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स्वसमय वक्तव्यताधिकारः सिद्ध हो जाता है । यदि असत् पदार्थ भी उत्पन्न हो-असत् से सत् की उत्पत्ति हो तो खरविषाण-गधे के सींग आदि की भी उत्पत्ति संभव है । इसलिये कहा है -
(जो पदार्थ जहां या जिसमें विद्यमान नहीं है उसकी उससे उत्पत्ति नहीं हो सकती । जब कोई भी पदार्थ उत्पन्न होता है तो उपादान के ग्रहण की आवश्यकता होती है, उपादान बिना वह नहीं होता। जैसे यदि घड़ा उत्पन्न होता है तो उसे मृतिका रूप उपादान की आवश्यकता होती है । उपादान को ग्रहण करना कार्य की निष्पत्ति आवश्यक होती है । उसके बिना कार्य की निष्पत्ति संभव नहीं है । यदि असत् की उत्पत्ति हो तो उपादान को ग्रहण करने की क्या आवश्यकता रहती है । किसी भी वस्तु से सद् वस्तुएं निकल सकती है-निष्पन्न हो सकती है । यह संभव नहीं है-जिसमें जो सत् है, वही उससे बाहर निकलता है । जिससे जो किया जाना शक्य है, उसी से वह हो सकता है, जिससे जिसका होना शक्य नहीं होता, वह उससे निष्पन्न । नहीं हो सकता । वही निष्पन्न होता है जो शक्य है । प्रत्येक कार्य का अपना-अपना कारण है । कारण से ही कार्य की उत्पत्ति होती है । इन सब अपेक्षाओं से कार्य सत् है । उदाहरणार्थ मृतिका पिंड में घट विद्यमान है क्योंकि मृतिका पिंड के ग्रहण से ही घड़ा अस्तित्व में आता है । यदि असत् की उत्पत्ति होती हो तो वह जहां कहीं से हो सकती है, फिर उसके लिये मृतिका पिंड को ग्रहण करना आवश्यक नहीं है । इसलिये जिस कारण में सत् है-कार्य पहले से ही अपना अस्तित्व लिए हुए है, उसी से उसका उत्पन्न होना निश्चित है। इस प्रकार सभी भाव-पदार्थ-पृथ्वी आदि पांचभूत-छठी आत्मा ये सब नित्यत्व लिये हुए है। ये अभाव रूप में परिणत होकर फिर भाव रूप में उत्पन्न नहीं होते, अविर्भाव-तिरोभाव, उत्पत्ति और विनाश का ही रूप है । (गीता में) कहा गया है -
असत् से भाव-सत् उत्पन्न नहीं होता तथा सत् से अभाव या असत् आविर्भूत नहीं होता । नियुक्तिकार ने इसका उत्तर दिया है । उसमें 'को वेएई' इत्यादि पूर्वोक्त गाथा में विवेचन किया है-यदि समस्त पदार्थ नित्यत्व से अभ्युपगत-स्वीकृत या संलग्न जाने जाय-उन्हें नित्य माना जाय तो कर्तृत्व का परिणाम या सिद्धान्त घटित नहीं होता । आत्मा का यदि कर्तृत्व परिणाम न हो तो उसके कर्मबंध नहीं हो सकता तथा कर्मबंध न होने पर कोई सुख दुःख नहीं भोग सकता । ऐसा होने पर कृतनाश नामक दोष आता है । अर्थात् अपने कृत कर्म का फल प्राणी को भोगना पड़ता है यह सिद्धान्त खंडित होता है । असत् का उत्पाद या उत्पत्ति न मानने पर पूर्व भव का परित्याग कर अन्य भव में उत्पन्न होने वाली आत्मा की जो पांच प्रकार की गति बतलाई गई है, वह नहीं हो सकती । ऐसी स्थिति में मोक्ष गति न होने पर संयमी जीवन को स्वीकार करने के रूप में दीक्षा आदि का अनुष्ठान निरर्थक हो जाता है । आत्मा को अप्रच्युत-एक ही रूप में स्थिर-विनाश रहित, अनुत्पन्नएक स्वभाव मुक्त मानने पर इसका देवगति, मनुष्य गति आदि में-देवता मानव आदि रूप में जन्म पाना संभव नहीं होता । नित्यत्व के कारण विस्मृति भी नहीं होती, जिससे जातिस्मरण आदि ज्ञान की उत्पत्ति संभव नहीं हो सकती । अतः आत्मा को एकान्तरूपेण नित्य मानना असंगत है-अयर्थाथ है । यह जो कहा कि सत् ही उत्पन्न होता है-यों कहना भी असत् है, अनुपयुक्त है, यदि वह सर्वथा सत् के रूप में विद्यमान है तो उसके उत्पाद या उत्पत्ति की स्थिति कैसे आ सकती है । उत्पत्ति तो उसकी होती है जो नहीं होता । यदि उत्पाद या उत्पत्ति होती है वह सर्वथा सत् नहीं हो सकता । इसलिये कहा है -
जब तक पदार्थों की उत्पत्ति नहीं होती उनके कभी गुण और नाम भी नहीं हो सकते । उदाहरणार्थ जब तक घड़ा उत्पन्न नहीं होता, तब उसके द्वारा जल लाने का कार्य कैसे घटित हो सकता है उसके न होने
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