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________________ प्रासंगिक निवेदन | आ पुष्पिकामां संवतनो निर्देश नथी, ते छतां प्रतिनुं स्वरूप जोतां ते ग्रन्थरचनाना नजीकना समयमां लखायेली होवानी संभावना करी शकाय छे । आ प्रति, तेने बांधवानी वेकाळजीने लीधे वळी गयेली छे, ते छतां तेनी स्थिति एकंदर घणी सारी छे । प्रति ताडपत्रीय होई तेनी अमे ताटी० संज्ञा राखी छे । मुद्रित तृतीय विभागमां असे आ. प्रतिनी संज्ञा मात्र ता० राखी हती, परंतु प्रस्तुत ग्रंथना संशोधनमां भाष्य अने टीका ए उभयनी ताडपत्रीय प्रतोनो उपयोग करेल होवाथी टीका अने भाष्यगाथांना पाठभेदमां बन्नेयना संकेतने समजवामां गरबड न थाय ए माटे आ विभागमां अमे भाष्यनी प्रतिने ताभा० संज्ञाथी अने वृत्तिनी प्रतिने ताटी० संज्ञाथी ओळखावी छे । आ प्रति अमे ज्ञानभंडारनी संरक्षक शेठ धर्मचंद अभेचंदनी पेढी द्वारा मेळवी छे । तृतीयखंडनो विभाग भा० प्रति अने ताटी० प्रतिमां त्रीजा खंडनी समाप्ति साथै ज प्रस्तुत महाशास्त्री समाप्ति थाय छे। अने डे० प्रति अने कां० प्रति एक विभागमां लखायेली होवा छतां ए बन्नेय प्रतो खंडात्मक प्रतो उपरथी लखायेली होवाथी एमां खंडसमाप्तिनो उल्लेख ते ते स्थळे नोंधायेलो छे, जे अमे पहेलाना विभागोना "प्रासङ्गिक निवेदन "मां जणावी चूक्या छीए; ते मुजब आ बन्नेय प्रतोमां पण त्रीजा खंडनी समाप्ति साथै महाग्रन्थनी समाप्ति थाय छे । अर्थात् भा० ताटी० डे० अने कां० आ चारे प्रतिओमां त्रीजा खंडनी समाप्ति साथै ज निर्युक्ति-भाष्य - वृत्तियुक्त बृहत्कल्पसूत्र महाग्रंथनी समाप्ति थाय छे । १३ मो० प्रति अने ले० प्रति चार खंडमां लखायेल होवाथी एना तृतीयखंडनी समाप्ति मुद्रित पांचमा विभागना १४६९ मा पानामां चोथा उद्देशाना २९ मा सूत्रमां ५५४९ भाष्यगाथानी टीका समाप्त थया पछी थाय छे ( जुओ पृ० १४६९ टिप्पणी १ ) । आ खंडनो विभाग पाडवामां तेना लखनार - लखावनाराओए जरा सरखो य विवेक दाखव्यो नथी । कारण के आ पछी थोडे ज अंतरे चालु सूत्रनी व्याख्या समाप्त थाय छे त्यां विभाग न पाडतां अधूरी सूत्रव्याख्याए विभाग पाडी नाख्यो छे । प्रतिओनी समविषमता प्रस्तुत चतुर्थी विभागना संशोधनमादे उपर जणाव्या मुजब तृतीय खंडनी कुल छ तो एकत्र करवामां आवी छे, जे चार वर्गमां वहेंचाइ जाय छे - एक वर्ग मो० ले० ताटी० प्रतिनो, बीजो डे० प्रतिनो त्रीजो भा० प्रतिनो अने चोथो वर्ग कां० प्रतिनो । आ चारे वर्गनी प्रतिओ एक-वीजा वर्गनी प्रतिओथी पाठभेदवाळी छे; ते छतां मो० ले० ताटी० वर्गनी प्रतिओ अने डे० प्रति परस्पर घणुं खरं मळती रहे छे, ज्यारे भा० प्रति अने कां० प्रति परस्पर जुदा वर्गनी तेमज अतिशय पाठभेदवाळी छतां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002513
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Part 04
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorChaturvijay, Punyavijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year2002
Total Pages444
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size24 MB
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