Book Title: Sutrakritang Sutra
Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh

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Page 651
________________ श्री गाथाध्ययन तोऽनुन्नतः, तत्र द्रव्योन्नतः शरीरेणोच्छ्रितः भावोन्नतस्त्वभिमानग्रहग्रस्तः, तत्प्रतिषेधात्तपोनिर्जरामदमपि न विधत्ते । विनीतात्मतया प्रश्रयवान् यतः, एतदेवाह-विनयालङ्कृतो गुर्वादावादेशदानोद्यतेऽन्यदा वाऽऽत्मानं नामयती ति नामकः-सदा गुर्वादौ प्रह्वो भवति, विनयेन वाऽष्टप्रकारं कर्म नामयति, वैयावृत्त्योद्यतोऽशेषं पापमपनयतीत्यर्थः । तथा 'दान्तः' इन्द्रियनोइन्द्रियाभ्यां, तथा 'शुद्धात्मा' शुद्धद्रव्यभूतो निष्प्रतिकर्मतया 'व्युत्सृष्टकायश्च' परित्यक्तदेहश्च यत्करोति तद्दर्शयति-सम्यक् 'विधूय' अपनीय 'विरुपरूपान्' नानारूपाननुकुलप्रतिकूलान्-उच्चावचान् द्वाविंशतिपरीषहान् तथा दिव्यादिकानुपसर्गाश्चेति, तद्विधूननं तु यत्तेषां सम्यक् सहनं-तैरपराजितता, परीषहोपसर्गाश्च विधूयाध्यात्मयोगेन-सुप्रणिहितान्तः करणतया धर्मध्यानेन शुद्धम्-अवदातमादानंचारित्रं यस्य स शुद्धादानो भवति । तथा सम्यगुत्थानेन-सच्चारित्रोद्यमेनोत्थितः तथा स्थितो-मोक्षाध्वनि व्यवस्थितः परीषहोपसगैरप्यधृष्य आत्मा यस्य स स्थितात्मा, तथा 'संख्याय' परिज्ञायासारतां संसारस्य दुष्प्रापतां कर्मभूमेर्बोधेः सुदुर्लभत्वं चावाप्य च सकलां संसारोत्तरणसामग्री सत्संयमकरणोद्यतः परैः-गृहस्थैरात्मार्थं निर्वतितमाहारजातं तैर्दत्तं भोक्तुं शीलमस्य परदत्तभोजी, स एवंगुणकलितो भिक्षुरिति वाच्यः ॥३॥ तथाऽत्रापि गुणगणे वर्तमानो निर्ग्रन्थ इति वाच्यः, अमी चान्ये अपदिश्यन्ते, तद्यथा - टीकार्थ - अब भिक्षु शब्द की प्रवृत्ति का निमित्त कारण बतलाते हुए सूत्रकार कहते हैं - महान् शब्द की प्रवृत्ति या प्रयोग के हेतु भूत जिन पाप कर्म विरति आदि विशेषताओं की चर्चा की गई है । वे सभी भिक्षु शब्द की प्रवृत्ति के भी कारण हैं यह जानना चाहिये । तथा इनके अतिरिक्त और भी गुण हैं, वे इस प्रकार है । जो उन्नत-उद्यत या अभिमान युक्त नहीं होता है उसे अनुन्नत कहा जाता है । द्रव्योन्नत तथा भावोन्नता के रूप में वह दो प्रकार का होता है । जो शरीर से उच्छ्रित-उद्यत होता है वह द्रव्योन्नत है, जो भाव से उद्यत या अभिमान के ग्रह से ग्रस्त है-अभिमानी हैं वह भावोन्नत है । इसका यहां निषेध किया गया है । इससे यह फलित होता है कि तपस्या तथा निर्जरा का भी वह अभिमान नहीं करता । वह विनयशील प्रश्रयवान होता है । वही भिक्षु है । सूत्रकार प्रतिपादित करते हैं कि जो विनय से अलंकृत सुशोभित होता है, गुरु आदि द्वारा आदेश देते समय या अन्य समय विनम्र रहता है अर्थात् गुरु आदि पूज्य जनों के प्रति सदा नम्रतापूर्ण व्यवहार करता है अथवा विनय द्वारा आठ प्रकार के कर्मों नम्र करता है-मिटाता है तथा सेवा में उद्यत रहता हुआ समस्त पाप क्षीण करता है । वह इन्द्रिय व मन को जीत लेता है । आत्मा में शुद्ध भाव लिये रहता है । बाहरी साज सज्जा का त्याग करता हुआ देहातीत होता है । वह विविध प्रकार के अनुकूलप्रिय, अप्रिय-प्रतिकूल-अप्रियाप्रिय-ऊँचे नीचे बाईस परिषहों को तथा देवादिकृत उपसर्गों को सहन करता है। उनका विधूनन-नाश करता है । उनसे पराजित नहीं होता अर्थात् परिषहों उपसर्गों को अध्यात्म योग द्वारा, धर्म ध्यान द्वारा मिटा देता है और शुद्ध चारित्र का परिपालन करता है । वह सम्यक् उत्थान-उत्तम चारित्र द्वारा धर्मोधित होता है तथा मोक्ष के मार्ग में व्यवस्थित होता है । वह परिषहों और उपसर्गों को धर्षित-तिरस्कृत कर आत्म भाव में स्थिर रहता है । वह संसार की असारता-सारहीनता को एवं कर्मभूमि में बोधि की-सम्यक्दर्शन की दुष्प्राप्यता को जानकर संसार को पार करने की समग्र धर्मोपयोगी सामग्री को प्राप्त कर उत्तम संयम की साधना में समुद्यत होता है । गृहस्थों द्वारा अपने लिये तैयार किये गये भोजन में से दी गई भिक्षा के आधार पर वह निर्वाह करता है । इस प्रकार जो गुणों से कलित-शोभित होता है, वह भिक्षु शब्द द्वारा अभिधेय है । जो इन गुणों में वर्तमान रहता है-इनसे युक्त होता है, वह निर्ग्रन्थ शब्द से वाच्य है । उसके लिये अपेक्षित कुछ अन्य गुण भी बताये जाते है । वे इस प्रकार हैं - 623

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