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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम्
टीकार्थ भगवान महावीर शुक्ल ध्यान के चतुर्थ भेद को जो शैलेषी अवस्था में उत्पन्न होता है, स्वायत्त कर सिद्ध गति को प्राप्त हुए। जिसकी आदि प्रारम्भ तो है किन्तु अंत नहीं । अन्त न होने का तात्पर्य यह है कि सिद्ध गति प्राप्त होने के बाद कभी अपगत नहीं होती । उस सिद्धगति की विशेषता बताते हुए सूत्रकार कहते हैं - वह सर्वोत्तम है - सबसे श्रेष्ठ है । अग्ग्र लोक के अग्र भाग में अवस्थित होने के कारण सबसे आगे है । भगवान महावीर ने वही परमगति प्राप्त की। भगवान अत्यन्त उग्र तपश्चरण द्वारा अपनी देह को परितप्त कर तथा ज्ञानावरणीयादि समस्त कर्मों को विशिष्ट क्षायिक ज्ञान, दर्शन और चारित्र द्वारा क्षपित कर सिद्धत्व को प्राप्त हुए । सूत्रकार पुनः दृष्टान्त द्वारा भगवान की स्तुति का वर्णन करते हैं
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रुक्खेसुणाते जह सामली वा, जस्सिं रतिं वेययती सुवन्ना । वणेसु वा णंदणमाहु सेठ्ठे, नाणेण सीलेण य भूतिपन्ने ॥ १८ ॥
छाया
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वृक्षेषु ज्ञातो यथा शाल्मती वा यस्मिन् रतिं वेदयन्ति सुपर्णाः । वनेषु वा नन्दनमाहुः श्रेष्ठं, ज्ञानेन शीलेन च भूतिप्रज्ञः ॥
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अनुवाद - वृक्षों में जैसे शाल्मली नामक वृक्ष सुप्रसिद्ध है, श्रेष्ठ है, जहां सुपर्ण- भवनपति जाति के देव विशेष आकर रति-क्रीड़ा करते हैं । जैसे वनों में नन्दन वन श्रेष्ठ है, उसी प्रकार ज्ञान और शील में भूति प्रज्ञ - महान् प्रज्ञाशील भगवान महावीर श्रेष्ठ हैं 1
टीका - वृक्षेषु मध्ये यथा 'ज्ञात : ' प्रसिद्धो देवकुरुव्यवस्थितः शाल्मलीवृक्षः, स च भवनपतिक्रीड़ास्थानं, 'यत्र' व्यवस्थिता अन्यतश्चागत्य 'सुपर्णा' भवनपतिविशेषा 'रतिं' रमणक्रीड़ां 'वेदयन्ति' अनुभवन्ति, वनेषु च मध्ये यथा नन्दनं वनं देवानां क्रीडास्थानं प्रधानं एवं भगवानपि 'ज्ञानेन' केवलाख्येन समस्तपदार्थाविर्भावकेन 'शीलेन' च चारित्रेण यथाख्यातेन 'श्रेष्ठ' प्रधान: 'भूतिप्रज्ञः' प्रवृद्धज्ञानो भगवानिति ॥ १८ ॥ अपि च - टीकार्थ - जैसे वृक्षों में देवकुरु स्थित प्रसिद्ध शाल्मली वृक्ष श्रेष्ठ है, भवनपति देवों का क्रीड़ा स्थान है, जहाँ अन्य स्थानों से आकर सुपर्ण संज्ञक भवनपति देव रति-क्रीड़ा का आनन्द लेते हैं, वनों में जैसे देवों का क्रीड़ा स्थल नन्दनवन प्रधान- उत्तम है । इसी प्रकार भगवान महावीर भी समस्त पदार्थों के आविर्भावक, प्रकट कर्ता केवल ज्ञान तथा यथाख्यात चारित्र द्वारा सर्वोत्तम है । वे भूतिप्रज्ञ - प्रवृद्ध ज्ञान है, अर्थात् उनका ज्ञान बहुत बढ़ा चढ़ा है ।
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थणियं व सद्दाण अणुत्तरे उ, चंदो व ताराण महाणुभावे । गंधेसु वा चंदण माहु सेट्ठ, एवं मुणीणं अपडिन्नमाहु ॥ १९ ॥
छाया
स्तनितमिव शब्दानामनुत्तरस्तु चन्द्रइव ताराणां महानुभावः । गन्धेषु वा चन्दन माहुः श्रेष्ठ मेवं मुनीनाम प्रतिज्ञमाहुः ॥
अनुवाद - जैसे समग्र शब्दों में मेघस्तनित-मेघं का गर्जन अनुत्तर- सर्वोत्तम है, सब तारागण में चन्द्र प्रधान है, समस्त गन्धों में- गन्धयुक्त पदार्थों में चन्दन का उच्च स्थान है, उसी प्रकार समग्र मुनिवृन्द में निष्काम अनासक्त भगवान महावीर प्रधान श्रेष्ठ हैं ।
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