Book Title: Sutrakritang Sutra
Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh

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Page 643
________________ आदाननामकं अध्ययनं किया है। उसकी अनुत्तरता- सर्वश्रेष्ठता बताने हेतु सूत्रकार कहते हैं-सत् अनुष्ठान उत्तम आचरण युक्त महासत्वमहापुरुष संयम का अनुपालन कर निर्वाण प्राप्त करते हैं । वे निवृत्त-निर्वाण युक्त, पण्डित - पाप रहित, ज्ञानी पुरुष संसार चक्र का जन्ममरण का पर्यवसान- अंत करते हैं। इस प्रकार के संयम स्थान का भगवान महावीर ने प्रतिपादन किया, जिसका अनुष्ठान अनुसरण करते हुए पुरुष सिद्धि-मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं । पंडिए वीरियं घुणे पुव्वकडं कम्मं णवं वाऽवि ण कुव्वती ॥२२॥ लद्धुं निग्घायाय पवत्तगं । " छाया पण्डितः वीर्य्यं लब्ध्वा निर्घाताय प्रवर्तकम् । धुनीयात् पूर्वकृतं कर्म नवं वाऽपि न करोति ॥ - अनुवाद - पंडित - ज्ञानी पुरुष कर्म का विनाश करने में सशक्त, वीर्य - आत्मपराक्रम प्राप्त कर पूर्वकृत कर्म का धुनन- नाश करे तथा नव-नया कर्म न बांधे । अवाप्य, टीका अपिच-'पण्डितः' सदसद्विवेकज्ञो 'वीर्यं' कर्मोद्दलनसमर्थं सत्संयमवीर्यं तपोवीर्यं वा 'लब्ध्वा' तदेव वीर्यं विशिनष्टि - निःशेष कर्मणो 'निघाताय ' निर्जरणाय प्रवर्तकं पण्डितवीर्यं तच्च बहुभवशतदुर्लभं कथञ्चित्कर्मविवरादवाप्य 'धुनीयाद्' अपनयेत् पूर्वभवेष्वनेकेषु यत्कृतम् - उपात्तं कर्माष्टप्रकारं तत्पण्डितवीर्येण धुनीयात् 'नवं च' अभिनवं चाश्रवनिरोधान्न करोत्यसाविति ॥२२॥ - टीकार्थ – पंडित-सत् एवं असत् का भेद करने में सक्षम विवेकशील पुरुष कर्मों का उद्दलन -नाश करने में समर्थ सत् संयम तथा तपश्चरण में वीर्य - पराक्रम प्राप्त करता है । उसकी विशेषता बतलाते हुए कहते हैं- जो समस्त कर्मों के निर्झरण-नाश में संप्रवृत्त होता है, वह पण्डित वीर्य कहा जाता है। सैंकड़ों जन्मों में जिसका प्राप्त होना बड़ा कठिन है, ज्ञानी पुरुष कर्मों का विदारण- नाश कर उसे अवाप्त - प्राप्त करता है । उसे चाहिये कि वह अनेकानेक पूर्व जन्मों में संचित आठ प्रकार के कर्मों का पण्डित वीर्य द्वारा धुनन- नाश करे। तथा वह आश्रव का निरोध कर अभिनव -नये कर्म न करे । छाया ण रयसा - कुव्वती महावीरे, अणुपुव्वकडं संमुहीभूता, कम्मं हेच्चाण जं न करोति महावीरः आनुपूर्व्या कृतं रयः । रजसा सम्मुखीभूताः कर्म हित्वा यन्मतम् ॥ - ॐ ॐ ॐ अनुवाद अन्य पुरुष मिथ्यात्वादि के कारण क्रमशः जो पाप करते हैं, महावीर - कर्मक्षय में सक्षम पुरुष वैसा नहीं करता क्योंकि वह पाप कर्म अपने द्वारा पहले किये गये अशुभ कर्मों से प्रभावित होते हैंउनके प्रभाववश किये जाते हैं किंतु वह महान् आत्म पराक्रमी पुरुष अष्टविध कर्मों का क्षय कर मोक्ष के सम्मुखीन हैं । 615 रयं । मयं ॥२३॥

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