा कस्यापि साधोः सञ्जातं तत्प्रतिबन्धेन न शक्यते तत्र गन्तुम्, शैक्षस्य वा तत्र सागारिकम्, चारित्रस्य वा चरिकाद्युपसर्गसमुत्थों मेदः, श्वापदाः - सिंहादयस्तेषां वा भयम्, एवमादिभिः कारणैः 'तृतीयमपि' बहुपरिकर्म पात्रं स्वस्थाने गृह्णीयात् ॥ ४०५७ ॥ उक्तमेवार्थं सिंहावलोकितेनाह— 30 असिवे ओमोदरिए, रायद्दुट्टे भए व गेलने । सेहे चरित्त सावयभए य ततियं पि गिव्हिजा ।। ४०५७ ।। आगंतुगाणि ताणि य, चिरपरिकम्मे य सुत्तपरिहाणी | एएण कारणेणं, अहाकडे होति गहणं तु ॥ ४०५८ ।। यथाकृते यानि बीजानि तान्यागन्तुकानि चिरकालपरिकर्मणि च क्रियमाणे सूत्रार्थपरिहाणिः, एतेन कारणेन यथाकृतस्य ग्रहणं कार्यम्, नाल्पपरिकर्मादेः ॥ ४०५८ ॥ अथ मुखद्वारमाह Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४०५४-६३ ] तृतीय उद्देशः । वितिय ततिएस नियमा, मुहकरणं होज तस्सिमं माणं । तं चिय तिविहं पायं, करंडगं दीह वट्टं च ।। ४०५९ ।। 'द्वितीय - तृतीययोः' अल्पपरिकर्म-सपरिकर्मणोर्नियमाद् मुखकरणं भवेत् । ' तस्य च' मुखस्य 'इदं' वक्ष्यमाणं मानम् । तत्र यस्य पात्रस्य मुखं विचारयितव्यं तत् त्रिविधम्- कैरण्डकं दीर्घं वृत्तं च । 'करण्डकं' करण्डकाकारं बहुपृथुत्वमल्पोच्छ्रयम्, 'दीर्घम् ' अल्पपृथुत्वं 5 बहूच्छ्रयम्, 'वृत्तं' चतुरस्रम् ॥ ४०५९ ॥ एतेषां मुखप्रमाणमाहअकरंडगम्मि भाणे, हत्थो उट्टं जहा न घट्टेति । एयं जहन्नगमुहं, वत्युं पप्पा विसालतरं ॥ ४०६० ॥ 'अकरण्डके' करण्डकाकाररहिते दीर्घे समचतुरस्रे वा भाजने हस्तः प्रविशन् निर्गच्छन् वा यथा 'ओष्ठं' कर्ण 'न घट्टयति' न स्पृशति एतत् सर्वजघन्यं मुखप्रमाणम् । अतः परं 'वस्तु' 10 बृहत्तरपात्रादिकं 'प्राप्य' प्रतीत्य विशालतरं मुखं क्रियते । यत् पुनः करण्डकाकारं पात्रं तस्य विशालमेव मुखं कर्त्तव्यम्, अन्यथा तद् दुःप्रत्युपेक्षं भवति ॥ ४०६० ॥ एष प्रतिग्रहविधिरुक्तः । इदानीं मात्रकविधिः, तत्र परः प्रेरयति - ननु तीर्थकरैस्तावद् मात्रकं नानुज्ञातम्, कथम् ? इति चेद् उच्यते दव्वे एगं पायं, भणिओ तरुणो य एगपाओ उ । ११०९ - अप्पोवही पसत्थो, चोएति न मत्ततो तम्हा ॥ ४०६१ ॥ उपकरणद्रव्यावमौदरिकायामेकमेव पात्रमुक्तम् । तथा चागमःएगे वत्थे एगे पाए चियत्तोवगरणसाइज्जणया । तथा यो भिक्षुस्तरुणो युगवान् बलवान् स एकपात्रो भवेत् । तथा च आचारसूत्रम् - जे भिक्खू तरुणे जुगवं बलवं० से एगं पायं धारेज्जा । (श्रु० २ चू० १ अ० ६ उ० १ ) 20 अल्पोपधिश्च प्रशस्तः । तथा च दशवैकालिकसूत्रम् — अप्पोवही कलहविवज्जणा य, विहारचरिया इसिणं पसत्था । ( चू० २ गा० ५ ) यत एवमतो न मात्रकं ग्रहीतव्यम्, गाथायां पुंस्त्वं प्राकृतत्वाद् इति परः प्रेरयति ॥ ४०६१ ॥ अथ सूरिराह जिणकप्पे तं सुतं, सपडिग्गहकस्स तस्स तं एगं । नियमा थेराण पुणो, बितिजओ मत्तओ होइ ॥ ४०६२ ॥ नोदक ! यदेकपात्रादिप्रतिपादकं सूत्रं तद् जिनकल्पविषयं मन्तव्यम् । तथाहि — यः सप्रतिग्रहो जिनकल्पिकस्तस्य 'तत्' प्रतिग्रहलक्षणमेकं पात्रं भवति । स्थविराणां पुनर्नियमाद् द्वितीयं मात्रकं भवति, "एगं पायं जिणकप्पियाण थेराण मत्तओ बीओ ।" ( ओघनि० गा० ६७९ ) इति वचनात् ॥ ४०६२ ॥ नणु दव्वोमोयरिया, तरुणाइविसेसओ य मत्तो वि । अप्पोवही दुपत्तो, जेणं तिप्पमिति बहुसो || ४०६३ ॥ १ एतदन्तर्गतः पाठः भा० कां० एव वर्त्तते ॥ २ 'त्तं' समचतु' भा० कां० ॥ 15 25 30 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 १११० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [कृत्स्नाकृत्सप्रकृते सूत्रम् ८ यच्च द्रव्यावमौदरिकायामेकं पात्रमुक्तं तत्र द्वयोः पात्रयोर्धारणे ननु द्रव्यावमौदरिका किं न भवति ? त्रिप्रभृतीनामग्रहणाद् भवत्येवेति भावः । यच्चाभिहितम् “जे भिक्खू तरुणे" इत्यादि तत्र यदि सर्वेणापि साधुनैकमेव पात्रकं धारयितव्यं ततः किं तरुणादिभिर्विशेषणैरभिहितैः । अतो ज्ञायते तरुणादिविशेषणाभिधानाद् मात्रकमपि सामर्थ्यादनुज्ञातम् । यद्यपि "अप्पोवही' इत्यादि अभिहितं तत्र तु 'द्विपात्रः' पात्रद्वयोपेतोऽल्पोपधिरेव भवति, यतस्त्रिप्रभृतिष्वेव पदार्थेषु बहुशब्दो वर्तते, अतो ग्रहीतव्यं मात्रकम् ॥ ४०६३ ॥ अथ न गृह्णाति तत इमे दोषाः अग्गहणे वारत्तग, पमाण हीणाऽधि सोहि अववाए । परिभोग गहण-बितियपय-लक्खणाई मुहं जाव ॥ ४०६४ ॥ 10 मात्रकस्याग्रहणे दोषा वक्तव्याः। वारत्तगदृष्टान्तश्चात्र भवति । प्रमाणम् हीना-ऽधिकप्रमाणे च दोषाः। 'शोधिः' मात्रकपरिभोगे प्रायश्चित्तम् । 'अपवादः' हीना-ऽधिकधारणालक्षणः । परिभोगः कारणे मात्रकस्य यथा विधीयते । ग्रहण-द्वितीयपद-लक्षणादीनि मुखं यावद् यानि प्रतिग्रहद्वाराण्यभिहितानि तदेतत् सर्व वक्तव्यमिति द्वारगाथासङ्केपार्थः ॥ ४०६४ ।। __ अथैनामेव विवरीषुराह मत्तअगेण्हणे गुरुगा, मिच्छत्ते अप्प-परपरिचाओ। संसत्तगगहणम्मि, संजमदोसा सवित्थारा ॥४०६५ ॥ मात्रकं यदि न गृह्णाति ततश्चतुर्गुरुकाः । येऽभिनवश्राद्धास्ते तेनैव प्रतिग्रहेण भोजनं पुननिर्लेपनं च कुर्वाणं दृष्ट्वा 'दुर्दृष्टधर्माणोऽमी' इति मिथ्यात्वं गच्छेयुः । यदि प्रतिग्रहे आचा र्यादीनामय गृह्णाति तत आत्मपरित्यागः । अथात्मनो गृह्णाति ततः परेषाम्-आचार्यादीनां 20 परित्यागः कृतो भवति । संसक्तभक्त-पानं चाप्रत्युपेक्षितं यदि प्रतिग्रहे गृह्णाति ततः संयमदोषाः सविस्तराः “छक्काय चउसु लहुगा" (गा० ४६१, ८७९, २७७१ प्रभृतयः ) इत्यादिविस्तरसहिता वक्तव्याः ॥ ४०६५ ॥ अथ वारत्तगदृष्टान्तमाह- . वारत्तग पव्वजा, पुत्तो तप्पडिम देवथलि साहू । पडियरणेगपडिग्गह, आयमणुव्यालणा छेओ ॥ ४०६६ ॥ 25 वारत्तगपुरं नगरं । तत्थ य अभयसेणो राया । तस्स अमच्चो वारत्तगो नाम, सो पत्तेगबुद्धो घरसारं पुत्तस्स निसिरियं पव्वइओ । तस्स पुत्तेण पिउभत्तीए देवकुलं कारेत्ता रयहरण-मुहपोत्तिय-डिग्गहधारिणी पिउ» पडिमा ठाविया, तत्थ य सत्तागारो पवत्तिओ। तत्थ. य एगो साहू एगपडिग्गहधारी पडिग्गहए भिक्खं घेत्तुं तं भोत्तुं तत्थेव पडिग्गहे पुणो पाणगं घेत्तुं सन्नं वोसिरिलं तेणेव पडिग्गहेणं निल्लेवेइ । तेसि सत्ताकारनिउत्ताणं चिंता 30 जाया---'कहं निल्लेवेइ ?' ति पडियरिओ । दिट्ठो तेहिं, निच्छूढो । तस्स अन्नेसिं च साहूणं वोच्छेओ तत्थ जाओ ॥ १°समासार्थः का० ॥ २°भग्गसे° भा० चूर्णी विशेषचूर्णौ च ॥ ३ एतदन्तर्गतः पाठः भा० कां० एव वर्तते ॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १०६४-७०] तृतीय उद्देशः । ११११ अथ गाथाक्षरार्थः-चारत्नकेन प्रव्रज्यायां गृहीतायां पुत्रस्तस्य-वारत्तकस्य प्रतिमां देव. कुलेऽचीकरत् । तत्र च स्थली प्रवर्तिता । साधुश्चैकेन प्रतिग्रहेण भिक्षार्थमायातः । प्रतिचरणं च कुर्वाणैस्तेनैव प्रतिग्रहेण 'आचमनं' निलेपनं कुर्वाणं दृष्ट्वा तस्य 'उद्वालना' निष्काशना कृता । तस्यान्येषां च साधूनां व्यवच्छेदः कृतः । एवं मात्रकस्याग्रहणे उड्डाहो भवेत् ॥४०६६॥ अथ प्रमाणद्वारमाह जो मागहओ पत्थो, सविसेसतरं तु मत्तगपमाण । दोसु वि दव्वग्गहणं, वासावासासु अहिकारो॥ ४०६७ ॥ यो 'मागध:' मगधदेशोद्भवः 'प्रस्थः' "दो असईओ पसई, दो पसईओ य सेइया होति। चउसेइयाहि पत्थो" 10 इति क्रमनिष्पन्नः, ततो मागधप्रस्थात् सविशेषतरं मात्रकप्रमाणं भवति । तेन च मात्रकेण 'द्वयोरपि' ऋतुबद्ध-वर्षावासयोर्गुरु-ग्लानादियोग्यस्य भक्त-पानद्रव्यस्य ग्रहणं क्रियते । अन्ये तु व्याचक्षते-"दोसु वि" ति प्रतिग्रहे भक्तं मात्रके पानकं गृह्यते । वर्षावासे तु विशेषतो मात्रकेणाधिकारः, यतो वर्षासु प्रथममेव यत्र धर्मलाभयति तत्र पानकं गृह्णाति, यतः कदाचिद् व्याधारितं वर्ष निपतेद् येन गृहाद् गृह सञ्चरितुं न शक्यते ततः पानकेन विना प्रति-15 ग्रहो लेपकृतो भवति । अथवा वर्षावासे भक्त-पानं संसज्यत इति कृत्वा मात्रकेण तस्य शोधनं कार्यम् ।। ४०६७ ॥ प्रकारान्तरेण मात्रकप्रमाणमाह सुक्खोल्लओदणस्सा, दुगाउतद्धाणमागओ साहू । भुजति एगट्ठाणे, एतं खलु मत्तगपमाणं ॥४०६८॥ शुष्कौदनस्यान्यभाजनगृहीतेन तीमनेनार्द्रस्य भृतं यद् ‘एकस्थाने' एकवारं द्विगव्यूतमात्रा- 20 दध्वन आगतः साधु ते एतत् खलु मात्रकप्रमाणं मन्तव्यम् ॥ ४०६८॥ यदि वा भत्तस्स व पाणस्स व, एगतरागस्स जो भवे भरिओ। पज्जत्तो साहुस्स उ, बितियं पि य मत्तयपमाणं ।। ४०६९॥ भक्तस्य वा पानकस्य वाऽनयोरेकतरस्य यद् भृतं सद् एकस्य साधोः पर्याप्तं भवति एतद् द्वितीयमपि मात्रकप्रमाणमवगन्तव्यम् ॥ ४०६९ ॥ अथ हीनद्वारमाह 25 डहरस्सेमे दोसा, ओभावण खिसणा गलंते य । छण्हं विराहणा भाणभेदों जं वा गिलाणस्स ।। ४०७० ॥ 'डहरस्य' यथोक्तप्रमाणाद् लघुतरस्य मात्रकस्येमे दोषाः, तद्यथा— 'अपभ्राजना' तद् लघुतरं मात्रकमतीव म्रियमाणं दृष्ट्वा लोको ब्रूयात्-अहो ! अमी बुभुक्षादुःखभमाः प्रवजन्ति । अथवा भक्त-पानं परिगलद् विलोक्य 'अहो ! अमी असन्तुष्टा एवं सिच्यमाना अपि न गणयन्ति' इति 30 खिंसां कुर्यात् । अतिभृते च गलति षट्कायानां विराधना । अथ परिगलनभयात् तत्रैवोपयोगं ददाति ततः स्थाण्यादौ प्रस्खलितस्य भाजनभेदो भवेत् । यद्वा ग्लानस्य उपलक्षणत्वाद् बाल१ 'वासे अहीका ताभा० ॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११२ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ कृत्स्नाकृत्स्नप्रकृते सूत्रम् ९ वृद्धादीनां च तेन डहर मात्रकेणापर्याप्तं भवति तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् ॥ ४०७० ॥ तथापडणं अगुतम्मि, पुढवी तसपाण-तरुगणादीणं । आणिते गामंतरातों गलणे य छक्काया ॥ ४०७१ ॥ डहरमात्रके आकण्ठभृते लेपकृतीकरणभयाद् 'अपावृते' उद्घाटिते पृथिवीरजः - त्रसप्राणि० तरुगणादीनां पतनं भवेत् । अथवा ग्रामान्तरादतिभृते तस्मिन् आनीयमाने परिगलति षट्काया विराध्यन्ते ॥ ४०७१ ॥ अथाधिकद्वारमाह प्रमाणाधिकस्य मात्रकस्येमे दोषाः - 'एकतरस्य' भक्तस्य वा पानकस्य वा प्रतिग्रहे भृते 10 सति पश्चाद् मात्रके ग्रहणं कुर्यात् । सहसा वा तस्य मात्रकस्य भरणे कृते भारेण स्थाणु- कण्टकादीनि न प्रेक्षते तत्रात्मविराधना, ईर्याया अशोधने संयमविराधना । अन्यच्च द्वयोरपि प्रतिग्रह-मात्रकयोर्भृतयोः ‘विवेचनं' परिष्ठापनं भवेत् तत्र षट्कायविराधना । अथ न परिष्ठापयति ततोऽतिप्रचुरेण भक्षितेन ग्लानत्वं भवेत् । यत एवमादयो दोषाः अतः प्रमाणयुक्तं ग्रहीतव्यम् ॥ ४०७२ || अथ शोधिद्वारमाह 15 जइ भोयणमावहती, दिवसेणं तत्तिया चउम्मासा । दिवसे दिवसे तस्स उ, चितिएणारोवणा भणिया ॥ ४०७३ | 'यति' यावतो वारान् एकदिवसेन मात्रके 'भोजनं' भक्त पानम् - आत्मनो योग्यम् - ‘आवहति' आनयतीत्यर्थः तावन्ति चतुर्लघूनि । अथ दिवसे दिवसे मात्रकं परिभुक्ते ततो द्वितीयप्रायश्चित्तेनारोपणा भणिता । किमुक्तं भवति ? - द्वितीयदिवसे मात्रकं यावतो वारान् 20 परिभुङ्क्ते तावन्ति चतुर्गुरुकाणि, एवं तृतीये षड्लघु, चतुर्थे षड्गुरु, पञ्चमे छेदः, षष्ठे मूलम्, सप्तमेऽनवस्थाप्यम्, अष्टमे पाराञ्चिकम् ॥ ४०७३ || गतं शोधिद्वारम् । अथापवादद्वारमाहअण्णाणे गारवे लुद्धे, असंपत्ती य जाणए । लहुगो लहुगा गुरुगा, चउत्थो सुद्धो उ जाणओ ॥ ४०७४ ।। इयं यथा प्रतिग्रहे ( गा० ४०१६ ) तथा मात्रकेऽपि वक्तव्या ॥ ४०७४ ॥ 25 अहिस्स इमे दोसा, एगतरस्सोग्गहम्मि भरितम्मि | सहसा मत्तगभरणे, भारादि विर्गिचणियमादी ॥ ४०७२ ।। परिभोगद्वार माह - बाले बुढे सेहे, आयरिय गिलाण खमग पाहुणए । दुल्लभ संसत असंथरंत अद्धाणकप्पम्मि ॥ ४०७५ ॥ बालस्य वृद्धस्य शैक्षस्याचार्यस्य ग्लानस्य क्षपकस्य प्राघुणकस्य च प्रायोग्यं मात्रके गृह्यते । यद्वा बाल वृद्धादयः प्रतिमहं हिण्डापयितुं न शक्नुवन्ति अतस्ते मात्रके भक्त - पानमानयेयुः 30 भुञ्जीरन् वा । गच्छसाधारणं वा दुर्लभद्रव्यं घृतादिकं मात्रके गृह्णीयात् । यत्र वा भक्त- पानं संसज्यते तत्र मात्र गृह्यते, तद्धि संसक्तं मात्रके शोधयित्वा पश्चात् प्रतिग्रहे प्रक्षिप्यते । १ एते दोषाः भा० ॥ २ एतचिहान्तर्गतः पाठः भा० नास्ति । “जत्तिए वारे आत्ति एगदिवसेणं तत्तिया चउलहुग।” इति चूर्णौ विशेषचूर्णौ च ॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४०७९-७९] तृतीय उद्देशः । १११३ अवम - राजद्विष्टादिषु वा असंस्तरणे प्रतिग्रहे कृतेऽन्यस्मिन् लभ्यमाने मात्र के गृह्यते । अध्वनि कल्पोऽध्वकल्पः, कल्पग्रहणं कारणे विधिना अच्चा प्रतिपन्न इति ख्यापनार्थम्, तत्रासंस्तरणे प्रतिग्रहे भृते सति मात्रकेऽपि गृह्यते ॥ ४०७५ ॥ 叮 अथ ग्रहण - द्वितीयपदद्वारे व्याख्यायेते - ग्रहणं नाम को मात्रकं गृह्णाति ? तत्र निर्वचनं यथा प्रतिग्रहे । द्वितीयपदं पुनरशिवादिभिः कारणैः येथाकृतमात्रकस्य यत्र सम्भवस्तत्र 5 गन्तुमशक्तौ - स्वस्थान एवाल्पपरिकर्म - बहुपरिकर्मणी ग्रहीतव्ये । लक्षणादीनि द्वाराणि प्रतिग्रह इव मन्तव्यानि ॥ अल्पपरिकर्मणि सपरिकर्मणि च पात्रे लेपप्रदानं सम्भवति अतस्तद्विषयं विधिमाह — हरिए बीए चले जुत्ते, वच्छे साणे जलट्ठिए । पुढवी संपातिमा सामा, महावाए महियाऽमिते ॥ ४०७६ ॥ पुव्वण्हें लेवदाणं, लेवग्गहणं सुसंवरं काउं । लेवरस आणणा लिंपणा य जतणाय कायव्वा ॥ ४०७७ ॥ गाथाद्वयमपि पीठिकायां ( गा० ५००, ४९१ ) सप्रपञ्चं व्याख्यातमिति ॥ ४०७६ ॥ ॥ ४०७७ ॥ सूत्रम् 10 कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा भिन्नाई वत्थाई धारितए वा परिहरितए वा ९ ॥ •1 अस्य व्याख्या प्राग्वत् ॥ > आह— किमनेन सूत्रेण प्रयोजनम् ? पूर्वसूत्रेणैव गतार्थत्वात्, उच्यते 15 अव्वोगडो उ भणितो, उवधिविभागो उ आदिसुत्तेसु । सो पुण विभजमाणो, उवरिसुए वोगडो होति ॥ ४०७८ ॥ 'अव्याकृतः ' ' अयं जिनकल्पिकानाम्, अयं स्थविरकल्पिकानाम्, अयमार्थिकाणाम्' इत्येवमविशेषित एवोपधिविभागः 'आदिसूत्रेषु' अनन्तरोक्तेषु भणितः, 'स पुनः ' उपधि विभागो जिनकल्पिकादि विभागैर्विभज्यमानोऽस्मिन् प्रस्तुते उपरिसूत्रे 'व्याकृतः' स्फुटो भवति, अत इदं सूत्रमारभ्यते ॥ ४०७८ ॥ तमेवोपधिविभागं प्रचिकटयिषुराह - चोसग पण्णवीसो, ओहोवधुवग्गहो अणेगविधो । संथारपट्टमादी, उभयोपक्खम्मि यव्वो । ४०७९ ॥ इह जिनकल्पिकानामौधिक एवोपधिर्भवति नौपग्रहिकः, स्थविरकल्पिकानां तु द्विविधोऽपि भवति । तत्रौघोपधिर्द्विधा - चतुर्दशविधः पञ्चविंशतिविधश्च । चतुर्दशविधः साधूनाम्, पश्चविंशतिविधस्तु साध्वीनाम् । उपग्रहोपधिः पुनरनेकविधः, स च संस्तारपट्टादिरूपः 'उभयपक्षे' 30 १-२ एतदन्तर्गतः पाठः भा० नास्ति ॥ 20 25 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लधुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [कृत्स्नाकुल्लप्रकृते सूत्रम् ९ साधु-साध्वीजनलक्षणे ज्ञातव्यः ॥ ४०७९ ॥ तत्र स्थविरकल्पिकानां चतुर्दशविध ओघोपधिः प्रागनन्तरसूत्र एवोक्तः, अथार्याणां पञ्चविंशतिविधं तमेवाह पत्तं पत्ताबंधो, पायट्ठवणं च पायकेसरिया । [ओ.नि.६७५,नि. १३९६-१४०८] पडलाइ रयत्ताणं, च गोच्छओ पायनिजोगो ॥ ४०८० ॥ तिण्णेव य पच्छाया, रयहरणं चेव होइ मुहपोत्ती । [ओ.नि. ६७६] तत्तो य मत्तए खलु, चोद्दसमे कमढए होति ॥ ४०८१ ॥ उग्गहणंतग पट्टो, अड्डोरुअ चलणिया य बोधव्वा । [ओ.नि. ६७७] अभितर-बाहिणियंसणी य तह कंचुए चेव ॥ ४०८२ ॥ उक्कच्छिय वेकच्छिय, संघाडी चेव खंधकरणी य । [ओ.नि. ६७८] 10 ओहोवहिम्मि एते, अजाणं पण्णवीसं तु ॥ ४०८३ ॥ पात्रकादीनि त्रयोदशोपकरणानि साधूनामिव द्रष्टव्यानि । चतुर्दशं तु चोलपट्टकस्थाने तासां कमठकं भवति, तच्चाष्टकमयमेकैकं संयतीनां निजोदरप्रमाणेन विज्ञेयम् १४ । तथाऽवग्रहानन्तकं १५ पट्टः १६ अोरुकं १७ चलनिका च बोद्धव्या १८, अभ्यन्तरनिवसनी १९ बहिर्निवसनी २० तथा कञ्चकश्चैव २१ औपकक्षिकी २२ वैकक्षिकी २३ सङ्घाटी २४ 13 स्कन्धकरणी २५ । एवमेतान्योघोपधौ आर्यिकाणां पञ्चविंशतिरुपकरणानि भवन्तीति ॥ ४०८० ॥ ४०८१ ॥ ४०८२ ॥ ४०८३ ॥ अथैतान्येव विवृणोति नावनिमो उग्गहणंतओ उ सो गुज्झदेसरक्खट्ठा । सो य पमाणेणेको, घण-मसिणो देहमासज्ज ॥ ४०८४॥ इह 'अवग्रहः' इति योनिद्वारस्य सामयिकी संज्ञा, तस्यानन्तकं-वस्त्रमवग्रहानन्तकम् , गाथायां 20 पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् , तच्च 'नौनिभं' मध्यभागे विशालं पर्यन्तभागयोस्तु तनुकं गुह्यदेशरक्षार्थ क्रियते । तच गणनया एकम् , आर्चव-वीजपातसंरक्षणार्थं च धनं-धनवस्त्रेण, पुरुषसमानकर्कशस्पर्शपरिहरणार्थं च मसृणं-मसृणवस्त्रेण क्रियते । प्रमाणेन च 'देह' स्त्रीशरीरमासाद्य तद् विधीयते, देहो हि कस्याश्चित् तनुः कस्याश्चित्तु स्थूलः ततस्तदनुसारेग विधेयमित्यर्थः ॥४०८४॥ पट्टो वि होइ एको, देहपमाणेण सो उ भइयव्यो । (सर्वग्रन्थानम्-२७०००) छादंतोग्गहणतं, कडिबद्धो मल्लकच्छा वा ॥ ४०८५॥ पट्टोऽपि गणनयको भवति । स च पर्यन्तभागवर्तिवीटकबन्धबद्धः, पृथुत्वेन चतुरङ्गुलप्रमाणः समतिरिक्तो वा, दैर्येण तु स्त्रीकटीप्रमाणः। स च देहप्रमाणेन भक्तव्यः, पृथुलकटी भागाया दीर्घः सङ्कीर्णकटीभागायास्तु इख इत्यर्थः । स चावग्रहानन्तकमुभयान्तयोराच्छादयन् 30 कटीबद्धः सन् मल्लकक्षावद् ज्ञायते ॥ ४०८५ ॥ अड्डोरुगो वि ते दो, वि गिहिउं छादए कडीभागं । जाणुप्पमाण चलणी, असिव्विया लंखियाए व ॥ ४०८६ ॥ १ एतदने ग्रन्थानम् ११५०० ताटी० । ग्रन्थानम् २५०० मो० ले० ॥ 26 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४०८०-९०] तृतीय उद्देशः । १११५ अधोरुकोऽपि तौ द्वावपि' अवग्रहानन्तक-पट्टावुपरिष्टाद् गृहीत्वा सर्व कटीभागमाच्छादयति, स च मल्लचलनाकृतिः केवलमूर्वोरन्तरे ऊरुद्वये च कसाबद्धः । चलनिकाऽप्येवमेव, नवरमधो जानुप्रमाणा अस्यूता लङ्खिकापरिधानवत्-वंशाग्रनर्तकीचलनकवंदसौ मन्तव्या ॥ ४०८६ ॥ अंतोनियंसणी पुण, लीणतरा जाव अद्धजंघातो। बाहिर खुलगपमाणा, कडीय दोरेण पडिबद्धा ॥ ४०८७ ॥ अन्तर्निवसनी पुनरुपरि कटीभागादारभ्याधोऽर्धजङ्घा यावद् भवति । सा च परिधानकाले लीनतरा परिधीयते, मा भूदनावृता जनोपहास्येति । बहिर्निवसनी पुनरुपरि कटीभागादारभ्याधः 'खुलकप्रमाणा' चरणगुल्फ यावदित्यर्थः, कट्यां च दवरकेण प्रतिबद्धा ॥ ४०८७ ॥ इदमधःशरीरस्य षड्विधमुपकरणमुक्तम् । अथोर्द्धकायोपयोगि कञ्चकादिकं व्याख्यातिछादेति अणुक्कुयिते, उरोरुहे कंचुओ असिव्वितओ। 10 एमेव य उक्कच्छी, सा णवरं दाहिणे पासे ॥ ४०८८॥ दैर्घ्यमाश्रित्य खहस्तेनार्धतृतीयहस्तप्रमाणः पृथुत्वेन तु हस्तमानः 'असीवितः' उभयतः कटीदेशे कसावबद्धः कञ्चुकः क्रियते । स च उरोरुहौ छादयति, किम्भूतौ ? 'अनुत्कुचितौ' श्लथौ; गाढपरिधाने हि विविक्तविभागौ भवेताम् । कक्षायाः समीपमुपकक्षम्, तत्र भवा औपकक्षिकी, अध्यात्मादित्वादिकण्प्रत्ययः, 'एवमेव च' कञ्चुकवत् तस्या अपि स्वरूपं वक्त- 15 व्यम् । सा नवरं दक्षिणे पार्थे समचतुरस्रा खहस्तेन सार्धहस्तप्रमाणा उरोभागं पृष्ठं च प्रच्छादयन्ती वामस्कन्धे वामपार्श्वे च वीटकबद्धा परिधीयते ॥ ४०८८ ॥ वेगच्छिया उ पट्टो, कंचुकमुक्कच्छियं च छादेति । संघाडीओ चउरो, तत्थ दुहत्था उ वसधीए ॥ ४०८९ ॥ दुन्नि तिहत्थायामा, भिक्खडा एग एग उच्चारे । 20 ओसरणे चउहत्थाऽनिसन्नपच्छाइणी मसिणा ॥ ४०९० ॥ . औपकक्षिकीविपरीतो वैकक्षिकीनामकः पट्टः कञ्चकमौपकक्षिकी च छादयन् वामपार्श्वे परिधीयते । तथोपरि परिभोग्याः सङ्घाटिकाश्चतस्रो भवन्ति-एका द्विहस्ता, द्वे त्रिहस्ते, एका च चतुर्हस्ता; दैर्येण चतस्रोऽपि सार्धहस्तत्रयप्रमाणाश्चतुर्हस्ता वा मन्तव्याः । तत्र 'द्विहस्ता' द्विहस्तविस्तृता सङ्घाटिका वसत्यां परिधीयते, न तां विहाय प्रकटदेहया कदाचिदासितव्य-25 मिति भावः ॥ ४०८९ ॥ ___ ये च द्वे 'त्रिहस्तायामे' त्रिहस्तविस्तृते तयोर्मध्ये एका भिक्षार्थ गच्छन्त्या प्रावियते, एका उच्चारभूमि वजन्त्या । तथा 'समवसरणे' व्याख्यानश्रवणादौ गच्छन्ती चतुर्हस्तां प्रावृणोति, सा च प्राक्तनसङ्घाटीभ्यो बृहत्तरप्रमाणा अनिषण्णप्रच्छादनार्थ क्रियते; यतो न तत्र संयतीभिरुपवेष्टव्यम् , किन्तूर्द्धस्थिताभिरनुयोगश्रवणादि विधेयम्, ततस्तया स्कन्धादारभ्य पादौ यावद् 30 वपुः प्रच्छाद्य तिष्ठन्ति । एताश्च पूर्वप्रावृतवेषप्रच्छादनार्थ प्रवचनवर्णप्रभावनार्थ च मसृणाः १°लमुपरि ऊरु° भा० का ताटी० ॥ २ °वत् सा म° मो० ले० ॥ ३ तरी जा तामा० ॥ ४°भूवुत्ता जनो° भा० का ताटी० ॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११६ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ भिन्नाभिन्न० प्रकृते सूत्रम् ९ क्रियन्ते । चतस्रोऽपि च गणनाप्रमाणेनैकमेव रूपं गण्यते, युगपत् परिभोगाभावात् ॥ ४०९०॥ खंधकरणी उ चउहत्थवित्रा वायविहुतरक्खट्ठा ! खुजकरणी उकीरति, रूववंतीणं कुडुहहेउं ॥ ४०९१ ॥ स्कन्धकरणी चतुर्हस्तविस्तरा समचतुरस्रा प्रावरणस्य वातविधुतरक्षणार्थं चतुष्फला स्कन्धे 5 कृत्वा प्रात्रियते । रूपवतीनां च संयतीनां कुटुभहेतोः कुब्जकरण्यपि क्रियते, पृष्ठदेशे संवर्त्तितया औपकक्षिकी- वैकक्षिकीनिबद्धया तया विरूपतापादनाय कुटुभं विधीयत इति भावः ॥ ४०९१ ॥ उपसंहरन्नाह संघातिमेत वा, सव्वोऽवेसो समासओ उवधी । पासगबद्धमसिरो, जं चाऽऽइणं तगं णेयं ॥ ४०९२ ॥ सर्वोऽपि 'एषः ' अनन्तरोक्त उपधिः समासतो द्विधा - सङ्घातिम इतरश्च । द्वित्र्यादिखण्डानां मीलनेन निष्पन्नः सङ्घातिमः, 'इतर' तद्विपरीतोऽसङ्घातिमः । अयं च 'पाशकबद्ध ः ' कसाबद्धः तथा 'अशुषिर ः ' गृहिसीवनिकारहितः प्रतिथिग्गलवर्जितो वा । यच्चात्र द्रव्य क्षेत्रकाल-भावेषु संविग्नगीतार्थैः पूर्वसूरिभिर चीर्णं तत् सर्वमपि ' ज्ञेयं' सम्यगुपादेयतया मन्तव्यम् ॥ ४०९२ ॥ अथ जिनकल्पिकादीनामुपधेरुत्कृष्टादि विभागमाह 15 10 20 - उक्कोसओ जिणाणं, चउव्विहो मज्झिमो वि य तहेव । [नि.गा. १४१०-१६] जहणो हि खलु, एतो थेराण वोच्छामि ॥ ४०९३ ॥ त्रयः कल्पाः प्रतिग्रहश्चेति जिनकल्पिकानामुत्कृष्ट उपधिश्चतुर्विधः । एवं मध्यमोsपि रजोहरण-पटलक-पात्रबन्ध-रजस्त्राणभेदात् चतुर्विधः । जघन्योऽपि मुखपोतिका - पादकेसरिकागोच्छक - पात्रस्थापन भेदात् चतुर्विधः । इत ऊर्द्ध स्थविरकल्पिकानां वक्ष्यामि ॥ ४०९३ ॥ कोसो थेराणं, चव्विहो छव्त्रिहो य मज्झिमओ । जहणो हि खलु, एत्तो अजाण वोच्छामि ॥ ४०९४ ॥ उत्कृष्टो जघन्यश्च जिनकल्पिकानामिव द्रष्टव्यः । नवरं मध्यमः षड्विध इत्थम् - रजोहरणं पटलकानि पात्रकबन्धो रजस्त्राणं मात्रकं चोलपट्टकश्चेति । [ इत ऊर्द्धमार्याणां वक्ष्यामि ] ॥ ४०९४ ॥ 25 कोसो अट्ठविहो, मज्झिमओ होइ तेरसविहो उ । जहण्णो चव्विहो खलु, एत्तो उ उवग्गहं वोच्छं ।। ४०९५ ।। आर्याणामुत्कृष्ट उपधिरष्टविधः: - त्रयः कल्पाः ३ प्रतिग्रहः ४ अभ्यन्तरनिवसनी ५ बहिर्निवसनी ६ सङ्घाटिका ७ स्कन्धकरणी ८ चेति । मध्यमस्त्रयोदशविधो भवति, तद्यथा-रजोहरणं १ पटकानि २ पात्रकबन्धः ३ रजस्त्राणं ४ मात्रकं ५ कमठकम् ६ अवग्रहानन्तकं ७ 30 पट्टः ८ अर्धोरुकः ९ कञ्चुकः १० चलनिका ११ औपकक्षिकी १२ वैकक्षिकी १३ चेति । जघन्यश्चतुर्विधः – मुखपोतिका पात्रकेसरिका गोच्छकः पात्रस्थापनं चेति । इत ऊर्द्धमतिरिक्तो १ 'णी व की ताभा० ॥ २ सीप कु° ताभा० ॥ ३ पात्र के मो० ॥ ४ पादके भा० को० ताड़ी ० ॥ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४ ०९१-९९] तृतीय उद्देशः । य उपधिः स उपग्रहोपधिरुच्यते, तमपि जघन्यादिविभागनिरूपणेनाहं वक्ष्ये ।। ४०९५ ॥ तत्र जघन्यं तावदाह पीढग णिसिज दंडगपमजणी घट्टए डगलमादी । पिप्पलग सूयि णहरणि, सोहणगदुगं जहण्णो उ ॥ ४०९६ ॥ पीठकं काष्ठमयं छगणमयं वा । निषद्या रजोहरणस्य सौत्रिकी और्णिकी चेति द्विविधा । 'दण्डकप्रमार्जनी नाम' यया वसतिः प्रमाय॑ते । 'घट्टकः' लिप्तपात्रमसृणताकारकः पाषाणः । डगलकाः-पुतप्रोञ्छनोपयोगिनो लेष्टवः, आदिशब्दात् कुटमुख-क्षारादिपरिग्रहः । 'पिप्पलकः' क्षुरप्रः । 'सूची' यया वस्त्रं सीव्यते । 'नखहरणी' यया नखा उड्रियन्ते । 'शोधनकद्विकं तु' कर्णशोधनं दन्तशोधनं चेति । एष जघन्य औपग्रहिकोपधिः ॥४०९६॥ अथ मध्यममाहवासत्ताणे पणगं, चिलिमिणिपणगं दुगं च संथारे । 10 दंडादीपणगं पुण, मत्तगतिग पादलेहणिया ॥ ४०९७ ॥ चम्मतिगं पट्टदुगं, णायव्यो मज्झिमोवही एसो।। अजाण वारए पुण, मज्झिमए होति अतिरित्तो ॥ ४०९८ ॥ वर्षात्राणानां पञ्चकम्-वालमयं सूत्रमयं सूचीमयं कुटशीर्षकं छत्रकं चेति । तत्र वालमयं सूत्रमयं च प्रतीतम् , सूची-ताडपत्रसूच्यादिखुम्पकः, कुटशीर्षकं पलाशपत्रमयम् , छत्रकं वंश-15 मयम् । चिलिमिलिपञ्चकम्-वालमयी सूत्रमयी वल्कमयी कटमयी दण्डमयी चेति, पञ्चापि । प्रथमोद्देशके (सू० १८ गा० २३७४ ) विख्याताः । संस्तारकद्विकं शुषिरा-ऽशुषिरभेदात् । शुषिरस्तृणादिमयः, अशुषिरः काष्ठमयः । दण्डादिपञ्चकम्-दण्डको विदण्डको यष्टिवियष्टिर्नालिका चेति । मात्रकत्रिकं तु खेल-प्रश्रवणोच्चारमात्रकभेदात् । पादलेखनिका वटोदुम्बरप्लक्षा-ऽम्लिकाकाष्ठमयी वर्षासु कर्दमापनयनी ॥ ४०९७ ॥ 20 चर्मत्रिक पुनरिदम्--आस्तरणं प्रावरणमुपवेशनं च । दवानलादिभये यद् भूमावास्तीर्यते प्रलम्बादिविकरणाय वा तदास्तरणम् , षट्पदिकाभये यत् प्राब्रियते तत् प्रावरणम् , यत्राोंरोगादिभिः कारणैरुपविश्यते तदुपवेशनम् । अथवा कृत्तिः तलिका वश्चेति चर्मत्रिकम् । पट्टद्विकम् --संस्तारपट्ट उत्तरपट्टश्च, अथवा पर्यस्तिकापट्टः सन्नाहपट्टश्चेति । तत्र पर्यस्तिकापट्टो योगपट्ट उच्यते, सन्नाहपट्टस्तु विहारे उपधेः शरीरेण सह बन्धनार्थः । एष मध्यम 25 उपग्रहोपधिः साधूनां ज्ञातव्यः । आर्याणामप्येवमेव, नवरम्-तासां जनमध्य एवोपाश्रयस्यानुज्ञातत्वात् ससागारिके वसन्तीनां प्रश्रवणव्युत्सर्जनानन्तरमुदकस्पर्शनार्थं वारको मध्यमोपधावतिरिक्तो भवति ॥ ४०९८ ॥ अथोत्कृष्टमाह - अक्खा संथारो या, दुविहो एगंगिएतरो चेव । पोत्थगपणगं फलगं, वितियपदे होति उक्कोसो ॥ ४०९९ ॥ 30 ___ 'अक्षाः' अनुयोगदाने गुरूणां भङ्ग चारणिकार्थमुपकरणम् । संस्तारको द्विविधः-एकाङ्गिक इतरश्च । तत्रैकाङ्गिकः-तिनिशादिकाष्ठंपट्टरूपः, इतरः-दवरकावबद्धकम्बिकामयः । १वासाताणे ताभा० ॥२°के व्याख्या कां० भा० ॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अवमहा०प्रकृते सूत्रम् १० प्रथमपदमुत्सर्गः तदपेक्षया द्वितीयपदम् अपवादस्तत्र प्रागुक्तखरूपं पुस्तकपञ्चकं गृह्यते, 'फलक नाम' पट्टिका यस्यां लिखित्वा पठ्यते । एष उत्कृष्ट औपग्रहिकोपधिर्मन्तव्यः ॥ ४०९९ ।। ॥ भिन्नाभिन्नवस्त्रप्रकृतं समाप्तम् ॥ अ व ग्र हा न न्त का व ग्रह पट्टक प्रकृतम् 5 सूत्रम् नो कप्पइ निग्गंथाणं उग्गहणंतगं वा उग्गहपट्टगं वा धारित्तए वा परिहरित्तए वा १०॥ अथास्य सूत्रस्य कः सम्बन्धः ? इत्याह उभयम्मि वि अविसिहं, वत्थग्गहणं तु वणियं एयं । जं जस्स होति जोग्गं, इदाणि तं तं परिकहेति ॥ ४१००॥ उभयं-भिन्ना-ऽभिन्नसूत्रद्वयम् एतस्मिन् 'अविशिष्टम्' 'इदं साधूनां कल्पते न कल्पते वा' इत्यादिविशेषरहितम् इदम्' ('एतत्') अनन्तरोक्तं वस्त्रग्रहणं वर्णितम् । इदानीं तु यद् यस्य संयतस्य संयत्या वा योग्यं तत् तत् सूत्रेणैव साक्षात् परिकथयतीति ॥ ४१०० ॥ अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्यानो कल्पते निर्मन्थानाम् 'अवग्रहानन्तकं वा' गुह्य16देशपिधानवस्त्रम् 'अवग्रहपट्टकं वा' तस्यैवाच्छादकपट्ट धारयितुं वा परिहर्नु वा इति सूत्रसङ्केपार्थः ॥ अथ नियुक्तिविस्तरः निग्गंथोग्गहधरणे, चउरो लहुगा य दोस आणादी। अतिरेगउवहि तह लिंगमेद वितियं अरिसमादी ॥४१०१॥ निम्रन्थानामवग्रहानन्तक-पट्टयोर्धारणे चत्वारो लघुमासाः आज्ञादयश्च दोषाः, अतिरिक्तो20 पधित्वादधिकरणं भवेत् । तथा लिङ्गभेदः कृतो भवति, साध्वीनां लिङ्गमाश्रितं भवतीत्यर्थः । द्वितीयपदविषयम् अशोरोगादिकं तत्रावग्रहानन्तकं पट्टकं वा धारयेत् ॥ ४१०१ ।। द्वितीयपदमेव भावयति भगंदलं जस्सऽरिसा व णिचं, गलंति पूर्य लसि सोणियं वा । उड्डाह-सज्झाय-दयाणिमित्तं, सो उग्गहं बंधति पट्टगं च ॥४१०२॥ 25 'भगन्दरः' पुतसन्धौ व्रणविशेषोऽशासि वा यस्य नित्यं पूयं वा रसिकां वा शोणितं या गलन्ति सः 'उड्डाह-खाध्याय-दयानिमित्तम्' 'अहो ! अमी ईदृशा I एव पापोपहता रोगाभिभूतवपुषः प्रव्रज्यां प्रतिपद्यन्ते' इत्यादिक उड्डाहो मा भूत् , तथा शोणिते परिगलति खाध्यायः कर्तुं न कल्पते, पूय-रसिका-शोणितगन्धाघ्राणाच्च कीटिकादिप्राणिनाममिलीयमानानामुपघातो भवेत् , अतोऽवग्रहानन्तकं पट्टकं वा बध्नाति ॥ ४१०२ ॥ १ वा अवग्रहपट्टकं वा धारयि भा० ॥ २°यं रसि मो० ले.॥ ३ एतचिहान्तर्गत पाठः ताटी. मो.ले . नास्ति । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 भाष्यगाथाः ४१००-६] तृतीय उद्देशः । तत्र च बद्धे पूयादिभिरुपलिप्ते धावनविधिमाह पूय-लसिगा उपस्सएँ, धोव्वति असहुस्स पट्टों रुहिरं च। उग्गह पट्टं च सहू, वीयारे लोहियं धुवति ॥ ४१०३ ॥ पूय-रसिके अखाध्यायिकं न भवतीति कृत्वा ते उपाश्रय एव धाव्येते । यो भगन्दरादिरोगवान् बहिर्गन्तुमसहिष्णुस्तस्य पट्टो रुधिरं चोपाश्रये क्वचिद् मात्रके धान्यते, ततस्तद्धावनं. हस्तशताद बहिः परिष्ठाप्यते । अथासौ बहिर्गन्तुं सहिष्णुस्ततो विचारभूमौ गतः स्वयमेवावग्रहपट्टकं रुधिरं च धावति ।। ४१०३ ॥ पट्टबन्धने विधिमाह ते पुण होंति दुगादी, दिवसंतरिएहिँ बज्झए तेहिं । अरुगं इहरा कुच्छइ, ते वि य कुच्छंति णिच्चोल्ला ॥ ४१०४॥ ते पुनः' अवग्रहानन्तक-पट्टाः 'द्विकादयः' द्वि-त्रिप्रभृतिसङ्ख्याकाः कर्तव्याः, तैर्दिवसान्तरि-10 तैर्वणो बध्यते । किमुक्तं भवति ?-येनावग्रहानन्तकेन पट्टकेन वा अद्य व्रणो बद्धः द्वितीयदिने स उन्मोच्य प्रक्षाल्य चापरिभोग्यो विधेयः, यः पुनराद्यदिने न परिभुक्तः तेन तस्मिन् दिने व्रणो बन्धनीयः । 'इतरथा' प्रतिदिनं तेनैव पटेन बन्धे दीयमाने 'अरुकं' व्रणः 'कुथ्यति' पूति. भावमुपगच्छति, 'तेऽपि च' पट्टाः प्रतिदिनं बध्यमानतया नित्यं-सदैवार्द्राः सन्तः कुथ्यन्ति, अतो यादयः पट्टाः कर्तव्याः ॥ ४१०४ ॥ सूत्रम् कप्पइ निग्गंथीणं उग्गहणंतगं वा उग्गहपट्टगं वा धारित्तए वा परिहरित्तए वा ११ ॥ - अस्य व्याख्या प्राग्वत् ।। अत्र भाष्यविस्तरः निग्गंथीण अगिण्हणे, चउरो गुरुगा य आयरियमादी । । तच्चण्णिय ओगाहण, णिवारणऽण्णेसि ओहसणं ॥४१०५॥ निर्ग्रन्थीनामवग्रहानन्तकस्य पट्टकस्य वा अग्रहणे चतुर्गुरुकाः । इदं सूत्रमाचार्यः प्रवर्तिन्या न कथयति चत्वारो गुरवः । प्रवर्तिनी संयतीनां न कथयति चत्वारो गुरवः । आर्यिका न प्रतिशृण्वन्ति मासलघु । भिक्षादौ गच्छन्ती यद्यवग्रहानन्तकं पट्टकं वा न गृहाति तत एते दोषाः-तञ्चन्निकस्य-रुधिरस्य भिक्षां गच्छन्त्याः 'अवगाहनं' प्रसरणम् अन्येषु दिवसेष्व-25 वग्रहानन्तक-पट्टाभ्यां निवारितमासीत् परं तदिवसमगृहीतयोस्तयो रुधिरमवगाढम् , ततो लोकस्तद् दृष्ट्वा उपहसनं कुर्यात् ॥ ४१०५ ॥ कथम् ! इति चेद् उच्यते भिक्खाइ गयाएँ निग्गयं, रुहिरं दहमसंजता वदे । धिगहो! बत! केणऽयं जगो, दोसमिणं असमिक्ख दिक्खिओ ॥४१०६॥ भिक्षायां गतायास्तस्या रुधिरं निर्गतं दृष्ट्वा असंयता वदेयु:-'बत!' इत्यामन्त्रणे, भो भो 30 लोकाः । धिगहो ! कष्टम् , केनायं स्त्रीलक्षणो जनोऽमुं दोषमसमीक्ष्य दीक्षितः ॥ ४१०६॥ १ . एतदन्तर्गतः पाठः भा० नास्ति ॥ २ अथ भा भा० सं० डे.॥ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अवग्रहा०प्रकृते सूत्रम् ११ अपि च छकायाण विराहण, पडिगमणादीणि जागि ठाणाणि । तब्भाव पिच्छिऊणं, बितियं असती अहव जुण्णा ॥ ४१०७॥ शोणिते परिगलति षटकायानां विराधना भवति । सा च 'यद् द्रष्टव्यं तद् दृष्टम्' इति । कृस्वा प्रतिगमना-ऽन्यतीर्थिकगमनादीनि यानि स्थानानि कुर्यात् तन्निष्पन्नं प्रवर्तिन्याः प्रायश्चित्तम् । स चासौ-शोणितपरिगलनलक्षणो भावश्च तद्भावस्तं 'प्रेक्ष्य' विलोक्य तरुणा उपसर्गयेयुरिति वाक्यशेषः । द्वितीयपदमत्राभिधीयते- "असइ" ति नास्त्यवग्रहानन्तकम् , अथवा जीर्णा स्थविरा सा संयती अतो विद्यमानमपि न गृह्णीयादपि ॥ ४१०७ ॥ अथेदमेव भावयति10 दिटुं अदिट्टव्य महं जणेणं, लजाएँ कुजा गमणाइगाई । लजाएँ भंगो व हवेज तीसे, लज्जाविणासे व स किं न कुजा ॥४१०८॥ 'यद् ममाद्रष्टव्यं तद् दृष्टं तावद् जनेन, अतो नाहमत्र स्थातुं शक्नोमि' इति कृत्वा लज्जया 'गमनादीनि' गृहवासाश्रयणादीनि कुर्यात् , यद्वा 'तस्याः' संयत्या लज्जाया भङ्गो भवेत् , लज्जाविनाशे च सा किं नामाकृत्यं न कुर्यात् ? ॥ ४१०८ ॥ तथा15 तं पासिउं भावमुदिण्णकम्मा, पेल्लेज सजेज व सा वि तत्थ । तं लोहियं वा वि सरक्खमादी, विजा समालब्भऽभिजोययंति ॥ ४१०९ ॥ 'तं' रुधिरपरिगलनरूपं भावं दृष्ट्वा केचित् तरुणा उदीर्णकर्माणश्चतुर्थप्रतिसेवनाथ प्रेरयेयुः । 'साऽपि च' संयती तत्र 'सँजेत्' सङ्गं कुर्यात् । यद्वा तद् लोहितं 'सरजस्कादयः' कापालिकप्रभृतयः 'समालभ्य' गृहीत्वा विद्याप्रयोगेण 'अभियोजयन्ति' वशीकुर्वन्ति ।।४१०९|| 20 यत एवमतः अंतो घरस्सेव जतं करेती, जहा णडी रंगमुवेउकामा । लजापहीणा अह सा जणोघं, संपप्प ते ते पकरेति हावे ॥ ४११०॥ यथा 'नटी' रङ्गनर्तकी 'रङ्ग' नाट्यस्थानमुपैतुकामा गृहस्यैव ‘अन्तः' मध्ये 'जयं' लज्जाया अभिभवं करोति, 'अथ' अनन्तरं सा लज्जापहीणा सती 'जनौघं जनसमुदायं सम्प्राप्य 'तान् 25 तान् भावान्' अङ्गविक्षेपादीन् प्रकरोति; एवं संयत्यपि भिक्षां गन्तुमनाः प्रतिश्रयमध्य एवावग्रहानन्तकादिभिरुपकरणैरात्मानं सुप्रावृतं करोति, ततो भिक्षां पर्यटन्ती तरुणादिष्ववलोकमानेध्वपि सुखेनैव लज्जां पराजयते ॥ ४११० ॥ अथ द्वितीयपदमाह-- असईय पंतगरम उ, पणवण्णुत्तिण्णिगा व ण उ गिण्हे । निग्गमणं पुण दुविहं, विधि अविही तत्थिमा अविही ।। ४१११ ॥ 30 अवग्रहानन्तकस्याभावे पञ्चपञ्चाशद्वर्षेभ्य उत्तीर्णा वा संयती प्रम्लानयोनिकतया न गृहीयादपि । इह च भिक्षाया निर्गमनं द्विविधम् -विधिना अविधिना च । तत्र तावदयमविधिः ॥४१११।। उग्गहमादीहि विणा, दुणियत्था वा वि उक्खुलणियत्था । १ भजेज मो० त० ॥ २ रप्रवहनरूपं मो० ॥ ३ 'भजेत्' भा० विना ॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४१०७-१६] तृतीय उद्देशः ११२१ एका दुवै य अविही, चगुरु आणा य अणवत्था ॥ ४११२ ॥ अवग्रहानन्त कादिभिविना भिक्षा निर्गच्छति. दुनिवसिता वा < उखुलनिवसिता वा भिक्षां पर्यटति, एका वा द्वे वा भिक्षायां गच्छतः, एष सर्वोऽप्यविधिरुच्यते । अत्र च चतुर्गुरुकाः, आज्ञा च भगवतां विराघिता स्यात् , 'अनवस्था च' एकामविधिना निर्गच्छन्तीं दृष्ट्वा अन्याऽपि निर्गच्छतीत्येवंलक्षणा भवति ॥ ४११२ ॥ तथा मिच्छत्त पवडियाए, वाएण व उद्धयम्मि पाउरणे । गोयरगया व गहिया, धरिसणदोसे इमे लहति ॥ ४११३ ॥ अवग्रहानन्तकादिभिर्विना भिक्षां गता सहसा मूर्छादिना प्रपतेत् । ततः प्रपतिताया वातेन वा प्रावरणे समुद्भूतेऽप्रावृतत्वं दृष्ट्वा लोको मिथ्यात्वं गच्छेत् , यथा-नास्त्यमीषाममुष्य दोषस्य प्रतिषेधः, कथमन्यथेयमित्थं निर्गच्छेत् ? । गोचरगता वा काचिदविधिनिर्गता केनचिद 10 विटेन गृहीता धर्षणदोषान् 'अमून्' वक्ष्यमाणान् लभते । ते चोपरि दर्शयिष्यन्ते (गा० ४११६-१८)॥ ४११३ ।। अथ विधिनिर्गमे गुणमाह अडोरुगा-दीहणियासणादी, सारक्खिया होति पदे विजाव । तिण्हं पि बोलेण जणोऽभिजातो, एकंवरा खिप्पमुवेति णासं ॥ ४११४ ॥ 15 याऽ|रुक-दीर्घनिवसन्यादिभिः सुप्रावृता निर्गता सा केनचिद् धर्षितुमारब्धाऽपि पदावपि यावत् संरक्षिता भवति, तिसृणां च संयतीनां बोलेन 'अभिजातः' शिष्टो जनो भूयान् मिलतीति शेषः । या पुनरेकाम्बरा निर्गच्छति सा 'क्षिप्रं' शीघ्रं 'विनाशं' संयमपरिभ्रंशमुपैति ॥ ४११४ ॥ उठवेल्लिए गुज्झमपस्सतो से, हाहकितस्सेव महाजणेणं । धिद्धि ति ओथुक्ति-तालियस्सा, पत्तो समं रण्णदवो व वेदो ॥४११५॥ विधिनिर्गतायाः केनचित् प्रत्यनीकेन 'उद्वेलिते' उत्सारितेऽपि बाझोपकरणे यावदसौ गुह्यं न पश्यति तावद् महाजनेन हाहाकृतो घिग्धिगिति भणनपूर्वकं च ओथुक्कितः-गाढं जुगुप्सितस्ताडितश्चासौ, ततस्तस्यैवंविधां विडम्बना प्रापितस्य 'वेदः' मोहोदयोऽरण्यदव इव सद्यः शमं प्राप्तः ॥ ४११५ ॥ अथाविधिनिर्गमने दोषानाह तत्थेव य पडिबंधो, पडिगमणादीणि जाणि ठाणाणि ।। डिंडी य बंभचेरे, विधिणिग्गमणे पुणो वोच्छं ॥ ४११६ ॥ येन सा अविधिनिर्गता धर्षिता तत्रैव 'प्रतिबन्धः' अनुरागो भवेत् । तदनुरक्ता च सती प्रतिगमनादीनि यानि स्थानानि करोति तन्निप्पन्नं प्रवर्तिन्याः प्रायश्चित्तम् । ऋतुसमयगृहीतायाश्च कस्याश्चिद् डिण्डिमबन्धो भवेत् , ततश्च महती प्रवचनापभ्राजना । ब्रह्मचर्यविराधना च 30 १ एतदन्तर्गतः पाठः भा० का० एव वर्तते ॥२°णियंस' तामा० ॥ ३ ताभा. विनाऽन्यत्रत्ति उत्थुक्कि मो० त० । त्ति ओछुकि भा० डे० । त्ति उच्छुकि ताटी. का. । ति तो त्थुक्कि बृहद्भाष्ये ॥ ४ °कं च थुकि भा० विना ॥ 20 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अवग्रहा०प्रकृते सूत्रम् ११ परिस्फुटैव तस्याः सञ्जायते । विधिनिर्गमने च 'पुनः' भूयोऽपि गुणान् वक्ष्ये ॥ ४११६ ॥ एतच्च सांन्यासिकीकृत्य प्रथममविधिनिर्गमने दोषशेषमाह न केवलं जा उ विहम्मिआ सती, सवच्चतामेति मधूमुहे जणे । उवेति अन्ना विउ वच्चपत्ततं, अपाउता जा अणियंसिया य ॥ ४११७॥ न केवलं यैव 'सती' साध्वी 'विधर्मिता' शीलधर्मात् च्याविता सैव ‘मधुमुखे जने' दुर्जनलोके 'सवाच्यता' सकलकतामुपगच्छति, 'अन्याऽपि' एतरिक्ताऽपि 'वाच्यपात्रता' वचनीययोग्यतामुपैति या 'अप्रावृता' औपकक्षिक्याद्युपरितनोपकरणरहिता 'अनिवसिता च' अवग्रहानन्तकायधस्तनोपकरणवर्जिता भवति ॥ ४११७ ॥ किञ्च ___ण भूसणं भूसयते सरीरं, विभूसणं सील हिरी य इथिए । 10 गिरा हि संखारजुया वि संसती, अपेसला होइ असाहुवादिणी ॥४११८ ॥ 'भूषणं' हारादिकं पिनद्यमानं शरीरं न भूषयति, किन्तु 'शीलं' ब्रह्मचर्य 'हीश्च' लज्जा एतदेव द्वयं स्त्रिया विभूषणम् । अमुमेवार्थ प्रतिवस्तूपमया द्रढयति-'गीः' वाणी सा संस्कारयुक्ताऽपि 'संसदि' सभायां यदि 'असाधुवादिनी' जकार-मकाराद्यसभ्यप्रलापिनी तदा 'अपेशला' शिष्टजनजुगुप्सनीयतया न शोभना भवति; एवमियमपि स्त्री हारादिविभूषिताऽपि यदि 16 शील-लज्जाविकला तदा शिष्टजनस्य जुगुप्सनीया भवति, अतः स्त्रियाः शीलं लज्जा च विभूषणम् ।। ४११८ ।। एतच्च शील-लज्जाद्वयं संयत्या विधिप्रावरणे भवति अतस्तदेवाभिधित्सुराह - पट्टडोरुय चलणी, अंतो तह बाहिरा णियंसणिया । संघाडि खुजकरणी, अणागते चेव सतिकाले ॥ ४११९ ॥ पट्टकोऽ|रुकश्चलनिका अन्तर्निवसनी बहिर्निवसनी सङ्घाटिका कुब्जकरणी उपलक्षणत्वा20 दवग्रहानन्तकं कञ्चुक औपकक्षिकी वैकक्षिकी चानागत एव 'सत्काले' भिक्षासमये दृढतरमेतान्युपकरणानि साच्या प्रावरणीयानि ॥ ४११९ ॥ इदमेव बिभावयिषुराह उग्गहणमादिएहिं, अजाओ अतुरियाउ भिक्खस्स । जोहो व्य लंखिया वा, अगिण्हणे गुरुग आणादी ॥ ४१२०॥ अवग्रहानन्तकादिभिरुपकरणैः 'आर्याः' संयत्यो भिक्षाऽत्वरिता आत्मानं भावयन्ति । क 25 इव ? इत्याह-योध इव लटिकेत्र वा । यथा योधः सङ्घामशिरसि प्रवेष्टुमनाः सन्नाहं पिनाति, यथा च लङ्खिका रङ्गभुवं प्रविशन्ती पूर्व चलनिकादिना गुडापिनद्धमिवात्मानं करोति, एवमार्याऽप्यवग्रहानन्तकादिसुप्रावृता निर्गच्छति । अथैतान्युपकरणानि न गृह्णाति ततश्चतुर्गुरुका आज्ञादयश्च दोषाः ॥ ४१२० ॥ अथ विशेषज्ञापनार्थमिदमाह जोहो मुरुंडजड्डो, णाडइणी लंखिया कतलिखंभो। अजाभिक्खग्गहणे, आहरणा होति णायव्वा ॥ ४१२१ ॥ ___ आर्याया भिक्षाग्रहणे यद् उपकरणप्रावरणं तत्रैतान्युदाहरणानि ज्ञातव्यानि । तद्यथा'योधः' प्रतीतः १ 'मुरुण्डजड्डो' मुरुण्डस्य राज्ञो हस्ती २ 'नाटकिनी' नर्तकी ३ 'लङ्खिका' १°क्षाया [अ]त्व मा० ॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४११७-२६] . तृतीय उद्देशः । ११२३ वंशाअनर्तकी ४ 'कदलीस्तम्भः' प्रतीतः ५॥ ४१२१ ॥ तत्र योधदृष्टान्तमाह..... वणिओ पराजितो मारिओ व संखे अवम्मितो जोहो । . . . . . सावरणे पडिपक्खो, भयं च कुरुते विवक्खस्स ॥४१२२ ॥ .. योधः 'सहये' सङ्ग्रामे अवर्मितः प्रविशन् व्रणितः पराजितो मारितो वा जायते । 'व्रणितो नाम' परैः प्रहारजर्जरीकृतः, 'पराजितः' पराभमः, 'मारितः' पञ्चत्वं प्रापितः । यस्तु सावरण-5 स्तस्य प्रतिपक्षो वक्तव्यः । किमुक्तं भवति ? –यः सन्नाहं पिना रणशिरसि प्रविशति स न प्रहारैर्जर्जरीभवति, न वा पराजीयते, न वा मरणमासादयति, प्रत्युत विपक्षस्य भयं कुरुते; एवमार्याऽपि यथोक्तोपकरणप्रावरणमन्तरेण भिक्षा प्रविष्टा तरुणैरुपद्रूयते, सुप्रावृता तु सर्वथैव तेषामगम्या भवति ॥ ४१२२ ॥ उक्तो योधदृष्टान्तः । सम्प्रति मुरुण्डजडदृष्टान्तं गाथाचतुष्टयेनाह-- 10 विहवससा उ मुरुंडं, आपुच्छति पव्ययामऽहं कत्थ । पासंडे य परिक्खति, वेसग्गहणेण सो राया ॥ ४१२३ ॥ डोंबेहिं च धरिसणा, माउग्गामस्स होइ कुसुमपुरे । उब्भावणा पवयणे, णिवारणा पावकम्माणं ॥ ४१२४ ॥ उज्झसु चीरे सा यावि णिवपहे मुयति जे जहाबाहिं । उच्छूरिया णडी विव, दीसति कुप्पासगादीहिं॥ ४१२५ ॥ धिद्धिकतो य हाहकतो य लोएण तजितो मेंठो । ओलोयणहितेण य, णिवारितो रायसीहेण ॥ ४१२६ ॥ कुसुमपुरे नगरे मुरुण्डो राया । तस्स भगिणी विहवा । सा अन्नया रायं पुच्छइअहं पव्वइउकामा, तो आइसह कत्थ पव्वयामि ? ति । तओ राया पासंडीणं वेसग्गहणेण 20 परिक्खं करेइ । हस्थिमिठा संदिट्ठा, जहा—पासंडिमाउग्गामेसु हत्थिं सन्निज्जाह, भणिज्जाह य–पोत्तं मुयाहि, अन्नहा इमिणा हत्थिणा उवद्दवेस्सामि त्ति, एक्कम्मि य मुक्के मा ठाहिह, ताव गहगहावेह जाव सबे मुक्का । तओ एगेण मिंठेण चरियाए रायपहे तहा कयं जाव नग्गीभूया । रन्ना सबं दिढें । नवरं अज्जा विहीए पविट्ठा । रायपहोत्तिण्णाए हत्थी सन्निओमुयसु पुतं ति । तीए पढमं मुहपोत्तिया मुक्का, ततो निसिज्जा, एवं जाणि जाणि बाहिरिल्लाणि 25 चीवराणि ताणि ताणि पढमं मुयइ, जाव बहूहिं वि मुक्केहिं नडी विव कंचुकादीहिं सुप्पाउया दीसइ ताहे लोगेण अकंदो को-हा पाव! किमेवं महासइतवस्सिणि अभिहवेसि ? त्ति । रन्ना वि ओलोयणट्टिएण वारिओ, चिंतियं च-एस धम्मो सबन्नुदिट्टो । अन्नेण य बहुजणेण कया सासणस्स पसंसा ॥ __ अथाक्षरार्थः-विधवा खसा मुरुण्डं राजानमापृच्छति-कुत्राहं प्रव्रजामि ! इति । ततः 32 स राजा वेषग्रहणेन पाषण्डिनः परीक्षते । परीक्षार्थमेव च 'डोम्बेः' हस्तिमिण्ठैः कुसुमपुरे 'मातृग्रामस्य' पाषण्डिस्त्रीजनस्य धर्षणा भवति, वर्तमाननिर्देशस्तत्कालापेक्षया । तदानीं च प्रवचनस्य 'उद्भावना' प्रभावना समजनि । ये च पापकर्माणः संयतीरभिद्रवितुमिच्छन्ति तेषां, निवारणा Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अवग्रहा०प्रकृते सूत्रम् ११ जाता, 'न शक्यन्ते अमूरेवंविधेन वेषेण छलयितुम्' इति कृत्वा । कथं पुनरेतत् संवृत्तम् ? इत्याह--."उज्झसु चीरे" इत्यादि, विधिनिर्गता संयती मिण्टेनाभिहिता---'उज्झ' परित्यज चीवराणि । साऽप्येवम भिहिता 'नृपपथे' राजमार्ग यानि यथावहिरुपकरणानि तानि तथा मुञ्चति । एवं बहुषु वस्त्रेषु मुक्तेप्वपि यदा सा नटीवत् 'कूर्पासकादिभिः' कञ्चुकादिभिर्वस्त्रैः । 'उच्चरिता' सुप्रावृता दृश्यते तदा लोकेन स मिण्ठो धिग्धिकृतश्च हाहाकृतश्च तथा 'तर्जितः' गाढं निर्भर्सितः । ततश्च 'अवलोकनस्थितेन' गवाक्षोपविष्टेन राजसिंहेनासौ निवारितः । 'सर्वज्ञदृष्टश्चायं धर्मः' इति कृत्वा साधूनां समीपे भगिनी प्रवज्याग्रहणार्थ विसर्जितेति ॥ ४१२३ ।। ४१२४ ॥ ४१२५ ॥ ४१२६ ॥ उक्तो मुरुण्ड जड्डदृष्टान्तः । अथ नर्तकी-लङ्खिकादृष्टान्तद्वयमाह10 पाए वि उक्खिवंती, न लज्जती पट्टिया सुणेवत्था । उच्छृरिया व रंगम्मि लंखिया उप्पयंती वि ॥ ४१२७ ॥ यथा नर्तकी सुनेपथ्या सती पादावप्युरिक्षपन्ती न लज्जते, ललिका वा रङ्गभूमौ 'उत्पतत्यपि' करणशतान्यपि कुर्वती यथा 'उच्छूरिता' सुप्रावृता सती न लज्जते, एवं संयत्यपि सुप्रावृता न लज्जत इत्युपनयः ॥ ४१२७ ॥ अथ कदलीस्तम्भदृष्टान्तमाह कयलीखंभो व जहा, उव्वेल्लेउं सुदुक्करं होति । ___ इय अजाउवसग्गे, सीलस्स विराहणा दुक्खं ॥ ४१२८ ॥ कदलीस्तम्भो वा यथा पटलबहलवाद् 'उद्वेल्लयितुम्' उद्वेष्टयितुं सुदुष्करो भवति, एवमार्यिकाऽपि बहूपकरणपावृता नोद्वेष्टयितुं शक्या । "इय" एवं योधादिभिर्दृष्टान्तैर्विधिनिर्गताया आर्यायाः केनचिदुपसर्गे क्रियमाणेऽपि शीलस्य विराधना 'दुःखं' दुष्करा मन्तव्या ॥ ४१२८ ।। 20 किञ्च एका मुक्का एका य धरिसिया णिवेदण जतणाय होति कायया । बाहाड न जहितव्वा, सेजतरादी सयं वा वि ॥ ४१२९ ॥ 'एका' काचिद् विधिनिर्गता गृहीताऽपि मुक्ता, 'एका च' अपरा धर्षिता, ततः 'यतनया' यथा शेषसंयत-संयतीजनो न जानाति तथा गुरूणां निवेदना कर्तव्या । अथ सा बाहाडिता 25 ततो न परित्यक्तव्या किन्तु शय्यातरादिना स्वयं वा तस्या वर्तापनं विधेयमिति' नियुक्ति. गाथासमासार्थः ॥ ४१२९ ॥ अथैनामेव विवृणोति विहिणिग्गता उ एक्का, गोयरियाएँ गहिता गिहत्थेहिं । संवरियपभावेण य, फिडिया अविराहियचरित्ता ॥ ४१३०॥ 'एका' काचिद् विधिनिर्गता गोचरचर्या पर्यटन्ती गृहस्थैर्गृहीता, परं 'संवृतप्रभावेन' 30 सुप्रावरणमाहात्म्येन सा अविराधितचारित्रा स्फिटिता ॥ ४१३० ॥ लोएण वारितो वा, दट्टण सयं व तं सुणेवत्थं । सुद्दिढे तुवसंतो, सविम्हओ खामयति पच्छा ॥ ४१३१ ॥ १°ति सङ्ग्रहगाथा भा० ॥ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४१२७-३५ ] तृतीय उद्देशः । ११२५ येन सा धर्षितुमारब्धा स लोकेन वा धिक्कारपुरस्सरं वारितः, स्वयं वा 'तां' संयतीं 'सुनेपथ्य' सुप्रावृतां हा सुदृष्टममीयां धर्मरहस्यम्' इति कृत्वोपशान्तः सन् सविस्मयः पश्चात् तां संयतीं क्षामयति ॥ ४१३१ ॥ णाभोग पमादेण व, असती पट्टस्स णिग्गया गहणे । विहिणिग्गतमाहच्च व, बाहाडितधाडणे गुरुगा ॥ ४१३२ ॥ सा कदाचिद् 'अनाभोगेन' अत्यन्त विस्मृत्या 'प्रमादेन वा' विकथा - निद्रादिप्रमत्ततया अवग्रहपट्टस्य वा अभावे एवमेव भिक्षार्थं निर्गता, एवम विधिनिर्गता केन चिद् धर्षिता, - विधिनिर्गता बा "आहच्च" कदाचित् प्रच्छन्नेऽवकाशे गृहीता ततो गुरूणां यतनया निवेदनीयम् । अथ सा कदाचिद् बाहाडिता ततो यस्तां घाटयति-निष्काशयतीत्यर्थः तस्य चतुर्गुरुकाः ॥ ४१३२ ॥ कुतः ? इत्याह निजूढ पट्ठा सा, इ एतेहि चैत्र कतमेतं । राय - गिहीहि सयं वा तं च पसासंति मा बितियं ॥ ४१३३ ॥ सा 'निर्यूढा' निष्काशिता सती साधूनामुपरि प्रद्वेषं यायात्, प्रद्विष्टा च भणति — एतैरेव श्रमणैरित्थं ममैतत् कृतमिति, ततो न परित्यक्तव्या । येन च धर्षिता तमनवस्थाप्रसङ्गवारणार्थ राज्ञा प्रशासयन्ति, गृहिभिर्वा शिक्षयन्ति । यदि प्रभवस्ततः स्वयमपि शासन्ते, ' मा द्वितीयं 15 वारमित्थं प्रवर्त्ततामयम्' इति कृत्वा ॥ ४१३३ ॥ अथ तस्याः सारण विधिमाहदुविहाणायमणाया, अगीय अण्णाय सणिमादीसु । सम्भावे सिं कहिते, सारिंती जा थणं पियती ॥ ४१३४ ॥ या बाहाडिता सा. द्विविधा - ज्ञाता अज्ञाता च, ज्ञातगर्भा अज्ञातगर्भा चेत्यर्थः । तत्र या अज्ञाता सा अगीतार्था यथा न जानन्ति तथा संज्ञी - श्रावकस्तदादिकुलेषु स्थाप्यते, तेषां संज्ञि - 20 प्रभृतीनां सद्भावः प्रथममेव कथयितव्यः कथिते च सद्भावे ते माता- पितृसमानतया तां तावत् 'सारयन्ति' प्राशुकेन प्रत्यवतारेण पालयन्ति यावत् तदीयं कल्पस्थभाण्डं स्तन्यं पिबति, स्तन्यपानान्न निवर्त्तत इत्यर्थः ॥ ४१३४ ॥ " जत्थ उ जणेण णातं, उवस्सए चैव तत्थ ण य भिक्खं । किं सक्का छड्डेउं, बेंति अगीते असति सङ्के ॥ ४१३५ ।। यत्र तु जनेन ज्ञातम् यथा -- एषा बाहाडिता, तत्रोपाश्रय एव स्थाप्यते, न श्रावकादिकुलेषु । न च सा भिक्षां हिण्डापयितव्या, किन्तु शेषसाध्वीभिः साधुभिर्वा तस्याः प्रायोग्यं भक्त पानमानीय दातव्यम् । यद्यगीतार्थ भणन्ति - किमेवमीदृश्याः सङ्ग्रहः क्रियते ? ; ततः सूरयो ब्रुवते - यदि नाम न सङ्गृह्यते ततः कथयत किं साम्प्रतमेषा शक्या परित्यक्तुम् ? । अथैवं प्रज्ञापिता अपि ते न प्रतिपद्यन्ते ततः श्राद्धान् प्रज्ञापयन्ति ॥ ४१३५ ॥ यथा— 30 दुरतिकमं खु विधियं, अवि य अकामा तवस्सिणी गहिता । १ दृष्टोऽमीषां धर्मः' इति भा० ॥ २ ३ निच्छूढ मो० ताटी० ॥ ४ भणिज एते तामा० ॥ एतच्चिह्नान्तर्गतः पाठः भा० कां० एव वर्तते । 5 10 25 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अवग्रहा० प्रकृते सूत्रम् ११ को जाति अण्णस्स वि, हवेज तं सारवेमो णं ॥ ४१३६ ॥ खुरवधारणे, ‘दुरतिक्रममेव' प्रतिकर्तुमशक्यमेव, केनाप्यनार्येणेदमकार्यं विहितम् अतः किं क्रियते ?, अपि च 'अकामा' अनिच्छन्ती बलादेव तेन पापात्मना तपखिनी गृहीता, ततः को जानाति अन्यस्या अप्येवंविधो वृत्तान्तः परवशतया भवेत्, तदेनां सम्प्रति 'सार6 यामः ' परिपालयाम इत्यर्थः ॥ ४१३६ ॥ ११२६ 'हुं हुं विध्वस्तशीलेयम्' इत्येवमस्याः 'अवर्णम्' अवज्ञां वा मा कार्षुः, किं न श्रुतं भवद्भिः केशि- सत्यकिनोर्जन्म ? यथा— तौ आर्यिकाभ्यां पुरुषसंवासमन्तरेणापि कथञ्चिदुपात्त10 बीजपुद्गलाभ्यां प्रसुषुवाते, न च ' तयोः ' आर्यिकयोर्व्रतभङ्गः सञ्जातः, विशुद्धपरिणामत्वात् । अनयोः कथानके यथाक्रमं पश्च कल्पा - SSवश्यकटीकाभ्यामवसातव्ये ॥ ४१३७ ॥ 30 माय अवणं काहिह, किं ण सुतं केसि सचईणं भे । जम्मं ण य वयभंगो, संजातो तासि अजाणं ॥ ४१३७ ॥ अवि य हु इमेहिँ पंचाहिँ, ठाणेहिं थी असंवसंती वि । पुरिसेण लभति गन्धं, लोएण वि गाइयं एयं ॥ ४१३८ ।। अपि चेत्यभ्युच्चये, 'हुः' निश्चितमेतत् -- एतैः पञ्चभिः स्थानैः स्त्री पुरुषेण सममसंवसन्त्यपि 16 गर्भं लभते । न केवलमस्माभिरेवैतदुच्यते किन्तु लोकेनापि 'गीतं ' संशब्दितमेतत् ॥ ४१३८ ॥ 15 तान्येवोपदर्शयति दुव्त्रियड- दुण्णिसण्णा, सयं परो वा सि पोग्गले छुभति । वत्थे वा संसट्ठे, दगआयमणेण वा पविसे ।। ४१३९ ॥ विवृता- अनावृता, सा चोत्तरीयापेक्षयाऽपि स्याद् अतो दुःशब्देन विशेष्यते - दुष्ठु 20 विवृता दुर्विवृता - परिधानवर्जितेत्यर्थः, एवं दुर्विवृता सती दुर्निषण्णा - दुष्ठु - विरूपतयोपविष्टा दुर्विवृत- दुर्निषण्णा सा शुक्रपुद्गलान् कथञ्चित् पुरुषनिसृष्टान् आसन्नस्थान् सङ्गृहीयात् १, स्वयं वा पुत्रार्थितया शीलरक्षकतया च शुक्रपुद्गलान् योनावनुप्रवेशयेत् २, 'परो वा' श्वश्रूप्रभृतिकः पुत्रार्थमेव "से" तस्या योनौ प्रक्षिपेत् ३, वस्त्रं वा शुक्रपुद्गलसंसृष्टम् उपलक्षणत्वात् तथाविधमन्यदपि केशिमातुः केशवत् कण्डूयनार्थं रक्तनिरोधार्थं वा तया प्रयुक्तं तद् अनुप्रवि26 शेत्, अनाभोगेन वा तथाविधं वस्त्रं परिहितं सद् योनिमनुप्रविशेत् ४, दकं - पानीयं तेन वा तस्या आचमन्त्याः पूर्वपतिता उदकमध्यवर्तिनः शुक्रपुद्गला अनुप्रविशेयुः ५ । एवं पुरुषसंवासमन्तरेणापि गर्भसम्भवे भवन्तो नास्या अवज्ञां कर्तुमर्हन्ति । एवं प्रज्ञाप्य तेषां श्राद्धानां तां स्थापयन्ति ॥ ४१३९ ॥ गता ज्ञातविषया यतना । अथाज्ञातविषयां तामाहअविदिय जण गन्भम्मि य, सण्णीमादीसु तत्थ वऽण्णत्था । लादेंति फासुएणं, लिंगविवेगो य जा पिबति ॥ ४१४० ॥ जनेनाविदितो यो गर्भस्तत्र ये माता- पितृसमानाः संज्ञिनः आदिशब्दाद् यथाभद्रका वा तेषां गृहेषु तत्र वा अन्यत्र वा ग्रामे स्थापयन्ति । ते च संज्ञिप्रभृतयस्तां प्राशुकेन प्रत्यवतारेण 'लाढयन्ति' यापयन्तीत्यर्थः । यावच्चापत्यभाण्डं स्तन्यं पिवति तावत् तया लिङ्गविवेकः कर्तव्यः ॥ ४१४० ॥ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४१३६-४६ ] तृतीय उद्देशः । सं असती, सण्णायग - णालबद्ध किट फासुं । अण्णो वि जो परिणतो, स सिद्धवेसेतरीऽगारी ॥ ४१४१ ॥ 'एतेषां' संज्ञिप्रभृतीनामभावे ये तस्याः संयत्याः संज्ञातकास्तेषां गृहेषु स्थाप्यते । [ संज्ञातकगृहाणाम् ] अभावे यः संयतो नालबद्धः सोऽपि यदि किढः - वृद्धस्तदाऽसौ श्राद्धवेषं कार्यते, इतराऽपि गृहिलिङ्गं करोति, ततस्तौ प्राशुकाहारेण यापयन्तौ तिष्ठतः । नालबद्धस्याभावे अन्योऽपि यो वयसा परिणतः स सिद्धपुत्रवेषं कार्यते, इतरा अगारीवेषं करोति ॥ ४१४१ ॥ अत्रेयं प्रायश्चित्तमार्गणा मूलं वा जाव था, छेदो छग्गुरुग जं च धालहुअं । बितिपदे असती, उवस्सए वा अहव जुण्णा ।। ४१४२ ।। यदि तया प्रतिसेव्यमानया खादितं ततो मूलम् । वाशब्द उत्तरापेक्षया विकल्पार्थः । 10 "जाव थण" ति पश्चाद् व्याख्यास्यते । गर्भमाहूतं दृष्ट्वा स्वादयति च्छेदः । अपत्यं जातं दृष्ट्वा 'सहायकं मे भविष्यति' इति खादयन्त्याः षङ्गुरवः । यया तु न खादितं तस्याः परप्रत्ययनिमित्तं यत् किमपि यथालघु प्रायश्चित्तं दातुं युज्यते तद् दातव्यम् । " जाव थण" ति यावत् तस्या अपत्यं स्तन्यपानोपजीवि भवति तावत् तपोर्हं प्रायश्चित्तं न दातव्यम् । द्वितीयपदे अवग्रहानन्तकस्याभावे उपाश्रये वा तिष्ठन्ती अथवा 'जीर्णा' स्थविरा सा संयती अतोऽवमहानन्तकं न 15 गृह्णात्यपि ॥ ४१४२ ॥ अथास्या एव पूर्वार्धं व्याख्याति - सेवितें अणुमए, मूलं छेओ तु डिंडिमं दिस्स । होहिति सहातगं मे, जातं दडूण छग्गुरुगा ॥ ४१४३ ॥ सेव्यमानया यद्यनुमतं ततो मूलम् । अथ 'डिण्डिम' गर्भं दृष्ट्वा हर्षमुद्रहति छेदः । पुत्रदृष्ट्वा 'सहायकं मे भविष्यति' इत्यनुमन्यते षड्गुरवः || ४१४३ ॥ ११२७ तेण परं चउगुरुगा, छम्मासा जी ण ताव पूरिति । जा तु तवारिह सोही, अणवत्थणिते ण तं देती ॥ ४१४४ ॥ ' ततः परं ' जन्मानन्तरं यावत् षण्मासा न पूर्यन्ते तावद् यत्र यत्र खादयति तत्र तत्र चतुर्गुरवः । या च तस्याः तपोर्हा शोधिरुक्ता ताम् 'अनपस्तनिते' स्तन्यपानादनुपरते अपत्यभाण्डेन ददति, मा स्तन्यं न भविष्यतीति कृत्वा ॥ ४१४४ ॥ मेहुणे गमे आहितेय सातिज्जियं जति ण तीए । परपच्चया लहुसगं, तहा वि से दिति पच्छित्तं ॥ ४१४५ ॥ मैथुने प्रतिसेव्यमाने गर्भे च आहूते यद्यपि तया न खादितं तथापि 'परप्रत्ययार्थ' मा भूदगीतार्थानामप्रत्यय इत्यर्थः यथालघुकं प्रायश्चित्तं तस्याः सूरयः प्रयच्छन्ति ॥ ४१४५ ॥ अथ यस्तस्याः खिंसां करोति तस्य प्रायश्चित्तमाह खिंसाऍ होंति गुरुगा, लज्जा णिच्छकतो य गमणादी । दष्पकते वाऽऽउड्डे, जति खिसति तत् वि तहेव ।। ४१४६ ।। १ जाव ताण पू° तामा० ॥ २ यावत् तस्याः ताटी० भा० क० विना ॥ : 20 25 .30 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२८ सनियुक्ति-लधुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ निश्राप्रकृते सूत्रम् १२ यस्तस्याः खिंसा' 'विध्वस्तशीलत्वाद् मलिना इयम्' इत्येवं करोति तस्य संयतस्य संयत्या या चतुर्गुरुकाः प्रायश्चित्तम् । सा च खिसिता सती लज्ज या प्रतिगमनादीनि कुर्यात् , निच्छक्का वा-निर्लज्जा वा भवेत् , तत एव सर्वजनप्रकटमात्मानं प्रतिसेवयेत् । अथ दर्पतस्तया मैथुनं प्रतिसेवितं परं पश्चाद् आवृत्ता-आलोचना-प्रायश्चित्तप्रतिपत्त्यादिना प्रतिनिवृत्ता तामपि यः 5 खिंसति तस्यापि तथैव चतुर्गुरु ।। ४१४६ ॥ किं कारणम् ? इति चेद् अत आह उम्मग्गेण वि गंतुं, ण होति किं सोतवाहिणी सलिला । कालेण फुफुगा वि य, विलीयते हसहसेऊणं ॥ ४१४७॥ उन्मार्गेणापि गत्वा 'सलिला' नदी पश्चात् किं 'श्रोतोवाहिनी' मार्गगामिनी न भवति ? भवत्येवेति भावः । 'फुम्फुका' करीषामिः सोऽपि च "हसहसेऊणं" ति जाज्वलित्वा भृशमु10द्दीप्तो भूत्वेत्यर्थः कालेन गच्छता 'विलीयते' विलयं याति । उपनययोजना सुगमा ॥ ४१४७ ॥ ॥ अवग्रहानन्तका-ऽवग्रहपट्टकप्रकृतं समाप्तम् ॥ नि श्रा प्र कृ त म् सूत्रम् निग्गंथीए अ गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविहाए चेलहे समुप्पज्जेज्जा, नो से कप्पइ अप्पणो नीसाए चेलं पडिग्गाहित्तए, कप्पइ से पवत्तिणिनीसाए चेलं पडिग्गाहित्तए । नो य से तत्थ पवत्तिणी सामाणा सिया जे से तत्थ सामाणे आयरिए वा उवज्झाए वा पवित्ती वा थेरे वा गणी वा गणधरे वा गणावच्छेइए वा जं चऽन्नं कट्टु पुरतो विहरइ कप्पइ से तन्नीसाए चेलं पडिग्गाहित्तए १२॥ अथास्य सूत्रस्य कः सम्बन्धः ? इत्याह नियमा सचेल इत्थी, चालिजति संजमा विणा तेणं । उग्गहेमादीचेलाण गेण्हणे तेण जोगोऽयं ॥ ४१४८ ॥ १साऽपि भा० कां० ॥ २-३-४ सर्वेष्वपि टीकापुस्तकादशेषु चेलाई पाठ उपलभ्यते, किन्तु टीकाकृता चूर्णिकृता विशेषचूर्णिकृता च चेलं इति पाठ आदत इत्यस्माभिरसावेव मूले भारतः । सामू० प्रत्योः पुनः चेल पाठः प्राप्यते ॥ ५ °हणमादिचे तामा० ॥ 28 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 भाष्यगाथाः ४१४७-५१] तृतीय उद्देशः । ११२९ 'नियमाद' अवश्यन्तया 'स्त्री' निर्ग्रन्थी सचेला भवति । यतः 'तेन चेलेन विना सा संयमात् चाल्यते इत्यनन्तरसूत्रे उक्तम् । तेन कारणेनावग्रहानन्तकादीनां चेलानां ग्रहणे विधिरभिधीयते । अयं 'योगः' प्रकृतसूत्रस्य सम्बन्धः ॥ ४१४८ ॥ अथवा चेलेहि विणा दोसं, गाउंमा ताणि अप्पणा गेण्हे । तत्थ वि ते च्चिय दोसा, तव्वारणकारणा सुत्तं ॥४१४९ ॥ चेलैविना भिक्षामटन्त्याः संयत्या महान् दोषो भवतीति ज्ञात्वा मा 'तानि' चेलान्यात्मना गृह्णीयात् । कुतः ? इत्याह-तत्रापि' - आत्मना चेलग्रहणेऽपि त एव दोषा भवन्ति ये पूर्व चेलस्याग्रहणे प्रोक्ताः । अतः 'तद्वारणकारणात्' स्वयग्रहणप्रतिषेधार्थमिदं सूत्रमारभ्यते॥४१४९॥ इदमेव सोपपत्तिकमाहसयगहणं पडिसेहति, चेलग्गहणं ण सव्यसो तासि । 10 संडास तिरो वण्ही, ण डहति कुरुए य किच्चाई ॥ ४१५०॥ स्वयग्रहणमत्र सूत्रे सूत्रकृत् प्रतिषेधयति, न पुनः सर्वथा 'तासां' संयतीनां चेलग्रहणम् । यतः सन्दंशकेन तिरोहितो वह्निर्गृह्यमाणो न दहति 'कृत्यानि च धान्यपाकादीनि कार्याणि कुरुते; एवं संयतीनामपि साधुभिस्तिरोहितं चेलग्रहणं न दुष्यति, कार्य च संयमपालनात्मकं करोति । अंत इदमारभ्यते ॥ ४१५० ॥ अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या-निर्ग्रन्थ्या गृहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया अनुप्रविष्टायाश्चेलेनार्थः- प्रयोजनं चेलार्थः । स समुत्पद्येत । नो "से" तस्याः कल्पते आत्मनो निश्रया चेलं प्रतिग्रहीतुम् , किन्तु कल्पते "से" तस्याः प्रवर्तिनीनिश्रया चेलं प्रतिग्रहीतुम् । अथ न तत्र प्रवर्तिनी "सामाणा" सन्निहिता ततो यस्तत्राचार्यों वा उपाध्यायो वा प्रवर्ती वा स्थविरो वा गणी वा गणधरो वा गणावच्छेदको वा सन्निहितो भवेत् । 'गणी' गणाधिपतिरा-20 चार्यः, गणधरः' संयतीपरिवर्तकः, शेषाः सर्वेऽपि प्रतीताः । एतेषां निश्रया यं वा 'अन्य' गीतार्थ साधु पुरतः कृत्वा विहरति तन्निश्रया कल्पते "से" तस्याश्चेलं प्रतिग्रहीतुमिति सूत्रसलेपार्थः ॥ अथ विस्तरार्थ भाष्यकारो बिभणिषुराह चेलट्टे पुव्व भणिते, पडिसेहो कारणे जहा गहणं । णवरं पुण णाणत्तं, णीसागहणं ण उ अणीसा ॥ ४१५१॥ 2 चेलार्थः 'पूर्व प्रथमोद्देशके "णिग्गंथिं च णं केइ वत्थेण वा पाएण वा निमंतिज्जा" (सू० ३९) इत्यादिसूत्रे यथा भणितः, यथा च तत्र संयतीनां खयं वस्त्रग्रहणप्रतिषेधः, यथा च कारणे ग्रहणमुक्तं तथैवात्रापि वक्तव्यम् । 'नवरं' केवलं पुनरत्र 'नानात्वं' विशेषो वस्त्रग्रहणं ताभिर्निश्रया कर्तव्यम् न पुनरनिश्रया । निश्रा नाम-संज्ञातकादिना वस्त्रं दीयमानं प्रवर्तिन्या निवेदयति, प्रवर्तिनी गणधरस्य निवेदयति, ततो गणधरः खयमागत्य परीक्षाशुद्धं कृत्वा 30 गृह्णाति । अथ नास्ति तत्र प्रवर्तिनी ततस्तद् वस्त्रं वर्णेन रूपेण चिह्वेन चोपलक्ष्य गणधरस्य १-२ » एतदन्तर्गतः पाठः भा० नास्ति ॥ ३°रः कृ° भा० विना ॥ ४ “णिज्जुत्ती वित्थारेति-- चेलटे. गाहा ॥” इति वि Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ निश्राप्रकृते सूत्रम् १२ कथयति, स चागत्य खयं गृह्णाति । एतन्निश्राग्रहणमुच्यते ॥ ११५१ ।। आयरिओ गणिणीए, पवत्तिणी भिक्खुणीण ण कधेति । गुरुगा लहुगा लहुगो, तासि अप्पडिसुणंतीणं ॥ ४१५२ ॥ आचार्य एतत् सूत्रं गणिन्या न कथयति चत्वारो गुरवः । प्रवर्तिनी भिक्षुणीनां न कथ5 यति चत्वारो लघवः । 'तासां' भिक्षुणीनामप्रतिशृण्वतीनां मासलघु ॥ ४१५२ ॥ __ अथ खयं वस्त्रग्रहणे दोषानाह मिच्छत्ते संकादी, विराहणा लोभे आभियोगे य । तुच्छा ण सहति गारव, भंडण अट्ठाणठवणं च ॥ ४१५३ ॥ पुरुषेण संयत्याः वस्त्रं दीयमानं दृष्ट्वा अभिनवधर्माणो मिथ्यात्वं गच्छेयुः 'दुर्दृष्टधर्माणोऽमी' 10 इति । शङ्कादयश्च दोषा भवन्ति । 'विराधना च' संयमा-ऽऽत्मविषया । "लोभे" ति स्तोकेनापि वस्त्रादिप्रदानेन स्त्री प्रलोभ्यते । “आभियोगे" ति आभियोगिकवस्त्रप्रदानेन कश्चित् कार्मणं कुर्यात् । स्त्री च प्रायेण तुच्छा भवति, तुच्छत्वेन च 'गौरवं' लब्धिमाहात्म्य न सहते, ततश्च 'भण्डनं' कलहो अस्थानस्थापनं च भवतीति सङ्घहगाथासमासार्थः ॥४१५३॥ अथैनामेव विवरीषुराह _इत्थी वि ताव देंती, संकिजइ किं णु केणति पयुत्ता। किं पुण पुरिसो देंतो, परिजुण्णाई पि जुण्णाए ॥ ४१५४ ॥ 'स्त्री' अविरतिका साऽपि वस्त्रं संयत्याः प्रयच्छन्ती शक्यते-किं केनचित् कामुकेन प्रयुक्ता सती प्रयच्छति ? उत स्वयमेव धर्मार्थम् ? इति; किं पुनः पुरुषः परिजीर्णान्यपि वस्त्राणि जीर्णाया अपि आर्यिकायाः प्रयच्छन् ? स सुतरां शक्यते इति भावः । तत्र शङ्कायां 20 चतुर्गुरु । चतुर्थार्थमेवेति निःशङ्किते मूलम् । एवं मिथ्यात्वं शङ्कादयश्च दोषा भवेयुः । विराधना च संयमा-ऽऽत्मविषया अभ्युह्य वक्तव्या ॥४१५४॥ लोभद्वारमभियोगद्वारं चाह नामिजइ थोवेणं, जचसुवणं व सारणी वा वि। अभियोगियवत्थेण व, कड्डिजइ पट्टए नातं ॥ ४१५५ ॥ यथा जात्यं सुवर्ण 'सारणी वा' कुल्या स्तोकेनापि प्रयत्नेन नाम्यते तथा संयत्यपि स्तोके25 नापि वस्त्रादिप्रदानेन नाम्यते । यद्वा तद् वस्त्रं केनापि विद्या-मन्त्रादिबलेनाभियोगिकं-वशी करणकर्मक्षमं कृतमस्ति ततस्तेन सा 'कृष्यते' येन कार्मणं कृतं तदभिमुखं नीयते । पट्टकेन चात्र 'ज्ञात' दृष्टान्तो भवति, स च यथा प्रथमोदेशके (गाथा २८१९)॥ ४१५२ ॥ अथ गौरवादिद्वारत्रयं युगपदाह वत्थेहि वच्चमाणी, दाएंती वा वि उयध वत्थे मे । मच्छरियाओ बेंती, धिरत्थु वत्थाण तो तुझं ॥ ४१५६ ॥ हिंडामो सच्छंदा, णेव सयं गेहिमो य पवयामो । ण य जं जणो वियाणति, कम्मं जाणामों तं काउं ॥ ४१५७ ॥ काचिदार्यिका तुच्छतयः गौरवमसहिष्णुवस्त्रेभ्यो वजन्ती आत्मानं म्यापयति-अहमी Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४१५२-६२] तृतीय उद्देशः। ११३१ शानि ईदृशानि वस्त्राणि गृहीत्वा समागमिष्यामि; यद्वा खयमानीतानि वस्त्राणि दर्शयन्ती ब्रूयात्-"उयह" पश्यत मदीयानि वस्त्राणि इति । तत इतराः संयत्यो मत्सरिता बुवतेधिगस्तु भवदीयानि वस्त्राणि भवतीं च यदेवमात्मानं विकत्थयसि; अपि च यथा यूयं खच्छन्दाः पर्यटथ न तथा वयं हिण्डामः, नैव च स्वयं गृहीमः, न वाऽऽत्मानं 'प्रवदामः' प्रकर्षेण श्लाघामहे, न च यत् कुण्टलादिकं कर्म कर्तुं युष्मादृशो जनो जानाति तद् वयं कर्तुं । जानीमः ॥ ४१५६ ॥ ४१५७ ॥ जम्हा य एवमादी, दोसा तासिं तु गिण्हमाणीणं । तम्हा तासि णिसिद्धं, वत्थग्गहणं अणीसाए ॥ ४१५८ ॥ यस्मादेवमादयो दोषास्तासां गृह्णतीनां भवन्ति तस्मात् तासामनिश्रया वस्त्रग्रहणं निषिद्धम् ॥ ४१५८ ॥ परः प्राह 10 सुत्तं णिरत्थगं खलु, कारणियं तं च कारणमिणं तु । असती पाउग्गे वा, मनक्खो वा इमा जतणा ॥ ४१५९ ॥ . . यदि संयतीनामनिश्रया वस्त्रग्रहणं न कल्पते ततः सूत्रं निरर्थकं प्राप्नोति । सूरिराहकारणिकं सूत्रम् । तच्च कारणमिदम्-न सन्ति संयतीनां वस्त्राणि, सन्ति वा परं न प्रायोग्याणि, "मन्नक्खो वा" महद् दौर्मनस्यं संज्ञातकादीनां संयतीभिर्वस्त्रेऽगृह्यमाणे भवति तत्रेयं 16 यतना ॥ ४१५९ ॥ तामेवाभिधित्सुराह तरुणीण य पन्चजा, णियएहिँ णिमंतणा य वत्थेहि । पडिसेहण णिबंधे, लक्खण गुरुणो णिवेदेजा ॥ ४१६० ॥ कस्याप्याचार्यस्य पार्श्वे महर्द्धिकानां बहुजनपाक्षिकाणां तरुणीनां प्रव्रज्या समजनि, ताश्च कियन्तमपि कालमन्यस्मिन् देशे विहृत्य सूरिभिः सार्धं तत्रैव समायाताः, ततः 'निजकैः' 20 सज्ञातकैस्तासां वस्त्रैनिमन्त्रणा कृता, ततः 'न कल्पते अस्माकं । वस्त्रग्रहणं कर्तुम्' इति प्रतिषेधः कर्तव्यः । अथ गाढतरं निर्बन्धं कुर्वन्ति तत इदं वक्तव्यम्-अस्माकं गुरव एव वस्त्रस्य लक्षणं जानते ततो गुरूणां निवेदयाम ईति, अनुज्ञाते तेषां निवेदयेयुः ॥ ४१६० ।। इदमेव व्याख्यातिथेरा परिच्छंति कधेमु तेसिं, णाहति ते दिस्स अजोग्ग जोग्गं। 25 पिच्छामु ता तस्स पमाण-वण्णे, तो णं कधेस्सामों तहा गुरूणं ॥४१६१ ॥ सागारऽकडे लहुगो, गुरुगो पुण होति चिंधकरणम्मि । गणिणीअसिढे लहुगा, गुरुगा पुण आयनीसाए ॥ ४१६२ ॥ 'स्थविराः' आचार्या अस्मत्प्रायोग्यं वस्त्रं परीक्षन्ते अतः कथयामस्तेषाम् , ज्ञास्यन्ति ते दृष्दैव वस्त्रमयोग्यं योग्यं वा, परं वयं तावदिदानीं तस्य वस्त्रस्य प्रमाणं वर्णं च पश्यामः, ततः 30 "ण"मिति तद् वस्त्रं 'तथा' तेन प्रमाण-वर्णादिना प्रकारेण गुरूणां कथयिष्यामः; एवं यद् वस्त्रं साकारत्वेन व्यवस्थापितं तत् साकारकृतम् । तच्च यदि न कुर्वन्ति ततो मासलधु । .११ एतदन्तर्गतः पाठः भा० नास्ति ॥ २ इत्युक्त्वा तेषां नाटी भा० का ० . ' Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३२ सनियुक्ति-लधुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ निश्राप्रकृते सूत्रम् १२ साकारकृतं कृत्वा प्रमाण-वर्णाभ्यां चित्रं न कुर्वन्ति मासगुरु । यदि गणिन्या अग्रे एतरम प्रमाणादि न कथयन्ति ततश्चतुर्लघवः । अथात्मनिश्रया स्वयमेव गृहन्ति चतुर्गुरवः ॥४१६१ ॥ ४१६२ ॥ अथ गृहस्था एवं ब्रूयुः जह मे रोयति गिण्हध, ण वयं गणिणि गुरुं व जाणामो। इय वि भणिया वि गणिणो, कधेति ण य तं पडिच्छंति ॥ ४१६३ ॥ यदि "भे" भवतीनां रोचते ततो गृह्णीध्वमेतद् वस्त्रम् , न वयं गणिनी' प्रवर्तिनीं 'गुरुं वा' आचार्य जानीमः, इत्यपि भणिताः संयत्यः 'गणिनः' सूरेः कथयन्ति, न पुन 'तद्' वस्त्रं प्रतीच्छन्ति ॥ ४१६३ ॥ सूरिभिश्च संयतीमुखाद् वववृत्तान्तं श्रुत्वा इत्थं वक्तव्यम् कतरो मे णत्थुवधी, जो दिजउ भणह मा विसूरित्था । 10 . पुषुप्पण्णो दिजति, तस्सऽसतीए इमा जयणा ॥ ४१६४ ॥ _ 'भणत' प्रतिपादयत वर्षाकल्पा-ऽन्तरकल्पादीनां मध्यात् कतरः “भे" भवतीनां नास्त्युपधिः यः साम्प्रतं दीयताम् , मा यूयमुपधिना विना "विसूरयथ' खेदमुद्रहथ, इत्युक्ते यस्योपधेरभावस्तं निवेदयन्ति । स यदि पूर्वोत्पन्नो वर्तते ततो दीयते । अथ पूर्वोत्पन्नो नास्ति ततस्तस्याभावे इयं यतना ॥ ११६४ ॥ नाऊण या परीत्तं, वावारे तत्थ लद्धिसंपण्णे । ___ गंधड्ढे परिभुत्ते, कप्पकते दाण गहणं वा ॥ ४१६५ ॥ "परीतं" स्तोकम् , अभावोपलक्षणं चेदम् , ततोऽयमर्थः-परीतं नाम न सन्ति संयतीनां वस्त्राणि इति ज्ञात्वा ये तत्र लब्धिसम्पन्नाः साधवस्तान् व्यापारयेत् , यथा-आर्याः ! संयतीनां प्रायोम्याणि वस्त्राणि गवेषयत । ततस्ते वस्त्राणि गृहीत्वा गुरूणां समर्पयन्ति, तानि 90 च गन्धाढ्यानि परिभुक्तानि वा भवेयुः ततः कल्पे कृते सति दानं ग्रहणं वा कर्तव्यम् । किमुक्तं भवति?-तानि वस्त्राणि प्रक्षाल्य सप्त दिवसानि स्थापयित्वा यदि नास्ति कोऽपि विकारस्ततो गणधरेण प्रवर्तिन्या दातव्यानि । प्रवर्तिनीहस्ताच्च संयतीभिर्ग्रहीतव्यानि इति सहगाथासमासार्थः ॥ ४१६५ ॥ साम्प्रतमेनामेव विवृणोति गुरुस्स आणाएँ गवेसिऊणं, वावारिता ते अहछंदिया वा। 25 दुधापमाणेण जहोदियाई, गुरूण पाएसु णिवेदयंति ॥ ४१६६ ॥ __ ये 'व्यापारिताः' गुरुभिर्वस्त्रग्रहणाय प्रवर्तिताः, ये वा 'यथाच्छन्दिकाः' अव्यापारिता एव गुरूणां पुरतो भणन्ति-वयं वस्त्राणि गवेषयिष्यामः, आभिग्रहिका इति भावः; ते द्वयेऽपि गुरोराज्ञया वस्त्राणि 'द्विधाप्रमाणेन' गणनाप्रमाणेन प्रमाणप्रमाणेन च यथा भगवद्भिस्तीर्थकरैः __ 'उदितानि' भणितानि तथा गवेषयित्वा गुरूणां 'पादयोः' पुरतस्तानि 'निवेदयन्ति' निक्षि30 पन्तीत्यर्थः ॥ ४१६६ ॥ ततश्च गंधह अपरिभुत्ते, वि घोविउ देति किमुअ पडिपक्खे । गणिणीऍ णिवेदेजा, चतुगुरु सय दाण अट्ठाणे ॥ ४१६७ ॥ यानि गन्धाव्यानि तानि यद्यपि अपरिभुक्तानि तथापि 'धावित्वा' प्रक्षाल्य संयतीनां Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 भाष्यगाथाः ४१६३-७१] तृतीय उद्देशः । ११३३ ददाति 'किमुत' किं पुनः ‘पतिपक्षान्' परिभुक्तान् ? इत्यर्थः, तानि सुतरां प्रक्षालनीयानीति भावः । उपलक्षणमिदम् , तेन यद्यपि तानि न गन्धाढ्यानि तथापि धावनीयान्येव, धावित्वा च तानि सप्त दिवसानि स्थापयित्वा स्थविरः प्रावरणं कार्यते । यदि नास्ति कोऽप्यभियोगविकारस्ततो गणधरः 'गणिन्याः' प्रवर्तिन्यास्तानि 'निवेदयेद्' अर्पयेदित्यर्थः । सा च संयतीनां ददाति । अथ गणधरः खयं तासां ददाति ततश्चतुर्गुरु, अस्थाने च शेषसंयतीभिः स्थाप्येत ।। शुद्धभावेनापि हि यदि काचिदार्यिका विशेष्य आलप्यते तथापि काचिदपरा संयती तत्र विरूपकाभिप्रायतया शङ्कां करोति, किं पुनः खयं वस्त्रप्रदाने! ।। ४१६७ ॥ अपि च इहरह वि ताव मेहा, माणं भंजंति पणइणिजणस्स । किं पुण बलाग-सुरचाव-विजुपजोविया संता ॥ ४१६८॥ 'इतरथाऽपि च' बलाका-सुरचापादिविशेषमन्तरेणापि तावद् मेघा गगनमण्डलमापूर्य गर्ज-10 यन्तः 'प्रणयिनीजनस्य' मानवतीलोकस्य मानं भञ्जन्ति, किं पुनः बलाका-सुरचाप-विद्युत्प्रद्योतिताः सन्तः?, एवंविधाः सुतरां मानमुन्मूलयन्ति; एवमियमपि 'अतिप्रौढा समर्था चाहम्' इति कृत्वा अस्माकं मानभङ्गं पुराऽपि करोति, साम्प्रतं तु गुरुभिः स्वयं पूजित-सत्कारिता विशेषतः करिष्यतीति शेषसाव्यश्चिन्तयेयुः ॥ ४१६८॥ दुल्लभवत्थे व सिया, आसण्णणियाण वा वि पिन्बंधे। पुच्छतऽर्ज थेरा, वत्थपमाणं च वण्णं च ॥४१६९॥ अथ स देशो दुर्लभवस्त्रो भवेत् ततो ये व्यापारितास्तैरपि व लब्धानि वस्त्राणि, अथवा यैः 'निजैः' सज्ञातकैस्ता निमन्त्रितास्ते तासाम् 'आसन्नाः' अतीवप्रत्यासनसम्बन्धास्ततो न तन्निर्बन्धो अप्रमाणीकर्तुं शक्यते, एवमादौ कारणे समुत्पन्ने 'स्थविराः' आचार्याः 'आर्या' प्रवर्तिनी वस्त्रस्य प्रमाणं वर्णं च पृच्छन्ति-कीदृशैर्वस्त्रैयूयं निमनिताः ? किं वा तेषां प्रमा-20 णम् ? ॥ ४१६९ ॥ ततः संयत्यो ब्रुवते सेयं व सिंधवणं, अहवा मइलं च ततियगं वत्थं । तस्सेव होति गहणं, विवजए भाव जाणित्ता ॥ ४१७० ॥ एकं वस्त्रं 'श्वेतं' शरदिन्दु-कुन्दावदातम् , द्वितीयं 'सैन्धववर्ण' पाण्डुरम् , १ अथवाशब्दो वर्णप्रकारान्तरताद्योतकः, - तृतीयं परिमलितत्वाद् मलिनम् , प्रमाणमपि च तस्य वस्त्रस्य 25 ईदृशमस्तीति ताभिरुक्ते गुरुभिस्तत्र गत्वा तस्यैव वस्त्रस्य ग्रहणं कर्तव्यम् । अथ ते गृहस्थास्तत्र गतानामाचार्याणामन्यानि वस्त्राणि दर्शयन्ति तत एवं विपर्यये 'भावं' भद्रक-मान्तगतमभिप्राय ज्ञात्वा ग्रहणं कर्तव्यं न वा ॥ ४१७० ॥ इदमेव स्पष्टयन्नाह पुव्वगता में पडिच्छह, अम्हे वि य एमु ता तहिं गंतुं । गुरुआगमण कधेत्ता, णीणावेंताऽऽगते तम्मि ॥ ४१७१ ॥ 30 सूरयः प्रवर्तिनी भणन्ति-यूयं तत्र पूर्वगताः प्रतीक्षत, बयमपि युष्माकमनुमार्गत एकागच्छामः । ततस्ताः संयत्यः 'तत्र' गृहस्थकुले गत्वा गुरूणामागमनं कथयन्ति । ततः तस्मिन्' १ धावयित्वा त• डे० ॥ २ ॥ एतन्मध्यगतः पाठः भा० नास्ति । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३४ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्करूपसूत्रे [ निश्राप्रकृते सूत्रम् १२ गुरावागते संयत्यो भणन्ति - निष्काशयत तानि वस्त्राणि यैर्वयं निमन्त्रिताः । एवमुक्ते यदि तान्येव दर्शयन्ति ततो गृह्णन्ति ॥ ४१७१ ॥ अथान्यानि ततः सूरिभिरिदं वक्तव्यम्अन्नं इदं ति पुट्ठा, भांति किह तुब्भ तारिसं देमो । इति भद्दे पंतेसु तु, धुणंति सीसं ण तं एतं ॥ ४१७२ ॥ 