Book Title: Sutrakritang Sutra
Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh

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Page 655
________________ __श्री गाथाध्ययनं हैं । सन्मार्ग का निरूपण कर दुर्गति में जाने से उन्हें बचाते हैं । राग द्वेष तथा मोह में से कोई भी उनमें विद्यमान नहीं है । इसलिये वे अन्यथा-यथार्थ के विपरीत नहीं बोलते-उपदेश नहीं देते । इसलिये मैंने शुरु से लेकर अब तक जो कहा है, उसे तुम लोग ठीक उसी तरह समझो । यहां इति शब्द परि समाप्ति के अर्थ में आया है । ब्रवीमि-बोलता हूं-पूर्ववत् है । अनुगम का प्रतिपादन हो चुका है । अब नयों का निरूपण करते हैं । नैगम आदि सात नय है । नैगम नय सामान्य विशेषात्मक है । इसलिये वह संग्रह और व्यवहार में समाहित हो जाता है । अतः छ: नय है । समभिरूढ़ एवं इत्थंभूत नय का शब्द नय में समावेश हो जाने से नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र तथा शब्द ये पांच नय रहते हैं । नैगम का भी व्यवहार में अन्तर्भाव हो जाता है । इसलिये नय चार हो जाते हैं । व्यवहार भी सामान्य विशेषात्मक होने से सामान्य की दृष्टि से संग्रह में और विशेष की दृष्टि से ऋजुसूत्र में अन्तर्भूत हो जाता हैं । इस प्रकार संग्रह ऋजुसूत्र एवं शब्द ये तीन नय रहते हैं । इनका द्रव्यास्तिक एवं पर्यायास्तिक में अन्तर्भाव करने से दो नय होते हैं अथवा सभी नयों का ज्ञान और क्रिया में समावेश करने से ज्ञान एवं क्रिया संज्ञक दो नय होते हैं । उनमें ज्ञान नय ज्ञान को तथा क्रिया नय क्रिया को प्रधान मानता है । पृथक पृथक नय-मात्र एक नय को पकड़कर चलना मिथ्या दृष्टित्व है । ज्ञान तथा क्रिया दोनों का परस्पर अपेक्षित रूप-सम्यक् ज्ञान पूर्वक, सम्यक् क्रिया अथवा सदाचरण मोक्ष का अंग है वही मुख्य है, ये दोनों सत्क्रियोपेत-उत्तम आचरण-संयमयुक्त साधु में प्राप्त होते हैं। कहा है, गृहीतव्य-ग्रहण करने योग्य तथा अगृहीतव्यग्रहण नहीं करने योग्य पदार्थों के जानने के बाद प्रयोजनभूत-आत्मोपयोगी अनुष्ठान में ही यत्नशील होना चाहिये । ऐसा जो उपदेश है, वही नय है सभी नयों की बहुविध वक्तव्यता-अनेक प्रकार देवचन प्रयोगों को सुनते हा सर्वनय विशुद्ध सदा आचरण रूप गुण में जो अवस्थित है, वही साधु है । ॥ गाथा नामक सोलहवां अध्ययन समाप्त हुआ । इसके समाप्त होने पर सूत्रकृताङ्ग सूत्र का प्रथम श्रुत स्कन्ध समाप्त हुआ ॥ 卐ज卐 627

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