Book Title: Sutrakritang Sutra
Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh

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Page 658
________________ उरालं जगओ जोयं, विपरीयासं पलेंति य / सव्वे अक्कंत दुक्खाय, अतो सव्वे अहिंसिया // सूत्र. 1/4/84 (औदारिक त्रस-स्थावर जीव रूप) जगत् का (बाल्य, यौवन, वृद्धत्व आदि) संयोगअवस्थाविप्रोत्र अशा गोग दार-स्थूल है-इन्द्रिय होते हैं तथा सभी अकान्तअप्रिय है नहीं-हैं। काम-भोगों (की तृष्णा) में और माता-पिता, स्त्री-पुरुष आदि) परिचित जनों में गृद्ध-आसक्त प्राणी (कर्म विपाक के समय) अवसर आने पर अपने कर्म का फल भोगते हुए आयुष्य का क्षय होने पर ऐसे टूटते (मर जाते) हैं, जैसे बन्ध से छूटा हुआ तालफल (ताड़ का फल) नीचे गिर जाता है / / सव्वाइं संगाइं अइच्च धीरे, सव्वाइ दुक्खाई तितिक्खमाणे / अखिले अगिद्धे अणिएयचारी, अभयंकरे भिक्खू अणाविलप्पा // सूत्र. 7/408 धीर साधक सर्वर सभी-आसक्तिपूर्ण संबंधों) से अतीत (परे) होकर सभी परीषहोपसर्गजनित शारीरिक, मानसिक दुःखों को (समभावपूर्वक) सहन करता हुआ (विशुद्ध संगम का तभी पालन कर सकता है जब वह अखिल (ज्ञान, दर्शन, चारित्र से पूर्ण) हो, अगृद्ध (विषयभोगों में अनासक्त) हो, अनियतचारी (अप्रितबद्धविहारी) और अभयंकर (जो न स्वयं भयभीत हो और न दूसरों को भयभीत करे) तथा जिसकी आत्मा विषयकषायों से अनाविल (अनाकुल) हो / fotmuta19269lq.boravileon oogtgrodbine MICROGADARinanelamsuuNAGOR-3201001 --मद्रक निओ' अजमेरBARATAAJTTER

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