10 5 येन भवद्भिः संयत्यो निमन्त्रिता नेदं तद् वस्त्रम् किन्तु प्रमाणेन वर्णेन वा अन्यादृशत्वेनान्यदिदमिति पृष्टाः सन्तस्ते गृहस्था यदि भद्रकास्तत इदं भणन्ति — कथं वयं युष्माकं स्वयमेवागतानां 'तादृशं' सामान्यवर्णादियुक्तं प्रयच्छामः ? इदं तु ततो विशिष्टतर वर्णादिगुणोपेतम्, अत इदं गृह्णीत - इति भद्रका ब्रूयुः । ये तु प्रान्तास्तेषु सूरयः शीर्षं धूनयन्ति, इदं च वचनं ब्रुवते - येन संयत्यो निमन्त्रितास्तदिदं वस्त्रं न भवति ॥ ४१७२ ॥ एवमुक्ते ते चिन्तयेयुः - P बहु जाणिया ण सक्का, वंचेउं तेसि जाणिउं भावं । च्छंति भद्दसु तु, पट्टभावेसु गेण्हति ।। ४९७३ ॥ अये ! अमीभिराचार्यैः 'बहु' प्रभूतं 'ज्ञाताः ' उपलक्षिता वयम् - यदेते आभियोगिका नि वस्त्राणि प्रयच्छन्तीति, अतो न शक्या अमी वञ्चयितुम् इत्यादिकं तेषां 'भावम्' अभिप्रायं 15 मुखविकारादिभिराकारैर्ज्ञात्वा नेच्छन्ति । भद्रकेषु तु प्रहृष्टभावेषु गृह्णन्ति ॥ ४१७३ ॥ भद्रकेष्वेव विशेषमुपदर्शयति न वि एयं तं वत्थं, जं तं अजाण णीणियं भेत्ति । तुमें इमं पडिच्छध, तं चिय एताण दाहामो ॥ ४१७४ ॥ तत्तद्वत् तद् आर्यिकाणामर्थाय निष्काशितं भवद्भिः; इत्युक्ते यदि गृहस्था 20 ब्रुर्वते - यूयं तावदिदं वस्त्रं प्रतीच्छत, एतासां तु वयं तदेव दास्यामः ॥ ४१७४ ॥ ततो वक्तव्यम् - अणेण णे ण कजं, एतट्ठा चैव गेण्हिमो अम्हे | जाणिव इतिवृत्ते, गीर्णेति दुए वि गिण्हंति ॥ ४१७५ ।। अन्येन वस्त्रेण "णे" अस्माकं न कार्यम्, एतासामेवार्थाय वयं सम्प्रति गृह्णीमः; इत्युक्ते 25 यदि 'तान्यपि ' प्राक्तनानि वस्त्राणि आनयन्ति ततः 'द्वयान्यपि' प्राक्तन - पश्चात्तनानि गृह्णन्ति ॥ ४१७५ ॥ ताणि वि उवस्यम्मि, सत्त दिणे ठविय कप्प काऊ । थेरा परिच्छिऊणं, विहिणा अप्पेंति तेणेव ।। ४१७६ ॥ तान्यपि वस्त्राणि गृहीत्वा उपाश्रये आनीय सप्त दिनानि स्थापयित्वा कल्पं कृत्वा स्थविर - 30 प्रावरणद्वारेण परीक्ष्य यदि नास्ति कोऽप्यभियोगविकारस्ततः ' स्थविरा:' आचार्यास्तेनैव विधिना संयतीनामर्पयन्ति ॥ ४१७६ ॥ एवमाचार्यनिश्रया ग्रहणमुक्तम् । अथोपाध्यायादिनिश्रया तदेवाह एतदन्तर्गतः पाठः भा० नास्ति ॥ २° वन्ति यू' ताटी० त०] डे० ॥ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 भाष्यगाथाः ४१७२-८२ ]. तृतीय उद्देशः । ११३५ आयरिऍ उवज्झाए, पवत्ति थेरे गणी गणधरे य ।। गणवच्छेइयणीसा, पवित्तिणी तत्थ आणेति ॥ ४१७७॥ आचार्यस्याभावे उपाध्यायस्य प्रवर्तिनः स्थविरस्य गणिनो गणधरस्य गणावच्छेदिनो वा निश्रया वस्त्रग्रहणं कर्तव्यम् । एतेषामभावे प्रवर्तिनी 'तत्र' गृहस्थकुले गत्वा स्वयमानयति ॥ ४१७७ ॥ इदमेव व्याख्यानयति आयरिए असधीणे, साहीणे वा वि वाउल गिलाणे । एकेकगपरिहाणी, एमादीकारणेहिं तु ।। ४१७८ ॥ यदि तत्राचार्यों अस्वाधीनः स्वाधीनो वा परं 'व्याकुलः' कुलादिकार्येषु व्यापृतः ग्लानो वा तत उपाध्यायनिश्रया ग्रहणं विधेयम् । तत्रापि स एव विधिः । अथोपाध्यायोऽखाधीनो व्याकुलो वा, तत एकैकंपरिहाण्या तावद् नेयं यावत् प्रवर्तिनीनिश्रयाऽपि ग्रहीतव्यम् । एवमा-10 दिभिः कारणैः संयतीनां वस्त्रग्रहणं भवतीति ॥ ४१७८ ॥ सुत्तणिवातो थेरी, गहणं तु पवत्तिणीय नीसाए । तरुणीण य अग्गहणं, पवत्तिणी तत्थ आणेति ॥ ४१७९ ॥ अत्र पुनः सूत्रनिपात इत्थं मन्तव्यः-(ग्रन्थानम्-२७४२०) आचार्यादीनां गणावच्छेदिकान्तानामभावे प्रवर्तिन्या निश्रया स्थविरा आर्यिकाः वयं वस्त्रग्रहणं कुर्वन्ति । तरु-18 णीनां तु सर्वथैव वस्त्रस्याग्रहणमुत्सर्गतः, प्रवर्तिनी स्वयं तत्र गत्वा आनयति ॥ ४१७९ ॥ इदमेव भावयति साहू जया तत्थ न होज कोई, छंदेज णीया तरुणी जया य । पवत्तिणी गंतु सयं तु गेण्हे, आसंकभीया तरुणी न नेति ॥ ४१८० ॥ यदा तत्राचार्यादीनां मध्यात् कोऽपि गीतार्थः साधुन भवति, यदा च 'निजकाः' संज्ञात- 20 कास्तरुणीः 'छन्दयेयुः' निमन्त्रयेरन् तदा प्रवर्तिनी स्वयं तत्र गत्वा गृह्णाति । 'आशङ्काभीता च' प्रत्यपायशङ्कया चकिता तरुणीरात्मना सार्धं न नयति ॥ ४१८० ॥ असती पवत्तिणीए, आयरियादि व्य जं व णीसाए । आगाढकारणम्मि उ, गिहिणीसाए वसंतीणं ॥ ४१८१ ॥ अथ नास्ति प्रवर्तिनी तत आचार्योपाध्यायादीन् 'यं वा' सामान्यसाधुमपि 'निश्राय' निश्रां 25 कृत्वा विहरति तन्निश्रया ग्रहणं कर्तव्यम् । आगाढे तु कारणे गृहिनिश्रया वसन्तीनां स्वयमपि ग्रहणं भवतीति वाक्यशेषः ॥ ४१८१ ॥ इदमेव सविशेषमाह ___ असती पवत्तिणीए, अभिसेगादी विवजए णीसा। गेण्हंति थेरिया पुण, दुगमादी दोण्ह वी असती ॥ ४१८२ ॥ प्रवर्तिन्या अभावे अभिषेका-गणावच्छेदिनीप्रभृतयो या गीतार्थाः संयत्यस्ताः वयं गत्वा 30 गृह्णन्ति । "विवजए नीस" त्ति विपर्ययो नाम-अभिषेकादयोऽपि न सन्ति ततः परस्परनिश्रया स्थविरा आर्यिका गृह्णन्ति । ताश्च 'द्विकादयः'. द्वि-त्रिप्रभृतिसङ्ख्याकाः पर्यटन्ति । अथ १ इतोऽग्रे ग्रन्थानम्-१२००० इति ताटी । प्रन्यामम् .. ३००० इति मो० ले ॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [निश्रापकृते सूत्रम् १२ द्वे अपि न भवतस्ततो वक्ष्यमाणविधिना ग्रहीतव्यम् ॥ ४१८२ ॥ कथं पुनद्वयोरप्यभावः ? इत्याशझ्याह दुन्भूइमाईसु उ कारणेसुं, गिहत्थणीसा वदणी वसंती । जे नालबद्धा तह भाविया वा, निदोस सन्नी व तहिं वसेजा ॥४१८३॥ 5 'दुर्भूतिः' अशिवम् , आदिशब्दादवमौदर्यादिपरिग्रहः, तेषु कारणेषु गृहस्थनिश्रया एकाकिनी व्रतिनी वसन्ती ये 'नालबद्धाः' तस्या एव सज्ञातकाः, ये वा अनालबद्धा अपि 'भाविताः' साधुसामाचारीपरिकर्मितमतयो यथाभद्रकाः, ये वा 'निर्दोषाः' हास्य-कन्दर्पादिदूषणरहिताः संज्ञिनस्तेषां गृहे वसेत् ॥ ४१८३ ॥ तत्र च स्थितां भिक्षां पर्यटन्तीं यदा कोऽपि वस्त्रेण निमन्त्रयेत् तदा वक्तव्यम्10. सेजायरो व सण्णी, व जाणति वत्थलक्खणं अम्हं । तेण परिच्छियमेतं, तदणुण्णातं परिग्घेच्छं ॥ ४१८४ ॥ __ शय्यातरो वा संज्ञी वा अस्माकं प्रायोग्यस्य वस्त्रस्य लक्षणं जानाति, अतस्तेन परीक्षितं तदनुज्ञातं च सद् अहमिदं परिग्रहीष्यामि ॥ ४१८४ ॥ पंतो ददृण तगं, संकाए अवणयं करेजाहि । अण्णार्सि वा दिण्णं, वइतं णीयं व हसिता व ।। ४१८५ ॥ ... ततः संयत्या समानीतं 'तकं' शय्यातरं संज्ञिनं वा दृष्ट्वा प्रान्तः शङ्कया 'अपनयं' वस्त्रस्यैकान्ते स्थापनं कुर्यात् ; यद्वा ब्रूयात् -अन्यासां संयतीनां दत्तं वजिकां वा नीतं हसेद्वा ॥ ४१८५ ॥ अथवा तुम्भे वि कहं विमुहे, काहामो तेण देमों से अण्णं । इति पंते वजणता, भद्देसु तधेव गेण्हंती ॥ ४१८६॥ युष्मानपि कथं विमुखान् करिष्यामः ? अतः 'तस्याः' अपरस्याः संयत्या अन्यद् वस्त्र दास्यामः, इदं तु यूयं गृहीत, इति ब्रुवाणे प्रान्ते वर्जनं कर्तव्यम् , न तदीयं वस्त्रं प्रहीतव्यमिति भावः । भद्रेषु तु 'तथैव' पूर्वोक्तप्रकारेण गृह्णन्ति ॥ ४१८६ ॥ अंबा वि होति सित्ता, पियरो वि य तप्पिया वदे भद्दो। 25 धम्मो य णे भविस्सति, तुभं च पियं अतो अण्णं ॥ ४१८७॥ भद्रक इत्थं वदेत्-आम्रा अपि सिक्ता भवन्ति, पितरोऽपि च तर्पिता भवन्ति; एवं "णे" अस्माकं धर्मो भविष्यति, युष्माकं च प्रियम् , अतो अन्यद वस्त्रं दास्याम इत्युक्ते गृह्यते ॥ ४१८७ ॥ अथ ये चतुर्थावभाषणनिमित्तं प्रयच्छन्ति ते कथं ज्ञातव्याः ? इत्याह वेवहु चला य दिट्ठी, अण्णोण्णणिरिक्खियं खलति वाया। देण्णं मुहवेवणं, ण याणुरागो उ कारीणं ॥ ४१८८॥ ये कारिणः-चतुर्थनिमित्तं वस्त्रदायिनस्तेषां शरीरे 'वेपथुः' कम्पश्चला च दृष्टिर्भवति, 'अन्यान्यनिरीक्षितं' 'कस्को नाम मां जनाति ?' इति बुद्ध्या अन्यस्यान्यस्य च सम्मुखं निरी १ अन्यान्य° भा० काविना ॥ 20 30 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४१८३-८९] तृतीय उद्देशः । ११३७ क्षन्त इति भावः, वाक् च तेषां मुखलति, ज्ञाते च तदभिप्राये तेषां दैन्यं मुखवैवर्ण्य चोपजायते, न च तेषां वस्त्रं ददानानाम् 'अनुरागः' हृष्टप्रहृष्टतालक्षणो भवति ।। ४१८८ ॥ ॥निश्रामकृतं समाप्तम् ॥ . त्रि कृ स्त्र प्रकृतम् सूत्रम् निग्गंथस्स तप्पढमयाए संपव्वयमाणस्स कप्पड़ रयहरण-गोच्छ-पडिग्गहमायाए तिहिं कसिणेहिं वत्थेहिं आयाए संपव्वइत्तए । से अ पुत्वोवहिए सिया एवं से नो कप्पइ रयहरण-पडिग्गह-गोच्छयमायाए तिहि य कसिणेहिं वत्थेहिं आयाए संपव्वइ. त्तए । कप्पइ से अहापरिग्गहियाइं वत्थाई गहाय आयाए संपव्वइत्तए १३॥ अथास्य सूत्रस्य कः सम्बन्धः? इत्याह णिग्गंथिचेलगहणं, भणियं समणाणिदाणि वोच्छामि । निक्खंते वा वुत्तं, निक्खममाणे इमं सुत्तं ॥ ४१८९ ॥ 15 निर्ग्रन्थीविषयं चेलग्रहणं भणितम् , इदानीं श्रमणानां यथा वस्त्रं ग्रहीतुं कल्पते तथाऽभिधीयते । यद्वा 'निष्क्रान्तः' दीक्षितस्तद्विषयं वस्त्रग्रहणमुक्तम् , इदं तु 'निष्कामति' दीक्षामाददाने वस्त्रग्रहणाभिधायकं सूत्रमारभ्यते ॥ ४१८९ ॥ अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या-निर्ग्रन्थस्य तत्प्रथमतया सम्-इति सम्यक् प्रकर्षणपुनरनङ्गीकारलक्षणेन व्रजतः-गृहवासाद् निर्गच्छतः सम्प्रव्रजतः कल्पते रजोहरण-गोच्छक-प्रति-20 ग्रहमादाय त्रिभिः कृत्स्नैर्वस्त्रैरात्मना सम्प्रव्रजितुम् । इह रजोहरणग्रहणेन मध्यमोपधिः गोच्छकग्रहणेन जघन्योपधिः प्रतिग्रहग्रहणेनोत्कृष्टोपधिः सर्वो गृहीतः, ततोऽयमर्थः-जघन्य-मध्यमोस्कृष्टोपधिनिष्पन्ना ये त्रयः कृत्लाः-प्रतिपूर्णा वस्त्र-पात्रप्रत्यवतारास्सैरात्मना सहितैः प्रव्रज्या ग्रहीतुं कल्पते । “से य" ति चशब्दो अथशब्दार्थः, अथासौ प्रव्रज्याप्रतिपत्ता पूर्वम् उपस्थितःदीक्षितः स्यात् ततो नो कल्पते "से" तस्य पूर्वोपस्थितस्य रजोहरण-गोच्छक प्रतिग्रहमादाय 25 त्रिमिः कृत्वैर्वस्त्रैरात्मना सम्प्रव्रजितुम् ; किन्तु कल्पते "से" तस्य 'यथापरिगृहीतानि' क्रीतकृता. दिदोषरहितानि वस्त्राणि गृहीत्वा आत्मना सम्प्रव्रजितुम् इति सूत्रेसङ्केपार्थः ।। १°ण जाव संपवात्तए । कप्प° भा० ॥ २ गहिपहिं वत्थेहिं आयाए इति मा० । एत. पाठमेदानुसारेणैव मा. प्रती टीका वर्तते, दृश्यता टिप्पणी ४ ॥३°ग्रन्थ्याः चेल भा•॥४°हीत: क्रीतकृतादिदोषरहितैः वः मारम भा० ॥ ५°समासाः ताटी• भा• कां•॥ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 ११३८ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्करूपसूत्रे [ त्रिकृत्स्त्र प्रकृते सूत्रम् १३ अथ विस्तरार्थोऽभिधीयते - आह— न तावदद्याप्ययं प्रत्रजितः ततः कथं निर्ग्रन्थों भवति ? इति उच्यते ततितो उ उभयसहितो, उभओविजढे चरिम भंगो ।। ४१९१ ।। द्रव्ये च भावे च प्रव्रजित इत्यत्र चतुर्भङ्गी भवति । तद्यथा - द्रव्यतो निर्ग्रन्थो न भावतः १ भावतो निर्ग्रन्थो न द्रव्यतः २ एको द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि ३ अपरो न द्रव्यतो न भावतः ४ । तत्र द्रव्यतो निर्ग्रन्थः स उच्यते यः 'लिङ्गसहितः ' द्रव्यलिङ्गयुक्तो निःशङ्कः सन् 10 ' अवधावति' उत्पव्रजतीत्यर्थः ॥ ४१९० ॥ 25 दव्वम्मि य भावम्मि य, पव्वइए एत्थ होति चउभंगो । दव्वेण लिंगसहितो, ओहावति जो उ णीसंको ॥ ४१९० ।। पवजाऍ अभिमुो, परलिंगे कारणेण वा बितिओ । यस्तु प्रव्रज्यायामभिमुखो न तावदद्यापि प्रत्रजति कारणेन वा यः साधुः परलिङ्गे वर्तते सः 'द्वितीयः' द्वितीयभङ्गवर्ती । यस्तु 'उभयसहितः ' द्रव्य-भावलिङ्गयुक्तः सः 'तृतीयः' उभयथाऽपि निर्ग्रन्थ इति भावः । ‘उभयविमुक्ते तु ' द्रव्य-भावलिङ्गरहिते गृहस्थादौ 'चरमः' चतुर्थो भो भवति ॥ ४१९१॥ अत्राचार्यो देवस्य मानुष्या सह संवासलक्षणं दृष्टान्तं कर्तुकामः 15 प्रथमतः सिद्धान्तं प्रज्ञापयति चउधा खलु संवासो, देवाऽसुर रक्खसे मणुस्से य । अण्णोष्णकामणेण य, संजोगा सोलस हवंति ॥ ४१९२ ।। देवसंवासः असुरसंवासो राक्षससंवासो मनुजसंवासश्चेति संवासश्चतुर्धा । अत्र चान्योन्यकाम्यया षोडश संयोगा भवन्ति, तद्यथा— देवो देव्या सार्धं संवसति १ देवो असुर्या सार्धम् 20. २. देवो मनुष्या सार्धम् ३ देवो राक्षस्या सार्धम् ४, असुरो देव्या समं संवसति ५ असुरो - सुर्या ६ असुरो मनुष्या ७ असुरो राक्षस्या ८, राक्षसो देव्या ९ राक्षसोऽसुर्या १० राक्षसो मनुष्या ११ राक्षसो राक्षस्या १२, मनुष्यो देव्या १३ मनुष्योऽसुर्या १४ मनुष्यो राक्षस्या १५ मनुष्यो मनुष्या १६ चेति । अत्र देवशब्देन वैमानिको ज्योतिष्को वा, असुरशब्देन भवनवासी, राक्षसशब्देन तु सामान्यतो व्यन्तरः परिगृह्यते ॥ ४१९२ ॥ अथामूनेव षोडश भङ्गान् चतुर्षु भङ्गेष्ववतारयन्नाह अधवण देव छवीणं, संवासे एत्थ होति चउभंगो । " अहवण" त्ति प्रकारान्तरद्योतकः । देव-च्छविमतोः संवासे चतुर्भङ्गी भवति - देवो देव्या सार्धं संवसति १ देवः छविमत्या सार्धम् २ छविमान् देव्या सार्धम् ३ छविमान् छविमत्या ४ । अत्र देवशब्देन सामान्यतो भवनपत्यादिनिकायचतुष्टयाभ्यन्तरवर्ती गृह्यते, ३० छविमांश्च मनुष्य उच्यते । अत एतेषु चतुर्षु भङ्गेषु पूर्वोक्ताः षोडशापि भङ्गा अन्तर्भूताः ॥ एवं सिद्धान्तं प्रज्ञाप्य प्रस्तुतार्थसाधकं दृष्टान्तमाह १. 1. Do एतदन्तर्गतः पाठः भा० नास्ति ॥ २ अण्णण कां० ॥ ३ चान्यान्य भा० कां० मो० ० ॥ ४ कामनया ताटी० भा० को ० ॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४१९०-९७] तृतीय उद्देशः । ११३९ पव्वजाभिमुहंतर, गुज्झ ग उम्भामिया वासो ॥ ४१९३ ॥ बितियणिसाए पुच्छा, एत्थ जती आसि तेण मि न आतो। जतिवेसोऽयं चोरो, जो अज तुहं वसति दौरे ॥ ४१९४ ॥ "पव्वज्जा" इत्यादि । एकः कश्चित् तरुणः प्रव्रज्याभिमुखो गुरूणां पार्थे प्रस्थितः । अन्तरा च कस्मिंश्चिद् ग्रामे एकस्या वरतरुण्या गृहे वासार्थमुपगम्य द्वारमूले सुप्तः । सा च तरुणी । 'उन्द्रामिका' कुशीला । 'गुह्यकश्च' कश्चिद् यक्षः तया उद्भामिकया सह रात्री वासं कृत्वा प्रभाते खस्थानं गच्छति । एवं दिवसे दिवसे करोति । तस्मिंश्च दिवसे स यक्षो नोपागमत् । द्वितीये च दिवसे कोऽपि सलिङ्गावधावी चौर्य कर्तुकामस्तस्मिन्नेव ग्रामे तस्या एव तरुण्या गृहे तथैव द्वारमूले प्रसुप्तः, यक्षश्च तदिवसमागतः । यस्मिन् दिवसे यक्षो नायातः ततो यो द्वितीयो दिवसस्तत्र निशायामागतस्य यक्षस्य पार्श्वे पृच्छा कृता-कल्ये किं नागतोऽसि ! 110 यक्षः प्राह-अत्र कल्ये यतिरासीत् तेन कारणेन अहमत्र नायातः, अपि च साधुसम्बन्धिना तेजसैव तमुल्लङ्य गन्तुं ने शक्यते । सा प्राह-किमेवं मृषा भाषसे? अयमपि तावदन्यः साधुज्रमूले सुप्तस्तिष्ठति अत एनमुल्लचय कथमद्यागतोऽसि ? इति । यक्षः प्राह-एष चारित्रं प्रति विपरिणतश्चौर्य कर्तुकामः, अतो यतिवेषेण चौरोऽयं मन्तव्यः यस्तव अद्य द्वारे वसतीति ॥ तदेवमनेन दृष्टान्तेन प्रव्रज्यायामभिमुखः प्रवजित एवोच्यते । स उक्तं च नैश्चयिकनय-15 वक्तव्यतामङ्गीकृत्य भगवत्याम् नेरईए णं भंते ! नेरईएए उववज्जइ ? अनेरईए नेरईएसु उववज्जइ ? गोयमा ! नेरईए नेरईएसु उववजइ, नो अनेरईए नेरईएसु उववजह (श० ४ उ० ९ । प्रज्ञा० पद १७ उ० ३)।- ॥ ४१९३ ॥ ४१९४ ॥ अथ रजोहरणादिपदानि व्याचष्टे 30 रयहरणेण विमझो, गुच्छगगहणे जहण्णगहणं तु । भवति पडिग्गहगहणे, गहणं उक्कोसउवधिस्स ॥ ४१९५ ॥ रजोहरणग्रहणेन विमध्यमोपधिर्गृहीतः, गोच्छकग्रहणेन जघन्योपधिग्रहणं भवति, प्रतिग्रहग्रहणेन चोत्कृष्टस्योपधेर्ग्रहणं मन्तव्यम् ॥ ४१९५ ॥ पडिपुण्णा पडुकारा, कसिणग्गहणेण अप्पणो तिणि । 25 पुद्धि उवद्वितो पुण, जो पुव्वं दिक्खितो आसी ॥ ४१९६ ॥ कृल्लवस्त्रग्रहणेनेदमुक्तं भवति-तेन प्रव्रजता आत्मनो योग्यास्त्रयः प्रत्यवताराः प्रतिपूर्णा ग्रहीतव्याः । पूर्वमुपस्थितः पुनः स उच्यते यः पूर्व दीक्षित आसीत् ।। ४१९६ ॥ एष सूत्रार्थः । अथ नियुक्तिविस्तरःसोऊण कोइ धम्म, उवसंतो परिणओ य पव्वजं । - 30 पुच्छति पूर्य आयरिय उवज्झाए, पवत्ति संघाडए चेक ।। ४१९७॥ १ बारे ताभा० ॥ २ न कल्पते त. ३० ॥ ३॥ एतदन्तर्गतः पा3: भार नाति । चूर्णी विशेषचूर्णी पुनरयं पाठ उपलभ्यते ॥ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्ति के बृहत्कल्पसूत्रे [त्रिकृमप्रकृते सूत्रम् १३ इह कश्चित् तथारूपाणां स्थविराणामन्तिके धर्म श्रुत्वा 'उपशान्तः' प्रतिवुद्धः प्रव्रज्यायां च परिणतः । ततः स आचार्यान् पृच्छति-आदिशत क्षमाश्रमणाः ! किं मया कर्तव्यम् । सूरयस्तस्य सारसम्भवं ज्ञात्वा ब्रुवते-"पूयं" ति चैत्यानां विपुलां पूजां कुरु, श्रमणसङ्घस्य च वस्त्रादिभिः प्रतिलाभनं कुरु । एवमुक्ते स तथैव चैत्यानां श्रमणसङ्घस्य च पूजां करोति । अथ 5 श्रमणसङ्घ न पूजयितुमीशस्तत आचार्यस्योपाध्यायस्य प्रवर्तिनः सङ्घाटकसाधोश्च वस्त्रादिभिः पूजा विधातव्या ॥ ४१९७ ॥ इदमेव भावयति गंतग-घत-गुल-गोरस, फासुग पडिलाभणं समणसंघे । असति गणि-वायगाणं, तदसति सबस्स गच्छस्स ॥ ४१९८॥ स प्रविव्रजिषुः श्रमणसङ्घस्य सकलस्यापि 'प्राशुकैः' शुद्धैर्वस्त्र-घृत-गुड-गोरसादिभिर्द्रव्यैः 10 प्रतिलाभनां करोति । अथ नास्त्येतावत् सारं ततो ये गणिनः-आचार्या ये वा वाचकाः उपाध्यायास्तेषां सर्वेषामपि करोति । अथ नास्त्येतावती शक्तिस्ततो यस्मिन् गच्छे असौ प्रत्र. जिष्यति तस्य सर्वस्यापि प्रतिलाभनां विधत्ते ॥ ॥ ४१९८ ॥ तदसति पुवुत्ताणं, चउण्ह सीसति य तेसि वावारो। हाणी जा तिण्णि सयं, तदभावें गुरू उ सव्वं पि ॥ ४१९९ ॥ 15 तस्या अपि-सकलगच्छपूजाक्षमायाः सामग्र्या अभावे ये पूर्वमाचार्योपाध्याय-प्रवर्ति-सङ्घाटकसाधुलक्षणाश्चत्वार उक्तास्तेषां पूजां करोति । 'तेषां च' आचार्यादीनां 'उमपारः' अर्थकथनादिस्तस्य पुरतः 'शिष्यते' कथ्यते, यथा--आचार्योऽथ व्याख्यानयति, उपाध्यायः सूत्रं वाचयति, प्रवर्ती तपः-संयमादौ प्रवृत्तिं कारयति, सङ्घाटकसाधुर्भिक्षा-विचारभूम्यादौ गच्छतां साहाय्यं विधत्ते, अत एतेषां पूजां विधेहीति । अथ नास्त्येतावती शक्तिस्ततो यथाक्रमं हान्या 40 प्रथममाचार्योपाध्याय-प्रवर्तिनाम् , तदभावे आचार्योपाध्याययोः, तथाप्यशक्तौ केवलस्यैवाचा र्यस्य पूजां करोति । एवमप्यशक्तौ स्वयमात्मनो योग्यान् त्रीन् प्रत्यवतारान् , तदभावे द्वौ, द्वयोरभावे एकमपि प्रत्यवतारमादाय प्रव्रजति । अथ नास्ति तस्यैकोऽपि प्रत्यवतारस्ततः सर्वमपि पात्रनिर्योगादिकं तस्य गुरवः प्रयच्छन्ति ॥ ४१९९ ॥ अथास्य विद्यमानविसवस्योद्गमकोटिदोषैर्विशोधिकोटिदोषैर्वा अविशुद्धानि वस्त्राणि प्रयच्छतो 28 ग्रहीतुं कल्पन्ते न वा ? इति चिन्तां चिकीर्षुराह __ अप्पणों कीतकडं वा, आहाकम्मं व घेत्तु आगमणं । संजोए चेव तधा, अणिदिवे मग्गणा होति ॥ ४२०० ॥ स गृहस्थशैक्ष आत्मनो योग्यं वस्त्र-पात्रादि क्रीतकृतं वा आधाकर्म वा गृहीत्वा गुरूणामन्तिके दीक्षाग्रहणायागमनं कुर्यात् । अत्र क्रीतकृतग्रहणेन विशोधिकोटिदोषा गृहीताः, 30 आधाकर्मग्रहणेन चाविशोधिकोटिदोषा गृहीताः । अमीषां च दोषाणामनिर्दिष्टे उपलक्षणत्वाद् निर्दिष्टे च ये संयोगाः-भङ्गकास्तेषां मार्गणा कर्तव्या भवतीति द्वारगाथासमासार्थः ॥४२००॥ साम्प्रतमेनामेव विवृणोति१नास्ते ताव का• मो. ले. विना ॥ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४१९८-४२०४) तृतीय उद्देशः । ११४१ कीयम्मि अणिदिवे, तेणोग्गहियम्मि सेसगा कप्पे । निट्ठिम्मि ण कप्पति, अहब विसेसो इमो तत्थ ॥ ४२०१॥ क्रीतकृतं द्विधा--निर्दिष्टम् अनिर्दिष्टं च । निर्दिष्टं नाम-वस्त्र-पात्रादिकं क्रीणान इत्थं निर्देश करोति--अमूनि मम भविष्यन्ति अमूनि साधूनां दास्यामि । तद्विपरीतमनिर्दिष्टम् । एवमन्येध्वपि दोषेषु भावना कर्तव्या । तत्र यानि वस्त्राणि तेनानिर्दिष्टानि कीतानि तेषां मध्ये यत् । तस्याभिरुचितं तत्र वनजाते तेनावगृहीते सति शेषाणि साधूनां कल्पन्ते । 'निर्दिष्टे तु' साधूनामर्थाय यत् क्रीतं तत् किमपि न कल्पते । अथवा 'तत्र' निर्दिष्टेऽयं विशेषोऽभिधीयते॥४२०१॥ मज्झंतिगाणि गिण्हह, अहगं तुज्झचए परिग्घिच्छं। सेहे दिति व वत्थं, तदभावे वा विगिचंति ॥ ४२०२॥ 'मदीयानि' मया आत्मार्थ क्रीतानि वस्त्राणि यूयं गृह्णीथ, अहं तु 'युष्मदीयानि' युष्मदर्थं 10 मयैव क्रीतानि वस्त्राणि परिग्रहीष्ये । एवं तेनोक्ते तान्यात्मार्थकीतानि कल्पन्ते । अथवा स ब्रूयात्-मया तावद् युष्मदर्थमेतानि कीतानि, इत ऊर्ध्वं यद् जानीथ तत् कुरुथ । ततः तद् निर्दिष्टं 'वस्त्रं' वस्त्रप्रत्यवतारं 'शैक्षे' शैक्षस्यानुपस्थापितस्य प्रयच्छन्ति । अथ नास्ति शैक्षः, अस्ति वा परं 'किमहं साधुन भवामि यदेवमेतानि मम दीयन्ते?' इति कृत्वा नेच्छति ततस्तानि “विगिचंति" परिष्ठापयन्ति ॥ ४२०२ ॥ एवं परिष्ठाप्यमानेषु स शैक्षो ब्रूयात्-- 15 एतं पि मा उज्झह देह मज्झं, मैज्झच्चगा गेण्हह एक दो वा।। अत्तट्ठिए होति कदायि सव्वे, सव्वे वि कप्पंति विसोधि ऐसा ॥ ४२०३ ॥ ___ 'एनमपि' वस्त्रप्रत्यवतारमकल्पनीयतया मा यूयमुज्झत किन्तु मह्यं प्रयच्छत, मदीयप्रत्यवतारात् चैकं द्वौ वा यूयं गृह्णीत । अथ तेन बहवः प्रत्यवताराः क्रीतास्ततः को विधिः ? इत्याह-यान् प्रत्यवतारान् एकं वा द्वौ वा त्रीन् वा स दाता आत्मार्थयति सर्वान् वा कदा-20 चिदात्मार्थ करोति तदा सर्वेऽपि कल्पन्ते । एष विशोधिकोटिविषयो विधिरुक्तः ॥ ४२०३॥ अथाविशोधिकोटिविषयं तमेवाह उग्गमकोडीए वि हु, संछोभों तहेव होतऽनिदिने । इयरम्मि वि संछोभो, जइ सो सेहो सयं भणइ ॥ ४२०४॥ उद्गमकोटिर्नाम-आधाकर्मादयो अविशोधिकोटयो दोषाः तेष्वपि यद् ‘अनिर्दिष्टम्' 'इदं 25 साधूनां दास्यामि इदं मम भविष्यति' इति निर्देशमन्तरेण वस्त्रादि कृतं तत् कल्पते । "संछोभ तहेव होअनिद्दिट्टि" ति अनिर्दिष्टेऽपि यद्यसौ दाता ब्रूयात्-यैर्वस्त्रैयूयं निमत्रिता यदि तानि नेच्छथ तत इमानि मत्परिगृहीतानि गृहीत, यानि युष्माभिः प्रतिषिद्धानि तानि मम भविष्यन्ति । एवमसौ “संछोभं' प्रक्षेपकं कृत्वा यदि ददाति तर्हि सर्वाण्यपि कल्पन्ते । "इतरम्मि वि संछोभो" त्ति इतरद् नाम निर्दिष्टं तत्रापि संछो भो यदि स्यात् ततः कल्पते । 30 संछोभः पुनरयम्— यद्यसौ गृहस्थशैक्षः 'स्वयम्' अन्येनानुपदिष्ट आत्मनैवेत्थं भणति ॥४२०१॥ १मज्झञ्चगाणि तामा० ॥ २ तुझंवर ताभा०॥३ मचगा ताभा०॥४ होज कताभा०॥ ५एस भा० ताटी० ॥ ६°व से अणिद्दि ताभा०॥ ७°लोभमन्तरेण न कल्पते भा० ॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४२ सनियुक्ति-लधुभाष्य वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [त्रिकृमप्रकृते सूत्रम् १३ उकोसगा व दुक्खं, वुवजिया केसितोऽहं मि विधेव । इति संछोमं तहियं, वदंति निद्दिट्टगेसु पि ॥ ४२०५॥ यानि वस्त्राणि मया युष्मदर्थ कारितानि तानि 'उत्कृष्टानि' बहुमूल्यानि ततः कथं परित्यज्यन्ते, 'दुःखं वा' महता प्रयासेन वा(व्या)यितानि अतः 'क्लेशितः' क्लेशं प्रापितोऽहं 6 वृथैवामीभिः, युष्माकमनुपकरणात् ; अतो मदीयानि यूयं गृहीथ युष्मदीयानि च मम भवन्तु, 'इति' एवं तत्र 'निर्दिष्टेष्वपि' संयतनिमित्तं निर्दिश्य कृतेष्वपि संछोभं कल्पनीयताकारणं वदन्ति तीर्थकरादयः, संयतनिर्दिष्टान्यपि कल्पन्त इति भावः ॥ ४२०५ ॥ अत्र मतान्तरमुपन्यस्य दूषयन्नाह जा संजयणिहिट्ठा, संछोभम्मि विन कप्पते केयी । 10 तं तु ण जुजइ जम्हा, दिजति सेहस्स अविसुद्धं ॥ ४२०६ ॥ या अविशोधिकोटिः 'संयतनिर्दिष्टा' साधून् निर्दिश्य कृता सा संछोभे कृतेऽपि न कल्पते; एवं केचिदाचार्या ब्रुवते तत् तु न युज्यते । यस्मात् 'शैक्षस्य' अनुपस्थापितस्य 'अविशुद्धम्' अनेषणीयं वस्त्र-पात्रादि दीयते इति अत्रैव चतुर्थोद्देशके वक्ष्यति । तत्र शैक्ष योग्यमविशुद्धं साधुभिः परिगृहीतं भवति, अतो ज्ञायते-अविशोधिकोटिदोषदुष्टमपि वस्त्रा10 दिकं संछोभे कृते कल्पते ॥ ४२०६॥ किश्चान्यत् जह अत्तट्ठा कम्मं, परिभुत्तं कप्पते उ इतरेसिं । इय तेण परिग्गहियं, कप्पड इयरं पि इयरेसिं ॥ ४२०७॥ यथा गृहस्थेनात्मनोऽर्थाय आधाकर्म कृतं तद् इतरेषां' संयतानां परिभोक्तुं कल्पते, 'इति' अमुनैव ज्ञापकेन अस्माकमपि स शैक्षो गृहस्थ एवेति कृत्वा 'तेन परिगृहीतं' ममेदमिति 20 बुद्ध्या स्वीकृतम् 'इतरदपि' संयतनिर्दिष्टमपि कल्पते 'इतरेषां' साधूनाम् ।। ४२०७ ।। ये पुनराचार्या अविशोधिकोटिनिर्दिष्टं संछोभेऽपि कृते नेच्छन्ति ते इदं कारणमुपवर्णयन्ति सहसाणुवादिणातेण केइ णिदिट्ठके ण इच्छंति । अणिदिवे पुण छोभ, वदंति परिफग्गुमेतं पि ॥ ४२०८ ॥ यथा सहस्रानुपाति विषं भक्ष्यमाणं सहस्रान्तरितमपि पुरुषं मारयति, एवमाधाकर्माऽप्युप25 भुज्यमानं सहस्रान्तरितमपि साधु संयमजीविताद् व्यपरोपयतीति सहस्रानुपातिविषज्ञातेन केचिदाचार्याः साधुनिमित्तं निर्दिष्टे संछोभेऽपि कृते नेच्छन्ति, अनिर्दिष्टे पुनः छोभं कृत्वा ददानस्य कल्पनीयं वदन्ति एतदपि 'परिफल्गु' निस्सारं मन्तव्यम् ॥ ४२०८ ॥ कथम् ? इत्याह__ एवं पि सघरमीसेण सरिसगं तेण फग्गुमिच्छामो । दुविधं पि ततो गहियं, कप्पति रतणुच्चओ णातं ॥ ४२०९॥ ___ यत् ते आचार्यदेशीया अनिर्दिष्टं संछोभे कृते कल्पनीयं ब्रुवते एतदपि खगृहयतिमिश्रेण सदृशम् , तेन कारणेन परिफल्गु वयमिच्छामः । त्वदीयाभिप्रायेण येतदपि खगृहयतिमिश्रमिति १°छोमे गहियं, पयंति णिहिट तेसि पि तामा० ॥ २°शम् , अतः परि भा० ॥ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४२०५-१३) तृतीय उद्देशः । ११४३ कृत्वा अकल्पनीयं प्राप्नोति, तच्चानिष्टम् ; ततः 'द्विविधमपि' निर्दिष्टा-ऽनिर्दिष्टभेदाद द्विप्रकारमपि तेन शैक्षेण संछोभकरणेच 'अवगृहीतम्' आत्मीकृतं सत् कल्पते । तथा चात्र 'रलोचयः' मेरुमहीधरः 'ज्ञात' दृष्टान्तः । यथा हि तत्र प्रक्षिप्तं तृणादिकमपि सुवर्णीभवति, एवं शैक्षगृहस्थेन परिगृहीतं सर्वमपि कल्पनीयं भवति ॥ ४२०९ ॥ अपि च जह उ कडं चरिमाणं, पडिसिद्धं तं हि मज्झिमोग्गहियं । पडिवण्णपंचजामे, कप्पति तेसिं तहऽण्णेसिं ॥ ४२१०॥ यथा 'चरमाणां' चरमतीर्थकृत्तीर्थवर्तिनां पञ्चयामिकानां साधूनामर्थाय किमपि वस्त्रं वा पात्रं वा कृतं तच्च तैः 'प्रतिषिद्धं न गृहीतम् , 'मध्यमैश्च' श्रीपार्श्वनाथतीर्थवर्तिसाधुभिश्चतु र्यामिकैस्तत् प्रतिगृहीतम् । ते च चतुर्यामिकाः पञ्चयामधर्म प्रतिपन्नाः ततस्तद्वस्त्रादिकं तेषामन्येषामपि पञ्चयामिकानां परिभोक्तुं यथा कल्पते, एवमत्रापि साधूनामर्थाय कृतं तैः प्रतिषिद्धं 10 शैक्षगृहस्थेनात्मार्थीकृतं सद् दीयमानं कल्पते ॥ ४२१०॥ अथ संयोगद्वारं व्याख्याति-- उग्गम-विसोधिकोडी, दुगादिसंजोगओ बहू एत्थं । - पत्तेग-मीसिगासु य, णिहिट्ट तथा अणिहिट्ठा ॥ ४२११ ॥ इह उद्गमकोटिभेदाः-आधाकर्म-मिश्रजातादयस्तेषां 'द्विकादिसंयोगतः' द्विकत्रिकचतुष्कादिसंयोगमिष्पन्ना बहवोऽत्र भङ्गका भवन्ति, ते च सुगमतया स्वयमभ्युह्य मन्तव्याः; एवं 15 विशोधिकोटिभेदानामपि-क्रीतकृतादीनां द्विकादिसंयोगनिष्पन्नास्तथैव बहवो भङ्गकाः; एते च प्रत्येकभङ्गका ‘उच्यन्ते । एतेषामेवोद्गमकोटिभेदानां विशोधिकोटिभेदानां च परस्परं द्विकादिसंयोगनिष्पन्ना एवमेव बहवो. भङ्गका भवन्ति, ते च मिश्रभङ्गका भण्यन्ते । सर्वेऽप्येते द्विधा-निर्दिष्टा अनिर्दिष्टाश्च । एतासु प्रत्येक-मिश्रासु भङ्गपतिषु कल्प्या-ऽकल्प्यविभागः प्रागुक्तप्रकारेणावसातव्यः ॥ ४२११ ॥ अथ वक्ष्यमाणार्थसम्बन्धनाय प्रस्तावनां करोति-20 वत्था व पत्ता व घरे वि हुजा, दट्टे पि कुन्जा णिउणो सयं पि । णिजुत्तभंडं व रयोहरादी, कोई किणे कुत्तियआवणातो ॥ ४२१२ ॥ वस्त्राणि वा पात्राणि वा प्रायो गृहेऽपि भवेयुः । यत् तु 'नियुक्तभाण्डं' पात्रनियोंगोपकरणं वाशब्दस्य व्यवहितसम्बन्धतया रजोहरणादिकं वा यदन्यत्र दुर्लभमुपकरणं तत् कश्चिद् 'निपुणः' बुद्धिमान् साधूनां समीपे दृष्ट्वा तदनुसारेण खयमपि कुर्यात्, कश्चित् तु तदेव 25 कुत्रिकापणात् क्रीणीयात् ॥ ४२१२॥ अनेन सम्बन्धेन कुत्रिकापणवक्तव्यतामभिधित्सुराह ___ कुत्तीयपरूवणया, उक्कोस-जहन्न-मज्झिमट्ठाणा । कुत्तिय भंडक्किणणा, उक्कोसं हुंति सत्तेव ॥ ४२१३ ॥ प्रथमतः कुत्रिकापणस्य प्ररूपणा कर्तव्या । तत उत्कृष्ट-जघन्य-मध्यमानि मूल्यस्थानानि वक्तव्यानि । एतावता मूल्येन कुत्रिकापणे भाण्डस्य-उपकरणस्य क्रयणं भवतीति निरूपणी-30 यम् । “उक्कोसं" ति उत्कर्षतः सकलस्यापि श्रमणसङ्घस्य योग्या वस्त्र-पात्रप्रत्यवतारा ग्रहीतव्याः । “होंति सत्तेव" ति सप्त नियोगास्तेन ग्रहीतव्या भवन्ति, जघन्यत इति वाक्यशेषः । १°मिकसाधू मो.॥ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [त्रिकृत्सप्रकृते सूत्रम् १३ एष चूर्ण्यभिप्रायः । विशेषचूर्ण्यभिप्रायेण तु जघन्यत एक आत्मनो योग्यो नियोगो ग्रहीतव्यः । उत्कर्षतस्तु सप्त नियोगाः. तेषां च त्रय आत्मनो योग्याः चत्वार आचार्यप्रभृतीनां पूजनीयानां पूजायोग्याः । एष द्वारगाथासमासार्थः ॥ ४२१३ ॥ अथैनामेव विवृणोति कुत्ति पुढवीय सण्णा, जं विजति तत्थ चेदणमचेयं । गहणुवभोगे य खमं, न तं तहिं आवणे णस्थि ॥ ४२१४ ॥ __ 'कुः' इति पृथिव्याः संज्ञा, तस्याः त्रिकं कुत्रिकं-वर्ग-मर्त्य-पाताललक्षणं तस्यापणः-हट्टः कुत्रिकापणः । किमुक्तं भवति ? इत्याह-'तत्र' पृथिवीत्रये यत् किमपि चेतनमचेतनं वा द्रव्यं सर्वस्यापि लोकस्य ग्रहणोपभोगक्षम विद्यते तत् 'तत्र' आपणे न नास्ति, "द्वौ नौ प्रकृत्यर्थ गमयतः" इति वचनाद् अस्त्येवेति भावः ॥ ४२१४ ॥ 10 अथोत्कृष्ट-मध्यम-जघन्यमूल्यस्थानानि प्रतिपादयति पणतो पागतियाणं, साहस्सो होति इब्भमादीणं । . उक्कोस सतसहस्सं, उत्तमपुरिसाण उवधी उ ॥ ४२१५ ॥ प्राकृतपुरुषाणां प्रव्रजतामुपधिः कुत्रिकापणसत्कः 'पञ्चकः' पञ्चरूपकमूल्यो भवति । 'इभ्यादीनां' इभ्य-श्रेष्ठि-सार्थवाहादीनां मध्यमपुरुषाणां 'साहस्रः' सहस्रमूल्य उपधिः । 'उत्तमपुरुisषाणां' चक्रवर्ति-माण्डलिकप्रभृतीनामुपधिः शतसहस्रमूल्यो भवति । एतच्च मूल्यमानं जघन्यतो मन्तव्यम् , उत्कर्षतः पुनस्त्रयाणामप्यनियतम् । अत्र च पञ्चकं जघन्यम् , सहस्रं मध्यमम् , शतसहस्रमुत्कृष्टम् ॥ ४२१५॥ कथं पुनरेकस्यापि रजोहरणादिवस्तुन इत्थं विचित्रं मूल्यं भवति ? इत्युच्यते विकिंतगं जधा पप्प होइ रयणस्स तन्विहं मुल्लं । 20 कायगमासज्ज तहा, कुत्तियमुल्लस्स णिकं ति ॥ ४२१६ ॥ यथा 'रत्नस्य' मरकत-पद्मरागादेविक्रेतारं 'प्राप्य' प्रतीत्य तद्विधं मूल्यं भवति, यादृशो मुग्धः प्रबुद्धो वा विक्रेता तादृशमेव खल्पं बहु वा मूल्यं भवतीति भावः; एवं 'क्रायक' ग्राहकमासाद्य कुत्रिकापणे भाण्डमूल्यस्य 'निष्कं' परिमाणं भवति, न प्रतिनियतं.किमपीति भावः । इतिशब्दः स्वरूपोपदर्शने ॥ ४२१६ ॥ एवं ता तिविह जणे, मोल्लं इच्छाएँ दिज बहुयं पि । सिद्धमिदं लोगम्मि वि, समणस्स वि पंचगं भंडं ॥ ४२१७ ॥ एवं तावत् 'त्रिविधे' प्राकृत-मध्यमोत्तमभेदभिन्ने जने 'मूल्यं' पञ्चकादिरूपकपरिमाणं जघन्यतो मन्तव्यम् । इच्छया तु 'बह्वपि' यथोक्तपरिमाणादधिकमपि प्राकृतादयो दद्युः, न कोऽप्यत्र प्रतिनियमः । न चैतदत्रैवोच्यते, किन्तु लोकेऽपि 'सिद्धं' प्रतीतमिदम् , यथा30 श्रमणस्यापि 'पञ्चकं' पञ्चरूपकमूल्यं भाण्डं भवति । इह च रूपको यस्मिन् देशे यद् नाणकं व्यवह्रियते तेन प्रमाणेन प्रतिपत्तव्यः ॥४२१७॥ अथ कुत्रिकापणः कथमुत्पद्यते । इत्याह पुश्वभविगा उ देवा, मणुयाण करिंति पाडिहेराई।। १ कु.सि य पुढवीसण्णा तामा० ॥२ णिको त्ति तामा० ॥ 25 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४२१४-२२] तृतीय उद्देशः । ११४५ लोगच्छेरयभूया, जह चक्कीणं महाणिहयो । ४२१८ ॥ 'पूर्वभविकाः' भवान्तरसङ्गतिका देवाः पुण्यवतां मनुजानां 'प्रातिहार्याणि' यथाभिलषिताथोपढौकनलक्षणानि कुर्वन्ति । यथा लोकाश्चर्यभूताः ‘महानिधयः' नैसर्पप्रभृतयः 'चक्रिणां' भरतादीनां प्रातिहार्याणि कुर्वन्ति । वर्तमाननिर्देशस्तत्कालमङ्गीकृत्याविरुद्धः । एवं कुत्रिकापणा उत्पद्यन्ते ॥ ४२१८ ॥ ते चैतेषु स्थानेषु पुरा बभूवुः इति दर्शयति उजेणी रायगिहं, तोसलिनगरे इसी य इसिवालो। दिक्खा य सालिभद्दे, उवकरणं सयसहस्सेहिं ॥ ४२१९ ॥ उज्जयिनी राजगृहं च नगरं कुत्रिकापणयुक्तमासीत् । तोसलिनगरवास्तव्येन च वणिजा ऋषिपालो नाम वानमन्तर उज्जयिनीकुत्रिकापणात् क्रीत्वा खबुद्धिमाहात्म्येन सम्यगाराधितः, ततस्तेन ऋषितडागं नाम सरः कृतम् । तथा राजगृहे श्रेणिके राज्यमनुशासति शालिभद्रस्य 10 सुप्रसिद्धचरितस्य दीक्षायां शतसहस्राभ्याम् 'उपकरणं' रजोहरण-प्रतिग्रहलक्षणमानीतम् , अतो ज्ञायते यथा राजगृहे कुत्रिकापण आसीदिति पुरातनगाथासमासार्थः ॥ ४२१९ ॥ साम्प्रतमेनामेव विवृणोति पजोए णरसीहे, णव उजेणीय कुत्तिया आसी। भरुयच्छवणियऽसद्दह, भूयऽट्ठम सयसहस्सेणं ॥ ४२२०॥ 15 कम्मम्मि अदिजंते, रुट्ठो मारेइ सो य तं घेत्तुं । भरुयच्छाऽऽगम, वावारदाण खिप्पं च सो कुणति ॥ ४२२१॥ भीएण खंभकरणं, एत्थुस्सर जा ण देमि वावारं । णिजित भूततलागं, आसेण ण पेहसी जाव ॥ ४२२२ ॥ चण्डप्रद्योतनाम्नि नरसिंहे अवन्तिजनपदाधिपत्यमनुभवति नव कुत्रिकापणा उज्जयिन्या-20 मासीरन् । तदा किल भरुयच्छाओ एगो वाणियओ असदहंतो उजेणीए आगंतूण कुचियावणाओ भूयं मग्गइ । तेण कुत्तियावणवाणिएण चिंतियं--'एस ताव मं पवंचेइ ता एयं मोल्लेण वारेमि' त्ति भणियं-जइ सयसहस्से देसि तो देमि भूयं । तेण तं पि पडिवन्नं ताहे तेण भन्नइपंचरत्तं उदिक्खाहि तओ दाहामि । तेण अट्ठमं काऊण देवो पुच्छिओ । सो भणइ-देहि, 25 इमं च भणिहिज-जइ कम्मं न देसि तो भूओ तुम उच्छाएहिइ । 'एवं भवउ' ति भणिता गहिओ तेण भूओ भणइ-कम्मं मे देहि । दिन्नं, तं खिप्पमेव कयं । पुणो मग्गइ, अन्नं दिन्नं । एवं सव्वम्मि कम्मे निट्ठिए पुणो भणइ-देहि कम्मं । तेण भन्नइ-एत्थं खंभे चडुत्तरं करेहि जाव अन्नं किंचि कम्मं न देमि । भूओ भणइ-अलाहि, पराजितो मि, चिंधं ते करेमि-जाव नावलोएसि तत्थ तलागं भविस्सइ । तेण अस्से विलग्गिऊण बारस जोयणाई 30 गंतृण पलोइयं जाव तक्खणमेव कयं तेण भरुयच्छस्स उत्तरे पासे भूयतलागं नाम तलागं । __ अमुमेवार्थमभिधित्सुराह-"भरुयच्छ” इत्यादि । भरुकच्छवणिजा अश्रद्दधता 'भूतः' १°हस्सेणं ताभा० ॥ २ तो एणं मो' भा० ॥ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्ति के बृहत्कल्पसूत्रे [ त्रिकृमप्रकृते सूत्रम् १३ पिशाचविशेषः कुत्रिकापणे मार्गितः । ततोऽष्टमं कृत्वा शतसहस्रेण भूतः प्रदत्तः, इदं च भणितम्-कर्मण्यदीयमाने अयं 'रुष्टः' कुपितो मारयतीति । स च भूतं गृहीत्वा भरुकच्छे आगमनं कृत्वा व्यापारदानं तस्य कृतवान् । स भूतस्तं व्यापार क्षिप्रमेव करोति । ततः सर्वकर्मपरिसमाप्तौ वणिजा भीतेन भूतस्य पार्थात् स्तम्भ एकः कारयाञ्चके । ततस्तं भूतमभिहितवान्5 यावदपरं व्यापार न ददामि तावद् 'अत्र' स्तम्भे 'उत्सर' आरोहा-ऽवरोहक्रियां कुरु इति भावः । ततः स भूत उक्तवान्—निर्जितोऽहं भवता, अत आत्मनः पराजयचिह्नं करोमि । अश्वेन गच्छन् यावद् 'न प्रेक्षसे' न पश्चादवलोकसे तत्र प्रदेशे तडागं करिष्यामि इति भणित्वा तथैव कृते भूततडागं कृतवान् ॥ ४२२० ॥ ४२२१ ॥ ४२२२ ॥ एमेव तोसलीए, इसिवाली वाणमंतरो तत्थ । 10 णिजित इसीतलागे, रायगिहे सालिभद्दस्स ॥ ४२२३ ॥ 'एवमेव' तोसलिनगरवास्तव्येन वणिजा उज्जयिनीमागम्य कुत्रिकापणाद् ऋषिपालो नाम वानमन्तरः क्रीतः । तेनापि तथैव निर्जितेन ऋषितडागं नाम सरश्चक्रे । तथा राजगृहे शालिभद्रस्य रजोहरणं प्रतिग्रहश्च कुत्रिकापणात् प्रत्येकं शतसहस्रेण क्रीतः ॥ ४२२३ ॥ अथ सप्त निर्योगान् व्याचष्टे15 तिण्णि य अत्तवेती, चत्तारि य पूयणारिहे देति । दितस्स य चित्तव्यो, सेहस्स विचिंचणं का वि ॥ ४२२४ ॥ ___ स सप्त नियोगान् गृहीत्वा प्रव्रजतोऽयं गुणः-- तेषां सप्तानां निर्योगाणां मध्यात् त्रीन् स शैक्षः 'आत्मार्थयति' आत्मनोऽर्थाय गृह्णातीत्यर्थः; चतुरश्च निर्योगान् 'पूजनार्हाणाम्' आचार्योपाध्याय-प्रवर्ति-सङ्घाटकसाधूनां प्रयच्छति । तस्य चैवं प्रयच्छतो यद्यसौ निर्योगः शुद्धः 20 ततो ग्रहीतव्यः । अथाशुद्धस्ततः शैक्षस्य दातव्यः । शैक्षस्याभावे 'विवेचनं' परिष्ठापनं तस्य क्रियते ॥४२२४॥ एवं तस्य त्रीन् निर्योगान् गृहीत्वा प्रवजितस्य यद् भवति तद् दर्शयति सज्झाए पलिमंथो, पडिलेहणियाएँ सो हवइ सिग्गो।। एगं च देति तहितं, दोण्णि य से अप्पणो हुंति ॥ ४२२५॥ ___ तस्य त्रीन् निर्योगान् उभयकालं प्रत्युपेक्षमाणस्य महान् स्वाध्यायविषयः परिमन्थो भवति । 25 तया च महत्या प्रत्युपेक्षणया सः 'सिग्गः' परिश्रान्तो भवति । तत एवं निर्विण्णः सन् स एकं निर्योग सूरीणां ददाति । प्रदत्ते च तस्मिन् तस्य द्वौ निर्योगावात्मनः सत्तायां भवतः ॥४२२५।। एवमप्यसौ द्वाभ्यां निर्योगाभ्यां शेषसाधुभ्यो अन्यादृश इव दृश्यते ततः निग्गमणे बहुभंडो, कत्तो कतरो व वाणिओ एइ। बितियं पि देति तहियं, मा भंते ! दुल्लहं होजा ॥ ४२२६ ॥ 30 मासकल्पे पूर्णे ततः क्षेत्राद् निर्गच्छतां स एवैकः 'बहुभाण्डः' बहूपकरणो दृश्यते ततो लोकस्तमुद्दिश्य ब्रवीति-अहो! कुतः कतरो वा अयं वाणिज एवमुपस्करसम्भारभारितः समुपैति । एवमुपहासमाकर्ण्य स द्वितीयमपि निर्योगं गुरूणां ददाति । तत्र च गुरुभिर्वक्त१ एतदन्तर्गतः पाठः भा० नास्ति ॥ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 15 भाष्यगाथाः ४२२३-३१] तृतीय उद्देशः । ११४७ व्यम् -'हे भदन्त !' आर्य ! मा 'ते' तव भूयो दुर्लभमुपकरणं भवेद् अत आत्मपार्श्वे एव तावद् धारय ॥ ४२२६ ॥ स प्राह भारेण खंधं च कडी य बाहा, पीलिजए णिस्ससए य उच्चं । तेणा य उवधीणमभिद्दवेजा, ण इत्तिया इंति ममोवभोगं ॥ ४२२७ ॥ मम मार्ग गच्छतो द्वयोः प्रत्यवतारयोर्महान् भारो भवति, तेन स्कन्धः कटी बाहा च । गाढतरं पीड्यते, ततश्च 'उच्चम्' ऊद्धं निःश्वसीम्यहम् , निःश्वासेनाकुलो भवामीत्यर्थः । स्तेनाश्च मामुपकरणमालितं दृष्ट्वा उपधिकारणादभिवेयुः । एतावन्ति च वस्त्र-पात्राणि ममोपभोगं नायान्ति ॥ ४२२७ ॥ यच्च भगवद्भिरुक्तम्-'मा भूयो दुर्लभं भवेत्' तत्रोच्यते जं होहिति बहुगाणं, इमम्मि धम्मचरणं पवण्णाणं । तं होहिति अम्हं पी, तुम्हेहि समं पवण्णाणं ॥ ४२२८ ॥ यद् युप्माकं बहूनाम् 'अस्मिन्' भागवते शासने धर्मचरणं प्रपन्नानामुपकरणं भविष्यति तदस्माकमपि युष्माभिः समं हिण्डमानानां चारित्रं प्रपन्नानां भविष्यति ॥ ४२२८ ॥ एष तत्प्रथमतया प्रव्रजतो विधिरुक्तः । अथ पूर्वोपस्थितविषयं तमेवाह-~ सिद्धी वीरणसढए, अब्भुट्ठाणं पुणो अजाणते । कत कारितं च कीतं, जाणते अधापरिग्गहिते ॥ ४२२९ ॥ यश्चारित्रं परित्यज्य गृहवासमुपगतस्तस्य कथं पुनरपि प्रव्रज्यायामभ्युत्थानसिद्धिः सञ्जाता।। अत्र वीरणसढकदृष्टान्तो वक्तव्यः, एवं तस्य पुनरभ्युत्थानं भवति । स च द्विधा-जानानो अजानानश्च । यः कल्पा-ऽकल्पविभागं जानाति स जानानः, तद्विपरीतो अजानानः, अगीतार्थ इत्यर्थः । अजानति भूयः प्रत्रज्यायामभ्युत्तिष्ठमाने कृतं वा कारितं वा क्रीतं वा दीयमानं पूर्वोक्तविधिना कल्पते । यस्तु जानानस्तस्य 'यथापरिगृहीतानि' शुद्धान्येव ग्रहीतुं कल्पन्ते, न 20 कृत कारितादीनि ॥ ४२२९ ॥ अथ वीरणसढकदृष्टान्तमाह जह सो वीरणसढओ, णइतीररुहो जलस्स वेगेणं । थोवं थोवं खणता, छूढो सोयं ततो बूढो ॥ ४२३० ॥ यथा 'सः' कश्चिद् विवक्षितः 'वीरणसढका' वीरणानां-तृणविशेषाणां स्तम्बो नद्यास्तीरे रोहति स्म-जायते सेति नदीतीररुहः, नद्याः प्रत्यासन्नतया जलस्य वेगेन स्तोकं स्तोकेन खनता 25 भूमिकानिहितमूलजालोऽप्यचिरादेव स्रोतसि प्रक्षिप्तः । ततश्च स्रोतसा 'व्यूढः' वाहयित्वा समुद्रं प्रापित इति भावः ॥ ४२३० ॥ एष दृष्टान्तः । अयमर्थोपनयः-- ठिय-गमिय-दिट्ठ-ऽदिद्वेहि साधुहिं अहरिहं समणुसट्ठो। उण्हेहुण्हतरेहि य, चालिजति बद्धमूलो वि ॥ ४२३१ ॥ कश्चित् पश्चात्कृतः सिद्धपुत्रकादिविशेषेण, साधूनामागमनमार्गभूते कचिद् ग्रामे गृहवास-30 मध्यास्य तिष्ठन् ये तत्र मासकल्पं वर्षाकल्पं वा स्थिताः साधवः, ये च “गमि" ति तत्र १ जइ हो° मो० ले० ॥ २ पि हु, तु तामा० ॥ ३ यदि यु' त• डे० मो० ले० ॥ ४ स्तो ख. भा. कां ॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [त्रिकृत्सप्रकृते सूत्रम् १४ गच्छन्त आगच्छन्तो वा द्वित्राणि दिनानि तिष्ठन्ति, तैप्टरष्टैश्च साधुभिः 'यथार्ह' यथायोग्य ‘समनुशिष्टः सन्' उणरुणतरश्च वचनरुदकवेगस्थानीयैरनेकशः प्रेर्यमाणः कलत्रादिपरिग्रहप्रविस्तारेण बद्धमूलोऽपि चाल्यते, गृहवासं त्याजयित्वा संयमरूपे स्रोतसि प्रक्षिप्य गच्छरलाकरं प्राप्यत इति भावः ॥ ४२३१ ॥ अथ जानाना-ऽजानानविषयं विधिविभागमाह कप्पा-कप्पविसेसे, अणधीए जो उ संजमा चलिओ। पुव्वगमो तस्स भवे, जाणते जाइँ सुद्धाइं ॥ ४२३२ ।। वस्त्र-पात्रादिविषये कल्पा-कल्पविशेपे अनधीते सति यः संयमात् चलितस्तस्य पूर्वःप्राक्तनो गमः-प्रकारो भवति यथा शैक्षगृहस्थस्योक्तः । यस्तु कल्पा-ऽकल्पविधिं जानाति तस्य सर्वाणि शुद्धान्येव ग्रहीतुं कल्पन्ते, न क्रीतादिदोषदुष्टानि ॥ ४२३२ ॥ 10 सूत्रम् निग्गंथीए णं तप्पढमयाए संपव्वयमाणीए कप्पड़ रयहरण-गोच्छ-पडिग्गहमायाए चउहिँ कसिणहिं वत्थेहिं आयाए संपव्वइत्तए । सा य पुवोवटिया सिया एवं से नो कप्पइ रयहरण-गोच्छ-पडिग्गहमायाए चउहिं कसिणेहिं वत्थेहिं आयाए संपवइत्तए । कप्पइ से अहापरिग्गहिएहिं वत्थेहिं आयाए संपवइत्तए १४ ॥ अस्य व्याख्या प्राग्वत् । स नवरं निर्ग्रन्थ्याश्चतुर्भिः प्रत्यवतारैः सहितायाः प्रवजितुं कल्पते इति विशेषः ॥ अथ भाष्यम्20 एसेव गमो णियमा, निग्गंथीणं पि होइ नायव्यो । जाणंतीणं कप्पति, घेत्तुं जें अधापरिग्गहिते ॥ ४२३३ ॥ एष एव गमो निर्ग्रन्थीनामपि भवति ज्ञातव्यः । सा च पूर्वोपस्थिता स्यादिति अत्र सूत्रे तासां कल्पा-ऽकल्पविभागं जानतीनां यानि 'यथापरिगृहीतानि' शुद्धानि तानि कल्पन्ते ग्रहीतुम् । “जे" इति वाक्यालङ्कारे ॥ ४२३३ ॥ समणीणं णाणत्तं, णिज्जोगा तासि अप्पणो चउरो। चउरो पंच व सेसा, आयरिगादीण अट्ठाए ॥ ४२३४ ॥ निर्ग्रन्थेभ्यः सकाशात् श्रमणीनामिदं 'नानात्वं' विशेष उच्यते-'तासां' प्रव्रजन्तीनामात्मनो योग्याश्चत्वारो नियोंगा भवन्ति, शेषास्तु आचार्यादीनामर्थाय चत्वारो वा पञ्च वा । तत्र यदा चत्वारस्तदा एकमाचार्यस्य द्वितीयं प्रवर्तिन्याः तृतीयं गणावच्छेदिन्याः चतुर्थ सङ्घाटक १ °मायाए जाव संपव्वइत्तए । कप्पह भा० ॥ २॥ एतदन्तर्गतः पाठः भा० नास्ति । ३ नेयचो ताभा.॥४'तीण ण क° भा० ताभा०॥ 26 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४२३२-३६] तृतीय उद्देशः । ११४९ साव्याः प्रयच्छति । यदा तु पञ्च तदा चत्वारस्तथैवाचार्यादीनां पञ्चमः पुनरुंपाध्यायस्य योग्य इति चूर्ण्यभिप्राथः । वृहद्भाष्यकारः पुनराह--- चत्तारि अप्पणो से, चउरो पंचऽहव सेसगा हुंति । आयरिय उवज्झाए, पवत्तिणिऽभिसेय संघाडे । पंचेए निज्जोगा, अभिसेगा वज्ज हुति चत्तारि । ति । ॥४२३४ ॥ ॥ त्रिकृत्स्नप्रकृतं समाप्तम् ॥ 15 स म व स र ण प्रकृतम् सूत्रम् नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पढमसमोसरणुद्देसपत्ताई चेलाइं पडिग्गहित्तए।। V कैप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा दोच्चसमो. सरणुद्देसपत्ताई चेलाई पडिग्गहित्तए » १५ ॥ अथास्य सूत्रस्य कः सम्बन्धः ? इत्याह दिट्ट वत्थग्गहणं, न य वुत्तो तस्स गहणकालो उ । ओसरणम्मि अगेज्झं, तेण समोसरणसुत्तं तु ॥ ४२३५॥ पूर्वसूत्रे वस्त्रग्रहणं दृष्टम् , न च 'तस्य' वस्त्रस्य ग्रहणकाल उक्तः, कदा कल्पते कदा च न ? इति । अंतो वर्षाकालाख्ये प्रथमे 'ओसरणे' समवसरणे अग्राह्यं तद् वस्त्रम् , द्वितीये तु ऋतुबद्धाख्ये ग्राह्यमिति निरूपणाय इदं समवसरणसूत्रमारभ्यते ॥ ४२३५ ॥ अहवा वि सउवधीओ, सेहो दव्यं तु एयमक्खायं । तं काले खित्तम्मि य, गज्झं कहियं अगझं वा ॥ ४२३६ ॥ १० अथवा पूर्वसूत्रे सोपधिकशैक्षलक्षणं द्रव्यमेतदाख्यातम् । 'तद्' द्रव्यं कुत्र काले क्षेत्रे वा ग्राह्यम् ? कुत्र वा अग्राह्यम् ? इत्यधुना प्रतिपाद्यते ॥ ४२३६ ॥ अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या-4 “नो कप्पई" त्ति आर्षत्वादेकवचनम् । » नो कल्पन्ते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा प्रथमसमवसरणे-वर्षाकाले उद्देशः-क्षेत्र-कालविभागस्तं १N एतचिह्नान्तर्गतोऽयं सूत्रांशः भा० पुस्तके नात्र वर्तते, किन्तु अग्रे ४२९५-९६ गाथाऽनन्तर पृथक्सूत्रत्वेनोपक्षिप्तो वर्तते । टीकाऽप्यस्य सूत्रांशस्य भा. प्रतो नाऽत्र वर्तते किन्तु तत्रैव इति भा. प्रती सूत्रव्याख्यायां भाष्यगाथाव्याख्यायामपि च तत्र तत्र पाठभेदा दृश्यन्ते । दृश्यता पत्र ११४९ टिप्पणी २, पत्र ११५० टिप्पणी १-२ चूर्णिकृता विशेषचर्णिकृता च पुनः सहैव सूत्रांशद्वयमत्रोपन्यस्तमपि पुनरुपर्युक्त ४२९५-९६ गाथाऽनन्तरं द्वितीयसमवसरणसूत्रांश उपक्षिप्तो वरीयते । दृश्यतां पत्र ११६४ टिप्पणी १ ॥२ अथ किं वस्त्रस्य ग्रहणे कालः कोऽपि विद्यते ? इत्याह-'अवसरणे' वर्षा काले अग्राह्यं तद् वस्त्रम् , अत इदं भा० ॥ ३ » एतचिह्नान्तर्गतः पाठः भा० नास्ति ॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 ११५० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ समवसरणप्रकृते सूत्रम् १५ प्राप्तानि प्रथमसमवसरणोद्देशप्राप्तानि 'चेलानि' वस्त्राणि प्रतिग्रहीतुम् । किमुक्तं भवति ?इह साधवो यत्र वर्षावासं चिकीर्षवस्तत् क्षेत्रं यावद् नाद्यापि प्राप्नुवन्ति प्राप्ता वा परं नाद्याप्याषाढपूर्णिमा लगति तावत् कल्पन्ते वस्त्राणि प्रतिग्रहीतुम् । अथ वर्षावासप्रायोग्यं क्षेत्रं प्राप्ताः आषाढपूर्णिमा च सञ्जाता तत इयन्तं क्षेत्र कालविभागं प्राप्तानि वस्त्राणि न कल्पन्ते । 54 'द्वितीयसमोसरणोद्देशप्राप्तानि तु कल्पन्ते । » इति सूत्रसङ्केपार्थः ॥ साम्प्रतं विस्तरार्थमभिधित्सुः प्रेर्यमुत्थापयन्नाह - पढमम्मि समोसरणे, उद्देसकडं न कप्पती जस्स । तस्स उ किं कप्पंती, उग्गमदोसा उ अवसेसा ॥ ४२३७ ॥ इह परः प्रस्तुतसूत्रस्य सूरिपरम्परायातमनन्तरोक्तमर्थमनवबुध्यमानः प्रेरयति-ननु च 10 सूत्रे "उद्देसपत्ताई" ति यत् पदं तस्यायमर्थः-उद्देशनमुद्देशः-औद्देशिकाख्यो द्वितीय उद्गमदोषस्तं प्राप्तानि वस्त्राणि न कल्पन्ते, एतच्च न युज्यते, यतो यस्य साधोः प्रथमसमवसरणे उद्देशकृतं वस्त्रादि न कल्पते तस्य अवशेषाः आधाकर्मादयः पञ्चदशोद्गमदोषाः किं कल्पन्ते ? यदेवमुद्देशकृतमेव प्रतिषिध्यते ॥ ४२३७ ॥ पर एव सूरीणामभिप्रायमाशङ्कय परिहरति ___ उद्देसग्गहणेण व, उग्गमदोसा उ सव्वे जति गहिता। __उप्पादणादि सेसा, तम्हा कप्पंति किं दोसा ॥ ४२३८ ॥ अथ “एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणम्" इति न्यायाद् उद्देशग्रहणेन सर्वेऽप्युद्गमदोषा गृहीताः; एवं तर्हि उत्पादनादयः शेषा दोषाः किं कल्पन्ते ? येनोद्गमदोषा एव गृह्यन्ते ॥ ४२३८ ॥ पर एवाचार्यस्याशयमाशङ्कमान इदमाह___अहवा उद्दिस्स कता, एसणदोसा वि होति गहिता तु । आदीअंतग्गहणे, गहिया उप्पादणा वि तहिं ॥ ४२३९ ॥ अथवा यस्मादेषणादोषा अपि साधून 'उद्दिश्य' प्रणिधाय कृताः अत उद्देशग्रहणेन तेऽपि गृहीताः । एवं च आद्यस्य-उद्गमदोषकलापस्य अन्त्यस्य च-एषणादोषजालस्य ग्रहणे उत्पादनादोषा अपि गृहीता अत्र मन्तव्याः, "आद्यन्तग्रहणे मध्यस्यापि ग्रहणम्" इति न्यायात् । अतो द्वाचत्वारिंशदपि दोषा न कल्पन्ते इति सिद्धम् ॥ ४२३९ ॥ 25 एवमाचार्यस्याकूतमाशय दूषणान्तरमाह एए अ तस्स दोसा, उडुबद्धे जं च कप्पते चित्तुं । कोई भणिज दोसु वि, ण कप्पति सुतं तु सूएति ॥ ४२४० ॥ यद्येवं सामर्थ्याक्षिप्ता द्वाचत्वारिंशदपि दोषाः प्रथमसमवसरणे प्रतिषिद्धास्तहि ऋतुबद्धाख्ये द्वितीयसमवसरणे एते सर्वेऽपि दोषास्तस्य साधोः कल्पन्ते; यथा अत्रैव सूत्रेऽभिहितम्39 "कल्पन्ते द्वितीयसमवसरणे उद्देशप्राप्तानि चेलोनि प्रतिग्रहीतुम्" अतोऽपि ज्ञायते द्वितीयसम १> एतचिह्नान्तर्गतः पाठः भा० नास्ति ॥ २ यथाऽग्रेतनसूत्र एवाभिधास्यते-"कल्पन्ते द्वितीयसमवसरणे उद्देशमाप्तानि चेलानि प्रतिग्रहीतुम्" एवं कश्चित् परो ब्रूयात् तत्र सूरिराह इति भा० पाठः ॥ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४२३७-४४] तृतीय उद्देशः । ११५१ 10 वसरणे द्वाचत्वारिंशद्दोषदुष्टमपि कल्पते । एवं कश्चित् परो भणेत् तत्र सूरिराह-द्वयोरपि समवसरणयोर्न कल्पन्ते । भूयोऽपि परः प्राह—यद् यूयं द्वितीयेऽपि समवसरणे प्रतिषेधयथ तन्न युज्यते, यतः 'श्रुतं' सूत्रमेव "कल्पते" इति ब्रुवाणमनुज्ञां सूचयति ॥४२४०॥ अपि च एवं सुत्तविरोधो, दोच्चम्मि कप्पति त्ति जं भणितं ।। सुत्तणिवातो जम्मि त, तं सुण वोच्छं समासेणं ॥ ४२४१॥ 5 एवं भवतां सूत्रेण समं विरोधः प्राप्नोति, यतः सूत्रे “द्वितीये समवसरणे कल्पते" इति भणितम् । अथ गुरुराह–सर्वमप्येतदाकाशरोमन्थनमिव लक्ष्यते, सूत्राभिप्रायमनवबुध्यैव यथातथाप्रलपनात् । कः पुनः सूत्राभिप्रायः ? इति चेद् अत आह-यस्मिन्नर्थे सूत्रस्य निपातः-अवतारस्तं शृणु 'समासेन' सङ्केपेण वक्ष्येऽहम् ॥ ४२४१ ॥ सोसरणे उद्देसे, छबिधे पत्ताण दोण्ह पडिसेधो । अप्पत्ताण उ गहणं, उवधिस्सा सातिरेगस्स ॥ ४२४२ ॥ प्रथमसमवसरणं ज्येष्ठावग्रहो वर्षावास इति चैकार्थम् । द्वितीयसमवसरणम् ऋतुबद्ध इति चैकार्थम् । तत्र य उद्देशस्तद्विषयः षड्विधो निक्षेपः कर्तव्यः । “पत्ताण दुण्ह पडिसेहो" ति आर्षत्वाद् विभक्तिव्यत्यये 'द्वाभ्यां' क्षेत्र-कालाभ्यां प्राप्तानां वस्त्रादिग्रहणे प्रतिषेधो भवति, अप्राप्तानां तु सातिरेकस्योपधेर्ग्रहणं भवति इति' नियुक्तिगाथासमासार्थः ॥ ४२४२॥ 15 अथ विस्तरार्थ उच्यते-तत्रोद्देशः षोढा-नामोद्देशः स्थापनोद्देशः द्रव्योद्देशः क्षेत्रोद्देशः. कालोद्देशो भावोद्देशश्चेति । नामोद्देशो यस्योद्देश इति नाम क्रियते । स्थापनोद्देश उद्देशवतः पुरुषादेः स्थापना । द्रव्योद्देशं ज्ञ-भव्यशरीरव्यतिरिक्तं वयमेव भाष्यकृदाह दव्वेणं उद्देसो, उद्दिस्सति जो व जेण दव्वेणं ।। दव्वं वा उदिसते, दव्यभूओ तदट्ठी वा ॥ ४२४३ ॥ 'द्रव्येण' रजोहरणादिना यद् उद्देशः क्रियते स द्रव्योद्देशः । यो वा 'येन' सचित्तादिना द्रव्येणोद्दिश्यते, तत्र सचित्तेन यथा-गोभिर्गोमान् , तुरगैस्तुरगपतिः, गजैगजपतिरिति; अचित्तेन यथा-दण्डेन दण्डी, छत्रेण छत्री, कपालेन कपालीत्यादि; मिश्रेण यथाशकटेन शाकटिकः, रथेन रथिक इत्यादि । द्रव्यं वा व्याधिप्रशमनं यदुद्दिशति, अमुकमौषध. द्रव्यं भवता ग्रहीतव्यमिति । 'द्रव्यभूतो वा' ज्ञाता अनुपयुक्तो यद् अङ्ग-श्रुतस्कन्धादिकमुद्दि-25 शति । 'द्रव्यार्थी वा' द्रव्यनिमित्तं धनुर्वेदादिकं यदुद्दिशति एष सर्वोऽपि द्रव्योद्देशः ॥ ४२४३॥ खित्तम्मि जम्मि खित्ते, उदिस्सति जो व जेण खेत्तेण । [आव.नि.१०७३] एमेव य कालस्स वि, भावो उ पसत्थमपसत्थो ॥ ४२४४ ॥ क्षेत्रोद्देशे चिन्त्यमाने यस्मिन् क्षेत्रे अङ्ग-श्रुतस्कन्धादेरुद्देशः क्रियते व्यावय॑ते वा; यो वा येन क्षेत्रेणोद्दिश्यते-अभिधीयते, यथा-भरते भवो भारतः, सुराष्ट्रायां भवः सौराष्ट्रः, 30 मगधेषु भवो मागध इत्यादि । एवमेव च यस्मिन् काले अङ्गादिकमुद्दिश्यते, येन वा कालेनोद्दिश्यते, यथा-सुषमायां भवः सौषमः, शरदि जातः शारद इत्यादि; एष कालोद्देशः । १°ति सङ्ग्रहगा भा० ॥ 20 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५२ भावोद्देशो द्विधा - प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च ॥ ४२४४ ॥ उभयमपि दर्शयतिकोहाई अपसत्थो, णाणामादी य होइ उ पसत्थो । उदओ वि खलु पत्थो, तित्थकरा ऽऽहारउदयादी ।। ४२४५ ॥ क्रोध- मानादिरौदयको भावो अप्रशस्तो भावोद्देशः । ज्ञान दर्शनादिः क्षायोपशमिक औप5 शमिकः क्षायिको वा भावः प्रशस्तो भावोद्देशो भवति । 'उदयोऽपि' औदयिकभावोऽपि तीर्थकरा-ऽऽहारक-यशःकीर्त्यादिनामकर्मोदयरूपः प्रशस्तो भवति । आदिशब्दस्य गाथायां व्यत्ययेन निर्देशो बन्धानुलोम्यात् । अत्र क्षेत्रोद्देशेन कालोद्देशेन चाधिकारः, शेषास्तु विनेयव्युत्पादनार्थमुच्चरितार्थसदृशा इति कृत्वा प्ररूपिताः । तदत्र परेण यद् उद्गमौदेशिकं प्रतिपादितं तद् नाधिकृतमिति स्थितम् ॥ ४२४५ ॥ अथ " प्राप्तानाम्" इति पदं व्याख्यातिखित्तेण य कालेण य, पत्ता पत्ताण होति चउभंगो । दोहि विपत्तो ततिओ, पढमो वितिओ य एक्केणं ॥ ४२४६ ॥ क्षेत्रेण कालेन च प्राप्ता - प्राप्तानां चतुर्भङ्गी भवति-क्षेत्रेण प्राप्ता न कालेन ९ कालेन प्राप्ता न क्षेत्रेण २ क्षेत्रेण कालेन च प्राप्ताः ३ नापि क्षेत्रेण नापि कालेन ४ । अत्र तृतीयो भङ्गो द्वाभ्यामपि क्षेत्र - कालाभ्यां प्राप्तः, चतुर्थः पुनरुभाभ्यामप्यप्राप्तः ॥ ४२४६ ॥ अथामूनेव भङ्गान् भावयति - 10 15 सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ समवसरणप्रकृते सूत्रम् १५ वासाखित्त पुरोखड, उडुबद्ध ठियाण खेत्तओ पत्तो । अद्धाणमादिहिं, दुल्लभखित्ते व वीओ उ ।। ४२४७ ॥ वर्षाक्षेत्रे 'पुरस्कृतं' प्रथमत ऋतुबद्धकाले स्थितानां 'क्षेत्रतः प्राप्ताः' इति प्रथमो भङ्गो भवति । इयमत्र भावना - ऋतुबद्धे चरमो मासकल्पो यत्र कृतः अन्यच्च वर्षावासप्रायोग्यं क्षेत्रं नास्ति 20 ततस्तत्रैव वर्षावासं कर्तुकामा आषाढपूर्णिमामद्य प्यप्राप्नुवन्तः क्षेत्रतः प्राप्ता न कालत इत्याद्यो भङ्गो भवति । अध्वप्रतिपन्नतादिभिः कारणैर्दुर्लभे वा वर्षावासप्रायोग्ये क्षेत्रेऽपान्तराल एव आषाढ पूर्णिमा सञ्जाता एवं द्वितीयो भङ्गो भवति ॥ ४२४७ ॥ आसाढ पुणिमाए, ठिया उ दोहिं पि होंति पत्ता उ । [द. श्रु.नि. ६३ ] तत्थेव य पडिसिज्झइ, गहणं ण उ सेसभंगेसु ॥ ४२४८ ॥ 25 वर्षाक्षेत्रे आषाढपूर्णिमायां ये स्थितास्ते द्वाभ्यामपि क्षेत्र - कालाभ्यां प्राप्ता भवन्ति । आषाढपूर्णिमामप्राप्तानामन्तरा अध्वनि वर्त्तमानानां ऋतुबद्धे मासकल्पेन वा अन्यत्र क्षेत्रे स्थितानां चतुर्थो भङ्गो भवति । अत्र च 'तत्रैव' तृतीयभङ्ग एव वस्त्रादीनां ग्रहणं प्रतिषिध्यते, न 'शेषेषु' प्रथम - द्वितीय- चतुर्थभङ्गेपु, एकतरेण द्वाभ्यां वा अप्राप्तत्वात् ॥ ४२४८ ॥ एतेन " दोह पडिसेहो ” त्ति व्याख्यातम् । अथ "अप्पत्ताण तु गहणं, उवहिस्सा साइरे30 गस्स” ( गा० ४२४२ ) ति पश्चार्धं व्याचिख्यासुराह दुह जओ एगस्सा, णिष्फजति जं च होति वासासु । अग्गहणम्मि वि लहुगा, तत्थ वि आणादिणो दोसा ॥ ४२४९ ॥ इह वर्षाकाले क्षेत्र - कालाभ्यामप्राप्तैरेव सातिरेक उपधिग्रहीतव्यः । कियत्प्रमाणः ? इति Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४२४५-५३ ] तृतीय उद्देशः । ११५३ चेद् उच्यते--- द्वयोर्जनयोः सम्बन्धिना यावतोपकरणेनैकस्य साधेोर्योग्यः परिपूर्णः प्रत्यवतारो - ऽतिरिक्तो निप्पद्यंते, यच्च वर्षासु वर्षाकल्पादिकमुपयुज्यते तदात्मनो योग्यं द्विगुणं भवति, इयत्प्रमाणं ग्रहीतव्यम् । इदमुक्तं भवति — एकैकः साधुरर्धतृतीयान् प्रत्यवतारान् गृह्णाति । किं कारणम् ? कदाचिदध्वनिर्गताः साधवो विविक्ता आगच्छेयुः ततो द्वौ साधू एकस्य साधोः सम्पूर्णं प्रत्यवतारं प्रयच्छतः, तयोश्चात्मनः प्रत्येकं द्विगुणाः प्रत्यवतारास्तिष्ठन्ति । यद्येवं न 5 गृह्णन्ति ततश्चतुर्लघुकाः, तत्राप्याज्ञादयो दोषा भवन्ति ॥ ४२४९ ॥ वर्षावतिरिक्तोपकरणग्रहणे कारणमुपदर्शयितुं दृष्टान्तमाह Goatवक्खर हादियाण तह खार- कडुय-भंडाणं । वासारत्त कुटुंबी, अतिरेगं संचयं कुणइ ॥ ४२५० ॥ द्रव्यं - हिरण्यादि, उपस्करः - सूर्पादि, स्नेहः - घृतं तैलं वा, आदिशब्दादेरण्डादितैलपरिग्रहः, 10 क्षारः - वस्तुलादिः लवणं वा, कटुकं शुण्ठी- पिप्पल्यादि, भाण्डानि - वट- पिठरादीनि, अथवा कटुभाण्डं - वेसण - मरिच-हिङ्गु प्रभृतिद्रव्यजातम् । एतेषां द्रव्योपस्करादीनां कुटुम्ब्यपि वर्षारात्रे - ऽतिरिक्तं सञ्चयं करोति ॥ ४२५० ॥ किं कारणम् ? इति चेद् उच्यते वणियाण संचरंती, हट्टा ण वहंति कम्मपरिहाणी | लण्णाssसे व किं काहिति अगहिते पुवि ॥ ४२५१ ॥ 15 वर्षाकाले वणिजो ग्रामेषु क्रयविक्रयार्थं न सञ्चरन्ति, पत्तनेष्वपि वर्ष- वर्दलवशेन हट्टा न वहन्ति, अपि च यदि कुटुम्बी द्रव्योपस्करादीनामतिरिक्तं सञ्चयं न कुर्यात् तत उत्पन्ने प्रयोजने क्रयविक्रयार्थं तेन आपणवीथ्यां गन्तव्यम्, ततश्च हलकर्षणप्रभृतीनां कर्मसंयोगानां परिहाणिर्भवति, ग्लानत्वे वा सञ्जाते 'आदेशेषु वा' प्राघूर्ण केष्वागतेष्वतिरिक्तसञ्चये पूर्वमगृहीते किं पथ्य भोजन- प्राघूर्णकभक्त्यादिकं करिष्यति ? ॥ ४२५१ ॥ तह अतिथिगा वि य, जो जारिसों तस्स संचयं कुणति । इह पुण छह विराहण, पढमम्मि य जे भणिय दोसा ।। ४२५२ ॥ ' तथा ' इति दृष्टान्तान्तरोपन्यासे । 'अन्यतीर्थिका अपि' सरजस्कादयः 'यो यादृशः' यस्य येनोपकरणेन प्रयोजनमित्यर्थः स तस्यातिरिक्तं सञ्चयं वर्षासु करोति, यथा— सरजस्का रक्षायाः, दकसौकरिका मृत्तिकायाः, बोटिकाश्छगण लवणयोरित्यादि । 'इह' इति अस्मिन् 25 पुनर्जेनशासने यद्यतिरिक्तमुपकरणं न गृह्णन्ति ततः षण्णां जीवनिकायानां विराधना भवति । अथातिरिक्तोपकरणाभावाद् वर्षासूपधिं गृह्णन्ति ततो ये प्रथमे समवसरणे उपकरणं गृह्णतो दोष भणितास्तान् प्राप्नुवन्ति ॥ ४२५२ ॥ कथं पुनः षण्णां कायानां विराधना भवति । इति उच्यते रयहरणेणोल्लेणं, पमजणे फरुससाल पुढवीए । गामंतरित गलणे, पुढवी उदगं च दुविहं तु ॥ ४२५३ ॥ १द्यते, येन वर्षा” भा० कां० विना ॥ २°च्छन्ति, तयो' मो० ले० विना ॥ ३ 'गुणः प्रत्यवतारस्तिष्ठति भा० कां० ॥ 20 30 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ समवसरणप्रकृते सूत्रम् १५ "फरुससाल" ति कुम्भकारशाला तस्यां वर्षासु स्थितानां द्वितीयरजोहरणाभावे यद् वर्षेणाभूतं रजोहरणं तेनैव प्रमार्जने पृथिवीकायस्य विराधना । ग्रामान्तरं वा भिक्षाचर्यादिकार्येण "इंत" ति गच्छत आगच्छतो वा अन्तरा गाढतरं वर्षितुमारब्धे मलिनरजोहरणे परिगलति पृथिवीं 'द्विविधं च' भौमा-ऽऽन्तरिक्षभेदाद् द्विप्रकारमुदकं विराधयति ॥ ४२५३ ॥ अहवा अंबीभूए, उदगं पणओ य तावणे अगणी। उल्लंडगबंध तसा, ठाणाइसु केण व पमजे ॥ ४२५४ ॥ अथवा द्वितीयरजोहरणाभावे यदाऽऽदें रजोहरणं शोषयति ततोऽवग्रहात् स्फिटति । अथ न शोष्यते ततोऽम्लीभवति । एवमम्लीभूते तस्मिन्नुदकं विराध्यते, पनकश्च सम्मूर्च्छति । अथैतदोषपरिहारार्थमग्नौ तापयति ततोऽग्निविराधना । अथाट्टैण प्रमार्जयति ततो दशिकान्तेषु 10 उल्लण्डकाः-मृद्गोलकाः प्रतिबध्यन्ते । तेषु प्रतिबद्धेषु यदि प्रमार्जनं करोति ततस्त्रसविराधना, अथ न प्रमार्जयति ततः संयमविराधना । स्थान-निषदनादिषु वा केन प्रमार्जयतु ॥४२५४॥ एमेव सेसगम्मि, संजमदोसा उ भिक्खणिजोए । चोल-निसिज्जा उल्ले, अजीर गेलण्णमायाए ॥ ४२५५ ॥ एवमेव वर्षाकल्पादावपि शेषोपकरणे 'भिक्षानिर्योगे च' पटलक-पात्रबन्धरूपे द्विगुणेऽ. 15 गृहीते 'संयमदोषाः' षट्कायविराधनालक्षणा रजोहरणवद् वक्तव्याः । चोलपट्टे रजोहरणनिष द्यायां च द्विगुणायामगृह्यमाणायां बहिर्गतानां वर्षेणाीभावे सञ्जाते नित्यपरिभोगेन भक्तं न जीर्यते, अजीर्यमाणे च भक्ते ग्लानत्वं भवति, ततश्च 'आत्मविराधना' परिताप-महादुःखादिका ॥ ४२५५ ॥ किञ्च अद्धाणणिग्गतादी, परिता वा अहब णड गहणम्मि । 20 जं च समोसरणम्मि, अगेण्हणे जं च परिभोगो ॥ ४२५६ ।। छिन्नादच्छिन्नाद्वा अध्वनो निर्गताः आदिशब्दादशिवादिकारण विनिर्गता वा ये 'परीत्ताः' परिमितोपकरणाः अथवा "नट्ठ" त्ति नष्टोपकरणा हारितोपधय इत्यर्थः “गहणम्मि" त्ति प्रत्य नीकेन वा उपधेर्ग्रहणे कृते विविक्ता आगच्छेयुः । एतेषामागतानामतिरिक्तोपकरणाभावाद् __ यद्युपग्रहं न करोति तत उपधिनिष्पन्नं प्रायश्चित्तम् । अथ तदर्थ नूतनमुपधिं गृहन्ति ततोऽप्यु25 पधिनिष्पन्नम् , यच्च प्रथमे समवसरणे उपकरणग्रहणे दोषजालं तत् प्राप्नुवन्ति । अथ न गृह्णन्ति तत उपकरणं विना यत् तृणादिपरिभोगे दूषणकदम्बकं तद् आसादयन्ति ॥ ४२५६ ॥ अमुमेवार्थं व्याख्याग्रन्थेन स्पष्टयति अद्धाणणिग्गयादीणमदेंते होति उवधिनिष्फन्न । जं ते अणेसणऽग्गि, सेवे देंतऽप्पणा जं च ॥४२५७ ॥ 30 अध्वनिर्गतादीनामतिरिक्ताभावे उपकरणं यदि न प्रयच्छन्ति तत उपधिनिष्पन्नं भवति, प्रायश्चित्तमिति शेषः । तच्च जघन्ये पञ्चकम् , मध्यमे मासलघुकम् , उत्कृष्ट चतुर्लघवः । 'ते च' अध्वादिनिर्गता अनेषणीयोपकरणमग्निं वा यद् आसेवन्ते तन्निष्पन्नमप्रयच्छतां प्रायश्चितम् । अथात्मीयमुपकरणं तेषां प्रयच्छन्ति तत आत्मनः परिहाणिः, यच्चात्मना तृणादिसेवनं Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 भाष्यगाथाः ४२५४-६२] तृतीय उद्देशः । ११५५ कुर्वन्ति तन्निष्पन्नम् ॥४२५७॥ के' पुनः प्रथमसमवसरणे वस्त्रग्रहणे दोषाः ? इत्याह-» अत्तट्ठ परट्ठा वा, ओसरणे गेण्हमाणे पण्णरस । दाउ परिभोग छप्पति, डउरं उल्ले य गेलणं ॥ ४२५८ ॥ अथात्मनो वा परेषां वा-अध्वनिर्गतादीनामर्थाय प्रथमसमवसरणे उपधिं गृह्णन्ति तत आधाकर्मादयः पञ्चदशोद्गमदोषा भवन्ति । आत्मोपधिमध्वनिर्गतादीनां दत्त्वा तमेवैकं प्रत्यवतारं 5 नित्यं परिभुञ्जानस्य षट्पदिकाः सम्मूर्च्छन्ति । तासु चान-पानमध्ये पतितासु भक्षितासु च "डउरं" ति जलोदरं भवति । एकप्रत्यवतारेण चाट्टैण रात्रौ प्रावृतेन सुप्तस्य भक्तं न जीर्यति, अजीर्यति च ग्लानत्वमुपजायते ॥ ४२५८ ॥ तम्हा उ गेण्हियव्वं, बितियपदम्मि जहा ण गेण्हेजा। __ अद्धाणे गेलन्ने, अहवा वि भवेज असतीए ॥ ४२५९॥ यत एवं तस्मात् कारणादात्मनो द्विगुणप्रत्यवतारादेतिरिक्तं ग्रहीतव्यम् । द्वितीयपदे यथा न गृह्णीयुस्तथाऽभिधीयते-अध्वनि वहमानानां ग्लानत्वे वा द्विविधायामसत्तायां वा वर्तमानानामग्रहणं भवेत् ॥ ४२५९ ॥ इदमेव व्याख्याति कालेणेवदिएणं, पाविस्सामंतरेण वाघातो। गेलण्णे वाऽऽत-परे, दुविधा पुण होति असती उ ॥ ४२६०॥. 15 ग्रीष्मस्य चरमे मासि केचिदध्वानं प्रतिपन्नाश्चिन्तितवन्तश्च-यावदाषाढपूर्णिमा नोपैति तावदेतावता कालेन वर्षाक्षेत्रं प्राप्स्यामः, अन्तरा च नद्यादिव्याघातो भवेद् अत आषाढपूर्णिमाकाले अतिक्रान्ते प्राप्ताः ततो द्विगुणोऽतिरिक्तो वा उपधिर्न गृहीतः । अथवा आत्मनो ग्लानत्वेन परस्य वा-ग्लानस्य व्यावृततया नातिरिक्तो गृहीतः । असत्ता पुनर्द्विविधा भवतिसदसत्ता असदसत्ता च । सदसत्तायामनेषणीयं लभ्यते, अथवा बहवः साधवो वस्त्रग्रहणस्या- 20 कल्पिका एकः कल्पिकः अतः सर्वेषां योग्योऽतिरिक्तोपधिम्रहीतुं न पार्यते । असदसत्ता तु मार्गितमपि न लभ्यते । एतैः कारणैः पूर्वमतिरिक्तोपधावगृहीतेऽपि शुद्धः ॥ ४२६० ॥ गहिए व अगहिए वा, अप्पत्ताणं तु होति अतिगमणं । उवही-संथारग-पादपुंछणादीण गहणट्ठा ॥ ४२६१ ॥ एवं गृहीतेऽगृहीते वा वर्षावासप्रायोग्ये उपधौ कालतोऽप्राप्तानामाषाढपूर्णिमाया अर्वाक् 23 पञ्चभिर्दिवसैवर्षाक्षेत्रे 'अतिगमनं' प्रवेशो भवति । किमर्थम् ? इत्याह-उपधिः-वर्षाकल्पादिकः संस्तारकः-काष्ठमयः कम्बिकामयो वा पादप्रोञ्छनं-रजोहरणम् आदिशब्दात् तृण-डगलादिपरिग्रहः, एतेषां ग्रहणार्थमप्राप्ते काले प्रवेष्टव्यम् ॥ ४२६१ ॥ इदमेव व्यक्तीकरोति कालेण अपत्ताणं, पत्ता-ऽपत्ताण खेत्तओ गहणं । वासाजोगोवधिणो, खेत्तम्मि तु डगलमादीणि ॥ ४२६२ ॥ 30 कालतो नियमादप्राप्तानां क्षेत्रतः प्रातानामपाप्तानां वा वर्षावासयोग्यपटलक-पात्रबन्धादेरुप१रा एतचिह्नगतमवतरणं भा० नास्ति ॥ २'दधिकं प्र° को० ॥ ३ °तरे उ वा ताभा० ॥ ४°घातेन रुद्धा: अत भा०॥५यामेषणीयं न ल°क०॥ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५६ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ समवसरणप्रकृते सूत्रम् १५ हणं भवति, एतेन प्रथम - चरमभङ्गौ सूचितौ । कालतः प्राप्तैरप्राप्तैर्वा क्षेत्रतो नियमात् प्राप्तै गलादीनि ग्रहीतव्यानि, अनेन तु द्वितीय-तृतीयभङ्गौ गृहीताविति ॥ ४२६२ ॥ तान्येव डगलादीनि दर्शयति डगल-ससरक्ख-कुंड मुह- मत्तगतिग-लेव- पादलेहणिया । संथार-पीढ - फलगा, णिजोगो चैव दुगुणो तु ॥ ४२६३ ॥ इष्टका-चीरादिमयानि डगलानि पुतप्रोञ्छनार्थं गृह्यन्ते । सरजस्कः - क्षारः, स संज्ञा- खेलादिनिसर्जनार्थम् । कुटमुखं - घटकण्ठकः, तत्र ग्लानयोग्य मौषधं कायिकीमात्रकं वा स्थाप्यते । मात्रकत्रिकं - खेलमात्रकं कायिकीमात्रकं संज्ञामात्रकं चेति । लेपः - प्रतीतः, स विनष्टभाजनसंस्थापनार्थम् । पादलेखनिका वर्षासु कर्दमनिर्लेखनार्थम् । संस्तारकः परिशाटी अपरिशाटी 10 चेति द्विविधः, उभयोऽपि शयनार्थं जीवादिरक्षणार्थं च गृह्यते । पीठं - छगणादिमयम्, उपवेशनार्थम् । फलकः - चम्पकपट्टा दिमयः, शयनोपयोगी । पात्रसत्कश्च 'निर्योगः ' प्रत्यवतारो द्विगुणः । एतानि सर्वाण्यपि तदानीं गृह्यन्ते ॥ ४२६३ ॥ अथ शिष्यः प्रश्नयतिचचारि समोसरणे, मासा किं कप्पती ण कप्पति वा । कारणिग पंच रत्ता, सव्वेसिं मलगादीणं ॥ ४२६४ ॥ आषाढ पूर्णिमानन्तरं ये चत्वारः प्रथमसमवसरणे मासास्तेषु ग्रहीतुं कल्पते वा न वा ? | सूरिराह — उत्सर्गतो न कल्पते, द्वितीयपदे क्षेत्रस्याप्राप्तौ अध्वनिर्गता वा आषाढपूर्णिमायां प्राप्तास्ततः संस्ताराद्युपत्रिं डगलादीनि च पञ्च रात्रिन्दिवानि गृह्णन्ति, पर्युषणाकल्पं च रजन्यामाकर्षन्ति, ततः पञ्चम्यां पर्युषणं कुर्वन्ति । अथ पूर्वोक्तकारणात् पञ्चभ्यामेव ते प्राप्ताः ततः पञ्चरात्रं तथैव संस्तारक-डगलादीनि गृह्णन्ति, दशम्यां पर्युषणयन्ति । विशेषचूर्णिकृत् पुनराह - ताणं अलं आसाढपुण्णिमाए चेव ठिया, तेहि य उवही न गहिओ संथारगाई ता जाव पंचरतं ताव गेव्हंति, पच्छा पंच दिवसे पज्जोसवणाकप्पं कहंति, दसमीए पज्जोसवेंति, एएण कारणेणं कप्पइ पंचरतं, अह पंचमीए पत्ता ताहे तहेव पंच रत्तगा वति [ जाव भद्दवयसुद्धपंचमी ] चि । 20 5 15 एवं सर्वेषां मल्लकादीनामुपकरणानामर्थाय कारणिकानि पञ्च रात्रिन्दिवानि प्रवर्धमानानि - 25 तावद् मन्तव्यानि यावद् भाद्रपद शुद्धपञ्चम्यां गृहीतेऽगृहीते वा डगल- मल्लकादौ नियमात् पर्युषणं विधेयम् ॥ ४२६४ ॥ तेसिं तत्थ ठिताणं, पडिलेहुच्छुद्ध चारणादीसु । लेवाईण अगहणे, लहुगा पुत्रि अगहिते वा ।। ४२६५ ।। 'तेषां' साधूनां 'तत्र' वर्षाक्षेत्रे स्थितानामियं सामाचारी — सभा - प्रपा -ऽऽराम - देवकुल- शून्य- 30 गृहादिषु यद् वस्त्रम् 'उत्सुद्धं' पथिकादिभिः परित्यक्तं तत् प्रत्युपेक्षन्ते यदा किल कार्यमुत्पत्स्यते तदा ग्रहीष्यते । तदभावे चारणादिषु प्रत्युपेक्षन्ते । वर्षासु यदि लेपम् आदिशब्दात् पात्रं " १ योगी । पते सर्वेऽपि प्रथमतः क्षेत्रबहिर्गृह्यन्ते । अथ बहिर्न गृहीतास्ततः क्षेत्र एव गृह्यन्ते भा० ॥ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४२६३-७०] तृतीय उद्देशः । ११५७ वा वस्त्रं वा गृह्णन्ति ततश्चतुर्लघुकाः । पूर्व वा लेपादीनि यदि न गृहीतानि तदाऽपि चतुर्लधु ॥ ४२६५ ॥ इदमेव व्याख्याति-- वासाण एस कप्पो, ठायंता चेव जावं उ सकोसं । - परिभुत्त विप्पइण्णं, वाघातही निरिक्खंति ॥ ४२६६ ॥ "वासाण" त्ति विभक्तिव्यत्ययाद् वर्षासु तिष्ठतामेषः 'कल्पः' सामाचौरी-सर्वतः सक्रोशं । योजनं यावद् यत् कार्पटिकैः परिभुक्तं 'विप्रकीर्ण' पूर्व परिभुज्य ततोऽकिश्चित्करमिति मला परिष्ठापितं तत् तिष्ठन्त एव व्याघातार्थ निरीक्षन्ते ॥ ४२६६ ॥ कः पुनाघातः ? इति चेद् उच्यते अद्धाणणिग्गतादी, झामिय वृढे व सेह परिजुण्णे। आगंतु बाहि पुचि, दिटुं अस्सण्णि-सण्णीसु ॥ ४२६७ ॥ 10 अध्वनिर्गतादयः साधव आगच्छेयुः, आत्मीयो वा उपधिः 'ध्यामितः' दग्धो भवेत् , उदकेन वा व्यूढः, 'शैक्षो वा' अवश्यप्रव्राजनीयः पुराणादिरुपस्थितः, परिजीणों वा उपधिः, एतैः कारणैरागन्तुकेषु तालाचरादिषु पूर्व मार्गयन्ति । ततः क्षेत्रबहिरसंज्ञिषु पूर्वदृष्टम् , १ ततः संशिषु पूर्वदृष्टं - गृह्णन्ति ॥ ४२६७ ॥ अथेदमेव बिभावयिषुरागन्तुकान् व्याख्यातितालायरे य धारे, वाणिय खंधार सेण संवट्टे । 16 लाउलिग-वइग-सेवग-जामाउग-पंथिगादीसुं ॥ ४२६८॥ 'तालाचराः' नट-नर्तक-चट्टादयः, "धारे" ति देवच्छत्रधारकाः, 'वणिजः' वालिञ्जकाः, राजबिम्बसहितं खचक्र परचक्रं वा स्कन्धावार उच्यते, राजबिम्बविरहिता सेना, चौरपाटीभयेन बहवो ग्रामा नायकाधिष्ठिता एकत्र स्थिताः संवतः, लाकुटिकाः-डङ्गराः, ब्रजिकाःगोकुलिकाः, सेवकाः-चारभट्टकाः, जामातृकाः प्रसिद्धाः, पथिकाः-ये बहुवस्त्रं देशं प्रति 20 प्रस्थिताः । एवमादिषु पूर्व मार्गयन्ति ॥ ४२६८ ॥ कथम् ? इत्याह ___ आगंतुगेसु पुत्वं, गवसती चारणादिसू बाहिं। पच्छा जे सग्गामं, तालायरमादिणो एंति ॥ ४२६९ ॥ "बाहि" ति सक्रोशयोजनान्तर्वतिष्वन्तरपल्लिकासहितेषु बाह्यग्रामेषु ये 'आगन्तुकाः' चारणादयस्तेषु पूर्व गवेषयन्ति । 'पश्चाद्' बाह्यग्रामेषु चारणादीनामभावे ये तालाचरादयः खग्राम-23 मायान्ति तेषु गवेषयितव्यम् ॥ ४२६९ ॥ कथमेतेषु वस्त्रसम्भवः ! इत्याह लद्धण णवे इतरे, समणाणं देज सेव-जामादी। चारण-धार-वणीणं, पडंति इयरे उ सड्दितगा ॥ ४२७०॥ सेवक-जामातृका नवानि वस्त्राणि लब्ध्वा 'इतराणि' पुराणानि श्रमणानां दद्युः । चारणानां "धार" ति देवच्छत्रधाराणां राजादयः प्रसादतो वस्त्राणि प्रयच्छन्ति तानि पुराणानि वा ते 30 १°व उक्कोसं भा० । एतदनुसारेणेव भा. टीका । दृश्यतां टिप्पणी ३॥ २'टा परि तामा. 'बिना ॥ ३री-'उत्कृष्ट क्षेत्र' सको भा० ॥ ४N एतदन्तर्गतः पाठः भा. एष वर्तते ॥ ५वाणिजकाः मो० ॥ ६°रण-देवच्छत्रधारकाणां रा° भा० ॥ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ समवसरणप्रकृते सूत्रम् १.५ साधनां दधुः । "वणीणं" ति वालिञ्जकवणिजां वलओ वस्त्राणि पतन्ति । 'इतरे तु' पथिकादयः 'श्राद्धाः' श्रावका भवेयुः ॥ ४२७० ॥ बहिाम-स्वग्रामेषु चारणादीनामभावे विधिमाह __ बहि-अंत-ऽसण्णि-सण्णिसु, जं दि8 तेसु चेव जमदिटुं । केयि दुहओ वऽसण्णिसु, गहिते सण्णीसु दिद्वितरे ॥ ४२७१ ॥ 6 "बहि" ति क्षेत्राभ्यन्तरे प्रतिवृषभग्रामेषु येऽसंज्ञिनस्तेषु पूर्वदृष्टं वस्त्रं मार्गयन्ति, तदभावे बहिर्मामेष्वेव संज्ञिषु पूर्वदृष्टम् , तदप्राप्तौ बाह्यग्रामेष्वेवासंज्ञिषु पूर्वमदृष्टम् , तदभावे बहिरेव संज्ञिषु पूर्वमदृष्टम् ; तदभावे अन्तः-मूलग्रामेऽसंज्ञिषु पूर्वदृष्टम् , तदसत्त्वे मूलग्राम एव संज्ञिषु पूर्वदृष्टम् , तदैसम्भवे मूलगाम एवासंज्ञिषु यत् पूर्वमदृष्टम् , तदभावे मूलग्राम एव संज्ञिषु पूर्व मदृष्टं वस्त्रं मार्गयन्ति । केचिदाचार्या इत्थं ब्रुवते—'द्वयोरपि' बहिरन्तर्लक्षणयोः स्थानयोः 10प्रथममसंज्ञिषु गृहीते सति ततो बहिरन्तर्वतिष्वेव संज्ञिषु यथाक्रमं दृष्टम् इतरच्च-अदृष्टं गृह न्तीति । किं पुनः कारणं पूर्वदृष्टं प्रथमं गृह्यते ! उच्यते-तत्र हि पूर्वप्रत्युपेक्षितत्वेनाधाकर्मादयं उत्क्षेप-निक्षेपादयश्च दोषाः परिहृता भवन्ति ॥ ४२७१ ॥ कोई तत्थ भणेजा, बाहिं खेत्तस्स कप्पती गहणं । गंतु ता पडिसिद्धं, कारण गमणे बहुगुणं तु ॥ ४२७२ ॥ 15 कश्चिद् नोदकः 'तत्र' इति अनन्तरोक्तव्याख्याने इदं भणेत्-~यदि पूर्व प्रतिवृषभग्रामेषु ग्रहीतव्यं ततो मूलपामे, एवं तर्हि दूरत्वात् क्षेत्राद् बहिर्ग्रहणं सुतरां कल्पते । गुरुराहक्षेत्राद् बहिर्वर्षासु गन्तुमपि तावत् प्रतिषिद्धं किं पुनर्वस्त्रग्रहणम् ! । अथ कारणे वर्षासु क्षेत्रबहिर्गमनं करोति तत्र गतश्च वर्षाकल्पादिना निमन्यते तदा संयमस्य बहुगुणमिति कृत्वा तदपि ग्रहीतव्यम् ॥ ४२७२ ॥ इदमेव व्याचिख्यासुः प्रथमतः परवचनं व्याख्याति एवं नामं कप्पति, जं दूरे तेण बाहि गिण्हंतु । एवं भणंति गुरुगा, गमणे गुरुगा व लहुगा वा ॥ ४२७३ ॥ १ "बहि-अंत० गाधा ॥ बाहिं सग्गामस्स असण्णीसु पुत्रदिटुं मग्गिजह, असति तेमु चेत्र पुवं अदिटुं पि दिजंतं घेप्पति, असति बाहिं चेव सण्णीसु पुव्वं दिटुं मगिजति, असति तेसु चेव अदिटुं; असति अंतो सगामस्स पुव्वं असण्णीसु दिढे घेप्पति, असति अदिलु पि, असति अंतो चेव सण्णीसु पुत्वं दिलु, असति अदिटुं पि । केसिंचि आयरियाणं आदेसो-पुव्वं बाहिं सगामस्स असण्णीसु दिट्टे अदिढे य गहिते ताधे अंतो असण्णीसु चेव दिवादिटुं, तःधे बाहिं सण्णीसु दिठ्ठादिटुं, ताधे अंतो सण्णीसुचेव दिवा दिढं। किं कारणं ? सपणी उग्गमादयो वि कुज्जा ॥" इति चूर्णिः ॥ - "बहि-अंतो• गाहा ॥ 