Book Title: Sutrakritang Sutra
Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh

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Page 641
________________ आदाननामकं अध्ययन क्योंकि उत्कृष्ट रूप में अर्द्ध पुद्गलपरावर्तकाल के पश्चात् पुनः सम्यक्त्व प्राप्त हो सकता है । वैसे पुरुष को जिसने धर्माचरण नहीं किया है, सम्यक्दर्शन की प्राप्ति योग अर्चा-लेश्या, अन्तःपरिणति या आन्तरिक परिणामों का स्वायत्त होना बहुत कठिन है । अथवा मनुष्य शरीर अर्चा कहा जाता है। जिसने धर्मरूपी बीज का वपन नहीं किया है उसे वह उपलब्ध नहीं होता । आर्य क्षेत्र, उत्तम कुल में जन्म, समस्त इन्द्रिय रूप सामग्री, स्वस्थ सक्षम इंद्रिय, इत्यादि का मिलना अत्यन्त कठिन है । प्राणियों में जो धर्म रूप अर्थ का विवेचन करते हैं, धर्म प्रतिपत्ति के योग्य है । उन जैसी लेश्या प्राप्त करना अत्यन्त दुर्लभ है। जे धम्मं सुद्धमक्खंति, पडिपुन्नमणेलिसं । अणेलिसस्स जं ठाणं, तस्स जम्मकहा कओ ॥१९॥ . . छाया - ये धर्म शुद्ध माख्यान्ति, प्रतिपूर्ण मनीदृशम् । अनीदृशस्य यत् स्थानं, तस्य जन्म कथा कुतः ॥ अनुवाद - जो पुरुष प्रतिपूर्ण-समग्र अनीदृश-सर्वोत्तम एवं शुद्ध धर्म का आख्यान करते हैं-स्वयं आचरण करते हैं । वे सर्वोत्तम पुरुष का स्थान-पद प्राप्त करते हैं । फिर उनका जन्म नहीं होता-वे जन्म मरण से छूट जाते हैं। टीका - किञ्चान्यत्-ये महापुरुषा वीतरागाःकरतलामलकवत्सकलजगद्दष्टारःत एवंभूताः परहितैकरताः 'शुद्धम्' अवदातं सर्वोपाधिविशुद्धं धर्मम् 'आख्यान्ति' प्रतिपादयन्ति स्वतः समाचरन्ति च 'प्रतिपूर्णम्' आयातचारित्र सद्भावात्संपूर्ण यथाख्यातचारित्ररूपं वा 'अनीदृशम्' अनन्य-सदृशं धर्मम् आख्यान्ति अनुतिष्ठन्ति (च) । तदेवम् 'अनीदृशस्य' अनन्यसदृशस्य ज्ञानचारित्रोपेतस्य यत् स्थानं-सर्व द्वन्द्वोपरमरूपं तदवाप्तस्य तस्य कुतो जन्मकथा? जातो मृतो वेत्येवंरूपा कथा स्वप्नान्तरेऽपि तस्य कर्मबीजाभावात् कुता विद्यत ? इति, तथोक्तम् - "दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नाङ्करः। कर्मबीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाङ्कुर ॥१॥''इत्यादि ॥१९॥ टीकार्थ - जो महापुरुष वीतराग-रागशून्य होते हैं । हथेली में रखे आंवले की ज्यों समग्र संसार को देखते हैं तथा जो पर हित परायण है । जो समस्त उपाधियों से रहित शद्ध धर्म का आख्यान करते हैं. स्वयं पालन करते हैं । आयत-चारित्र के सद्भाव से जो धर्म प्रतिपूर्ण है अथवा यथाख्यात चारित्र रूप तथा जो अनुपमसर्वश्रेष्ठ है, वे उसका आख्यान करते हैं-उपदेश करते हैं तथा स्वयं उसका अनुसरण करते हैं । वे उस स्थान को प्राप्त करते हैं जो ज्ञान एवं चारित्र युक्त पुरुष का है-ज्ञान चारित्र युक्त पुरुष को प्राप्त होता है । जो द्वन्द्वोंसंकटों और झंझटों से विमुक्त है । उनके पुनः इस जगत में जन्म लेने की तो बात ही कहाँ ? वे जन्मे, मरे ऐसा कहना सपने में भी संभव नहीं है क्योंकि उनके कर्मों के बीजों का अभाव हो गया है, इसलिये जन्म मरण कहां से हो । कहा है जैसे बीज के अत्यन्त दग्ध हो जाने पर बिल्कुल जल जाने पर अंकुर का प्रादुर्भाव नहीं होता, पौधा नहीं उगता । उसी प्रकार कर्म रूपी बीज के दग्ध हो जाने पर संसार रूपी अंकुर पैदा. नहीं होता। कओ कयाइ मेधावी, उप्पजति तहा गया । तहा गया अप्पडिन्ना, चक्खू लोगस्सणुत्तरा ॥२०॥. 16130

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