Book Title: Sutrakritang Sutra
Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh

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Page 654
________________ श्री सूत्रकृताङ्गसूत्रम् एकवित् है अथवा जो एकान्त वित् है-एकान्त रूप से सुनिश्चित रूप से संसार के स्वरूप को जानता हुआ तीर्थंकर का शासन-उन द्वारा प्रवर्तित धर्म या मोक्ष मार्ग ही सत्य है, अन्य नहीं, ऐसा जो जानता है वह एकान्तवित् है अथवा जो एक मात्र मोक्ष या संयम को जानता है. वह एकान्त वित है। बद्ध-जिसने तत्त्वों को अवगतअधिगत किया है । संछिन्नस्रोत-जिसने कर्म आने के प्रवाह-आश्रवद्वार संवृत-अपनीत कर दिये हैं, रोक दिये है । सुसंयत-जो कछवे की तरह अपने अंगों को सिमेटे हुए है अर्थात् निरर्थक-निष्प्रयोजक कायिक क्रियाओं से विवर्जित है । सुसमित-जो पांचो समितियों से संयुक्त है, ज्ञानादिक मोक्षमार्ग को प्राप्त है । सुसामायकजो सुष्ठु तथा समभाव में समवस्थित है-शत्रु एवं मित्र में जो समान है, आत्मवाद प्राप्त-जो आत्मवाद को प्राप्त किये हुए हैं, वह आत्मा के यथावत स्वरूप को जानता है । आत्मा का लक्षण उपयोग है, वह असंख्येय प्रदेशात्मक है, संकोच विकास युक्त है, अपने द्वारा किये गये फलों की भोक्ता है, प्रत्येक एवं साधारण शरीर के रूप में व्यवस्थित है, द्रव्य पर्याय नित्य अनित्य आदि अनन्त धर्मात्मक है । विद्वान-जो समस्त पदार्थों के स्वरूप को यथावत् जानता है, विपरीत नहीं जानता । जैसे कइयों का यह कथन है कि आत्मा एक ही है, सर्वपदार्थ स्वभाव होने से वह विश्व व्यापी है । कइयों का यह मत है कि वह श्यामाक-चावल जितना आकार लिये हुए हैं । कई उसे अंगूठे के पर्व-पौर जितना परिमाण मानते हैं । इत्यादि अयथार्थ स्वरूप का स्वीकार परिहत-खंडित हो जाता है, तर्क युक्ति संगत नहीं है क्योंकि वैसी आत्मा के अस्तित्व का प्रतिपादक प्रमाण का अभाव है-वैसा प्रमाण प्राप्त नहीं होता । परिछिन्न स्रोत-उसने कर्म आगमन के स्रोत-द्वार परिछिन्न-अवरुद्ध कर दिये हैं : द्रव्यस्रोत एवं भावस्रोत के रूप में वे दो प्रकार के हैं, इन्द्रियों की अपने-अपने विषय में प्रवृत्तियां द्रव्य स्रोत है । शब्द आदि में अनुकूल प्रतिकूल होने पर राग द्वेष का उत्पन्न होना भावस्रोत है । उन दोनों प्रकार के स्रोतों को इन्द्रियों का संवरण कर, निरोध कर राग द्वेष के अभाव से, परिच्छेद-अवरोध कर दिया है । पूजसत्कार लाभार्थी-पूजा, प्रशस्ति, सत्कार, सम्मान तथा लाभ का अनिच्छुक होते हुए जो केवल निर्जरा की अपेक्षा से समस्त तपश्चरण आदि क्रियाएं करता है । इसी का दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैं-वह धर्मार्थी है-श्रुत चारित्र मूलक धर्म ही उसका अर्थ-प्रयोजन या लक्ष्य है । इसका तात्पर्य यह है कि वह प्रशस्ति सम्मान आदि के निमित्त क्रियाओं में प्रवृत्त नहीं होता किंतु धर्म हेतु होता है, ऐसा क्यों ? क्योंकि वह धर्म को तथा स्वर्ग प्राप्ति आदि उसके फलों को भली भांति जानता है । धर्म को सम्यक् जानता हुआ वह जो करता है, उसे दिखलाते हुए कहते हैं, वह नियाग-मोक्ष मार्ग या उत्तम संयम को सर्वात्म भाव से-उत्तम रूप से स्वीकार किये रहता है । वैसा पुरुष जो करता है, उसका प्रतिपादन करते हुए कहते हैं, वह वासी चंदन के तुल्य समता या समभाव का सतत अनुसरण करता है, कैसा होकर? इस संबंध में बतलाते हैं । दांत-दमनशील या जितेन्द्रिय मोक्षानुगत तथा दैहिक आसक्ति विमुक्त होता हुआ वह पहले बतलाये गये माहन, श्रमण तथा भिक्षु शब्दों की प्रवृत्ति के जो हेतु हैं-गुण हैं, उनसे समन्वित-युक्त होता है । वह निर्ग्रन्थ शब्द से वाच्य-अभिधेय है । वे माहन आदि शब्द भी निर्ग्रन्थ शब्द की प्रवृत्ति के निमित्तों के साथ अविनाभाव सम्बन्ध से जुड़े हुए हैं, ये सभी शब्द रूप में भिन्न है किन्तु अर्थ रूप में एक ही है। ___ अब इस अध्ययन का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं-श्री सुधर्मस्वामी ने जम्बूस्वामी आदि को उद्दिष्ट कर कहा-जो मैंने तुम्हें कहा है, उसे जानो !- मानो ! मेरे वचन में-कथन में किसी प्रकार के विकल्पसंदेह आदि की परिकल्पना मत करो क्योंकि मैंने सर्वज्ञ भगवान के आदेश-उपदेश के अनुसार ही यह कहा है सर्वज्ञ प्रभु सदा दूसरों का कल्याण साधने में निरत रहते हैं । वे प्राणियों को संसार के भय से त्राण देते -626)

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