'बाहिं' वि भिक्खायरियागामेसु असण्णीस दिमागत, असह बाहिं चेव सणीस विटुं, असहबाहिं चेव असन्नीसु अदिटुं, असइ बाहिं चेव सन्नीसु अदिटुं। एवं अंतो वि । केसिंचि आयरियाणं आदेसो-पुव्वं असनीसु दोहिं वि पगारेहिं-बाहिं अंतो अदिह्र दिढेंच, ताहे सन्नीसु घेत्तवं । कि कारणं? सन्नी उग्गमादओ वि कुज्जा ॥” इति विशेषचूर्णिः ॥ २°दलामे व का० ॥ ३°दभावे कां ॥ ४ एमपि गृ' भा० ॥ ५°ति पूर्वव्या भा०॥ ६ ग्रहीतुं सु° भा० ॥ ७एव भणते गु तामा० ॥ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४२७१-७८] तृतीय उद्देशः । ___ यद् 'दूरे' ग्रामाद् बहिर्षस्त्रं तद् यदि प्रथमं कल्पते तत एवं नाम क्षेत्राद् बहिः सुतरां प्रथमतरं गृह्णन्तु । सूरिराह-एवं भणतो भवतश्चतुर्गुरुकाः । अथ क्षेत्राद् बहिर्गच्छति ततो गुरुका वा लघुका वा प्रायश्चित्तम् । तत्र नवप्रावृषि चत्वारो गुरवः, शेषे वर्षाकाले चत्वारो लघवः ॥ ४२७३ ॥ "कारण गमणे बहुगुण"मिति पदं व्याचष्टे-» संबद्ध-भाविएस, कप्पति जा पंच जोयणे कज्जे ।। जुण्णे व वासकप्पं, गेण्हति जं बहुगुणं चऽण्णं ॥ ४२७४ ॥ . यानि साधर्मिकसम्बन्धेन सम्बद्धानि परस्परं गमना-ऽऽगमनभावितानि च क्षेत्राणि तेषु वर्षासु कल्पते साधर्मिकाणामुदन्तवहनार्थं चत्वारि पञ्च योजनानि वा यावद् गन्तुं वस्तुं वा । एवं कार्ये गतस्य तस्यापान्तराले वर्षात्राणेन कश्चिद् निमन्त्रणां कुर्यात् , तस्य च प्राक्तनो वर्षाकल्पः परिजीर्णः, तच्च वर्षात्राणं घन-मसृणमभिनवं च, ततो वर्षासु बहुगुणमिति कृत्वा 10 गृह्णाति । कारणतः 'अन्यदपि' पटलकादिकं घन-मसृणादिगुणोपेतमाचार्यप्रायोग्यं वा यद् वस्त्रं लभ्यते तदपि 'भूयान् गुणोऽत्र गृहीते भविष्यति' इति कृत्वा गृह्यते । एवं कारणे गमनं ग्रहणं चोभयमपि दृष्टम् , कारणाभावे तु न कल्पते गन्तुं ग्रहीतुं वा ॥ ४२७४॥ अथ गृह्णाति ततोऽमून् षोडश दोषान् प्रामोति आहाकम्मुद्देसिय, पूतीकम्मे य मीसजाए य । पि. नि. ९२] 18 ठवणा पाहुडियाँए, पादोकर कीत पामिच्चे ॥ ४२७५ ॥ परियट्टिए अभिहडे, उब्भिण्णे मालोहडे इ य । [पि. नि. ९३] अच्छिज्जे अणिसिढे, धोते रत्ते य घढे य ॥ ४२७६ ॥ ' आधाकर्म १ औदेशिकं २ पूतिकर्म ३ मिश्रजातं ४ स्थापना ५ प्राभृतिका ६ प्रादुष्करणं ७ क्रीतं ८ प्रामित्यं ९ परिवर्तितम् १० अभ्याहृतम् ११ उद्भिन्नं १२ मालापहृतम् १३ 20 आच्छेद्यम् १४ अनिसृष्टं चेति १५ पञ्चदश दोषाः । “धोए रत्ते य घटे य" ति साधूनामर्थाय मलिनवस्त्रं 'धौतं' चौखं कृतमित्यर्थः, एवं 'रक्तं' प्रदत्तरागम् , 'घृष्टं मसूणपाषाणादिनोतेजितम् , एते त्रयोऽप्येक एव दोष इति ॥ ४२७५ ॥ ४२७६ ॥ एते सव्वे दोसा, पढमोसरणे ण वजिता होति । जिणदिटेहिं अगहिते, जो गेहति तेहि सो पुट्ठो ॥ ४२७७॥ 25 एते सर्वेऽप्याधाकर्मादयो दोषाः प्रथमे समवसरणे वस्त्रादिकं गृह्णता न वर्जिता भवन्ति । अथ पूर्व दर्पतो न गृहीतमुपकरणं ततः प्रथमे समवसरणे यो गृह्णाति. सोऽपि जिनैः-तीर्थकरैयें दृष्टाः कर्मबन्धदोषास्तैः स्पृष्टो मन्तव्यः, भावतस्तेन दोषाणामङ्गीकृतत्वात् ॥ ४२७७ ॥ पढमम्मि समोसरणे, जावतियं पत्त-चीवरं गहियं । सव्वं वोसिरियव्यं, पायच्छित्तं च वोढव्वं ॥ ४२७८ ॥ .30 प्रथमे समवसरणे दर्पतो यावत् पात्र-चीवरं गृहीतं तावत् सर्वमपि व्युत्लष्टव्यम् , प्रायश्चित्तं १ गहरा भा०॥ २ ॥ एतदन्तर्गतमवतरणं भा० नास्ति ॥ ३°या वा, पा तामा०॥ ४ 'रक्तं' सुढिप्रभृतिभिः प्रद° भा० ॥ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ समवसरणप्रकृते सूत्रम् १५ च गुरुप्रदत्तं यथोक्तं वोढव्यम् । अथवा कार्य समुत्पन्ने यत् पात्रं वा चीवरं वा चारणादिषु गृहीतं तत् सर्व कृते कायें परिष्ठापनीयम् , अपरिणामकप्रत्ययनिमित्तं च यथालघीयः प्रायश्चित्तं वोढव्यम् ॥ ४२७८ ॥ सज्झायट्ठा दप्पेण वा वि जाणतए वि पच्छित्तं । कारण गहियं तु विदू, धरतऽगीएसु उज्झति ॥ ४२७९ ॥ __ खाध्यायार्थ दर्पण वा यदि "बहि-अंत-ऽसन्नि-सन्निसु, जं दिढे तेसु चेव जमदिहें।" (गा० ४२७१) इत्यादिकं क्रममुल्लङ्य गृहीतं तत्र 'जानतोऽपि' गीतार्थस्यापि प्रायश्चित्तम् । यत्तु कारणे क्रमेण विधिना गृहीतं तद् यदि सर्वेऽपि 'विदः' गीतार्थास्तदा धारयन्ति । अथागीतार्थमिश्रास्ततोऽन्यस्मिनुपकरणे लब्धे तद् उज्झन्ति ॥ ४२७९ ॥ अथ यस्मिन् काले वर्षा10 वासे स्थातव्यं यावन्तं वा कालं येन वा विधिना तदेतदुपदर्शयति आसाढपुण्णिमाए, वासावासासु होति अतिगमणं । [द.श्रु.नि. ६३] मग्गसिरबहुलदसमी, उ जाव एकम्मि खेत्तम्मि ॥ ४२८० ॥ आषाढपूर्णिमायां वर्षावासप्रायोग्ये क्षेत्रे 'अतिगमनं' प्रवेशः कर्तव्यो भवति । तत्र चापवादतो मार्गशीर्षबहुलदशमी यावदेकत्र क्षेत्रे वस्तव्यम् । एतच्च चिक्खल्ल-वर्षादिकं वक्ष्य16माणं कारणमङ्गीकृत्योक्तम् । उत्सर्गतस्तु कार्तिकपूर्णिमायां निर्गन्तव्यम् ॥ ४२८०॥ इदमेव भावयति बाहि ठिया वसमेहिं, खेत्तं गाहेत्तु वासपाउग्गं । [द.श्रु.नि. ६४] कप्पं कत्तु ठवणा, सावणबहुलस्स पंचाहे ॥ ४२८१ ॥ यत्राषाढमासकल्पः कृतस्तत्र अन्यत्र वा प्रत्यासन्नग्रामे स्थिता वर्षाक्षेत्रं वृषभैः साधुसामाचारी 20 माहयन्ति । ते च वृषभा वर्षाप्रायोग्यं संस्तारक-तृण-डगल-क्षार-मल्लकादिकमुपधि गृहन्ति । तत आषाढपूर्णिमायां प्रविष्टाः प्रतिपद आरभ्य पञ्चभिरहोभिः पर्युषणाकल्पं कथयित्वा श्रावणबहुलपञ्चम्यां वर्षाकालसामाचार्याः स्थापनां कुर्वन्ति, पर्युषणयन्तीत्यर्थः ॥ ४२८१ ॥ एत्थ य अणभिग्गहियं, वीसतिरायं सवीसगं मासं । [द.श्रु.नि. ६५] तेण परममिग्गहियं, गिहिणायं कत्तिओ जाव ॥ ४२८२ ॥ 28 'अत्र' इति श्रावणबहुलपञ्चम्यादावात्मना पर्युषितेऽपि 'अनभिगृहीतम्' अनवधारितं गृहस्थानां पुरतः कर्त्तव्यम् । किमुक्तं भवति ?-यदि गृहस्थाः पृच्छेयुः-आर्याः ! यूयमत्र स्थिता वा ! न वा ? इति; एवं पृष्टे सति ‘स्थिता वयमत्र' इति सावधारणं ने वक्तव्यम् , किन्तु साकारम् , यथा---नाद्यापि कोऽपि निश्चयः स्थिता अस्थिता वेति । इत्थमनभिगृहीतं कियन्तं कालं वक्तव्यम् ! उच्यते-यद्यभिवर्धितोऽसौ संवत्सरस्ततो विंशतिरात्रिन्दिवानि, अथ चान्द्रो30 ऽसौ ततः सविंशतिरानं मासं यावदनभिगृहीतं कर्तव्यम् । “तेणं" ति विभक्तिव्यत्ययात् 'ततः परं' विंशतिरात्रात् सविंशतिरात्रमासाच्च ऊर्द्धम् 'अभिगृहीतं' निश्चितं कर्तव्यम् 'गृहिज्ञातं च' गृहस्थानां पृच्छतां ज्ञापना कर्तव्या, यथा-वयमत्र वर्षाकालं स्थिताः । एतच्च गृहिज्ञातं १°म्यामारम° भा०॥ २ न कर्त्तव्यम् मो० त० हे. ताटी.॥ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४२७९-८५] तृतीय उद्देशः । ११६१ कार्तिकमासं यावत् कर्त्तव्यम् ॥ ४२८२ ॥ किं पुनः कारणम् इयति काले व्यतीत एवं गृहिज्ञातं क्रियते ? नार्वाग् ? इति अत्रोच्यते असिवाइकारणेहिं, अहवण वासं ण सुदु आरद्धं । [द.श्रु.नि. ६६] अभिवड्डियम्मि वीसा, इयरेसु सवीसती मासे ॥ ४२८३ ॥ . कदाचित् तत्र क्षेत्रेऽशिवं भवेत् , आदिशब्दाद् राजद्विष्टादिकं वा भयमुपजायेत, एव-5 मादिभिः कारणैः; अथवा तत्र क्षेत्रे न सुष्ठु वर्ष वर्षितुमारब्धं येन धान्यनिष्पत्तिरुपजायते, ततश्च प्रथममेव 'स्थिता वयम्' इत्युक्ते पश्चादशिवादिकारणे समुपस्थिते यदि गच्छन्ति ततो लोको ब्रूयात्-अहो ! एते आत्मानं सर्वज्ञपुत्रतया ख्यापयन्ति परं न किमपि जानते, मृषावादं वा भाषन्ते, 'स्थिताः स्मः' इति भणित्वा सम्प्रति गच्छन्ति इति कृत्वा । अथाशिवादिकारणेषु सञ्जातेष्वपि तिष्ठन्ति तत आज्ञादयो दोषाः । अपि च 'स्थिताः स्मः' इत्युक्त गृहस्था-10 श्चिन्तयेयुः-अवश्यं वर्ष भविष्यति येनैते वर्षारात्रमत्र स्थिताः; ततो धान्यं विक्रीणीयुः गृहं वा छादयेयुः हलादीनि वा संस्थापयेयुः । यत एवमतोऽभिवर्धितवर्षे विंशतिराने गते 'इतरेषु च' त्रिषु चन्द्रसंवत्सरेषु सविंशतिरात्रे मासे गते गृहिज्ञातं कुर्वन्ति ॥ ४२८३ ॥ __ एत्थ उ पणगं पणगं; कारणिगं जा सवीसती मासो । [द.श्रु.नि. ६७] सुद्धदसमीठियाण व, आसाढीपुण्णिमोसरणं ॥ ४२८४॥ 16 'अत्र' इति आषाढपूर्णिमायां स्थिताः पञ्चाहं यावद् दिवा संस्तारक-डगलादि गृहन्ति, रात्रौ च पर्युषणाकल्पं कथयन्ति, ततः श्रावणबहुलपञ्चम्यां पर्युषणं कुर्वन्ति । अथाषादपूर्णिमायां क्षेत्रं न प्राप्तास्तत एवमेव पञ्चरात्रं वर्षावासप्रायोग्यमुपधिं गृहीत्वा पर्युषणाकल्पं च कथयित्वा दशम्यां पर्युषणयन्ति । एवं कारणिकं रात्रिन्दिवानां पञ्चकं पञ्चकं च वर्धयता तावद् नेयं यावत् सविंशतिरात्रो मासः पूर्णः । अथवा ते आषाढशुद्धदशम्यामेव वर्षाक्षेत्रे स्थितास्ततस्तेषां 20 पञ्चरात्रेण डगलादौ गृहीते पर्युषणाकल्पे च कथिते आषाढपूर्णिमायां 'समवसरणं' पर्युषणं भवति, एष उत्सर्गः । शेषं कालं पर्युषणमनुतिष्ठतां सर्वोऽप्यपवादः । 1 अपवादेऽपि सविंशतिरात्राद् मासात् परतो नातिक्रमयितुं कल्पते । यद्येतावत्यपि गते वर्षाक्षेत्रं न लभ्यते ततो वृक्षमूलेऽपि पर्युषणयितव्यम् - ॥ ४२८४ ॥ अथ पञ्चकपरिहाणिमधिकृत्य ज्येष्ठकल्पावग्रहप्रमाणमाह इय सत्तरी जहण्णा, असिती णउई दसुत्तर सयं च । [द.श्रु.नि. ६८] जति वासति मग्गसिरे, दस राया तिणि उक्कोसा ॥४२८५॥ 'इतिः' उपप्रदर्शने । ये किल आषाढपूर्णिमायाः सविंशतिराने मासे गते पर्युषणयन्ति तेषां सप्ततिदिवसानि जघन्यो वर्षावासावग्रहो भवति, १ भाद्रपदशुद्धपञ्चम्या अनन्तरं कार्तिकपूर्णिमायां सप्ततिदिनसद्भावात् । एवं ~ ये भाद्रपदबहुलदशम्यां पर्युषणयन्ति तेषाम-30 शीतिर्दिवसा मध्यमो वर्षाकालावग्रहः, श्रावणपूर्णिमायां नवतिर्दिवौः, [श्रावणशुद्धपञ्चम्यां १°सवर्ण तामा• विना ॥ २-३ एतदन्तर्गतः पाठः भा. नास्ति ॥ ४ एतदनन्तरं चूर्णी विशेषचूर्णी चात्र “सावणसुद्धपंचमीए सयं" इति वर्तते ॥ 25 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ समवसरणप्रकृते सूत्रम् १५ दिवसशतम् , ] श्रावणबहुलदशम्यां दशोत्तरं दिवसशतं मध्यम एव वर्षाकालावग्रहो भवति । शेषान्तरेषु दिवसपरिमाणं गाथायामनुक्तमपि इत्थं वक्तव्यम्-भाद्रपदामावास्यां पर्युषणे क्रियमाणे पञ्चसप्ततिदिवसाः, भाद्रपदबहुलपञ्चम्यां पञ्चाशीतिः, श्रावणशुद्धदशम्यां पञ्चनवतिः, श्रावणामावास्यां पञ्चोत्तरं शतम् , श्रावणबहुलपञ्चम्यां पञ्चदशोत्तरं शतम् , आषाढपूर्णिमायां तु पर्युषिते विंशत्युत्तरं दिवसशतं भवति । एवमेतेषां प्रकाराणामन्यतरेण वर्षावासमेकक्षेत्रे स्थित्वा कार्तिकचातुर्मासिकप्रतिपदि निर्गन्तव्यम् । अथ मार्गशीर्षे गाढं वर्ष वर्षति कर्दमजलाकुलाश्च पन्थानः ततोऽपवादेनैकं दशरात्रमवतिष्ठन्ते, अथ तथापि वर्ष नोपरमते ततो द्वितीयं दशरात्रं तत्रासते, अथैवमपि वर्ष न तिष्ठति ततस्तृतीयमपि दशरात्रमासते, एवं त्रीणि दशरात्राण्युत्कर्षतस्तत्र क्षेत्रे आसितव्यम् , मार्गशिरःपौर्णमासी यावदित्यर्थः । तत ऊर्दू 10 यद्यपि कर्दमाकुलाः पन्थानः, वर्ष चागाढमनुपरतं वर्षति, यद्यपि च पानीये प्लवमानस्तदानीं ग़म्यते तथाप्यवश्यं निर्गन्तव्यम् । एवं पाञ्चमासिको ज्येष्ठकल्पावग्रहः सम्पन्नः ॥ ४२८५ ॥ अथ तमेव पाण्मासिकमाह काऊण मासकप्पं, तत्थेव ठिताणऽतीतें मग्गसिरे । सालंबणाण छम्मासिओ उ जेट्ठोग्गहो होति ॥ ४२८६ ॥ 1. यस्मिन् क्षेत्रे आषाढमासकल्पः कृतस्तद् वर्षावासयोग्यम् अन्यच्च तथाविधं क्षेत्रं नास्ति ततो मासकल्पं कृत्वा तत्रैव वर्षावासं स्थितानां ततश्चतुर्मासानन्तरं कर्दम-वर्षादिभिः कारणैरतीते मार्गशीर्षमासे निर्गच्छतां 'सालम्बनानाम्' एवंविधालम्बनसहितानां पाण्मासिको ज्येष्ठावग्रहो भवति, एकक्षेत्रेऽवस्थानमित्यर्थः ॥ ४२८६ ॥ अह अत्थि पदवियारो, चउपाडिवयम्मि होति निग्गमणं । अहवा वि अणिताणं, आरोवण पुव्वनिद्दिट्ठा ॥ ४२८७॥ ___ अथास्ति कर्दम-वर्षादिकारणाभावात् पदविचारः ततश्चतुर्णा मासानां पर्यन्ते या प्रतिपत् तस्यां निर्गमनं कर्त्तव्यम् । अथ ते पदप्रचारसम्भवेऽपि न निर्गच्छन्ति ततोऽनिर्गच्छता 'पूर्वनिर्दिष्टा' मासकल्पप्रकृते प्रागभिहिता चतुर्लघुकाख्या आरोपणा मन्तव्या ॥ ४२८७ ॥ __ अथ निर्गतानां सामाचारीमुपदर्शयति25 पुण्णम्मि णिग्गयाणं, साहम्मियखेत्तवजिते गहणं । संविग्गाण सकोसं, इयरे गहियम्मि गेहंति ॥ ४२८८ ॥ पूर्णे वर्षावासावग्रहे निर्गतानां यत्र साधर्मिकैवर्षावासः कृतस्तत् क्षेत्रं वर्जयित्वा अन्येषु श्राम-नगरादिषूपकरणस्य ग्रहणं भवति । ये संविनाः साम्भोगिका असाम्भोगिका वा तेषां यद् वर्षाक्षेत्रं तत् सक्रोशयोजनं परिहृत्य गृह्णन्ति । इतरे-पार्श्वस्थादयस्तेषां यद् वर्षावासक्षेत्रं तत्र 30 तैर्गृहीते उपकरणे पश्चात् संविमा गृह्णन्ति, तेषां च क्षेत्रं मासद्वयं न परिहियते ॥ ४२८८ ॥ कुतः ? इति चेद् उच्यते वासासु वि गिण्हंती, णेव य णियमेण इतर विहरंती । तहिइं सुद्धमसुद्धे, गहिए गिण्हति जं सेसं ॥ ४२८९ ॥ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४२८६ - ९३ ] तृतीय उद्देशः । ११६३ 'इतरे' पार्श्वस्थादयो वर्षास्वपि वस्त्राणि गृह्णन्ति, न च नियमेनैव चतुर्मासानन्तरं ते विहरन्ति, अतस्तैः शुद्धे अशुद्धे वा उपकरणे गृहीते यत् शेषं वस्त्रादिकं श्राद्धाः प्रयच्छन्ति तद् मासद्वयमध्येऽपि गृह्णन्ति ॥ ४२८९ ॥ सक्खेते परखेत्ते वा, दो मासा परिहरेतु गेव्हंति । जं कारणं ण णिग्गय, तं पि बहिंझोसियं जाणे ॥ ४२९० ॥ स्वक्षेत्रं-यत्रात्मना वर्षाकल्पः कृतः परक्षेत्र - यत्रापरे संविमा वर्षाकल्पं स्थितास्तत्र स्वक्षेत्रे परक्षेत्रे वा द्वौ मासौ परिहृत्य तृतीयमासि गृह्णन्ति । अथ चतुर्मासानन्तरं कर्दमादिभिः कारर्न निर्गतास्ततः 'यं' यावन्तं कालं कारणमपेक्ष्य न निर्गतास्तमपि कालं 'बहिजो षितं ' बहि:क्षिप्तं 'जानीयाद्' गणयेत्, तावन्तमपि कालं बहिर्निर्गता इव मन्तव्या इति भावः ॥ ४२९० ॥ कैः पुनः कारणैर्न निर्गता: : इत्याह 10 चिक्खल्ल;वास-असिवादिएसु जहिँ कारणेसु उ ण णिति । दिते पडिसेधेत्ता, गेहंति उ दोसु पुण्णेसु ।। ४२९१ ॥ चिक्खल्लः–कर्दमस्तद|कुलाः पन्थानः, वर्षं वा नोपरमते, अशिव- दुर्भिक्षादीनि वा बहिरुपस्थितानि, एवमादिभिः कारणैर्यत्र न निर्गच्छन्ति तत्र यदि केचिद् वस्त्रादिना निमन्त्रयन्ति तदा तान् ददतः प्रतिषिध्य द्वयोस्तु मासयोः पूर्णयोर्वस्त्रादिकं गृह्णन्ति ॥ ४२९१ ॥ कुतः ? इत्याह 5 भावो उणिग्गतेहिं, वोच्छिजइ देंति ताइँ अण्णस्स । अत्तट्ठेति व ताई, एमेव य कारणमणिते ।। ४२९२ ॥ 'ये साधव इह क्षेत्रे वर्षावासं स्थितास्तेषां वस्त्राणि दास्यामः' इत्येवं यः श्राद्धानां भावः स निर्गतेषु साधुषु व्यवच्छिद्यते, यानि वा वस्त्राणि दातुं सङ्कल्पितानि तानि 'अन्यस्य' पार्श्वस्थादे: 20 प्रयच्छन्ति स्वयमेव वा 'आत्मार्थयन्ति' परिभुञ्जत इत्यर्थः । अथ चतुर्मासानन्तरं कारणमपेक्ष्य न निर्गच्छन्ति ततो मासद्वयमध्ये श्राद्धानामभ्यर्थनायामप्यगृह्णानेष्वेवमेव भावो व्यवच्छिद्यते, अतो द्वौ मासौ परिहृत्य ग्रहीतव्यम् । कारणे तु मासद्वयमध्येऽपि गृह्णीयात् ॥ ४२९२ ॥ तदेव दर्शयति १ गृहतामेवमेव भा० ॥ २ दिनानि त कां० ॥ गच्छे सवाल- बुड्ढे, असती परिहर दिवड्डमासं तु । पणतीसा पणुवीसा, पण्णरस दसेव एकं च ॥ ४२९३ ॥ सबाल-वृद्धे गच्छे वस्त्राभावे शीतं सोढुमसमर्थे सार्धं मासं 'परिहर' वर्जय, परिहृत्य च तत ऊर्द्धं गृह्णीयात् । अथ सार्धमासमपि परिहर्तुं न शक्तस्ततः पञ्चत्रिंशतं दिनानि परिहर, अप गच्छो न संस्तरति ततः पञ्चविंशतिदिनानि, तथाप्यसंस्तरणे पञ्चदश दिनानि, तथाप्यशक्तौ दश दिवसान्, तथाप्यसामर्थ्य एकमपि दिनं परिहरेदिति सङ्ग्रहगाथासमासार्थः ॥ ४२९३ ॥ 30 अथैनामेव विवृणोति — बाल-सह- वुड्डु - अतरंत खमंग - सेहाउलम्मि गच्छमि । 15 25 Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [ समवसरणप्रकृते सूत्रम् १५ सीतं अविसहमाणे, गेहंति इमाएँ जयणाए ॥ ४२९४ ॥ तथाविधवस्त्राभावाद् बाला-ऽसहिष्णु-वृद्ध-लान-क्षपक-शैक्षाकुले गच्छे शीतम् 'अविषहमाणे' सोढुमशक्ते साधवोऽनया यतनया खक्षेत्रे परक्षेत्रे वा वस्त्राणि गृहन्ति ।। १२९४ ॥ पंचूणे दो मासे, दसदिवसूणे दिवड्डमासं वा। . दस-पंचऽधियं मासं, पणुवीसदिणे व वीसं या ॥ ४२९५ ॥ पन्नरस दस य पंच व, दिणाणि परिहरिय गेण्ह एगं वा । अहवा एकेक दिणं, अउणट्टिदिणा' आरम्भ ॥ ४२९६ ॥ आगाढे कारणे पञ्चभिर्दिवसैरूनौ द्वौ मासौ परिहृत्य वस्त्रं ग्रहीतव्यम् । अथ तावन्तं कालं यावद् बाल-वृद्धादयः शीतेन परिताप्यमाना न संस्तरन्ति ततो दशदिवसोनौ द्वौ मासौ परि10 हृत्य वस्त्रं ग्राह्यम् । एवं सार्धमासं दशदिवसाधिकं वा पञ्चदिवसाधिकं वा अन्यूनाधिकं वा । मासं पञ्चविंशतिदिनानि विंशतिदिनानि पञ्चदशदिनानि दशदिनानि पञ्च वा दिनानि यथा क्रमं परिहृत्य वस्त्रं गृह्णीयात् । अथ पञ्च दिवसानपि वस्त्राभावे बाल-वृद्धादयो नात्मानं निर्वाहयितुमीशास्ततश्चत्वारि त्रीणि द्वे यावदेकमपि दिनं परिहृत्य ग्रहीतव्यम् । अथवा एकैकदिनहानिरत्र द्रष्टव्या, तद्यथा-यत्र वर्षावासं स्थितास्तत्र षष्टिदिनानि परिहृत्य उत्सर्गतो 16 वस्त्रग्रहणं कर्त्तव्यम् , कारणे पुनरेकोनषष्टिदिनान्यारभ्येकैकदिनं हापयता तावद् वक्तव्यं यावदेकमपि दिनं परिहृत्य वस्त्रग्रहणं कार्यम् ॥ ४२९५ ॥ ४२९६ ॥ व्याख्यातं प्रथमसमवसरणसूत्रम् , सम्प्रति द्वितीयसमवसरणसूत्रं व्याख्याति बिइयम्मि समोसरणे, मासा उक्कोसगा दुवे होति । ओमत्थगपरिहाणीय पंच पंचेव य जहण्णे ॥ ४२९७ ॥ 20 द्वितीयं समवसरणं नाम-ऋतुबद्धकालः, तत्र मासकल्पेन स्थिता वस्त्रादिकमुपकरणमुत्पा दयन्ति, मासकल्पानन्तरं च तत्र द्वौ मासावुत्कर्षतः परिहर्त्तव्यौ भवतः । कारणे तु तथैवावामुखपरिहाण्या पञ्च पञ्च दिनानि हापयता तावद् नेयं यावद् जघन्यत एकं दिनं परिहर्त्तव्यम् ॥ ४२९७ ॥ अमुमेवार्थ स्फुटतरमाह अपरिहरंतस्सेते, दोसा ते चेव कारणे गहणं । बाल-बुड्ढाउले गच्छे, असती दस पंच एक्को य ॥ ४२९८ ॥ यत्र क्षेत्रे मासकल्पः कृतस्तत्र द्वौ मासावपरिहरतस्त एव दोषा मन्तव्या ये वर्षावासे मासद्वयमपरिहरत उक्ताः । कारणे तु ग्रहणं कर्त्तव्यम् , कथम् ? इत्याह-बाल-वृद्धाकुले गच्छे वस्त्राभावे पञ्चकपरिहाण्या एकैकपरिहाण्या वा तावद् वक्तव्यं यावद् दश वा पञ्च वा एको वा दिवसः परिहर्तव्यः । यत्र संविनैर्मासकल्पो वर्षाकल्पो वा कृतस्तत्र मासद्वयादुपरि पञ्चसु 30दिवसेष्वपूर्णेष्वन्येषां न कल्पते किञ्चिदपि ग्रहीतुम् ॥ ४२९८ ॥ १ 'म् ॥ ४२९५॥ ४२९६ ॥ सूत्रम्-कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा दोञ्चसमोसरणुदेसपत्ताई चेलाई पडिगाहित्तए ॥ अत्र भाष्यम्-बिहयम्मि भा० । चूर्णी विशेषचूर्णी चापीदं सूत्रं पूर्वमुपन्यस्त्रमपि (दृश्यता पत्र ११४९ टिप्पणी १) पुनरत्राप्युपक्षिप्तं वर्तते ॥ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४२९४ - ४३०२ ] तृतीय उद्देशः । ११६५ यो गृहाति तस्य दोषानुपदर्शयति- करणाणुपालयाणं, भगवतों आणं पडिच्छमाणाणं । जो अंतरा उ गेहति, तट्टाणारोवणमदत्तं ।। ४२९९ ॥ करणस्य - पिण्डविशुद्ध्यादेः अनु - पश्चात् पूर्वऋषिपरम्पराक्रमेण पालकाः करणानुपालकास्तेषाम्, करणस्य च चरणाविनाभावित्वात् चरणानुपालकानामित्यपि द्रष्टव्यम्, एतेन शीतल - 5 विहारितादोषस्तेषां परिहृतो भवति 'भगवतः' वर्द्धमानस्वामिनो या आज्ञा तां तथेति प्रतिपत्या प्रतीच्छताम् अनेन यथाच्छन्दतादोषस्तेषां नास्तीत्युक्तं भवति; एवंविधानां साधूनां क्षेत्रे 'अन्तरा' तैरगृहीते उपकरणे यो वस्त्रादि गृह्णाति तस्य ' तत्स्थानारोपणा' स्वस्थानप्रायश्चित्तम्, तद्यथा - - उत्कृष्टे चतुर्लघवः, मध्यमे मासिकम् जघन्ये पञ्चकम् ; सूत्रादेशेन वा साधर्मिकस्तैन्यमिति कृत्वाऽनवस्थाप्यम् । "अदत्तं " ति भगवता नानुज्ञातमिति कृत्वा तीर्थकरादत्तमपि 10 भवति ॥ ४२९९ ॥ " उवरिं पंचमपुणे, गहणमदत्तं गत त्ति गेण्हंति । अणपुच्छ दुपुच्छावा, तं पुण्णें गत त्ति गेव्हंति ॥ ४३०० ॥ परक्षेत्रे द्वयोर्मासयोरुपरि पञ्चसु दिनेष्वपूर्णेषु यदि ग्रहणं करोति तदा अदत्तादानदोषः प्रसज्यते । अथ जानन्ति गता अन्यदेशं क्षेत्रखामिनस्ततोsपूर्णेष्वपि पञ्चरात्रिन्दिवेषु गृह्णन्ति । 10 •1 अथ शङ्कितं ततो न गृह्णन्ति । अथ ते परदेशं न गतास्ततो यद्यनापृच्छया - दुःपृच्छया → वा वस्त्रं गृह्णन्ति ततस्तथैवादत्तादानदोषं प्राप्नुवन्ति । यत एवमतः 'तद्' वस्त्रादिकमुपकरणं 'गता निःशङ्कितमन्यदेशं क्षेत्रिकाः' इति विज्ञाय पूर्णे मासद्वये गृह्णन्ति । अत्राना - पृच्छा नाम - 'क्षेत्रिकैर्वस्त्रग्रहणं कृतं न वा' इति न पृच्छति, दुःपृच्छा पुनः - अविधिना प्रच्छनं ॥ ४३०० ॥ सा चेयम् — गोवाल- वच्छवाला - कासग - आदेस - बाल- बुड्ढाई | अविधी विही उ सावग - महतर - धुवकम्मि- लिंगत्था ॥ ४३०१ ॥ ये गोपाल - वच्छपाल - कर्षकाः प्रभाते निर्गताः सन्तो भूयः प्रदोषे ग्रामं प्रविशन्ति, ये वा तत्रादेशाः - प्राघूर्णका अन्यमामादायाताः, ये वा बाल-वृद्धादयोऽत्यन्तमुग्धा विस्मरणशीलाश्च तान् पृच्छति—किं श्रमणैः कृतं वस्त्रग्रहणं न वा ? इति एषा अविधिपृच्छा । विधिपृच्छा 26 पुनरियम् — श्रावका ग्राममहत्तरा वा प्रच्छनीया येषु साधूनां वस्त्रग्रहणसम्भवो भवति, ये वा ध्रुवकर्मिकाः - लोहकार - रथकारादयः ये वा लिङ्गस्थाः - लिङ्गधारिणस्तान् पृच्छति 'वस्त्रादिग्रहणं साधुभिः कृतं न वा ?' इति ॥ ४३०१ ॥ परक्षेत्रे वस्त्रग्रहणविधिमभिधित्सुराह - गंतूण पुच्छिऊण य, तेसिं वयणे गवेसणा होति । तेसrssidy सुद्धेसु जत्तियं सेस अग्गहणं ॥ ४३०२ ॥ क्षेत्रस्वामिनां समीपे गत्वा विधिवद् आपृच्छ्य तेषां साधूनां 'वचने' अनुज्ञायां तदीये क्षेत्रे वस्त्रगवेषणा कर्त्तव्या भवति । अथ न ज्ञायन्ते ते कुत्रापि गता अमीभिश्च साधुभिस्तत्र एतचिह्नान्तर्गतः पाठः भा० कां० एव वर्तते ॥ १-२ 20 30 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ समवसरणप्रकृते सूत्रम् १५ वस्त्रग्रहणं कियदपि कृतं ते च क्षेत्रवामिन आगताः ततस्तेषु 'शुद्धेषु' विधिना आगतेषु यावद् वस्त्रादि गृहीतं तावत् तेषां प्रत्यर्पयितव्यम् , शेषस्य १ चोपकरणस्य » ग्रहणं न कर्त्तव्यम् ॥ ४३०२॥ इदमेव सविशेषमाह उप्पन्न कारणाऽऽगंतु पुच्छिउं तेहि दिण्ण गेण्हंति । तेसाऽऽगयेसु सुद्धेसु जत्तियं सेस अग्गहणं ॥ ४३०३ ॥ बाल-वृद्ध-शैक्षादीनां शीतपरितापनालक्षणे वस्त्रग्रहणकारणे उत्पन्ने खक्षेत्रे वस्त्रदुर्लभतां सम्यग निश्चित्य परक्षेत्रे वस्त्रग्रहणं कर्तुकामाः क्षेत्रवामिनामन्तिके गत्वा पृष्ट्वा च तैः 'दत्तम्' . अभ्य नुज्ञातं यावत्प्रमाणं वस्त्रादि तावदेवं गृह्णन्ति, नातिरिक्तम् । अथ न ज्ञायन्ते ते कुत्रापि 10 गतास्ततो विधिपृच्छया उपकरणे गृहीते यदि ते क्षेत्रिकाः शुद्धा आगच्छेयुः ततः शुद्धेषु तेष्वागतेषु ततो यावद् गृहीतं तावत् तेषां प्रत्यर्पयन्ति, शेषस्य चाग्रहणम् ॥ ४३०३ ॥ कथं पुनस्ते क्षेत्रिका आगताः शुद्धा अशुद्धा वा भवन्ति ? इति उच्यते पडिजग्गंति गिलाणं, ओसहहेऊहि अहव कजेहिं । एतेहिं होंति सुद्धा, अह संखडिमादि तह चेव ॥ ४३०४॥ 15 क्षेत्रिका मासद्वये पूर्णेऽपि अमीभिः कारणैर्न समागन्तुं शक्नुयुः--ग्लानं प्रतिजाग्रतः स्थिताः, ग्लानस्य वा औषधम्-अगदं तन्मीलनहेतोः स्थिताः, कुल-गण-सङ्घकार्येषु वा व्यापृताः; एवमादिभिः कारणैरनागच्छन्तः शुद्धाः । अथ सङ्खडिनिमित्तं स्थिता व्रजिकादिषु वा प्रतिबध्यमाना आगताः ततः 'तथैव' मासद्वयं यावत् तदीयं क्षेत्रम् , उपरि तु पञ्चरात्रं न ते प्रभवः, ततो यत् तैस्तत्र क्षेत्रे गृहीतं तद् गृहीतमेव, न क्षेत्रिकाणां प्रयच्छन्ति ॥ ४३०४ ॥ 20 अमूनि तु विशुद्धकारणानि तेणभय सावयभया, वासेण णदीय वा वि(निरुद्धाणं । दायव्वमदेंताणं, चउगुरु तिविहं च णवमं वा ॥ ४३०५॥ स्तेनभयाद्वा श्वापदभयाद्वा » वर्षेण वा नद्या वा निरुद्धानां चिरादागमनमभूत् ततो यद् गृहीतं तत् तेषामागतानां दातव्यम् । अथ न ददति ततश्चतुर्गुरुकम् , उपकरणनिष्पन्नं 25 वा 'त्रिविधं' पञ्चक-मासिक-चतुर्लघुकलक्षणम् , 'नवमं वा' सूत्रादेशेनानवस्थाप्यम् ॥४३०५॥ परदेसगते गाउं, सयं व सेजातरं व पुच्छित्ता । __ गेण्हंति असहभावा, पुण्णेसु तु दोसु मासेसु ॥ ४३०६ ॥ खयमपि क्षेत्रिकान् परदेशगतान् । ज्ञात्वा शय्यातरं वा पृष्ट्वा परदेशगतान् - निश्चित्य द्वयोर्मासयोः पूर्णयोः 'अशठभावाः' शुद्धपरिणामा गृह्णन्ति ॥ ४३०६ ॥ बिइयपदमणाभोगे, सुद्धा देता अदेंते ते च्चेव । आउट्टिया गिलाणादि जत्तियं सेस अग्गहणं ॥ ४३०७॥ १ - एतन्मध्य गतः पाठः भा० कां० एव वर्तते ॥ २ °व ग्रहीतव्यम् , नाति° का० ॥ ३°द्धाः समाग° त० डे० ॥ ४-५ एतन्मध्यगतः पाठः भा० को. एव वत्तेते ॥ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४३०३-१०] तृतीय उद्देशः । ११६७ द्वितीयपदमत्रोच्यते-'अनाभोगो नाम 'किमत्र साधवो वर्षाकल्प मासकल्पं वा कृतवन्तो न वा ?' इति न सम्यक् परिज्ञातं ततः परक्षेत्रेऽपि गृह्णीयुः, पश्चाद् ज्ञाते क्षेत्रिकाणां प्रयच्छन्तः शुद्धाः, अप्रयच्छतां त एव दोषाः । अथ 'आकुट्टिकया' आभोगेन गृहीतं परं ग्लानादीनामर्थे ततो यावत् तेषामुपयुज्यते तावद् गृह्णन्ति, 'शेषम्' अतिरिक्तं न गृहन्ति ।। ४३०७॥ ॥ समवसरणप्रकृतं समाप्तम् ॥ 10 य था र ला धि क व स्त्र प रि भा ज न प्रकृ त म् सूत्रम् कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहाराइणियाए . चेलाइं पडिग्गाहित्तए १६ ॥ अस्य सम्बन्धमाह दिडं वत्थग्गहणं, तेसिं परिभायणे इमं सुत्तं ।। अविणय असंविभागा, अधिकरणादी य णेवं तु ॥ ४३०८ ॥ द्वितीयसमवसरणे दृष्टं तावद् वस्त्रग्रहणम् । सम्प्रति तेषां वस्त्राणां परिभाजने' विभज्य प्रदाने यो विधिस्तदभिधायकमिदं सूत्रमारभ्यते । इत्थं विभज्य प्रदाने किं प्रयोजनम् ? इति चेद् अत आह–'एवं' यथारत्नाधिकं वस्त्राणां विभज्य दानेऽविनयोऽसंविभागोऽधिकरणादयश्च 15 दोषा न भवन्तीति ॥ ४३०८॥ . ___ अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या-कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा 'यथारानिकं' यो यो रानिकः-भावरलैरधिकस्तदनतिक्रमेण चेलानि प्रतिग्रहीतुमिति सूत्रार्थः ।। अथ नियुक्तिविस्तरःसंघाडएण एकतों, हिंडंती वंदएण जयणाए। 20 साधारणऽणापुच्छा, उ अदत्तं एकओ भागा ॥ ४३०९ ॥ सङ्घाटकेन 'एकतः' एकस्यां दिशि साधवो वस्त्रग्रहणार्थ हिण्डन्ते । अथ सङ्घाटकेन न प्राप्यते ततो वृन्देनापि यतनया पर्यटन्ति । अथ 'साधारणं' बहूनामाचार्याणां सामान्यं तत् क्षेत्रं ततो यदि तत्रापरेषामाचार्याणामनापृच्छया गृह्णन्ति तदा “अदत्तं" ति साधर्मिकस्तैन्यं भवति, अतस्तानापृच्छ्य स ग्रहीतव्यानि, - गृहीत्वा च तेषां वस्त्राणाम् 'एकतः' एकसदृशा भागाः 25 कर्तव्या न विसदृशा इति सङ्ग्रहगाथासमासार्थः ॥ ४३०९॥ साम्प्रतमेनामेव विवृणोति निस्साधारण खेत्ते, हिंडतो चेव गीतसंघाडो । उप्पादयते वत्थे, असती तिगमादिवंदेणं ॥ ४३१० ॥ 'निस्साधारणे' एकाचार्यप्रतिबद्धे क्षेत्रे गीतार्थसङ्घाटको भिक्षां हिण्डमान एव वस्त्राण्युत्पाद१°रणाऽणपु तामा० ॥ २१ एतन्मध्यगतः पाठः भा. कां• एव वर्तते ॥ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ यथारना प्रकृते सूत्रम् १६ यति । अथ सङ्घाटकेन हिण्डमाना न प्राप्नुवन्ति ततः 'त्रिकादिवृन्देन' त्रिचतुःपञ्चादिसाधुसमूहेन पर्यटन्त उत्पादयन्ति ॥ ४३१० ॥ स साधारणक्षेत्रे पुनरयं विधिः-- दुगमादीसामण्णे, अणपुच्छा ति विह सोधि णवमं वा। संभोइयसामने, तह चेव जहेक्कगच्छम्मि ॥४३११॥ । द्विकादीनां-द्वित्रिप्रभृतीनामाचार्याणां सामान्ये क्षेत्रे तेषामनापृच्छया गृहतस्त्रिविधा 'शोधिः' प्रायश्चित्तम्-जघन्ये पञ्चकम् , मध्यमे मासिकम् , उत्कृष्ट चतुर्लघवः; 'नवमं वा' सूत्रादेशेनानवस्थाप्यम् । ते चाचार्याः परस्परं । सौम्भोगिका असाम्भोगिका वा । तत्र » साम्भोगिकसामान्ये क्षेत्रे वस्त्रग्रहणे तथैव विधिरवसातव्यो यथा एकस्मिन् गच्छे । सडाटकादिक्रमेण - अनन्तरगाथायामुक्तः ॥ ४३११ ॥ १ अँसाम्भोगिकेषु विधिमाह-~ 10 अमणुण्णकुलविरेगे, साही पडिवसभ-मूलगामे य । __ अहवा जो जं लाभी, ठायंति जधासमाधीए ॥ ४३१२॥ अमनोज्ञाः-असाम्भोगिकास्तैः सह यत् क्षेत्रं साधारणं तत्र कुलादीनां विरेकः-विभजनं कव्यम् , यथा--एतेषु कुलेषु युष्माभिर्वस्त्राणि ग्रहीतव्यानि, एतेषु पुनरस्माभिः; यद्वाऽस्यां साहिकायां-गृहपतिरूपायां भवद्भिः, अस्यां पुनरस्माभिः; अथवा प्रतिवृषभग्रामेषु यूयं ग्रही15 प्यथ, वयं मूलग्रामे ग्रहीष्यामः; मूलग्रामे वा यूयं, वयं प्रतिवृषभग्रामेषु; अथवा यो यद् वस्त्रं कुलादौ पर्यटन् “लाभी" लप्स्यते तेन तस्य ग्रहणं कर्तव्यम् । एतेषामन्यतमेन प्रकारेण व्यवस्था स्थापयित्वा यथासमाधिना तत्र तिष्ठन्ति ॥ ४३१२ ॥ " एवमसाधारणे साधारणे वा क्षेत्रे वस्त्राणि गृहीत्वा किं कर्त्तव्यम् ? इत्याह वत्थेहिँ आणितेहिं, देंति अहारातिणि तहिं वसभा। 20 अदाणे गुरुणो लहुगा, सेसे लहुओ इमे होंति ॥ ४३१३ ॥ वस्त्रेषु समानीतेषु ये वृषभास्ते यथारत्नाधिकं तत्र वस्त्राणि प्रयच्छन्ति । यदि तत्र गुरूणां . प्रथमतो वस्त्रदानं न कुर्वन्ति तदा चतुर्लघुकाः। शेषाणां यथारत्नाधिकं विभज्य न प्रयच्छन्ति लघुमासः । ते च रत्नाधिकाः 'इमे' वक्ष्यमाणा भवन्ति ॥ ४३१३ ॥ तत्र गुरूणां यादृशानि वस्त्राणि दीयन्ते तदेतत् प्रतिपादयति25. विदु क्खमा जे य मणाणुकूला, जे योवजुजंति असंथरंते । .. गुरुस्स साणुग्गहमप्पिणित्ता, भाएंति सेसाणि उ झंझहीणा ॥ ४३१४ ॥ साधुभिर्यथाविधि गृहीत्वा भूयांसि वासांसि वृषभाणां समर्पितानि, ततो वृषभाः “विदु" त्ति 'विदित्वा' सुन्दरा-ऽसुन्दरताविभागं विज्ञाय यानि 'क्षमाणि' दृढानि यानि च 'मनोऽनु कूलानि' गुरूणां मनसोऽभिरुचितानि यानि चाऽसंस्तरति गच्छे गुरुपरिभुक्तान्यपि शेषसाधू. 30 नामुपयुज्यन्ते तानि गुरोः 'सानुग्रहं' सविशेषं यथा भवति एवमर्पयित्वा शेषाणि वस्त्राणि झञ्झा-कलहस्तेन हीनाः-विरहिताः सन्तो यथारत्नाधिकं परिभाजयन्ति ॥ ४३१४ ॥ ____ अथ तानेव रत्नाधिकानाह १-२ - एतन्मध्यगतः पाठः भा० कां० एव वर्तते ॥ ३-४ » एतदन्तर्गतः पाठः भा० नास्ति । Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४३११-१८] तृतीय उद्देशः । उवसंपज गिलाणे, परित सुत सोअव्वए य जाती य । तव भासा लीए, ओमे दुविहस्स अरिहा उ ।। ४३१५ ॥ " उवसंपज्ज" त्ति यः तत्प्रथमतया उपसम्पदं प्रतिपद्यते । 'ग्लानः' मन्दः, स च द्विधाआगाढोsनागाश्व | 'परीतः ' परिमितोपधिः । “सुत" ति बहुश्रुतः । " सो अवए" ति यो व्याख्यानमण्डल्या उत्थितानां सूत्रार्थे श्रोतव्ये ज्येष्ठतया व्यवह्रियते । "जाइ" ति जातिस्थविर: 5 षष्टिवर्षपर्यायः । "तव” त्ति तपखी । "भास" त्ति यः अभाषिकः - तद्देशभाषायामनभिज्ञः । "लद्धीए" त्ति यस्य लब्ध्या वस्त्राणि लभ्यन्ते । एतेषामुपसम्पद्यमानादीनां यथाक्रमं दत्त्वा ततो यो यः पर्यायरत्नाधिकः स स प्रथमं गृह्णाति, "ओमि" त्ति अवमरालिकः पश्चाद् गृह्णाति । एते यथाक्रमं 'द्विविधस्य' ओघोपधेरौपग्रहिकोंपधेश्च ग्रहणे 'अर्हाः' योग्या मन्तव्याः ॥ ४३१५ ॥ एएसि परूवणया, जा य विणा तेहिं होति परिहाणी | अहवा एकेक्स्स उ, अड्डोकंतीकमो होति ।। ४३१६ ॥ 10 'एतेषाम्' उपसम्पद्यमानादीनां 'प्ररूपणा' व्याख्या कर्त्तव्या, सा चानन्तरमेव कृता । यधेतेषां यथाक्रमं वृषभा न प्रयच्छन्ति ततो या तेषां 'तैः' वस्त्रैर्विना 'परिहाणिः ' संयमविराधनादिका भवति तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् । अथवा 'एकैकस्य' उपसम्पद्यमानादेः प्रत्येकं ग्लानादिविषयोऽयमर्द्धापकान्तिक्रमो भवति ॥ ४३१६ ॥ तद्यथा उवसंपज गिलाणो, अगिलाणो वा वि दोण्णि वि गिलाणा । तत्थ वि य जो परित्तो, एस गमो सेसगेसुं पि ॥ ४३१७ ॥ उपसम्पद्यमानो द्विविधः - ग्लानोऽग्लानश्च । तत्र यो ग्लानस्तस्य दातव्यम् । अथ द्वावप लानावग्लानौ वा ततो यस्तत्र परीतोपधिस्तस्मै द्वातव्यम् । एवमेषः 'गमः' प्रकारः 'शेषेष्वपि ' बहुश्रुतादिपदेषु मन्तव्यः, तद्यथा - द्वावपि परीत्तोपधी अपरीतोपधी वा ततो यो बहुश्रुत - 20 स्तस्मै देयम् । अथ द्वावपि बहुश्रुतौ ततो यश्चिन्तनिका कारकस्तस्य दातव्यम् । अथ द्वावपि चिन्तनिकाकारकौ ततो यस्तत्र जातिस्थविरस्तस्य दातव्यम् । अथ द्वावपि जातिस्थविरौ ततो यस्तपखी तस्य दातव्यम् । अथोभावपि तपखिनौ ततो योऽभाषिकस्तस्मै दातव्यम् । अथ द्वावप्यभाषिकौ भाषिकौ वा ततो यो लब्धिमान् तस्मै प्रदातव्यम् ॥ ४३१७ ॥ प्रकारान्तरेण यथारलाधिकपरिपाटीमाह- ११६९ आयरिए य गिलाणे, परित्त पूया पवत्ति थेर गणी । सुत भासा लद्धीए, ओमे परियागरातिणिए ॥ ४३१८ ॥ आचार्यस्य पूर्वं विशिष्टानि वस्त्राणि दत्त्वा ततो ग्लानस्य दातव्यानि । ततः परीत्तोपधेः, ततः “पूय” चि चूर्ण्यभिप्रायेण 'पूजनार्हस्य' उपाध्यायस्य बृहद्भाष्याभिप्रायेण तु 'पूजना १ “पूयणारिद्दस्स उवज्झायस्स” इति चूर्णो विशेषचूर्णौ चापि पाठः ॥ २ “अधबा अण्णा वि इमा, अधराविणियाए होति परिवाडी । आयरिए य गिलाणे, परित्त पुजे गुरूणं च ॥ पूताऽऽयरियपि माती, ततो पवत्ती य थेर गण गच्छे । सुत भासा लद्धीए, तोमे परिभागरायणिये ॥" बृहद्भाष्यम् ॥ 15 25 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 ११७० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ यथारना०प्रकृते सूत्रम् १६ हस्य' गुरुसम्बन्धिपितृ-पितृव्यादेः, ततः प्रवर्तिनः, तदनन्तरं स्थविरस्य, ततः "गणि" ति गणावच्छेदिकस्य, ततः श्रुतसम्पन्नस्य, ततोऽभाषिकस्य, ततो लब्धिमतो यथाक्रमं दातव्यम् । अर्धपक्रान्तिचारणिका प्राग्वत् कर्त्तव्या । तदनन्तरं यो यः पर्यायरात्निकस्तस्य तस्य प्रथमम् , अवमरात्रिकस्य तु पश्चाद् यथाक्रमं दातव्यम् ॥ ४३१८ ॥ एवं तावत् सङ्घाटकेनानीतानां 5 विधिरुक्तः । अथ वृन्देनानीतानां यो विधिस्तमभिधित्सुराह णेगेहिं आणियाणं, परित्त परियाग खुभिय पिंडेता। आवलिया मंडलिया, लुद्धस्स य सम्मता अक्खा ॥ ४३१९ ॥ अनेकैः साधुभिरानीतानां वस्त्राणां परिभाजने विधिरुच्यते-आचार्यादिक्रमेण परीत्तोपधीनां यावद् दत्त्वा ततो ये' पर्यायरानिकास्तेषामहिण्डमानानामपि प्रथमतो दातव्यम् । तत्र च 10 यस्तानि वस्त्राणि समानीतानि ते 'पिण्डित्वा' सम्भूय 'क्षुभितं' क्षोभं कुर्वीरन् , कलहमिति यावत् । कश्चितु ब्रूयात्-आवलिकया मण्डलिकया वा विभजनं विधीयताम् । “लुद्धस्स य सम्मता अक्ख" ति कस्यापि पुनर्लब्धस्याक्षान् पातयित्वा वस्त्रविभजनमभिमतम् । एष सङ्ग्रहगाथासलेपार्थः ॥ ४३१९ ॥ साम्प्रतमेनामेव विवरीषुराह गेहंतु पूया गुरवो जदिटुं, सचं भणामऽम्ह वि एयदिटुं । अणुण्हसंवट्टियऽककसंगा, गिण्हंति जं अनि न तं सहामो ॥ ४३२०॥ अहिण्डमानानां वस्त्रेषु दीयमानेषु ये वस्त्राणामानेतारस्ते ब्रवीरन्-यद् ‘इष्टं' मनोऽनुकूलं वस्त्रं गुरवो गृहन्ति तत् ते सकलगच्छवामितया पूज्या इति कृत्वा गृहन्तु, यद् गुरूणामुत्कृष्टं बस्तु दीयते तत् 'सत्यम्' अवितथमिति वयमपि भणामः, न केवलं वचसैव भणामः किन्तु मनसाऽप्यस्माकमेतदिष्टमेव, परमनुप्णेन-भिक्षापरिभ्रमणाभावादुष्णलगनाभावेन संवर्तितानि20 वर्तुलीभूतानि अत एवाकर्कशानि अङ्गानि-पाणि-पाद-पृष्ठोदरप्रभृतीनि येषां तेऽनुष्णसंवर्तिताकर्कशाङ्गा एवंविधाः सन्तो यद् 'अन्ये' अहिण्डमानाः प्रथमं गृह्णन्ति न तद् वयं सहामहे ॥४३२०॥ आगंतुगमादीणं, जइ दायव्वाइँ तो किणा अम्हे । कम्मारभिक्खुयाणं, गाहिज्जामो गइमसग्धं ॥ ४३२१ ॥ आगन्तुकाः-उपसम्पत्तारस्तेषाम् आदिशब्दाद् ग्लानादीनां च यदि दातव्यानि वस्त्राणि ततः 25"किण" ति केन कारणेन वयं 'कर्मकारभिक्षुकाणां' देवद्रोणीवाहकभिक्षुविशेषाणां गतिम् 'अश्लाघ्यां' निन्दनीयां ग्राह्यामहे ? । किमुक्तं भवति ?-'यदि नामास्मदानीतानां वस्त्राणामेते आगन्तुकादयः खामिभावं भजन्ते ततः किमेवं वयं देवद्रोणीवाहकभिक्षुकवद् मुधैव वस्त्राद्या. नयनकर्म कार्यामहे ?' - इति वस्त्राण्यानेतारश्चिन्तयेयुः ॥ ४३२१ ॥ ततः-- विरिचमाणे अहवा विरिके, खोभं विदित्ता बहुगाण तत्थ । 30 ओमेण कारिंति गुरू विरेगं, विमज्झिमो जो व तहिं पडू य ॥ ४३२२ ॥ एवं 'विरिच्यमाने' विभज्यमानेऽथवा 'विरिक्ते' विभक्ते उपकरणे बहूनामनन्तरोक्तं क्षोभ १°येऽहिण्डमानाः पर्यायरात्निकास्तेषां दात भा० ॥२°समासार्थः का० ॥३१ एन. नितान्तर्गतः पाठः भा० नास्ति । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४३१९-२६ ] तृतीय उद्देशः । ११७१ विदित्वा यस्तत्र 'अवमः ' सर्वेषामपि पर्यायलघुः यो वा विमध्यमोऽपि तत्र वस्त्रविभजने 'पटुः ' कुशलस्तेन गुरवो विभजनं कारयन्ति ॥ ४३२२ ॥ अथ कोऽपि लुब्ध एवमप्यपरितुष्यन् ब्रूयात् – आवलिकया मण्डलिकया वा वस्त्राणि विभज्यन्ताम् ; ततः को विधि: ? इत्याहआवलियाऍ जति, तं दाऊणं गुरूण तो सेसं । हंति कमेणेव उ, उप्प रिवाडी न पूर्येति ।। ४३२३ ॥ मंडलियाऍ विसेसो, गुरुगहिते सेगा जहावुङ्कं । भाए समे करेत्ता, गेहंति अनंतरं उभओ ।। ४३२४ ॥ आवलिका नाम - ऋज्वायतश्रेण्या वस्त्राणां व्यवस्थापनम् तया समभागीकृत्य वस्त्रेषु स्थापितेषु यद् इष्टं वस्त्रं तद् गुरूणां दत्त्वा शेषाणि यथारत्नाधिकं गृह्णन्ति यावदावलिका निष्ठामुपगच्छति । उत्परिपाट्या तु ग्रहणं 'न पूजयन्ति ' न प्रशंसन्ति, तीर्थकरादय इति 10 गम्यते ॥ ४३२३ ॥ " मण्डलिकायामप्येवमेव, नवैरं तस्यां विशेषोऽयमुपदर्श्यते— पूर्वं गुरुभिर्गृहीते ततः शेषाः ‘यथावृद्धं' यो यः पर्यायवृद्धस्तदनतिक्रमेण समान् भागान् कृत्वा 'उभयोरपि' आद्यन्तलक्षणयोः पार्श्वयोः ‘अनन्तरम्' अव्यवहितं वस्त्राणि गृह्णन्ति । इयमत्र भावना - मण्डलिकया वस्त्रेषु स्थापितेषु प्रथममाचार्येण गृहीते ततो यः शेषाणां मध्ये रत्नाधिकः स मण्डलिकाया धुरि 15 स्थापितं वस्त्रं गृह्णाति, अवमरात्निकस्तु पर्यन्तस्थापितं - सर्वान्तिकम्, ततोऽपि योऽवमपर्यायः स धुरि स्थापितादनन्तरं गृह्णाति, तदपेक्षया लघुतरः पर्यन्तपार्श्वदुपान्त्यं गृह्णाति एवं तावद् गृहति यावद् मण्डलिका निष्ठिता भवति ॥ ४३२४ ॥ एवमपि विभज्यमाने कोऽपि लोभाभिभूतमानसो ब्रूयात् - अक्षान् पातयित्वा यद् यस्य भागे समायाति तत् तस्य दीयताम् ; एवं ब्रुवाणोऽसौ प्रज्ञापयितव्यः । कथम् ? इति चेद् उच्यते - 20 जइ ताव दलंतऽगालिणो, धम्मा-ऽधम्मविसेसबाहिला । बहुसंजयविंदमज्झके, उवकलणे सि किमेव मुच्छितो ।। ४३२५ ॥ यदि तावद्गारिणो धर्मा-धर्मविशेषबाह्या अपि मूर्च्छा परित्यज्य साधूनामित्थमात्मीयानि वस्त्राणि “दलंति” प्रयच्छन्ति, ततः 'बहुसंयतवृन्दमध्यके' प्रभूतसाधुजनमध्यभागे त्वमेवैक उपकरणे किमेवं सम्यक्परिज्ञात जिनवचनोऽपि मूच्छितोऽसि ? नैतद् भवतो युज्यत इति 25 भावः ॥ ४३२५ ॥ एवमप्युक्तो यद्यसौ नोपशाम्यति ततो वक्तव्यम् - अजो ! तुमं चेव करेहि भागे, ततो णु घेच्छामों जहकमेणं । गिहाहि वा जं तुह एत्थ इट्ठ, विणासधम्मीसु हि किं ममत्तं ।। ४३२६ ॥ आर्य ! त्वमेव समान् भागान् कुरु, ततो यथाक्रमेण वयं ग्रहीष्यामः । यद्वा गृहाण यत् तवामीषां वस्त्राणां मध्ये 'इष्टम्' अभिरुचितम् विनाशधर्मौणि हि - विनश्वरखभावानिं 30 वस्त्रादीनि वस्तूनि, अतः किं नाम तेषु ममत्वं विधीयते ? || ४३२६ ॥ " १ कमेण जओ, उप्प मो० ॥ २ का नाम-परिमण्डलाकारेण वस्त्राणां स्थापना, तस्यां विशे' भा० ॥ ३ वरं तेषां विशे' भा० कां विना ॥ 5 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तह वि अठियस्स दाउ, विगिंचणोयट्ठिए खरंटणया । अक्खे होंति गुरुगा, लहुगा सेसेस ठाणेसु ॥। ४३२७ ॥ तथाप्यस्थितस्य तस्य तद् अभीष्टं वस्त्रं दत्त्वा विवेचनं कर्तव्यम्, 'निर्गच्छ मदीयाद् 5 गच्छात्' इति भणनीयमिति भावः । ततो यदि भूयोऽप्युपतिष्ठते - मिथ्या मे दुष्कृतम्, न पुनरेवं विधास्यामीति; ततः 'खरण्टना' वक्ष्यमाणा कर्त्तव्या, प्रायश्चित्तं च दातव्यम् । किम् ? इत्याह-- ' अक्षेषु गुरुका भवन्ति' यो ब्रवीति 'अक्षान् पातयित्वा विभजत' तस्य चतुर्गुरुकम् । 'शेषेषु स्थानेषु' क्षोभकरणा-ऽऽवलिका मण्डलिकाविभाजनलक्षणेषु चतुर्लघुकम् ॥ ४३२७ ॥ अथ खरण्टनामुपदर्शयति 10 ११७२ एवमप्युक्तो यदि नोपरमते ततः को विधिः ? इत्याह सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ यथारत्ना० प्रकृते सूत्रम् १६ हिरन्न-दारं पसु पेसवरगं, जदा व उज्झित्तु दमे ठितो सि । किलेसलद्धेसु इमेसु गेही, जुत्ता न कत्तुं तव खिंसणेवं ।। ४३२८ ।। हिरण्यं च - सुवर्ण दाराश्च - कलत्रं हिरण्य-दारम्, पशवश्व - गो-महिषीप्रभृतयः प्रेष्याश्चकर्मकरीस्तेषां वर्गः-समूहः, तमेवमादिकं परिग्रहं 'उज्झित्वा' तृणवत् परित्यज्य यदा किल त्वमेवंविधे 'दमे' संयमे स्थितोऽसि तदा साम्प्रतमेषु वस्त्रेषु 'क्लेशलब्धेषु' प्रभूतगृहपरिभ्रम15 णादिप्रयासप्राप्तेषु तव गृद्धिः कर्त्तुं न युक्ता । एवं खिंसना तस्य कर्त्तव्या ॥। ४३२८ ॥ सम्मं विदित्ता समुट्ठियं तु, थेरा सि तं चैव कदाइ देजा । अनेसि गाहे बहुदोसले वा, छोढूण तत्थेव करिंति भाए ॥। ४३२९ ।। 'सम्यग्' अपुनःकरणेन समुपस्थितं तं विदित्वा 'स्थविरा: ' सूरयः कदाचित् तस्यैव 'तद्' वस्त्रं दद्युः । अथान्येषामपि बहूनां तद्वस्त्रग्रहणे 'ग्राह: ' महान् निर्बन्धः, “बहुदोसले वा " 20 प्रभूतदोषवानसौ संयतो बहुभिः सह द्वेषवान् - विरोधविधायी यः स बहुद्वेषवानिति वा, ततस्तस्य दीयमानेऽन्येषां महदप्रीतिकमुपजायते; एवंविधं कारणं विचिन्त्य ' तत्रैव' तेषु वस्त्रेषु मध्ये प्रक्षिप्य एकसदृशान् भागान् कुर्वन्ति, ततो यथारत्नाधिकं गृह्णन्ति ॥ ४३२९ ॥ एवं तावदने कैरानीतानां वस्त्राणां परिभाजने विधिरुक्तः, अथ क्षपकेणानीतानां तेषामेव विधिमभिधित्सुराह— 25 खमए लडूण अंबले, दाउ गुलूण य सो वलिट्ठए । as गुलुं एमेव सेसए, देह जईण गुलूहिं बुच्चई || ४३३० ॥ सयमेव य देहि अंबले, तव जे लोयइ इत्थ संजए । इइ छंदि - पेसिओ तहिं, खमओ देइ लिसीण अंबले ।। ४३३१ ॥ कोsपि क्षपकः कुत्रापि भावितकुलादौ ' अम्बराणि' वस्त्राणि लब्ध्वा यानि 'वरिष्ठानि ' 30 सर्वप्रधानानि वासांसि तानि गुरूणां दत्त्वा ततो गुरुं ब्रवीतिं - एवमेव शेषाण्यपि मदानी - तानि वस्त्राणि यतीनां प्रयच्छत । ततो गुरुभिरसावुच्यते स्वयमेव त्वममूनि अम्बराणि देहि यस्तवात्र संयतः 'रोचते' वस्त्रदानयोग्यतया रुचिगोचरीभवति । 'इति' अमुना १ 'रादयस्ते भा० ॥ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४३२७-३५] तृतीय उद्देशः । १९७३ प्रकारेण 'छन्दित-प्रेषितः' पूर्व छन्दितः यस्य रोचते तस्मै दातव्यानीत्येवमनुज्ञातच्छन्दः ततः प्रेषितः-मुत्कलितः सन् स क्षपकस्तत्रावसरे ऋषीणामम्बराणि प्रयच्छति । इह सर्वत्रापि रकारस्य लकारादेशः "र-सोर्ल-शौ” (सिद्धहे० ८-४-२८८) इति मागधभाषालक्षणवशात् ॥ ४३३० ॥ ४३३१ ।। ततश्च खमएण आणियाणं, दिजंतेगस्स वारणावयणं । गहणं तुमं न याणसि, वंदिय पुच्छा तओ कहणं ॥ ४३३२ ॥ क्षपकेणानीतानां तेनैव दीयमानानां वस्त्राणाम् 'एकस्य' कस्यचिद् लुब्धस्य वारणावचनम् , 'एवममीषां रत्नाधिकानां दीयमानानि मां यावद् न समागमिष्यन्ति' इति बुद्ध्या वस्त्रग्राहकसाधून 'मा आर्याः ! गृह्णीध्वम्' इत्येवं कोऽपि निवारितवानिति भावः । ततः क्षपकः प्राहकिं मदीयानि वस्त्राणि न गृह्यन्ते । । इतरः प्राह-ग्रहणमेव तावत् त्वं न जानीषे । क्षपको 10 ब्रवीति-जानामि । इतरो भणति-यद्येवं ततः कीदृशम् ? । क्षपक आह-वन्दित्वा विनयेन पृच्छ येनाहं कथयामि । ततस्तेन क्षपको वन्दित्वा पृष्टः सन् कथयितुमारब्धवान् ॥ ४३३२॥ तिविहं च होइ गहणं, सचित्ताऽचित्त मीसगं चेव ।। एएसिं नाणत्तं, वोच्छामि अहाणुपुवीए ॥ ४३३३ ।। त्रिविधं च भवति ग्रहणम् , तद्यथा-सचित्तग्रहणमचित्तग्रहणं मिश्रग्रहणं चेति । एतेषां 15 त्रयाणामपि नानात्वं यथाऽऽनुपूर्व्या वक्ष्यामि ॥ ४३३३ ॥ तत्र सच्चित्तग्रहणं तावदाह सचित्तं पुण दुविहं, पुरिसाणं चेव तह य इत्थीणं । एकेक पि य इत्तो, पंचविहं होइ नायव्वं ।। ४३३४ ॥ सचित्तग्रहणं पुनर्द्विविधम् , तद्यथा-'पुरुषाणां च' आचार्यादीनां 'स्त्रीणां च' प्रवर्तिनीप्रभृतीनाम् । एकैकमपि 'इतः' मूलभेदापेक्षया 'पञ्चविधं वक्ष्यमाणनीत्या पञ्चप्रकारं भवति 20 ज्ञातव्यम् ॥ ४३३४ ॥ कुतः पुनस्तेषां पुरुषाणां स्त्रीणां वा ग्रहणं क्रियते ! इत्याह उदगाऽगणि तेणोमे, अद्धाण गिलाण सावय पदुद्धे । तित्थाणुसज्जणाए, अइसेसिगमुद्धरे विहिणा ॥ ४३३५ ॥ उदके वाहकेन आचार्यादयो नेतुमारब्धाः, "अगणि" ति महानगरप्रदीपनके वा दाहस्तेषां समुपस्थितः, "तेण" त्ति शरीरस्तेना आचार्यादीन् व्यपरोपयितुमिच्छन्ति, अवमं-दुर्भिक्षं तत्र 25 भक्त-पानलाभाभावात् प्राणसंशयस्तेषामुपतस्थे, अध्वा नाम-छिन्नापातं महदरण्यं तं प्रपन्नानामपान्तराले बुभुक्षा-परिश्रमादिभिरग्रतो गन्तुमशक्नुवतां जीवितं संशयतुलामधिरूढम् , "गिलाण" ति शूल-विष-विशूचिकादिकमागाढग्लानत्वमुदपादि, श्वापदाः-सिंह-व्याघ्रादयस्तैरुपद्रोतुमारब्धाः, प्रद्विष्टः-प्रद्वेषमापन्नो राजा साधूनां प्राणापहारं कर्तुमभिलषति । एतेष्वागाढकारणेषु 'तीर्थानुषजनायै' तीर्थस्याव्यवच्छेदेनानुवर्तनाय योऽतिशायी-विशिष्टपात्रभूतः प्रव-30 चनाधारः पुरुषस्तं 'विधिना' वक्ष्यमाणनीत्या समुद्धरेत् ॥ ४३३५ ॥ अथ यदुक्तम्- 'एकैकं पञ्चविधं ग्रहणं भवति' तत्र पुरुषविषयं तावदाह आयरिए अभिसेगे, भिक्खू खुड्डे तहेव थेरे य । Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ यथारना०प्रकृते सूत्रम् १६ गहणं तेसिं इणमो, संजोगक(ग)मं तु वोच्छामि ॥ ४३३६ ॥ 'आचार्यः' गच्छाधिपतिः 'अभिषेकः' सूत्रा-ऽर्थ-तदुभयोपेत आचार्यपदस्थापनार्हः 'भिक्षुः' प्रतीतः 'क्षुल्लकः' बालः 'स्थविरः' वृद्धः, एतेषां पञ्चानामपि ग्रहणम् इदम्' अनन्तरमेव वक्ष्यमाणं 'संयोगगम' संयोगतो गमाः-प्रकारा यस्य तत् तथा वक्ष्यामि ॥ ४३३६ ॥ 5 प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति सव्वे वि तारणिजा, संदेहाओ परक्कमे संते । एकेक अवणिज्जा, जाव गुरू तत्थिमो भेदो ॥ ४३३७॥ 'पराक्रमे' शक्तौ सत्यां 'सर्वेऽपि' आचार्यादयः तादृशात् 'सन्देहाद्' नद्याधुदकनिमज्जनलक्षणात् तारणीयाः । अथ नास्ति तादृशः पराक्रमस्ततः स्थविरवर्जाश्चत्वारस्तारणीयाः, तत्रा10 प्यशक्तौ क्षुल्लक-स्थविरवर्जास्त्रयः, तत्राप्यसामर्थ्य आचार्या-अभिषेकौ द्वौ, तत्राप्यशक्तौ एक एव __ आचार्यस्तारयितव्यः । आह च-"एकेकं" इत्यादि, सर्वान् तारयितुमशक्तौ स्थविरादिकमेकैकमपनयेद् यावद् 'गुरुः' आचार्यः । तत्र चायं वक्ष्यमाणो» भेदो भवति ॥ ४३३७ ॥ तरुणे निप्फन्न परिवारे, सलद्धिए जे य होति अब्भासे । अभिसेगम्मि य चउरो, सेसाणं पंच चेव गमा ॥ ४३३८॥ 15 इह द्वावाचा?–एकस्तरुणोऽपरः स्थविरः । यद्यस्ति शक्तिस्ततो द्वावपि तारेणीयौ । अथ नास्ति ततस्तरुणो निस्तारणीयः। अथ द्वावपि तरुणौ ततो यस्तयोः 'निष्पन्नः' सम्यक् सूत्रार्थकुशलः स तारयितव्यः । अथ द्वावपि निष्पन्नावनिष्पन्नौ वा ततो यः सपरिवारः स तारणीयः । अथ द्वावपि सपरिवारावपरिवारौ वा ततो यस्तत्र 'सलब्धिकः' लब्धिसम्पन्नस्तं तारयेत् । अथ द्वावपि सलब्धिकावलब्धिको वा ततो यः 'अभ्यासे' आसन्ने स्थितः स निस्तारणीयः । अत्रायं 20 विशेषसम्प्रदायः--द्वयोरभ्यासस्थितयोर्यस्तरीतुमशक्तः स तारणीयः । एवमेते आचार्यस्य पञ्च गमा अभिहिताः । अभिषेकस्तु नियमाद् निष्पन्नो भवति, अन्यथा तत्त्वत आचार्यपदस्थापनायोग्यत्वानुपपत्तेः । ततस्तस्मिन्नभिषेके निष्पन्ना-ऽनिष्पन्नगमाभावात् शेषाश्चत्वारो गमा एवमेव वक्तव्याः । 'शेषाणां' भिक्षु-क्षुल्लक-स्थविराणां पञ्चापि गमा भवन्ति, ते चाचार्यवद् वक्तव्याः । नवरं बालस्य निष्पन्नता श्रीवज्रस्वामिन इव भावनीया, तरुणता तु प्रथमकुमारत्वे 25 वर्तमानस्यावसातव्या । एवं स्थविरस्यापि जघन्यवृद्धत्वे वर्तमानस्य तरुणता, शेषस्य तु वृद्धता मन्तव्या । त्रयाणामपि च भिक्षुप्रभृतीनां परिवारो गुरुप्रदत्तो माता-पितृ-भ्रातृ-भगिनीप्रभृतिप्रव्रजितखजनवर्गों वा द्रष्टव्यः ॥ ४३३८ ॥ अथ स्त्रीविषयं पञ्चविधं ग्रहणमुपदर्शयति पवत्तिणि अभिसेगपत्ता, थेरी तह भिक्खुणी य खुड्डी य । गहणं तासि इणमो, संजोगक(ग)मं तु वोच्छामि ॥ ४३३९ ॥ 30 'प्रवर्तिनी' सकलसाध्वीनां नायिका, 'अभिषेकप्राप्ता' प्रवर्गिनीपदयोग्या, 'स्थविरा' वृद्धा, 'भिक्षुणी' प्रतीता, 'क्षुल्लिका' बाला । एतासां पञ्चानामपि ग्रहणम् 'इदम्' अनन्तरमेव 'संयोगगम' संयोगतोऽनेकप्रकारं वक्ष्यामि ॥ ४३३९ ॥ यथाप्रतिज्ञातमेवाह१५ एतचिहान्तर्गतो प्रन्थसन्दर्भः भा० का० एव वर्त्तते ॥ २ रयितव्यौ । अ° कां० ॥ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४३३६-४५ ] तृतीय उद्देशः । सव्वा वि तारणिजा, संदेहाओ परकमे संते । एक्केकं अवणिजा, जागणिणी तत्थिमो भेदो ॥। ४३४० ॥ तरुणी निष्पन्न परिवारा, सलद्धिया जा य होइ अब्भासे । अभिगाए चउरो, सेसाणं पंच चेव गमा || ४३४१ ॥ इदं गाथाद्वयं साधुगतगाथाद्वयमिव ( गा० ४३३७ - ३८ ) ४३४१ ॥ परः प्रेरयन्नाह बालाय बुड्ढा य अजंगमा य, लोगे वि एते अणुकंपणिजा । सव्वाणुकंपाऍ समुजहिं, विवज्जओऽयं कहमीहितो भे ।। ४३४२ ।। बालाश्च वृद्धाश्चाजङ्गमाश्चेति लोकेऽपि तावदेतेऽनुकम्पनीया इष्यन्ते, अतः सर्वेषामपि निर्विशेषमनुकम्पायां समुद्यतैः कथमयं “भे" भवद्भिः 'विपर्ययः' वैपरीत्यम् 'ईहितम्' अङ्गी- 10 कृतम् ? यदेवं बाल-स्थविरौ परित्यज्य आचार्यादयो निस्तार्यन्ते, वृद्धं वाऽजङ्गममाचार्यं विमुच्य तरुणस्तार्यते ॥ ४३४२ ।। पर एव प्रत्युत्तरमाशङ्क्य परिहरन्नाह ११७५ व्याख्येयम् ॥। ४३४० ॥5 जइ बुद्धी चिरजीवी, तरुणो थेरो य अप्पसेसाऊ । सोमम्मि देहे, एवं पि न जुञ्जए वोतुं ॥। ४३४३ ॥ 'यदि' इति अथशब्दार्थे, अथैवं भवतां बुद्धिः स्यात् – 'चिरजीवी' प्रभूतवर्षजीवितस्त - 15 रुणः, स्थविरः पुनः ‘अल्पशेषायुः' स्तोकावशेषायुष्कः, अतः स्थविरं विमुच्य तरुणं तारयामः, एतदप्यसमीचीनम् । कुतः ? इत्याह-- 'सोपक्रमे' अध्यवसान- निमित्तादिभिरायुष्कोपक्रमकारणैः प्रत्यपाये देहे सति 'एतदपि ' चिरजीवितादिकं वक्तुं न युज्यते ॥ ४३४३ ॥ अवि यहु असहू थेरो, पयरेजियरो कदाइ संदेहं । ओरालमिदं बलवं, जं घेप्पर मुच्चई अबलो || ४३४४ ॥ 20 'अपि च' इत्यभ्युच्चये, 'हु:' निश्चये । स्थविरो वृद्धत्वादेव 'असहिष्णुः' न तरीतुं शक्नोति, 'इतरस्तु' तरुणः समर्थतया कदाचित् स्वयमेव 'सन्देहम्' उदकवाहक हरणरूपं प्राणसन्देहकारणं प्रतरेत्, अतः 'उदारं' परिस्थूरम् 'इदं' भवदीयं वचनम् — यद् 'बलवान्' तरुणो गृह्यते ' अबलस्तु' स्थविरो मुच्यते ॥ ४३४४ ॥ इत्थं परेणोक्ते सूरिराह आय - परे उवगिह, तरुणो थेरो उ तत्थ भयणिजो । . अणुवकमे वि थेवो, चिट्ठा कालो उ थेरस्स || ४३४५ ॥ तरुण आचार्यादिरपूर्वसूत्रा - ऽर्थ ग्रहण - तपः कर्मकरणादिना वस्त्र पात्रादिसम्पादन- सूत्रार्थप्रदानादिना वाऽऽत्मानं पराँश्चोपगृह्णाति । स्थविरस्तु तत्राऽऽत्म - परोपग्रहकरणे भजनीयः, कदाचित् तं कर्तुं समर्थः कदाचिच्च नेति भावः । तथा 'अनुपक्रमेऽपि' आयुष उपक्रममन्तरेणापि स्थविरस्य स्तोक एव कालोऽवशेषस्तिष्ठति, तरुणस्य तु सोपक्रमायुषोऽपि स्तोको वा भवेद् 3 द्राघीयान् वा, ततः " सोर्वैकमम्मि देहे " ( गा० ४३४३ ) इत्यादि त्वदुक्तं यत्किञ्चि १ वत्तुं ताभा• ॥ २ °हकलक्षणं प्रत° भा० ॥ ३ “ओरालमिदं ति सामयिका इयं भाषा, अशोभनमित्यर्थः, स्थूरं वा ।” इति चूर्णो विशेषचूर्णो च ॥ ४ • एतन्मध्यगतः पाठः भा० नास्ति ॥ 25 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ यथारना०प्रकृते सूत्रम् १६ देतत् ॥ ४३४५ ॥ अथ यदुक्तम् 'बाल-वृद्धादयो लोकेऽप्यनुकम्पनीयाः' (गा० ४३४२) इति तत्परिहाराय लौकिकमेव दृष्टान्तमाह दुग्घासे खीरवती, गावी पुस्सइ कुडुंबभरणट्ठा। मोत्तु फलदं च रुक्खं, को मंदफला-ऽफले पोसे ॥ ४३४६॥ । दुर्गासं-दुर्भिक्षं तत्र यथा 'क्षीरवती' भूम्नि मतुप्रत्ययविधानाद् बहुक्षीरा गौः कुटुम्बभरणार्थ पोष्यते' चारीप्रदानादिना पुष्टिं नीयते, एवमस्माकमपि य आचार्यादिस्तरुणादिगुणोपेततयाऽऽत्मनः परेषां चोपग्रहं कर्तुं समर्थः स निस्तार्यते । तन्निस्तारणे हि बहूनां बाल-वृद्धा. दीनामपि तदाश्रितानामनुकम्पा कृता भवति । अथ तं परित्यज्य क्षुल्लक स्थविरादिस्तस्या आपदस्तार्यते ततो बहवो बालादयस्तदाश्रिताः परित्यक्ता भवन्ति । अपि च-'फलदं' प्रभूतफल. 10 दायिनं वृक्षं मुक्त्वा को नाम मन्दफलान् अफलान् वा वृक्षान् 'पुष्णीयात्' सारणीसलिलसेचनादिना पुष्टिं प्रापयेत् ? न कोऽपीत्यर्थः । उपनययोजना प्राग्वद् द्रष्टव्या ॥ ४३४६ ॥ उक्तं सचित्तग्रहणम् । अथ मिश्रग्रहणमाह एमेव मीसए वी, नेयव्वं होइ आणुपुबीए । __वोचत्थे चउगुरुगा, तत्थ वि आणाइणो दोसा ॥ ४३४७ ॥ 16 एवमेव मिश्रविषयमपि ग्रहणम् 'आनुपूर्व्या' आचार्य-प्रवर्तिन्यादिपरिपाट्या ज्ञातव्यं भवति । अथ यथोक्तक्रममुल्लङ्ग्य विपर्यासेन पुरुषाणां स्त्रीणां वा ग्रहणं करोति ततश्चतुर्गुरुकाः । तत्रापि चाज्ञादयो दोषा भवन्ति ॥ ४३४७ ॥ अथ मिश्रग्रहणं कीदृशं प्रतिपत्तव्यम् ? इति उच्यते मीसगगहणं तत्थ उ, विणिवाओ जो सभंड-मत्ताणं । अहवा वि मीसयं खलु, उभओपक्खऽच्चओ घोरो ॥ ४३४८॥ इह यः 'सभाण्ड-मात्राणां' पात्र-मात्रकाद्युपकरणसहितानां साधूनां साध्वीनां वा 'विनिमातः' उदकवाह के निमज्जनं 'तत्र' तद्विषयं यद् ग्रहणं तद् मिश्रग्रहणमुच्यते । अथवा यद् उभयोरपि-साधु-साध्वीलक्षणयोः पक्षयोः 'घोरः' रौद्रो युगपदुदकवाहकेनापहरणलक्षणः 'अत्ययः' प्रत्यपायस्ततो यद् ग्रहणं तद् मिश्रग्रहणमिति मन्तव्यम् ॥ ४३४८ ॥ 26 अथामुमेव द्वितीयव्याख्यानपक्षमङ्गीकृत्य निस्तारण विधिमाह सव्वत्थ वि आयरिओ, आयरियाओ पवत्तिणी होइ । तो अभिसेगप्पत्तो, सेसेसु तु इत्थिया पढमं ॥ ४३४९ ॥ द्वयोरपि पक्षयोरुदकेन ह्रियमाणयोर्यद्यस्ति शक्तिस्ततो युगपद् निस्तारणं कार्यम् । अथ नास्ति युगपद् निस्तारणसामर्थ्य ततः सर्वत्रापि प्रथममाचार्यों निस्तारणीयः । आचार्यानन्तरं 20 प्रवर्तिनी तारयितव्या भवति । 'ततः' प्रवर्त्तिन्या अनन्तरमभिषेकपदप्राप्तः । ततः 'शेषेषु तु' भिक्षुप्रभृतिषु पदेषु प्रथमं स्त्री निस्तारयितव्या, ततः पुरुषः । तथाहि-भिक्षु-भिक्षुण्योर्मध्ये प्रथमं भिक्षुणी ततो भिक्षुस्तारणीयः, क्षुल्लक-क्षुल्लिकयोर्मध्ये प्रथमं क्षुल्लिका ततः क्षुल्लकः, १ च फलनादिना पुष्टिफलदा भा० का• विना ॥ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९७७ भाष्यगाथाः ४३४६-५३] तृतीय उद्देशः । स्थविर-स्थविरयोः प्रथमं स्थविरा ततः स्थविर इति ॥ ४३४९ ॥ अथ किमर्थमेषु प्रथमं स्त्री निस्तार्यते ? इत्याह - अन्नस्स वि संदेहं, द8 कंपति जा लयाओ वा । अबलाओ पगइभयालुगाउ रक्खा अतो इत्थी ॥ ४३५० ॥ 'अन्यस्यापि' पुरुषादेः 'सन्देहम्' आपदं दृष्ट्वा याः स्त्रियः पवनसम्पर्कतो लता इव कम्पन्ते, । याश्चाबलाः प्रकृत्या-स्वभावेनैव च "भयालुयाउ" ति भयबहुलाः, अतस्ताः स्त्रियः प्रथमं रक्षणीयाः ॥ ४३५० ॥ आह–साधु-साध्वीनां निस्तारणे किमेष एवाचार्य-प्रवर्तिन्यादिकः क्रमः ? उतान्यथाऽप्यस्ति ? उच्यते-अस्तीति ब्रूमः । तथा चाह जं पुण संभावेमो, भाविणमहियममुकातों वत्थूओ। तत्थुक्कम पि कुणिमो, छेओदइए वणियभूया ॥ ४३५१ ॥ _ 'यं पुनः' क्षुल्लकादिकमपि 'अमुकाद् आचार्यादेर्वस्तुनः सकाशात् प्रवचनप्रभावनादिभिर्गुणैः 'अधिक' सातिशयं 'भाविनं' भविष्यन्तं सम्भावयामः तत्र वयम् 'उत्क्रममपि' यथोक्तक्रमोल्लङ्घनमपि कुर्महे, क्षुल्लकादिकमपि प्रथमं तारयाम इत्यर्थः । कथम्भूताः ? इत्याहछेदश्च–व्यय औदयिकश्च-लाभः छेदौदयिकं तत्र पणिग्भूताः सन्तः । किमुक्तं भवति ?यथा वणिग् यदेव प्रभूतलाभमल्पव्ययं वस्तु तस्य ग्रहणं करोति, एवं वयमपि यत्र विशिष्टपात्र-15 भूते वस्तुनि गृहीते प्रवचनप्रभावना-तीर्थाव्यवच्छेदादिको भूयान् लाभः समुज्जम्भते खल्पश्चेतरपरित्यागलक्षणो व्ययः तं क्षुल्लकादिकमपि गृह्णीम इति ॥ ४३५१ ॥ एवं तावदुदकविषयं ग्रहणमभिहितम् , अथामि-तेनादिविषयं तदेवातिदिशन्नाह अगणी सरीरतेणे, ओमऽद्धाणे गिलाणमसिवे य । सावयभय रायभए, जहेव आउम्मि गहणं तु ॥ ४३५२ ॥ 30 अग्निसम्भ्रमे शरीरस्तेनभये अवमे अध्वनि ग्लानत्वे अशिवे श्वापदभये राजभये च यथैवाप्काये ग्रहणमभिहितं तथैवैतेष्वपि सचित्त-मिश्रभेदाद् द्विविधमपि वक्तव्यम् ॥ ४३५२ ॥ अथाचित्तग्रहणमभिधित्सुराह अच्चित्तस्स उ गहणं, अभिनवगहणं पुराणगहणं च । उवठावणाएँ गहणं, तह य उवट्ठाविए गहणं ॥ ४३५३ ॥ अचित्तं-वस्त्र-पात्रादिकमुपकरणं तस्य ग्रहणं द्विधा–अभिनवग्रहणं पुराणग्रहणं च । तत्राभिनवं-प्रथममेव यद वस्त्रादेर्ग्रहणं तदभिनवग्रहणम् , पुराणस्य-प्राग्गृहीतस्य चोलपट्टकादेः कूर्परादिना ग्रहणं पुराणग्रहणम् । तच द्विधा-उपस्थापनायां ग्रहणम् उपस्थापिते ग्रहणं च । तत्रोपस्थापनायां विधीयमानायां हस्तिदन्तोन्नताकारहस्तादिभिर्यद् रजोहरणादि गृह्यते तद् उपस्थापनाग्रहणम् । उपस्थापितस्य-छेदोपस्थापनीयचारित्रं प्रापितस्य यद् उपधेर्धारणं परिभोगो वा 30 तद् उपस्थापितग्रहणम् ॥ ४३५३ ॥ एनामेव गाथां व्याख्यानयति ओहे उवग्गहम्मि य, अभिनवगणं तु होइ अच्चित्ते । १इदमेव व्या भा०॥ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ यथारना०प्रकृते सूत्रम् १६ इयरस्स वि होइ दुहा, गहणं तु पुराणउवहिस्स ॥ ४३५४ ॥ __ अचित्तस्य वस्त्र-पात्रादेरभिनवग्रहणं द्विधा-ओघोपधिविषयम् औपग्रहिकोपधिविषयं च । 'इतरस्यापि' पुराणोपधेर्ग्रहणं द्विधा, उपस्थापनाग्रहणमुपस्थापितग्रहणं चेत्यर्थः ॥ ४३५४ ॥ अथवा अभिनवग्रहणमिदमनेकविधम् जायण निमंतणुवस्सय, परियावन्न परिद्वविय नहूँ । पम्हुट्ठ पडिय गहियं, अभिनवगहणं अणेगविहं ॥ ४३५५ ॥ याच्या-अवभाषणम् , निमन्त्रणा-गृहस्थानामभ्यर्थना, तत्पुरस्सरं यद् वस्त्राग्रहणम् , यच्चोपाश्रये 'पर्यापन्नस्य' पथिकादिभिर्विस्मृत्या परित्यक्तस्य वस्त्रादेर्ग्रहणम् , यच्च परिष्ठापितस्य भूयः कारणे ग्रहणम् , एवं 'नष्टं' हारितं “पम्हुटुं" विस्मृतं पतितं' हस्तात् परिभ्रष्टं 'गृहीतं' 10 प्रत्यनीकेन बलादाच्छिद्य स्वीकृतम् । एतेषां पुनर्लब्धानां यद् ग्रहणमेवमादिकमनेकविध__ मभिनवग्रहणं मन्तव्यम् ॥ ४३५५ ॥ अथ याच्ञा-निमन्त्रणाग्रहणयोर्विधिमतिदिशन्नाह जो चेव गमो हेट्ठा, उस्सग्गाईसु वण्णिओ गहणे । दुविहोवहिम्मि सो चिय, कास त्ति य किं ति कीस ति ॥ ४३५६ ॥ - य एव 'गमः' प्रकारः 'अधस्तात्' पीठिकायाम् (गा० ६२२-२४) उत्सर्गादिको वस्त्र15 ग्रहणविषयो वर्णितः स एवात्र ‘द्विविधोपधेः' ओधिकौपग्रहिकलक्षणस्य ग्रहणे 'कस्य सत्कमेतद् वस्त्र-पात्रादिकं पूर्वमासीद् ? भविष्यति वा ? कस्माद्वा प्रयच्छसि ?' इति पृच्छात्रयपरिशुद्धो द्रष्टव्यः । उपाश्रयपर्यापन्नवस्त्रादिग्रहणविषयस्तु विधिरिहैवोद्देशके पुरस्तादभिधास्यते। परिष्ठापितादेस्तु यथा कारणतो भूयोऽपि ग्रहणं क्रियते तथा व्यवहाराध्ययने भणिष्यते ॥४३५६॥ गतमभिनवग्रहणम् । अथ पुराणग्रहणम् , तच्च द्विधा उपस्थापनाग्रहणं उपस्थापितग्रहणं 20 च । तत्राद्यं तावदाह कोप्परपट्टगगहणं, वामकराणामियाएँ मुहपोत्ती । रयहरण हत्थिदंतुन्नएहिँ हत्थेहुवट्ठाणं ॥ ४३५७॥ कूपराभ्यां चोलपट्टकस्य ग्रहणं कृत्वा वामकरसत्कयाऽनामिकया मुखपोतिकां गृहीत्वा रजोहरणं हस्तिदन्तोन्नताभ्यां हस्ताभ्यामादायोपस्थापनं कर्त्तव्यम् , शैक्षस्य व्रतस्थापना विधेयेत्यर्थः 25॥ ४३५७ ॥ अथोपस्थापितग्रहणमाह उवठावियस्स गहणं, अहभावे चेव तह य परिभोगे । एकेकं पायादी, नेयव्वं आणुपुबीए ॥ ४३५८ ॥ उपस्थापितस्य यद् उपकरणग्रहणं तद् द्विधा-यथाभावः परिभोगश्च । अनेन च द्विविधे. नापि ग्रहणेनैकैकं पात्रादिकम् 'आनुपूर्व्या' परिपाट्या 'नेतव्यं' ग्रहीतव्यम् ॥ ४३५८ ॥ 30 इदमेव भावयति पडिसामियं तु अच्छइ, पायाई एस होतऽहाभावो। सद्दव्व-पाण-भिक्खा-निल्लेवण पायपरिभोगो ॥ ४३५९ ॥ यत् पात्रादिकं प्रतिस्वामितं' विवक्षितसाधुलक्षणेन स्वामिना प्रतिगृहीतं सद् आस्ते न Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४३५४-६२) तृतीय उद्देशः । तदानीं परिभुज्यते एष यथाभावो भवति, स्वपरिग्रहे धारणमित्यर्थः । परिभोगो नाम यत् पात्रादि यस्यां वेलायां परिभुज्यते तत्र सत्-शोभनमाचार्यादिप्रायोग्यं यद् द्रव्यं यच्च पानकं भैक्षं चात्मनो योग्यं तत्पात्रे गृह्यते निर्लेपनं च-आचमनं च तेन विधीयते एष पात्रस्य परिभोगः । इह च पात्रशब्देन प्रतिग्रहो मात्रकं वा गृहीतम् ॥ ४३५९ ॥ तथा पाणदय सीयमत्थुय, पमञ्ज चिलिमिलि निसिज कालगते । । गेलन लज्ज असहू, छेअण सागारिए भोगो ॥ ४३६० ॥ वर्षाकल्पादिकं प्राणिदयार्थम्' अकायादिजीवरक्षानिमित्तं परिभोक्तव्यम् । कल्पत्रयं शीतरक्षार्थम् । संस्तारकोत्तरपट्टको आस्तरणमास्तृतं तदर्थम् । रजोहरणं च प्रमार्जनार्थ गृह्यते । चिलिमिलिका ज्योतिःशाला-दकतीरादावुपयुज्यते । रजोहरणस्य निषद्याद्वयं निषदनार्थमादीयते। "कालगए" ति कालगतस्याच्छादनार्थ नन्तकादिकं गृह्यते । ग्लानत्वं वा कस्यापि सञ्जातं सः 10 अप्रावृतः सुखेनास्तामिति कृत्वा तस्याग्रे चिलिमिलिका दीयते । “लज्ज" ति लज्जाव्यपगमार्थ चोलपट्टकः परिभुज्यते । “असहु" त्ति राजादिप्रव्रजिता असहिष्णवः ते कल्पादिकं प्रावृणीयुः । “छेदण" त्ति नखहरणिका-पिप्पलकादिना नखप्रलम्बादीनां छेदनं क्रियते । "सागारिए" ति शैक्षस्य सज्ञातकानां सागारिकं ततः कल्पादिकं प्रावार्य प्रच्छन्ने स्थाप्यते । एवमादिकः सर्वोऽपि यथायोगमौधिकस्यौपग्रहिकस्य चोपधेः परिभोगो मन्तव्यः ॥ ४३६० ॥ 15 उक्तं पुराणग्रहणम् । तदुक्तौ च समर्थितमचित्तग्रहणम् । एवं क्षपकेण त्रिविधे ग्रहणे प्ररूपिते सति इतरः प्राह उवरिं कहेसि हिट्ठा, न याणसी वयणं न होइ एवं तु । चतुरो गुरुगा पुच्छा, नासेहिसि तं जहा वेजो ॥ ४३६१॥ __यद् उपरि कथयितुं योग्यं तत् त्वम् 'अधस्तात्' पूर्व कथयसि । इयमत्र भावना-यद् 20 भवता प्रथममेवाचार्यादिविषयं पुराणसचित्तग्रहणमभिहितं तदशैक्षलक्षणाभिनवसचित्तग्रहणप्ररूपणादूर्द्ध प्ररूपयितुं योग्यमासीत् , अभिनव-पुराणपर्याययोः पूर्व-पश्चात्कालभावित्वेन भावात् ; तस्य चाभिनवसचित्तग्रहणस्य भवता प्ररूपणैव न कृता, अत एव न जानासि ग्रहणखरूपम् । यथा च "वन्दित्वा विनयेन पृच्छ” इत्येवमहङ्कारदूषितं वचनं त्वयोक्तम् (गा० ४३३२) एवमभिधीयमानं न भवति, सतां पूजनीयमिति वाक्यशेषः । एवं च ब्रुवाणस्य भवतश्चत्वारो 25 गुरुकाः । क्षपकः पृच्छति-किमत्र मम शूणमापतितं येनैवं प्रायश्चित्तं प्राप्नोमि ? । इतरः प्राह-त्वं पल्लवग्राहितया सम्यक् सिद्धान्ताभिप्रायमविज्ञाय जल्पसि । एवं च प्रज्ञापयन् त्वमात्मना नष्टोऽन्यानपि नाशयिष्यसि, यथा से प्रथमोद्देशकभणितो (गाथा ३२५९-६०) वैद्यः पूर्वाह्ने वमनं दद्यादपराह्ने विरेचनम् । वातिकेष्वपि रोगेषु, पथ्यमाहुर्विशोषणम् ।। इति श्लोकमात्रं गृहीत्वा चिकित्सां कुर्वन् विनष्टः एवं भवानपीति चिरन्तनगाथासमा-30 सार्थः ॥ ४३६१ ॥ अथैनामेव किञ्चिद् विवृणोति वयणं न वि गव्वभालियं, एलिसयं कुसलेहिँ पूजियं । अहवा न वि एत्थ लूसिमो, पगई एम अजाणुए जणे ।। ४३६२ ॥ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [ यथारना प्रकृते सूत्रम् १७ इतरः क्षप्रकं ब्रूते-'ईदृशं' 'मां वन्दित्वा विनयेन पृच्छ' इत्येवंरूपं 'गर्वभारितम्' अहङ्कारभारगुरुकं वचनं 'कुशलैः' विद्वद्भिः 'न पूजितं' न श्लाषितम् , अतो नैव भवतो वक्तुं युज्यते । अथवा नाप्यत्र वयं 'रुष्यामः' रोषं कर्तुमर्हामः । कुतः ? इत्याह-'अज्ञे' मूर्ख जने प्रकृतिरेषा यत् तथाविधज्ञानविकलोऽप्येष औद्धत्यमुदहति ॥ ४३६२ ॥ क्षपकः प्राह मूलेण विणा हु केलिसे, तलु पवले य घणे य सोभई । न य मूलविभिन्नए घडे, जलमादीणि धलेइ कण्हुई ॥ ४३६३ ॥ मूलेन विना 'तरुः' वृक्षः चशब्दावपिशब्दार्थो, 'प्रवरोऽपि' प्रधानोऽपि सहकारादिरपीत्यर्थः, 'घनोऽपि' पत्रबहलोऽपि कीदृशः शोभते ? न कीदृगपीति भावः; एवं विनयमूलविकलो धर्मोऽपि न शोभां बिभर्ति । तथा 'न च' नैव मूले-बुध्ने विभिन्नो घटो जलादीनि वस्तूनि 10 क्वचिदपि धारयति, एवं धर्मघटोऽपि विनयमूले सञ्जातछिद्रो न किमपि ज्ञानादिजलं धारयितुमिष्टे । अतोऽहं विनयं कारयामीति प्रक्रमः ॥ ४३६३ ॥ किं वा मए न नायं, दुविहे गहणम्मि जं जहिं कमती । भन्नइ अभिनवगहणं, सचित्तं ते न विनायं ॥ ४३६४ ॥ सचित्ता-ऽचित्तभेदाद् द्विविधेऽपि ग्रहणे यद् यत्राभिनवं पुराणं वा कामति तत् तत्र मया 16 किं वा न ज्ञातं येनैवं 'न जानासि ग्रहणखरूपम्' इत्याद्यभिधीयते ? । इतरः प्रतिब्रूते-भण्यते अत्रोत्तरम्-अभिनवं सचित्तग्रहणं त्वया न विज्ञातम् ॥ ४३६४ ॥ तच्चेदम् अट्ठारस पुरिसेसुं, वीसं इत्थीसु दस नपुंसेसु । पव्वावणाअणरिहा, अनला एएत्तिया वुत्ता ॥४३६५ ।। अडयालीसं एते, वज्जित्ता सेसगाण तिण्हं पि । अभिनवगहणं एयं, सचित्तं ते न विनायं ॥ ४३६६ ॥ 'पुरुषेषु' पुरुषविषयाः "बाले वुड्ढे नपुंसे य०" इत्यादिगाथाद्वयोक्ता अष्टादश भेदाः, स्त्रीषु त एव गुर्विणी-बालवत्सासहिता विंशतिर्भेदाः, नपुंसकेषु तु "पंडेए वाइए कीवे०" इत्यादयो दश भेदाः प्रव्राजनाया अनर्हाः-अयोग्याः । अत एव [ “एएत्तिय" त्ति ] एते एतावन्तो भेदा अनला इति निशीथाध्ययने उक्ताः, "अली भूषण-पर्याप्ति-वारणेषु" इति धातुपाठाद् 28 अपर्याप्ताः, प्रव्रज्यापरिपालनेऽसमर्था इत्यर्थः ॥ ४३६५ ॥ एतान् सर्वसङ्ख्यया अष्टाचत्वारिंशतं भेदान् वर्जयित्वा शेषाणां 'त्रयाणामपि' पुरुष-स्त्री-नपुंसकानां प्रव्राजनं कर्तुं कल्पते । एतदभिनवग्रहणं सचित्तं "ते" त्वया न विज्ञातम् । एवं तेनोक्ते सति क्षपकः 'सती नोदना' इत्यभिधाय प्रवृत्तस्तथैव यथारत्नाधिकं वस्त्रप्रदानं कर्तुमिति ॥४३६६॥ ॥ यथारत्नाधिकवस्त्रपरिभाजनप्रकृतं समाप्तम् ॥ १ बाले वड़े नपुंसे य, जडे कीवे य वाहिए । तेणे रायावगारी य. उम्मत्ते य अदंसणे ॥ दासे दुट्टे य मूढे य, अणत्ते जुंगिते इ य । ओबद्धए य भयए. सेहनिप्फेडिते ति य॥" २"पंडए वाइए कीवे, कुंभी ईसालुय ति य । सउणी तकमसेवी य, पक्खियापक्खिए इ य॥ सोगंधिए य आसत्ते, दस एते गपुंसगा। संकिलिट्ठ त्ति साहूणं, पश्चावेउं अकप्पिया ॥" Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४३६३-७०] तृतीय उद्देशः । ११८१ य था र ला धि क श य्या संस्ता र परि भा ज न प्रकृ तम् सूत्रम् कप्पइ निगंथाण वा निग्गंथीण वा आहारायणि याए सेज्जासंथारए पडिग्गाहित्तए १७ ॥ अथास्य सूत्रस्य कः सम्बन्धः ? इत्याह घेत्तुं जहकमेणं, उवही संथारएसु ठवयंति । तेसि पि जदा गहणं, तं पि हु एमेव संबंधो ॥ ४३६७ ॥ यथारत्नाधिकक्रमेणोपधिं गृहीत्वा ततस्ते वस्त्रसंस्तारकभूमीषु स्थापयन्ति । तेषामपि च' संस्तारकाणां यदा ग्रहणं तदा तदपि 'एवमेव' यथारत्नाधिकं कर्तव्यम् । एष पूर्वसूत्रेण सह सम्बन्धः ॥ ४३६७ ॥ 10 अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या-कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा यथारत्नाधिक शय्यासंस्तारकान् प्रतिग्रहीतुमिति सूत्रसङ्केपार्थः ॥ अथेदमेव सूत्रं विवरीषुराह सेजासंथारो या, सेजा वसही उ थाण संथारो । पुव्वण्हम्मि उ गहणं, अगेण्हणे लहुगों आणादी ॥ ४३६८ ॥ शय्यासंस्तारो नाम शय्या-वसतिस्तस्यां यत् 'स्थानं' शयनयोग्यावकाशलक्षणं स शय्या-16 संस्तारक उच्यते । तस्य च शय्यासंस्तारकस्योपाश्रयं प्राप्तैः पूर्वाह्नवेलायामेव ग्रहणं कर्त्तव्यम् । अग्रहणे मासलघु प्रायश्चित्तम् , आज्ञादयश्च दोषाः ॥ ४३६८ ॥ चोयगपुच्छा दोसा, मंडलिबंधम्मि होइ आगमणं । [ओ.नि. १८७] संजम-आयविराहण, वियालगहणे य जे दोसा ॥ ४३६९ ॥ अत्र नोदकः पृच्छां करोति-यदि पूर्वाल एव ग्रामं प्राप्तास्ततस्तदैव शय्यासंस्तारकमपि 20 गृहन्तु, वयमप्येतत् प्रतिपद्यामहे; परं यदि भक्तवेलायां प्राप्तास्तदा प्रथमं भिक्षां पर्यटन्तु, ततो बहिरेव समुद्दिश्य चरमपौरुषीप्रत्युपेक्षणां कृत्वा खाध्यायं च विधाय विकालवेलायां ग्राम प्रविशन्तु । सूरिराह--"दोस" ति बहिर्भुनानानां बहवो दोषाः । कथम् ? इत्याह-'मण्डलीबन्धे' चिलिमिलिकां दत्त्वा मण्डलीरचनया भोजने विधीयमाने कुतूहलेन सागारिकाणामागमनं भवति, तैः सहासङ्खडे क्रियमाणे संयमा-ऽऽत्मविराधना। विकाले च वसतेग्रहणे ये दोषा भवन्ति 25 तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तं भवतीति द्वारगाथासमासार्थः ॥४३६९॥ साम्प्रतमेनामेव विवरीषुराह अइभारेण व इरियं, न सोहए कंटगाइ आयाए । [ओ.नि. १८८] भत्तट्ठिय-चोसिरिया, अतितु एवं जढा दोसा ॥ ४३७० ॥ परः प्राह-भक्तवेलायां प्राप्तैस्तावत् प्रथमतो भक्तं ग्रहीतव्यम् , अन्यथा वेलातिक्रमे भक्त-पानलाभो न भवेत् । ततो भक्त-पानं गृहीत्वा वसतिं गवेषयित्वा यदि तदानीमेव तत्र 30 प्रवेशः क्रियते तदा भक्त-पानोपकरणसत्को यो अतिभारतेन वाशब्दस्यानुक्तसमुच्चयार्थतया बुभुक्षया तृष्णापरितापनया चोपयोगमप्रयच्छन्तः संयमे ईयो न शोधयेयुः, आत्मनि कण्टका Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ यथारना प्रकृते सूत्रम् १७ दिकं न पश्येयुः, एवं च यथाक्रम संयमा-ऽऽत्मनोविराधना । ततः 'भक्तार्थि-व्युत्सृष्टाः' पूर्व भक्तार्थिताः-बहिरेव समुद्दिष्टास्ततो व्युत्सृष्टाः-कृतपुरीष-प्रश्रवणोत्सर्गाः सन्तो ग्रामम् 'अतियन्तु' प्रविशन्तु, एवं हि 'दोषाः' संयमा-ऽऽत्मविराधनालक्षणाः परित्यक्ता भवन्ति ॥ ४३७०॥ अथाचार्यः प्रत्युत्तरयति आयरियवयण दोसा, दुविहा नियमा उ संजमा-ऽऽयाए । [ओ.नि. १८९] वञ्चह को वा सामी, असंखडं मंडलीए वा ॥ ४३७१ ।। आचार्यस्य वचनमिदम्-त्वदुक्तनीत्या बहिर्मुञ्जानानां नियमाद् 'द्विविधाः' संयमा-ऽऽत्मविराधना[लक्षणाः ] दोषा भवन्ति । तथाहि-तैस्तत्र भक्त-पानमानीतं सागारिकाश्च कुतूहल वशात् तदर्शनार्थमागताः, ततो यदि तावन्तं कालं भक्त-पानं धारयन्तस्तिष्ठन्ति तदा भारेण 10 महती परितापना भवेत् सूत्रार्थयोश्च परिहाणिरुपजायेत । अथ सागारिकान् ब्रुवते-'व्रजत यूयम्' ततोऽधिकरणं भवति । अथवा ते सागारिका एवमुच्यमाना ब्रवीरन्-कोऽस्य वृक्षस्य देवकुलस्य वा खामी ये चास्माकं सम्मुखं 'व्रजत' इति भणत ? । एवमसङ्खडे तैः सह सञ्जाते ततश्च भाजनभेदादयो दोषाः । अथ मण्डल्यां रचितायां सागारिकाः समागच्छन्ति ततो महान्तमुड्डाहं कुर्युः ॥ ४३७१ ॥ अमुमेवार्थ सविशेषमाह भत्तद्वण सज्झाए, पडिलेहण रत्तिगेण्हणे जं च ।। पुव्वण्हम्मि उ गहणे, परिहरिया ते भवे दोसा ॥ ४३७२ ॥ 'भक्तार्थनं' मण्डल्या भोजनं खाध्यायं प्रत्युपेक्षणां वा क्रियमाणां विलोक्य ते उड्डाहं उड्डञ्चकान् वा कुर्वीरन् , तत्रापि तथैवासङ्खडदोषः । अथ ते सागारिकाः प्रद्विष्टाः सन्तो वसतिं न प्रयच्छन्ति ततोऽपरं ग्रामं गच्छेयुः, तत्र च विकाले प्राप्ताः सन्तो रात्रौ वसतिग्रहणं 20 कुर्वन्तो यद् दोषजालमापद्यन्ते तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् , अतः पूर्वाह्ने एव वसतेर्ग्रहणं कर्तव्यम् । ततश्च 'ते' पूर्वोक्ता दोषाः परिहृता भवन्ति ॥ ४३७२ ॥ किञ्च कोतूहल आगमणं, संखोहेणं अकंठगमणादी। [ओ.नि. १९०] ' ते चेवऽसंखडादी, वसहिं च न देति जं चऽन्नं ॥ ४३७३ ॥ मण्डल्यां सागारिकाः कौतूहलेनागमनं कुर्युः तत्र कस्यापि संयतस्य संक्षोभेण भक्त-पानस्य 25 अकण्ठगमनादिकम्' अश्नोतोगमनप्रभृतिकं भवेत् । अथवा कोऽप्यसहिष्णुर्च्यात्-किमेवं प्रलोकयथ ?; ततस्त एवासङ्खडादयो दोषाः । अथ 'सागारिकम्' इति कृत्वा अभुक्ता एव भक्त-पानव्यग्रहस्ता ग्रामं प्रविशन्ति तत्र च यैः सममसङ्खडं कृतं ते वसतिं न प्रयच्छेयुः, अन्यानपि च ददतो निवारयेयुः । “जं चऽन्नं" ति वसतावप्राप्यमाणायां यदन्यद् दोषजातमापद्यन्ते तनिष्पन्नम् ॥ ४३७३ ॥ 30 अथ वसत्यभावादकृतभोजना एवान्यं ग्राम गच्छेयुः तत इमे दोषाः भारेण वेयणाए, न पेहई खाणुमाइए दोसे । [ओ.नि. १९१] इरियाइ संजमम्मी, परिगलमाणे य छक्काया ।। ४३७४ ।। १°-किमस्य वृक्षस्य देवकुलस्य वा यूयं स्वामिनः ? । एव भा० ॥ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४३७१-७७] तृतीय उद्देशः। . भक्त-पानस्योपकरणस्य च सम्बन्धिना भारेण वेदना या भवेत् तया च स्थाणु-कण्टकादीन् दोषान् न प्रेक्षते, ततश्चात्मविराधना । यत् पुनरीर्याया अशोधनं सा संयमविराधना । परिगलति च भक्त-पाने षट्कायविराधना ॥ ४३७४ ॥ तत्रप्राप्तानां दोषानभिधित्सुराह पविसण मग्गण ठाणे, वेसित्थि दुगंछिए य सुण्णे य । [ओ.नि.१९३] सज्झाए संथारे, उच्चारे चेव पासवणे ॥ ४३७५ ॥ अन्यस्मिन् ग्रामे विकालवेलायां प्रवेशे कृते वसतेर्मागणे परस्परस्फिटितानामाकारणेन महानधिकरणदोषो भवति । वेश्यास्त्रीपाटके चर्मकारादिस्थाने वा जुगुप्सिते तिष्ठतां वक्ष्यमाणं दोषजातं 'शून्यगृहादौ च' अप्रत्युपेक्षितायां वसतौ स्वाध्याय » संस्तारकमुच्चार प्रश्रवणं च कुर्वतामकुर्वतां च बहवो दोषा भवन्तीति द्वारगाथासमासार्थः ॥ ४३७५ ॥ अथैनामेव विवृणोति __10 सावय तेणा दुविहा, विराहणा जा य उवहिणा उ विणा [ओ.नि. १९४] गुम्मिय गहणा-ऽऽहणणा, गोणादी चमढणा रत्तिं ॥ ४३७६ ॥ विकाले प्रविशतां श्वापदभयं भवति । स्तेना द्विविधाः' शरीरापहारिण उपकरणापहारिणश्च, ते तदानीमभिद्रवन्ति । उपधावपहृते या तेन बिना तृणग्रहणा-ऽग्निसेवनादिका संयमविराधना तन्निष्पन्नम् । अथवा स प्रत्यन्तप्रदेशवर्ती ग्रामः ततस्तत्र बद्ध स्थानकाः 'गौल्मिकाः' 15 आरक्षिकपुरुषाः स्तेनादीनभिलीयमानान् रक्षन्ति, ते विकालवेलायां प्राप्तानां 'स्तेना अमी' इति बुद्ध्या ग्रहणा-ऽऽहननादिकं कुर्युः । अथवा विकाले प्रविशन्तो गवादिभिः पादप्रहारादिकां चमढनामासादयन्ति । । ऐते रात्रौ प्राप्तानां दोषाः ॥ ४३७६ ॥ किञ्च फिडियऽन्नोन्नाऽऽगारण, तेणर्य रतिं दिया व पंथम्मि । [ओ.नि.१९५] साणाइ वेस कुच्छिय, तवोवणं मूसिगा जं च ॥ ४३७७॥ 20 विकाले वसतिगवेषणार्थ पृथक् पृथग् गताः, ततः 'स्फिटिताः' परस्परपरिभ्रष्टाः सन्तोऽ. न्योऽन्यम् आकारणं-व्याहारणं कुर्युः । स्तेनकास्तद्वचनं श्रुत्वा रात्रौ मुषितुमभिलषेयुः, दिवा वा द्वितीये दिवसे 'पथि' मार्गे गच्छतस्तान् स्तेनका मुषेयुः । श्वानादयो वा रात्रौ वसतिगवेपणार्थं पर्यटतस्तान् उपद्रवेयुः । “वेस कुच्छिय" त्ति रात्रौ च वसतिमन्वेषयन्तो न जानन्ति किमेतद् गृहं वेश्यापाटकस्य प्रत्यासन्नम् ? उत न ? इति, यद्वा किमेतत् चर्मकार-रजकादिजु-25 गुप्सितकुलासन्नम् ? आहोश्चिद् न ? इति । एवं चाजानानास्ते वेश्यापाटकासन्ने प्रतिश्रये वसेयुः ततो लोको ब्रूयात्-अहो! तपोवनमध्यासते जितेन्द्रिया अमी महर्पय इति । अथ जुगुप्सितस्थानासन्ने स्थितास्ततो लोको ब्रवीत-स्वस्थानं मूषिकाः समागताः, एतेऽप्येवंजातीया इति १'वेदनया' च क्षुदादिरूपया स्था भा० ॥ २ ॥ एतदन्तर्गतः पाठः भा० कां० एव वर्तते ॥ ३ गोमादी ताभा०॥ ४°णा चेव भा० । एतत्पाठानुसारेणैव भा० प्रती व्याख्येति न तत्र "रति" पदव्याख्या वर्तते, दृश्यतां टिप्पणी ५॥५ - एतदन्तर्गतः पाठः भा० नास्ति ॥६°यराओ दि. भा०॥ ७°गा चेव भा० । एतत्पाठानुसारेणैव भा० प्रती व्याख्येति न तत्र "जंच" इति पदस्य व्याख्या वर्तते । दृश्यता पत्रं ११८४ टिप्पणी ॥ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ यथारना०प्रकृते सूत्रम् १७ भावः । 'जं च" त्ति यच्चे रात्रावन्योऽन्यालपनेऽप्कायानयनादिकमधिकरणं तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् । » तथा तत्रोपाश्रये रात्री प्राप्ताः सन्तः 'कालभूमी न प्रत्युपेक्षिता' इति कृत्वा यदि खाध्यायं न कुर्वन्ति ततः सूत्रा-ऽर्थनाशादयो दोषाः । अथ कुर्वन्ति ततः सामाचारीविराधना ॥ ४३७७ ॥ अथ संस्तारकद्वारं व्याख्याति अप्पडिलेहिय कंटा, बिलं व संथारगम्मि आयाए। [ओ.नि. १९६] छकायाण विराहण, विलीण सेहऽनहाभावो ॥ ४३७८॥ अप्रत्युपेक्षितायां वसतौ कण्टका भवेयुः, बिलं वा सर्पादिसम्बन्धि, ततः संस्तारके प्रस्तीर्यमाणे आत्मनि विराधना भवेत् । पृथिव्यादयो वा षट्कायास्तत्र भवेयुः, तेषां संस्तारकेणाक्रम्य माणानां विराधना भवति । 'विलीनं वा' जुगुप्सितं संज्ञा-कायिक्यादिकं तत्र भवेत् , ततः 10 शैक्षस्य जुगुप्सया 'अन्यथाभावः' उन्निष्क्रमणाभिप्रायो भवेत् ॥ ४३७८ ॥ अथोच्चार-प्रश्रवणद्वारद्वयं युगपदाह खाणुग-कंटग-वाला, बिलम्मि जइ वोसिरिज आयाए । [ओ.नि.१९७] संजमओ छक्काया, गमणे पत्ते अइंते य ॥ ४३७९ ॥ अप्रत्युपेक्षिते प्रतिश्रये स्थाणु-कण्टक-व्याला भवेयुः, तदाकुले बिलसमाकुले वा प्रदेशे 15 यदि व्युत्सृजति तत आत्मविराधना । अथ पृथिव्यादिषट्कायवति भूभागे व्युत्सृजति ततः संयमविराधना । एते द्वे अपि विराधने “गमणे" त्ति संज्ञा-कायिकीव्युत्सर्जनार्थं गच्छतः "पत्ते" त्ति संज्ञाभुवं कायिकीभुवं वा प्राप्तस्य “अइंते अ" त्ति संज्ञां कायिकी वा व्युत्सृज्य भूयोऽपि वसतिं प्रविशतो यथासम्भवं मन्तव्ये ॥ ४३७९ ॥ अथ विराधनाभयाद् न व्युत्सृजति तत इमे दोषाः मुत्तनिरोहे चक्, वच्चनिरोहेण जीवियं चयइ । [ओ.नि. १९८] उड्डनिरोहे कोडं, गेलनं वा भवे तिसु वि ॥ ४३८० ॥ मूत्रस्य निरोधे विधीयमाने चक्षुरुपहन्यते । वर्चः-पुरीषं तस्य निरोधेन जीवितं परित्यजति, अचिरादेव मरणं भवतीत्यर्थः । ऊर्द्ध-वमनं तस्य निरोधे कुष्ठं भवति । 'ग्लान्यं वा' सामान्यतो मान्द्यं त्रिष्वपि' मूत्र-पुरीष-वमनेषु निरुध्यमानेषु भवेत् ।। ४३८० ॥ 25 यत एते दोषा अतः पढम-विइयाएँ तम्हा, गमणं पडिलेहणा पवेसो य । पुव्वठियाऽसइ गच्छं, ठवेत्तु बाहिं इमे तिन्नि ॥ ४३८१ ॥ तस्मात् प्रथमायां द्वितीयस्यां वा पौरुण्यां विवक्षितग्रामे गमनं कृत्वा ततो वसतेः प्रत्युपेक्षणा प्रवेशश्च तस्यां कर्तव्यः । कथम् ? इत्याह-यदि तत्र केऽपि साधवः पूर्वस्थिताः 30 सन्ति तदा सर्वेऽपि प्रविशन्ति । अथ न सन्ति पूर्वस्थिताः ततो गच्छं क्वचिद् वृक्षादेरधो बहिः स्थापयित्वा 'इमे' ईदृशास्त्रयः साधवो ग्रामं प्रविशन्ति ॥ ४३८१ ॥ परिणयवय गीयत्था, हयसंका पुंछ चिलिमिली दोरे । AD एतदन्तर्गतः पाठः भा० नास्ति ॥ २ °व्याल-बिलसमाकुले प्रदेशे भा० ॥ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८५ भाग्यगाथाः ४३७८-८६] तृतीय उद्देशः। तिन्नि दुवे एको वा, वसहीपेहट्ठया पविसे ॥ ४३८२ ।। ये गीतार्थाः परिणतवयसो अत एव 'हतशङ्काः' अशङ्कनीयाः ते गुरुमापृच्छय दण्डप्रोञ्छनकं चिलिमिली दवरकांश्च गृहीत्वा त्रयो जनास्तदभावे द्वौ जनौ तदप्राप्तावेको वा वसतिप्रत्युपेक्षणार्थ ग्रामं प्रविशन्ति । ततो वसतिं गृहीत्वा प्रमृज्य च चिलिमिलिकां च दत्त्वा सबालवृद्धमपि गच्छं तत्र प्रवेशयन्ति ॥ ४३८२ ॥ १ अथ 'विकालवेलायां न प्रवेष्टव्यम्' इति यदुक्तं तदपवदन्नाह-- बिइयं ताहे पत्ता, पए व पत्ता उवस्सयं न लभे। सुन्नघर देउले वा, उजाणे वा अपरिभोगे ॥ ४३८३ ॥ द्वितीयपदमत्राभिधीयते--'तदानीं' विकालवेलायामेव प्राप्ताः, यद्वा 'प्रगे' प्रभाते प्राप्ताः परमुपाश्रयं न लभन्ते ततो विकालेऽपि प्रविशेयुः । प्रभातप्राप्ताश्च दिवा शून्यगृहे देवकुले वा 10 उद्याने वा 'अपरिभोग्ये' जनोपभोगरहिते तिष्ठन्ति, तत्रैव च समुद्देशनं कुर्वन्ति ॥ ४३८३ ॥ आवाय चिलिमिणीए, रन्ने वा निब्भये समुद्दिसणं । [ओ.नि. २००] सभए पच्छन्नाऽसइ, कमढग कुरुया य संतरिया ॥ ४३८४ ॥ अथ शून्यगृहादौ सागारिकाणामापातो भवति ततश्चिलिमिलिकां दत्त्वा समुद्देष्टव्यम् । अरण्यं वा यदि निर्भयं ततस्तत्र गत्वा समुद्दिशन्ति । अथारण्यं सभयं ततो वसिमसमीपे 15 एव यः प्रच्छन्नः प्रदेशस्तत्र समुद्देशनं कर्त्तव्यम् । अथ प्रच्छन्नस्थानं नास्ति ततस्तत्रैव शून्यगृहादौ 'कमठकेषु' शुक्ललेपेन सबाह्याभ्यन्तरं लिप्तेषु कांस्यकरोटकाकारेषु समुद्दिशन्ति, 'कुरुकुचा च' समुद्देशनानन्तरं पादप्रक्षालनादिका बहुना द्रवेण कर्तव्या, समुद्दिशन्तश्च 'सान्तराः' सावकाशा बृहदन्तराला उपविशन्ति । एवं भुक्त्वा बहिरेव संज्ञादि व्युत्सृज्य ततो ग्रामं प्रविशन्ति । प्रविष्टाश्च या पूर्व भिक्षां हिण्डमानैर्वसतिः प्रत्युपेक्षिता तस्यां वसन्ति ॥ ४३८४ ॥ 20 कथम् ? इत्याह कोढग सभा व पुव्वं, काल-वियाराइभूमिपडिलेहा । [ओ.नि. २०१] पच्छा अतिति रतिं, अहवण पत्ता निसिं चेव ॥ ४३८५ ॥ 'कोष्ठकः' आवासविशेषः 'सभा' प्रतीता, एवमादिकं यत् 'पूर्व' भिक्षां पर्यटद्भिः प्रत्युपेक्षितं तत्र कालग्रहणयोग्यां भूमिं विचारस्य च-संज्ञाया आदिशब्दात् कायिक्याश्च भूमि सूर्ये ध्रिय-25 माण एव प्रत्युपेक्षन्ते । ततः पश्चात् सर्वेऽपि वसतौ 'रात्रौ' प्रदोषसमये 'अतियन्ति' प्रविशन्ति । "अहवण" ति अथवा ते साधवस्तत्र निशायामेव प्राप्ता भवेयुः ।। ४३८५॥ ततः को विधिः ? इत्याह गोम्मिय भेसण समणा, निब्भय बहि ठाण वसहिपडिलेहा। [ओ.नि. २०२] सुन्नघर पुव्यमणिए, कंचुग तह दारुदंडे य ॥ ४३८६ ॥ गुल्मेन-समुदायेन चरन्तीति 'गौल्मिकाः' स्थानरक्षपालाः ते यदि 'भेषणं' वित्रासनं १ गुरूनापृ भा. कां० ॥ २ एतदन्तर्गतमवतरणं भा० नास्ति ॥ ३°त्र प्रोच्यते का। ४ रति, पत्ता वा ते भवे रति भा० ॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ यथारला०प्रकृते सूत्रम् १७ कुर्वन्ति ततो वक्तव्यम्-श्रमणा वयं न स्तेनाः । यदि च स सन्निवेशो निर्भयो भवति तदा "बहि ठाण" ति बहिरेव गच्छस्तावदवस्थानं करोति, वृषभास्तु वसतिप्रत्युपेक्षणार्थ ग्रामं प्रविशन्ति । तत्र च शून्यगृहं पूर्वभणितेन विधिना प्रत्युपेक्ष्य सर्पादिपतनभयाद् गोपालकञ्चुकं परिधाय 'दारुदण्डेन' दण्डप्रोञ्छनकेन वसतिमुपरि प्रस्फोटयन्ति, ततो गच्छः प्रविशति 6॥ ४३८६ ॥ अथ संस्तारकग्रहणविधिमाह संथारगभूमितिगं, आयरिए सेसगाण एकेकं । [ओ.नि. २०३] रंदाएँ पुप्फकिन्ना, मंडलिया आवली इतरे ॥ ४३८७ ॥ "आयरिए" ति षष्ठी-सप्तम्योरथ प्रत्यभेदादाचार्यस्य योग्यं संस्तारकभूमित्रयं प्रथमतो निरूपणीयम्-तत्रैका निवाता संस्तारकभूमिः, अपरा प्रवाता, अन्या निवात-प्रवाता । शेषाणां 10 साधूनां योग्यामेकैकां संस्तारभूमिमन्वेषयेत् । इह च वसतिस्त्रिधा–विस्तीर्णा क्षुल्लिका प्रमाणयुक्ता च । तत्र रुन्दा नाम-विस्तीर्णा घशालादिरित्यर्थः तस्यां 'पुष्पावकीर्णाः' पुष्पप्रकरवदवकीर्णाः-अनियतक्रमा अयथायथं खपन्ति येन सागारिकाणामवकाशो न भवति । अथ क्षुल्लिका ततो मध्ये पात्रकाणि कृत्वा मण्डलिकाकारेण पार्श्वतः शेरते । 'इतरा नाम प्रमाणयुक्ता तस्याम् 'आवल्या' पतया खपन्ति ॥ ४३८७ ॥ 15 . अत्रैव विधिविपर्यासे प्रायश्चित्तमाह---- सीसं इतो य पादा, इहं च मे वेंटिया इहं म । जइ अगहियसंथारो, भणाइ लहुगोऽहिकरणादी ॥ ४३८८॥ इतो मे शीर्ष भविष्यति, इह मे पादौ भविष्यतः, इह च मे वेण्टिका भाजनानि वा स्थास्यन्ति, एवं यद्यगृहीतसंस्तारको आत्मीयया इच्छया भणति विण्टिकादिकं च स्थापयति 20 तदा लघुमासः प्रायश्चित्तम् ; अधिकरणादयश्च दोषा भवन्ति । अधिकरणं नाम-द्वितीयोऽपि साधुरेवमेव ब्रूयात्-ममाप्यत्रैव शीर्षादि भविष्यतीति। ततश्चास्थिभङ्गादयो दोषाः ॥ ४३८८॥ यत एवमतः संथारग्गहणीए, वेंटियउक्खेवणं तु कायव्वं । [ओ.नि. २०४] संथारो घेत्तव्यो, माया-मयविप्पमुक्केणं ॥ ४३८९ ॥ 25 "संथारग्गहणीए" ति आर्षत्वात् स्त्रीत्वम् , संस्तारकग्रहणकाले वेण्टिकाया उत्क्षेपणं कर्त्तव्यं येन सुखेनैव दृष्टायां भुवि संस्तारका विभक्तुं शक्यन्ते । स च संस्तारको यो यस्मै साधवे दीयते स तेन माया-मद विप्रमुक्तेन ग्रहीतव्यः । माया नाम-'अहं वातार्थी, ममात्रावकाशं प्रयच्छत' इत्यादिका सुन्दरतरावकाशलोभेनासद्भूतकारणनिवेदनलक्षणा, मदः-अहङ्कारः 'अहो! अहममुष्मादपि गरीयान् येन मे शोभना संस्तारकभूमिः प्रदत्ता' इति ॥ ४३८९ ॥ 30 अथ किमर्थं संस्तारकग्रहणकाले वेण्टिका उत्क्षिप्यन्ते ? उच्यते सम-विसमा न पासइ, दुक्खं च ठियम्मि ठायई अन्नो । नेव य असंखडादी, विणयो अममिजया चेव ॥ ४३९० ॥ १ण्डल्याका भा०॥ २॥ एतचिह्नमध्यगतमवतरणं भा० नास्ति । Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८७ भाष्यगाथाः ४३८७-९४] तृतीय उद्देशः । विण्टिका यदि नोत्क्षिप्यन्ते तदा गणावच्छेदिकादिसंस्तारकान् विभजमानः सम-विषमाणि स्थानानि न पश्यति, अवकाशानित्यर्थः । तथा एकस्मिन् साधौ विण्टिकासहिते पूर्व स्थिते सति अन्यो न तिष्ठति, स्थातुं न शक्नोतीति भावः । अपि च वेण्टिकासूत्क्षिप्तासु असङ्खडादयो दोषा नैव भवन्ति । यथारत्नाधिकं च संस्तारकग्रहणे विनयः कृतो भवति । 'अममता च' ममत्वं संस्तारकभूमिविषयं परिहृतं भवति । अतः साधुभिः स्वखोपकरणे प्रत्यु-5 पेक्षिते उपाश्रये च प्रमार्जिते सति सूरिभिर्वक्तव्यम्-आर्याः ! उत्क्षिपत स्वाः स्वा विण्टिकाः। एवमुक्ते यो नोत्क्षिपति तस्य मासलघु ॥ ४३९० ॥ अथ वेण्टिकासूक्षिप्यमाणासु कश्चिदिमां मायां कुर्यात् संथारग्गहणीए, कंटग वीयार पासवण धम्मे । पयलणे मासो गुरुओ, सेसेसु वि मासियं लहुगं ॥४३९१ ॥ 10 संस्तारग्रहणकाले सम-सुन्दरभूमिलोभेन कण्टकोद्धरणमहं सम्प्रति करिष्यामि, 'विचारं वा' संज्ञां वा व्युत्स्रष्टुं प्रश्रवणं वा कर्तुं बहिर्गमिष्यामि, धर्म वा शय्यातरादेरग्रे कथयिष्यामि इत्यादि ब्रूयात् , प्रचलायनं वा तदानीं विदध्यात् , एवं मायायाः करणे आज्ञादयो दोषाः । अत्र च प्रचलायने मासगुरु । 'शेषेषु' कण्टकादिषु मायाभेदेषु मासलघुकम् ॥ ४३९१ ॥ अथ कण्टकादिपदानि विवृणोति 15 दुक्खं ठिओ व निजइ, न याणुवाएण पेल्लिउं सका। जो वि य णे अवणेहिइ, तं पि य नाहामि इति मंता ॥ ४३९२ ॥ संथारभूमिलुद्धो, भणाइ छंदेण भंते ! गिण्हित्तो। संथारगभूमीओ, कंटगमहमुद्धरामेणं ॥ ४३९३ ।। कोऽपि सम-सुन्दरे अवकाशे संस्तारकं कर्तुकामः, तत्र चापरः कोऽपि साधुः स्थित उपविष्टो 20 वर्तते, स च 'दुःखं' दुःखेन 'नीयते' अन्यत्र स्थाप्यते, न च 'अनुपायेन' कण्टकोद्धरणादिव्याजमन्तरेण प्रेरयितुं शक्यः, योऽपि च "णे" इति मदीयं कण्टकमपनेष्यति तमप्यह ज्ञास्यामीति मत्वा संस्तारकभूमिलुब्धो भणति-भदन्त ! इतः संस्तारकभूमीत उत्थाय 'छन्देन' खाभिप्रायेण 'गृह्णीत' संस्तारकम् , अहं पुनरत्र कण्टकमेनमुद्धरामीति । एवं मायाकरणे मासलघु प्रायश्चित्तम् ॥ ४३९२ ॥ ४३९३ ॥ १ अथ सद्भावादेव कण्टको लग्नः ततः किम् ? इति अत आह-~ लग्गे व अणहियासम्मि कंटए उक्खिवावे अन्नेणं । मज्झच्चगमवणेत्ता, कमागयं गेण्हह ममं पि ॥ ४३९४ ॥ 'वा' इत्यथवा सद्भावेनैव तस्य कण्टको लगः स च अनधिसह्यः-सोढुमशक्यः ततो वेण्टिकामन्येनोत्क्षेपयेत् । उत्क्षेप्य च ब्रूयात्-मदीयं कण्टकमपनीय क्रमागतं ममापि योग्यं 30 संस्तारकं गृहीत; एष शुद्धः ॥ ४३९४ ॥ अथ विचारादिद्वाराण्यतिदिशन्नाह एमेव य वीयारे, उज्जु अणुज तहेव पासवणे । १°षयं न भव भा० ॥ २॥ एतदन्तर्गतमवतरणं भा० नास्ति ॥ 25 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८८ धम्महालक्खेण च, आवज मासि मादी || ४३९५ ॥ एवमेव विचारविषयेऽपि ऋजुरनृजुश्च वक्तव्यः, मायी मायी चेत्यर्थः । तथैव प्रश्रवणद्वारेsपि विभाषा कर्त्तव्या । धर्मकथाया वा लक्ष्येण - व्याजेन कश्चित् क्रमागत संस्तार कव्यत्यासं करोति सोऽपि 'मायी' मायावानिति कृत्वा मासिकं लघुकमापद्यते । अथ सद्भावतो धर्मकथां 5 करोति ततः शुद्ध एव ॥ ४३९५ ॥ अपि च - तदानीं सद्भावतो धर्मकथायां विधीयमानायाममी गुणाः 15 दुविबुद्धिमलणं, सड्ढा सेजायरेयराणं च । तित्थविवढि पभावण, असारियं चैव कहयंते ॥ ४३९६ ॥ श्रोतॄणां या दुर्विदग्धा - विपरीतशास्त्रपल्लवग्राहिणी बुद्धिस्तस्या मलनं - मर्दनं कृतं भवति । 10 शय्यातरस्य इतरेषां च - श्राद्धानां श्रद्धा वर्धिता भवति । धर्मश्रवणानन्तरं च बहुषु भव्येषु प्रव्रज्यां प्रतिपद्यमानेषु तीर्थस्य विवृद्धिः कृता भवति, प्रभावना च प्रवचनस्य जायते - अहो ! विजयते जैनेन्द्रशासनं यत्रेदृशा धर्मकथालब्धिसम्पन्ना इति । अपि च-- सागारिका बहिधर्मश्रवणव्याक्षिप्ताः सन्तः प्रतिश्रयमध्ये न प्रविशेयुः, ततश्च साधूनामुपकरणं प्रत्युपेक्षमाणानामसागारिकं भवति । एवमेते गुणा धर्मं कथयति भवन्ति ॥ ४३९६ ॥ अथ प्रचलायनद्वारं भावयति - सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ यथारला ० प्रकृते सूत्रम् १७ मा पयल गिव्ह संथारगं ति पयलाइ इय वि जइ वुत्तो । को नाम न निग्गिues, खणमित्तं तेण गुरुओ से ।। ४३९७ ।। गणावच्छेदिकादिना कश्चित् प्रचलायमानो भणितः — मा प्रचलाय, गृहाण संस्तारकम् ; इति उक्तोऽपि यद्यसौ प्रचलायते ततो ज्ञातव्यम् - शठ एषः । कुतः ? इत्याह - ' को नाम ' 20 महानिद्रालुरपि ' क्षणमात्रं' यावता संस्तारको गृह्यते तावन्मात्रं कालं निद्रां न निगृह्णाति ? स तु तावन्तमपि कालं निद्रानिरोधमकुर्वाणः परिस्फुटं मायावानेव मन्तव्यः । अत एव "से" तस्य तीव्रतरमायाविनो मासगुरु प्रायश्चित्तम् ॥ ४३९७ ॥ अथ संस्तारकग्रहणे विधिमाह - विच्छिण्ण कोट्टिमतले, डहराए विसमए अ घेष्पंति । 25 sis अहाराइणियं, राइणिया ते इमे होंति ।। ४३९८ ॥ विस्तीर्णायां वा 'डहरायां वा' सङ्कीर्णायां वसतौ कुट्टिमतले वा विषमे वा भूभागे यथालाधिकं संस्तारेका गृह्यन्ते । ते च रत्नाधिका इमे भवन्ति ॥ ४३९८ ॥ उवसंपज्ज गिलाणे, परित्त खमए अवाउडिय थेरे । तेण परं विच्छिणे, परियाए मोतिमे तिनि ॥ ४३९९ ॥ प्रथमतो गुरूणां संस्तारकत्रयं दत्त्वा ततो यो ज्ञानाद्यर्थमुपसम्पदं प्रतिपन्नस्तस्य संस्तारको 30 दातव्यः । ततो ग्लानस्य, ततः परीतोपधेः, ततः क्षपकस्य, ततो 'अपावृतिकस्य' 'अपावृतेन मया सकलाऽपि रजनी गमनीया' इत्येवं प्रतिपन्नाभिग्रहस्य, तदनन्तरं ' स्थविरस्य' श्रुतेन वयसा वा वृद्धस्य, ततः परं विस्तीर्णे प्रतिश्रये पर्यायरत्नाधिकक्रमेण संस्तारैका ग्रहीतव्याः, १ मानोति । अथ कां• ॥ २°रको गृह्यते । ते त० दे० मो० ॥ ३°रको ग्रहीतव्यः । परंत०डे० ॥ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४३९५-४४०४] तृतीय उद्देशः । ११८९ परं मुक्त्वा 'अमून् त्रीन्' क्षुल्लक-शैक्ष-वैयावृत्यकरान् वक्ष्यमाणगाथायामभिधास्यमानान् ॥ ४३९९ ॥ आह उपसम्पन्न-ग्लानादीनां क्रियतां प्रथमं संस्तारकप्रदानेनानुग्रहः, यस्तु तपस्वी विपुलां निर्जरामभिलषन् स्वयमेव 'अपावृतेन मया स्थातव्यम्' इत्येवमभिग्रहं गृह्णाति तस्य किमर्थं स्थविरादिभ्यः प्रथमं संस्तारको दीयते ? उच्यते___ काम सकामकिच्चो, अभिग्गहो न उ बलाभिओगेणं । । तणुसाहारणहेतुं, तह वि निवाएण्हि ठावेंति ॥ ४४००॥ 'कामम्' अनुमतमिदम्-खकामेन-खकीययैव इच्छया कृत्यः-कर्तव्यो अभिग्रहो न तु बलाभियोगेन, परं तथापि 'तनुसाधारणहेतोः' शरीरस्य शीतोपद्रवसंरक्षणनिमित्तं निवाते प्रदेशे तं स्थापयन्ति ॥ ४४०० ॥ कुतः ? इति चेद् इत्याह अन्नोन्नकारेण विनिजरा जा, न सा भवे तस्स विवजयेणं । जहा तपस्सी धुणते तवेणं, कम्मं तहा जाण तवोऽणुमंता॥४४०१॥ अन्योन्यकारो नाम-परस्परं वैयावृत्यकरणं तेन या 'विनिर्जरा' विशिष्टकर्मक्षयरूपा सा 'तस्य' अन्योन्यकारस्य 'विपर्ययेण' व्यतिरेकेण न भवति । यथा किल तपखी तपसा 'कर्म' ज्ञानावरणादि धुनोति तथा यस्तस्य साहाय्यकरणेन तदीयतपसो अनुमन्ता तमपि तथैव कर्मक्षयकारिणं जानीहि । अतो युक्तमेवापावृताभिग्रहिकस्यानुग्रहविधानम् ॥ ४४०१ ॥ 15 अथ यदुक्तम्-'अमून् त्रीन् मुक्तवा' (गा० ४३९९) इति तस्य व्याख्यानार्थमाह बीभेत एव खुड्डे, वेयावच्चकरे सेहे जस्स पासम्मि । विसमऽप्पे तिनि गुरुणो, इतरे गहियम्मि गिण्हंति ॥ ४४०२॥ क्षुल्लकः खभावादेव बिभ्यन् भवति, ततो बहिः स्थाप्यमानः कूजित-रुदितादि कुर्यात्, अतो यस्तं परिवर्तयति तस्य समीपे स्थाप्यते । 'वैयावृत्यकरः' ग्लानस्य प्रतिचरकः स म्लान-20 स्यैव पार्श्व क्रियते । शैक्षो यस्य पार्धे शिक्षां गृह्णाति तस्यान्तिके स्थापनीयः । तथा विषमे वा 'अल्पे वा' सङ्कीर्णे प्रतिश्रये त्रीन् संस्तारकान् गुरूणां दत्त्वा ततः 'इतरे' उपसम्पन्नादयो गुरुभिर्गृहीते सति संस्तारकत्रये यथोक्तक्रमेण गृह्णन्ति । एष सङ्घहगाथासमासार्थः ॥४४०२॥ अथास्या एव पूर्वाध बिभावयिषुराहबीभेज बाहिं ठवितो उ खुड्डो, तेणाइगम्मो य अजग्गिरो य । सारेइ जो तं उभयं च नेई, तस्सेव पासम्मि करेंति तं तू ॥४४०३॥ क्षुल्लको बहिः स्थापितः सन् बिभियात् , स्तेनादिगम्यो वा भवेत् , 'अजागरणशीलश्च' असौ बहिः सुप्तः सन् केनाप्यनुत्थापितः प्रतिक्रमणवेलायामपि न जागृयात् , ततो यः 'त' क्षुल्लक 'सारयति' शिक्षा ग्राहयति 'उभयं च' संज्ञा-कायिकीलक्षणं तदीयं यः 'नयति' परिष्ठापयति तस्यैव पार्वे तं कुर्वन्ति ॥ ४४०३ ॥ 30 संथारगं जो इतरं व मत्तं, उच्चत्तमादी व करेइ तस्स । गाहेइ सेहं खलु जो व मेरं, करेंति तस्सेव उ तं सगासे ॥ ४४०४॥ १° उच्यते मा० ॥ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९० सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ यथारत्ना ० प्रकृते सूत्रम् १७ ग्लानस्य संस्तारकं यः करोति, 'इतरद्वा' संज्ञाद्युत्सर्जनां यो ग्लानं कारयति, मात्रकं वा परिष्ठापयति, उद्वर्त्तन- परावर्त्तनादीनि वा 'तस्य' ग्लानस्य यः करोति तं वैयावृत्यकरं तस्यैव पार्श्वे स्थापयन्ति । यो वा शैक्षं 'मेरां' सामाचारी ग्राहयति तं तस्यैव सकाशे कुर्वन्ति ॥४४०४॥ एवं विस्तीर्णायां वसतौ तावद् विधिरुक्तः, अथ सङ्कीर्णायां विधिमभिधित्सुराह - सम-विसमा थेराणं, आवलिया तत्थ अप्पणो. इच्छा । 6 खेल पवाय निवाए, पाहुणए जं विहिग्गहणं ॥ ४४०५ ॥ सङ्कीर्णायां वसतौ सर्वत्रापि संस्तारणीयम्, न पुनर्विषम इति कृत्वा कश्चिदप्यवकाशः शून्यो मोक्तव्यः । ततः ‘आवलिकया' पतया यथारलाधिकं विभज्यमाना संस्तारकभूमिः ' स्थविराणां ' वृद्धानां समा वा समागच्छेद् विषमा वा । 'तत्र' विषमायां तेषामात्मीया इच्छा, कोऽर्थः ? यदि 10 सहिष्णुतया विषमेऽपि संस्तारयितुं शक्नुवन्ति ततस्तत्रैव संस्तारयन्ति, अथासहिष्णवस्ततस्तरुणान् समां भूमिमनुज्ञापयन्ति । " खेल" त्ति यस्य खेलः स्पन्दते तस्य मध्येऽवकाशः समायातः, ततस्तेन विविक्तेऽवकाशे यस्य संस्तारकः सोऽनुज्ञापनीयः । यः पित्तलः स प्रवाते स्थातुमभिलषति, यस्तु वातलः स निवाते, एतयोः परस्परं संस्तारकपरावर्त्तो भवति । 'प्राघुणक: ' आचार्यादिः समागतस्तस्यापि यद् विधिना वक्ष्यमाणेन संस्तारकग्रहणं तदनुज्ञातमिति पुरातन - 10 गाथासमासार्थः ॥ ४४०५ ॥ अथैनामेव विभावयिषुराह - विसमो मे संथारो, गाढं पासा मि एत्थ भजंति । को देज मज्झ ठाणं, समं ति तरुणा सयं बेंति ॥ ४४०६ ॥ संस्तारकभूमिः स्थविराणां विषमा तरुणानां समा समायाता, ततो यः स्थविरोऽसहिष्णुः स ब्रूयात् - विषमः 'मे' मदीयः संस्तारकः, पार्श्वाणि च 'अत्र' विषमे शयानस्य गाढं मम 20 भज्यन्ते, अतः को नाम मह्यं समं स्थानं दद्यात् ? इति । ततो ये तरुणास्ते स्वयमेव गुरुभिरनुक्ता ब्रुवते - अस्माकमवकाशे यूयं संस्तारयतेति ॥ ४४०६ ॥ ज पुण अत्थिता, न देंति ठाणं बला न दावेंति । देति तहिँ पुंछणादी, बहिभावाऽसंखडं मा वा ॥ ४४०७ ॥ यदि पुनस्तरुणाः समं भूभागमर्थ्यमाना अपि न प्रयच्छन्ति ततो वृषभाः सूरयो वा न 20 तैर्बलाद् दापयन्ति, मा बलाद् दाप्यमानास्ते बहिर्भावं गच्छेयुः असङ्घडं वा कुर्युः । स्थविराश्च 'तत्र' विषमेऽवकाशे पादप्रोज्छनादिकं ददति येन सुखेनैव संस्तारयितुं शक्यते ॥ ४४०७ ॥ खेलद्वारमाह मज्झम्मि ठाओ मम एस जातो, पासंदए निच्च ममं च खेलो । ठाओ सरावस् य नत्थि एत्थं, सिंचिज खेलेण य मा हु सुते ॥ ४४०८ ॥ 30 श्लेष्मलो ब्रूयात् - मम तावदेषः 'स्थायः' अवकाशो मध्ये सञ्जातः, मम च ' खेल: ' श्लेष्मा नित्यं प्रस्पन्दते, अत्र चोभयतोऽपि पार्श्ववर्त्तिसंस्तारकाकीर्णे 'शरावस्य' खेलमल्लकस्य नास्त्यवकाशः, अत्र च संस्तारयन्नहं प्रत्यासन्नसुप्तान् शेषसाधूनपि मा लेष्मणा सिञ्चयमिति । १त्थं, सिंभेज ताटी• ॥ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 भाष्यगाथाः ४४०५-१२] तृतीय उद्देशः । ११९१ ततो यस्य विविक्ते प्रदेशे संस्तारकः स तस्यात्मीयमवकाशं प्रयच्छति ॥ ४४०८॥ प्रवातनिवातद्वारमाह निदं न विंदामिह उव्वरेणं, को मे पवायम्मि दएज भूमि । सीएण वारण य मज्झ बाहिं, न पचए अन्नमहऽन्न आह ॥४४०९॥ पित्तलो ब्रूयात्-अहम् 'इह' निवाते संस्तारयन् 'उद्वरेण' घर्मोपतापेन निद्रां 'न विन्दामि' । न लभे, अतः को नाम मे प्रवाते भूमिकां दद्यात् ?; 'अथ' अनन्तरम् 'अन्यः' वातलः सः 'आह' ब्रूयात्-शीतेन वातेन च पीड्यमानस्य मम बहिः प्रसुप्तस्यान्नं 'न पच्यते' न जीर्यते; तत एतौ परस्परं संस्तारकं परिवर्तयतः ॥ ४४०९॥ इह सङ्ग्रहगाथायां खेल-प्रवात-निवातग्रहणमुपलक्षणं तेनेदमभिधीयते जोइंति पक्कं न उ पक्कलेणं, ठावेंति तं सूरहगस्स पासे । एकम्मि खंभम्मि न मत्तहत्थी, बझंति वग्धा न य पंजरे दो ॥४४१०॥ यः 'पक्कः' असङ्खडिकः कलहनशील इत्यर्थः तं पक्केन सह न योजयन्ति, किन्तु यः 'शूरहकः' कलहादिकुर्वतां शिक्षा कत्तुं समर्थस्तस्य पार्श्वे तं स्थापयन्ति । यत एकस्मिन्नालानस्तम्भे द्वौ मत्तहस्तिनौ न बध्येते, परस्परं भण्डनसम्भवात् ; एवमेकस्मिन् पञ्जरे द्वौ व्याघ्रौ न प्रक्षिप्येते ॥ ४४१०॥ 15 अथ "पाहुणए जं विहिग्गहणं" ( गा० ४४०५) ति पदं व्याख्यातुमाह रायणिओ आयरिओ, आयरियस्सेव अकमइ ठागं। इतरो वसभट्ठाए, ठायइ जे ते व दो ठागा ॥ ४४११ ॥ यदि प्राघूर्णक आचार्य रत्नाधिकस्ततोऽसावाचार्यस्यैव 'स्थानम्' अवकाशमाक्रामति, वास्तव्याचार्यस्थाने संस्तारयतीत्यर्थः । 'इतरः' वास्तव्याचार्यः 'वृषभस्य' उपाध्यायस्य 'स्थाने' 20 अवकाशे तिष्ठति' संस्तारयति; अथवा यद् आचार्यसत्कं संस्तारकत्रयं तन्मध्यादेकस्मिन् प्राघुणकाचार्यः प्रसुप्तः, “जे ते व दो ठाग" त्ति ततो यौ तौ द्वाववशिष्यमाणौ संस्तारको तयोरेकस्मिन् वास्तव्याचार्यः संस्तारयति ॥ ४४११ ॥ ओमो पुण आयरिओ, वसभोगासे अणंतरे वसभो। संछोभपरंपरओ, चरिमं सेहं च मोत्तणं ॥ ४४१२॥ 25 अथासौ प्राघुणक आचार्यः 'अवमः' पर्यायलघुस्ततोऽसौ वृषभस्यावकाशे संस्तारयति । वृषभस्तु तदनन्तरे-अवमरानिकस्थाने खपिति । एवं संस्तारकाणां 'संछोभपरम्परकः' परम्परया स्थानान्तरसङ्क्रमणरूपः तावद् मन्तव्यो यावद् द्विचरमः साधुः । यस्तु चरमः-सर्वपाश्चात्यावकाशशायी तं शैक्षं च मुक्त्वा, तयोः संस्तारको नान्यत्र सङ्क्रामयितव्य इति भावः ॥ ४४१२ ॥ इदमेव व्याचष्टे१°हकरणशील तं भा०॥ २°स्य "ठाए" अब भा० ॥ ३ एतदने का० पुस्तके-॥ छ ॥ इति श्रीकल्पस्य द्वितीयं खण्डं। छ॥ इति वर्तते । मो. पुस्तके -ग्रन्था० १४१६० इवि वर्तते ।। 30 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [कृतिकर्मप्रकृते सूत्रम् १८ चरिमो बहिं न कीरइ, सेहं न सहायगा विजुयलेंति । रंगिद्धिपुरिसनायं, सव्वे तत्थेव मावेति ॥ ४४१३ ॥ 'चरमः' पर्यन्तवर्ती बहिर्न क्रियते, शैक्षमपि 'सहायकात्' शिक्षाग्राहकान्न 'वियुगलयन्ति' युगलान्न स्फेटयन्ति, बहिनिष्काश्यमानौ हि तो बहिर्भावं गच्छेताम् , बहिर्भावगमनतः प्रति5 गमनादीनि कुर्याताम् , अतः संस्तारकाः संक्षिप्य तथा प्रस्तरणीयाः यथा 'तयोरपि' चरम-शैक्षयोः संस्तारको प्रतिश्रयमध्य एव पूर्यते । तथा चात्र रङ्गे ये ऋदिमन्तः पुरुषास्तैख़तम्दृष्टान्तः कर्तव्यः --यथा रङ्गभूमौ पूर्व प्राकृतजनैराकीर्णायामपि ये राजा-ऽमात्य-श्रेष्ठिप्रभृतयः प्रधानपुरुषाः पश्चादागच्छन्ति तेषामुपवेशनयोग्यान् अवकाशान् दत्त्वा संक्षिप्ततरावकाशस्थापनेन प्रागुपविष्टा अपि तत्रैव माप्यन्ते; एवमस्माकमपि प्राघूर्णकाः प्रधानपुरुषकल्पाः, ततस्तेषां यथा10 योग्यमवकाशान् दत्त्वा वृषभाः संस्तारकभूमीः संक्षिप्य प्रयच्छन्तः सर्वानपि साधून् तत्रैव मापयन्ति इति ॥ ४४१३ ॥' (ग्रन्थाग्रम् -२९४२०) ॥ यथारलाधिकशय्यासंस्तारपरिभाजनप्रकृतं समाप्तम् ॥ कति कर्म प्रकृतम् सूत्रम्15 कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा अहारायणियाए किड़कम्म करित्तए १८॥ अथ कोऽस्य सूत्रस्य सम्बन्धः ? इत्याह संथारं दुरुहंतो, किइकम्म कुणइ वातिगं सायं । पातो वि य पणिवायं, पडिबुद्धो एक्कमेक्कस्स ॥ ४४१४ ॥ 20 'सायं' प्रदोषसमये पौरुष्यां पूर्णायां गुरुप्रदत्तायां भुवि प्रस्तीर्य संस्तारकमारोहन् 'वाचिकं कृतिकर्म' 'नमः क्षमाश्रमणेभ्यः' इति लक्षणं वाचनिकं प्रणामं करोति, 'प्रातरपि च' प्रभातेऽपि प्रतिबुद्धः सन्नेकैकस्य साधोः 'प्रणिपातं' वन्दनं यथारत्नाधिकं करोति, अत इदं कृतिकर्मसूत्रमारभ्यते ॥ ४४१४ ॥ अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या--कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा 'यथारानिक' 25 यो यो रत्नाधिकस्तदनतिक्रमेण कृतिकर्म कर्तुमिति सूत्रसङ्केपार्थः ॥ अथ विस्तरार्थ भाष्यकार आह किइकम्मं पि य दुविहं, अब्भुट्ठाणं तहेव वंदणगं । वंदणगं तहिँ ठप्पं, अब्भुट्ठाणं तु वोच्छामि ॥ ४४१५ ॥ १ एतदने त० पुस्तके-॥ छ ॥ ग्रन्याग्रं० १४१६० ॥ चतुर्दशमसहस्र एकाग्रशतषष्टिः ॥ एतत् ग्रन्थाग्रं ॥ छ ॥ ॥छ ॥ कल्पटीका द्वितीयखंडं ॥ ॥ श्रीः॥ ॥ इति वर्तते । डे० पुस्तके-॥ छ ॥ ग्रन्थाग्रं० १४१६० ॥ इति वर्तते । ताटी० पुस्तके-॥छ ॥ ग्रंथाग्रं १४१६० ॥ ॥छ॥ मंगलं महाश्रीः॥ शुभं भवतु समस्तसंघस्य ॥छ॥श्रीकल्पवृत्तिद्वितीयखंडं इति वर्तते ॥ - Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४४१३-१९] तृतीय उद्देशः । ११९३ कृतिकर्म द्विविधम् , तद्यथा-अभ्युत्थानं वन्दनकं च । 'तत्र' तयोर्द्वयोर्मध्ये वन्दनकं 'स्थाप्यं पश्चाद् भणिप्यत इत्यर्थः । अभ्युत्थानं तु साम्प्रतमेव वक्ष्यामि ॥ ४४१५ ॥ प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयन्नाह अब्भुट्ठाणे लहुगा, पासत्थाद-ऽण्णतिथि-गिहिएसु । अहछंद अण्णतिथिणि, संजइवग्गे अ गुरुगा उ ॥ ४४१६॥ साधुभिः साधूनामेवाभ्युत्थानं विधेयं न गृहस्थादीनाम् , तत्रापि संविमानामेव न पार्श्वस्थादीनाम् । अथ पार्श्वस्थादीनामन्यतीथिकानां गृहिणां च अभ्युत्थानं करोति तदा चत्वारो लघवः । यथाच्छन्दानामन्यतीर्थिनीनां संयतीवर्गस्य चाभ्युत्थाने चतुर्गुरवः ॥ ४४१६ ॥ अथात्रैव दोषानुपदर्शयतिउद्वेइ इत्थि जह एस एंति, धम्मे ठिओ नाम न एस साहू । 10 दक्खिन्नपन्ना वसमेइ चेवं, मिच्छत्तदोसा य कुलिंगिणीसु ।।४४१७॥ संयतं कस्या अपि स्त्रिय अभ्युत्तिष्ठन्तं दृष्ट्वा श्रावकादिश्चिन्तयेत्-यथैष साधुः स्त्रियमायाती दृष्ट्वाऽभ्युत्तिष्ठति तथा 'नाम' इति सम्भावनायाम् , सम्भावयाम्यहम्-नैष सम्यग् 'धर्मे' श्रुतचारित्रात्मके स्थितः, अन्यथा किमेवमेनामभ्युत्तिष्ठति ?, अपि च-एवं स्त्रिया अभ्युत्तिष्ठन् दाक्षिण्यवान् भवति, दाक्षिण्यपण्याच तस्याः 'वशम्' आयत्ततामुपैति, ततश्च ब्रह्मचर्यविराधना-15 दयो दोषाः । यास्तु कुलिङ्गिन्यः-तापसी-परिव्राजिकाप्रभृतयः ताखभ्युत्थीयमानासु यथाभद्रकादीनां मिथ्यात्वगमनादयो दोषा भवन्ति ॥ ४४१७ ॥ अन्यतीर्थिकेषु पुनरिमे दोषाः ओभावणा पवयणे, कुतित्थ उम्भावणा अबोही य । खिसिजंति य तप्पक्खिएहिँ गिहिसुव्वया बलियं ॥ ४४१८ ॥ भौत-भागवत-सौगतादीनामन्यतीर्थिकानामभ्युत्थाने प्रवचनस्य महती अपभ्राजना भवति-20 अहो ! निःसारं प्रवचनममीषाम् यदेवमन्यदर्शनिनामभ्युत्थानं विदधतीति । तदीयस्य च कुतीर्थस्य 'उद्भावना' प्रभावना भवति-एतदेव दर्शनं शोभनतरं यदेवं जैना अप्येतत्प्रतिपन्नानभ्युत्तिष्ठन्तीति । 'अबोही य" ति प्रवचनलाघवप्रत्ययं मिथ्यात्वमोहनीयं कर्मोपचित्य भवोदधौ परिभ्रमन् बोधिलाभं नासादयति । ये च गृहिणः सुव्रताः-शोभनाणुव्रतधारकाः सुश्रावका इत्यर्थः ते 'तत्पाक्षिकैः' शाक्यादिपक्षपातिभिरुपासकैः ‘बलिकम्' अत्यर्थ खिंस्यन्ते-25 अस्माकमेव दर्शनं सर्वोत्तमम् , भवदीयगुरूणामपि गौरवार्हत्वात् ॥ ४४१८ ॥ एए चेव य दोसा, सविसेसयरऽन्नतिथिगीसुं पि। लाघव अणुजियत्तं, तहागयाणं अवन्नो य ॥ ४४१९ ॥ एत एव 'दोषाः' प्रवचनापभ्राजनादयोऽन्यतीर्थिकीष्वपि भवन्ति, नवरं 'सविशेषतराः' शङ्कादिभिर्दोषैः समधिकतरा मन्तव्याः । गृहिणामन्यतीर्थिकादीनां चाभ्युत्थाने सामान्यत इमे 30 दोषाः, तद्यथा-'लाघवम्' 'एतेभ्योऽप्ययं हीनः' इत्येवंलक्षणो लघुभाव उपजायते । 'अनूजिंतत्वं' वराकत्वमुपदर्शितं भवति, तथाहि लोको ब्रूयात्-अहो ! अदत्तदाना श्वाना इव वराका अमी, यदेवमाहारादिनिमित्तमविरतकानामपि चाटूनि कुर्वन्ति । तथा-तेन यथावस्थितपदार्थों Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ११९४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [कृतिकर्मप्रकृते सूत्रम् १८ पलम्भकात्मकेन प्रकारेण गतं-ज्ञानमेषां ते 'तथागताः' सद्भूतार्थवेदिनः तीर्थकर-गणधरा इत्यर्थः तेषामवर्णवादो भवति, यथा-नामी सम्यग् मोक्षमार्ग दृष्टवन्त इति ॥ ४४१९ ॥ अथ संयतीनामभ्युत्थाने दोषं विशेषतो दर्शयन्नाह पायं तवस्सिणीओ, करेंति किइकम्म मो सुविहियाणं । एसुत्तिद्वइ वतिणिं, भवियव्वं कारणेणेत्थं ॥ ४४२० ॥ संयतीमभ्युत्तिष्ठन्तं दृष्ट्वा कश्चिदभिनवधर्मा चिन्तयेत्-प्रायः 'तपखिन्यः' संयत्यः सुविहितानां कृतिकर्म कुर्वन्ति, “मो" इति पादपूरणे, एष पुनर्वतिनीमुत्तिष्ठति, तद् भवितव्यमत्र कारणेनेति । स एवं शङ्कायां चतुर्गुरु, निःशविते मूलम् । » यत एते दोषास्ततो नैषामभ्युस्थानं विधेयम् ॥४४२०॥ अथ येषामभ्युत्थातव्यं तदभ्युत्थानाकरणे प्रायश्चित्तमभिधित्सुराह आयरिए अभिसेगे, भिक्खुम्मि तहेव होइ खुड्डे य । गुरुगा लहुगा लहुगो, मिन्ने पडिलोम बिइएणं ॥ ४४२१ ॥ आचार्येऽभिषेके भिक्षौ तथैव क्षुल्लके आचार्यादीन् प्राघुणकान् यथाक्रममनभ्युत्तिष्ठति गुरुका लघुका लघुको भिन्नमासश्चेति प्रायश्चित्तानि । द्वितीयादेशेनेदमेव प्रायश्चित्तं 'प्रतिलोमं' प्रतीपक्रमेणाचार्यादीनां वक्तव्यम् , आचार्यस्य भिन्नमासः, अभिषेकस्य लघुमासः, भिक्षोश्चतु. 15 र्लघवः, क्षुल्लकस्य चतुर्गुरव इति भावः । एष सङ्ग्रहगाथासमासार्थः ॥ ४४२१ ॥ अथैनामेव विवृणोति आयरियस्सायरियं, अणुट्ठियंतस्स चउगुरू होति । वसमे भिक्खू खुड्डे, लहुगा लहुगो य भिन्नो य ॥ ४४२२ ॥ आचार्यस्याचार्य प्राघूर्णकमायान्तमनुत्तिष्ठतश्चतुर्गुरवो भवन्ति, वृषभमनभ्युत्तिष्ठतश्चतुर्लघुकाः, 20 मिक्षुमनुत्तिष्ठतो लघुमासः, क्षुल्लकमनुत्तिष्ठतो भिन्नमासः ॥ ४४२२ ॥ A ऍवमाचार्यस्य प्रायश्चित्तमुक्तम् । अथ शेषाणामतिदिशति-~ सट्ठाण परवाणे, एमेव य वसह-भिक्खु-खुड्डाणं । [पिं.नि. २७७] जं परठाणे पावइ, तं चेव य सोहि सट्ठाणे ॥ ४४२३ ॥ एवमेव वृषभ-भिक्षु-क्षुल्लकानामपि खस्थान-परस्थानप्रायश्चित्तं वक्तव्यम् । खस्थानं नाम-वृष25 भस्य वृषमः, परस्थानं वृषभस्याचार्य- भिक्षु-क्षुल्लकाः; एवं » भिक्षु-क्षुल्लकयोरपि स्वस्थान-पर स्थानभावना कर्त्तव्या । अत्र च यत् परस्थाने आचार्यः प्राप्नोति तदसावपि वृषभादिः स्वस्थाने प्रामोति । किमुक्तं भवति?-वृषभस्य प्राघूर्णकमाचार्यमनभ्युत्तिष्ठतश्चतुर्गुरुकाः, वृषभस्यानभ्युस्थाने चतुर्लघवः, भिक्षोरनभ्युत्थाने मासलघु, क्षुल्लकस्यानभ्युत्थाने भिन्नमासः; एवं भिक्षु-क्षुल्लक योरपि मन्तव्यम् । अत्र परस्थानमाचार्यस्य वृषभादयः, तेषामनभ्युत्थाने यथाऽसौ चतुर्लघुका. 30 दिकमापन्नवान् तथा वृषभादयोऽपि खस्थानमनभ्युत्तिष्ठन्तस्तदेव प्रामुवन्ति ॥ ४४२३ ॥ १°लम्भात्म भा० ॥२ 4 एतन्मध्यगतः पाठः भा. नान्ति ॥ ३ वुम्मि तह य होइ ताभा० ॥ ४ अत्र बहुषु स्थलेषु भा० पुस्तके प्राघूर्णिक इति पाठः दृश्यते ॥ ५॥ एतन्मध्य गतमवतरणं भा० नास्ति ॥ ६ एतदन्तर्गतः पाठः भा० का ० एव वर्तते ॥ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४४२०-२८] तृतीय उद्देशः । ११९५ . अथैतदेव प्रायश्चित्तं तपः-कालाभ्यां विशेषयन्नाह - दोहि वि गुरुगा एते, आयरियस्सा तवेण कालेण । तवगुरुगा कालगुरू, दोहि वि लहुगा य खुड्डस्स ॥ ४४२४ ॥ आचार्यस्य 'एतानि' चतुर्गुरुकादीनि प्रायश्चित्तानि द्वाभ्यामपि गुरुकाणि कर्त्तव्यानि, तद्यथा-तपसा कालेन च । वृषभस्य तपोगुरुकाणि, भिक्षोः कालगुरुकाणि, क्षुल्लकस्य 5 'द्वाभ्यामपि' तपः-कालाभ्यां लघुकानि ॥ ४४२४ ॥ अहवा अविसिहँ चिय, पाहुणयाऽऽगंतुए गुरुगमादी। पावेंति अणुट्टिता, चउगुरु लहुगा लहुग भिन्नं ॥ ४४२५ ॥ 'अथवा' इति प्रायश्चित्तस्य प्रकारान्तरताद्योतकः । 'अविशिष्टमेव' आचार्यादिविशेषैर्विरहितं प्राघूर्णकमागन्तुकमनुत्तिष्ठन्तः ‘गुर्वादयो' आचार्यप्रभृतयो यथाक्रमं चतुर्गुरुक-चतुर्लघुक-10 लघुमास-भिन्नमासान् प्राप्नुवन्ति । तद्यथा-आचार्यस्य यं वा तं वा प्राघूर्णकमागतमनभ्युत्तिष्ठतश्चतुर्गुरु, वृषभस्य चतुर्लघु, भिक्षोलघुमासः, क्षुल्लकस्य भिन्नमास इति ॥ ४४२५॥ अहवा जं वा तं वा, पाहुणगं गुरुमणुहिहं पावे । भिन्नं वसभो सुकं, भिक्खु लहू खुड्डए गुरुगा॥ ४४२६ ॥ अथवा यं वा तं वा प्राघूर्णकमनुत्तिष्ठन् 'गुरुः' आचार्यों भिन्नमासं प्राप्नोति, वृषभः 'शुक्ल-15 मासं' लघुमासमित्यर्थः, भिक्षुश्चतुर्लघुकम् , क्षुल्लकश्चतुर्गुरुकम् । एतेन "पडिलोम बिइएणं" (गा. ४४२१) ति पदं व्याख्यातम् ॥ ४४२६ ॥ अथ किमर्थमयं द्वितीयादेशः प्रवृत्तः ? इत्याह चायण-वावारण-धम्मकहण-सुत्तत्थचिंतणासुं च । .. वाउलिए आयरिए, बिइयादेसो उ. भिन्नाई ॥ ४४२७ ॥ . . . .20 इहाचार्यस्यानेकधा व्याक्षेपः, तद्यथा-वाचना नाम-अनुयोगः सा विनेयानां दातव्या, व्यापारणं साधूनां वैयावृत्यादिषु यथायोग्यं विधेयम् , श्राद्धानां धर्मकथनं विधातव्यम् , स्वयं च सूत्रा-ऽर्थयोश्चिन्तना--अनुप्रेक्षा कर्त्तव्या । एवमादिषु कार्येषु निरन्तरमाचार्यो व्याकुलितो भवति, वृषभादयस्तु न तथा व्याकुला इत्यतोऽयं भिन्नमासादिर्द्वितीय आदेशः प्रवृत्तः । इयमत्र भावना-आचार्यों बहुव्याकुलतया प्राघुणकमागच्छन्तं दृष्ट्वाऽपि नाभ्युत्थातुं पारयेत् , 25 अतस्तस्य स्वल्पतरं प्रायश्चित्तम् । वृषभ-भिक्षु-क्षुल्लकास्तु यथाक्रममल्पा-ऽल्पतरा-ऽल्पतमव्याक्षेपाः, ततो लघुमासादीनि प्रभूत-प्रभूततर-प्रभूततमानि तेषां प्रायश्चित्तानीति ॥ ४४२७ ॥ अथ क्षुल्लकस्य गुरुतमप्रायश्चित्तदाने विशेषकारणमाह वेसइ लहुमुढेइ य, धूलीधवलो असंफुरो खुड्डो। इति तस्स होति गुरुगा, पालेइ हु चंचलं दंडो॥ ४४२८॥ 30 'क्षुल्लकः' बालः सं लघुशरीरतया सुखेनैवोपविशति उत्तिष्ठति च, क्रीडनशीलतया च १ स क्रीडनशीलतया प्रायेण 'धूलीधवलः' रजोगुण्डितदेहो भवति, असंस्फुरश्चासौ, ततः 'लघु' शीघ्रमुप्रविशति उत्तिष्ठति च, अतो यद्यसा भा० ॥ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [कृतिकर्मप्रकृते सूत्रम् १८ प्रायेण 'धूलीधवलः' रजोगुण्डितदेहः 'असंस्फुरश्च' असंवृतोऽसौ भवति, अतो यद्यसावपि प्राघुणकमागतं नोत्तिष्ठति तदा महद् दूषणमामोति, अत एतस्य चतुर्गुरुकाः प्रायश्चित्तम् । किञ्च-यश्चञ्चल:- खंभावात् चपलोऽपि सन् गुर्वादीनां नाभ्युत्तिष्ठति तं 'दण्डः' प्रायश्चित्तलक्षणो दीयमानः पालयति, चञ्चलत्वमपनयतीत्यर्थः ॥ ४४२८ ॥ अपि च5 जइ ता दंडत्थाणं, पावइ बालो वि पयणुए दोसे । ह णु दाणि अक्खमं णे, पमाइउं रक्खणा सेसे ॥४४२९ ।। बालस्यापि गुरुके प्रायश्चित्ते दत्ते सति शेषसाधवश्चिन्तयेयुः–यदि तावदयं बालोऽपि 'प्रतनुके' अनभ्युत्थानमात्रलक्षणे स्वल्पेऽप्यपराधे एवं दण्डस्थानं प्राप्नोति "ह णु दाणि" ति तत इदानीमस्माकं 'प्रमत्तुम्' अभ्युत्थाने प्रमादं कर्तुम् 'अक्षमम्' अनुचितमिति शेषसाधुवर्ग10 स्यापि रक्षणं कृतं भवति ॥ ४४२९ ॥ आह–अभ्युत्थानमकुर्वतामात्म-संयमयोस्तावत् काचिदपि विराधना नास्ति ततः किं कारणमेवमेव प्रायश्चित्तं दीयते ? उच्यते दिद्वंतों दुवक्खरए, अब्भुट्टितेहिं जह गुणो पत्तो। तम्हा उठेयव्यो, पाहुणओ गच्छे आयरिओ ॥ ४४३०॥ इह प्राघुणकमाचार्यमनुत्तिष्ठन् भगवतामाज्ञामतिकामति । तथा चात्र 'व्यक्षरकेण' 15 दासेन दृष्टान्तः-- एगो राया, सो केणइ दुअक्खरएणं आराहिओ । रन्ना से पढ़ें बंधिउं पहाणं रजं दिन्नं । तत्थ दंड-भड-भोइयाइणो 'दुअक्खरो' ति काउं परिभवेणं तस्स अभुट्ठाणाइयं न करेंति, ताहे तेण ते अणभुटेता दंडिया मारिया य । जे विणीया ते अब्भुष्टुिति, तेसिं तेण परितुटेण रजसंविभागो दिन्नो ॥ 20 अथार्थोपनयः-यथा तैरभ्युचिष्ठद्भिरिहलोके गुणः प्राप्तः तथा साधवोऽपि प्राघुणकमाचार्यमभ्युत्तिष्ठन्त इह परत्र च गुणानासादयन्ति । तस्मात् प्राघुणक आचार्यः सकलेनापि गच्छेनाभ्युत्थातव्यः ॥१४३० ॥ अमुमेव यक्षरकदृष्टान्तं व्याख्यानयति आराहितो रज सपट्टबंधं, कासी य राया उ दुवक्खरस्स । पसासमाणं तु कुलीयमादी, नादंति तं तेण य ते विणीया ॥ ४४३१ ॥ 25 आराधितः' केनापि गुणविशेषेण परितोषं प्रापितः सन् राजा द्यक्षरकस्य सपट्टबन्धं राज्यमकार्षीत् , पट्टबन्धनृपतिं तं विहितवानिति भावः । ततस्तं यक्षरकराजं राज्यं प्रशासतं 'कुलीनादयो नाद्रियन्ते' 'वयं कुलीनाः, अयं तु हीनकुलोत्पन्नः, आदिशब्दाद् वयं प्रधानपुरुषाः, अयं पुनः कर्मकरः' इत्यादिपरिभवबुद्ध्या नाभ्युत्थानादिकमादरं तस्य कुर्वन्ति । ततस्ते तेन राज्ञा 'विनीताः' शिक्षा प्रापिताः, “विनयः शिक्षा-प्रणत्योः" (हैमाने० त्रिखर० श्लोक 30११०५) इति वचनात् ॥ ४४३१ ॥ कथं शिक्षिताः ? इत्याह सव्वस्सं हाऊणं, निजूढा मारिया य विवदंता । भोगेहिँ संविभत्ता, अणुकूल अणुव्वणा जे उ ॥ ४४३२॥ ११ एतचिहान्तर्गतः पाठः भा० नास्ति ॥ २ निच्छूढा भा० ॥ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४४२९-३६] तृतीय उद्देशः । ११९७ सर्वस्वमपहृत्य ते खनगरादे "निजटा' निकाशिताः । ये च तत्र निष्काश्यमाना विवदन्ते-'किमस्माभिरपराद्धम् ? यो यो छाक्षरको भविष्यति तस्य तस्य किं वयमभ्युत्थानं करिष्यामः ?' इत्यादि कलहायन्ते ते विवदमाना मारिताः । ये तु तत्र 'अनुकूलाः' अभ्युस्थानादिकारिणः 'अनुल्यणाः' अगर्वितास्ते भोगैः 'संविभक्ताः' राज्यभोगसंविभागस्तेषां कृतः ॥ ४४३२ ॥ एष दृष्टान्तः, अयमर्थोपनयः अहिराया तित्थयरो, इयरो उ गुरू उ होइ नायव्यो । साहू जहा व दंडिय, पसत्थमपसत्थगा होंति ॥ ४४३३ ॥ यथा 'अधिराजः' मौलः पृथिवीपतिः तथा तीर्थकरः । यथा 'इतरः' यक्षरकराजः तथा तीर्थकराधिराजेनैवानुज्ञाताचार्यपदपट्टबन्धसहितगणाधिपत्यराज्यः 'गुरुः' आचार्यों ज्ञातव्यो भवति । यथा च ते प्रशस्ता-ऽप्रशस्तरूपा दण्डिकास्तथा साधवोऽप्युभयस्वभावा भवन्ति 10 ॥ ४४३३ ॥ तत्र जह ते अणुट्ठिहंता, हियसव्वस्सा उ दुक्खमाभागी। इय णाणे आयरियं, अणुट्टिहंताण वोच्छेदो ॥४४३४ ॥ यथा ते दण्ड-भट-भोजिकादयो यक्षरकनृपतिमनुत्तिष्ठन्तो हृतसर्वखा ऐहिकस्य दुःखस्याभागिनः सञ्जाताः 'इति' एवमाचार्यमप्यनुत्तिष्ठतां दुर्विनीतसाधूनां ज्ञाने उपलक्षणत्वाद् दर्शन-15 चारित्रयोश्च व्यवच्छेदो भवति । ततश्चानेकेषां जन्म-जरा-मरणादिदुःखानामाभागिनस्ते सञ्जायन्ते ॥ ४४३४ ॥ एषोऽप्रशस्तोपनयः, अथ प्रशस्तोपनयः उठाण-सेजा-ऽऽसणमाइए हिं, गुरुस्स जे होंति सयाऽणुकूला। नाउं विणीए अह ते गुरू उ, संगिण्हई देइ य तेसि सुत्तं ॥ ४४३५ ।। उत्थानं-गुरुमागच्छन्तं दृष्ट्वा ऊर्धीभवनम् , शय्या-सम-सुन्दरावकाशे गुरूणां संस्तारक- 20 रचनम् , आसनम्-उपवेशनयोग्यनिषद्यादिरचनम् , यद्वा "सेज्जा-ऽऽसणं" ति गुरूणां शय्याया आसनाच्च नीचतरशय्या-ऽऽसनयोराश्रयणम् , आदिशब्दादञ्जलिप्रग्रहादिपरिग्रहः । एवमादिभिर्विनयभेदैर्ये शिष्याः सदैव गुरोरनुकूला भवन्ति तान् विनीतान् ज्ञात्वा 'अथ' अनन्तरं गुरुः 'संगृह्णाति' 'मयैते सम्यक् पालनीयाः' इत्येवं सङ्ग्रहबुद्ध्या स्वीकरोति सूत्रं च तेषां प्रयच्छति । ततश्च ते इह परत्र च कल्याणपरम्पराभाजनं जायन्ते ॥ ४४३५ ॥ 25 अथाप्रशस्तोपनयं विशेषतो भावयन्नाह - पजाय-जाई-सुततो य वुड्डा, जच्चनिया सीससमिद्धिमंता । कुव्वंतवणं अह ते गणाओ, नितहई नो य ददाइ सुत्तं ॥ ४४३६ ॥ पर्यायतो ये वृद्धास्ते 'अवमरालिकोऽयम्' इति बुद्ध्या, जातिमधिकृत्य ये वृद्धाः-षष्टिवर्षजन्मपर्याया इत्यर्थस्ते 'बालकोऽयम्' इति बुद्ध्या, 'श्रुततश्च' श्रुतमङ्गीकृत्य ये वृद्धास्ते 30 'अल्पश्रुतोऽयम्' इति कृत्वा, 'जात्यन्विताः' विशिष्टजातिसम्भूताः 'हीनजात्युद्भवोऽयम्' इति मत्या, 'शिष्यसमृद्धिमन्तः' परिवारसम्पदुपेताः 'अल्पपरिवारोऽयम्' इति बुद्ध्या गुरोः 'अवज्ञाम्' १°द् "निच्छूढा" मो. ताटी० । °द् 'नियूंढा' निष्का डे० ॥ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [कृतिकर्मप्रकृते सूत्रम् १८ अनभ्युत्थानलक्षणां कुर्वन्ति । अथैवमवज्ञाकरणानन्तरं गुरुस्तान् खगच्छनगराद् नियूहति । ये च बहुपाक्षिकत्वादिभिः कारणैर्निहितुं न शक्यन्ते तेषां भोगसंविभागकल्पं 'सूत्र' श्रुतं न प्रयच्छति ॥ ४४३६ ॥ एवं तावत् प्राघुणकमाचार्यमङ्गीकृत्याभ्युत्थाना-ऽनभ्युत्थानयोर्गुण-दोषा उपवर्णिताः । अथ सामान्यतो गच्छमध्यस्थितस्यैवाचार्यस्यानभ्युत्थाने दोषमाह मज्झत्थ पोरिसीए, लेवे पडिलेह आइयण धम्मे। पयल गिलाणे तह उत्तिमट्ठ सव्वेसि उट्ठाणं ॥ ४४३७॥ आचार्यमागच्छन्तं दृष्ट्वा गच्छसाधवो मध्यस्थास्तिष्ठन्ति न पुनरभ्युत्तिष्ठन्ति पूर्वोक्तमेव प्रायश्चित्तम् । सूत्रा-ऽर्थपौरुषी लेपप्रदानं प्रतिलेखनां “आइयणं" ति समुद्देशनं धर्मकथां वा विदधानाः प्रचलायमाना वा नाभ्युत्तिष्ठन्ति अत्रापि 'तदेव' वृषभादिविषयं प्रायश्चित्तम् । 10 ग्लानो वा उत्तमार्थप्रतिपन्नो वा शक्तौ सत्यां यदि नोत्तिष्ठति तदा तस्यापि प्रायश्चित्तम् । यत एवमतः सर्वेषामप्यभ्युत्थानं भवति । इदमत्र हृदयम्-आचार्याणामनभ्युत्थाने सूत्रपौरुषीकरणादीनि कदालम्बनानि नालम्बनीयानि, यथा-ममायमालापकोऽर्धपठितो वर्त्तते, लेपो वा पात्रके नाद्यापि परिपूर्णो दत्तः, प्रतिलेखनादिकं वा सम्प्रति कुर्वाणोऽस्मि, ग्लानो वा कृतभक्त प्रत्याख्यानो वा अहमसीति; किन्तु सर्वैरपि सूत्राध्ययनादिव्यापारं परिहृत्याभ्युत्थातव्यम् 15॥ ४४३७ ॥ एवं तावदुपाश्रये विधिरभिहितः, अथान्यत्र गृहादौ रथ्यादिषु वा यत्र दृश्यते तत्रायं विधिः दूरागयमुढेउं, अभिनिग्गंतुं नमंति णं सव्वे । दंडगहणं च मोत्तुं, दिद्वे उट्ठाणमन्नत्थ ॥ ४४३८ ॥ दूरादाचार्यमागतं दृष्ट्वा अभि-आभिमुख्येन निर्गत्य सर्वेऽपि साधवः 'ण"मिति एनमाचार्य 20 'नमन्ति' शिरसा वन्दन्ते । यदा च गुरव उपाश्रयं प्रविशन्ति तदा दण्डकग्रहणमपि कर्त्तव्यम् । 'अन्यत्र तु' गृहादौ दृष्टे गुरौ दण्डकग्रहणं मुक्त्वा अभ्युत्थानमेव कर्त्तव्यम् ॥ ४४३८॥ .. ___ एवमभ्युत्थाने के गुणाः ? इत्याह परपक्खे य सपक्खे, होइ अगम्मत्तणं च उट्ठाणे। सुयपूयणा थिरत्तं, पभावणा निजरा चेव ॥ ४४३९ ॥ 25 परपक्षः-परपाषण्डिनः खपक्षः-पार्थस्थादिवर्गस्तयोः 'अगम्यत्वम्' अनभिभवनीयता गुरो रभ्युत्थाने भवति । तथा गुरवो बहुश्रुता भवन्तीति श्रुतपूजनमपि कृतं स्यात् । अन्येषामभ्यु. स्थानादौ विनये सीदता स्थिरत्वमनुष्ठितं भवति । प्रभावना च शासनस्यैवं कृता भवेत्-अहो ! शोभनमिदं प्रवचनं यत्रैवंविधो विनयो विधीयते । निर्जरा च कर्मक्षयरूपा विपुला भवति, विनयस्याभ्यन्तरतपोभेदत्वात् , न तस्य च निर्जरानिबन्धनतया सुप्रतीतत्वात् ~ ॥ ४४३९।। 30 आह-यः प्रव्रजितः सर्वपापोरतस्तस्य किं नाम विनयेन कार्यम् ? इति उच्यते अकारणा नत्थिह कञ्जसिद्धी, न याणुवाएण वदेति तण्णा । उवायचं कारणसंपउत्तो, कजाणि साहेइ पयत्तवं च ॥ ४४४०॥ १°खनाम् 'अदनं वा' समु भा० ॥ २१ एतन्मध्यगतः पाठः भा० नास्ति ॥ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४४३७-४४] तृतीय उद्देशः । १९९९ अकारणा कार्यस्य सिद्धिः 'इह' अस्मिन् जगति नास्ति, यद् यस्य कार्यस्योपादानं कारणं तत् तेन विना न सिध्यतीत्यर्थः, यथा मृत्पिण्डं विना घट इति । कारणसद्भावेऽपि 'न च' नैव 'अनुपायेन' उपायाभावेन कार्यं भवतीति 'तज्ज्ञाः' कार्यसिद्धिवेदिनो वदन्ति, यथा मृत्पिण्डसद्भावेऽपि चक्र-चीवरोदकाद्युपायमन्तरेण घटो न सिध्यति । यः पुनरुपायवान् कारणसम्प्रयुक्तः प्रयत्नवांश्च भवति स कार्याणि साधयति, यथा कुम्भकारो मृत्पिण्डमासाद्य चक्र-5 चीवराद्युपायसाचिव्यजनितोपष्टम्भः खहस्तव्यापारणरूपं प्रयत्नं कुर्वन् घटमिति ॥ ४४४०॥ आह-यद्येवमुपायकारणयुक्तः कार्याणि साधयति ततः प्रस्तुते किमायातम् ? इत्याह धम्मस्स मूलं विणयं वयंति, धम्मो य मूलं खलु सोग्गईए । सा सोग्गई जत्थ अबाहया ऊ, तम्हा निसेवी विणयो तदट्ठा ॥ ४४४१ ॥ 'धर्मस्य' श्रुत-चारित्ररूपस्य 'मूलं' प्रथममुत्पत्तिकारणं 'विनयम्' अभ्युत्थानादिरूपं वदन्ति 10 तीर्थकरादय इति गम्यते । स च धर्मः 'खलु' अवधारणे सुगतेः 'मूलं' कारणं मन्तव्यम् , दुर्गतौ प्रपतन्तं प्राणिनं धारयति सुगतौ च स्थापयतीति निरुक्तिसिद्धत्वात् तस्येति भावः । अथ सुगतिरिह कीदृशी गृह्यते ? इत्याह-सा सुगतिरभिधीयते यत्र 'अबाधता' क्षुत्पिपासारोग-शोकादीनां शारीर-मानसानां बाधानामभावः, सिद्धिरित्यर्थः । यत एवं तस्मात् 'तदर्थ सुगतिनिमित्तं विनयो निषेव्यः । इदमत्र हृदयम्-इह कार्य तावदव्याबाधसुखलक्षणो मोक्षः, 15 तस्य च कारणं श्रुत-चारित्ररूपः सर्वज्ञभाषितो धर्मः, स च गुरोरभ्युत्थान-वन्दनादिविनयलक्षणमुपायमन्तरेण न साधयितुं शक्यते, अतः परम्परया मोक्षकारणमेवायमिति मत्वा तदर्थ विनय आसेवितव्य इति ॥ ४ ४ ४१ ॥ आह-युक्तं पौरुषी-लेपप्रदानादिकारिणामभ्युत्थानम् , ग्लानोत्तमार्थप्रतिपन्नयोस्तु किमर्थमभ्युत्थानम् ? उच्यते-- मंगल-सद्धाजणणं, विरियायारो न हाविओ चे । एएहिं कारणेहिं, अतरंत परिण्ण उट्ठाणं ॥ ४४४२ ॥ 'अतरन्तः' ग्लानः “परिन्न" ति मतुप्रत्ययलोपात् 'परिज्ञावान्' अनशनी, एतयोर्गुरूणामभ्युत्थाने मङ्गलं भवति, ततश्च ग्लानस्याचिरादेव प्रगुणीभवनं कृतभक्तप्रत्याख्यानस्य तु निर्विघ्नमुत्तमार्थसाधनं स्यात् । तथा ग्लाने परिज्ञावति वा गुरुमभ्युत्तिष्ठति शेषाणामप्यभ्युत्थाने श्रद्धाजननं विहितं भवति, यद्येषोऽप्येवं गुरूनभ्युत्तिष्ठति ततोऽस्माभिः सुतरामभ्युत्थातव्यम् । 25 अपि च-एवं कुर्वता ग्लानेन परिज्ञावता च वीर्याचारो न हापितो भवति । अत एतैः कारणैरेताभ्यामभ्युत्थातव्यम् ॥ ४४४२ ॥ प्रकारान्तरेण प्रायश्चित्तमुपदर्शयन्नाह चंकमणे पासवणे, वीयारे साहु संजई सन्नी।। सन्निणि वाइ अमचे, संघे वा रायसहिए वा ॥ ४४४३ ॥ पणगं च भिन्नमासो, मासो लहुगो य होइ गुरुगो य ।। चत्तारि छ च लहु गुरु, छेदो मूलं तह दुगं च ॥ ४४४४ ॥ इह प्रथमगाथाया द्वितीयगाथायाश्च पदानां यथासङ्ख्येन योजना । तद्यथा--आचार्य चक्रमणं कुर्वाणं दृष्ट्वा नाभ्युत्तिष्ठति पञ्चक' पञ्चगनिन्दिवानि प्रायश्चित्तम् । प्रश्रवणभूम्या 20 Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२०० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [कृतिकर्मप्रकृते सूत्रम् १८ आगतं नाभ्युत्तिष्ठति भिन्न मासः । 'विचार:' संज्ञा तां कृत्या समागतम्यानभ्युत्थाने मासलघु । अन्यैः साधुभिः समागतस्यानभ्युत्थाने मासगुरु । संयतीभिः सार्धमागतस्यानुत्थाने चतुर्लधु । संज्ञिनः-श्रावकास्तैः सममायातमनुत्तिष्ठतश्चतुर्गुरु । असंज्ञिभिः सममायातस्यानभ्युत्थाने षड्लघु । संज्ञिनीभिरसंज्ञिनीभिश्च स्त्रीभिः सममायान्तमनभ्युत्तिष्ठतः षड्गुरु । वादिना सार्धमायातेऽन. 5 भ्युत्थिते छेदः । अमात्येन सार्धमागते मूलम् । सङ्घन सार्धमायातेऽनुत्थितेऽनवस्थाप्यम् । राज्ञा सहितं सूरिमागतमनुत्तिष्ठतः पाराञ्चिकम् ॥ ४४४३ ॥ ४४४४ ॥ अथ किमर्थं स्त्रीभिः सममायाते गुरुतरं प्रायश्चित्तम् ? उच्यते पूएंति पूइयं इत्थियाउ पाएण ताओं लहुसत्ता । ___एएण कारणेणं, पुरिसेसुं इत्थिया पच्छा ॥ ४४४५ ॥ 10 इह स्त्रियः प्रायेण 'पूजितं पूजयन्ति' यमेवाचार्यादिकं साधु-श्रावकादिभिरभ्युत्थानादिना पूज्यमानं पश्यन्ति तस्यैव पूजां विदधति, ताश्च स्त्रियः प्रायेण 'लघुसत्त्वाः' तुच्छाशया भवन्ति, ततः साधुभिरनभ्युत्यीयमानमाचार्य गाढतरं परिभवबुद्ध्या पश्यन्ति-न किमप्येष आचार्यों जानाति, न चायं विशिष्टगुणवान् सम्भाव्यते, अन्यथा किमेते साधवो नाभ्युत्तिष्ठन्ति ? । एवमेतेन कारणेन 'पुरुषेषु' साधु-श्रावकादिषु पूर्व लघुतरप्रायश्चितमुक्त्या पश्चात् 15 स्त्रियोऽधिकृत्य गुरुतरमुक्तम् ॥ ४४४५ ॥ अथ राज्ञा सार्धं समागतस्यानभ्युत्थाने किं कारणं पाराञ्चिकम् ? इत्याहपाएणिद्धा एंति महाणेण समं तू, फातिं दोसो गच्छइ एएसु तणू वि । गझं वकं होज कहं वा परिभूतो, वेडुजं वा कुच्छियवेसम्मि मणूसे ॥४४४६॥ 'ऋद्धाः' राजादय ऋद्धिमन्तः 'प्रायेण' बाहुल्येन 'महाजनेन' सामन्त-मन्त्रि-महत्तमादीनां 20 महता समवायेन समं समागच्छन्ति, तत एतेषु 'तनुरपि' स्वल्पोऽप्यनभ्युत्थानमात्रलक्षणो दोषः स्फातिं गच्छति, सर्वत्र विस्तरतीति भावः । अपि च-साधुभिरनभ्युत्थीयमान आचार्यः परिभूतो भवति, परिभवपदमुपगच्छतीत्यर्थः । परिभूतस्य च 'वाक्यं वचनं कथं नाम राजादीनां 'ग्राह्यम्' उपादेयं भवेत् ? । वैडूर्यमिव रत्नं 'कुत्सितवेषे' कार्पटिकवेषधारिणि मनुष्ये वर्चमा नम् ; यथा तदीये हस्ते स्थितं सद् अनयमपि तद्न जनस्योपादेयम् , एवं गुरूणामपि धर्मक25 थावाक्यं गाम्भीर्य-माधुर्यादिगुणैरनर्घ्यमपि परिभूततया न राजादीनामुपादेयं भवति । तदनुपादेयतायां च तेषां सम्यग्दर्शनादिप्रतिपत्तिरपि न भवति । अतो राज्ञा सार्धं समायातेऽनभ्युत्थीयमाने पाराञ्चिकम् ॥ ४४४६ ॥ परः प्राह-युक्तं प्रश्रवणभूम्यादेरागतस्याभ्युत्थानम् , यत्तु चक्रमणं कुर्वतोऽभ्युत्थानं तद् नास्माकं युक्तिक्षमं प्रतिभाति, यतः अवस्सकिरियाजोगे, वट्टतो साहु पुजया । 80 परिफग्गुं तु पासामो, चंकम्मते वि उट्ठणं ॥ ४४४७ ॥ विचार-विहारादिको योऽवश्यं कर्त्तव्यः क्रियायोगस्तत्र वर्तमानो यदा समागच्छति तदा 'साध्वी' श्रेयसी तस्य पूज्यता । यदा तु चक्रमणं करोति तदा निरर्थके योगे वर्तते अतश्चक्रमत्यपि गुरौ यद् उत्थानं तत् 'परिफल्गु' निष्फलमेव पश्यामः । यत उक्तं भगवत्याम् Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२०१ भाष्यगाथाः ४४४५-५१] तृतीय उद्देशः । जावं च णं से जीवे सयासमियं एयइ० तावं च णं से जीवे आरंभे वट्टइ संरंभे वट्टइ० । जावं च णं से जीवे आरंभे चट्टइ० तावं च णं तस्म जीवम्स अंतकिरिया न भवइ (श० ३ ॥४४४७ ।। अत्र सूरिः प्रतिविधानमाहकामं तु एअमाणो, आरंभाईसु वट्टई जीवो। सो उ अणट्ठा णेट्टो, अवि बाहूणं पि उक्खेवो ॥४४४८॥ 'कामम्' अनुमतमिदं यद् एष जीवः 'एजमानः' स्पन्दमानः 'आरम्भादिषु' कर्मबन्धकारणेषु वर्त्तते, 'स तु' स पुनः परिस्पन्दः 'अनर्थ' निष्कारणं 'नेष्टः' नाभिमतः अपि 'बाह्वोरु क्षेपः' बाहूत्क्षेपमात्रोऽपि, किं पुनश्चमणादिरित्यपिशब्दार्थः, १ अर्थादापन्नम्-यः सार्थकश्चमणादिव्यापारः स इष्ट एवेति ॥ ४४४८ ॥ ___ अथ सार्थकोऽपि व्यापारः कथमिष्टः ? इत्यस्यां जिज्ञासायां यथा योगत्रयेऽपि व्यापार्यमाणे 10 दोषां यथा च गुणा भवन्ति तदेतत् प्रतिपादयति मणो य वाया काओ अ, तिविहो जोगसंगहो । ते अजुत्तस्स दोसाय, जुत्तस्स उ गुणावहा ॥ ४४४९ ॥ मनोयोगो वाग्योगः काययोगश्चेति त्रिविधो योगसङ्ग्रहो भवति, सङ्केपतस्त्रिधा योगो भवतीत्यर्थः। ते च' मनो-वाक्-काययोगाः 'अयुक्तस्य' अनुपयुक्तस्य 'दोषाय' कर्मबन्धाय भवन्ति, 15 युक्तस्य तु त एव 'गुणावहाः' कर्मनिर्जराकारिणः सम्पद्यन्ते ॥४४४९॥ इदमेव भावयति जह गुत्तस्सिरियाई, न होंति दोसा तहेव समियस्स । गुत्तीट्ठिय प्पमायं, रंभइ समिई सचेझुस्स ॥ ४४५०॥ यथा किल मनो-वाक्-कायगुप्तस्य ईर्यादिप्रत्यया अनुपयुक्तगमना-ऽऽगमनादिक्रियासमुत्था दोषा न भवन्ति तथैव 'समितस्यापि' चङ्क्रमणं कुर्वत ईयोदिप्रत्यया दोषा न भवन्त्येव । किं 20 कारणम् ? इत्याह-यदा किल गुप्तिषु-मनोगुप्त्यादिषु स्थितो भवति तदा योऽगुप्तिप्रत्ययः प्रमादस्तं निरुणद्धि, तन्निरोधाच्च तत्प्रत्ययं कर्मापि न बध्नाति । यस्तु समितौ स्थितः स सचेष्टस्य यः प्रमादो यश्च तत्प्रत्ययः कर्मबन्धस्तयोनिरोधं विदधाति ॥ ४४५० ॥ परः प्राह-यो गुप्तः स समितो भवति उत न ? इति यो वा समितः स गुप्तो भवति उत न ? इति अत्रोच्यते समितो नियमा गुत्तो, गुत्तो समियत्तणम्मि भइअव्यो। 25 कुसलवइमुदीरंतो, जं वइसमितो वि गुत्तो वि ॥ ४४५१॥ इह समितयः प्रवीचाररूपा इण्यन्ते, गुप्तयस्तु प्रवीचारा-ऽप्रवी चारोभयरूपाः । प्रवीचारो नाम-कायिको वाचिको वा व्यापारः । ततो यः 'समितः' सम्यग्गमन-भाषणादिचेष्टायां प्रवृतः स नियमाद् 'गुप्तः' गुप्तियुक्तो मन्तव्यः, यस्तु गुप्तः स समितत्वे 'भक्तव्यः' विकल्पनीयः । तत्र व सेमितः कथं नियमाद् गुप्तः ? इत्याह-» 'कुशलां' निरवद्यादिगुणोपेतां वाचमुदी-30 रयन् 'यद्' यस्माद् वाक्समितोऽपि गुप्तोऽपि । किमुक्तं भवति ?-यः सम्यगनुविचिन्त्य निरवद्यां भाषां भाषते स भाषासमितोऽपि वाग्गुप्तोऽपि च भवति, गुप्तेः प्रवीचाररूपतयाऽप्य १-२ - एतचिहान्तर्गतः पाटः भा० नास्ति ॥ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 - जो पुण काय-वतीओ, निरुज्झ कुसलं मणं उदीरेइ | चिट्ठ एकग्गमणो, सो खलु गुत्तो न समितो उ ।। ४४५२ ।। 5 यः पुनः काय-वाचौ निरुध्य 'कुशल' शुभं मन उदीरयन् एकाग्रमना धर्मध्यानाद्युपयुक्तचित्तस्तिष्ठति स खलु गुप्त उच्यते, न समितः, समितेः. प्रवीचाररूपत्वात् । यस्तु काय-वाचौ सम्यक् प्रयुङ्क्ते स गुप्तोऽपि समितोऽपि मन्तव्यः ॥ ४४५२ ॥ अथ समिति - गुप्तीनां परस्परमवतारं दर्शयन्नाह- वाइस मई बिइया, तइया पुण माणसा भवे समिई । सेसा उ काइयाओ, मणो उ संव्वासु अविरुद्धो ॥ ४४५३ ॥ 'वाचिकसमितिर्नाम' भाषासमितिः सा द्वितीया वाग्गुप्तिर्मन्तव्या । यदा किल भाषासमितो भवति तदा यथा भाषाया असमितिप्रत्ययं कर्मबन्धं निरुणद्धि तथा वागगुप्तिप्रत्ययमपि कर्मबन्धं निरुणद्धि, एवं भाषा समिति - वाग्गुत्योरेकत्वम् । 'तृतीया पुनः' एषणाख्या समितिः 'मानसी' मानसिकोपयोगनिष्पन्ना । किमुक्तं भवति ? - यदा साधुरेषणासमितो भवति तदा 15 श्रोत्रादिभिरिन्द्रियैर्हस्त-मात्रकधावनादिसमुत्थेषु शब्दादिषूपयुज्यते, अत एवास्या मनोगुप्तेश्चकत्वम् । ‘शेषास्तु समितयः' ईर्या - ऽऽदाननिक्षेपोच्चारादिपारिष्ठापनिकाख्याः 'कायिक्यः' कायचेष्टानिष्पन्ना, अत एवासां तिसृणामपि कायगुत्या सहैकत्वम् । “मणो उ सबासु अविरुद्धो" चि मानसिक उपयोगः 'सर्वासु ' पञ्चखपि समितिषु 'अविरुद्धः ' समितिपञ्चकेऽप्यस्तीति भावः । अत एव मनोगुप्तस्य सचेष्टस्य सर्वासां समितीनां मनोगुध्या सहैकत्वं मन्तव्यम् ॥ ४४५३ ॥ 20 आह - भिक्षार्थं गृहद्वारे स्थितस्य तत्राहारादीनि कल्पनीयानि मार्गयतः श्रोत्रादिभिरुपयुतस्य भाषासमिति - मनोगुत्येषणासमितीनां तिसृणामपि सम्भवो दृश्यते अतः किमासामेकत्वम् उतान्यत्वम् ? इत्याशङ्कयाह- वयसमितो च्चिय जाय, आहारादीणि कप्पणिजाणि । एस उवओगे पुण, सोयाई माणसा न वई || ४४५४ ॥ १२०२ भिधानात् ; अंतः समितो नियमाद् गुप्त इति ॥ ४४५१ ॥ गुप्तः समितत्वे कथं भजनीयः ? इत्याह सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [कृतिकर्मप्रकृते सूत्रम् १८ 25 'शङ्कित- म्रक्षितादिदशदोषरहितं मया ग्राह्यम्' इत्येषणासमितिभावसंयुक्तो यदा साधुराहारादीनि कल्पनीयानि मार्गयति तदा वाक्समित एवासौ जायते, न पुनर्मनोगुप्त इत्येवकारार्थः । यदा तु श्रोत्रादिभिरेषणायामुपयोगं करोति तदा मानसी नाम गुप्तिर्भवेत्, मनोगुप्तिरित्यर्थः, न पुनः ‘वाग्’ भाषासमितिः । इदमत्र तात्पर्यम् — भाषासमितिर्मनोगुप्तिश्चेति द्वे समिति-गुप्ती युगपन्न भवतः किन्तु भिन्नकालम्, यद्यपि च “मणो य सवत्थ अविरुद्धो" ( गा० ४४५३ ) 30त्ति वचनाद् भाषासमितावपि मानसिकोपयोगः समस्ति तथापि गौणत्वादसौ सन्नपि न विक्ष्यत इति ॥ ४४५४ ॥ अपि च जावि यठियस्स चेडा, हत्थादीणं तु भंगियाईसु । १ सव्वत्थ अवि' भा० तांभा० ॥ २ प्रारूपा, अत भा० ॥ ३ 'वक्षित मो० ॥ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४४५२-५८] तृतीय उद्देशः । १२०३ सा वि य इरियासमिती, न केवलं चंकमंतस्स ॥ ४४५५ ॥ न केवलं 'चमतः' चक्रमणं कुर्वत एव ईर्यासमितिः किन्तु 'स्थितस्य' गमना-ऽऽगमनक्रियामकुर्वतः 'भङ्गिकादिषु' भङ्गबहुल-गमबहुलादिश्रुतेषु परावर्त्यमानेषु भङ्गकादिरचनाय याऽपि हस्तादीनां चेष्टा साऽपि परिस्पन्दरूपत्वादीर्यासमितिः प्रतिपत्तव्या ॥ ४४५५ ॥ यच्च परेण प्रागुक्तम् “चङ्कमणं निरर्थकम्" (गा० ४४४७) इत्यादि तत्परिहाराय b चङ्गमणगुणानुपदर्शयति वायाई सट्टाणं, वयंति कुविया उ सनिरोहेणं । लाघवमग्गिपडुत्तं, परिस्समजतो य चंकमतो ।। ४४५६ ॥ अनुयोगदानादिनिमित्तं यश्चिरमेकस्थानोपवेशनलक्षणः सन्निरोधस्तेन 'कुपिताः' खस्थानात् चंलिता ये वातादयो धातवस्ते चमतो भूयः स्वस्थानं व्रजन्ति । 'लाघवं' शरीरे लघुभाव उप-10 जायते । 'अमिपटुत्वं' जाठरानलपाटवं च भवति । यश्च व्याख्यानादिजनितः परिश्रमस्तस्य जयः कृतो भवति । एते चमतो गुणा भवन्ति अतो न निरर्थकं चक्रमणम् ॥ ४४५६ ।। - आह-यद्येवं ततः किमवश्यं तत्राभ्युत्थानं कर्त्तव्यम् उत न ? इति अत्रोच्यते चंकमणे पुण भइयं, मा पलिमंथो गुरूविदिन्नम्मि। पणिवायवंदणं पुण, काऊण सई जहाजोगं ॥ ४४५७ ॥ पुनःशब्दो विशेषणे, स चैतद् विशिनष्टि-पश्रवण-विचारभूम्यादेरागतस्य गुरोः कर्त्तव्यमेवाभ्युत्थानम् , चङ्कमणे पुनः 'भक्तं' विकल्पितम् । कथम् ? इति अत आह-मा सूत्रा-ऽर्थपरावर्तनयोः 'परिमन्थः' व्याघातो भवत्विति कृत्वा यदि गुरवोऽनभ्युत्थानं वितरन्ति तदा नाभ्युत्थातव्यम् , परमेवं गुरुभिर्वितीर्णे सति 'सकृद' एकवारमभ्युत्थानं विधाय 'प्रणिपातवन्दनं' शिरःप्रणामलक्षणं कृत्वा 'भगवन् ! अनुजानीध्वम्' इति भणित्वा 'यथायोगं' यथेप्सितं 20 सूत्रार्थगुणनादिकं व्यापारं कुर्यात् । अथ गुरवो न वारयन्ति ततो नियमादभ्युत्थातव्यम् ॥ ४४५७ ॥ पुनरपि परः प्रेरयति-यदि चक्रमणा-ऽभ्युत्थाने सूत्रार्थपरिमन्थदोषो भवति तत इदमस्माभिरुच्यते अइमुद्धमिदं वुच्चइ, जं चंकमणे वि होइ उट्ठाणं । __ एवमकारिजंता, भद्दगभोई व मा कुजा ॥ ४४५८ ॥ 'अतिमुग्धम्' अतीवाप्रबुद्धजनोचितमिदं भवद्भिरुच्यते-यत् चङ्क्रमणेऽप्यभ्युत्थानं कर्त्तव्यं भवति । सूरिराह-एवं चक्रमणविषयमभ्युत्थानमकार्यमाणा भद्रकभोजिकस्येव प्रसङ्गतो मा शेषमप्यविनयं कार्युरिति कृत्वा चक्रमणेऽप्यभ्युत्थानं कार्यन्ते । अथ कोऽयं भद्रकभोजिकः ? इति उच्यते___ जहा-एगो भोइतो । तस्स रन्ना तुट्टेणं गाममंडलं पसाएण दिन्नं । सो तत्थ गतो 30 १ अत्रान्तरे भा० प्रतिसत्को द्वितीयः खण्डः समाप्यते । प्रान्ते च तत्र-॥ छ ॥ इति श्रीकल्पाध्ययनटीकायां द्वितीय खण्डं समाप्तमिति भद्रमस्तु ॥... .. ...प्रन्थानं सहश्राणि चतुर्दश ॥छ । इत्युल्लिखितं वरीवृत्यते ।। 25 Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२०४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [कृतिकर्मप्रकृते सूत्रम् १८ ताहे ते गामिलगा तुट्ठा 'भद्दओ सामी लद्धो' त्ति, ऋजुरित्यर्थः । तओ ते भोइयं विन्न ति---अम्हे तव पुत्ताणुपुत्तियं भिक्षा जाया तो अम्हे 'चिंतणिज' ति कारं करं पुवपरिमाणाओ थावतरं करेहि । भोइएण अव्भुवगयं । अन्नया जं जं ते विन्नवेति तं तं सो भद्दतो भोइतो तेसिं गामिल्लयाणं अणुग्गहं करेइ । अइवीसत्थत्तण लद्धपसरा ते जहारिहं विणयं 5 भंसिउमाढत्ता । ततो भोइएण रुटेण ते गामिल्लया दंडिया, केइ उद्दविया । एस दिटुंतो। _ अयमत्थोवणओ-चंकमणअणभुट्ठाणे सेसं पि विणयं परिहविज्जा ततो रुट्टो आयरिओ 'पच्छित्तदंडेण दंडिज्जा । जे य तत्थ अच्चंतावराहिणो ते गच्छाओ निच्छुभिज्जा। विणयमकारिजंता य ते इहलोए परलोए य परिचत्ता भवंति । आयरिओ य सरणमुवगयाणं तेसिं न सारक्खणकारी भवइ अओ चंकमणे वि ते अब्भुट्ठाणं कारिजंति ॥ ४४५८ ॥ 10 अपि च-- वसभाण होति लहुगा, असारणे सारणे अपच्छित्ता । ते वि य पुरिसा दुविहा, पंजरभग्गा अभिमुहा य ॥ ४४५९॥ ये ते गुरुचक्रमणादिषु नाभ्युत्तिष्ठन्ति तान् यदि वृषभाः 'न सारयन्ति' 'कस्मादार्याः ! नाभ्युत्तिष्ठथ ?' ततो वृषभाणां चतुर्लघवः । अथ वृषभैः प्रतिनोदिताः परं ते न प्रतिशृण्वन्ति 15 ततः सारणे कृते सति वृषभा अप्रायश्चित्ता इतरे प्रायश्चित्तमापद्यन्ते । अनभ्युत्थाने असारणायां चामी दोषा भवन्ति-ये प्रतीच्छका उपसम्पत्प्रतिपत्त्यर्थमायातास्ते द्विविधाः पुरुषा भवन्तिपञ्जरभमाः संयमाभिमुखाश्च । तत्र गच्छे वसतां यद् आचार्योपाध्याय-प्रवर्तक-स्थविर-गणावच्छेदिकाख्यपदस्थपञ्चकस्य पारतत्र्यं या च परस्परं प्रतिनोदना एतत् पञ्जरमुच्यते, एतस्मात् पञ्जराद् भग्नाः-निर्विण्णाः पञ्जरभन्नाः । संयमाभिमुखास्तु-पार्श्वस्थाद्यवमनविहारिगच्छात् 20 चारित्राभिलाषिणः संविनगच्छं प्रवेष्टुकामाः ॥ ४४५९ ।। तत्र ये पञ्जरभन्मा आगतास्ते तामनभ्युत्थानविषयामप्रतिनोदनां दृष्ट्वा चिन्तयन्ति___भग्गऽम्ह कडी अब्भुट्टणेण देइ य अणुट्ठणे सोही । अनिरोहसुहो वासो, होहिइ णे इत्थ अच्छामो ॥ ४४६०॥ अस्माकं पूर्वस्मिन् गच्छे वसतामाचार्यस्य चक्रमणादिषु वारंवारमभ्युत्थानेन कटी भन्ना, 25 अथासौ नाभ्युत्थीयते ततः 'शोधिं' प्रायश्चित्तं प्रयच्छति गाढं च खर-परुषैः खरण्टयति, ___ अस्मिंस्तु गच्छे न प्रायश्चित्तं न च खरण्टना, अतोऽनिरोधः-अनियन्त्रणा तेन सुखः-सुखदायी वासोऽत्र “णे" अस्माकं भविष्यति, तिष्ठामो वयमत्रेति कृत्वा तत्रैव तिष्ठेयुः, न भूयः खगच्छं गच्छेयुः ॥ ४४६०॥ जे पुण उज्जय चरणा, पंजरभग्गो न रोयए ते उ । 30 अन्नत्थ वि सइरतं, न लब्भई एति तत्थेव ॥ ४४६१॥ ये पुनः 'उद्यतचरणाः' खल्पेऽप्यनभ्युत्थानादावपराधे सम्यक् प्रतिनोदनाकारिणस्तान्पञ्जरभन्नः 'न रोचयति' न रुचिपथं प्रापयति, चिन्तयति च—'अन्यत्रापि' गच्छान्तरे 'खैरित्वं' स्वातन्त्र्यं न लभ्यते इति विचिन्त्य 'तत्रैव' खगच्छे 'एति' समागच्छति ॥ ४४६१ ॥ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 भाष्यगाथाः ४४५९-६५) तृतीय उद्देशः । १२०५ अथ संयमाभिमुखोऽसौ समागतस्ततः किम् ? इत्याह चरणोदासीणे पुण, जो विप्पजहाय आगतो समगो। सो तेसु पविसमाणो, सद्धं वड्डेइ उभओ वि॥ ४४६२॥ __ यः पुनः श्रमणः 'चरणोदासीनान्' पार्श्वस्थादीन् सुखशीलविहारिणो विप्रहाय संयमाभिमुखः समागतः सः 'तेषु' गच्छान्तरीयेषु साधुषु प्रविशन् उभयेषामपि साधूनां श्रद्धां वर्धयति । 3 तथाहि-यत्र गच्छेऽसौ प्रविशति तदीयाः साधवश्चिन्तयन्ति-एषः 'सुन्दरा अमी' इति परिभाव्यास्माकं मध्ये प्रविशति अतः सुन्दरतरं कुर्महे । यस्मादपि गच्छादायातस्तदीया अपि चिन्तयन्ति-अस्मान् 'सुखशीलान्' इति विज्ञायैष गच्छान्तरं गच्छति अतो वयमुद्यता भवाम इति ॥ ४४६२ ॥ अथासौ संयमाभिमुखस्तत्रापि सामाचारीहापनं प्रतिनोदनाया अभावं च पश्यति ततश्चिन्तयति इत्थ वि मेराहाणी, एते वि हु सार-वारणामुक्का । अन्ने वयइ अभिमुहो, तप्पच्चयनिजराहाणी ॥ ४४६३ ॥ अत्रापि गच्छे न केवलं पूर्वस्मिन् इत्यपिशब्दार्थः, मर्यादायाः-अभ्युत्थानादिसामाचार्या हानिरवलोक्यते, 'एतेऽपि च' साधवः स्मारणा-वारणामुक्ताः परिस्फुटं प्राक्तनगच्छसाधव इव निरर्गलाः समीक्ष्यन्ते, अतः को नामामीषां समीपे स्थास्यति ? इति मत्वा स संयमाभिमुखः 15 साधुः 'अन्यान्' गच्छान्तरीयान् साधून् 'व्रजति' प्रविशति । प्रविशतु नाम गच्छान्तरं का नो हानिः ? इति चेद् अत आह----'तत्प्रत्यया' तस्य-साधोः संयमानुपालनोपष्टम्भकरणहेतुका या निर्जरा तस्या हानिः प्राप्नोति, सा न भवतीत्यर्थः ।। ४४६३ ॥ आह किं कारणमसौ तेषु न प्रविशति ? इत्याह जहिँ नत्थि सारणा वारणा य पडिचोयणा य गच्छम्मि । 20 सो उ अगच्छो गच्छो, संजमकामीण मोत्तव्यो ॥ ४४६४ ॥ विस्मृते कचित् कर्तव्ये 'भवतेदं न कृतम्' इत्येवंरूपा स्मारणा सारणा, अकर्तव्यनिषेधो वारणा, उपलक्षणत्वाद् अन्यथा कर्त्तव्यमनाभोगादिना अन्यथा कुर्वतः सम्यक्प्रवर्तना प्रेरणा, निवारितस्यापि पुनः पुनः प्रवर्त्तमानस्य खर-परुषोक्तिभिः शिक्षणं प्रतिनोदना । एताः सारणादयो यत्र गच्छे न सन्ति स गच्छो गच्छकार्याकरणादगच्छो मन्तव्यः, अत एव 'संयमका- 25 मिना' संयमाभिमुखन साधुना मोक्तव्योऽसौ, नाश्रयणीय इति भावः । गाथायां प्राकृतत्वाद् इकारस्य दीर्घत्वम् ॥ ४४६४ ॥ प्रकारान्तरेण प्रायश्चित्तमभिधित्सुः प्रस्तावनामाह अयमपरो उ विकप्पो, पुवावरवाहय त्ति ते बुद्धी । ___ लोए वि अणेगविहं, नणु मेसज मो रुजोवसमे ॥ ४४६५ ॥ __ 'अयम्' अग्रेतनगाथायां वक्ष्यमाणोऽपरः प्रायश्चित्तस्य 'विकल्पः' प्रकारः । अत्र परः 30 प्राह-'पूर्वापरव्याहतमिदं' पूर्वमन्यादृशं प्रायश्चित्तमुक्त्वा यदिदानीमन्यादृशमभिधीयते तदेतत् पूर्वापरविरुद्धम् इति 'ते' तव बुद्धिः स्यात् तत्रोच्यते-ननु लोकेऽपि रुजोपशमे विधातव्ये तथाविधे त्रिफला-त्रिकटुकादिभेदादनेकविधं भेषजं “मो" इति पादपूरणे प्रयुज्यमानं Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 10 १२०६ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्ति के बृहत्कल्पसूत्रे [ कृतिकर्मप्रकृते सूत्रम् १८ दृष्टमेव, एवमत्राप्येकस्यैवानभ्युत्थानस्य तथातथाक्षेत्र महाजनादिभेदेनानेकविधं प्रायश्चित्तमभिधीयमानं न विरुध्यते ॥ ४४६५ ॥ इत्थं पराभिप्रायं परिहृत्य प्रायश्चित्तमाह देसिय राइय पक्खिय, चाउम्मासे तहेव वरिसे य । [आव.नि. १५०१ ] लहु गुरु लहुगा गुरुगा, वंदणए जाणि य पदाणि ॥ ४४६७ ॥ दैवसिके रात्रि के वा आवश्यके वन्दनकं न ददति मासलघु । पाक्षिके वन्दनकं न प्रयच्छन्ति मासगुरु । चातुर्मासिके वन्दनकमददतां चतुर्लघु । सांवत्सरिके वन्दनकादाने चतुर्गुरु । चशब्दाद् विपरीतं न्यूनाधिकं च कुर्वतां लघुमासः । यानि च वन्दनके व्यवनत-यथा15 जातादीनि पदानि तेषामप्यकरणेऽसामाचारी निष्पन्नं मासलघु ॥ ४४६७ ॥ - अथैतदेव प्रायश्चित्तं विशेषयन्नाह - वार - साहु- संजइ - निगम-घडा - राय संघ सहिते तु । लहुगो लहुगा गुरुगा, छम्मासा छेद मूल दुगं ॥ ४४६६ ॥ आचार्यं विचारभूमेरागतं नाभ्युत्तिष्ठन्ति मासलघु, साधुभिः सममायातमनभ्युत्तिष्ठतां चतुलघवः, संयतीभिः समं चतुर्गुरवः, निगमैः- पौरवणिग्विशेषैः षड्लघवः, घटया - महत्तरा ऽनुमहत्तरादिगोष्ठीपुरुषसमवायलक्षणया समं छेदः, सङ्घेन समं मूलम् राज्ञा सममनवस्थाप्यम्, " सहिए तु" त्ति सङ्घसहितेन राज्ञा सममायातमनभ्युत्तिष्ठतां पाराञ्चिकम् ॥ ४४६६ ॥ गतमभ्युत्थानम् । अथ वन्दनकमभिधित्सुराह— 25 आयरियाइचउन्हं तव काल विसेसियं भवे एयं । अहवा पडिलोमेयं, तव कालविसेसओ होइ ॥ ४४६८ ॥ आचार्यादीनां चतुर्णामपि 'एतद्' अनन्तरोक्तं प्रायश्चित्तं तपः- कालविशेषितं भवति - 20 तत्राचार्यस्य द्वाभ्यामपि तपः- कालाभ्यां गुरुकम्, वृषभस्य तपोगुरुकम्, भिक्षोः कालगुरुकम्, क्षुल्लकस्य तपसा कालेन च लघुकम् । अथवा तपः- कालविशेषत एतदेव 'प्रतिलोमं' पश्चानुपूर्व्या वक्तव्यम् - आचार्यस्य द्वाभ्यामपि लघुकम्, वृषभस्य कालगुरुकम्, भिक्षोस्त पोगुरुकम्, क्षुल्लकस्य द्वाभ्यामपि गुरुकम् ॥ ४४६८ ॥ अथ "देसिय-राइय" ति पदद्वयं विशेषतो भावयति दुगत किम्मस्स अकरणे होइ मासियं लहुगं । आवासगविवरीए, ऊणऽहिए चैव लहुओ उ ।। ४४६९ ॥ "दुगसत्तग” त्ति द्वे सप्तके चतुर्दश भवन्तीति कृत्वा पूर्वाह्ना - Sपराह्नयोश्चतुर्दश वन्दनानि भवन्ति । कथम् ? इति चेद् उच्यते - इह रात्रिप्रतिक्रमणे चत्वारि वन्दन कानि — तत्रैकमालोचनायाम्, द्वितीयं क्षामणके, तृतीयं षाण्मासिकतपश्चिन्तनकायोत्सर्गार्थम्, चतुर्थ प्रत्या30 ख्यानग्रहणार्थमिति । तथा स्वाध्याये त्रीणि वन्दनकानि, तत्र च वृद्धसम्प्रदायः सज्झाए वंदित्ता पट्टवेइ, एयं पढमं । पवेयंतस्स बिइयं, पच्छा उद्दिनं समुद्दिट्टं पढइ, उद्देस·-समुद्देसवंदणाणमिहेवंत भावो । तओ जाहे च भागावसेसा पोरिसी ताहे पाए पडिले - १ एतचिहान्तर्गतमवतरणं भा० नास्ति ॥ - Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४४६६-७०] तृतीय उद्देशः ।। १२०७ हेइ, जइ न पढिउकामो तो वंदइ, अह पढिउकामो ताहे अवंदित्ता पाए पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता पच्छा पढइ, कालवेलाए वंदिउं पडिकमइ, एयं तइयं । ___ एवं पूर्वाह्ने सप्त वन्दनानि । अपराह्नेऽप्येवमेव सप्त भवन्ति-तत्र चत्वारि दैवसिकप्रतिक्रमणे, त्रीणि स्वाध्याये, अनुज्ञावन्दनानां खाध्यायवन्दनेष्वेवान्तर्भावादिति सर्वसङ्ख्यया चतुर्दश वन्दनकानि भवन्ति । एतच्चाभक्तार्थिकमङ्गीकृत्योक्तम् । यस्तु भक्तार्थिकस्तस्य भोजना-3 नन्तरभाविप्रत्याख्यानवन्दनकसहितानि पञ्चदश भवन्तीति । एतेषां मध्यादेकतरस्यापि कृतिकर्मणोऽकरणे मासिकं लघुकं प्रायश्चित्तं भवति । तथा आवश्यकं कुर्वन् विपरीतमालापकोच्चारणं करोति, तद्यथा-दैवसिके आवश्यके 'क्षामयामि क्षमाश्रमण ! रात्रिकं व्यतिक्रमम्' इत्युच्चरति, रात्रिके वा दैवसिकाभिलापं करोति, एवं पाक्षिक-चातुर्मासिक-सांवत्सरिकेष्वपि प्रतिक्रमणेषु वक्तव्यम् , अत्र सर्वत्राप्यसामाचारी निष्पन्नं मासलघु । "ऊणऽहिए चेव" त्ति ऊनानि वा-10 एकट्यादिभिर्वन्दनकैहीनानि अधिकानि वा-यथोक्तप्रमाणादतिरिक्तानि दैवसिकादिप्रतिक्रमणेषु वन्दनकानि प्रयच्छतो मासलघु ॥ ४४६९ ॥ __ अथ "वंदणए जाणि य पयाणि' (गा० ४४६७) त्ति पदेन यानि यवनतादीनि पञ्चविंशतिर्वन्दनकस्यावश्यकपदानि सूचितानि तानि दर्शयति दुओणयं अहाजायं, किइकम्म बारसावयं ।। चउसिरं तिगुत्तं च, दुपवेसं एगनिक्खमणं ॥ ४४७० ॥ अवनतिरवनतम्-उत्तमाङ्गप्रधानं प्रणमनम् , द्वे अवनते यस्मिन् तद् व्यवनतम् एकं यदा .. प्रथममेव "इच्छामि खमासमणो ! वंदिउं जावणिजाए निसीहियाए" इत्यभिधाय छन्दोऽनुज्ञापनायावनमति १, द्वितीयं पुनरेवमेव द्वितीयप्रवेशे इति २ । 'यथाजातं नाम' यथा प्रथमतो जननीजठरान्निर्गतो यथा च श्रमणो जातस्तथैव वन्दनकं दातव्यम्-तत्र रजोहरण-मुखवस्त्रिका- 20 चोलपट्टकमात्रया श्रमणः सञ्जातः, रचितकरसम्पुटस्तु योन्या विनिर्गतः, एवम्भूत एव वन्दनकं दत्ते ३ । 'कृतिकर्म' वन्दनकं "बारसावयं" ति द्वादशावतं भवति-इंह प्रथमतः प्रविष्टस्य "अहो-कायं, काय, जता भे, जवणि-जं च भे" इति सूत्राभिधानगर्भा गुरुचरणन्यस्तहस्त-शिरःस्थापनरूपाः षडावर्ता भवन्ति, अवग्रहान्निर्गत्य पुनःप्रविष्टस्याप्येवमेव षडिति द्वादशावर्तवन्दनकमुच्यते १५ । चत्वारि शिरांसि-उपचारात् शिरोऽवनमनानि यस्मिन् तत् 25 चतुःशिरः-तत्र संफासनमणे एगं, खामणानमणे सीसस्स बीयं, एवं बीयपवेसे वि दोन्नि त्ति १९ । तथा त्रयः-मनो-वाक्-काययोगा गुप्ताः-सुप्रणिहिता यस्मिन् तत् त्रिगुप्तम् , इयमत्र भावना-मनसा सम्यक्प्रणिहितो वाचा अस्खलितानि सूत्रपदानि विकथादिनिरोधेनोच्चारयन् कायेनावर्तान् सम्यक् प्रयुञ्जानो वन्दनं ददाति २२ । द्वौ प्रवेशौ गुरोरवग्रहेऽनुज्ञाप्य प्रविशतो यस्मिन् तद् द्विप्रवेशम् २४ । एकं निष्क्रमणं गुरोरवग्रहादावश्यिक्या निर्गच्छतो यत्र तद् एकनि- 30 एक्रमणम् २५ । एतेषां पञ्चविंशतेरावश्यकानामकरणे प्रत्येकं मासलघु प्रायश्चितम् । अथवा "वन्दनके यानि पदानि" (गा० ४४६७) इत्यत्र अनादृतादीनि द्वात्रिंशत्सङ्ख्याकानि दोषपदानि मन्तव्यानि ॥ ४४७० ॥ तानि चामूनि--- Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 १२०८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [कृतिकर्मप्रकृते सूत्रम् १८ अणाढियं च थद्धं च, पविद्धं परिपिडियं । [आव.नि.१२०७] टोलगइ अंकुसं चेव, तहा कच्छभरिंगियं ॥४४७१॥ मच्छुव्वत्तं मणसा, य पउटुं तह य वेइयाबद्धं । [आव.नि.१२०८] भयसा चेव भयंतं, मित्ती-गारव-कारणा ॥ ४४७२ ।। तेणियं पडिणियं चेव, रुटुं तजियमेव य । [आव.नि.१२०९] सढं च हीलियं चेव, तहा विप्पलिउंचियं ॥ ४४७३ ॥ दिट्ठमदिटुं च तहा, सिंगं च कर मोअणं । [आव.नि.१२१०] आलिट्ठमणालिटुं, ऊणं उत्तरचूलियं ॥ ४४७४ ॥ मूयं च ढड्डरं चेव, चुडलिं च अपच्छिमं । [आव.नि.१२११] बत्तीसदोसपरिसुद्धं, किइकम्मं पउंजए ॥४४७५ ॥ अनादृतं च स्तब्धं च प्रवृद्धं परिपिण्डितं टोलगतिः अङ्कुशं चैव तथा कच्छपरिङ्गितमिति प्रथमगाथायां सप्त दोषाः ॥ ४४७१ ॥. मत्स्योद्वत्तं मनसा प्रद्विष्टं तथा च वेदिकाबद्धं "भयसा चेव" त्ति भयेनैव 'भयंत" ति भजतो वन्दनमपि भजेत् तथा मैत्री गौरवं कारणं चाश्रित्य वन्दनकमिति द्वितीयगाथायामष्टौ 15 दोषाः ॥ ४४७२ ॥ स्तैन्येन-चौर्येण कृतं वन्दनमपि स्तैन्यं प्रत्यनीकवन्दनं रुष्टवन्दनं तर्जयन् वन्दत इति तर्जितवन्दनं शठवन्दनं हीलितवन्दनं तथा विपरिकुञ्चितमिति तृतीयगाथायां सप्त दोषाः ॥ ४४७३॥ दृष्टादृष्टं तथा शृङ्गं करो मोचनम् आश्लिष्टा-ऽनाश्लिष्टं न्यूनं उत्तरचूलिकमिति चतुर्थगाथायां सप्त दोषाः ॥ ४४७४ ॥ 20 मूकं ढड्डरं चुडलिकम् 'अपश्चिमं' पर्यन्तवर्ति इति पञ्चमगाथार्धे त्रयो दोषाः । एवं द्वात्रिंशदोषपरिशुद्धं कृतिकर्म प्रयुञ्जीत साधुरिति दोषनामोत्कीर्तनायां पञ्च गाथाः ।। ४४७५॥ इदानीमेतानेव यथाक्रमं व्याचष्टे आयरकरणं आढा, तबिवरीयं अणाढियं होइ । दव्वे भावे थद्धो, चउभंगो दबतो भइतो ॥ ४४७६ ॥ 20 आदरः-सम्भ्रमस्तस्करणमादृतता सा यत्र न भवति तदनादृतमुच्यते । द्वितीयं दोषमाहस्तब्धस्तावद् द्रव्यतो भावतश्च भवति । अत्र चतुर्भङ्गिका, तद्यथा-द्रव्यतः स्तब्धो न भावतः १ भावतः स्तब्धो न द्रव्यतः २ अपरो द्रव्यतो भावतश्च ३ अन्यस्तु न द्रव्यतो नापि भावतः ४ इति । अत्र चरमो भङ्गः शुद्धः । शेषभङ्गकेष्वपि भावतः स्तब्धोऽशुद्ध एव, द्रव्यतस्तु 'भक्तः' विकल्पितः, उदर-पृष्ठशूलव्यथादिबाधितोऽवनामं कर्तुमशक्तः कारणिकः स्यादपि स्तब्धो न 30 तु निष्कारणिक इति भावः ॥ ४४७६ ॥ तृतीयं दोषमाह पविद्धमणुवयारं, जं अपितो ण जंतितो होति । जत्थ व तत्थ व उज्झति, कतकिच्चो वक्खरं चेव ॥ ४४७७ ।। प्रवृद्धं नाम यद् उपचाररहितम् । एतदेव व्याचष्टे-यद् वन्दनकं गुरुभ्यः 'अर्पयन्' Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४४७१-८०] तृतीय उद्देशः । १२०९ ददद् न यन्त्रितो भवति । अयन्त्रितत्वेन यत्र तत्र वा स्थाने प्रथमप्रवेशादिलक्षणे असमाप्तमपि वन्दनकमुज्झति । क इव यथा किमुज्झति ? इत्याह-"कयकिच्चो वक्खरं चेव" ति, एतदुक्तं भवति-यथा केनचिद् भाटिकेन कुतश्चिद् नगराद् नगरान्तरे 'वक्खरं' भाण्डमुपनीतम् । वक्खरखामिना च भाटिकोऽभिहितः ---प्रतीक्षख कञ्चित् कालं यावदस्य वक्खरस्यावतारणस्थानं किञ्चिदन्वेषयामि । स प्राह-'मयाऽस्मिन्नेव नगरे समानेतव्यमिदमित्येवोक्तम्, अतः कृत-5 कृत्यत्वाद् नातः परं प्रतीक्षेऽहम्' इत्युक्त्वाऽस्थान एव तद् भाण्डमुज्झित्वा गच्छति । एवं साधुरप्यस्थान एव वन्दनकं परित्यज्य नश्यतीत्येतावता दृष्टान्त इति ॥ ४४७७ ॥ चतुर्थ दोषमाह परिपिडिए व वंदइ, परिपिडियवयण-करणओ वा वि । टोलो व्य उफ्फिडंतो, ओसक-ऽहिसकणं दुहओ ॥ ४४७८ ॥ 10 यत्र 'परिपिण्डितान्' एकत्र मिलितानाचार्यादीनेकवन्दनकेनैव वन्दते न पृथक् पृथक् तत् परिपिण्डितमुच्यते; अथवा वचनानि-सूत्रोच्चारणगर्भाणि, करणानि-कर-चरणादीनि', परिपिण्डितानि-अव्यवच्छिन्नानि वचन-करणानि यस्य स तथा, ऊर्वोरुपरि हस्तौ व्यवस्थाप्य सम्पिण्डितकर-चरणोऽव्यक्तसूत्रोच्चारणपुरःसरं यत्र वन्दते तद् वा परिपिण्डितमिति भावः । पञ्चमं दोषमाह-उत्प्वष्कणम्-अग्रतः सरणम् अभिष्वष्कणं-पश्चादपसरणं "दुहओ" ति ते 15 द्वे अपि टोलवद् उत्प्लुत्योत्प्लुत्य करोति यत्र तत् टोलगतिवन्दनकमिति ॥ ४४७८ ।। षष्ठं दोषमाह उवगरणे हत्थम्मि व, चित्तु णिवेसेति अंकुसं विति । ठित-विट्ठरिंगणं जं, तं कच्छभरिंगियं नाम ॥ ४४७९ ॥ यत्राङ्कशेन गजमिव शिष्य आचार्यमूर्द्धस्थितं शयितं प्रयोजनान्तरव्यग्रं वा 'उपकरणे 20 चोलपट्ट-कल्पादौ हस्ते वा अवज्ञया समाकृष्य वन्दनकदानार्थमासने उपवेशयति तद् अङ्कुशं ब्रुवते । नहि पूज्याः कदाचिदप्युपकरणाद्याकर्षणमर्हन्ति अविनयत्वात् , किन्तु प्रणामं कृत्वा कृताञ्जलिपुटैविनयपूर्वकमिदमुच्यते--उपविशन्तु भगवन्तो येन वन्दनकं प्रयच्छामीति अतो दोषदुष्टमिदम् । सप्तमं दोषमाह-स्थितस्योर्द्धस्थानेन "तित्तीसन्नयराए" इत्यादिसूत्रमुच्चारयत उपविष्टस्य वा-आसीनस्य "अहो कायं काय" इत्यादिसूत्रं भणतः कच्छपस्येव-25 जलचरजीवविशेषस्य रिङ्गणम्-अग्रतोऽभिमुखं यत्किञ्चित् चलनं तद् यत्र करोति शिष्यस्तदिदं कच्छपरिङ्गितं नामेति ॥ ४४७९ ॥ अष्टमं दोषमाह उदित णिवेसंतो, उव्वत्तति मच्छउ व्व जलमज्झे। वंदिउकामो वऽण्णं, झसो व्य परियत्तती तुरियं ॥ ४४८० ॥ उत्तिष्ठन् निविशमानो वा जलमध्ये मत्स्य इव 'उद्वर्तते' उद्वेल्लयति यत्र तद् मत्स्योद्भुतम् ; 30 अथवा एकमाचार्यादिकं वन्दित्वा तत्समीप एवापरं वन्दना, कञ्चन वन्दितुमिच्छंस्तत्समीपं जिगमिषुरुपविष्ट एव 'झप इव' मत्स्य इव त्वरितमङ्गं परावर्त्य यत्र गच्छति तद् वा मत्स्यो १°नि सम्पिण्डि' भा०॥ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्प - परपचिएणं, मणप्पदोसो अगउडाणो । पंचे वेइयाओ, भयं तु णिज्जूहणाईयं ॥ ४४८१ ॥ मनः प्रद्वेषः 'अनेकोत्थानः' अनेकनिमित्तो भवति, स च सर्वोऽप्यात्मप्रत्ययेन परप्रत्ययेन b वा स्यात् । तत्रात्मप्रत्ययेन यदा शिष्य एव गुरुणा किञ्चित् परुषमभिहितो भवति, परप्रत्ययेन तु यदा तस्यैव शिष्यस्य सम्बन्धिनः सुहृदादेः सम्मुखं सूरिणा किमप्यप्रियमुक्तं भवतीति । एवंप्रकारैरन्यैरपि स्व-परप्रत्ययैः कारणान्तरैर्मानसः प्रद्वेषो भवति यत्र तद् मनसा प्रदुष्टमुच्यते । दशमं दोषमाह – “पंचेव वेइयाउ" त्ति जानुनोरुपरि हस्तौ निवेश्याधो वा पार्श्वयोर्वा उत्सङ्गे १२१० हृत्तम् ॥ ४४८० || नवममाह सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [कृतिकर्मप्रकृते सूत्रम् १८ एकं वा जानुं दक्षिणं वामं वा करद्वयान्तः कृत्वा वन्दनकं यत्र करोति तद् वेदिकाबद्धम् । 10 एकादशं दोषमाह – “भयं तु निज्जूहणाईयं” ति निर्यूहणं गच्छान्निष्काशनं तदादिकं यद् भयं तेन यत्र वन्दते तद् भयवन्दनकम् ॥ ४४८१ ॥ द्वादशं दोषमाह - 25 भयति भयस्सति व ममं, इइ वंदति ण्होरगं णिवे संतो । एमेव यमेत्तीए, गारव सिक्खाविणीतोऽहं ॥ ४४८२ ॥ 'स्मर्त्तव्यं भो आचार्य ! भवन्तं वन्दमाना वयं तिष्ठामः' इत्येवं निहोरकं निवेशयन् वदन्ते । 15 किमिति ? इत्याह-एष तावद् 'भजते' अनुवर्त्तयति माम्, सेवायां पतितो मे वर्त्तत इत्यर्थः, अग्रे वा मम भजनं करिष्यत्यसौ, ततश्चाहमपि वन्दनकसत्कं निहोरकं निवेशयामीत्यभिप्रायवान् यत्र वन्दते तद् भजमानवन्दनकम् । त्रयोदशं दोषमाह — एवमेवेति कोऽर्थः ? यथा निहोरकदोषदुष्टं वन्दते तथा मैत्र्याऽपि हेतुभूतया कश्चिद् वन्दते, आचार्येण समं मैत्री मम भविष्यतीत्यर्थः, तदिदं मैत्रीवन्दनकम् । चतुर्दशं दोषमाह - " गारव" त्ति सूचामात्रत्वाद् 20 गर्ववन्दनकमिति प्रत्येयम् । कथम्भूतं तत् ? इत्याह – “सिक्खाविणीओ हं" ति शिक्षावन्दनकप्रदानादिसामाचारीविषया तस्यां विनीतः - कुशलोऽहमित्यवगच्छन्त्वमी शेषसाध्वादय इत्यभिप्रायवान् ‘यथावद्' आवर्त्ताद्याराधयन् यत्र वन्दत इति ॥ ४४८२ ॥ पञ्चदशं दोषमाहनाणाइतिगं मुत्तुं कारणमिहलोगसाहगं होइ । पूया- गारवहेउं, णाणरगहणे व मेव || ४४८३ ॥ ज्ञान-दर्शन- चारित्रत्रयं मुक्त्वा यत् किमप्यन्यद् 'इहलोकसाधकं' वस्त्रादिकं वन्दनकदानात् साधुरभिलषति तत् कारणं भवतीति प्रतिपत्तव्यम् । ननु ज्ञानादिग्रहणार्थं यदा वन्दते तदा किमेकान्तेनैव कारणं न भवति ? इत्याशङ्कयाह – यदि पूजार्थं गौरवार्थ वा वन्दनकं दत्त्वा विनयपूर्वकं ज्ञानं श्रुतं गृह्णाति, येन लोके पूज्योऽन्येभ्यश्च श्रुतवरेभ्योऽधिकतरो भवामीति तदा तदपि 'एवमेव' कारणवन्दनकं भवतीति ॥ ४४८३ ॥ 30 तत्र किमभिप्रायवत इहलोकसाधकं कारणं भवति : इत्याह आयरतरेण हंदि, वंदामि 'णं तेण पच्छ पणयिस्सं । वंदणग मोलभावो, ण करिस्सर मे पणयभंगं ॥ ४४८४ ॥ १ ण तो य पच्छ तामा० ॥ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४४८१-८९] तृतीय उद्देशः । १२११ 'हन्दि' इतीहलोकसाधककारणोपप्रदर्शने । अतिशयादरेण 'वन्दे' प्रणमामि "ण"मिति एनमाचार्यम् , 'तेन च' वन्दनकप्रदानेन हेतुभूतेन पश्चादमुं किश्चिद् . वस्त्रादि 'प्रणयिष्ये' याचिष्ये, न चासौ मम 'प्रणयभङ्ग' प्रार्थनाभङ्गं करिष्यति । कथम्भूतः सन् ? इत्याहवन्दनकमेव मूल्यं तत्र भावः-अभिप्रायो यस्य सूरेः स तथाभूतः, वन्दनकमूल्यवशीकृत इत्यर्थः, इत्यभिप्रायवतः कारणवन्दनकं भवतीति ॥ ४४८४ ॥ षोडशं दोषमाह- 5 हाउं परस्स चक्खं, वंदंते तेणियं हवइ एतं । तेणो इव अत्ताणं, गृहइ ओभावणा मा मे ॥ ४४८५ ॥ 'हापयित्वा' वञ्चयित्वा 'परस्य' साधु-श्रावकादेः 'चक्षुः' दृष्टिं गुरुं वन्दमानस्य शिष्यस्य स्तैन्यं वन्दनकं भवति । एतदेव स्पष्टतरं व्याचष्टे-'स्तेन इव' तस्कर इवान्यसाध्वाद्यन्तर्धानेनात्मानं गृहयति, कस्मात् ? इत्याह-"ओभावणा मा मे" त्ति असावप्यतिविद्वान् किम-10 न्येषां वन्दनकं प्रयच्छति ? इत्येवम्भूताऽपभ्राजना मम मा भूदिति ॥ ४४८५ ।। सप्तदशं दोषमाह आहारस्स उ काले, णीहारुस्सावि होइ पडिणीयं । रोसेण धमधमेंतो, जं वंदति रुटमेयं तु ॥ ४४८६ ॥ आहारस्य नीहारस्य वा 'उभयस्य' मूत्र-पुरीषलक्षणस्य काले यत्र वन्दते तत् प्रत्यनीकम् । 10 अष्टादशं दोषमाह-रोषेण' खविकल्पजनितेन क्रोधेन 'धमद्धमन्' जाज्वल्यमानो यद् वन्दते तद् रुष्टं वन्दनकमिति ॥ ४४८६ ॥ एकोनविंशं दोषमाह--- न वि कुप्पसि न पसीयसि, कट्ठसिवो चेव तज्जियं एयं । सीसंगुलिमादीहि व, तजेति गुरुं पणिवयंतो ॥ ४४८७ ॥ . काष्ठघटितशिवदेवताविशेष इवावन्द्यमानो न कुप्यसि, तथा वन्द्यमानोऽप्यविशेषज्ञतया न 20 प्रसीदसीत्येवं तर्जयन्-निर्भर्त्सयन् यत्र वन्दते तत् तर्जितम् । यदि वा 'मेलापकमध्ये वन्दनकं मां दापयस्तिष्ठस्याचार्य ! परं ज्ञास्यते तवैकाकिनः' इत्यभिप्रायवान् यदा शीर्षण अङ्गुल्या वा-प्रदेशिनीलक्षणया गुरुं 'प्रणिपतन्' वन्दमानस्तर्जयति तद् वा तर्जितम् ॥ ४४८७ ॥ - विंशतितमं दोषमाहवीसंभट्ठाणमिणं, सब्भावजढे सदं हवइ एतं । 25 कवडं ति कययवं ति य, सढया वि य होंति एगट्ठा ॥ ४४८८ ॥ विश्रम्भः-विश्वासस्तस्य स्थानमिदं वन्दनकम् , एतस्मिन् यथावद् दीयमाने श्रावकादयो विश्वसन्तीत्यभिप्रायेणैव 'सद्भावरहिते' अन्तर्वासनाशून्ये वन्दमाने शिष्ये शठमेतद् वन्दनकं भवति । शठशब्दमेव पर्यायशब्दाचष्टे-कपटमिति वा कैतवमिति वा शठताऽपि वा इति एकार्थाः शब्दा भवन्ति ॥ ४४८८ ॥ एकविंशं दोषमाह गणि! वायग! जिट्ठज्ज !, त्ति हीलियं किं तुमे पणमितेण । देसीकहवित्तंते, कधेति दरवंदिए कुंची ॥ ४४८९ ।। गणिन् ! वाचक ! ज्येष्ठार्य ! किं त्वया वन्दितेन ? इत्यादि सोत्यासं हीलयित्वा यत्र वन्दते 30 Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [कृतिक र्मप्रकृते सूत्रम् १८ तद् हीलितवन्दनकम् । द्वाविंशं दोषमाह--'दरवन्दिते' अर्धवन्दनके दत्ते सति देशीकथावृत्तान्तान् यत्र करोति तद् विपरिकुञ्चितम् ॥ ४४८९ ॥ दृष्टादृष्टदोष शृङ्गदोषं चाह अंतरितो तमसे वा, ण वंदती वंदती उ दीसंतो।। एयं दिट्ठमदिटुं, सिंगं पुण कुंभगणिवातो॥ ४४९० ॥ । बहुषु वन्दमानेषु साध्वादिना केनचिदन्तरितः 'तमसि वा' सान्धकारप्रदेशे व्यवस्थितो मौनं विधाय उपविश्य वाऽऽस्ते न तु वन्दते, दृश्यमानस्तु वन्दते यत्र तद् दृष्टादृष्टवन्दनकम् । तथा कुम्भशब्देनेह ललाटमुच्यते, तस्य वाम-दक्षिणपार्श्वयोर्यो निपातः-हस्ताभ्यां स्पर्शनं तद्युक्तं वन्दनकं शृङ्गमुच्यते । एतदुक्तं भवति-"अहोकायं" इत्याद्यावान् कुर्वन् कराभ्यां न ललाटस्य मध्यदेशं स्पृशति किन्तु वामपाय दक्षिणपार्था वा स्पृशतीति ॥ ४४९० ॥ 10 गाथापूर्वार्धन करलक्षणं पश्चार्धेन तु मोचनलक्षणं दोषमाह करमिव मन्नइ दितो, वंदणगं आरहंतिय करु त्ति । लोइयकरस्स मुक्का, न मुच्चिमो वंदणकरस्स ॥ ४४९१ ॥ वन्दनकं ददत् 'करमिव' राजदेयभागमिव मन्यते, आईतोऽयं कर इति । गृहीतव्रताश्च वयं लौकिककराद् मुक्तास्तावन्न मुच्यामहे वन्दनकरस्याहतस्येति ॥ ४४९१ ॥ 18 सप्तविंशं दोषमाह __ आलिट्ठमणालिट्टे, रयहर सीसे य होति चउभंगो। वयण-करणेहिँ ऊणं, जहन्नकाले व सेसेहिं ॥ ४४९२ ॥ आश्लिष्टमनाश्लिष्टं चेति पदद्वयमाश्रित्य रजोहरण-शिरसोर्विषये चतुर्भङ्गिका भवति, सा च "अहोकायं काय” इत्याद्यावर्तकाले सम्भवति--रजोहरणं कराभ्यामाश्लिष्यति शिरश्चे20 त्येकः, रजोहरणं श्लिष्यति न शिर इति द्वितीयः, शिरः श्लिष्यति न रजोहरणमिति तृतीयः, न रजोहरणं न शिरश्च श्लिष्यति इति चतुर्थो भङ्ग इति । अत्राद्यो भङ्गः शुद्धः, शेषभङ्गत्रये आश्लिष्टानाश्लिष्टदोषदुष्टं प्रकृतवन्दनमवतरति । अष्टाविंशं दोषमाह-वचनैः-आलापकैः करणैर्वा-अवनामादिभिरावश्यकैः 'न्यून' हीनं यद् वन्दते, यद्वा कश्चिदत्युत्सुकतया 'जघन्येनैव' स्वल्पेनैव कालेन वन्दनं समापयति शेषैर्वा साधुभिर्वन्दिते सति पश्चाद् वन्दते तद् न्यूनं 25 नाम वन्दनकम् ॥ ४४९२ ॥ एकोनत्रिंशं त्रिशं च दोषमाह दाऊण वंदणं मत्थएण वंदामि चूलिया एसा। तुसिणी आवत्ते पुण, कुणमाणो होइ मूयं तु ॥ ४४९३ ॥ यद् वन्दनकं दत्त्वा पश्चाद् महता शब्देन 'मस्तकेन वन्दे" इति ब्रूते एषा उत्तरचूलिका मन्तव्या । यत् 'तूष्णीकतया' मौनेन आवर्तान् द्वादशापि कुर्वाणो वन्दते तद् मूकवन्दनक 30 भवति ॥ ४४९३ ।। एकत्रिंशं द्वात्रिंशं च दोषमाह __उच्चसरेणं वंदइ, ढड्डर एयं तु होइ बोधव्यं । १श्यकैः शेषैः' अवशिष्यमाणैरपि यत्रात्युत्सुकतया 'जघन्येनैव' स्वल्पेनैव कालेन वन्दनं समापयति तद् न्यूनम् ॥ ४४९२ ॥ एको' भा० ॥ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१३ भाष्यगाथाः ४४९०-९८] तृतीय उद्देशः । चुडुलि व्य गिहिऊणं, रयहरणं होइ चुडुलीओ॥ ४४९४ ॥ 'उच्चस्वरेण' महता शब्देन वन्दनकसूत्रमुच्चारयन् यद् वन्दते तदेतद् ढङ्करमिति बोद्धव्यम् । चुडली नाम-उल्का तामिव पर्यन्ते गृहीत्वा रजोहरणं भ्रामयन् यद् वन्दते स चुडुलिका नाम द्वात्रिंशो दोष इति ॥ ४४९४ ॥ साम्प्रतमेतेष्वेव प्रायश्चित्तमाहथद्धे गारव तेणिय, हीलिय रुट्ठ लहुगा सढे गुरुगो। । दुट्ट पडिणीय तजित, गुरुगा सेसेसु लहुगो तु ॥ ४४९५ ॥ स्तब्ध-गौरव-स्तेनित-हीलित-रुष्टेषु प्रत्येकं चतुर्लघवः । शठे मायादोषप्रत्ययं मासगुरुकम् । दुष्ट-प्रत्यनीक-तर्जितेषु चत्वारो गुरुकाः । शेषेषु' अनादृत-प्रविद्ध-परिपिण्डितादिषु त्रयोविंशतौ दोषेषु प्रत्येकमसामाचारीनिष्पन्नं मासलघु ॥ ४४९५ ॥ अथ कृतिकर्मकरणविधिमाह आयरिय-उवज्झाए, काऊणं सेसगाण कायव्वं । पिं.नि. ४७५] 10 उप्परिवाडी मासिग, मदरहिए तिणि य थुतीओ ॥ ४४९६ ॥ प्रतिक्रमणसूत्राकर्षणानन्तरमाचार्योपाध्याययोः प्रथमं कृतिकर्म कृत्वा ततः शेषसाधूनां यथारनाधिकक्रमं कर्त्तव्यम् । अथोत्परिपाट्या वन्दते ततो लघुमासिकम् । तेनापि चाचार्यादिना मदरहितेन वन्दनकं प्रतीच्छनीयम् । प्रतिक्रमणे च समापिते तिस्रः स्तुतयः खरेण च्छन्दसा च प्रवर्धमाना दातव्याः ॥ ४४९६ ॥ 15 आह-शेषसाधूनां किं सर्वेषामपि वन्दनं विधेयम् ? उत न ? इति अत्रोच्यते जा दुचरिमो त्ति ता होइ वंदणं तीरिए पडिकमणे।। आइण्णं पुण तिण्हं, गुरुस्स दुण्डं च देवसिए ॥४४९७ ॥ 'प्रतिक्रमणे' प्रतिक्रमणसूत्रे 'तीरिते' पारं प्रापिते सति वन्दनं भवति यावद् द्विचरमः साधुः, द्वौ साधू अवशिष्यमाणौ यावत् सर्वेषामपि वन्दनं कृत्वा क्षामणकं कर्त्तव्यमिति भावः । 20 एष विधिः पूर्वं चतुर्दशपूर्वधर-दशपूर्वधरादिकाले आसीत् , सम्प्रति पुनः पूर्वाचाराचीर्णमिदम्-त्रयाणां साधूनां वन्दनकं कर्त्तव्यम् , तत्रैकस्य गुरोर्द्वयोश्च शेषसाध्वोः पर्यायज्येष्ठयोदेवसिके उपलक्षणत्वाद् रात्रिके चावश्यकेऽयं विधिरवगन्तव्यः । पाक्षिके तु पञ्च साधवो वन्दित्वा क्षमयितव्याः, चातुर्मासिके सांवत्सरिके च सप्त । आह चावश्यकचूर्णिकृत्पक्खिए पंच अवस्सं, चतुमासिए संवत्सरे य सत्त अवस्सं ति ॥ ४४९७॥ 25 आह–किमत्र कारणं मौलं विधिमुल्लङ्य पूर्वसूरय इत्थमभिनवां सामाचारी स्थापयन्ति ? इति उच्यते धिइ-संघयणादीणं, मेराहाणिं च जाणि थेरा । सेह-अगीतट्ठा वि य, ठवणा आइण्णकप्पस्स ॥ ४४९८ ॥ धृतिः-मानसावष्टम्भरूपा संहननं-वज्रऋषभनाराचादि तयोः आदिशब्दाद् द्रव्य-क्षेत्र- 30 कालादीनां च या परिहाणिर्या च मर्यादायाः-सिद्धान्ताभिहितनिरपवादसामाचारीरूपाया हानिस्तां ज्ञात्वा पूर्वसूरय ऐदंयुगीनसाधुजनोचितस्याचीर्णकल्पस्य स्थापनां कुर्वन्ति । किमर्थम् ? इत्याह-शैक्षाणामगीतार्थानां चानुग्रहार्थम् , मा भूदमीषां बहुतरसाधून् वन्दित्वा क्षम. Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ कृतिकर्मप्रकृते सूत्रम् १८ यतां विशिष्टधृति-संहननादिबलाभावात् परिभमानां विपरिणाम इति ॥ ४४९८ ॥ अथाचीर्णस्यैव लक्षणमाह असढेण समाइण्णं, जं कत्थई कारणे असावजं । __ण णिवारियमण्णेहिँ य, बहुमणुमयमेतमाइण्णं ॥ ४४९९ ॥ 5 'अंशठेन' राग-द्वेषरहितेन कालिकाचार्यादिवत् प्रमाणस्थेन सता 'समाचीर्णम्' आचरितं यद् भाद्रपदशुद्धचतुर्थीपर्युषणापर्ववत् 'कुत्रचिद्' द्रव्य-क्षेत्र कालादौ 'कारणे' पुष्टालम्बने 'असावा' प्रकृत्या मूलोत्तरगुणाराधनाया अबाधकम् , 'न च' नैव निवारितम् 'अन्यैः' तथाविधैरेव तत्कालवर्तिभिर्गीतार्थैः, अपि तु बहु यथा भवति एवमनुमतमेतदाचीर्णमुच्यते ॥ ४४९९ ॥ अथ ये आचार्यस्यापि पर्यायज्येष्ठास्तैः किमाचार्यस्य वन्दनकं कर्तव्यम् ? उत न ? 10 इति अत्रोच्यते वियडण पञ्चक्खाणे, सुए य रादीणिगा वि हु करिति । मज्झिल्ले न करिती, सो चेव करेइ तेसिं तु ॥ ४५००॥ विकटनम्-आलोचनं प्रत्याख्यानं प्रतीतं तयोः तथा श्रुते च उद्दिश्यमान-समुद्दिश्यमानादौ 'रात्निका अपि' ज्येष्ठाचार्या अप्युपसम्पदं प्रतिपन्ना अवमरानिकस्याचार्यस्य वन्दनकं कुर्वन्ति । यत्तु 15 मध्यमं क्षामणकवन्दनं तन्न कुर्वन्ति, किन्तु स एवाचार्यस्तेषां रात्निकानां करोति ॥ ४५०० ॥ अथ यदुक्तम् 'तिस्रः स्तुतयो दातव्याः' (गा० ४४९६) इति तत्र विधिमाह थुइमंगलम्मि गणिणा, उच्चारितें सेसगा थुती बेंति । पम्हुट्ठमेरसारण, विणयो य ण फेडितो एवं ॥ ४५०१॥ पाक्षिकादिषु यद्यप्याचार्योऽवमरानिकस्तथापि स एवावश्यके समापिते प्रथमतस्तिस्रः 20 स्तुतीर्ददाति, दैवसिक-रात्रिकयोरपि प्रथममाचार्येण स्तुतिमङ्गलं प्रारम्भणीयम् , ततः शेषैः । अत एवाह-स्तुतिमङ्गले 'गणिना' आचार्येणोच्चारिते सति शेषाः साधवः स्तुतीब्रुवते, ददतीत्यर्थः, दत्त्वा च गुरुपादमूल एव कियन्तमपि कालं तिष्ठन्ति । किमर्थम् ! इति चेद् अत आह-काचिद् मर्यादा-सामाचारी “पम्हुट्ठा" विस्मृता भवेत् तस्याः स्मारणं गुरवः कुर्वीरन् । परमोपकारिणश्च गुरवः, तत एव प्रतिक्रमणानन्तरं कियन्तमपि कालं तेषु पर्युपास्य25 मानेषु विश्रामणादिविधानेन विनयोऽपि न स्फेटितः' न हापितो भवति ॥ ४५०१॥ अथ के पुनस्ते ये आचार्यस्यापि रत्नाधिका भवन्ति ? इति उच्यते अन्नसिं गच्छाणं, उवसंपन्नाण वंदणं तहियं ।। बहुमाण तस्स वयणं, ओमे वाऽऽलोयणा भणिया ॥ ४५०२॥ अन्येषां गच्छानां सम्बन्धिन आचार्या रत्नाधिकतराः सूत्रार्थनिमित्तं कमप्यवमरानिकमाचार्य१°इ केणई असा भा० ताभा० । एतदनुसारेणैव भा. टीका, दृश्यतां टिप्पणी २ ॥२ 'अशठेन' अमायाविना सता 'समाचीर्णम्' आचरितं यद् भाद्रपदशुक्लचतुर्थीपर्युषणापर्ववत् 'कुत्र. चिद् द्रव्य-क्षेत्र कालादौ 'केनचित्' प्रमाणस्थेन संविग्नगीतार्थादिगुणभाजा कालिकाचार्यादिना 'असावा' भा० ॥ ३ थुती दिति ताभा० विना ॥ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः १४९९-४५०७] तृतीय उद्देशः । १२१५ मुपसम्पन्नास्तेषां मध्यमवन्दनकमवमरानिकेन दातव्यम् । शेषकालं तेऽपि रानिकाः 'तस्य' अधमरानिकस्य 'बहुमान' 'पूज्योऽयमस्माकं गुणाधिकतया' इति लक्षणं 'वचनं च' आज्ञानिर्देशं कुर्वन्ति । अवमेऽपि च तत्रालोचना भणिता भगवद्भिः । किमुक्तं भवति ?-तस्य पुरत आलोचनं प्रत्याख्यानं च वन्दनकं दत्त्वा विधेयमिति भगवतामुपदेशः ॥ ४५०२ ॥ अथ परः प्राह-कस्य पुनः कृतिकर्म कर्तव्यम् ? कस्य वा न ? इति उच्यते- 5 सेढीठाणठियाणं, कितिकम्म बाहिराण भयितव्वं । सुत्त-ऽत्थजाणएणं, कायव्वं आणुपुवीए ॥ ४५०३ ॥ संयमश्रेण्याः सम्बन्धीनि विशुद्धिप्रकर्षापकर्षकृतखरूपभेदरूपाणि यानि स्थानानि तेषु स्थितानां साधूनां कृतिकर्म कर्त्तव्यम् । ये तु संयमश्रेणिस्थानेभ्यो बाह्यास्तेषां 'भक्तव्यं' कर्त्तव्यं वा न वेति भावः । तत्र कारणे समुत्पन्ने 'सूत्रार्थज्ञेन' गीतार्थेन 'आनुपूर्व्या' “वायाइ नमो- 10 कारो" (गा० ४५४५) इत्यादिकया वक्ष्यमाणपरिपाट्या कर्त्तव्यम् , अन्यथा तु नेति पुरातनगाथासमासार्थः ॥ ४५०३ ॥ साम्प्रतमेनामेव विवरीषुराह सेढीठाणठियाणं, कितिकम्मं सेढि इच्छिमो गाउं । तम्हा खलु सेढीए, कायव्य परूवणा इणमो॥ ४५०४॥ संयमश्रेणिस्थानस्थितानां कृतिकर्म कर्त्तव्यमित्युक्ते कश्चिद् विनेयो ब्रूयात्-वयं तामेव 15 श्रेणिं प्रथमतो ज्ञातुमिच्छामः । सूरिराह-यत एवं भवतः श्रेणिविषया जिज्ञासा तस्मादस्माभिरपि कर्तव्या श्रेणेः प्ररूपणा 'इयं' वक्ष्यमाणलक्षणा ॥ ४५०४ ॥ अतस्तामेव चिकीर्षुः प्रथमतः श्रेणिस्थितानां कृतिकर्मकरणे विधिमाह पुव्वं चरित्तसेढीठियस्स पच्छाठिएण कायव्वं । __ सो पुण तुल्लचरित्तो, हविज ऊणो व अहिओ वा ॥ ४५०५ ॥ 20 'पूर्व प्रथमं यः सामायिकस्य छेदोपस्थापनीयस्य वा प्रतिपत्त्या चारित्रश्रेण्यां स्थितस्तस्य पश्चास्थितेन कृतिकर्म कर्त्तव्यम् । ‘स पुनः' पूर्वस्थितस्तं पश्चास्थितमपेक्ष्य निश्चयतस्तुल्यचारित्रो न्यूनो वाऽधिको वा भवेत् ॥ ४५०५ ॥ यतः निच्छयओ दुन्नेयं, को भावे कम्मि वट्टई समणो । ववहारओ य कीरइ, जो पुव्वठिओ चरित्तम्मि ॥ ४५१६॥ 'निश्चयतः' तत्त्ववृत्त्या कः पूर्वस्थितः पश्चास्थितो वा श्रमणः कस्मिन् 'भाव' चारित्राध्यवसायरूपे मन्दे मध्ये तीव्र वा वर्त्तते इति दुर्जेयम् , तदपरिज्ञानाच्च कथं निश्चयनयाभिप्रायेण कृतिकर्म कत्तुं शक्यम् ? । 'व्यवहारतस्तु' व्यवहारनयमङ्गीकृत्य पुनः क्रियते कृतिकर्म यः पूर्व चारित्रे स्थितस्तस्येति ॥ ४५०६ ॥ ननु फलसाधकत्वाद् निश्चयस्यैव प्रामाण्यं न व्यवहारस्य इत्याह 30 ववहारो वि हु बलवं, जं छउमत्थं पि वंदई अरिहा । जा होइ अणाभिन्नो, जाणंतो धम्मयं एवं ॥४५०७॥ व्यवहारोऽपि, आस्तां निश्चय इत्यपिशव्दार्थः 'हुः' निश्चितं बलवान् , यद् यस्मात् Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 वागरण पुव्वकहिए, देवयपूयासु व मुणंति ।। ४५०८ ॥ अन्येन केनापि केवलिना 'कथिते' 'अयं केवली जातः' इत्याख्याते सति, अवन्दमानो वा केवलिनमन्यं केवलितया ज्ञायते । व्याकरणपूर्वं वा - अतिशयिज्ञानगम्यार्थकथनपुरःसरं तेनैव केवलिना स्वयमेव कथिते सति, 'दैवतपूजासु वा' यथासन्निहितदेवैः क्रियमाणां महिमां दृष्ट्वा गुरुप्रभृतस्तं केवलिनं विदन्ति ॥ ४५०८ || अथ श्रेणिप्ररूपणामाह - अविभागपलिच्छेया, ठाणंतर कंडए य छट्टाणा । 10 हिट्ठा पजवसाणे, बुद्धी अप्पाबहुं जीवा ।। ४५०९ ॥ आला गणण विरहियमविरहियं फासणापरूवणया । गणपय सेढिअवहार भाग अप्पाबहुं समया ॥ ४५१० ॥ अविभागपरिच्छेदप्ररूपणा स्थानान्तरप्ररूपणा कण्डकप्ररूपणा षट्स्थानप्ररूपणा अधः15 प्ररूपणा पर्यवसानप्ररूपणा वृद्धिप्ररूपणा अल्पबहुत्वप्ररूपणा जीवप्ररूपणा चेति ॥ ४५०९ ॥ जीवप्ररूपणायां चामूनि प्रतिद्वाराणि तद्यथा - १२१६ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्ति वृहत्कल्पसूत्रे [ कृतिकर्म प्रकृते सूत्रम् १८ छद्मस्थमपि स्वगुरुप्रभृतिकं वन्दते 'अरहा: ' केवली । कियन्तं कालम् ? इत्याह –— यावदसौ 'अणाभिन्नोऽस्ति' केवलितया अनभिज्ञातो भवति तावद् 'एतां' व्यवहारनयवलवत्त्वलक्षणां धर्मनां जानन् छद्मस्थमपि वन्दते इति ॥ ४५०७ ॥ कथं पुनरसौ केवलितया ज्ञायते ? इत्याहकेवलणा वा कहिए, अवंदमाणो व केवलिं अन्नं । आलापप्ररूपणा गणनाप्ररूपणा विरहितप्ररूपणा अविरहितप्ररूपणा स्पर्शनाप्ररूपणा गणनापदप्ररूपणा श्रेण्यपहारप्ररूपणा भागप्ररूपणा अल्पबहुत्वप्ररूपणा श्रमण (समय) प्ररूपणा चेति द्वारगाथाद्वयम् ॥ ४५१० ॥ तत्राविभागपरिच्छेदप्ररूपणां तावत् करोतिअविभागपलिच्छेदो, चरित्तपञ्जव - पएस - परमाणू । परमाणुस्स परूवण, चउव्विहा भावओऽणंता ॥। ४५११ ॥ इह संयमस्थानं केवलिप्रज्ञाच्छेदनकेन छिद्यमानं निरंशतया यदा विभागं न यच्छति तदासावन्तिमो अंशो अविभागपरिच्छेद उच्यते स चारित्रपर्यायश्चारित्रप्रदेशश्चारित्रपरमाणुर्वा भण्यते । परमाणोश्च सामान्यतश्चतुर्विधा प्ररूपणा द्रव्य-क्षेत्र - काल- भावभेदात् । द्रव्यत एकोऽ25 णुकः, क्षेत्रत आकाशप्रदेशः, कालतः समयः, भावतस्त्वेकगुणकालकादिः । अत एव वा चारित्राविभागपरिच्छेदाः, ते च 'अनन्ताः' अनन्तानन्तकप्रमाणाः || ४५११ ॥ तथा चाह-ते कित्तिया परसा, सव्वागासस्स मग्गणा होइ । ते जत्तिया परसा, अविभाग तओ अनंतगुणा ।। ४५१२ ॥ 'ते' चारित्रस्य प्रदेशाः कियन्तः ' किंप्रमाणा इति चिन्तायां निर्वचनमाह —— सर्वस्य - 30 लोका - लोकगतस्याकाशस्य मार्गणा भवति । यावन्तः किल 'ते' सर्वाकाशस्य प्रदेशाः 'ततः ' तेभ्यः सर्वाकाशप्रदेशेभ्यश्चारित्रस्य अविभागपरिच्छेदा अनन्तगुणाः सर्वजघन्येऽपि संयमस्थाने प्रतिपत्तव्याः । एषा अविभागपरिच्छेदप्ररूपणा १ । सर्वजघन्यात् संयमस्थानाद् यद् द्वितीयं संयमस्थानं तत् तस्मादनन्तभागवृद्धम् । किमुक्तं 20 Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४५०८-१२] तृतीय उदेशः । १२१७ भवति ?-प्रथमसंयमस्थानगतनिर्विभागभागापेक्षया द्वितीये संयमस्थाने निर्विभागा भागा अनन्ततमेन भागेनाधिका भवन्तीति । एषा स्थानान्तरप्ररूपणा २ । तस्मादपि यदनन्तरं तृतीयं तत् ततोऽनन्तभागवृद्धम् , एवं पूर्वस्मादुतरोतराणि अनन्ततमेन भागेन वृद्धानि निरन्तरं संयमस्थानानि तावद् वक्तव्यानि यावदङ्गुलमात्रक्षेत्रासङ्ख्येयभागगतप्रदेशराशिप्रमाणानि भवन्ति । एतावन्ति च समुदितानि स्थानानि कण्डकमित्युच्यते ।। एषा कण्डकप्ररूपणा ३ ।। __ अस्माच्च कण्डकात् परतो यदन्यदनन्तरं संयमस्थानं भवति तत् पूर्वस्मादसङ्ख्येयभागाधिकम् । एतदुक्तं भवति-पाश्चात्यकण्डकसत्कचरमसंयमस्थानगतनिर्विभागभागापेक्षया कण्डकानन्तरे संयमस्थाने निर्विभागा भागा असङ्ख्येयतमेन भागेनाधिकाः प्राप्यन्ते । ततः पराणि पुनरपि कण्डकमात्राणि संयमस्थानानि यथोत्तरमनन्तभागवृद्धानि भवन्ति, ततः पुनरेकमसङ्ख्येय-10 भागाधिकं संयमस्थानम् ; भूयोऽपि ततः पराणि कण्डकमात्राणि संयमस्थानानि यथोत्तरमनन्तभागवृद्धानि भवन्ति, ततः पुनरप्येकमसङ्ख्येयभागाधिकं संयमस्थानम् ; एवमनन्तभागाधिकैः कण्डकप्रमाणैः संयमस्थानैर्व्यवहितानि असङ्ख्येयभागाधिकानि संयमस्थानानि तावद् वक्तव्यानि यावत् तान्यपि कण्डकप्रमाणानि भवन्ति । ततश्चरमादसङ्ख्येयभागाधिकसंयमस्थानात् पराणि यथोत्तरमनन्तभागवृद्धानि कण्डकमात्राणि संयमस्थानानि भवन्ति, ततः परमेकं सङ्ख्येयभागा-15 धिकं संयमस्थानम् ; ततो मूलादारभ्य यावन्ति संयमस्थानानि प्रागतिक्रान्तानि तावन्ति भूयोऽपि तेनैव क्रमेणाभिधाय पुनरप्येकं सहयेयभागाधिकं संयमस्थानं वक्तव्यम्, इदं द्वितीयं सहयेयभागाधिकं संयमस्थानम् ; अनेनैव क्रमेण तृतीयम् , यावत् सद्ध्येयभागाधिकानि संयमस्थानानि कण्डकमात्राणि भवन्ति तावद् वाच्यम् । तत उक्तक्रमेण भूयोऽपि सङ्ख्येयभागाधिकसंयमस्थानप्रसङ्गे सङ्ख्येयगुणाधिकमेकं संयमस्थानं वक्तव्यम् , ततः पुनरपि मूलादारभ्य यावन्ति संयम-20 स्थानानि प्रागतिक्रान्तानि तावन्ति भूयोऽपि वक्तव्यानि, ततः पुनरप्येकं सङ्ख्येयगुणाधिकं संयमस्थानं वक्तव्यम् । ततो भूयोऽपि मूलादारभ्य तावन्ति संयमस्थानानि तथैव वक्तव्यानि, ततः पुनरप्येकं सहयेयगुणाधिकं संयमस्थानम् ; अमून्यप्येवं सहयेयगुणाधिकानि संयमस्थानानि तावद् वक्तव्यानि यावत् कण्डकमात्राणि भवन्ति । तत उक्तक्रमेण पुनरपि सहयेयगुणाधिकसंयमस्थानप्रसङ्गेऽसङ्ख्येयगुणाधिकं संयमस्थानं वक्तव्यम् , ततः पुनरपि मूलादारभ्य यावन्ति संयम-25 स्थानानि प्रागतिक्रान्तानि तावन्ति तेनैव क्रमेण भूयोऽपि वक्तव्यानि, ततः पुनरप्येकमसङ्ख्येयगुणाधिकं संयमस्थानं वक्तव्यम् । ततो भूयोऽपि मूलादारभ्य तावन्ति संयमस्थानानि तथैव वक्तव्यानि, ततः पुनरप्येकमसङ्ख्येयगुणाधिकं संयमस्थानं वक्तव्यम् ; अमूनि चैवमसङ्ख्येयगुणाधिकसंयमस्थानानि तावद् वक्तव्यानि यावत् कण्डकप्रमाणानि भवन्ति । ततः पूर्वपरिपाट्या पुनरप्यसङ्ख्येयगुणाधिकसंयमस्थानप्रसङ्गे अनन्तगुणाधिकं संयमस्थानं वक्तव्यम् , ततो भूयोऽपि 30 मूलादारभ्य यावन्ति संयमस्थानानि प्रागतिक्रान्तानि तावन्ति तथैव क्रमेण भूयोऽपि वक्तव्यानि, ततः पुनरप्येकमनन्तगुणाधिकं संयमस्थानं वक्तव्यम् ; ततो भूयोऽपि मूलादारभ्य तावन्ति १ ततः पुनरपि मू° ताटी. मो० ॥ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ कृति कर्मप्रकृते सूत्रम् १८ संयमस्थानानि तथैव वक्तव्यानि ततः पुनरप्येकमनन्तगुणाधिकं संयमस्थानं वक्तव्यम्; एवमनन्तगुणाधिकानि तावद् वक्तव्यानि यावत् कण्डकमात्राणि भवन्ति । ततो भूयोऽपि तेषामुपरि पञ्चवृच्यात्मकानि संयमस्थानानि मूलादारभ्य तथैव वक्तव्यानि यत् पुनरनन्तगुणवृद्धिस्थानं तन्न प्राप्यते, षट्स्थानस्य परिसमाप्तत्वात् । इत्थम्भूतान्यसङ्ख्येयानि कण्डकानि समुदितानि 5 षट्स्थानकं भवति । तस्माच्च प्रथमषट्स्थानकादूर्द्धमुक्तक्रमेणैव द्वितीयं षट्स्थानकमुत्तिष्ठति, एवमेव च तृतीयम् एवं षट्स्थानकान्यपि तावद् वाच्यानि यावदसङ्ख्ये यलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि भवन्ति । उक्तं च 10 15 छट्ठाणगअवसाणे, अन्नं छट्टाणयं पुणो अन्नं । एवमसंखा लोगा, छट्टाणाणं मुणेयव्वा ॥ [ पञ्चसं० गा० ४४४ ] इत्थम्भूतानि चासयेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि षट्स्थानकानि संयमश्रेणिरुच्यते । तथा चोक्तम् प्रथमादसङ्ख्येयभागवृद्धात् स्थानादधः कियन्ति संयमस्थानान्यनन्तभागवृद्धानि ? उच्यतेकण्डकमात्राणि । तथा प्रथमात् सङ्ख्येयभागवृद्धात् स्थानादधः कियन्ति असङ्ख्येय भागवृद्धानि स्थानानि ? उच्यते - कण्डकमात्राणि । एवमुत्तरोत्तरस्थानादधोऽध आनन्तर्येण तावद् मार्गणा कर्त्तव्या यावत् प्रथमादनन्तगुणवृद्धात् स्थानादधः कियन्ति असङ्ख्येयगुणवृद्धानि ? उच्यतेकण्डकमात्राणि । इदानीमेकान्तरिता मार्गणा क्रियते तत्र प्रथमात् सङ्ख्येयभागवृद्धात् 20 स्थानादधः कियन्त्यनन्तभागवृद्धानि स्थानानि ? उच्यते - कण्डकवर्गः कण्डकं च । तथा प्रथमात् सङ्ख्येयगुणवृद्धात् स्थानादधः कियन्ति असङ्ख्येयभागवृद्धानि स्थानानि ? उच्यतेकण्डकवर्गः कण्डकं च । [ तथा प्रथमादसङ्ख्येयगुणवृद्धात् स्थानादधः कियन्ति सङ्ख्येयभागवृद्धानि स्थानानि ? उच्यते-- कण्डकवर्गः कण्डकं च । ] तथा प्रथमादनन्तगुणवृद्धात् स्थानादधः कियन्ति सङ्ख्येयगुणवृद्धानि स्थानानि : उच्यते — कण्डकवर्गः कण्डकं च । एवमुक्त25 प्रकारेण व्यन्तरिता त्र्यन्तरिता चतुरन्तरिता च मार्गणा खधिया परिभावनीया । अथ पर्यवसानद्वारम्—तत्रानन्तगुणवृद्धकण्डकादुपरि पञ्चवृज्यात्मकानि सर्वाणि स्थानानि गत्वा पुनरनन्तगुणवृद्धं स्थानं न प्राप्यते, षट्स्थानस्य परिसमाप्तत्वात् । ततस्तदेव सर्वान्तिमं स्थानं षट्स्थानकस्य पर्यवसानम् ॥ ४५१२ ॥ 30 छट्टाणा उ असंखा, संजमसेढी मुणेयबा || [ पिण्डनि० भा० गा० २९] तदेवं कृता अविभागपरिच्छेद- स्थानान्तर - कण्डक - षट्स्थानकानां प्ररूपणा ४ । साम्प्रतमधःस्थानप्ररूपणा क्रियते - अथ भाष्यकारः प्रकारान्तरेणाधः पर्यवसानद्वारयोर्युगपत् प्ररूपणामाह एयं चरितसेर्दि, पडिवज्जर हिट्ठ कोइ उवरिं वा । जो हिट्ठा पडिवज, सिज्झइ नियमा जहा भरहो ।। ४५१३ ।। एतां चारित्रश्रेणि कश्चिद् जीवः 'अधस्ताद्' जघन्यसंयमस्थानेषु प्रतिपद्यते कश्चित् पुनः १ 'वद् वक्तव्यानि या मो० ॥ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१९ भाष्यगाथाः ४५१३-१६] तृतीय उद्देशः । 'उपरि' उपरितनेषु पर्यन्तवर्तिषु, उपलक्षणत्वाद् मध्यमेषु वा संयमस्थानेषु प्रतिपद्यते । तत्र योऽधस्तनेषु संयमस्थानेषु चारित्रश्रेणिं प्रतिपद्यते स नियमात् तेनैव भवग्रहणेन सिध्यति, यथा भरतश्चक्रवर्ती ॥ १५१३ ॥ मज्झे वा उवरिं वा, नियमा गमणं तु हिट्ठिमं ठाणं । ___ अंतोमुहुत्त वुड्डी, हाणी वि तहेव नायव्या ॥४५१४॥ यः पुनः 'मध्ये वा' मध्यमेषु 'उपरि वा' उपरितनेषु संयमस्थानेषु चारित्रवेणि प्रतिपद्यते तस्य नियमाद् 'अधस्तनं' सर्वजघन्यं संयमस्थानं यावद् गमनं भवति, ततोऽसौ तेनान्येन वा भवग्रहणेन सर्वाणि संयमस्थानानि स्पृष्ट्वा सिध्यति । या पुनरधस्तनसंयमस्थानेभ्य उपरितनसंयमस्थानारोहणलक्षणा वृद्धिः साऽन्तर्मुहूर्तमात्रं भवति । या चोपरितनसंयमस्थानेभ्योऽधस्तनसंयमस्थानेष्ववरोहणरूपा हानिः साऽपि तथैव' अन्तर्मुहर्तमात्रैव ज्ञातव्या ५-६ । एतेन वृद्धिद्वार-10 प्ररूपणाऽपि कृता ७ । सम्प्रति अल्पबहुत्वद्वारं प्ररूप्यते-तत्र सर्वस्तोकान्यनन्तगुणवृद्धानि स्थानानि, कण्डकमात्रत्वात् तेषाम् । तेभ्योऽसङ्ख्येयगुणवृद्धानि स्थानानि असङ्ख्येयगुणानि, गुणकारश्चेह कण्डकप्रमाणो ज्ञातव्यः, एकैकस्यानन्तगुणवृद्धस्य स्थानस्याधस्तात् प्रत्येकमसङ्ख्येयगुणवृद्धानि स्थानानि कण्डकमात्राणि प्राप्यन्त इति कृत्वा; अनन्तगुणवृद्धस्थानकण्डकस्य चोपरि कण्डकमात्राण्यसङ्ख्येयगुणवृद्धानि प्राप्यन्ते, न बनन्तगुणवृद्धं स्थानम् , तेनोपरिष्टादेकस्य 15 कण्डकस्याधिकस्य प्रक्षेपः । तेभ्योऽप्यसङ्ख्येयगुणवृद्धेभ्यः स्थानेभ्यः सङ्ख्येयगुणवृद्धानि स्थानानि असङ्ख्येयगुणानि, तेभ्योऽपि सङ्ख्येयभागाधिकानि स्थानान्यसङ्ख्येयगुणानि, तेभ्योऽपि असङ्ख्येयभागाधिकानि स्थानान्यसङ्ख्येयगुणानि, तेभ्योऽप्यनन्तभागवृद्धानि स्थानानि असङ्ख्येयगुणानि । गुणकारश्च सर्वत्रापि कण्डकमुपरि चैककण्डकप्रक्षेपः । प्ररूपितमल्पबहुत्वद्वारम् ८ । जीवपदप्रतिबद्धानां त्वालाप-गणनादीनां द्वाराणां प्ररूपणा सम्प्रदायाभावाद् न 20 क्रियते ९॥ ४५१४ ॥ अथ प्रस्तुतयोजनां कुर्वन्नाह सेढीठाणठियाणं, किइकम्म बाहिरे न कायव्वं । पासस्थादी चउरो, तत्थ वि आणादिणो दोसा ॥४५१५ ॥ अनन्तरोक्तायाः श्रेणेः सम्बन्धिषु संयमस्थानेषु स्थितानां साधूनां कृतिकर्म कर्तव्यम् , ये तु श्रेणे ह्यास्तेषां न कर्त्तव्यम् । के पुनस्ते ? इत्याह-पार्श्वस्थादयश्चत्वारः । तत्र पार्थस्था-ऽव- 25 सन्न-कुशील-संसक्त-यथाच्छन्दाः पञ्चाप्येको भेदः, काथिक-प्राग्निक-मामाक-सम्प्रसारका द्वितीयः, अन्यतीर्थिकास्तृतीयः, गृहस्थाश्चतुर्थः; एते चत्वारोऽपि श्रेणिबाह्या मन्तव्याः । 'तत्रापि' एतेषां कृतिकर्मकरणेऽपि, न केवलमभ्युत्थाने इत्यपिशब्दार्थः, आज्ञादयो दोपाः प्रायश्चित्तं च प्राग यथाऽभ्युत्थाने पार्श्वस्था-ऽन्यतीर्थिकादिविषयं वर्णितं तथैव वक्तव्यम् ॥ ४५१५॥ शिष्यः पृच्छति लिंगेण निग्गतो जो, पागडलिंग धरेइ जो समणो। किध होइ णिग्गतो ति य, दिटुंतो सकरकुडेहिं ।। ४५१६ ॥ 'लिङ्गेन' रजोहरणादिना यो मुक्तः स संयमश्रेण्या निर्गतः प्रतीयते, यन्तु श्रमण: प्रकट 30 Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दाउ हिट्ठा छारं, सव्वत्तो कंटियाहि वेढित्ता । सकवाडमणाबाधे, पालेति तिसंझमिक्खंतो ।। ४५१७ ॥ तयोरेकः पुरुषस्तं राज्ञा समर्पितं घटं गृहीत्वा तस्याधः क्षारं दत्त्वा यथा कीटिका नागच्छेयुरिति भावः, ततः सर्वतः कण्टिकाभिस्तं वेष्टयित्वा 'सकपाटे' कपाट पिधानयुक्तेऽनाबाधे 10 प्रदेशे स्थापयित्वा त्रिसन्ध्यमीक्षमाणः सम्यक् पालयति ।। ४५१७ ॥ १२२० सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ कृतिकर्मप्रकृते सूत्रम् १८ मेव लिङ्गं धारयति स कथं 'निर्गतः' श्रेणिवाह्यो भवति ?, श्रमणलिङ्गस्योपलभ्यमानत्वाद् न भवतीति भावः । अत्र सूरिराह — दृष्टान्तः शर्कराकुटा भ्यामत्र क्रियते— I जहा कस्सइ रन्नो दो घडया सक्कराभरिया । ते अन्नया मुहं दाऊण दोन्हं पुरिसाणं समप्पिया भणिता य, जहा — सारक्खह, जया मग्गिज्जइ तथा दिज्जाह ॥ ४५१६ ॥ 6 ततः किमभूत् ? इत्याह 25 30 द्वितीयः पुनः किं कृतवान् ? इत्याह----- द्वितीयः पुरुषस्तं घटं कीटिकानगरस्यादूरे स्थापयित्वा मध्यंमध्येनावलोकते, ततः शर्करा - 15 गन्धाघ्राणतः समायाताभिः कीटिकाभिर्मुद्राम विद्रवन्तीभिः 'सः' घटोऽधस्तात् कालेन जर्जरितः कृतः, शर्करा सर्वाऽपि भक्षिता । अन्यदा राज्ञा तौ पुरुषौ घटं याचितौ, ततो द्वाभ्यामप्यानीय दर्शितयोर्घटयोः “पमायकुडए" ति येन कुटरक्षणे प्रमादः कृतस्तस्य नृपेण दण्डः कृतः । उपलक्षणमिदम् तेन यस्तं सम्यक् पालितवान् तस्य विपुला पूजा विदधे । एष दृष्टान्तः, अयमर्थोपनयः - राजस्थानीया गुरवः, पुरुषस्थानीयाः साधवः, शर्करास्थानीयं चारित्रम्, 20 घटस्थानीय आत्मा, मुद्रास्थानीयं रजोहरणम्, कीटिकास्थानीयान्यपराधपदानि दण्डस्थानीया दुर्गतिप्राप्तिः, पूजास्थानीया स्वर्गादिसुखपरम्पराप्राप्तिः ॥ ४५१८ ॥ 1 तथा चामुमेवोपनयं लेशतो भाष्यकारोऽप्याह मुद्द. अविद्दवंतीहि कीडियाहिं स चालणी चैव । जञ्जरितो कालेणं, पमायकुडए निवे दंडो ।। ४५१८ ॥ निवसरिसो आयरितो, लिंगं मुद्दा उ सक्करा चरणं । पुरिसा य होंति साहू, चरित्तदोसा मुयिंगाओ ।। ४५१९ ।। गतार्था । नवरं 'मुयिङ्गाः कीटिकाः । यथा तस्य प्रमत्तपुरुषस्य मुद्रा सद्भावेऽप्यधःप्रविशन्तीभिः कीटिकाभिर्घटं विभज्य शर्करा विनाशिता, एवं साधोरपि प्रमादिनो रजोहरणमुद्रासद्भावेऽप्यपराधपदैरात्मनि जर्जरिते शर्करातुल्यं चारित्रं कालेन वा सद्यो वा विनाशमाविशति ॥ ४५१९ ॥ तत्र कालेन यथा विनश्यति तथा दर्शयति एस दोसे सीयइ, अणाणुतावी ण चैव वियडेइ । णेव य करेइ सोधिं, ण त विरमति कालतो भस्से । ४५२० ।। एषणदोषेषु सीदति, तद्दोषदुष्टं भक्त पानं गृह्णातीत्यर्थः । एवं कुर्वन्नपि पश्चात्तापं करिष्यति इत्याह- 'अननुतापी' पुरः कर्मादिदोषदुष्टाहारग्रहणाद् अनु - पश्चात् तनुं - 'हा ! दुष्ठु कृतं मया' १ विभिद्य श° कां० ॥ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४५१७-२२ ] तृतीय_उद्देशः । १२२१ इत्यादिमानसिकतापं धर्तुं शीलमस्येत्यनुतापी, न तथा अननुतापी । कथमेतद् ज्ञायते ? इत्याह-- ' न चैव विकटयति' गुरूणां पुरतः स्वदोषं न प्रकाशयति, विकटयति वा परं तस्य 'शोधिं' प्रायश्चित्तं गुरुप्रदत्तं नैव करोति, 'न च' नैव अशुद्धाहारग्रहणाद् विरमति । एवं कुर्वन् 'कालतः ' कियताऽपि कालेन चारित्रात् परिभ्रश्येत् । यस्तु मूलगुणान् विराधयति स सद्यः परिभ्रश्यति ॥ ४५२० || अमुमेवार्थं सविशेषमाह .5 मूलगुण उत्तरगुणे, मूलगुणेहिं तु पागडो हो । उत्तरगुणपडि सेवी, संचयऽवोच्छेदतो भस्से ॥। ४५२१ ॥ इह प्रतिसेवको द्विधा — मूलगुणप्रतिसेवक उत्तरगुणप्रति सेवकश्च । तत्र मूलगुणप्रतिसेवायां वर्तमानः प्रकट एव प्रतीयते यथा चारित्रात् परिभ्रश्यति । उत्तरगुणप्रतिसेवी तु सञ्चयेनबपराधमीलकेन योऽशुद्धाहारग्रहणादेरव्यवच्छेदः - परिणामस्यानुपरमस्ततः 'भ्रश्येत्' चारि - 10 त्रात् परिभ्रंशमाप्नुयात् ॥ ४५२१ ॥ अत्रैवार्थे दृष्टान्तमाह अंतो भयणा बाहिं, तु निग्गते तत्थ मरुगदितो । संकर सरिसव सगडे, मंडव वत्थेण दिट्टंतो ।। ४५२२ ।। इह सम्बन्धानुलोम्यतः प्रथममुत्तरार्धं व्याख्यायते -- सङ्करः - तृणादिकचवरः तद्दृष्टान्तो यथा - आरामो सारणीए पाइज्जइ । ताए वहंतीए 15 एगं तणं सयं लग्गं तं न अवणीयं, अन्नं लग्गं तं पि न अवणीयं, एवं बहूहिं लग्गंतेहिं तत्थ तेण आश्रयेण चिक्खल्लधूलीए संचओ जाओ । तेणं संचयेणं तं पाणियं रुद्धं अन्नओ गंतुं पयट्ट, ताहे सो आरामो सुक्को । एवमभिक्खणमभिक्खणं उत्तरगुणपडि सेवाए अवराहसंचओ भवइ, तेण संजमजलं पवहमाणं निरुज्झइ, तओ चारितारामो सुक्कइ ॥ 1 सर्षपशकट- मण्डपदृष्टान्तो यथा— शकटे मण्डपे वा क्वाप्येकः सर्षपः प्रक्षिप्तः स तत्र 20 मातः, अन्यः प्रक्षिप्तः सोऽपि मातः, एवं प्रक्षिप्यमाणैः सर्षपैर्भविष्यति स सर्षपो यस्तं शकटं मण्डपं वा भनक्ति । एवं चारित्रेऽप्यशुद्धाहारग्रहणादिरे कोऽपराधः प्रक्षिप्तः स तत्रावस्थितिं कृतवान्, द्वितीयः प्रक्षिप्तः सोऽप्यवस्थितः, एवमपरापरैरुत्तरगुणापराधैः प्रक्षिप्यमाणैर्भविष्यति स उत्तरगुणापराधो येन चारित्रं सर्वथा भङ्गमुपगच्छति ॥ अथ वस्त्रदृष्टान्तो भाव्यते— वस्त्रे क्वचिदेकस्तैलबिन्दुः कथमपि लग्नः स न शोधितः, 25 तदाश्रयेण रेणुपुद्गला अप्यवतस्थिरे, एवमन्यत्राप्यवकाशे तैलबिन्दुर्लभः सोऽपि न शोधितः, एवमन्यान्यैस्तैलबिन्दुभिर्लगद्भिरप्यशोध्यमानैः सर्वमपि तद् वस्त्रं मलिनीभूतम् । एवं चारित्र - वस्त्रमप्यपरा परैस्तरगुणापराधैरुपलिप्यमानमचिरादेव मलिनीभवतीति ॥ तदेवमुत्तरगुणप्रतिसेवी कालेन चारित्रात् परिभ्रश्यतीति स्थितम् । अथ कृतिकर्मविषयं विशेषं बिभणिषुराह – “अंतो भयणा" इत्यादि पूर्वार्धम् । यः संयमश्रेणेः 'अन्तः' मध्ये 30 स्थितस्तस्य कृतिकर्मकरणे भजना, सा चाग्रे दर्शयिष्यते । यस्तु श्रेणेर्बहिर्निगतस्तस्य कृति - कर्म न कर्तव्यम् । तथा च मरुकः - ब्राह्मणस्तस्य दृष्टान्तोऽत्र भवति ।। ४५२२ ॥ १ 'ष्टान्तः क्रियते ॥ ४५२२ ॥ पक्क° कां० विना ॥ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्र [कृतिकर्मप्रकृते सूत्रम् १८ तमेव दर्शयति पक्कणकुले वसंतो, सउणीपारो वि गरहिओ होइ।। इय गरहिया सुविहिया, मज्झि वसंता कुसीलाणं ॥ ४५२३ ॥ पकणकुलं-मातङ्गगृहं तत्र वसन् 'शकुनीपारगोऽपि' द्विजो गर्हितो भवति । शकुनी5 शब्देन चतुर्दश विद्यास्थानानि गृह्यन्ते, तानि चामूनि अङ्गानि वेदाश्चत्वारो, मीमांसा न्यायविस्तरः । पुराणं धर्मशास्त्रं च, स्थानान्याहुश्चतुर्दश ॥ तत्राङ्गानि षट्-शिक्षा व्याकरणं कल्पः छन्दो निरुक्तिज्योतिषमिति । "इय' एवं 'सुविहिताः' साधवः 'कुशीलानां' पार्श्वस्थादीनां मध्ये वसन्तो गर्हिता 10 भवन्ति, अतो न तेषु वस्तव्यं न वा कृतिकर्मादि विधेयम् ॥ ४५२३ ॥ ननु च 'पार्श्वस्थादीनां कृतिकर्म न कर्त्तव्यम्' इति भवद्भिरभिहितम् तत्र पार्श्वखादीनां लक्षणं कचिदनपिण्डभोजित्वादि स्वल्पदोषरूपं कचित्तु स्त्रीसेवादि महादोषरूपमावश्यकादिशास्त्रेष्वभिधीयते तदत्र वयं तत्त्वं न जानीमहे कस्य कर्तव्यं कृतिकर्म ? कस्य वा न ? इत्याशङ्कावकाशमवलोक्य विषयविभागमुपदर्शयति संकिन्नवराहपदे, अणाणुतावी अ होइ अवरद्धे। उत्तरगुणपडिसेवी, आलंबणवजिओ वजो ॥ ४५२४ ॥ - इह यो मूलगुणप्रतिसेवी स नियमादचारित्रीति कृत्वा स्फुटमेवावन्दनीय इति न तद्विचारणा; परं य उत्तरगुणविषयैर्बहुभिरपराधपदैः सङ्कीर्णः-शबलीकृतचारित्रः, अपरं च 'अप राद्धे' अशुद्धाहारग्रहणादावपराधे कृतेऽपि 'अननुतापी' 'हा ! दुष्टु कृतम्' इत्यादि पश्चाताप 20न करोति, निःशङ्को निर्दयश्च प्रवर्तत इत्यर्थः । एवंविध उत्तरगुणप्रतिसेवी यदि आलम्बनेन ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूपविशुद्धकारणेन वर्जितः, कारणमन्तरेण प्रतिसेवत इति भावः, तदाऽसौ 'वर्व्यः' कृतिकर्मकरणे वर्जनीयः । शिष्यः प्राह-नन्वेवमर्थादापन्नम्-आलम्बनसहित उत्तरगुणप्रतिसेव्यपि वन्दनीयः । सूरिराह-न केवलमुत्तरगुणप्रतिसेवी मूलगुणप्रतिसेव्यप्यालम्बन सहितः पूज्यः ॥ ४५२४ ॥ कथम् ? इति चेद् उच्यते25 हिट्ठाणठितो वी, पावयणि-गणट्ठया उ अधरे उ । कडजोगि जं निसेवइ, आदिणिगंठो व्व सो पुजो ॥ ४५२५ ॥ 'अधस्तनस्थानेषु' जघन्यसंयमस्थानेषु स्थितोऽपि, मूलगुणप्रतिसेव्यपीति भावः, 'कृतयोगी' गीतार्थः प्रावचनिकस्य-आचार्यस्य गणस्य च-गच्छस्य अनुग्रहार्थम् "अधरे" आत्यन्तिके कारणे समुपस्थिते यद् निषेवते तत्रासौ संयमश्रेण्यामेव वर्तते इति कृत्वा पूज्यः । क इव ? 30 इत्याह-'आदिनिर्ग्रन्थ इव'' इह पुलाक-बकुश-कुशील-निर्ग्रन्थ-सातकाख्याः पञ्च निर्ग्रन्थाः , तेषामादिभूतः पुलाकः तद्वत् । तस्य ह्येताहशी लब्धिर्यया चक्रवर्तिस्कन्धावारमपि अभिवादनादौ कुलादिकायें स्तन्नीयाद् वा विनाशयेद् वा, न च प्रायश्चित्तमामुयात् ॥ ४५२५ ॥ तथा चाह Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 भाष्यगाथाः ४५२३-३०] तृतीय उद्देशः । १२२३ कुणमाणो वि य कडणं, कतकरणो णेव दोसमन्मेति । अप्पेण बहुं इच्छइ, विसुद्धआलंबणो समणो ॥ ४५२६ ॥ "कडणं" कटकमदं कुर्वाणोऽपि 'कृतकरणः' पुलाको नैव खल्पमपि दोषम् 'अभ्येति' प्रामोति । कुतः ? इत्याह-यतोऽसौ श्रमणो विशुद्धालम्बनः सन् अल्पेन संयमव्ययेन बहुं संयमलाभमिच्छति ॥ ४५२६ ॥ अमुमेवार्थ समर्थयन्नाह संजमहेउं अजतत्तणं पि ण हु दोसकारगं बिति । पायण वोच्छेयं ना, समाहिकारो वणादीणं ॥ ४५२७ ॥ - प्रावचनिकादेः प्राणव्यपरोपणाद्युपद्रवरक्षणेन यः संयमस्तद्धेतोः-तन्निमित्रं पुलाकादेरयतत्वमपि 'नहि' नैव दोषकारकं ब्रुवते । यथा 'समाधिकारः' वैद्यो व्रणादीनां यत् तथाविधौषधप्रलेपनेन पाचनं यच्च शस्त्रादिना विच्छेदनं यद् वा 'व्यवच्छेदं' लङ्घनं कारयति तत् तदानीं 10 पीडाकरमपि परिणामसुन्दरमिति कृत्वा न, सदोषम् एवमिदमपीति ॥ ४५२७ ॥ अथ परस्याभिप्रायमाशङ्कमान आह तत्थ भवे जति एवं, अणं अण्णेण रक्खए भिक्खू । अस्संजया वि एवं, अन्नं अनेण रक्खंति ॥ ४५२८ ।। 'तत्र' इत्यनन्तरोक्तेऽर्थेऽभिहिते सति भवेत् परस्याभिप्राय इति वाक्यशेषः-यद्येवं 10 'भिक्षुः' पुलाकादिः 'अन्यम्' आचार्यादिकम् 'अन्येन' स्कन्धावारादिना कृत्वा रक्षति, एकस्य विनाशेनापरं पालयतीति भावः, तत एवम् 'असंयता' गृहस्था अप्यन्यमन्येन रक्षन्त्येव, अतो न कश्चिदसंयतानां संयतानां च प्रतिविशेषः ।। ४५२८ ॥ एवं परेणोक्ते सूरिराहनहु ते संजमहेउं, पालिति असंजता अजतभावे । 20 अच्छित्ति-संजमहा, पालिँति जती जतिजणं तु ॥ ४५२९॥ 'नहि' नैव 'ते' असंयताः 'अयतभावव्यवस्थितान्' गृहस्थान् संयमहेतोः पालयन्ति, किन्तु खात्मनो जीविकादिनिमित्तम् । ये तु यतयस्ते या तीर्थस्याव्यवच्छित्तिर्यश्च तेषां रक्ष्यमाणानामात्मनश्चान्योऽन्योपकारद्वारेण संयमस्तदर्थ यतिजनं पालयन्ति । तुशब्दो विशेषणार्थः, एष विशेषः साधूनां गृहस्थानां चेति ॥ ४५२९ ॥ किञ्च 25 कुणइ वयं धणहेउं, धणस्स धणितो उ.आगमं गाउं । इय संजमस्स वि वतो, तस्सेवऽट्टा ण दोसाय ॥ ४५३०॥ ___ यथा धनिको वाणिज्यं कुर्वन् 'आगम' लाभं ज्ञात्वा 'धनहेतोः' द्रव्योपार्जनार्थ शुल्क-कर्मकरवृत्ति-भाटकादिप्रदानेन धनस्य व्ययं करोति, "इय" एवं पुलाकादेर्मूलगुणप्रतिसेवनां कुर्वाणस्य यः कोऽपि संयमस्य व्ययः सः 'तस्यैव' संयमस्यार्थाय विधीयमानो न दोषाय 30 सञ्जायते, ततः पुष्टालम्बनसहितो मूलगुणप्रतिसेव्यपि शुद्ध इति स्थितम् ॥ १५३० ॥ १°स्स वणि भा० ताभा०। एतदनुसारेणैव भा. टीका, दृश्यतां टिप्पणी २॥ २°था वणिय वाणि भा०॥ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [कृतिकर्मप्रकृते सूत्रम् १८ अथापुष्टाल बनो निरालम्बनो वा प्रतिसेवते ततः संसारोपनिपातमासादयति, तथा चात्र दृष्टान्तमाह तुच्छमवलंबमाणो, पडति णिरालंबणो य दुग्गम्मि । सालंब-निरालंबे, अहं दिटुंतो णिसेवंते ॥ ४५३१ ॥ • इहालम्बनं द्रव्य-भावभेदाद् द्विधा । तत्र गर्गदौ पतद्भिर्यद् द्रव्यमालम्ब्यते तद् द्रव्यालम्बनम् । तच्च द्विधा-पुष्टमपुष्टं च । अपुष्टं-दुर्बलं कुश-बल्ककादि, पुष्टं-बलिष्ठं तथाविधकठोरवल्यादि । एवं भावालम्बनमपि पुष्टा-ऽपुष्टभेदाद् द्विधा । पुष्टं तीर्थाव्यवच्छित्ति-ग्रन्थाध्ययनादि, अपुष्टं शठतया खमतिमात्रोत्प्रेक्षितमालम्बनमात्रम् । ततश्च द्रव्यालम्बनं 'तुच्छम्' अपुष्टमवलम्बमानो निरालम्बनो वा यथा 'दुर्गे' गर्तादौ पतति, यस्तु पुष्टालम्बनमवलम्बते स 10 सुखेनैवात्मानं गर्तादौ पतन्तं धारयति, एवं सांधोरपि मूलगुणाद्यपराधान् निषेवमाणस्य साल म्ब-निरालम्ब विषयः 'अथ' अयं दृष्टान्तो मन्तव्यः । किमुक्तं भवति ?-यो निरालम्बनोऽपुष्टालम्बनो वा प्रतिसेवते स आत्मानं संसारगायां पतन्तं न सन्धारयितुं शक्नोति, यस्तु पुष्टालम्बनः स तदवष्टम्भादेव संसारगर्ता सुखेनैवातिलङ्घयति । यत एवमतः पुष्टालम्बनवर्जितः कृतिकर्मणि वर्जनीय इति ॥ ४५३१ ॥ अथ श्रेणिस्थानस्थिता अपि ये कृतिकर्मणि नियमेन 1b भजनया चा न व्यवहियन्ते तान् प्रतिपादयति सेढीठाणे सीमा, कजे चत्तारि बाहिरा होति । सेढीठाणे दुयमेययाएँ चत्तारि भइयव्वा ॥ ४५३२ ॥ श्रेणिस्थानं सीमास्थानमित्यनान्तरम् , तत्र वर्तमाना अपि 'चत्वारो जनाः' प्रत्येकबुद्धादयो वक्ष्यमाणाः कार्ये बाह्या भवन्ति । इह कार्य द्विधा-वन्दनकार्य कार्यकार्य च। तत्र वन्दनकायें 20 द्विधा-अभ्युत्थानं कृतिकर्म च । कार्यकार्य कुलकार्यादिभेदादनेकविधम् , कार्यम्-अवश्यकर्तव्यरूपं यत् कार्य तत् कार्यकार्यमिति व्युत्पत्तेः । एतद् द्विविधमपि प्रत्येकबुद्धादयो न कुर्वन्तीति भावः । तथा श्रेणिस्थाने वर्तमाना अपि गच्छप्रतिबद्धयथालन्दिकादयश्चत्वारो जनाः "दुयभेदयाए" ति द्विकभेदम् अनन्तरोक्तकार्यद्वयविधानमङ्गीकृत्य भक्तव्याः, तत्र व्यवह्रियन्ते वा न वेति भावः ॥ ४५३२ ॥ इदमेव स्फुटतरमाह पत्तेयबुद्ध जिणकप्पिया य सुद्धपरिहारऽहालंदे । [ओ.नि. १२६] एए चउरो दुगभेदयाएँ कजेसु बाहिरगा ॥४५३३ ॥ प्रत्येकबुद्धा जिनकल्पिकाः शुद्धपरिहारिणो अप्रतिबद्धयथालन्दिकाश्च, एते चत्वारो जना द्विकभेदान्तर्गतेषु कृतिकर्म-कुलकार्यादिषु कार्येषु बाह्या भवन्ति, न तद्विषयं व्यवहारपथमवतरन्तीति भावः ॥ ४५३३ ॥ गच्छम्मिणियमकजं, कजे चत्तारि होति भइयव्वा । गच्छपडिबद्ध आवण्ण पडिम तह संजतीतो य ॥ ४५३४ ॥ गच्छे नियमाद्-अवश्यन्तया कर्त्तव्यं यत् कार्य-कुल-गण-सङ्घविषयं तत्र कार्ये चत्वारो १°णो यथालन्दिकाचाप्रतिबद्धाः, पते भा० ॥ 25 30 Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४५३१-३८] तृतीय उद्देशः । १२२५ जना भक्तव्या भवन्ति-गच्छप्रतिवद्धयथालन्दिकाः “आवन्न" ति आपत्रपरिहारिकाः प्रतिमाप्रतिपन्नाः संयत्यश्चेति । यदा सङ्घः कुलादिकार्य कर्तुं न शक्नोति तत एतेऽपि कुर्वन्तीति । वन्दनकार्य तु गच्छप्रतिबद्धयथालन्दिका यस्याचार्यस्य पार्श्वे सूत्रार्थग्रहणं कुर्वते तस्यावमस्यापि कुर्वन्ति, शेषसाधूनां तु न कुर्वन्ति । आपन्नपरिहारिणां प्रतिमाप्रतिपन्नानां संयतीनां च कृतिकर्म क्रियते वा न वा, तेऽपि कुर्वन्ति वा न वेति ।। ४५३४ ॥ इदमेव सविशेषमाह-5 अंतो वि होइ भयणा, ओमे आवण्ण संजतीओ य । बाहिं पि होइ भयणा, अतिवालगवायगे सीसा ॥ ४५३५॥ 'अन्तरपि' श्रेणेरभ्यन्तरतः स्थितानामपि वन्दनकं प्रतीत्य भजना भवति । कथम् ? इत्याह-"ओमि" ति योऽवमरानिकः स आलोचनादौ कार्ये वन्द्यते, अन्यदा तु नेति । "आवन्नि" ति आपन्नपरिहारिको न वन्द्यते, स पुनराचार्यान् वन्दते । “संजईउ" ति संय-10 त्योऽपि उत्सर्गतो न वन्द्यन्ते, अपवादपदे तु यदि बहुश्रुता महत्तरा काचिदपूर्वश्रुतस्कन्धं धारयति ततस्तस्याः सकाशात् तत्र ग्रहीतव्ये उद्देश-समुद्देशादिषु सा फेटावन्दनकेन वन्दनीया। न केवलमन्तः किन्तु श्रेणेर्बहिरपि स्थितानां कृतिकर्मणि भजना मन्तव्या, कारणे तेषामपि कृतिकर्म विधेयमिति भावः । अथ न कुर्वन्ति ततो महान् दोषो भवति, यथा अजापालकवाचकमवन्दमाना अगीतार्थाः शिष्या दोषं प्राप्तवन्त इति वाक्यशेषः । अथवा “सीस" ति15 संविमविहाराद् लिङ्गाद्वा परिच्युतं स्वगुरुं रहसि शीर्षेण प्रणम्य वक्तव्यम्-भगवन् ! युष्माभिः परित्यक्ताः सन्तः साम्प्रतमनाथा वयम् , अतः कुरुतोद्यमं भूयश्चरणकरणानुपालनायामिति ॥ ४५३५ ॥ अथ "ओमे आवण्ण संजईओ" ति गाथावयवं विवृणोति आलोयण-सुत्तट्टा, खामण ओमे य संजतीसुं च। आवण्णों कजकजं, करेइ ण य वंदती अगुरुं ॥ ४५३६ ॥ 20 आलोचनानिमित्तं सूत्रार्थग्रहणार्थ चावमस्यापि वन्दनकं दातव्यम् । क्षामणके तु स एव । रत्नाधिकानां वन्दनकं दद्यात् । संयतीनामप्यालोचना-सूत्रार्थनिमित्तं कृतिकर्म कर्त्तव्यम् । यः पुनरापन्नपरिहारिकः सः 'कार्यकार्य' कुलकार्यादि करोति । "अगुरुं" ति गुरुं मुक्त्वा न कमपि साधु वन्दते । उपलक्षणमिदम् , तेन न चासौ केनापि साधुना वन्द्यते ॥ ४५३६ ॥ अथ अजापालकदृष्टान्तमाह पेसविया पचतं, गीतासति खित्तपेहग अगीया। पेहियखित्ता पुच्छंति वायगं कत्थ रण्णे ति ॥ ४५३७॥ ओसकते द९, संकच्छेती उ वातगो कुविओ । पल्लिवति कहण रुंभण, गुरु आगम वंदणं सेहा ॥ ४५३८ ॥ केनचिदाचार्येण गीतार्थाभावेऽगीतार्थाः साधवः प्रत्यन्तपळ्या क्षेत्रप्रत्युपेक्षकाः प्रेषिताः। 30 तत्र च भ्रष्टव्रत एको वाचको राजकुले यत्कृतप्रमाणः परिवसति । ते च प्रत्युपेक्षितक्षेत्राः साधवस्तं वाचकं लोकस्य समीपे पृच्छन्ति-कुत्रासौ तिष्ठति । । लोकेनोक्तम्-अरण्ये । तत१°हारिक प्रतिमाप्रतिपन्नसाधु-संयतीनां तु कृति भा० ॥ 25 Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [कृतिकर्मप्रकृते सूत्रम् १८ स्तेऽपि तत्र गताः, तं चाजारक्षणप्रवृत्तं भ्रष्टव्रतं दृष्ट्वा 'अद्रष्टव्योऽयम्' इति विमृश्यागीतार्थत्वेन शनैः शनैरवष्वष्कन्ति । ताँश्च तथा दृष्ट्वा वाचकस्य शङ्का-किमेतेऽपसर्पन्ति ? इति, नूनं मां भ्रष्टव्रतं ज्ञात्वा । ततः शङ्काच्छेदी स वाचकः कुपितः सन् पल्लीपतेः कथयित्वा तेषामगीतार्थानां "रुम्भणं" गुप्तौ प्रक्षेपणं कृतवान् । ततस्तदन्वेषणार्थ गुरूणां तत्रागमनम् । ते च 5 तं वाचकं वन्दित्वा 'शिक्षकाः' अगीतार्था एते इत्याद्युक्त्वा खशिष्यान् मोचितवन्तः । एवं श्रेणिबाह्यानामपि वन्दनकं कर्तव्यम् ॥ ४५३७ ॥ ४५३८ ।। अथ "सीस" ति पदं प्रकारान्तरेण व्याचष्टे __ अहवा लिंग-विहाराओं पच्चयं पणिवयत्तु सीसेणं । ___ भणति रहे पंजलिओ, उज्जम भंते ! तव-गुणेहिं ॥ ४५३९ ॥ 10 अथवा लिङ्गाद् वा संविमविहाराद् वा प्रच्युतं खगुरुं रहसि शीर्षेण प्रणिपत्य 'प्राञ्जलिकः' रचिताञ्जलिपुटो भणति-भदन्त ! प्रसादं विधाय उद्यच्छ तपो-गुणेषु, अनशनादौ तपःकर्मणि मूलगुणोत्तरगुणेषु च प्रयत्नं कुर्विति भावः । एवमादिके कारणे श्रेणिबाह्यानामपि 'कृतिकर्म' वन्दनकं कर्तव्यम् ॥ ४५३९ ॥ अथ न करोति तत इदं प्रायश्चित्तम् उप्पन्न कारणम्मि, कितिकम्मं जो न कुज दुविहं पि । पासत्थादीयाणं, उग्घाया तस्स चत्तारि ॥४५४०॥ ___ उत्पन्ने वक्ष्यमाणे कारणे यः कृतिकर्म 'द्विविधमपि' अभ्युत्थान-वन्दनकरूपं पार्श्वस्थादीनां न कुर्यात् तस्य चत्वार उद्धाता मासा भवन्ति, चतुर्लघुकमित्यर्थः ॥४५४०॥ शिष्यः प्राह दुविहे किइकम्मम्मि, वाउलिया मो णिरुद्धबुद्धीया । आतिपडिसेहितम्मि, उवरि आरोवणा गुविला ॥ ४५४१॥ 20 एवं 'द्विविधे' अभ्युत्थान-वन्दनलक्षणे कृतिकर्मणि पूर्व प्रतिषिध्य पश्चादनुज्ञाते सति 'व्याकुलिताः' आकुलीभूता वयम् , अत एव निरुद्धा-संशयक्रोडीकृता बुद्धिर्येषां ते निरुद्धबुद्धिकाः सञ्जाता वयम् । कुतः ? इत्याह-आदौ-प्रथमं प्रतिषिद्धं-'द्विविधमपि कृतिकर्म न वर्त्तते पार्श्वस्थादीनां कर्तुम्' आरोपणा च महती तत् कुर्वतो निर्दिष्टा; “उवरि" ति इदानीं पुनस्तेषां वन्दनकमप्रयच्छतो या चतुर्लघुकाल्या आरोपणा प्रतिपाद्यते सा 'गुपिला' गम्भीरा, 28 नास्या भावार्थ वयमवबुध्यामहे इति भावः ॥ ४५४१ ॥ सूरिराह-उत्सर्गतो न कल्पते पार्श्वस्थादीन् वन्दितुम् , परम् गच्छपरिरक्खणट्ठा, अणागतं आउवायकुसलेण । एवं गणाधिवतिणा, सुहसीलगवेसणा कजा ॥ ४५४२॥ अवम-राजद्विष्टादिषु म्लानत्वे वा यदशन-पानाद्युपग्रहकरणेन गच्छस्य परिपालनं तदर्थम् 50 'अनागतम्' अवमादिकारणे अनुत्पन्न एव 'आयोपायकुशलेन' आयो नाम-पार्श्वस्थादेः पाद् निःप्रत्यूहसंयमपालनादिको लाभः उपायो नाम-तथा कथमपि करोति यथा तेषां वन्दनकमददान एव शरीरवार्ता गवेषयति; न च तथा क्रियमाणे तेषामप्रीतिकमुपजायते प्रत्युत खचेतसि ते चिन्तयन्ति-अहो! एते स्वयं तपस्विनोऽपि एवमलासु नियन्ति; तत एतयोरायोपाययोः Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यमाथाः ४५३१-१६] तृतीय उद्देशः । • १२२७ कुशलेन गणाधिपतिना ‘एवं' वक्ष्यमाणप्रकारेण सुखशीलाना-पार्श्वस्थादीनां गवेषणा कार्य ॥ ४५४२ ॥ तत्र येषु स्थानेषु कर्तव्या तानि दर्शयति बाहिं आगमणपहे, उजाणे देउले सभाए वा। रच्छ उवस्सय बहिया, अंतो जयणा इमा होइ ॥ ४५४३ ॥ यत्र ते ग्राम-नगरादौ तिष्ठन्ति तस्य बहिः स्थितो यदा तान् पश्यति तदा निराबाधवाना । गवेषयति । यदा वा ते भिक्षाचर्यादौ तत्रागच्छन्ति तदा तेषामागमनपथे स्थित्वा गवेषणं करोति । एवमुद्याने दृष्टानाम् , चैत्यवन्दननिमित्तं गतैर्देवकुले वा समवसरणे वा दृष्टानाम् , रथ्यायां वा भिक्षामटतामभिमुखागमने मिलितानां वार्ता गवेषणीया । कदाचित् ते पार्श्वस्थादयो ब्रवीरन्---अस्माकं प्रतिश्रयं कदाऽपि नागच्छत; ततस्तदनुवृत्त्या तेषां प्रतिश्रयमपि गत्वा तत्रोपाश्रयस्य बहिः स्थित्वा सर्वमपि निराबाधतादिकं गवेषयितव्यम् । अथ गाढतरं निर्बन्धं ते 10 कुर्वन्ति तत उपाश्रयस्य 'अन्तः' अभ्यन्तरतोऽपि प्रविश्य गवेषयतां साधूनाम् 'इयं' वक्ष्यमाणा पुरुषविशेषवन्दनविषया यतना भवति ॥ ४५४३ ॥ पुरुषविशेषं तावदाह मुकधुरा संपागडअकिच्चे चरण-करणपरिहीणे । [आव.नि. ११२६] लिंगावसेसमित्ते, जं कीरइ तारिसं वोच्छं ॥ ४५४४ ॥ धूः-संयमधुरा सा मुक्ता-परित्यक्ता येन स मुक्तधुरः, सम्प्रकटानि-प्रवचनोपघातनिरपेक्ष-15 तया समस्तजनप्रत्यक्षाणि अकृत्यानि-मूलोत्तरगुणप्रतिसेवनारूपाणि यस्य स सम्प्रकटाकृत्यः, अत एव चरणेन-व्रतादिना करणेन च-पिण्डविशुद्ध्यादिना परिहीनः, एतादृशे 'लिङ्गावशेषमात्रे' केवलद्रव्यलिङ्गयुक्ते 'यद्' यादृशं वन्दनं क्रियते तादृशमहं वक्ष्ये ॥ ४५४४ ॥ वायाएँ नमोकारो, हत्थुस्सेहो य सीसनमणं च । [आव.नि. ४३७२] __संपुच्छणऽच्छणं छोभवंदणं वंदणं वा वि ॥ ४५४५॥ बहिरागमनपथाद्विषु दृष्टस्य पावस्थादेर्वाचा, नमस्कारः क्रियते, 'वन्दामहे भवन्तं वयम्' इत्येवमुच्चार्यत इत्यर्थः । अथासौ विशिष्टतर उग्रतरखभावो वा ततो वाचा नमस्कृत्य 'हस्तोसेधम्' अञ्जलिं कुर्यात् । ततोऽपि विशिष्टतरेऽत्युग्रखभावे वा द्वावपि वाङ्नमस्कार-हस्तोत्सेधौ कृत्वा तृतीयं शिरःप्रणामं करोति । एवमुत्तरोत्तरविशेषकरणे पुरुष-कार्यभेदः प्राक्तनोपचारानुवृत्तिश्च द्रष्टव्या । "संपुच्छणं" ति पुरतः स्थित्वा भक्तिमिव दर्शयता शरीरवार्चायाः सम्प्र-25 च्छनं कर्त्तव्यम् , कुशलं भवतां वर्तत इति । "अच्छणं" ति शरीरवाता प्रश्नयित्वा क्षणमात्रं पर्युपासनम् । अथवा पुरुषविशेष ज्ञात्वा तदीयं प्रतिश्रयमपि गत्वा छोभवन्दनं सम्पूर्ण वा वन्दनं दातव्यम् ॥ ४५४५ ॥ अथ किमर्थं प्रथमतो वाचैव नमस्कारः क्रियते ? कारणाभावे का किमिति मूलत एव कृतिकर्म न क्रियते ? इत्याशङ्कयाह ज़ह नाम सूइओ मि, ति वजितो वा वि परिहरति कोयी। 30 इति वि हु सुहसीलजणो, परिहजो अणुमती मा सा॥४५४६॥ यदि नाम कश्चित् पार्श्वस्थादिर्वाङ्नमस्कारमात्रकरणेन अहो ! 'सूचितः' तिरस्कृतोऽह्ममुना मजयन्तरेणेति, सर्वथा कृतिकर्माकरणेन वा 'वर्जितः' परित्यक्तोऽहममीभिरिति पराभवं 20 Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२८ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [कृतिकर्मत्रकृते सूत्रम् १८ मन्यमानः सुखशीलविहारितां परिहरति । " इय" एवंविधमपि कारणमवलम्ब्य परिहार्यः कृतिकर्मणि सुखशीलजनः, न केवलं पूर्वोक्तं दोषजालमाश्रित्येत्यपिशब्दार्थः । अपि च तस्य कृतिकर्मणि विधीयमाने तदीयायाः सावद्यक्रियाया अप्यनुमतिः कृता भवति, अतः सा मा भूदिति बुद्ध्याऽपि न वन्दनीयोऽसौ || ४५४६ ॥ किञ्च— लोए वेदे समए, दिट्ठो दंडो अकजकारीणं । [ आव.नि. १६०५ ] दम्मंति दारुणा वि हु, दंडेण जहावराहेण ॥। ४५४७ ।। 'लोके' लोकाचारे 'वेदे' समस्तदर्शनिनां सिद्धान्ते 'समये' राजनीतिशास्त्रे 'अकार्यकारिणां ' चौरिकाद्यपराधविधायिनां ‘दण्ड : ' असम्भाव्यता - शलाका - निर्यूहणादिलक्षणः प्रयुज्यमानो दृष्टः । कुतः पुनरसौ प्रयुज्यते ? इत्याह – 'दारुणाः' रौद्रास्तेऽपि 'यथापराधेन' अपराधानुरूपेण 10 दण्डेन दीयमानेन 'दम्यन्ते' वशीक्रियन्ते । अत इहापि मूलगुणाद्यपराधकारिणां कृतिकर्मवर्जनादिको दण्डः प्रयुज्यते । एतच्च कारणाभावमङ्गीकृत्योक्तम्, कारणे तु वाइनमस्कारादिकं वन्दनकपर्यन्तं सर्वमपि कर्तव्यम् ॥ ४५४७ ॥ यत आह वायाए कम्मुणावा, तह चिट्ठति जह ण होति से मनुं । पस्सति जतो अवायं, तदभावे दूरतो वजे ।। ४५४८ ॥ 15 'यतः' पार्श्वस्थादेः सकाशात् कृतिकर्मण्यविधीयमाने 'अपायं' संयमा - ऽऽत्मविराधनादिकं पश्यति तं प्रति 'वाचा' मधुरसम्भाषणादिना 'कर्मणा' शिरः प्रणामक्रियया तथा चेष्टते यथा तस्य 'मन्युः ' स्वल्पमप्यप्रीतिकं न भवति । अथावन्दनेऽपि संयमोपघातादिरपायो न भवति ततस्तस्य- अपायस्याभावे दूरतस्तं सुखशीलजनं वर्जयेत्, एष विषयविभागः कृतिकर्मकरणाSकरणयोरिति भावः ॥ ४५४८ ॥ न पुनस्तेषां वन्दने कारणानीत्याह एताइँ अकुव्वतो, जहारिहं अरिहदेसिए मग्गे । 5 20 ण भवति पवयणभत्ती, अभत्तिमता दिया दोसा ।। ४५४९ ।। ‘एतानि' वाङ्नमस्कारादीनि पार्श्वस्थादीनां 'यथाऽर्ह' यथायोग्यमर्हद्देशिते मार्गे स्थितः सन् कषायोत्कटतया यो न करोति तेन प्रवचने भक्तिः कृता न भवति, किन्तु अभक्तिमत्त्वादयो दोषा भवन्ति; तत्राऽऽज्ञाभङ्गेन भगवतामभक्तिमत्त्वं भवति, आदिशब्दात् स्वार्थपरिभ्रंशः 26 चारिक - हेरिकाद्यभ्याख्यानप्राप्तिः बन्धनादयश्च दोषा भवन्ति ॥ ४५४९ ॥ पुनस्तेषां वन्दने कारणानि ? इत्याह परिवार परिस पुरिसं, खित्तं कालं च आगमं नाउं । कारणजाते जाते, जहारिहं जस्स कायव्वं ॥ ४५५० ।। परिवारं पर्षदं पुरुषं क्षेत्रं कालं च आगमं ज्ञात्वा तथा कारणानि - कुल-गणादिप्रयोजनानि 20 तेषां जातं - प्रकारः कारणजातं तत्र 'जाते' उत्पन्ने सति 'यथार्ह' यस्य पुरुषस्य यद वाचिकं कायिकं वा वन्दनमनुकूलं तस्य तत् कर्त्तव्यम् ॥ ४५५० ॥ अथ परिवारादीनि पदानि व्याचष्टे किञ्च - परिवार भा० ॥ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४५४७-५३ ] तृतीय उद्देशः । परिवारो से सुविहितों, परिसगतो साहती व वेरगं । माणी दारुणभावो, णिसंस पुरिसाधमो पुरिसो ॥। ४५५१ ।। लोगपगतो निवे वा, अहवण रायादिदिक्खितो होजा । खित्तं विमादि अभावियं व कालो यऽणाकालो ।। ४५५२ ॥ “से” तस्य पार्श्वस्थादेर्यः परिवारः सः 'सुविहितः' विहितानुष्ठानयुक्तो वर्त्तते । 'पर्षदि 5 गतो वा' सभायामुपविष्टः 'वैराग्यम्' इति कारणे कार्योपचारात् संसारवैराग्यजनकं धर्म स कथयति येन प्रभूताः प्राणिनः संसारविरक्तचेतसः सञ्जायन्ते । तथा कश्चित् पार्श्वस्थादिः स्वभावादेव ‘मानी' साहङ्कारः तथा 'दारुणभावः ' रौद्राध्यवसायः 'नृशंसो नाम' क्रूरकर्मा अवन्द्यमानो वध-बन्धादिकं कारयतीत्यर्थः, अंत एव पुरुषाणां मध्येऽधमः पुरुषाधमः एतादृशः पुरुष इह गृह्यते ॥ ४५५१ ॥ १२२९ यद्वा ‘लोकप्रकृतः” बहुलोकसम्मतः, 'नृपप्रकृतो वा' धर्मकथा दिलब्धिसम्पन्नतया राजबहुमतः, “अहवण” त्ति अथवा राजादिदीक्षितोऽसौ शैलकाचार्यादिवद् एवंविधः पुरुष इह प्रतिपत्तव्यः । क्षेत्रं नाम विहादिकमभावितं वा । विहं - कान्तारम्, आदिशब्दात् प्रत्यनी - काद्युपद्रवयुक्तम्, तत्र वर्तमानानां साधून / मसावुपग्रहं करोति । 'अभावितं नाम' संविग्नसाधुविषयश्रद्धाविकलम्, पार्श्वस्थादिभावितमित्यर्थः, तत्र तेषामनुवृत्तिं विदधानैः स्थातव्यम् । 15 कालश्च " अणागालो" दुष्काल उच्यते, तत्र साधूनां वर्त्तापनं करोति । एवं परिवारादीनि कारणानि विज्ञाय कृतिकर्म विधेयम् ॥ ४५५२ ॥ आगमग्रहणेन च द्वारगाथायां दर्शन - ज्ञानादिको भावः सूचितः, अतस्तमङ्गीकृत्य विधिमाह— दंसण - नाण-चरित्तं तव विषयं जत्थ जत्तियं जाणे । जिणपन्नत्तं भत्तीइ पूयए तं तहिं भावं ।। ४५५३ ॥ दर्शनं च - निःशङ्कितादिगुणोपेतं सम्यक्त्वं ज्ञानं च- आचारादि श्रुतं चारित्रं च-मूलोत्तरगुणानुपालनात्मकं दर्शन -ज्ञान- चारित्रम्, द्वन्द्वैकवद्भावः । एवं तपश्च- अनशनादि विनयश्वअभ्युत्थानादिः तपो-विनयम् । एतद् दर्शनादि 'यत्र' पार्श्वस्थादौ पुरुषे 'यावद्' यत्परिमाणं खल्पं बहु वा जानीयात् तत्र तमेव भावं जिनप्रज्ञप्तं स्वचेतसि व्यवस्थाप्य तावत्यैव 'भक्तत्या ' कृतिकर्मादिलक्षणया पूजयेत् ॥ ४५५३ ॥ 25 ॥ कृतिकर्मप्रकृतं समाप्तम् ॥ ܕ १ °ति ॥ ४५५२ ॥ एवमादौ कारणे किं विधेयम् ? इत्याह- दंस भा० ॥ 10 20 Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अन्तर० प्रकृते सूत्रम् १९ अन्त र गृह स्था ना दि प्रकृतम् सूत्रम् नो कप्पति निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अंतरगि. हंसि चिहित्तए वा निसीयत्तए वा जाव काउस्सग्गं का ठाणं ठाइत्तए। अह पुण एवं जाणिज्जा-वाहिए जराजुण्णे तवस्सी दुब्बले किलंते मुच्छिज वा पवडिज वा, एवं से कप्पइ अंतरगिहंसि चिहित्तए वा जाव ठाणं ठाइत्तए १९ ॥ अस्य सूत्रस्य का सम्बन्धः ? इत्याह राइणिओ य अहिगतो, स चावि थेरो अणंतरे सुत्ते । तस्संतराणि कप्पंति चिट्ठणादीणि संबंधों ।। ४५५४ ॥ वस्त्रपरिभाजनसूत्रादारभ्य पूर्वसूत्रेषु 'रात्रिकोऽधिकृतः' रत्नाधिकस्याधिकारोऽनुवर्तते । 'सचापि' रात्निकः कृतिकर्मसूत्रादनन्तरस्मिन् सूत्रे शय्यासंस्तारकविषये 'स्थविरः' षष्टिवर्षपर्याय उक्तः । उपलक्षणमिदम् , तेन ग्लानस्तपखी च यः पूर्व रातिकतया व्याख्यातः सोऽप्यत्राधि15 क्रियते । 'तस्य च' स्थविरादेः 'आन्तराणि' गृहद्वयान्तरालभावीनि स्थानादीनि कर्तुं कल्पन्ते, न शेषस्य तरुणादेः समर्थशरीरस्येत्येतदत्र सूत्रे प्रतिपाद्यते ॥ ४५५४ ॥ अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा 'अन्तरगृहे' गृहस्य गृहयोर्वा अन्तराले, राजदन्तादित्वाद् आर्षत्वाद् वा अन्तरशब्दस्य पूर्वनिपातः, स्थातुं वा निषत्तुं वा; यावरकरणात् त्वग्वर्तयितुं वा निद्रायितुं वा प्रचलायितुं वा, अशनं वा पानं 20 वा खादिमं वा खादिमं वा [ आहारं ] आहर्तुम् , उच्चारं वा प्रश्रवणं वा खेलं वा सिंचानं वा परिष्ठापयितुम् , खाध्यायं वा कर्तुम् , ध्यानं वा ध्यातुम् , “काउस्सग्गं" ति कायोत्सर्गलक्षणं वा स्थानं 'स्थातुं' कर्तुम् । सूत्रेणैवापवादं दर्शयति-अथ पुनरेवं जानीयात् “वाहिए" इत्यादि 'व्याधितः' ग्लानः 'जराजीर्णः' स्थविरः 'तपखी' क्षपकः 'दुर्बलः' ग्लानत्वादधुनैवोस्थितोऽसमर्थशरीरः, एतेषां मध्यादन्यतमस्तपसा भिक्षापर्यटनेन वा 'क्लान्तः' परिश्रान्तः सन् 25 मूर्च्छदा प्रपतेद्वा; एवं कारणमुद्दिश्य कल्पते अन्तरगृहे स्थातुं वा यावत् कायोत्सर्ग वा कर्तुमिति सूत्रार्थः ॥ अथ भाष्यविस्तरः-- ‘सम्भावमसब्भावे, दुण्ह गिहाणंतरं तु सम्भावे । पास पुरोहड अंगण, मज्झम्मि य होतऽसब्भावं ॥ ४५५५ ॥ गृहान्तरं द्विधा-सद्भावतोऽसद्भावतश्च । द्वयोर्गृहयोर्यद 'अन्तरं' मध्यं तत् सद्भावगृहा30न्तरम् । यत्तु गृहस्य पार्श्वतः पुरोहडेऽङ्गणे गृहमध्ये वा तद् असद्भावगृहान्तरं भवति । Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३१ 15 भाष्यगाथाः ४५५४-५९] तृतीय उद्देशः । एतस्मिन् द्विविधेऽपि भिक्षाद्यर्थं निर्गतस्य स्थानादि कर्तुं न कल्पते ॥ ४५५५॥ __ कुड्डंतर भित्तीए, निवेसण गिहे तहेव रच्छाए।। ठायंतगाण लहुमा, तत्थ वि आणादिणो दोसा ॥ ४५५६ ॥ द्वयोः कुड्ययोरन्तरे, “भित्तीए" ति शटित-पतितस्याभिनवक्रियमाणस्य वा गृहस्य भित्तौ, 'निवेशने वा' त्रिप्रभृतीनां गृहाणामाभोगे, "गिहि" ति गृहपाश्र्वे, 'स्थयायां' प्रतीतायाम् । एतेषु स्थानेषु तिष्ठतश्चतुर्लघुकाः, तत्राप्याज्ञादयो दोषा मन्तव्याः, तन्निमित्तं प्रायश्चित्तं पृथग् भवतीति भावः ॥ ४५५६ ॥ तथा खरए खरिया सुण्हा, गढे वक्खुरे व संकिजा । खण्णे अगणिकाए, दारे वति संकणा तिरिए ॥ ४५५७॥ 'खरकः' दासः : 'खरिका' दासी 'स्नुषा' वधूः 'वृत्तखुरः' तुरङ्गमः, एतेषु नष्टेषु साधुः 10 शङ्कयेत—यः श्रमणकः कल्येऽत्र गृहान्तरे उपविष्ट आसीत् तेन हृतं भविष्यति, द्वारे वा श्रमणेनोद्घाटिते स्तेनः प्रविश्य हृतवानिति । "खन्नि" त्ति खत्रं केनचित् खातम् दत्तमित्यर्थः, अग्निकायो वा केनापि दत्तो भवेत् , द्वारेण वा प्रविश्य वृति वा छित्त्वा केनापि सुवर्णादिकमपहृतं स्यात् , तिर्यग्योनीयो वा गो-महिषीप्रभृतिको हतो भवेत् , तत्रापि शङ्कायां ग्रहणा ऽऽकर्षणादयों दोषाः । यत एवमतो गृहान्तरे न स्थातव्यम् ॥ ४५५७ ।। अथ सूत्रोक्तं द्वितीयपदं भावयति उच्छुद्धसरीरे वा, दुब्बल तवसोसिते व जो होजा। थेरे जुण्ण-महल्ले, वीसंभणवेस हतसंके ।। ४५५८॥ उच्छुद्धं-रोगाघ्रातं शरीरं यस्य स उच्छुद्धशरीरः, वाशब्द उत्तरापेक्षया विकल्पार्थे, 'दुर्बलः' अधुनोत्थितग्लानः, 'तपःशोषितो वा' विकृष्टतपोनिष्टप्तदेहो यो भवेत् , यो वा 20 स्थविरः 'जीर्णः' षष्टिवर्षातिक्रान्तजन्मपर्यायः सोऽपि यदि 'महान्' सर्वेभ्योऽपि वृद्धतरः, एते विश्रामग्रहणार्थ गृहान्तरे तिष्ठेयुः । इह च व्याधितादय उत्सर्गतो भिक्षाटनं न कार्यन्ते, परम् आत्मलब्धिकादिकारणापेक्षया भिक्षामटतां प्रकृतसूत्रावतारो मन्तव्यः । स च व्याधितादिः 'विश्रम्भणवेषः' संविमवेषधारी 'हतशङ्कश्च' हास्यादिविकारविकलतया असम्भावनीयव्यलीकशङ्कः सन् तत्र स्थानादीनि पदानि कुर्यात् ॥ ४५५८ ।। 25 अहवा ओसहहेङ, संखडि संघाडए व वासासु । वाघाए वा तत्थ उ, जयणाए कप्पती ठातुं ॥४५५९ ॥ सूत्रोक्तस्तावदपवादो दर्शितः, अथार्थतः प्रकारान्तरेणाप्युच्यते इत्यथवाशब्दार्थः । औषधहेतोर्दातारं गृहेऽस्वाधीनं प्रतीक्षते, सङ्खड्यां वा यावद् वेला भवति, सङ्घाटकसाधुर्वा यावद् भक्त-पानभृतं भाजनं वसतौ विमुच्य समागच्छति, वर्षांसुः वा गृहं प्रविष्टानां वर्षे 30 निपतेत् , वधू-वराद्यागमनेन वा रथ्यायां व्याघातो भवेत् तावत् तत्रैव गृहान्तरे 'यतनया' । वक्ष्यमाणया स्थातुं कल्पते । एवं द्वारगाथासमासार्थः ॥ ४५५९ ॥ १°ष समाहगाथासमासार्थः ॥ ३५५९ ॥ अथैनामेव प्रतिपदं विवृणोति-पीसंति भा० ॥ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 १२३२ अथैनामेव विवरी पुरौषध- सङ्खडिद्वारे व्याख्यानयति सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अन्तर ० प्रकृते सूत्रम् १९ ग्लानस्यौषधानि पेष्टव्यानि, तत्र पेषणशिला प्रतिश्रये नेतुं न लभ्यते ततस्तेषामेवागारिणां 5 गृहान्तरे स्थित्वा तानि पिंषन्ति । औषधमार्गणार्थं वा कस्यापि गृहं गताः, स चौषधदाता तदानीं तत्राखाधीनः, अतस्तं प्रतीक्षमाणैः स्थातव्यम् । सङ्खडी च क्वापि वर्त्तते, तत्र च ‘असत्कालः' अद्यापि देशकालो न भवति, गृहखामिना चोक्तम् — प्रतीक्षध्वं क्षणमेकं यावद् वेला भवति, ततस्तस्मिन्नन्यस्मिन् वा गृहे प्रतीक्षणीयम्; अगारिणो वा तदानीं गृहाङ्गणमापूर्य भोक्तमुपविष्टाः सन्ति ततस्तान् उतिष्ठतः प्रतीक्षन्ते ॥ ४५६० ॥ सङ्घाटकद्वारमाहएगयर उभयओ वा, अलंमें आहच वा उभयलंभो । सहिं जा एगो, ता इअरो चिट्ठई दूरे ।। ४५६१ ॥ 'एकतरस्य' भक्तस्य वा पानकस्य वा उभयोर्वा 'अलाभे' दुर्लभतायामित्यर्थः, “आहच्च" कदाचिदुभयमपि प्रचुरतरं लब्धम्, तेन च भाजनमापूरितम्, ततः सङ्घाटकस्य मध्याद् यावदेकः तद् भाजनं वसतिं नयति तावदितरः साधुरगारिणां दूरे भूत्वा तिष्ठति । एष चूर्ण्यभिप्रायः । [[विशेषेचूर्ण्यभिप्रायः ] पुनरयम् — भक्तस्य पानस्य वा उभयस्य वा दुर्लभस्य लाभः समुपस्थितः, मात्रकं च तस्मिन् दिने अनाभोगेन न गृहीतम् ततो यावदेको मात्रकं वसतेरानयति तावदितरस्तत्र गृहिणां दूरे तिष्ठतीति ॥ ४५६१ ॥ वर्षाद्वारमाह 15 पीसंति ओसहाई, ओसहदाता व तत्थ असहीणो । संखडि असतीकालो, उट्ठिते वा पडिच्छंति ॥ ४५६० ॥ वासासु व वासंते, अणुण्णवित्ताण तत्थऽणाबाहे । अंतरगिहे गिहे वा, जयणाए दो वि चिट्ठति ॥ ४५६२ ॥ 20 वर्षासु वा क्वापि गृहे गतानां वर्षे वर्षति गृहस्वामिनमनुज्ञाप्य तत्रानाबाधेऽवकाशेऽन्तरगृहे वा गृहे वा 'द्वावपि' सङ्घाटकसाधू 'यतनया' विकथादिपरिहारेण तिष्ठतः ॥ ४५६२ ॥ प्रत्यनीक द्वारमाह पडिणीय णिवे एंते, तस्स व अंतेउरे गते फिडिए । gure णिव्वहणाती, वाघातो एवमादीसु ॥ ४५६३ ॥ 25 प्रत्यनीकं समागच्छन्तं दृष्ट्वा यावदसौ व्यतित्रजति तावदेकान्ते निलीय तिष्ठन्ति । नृपो वा सम्मुखमेति, तस्य वा नृपस्यान्तःपुरं ' गजो वा' हस्ती निर्गच्छति, ततो यावदसौ स्फिटितो भवति तावत् तत्रैवासते । “वुग्गह" चि दण्डिकौ द्विजौ वा द्वौ परस्परं विग्रहं कुर्वन्तौ समागच्छतः, "निवहणं" ति वधू-वरं तद् महता विच्छर्देन समायाति, आदिशब्देन गौष्ठिका गीतं गायन्तः समायान्ति, एवमादिषु कारणेषु 'व्याघातः' तत्रैव प्रतीक्षणलक्षणो भवति 30 ॥ ४५६३ ।। तत्र च तिष्ठतामियं यतना १ "संघाडए व ति--' एगतरे' भत्तं वा पाणं वा 'अलंमे' त्ति दुर्लभं तं च लद्धं, कदाचित् पउरलंमे वा भरितं भाणं । वस० पच्छद्धं । दूरे गंतव्वेत्यर्थः ॥” इति चूर्णिः ॥ २ “एगयर • गाहा ॥ 'एगतरे' भत्तं पाणं वा 'अलंमे' त्ति दुल्लभं तं च लद्धं, मत्तओ य ण गहिओ, ताहे मत्तगस्स आणणट्ठाए एगो तत्थ अच्छइ जाव बिइओ मत्तयं घेत्तुं एइ ॥” इति विशेषचूर्णिः ॥ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४५६०-६६] तृतीय उद्देशः । १२३३ आयाणगुत्ता विकहाविहीणा, अच्छण्ण छण्णे व ठिया व विट्ठा । अच्छंति ते संतमुहा णिविटुं, भजंति वा सेसपदे जहुत्ते ॥ ४५६४ ॥ आदानैः-इन्द्रियैर्गुप्ताः तथा विकथया-भक्तकथादिरूपया विशेषेण हस्तसंज्ञादेरपि परिहारेण हीनाः-त्यक्ताः तत्र गृहान्तरेऽच्छन्ने वा छन्ने वा प्रदेशे ऊर्द्धस्थिता उपविष्टा वा 'ते' साधवः शान्तमुखा आसते। 'निविश्य च' उपविश्य शेषाण्यपि-खाध्यायविधानादीनि यथोक्तानि । पदानि यथायोगं भजन्ते, न च दोषमापद्यन्ते ॥ ४५६४ ॥ कथम् ? इति चेद् उच्यते थाणं च कालं च तहेव वत्थु, आसज जे दोसकरे तु ठाणे । ते चेव अण्णस्स अदोसवंते, भवंति रोगिस्स व ओसहाई ॥ ४५६५ ॥ 'स्थानं च' स्त्री-पशु-पण्डकसंसक्तभूभागादि 'कालं च' ऋतुबद्धादिकं तथैव 'वस्तु' तरुण-नीरोगादिकं पुरुषद्रव्यमासाद्य यान्येकस्य गृहान्तरे स्थान-निषदनादीनि स्थानानि दोष-10 कारीणि भवन्ति तान्येवान्यस्य पूर्वोक्तविपरीतस्थान-काल-पुरुषवस्तुसाचिव्याद् अदोषवन्ति भवन्ति । रोगिण इवौषधानि-यथा किल यान्यौषधान्येकस्य पित्तरोगिणो दोषाय भवन्ति तान्येवापरस्य वातरोगिणो न कमपि दोषमुपजनयन्ति, एवमत्रापि भावनीयम् ॥ ४५६५ ।। ॥ अन्तरगृहस्थानादिप्रकृतं समाप्तम् ॥ 20 अन्त र गृ हा ख्या ना दि प्रकृतम् सूत्रम् नो कप्पति निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अंतरगिहंसि जाव चउगाहं वा पंचगाहं वा आइक्खित्तए वा विभावित्तए वा किहित्तए वा पवेइत्तए वा; न. ऽन्नत्थ एगणाएण वा एगवागरणेण वा एगगाहाए वा एगसिलोएण वा; से वि य ठिच्चा नो चेव णं अट्ठिच्चा २०॥ अस्य सम्बन्धमाह अइप्पसत्तो खलु एस अत्थो, जं रोगिमादीण कता अणुण्णा । अण्णो वि मा भिक्खगतो करिजा, गाहोवदेसादि अतो तु सुत्तं ॥ ४५६६ ॥ 25 अतिप्रसक्तः खल्वेषोऽर्थः, यदनन्तरसूत्रे रोगिप्रभृतीनामन्तरगृहे स्थानादीनामनुज्ञा कृता । एवं हि तत्र स्थानादिपदानि कुर्वन् कश्चिद् धर्मकथामपि कुर्वीत, ततश्चातिप्रसङ्गो भवति, अतोऽन्योऽपि भैक्षगतो मा गाथोपदेशादिकं कार्षीदितीदं सूत्रमारभ्यते ॥ ४५६६ ॥ अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या-नो कल्पते निम्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा अन्तर Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अन्तर० प्रकृते सूत्रम् २० गृहे यावत् चतुर्गाथं वा पश्चगाथं वा आख्यातुं वा विभावयितुं वा कीर्तयितुं वा प्रवेदयितुं वा । एतदेवापवदन्नाह-"नऽन्नथ" इत्यादि, "न कल्पते" इति योऽयं निषेधः स एक ज्ञाताद्वा एकव्याकरणाद्वा एकगाथाया वा एकश्लोकाद्वा अन्यत्र मन्तव्यः । सूत्रे च पञ्चम्याः स्थाने तृतीयानिर्देशः प्राकृतत्वात् । तदपि च एकज्ञातादिव्याख्यानं स्थित्वा कर्तव्यम् , नैव 5 'अस्थित्वा' भिक्षां पर्यटतोपविष्टेन वा इति सूत्रार्थः ॥ अत्र विषमपदानि भाष्यकृद् विवृणोति संहियकड्डणमादिक्खणं तु पदछेद मो विभागो उ। सुत्तत्थोकिट्टणया, पवेतणं तप्फलं जाणे ॥ ४५६७ ॥ इह संहितायाः-अस्खलितपदोच्चारणरूपाया यद् आकर्षणं तद् आख्यानमुच्यते; तच्चेदम्10 व्रत-समिति-कषायाणां, धारण-रक्षण-विनिग्रहाः सम्यक् । दण्डेभ्यश्चोपरमो, धर्मः पञ्चेन्द्रियदमश्च ॥ एवं भिक्षां गतो गृहस्थानां धर्मकथनार्थ संहिताकर्षणं करोति । यस्तु पदच्छेदः “मो" इति पादपूरणे सः 'विभागः' विभावना भण्यते, यथा-व्रतानां धारणं समितीनां रक्षणं कषायाणां निग्रह इत्यादि । यत्तु सूत्रार्थकथनं सा उत्कीर्चना, सा चेयम्-व्रतानि-प्राणाति15 पातादिविरमणरूपाणि तेषां सम्यग्-अप्रमत्तेन धारणं कर्त्तव्यम् , समितयः-ईर्यासमित्यादयस्ता सामेकाग्रचेतसा रक्षणं विधेयमित्यादि । तस्य-धर्मस्य यत् फलम् ऐहिका-ऽऽमुष्मिकलाभलक्षणं तत्परूपणं प्रवेदनं जानीयात् , यथा-भगवत्प्रणीतममुं धर्ममनुतिष्ठत इहैव भुवनवन्दनीयतायशःप्रवादादयो गुणा उपढौकन्ते, परत्र च स्वर्गा-ऽपवर्गसौख्यप्राप्तिर्भवतीति ॥ ४५६७ ॥ ___ एवं श्लोकादेराख्यानादिषु भिक्षां गतेन विधीयमानेषु दोषानाह-- एक्का वि ता महल्ली. किमंग पुण होंति पंच गाहाओ। साहणे लहुगा आणादिदोस ते चेविमे अण्णे ॥ ४५६८ ॥ एवं संहितादिविस्तरेण व्याख्यायमाना तावदेकाऽपि गाथा 'महती' महाप्रमाणा भवति, किमङ्ग पुनः पञ्च गाथाः ? । अतो यद्येकामपि गाथां कथयति तदा चतुर्लघुका आज्ञादयश्च दोषाः, तथा तुरङ्गमादिहृत-नष्टशङ्कादयः 'त एव' अन्तरगृहोक्ता दोषा भवन्ति, 'इमे च' 25 वक्ष्यमाणा अन्ये दोषाः ॥ ४५६८ ॥ तानेवाह ___ गाहा अद्धीकारग, पोत्थग खररडणमक्खरा चेव । साहारण पडिणत्ते, गिलाण लहुगाइ जा चरिमं ॥ ४५६९ ॥ भिक्षा पर्यटन कमप्यगारिणमशुद्धां गाथां पठन्तं श्रुत्वा ब्रवीति-विनाशितेयं त्वया गाथा, तथा "अद्धीकारग" ति गाथाया अर्धमहं करोमि अर्धं पुनस्त्वया कर्त्तव्यम् , "पुत्थग" त्ति 30 पुस्तकादेव भवता शास्त्रमधीतं न पुनर्गुरुमुखात्, "खररडणं" ति किमेवं खर इवारटनं करोषि ?, “अक्खरा चेव" त्ति अक्षराण्येव तावद् भवान् जानीते अतः पट्टिकामानय येनाहं भवन्तं तानि शिक्षयामि । इत्यादि ब्रुवाणो यावत् तत्र व्याक्षेपं करोति तावदिमे दोषाः१ » एतचिह्नान्तर्गतमवतरणं भा० नास्ति । Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 भाष्यगाथाः ४५६७-७३) तृतीय उद्देशः । १२३५ "साहारणं" ति 'साधारणं' सर्वेषु मिलितेषु यद् मण्डल्यां भोजनं तन्निमित्तमितरे साधवस्तं प्रतीक्षमाणास्तिष्ठन्ति । “पडिणत्ति" ति तेन साधुना कश्चिद् ग्लानः 'प्रतिज्ञप्तः' अद्याहं भवतः प्रायोग्यमानेष्यामीति, ततस्तेन वेलाविलम्बेन यदसौ ग्लानः परितापादि प्राप्नोति तत्र चतुर्लघुकादि 'चरमं' पाराञ्चिकं यावत् प्रायश्चित्तमिति द्वारगाथासमासार्थः ॥ ४५६९ ॥ साम्प्रतमेनामेव व्याख्याति भग्गविभग्गा गाहा, भणिइहीणा व जा तुमे भणिता। अद्धं से करेमि अहं, तुमं से अद्ध पसाहेहि ॥४५७०॥ साधुर्भिक्षां गतः स्वपाण्डित्यख्यापनार्थ गृहस्थं पठन्तं श्रुत्वा ब्रवीति-येयं त्वया गाथा भणिता सा भग्नविभमा भणितिहीना वा कृता, यद्वा अर्धं "से" तस्या गाथाया अहं करोमि अर्धं पुनस्त्वं प्रसाधय इत्येवमभिनवा गाथा क्रियते ॥ ४५७० ॥ पोत्थगपच्चयपढियं, किं रडसे रासहु व्य असिलायं । . अकयमुह ! फलयमाणय, जा ते लिक्खंतु पंचग्गा ॥ ४५७१ ॥ पुस्तकप्रत्ययादेव भवता पठितं न गुरुमुखाद् अतः किमेतेन प्रयासेन ?, किं वा त्वमेवं रासभ इव "असिलायं" विखरमारटसि ?, यद्वा अकृतम्-अक्षरसंस्कारेणासंस्कृतं मुखं यस्यासावकृतमुखस्तस्यामन्त्रणं हे अकृतमुख ! पठितशिक्षित एव भवान् किमपि ज्ञास्यति, अतः15 'फलकं' पट्टिकामानय येन तव योग्यानि 'पञ्चाग्राणि' अक्षराणि लिख्यन्तामस्माभिः ॥ ४५७१॥ एवं भिक्षां पर्यटन् यदि विकत्थते तत इदं प्रायश्चित्तम् लहुगादी छग्गुरुगा, तव-कालविसेसिया व चउलहुगा । अधिकरणमुत्तरुत्तर, एसण-संकाइ फिडियम्मि ॥ ४५७२ ॥ गाथायाम् अर्धीकारके च चतुर्लघु, पुस्तके चतुर्गुरु, अक्षरशिक्षणे षड्लघु, खररटने षड्-20 गुरु । अथवा तपः-कालविशेषिताश्चतुर्लघुकाः, तद्यथा-गाथा-ऽर्थीकारकयोस्तपः-कालाभ्यां लघुकाः, पुस्तके कालेन गुरुकाः, अक्षरेषु तपसा गुरुकाः, खररटने तपसा कालेन च गुरुकाः। 'अधिकरणं च कलहस्तेन समं भवति, 'उत्तरोत्तराः' उक्तिप्रत्युक्तीः कुर्वाणस्य च तस्य भिक्षाया देशकालः स्फिटति, तस्मिन् स्फिटिते पर्यटन्नेषणायाः प्रेरणं कुर्यात् , अकालचारिणश्च शङ्कादयो दोषा भवन्ति ॥ ४५७२ ॥ वामद्दति इय सो जाव तेण ता गहियभोयणा इयरे । अच्छंतें अंतरायं, एमेव य जो पडिण्णत्तो॥ ४५७३ ॥ यावदसौ तेन सममुत्तरप्रत्युत्तरिकां कुर्वन् 'व्यामृगाति' व्याक्षेपेण वेलां गमयति तावदितरे साधवो गृहीतभोजनाः सन्त आसते, ततोऽन्तरायदोषः । एवमेव च यो ग्लानः 'प्रतिज्ञप्तः' 'त्वद्योग्यं प्रायोग्यमद्य मया आनेतव्यम्' इत्यभ्यर्थितः तस्मिन्नपि तावन्तं कालं बुभुक्षिते तिष्ठति 30 तस्य साधोरन्तरायं भवति ॥ ४५७३ ॥ कालाइक्कमदाणे, होइ गिलाणस्स रोगपरिवुड्डी । १°ख्यानयति डे॥ 26 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अन्तर० प्रकृते सूत्रम् २० परितावऽणगाढाती, लहुगाती जाव चरिमपदं ।। ४५७४ ॥ कालातिक्रमेण च ग्लानस्य भक्त-पानदाने रोगपरिवृद्धिर्भवति । ततश्च यदसावनागाढपरितापनादिकं प्रामोति तत्र चतुर्लघुकादि प्रायश्चित्तं यावत् कालगते 'चरमपदं' पाराश्चिकम् । द्वितीयपदे गोचरप्रविष्टोऽपि परेण पृष्टः सन् कथयेत् ॥ ४५७४ ॥ 6 किं कारणम् ? इति चेद् उच्यते कि जाणंति वरागा, हलं जहित्ताण जे उ पव्वइया । एवंविधो अवण्णो, मा होहिइ तेण कहयंतिः॥४५७५ ॥ यदा परेण प्रनिता अपि न कथयन्ति तदा स चिन्तयति-किमेते वराका जानन्ति ये हलं परित्यज्य प्रव्रजिताः ? । एवंविधोऽवर्णः प्रवचनस्य मा भूत् तेन कारणेन कथयन्ति 10॥ ४५७५ ॥ अथ 'एगनाएण वा” इत्यादिसूत्रपदव्याचिख्यासयाऽऽह एगं नायं उदगं, वागरणमहिंसलक्खणो धम्मो। गाहाहिँ सिलोगेहि व, समासतो तं पि ठिचाणं ॥ ४५७६ ॥ परप्रनितेन विवक्षितार्थसमर्थनार्थमेकं ज्ञातमभिधातव्यम् , तत्र च उदकदृष्टान्तो भवति । 'व्याकरणं' निर्वचनम् , यथा-केनचिद् धर्मलक्षणं पृष्टस्ततः प्रतिब्रूयात्-अहिंसा16 लक्षणो धर्म इति; अथवा गाथाभिः श्लोकैर्वा समासतो धर्मकथनं कर्तव्यम् । तदपि च स्थित्वा नोपविष्टेन न वा भिक्षां हिण्डमानेनेति नियुक्तिगाथासमासार्थः ॥ ४५७६ ॥ अथैनामेव विवृणोति नजइ अणेण अस्थो, णायं दिटुंत इति व एगहुँ । वागरणं पुण जा जस्स धम्मता होति अत्थस्स ॥ ४५७७॥ 20 ज्ञायतेऽनेन दान्तिकोऽर्थ इति ज्ञातं दृष्टान्त इति चैकार्थम् । व्याकरणं पुनर्या यस्य मोक्षादेरर्थस्य 'धर्मता' खभावस्तस्य निर्वचनम् ॥ ४५७७ ॥ अथोदकदृष्टान्तो भाव्यते-एगो साहू उब्भामगभिक्खायरियाए अन्नं गामं वच्चइ । तत्थ अंतरा गिहत्थो मिलितो । ते दो वि वच्चंता अंतरापहे उदगं उत्तिण्णा । सो अगारो गामं पविट्टो। तत्थ य तस्स भगिणी अस्थि तीए घरं पाहुणयो गतो । साहू वि भिक्खं हिंडंतोतं 25 घरं गतो । भगिणीए से पुरेकम्मं कयं । साहुणा पडिसिद्धं । कीस न गिण्हसि । साहू भणइ-उदगसमारंभो, न वट्टइ । अगारो भणति-जं मए समं पंथे उदगं उत्तिण्णो सि तं किह कप्पइ ? अहो! मायाविणो दुद्दिधम्माणो त्ति । साहू भणति-न वयं मायाविणो न वा दुद्दिधम्माणो । किन्तु पप्पं खु परिहरामो, अप्पप्पविवजओ ण विजति हु। 30 पप्पं खलु सावजं, वजेंतो होइ अणवजो ॥ ४५७८ ॥ __ 'प्राप्यमेव' परिहत्तुं शक्यमेव वयं परिहरामः, अप्राप्यस्य-परिहर्तुमशक्यस्य मार्गक्रमायातोदकवाहकादेः विवर्जकः-परिहर्ता न विद्यते । अत एव प्राप्यं 'सावा' पुरःकर्मादिकं वर्जयन 'अनवद्यः' निदोषो भवति ॥ ४५७८ ॥ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४५७४-८४] तृतीय उद्देशः । १२३७ अपि च नायमेकान्तो यदेकत्रानवद्यतया दृष्टं तदन्यत्राप्यनवद्यमेव भवति, तथाहि चिरपाहुणतो भगिणिं, अवयासितो अदोसवं होति । तं चेव मज्झ सक्खी, गरहिजइ अण्णाहिं काले ॥ ४५७९ ॥ चिरकालादायातः प्राघूर्णको भगिनीम् 'अवकाशमानः' सस्नेहमालिङ्गन् अदोषवान् भवति, तथा चात्र त्वमेव मम 'साक्षी' प्रमाणम् , साम्प्रतमेव भवता चिरप्राघूर्णकतया भगिनीपरिष्व-5 ङ्गस्य कृतत्वादिति भावः । तामेव च भगिनीमन्यस्मिन् काले परिष्वजन् 'गीते' निन्द्यते, अत्रापि त्वमेव प्रमाणमिति ॥ ४५७९ ॥ तथा पादेहिँ अधोतेहि वि, अकमितूणं पि कीरती अच्चा । सीसेण वि संकिजति, स चेव चितीकया छिविउं ॥ ४५८० ॥ _ 'अर्चा' प्रतिमा सा यावद् नाद्यापि प्रतिष्ठिता तावदधौतैरपि पादैः ‘आक्रम्य उपरि चटि-10 त्वाऽपि क्रियते । सैव प्रतिमा 'चितीकृता' चैत्यत्वेन व्यवस्थापिता शीर्षेणापि स्प्रष्टुं शक्यते, शिरसा स्पृशद्भिरपि शङ्का विधीयत इति भावः ॥ ४५८० ॥ केइ सरीरावयवा, देहत्था पूइया न उ विउत्ता। सोहिजंति वणमुहा, मलम्मि बूढे ण सव्वे तु ॥ ४५८१॥ केचित् शरीरावयवाः' दन्त-केश-नखादयो देहस्थाः सन्तः 'पूजिताः' प्रशस्ता भवन्ति, न15 पुनः 'वियुक्ताः' शरीरात् पृथग्भूताः । तथा 'व्रणमुखान्यपि' श्रोत्र-चक्षुः-पायुप्रभृतीनि मले व्यूढे सति न सर्वाण्यपि शोध्यन्ते किन्तु कानिचिदेवेति ॥ ४५८१ ॥ जइ एगत्थुवलद्धं, सव्वत्थ वि एव मण्णसी मोहा । भूमीतों होति कणगं, किण्ण सुवण्णा पुणो भूमी ॥ ४५८२ ॥ यदि नाम एकत्र यद् उपलब्धं सर्वत्रापि तेन भवितव्यम् इत्येवं 'मोहाद्' अज्ञानाद् 20 मन्यसे, ततः कथय भूमीतः कनकमुत्पद्यमानं दृश्यते ततः सुवर्णात् पुनरपि किं न भूमिरुत्पद्यते ॥ ४५८२ ॥ तम्हा उ अणेगंतो, ण दिट्टमेगत्थ सव्वहिं होति । लोए भक्खमभक्खं, पिजमपिजं च दिट्ठाई ॥ ४५८३ ॥ तस्माद् 'अनेकान्तः' अनियमोऽयम् , कीदृशः ? इत्याह-नैकत्र दृष्टं सर्वत्रापि भवतीति । 25 तथा च लोके प्राण्यङ्गत्वे समानेऽप्योदन-पक्कान्नादिकं भक्ष्यं मांस-वसादिकमभक्ष्यम् , तक-जलादिकं पेयं मद्य-रुधिरादिकमपेयम्, इत्यादीनि पृथग् व्यवस्थान्तराणि दृष्टानि; तथाऽत्राप्युदकसमारम्भादौ मन्तव्यानि ॥ ४५८३ ॥ गतमेकज्ञातम् , अथैकव्याकरणेन यथा धर्मोऽभिधीयते तथा दर्शयति जं इच्छसि अप्पणतो, जं च ण इच्छसि अप्पणतो । तं इच्छ परस्स वि या, एत्तियगं जिणसासणयं ॥ ४५८४ ॥ यद् 'आत्मनः' खजीवस्य सुखादिकमिच्छसि यच्च दुःखादिकमात्मनो नेच्छसि तत् 'परस्यापि' आत्मव्यतिरिक्तस्य जन्तोः इच्छ, आत्मवत् परमपि पश्येति भावः । 'एतावद् 30 Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३८ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अन्तर० प्रकृते सूत्रम् २० जिनशासनं' इयन्मात्रो जिनोपदेश इति ॥ ४५८४ ॥ गाथया पुनरित्थं धर्म उपदिश्यतेसव्वारंभ-परिग्गहणिक्खेवो सव्वभूतसमया य । एकग्गमणसमाहाणया य अह एत्तिओ मोक्खो ।। ४५८५ ।। सर्वस्य – सूक्ष्म- बादराद्यशेषजीव विषयस्यारम्भस्य सर्वस्य च - सचित्ताऽचित्त - मिश्रभेदभिन्नस्य B परिग्रहस्य यो निक्षेपः- संन्यासो या च सर्वभूतेषु समता या चैकाग्रमनः समाधानता 'अथ' एष एतावान् मोक्ष उच्यते, कारणे कार्योपचाराद् एष मोक्षोपाय इत्यर्थः ॥ ४५८५ ॥ श्लोकेन यथा 10 यत्र प्राणिवधो नास्ति, यत्र सत्यमनिन्दितम् । यत्रात्मनिग्रहो दृष्टस्तं धर्ममभिरोचयेत् ॥ अथ किं कारणं स्थित्वा धर्मः कथनीयः ? इत्याशङ्कयाह इरियावहियाऽवण्णो, सिहं पि न गिण्हए अतो ठिच्चा । भड्डी पडिणी, अभियोगें चउण्ह वि परेण ॥ ४५८७ ॥ ईर्यापथिकी- चङ्क्रमणक्रिया तां कुर्वन् यदि कथयति तदा लोकेऽवर्णो भवति — दुर्हष्टधर्माणोऽमी यदेवं गच्छन्तो धर्मं कथयन्ति । अपि च – 'शिष्टमपि' कथितमपि धर्ममेवं 20 श्रोता न गृह्णाति अतः स्थित्वा एकश्लोकादि कथनीयम् । अथापवादापवाद उच्यतेकश्चिद् भद्रको धर्मश्रद्धालुर्ऋद्धिमान् धर्मं पृच्छति ततः सत्त्वानुकम्पया 'प्रवचनोपग्रहकरश्च भविष्यति' इति कृत्वा तिस्रश्चतस्रः पञ्च वा बहुतरा वा गाथा उपविश्य कथयितव्याः । प्रत्यनीको वा कश्चिद् व्यतिव्रजति तं प्रतीक्षमाणस्तावद् धर्मं कथयेद् यावदसौ व्यतीतो भवति । यद्वा स प्रत्यनीकः सहसा दृष्टों भवेत् ततो यः सलब्धिकः स उपशामनानिमित्तं बहुविधम्25 पदेशं दद्यात् । दुण्डिकस्य वा 'अभियोगः' बलात्कारो भवेत् । किमुक्तं भवति ? – एक श्लोकेन धर्मे उपदिष्टे दण्डिको ब्रूयात् - कथय कथय मम सम्प्रति महती श्रद्धा वर्तते; ततश्चतुर्णां लोकानां परतोऽपि कथयेत् ॥ ४५८७ ॥ आह— कीदृशी पुनः कथा कथयितव्या ? कीदृशी वा न ? इति उच्यतेसिंगाररसुतुइया, मोहमई फुंफुका हसहसेति । जं सुणमाणस्स कहं, समणेण न सा कहेयच्वा ।। ४५८८ ॥ यां कथां शृण्वतः श्रोतुः स्त्रीवर्णकादिश्रवणजनितो यः शृङ्गारो नाम रसस्तेनोतेजिता सती 15 सव्वभूतऽप्पभूतस्स, सम्मं भूताइँ पासओ । पिहियासवस्स दंतस्स, पावं कम्मं न बंधई ॥ ४५८६ ॥ पाठसिद्धः । ये तु संस्कृतरुचयस्तेषामित्थं गाथया श्लोकेन वा धर्मकथा क्रियतेव्रत-समिति - कषायाणां धारण-रक्षण - विनिग्रहाः सम्यक् । दण्डेभ्यश्च परमो धर्मः पञ्चेन्द्रियदमश्च ॥ 30 - १ 'ष्टः, स धर्मो मम रोचते भा० ॥ २ एतदनन्तरं कां० पुस्तके रूपकद्वयमपि सुगमम् ॥ अथ किं इति पाठः ॥ ॥ ४५८६ ॥ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 भाष्यगाथाः ४५८५-९०] तृतीय उद्देशः। १२३९ मोहमयी फुम्फुका 'हसहसति' जाज्वल्यते सा कथा श्रमणेन न कथयितव्या ॥ ४५८८ ॥ समणेण कहेयव्वा, तब-णियमकहा विरागसंजुत्ता। जं सोऊण मणूसो, बच्चइ संवेग-णिवेयं ॥ ४५८९ ॥ तपः-अनशनादि नियमाः-इन्द्रिय-नोइन्द्रियनिग्रहास्तत्प्रधाना कथा तपो-नियमकथा 'विरागसंयुक्ता' न निदानादिना रागादिसङ्गता श्रमणेन कथयितव्या, यां श्रुत्वा 'मनुष्यः' । श्रोता संवेग-निर्वेदं व्रजति । संवेगः-मोक्षाभिलाषः, निर्वेदः-संसारवैराग्यम् ॥ ४५८९ ॥ सूत्रम् नो कप्पति निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अंतरगिहंसि इमाइं पंच महव्वयाइं सभावणाई आइक्खित्तए वा विभावित्तए वा किहित्तए वा पवेयत्तए वा, नऽन्नत्थ एगनाएण वा जाव सिलोएण वा, से वि य ठिच्चा नो चेव णं अठिच्चा २१ ॥ अस्य व्याख्या प्राक्सूत्रवद् द्रष्टव्या । नवरम् 'इमानि' खयमनुभूयमानानि पञ्च महाव्रतानि 'सभावनानि' प्रतिव्रतं भावनापञ्चकयुक्तान्याख्यातुं वा विभावयितुं वा कीर्चयितुं वा प्रवेदयितुं वा न कल्पन्ते । आख्यानं नाम-साधूनां पञ्च महाव्रतानि पञ्चविंशतिभावनायुक्तानि 15 षट्कायरक्षणसाराणि भवन्ति । विभावनं तु-प्राणातिपाताद् विरमणं यावत् परिग्रहाद् विरमणमिति । भावनास्तु-“इरियासमिए सया जए०" (आव० प्रति० संग्र० पत्र ६५८-२) इत्यादिगाथोक्तखरूपाः । षटकायास्तु-पृथिव्यादयः । कीर्तनं नाम-या प्रथमव्रतरूपा अहिंसा सा भगवती सदेव-मनुजा-ऽसुरस्य लोकस्य पूज्या द्वीपः त्राणं शरणं गतिः प्रतिष्ठेत्यादि, एवं सर्वेषामपि प्रश्नव्याकरणाङ्गोक्तान् (संवराध्ययनानि ५ तः १०) गुणान् कीर्तयति । प्रवेदनं 20 तु-महाव्रतानुपालनात् खर्गोऽपवर्गो वा प्राप्यत इति सूत्रार्थः ॥ परः प्राह-ननु पूर्वसूत्रेण गतार्थमिदम् अतः किमर्थमारभ्यते ? उच्यते-- गहिया-ऽगहियविसेसो, गाधासुत्तातों होति वयसुत्ते । णिद्देसकतो व भवे, परिमाणकतो व विण्णेतो ॥ ४५९० ॥ गाथासूत्राद् व्रतसूत्रे प्रथिता-ऽप्रथितविशेषो मन्तव्यः । किमुक्तं भवति ?--अनन्तरसूत्रे 25 "चउगाहं वा पंचगाहं वा" इत्युक्तं ताश्च गाथा ग्रथिता भवन्ति, इमानि तु महाव्रतानि प्रथितानि अग्रथितानि वा भवेयुः । प्रथितानि नाम-पद-पाठबन्धेन वा श्लोकबन्धेन वा बद्धानि, अग्रथितानि तु-मुत्कलैरेव वचनैर्यान्यभिधीयन्ते । यद्वा निर्देशकृतोऽत्र विशेषो भवति--- अनन्तरसूत्रे "चतुर्गाथं पञ्चगाथं वा कथयितुं न कल्पते" इत्युद्देशमात्रमेव कृतम् , अत्र तु "महाव्रतानि सभावनाकानि" इत्यनेन तस्यैव विशेषनिर्देशः क्रियते । परिमाणकृतो वा विशेषो 30 १ एतचिहान्तर्गतः पाठः भा० नास्ति । Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अन्तर० प्रकृते सूत्रम् २१ विज्ञेयः-यदधस्तनसूत्रे धर्मखरूपमुक्तं तदेवात्र "महाव्रतपञ्चकम्" इति सङ्ख्यया विशेषितं निरूप्यते ॥ ४५९० ॥ अथात्रैव दोषानाह पंचमहव्वयतुंगं, जिणवयणं भावणापिणिद्धार्ग। साहणे लहुगा आणाइ दोस जं वा णिसिज्जाए ॥४५९१॥ । इह जिनवचनं मेरुसदृशं पञ्चभिर्महाव्रतैस्तुङ्गम्-उच्छ्रितम् , पञ्चमहाव्रतमयोच्छ्यमित्यर्थः। तस्यैव च महाव्रतोच्छ्यस्य रक्षणार्थ भावनाभिः पञ्चविंशतिसङ्ख्याकाभिः पिनद्धं-गाढतरं नियनितम् । ईदृशं जिनवचनमन्तरगृहे उपविश्य कथयतश्चतुर्लघुकाः आज्ञादयश्च दोषाः । यद् वा गृहनिषद्यायां वाहितायां प्रायश्चित्तं यच्च दोषजालं तद् आपद्यते । तथा महाव्रतपञ्चकविषया दोषा भवन्ति, तथाहि-प्राणवधमापद्येत प्राणवधे वा शयेत, एवं यावत् परिग्रह10 मापद्येत परिग्रहे वा शङ्कयेत ॥ ४५९१ ॥ तथाहि पाणवहम्मि गुरुव्विणि, कप्पट्ठोदाणए य संका उ । भणिओ ण ठाइ कोयी, मोसम्मि य संकणा साणे ॥ ४५९२ ॥ गृहे उपविश्य साधुधम कथयति, गुर्विणी च तस्यान्तिके उपविष्टा शृणोति, यावच्चासौ तत्र तिष्ठति तावत् तदीयगर्भस्य आहारव्यवच्छेदेन विपत्तिर्भवति, एवं प्राणवधे लगति । 16 तथा धर्म कथयतः काचिदविरतिका शृण्वत्येवापान्तराले कायिकाभूमि गच्छेत् , तस्याः पुत्रस्तत्रैवास्ते, ततः सपत्नी च्छिद्रं लब्ध्वा तमुत्क्षेपणमिषेण साधोरगतो निपात्यापद्रावयति, एवं प्राणातिपातविषया शङ्का भवेत् । तथा 'यत् तीर्थकरैः प्रतिषिद्धं तद् मया न कर्त्तव्यम्' इति प्रतिज्ञाय तैः प्रतिषिद्धां निषद्यां वाहयतो मृषावादो भवति । यद्वा खमुखेनैव गृहनिषद्यां निषिध्य पश्चादात्मनैव तां परिभुञ्जानो मृषावादमापद्यते । अथवा स दिने दिने तस्या अविरतिकाया 20 अग्रे धर्म कथयति ततो गृहखामिना भणितः—मा मम गृहमायासीरिति; साधुना भणितम् आगमिष्यन्ति ते गृहं पाणशुनकाः; एवमुक्त्वाऽपि जिह्वालोलतादोषेण तदेव गृहं ब्रजन् 'भणितोऽपि' तेन गृहस्थेन वारितोऽपि कश्चिद् न तिष्ठति, एवं मृषावादमामोति; स च गृहस्थो ब्रूयात्-किं पाणशुनकः संवृत्तोऽसि ? इति । यद्वा गृहस्थो भोजनं कुर्वन् धर्म शृण्वतीमगारी किमप्युत्कृष्टं द्वितीयाङ्गं याचेत, सा ब्रूयात्-शुना भक्षितम् ; अगारो ब्रूयात्-जानाम्यहं तं श्वानं 25 येन भक्षितमिति; एवं मृषावादविषया शङ्का भवेत् ॥४५९२॥ अथास्या एव पूर्वाधं व्याचष्टे खुहिया पिपासिया वा, मंदक्खेणं न तस्स उद्वेइ । गम्भस्स अंतरायं, बाधिजइ सनिरोघेणं ॥ ४५९३ ॥ गुर्विणी धर्मकथां शृण्वती क्षुधिता वा पिपासिता वा भवेत् , सा च तस्य साधोः सम्बन्धिना 'मन्दाक्षेण' लज्जया नोतिष्ठति, ततो गर्भस्यान्तरायं भवति । तेन चाऽऽहारव्यवच्छेदलक्षणेन 30 सन्निरोधेन स गर्भो बाध्यते, ततो विपत्तिमप्यसौ प्राप्नुयादिति प्राणवधमापद्यते ॥ ४५९३ ॥ 1 अथ प्राणिवधविषयां शङ्कां दर्शयति-- उक्खिवितो सो हत्था, चुतो ति तस्सऽग्गतो णिवाडित्ता । १२ एतदन्तर्गतमवतरणं भा० नास्ति ॥ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४५९१-९७ ] तृतीय उद्देशः । सोतार वियारगते, हा ह त्ति सवित्तिणी कुणती ॥। ४५९४ ॥ अविरतिकाया अग्रे स धर्मं कथयति सा चापान्तराले कायिक्यर्थं निर्गता, ततस्तस्यां 'श्रोत्र्यां' श्राविकायां विचारभूमौ गतायां सपत्नी तदीयं पुत्रं तस्य साधोरप्रत उत्क्षिप्य भूमौ सहसैव निपातयति, निपात्य च 'अहो ! अनेन श्रमणेनायं पुत्र उत्क्षिप्तः सन्नेतदीयहस्ताच्युतो विपन्नः' इति महता शब्देन 'हा हा !' इति पूत्कारं करोति, ततो भूयाँल्लोको मिलितस्तं साधुं तत्र स्थितं दृष्ट्वा शङ्कां कुर्यात् — किं मन्ये सत्यमेवेदम् ? इति । मृषावाददोषः प्राक् सप्रपञ्चमुक्त इति न भूयो भाव्यते ॥ ४५९४ ॥ अथादत्तादान-मैथुनयोर्दोषानाह सयमेव कोइ लुद्धो, अवहरती तं पडुच्च कम्मकरी | वाणिगणी मेहुणे, बहुसो य चिरं च संकाय ॥ ४५९५ ॥ कश्चिद् व्रती लुब्धः सन् विजनं मत्वा स्वयमेव सुवर्णसङ्कलिका - मुद्रिकादिकमपहरति, 10 एवमदत्तादानमापद्यते; तं वा संयतं प्रतीत्य 'साधुत्रार्थे शङ्किष्यते नाहम्' इति कृत्वा कर्मकरी काचिदपहरेत् । वाणिजिका वा काचित् प्रोषितभर्तृका तया समं मैथुनविषया आत्म-परोभयसमुत्था दोषा भवन्ति; अथवा यत्र योषितपतिका स्तिष्ठन्ति तत्रासौ 'बहुशः ' वारं वारं व्रजति चिरं च ताभिः सह कन्दर्पं कुर्वाणस्तिष्ठति ततश्चतुर्थविषये शक्येत ॥ ४५९५ ॥ अथ परिग्रहदोषानाह - धम्मं कहे जस्स उ, तम्मि उ वीयारए गए संते । सारक्खणा परिग्गहों, परेण दिट्ठम्मि उड्डाहो ॥ ४५९६ ॥ गतार्था ( गा० ४५७६ ) ॥ ४५९७ ॥ १२४१ ‘यस्य' श्रावकादेरग्रे धर्मं कथयति स ब्रूयात् - यावदहं कायिकां व्युत्सृज्य समागच्छामि तावद् भवता गृहं रक्षणीयम्; एवमुक्त्वा तंत्र विचारभूमौ गते स संयतो यावत् तद् गृहं संरक्षति तावत् परिग्रहदोषमापद्यते । तदेवं गृहं रक्षन् परेण दृष्टः स शङ्कां कुर्यात् — नूनमेत - 20 स्यापि हिरण्यं सुवर्णं वा विद्यते; उड्डाहं च स कुर्यात् - अहो ! अयं श्रमणकः सपरिग्रह इति । त एते दोषा अतो नान्तरगृहे धर्मकथा कर्त्तव्या ॥ ४५९६ ॥ द्वितीयपदमाह-एगं णायं उदगं, वागरणमहिंस लक्खणो धम्मो । गाहाहि सिलोगेहि य, समासतो तं पि ठिच्चाणं ।। ४५९७ ।। ॥ अन्तरगृहस्थानादिप्रकृतं समाप्तम् ॥ 15 25 Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ शय्या० प्रकृते सूत्रम् २२ श व्या सं स्ता र क प्र कृ त म् सूत्रम् नो कप्पति निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पाडिहारियं सिज्जा-संथारयं आयाए अपडिहटु संपव्वएत्तए २२॥ 5- अस्य सूत्रस्य कः सम्बन्धः ? इत्याह अविदिण्णमंतरगिहे, परिकहणमियं पदिण्णमिइ जोगो । णिग्गमणं व समाणं, बहिं व वुत्तं इमं अंतो ॥ ४५९८ ॥ अन्तरगृहे यत् 'परिकथनम्' उपदेशप्रदानं तद् 'अवितीर्ण' तीर्थकरैर्गृहपतिना वा नानुज्ञातम् । 'इदमपि' प्रातिहारिकशय्या-संस्तारकस्याप्रत्यर्पणम् 'अदत्तम्' अननुज्ञातम् “इति' अयं 10 'योगः' सम्बन्धः । यद्वा निर्गमनं प्रतिश्रयाद् द्वयोरपि सूत्रयोः 'समानं' तुल्यम् । अथवा पूर्वसूत्रे प्रतिश्रयाद् ‘बहिः' भिक्षायां निर्गतस्य धर्मकथनं न कल्पते इत्युक्तम् , इदं पुनः 'अन्तः' प्रतिश्रयमध्ये संस्तारकस्य यद् निक्षेपणं तन्न कल्पते इत्यत्र प्रतिपाद्यते ॥ १५९८ ॥ । अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा प्रतिहरणं प्रतिहारः-प्रत्यर्पणं तमहतीति प्रातिहारिकं शय्या च-सर्वाङ्गीणा संस्तारकः-अर्धतृतीयहस्त15 मानः शय्या-संस्तारकं तद् 'आदाय' गृहीत्वा कार्यसमाप्तौ 'अप्रतिहृत्य' प्रत्यर्पणमकृत्वा 'सम्प्रवर्जितुं' नामान्तरं विहर्तुमिति सूत्रार्थः ।। 1 अथ भाष्यविस्तरः-- सिजा संथारो या, परिसाडी अपरिसाडि मो होइ । [नि. १३०१-९] परिसाडि कारणम्मि, अणप्पिणे मासों आणादी ॥ ४५९९ ।। शय्या संस्तारको वा परिशाटी अपरिशाटी च भवति । परिशाटी तृणादिमयः, अपरिशाटी 20 फलकादिमयः । तत्र परिशाटीसंस्तारकः कारणवशाद् ऋतुबद्धे गृहीतो भवेत् तं मासकल्पे पूर्णेऽनर्पयित्वा व्रजतो मासलघु आज्ञादयो दोषाः ॥ ४५९९ ॥ एते चापरे सोचा गत त्ति लहुगा, अप्पत्तिय गुरुग जं च वोच्छेओ। कप्पट्ट खेल्लणे णयण डहण लहु लहुग गुरुगा य ॥ ४६००॥ संस्तारकखामिना श्रुतम्-संस्तारकमनर्पयित्वा गतास्ते संयताः; एवं श्रुत्वा यदि प्रीतिकं 25 करोति-'अनर्पितेऽप्यनुग्रह एवास्माकम्' इति ततश्चतुर्लघवः । अथाप्रीतिकं करोति-मदीयानि तृणानि हारितानि विनाशितानि वा इति तदा चतुर्गुरवः । यच्च तद्रव्यस्यान्यद्रव्यस्य वा व्यवच्छेदस्तदाऽपि चतुर्गुरुकम् । अथवा तस्मिन् संस्तारके शून्ये "कप्प?" त्ति बालकानि खेलन्ते ततो मासलघु, अथान्यत्र तं नयन्ति ततश्चतुर्लघु, अथाग्नौ प्रक्षिप्य दहन्ति चतुर्लघवः, दह्यमाने च तस्मिन्नन्येषां प्राणजातीयानां विराधना भवेत् तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् ॥ ४६०० ॥ 30 अथाप्रीतिकपदं व्याचष्टे १°जितुमिति सूत्रसमासार्थः भा० ॥ २ » एतदन्तर्गतः पाठः भा० का० एव वर्तते ॥ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाज्यगाथाः ४५९८-४६०५] तृतीय उद्देशः । दिजंते वि तयाऽणिच्छितूण अप्पेमु मे त्ति नेतूणं । कयकजा जणभोगं, काऊण कहिं गया भच्छा ॥ ४६०१ ॥ ग्रहणकाले निर्देजमपि दीयमानं तदानीं नेच्छन्ति स्म । 'अनिष्य च' अनभिकाङ्ग्य मासकल्पे पूर्णे "भे" भवतामर्पयिष्याम इति भणनपूर्वकं नीत्वा साम्प्रतं 'कृतकार्याः' विहितात्मप्रयोजनाः शून्ये जनभोग्यं कृत्वा कुत्र ग्रामे नगरे वा गताः ? । “भच्छे"ति नैपातिकं पदं । कुत्सायां वर्तते, क पुनस्ते दुर्दृष्टधर्माणो गताः ? इत्यर्थः ।। ४६०१॥ अथ "कप्पट्ट खेल्लणे" इत्यादि विवृणोति कप्पट्ट खेल्लण तुअट्टणे य लहुगो य होति गुरुगो य । इत्थी-पुरिसतुयट्टे, लहुगा गुरुगा अणायारे ॥ ४६०२ ॥ तत्र संस्तारके कल्पस्थकानि खेलन्ते लघुको मासः । अथ तान्येव त्वग्वयन्ति गुरुको 10 मासः । अथ महती स्त्री महान् पुरुषो वा त्वग्वर्त्तयति चतुर्लघु । अथैतावनाचारमाचरतस्तदा चतुर्गुरुकाः ॥ ४६०२॥ वोच्छेदे लहु-गुरुगा, नयणे डहणे य दोसु वी लहुगा। विहणिग्गयादऽलंभे, जं पावें सयं व तु णियत्ता ॥ ४६०३ ॥ तस्यैवैकस्य साधोः तस्यैव चैकस्य द्रव्यस्य व्यवच्छेदे चतुर्लघु । अनेकेषां साधूनामन्य-15 द्रव्याणां च व्यवच्छेदे चतुर्गुरु । संस्तारकस्य कल्पस्थकैरन्यत्र नयने दहने च द्वयोरपि चतुर्लघवः । व्यवच्छेदकरणाच्च संस्तारकादेरलाभे विहम्-अध्वा तन्निर्गतादयो यत् परितापनादि प्राप्नुवन्ति खयं वा निवृत्तास्तत्र प्राप्ताः संस्तारकादिकमलभमानी यां विराधनामासादयन्ति तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् ॥ ४६०३ ॥ माइस्स होति गुरुगो, जति एकतों भागऽणप्पिए दोसा। 20 अह होंति अण्णमण्णे, ते च्चेव य अप्पिणणे सुद्धो ॥ ४६०४ ॥ - 'मायिनः' मायावतो गुरुको मासो भवति । कथं पुनर्मायां करोति ? इत्याह-यदि 'एकतः' एकस्माद् गृहादनेकैः साधुभिरनेके संस्तारका आनीतास्तदा “भाग" त्ति प्रत्यर्पणकाले तेषु पृथग्भागीकृतेषु य आत्मीयं भागं 'तत्रैव गृहे नेतव्यः' इति कृत्वा तेषां मध्ये प्रक्षिपति नात्मना तत्र नयति एष मायी भण्यते । अस्य च येऽनर्पिते संस्तारके दोषाः ते सर्वेऽपि 25 मन्तव्याः । अथान्यान्येभ्यो गृहेभ्य आनीताः संस्तारका भवन्ति तदापि मायाकरणे त एव दोषाः । तस्माद् यतो गृहादानीतस्तत्र विधिना प्रत्यर्पणे शुद्ध इति सङ्ग्रहगाथासमासार्थः ॥ ४६०४ ॥ अथैनामेव विवृणोति संथारेगमणेगे, भयणट्टविहा उ होइ कायव्वा । पुरिसे घर संथारे, एगमणेगे तिसु पतेसु ॥ ४६०५॥ 30 संस्तारके गृह्यमाणे एका-ऽनेकपदाभ्यामष्टविधा भजना कर्तव्या भवति, अष्टौ भङ्गा इत्यर्थः । सा चैतेषु त्रिषु पदेषु, तद्यथा-पुरुषे गृहे संस्तारके च । एतेषु एका-ऽनेकपदाभ्यामष्टौ १°ना यदासाद भा० ॥ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [शय्या प्रकृते सूत्रम् २२-२३ भङ्गाः, यथा---एकेन साधुना एकस्माद् गृहाद एक. संस्तारकः आनीतः १ एकेनकम्मादनेके २ एकेनाने केभ्यो गृहेभ्य एकः ३ एकेनानेकेभ्यो गृहेभ्योऽनेके संस्तारका आनीताः ४; एवमेकेन साधुना चत्वारो भगा लब्धाः, अनेकैरपि साधुभिरेवमेव चत्वारो भङ्गा लभ्यन्ते, सर्वसङ्ख्ययैतेऽष्टौ भङ्गाः ॥ ४६०५॥ आणयणे जा भयणा, सा भयणा होति अप्पिणंते वि। वोच्चत्थ मायसहिए, दोसा य अणप्पिणंतम्मि ॥ ४६०६ ॥ संस्तारकस्यानयने या 'भजना' अष्टभङ्गी भणिता सैव भजना संस्तारकमर्पयतोऽपि भवति, यथैवानीतस्तथैव प्रत्यर्पयितव्य इति भावः । अथ विपर्यस्तं प्रत्यर्पयति मायां वा करोति न वा सर्वथैवार्पयति ततो विपर्यस्ते मायासहितेऽनर्पयति च दोषा व्यवच्छेदादयो भवन्ति । तत्र 10 ये आद्याश्चत्वारो भङ्गास्तेषु यथैव ग्रहणं तथैवार्पयन्ति । पञ्चमभङ्गे ग्रहणकाले 'अस्माकमन्यतरः समर्पयिष्यति' इत्येष विधिर्न विहितस्ततो यद्येकः प्रत्यर्पयति तदा विपर्यस्तं भवति । षष्ठभङ्गे एकः साधुः प्रत्यर्पयितुं प्रस्थितः अपरश्चिन्तयति 'मदीया अपि तृणकम्बिकास्तत्रैव नेतव्या' इति कृत्वा तदीयानां तृणादीनां मध्ये प्रक्षिपति, एषा माया भण्यते । सप्तमे भने तृतीयभङ्गे वा कम्बिकास्तृणानि वा एकस्मिन् गृहेऽर्पयतोऽनर्पणं भवति । यत एते दोषास्तस्मात् पृथक् 15 पृथक् सर्वैरपि प्रत्यर्पणीयाः । कारणे पुनर्विपरीतमर्पयति न वा अर्पयति ॥ ४६०६ ॥ तदेव कारणमाह बिइयपय झामिते वा, देसुट्ठाणे व बोधिकभए वा । अद्धाणसीसए वा, सत्थो व पधावितो तुरियं ॥ ४६०७ ॥ द्वितीयपदे संस्तारको ध्यामितो भवेत् , देशोत्थाने वा संस्तारकखामी कुत्रापि गत इति न 20 ज्ञायते, बोधिकभये संस्तारकखामी साधवो वा नष्टाः, अध्वशीर्षके वा सार्थस्त्वरितं प्रधावितो यावत् संस्तारकं प्रत्यर्पयति तावत् सार्थो दूरं गच्छति अपरश्च सार्थो दुर्लभः ॥ ४६०७ ।। एतेहि कारणेहिं, वच्चंते को वि तस्स उणिवेदे । [आव.नि. ८४२] __ अप्पाहंति व सागारियाइ असदऽण्णसाहूणं ॥ ४६०८ ॥ एतैः कारणैर्न प्रत्यर्पयेयुः-अध्वशीर्षके च त्वरितं व्रजतामेकः कोऽपि साधुर्गत्वा तस्य 25 संस्तारकखामिनो निवेदयति-सार्थस्त्वरितं प्रधावितस्ततो नास्माभिः प्रत्यर्पितः, यूयं पुनस्तं संस्तारकमानयध्वम् । अन्यसाधूनां वा निवेदयन्ति-अमुकस्मिन् कुले संस्तारकः प्रत्यर्पणीयः । अन्यसाधूनाम् 'असति' अभावे सागारिकादीन् “अप्पाहन्ति" सन्दिशन्ति-एष संस्तारको. ऽमुकस्यार्पणीयः । एष तृणकम्बिकासु विधिरुक्तः ॥ ४६०८ ॥ एसेव गमो नियमा, फलएसु वि होइ आणुपुबीए । चउरो लहुगा माई, य नत्थि एयं तु नाणत्तं ॥ ४६०९॥ एष एव गमो नियमात् फलकेष्वप्यानुपूर्व्या वक्तव्यो भवति । नवरम् -प्रायश्चिते विशेषः । फलकमयस्य संस्तारकस्याप्रत्यर्पणे चतुर्लघुकाः । मायी च नास्ति, यथा तृणेषु कम्बि• कासु वा अपरास्तृणकम्बिकाः प्रक्षिप्यन्ते तथा फलकानां नास्ति प्रक्षेप इति भावः । एतद् Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाप्यगाथाः ४६०६-१३ 1 १२४५ नानात्वमत्र.मत्तव्यम् ॥ ४६०९ ॥ सूत्रम् नो कप्पड़ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सागारियसंतियं सेज्जासंथारयं आयाए अविकरणं कद्दु संपव. इत्तए २३ ॥ अस्य सम्बन्धमाह संथारगअहिगारो, अहंवा पडिहारिगा उ सागारी । नीहारिमो अणीहारिमो य इति एस संबंधो ॥ ४६१० ॥ संस्तारकस्याधिकारोऽयमनुवर्त्तते, तत इदमपि संस्तारकसूत्रमारभ्यते । अथवा पूर्वसूत्रे प्रातिहारिकः संस्तारक उक्तः, अत्र तु सागारिकसत्कोऽभिधीयते । यद्वा निहारिमो अनिर्हारि-10 मश्चेति द्विधा संस्तारकः । तत्र निर्हरणम्-अन्यत्र नयनं तेन निवृत्तो निर्दारिमः, अन्यत्र नीत्वा प्रत्यर्पणीय इत्यर्थः । तद्विपरीतोऽनिर्झरिमः । तत्र निर्दारिम उक्तः, इह पुनरनिहींरिम उच्यते । एष सम्बन्धः ॥ ४६१० ॥ ___ अथ सूत्रस्य व्याख्या-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा सागारिकः-शय्यातरस्तस्य सत्कं शय्यासंस्तारकम् 'आदाय' गृहीत्वा 'अविकरणं कृत्वा' अविकरणं नाम-यत् 16 साधुना करणं कृतम्-तृणानां प्रस्तरणं कम्बिकानां बन्धनं फलकस्य स्थापनम् , तद् अनपनीय 'सम्प्रव्रजितुं' विहर्तुमिति सूत्रार्थः ॥ अथ नियुक्त्या विस्तारयितुमाह सागारिसंति विकरण, परिसाडिय अपरिसाडिए चेव । तम्मि वि सो चेव गमो, पच्छित्तुस्सग्ग-अववाए ॥ ४६११॥ सागारिकसत्कस्य संस्तारकस्य विकरणं कृत्वा गन्तव्यम् । स च परिशाटी अपरिशाटी 20 चेति द्विविधः । तत्रापि स एव प्रायश्चित्तोत्सर्गा-ऽपवादेषु गमो मन्तव्यः ।। ४६११ ॥ अविकरणे चेमे दोषाः किड्ड तुअट्टण बाले, णयणे डहणे य होइ तह चेव । विकरण पासुद्धं वा, फलग तणेसुं तु साहरणं ॥ ४६१२ ॥ बालानां-कल्पस्थकानां क्रीडने त्वग्वर्त्तनेऽन्यत्र नयने दहने च दोषास्तथैव भवन्ति ततो 25 विकरणं कर्तव्यम् । कथम् ? इत्याह-फलकस्य पार्श्वतः स्थापनमूर्द्धकरणं वा, तृणेषु तु 'संहरणम्' एकत्र मीलनम् , तुशब्दात् कम्बिकासु बन्धनच्छोटनम् , एतद् विकरणम् ॥४६१२॥ इदमेव व्याख्याति पुंजे वा पासे वा, उरि पुंजेसु विकरण तणेसु । फलगं जत्तो गहियं, वाघाए विकरणं कुजा ।। ४६१३ ॥ १०रियं सेजा भा० ॥ २°वण पडि° तामा० ॥ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ शय्या० प्रकृते सूत्रम् २४ यानि तृणानि पुञ्जाद् गृहीतानि तानि पुञ्जेष्वेव निक्षेपणीयानि, यानि पार्श्वतस्तानि पार्श्वे स्थापनीयानि, एवं तृणेषु विकरणं भवति । फलकं यतो गृहीतं तत्रैव नीत्वा यदि पार्श्वतः स्थापितमासीत् तदा पार्थे, अथोचं स्थापितमासीत् तत ऊर्द्ध स्थाप्यते । कम्बिका अपि यतो गृहीतास्तत्र बन्धान् छोटयित्वा निक्षेपणीयाः । अथ व्याघातेन तत्र नेतुं न पार्यन्ते तदा तत्रैव 5 स्थापयित्वा नियमाद् विकरणं कुर्यात् ॥ ४६१३ ॥ बितियमहसंथडे वा, देसुट्ठाणादिसू व कजेसु । एएहिँ कारणेहिं, सुद्धो अविकरणकरणे वि ॥ ॥ ४६१४ ॥ द्वितीयपदे यथासंस्तृते विकरणं न कुर्यात् न च प्रायश्चित्तमाप्नुयात् । यथासंस्तृतं नामनिष्प्रकम्पं चम्पकपट्टादि । 'देशोत्थानादिषु वा' पूर्वसूत्रोक्तेषु कार्येषु विकरणं न कुर्यात् । 10 एतैः कारणैरविकरणकरणेऽपि शुद्धः ॥ १६१४ ॥ सूत्रम् इह खलु निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पाडिहारिए वा सागारियसंतिए वा सेजासंथारए विप्पणसिज्जा से य अणुगवेसियवे, सिया से अ अणुगवेस्समाणे लभेज्जा तस्सेव पडिदायव्वे, सिया से अ अणुगवेस्समाणे नो लभिजो एवं से कप्पइ दोचं पि उग्गहं अणुन्नवित्ता परिहारं परिहरित्तए २४ ॥ अथास्य सम्बन्धमाह दोण्हेगयरं नटुं, गवेसियं पुव्वसामिणो देति ।। अपमादट्ठा अहिए, हिए य सुत्तस्स आरंभो ॥ ४६१५ ॥ ___ 'द्वयोः' प्रातिहारिक-सागारिकसत्कयोः परिशाट्यपरिशाटिनोर्वा संस्तारकयोरेकतरं संस्तारकं नष्टं गवेषयित्वा पूर्वखामिनः प्रयच्छन्ति, अतः 'अहृते' अनष्टेऽप्रमादार्थ हृते च गवेषणादिसामाचारीप्रदर्शनार्थमस्य सूत्रस्यारम्भः क्रियते ॥ ४६१५ ॥ अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या-'इह' अस्मिन् मौनीन्द्रे प्रवचने स्थितानां 'खलुः' 25 वाक्यालङ्कारे निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा प्रातिहारिको वा सागारिकसत्को वा शय्यासंस्तारकः 'विप्रणश्येत्' विविधैः प्रकारैः प्रकर्षेण रक्ष्यमाणोऽपि नश्येत् , स च 'अनुगवेषयितव्यः' विप्रणाशानन्तरं पृष्ठत एव गवेषयितव्यः । 'स्याद्' भवेत् स चानुगवेष्यमाणो लभ्येत तस्यैव संस्तारकखामिनः 'प्रतिदातव्यः' प्रत्यर्पणीयः । स्यात् स चानुगवेष्यमाणो नो लभ्येते १°जा कप्पइ से दोच्चं भा० । एतदनुसारेणैव भा. टीका । दृश्यतां टिप्पणी २॥ २°त ततः कल्पते "से" तस्य 'द्वितीय भा० ॥ 20 Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४६१४-२० तृतीय उद्देशः । १२४७ तत एवं "से" तस्य कल्पते 'द्वितीयमप्यवग्रहमनुज्ञाप्य' एकं तावत् प्रथमं यदा गृहीतस्तदाऽनुज्ञापितः, ततो विप्रणष्टः सन् गवेष्यमाणोऽपि यदा न लब्धस्तदा संस्तारकखामिनः कथिते सति यदसावन्यं संस्तारकं ददाति, यद्वा स एव संस्तारकखामिना मृग्यमाणो लब्धः ततस्तद्विषयं द्वितीयमवग्रहमनुज्ञाप्य 'परिहारं' धारणा-परिभोगलक्षणं 'परिहत्तुं' धातूनामनेकार्थत्वात् कर्तुमिति सूत्रार्थः ॥ अथ नियुक्तिविस्तरः संथारो नासिहिती, वसहीपालस्स मग्गणा होति । सुन्नाई उ विभासा, जहेव हेट्ठा तहेव इहं ॥ ४६१६ ॥ शून्यायां वसतौ कृतायां संस्तारको नङ्ख्यतीति मत्वा प्रथमत एव वसतिरशून्या कर्त्तव्या येनासौ न नश्यति, अत एवात्र वसतिपालस्य मार्गणा भवति । कथम् ? इत्याह-“सुन्नाई" इत्यादि, यथैव ‘अधस्तात्' पीठिकायां शय्याकल्पिकद्वारे “सुन्ने बाल गिलाणे" (गा० ५४२) 10 इत्यादिका विभाषा कृता तथैवेहापि मन्तव्या ॥ ४६१६ ॥ स्थानाशून्यार्थ पुनरिदमाह पढमम्मि य चउलहुगा, सेसेसुं मासियं तु नाणत्तं । दोहि गुरू एक्केणं, चउथपदे दोहि वी लहुगा ॥ ४६१७॥ 'प्रथमे स्थाने' वसतेः शून्यताकरणलक्षणे चतुर्लघुकाः 'द्वाभ्यां' तपः-कालाभ्यां गुरुकाः । 15 'शेषेषु' बाल-ग्लाना-ऽव्यक्तस्थापनलक्षणेषु त्रिषु लघुमासिकम् । तच्च बालस्थापने तपसा गुरुकम्, ग्लानस्थापने कालेन गुरुकम् , 'चतुर्थपदे' अव्यक्तस्थापनात्मके 'द्वाभ्यामपि' तपः-कालाभ्यां लघुकम् ॥ ४६१७ ॥ अत्र दोषानुपदर्शयति मिच्छत्त-बडुग-चारण-भडाण मरणं तिरिक्ख-मणुयाणं । आएस बाल निकेयणे य सुन्ने भवे दोसा ॥ ४६१८॥ बलि धम्मकहा किड्डा, पमजणाऽऽवरिसणा य पाहुडिया । खंधार अगणि भंगे, मालवतेणा य नाई य ॥ ४६१९ ॥ गाथाद्वयं पीठिकायां सविस्तरं व्याख्यातम् (गा० ५४४-५५४)। यत एते दोषा अतो वसतिः शून्या न कर्तव्या, न वा बालो ग्लानोऽव्यक्तो वा वसतिपालः स्थापनीयः ॥ ४६१८॥ ४६१९ ।। संथारविप्पणासो, एवं खु न विञ्जतीति चोएति। [नि.गा.१३५४-८५] सुत्तं होइ य अफलं, अह सफलं उभयहा दोसा ।। ४६२०॥ 'नोदयति' परः प्रेरयति एवं 'खुः' अवधारणे सुरक्षिते क्रियमाणे संस्तारकस्य विप्रणाशो न विद्यते, तथा च "सेज्जासंथारए विप्पणसिज्जा" इत्यादिलक्षणं सूत्रमफलं भवति; अथ सूत्रं सफलं मन्यध्वे ततः 'बालादिदोषरहितो वसतिपालः स्थापनीयः' इति यदुक्तं तदफलं प्रामोति; 30 एवमुभयथाऽपि दोषा भवन्ति ॥ ४६२०॥ सूरिराह-यथा द्वयमपि सफलं भवति तथाऽभिधीयते निजंताऽऽणि जंता, आयातणनीणितो न हीरेजा। 25 Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ शय्या० प्रकृते सूत्रम् २४ नेण-राणि-उदगमभम, बोहिकभय रट्टउटाणे ॥ ४६२१ ।। प्रत्यर्पणार्थं नीयमानः संस्तारको राजपुरुषैरन्तरा हियेत, “आणिजंतो" ति गृहपतिगृहादानीयमानो वा राजपुरुषैर्बलादपहियेत, आतापनम्-आतपे संस्तारकस्य प्रदानं तदर्थ वा बहिर्निष्काशितः केनापि ह्रियेत, स्तेना-ऽग्न्युदकसम्भ्रमेषु वा बोधिकमये वा राष्ट्रस्य-देशस्य 5 यद् उत्थानम्-उद्वसीभवनं तत्र हियेत ॥ ४६२१ ॥ पडिसेहेण व लद्धो, पडिलेहणमादिविरहिते गहणं । अणुसट्ठी धम्मकहा, वल्लभो वा निमित्तेणं ॥ ४६२२ ॥ प्रतिषेधो नाम-संस्तारको मार्यमाणस्तेन खामिना 'नाहं प्रयच्छामि' इति प्रतिषिद्धः; ततः स केनचिद् भद्रकेणानुशिष्टः-किं न प्रयच्छसि ? इति; स प्राह-विप्रणाशभयात् ; इतरो 10 ब्रवीति-नामीषां हस्ताद् विप्रणश्यति; एवं विधेन प्रतिषेधेन वा लब्धः स प्रयत्नेन ‘रक्ष्य माणोऽपि प्रत्युपेक्षणानिमित्तं बहिर्नीतः, साधुश्च विस्मृतरजोहरणार्थ मध्ये प्रविष्टः, सच 'उत्कृष्टोऽयम्' इति कृत्वा विरहितं मत्वा केनापि गृहीतः, आदिग्रहणाद् उपाश्रयस्यान्तरपि राजवल्लभेन दृष्ट्वा बलामोटिकया ग्रहणं कृतम् । एवं विप्रणष्टे सति येन हृतस्तस्य पार्धाद् मार्गयितव्यः । अथ मार्गितोऽपि न ददाति ततोऽनुशिष्टिः क्रियते । तथाप्यप्रयच्छति 16 धर्मकथा कर्तव्या । एवमप्यददाने यो द्रमकस्तस्य भापनं क्रियते । यस्तु राजवल्लभः स निमित्तेनावर्तनीयः ॥ ४६२२ ॥ कथं पुनरनुशिष्टिः क्रियते ? इत्युच्यते दिनो भवबिहेणेव एस णारिहसि णे ण दाउं जे । अन्नो वि ताव देयो, दे जाणमजाणयाऽऽणीयं ॥ ४६२३ ॥ य एष भवता संस्तारको गृहीतः स भवद्विधेनैव विशिष्टपुरुषेण दत्तः, ततः “णे" 20 अस्माकं न नार्हसि दातुम् , अन्योऽपि तावद् भवता संस्तारको देयः, किं पुनर्योऽन्यदत्तः ?, ततो जानताऽजानता वा आनीतमममस्माकं प्रयच्छ ॥ ४६२३ ॥ आ ऐवमनुशिष्या यदि न प्रयच्छति ततोऽयं विधिः-» मंत णिमित्तं पुण रायवल्लभे दमग भेसणमदेंते । धम्मकहा पुण दोसु वि, जति अवराहो दुहा वैऽधिओ ॥ ४६२४ ॥ 25 राजवल्लभेऽददति मन्त्रो निमित्तं वा प्रयोक्तव्यम् । द्रमकस्य तु भेषणं कर्तव्यम् । धर्मकथा पुनर्द्वयोरपि द्रमक राजवल्लभयोः प्रयुज्यते, यथा-यतयः-साधवस्तेषामुपकरणापहारादिरपराधः 'द्विधाऽपि' इहलोके परलोके चाहितो भवति ॥ ४६२४ ॥ इदमेव व्यनक्ति अन्नं पि ताव तेनं, इह परलोकेऽपहारिणामहियं । परओ जायितलद्धं, किं पुण मन्नुप्पहरणेसु ॥४६२५ ॥ 30 'अन्यदपि' प्राकृतजनविषयमपि यत् स्तैन्यं तत् तावदिह परलोके चाऽपहारिणामहितं भवति, किं पुनः परतो याचितं यद् लब्धं तदपह्रियमाणं 'मन्युप्रहरणेषु' साधुषु ? । किमुक्तं १°व शिष्ट भा० डे० ॥२॥ एतचिहान्तर्वर्त्यवतरणं भा० नास्ति ॥ ३ व अहिओ तामा० ॥ ४किश्व-अन्नं भा० ॥ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४९ 10 भाष्यगाथाः १६२१-३०] तृतीय उद्देशः । भवति :-मन्यु:-क्रोधस्तत्प्रहरणाः-तदायुधा एव ऋषयः, ततस्तेषां ह्रियमाणमिह-परलोकयोः सुतरामहितं भवति ॥ ४६२५ ॥ एवमप्युक्तो यदि न दद्यात् ततः खंते व भूणए वा, भोइग-जामाउगे असइ साहे। सिम्मि जं कुणइ सो, मग्गण दाणं व ववहारे ॥ ४६२६ ॥ "खंते" ति पिता तेन गृहीते पुत्रस्य निवेद्यते । भ्रूणकः-पुत्रस्तेन गृहीते पिता प्रज्ञाप्यते ।। यद्वा या तस्य · 'भोजिका' भार्या यो वा जामाता ताभ्यामसौ भाणयितव्यः । “असइ साहे" त्ति सर्वथाऽपि यदि न ददाति तदा महत्तरादीनां निवेद्यते । तस्य 'शिष्टे' कथिते यदसौ महत्तरादिः करोति तत् प्रमाणम् । एवं प्रणष्टस्य संस्तारकस्य मार्गणम् । एवमप्यलभ्यमाने प्रान्तस्य संस्तारकखामिनः “दाणं" ति वेतनं दीयते, व्यवहारो वा करणं प्रविश्य कर्तव्य इति सङ्घहगाथासमासार्थः ॥ ४६२६ ॥ अथैनामेव विवृणोति __ भूणगगहिए खंतं, भणाइ खंतगहिते य से पुतं । असति ति न देमाणे, कुणति दवावेति व न वा उ ॥४६२७ ॥ भ्रूणकेन गृहीतं 'खन्तं' पितरं 'भणति' प्रज्ञापयति । खन्तेन तु गृहीते "से" तस्य पुत्रं भणति । उपलक्षणमिदम् , तेन भोजिकादिनाऽपि भाणयति । "असइ" ति एतद् ग्रहणपदम् अतो व्याचष्टे-"न देमाणे" त्ति एवमप्यददाने भोजिकादेर्निवेद्यते । ततो यदसौ बन्धन-15 रोधनादि करोति दापयति वा न वा तत् प्रमाणम् ॥ ४६२७॥ भोइय उत्तरउत्तर, नेयव्वं जाव पच्छिमो राया। दाणं विसजणं वा, दिहमदिढे इमं होइ ॥ ४६२८ ॥ प्रथमं भोगिकस्य निवेद्यते । यद्यसौ न दापयति ततो यस्तत्र देशारक्षकः स ज्ञाप्यते । एवमुत्तरोत्तरं तावद नेतव्यम् यावदपश्चिमो राजा । ततो "दाणं" ति भोजिकादयश्चौरसकाशाद 20 गृहीत्वा साधूनां संस्तारकं दद्युः । “विसजणं व" ति यद्वा ते भोगिकादयो भणेयुः-गच्छत यूयम्, वयं संस्तारकं संस्तारकखामिनः समर्पयिष्याम इति । एष विधिदृष्टे संस्तारकस्तेनके मन्तव्यः । अदृष्टे 'इदं' वक्ष्यमाणं भवति ॥ ४६२८ ॥ अथैनामेव गाथां व्याचष्टे खंताइसिट्टऽदिते, महतर किच्चकर भोइए वा वि । देसारक्खियऽमच्चे, करण निवे मा गुरू दंडो॥ ४६२९ ॥ "खंत" त्ति पिता तदादीनामनन्तरोक्तनीत्या शिष्टे-कथितेऽप्यददाने 'महत्तरस्य' ग्रामप्रधानपुरुषस्य कथयन्ति । 'कृत्यकरः' ग्रामकृत्ये नियुक्तः 'भोगिकः' ग्रामखामी तयोर्वा कथयन्ति । 'देशारक्षकः' महाबलाधिकृतः 'अमात्यः' राजमन्त्री तयोर्वा यथाक्रमं निवेद्यते । तथाऽप्यददाने करणेऽपि निवेदयन्ति । नृपस्य तु न निवेद्यते, 'गुरुः' गरीयान् सर्वस्वहरणादिको दण्डो भवेदिति कृत्वा ॥ ४६२९ ॥ 30 एए उ दवावेंती, अहव भणेजा स कस्स दायव्यो । अमुगस्स त्ति य भणिए, वचह तस्सऽप्पिणिस्सामो ॥ ४६३०॥ १°म्मि य जं कुणई, सो मग्गण दाण ववहारे ताभा० विना ॥ 25 Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [शय्या० प्रकृते सूत्रम् २४ 'एते' भोगिकादयो यदि दापयन्ति ततो लष्टम् । अथवा ते भणेयुः-स संस्तारकः कस्य दातव्यः ? इति; ततः साधुभिः 'अमुकस्य' इति भणिते ते ब्रुवते-बजत यूयम् , वयमेव तस्यार्पयिष्याम इति ॥ ४६३० ॥ जति सिं कजसमत्ती, वयंति इहरा उ घेत्तु संथारं । दिट्टे जाते चेवं, अदिट्ठऽणाए.इमा जयणा ॥ ४६३१ ॥ यदि "सिं" तेषां साधूनां तेन संस्तारकेण कार्यसमाप्तिः सञ्जाता मासकल्पश्च पूर्णस्ततो भोगिकादिभिर्विसर्जिता व्रजन्ति, 'इतरथा' संस्तारककार्येऽसमाप्तेऽपूर्णे मासकल्पे तं वाऽन्यं वा संस्तारकं गृहीत्वा परिभुञ्जते । एवं दृष्टे संस्तारके ज्ञाते वा स्तेने विधिरुक्तः । अदृष्टेऽज्ञाते चेयं यतना भवति ॥ ४६३१ ॥ 10 विजादीहि गवेसण, अद्दिटे भोइयस्स व कधेति । जो भद्दओ गवसति, पंते अणुसढिमाईणि ॥ ४६३२ ॥ विद्यादिभिः संस्तारकस्तेनस्य गवेषणा कर्तव्या । अथ न सन्ति विद्यादयस्ततोऽदृष्टेऽज्ञाते स्तेने भोगिकस्य कथयन्ति । ततो यो भद्रको भवति स खयमेव गवेषयति, यस्तु प्रान्तः स खयं न गवेषयति, ततस्तत्रानुशिठ्यादीनि पदानि प्रयोक्तव्यानि ॥ ४६३२ ॥ 15 एषा पुरातनगाथा, अत एनां व्याख्यानयति आभोगिणीय पसिणेण देवयाए निमित्ततो वा वि । एवं नाए जयणा, स चिय खंतादि जा राया ॥ ४६३३ ॥ आभोगिनी नाम विद्या सा भण्यते या परिजपिता सती मानसं परिच्छेदमुत्पादयति, सा यद्यस्ति ततस्तया येन संस्तारको गृहीतः स आभोग्यते । एवं 'प्रश्नेन' अङ्गुष्ठ-स्वप्नप्रश्नादिना, 20 देवतया वा क्षपकपृष्टया, निमित्तेन वा अविसंवादिना तं स्तेनं जानन्ति । एवं ज्ञाते सति सैव यतना कर्त्तव्या या खन्तादिगृहीते संस्तारके भणिता यावदपश्चिमो राजा ॥ ४६३३ ॥ एतेषामभावे विधिमाह विजादऽसई भोयादिकहण केण गहिओ न जाणऽम्हे । दीहो हु रायहत्थो, भद्दो आम ति मग्गति य ॥ ४६३४ ॥ 25 विद्यादीनामभावे न ज्ञायते केनापि गृहीत इति ततो भोगिकादीनां कथयन्ति-संस्तारकोऽस्माकं नष्टो वर्तते, यूयं तं गवेषयत । भोगिकः प्राह-केन गृहीतः ? । साधवो ब्रुवतेन जानीमो वयम् । भोगिकः प्राह-अज्ञायमानं कथं गवेषयामि ? । साधुभिर्वक्तव्यम्-----दी? हि राजहस्तो भवति, तेन हि गवेष्यमाणः सुखेनैव स्तेनः प्राप्येत । ततो यो भद्रको भवति सः 'आम' सत्यमिदम् इति भणित्वा मार्गयति ॥ ४६३४ ॥ प्रान्तः पुनरिदमाह30 जाणह जेण हडो सो, कत्थ विमग्गामि णं अजाणतो। इति पंते अणुसट्ठी-धम्म-निमित्ताइ तह चेव ॥ ४६३५ ॥ यः प्रान्तः स ब्रूयात्- 'जानीत यूयं येनासौ संस्तारको हृतः, अजानानस्तु कुत्राहं मार्ग१ तादिसु तहेव ताभा० ॥ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 भाष्यगाथाः ४६३१-३९] तृतीय उद्देशः । १२५१ यामि अदेशकवद् अन्धवद्वा ?' इति प्रान्ते ब्रुवाणेऽनुशिष्टि-धर्मकथा-निमित्तादि तथैव प्रयोक्तव्यम् ॥ ४६३५॥ असतीय भेसणं वा, भीया वा भोइयस्स व भएणं । साहित्थ दारमूले, पडिणीय इमेसु वि छुभेजा ॥ ४६३६ ॥ अथ नास्ति तत्र भोगिकोऽस्ति वा परं न दापयति तदा साधवो भेषणं कुर्वन्ति । ततो 3 भीता वा भोगिकस्य वा भयेन द्वारमूले 'संहरन्ति' संस्तारकं स्थापयन्तीत्यर्थः । यस्तु प्रत्यनीकः सः 'एतेष्वपि' पृथिव्यादिषु कायेषु प्रक्षिपेत् , 'यद्यस्माकं न जातस्तत एतेषामपि मा भूत्' इति कृत्वा । एष पुरातनगाथासमासार्थः ॥ ४६३६ ॥ अथैनामेव व्याख्याति भोइयमादीणऽसती, अदवावेंते व बिंति जणपुरओ। मुज्झीहामों सकजे, किह लोगमयाइँ जाणंता ॥ ४६३७॥ भोगिकादीनामभावे तेषु वा संस्तारकमदापयत्सु साधवो बहुजनस्य पुरतो ब्रुवते—वयं । लोकमतानि जानन्तः स्वकार्ये कथं मुह्यामहे ?, ये हि लोकस्य नष्टं विनष्टं विस्मृतं वा जानीमस्ते कथमात्मीयं न ज्ञास्यामः? इति भावः, अतो यद्यस्माकं संस्तारकं नार्पयथ ततो वयं जनपुरतस्तं हस्ते गृहीत्वा दापयिष्यामः ॥ ४६३७ ॥ अथ यूयं न प्रतीथ ततः पश्यथपेहुणतंदुल पच्चय, भीया साहंति भोइगस्सेते ।। 18 साहत्थि साहरन्ति व, दोण्ह वि मा होउ पडिणीए ॥ ४६३८ ॥ तन्दुला द्विविधाः क्रियन्ते-एके पेहुणमिश्रिता अपरे केवला एव । पेहुणं नाम-मयूराङ्गगिरः । तत एकः साधुः साधूनां मध्यादपसरति गृहस्थांश्च भणति-युष्माकं मध्यादेकः किमप्युपकरणं गृहातु । ततो गृहीते सति स साधुरागत्य भणति-पतया सर्वेऽपि तिष्ठत । स्थितेषु च स नैमित्तिकसाधुरुदकं तेषामञ्जलौ ददाति, येन च साधुना तद् गृह्यमाणं दृष्टं स 20 तन्दुलान् प्रयच्छन् येन गृहीतं तस्य पेहुणमिश्रितान् ददाति, ततो नैमित्तिकसाधुस्तानि पेहुणानि दृष्ट्वा भणति-अनेन गृहीतमिति । एवं प्रत्यये उत्पन्ने भीताश्चिन्तयन्ति–नूनमेते एवं ज्ञात्वा भोगिकस्य कथयिष्यन्ति, राजानं वा प्रत्याययिष्यन्ति । एवं विचिन्त्य खहस्तेन प्रतिश्रयद्वारमूले संस्तारकं स्थापयन्ति । प्रत्यनीका वा 'द्वयोरपि वर्गयोः' अस्माकममीषां च मा भूदिति बुद्ध्या एतेषु गत्वा संहरन्ति ॥ ४६३८ ॥ पुढवी आउकाए, अगड वणस्सइ-तसेसु साहरइ । [ओ.नि. २७४] चित्तूण य दायव्यो, अदिट्ठ दड्ढे य दोचं पि ॥ ४६३९ ॥ कश्चित् प्रत्यनीकः साधुसामाचारीकोविदः 'सचित्तपृथिव्यप्काय-वनस्पति-त्रसेषु प्रक्षिप्तं न ग्रहीष्यन्ति' इति बुद्ध्या तेषु 'अगडे वा' गर्तायां प्रक्षिपति । यद्यप्येतेषु प्रक्षिप्तस्तथापि ततो गृहीत्वा संस्तारकखामिनो दातव्यः । अथ प्रयत्नेन गवेषितोऽपि न कुत्रापि दृष्टः, यद्वा स 30 प्रत्यनीकतया तेन दग्धः ततः "दोचं पि" ति द्वितीयमपि वारमवग्रहमनुज्ञापयेत् ॥ ४६३९॥ परः प्राह-यथाऽहं भणामि तथा द्वितीयावग्रहोऽनुज्ञापनीयः । कथम् ? इति चेद १ न समर्पय भा० ॥ २ °रपि' अस्मा भा० ॥ ३°पु संह° डे० का० ॥ . 93 Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [ शय्या० प्रकृते सूत्रम् २४ उच्यते-स संस्तारकस्वामी न ज्ञाप्यते, यथा-नष्टः संस्तारकः, किन्तु गत्वा भणितव्यम्देहि तं संस्तारकं निर्देजमिदानीम् , एष द्वितीयावग्रह उच्यते । गुरुराह दिटुंत पडिहणेत्ता, जयणाए भद्दतो विसज्जेती । मग्गंते जयणाए, उवहिग्गहणे ततों विवाओ॥ ४६४० ॥ 5 दृष्टान्तो नाम-नोदकेन खमत्या योऽभिप्रायो दृष्टः तं 'प्रतिहन्य(त्य)' निराकृत्य संस्तारकखामिनो यतनया सद्भावः कथनीयः । कथिते च भद्रको विसर्जयति-गच्छत नाहं किञ्चिदपि भणामि । यः प्रान्तः स संस्तारकं मार्गयति तत्रानुशिष्टिः कर्त्तव्या । अथ नेच्छति तदा यतनया प्रान्तोपधितव्यः । अथ बलादेव सारोपधेर्ग्रहणं करोति ततो राजकुले विवादः कार्यः ॥ ४६४०॥ अमुमेवार्थं व्याख्याति परवयणाऽऽउट्टेउं, संथारं देहि तं तु गुरु एवं । आणेह भणति पंतो, तो णं दाहं ण दाहं वा ॥ ४६४१॥ परः-प्रेरकस्तस्य वचनमत्र भवति-"आउट्टेउं" ति धर्मकथया संस्तारकखामी आवर्त्य याच्यते-तं संस्तारकं निर्देशं प्रयच्छ । गुरुराह-एवं मायया याचमानस्य चतुर्गुरुकम्, भद्रक-प्रान्तकृताश्च दोषा भवन्ति । प्रान्तो भणति-आनयत तं संस्तारकं ततो दास्यामि वा 15 न वा ॥ ४६४१॥ किञ्च दिजंतो वि न गहिओ, किं सुहसेजो इयाणि सो जाओ। हिय नट्ठो वा नूणं, अथक्कजायाइ सूएमो ॥४६४२ ॥ दीयमानोऽपि तदा निर्देजो न गृहीतः, किमसौ संस्तारकः इदानीं सुखशय्यः सञ्जातः ? । अनया 'अथकयाच्या ' अकालप्रार्थनया 'सूचयामः' सूचां कुर्मः स नूनं हृतो वा नष्टो वा ॥ ४६४२॥ 20 भद्दो पुण अग्गहणं, जाणंतो वा वि विप्परिणमेजा। किं फुडमेव न सीसइ, इमे हु अन्ने वि संथारा ॥ ४६४३ ॥ यः पुनर्भद्रकः स साधुषु 'अग्रहणम्' अनादरं कुर्यात् , यो वा जानाति 'संस्तारको हृतो नष्टो वा' इति स सम्यग्दर्शन-प्रव्रज्याद्यभिमुखो विपरिणमेत्-अहो ! मायाविनोऽमी । विपरिणतश्च ब्रूयात्-किं स्फुटमेवास्माकं 'न शिष्यते' न कथ्यते यथा संस्तारको नष्टः !, किंमेवं मायया 25 याच्यते ?, इमे 'हुः' इति प्रत्यक्षमुपलभ्यमाना अन्येऽपि संस्तारकाः सन्ति ॥ ४६४३ ।। इइ चोयगदिटुंतं, पडिहंतुं सिस्सते से सब्भावो। भद्दो सो मम नट्ठो, मग्गामि न तो पुणो दाहं ॥ ४६४४ ॥ 'इतिः' उपप्रदर्शने । एवं भद्रक-प्रान्तदोषोपदर्शनेन 'नोदकदृष्टान्तं' पराभिप्रायं प्रतिहत्य तत्त्वमुच्यते-'तस्य' संस्तारकखामिनः सद्भावः 'शिष्यते' निवेद्यते । निवेदिते च भद्रको 30 भणति–स संस्तारको मम नष्टो न युष्माकम् , अद्य प्रभृति नाहं मार्गयामि, लब्धं तु त पुनरपि युष्मभ्यं दास्यामि ॥ ४६४४ ॥ तुम्भे वि ताव मग्गह, अहं पि झोसेमि मग्गह व अन्नं । नढे वि तुब्भऽणट्ठा, वदंति पंतेऽणुसद्वादी ॥ ४६४५ ॥ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४६४०-४९] तृतीय उद्देशः । १२५३ यूयमपि तावत् तं संम्तारकं मार्गयत, अहमपि तं "झोसेमि" त्ति गवेषयामि, अथ युष्माकं त्वरितं संस्तारकेण प्रयोजनं तदा यावदसौ लभ्यते तावदन्यं मार्गयत । यस्तु प्रान्तः स सद्भावे कथिते भणति-नष्टेऽपि संस्तारके यूयं मम न नष्टाः, यतो जानीथ ततः संस्तारकमानयत मूल्यं वा प्रयच्छत । एवं प्रान्ते 'वदति' ब्रुवाणेऽनुशिष्टि-धर्मकथा-विद्या-मन्त्रादि तथैव प्रयोक्तव्यम् ॥ ४६४५ ॥ तथाऽप्यतिष्ठति विद्यादीनामभावे वा मूल्यं मार्गयत इयं यतना-5 मोल्लं णत्थहिरण्णा, उवधिं मे देह पंतदायणया। अन्न व देंति फलगं, जयणाएं मग्गिउं तस्स ॥ ४६४६ ॥ अहिरण्या वयम्, नास्ति मूल्यम् । स ब्रूयात्-उपधिं प्रयच्छत । ततो येन साधुना स संस्तारक आनीतः तस्य सत्कमन्तप्रान्तमुपकरणं दर्शनीयम् । अन्यं वा फलकं यतनया मार्गयित्वा ददति । तच्च प्रथमतः शुद्धम् , तदभावे पञ्चकपरिहाण्या, राजकुले वा गत्वा व्यवहारः क्रियते--10 दत्त्वा दानमनीश्वर० ॥ इति ।। एतेन "मग्गण दाणं च ववहारे" (गा० ४६२६) त्ति पदं व्याख्यातम् ॥४६४६॥ सव्वे वि तत्थ रंभति, भद्दो मुल्लेण जाव अवरहे। एगं ठवेउ गमणं, सो वि य जावट्टमं काउं ॥४६४७॥ कोऽपि राजवल्लभादिः सर्वानपि साधूंस्तत्र निरुणद्धि ततो यदि कश्चिद् यथाभद्रको मूल्येन 15 मोचयति स न प्रतिषेद्धव्यः । अथ प्रतिषेधं कुर्वन्ति तदा चतुर्गुरु । अथ नास्ति मोचयिता ततोऽपराहं यावत् सर्वेऽपि सबाल-वृद्धास्तिष्ठन्ति । यदि न मुञ्चति तत एकं क्षपकादिकं स्थापयित्वा शेषाः सर्वेऽपि गच्छन्ति । सोऽपीदृशः स्थाप्यते योऽष्टमं कर्तुं समर्थो भवति । असमर्थस्थापने चतुर्गुरु । ततोऽसावष्टमं कृत्वा पलायते ॥ ४६४७ ॥ लद्धे तीरियकज्जा, तस्सेवऽप्येति अहव भुंजंति । 30 पभुलद्धे वऽसमत्ते, दोच्चोग्गह तस्स मूलाओ ॥ ४६४८॥ लब्धे संस्तारके यदि 'तीरितकार्याः' समाप्तप्रयोजनास्ततः 'तस्यैव' संस्तारकस्वामिनो अर्पयन्ति । अथ कार्यमसमाप्तं ततो भुञ्जते । अथ प्रभुणा-संस्तारकखामिना लब्धः साधूनां च कार्यमद्याप्यसमाप्तं ततस्तस्य मूलाद् यद् द्वितीयं वारमवग्रहोऽनुज्ञाप्यते एष सूत्रोक्तो द्वितीयावग्रहः ॥ ४६४८ ॥ अथ द्वितीयपदमाह बितियं पभुनिधिसए, णट्ठिय सुन्न मयमणप्पज्झे । असहू य रायदुद्वे, बोहिकभय सत्थ सीसे वा ॥ ४६४९ ।। ___ द्वितीयपदमत्र भवति-संस्तारकेण कार्य समाप्तम् , योऽपि संस्तारकस्य प्रभुः स राज्ञा निर्विषय आज्ञप्तः, देशभङ्गे वा नष्टः, दुर्भिक्षे वा 'उत्थितः' उद्वसितः, “सुन्ने" ति सपुत्र-दारः कुत्राप्यामन्त्रितः सन् गतो गृहं शून्यं सञ्जातम् , 'मृतो वा' कालगतः; एतानि गृहस्थकारणानि । अमूनि तु 30 संयतकारणानि-स साधुरसहिष्णुर्न शक्नोति गवेषयितुम् , राजद्विष्टे बोधिकभये वा अध्वशीर्षके वा सार्थवशगः । एतैः कारणैर्विप्रणष्टं संस्तारकं न गवेषयेत् , न च प्रायश्चित्तमाप्नुयात् ॥४६४९॥ ॥शय्यासंस्तारकप्रकृतं समाप्तम् ।। 25 १°णाएँ विमग्गिउं तस्सा ताभा०॥ २ सब्वे व तत्थ तामा० ॥ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 १२५४ 15 30 सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अवग्रहप्रकृते सूत्रम् २५ अव ग्रह प्र कृ त म् जद्दिवसं समणा निग्गंधा सिजा संधारयं विप्पजहंति तद्दिवसं अवरे समणा निग्गंथा हवमागच्छिना स चैत्र उग्गहस्स पुवाणुण्णवणा चिट्ठइ अहालंदमवि उग्गहे २५ ॥ सूत्रम् अस्य सूत्रस्य कः सम्बन्धः ? इत्याह 7 10 पूर्व सूत्रे तावदवग्रह एव 'प्रकृतः ' प्रस्तुतो वर्त्तते, "दोचं पि उग्गहं अणुण्णविता " (सू० २४ ) इति वचनात् इदमपि प्रकृतसूत्रमवग्रहविषयम् । यद्वा पूर्वसूत्रद्वये सागारिकावग्रह उक्तः, इह तु सागारिकावग्रहादनन्तरं साधर्मिकावग्रहः प्रतिपाद्यते । अथवा पूर्वसूत्रेषु संस्तारकं प्रत्यर्प्य विहारः कर्त्तव्य इत्युक्तम्, अत्र तु विहारे कृते तैः साधुभिर्विरहितमपि तत् क्षेत्रं कियन्तं कालमवग्रहयुक्तं भवति ? इति निरूप्यते । एष सम्बन्धः || ४६५० ॥ अनेनायातस्यास्य व्याख्या– “जद्दिवसं" ति प्राकृतत्वात् सप्तम्यर्थे द्वितीया, ततो यस्मिन् दिवसे श्रमणा निर्ग्रन्थाः शय्या च - वसतिः संस्तारकश्च - तृण- फलकात्मकः शय्या - संस्तारकम् । अत्र शय्याग्रहणेन ऋतुबद्धकालः सूचितः, संस्तारकग्रहणेन तु वर्षाकालः, अथवा कारणजाते ऋतुबद्धेऽपि संस्तारको गृह्यते इति कृत्वा संस्तारकग्रहणेन द्वावपि गृहीतौ; ततो मासकल्पे वर्षावासे वा पूर्णे शय्यां संस्तारकं वा यस्मिन् दिवसे पूर्वस्थिताः साधवः 'विप्रजहति' परित्य20 जन्ति तद्दिवस एवापरे श्रमणा निर्ग्रन्थास्तत्र क्षेत्रे "हबं" शीघ्रमागच्छेयुः ततः सैवावग्रहस्य पूर्वानुज्ञापना तिष्ठति । किमुक्तं भवति ? — य एव ततः क्षेत्राद् निर्गतास्तेषामेवावग्रहे तत् क्षेत्रम्, ये तु तद्दिवसमन्ये आगतास्ते क्षेत्रोपसम्पन्ना इति कृत्वा यत् तत्र सचितादिकं तत् पूर्वस्थितानामाभाव्यम् । कियन्तं कालं यावद् ? इत्याह - " अहालंदमवि उग्गहे " इह यस्यां वेलायां ते साधवो निर्गतास्तावतीं वेलां यावद् द्वितीयेऽप्यहि तेषामेवावग्रहो भवतीति वक्ष्यते, 25 ततः यथालन्दम् इहाष्ट पौरुषी प्रमाणं मध्यमं गृह्यते, एतावन्तमपि कालं तदीय एवावग्रहे तत् क्षेत्रम्, अतो यद्यागन्तुकास्तत्र सचित्तादिग्रहणं कुर्वन्ति तदा साधर्मिकस्तैन्यप्रत्ययं प्रायश्चित्तमापद्यन्ते । अत्र तु सचित्तेनाधिकार इति सूत्रार्थः ॥ अथ निर्युक्तिविस्तरः, तत्र सचित्तावग्रहः शैक्षविषय इति कृत्वा प्रथमतस्तदुत्पत्तिं दर्शयति —– उग्गह एव उपगतो, सागारियउग्गहाउ साहम्मी । रहितं व होइ खित्तं, केवतिकालेस संबंधो ॥ ४६५० ॥ सुत्त-त्थ तदुभयविसारए य खमए य धम्मकहि वाई । कालदुअम्मि वसंते, उवसंतों स-अण्णगामजणो ।। ४६५१ ॥ १ एतच्चिद्धान्तर्गतः पाठः भा० नास्ति ॥ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४६५०-५५] तृतीय उद्देशः । १२५५ 'कालद्वये' ऋतुबद्ध-वर्षावासलक्षणे क्वचित् क्षेत्रे वसतां स्वग्रामजनः-सक्रोशयोजनाभ्यन्तरवर्ती अन्यग्रामजनश्च 'उपशान्तः' प्रतिवुद्धः । कथम् ? इत्याह-सूत्रार्थतदुभयविशारद आचार्यः सातिशयं प्रवचनव्याख्यानं करोति, क्षपको मासक्षपणादि तपस्तप्यते, धर्मकथी क्षीराश्रवादिलब्धिसम्पन्नतया वैराग्यजननी धर्मकथां विदधाति, वादी परवादिनं निरुत्तरीकरोति । एवमादिभिः प्रभावकैः स्वग्रामीणोऽन्यग्रामीणश्च भूयान् जनः प्रव्रज्यायां परिणतः कृतः॥४६५१॥ । नीरोगेण सिवेण य, वासावासासु णिग्गया साहू । अण्णे वि य विहरंता, तं चेव य आगया खित्तं ॥ ४६५२ ॥ 'नीरोगेण' ग्लान्याभावेन 'शिवेन च' राजदौस्थ्याद्युपप्लवाभावेन वर्षावासं कृत्वा ते साधवो निर्गताः । इह 'वर्षावासे भूयान् काल एकत्र स्थीयते, ततः प्रभूतलोकस्योपशमो भवति' इत्यभिप्रायेण वर्षावासग्रहणं कृतम् , अन्यथा ऋतुबद्धेऽपि मासकल्पानन्तरमेव विहारः सम्भ-10 वति । एवं ते ततः क्षेत्राद् निर्गता अन्ये च साधवो विहरन्तस्तदेव क्षेत्रमागताः॥ ४६५२ ॥ तत्रावग्रह चिन्तां चिकीर्षुराह खित्तोग्गहप्पमाणं, तदिवसं केति केतऽहोरत्तं । जं वेल णिग्गयाणं, तं वेलं अण्ण दिवसम्मि ।। ४६५३ ॥ इह केचिदाचार्याः क्षेत्रावग्रहस्य कालप्रमाणं ब्रुवते—यस्मिन् दिवसे ते निर्गतास्तमेवैकं 15 दिवसमवग्रहः, तत ऊर्दू रात्राववग्रहो व्यवच्छिद्यते । केचित्तु भणन्ति-अहोरात्रमवग्रहः, द्वितीयेऽह्नि सूर्योदयेऽवग्रहो व्यवच्छिद्यत इति भावः । सूरिराह-द्वावप्येतावनादेशी, अयं पुनरादेशः-- यस्यां वेलायां निर्गतास्तामेव वेलां यावदन्यस्मिन् दिवसेऽवग्रहो भवति, ततः परं व्यवच्छिद्यते । इत्थं कालतः प्रमाणमुक्तम् । क्षेत्रतस्तु सर्वतः सक्रोशं योजनमवग्रहः, तत ऊर्द्धमनवग्रह इति ॥ ४६५३ ॥ खेत्तम्मि य वसहीय य, उग्गहों तहिं सेहमग्गणा होइ । ते वि य पुरिसा दुविहा, रूवं जाणं अजाणं च ॥ ४६५४ ॥ इहावग्रहः क्षेत्रे वा भवेद् वसतौ वा । यद् इन्द्रकीलादिवर्जितं ग्राम-नगरांदि तदिह क्षेत्रं मन्तव्यम् , तत्रावग्रहं प्रतीत्य शैक्षमार्गणा कर्तव्या, कस्याऽऽभवति ? कस्य वा न ? इति विचारयितव्यमित्यर्थः । यत् पुनरिन्द्रकीलादियुक्तं तदवग्रहयोग्य क्षेत्रं न भवतीत्यक्षेत्रमभिधीयते, 25 तत्र वसतिविषया शैक्षमार्गणा भवति, सा चोपरिष्टात् करिष्यते । क्षेत्रविषयां तावत् करोति"ते वि य" इत्यादि, ये पुरुषास्तत्र क्षेत्रे प्रव्रज्यां ग्रहीतुमायातास्ते द्विविधाः-एके रूपं जानन्तोऽपरेऽजानन्तः ॥ ४६५४ ॥ इदमेव व्यक्तीकरोति जाणंतमजाणंता, चउव्विहा तत्थ होति जाणंता। उभयं एवं सद, चउत्थओ होइ जसकित्तिं ॥ ४६५५ ॥ ___ जानन्तोऽजानन्तश्चेति शैक्षा द्विविधाः । तत्र जानन्त्रस्तावत् चतुर्विधाः, तद्यथा-एकः शैक्षो विवक्षितक्षेत्रस्थितस्याचार्यादेः 'उभयं रूपं शब्दं च जानाति, धर्मकथाश्रवणार्थं समागतो १णा विधया । यथाप्रतिज्ञातमेव करोति-"त वि य" भा० ॥ 20 30 Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अवग्रहप्रकृते सूत्रम् २५ रूपेण खरेण च तमुपलक्षयतीत्यर्थः । द्वितीयो रूपं जानाति न शव्दम् , तृतीयः शब्दं न रूपम् , चतुर्थकः पुनर्यशःकीर्ति जानाति । यशः-सर्वदिग्गामिनी प्रसिद्धिः, सैवैकदिग्गामिनी कीर्तिः, यशउपलक्षिता कीर्तिः यशःकीर्तिरिति समासः । यस्तु रूप-शब्द-यशःकीर्तीनामेकमपि न जानाति सोऽजानान उच्यते ॥ ४६५५ ॥ 5 अथ द्वितीयभनमादौ कृत्वा यथाक्रमममूनेव भङ्गान् व्याचष्टे उच्चारचेइगातिसु, पासति रूवं विणिग्गयस्सेगो । रति उति णितो, कासगमादी सुणति सदं ॥ ४६५६ ॥ चउथो पुण जसकित्ति, सुणेइ सग्गाम-वसभवासी वा । उभयं रूवं सदं, कित्तिं च ण जाणते चरिमो॥ ४६५७॥ 10 उच्चारभूमि-चैत्यवन्दनादिषु कार्येषु विनिर्गतस्याचार्यादे रूपम् एकः' द्वितीयः शैक्षः पश्यति न पुनः खरेण जानीते, उपाश्रये तस्यानागमनात् । तृतीयस्तु शैक्षः 'कर्षकादिः' कर्षकः-कृषीवलस्तत्प्रभृतिकः सकलमपि दिवसं क्षेत्रादौ स्थित्वा 'रात्रौ' प्रदोषे गृहमुपागच्छन् प्रभाते च भूयोऽपि निर्गच्छन् धर्मकथायाः परिवर्तनाया वा शब्दं शृणोति न तु रूपमवलोकते ॥ ४६५६ ॥ 15 चतुर्थस्तु शैक्षः खग्रामवासी प्रतिवृषभग्रामवासी वा दूरस्थः सन् न रूपं पश्यति न च धर्मकथादिशब्दं शृणोति, किन्तु लोकमुखेन तेषामाचार्यादीनां यशःकीर्तिं शृणोति । यस्तु 'चरमः' अजानानः शैक्षः स रूप-शब्दात्मकमुभयं कीर्ति च न जानाति, परं गृहवासनिर्विण्णतया प्रवज्यां ग्रहीतुमायातः । एवं वास्तव्यशैक्षः पञ्चविध उक्तः ॥ ४६५७ ॥ वायाहडो वि एवं, पंचविहो होइ आणुपुवीए ।। एएसिं सेहाणं, पत्तेयं मग्गणा इणमो ॥ ४६५८ ॥ 'वाताहृतो नाम' आगन्तुकशैक्षः सोऽपि ‘एवमेव' वास्तव्यशैक्षवत् पञ्चविधः 'आनुपूर्व्या' यथोक्तपरिपाट्या वक्तव्यः । अथैतेषां दशानामपि शैक्षाणां 'प्रत्येक' पृथक् पृथग् 'इयम्' एतेषु द्वारेषु 'मार्गणा' विचारणा भवति ।। ४६५८ ॥ . तान्येव द्वाराण्यभिघित्सुः श्लोकचतुष्टयमाह अव्वाघाए पुणो दाई, जावज्जीव पराजिए। पढम-बिइयदिवसेसुं, कहं कप्पो उ जाणते ॥ ४६५९ ॥ जाणाविए कहं कप्पो, वत्थव्वे वाताहडे ति य । उज्जू अणुजुए या वि, कहं कप्पोऽभिधारणे ॥४६६० ॥ एगग्गामे अतिच्छंते, कहं कप्पो विहिजते । दुविहा मग्गणा सीसे, एगविहा य पडिच्छए ॥ ४६६१॥ पडिसेहियवच्चंते, कहं कप्पो विहिजइ । संगारदिण्णते यावि, कहं कप्पो विहिजइ ॥४६६२ ॥ १ तद्यथा-अव्वा भा०॥ 20 2D Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४६५६-६४] तृतीय उद्देशः । १२५७ न विद्यते व्याघातः-प्रव्रज्याविन्नो यस्य सोऽव्याघातः शैक्षः, पूर्वसाधुपु क्षेत्रान्निर्गतेष्वपि प्रव्रज्यां गृह्णाति न पुनः कालक्षेपं करोतीति भावः । "पुणो दाइं" ति 'पुनः' 'भूयोऽपि यदा किल ते साधवः समायास्यन्ति तदा प्रव्रजिष्यामि' इति कश्चित् शैक्षो ब्रूयात् । “जाक्जीव पसजिए" ति 'यदा यदाऽहं प्रव्रजितुमभिलषामि तदा तदा नवैर्नवैविघ्नैरुत्तिष्ठमानैर्यावज्जीवमहं पराजितः, अत एव मे साम्प्रतमपि व्याघात उत्थितो यदेवं साधवो विहारं कृतवन्तः' इति । कश्चिद् ब्रूयात् । एषां शैक्षाणामेकतरे प्रथम-द्वितीयदिवसयोः प्रव्रजितुमुपस्थिते 'ज्ञायके' रूपशब्दादिज्ञे 'कथं' केन प्रकारेण 'कल्पः' पूर्वसाधुसमीपप्रेषणादिको विधिविधीयते ॥४६५९॥ ___ तथा वास्तव्ये वा वाताहृते वा 'त्वमस्माकं नाभवसिं' इति ज्ञापिते कथं कल्पो भवेत् । । ऋजुर्नाम-य आचार्यादिरेतान् शैक्षान् पूर्वसाधुसमीपे प्रहिणोति, तद्विपरीतोऽनृजुः, एतयोश्चिन्ता कर्तव्या । अभिधारणम्-एकमनेकान् वा साधून मनस्याधाय शैक्षस्य गमनम् , तत्र कथमा-10 भाव्या-ऽनाभाव्यतायाः कल्पः क्रियते ॥ ४६६०॥ “एगग्गामे" त्ति यत्र ग्रामे क्षेत्रिकाः स्थितास्तत्रैव केनापि धर्मकथिना कोऽपि मिथ्यादृष्टिरुपशमितः स कस्याऽऽभवति ? । “अइच्छंते" ति कमप्याचार्यमभिधार्यातिकामति विवक्षितक्षेत्रमतीत्याग्रतो गच्छति शैक्षे कथं कल्पो विधीयते ! । तथा 'शिष्ये शिष्यविषया 'द्विविधा' सज्ञातका-ऽसज्ञातकशैक्षभेदाद् द्विप्रकारा मार्गणा भवति । प्रतीच्छके च 'एकविधा केवल-15 संज्ञातकविषया मार्गणा ॥ ४६६१ ॥ "पडिसेहियवचंते" ति भगवता प्रतिषिद्धम्-लानप्रतिचरणाव्याप्रतैः शैक्षों न प्रनाजनीयः, ये तु तं प्रव्राज्यान्यत्र प्रेषयन्ति तैः प्रेषिते तस्मिन् गच्छान्तरं व्रजति कथं कल्पो विधीयते ? । सङ्गारः-सङ्केतः स दत्तो यस्य शैक्षस्य स सङ्गारदत्तः, आहिताम्यादेराकृतिगणत्वात् क्तान्तस्य परनिपातः, तस्मिन्नपि कथं कल्पो विधीयते ? इति । एतत् सर्वे निरूपणीयमिति 20 द्वारश्लोकचतुष्टयसमासार्थः ॥ ४६६२ ।। अथ विस्तरार्थं बिभणिषुः प्रथमतो ये पूर्वमुभयज्ञादयः पुरुषा उक्तास्तद्विषयकवक्ष्यमाणप्रेषणभेदसङ्ग्रहायाह चत्तारि णवग जाणंतगम्मि जाणाविए वि चत्तारि । अभिधारणम्मि एए, खित्तम्मि विपरिणया वा वि ॥ ४६६३ ॥ यः पूर्वमुभयज्ञ-रूपज्ञादिभेदात् चतुर्धा ज्ञायक उक्तः तत्र प्रत्येकं चत्वारः 'नवकाः' प्रेषण-25 विषया नवप्रकाररूपा भवन्ति । तथा योऽजानानः सन् साधुभिः 'त्वमस्माकं नाभवसि किन्तु पूर्वसाधूनाम्' इत्येवं ज्ञापितस्तत्रापि चत्वारो नवकाः । अभिधारणं नाम-मनसिकरणम्, ततः क्षेत्रिकं मनसिकृत्य यदि एते' अव्याघातादय आगतास्तदा विपरिणता अपि क्षेत्रस्वामिन एवाभाव्या इति सहाहगाथासमासार्थः ॥ ४६६३ ॥ अथैनामेव विवरीषुरव्याघातद्वारमङ्गीकृत्य तावदाह पियमप्पियं से भावं, दटुं पुच्छितु तस्स साहति । कत्थ गता ते भगवं, पुट्ठा व भणंति किं तेहिं ॥ ४६६४ ।। १°ता क्रिय. का. भा० विना ॥ २ °षये वक्ष्यमाणभेद कां ॥ 80 -- Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अवग्रहप्रकृते सूत्रम् २५ क्षेत्रिकेषु निर्गतेषु योऽसावुभयज्ञः शैक्षः सः 'प्रव्रजामि' इत्यभिप्रायेणागतो यावदागन्तुकान् साधून पश्यति ततस्ते साधवस्तस्य प्रियमप्रियं वा भावं प्रहसितमुखतया दीनमुखतया वा दृष्ट्या पृच्छन्ति–किमेवं प्रहृष्टवदनश्चिन्तापरो वा दृश्यसे ? । एवं पृष्ट्वा तेन स्वस्वरूपे कथिते सति "साहति" सद्भावं कथयन्ति, यथा---गतास्तेऽन्यत्र विहारेणेति । यद्वा स खयमेव पृच्छेत्5 कुत्र गतास्ते भगवन्तः । एवं पृष्टाः सन्तो भणन्ति-किं तैर्भवतः प्रयोजनम् ? ॥४६६४ ॥ स प्राह पव्यइहं ति य भणिते, अमुगत्थ गया वयं ति दिक्खेउं । तेसि समीवं णेमो, ण य वाहणते तयं सो य ॥ ४६६५ ॥ 'प्रव्रजिष्याम्यहम्' इति तेन भणिते साधवो वदन्ति--ते क्षेत्रिका अमुकत्र ग्रामादौ गताः, 10 वयं भवन्तं 'दीक्षयित्वा' प्रव्राज्य तेषां समीपे नयामः, स च 'तकम्' अनन्तरोक्तं वचनं 'न च' नैव व्याहन्ति, न विकुट्टयति-तथेति प्रतिपद्यते इत्यर्थः, एषोऽव्याघात उच्यते ॥ ४६६५ ।। संघाडग एगेणं, पंथुवएसे व मुंडिए तिण्णि । इइ तरुण मज्झ थेरे, एकेके तिनि नव एते ॥ ४६६६ ॥ ततः साधवस्तं प्रव्राज्य सङ्घाटकेन सह क्षेत्रिकाणामन्तिके प्रेषयन्ति १, अथ सङ्घाटको न 16 पूर्यते तत एकं साधुं सहायं दत्त्वा मुत्कलयन्ति २, तस्याप्यभावे एकाकिनमपि विसर्जयन्ति परं पन्थानमुपदिशेयुः ३, एते तरुणस्य त्रयः प्रकाराः, मध्यम-स्थविरयोरप्येवमेव प्रत्येकं त्रयः, एते नव भवन्ति ९ । एष प्रथमो नवकः ॥ ४६६६ ॥ पढमदिणे सग्गामे, एगो णवगो बितिजए बितिओ। एमेव परग्गामे, पढमे बितिए य वे णवगा ॥ ४६६७॥ 20 एषः ‘एकः' प्रथमो नवकः प्रथमदिने स्वग्रामे प्रत्राज्य प्रेषयतां मन्तव्यः, द्वितीये दिवसे एवमेव द्वितीयो नवकः, एवं खग्रामे द्वौ नवकावुक्तौ । परनामेऽपि 'एवमेव' प्रथम-द्वितीयदिवसयोद्वौ नवको । एवमेते चत्वारो नवका मुण्डितं प्रेषयतां भवन्ति ॥ ४६६७ ॥ एमेव अमुंडिस्स वि, चउरो णवगा हवंति कायया । एमेव य इत्थीण वि, णवगाण चउक्कगा दुण्णि ॥ ४६६८॥ 25 एवमेवामुण्डितस्यापि प्रेष्यमाणस्य चत्वारो नवकाः कर्त्तव्या भवन्ति । एवमेते द्वे नवक चतुष्टये पुरुषाणामुक्ते । स्त्रीणामप्येवमेव द्वौ नवकानां चतुष्को सङ्घाटका-ऽऽत्मद्वितीयादिभिः प्रकारैः कर्त्तव्यौ । अथ क्षेत्रिकाणामन्तिके न प्रेषयन्ति किन्तु स्वयमेव स्वीकुर्वन्ति ततश्चत्वारो गुरुकाः ॥ ४६६८ ॥ अथ किमर्थममुण्डितं प्रेषयन्ति ? इति उच्यते सागारियसंकाए, णिच्छति घिच्छंति वा सयं मा मे । ते व अद8 पुणरवि, पञ्चेहममुंडितो एवं ॥ ४६६९ ॥ __ सागारिकाः-सज्ञातकास्तेषां शङ्कया-'माममी उत्पत्राजयेयुः' इति बुद्ध्या स्वग्रामे नेच्छति स शैक्षः प्रवजितुम् । यद्वा अमी साधवः प्रव्राज्य मा मां ग्रहीप्यन्ति, यदि च तान् साधून् १°य वुत्ते, अमु' तामा० ॥ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४६६५ -७४] तृतीय उद्देशः । १२५९ न द्रक्ष्यामि ततः पुनरप्यत्रैव 'प्रत्येष्यामि' प्रत्यागमनं करिष्ये इति बुद्ध्या नागन्तुकैरात्मानं मुण्डापयति, एवममुण्डितं प्रेषयन्ति ॥ ४६६९ ॥ एवं तावदुभयज्ञविषयो विधिरुक्तः, अथ रूपज्ञादिविषयं तमेवातिदिशन्नाह - एसेव य णवगकमो, सद्दं रूवं व होइ जाणंते । जो पुण कित्ति जाणति, ण ते वयं सिस्सते तस्स ॥ ४६७० ॥ 5 एष एव नवकमः शब्दं रूपं च जानति शैक्षे वक्तव्यः, शब्दज्ञे रूपज्ञे चेत्यर्थः । यः पुनः शैक्षः कीर्त्तिमेव जानाति न रूपं न वा शब्दं तस्य 'शिष्यते' निवेद्यते - ते वयं न भवामो येषां सकाशे भवान् प्रत्रजितुमायात इति ॥ ४६७० ॥ ततो ब्रूयात् -- किं व न कप्पर तुब्भं, दिक्खेडं तेसि तं ण अम्हं ति । तत्थ वि सो चेव गमो, णवगाणं जो पुरा भणितो ॥ ४६७१ ॥ किं वा युष्माकं दीक्षयितुं न कल्पते ? । ततः साधुभिर्वक्तव्यम् — तेषामेव त्वमाभवसि नास्माकम् । एवमुक्ते यद्यसौ भणति - यद्येवं तर्हि मां प्रत्राज्य तत्र प्रेषयत अमुण्डितं वा विसर्ज - यत; ततस्तत्रापि स एव ‘गमः' प्रकारो यः सङ्घाटका -ऽऽत्मद्वितीयादिभिर्भेदैर्निष्पन्नानां नवकानां पुरा भणितः ॥ ४६७१ ॥ अथ “अभिधारणम्मि एए, खित्तम्मि विपरिणया वा वि" ( गा० ४६६३ ) इति पश्चार्धं व्याचष्टे -> विपरिणया वि जति ते, अम्हे तुझं भणंतऽलं तेहिं । तहविया विते तेर्सि, अव्वाहयमादिया होंति ।। ४६७२ ॥ ये अव्याघातादयो वाताहृतान्ता शैक्षा अत्र प्रस्तुतास्ते क्षेत्रिकमभिधार्य प्रथममागता अपि कुतोऽपि तस्तं प्रति विपरिणताः सन्तो यद्यागन्तुकान् भणन्ति – वयं युष्माकं सकाशे प्रव्रजिष्यामः 'अलं' पर्याप्तं 'तैः' पूर्वसाधुभिरिति; 'तथाऽपि' एवं ब्रुवाणा अपि 'ते' अव्याह - 20 तादयः 'तेषाम्' आगन्तुकानां न भवन्ति, किन्तु क्षेत्रिकस्यैवेति ॥ ४६७२ ॥ जं कल्ले कायव्वं, परेण अजेव तं वरं काउं । म अकलुणहिअओ, न हु दीसह आवयंतो वि ॥ ४६७४ ॥ 'यद्' दीक्षाग्रहणादि कार्यं 'कल्ये' द्वितीयदिने नरेण कर्त्तव्यं तदद्यैव कर्तुं 'वरं' प्रशस्यम्, १ एतदन्तर्गत मवतरणं भ० नास्ति ॥ 10 गतमव्याघातद्वारम् । अथ “पुणो दाई” ( गा० ४६५९ ) ति द्वारमाह - एहिंति पुणो दाई, पुढे सिद्वंसि ईय भणमाणा । बहुदो से माणुस्से, अणुसासण णवग तह चैत्र । ४६७३ ॥ आगन्तुकसाधूनां समीपे 'कुत्र गताः ?' इति पृष्टे ततस्तैः 'शिष्टे' 'अमुकन्त्र गताः' इति 25 कथिते स शैक्षो ब्रूयात् – “एहिंति पुणो दाई” ति यदा ते पुनरत्रागमिष्यन्ति तदा प्रव्रजिष्यामि “ईय” एवं भणन् स वक्तव्यः – सौम्य ! 'बहुदोषे' बह्वन्तराये मानुष्ये मा प्रमादं कृथाः । एवमनुशासनं कृत्वा 'तथैव' नवकगमेन प्रेषणं कर्त्तव्यम् ॥ ४६७३ ॥ अनुशासनमेव विशेषत उपदर्शयति - 15 30 Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके वृहत्कल्पसूत्रे [अवग्रहप्रकृते सूत्रम् २५ यतो मृत्युः 'अकरुणहृदयः' स्वभावादेः कठोराशयः तथा कथमप्यापनति यथा आपतन्नपि न दृश्यते । उक्तं च श्वःकार्यमद्य कुर्वीत, पूर्वाह्ने चापरालिकम् । को हि तद् वेत्ति कस्याद्य, मृत्युसेनाऽऽपतिष्यति ॥ ॥४६७४ ॥ 6 तथा तूरह धम्म काउं, मा हु पमायं खणं पि कुव्वित्था । बहुविग्घो हु मुहुत्तो, मा अवरण्हं पडिच्छाहि ॥ ४६७५ ॥ भो भव्याः ! त्वरध्वं धर्म कर्तुम् , मा क्षणमपि प्रमादं कुरुध्वम् । कुतः ? इत्याह-बहवःशूल-विष-विसूचिका-शस्त्रघाता-ऽमिदाहादिभेदादनेके विघ्नाः-जीवितान्तराया यत्रासौ बहु10 विघ्नः, हुशब्दो यस्मादर्थे, अपिशब्दस्य चानुक्तस्यापि गम्यमानत्वाद् यस्माद् मुहूर्तोऽपि बहुविघ्नः, आस्तां प्रहर-दिवसादिः, अतो महाभाग ! मा प्रव्रज्याग्रहणेऽपरालमपि प्रतीक्षिष्ठाः । एवमनुशासनं कृत्वा चतुर्भिर्नवकैस्तथैव प्रेषणीयम् ॥ ४६७५ ।। ___ गतं "पुणो दाई" ति द्वारम् । अथ यावज्जीवपराजितद्वारमाह बहुसो उपट्टियस्सा, विग्घा उढिति जज्जिय जितो मि । अणुसासण पत्थवणं, णवगा य भवे समुंडियरे ॥ ४६७६ ॥ क्षेत्रिकाणां गमनवृत्तान्तं ज्ञात्वा कोऽपि शैक्षो ब्रूयात्-'बहुशः' अनेकशः प्रव्रज्याग्रहणायोपस्थितोऽहम् , परं वारंवारं विना नवनवा उत्तिष्ठन्ते, अतो "जज्जियं" यावज्जीवमहं विर्जितोऽस्मि, यदेवं ते साधवो विहृतवन्तः, अतः परं तेषु समागतेषु प्रव्रजिष्यामि । एवं ब्रुवाणस्यानुशासनं कर्तव्यम्-भद्र ! साम्प्रतं तव चारित्रावारककर्मणामनुदयो वर्तते, अतो 20 मा प्रमादीः, को जानाति भूयोऽपि तेषामुदयो भवेत् ?; आवश्यकाभिहितश्च (नियु० गा० ८३२ पत्र ३४५-१) कूर्मचर्मदृष्टान्तस्तत्पुरतः प्ररूपणीयः । एवमनुशिष्य प्रस्थापनं कर्तव्यम् । तत्र च तथैव मुण्डितेतरयोः प्रत्येकं चत्वारो नवका भवन्ति । एवं प्रथमद्वितीयदिवसयोरव्याहतानां कल्पो विधीयते ॥ ४६७६ ॥ अथ "ज्ञापिते कथं कल्पो वास्तव्ये वाताहृतेऽपि च" (गा० ४६६०) इति द्वारमाह वाताहडे वि णवगा, तहेव जाणाविए य इयरे य । एमेव य वत्थव्वे, णवगाण गमो अजाणते ॥ ४६७७ ॥ वाताहृतो द्विधा-ज्ञापित इतरश्च । यः क्षेत्रिकाणां यशःकीर्तिमपि न जानाति स आगन्तुकसाधुभिः 'त्वमस्माकं नाभवसि, ये गतास्तेषामेवाभवसि' इति सद्भावावगमं कारितो ज्ञापित १°; चर्म भा० ॥ २ आवश्यकाभिहितः कुर्मचर्मदृष्टान्तोऽयम्-“एगो दहो जोयणसयसहस्सविच्छिण्णो चम्मेण णद्धो । एग से मज्झे छि९ जत्थ कच्छभस्स गीवा मायति । तत्थ कच्छभो वाससते वाससते गते गीवं पसारेति । तेण कह वि गीवा पसारिता, जाव तेण छिडेण णिग्गता । तेण जोतिसं दिट्ट् कोमुदीए पुप्फ-फलाणि य। सो आगतो 'सयणिज्जयाणं दाएमि' आणेत्ता सव्वतो पलोएति, ण पेच्छति । भवि सो, ण य माणुसातो ॥" ३°तादीनां भा० डे० ॥ 25 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 भाप्यगाथाः ४६७५-८३] तृतीय उद्देशः । १२६१ उच्यते, इतरी नाम-यशःकीर्तिज्ञः । तत्र ज्ञापिते 'इतरसिंध' वाताहृते प्रवजितुमायाते तथैव चत्वारो नवका भवन्ति । वास्तव्योऽपि शैक्षो यः क्षेत्रिकाणां यशःकीर्तिमपि न जानाति तत्रापि नवकानां गम एवमेव मन्तव्यः ।। ४३७७ ॥ अथ वास्तव्यो वाताहृतो वा यशःकीर्तिमपि न जानाति स कीदृशो भवेत् ? उच्यते वत्थव्वे वायाहड, सेवग परतित्थि वणिय सेहे य ।। सव्वेतें उजुगो अप्पिणाइ मेलाइ वा जत्थ ॥४६७८ ॥ वास्तव्यो वा वाताहृतो वा यो राजकुलसेवको यो वा परतीर्थिको यश्च वणिग् एते अस. निहितत्वेन यशःकीर्तिमपि गुरूणां न जानीयुः, परं प्रथमद्वितीयदिवसयोः प्रबजितुमायातास्तेऽपि क्षेत्रिकाणामाभाव्याः । अथ ऋजु-अनृजुद्वारचिन्ता क्रियते-य आचार्य ऋजुर्भवति स सर्वानप्येतान् क्षेत्रिकाणामर्पयति, यत्र वा क्षेत्रिका भवन्ति तत्र सङ्घाटकादिभिः प्रकारैः 10 प्रेषयित्वा तैः सह मीलयति ॥ ४६७८ ॥ माइल्ले बारसगं, जाणग जाणाविए य चत्तारि । वत्थव्वे वायाहड, ण लभति चउरो अणुग्धाया ॥४६७९ ॥ यस्तु 'मायावी' अनृजुः स न प्रेषयति, तत्र च प्रकाराणां द्वादशकं भवति, तच्चाने वक्ष्यते । तथा ज्ञायके ज्ञापिते च समुदिताश्चत्वारः प्रकारा भवन्ति, तद्यथा-ज्ञायकं प्रथमदिवसे न 15 प्रेषयति १, द्वितीये तमेव न प्रेषयति, २, एवं ज्ञापितस्यापि द्वौ प्रकारौ । एतैर्वक्ष्यमाणैश्च प्रकारैर्वास्तव्यं वाताहृतं वाऽप्रेषयतश्चत्वारोऽनुद्धाता मासाः, न च तान् शिष्यान् लभते, कुलस्थविरादिभिर्बलात् क्षेत्रिकाणां दाप्यते इत्यर्थः ॥ ४६७९ ॥ अथात्रैव प्रायश्चित्तवृद्धिमाह सत्तरत्तं तवो होती, ततो छेदो पहावई । छेदेण छिण्णपरियाए, तओ मूलं तओ दुगं ॥ ४६८०॥ 20 प्रागिव (गा० १५५८) द्रष्टव्यम् ॥ ४६८० ॥ प्रकारद्वादशकमाह तरुणे मज्झिम थेरे, तद्दिण बितिए य छक्कगं इकं । एमेव परग्गामे, छकं एमेव इत्थीसु ॥ ४६८१ ॥ पुरिसित्थिगाण एते, दो बारसगा उ मुंडिए होति । एमेव य ससिहम्मि य, जाणग जाणाविए भयणा ॥ ४६८२॥ 25 तरुण-मध्यम-स्थविरान् प्रत्येकं तद्दिवसे द्वितीयदिने वाऽप्रेषयत एकं प्रकारषदकं भवति. एतच्च खग्रामविषयम् , परनामेऽपि एवमेव प्रकारषट्कम् । सर्वेऽप्येते द्वादश प्रकाराः पुरुषेष भणिताः । एवमेव च स्त्रीष्वपि प्रकारद्वादशकं भवति ।। ४६८१ ॥ __ एते द्वे द्वादशके पुरुष-स्त्रीणां मुण्डितविषये भवतः । एवमेव च सशिखाकेऽपि शैक्षे द्वादशकद्वयम् । तदेवं ज्ञायके ज्ञापिते च प्रत्येकं "भयण" ति भनकविकल्पास्तेषां चत्वारि 30 द्वादशकानि भवन्ति ॥ ४६८२ ।। अथवा अव्याहए पुणो दाति, जावजीवपरादिए । तद्दिण बीयदिणे या, सग्गामियरे य बारसहा ।। ४६८३ ॥ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अवग्रहप्रकृते सूत्रम् २५ अव्याहतः पुनरागतप्रव्रजितो यावज्जीवपराजितश्चेति त्रयः शैक्षाः । एतान् तदिने द्वितीयदिने वाऽप्रेषयतः प्रकारषट्कम् । एतच्च खग्रामे 'इतरसिंश्च' परनामे भवतीति कृत्वा द्वाभ्यां गुणितं द्वादशधा भवति ॥ ४६८३ ॥ अथ ऋजु-अनृजुलक्षणमाह जाणंतमजाणते, णेइ व पेसेइ वा अमाइल्लो । सो चेव उजुओ खलु, अणुअतो जो ण अप्पेति ॥ ४६८४ ॥ जानतो अजानतो वा शैक्षान् योऽमायावी स क्षेत्रिकाणां समीपे खयं नयति वा परहस्तेन वा प्रेषयति स एव ऋजुक उच्यते । अनृजुस्तु सोऽभिधीयते यो नार्पयति न वा प्रेषयति ॥ ४६८४ ॥ अथैते वास्तव्या वाताहृता जानन्तोऽजानन्तो वाऽनृजुभिः प्रवाजिताः कथं पश्चात् परिज्ञायन्ते ? उच्यते-स्नाना-ऽनुयानादिषु यत्र मिलितास्तत्र क्षेत्रिकैः कश्चिदनृजुप्र. 10 व्रजितो वाताहृतः पृष्टः-कथं भवान् प्रव्रजितः ?, स भणति तुभ चिय णीसाए, मि आगतो दिक्खितो बला णेहिं । अम्हे किमपव्वइया, पुट्ठा व ण ते परिकहेंसु ॥४६८५ ॥ युष्माकमेव निश्रया अहमागतः अमीभिश्च बलाद् दीक्षितः, मया भृशममी पृष्टास्तत एभिराख्यातम्-वयं किं प्रव्रजिता न भवामो यदेवं तान् मार्गयसि ?; यद्वा न ते पृष्टाः सन्तः 16 किमप्याख्यातवन्तः ॥ ४६८५ ॥ एवं रूप-शब्द-यशःकीर्तिज्ञो वक्ति । यस्तु कीर्तिमपि न जानाति स ब्रूयात् वायाहडो तु पुट्ठो, भणाइ अमुगदिण अमुगकालम्मि । एतेहिं दिक्खितोऽहं, तुम्हे वि सुणामि तत्थाऽऽसी ॥ ४६८६ ।। तुशब्दस्य विशेषणार्थतया यो वाताहृतो यशःकीर्तेरप्यज्ञायकः स पृष्टो भणति-'अमु90 कदिने' प्रतिपदादौ अमुष्मिन् काले-मार्गशीर्षादौ मासे दीक्षितोऽहमेतैः, दीक्षानन्तरं च शृणोमि, यथा-यूयमपि तत्रासीरन्निति ॥ ४६८६ ॥ एमेव य जसकित्ति, जाणतो जो य तं ण जाणाति । तस्स वि तहेव पुच्छा, पावयणी वा जदा जातो ॥ ४६८७॥ ___ एवमेव वास्तव्योऽपि यो यशःकीर्ति जानाति यश्च तां न जानाति तस्यापि तथैव स्नानादौ 26 यदा पृच्छा कृता भवति तदा ज्ञायते । यदा वाऽसौ 'प्रावचनिकः' बहुश्रुतो जातः तदा खयमेव जानाति-नाहममीषामाभाव्यः ॥ ४६८७॥ एवं तावत् सचित्तविषयो विधिरुक्तः । अथाचित्तादिविषयं तमेवातिदिशन्नाह एमेव य अचित्ते, दुविहे उवधिम्मि मीसते चेय । पुच्छा अपुव्वमुवहिं, दट्टण अणुजुभूयाणं ॥ ४६८८ ॥ so एवमेवाचित्ते 'द्विविधे' ओघोपग्रहोपधिभेदाद द्विप्रकारे उपधौ ‘मिश्रके च' सोपधिकशैक्षे विधिमन्तव्यः । कथं पुनरसावाभाव्योऽनाभाव्यो वा ज्ञायते ? इत्याह- 'अपूर्व' सारतरमुपधिं दृष्ट्वा अनृजुभूतानां तेषामन्तिके पृच्छा भवति, क्षेत्रिकैरयं कदा कुत्र वा गृहीतः ?' इत्येवं ते प्रष्टव्या इति भावः ॥ ४३८॥ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६३ भाष्यगाथाः ४६८४-९२] तृतीय उद्देशः । एवं वासावासे, उडुबद्धे पंथें जत्थ वा अति । ___ सव्वत्थ होति उग्गहों, केसिंचि पतीवदिटुंतो ॥ ४६८९ ॥ एवं वर्षावासे ऋतुबद्धे वा विधिर्मन्तव्यः । एतच्च सचित्तमङ्गीकृत्योक्तम् । अचिते तु वर्षावासे वा ऋतुबद्धे वा मासद्वयं दिवसपञ्चकं च पूर्वावग्रह इति, पथि वा व्रजतां यत्र काप्याचार्यस्तिष्ठति तत्र सर्वतः सक्रोशं योजनमवग्रहो भवति, तत्राप्येवमेव सचित्तादीनामाभाव्या-ऽनाभाव्यविधिरवसातव्यः । केषाश्चिदाचार्याणामयमभिप्रायः--मार्ग गच्छतां पृष्ठतो वा नास्त्यवग्रहः; अयं चानादेशः । कुतः ? इत्याह-प्रदीपदृष्टान्तोऽत्र भवति । यथा हि प्रदीपः सर्वतः प्रकाशयति नैकामपि दिशं प्रकाशशून्यां करोति, एवमवग्रहोऽपि सर्वतो भवति, न कुत्रचिन्न भवत्यपीति ॥ ४६८९ ॥ एवं तावत् क्षेत्रे सचित्तादिविषयो विधिरुक्तः। अथाक्षेत्रे तमेवातिदिशति 10 अक्खित्ते वसधीए, जाणग जाणाविए वि एमेव । उजुगमणुजगे या, सो चेव गमो हवइ तत्थ ॥ ४६९०॥ 'अक्षेत्रे' इन्द्रकीलादियुक्ते नगरादौ सक्रोशं योजनमवग्रहो न भवति, किन्तु तत्र यस्यां वसतौ यः पूर्व स्थितस्तस्यां सचित्तादिकं यदुपतिष्ठते तत् तस्य आभवति, न पश्चादागतानाम् । तत्रापि य एव क्षेत्रे गम उक्तः स एव सर्वोऽपि ज्ञायके ज्ञापिते च ऋजुकेऽनृजुके च 15 वक्तव्य इति ॥ ४६९०॥ अथ "कथं कल्पोऽभिधारणे" ( गा० ४६६०) इति निर्वचन्नाह अणिदिट्ठ सण्णऽसण्णी, गहिता-गहिए य ओह सच्छंदो। णिदिट्ट लिंगसहितो, सण्णी तस्सेव णऽण्णस्स ॥ ४६९१ ॥ 'अभिधारणं' प्रव्रज्यार्थमाचार्यादेर्मनसा सङ्कल्पनम् , तच्च द्विधा-अनिर्दिष्टं निर्दिष्टं च । 20 अनिर्दिष्टं नाम-अभिधारयन् कमप्याचार्य विशेषतो न निर्दिशति । स चाभिधारको द्विधा--- संज्ञी असंज्ञी च । पुनरेकैको द्विधा-गृहीतलिङ्गोऽगृहीतलिङ्गश्च । एष सर्वोऽप्योघतः-सामान्येनाचार्यविशेषमनिर्दिश्य वजन् स्वच्छन्द आभाव्यो भवति, यस्यान्तिके प्रव्रजति तस्यैवासौ शिष्य इत्यर्थः । निर्दिष्टं पुनः-अभिधारणं तदुच्यते यत्र 'अमुकस्याचार्यस्य समीपे प्रवजिष्यामि' इति निर्देशं करोति । एषोऽपि द्विधा-संज्ञी असंज्ञी च । भूय एकैको द्विधा-25 लिङ्गसहितो लिङ्गरहितश्च । तत्र लिङ्गसहितः संज्ञी यमाचार्यमभिधार्य गच्छति विपरिणतोऽपि तस्यैवासौ भवति, नान्यस्य ॥ ४६९१ ॥ निद्दिढे अस्सण्णी, गहिया-ऽगहिए य अगहिए सण्णी। तस्सेव अविपरिणते, विपरिणते जस्स से इच्छा ॥ ४६९२ ॥ योऽसंज्ञी स गृहीतलिङ्गो अगृहीतलिङ्गो वा भवतु, यस्तु 'संज्ञी' श्रावकः सोऽगृहीत-30 लिङ्गः एते त्रयोऽप्यविपरिणते भावे यं निर्दिष्टमाचार्यमभिधार्य गच्छन्ति तस्यैवाभवन्ति । अथ तं प्रति भावो विपरिणतस्ततो यस्य सकाशे तेषां प्रबजितुमिच्छा तस्यैव ते शिष्याः ॥ ४६९२ ॥ अथ किं कारणं लिङ्गसहितो बजति ? इत्याद .... Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अवग्रहप्रकृते सूत्रम् २५ चारिय-समुदाणहा, तेणग गिहिपंत धम्मसड्डा वा । एएहिँ लिंगसहितो, सण्णी व सिया असण्णी वा ॥४६९३ ॥ चारिकः-हेरिकस्तद्विषया शङ्का मा भूदिति बुद्ध्या लिङ्गं गृहीत्वा व्रजति, तथा समुदानभैक्षं तदर्थ लिङ्गं गृहाति, गृहीतलिङ्गो हि सुखेनैव भिक्षामाप्नोति । स्तेना वाऽपान्तराले गृहिप्रान्ता धर्मश्रद्धालबो वा तिष्ठन्ति । एतैः कारणैः संज्ञी वा असंज्ञी वा साधुसामाचारीनिपुणो लिङ्गसहितः स्यादिति ॥ ४६९३ ॥ इह यो निर्दिश्य व्रजति स एकमनेकान् वा निर्दिशेत् । तत्र यो अनेकान् निर्दिशति स एवं सङ्कल्पयति-'यो मे प्रतिभासिष्यते तस्य सकाशे प्रव्रजिष्यामि' तद्विषयं विधिमाह णेगा उद्दिस्स गतो, लिंगेणऽप्फालितो तु एक्केणं । 10 दटुं च अचक्खुस्सं, णिद्दिट्टऽण्णं गतो तस्स ।। ४६९४ ॥ अनेकानाचार्यानुद्दिश्य लिङ्गेन सहितो बहूनां निर्दिष्टानामन्तिके गतः । तत्र चैकेन 'आस्फालितः' सादरमाभाषितो यदि तमभ्युपगतस्तदा तस्यैवासौ शिष्यः । अथाभाषितोऽपि तम् 'अचक्षुण्यम्' अनिर्दिष्टं दृष्ट्वा निर्दिष्टमेवान्यं कमप्यभ्युपगतस्तदा तस्याभवति ॥ ४६९४ ।। इदमेव सविशेषमाह निविट्ठमणिदिडं, अन्भुवगय लिंगि नो लभइ अण्णो । लिंगी व अलिंगी वा, स च्छंदेण अणिदिह्रो ॥४६९५ ॥ निर्दिष्टमनिर्दिष्टं वा आचार्यमभिधार्य गच्छन् 'लिङ्गी' लिङ्गसहितः शैक्षो यमाचार्यमभ्युपगतस्तस्यैवाभवति, 'नो' नैवान्यस्तं लभते । यस्तु 'अनिर्दिष्टः' नाद्यापि कमप्यभ्युपगतः स लिङ्गी वा भवतु अलिङ्गी वा सः 'छन्देन' यमभिरोचयति तस्याभवति ॥ ४६९५ ॥ 20 एमेव असिहसण्णी, णिहिट्ठस्सुवगतो ण अण्णस्स । अब्भुवगतो वि ससिहो, जस्सिच्छति दो व अस्सण्णी ॥ ४६९६ ॥ यथा लिङ्गसहितः संज्ञी निर्दिष्टानां बहूनां मध्ये यमेवाभ्युपगतस्तस्यैवाभवति, एवमेवाशिखाकोऽपि संज्ञी बहून् निर्दिश्यागतो यस्यैव निर्दिष्टस्यान्तिके 'उपगतः' प्रव्रजितुं परिणतस्तस्यैवासौ शिप्यो भवति नान्यस्य । यस्तु सशिखाकः संज्ञी स कमप्यभ्युपगतोऽपि यदि पश्चाद् 25 विपरिणतस्तदा यस्यान्तिके प्रव्रजितुमिच्छति तस्याभवति । "दो व अस्सणि" ति 'द्वौ वा' अशिखाक-सशिखाकलक्षणौ यो असंज्ञिनौ तावपि पूर्व कञ्चनाभ्युपगतौ पश्चाद् विपरिणतौ खच्छन्देन यदुपकण्ठे प्रव्रजतस्तस्याभाव्यौ ॥ ४६९६ ॥ ____ अस्यैवार्थस्य सुखावबोधाय भङ्गकानाह निद्दिट्ट सनि अब्भुवगतेतरे अट्ट लिंगिणो भंगा। एवमसिहे वि ससिहे, वि अट्ठ सव्वे वि चउवीसं ॥ ४६९७ ॥ कमप्याचार्य निर्दिश्य गच्छन् निर्दिष्टः, 'संज्ञी' श्रावकः, 'अभ्युपगतः' प्रव्रजितुं परिणतः एतैत्रिभिः पदैः "इयरे" ति प्रतिपक्षपदसहितैरष्टौ भनाः 'लिङ्गिनः' लिङ्गसहितस्य गच्छतो १°क्षामवामो भा० का० ॥ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४६९३-४५००१ तृतीय उद्देशः । १२६५ भवन्ति । तथाहि-निर्दिष्टः संज्ञी अभ्युपगतः १ निर्दिष्टः संज्ञी अनभ्युपगतः २ निर्दिष्टोऽसंज्ञी अभ्युपगतः ३ निर्दिष्टोऽसंज्ञी अनभ्युपगतः ४, अनिर्दिष्टपदेनाप्येवमेव चत्वारो भना लभ्यन्ते, एते अष्टौ भङ्गा लिङ्गिन उक्ताः । अशिखाके सशिखाकेऽपि चैवमेव प्रत्येकमष्टौ भङ्गा भवन्ति । सर्वेऽप्येते मीलिताश्चतुर्विशतिरुपजायन्ते ॥ ४६९७॥ एतेषु विधिमाहपढम-बिति-ततिय-पंचम-सत्तम-नव-तेरसेसु भंगेसु । । विप्परिणतो वि तस्सेव होइ सेसेसु सच्छंदो ॥ ४६९८॥ प्रथम-द्वितीय-तृतीय-पञ्चम-सप्तम-नवम-त्रयोदशेषु भङ्गेषु विपरिणतोऽपि यं निर्दिश्यागतो यं वा अभ्युपगतस्तस्यैवाभवति । 'शेषेषु' चतुर्थ-षष्ठा-ऽष्टम-दशमैकादश-द्वादश-चतुर्दशादिषु चतुर्विशान्तेषु सप्तदशसु भङ्गेपु 'स्वच्छन्दः' खेच्छा, यः प्रतिभाति तस्यैवाभवतीत्यर्थः ॥ ४६९८ ॥ इदमेव व्यक्तीकुर्वन्नाह 10 सव्वो लिंगी असिहो, य सावतो जस्स अन्भुवगतो सो। णिहिट्ठसण्णिलिंगी, तस्सेवाणभुवगतो वि ॥ ४६९९ ॥ सो लिङ्गी अशिखाकश्च श्रावको यस्यान्तिकेऽभ्युपगतः स एव तं लभते । किमुक्तं . भवति?-यो लिङ्गसहितोऽभ्युपगतः स निर्दिष्टोऽनिर्दिष्टो वा संज्ञी असंज्ञी वा भवतु, यश्चाशिखाकः श्रावकोऽभ्युपगतः सोऽपि निर्दिष्टोऽनिर्दिष्टो वा भवतु, एष सर्वोऽपि यमेवाभ्यु-16 पगतो विपरिणतोऽपि तस्यैवाभवति । एतेन प्रथम-तृतीय-पञ्चम-सप्तम नवम-त्रयोदशभङ्गाः सूचिताः । तथा यो लिङ्गी निर्दिष्टः संज्ञी च स यद्यप्यनभ्युपगतस्तथापि यमेव निर्दिश्यागतः तस्यैवाभवति, न पुनर्विपरिणतोऽप्यन्यस्य, अनेन द्वितीयो भङ्गो गृहीतः । शेषेषु तु सप्तदशखपि भङ्गेषु यत्राभ्युपगतस्तत्राविपरिणतस्तस्यैव, विपरिणतस्तु खेच्छया; यत्र तु नाभ्युपगतस्तत्र विपरिणतोऽविपरिणतो वा यथाखच्छन्दमाभाव्य इति ॥ ४६९९ ॥ 20 गतं "कथं कल्पोऽभिधारणे" इति द्वारम् । अथैकग्रामे इति द्वारमाह अस्सन्नी उवसमितो, अप्पणों इच्छाइ अण्णहिं तस्स । दणं च परिणए, उवसामितें जस्स वा खित्तं ॥ ४७००॥ केनचिद् धर्मकथिना कश्चिद् 'असंज्ञी' मिथ्यादृष्टिः 'उपशमितः' प्रव्रज्याभिमुखीकृतः स यावद् नाद्यापि सम्यक्तवं प्रतिपद्यते तावत् प्रव्रजन् क्षेत्रिकस्याभवति । अथ सम्यक्त्वं प्रतिपन्नः 25 तच्च क्षेत्रमन्यस्याचार्यस्य सत्कं ततोऽसावात्मन इच्छया आभवति; यदि क्षेत्रिकस्योपतिष्ठते ततस्तस्यैव, अथोपशमयत उपस्थितस्तत उपशामयत एव, एतौ द्वौ मुक्त्वाऽन्यस्य नाभवति । "अन्नहिं" ति अथ 'अन्यत्र' क्षेत्रा बहिरुपशमितस्तदा तस्योपशमकस्याभवति । अथ धर्मकथिनाऽपि नोपशामितः परमन्यं कमप्याचार्यादिकं दृष्ट्वा खयमेव प्रव्रज्यायां परिणतस्ततोऽसौ क्षेत्राद् बहिरुपशान्तः उपशमिन आभवति, मूर्चिदर्शनद्वारेणोपशमनकारिण इत्यर्थः । अथ क्षेत्रान्तरुप-30 शान्तस्ततो यस्य सत्कं क्षेत्रं तस्याभाव्यः ॥ ४७०० ॥ अमुमेवार्थ सविशेषमाह परखित्ते वसमाणो, अइकमंतो व ण लभति असणि । छंदेण पुव्वसण्णि, गाहितसम्माति सो लभति ॥ ४७०१॥ . Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अवग्रहप्रकृते सूत्रम् २५ परक्षेत्रे मासकल्पेन वर्षावासेन वा वसन् 'अतिक्रामन् वा' परक्षेत्रमग्रतो गन्तुमनास्तत्रावस्थितः ‘असंज्ञिनम्' अप्रतिपन्नसम्यक्त्वं स्वयमुपशमितमपि न लभते । अथ कञ्चिन्मिथ्यादृष्टिं सम्यक्त्वम् आदिशब्दादणुव्रतानि वा ग्राहयित्वा क्षेत्रान्तरं गतः भूयोऽप्यन्यदा तदेव क्षेत्रमायातः, स च प्रागुपशामित इदानीं पूर्वसंज्ञी लभ्यते, ततस्तं पूर्वसंज्ञिनं सम्यक्त्वादिग्राहितं 'सः' 5 उपशमकश्छन्देन लभते । किमुक्तं भवति?-उपशमिकं क्षेत्रिकं वा यमसावभिरोचयति तस्याभवति । एवं त्रयाणां वर्षाणामारतो मन्तव्यः, त्रिषु वर्षेषु पूर्णेषु स पूर्वसंज्ञी क्षेत्रिकस्यैवाभाव्यः, नोपशामयतः । आह च चूर्णिकृत्-"तिसु वरिसेसु पुण्णेसु खेत्तियस्सेवामवति, न उवसार्मितस्स" त्ति ॥ ४७०१॥ गतमेकग्रामद्वारम् । अथ 'अतिक्रामन्'द्वारमाह ___ मग्गंतों अन्नखित्ते, अभिधारंतो उ भावतो तस्स । खित्तम्मि खित्तियस्सा, बाहिं वा परिणतो तस्स ॥४७०२॥ शैक्षः कञ्चिदाचार्य मार्गयन् व्रजति, तस्य च 'अन्यक्षेत्रे' परकीयक्षेत्राभ्यन्तरे पथि गच्छतः कश्चिद् धर्मकथी मिलितः, स यद्याकर्षणहेतोस्तस्य धर्म कथयति तदा यमाचार्यमभिधारयन् व्रजति तस्याभवति, न कथयतः । अथ 'भावतः' खभावादेव कथयति ततस्तस्य धर्मकथि कस्याभवति । तुशब्दो विशेषणे, स चैतद् विशिनष्टि–यदि क्षेत्राभ्यन्तरे स्वभावतः कथयति 16 ततः क्षेत्रिकस्याभाव्यः, अथ क्षेत्राद बहिस्ततो धर्मकथिनः । अथान्तराऽन्तरा तस्य भावः परिणमते निवर्तते च ततः क्षेत्रे 'परिणतः' प्रव्रज्याभिमुखीभूतः क्षेत्रिकस्याभवति, बहिस्तु परिणतः 'तस्य' कथयत आभाव्य इति ॥ ४७०२ ॥ इदमेव व्याचष्टे अभिधारिंतो वच्चति, पुच्छित्ता साह वच्चतो तस्स । परिसागतो व कहई, कढणहेउं न तं लभति ॥ ४७०३ ॥ 20 कश्चिदाचार्यमभिधारयन् शैक्षो व्रजति, तस्य कोऽपि साधुः पथि गच्छन् मिलितः, तेन च पृष्टः--अमुक आचार्यः कुत्राऽऽस्ते ?; साधुराह-किं तेन भवतः प्रयोजनम् ?; स प्राह-तस्यान्तिके प्रव्रजितुकामोऽहम् ; एवं पृष्ट्वा तस्य व्रजत एवाकर्षणहेतोः “साह" ति धर्म कथयति । यद्वा ग्रामे कापि पर्षदन्तर्गतस्य धर्म कथयत उपस्थितस्ततो वन्दित्वा तथैव खाभिप्राये कथिते स आकर्षणहेतोर्विशेषतो धर्म कथयति, कथिते च यद्यसौ प्रबजितुमभिलपति ततो 25 न तं शैक्षं लभते, अभिधारिताचार्यस्यैव स आभवति ॥ ४७०३ ॥ उज्जु कहए परिणतं, अंतो खित्तस्स खित्तिओ लभइ । खिचबहिं तु परिणयं, लभतुजु कही ण खलु मादी ॥ ४७०४ ॥ अथासौ 'कथकः' धर्मकथी ऋजुकः सद्भावतः कथयति नाकर्षणहेतोः, स च प्रव्रज्यायां परिणतः ततः क्षेत्रान्तः परिणतं क्षेत्रिको लभते, क्षेत्रबहिः परिणतं तु ऋजुको धर्मकथी लभते 30 न खलु 'मायी' मायावान् ॥ ४७०४ ॥ परिणमइ अंतरा अंतरा य भावो णियत्तति ततो से । खित्तम्मि खेत्तियस्सा, बाहिं तु परिणतो तस्स ॥ ४७०५॥ १ कहयति, क° ताभा० ॥ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४७०२-१०] तृतीय उद्देशः । १२६७ अथान्तराऽन्तरा तस्य भावः प्रव्रज्यां प्रति परिणमते निवर्चते वा ततः क्षेत्रे परिणतः क्षेत्रिकस्याभवति बहिस्तु परिणतः 'तस्य' धर्मकथिन आभवतीति ॥ ४७०५ ॥ गतम् 'अति. क्रामन्'द्वारम् । अथ "द्विविधा मार्गणा शिष्ये एकविधा च प्रतीच्छके" (गा० ४६६१) इति यदुक्तं तत्र प्रतीच्छकविषयां तावदेकविधां केवलसज्ञातकविषयां मार्गणामाह माया पिया व भाया, भगिणी पुत्तो तहेव धूता य ।। छप्पे नालबद्धा, सेसे पंभवंति आयरिया ॥ ४७०६ ।। माता पिता भ्राता भगिनी पुत्रस्तथैव दुहिता च, षडप्येतेऽनन्तरवल्लीमधिकृत्य नालबद्धा मन्तव्याः । एते चाभिधारयन्तः प्रतीच्छकस्याभवन्ति । उपलक्षणमिदम् , तेन परम्परावल्लीबद्धा अपि वक्ष्यमाणाः षोडश जना अभिधारयन्तस्तस्यैवाभवन्ति । शेषास्तु-ये नालबद्धा न भवन्ति तेषु आचार्याः प्रभवन्ति, न प्रतीच्छकः ॥ ४७०६ ॥ 10 इदमेव व्यक्तीकुर्वन् परम्परावल्ली प्रतिपादयति माउम्माया य पिया, भाया भगिणी य एव पिउणो वि । भातादिपुत्त-धूता, सोलसगं छ च बावीसं ॥ ४७०७ ।। बावीस लभति एए, पडिच्छओ जति य तमभिधारती । अभिधारमणमिधारे, णायमणातेतरे ण लमे ॥ ४७०८॥ 16 मातुः सम्बन्धिनो माता पिता भ्राता भगिनी चेति चत्वारो जनाः ४, पितुः सम्बन्धिनोऽप्येवमेव चत्वारो जनाः ८, "भायाइपुत्त-धूय" ति भ्रातुः सम्बन्धी पुत्रो दुहिता चेति जनद्वयम् १०, आदिशब्दाद् भगिन्या अप्यपत्यं भागिनेयो भागिनेयी चेति द्वयम् १२, पुत्रस्यापत्यं पौत्रः पौत्री चेति द्वयम् १४, दुहितुरपत्यं दौहित्रो दौहित्री चेति द्वयम् १६, सर्वसङ्ख्यया षोडशकं भवति । षट् चाऽनन्तरवल्लीजना अत्र प्रक्षिप्यन्ते, ततो द्वाविंशतिर्भवति ॥ ४७०७ ।। 20 द्वाविंशतिमप्येतान् जनान् प्रतीच्छको लभते यदि च 'तं' प्रतीच्छकम् 'अभिधारयन्ति' मनसि कुर्वन्ति, अनभिधारयन्तस्तु तेऽप्याचार्यस्यैवाभाव्या इति भावः । इतरे-उक्तव्यतिरिक्तास्तानभिधारयतो वा अनभिधारयतो वा ज्ञातकान् वाऽज्ञातकान् वा प्रतीच्छको न लभते॥४७०८॥ अथ शिष्यविषयां द्विविधां मार्गणामाहनायगमणायगा पुण, सीसे अभिधारमणभिधारे य । 25 दोक्खर-खरदिटुंता, सव्वे वि भवंति आयरिए ॥ ४७०९॥ द्विविधा मार्गणा नाम-ये शिष्यस्य 'ज्ञातकाः' खजना ये च 'अज्ञातकाः' अखजनास्ते तमभिधारयन्तो वाऽनभिधारयन्तो वा सर्वेऽप्याचार्यस्याभवन्ति न शिष्यस्य । कुतः ? इत्याह'यक्षर-खरदृष्टान्तात्' "दासेण मे खरो कीओ, दासो वि मे खरो वि मे।" इति निदर्शनात् ॥ ४७०९ ॥ अथ "पडिसेहिय वचंते कहं कप्पो विहिज्जइ" (गा० ४६६२) इति द्वारं 30 निरूपयन्नाह पुव्वुप्पन्नगिलाणे, असंथरंते य चउगुरू छण्हं । वयमाण एगें संघाडए य छप्पेते ण उभंति ॥ १७१० ॥ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६८ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अवग्रहप्रकृते सूत्रम् २५ एकत्र ग्रामे गच्छः स्थितः, तेषां च ग्लान उत्पन्नः, तत्प्रतिचरणे साधवो व्यापृताः सन्तः सर्वेऽपि भिक्षामटितुं न प्रभवन्ति, ततश्चासंस्तरणं सञ्जातम् । एवं ग्लाने पूर्वोत्पन्ने संस्तरतां शैक्ष उपस्थितः, ते च ग्लानकार्यव्यापृततया शैक्षं वर्त्तापयितुं न पारयन्ति, अतो भगवद्भिः प्रतिषिद्धम् — न तैः शैक्षो दीक्षणीयः, यदि दीक्षयन्ति ततश्चतुर्गुरुकाः । अथ लोभदोषेणा5मीषां षण्णां प्रकाराणामन्यतरेण प्रेषयन्ति – “ वयमाण" इत्यादि, तं शैक्षं मुण्डयित्वा 'ज त्वमेकाक्येवामुकाचार्थसन्निधौ' इति वदन्तो विसर्जयन्ति यद्वा तस्यैकं कमपि सहायं सङ्घाटकं वा समर्पयन्ति, एते त्रयः प्रकारा मुण्डितस्य भवन्ति; अमुण्डितस्याप्येत एव त्रयः; एते षडपि तं शैक्षं न लभन्ते, षड्भिः प्रकारैः प्रेषयन्त इत्यर्थः । येषां समीपे प्रेषयन्ति तेषामेवासौ शिष्यः ॥ ४७१० ॥ अथात्मसमीपे स्थापयन्ति तत इमे दोषा::-D 10 आयरिय - गिलाणे गुरुगा, सेहस्सा अकरणम्मि चउलहुगा । परितावणणिफण्णं, दुहतो भंगे य मूलं तु ॥ ४७११ ॥ शैक्षं प्रव्राज्य तद्वैयावृत्यव्याकुलाः सन्तो यद्याचार्याणां ग्लानस्य वा वैयावृत्यं न कुर्वन्ति चतुर्गुरुकाः । अथ शैक्षस्य न कुर्वन्ति चतुर्लघुकाः । अथ ग्लानादीनामनागाढमागाढं वा परितापना भवति ततस्तन्निष्पन्नम् । “दुहतो भंगे य” त्ति शैक्षस्य यदुन्निष्क्रमणं ग्लानस्य यद् 15 मरणम् एष द्विधा भङ्ग उच्यते तत्र मूलं भवति ॥ ४७११ ॥ अथ द्वितीयपदमाह– संथरमाणे पच्छा, जायं गहिते व पच्छ गेलन्नं । अपाइए पव्वइए, संघाडेगे व वयमाणे ॥ ४७१२ ॥ इह गच्छे ग्लानो विद्यते परं नागाढं ग्लानत्वम्, ततः संस्तरति तैः शैक्षमपि वर्त्तापयितुमाचार्याणामपि कर्तुमेवं प्रव्राजितः शैक्षः, पश्चाच्च ग्लानत्वमागाढं समजनि, तत्रोद्वर्तन-परिव20 र्त्तनादिव्यापृता एके तावद् भिक्षां न हिण्डन्ते, येsपि हिण्डन्ते तेऽपि न शक्नुवन्ति सर्वेषाम पर्याप्तमानेतुम्, एवमसंस्तरणं जातम् ; यद्वा मूलत एव ग्लानत्वं पूर्वं नासीत् किन्तु पश्चाच्छैक्षे 'गृहीते' पत्राजिते सति' ग्लानत्वमुत्पन्नं ततोऽसौ षङ्गिः प्रकारैः प्रेषणीयः । तद्यथा - 'अप्रत्र - जितः ' मुण्डितः, 'प्रत्रजितः ' मुण्डितः । एष द्विविधोऽपि त्रिधा - सङ्घाटकेन एकसाधुना "वयमाणे” त्ति एकाकी व्रजेति ब्रुवाणैः, एकाकित्वेनेत्यर्थः ॥ ४७१२ ॥ 25 अथ "संथरमाणे पच्छा जायं" ति पदं विशेषतो व्याचष्टे नागाढं पउणिस्सर, अचिरेणं तं च जायमागाढं । सेहं वट्टावे, ण तरंति गिलाण किच्चं च ।। ४७१३ ॥ पूर्वमनागाढं ग्लानत्वं भवेत्, ततः शैक्षे उपस्थिते चिन्तितम् — अचिरेणैवायं ग्लानः प्रगुणीभविष्यति; ततः शैक्षे प्रत्राजिते तद् ग्लानत्वमागाढं जातम्, ततस्ते शैक्षं वर्त्तापयितुं 30 ग्लानकृत्यं च कर्त्तुं समकमेव "न तरंति" न शक्नुवन्ति, अतोऽन्येषां समीपे प्रेषयन्तः शुद्धाः ॥ ४७१३ ॥ अपडिच्छणेतरेसिं, जं सेहवियावडा उ पावंति । १ एतदन्तर्गतमवतरणं भा० नास्ति ॥ २ अत्र द्वि° भा० कां० ॥ ३ °ति तदुत्प' भा० ॥ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४७११-१८] तृतीय उद्देशः । १२६९ तं चेव पुव्वभणियं, परितावण-सेहभंगाइ ॥ ४७१४ ॥ इतरे नाम-येषां समीपे प्रेष्यते यदि ते न प्रतीच्छन्ति तदा चतुर्गुरुकाः, यच्च ते शैक्षव्यापृताः प्राप्नुवन्ति तन्निष्पन्नं तेषामप्रतीच्छतां प्रायश्चित्तम् । किं पुनस्तद् यत् ते प्राप्नुवन्ति ? इत्याह-तदेव पूर्वभणितं परितापन-शैक्षभङ्गादिकमत्र दोषजातं मन्तव्यम् । किमुक्तं भवति?ग्लानोऽप्रतिचर्यमाणः परिताप्येत, शैक्षो वैयावृत्येऽविधीयमाने प्रतिभज्येत, आदिशब्दाद्छ ग्लानस्य मरणं वा भवेत् ॥ ४७१४ ॥ संखडिए वा अट्ठा, अमुंडियं मुंडियं व पेसंती । वयमाणे एग संघाडए य छप्पऍ न लभंति ॥ ४७१५॥ सङ्खडि:-प्रकरणं तस्या वाऽर्थीय मनोज्ञाहारलम्पटतया क्वापि ग्रामे व्रजन्तः सागारिकमिति कृत्वा शैक्षममुण्डितं मुण्डितं वा प्रेषयन्ति । तत्रापि "वयमाणि" त्ति एकाकितया प्रेषणेन एकसा- 10 धुना सङ्घाटकेन च षट् प्रकारा भवन्ति । एतैः षड्भिरपि प्रेषयन्तो न लभन्ते ॥ ४७१५ ॥ इदमेव व्याख्याति होहिंति णवग्गाई, आवाह-विवाह-पव्वयमहादी । __ सेहस्स य सागरियं, विद्दाहिति मा व पेसिति ॥ ४७१६ ॥ इह शैक्षः केषाश्चिदुपस्थितः, तत्र च आवाह-विवाह-पर्वतमहादीनि प्रकरणानि 'नवाग्राणि' 15 प्रत्यासन्नानि भविष्यन्ति । आवाहः-वध्वा वरगृहानयनम् , विवाहः-पाणिग्रहणम् , पर्वतमहः प्रतीतः, आदिशब्दात् तडाग-नदीमहादिपरिग्रहः । शैक्षस्य च तत्र 'सागारिकम्' उत्प्रव्राजनभयम् , यद्वा यथेष शैक्षोऽत्र स्थास्यति तदा सङ्खडिभोजनगृद्धः ‘मा विद्रास्यति' मा विन यति, यदि च वयमनेनैव सह गच्छामस्ततः सङ्खडेः स्फिटामः अत एनमन्यत्र प्रेषयाम इति विचिन्त्य षभिः प्रकारेस्तं प्रेषयन्ति न च लभन्ते, येषामन्तिके प्रेषयन्ति तेषामेवासावा- 20 भवतीति ॥ ४७१६ ॥ गतं 'प्रतिषिद्धे व्रजति कथं कल्पो विधीयते ?' इति द्वारम् । सम्प्रति 'सङ्गारदत्ते कथं कल्पो विधीयते ?' (गा० ४६६२) इति द्वारमाह गिहियाणं संगारो, संगारं संजते करेमाणे । __ अणुमोयति सो हिंसं, पव्वावितों जेण तस्सेव ॥ ४७१७॥ गृहिणां सम्बन्धी यः ‘सङ्गारः' 'युष्मदन्तिकेऽस्माभिरियतः कालादूर्द्ध प्रव्रज्या ग्रहीतव्या' 35 इति सङ्केतस्तं प्रतीच्छन् संयतः वयं च तैः सार्द्ध 'सङ्गारं' 'अहममुस्मिन् दिने युष्मान् प्रवाजयिष्यामि' इति लक्षणं कुर्वन् 'हिंसां' यावदसौ न प्रव्रजति तावन्तं कालं षट्कायविराधनालक्षणामनुमोदयति । स च शैक्षस्तं प्रति विपरिणतो येन प्रव्राजितस्तस्यैवाभवति न सके. तदायिन इति ॥ ४७१७ । किञ्च विप्परिणमइ सयं वा, परओ ओसण्ण अण्णतित्थी वा । मोत्तुं वासावासं, ण होइ संगारतो इहरा ॥ ४७१८ ॥ सङ्केतकरणानन्तरं स शैक्षः स्वयं वा विपरिणमति, 'परतो वा' परेण-खजनादिना स विप१°म्पटाः का भा० ॥ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 १२७० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अवग्रहप्रकृते सूत्रम् २५ रिणाम्येत, अवसन्नविहारिषु वा प्रव्रजेत् , अन्यतीर्थको वा भवेत् ; अतो वर्षावासं मुक्त्वा 'इतरथा' पुष्टालम्बनं विना सङ्गारो न प्रतीच्छनीयो न वा कर्त्तव्यः ॥ ४७१८ ॥ किमर्थं पुनः सङ्गारमसौ करोति ? इत्याह संखडि सण्णाया वा, खित्तं मोत्तव्ययं व मा होजा। ____एएहिँ कारणेहिं, संगार करेंतें चउगुरुगा ॥ ४७१९ ॥ सङ्कर्डिस्तत्र ग्रामे उपस्थितानां परिहत्तुं न शक्नोति, सज्ञातका वा तस्य तत्र भूयांसंस्तेषामाग्रहात् तदानीं न शक्नोति गन्तुम् , क्षेत्रं वा तदतीवस्निग्ध-मधुराहारादिलाभसम्पन्नं शैक्षस्य च तत्र सागारिकम् अतस्तद् मोक्तव्यम् मा भूत् , 'एतैः' एवमादिभिः कारणैः शैक्षस्य सङ्गारं यः करोति तस्य चतुर्गुरु ॥ ४७१९ ॥ अथ गृहस्थाः किमर्थ सङ्गारं कुर्वन्ति ! इत्याह रिण वाहिं मोक्खेउ, कुडुंब वित्तिं वतिच्छिते गिम्हे । एमादिअणाउत्ते, करिति गिहिणो उ संगारं ॥ ४७२०॥ ऋणं वा व्याधि वा 'मोक्षयितुम्' अपनेतुम् , कुटुम्बस्य वा पश्वान्निर्वहणयोग्यां वृत्ति सम्पादयितुम् , यद्वा ग्रीष्मस्तदानीमतिक्रान्तो वर्षावास आयातः, एवमादिभिः कारणैः अना युक्ते-अक्षणिकतायां गृहिणः सङ्गारं कुर्वन्ति ॥ ४७२०॥ 15 अथ द्वितीयपदेन सङ्गारे प्रतीप्यमाणे आभाव्यविधिमाह अगविट्ठो मिति अहं, लब्भति असढेहि विप्परिणतो वि । चोयंतऽप्पाहेति व, ते वि य णं अंतरा गंतुं ॥४७२१॥ सनारे कृते यदि 'अशठैः' ग्लानादिकार्यव्यापृतैः स शैक्षो न गवेषितस्तदाऽसौ 'अगवेषितः' 'नैकमपि वारमहममीभिर्गवेषितः' इति बुद्ध्या विपरिणतोऽपि लभ्यते, तेषामेवाभवतीत्यर्थः; 20 परं तेऽपि साधवस्तमन्तराऽन्तरा गत्वा 'नोदयन्ति' सङ्केतस्मारणापुरस्सरं शिक्षयन्ति, अथ खयं गन्तुं न प्रभवन्ति ततः "अप्पाहेंति" सन्देशं तस्य प्रेषयन्ति ॥ ४७२१ ॥ एवं खलु अच्छिन्ने, छिन्ने वेला तहेव दिवसेहिं । वेला पुण्णमपुण्णे, वाघाए होइ चउभंगो ॥ ४७२२॥ __एवं तावद् 'अच्छिन्ने' अनियते सङ्गारे विधिरुक्तः, यस्तु छिन्नः सङ्गारस्तत्र विधिरभिधी25 यते-छिन्नो नाम क्षेत्रतः कालतश्च प्रतिनियतः । क्षेत्रतो ग्राम-वनखण्डादौ प्रव्रज्यादानार्थं भवद्भिः समागन्तव्यम् , कालतो वेलया दिवसैमासैश्च प्रतिनियतैः । तत्र च "वेला पुण्णमपुण्णे" ति वेलया उपलक्षणत्वाद् दिवसैश्च पूर्णेऽपूर्णे वा सङ्गारकाले व्याघातो भवेत् , तत्र चेयं चतुर्भङ्गी-कालः पूर्णो निर्व्याघातं च प्राप्ताः, कालः पूर्णः परं व्याघातः सञ्जातः, कालोऽद्याप्यपूर्णः परं निर्व्याघातं तत्र प्राप्ताः, कालोऽप्यपूर्णो व्याघातोऽपि जात इति ४ । 30 अथवा अन्यथा चतुर्भङ्गी-संयतस्य व्याघातो न गृहस्थस्य, गृहस्थस्य व्याघातो न संयतस्य, द्वयोरपि व्याघातः, द्वयोरपि न व्याघातः ॥ ४७२२ ॥ तत्र संयतस्य व्याघाते विधिमाह मंदहिगा ते तहियं च पत्तो, जति मण्णते ते य सहा ण होति । १°डिः काप्युपस्थि° भा०॥ २ °स्तेषां प्रतिबन्धान श° भा० ॥ ३°रपि चाव्या भा० ॥ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४७१९-२८) तृतीय उद्देशः । १२७१ सो लब्भती अण्णगतो वि ताहे, दप्पट्टिया जे ण उ ते लभंती ॥ ४७२३ ॥ ___ यत्र ग्रामादौ सङ्केतः कृत आसीत् तत्र स शैक्षः प्राप्तः साधवस्तु न प्राप्ताः, ततो यद्येवं मन्यते-'मन्दार्थिनस्ते मद्विषये, मन्दप्रयोजना अत एव नायाताः' इति बुद्ध्या विपरिणतः, ते च साधवो यदि 'शठाः' वजिकादिप्रतिबन्धयुक्ता न भवन्ति, ग्लानादिकार्यव्याप्ततया नायाता इति भावः ततः स शैक्षः 'अन्यगतोऽपि' अन्यमाचार्यमभ्युपगतोऽपि तैः साधुभिर्लभ्यते । ये तु दर्पतः स्थितास्ते नैव तं लभन्ते, येन प्रव्राजितस्तस्यैवासौ शिष्य इति ॥ ४७२३ ॥ पंथे धम्मकहिस्सा, उवसंतो अंतरा उ अन्नस्स । अभिधारिंतो तस्स उ, इयरं पुण जो उ पव्वावे ॥४७२४ ॥ यद्यसौ येन साधुना सङ्केतो दत्तस्तदभिमुखं प्रस्थितः पथि गच्छन् अन्तराऽन्यस्य धर्मकथिनः समीपे धर्मकथामाकर्योपशान्तः, स च यद्यभिधारयन् गच्छति तदा तस्यैव' अभिधारि-10 तस्याभवति । इतरः पुनः-अनभिधारयिता तं यो धर्मकथी प्रव्राजयति तस्याभवति ॥४७२४॥ इदमेव व्याचष्टे पुण्णेहिं पि दिणेहिं, उवसंतो अंतरा उ अण्णस्स । - अभिधारिंतो तस्स उ, इयरं पुण जो उ पवावे ॥४७२५ ॥ पूर्णैः अपिशब्दादपूर्णैरपि दिवसैः 'अन्तरा' पथि वर्तमानोऽन्यस्य सकाशे उपशान्तः सन् ।। यद्यभिधारयति 'प्रव्रजामि तावदहममीषां समीपे, परं पूर्वेषामेवाहं शिष्यः' एवमभिधारयन् तस्यैव पूर्वाचार्यस्याभवति । इतरो नाम यः पूर्वेषां विपरिणतस्तं यः प्रव्राजयति तस्यैव स शिष्यः ॥ ४७२५ ॥ नियमप्रदर्शनार्थमिदमाह ण्हाणादिसमोसरणे, दट्टण वि तं तु परिणतो अण्णं । तस्सेव सो ण पुरिमे, एमेव पहम्मि वच्चंते ॥ ४७२६॥ खानादौ समवसरणे 'तं' पूर्वाचार्यं दृष्ट्वाऽपि यद्यन्यमेव 'परिणतः' प्रतिपन्नस्तदा तस्यैवासौ शिष्यो न पूर्वस्य । एवमेव पथि व्रजतामप्याभाव्या-ऽनाभाव्यविधिरवगन्तव्यः ॥ ४७२६ ॥ अथ कः संयतस्य गृहस्थस्य वा व्याघातो भवति ? इत्याह गेलन तेणग नदी, सावय पडिणीय वाल महि वासं। इइ समणे वाघातो, महिगावजो उ सेहस्स ॥४७२७ ॥ 25 ग्लानत्वं तस्य साधोरुत्पन्नम् , स्तेनका वा अन्तराले द्विविधाः, नदी वा पूर्णा, 'श्वापदा वा' व्याघ्रादयः पथि तिष्ठन्ति, प्रत्यनीको वा तं प्रतिचरन्नास्ते, 'व्यालाः' सर्पास्ते वा पथि गच्छन्तं जनं दशन्ति, महिका वा वर्ष वा पतितुमारब्धम्, "इय" एवं श्रमणे व्याघातः सम्भवति । शैक्षस्यापि महिकावर्जः सर्वोऽप्येष एव व्याघातो वक्तव्यः ॥ ४७२७ ॥ पूर्व खयं विपरिणतमाश्रित्य विधिरुक्तः, अथान्येन विपरिणामितस्य विधिमाह- 30 विप्परिणामियभावो, ण लब्भते तं च णो वियाणामो।। विप्परिणामियकहणा, तम्हा खलु होति कायब्बा ॥ ४७२८ ॥ १ पुण्णा-ऽपुण्ण दिणेहि, तुवसंतो ताभा० ॥ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अवग्रहप्रकृते सूत्रम् २५ विपरिणामितः -विवक्षिताचार्यादुचारितो भावो यम्य र विपरिणामितभावः, एवंविधः शैक्षो न लभ्यते, विपरिणामकस्य नाभवतीति भावः । शिष्यः प्राह-'तमेव' विपरिणामनं तावद् वयं न विजानीमः । सूरिराह—यत एवं भवतो जिज्ञासा तस्माद् विपरिणामनं विपरिणामितं तस्य कथना-प्ररूपणा कर्त्तव्या भवति ॥ ४७२८ ॥ तामेवाह दिट्टमदिट्ट विदेसत्थ गिलाणे मंदधम्म अप्पसुते।। णिप्फत्ति णत्थि तस्सा, तिविहं गरहं व से जणति ॥४७२९ ॥ शैक्षः कमप्याचार्यमभिधार्य गच्छन् मार्गे कमपि साधुं दृष्ट्वा पृच्छति-अमुके आचार्या भवद्भिः कदाचिद् दृष्टाः ? उताहो न दृष्टाः ?; एवं पृष्टे स साधुर्विपरिणामनबुद्ध्या भणतिकिं तैः करिष्यसि ?; शैक्षः प्राह-प्रव्रजितुकामोऽहं तेषां समीपे; एवं श्रुत्वा साधुदृष्टानपि 10 तान् 'न मया दृष्टाः' इति, अथवा खदेशस्थानपि भणति 'विदेशस्थास्ते' । एवमग्लानानपि 'ग्लानोऽसौ, ब्रज त्वमपि तस्य द्वितीयः'; अथवा ब्रवीति-यस्तस्य पार्थे प्रव्रजति सोऽवश्यं ग्लानो ग्लानवैयावृत्ये वा नित्यं व्याप्तो भवति । अथवा मन्दधर्माणस्ते, ततः किं तव मन्दधर्मता रोचते? । यद्वाऽसावल्पश्रुतः, त्वं च ग्रहण-धारणासमर्थस्तस्य पार्श्वे गतः किं करिष्यसि ?, त्वमेव वा तं पाठयिष्यसीति । अथवा तस्य शिष्याणां निष्पत्तिरेव नास्ति, यं 15 प्रव्राजयति स सर्वोऽपि प्रतिभज्यते म्रियते वेति । 'त्रिविधां वा' मनो-वाक्-कायभेदाद ज्ञानदर्शन-चास्त्रिभेदाद् वा त्रिप्रकारां गहीं वक्ष्यमाणरीत्या यदसौ करोति सा विपरिणामना मन्तव्या । एनां कुर्वतश्चतुर्गुरुकम् , न च तं शैक्षं लभते, अतो नैवं कथनीयम्, किन्तु दृष्टादिपदेषु सद्भावः कथनीयः ॥ ४७२९ ॥ कथम् ! इत्याह जइ पुण तेण ण दिट्ठा, णेव सुया पुच्छितो भणति अण्णे । 20 जति वा गया विदेसं, तो साहइ जत्थ ते विसए ॥४७३०॥ योऽसौ शैक्षेण पृष्टस्तेन यदि ते सूरयो न दृष्टाः नैव श्रुतास्ततः पृष्टः सन् भणति-अहं न जानामि, 'अन्यान्' अपरान् साधून पृच्छ । अथ जानाति ततो यथावत् कथनीयम् । यदि विदेशं गतास्ततो यत्र ‘विषये' देशे ते वर्चन्ते तं कथयति । अथ नाल्याति हीनाधिकं वाऽऽख्याति ततो विपरिणामना भवति ।। ४७३० ।।। सेसेसु उ सम्भावं, णातिक्खति मंदधम्मवजेसु । गृहयते सम्भावं, विप्परिणति हीणकहणे वा ॥ ४७३१ ॥ 'शेषेषु' ग्लानादिषु पदेषु मन्दधर्मवर्जेषु सद्भावं नाख्याति, यद्यप्यसौ ग्लानोऽल्पश्रुतो वा शिष्यनिष्पत्तिर्वा तस्य नास्ति तथापि तन्न कथनीयम् । यस्तु मन्दधर्मा पार्श्वस्थादिस्तत्र सद्भावः कथनीयः, मा संसारपारगन्तुकामः सुतरां संसारे पतिष्यतीति कृत्वा । यस्तु ज्ञान-दर्शन-चारि30त्र-तपःसम्पन्नो वादी धर्मकथी सङ्ग्रहोपग्रहकारी तद्विषयं सद्भावं यदि 'गूहयति' अपलपति हीनकथनं वा करोति, अधिकमप्यन्याचार्येभ्यो हीनं कृत्वा कथयतीत्यर्थः, एषा विपरिणामना मन्तव्या ॥ ४७३१ ॥ अथ त्रिविधां गहाँ व्याचिख्यासुस्तत्वरूपं तावदाह१°नपि ग्लानानसौ वक्ति, 'बज मो० ॥ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४७२९-३५] तृतीय उद्देशः । १२७३ सीसोकंपण गरिहा, हत्थ विलंबिय अहो य हकारे । वेला कण्णा य दिसा, अच्छतु णामं ण घेत्तव्वं ॥ ४७३२ ॥ गर्दा नाम शैक्षेण पृष्टः सन् शीर्षावकम्पनं करोति, हस्तौ वा धुनीते, विलम्बितानि वा करोति-हस्तौ वौष्ठौ वा विलम्बयतीत्यर्थः, यद्वा ब्रवीति-अहो ! प्रव्रज्या अहो! प्रव्रज्या, हाकारं वा करोति-हा! हा ! कष्टं यदेवं नष्टो लोकः, "वेल" त्ति नामापि तस्य न वर्ततेऽस्यां । वेलायां ग्रहीतुमिति, कर्णौ वा तदीयनामग्रहणे स्थगयति, यस्यां वा दिशि स तिष्ठति तस्यां न स्थातव्यमिति ब्रवीति, उपलक्षणत्वाद् अक्षिणी वा निमीलयति, यद्वा नामापि तस्य निरन्नैर्न ग्रहीतव्यम्, अत आस्तामेतद्विषयं पृच्छादिकमिति ।। ४७३२॥ नाणे दंसण चरणे, सुत्ते अत्थे य तदुभए चेव । अह होति तिहा गरहा, कायो वाया मणो वा वि ॥ ४७३३॥ 10 ज्ञाने दर्शने चारित्रे चेति त्रिविधा गर्दा भवति-तत्र ज्ञानगर्दा नाम नटपठितेनेव किं तदीयेन ज्ञानेन ?, दर्शनगर्दा तु मिथ्यादृष्टिनास्तिकप्रायोऽसौ, चारित्रगर्दा सातिचारचारित्रोऽचारित्री वाऽसौ । अथवा सूत्रेऽर्थे तदुभये चेति त्रिविधा गर्दा-तत्र सूत्रं तस्य शङ्कित-स्खलितम् अर्थ पुनरवबुध्यते १, यद्वाऽर्थ नावबुध्यते सूत्रं पुनरागच्छति २, उभयमपि वा तस्याविशुद्धं न जानाति वा किमपीति ३ । अथवा काय-वाङ्-मनोभेदात् त्रिधा गर्दा-तत्र कायगर्दा तेषा-15 माचार्याणां शरीरं हुण्डादिसंस्थानं विरूपं वा, वाग्गीं मन्मनं काहलं वा ते जल्पन्ति, मनोगर्दा न तेषां तथाविधमूहा-ऽपोहपाटवं न वा ग्रहण-धारणासामर्थ्य मिति । 'अथ' एषा त्रिविधा गर्दा भवति ॥ ४७३३ ॥ प्रकारान्तरेण गर्हामेवाह पव्वयसि आम कस्स, त्ति सगासे अमुगस्स निद्दिढें। आयपराधिगसंसी, उवहणति परं इमेहिं तु ॥ ४७३४॥ कोऽपि शैक्षः केनापि साधुना पृष्टः-प्रव्रजसि त्वम् ; स प्राह-आमम् ; 'कस्य सकाशे ?" इति पृष्टः सन् भूयोऽप्याह-अमुकस्याचार्यस्य समीपे, एवं 'निर्दिष्टे' उक्ते स साधुरात्मानं परस्मादधिकं शंसितुम्-आख्यातुं शीलमस्येत्यात्मपराधिकशंसी परममीभिर्वचनैरुपहन्ति ॥ ४७३४ ॥ तद्यथाअबहुस्सुताऽविसुद्धं, अधछंदा तेसु वा वि संसरिंग। .25 ओसन्ना संसग्गी, व तेसु एकेकए दुन्नि ॥४७३५ ॥ ___ अहं बहुश्रुतः सोऽबहुश्रुतः, अहं विशुद्धपाठकः स पुनरविशुद्धपाठी, यद्वा यथाच्छन्दास्ते आचार्याः 'तैर्वा' यथाच्छन्दैः सह ते गाढतरं संसर्गिणः, गाथायां तृतीयार्थे सप्तमी, अवसन्ना वा ते] तैः सार्धं संसर्गिणो वा, एवं पार्श्वस्थादावपि एकैकस्मिन् भेदे द्वौ द्वौ दोषावेवमेव वक्तव्यौ ॥ ४७३५ ।। अथ काय-वाङ्-मनोगर्हामेव प्रकारान्तरेणाह सीसोकंपण हत्थे, कण्ण दिसा अच्छि कायिगी गरिहा । १अच्छी नामं ताभा० । चूर्णिकृता विशेषचूर्णीकृता चायमेव पाठ आदतोऽस्ति ॥ २ शीर्ष कम्पयति, हस्तौ भा० ॥ ३ N» एतन्मध्यगतः पाठः भा० नास्ति । HTTPill 30 Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अवग्रहप्रकृते सूत्रम् २६ वेला अहो य ह त्ति य, णामं ति य वायिगी गरहा ॥४७३६ ॥ अह माणसिगी गरहा, सूतिजति णित्त-वत्तरागेहिं । धीरत्तणेण य पुणो, अभिणंदइ णेय तं वयणं ॥ ४७३७ ॥ शीर्षावकम्पनं हस्तविलम्बनं कर्णस्थगनम् अन्यस्यां दिशि स्थानम् अक्षिनिमीलनम् अनिमेष5 लोचनस्य वा क्षणमवस्थानम् एषा सर्वाऽपि कायिकी गरे । यत्तु अस्यां वेलायां नाम न ग्रहीतव्यम् अहो! कष्टम् हाहाकारकरणम् नाम च तस्य कदाऽपि न ग्रहीतव्यमित्यादिभाषणं सा वाचिकी गर्दा ॥ ४७३६ ॥ 'अथ' अनन्तरं मानसिकी गर्दा मनसि तमाचार्य जुगुप्सते । कथमेतद् ज्ञायते ? इत्याहनेत्र-वक्रयोः सम्बन्धिनो ये रागाः-मुकुलन-विच्छायीभवनादयो विकारास्तैः सूच्यते मानसिकी 10 गहेंति । यद्वा 'प्रवजामि' इति भणिते 'साध्विदम् , कृत्यमेतद् भव्यानाम्' इत्यादिवचोभिर्नैव तदीयं वचनमभिनन्दते, धीरतया वा तूष्णीक आस्ते । एवमन्यतरस्मिन् गर्दाप्रकारे कृते तस्य शङ्का भवति-अवश्यमकार्यकारी स आचार्यादिः सम्भाव्यते, न चामी साधवोऽलीकं भाषन्ते, अहमपि तत्र गत आत्मानं नाशयिष्यामीति ॥ ४७३७ ॥ एताणि य अण्णाणि य, विप्परिणामणपदाणि सेहस्स । 16 उवहि-णियडिप्पहाणा, कुव्वंति अणुज्जुया केई ॥ ४७३८ ॥ उवहि-णियदिप ___ 'एतानि च' अनन्तरोक्तानि 'अन्यानि च' द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावैः शैक्षस्य विपरिणामनपदानि भवन्ति-तत्र द्रव्यतो मनोज्ञाहारादि ददाति, क्षेत्रतः प्रवात-निवाते मनोऽनुकूले प्रदेशे तं स्थापयति, कालतो वेलायामेव भोजयति, भावतस्तस्याकर्षणार्थ हित-मधुरमुपदेशं ददाति । एवं केचिद् 'अनृजुकाः' शठा उपधिः-परवञ्चनाभिप्रायो निकृतिः-कैतवार्थप्रयुक्तवचना-ऽऽकारा20 च्छादनं ते प्रधाने येषां ते तथाविधा विपरिणामनपदानि कुर्वन्ति ॥ ४७३८॥ उपसंहरन्नाह एएसामन्नयरं, कप्पं जो अतिचरेज लोभेण । [वृ.भा. १४०२] थेरे कुल गण संघे, चाउम्मासा भवे गुरुगा ॥ ४७३९॥ 'एतेषाम्' अव्याहतादिद्वारकलापप्रतिपादितानां कल्पानामन्यतरं 'कल्पं' विधि 'यः' आचार्यादिलोभदोषेण 'अतिचरेत्' अतिक्रामेत् तं सम्यग् ज्ञात्वा कुल-गण-सङ्घस्थविरैः कुलादिसमवायेन 25 वा तस्य पार्थात् तं शैक्षमाकृष्य चत्वारो मासा गुरुकास्तस्य प्रायश्चितं दातव्यम् । अथ स्थविरैः समवायेन वा भणितोऽपि तं शैक्षं न समर्पयति ततः कुल-गण-सङ्घबाह्यः क्रियते ॥ ४७३९ ॥ सूत्रम्--- अत्थि या इत्थ केइ उवस्सयपरियावन्नए अचित्ते परिहरणारिहे सच्चेव उग्गहस्स पुव्वाणुपणवणा चिटइ अहालंदमवि उग्गहे २६ ॥ 30 Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उद्देशः । भाष्यगाथाः ४७३६-४४ ] अस्य सम्बन्धमाह - असहीणेसु वि साहम्मितेसु इति एस उग्गहो वृत्तो । अयमपरो आरंभो, गिहिविजढे उग्गहे होई || ४७४० ॥ 'अखाधीनेष्वपि' क्षेत्रान्तरं गतेषु साधर्मिकेषु इत्येषोऽवग्रहः प्रोक्तः । अयं पुनरपरः प्रकृतसूत्रस्यारम्भो गृहिभिर्विजढः - परित्यक्तो यः प्रतिश्रयस्तद्विषयेऽवग्रहे भवति ॥ ४७४० ॥ 5 अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या— अस्ति च 'अत्र' अनन्तरसूत्रप्रस्तुते प्रतिश्रये, किम् ? 'किञ्चिद्' आहारा -ऽर्थजातादिकं गृहस्थसत्कं उपाश्रये पर्यापन्नं विस्मृतं परित्यक्तं वा उपाश्रयपर्यापन्नम्, ‘अचित्तं' प्राशुकम्, 'परिहरणार्हं' साधूनां परिभोक्तुं योग्यम्, तत्र सैवावग्रहस्य पूर्वानुज्ञापना तिष्ठति, तत्रोपाश्रये तिष्ठद्भिः पूर्वमेव 'अनुजानीत प्रायोग्यम्' इत्येवं यदवग्रहोऽनुज्ञापितः सैवानुज्ञापना पश्चादुपाश्रयपर्यापन्नग्रहणे व्यवतिष्ठते न पुनरभिनवमनुज्ञापनं कर्त्तव्यमिति 10 भावः । कियन्तं कालम् ? इत्याह – 'यथालन्दमपि' मध्यमलन्दमात्रमपि कालं यावदवग्रह इति सूत्रार्थः ॥ अथामुमेव सूत्रार्थं भाष्यकृत् प्रतिपादयति १२७५ आहारो उवही वा, आहारो भुंजणारिहो कोयी । दुविपरिहारअरिहो, उवही वि य कोयि ण वि कोयि ॥ ४७४१ ॥ st सूत्रे किञ्चिणेन आहार उपधिर्वा गृहीतः, परिहरणार्हग्रहणेन तु स एव परिभोगार्हः । 15 तत्राहारः कश्चिद् भोजनाहों भवति कश्चिच्च न भवतीति, उपधिरपि कश्चिद् द्विविधपरिहारस्यधारणा - परिभोगरूपस्यार्हो भवति कश्चिच्च न भवति ॥ ४७४१ ॥ तथाहिसंसत्ताssसव पिसियं, आहारो अणुवभोज इच्चादी | झुसिरतिण- वच्च गादी, परिहारे अणरिहो उवही ॥ ४७४२ ॥ 'संसक्तं' द्वीन्द्रियादिजन्तुमिश्रं भक्त - पानं 'आसवः' मद्यं 'पिशितं' पुद्गलम् इत्यादिक 20 आहारः 'अनुपभोज्य : ' साधूनामुपभोक्तमयोग्यः, शुषिरतृण- वल्ककादिक उपधिरपि 'परिहारस्य ' परिभोगस्यानहों मन्तव्यः, अर्थादापन्नं ओदनादिक आहारो वस्त्रादिकश्चोपधिः परिभोगाई इति ॥ ४७४२ ॥ ठातें अणुण्णवणा, पातोग्गे होइ तप्पढमयाए । सो चेव उग्गहो खलु, चिट्टा कालो उ लंदक्खा ॥ ४७४३ ॥ साधुभिः प्रतिश्रये तिष्ठद्भिस्तत्प्रथमतया या प्रायोग्यस्यानुज्ञापना कृता भवति स एवोपाश्रयपर्यापन्नस्यापि ग्रहणेऽवग्रहस्तिष्ठति, न पुनर्भूयोऽनुज्ञाप्यते । या तु सूत्रे 'लन्दाख्या' लन्द इत्यभिधानं स कालः प्रतिपत्तव्य इति ॥ ४७४३ ॥ कृता सूत्रव्याख्या भाष्यकृता । सम्प्रति निर्युक्तिविस्तरः - पुव्वि वसा दुविहे, दव्वे आहार जाव अवरण्हे । उवहिस्स ततियदिवसे, इतरे हियम्मि गिण्हंति ॥ ४७४४ ॥ · १० दिजीव मिश्रं कां० ॥ २ गहियस्मि जयणाए इत्येव पाटोsस्मत्सविधवर्त्तिषु निखिलेष्वप्यादषु दृश्यते तथापि गहिरि गिण्यंति इत्येव पाठः टीकानुसारेणास्माभिर्विहित इति ॥ 25. 30 Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अवग्रहप्रकृते सूत्रम् २६ 'पूर्व प्रथमं तिष्ठन्त एव वृषभाः समन्तादुपाश्रयमवलोकयन्तो द्विविधे द्रव्ये उपयोग प्रयच्छन्ति । द्विविधं द्रव्यं नाम-आहार उपधिश्च । तत् प्राघूर्णकादयो गृहिणो विस्मृत्य परित्यज्य वा गता भवेयुः, तेषु गतेषु यावदपरालो न भवति तावदाहारं न गृह्णन्ति, परतस्तु गृहन्ति । उपधेस्तु तृतीये दिवसे गते ग्रहणं कुर्वन्ति । 'इतरद् नाम' अर्थजातं तत् कदाचिद5 गारिणां विस्मृतं भवेत् तदेकान्ते निक्षेपणीयम् । “गहियम्मि गिण्हंति" त्ति यदि धनिकादिभिः गृहीतः-प्रारब्धः प्रातिवेश्मिको नष्टो भवेत् तदा तत्रापि यत् तेषां विस्मृतं तद् यथोक्तविधिना गृह्णन्ति । एष नियुक्तिगाथासमासार्थः ॥ ४७४४ ॥ साम्प्रतमेनामेव विवृणोति पायं सायं मज्झतिए व वसभा उवस्सय समंता। पेहंति अपेहाए, लहुगो दोसा इमे तत्थ ॥ ४७४५॥ 10 'प्रातः' प्रभाते 'सायं' सन्ध्यायां 'मध्यान्ते वा' मध्याह्नसमये दृषभा उपाश्रयं समन्तात् प्रत्युपेक्षन्ते । अप्रत्युपेक्षमाणानां लघुको मासः, दोषाश्चमे 'तत्र' अप्रत्युपेक्षणे भवन्ति ।।४७४५॥ साहम्मि अण्णधम्मिय, गारत्थिणि खिवण वोसिरण रज । गिण्हण-कवण-ववहार-पच्छकडुड्डाह-णि व्विसए ॥ ४७४६ ॥ 'साधर्मिणी' संयती 'अन्यधर्मिणी' परतीर्थिका ‘अगारस्था' अविरतिका, एताः प्रद्विष्टाः 16 सत्यः साधुप्रतिश्रयसमीपेऽर्थजातस्य निक्षेपणं कुर्युः, यद्वा बालकं व्युत्सृज्य गच्छेयुः, परीषहपराजितो वा कोऽपि संयतो रज्जूद्वन्धनेन नियेत, तत्र राजपुरुषैर्शाते सति ग्रहणा-ऽऽकर्षण-व्यवहार-पश्चात्कृतोड्डाह-निर्विषयाज्ञापनादयो दोषा भवन्ति ॥ ४७४६॥ इदमेव भावयति चोदणकुविय सहम्मिणि, परउत्थिणिगी उ दिद्विरागेण । अणुकंप जदिच्छा वा, छुभिज बालं अगारी वा ॥ ४७४७॥ साधर्मिणी काचित् खण्डितशीला गर्भवती ‘उड्डाहोऽयम्' इति मन्यमानैः साधुभिर्गाढं निर्भय॑ रजोहरणादिलिङ्गबहिःकृता भवेत् , ततः सा 'मदीयं लिङ्गमपहृतम्' इति मन्यमाना तया नोदनया कुपिता सती खमपत्यजातं तदाश्रयसमीपे परित्यजेत् । परतीर्थिनी तु 'दृष्टिरागेण' 'माऽस्माकमपयशःप्रवादो भविष्यति' इति कृत्वा संयतानामुपाश्रयसन्निधौ बालकं व्युत्सृजेत् ; 26 वरं लोकश्चिन्तयिष्यति-एतैरेवैतद् जनितमिति । अथवा अगारी काचिदनुकम्पया यदृच्छया वा बालकं तत्र प्रक्षिपेत् । तत्र 'अनुकम्पया नाम' दुष्कालादौ काचिद् दुःस्थयोषिद् जीवनाय खापत्यं तदाश्रयान्तिके त्यजति-वरमेतेऽनुकम्पापरायणा अमुं बालकं शय्यातरस्यापरस्य वा ईश्वरस्य गृहे निक्षेप्स्यन्तीति । 'यदृच्छया' अभिसन्धिमन्तरेणैवमेव व्युत्सृजति ॥ ४७४७ ॥ हाउं वै जरेउं वा, अचदंता तेणगाति वत्थादी। एएहिं चिय जणियं, तहिं च दोसा उ जणदिढे ॥ ४७४८॥ स्तेनकादयो वस्त्रादिकं हातुं वा जरीतुं वा 'अचयन्तः' अशक्नुवन्तः साधूनां प्रतिश्रयस१°न्ति इति निर्यु का० ॥ २ क्षणायां भ° का० ॥ ३ व हरेउं भा० । एतदनुसारेणैव भा० टीका, रश्यतो टिप्पणी ४ । विशेषचूर्णिकृताऽयमेव पाठः स्वीकृतोऽस्ति ॥ ४ वा हर्तुं वा 'अच° भा० ॥ 30 Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४७४५-५२ ] तृतीय उद्देशः । न्निधौ परित्यजेयुः । उपलक्षणमिदम् तेनान्यतीर्थिकादयः प्रत्यनीकतया हिरण्य-सुवर्णादिकमपहृत्य तत्र निक्षिपेयुः । ततो यदि वृषभास्त्रिसन्ध्यं वसतिं न प्रत्युपेक्षन्ते तदा लोको ब्रूयात्एतैरेवैतदपत्यभाण्डं जनितम्, सुवर्णादिकं वा अपहृतम् । एवं तत्र जनदृष्टे सति 'दोषाः ' ग्रहणा - ssकर्षणादयो भवेयुः ॥ ४७४८ ॥ 9 अहवा छुभेज कोयी, उब्भामग वेरियं व हंतुणं । antra इत्थी वा परीसहपराजितो वा वि ॥ ४७४९ ॥ अथवा कश्चिद् ‘उद्भामकं’ पारदारिकं वैरिणं वा हत्वा प्रत्यनीकतया तत्र प्रक्षिपेत्, स्त्री वा काचिदत्यन्तदुःखिता वैहायसमरणमुपाश्रयसमीपे कुर्यात्, परीषहपराजितो वा संयत एव कोऽपि रज्जूह्वन्धनेन म्रियेत, 'वरं प्रवेष्टुं ज्वलितं हुताशनं, न चापि भग्नं चिरसञ्चितं व्रतम् ।' इति कृत्वा ॥ ४७४९ ॥ १२७७ 5 दवि संखडे वा, पुरिसित्थी मेहुणे विसेसो वि । एमेव य समम्मि वि, संकाए गिव्हंणादीणि ॥ ४७५० ।। कोऽपि कञ्चित् पुरुषं 'द्रव्यार्थम्' अर्धजातनिमित्तं यद्वा असङ्खडं - कलहो वैरमित्यर्थः तेन वा कञ्चिद् व्यपरोप्य संयतोपाश्रयसमीपे परित्यजेत् । एवं स्त्रियमपि कश्चिद् विनाश्य प्रक्षि- 16 पेत्, नवरं मैथुने विशेषः । किमुक्तं भवति ! - सपत्नी काचिदपरां सपत्नीं चतुर्थसेवाविन्नकारिणीं मत्वा व्यपरोप्य च तत्र व्युत्सृजेत्, 'अमीषामपयशो भूयात्' इति कृत्वा । एवमेव श्रमणेऽपि मन्तव्यम्, तमपि कश्चिदुपकरण-द्रव्यार्थं वैरेण वा मारयेदित्यर्थः, तत्र साधवः शयेरन्, ततो ग्रहणा - ssकर्षणादीनि पदानि प्राप्नुवन्ति ॥ ४७५० ॥ यतएवमतः -- कालम्मि पहुप्पंते, चच्चरमादी ठवित्तु पडियरणं । रक्खति साणमादी, छणे जा दिट्ठमण्णेहिं ॥। ४७५१ ॥ 10 त्रिसन्ध्यं वृषभैः समन्ततो वसतिः प्रत्युपेक्षणीया, प्रत्युपेक्षितायां च यदि किञ्चित् कल्पस्थकादिकं पश्यन्ति कालश्च पूर्यते ततश्चत्वरादिषु स्थापयित्वा प्रतिचरणं कुर्वाणाः प्रच्छन्नावकाशे स्थिताः श्वान-मार्जारादिना विनाश्यमानं तावद् रक्षन्ति यावत् कल्पस्थकादिकमन्यैर्दृष्टमिति ॥ ४७५१ ॥ बोलं पभायकाले, करिंति जण जाणणट्ठया वसभा । पडियरणा पुण देहे, परोग्गहे णेव उज्झति ॥ ४७५२ ।। यत् तत्र हिरण्य - सुवर्णादि केनचित् परित्यक्तं भवति तत् प्रभातकाले एव प्रत्युपेक्षमाणाः सम्यग् निरीक्ष्य वृषभा जनज्ञापनार्थं बोलं कुर्वन्ति, यथा - केनचित् पापेनेदं हिरण्यादिकमस्मदपयशःप्रदानार्थमत्र प्रक्षिप्तमिति । यस्तु देहः - द्रव्या-ऽर्थ - वैरादिकारणव्यपरोपितस्य पुरुषादेः 30 शरीरमित्यर्थः तत्र प्रतिचरणा कर्त्तव्या, सम्यक् प्रतिचर्य यदि कोऽपि न पश्यति तदा परिष्ठापनीयमिति हृदयम् । तच्च 'परावग्रहे' परकीयनिवेशनादौ नैव 'उज्झन्ति' परित्यजन्ति, किन्तु १ पहुचंते तामा० ॥ 20 25 Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७८ सनियुक्ति-लधुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अवग्रहप्रकृते सूत्रम् २६ परैरपरिगृहीते भूभागे इति ॥ ४७५२ ॥ अप्पडिचर-पडिचरणे, दोसा य गुणा य वणिया एए । __एतेण सुत्त ण कतं, सुत्तनिवातो इमो तत्थ ॥ ४७५३ ॥ 'अप्रतिचरण-प्रतिचरणयोः' प्रतिश्रयस्याप्रत्युपेक्षण-प्रत्युपेक्षणयोर्यथाक्रममेते दोषा गुणाश्च 5 वर्णिताः, परमेतेनार्थेन सूत्रं 'न कृतं' न विहितम् , किन्तु सामाचारीप्रकाशनार्थं सर्वमेतद् व्याख्यातमिति । सूत्रनिपातः पुनरयं 'तत्रेति' सूत्रनिपातस्यैवोपदर्शनार्थः ॥ ४७५३ ॥ आगंतारठियाणं, कजे आदेसमादिणो केई।। वसिउं विस्समिउं वा, छड्डित्तु गया अणाभोगा ॥ ४७५४ ॥ इह यत्रागारिण आगत्यागत्य तिष्ठन्ति तद् आगन्तुकागारं तत्र 'कार्ये' कारण विशेषतः 10स्थितानां प्रकृतसूत्रमवतरति । कथम् ? इत्याह-आदेशः-प्राघूर्णकस्तदादयः केचित् पथिका आगन्तुकागारे रजन्यां वासमुपगता दिवा वा भोजनार्थ विश्रामं कृतवन्तः, तत उषित्वा विश्रम्य वा किश्चिद् द्रव्यजातमनाभोगात् परित्यज्य गताः ॥ ४७५४ ॥ किं पुनस्तत् ? इत्याह समिई-सत्तुग-गोरस-सिणेह-गुल-लोणमादि आहारे। 18 ओहे उवग्गहम्मि य, होउवही अट्टजातं वा ॥ ४७५५ ॥ इहाहार उपधिश्चेति द्विविधं द्रव्यं भवति । तत्राहारः 'समिति-सक्तु-गोरस-स्नेह-गुड-लवणादिकः' समितिः-कणिका, शेषं प्रतीतम् । उपधिस्तु द्विधा भवति-ओघे उपधिः उपग्रहे वा, ओघोपधिरुपग्रहोपधिश्चेत्यर्थः । 'अर्थजातं' द्रव्यं तद् वा परित्यक्तं भवेत् ॥ ४७५५ ॥ तत्राहारोपधिविषयं तावद् द्विविधमाह काऊणमसागरिए, पडियरणाऽऽहार जाव अवरण्हे । एमेव य उवहिस्स वि, असुण्ण सेधाइ दूरे य ॥ ४७५६ ॥ आहारमसागारिके प्रदेशे कृत्वा तावत् प्रतिचरणं कुर्वते यावदपराह्नः सञ्जायते । एवमेवोपँधेरपि प्रतिचरणं कर्त्तव्यम् , नवरमशून्ये भूभागे संस्थापनीयः । शैक्षादयश्च द्विविधस्यापि द्रव्यस्य दूरे कर्तव्याः ॥ ४७५६ ।। किं कारणमाहारमपराहं यावत् प्रतिचरन्ति ? इत्युच्यते वोच्छिजई ममत्तं, परेण तेसिं च तेण जति कजं । गिण्हता वि विसुद्धा, जति विण वोच्छिज्जती भावो ॥४७५७ ॥ अपराह्मात् परतस्तेषां पथिकानामाहारे ममत्वं व्यवच्छिद्यते, 'तेषां च' साधूनां यदि 'तेन' आहारेण कार्यं भवति ततो गृहन्तोऽपि विशुद्धाः, यद्यपि च भावस्तेषां तदुपरि न व्यवच्छिद्यते तथाप्यपरालादूर्द्ध गृह्णतां न कश्चिद् दोषः । उपधिं तु तृतीयदिवसे पूर्णे गृह्णन्ति, एतावता 30 तद्विषयममत्वस्य व्यवच्छेदात् ॥ ४७५७ ॥ १ तेन पर्यन्तसूत्रं डे. मो० ॥ २ तं वा द्रव्यमुच्यते ॥ ४७५५ ॥ तत्रा भा० ॥ ३ का. विनाऽन्यत्र-पधेरप्यशून्ये भूभागे स्थापनं कर्तव्यम् । शैक्षा भा० । पधिरपि [अ] शून्ये भूभागे संस्थापनीयः । शैक्षा ताटी. मो, डे० ॥ 20 25 Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४७५३-६२] तृतीय उद्देशः । १२७९ अव्वोच्छिन्ने भावे, चिरागयाणं पि तं पयंसिति । पण्णवणमणिच्छंते, कप्पं तु करेंति परिभुत्ते ॥ ४७५८॥ अथ तेषामद्यापि भावो न व्यवच्छिद्यते । ततोऽव्यवच्छिन्ने भावे तेषां ववस्त्राणि गवेषयतां चिरादायातानामपि 'तम्' उपधिं प्रदर्शयन्ति, एवं च तेषां प्रज्ञापनां कुर्वन्ति-अस्माभिरेतानि वस्त्राणि स्वीकृतानि, ततोऽनुग्रहं मन्यमानाः साधूनामनुजानीथ । एवमुक्ते यद्यनुजानते ततः । सुन्दरम् , अथ नेच्छन्त्यनुज्ञातुं तानि च वस्त्राणि परिभुक्तानि ततोऽप्कायवधरक्षणार्थ कल्पं कुर्वन्ति ॥ ४७५८ ॥ अथार्थजातविषयं विधिमाह पञ्चोनियत्तपुट्ठा, करादि दाएंति एत्थ णं पेधे । दरिसिंति अपिच्छंते, को पुच्छति केण ठवियं च ॥ ४७५९ ॥ इहोपाश्रये यद्यर्थजातं पतितमुपलभ्यते तदा तदप्यल्पसागारिके स्थाप्यते, शैक्षादयश्च दूरे 10 कर्तव्याः, प्रत्यवनिवृत्तैश्च-भूयस्तत्रैव समायातैर्गृहिभिः पृष्टाः-'कुत्रास्माकं तदर्थजातं तिष्ठति ?' ततः 'करादिना' हस्ताङ्गुल्यादिसंज्ञया दर्शयन्ति-अत्र प्रदेशे “णं" एनं प्रेक्षध्वम् । अथ ते न पश्यन्ति ततः खयमेव तदर्थजातं दर्शयन्ति । यदि ते पृच्छेयु:-केनेदमत्र स्थापितम् ?; ततो वक्तव्यम्-कः पृच्छति ? केन स्थापितं च ? इति ॥ ४७५९ ॥ एवं तावदुपाश्रयपर्यापन्ने आहारादौ विधिरुक्तः । अथ शय्यातरादिगृहपर्यापन्ने विधिमाह 15 भडमाइभया णटे, गहिया-ऽगहिएसु तेसु सज्झादी। गिण्हंति असंचइयं, संचइयं वा असंथरणे ॥ ४७६० ॥ भटाः-राजपुरुषास्तदादिभयाद् नष्टे शय्यातरादौ अथवा सज्झिकाः-प्रातिवेश्मिकास्ते गृहीतृभिः-धनिकैः आगृहीताः-ऋणं दापयितुमारब्धास्ततस्तेषु सम्झिकादिषु नष्टेषु तत्र य आहारोऽसञ्चयिकः-दधि-घृतादिस्तं गृह्णन्ति । अथासंस्तरणं ततः 'सञ्चयिकमपि' अवगाहिमादिकं 20 गृह्णन्ति ॥ ४७६० ॥ साविक्खेतर णडे, एमेव य होइ उवहिगहणं पि। पञ्चागएसु गहणं, भुंजति दिण्णेवमढे वि ॥ ४७६१ ॥ प्रातिवेश्मिकादिः सापेक्षो वा नष्टो भवेद् 'इतरो वा' निरपेक्षः । सापेक्षो नाम-भूयस्तत्रैवागन्तुकामः, तद्विपरीतो निरपेक्षः । तत्रोभयस्मिन्नपि नष्टे 'एवमेव' आहारवदुपधेरपि ग्रहणं कुर्वन्ति । सापेक्षनष्टेषु च प्रत्यागतेषु कथयन्ति, कथिते च दत्तमनुज्ञातं सत् परिभुञ्जते । ये तु निरपेक्षनष्टास्तेषु निर्विवादमेव परिभुञ्जते । एवं "अटे वि" ति अर्थजातेऽपि ग्रहणं मन्तव्यम् ॥ ४७६१ ॥ अत्रैवाक्षेप-परिहारावाह पाउग्गमणुण्णवियं, जति मण्णसि एवमतिपसंगो त्ति । आउरभेसज्जुवमा, तह संजमसाहगं जंतु ॥ ४७६२॥ यद्येवं मन्यसे-'प्रायोग्यं' साधूनामुचितं यत् तदेव साधुभिः पूर्वमनुज्ञापितम् न पुनः 'अप्रायोग्यम्' अर्थजातादि, तत एवमनुज्ञापितमप्यर्थजातं गृह्णतामतिप्रसङ्गो भवति । तत्राभिधीयतेनैकान्तेनार्थजातमप्रायोग्यम् , यत आतुरः-रोगी तस्य भेपजोपमा कर्तव्या-यथाऽऽतुरस्या 30 Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिकै बृहत्कल्पसूत्रे अवग्रहप्रकृते सूत्रम् २७ भिनवोदीर्ण ज्वरादौ यदौषधं प्रतिपिध्यते तदेवान्यस्यामवस्थायां तस्यैवानुज्ञायते, एवमर्थजातमपि पुष्टकारणाभावे प्रतिषिद्धम् , यत्तु दुर्भिक्षादौ संयमस्य साधकं तदनुज्ञातमेव ॥ ४७६२ ॥ सूत्रम् से वत्थूसु अबावडेसु अबोगडेसु अपरपरिग्गहिएसु अमरपरिग्गहिएसु सच्चेव उग्गहस्स पुवाणुण्णवणा चिट्टइ अहालंदमवि उग्गहे २७ ॥ अस्य सम्बन्धमाह गिहिउग्गहसामिजढे, इति एसो उग्गहो समक्खातो। सामिजढे अजढे वा, अयमण्णो होइ आरंभो ॥ ४७६३ ॥ 10 खामिना जढः-परित्यक्तो यो गृहिणां सम्बन्धी अवग्रहस्तद्विषय इत्येषः 'अवग्रहः' ग्रहणविधिः समाख्यातः । अयं पुनः 'अन्यः' प्रस्तुतसूत्रस्यारम्भः खामिना त्यक्तेऽत्यक्ते वा अवग्रहे भवति ॥ ४७६३ ॥ ___ अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या-"से" तस्य निर्ग्रन्थस्य 'वास्तुषु' गृहेषु । कथम्भू तेषु ? 'अव्याहतेषु' शटित-पतिततया व्यापारविरहितेषु, 'अव्याकृतेषु' दायादादिभिरविभक्तेषु, 15 अथवाऽतीतकाले केनाप्यनुज्ञातमिति न ज्ञायते यत् तदव्याकृतं तेषु, तथा 'अपरपरिगृहीतेषु' परैः-अन्यैरनधिष्ठितेषु, 'अमरपरिगृहीतेषु' देवैः खीकृतेषु; सैवावग्रहस्य पूर्वानुज्ञापना तिष्ठति यथालन्दमप्यवग्रहे । किमुक्तं भवति ?-यावन्तं कालं तानि वास्तूनि तेषां पूर्वखामिनामवग्रहे वर्तन्ते तावन्तं कालं सैव पूर्वानुज्ञा तिष्ठति, न पुनर्भूयोऽप्यवग्रहोऽनुज्ञापनीय इति सूत्रार्थः ॥ सम्प्रति नियुक्तिविस्तरः खित्तं वत्, सेतुं, केतुं साहारणं च पत्तेयं । __ अव्वावडमन्वोअडमपरममरपरिग्गहे चेव ॥ ४७६४ ॥ इह वास्तु सामान्यतो द्विधा-क्षेत्रं 'वास्तु च' गृहं चेत्यर्थः । क्षेत्रं द्विधा-सेतु केतु च । यदरहट्टजलेन सिच्यते तत् सेतु, वृष्टिजलेन तु यन्निष्पाद्यते तत् केतु । गृहं पुनः खातोच्छितोभयभेदात् त्रिधा वक्ष्यते । क्षेत्रं गृहं चोभयमपि द्विधा-साधारणं प्रत्येकं च । 25 साधारणं-बहूनां सामान्यम् , प्रत्येकम्-एकखामिकम् । सूत्रपदानि पश्चार्धेन सन्हीतुमाहअव्यापृतमव्याकृतमपरपरिगृहीतममरपरिगृहीतं चेति ॥ ४७६४ ॥ अथ साधारणपदं विवृणोति दाइय-गण-गोट्ठीणं, सेणी साहारणं व दुगमादी । वत्थुम्मि एत्थ पगयं, ऊसित खाते तदुभए य ॥ ४७६५ ॥ १°त्रार्थः ॥ अथ निर्यु का० ॥ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 भाष्यगाथाः ४७६३-६९] तृतीय उद्देशः । १२८१ दायाद-गण-गोष्ठीनां श्रेणीनां वा "दुगमाइ" ति द्वि-त्रिप्रभृतिसङ्ख्याकानां द्वि-व्यादिजनप्रतिबद्धानां वा यत् क्षेत्रं वास्तु वा सामान्यं तत् साधारणमुच्यते । अत्र तु वास्तुनाऽधिकारः, न क्षेत्रेण । तच्च वास्तु विधा-उच्छ्रितं खातं तदुभयं च । 'उच्छ्रितं' प्रासादः, 'खातं' भूमिगृहम् , 'तदुभयम्' अधोभूमिगृहयुक्तः प्रासादः ॥ ४७६५ ॥ अव्यापृतादिपदानि व्याचष्टे सडिय-पडियं ण कीरइ, जहिगं अव्वावडं तयं वत्थु । अव्वोगडमविभत्तं, अणहिट्ठियमण्णपक्खेणं ॥ ४७६६ ॥ यत् शटित-पतितं यत्र च व्यापारः कोऽपि न क्रियते तद् वास्तु अन्यातमुच्यते । अव्याकृतं नाम यद दायादैरविभक्तम् । अपरपरिगृहीतं नाम यद् 'अन्यपक्षण' अन्यदीयवंशेन नाधिष्ठित-नान्यैः परिगृहीतम् , खाम्येव तस्य शय्यातर इति भावः ॥ ४७६६ ॥ इदमेव भावयति 10 अवरो सु चिय सामी, जेण विदिण्णं तु तप्पढमताए। अमरपरिग्गहियं पुण, देउलिया रुक्खमादी वा ॥ ४७६५॥ . 'अपरो नाम' येन तत्प्रथमतया साधूनां तद् दत्तं स एव तस्य खामी नान्यः कश्चिद्, न परोऽपर इति समासाश्रयणात् । अमरपरिगृहीतं पुनर्देवकुलिका वा वृक्षादिकं वा वानमन्तराधिष्ठितं मन्तव्यम् ॥ ४७६७ ॥ अथाव्याकृतादिषु दृष्टान्तानुपदर्शयति अन्वावडे कुटुंबी, काणिऽव्वोगडे य रायगिहे। अपरपरे सो चेव उ, अमरे.रुक्खे पिसायघरे ।। ४७६८॥ अव्याहते गृहे कुटुम्बी दृष्टान्तः । अव्याकृते तु राजगृहे नगरे “काणिट्ट" ति पाषाणमय्यः पक्केष्टका वा बलिका महत्यश्च काणिका उच्यन्ते, तन्मयगृहकारापको वणिग् दृष्टान्तः । अपरपरिगृहीतेऽपि स एव दृष्टान्तः । अमरपरिगृहीते वृक्षः पिशाचगृहं वा 20 निदर्शनं भवतीति नियुक्तिगाथासमासार्थः ॥ ४७६८॥ अथैनामेव विवरीषुः कुटुम्बिदृष्टान्तमाह निम्मवणं पासाए, संखडि जक्ख सुमिणे य कंटीय । अण्णं वा वावारं, ण कुणति अव्वावडं तेणं ॥ ४७६९ ।। एगेणं कुटुंबिएणं सुंदरं घरं कारियं । समते तम्मि संखडिं काउं 'कल्ले पविसामि' ति 25 चिंतेइ । नवरं वाणमंतरेणं रति भण्णति-जइ पविसिहिसि तो ते कुलं उच्छाएमि । तेण कंटियाहिं फैलहिऊण मुकं, वावारं च से न करेइ । अन्नया साहहिं आगएहिं सो कुडुम्बी अणुण्णविओ । तेण भण्णइ-देवयाए परिग्गहियं ततो भे अवाओ भविस्सइ । साहूहिं भणितो-अणुजाणसु तुमं, लैंभिस्सामो वयं देवयाए । तओ तेण अणुण्णाए तेहिं काउस्सग्गेण जक्खो आकंपिओ भणइ-उवरिल्लभूमियं मोत्तुं वीसत्था अच्छह । ते ट्ठिया । तेसु 30 गतेसु जे अन्ने साहुणो इंति ते तत्थेव ठायंति, स चेव उग्गहस्स पुवाणुन्नवणा ॥ १°गृहे 'काणेष्टकाः' पक्केष्टकाः तन्मयगृहकाराप' भा० ॥ २ "पलिहणिऊणं" इति चूर्गों विशेषचूर्णौ च ॥ ३ भलिस्सामो भा० चूर्णौ च ॥ . Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८२ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अवग्रहप्रकृते सूत्रम् २७ __ अथ गाथाक्षरार्थः -कुटुम्बिना प्रासादस्य निर्मापणं कृतम् । ततः सङ्खडिः कर्त्तमारब्धा । यक्षेण च खप्ने निवेदितं-यदि प्रासादं प्रवेक्ष्यसि ततः सकुटुम्बं भवन्तं व्यपरोपयिष्यामीति । तेन कण्टिकाभिः परिक्षिप्तं तद् गृहम्, अन्यमपि च व्यापारं तत्र न करोति, तेनाव्यापृतमुच्यते ॥ ४७६९ ॥ अव्याकृते दृष्टान्तमाह इड्डित्तणे आसि घरं महल्लं, कालेण तं खीणधणं च जायं । ते उम्मरीयस्स भया कुडीए, दाउंठिया पासि घरं जईणं ॥ ४७७० ॥ एगेणं इड्डिमंतेणं वाणिएणं रायगिहे नयरे सजालमालाचोप्पालं पक्किट्टगाहिं गिहं कारियं । सो य तम्मि निम्मविए पंचत्तीहूओ । पुत्ता से फेल्ला जाया, क्षीणविभवा इत्यर्थः । तत्थ य उंबरीओ करो घिप्पइ । ते तं दाउं अचयंता एगपासे कुडियं काउं ठिया । तं च तेहिं 10 संजयाण दिन्नं ॥ अथाक्षरगमनिका-'ऋद्धिमत्त्वे' महर्द्धिकतायां कस्यापि वणिजो गृहं 'महल्लं' महाजनाकुलमासीत् । कालेन तत् क्षीणधनं चशब्दादल्पमानुषं च सञ्जातम् । ते च तदीयाः पुत्राः 'उम्बरीयस्य' 'प्रत्युदुम्बरं रूपको दातव्यः' इत्येवंलक्षणस्य करस्य भयादेकस्मिन् पार्श्वे कुटी कृत्वा मौलं च गृहं यतीनां दत्त्वा कुटीरके स्वयं स्थिताः, एतदव्याकृतमुच्यते ॥ ४७७० ॥ 18 अथ पूर्वानुज्ञापनापदं व्याख्याति पुवट्टियऽणुण्ण वियं, ठायंतऽण्णे वि तत्थ ते य गता । एवं सुण्णमसुण्णे, सो च्चेव य उग्गहो होइ ॥ ४७७१ ॥ अव्यापृतेऽव्याकृते वा पूर्व साधवोऽनुज्ञाप्य स्थिताः, तेषां मासकल्पे वर्षावासे वा पूर्णे शून्यीभूते 'तत्र' प्रतिश्रयेऽपूर्णे वा कल्पेऽशून्य एवोपाश्रयेऽन्ये साधवस्तिष्ठन्ति, 'ते च' पूर्वसा20 धवः कल्पं समाप्यान्यत्र गताः; एवं शून्ये अशून्ये वा तत्र तिष्ठतां तेषां स एवावग्रहो भवति, न पुनर्भूयोऽनुज्ञापयन्ति ॥ ४७७१ ॥ अपरपरिगृहीतं व्याचष्टे अपरपरिग्गहितं पुण, अपरे अपरे जैती जइ उवेंति । अव्वोकडं पि तं चिय, दोन्नि वि अत्था अपरसद्दे ॥ ४७७२ ॥ पुनःशब्दो विशेषणार्थः, स चैतद्विशिनष्टि-अपरपरिगृहीतं नाम येन साधूनां तद् दत्तं 28 स एव स्वामी नान्य इति तावदपरपरिगृहीतस्यैकोऽर्थः प्रागुक्तः; यद्वा यदि अपरेऽपरे यत यस्तत्रोपयन्ति तदपरपरिगृहीतम् । अव्याकृतमपि तदेव मन्तव्यम् , सर्वेषामपि साधूनां साधारणमिति कृत्वा । तदेवं द्वावप्यर्थावपरशदे भवतः, एकः-न परोऽपरस्तेन परिगृहीतमपरपरिगृहीतम् , द्वितीयः-अपरैः साधुभिः परिगृहीतमपरपरिगृहीतमिति ॥ ४७७२ ॥ अमरपरिगृहीतं तु वृक्षो वृक्षस्याधस्ताद्वा गृह मन्तव्यम् , तत्र गृहे यदि पूर्व साधवोऽनुज्ञाप्य 30 स्थितास्तदा शेषाणां स एवावग्रहो भवति । अथ वृक्षविषयं विधिमाह १ "चोप्पोलं" चूर्णी ॥ २ जती समुवयंति भा० । एतदनुसारेणैव भा. टीका, दृश्यतां टिप्पणी ३ ॥ ३ यत्रापरेऽपरे यतयः समुपयन्ति भा० ॥ ४ तु पिशाच गृहं वृक्षादिकं वा भवति, तत्र पिशाचगृहे यदि भा० ॥ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४७७०-७६ ] तृतीय उद्देशः । १२८३ भृयाइपरिग्गहिते, दुमम्मि तमणुण्णवित्तु सज्झायं । एगेण अणुण्ण विए, सो चेव य उग्गहो सेसे ॥ ४७७३ ॥ भूतादिना-व्यन्तरेण परिगृहीतो यो द्रुमस्तत्र स्वाध्यायार्थ कदाचिद् गन्तव्यं भवति, तं च व्यन्तरमनुज्ञाप्य खाध्यायं करोति । एवमेकेनापि तस्मिन्ननुज्ञापिते शेषाणां साधूनां स एवावग्रहो भवति ॥ ४७७३ ॥ अथासौ वृक्षः परपरिगृहीतोऽप्यस्ति ततः-- सामी अणुण्ण विजइ, दुमस्स जस्सोग्गहो व्व असहीणे। कूरसुरपरिग्गहिते, दुमम्मि काणिर्माण गमो ॥ ४७७४ ॥ यस्तस्य दुमस्य स्वामी सोऽनुज्ञाप्यते । अथासौ न खाधीनस्ततो अखाधीने तस्मिन् 'यस्यायमवग्रहः सोऽनुजानीताम्' इति वक्तव्यम् । अथासौ द्रुमः क्रूरसुरपरिगृहीतस्ततो येषामगारिणां सत्कस्तेषामागन्तुमसौ न ददाति तत्र काणेष्टकागृहगमो (गा० ४७७०) मन्तव्यः, तं सुरं 10 कायोत्सर्गेणाकम्प्य खाध्यायादि कुर्वन्तीति भावः ॥ ४७७४ ॥ तत्र चाथं विधिः नेच्छंतेण व अन्ने, ईसालुसुरेण जं अणुण्णायं । तत्थ वि सो च्चेव गमो, सगारिपिंडम्मि मग्गणता ॥ ४७७५ ॥ ईर्ष्यालुसुरेण 'अन्यान्' गृहिणोऽनिच्छता 'यद्' वृक्षमूलादिकं साधनामनुज्ञातं तत्रापि स एव गमः' पूर्वानुज्ञापनावस्थानलक्षणो विज्ञेयः । नवरं तत्र स्थितानां सागारिकपिण्डस्य मार्गणा 15 कर्चव्या ॥ १७७५ ॥ तामेवाह जक्खो चिय होइ तरी, बलिमादीगिण्हणे भवे दोसा। सुविणे ओयरिए वा, संखडिकारावणमभिक्खं ॥ ४७७६ ॥ येन यक्षेण स द्रुमः परिगृहीतः स एव तत्र स्थितानां 'तरः' शय्यातरो भवति । ततो यत् तस्य बलिकूरादि निवेद्यते स शय्यातरपिण्ड इति कृत्वा तस्य ग्रहणे 'दोषाः' आज्ञाभङ्गा- 20 दयो भवन्ति । यद्वा यक्षो वृक्षखामिनः खमे रात्राववतीर्णः कथयेत्-मामुद्दिश्य भूयोभूयः प्रकरणं विधेयं ततोऽहं न किमपि भणिष्यामि । एवमभीक्ष्णसङ्कडिकारापणे यत् तत्र भक्तं पानकं वा स शय्यातरपिण्ड - इति कृत्वा परिहियते ॥ ४७७६ ॥ सूत्रम् से वत्थूसु वावडेसु वोगडेसु परपरिग्गहिएसु भिक्खुभावस्स अट्ठाए दोचं पि उग्गहे अणुण्णवेयव्वे सिया अहालंदमवि उग्गहे २८ ॥ अस्य सम्बन्धमाह सागारिंगी उग्गहमग्गणेयं, स केच्चिरं वाकड मो कहं वा । १°यं कुर्वन्ति । एव' भा० ॥ २°गागमगो ताभा० ॥ ३ एतदन्तगतः पाठः भा. प्रति विहाय निखिलाखप्यस्मत्सविधवर्तिनीय प्रतिषु नास्ति ।। 25 Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनियुक्ति-लधुभाष्य-वृत्ति के बृहत्कल्पसूत्रे [अवग्रहप्रकृते सूत्रम् २८ इदाणि राउग्गहमग्गणा उ, केणं विदिण्णो स कया कहं वा ॥ ४७७७॥ 'सागारिकी' सागारिकसत्का तावदियमवग्रहमार्गणा प्रकृता । 'स च' सागारिकावग्रहः कियन्तं कालं कथं वा भवति ? इत्येतत् पूर्वसूत्रे 'व्याकृतं' व्याख्यातम् , “मो" इति पादपूरणे, इदानीं तु राजावग्रहस्य उपलक्षणत्वाद् देवेन्द्रावग्रहस्य च मार्गणा क्रियते, यथा-केन 5 कदा कथं वाऽसौ 'वितीर्णः' अनुज्ञातः ? इति ॥ ४७७७ ॥ __ अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या--"से" तस्य निर्ग्रन्थस्य 'वास्तुपु' गृहेषु 'व्यापृतेषु' व्यापारयुक्तेषु वहमानकेष्वित्यर्थः 'व्याकृतेषु' दायादादिभिर्विभक्तेषु 'परपरिगृहीतेषु' अन्यवंशीयैरधिष्ठितेषु 'भिक्षुभावस्यार्थाय' भिक्षुभावो नाम-ज्ञान-दर्शन-चारित्राणि तृतीयव्रतादिकं वा, तत्रैव भिक्षुशब्दस्य परमार्थत्वेन रूढत्वात् , स भिक्षुभावः परिपूर्णो भूयादित्येवमर्थ ये 10 साधवः पश्चादागच्छन्ति तैर्द्वितीयमपि वारमवग्रहोऽनुज्ञापयितव्यः स्याद् 'यथालन्दमपि' जघन्यलन्दमात्रमपि कालमवग्रहे तत्रावस्थान इति सूत्रार्थः ॥ अथ भाष्यविस्तरः अणव ट्ठिया तहिं होंति उग्गहा रायमादिणो चउरो। पासाणम्मि व लेहा, जा तित्थं ताव सकस्स ॥ ४७७८ ॥ इह देवेन्द्रावग्रहादयः पञ्चावग्रहाः, 'तत्र' तेषां पञ्चानां मध्ये 'राजादयः' राज-गृहपति-सा15 गारिक-सार्धर्मिकसम्बन्धिनश्चत्वारोऽवग्रहा अनवस्थिता भवन्ति, भूयोभूयः परावर्तन्त इत्यर्थः । शक्रस्य पुनरवग्रहः पापाण इव रेखा यावत् तीर्थ तावदेकवारमनुज्ञापितः सन्ननुवर्तते ॥४७७८॥ अथ यदुक्तम् "इयाणि राउग्गहमग्गणा उ, केणं विदिन्नो स कया कहं व" ति ( गा० ४७७७) तदेतन्निर्वाहयितुमाह सोऊण भरहराया, सबिड्डी आगतो जिणसगासं । वंदिय नमंसिया णं, भत्तेण निमंतणं कुणइ ॥ ४७७९ ॥ अष्टापदे समवसृतं श्रीऋषभस्वामिनं श्रुत्वा भरतराजः साधूनामर्थाय पञ्च शकटशतानि भक्त-पानभृतानि गृहीत्वा सर्वा जिनसकाशमागतः । ततो भगवन्तं 'वन्दित्वा' स्तुत्वा 'नमस्कृत्य' शिरसा प्रणम्य भक्तेन साधूनां निमन्त्रणं करोति ॥ ४७७९ ॥ भगवानाह-- पीलाकरं वताणं, एयं अम्हं न कप्पए घेत्तुं । 25 अणवजं णिरुवहयं, भुंजंति य साहुणो भिक्खं ॥ ४७८० ॥ आधाकर्मा-ऽभ्याहृत-राजपिण्डदोषदुष्टतथा व्रतानां पीडाकरमेतदस्माकम् , अतो न कल्पते ग्रहीतुम् । यतः 'अनवद्यां' प्राशुकां 'निरुपहताम्' एषणीयां साधवो भिक्षां भुञ्जते, नापाशुकामनेषणीयां वा ॥ ४७८० ॥ तं वयणं सोऊणं, महता दुक्खेण अदितो भरहो । [आव.नि. ४२५] समणा अणुग्गहं मे, ण करिति अहो ! अहं चत्तो ॥ ४७८१ ॥ १°धर्मिकाख्याश्चत्वा भा० ॥ २ भा० विनाऽन्यत्र-वन्तमभिवन्द्य वन्दित-नमस्कृतानां' स्तुत-प्रणतानां साधूनां भक्तेन निम का० । वन्तमभिवन्द्य वन्दित-नमस्कृतानां भक्तेन निम ताटी. मो० डे• ॥ ३ अभिहतो ताभा० ॥ 20 50 Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 भाष्यगाथाः ४७७७-८८] तृतीय उद्देशः । १२८५ 'तद्' अनन्तरोक्तं वचनं श्रुत्वा भरतो महता मानसिकेन दुःखेनार्दितः सञ्जज्ञे । कथम् ? इत्याह-अमी श्रमणाः 'मे' ममानुग्रहं न कुर्वन्ति, अहो ! अहमे भिस्त्यक्त इति ।। ४७८१ ॥ नाऊण तस्स भावं, देवेंदो तस्स जाणणट्टाए। वंदिय नमंसिया णं, पंचविहं उग्गहं पुच्छे ॥ ४७८२ ॥ ज्ञात्वा 'तस्य' भरतस्य 'भावं' विषादात्मकं तस्यैव चावग्रहस्वरूपज्ञापनार्थं भगवन्तं वन्दित्वा 5. नमस्कृत्य च णमिति वाक्यालङ्कारे पञ्चविधमवग्रहं पृच्छति ॥ ४७४२ ॥ ततश्च अट्ठावयम्मि सेले, आदिकरो केवली अमियनाणी । [आव.नि. ४३४] सकस्स य भरहस्स य, उग्गहपुच्छं परिकहेइ ॥ ४७८३ ॥ अष्टापदे शैले आदिकरः केवली अमितज्ञानी शकस्य च भरतस्य च पुरतोऽवग्रहपृच्छां परिकथयति ॥ ४७८३ ॥ तद्यथा देविंद-रायउग्गह, गहवति सागारिए य साहम्मी। पंचविहम्मि परूवितें, णायव्वं जं जहिं कमइ ॥ ४७८४ ॥ देवेन्द्रावग्रहो राजावग्रहो गृहपत्यवग्रहः सागारिकावग्रहः साधर्मिकावग्रहश्चेति पञ्चधाऽव. ग्रहः । एतस्मिन् पञ्चविधे प्ररूपिते ज्ञातव्यं यद् 'यत्र' देवेन्द्रावग्रहादौ मनसा वचसा वा अवग्रहानुज्ञापनं 'क्रमते' अवतरतीति सङ्ग्रहगाथासमासार्थः । विस्तरार्थस्तु यथा पीठिकायां 15 "हिडिल्ला उवरिल्लेहिँ बाहिया न तु लभंति पाहन्नं ।" (गा० ६७०) इत्यादिगाथामिरभिहितस्तथैवात्रापि वक्तव्य इति ॥ ४७८४ ॥ . तं वयणं सोऊणं, देविंदो वंदिऊण तित्थयरं । वितरति अप्पणगे उग्गहम्मि जं साहुपाउग्गं ॥ ४७८५ ॥ 'तद्' अवग्रहप्रतिपादकं भगवतो वचनं श्रुत्वा देवेन्द्रस्तीर्थकरं वन्दित्वा यदात्मीयेऽवग्रहे 20 साधूनां प्रायोग्यं सचित्तमचित्तं मिश्रं वा तत् तदानीं सर्वमपि वितरति, अनुजानातीत्यर्थः ॥ ४७८५॥ सोउं तुट्ठो भरहो, लद्धों मए एत्तिओ इमो लाभो । वितरति जं पाउग्गं, केवलकप्पम्मि भरहम्मि ॥४७८६ ॥ भरतोऽपि भगवतो वचनं श्रुत्वा 'तुष्टः'.प्रमुदितः 'अहो ! मयैतावान् लाभो लब्धः' इति 25 परिभाव्य 'केवलकल्पे' सम्पूर्णेऽपि भरते यत् 'प्रायोग्यं साधूनामुचितं सचित्तादिकं तत् सर्वं वितरति ॥ ४७८६ ॥ पंचविहम्मि परूवितें, स उग्गही जाणएण घेत्तन्यो । अण्णाणेणोग्गहिए, पायच्छित्तं भवे तिविहं ॥ ४७८७ ॥ इक्कड-कठिणे मासो, चाउम्मासा य पीढ-फलए। कट्ठ-कलिंचे पणगं, छारे तह मल्लगाईसु ॥ ४७८८ ॥ पञ्चविधेऽवग्रहे प्ररूपिते सति सम्प्रति तात्पर्यमुच्यते-स खल्ववग्रहो जानता ग्रहीतव्यः । अथाज्ञानेनावगृह्णाति अजानन्नित्यर्थः ततस्त्रिविधं प्रायश्चित्तं भवति ॥ ४७८७ ॥ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अवग्रहप्रकृते सूत्रम् २९ तद्यथा-इक्कडमये कठिनमये च संस्तारके लघुमासः, पीठ-फलकेषु चत्वारो मासा लघवः, काष्ठे कलिञ्चे क्षारे मल्लकादिषु च पञ्चकम् ॥ ४७८८ ॥ सूत्रम् से अणुकुड्डेसु वा अणुभित्तीसु वा अणुचरियासु वा अणुफरिहासु वा अणुपंथेसु वा अणुमेरासु वा स चेव उग्गहस्स पुव्वाणुण्णवणा चिट्ठइ अहालंदमवि उग्गहे २९॥ अस्य सम्बन्धमाह जे चेव दोनि पगता, सागारिय-रायउग्गहा होति । तेसिं इह परिमाणं, णिवोग्गहम्मी विसेसेणं ॥ ४७८९ ॥ __ यावेव द्वौ सागारिक-राजावग्रही पूर्वसूत्रयोः प्रकृती तयोरेवेह सूत्रे परिमाणमुच्यते । तत्रापि नृपावग्रहे परिमाणं विशेषेणाभिधीयते ॥ ४७८९ ।। अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या-"से" तस्य निर्ग्रन्थस्य 'अनुकुड्येषु वा' कुड्यसमीपवर्तिषु वा प्रदेशेषु, एवमनुभित्तिषु वा अनुचरिकासु वा अनुपरिखासु वा अनुपथेषु वा 16 अनुमर्यादासु वा । अत्र चरिका-नगर-प्राकारयोरपान्तराले हस्ताष्टकप्रमाणो मार्गः, परिखा खातिका, मर्यादा-सीमा, शेषं प्रतीतम् । एतेषु सैवावग्रहस्य पूर्वानुज्ञापना तिष्ठति यथालन्दमपि कालमवग्रह इति सूत्रार्थः ।। अथ नियुक्तिविस्तरः अणुकुडे भित्तीसु, चरिया-पागारपंथ-परिहासु । अणुमेरा सीमाए, णायव्वं जं जहिं कमति ॥ ४७९० ॥ 20 अनुशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, अनुकुड्या-ऽनुभित्त्योरनुचरिका-प्राकारपथ-परिखासु च, "अणुमेरा सीमाए" ति मर्यादा-सीमा, ततो अनुमर्यादायामनुसीमायामित्येकोऽर्थः । एतेषु ज्ञातव्यं यद् यत्र सागारिक-राजाद्यवग्रहानुज्ञापनं क्रमते ॥ ४७९० ॥ एनां नियुक्तिगाथां व्याख्यानयति अणुकुडं उवकुड्डे, कुड्डसमीवं व होइ एगहुँ । 28 एमेव सेसएसु वि, तेसि पमाणं इमं होइ ॥ ४७९१ ॥ ____ अनुशब्दस्य समीपार्थद्योतकत्वादनुकुड्यमुपकुड्यं कुड्यसमीपमिति वैकार्थम् । एवमेव 'शेषेष्वपि' अनुभित्त्यादिषु पदेषु मन्तव्यम् । तेषाम्' अनुकुड्यादीनामवग्रह विषयमिदं प्रमाण भवति ॥ ४७९१ ॥ वति-भित्ति-कडगक. पंथे मेराय उग्गहो रयणी । अणुचरियाए अट्ठ उ, चउरो रयणीउ परिहाए । ४७९२ ॥ 30 Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४७८९-९४] तृतीय उद्देशः । १२८७ वृतौ-बबूलादिपरिक्षेपरूपायां मित्तौ-इष्टकादिनिर्मितायां कटकमये च कुड्ये पथि मर्यादायां च “रयणि" ति एकहस्तमानोऽवग्रहो भवति । अनुचरिकायामष्टौ हस्ताः । परिखायां चत्वारो रत्नयः ॥ ४७९२ ॥ इदमेव भावयति वतिसामिणो वतीतो, हत्थो सेसोग्गहो परवतिस्स । तस्स तहिं ममकारो, जति वि.य णिम्माणि जा भूमी ॥ ४७९३ ॥ 5 यो गृहपतिर्विवक्षिताया वृतेः स्वामी तस्य वृतेः परतो हस्तमात्रमवग्रहो भवति, शेषस्तु सर्वोऽपि नरपतेरवग्रहो मन्तव्यः । अथ किं कारणं वृतिखामिनो वृतेः परतोऽप्यवग्रहो भवति ? इत्याह-'तस्य' गृहपतेः 'तत्र' वृतेः परतो हस्तप्रमाणे भूभागे ममकारो भवति, अतो यद्यपि "निम्माणि" ति मूलपादानेव यावद् विवक्षितगृहसत्का भूमिस्तथापि वृतेः परतो हस्तमेकं तस्यावग्रहः । एवं भित्ति-कुड्यादिष्वपि भावनीयम् ॥ ४७९३ ॥ 10 हत्थं हत्थं मोतुं, कुड्डादीणं तु मज्झिमो रण्णो। जत्थ न पूरइ हत्थो, मझें तिभागो तहिं रन्नो ॥ ४७९४ ॥ तेषामेव कुड्यादीनां हसं हस्तमुभयोरपि गृहयोर्मुक्त्वा मध्यमः सर्वोऽपि राज्ञोऽवग्रहः । यत्र तु गृहद्वयापान्तरालस्यातिस्तोकतया हस्तो न पूर्यते तत्र मध्यमस्त्रिभागो राज्ञः, शेषौ द्वौ गृहखामिनोः; एतदवग्रहपरिमाणमुक्तम् । अत्र चोच्चारादीनि स्थान-निषदनादीनि वा कुर्वन् 15. यदि कुड्यादीनां हस्ताभ्यन्तरे करोति ततो गृहपत्यवग्रहो मनसि क्रियते, हस्ताद् बहिश्चरिकाप्राकार-परिखादिषु च राजावग्रहोऽनुज्ञाप्यते, अटव्यामपि यद्यसौ राजा प्रभवति तदा तस्यैवा. वग्रहः स्मर्यते, अथासौ तत्र न प्रभवति ततो देवेन्द्रावग्रहो मनसि क्रियते ॥ ४७९४ ॥ ॥ अवग्रहप्रकृतं समाप्तम् ॥ - 20 से ना प्रकृतम् सूत्रम् से गामस्स वा जाव रायहाणीए वा बहिया सेणं सन्निविटुं पेहाए कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा तदिवसं भिक्खायरियाए गंतुं पडिएत्तए । नो से कप्पइ तं रयणिं तत्थेव उवाइणावित्तए । जो खल निग्गंथो वा निग्गंथी वा तं रयणिं तत्थेव उवाइणाइ, उवातिणंतं वा साइजति, से दुहतो वि अइक्कममाणे आवजइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्धाइयं ३०॥ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ सेनाप्रकृते सूत्रम् ३० अस्य सम्बन्धमाह-- उवरोहभया कीरइ, सप्परिखो पुरवरस्स पागारो। तेण र सेणासुत्तं, अणुअत्तइ उग्गहो जं च ॥ ४७९५॥ पूर्वसूत्रे प्राकारः प्राकारपरिखा चोक्ता । स च प्राकारः सपरिखोऽपि पुरवरस्योपरोधः-पर5 चक्रेण वेष्टनं तद्भयात् क्रियते । तेन कारणेन "र" इति पादपूरणे सेनासूत्रमिदमारभ्यते । यच्चावग्रहः पूर्वसूत्रेभ्यः अनुवर्तते, अव्यवच्छिन्न एवागच्छन्नस्तीति भावः, अतो यथा रोधके राजावग्रहमनुज्ञाप्य बहिर्निर्गम्यते प्रविश्यते वा तथाऽभिधीयते ॥ ४७९५ ।। अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या-सेशब्दोऽथशब्दार्थे । अथ ग्रामस्य वा यावद् राजधान्या वा, यावत्करणाद् नगरस्य वा खेटस्य वा इत्यादिपरिग्रहः, एतेषामन्यतरस्य बहिः 10 'सेना' राज्ञः स्कन्धावार रोधकं कृत्वा सन्निविष्टं 'प्रेक्ष्य' दृष्ट्वा कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा तदिवसं भिक्षाचर्यायां गत्वा प्रत्यागन्तुम् । “नो" नैव "से" तस्य विवक्षितस्य भिक्षोः कल्पते तां रजनीं 'तत्रैव' सेनायाम् 'उपादातुम्' अतिक्रामयितुम् । यः खलु निर्ग्रन्थो वा निर्ग्रन्थी वा तां रजनीं तत्रैवोपाददाति उपाददतं वा खादयति सः 'द्विधाऽप्यतिक्रामन्' जिनसीमानं राजसीमानं च विलुम्पन् आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानमनुद्घातिकमिति 15 सूत्रार्थः ।। अथ भाष्यविस्तरः सेणादी गम्मिहिई, खित्तुप्यायं इमं वियाणित्ता । असिवे ओमोयरिए, भय-चक्काऽणिग्गमे गुरुगा॥ ४७९६ ॥ क्वचित् मासकल्पक्षेत्रे स्थितैख़तम्-सेना-परचक्रमत्र समायास्यति, आदिशब्दाद् अशिवमवमौदर्य म्लेच्छादिभयं वा भविष्यति । एवमादौ कारणे पश्चादपि गमिष्यत इति कृत्वा 20 अनागतमेव ततः क्षेत्राद् निर्गन्तव्यम् । कथं पुनरनागतं तद् ज्ञायते ? इत्याह-क्षेत्रस्योत्पातः क्षेत्रोत्पातः-परचक्रायुपद्रवसूचकानि लिङ्गानीत्यर्थः, तानि च दिक्कनवालं धूमायते, अकाले तरूणां पुष्प-फलानि जायन्ते, महता शब्देन भूमिः कम्पते, समन्ततः क्रन्दित-कूजितशब्दाः श्रूयन्ते इत्यादीनि मन्तव्यानि । एवं क्षेत्रोत्पातममुं विज्ञाय निर्गन्तव्यम् । अथ न निर्गच्छन्ति ततः अशिवे अवमौदर्य बोधिकभये परचक्रागमने ज्ञातेऽपि निर्गमनमकुर्वतां चतुर्गुरुकाः ॥४७९६॥ आणाइणो य दोसा, विराहणा होइ संजमा-ऽऽयाए । असिवादिम्मि परुविते, अधिकारो होति सेणाए ॥ ४७९७ ॥ आज्ञादयश्च दोषाः विराधना च संयमा-ऽऽत्मविषया भवति । संयमविराधना शुद्धे भक्तपानेऽलभ्यमानेऽनेषणीयं गृह्णीयादित्यादिका, आत्मविराधना परिताप-महादुःखादिका । यदा चाशिवादिकं प्रतिपदं प्ररूपितं भवति तदा अत्र सेनाया अधिकारः कर्तव्यः । अशिवादिकं 30 च प्रथमोद्देशकेऽध्यसूत्रे (गा० ३०६२ आदि ) सप्रपञ्चं प्ररूपितमिति नेह भूयः प्ररूप्यते ॥ ४७९७ ॥ तच्च परचक्रागमनं यथा ज्ञायते तथा दर्शयति-- १ अस्मदन्तिकवर्तिषु निखिलेष्वप्यादर्शेषु स्थानमुद्धा इत्येव पाठ उपलभ्यते, न चासौ साधुरिति परिवर्तितोऽस्माभिः ॥ २°त् क्षेत्र स्थि° भा० । त् क्षेत्रे मासकल्पस्थि' कां० ॥ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८९ भाष्यगाथा: ४७९५-४८०३ ] तृतीय उद्देशः । अतिसेस-देवत- णिमित्तमादि अवितह पवित्ति सोनूर्ण । णिग्गमण होइ पुत्रं, अणागते रुद्र वोच्छिष्णे ।। ४७९८ ।। अवधिज्ञानाद्यतिशयेन स्वयमेव ज्ञातम्, अपरेण वा अतिशयज्ञानिना पृष्टेन कथितम्, देवता वा कयाचिदाख्यातम्, अविसंवादिना वा निमित्तेनावगतम्, आदिग्रहणेन विद्यामन्त्रादिपरिग्रहः, अथवा प्रवृत्तिः - वार्ता तामवितथां श्रुत्वा ततः क्षेत्रात् पूर्वमेव निर्गमनं कर्त्तव्यं 5 भवति । अथानागतं न ज्ञातम् सहसैव तन्नगरं रुद्धं पन्थानो व्यवच्छिन्नास्ततो न निर्गच्छेयुरपि ॥ ४७९८ ॥ अथवा अमीभिः कारणैर्ज्ञातेऽपि न निर्गता भवेयुः गेलन रोगि असिवे, रायद्दुट्ठे तहेव ओमम्मि | वही - सरीरतेrग, जाते वि ण होति णिग्गमणं ॥ ४७९९ ॥ 'ग्लानः ' ज्वरादिपीडितः कश्चिदस्ति तत्प्रतिबन्धेन गन्तुं न शक्यते, “रोगि" चि दुष्ट - 10 रोगेण कुष्ठादिना कश्चिदत्यन्तमभिभूतः स परित्यक्तुं न पार्यते, बहिर्वा अशिवं राजद्विष्टमवमौदर्यं च विद्यते, उपधिस्तेनाः शरीरस्तेना वा बहिर्गच्छत उपद्रवन्ति, एतैः कारणैर्ज्ञातेऽपि परचक्रागमने निर्गमनं न भवति ॥ ४७९९ ॥ हिय अण्णेहि य, ण णिग्गया कारणेहिं बहु एहिं । अच्छंति होइ जयणा, संवट्टे नगररोधे य ॥ ४८०० ॥ 15 एतैरन्यैश्च बहुभिः कारणैर्न निर्गता भवेयुः ततस्तत्रैव सन्तिष्ठतां संवर्त्ते नगररोधके च यतना वक्तव्या । संवर्त्तो नाम - परचक्रागमनं श्रुत्वा यत् पर्वत- जल-दुर्गादिषु बहूनां ग्रामाणां जनः संवत्तींभूयैकत्र तिष्ठति । नगररोधकः प्रतीतः ॥ ४८०० ॥ तत्र संवर्ते यतनामाहसंवट्टमि तु जयणा, भिक्खे भत्तट्टणाऍ वसहीए । तम्मि भये संपत्ते, अवाउडा एकओ ठंति ॥ ४८०१ ॥ संवतिष्ठतां भैक्षे भक्तार्थनायां वसतौ च यतना कर्त्तव्या । ' तस्मिंश्च' परचक्रलक्षणे भये सम्प्राप्तेऽपावृता एकतस्तिष्ठन्तीति नियुक्तिगाथासमासार्थः ॥ ४८०१ ॥ साम्प्रतमेनामेव विवृणोति - वासु व पल्ली व भिक्खं काउं वसंति संवट्टे । 25 सव्वम्म रजखोभे, तत्थेव य जाणि थंडिले ॥ ४८०२ ॥ संवर्त्तेऽभिनवसन्निविष्टतया सचित्तः पृथिवीकायो भवतीति कृत्वा भिक्षां न हिण्डन्ते किन्तु पूर्वस्थितासु व्रजिकासु वा पल्लीषु वा भिक्षां कृत्वा तत्रैव स्थण्डिले भुक्त्वा रात्रौ संवर्ते समागत्य वसन्ति । अथ सर्वस्यापि राज्यस्य क्षोः ततो नजिकादिकमपि नास्ति तदा 'तत्रैव' संवर्ते यानि कुलानि स्थण्डिले स्थितानि तेषु भिक्षां हिण्डन्ते ॥ ४८०२ ॥ अथ न सन्ति स्थण्डिले स्थितानि तत इयं यतना पूवलिय-सत्तु - ओदणगहणं पडलोवरिं पगासमुहे । सुक्खादीण अलंभे, अजविंता वा वि लक्खेंति ॥ ४८०३ ॥ जगारि - तक-तीमनादौ आर्डे प्रपतति पृथिवीकाय विराधना भवेदिति मत्वा याः पूपलिका 20 30 Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९० सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ सेनाप्रकृते सूत्रम् ३० ये च सक्तवो यश्च शुष्कौदन एवमादिकं शुष्कद्रव्यं पटलोपरिस्थिते प्रकाशमुखे भाजने गृह्णन्ति । अथ शुष्कादीनां लाभो न भवति, आदिशब्दः खगतानेकभेदसूचकः, न वा तैरात्मानं यापयन्ति तत आट्टैण गृह्यमाणेन यत्र पटलकादौ खरण्टको लमस्तं सम्यग् लक्षयन्ति ॥ ४८०३ ॥ ___गतं भिक्षाद्वारम् । अथ भक्तार्थनाद्वारमाह पच्छन्नासति बहिया, अह सभयं तेण चिलिमिणी अंतो। असतीय व सभयम्मि व, धरंति अद्धेयरे भुंजे ॥ ४८०४ ॥ संवर्चस्यान्तः प्रच्छन्ने प्रदेशे भक्तार्थनं कर्त्तव्यम् । अथान्तः प्रच्छन्नं नास्ति ततः संवर्तस्य बहिर्गत्वा समुद्देष्टव्यम् । अथ बहिः सभयं ततः 'अन्तः' संवर्तस्याभ्यन्तर एव चिलिमिलिकां दत्त्वा भोक्तव्यम् । अथ नास्ति चिलिमिलिका सभये वा सा न प्रकटीक्रियते ततो अर्द्ध साधवो 10 भाजनानि धारयन्ति, 'इतरे' द्वितीया अर्द्धं कमठकेषु भुञ्जते ॥ ४८०४॥ काले अपहुचंते, भए व सत्थे व गंतुकामम्मि । कप्पुवरि भायणाई, काउं इक्को उ परिवेसे ॥ ४८०५॥ अथ वारकेण भुञ्जानानां कालो न पूर्यते, भये वा त्वरितं भोक्तव्यम् , यो वा संवतें सार्थः स गन्तुकामस्ततः कल्पस्योपरि भाजनानि 'कृत्वा' स्थापयित्वा सर्वेऽपि कमठकादिषु भुञ्जते, 16 एकश्च तेषां सर्वेषामपि परिवेषयेत् ॥ ४८०५॥ पत्तेग वड्डगासति, सज्झिलगादेकओ गुरू वीसुं। ओमेण कप्पकरणं, अण्णो गुरुणेकतो वा वि ॥ ४८०६॥ 'प्रत्येकं यदि सर्वेषां 'वड्डुकानि' कमठकानि न सन्ति ततो ये 'सज्झिल्लकाः' परस्पर सहोदरा भ्रातरः, आदिशब्दाद् अन्येऽपि ये प्रीतिवशेनैकत्र मिलन्ति ते एकतः समुद्दिशन्ति, 20 गुरवः 'विष्वक्' पृथग् भुञ्जते । यदा सर्वेऽपि भुक्तास्तदा यस्तत्र 'अवमः' लघुस्तेन कमठकानां कल्पकरणं विधेयम्, गुरूणां सकं कमढकं तैः सह न मील्यते । अन्यस्तस्य कल्पं प्रयच्छति । अपूर्यमाणेषु च साधूनां गुरोश्व कमढकान्येकतोऽपि कल्पयन्ति ॥ ४८०६ ॥ भाणस्स कप्पकरणं, दड्डिल्लग मुत्ति कड्डयरुक्खे य । तेसऽसति कमढ कप्पर, काउमजीवे पदेसे य ॥ ४८०७॥ क भाजनस्य कल्पकरणं दग्धभूमिकायां गोमूत्रभाविते वा भूभागे कटुकवृक्षस्याधस्ताद्वा कर्तव्यम् । 'तेषां' दग्धादिस्थण्डिलानामभावे कमढकेषु घटादिकपरे वा भाजनस्य कल्पं कृत्वा तत् कल्पपानकमन्यत्र नीत्वा स्थण्डिले परिष्ठापयन्ति, गते वा संवर्ते पश्चात् परिमलितजीवप्रदेशेषु परिष्ठाप्यम् । सभये वा त्वरमाणाः स्थण्डिलस्य वा अभावे 'धर्मा-ऽधर्मास्तिकायसम्बन्धिषु अजीवप्रदेशेषु परिष्ठापयामः' इति बुद्धिं विधाय अस्थण्डिले परिष्ठापयन्ति ॥ ४८०७ ॥ 30 गतं भक्तार्थनद्वारम् । वसतिद्वारमाह गोणादीवाघाते, अलब्भमाणे व बाहि वसमाणा । वातदिसि सावयभए, अवाउडा तेण जग्गणता ॥४८०८॥ संवतस्यान्तो निरावाधे परिमलिते प्रदेशे वसन्ति । अथ तत्र गवादिभिरितस्ततस्तडफडा Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४८०४-१२] तृतीय उद्देशः । १२९१ यमानैर्व्याघातो यद्वा तत्र प्राशुकप्रदेशो न लभ्यते ततो बहिर्वसन्तो यतो धाटिभयं तं भूभागं वर्जयित्वा वसन्ति । अथ तत्र श्वापद्भयं ततो यस्यां दिशि वातस्तां वर्जयन्ति । येन च परचक्रभयेन तत्र संवर्ते प्रविष्टास्तस्मिन् प्राप्ते सर्वमुपकरणं गुपिले प्रदेशे स्थापयित्वा स्वयमेकतो - ऽन्यत्र प्रदेशेऽपावृताः कायोत्सर्गेण तिष्ठन्ति स्तेनरक्षणार्थं च वारकेण रजनीं सकलामपि जाते ॥ ४८०८ ॥ अथ कस्मादपावृतास्तिष्ठन्ति ? इत्याह ―――― जिणलिंगमप्पडिहयं, अवाउडे वा वि दिस्स वज्रंति । थं भणि-मोहणिकरणं, कडजोगे वा भवे करणं ॥ ४८०९ ॥ अचेलतालक्षणं जिनलिङ्गमप्रतिहतम्, एवंस्थितानां न कोऽप्युपद्रवं करोतीति भावः । अथवा ते स्तेना अपावृतान् दृष्ट्वा स्वयमेव वर्जयन्ति, स्तम्भनी- मोहनी विद्याभ्यां वा तेषां स्तम्भन - मोहने कुर्वन्ति । यो वा 'कृतयोगः' सहस्रयोधी तेन तादृशे आकम्पे गच्छसंरक्षणार्थं 10 'करणं' शिक्षणं तेषां विधेयम् ॥ ४८०९ ॥ गतं संवर्त्तद्वारम् । अथ नगररोधकद्वारमाहसंवट्टणिग्गयाणं, पियट्टणा अट्ठ रोह जयणाए । वसही - भट्टणया, थंडिल्लविचिणा भिक्खे ॥ ४८१० ॥ ये मासकल्पप्रायोग्यात् क्षेत्रान्निर्गत्य संवर्ते स्थितास्ते संवर्त्तनिर्गता उच्यन्ते तेषां तत्र स्थितानामवस्कन्दादिभयेन भूयोऽपि संवर्ताद् नगरं प्रति निवर्तना भवति । यद्वा ग्लाना दिभिः 15 कारणैः प्रथममेव नगरान्न निर्गतास्ततो नगरे वसतामष्टौ मासान् रोधके यतनया वस्तव्यं भवति । सा च यतना वसति-भक्तार्थन - स्थण्डिलविवेचन - भैक्षविषया कर्त्तव्या ॥ ४८१० ॥ तत्र वसतियतनां तावदाह हाणी जावेकट्ठा, दो दारा कडग चिलिमिणी वसभा । तं चैव एगदारे, मत्तग सुवणं च जयणाए ॥ ४८११ ॥ 20 रोधके तिष्ठद्भिरष्टौ वसतयः प्रत्युपेक्षणीयाः, तासु प्रत्येकमृतुबद्धे मासं मासमासितव्यम् । अष्टानामलाभे सप्त, एवं हान्या तावद् वक्तव्यं यावत् संयतानां संयतीनां च "एगट्ट" चि एकैव वसतिर्भवति । तत्रैकस्यां वसतौ स्थितानां द्वे द्वारे भवतः, अपान्तराले कटकं चिलिमिलिकां वा वृषभाः कुर्वन्ति । अथ द्वारद्वयं न भवति तत एकद्वारेऽपि तमेव विधिं कुर्वन्ति । कायिकाभूमेश्चाभावे मात्रकेण यतन्ते, यतनया च स्वपनं कुर्वन्तीति नियुक्तिगाथासमा- 25 सार्थः ॥ ४८११ ॥ अथ भाष्यकार एनामेव विवृणोति - 5 रोहेउ अड्ड मासे, वासासु सभूमि तो णिवा जंति । परबलरुद्धे वि पुरे, हाविंति ण मासकप्पं तु ॥ ४८१२ ॥ अष्टौ ऋतुबद्धिकान् मासान् 'रोधयित्वा' रोधं कृत्वा ततो वर्षासु नृपाः 'स्खभूमिम्' आत्मीयराज्यभुवं गच्छन्ति । साधवश्व रोधके वसन्तः परबलरुद्धेऽपि पुरे मासकल्प न हाप - 30 यन्ति किन्तु तत्र प्रथमत एवाष्टौ वसतयोऽष्टौ भिक्षाचर्याः प्रत्युपेक्षणीयाः ॥ ४८१२ ॥ अथाष्टौ न प्राप्यन्ते ततः १ 'थममेवाष्टौ कां० ॥ - Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९२ मनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [सेनाप्रकृते सूत्रम् ३० भिक्खस्स व वसहीय च, असती सत्तेव चउरों जावेका । लंभालंमे एकेकगस्स णेगा उ संजोगा ॥ ४८१३ ॥ भैक्षस्य वा वसतेर्वा असति सप्त प्रत्युपेक्षणीयाः । तदप्राप्तौ षडादिपरिहाण्या चतस्रो यावदेकाऽपि प्रत्युपेक्षणीया । किमुक्तं भवति ?--वसतयो भिक्षाचर्याश्च यद्यष्टौ न प्राप्यन्ते ।तत एकैकपरिहाण्या यावदेका वसतिरेका भिक्षाचर्या । अत्र चैकैकस्या लामेऽलाभे चाने के संयोगा भवन्ति । तथाहि-अष्टौ वसतयो अष्टौ भिक्षाचर्याः १, अष्टौ वसतयः सप्त भिक्षाचर्याः २, अष्टौ वसतयः षड् भिक्षाचर्याः ३, एवं यावदष्टौ वसतय एका भिक्षाचर्या, एवमष्टा भङ्गा भवन्ति, एते च वसतेरष्टकममुञ्चता लब्धाः, सप्तकादिभिरप्येककपर्यन्तैरेवमेवाष्टावष्टौ भङ्गा लभ्यन्ते, सर्वसङ्ख्यया भङ्गकानां चतुःषष्टिरुत्तिष्ठते । चतुःषष्टितमश्च भङ्गक एका वसति10रेका मिक्षाचर्येतिलक्षणः । सा चैका वसतिः संयतानां संयतीनां च पृथग् भवति ॥४८१३॥ अथोभयेषामपि योग्या वसतिः प्रत्येक नावाप्यते तत एकत्रापि वस्तव्यम् , तत्र यतनामाह एगत्थ वसंताणं, पिहदुवाराऽसतीय सयकरणं । मज्झेण कडग चिलिमिणि, तेसुभयो थेर खुड्डीतो ॥ ४८१४ ॥ संयतानां संयतीनां च एकत्र वसतौ वसतामियं यतना—याद चतुःशालादिकं पृथग्द्वारं 16 तद् गृहं तदा तत्रान्तरे कटकं चिलिमिलीं वा दत्त्वा तिष्ठन्ति । पृथग्द्वारस्याभावे "सयकरणं" ति खयमेव कुड्यं छित्त्वा द्वितीयं द्वारं कर्तव्यम् । गृहमध्ये च कुड्याभावे कटश्चिलिमिलिका वा दातव्या । 'तयोश्च' कटस्य चिलिमिलिकाया वा आसन्नयोरुभयोः पार्श्वयोर्मध्यादेकस्मिन् स्थविराः साधवो द्वितीये च क्षुल्लिकाः संयत्यो भवन्ति । एतच्चाग्रे व्यक्तीकरिष्यते ॥४८१४॥ ___ अथ "तं चेव एगदारे" (गा० ४८११) ति पदं व्याख्याति दारदुयस्स तु असती, मज्झे दारस्स कडग पुत्ती वा । णिक्खम-पवेसवेला, ससद्द पिंडेण सज्झातो ॥ ४८१५ ॥ यदि द्वारद्वयं न भवति खयं च पृथग् द्वारं कर्तुं न लभ्यते ततस्तस्यैकद्वारस्य मध्ये कटकं 'पोतिकां वा' चिलिमिलीं दत्त्वा द्विधा विभजनं विधेयम् । तत्रार्द्धन साधवो निर्गच्छन्ति अर्द्धन संयत्य इति । अथ सङ्कीर्णा सा वसतिर्न वा विभक्तुं लभ्यते ततः परस्परं निर्गम26 प्रवेशवेलां वर्जयन्ति, यस्यां वेलायां संयता निर्गच्छन्ति तस्यां न संयत्य इति । निर्गच्छन्तश्च शब्दं कुर्वन्ति, पिण्डेन च खाध्यायं कुर्वन्ति, शृङ्गारकथां न कुर्वन्ति, न वा पठन्ति ॥ ४८१५॥ अथ "खपनं च यतनया" (गा० ४८११) इति पदं व्याचष्टे अंतम्मि व मज्झम्मि व, तरुणी तरुणा य सव्वबाहिरतो । मज्झे मज्झिम थेरी, खुड्डी खुड्डा य थेरा य ॥ ४८१६ ॥ 30 यास्तरुण्यस्ता अन्ते वा मध्ये वा भवन्ति, तरुणास्तु सर्वबाह्यतः कर्तव्याः, ततो मध्ये मध्यमाः स्थविराः क्षुल्लिकाश्च साध्व्यः, ततः क्षुल्लकाः स्थविराः चशब्दाद् मध्यमास्तरुणाश्च भवन्तीत्यक्षरार्थः । भावार्थस्तु वृद्धविवरणादवगन्तव्यः । तच्चेदम्-तरुणीओ अंते वा ठविजंति मज्झे वा। 20 Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४८१३-२०] तृतीय उद्देशः । १२९३ तत्थ अंते ताव भन्नइ----एगम्मि अंते तरुणीओ ठविति, तासिं आरतो मज्झिमातो, तासिं आरतो थेरीओ, तासिं आरतो खुड्डीतो, खुड्डीणं आरतो थेरा, थेराणं आरतो खुड्डा, तेसिं आरतो मज्झिमा, तेसिं आरतो तरुणा । एवं ताव तरुणीओ तरुणा य अंते जाया । इयाणि जइ मज्झे तरुणीओ ठविजंति तो तासिं उभयतो मज्झिमियाओ, तासिं बाहिं थेरीओ, तासिं उभयतो खुड्डीओ, तासिं परिखेवेण थेरा, तेसिं उभयतो खुड्डा, तेसिं बाहिं मज्झिमा, तेसि । परिखेवेण तरुणा, एसा रत्तिं वसंताणं जयण त्ति ॥ ४८१६॥ अथ मात्रकपदं व्याख्याति पत्तेय समण दिक्खिय, पुरिसा इत्थी य स एकत्था। पच्छण्ण कडग चिलिमिणि, मज्झे वसभा य मत्तेणं ॥ ४८१७ ॥ . यत्रोपाश्रयाणामल्पतया राजकीय आदेशो भवेत्ये केचित् पाखण्डिनस्ते सर्वेऽप्येकत्रावतिष्ठन्तामिति । तत्र यदि 'प्रत्येकाः' स्त्रीवर्जिताः 'श्रमणाः' निर्ग्रन्थ-शाक्यादयो दीक्षितपुरुषाः 10 सर्वेऽप्येकस्यां वसतौ स्थिताः याश्च पाखण्डिन्यः स्त्रियस्ता अपि सर्वा एकत्र स्थितास्तत इयं यतना-यः प्रच्छन्नः प्रदेशस्तत्र साधुभिः साध्वीभिश्चं स्थातव्यम् , प्रच्छन्नस्याभावे मध्ये कटकं चिलिमिलिकां वा वृषभाः कुर्वन्ति, कायिकाभूमेरभावे दिवा रात्रौ च मात्रकेण वृषभा यतन्ते ॥ ४८१७ ॥ पच्छन्न असति निण्हग, बोडिय मिच्छुय असोय सोया य। 10 पउरदव वडगादी, गरहा य सअंतरं एको ॥४८१८ ॥ प्रच्छन्नस्य कटक-चिलिमिलिकयोश्चाभावे निवेषु तिष्ठन्ति, तदभावे बोटिकेषु, तदप्राप्तौ भिक्षुकेषु । एतेष्वपि पूर्वमशौचवादिषु, ततः शौचवादिषु । शौचवादिषु च स्थिता आचमनादिषु क्रियासु प्रचुरद्रवेण कार्यं कुर्वन्ति, बड्डकम्-कमढकं तत्र भुञ्जते, आदिशब्दाद् अपरेणापि येन ते शौचवादिनो जुगुप्सां न कुर्वन्ति तस्य परिग्रहः । एवं प्रवचनस्य गर्दा परिहृता भवति । 20 सान्तरं चोपविष्टा भुञ्जते । “एगो" ति एकः क्षुल्लकादिः कमढकानां कल्पं करोति ।।४८१८॥ अथ “पत्तेय समण दिक्खिय" (गा० ४८१७) ति पदं व्याख्याति पासंडीपुरिसाणं, पासंडित्थीण वा वि पत्तेगे। पासंडित्थि-पुमाणं, व एक्कतो होतिमा जयणा ॥४८१९ ॥ पाषण्डिपुरुषाणां पाषण्डिस्त्रीणां वा प्रत्येकं स्थितानां पाषण्डिस्त्री-पुरुषाणामेकतः स्थितानां 25 वा इयं यतना भवति ॥ ४८१९ ॥ जे जह असोयवादी, साधम्मी वा वि जत्थ तहिँ वासो । णिहुया य जुद्धकाले, ण वुग्गहो णेव सज्झाओ ॥ ४८२० ॥ ये यथा अशौचवादिनो ये च जीवादिपदार्थास्तिक्यवादित्वेन कारुणिकत्वेन च साधूनां साधर्मिकाः 'तेषु' तेषां मध्ये साधुभिर्वासः कर्तव्यः । यदा च तत्र द्वयोरपि सैन्ययोर्युद्धकालो 3 ) भवति तदा 'निभृताः' निापारा भवन्ति । इदमेव व्याचष्टे-'न विग्रहः' खपक्षेण परपक्षेण वा सह कलहो न कर्तव्यः, नैव च तदानीं खाध्यायो विधेयः ॥ ४८२० ॥ १ भिक्खू असो तामा० ॥ - Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 १२९४ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ सेनाप्रकृते सूत्रम् ३० गता वसतियतना । भक्तार्थनयतनाऽपि "पउरदव वड्डगाई" (गा० ४८१८) इत्यादिना अत्रैवोक्ता । अथ स्थण्डिलयतनामाह तं चैव पुन्वभणितं, पत्तेयं दिस्समाणे कुरुया य । थंडिल्ल सुक्ख हरिए, पवायपासे पदेसेसु ॥ ४८२१ ॥ 6 स्थण्डिलं तदेव पूर्वभणितं "अणावायमसंलोए" (गा० ४१९) इत्यादिना यथा पीठिकायामुक्तं तथैवात्रापि मन्तव्यम् । प्रथमस्थण्डिलालाभे शेषेषु गच्छतां प्रत्येकं मात्रकग्रहणं भवति, सागारिकेण च दृश्यमाने कुरुकुचा कर्तव्या। एवं बहिः स्थण्डिले लभ्यमाने यतना । अथ बहिर्न लभ्यते निर्गन्तुं ततो यद् नगराभ्यन्तरे स्थण्डिलमनुज्ञातं तत्र यानि तृणानि शुष्काणि तेषु व्युत्सृजति, तेषामभावे दरमलितेषु मिश्रेषु, तदप्राप्तौ हरितेषु सचित्तेष्वपि व्युत्सृजति । अत्र 10 च प्रत्येका-ऽनन्त-स्थिरा-ऽस्थिरादियतना सर्वाऽपि कर्तव्या यथा ओघनिर्युक्तौ (गा० ६१८ आदि पत्र १९७ ) भणिता । अथ प्रपाते गर्तायां नदीतटे प्राकारोपरि वा राज्ञाऽनुज्ञातं तत एतेषां पार्थे व्युत्सृजति । यदि सर्वथैव स्थण्डिलं ने लभ्यते अधश्च भूमिं न पश्यति ततो धर्मा-ऽधर्मादिप्रदेशेष्वपि व्युत्सृजन् शुद्धः ॥ ४८२१॥ ___ अथ “पत्तेयं दिस्समाणे कुरुया य" त्ति पदं व्याख्याति पढमासइ अमणुण्णेतराण गिहियाण वा वि आलोगं । पत्तेयमत्त कुरुकुय, दवं च पउरं गिहत्थेसुं॥ ४८२२ ॥ तेण परं पुरिसाणं, असोयवादीण वच्च आवातं । इत्थी-नपुंसकेसु वि, परम्मुहो कुरुकुया सेव ॥ ४८२३ ॥ गाथाद्वयमपि पीठिकायां (गा० ४६३-६४ ) व्याख्यातम् ॥ ४८२२ ॥ ४८२३ ।। एषा 20 उच्चारयतना भणिता । अथ शरीरविवेचनयतनामाह पच्छण्ण पुव्वभणियं, विदिण्ण थंडिल्ल सुक्ख हरिए य । अगड वरंडग दीहिय, जलणे पासे पदेसेसु ॥ ४८२४ ॥ यद्यसौ कालगतः साधुस्तत्र केनापि न ज्ञातस्ततोऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणे उपयोगकालेऽतीतेऽन्यलिङ्गं कृत्वा 'प्रच्छन्नम्' अल्पसागारिकं स्थण्डिले परिष्ठाप्यते । अथ ज्ञातस्तदा "पुवमणि26 य" ति यदि नगराद् निर्गमो न लभ्यते प्रत्यपायो वा निर्गतानां भवति ततो नगराभ्यन्तरे पूर्वम्-इहैव मासकल्पप्रकृते (गा० १६३०) पारिष्ठापनिकानियुक्तौ (गाथा ३३-३५ हारि० आव० वृत्ति पत्र ६३०) वा यो भणितो विधिस्तेनोपाश्रयादपरदक्षिणस्यां दिशि परिष्ठापयन्ति । अथ तस्यां न लभ्यते ततो राज्ञा 'वितीर्णम्' अनुज्ञातं यत् स्थण्डिलं तत्र परिष्ठापयन्ति । अथ स्थण्डिले हरितानि भवन्ति ततः शुष्कतृणेषु, तदभावे मिश्रेषु, तदप्राप्तौ 30 हरितेष्वपि परिष्ठापयन्ति । अथ राज्ञाऽभिहितम्-सर्वैरपि पाखण्डिभिः 'अगडे' गर्तीयां शबं परित्यक्तव्यम् , प्राकारवरण्डके वा दीर्घिकायां वा नद्यां वा वहन्त्यां ज्वलने वा ज्वलति प्रक्षेप्तव्यं तत एतेषां पार्थे परिष्ठापयन्ति । अथ न लभ्यते पार्श्वतः परित्यक्तं ततः 'धर्मास्तिकायादि१°न प्राप्यते अ° का० ॥ २ °स्ततो मुहूर्त्तमात्रेण उप कां० ॥ ३ गारिके स्थ° का ॥ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 भाष्यगाथाः ४८२१-२९] तृतीय उद्देशः । १२९५ प्रदेशेषु परिष्ठापयामि' इति बुद्धिं कृत्वा तत्रैव प्रक्षिपन्ति ॥ ४८२४ ॥ अथ राज्ञा वितीर्णे स्थण्डिले परिष्ठापयतां विधिमाह अन्नाए परलिंगं, उवओगद्धं तुलेत्तु मा मिच्छं । णाते उड्डाहो वा, अयसो पत्थारदोसो वा ॥ ४८२५॥ यद्यसौ तत्राज्ञातस्तदा परलिङ्गं क्रियते, तच्च 'उपयोगाद्धाम्' अन्तर्मुहूर्वलक्षणां 'तोलयित्वा' प्रतीक्ष्य कर्त्तव्यम् , मा मिथ्यात्वं गमिष्यतीति कृत्वा । यो जनज्ञातस्तत्र परलिङ्गं न क्रियते, मा उड्डाहो भवेत् । उड्डाहो नाम-एते मायावन्तः पापाचाराः परोपधातकारिणश्चेति। इत्थं तेषामुड्डाहे जायमाने प्रवचनस्याप्ययशःप्रवादो भवति 'प्रस्तारदोषश्च' कुल-गण-सङ्घविनाशलक्षण उपजायते । एतद्दोषपरिहरणार्थ खलिङ्गेनैव परिष्ठाप्यते ॥ ४८२५ ॥ अथ भिक्षाद्वारमाह न वि को वि कंचि पुच्छति, णितमणितं व अंतों बाहिं वा । आसंकितें पडिसेहो, णिकारण कारणे जतणा ॥ ४८२६ ॥ यत्र रोधके 'अन्तः' नगराभ्यन्तराद् बहिर्निर्गच्छन्तं बहिः-कटकाद्वा नगरान्तः प्रविशन्तं न कोऽपि कञ्चित् पृच्छति तत्र खेच्छया बहिरन्तर्वा भिक्षामटन्ति । यत्र पुनराशङ्कितं-क एषः ? कुतो वा आगतः ? मैष बहिर्गतः सन् किमपि कथयिष्यति किमर्थं वा निर्गच्छति ? 15 ईदृशे आशङ्किते निष्कारणे 'प्रतिषेधः' न गन्तव्यम् । कारणे तु यतना वक्ष्यमाणा भवति ॥ ४८२६ ॥ इदमेव भावयति पउरण्ण-पाणगमणे, चउरो मासा हवंतऽणुग्घाया । सो त इयरे य चत्ता, कुल गण संघे य पत्थारो ॥ ४८२७ ॥ प्रचुरान्न-पाने लभ्यमाने यदि बहिर्गच्छति तदा चत्वारो मासा अनुद्धाता भवन्ति आज्ञादयश्च 20 दोषाः । तेन साधुना 'सः' खकीय आत्मा 'इतरे च' अभ्यन्तरवर्तिनः साधवः परित्यक्ता भवन्ति । तत्र स बहिःसैन्ये गतः सन् पृच्छयमानोऽपि यदा किमपि नाख्याति तदा 'चारिकोऽयम्' इति मत्वा गृह्यते, अभ्यन्तरवर्तिनस्तु 'अमीषां प्रव्रजितो निर्गतस्तेन भेदः प्रदत्तः' इति कृत्वा गृह्यन्ते । एवं च कुल-गण-सङ्घप्रस्तारोऽपि राज्ञा क्रियेत ततो निष्कारणे न गन्तव्यम् ।।४८२७॥ अंतो अलब्भमाणे, एसणमाईसु होति जइतव्वं । 25 जावंतिए विसोधी, अमच्चमादी अलाभे वा ॥ ४८२८॥ 'अन्तः' मध्ये प्राशुकैषणीयेऽलभ्यमाने पञ्चकपरिहाणिक्रमेणैषणादिषु दोषेषु नगराभ्यन्तर एव यतितव्यम् , यावद् यावन्तिकादिरूपेषु विशोधिकोटिदोषेषु यतमानश्चतुर्लघुप्राप्तो भवति । तथाप्यलम्भेऽमात्यं आदिशब्दाद् दानश्राद्धादीन् वा प्रज्ञापयन्ति । ते यद्यविशोधिकोटिदोषैर्दुष्टं प्रयच्छन्ति तदा तदपि गृह्यते, न पुनर्बहिर्गन्तव्यम् ॥ ४८२८ ॥ अथ तथापि न लभ्यते ततः आपुच्छित आरक्खित, सेट्ठी सेणावती अमञ्च रायाणं । णिग्गमण दिगुरूवे, भासा य तहिं असावजा ॥ ४८२९ ।। 30 Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९६ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ सेनाप्रकृते सूत्रम् ३० 'आरक्षिक : ' कोट्टपालस्तमापृच्छन्ति - वयमत्र न संस्तरामः ततो बहिर्निर्गच्छतां द्वारं प्रयच्छत । यद्यसौ ब्रूयात् — मा निर्गच्छत अहं भवतां पर्याप्तं दास्यामि ततो गृह्यते । अथ ब्रूयात् नास्ति मे किञ्चिद् भक्तं दातव्यम्, युष्मांश्च विसर्जयन् राज्ञो बिभेमि, ततः श्रेष्ठिनं पृच्छत । ततः श्रेष्ठिनमापृच्छन्ति, एवं सेनापतिममात्यं राजानं वाऽऽपृच्छन्ति । ततो यदि B राज्ञाऽपि विसर्जितास्तदा निर्गमनं कुर्वन्ति । द्वारपालानां च साधवो दर्श्यन्ते, यथा - एतान् दृष्टरूपान् कुरुत, भिक्षाग्रहणार्थमेते निर्गमिष्यन्ति प्रवेक्ष्यन्ति वा न किञ्चिद् भवद्भिर्वक्तव्यम् । तत्र च बहिर्गतैरसावद्या भाषा भाषितव्या ॥ ४८२९ ॥ अमुमेवार्थं स्पष्टयतिमा वच्च दाहामिं, संकाए वा ण देति णिग्गंतुं । दाणम्मि होइ गहणं, अणुसट्टादीणि पडिसेधे ॥ ४८३० ॥ 10 आरक्षिकादयः पृष्टाः सन्तो भणन्ति मा व्रजत, वयं भक्तं दास्यामहे । ते च भेदशङ्कया साधूनां निर्गन्तुं न ददति ततो यद्यविशुद्धमपि ते प्रयच्छन्ति तदा तस्य ग्रहणं कर्तव्यम् । अथ " पडसे हे " ति न भक्तं न च निर्गन्तुं ददति ततोऽनुशिष्टि-धर्मकथादीनि प्रयुज्यन्ते ॥ ४८३० ॥ 15 पियधम्मे दधम्मे, संबंधऽविकारिणो करणदक्खे | पडवत्तीय कुसले, तन्भूमे पेसए बहिता ॥ ४८३२ ॥ प्रियधर्मणो दृढधर्मणश्च प्रतीतान्, "संबंध" चि येषां अन्तर्बहिश्च स्वजनसम्बन्धो भवति 'अविकारिणो नाम' नोद्भटवेषा न वा कन्दर्पशीलास्तान्, 'करणदक्षान्' भिक्षाग्रहणादिक्रियासु परिच्छेदवतः, प्रतिपत्तिः - प्रतिवचनप्रदानं तत्र कुशलान्, "तब्भूमि" त्ति यो बहिः स्कन्धावार आगतस्तस्य भूमौ जात-वर्धितान् एवंविधान् साधून् बहिः प्रेषयेत् ॥ ४८३२ ॥ "भासा य तहिं असावज्ज" ( गा० ४८२९ ) त्ति पदं व्याचिख्यासुराह - " haar आस हत्थी, जोधा घण्णं व कित्तियं गगरे । परितंतमपरितंता, नागर सेणा व ण वि जाणे ॥ ४८३३ ॥ बाह्यस्कन्धावारसत्काः पृच्छेयुः -- नगराभ्यन्तरे कियन्तोऽश्वा हस्तिनो योधा वा सज्जिताः सन्ति ? धान्यं वाकियन्नगरेऽस्ति ? ' नागराः ' पैौराः सेना वा 'परितान्ताः ' रोधकेणोद्विमा उत 30 ‘अपरितान्ताः’ अनुद्विमा: ? । एवं पृष्टे वक्तव्यम् – न जानेऽहं ॥ ४८३३ ॥ ते वीरन्— तत्रैव वसन्तः कथं न जानीथ ? | साधवो ब्रुवते - 20 बहिया विगतूणं, आरक्खितमादिणो तहिं पिंति । हित - णट्ट चारिगादी, एवं दोसा जढा होंति ॥ ४८३१ बहिरपि गता एवमेवारक्षिक - श्रेष्ठिप्रभृतीन् 'गमयित्वा ' प्रज्ञाप्य तत्र भिक्षामटन्ति । एवं कुर्वद्भिर्हत नष्ट-चारिकादयो दोषाः परिहृता भवन्ति ॥ ४८३१ ॥ ये साधवो बहिः प्रस्थाप्यन्ते तेऽमीभिर्गुणैर्युक्ता भवन्ति — 25 सुणमाणा वि न सुणिमो, सज्झाय-ज्झाण निश्चमाउत्ता । सावअं सोऊण वि, ण हु लब्भाऽऽइक्खिउं जतिणो ॥ ४८३४ ॥ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 भाष्यगाथाः १८३०-३८] तृतीय उद्देशः । १२९७ वयं खाध्याय-ध्यानयोर्नित्यमायुक्ताः सन्तः शृण्वन्तोऽपि वार्तान्तरं न शृणुमः, अपि च सावधं श्रुत्वाऽपि यतीनामन्यस्याख्यातुं 'न लभ्यते' न युज्यते । अन्तःप्रविष्टस्य तु यदि कोऽपि पृच्छति तदा वक्तव्यम्-भिक्षाधुपयोगेन न ज्ञातम् । अन्तर्बहिश्च साधारणमिदमुत्तरम् शृणोति बहु कर्णाभ्यामक्षिभ्यां बहु पश्यति । न च दृष्टं श्रुतं सर्वं, भिक्षुराख्यातुमर्हति ॥ ॥ ४८३४ ॥ 5 एवं भिक्षामटित्वा प्रर्याप्ते सञ्जाते सति किं कर्त्तव्यम् ? इत्याह भत्तट्टणमालोए, मोत्तणं संकिताइँ ठाणाई । सच्चित्ते पडिसेधो, अतिगमणं दिट्ठरूवाणं ॥ ४८३५॥ 'भक्तार्थनं' भोजनं 'आलोके' प्रकाशे भवति । यानि 'शङ्कितानि' चारिकादिशङ्काविषयभूतानि गुपिलानि स्थानानि तानि मुक्त्वा, तेषु न विधेयमित्यर्थः । यश्च सचित्तः प्रवजितुमुप-10 तिष्ठते तत्र 'प्रतिषेधः' स न प्रव्राजयितव्यः किन्तु ये पूर्व द्वारपालेन दृष्टरूपाः कृतास्तेषामेव 'अतिगमनं' भूयः प्रवेशो भवति ॥ ४८३५॥ एषा बह्वर्थसङ्घाहिका नियुक्तिगाथा, अत एनां भाष्यकृद् क्वृिणोति सावग-सण्णिट्ठाणे, ओतवितेकतर इतर भत्तहँ । तेसऽसती आलोए, वडग-कुरुयादि सच्चेव ॥ ४८३६ ॥ यत्र श्रावकः श्राविका चोभयमपि ओयवितं-साधुसामाचारीकुशलं तत्र स्थाने भक्तार्थयन्ति । तदलामे यत्रैकतरं साधुसामाचारीचतुरं तत्र समुद्देष्टव्यम् । एकतरस्यापि खेदज्ञस्याभावे 'इतरेषु' अखेदज्ञेष्वपि श्रावकेषु यथाभद्रके वा भक्तार्थयितव्यम् । तेषामभावेऽटव्याम् 'आलोके' अशङ्कनीये सप्रकाशे प्रदेशे समुद्दिशन्ति । वड्डग-कुरुकुचादिका तु सैव यतना कर्तव्या । शैक्षस्तु यदि कोऽप्युपतिष्ठते तदा न प्रव्राजनीयः । अथ कोऽपि खयमेव लिङ्गं 20 कृत्वा प्रविशति ततो वक्तव्यम्-वयं गणिता नामाङ्किता एव द्वारेण निर्गताः, ततः त्वं तत्र गतः सन् गृहीत्वा विनाशयिष्यसे । एवमुक्तेऽपि यद्यसावागच्छति तदा द्वारं प्राप्ता द्वारपालं भणन्ति-न जानीमो वयं कमप्येनम् , अस्मानेतान् दृष्टरूपान् कुरुत ॥ ४८३६ ॥ भत्तट्ठिय बाहाडा, पुणरवि घेत्तुं अतिति पज्जत्तं । अणुसट्ठी दारहे, अण्णो वऽसतीय जं अंतं ॥ ४८३७ ॥ एवं भक्त-पानं पर्याप्तं गृहीत्वा 'भक्तार्थिताः' कृतभोजनाः 'बाहाडिताः' तद्भुक्तन्यूनभाजनाः पुनरपि नगरं 'अतियन्ति' प्रविशन्ति । यदि 'द्वारस्थः' द्वारपालो मार्गयति-पौद्गलिक मे प्रयच्छत; ततोऽनुशिष्टिः कर्त्तव्या । अन्यो वा यदि कोऽप्यनुकम्पया ददाति तदा न वारणीयः । तस्य 'असति' अभावे यद 'अन्तम्' प्रान्तं तद् दीयते ॥ ४८३७ ॥ रुद्धे वोच्छिन्ने वा, दारहे दो वि कारणं दीवे । इहरा चारियसंका, अकालओखंदमादीसु ॥ ४८३८ ॥ अथ निर्गतानां द्वारं रुद्धं-स्थगितं गमागमो वा व्यवच्छिन्नस्ततः 'द्वयेऽपि' आभ्यन्तरा १°का भद्रबाहुस्खामिकता गा भा०॥ 36 30 Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९८ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अवग्रह प्रकृते सूत्रम् ३१ बाह्याश्च साधवो द्वारस्थस्याने कारणं दीपयन्ति । आभ्यन्तरा ब्रुवते-अस्माकं साधवो बहिर्निर्गताः बहिश्च रुद्धाः; बाह्या ब्रुवते-वयं कारणे भिक्षायां बहिर्निर्गता परं द्वाराणि निरुद्धानि । 'इतरथा' यदि न कथयन्ति ततः अकाले-रात्रौ वा विकाले वा यद्यवस्कन्दः-धाटी तदादीनि भवन्ति तदा चारिकशङ्का भवेत्ये साधवो निर्गतास्ते भूयो न प्रविष्टाः, नूनं चारिकास्ते 6 आगता आसीरन्निति ॥ ४८३८॥ बाहिं तु वसिउकामं, अतिणेती पेल्लणा अणेच्छंते । गुरुगा पराजय जये, वितियं रुद्धे व वोच्छिण्णे ॥ ४८३९ ॥ बहिर्निर्गतानां कोऽप्येकश्चिन्तयेत् -मुक्तोऽस्मि तावत् चारकवासात्, न भूयः प्रविशामि; अत्र सूत्रमवतरति । एवं बहिर्वसन्तं प्रज्ञापयन्ति-आर्य ! सूत्रे प्रतिषिद्धम् , न वर्तते बहि10वस्तुम् , द्वयोर्जिन-राजाज्ञयोरतिक्रमः कृतो भवति । एवं प्रज्ञाप्य नगरं प्रवेशयन्ति । अथ नेच्छति प्रवेष्टुं ततः "पेल्लण" ति बलामोटिकया शेषैः स प्रवेशनीयः । यदि न प्रवेशयन्ति ततश्चत्वारो गुरुकाः । कदाचिदाभ्यन्तराणां पराजयोऽपरेषां च जयो भवेत् ततः 'एभिर्भेदः प्रदत्तः' इति शङ्कया प्रस्तारदोषा भवेयुः । द्वितीयपदमत्र भवति-बहिर्निर्गतस्य सर्वतोऽपि नगरं निरुद्धम् , गमागमः सर्वथैव व्यवच्छिन्न इति कृत्वा तत्रापि वसन् शुद्धः ॥ ४८३९ ।। ॥ सेनाप्रकृतं समाप्तम् ॥ 20 अ व ग्रह प्र मा ण प्र कृ त म् सूत्रम् से गामंसि वा जाव सन्निवसंसि वा कप्पइ निग्गं. थाण वा निग्गंथीण वा सबओ संमंता सकोसं जोयणं उग्गहं ओगिणिहत्ताण चिट्ठित्तए ३१ ॥ अस्य सम्बन्धमाह__ गामाइयाण तेसिं, उग्गहपरिमाणजाणणासुत्तं । कालस्स व परिमाणं, वुत्तं इहइं तु खेत्तस्स ॥४८४०॥ 'तेषाम्' अनन्तरसूत्रोक्तानां ग्रामादीनां कियानवग्रहो भवति ? इति शङ्कायामवग्रहपरिमाण25 ज्ञापनार्थमिदं सूत्रमारभ्यते । यद्वा पूर्वसूत्रेषु "अहालंदमवि उग्गहे" इत्यादि भणताऽवग्रह विषयं कालस्य परिमाणमुक्तम् , इह तु क्षेत्रस्य तदेवोच्यते ॥ ४८४० ॥ अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या-अथ ग्रामे वा नगरे वा यावत् सन्निवेशे वा कल्पते निम्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा 'सर्वतः' सर्वासु दिक्षु 'समन्तात्' चतसृष्वपि विदिक्षु सक्रोशं योजनमवग्रहमवगृह्य स्थातुमिति सूत्रार्थः ॥ अथ भाष्यविस्तरः30 उड्डमहे तिरियं पि य, सकोसर्ग होइ सव्वतो खेतं । इंदपदमाइएमुं, छदिसि सेसेसु चउ पंच॥ ४८४१॥ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४८३९-४५ ] तृतीय उद्देशः । ऊर्द्धदिग् अधोदिक् “तिरियं पि य" त्ति तिर्यक् - पूर्व-दक्षिणा - ऽपरोत्तरालक्षणाश्चतस्रो दिशः, एतासु षट्सु दिक्षु गिरिमार्गे स्थितानां सर्वतः सक्रोशं योजनं क्षेत्रं भवति, तच्च इन्द्रपदादिषु सम्भवति । इन्द्रपदो नाम - गजाग्रपदगिरिः, तत्र ह्युपरिष्टाद् ग्रामो विद्यते अधोsपि ग्रामो मध्यमश्रेण्यामपि ग्रामः । तस्याश्च मध्यम श्रेण्याश्चतसृष्वपि दिक्षु ग्रामाः सन्ति, ततो मध्यमश्रेणिग्रामे स्थितानां षट्सु दिक्षु क्षेत्रं भवति । आदिशब्दाद् अन्योऽपि य ईदृशः 5 1 पर्वतस्तस्य परिग्रहः । शेषेषु पर्वतेषु चतसृषु पञ्चसु वा दिक्षु सक्रोशं योजनं क्षेत्रं भवति ॥ ४८४१ ॥ समभूमिकायां व्याघाताभावे दिचतुष्टये क्षेत्रम्, व्याघातं प्रतीत्य पुनरित्थम् - एगं व दो व तिन्निव, दिसा अकोसं तु सव्वतो वा वि । सव्वत्तो तु अकोसे, अग्गुञ्जाणाओं जा खेत्तं ॥ ४८४२ ॥ एकदिग्भाविना पर्वतादिव्याघातेन किञ्चिद् ग्रामादिकमेकस्यां दिशि अक्रोशं भवति, सक्रो- 10 शयोजनावग्रहरहितमित्यर्थः । एवं दिग्द्वयभाविना व्याघातेन द्वयोर्दिशोरकोशम्, त्रिदिग्भाविना तिसृषु दिक्षु, दिकतुष्टयभाविना तु सर्वतोऽप्यकोशं भवति । तत्र च सर्वतोऽक्रोशे ग्रामादौ अग्रोद्यानं यावत् क्षेत्रम्, ततः परमक्षेत्रमिति ॥ ४८४२ ॥ किञ्च – संजम - आयविराहण, जत्थ भवे देह उवहितेणा वा । तं खलु ण होइ खेत्तं, उग्वेयव्वं च किं तत्थ ॥ ४८४३ ॥ 15 यत्र ग्रामादौ प्राप्तानां संयमा - ऽऽत्मविराधना भवति, यत्र च देहोपधिस्तेना भवन्ति तत् खलु क्षेत्रं न भवति । किं वा तत्रावग्रहीतव्यं येन क्षेत्रमुच्येत ! ॥ ४८४३ ॥ अथ किं पुनः क्षेत्रम् ? इत्याह खेत्तं चलमचलं वा, इंदमणिदं सकोसमको सं । वाघातम्मि अकोर्स, अडवि जले सावए तेणे ॥ ४८४४ ॥ यत्रावग्रहो विचारयितुमुपक्रान्तस्तत् क्षेत्रं चलमचलं वा भवेत् चलं व्रजिकादि, अचलं ग्रामादि । पुनरेकैकं द्विधौ – 'ऐन्द्रम्' इन्द्रकीलादियुक्तम् 'अनिन्द्रं वा' तद्विपरीतम् । तत्र यदचलमनिन्द्रं च तत् सकोशमकोशं वा । पश्चानुपूर्व्या अमूनेव भेदान् व्याचिख्यासुरिदमाह – “ वाघायम्मि" इत्यादि, यत्र यस्यां दिशि व्याघातस्तत् तस्यामकोशं भवति । कः पुनर्व्याघातः ? इति चेद् अत आह— अटवी तस्यां दिशि वर्तते, "जलं" ति समुद्रो नदी 25 वा तत्राssस्ते, 'श्वापदा वा' सिंह- व्याघ्रादयः तत्र सन्ति, 'स्तेना वा' उपधि-शरीरहरा विद्यन्ते । एतैः कारणैः सा दिग् निरुद्धा, ग्राम- गोकुलाद्यभावादवग्रहीतव्यं किमपि तत्र नास्ति ॥ ४८४४॥ अथ सक्रोशमाह - - १२९९ सेसे सकोस मंडल, मूलनिबंधं अणुम्मुयंताणं । पुट्ठिताण उग्गहों, सममंतरपल्लिगा दोहं ॥। ४८४५ ॥ शेषं नाम - यद् अनन्तरोक्तव्याघातरहितं तत्र मूलनिबन्धं मण्डलममुञ्चतां सर्वतः सक्रोशं योजनमवग्रहो भवति । कथम् ? इति चेद् उच्यते - मूलग्रामादेकैकस्यां दिशि योजनार्द्धमर्द्ध १ 'सास को°ताभा० ॥ २ तन्त्रं ताभा० ॥ ३ 'धा - इन्द्रयुक्तमनिन्द्रं वा । तत्र भा० ॥ 20 30 Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 १३०० सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अवग्रह ० प्रकृते सूत्रम् ३१ क्रोशेन समधिकं तावदवग्रहो भवति, स च पूर्वा ऽपराभ्यां दक्षिणोत्तराभ्यां वा कृत्वा सक्रोशं योजनं भवति, यद्वो गति - प्रत्यागतिभ्यामेकस्यामपि दिशि [ सक्रोशं ] योजनं मन्तव्यम् । तत्र सक्रोशे अक्रोशे वा ये पूर्वस्थितास्तेषामवग्रहो भवति । यत्र समकमनुज्ञापितं तत् क्षेत्रं साधारणम् । अथ सम्बद्धेषु क्षेत्रेषु समकमेवानुज्ञापितं ततो यदि द्वे अन्तरपल्लिके तत एकेषामेका अपरेषामप्येका । अथैकैवान्तरपल्लिका ततो द्वयोरपि साधारणा ।। ४८४५ ॥ अथ बह्रयस्तत्रान्तरपल्लिकास्ततः को विधि: : इत्याह खेत्तस्संतो दूरे, आसण्णं वा ठिताण समगं तु !. अर्द्ध अद्धद्धं वा, दुगाइसाहारणं होइ ।। ४८४६ ॥ द्वित्रिप्रभृतिषु सम्बद्धेषु क्षेत्रेषु समकमनुज्ञाप्य स्थितानां काश्चिदन्तर पल्लिकाः 'क्षेत्रान्तः ' 10 क्षेत्रस्याभ्यन्तरे भवन्ति, "दूरे" त्ति काश्चित्तु दूरे याभ्यः समुदानं मूलग्राममानीयमानं क्षेत्रातिक्रान्तं भवतीति कृत्वा प्रथमालिकायां तद् निर्वाह्यते, "आसन्ने" त्ति काश्चित् पुनरासन्ने याभ्यः समुदानं मूलग्राममानीयमानं क्षेत्रातिक्रान्तं न भवति । ततो यावन्त्यस्ता अन्तरपल्लिकास्तासां सर्वासामप्यर्द्धवा, अर्द्धार्द्ध वा चतुर्थभाग इत्यर्थः, वाशब्दात् त्रिभागादिकं वा द्विकादीनां - द्वित्रिप्रभृतीनां गच्छानां साधारणं भवति ॥ ४८४६ ॥ अथात्रैवाभाव्या-ऽनाभाव्यविधिमाहतण- डगल-छार-मल्लग-संथारग भत्त- पाणमादीणं । सति लंभे अस्सामी, खेत्तिय ते मोत्तऽणुण्णवणा ।। ४८४७ ।। तृण-डगल-क्षार-मल्लक-संस्तारक - भक्त - पानादीनां 'सति' विद्यमाने प्राचुर्येण लाभे क्षेत्रिका अखामिनः, अक्षेत्रिकाणामप्येतान्याभवन्तीत्यर्थः । " ते मोत्तऽणुण्णवण" त्ति येषां तृणादीनां क्षेत्रकैरनुज्ञापना कृता तानि मुक्तत्वा, तान्यक्षेत्रिकाणां नाभवन्तीति भावः ॥ ४८४७ ॥ किं पुनः क्षेत्रिकाणामाभवति ? इत्युच्यते- 20 - ओहो उवग्गो विय, सच्चित्तं वा वि खेत्तियस्सेते । मोत्तूण पाडिहारिं, असंथरंते वऽणुण्णवणा ॥ ४८४८ ॥ " घोपधिरुपग्रहोपधिश्च 'सचित्तं वा' शैक्षादिकम् एतानि क्षेत्रिकस्याभवन्ति । यद्यक्षेत्रिका एतेषामेकतरं गृह्णन्ति तदा प्रायश्चित्तम्, परं मुक्त्वा प्रातिहारिकं द्विविधमप्युपधिम्, 25 तं गृहस्थेभ्यो मार्गयन्तो न प्रायश्चित्तभाज इति हृदयम् । यः पुनरप्रातिहारिकस्तं न लभन्ते । अथ शीतादिना परिताप्यन्ते तत एवमसंस्तरद्भिर्वस्त्रादेरनुज्ञापना कर्तव्या । क्षेत्रिकैरपि संस्तरणे तेषामनुज्ञातव्यम् ॥ ४८४८ ॥ जइ पुर्ण संथरमाणा, ण दिति इतरे व तेसि गिण्हति । तिविधं आदेसो वा, तेण विणा जा य परिहाणी ।। ४८४९ ।। 30 यदि पुनः संस्तरन्तः क्षेत्रिका असंस्तरतामक्षेत्रिकाणां वस्त्रादिकं न प्रयच्छन्ति, 'इतरे वा ' अक्षेत्रिकाः संस्तरन्तोऽपि 'तेषां' क्षेत्रिकाणामनापृच्छया बलामोटिकया वा गृह्णन्ति ततः 'त्रिविधं ' जघन्य-मध्यमोत्कृष्टनिष्पन्नं पञ्चक- मासलघु-चतुर्लघुलक्षणं प्रायश्चित्तम्, सूत्रस्यादेशाद्वा नवमम् । १ “एवं गति-प्रत्यागविना सकोसं जोयणं भवति" इति चूर्णौ विशेषचूर्णौ च ॥ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४८४६-५२ तृतीय उद्देशः । १३०१ 'तेन च ' वस्त्रादिना विना या परिहाणिः तन्निष्पन्नमपि तेषां प्रायश्चित्तम् ॥ ४८४९ ॥ इदमेव व्यक्तीकरोति — जे खेतिया मोति ण देति ठागं, लंभे वि जाऽऽगंतुवयंतें हाणी । पेति वाऽऽगंतु असंथरम्मि, चिरं व दोन्हं पि विराहणा उ ।। ४८५० ॥ ये 'क्षेत्रिका वयम्' इति कृत्वा भक्त पानादेः प्राचुर्येण लाभेऽपि अन्येषां “ठागं" अव 5 काशं न प्रयच्छन्ति तत आगन्तुकानां व्रजतां या परिहाणिस्तन्निष्पन्नं तेषां प्रायश्चित्तम् । अथ क्षेत्रिकाणामसंस्तरणेऽप्यागन्तुकाः 'प्रेरयन्ति' प्रेर्य तिष्ठन्ति ते चागन्तुका अदेशिकाः प्राघुणकाश्च ततः 'चिरं वा' प्रभूतं कालं वाशब्दाद् अल्पं वा कालमसंस्तरणं तेषां भवेत् ततः 'द्वयेषामपि' आगन्तुकानां वास्तव्यानां च या विराधना तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् ॥ ४८५० ॥ यत एवमतः --- 10 अस्थि हु वभग्गामा, कुदेसणगरोवमा सुहविहारा. । बहुगच्छ्रुवग्गहकरा, सीमच्छेदेण वसियव्वं ॥ ४८५१ ॥ 'सन्ति' विद्यन्ते वृषभग्रामाः । इहाचार्य आत्मद्वितीयो गणावच्छेदिक आत्मतृतीय एष पञ्चको गच्छो भवति, ईदृशास्त्रयो गच्छाः पञ्चदश जनाः, एते यत्र ऋतुबद्धे निर्वहन्ति; वर्षासु पुनः सप्तको गच्छः, तद्यथा - आचार्य आत्मतृतीयो गणावच्छेदिक आत्मचतुर्थः, 16 शास्त्रयो गच्छा एकविंशतिर्जना भवन्ति, एते यत्र वर्षावासे जघन्येन निर्वहन्ति ते वृषभग्रामा उच्यन्ते । ते च कीदृशाः ? इत्याह – कुदेशस्य यन्नगरं तेनोपमा येषां ते कुदेशनगरोपमाः, ते च ‘सुखविहाराः' सुलभभक्त-पाना निरुपद्रवाश्च, अत एव बहूनामनन्तरोकपमाणानां त्रिप्रभृतीनां गच्छानामुपग्रहकराः, ततस्तेषु सीमाच्छेदेन बहुभिरपि गच्छैर्वस्तव्यम्, न कोsपि परस्परं मत्सरो विधेय इति भावः । सीमाच्छेदो नाम - साहिका - ग्रामार्ध वाटकादि - 20 विभजनम् । यथा--- अस्यां साहिकायां भवद्भिः पर्यटनीयम् अस्यां पुनरस्माभिरित्यादि । यद्वा ये तत्र क्षेत्रे समकं प्राप्तास्तैः सीमाच्छेदेन वस्तव्यम् । यथा - युष्माकं सचित्तमस्माकमचित्तम्, अथवा युष्माकमन्तः अस्माकं बहिः, युष्माकं स्त्रियः अस्माकं पुरुषाः, युष्माकं श्राद्धाः अस्माकमश्राद्धाः, अथवा यो यद् लप्स्यते तस्यैव तद् आभाव्यम् ॥ ४८५१ ॥ इदमेव व्याख्यानयतिएकवीस जहणेणं, पुन्वट्ठितें उग्गहो इतरें भत्तं । पल्ली पडिवस वा, सीमाए अंतरा गामो ॥ ४८५२ ।। पूर्वोक्तनीत्या वर्षासु एकविंशतिर्जनाः उपलक्षणत्वाद् ऋतुबद्धे पञ्चदश जना यत्र जघन्येन संस्तरन्ति स वृषभग्राम उच्यते, उत्कर्षतस्तु द्वयोरपि कालयोर्द्वात्रिंशत्सहस्रसङ्ख्याको गच्छो यत्र संस्तरति स वृषभग्रामः, तत्र ये पूर्व स्थितास्तेषामवग्रहः, इतरे भक्त - पानमात्रसंतुष्टास्तिष्ठन्ति तत्र च सीमाच्छेदो विधातव्यः । कथम् ? इत्याह – “पल्ली" इत्यादि, युष्माभिर- 30 न्तरपल्ल्यां पर्यटनीयम्, अस्माभिः प्रतिवृषभग्रामे । प्रतिवृषभग्रामो नाम - मूलग्रामादर्घयोजने महान् ग्रामः । अथवा अन्तरपल्याः प्रतिवृषभस्य वा अर्धं युष्माकमर्धमस्माकम् । एवं सीमायां मूलग्रामस्य प्रतिवृषभग्रामस्य वाऽन्तरा यो ग्रामस्तस्याप्यर्धं युष्माकमर्धमस्माकम् । एतदचलम 25 Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३.०२ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृचिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अवग्रह ० प्रकृते सूत्रम् ३१ निन्द्रं च क्षेत्रं मन्तव्यम् ॥ ४८५२ ॥ अथाचलमैन्द्रं क्षेत्रमाहइंदक्खीलमणोग्गहों, जत्थ य राया जहिं च पंच इमे । सेट्ठि अमच्च पुरोहिय, सेणावति सत्थवाहे य ॥ ४८५३ ॥ इन्द्रकीलको नाम - इन्द्रस्थूणा सा यत्रोत्तिष्ठते इन्द्रमातृका वा तत्र 'अनवग्रहः' अवग्रहो 6 न भवति । अनिन्द्रकीलकेऽपि यत्र राजा मूर्धाभिषिक्तः परिवसति । राजरहितेऽपि यत्रेमे पञ्च वसन्ति - श्रेष्ठी अमात्यः पुरोहितः सेनापतिः सार्थवाहश्चेति ॥ ४८५३ ॥ अद्धाणसीसए वा, समोसरणें वा वि ण्हाण अणुयाणे । एतेसु णत्थि उग्गहों, वहीए मग्गण अखेत्ते ॥ ४८५४ ॥ अध्वशीर्षकं नाम-यतः परं समुदायेन गन्तव्यं सम्यग् मार्गावहनात् तत्र मिलितानाम्, 10 समवसरणं नाम-कुलसमवायो गणसमवायः सङ्घसमवायो वा [ तत्र मिलितानाम्, ] स्नानम्अर्हत्प्रतिमास्त्रपनं तन्निमित्तमेकत्र मिलितानाम्, अनुयानं - रथयात्रा तत्र वा मिलितानाम्, एतेषु नास्त्यवग्रहः । अत एवाक्षेत्रतया एतेषु वसताववग्रहस्य मार्गणा कर्त्तव्या ॥ ४८५४ ॥ अथ किमर्थमेतेष्ववग्रहो न भवति ! इत्युच्यते 15 20 बहुजणसमागमो तेसु होति बहुगच्छसन्निवातो य । मा पुब्वं तु तदट्ठा, पेल्लेज अकोविया खेत्तं ॥ ४८५५ ॥ ‘तेषु' इन्द्रकीलकादिषु बहोः - प्रभूतस्य जनस्य समागमो भवति, अध्वशीर्षकादिषु च बहूनां गच्छानां सन्निपातः-मीलको भवति, अतः केचिदकोविदाः 'तदर्थ' 'क्षेत्रमिदमस्माकमेवाभाव्यं भवतु' इति कृत्वा 'पूर्वम्' अन्येभ्यः प्रथमं समागत्य मा क्षेत्रं प्रेरयेयुः इत्येतेषु नावग्रहो - धिक्रियते ॥ ४८५५ ।। इदमेव भावयति - सड्डा दलंता उवहिं निसिद्धा, सिट्ठे रहस्सम्मि करेज मनुं । 1 पभावयंते य ण मच्छरेणं, तित्थं सलद्धी दुहतो वि हाणी ।। ४८५६ । तत्रेन्द्रकीलादौ श्राद्धाः केषाञ्चिदाचार्याणां 'उपधिम्' वस्त्राद्युपकरणं दातुं लग्नाः, तैश्व 'न वर्ततेऽस्माकमिदं ग्रहीतुम्' इति भणित्वा ते निषिद्धाः; ततः श्राद्धाः पृच्छेयुः - एषणीयान्यप्यमूनि वस्त्राणि किमिति न कल्पन्ते ; ततो रहस्यम् - ' नास्माकममूनि आभवन्ति' इतिलक्षणं तेषां 25 पुरतः कथयितव्यम्, तत्र च 'शिष्टे' कथिते सति ते श्राद्धाः 'मन्युम्' अप्रीतिकं कुर्वीरन् । ये च ‘सलब्धयः' धर्मकथादिलब्धिसम्पन्नास्ते मत्सरेण 'वयं किमपि तावद् न लप्स्यामहे अतः किमर्थमेवमेव प्रयासं कुर्मः ?' इत्यनुशयेन तीर्थं धर्मकथादिना न प्रभावयन्ति । ततः "दुहतो वि हाणि " ति द्वयोरपि-सचित्ता - ऽचित्तलाभयोः परिहाणिर्भवति । तत्र सचित्तहानिः कोऽपि देश - विरतिं सर्वविरतिं वा न प्रतिपद्यते, अचित्तहानिराहार-वस्त्रादि तथाविधं न प्राप्यते । अत 30 एतेषु नावग्रहो भवति । वसतिं प्रतीत्य पुनरेतेष्वपि भवति ॥ ४८५६ ॥ कथम् ? इत्याहएगालयट्ठियाणं, तु मग्गणा दूरें मग्गणा नत्थि । आसणे तु ठियाणं, तत्थ इमा मग्गणा होइ ॥ ४८५७ ॥ - १ 'लमिन्द्रयुक्तं क्षे' भा० ॥ २°हीय पमग्ग' ताभा• ॥ ३ इति प्रतिषिद्धाः कां० ॥ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 भाष्यगाथाः ४८५३-६१] तृतीय उद्देशः । १३०३ 'एकालये' एकस्यां वसतौ स्थितानामवग्रहस्य मार्गणा भवति । तत्र यः पूर्वं तस्यां वसतौ स्थितः तस्य सचित्तम चित्तं वा आभवति । अथ समकं द्वौ बहवो वा स्थितास्तदा साधारणा सा वसतिः । ये तु तस्या वसतेर्दूरे स्थिताः तेषामवग्रहस्य मार्गणा नास्ति । ये पुनरासन्ने स्थितास्तेषामियमवग्रहस्य मार्गणा भवति ॥ ४८५७ ॥ सज्झाय काल काइय, निल्लेवण अच्छणे असति अंतो। वसहिगमो पेल्लंते, वसही पुण जा समापुण्णा ॥ ४८५८ ॥ 'अन्तः' प्रतिश्रयस्याभ्यन्तरे यदि खाध्यायभूमेः कायिकाभूमेः पात्रनिर्लेपनभूमेः आसनम्-ध्यानादिनिमित्तमुपवेशनं तद्भूमेश्चाभावस्ततो या बहिः स्वाध्यायभूमिप्रभृतयस्ताः समकमनुज्ञापिताः साधारणाः । अथैके पूर्व स्थिता अपरे च पश्चात् ततः पूर्वस्थितानामवग्रहः, पश्चादागतास्तु पूर्वस्थिताननुज्ञापयन्ति । यदि ते पूर्यमाणेऽवकाशे नानुजानन्ति इतरे वा तमपूर्य-10 माणं प्रेरयन्ति ततो वसतिविषयोऽपि स एव प्रायश्चित्तादिर्गमो भवति यः पूर्वं क्षेत्रं प्रेरयताम् उपलक्षणत्वाद् अननुज्ञापयतां चोक्तः । वसतिः पुनरिह या 'समापूर्णा' श्रमणैराकुला तस्याः प्रेरणे दोषा मन्तव्याः ॥ ४८५८ ॥ उक्तमचलक्षेत्रम् । अथ चलमाह वइगा सत्थो सेणा, संवट्टो चउविहं चलं खेत्तं । एतेसिं णाणतं, वोच्छामि अहाणुपुवीए ॥ ४८५९ ॥ __ जिका सार्थः सेना संवर्त इति चतुर्विधं चलं क्षेत्रम् । एतेषां चतुर्णामपि नानात्वं वक्ष्यामि यथाऽऽनुपूर्व्या ॥ ४८५९ ॥ प्रतिज्ञातमेव करोति जेणोग्गहिता वइगा, पमाण तूह दुह भंडि परिभोगे। समवइग पुव्य उग्गह, साहारण जं च णीसाए ॥ ४८६० ॥ येन साधुना सा जिका पूर्वमवगृहीता स ब्रजिकावग्रहस्य स्वामी भवति । तस्य च ब्रजि-20 कावग्रहस्य किं प्रमाणम् ? इति चिन्तायां नैगमपक्षाश्रिता इमे आदेशाः-तत्रैक आचार्यदेशीयो . भणति-यावत्प्रमाणं भूभागं गावश्चारी चरितुं व्रजन्ति तावान् बजिकाया अवग्रहः; अपरो ब्रवीति-"तूहं" ति तीर्थ जलपानस्थानमित्येकोऽर्थः, तत्र जलपानाथ गावो यावद् गच्छन्ति; अन्यः प्राह- "दुह" ति यत्रोपस्थाने गावो दुह्यन्ते । आचार्यः प्राह-त्रयोऽप्येतेऽनादेशाः, अयं तु समीचीन आदेशः-भंडि परिभोगे" ति यावति भूभागे 'भण्डिकाः' गन्न्यस्तिष्ठन्ति 25 यावच्च वजिकायाः समीपे गोभिः परिभुक्तम्, एतावद् व्रजिकावग्रहस्य प्रमाणं मन्तव्यम् । तत्र च यदि समकं द्वौ साधुवर्गावेकस्यां वजिकायां स्थितौ तदा साधारणा सा व्रजिका । अथैकः पूर्व स्थितो द्वितीयस्तु व्रजिकान्तरेण समं पश्चादायातस्ततः पूर्वस्यावग्रहो भवति । अथ परस्परनिश्रया स्थितास्ततः साधारणं तत् क्षेत्रम् । यस्याश्च वजिकाया निश्रया द्वितीया वजिका स्थिता तस्यां ये साधवस्तेषामवग्रह आभवतीति सङ्ग्रहगाथासमासार्थः ।। ४८६०॥ 30 अथैनामेव विवरीषुरनादेशत्रयं निरस्याचार्यमतं तावद् विभावयति ण गोयरो णेव य गोणिपाणं, णोवट्ठ दुज्झंति व जत्थ गावो। अब्भत्थ गोणादिसु जत्थ खुण्णं, स उग्गहो सेसमणुग्गहो तु ॥ ४८६१ ॥ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३०४ सनिर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [ अवग्रह ० प्रकृते सूत्रम् ३१ न ' गोचर: ' गवां चारिस्थानं नैव च गवां यत्र पानं न वा यत्रोपस्थाने गावो दुधन्ते किन्तु ब्रजिकाया अभ्यासे गवादिभिर्यत्र क्षुण्णं आदिशब्दाद् गन्त्रीभिश्च यावदाक्रान्तं तावानवग्रहः 'शेषं तु' गोचरादिस्थानं सर्वमप्यनवग्रहः ॥ ४८६१ ॥ जइ समगं दो वइगा, ठिता तु साधारणं ततो खेत्तं । अण्णव गाऍ सहिता, तत्थेवऽण्णे ठिता अपभू ॥ ४८६२ ॥ यदि समकमेकस्यां व्रजिकायां द्वौ गच्छौ स्थितौ ततः साधारणं तत् क्षेत्रम् । अथ काचिद् ब्रेजिका पूर्वं साधुभिरवगृहीता तत्रान्ये साधवो अन्यया वजिकया सहिताः पश्चादागताः तत्रैव जिकायां स्थितास्तदा ते पश्चादागता अप्रभवः, पूर्वस्थिता एव खामिन इति ॥ ४८६२ ॥ अन्नोनं णीसाए, ठिताण साहारणं तु दोन्हं पि । सताऍ अपभू तत्थ व अण्णत्थ व वसंता ॥। ४८६३ ॥ अथ पूर्वस्थिताः पश्चादागताश्च 'अन्योन्यं' परस्परं निश्रया स्थितास्ततस्तेषां द्वयेषामपि साधारणं क्षेत्रम् । अथ पूर्वस्या व्रजिकाया निश्रया स्थितायामागन्तुकत्रजिकायां ये साधवो वर्तन्ते ते तत्र वाऽन्यत्र वा वसन्तोऽवग्रहस्य 'अप्रभवः' न खामिनः ॥ ४८६३ ॥ अथ किमर्थमन्यस्या व्रजिकाया निश्रां सा व्रजिका प्रतिपद्यते ? उच्यते 5 10 15 दुट्टिए वीरहिए वा, कते णिवाणे व ठिएहिं पुत्रं । भएण तोयस्स व कारणेणं, ठायंतगाणं खलु होइ णिस्सा ॥ ४८६४ ॥ 'दुर्गे स्थिताः' स्तेन - परचक्राद्यगम्ये स्थाने स्थिता साऽन्या व्रजिका, यद्वा वीरेण खामिना सा अधिष्ठिता, अथवा तैः 'पूर्व स्थितैः' प्रथमत्रजिकासम्बन्धिभिर्गो कुलिकैस्तत्र 'निपानं' जलपानस्थानं कृतमस्ति, ततो भयेन तोयस्य वा कारणेन तस्यां ब्रजिकायां तिष्ठतामपरेषां गोकुलि20 कानां निश्रा भवति ॥ ४८६४ ॥ एवमागन्तुका व्रजिका येन कारणेन पूर्वस्या निश्रां प्रतिपद्यते तदभिहितम् । अथागन्तुकाया निश्रां यथा पूर्वा प्रतिपद्यते तथा दर्शयति 30 काचिद् व्रजिका भयेन 'उत्थातुमनाः' प्रचलितुकामा, 'अन्या च' नवा व्रजिका यदि तत्रा25 गच्छेत्, सा च बलवता परिगृहीता, ततः पश्चात्प्राप्ताया अपि तस्या निश्रां पूर्वा प्रतिपद्यते, ततो ये पूर्वस्थिताः साधवस्तेऽवग्रहस्य न प्रभवः किन्तु पश्चात्प्राप्ता इति ॥ ४८६५ ॥ अथ व्रजिकाया एव प्रकारान्तरमाह - भयसा उट्ठेतुमणा, वइगा अण्णा य तत्थ जइ एजा । पच्छापत्ते निस्सा, जे पुव्वठिया ण ते पभुणो ॥। ४८६५ ।। गाऍ उट्टियाए, अच्छंते अहव होज गेलनं । अने तत्थ पविट्ठा, तम्मि व अण्णम्मि वा तूहे ॥ ४८६६ ॥ यस्यां व्रजिकायां साधवः स्थिता सा उत्थिता अन्या च तत्रागन्तुकामा तैः श्रुता तत उत्थि - तायामपि नजिकायां तिष्ठताम् अथवा ग्लानत्वं कस्यापि साधोर्भवेत् ततस्तत्रैव स्थितानामन्ये गोकुलिकाः साधुभिः सहिताः 'तत्र' प्राचीनवजिकास्थाने प्रविष्टास्ते च तत्र वा "तूहे" तीर्थे १ वा अन्यत्र वा तीर्थे गाः पानीयं पाययेयुः ततोऽत्रा मो० ॥ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथाः ४८६२-७२] तृतीय उद्देशः । १३०५ गाः पानीयं पाययेयुः अन्यत्र वा ततोऽत्रावग्रहमार्गणा क्रियते ॥ ४८६६ ॥ जइ वा कुडी-पडालिसु, पुचिल्लकतासु ते ठिता संता। अण्णम्मि वि पजेता, तूहे अस्सामिणो होति ॥ ४८६७॥ वाशब्दः प्रकारान्तरद्योतकः । यदि 'ते' आगन्तुका गोकुलिकाः पूर्वगोकुलिककृतासु कुटी-पडालिकासु स्थितास्ततोऽन्यस्मिन्नपि तीर्थे गाः पाययन्तोऽस्वामिनो भवन्ति । ततो यदि ते । पूर्वस्थिताः साधवो निष्कारणिका तदा न प्रभवः । अथ ग्लानादिकारणेन स्थितास्तदा ते खामिनः, नागन्तुकाः तत्रावग्रहस्य प्रभवः ॥ ४८६७ ॥ अन्नत्थ वा वि ठाउं, पाइंति कइल्लए जइ निवाणे । ते खलु ण होति पहुणो, सभावतूहे पहू हुँति ॥ ४८६८॥ यद्वा पूर्वकृताः कुटी-पडालिका वर्जयित्वाऽन्यत्र स्थाने स्थित्वा आगन्तुका गोकुलिका यदि 10 पूर्वैः कृते निपाने गाः पाययन्ति तदा 'ते खलु' आगन्तुकाः साधवो न प्रभवो भवन्ति । यदि तु 'खभावतीर्थे' खाभाविके निपाने पाययन्ति तदा आगन्तुकाः साधवः प्रभव इति ॥४८६८॥ एमेव मासकप्पे, अतीरिए उडियाएँ पत्तियरा । पुबिल्ला हुँति पहू, पुण्णे हट्ठा य न लहंति ॥ ४८६९ ॥ एवमेव 'अतीरिते' असम्पूर्णे मासकल्पे उत्थितायां पूर्ववजिकायाम् इतरा ब्रजिका तत्र 15 प्राप्ता ततः पूर्वसाधव एव प्रभवः । अथ मासकल्पः पूर्णस्ते च 'हृष्टाः' अग्लाना अपि तत्रैव स्थितास्ततो नावग्रहं लभन्ते, पश्चात्प्राप्ता एव तत्र प्रभव इति ॥ ४८६९ ॥ फासुग गोयरभूमी, उच्चारे चेव छण्ण वसही य । हट्ठा वि लभंतेवं, तदभावे पच्छ जे पत्ता ॥ ४८७०॥ अथ तत्र प्राशुका गोचरभूमिरुच्चारभूमिश्च विद्यते, वसतिश्च छन्ना प्राप्यते, अन्यत्र च 20 तथाविधा नास्ति ततो हृष्टा अपि 'एवम्' अनन्तरोक्तयुक्त्या लभन्ते । 'तदभावे' अनन्तरोक्तकारणाभावे ये पश्चात् प्राप्तास्त एव लभन्ते ॥ ४८७० ॥ गतं ब्रजिकाद्वारम् । अथ सार्थद्वारमाह जेणोग्गहिओ सत्थो, जेण य सत्थाहों समग दोण्हं पि । जावइया पडिसत्था, पुव्वठिय साहारणं जं च ॥४८७१॥ 'येन' साधुना सार्थः पूर्वमवगृहीतो येन वा सार्थवाहः पूर्वमनुज्ञापितस्तस्यावग्रह आभवति । अथ समकमनुज्ञापितस्ततो द्वयोरप्यवग्रहः । यावन्तश्च 'प्रतिसार्थाः' मौलसार्थाद् लघुतरास्तत्र समागत्य मिलन्ति तेषु ये साधवस्ते पूर्वस्थितानामुपसम्पन्ना भवन्ति । यत्र परस्परं निश्रया द्वौ सार्थो तिष्ठतस्तत्र साधारणं मन्तव्यमिति ॥ ४८७१ ॥ एतदेव स्पष्टयतिसत्थे अहप्पधाणा, एक्केणेक्केण सत्थवाहो उ । 30 आपुच्छिया विदिण्णे, दोण्ह वि मिलिया व एगट्ठा ॥४८७२ ॥ साथै ये केचिद् यथाप्रधानाः पुरुषान्ते एकेनानुज्ञापिताः, एकेन तु सावुना सार्थवाह १ यच्च प° भा० कां०॥ 25 Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३०६ सनियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिके बृहत्कल्पसूत्रे [अवग्रह प्रकृते सूत्रम् ३१ आपृष्टः, ताभ्यां चोभयोरांप वितीर्णम्-अनुज्ञापितं ततो येन कृतं नातिक्रभ्यते तेन यस्मै प्रदत्तं तस्यावग्रहः । अथ द्वावप्यनतिक्रमणीयौ ततो द्वयोरपि साधारणं क्षेत्रम् । अथ द्वावप्येकत्र मिलितावनुज्ञापिती ततो येन पूर्वमनुज्ञापितस्तस्यावग्रह इति ॥ ४८७२ ॥ इंतं महल्लसत्थं, डहरागों पडिच्छए ण ते पभुणो । तुरियं वा आधावति, भएण एमेव अस्सामी ।। ४८७३ ॥ महल्लं-बृहत्तरं कमपि सार्थमागच्छन्तं 'डहरकः' लघुतरः सार्थः प्रतीक्षते ततो ये लघुतरसार्थवासिनः साधवस्ते नावग्रहस्य प्रभवः । यो वा सार्थों भयेन त्वरितं बृहत्तरसार्थमिलनायाधावति तत्रापि ये साघवस्ते 'एवमेव' अस्वामिनः, बृहत्तरसार्थवासिन एवावग्रहस्य खामिन इति भावः ॥ ४८७३ ॥ अडवीमज्झम्मि णदी, दुग्गं वा एत्थ दो वि वसिऊणं । वोलेहामों पभाए, णिस्सा साधारणं कुणइ ॥ ४८७४ ॥ द्वौ सार्थावेकत्र मिलितौ परस्परमित्थं निश्रां कुरुतः, यथा-यदिदमटवीमध्ये नदी दुर्ग वा विद्यते अत्र द्वयेऽपि जना रात्रावुषित्वा प्रभाते 'वोलयिष्यामः' पुरतो गमिष्यामः इति परस्परसाधारणां निश्रां यत्र कुरुतस्तत्र सचित्तादिकं सर्वमपि साधारणम् ।। ४८७४ ॥ 15 गतं सार्थद्वारम् । अथ सेनाद्वारमाह सेणाएँ जत्थ राया, अणोग्गहो जत्थ वा पविहो सो। सेसम्मि उग्गहो जो, गमो उ वइगाएँ सो इहई ।। ४८७५ ।। 'यत्र' यस्यां सेनायां राजा भवति तत्रावग्रहो न भवति । 'यत्र वा' ग्रामादौ क्षेत्रे 'सः' राजा प्रविष्टस्तत्र यद्यप्यन्ये साधवः पूर्वस्थिताः सन्ति तथापि यावन्तं कालं स तत्रास्ते तावन्ना20 वग्रहः । शेष नाम-यत्र ग्रामादौ राजा न प्रविष्टो या वा मुण्डसेना अराजका इत्यर्थः तत्रावग्रहो भवति परं तत्र यो व्रजिकायां गम उक्तः स इहापि मन्तव्यः ॥ ४८७५ ।। गतं सेनाद्वारम् । अथ संवर्तद्वारमाह नागरगो संवट्टो, अणोग्गहो जत्थ वा पविट्ठो सो । सेसम्मि उग्गहो जो, गमो उ सत्थम्मि सो इहई ॥ ४८७६ ॥ 25 नागरकः' नगरसम्बन्धी संवतः 'अनवग्रहः' न तत्रावग्रहो भवति । 'यत्र वा' ग्रामादौ स नागरकः संवतः प्रविष्टस्तत्रापि नावग्रहः । शेषः-ग्रामेयकसंवतस्तत्रावग्रहो भवति परं य एव सार्थे गम उक्तः स एवेह द्रष्टव्यः ॥ ४८७६ ॥ ॥ इति कल्पाध्ययनटीकायां तृतीय उद्देशकः परिसमाप्तः॥ ॥ ग्रन्थानम्-३३८२५ ॥ चूर्णीवचोभिः फलकैः सुयोजितैर्गुरुप्रतिष्ठानयुतैः ससूत्रकैः । तृतीयकोद्देशकवारिधिं सतां, तरी तरीतुं विवृतिः कृता मया ॥ १ ग्रन्थानम्-२५०० भा० । ग्रन्थानम्-८६०६ का० । ग्रन्थानम्-३१०० डे० ॥ २°तिष्ठेदृढसूत्रगुम्फितैः । तृती° भा० ॥ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A Tejas Printers AHMEDABAD PH. 1979) 6601045 Jan Education international For Private & Personal use only