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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् है । द्रव्य शब्द भव्य के अर्थ में भी प्रयुक्त है । तदनुसार राग द्वेष कालिक-राग द्वेष युक्त अवस्था में होने वाले अपद्रव्य-विकारों से रहित होने के कारण वह उत्तम कोटि के स्वर्ण की ज्यों शुद्ध द्रव्यभूत, परम पवित्र संयमानुगत है । प्रतिकर्म-दैहिक साज सजा आदि से रहित होने के कारण जो व्युत्सृष्टकाय-दैहिक आसक्ति से विमुक्त है । इस प्रकार पूर्व अध्ययनों में वर्णित अर्थों मे-धर्माचरणमय कार्यों में-प्रवृत्तियों में विद्यमान साधु स्थावर, जंगम, सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त अपर्याप्त भेद युक्त प्राणियों का हनन-व्यापादन नहीं करता । वह माहम शब्द द्वारा अभिधेय है । अथवा जो ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियों-वृत्तियों, बाड़ों से रक्षित-अखंड ब्रह्मचर्य पालक पूर्व वर्णित गुण गण युक्त है वह माहन या ब्राह्मण शब्द से वाच्य है । जो श्रान्त होता है-तप द्वारा खिन्न होता है, वह श्रमण शब्द द्वारा वाच्य है, अथवा जिसका मन शत्रु मित्र आदि में सब जगह एक जैसा होता है, वह सममना है । वह बासी चन्दन के सदृश होता है-काटने वाले वसूले या कुठार के साथ चन्दन के वृक्ष का कोई द्वेष या शत्रुभाव नहीं होता, वैसे ही उसका अपकारी के प्रति द्वेष नहीं होता । अतएव कहा गया है, उसके लिये कोई भी द्वेष्य-द्वेष करने योग्य नहीं होता । इस प्रकार पहले जिन गुणों का कथन हुआ है, उन गुणों से शोभित होता हुआ साधु श्रमण या सममना कहा जाता है । भिक्षु का तात्पर्य भिक्षणशील-भिक्षोपजीवी साधु है । अथवा जो आठ प्रकार के कर्मों को भिन्न-छिन्न भिन्न करता है, नष्ट कर डालता है, वह भिक्षु है अर्थात् दमनशीलताजितेन्द्रियता आदि गुणों से युक्त साधु भिक्षु कहा जाता है । वह बाहरी तथा भीतरी ग्रंथियों के अभाव के कारणउनको मिटा देने के कारण निर्ग्रन्थ कहा जाता है अर्थात् जो साधु पूर्ववर्ती पन्द्रह अध्यायों में प्रतिपादित अर्थों का अनुसरण करता है-दांत, द्रव्यभूत तथा व्युत्सृष्ट काय है, वह निर्ग्रन्थ कहे जाने योग्य है ।
भगवान द्वारा यों कहे जाने पर शिष्य प्रश्न करता है-भगवन् ! भदन्त, भयान्त-भय नाशक, भवान्तभव नाशक जो दांत द्रव्यभूत तथा व्युत्सृष्ट काय है, वह ब्राह्मण, श्रमण, भिक्षु एवं निर्ग्रन्थ क्यों कहा जाता है ? जैसा भगवान ने-आपने प्रतिपादित किया कि ब्राह्मण आदि शब्द साधु के वाचक है । हे महामुने ! हे तीनों कालों के यथार्थ वेत्ता ! हमें आप यह बतलाये-समझाएं ! यों पूछे जाने पर भगवान ने ब्राह्मण आदि चारों अभिधानों-नामों के जो कथञ्चित्-किन्हीं अपेक्षाओं से भिन्न भिन्न हैं क्रमशः उनके प्रवृत्त-प्रयुक्त होने के कारण बतलाते हैं । पूर्ववर्ती अध्ययन में कहे गये अर्थों में वृत्तियुक्त-वर्तनशील होता हुआ वह समस्त पापकर्मोंसावद्य अनुष्ठानों से विरत-निवृत्त रहता है तथा प्रेम-रागमूलक आसक्ति, द्वेष-अप्रीति, कलह-द्वन्द्वाधिकरण, संघर्ष, झगड़ा, अभ्याख्यान-असत् अभियोग, पैशून्य-चुगली, पर गुणासहनता-औरों के गुणों के प्रति असहिष्णुता उसके दोषों का उद्घाटन, पर परिवाद, काकू-विकृत कण्ठध्वनि द्वारा दूसरे पर दोषारोपण, अरति-संयम में चित्त की उद्विग्नता, रति-सांसारिक विषयों में आसक्ति, माया-परवञ्चना-औरों को ठगना, धोखा देना, माया द्वारा कुटिल बुद्धि पूर्वक असत्यभाषण, असत् अर्थ का अभिधान-कथन जैसे गाय को घोड़ा कहना, मिथ्यादर्शन-अतत्त्व में तत्त्वाभिनिवेष-अतत्त्व को तत्त्व मानने का आग्रह अथवा तत्त्व में अतत्त्व की मान्यता । जैसे आत्मा नहीं है, वह नित्य नहीं है, वह कुछ भी नहीं करती, कृत का फलवेदन नहीं करती । मोक्ष नहीं है तथा मोक्ष का उपाय नहीं है। ये मिथ्यात्व के छः स्थान है, इत्यादि । यह सब शल्य हैं । आत्मा में कांटे की भांति चुभने वाले हैं-पीड़ा देने वाले हैं । वह इन सबसे प्रथक् रहता है । ईर्या आदि समितियों को सम्यक् अन्वित होता हैसमित होता है । वह परमार्थमूलक हित के साथ वर्तन शील है ! अतः सहित है । अथवा ज्ञान आदि से युक्त होने के कारण वह सहित है तथा वह सर्वदा यत्-संयम के आचरण में यत्नशील रहता है। उसे चाहिये कि वह अपने इस सद्आचरण को कषायों द्वारा निस्सार-सारहीन न बनाये । किसी अपकारी-बुरा करने वाले के
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