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आदाननामकं अध्ययनं अनुवाद - जो पुरुष तीर्थंकर प्ररूपित संयम मार्ग में निरत है, वह मन वचन तथा शरीर से किसी भी प्राणी के साथ विरोध, शत्रुभाव न करे, वही वास्तव में चक्षुष्मान-नेत्रयुक्त या परमार्थ दृष्टा हैं ।
टीका-'अनीदृशः' अनन्यसदृशःसंयमो मौनीन्द्रधर्मो वा तस्य तस्मिन् वा खेदज्ञो'निपुणः, अनीदृशखेदज्ञश्च केनचित्साधं न विरोधं कुर्वीत, सर्वेषु प्राणिषु मैत्री भावयेदित्यर्थः, योगत्रिककरणत्रिकेणेति दर्शयति-'मनसा' अन्त:करणेन प्रशान्तमनाः, तथा 'वाचा' हितमितभाषी तथा कायेन निरुद्धदुष्प्रणिहितसर्वकाय चेष्टो दृष्टिपूतपादचारी सन् परमार्थतश्चक्षुष्मान् भवतीति ॥१३॥
टीकार्थ – जिसके सदृश और कोई पदार्थ नहीं होता उसे अनन्यसदृश कहा जाता है, वह संयम है अथवा मौनीन्द्र-तीर्थंकर प्रतिपादित धर्म है । उसमें जो पुरुष खेदज्ञ-कुशल या निष्णात है, वह किसी भी प्राणी के साथ विरोध, शत्रुभाव न करे । सब प्राणियों के साथ मैत्री भाव रखे, वह मन, वचन, काय, रूप तीन योगों तथा कृतकारित अनुमोदित तीन करणों द्वारा किसी के साथ शत्रुता न रखे, शास्त्रकार यह प्रकट करते हैं । वह मन द्वारा प्रशान्त हो, वाणी द्वारा हित एवं परिमित भाषी हो तथा काय द्वारा समस्त दूषित-दोषयुक्त समग्र शारीरिक चेष्टाओं का निरोधक हो । दृष्टि द्वारा भली भांति भूमि का अवलोकन कर पादचारी हो-चलने वाला हो । इस प्रकार जो पारमार्थिक दृष्टि लिये प्रवृत्त होता है, वह वास्तव में चक्षुष्मान-नेत्रवान या दृष्टा है ।
से हु चक्खू मणुस्साणं, जे कंखाए य अंतए ।
अंतेण खुरो वहती, चक्कं अंतेण लोढ़ती ॥१४॥. छाया - सहि चक्षुर्मनुष्याणां, यः काङ्क्षायाश्चान्तकः ।
अन्तेन क्षुरो वहति चक्रमन्तेन लुठति ॥ अनुवाद - जो कांक्षा-वैषयिक तृष्णाका अनन्तक-अन्त करने वाला है, जो भोग वासना से अतीत हैं वही सब लोगों के लिए नैत्र के समान उत्तम मार्ग दर्शक हैं । जैसे उस्तरेका एवं चक्र का-पहिये का अन्त ही अन्तिम भाग ही चलता है-उसीतरह मोहनीय कर्म का अन्त ही संसार का क्षय करता है ।
टीका - अपिच-हुखधारणे, स एव प्राप्तकर्मविवरोऽनीदृशस्य खेदज्ञो भव्यमनुष्याणां चक्षुःसदसत्पदार्थाविर्भावानान्नेत्रभूतो वर्तते, किंभूतोऽसौ ? यः 'काङ्क्षायाः' भोगेच्छाया अन्त को विषयतृष्णायाः पर्यन्तवर्ती। किमन्तवर्तीति विवक्षितमर्थं साधयति ? साधयत्येवेत्यमुमर्थं दृष्टान्तेन साधयन्नाह-'अन्तेन' पर्यन्तेन 'क्षुरो' नापितोपकरणं तदन्तेन वहति, तथा चक्रमपिरथाङ्गमन्तेनैव मार्गे प्रवर्तते, इदमुक्तं भवति-यथा क्षुरादिनां पर्यन्त एवार्थक्रियाकारी एवं विषयकषायात्मक मोहनीयान्त एवापसदसंसारक्षयकारीति ॥१४॥
टीकार्थ - गाथा में 'हु' शब्द अवधारण के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, जिसने कर्म विवर को प्राप्त किया है, कर्मों को विदीर्ण किया है, वही अनुपम-सर्वोत्तम संयम में अथवा तीर्थंकर प्रतिपादित धर्म में निष्णात है वही पुरुष सत् असत् पदार्थों के आविर्भावन प्रकटीकरण के कारण भव्य जनों के लिये नेत्र के सदृश है। वह पुरुष किस प्रकार का है ? इसका स्पष्टीकरण करते हुए सूत्रकार कहते हैं-जो कांक्षा भोगेच्छा का अंतक है-विषयवासना का पर्यंतवर्ती है । उनके अन्त में अवस्थित है-उनका अन्त या नाश कर चुका है; वही चक्षु के तुल्य है । क्या वह वासनाओं के अन्त में वर्तनशील होता हुआ विवक्षित-अभिप्सित अर्थ-लक्ष्य को सिद्ध
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